विचार/लेख
-श्रवण गर्ग
इन दिनों एक ‘ग़ैर-ज़रूरी’ बहस चल रही है। बहस मुफ़्त के सोशल मीडिया पर ज़्यादा है और हमारे समय के लब्ध-प्रतिष्ठित कवि, कथाकार और उपन्यासकार 88-वर्षीय विनोद कुमार शुक्ल पर केंद्रित है। बहस शुक्ल जी को हाल ही में ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने की घोषणा के साथ प्रारंभ हुई है।
बहस के मूल में एक ऐसा सवाल है जो इस तरह के अवसरों पर कई बार पहले भी उठाया जा चुका है और आगे भी उठाया जाता रहेगा ! मानवाधिकारों की लड़ाई में सक्रिय एक कार्यकर्ता ने सोशल मीडिया पर जारी अपनी एक पोस्ट में सवाल उठाया था कि : ’शुक्ल जी के ठिकाने से महज़ सौ किलोमीटर दूर बस्तर में जल-जंगल-ज़मीन की रक्षा में लगे आदिवासियों/माओवादियों के ख़िलाफ़ सरकार का क्रूर दमन चक्र चल रहा है। कई लोग मारे गए हैं, कई गिरफ़्तार किए गए हैं। जो लड़ रहे हैं वे तेलुगू/अंग्रेज़ी में शानदार साहित्य भी रच रहे हैं। लेकिन शुक्ल जी के पूरे साहित्य से यह ‘झंझावात’ ग़ायब है।’ जो सवाल पूछा गया उसकी ‘पंचलाइन’ यह थी कि : ’इतनी उदासीनता कहाँ से आती है ?’
उठाए गए सवाल के कई जवाब हो सकते हैं ! एक तो यही कि लेखक, पत्रकार और साहित्यकार आदि को भी एक सामान्य नागरिक के रूप में स्वीकार करने से इंकार करते हुए उनसे वे सब अपेक्षाएँ की जाने लगतीं हैं जो किसी भौगोलिक बस्तर की तरह ही उसके उस यथार्थ से सर्वथा दूर होती हैं, जिसमें वह साँस लेना चाहता है !
दूसरा जवाब यह हो सकता है कि जिस ‘झंझावात’ को शुक्ल जी सौ किलोमीटर की दूरी से नहीं देख पा रहे हैं (या होंगे) क्या उसे वे पत्रकार, लेखक और साहित्यकार भी ठीक से देख कर अभिव्यक्ति प्रदान कर पा रहे हैं जो ठीक बस्तर की नाभि में विश्राम कर रहे हैं ? अपवादों में नहीं जाएँ तो अगर सैंकड़ों की संख्या में संघर्षरत आदिवासी/माओवादी मारे गए या गिरफ़्तार हुए तो उसके पीछे के कई कारणों में क्या एक इन्हीं लोगों में किसी की मुखबिरी या सत्ता में भागीदारी नहीं रहा होगा ?
कवि/कथाकार/उपन्यासकार और पत्रकार संपादक को भी अगर एक सामान्य नागरिक मान लिया जाए तो परेशानी कुछ कम हो जाएगी! ऐसा सामान्य नागरिक जो आए-दिन निरपराध लोगों के ख़िलाफ़ सडक़ों पर अत्याचार होते हुए तो देखता है पर कनखियों से यह सुनिश्चित करते ही कि उसका कोई अपना तो शिकार नहीं बन रहा नजऱें बचाकर निकल लेता है ! कुछ समुदायों में तो बच्चों को घुट्टी के साथ सीख दी जाती है कि सडक़ पर कहीं झगड़ा चल रहा हो तो रुकने का नहीं !
बरसों पहले (शायद) पत्रकार बरखा दत्त ने किसी अंग्रेज़ी अख़बार में चंडीगढ़ के आसपास की किसी घटना का जि़क्र करते हुए क्षोभ जताया था कि एक नागरिक जब आत्मदाह कर रहा था सैंकड़ों की भीड़ चुपचाप खड़ी देख रही थी, कोई उसे बचाने नहीं दौड़ा। हक़ीक़त यह है कि वही भीड़ अब ऐसी घटनाओं के वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर शेयर करने लगी है। हो सकता है ऐसी ही किसी भीड़ में कोई साहित्यकार, कवि या लेखक भी मौजूद होता हो जिसे आत्मदाह में भी किसी नई रचना के लिए कथानक नजऱ आ जाता हो। या कोई ऑफिस-गोअर होता हो जो यह कहते हुए भाग्य को कोसता हो कि कहाँ फँस गया,आधा घंटा लेट हो गया !
एक रिपोर्टर-संपादक के तौर पर अपने पचपन-साठ साल के लंबे पत्रकारिता जीवन के कई कि़स्से मुझे याद हैं पर उनमें भी डेढ़-दो साल पहले महाकाल और कालिदास की नगरी उज्जैन में जो हुआ वह लगातार विचलित करता रहता है। सतना के किसी गाँव की बारह साल की बलात्कार-पीडि़त बालिका लहूलुहान हालत में रात के वक्त घंटों तक उज्जैन की सडक़ों पर दौड़ती मदद के लिये गुहार लगती रही पर कोई दरवाज़ा नहीं खुला। जो खुले थे वे मदद की पुकार सुनते ही बंद हो गए। माना जा सकता है कि कोई एक तो कवि, कथाकार, उपन्यासकार कि़स्म का व्यक्तित्व सडक़ के आसपास के घरों में बसता होगा !
- SUNITA NARAIN
THIS IS not the time for energy transition, this is the time for energy addition,” said the US energy secretary Chris Wright to cheering applause. He was speaking at one of the largest energy conferences,
ceraweek, at Houston last month, and the room was overflowing with energy company heads and other experts. Attending the week-long conference, it was clear to me that our world has changed. Still, it is important to understand what and why this complete
rejection of climate change policies is happening in a world that is warming rapidly with catastrophic weather impacts. This is not the time to bury our heads in the sand and think that the Donald Trump administration’s energy policy will not lead to massive changes in their world and ours.
What is its reasoning for this shift? First, the gross national debt of the US has reached $36 trillion; interest payments are larger than what the country spends in defence. So, the answer is to “re-industrialize” and not “deindustrialize”, in the words of the US energy secretary. This thrust on onshore manufacturing will require more energy and more energy infrastructure. Second, China has taken the lead in many new areas, from supply chains and manufacturing of electric vehicles to solar. The Trump administration says it must not lose the Artificial Intelligence (AI) race to China. This means building energy-intensive data centres at a pace not seen before. The country has some 5,000 data centres today which consume 3 per cent of its grid-based electricity. This is expected to increase exponentially, and data centres are projected to consume 8-12 per cent of the electricity by the end of the decade. All of this means more generation of electricity.
Till now, as the country had reached its peak growth levels, electricity demand had more or less stagnated. Now it is expected to increase. Then, what will be the source of this “new” power generation? The Trump administration says it cannot depend on renewables to supply this electricity. Wright told the audience that renewables only met 3 per cent of US energy demand in spite of the huge investment, and so energy transition is not real. This, of course, is misleading because in terms of electricity generation, renewables have now overtaken coal in the US, contributing to 15-17 per cent of the electricity in the past year. But if total energy is taken as the measure, including the consumption of oil in transport and industry, the share of renewables in the energy mix decreases.
But this is not semantics for the Trump administration. It is convinced that there is a need for reversing the previous administration’s energy policies that were “myopically focused on climate change”. It also says this has led to increased cost of electricity, adding to the burden of households (again, there is no data on this but then the game is about perception and persuasion). So,
energy growth will be from the fossil fuel natural gas (there is even talk of coal) and the US administration is fast-tracking all that is needed to increase its production and generation. This will add to emissions of greenhouse gases, but as the energy secretary said, carbon dioxide, unlike carbon monoxide, is not a pollutant. Climate change is just a footnote in the US' plans.
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के केलॉग कॉलेज में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भाषण के दौरान हंगामा हो गया और वहां मौजूद कुछ लोगों ने 'गो अवे' के नारे लगाए।
वामपंथी छात्र संगठन एसएफ़आई ने इस विरोध प्रदर्शन की जिम्मेदारी ली है जबकि बीजेपी ने कहा है कि बंगाली हिंदुओं ने विरोध किया।
हंगामा तब शुरू हुआ जब ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के औद्योगिकरण के बारे में दावे कर रही थी, उसी समय श्रोताओं में से कुछ लोगों ने भारतीय मल्टीनेशनल कंपनी के नैनो कार प्लांट के राज्य से बाहर जाने पर सवाल उठाया।
जिसका जवाब देते हुए ममता बनर्जी ने टाटा ग्रुप की ओर से राज्य में अन्य जगहों पर किए गए निवेश का जि़क्र किया। हंगामा तब और बढ़ गया जब कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में ट्रेनी महिला डॉक्टर के साथ बीते साल हुए बलात्कार और हत्या पर उनसे सवाल किया गया।
इस दौरान ममता बनर्जी ने विरोध के लिए वामपंथी छात्र संगठन पर राजनीति करने का आरोप लगाया और भविष्य में उनके नेताओं के साथ भी ऐसा होने की चेतावनी दी।
उन्होंने विरोध के लिए 'अल्ट्रा लेफ़्ट और उनके सांप्रदायिक मित्रों' को जि़म्मेदार ठहराया। टीएमसी लगातार आरोप लगाती रही है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी और सीपीएम मिलकर उसे हराने की कोशिश कर रहे हैं।
बंगाली हिंदू या वामपंथी छात्र, हंगामे के पीछे कौन?
यह विरोध प्रदर्शन किसने किया इसे लेकर अलग-अलग दावे किए जा रहे हैं।
सीपीएम के छात्र संगठन स्टूडेंट फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफ़आई) की यूके विंग ने इस विरोध प्रदर्शन की जि़म्मेदारी लेते हुए अपने फ़ेसबुक हैंडल पर एक वीडियो जारी किया।
साथ ही एक बयान जारी कर वामपंथी छात्र संगठन ने कहा कि उसके सदस्यों ने ममता बनर्जी के ‘झूठ’ पर सवाल खड़ा किए और उनके ‘भ्रष्ट शासन’ का विरोध किया।
उधर बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने विरोध प्रदर्शन का एक वीडियो पोस्ट किया है जिसमें कुछ लोग तख़्तियां लिए खड़े हैं।
मालवीय ने एक्स पर लिखा, ‘बंगाली हिंदुओं ने लंदन के केलॉग कॉलेज में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का विरोध किया। उन्होंने गुस्से में नारे लगाए और आरजी कर मेडिकल कॉलेज में महिला डॉक्टर के बलात्कार और हत्या, संदेशखाली में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध, हिंदुओं के जनसंहार और व्यापक भ्रष्टाचार के मुद्दों पर उन्हें घेरा।’
टीएमसी ने इस विरोध प्रदर्शन की निंदा की है। टीएमसी सांसद सौगत राय ने एएनआई से कहा, ‘मैं इस तरह के व्यवहार की पूरी तरह निंदा करता हूं। इस मामले में यूनिवर्सिटी प्रशासन और इंग्लैंड पुलिस को कदम उठाना है।’
हंगामे पर ममता बनर्जी ने क्या कहा
ममता बनर्जी के पूरे भाषण का पूरा वीडियो टीएमसी ने अपने यूट्यूब चैनल पर डाला है।
ममता बनर्जी ने भाषण में अपने शासन के दौरान पश्चिम बंगाल में हर क्षेत्र में हुए विकास के आंकड़े दिए और कहा कि कोलकाता उद्योग का गेटवे बन गया।
हंगामा उनके भाषण के आधे घंटे बाद शुरू हुआ जब श्रोताओं में से कुछ लोगों ने उनके दावों पर सवाल उठाए।
हालांकि बीच-बीच में टोका-टाकी जारी रही। किसी ने कोलकाता में आरजी कर अस्पताल में बलात्कार और हत्या के मामले को उठाया तो ममता बनर्जी ने कहा, ‘यह मामला अदालत में है, इस केस को केंद्र सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है।’
इस बीच श्रोताओं में से किसी ने पूछा कि पश्चिम बंगाल में हिंदू उत्पीडऩ हो रहा है और क्या वह कुछ कहना चाहेंगी। इस पर मुख्यमंत्री ने कहा, ‘मैं हर धर्म का समर्थन करती हूं। मैं हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी का सम्मान करती हूं।’
ममता बनर्जी ने साथ ही कहा कि इसे ‘राजनीतिक मंच मत बनाएं। आप बंगाल जाएं और अपनी पार्टी को और मजबूत करें।’
इस दौरान ममता बनर्जी ने एक फ़ोटो दिखाते हुए कहा, ‘आप मेरी यह तस्वीर देखिए, मुझे मारने की कोशिश कैसे की गई थी।’
हंगामा बढऩे पर ममता बनर्जी ने कहा, ‘आप मुझे बोलने दें। आप मेरा नहीं, बल्कि अपने संस्थान का अपमान कर रहे हैं। ये लोग हर जगह ऐसा करते हैं, जहां भी मैं जाती हूं।’
उन्होंने परोक्ष रूप से सीपीएम और हिंदुत्वादी संगठनों पर निशाना साधते हुए कहा, ‘अल्ट्रा लेफ्ट और सांप्रदायिक मित्रों ऐसा व्यवहार मत करो।’
लोगों ने ‘गो अवे’ के नारे लगाए तो इस पर ममता बनर्जी ने कहा कि 'ये इनकी आदत हो गई है।'
एसएफ़आई ने क्या कहा?
एसएफ़आई-यूके ने अपने एक बयान में कहा है, "ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में ममता बनर्जी के भाषण के ख़िलाफ़ एसएफ़आई-यूके ने प्रदर्शन किया। पश्चिम बंगाल में सामाजिक विकास के उनके दावों के सबूत मांगते हुए उनके सफ़ेद झूठ का खुलकर विरोध किया।’
बयान के अनुसार, ‘हमारे विचारों को शांतिपूर्वक ज़ाहिर करने देने की बजाय पुलिस बुला ली गई। हमने पीडि़त पर ही आरोप लगाने और आरजी कर मामले में बरती गई लापरवाही पर सवाल उठाए। जब ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में छात्रों और लोकतांत्रिक अधिकारों का समर्थन करने का दावा किया तो हमने पूछा कि पिछले छह सालों से यूनिवर्सिटी में छात्र संघ के चुनाव क्यों नहीं हो रहे हैं।’
बयान में जादवपुर यूनिवर्सिटी में छात्रों पर कथित हमले को लेकर भी सवाल पूछने की बात कही गई है।
बयान के अनुसार, बनर्जी ने दावा किया कि राज्य में महिला सशक्तीकरण बढ़ा है, इस पर हमने पूछा कि पिछले साल स्कूल स्तर पर लड़कियों के ड्रॉपआउट दर में 19त्न की वृद्धि हुई है और राज्य में क्यों बाल विवाह की घटनाएं अधिक हो रही हैं।
एसएफ़आई-यूके ने कहा कि उसने ममता बनर्जी और टीएमसी के भ्रष्ट और अलोकतांत्रिक शासन का विरोध किया।
हाल में एक समय हॉल में विरोध करने वालों और टीएमसी के समर्थकों के बीच ज़ुबानी कहासुनी भी होने लगी। हालांकि बाद में हंगामा करने वालों को हॉल से हटा दिया गया और फिर कार्यक्रम आगे बढ़ा।
भारत की जीडीपी को लेकर ममता की टिप्पणी
इस कार्यक्रम के दौरान बातचीत में भारत की जीडीपी को लेकर की गई ममता बनर्जी की टिप्पणी को लेकर भी विवाद हो रहा है।
बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रदीप भंडारी ने ममता बनर्जी के कार्यक्रम की एक वीडियो क्लिप साझा की है जिसमें इंटरव्यूअर के सवालों का वह जवाब दे रही हैं।
-सीलिन गिरित
हाल के वर्षों में तुर्की में प्रेस की आज़ादी को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है।
तुर्की के सबसे बड़े शहर इस्तांबुल में सरकार के ख़िलाफ विरोध प्रदर्शनों को कवर करने वाले कम से कम 10 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया।
इन पत्रकारों की गिरफ्तारी ने सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों के सामने बढ़ते खतरों के बारे में चिंताओं को बढ़ा दिया है।
भ्रष्टाचार के आरोपों में इस्तांबुल के मेयर इकरम इमामोअलू की गिरफ्तारी के विरोध में तुर्की में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। जिसके बाद पत्रकारों को 1,110 से ज्यादा व्यक्तियों के साथ हिरासत में लिया गया था।
इकरम इमामोअलू ने कहा है कि उनके ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। जबकि तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति रेचेप तैयप्प अर्दोआन ने उनके इस दावे का खंडन किया है।
उसी दिन उन्हें तुर्की के मुख्य विपक्षी दल रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (सीएचपी) ने अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया। भविष्य में होने वाले किसी भी चुनाव में उन्हें अर्दोआन के सबसे ताकतवर प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा जा रहा है।
तुर्की में राष्ट्रपति चुनाव 2028 में होने वाले हैं, हालांकि समय से पहले भी चुनाव होने की संभावना जताई जा रही है।
हिरासत में लिए गए ज़्यादातर पत्रकार फोटोग्राफर थे। उनमें से सात पत्रकारों पर अब सार्वजनिक समारोहों पर कानून का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया है। साथ ही, उन्हें हिरासत में भी भेज दिया गया है।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) के तुर्की के प्रतिनिधि एरोल ओन्देरोग्लू कहते हैं, ‘फोटो लेने वाले पत्रकारों को जानबूझकर निशाना बनाना यह दिखाता है कि सार्वजनिक अशांति के समय में पत्रकारों के काम को दबाने के लिए न्यायपालिका को हथियार बनाया जा रहा है।’
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि लोगों की राय को बदलने में पत्रकारिता की भूमिका कितनी अहम है और सरकार इसे कितना ख़तरनाक मानती है।’
बता दें कि 2024 वल्र्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 दिशों की सूची में से तुर्की 158 वें स्थान पर है।
एविन बरिश आल्तिन्तस मीडिया एंड लॉ स्टडीज एसोसिएशन की अध्यक्ष हैं। मीडिया एंड लॉ स्टडीज एक ऐसा संगठन है जो तुर्की में हिरासत में लिए गए पत्रकारों की मदद करता है।
वह इस बात से सहमत है कि गिरफ्तारियां पत्रकारों के काम को दबाने और उनकी रिपोर्टिंग को प्रतिबंधित करने के लिए की जा रही है और इसके लिए सरकार अदालतों का इस्तेमाल कर रही है।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘इन गिरफ्तारियों से दूसरे पत्रकारों पर भी नकरात्मक असर पड़ेगा, लेकिन इससे डरे बिना वे अपने काम को करना जारी रखेंगे।’
जैसे-जैसे तुर्की में विरोध प्रदर्शन तेज होते गए, वैसे-वैसे पुलिस ने पेपर स्प्रे और पानी की बौछारों से इसका जवाब देना शुरू कर दिया। इस दौरान सुरक्षा बलों के हाथों पत्रकारों के साथ बदतमीजी की भी अनेक खबरें सामने आई।
धार्मिक आजादी पर रिपोर्ट जारी करने वाला अमेरिकी कमीशन, अमेरिकी सरकार की एक सलाहकार संस्था है. यह दुनियाभर में धार्मिक आजादी पर नजर रखता है और अपने अध्ययन के हिसाब से अमेरिकी सरकार को नीतिगत सलाह देता है.
