विचार/लेख
डॉनल्ड ट्रंप के व्हाइट हाउस में वापसी के बमुश्किल दो हफ्ते बीते हैं, लेकिन इन्हीं दो हफ्तों में अमेरिका के चार सहयोगियों ने शुल्क (टैरिफ) बढ़ाने और अन्य दंडात्मक उपायों की धमकी दिए जाने के बाद, अमेरिकी राष्ट्रपति की दबाव डालने वाली व्यापार नीति के सामने घुटने टेक दिए।
मेक्सिको और कनाडा ने इस हफ्ते अमेरिका से लगी अपनी सीमा पर सुरक्षा बढ़ाने का वादा किया है, ताकि अवैध प्रवासन और ड्रग तस्करी को रोका जा सके। इस कदम के बाद, उन्हें ट्रंप की ओर से पिछले हफ्ते घोषित 25 फीसदी शुल्क पर 30 दिन की राहत मिली है।
अमेरिका ने कोलंबिया को धमकी दी थी कि अगर वह अमेरिका से निकाले गए लोगों को वापस नहीं लेगा, तो उस पर शुल्क और अन्य प्रतिबंध लगा दिए जाएंगे। इसके बाद कोलंबिया ने अपना फैसला बदल दिया और अमेरिका से निकाले गए लोगों को वापस लेने के लिए तैयार हो गया।
इस बीच, पनामा ने पनामा नहर पर ट्रंप को रियायतें दी हैं। पनामा नहर एक महत्वपूर्ण जलमार्ग है जो मध्य अमेरिका में अटलांटिक को प्रशांत महासागर से जोड़ता है।
इस हफ्ते के अंत में, ट्रंप ने और आगे बढ़ते हुए, मौजूदा आयात शुल्क के अलावा एल्यूमिनियम और स्टील के आयात पर 25 फीसदी शुल्क लगाने का ऐलान किया। इससे अमेरिका के दूसरे सहयोगी परेशान हो गए हैं।
पहली नजर में देखें, तो अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपनी ताकत दिखाई और जिन्हें निशाना बनाया गया वे जल्द ही हार मान गए। हालांकि, इटली के अर्थशास्त्री मार्को बूटी का मानना है कि ट्रंप की शुल्क नीति ‘अनियमित रूप से' लागू की जा रही है और इस वजह से सहयोगियों की ओर से सीमित प्रतिक्रिया ही सामने आई है।
यूरोपीय आयोग में आर्थिक और वित्तीय मामलों के पूर्व महानिदेशक बूटी ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘अब तक ट्रंप ने जिन देशों (कनाडा और मेक्सिको) को धमकी देकर एकतरफा समझौते हासिल किए हैं, वे काफी हद तक प्रतीकात्मक हैं।’
उन्होंने कहा कि मेक्सिको और कनाडा ने सीमा पर कुछ नए उपायों को लागू करने का वादा किया है, लेकिन इन उपायों से नशे की दवा फेंटानिल की तस्करी की समस्या का समाधान नहीं होगा और ना ही इससे अवैध रूप से अमेरिका में आने वाले लोगों की संख्या कम होगी।
ट्रंप के शुल्क से वैश्विक स्तर पर पैदा हो रही आर्थिक अनिश्चितता
ट्रंप द्वारा कुछ देशों पर लगाए गए शुल्क और प्रस्तावित शुल्क के कारण उन देशों और अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा, इसका विस्तार से अध्ययन किया गया है। शुल्क का मतलब होता है कि आयातित सामानों पर ज्यादा टैक्स लगाना। इसलिए, अगर नए शुल्क लगाए जाते हैं, तो अमेरिकी लोगों को सामान खरीदने के लिए ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे।
बूटी ने कहा, ‘ट्रंप द्वारा शुल्क लगाए जाने की वजह से वैश्विक तौर पर आर्थिक अनिश्चितता पैदा हो रही है। यह अर्थव्यवस्था में वृद्धि और आर्थिक समृद्धि के लिहाज से नुकसानदायक होगा।’
ऐसी आशंका जताई जा रही है कि ट्रंप की शुल्क धमकी से कनाडा और मेक्सिको की अर्थव्यवस्थाएं मंदी का शिकार हो सकती हैं। साथ ही, अमेरिकी मुद्रास्फीति में एक प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हो सकती है। इस वजह से, फेडरल रिजर्व को ब्याज दरों को पहले की तरह बनाए रखना या बढ़ाना पड़ेगा।
इन शुल्कों की वजह से कनाडा, अमेरिका और मैक्सिको के बीच सामानों की आपूर्ति में भी बाधा आ सकती है, विशेष रूप से ऑटोमोबाइल क्षेत्र में।
उत्तरी अमेरिका में कार बनाने के लिए कई देशों से सामान आते हैं और एक देश से दूसरे देश में जाते हैं। यह पूरा उद्योग अलग-अलग देशों से जुड़ा हुआ है। अगर इन सामानों पर शुल्क लगाया जाता है, तो कारों की कीमत बहुत बढ़ जाएगी। अगर कारें महंगी हुईं, तो लोग कम कारें खरीदेंगे। इससे कार बनाने वाली कंपनियों को नुकसान होगा। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इससे लोगों की नौकरियां चली जाएंगी।
कील इंस्टीट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकोनॉमी (आईएफडब्ल्यू-कील) के शोधकर्ता रॉल्फ लैंगहैमर ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘ट्रंप पुराने जमाने के विचारों वाले व्यक्ति हैं। उन्हें लगता है कि शुल्क लगाने से देश के घरेलू उद्योगों को फायदा होगा। शुल्क से मिलने वाले राजस्व से उन्हें घरेलू स्तर पर टैक्स में कटौती करने में मदद मिलेगी।’
लैंगहैमर ने बताया कि अमेरिकी सरकार को जो राजस्व मिलता है उसमें से सिर्फ 2 फीसदी हिस्सा शुल्क से आता है। जबकि, आयकर और कंपनियों पर लगने वाले टैक्स से लगभग 60 फीसदी राजस्व मिलता है।
अमेरिकी सहयोगियों ने उठाए एहतियाती कदम
ट्रंप की शुल्क से जुड़ी धमकियों ने दुनिया भर में हलचल मचा दी है। यहां तक कि कुछ देशों को अपने निर्यात पर शुल्क लगाने के किसी भी संभावित कदम को रोकने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत पर आरोप लगाया था कि वह अमेरिकी कंपनियों को अपने देश में सामान बेचने में बहुत मुश्किलें पैदा करता है। इसके बाद, भारत ने मोटरबाइक और सैटेलाइट ग्राउंड इंस्टॉलेशन सहित कई उत्पादों पर अपने शुल्क को 13 फीसदी से घटाकर 11 फीसदी कर दिया है। नई दिल्ली ने इस सप्ताह 30 से अधिक अन्य उत्पादों पर शुल्क कम करने की योजना की घोषणा की है।
दक्षिण कोरिया और जापान ने कहा है कि वे अमेरिका से अधिक ऊर्जा और दूसरे सामान खरीदेंगे। जबकि, थाईलैंड ने घोषणा की है कि वह प्लास्टिक बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले इथेन सहित अमेरिकी कृषि उत्पादों के आयात को बढ़ाएगा।
फाइनेंशियल टाइम्स ने इस सप्ताह बताया कि ट्रंप के शुल्क लगाए जाने की धमकी के खिलाफ जवाबी कार्रवाई करने के लिए यूरोपीय संघ अपने नए बनाए गए एंटी-कोर्सियन इंस्ट्रूमेंट (एसीआई) का इस्तेमाल करने पर विचार कर रहा है, खास तौर पर अमेरिकी टेक्नोलॉजी कंपनियों के खिलाफ।
यूरोपीय संघ के आर्थिक हितों की रक्षा के लिए दिसंबर में एक नया नियम लागू किया गया था, जिसे एसीआई कहा जाता है। इस नियम के तहत, यूरोपीय संघ किसी देश के जरिए हो रहे निवेश को रोक सकता है या उसे अपने देश में व्यापार करने की अनुमति नहीं दे सकता है।
यूरोपीय संघ ने ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान यूरोपीय कारों पर शुल्क लगने से बचाव किया था। उस समय यूरोपीय आयोग के पूर्व प्रमुख ज्यां क्लोद युंकर ने राष्ट्रपति के साथ एक समझौता किया था। इसके तहत, ईयू के देशों ने अमेरिका से काफी मात्रा में लिक्विफाइड नेचुरल गैस (एलएनजी) और सोयाबीन खरीदे थे, लेकिन इस बार यह विकल्प काम नहीं कर सकता है।
बूटी ने कहा, ‘मुझे इस बात पर काफी संदेह है कि इस बार समझौता करने से काम चल जाएगा। हम बातचीत करने और शांतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन आपको जवाबी कार्रवाई की एक ऐसी रणनीति भी बनानी होगी जो विश्वसनीय और कठोर हो।’
अमेरिका की प्रतिष्ठा को नुकसान
ट्रंप की काफी ज्यादा दबाव वाली रणनीति थोड़े समय के लिए सौदेबाजी को जारी रखने या व्यापार लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दूसरे देशों को मजबूर कर सकती है, लेकिन लंबे समय में यह रणनीति काम करेगी या नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता।
हाल ही में एक ब्लॉग पोस्ट में, वाशिंगटन के सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज के एक अर्थशास्त्री फिलिप लक ने राष्ट्रपति के दबाव की तुलना एंटीबायोटिक दवाओं से की।
लक ने चेतावनी भरे लहजे में कहा, ‘वे किसी खास समस्या को खत्म करने में बहुत कारगर होते हैं, लेकिन अगर इनका ज्यादा इस्तेमाल किया जाए, तो असर कम हो सकता है। जिस प्रकार बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं, उसी तरह अगर किसी देश पर बार-बार प्रतिबंध लगाए जाते हैं, तो वह देश अमेरिका के साथ व्यापार कम करके खुद को इन प्रतिबंधों से बचाने की कोशिश करेगा।’
मोदी की अमेरिका यात्रा से क्या मजबूत होंगे रिश्ते
अमेरिका के साथ व्यापार संबंधों में बढ़ती अनिश्चितता का सामना करते हुए, कई देशों के साथ-साथ यूरोपीय संघ को भी शुल्क के खतरे को कम करने के लिए वैकल्पिक बाजारों की तलाश करनी पड़ रही है।
बाइडेन प्रशासन ने यूरोपीय संघ पर दबाव डाला था कि वह चीन पर अपनी निर्भरता कम करे, ताकि इस एशियाई देश के बढ़ते प्रभाव को रोका जा सके। हालांकि, अब अपने सबसे करीबी सहयोगी से संभावित व्यापार युद्ध के चलते, ईयू के नीति निर्माता शायद अपनी रणनीति बदलने के लिए मजबूर हो जाएं।
शुल्क राहत के बावजूद, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने इस हफ्ते शीर्ष कारोबारी नेताओं के साथ एक शिखर सम्मेलन आयोजित किया। इसका मकसद था कि कनाडा कारोबार के लिए सिर्फ अमेरिका पर निर्भर रहने की जगह अन्य देशों से व्यापार करे। वहीं, मेक्सिको की राष्ट्रपति क्लाउडिया शाइनबाउम ने ‘प्लान मेक्सिको' लॉन्च किया है, जिसका उद्देश्य भी प्रमुख व्यापारिक साझेदारों पर निर्भरता कम करना है।
ब्रसेल्स स्थित थिंक टैंक ब्रूगेल के रिसर्च फेलो निकोलस पोइटियर्स ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘अब हर कोई पूछ रहा है कि क्या अमेरिका अभी भी एक विश्वसनीय साझेदार है? इन शुल्क से अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को बहुत नुकसान पहुंचा है।’ (डॉयचेवैले)
-इमरान कुरैशी
एक बस कंडक्टर और छात्र-छात्रा के बीच कन्नड़ और मराठी भाषा को लेकर हुए झगड़े ने कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच बस सर्विस को फिर बाधित कर दिया है।
इससे कर्नाटक के सीमावर्ती बेलगावी और महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के बीच बस यात्रा करने वाले सैकड़ों यात्रियों को मुश्किलें आ रही हैं।
लेकिन लोगों को इस बात ने चौंकाया कि दोनों राज्यों के बीच 58 साल से पुराने इस सीमा विवाद में एक किशोर छात्र और छात्रा क्यों शामिल हुई।
इस विवाद में 51 वर्षीय बस कंडक्टर महादेवप्पा हुक्केरी पर हमला भी हुआ और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।
यहां तक कि मुक़दमा दर्ज कराने की कहानी में भी ट्विस्ट है। सबसे पहले कंडक्टर ने पुलिस में शिकायत की। कंडक्टर ने कहा कि उन्हें पीटा गया।
उन्होंने शुक्रवार को शाम साढ़े पांच बजे अपनी शिकायत दर्ज कराई। इसके बाद उसी रात एक बजे छात्रा ने शिकायत दर्ज कराई।
किशोरी छात्रा ने कंडक्टर के खिलाफ दर्ज शिकायत में कहा है का उनका ‘व्यवहार सही’ नहीं था। कंडक्टर केल खिलाफ पोक्सो के तहत शिकायत की गई है।
कर्नाटक के परिवहन मंत्री रामलिंगा रेड्डी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ''पहली नजऱ में तो ये शिकायत अजीब लगती है क्योंकि बस में काफी पैसेंजर थे। हालांकि पुलिस मामले की छानबीन कर रही है। कर्नाटक के परिवहन मंत्री ने अस्पताल पहुंचकर कंडक्टर का हालचाल लिया था।’
आखिर हुआ क्या था?
ये घटना बेलगावी ग्रामीण तालुक में सामरा एयरपोर्ट जाने वाली सडक़ पर हुई। कंडक्टर ने बस में सफर कर रही लडक़ी को 'जीरो' टिकट दिया था। जीरो टिकट का मतलब फ्ऱी टिकट। क्योंकि कर्नाटक में सरकारी बसों में महिलाएं मुफ़्त में यात्रा कर सकती हैं।
कहा जा रहा है कि इस छात्रा के साथ सफर कर रहे किशोर ने कंडक्टर को टिकट दिखा कर बताया कि उसने टिकट ले लिया है।
लेकिन बताया जा रहा है कि कंडक्टर ने उससे कहा कि ‘जीरो’ टिकट सिर्फ लड़कियों या महिलाओं के लिए है।
कंडक्टर ने लडक़े से कहा कि उसे टिकट लेना पड़ेगा। कंडक्टर सिर्फ कन्नड़ में बोल सकते थे। जबकि लडक़े और लडक़ी ने सिर्फ मराठी में बात की।
पुलिस अधिकारियों ने बताया कि कंडक्टर और दोनों यात्रियों के बीच इस बात को लेकर बहस हुई।
कंडक्टर ने दोनों से कन्नड़ में बोलने को कहा। जबकि उन यात्रियों ने कंडक्टर से कहा कि वो मराठी में बोलें। हो सकता है कि इस विवाद में ड्राइवर में भी अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया हो।
लेकिन इसके बाद जो हुआ उसने अधिकारियों को आश्चर्य में डाल दिया। छात्र-छात्रा पर आरोप लगाया है इस झगड़े के दौरान उन्होंने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को फोन कर अगले बस स्टैंड में बुला लिया।
इसके बाद चिक्का बालेकुंदरी गांव के पास अगले बस स्टैंड में लोगों के एक समूह बस में घुस आया और कंडक्टर की पिटाई कर दी।
इन लोगों ने कहा कि कंडक्टर ज़बरदस्ती कन्नड़ में बात करने को कह रहा था। ख़बरों के मुताबिक कंडक्टर पर हमला करने वाले 14 लोग थे। इनमें से सिफऱ् पांच लोगों की गिरफ्तारी हो पाई है।
‘जय महाराष्ट्र’ बनाम जय ‘कर्नाटक’
आंखों में आंसू लिए कंडक्टर ने संवाददाताओं से कहा कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि उन्होंने लडक़ी से क्या ‘अनुचित’ व्यवहार किया है।
उनके घर में भी उसी उम्र की लडक़ी है। जब कर्नाटक के रामालिंगा रेड्डी अस्पताल पहुंचे तो कंडक्टर अपने आंसू रोक नहीं पाए।
कर्नाटक की महिला और बाल विकास मंत्री लक्ष्मी हेब्बालकर ने इस मामले के कथित दोषियों की गिरफ़्तारी का आरोप सीधे तौर पर सर्किल इंस्पेक्टर पर मढ़ा। मंत्री रेड्डी उनके इस नज़रिये से सहमत थे।
इस घटना के बाद दोनों राज्यों की बसों को उनकी सीमाओं पर ही रोक दिया जा रहा है। इन पर नारे लिखे गए हैं, जिनमें कहा गया है कि अपने राज्य का समर्थन करें।
महाराष्ट्र के ड्राइवरों को जय महाराष्ट्र और कर्नाटक के ड्राइवरों पर जय कर्नाटक का नारा लगाने का दबाव डाला जा रहा है। एक तरफ शिवसेना और महाराष्ट्र एकीकरण समिति के कार्यकर्ता हैं तो दूसरी ओर कन्नड़ रक्षणा वेदिके के कार्यकर्ता सक्रिय हैं
सीमा विवाद क्यों भडक़ उठता है?
पिछले छह दशक के दौरान दोनों राज्यों के बीच कई बार सीमा विवाद भडक़ चुका है।
इसे लेकर दोनों ही राज्यों में विरोध-प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्तियों को नुक़सान पहुंचाया गया है। विवाद के केंद्र में बेलगावी, खानापुर, निप्पानी, नंदगड़ और करवार ( उत्तरी कन्नड़ जिला) जैसे सीमाई तालुक हैं।
महाराष्ट्र का दावा है चूंकि ये सभी तालुक मराठी भाषी इलाकों में पड़ते हैं इसलिए उन पर उसका हक है।
जबकि कर्नाटक का कहना है कि वो इस मामले में भारत के पूर्व चीफ जस्टिस मेहरचंद महाजन कमिटी की रिपोर्ट की सिफारिशें मानेगा।
मेहरचंद महाजन ने जम्मू-कश्मीर के भारत के विलय में अहम भूमिका निभाई थी।
कर्नाटक की सीमाएं महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल से मिलती हैं। इन सभी सीमाई इलाकों में लोग अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं और वर्षों से शांतिपूर्वक रहते आए हैं।
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर हरीश रामास्वामी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘दरअसल इस मामले का संबंध राजनीतिक से ज्यादा आर्थिक कारणों से है। महाराष्ट्र इस मुद्दे को सुलगाए रखना चाहता है क्योंकि बेलगावी समृद्ध और सांस्कृतिक तौर पर महत्वपूर्ण शहर है। यहां काफी निवेश आता है। इस मामले पर कभी फैसला हुआ तो महाराष्ट्र को फ़ायदा हो सकता है।’
महाराष्ट्र के राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है ये ‘भाषाई पहचान’ का सवाल है।
महाराष्ट्र एकीकरण समिति और कर्नाटक रक्षणा वेदी दोनों इन इलाकों पर अपना-अपना दावा करते हैं।
महाराष्ट्र एकीकरण समिति के लोगों का दावा है कि इस इलाके में मराठी बोलने वाले लोग ज्यादा है। वहीं कर्नाटक के लोगों को कहना है कि कन्नड़ भाषी लोग ज्यादा हैं।
महाराष्ट्र एकीकरण समति के महासचिव मालोजीराव आश्तेकर ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘सरकारी दफ्तरों में सभी फॉर्म कन्नड़ में भरे जाते हैं। यहां बोर्डों पर सारी सूचनाएं कन्नड़ में लिखी होती हैं।’
कन्नड़ रक्षणा वेदिके के दीपक गुडानट्टी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘त्योहारों को मौकों पर कन्नड़ भाषा में गाना बजाने पर यहां लोगों को पीटा जाता है। ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिला प्रशासनों ने यहां मराठी में फॉर्म उपलब्ध करवाने की बात मान ली है। उन्होंने भाषाई अल्पसंख्यक आयोग को इसका आश्वासन दे दिया है।’
हालांकि जिला प्रशासन से जुड़े एक अधिकारी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘वैधानिक और संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक हम अंग्रेजी या कन्नड़ में लिख पाने में असमर्थ लोगों से मराठी और उर्दू दोनों में शिकायतें लेने को राजी हो गए हैं। भाषाई अल्पसंख्यक आयोग के अन्य सभी सुझावों पर हमने कानूनी राय मांगी है।’ ((bbc.com/hindi)
-दीपाली अग्रवाल
मां आनंद शीला का इंटरव्यू किया था, उसमें जो बातें थीं वो सबके सामने ही हैं लेकिन इसके अलावा भी उनसे बात हुई। उन दिनों वो बड़ोदा में थीं, एक दफा दिल्ली भी आई थीं लेकिन मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी। इंटरव्यू के तुरंत बाद ही मेरी उनकी फोन पर बात हुई थी, तब उन्होंने बताया कि वो कितने ही इंटरव्यू कर चुकी हैं और वो जैसी हैं वैसे ही जवाब देती हैं। हालांकि यह लाइन अपने आप में एक राजनीति है। उस समय ओशो से उनके प्रेम को लेकर मैं चर्चा कर रही थी। हालांकि वो कभी इस बात को ना ही मानती हैं और ना ही बात करना चाहती हैं कि वह उस प्रेम में एकाधिकार चाहती थीं और अपना वर्चस्व, सामने वाले के व्यक्तित्व पर छा जाने की आकांक्षा जबकि परिपक्व प्रेम की परिभाषा पर ही ओशो ने इतनी बातें कही हैं। शीला ने इस इस प्रेम में कई जानें लेने की असफल कोशिशें भी कीं। वह एक टॉक्सिक प्रेम था, बल्कि प्रेम ही नहीं था। जब मैंने पूछा कि आपने कैसे उस व्यक्ति को अचानक छोड़ दिया जिससे आप इतनी प्रेम होने का दावा करती हैं तो उन्होंने बताया कि जब आप किसी काम को सौ प्रतिशत कर लेते हैं तो उससे जुड़े मोह समाप्त हो जाते हैं। वह ओशो के साथ अपने प्रेम को सौ प्रतिशत जी चुकी थीं।
मां आनंद शीला से बात करने के एकमात्र कारण ही ओशो हैं। हालांकि एक तीस साल की लडक़ी का अमेरिका में एक पूरा शहर बसा देना और फिर उसी कम्यून को छोडऩे के बाद जिस संघर्ष के बारे में शीला ने अपनी किताब में लिखा है, वो बहुत आसान नहीं है। फिर भी ओशो इतने बड़े हैं कि ये सब बातें बौनी ही जान पड़ती है। अगर वह ओशो की सेक्रेटरी न होतीं तो कोई लडक़ी जर्मनी में रहकर कैसा संघर्ष कर रही है इसमें बहुत लोगों की दिलचस्पी नहीं रहती। ओशो इन सब बातों पर आच्छादित हो जाते हैं। चूंकि शीला के महत्व को बढ़ाने वाले भी वही थे। ओशो अध्यात्म की दुनिया के एक रहस्यमयी कैरेक्टर हैं। ज्ञान से भरपूर, किसी बुद्ध पुरुष जैसे दिखने और बोलने वाले, लोगों को अपने आकर्षण में खींचने वाले, संन्यास के नए सूत्र देने वाले। लेकिन इसी अध्यात्म को शीला ने एक सिरे से नकार दिया, इसे उनका बाज़ार बताकर हर ध्यान, हर सूत्र को निरर्थक साबित करने की कोशिश की, यहां तक की बुद्ध को भी। मां आनंद शीला ने इंटरव्यू के दौरान अध्यात्म को ही नकार दिया यानी जिस व्यक्ति के प्रेम करती रहीं, उसके जीवन के सारे उद्देश्य और प्रयोगों के निरर्थक ही बता दिया।
जब उनसे पूछा गया कि कैसे तीस साल की स्त्री ने एक शहर खड़ा कर दिया तो जवाब में बताया कि प्रेम ने वो शक्ति दी, मैं इसका भौतिक और प्रेक्टिकल जवाब चाह रही थी। लेकिन जवाब बहुत ही पेचीदा और हाथ छुड़ाने वाला था। लोग सोचते हैं कि मां आनंद शीला के बहाने ओशो को व्यक्तिगत रूप से और जानने में और भी मदद मिलेगी, वे ऐसी बातें बताएंगी जो ऐसे किसी व्यक्तित्व को जानने में मदद करे और अध्यात्म के भीतर की और तह खोले लेकिन वे सारी बातें प्रेम शब्द के सहारे टिका देती हैं। प्रेम तो भावनात्मक पक्ष हुआ लेकिन व्यक्तित्व की रूपरेखा के नाम पर उनके पास इल्ज़ाम हैं ओशो के नाम गढऩे के लिए। जबकि अगर आप किसी व्यक्ति के साथ प्रेम में हैं तो अमूमन ही उसकी रुचि धीरे-धीरे अपनी रुचि भी बन जाती है। लेकिन शीला ने वर्चस्व और कम्यून को तो स्वीकारा और स्पिरिचुअलिटी को खारिज कर दिया। हालांकि उनके हाथ अंत में कुछ भी नहीं लगा।
लेकिन एक बात है कि कम्यून को छोडऩे के बाद ओशो की दोनों ही महिला सेक्रेटरी लक्ष्मी और शीला ने इसे ओशो की लीला मानकर स्वीकार किया। उन्हें लग रहा था कि दोनों को ही भीतर से और मजबूत बनाने के लिए ओशो ने उनको बाहर निकाला है। लक्ष्मी की तो मृत्यु हो चुकी है। शीला स्विट्जरलैंड में रहती हैं। कहती हैं कि ओशो को याद तो नहीं करतीं लेकिन अगल वे दैहिक रूप से भी होते तो बुरा तो नहीं लगता। उनका कहना है कि वह उनकी टीचिंग को ही जीती रहीं लेकिन ये पूछने पर कि कम्यून जैसे ख्याल क्या भारत की संस्कृतिवाहक परंपरा में काम करेगा, तो उन्होंने कहा कि यह जानना उनका विषय नहीं है। कुल मिलाकर मां आनंद शीला जिस रूप में रजनीश के साथ जुड़ी और जिस तरह का लाभ लेना चाहती थीं, वह उन्होंने लिया इसके आगे सब पॉडकास्ट है।
