विचार/लेख
-सुरेश गवानिया और
नामदेव काटकर
‘डा. बाबा साहेब आंबेडकर को दो चीजों का बहुत शौक था, किताबें खरीदने का और उन्हें पढऩे का। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई, किताबों से उनका लगाव भी बढ़ता गया।’
‘एक समय ऐसा आया जब उनके पास करीब सात से आठ हजार किताबें हो गईं। इनकी कीमत करीब 30 से 40 हजार रुपए या उससे ज़्यादा होने का अनुमान है।’
यह जानकारी डॉ. आंबेडकर के जीवन पर लिखी गई एक पुस्तक में है, जो 1940 में प्रकाशित हुई थी। यह किताब उस समय लिखी गई, जब वह जीवित थे।
दिलचस्प बात यह है कि यह पुस्तक गुजराती भाषा में लिखी गई थी। 28 अगस्त 1940, गुजरात, गुजराती भाषा और पूरे भारत में आंबेडकरवादियों के लिए विशेष महत्व रखता है।
इसी दिन डॉ.आंबेडकर की पहली जीवनी प्रकाशित हुई थी। यह किताब जीवनी से कहीं ज़्यादा एक मूल्यवान ऐतिहासिक दस्तावेज़ है।
इस किताब के लिखे जाने और इसके प्रकाशित होने की कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है।
आंबेडकर की पहली जीवनी का प्रकाशन
यूएम सोलंकी की लिखी इस किताब का नाम था- डॉ. बीआर आंबेडकर, एस्क्वायर। इसमें आंबेडकर के 1940 तक के जीवन का विवरण दर्ज किया गया।
उस समय उनके किए गए सामाजिक कार्यों और उनके प्रयासों को भी इसमें शामिल किया गया। उस समय उनके बारे में लोगों की सोच को भी यह किताब दर्शाती है।
बीबीसी ने इस ऐतिहासिक जीवनी को पुन: प्रकाशित करने वाले अमित प्रियदर्शी ज्योतिकर से बात की। उन्होंने 1940 में पुस्तक के मूल प्रकाशन की पूरी कहानी साझा की।
उन्होंने बताया, ‘करशनदास लेउवा आंबेडकर के अनुसूचित जाति संघ से जुड़े गुजरात के एक प्रमुख नेता थे। वह डॉ.आंबेडकर की जीवनी लिखवाना चाहते थे, लेकिन उन्हें इसके लिए किसी योग्य व्यक्ति की तलाश थी। उस समय शिक्षा में जाति आधारित व्यवस्था के कारण बहुत कम दलित शिक्षित थे। ऐसे में एक सवाल यह था कि अगर कोई पुस्तक लिख भी देता है, तो कितने लोग इसे पढ़ पाएंगे?’
इसके बावजूद, करशनदास लेउवा जीवनी प्रकाशित करने को लेकर संकल्पित रहे। आखिरकार, इस जीवनी को लिखने के लिए योग्य व्यक्ति यूएम सोलंकी उन्हें मिल गए।
इसके बाद, करशनदास ने इस पुस्तक की भूमिका लिखी और उन्होंने डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी प्रकाशित करने के पीछे अपने इरादे और विचार को भी विस्तार से बताया।
भूमिका में करशनदास ने लिखा, ‘1933 में, मैंने पहली बार डॉ. आंबेडकर की जीवनी लिखने के बारे में सोचा। उस समय, आंबेडकर न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर एक बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति थे।’
‘हालाँकि, गुजरात में लोग उनके बारे में बहुत कम जानते थे। 1937 में कुमार नाम की एक पत्रिका का एक अंक मुझे मिला। उसके संपादकीय में मैंने डॉ. आंबेडकर के जीवन के कुछ दिलचस्प किस्से पढ़े।’
उन्होंने लिखा, ‘इसके बाद उनकी जीवनी प्रकाशित करने की मेरी इच्छा बहुत बढ़ गई। मैंने अपने मित्र यूएम सोलंकी से आवश्यक जानकारी बटोरने का अनुरोध किया।’
‘सोलंकी ने पूरी लगन से डॉ.आंबेडकर के जीवन के बारे में बहुमूल्य सामग्री एकत्र की। इसके बाद हमने एक पत्रिका के लेख में कुछ अंश भी प्रकाशित किए।’
जीवनी का प्रकाशन आसान नहीं था। इसे छपवाने के लिए जरूरी धन एक बड़ी बाधा थी। इसके लिए कांजीभाई बेचरदास दवे आगे आए और कुछ पैसे दान किए, लेकिन यह पर्याप्त नहीं था।
अंत में पुस्तक प्रकाशित कराने की पूरी जिम्मेदारी करशनदास लेउवा ने ली।
इसके परिणाम स्वरूप लेखक यूएम सोलंकी, दूरदर्शी करशनदास लेउवा और दानकर्ता कांजीभाई दवे की तस्वीरें इस पुस्तक में सम्मान के प्रतीक के रूप में छापी गईं।
अंत में डॉ.आंबेडकर की सभी शैक्षणिक योग्यताएं और डिग्रियों के साथ 28 अगस्त 1940 को डॉ. बीआर आंबेडकर, एस्क्वायर शीर्षक से यह पुस्तक प्रकाशित हुई।
पुस्तक का प्रकाशन अहमदाबाद के दरियापुर के महागुजरात दलित नवयुवक मंडल ने किया और इसे अहमदाबाद के धलावरगढ़ में स्थित मंसूर प्रिंटिंग प्रेस में छापा गया।
पुस्तक में जहां कीमत दर्ज की जाती है, वहां बस ‘अनमोल’ लिखा था। उस समय इस पुस्तक की कोई कीमत निश्चित नहीं की गई।
साहित्यिक अर्थ में इस पुस्तक का प्रकाशन इसके विशाल ऐतिहासिक और भावनात्मक मूल्य को व्यक्त करता है।
यूएम सोलंकी कौन थे?
यूएम सोलंकी पेशेवर लेखक नहीं थे, लेकिन वह डॉ.आंबेडकर के विचारों और लेखन से अच्छी तरह परिचित थे।
करशनदास लेउवा की तरह ही वह भी आंबेडकरवादी कार्यकर्ता और आंबेडकर के काम के प्रशंसक थे। इसी भावनात्मक जुड़ाव ने उन्हें गहराई के साथ पूरे जुनून से जीवनी लिखने में मदद की।
सोलंकी अंग्रेजी और गुजराती दोनों में पारंगत थे। इस पुस्तक को लिखने के लिए उन्होंने आंबेडकर के सभी भाषणों और अंग्रेजी में लिखे लेखों का अध्ययन किया।
आंबेडकर की विचारधारा के बारे में उनकी व्यक्तिगत समझ ने उन्हें जीवनी को स्पष्टता और सटीकता के साथ लिखने मदद की।
हाल ही में जीवनी को पुन: प्रकाशित करने वाले संपादक और अनुवादक अमित ज्योतिकर ने कहा, ‘यूएम सोलंकी ने पूरी किताब हाथ से लिखी। उनकी भाषा बहुत ही कोमल थी, लेकिन छुआछूत जैसी कुप्रथा की आलोचना करने में उन्होंने जरा सा भी संकोच नहीं किया। उन्होंने बिना कठोर शब्दों का इस्तेमाल किए हुए अन्यायपूर्ण सामाजिक संरचनाओं के खिलाफ मजबूती से अपना पक्ष रखा।’
पहली जीवनी का पुन: प्रकाशन कैसे हुआ?
डॉ. आंबेडकर की 1940 में लिखी गई जीवनी को 2023 में फिर से प्रकाशित किया गया है। इसके प्रकाशक डॉ. अमित प्रियदर्शी हैं।
जीवनी के नए संस्करण के लिए पुस्तक को गुजराती से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है, जिससे यह पुस्तक ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाई जा सके।
अंग्रेजी अनुवाद के साथ-साथ मूल गुजराती भी है।
डॉ. अमित ज्योतिकर ने बीबीसी को बताया, ‘हमने पुस्तक को उसी तरह से पुन: प्रकाशित किया है, जैसा कि वह मूल संस्करण में थी। हमने मूल व्याकरण संबंधी त्रुटियों और भाषा को भी बरकरार रखा है। यह केवल एक पुस्तक नहीं है- यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।’
डॉ. अमित ज्योतिकर ने कहा कि हम चाहते हैं कि दुनिया को पता चले कि डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी गुजराती में थी।
दोबारा प्रकाशन में विजय सुरवड़े की भूमिका
महाराष्ट्र के आंबेडकरवादी लेखक विजय सुरवड़े इस ऐतिहासिक पुस्तक को फिर से जीवंत करने में अहम साक्षी रहे हैं।
विजय सुरवड़े, एक फोटोग्राफर और ऐतिहासिक दस्तावेजों के संग्रहकर्ता और डॉ. आंबेडकर की दूसरी पत्नी सविता आंबेडकर के करीबी सहयोगी थे।
पुन: प्रकाशित पुस्तक की भूमिका में सुरवड़े लिखते हैं, ‘मैं कई वर्षों से पत्रों के माध्यम से प्रियदर्शी ज्योतिकर के संपर्क में था। मैं आईडीबीआई बैंक में काम करता था।’
‘जब मेरा तबादला ऑडिट विभाग में हुआ, तो मैं किसी काम के सिलसिले में अहमदाबाद गया और यहां ज्योतिकर से व्यक्तिगत रूप से मुलाकात की। उनके पास डॉ.आंबेडकर की दुर्लभ तस्वीरें थीं।’
उन्होंने लिखा, ‘22 अगस्त 1993 को मैं उनके घर गया और उनके संग्रह में डॉ.आंबेडकर की पहली जीवनी की एक मूल प्रति मिली। यह एक अमूल्य दस्तावेज था।’
‘मैंने इसे अपने पास सुरक्षित रखने के लिए इसकी फोटोकॉपी ली।’
पूर्व आईपीएस अधिकारी भी मानते हैं कि अंग्रेजों के जमाने में जिस तरह कैदियों को जेल में रखा जाता था वह भारत की जेलों में आज भी जारी है। जेल में 80 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं, और इनकी वजह से वहां भारी भीड़ है।
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी एनएचआरसी ने देश भर की जेलों में बंद कैदियों की दिक्कतों का खुद संज्ञान लेते हुए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को नोटिस जारी किया है। आयोग ने एक बयान में कहा है कि जेलों में बंद कैदियों को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, खासकर महिला कैदियों को। आयोग ने जेलों की जिन प्रमुख समस्याओं को नोटिस किया है उनमें जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदियों का होना, जेलों में बुनियादी सुविधाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव शामिल है।
अधिकारियों की ऐसी लापरवाही तीन साल जेल में रहा शख्स
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने बयान में कहा है, ‘देश भर की विभिन्न जेलों का दौरा करने के बाद तैयार रिपोर्ट और शिकायतों के माध्यम से इन मुद्दों को आयोग के संज्ञान में लाया गया है।’
इसके बाद आयोग ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को नोटिस जारी कर उनसे चार हफ्ते के भीतर रिपोर्ट मांगी है। आयोग ने ये भी बताया है कि जो रिपोर्ट सौंपी जाए उसमें किन बातों का जिक्र होना चाहिए।
महिला कैदियों की स्थिति
आयोग ने राज्यों से जो जानकारी मांगी है उनमें राज्य की जेलों में बंद महिला कैदियों की संख्या बताने को कहा है। इसके साथ ही बच्चों के साथ रहने वाली महिला कैदियों की संख्या भी मांगी गई है। आयोग ने दोषी और विचाराधीन महिला कैदियों की संख्या भी मांगी है यानी जिन्हें अभी सजा नहीं मिली है, सिर्फ ट्रायल चल रहा है। इसके अलावा उन विचाराधीन महिला और पुरुष कैदियों का भी आयोग ने ब्योरा मांगा है जो एक साल से ज्यादा समय से जेल में बंद हैं।
आयोग ने महिला कैदियों के सम्मान और सुरक्षा के अधिकारों के उल्लंघन, उनके खिलाफ बढ़ती हिंसा के कारण मानसिक तनाव, पर्याप्त शौचालयों का अभाव, सैनिटरी नैपकिन और स्वच्छ पेयजल सुविधाओं जैसी बुनियादी जरूरतों के पूरा नहीं होने पर चिंता जताई है।
आयोग ने अपने बयान में जेलों में मिलने वाले भोजन की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाया है जिसकी वजह स कुपोषण होता है, खासकर गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली मांओं के मामलों में। इसके अलावा महिला कैदियों के साथ रहने वाले बच्चों की शिक्षा, कैदियों को मिलने वाली कानूनी सहायता, व्यावसायिक प्रशिक्षण, पुनर्वास जैसे मामलों में भी चिंता जताई गई है।
भारत में जेलों की स्थिति
करीब दो साल पहले संसद में गृह मामलों की स्थायी समिति ने ‘जेल-स्थितियां, बुनियादी ढांचा और सुधार' पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी जिसमें जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदियों पर चिंता जताई गई थी।
समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश भर की जेलों में कैदियों की औसत दर 130 फीसदी है। यानी यदि जेल की क्षमता सौ कैदियों की है तो वहां 130 कैदी रह रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और दिल्लीऔर मध्य प्रदेश सहित छह राज्यों की जेलों में भारत के आधे से ज्यादा कैदी बंद हैं।
समिति ने ज्यादा भीड़भाड़ वाली जेलों से कैदियों को उसी राज्य के भीतर या दूसरे राज्यों की जेलों में ट्रांसफर करने की सिफारिश की थी।
समिति ने भी उन मुद्दों पर सवाल उठाए थे जिन पर मानवाधिकार आयोग ने संज्ञान लिया है। इसके अलावा समिति ने जेल कर्मचारियों की कमी और जेल की नौकरियों में महिलाओं की कम संख्या पर भी सवाल उठाए थे और सिफारिश की थी कि खाली पदों को तीन महीने के भीतर भरा जाना चाहिए।
यूपी में वरिष्ठ पदों पर रह चुके आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर को पुलिस विभाग में व्याप्त खामियों को उजागर करने की वजह से कुछ साल पहले जबरन रिटायर कर दिया गया था। अमिताभ ठाकुर आईजी रूल्स एंड मैन्युअल्स के पद पर रह चुके हैं। रिटायर करने के बाद उन्हें गिरफ्तार भी किया गया था जिसकी वजह से वो कई दिनों तक जेल में भी रहे। डीडब्ल्यू से बातचीत में अमिताभ ठाकुर कहते हैं कि उनके पास एक अफसर और कैदी, दोनों के अनुभव हैं।
असली समस्या कहां है?