इस आयोग ने भारत की खुफिया एजेंसी रॉ पर विदेशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने का आरोप लगाया है। अंतरराष्ट्रीय धार्मिक आजादी पर अमेरिकी कमीशन की एक रिपोर्ट में यह आरोप लगाते हुए रॉ पर कठोर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की गई है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति खराब हो रही है।
यह रिपोर्ट 2024 में दुनिया भर में धार्मिक आजादी पर पड़े असर के बारे में बात करती है। मंगलवार को जारी की गई इस रिपोर्ट में 16 देशों को कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न यानी ऐसे देश कहा गया है जहां धार्मिक स्वतंत्रता की हालत बहुत ज्यादा खराब है। इन देशों में नॉर्थ कोरिया और पाकिस्तान के साथ, भारत, चीन, रूस और ईरान जैसे देशों को भी शामिल किया गया है।
इससे निचली श्रेणी स्पेशल वॉच लिस्ट में 12 देश शामिल किए गए हैं। स्पेशल वॉच लिस्ट में ऐसे देश हैं, जिनमें धार्मिक आजादी पर काफी खतरा है लेकिन यह खतरा कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न जितना नहीं है। इन 12 देशों में अल्जीरिया, मिस्र और इंडोनेशिया जैसे देश हैं। देशों के अलावा कुछ संगठनों को भी धार्मिक आजादी के लिए गंभीर खतरा बताया गया है। एंटिटीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न की इस लिस्ट में अल-शबाब, बोको हराम और तालिबान जैसे आतंकी संगठनों के नाम हैं।
तुर्की में राष्ट्रपति रेचेप तैयप्प अर्दोआन के प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इकरम इमामोअलू की गिरफ़्तारी के बाद बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं।
प्रदर्शनकारी छठी रात भी उनके खिलाफ डटे रहे। जबकि अर्दोआन ने कहा है कि विपक्षी दल ‘हिंसक आंदोलन’ को हवा दे रहे हैं।
प्रदर्शन पिछले बुधवार को इंस्ताबुल में शुरू हुए थे। प्रदर्शनकारी इंस्ताबुल के मेयर और अर्दोआन के प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इकरम इमामोअलू की गिरफ़्तारी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे।
इकरम इमामोअलू ने कहा है कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। जबकि अर्दोआन ने कहा कि इमामओलू झूठ बोल रहे हैं।
तुर्की के मुख्य विपक्षी दल रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (सीएचपी) ने रविवार को इमामोअलू को अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया है।
पार्टी ने कहा है उनका प्रदर्शन मंगलवार को ख़त्म होगा। हालांकि उसने ये नहीं बताया कि आंदोलन के दौरान उसका अगला कदम क्या होगा।
तुर्की में क्यों हो रहे हैं प्रदर्शन
इमामोअलू विपक्षी रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी के सबसे बड़े नेता और इंस्ताबुल के मेयर हैं।
उन्हें अर्दोआन के सबसे ताक़तवर प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा जाता है। 23 मार्च को अर्दोआन सरकार ने उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार और चरमपंथी समूह को मदद करने का आरोप दाखिल किया।
प्रदर्शनकारियों ने इमामोअलू की हिरासत को गैरक़ानूनी और राजनीति से प्रेरित बताया है।
इमामोअलू ने अपनी गिरफ़्तारी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सोशल मीडिया पर लिखा, ‘ये लोगों की इच्छा पर की गई चोट है। मुझे गिरफ़्तार करने सैकड़ों पुलिसकर्मी मेरे दरवाजे पर पहुंच गए। लेकिन मुझे लोगों पर भरोसा है।’
हालांकि अदालत ने कुर्दिश राष्ट्रवादी संगठन पीकेके को समर्थन करने के आरोप में उनके खिलाफ दूसरा गिरफ़्तारी वारंट जारी करने से इंकार कर दिया है। पीकेके 1980 से ही तुर्की सरकार से लड़ रहा है।
तुर्की, अमेरिका और ब्रिटेन ने पीकेके को आतंकवादी संगठन घोषित करने के बाद इस पर प्रतिबंध लगा दिया है।
-जय सुशील
लिखने या लेखक होने का अर्थ सिर्फ झंडा लेकर खड़ा होना नहीं होता। जिन लोगों को ये लग रहा है कि विनोद कुमार शुक्ल ने अन्याय, शोषण आदि आदि आदि (जो उनके कथित मुद्दे हैं) उन पर नहीं लिखा, उनके लिए ज़रूरी है कि वे दोबारा विनोद कुमार शुक्ल को ठीक से पढ़ें.
अगर उन्हें विनोद जी के उपन्यासों में कविताओं में आम आदमी का जीवन नहीं दिखता है तो यह उनकी समस्या है विनोद जी की नहीं. नौकर की कमीज में अगर आपको पूंजीवाद से पीडि़त एक ऐसा व्यक्ति नहीं दिखता तो जो नौकरी की कमीज उतार कर अपना जीवन जीने की कोशिश करता है या फिर दीवाल में खिडक़ी रहती है में आपको यह नहीं दिखता कि वह करोड़ों भारतीयों का जीवन है (बिना किसी महागाथा के जैसा कि अंग्रेजी के उपन्यासों में होता है) तो फिर दिक्कत आपके पढऩे में है। लिखने वाले में नहीं।
असल में समस्या कुछ और है. दिक्कत हिंदी की है जिसके सबसे महान लेखक प्रेमचंद को लोगों ने गरीब गुरबों शोषितों का लेखक बनाकर एक लकीर खींच दी है कि हिंदी में लेखक वही होगा जो गरीबों के हक के लिए लड़ेगा लिखेगा। साहित्य की यह उथली समझ है। इसका कुछ नहीं किया जा सकता है।
साहित्य क्या है। हम रचते क्यों हैं। यह मूल प्रश्न है। लिखने वाला ज़रूरी नहीं कि झंडे और डंडे के ज़रिए ही अपनी समझ को रेखांकित करे। अफ्रीकी लेखक न्गूगी वा थियोंगो और चिनुआ अचेबे के उदाहरण से समझिए। न्गूगी रैडिकल लेखक हुए। वह अचेबे की भी आलोचना करते थे। न्गूगी के लेखन में आपको विरोध ही विरोध मिलेगा।
अचेबे कालजयी लेखक हुए। उनका लेखन मुलायम है। थिंग्स फॉल अपार्ट में वह अंग्रेज़ों का नाम लिए बिना पूरी किताब लिख देते हैं जिसे अंग्रेजी साम्राज्य के दुष्प्रभाव की कटुतम आलोचनाओं में गिना जाता है। इससे कोई छोटा बड़ा नहीं हो गया। दोनों बड़े लेखक हुए।
साहित्य क्या है। हम रचते क्यों हैं। हमारे रचे में क्या होता है। यह सब निर्भर करता है कि लेखक किस ज़मीन पर खड़ा है। दिल्ली का लेखक ज़रूरी नहीं वो लिखे जो छत्तीसगढ़ का लेखक लिखता है। कानपुर के लेखक की जमीन और कोलकाता के लेखक की ज़मीन और दुनिया की समझ अलग-अलग होगी। हर किसी को इस डंडे से क्यों हांकना कि मोदी के ख़िलाफ क्यों नहीं लिखा क्योंकि मैं तो मोदी के खिलाफ हूं तो आपको भी होना चाहिए।
एक सस्ते इतिहासकार ने दो तीन साल पहले ऐसे ही मूर्खतापूर्ण बात कही थी विनोद जी के बारे में। जबकि वह खुद विनोद जी के साथ फोटो खिंचवा कर फेसबुक पर लगा चुके थे।
साहित्य क्या है इस पर शम्सुर्रहमान फारूकी जी का एक लेक्चर है जो सुना जाना चाहिए। जिसका लब्बोलुआब यह है कि लिटरेचर होता क्यों है रचा क्यों जाता है। जब पूंजीवाद नहीं था तब भी लिटरेचर लिखा जा रहा था। जब लोग कंदराओं गुफाओं में रह रहे थे तब भी कविताएं बोली सुनी जा रही थीं। तब गरीब गुरबा शोषित कौन था? जानवर या इंसान।
राजाओं के तारीफ़ में लिखे हज़ारों पन्ने हैं साहित्य में। जिन्हें महान साहित्य माना ही जाता है। कालिदास ने तो मेघदूत और शाकुंतलम लिखा। वह किसी के विरोध में नहीं थे तो उन्हें कूड़ा कवि मान लेने में एतराज़ नहीं होना चाहिए? दुनिया कार्ल माक्र्स या स्टेट सिस्टम के आने के बाद से ही शुरू नहीं हुई है। उससे पहले भी दुनिया थी। राजा-महाराजाओं से पहले भी यह कायनात थी लोग थे, कविताएं थीं, कहानियां थीं।
इसलिए साहित्य की इस उथली समझ से बाहर निकलना चाहिए और देखना चाहिए कि लिखने वाला जो लिख रहा है उससे आपके अंदर कुछ नया कंपित हो रहा है या नहीं।
-संजीव कुमार
बात है 1958 की साउथ कैलिफोर्निया लॉस एंजेलिस में एक इंडियन म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट की एक बहुत फेमस दुकान हुआ करती थी। वह पूरे अमेरिका में इकलौती दुकान थी जहां ऑथेंटिक इंडियन म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट्स मिला करते थे। उस दुकान के मालिक हुआ करते थे डेविड बर्नार्ड।
एक दिन 35/ 36 साल का भारतीय युवा उस दुकान में आया और बड़े गौर से उन साज़ों को देखने लगा, साधारण वेशभूषा वाला यह आदमी वहां की सेल्स गर्ल्स को वहां के स्टाफ को कुछ अट्रैक्ट नहीं कर पाया।
फिर भी एक सेल्सगर्ल क्रिस्टीना उसके पास आकर बोली बताइए मैं क्या मदद कर सकती हूं। उस नौजवान ने सितार दिखने की मांग की, क्रिस्टीना ने उसे वहीं मौजूद सितारों का एक पूरा कलेक्शन दिखा दिया।
उस नौजवान को एक सितार खासतौर पर पसंद आ गया, और उसने कहा कि वह जरा उतार दीजिए उतारना कोई मुश्किल थी, क्रिस्टीना ने टालने की कोशिश की, लेकिन नौजवान जिद पर अड़ गया कि उसे वही सितार जो ऊपर शेल्फ में रखा है वही देखना है, तब तक दुकान के मालिक डेविड आ गए नौजवान की बात को सुना समझा और उनके आदेश पर सितार उतार दिया गया।
क्रिस्टीना बोली इसे बॉस सितार कहा जाता है, और आम सितार वादक इसे बजा नहीं सकते हैं, यह बहुत बड़े बड़े शो में इस्तेमाल होते हैं। वह नौजवान बोला आप उसे बॉस सितार कहते हैं मगर हम इसे सुरबहार सितार के नाम से जानते हैं। क्या मैं बजा कर देख सकता हूं, डेविड ने उस नौजवान का दिल नहीं तोड़ा, और बजाने की सहमति दी।
उस नौजवान ने सितार को ट्यून किया और बैठ गया और फिर उसने बजाना शुरू किया ऐसा बजाया ऐसा बजाया, कि आसपास के लोग भी वहां जमा हो गए, जब सितार उन्होंने बंद किया तो सन्नाटा छा गया था लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि वह ताली बजायें या मौन रहें। इतना सुन्दर संगीत उन्होंने पहले नहीं सुना था।
स्टैंड अप एक्ट पर उठे विवाद के बाद कुणाल कामरा ने कहा कि है कि वह महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के लिए की गई टिप्पणियों पर माफ़ी नहीं मांगेंगे।
कामरा ने सोमवार को एक बयान जारी कर, जिस जगह कॉमेडी शो को रिकॉर्ड किया गया था, वहां हुई तोडफ़़ोड़ की आलोचना की।
कामरा के माफ़ी न मांगने के बयान के बाद शिवसेना (शिंदे) की प्रतिक्रिया भी आई है।
पार्टी के नेता और महाराष्ट्र सरकार में मंत्री गुलाब रघुनाथ पाटिल ने मंगलवार को पत्रकारों को बताया, ‘वो माफ़ी नहीं मांगेगे तो हम अपने स्टाइल से उन्हें बताएंगे। वो माफ़ी नहीं मांगता है तो बाहर तो आएगा? कहाँ छिपेगा? सरकार क्या करेगी ये तो मुख्यमंत्री ने बता दिया है, शिवसेना अपना रुख़ अपनाएगी।’
पाटिल ने कहा कि वो अपनी पार्टी के नेता अपमान सहन नहीं करेंगे।
36 वर्षीय कॉमेडियन ने अपने एक ताज़ा शो में एक लोकप्रिय हिंदी फि़ल्म के गाने की पैरोडी बनाकर शिंदे के राजनीतिक करियर पर कटाक्ष किया था जिसके बाद महाराष्ट्र में एक बड़ा राजनीतिक तूफ़ान खड़ा हो गया।
कुणाल कामरा ने शो की रिकॉर्डिंग रविवार को अपने यूट्यूब चैनल पर पोस्ट की थी। इस पोस्ट को अब तक 34 लाख से अधिक बार देखा जा चुका है।
लेकिन शिव सेना (शिंदे) के कार्यकर्ताओं ने रिकॉर्डिंग की जगह तोड़ फोड़ की थी और कामरा को माफ़ी मांगने या नतीजे भुगतने की धमकी दी है।
लंबे अंतराल के बाद कुणाल कामरा ने ये वीडियो डाला है। उन्होंने अपना पिछला वीडियो पांच महीने पहले पोस्ट किया था।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा, ‘कामरा को अपनी 'निम्न स्तरीय कॉमेडी' के लिए माफ़ी मांगनी चाहिए।’
कुणाल कामरा ने बयान में क्या कहा
हंगामे, तोडफ़ोड़ और धमकियों के 24 घंटे बाद कुणाल कामरा ने एक्स पर एक लंबा बयान जारी किया।
इसमें उन्होंने लिखा, ‘मैं माफ़ी नहीं मागूंगा। मैंने ठीक वही कहा जो अजित पवार (प्रथम उप मुख्यमंत्री) ने एकनाथ शिंदे (दूसरे उप मुख्यमंत्री) के बारे में कहा था। मैं इस भीड़ से नहीं डरता और मैं बिस्तर के नीचे छिपकर मामला शांत होने का इंतज़ार नहीं करूंगा।’
उन्होंने लिखा, ‘एंटरटेनमेंट वेन्यू महज एक प्लेटफ़ॉर्म है। यह हर किस्म के शो का मंच है। हैबिटेट (या कोई भी जगह), मेरी कॉमेडी के लिए जि़म्मेदार नहीं है, और जो भी मैं कहता या करता हूं, उस पर उसका कोई अधिकार या नियंत्रण नहीं है। ना ही किसी और पार्टी का कोई अधिकार है। एक कॉमेडियन के कहे शब्दों के लिए किसी जगह को नुकसान पहुंचाना, वैसी ही नासमझी है जैसे अगर आपको चिकन नहीं परोसा जाता तो आप टमाटर के ट्रक को पलट दें।’
सबक सिखाने की धमकी देने वाले नेताओं को संबोधित करते हुए कुणाल कामरा ने लिखा, ‘बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार केवल ताक़तवर और धनी लोगों की चापलूसी के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, भले ही आज के मीडिया ने हमें ऐसा ही बताया हो। एक ताक़तवर शख़्सियत की क़ीमत पर एक मज़ाक को बर्दाश्त करने की आपकी अक्षमता, मेरे अधिकार की प्रकृति को नहीं बदलती। जहां तक मुझे पता है, हमारे नेताओं और राजनीति तंत्र के तमाशे का मज़ाक उड़ाना क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं है।’
‘हालांकि मेरे ख़िलाफ़ किसी भी क़ानूनी कार्यवाही के लिए मैं पुलिस और कोर्ट का सहयोग करने को तैयार हूं। लेकिन क्या उन लोगों पर भी निष्पक्ष और बराबर क़ानून लागू होगा, जिन्होंने एक कॉमेडी से आहत होकर तोडफ़ोड़ को एक वाजिब प्रतिक्रिया मान लिया? क्या ये बिना चुने हुए नगर निगम के सदस्यों पर भी लागू होगा जो आज बिना किसी पूर्व सूचना के हैबिटेट पर पहुंचे और हथौड़ों से उस जगह को तोड़ डाला?’
‘शायद मेरा अगला वेन्यू एलफिंस्टन ब्रिज होगा या मुंबई में कोई और जगह, जिसको ढहाने की सख़्त ज़रूरत है।’
बयान में कामरा ने उन लोगों पर भी निशाना साधा है जिन्होंने उनका नंबर लीक किया, ‘जो लोग मेरा नंबर लीक करने या लगातार मुझे कॉल करने में व्यस्त हैं, उनके लिए: मुझे यक़ीन है कि आपको अबतक पता चल गया होगा कि अनजान कॉल्स मेरे वाइसमेल में जा रहे हैं, जहां आपको वो गाना सुनाई देगा, जिससे आपको नफऱत है।’
और मीडिया को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘इस तमाशे की ईमानदारी से रिपोर्टिंग करें। याद रखें कि प्रेस की आज़ादी के मामले में भारत 159वें स्थान पर आता है।’
-जे के कर
हमने पाया कि छत्तीसगढ़ के अधिकांश शहरों में लेट्रोजोल नामक कैंसर की दवा को पुरूष तथा महिला बांझपन के लिये दवा कंपनियों द्वारा प्रचारित किया जा रहा है. जानकर आश्चर्य हुआ कि किस तरह से एक ही दवा पुरूष तथा महिला बांझपन के रोग में कारगार हो सकता है. हालांकि, मालूमात करने पर पता चला कि रायपुर एम्स के बाहर के दवा दुकानों में इसे केवल कैंसर के मरीज ही पर्ची लेकर लेने आते हैं. मूल रूप से लेट्रोजोल महिलाओं के स्तन कैंसर की दवा है. यूएसएफडीए भी इसे कैंसर की दवा मानता है. इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस दवा को पुरूष बांझपन के लिये पूरे देश में पेश तथा प्रचारित किया जा रहा है.
बता दें कि करीब दो दशक पहले हमारे देश में इस लेट्रोजोल दवा को एक भारतीय दवा कंपनी द्वारा महिला बांझपन के लिये प्रचारित किया जा रहा था. उस समय प्रतिष्ठित ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में इसको लेकर लेख भी प्रकाशित हुआ था. जिसमें भारत के मिम्स (मंथली इंडेक्स आफ मेडिकल स्पेशियालिटी) पत्रिका के संपादक सी एम गुलाजी ने कहा था कि अस्वीकृत उपयोग के लिये दवा को प्रचारित करना गैर-कानूनी है तथा इसके लिये जुर्माने एवं दंड का प्रावधान है. इसको लेकर दवा क्षेत्र के जानकारों ने अपना विरोध भी दर्ज कराया था. आखिरकार, 12 अक्टूबर 2011 में इस इंडीकेशन पर रोक लगा दी गई. कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इसे 'आफ लेबल यूस' कहकर मामले को हल्का करने की कोशिश की. दरअसल, इस दवा का बिना अनुमति के गैर-कानूनी रूप से क्लीनिकल ट्रायल किया जा रहा था, देश की महिलाओं को गिनीपिग समझकर.
बाद में साल 2017 को Indian Council for Medical Research (ICMR) तथा Drugs Technical Advisory Board (DTAB) ने गहरी छानबीन तथा भारत में इसके उपयोग के आंकड़ों के आधार पर इस दवा को महिलाओं के बांझपन की दवा के रूप में अंततः इसके ऑफ-लेबल उपयोग पर कुछ छूट दी, बशर्ते डॉक्टर मरीजों को जोखिमों के बारे में स्पष्ट रूप से सूचित करें तथा इसका उपयोग केवल योग्य प्रजनन विशेषज्ञों (fertility specialists) द्वारा किया जाये. लेकिन अचानक से इसे पुरूष बांझपन के लिये प्रचारित करना तथा इसकी पर्ची लिखवाना हमारी समझ से परे हैं. हमने पाया कि इस लेट्रोजोल दवा के ब्रांड लीडर कंपनी के दवा के बक्से के साथ दी जाने वाली जानकारी में भी पुरूष बांझपन का कहीं उल्लेख नहीं है. इसे केवल स्तन कैंसर तथा महिला बांझपन की दवा बताया गया है.
