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भारत पाकिस्तान संघर्ष के बीच ‘समाचार समाप्त हुए’
19-May-2025 10:30 PM
भारत पाकिस्तान संघर्ष के बीच ‘समाचार समाप्त हुए’

-प्रियदर्शन

भारत-पाकिस्तान तनाव के दौरान जब आईपीएल के स्थगित होने की ख़बर आई तो एक पत्रकार मित्र ने तुरंत कहा, ‘ये अच्छा हुआ, सारी ‘व्यूअरशिप’ अब ‘युद्ध के कवरेज’ को मिलेगी।’

आईपीएल के मैच हर शाम करोड़ों लोग देखा करते थे, अलग-अलग मैचों में यह दर्शक संख्या आठ-दस करोड़ से लेकर सत्तर-अस्सी करोड़ तक हो जाया करती थी, तो अब लोगों की शाम ख़ाली थी और टीवी चैनलों को लग रहा था कि यह ख़ाली शाम भारत-पाकिस्तान संघर्ष के रंगारंग और मनभावन ब्योरों से भरी जा सकती है। हालांकि यह काम पहले से शुरू हो चुका था। छह और सात मई की दरमियानी रात पाकिस्तान के नौ ठिकानों पर भारत की सैन्य कार्रवाई की ख़बर जैसे ही आई, लगभग सारे के सारे टीवी चैनल रणभूमि में कूद पड़े।

इस्लामाबाद पर कब्जे, कराची पर हमले और पाकिस्तानी सेना के जनरल आसिम मुनीर की गिरफ़्तारी तक की खबरें चल पड़ीं। किसी को यह देखने-जानने की परवाह नहीं की कि इन खबरों में कितना सच है और वे आ कहाँ से रही हैं।

सोशल मीडिया पर सक्रिय तरह-तरह के आईटी सेल ये खबरें अपने-अपने ढंग से गढ़ और बाँट रहे थे। नई-पुरानी, असली-नकली तस्वीरों और बनावटी वीडियो के साथ भारतीय मीडिया पाकिस्तान पर क़ब्ज़ा करता जा रहा था। पाकिस्तान का मीडिया भी भारत के विमानों, एयर डिफेंस सिस्टम और शहरों को ध्वस्त करने में व्यस्त था।

‘बहुत कम बचा है लोगों का भरोसा’

यह मीडिया के पतन की वह पराकाष्ठा है जो पहले भी दिखती रही है, लेकिन इतने हास्यास्पद ढंग से इस बार सामने आई है।

मीडिया सनसनी को ही इकलौता मूल्य मान बैठा है, उसकी विश्वसनीयता लगातार गिरी है और विडंबना यह है कि उसे इसकी परवाह तक नहीं है।

चार साल पहले रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की डिजिटल न्यूज़ रिपोर्ट में बताया गया था कि सिर्फ 38 फीसदी भारतीय लोग समाचारों पर भरोसा करते हैं, जबकि फिनलैंड में यह तादाद 65 फीसदी है, कीनिया में 61 फ़ीसदी, ब्राज़ील में 54 फीसदी और थाइलैंड में 61 फ़ीसदी।

अंग्रेज़ी अख़बारों में यह गिरावट कुछ कम है, हिंदी अख़बारों में ज़्यादा, टीवी चैनलों में उससे भी ज्यादा और डिजिटल माध्यमों में सबसे ज़्यादा, बल्कि डिजिटल माध्यमों का तो जन्म ही इसी गिरावट के बीच हुआ है।

यह बात इसलिए ज़्यादा चिंताजनक है कि इन दिनों ख़बरों की सबसे ज़्यादा खपत डिजिटल माध्यमों से ही हो रही है।

फिक्की के मुताबिक़, 2024 में हर हफ़्ते 7।5 करोड़ लोगों ने टीवी देखा, इनमें केवल सात फीसदी लोग समाचार देखने वाले थे, बेशक, यह संख्या भी तब हासिल हुई जब 2024 में चुनावों की वजह से टीवी समाचारों की दर्शक-संख्या 13 फ़ीसदी बढ़ी थी, लेकिन कुल मिलाकर केवल 37 लाख लोग टीवी पर समाचार देखने वाले थे।