पहले उन्होंने एक अफसर के अनुभव को साझा किया। अमिताभ ठाकुर कहते हैं, ‘क्षमता से ज्यादा कैदी तो सबसे बड़ी समस्या है ही। जेल मैन्युअल में कैदियों की संख्या को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है कि किसी जेल में कितने अधिकतम कैदी रहेंगे। संख्या का निर्धारण क्यों और कैसे होगा, यह भी स्पष्ट नहीं है।’
अमिताभ ठाकुर आगे कहते हैं, ‘दूसरी सबसे बड़ी समस्या हमारी न्यायिक व्यवस्था में है जिसकी वजह से विचाराधीन कैदियों की संख्या इतनी ज्यादा है। विचाराधीन कैदी पूरी दुनिया में कहीं भी इतने ज्यादा नहीं हैं। हमारे यहां तो जेलों में करीब अस्सी फीसदी विचाराधीन कैदी ही हैं जबकि तमाम देशों में यह संख्या शून्य है। इस पर न्यायालयों को विचार करने की जरूरत है।’
जेलों में बढ़ती भीड़ पर सुप्रीम कोर्ट भी कई बार चिंता जता चुका है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के मुताबिक, 31 दिसंबर, 2021 तक भारतीय जेलों में कुल 5,54,034 कैदी थे लेकिन इनमें से महज 22 फीसद कैदी ही ऐसे थे जिन्हें अदालतों ने दोषी साबित किया था और वो उसकी सजा काट रहे थे। बाकी कैदी विचाराधीन थे। इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आंकड़ों के मुताबिक देश भर की निचली अदालतों में चार करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं और इनमें से ज्यादातर मामले ऐसे हैं जो एक साल से ज्यादा पुराने हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील अभिषेक सिंह कहते हैं कि जेलों में इतनी ज्यादा संख्या में विचाराधीन कैदियों का होना ना केवल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के कामकाज पर सवाल उठाता है बल्कि जेलों में बंद कैदियों के लिए अमानवीय स्थिति भी पैदा करता है। जेलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी के लिए भी एक कारण क्षमता से ज्यादा कैदियों का होना है।
-डेबुला केमोली
सोना लगातार चढ़ता जा रहा है। गोल्ड की कीमतें अब रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच रही हैं।
अनिश्चित बाज़ार के मौजूदा दौर में कारोबारी एक सुरक्षित निवेश के तौर पर लगातार सोना खऱीद रहे हैं।
गोल्ड पारंपरिक तौर पर एक भरोसेमंद और स्थायी संपत्ति माना जाता है जो मुश्किल या अस्थिर आर्थिक माहौल में काम आता है।
लेकिन दुनियाभर के बाज़ारों के उतार-चढ़ाव वाले मौजूदा दौर में क्या गोल्ड सचमुच एक सुरक्षित निवेश है?
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जब से ऊंचे टैरिफ का एलान किया है पूरी दुनिया के बाज़ारों में खलबली मची है।
कारोबारी नीतियों के लिहाज़ से इसे ‘सदी का बदलाव’ कहा जा रहा है।
अमेरिकी टैरिफ़ के बाद से वैश्विक बाज़ार में जो उथल-पुथल मची है उससे पिछले सप्ताह तक सोने की कीमत 3167 डॉलर प्रति औंस की रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई थी।
टैरिफ़ और ट्रेड वॉर ने दुनियाभर में जो चिंता पैदा की है उससे सोने की कीमतों ने इस साल कई बार नया रिकॉर्ड बनाया है। जब भी अर्थव्यवस्था में अस्थिरता का आलम होता है सोने की कीमतों को पंख लग जाते हैं।
सोना खऱीद कौन रहा है?
ग्लोबल अर्थव्यवस्था के इस अनिश्चितता भरे दौर में आखिर सोना खरीद कौन रहा है?
बेलफास्ट यूनिवर्सिटी के आर्थिक इतिहासकार डॉ। फिलिप फ्लायर्स कहते हैं, ‘सरकारें, रिटेल निवेशक या आम निवेशक सोना खऱीद रहे हैं।’
वो कहते हैं, ‘बड़ी तादाद में लोग अब शेयर जैसे इक्विटी इंस्ट्रूमेंट्स छोड़ कर गोल्ड में निवेश कर रहे हैं। यही वजह है कि गोल्ड की कीमतों में इतनी तेज़ी आ गई है।’
दरअसल जब भी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाज़ार में अनिश्चितता का माहौल होता है निवेशकों का स्वाभाविक रुझान गोल्ड में निवेश की ओर बढ़ जाता है।
2020 में जब कोविड महामारी की वजह से अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आई थी तो गोल्ड के दाम तेजी से आसमान छूने लगे थे।
हालांकि ऐसी अनिश्चितता गोल्ड की कीमतों को चोट भी पहुंचा सकती है।
जनवरी 2020 में जैसे ही कोविड महामारी फैली तो सोने की कीमतें अचानक काफी बढ़ गईं लेकिन उसी साल मार्च में ये फिर गिरने लगीं।
डॉ. फ़्लायर्स कहते हैं, ‘सुरक्षित निवेश का मतलब ये नहीं है कि इसमें जोखिम नहीं है।’
आर्थिक अनिश्चितताओं के दौर में गोल्ड में निवेश को सबसे अच्छा माना जाता है क्योंकि इसकी हमेशा एक अहमियत रही है।
इतिहास के हर दौर और संस्कृति में इसको काफी महत्व दिया गया है। इसलिए इसे आसानी से खऱीदा-बेचा जा सकता है।
प्राचीन मिस्र में तूतनखामन के गोल्ड मास्क से लेकर घाना के असांते में गोल्डन स्टूल और भारत के पद्मनाभन मंदिर में स्वर्ण सिंहासन तक, सोने की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के उदाहरण हैं।
इसलिए ये आश्चर्य की बात नहीं है कि कई लोग सोने को सबसे भरोसेमंद संपत्ति मानकर जमा करते हैं।
-फैसल इस्लाम
डोनाल्ड ट्रंप और उनके आसपास के लोग ये समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि पिछले सात दिनों में जो कुछ हुआ वो अराजक नहीं था।
अब तक जो हुआ, उससे तो लगता है कि चीन ट्रंप की शंतरज की चाल में फंस गया है। अपने सबसे बड़े बाज़ार में लगे आयात शुल्क के बाद चीनी अर्थव्यवस्था एक बहुत बड़ी मुसीबत की ओर बढ़ रही है।
वैसे ट्रंप ने चीन को छोडक़र बाकी देशों पर टैरिफ को 90 दिन के लिए भले ही रोक दिया हो, लेकिन ये 1930 के दशक के बाद अपनी तरह का पहला क़दम है।
वैसे 10त्न का टैरिफ अब भी लागू है। आसान भाषा में समझें तो चाहे दुनिया का कोई देश अमेरिका को अधिक सामान बेचता हो या कम, सभी पर 10 प्रतिशत टैरिफ तो लग ही चुका है।
ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया दोनों ही अमेरिका से अधिक सामान खऱीदते हैं और वहां कम सामान बेचते हैं। लेकिन, ये टैरिफ दोनों देशों पर लागू हो चुका है।
अब यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के बीच कोई अंतर नहीं बचा है। दोनों पर बराबर टैरिफ़ लग चुके हैं।
अब सभी लोग बेसब्री से ट्रंप के अगले कदम का इंतजार कर रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या ट्रंप दवाइयों पर भी टैरिफ़ लगाएंगे? ब्रिटेन दवाइयों का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है।
एक अन्य चुनौती अमेरिका पहुँचे ‘मेड इन चाइना’ सामान पर टैरिफ़ वसूलने की है।
ये आसान काम नहीं होगा, क्योंकि दुनिया के आधे मर्चेंट शिप अगले शुक्रवार को ये सामान लेकर अमेरिकी बंदरगाहों पर लंगर डालने वाले हैं।
ट्रंप की 90 दिनों की मोहलत के बावजूद ग्लोबल ट्रेड से जुड़ी कंपनियों के लिए अनिश्चिततता बरकऱार है।
-ओम थानवी
विदाई में मनोज कुमार को देशभक्ति की फि़ल्मों के याद किया जा रहा है। उन्होंने इसमें महारत हासिल कर ली थी। भावना का ज्वार अपूर्व कामयाबी लेकर आया। ‘पूरब और पश्चिम’ ने तो प्रवासियों तक को झकझोर दिया था। फि़ल्म ने विदेश में कीर्तिमान बनाया। हालाँकि आगे लोगों को वही दुनिया ख़ूब रास आई, जिसे वह फि़ल्म अपने पश्चिमी ठप्पे से ख़ारिज कर आई थी।
भावना और हक़ीक़त में नाज़ुक फ़ासला होता है। मनोज कुमार दीवारों पर गांधी-नेहरू की तसवीरें दिखाते थे। ‘है प्रीत जहाँ की रीत सदा’ में ‘काले-गोरे का भेद नहीं’ याद दिलाते थे। मगर फि़ल्मी भावुकता दर्शक को भीतर से नहीं हिलाती। लोग हॉल से बाहर निकल कर वही हो रहते।
‘मेरे देश की धरती’ ख़ूब गाया गया, ‘उपकार’ सुपरहिट हो गई, ढेर सारे अवार्ड मिले। पर उस ‘भारत’ के गौरव-गान में सिनेमाई भावोत्तेजना काम न आई। किसानों के प्रति नज़रिया आज तक नहीं बदल पाया है। न लोगों का, न राज का।
भारत ने बांग्लादेश को दी जाने वाली ट्रांसशिपमेंट सुविधा ख़त्म कर दी है। लेकिन भारत के रास्ते नेपाल और भूटान को होने वाले बांग्लादेश के निर्यात को ये सुविधा बरकरार रहेगी।
भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि बांग्लादेश को दी जा रही इस सुविधा की वजह से उसके हवाईअड्डों और बंदरगाहों पर भीड़ बढ़ गई थी। इन जगहों पर कंटेनरों की तादाद बढ़ जाने से खुद भारत का निर्यात प्रभावित हो रहा था।
ट्रांसशिपमेंट यानी किसी एक देश से दूसरे देश को निर्यात के दौरान बीच में पडऩे वाले किसी तीसरे देश के रास्ते को इस्तेमाल करने की सुविधा।
दरअसल बांग्लादेश कई देशों को अपना सामान निर्यात करता है उनमें से कुछ देशों का निर्यात भारत के रास्ते से होकर गुजऱता है। हाल के दिनों में भारत और बांग्लादेश के बीच तनाव देखा जा रहा है।
भारत सरकार के केंद्रीय अप्रत्यक्ष और सीमाशुल्क बोर्ड ने 8 अप्रैल को एक सर्कुलर जारी कर 29 जून 2020 के उस सर्कुलर को वापस ले लिया है जिसके तहत भारत ने बांग्लादेश को अपने हवाईअड्डों और बंदरगाहों से किसी तीसरे देश में निर्यात की सुविधा दी थी। इससे भूटान, नेपाल और म्यांमार जैसे देशों में बांग्लादेश के निर्यात को सहूलियत मिल रही थी।
भारत सरकार ने ये फ़ैसला ऐसे वक़्त किया है जब अमेरिका ने भारत और बांग्लादेश समेत कई देशों पर भारी भरकम टैरिफ़ लगा दिए हैं।
यूनुस-मोदी मुलाक़ात में बेहतर रिश्तों पर था ज़ोर
पिछले साल बांग्लादेश में छात्रों के आंदोलन के बाद शेख़ हसीना सरकार के पतन के बाद से ही भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में तनाव देखा जा रहा है। शेख़ हसीना पिछले साल 5 अगस्त को भारत आ गई थीं। इसके बाद बांग्लादेश की अंतरिम सरकार लगातार भारत से शेख़ हसीना को वापस भेजने की मांग करती रही है। लेकिन भारत ने इससे इनकार किया है।
पाकिस्तान और चीन के साथ बांग्लादेश की बढ़ती कऱीबी भी दोनों देशों के संबंधों को और जटिल बना रही है।
पिछले दिनों थाईलैंड में बिम्सटेक के सम्मेलन के दौरान बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद युनूस और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाक़ात में हिंदुओं की सुरक्षा और शेख़ हसीना के प्रत्यर्पण का मुद्दा हावी रहा था।
पीएम मोदी के कार्यालय की ओर से जारी बयान में कहा गया था कि प्रधानमंत्री ने बांग्लादेश में हिंदुओं सहित अल्पसंख्यकों की सुरक्षा मुद्दा उठाया और उम्मीद जताई कि बांग्लादेश सरकार उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, जिसमें उनके ख़िलाफ़ किए गए अत्याचारों के मामलों की गहन जांच भी शामिल है।
इस मुलाक़ात के बारे में बांग्लादेश की ओर से जारी एक बयान में कहा गया था कि प्रोफ़ेसर यूनुस ने पीएम मोदी से बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के प्रत्यर्पण का मुद्दा उठाया।
मोहम्मद यूनुस ने कहा था बांग्लादेश, भारत के साथ अपने संबंध को बहुत अहमियत देता है।
प्रोफ़ेसर यूनुस ने कहा था, ‘पूर्व प्रधानमंत्री (शेख हसीना) ने तमाम मीडिया आउटलेट में भडक़ाऊ बयान दिया था और बांग्लादेश में हालात को अस्थिर करने की कोशिश कर रही हैं, जो कि भारत की ओर से दी गई मेहमाननवाज़ी का दुरुपयोग है।’