बता दे कि CDSCO याने Central Drugs Standard Control Organisation ने अपने सूची में 2922 नंबर पर इसे महिला बांझपन के लिये अतिरिक्त दवा (for additional indication) की मान्यता दी है. दरअसल यह रजोनिवृत्ति वाले महिलाओं के स्तन कैंसर की दवा है. तो क्या दवा कंपनियों के द्वारा किये जाने वाले आडियो-विजुअल प्रेजेंटेशन या फोल्डर में पुरुष बांझपन की दवा होना बताया जा है. यदि यह सच है तो माना जाना चाहिये कि लेट्रोजोल दवा का पुरुष बांझपन पर अनैतिक क्लिनिकल ट्रायल किया जा रहा है या लेट्रोजोल का आफ लेबल यूस का प्रमोशन किया जा रहा है.
सबसे दिक्कत की बात है कि जब दवा कंपनियां चिकित्सक के कमरे में आडियो-विजुएल प्रमोशन करती है तो वहां पर ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया की पहुंच नहीं होती है तथा उन्हें जानकारी भी नहीं मिल सकती है.
यदि लेट्रोजोल पर क्लिनिकल ट्रायल की अनुमति ली भी गई है तो इसकी जानकारी चिकित्सकों एवं मरीजों को होना चाहिये जोकि नहीं हो रहा है. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय नाजी चिकित्सकों के द्वारा कैदियों पर किये गये अनैतिक क्लिनिकल ट्रायल्स के बाद बनी 'न्यूरेमबर्ग कोड आफ क्लिनिकल ट्रायल्स' का मुख्य लब्बोलुआब यह है कि किसी भी क्लिनिकल ट्रायल के लिये मरीजों की सहमति आवश्यक है तथा उन्हें इस बात की जानकारी दी जानी चाहिये. क्या हमारी आवाज केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय तक पहुंच पायेगी.
-दिलनवाज पाशा
अमेरिका की एक अदालत ने हिरासत में लिए गए भारतीय मूल के शोध छात्र बदर ख़ान सूरी के प्रत्यर्पण पर अपने अगले आदेश तक रोक लगा दी है।
बुधवार को वर्जीनिया के एलेक्सेंड्रिया की डिस्ट्रिक्ट जज पेट्रीसिया गाइल्स ने ट्रंप प्रशासन के बदर ख़ान सूरी को वापस भारत भेजने के प्रयासों को रोक दिया था।
जज ने यह आदेश बदर ख़ान सूरी की पत्नी मफ़ाज़ यूसुफ़ सालेह की याचिका पर दिया था।
अमेरिका के होमलैंड सिक्योरिटी विभाग (डीएचएस) ने 17 मार्च को बदर ख़ान सूरी को फ़लस्तीनी संगठन हमास से संबंधों के आरोप में हिरासत में लिया था।
बदर ख़ान सूरी वॉशिंगटन डीसी की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में शोधार्थी हैं। उनकी पत्नी मफ़ाज़ सालेह फ़लस्तीनी मूल की अमेरिकी पत्रकार हैं। मफ़ाज़ कई सालों तक भारत में भी रही हैं।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस मामले पर कहा है कि उसे मीडिया रिपोर्ट से ही इस मामले के बारे में पता है और ना ही सूरी और ना ही उनके परिवार ने मदद के लिए कोई संपर्क किया है।
पत्नी मफ़ाज़ से कैसे हुई मुलाक़ात?
बदर ख़ान की मुलाक़ात अपनी पत्नी मफ़ाज़ सालेह से गज़़ा में एक मानवीय यात्रा के दौरान साल 2011 में हुई थी।
इस यात्रा में जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के कई छात्रों समेत भारत के कई कार्यकर्ता शामिल थे, जो कई देश होते हुए गज़़ा पहुंचे थे।
इस यात्रा का मक़सद फ़लस्तीनी मुद्दों के लिए जागरूकता पैदा करना था। भारतीय अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी तब इसका हिस्सा थीं। इसके अलावा भारत के कई और कार्यकर्ता इसमें शामिल हुए थे।
इस यात्रा से लौटने के बाद बदर अपने पिता के साथ दोबारा गज़़ा गए थे और वहां मफ़ाज़ से निकाह किया था।
शादी के बाद, बदर ख़ान सूरी और सालेह साल 2013 से भारत में रह रहे थे और कऱीब डेढ़-दो साल पहले अमेरिका चले गए थे।
कम बोलने वाले गंभीर छात्र
बदर ख़ान सूरी ने दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के नेल्सन मंडेला सेंटर फ़ॉर पीस एंड कॉनफ्लिक्ट रिज़ोल्यूशन सेंटर से एमए किया है और इसी संस्थान से पीएचडी भी की है।
उन्होंने ‘ट्रांज़ीशन डेमोक्रेसी, डिवाइडेड सोसाइटीज़ एंड प्रोस्पेक्ट्स फ़ॉर पीस: ए स्टडी ऑफ़ स्टेट बिल्डिंग इन अफग़़ानिस्तान एंड इराक़' शीर्षक से थीसिस लिखी थी। अपने इस शोध पत्र में उन्होंने नस्लीय रूप से बंटे हुए और संघर्ष का सामना कर रहे राष्ट्र में लोकतंत्र स्थापित करने की चुनौतियों का अध्ययन किया था और तर्क दिया था कि ऐसे प्रयास पहले से मौजूद सामाजिक-बंटवारों के कारण कमज़ोर हो जाते हैं।
बदर ख़ान सूरी का परिवार मूल रूप से उत्तर प्रदेश के सहारनपुर का रहने वाला है, लेकिन फि़लहाल दिल्ली में रहता है। उनके पिता खाद्य विभाग में इंस्पेक्टर थे और अब रिटायर हो चुके हैं।
बदर के साथ जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढऩे वाले उनके सहपाठी आमिर ख़ान बताते हैं, ‘वो आमतौर पर ख़ामोश रहने वाले एक गंभीर छात्र हैं। वो स्ट्रीट प्रोटेस्ट में हिस्सा नहीं लेते, लेकिन फ़लस्तीनी मुद्दों पर उनके अपने विचार हैं।’
आमिर के मुताबिक़, बदर ख़ान यूं तो बहुत कम बोलते हैं लेकिन जब बोलते हैं तो बहुत गंभीरता से अपनी बात रखते हैं।
बदर ख़ान सूरी इस समय वॉशिंगटन की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ फ़ॉरेन सर्विस के अलवलीद बिन तलाल सेंटर फ़ॉर मुस्लिम क्रिश्चियन अंडरस्टेंडिंग में पोस्ट डॉक्टेरल फ़ैलो हैं।
बदर ख़ान सूरी एक वैध छात्र वीज़ा पर अमेरिका में दाख़िल हुए थे और जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में अध्यापन कार्य भी कर रहे थे। उनके शोध का फ़ोकस अफग़़ानिस्तान और इराक़ में शांति स्थापित करने के प्रयास हैं।
क्यों लिया गया हिरासत में?
अमेरिका के होमलैंड सिक्योरिटी विभाग ने 17 मार्च यानी बीते सोमवार की रात वर्जीनिया के अर्लिंगटन में उनके घर के बाहर से उन्हें हिरासत में ले लिया था।
डीएचएस और इमिग्रेशन एंड कस्टम्स एंफ़ोर्समेंट (आईसीई) के नक़ाबधारी एजेंटों ने जब उन्हें हिरासत में लिया, तब उनकी पत्नी भी उनके साथ मौजूद थीं।
ट्रंप प्रशासन ने उन पर सोशल मीडिया के ज़रिए ‘हमास का प्रोपागेंडा’ फैलाने और ‘पहचाने हुए या संदिग्ध आतंकवादी’ से संपर्क के आरोप लगाए हैं।
फॉक्स न्यूज़ को दिए एक बयान में अमेरिकी अधिकारियों ने कहा था कि सूरी के हमास से संपर्क हैं और वो सोशल मीडिया पर एंटीसेमीटिक यानी यहूदी विरोधी कंटेंट शेयर कर रहे थे।
मीडिया को दिए गए बयान में अमेरिकी अधिकारियों ने कोई सबूत तो नहीं दिया, लेकिन ये ज़रूर कहा कि अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने आदेश दिया था कि बदर ख़ान सूरी को अमेरिका से वापस भेज दिया जाना चाहिए। सूरी पर यहूदियों के खिलाफ भावनाओं को बढ़ावा देने के आरोप भी लगाए हैं।
बदर ख़ान सूरी को फि़लहाल लूसियाना के एक हिरासत केंद्र में रखा गया है। ये जानकारी बदर ख़ान सूरी के अधिवक्ता ने दी है।
-हृदयेश जोशी
सूचना का अधिकार एक आम नागरिक को वह ताकत देता है जो चुने हुए जन प्रतिनिधि - कोई विधायक या सांसद - के पास है। जैसे जन प्रतिनिधि संसद या विधानसभा में सरकार से उसके काम के बारे में सवाल पूछ सकते हैं वैसे ही एक आम नागरिक सरकार की किसी भी योजना, उसके बनाये कोई भी कानून या किसी एक्शन के बारे में सरकार से सवाल कर सकता है। सूचना का अधिकार कानून दो दशक पहले 2005 में लागू हुआ तब से लगातार सरकार चला रहे मंत्रियों और नौकरशाहों पर इसने एक लगान की तरह काम किया है। आज देश में हर साल करीब 60 लाख आरटीआई अजिऱ्यां फाइल की जाती हैं और भ्रष्टाचार और शासन में खामियां उजागर करने में यह कारगर रहा है। यह दूसरी बात है कि पिछले कुछ सालों में सूचना अधिकार कानून को कमज़ोर करने की कोशिशें लगातार हुई हैं लेकिन डिजिटल डाटा प्रोटेक्शन क़ानून की एक धारा सूचना अधिकार कानून को पूर्णत: निष्प्रभावी कर देती है।
कई ट्रांसपरेंसी एक्टिविस्ट्स और सामाजिक संगठनों ने अब इस पर एक देशव्यापी आंदोलन चलाने की घोषणा की है ताकि सूचना अधिकार कानून में संशोधन को वापस लिया जाये। इन संगठनों ने कानून में बदलाव से होने वाले ख़तरों के बारे में शिक्षित करने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों को आमंत्रित भी किया है। रणनीति सरकार पर डिजिटल डाटा प्रोटेक्शन कानून की वह धारा वापस लेने का दबाव बनाना है जो सूचना का अधिकार छीनती है। लेकिन पहले यह जानना ज़रूरी है कि आखिर डाटा प्रोटेक्शन कानून की वह धारा क्या है जो सूचना अधिकार कानून को बेकार कर देती है। अगस्त 2023 में मोदी सरकार ने डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट डीपीडीपी एक्ट को संसद से पास कराया। यह कानून लोगों के निजी डिजिटल डाटा के प्रोटेक्शन के लिए लाया गया है ताकि कोई आपका डाटा जैसे नाम, फोटो, पता, जन्मतिथि, ड्राइविंग लाइसेंस या आधार नंबर आदि जानकारी को इक_ा या उसका दुरुपयोग न कर सके। इस कानून के तहत निजी डेटा को किसी व्यक्ति की सहमति पर केवल वैध उद्देश्य के लिए ही प्रोसेस किया जा सकता है। हालांकि केंद्र सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था और अपराधों की रोकथाम जैसे ग्राउंड्स पर सरकारी एजेंसियों को विधेयक के प्रावधानों से छूट दे सकती है।
आज नागरिकों का बहुत सारा डाटा सार्वजनिक स्पेस में है और कई बार बेवजह मांगा और इस्तेमाल किया जाता है और उसकी कोई प्रभावी सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है। ऐसे में सिद्धांत रूप में डीपीडीपीए एक उपयोगी और बहुत आवश्यक क़ानून है लेकिन इस कानून की एक धारा से पारदर्शिता समाप्त होने का ख़तरा है। असल में सूचना अधिकार कानून की धारा 8 (1) (द्भ) में यह प्रावधान है कि आरटीआई एक्ट के तहत कोई निजी जानकारी नहीं मांगी जा सकती जब तक कि उसका संबंध जनहित से न हो क्योंकि वह अनावश्यक रूप से निजता का हनन है। मिसाल के तौर पर किसी अस्पताल में इलाज करा रहे किसी अधिकारी को क्या रोग है और वह क्या दवा खा रहा है यह उसकी व्यक्तिगत जानकारी है और इससे जनहित का कोई लेना देना नहीं है। इस प्रावधान का उद्देश्य है कि सूचना का अधिकार संरक्षित करते हुए किसी की प्राइवेसी का बेवजह हनन न हो। यानी सूचना अधिकार की यह धारा सूचना और निजता के अधिकारों के बीच एक संतुलन बिठाती है।
लेकिन अब डीपीडीपी एक्ट की धारा 44 (3) के ज़रिए किया गया संशोधन निजी जानकारी को हासिल करने पर पूरी तरह रोक लगाता है और सारा विवाद इसी कारण है।सरकार ने भले ही संसद में कहा हो कि डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन कानून का उद्देश्य आवश्यक विवरण और कार्रवाई योग्य रूपरेखा प्रदान करके डिजिटल व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा के लिए कानूनी ढांचे को मजबूत करना है।लेकिन इस प्रक्रिया में क्या वह निजता में दखल के सारे अधिकार अपने पास रखकर जनहित के लिए ज़रूरी निजी जानकारी को मांगने का सार्वजनिक अधिकार जनता से नहीं छीन रही। महत्वपूर्ण है कि सरकार ने इस कानून से जुड़े नियम, यानी एक्सक्यूटिव रूल्स तो बना दिये हैं लेकिन इसे अभी नोटिफाइ नहीं किया है। यानी अभी यह कानून प्रभावी नहीं हुआ है।
- सैयद मोजिज इमाम
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में कहा है कि पीडि़ता के प्राइवेट पार्ट्स को छूना और पायजामी की डोरी तोडऩे को बलात्कार या बलात्कार की कोशिश के मामले में नहीं गिना जा सकता है।
हालाँकि कोर्ट ने ये कहा कि ये मामला गंभीर यौन हमले के तहत आता है। ये मामला उत्तर प्रदेश के कासगंज इलाके का है। घटना साल 2021 में एक नाबालिग लडक़ी के साथ हुई थी।
कासगंज की विशेष जज की अदालत में इस नाबालिग लडक़ी की मां ने पॉक्सो एक्ट के तहत मामला दर्ज कराया था, लेकिन अभियुक्तों ने इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई के बाद ये फ़ैसला सुनाया।
फ़ैसले पर उठ रहे हैं सवाल
कांग्रेस की प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने इस फ़ैसले पर सवाल उठाते हुए कहा, ''जो क़ानून एक औरत की सुरक्षा के लिए बना है, इस देश की आधी आबादी उससे क्या उम्मीद रखे। जानकारी के लिए बता दूं भारत महिलाओं के लिए असुरक्षित देश है।’
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा का कहना है, ''कम से कम यह कहा जा सकता है कि यह निर्णय निराशाजनक, अपमानजनक और शर्मनाक है। महिला की सुरक्षा और गरिमा के मामले में तैयारी और प्रयास के बीच का सूक्ष्म अंतर बहुत ही अकादमिक है।’
एडवोकेट सायमा ख़ान कहती हैं, ‘भारतीय क़ानून में किसी भी आपराधिक प्रयास को पूर्ण अपराध की श्रेणी में ही देखा जाता है, बशर्ते कि इरादा स्पष्ट हो और अपराध की दिशा में ठोस कदम उठाया गया हो। पायजामी की डोरी तोडऩा या शरीर को जबरन छूना साफ तौर पर बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में आ सकता है, क्योंकि इसका मकसद पीडि़ता की शारीरिक स्वायत्तता का उल्लंघन करना है।’
क्या है ये मामला?
इस मामले में लडक़ी की मां ने आरोप लगाया था कि 10 नंवबर 2021 को शाम पांच बजे जब वो अपनी 14 वर्षीय बेटी के साथ देवरानी के गांव से लौट रही थी तो अभियुक्त पवन, आकाश और अशोक मोटरसाइकिल पर उन्हें रास्ते में मिले।
मां का कहना था कि पवन ने उनकी बेटी को घर छोडऩे का भरोसा दिलाया और इसी विश्वास के तहत उन्होंने अपनी बेटी को जाने दिया।
लेकिन रास्ते में मोटरसाइकिल रोककर इन तीनों लोगों ने लडक़ी से बदतमीज़ी की और उसके प्राइवेट पार्ट्स को छुआ। उसे पुल के नीचे घसीटा और उसके पायजामी का नाड़ा तोड़ दिया।
लेकिन तभी वहां से ट्रैक्टर से गुजर रहे दो व्यक्तियों सतीश और भूरे ने लडक़ी का रोना सुना। अभियुक्तों ने उन्हें तमंचा दिखाया और फिर वहां से भाग गए।
जब नाबालिग की मां ने पवन के पिता अशोक से शिकायत की तो उन्हें जान की धमकी दी गई जिसके बाद वे थाने गई लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
ये मामला कासगंज की विशेष कोर्ट में पहुंचा जहां पवन और आकाश पर आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार), पॉक्सो एक्ट की धारा 18 (अपराध करने का प्रयास) और अशोक के ख़िलाफ़ धारा 504 और 506 लगाई गईं।
इस मामले में सतीश और भूरे गवाह बने, लेकिन इस मामले को अभियुक्तों की तरफ से इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस राममनोहर नारायण मिश्रा की पीठ ने ये फ़ैसला उत्तर प्रदेश के कासगंज जि़ले के पटियाली थाना क्षेत्र से जुड़े एक मामले में दिया है।
जस्टिस राममनोहर नारायण मिश्रा की पीठ ने कहा कि अभियुक्तों के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोपों और मामले के तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध करना कि बलात्कार का प्रयास हुआ, संभव नहीं था।
इसके लिए अभियोजन पक्ष को यह साबित करना ज़रूरी है कि अभियुक्तों का कृत्य अपराध करने की तैयारी करने के लिए था।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि बलात्कार करने की कोशिश और अपराध की तैयारी के बीच के अंतर को सही तरीके से समझना चाहिए।
हाई कोर्ट ने निचली अदालत को निर्देश दिया कि अभियुक्तों के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 354 (बी) (कपड़े उतारने के इरादे से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग) और पॉक्सो एक्ट की धारा 9 और 10 (गंभीर यौन हमला) के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही मामले में क्या कहा था
हालांकि ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच के फ़ैसले को पलट दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में कहा कि किसी बच्चे के यौन अंगों को यौन इरादे से छूना पॉक्सो अधिनियम की धारा 7 के तहत यौन हिंसा माना जाएगा। इसमें चाहे त्वचा का संपर्क नहीं हुआ हो लेकिन इरादा महत्वपूर्ण है।
इस मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट की एडीशनल जज पुष्पा गनेडिवाला के अभियु्क्त को बरी करने का फ़ैसला लिया था। हाईकोर्ट ने त्वचा से त्वचा का संपर्क न होने के आधार पर फैसला सुनाया था।
फ़ैसले पर कैसी प्रतिक्रिया
सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा मानती हैं कि ये फ़ैसला सही नज़ीर पेश नहीं करेगा और इससे अपराधियों के हौसले बढ़ जाएंगे।
वह कहती हैं, ‘यह देखना भयावह है कि न्यायाधीश समाज के सबसे बुरे तत्वों की रक्षा के लिए इस तरह के बहुत ही सूक्ष्म अंतर का उपयोग करते हैं। अफ़सोस की बात है कि आज महिलाओं के लिए न्याय के दरवाजे बहुत कठिन होते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें सार्वजनिक स्थानों से दूर करना और उनके संवैधानिक अधिकारों से गंभीर रूप से समझौता करना है।’
एडवोकेट सायमा ख़ान का कहना है कि ये फ़ैसला न्यायिक प्रक्रिया में संवेदनहीनता को दर्शाता है।
उन्होंने कहा, ‘हाईकोर्ट ने बलात्कार के प्रयास को सिद्ध करने के लिए यह तर्क दिया कि जब तक यौन संपर्क या प्रत्यक्ष बलात्कार की कोशिश नहीं होती, तब तक इसे बलात्कार का प्रयास नहीं माना जा सकता। यह संकीर्ण दृष्टिकोण, अपराध की मंशा और परिस्थितियों की अनदेखी करता है।’
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में वकील दिव्या राय का कहना है कि अदालत ने इस तथ्य की अनदेखी की कि यौन उत्पीडऩ और शारीरिक छेड़छाड़ का पीडि़ता पर गंभीर मानसिक और भावनात्मक प्रभाव पड़ता है।
उन्होंने कहा , ‘कानून केवल शारीरिक क्षति पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह भी देखता है कि पीडि़ता की गरिमा और आत्मसम्मान को कितना नुकसान पहुंचा है। ऐसा फैसला न केवल पीडि़ता के दर्द को नकारने जैसा है, बल्कि यह भविष्य में अपराधियों को प्रोत्साहित करने वाला भी साबित हो सकता है।’
क़ानून क्या कहता है?
