विचार / लेख

क्या वाकई हम अपने हस्ताक्षर के मालिक हैं
20-Jun-2025 9:34 PM
क्या वाकई हम अपने हस्ताक्षर के मालिक हैं

-गोकुल सोनी
साथियों, 
हस्ताक्षर  (Signature) महज कुछ खींची हुई लकीरें नहीं होतीं, बल्कि वो इंसान की पहचान,  उसकी जि़म्मेदारी और कभी-कभी उसके विश्वास का प्रतीक भी होती हैं।

बचपन से ही मेरी राइटिंग कुछ बेहतर रही है और हस्ताक्षर बनाने का मुझे खास शौक रहा है। कई मित्र आज भी मेरे बनाए हस्ताक्षर को अपने कार्यों में उपयोग करते हैं । यह मेरे लिए गर्व की बात है।  लेकिन इसी हस्ताक्षर से जुड़ा एक ऐसा अनुभव है, जिसे मैं बरसों से दिल में दबाए बैठा हूँ। अब सोचता हूँ, क्यों न आप सबसे साझा कर लूं।

बात लगभग 40 साल पुरानी है। रायपुर की एक प्रतिष्ठित संस्था में करीब 150 कर्मचारी कार्यरत थे। अचानक उस संस्था के मालिक को विदेश जाना पड़ा। संयोग ऐसा बना कि महीने के अंत में जब वेतन देना था,  संस्था के पास नकद राशि नहीं थी। ऑनलाइन लेन-देन का वह दौर भी नहीं था,  और बैंक से पैसा निकालने के लिए मालिक के हस्ताक्षर वाला चेक जरूरी था, जो उस समय उपलब्ध नहीं था।

ऐसे में मेरे एक मित्र ने, जो उस संस्था कैशियर थे,  मुझसे एक अजीब-सा अनुरोध किया। उन्होंने कहा-‘तुम मालिक जैसा हस्ताक्षर बना सकते हो, कर्मचारियों को वेतन मिल जाएगा।’  मैं चौंक गया। पहले साफ मना कर दिया। यह तो साफ-साफ ग़लत, अपराध है, शायद गैरकानूनी भी। लेकिन फिर उन्होंने कहा-‘सोचो, 150 घरों के चूल्हे नहीं जलेंगे। परिवारों की रोटियाँ रुक जाएंगी, सभी को बच्चों के स्कूल की फीस देनी है, कईयों को मकान का किराया देना है। बात मेरे दिल को छू गई। कुछ सोचकर, सबकी सहमति लेकर और जिम्मेदारी की भावना के साथ, मैंने वह हस्ताक्षर कर दिया। चेक बैंक में जमा हुआ  और पैसा मिल भी गया। उस महिने कर्मचारियों को समय पर वेतन मिला।

आज भी जब उस दिन को याद करता हूँ, मन में दो भाव उमड़ते हैं। एक ओर अपराध बोध कि मैंने कुछ ऐसा किया जो शायद कानून की दृष्टि में गलत था। दूसरी ओर आत्मसंतोष कि मेरी वजह से 150 परिवारों की रोटी-पानी रुकी नहीं।

मित्रों, शायद जिंदगी में कुछ फैसले ऐसे होते हैं, जो सही और गलत के बीच की रेखा को धुंधला कर देते हैं।  पर अब सोचता हूँ, वो हस्ताक्षर मेरा नहीं था, 150 घरों की ज़रूरत का हस्ताक्षर था। आप कमेंट करके बताईयें कि मैंने कितना सही किया और कितना गलत किया। 

‘हस्ताक्षर से जुड़ी दो कहानियाँ’
मेरे जीवन में इससे जुड़ी दो घटनाएँ हैं, जो एक-दूसरे से बिल्कुल अलग, लेकिन उतनी ही अर्थपूर्ण हैं। पहली कहानी रायपुर न्यायालय से जुड़ी है, जहाँ देश के चर्चित जालसाज श्रीराम सोनी पर मुकदमा चल रहा था  और जालसाज का हुनर तारीफ़ पा रहा था। 

दूसरी घटना मेरी अपनी जिंदगी में आयी। मैं एक साधारण बैंक प्रक्रिया के लिए गया था वहां मैं अपने ही हस्ताक्षर को ठीक से दोहरा नहीं सका। बैंक कर्मचारी ने उसे अस्वीकार कर दिया। वही हस्ताक्षर, जो बरसों से पहचान का प्रमाण था, अब मेरी पहचान से मेल नहीं खा रहा था। दोनों घटनाएं मुझे यह सोचने पर मजबूर करती हैं- क्या वाकई हम अपने हस्ताक्षर के मालिक हैं, या वक्त और परिस्थितियाँ उन्हें बदल देती हैं ? 

आप फेसबुक के मित्रगण अनुमति देंगे तो मैं इस रोचक किस्सा को भी लिखूंगा।


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