उन्होंने कहा था, ‘बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के ख़िलाफ़ वह लगातार गल़त और भडक़ाऊ आरोप लगा रही हैं। हम अपील करते हैं कि आपके देश में रहते हुए इस तरह के भडक़ाऊ बयान देने से भारत सरकार उन्हें रोके।’
-नमिता भंडारे
भारत में सबसे अधिक लैंगिक समानता वाले राज्य में भी सबसे वरिष्ठ नौकरशाह को रंग की वजह से कटाक्ष झेलने पड़ते हैं, आखिर क्यों? श्रीमती शारदा मुरलीधरन, मुख्य सचिव केरल राज्य के साथ पिछले दिनों कुछ ऐसा ही घटित हुआ है ।
सोशल मीडिया पर यह एक टिप्पणीकार ने लिख दिया कि आपका कार्यकाल आपकी तरह उतना ही काला है, जितना आपके पति का गोरा था। टिप्पणी भले ही मजाक के रूप में की गई, पर वरिष्ठ अधिकारी शारदा मुरलीधरन इसे चुपचाप नहीं सहने वाली थीं और उन्होंने जवाब दिया।
बताते चलें कि मुरलीधरन ने सितंबर 2024 में केरल के मुख्य सचिव का पदभार संभाला था, जब उनके पूर्ववर्ती वी वेणु, 1990 बैच के आईएएस अधिकारी (संयोग से उनके पति) सेवानिवृत्त हुए थे। वह राज्य नौकरशाही के शीर्ष पद पर पहुंचने वाली पहली महिला हैं। ध्यान रहे, केरल महिला बहुल राज्य है और यहां साल 2011 की जनगणना के अनुसार, प्रति 1,000 पुरुषों पर 1,084 महिलाएं हैं।
मुरलीधरन का करियर बेहद प्रभावशाली रहा है । वह अनेक ऊंचे और जिम्मेदार पदों पर रही हैं। एक उच्चाधिकारी के रूप में उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। फिर भी, उन्हें पेशेवर उपलब्धियों से नहीं, बल्कि उनकी त्वचा के रंग से आंका जा रहा है ।
मुरलीधरन की एक लंबी पोस्ट में उनके बचपन के उस आघात का जिक्र है, जो उन्हें रंग साफ न होने की वजह से झेलना पड़ा था। चार साल की उम्र में ही उन्हें अपनी त्वचा के रंग के बारे में पता चल गया था। उन्होंने अपनी मां से पूछा था, मां, क्या आप मुझे वापस अपने गर्भ में रख सकती हैं और मुझे गोरी व सुंदर बना सकती हैं? यह दर्द उन्होंने साझा किया। वह बताती हैं, मैं 50 से अधिक वर्ष तक रंग की इसी व्यथा-कथा तले दबी रही कि मेरा रंग अच्छा नहीं है। बाद में, बच्चों ने एहसास दिलाया कि उन्हें अपनी सांवली विरासत पर गर्व है। सांवलापन या काला सुंदर है।
वैसे, काले-गोरे का यह विवाद नया नहीं है। साल 2023 में प्रियंका चोपड़ा ने स्वीकार किया था कि उन्हें अपने करियर की शुरुआत में ‘हानिकारक’ फेयरनेस क्रीम के विज्ञापनों का हिस्सा बनने का पछतावा है।
वैसे, अपने भारत में औपनिवेशिक स्वामियों और ‘गोरी’ त्वचा के प्रति भारतीयों का जुनून नया नहीं है और यह जुनून केवल भारत तक सीमित नहीं है। एशिया, अफ्रीका और भारत में कथित ‘फेयरनेस क्रीम’ का प्रसार इस बात का प्रमाण है कि गोरेपन का मतलब सुंदर होना है। 1975 में हिन्दुस्तान यूनिलीवर द्वारा फेयर ऐंड लवली के लॉन्च के बाद इसी तरह के उत्पादों की बाढ़ आ गई, जिसमें पुरुषों के लिए भी उत्पाद शामिल थे। 2019 में भारत में फेयरनेस क्रीम का बाजार 3,000 करोड़ रुपये का होने का अनुमान लगाया गया था।
-प्रभाकर मणि तिवारी
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को पश्चिम बंगाल में स्कूल सेवा आयोग के ज़रिए हुई करीब 25,000 शिक्षकों और गैर-शिक्षकों की बहाली को रद्द कर दिया था। सोमवार को राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शिक्षकों को भरोसा दिलाया कि 'उनके जीते जी किसी भी योग्य उम्मीदवार की नौकरी नहीं जाएगी।’
उन्होंने कहा कि ज़रूरत पडऩे पर सरकार दो महीने के भीतर वैकल्पिक व्यवस्था करेगी। इसके अलावा मुख्यमंत्री ने नौकरी गंवाने वाले शिक्षकों से कहा कि वे स्वेच्छा से स्कूलों में पढ़ाना जारी रखें।
बीते गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने स्कूल सेवा आयोग की 2016 की शिक्षक और गैर-शिक्षक भर्ती प्रक्रिया को रद्द करते हुए तीन महीने के भीतर नई भर्ती प्रक्रिया शुरू करने का आदेश दिया।
इससे पहले अप्रैल 2023 में कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी यही फ़ैसला सुनाया था। उस फ़ैसले को सरकार और सेवा आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
अब सुप्रीम कोर्ट ने मामूली संशोधनों के साथ हाईकोर्ट के फ़ैसले को बरकरार रखते हुए राज्य सरकार को नई बहाली की प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दिया है।
‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ के बीच भ्रम
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से प्रभावित हुए हज़ारों शिक्षकों ने अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए ‘डिप्राइव्ड टीचर्स एसोसिएशन’ नामक संगठन बनाया है। संगठन का दावा है कि उसके करीब 15 हज़ार सदस्य हैं।
कोर्ट के आदेश के बाद एसोसिएशन के प्रतिनिधियों ने राज्य के शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु से मुलाक़ात की इच्छा जताई थी, लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ख़ुद इस बैठक में शामिल होने की सहमति दी।
इसी आधार पर सोमवार को नेताजी इंडोर स्टेडियम में ममता बनर्जी के साथ शिक्षा मंत्री, मुख्य सचिव मनोज पंत और दूसरे वरिष्ठ अधिकारी सुबह से ही मौजूद थे।
बैठक से पहले कथित तौर पर 'योग्य' और ‘अयोग्य’ उम्मीदवारों के बीच तीखी झड़प हुई, जिससे इलाके में अफरा-तफरी मच गई। हालात को देखते हुए ट्रैफिक रोकना पड़ा और पुलिस के साथ-साथ रैपिड एक्शन फ़ोर्स (रैफ) के जवानों की तैनाती करनी पड़ी।
शहीद मीनार से जुलूस की शक्ल में स्टेडियम पहुंचे उम्मीदवारों के हाथ में एक ‘पास’ था, जिस पर लिखा था, ‘हम लोग योग्य हैं।’ यह पास किसने जारी किया, यह स्पष्ट नहीं हो सका है।
उम्मीदवारों का दावा था कि यह ‘पास’ उन्हें राज्य सचिवालय से मिला है, हालांकि सरकार की ओर से इसकी पुष्टि नहीं हुई। मौके पर मौजूद पुलिस अधिकारियों ने इसी पास को दिखा कर उम्मीदवारों को भीतर जाने की अनुमति दी।
ममता बनर्जी के मंच पर पहुंचने के बाद एसोसिएशन की ओर से उन्हें मांगें पढक़र सुनाई गईं। इसमें कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ समीक्षा याचिका दायर की जाए और जब तक इस पर सुनवाई पूरी न हो, किसी भी शिक्षक को नौकरी से नहीं निकाला जाए।
साथ ही यह याचिका उसी खंडपीठ के सामने न दायर की जाए जिसने फ़ैसला सुनाया है। संगठन का यह भी कहना था कि इस बीच नए सिरे से कोई बहाली परीक्षा आयोजित न की जाए।
उनका दावा था कि सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट के रिकॉर्ड में योग्य और अयोग्य उम्मीदवारों की सूची पहले से मौजूद है, और उसी के आधार पर समीक्षा याचिका दाखिल की जाए।
ममता का भरोसा - नौकरी नहीं छिनने दूंगी
शिक्षकों की मांगें सुनने के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने भाषण में कहा, ‘किसी भी योग्य उम्मीदवार की नौकरी नहीं जाएगी। सरकार पहले सुप्रीम कोर्ट से इस फ़ैसले की व्याख्या मांगेगी। उसका जवाब नकारात्मक होने की स्थिति में तय समय के भीतर योग्य उम्मीदवारों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जाएगी। ऐसे लोगों की सर्विस भी ब्रेक नहीं होगी।’
उनके मुताबिक़, सरकार ने इसके आगे की रणनीति तय कर ली है, लेकिन उन्होंने इसके बारे में नहीं बताया।
उन्होंने आगे कहा, ‘मैं अपने जीते-जी किसी भी ‘योग्य’ उम्मीदवार की नौकरी नहीं छिनने दूंगी, चाहे इसका कुछ भी नतीजा हो। यह मेरे लिए एक चुनौती है। सरकार क़ानून के दायरे में ही रह कर यह काम करेगी। हो सकता है कि इन शिक्षकों का साथ देने के लिए मुझे जेल भी जाना पड़े। लेकिन मैं उसके लिए भी तैयार हूं।’
ममता का कहना था, ‘मानवता के आधार पर सुप्रीम कोर्ट को ‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ उम्मीदवारों की सूची सरकार को देनी चाहिए।’
उन्होंने आगे कहा, ‘नए सिरे से भर्ती परीक्षा आयोजित करने से पहले हमें यह बात जाननी होगी कि स्कूल कैसे चलेंगे? बाकी कामकाज कैसे होगा? अगर आप नौकरी नहीं दे सकते तो मेरा अनुरोध है कि इसे छीनें भी मत।’
मुख्यमंत्री ने शिक्षकों से कहा, ‘सरकार की ओर से आपको अब तक बर्ख़ास्तगी का नोटिस नहीं मिला है। आप स्कूलों में जाकर स्वेच्छा से काम जारी रखिए।’
सीएम के बयान पर क्या बोले शिक्षक?
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बैठक के बाद नौकरी गंवाने वाले शिक्षकों के बीच मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिली।
उनका कहना था कि अगर वे मुख्यमंत्री की बात मान कर स्कूल जाते भी हैं, तो यह साफ़ नहीं है कि उन्हें वेतन मिलेगा या नहीं।
साथ ही, यह व्यवस्था कितने दिन चलेगी, इस पर भी कुछ साफ़ नहीं है। एक बड़ा सवाल यह भी है कि ‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ उम्मीदवारों की सूची आखिरकार सुप्रीम कोर्ट जारी करेगा या स्कूल सेवा आयोग?
-आर.के.जैन
मस्तराम मस्ती में आग लगे बस्ती में । Apple के लिए कुछ ऐसा ही माहौल इंडिया में बना हुआ है । खुद के देश में भले राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के trump tariff ने उथल पुथल मचा रखी हो, मगर इंडिया में कंपनी की बल्ले-बल्ले हो रखी है।
कंपनी इंडिया में महीने के हजारों करोड़ और साल के लाखों करोड़ में बिजनेस कर रही है। महीने दर महीने और साल दर साल भारत में एप्पल का कारोबार दोगुना हो रहा है । अकेले मार्च के महीने में कंपनी ने 20 हजार करोड़ का माल एक्सपोर्ट कर दिया है जो मार्च 2024 के मुकाबले 9 हजार करोड़ ज्यादा हैं ।
अमेरिकी कंपनी ने मार्च 2025 में इंडिया से 20 हजार करोड़ का माल दुनिया भर के देशों को भेज दिया। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि एक्सपोर्ट का बड़ा हिस्सा अमेरिका गया है। वही अमेरिका जहां सुनने में आ रहा है कि कुछ दिनों से Panic Buying भी हो रही है ।
-शंभूनाथ
लोक साहित्य का पिछले 200 सालों में जो सृजन हुआ या कबीर, सूर, मीरा, तुलसी आदि का जो लोक साहित्य है और हजारों साल के क्लासिकल ग्रंथों में जिन लोक कथाओं को स्थान मिला, वे सभी समाज के कमजोर और वंचित लोगों की आवाजें हैं। महाभारत में नल– दमयंती और शकुंतला– दुष्यंत की कथा की उपस्थिति लोक कथा के रूप में ही है।
जुआ में हारने के बाद युधिष्ठिर जब निराश थे, एक ऋषि ने उनमें आशा पैदा करने के लिए नल और दमयंती की कथा सुनाई। नल भी जुआ में अपना राजपाट हार गया था, पर अन्तत: संघर्ष से गुजर कर फिर पा गया। फर्क यह था कि नल ने राजपाट हारने के बाद जुआ में दमयंती को दांव पर नहीं लगाया था, जबकि युधिष्ठिर ने द्रौपदी को वस्तु बनाकर दांव पर लगा दिया था। इससे लोक कथा में स्त्री के स्वत्व को मिले महत्व का बोध होता है! शास्त्र में स्त्री वस्तु है, लोक में वह गरिमा से भरी है। लोक साहित्य शास्त्र से एक आत्मीय द्वंद्व है!