डिजिटल माध्यमों को देखें तो सिफऱ् यूट्यूब पर 47।6 करोड़ दर्शक हैं, दूसरी बात यह कि यूट्यूब की बढ़ोतरी की रफ्तार बहुत तेज है, 2029 तक इसके 80 करोड़ तक पहुंच जाने की उम्मीद है।

ऑनलाइन माध्यमों पर ख़बर देखने वालों की तादाद 2024 में 46।3 करोड़ रही, इनमें से ज़्यादातर ने ख़बर देखने के लिए मोबाइल का इस्तेमाल किया।

‘दर्शक नागरिक नहीं उपभोक्ता बने’

मीडिया के लिए दर्शक अब लोकतंत्र के नागरिक नहीं, समाचारों के उपभोक्ता हो चुके हैं। उन्हीं उपभोक्ताओं को हमारे टीवी चैनल वह ‘युद्ध’ और ‘विजय’ बेचते रहे, ऐसा प्रोडक्ट जिसे बिना किसी क्वालिटी कंट्रोल के स्टूडियो में तैयार किया जा रहा था। दो देशों के बीच चल रहे टकराव को गंभीरता से समझने और समझाने से चैनलों का कोई वास्ता नहीं था।

दरअसल, माध्यमों के बदले हुए स्वरूप ने भी समाचारों के पतन की प्रक्रिया को बढ़ाया है।

अब ख़बर के टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें जैसे छोटी-छोटी प्लेट्स में सजा कर पेश किया जाता है, ध्यान सामग्री पर नहीं रहता, उसके ऐसे नाटकीय प्रस्तुतीकरण पर रहता है, जिससे लोग खिंचे चले आएँ।

देखो और आगे बढ़ो, सोचने की जरूरत नहीं

मोबाइल और इंस्टाग्राम का व्याकरण अलग है जहाँ बड़े वीडियो नहीं, छोटी-छोटी क्लिप चल रही हैं यानी अब किसी ख़बर को विस्तार और गहराई नहीं चाहिए, बस उसकी सतह को छूना है, और वह भी बहुत चुनिंदा तरीके से, जो कुछ है, बिल्कुल कौंधता हुआ-सा आए और निकल जाए, उस पर कुछ सोचने से पहले दूसरी क्लिप अपने-आप चली आती है और सोचना हमेशा के लिए स्थगित हो जाता है।

मीडिया की यह गिरावट सिर्फ ख़बरों के तथ्यों की प्रस्तुति में नहीं है, उथला और भौंडा होना इन दिनों ख़ासतौर पर हिंदी मीडिया के मूल्य बने हुए हैं।

लगभग एक-सी आक्रामक भाषा में सारे टीवी चैनल चलते हैं, कुल पांच सौ शब्दों में वे समाचार को ‘वारदात की तरह अंजाम दे देते हैं।’

सारी कुशलता अनुप्रास और तुकबंदी पर आकर टिक जाती है और अतिरिक्त प्रतिभा किसी फिल्मी गाने की पैरोडी से हेडलाइन बनाने तक सिमट जाती है।

इन लोगों के लिए ‘दहली दिल्ली’ या ‘कांपता कोलकाता’, ‘बौखलाया बेंगलुरु’ या ‘पिटता पटना’ पर्याप्त है।

चैनलों का ब्रीफ़ पाकिस्तान को नरकिस्तान बताने का है और नए भारत को युवा जोश से भरा विकसित भारत जहां कोई समस्या नहीं है।

क्या है पत्रकारिता की भूमिका?