-ताबिन्दा कौकब
‘वेलकम टु दी फैमिली, अब आप हमारी बेटी हैं।’
शादी के दिन अपने ससुर से यह बात सुनकर कोई भी दुल्हन जरूर खुश होगी और आगे आने वाले दिनों के लिए काफी भरोसा भी महसूस करेगी। लेकिन शायद बहुत सारी भारतीय और पाकिस्तानी लड़कियों के लिए यह केवल एक टूटा हुआ सपना साबित हो।
यह डायलॉग एक ऐसी फि़ल्म का है जिसे पिछले कुछ दिनों से भारत और पाकिस्तान के सोशल मीडिया और गूगल पर सबसे ज़्यादा बार सर्च किया गया है।
फिल्म ‘मिसेज’ में हालांकि विषय वही पुराना है यानी लड़कियों पर शादी के बाद ससुराल में जिम्मेदारियों का बोझ, शादी से पहले सपनों का टूटना और पति के साथ दाम्पत्य जीवन की समस्याएं वग़ैरह। लेकिन यह एक संयुक्त परिवार में अरेंज मैरिज की कुछ सच्चाइयों को बयान करती है।
कुछ सीन दर्शकों के लिए बहुत परेशान करने वाले हैं लेकिन फिर भी कई महिलाएं इनमें अपनी जि़ंदगी की झलक देखती हैं।
इस फिल्म में जिस समस्या को उजागर किया गया है वह है पति-पत्नी का वैवाहिक संबंध।
सेक्स लाइफ में असंवेदनशील रवैया
शादी के दिन ऋचा और उनके पति दिवाकर में भावनात्मक अंतर साफ नजर आता है।
ऋचा के पति का रोमांस चार दिन में खत्म हो जाता है और इसके बाद वह रोजमर्रा अंदाज में केवल सेक्स के लिए उनके पास आते हैं।
दिवाकर को फिल्म में स्त्री रोग विशेषज्ञ दिखाया गया है लेकिन फिल्म देखने वालों की भी यही राय है कि गाइनेकोलॉजिस्ट होकर भी उन्हें सेक्स के दौरान औरत को होने वाली तकलीफ का एहसास नहीं।
ऋचा के पति को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि बीवी शारीरिक संबंध के लिए तैयार है भी या नहीं। इसकी वजह से ऋचा उन्हें यह कहते नजर आती हैं कि वह केवल ‘मैकेनिकल सेक्स’ नहीं करना चाहतीं।
फिल्म में पति जब एक मौके पर पत्नी को चूमने की कोशिश करता है तो वह कहती हैं कि उन्हें ‘बदबू आ रही है’, जिस पर पति कहता है, ‘तुमसे किचन की महक आ रही है और यह दुनिया की सबसे सेक्सी महक है।’
लेकिन थोड़ा वक्त बीतने के बाद यही पति पत्नी की ओर से प्यार करने और ‘फोरप्ले’ के लिए कहने पर उस पर ‘सेक्स एक्सपर्ट’ होने का तंज कसता है और कहता है कि तुमसे क्या प्यार करूं, ‘तुमसे तो हर वक्त किचन की बू आती है।’
सोशल मीडिया पर फि़ल्म के दर्शकों का कहना है कि यह एक महत्वपूर्ण समस्या है जिससे अक्सर मर्द नजर बचाते हैं।
फिल्म की मुख्य किरदार ऋचा की तरह कई महिलाएं इस वजह से सेक्स से बचने की कोशिश करती हैं क्योंकि इस संबंध में मर्द की तरफ़ से रोमांटिक पहल कम हो जाती है और घर के काम से थक जाने वाली महिलाएं और थकान से बचने के लिए कमरे में ही नहीं जातीं।
बिल्कुल ऐसे जैसे फिल्म में ऋचा एक सीन में लाउंज के सोफे पर सो जाती हैं।
सेक्स को लेकर महिलाओं का ऊहापोह
महिला अधिकारों की सक्रिय कार्यकर्ता और ब्रिटेन में बच्चों की विशेषज्ञ के तौर पर काम करने वाली डॉक्टर एविड डीहार कहती हैं, ‘शारीरिक लिहाज से महिलाओं के कई काम होते हैं। महिलाओं के हार्मोन्स मासिक चक्र के दौरान उतार-चढ़ाव के शिकार रहते हैं।’
उनका कहना है कि हार्मोन्स में यह मासिक तौर पर होने वाला उतार-चढ़ाव उदासी, थकावट और शरीर में ऊर्जा की कमी का कारण बन सकता है।
वो कहती हैं, ‘और ऐसी स्थिति में महिलाएं सेक्स को लेकर ऊहापोह का शिकार हो जाती हैं और उनकी यौन इच्छा कम या अधिक हो सकती है।’
‘इसलिए अगर पति अपनी पत्नी के शरीर और रवैए में होने वाले इन बदलावों को सही समय पर समझ पाए तो वह अपनी जीवनसाथी के साथ बेहतर यौन संबंध बनाए रख सकता है। महिलाओं के शरीर में हार्मोन्स की अस्थिरता का मतलब यह है कि वह हमेशा यौन संबंध बनाने के लिए तैयार नहीं हो सकतीं।’
एविड डीहार कहती हैं ‘ऐसी स्थिति में महिलाओं को सेक्स के लिए मजबूर करना खतरनाक हो सकता है और इससे उनके जननांग के नुकसान पहुंचने का खतरा होता है। इसके साथ-साथ महिलाओं को गंभीर मानसिक आघात लग सकता है। और फिर इससे उबरने के लिए प्रभावित महिलाओं को वर्षों शारीरिक और मानसिक इलाज की ज़रूरत पड़ सकती है।’
बेटे और बहू के लिए अलग-अलग रवैया
शादी के बाद लडक़ी घर के काम ही करेगी, इस सोच का पता शादी के तोहफों से भी लगता है। जैसे इस फिल्म की किरदार ऋचा को भी अधिकतर किचन के इस्तेमाल की चीजें तोहफे में मिलती हैं।
ऋचा भी ससुर और पति की ख़ुशी के लिए अपने डांस के शौक़ को भुलाकर न केवल सास की अनुपस्थिति में घर के कामों में लगी रहती है बल्कि बेहतर से बेहतर खाना पकाने की कोशिश भी करती है।
लेकिन वक्त के साथ-साथ उन्हें लगता है कि वह कुछ भी करें, उनकी तारीफ नहीं हो रही। ऋचा की मां भी उन्हें हालात से ‘एडजस्ट’ करने को कहती हैं।
एक मौके पर ऋचा के ससुर उन्हें कपड़े तक हाथ से धोने को कहते हैं क्योंकि उनके अनुसार मशीन में धुलाई से पसीने के दाग नहीं छूटते।
फिल्म देखने वालों के लिए वह सीन भी हैरान करने वाला था जब पीरियड आने पर ऋचा को उनके पति किचन में जाने से रोक देते हैं।
लेकिन इसका फ़ायदा यह होता है कि पांच दिन के लिए ऋचा को जि़म्मेदारियों से आज़ादी और आराम करने का समय मिल जाता है।
दूसरी ओर छुआछूत पर विश्वास करने वाले उनके पति और ससुर के लिए यह समय मुश्किल हो जाता है।
भारत और नेपाल के कुछ इलाक़ों में अब भी पीरियड के दिनों में औरतों को न केवल किचन में नहीं जाने दिया जाता बल्कि कुछ इलाक़ों में तो उन्हें घर की चारदीवारी से भी बाहर निकाल दिया जाता है। (बाकी पेज 8 पर)
ऋचा कामकाज की मुश्किलें तो सह जाती हैं लेकिन उस वकत दुखी हो जाती हैं जब उन्हें उनके शौक ‘डांस’ से न केवल रोका जाता है बल्कि सोशल मीडिया से डांस के पुराने वीडियोज भी डिलीट करने को कहा जाता है।
एक वकत आता है जब ऋचा को एहसास होता है कि कुछ भी करने का कोई फायदा नहीं। और वह घर छोड़ कर चली जाती हैं। लेकिन उनके माता-पिता उन्हें वापस जाने को कहते हैं।
तब वह कहती हैं, ‘आप जैसे मां-बाप ने बेटों को बिगाड़ रखा है। बेटा नहीं हूं, मैं बेटी हूं। जो इज्जत बेटों को मिलती है, वह बेटियों को भी मिलनी चाहिए।’
फिल्म के आखिरी सीन में ऋचा और दिवाकर को अपने-अपने जीवन में आगे बढ़ते दिखाया गया है।
ऋचा अपने डांस का शौक़ पूरा करती नजर आती हैं और दिवाकर के घर में एक नई बहू उसी जुस्तजू और मेहनत में मगन नजऱ आती हैं जो कभी ऋचा के जीवन का हिस्सा रहा था।
‘भारत-पाक की महिलाओं की जिंदगी का आईना’
भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में इस फिल्म पर सोशल मीडिया यूजर्स के कमेंट्स सामने आ रहे हैं।
जहां एक तरफ फिल्म की मुख्य भूमिका में नजर आने वाले मर्द अदाकारों की तस्वीरों के साथ यह कहा जा रहा है कि ‘इस वक्त सबसे ज़्यादा नफरत बटोरने वाले मर्द हैं’ तो दूसरी और महिलाओं की समस्याओं को इतने अच्छे ढंग से सामने लाने पर फिल्म की तारीफ भी हो रही है।
एक सोशल मीडिया यूजर मेहनाज अख्तर ने कमेंट किया, ‘अगर आप एक घरेलू महिला हैं तो इसमें आपके लिए कुछ नया नहीं है। जो 24म7 जीवन में चल रहा हो वही स्क्रीन पर क्या देखना, क्यों देखना? हां, मर्दों को मशवरा है कि वह यह फिल्म जरूर देखें। ऐसी फिल्में मर्दों के लिए ही खासतौर पर बनाई जाती हैं।’
इकरा बिन्त सादिक नाम की सोशल मीडिया यूजर ने कहा, ‘झगड़ा बर्तन धोने, चटनी पीसने या घर की सफाई खुद करने का नहीं है! कभी भी नहीं था! झगड़ा बस यह है कि अगर आपने किसी के लिए अपने घर या अपनी जिंदगी में यह किरदार तय किया है’ तो कम से कम इसको निभाने के लिए उसे इज्जत भी दें।’
मोमिना अनवर ने टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘मिसेज़ केवल एक फिल्म नहीं, हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी औरतों की जिंदगी का आईना है। यह एक ऐसी फिल्म है जो हर औरत और मर्द को देखनी चाहिए। यह न केवल हमारे समाज की तल्ख हकीकतों को बेनक़ाब करती है बल्कि हमें सोचने पर मजबूर करती है कि रिश्तों में इज़्ज़त, बराबरी और इंसानियत का होना कितना ज़रूरी है।’
प्रसाद कदम नाम के एक यूजऱ का कहना था, ‘मुझे याद है, मैंने एक बार बिरयानी बनाई थी। मेरे मां-बाप ने मेरी तारीफ की थी लेकिन मेरी बहन ग़ुस्से में थी। उसने बहुत मेहनत की थी जबकि मैंने केवल बिरयानी में लगने वाले सामान को मिलाया था। मैंने बावर्चीखाने में गंदगी फैला दी, मुझे यह भी याद नहीं है कि उसे किसने साफ किया था। यह पितृसत्तात्मक सोच भारतीय घरानों की सच्चाई है। भारतीय मर्दों की परवरिश में कुछ ठीक नहीं है।’
एक और पुरुष यूजर ने हल्के-फुल्के मूड में एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें वह कह रहे हैं, ‘मेरी बीवी ने अभी ‘मिसेज’ मूवी देखी है और वह मुंह फुलाकर बैठ गई है। मैं खाना बनाता हूं, अभी आलू के पराठे बना रहा हूं। फिल्म बनाने वाले यह डिस्क्लेमर दिया करें कि यह सबके लिए नहीं है। हर औरत एक जैसी नहीं होती और सभी मर्द एक जैसे नहीं होते।’ ((bbc.com/hindi)
-चंदन कुमार जजवाड़े
चुनावों में बीजेपी को फायदा पहुंचाने के राहुल गांधी और मायावती के आरोप-प्रत्यारोप में अब कई पार्टियों के नेता भी शामिल हो गए हैं।
राहुल गांधी के आरोपों के बाद उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बीएसपी प्रमुख मायावती ने कांग्रेस को बीजेपी की ‘बी’ टीम बताया है और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी पर एक के बाद एक कई आरोप लगाए हैं।
दरअसल, राहुल गांधी ने मायावती पर बीजेपी को फायदा पहुंचाने का आरोप लगाते हुए कहा था कि अगर बीएसपी ‘इंडिया’ गठबंधन में होती तो पिछले साल के चुनावों में एनडीए की जीत नहीं होती।
इसके जवाब में मायावती ने कहा, ‘कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस बार बीजेपी की ‘बी’ टीम बनकर चुनाव लड़ा। यह आम चर्चा है, जिसके कारण यहाँ (दिल्ली में ) बीजेपी सत्ता में आ गई है। वरना इस चुनाव में कांग्रेस का इतना बुरा हाल नहीं होता कि यह पार्टी अपने ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानत भी न बचा पाए।’
राहुल गांधी ने क्या कहा जिस पर भडक़ीं मायावती
यहां ये जानने की कोशिश करते हैं कि नेताओं के बीच चल रही इस जुबानी जंग के पीछे केवल राहुल गांधी का आरोप है या उत्तर प्रदेश का दलित वोट बैंक।
मायावती ने राहुल गांधी को सलाह देते हुए कहा है कि राहुल गांधी को दूसरों पर उंगली उठाने से पहले अपने गिरेबान में जरूर झांककर देखना चाहिए।
दरअसल उत्तर प्रदेश के रायबरेली से कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने बुधवार को रायबरेली में हुई एक सभा में कहा था, ‘हम चाहते थे कि बहनजी बीजेपी के विरोध में हमारे साथ मिलकर लड़ें, मगर मायावती जी किसी न किसी कारण नहीं लड़ी। हमें तो काफी दुख हुआ था, अगर तीनों पार्टियां एक हो जाती, तो बीजेपी कभी नहीं जीतती।’
हालांकि मायावती इस साल हुए जिस दिल्ली विधानसभा चुनाव की बात कर रही हैं, उसमें कांग्रेस से पहले आम आदमी पार्टी ने ही अकेले चुनाव लडऩे की घोषणा की थी।
जबकि आम आदमी पार्टी भी पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव चुनावों को देखते हुए विपक्ष के इंडिया गठबंधन का हिस्सा बनी थी।
इस दौरान कांग्रेस के नेता अलग-अलग मुद्दों पर अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के साथ नजऱ आ रही थे। आप नेता कांग्रेस के साथ केंद्र सरकार के विरोध में दिखे थे।
लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और आप के बीच दिल्ली की सात लोकसभा सीटों के लिए गठबंधन भी हुआ था, हालांकि इसके बावजूद भी दिल्ली की सभी सीटों पर बीजेपी की जीत हुई थी।
दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन के एक अन्य दल शिव सेना (उद्धव ठाकरे गुट) के नेता संजय राउत ने समाचार एजेंसी पीटीआई से बातचीत में राहुल गांधी के दावे का समर्थन किया है।
उन्होंने कहा, ‘हमने कांग्रेस और एसपी के गठबंधन का जादू लोकसभा चुनाव में देखा था। जिन सीटों पर उनकी जीत नहीं हो पाई थी उसके पीछे मायावती की बीएसपी वजह थी।’
क्या कहते हैं आंकड़े
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओम प्रकाश राजभर ने बीएसपी प्रमुख मायावती के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों पर निशाना साधा है और कहा है, ‘कांग्रेस और सपा दोनों बीजेपी की ‘बी’ टीम है। समय-समय पर दोनों बीजेपी की मदद करती हैं।’
अगर राहुल गांधी के आरोपों पर बात करें तो पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में सबसे ज़्यादा 37 सीटें समाजवादी पार्टी को मिली थीं। समाजवादी पार्टी ने 33 फीसदी से ज़्यादा वोट भी हासिल किए थे।
इसके अलावा कांग्रेस को 6 सीटों पर जीत मिली थी और उसे करीब 10 फीसदी वोट भी मिले थे।
जबकि बीजेपी को उन चुनावों में सबसे ज़्यादा कऱीब 42 फीसदी वोट मिले थे और उसने राज्य की 33 लोकसभा सीटों पर कब्जा किया था।
ऐसे में अगर बीएसपी को मिले करीब 10 फीसदी वोटों की बात करें और वो ‘इंडिया गठबंधन’ का हिस्सा होतीं तो सामान्य गणित के हिसाब से विपक्ष के इस गठबंधन के पास पचास फीसदी से ज़्यादा वोट होते।
सीटों के लिहाज से बात करें तो साल 2024 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की करीब 17 सीटों पर बीएसपी के उम्मीदवारों ने हार के बाद भी इतने वोट ज़रूर हासिल किए, जो इंडिया ब्लॉक के उम्मीदवारों के मिल जाते तो इन सीटों के नतीजे बिल्कुल अलग होते। इन सीटों में से ज़्यादातर बीजेपी के खाते में गईं जबकि कुछ सीटों पर एनडीए के अन्य घटक दलों की जीत हुई।
इनमें बिजनौर, अमरोहा, मेरठ, अलीगढ़, फतेहपुर, शाहजहांपुर, हरदोई, मिसरीख, उन्नाव, फर्रुखाबाद, अकबरपुर, फुलपुर, डुमरियागंज, दवरिया, बांसगांव, भदोही और मिर्जापुर लोकसभा सीट शामिल हैं।
लेकिन क्या चुनावी राजनीति में दो और दो चार का यह गणित लागू होता है? क्या मायावती के इंडिया गठबंधन में होने से इन सीटों के अलावा भी अन्य सीटों पर कुछ असर हो सकता था?
राहुल गांधी के दावे में कितना दम
चुनाव समीक्षक और सीएसडीए के प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं, ‘मायावती विपक्ष के गठबंधन में होतीं तो फायदा ही होता नुकसान तो नहीं हो होता और हो सकता है कि इससे बीजेपी यूपी में 10-12 सीटें और हार जाती। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या इससे बीजेपी को केंद्र में सरकार बनाने से रोका जा सकता था।’
राहुल गांधी के दावों के बाद बीजेपी नेता और यूपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने भी इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया दी है।
उनका कहना है, ‘हमारी नजऱ में एसपी, कांग्रेस और बीएसपी सभी एक जैसे हैं। बीजेपी जीतेगी और इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता है कि वो साथ मिलकर चुनाव लड़ें या अलग-अलग।’
संजय कुमार का मानना है कि लोकसभा चुनाव हो चुके हैं और अब उसपर कोई फर्क़ नहीं पडऩे वाला है।
उनके मुताबिक राहुल गांधी इसकी शिकायत कम कर रहे हैं और यूपी के करीब 18 फीसदी दलित वोटरों को आगे के लिए संदेश दे रहे हैं कि मायावती सकारात्मक राजनीति नहीं करती हैं।
दरअसल पिछले कुछ चुनावों में और खासकर बीते दस साल में बहुजन समाज पार्टी का चुनावी प्रदर्शन लगातार काफी कमजोर दिख रहा है और उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर दलितों के नेता के तौर पर उभरने की कोशिश कर रहे हैं।
इसके अलावा दलित वोटों पर बीजेपी, कांग्रेस, एसपी और अन्य दलों की भी नजऱ रहती है।
संजय कुमार कहते हैं, ‘राहुल गांधी ने एक तीर से दो निशाने लगाने की कोशिश की है। पिछले कुछ साल के चुनावों पर नजर डालें, चाहे वो लोकसभा के चुनाव हों या राज्यों के विधानसभा के बीएसपी लगातार ढलान पर है और उसकी वापसी की कोई उम्मीद या संभावना भी नहीं दिखती है क्योंकि उसके नेता जमीन पर सक्रिय नजर नहीं आते हैं।’
उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ला भी इस बात से सहमत दिखते हैं कि यह लड़ाई उत्तर प्रदेश के दलित वोटों की है, हालांकि उनका मानना है कि मायावती के साथ उनके जातीय वोट अभी भी बने हुए हैं।
हालांकि वो ताजा विवाद को एक अलग नज़रिए से देखते हैं।
बृजेश शुक्ला कहते हैं, ‘राहुल गांधी की नजऱ दलित वोटों पर है। वो संविधान की कॉपी लेकर घूमते हैं। लेकिन पता नहीं उन्हें किसने कह दिया है कि मायावती को लेकर नरम रहें। जबकि बीएसी के संस्थापक कांशीराम ने पहला हमला कांग्रेस पर ही किया था।’
‘अभी भी आप यूपी के गांवों में जाएंगे और दलितों से पूछेंगे तो पता चलेगा कि बीएसपी और मायावती ने गांव-गांव में अभियान चलाया था कि कांग्रेस ने बाबा साहब आंबेडकर का अपमान किया था। राहुल गांधी अभी भी इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं और मायावती को लेकर नरम दिखते हैं।’
कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में कमजोर हालत
कांग्रेस पार्टी लोकसभा सीटों के लिहाज के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में लगातार कमजोर होती चली गई है।
भले ही पिछले साल के लोकसभा चुनावों में उसे राज्य में छह सीटों पर जीत मिली है, लेकिन अपने दम पर उसके वोट प्रतिशत में बहुत सुधार नहीं माना जाता है।
इसकी एक तस्वीर साल 2022 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजों में भी दिखती है। उन चुनावों में कांग्रेस ने 399 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए और केवल दो की जीत हो सकी।
कांग्रेस पार्टी की हालत का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसे पिछले विधानसभा चुनाव में दो फ़ीसदी से थोड़ा ही ज़्यादा वोट मिल सका और उसके 387 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई।
वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में 35 फ़ीसदी से ज्यादा वोट था और राज्य के दलित वोट कांग्रेस के खाते में जाते थे। लेकिन साल 1989 में केंद्र में चंद्रशेखर और यूपी में समाजवादी पार्टी को समर्थन देने से उसे भी समाजवादी पार्टी की ‘बी’ टीम माना जाने लगा और इसका बड़ा नुकसान कांग्रेस पार्टी को हुआ है।’
शरद गुप्ता मानते हैं, ‘ये पूरी लड़ाई दलित वोटों को लेकर है। राहुल गांधी दलितों को ये बताना चाहते हैं कि मायावती को उनकी परवाह नहीं है और वो ब्राह्मण, बनियों की पार्टी बीजेपी के साथ खड़ी हो जाती हैं। इससे दलित वोट वापस कांग्रेस के पास लौटने की उम्मीद है।’
शरद गुप्ता मानते हैं कि मायावती ने अपना भरोसा लगातार खोया है और जिन मुद्दों पर बीजेपी का विरोध करना चाहिए, उसपर भी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के खिलाफ नजर आती हैं, उनका रुख स्पष्ट नहीं होता है, जिससे वो अपना वोट बैंक भी खो रही है। ((bbc.com/hindi)
-चंदन कुमार
परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष होमी सेठना ने 1972 में अपने विभाग में उप सचिव पद पर काम कर रहे टीएन शेषन की गोपनीय रिपोर्ट खराब कर दी थी।
इसके जवाब में शेषन ने अपना बचाव करते हुए कैबिनेट सचिव टी स्वामीनाथन को 10 पन्नों का पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि उनके खिलाफ की गई टिप्पणी को उनकी गोपनीय रिपोर्ट से हटा दिया जाए।
तीन महीने बाद उनके पास प्रधानमंत्री कार्यालय से फ़ोन आया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी उनसे मिलना चाहती हैं। जब शेषन उनके साउथ ब्लॉक के दफ़्तर में घुसे तो वो फ़ाइल पर कुछ लिख रही थीं।
अपनी आत्मकथा ‘थ्रू द ब्रोकेन ग्लास’ में टीएन शेषन लिखते हैं, ‘इंदिरा गाँधी ने फाइल से सिर उठा कर मुझसे पूछा तो आप शेषन हैं? आप इस तरह का दुव्र्यवहार क्यों कर रहे हैं? सेठना आपसे नाराज़ क्यों हैं? मैंने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया मैडम मैंने ये बात आज तक किसी को नहीं बताई है। विक्रम साराभाई और होमी सेठना में गंभीर मतभेद हैं। मैं विक्रम के साथ काम कर रहा था इसलिए सेठना मेरे ख़िलाफ़ हो गए हैं। ’
इंदिरा ने पूछा, क्या आप आक्रामक हैं? मैंने जवाब दिया अगर मुझे कोई काम दिया जाता है तो मैं आक्रामक होकर उसे पूरा करता हूँ। इंदिरा गांधी का अगला सवाल था आप लोगों से रूखा व्यवहार क्यों करते हैं? मैंने कहा कि अगर कोई काम निश्चित समय के अंदर नहीं होता तो मेरा व्यवहार खराब हो जाता है।’ ‘इंदिरा ने फिर पूछा क्या आप लोगों को धमकाते हैं?
मैंने कहा मैं इस तरह का शख्स नहीं हूँ। इंदिरा गांधी ने अपने असिस्टेंट से कहा, ‘उन्हें बुलाइए’। तभी होमी सेठना इंदिरा गाँधी के दफ्तर में दाखिल हुए। इंदिरा ने मेरे सामने ही उनसे पूछा- आपने इस युवा शख़्स की गोपनीय रिपोर्ट में ये सब क्यों लिखा है?’