सूर एक पद में कहते हैं, ’जा दिन श्याम मिले सो नीको’! भद्रा या भरनी नक्षत्र हुआ तो क्या, किसी को छींक आ गई तो क्या, कृष्ण से मिलने के लिए हर क्षण शुभ है! गोपिकाएं धर्म ग्रंथों और ज्योतिष को मानने से इंकार कर देती हैं!
यह चीज छठ पर्व तक है, जिसमें स्त्री न सिर्फ अपना स्वत्व घोषित करती है, बल्कि पुरोहित वर्ग को परिदृश्य से बिलकुल हटा देती है! जो स्त्री पहले हिम्मत दिखाती थी, उसे अब ऐसे लोक गीतों और लोक संस्कृति के कुछ ऐसे रूपों से बांधने की कोशिश हो रही है जो अंधविश्वासों से भरी है।
-साइमन जैक
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ की घोषणा करके दुनियाभर के शेयर बाजारों में खलबली मचा दी है।
पर क्या इसका मतलब यह है कि दुनिया मंदी की ओर बढ़ रही है?
सबसे पहले इस बात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि शेयर बाज़ार में जो कुछ भी होता है, वो अर्थव्यवस्था में होने वाले बदलावों से अलग होता है।
यानी, शेयर की कीमतों में गिरावट का मतलब हमेशा आर्थिक संकट नहीं होता। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है। किसी कंपनी की स्टॉक मार्केट वेल्यू में गिरावट का अर्थ है कि भविष्य में उसके मुनाफे के मूल्यांकन में बदलाव।
दरअसल, बाज़ार का अनुमान है कि टैरिफ़ बढऩे के बाद चीज़ों की लागत बढ़ेगी। इसकी वजह से कंपनियों के मुनाफ़े में गिरावट आएगी।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मंदी भी आएगी ही। पर ट्रंप की टैरिफ़ घोषणाओं के बाद ऐसा होने की आशंका स्पष्ट रूप से बनी हुई है।
आर्थिक मंदी की क्या परिभाषा है?
जब किसी अर्थव्यवस्था में लगातार दो तिमाहियों तक ख़र्च या निर्यात सिकुड़ जाता है तो माना जाता है कि मंदी आ गई है।
पिछले साल अक्तूबर और दिसंबर के बीच, ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में 0।1 फ़ीसदी की बढ़त देखी गई थी। पिछले महीने का डेटा बताता है कि जनवरी में इस अर्थव्यवस्था में इतनी ही गिरावट देखी गई।
ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था ने फऱवरी में कैसा प्रदर्शन किया, इसका पहला अनुमान इस शुक्रवार को जारी किया जाएगा। तो जहाँ तक ब्रिटेन की बात है, हमें अभी और आंकड़ों का इंतज़ार करना होगा।
-रेहान फजल
जब सन् 1980 में इंदिरा गांधी ने सत्ता में वापसी की तो जनता सरकार में उप-प्रधानमंत्री रहे जगजीवन राम ने 28 फऱवरी को ऐलान किया कि वो दोहरी सदस्यता के मुद्दे को छोड़ेंगे नहीं और इस पर आखिरी फैसला लेकर ही रहेंगे।
दोहरी सदस्यता यानी जनता पार्टी और आरएसएस दोनों की सदस्यता एक साथ होना, इस पर कई बड़े नेताओं को गहरा एतराज था।
चार अप्रैल को जनता पार्टी की कार्यकारिणी ने तय किया कि जनसंघ के लोग अगर आरएसएस नहीं छोड़ेंगे तो उन्हें जनता पार्टी से निकाल बाहर किया जाएगा लेकिन जनसंघ के सदस्यों को इसका पहले से ही अंदाज़ा लग गया था।
किंशुक नाग अपनी किताब ‘द सैफऱन टाइड, द राइज ऑफ द बीजेपी’ में लिखते हैं, ‘पाँच और छह अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी के जनसंघ घटक ने दिल्ली के फिऱोज शाह कोटला स्टेडियम में बैठक की जिसमें करीब तीन हजार सदस्यों ने भाग लिया और यहीं भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की घोषणा की गई।’
अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया जबकि लालकृष्ण आडवाणी को सूरज भान और सिकंदर बख्त के साथ पार्टी का महासचिव बनाया गया।
1980 के चुनाव में जनता पार्टी सिर्फ 31 सीटें जीत पाई थी जिसमें जनसंघ घटक के 16 सदस्य थे यानी तकरीबन आधे।
इन सभी लोगों ने राज्यसभा के 14 सदस्यों, पाँच पूर्व कैबिनेट मंत्रियों, आठ पूर्व राज्य मंत्रियों और छह पूर्व मुख्यमंत्रियों के साथ नई पार्टी में शामिल होने का फैसला किया। इन सबने दावा किया कि वो ही असली जनता पार्टी हैं।
चुनाव आयोग ने दिया कमल चुनाव चिन्ह
जब जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर ने जनसंघ से जुड़े रहे नेताओं के इस दावे को चुनौती दी कि वो ही असली जनता पार्टी हैं तो शुरू में चुनाव आयोग ने उनके विरोध को नहीं माना।
आयोग ने भारतीय जनता पार्टी को सीधे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दे दिया और जनता पार्टी के चुनाव चिह्न ‘हलधर किसान’ को कुछ समय के लिए फ्रीज कर दिया। चुनाव आयोग ने भारतीय जनता पार्टी को कमल चुनाव चिह्न दिया। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी ने चक्र और हाथी चुनाव चिह्न देने का अनुरोध किया था जिसे चुनाव आयोग ने स्वीकार नहीं किया।
चंद्रशेखर ने चुनाव आयोग से चुनाव चिह्न फ्ऱीज़ किए जाने के फैसले की समीक्षा करने का अनुरोध किया। छह महीने बाद चुनाव आयोग ने चंद्रशेखर के अनुरोध को मानते हुए हलधर किसान चुनाव चिह्न को अनफ्रीज कर दिया लेकिन भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बरकरार रहा।
बाहरी नेताओं को तरजीह
शुरू में भारतीय जनता पार्टी में ग़ैर-आरएसएस नेताओं को नजऱअंदाज़ नहीं किया गया।
नलिन मेहता अपनी किताब ‘द न्यू बीजेपी’ में लिखते हैं, ‘बीजेपी ने पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण, मशहूर वकील राम जेठमलानी, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज केएस हेगड़े और पूर्व कांग्रेस नेता सिकंदर बख़्त का न सिफऱ् खुले दिल से स्वागत किया बल्कि उन्हें मंच पर भी बिठाया। दिलचस्प बात ये थी कि पार्टी का संविधान बनाने वाली तीन सदस्यीय समिति के दो सदस्य संघ से बाहर के थे।’
राम जेठमलानी विभाजन के बाद सिंध से शरणार्थी के तौर पर आए थे जबकि सिकंदर बख्त दिल्ली के मुसलमान थे।
सिकंदर बख़्त ने ही पार्टी अध्यक्ष के तौर पर वाजपेयी के नाम का प्रस्ताव किया था जिसको राजस्थान के बीजेपी नेता भैरों सिंह शेख़ावत ने अपना समर्थन दिया था।
‘गांधीवादी समाजवाद’ को अपनाया
बीजेपी के जन्म लेने से पहले इस बात पर भी बहस हुई कि नई पार्टी का नाम क्या रखा जाए। वाजपेयी नई विचारधारा के साथ पार्टी का नया नाम भी चाहते थे।
बीजेपी के आधिकारिक दस्तावेज़ों के अनुसार पार्टी के पहले सत्र में आए लोगों से जब पार्टी के नाम के बारे में पूछा गया तो तीन हज़ार में से सिफऱ् 6 सदस्यों ने पुराने नाम जनसंघ को जारी रखने का समर्थन किया।
अंतत: भारतीय जनता पार्टी नाम रखने पर सहमति हुई। वैचारिक रूप से पार्टी ने ‘गांधीवादी समाजवाद’ को अपनाया लेकिन शुरू में इसे पार्टी के कई हलकों में समर्थन नहीं मिला।
किंशुक नाग लिखते हैं, ‘विजयराजे सिंधिया के नेतृत्व में कई बीजेपी नेता ‘समाजवाद’ शब्द का इस्तेमाल करने के बारे में सशंकित थे क्योंकि इससे कम्युनिस्टों के साथ वैचारिक मेलजोल का आभास मिलता था जिससे आरएसएस हर हालत में दूर रहना चाहता था। कुछ दूसरे नेताओं का विचार था कि ‘गांधीवादी समाजवाद’ को अपनाकर पार्टी पर नकलची होने और कांग्रेस की विचारधारा को अपनाने का आरोप लगेगा।’
ये भी माना जाता है कि उस समय आरएसएस के प्रमुख बाला साहब देवरस भी ‘गांधीवादी समाजवाद’ को अपनाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन बाद में वो इसके लिए राज़ी हो गए थे।
किंशुक नाग लिखते हैं, ‘आरएसएस के लोग ग़ैर-हिंदुओ को, जिसमें मुसलमान भी शामिल थे, पार्टी में शामिल करने पर ख़ुश नहीं थे। लेकिन इसके बावजूद पार्टी में इस बात पर ज़ोर था कि जनसंघ की पुरानी विचारधारा को भूलकर नई शुरुआत की जाए। शायद इसी वजह से पार्टी के मंच पर श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के चित्रों के साथ-साथ जयप्रकाश नारायण के चित्र भी लगे हुए थे।’
बंबई में पार्टी का महाधिवेशन बुलाया गया
दिसंबर, 1980 के अंतिम हफ़्ते में बंबई में पार्टी का पूर्ण अधिवेशन बुलाया गया जिसमें पार्टी के हज़ारों सदस्यों ने भाग लिया।
लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री, माई लाइफ़’ में दावा करते हैं कि तब तक देश भर में 25 लाख लोग भारतीय जनता पार्टी के सदस्य बन चुके थे। जनसंघ के चरम पर भी पार्टी के सदस्यों की संख्या 16 लाख से अधिक नहीं थी।
सुमित मित्रा ने इंडिया टुडे की 31 जनवरी, 1981 में छपी अपनी रिपोर्ट ‘बीजेपी कन्वेंशन, ओल्ड वाइन इन न्यू बॉटल’ में लिखा था, ‘बीजेपी के कुल 54,632 प्रतिनिधियों में 73 फ़ीसदी पाँच राज्यों महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार से आए थे। बंबई के बाँद्रा रिक्लेमेशन क्षेत्र में एक अस्थायी बस्ती बनाई गई।’
सम्मेलन 28 दिसंबर को शुरू हुआ था और उसमें 40 हज़ार लोगों के रहने और खाने का इंतज़ाम किया गया था। दोपहर तक 44 हज़ार प्रतिनिधि सभास्थल पर पहुंच चुके थे। शाम तक और प्रतिनिधियों के पहुंचने की उम्मीद थी। पार्टी के महासचिव लालकृष्ण आडवाणी को ये अनुरोध करना पड़ा कि अगर संभव हो तो पार्टी सदस्य सभास्थल के बाहर भोजन करें।
वाजपेयी को समारोहपूर्वक शिवाजी पार्क ले जाया गया
सभास्थल में हर जगह पार्टी के नए झंडे लगे हुए थे। इसका एक तिहाई हिस्सा हरा और दो तिहाई हिस्सा केसरिया था।
28 दिसंबर, 1980 की शाम 28 एकड़ में फैले शिवाजी पार्क में पार्टी का खुला सत्र हुआ था जिसमें आम लोगों को भी भाग लेने की छूट थी।
विनय सीतापति अपनी किताब ‘जुगलबंदी, द बीजेपी बिफ़ोर मोदी’ में लिखते हैं, ‘पार्टी के नए अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने सभास्थल से शिवाजी पार्क का चार किलोमीटर का रास्ता खुली जीप में तय किया था। स्थानीय लोगों और हिंदु राष्ट्रवाद की भावना को मूर्त रूप देने के लिए मराठी सैनिक की वेशभूषा में एक व्यक्ति घोड़े पर सवार होकर सबसे आगे चल रहा था। उसके पीछे ट्रकों का एक काफिला था, ट्रकों पर दीनदयाल उपाध्याय और जय प्रकाश नारायण के चित्र लगे हुए थे।’
आरएसएस के प्रमुख बाला साहब देवरस के भाई भाऊराव देवरस भी वहाँ मौजूद थे। वहाँ मौजूद आरएसएस के नेता शेषाद्रि चारी ने स्वीकार किया था कि उनके लिए जयप्रकाश नारायण के ‘गांधीवादी समाजवाद’ को पचा पाना मुश्किल हो रहा था।