इसका असर पूरी पत्रकारिता के वैचारिक पक्ष पर पड़ रहा है। अब यह बात पुरानी हो चुकी कि टीवी चैनलों की बहसें खली और अंडरटेकर वाली नूरा कुश्ती देखने वाले दर्शकों को अपनी ओर खींचने के लिए हो रही हैं।

नया अनुभव यह है कि एंकर भी किसी विषय को लगभग उन्हीं कोणों से प्रस्तुत करते हैं जहां वह अधिक से अधिक आक्रामक दिखें, इन सबके बीच स्क्रीन पर जलते हुए शोले, आते-जाते विमान, तोप और टैंक, गिरती हुई मिसाइलें-सब एकसाथ गड्डमड्ड होकर इस तरह आते हैं कि दर्शक को वीडियो गेम देखने का एहसास हो।

ज़ाहिर है, चैनलों के लिए विश्वसनीयता या गंभीरता जैसा कोई मूल्य नहीं है और सारा जोर दर्शकों को पुकारने और कुछ देर रोके रखने पर है।

किसी राजनेता का एक अच्छा इंटरव्यू आखिरी बार कब किसने किस चैनल पर लिया था, यह याद करने पर ही याद नहीं आता, साहित्य-संस्कृति, कला या विचार के दूसरे पक्ष तो बिल्कुल अनुपस्थित हैं या कभी आते भी हैं तो वही तमाशे की पोशाक पहन कर।

फिलहाल, भारत और पाकिस्तान के बीच चले संघर्ष को कवर करने वाली पत्रकारिता पर लौटें, पत्रकारिता में राष्ट्रवाद का आग्रह नया नहीं है, युद्ध क्षेत्र की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की हमेशा से यह दुविधा रही है कि वे क्या बताएं और क्या छिपाएँ।

संघर्ष के दौर में ‘पत्रकारिता का राष्ट्रवाद’

अलग-अलग देशों के पत्रकार अपने यहां से प्राप्त सूचनाओं को आधार बनाने को मजबूर होते हैं और अंतत: उनकी पत्रकारिता पर ‘राष्ट्रहित’ की छाया चली आती है।

2003 के खाड़ी युद्ध में तो अमेरिकी पत्रकार अमेरिकी सेना के साथ गए और उन्होंने ठीक वैसी रिपोर्टिंग की, जैसी अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान चाहता था, इसके लिए बाक़ायदा 775 पत्रकारों और छायाकारों ने सेना के साथ अनुबंध पर दस्तख़त किए थे कि वे वैसी ख़बरें नहीं देंगे जिससे अमेरिकी सेना के अभियान को कोई नुक़सान पहुंचने का अंदेशा हो।

इस प्रक्रिया की व्याख्या करते हुए यूएस मरीन कोर के लेफ्टिनेंट कर्नल रिक लैंग ने कहा था- ‘साफ़तौर पर हमारा काम युद्ध जीतना है, सूचना युद्ध भी इसी का हिस्सा है, तो हम सूचना के पर्यावरण में भी वर्चस्व हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।’

इस ‘एंबेडेड जर्नलिज़्म’ की तीखी आलोचना हुई और इस पर ‘वॉर मेड ईजी’ जैसी किताबें लिखी गईं और फिल्में बनाई गईं जो युद्धों में अमेरिकी प्रचार के खेल पर केंद्रित थीं।

अबू धाबी के एक टीवी पत्रकार अम्र अल मौनेरी ने तभी कहा था- ‘इस युद्ध के बाद, मुझे एहसास हुआ कि हम मीडिया के लोग राजनीति के सिपाही हैं, सेना के सिपाही नहीं।’ उन्होंने संतोष जताया कि उनके चैनल पर युद्ध संतुलित ढंग से कवर किया गया।

2003 में जो खेल खुलकर हुआ, वह पहले से भी चलता रहा था, साठ के दशक के उत्तरार्ध में चले वियतनाम युद्ध की वास्तविक रपटें बहुत बाद में और बड़ी मुश्किल से आईं।