फिर उन्होंने मेरी तरफ इस तरह देखा मानो कह रही हों, अब तुम यहाँ क्या कर रहे हो? मुझे लगा कि इंदिरा गाँधी भी मुझसे नाराज हैं। लेकिन 10 दिन बाद मुझे सरकार का पत्र मिला कि मेरे खिलाफ़ सभी प्रतिकूल प्रविष्टियाँ मेरी गोपनीय रिपोर्ट से हटा दी गई हैं।’
-रजनीश कुमार
रूस ने यूक्रेन पर 24 फऱवरी 2022 को जब हमला किया था तो भारत पर चौतरफ़ा दबाव था कि रूस के ख़िलाफ़ खुलकर सामने आए।
तब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा था कि यूक्रेन पर रूस की आक्रामकता के मामले में भारत का बहुत ही ढुलमुल व्यवहार है।
बाइडन ने मार्च 2022 में कहा था, ‘क्वॉड में भारत को छोड़ दें तो जापान और ऑस्ट्रेलिया रूस को लेकर बहुत सख्त हैं। भारत का रवैया थोड़ा ढुलमुल है। हम नेटो और पैसिफिक में पुतिन के खिलाफ पूरी तरह से एकजुट हैं।’
क्वॉड गुट में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत हैं। बाइडन चाहते थे कि रूस के मामले में क्वॉड भी एकजुट रहे लेकिन भारत ने रूस के खिलाफ पश्चिम की लाइन लेने से इनकार कर दिया था।
पश्चिमी देशों की प्रेस में यूक्रेन पर रूस के हमले में भारत के रुख की तीखी आलोचना हो रही थी।
भारत ने पश्चिम के दबाव में झुकने की बजाय रूस से सस्ता तेल खऱीदना शुरू कर दिया था और दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार रिकॉर्ड 60 अरब डॉलर से ऊपर चला गया था।
बाइडन ने कहा था कि रूस से तेल खरीदना भारत के हित में नहीं है। अमेरिका के तत्कालीन डेप्युटी एनएसए दलीप सिंह अप्रैल 2022 में नई दिल्ली आए थे और उन्होंने कहा था कि अगर चीन फिर से एलएसी का उल्लंघन करता है तो रूस भारत के बचाव में नहीं आएगा।
पिछले साल आठ जुलाई को प्रधानमंत्री मोदी रूस के दो दिवसीय दौरे पर गए थे। इस दौरे को लेकर पूछे गए सवाल पर 12 जुलाई को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन ने कहा था कि रूस पर लंबी अवधि के लिए एक विश्वसनीय पाार्टनर के रूप में दांव लगाना भारत के लिए सही नहीं है।
भारत का झुकने से इनकार
जैक सुलिवन ने कहा था, ‘रूस चीन के करीब आ रहा है। यहाँ तक कि रूस चीन का जूनियर पार्टनर बन गया है। ऐसे में रूस भारत नहीं चीन का पक्ष लेगा। जाहिर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन की आक्रामकता को लेकर चिंतित हैं। हाल के वर्षों में हमने चीनी आक्रामकता देखी भी है।’
पश्चिम के प्रेस में कहा जा रहा था कि भारत पुतिन को यूक्रेन के खिलाफ जंग में मदद कर रहा है। बाइडन प्रशासन भारत के रूस के साथ होने को लेकर काफी परेशान था। पिछले साल 11 जुलाई को भारत में अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी ने कहा था कि युद्ध के समय रणनीतिक स्वायत्तता जैसी कोई चीज नहीं होती है।
एरिक गार्सेटी ने नई दिल्ली में आयोजित इंडिया-यूएस एंड सिक्यॉरिटी पार्टनर्शिप कॉन्क्लेव में कहा था, ‘भारत रणनीतिक स्वायत्तता की बात करता है और मैं इसका आदर करता हूँ। लेकिन युद्ध के समय रणनीतिक स्वायत्तता जैसी कोई चीज नहीं होती है। संकट की घड़ी में हमें साथ रहने की जरूरत है। ज़रूरत के वक्त हमें विश्वसनीय साझेदार के रूप साथ रहना चाहिए।’
अंग्रेजी अखबार द हिन्दू के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ‘आप कल्पना कीजिए कि भारत बाइडन और उनके यूरोपियन साझेदारों के दबाव में रूस के खिलाफ पश्चिम के प्रतिबंध में शामिल होकर संबंध सीमित कर लेता को आज किस लायक़ होता?’
ये बात अब इसलिए कही जा रही है कि ट्रंप ने ख़ुद ही पुतिन के प्रति नरमी दिखानी शुरू कर दी है और यूक्रेन समेत यूरोप को अलग-थलग कर दिया है। वहीं रूस तो भारत का ऐतिहासिक पार्टनर रहा है।
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में अंतरराष्ट्रीय संबंध और अमेरिकी विदेश नीति के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ मनन द्विवेदी कहते हैं कि भारत ने यूक्रेन-रूस जंग में जो नीति अपनाई थी वो बिल्कुल सही लाइन थी।
भारत की दूरदर्शिता
डॉ. मनन द्विवेदी कहते हैं, ‘भारत जब रणनीतिक स्वायत्तता की बात करता था तो पश्चिम के लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते थे। लेकिन ट्रंप ने आने के बाद जिस तरह की नीति अपनाई है, उससे यूरोप को भी अब अहसास हो गया है कि अमेरिका की हर बात सुनना या उस पर निर्भर होना ठीक नहीं है।’
‘ट्रंप ने यूक्रेन-रूस जंग में यूरोप को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया है। यूरोप अभी इस हालत में नहीं है कि बिना अमेरिकी मदद के यूक्रेन के लिए रूस लड़े। भारत रूस को किसी भी सूरत में अमेरिका के दबाव में नहीं छोड़ सकता था। अगर भारत झुक जाता तो आज जो ट्रंप कर रहे हैं, उसमें दोनों तरफ से जाता।’
डॉ. मनन द्विवेदी कहते हैं, ‘मोदी जब पिछले साल जुलाई में रूस गए थे और पुतिन को गले लगाया था तो यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने मखौल उड़ाया था। अब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप जेलेंस्की का मखौल उड़ा रहे हैं। मोदी पिछले साल अगस्त में यूक्रेन भी गए थे और उनके वापस आने के बाद जेलेंस्की तंज कस रहे थे। अब जेलेंस्की को भी अहसास हो गया होगा कि जंग किसी के भरोसे नहीं लड़ी जाती है। भारत ने अपनी विदेश नीति बिल्कुल अपने हितों के हिसाब से रखी थी न कि किसी के दबाव में आकर।’
डॉक्टर मनन द्विवेदी मानते हैं कि यूक्रेन के मामले में ट्रंप पुतिन को लेकर जैसी नरमी दिखा रहे हैं, उससे अमेरिका की विश्वसनीयता और कमज़ोर हुई है।
अब स्थिति ऐसी हो गई है कि ट्रंप और जेलेंस्की एक दूसरे पर निशाना साध रहे हैं।
ट्रंप जंग ख़त्म कराने के लिए वार्ता कर रहे हैं लेकिन केवल पुतिन से। इस बातचीत में ट्रंप ने यूक्रेन और यूरोप को शाामिल नहीं किया है। अमेरिका पहले ही इस बात के लिए तैयार हो गया है कि यूक्रेन की सीमा 2014 से पहले की नहीं होगी यानी क्राइमिया रूस के पास ही रहेगा।
पुतिन की जीत और यूक्रेन की हार?
रूस ने 2014 में क्राइमिया पर क़ब्ज़ा कर लिया था। अमेरिका ने यह भी कहा है कि यूक्रेन नेटो का सदस्य नहीं बनेगा। जाहिर है कि पुतिन भी यही चाहते थे। यूक्रेन के अभी 20 फीसदी भूभाग पर रूस का नियंत्रण है और पुतिन ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि यूक्रेन से जंग समाप्त करने के लिए इस नियंत्रण को ख़त्म कर देंगे।
ट्रंप के रुख को लेकर यूरोप में भी भारी बेचैनी है। जिस नेटो की सदस्यता के लिए जेलेंस्की इतने परेशान थे और अब वही नेटो अप्रासंगिक होता दिख रहा है। नेटो एक सुरक्षा गारंटी देने वाला गुट है लेकिन ये आपस में ही तमाम मतभेदों से जूझ रहे हैं। ट्रंप की शिकायत है कि नेटो का ज़्यादातर वित्तीय बोझ अमेरिका पर आता है और वह ज्यादा दिनों तक इसे वहन नहीं करेगा।
ट्रंप के रुख को लेकर यूरोप के नेताओं की बेचैनी और दुविधा साफ दिख रही है।
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने ट्रंप के रुख़ पर लिखा है, ‘हम यूरोप के लोग कब डोनाल्ड ट्रंप से नाराज़ होना बंद कर उन्हें जंग खत्म करने में मदद करना शुरू करेंगे? जाहिर है कि यूक्रेन ने जंग की शुरुआत नहीं की थी। आप यह भी कह सकते हैं कि अमेरिका ने जापान के पर्ल हार्बर पर हमला किया था। ये सच है कि यूक्रेन हिंसक हमले का सामना कर रहा है, ऐसे में चुनाव नहीं करा सकता है।’
जॉनसन ने लिखा है, ‘ब्रिटेन में भी 1935 से 1945 के बीच चुनाव नहीं हुआ था। यह बात भी सच है कि जेलेंस्की की रेटिंग्स चार प्रतिशत नहीं है। ट्रंप का बयान ऐतिहासिक रूप से सही नहीं है लेकिन यूरोप का रुख़ भी ठीक नहीं है। ख़ासकर अमेरिका बेल्जियम में 300 अरब डॉलर की रूसी संपत्ति फ्रीज़ किए जाने को देख सकता है। इस रक़म का इस्तेमाल यूक्रेन को भुगतान करने और अमेरिका की मदद में हो सकता है। पुतिन की इस नकदी को यूरोप ने फ्रीज करके क्यों रखा है? अमेरिका का मानना है कि बेल्जियम, फ्रांस और अन्य देशों ने इसे फ्रीज करके रखा है। यह बहुत ही खराब है। हमें इसे गंभीरता से लेना होगा और तत्काल।’
भारत की समझदारी?
सऊदी अरब में भारत के राजदूत रहे तलमीज अहमद कहते हैं कि भारत किसी भी सूरत में रूस को नहीं छोड़ सकता था। बाइडन को अंदाज़ा होना चाहिए था कि अमेरिका की विश्वसनीयता ट्रंप के पहले भी बहुत संदिग्ध रही है।
तलमीज अहमद कहते हैं, ‘भारत ने अतीत में अमेरिका को खूब अनुभव किया है। अफग़़ानिस्तान को अमेरिका ने युद्धग्रस्त इलाका बनाकर छोड़ दिया। इराक में क्या किया सबको पता है। सीरिया में कुर्दों के साथ क्या किया, पूरी दुनिया ने देखा। भारत ने ख़ुद भी पाकिस्तान के साथ जंग में अमेरिका का रुख़ देखा है। ऐसे में पश्चिम के देश कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि भारत रूस को छोड़ अमेरिका पर भरोसा करने लगे? भारत ने ईरान के मामले में ट्रंप की बात इसलिए मान ली थी कि बड़े पैमाने पर हित प्रभावित नहीं हो रहे थे। तेल खरीदने की ही बात थी और तेल बेचने वाले देशों की कमी नहीं है।’
भारत और रूस के संबंध ऐतिहासिक रहे हैं। जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी तब ही सोवियत यूनियन ने 1900 में पहला वाणिज्यिक दूतावास खोला था। लेकिन दोनों देशों के बीच संबंधों में गर्माहट शीत युद्ध के दौरान आई।
आजादी के बाद से ही भारत की सहानुभूति सोवियत यूनियन से रही है। ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की पॉलिटिकल साइंटिस्ट पिल्लई राजेश्ववरी ने लिखा है कि भारत की सोवियत यूनियन से सहानुभूति उपनिवेश और साम्राज्यवाद विरोधी भावना के कारण भी है।
यह भावना शीत युद्ध के दौरान शीर्ष पर रही। कहा जाता है कि यह भावना कई बार पश्चिम और अमेरिका विरोधी भी हो जाती है। शीत युद्ध के बाद भी भारत की सहानुभूति रूस से ख़त्म नहीं हुई। यूक्रेन युद्ध में भी भारत के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया।
यूक्रेन संकट में भारत के रुख़ से पश्चिम को भले निराशा हुई लेकिन भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ज़ोरदार और आक्रामक तरीके से अपनी नीति का बचाव करते रहे।
भारत का तर्क
जयशंकर भारत के रुख़ पर यूरोप की निराशा और सवालों का जवाब बहुत ही आक्रामक तरीके से दे रहे थए। 2022 के जून महीने के पहले हफ्ते में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्लोवाकिया की राजधानी ब्रातिस्लावा में एक कॉन्फ्ऱेंस में कहा था, ‘यूरोप इस मानसिकता के साथ बड़ा हुआ है कि उसकी समस्या पूरी दुनिया की समस्या है, लेकिन दुनिया की समस्या यूरोप की समस्या नहीं है’
जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल के प्रोफेसर प्रभाष रंजन ने जयशंकर की इस टिप्पणी को तीन नवंबर, 1948 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा में नेहरू के भाषण से जोड़ा था।
नेहरू ने कहा था, ''यूरोप की समस्याओं के समाधान में मैं भी समान रूप से दिलचस्पी रखता हूँ। लेकिन मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि दुनिया यूरोप के आगे भी है। आप इस सोच के साथ अपनी समस्या नहीं सुलझा सकते हैं कि यूरोप की समस्या ही मुख्य रूप से दुनिया की समस्या है।’
समस्याओं पर बात संपूर्णता में होनी चाहिए। अगर आप दुनिया की किसी एक भी समस्या की उपेक्षा करते हैं तो आप समस्या को ठीक से नहीं समझते हैं। मैं एशिया के एक प्रतिनिधि के तौर पर बोल रहा हूँ और एशिया भी इसी दुनिया का हिस्सा है।’
जयशंकर की इस टिप्पणी का हवाला देते हुए जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने फऱवरी 2023 में म्यूनिख सिक्यॉरिटी कॉन्फ्रेंस में कहा था, ‘भारतीय विदेश मंत्री की टिप्पणी में दम है। लेकिन अगर अंतरराष्टीय संबंधों में नियमों का पालन सख़्ती से किया जाए तो यह केवल यूरोप की समस्या नहीं रहेगी।’
लेकिन दिलचस्प यह है कि अब तक यूरोप यूक्रेन-रूस जंग में भारत को नसीहत दे रहा था और अब ख़ुद ही आत्ममंथन के लिए मजबूर है। ((bbc.com/hindi)
मुख्यमंत्री के जन्मदिन पर विशेष
-हर्षलता लोन्हारे
छत्तीसगढ़ के खूबसूरत वादियों में स्थित जशपुर जिला के ग्राम बगिया में जन्म लेने वाले मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय सज्जनता और सहृदयता के एक प्रतीक हैं। मात्र 14 माह के अपने मुख्यमंत्रित्व काल में छत्तीसगढ़ में विकास का एक नया आयाम गढ़ने वाले तथा राज्य के नागरिकों के दिलों में राज करने वाले साय आज अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। विष्णुदेव साय जनता के बीच के एक ऐसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री हैं जिनकी सदाशयता और दूरगामी योजनाओं से प्रदेश में विकास और प्रगति का रास्ता आसान हुआ है। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय आदिवासी पृष्ठभूमि से आते हैं, इस समाज से आने वाले वे प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री हैं।
साय सरकार ने एक साल के भीतर छत्तीसगढ़ के किसान भाइयों के खाते में 52 हजार करोड़ रुपए भेजकर उन्हें उत्साह से भर दिया है। धान खरीदी समाप्त होने के एक सप्ताह के भीतर किसानों को भुगतान कर दिया गया है। 52 हजार करोड़ रुपए किसानों के खाते में आने से वे खेती-किसानी में भरपूर निवेश कर रहे हैं, और इससे बाजार भी गुलजार हुए हैं जिसका शहरी अर्थव्यवस्था पर सीधा असर दिख रहा है। ट्रैक्टर आदि की बिक्री ने रिकॉर्ड आंकड़ा छू लिया है। धान का उचित मूल्य मिलने से किसानों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई और इस साल 25 लाख 72 हजार किसानों ने 149 लाख 25 हजार मीट्रिक टन रिकॉर्ड धान बेचा।
उन्होंने एक साल के संक्षिप्त कार्यकाल में छत्तीसगढ़ को पूरे देश में एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया है। बहुत कम समय में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने प्रदेश की जनता के बीच जाकर न केवल विश्वास जीता है, बल्कि उनके हित को ध्यान में रखकर उन्होंने ऐसी योजनाओं का क्रियान्वयन किया है जिससे छत्तीसगढ़ का समग्र विकास सम्भव हो पाया है।
मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने शपथ लेते ही प्रदेश की समस्त महिलाओं को महतारी वंदन योजना जैसी एक लाभकारी योजना की सौगात दी है। महतारी वंदन योजना से प्रदेश की महिलाओं को हर माह एक हजार रुपए की राशि दी जाती है जिससे वे स्वावलंबी बन सकें एवं स्वयं का रोजगार भी प्रारंभ कर सकें। साथ ही प्रदेश भर के किसानों को 2 साल का बकाया बोनस और 31 सौ रुपए प्रति क्विंटल की दर से धान खरीदी जैसे वादों को पूरा कर छत्तीसगढ़ के किसानों का मान बढ़ाया है।
इस खरीफ सीजन में उपज का वाजिब दाम 31 सौ रूपए प्रति क्विंटल की दर से धान ख़रीदा गया। सरकार ने किसानों से 21 क्विंटल प्रति एकड़ धान खरीदी की है। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ के 25 लाख 72 हजार किसानों ने 149 लाख 25 हजार मेट्रिक टन धान लिया है। यह अब तक की धान खरीदी का सबसे बड़ा रिकॉर्ड है। साय सरकार के माध्यम से किसानों के खाते में 52 हजार करोड़ रूपए ट्रांसफर हुए हैं।
हाल ही में नगर पालिका चुनाव में ऐतिहासिक जनादेश प्राप्त हुआ। प्रदेश में अब ट्रिपल इंजन की सरकार से नगरों का सर्वांगीण विकास होगा।
मुख्यमंत्री श्री साय ने अभी कहा है कि प्रदेश में बीते 13 महीनों में 305 नक्सली मारे जा चुके हैं, 1177 नक्सलियों को गिरफ्तार किया गया है और 985 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है।
मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने प्रदेश के हर वर्ग के लोगों को साथ लेकर चलने का बीड़ा उठाया है। उन्होंने प्रदेश के हर वर्ग की बुनियादी सुविधाओं और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पीएम आवास योजना, कृषक उन्नति योजना, नियद नेल्ला नार, अखरा निर्माण योजना जैसी योजनाओं का शुभारम्भ किया है।
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के नेतृत्व में यह पहली बार हुआ है कि स्कूलों में एक विशेष अवसर पर न्यौता भोजन का भी आयोजन किया जाता है। न्यौता भोजन सामुदायिक भागीदारी पर आधारित एक ऐसा उपक्रम है जिसके माध्यम से स्कूल के बच्चों को समाज से जोड़ा जा सके एवं उनके भीतर समानता की भावना विकसित किया जा सके।
मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय जनता के बीच और हर समुदाय के बीच एक ऐसा पुल बनाना जानते हैं जिससे सभी एक दूसरे से जुड़ सकें और सभी प्रदेश के हित में अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह भी कर सकें।
अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने संघीय कर्मचारियों की संख्या में भारी कटौती करने की योजना बनाई है। अमेरिका की कई संघीय एजेंसियों में कर्मचारियों को सामूहिक रूप से बर्खास्त करने की शुरुआत भी हो चुकी है। हालांकि, अमेरिका में कर्मचारियों को भर्ती करने और निकालने से जुड़े नियम-कानून जटिल हैं। ऐसे में ट्रंप की योजना को मुकदमों और देरी का सामना करना पड़ सकता है।
अमेरिका में सरकार के लिए काम करने वाले सिविल कर्मचारियों की संख्या करीब 23 लाख है। ट्रंप ने 11 फरवरी को एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें एजेंसियों को कर्मचारियों की संख्या में बड़े स्तर पर कमी लाने और पदों को समाप्त करने के तरीके ढूंढऩे के निर्देश दिए गए हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि एजेंसियां निकाले गए हर चार लोगों के बदले में सिर्फ एक व्यक्ति को भर्ती कर सकती हैं।
ट्रंप के पास नौकरी छीनने का कितना अधिकार
राष्ट्रपति होने के नाते, ट्रंप के पास संघीय कार्यबल में कमी लाने के व्यापक अधिकार हैं। लेकिन कर्मचारियों को नौकरी से निकालना इतना आसान भी नहीं है। कानूनी रूप से सिविल सेवा के ज्यादातर कर्मचारियों को उनके बुरे प्रदर्शन या बुरे व्यवहार के बाद ही नौकरी से निकाला जा सकता है। मनमाने ढंग से नौकरी छीने जाने पर उनके पास अपील करने का अधिकार होता है।
संघीय एजेंसियां तथाकथित 'बल में कटौती' प्रक्रिया के जरिए कर्मचारियों की संख्या कम कर सकती हैं। लेकिन यह एक जटिल प्रक्रिया हो सकती है क्योंकि इसमें बर्खास्तगी से जुड़े नियम-कानूनों का पालन करना होता है। इस प्रक्रिया में महीनों से लेकर सालभर तक का समय लग सकता है। इसमें कर्मचारियों को नोटिस देना जरूरी होता है और कुछ मामलों में उन्हें दूसरी सरकारी नौकरी में जाने का मौका भी देना होता है। इस प्रक्रिया में कर्मचारियों को निकालने की वैध कानूनी वजह भी बतानी होती है।
कर्मचारियों के पास क्या हैं अधिकार
संघीय कर्मचारी बर्खास्तगी के खिलाफ मेरिट सिस्टम्स प्रोटेक्शन बोर्ड में अपील कर सकते हैं। यह एक स्वतंत्र एजेंसी है, जो सिविल सेवकों की राजनीतिक प्रतिशोध और अन्य अवैध खतरों से सुरक्षा करने वाले कानूनों को लागू करती है। इनका बोर्ड विवादों की सुनवाई के लिए प्रशासनिक जजों को नियुक्त करता है। लेकिन आखिरी फैसला एजेंसी का तीन सदस्यीय बोर्ड ही सुनाता है।
ट्रंप ने इस बोर्ड की अध्यक्ष कैथी हैरिस को उनके पद से हटा दिया है। हैरिस ने इसके खिलाफ मुकदमा दाखिल किया है। उनका कहना है कि उन्हें सिर्फ प्रदर्शन के आधार पर हटाया जा सकता है। हालांकि, अगर कर्मचारियों के बोर्ड के पास अपील करने के मौके खत्म हो जाते हैं तो वे सीधे वॉशिंगटन स्थित संघीय सर्किट में अपील दाखिल कर सकते हैं।
कितने कर्मचारी खुद छोड़ रहे नौकरी
ट्रंप के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद उनके प्रशासन ने कर्मचारियों को प्रस्ताव दिया था कि अगर वे अभी नौकरी छोड़ देते हैं तो उन्हें 30 सितंबर तक वेतन और दूसरे लाभ मिलते रहेंगे। ट्रंप के लिए कर्मचारियों की संख्या में कटौती करने का यह सबसे आसान तरीका था क्योंकि इसमें कर्मचारी अपनी मर्जी से नौकरी छोड़ते।
व्हाइट हाउस के मुताबिक, करीब 75 हजार कर्मचारियों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया है। यह कुल कर्मचारियों का करीब तीन फीसदी है। कर्मचारी संगठनों ने इस प्रस्ताव पर रोक लगवाने के लिए अपील भी दायर की थी लेकिन संघीय जज ने प्रस्ताव पर रोक लगाने से साफ इनकार कर दिया। हालांकि, 12 फरवरी को इस प्रस्ताव की समय अवधि खत्म हो गई, यानी कर्मचारी अब इसे नहीं चुन सकते हैं। (डॉयचेवैले)
पनामा नहर का निर्माण अमेरिका ने 1900 के दशक की शुरुआत में किया था और कई दशकों तक उसपर अपना नियंत्रण रखा. अब पनामा सरकार अटलांटिक और प्रशांत महासागर को जोड़ने वाली इस नहर का संचालन करती है. जानिए क्यों है ये इतनी अहम.