प्रवीण तोगडिय़ा ने भी एक इंटरव्यू में कहा था, ‘बीजेपी के अधिकांश सदस्य गांधीवादी समाजवाद और पार्टी का झंडा बदलने से सहमति नहीं रखते थे। मुझे ये पता था क्योंकि उस समय मैं स्वयंसेवक हुआ करता था। ये असहमति चारों तरफ व्याप्त थी लेकिन इसे मुखर नहीं होने दिया गया था।’
-डॉ. दिनेश मिश्र
हिमाचल प्रदेश की कालका शिमला रेल मार्ग के बड़ोग की (ड्ढड्डह्म्शद्द) सुरंग भुतहा नहीं है, भूत-प्रेत जैसी मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं होता। कर्नल बड़ोग के नाम पर बनी इस सुरंग (टनल) के भुतहा होने संबंध में कुछ स्थानीय लोगों व मीडिया के द्वारा फैलाई गई अफवाह तर्कहीन है। जबकि यह स्टेशन विश्व हेरिटेज यूनेस्को वल्र्ड हेरिटेज साइट की लिस्ट में है फिर भी समय-समय पर इसके संबंध में अन्धविश्वास, भ्रम फैलाया जाता रहा है जबकि उन्होंने अपने दल के साथ बड़ोग जाकर सच्चाई जानी।
20वीं सदी की शुरुआत में कालका शिमला रेलवे के निर्माण के दौरान सोलन के नजदीक बसाया गया एक छोटा सी बस्ती है। जिसका नाम एक इंजीनियर कर्नल बड़ोग के नाम पर रखा गया है, जिसने 1903 में उस क्षेत्र में रेलवे लाइन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कर्नल बड़ोग एक ब्रिटिश रेलवे इंजीनियर थे, जो पहाड़ों में रेलवे के लिए सुरंग बनाने का काम करते थे। बरोग से पहाड़ में सुरंग बनाने के नापजोख में कुछ त्रुटि हो गई जिससे वजह से दोनो तरफ से बनने वाली सुरंग कभी मिल ही नहीं पाई, जिस से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा उन पर कार्यवाही करते हुए एक रुपये का जुर्माना लगाया गया था। बड़ोग से यह अपमान सहन नहीं हुआ और उसी स्थान पर बड़ोग ने आत्महत्या कर ली। बाद में उन्हें एक अधूरी सुरंग के पास दफना दिया गया। इस स्थान को बाद में बड़ोग के नाम से जाना गया यह सुरंग मार्ग की सबसे लंबी सुरंग है।
डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कभी-कभी सिर्फ रोमांचक स्टोरी बनाने के फेर में मीडिया भी अंधविश्वास फैलाने का एक माध्यम बन जाता है जब मैंने इस सुरंग के बारे में जानकारी प्राप्त की, तब मुझे देश के बड़े-बड़े समाचार पत्रों में इस सुरंग के बारे में सिर्फ एकतरफा स्टोरी ही सुनाई व दिखाई दी यहां तक राष्ट्रीय अखबारों और कुछ चर्चित टीवी चैनलों तथा कुछ वेबसाइट में सिर्फ एकतरफा खबरें ही दिखाई और सुनाई पड़ी, कि इस सुरंग में कर्नल बड़ोग का भूत रहता है, वहां लोग आने से डरते हैं, शाम को कर्नल बड़ोग की चीखें सुनाई पड़ती है, रात में रहस्यमयी वातावरण हो जाता है आदि आदि। इस प्रकार की अफवाहें फैलती गईं कि बड़ोग स्टेशन को भुतहा (हॉन्टेड) स्टेशन के नाम से दुष्प्रचारित कर दिया गया, जबकि यह स्टेशन पहाडिय़ों व जंगलों के बीच अपनी प्राकृतिक छटा के कारण यूनेस्को वल्र्ड हेरिटेज साइट में शामिल है।
बड़ोग के संबंध में इस प्रकार की जानकारी होने के बाद हमने तय किया कि अपने साथियों के साथ वहां जाकर, परीक्षण कर कर्नल बड़ोग स्टेशन के संबंध में और इस स्टेशन के बारे में फैलाई जा रही अफवाहों के बारे में कुछ सही बातें और तार्किक की बातें लोगों को बताई जाए।
पिछले दिनों जब मेरा हिमाचल जाना हुआ, तब दिल्ली से चंडीगढ़ होते हुए हम कसौली पहुंचे, और फिर वहां से दूसरे दिन सालोन नामक स्थान पर पहुंचे जिसके जुड़ा हुआ ही बड़ौद स्टेशन है, स्टेशन से नीचे उतरने के लिए काफी कच्चा रास्ता है, काफी ढलान है, सकरी पगडंडी है, लेकिन आसपास के दृश्य अत्यंत सुंदर और प्राकृतिक हैं, चीड़ और देवदार के पेड़ों से भरे इस क्षेत्र में मेरे साथ में डॉ, सुभाष अग्रवाल, डॉ अतुल तिवारी, डॉ. मोनिका अग्रवाल, शताक्षी तिवारी और सुजाता मिश्र, हम छह लोगों का दल इस मुहिम में शामिल हुआ। हम सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे नीचे उतरते चले गए, बड़ोग स्टेशन मुख्य सडक़ से करीब डेढ़ किलोमीटर नीचे है, जहां से स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहुंचे। सबेरे 11 बजे भी प्लेटफार्म पर न ही कोई यात्री था और न ही कोई कर्मचारी और न कोई वेंडर। जब कि जब भी हम स्टेशन के प्लेटफार्म पर जाते हैं, यात्रियों की चहल पहल देखते हैं, वेंडरों की आवाजें सुनते है, कर्मचारियों की आवाजाही देखते हैं। प्लेटफार्म नंबर 1 पर कुछ दूरी पर एक बच्ची खेल रही थी उसने पूछने पर अपना नाम दीपिका बताया। उससे ही पूछा हमने उसने हमें वहां की कैंटीन का रास्ता बताया और स्टेशन मास्टर के ऑफिस के दिखाया। लंबा साफ सुथरा सुंदर प्लेटफार्म है जहां यूनेस्को द्वारा वल्र्ड हेरिटेज साइट का शिलालेख निर्मित है। जहां से चलते हुए हम लोग स्टेशन मास्टर के ऑफिस तक पहुंचे, उसके नजदीक सुरंग को भी देखा जो दूर से ही दिखाई दे रही थी, वहां लिखा हुआ है 33 नंबर इसके बारे में मीडिया के काफी हिस्से ने रहस्यमई सुरंग,भुतहा सुरंग कर्नल बड़ोग के भूत वाली सुरंग के नाम से प्रचारित किया है, सुरंग के द्वार पर ही बड़ोग सुरंग के सम्बन्ध में जानकारी अंकित है। यह पुरानी वास्तुकला से निर्मित है सुरंग, जिसमें से पटरिया गुजराती दिखती है, अंदर लाइटें भी लगी हैं, इसे सबसे लंबी सुरंग माना जाता है उसका सिग्नल भी वहीं है सुरंग के मुहाने व सुरंग के अंदर भी दूरी तक जाकर के हमने देखा, हमें कोई भी भय, डर की बात नहीं लगी। फिर बड़ोग के स्टेशन मास्टर कुलदीप भाया से मिले, जो पिछले 8 वर्षों से उसे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूप में कार्य कर रहे हैं, उनसे बात की, उनसे चर्चा की, उन्होंने अपने इतने लंबे कार्यकाल के दौरान किसी भूत को भुतहा चीख की आवाज नहीं सुनी, उनसे काफी देर तक अनुभव सुने, उनके साथ फोटो भी खिंचवाई, सुरंग में फोटो खींची, सुरंग के बाहर फोटो खींची, दीपिका जो बच्ची वहां प्लेटफार्म पर खेल रही थी, उस बच्ची के साथ हम प्लेटफार्म से कुछ ऊंचाई पर बने कैंटीन पर गए, वहां मैनेजर, कर्मचारी से भी बातचीत हुई, जो नियमित रूप से वहां ड्यूटी करते हैं, कैंटीन में काम करने वाले कर्मचारी बड़ोग के समीप गांव से वहां पर काम करने आते हैं उन्होंने भी कोई चीखचीख नहीं सुनी, उन्हें कभी नहीं लगा कोई वहां पर भूत, आत्मा रहती है।
हमने उसे कैंटीन में बने ताजा कटलेट कभी आनंद लिया और चाय भी पी। प्लेटफार्म के नजदीक वहीं एक और पुरानी सुरंग है जिसे बंद कर दिया गया वहां तक भी पहुंचे करनाल बड़ोग कथित कब्र भी देखी, क्योंकि बड़ोग रेलवे स्टेशन था, कथित तौर पर भूतों का भी मामला था, डरने की भी कहानी भी चर्चा में थी, इसलिए हमने वहां पर अपने साथियों के साथ प्रतीकात्मक इंसानी रेल भी चलाई।
हमें स्टेशन मास्टर ने जानकारी दी, कि वहां पर शिमला जाने वाली ट्रेन जब आती है, तब कुछ लोग उतरते हैं क्योंकि वह शिमला जाती है वह पटरी कालका शिमला रूट है इसलिए स्टेशन पर उतरने वालों की संख्या बहुत ही कम होती है लेकिन उन्होंने अपनी ड्यूटी के दौरान कभी भी किसी भी भूत-प्रेत असामान्य बातों के न दर्शन हुए उन्होंने कभी ऐसा महसूस हुआ।
बड़ोग स्टेशन के पास ही गांव में बच्चों का स्कूल है, जहां आसपास के गांव से बच्चे पढऩे आते हैं, वहां पर वैक्सीनेशन के लिए जाती हुई
एक मितानिन से भी बातचीत हुई, जो बच्चों के लिए वैक्सीन लेकर जा रही थी उससे भी चर्चा की उसने बताया नजदीक के गांव से आना जाना करती है लेकिन उसे भी कभी वहां पर कोई भूत प्रेत नहीं दिखे और न डर लगा।
भूत-प्रेत जैसी मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं है, यह बात सही है कि उस सुरंग के निर्माण में कुछ चुके हुई होगी जिसके कारण इंजीनियर कर्नल बड़ोग को आत्महत्या करने पड़ी, और यह भी सही कि उनको वहां पर दफना दिया गया, उस स्टेशन का नाम भी बड़ोग के नाम पर रख दिया गया है, स्टेशन में उनके संबंध में जानकारी भी वहां लिखी हुई है, लेकिन इस बात में कोई सच्चाई नहीं है कि स्टेशन बड़ोग में उनका भूत है, जिसकी चीखने चिल्लाने की आवाज रात में आती है, वह लोगों को तंग करता है, लोगों को नहीं वहां जाना चाहिए इत्यादि-इत्यादि।
भूत वाली बात पूरी तरह से काल्पनिक, अफवाहें हैं। आम लोगों को ऐसे अंधविश्वासों पर भरोसा नहीं करना चाहिए साथ में मीडिया को भी इस प्रकार की स्टोरी जो सिर्फ लोगों में अफवाह और अंधविश्वास फैलती है ऐसी स्टोरी प्रसारित करने से भी बचना चाहिए ।
जिस बड़ोग स्टेशन का नाम यूनेस्को के वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल है, ऐसे प्राकृतिक सुंदरता वाले स्थान को आम पर्यटकों को देखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि पर्यटन बढ़े।
-चंचल भू
5 अप्रैल बाबू जगजीवन राम का जन्म दिन है । बाबू जी बिहार से उठे और तमाम ‘असुविधाओं’ को झेलते हुए शिखर पर जा बैठे। काशी विश्व विद्यालय के छात्र थे , बिरला छात्रावास के कमरा नम्बर 19 उनके नाम से आवंटित हुआ। यहां उन्हें पाखंडी सनातनियों द्वारा बहुत अपमानित होना पड़ा था लेकिन इस विश्व विद्यालय का मोह वे कभी नही छोड़ पाए ।
हमारी उनसे जान पहचान 77 में हुई। हम संघ को हराकर छात्रसंघ का चुनाव जीते थे । इस खबर से बाबू जी बहुत खुश थे । इसके पहले ही वे हमारा नाम सुन चुके थे । आपातकाल के खत्म होने के बाद बाबू जी कांग्रेस से अलग ष्टस्नष्ठ बना लिए थे और सासाराम से प्रत्यासी थे। एक दिन सच्चिदा बाबू (भाई जगदानंद के बड़े भाई और प्रसिद्ध समाजवादी) बनारस आये थे और हमे चुनाव प्रचार के लिए सासाराम ले गए । वहां बहुत छोटी मुलाकात हुई । बाद में जब हम छात्रसंघ का चुनाव जीते तो बाबू जी को हमारे चुनाव जीतने की खबर सच्चिदा भाई ने ही दिया । बाबू जी ने सच्चिदा भाई से कहा इसे दिल्ली बुलाओ। जब ये बात हो रही थी तो उस समय बहुगुणा जी (स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा) वहां मौजूद थे , यह जिम्मेदारी बहुगुणा जी ने ले ली और हमारी मुलाकात बाबू जी हो गई । आजीवन मिलते रहे ।
इन लोगों में पंच और विट गजब का रहा। हम जब भी मिलते बाबू जी बे रोक टोक बोलते-आइए अध्यक्ष जी। और हम बोलते- जी मंत्री जी । और जोर का ठहाका लगता।
एक दिन बाबू जी ने कहा- हमारे साथ कोई फोटो नही खिंचवाना चाहते? कैमरा देखते ही खिसक जाते हो?