उन दिनों के ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’और ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ की प्रतिस्पर्धा और वॉशिंगटन पोस्ट के संकट पर केंद्रित स्टीवन स्पीलबर्ग की बनाई फिल्म ‘द पोस्ट’ बताती है कि किस तरह अख़बारों पर पहले भी दबाव पड़ते रहे हैं और उनसे निपटने के लिए क्या कुछ करना पड़ता है।

चीन का मीडिया तियानमेन चौक पर हुए क़त्लेआम की चर्चा अब तक नहीं करता।

सांप्रदायिकता का अंडर करंट

भारत में इस संघर्ष के दौरान जो कुछ चला, वह तो लग रहा था कि यह पत्रकारिता नहीं, युद्ध की गंभीरता को न समझने वाले विदूषकों की होड़ है कि वह सरकार को कितना खुश कर सकते हैं और पाकिस्तान को पीटकर अपनी देशभक्ति को दूसरों से ऊपर साबित कर सकते हैं।

ये ऐसे चीयरलीडर्स बन गए जिन्हें ठीक से नाचना तक नहीं आता था।

बहरहाल, इस सख्त आलोचना के पीछे एक गहरी चिंता भी है। भारत में जो ‘पाकिस्तान-विरोध’ दिखता है, उसका एक पहलू वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी है जो हमारे समाज के बहुसंख्यक हिस्से में लगभग बीमारी की तरह फैल गया है।

हर किसी से देशभक्त होने का सर्टिफिकेट मांगने और जऱा भी असहमति पर उसे देशद्रोही ठहरा देने का नया चलन इसी प्रवृत्ति की देन है।

इसी से वह नासमझ युद्धोन्माद पैदा होता है जिसकी वजह से विदेश सचिव विक्रम मिसरी जब संघर्ष विराम की घोषणा करते हैं तो उनके खिलाफ सोशल मीडिया पर भयावह ट्रोलिंग शुरू हो जाती है, उनके परिवार तक को नहीं छोड़ा जाता- अंतत: उन्हें अपने एक्स हैंडिल की सेटिंग बदलनी पड़ती है।

इन्हीं दिनों ऐसी और भी घटनाएं घटीं जिनसे पता चलता है कि सांप्रदायिकता इस राष्ट्रवादी उफान से किस तरह जुड़ी हुई है और कितने आक्रामक ढंग से हमला बोलने को बेताब है।

जब पहलगाम में नौसेना के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमानी नरवाल ने कहा कि उसे कश्मीरियों या मुसलमानों से नफऱत नहीं है तो एक तबका उस पर टूट पड़ा, उसके लिए उमड़ रही सारी सहानुभूति तुरंत ख़त्म-सी हो गई।

यह सच है कि इस पूरे संघर्ष के दौरान भारत सरकार और भारतीय सेना के उन अधिकारियों की प्रतिक्रिया संयत रही जो दैनिक ब्रीफिंग के लिए आते थे, दो महिला सैनिक अधिकारियों के साथ हुई इस पहली ही ब्रीफिंग ने बहुत सारे संदेश दे दिए थे।

लेकिन फिर मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री विजय शाह ने जिस फूहड़ता के साथ कर्नल सोफिया कुरैशी का उल्लेख किया, वह बताता है कि यह सोच हमारी मानसिकता में कितने धंस चुकी है।

चिंताजनक सवाल बहुत सारे हैं

इस पूरे माहौल में चिंताजनक सवाल और भी हैं, मीडिया में संपादक नाम की संस्था जैसे अप्रासंगिक हो चुकी है, बस इसलिए नहीं कि बहुत पढ़े-लिखे, विद्वान या पुराने दौर के कद्दावर संपादक नहीं बचे हैं- हालांकि यह भी सच है- बल्कि इसलिए भी कि मीडिया में अब खबरों के चुनाव में जिसे ‘मानवीय हस्तक्षेप’ कहते हैं, वह खत्म होता जा रहा है।

यह ‘ट्रेंडिंग’ खबरों का समय है यानी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जो ख़बरें सबसे ज़्यादा देखी-सुनी जा रही हैं, जो बहसें सबसे ज़्यादा भीड़ जुटा रही हैं, उन्हीं के आसपास पूरी कवरेज घूमती रहनी चाहिए।

