विचार / लेख
- सौतिक बिस्वास और विकास पांडे
नाटकीय घटनाक्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शनिवार को सोशल मीडिया पर घोषणा की कि चार दिनों तक सीमा पर संघर्ष के बाद भारत और पाकिस्तान ‘पूर्ण और तत्काल संघर्ष विराम’ पर सहमत हो गए हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि पर्दे के पीछे क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर अमेरिकी मध्यस्थों ने डिप्लोमैटिक बैकचैनल्स के माध्यम से युद्ध के कगार पर खड़े परमाणु संपन्न प्रतिद्वंद्वियों को पीछे खींचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हालांकि, संघर्ष विराम समझौते के कुछ ही घंटों बाद भारत और पाकिस्तान के बीच इसके उल्लंघन के आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए। इससे एक बार फिर स्थिति काफ़ी नाजुक हो गई।
भारत ने पाकिस्तान पर ‘बार-बार उल्लंघन’ का आरोप लगाया, जबकि पाकिस्तान ने इस बात पर ज़ोर दिया कि वह संघर्ष विराम के प्रति प्रतिबद्ध है और उसकी सेनाएं ‘जि़म्मेदारी और संयम’ दिखा रही हैं।
ट्रंप की संघर्ष विराम घोषणा से पहले, भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध उस दिशा में बढ़ रहे थे, जिसके बारे में कई लोगों को आशंका थी कि यह एक पूर्ण संघर्ष बन सकता है।
पिछले महीने जम्मू-कश्मीर में एक घातक हमले में 26 पर्यटकों की मौत के बाद भारत ने पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में हवाई हमले शुरू कर दिए। इसके बाद कई दिनों तक हवाई झड़पें, तोपों से गोलाबारी हुई और शनिवार की सुबह तक दोनों पक्षों की ओर से एक-दूसरे के हवाई ठिकानों पर मिसाइल हमलों के आरोप लगाए गए।
बयानबाज़ी बहुत तेज़ी से बढ़ गई और दोनों देशों ने एक दूसरे के हमलों को विफल करते हुए भारी क्षति पहुंचाने का दावा किया।
अमेरिका, ब्रिटेन और सऊदी अरब की क्या भूमिका?
वॉशिंगटन डीसी स्थित ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन की वरिष्ठ फ़ैलो तन्वी मदान का कहना है कि अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो का 9 मई को पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर को किया गया फोन कॉल ‘संभवत: निर्णायक बिंदु रहा होगा।’
वह कहती हैं, ‘विभिन्न अंतरराष्ट्रीय नेताओं की भूमिका के बारे में हम अभी भी बहुत कुछ नहीं जानते हैं, लेकिन पिछले तीन दिनों में यह स्पष्ट हो गया है कि कम से कम तीन देश तनाव कम करने के लिए काम कर रहे थे- अमेरिका, ब्रिटेन और सऊदी अरब।’
पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक़ डार ने पाकिस्तानी मीडिया को बताया कि इस कूटनीति में ‘तीन दर्जन देश’ शामिल हैं - इनमें तुर्की, सऊदी अरब और अमेरिका भी शामिल हैं।
मदान कहती हैं, ‘अगर ये (अमेरिकी विदेश मंत्री की) कॉल शुरुआत में ही की गई होती तो संघर्ष इतना नहीं बढ़ता।’
यह पहली बार नहीं है जब अमेरिकी मध्यस्थता ने भारत-पाकिस्तान संकट को कम करने में मदद की है।
पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने अपनी किताब में दावा किया था कि उन्हें 'भारतीय समकक्ष' ने एक बार बात करने के लिए जगाया था, जिन्हें डर था कि पाकिस्तान 2019 के गतिरोध के लिए परमाणु हथियार तैयार कर रहा है।
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त अजय बिसारिया ने क्या बताया?