इतना भद्दा हूँ ? हमें अंदर से तकलीफ हुई। विश्वविद्यालय ने उनके साथ जो किया था, वो याद आ गया। हम चुपचाप संजीदा बने बैठे रहे। अचानक टाइम्स के फोटोग्राफर आ गए। हम उठे और बाबू जी के बगल में जाकर बैठ गए। फोटो हो गया। हम उठे, चलने को हुए, हाथ जोड़ कर नमस्कार किया , उन्हें कुछ असहज लगा। बोले - बैठिए अभी नहीं जाना है काफी पीकर जाओ ।
-सौतिक बिस्वास
डोनाल्ड ट्रंप के व्यापक टैरिफ ने वैश्विक व्यापार को हिला कर रख दिया है लेकिन बाधाएं कभी कभी अवसर भी पैदा करती हैं।
नौ अप्रैल से भारतीय निर्यात को 27त्न टैरिफ का सामना करना होगा। हालांकि ट्रंप ने जो टैरिफ चार्ट जारी किया है उसमें भारत पर 26त्न टैरिफ की बात कही है लेकिन आधिकारिक आदेश में 27त्न टैरिफ का जिक्र है। ऐसी अनियमितताएं अन्य देशों को लेकर भी देखी गई हैं।
टैरिफ़ बढ़ाने से पहले, व्हाइट हाउस के अनुसार, अपने ट्रेडिंग पार्टनर्स के साथ अमेरिका का औसत टैरिफ 3.3त्न हुआ करता था, जोकि वैश्विक स्तर पर सबसे न्यूनतम है, जबकि भारत का औसत टैरिफ 17त्न था।
हालांकि, चीन (54त्न), वियतनाम (46त्न), थाईलैंड (36त्न) और बांग्लादेश (37त्न) पर अपेक्षाकृत अधिक अमेरिकी टैरिफ भारत के लिए अवसर भी बन सकता है।
भारत के लिए निर्यात बढ़ाने का मौका है?
दिल्ली की ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) के अनुसार, टेक्सटाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी के क्षेत्र में भारत के लिए यह एक मौका भी हो सकता है।
चीन और बांग्लादेश के निर्यातकों पर ऊंचा टैरिफ, भारतीय टेक्सटाइल उत्पादकों को अमेरिकी बाजार में अपनी जगह बनाने का रास्ता खोलता है।
अगर भारत अपने आधारभूत ढांचे और नीतियों को मजबूत करे, तो सेमीकंडक्टर्स के मामले में अग्रणी ताईवान के मुकाबले, भारत पैकेजिंग, टेस्टिंग और सस्ते चिप की मैनूफैक्चरिंग की जगह ले सकता है।
32त्न टैरिफ के चलते अगर, ताईवान से सप्लाई चेन में आंशिक बदलाव भी आता है तो यह भारत के लिए फायदेमंद हो सकता है।
मशीनरी, ऑटोमोबाइल्स और खिलौने के क्षेत्र में चीन और थाईलैंड अग्रणी हैं। इसलिए ये क्षेत्र टैरिफ की वजह से होने वाले ‘रिलोकेशन’ के लिए मुफीद है।
जीटीआरआई के अनुसार, निवेश को आकर्षित कर, उत्पादन और अमेरिका में निर्यात बढ़ाकर भारत इस मौके का फायदा उठा सकता है।
भारत को किस तरह का फ़ायदा हो सकता है?
ऊंचे टैरिफ ने ग्लोबल वैल्यू चेन पर निर्भर कंपनियों की लागत बढ़ा दी है, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की भारत की क्षमता पर भी असर पड़ा है।
मुख्यत: सेवा क्षेत्र के बूते बढ़ते निर्यात के बावजूद, भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक है। वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी महज 1.5' है। ट्रंप ने बार बार भारत को ‘टैरिफ़ किंग’ और व्यापारिक संबंधों का ‘सबसे बड़ा दुरुपयोग करने वाला’ कहा है।
अब उनकी नई टैरिफ़ घोषणाओं के बाद, इस बात का डर है कि भारतीय निर्यात और भी कम प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे।
जीटीआरआई के अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘कुल मिलाकर, अमेरिकी संरक्षणवादी टैरिफ़ नीति, वैश्विक सप्लाई चेन के पुनर्गठन से भारत को मिलने वाले फ़ायदे में एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती है।’
उनके अनुसार, ‘हालांकि, इन मौकों का पूरी तरह फ़ायदा उठाने के लिए, भारत को ईज़ ऑफ़ डूईंग बिजऩेस को और बढ़ाना होगा, लॉजिस्टिक्स और आधारभूत ढांचे में निवेश करना होगा और नीतिगत स्थिरता बनाए रखनी होगी।’
‘अगर ये शर्तें पूरी होती हैं तो भारत आने वाले समय में एक प्रमुख वैश्विक मैन्यूफ़ैक्चरिंग और एक्सपोर्ट हब बनने की बहुत अच्छी स्थिति में है।’ हालांकि यह कहना आसान है, करना मुश्किल है।
दिल्ली के थिंक टैंक ‘काउंसिल फ़ॉर सोशल डेवलपमेंट’ से जुड़े ट्रेड एक्सपर्ट बिस्वजीत धर इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश शायद भारत के मुकाबले अधिक अच्छी स्थिति में हैं।
धर ने कहा, ‘बांग्लादेश पर लगाए गए ऊंचे टैरिफ़ के कारण हो सकता है कि हम गार्मेंट सेक्टर में खोई हुई अपनी कुछ ज़मीन फिर से हासिल कर सकते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि हमने गार्मेंट सेक्टर को उतनी तवज्जो नहीं दी और इसमें निवेश करने में विफल रहे।’
‘बिना क्षमता बढ़ाए, टैरिफ़ से होने वाले बदलावों का हम फ़ायदा कैसे उठा सकते हैं?’
भारत को किस बात की है सबसे बड़ी चिंता?
फऱवरी से ही भारत ने ट्रंप का भरोसा जीतने की कोशिशें बढ़ा दी थीं। उसने अमेरिका से ऊर्जा आयात को 25 अरब डॉलर करने का वादा किया, वॉशिंगटन को अपना शीर्ष रक्षा आपूर्तिकर्ता बनाने के संकेत दिए और एफ़-35 फ़ाइटर जेट की खऱीद के समझौते पर भी बात चलानी शुरू की है।
व्यापारिक तनाव को कम करने के लिए इसने 6त्न डिजिटल एड टैक्स को ख़त्म कर दिया, अमेरिकी व्हिस्की पर टैरिफ को 150त्न से घटाकर 100त्न कर दिया और लग्जरी कारों और सोलर सेल्स पर आयात शुल्क में काफ़ी कटौती की है।
इस बीच एलन मस्क का स्टारलिंक, भारत में संचालन की मंज़ूरी मिलने के करीब पहुंच गया है। भारत के साथ 45 अरब डॉलर के व्यापार घाटे को कम करने के लिए दोनों देशों ने व्यापार मुद्दे पर वार्ता को तेज कर दिया है।
लेकिन अभी तक भारत इस टैरिफ वॉर से बच नहीं पाया है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड में सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज के पूर्व प्रमुख अभिजीत दास कहते हैं, ‘भारत को चिंतित होना चाहिए, उम्मीद थी कि मौजूदा व्यापार वार्ताएं, रेसिप्रोकल टैरिफ से राहत दिलाएंगी। अब इन टैरिफ का लगना एक गंभीर झटका है।’
लेकिन एक मामले में भारत को छूट मिली है। वह है फॉर्मास्यूटिकल्स। यह भारत के जेनेरिक ड्रग मार्केट के लिए एक राहत की बात है। भारत अमेरिका में जरूरत की आधी जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है, जहां ये सस्ती दवाएं 90त्न प्रेसक्रिप्शंस (डॉक्टरों द्वारा लिखी दवाएं) का हिस्सा होती हैं।
हालांकि इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग गुड्स, जैसे ऑटोमोबाइल पार्ट्स, इंडस्ट्रियल मशीन, और सी फ़ूड के निर्यात को झटका लग सकता है।
स्थानीय मैन्यूफ़ैक्चरिंग को बढ़ाने के लिए शुरू की गई भारत की फ़्लैगशिप स्कीम, ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेटिव्स’ (पीएलआई) के माध्यम से हुए भारी निवेश को देखते हुए, सबसे अधिक दिक्कत इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर के लिए होगी।
धर का कहना है, ‘अपने निर्यातकों की क्षमता को लेकर मुझे संदेह है, अधिकांश छोटे निर्माता है, जो 27त्न टैरिफ़ वृद्धि के झटके को सहने में मुश्किलों का सामना करेंगे और यह उन्हें बाज़ार के कॉम्पटीशन से बाहर कर देगा। लॉजिस्टिक्स की ऊंची लागत, व्यावसायिक ख़र्च में बढ़ोत्तरी और खऱाब होते व्यापारिक ढांचे इस चुनौती को और बढ़ाते ही हैं। हम एक बड़ी मुश्किल घड़ी में शुरुआत कर रहे हैं।’
अमेरिका को भारत से क्या है शिकायत?
कई लोग टैरिफ को, भारत के साथ व्यापार वार्ता में ट्रंप की सौदेबाजी की रणनीति के रूप में देखते हैं।
व्यापार मामले पर वार्ता करने वाले अमेरिकी प्रतिनिधियों की ताज़ा रिपोर्ट में, भारत की व्यापार नीतियों के प्रति अमेरिका की हताशा व्यक्त की गई है।
सोमवार को जारी हुई इस रिपोर्ट में डेयरी, पोर्क और मछली के आयात पर भारत के कड़े नियमों की चर्चा की गई है जिसके तहत ग़ैर जीएमओ (जेनेटिकली मॉडिफाइड ऑर्गेनिज़्म) सर्टिफिकेशन जरूरी है।
इसमें जेनेटिकली मॉडिफाइड प्रोडक्ट्स को मंज़ूरी मिलने में देरी और स्टेंट और इम्प्लांट की कीमतों की सीमा तय करने की भी आलोचना की गई है।
बौद्धिक संपदा की चिंताओं के चलते भारत को ‘प्रियॉरिटी वॉच लिस्ट’ में डाला गया है और रिपोर्ट में कमजोर पेटेंट सुरक्षा और ट्रेड सीक्रेट लॉ की कमी का भी जिक्र किया गया है।
इस रिपोर्ट में डेटा लोकेलाइजेशन अनिवार्यताओं और कड़ी सैटेलाइट नीतियों को लेकर भी आलोचना की गई है, जिससे व्यापार संबंधों में तनाव बढ़ा है।
अमेरिका को डर है कि भारत का नियंत्रित करने वाला रुख अधिकाधिक चीन की तरह होता जा रहा है।
व्हाइट हाउस के अनुसार, अगर ये बाधाएं हटा दी जाती हैं, अमेरिकी निर्यात वार्षिक स्तर पर कम से कम 5.3 अरब डॉलर तक बढ़ सकता है।
धर का कहना है, ‘इससे बुरा समय नहीं हो सकता- ट्रेड वार्ता के बीच ये सब होना केवल हमारी मुश्किलों को बढ़ाता ही है। यह केवल बाज़ार खोलने का मामला नहीं है, यह पूरा पैकेज है।’
इसके अलावा, वियतनाम या चीन पर बढ़त हासिल करना रातों रात नहीं होगा, मौके तलाशना और प्रतिस्पर्धात्मक मजबूती हासिल करने में समय लगता है। (बीबीसी)ट्रंप का टैरिफ : क्या भारतीय उद्योगों
के लिए आपदा के बजाय अवसर है?
सौतिक बिस्वास
डोनाल्ड ट्रंप के व्यापक टैरिफ ने वैश्विक व्यापार को हिला कर रख दिया है लेकिन बाधाएं कभी कभी अवसर भी पैदा करती हैं।
नौ अप्रैल से भारतीय निर्यात को 27त्न टैरिफ का सामना करना होगा। हालांकि ट्रंप ने जो टैरिफ चार्ट जारी किया है उसमें भारत पर 26त्न टैरिफ की बात कही है लेकिन आधिकारिक आदेश में 27त्न टैरिफ का जिक्र है। ऐसी अनियमितताएं अन्य देशों को लेकर भी देखी गई हैं।
टैरिफ़ बढ़ाने से पहले, व्हाइट हाउस के अनुसार, अपने ट्रेडिंग पार्टनर्स के साथ अमेरिका का औसत टैरिफ 3.3त्न हुआ करता था, जोकि वैश्विक स्तर पर सबसे न्यूनतम है, जबकि भारत का औसत टैरिफ 17त्न था।
हालांकि, चीन (54त्न), वियतनाम (46त्न), थाईलैंड (36त्न) और बांग्लादेश (37त्न) पर अपेक्षाकृत अधिक अमेरिकी टैरिफ भारत के लिए अवसर भी बन सकता है।
भारत के लिए निर्यात बढ़ाने का मौका है?
दिल्ली की ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) के अनुसार, टेक्सटाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी के क्षेत्र में भारत के लिए यह एक मौका भी हो सकता है।
चीन और बांग्लादेश के निर्यातकों पर ऊंचा टैरिफ, भारतीय टेक्सटाइल उत्पादकों को अमेरिकी बाजार में अपनी जगह बनाने का रास्ता खोलता है।
अगर भारत अपने आधारभूत ढांचे और नीतियों को मजबूत करे, तो सेमीकंडक्टर्स के मामले में अग्रणी ताईवान के मुकाबले, भारत पैकेजिंग, टेस्टिंग और सस्ते चिप की मैनूफैक्चरिंग की जगह ले सकता है।
32त्न टैरिफ के चलते अगर, ताईवान से सप्लाई चेन में आंशिक बदलाव भी आता है तो यह भारत के लिए फायदेमंद हो सकता है।
मशीनरी, ऑटोमोबाइल्स और खिलौने के क्षेत्र में चीन और थाईलैंड अग्रणी हैं। इसलिए ये क्षेत्र टैरिफ की वजह से होने वाले ‘रिलोकेशन’ के लिए मुफीद है।
जीटीआरआई के अनुसार, निवेश को आकर्षित कर, उत्पादन और अमेरिका में निर्यात बढ़ाकर भारत इस मौके का फायदा उठा सकता है।
भारत को किस तरह का फ़ायदा हो सकता है?