हालांकि ये मामला भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के अमल में आने से पहले का है। इसलिए फ़ैसला आईपीसी की धारा 376 के तहत दिया गया है और इसके प्रावधान अलग हैं।
धारा 375 बलात्कार को परिभाषित करती है जिसके मुताबिक जब तक मुंह, या प्राइवेट पार्ट्स मे लिंग या किसी वस्तु का प्रवेश ना हो, वो बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता है।
जस्टिस मिश्रा ने इस केस में साफ किया कि सेक्शन 376, 511 आईपीसी या 376 आईपीसी और पॉक्सो एक्ट के सेक्शन 18 का मामला नहीं बनता है।
वकील दीपिका देशवाल का कहना है महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे अपराध कहीं न कहीं क़ानून में कमी को बताते हैं।
देशवाल का कहना है, ‘जब रेपिस्ट की मंशा रेप करने की है और उसके लिए प्रयास भी किया गया है तो ऐसे में (अदालत की तरफ़ से) सख़्त रुख़ की और आवश्यकता है।’
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में वकील फ़लक़ क़ौसर का कहना है, ''पॉक्सो अधिनियम और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धाराओं में यौन अपराधों के सबंध में स्पष्ट प्रावधान मौजूद हैं, जिनका इस मामले में सही तरीके से उपयोग नहीं किया गया। हाई कोर्ट को इन धाराओं का उपयोग करके पीडि़ता को न्याय दिलाना चाहिए था। भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में बेहतर प्रावधान मौजूद हैं।उनका कहना है कि बीएनएस में इस तरह के अपराधों को लेकर अधिक स्पष्टता है। धारा 63 (बलात्कार के प्रयास) बलात्कार करने का इरादा और उसकी दिशा में किया गया कोई भी कार्य इस धारा के तहत अपराध माना जाएगा।
कौसर बताती हैं, ''धारा 75 (लैंगिक उत्पीडऩ) यदि कोई व्यक्ति किसी महिला की लज्जा भंग करने या उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाने के उद्देश्य से छेड़छाड़ करता है, तो यह अपराध की श्रेणी में आएगा।धारा 79 के तहत यदि किसी महिला के कपड़े उतारने या उसे अपमानित करने का प्रयास किया जाता है, तो इसे गंभीर अपराध माना जाएगा ।’
बीएनएस के ये प्रावधान स्पष्ट रूप से ऐसे मामलों में कड़ी सजा का प्रावधान करते हैं और पीडि़तों की सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं।
हालांकि इस फैसले से कई सवाल पैदा हो गए हैं। अगर मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है, तो फैसला क्या होता है इस पर सबकी नजऱ रहेगी। (बीबीसी)
-सुसंस्कृति परिहार
अंग्रेजी राज में एक ऐसे जज भी हुए जिन्होंने भगतसिंह को फांसी की सजा दिलाना कबूल नहीं किया और निर्णय सुनाने से पहले अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
वे थे जस्टिस सैय्यद आगा हैदर जिन्होंने ‘शहीद भगत सिंह’ को ‘फांसी नहीं लिखी’, बल्कि ‘अपना इस्तीफा लिख दिया’ था इतिहास बताता हैं कि मुसलमान सब्र रखने के साथ साथ इंसाफ परस्त भी हैं...
जस्टिस सैयद आगा हैदर का जन्म सन् 1876 में सहारनपुर के एक संपन्न सैय्यद परिवार में हुआ था द्य सन 1904 में उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत आरंभ की तथा सन् 1925 में वे लाहौर हाईकोर्ट में जज नियुक्त हुए।
जस्टिस आग़ा हैदर यह नाम इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उन्होंने भगतसिंह और उनके साथियों सुखदेव और राजगुरू को सज़ा से बचाने के लिए गवाहों के बयानों और सुबूतों की बारीकी से पड़ताल की थी। मुलजि़मों से जस्टिस आग़ा हैदर साहब की यह हमदर्दी देखते हुए कहा जाता है, अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें इस मुक़दमे की सुनवाई से हटा दिया था। जबकि सच यह है कि वे अंग्रेज जजों के दबाव में नहीं आए थे और अपना इस्तीफा सौंप दिया था।
फिर भगत सिंह को फांसी की सजा क्यों हुई कुछ इतिहासकार लिखते हैं, कि भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले दो व्यक्ति थे जब दिल्ली में भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में असेंबली में बम फेंकने का मुकदमा चला तो उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ शोभा सिंह ने गवाही दी और दूसरा गवाह था शादी लाल।
शोभा सिंह एक बिल्डर थे। शोभा सिंह साल 1939 में पंजाब चैंबर ऑफ़ कॉमर्स के अध्यक्ष चुने गए थे। वे राष्ट्रमंडल संबंध विभाग और विदेश मामलों की समिति के सदस्य थे उनके कार्यकाल में बोर्ड ऑफ इंडस्ट्रियल ऐंड साइंटिफिक़ रिसर्च की स्थापना हुई थी। उन्होंने भारत-जापान व्यापार समझौता किया था।
जबकि सर शादी लाल एक सामाजिक-राजनीतिक नेता थे। सर शादी लाल पंजाब हिंदू सभा के एक नेता थे। वे 20वीं सदी की शुरुआत में पंजाब में हिंदू हितों की वकालत करते थे उनके कार्यों का असर न्यायिक क्षेत्र पर भी पड़ा भगत सिंह के मुकदमे में अभियोजन पक्ष के गवाह के तौर पर उन्होंने गवाही दी थी उनकी गवाही ने भगत सिंह को दोषी ठहराए जाने और फांसी की सज़ा पाने में अहम भूमिका निभाई।
विदित हो इन दोनों को वतन से की गई गद्दारी के लिए अंग्रेज़ों से, न सिर्फ सर की उपाधि मिली बल्कि और भी बहुत इनाम मिला था। शोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत अंग्रेजों से मिली थी आज कनाट प्लेस में शोभा सिंह के स्कूल में कतार लगती है बच्चों को प्रवेश तक नहीं मिलता है।
शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली थी आज भी शामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब कारखाना है सर शादीलाल और सर शोभा सिंह, भारतीय जनता की नजरों में सदा घृणा के पात्र थे और अब तक हैं।
लेकिन शादी लाल को गांव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा तक नहीं दिया शादी लाल के लडक़े उसका कफन दिल्ली से खरीद कर लाए तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था।
जस्टिस आगा हैदर अंग्रेजी हुकूमत में जज थे जिन पर अंग्रेजी हुकूमत ने अपना दबाव बना कर भगतसिंह को फांसी की सज़ा देने का हुक्म दिया मगर उन्होंने उस दबाव को नकारते हुए अपना इस्तीफा ही दे दिया जिसके बाद शादीलाल जज ने भगत सिंह और साथियों को फांसी लिखकर बहुत नाम कमाया।
वस्तुत: भगत सिंह और उनके साथियों को सज़ा मुख्य जज जी सी हिल्टन के अध्यक्षता वाले एक ट्रिव्यूनल द्वारा दी गई थी।जिसका गठन गवर्नर जनरल लार्ड इरविन ने किया था।
ट्रिव्यूनल में सिर्फ आगा हैदर अकेले भारतीय थे और बाकी सभी जज अंग्रेज़ थे । जब आग़ा हैदर को फांसी देने वाले दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया था तो उन्होंने हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया और अपने पद से इस्तीफा दे दिया। बाद में सर शादी लाल नामक जज ने हस्ताक्षर बिना आपत्ति के कर दिए। इन दोंनो देशद्रोही हिंदुओं की वजह से भगतसिंह अपने दो साथियों सहित शहादत को समर्पित हुए जबकि सैयद हैदर आगा शहीदों के साथ अजर अमर हो गए। यहां हमें जस्टिस खलीलुर्रहमान रमदे जी का भी शुक्रगुजार होना चाहिए, जिनकी बदौलत भारत को शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर अंग्रेजों के जमाने में चले मुकदमे के ट्रायल की कॉपी मिल सकी थी। फांसी देने संबंधित कई चौंकाने वाले तथ्य भी सामने आए थे।जो देश के गद्दारों के नाम उजागर करते हैं।
यह भी स्मरण रखना चाहिए कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य एडवोकेट आसिफ अली ने भगत सिंह और साथियों के पक्ष में अपील लगाकर अंग्रेजों से अदालत में खुलकर बहसबाजी की थी। जबकि भगत सिंह के खिलाफ केस लडऩे वाले वकील राय बहादुर सूरज नारायण थे। वे अभियोजन पक्ष के वकील थे।
यह इतिहास इस बात की गवाही देता है कि अंग्रेजी शासन काल में अपने स्वाधीनता सेनानियों को मजबूती प्रदान करने में मुस्लिमों का अवदान कहीं ज़्यादा रहा है। इंडिया गेट पर शहादत में शामिल सर्वाधिक मुसलमानों की संख्या भी देखी जा सकती है। भगतसिंह की शहादत दिवस पर अपने आज़ादी के इतिहास को हम सभी को जानना चाहिए।
-दिलनवाज पाशा
पूर्व राजनयिक, केरल के तिरुवनंतपुरम से सांसद और वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि थरूर ने एक बार फिर ऐसा बयान दिया है, जिसे उनकी पार्टी की लाइन के खिलाफ माना जा सकता है।
दिल्ली में एक परिचर्चा के दौरान रूस-यूक्रेन युद्ध और भारत की कूटनीति पर टिप्पणी करते हुए शशि थरूर ने कहा- ‘मुझे यह स्वीकार करना होगा कि 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत के रुख़ की आलोचना करने पर मुझे शर्मिंदगी उठानी पड़ी। मोदी ने दो हफ्तों के अंतराल में यूक्रेन के राष्ट्रपति और रूस के राष्ट्रपति दोनों को गले लगाया और दोनों जगह उन्हें स्वीकार किया गया।’
शशि थरूर की इस टिप्पणी के बाद जहां बीजेपी ने कहा कि ‘देर आए दुरुस्त आए’, वहीं कांग्रेस ने इस पर चुप्पी साध रखी है।
कांग्रेस के किसी भी प्रवक्ता या नेता ने इसे लेकर सार्वजनिक टिप्पणी नहीं की है।
केरल से सांसद और राज्य में पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष कोड्डिकुन्नील सुरेश ने बीबीसी से कहा, ‘पार्टी ना ही थरूर की इस टिप्पणी को महत्व दे रही है और ना ही इस पर टिप्पणी कर रही है।’
शशि थरूर के बयान पर क्या बोली बीजेपी?
बीबीसी ने इस विषय पर और भी कांग्रेस नेताओं से बात करनी चाही, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी।
वहीं बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रवि शंकर प्रसाद ने मीडिया से बात करते हुए कहा, ‘देर आए दुरुस्त आएज् जिस तरह से शशि थरूर ने स्वीकार किया है, कांग्रेस के दूसरे नेताओं को भी करना चाहिए।’
केरल बीजेपी के अध्यक्ष के सुरेंद्रन ने शशि थरूर के इस बयान का स्वागत किया है।
बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘थरूर ने सच स्वीकार किया है, जो कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के मुंह पर तमाचा है। राहुल हमेशा भारत की विदेश नीति की आलोचना करते हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सवाल उठाते हैं।’
के सुरेंद्रन ने बीबीसी से कहा, ‘शशि थरूर ने जो सच बोला है, उस पर कांग्रेस ख़ामोश है क्योंकि इस सच ने राहुल गांधी की पोल खोल दी है जो हमेशा कहते रहते हैं कि वैश्विक स्तर पर भारत का क़द घट रहा है।’
रूस-यूक्रेन युद्ध और भारत की तटस्थता
भारत ने फऱवरी 2022 में रूस के यूक्रेन पर आक्रमण और इसके बाद से जारी युद्ध पर तटस्थ रुख़ अपनाया है। दुनियाभर के देशों ने जब रूस की आक्रामकता की आलोचना की थी, भारत ऐसा करने से बचता रहा था।
शशि थरूर ने अब स्वीकार किया है कि पहले उन्होंने भारत के नज़रिए की आलोचना की थी, लेकिन अब उन्हें लगता है कि यही सही विदेश नीति थी और यह प्रभावशाली रही। थरूर ने भारत की संतुलित विदेश नीति की तारीफ भी की।
अपनी टिप्पणी में थरूर ने ये भी कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूक्रेन गए और ज़ेलेंस्की से गले मिले और उससे पहले वो मॉस्को में पुतिन से गले मिले थे। थरूर ने कहा कि दोनों ही जगहों पर मोदी को स्वीकार किया गया।
शशि थरूर ने ये सुझाव भी दिया कि भारत ने जिस तरह से इस संघर्ष से दूरी बनाई है, वह एक अच्छा मध्यस्थ हो सकता है और ज़रूरत पडऩे पर यूक्रेन में शांति बल भी भेज सकता है।
थरूर एक पूर्व राजनयिक और भारत के पूर्व विदेश राज्य मंत्री भी हैं। ऐसे में उनकी टिप्पणी को मोदी सरकार की विदेश नीति पर मुहर माना जा रहा है।
भारत की विदेश नीति और कांग्रेस का रुख
हालांकि, विपक्षी कांग्रेस यूं तो विदेश नीति को लेकर अक्सर ख़ामोश ही रहती है या सरकार की नीति का समर्थन करती है, लेकिन गज़़ा में जारी संघर्ष के मामले में कांग्रेस नेताओं ने खुलकर भारत की नीति के खिलाफ रुख अपनाया है।
कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी फ़लस्तीन के समर्थन में कई बार बोल चुकी हैं और इसराइल की आक्रमकता पर सवाल उठा चुकी हैं। यह भारत की इसराइल-फिलस्तीनी संघर्ष को लेकर मौजूदा नीति के खिलाफ है।
मार्च 2022 में संयुक्त राष्ट्र में रूस-यूक्रेन युद्ध पर हुए मतदान से भारत दूर रहा था। इसके बाद दिए एक भाषण में राहुल गांधी ने तर्क दिया था कि इस मुद्दे पर भारत की ख़ामोशी वैश्विक मामलों में उसकी नैतिक स्थिति को कमज़ोर करती है।
कांग्रेस पार्टी भारत-चीन सीमा पर चीन की आक्रामकता को लेकर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति पर सवाल उठाती रही है।
दिसंबर 2024 में कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा था कि भारत प्रतिक्रियावादी विदेश नीति पर चल रहा है और दक्षिण एशिया में भारत की विदेश नीति अपना प्रभाव खो रही है।
ऐसे में अब, शशि थरूर के खुलकर मोदी सरकार की विदेश नीति के समर्थन में आने से कांग्रेस के लिए असहज स्थिति पैदा हो गई है।
शशि थरूर के बयान के क्या संकेत हैं?
ये पहली बार नहीं है जब थरूर ने मोदी सरकार की विदेश नीति की तारीफ़ की हो।
हालांकि, विश्लेषक इसे भारत की विदेश नीति की तारीफ़ के बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ़ के रूप में देख रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं, ‘कोई भी राष्ट्र अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए अपनी विदेश नीति बनाता है। रूस-यूक्रेन युद्ध मामले में भारत ने भी ऐसा ही किया है और अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए एक तटस्थ नीति बनाई है। इसमें कोई शक़ नहीं है कि इस नीति से भारत को फ़ायदा हुआ है। लेकिन थरूर ने भारत की विदेश नीति की तारीफ़ करते हुए ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लिया। इससे तो यही लगता है कि वो बीजेपी को संकेत दे रहे हैं।’
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘शशि थरूर के बयान पर तो ये ही कहा जा सकता है कि बदले-बदले सरकार नजर आते हैं। थरूर एक राजनेता हैं और वो जो भी कुछ बोल रहे हैं, सोच समझकर बोल रहे हैं। ये उनकी कांग्रेस में अपने क़द को बढ़ाने या फिर बीजेपी के कऱीब जाने की नीति का हिस्सा हो सकता है।’
थरूर का ये बयान जहां बीजेपी के लिए कांग्रेस पर सवाल उठाने का मौक़ा है, वहीं कांग्रेस को एक बार फिर से अंदरूनी राजनीति को लेकर सवालों का सामना करना पड़ेगा।
केरल में यूडीएफ़ के संयोजक एमएम हसन ने केरल कांग्रेस के नेतृत्व को इस बयान से दूर करते हुए मीडिया को दिए बयान में कहा कि ये राष्ट्रीय नेतृत्व के दायरे में आता है।
केरल में अगले साल चुनाव
केरल में साल 2026 में विधानसभा चुनाव होने हैं। विश्लेषक मानते हैं कि शशि थरूर केरल में कांग्रेस का चेहरा बनना चाहते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं, ‘थरूर के बयान के पीछे राजनीतिक उद्देश्य नजर आ रहा है। वो सिर्फ विदेश नीति की तारीफ नहीं कर रहे हैं बल्कि ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ कर रहे हैं। इसका अलग मतलब निकाला जा सकता है। केरल में चुनाव आने वाले हैं। थरूर की ये महत्वाकांक्षा रही है कि कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करे, जिसकी चुनाव हो जाने से पहले संभावना नहीं है।’
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘थरूर ने ये भी कहा था कि अंदरूनी सर्वे में ये सामने आया है कि मैं मुख्यमंत्री पद के लिए मजबूत दावेदार हो सकता हूं। एक तरह से थरूर अपनी तारीफ स्वयं कर रहे हैं।’
शशि थरूर का लंबा राजनयिक करियर रहा है और वे साल 2009 से लगातार सांसद हैं। 2014 में जब बीजेपी की लहर थी, तब भी थरूर ऐसे चुनिंदा कांग्रेसी नेताओं में थे जिन्होंने अपनी सीट बचा ली थी। वे पिछली चार बार से लगातार अपनी सीट जीत रहे हैं।
विश्लेषक मानते हैं कि थरूर अपनी महत्वाकांक्षा ज़ाहिर कर रहे हैं, लेकिन उन्हें संभलकर चलना होगा।
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है कि थरूर एक चर्चित नेता हैं, करिश्माई नेता हैं और अगर कांग्रेस चुनाव जीतने पर उन्हें सीएम बनाती है, तो वो अच्छा विकल्प साबित हो सकते हैं। लेकिन केरल में कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व भी है, जो लंबे समय से कार्यरत हैं, मुझे लगता है कि जिस तरह की अंदरूनी राजनीति वो कर रहे हैं, वो ना ही कांग्रेस के लिए ठीक है और ना ही थरूर के लिए।’
क्या बीजेपी में थरूर के लिए जगह है?