-पढ़ें डॉयचे वैले पर डार्को यानयेविच का लिखा-
अमेरिका के आगामी राष्ट्रपति ट्रंप ने कई बार धमकी दी कि वह फिर से पनामा नहर को अपने नियंत्रण में ले लेंगे। वहीं दूसरी ओर, पनामा सरकार ने साफ कहा कि वह नहर पर अपना अधिकार किसी भी हालत में नहीं छोड़ेगी। इसलिए, दुनिया की निगाहें एक बार फिर अटलांटिक और प्रशांत महासागरों के बीच इस रणनीतिक नौसैनिक मार्ग पर टिकी है।
ट्रंप यह याद दिलाने के लिए उत्सुक हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक सदी पहले इस नहर को बनाया था और मानव जीवन की बड़ी कीमत पर वैश्विक नौवहन में क्रांति लाई थी। 1914 से पहले, अटलांटिक से प्रशांत महासागर में जाने वाले जहाजों को दक्षिण अमेरिका के चारों ओर जोखिम भरी, महीनों लंबी यात्रा करनी पड़ती थी। आधुनिक जहाजों को भी यह यात्रा पूरी करने में लगभग दो सप्ताह लगते हैं, जबकि नहर को पार करने में सिर्फ 8 से 10 घंटे लगते हैं।
जब अमेरिका ने नहर बनवाई थी
ट्रंप ने हाल ही में दावा किया कि 1904 और 1914 के बीच पनामा नहर के निर्माण के दौरान 35,000 या 38,000 ‘अमेरिकी लोगों’ की मृत्यु हुई थी। हालांकि, यह बात कुछ हद तक सही है कि नहर के निर्माण के दौरान हजारों लोगों की जान गई थी। इन मौतों की वजह मलेरिया, पीले बुखार, दुर्घटनाएं और अन्य कारण थे, लेकिन ट्रंप ने जो आंकड़ा दिया है उसके पीछे की सटीक गणना स्पष्ट नहीं है। यानी, यह साफ नहीं है कि ट्रंप ने यह आंकड़ा कैसे निकाला।
अमेरिका द्वारा पनामा नहर के निर्माण के दौरान आधिकारिक तौर पर लगभग 5,600 लोगों की मृत्यु हुई थी। हालांकि, वास्तविक संख्या इससे अधिक भी हो सकती है, लेकिन इस निर्माण कार्य में सबसे ज्यादा मजदूर बारबाडोस से आए थे। ‘हेल्स गॉर्ज : द बैटल टू बिल्ड द पनामा कैनाल’ के लेखक मैथ्यू पार्कर के अनुसार, निर्माण के दौरान मरने वाले अमेरिकियों की संख्या संभवत: करीब 300 थी।
यह भी हो सकता है कि ट्रंप अमेरिका द्वारा जलमार्ग बनाने के प्रयास के दौरान हुए नुकसान को फ्रांस के पहले के असफल प्रयास के साथ जोड़ रहे हों। 1880 के दशक में फ्रांस की परियोजना में 20,000 से 25,000 श्रमिकों की जान चली गई थी, लेकिन उनमें से लगभग कोई भी अमेरिकी पनामा को नहर पर नियंत्रण कैसे मिला।
नहर के खुलने के बाद भी अमेरिका ने कई दशकों तक इसका संचालन जारी रखा। हालांकि, 1977 में राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने धीरे-धीरे इस क्षेत्र का नियंत्रण पनामा सरकार को सौंपने पर सहमति जताई। संधि में यह तय किया गया था कि जलमार्ग तटस्थ रहेगा और सभी देशों के जहाजों के लिए खुला रहेगा। अमेरिका ने इसे किसी भी खतरे से बचाने का अधिकार भी बरकरार रखा।
वर्ष 1999 में अमेरिका ने पनामा नहर पर अपना नियंत्रण पूरी तरह छोड़ दिया। इसके बाद से नहर का संचालन पनामा की सरकार कर रही है। अब, ट्रंप ‘चीन के अद्भुत सैनिकों’ पर नहर को अवैध तरीके से चलाने का आरोप लगा रहे हैं। वहीं, पनामा के राष्ट्रपति होजे राउल मुलिनो ने इन आरोपों को बकवास बताया। जनवरी की शुरुआत में मुलिनो ने कहा, ‘नहर में कोई चीनी सैनिक नहीं हैं।’
इस क्षेत्र में चीन की सैन्य उपस्थिति का कोई संकेत नहीं है, लेकिन कुछ अमेरिकी पर्यवेक्षकों ने दो बंदरगाहों के बारे में चिंता व्यक्त की है। नहर के प्रवेश द्वार पर स्थित इन बंदरगाहों का प्रबंधन लंबे समय से हांगकांग स्थित सीके हचिसन होल्डिंग्स की एक सहायक कंपनी कर रही है। इन पर्यवेक्षकों की चिंता है कि इन बंदरगाहों के माध्यम से अहम डेटा लीक हो सकता है। इसके अलावा, पनामा और चीन मिलकर नहर के ऊपर एक नए पुल का निर्माण कर रहे हैं। इस पुल के निर्माण के लिए चीन पनामा को पैसा दे रहा है। इससे अमेरिका की चिंताएं बढ़ गई हैं।
पनामा नहर क्यों महत्वपूर्ण है?
नहर के प्रबंधकों के मुताबिक, औसतन एक वर्ष में 13,000 से 14,000 जहाज 82 किलोमीटर (52 मील) लंबे इस जलमार्ग से गुजरते हैं। यहां बनाए गए सिस्टम की मदद से हर दिन दर्जनों जहाजों को एक छोर से दूसरे छोर ले जाया जाता है। जहाजों को ऊपर उठाने और फिर समुद्र तल पर लाने के लिए, इस सिस्टम में गेट, लॉक और कृत्रिम झील से भरे हुए जलाशयों का उपयोग किया जाता है। इस दौरान जहाजों को 26 मीटर (85 फीट) तक ऊपर उठाया जाता है। जहाजों से उनके आकार के आधार पर क्रॉसिंग के लिए शुल्क लिया जाता है।
अमेरिका, चीन और जापान पनामा नहर के मुख्य ग्राहक हैं। इस नहर से गुजरने वाले जहाजों का लगभग 72 फीसदी माल या तो अमेरिकी बंदरगाहों से आता है या अमेरिकी बंदरगाहों की ओर जा रहा होता है।
हाल ही में, पानी की कमी की वजह से नहर प्राधिकरण को क्रॉसिंग की संख्या कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। साथ ही, शुल्क को भी बढ़ाया गया। नहर के प्रबंधक ने वित्तीय वर्ष 2024 में 3.45 अरब डॉलर का शुद्ध लाभ कमाया है।
नहर के यातायात में अमेरिकी व्यापार का बहुत बड़ा योगदान होने के कारण, इसके व्यवसाय को भी बढ़ी हुई लागतों का खामियाजा भुगतना पड़ा। दिसंबर में, ट्रंप ने पनामा पर ‘बेतुका’ और ‘अत्यधिक’ फीस वसूलने का आरोप लगाया और इसे ‘धोखाधड़ी’ करार दिया। ट्रंप ने कहा, ‘हमें पनामा नहर के जरिए लूटा जा रहा है। यह नहर मूर्खतापूर्वक सौंप दी गई थी और अब वे हमसे अत्यधिक शुल्क वसूल रहे हैं।’
क्या अमेरिका नहर को वापस ले सकता है?
कार्टर द्वारा हस्ताक्षरित 1977 की संधि की शर्तों में स्पष्ट किया गया है कि पनामा को तटस्थता बनाए रखनी है, जिसका मतलब है कि उसकी सरकार अमेरिकी माल ले जाने वाले जहाजों के लिए कम शुल्क नहीं ले सकती। हालांकि, यह संभव है कि ट्रंप प्रशासन के दबाव के कारण सभी के लिए शुल्क कम किया जा सकता है या अगले संकट के दौरान नहर प्राधिकरण को अधिक शुल्क लेने से रोका जा सकता है।
एक और संभावित विकल्प यह है कि अमेरिका पनामा पर आक्रमण करके नहर पर सैन्य नियंत्रण कर ले।
अमेरिका ने 1989 के अंत में ऐसा किया था। उस समय अमेरिकी सैनिकों को सैन्य तानाशाह और पूर्व सीआईए एजेंट मैनुअल नोरिएगा को सत्ता से हटाने के लिए पनामा में तैनात किया गया था। हालांकि, इस बात की बेहद कम संभावना है कि ट्रंप सरकार ऐसा करेगी।
अमेरिकी आक्रमण के बाद, पनामा की अमेरिका समर्थित सरकार ने वहां की सेना को समाप्त कर दिया। करीब 45 लाख की आबादी वाला देश पनामा अब एक छोटा अर्धसैनिक बल रखता है। इन तमाम बातों के बीच, ट्रंप ने विवाद को सुलझाने में सेना के इस्तेमाल से इनकार नहीं किया है। (डॉयचेवैले)
- रजनीश कुमार
रेखा गुप्ता और अरविंद केजरीवाल में दो समानताएं हैं। अरविंद केजरीवाल की तरह रेखा गुप्ता भी हरियाणा की हैं और बनिया जाति से ताल्लुक रखती हैं।
अरविंद केजरीवाल, सुषमा स्वराज के बाद रेखा गुप्ता दिल्ली की तीसरी मुख्यमंत्री होंगी, जो हरियाणा से हैं। दिल्ली से पहले बीजेपी की 13 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में सरकार थी लेकिन कोई भी महिला मुख्यमंत्री नहीं थी।
राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया के बाद बीजेपी का यह बॉक्स खाली था, जिसे अब रेखा गुप्ता ने भर दिया है।
अब भारत के 13 राज्य और दो केंद्रशासित प्रदेश बीजेपी शासित होंगे।
अब तक भारत के कुल 28 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों में ममता बनर्जी एकमात्र महिला मुख्यमंत्री थीं। दिल्ली की मुख्यमंत्री बनने के बाद रेखा गुप्ता अब दूसरी महिला मुख्यमंत्री होंगी।
भारत की चुनावी राजनीति में पिछले एक दशक से महिलाओं को नए वोट बैंक के रूप में देखा जा रहा है।
कहा जा रहा है कि महिलाओं को जाति और धर्म की पहचान से अलग राजनीतिक रूप से लामबंद किया जा सकता है। ऐसे में शायद बीजेपी इस आधी आबादी के बीच संदेश देना चाहती है कि उसकी प्राथमिकता में वे हैं।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी आम आदमी पार्टी और बीजेपी से लेकर कांग्रेस तक ने चुनावी वादों में महिलाओं को प्राथमिकता दी थी।
बीजेपी ने तो दिल्ली में चुनाव जीतने के बाद महिलाओं को हर महीने 2500 रुपए देने का वादा किया है।
ऐसे में रेखा गुप्ता को बीजेपी ने मुख्यमंत्री के लिए चुना तो यह उसकी इसी रणनीति के हिस्से के तौर पर देखा जा रहा है।
आरएसएस और विद्यार्थी परिषद की पृष्ठभूमि
कहा जाता है कि बीजेपी में बड़े नेता वही बनते हैं, जिनकी पृष्ठभूमि आरएसएस या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की होती है।
बीजेपी के शीर्ष नेताओं की पृष्ठभूमि देखने के बाद इस बात की पुष्टि भी होती है। वो चाहे अटल-आडवाणी की जोड़ी हो या नरेंद्र मोदी और अमित शाह की। या फिर अरुण जेटली हों या नितिन गडकरी।
रेखा गुप्ता के साथ आरएसएस और एबीवीपी दोनों की पृष्ठभूमि हैं।
सुषमा स्वराज के बारे में कहा जाता है कि वह बीजेपी में शीर्ष या निर्णय लेने की क्षमता रखने वाली नेता बन सकती थीं लेकिन उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि न तो आरएसएस वाली थी और न ही एबीवीपी वाली। सुषमा स्वराज की शुरुआती राजनीतिक पृष्ठभूमि जनता पार्टी की थी।
रेखा गुप्ता भले पहली बार विधायक बनी हैं लेकिन दिल्ली की राजनीति के लिए नई नहीं हैं। वह दिल्ली नगर निगम की पार्षद रही हैं।
रेखा गुप्ता ने पिछली दो बार से दिल्ली में विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
इस बार शालीमार बाग से रेखा गुप्ता ने आम आदमी पार्टी की बंदना कुमारी को 29,595 मतों से मात दी। दिल्ली में विधानसभा चुनाव इतने बड़े मार्जिन से जीतना एक बड़ी जीत है।
दिल्ली में चुनाव जीतने के 10 दिन बाद बीजेपी ने मुख्यमंत्री कौन होगा से पर्दा हटाया।
इन 10 दिनों में कई नामों की चर्चा हुई। सबसे ज़्यादा चर्चा में प्रवेश वर्मा थे। प्रवेश वर्मा ने नई दिल्ली सीट से दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल को हराया था।
दिल्ली के चुनावी दंगल की वो पांच सीटें जिन पर हुआ बड़ा उलटफेर
प्रवेश वर्मा कैसे पिछड़ गए?
प्रवेश वर्मा ने 4089 मतों से अरविंद केजरीवाल को मात दी थी। प्रवेश वर्मा को कुल 30,088 वोट मिले और अरविंद केजरीवाल को 25,999 वोट मिले।
तीसरे नंबर पर कांग्रेस के संदीप दीक्षित रहे, जिन्हें कुल 4,568 वोट मिले। इस जीत के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वर्मा की दावेदारी मजबूत हुई थी लेकिन रेखा गुप्ता भारी पड़ीं।
मीडिया में अब ये कयास लगाए जा रहे हैं कि प्रवेश वर्मा को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी मिल सकती है।
प्रवेश वर्मा के पिता साहिब सिंह वर्मा 26 फऱवरी 1996 से 12 अक्तूबर 1998 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे थे। बीजेपी कांग्रेस और बाक़ी क्षेत्रीय पार्टियों पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाती रही है। ऐसे में प्रवेश वर्मा को अगर दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाती तो पार्टी को विपक्ष की आलोचना का सामना करना पड़ सकता था।
बीजेपी मुख्यमंत्रियों के बेटों को मुख्यमंत्री बनाने से परहेज करती रही है। हिमाचल प्रदेश में प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर को मुख्यमंत्री का अहम दावेदार माना जाता था लेकिन बीजेपी ने जयराम ठाकुर को चुना था।
दिल्ली में मुख्यमंत्री के चुनाव से पहले ये कहा जा रहा था कि किसान आंदोलन के कारण बीजेपी से जाटों की नाराजग़ी रही है और इसे पाटने के लिए प्रवेश वर्मा को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है।
लेकिन बीजेपी की एक रणनीति यह भी रही है कि जिस राज्य में किसी खास जाति का प्रभाव ज़्यादा है, उस जाति के बदले दूसरी जाति से सीएम बनाओ।
जैसे हरियाणा में जाट राजनीतिक और समाजिक रूप से प्रभावी हैं लेकिन बीजेपी ने उस जाति का सीएम पिछले 11 सालों से नहीं बनाया। इसी तरह महाराष्ट्र में मराठों का प्रभाव ज़्यादा है लेकिन बीजेपी ने विदर्भ के ब्राह्मण देवेंद्र फडणवीस को सीएम बनाया। इसी तरह झारखंड में आदिवासी मुख्यमंत्री के बदले तेली जाति से ताल्लुक रखने वाले रघुबर दास को सीएम बनाया था।
कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि प्रवेश वर्मा की छवि विवादित रही है, इसलिए भी बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी देने से परहेज किया।
प्रवेश वर्मा ने अक्तूबर 2022 में दिल्ली में विश्व हिन्दू परिषद के एक कार्यक्रम में एक खास समुदाय के संपूर्ण बहिष्कार की बात कही थी।
प्रवेश वर्मा ने कहा था, ‘मैं कहता हूँ, अगर इनका दिमाग़ ठीक करना है, इनकी तबीयत ठीक करनी है तो एक ही इलाज है और वो है संपूर्ण बहिष्कार।’
तब प्रवेश वर्मा पश्चिमी दिल्ली से सांसद थे। कहा जाता है कि पार्टी प्रवेश वर्मा के इस बयान से नाराज़ थी। 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रवेश वर्मा का महरौली से टिकट भी कट गया था।
लेकिन रेखा गुप्ता के भी पुराने ट्वीट सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं, जो राजनीतिक मर्यादा के बिल्कुल उलट हैं।
जब रेखा गुप्ता ये सब ट्वीट करती थीं तो किसी बड़े राजनीतिक पद पर नहीं थीं, इसलिए लोगों का ध्यान नहीं जाता था लेकिन प्रवेश वर्मा लोकसभा सांसद थे और उनके साथ एक राजनीतिक विरासत भी जुड़ी थी, इसलिए उनकी कही बात मीडिया में सुर्खियां बनी थी।
रेखा गुप्ता कौन हैं?
रेखा गुप्ता दिल्ली की राजनीति में पिछले 30 सालों से सक्रिय हैं। रेखा जब दिल्ली यूनिवर्सिटी के दौलत राम कॉलेज से बीकॉम कर रही थीं, तभी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत कर दी थी। 1992 में रेखा ने बीजेपी के छात्र विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को जॉइन किया था।
बुधवार को दिल्ली में बीजेपी के 48 विधायकों ने उन्हें सर्वसम्मति से विधायक दल का नेता चुन लिया और आज यानी 20 फरवरी को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगी। रेखा गुप्ता ने मुख्यमंत्री के लिए चुने जाने पर कहा, ‘देश की हर महिला के लिए यह गर्व की बात है। बीजेपी ने दिल्ली में जो भी वादा किया है, उसे हम पूरा करेंगे। मेरी जिंदगी का यही मकसद है।’
रेखा गुप्ता ने आम आदमी पार्टी की तीन बार की विधायक बंदना कुमारी को मात दी थी। 50 साल की रेखा गुप्ता तीन बार शालीमार बाग से पार्षद रही हैं। रेखा गुप्ता 2000 के दशक में बीजेपी में आई थीं और संगठन में कई पदों पर रहीं। इनमें दिल्ली बीजेपी महासचिव, बीजेपी महिला मोर्चा की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश महिला मोर्चा की उपाध्यक्ष का पद उनके नाम रहा। इसके अलावा रेखा गुप्ता बीजेपी युवा मोर्चा विंग की भी पदाधिकारी रही हैं।
रेखा गुप्ता को हार का भी सामना करना पड़ा है। शालीमार बाग से 2015 और 2020 में आम आदमी पार्टी की बंदना कुमारी से रेखा गुप्ता को हार मिली थी।
बीजेपी ने स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की है कि आम आदमी पार्टी ने आतिशी को अस्थायी मुख्यमंत्री बनाया था लेकिन उसने एक महिला को स्थायी मुख्यमंत्री बना दिया है।
रेखा गुप्ता 1995 में दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन की सचिव बनी थीं और बाद में अध्यक्ष बनीं। जब रेखा गुप्ता डीयूएसयू में सचिव थीं, तब कांग्रेस के छात्र विंग एनएसयूआई से अल्का लांबा से अध्यक्ष थीं।
अल्का लांबा ने रेखा गुप्ता के मुख्यमंत्री चुने जाने पर डीयू के दिनों की अपनी एक तस्वीर शेयर करते हुए लिखा है, ‘1995 की यह यादगार तस्वीर है, जब मैंने और रेखा गुप्ता ने एक साथ शपथ ली थी। मैंने एनएसयूआई से दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की थी और रेखा ने एबीवीपी से महासचिव पद पर जीत हासिल की थी। रेखा गुप्ता को बधाई और शुभकामनाएं। दिल्ली को चौथी महिला मुख्यमंत्री मिलने पर बधाई और हम दिल्ली वाले उम्मीद करते हैं कि माँ यमुना स्वच्छ होंगी और बेटियां सुरक्षित। (bbc.com/hindi)
-सनियारा खान
1928 में यंग इंडिया में महात्मा गांधी ने लिखा था कि ईश्वर कभी भी हिंदुस्तान को पश्चिम के औद्योगिकरण को अपनाने की मानसिकता न दे। बड़े बड़े पश्चिमी देशों ने उन्नति के नाम पर प्रकृति को इस तरह दोहा है कि आज उन देशों में प्रकृति का प्रकोप दिखने भी लगा है। फिर एशिया के विकासशील देशों में भी ये प्रवृत्ति शुरू हो गई। हम भी उन्नति के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़ करने लग गए।
एक बच्चा जब जन्म लेता है, उसमें कोई लालच नहीं रहता है और न ही कोई हवस। लेकिन वह जब बड़ा होने लगता है तब औरों को देख-देखकर वह भी ज़्यादा पाने की लालच करना सीख जाता है। उसके बाद ‘मुझे और ज्यादा चाहिए’ वाली मानसिकता उसमें पनपने लगती है। बड़े होकर हम धन और क्षमता की लालच में एक विशाल चक्रव्यूह में फंसते जाते हैं। अंत तक इसी चक्रव्यूह में ही फंसे रह जाते हैं। ये लालच ही है जो हमें आवश्यकता से बहुत आगे तक धकेलती है। इसीलिए गांधीजी ने ये भी कहा था कि समाज में सभी लोगों की आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए।
ये धरती सभी की लालच के लिए नहीं बल्कि सभी की आवश्यकता की पूर्ति के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध कराती है। लेकिन चंद लोग लालच में डूबकर औरों के हिस्से की आवश्यकता को भी छीनकर अपने हिस्से में कर लेते हैं। आवश्यकता हमें सुकून से जीने देती है। लेकिन लालच हमारा सुकून छीन लेती है। जब हम लालची हो जाते हैं तब हिंसा और स्वार्थ भी हमारे अंदर आसानी से दाखिल हो जाता हैं। शहर तो शहर, हमारे गांव भी लालच के आंधी तूफान में बहने लगते हैं। क्यों हम हमारी सादगी भरी प्राचीन संस्कृति को भूलकर औरों का देखादेखी सारी कु संस्कृतियों को अपना कर सर्वनाश की राह पर चल पड़े हैं?