ऊंचे टैरिफ ने ग्लोबल वैल्यू चेन पर निर्भर कंपनियों की लागत बढ़ा दी है, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की भारत की क्षमता पर भी असर पड़ा है।
मुख्यत: सेवा क्षेत्र के बूते बढ़ते निर्यात के बावजूद, भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक है। वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी महज 1.5' है। ट्रंप ने बार बार भारत को ‘टैरिफ़ किंग’ और व्यापारिक संबंधों का ‘सबसे बड़ा दुरुपयोग करने वाला’ कहा है।
अब उनकी नई टैरिफ़ घोषणाओं के बाद, इस बात का डर है कि भारतीय निर्यात और भी कम प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे।
जीटीआरआई के अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘कुल मिलाकर, अमेरिकी संरक्षणवादी टैरिफ़ नीति, वैश्विक सप्लाई चेन के पुनर्गठन से भारत को मिलने वाले फ़ायदे में एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती है।’
उनके अनुसार, ‘हालांकि, इन मौकों का पूरी तरह फ़ायदा उठाने के लिए, भारत को ईज़ ऑफ़ डूईंग बिजऩेस को और बढ़ाना होगा, लॉजिस्टिक्स और आधारभूत ढांचे में निवेश करना होगा और नीतिगत स्थिरता बनाए रखनी होगी।’
‘अगर ये शर्तें पूरी होती हैं तो भारत आने वाले समय में एक प्रमुख वैश्विक मैन्यूफ़ैक्चरिंग और एक्सपोर्ट हब बनने की बहुत अच्छी स्थिति में है।’ हालांकि यह कहना आसान है, करना मुश्किल है।
दिल्ली के थिंक टैंक ‘काउंसिल फ़ॉर सोशल डेवलपमेंट’ से जुड़े ट्रेड एक्सपर्ट बिस्वजीत धर इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश शायद भारत के मुकाबले अधिक अच्छी स्थिति में हैं।
धर ने कहा, ‘बांग्लादेश पर लगाए गए ऊंचे टैरिफ़ के कारण हो सकता है कि हम गार्मेंट सेक्टर में खोई हुई अपनी कुछ ज़मीन फिर से हासिल कर सकते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि हमने गार्मेंट सेक्टर को उतनी तवज्जो नहीं दी और इसमें निवेश करने में विफल रहे।’
‘बिना क्षमता बढ़ाए, टैरिफ़ से होने वाले बदलावों का हम फ़ायदा कैसे उठा सकते हैं?’
भारत को किस बात की है सबसे बड़ी चिंता?
फऱवरी से ही भारत ने ट्रंप का भरोसा जीतने की कोशिशें बढ़ा दी थीं। उसने अमेरिका से ऊर्जा आयात को 25 अरब डॉलर करने का वादा किया, वॉशिंगटन को अपना शीर्ष रक्षा आपूर्तिकर्ता बनाने के संकेत दिए और एफ़-35 फ़ाइटर जेट की खऱीद के समझौते पर भी बात चलानी शुरू की है।
व्यापारिक तनाव को कम करने के लिए इसने 6त्न डिजिटल एड टैक्स को ख़त्म कर दिया, अमेरिकी व्हिस्की पर टैरिफ को 150त्न से घटाकर 100त्न कर दिया और लग्जरी कारों और सोलर सेल्स पर आयात शुल्क में काफ़ी कटौती की है।
इस बीच एलन मस्क का स्टारलिंक, भारत में संचालन की मंज़ूरी मिलने के करीब पहुंच गया है। भारत के साथ 45 अरब डॉलर के व्यापार घाटे को कम करने के लिए दोनों देशों ने व्यापार मुद्दे पर वार्ता को तेज कर दिया है।
लेकिन अभी तक भारत इस टैरिफ वॉर से बच नहीं पाया है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड में सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज के पूर्व प्रमुख अभिजीत दास कहते हैं, ‘भारत को चिंतित होना चाहिए, उम्मीद थी कि मौजूदा व्यापार वार्ताएं, रेसिप्रोकल टैरिफ से राहत दिलाएंगी। अब इन टैरिफ का लगना एक गंभीर झटका है।’
लेकिन एक मामले में भारत को छूट मिली है। वह है फॉर्मास्यूटिकल्स। यह भारत के जेनेरिक ड्रग मार्केट के लिए एक राहत की बात है। भारत अमेरिका में जरूरत की आधी जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है, जहां ये सस्ती दवाएं 90त्न प्रेसक्रिप्शंस (डॉक्टरों द्वारा लिखी दवाएं) का हिस्सा होती हैं।
हालांकि इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग गुड्स, जैसे ऑटोमोबाइल पार्ट्स, इंडस्ट्रियल मशीन, और सी फ़ूड के निर्यात को झटका लग सकता है।
स्थानीय मैन्यूफ़ैक्चरिंग को बढ़ाने के लिए शुरू की गई भारत की फ़्लैगशिप स्कीम, ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेटिव्स’ (पीएलआई) के माध्यम से हुए भारी निवेश को देखते हुए, सबसे अधिक दिक्कत इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर के लिए होगी।
धर का कहना है, ‘अपने निर्यातकों की क्षमता को लेकर मुझे संदेह है, अधिकांश छोटे निर्माता है, जो 27त्न टैरिफ़ वृद्धि के झटके को सहने में मुश्किलों का सामना करेंगे और यह उन्हें बाज़ार के कॉम्पटीशन से बाहर कर देगा। लॉजिस्टिक्स की ऊंची लागत, व्यावसायिक ख़र्च में बढ़ोत्तरी और खऱाब होते व्यापारिक ढांचे इस चुनौती को और बढ़ाते ही हैं। हम एक बड़ी मुश्किल घड़ी में शुरुआत कर रहे हैं।’
अमेरिका को भारत से क्या है शिकायत?
कई लोग टैरिफ को, भारत के साथ व्यापार वार्ता में ट्रंप की सौदेबाजी की रणनीति के रूप में देखते हैं।
व्यापार मामले पर वार्ता करने वाले अमेरिकी प्रतिनिधियों की ताज़ा रिपोर्ट में, भारत की व्यापार नीतियों के प्रति अमेरिका की हताशा व्यक्त की गई है।
सोमवार को जारी हुई इस रिपोर्ट में डेयरी, पोर्क और मछली के आयात पर भारत के कड़े नियमों की चर्चा की गई है जिसके तहत ग़ैर जीएमओ (जेनेटिकली मॉडिफाइड ऑर्गेनिज़्म) सर्टिफिकेशन जरूरी है।
इसमें जेनेटिकली मॉडिफाइड प्रोडक्ट्स को मंज़ूरी मिलने में देरी और स्टेंट और इम्प्लांट की कीमतों की सीमा तय करने की भी आलोचना की गई है।
बौद्धिक संपदा की चिंताओं के चलते भारत को ‘प्रियॉरिटी वॉच लिस्ट’ में डाला गया है और रिपोर्ट में कमजोर पेटेंट सुरक्षा और ट्रेड सीक्रेट लॉ की कमी का भी जिक्र किया गया है।
-एनाबेल लियंग
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बुधवार को अमेरिका के हर ट्रेडिंग पार्टनर पर टैरिफ लगाने का एलान किया, इस दौरान उन्होंने चीन के लिए कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया।
घोषणा के बाद अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मैं बहुत इज्जत करता हूं। लेकिन वो अमेरिका का बहुत ज़्यादा फ़ायदा उठा रहे हैं।’
ट्रंप ने एक चार्ट दिखाते हुए कहा कि जिन देशों ने अमेरिकी वस्तुओं के बिजनेस में मुश्किलें खड़ी की हैं वो इस तरह से हैं, ‘अगर आप देखें चीन 67 फीसदी के साथ पहले नंबर पर है। यह अमेरिका पर लगाया गया टैरिफ है, जिसमें मुद्रा हेरफेर और व्यापार से संबंधी बाधाएं शामिल हैं।’
उन्होंने कहा, ‘हम रेसिप्रोकल टैरिफ में छूट दे रहे हैं और 34 फीसदी टैरिफ ही लगा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहूं तो हमारे ऊपर चार्ज लगा रहे हैं, हम उन पर चार्ज लगा रहे हैं। हम तो कम चार्ज लगा रहे हैं। तो फिर कोई निराश कैसे हो सकता है?’
लेकिन चीन के वाणिज्य मंत्रालय ने तुरंत इस कदम को 'एकतरफा धमकी' करार दिया। चीन ने कहा कि वो अपने हितों की रक्षा के लिए कदम उठाएगा।
चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने ट्रंप पर कारोबार को एक सामान्य ‘टिट फॉर टैट’ यानी ‘जैसे को तैसा’ के खेल में बदलने का आरोप लगाया।
हालांकि एक्सपर्ट्स का मानना है चीन के पास निराश होने की काफी वजहें हैं।
उनमें से एक ये एलान है जिसमें चीन की वस्तुओं पर पहले से लग रहे टैरिफ के अलावा 20 फीसदी अतिरिक्त टैरिफ लगाया गया है।
जब ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में चीन पर टैरिफ लगाए थे तो चीन ने बचने के लिए एक रास्ता निकाला था। लेकिन कंबोडिया, वियतनाम और लाओस सहित अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों पर भारी टैरिफ लगाकर ट्रंप ने उस रास्ते को बंद कर दिया है।
जिन 10 देशों पर सबसे ज्यादा टैरिफ लगाए गए हैं उनमें पांच एशियाई देशों के नाम शुमार हैं।
ट्रंप ने अमेरिका में आयात पर टैरिफ़ की एक लंबी लिस्ट की घोषणा की है और अमेरिकी समयानुसार, 5 अप्रैल से ज़्यादातर देशों पर 10 प्रतिशत का बेसलाइन टैरिफ़ भी लागू होगा, जबकि 9 अप्रैल से अमेरिका के कुछ सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों पर ऊंचा आयात शुल्क लागू होगा।
चीन के लिए टैरिफ में हो रही है बढ़ोतरी
जनवरी में व्हाइट हाउस में लौटने के बाद से ट्रंप ने चीन से आयात पर नए टैरिफ लगाए थे। अब इन्हें 20 फीसदी और बढ़ा दिया गया है।
एक हफ्ते से भी कम समय में ये टैरिफ बढक़र 54 फीसदी हो जाएंगे। इसके अलावा कार, स्टील और एल्युमीनियम जैसे उत्पादों पर टैरिफ कम होगा।
चीन को ट्रंप की वजह से बिजनेस से जुड़ी अन्य मुश्किलों का सामना भी करना पड़ रहा है।
इससे पहले बुधवार को राष्ट्रपति ने चीन से आने वाले कम मूल्य के पार्सल के प्रावधान को समाप्त करने के लिए एक कार्यकारी आदेश पर साइन किए।
इस प्रावधान से चीन के शीन और टेमू जैसे ई कॉमर्स प्लेटफॉर्म अमेरिका में 800 डॉलर की कीमत के पैकेज बिना किसी टैक्स के भेज पाते थे।
कस्टम डेटा के मुताबिक इस प्रावधान के तहत बीते वित्त वर्ष में 1.4 अरब डॉलर के पैकेज चीन से अमेरिका पहुंचे हैं।
प्रावधान हटने की वजह से चीन की कुछ कंपनियों को कस्टमर्स से अतिरिक्त चार्ज लेना होगा। इस वजह से अमेरिका में उनकी वस्तुओं की मांग कम हो सकती है।
हीनरीच फाउंडेशन से जुड़ीं डेबरा एम्स कहती हैं कि अगर देखा जाए तो इस वक्त चीन की मुश्किलें बढ़ती नजर आ रही हैं।
उन्होंने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि नए टैरिफ चीन पर ही लगाए गए हैं। लेकिन जब चीन पर अमेरिका एक के बाद एक टैरिफ लगाता है तो फिर नंबर्स चौंकाने वाले होते हैं।’
‘चीन को पलटवार करना होगा। वो चुपचाप बैठकर ये सब होते हुए नहीं देख सकते हैं।’
सप्लाई चेन पर पड़ेगा असर
कंबोडिया, वियतनाम और लाओस पर ट्रंप ने 46 से 49 फीसदी तक टैरिफ लगाए हैं।
इन्वेसटमेंट फर्म एसपीआई एससेट से जुड़े स्टीफन इन्स ने कहा, ‘चीन की विस्तार की गई सप्लाई चेन पर हमला किया गया है।’
‘वियतनाम और अन्य देशों को अमेरिका की बिजनेस नीति से नुकसान पहुंच सकती है। ये कोई बदला नहीं है। लेकिन टैरिफ के जरिए रणनीतिक नियंत्रण है।’
कंबोडिया और लाओस इस क्षेत्र के सबसे गरीब देश हैं और वो चीन की सप्लाई चेन पर निर्भर करते हैं। हाई टैरिफ की वजह से इन देशों पर बुरा असर पड़ सकता है।
वियतनाम चीन का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है। ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान जब चीन और अमेरिका के बीच तनाव था तब वियतनाम को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा था।
ट्रंप ने साल 2018 में चीन पर टैरिफ लगाए। इसकी वजह से बिजनेस करने वालों ने इस बात पर विचार किया कि प्रोडक्ट कहां बनाए जाएं और उन्होंने इसके लिए वियतनाम को चुना।
चूंकि चीन की कंपनियां वियतनाम चली गईं, इसलिए वियतनाम से अमेरिका में किए जाने वाले आयात में बढ़ोतरी दर्ज हुई।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार के एक्सपर्ट और अमेरिकी सरकार के लिए काम कर चुके स्टीफन ओल्सन ने बीबीसी को बताया, ‘चीन के साथ जुड़े होने की वजह से वियतनाम को निशाना बनाया गया है।’