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त अजय बिसारिया ने बाद में लिखा कि माइक पॉम्पियो ने परमाणु युद्ध के ख़तरे और संघर्ष को शांत कराने में अमेरिका की भूमिका दोनों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया।
हालांकि, राजनयिकों का कहना है कि इस संकट को टालने में अमेरिका ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसमें कोई संदेह नहीं है।
अजय बिसारिया ने बीबीसी को शनिवार को बताया, ‘अमेरिका यहां सबसे मुख्य बाहरी प्लेयर है। पिछली बार पोम्पिओ ने दावा किया था कि उन्होंने दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध टलवा दिया था। संभव है कि अमेरिकियों ने दिल्ली की पॉजि़शन को इस्लामाबाद तक पहुँचाने में कूटनयिक रोल अदा किया हो। ’
हालांकि शुरुआत में अमेरिका का रुख़ अलग-थलग सा दिखाई दिया था। जैसे ही तनाव बढ़ा अमेरिकी उप राष्ट्रपति जेडी वेंस ने बृहस्पतिवार को कहा, ‘अमेरिका उस युद्ध में शामिल नहीं होने जा रहा है, ये हमारा काम नहीं है।’
उन्होंने टेलीविजऩ पर एक साक्षात्कार में कहा था, ‘हालाँकि हम इन देशों को नियंत्रित नहीं कर सकते। मूल रूप से, भारत को पाकिस्तान से शिकायतें हैं।।। अमेरिका भारत को हथियार डालने के लिए नहीं कह सकता। हम पाकिस्तानियों को हथियार डालने के लिए नहीं कह सकते। और इसलिए हम कूटनीतिक माध्यमों का सहारा लेंगे।’
इसी बीच, राष्ट्रपति ट्रंप ने इस सप्ताह की शुरुआत में कहा था, ‘मैं दोनों (भारत और पाकिस्तान के नेताओं) को बहुत अच्छी तरह से जानता हूं, और मैं उन्हें इसे सुलझाते हुए देखना चाहता हूं... मैं उन्हें रुकते हुए देखना चाहता हूं, और उम्मीद है कि वे अब रुक जाएंगे।’ लाहौर में रक्षा विश्लेषक एजाज़ हैदर ने बीबीसी को बताया कि हालिया मामला पिछली घटनाओं से अलग जान पड़ता है।
हैदर ने बीबीसी को बताया, ‘अमेरिका की भूमिका पिछले पैटर्न की तरह ही है, लेकिन इस बार एक महत्वपूर्ण अंतर है, उन्होंने शुरुआत में दूरी बनाए रखी। तुरंत हस्तक्षेप करने से पहले उन्होंने संकट को बढ़ते देखा, और जब उन्होंने ये देख लिया कि स्थिति किस ओर जा रही है तब उन्होंने इसे रोकने के लिए कदम उठाया।’
पाकिस्तान से क्या संकेत मिले?
पाकिस्तान में विशेषज्ञों का कहना है कि जब तनाव बढ़ा तो पाकिस्तान ने 'दोहरे संकेत' दिए - एक तरफ़ सैन्य जवाबी कार्रवाई और दूसरी तरफ़ नेशनल कमांड अथॉरिटी (एनसीए) की बैठक बुलाना जो कि परमाणु क्षमता की याद दिलाने का संकेत देना था।
पाकिस्तान कमांड ऑथोरिटी, देश के परमाणु हथियारों पर नियंत्रण रखती है और उसके इस्तेमाल संबंधी फ़ैसले लेती है।
यह वही समय था जब अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने हस्तक्षेप किया।
कार्नेगी एनडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के एक वरिष्ठ फ़ैलो एशले जे टेलिस ने बीबीसी को बताया, ’अमेरिका का इससे बाहर रहना मुमकिन ही नहीं था। विदेश मंत्री रुबियो के प्रयासों के बिना ये चीज़ नहीं हो पाती।’ इस बात में जिस एक चीज़ ने और मदद की वो है अमेरिका का भारत के साथ गहरा होता संबंध।
पीएम नरेंद्र मोदी के ट्रंप के साथ व्यक्तिगत संबंध, इसके साथ ही अमेरिका के व्यापक रणनीतिक और आर्थिक हितों ने अमेरिकी प्रशासन को दोनों परमाणु संपन्न प्रतिद्वंद्वियों को तनाव कम करने की दिशा में कूटनीतिक बढ़त दी।
भारतीय राजनयिक इस बार तीन प्रमुख शांति प्रयासों को देखते हैं, जैसा कि 2019 में पुलवामा-बालाकोट के बाद हुआ था।
अमेरिका और ब्रिटेन का दबाव
सऊदी अरब की मध्यस्थता, जिसमें सऊदी के जूनियर विदेश मंत्री का दोनों देशों का दौरा शामिल है
भारत-पाकिस्तान के दोनों राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों (एनएसए) के बीच का सीधा चैनल
वैश्विक प्राथमिकताओं में बदलाव और शुरुआत में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के बाद अमेरिका ने आखऱिकार दक्षिण एशिया के परमाणु-संपन्न प्रतिद्वंद्वियों के बीच एक अहम मध्यस्थता की।
चाहे अमेरिकी अधिकारियों का इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाना हो या दिल्ली और इस्लामाबाद का इसे कम कर आंका जाना हो, विशेषज्ञों का मानना है कि इस संकट को संभालने वाले क्राइसिस मैनेजर के रूप में अमेरिका की भूमिका बेहद अहम बनी हुई है और उतनी ही जटिल भी है।
हालांकि अब भी शनिवार के घटनाक्रम के बाद सीजफ़़ायर के टिके रहने को लेकर संदेह की स्थिति बनी हुई है। मीडिया में ऐसी ख़बरें भी आई हैं कि ये सीजफ़़ायर दोनों देशों के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ज़रिए कराया गया है न कि अमेरिका के ज़रिए। विदेश नीति के विश्लेषक माइकल कुगेलमैन ने बीबीसी को बताया, ‘यह संघर्ष विराम नाज़ुक बना रहेगा। यह बेहद तनावपूर्ण स्थिति में बहुत तेज़ी से हुआ है। भारत ने इसे अमेरिका और पाकिस्तान की तुलना में अलग तरीके से देखा है।’ ‘इसके अलावा, इसे इतनी जल्दबाज़ी में तैयार किया गया है कि समझौते में आवश्यक गारंटी और आश्वासन शायद शामिल नहीं हैं, जो इस तरह के तनावपूर्ण माहौल में आवश्यक होते हैं।’ (बीबीसी)