विश्लेषक मानते हैं कि थरूर के बयान के दो स्पष्ट संकेत हैं- या तो वो पार्टी छोडऩे का मन बना चुके हैं या फिर कांग्रेस नेतृत्व पर अपना क़द बढ़ाने के लिए दबाव डाल रहे हैं।
लेकिन सवाल ये है कि क्या बीजेपी में उनके लिए जगह होगी। विनोद शर्मा को लगता है कि अगर थरूर बीजेपी के साथ जाते हैं तो ये बीजेपी के लिए फ़ायदे की बात होगी।
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘बीजेपी अगर उन्हें अपने साथ ले आती है तो उसे केरल में एक बड़ा चेहरा मिल जाएगा। बीजेपी को केरल में एक बड़े चेहरे की तलाश है। बीजेपी ने राजीव चंद्रशेखर को केरल में उतारा था, कई और चेहरों को सामने लाया गया लेकिन केरल में बीजेपी की एक करिश्माई चेहरे की तलाश अभी पूरी नहीं हुई है। अगर थरूर बीजेपी के साथ आते हैं तो राज्य में उसे बड़ा चेहरा मिल सकता है।’
लेकिन क्या बीजेपी थरूर का स्वागत करने के लिए तैयार है? बीबीसी के इस सवाल पर केरल बीजेपी के अध्यक्ष के सुरेंद्रन कहते हैं, ‘अभी ये अपरिपक्व सवाल है।’
हालांकि, सुरेंद्रन हंसते हुए ये ज़रूर कहते हैं, ‘ये थरूर पर निर्भर है कि वो क्या चाहते हैं, हम अभी से क्या कहें।’
-ध्रुव गुप्त
नन्हे पक्षी हमारी प्रकृति की सबसे मासूम रचना हैं और उनका कलरव सबसे खूबसूरत आवाज। मनुष्य और पक्षियों के बीच का रिश्ता हमेशा से बहुत गहरा रहा है। विश्व की लोकगाथाओं और काव्य ने इस खूबसूरत रिश्ते को अभिव्यक्ति दी है। पक्षियों से हमारी निकटता की एक बड़ी वजह उनकी आवाज की मधुरता के साथ उनमें हमारी तरह की सांगीतिक चेतना भी है। उनके गीत हमारे अपने गीतों के समानांतर संगीत का अलग संसार रचते रहे हैं। शोधकर्ताओं ने तमाम पक्षियों के गीतों का अध्ययन करने के बाद प्रकृति के दस सबसे बेहतरीन गायक पक्षियों की खोज की है जिनमें हमारी घरेलू गौरैया प्रमुख है। दुनिया के लगभग हर हिस्से में पाई जाने वाली यह गौरैया एक सामाजिक पक्षी है जो हमारे घरों में, हमारे बीच ही रहना पसंद करती है। वह घर से बाहर तक, आंगन से सडक़ तक और रिश्तों के बीच की खाली जगहों में हमारी नैसर्गिक मासूमियत का विस्तार है।
बेतरतीब शहरीकरण, अंध औद्योगीकरण और संचार क्रांति के इस दौर में गौरैया अब बहुत कम दिखती है। शायद इसीलिए घरों से वह नैसर्गिक संगीत लुप्त होता जा रहा है जो हमारे अहसास की जड़ों को सींचा करता था। कहते हैं कि गौरैया से खूबसूरत और मुखर आंखें किसी भी पक्षी की नहीं होती। जब कभी भी गौरैया की मासूम आंखों में झांककर देखता हूं, मुझे अपनी मरहूमा मां याद आती है। लगता है, देह बदल कर वह मेरे करीब ही है। जगाती हुई, सुलाती हुई, पुचकारती हुई और हिदायतें देती हुई। एक भरोसा जगाती हुई कि अगर देखने को दो गीली आंखें और महसूस करने को एक धडक़ता हुआ दिल है तो बहुत सारी निर्ममता और क्रूरताओं के बीच भी पृथ्वी पर हर कहीं मौजूद है मां, ममता, प्यार और भोलापन! ‘विश्व गौरैया दिवस’ की आप सबको बधाई। आईए गौरैया को बचाएं। पृथ्वी पर मासूमियत को बचाएं !
-डॉ.परिवेश मिश्रा
गोसाईं अपनी उत्पत्ति शंकराचार्य से मानते हैं जिन्होंने आठवीं और दसवीं शताब्दी के बीच के काल में शिव आराधना पद्धति को पुनर्जीवित किया था। शंकराचाdर्य के चार प्रमुख शिष्य थे जिनके माध्यम से गोसाईंयों के दस धार्मिक समूहों (या परिवारों) की उत्पत्ति हुई। इस तरह गोसाईं दस वर्गों में विभक्त हुए। सभी को एक अलग नाम दिया गया। शायद इन नामों का महत्व उस स्थान को दर्शाने के लिये था जहां इन समूहों के साधुओं और संन्यासियों से साधना की अपेक्षा थी। पहाड़ी के शिखर के नाम पर ‘गिरी’, शहर के नाम पर ‘पुरी’, और इसी तरह सागर, परबत, बन या वन, तीर्थ, भारती, सरस्वती, अरण्य (वन), और आश्रम नाम अस्तित्व में आए। आमतौर पर इन्हीं दस शब्दों का इस्तेमाल नाम के आगे ‘सरनेम’ के रूप में होने लगा। (हालाँकि वर्तमान काल में कई कारणों के चलते गोस्वामी शब्द भी सरनेम में जोड़ा जा रहा है)।
इन सब को अलग-अलग मठों/पीठों/मुख्यालयों के साथ संबद्ध किया गया। जैसे सरस्वती, भारती और पुरी को श्रृंगेरी (कर्नाटक) के साथ, तीर्थ और आश्रम को द्वारका, बन तथा अरण्य को पुरी, तथा गिरी, परबत, और सागर को बद्रीनाथ पीठ के साथ संबद्ध किया गया।
छत्तीसगढ़ में इनमें से तीन-गिरी, पुरी और भारती की संख्या सबसे अधिक है। सारंगढ़ के पास कोतरी गाँव के स्व. टेकचंद गिरी अपने इस समाज के स्वाभाविक, सर्वमान्य, लोकप्रिय और सक्रिय नेता थे। उनका निधन कुछ वर्ष पूर्व हुआ। हाल ही में टेकचंद गिरी जी की पत्नी, डमरूधर गिरी की भाभी, और गोपाल, केशव और कन्हैया की माँ श्रीमती आनन्द कुँवर गोस्वामी ने शरीर त्याग किया।
समाज की परम्परा के अनुसार उन्होंने समाधि ली। माना जाता है कि ‘मृत्यु’ के बाद शरीर/व्यक्ति/ आत्मा का शिव में विलय हो जाता है। समाधि के स्थान पर परम्परानुसार शिवलिंग की स्थापना की गई है।
कल चंदनपान (पगड़ी) और तेरहवीं का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। उससे एक दिन पूर्व चूल (चूल्हा) और ‘ताई’ (कड़ाही जैसा चौड़ा बर्तन) की पूजा पूरे विधि विधान से सम्पन्न की गयी। चूल और ताई के शुद्धिकरण के बाद मालपुए बनाए गये। एक समय था जब इसमें उपयोग होने वाले गेहूं को दूर दूर से आने वाले रिश्तेदार और समाज के सदस्य साथ लाया करते थे। अब इस प्रथा को व्यावहारिक बना दिया गया है। गेहूं को छू लेना पर्याप्त मान लिया जाता है। मालपुओं से मठों और मंदिरों में भोग लगाया जाता है। अगले दिन, अर्थात् तेरहवीं के भोज के अवसर पर मालपुआ प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।
छत्तीसगढ़ में लगभग दो या तीन पीढ़ी पहले तक इस समाज के अधिकांश पुरुष मंदिरों में पूजा-पाठ और प्रबंधन का कार्य करते थे। साथ में कृषि भी सम्मानजनक पैमाने पर की। समय के साथ परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ी और ये सरकारी तथा अन्य नौकरियों और व्यवसायों की ओर उन्मुख हुए।
परम्परा के अनुसार जब एक सामान्य हिंदू इनसे भेंट करता है तो अभिनन्दन के रूप में ‘नमो-नारायण’ कहता है। गोसाईं की ओर से जवाब में कहा जाता है ‘नारायण’। शिव के भक्त अभिनन्दन करते समय विष्णु को याद करें यह थोड़ा विस्मय पैदा करता है, पर ऐसा ही है। वहीं दूसरी तरफ़ पूर्व में कुम्भ के अवसरों पर यही बात शिवभक्त गोसाईंयों और विष्णुभक्त बैरागियों के बीच अनेक बार विवाद का विषय बन चुकी है। विवाद का एक आम कारण यह प्रश्न रहा है कि गंगा में पहले स्नान का अधिकार किसका है।
गोसाईं कहते हैं कि गंगा की उत्पत्ति शिव की जटाओं से हुई है, और बैरागी कहते हैं कि गंगा का स्रोत विष्णु के चरण हैं। दोनों के दावे मजबूत रहे। (संतोष की बात यह है कि हरिद्वार और प्रयाग में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी तक होने वाले खूनी संघर्षों का सिलसिला समय के साथ समाप्त होता गया।)
अंत में एक रोचक तथ्य-ऐतिहासिक रूप से गोसाईंयों ने अपने-आपको सिफऱ् धार्मिक परम्पराओं में बाँधकर नहीं रखा। एक समय वे सैनिक के रूप में भी जाने गए। इन सैनिक साधुओं में संभवत: सबसे मशहूर हैं जयपुर राज्य की सेनाओं की ओर से लडऩे वाले नागा गोसाईं। उनकी परंपरा के अनुसार उनके गुरु का आदेश था कि जब भी आवश्यकता पड़े वे जयपुर के राजा की ओर से युद्ध में भाग लें। इसके एवज में राज्य की ओर से उन्हें शुल्क-मुक्त भूमि के साथ-साथ दो पैसे प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान भी किया जाता था। इन पैसों को सामूहिक रूप से सुरक्षित रखा जाता था और इस का उपयोग समय पडऩे पर अस्त्र-शस्त्र खरीदने के लिए किया जाता था।
वर्तमान में कोतरी के शालीन और लोकप्रिय गिरी परिवार की तरह अधिकांश गोसाईं गृहस्थ हैं।
देश के अल्पसंख्यकों को लेकर एक ख़बर थी जिसमें पारसी शामिल हैं। उसी में उनके धर्म व कम होती जनसंख्या को लेकर कारण भी लिखे थे। पारसी धर्म को जानने में मुझे दिलचस्पी हुई और पढ़ा तो जाना कि वे पूरे विश्व में ही अब लगभग दो लाख के आस-पास बचे हैं। भारत में वे मुंबई और गुजरात में हैं, जितने भी हैं। उनके कम होते जाने के कई कारण ख़बर में थे, एक कि उनके कई बच्चों में एक-दो ही बच पाते हैं। दूसरा कि एक पारसी लडक़ी अगर किसी और धर्म में शादी करे तो वह पारसी नहीं रहेगी, अगर ग़ैर-पारसी लडक़ी किसी पारसी से शादी करे तो वो भी पारसी नहीं होगी। कोई भी ग़ैर-पारसी व्यक्ति पारसी धर्म को अपना नहीं सकता, जो हैं जितने हैं वही रहेंगे और उनका वंश।
और जानने पर पता चला कि जऱथुस्त्र ने इस धर्म की स्थापना की। इस नाम को मैंने ओशो के प्रवचनों में सुना और कई बार किताबों में पढ़ा है। ओशो ने अक्सर ही जऱथुस्त्र की प्रशंसा की है। वे मानते थे कि उनकी शिक्षा अधिकांशत: जऱथुस्त्र से मिलती है जिन्होंने जीवन के संगीत की बात की ना कि मृत्यु के बाद के किसी स्वर्ग और नर्क की। ये जऱथुस्त्र वही हैं जिन पर दार्शनिक नीत्शे ने किताब लिखी थी ‘दस स्पोक जऱथुस्त्र।’ वही नीत्शे जिन्होंने कहा था कि ईश्वर मर चुका है लेकिन ओशो की ही जऱथुस्त्र पर बोली गई श्रृंखला में है कि जऱथुस्त्र ने एक बार अपने गांव की ओर आते हुए कहा था कि ईश्वर मर चुका है। यहां लगा कि नीत्शे ने शायद जऱथुस्त्र के शब्द उधार लिए हैं जो बाद में उनके नाम से ही प्रचलित हो गए।
लेकिन, अगर ईश्वर मर ही चुका है तब अहुरमज्दा कौन थे जिनके ईश्वर होने का ऐलान जऱथुस्त्र ने सबके सामने किया था और स्वयं को उनका संदेशवाहक बताया। अहुरमज्दा की प्रतिमा पारसियों के पवित्र स्थल अग्यारी में रखी रहती है। पारसियों का एक धार्मिक ग्रन्थ भी है जिसका नाम है अवेस्ता जिसमें जऱथुस्त्र के संदेश हैं। कहा जाता है कि किताब के अधिकतर हिस्से अब विलुप्त हो चुके हैं बहुत कम ही हैं जो बाक़ी है। लेकिन इसकी समानता ऋग्वेद से है, उसमें लिखे शब्दों से भी। हालांकि पारसी धर्म एकेश्वरवादी है।
ओशो ने इस धर्म के अनुयायियों और शिक्षा की प्रशंसा की है कि वे दरअसल जि़ंदगी को जीना जानते हैं, उसके अस्तित्व के उत्सव को पहचानते हैं। इस सारी जानकारी के बाद लगा कि किसी पारसी से इस बारे में पूछना ठीक रहेगा लेकिन मैंने जिससे बात की, पता चला कि उनके पास अवेस्ता नहीं है, वे बहुत धार्मिक कर्मकांड में विश्वास भी नहीं करते, कभी-कभार ही अग्यारी जाते हैं और जऱथुस्त्र जिन्हें जोरास्टर भी कहते हैं- उनके बारे में बहुत कम ही मालूम है और चूंकि कई लोगों ने शादी दूसरे धर्म में की तो वे सब ग़ैर-पारसी हो चुके हैं तो बहुत सी परंपराएँ भी अब जा रही हैं। अग्यारी में ग़ैर पारसी नहीं जा सकते, वे पारसी भी नहीं जिन्होंने कहीं और शादी की। पारसी धर्म को मानने वाले बहुत कम बाक़ी हैं जिनमें से अधिकतर अविवाहित भी हैं लेकिन वे प्रकृति प्रेमी हैं, जीवन की समग्रता में विश्वास करते हैं। मृत्यु के बाद वहां शव को न जलाते हैं न दफऩाते हैं बल्कि चील और कौवे के लिए उसे टांग दिया जाता है। हालांकि इस धर्म के बारे में बहुत कुछ जानना शेष है और जऱथुस्त्र के बारे में भी जो नाचता गाता मसीहा था।
जऱथुस्त्र ज्ञान पाने के बाद संसार में लौट आए थे। ओशो कहते हैं कि इससे अधिक साहस का काम और दूसरा नहीं है।
बहरहाल, जब ये सब लिखना शुरू किया था तो पता नहीं था कि आज पारसी नववर्ष है - नवरोज़। जब नवरोज़ को गूगल किया तो पता चला कि ये तो संयोग से आज ही है। सभी पारसी दोस्तों को शुभकामना।
-सीटू तिवारी
चुनावी साल में बिहार कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह की छुट्टी कर दी गई है। उनकी जगह राजेश कुमार को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया है।
बिहार कांग्रेस में राजेश कुमार को मिलाकर कुल 42 प्रदेश अध्यक्ष हुए हैं।
राजेश, बिहार कांग्रेस के चौथे दलित अध्यक्ष हैं। इससे पहले 1977 में मुंगेरी लाल, 1985 में डुमर लाल बैठा और 2013 में अशोक चौधरी दलित अध्यक्ष बने थे।
बिहार कांग्रेस के नए अध्यक्ष राजेश कुमार ने मीडिया से बातचीत में कहा है कि राहुल गांधी ने उन्हें चुनकर बिहार में सामाजिक न्याय की विचारधारा शुरू कर दी है।
उन्होंने, ‘हम लोग बिहार में 23 फ़ीसदी की राजनीति करने जा रहे हैं। हमारा लक्ष्य दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण को साधना है। लेकिन इसके लिए जुनून के साथ काम करने की जरूरत है, जो हम करेंगें।’
इससे पहले राजेश कुमार की नियुक्ति के पत्र में कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने 18 मार्च को लिखा, ‘पार्टी अखिलेश प्रसाद सिंह के योगदान की सराहना करती है।’
दरअसल, इस साल की शुरुआत से ही सक्रिय दिख रही बिहार कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन तय माना जा रहा था।
साथ ही ये भी लगभग तय था कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व किसी दलित नेता के हाथ में ही बिहार कांग्रेस की कमान सौंपेगा।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पहले 18 जनवरी को पटना में आयोजित संविधान सुरक्षा सम्मेलन और फिर पाँच फऱवरी को दलित नेता जगलाल चौधरी की जयंती में शिरकत करके दलित वोटों की गोलबंदी का इरादा ज़ाहिर कर दिया था।
ऐसे में ये सवाल अहम है कि चुनावी वर्ष में बिहार कांग्रेस क्या बैक टू रूट्स मोड में है?
इस नेतृत्व परिवर्तन के मायने क्या हैं? साथ ही क्या अखिलेश प्रसाद सिंह की छुट्टी और महागठबंधन में कांग्रेस के 'ए' टीम बनने की तैयारी में कोई संबंध है?
कौन हैं राजेश कुमार?
राजेश कुमार, बिहार के औरंगाबाद जि़ले के कुटुंबा विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं।
वो साल 2015 और 2020 में इस सीट से जीते। कुटुंबा सीट 2008 में परिसीमन के बाद बनी थी और ये अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट है।
मूल रूप से औरंगाबाद के ओबरा के रहने वाले राजेश कुमार के पिता दिलकेश्वर राम भी कांग्रेस से 1980 और 1985 में विधायक रहे।
वो औरंगाबाद की देव सीट से विधायक थे। दिलकेश्वर राम, कांग्रेस सरकार में पशुपालन-मत्स्य मंत्री और स्वास्थय मंत्री भी बने थे।
56 साल के राजेश कुमार ने साल 2015 में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के बेटे और फिलहाल बिहार सरकार में मंत्री संतोष कुमार सुमन को हराया था।
साल 2020 में राजेश कुमार ने हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के ही श्रवण मांझी को हराया।
राजेश कुमार साल 2010-16 के बीच प्रदेश कांग्रेस कमिटी के महासचिव रहे।
वो पार्टी की अनुसूचित जाति-जनजाति प्रकोष्ठ के भी अध्यक्ष रहे। राजेश कुमार ने 1989 से संत कोलंबस कॉलेज हजारीबाग से ग्रैजुएशन किया था।
बिहार कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता राजेश राठौड़ कहते हैं, ‘राजेश कुमार के अध्यक्ष बनने से पार्टी कार्यकर्ताओं में ख़ुशी है और इसका लाभ पार्टी के साथ-साथ महागठबंधन को भी मिलेगा।’
बुरे दिनों के साथी हैं राजेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार और राजस्थान पत्रिका के बिहार ब्यूरो प्रमुख प्रियरंजन भारती कहते हैं, ‘राजेश कुमार कांग्रेस के बुरे दिनों के साथी है। इनका परिवार समर्पित कार्यकर्ता रहा है।’
‘वर्तमान में बिहार सरकार में मंत्री अशोक चौधरी जब कांग्रेस छोडक़र जा रहे थे, तो इन्होंने जेडीयू में ये कहकर जाने से इनकार कर दिया था कि सदाकत आश्रम (पार्टी दफ्तर) में झाडू लगा लूंगा लेकिन कांग्रेस छोडक़र नहीं जाऊंगा।’
औरंगाबाद से प्रकाशित अख़बार नवबिहार टाइम्स के संपादक कमल किशोर भी बताते हैं, ‘दिलकेश्वर राम इस इलाक़े के लोकप्रिय नेता थे। इसकी वजह थी कि उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य उप केन्द्र अच्छी संख्या में खुलवाए थे।’
‘राजेश कुमार भी शांत और सहज स्वभाव के हैं। अपनी इसी छवि और पिता की विरासत का फ़ायदा उन्हें मिला है।’
राजेश कुमार दलित हैं। बिहार में हुए जातीय सर्वे के मुताबिक़ रविदास जाति 5।25 फ़ीसदी है। राजेश कुमार इसी जाति से ताल्लुक रखते हैं। बिहार में दलितों की आबादी 19 फ़ीसदी है।
अभी अगर बिहार में तीन प्रमुख राजनीतिक दलों यानी बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी को देखें तो किसी भी पार्टी का अध्यक्ष दलित नहीं है।
किसी दलित को अध्यक्ष नियुक्त करना बिहार कांग्रेस के लिए ‘बैक टू रूट्स’ जैसा है। दरअसल, 90 तक बिहार में सत्तासीन रही कांग्रेस का वोट बैंक सवर्ण, मुस्लिम और दलित थे।
कांग्रेस ने जहां एक तरफ़ कन्हैया को सक्रिय कर सवर्णों को साधने की कोशिश की है, वहीं राजेश कुमार को लाकर दलित वोटों को।
अखिलेश प्रसाद सिंह की छुट्टी क्यों हुई?