पुराने दौर का कोई संपादक कह सकता था कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बीच ही एक नक्सल विरोधी अभियान छत्तीसगढ़ में भी चल रहा है- उसकी भी खबर लेनी चाहिए लेकिन आज इसकी ज़रूरत नहीं है।

बीजापुर के घने जंगलों या दुर्गम पहाड़ों के बीच चल रहे इस अभियान की खबरें सोशल मीडिया पर नहीं हैं तो उन्हें लेने का मतलब नहीं है लेकिन वे ख़बरें क्यों नहीं हैं? क्योंकि बाकायदा एक बाजार है, एक सत्ता तंत्र है जिसे मालूम है कि किन खबरों का बाज़ार बनाया जाना है।

दूसरा सवाल यह है कि पत्रकारिता से जुड़ी संस्थाएं इस दौर में कहां हैं? क्या इस ग़ैर-जि़म्मेदार पत्रकारिता को रोकने की कोई अपील किसी संगठन ने की है?

क्या एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के दायित्वों में यह शामिल नहीं है कि वह याद दिलाए कि पत्रकारिता को किन पैमानों पर खरा उतरना होता है? नेशनल ब्रॉडकास्ट एंड डिजिटल एसोसिएशन- एनबीडीए-क्या कर रहा है?

जख्मी हुआ भारतीय मीडिया

प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में हम पहले 150 देशों में नहीं आ रहे- इस सूचकांक को छोड़ भी दें क्योंकि इस पर भी सवाल उठते रहे हैं- तो भी हमारे सामने मीडिया जो तमाशा परोस रहा है, वह किसी जिम्मेदार पत्रकार को शर्मिंदा करने के लिए काफी है।

अक्सर कहा जाता है और सही कहा जाता है कि लोकतंत्र में मीडिया को स्वतंत्र होना चाहिए, उसे अपना रेगुलेशन ख़ुद करना चाहिए, लेकिन इस तरह के तमाशे के बाद ‘सेल्फ रेगुलेशन’ की दलील में आखिर कितनी जान बची है?

लेकिन यह पत्रकारिता आ कहां से रही है, किसकी कोख से पैदा हो रही है? जाहिर है, उस नए समाज की कोख से, जो हर रोज़ नए भारत के पराक्रम के मिथक में जीता है और अपने लिए सच से ज़्यादा ऐसी फैंटेसी चाहता है जिसमें हर कोई उसके आगे झुका दिखे।

हम धीरे-धीरे ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं जिसके लिए सब कुछ बस उपभोग का सामान है- वह चटकीला हो, जायकेदार हो, दिमाग पर बहुत बोझ डालने वाला न हो, सब कुछ ‘पॉजिटिव’ हो।

जाहिर है, बाजार की शर्तों के मुताबिक, अपने ग्राहक को संतुष्ट करना मौजूदा माध्यमों ने अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी मान लिया है, आखिर यह समाज सेवा नहीं, एक कारोबार है- ऐसा कारोबार जिसमें अरबों रुपये लगे हुए हैं।

साल 2024 में टीवी की कमाई 67 हज़ार 900 करोड़ की रही जबकि डिजिटल मीडिया में 80 हज़ार करोड़ के पार का रहा, यह भारी-भरकम रकम लेकिन सैकड़ों चैनलों और हज़ारों डिजिटल कंटेंट क्रिएटर्स के विराट जाल के बीच ऐसी प्रतियोगिता पैदा करती है जिसमें सबसे पहले ख़बर की मौत होती है।

भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे संघर्ष में अगर वाकई कोई सबसे ज़्यादा जख्मी हुआ है तो वह भारतीय मीडिया है, दुर्भाग्य यह है कि इसका असर देर-सबेर कारोबार पर भी पड़ेगा- यह समझने वाला कोई नहीं है।(bbc.com/hindi)

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)


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