शायद इसीलिए ये कहा जाता है कि हमारी ही अपनी भूलों के कारण हमें कोरोना का सामना करना पड़ा। वैश्विक महामारी पर शोध करने वाली इको हेल्थ एलायंस नामक एक संस्था की प्रमुख पीटर दसजाक ने कहा भी कि कोरोना के लिए हम लोग सिर्फ चीन को ही दोष नहीं दे सकते हैं। धरती में जो जैव विविधता है, उसे मानव जाति निरंतर नुकसान पहुंचा रहे हैं। ये भी महामारी का एक कारण हो सकता है और बहुत बड़ा कारण हो सकता है ।
कोरोना को हमारे लिए अंतिम मुश्किल मानना गलत होगा। आने वाले दिनों में और भी बड़ी-बड़ी मुश्किलें हम पर आफत बनकर टूट सकती हैं! कम से कम अब तो हमें अपनी आदतें सुधारने के लिए कदम उठाना चाहिए! अभी के दिनों में, हम में से ज्यादातर लोग चीजों को खरीदकर जमा करना पसंद करते हैं। इस आदत को बदलकर हमें जिनके पास कुछ नहीं है,उनकी मदद करना चाहिए।
प्रकृति के कोप से अगर हम बचना चाहते हैं तो हम में से हर एक को दया और इंसानियत के ज़रिए पूरे विश्व को स्वस्थ करने की कोशिश करना होगा। घृणा, द्वेष और आत्ममुग्धता से हमें कुछ हासिल नहीं होगा। आज जो ये सारा विश्व प्राकृतिक आपदा और इंसानी आपदा से युद्ध कर रहा है, ये सब हमारी ही नकारात्मक गतिविधियों की देन हैं। हम जो खुदगर्ज जिंदगी जी रहे हैं, इसी के चलते मां बाप के मरते समय बच्चे पास नहीं होते... अपनों के अंतिम संस्कार में जाने कितने लोग हिस्सा ले नहीं पाते और तो और खुदगर्जी ने रिश्तों में भी दरार ला दिया है। किसी के लिए किसी के पास समय नहीं है। सिर्फ और सिर्फ कमाना और आगे बढ़ते जाना ही जीवन का स्वरूप हो गया है। इसी को अभी सभ्यता माना जा रहा है, भले ही इस सभ्यता के लिए हम बहुत बड़ी कीमत चुका रहे हैं! बहुत कम लोग समय रहते ये समझ पाते हैं कि ये सिर्फ कीमत ही नहीं, हमारे लिए सजा भी है।
शायद करोना के समय में हम सब को गृह बंदी बनाकर प्रकृति ने हमें यही समझाने की कोशिश की है कि हमारी अंतहीन लालच कई लोगों को भूखा रखती है। अब तो आत्ममंथन होना चाहिए कि बहुत सी चीजों के बगैर भी हम जी सकते हैं और उन चीजों को उन लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए जिन्हें सच में उन चीजों की जरूरत है। इस तरह नहीं सोचेंगे तो हम लालच के पीछे दौड़-दौडक़र थक जायेंगे और अपने साथ साथ इस पृथ्वी को भी बीमार कर देंगे। कम से कम संसाधनों के साथ भी हम कैसे जी सकते हैं इसी बात को लेकर नेटफ्लिक्स में एक डॉक्यूमेंट्री मूवी भी आई थी- The Minimalists: Less Is Now अर्थात न्यूनतमवादी जीवनशैली को अपनाना।
इस मूवी में यही कहा गया है कि गैरजरूरी सामानों के भीड़ में फंसकर हम भूल जाते हैं कि जिंदगी जीने के लिए बहुत कम चीजों की हमें जरूरत होती है। लेकिन हम जैसे नासमझ और लालची इंसान इस धरा को पूरी तरह निचोड़ लेने की कोशिश करते करते ही प्रथम महायुद्ध, द्वितीय महायुद्ध, प्लेग, स्पेनिश फ्लू, इबोला, स्वाइन फ्लू और करोना को अपने घर तक बुला लिया है! करोना के बाद अब और भी कई नई नई बीमारियां इंसानों को डरा रही हैं। अगर हमने सही रास्ता नहीं अपनाया तो हमारी बर्बादी निश्चित है। प्रकृति के रोष से बचना है तो हमें अपने अहंकारी कदमों को रोकना ही होगा। युद्ध काल के विनाश को हम टीवी और सिनेमा के परदे पर देखते रहते हैं। शीत अंचल में बर्फ गलने से कैसे वहां के जीव जन्तु मर रहे हैं इस बारे में भी हम पढ़ते हैं और देखते हैं। इंसानी कचरों से आज हिमालय को भी डस्टबिन बनना पड़ रहा है। तो कब तक ये सब चलता रहेगा? हर शुरुवात का अंत तय होता है। इतना सब होने के बाद भी हम अगर सचेत नहीं होंगे तो शायद दूसरे ग्रह के प्राणी एक दिन टीवी में हमें देखेंगे और किस्से कहानियों में हमारे बारे में पढ़ेंगे। अन्त में रेचल कार्सन की लिखी हुई एक बात को हम सभी को समझने की जरूरत है।
....हम सब कुदरत के साथ इंसानों के रिश्तों को जितनी साफ नजर से देखना सीखेंगे, कुदरत के साथ अपने टकराव को उतना ही कम कर पाएंगे...सच्चाई तो यह है कि हम लोगों को हर कदम में ये बात याद रखना चाहिए कि हम पृथ्वी पर अतिथि बनकर आए हैं और हमें अतिथि की तरह ही जीना चाहिए।
- रियाज मसरूर
भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर के हाईकोर्ट ने एक मुकदमे के फैसले में उन महिलाओं को ‘डिवोर्सी’ या तलाकशुदा कहने पर पाबंदी लगा दी है जिनका तलाक हो चुका है।
गुरुवार को जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट ने एक वैवाहिक विवाद के मामले में तीन साल पहले दी गई अर्जी पर फैसला सुनाया है।
अदालत ने सुनवाई के दौरान तलाकशुदा कहकर महिलाओं को संबोधित करने को ‘बुरी आदत’ बताते हुए कहा कि आज भी औरत को ऐसे पुकारना कष्टदायक है।
मुकदमे की सुनवाई करने वाली बेंच में शामिल जस्टिस विनोद चटर्जी कौल ने कहा, ‘आज के दौर में भी एक तलाकशुदा महिला को इस तरह अदालती कागजात में ‘डिवोर्सी’ लिखा जा रहा है जैसे कि यह उसका सरनेम हो। ऐसा करना एक बुरी आदत है जिस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।’
जस्टिस विनोद चटर्जी कौल का कहना था कि फिर मर्द के लिए भी ‘डिवोर्सर’ लिखा जाए, हालांकि यह भी उचित नहीं है।
जस्टिस कौल ने निर्देश जारी करते हुए सभी निचली अदालतों को सख़्त ताकीद की कि मामला विवाह का हो या कोई और, सभी अर्जियों, अपीलों और दूसरी अदालती दस्तावेजों में तलाकशुदा महिलाओं को ‘डिवोर्सी पार्टी’ कहने की बजाय उनका पूरा नाम लिखा जाए।
‘तलाकशुदा’ शब्द के इस्तेमाल पर जुर्माना
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि ऐसी किसी भी अपील या अर्जी को रद्द कर दिया जाएगा जिसमें केवल तलाक के आधार पर किसी महिला का परिचय तलाकशुदा के रूप में कराया जाएगा।
इस चलन पर पाबंदी लगाने के लिए सभी निचली अदालतों और संबंधित संस्थाओं को एक पत्र भी जारी किया गया जिसमें इस फैसले पर सख़्ती से अमल करने की ताकीद की गई है।
अदालत की यह टिप्पणी तीन साल पहले दायर किए गए वैवाहिक विवाद के मुकदमे में दी गई पुनर्विचार याचिका पर फैसला सुनाते हुए सामने आई है।
अदालत ने फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर करने वाले आवेदकों पर संबंधित महिला के लिए ‘तलाक़शुदा’ शब्द के इस्तेमाल पर बीस हज़ार का जुर्माना भी लगाया है।
अदालती आदेश के अनुसार यह जुर्माना एक महीने में जमा करवाना होगा और जुर्माना जमा नहीं करवाने की स्थिति में ‘अदालत हर तरह की कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र होगी।’
‘मुझे तलाकशुदा कहलाने की आदत हो गई है’
बडगाम जि़ले की रहने वाली ज़ाहिदा हुसैन (बदला हुआ नाम) अपनी सात साल की बेटी के साथ अपने मायके में रहती हैं। तीन साल पहले उनके पति ने उन्हें तलाक़ दे दिया था और तब से वह अक्सर अदालत में सुनवाई के लिए आती हैं।
उन्होंने इस अदालती फैसले को सराहते हुए बीबीसी से कहा, ‘मुझे तो ख़ुद के लिए तलाक़शुदा शब्द सुनने की आदत हो गई है। मैं ख़ुद भी अपने आप को तलाक़शुदा के तौर पर परिचित करवाती थी।’
वह कहती हैं कि अदालत का इस मामले में फ़ैसला बहुत अच्छा कदम है। ‘तलाक़ एक आम बात है, आखिर हम भी इंसान हैं। हमारी भी पहचान है।’
जाहिदा कहती हैं, ‘यह लफ्ज इतनी बार दोहराया गया है कि मुझे वाकई अपनी पहचान एक तलाकशुदा के अलावा कुछ नहीं दिखती थी। लेकिन बेटी बड़ी हो रही है, उसपर क्या गुजरती जब उसको मालूम होता कि तलाक़ के बाद यह हम औरतों की पहचान ही बन जाती है। यह बहुत अच्छी बात है कि किसी को तो ख़्याल आया।’
ऐसे कई मुक़दमों की अदालत में पैरवी करने वाले सीनियर वकील हबील इकबाल इस फ़ैसले पर राय देते हुए कहते हैं, ‘तलाक हमारे समाज में अब भी एक नापसंदीदा चीज है। यह एक टैबू है। निकाह या तलाक़ एक व्यक्तिगत मामला है, यह कोई सरनेम नहीं है।’
वह कहते हैं कि अदालती कार्रवाइयों के दौरान महिलाओं को अमुक बनाम डिवोर्सी कहकर बुलाए जाने से कई महिलाएं तनाव का शिकार हो जाती हैं।
एडवोकेट इकबाल इस फ़ैसले का स्वागत करते हुए कहते हैं कि सभी जज इतने संवेदनशील नहीं होते हैं। ‘उन्हें इस मामले में जागरूक करने की ज़रूरत है। निर्देश का पालन करते-करते बरसों लगते हैं। अगर इस मामले में जजों के लिए कोई जागरूकता अभियान चलाया जाए तो अच्छा होगा।’
एक महिला वकील ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि वैवाहिक विवादों के मामलों की सुनवाई के दौरान अक्सर जज घरेलू हिंसा के बारे में कहते हैं कि अरे, यह तो हर घर में होता है, चलो सुलह कर लो। उनका कहना है, ‘हालांकि ऐसे रिमार्क्स फ़ैसले का हिस्सा नहीं होते। इससे एक माइंडसेट बनता है और महिलाओं का शोषण नॉर्मलाइज़ हो जाता है।’
‘तलाक़ या शादी औरत की पहचान नहीं’
जम्मू कश्मीर में सत्तारूढ़ दल नेशनल कॉन्फ्ऱेंस की नेता और विधानसभा सदस्य शमीमा फिऱदौस ने इस अदालती फ़ैसले के बारे में बीबीसी से बात करते हुए कहा कि सबको इस फ़ैसले का स्वागत होना चाहिए।
स्थानीय महिला आयोग की पूर्व प्रमुख शमीमा फिरदौस का कहना था कि तलाक को कश्मीर में ऐब की बात माना जाता रहा है।
वह कहती हैं, ‘औरत का तलाक़ हो जाए तो उसकी पहचान ही तलाकशुदा की बन जाती है, जैसे उसकी कोई व्यक्तिगत पहचान ही नहीं। मैं इस फ़ैसले को ऐसे मामलों में अदालत का सकारात्मक क़दम समझती हूं जिसे लोगों ने नॉर्मल समझ लिया था, हालांकि महिलाएं इससे मानसिक तनाव और हीन भावना का शिकार होती थीं।’
अगस्त 2023 में उस समय के चीफ़ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक हैंडबुक जारी किया था जिसमें विभिन्न मामलों में औरतों के लिए इस्तेमाल होने वाले कुछ खास शब्दों से बचने को कहा गया था।
इस हैंडबुक में बताया गया था, ‘मुजरिम मर्द हो या औरत, केवल इंसान होता है। इसलिए हम औरतों के लिए व्यभिचारी, दुष्चरित्र, तवायफ़, बदचलन, धोखेबाज़ और आवारा जैसे शब्द इस्तेमाल नहीं कर सकते।’
इसमें और भी दर्जनों ऐसे शब्द थे जिनके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी वेबसाइट पर जानकारी दे रखी है।
हालांकि कश्मीर के अलावा भारत की अक्सर अदालतों में भी महिलाओं के लिए इस तरह के शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं। (bbc.com/hindi)
-हेमंत कुमार झा
सरकारी नौकरियों में पेंशन खत्म होने का प्रावधान यूं ही नहीं आया। इसके पीछे देशी विदेशी बीमा कंपनियों का अथक परिश्रम था। आज जब 2025 के नए बजट में भारतीय बीमा क्षेत्र में शत प्रतिशत विदेशी निवेश को स्वीकृति मिल गई तो बहुराष्ट्रीय बीमा कंपनियों के सतत ‘परिश्रम’ को भी अंतिम मुकाम मिल गया।
वह 1990 के दशक का अंतिम दौर था। भारत में आर्थिक उदारीकरण अपने दूसरे चक्र में प्रवेश कर चुका था। विदेशी निवेश के लिए भारतीय नीति नियंता पलक पांवड़े बिछाए इस देश उस देश की यात्रा के दौरान कंपनियों को आमंत्रित कर रहे थे। उसी प्रक्रिया में बीमा क्षेत्र में भी देशी विदेशी निवेश को आकर्षित करने के भी प्रयास हो रहे थे।
तब के दौर में बीमा क्षेत्र में एलआईसी और कुछेक अन्य सरकारी कंपनियों का ही बोलबाला था। निजी निवेश के लिए द्वार तो खोले जा चुके थे लेकिन कृपा थी कि कहीं अटकी पड़ी थी।
निजी बीमा कंपनियों की सरकार से शिकायत थी कि भारत में गरीबी इतनी है कि आम लोग तो बीमा खरीदने से रहे। मिडिल क्लास, जो बीमा का खरीदार था या हो सकता था, उसका बड़ा हिस्सा केंद्र और राज्य सरकार के साथ ही पब्लिक सेक्टर की नौकरियों में था और रिटायरमेंट के बाद पेंशन की सुविधा से लैस था। वह भी ऐसा पेंशन, जिसमें हर छह महीने के बाद महंगाई भत्ते की किस्त जुड़ जाती थी और हर दस वर्ष बाद पेंशन की मूल राशि का पुनरीक्षण कर उसमें अच्छी खासी बढ़ोतरी कर दी जाती थी।
बीमा का बाजार सिर्फ जीवन बीमा जैसी पॉलिसियों से नहीं बढ़ सकता था। उसके लिए जरूरी था कि लोग पेंशन प्लान जैसी योजनाओं में भारी मात्रा में निवेश करें। यह निवेश एकमुश्त बड़ी राशि जमा कर भी हो सकता था, किस्तों में जमा कर भी हो सकता था।
लेकिन सरकारी और पब्लिक सेक्टर के करोड़ों कर्मियों का तो बुढ़ापा या भविष्य, जो भी कहें, रिटायरमेंट उपरांत सरकारी पेंशन के कारण सुरक्षित था। वे जीवन बीमा तो ले रहे थे लेकिन पेंशन प्लान आदि में उनके निवेश का कोई मतलब नहीं था।
सरकार ने प्रथम चक्र में भारतीय बीमा क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी निवेश को स्वीकृति दी। यानी कोई बहुराष्ट्रीय बीमा कंपनी किसी भारतीय कंपनी के साथ भागीदारी कर भारत के बीमा बाजार में उतर सकता था। कंपनी में भारतीय पूंजी 74 प्रतिशत, विदेशी पूंजी 26 प्रतिशत।
लेकिन, रंग चोखा नहीं आ रहा था। कंपनियों को असल लाभ तो पेंशन प्लान जैसी योजनाओं से मिलना था जिनमें कोई एक मुश्त बहुत बड़ी राशि कंपनी को सौंप देता है या फिर पच्चीस तीस वर्षों तक अपने पेंशन फंड में निर्धारित राशि जमा करता रहता है, करता रहता है। ताकि, बुढ़ापे में उसे हर महीने एक निर्धारित राशि मिलते रहने की गारंटी रहें।
देशी विदेशी बीमा कंपनियों ने भारतीय नीति नियंताओं पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि सरकारी और पब्लिक सेक्टर की नौकरियों में पेंशन का प्रावधान खत्म कर दिया जाए तो भारत के बीमा बाजार में रौनक आ सकती है।
फिर क्या था, अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग दिन रात टीवी पर, अखबारों में चीखने चिल्लाने लगा कि पेंशन के मद में देश की बड़ी राशि चली जाती है और इस पर पुनर्विचार करना आज की बड़ी जरूरत है। फिर, एक दिन बाबू यशवंत सिन्हा बतौर वित्त मंत्री, भारत सरकार संसद में जार जार रोते देखे गए कि सरकार अब पेंशन का बोझ उठाने में सक्षम नहीं हो पा रही है। वे इस बात से बहुत दुखी थे कि लोग अब बहुत दिनों तक जीवित रहते हैं और नियमित पेंशन पाने वाले लोग तो और भी अधिक जीते हैं। इस कारण पेंशन की राशि का ‘बोझ’ और अधिक बढ़ता जा रहा है।
फिर, एक दिन सरकार ने घोषणा कर दी कि अब सरकारी और पब्लिक सेक्टर में रिटायरमेंट के बाद पेंशन खत्म और इसकी जगह ‘नेशनल पेंशन स्कीम’ लाई जाएगी। नेशनल पेंशन स्कीम, जिसे आम बोलचाल की भाषा में सरकारी कर्मी न्यू पेंशन स्कीम कहते हैं, ओल्ड पेंशन स्कीम की तुलना में निहायत ही दरिद्र और अति भ्रामक योजना थी। लेकिन, जब सरकार बहादुर ने तय कर लिया तो कर लिया। तब सरकार भाजपा की थी और इस कदम को कांग्रेस का भी समर्थन था। बाकियों की क्या बिसात थी जो या तो सिर्फ अपने बेटे पोते की राजनीति में रमे थे या जातियों की ठेकेदारी में लगे थे। ओल्ड पेंशन स्कीम खत्म तो खत्म। अब एनपीएस का जमाना था।
बीमा बाजार में रौनक आने लगी। बहुराष्ट्रीय बीमा कंपनियों के चरण रज से भारतीय भूमि धन्य होने लगी। देशी और विदेशी कंपनियों के गठजोड़ से जन्मी अजीबोगरीब नामों वाली दर्जनों बीमा कंपनियों से बीमा बाजार गुलजार होने लगा।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने बाजार के विस्तार के लिए आक्रामक और योजनाबद्ध रणनीतियों के लिए जानी जाती हैं। अचानक से हमारे गांवों कस्बों में बीमा एजेंटों की बाढ़ सी आ गई। हर तीसरे चौथे घर का कोई न कोई बेरोजगार युवक किसी इंश्योरेंस कंपनी का एजेंट बन कर लोगों को बीमा की परिभाषा और उसके लाभ पढ़ाने लगा। एक से एक प्लान, एक से एक प्रलोभन। जब तक भारतीय नियामक एजेंसियां जागरूक होती और कुछ जरूरी कदम उठाती, यूलिप नामक एक प्लान से इन कंपनियों ने भारतीयों को अच्छा खासा लूटा और क्या खूब लूटा।
इधर, जैसे जैसे समय बीतने लगा एनपीएस का खोखलापन सामने आने लगा। 2004 से यह शुरू हुआ और 2014 तक आते आते इस योजना से जुड़े इक्के-दुक्के सरकारी लोग रिटायर भी होने लगे। एनपीएस में उन्हें मिलने वाली राशि इतनी कम थी कि न्यूज अखबारों में भी छपा।
एनपीएस में निवेश का एक बड़ा हिस्सा बाजार के हवाले कर देने की योजना ने इसे और अधिक असुरक्षित बना दिया था।
अब सरकारी और पब्लिक सेक्टर कर्मी चौंके। वे अपने बुढ़ापे के लिए अपनी जवानी की गाढ़ी कमाई से और अधिक राशि वैकल्पिक योजनाओं में निवेश करने के लिए विवश होने लगे। अब बीमा के बाजार में और अधिक सरगर्मी आ गई। कंपनियों की पौ बारह होने का माहौल बन चुका था।
तब तक अपने मोदी जी आ चुके थे और छा चुके थे। 2014 के मई में वे आए और दिसंबर, 2014 में उनकी सरकार ने बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत कर दी। विदेशी निवेश संबंधी नियमों को भी अधिक ‘उदार’ बनाया गया ताकि बीमा का बाजार अधिक से अधिक बढ़ सके।
2018-19 तक आते आते एनपीएस का ढोल फटने लगा जब अखबारों में खबरें छपने लगी कि 70 हजार के अंतिम वेतन पर रिटायर सरकारी बाबू को मात्र 37 सौ पेंशन फिक्स हुआ। बाकी तमाम बाबुओं की पेशानी पर बल पडऩे लगे ऐसी खबरों को देख-सुनकर और वे लपक लपक कर आजीवन फलां प्लान, सुनिधि ढिकाना प्लान की ओर मुखातिब होने लगे। बाजार और गुलजार हुआ।
प्राइवेट कम्पनियों के विस्तार और पब्लिक सेक्टर के निजीकरण ने प्राइवेट क्षेत्र के कर्मियों की संख्या में खासी बढ़ोतरी की जिनके लिए एनपीएस का विकल्प तो खुला था लेकिन उसके लचरपन के उजागर होने के बाद वे कर्मी भी बीमा कंपनियों के पेंशन प्लान आदि में निवेश कर अपने बुढ़ापे को सुरक्षित करने की दिशा में आगे बढऩे लगे।
अब रास्ता बुहारा जा चुका था। विदेशी पूंजी उसी रास्ते चल कर पवित्र भारत भूमि में मुनाफे का संगम नहाने आने वाली थी तो रास्ता बुहारना वाजिब ही था। मोदी सर ने और दरियादिली दिखाई और 2021 में बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 49 से बढ़ाकर 74 कर दी गई।
इस बीच इन कंपनियों के मुनाफे के खेल भी सामने आते रहे जिन्हें मुख्यधारा के मीडिया ने जानबूझकर अधिक तवज्जो नहीं दी। फसल बीमा जैसी योजनाओं में तो जम कर लूट मची और करोड़ों किसान ठगे से रह गए जब उनकी क्षति का दस प्रतिशत तक भी उन्हें नहीं मिला।
लेकिन, तब तक भारत के ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के मिडिल क्लास का बड़ा हिस्सा राष्ट्रवाद और धर्मवाद के झोंकों में झूलने लगा था और कंपनियों की लूट जैसे ‘गैर जरूरी’ मुद्दों पर विमर्श का कोई खास स्कोप नहीं रह गया था। कुछ सिरफिरे किस्म के बुद्धिजीवी अक्सर सोशल मीडिया मंच पर या अन्य मंचों पर ऐसे सवाल उठाते जरूर रहे लेकिन उन्हें ‘अप्रासंगिक हो चुकी विचारधाराओं’ पर अरण्यरोदन करने वाला करार दे कर खारिज कर देने के सुनियोजित और सुसंगठित अभियान सफल होते रहे।
अब, जब भारत का बीमा बाजार कामकाजी वर्ग के निवेश से लबालब होने को है और फिजूल के मुद्दों के सामने आर्थिक प्रश्नों को बौना बना देने का प्रचलन लोकप्रिय हो चुका है तो अंतिम स्ट्रोक भी लगा ही दिया गया है। अब भारत के बीमा क्षेत्र में में विदेशी कंपनियों के निवेश की सीमा समाप्त कर दी गई है और कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी अब शत-प्रतिशत निवेश के साथ भारतीय बाजार में बेरोकटोक आ सकती है।
झांसा देने और मुनाफा कमाने के कंपनियों के हुनर की तो दुनिया दीवानी रही है। अब यह हुनर भारत भी देखेगा और दीवाना होगा। इस बीच सरकार ने एनपीएस के विकल्प के रूप में यूपीएस नामक एक पेंशन प्लान की घोषणा की है जिसके नख शिख का विवेचन करने में सरकारी बाबू लोग लगे हुए हैं। लेकिन, नीति नियंताओं का जो अंतिम लक्ष्य था वह हासिल हो चुका है और शत-प्रतिशत विदेशी निवेश के साथ भारत का बीमा बाजार लाइट बत्तियों से रोशन हो रहा है।
-बेन चू
डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी टीम से कहा है कि वह अमेरिका में आने वाले सामानों पर नए टैरिफ लगाने की योजना पेश करें।
ट्रंप बाकी देशों पर ‘रेसिप्रोकल टैरिफ’ या बराबर टैरिफ़ लगाना चाहते हैं यानी उन देशों के सामानों पर उतना ही आयात शुल्क लगाना जितना वे अमेरिकी सामानों पर लगाते हैं।
राष्ट्रपति ट्रंप का कहना है कि अन्य देश अमेरिकी सामानों के आयात पर, अमेरिका को निर्यात होने वाले अपने सामानों की तुलना में अधिक टैरिफ लगाते हैं। ट्रंप का मानना है कि अमेरिका के ‘व्यापारिक साझेदार अमेरिका के साथ भेदभाव करते हैं और ऐसा दोस्त और विरोधी, दोनों तरह के देश करते हैं।’
बीबीसी वेरिफाई ने ये जानने की कोशिश की है कि ट्रंप के इन दावों में कितना दम है।
पहले तो वैश्विक व्यापार को समझना महत्वपूर्ण है।
विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की सदस्यता की शर्तों के तहत देशों को आयात पर टैरिफ़ लगाने की इजाज़त है।
ये टैरिफ अलग-अलग आयात होने वाले सामानों पर अलग-अलग हो सकता है।
उदाहरण के लिए एक देश चावल के आयात पर 10त्न और कारों के आयात पर 25त्न टैक्स लगा सकता है।
लेकिन डब्ल्यूटीओ के नियमों के मुताबिक, किसी एक ही वस्तु के अलग-अलग देशों से आयात पर लगाये जाने वाले टैरिफ में भेदभाव नहीं किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए मिस्र को इसकी इजाज़त नहीं दी जा सकती कि वह रूस से आयात किए जाने वाले गेहूं पर 2 फीसदी टैरिफ लगाए और यूक्रेन से आने वाले गेहूं पर 50 फीसदी टैरिफ लगा दे।
इसे अंतरराष्ट्रीय व्यापार में मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) के सिद्धांत के तौर पर जाना जाता है। यानी टैरिफ लगाने वाले देश द्वारा हर देश पर बराबर टैरिफ लगाना होगा।
लेकन जब दो देश आपस में मुक्त व्यापार समझौता करते हैं जिसमें व्यापार का अधिकांश हिस्सा शामिल होता तो यह सिद्धांत अपवाद होता है। इन स्थितियों में वे एक दूसरे के सामान पर कोई टैरिफ़ नहीं भी लगा सकते हैं लेकिन दुनिया के बाकी देशों से आने वाली वस्तुओं पर टैरिफ लगा सकते हैं।
हालांकि अधिकांश देश अलग-अलग आयातित वस्तुओं पर अलग-अलग टैरिफ लगाते हैं, लेकिन वे डब्ल्यूटीओ को अपने औसत टैरिफ के बारे में जानकारी देते हैं, जो कुल आयात पर लगने वाले टैरिफ दर का औसत होता है।
साल 2023 में अमेरिका का औसत बाहरी टैरिफ 3.3त्न था।
यह ब्रिटेन के 3.8त्न टैरिफ़ दर से थोड़ा कम था।
यह यूरोपीय संघ के 5त्न टैरिफ और चीन के 7,5त्न से काफ़ी नीचे था।
अमेरिका का औसत टैरिफ़, इसके अन्य कुछ व्यापारिक साझेदारों के मुकाबले काफ़ी कम है।
उदाहरण के लिए भारत का औसत टैरिफ 17त्न है, जबकि दक्षिण कोरिया का 13.4त्न है।
अमेरिका का औसत टैरिफ़ मैक्सिको (6.8त्न) और कनाडा (3.8त्न) से कम है, हालांकि इन देशों से अमेरिका के व्यापारिक समझौते का मतलब है कि अमेरिका इन देशों को होने वाले अमेरिकी निर्यात पर टैरिफ नहीं लगाता।
दक्षिण कोरिया के साथ यही बात सही है, जिसके साथ अमेरिका का मुक्त व्यापार समझौता है।
लेकिन आम तौर पर कहा जाए तो ट्रंप का ये कहना सही है कि अमेरिका के मुकाबले कुछ देशों का आयात पर औसत टैरिफ अधिक है।
और इन टैरिफ दरों के चलते अधिकांश अमेरिकी निर्यात उन देशों में महंगे पड़ते हैं और जो देश अमेरिका में सामान भेजते हैं, उन देशों में अमेरिकी निर्यातकों के लिए अपेक्षाकृत नुकसान उठाना पड़ता है।
हालांकि यह भेदभाव वाला व्यापार है, जिससे अमेरिका को नुक़सान होता है, इसे दो टूक नहीं कहा जा सकता।
अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आयात टैरिफ की कीमत आखिरकार उस देश में परिवारों को वहन करना पड़ती है जो उन सामान पर टैरिफ लगाते हैं, क्योंकि इसका मतलब होता है कि आयातित वस्तुएं अधिक महंगी हो जाती हैं।
इसका ये भी मतलब निकाला जा सकता है कि अमेरिका के मुक़ाबले औसत बाहरी टैरिफ की ऊंची दरों वाले देश, अमेरिकियों की तुलना में अपने ही उपभोक्ताओं को सज़ा देते हैं।
रेसिप्रोकल टैरिफ कैसे काम करता है?