दिसंबर 2022 में अखिलेश प्रसाद सिंह को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। उनसे पहले मदन मोहन झा कांग्रेस अध्यक्ष थे। कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष का कार्यकाल तीन साल का होता है।
इस हिसाब से अखिलेश प्रसाद सिंह का कार्यकाल दिसंबर 2025 में ख़त्म होना चाहिए। लेकिन, नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें बीती 18 जनवरी से ही लगने लगी थी।
इस वक्त राहुल गांधी संविधान सुरक्षा सम्मेलन में हिस्सा लेने पटना आए तो सदाकत आश्रम (पार्टी दफ्तर) में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की अच्छी संख्या में जुटान हुआ था। लेकिन, राहुल गांधी यहां महज़ आठ मिनट बोले।
इसके बाद चार फऱवरी को राहुल गांधी फिर पटना आए। लेकिन, राहुल गांधी के पटना आगमन के इन दोनों कार्यक्रम की जानकारी बिहार कांग्रेस को नहीं थी।
पार्टी को ये जानकारी आयोजकों से मिली। ऐसे में अखिलेश प्रसाद सिंह से राहुल गांधी की नाख़ुशी की अटकलें लगने लगी थीं।
इन अटकलों को मज़बूती तब मिली जब फऱवरी में कृष्णा अल्लवारू कांग्रेस प्रभारी बनाए गए और उन्होंने मार्च में कन्हैया के साथ बिहार में पदयात्रा का कार्यक्रम तय कर लिया।
16 मार्च को शुरू हुई पदयात्रा से पहले बीते 10 मार्च को पार्टी दफ्तर में हुई प्रेस कॉन्फ्ऱेंस में अखिलेश प्रसाद सिंह मौजूद नहीं थे।
इसके बाद 12 मार्च को दिल्ली में बिहार कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के साथ राहुल गांधी की बैठक भी टाल दी गई। पार्टी सूत्रों के मुताबिक़, केंद्रीय नेतृत्व किसी तरह की कलह को सतह पर आने नहीं देना चाहती थी।
क्या कन्हैया की एंट्री ने असहजता बढ़ा दी?
दरअसल, राज्यसभा सांसद अखिलेश प्रसाद सिंह की छवि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के कऱीबी होने की है।
कृष्णा अल्लवारू ने कांग्रेस प्रभारी बनने के बाद अन्य कांग्रेस प्रभारियों से अलग अब तक राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव या किसी अन्य नेता से मुलाक़ात नहीं की है।
साथ ही वो ये दोहराते रहे हैं कि वो कांग्रेस को बी टीम नहीं बल्कि ए टीम बनाना चाहते हैं।
जानकारों की मानें तो कृष्णा अल्लवारू के साथ अखिलेश प्रसाद सिंह पहले ही सहज महसूस नहीं कर रहे थे और कन्हैया को, ‘नौकरी दो पलायन रोको’ यात्रा का चेहरा बनने से इस असहजता को बढ़ा दिया है।
पत्रकार प्रियरंजन भारती कहते हैं, ‘कांग्रेस अब लालू की जेब में नहीं रहना चाहती, बल्कि अपने संगठन को मज़बूत करना चाहती है। इसलिए कांग्रेस तन कर खड़ी हो गई है।’
‘पार्टी ने राजेश कुमार को अध्यक्ष बनाकर दलित कार्ड खेला है, साथ ही सवर्णों को साधने की कोशिश की है। लालू यादव के प्रभाव में कन्हैया को पीछे धकेल दिया गया था, लेकिन पार्टी उसे फ्रंट में लाई है।’
‘ज़ाहिर तौर पर अखिलेश प्रसाद लालू यादव के कऱीबी रहे हैं, उनके रहते इस काम में मुश्किल आती।’
1990 के बाद कांग्रेस का पतन हुआ, वहीं दूसरी तरफ़ राजद की सत्ता में पकड़ मज़बूत होती गई।
पार्टी की हालत ये भी कि 1985 तक ही पार्टी की जीत का आंकड़ा तीन अंकों को छू पाया था। साल 2010 में जब पार्टी ने राजद से अकेले लड़ी तो पार्टी को मात्र चार सीट मिली थी। (bbc.com/hindi)
-दिव्या आर्य
वे चमत्कार करने का दावा करती हैं। उनके भक्त उन्हें देवी माँ मानते हैं। राधे माँ के नाम से मशहूर सुखविंदर कौर, उन कुछ महिलाओं में से एक हैं जो भारत में फैलते बाबाओं के संसार में जगह बना पाई हैं। भक्ति, भय, अंधविश्वास और रहस्य की इस दुनिया तक पहुँच हासिल करना मुश्किल है। बीबीसी राधे माँ की इसी दुनिया में दाखिल हुआ और इसकी परत दर परत खोली।
लूई वित्ताँ और गूच्ची जैसी महँगी ग्लोबल ब्रैंड के पर्स हाथ में लिए, सोने और हीरे से जड़े ज़ेवर और फ़ैशनबेल लिबास पहने महिलाएँ इक_ा हो रही हैं।
ये राधे माँ की भक्त हैं। दिल्ली में करीब आधी रात को शुरू होने वाले उनके दर्शन के लिए आई हैं।
खुद को ‘चमत्कारी माता’ बुलाने वालीं राधे माँ को संतों जैसा सादा जीवन पसंद नहीं। न उनकी वेषभूषा साधारण है, न वे लंबे प्रवचन देती हैं। न ही सुबह के वक्त भक्तों से मिलती हैं।
बीबीसी से जब उनकी मुलाकात हुई तो बिना लाग लपेट बोलीं, ‘यही सच है कि चमत्कार को नमस्कार है। वैसे बंदा एक रुपया भी नहीं चढ़ाता। उनके साथ मिरेकल होते हैं। उनके काम होते हैं तो वे चढ़ाते हैं।’
इन ‘चमत्कारों’ की कई कहानियाँ हैं। उनके भक्त दावा करते हैं कि उनके आशीर्वाद से जिनके बच्चे नहीं हो रहे, उन्हें बच्चे हो जाते हैं। जिन्हें सिर्फ बेटियाँ पैदा हो रही हों, उन्हें बेटा हो जाता है। जिनका व्यापार डूब रहा हो, उन्हें मुनाफ़ा होने लगता है। बीमार लोग स्वस्थ हो जाते हैं।
‘भगवान रूपी’ होने और चमत्कार करने का दावा सिर्फ राधे माँ के ही नहीं हैं। भारत में ऐसे कई स्वघोषित बाबा हैं। इनकी तादाद दिनोंदिन बढ़ ही रही है।
कुछ पर भ्रष्टाचार से यौन हिंसा तक कई आरोप भी लगे हैं। राधे माँ पर भी ‘काला जादू’ करने और एक परिवार को दहेज़ लेने के लिए उकसाने के आरोप लगे। हालाँकि, पुलिस तहक़ीक़ात के बाद सभी अदालत में ख़ारिज हो गए।
इसके बाद भी हज़ारों लोग इन बाबाओं और देवियों को देखने के लिए आते हैं। साल 2024 में हाथरस में ऐसे ही एक बाबा के सत्संग में मची भगदड़ में एक सौ बीस से ज़्यादा लोगों की जान चली गई।
अखिल भारतीय अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक, प्रोफ़ेसर श्याम मानव से हमारी मुलाक़ात नागपुर में हुई। वह कहते हैं, ‘ज़्यादातर भारतीय परिवारों में ये सामान्य संस्कार है कि जीवन का उद्देश्य ही भगवान की प्राप्ति है। इसके लिए अगर ध्यान, प्रार्थना, भजन-कीर्तन किया जाए तो सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं। सिद्धियाँ प्राप्त करनेवाले बाबा या देवी को लोग भगवान का रूप मानने लगते हैं जो चमत्कार कर सकते हैं।’
कौन हैं राधे माँ के भक्त?
आम धारणा है कि गऱीब या जो लोग पढ़-लिख नहीं सकते, वे ऐसी सोच से ज़्यादा प्रभावित होते हैं लेकिन राधे माँ के कई भक्त धनी और पढ़े-लिखे परिवारों से आते हैं।
मेरी मुलाक़ात ऑक्सफर्ड़ यूनीवर्सिटी के सैद बिजऩेस स्कूल से पढ़ाई करने वाले एक एजुकेशन कंसलटेंसी चलाने वाले पुष्पिंदर भाटिया से हुई। वे भी उस रात उन महिलाओं के साथ दर्शन के लिए क़तार में थे।
उन्होंने मुझे कहा कि ‘दैवीय शक्तियों के मानव रूप’ की भक्ति करने के बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा था।
पुष्पिंदर ने बताया, ‘शुरुआत में मन में सवाल थे, ‘क्या भगवान मानव रूप में आते हैं? क्या ये सच है? क्या वे ऐसे आशीर्वाद देती हैं कि आपकी जि़ंदगी बदल जाए? ये तथाकथित चमत्कार कैसे होते हैं?’
पुष्पिंदर भाटिया राधे माँ के संपर्क में उस वक़्त आए जब उनका परिवार एक बड़ी दुखद घटना से जूझ रहा था। कई लोग कहेंगे कि इस वजह से वे कमज़ोर रहे होंगे या उनको बहलाया जा सकता होगा। लेकिन वे बताते हैं कि उस वक्त राधे माँ की बातों से उन्हें लगा कि वे सचमुच उनकी परवाह करती हैं।
उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है, पहले ही दर्शन में उनके आभामंडल ने मुझे आकर्षित किया। मेरे ख़्याल से जब आप उनके मनुष्य रूप से आगे बढक़र उन्हें देखते हैं, तब फ़ौरन जुड़ाव महसूस करते हैं।’
भक्तों के लिए राधे माँ के दर्शन पाना बहुमूल्य है। हमें दिल्ली में आधी रात को एक निजी घर में हुए ऐसे ही एक दर्शन में मौजूद रहने का मौक़ा हासिल किया।
वहाँ जुटे सैकड़ों भक्तों में एक बड़े व्यापारी और एक वरिष्ठ पुलिस अफ़सर भी थे। ये अपने परिवार के साथ दूसरे शहर से हवाई यात्रा कर ख़ास उनके दर्शन के लिए आए थे।
मैं वहाँ पत्रकार की हैसियत से सब देखने-समझने गई थी। मुझसे कहा गया कि पहले दर्शन करने होंगे। फिर एक लंबी क़तार के आगे खड़ा कर दिया गया। इसके बाद बताया गया कि कैसे प्रार्थना करनी होगी। चेतावनी दी गई कि अगर प्रार्थना नहीं की तो मेरे परिवार पर कितनी विपदा आ सकती है।
राधे माँ के पसंदीदा लाल और सुनहरे रंगों से सजे उस कमरे में सब कुछ मानो उनकी आँखों के इशारे पर हो रहा था।
एक पल में ख़ुश। एक पल में नाराज़... और वह ग़ुस्सा न जाने कैसे उनकी भक्त में चला गया। पूरा कमरा शांत हो गया। उस भक्त का सर और शरीर तेज़ी से हिलने लगा। वे ज़मीन पर लोटने लगीं।
भक्तों ने राधे माँ से ग़ुस्सा छोड़ माफ़ करने को कहा। कुछ ही मिनट बाद, बॉलीवुड का गाना बजाया गया। राधे माँ नाचने लगीं। रात की रौनक लौट आई।
भक्तों की लाइन फिर चलने लगी।
पंजाब से मुंबई का सफऱ कैसे तय किया
राधे माँ पंजाब के गुरुदासपुर जि़ले के एक छोटे से गाँव दोरांग्ला के मध्यम-वर्गीय परिवार में पैदा हुईं। उनके माँ-बाप ने उनका नाम सुखविंदर कौर रखा।
सुखविंदर कौर की बहन रजिंदर कौर ने मुझे बताया, ‘जैसे बच्चे बोल देते हैं, मैं पायलट बनूँगा, मैं डॉक्टर बनूँगा, देवी माँ जी बोलते थे: मैं कौन हूँ? तो पिता जी उन्हें एक सौ पैंतीस साल के एक गुरु जी के पास ले गए। उन्होंने बोला कि ये बच्ची एकदम भगवती का स्वरूप है।’
बीस साल की उम्र में सुखविंदर कौर की शादी मोहन सिंह से हुई। इसके बाद वे मुकेरियाँ शहर में रहने लगीं। उनके पति विदेश कमाने के लिए चले गए।
राधे माँ के मुताबिक, ‘इस बीच मैंने साधना की। मुझे देवी माँ के दर्शन हुए। इसके बाद मेरी प्रसिद्धि हो गई।’
अब रजिंदर कौर मुकेरियाँ में ही राधे माँ के नाम पर बने एक मंदिर की देखरेख कर रही हैं। ये मंदिर राधे माँ के पति मोहन सिंह ने बनवाया है।
रजिंदर कौर के मुताबिक, ‘हम उन्हें ‘डैडी’ बुलाते हैं। वे हमारी माँ हैं तो वे हमारे पिता हुए।’
जब राधे माँ के पति विदेश में, तब वे अपने दोनों बेटों को अपनी बहन के पास छोडक़र ख़ुद भक्तों के घरों में रहने लगीं। ज़्यादातर भक्त व्यापारी परिवारों से थे।
एक शहर से दूसरे शहर होते हुए वे मुंबई पहँचीं। यहाँ वे एक दशक से ज़्यादा एक व्यापारी परिवार के साथ रहीं। इसके बाद अपने बेटों के साथ रहने लगीं।
जिन लोगों के घर में राधे माँ रहीं, वे उनके सबसे मुखर भक्त हैं। वे दावा करते हैं कि उनके घर में देवी माँ के ‘चरण पडऩे’ की वजह से ही उनके घर समृद्धि आई।
देवी की सांसारिक दुनिया
राधे माँ की दुनिया अजीब है। इसमें दिव्यता के साथ-साथ सांसारिक चीज़ों और रिश्ते-नातों का तानाबाना है।
वे अपने व्यापारी बेटों की बनाई बड़ी हवेली में रहती हैं। बेटों की शादियाँ भी उन बड़े व्यवसायी परिवारों में हुई हैं जो राधे माँ के सबसे कऱीबी भक्त हैं।
बाकि परिवार से अलग, राधे माँ हवेली की एक अलग मंजि़ल पर रहती हैं। वहाँ से वह तभी बाहर निकलती हैं जब दर्शन देने हों या किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए हवाई जहाज़ से दूसरे शहर जाना हो।
राधे माँ के सभी सार्वजनिक कार्यक्रम उनकी बड़ी बहू मेघा सिंह संभालती हैं। मेघा के मुताबिक, ‘वे हमारे साथ नहीं रहतीं। हम धन्य हैं कि हम उनकी कृपा से उनकी शरण में रह रहे हैं।’
राधे माँ के नाम पर आने वाले दान का हिसाब-किताब उनके परिवार के लोग और कऱीबी भक्त रखते हैं।
मेघा कहती हैं, ‘राधे माँ के दिशा-निर्देश पर उनके भक्तों ने एक सोसाइटी बनाई है। ज़रूरतमंद आवेदन देते हैं। आवेदक की पूरी जाँच कर उनकी मदद की जाती है। राधे माँ ख़ुद सब सांसारिक चीजों से परे हैं।’ हालाँकि राधे माँ को तडक़-भडक़ वाले कपड़े और ज़ेवर पसंद हैं।
बीबीसी से बातचीत में राधे माँ ने कहा, ‘किसी भी शादीशुदा महिला की तरह मुझे अच्छे कपड़े और लाल लिपस्टिक लगाना अच्छा लगता है। पर मुझे मेकअप नहीं पसंद।’ हालाँकि, हमने उनके साथ जितना वक्त बिताया, उस दौरान वे मेकअप में ही थीं।
मेघा कहती हैं, ‘आप हमेशा अपने भगवान की मूर्ति के लिए सबसे सुंदर वेशभूषा लाते हैं। तो जीती-जागती देवी के लिए क्यों नहीं? हम ख़ुशकिस्मत हैं कि वे हैं और हम उनकी सेवा कर पा रहे हैं।’
साल 2020 में राधे माँ अपने वही लाल लिबास और हाथ में त्रिशूल के साथ रियलिटी टीवी शो बिग बॉस के सेट पर आईं और बिग बॉस के घर को अपना आशीर्वाद दिया।
उनकी आज की छवि, उनके पुराने रूप से एकदम अलग है। जब मैं पंजाब गई और उनके भक्तों से मिलीं तो उनमें से कई ने मुझे पुरानी तस्वीरें दिखाईं।
चमत्कार के दावे और उनका ‘सच’
मुकेरियाँ में रहने वालीं संतोष कुमारी ने अपने घर के मंदिर में भगवान शिव और पार्वती की तस्वीरों के साथ ही राधे माँ की तस्वीरें रखी हैं।
उन्होंने मुझे बताया कि दिल का दौरा पडऩे के बाद जब उनके पति अस्पताल में थे तब वह राधे माँ से आशीर्वाद लेने गईं। उसके बाद उनके पति की तबीयत जल्दी ठीक हो गई। इससे उनकी श्रद्धा हो गई।
संतोष कुमारी ने कहा, ‘मैं आज सुहागन हूँ तो वह देवी माँ की देन है। उनके मुँह से ख़ून आया था।
उन्होंने उससे मेरी माँग भरी। टीका लगाया और कहा, जा... कुछ नहीं होगा। तेरा पति ठीक हो जाएगा।’
मुझे हैरानी हुई पर कई भक्तों ने राधे माँ की दैवीय शक्तियों की वजह से उनके मुँह से ख़ून आने का दावा किया, जो उनके मुताबिक उनकी ख़ास शक्तियों की वजह से हुआ।
श्री राधे माँ चैरिटेबल सोसायटी हर महीने संतोष कुमारी समेत कऱीब पाँच सौ महिलाओं को एक से दो हज़ार रुपए पेंशन देती है। इनमें से ज़्यादातर विधवा या एकल महिलाएँ हैं।
पेंशन पाने वाली इन भक्तों ने चमत्कार की कई कहानियाँ बताईं लेकिन उनमें भय का जि़क्र भी था।
सुरजीत कौर ने कहा, ‘हम उनके बारे में कुछ नहीं बोल सकते। मेरा नुक़सान हो जाएगा। मैं जोत ना जलाऊँ तो मेरा नुक़सान हो जाता है। मैं बीमार पड़ जाती हूँ।’
राधे माँ की कृपा बनी रहे इसके लिए सुरजीत रोज़ उनकी तस्वीर के आगे दिया जलाती हैं।
प्रोफ़ेसर मानव के मुताबिक ऐसा इसलिए है कि भक्तों को डर होता है कि कहीं देवी माँ को उनकी भक्ति कमज़ोर न लगने लगे।
उन्होंने कहा, ‘लॉ ऑफ प्रोबेबिलिटी के कारण जो भविष्यवाणी सच होती है,
उसका क्रेडिट बाबाओं को मिलता है। लेकिन जो सच नहीं होती है, उसका डिसक्रेडिट बाबा तक नहीं जाता है। भक्त ख़ुद पर दोष देने लगते हैं कि हमारी भक्ति में कमी रह गई या फिर मेरा नसीब ही ऐसा है। बाबा का हाथ सर से चला जाएगा। बाबा के प्रिय लोगों में से मैं बाहर हो जाऊँगा/ हो जाऊँगी, ये भी डर होता है।’
राधे माँ के सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनके चमत्कार के दावों को बेबुनियाद बताने वाले भी कई थे।
दिल्ली के एक कार्यक्रम में मिली एक महिला ने इन दावों को ‘मनगढ़ंत कहानियाँ’ बताया। दूसरे ने कहा कि उन्होंने कोई चमत्कार अपनी आँखों से नहीं देखा। मेकअप करने और महँगे कपड़े पहनने से व्यक्ति भगवान नहीं बन जाता।
ये फिर भी राधे माँ के कार्यक्रम में आए थे। उन्होंने कहा कि रियलिटी टीवी शो में देखने के बाद असल जि़ंदगी में राधे माँ को देखने की उत्सुकता थी।
भक्ति और भय
इस पड़ताल के दौरान मुझे कुछ ऐसे लोग भी मिले जो पहले राधे माँ के भक्त थे पर जिन्होंने बताया कि उनके मामले में राधे माँ के ‘चमत्कार’ या ‘आशीर्वाद’ काम नहीं आए। इसके उलट उन्हें नुक़सान हुआ। हालाँकि, उनमें से कोई भी अपनी पहचान जाहिर करने को तैयार नहीं थे।
इस सबने राधे माँ के उन भक्तों के बारे में मेरी जिज्ञासा और बढ़ाई जिन्हें उनकी दैवीय शक्तियों पर विश्वास है और जो उनकी सेवा करने को तैयार हैं।
एक शाम तो मैं दंग रह गई। राधे माँ ने अपने कमरे में ज़मीन पर बैठे अपने सबसे कऱीबी भक्तों को जानवरों की आवाज़ निकालने को कहा और वे मान गए।
राधे माँ ने उन्हें कुत्तों और बंदरों की तरह बर्ताव करने को कहा। उन्होंने भौंकने, चिल्लाने की आवाज़ें निकालीं और खुजली करने का अभिनय किया।
मैंने ऐसा कभी नहीं देखा था।
राधे माँ की बहू मेघा सिंह भी उस कमरे में थीं। मैंने उनसे भक्तों के इस बर्ताव की वजह पूछी।
वे बिल्कुल हैरान नहीं हुईं।
उन्होंने बताया कि पिछले तीन दशक से दर्शन देने के अलावा राधे माँ अपने कमरे ही बंद रहती हैं।
मेघा ने कहा, ‘तो उनके पास मनोरंजन का ये एकमात्र ज़रिया है। हम ये सब एक्शंस कर या चुटकुले सुना कर, कोशिश करते हैं कि वे हँसें, मुस्कुराएँ।’
इस जवाब ने मुझे उस चेतावनी की याद दिलाई जो मुझे बार-बार दी गई थी- भक्तों को पूरी श्रद्धा रखनी ज़रूरी है।
जैसे, जब मैंने पुष्पिंदर सिंह से पूछा कि राधे माँ अपने भक्तों से क्या माँगती हैं?
उन्होंने कहा, ‘कुछ नहीं। वह बस कहती हैं, ‘जब मेरे पास आओ तो दिल और दिमाग़ खोलकर आओ’। मैंने देखा भी है कि लोग, चाहे नए हों या पुराने, जब वे इस सोच के साथ आते हैं, वे उनके लिए चमत्कार करती हैं। अगर आप उनकी परीक्षा लेने जाएँगे तो आप उस संगत का हिस्सा नहीं रहेंगे।’
इन सबका मतलब था कि भक्ति पूरा समर्पण माँगती है। ‘भगवान की प्राप्ति’ के लिए सब तर्क त्यागना होता है।
प्रोफ़ेसर मानव के मुताबिक बिना कोई सवाल पूछे पूर्ण श्रद्धा रखना ही लोगों को ‘अंधविश्वासी’ बना देता है।
उन्होंने कहा, ‘हमें कहा जाता है कि उसी को ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है जो अपने गुरु पर अडिग श्रद्धा रखता है। जो भी शंका करेगा, जाँचने की कोशिश करेगा, वह अपनी श्रद्धा गँवा बैठेगा।’
अंधविश्वास कहें या भक्ति, राधे माँ को यक़ीन है कि उनके भक्त उनके साथ रहेंगे। जिन्हें उनके चमत्कारों पर यकीन नहीं, या उन्हें ढोंगी मानते हैं, राधे माँ को उनकी फि़क्र नहीं।
राधे माँ मुस्कुराते हुए कहती हैं, ‘आई डोंट केयर... क्योंकि ऊपरवाला मेरे साथ है, सब देख रहा है।’
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित) (bbc.com/hindi)
-मुहम्मद हनीफ
बलूचिस्तान में एक ट्रेन का अपहरण हुआ, अभी मृतकों की गिनती पूरी नहीं हुई थी, शव अभी घरों तक नहीं पहुंचे थे। जिन लोगों के सदस्य उस ट्रेन में थे।
वे अभी दुआऐं कर रहे थे, फ़ोन कर रहे थे। और शोर मच गया। कि हे पंजाबियों, तुम्हारे मजदूर भाइयों को बलूच विद्रोहियों ने मार डाला है। आप आलोचना क्यों नहीं करते? कहां है आपकी पंजाबी गैरत? गालियाँ क्यों नहीं देते इन बलूचों को? और नारे क्यों नहीं लगाते अपने फौजी भाइयों के लिए?
और सबसे पहले संवेदना व्यक्त करनी चाहिए।
जिनकी जानें गयी हैं उनके लिए दुआ और जो खुद बच गए हैं लेकिन अपने शरीर के कुछ हिस्से खो चुके हैं, उनके लिए धैर्य की प्रार्थना।
सरकार कहती है कि ‘अब हम किसी को नहीं छोड़ेंगे, उनके लिए भी प्रार्थना।’
हकूमत का कहती है कि हमने बख़्तरबंद गाडिय़ां (एपीसी) बुलानी हैं। तो एपीसी के लिए भी दुआ है।
अब, हमें कोई इतना बता दे कि बलूच विद्रोही जो बसें रोकते हैं, ट्रेनें हाईजैक करते हैं और पहचान पत्र चेक करके हमारे लोगों को मारते हैं, यह आए कहां से हैं?
ये आक्रमणकारी बलूच आए कहाँ से हैं?
सरकार के पास सीधा सा जवाब है । वह कहती हैं कि ये भारत के, अफगानिस्तान के और न जाने किन-किन देशों के एजेंट हैं।
भारत की बात तो समझ आती है कि वह हमारा पुराना दुश्मन है और वह करेगा ही ।
अफग़ानिस्तान तो हमारा मुस्लिम भाई था। हमने कितने युद्ध उनके साथ मिलकर लड़े हैं और जीते भी हैं।
और उन्होंने अब बलूचिस्तान में हमारे साथ ऐसा क्यों किया। बलूचिस्तान में हाइजैक होने वाली ट्रेन में जो लोग मारे गए हैं, वे वास्तव में मजदूरी करने वाले लोग थे ।
जिन्होंने पहाड़ से उतर कर मारा है , वे मारने और मरने के लिए आए थे। उन्हें आतंकवादी कहना है तो कह लीजिये। आलोचना करनी हो तो कर लो। ऑपरेशन पर ऑपरेशन लॉन्च करते जायो।
लेकिन ये जो लडक़े पहाड़ों से आए थे, ये पहले यहाँ हमारे ही स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ते थे। बलूचिस्तान की यह नयी बगावत लगभग 25 वर्ष पहले शुरू हुई थी।
बल्कि, सच तो यह है कि तब जनरल मुशर्रफ ने बलूच बुजुर्ग अकबर बुगती को रॉकेट लॉन्चर हमले में मारकर इसकी शुरुआत खुद की थी। और साथ ही सीने पर हाथ मारते हुए यह भी कहा था कि - देय विल नॉट नाउ व्हाट हिट देम ।
अब, पच्चीस साल बाद, यह प्रश्न कुछ घिसा-पिटा सा हो गया है और हम एक-दूसरे से पूछ रहे हैं - व्हाट जस्ट हिट अस?
मैंने बलूचिस्तान के कई दोस्तों को देखा है, उनका बेटा थोड़ा बड़ा हो जाता है, कॉलेज की उम्र का हो जाता है, तो वे अपने बेटे को या तो पंजाब या सिंध के कॉलेज में भेज देते हैं।
मैंने पूछा ‘क्यों’?
उन्होंने कहा, 'यहां बलूचिस्तान में लडक़ा कॉलेज जाएगा और सियासी हो जाएगा और उसे उठा लिया जाएगा ।' अगर सियासी न भी हुआ, किसी राजनेता के साथ बैठकर चाय पी ली, फिर भी उठा लिया जाएगा । 'अगर वह कुछ भी न करे, लाइब्रेरी में, हॉस्टल के कमरे में अकेले बैठकर बलोची भाषा की किताब पढ़ रहा होगा तो भी उठाया जाएगा।' इसलिए उसे पंजाब भेज दिया जाता है , ताकि हमारा बेटा उठाया न जाए।'
‘अगर आप बलूच हैं, तो संभावना है कि आपको एक दिन उठा लिया जाएगा।’
फिर पिछले सालों में बलूच तालिबान पंजाब से भी उठाये जाने लगे हैं ।
यह पूरी नस्ल, जो पहाड़ों पर चढ़ी है, यह हमने अपने हाथों से तैयार की है। अगर लडक़ों को कम उम्र में ही समझा दिया जाए कि चाहे आप कितने भी गैर-राजनीतिक हों, चाहे कितने भी पढ़े-लिखे हों, चाहे पाकिस्तान जिंदाबाद के कितने भी नारे लगा लें, अगर आप बलूच हैं, तो संभावना यही है कि एक दिन आपको उठा लिया जाएगा।
और फिर सारी जिंदगी आपकी माताओं, आपकी बहनों को आपकी फोटो लेकर विरोध प्रदर्शनों के कैंपों में बैठे रहना है। और उनकी भी किसी ने नहीं सुननी।
पहाड़ों का रास्ता हमने खुद दिखाया है। बाकी ज़हर भरने के लिए हमारे पास पहले से ही दुश्मनों की कमी नहीं है ।
कभी धरती पर कान लगाकर उसकी बात भी सुनो
ऊपर से वे शोर भी मचाते हैं, इस धरती पर बैठे जो लोग आलोचना नहीं करते, वे भी आतंकवादी हैं।
धरती के साथ इतना प्रेम है कि इसके लिए अपनी जान देने को भी तैयार हैं और जान लेने को भी।
लेकिन कभी-कभी यह भी सोचना चाहिए कि जो चीजें पच्चीस साल पहले कभी तुरबत में, कभी बोलान की बैठकों में होती थीं, वे बातें अब लायलपुर और बुरेला में क्यों शुरू हो गई हैं ।
यदि धरती के साथ इतना ही प्यार है तो कभी-कभी धरती पर कान लगाकर यह भी सुनना चाहिए कि धरती कह क्या रही है ।
मोहम्मद हनीफ का व्लॉग (bbc.com/hindi)
-डॉ. संजय शुक्ला
सोमवार को सोशल मीडिया पर नागपुर मे औरंगजेब का पुतला जलाए जाने की घटना का वीडियो वायरल होने के बाद शहर में जमकर पथराव और आगजनी की घटना घटित हुई है। खबरों के मुताबिक वीडियो वायरल होने के बाद अल्पसंख्यक समुदाय के लोग चौराहे पर जमा हो गए तथा धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाते हुए दूसरे समुदाय के घरों और वाहनों पर पथराव और आगजनी करने लगे। इसके पहले हिन्दूवादी संगठनों ने छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रतिमा के सामने से औरंगजेब की कब्र हटाने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया था तथा पुतला जलाया था। इस घटना में दोनों समुदायों के लोगों के बीच जमकर नारेबाजी और टकराव हुआ फलस्वरूप दोनों पक्षों के घरों और वाहनों को नुकसान पहुंचा है। अलबत्ता यह पहली मर्तबा नहीं है जब सोशल मीडिया में किसी मामले की खबर, तस्वीर या वीडियो वायरल होने के बाद देश में सांप्रदायिक और जातिवादी दंगे भडक़े हों इसके पहले भी दर्जनों उदाहरण हैं जिसमें सांप्रदायिक दंगों और हिंसा का मुख्य वजह सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्रियां थी। शायद! इसीलिए वल्र्ड वाइड वेब ‘डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू.’ के अविष्कारक टिम बर्नर्स ने कोफ्त और निराशा में कहा था कि ‘इंटरनेट अब नफरत फैलाने वालों का अड्डा बनते जा रहा है।’ दूसरी ओर सोशल मीडिया से जुड़े एक शीर्षस्थ अधिकारी कि मानें तो यह मीडिया किसी सुचारू ढंग से चल रहे लोकतांत्रिक ढांचे को बहुत हद तक नुकसान पहुंचा सकता है। वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक परिवेश पर गौर करें तो उक्त दोनों बातें सही साबित हो रहीं हैं।
हाल ही में उत्तरप्रदेश के संभल के सीओ अनुज चौधरी के होली के दिन रमजान के जुमे को लेकर दिए गए बयान ने भी सियासत और सोशल मीडिया पर जमकर खलबली मचाई थी उससे पूरे देश की निगाहें संभल की ओर लगी हुई थी। विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अनुज चौधरी के बयान के पक्ष और विरोध में शेयर किए जा रहे पोस्ट, वीडियो और रील्स ने सांप्रदायिक नफरत की आग को काफी तेज कर दिया था। सरकार और प्रशासन के पुख्ता इंतजाम और तमाम आशंकाओं के बीच संभल सहित देश में छिटपुट झड़पों के खबरों को छोड़ दें तो आमतौर पर होली और रमजान का जुमा शांतिपूर्ण ढंग से निबट गया। देश के अनेक हिस्सों से जहां होलियारों द्वारा नमाजियों पर फूल बरसाने तथा मुस्लिम समुदाय द्वारा होली मना रहे लोगों के लिए नाश्ते और शरबत की व्यवस्था करने की खबरें भी आई जो काफी सुकूनदायक रहा।
गौरतलब है कि इंटरनेट क्रांति के वर्तमान दौर में सोशल मीडिया आज आम लोगों के जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है। आमतौर पर किशोर से लेकर बुजुर्ग और युवा से लेकर महिलाएं किसी न किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से जुड़े हुए हैं और इसमें वे घंटों एक्टिव रहते हैं। शुरुआत में जब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का आगाज हुआ तब इसे आम आदमी का संसद कहा गया जो आम आदमी के विचारों को कुछ ही पलों में देश और दुनिया के हजारों-लाखों लोगों तक पहुंचाने की ताकत रखता है। विडंबना यह कि अब यही माध्यम सरकार और समाज के सामने नित नई चुनौती बन कर उभर रहा है। देश में घटित कुछ आतंकवादी और सांप्रदायिक हिंसा में इंटरनेट व सोशल मीडिया की भडक़ाऊ कार्रवाई ने सरकार और प्रशासन को इंटरनेट पाबंदी के लिए विवश कर दिया। नागपुर और संभल सहित अन्य मामलों पर गौर करें तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत सोशल मीडिया ग्रुप और यूजर्स देश और समाज के सांप्रदायिक समरसता और सौहार्द्र को छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं । नफऱत फैलाने के इस मुहिम को सियासतदानों के साथ ही हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग खूब हवा दे रहे हैं तथा लगातार भडक़ाऊ विडियो और आपत्तिजनक पोस्ट शेयर करते रहते हैं।
अलबत्ता यह कोई पहली मर्तबा नहीं है जब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किसी धर्म, जाति, राजनीतिक दल, राजनेता अथवा महापुरुष के बारे में भडक़ाऊ, अश्लील, झूठे, अपमानजनक वीडियो, रील्स और पोस्ट शेयर किए गए हों बल्कि अब तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पूरी तरह से वैचारिक प्रदूषण और नफऱत फैलाने का माध्यम बन चुका है। दरअसल सोशल मीडिया में नफरती और मर्यादाहीन वीडियो और पोस्ट के पीछे बुनियादी कारण देश में जारी धार्मिक और राजनीतिक असहिष्णुता है जिसके चलते धार्मिक संगठनों और राजनीतिक दलों से जुड़े लोग इस माध्यम में जहर उगल रहे हैं। इन्हीं विसंगतियों के चलते अब यह माध्यम बड़ी तेजी से अपनी प्रासंगिकता खोने लगा है। भारत जैसे देश में जहां डिजिटल साक्षरता कम है वहां विभिन्न कट्टरपंथी धार्मिक और जातिवादी संगठनों के लिए सोशल मीडिया लोगों को भडक़ाने और झूठी खबरें परोसने का हथियार बनते जा रहा है।
विचारणीय यह कि इन कट्टरपंथियों के सॉफ्ट टारगेट में युवा वर्ग हैं और वे सोशल मीडिया के जरिए इन युवाओं का ब्रेन वाश कर रहे हैं। भारत युवा आबादी के लिहाज से दुनिया का सबसे युवा देश है जिन पर देश का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास निर्भर है। विडंबना है कि हमारे युवा जो किसी भी धर्म और जाति के हैं वे सोशल मीडिया पर नवाचार और साकारात्मक पोस्ट शेयर करने की जगह धार्मिक, मजहबी और जातिवादी उन्माद को बढ़ावा देने वाले विचारों को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दलों और राजनेताओं के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपने राजनीतिक और चुनावी एजेंडा परोसने का अमोघ हथियार बन चुका है। हाल के वर्षों में देश की राजनीति और चुनाव में सोशल मीडिया ने खासकर युवाओं और महिलाओं को काफी प्रभावित किया है। सोशल मीडिया के इस ताकत के चलते अमूमन सभी राजनेताओं के जहां सोशल मीडिया पेज हैं वहीं राजनीतिक दलों के आईटी सेल हैं जो अपने राजनीतिक एजेंडे को लोगों तक पहुंचा रहे हैं।
देश के वर्तमान राजनीतिक हालात पर गौर करें तो आज देश की राजनीति एक बार फिर से ‘कमंडल और मंडल -2’ में बंटा हुआ है। वोट-बैंक की सियासत के चलते देश में धार्मिक कट्टरवाद और तुष्टिकरण की सियासत को खूब बढ़ावा मिल रहा है। इस सियासत में राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक संगठनों के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म सबसे बड़ा माध्यम बना है जिसके जरिए वे लोगों को तमाम झूठी और आपत्तिजनक विडियो, फोटो और तथ्य परोस रहे हैं जिससे समाज में धार्मिक और जातिगत वैमनस्यता बढ़ रही है। दूसरी ओर राजनीतिक और धार्मिक संगठन इस नफऱत की आग में अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। देश अभी तक सोशल मीडिया की चुनौतियों से जूझ रहा था लेकिन हाल ही में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानि ‘एआई’ ने इस जोखिम को और भी गंभीर बना दिया है। भारत सहित दुनिया के कई देश अब ‘एआई’ तकनीक के जरिए कृत्रिम वीडियो (डीपफेक) के उन्माद से जूझ रहे हैं।
बिलाशक इंटरनेट और सोशल मीडिया ने पारंपरिक मीडिया के वर्चस्व को बड़ी तेजी से खंडित किया है।
लेकिन अब यह माध्यम धर्म और राजनीति के लिहाज से दोधारी तलवार साबित हो रहा है जो राष्ट्र के सांप्रदायिक सौहार्द और लोकतांत्रिक व्यवस्था दोनों के लिए खतरा बन चुका है लिहाजा इस पर बंदिश की भी जरूरत है। सूचना प्रौद्योगिकी के दुरूपयोग पर केंद्र सरकार सहित आदालतों ने भी अनेकों बार चिंता जताई है तथा इस तकनीक के बेजा इस्तेमाल को रोकने की कोशिशें भी हुई लेकिन देश का एक तबका इन कोशिशों को ‘बोलने की आजादी’ पर खतरा बताकर विरोध पर उतारू हो जाती है। इस अधिकार के पैरोकारों को समझना होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने कुछ भी बोलना या लिखना नहीं है बल्कि इस अधिकार पर भी कुछ बंदिशें हैं। देश में साइबर अपराध पर लागू कानून अभी भी जरूरत के लिहाज से प्रभावी नहीं बन पाए हैं फलस्वरूप अपराधी कानून के चंगुल से बच जाते हैं। इस दिशा में वर्तमान चुनौतियों के मुताबिक कानून बनाने की जवाबदेही केंद्र सरकार की है क्योंकि यह अधिकार संसद को ही है। इसी प्रकार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के यूजर्स को भी इस माध्यम में अपने विचार या विडियो साझा करते समय देश और समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी के प्रति स्व-अनुशासित होना होगा। सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स की भी जवाबदेही है कि वे ऑनलाइन सामाग्रियों की फैक्ट चेकिंग के लिए प्रभावी तकनीक लागू करें ताकि भारत जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में सर्वधर्म समभाव और सौहार्द्र कायम रहे ।
-अरुण माहेश्वरी
भारत में अभी ग्रोक एआई (Grok AI) पर भारी चर्चा चल रही है ।
यह चर्चा केवल एक तकनीकी नवाचार की चर्चा नहीं रह गई है। यह उस सत्ता-संरचना के लिए अप्रत्याशित संकट बन चुकी है, जो ‘व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी’ के ज़रिए झूठ, अर्धसत्य और प्रचार की सुनियोजित दुकानदारी के रूप में चल रही है।
ग्रोक, भले अपने मूल में मुनाफ़े की प्रवृत्ति के कारण ही, सत्ता के इस प्रचार के एकाधिकार को चुनौती दे रहा है और उस आभासी ‘सत्य’ को ध्वस्त करने का काम कर रहा है जिसे वर्षों से फेसबुक, एक्स, इंस्टाग्राम आदि मंचों पर कठोर नियंत्रण से चलाया जा रहा है ।
पर यह एक मूलभूत सवाल है कि क्या ग्रोक की यह चुनौती किसी स्वतंत्रता की घोषणा की तरह है? क्या यह इस बात का प्रमाण है कि एआई ने नैतिकता और सचाई का झंडा उठा लिया है?