10 फरवरी को ट्रंप ने बताया कि रेसिप्रोकल टैरिफ से उनका आशय है, उन देशों पर उतना ही टैरिफ लगाना, जितना वे अमेरिकी सामानों पर लगाते हैं।
उन्होंने पत्रकारों से कहा, ‘अगर वे हम पर शुल्क लगाते हैं, तो हम उन पर लगाएंगे। अगर वे उनकी दर 25 तो हमारी भी 25 होगी। अगर उनकी दर 10 है तो हमारी भी दर 10 होगी।’
इसका मतलब होगा कि यह डब्ल्यूटीओ के एमएफएन नियमों का उल्लंघन, जिसके तहत एक देश को खास सामान पर समान टैरिफ लगाना होता है, चाहे वे कहीं से आ रहे हों।
मान लीजिए अगर अमेरिका वियतनाम से आने वाली सभी वस्तुओं पर 9.4त्न टैरिफ़ लगाता है लेकिन ब्रिटेन से आने वाले सामान पर 3.8त्न टैरिफ़ लगाता है, तो यह नियमों का उल्लंघन होगा।
अगर अमेरिका दिखा सके कि कोई देश उसके साथ डब्ल्यूटीओ के नियमों का किसी तरह से उल्लंघन कर रहा है तो अमेरिका ये कह सकता कि उसने बदले में उसके खिलाफ टैरिफ लगाया है और यह डब्ल्यूटीओ नियमों के तहत जायज है।
लेकिन एक आम नीति के तहत सीधे रेसिप्रोकल टैरिफ़ थोपना डब्ल्यूटीओ के नियमों के उल्लंघन के दायरे में आ सकता है।
एक और संभावना है कि ट्रंप औसत राष्ट्रीय टैरिफ़ दरों की बजाय अलग-अलग सामानों पर विभिन्न देशों द्वारा लगाए जाने वाले अलग-अलग टैरिफ की बराबरी करें।
उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ, गुट के बाहर अमेरिका समेत बाकी देशों से आयातित सभी कारों पर 10त्न टैरिफ लगाता है।
लेकिन अमेरिका यूरोपीय संघ समेत बाकी देशों से आयातित कारों पर केवल 2.5त्न टैरिफ लगाता है।
इस स्थिति में अमेरिका समान अवसर के लिए यूरोपीय संघ से आयातित कारों पर 10त्न का टैरिफ़ लगाने का निर्णय ले।
हालांकि अगर उसने हर अलग-अलग देश के साथ हर तरह के आयात पर लगाए जाने वाले टैरिफ़ की बराबरी करने की कोशिश की तो यह बहुत लंबी और जटिल प्रक्रिया हो जाएगी, क्योंकि वैश्विक व्यापार और डब्ल्यूटीओ के 166 सदस्य देशों द्वारा अलग अलग टैरिफ दरें होती हैं।
इस नीति की रूपरेखा बनाने वाले ट्रंप के आधिकारिक मेमोरेंडम के अनुसार, रेसिप्रोकल टैरिफ़ को बाकी देशों के नियमों, घरेलू सब्सिडी, एक्सचेंज रेड और वैल्यू एडेड टैक्सों (वैट) के आधार पर तय किया जाएगा।
अमेरिका वस्तुओं पर वैट नहीं वसूलता है, लेकिन ब्रिटेन समेत बाकी देश ऐसा करते हैं।
इससे टैरिफ तय करने की प्रक्रिया और जटिल हो सकती है।
हालांकि अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि व्यापार में घरेलू नियम और सब्सिडी एक अहम गैर टैरिफ बाधा (ट्रेड बैरियर) में योगदान देते हैं।
उनका कहना है कि इस हिसाब से वैट इस श्रेणी में नहीं आता है क्योंकि घरेलू स्तर पर बिक्री वाली सभी चीजों पर यह लागू होता है और इसलिए अमेरिका से आयातित होने वाली वस्तुओं के मामले में उसे कोई नुकसान नहीं होता।
डब्ल्यूटीओ वैट को ट्रेड बैरियर नहीं मानता।
क्या अमेरिकी टैरिफ भी कम करना पड़ सकता है?
अगर ट्रंप रेसिप्रोकल टैरिफ़ लगाने पर दृढ़ रहते हैं, तो सैद्धांतिक रूप से अमेरिका को भी टैरिफ़ बढ़ाने की बजाय कम करना पड़ सकता है।
कुछ विशेष कृषि उत्पादों के मामले में अपने व्यापारिक साझेदारों के मुकाबले अमेरिका ने ऊंचे टैरिफ़ लगा रखे हैं।
उदारहण के लिए मौजूदा समय में अमेरिका ने दुग्ध उत्पादों के आयात पर 10त्न से अधिक का प्रभावी टैरिफ लगाया हुआ है। लेकिन एक दुनिया एक बड़े दुग्ध उत्पादक देश न्यूजीलैंड ने अपने डेयरी आयात को टैरिफ़ मुक्त (0त्न) रखा है।
अमेरिकी मिल्क टैरिफ़, अमेरिकी डेयरी किसानों को बचाने के लिए बनाया गया है और स्विंग स्टेट विस्कांसिन में ऐसे किसानों की संख्या अच्छी खासी है।
और अगर न्यूजीलैंड से आने वाले दुग्ध उत्पादों पर टैरिफ कम होता है तो इससे इस राज्य में राजनीतिक विरोध पैदा हो सकता है।
इसी तरह अलग-अलग सामान के लिए अलग-अलग अमेरिकी टैरिफ से अमेरिकी ऑटो उद्योग को चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
अमेरिका यूरोपीय संघ समेत सभी देशों से आयातित ट्रकों पर 25त्न टैरिफ़ लगाता है।
जबकि यूरोपीय संघ में अमेरिका समेत बाकी देशों से आने वाले ट्रकों पर सिर्फ 10त्न टैरिफ है।
इसका मतलब है कि अगर यूरोपीय संघ के साथ रेसिप्रोकल टैरफ लगाया जाता है तो सिद्धांत के रूप में अमेरिका को इन पर अपना टैरिफ करना होगा।
इसलिए यूरीपीय संघ की कारों पर रेसिप्रोकल टैरिफ का अमेरिकी ऑटो निर्माता स्वागत करेंगे लेकिन यूरोपीय संघ के ट्रकों पर रेसिप्रोकल टैरिफ का विरोध करेंगे।
हालांकि, बीते गुरुवार को ट्रंप ने स्पष्ट किया कि स्टील और एल्यूमीनियम जैसे कुछ उत्पादों पर लगाए गए टैरिफ, उनके रेसिप्रोकल टैरिफ के अतिरिक्त होंगे।
इससे यह संकेत मिलता है कि दरअसल व्यापार में असली बराबरी उनका मूल उद्देश्य नहीं है। (bbc.com/hindi)
-शंभूनाथ
अब लेखक, शिक्षक और हिंदी अधिकारी सामान्यत: पुस्तकें नहीं खरीदते!
पुस्तक मेला हमारे समाज की एक बड़ी घटना है। इसमें बड़ी संख्या में लेखक, प्रोफेसर, हिंदी अधिकारी और कई अन्य पुस्तक प्रेमी आते हैं। वे एक– दूसरे से आनंदपूर्वक मिलते हैं जो अच्छी बात है, पर क्या वे पुस्तकें खरीदते भी हैं? आमतौर पर हिंदी स्टालों पर भीड़ तभी दिखती है, जब किसी पुस्तक का लोकार्पण हो रहा होता है, मानो यह पुस्तक मेला न होकर लोकार्पण मेला हो।
गौर किया जा सकता है कि अंग्रेजी पुस्तकों के स्टालों पर लोकार्पण नहीं होते, जबकि हिंदी पुस्तक के मामले में यह पढऩे की जगह प्रदर्शन की चीज बना दी गई है। फेसबुक पर जिसे देखो एक किताब हाथ में लेकर प्रदर्शित कर रहा है। अब कुछ ही ऐसे दुर्लभ क्षण होते हैं, जब कोई लेखक अपने हाथ में खरीदी गई हिंदी किताबों का थैला लिए दिख जाए।
कुछ वर्षों से पुस्तक मेला के कॉन्टेंट में लगातार गिरावट आ रही है। ऐसी नई पुस्तकें ज्यादा दिख रही हैं जो जल्दबाजी में लिखी गई हैं। ऊपर से राजनीति ने विषयों को काफी सीमित और एकरूप कर दिया है। शब्द पर शोर हावी है। प्रकाशक इस दरिद्रता की क्षतिपूर्ति बड़े पैमाने पर पुरानी चर्चित पुस्तकें छाप करके कर रहे हैं। अब ’न्यू अराइवल’ में पुरानी पुस्तकें भी हैं!
पुस्तक मेला के कॉन्टेंट में गिरावट की एक बड़ी वजह यह है कि हिंदी ही नहीं अंग्रेजी के बड़े प्रकाशकों को भी पैसे देकर किताबें छपाई जा रही हैं। प्रकाशन संसार में लेखक के पैसे का प्रवेश इस संसार में भारी गिरावट ला रहा है, जो इस साल के पुस्तक मेला में भी स्पष्ट दिख रहा है। लेखक पहले लंबे समय तक पत्र-पत्रिकाओं में छपने के बाद खूब सोच-समझकर पुस्तक तैयार करते थे। अब पुस्तकें फास्ट फूड की तरह तैयार हो रही हैं!
वर्तमान पुस्तक मेला के चरित्र में एक बदलाव यह आया है कि यह राष्ट्रीय स्वरूप खोकर अधिक स्थानीयतावादी हो गया है। दिल्ली में पुस्तक मेला हो तो दिल्ली के लेखकों की जय जयकार, लखनऊ में हो तो लखनऊ और पटना में हो तो पटना के लेखकों की। इस दुनिया में भी भीतरी-बाहरी है। इधर हिंदी साहित्य का माहौल इतना अधिक स्थानीयतावादी होता जा रहा है कि ट्रंप का ’अमेरिका फस्र्ट’ किसी भी दिन फेल हो सकता है!
सबसे बड़ी समस्या यह है कि पिछले कुछ दशकों से पढऩे का संकट बढ़ा है, भले बड़े-बड़े लिटरेरी फेस्टिवल हो रहे हों या विश्व पुस्तक मेले लगते हों। 20 से 30 साल के हाई फाई नौजवानों की जेब में कलम और हाथ में किताब नहीं दिखेगी, अब यह पिछड़ापन है। एक हिंदी लेखक को दूसरे लेखक की किताब पढऩा सामान्यत: अपना अपमान करना लगता है। कुछ मित्र लेखक आपस में एक-दूसरे की किताबें पढ़ लें तो पढ़ लें।
21वीं सदी की एक बड़ी सांस्कृतिक घटना यह है कि सुनने ने पढऩे को विस्थापित कर दिया है। लोगों को समाचार वाचन, भाषण और प्रवचन सुनना अच्छा लगता है। अब पढऩा एक बोझ सा है। पढऩे पर सुनने ने जो हमला किया है, उसका बुरा नतीजा यह है कि लोग खुद सोचने और कल्पना करने की शक्ति खोते जा रहे हैं। समाज में क्रिटिकल थिंकिंग का ह्रास हो रहा है। लोग कुछ भी सुनते समय चुप और सम्मोहित रहते हैं, जबकि पुस्तक पढ़ते समय अपना एक व्यक्तित्व पाते हैं। दरअसल जिससे कमाई होती है सिर्फ वह पढऩा या नई किताबें बिलकुल न पढऩा बौद्धिक आत्महत्या जैसा है।
यदि आजकल पुस्तक मेला के फूड स्टालों पर बुक स्टालों से ज्यादा भीड़ होती है और हर तरफ केवल रौनक, चहल-पहल और पुस्तकों का प्रदर्शन और ‘तुम मेरी गाओ-मैं तुम्हारी गाऊं’ है तो इसका अर्थ है विश्व पुस्तक मेला अपना चरित्र खोता जा रहा है। इससे सबक यह है कि हम पढऩे के संकट को पर्यावरण के संकट की तरह गंभीरता से लें और पढऩे की आदत बनाएं!
-जय सुशील
यह प्रकृति का नियम है कि हम खऱाब सुनेंगे तो खऱाब बोलेंगे खऱाब लिखेंगे। अब गिरने का कोई अंत तो होता नहीं।
माँ बाप पर जाकर बात रुक जाए तो बेहतर वर्ना इससे नीचे गिरने का विकल्प कोई विमर्श नैना दिखा ही देगा। और हम लोग कहेंगे: माँ क़सम क्या अवां गर्द चीज़ लिखी मानो बिना लिंग योनि संभोग के कोई महान चीज़ संभव नहीं है।
बहुत साल पहले जब नया नया सेटेलाइट टीवी आया था तो ज़ी टीवी नाम का एक चैनल था। उस चैनल पर दो सीरियल आते थे। तारा और बनेगी अपनी बात जिसमें धड़ल्ले से फ्रेंच किस हुआ करता था। किस करने वाले लोगों में अग्रणी थे हमारे संस्कारी अभिनेता आलोक नाथ। तारा मे तारा का रोल करने वाली एक्ट्रेस का नाम नवनीत निशान। चूंकि वो टीवी पर आता था तो दर्शकों ने इतने बम मारे चि_ियों के रूप में इतने बम मारे कि सीरियल रह गए चूमाचाटी के सीन खत्म हो गए। ये दृश्य बहुत असहज करते थे मिडिल क्लास को और करने वाले थे भी। जबकि बंबई में यह आम था। यह वर्ग भेद है। इस वर्ग भेद में यह भी हुआ कि उस सीरियल तारा की प्रोड्यूसर रही विनीता नंदा ने बाद में फेसबुक पर ही खुलासा किया कि आलोक नाथ ने उनका यौन शोषण किया। चूंकि वो बड़े स्टार बन चुके थे टीवी के तो उन्हें किसी ने साइडलाइन नहीं किया। इसे ही इनेबलिंग कहा जाता है।
सोशल मीडिया टीवी नहीं है। बच्चे मां बाप अपने अपने फोन पर मां-बहन सुन कर खुश हो रहे हैं। उनकी कुंठा (जो कई कारणों से हो सकती है- बेरोजगारी, वर्क लाइफ बैलेंस, अलग अलग किस्म के तनाव) इन गालियों में ही निर्वाण प्राप्त कर रही है। मोबाइल से अचानक सिर उठाकर शून्य की तरफ मुस्कुराते हुए या कभी कभी खीझ में आपने लोगों को ब और भों से शुरू होने वाली गालियां देते सुना ही होगा। यह कुंठा का सेफ्टी वाल्व है।
जाहिर है यह सेफ्टी वाल्व वरिष्ठ लोगों के लिए है बच्चों के लिए नहीं। किशोरवय युवा और अब तो लड़कियां भी जब तक भैन भैन न करें उन्हें लगता नहीं कि वो कूल हैं।
कुछ लिबरल लोगों ने कहा कि कॉमेडियन है। बोल दिया माफी मांगा बात आई गई होनी चाहिए। मैं इन लोगों से बस इतना पूछना चाहता हूं कि अगर यही बात किसी अनवर अली या दानिश अली नाम वाले किसी ने कही होती तो क्या होता? क्या तब फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन आता?
मुनव्वर फारूकी लोग भूल जाते हैं बहुत जल्दी।
सोच कर देखिए। फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन सलेक्टिव नहीं होगा भाई।
-ध्रुव गुप्त
आमतौर पर लोगों द्वारा प्रेम को स्त्री-पुरूष के बीच आकर्षण और समर्पण के संकुचित अर्थ में लिया जाता रहा है। सच यह है कि प्रेम हमारा स्वभाव है जिसे कुरेदकर जगाने में सबसे बड़ी भूमिका हमारे जीवन में विपरीत सेक्स की होती है। एक पुरुष का स्त्री से या स्त्री का पुरुष से प्रेम बहुत स्वाभाविक है। लेकिन यह प्रेम के उत्कर्ष तक पहुंचने का रास्ता भर है, मंजिल नहीं। एक बार प्रेम में पड़ जाने के बाद प्रेम व्यक्ति-केंद्रित नहीं रह जाता। वह हमारी मन:स्थिति बन जाता है। हमारा स्वभाव। आप एक बार आप प्रेम में हैं तो आप हमेशा के लिए प्रेम में हैं। आप एक के प्रेम में पड़े तो आप सबके प्रेम में पड़ जाते हैं। समूची मानवता के प्रेम में। सृष्टि के तमाम जीव-जंतुओं के प्रेम में। प्रकृति के प्रेम में। जमीन से आकाश तक आपको हर तरफ प्रेम ही प्रेम नजर आएगा। ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता कि आप किसी एक से प्रेम करें और कुछ दूसरों से नफरत। प्रेम विस्तार मांगता है। वह अगर फैले नहीं तो सड़ जाता है। प्रेम की इस प्रकृति के बारे में शायर जिगर मुरादाबादी ने खूब कहा है-इक लफ्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है / सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है ! प्रेम आपको बदलता है। इस प्रेम से आप अपने आसपास की दुनिया को बदलने की कोशिश में लग जाएं। यही प्रेम की सार्थकता है। यही प्रेम का गंतव्य।
आप मित्रों को प्रेम दिवस (Valentine Day) की बधाई और शुभकामनाएं, मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियों के साथ:-
प्रेम, तुम रहना
तुम्हारे रहने से स्मृतियां रहती हैं उनकी
जिनसे मिलना स्थगित रहा अरसे से
उन चि_ियों की जो रह गईं अनुत्तरित ही
उन अजाने रास्तों की
जिनकी ऊष्मा से सिहरे नहीं पांव
उन नदियों की
जिनके जल से भींगी नहीं देह
और उन तमाम अदेखे, अनजान लोगों
पशु-पक्षियों की
जिन्हें देख सकतीं मेरी आंखें
तो शायद कुछ और बड़ा होता
मेरी इच्छाओं का छोटा सा संसार
-इमरान कुरैशी
यूक्रेन के साशा और रूस की ओल्गा, दोनों देशों के बीच जंग के बावजूद भारत में अपनी प्रेम कहानी में नई इबारत लिख रहे हैं।
एक दूसरे के प्रति इनका प्यार इस कदर आध्यात्म में डूबा हुआ है कि जब ये बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि ये सिर्फ दो लोगों के बीच का संबंध नहीं बल्कि इससे कहीं ज्यादा है।
अध्यात्म किसी तीसरे साथी की तरह उन्हें अपने अंदर समेटे हुए है।
यूक्रेन के रहने वाले 35 साल के साशा ओस्त्रोविक और रूस की रहने वाली 37 साल की ओल्गा उसोवा इस बात से दुखी हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध में दोनों ओर के इतने अधिक लोग मारे जा रहे हैं।
साशा ने ओल्गा के साथ अपनी बातचीत के बारे में बीबीसी हिंदी को बताया, ‘हमने अपनी बातचीत में युद्ध की चर्चा छेड़ी थी। लेकिन ज्यादा बात इसके कारुणिक पक्ष को लेकर थी। हमने ज्यादातर चर्चा इस बात पर की कि कैसे इस युद्ध ने लोगों का दुख- दर्द बढ़ाया है।’
इस युद्ध की वजह से दोनों अपने-अपने देशों में फंस गए थे। इस दौरान आपस में बात न करने की उनकी लाचारी ने इस जोड़े की दोस्ती पर काफी असर डाला था।
वैसे ये दोस्ती 2018 के अंत में शुरू हुई थी।
ओल्गा ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘बातचीत करना मुश्किल था। हमने एक दूसरे को लंबे समय तक देखा भी नहीं था। वो (साशा) रूस भी नहीं आ सके थे। जमीन पर भले ही इस युद्ध ने हमारे बीच बाधा खड़ी कर दी थी लेकिन जहां तक हमारी आपसी रिश्ते की बात थी तो इसने इसे मजबूत ही किया था। क्योंकि उन दिनों मुझे इनकी और इन्हें मेरे समर्थन की जरूरत थी। ऐसा लग रहा था कि हमें ये दिखाने की जरूरत है कि हम एक दूसरे की मदद कर सकते हैं।’
कैसे हुई मुलाक़ात
इस रूसी-यूक्रेनी जोड़े की पहली मुलाकात भारत के केरल में 2018 के आखऱि में हुई थी। तब साशा अमृता यूनिवर्सिटी में कॉग्निटिव साइंस और साइकोलॉजी में पीएचडी के लिए रिसर्चर के तौर पर आए थे।
साशा एक लॉजिस्टिक कंपनी में अपनी ड्यूटी से दो हफ्ते के ब्रेक पर भारत आए थे।
साशा उन तमाम दूसरे लोगों की तरह थे जो अपने देश के बेहिसाब ठंड से बचने के लिए क्रिसमस के दौरान भारत आ गए थे। वो पहले भी भारत आकर दिल्ली, आगरा और वाराणसी देख चुके थे। हालांकि उस समय उनकी आध्यात्मिकता में बहुत ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन इस भारत दौरे में उनका योग और दर्शन से परिचय हुआ।
उनके एक दोस्त ने एक सत्संग के दौरान माता अमृतानंदमयी से हुई चर्चा की किताब भेजी थी।
शुरू में तो उन्होंने इसे पढक़र प्रभावित होने की बात को बचकानेपन की निशानी मानी। लेकिन जल्दी ही उन्हें अपने बचपन की वो बात याद आने लगी जब वो सोचा करते थे कि अस्पताल और स्कूल बनाने वाले लोग कितने महान होते हैं।
साशा कहते हैं, ‘जब मैं बच्चा था तो ऐसे किसी शख़्स से नहीं मिला था। यही वजह है कि मेरी भारत आने की इच्छा बढ़ती गई।’
साशा ने कहा, ‘मेरे माता-पिता तो ये सोचने लगे थे कि रिसर्चर के तौर पर एक बार अमृतपुरी पहुंचने के बाद मैं पारिवारिक जीवन में प्रवेश नहीं करूंगा। उनकी पहली चिंता ये थी कि मैं शादी नहीं करूंगा। उनकी दूसरी चिंता ये थी अगर मेरी शादी भी हो गई तो पत्नी रूसी या यूक्रेनी बोलने वाली नहीं होगी। लेकिन अब उनकी दोनों चिंताएं दूर हो गई हैं।’
आश्रम के पहले ही दौरे में उनकी मुलाक़ात ओल्गा से हो गई थी। आध्यात्मिकता से ओल्गा का लगाव अपने चाचा को ध्यान करते देख कर शुरू हुआ। फिर उन्हें गीता भी पढऩे का मौका मिला।
ओल्गा 14 साल की थीं जब उन्होंने दूसरे धर्मों के बारे में पढऩा शुरू किया और योगा क्लास में जाने लगीं। वो अपने दोस्तों के एक ग्रुप में शामिल हो गईं जो ध्यान करते थे। उसी दौरान उन्होंने माता अमृतानंदमयी के बारे में सुना था।
वो काम भी कर रही थीं और पढ़ाई भी। लेकिन जैसे ही ओल्गा 22 साल की हुईं वो अपने आध्यात्मिक गुरु से मिलने पहली बार भारत आईं। इसके बाद वो जल्दी-जल्दी आश्रम आने लगीं।
लेकिन भारत और रूस में ओल्गा और साशा ‘सिर्फ दोस्त’ ही बने रहे। उनकी मुलाक़ात रूस में तब हुई जब साशा वहां की लॉजिस्टिक कंपनी में काम करने के लिए गए।
दोस्त के तौर पर उनके लिए सबसे बुरा दौर कोविड का था। दोनों अपने-अपने देश में कैद होकर रह गए थे। लेकिन ये अक्टूबर का महीना था जब दोनों के रिश्ते ने रोमांटिक मोड़ ले लिया था।
एक दूसरे के प्रति कैसे आकर्षित हुए
साशा ने बताया, ‘हम दोनों की रुचियां समान थीं। ज्यादा लोग अध्यात्म की तरफ झुकाव वाले नहीं होते। कम से कम वो दर्शन और अध्यात्म पर तो बात नहीं ही करते हैं। लेकिन ओल्गा इन विषयों को समझती हैं। और मैं इन्हीं सब चीजों के लिए उन्हें प्यार करता हूं। मैं इन विषयों के प्रति आकर्षित हूं। तो अध्यात्म और दर्शन जैसी चीजों ने हमें नजदीक लाने में अहम भूमिका निभाई।’
साशा फट से इसमें एक और चीज जोड़ते हैं, ''लेकिन ये भी सच है कि है वो बेहद खूबसूरत हैं। मेरा मानना है कि वो इस दुनिया की सबसे खूबसूरत महिला हैं। फिलहाल बुनियादी तौर पर रोजमर्रा के काम और लॉजिस्टिक वगैरह को मिलाकर हम अच्छी तरह संभाल लेते हैं। कई लेबल पर हम साथ-साथ काफी अच्छे तरीके से रहते हैं। मैं जो भी चाहता हूं सब उनके भीतर है।’
दूसरी ओर ओल्गा की नजर में साशा में बेहतरीन हास्यबोध है। इससे ऐसा लगता है कि वह उन पर बिल्कुल मोहित हैं।
वो कहती हैं, ‘साशा में मैं एक चीज अच्छा पाती हूं, वो है उनका भी आध्यात्मिक होना। मैं इसकी प्रशंसक हूं। मैं भी इस क्षेत्र में आगे बढऩा चाहती हूं और साथ-साथ उनकी राह पर चलना चाहती हूं। उनका हृदय ईश्वर जैसा है। हम दोनों के अंदर ईश्वर के प्रति प्रेम है।’
...और आखिर में शादी के बंधन में बंधे
ओल्गा लंबे समय से एक गैर पारंपरिक शादी के सपने देखती रही हैं। सामान्य शादियों से अलग।
वो कहती हैं, ‘गैर पारंपरिक का मतलब ये कि मैं भारतीय शैली की शादी करना चाहती थी। ऐसी शादी जिसमें मैं साड़ी और माला और दूसरी चीजें पहन सकूं। मैंने ये नहीं सोचा था कि ऐसा ही होगा। सबसे बड़ी बात यह थी कि शादी अम्मा (माता अमृतानंदमयी को अम्मा कहा जाता है) की देखरेख में हो रही थी। विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे दिव्य माता इस रिश्ते को पवित्र बना रही हैं।’
ओल्गा ने कहा, ‘ये रूस में होने वाली शादी से अलग थी। वहां ऐसी आध्यात्मिक शादी नहीं हो सकती थी। इसने अम्मा के प्रति मेरे अंदर एक खास भावना भरी।’
साशा भी मानते हैं कि विवाह समारोह एक अविश्वसनीय घटना थी। उन्होंने अपनी इस शादी का श्रेय अम्मा और उनके आश्रम को दिया।
वो कहते हैं, ‘उन्होंने ही हमें एक दूसरे के नजदीक लाने में अहम भूमिका अदा की।’
ओल्गा फिलहाल एक ऐसा कोर्स कर रही हैं जिसके बाद वो एक मनोविज्ञानी के तौर पर काम कर सकती हैं।
भारत से उन दोनों के प्यार को साशा के इन शब्दों में बयां किया जा सकता है।
साशा ने कहा, ‘भारत के पास देने के लिए कुछ ऐसी अनोखी चीज है जो मैं दुनिया के किसी हिस्से में नहीं देख पा रहा हूं। भारत के पास अविश्वसनीय ‘दर्शन’ है। इससे भारत तो समृद्ध हो ही रहा है उसे दुनिया को भी इसका साक्षात्कार कराना है।’ (bbc.com/hindi)
-समरेंद्र शर्मा
भारत एक धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता से भरा हुआ देश है, जहां धर्म, आस्था और अध्यात्म का गहरा प्रभाव है। यह देश न केवल अपनी धार्मिक आस्थाओं के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यह नागरिकों की आस्था और विश्वास का सम्मान भी करता है। ऐसे आस्थावान लोगों के देश में अक्सर समाज को आपस में बांटने और विभाजकारी सियासत होती है।
पिछले दिनों राहुल गांधी का हाथरस की घटना के लिए मनुस्मृति को जिम्मेदार ठहराना इसी प्रयास का एक ताजा उदाहरण है। जब पूरा देश प्रयागराज में आस्था की डुबकी लगा रहा था, तब उनका बयान समाज में विभाजन और साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ाने वाला है। शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सहित पूरे संत समाज ने इस बयान पर आपत्ति जताई और माफी की मांग की। ऐसे बयान हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या राजनीति का उद्देश्य समाज में सुधार और एकता लाना है, या फिर इसे केवल विभाजित करना और समाज को अलग-अलग हिस्सों में बांटना है।
हाथरस की जघन्य घटना ने पूरे देश को शोक में डुबो दिया था। ऐसी स्थिति में नेताओं का घटना को जातिवाद या धार्मिक विवादों से जोडक़र राजनीति करना कहीं से भी उचित नहीं है। इस तरह के बयान समाज के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं और समाज के बीच विभाजन को और गहरा करते हैं।
क्या राजनीति में धर्म और जाति की आड़ लेकर अक्सर बयानबाजी करने वालों से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि बरसों तक उनकी सरकारों ने दलित, आदिवासी और पिछड़ा समाज के लिए क्या किया? उनकी सरकारों के कार्यकाल में हुईं ऐसी घटनाओं पर चुप्पी के क्या मायने हैं? संभव है कि ऐसे सवाल राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप की दिशा में जा सकते हैं, लिहाजा इससे बचना चाहिए, लेकिन यह स्पष्ट है कि ऐसे बयानों का समाज पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। इसके बजाय, यह समाज को और अधिक विभाजित करता है।
यह सवाल भी उठता है कि क्या ऐसे बयान किसी खास राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा है, जो समाज में एकता की बजाय विभाजन को बढ़ावा देता है? यह राजनीतिक एजेंडे को भी स्पष्ट करता है, जिसमें वे समाज में धर्म और जाति के आधार पर असहमति और भेदभाव को तूल देने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि राहुल गांधी को उनके भारत भ्रमण के दौरान ऐसे लोगों के समर्थन मिला, जिन पर विदेश में बैठकर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त रहने का आरोप है। जाहिर है कि उनके ऐसे बयान से राष्ट्र विरोधियों का समर्थन मिलने के आरोपों और समाज के प्रति उनके इरादों की पुष्टि करते हैं।
जबकि जिम्मेदार नेताओं का कर्तव्य समाज में व्याप्त असमानताओं और बुराइयों का समाधान ढूंढना है, ना कि चुनावी लाभ और व्यक्तिगत राजनीति के लिए जातिवाद और धर्म का राजनीतिक खेल खेलना है? जब नेताओं के बयान केवल राजनीतिक लाभ के लिए होते हैं, तो यह समाज को एकजुट करने की बजाय उसे और अधिक विभाजित करता है।
समाज में बदलाव लाने के लिए हमें सभी प्रकार की असमानताओं, बुराइयों और अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर काम करना होगा। हमें यह समझना होगा कि किसी भी घटना को, चाहे वह हाथरस जैसा जघन्य अपराध हो या कोई अन्य सामाजिक समस्या, राजनीति से ऊपर उठकर देखना चाहिए। यदि हम राजनीति को धर्म और जाति के नाम पर विभाजित करने के लिए इस्तेमाल करेंगे, तो यह न केवल समाज को तोड़ेगा, बल्कि लोकतंत्र को भी कमजोर करेगा।
किसी भी समाज के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे एकजुट और सामंजस्यपूर्ण तरीके से चलाया जाए। राजनीति में धर्म और जाति का खेल समाज के विकास और एकता के लिए हानिकारक साबित होता है। जब नेता समाज में विभाजन का कारण बनते हैं, तो वे न केवल देश के नागरिकों के बीच घृणा फैलाते हैं, बल्कि लोकतंत्र को भी कमजोर करते हैं। नेताओं को यह समझना चाहिए कि समाज की एकता और लोकतंत्र की मजबूती के लिए हमें धर्म, जाति और राजनीति से ऊपर उठकर काम करना होगा।
(लेखक पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं।)
- रजनीश कुमार
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की हार के बाद कई लोग अरविंद केजरीवाल की राजनीति के अंत की शुरुआत की घोषणा कर रहे हैं। आप के संस्थापक सदस्यों में से रहे प्रशांत भूषण ने चुनावी नतीजे आने के बाद आठ फऱवरी को कहा कि यह आम आदमी पार्टी के अंत की शुरुआत है।
क्या वाकई आम आदमी पार्टी के अंत शुरुआत हो गई है? इस घोषणा को हम पहले तथ्यों की कसौटी पर कसते हैं।
इस बार आदमी पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में कुल 43.57 प्रतिशत मत मिले और उसे 70 में से 22 विधानसभा सीटों पर जीत मिली।
दूसरी तरफ़ बीजेपी का वोट शेयर 45।56 प्रतिशत है और 48 सीटों पर जीत मिली। यानी बीजेपी को आम आदमी पार्टी से महज दो प्रतिशत ज़्यादा वोट मिले हैं और इसी दो फीसदी के दम पर बीजेपी को आप से 26 सीटें ज़्यादा मिलीं। इसका मतलब है कि बीजेपी को आम आदमी पार्टी से जिन सीटों पर जीत मिली है, वहां लड़ाई एकतरफा नहीं थी।
आम आदमी पार्टी के हक में जो बातें हैं
आम आदमी पार्टी को वोट शेयर के मामले में बीजेपी से कोई बड़ी हार नहीं मिली है, लेकिन 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव की तुलना में उसके वोट शेयर में बड़ी गिरावट ज़रूर आई है। 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 53.57 प्रतिशत था। यानी 2020 की तुलना में आप को 2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में कऱीब 10 प्रतिशत वोट कम मिले। 2020 में इसी वोट शेयर के दम पर आप को 70 में से 62 सीटों पर जीत मिली थी।
उसी तरह वोट शेयर को पैमाना माने तो बीजेपी को इस बार आप के खिलाफ मिली जीत बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन 2020 की तुलना में बीजेपी का प्रदर्शन जबर्दस्त रहा है।
2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 38.51 प्रतिशत था जो इस बार 7।3 प्रतिशत बढक़र 45.56 फ़ीसदी हो गया और सीटें आठ से बढक़र 48 हो गईं।
2015 और 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी आप के सामने फिसड्डी साबित हुई थी। उस दौर में ऐसा लगता था कि बीजेपी के लिए दिल्ली में आप को हराना टेढ़ी खीर है। ऐसे में आम आदमी पार्टी से बीजेपी का वोट शेयर दो फ़ीसदी ज़्यादा होने को आप के अंत की शुरुआत बताना, जल्दबाज़ी ही कहा जा सकता है।
दिल्ली में इस बार कांग्रेस का वोट शेयर 6.34 प्रतिशत रहा, लेकिन उसे एक भी सीट पर जीत नहीं मिली। आम आदमी पार्टी को इस बार कांग्रेस से 37 फ़ीसदी ज़्यादा वोट मिले हैं। ऐसे में जानकारों का कहना है कि कांग्रेस अगर आम आदमी पार्टी की हार पर ख़ुश होती है तो उसे अपने प्रदर्शन के बारे में सोचना होगा।
नई दिल्ली विधानसभा सीट पर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कांग्रेस ने संदीप दीक्षित को अपना उम्मीदवार बनाया था। संदीप दीक्षित दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे हैं। उनसे पूछा गया कि क्या वह अरविंद केजरीवाल की हार से ख़ुश हैं?