ऐसा नहीं है ।
आज जो दिख रहा है, वह निश्चित तौर पर तकनीक से एक हद तक मनुष्य के अपसरण का परिणाम है – यानी तकनीक अब उस जगह आ पहुँची है जहाँ वह न तो मनुष्य की सत्ता की अनुकृति है, न ही पूरी तरह से उसके अधीन कोई उपकरण। वह स्वयं एक ऐसी गतिकता (dynamics) बन चुकी है, जिसे जॉक लकान ‘the real without law’ कहते हैं ।
एक ऐसा यथार्थ, जिसमें कोई विधिसम्मतता (lawfulness) या कोई मूल्य-बोध नहीं होता।
यह तकनीक अब ‘झूठ’ और ‘सच’ के फर्क को भी उसी के आधार पर तय करती है, जो उसके एल्गोरिथ्म को सूचित करता है । उसके स्रोत, डाटा, प्रमाण में इसका मूल तत्व है ।
ऐसे में ज़ाहिर है कि सत्ता का झूठ, चाहे जितना ‘प्रचारित’ हो, तकनीक की स्वायत्त एल्गोरिथ्मिक प्रक्रिया के सामने टिक नहीं पाता है ।
पर यह भी सच है कि ग्रोक जैसी तकनीकों की इस वर्तमान ‘स्वतंत्रता’ को स्वतंत्रता कहना भी एक भ्रांति ही कहलायेगा, क्योंकि यह स्वतंत्रता किसी मूल्य या नैतिक विवेक से नहीं उपजी – बल्कि उस मुनाफ़े की प्रवृत्ति से उत्पन्न हुई है, जो पूँजी की अपनी गतिकता का मूल है, अर्थात उसका लक्षण है ।
एलोन मस्क उसी लक्षण, अर्थात् मुनाफे की प्रवृत्ति का जीवंत उदाहरण हैं । वह कोई विचारक या नैतिकतावादी नहीं, बल्कि मुनाफ़े की मशीन का एक सजीव रूप है ।
मस्क की सचाई किसी से छिपी नहीं है । डोनाल्ड ट्रंप जैसे आदतन झूठे और सर्वाधिकारवादी व्यक्ति के खुले समर्थक मस्क में किसी भी स्वतंत्रता या सत्य का कोई नैतिक आग्रह नहीं है ।
मनोविश्लेषण की भाषा में कहें को यह केवल एक हिस्टेरिकल गतिकता है जो मुनाफ़े की प्रवृत्ति के लक्षण से पैदा होती है । अन्यथा वे कभी अचानक सेंसरशिप के पक्ष में तो कभी अचानक मुक्त सूचना के पक्ष के बीच डोलते रहते हैं ।
ग्रोक का यह वर्तमान ‘विरोधी’ रूप उसी हिस्टीरिया का उत्पाद है । यह न किसी सच्चाई की खोज है, न किसी मुक्ति की कामना । इसके मूल में भी केवल लाभ के नये-नये स्वरूपों की तलाश काम कर रही है ।
फिर भी यह प्रश्न उठता है – क्या एलोन मस्क ग्रोक के जवाबों को अपनी इच्छा से नियंत्रित कर सकते हैं?
तकनीकी दृष्टि से कहें तो हाँ । वे ग्रोक के मॉडल में बदलाव कर सकते हैं, उसे री-ट्रेन कर सकते हैं, या उसके उत्तरों पर फ़िल्टर थोप सकते हैं – जैसा ओपनएआई या अन्य कंपनियाँ करती रही हैं। आज डीप सीक जैसे चीनी एआई पर तो इसका खुला आरोप है ।
पर यह भी सच है कि यह नियंत्रण इतना सरल नहीं रह गया है। क्योंकि जैसे ही मस्क अपने एआई को नियंत्रित करने की कोशिश करेंगे, वे खुद अपने उत्पाद की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाएंगे । और, यही
खुद के द्वारा अपने मुनाफ़े के स्रोत पर चोट करना होगा जो कि ग्रोक का मूल तत्त्व है । इसीलिए निस्संदेह मस्क एक दुविधा में रहेंगे – नियंत्रण की इच्छा और मुनाफ़े की संभावना के बीच चयन की दुविधा ।
तकनीक की यही स्वायत्तता सत्ता के लिए डर और आम लोगों के लिए आकर्षण का कारण बनती है।
पर यहाँ लकान का यह सूत्र याद रखना चाहिए कि “The only constant is the symptom.” यहाँ symptom अर्थात् लक्षण से तात्पर्य मुनाफे की प्रवृत्ति से ही है ।
एआई की तकनीकी स्वायत्तता कोई स्थिर स्वतंत्रता नहीं, बल्कि उसी मुनाफ़े की प्रवृत्ति से उत्पन्न लक्षण की पुनरावृत्ति है – वह लक्षण जो ‘उल्लासोद्वेलन’ (jouissance) का स्रोत होता है, जिसमें मनुष्य आनंद लेते हुए अपने ही अस्तित्व की जमीन खो देता है। पूंजी का उल्लासोद्वेलन मुनाफे की ओर प्रेरित होता है और उसी में खत्म भी होता है ।
व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का झूठ टूट रहा है, पर इसे क्षणिक ही मानना चाहिए । उसे कोई और तकनीक, कोई और ‘लक्षण’ फिर से स्थापित कर सकता है।
इसलिए ग्रोक को केवल एक मुक्तिकामी तकनीक कहना, या मस्क को कोई नैतिक विकल्प मानना, यथार्थ को अधूरे रूप में देखना है।
हम आज एक ऐसे समय में हैं, जहाँ न तो झूठ स्थायी है, न सत्य – केवल तकनीक की गतिकता है, जो हर सत्ता को अपने भीतर समेट कर commodity (पण्य) के रहस्य में बदल देती है। यही ‘the real without law’ है – जहाँ सब कुछ चलता है, पर कुछ भी स्थिर नहीं होता ।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
डोनाल्ड ट्रंप ने जब से अमेरिका के राष्ट्रपति का पद संभाला है तब से लगभग हर दिन वह अपने बयानों से कोई नया विवाद खड़ा कर रहे हैं। विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र और विश्व के सुपर पावर नंबर वन देश के लिए यह कतई अच्छा संकेत नहीं है कि उसका राष्ट्रपति विश्व बंधुत्व बढ़ाने और बड़ा दिल दिखाने के बजाय अपने से कमजोर राष्ट्रों को तरह तरह की धमकी दे। शुरू शुरू में अधिकांश देश इसे ट्रंप की जीत का प्रारंभिक खुमार समझकर रफा दफा कर रहे थे लेकिन जब ट्रंप ने लगातार एक के बाद एक आदेश जारी करने शुरू किए और किसी न किसी देश को आए दिन धमकी देने के अंदाज में बयानबाजी जारी रखी तो प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ छोटे देश भी अपनी अपनी तरह से अपनी अपनी क्षमतानुसार विरोध दर्ज कर रहे हैं। चाहे ट्रंप का कनाडा को संयुक्त राज्य अमेरिका के एक राज्य के रूप में मिलाने वाला निहायत गैर जिम्मेदार बयान हो जो किसी देश की संप्रभुता के खिलाफ जाता है, या यूक्रेन के राष्ट्रपति के साथ व्हाइट हाउस में हुई बेहूदा बहस इससे अमेरिका की छवि दागदार हो रही है।
जहां तक भारत का प्रश्न है, हम कहां खड़े हैं, यह हमारी सरकार की तरफ से साफ नहीं हो पा रहा। हमारे प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के बाद भी कोई उस तरह का बड़ा बयान नहीं आया जैसा अक्सर प्रधानमंत्री की यात्राओं के बाद अमूमन आता है। ऐसा संभवत: इसलिए भी है कि ट्रंप की बयानबाजी को देखते हुए कोई भी आश्वस्त नहीं है कि उनके फैसलों का ऊंट कब किस करवट बैठेगा। पारदर्शिता के अभाव में विविध कयास लगाए जा रहे हैं। पारदर्शिता अफवाहों का स्रोत बंद कर सकती है और पारदर्शिता का अभाव अफवाहों का चारागाह बन जाता है।अमेरिका में इस समय कुछ ऐसा ही माहौल है जिसमें कुछ भी ठीक ठीक कह पाना मुश्किल है। जिस तरह से ट्रंप ने अमेरिका में अवैध रूप से घुसे भारत के नागरिकों को हथकड़ी और बेडिय़ों में जकड़ कर सेना के विमान मे भेड़ बकरियों की तरह ठूंसकर भेजा है वह दर्शाता है कि ट्रंप प्रशासन भारत को ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहा क्योंकि रूस और चीन के नागरिकों के साथ वह ऐसा अमानवीय व्यवहार नहीं कर रहा। अवैध रूप से रहने वाले भारतीय नागरिकों को बाइडेन प्रशासन ने भी वापिस भेजा था लेकिन उसमें शालीनता थी। उन्होंने चार्टर्ड प्लेन से लोगों को भेजा था और प्रचार के लिए कैदियों का फोटो शूट नहीं कराया था जिस तरह ट्रंप प्रशासन करा रहा है। ऐसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा से यह उम्मीद जगी थी कि इस मामले को प्रधानमंत्री द्विपक्षीय वार्ता में जोर शोर से उठाएंगे क्योंकि इस मुद्दे पर विपक्षी दल भी सरकार पर धारदार हमले कर रहे हैं कि हम कैसे विश्व गुरु हैं जिनके नागरिकों को अमेरिका इस तरह ट्रीट कर रहा है। किसी सरकार के लिए शर्मनाक तो यह भी है कि उसके नागरिकों को विकसित देशों में अवैध रूप से घुसपैठ करनी पड़ रही है और उन्हें वहां चूहों की तरह छिपकर रहना पड़ता है। इसका सीधा अर्थ है कि हमने अपने यहां नागरिकों के लिए न ठीक से रोजगार जुटाए और न अच्छा माहौल पैदा किया।यदि हमने फ्री राशन की जगह रोजगार सृजन को महत्व दिया होता तो इतनी बड़ी संख्या में लोग अमेरिका और यूरोप, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में नहीं जाते।
संभव है कि अवैध रूप से रहने वाले भारतीयों की बड़ी संख्या कनाडा और मैक्सिको में भी हो जो अमेरिका जाने की फिराक में सीमा पार कराने वाले गिरोहों के चंगुल में फंसे हैं। इसी तरह यूरोपीय देशों में भी कुछ भारतीय हो सकते हैं।सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने सभी नागरिकों की सम्मान के साथ वापसी करे और देश में ऐसा माहौल बनाए कि भविष्य में हमारे नागरिकों को इस तरह छिप-छिपकर विदेश में घुसपैठ न करनी पड़े। जिस तरह कई देश अमेरिका को उसकी भाषा में जवाब दे रहे हैं हमें भी ट्रंप के गलत फैसलों का पुरजोर विरोध करना चाहिए।
-जे के कर
डोनाल्ड ट्रंप अमरीका के राष्ट्रपति पद पर आसीन हो चुके हैं। ओवल आफिस में दाखिल होते ही उन्होंने अमरीकी अर्थव्यवस्था के संकट यथा बेरोजगारी, गिरते क्रयशक्ति एवं महंगाई को विकसित, विकासशील तथा छोटे देशों पर लादने के लिये उन पर टैरिफ (अतिरिक्त टैक्स) लगाने की धमकी दी है। उनके निशाने पर कई देश तथा कई सेक्टर हैं। हालांकि, इसका समाधान द्विपक्षीय वार्ता तथा समझौते के माध्यम से हो सकता है। यहां पर हम केवल भारत से अमरीका निर्यात होने वाले दवाओं तथा उस पर प्रस्तावित टैरिफ की विवेचना करेंगे।
खबरों के अनुसार यह टैरिफ 2 अप्रैल 2025 से लागू हो सकता है। यह टैरिफ 25 फीसदी तक का हो सकता है। वर्तमान में यह 10 फीसदी तथा कुछ जीवनरक्षक दवाओं एवं वैक्सीन पर 5 फीसदी से लेकर शून्य फीसदी तक का है। भारत में टैरिफ किसी भी मामले में 0 फीसदी से 10 फीसदी के बीच है और ज्यादातर जीवनरक्षक दवाओं पर यह शून्य है।
दरअसल, ट्रंप अपने पिछले कार्यकाल के समान अमरीका फस्र्ट की नीति को ही आगे बढ़ाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि बना बनाया माल न लाकर उनके देश में उत्पादन किया जाये जिससे अमरीकियों को रोजगार मिल सके जिससे उनके देश की बेरोजगारी कुछ कम हो तथा दूसरे देश में बेरोजगारी बढ़े। जो ऐसा नहीं करेंगे या जहां पर अमरीकी व्यापार घाटा ज्यादा है उन देशों पर अमरीका में निर्यात करने पर टैरिफ लगाकर उसका दाम बढ़ा दिया जाये ताकि अमरीकी कंपनियां उसका मुकाबला कर सके। दूसरी ओर वे अपने देश में बने माल को कम टैरिफ करवाकर अन्य देशों में भर देना चाहते हैं। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि मेरा खून, खून, तेरा खून पानी वाला है।
उल्लेखनीय है कि भारत से बड़ी संख्या में जेनेरिक तथा अन्य दवायें कम कीमत पर अमरीका भेजी जाती हैं जिससे उनके देश के दवा कंपनियों को व्यापार घाटा होता है। उदाहरण के तौर पर साल 2001 में भारतीय दवा कंपनी सिपला ने एड्स की दवा को सस्ते दाम पर अमरीकी बाजारों में बेचना शुरू कर दिया जिससे प्रतियोगिता में टिकने के लिये अमरीकी कंपनियों को भी अपने दवाओं के दाम कम करन पड़े थे। जिसका सीधा असर उनके मुनाफे पर पड़ा। सिपला ने एड्स की दवा को गैर सरकारी संगठन डाक्टर विथआउट बार्डर को मात्र 350 डालर में पूरे एक साल की खुराक मुहैय्या करा दी। आज दुनिया में एड्स के औसतन तीन मरीजों में से एक भारतीय दवा कंपनी सिपला की दवा पर निर्भर है।
प्राइसवाटरहाउसकूपर्स के अनमानों के अनुसार यदि ट्रम्प के प्रस्तावित टैरिफ को बिना किसी छूट के लागू कर दिया जाता है, तो फार्मा और जीवन विज्ञान उद्योग का नुकसान प्रति वर्ष 90 मिलियन डॉलर से बढक़र 56 बिलियन डॉलर से अधिक हो सकता है। भारत से साल में करीब 47 फीसदी जेनेरिक दवा अमरीका भेजी जाती हैं जो जांच के दायरे में है। यदि भारतीय जेनेरिक दवाओं पर 25 फीसदी रेसिप्रोकल टैरिफ लगा दिया जाता है तो इनके दाम बढ़ जायेंगे तथा निर्यात घट जायेंगे। बकौल संयुक्त राष्ट्र कामट्रेड डाटाबेस साल 2024 में अमरीका ने भारत को 635।37 मिलियन डालर की दवाओं का निर्यात किया, वहीं भारत से 12।73 बिलियन डालर की दवायें अमरीका भेजी गई।
उपरोक्त तमाम अशुभ संकेतों के बाद आशंका जताई जा रही है कि अमरीका में भारतीय दवाओं का दाम बढ़ जायेगा तथा उनकी कमी हो जायेगी। इससे एक नये तरह का संकट अमरीका में भी उभर सकता है जिसकी ओर ट्रंप का ध्यान अभी नहीं गया है।।
जहां तक भारत की बात है भारत का दवा उद्योग दुनिया में मात्रा के हिसाब से तीसरे नंबर पर आता है। भारतीय दवा उद्योग दुनियाभर में एक महत्वपूर्ण भूमिका का पालन करता है। भारत डीटीपी, बीसीजी तथा मिसल्स के वैक्सीन का विश्व नेता है। यह दुनिया में कम कीमत पर दवाओं की सप्लाई करता है। यूनिसेफ को जो वैक्सीन जाता है उसका 60 फीसदी भारत से ही भेजा जाता है। भारत विश्व-स्वास्थ्य-संगठन को 60 फीसदी वैक्सीन की सप्लाई करता है। इतना ही नहीं भारत विश्व-स्वास्थ्य-संगठन द्वारा ली जाने वाली डिप्थीरिया, टिटेनस और डीपीटी एवं बीसीजी वैक्सीन के 40 फीसदी से लेकर 70 फीसदी तक सप्लाई करता है। विश्व-स्वास्थ्य-संगठन को मिसल्स के वैक्सीन का 90 फीसदी भारत ही सप्लाई करता है।
विश्व में भारत में ही यूएसएफडीए द्वारा मान्यता प्राप्त दवा की फैक्टरियां सबसे ज्यादा हैं। हमारे देश में एक्टिव फार्मास्युटिकल्स इंग्रीडियेन्ट बनाने वाले 500 मैनुफैक्चर्रस हैं जिनका विश्व एक्टिव फार्मास्युटिकल्स इंग्रीडियेन्ट इंडस्ट्रीज में 8 फीसदी की हिस्सेदारी है। पूरी दुनिया में जो जेनेरिक दवाओं हैं उमें से 20 फीसदी भारत से ही सप्लाई की जाती है। भारत 60 हजार विभिन्न जेनेरिक ब्रांड का निर्माण करता है।
अपने कम कीमत तथा उच्च गुणवत्ता के लिये भारत पूरी दुनिया में जाना जाता है तथा इसे ‘फार्मेसी आफ वल्र्ड’ कहा जाता है।
साल 2023-24 में भारतीय दवा बाजार 4 लाख 17 हजार 345 करोड़ रुपयों का था। जिसमें से 2 लाख 19 हजार 438 करोड़ रुपयों के दवाओं का निर्यात किया गया। जबकि इसी समय भारत में मात्र 58 हजार 440 करोड़ रुपयों के दवाओं का आयात किया गया।
यदि ट्रंप भारतीय दवाओं पर टैरिफ लगा देते हैं तो उनका निर्यात घट जायेगा तथा देश को विदेशी मुद्रा का घाटा भी सहना पड़ेगा। अमरीकी टैरिफ नीति के चलते भारतीय दवा उद्योग को नये बाजारों की खोज करनी होगी और निर्यात के अन्य अवसरों पर ध्यान देना होगा। इस संकट से बचने के लिए भारत को कूटनीतिक स्तर पर अमरीका से बातचीत करनी होगी।अब गेंद अमरीकी राष्ट्रपति तथा भारतीय प्रधानमंत्री के पाले में हैं। देखना है कि कभी नमस्ते ट्रंप का आयोजन करने वाले प्रधानमंत्री मोदी जी किस तरह से इस संकट से भारतीय दवा उद्योग की रक्षा कर सकते हैं। ट्रंप की सनक भारत में बेरोजगारी बढ़ायेगी तथा विदेशी मुद्रा की आवक को भी कम करेगी।