कांग्रेस का खुश होना कितना उचित?
इस सवाल के जवाब में संदीप दीक्षित कहते हैं, ‘हम ख़ुश नहीं हैं लेकिन संतोष है कि जिस आदमी ने हमारे बारे में कितनी घटिया बातें कही थीं, वो हारा है तो क्या हम उसकी हार का दुख मनाएंगे? भारतीय राजनीति में हर गलत हथकंडा अपनाने वाले व्यक्ति की हार पर हमें पछतावा क्यों होगा? नई दिल्ली में मुझे हार का अंदाजा था।’
संदीप दीक्षित कहते हैं, ‘लेकिन मुझे लगता था कि केजरीवाल तीसरे नंबर पर रहेंगे। कांग्रेस को इतना कम वोट मिलेगा इसका अंदाजा नहीं था। लोगों ने कांग्रेस को गंभीर विकल्प नहीं माना। जब लोग बदलाव के लिए वोट करते हैं तो मजबूत दावेदार को वोट करते हैं। हमने 2024 में अरविंद केजरीवाल से गठबंधन किया था, ऐसे में यहां की जनता हमें आप के विकल्प के रूप में क्यों देखती?’
संदीप दीक्षित कहते हैं, ‘मैं इस तर्क से सहमत नहीं हूँ कि बीजेपी से आप का दो प्रतिशत वोट ही कम है, ऐसे में यह कोई बड़ी हार नहीं है। ये ख़ुद को सांत्वना देने जैसी बात है। मैं भी मानता हूँ कि ये केजरीवाल के अंत की शुरुआत है क्योंकि उनके सारे भेद अब सार्वजनिक हो गए हैं।’
बीजेपी और उसकी दो सहयोगी पार्टियां जेडीयू के साथ लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास का वोट शेयर जोड़ दें तो कऱीब 47 प्रतिशत हो जाता है। वहीं कांग्रेस और अरविंद केजरीवाल का वोट शेयर जोड़ दें तो 50 फीसदी वोट हो जाता है। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता है कि बीजेपी को दिल्ली की जनता ने एकतरफा जनादेश दिया है।
ऐसे में क्या आप के अंत की घोषणा करना उचित है? सेंटर फोर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी में प्रोफेसर संजय कुमार भारत की चुनावी राजनीति पर गहरी नजर रखते हैं।
आप अन्य क्षेत्रीय पार्टियों से अलग क्यों?
संजय कुमार कहते हैं, ‘अरविंद केजरीवाल के लिए मुश्किल तो है लेकिन मुझे लगता है कि हताश नहीं होना चाहिए। बीजेपी से आम आदमी पार्टी का वोट शेयर महज दो प्रतिशत ही कम है, यह अरविंद केजरीवाल को आश्वस्त करता होगा कि वो लड़ाई से बाहर नहीं हुए हैं। लेकिन आप को हम भारत की बाक़ी क्षेत्रीय पार्टियों की तरह नहीं देख सकते हैं, क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों का राष्ट्रीय स्तर पर कोई लक्ष्य नहीं है। आम आदमी पार्टी को बीजेपी अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखती है। क्षेत्रीय पार्टियों की हार और जीत कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन आम आदमी पार्टी का मकसद राष्ट्रीय स्तर पर वर्चस्व बनाना है।’
अरविंद केजरीवाल को हार तब मिली है, जब उनके और पार्टी के अन्य बड़े नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं और सभी जमानत पर जेल से बाहर हैं। संजय कुमार कहते हैं, ‘अगर अरविंद केजरीवाल को फिर से जेल जाना पड़ता है तो आम आदमी पार्टी के लिए अस्तित्व बचाने का सवाल खड़ा होगा। इसलिए कई लोग आम आदमी पार्टी के अंत की शुरुआत की घोषणा कर रहे हैं तो इसकी कुछ ठोस वजहें भी हैं।’
लेकिन आम आदमी पार्टी इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखती है। आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव गोपाल इटालिया कहते हैं, ‘बीजेपी के साथ सरकार की सारी मशीनरी थी, मीडिया था, धनबल और बाहुबल थे, इसके बावजूद उसे हमसे दो प्रतिशत ही ज़्यादा वोट मिले हैं। जो आम आदमी पार्टी के अंत की घोषणा कर रहे हैं, उन्हें थोड़ा सब्र रखना चाहिए। राजनीति में एक चुनाव जीतने और हारने के बीच बहुत फर्क नहीं होता है। हम एक राष्ट्रीय पार्टी हैं। पंजाब में हमारी सरकार है। गुजरात में हमारी अच्छी पकड़ है।’
आप को लेकर जल्दबाजी?
राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद मनोज झा भी मानते हैं कि लोग आम आदमी पार्टी को लेकर बहुत जल्दबाज़ी में हैं। मनोज झा कहते हैं, ‘जब बिहार में हमारी हार होती है तो इसी तरह की घोषणा आरजेडी को लेकर की जाती है। आरजेडी अब भी जि़ंदा है और आगे भी रहेगी। इसलिए हमें थोड़ा सब्र करना चाहिए। जनता ने बीजेपी को बहुमत दिया तो केजरीवाल को बाहर नहीं किया, बल्कि विपक्ष में जगह दी है।’
आम आदमी पार्टी के अलावा स्वतंत्र भारत में एनटी रामा राव की तेलुगू देशम पार्टी और प्रफुल्ल कुमार महंता की असम गण परिषद ऐसे दो उदाहरण हैं, जो पहले प्रयास में ही सत्ता में आने में कामयाब रहे हैं। तेलुगू देशम पार्टी और असम गण परिषद एक राज्य तक सीमित रहीं जबकि आम आदमी पार्टी दिल्ली से बाहर भी सरकार बनाने में कामयाब रही।
2022 के पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को शानदार जीत मिली। सितंबर 2023 में निर्वाचन आयोग ने आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दे दिया। यह दर्जा दिल्ली, गोवा, पंजाब और गुजरात में आप को मिले वोट शेयर के आधार पर दिया गया था। अगर इंडिया गठबंधन भविष्य में फिर से एकजुट होता है तो आम आदमी पार्टी अग्रणी भूमिका में दिख सकती है।
पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार मानते हैं कि केजरीवाल सत्ता से ज़्यादा विपक्ष में रहकर सरकार को चुनौती देने के रूप में जाने जाते हैं।
आशुतोष कुमार कहते हैं, ‘केजरीवाल को ये ज़्यादा अच्छे से पता है कि विपक्ष में कैसे रहना है। मेरा मानना है कि अरविंद सत्ता की तुलना में विपक्ष की भूमिका को ठीक से हैंडल करते हैं और यही उनकी खूबी है। अब एक बार फिर से उनके पास मौका है कि इस खूबी का इस्तेमाल करें और अतीत की गलतियों से सबक लें।’ (bbc.com/hindi)
-रुचिर गर्ग
इलाहाबाद महाकुंभ में हुई धर्म संसद में राहुल गांधी के खिलाफ प्रस्ताव पारित हुआ।
कहा गया कि राहुल गांधी ने मनुस्मृति को लेकर एक बयान दिया जिससे इसे पवित्र ग्रंथ मानने वाले करोड़ों आस्थावान लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं।
मीडिया की खबरों के मुताबिक शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने कहा कि महीने भर के अंदर अगर राहुल गांधी ने अपना पक्ष नहीं रखा तो उनको हिन्दू धर्म से बहिष्कृत कर दिया जाएगा।
इस देश में मनुस्मृति को लेकर कोई टिप्पणी पहली बार नहीं हुई है।
इस देश में संविधान की प्रतियां जलाने वाले भी हैं और मनुस्मृति जलाने वाले भी।
धर्म संसद है तो यूनेस्को द्वारा दक्षिण एशिया के सुकरात कहे गए ई वी रामसामी पेरियार भी।
अभी मुद्दा यह है कि इस ऐलान को कांग्रेस पार्टी या उसके देश भर में मौजूद नेता कार्यकर्ता किस तरह लेते हैं।
वो राहुल गांधी की राय से इत्तेफाक रखते हैं या धर्मसंसद की चेतावनी से?
यह नजरअंदाज करने वाला सवाल नहीं है।
अगर आप राजनीति में हैं और राहुल गांधी को नेता मानते हैं तो अपनी राय साफ करनी चाहिए क्योंकि देश की हवा यह कह रही है कि आने वाले दिनों में इस या ऐसे सवालों के थपेड़ों का तो सामना करना ही होगा।
संसदीय राजनीति की जरूरतें नेताओं कार्यकर्ताओं को एक खौफ में तो रखती हैं-खौफ वोटों का,कथित तौर पर अलग-थलग कर दिए जाने का भी खौफ।
राहुल गांधी तो कहते रहे हैं-डरो मत!
उनके लाखों-करोड़ों समर्थक और पार्टी जन क्या कहते हैं ?
(लेखक कुछ बरस कांग्रेस में रहकर, अब सक्रिय राजनीति छोडक़र फिर मीडिया में लौटे हैं, इस दौरान वे कांग्रेस सीएम भूपेश बघेल के मीडिया सलाहकार भी थे)
-हेमंत कुमार झा
अरविंद केजरीवाल की ‘वैकल्पिक राजनीति’ का हश्र प्रशांत किशोर देख रहे होंगे जो आजकल बिहार में तंबू टांग कर नई पीढ़ी को सत्याग्रह का प्रशिक्षण दे रहे हैं। वे हाल फिलहाल तक अपने ‘जन सुराज’ और अनशन को लेकर मीडिया में बहुत चर्चा पाते रहे थे। फिर, नित नई खबरों के रेले में कहीं गुम से हो गए हैं।
वे रणनीतियां बनाने में माहिर बताए जाते हैं इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वे फिर कुछ ऐसा शुरू कर सकते हैं जिससे उन्हें मीडिया अटेंशन मिलने लगे। वैसे भी, बिहार में चुनाव होने वाले हैं और प्रशांत किशोर इसमें अपनी भूमिका तलाशने वाले हैं।
अरविंद केजरीवाल राजनीति में आए, छा भी गए, दस साल मुख्यमंत्री भी रह लिए लेकिन आज तक उनसे यह सवाल अनुत्तरित ही रहा कि ‘पार्टनर, आखिर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’
भले ही उन्हें भाजपा से महज दो तीन प्रतिशत कम, लगभग 43 प्रतिशत वोट मिले लेकिन जिन कारणों से वे पराजित हुए हैं वे दोबारा उन्हें उबरने देंगे इसमें गहरे संदेह हैं।
बिना किसी स्पष्ट वैचारिक आधार के ‘सब चोर हैं जी’...और...‘सब मिले हुए हैं जी’ जैसी बातें पब्लिक के बीच उछाल कर केजरीवाल ने राजनीति में अपनी जगह तो बना ली लेकिन उनके पास ऐसा कुछ नया नहीं था जो उन्हें प्रासंगिक बनाए रख सकता था।
जहां विचारधारा की अनुपस्थिति है वहां मूल्य पनप नहीं सकते। यही कारण है कि अन्ना आंदोलन के अति उत्साह से निकला कोई राजनीतिक दल अरविंद केजरीवाल की जेबी पार्टी बन कर रह गया जिसमें असहमतियों का कोई स्थान नहीं था, जिसके कोई राजनीतिक मूल्य नहीं थे।
आम आदमी पार्टी कभी आरोपों के इस साये से बाहर नहीं निकल सकी कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष आनुषंगिक उपकरणों की एक कड़ी मात्र है। यही कारण है कि बहुत सारे ऐसे लोग भी, जो भाजपा के घोर विरोधी हैं, आज केजरीवाल के पराभव से खुश हैं।
विपक्षी दलों का गठबंधन, जो ‘इंडिया गठबंधन’ कहा जा रहा है, महज एक राजनीतिक गठबंधन ही नहीं बल्कि एक वैचारिकी का प्रवक्ता भी है। यह वैचारिकी भाजपा के राजनीतिक सिद्धांतों के स्पष्ट विरोध में खड़ी है। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को इसमें शामिल करने की सोच रखने वाले नेताओं की समझ की बलिहारी है कि आखिर वे समझ क्या रहे थे। अगर केजरीवाल आगे भी इंडिया गठबंधन में शामिल रहते हैं, जिसकी कि पूरी संभावना है, तो यह सवाल आगे भी पूछा जाता रहेगा।
अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी तो तब भी अन्ना आंदोलन की पृष्ठभूमि के साथ राजनीति के मैदान में उतरी थी। खुद केजरीवाल भी सामाजिक कार्यों के लिए मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त एक समर्पित और ईमानदार समाजसेवी की छवि के साथ अपनी पार्टी के नेतृत्व की भूमिका में आए थे।
प्रशांत किशोर तो खुद अपने अन्ना हैं और खुद ही केजरीवाल भी है। उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी बनाई, गांव गांव पदयात्राएं की, उसके बाद छात्रों के एक आंदोलन में शामिल हुए। खूब मीडिया कवरेज मिला। लोगों के बीच चर्चा भी हुई। उनके अनशन को लेकर उनके समर्थकों ने स्लोगन दिया ‘बिहार की ध्वस्त शिक्षा और भ्रष्ट परीक्षा के खिलाफ प्रशांत किशोर का आमरण अनशन।’
ठीक है कि आमरण अनशन को खत्म होना ही चाहिए था क्योंकि स्वस्थ प्रशांत किशोर बिहार के अधिक काम आ सकते हैं। लेकिन, सवाल यह है कि बिहार की जिस ‘ध्वस्त शिक्षा’ की बात वे कर रहे थे उस मुद्दे पर बीते एक महीने से उन्होंने क्या किया है। पटना में एक तंबू नगर स्थापित कर लोगों को सत्याग्रह का प्रशिक्षण देते वक्त वे क्या बता रहे हैं लोगों को?
बिहार की ध्वस्त शिक्षा पर तो सवाल उठाने वाले लोग ही नहीं मिल रहे। प्रशांत किशोर ने अगर यह सवाल उठाया था तो इतने दिन बीतने के बाद भी उन्होंने अब तक कोई रिपोर्ट क्यों नहीं जारी की जिसमें बिहार की शिक्षा के ध्वस्त होने के कारणों और जिम्मेदार लोगों की बातें होती?
बिहार की नई पीढ़ी की नसों में बिहार की भ्रष्ट और ध्वस्त शैक्षणिक संरचना रोज जहर के इंजेक्शन डाल रही है और प्रति वर्ष हजारों की संख्या में अकादमिक रूप से पंगु नौजवान डिग्रियां लेकर सडक़ पर आ रहे हैं।
जिस राज्य के विश्वविद्यालय और उनसे जुड़े संस्थानों के शीर्ष भ्रष्ट और पतित बुद्धिजीवियों की जमात से घिर गए हों, जहां के अधिकतर संस्थानों में संगठित लूट के सिवा और कुछ भी नहीं हो रहा हो, वहां शिक्षा का ध्वस्त होना और परीक्षा का मजाक बनना स्वाभाविक है। इनसे निकले नौजवान कौन सी दृष्टि, कैसी पृष्ठभूमि के साथ रोजगार के बाजार में उतरते होंगे?
बिहार के सामने हजारों दुश्वारियां हैं, न जाने कितनी चुनौतियां हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर बिहार के विश्वविद्यालयों की दुर्दशा पर इतनी चुप्पी क्यों। यह चुप्पी पीढिय़ों को बर्बाद कर रही है।
जब कोई सवाल नहीं उठा रहा था तब प्रशांत किशोर ने इन नपुंसक चुप्पियों के बीच बिहार की शिक्षा को विमर्शों के बीच लाया। फिर, वे भी चुप से हो गए। आजकल वे अपने साक्षात्कारों में नीतीश कुमार के स्वास्थ्य की चिंता अधिक करते देखे सुने जाते हैं। उन्हें राजनीति करनी है तो वे बहुत सारी बातें एक साथ करेंगे ही। लेकिन, शिक्षा अब उनके एजेंडा में कहीं हाशिए पर चली गई है शायद। संभव है, सत्याग्रह प्रशिक्षण में वे अपने अनुयायियों के सामने इस विषयक कुछ प्रवचन देते हों।
प्रशांत किशोर ने जब जन सुराज की स्थापना की थी तब उनके मन में निश्चित ही अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का उदाहरण होगा। केजरीवाल की शोशेबाजियों ने तो तब भी कुछ मुकाम हासिल किया। काठ की हांडी एक बार तो अच्छे से रसोई पका ही देती है। लेकिन, उनकी विचारहीनता और मूल्यहीनता दोबारा उन्हें शायद ही अब उठने दे।
प्रशांत किशोर को यह उदाहरण समझना होगा। उनकी विचारधारा का कोई स्पष्ट दृश्य सामने अभी तक नहीं आया है। लेकिन, उसकी एक झलक हाल में हुए बेलागंज विधानसभा उप चुनाव में दिखी। बिहार के सरकारी स्कूलों की बदहाली पर उन्होंने वहां कहा, ‘सरकारी स्कूलों को तुरंत नहीं सुधारा जा सकता इसलिए हमारी जन सुराज पार्टी जब सत्ता में आएगी तो गरीबों के बच्चों का दाखिला प्राइवेट स्कूलों में करवाया जाएगा जिनकी फीस सरकार देगी।’
क्या यही उनकी वैचारिकी है? यह तो नरेंद्र मोदी के नीति आयोग के उस सी ई ओ की उन बातों की याद दिला देता है जिसने आयोग की एक बैठक में कहा था, ‘सरकारी स्कूलों को प्राइवेटाइज कर देना चाहिए और निर्धन बच्चों की फीस सरकार को भरनी चाहिए।’ अगर यही प्रशांत किशोर का विजन है तो भगवान उनसे बिहार को बचाए।
बिहार दिल्ली नहीं है जिसने एक दौर में केजरीवाल को सिर पर उठा लिया था। वह दौर था और उस दौर की कुछ परिस्थितियां थी। प्रशांत किशोर के सामने वैसा राजनीतिक मैदान और वैसी परिस्थितियां नहीं हैं। न वे स्वयं अब तक कुछ भी साबित कर सके हैं। शिक्षा को लेकर उन्होंने जो सवाल उठाए वे सवाल किसी बियाबान में गुम हैं। अगर इसी सवाल को वे मशाल बना लेते तो बिहार की नौजवान पीढ़ी उनमें कुछ उम्मीदें ढूंढती। पता नहीं, शायद वे अपने सत्याग्रह प्रशिक्षण कार्यक्रम में इस पर कुछ बातें कर रहे हों।
-अभिनव गोयल
दिल्ली में नए मुख्यमंत्री को चुनने के लिए बीजेपी में कवायद तेज हो गई है। रविवार को बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की।
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक इस बैठक में ‘मुख्यमंत्री कौन होगा’ इसे लेकर लंबी बातचीत हुई।
वहीं दूसरी तरफ रविवार शाम को ही दिल्ली बीजेपी दफ्तर में नतीजे आने के बाद विधायकों की पहली बैठक हुई।
बैठक में शामिल ग्रेटर कैलाश से नवनिर्वाचित विधायक शिखा राय ने बीबीसी से बातचीत करते हुए कहा, ‘बैठक में पानी, यमुना की सफाई और अन्य मुद्दों को लेकर चर्चा हुई। बैठक में मुख्यमंत्री के नाम को लेकर कोई बात नहीं हुई है।’
‘आप’ छोडक़र बीजेपी की टिकट पर बिजवासन से चुनाव जीतने वाले कैलाश गहलोत से लेकर प्रवेश वर्मा तक इस सवाल से बचते नजर आए कि ‘दिल्ली का मुख्यमंत्री कौन होगा।’
बैठक के बाद प्रवेश वर्मा और मनजिंदर सिंह सिरसा ने अलग-अलग जाकर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से उनके आवास पर भी मुलाकात की।
दिल्ली में बीजेपी करीब 27 सालों के बाद सत्ता में वापसी कर रही है। पार्टी ने कुल 70 में से 48 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की है।
8 फऱवरी को आए नतीजों के बाद अब तक यह तय नहीं हो पाया है कि इस सरकार का चेहरा कौन होगा? इस एक बड़े सवाल को लेकर बीबीसी हिंदी ने आठ वरिष्ठ पत्रकारों से बात की।
राजनीतिक विश्लेषकों का ऐसा दावा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे से लौटने के बाद ही दिल्ली में मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह होगा।
फिलहाल पीएम मोदी 10 से 12 फऱवरी तक फ्रांस में और उसके बाद 14 फऱवरी तक अमेरिका में रहेंगे।
शरद गुप्ता का मानना है कि कोई भी फैसला लेने से पहले भारतीय जनता पार्टी जातीय गणित से लेकर आस-पास के राज्यों तक का ध्यान रखती है।
उनका कहना है, ‘इस बार भी बीजेपी के फैसले के पीछे एक बड़ा संदेश छिपा होगा। मैसेजिंग उनके लिए बहुत मायने रखती है। मध्य प्रदेश में मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया गया, जबकि यादवों का वर्चस्व उत्तर प्रदेश और बिहार में देखा जाता है।’
वे कहते हैं, ‘हिंदी बेल्ट में ओबीसी की सबसे बड़ी जातियों में से एक यादवों को अपनी तरफ करने के लिए मध्य प्रदेश में बड़े चेहरों को दरकिनार कर मोहन यादव को चुना गया।’
गुप्ता का कहना है कि इस साल बिहार में विधानसभा के चुनाव हैं, ऐसे में बीजेपी किसी पूर्वांचली नेता पर दांव लगा सकती है और इसके लिए मनोज तिवारी फिट आदमी हैं।
नई दिल्ली विधानसभा से अरविंद केजरीवाल को करीब 4 हजार वोट से हराने वाले प्रवेश वर्मा को शरद गुप्ता एक मजबूत दावेदार मानते हैं।
इसके अलावा गुप्ता करोल बाग विधानसभा से हारने वाले दुष्यंत गौतम का नाम भी लेते हैं। वे कहते हैं, ‘अगर बीजेपी दलित चेहरे के तौर पर किसी को लाने का विचार करती है, तो दुष्यंत गौतम बाजी मार सकते हैं, भले वे चुनाव नहीं जीत पाए हैं।’
बीजेपी सांसद बांसुरी स्वराज के नाम पर उनका कहना है, ‘वे एक अर्बन चेहरा हैं। उनकी वजह से कहां के वोट मिलेंगे? उनमें कोई ऐसी यूएसपी नहीं है कि मुख्यमंत्री बना दिया जाए।’
वे कहते हैं, ‘अगर बीजेपी को हिंदुत्व की पिच पर खेलना है तो कपिल मिश्रा को भी मौका दिया जा सकता है।’
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री का मानना है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने 2014 के बाद मुख्यमंत्री चुनने की स्थापित परंपरा को तोड़ दिया है और आप उनके फैसले को भांप नहीं सकते हैं।
वे कहते हैं, ‘हरियाणा एक जाट प्रदेश है लेकिन वहां पंजाबी खत्री समाज से आने वाले मनोहर लाल को सीएम बनाया। महाराष्ट्र में मराठा राजनीति होती है, वहां एक ब्राह्मण को चुना। राजस्थान में ठाकुर, गुर्जर की राजनीति के बीच ब्राह्मण को ले आए, ऐसा ही हाल मध्य प्रदेश में किया।’
अत्री कहते हैं, ‘जो नरेंद्र मोदी की राजनीति को नहीं समझते हैं, वो कयासबाज़ी करते हैं। वे किस को मुख्यमंत्री बनाएंगे, इसका फैसला वे चुनाव से पहले ही कर लेते हैं। इस बार भी नया नाम सामने आ सकता है।’
अत्री का मानना है, ‘राहुल बार-बार दलितों, पिछड़ों और संविधान के मुद्दे पर बीजेपी को घेर रहे हैं। दिल्ली भले छोटी है लेकिन यहां से निकली बात पूरे देश में गूंजती है। ऐसे में बीजेपी किसी दलित चेहरे को आगे कर सकती है, जिससे कांग्रेस का नैरेटिव कमजोर होगा।’
प्रवेश वर्मा के नाम को लेकर उनका कहना है, ‘वे सीएम कभी नहीं बनेंगे। मुसलमानों के ख़िलाफ़ उन्होंने टिप्पणियां की हैं, जो उनके ख़िलाफ़ जाएगा। वो महत्वाकांक्षी और बड़बोले हैं। उनके आने से बीजेपी पर परिवारवाद का आरोप लगेगा।’
इसके अलावा वे शालीमार विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी की नवनिर्वाचित विधायक रेखा गुप्ता और जनकपुरी से चुनकर आए आशीष सूद को भी दावेदार मानते हैं।
इंडियन एक्सप्रेस की नेशनल ओपिनियन एडिटर वंदिता मिश्रा ने बीबीसी से बातचीत में कहा, ‘मुख्यमंत्री की रेस में जिन नामों की चर्चा है, उनमें से किसी के नाम पर मुहर नहीं लगेगी। ऐसे उम्मीद है कि कोई नया नाम सामने आ सकता है।’
इससे पहली बीबीसी हिंदी के लेंस प्रोग्राम में बात करते हुए उन्होंने कहा था कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के विकल्प ख़त्म नहीं हुए हैं।
उनका कहना था, ‘अब आम आदमी पार्टी को यह सोचना होगा कि जो उन्होंने कुछ चीज़ें की हैं, वे सही थीं और यही वजह है कि उनके पास अभी भी 40 प्रतिशत से ऊपर वोट शेयर है।’
‘दिल्ली पर सबकी नजऱ होती है और आप जो भी करेंगे, उसकी देशभर में चर्चा होगी। इसलिए उन्हें यह तय करना होगा कि बिना कैमरे के अपनी ख़ामियों को सुधारने के बारे में सोचें।’
बीजेपी, संघ, अटल बिहारी वाजपेयी और योगी आदित्यनाथ पर वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी किताबें लिख चुके हैं।
बीबीसी से बातचीत में त्रिवेदी कहते हैं, ‘बीजेपी का मौजूदा नेतृत्व, राजनीति और पार्टी में एक बड़ा पीढ़ीगत यानी जेनरेशनल बदलाव कर रहा है। यही वजह है कि पार्टी और संगठन के नेताओं की उम्र घटकर 50 के पास आ गई है। पार्टी अब नए और यंग चेहरों को पसंद कर रही है।’
वे कहते हैं, ‘महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड के सीएम जनरेशनल चेंज को दिखा रहे हैं। उनकी उम्र कम है।’
त्रिवेदी का मानना है, ‘वहीं कांग्रेस इसके उलट चल रही है। जब राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष थे। उन्होंने राजस्थान में सचिन पायलट की जगह अशोक गहलोत, मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की जगह कमलनाथ को चुना। अभी पार्टी अध्यक्ष खडग़े जी की उम्र 82 साल है।’
वे कहते हैं, ‘जब बीजेपी नए लोगों को मुख्यमंत्री बनाती है तो आलोचक आम तौर पर ये कहते हैं कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह किसी भी ऐसे व्यक्ति को नहीं चाहते, जो उन्हें चुनौती दे। लेकिन बात ये नहीं है। फिलहाल कोई भी ऐसा नहीं है जो उन्हें चुनौती दे पाए।’
त्रिवेदी का मानना है, ‘बीजेपी में एक मुख्यमंत्री के साथ दो उप मुख्यमंत्री बनाने की परंपरा नहीं थी, लेकिन अब सोशल इंजीनियरिंग को ध्यान में रखकर ऐसा किया जा रहा है।’
उत्तर प्रदेश में केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक को, छत्तीसगढ़ में अरुण साव और विजय शर्मा को और राजस्थान में दीया कुमारी को, मध्य प्रदेश में राजेंद्र शुक्ला और जगदीश देवड़ा को उप मुख्यमंत्री बनाया गया।
प्रवेश वर्मा के नाम पर विजय कहते हैं, ‘वे दिल्ली में बदलाव का ट्रिगर प्वाइंट हैं। 15 दिन पहले तक लीडरशिप के नाम पर कोई नाम नहीं था, लेकिन प्रवेश वर्मा ने पूरा चुनाव पलट दिया।’
वे कहते हैं, ‘प्रवेश वर्मा को अमित शाह ने तैयार किया है। नतीजों के बाद दोनों की मुलाकात भी हुई है। लोग कह रहे हैं कि ज्यादा चर्चा में आने से रेस में पिछड़ सकते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में फडणवीस के नाम को लेकर चर्चा थी, बाद में उन्हें ही बनाया गया।’
दो दशकों से पत्रकारिता कर रहीं विनिता यादव का कहना है, ‘बीजेपी एक ऐसे चेहरे को मुख्यमंत्री बनाएगी, जो ज़्यादा बगावती और वोकल ना हो। पिछले कुछ समय से पार्टी और संघ के अंदर मनमुटाव की खबरें आई हैं, लेकिन अब दोनों के बीच संबंध ठीक हो रहे हैं। ऐसे में संगठन की राय ली जाएगी।’
वे कहती हैं, ‘नंबर एक पर प्रवेश वर्मा का नाम लिया जा रहा है। वे नतीजों के बाद अमित शाह से भी मिले, लेकिन हमने दूसरे राज्यों में देखा है कि जो लोग मोदी-शाह के करीबी थे। उन्हें सीएम नहीं बनाया गया। ऐसे में प्रवेश वर्मा को सीएम की जगह अच्छा मंत्रालय दिया जा सकता है।’
विनिता कहती हैं, ‘सतीश उपाध्याय बीजेपी में मोदी-शाह की लॉबी के नेता नहीं रहे हैं। हालांकि कुछ सालों में वे खुद को यस मैन की भूमिका में ले आए हैं। बावजूद इसके उनकी उम्मीद कम लगती है।’
वे कहती हैं, ‘दिल्ली में बीजेपी की राजनीति को विजेंद्र गुप्ता ने जि़ंदा रखने का काम किया है। उन्होंने हार नहीं मानी और केजरीवाल सरकार के नाक में दम करके रखा। वे बहुत पुराने नेता हैं और बहुत कुछ जान रहे हैं, जो उनके ख़िलाफ़ जाता है।’
इसके अलावा यादव दुष्यंत गौतम का नाम भी लेती हैं।
उनका कहना है, ‘वे उत्तराखंड में चुनाव प्रभारी थे। उनके समय में पार्टी ने जीत दर्ज की। वे सारी परीक्षाएं पास कर चुके हैं, जहां से मोदी-शाह के पेपर बनकर निकलते हैं।’
वे कहती हैं, ‘भले चुनाव हार गए हैं लेकिन दुष्यंत गौतम पीएम मोदी के बहुत खास हैं। वे बड़ी जिम्मेदारियां निभा चुके हैं। आखिर में एक नाम मोहन सिंह बिष्ठ का भी है।’
पिछले 41 वर्षों से पत्रकारिता कर रहे विनीत वाही का कहना है कि जो नाम मीडिया में उछाले जा रहे हैं, उनके चांस कम दिखाई देते हैं।
वे कहते हैं, ‘सोशल मीडिया इतना हावी है कि फैक्ट, कैजुअल्टी बन रहे हैं। बीजेपी में सब कुछ पीएम नरेंद्र मोदी की तरफ़ से तय हो रहा है। ऐसे में क्या होगा, किसी को नहीं पता है।’
प्रवेश वर्मा के नाम पर वाही कहते हैं, ‘वे दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे हैं। राजनीतिक परिवार से होने के चलते उन्हें फायदा मिला है। सांसद रहते हुए भी उन्होंने अच्छा काम किया है, लेकिन ऐसी ही स्थिति हरीश खुराना के साथ भी है।’
हरीश खुराना के पिता मदन लाल खुराना ने साल 1993 के विधानसभा चुनावों में मोती नगर से जीत हासिल की थी। इस जीत के बाद वे दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे।
वाही कहते हैं, ‘हरीशा खुराना, प्रवेश वर्मा से भी पहले से सक्रिय हैं। बस उनका नाम उस तरह से नहीं उछाला जा रहा है। ऐसे में बीजेपी में क्या हो सकता है, इसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता।’
इसके अलावा वे मनोज तिवारी, हर्ष मल्होत्रा और बांसुरी स्वराज को भी मुख्यमंत्री का दावेदार मानते हैं।
उनका मानना है, ‘दिल्ली में करीब 25 प्रतिशत पूर्वांचली वोटर हैं, ऐसे में मनोज तिवारी को मौका दिया जा सकता है। हर्ष मल्होत्रा संगठन के आदमी हैं। बांसुरी स्वराज को हाल ही में पार्टी में लाया गया। लाते ही उन्हें सांसद का चुनाव लड़ाया गया। ऐसे कयास लगाए गए कि पार्टी उन्हें आगे लेकर जाना चाहती है।’
वरिष्ठ पत्रकार और दिल्ली में करीब तीन दशकों से पत्रकारिता कर रहे रामेश्वर दयाल का कहना है, बीजेपी कैडर आधारित पार्टी है। आलाकमान जो तय करता है, उसे मान लिया जाता है।’
वे कहते हैं, ‘दिल्ली में मुख्यमंत्री के अलावा छह मंत्री ही बनाए जा सकते हैं। ऐसे में कुछ विधायकों को दिल्ली खादी बोर्ड और दिल्ली पर्यटन विकास निगम जैसे दर्जन भर से ज़्यादा बोर्ड और कॉर्पोरेशन में भेजा जा सकता है।’
मुख्यमंत्री की रेस में वाही- प्रवेश वर्मा, मोहन सिंह बिष्ठ, विजेंद्र गुप्ता, आशीष सूद, सतीश उपाध्याय, रेखा गुप्ता और शिखा राय के नाम की संभावना जताते हैं।
वे कहते हैं, ‘प्रवेश वर्मा का काम अच्छा रहा है। मोहन सिंह बिष्ठ छठी बार विधायक बने हैं। उन्हें मुख्यमंत्री नहीं तो स्पीकर का पद दिया जा सकता है। विजेंद्र गुप्ता बहुत आक्रामक रहे हैं। वे दो बार नेता प्रतिपक्ष रहे हैं। केजरीवाल सरकार को परेशानी में डालते रहे हैं। आरएसएस से उनकी अच्छी बनती है।’
वाही कहते हैं, ‘आशीष सूद बीजेपी का पंजाबी चेहरा हैं। जनकपुरी से विधायक चुने गए सूद पार्षद भी रहे हैं। वे दिल्ली बीजेपी के महासचिव के साथ-साथ दिल्ली यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष भी रहे हैं। खास बात ये है कि वे पार्टी के शीर्ष नेताओं के करीबी भी हैं।’
वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखेड़े का कहना है, ‘बीजेपी का ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि ऐसा आदमी मुख्यमंत्री बनेगा, जिसकी चर्चा सबसे कम है।’
वे कहते हैं, ‘अब पुराने वाली बीजेपी नहीं रही है। अब पार्टी को किसी वरिष्ठ आदमी और अनुभव की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि सरकार तो 'दिल्ली' से ही चलनी है।’
प्रवेश वर्मा के नाम पर वानखेड़े कहते हैं, ‘एक समय राजनारायण ने इंदिरा गांधी को हराया था। ऐसे में तो उन्हें प्रधानमंत्री होना चाहिए था। प्रवेश वर्मा ने केजरीवाल को हराया है, इसका मतलब ये नहीं है कि बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री बना देगी।’
वे कहते हैं, "बिहार चुनाव नजदीक है। किसी ऐसे व्यक्ति को भी सत्ता की चाबी दी जा सकती है, जिसका असर वहां पड़े।’ (bbc.com/hindi)
डॉयचे वैले पर मुरली कृष्णन का लिखा-
हरविंदर सिंह के पास इस हफ्ते 40 घंटे की यात्रा के दौरान सोच विचार करने का समय था, जब अमेरिकी सैन्य विमान ने उन्हें टेक्सस से अमृतसर लाकर छोड़ दिया।
यह सफर उनके मुश्किलों की आखिरी कड़ी थी जो जून 2024 में शुरू हुई। तब सिंह ने अमेरिका जाने के लिए एक एजेंट को 40 लाख रुपये दिए थे। 41 साल के सिंह पंजाब के रहने वाले हैं और उन्हें एजेंट ने भरोसा दिलाया था कि वे दो हफ्ते में कानूनी तरीके से अमेरिका पहुंच जाएंगे। सिंह ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘हालांकि उसकी बजाय, मैं कतर, ब्राजील, पेरू, कोलंबिया, पनामा, निकारागुआ और मेक्सिको गया। कई बार बहुत खतरनाक परिस्थितियों से हम गुजरते रहे, इस उम्मीद में कि अवसरों के देश अमेरिका पहुंचेंगे।’
सिंह के एजेंट ने उनकी यात्रा के लिए कथित ‘डंकी रूट’ को चुना था। इस टर्म का इस्तेमाल भारत में अवैध और जोखिम भरे आप्रवासन के रास्ते के लिए किया जाता है। इसका इस्तेमाल प्रवासी अमेरिका या दूसरे पश्चिमी देशों में बिना उचित दस्तावेजों के घुसने के लिए करते हैं। इसमें खासतौर से उन्हें कई देशों में रुकते हुए जाना पड़ता है।
सिंह का कहना है कि उन्हें और दूसरे प्रवासियों को मामूली खाना मिलता था और खतरनाक रास्तों को उन्हें मुश्किल मौसमी हालात में पैदल पार करना पड़ा। एक बार तो उनके प्रवासी समूह को एक छोटी सी नाव में बिठा कर मेक्सिको की तरफ सागर में छोड़ दिया गया। इस दौरान एक यात्री पानी में गिर गया। उसके पास लाइफ जैकेट भी नहीं थी और उसे बचाया नहीं जा सका। सिंह ने बताया, ‘मैंने एक शख्स को पनामा के जंगल में मरते देखा।’
‘मैंने सबकुछ दांव पर लगा दिया।’
सिंह को जनवरी के आखिर में अमेरिका में घुसने से ठीक पहले मेक्सिको में पकड़ लिया गया। पकड़े जाने के बाद उन्हें यूएस बॉर्डर कंट्रोल के हवाले कर दिया गया और फिर एक हिरासत केंद्र में रखा गया।
बाद में उनके हाथ में हथकड़ी और पैरों में बेडिय़ां डाल कर सैन्य विमान में बिठा दिया गया। इसके बाद 100 और दूसरे अवैध प्रवासियों के साथ उन्हें भारत भेज दिया गया। इन लोगों में पंजाब, गुजरात, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के लोग हैं।
विमान में सवार हुए लोगों में 19 महिलाएं और 13 बच्चे थे। इनमें एक चार साल का लडक़ा और पांच और सात साल की दो लड़कियां भी थीं। दो बच्चों के पिता सिंह का कहना है, "मैं तबाह हो गया। मैंने पैसा, सुरक्षा और यहां तक कि अपनी इज्जत भी दांव पर लगा दी थी कि अपने परिवार को विदेश में अच्छा भविष्य दे सकूं।’
अमेरिका में बिना दस्तावेज के कितने भारतीय हैं?
अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर ने 2022 के आंकड़ों का हवाला दे कर अनुमान लगाया है कि अमेरिका में करीब 725,000 अनाधिकृत प्रवासी भारतीय रहते हैं। इस संख्या के आधार पर अवैध प्रवासियों के मामले में मेक्सिको और अल सल्वाडोर के बाद तीसरे नंबर पर भारत आता है।
हालांकि माइग्रेशन पॉलिसी इंस्टिट्यूट का अनुमान है कि 2022 में अमेरिका में 375,000 अवैध प्रवासी भारतीय थे। इस हिसाब से भारत इस मामले में पांचवें नंबर पर है।
भारत और अमेरिका के बीच प्रत्यर्पण को लेकर बीते कई सालों से बातचीत चल रही है। ब्लूमबर्ग की एक खास रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल वापस भेजने के लिए 18,000 भारतीय अवैध प्रवासियों की पहचान अमेरिका ने की थी।
भारतीय नागरिकों के प्रत्यर्पण ने उन चुनौतियों की तरफ भी लोगों का ध्यान खींचा है जिनका सामना उन्हें लौटने के बाद करना होगा। इनमें से बहुत से लोगों ने अपनी सारी जमा पूंजी अमेरिका पहुंचने की कोशिश में खर्च कर दी है।
हरविंदर सिंह की पत्नी कुलजिंदर कौर ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘बहुत मुश्किल होने वाली है। मैं आगे का नहीं सोच पा रही हूं। शुक्र है कि मेरा पति वापस आ गया लेकिन हम कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। अब हमें अकेला रहने दीजिए।।।हम साथ मिल कर इससे उबरेंगे। सब कुछ चला गया।’
‘सबकुछ खत्म हो गया’
अमृतसर उतरे अमेरिकी सैन्य विमान में आकाशदीप सिंह भी थे। उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि अमेरिका में रहने के लिए उन्होंने अपना पैसा और परिवार के प्यार को भी दांव पर लगा दिया। 23 साल के आकाशदीप सिंह अमृतसर के पास एक गांव के हैं। उन्होंने बड़ी मात्रा में अपनी जमीन बेच कर और कर्ज ले कर 60 लाख रुपये जुटाए ताकि अमेरिका जा सकें।
अमृतसर वापस भेजे जाने से 8 महीने पहले आकाशदीप ट्रक ड्राइवर के रूप में काम करने के लिए दुबई गए। हालांकि वो नौकरी जाती रही और तब उन्होंने एक एजेंट के जरिए अमेरिका जाने का फैसला किया, जिसने उन्हें मंझधार में छोड़ दिया। आकाशदीप सिंह ने बताया, ‘मुझे जनवरी में गिरफ्तार किया गया। वह बहुत भयानक था और मैं उसका ब्यौरा नहीं बताना चाहता, लेकिन जो शर्मिंदगी मुझे मिली वह मेरे साथ ही रहेगी, मैं उसे कभी नहीं भूल पाऊंगा।’ उन्होंने कहा, ‘मुझसे मत पूछिए कि मैंने यह जोखिमभरा फैसला क्यों किया।’
प्रवासियों पर ट्रंप का कहर
इस हफ्ते हुए अमेरिका से भारत के लिए प्रत्यर्पण अनियमित आप्रवासन के खिलाफ व्यापक कार्रवाई का हिस्सा है जो अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने शुरू की है। ट्रंप ने प्रत्यर्पण को राजनीतिक प्राथमिकता में शामिल करा दिया है।
नियमित कारोबारी उड़ानों की बजाय पहली बार अमेरिकी सैन्य विमान का 104 भारतीयों के प्रत्यर्पण में इस्तेमाल मजबूत प्रतीकात्मक और राजनीतिक संदेश है।
यह विमान अगले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतीक्षित यात्रा के ठीक पहले भारत आया है। इसकी वजह से विपक्षी दलों को सरकार पर उंगली उठाने का मौका मिल गया है। वो इसके समय और अमेरिकी अधिकारियों के हाथों प्रवासियों के साथ दुर्व्यवहार दोनों पर सवाल उठा रहे हैं।
संसद के दोनों सदनों में दिए एक बयान में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ध्यान दिलाया है कि प्रत्यर्पण उड़ानों के दौरान ‘बेडिय़ों का इस्तेमाल’ अमेरिका की मानक प्रक्रिया का हिस्सा है और इस दौरान भारत अमेरिका से बात कर रहा था कि उनके साथ दुर्व्यवहार ना हो।
जयशंकर ने विपक्षी दलों के हथकडिय़ों और बेडिय़ों पर उठाए सवाल के जवाब में कहा, ‘विमान से प्रत्यर्पण के लिए मानक प्रक्रिया का इस्तेमाल इमिग्रेशन एंड कस्टम्स इनफोर्समेंट करता है जो 2012 से ही लागू है।।। इसमें बेडिय़ों का इस्तेमाल होता है।’
आर्थिक मुश्किलें और सामाजिक वर्जनाएं
आकाशदीप सिंह के पिता स्वर्ण सिंह 55 साल के हैं। अमृतसर एयरपोर्ट पर इंतजार करते हुए उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि भले ही पैसों का भारी बोझ पड़ गया है लेकिन शुक्र है कि बेटा सुरक्षित घर आ गया। स्वर्ण सिंह ने कहा, ‘एजेंट ने मुझसे वादा किया था कि यह सुरक्षित यात्रा होगी। मैंने उस पर भरोसा किया और अब सबकुछ खत्म हो गया। कम से कम मेरा बेटा वापस आ गया और यह ज्यादा जरूरी है। हमारे सामने अनिश्चिता और चिंताजनक भविष्य है क्योंकि भारी कर्ज चुकाना है।’
स्वर्ण सिंह ने यह भी कहा, ‘कड़वी सच्चाई यह है कि पंजाब या देश के दूसरे इलाकों के कई परिवारों की तरह हमें इस हाल में वापस आने पर आर्थिक संकट और सामाजिक वर्जना झेलनी पड़ेंगी।’ (डॉयचेवैले)