नए आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका वियतनाम का सबसे बड़ा निर्यात बाजार बना हुआ है। वहीं चीन वियतनाम को सबसे ज़्यादा सामान सप्लाई करने वाला देश बन गया है।
इतना ही नहीं चीन वियतनाम के कुल आयात में एक तिहाई से अधिक का योगदान देता है।
वियतनाम में पिछले साल जो नए निवेश हुए उनमें से हर तीन में एक के पीछे चीन की कंपनी ही थी।
इनसीड बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर पुशन दत्त का कहना है कि दक्षिण पूर्व एशिया पर लगाए गए नए टैरिफ चीन को रोकने के लिए हैं।
उन्होंने कहा, ‘चीन में डिमांड एक दिक्कत बन गई है। ट्रंप के पिछले कार्यकाल के दौरान चीन की कंपनियों ने अपने प्लांट चीन से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में शिफ़्ट किए। लेकिन अब ये दरवाजा भी बंद हो गया है।’
लेकिन ट्रंप के टैरिफ का असर अमेरिका की उन कंपनियों पर भी पड़ेगा जो अपने प्रोडक्ट दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में बनाते हैं।
उदाहरण के लिए अमेरिका की बड़ी कंपनियों एपल, इंटेल और नाइकी पर भी इसका असर पड़ेगा क्योंकि इनकी अधिकतर फैक्ट्री वियतनाम में ही हैं।
वियतनाम में अमेरिकन चैंबर ऑफ कॉमर्स के हाल ही में किए गए सर्वे में पाया गया कि वहां अधिकांश अमेरिकी निर्माताओं को आशंका है कि अगर टैरिफ लगाया गया तो वे अपने कर्मचारियों की छंटनी कर देंगे।
आगे का मुश्किल रास्ता
सवाल ये है कि चीन के पास टैरिफ का जवाब देने का क्या रास्ता है क्योंकि इनके लागू होने में कुछ ही दिन का वक्त है।
ओल्सन कहते हैं कि चीन टैरिफ पर मजबूती से पलटवार कर सकता है और वो ऐसे कदम उठा सकता है जिससे अमेरिकी कंपनियों के लिए चीन में काम करना मुश्किल हो जाए।
वहीं प्रोफेसर दत्त मानते हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था पहले ही चुनौतियों का सामना कर रही है और उसके सामने आगे का रास्ता बेहद मुश्किल है।
उन्होंने कहा, ‘अन्य क्षेत्रों में निर्यात करने से वहां औद्योगिकीकरण ख़त्म होने का खतरा है। वहां के राजनेता इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसका मतलब है कि चीन को अंत में घरेलू मांग को बढ़ावा देना होगा।’
ये टैरिफ चीन को उन अन्य एशियाई देशों के साथ गठजोड़ बनाने के लिए भी प्रेरित कर सकते हैं, जो टैरिफ का सामना कर रहे हैं।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व सदस्य वांग वेयाओ कहते हैं कि इस मुश्किल वक्त में एशियाई देशों को एकजुट होकर काम करने की जरूरत है।
वो कहते हैं, ‘अंत में अमेरिका का प्रभाव खत्म हो जाएगा और वो अकेला महसूस करेगा।’
-विष्णु नागर
विनोद कुमार शुक्ल को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर व्यापक रूप से अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं,जो स्वाभाविक भी है। इन्हीं दिनों विनोद जी के स्वर में यह कविता फेसबुक पर सुनी तो मेरी इस प्रिय कविता पर लिखने का मन हुआ:-
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकडक़र वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।
विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता मुझे बार -बार अपनी ओर खींचती है, याद आती है। मैं इसे हिंदी की श्रेष्ठ कविताओं में से एक मानता हूं। यांत्रिक दृष्टि से देखें तो विनोद जी की कविता में जिस व्यक्ति की हताशा की बात की जा रही है और जो उस हताश व्यक्ति की ओर मदद का हाथ बढ़ाकर उसे खड़ा करने में मदद देता है, दोनों अमूर्त हैं।न उनका कोई नाम है, न वर्ग है। न उस हताशा का कोई नाम है। वह हताशा किन कारणों से उपजी है, किसकी है, इसका कोई सीधा संकेत कविता में नहीं है।
फिर भी थोड़ा ध्यान से देखने- सोचने पर जो व्यक्ति हताशा में बैठ गया है और जो उसकी ओर मदद का हाथ बढ़ा रहा है वे दोनों निम्नमध्यवर्गीय हैं। वे हताशा से गुजरते हैं मगर साथ चलने का मूल्य जानते हैं। साथ चलने में उनका विश्वास कायम है। कविता यह बात अधिक शब्दों में कहे, कहती है। इन ग्यारह पंक्तियों में कवि ने जो कह दिया है और जिस सहजता से कह दिया है, कविता को कविता न बनाने के अंदाज़ में कह दिया है, वह मामूली कवि का काम नहीं? है। ऐसी कविता रचने के लिए कविता में ही नहीं, जीवन में भी मनुष्य होना जरूरी है।
इस कविता में कविता बनाने की चिंता प्राथमिक नहीं दिखती। यहां किसी अनोखे सत्य को पा लेने का छुपा या प्रकट दंभ भी नहीं है। यह कविता एक साधारण सत्य को उसकी साधारणता में पकडक़र उसे असाधारण रूप देती है। अनोखे शब्द संयम के साथ और उसका किसी तरह का दिखावा किये बगैर, उसका शोर मचाये बिना यह काम करती है।
साधारण शब्दों में यह कविता कहती है कि हताश व्यक्ति कौन है, वह किसी का परिचित है या अपरिचित, इसे मत देखो, उसकी हताशा को देखो, उसे पहचानो और उसके साथ खड़े होओ। तुम खुद अपनी हताशा के क्षणों में किसी का हाथ पाकर खड़े हुए हो तो तुम्हारे अंदर वह माद्दा होना चाहिए कि तुम दूसरों की हताशा को भी पहचान कर, उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाओ। जीवन के इस मामूली सत्य की यह कविता है। यह किसी की तरफ मदद का हाथ बढ़ाने की कविता है। यह कविता फिर बताती है कि जीवन के बेहद मामूली तथ्यों -सत्यों पर कविता लिखी जा सकती है, लिखी जानी चाहिए।
यह नहीं कह सकते कि इस सहज-सरल मार्मिकता में धंसी इस कविता में किसी तरह की निर्मित नहीं है मगर इसकी खूबी यह है कि कविता ऊंगली पकडक़र यह नहीं बताती। यह अपनी सादगी बनाए रखती है। उसका सारा प्रयास उस सत्य की ओर ले जाना है, किसी काव्यात्मक तामझाम से पाठक को प्रभावित करना नहीं। कवि यह कविता लिखकर स्वयं अनुपस्थित हो जाना चाहता है। अपने को ओट कर लेना चाहता है। इसके विपरीत कुंवर नारायण आदि की कविताओं में अतिरिक्त श्रम की बनावट साफ नजर आती है। वह कविता को कम, कवि को अधिक प्रकाशित करती हुई लगती है।
इन ग्यारह पंक्तियों में हर दो पंक्ति के बाद कवि ने पाठक के लिए स्पेस छोड़ा है ताकि वह उस स्पेस को अपने अनुभवजगत से भरे,उस स्थिति में स्वयं डूबे, जबकि आज अधिकांश कविता पाठक पर कुछ नहीं छोड़ती, जबकि कविता ही नहीं बल्कि किसी भी तरह की,किसी भी विधा में की गई रचना का बुनियादी काम अपने पाठक या श्रोता पर भरोसा करना है क्योंकि वह अंतत: उसके लिए है, उसकी है। जो कला अपने पाठक या श्रोता पर विश्वास नहीं करती, वह कला होने के मानक पूरे नहीं करती।
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों का हवाला देते हुए चीन से अपनी अर्थव्यवस्था को विस्तार देने की अपील करके बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के नेता मोहम्मद यूनुस ने एक नया विवाद खड़ा कर दिया है।
उन्होंने पूर्वोत्तर के सातों राज्यों को लैंडलॉक्ड (ज़मीन से चारों ओर से घिरा) क्षेत्र बताया और बांग्लादेश को इस इलाक़े में समंदर का एकमात्र संरक्षक बताते हुए चीन से अपने यहां आर्थिक गतिविधि बढ़ाने की अपील की।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने मोहम्मद यूनुस के बयान को 'आपत्तिजनक' बताया है। पूर्व भारतीय राजनयिकों ने भी यूनुस के इस बयान पर हैरानगी जताई है।
पिछले हफ़्ते ही यूनुस चीन के दौरे पर गए थे और इस दौरान बीजिंग के साथ कई समझौते हुए हैं। जिनमें तीस्ता रिवर कॉम्प्रिहेंसिव मैनेजमेंट एंड रेस्टोरेशन प्रोजेक्ट में चीनी कंपनियों को शामिल होने का न्योता भी दिया, जिसे भारत के लिए एक झटके के रूप में देखा जा रहा है।
इस यात्रा के दौरान बांग्लादेश को चीन और उसकी कंपनियों की ओर से तकरीबन 2।1 अरब डॉलर के निवेश, कजऱ् और अनुदान के रूप में मदद का आश्वासन मिला है।
मोहम्मद युनूस ने क्या कहा
मोहम्मद यूनुस ने 28 मार्च को बीजिंग में एक कार्यक्रम के दौरान पूर्वोत्तर को लेकर टिप्पणी की थीष
बांग्लादेश के लीडर ने कहा, ‘भारत के सात राज्य।।।भारत के पूर्वी हिस्से।।।जिन्हें सेवन सिस्टर्स कहा जाता है, ये भारत के लैंडलॉक्ड क्षेत्र हैं। समंदर तक उनकी पहुंच का कोई रास्ता नहीं है। इस पूरे क्षेत्र के लिए समंदर के अकेले संरक्षक हम हैं। इसलिए यह विशाल संभावना के द्वार खोलता है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘इसलिए यह चीनी अर्थव्यवस्था के लिए विस्तार हो सकता है। चीजें बनाएं, उत्पादन करें। चीज़ें बाज़ार में ले जाएं।। चीजें चीन में लाएं और बाकी दुनिया तक पहुंचाएं।’
मोहम्मद यूनुस ने जल संसाधन को लेकर नेपाल और भूटान का भी जि़क्र किया और कहा, ‘नेपाल और भूटान के पास असीमित हाइड्रो पॉवर है। हम इन्हें अपने मकसद के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, फैक्ट्रियां स्थापित कर सकते हैं। और बांग्लादेश के मार्फत आप कहीं भी जा सकते हैं क्योंकि समंदर हमारे ठीक पीछे है।’
चीन को लेकर उन्होंने कहा, ‘ये कोई ज़रूरी नहीं है कि किसी चीज़ का अपने यहां आप उत्पादन करें और दुनिया को बेचें, बल्कि बांग्लादेश में उत्पादन करें और चीन में भी बेचें। ये मौके हैं जिनका हम फ़ायदा उठाना चाहेंगे।’
उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में चीजों का उत्पादन करना आसान है।
बांग्लादेश की सरकारी न्यूज़ एजेंसी बीएसएस के अनुसार, मोहम्मद यूनुस से मुलाक़ात के दौरान शी जिनपिंग ने कहा है कि चीन दूसरे देशों में विशेष चाइनीज़ इंडस्ट्रियल इकोनॉमिक ज़ोन और इंडस्ट्रियल पार्क बनाने का समर्थन करेगा।
मोहम्मद यूनुस ने अपने दौरे में नदी जल प्रबंधन में चीन की विशेषज्ञता की मदद मांगी, ख़ासकर तीस्ता नदी को लेकर।
हिमंत बिस्व सरमा ने क्या कहा?
यूनुस के इस बयान को लेकर असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने तीख़ी प्रतिक्रिया दी है।
हिमंत बिस्व सरमा ने एक्स पर लिखा, ‘बांग्लादेश की तथाकथित अंतरिम सरकार के मोहम्मद यूनुस का, पूर्वोत्तर भारत के सेवन सिस्टर्स राज्यों का को लैंडलॉक्ड बताना और बांग्लादेश को उनके लिए समंदर तक पहुंच का एकमात्र गार्जियन बताना, आपत्तिजनक और निंदनीय है।’
‘यह टिप्पणी भारत के रणनीतिक 'चिकन नेक' कॉरिडोर से जुड़े ख़तरे के लगातार नैरेटिव को रेखांकित करती है। ऐतिहासिक रूप से भारत के भीतर में भी अंदरूनी तत्वों ने पूर्वोत्तर को मेनलैंड से काटने का ख़तरनाक सुझाव दिया है। इसलिए, चिकन नेक कॉरिडोर के नीचे और उसके आसपास और भी मज़बूत रेलवे और सडक़ नेटवर्क विकसित करना ज़रूरी है।’
‘इसके अलावा, चिकन नेक को प्रभावी ढंग से दरकिनार करते हुए पूर्वोत्तर को मेनलैंड भारत से जोडऩे वाले वैकल्पिक सडक़ मार्गों की खोज को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।’
‘हालाँकि इसमें इंजीनियरिंग चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन दृढ़ संकल्प और इनोवेशन के साथ इसे हासिल किया जा सकता है।’
‘मोहम्मद यूनुस के ऐसे भडक़ाऊ बयानों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि ये गहरे रणनीतिक विचारों और लंबे समय से चले आ रहे एजेंडे को दर्शाते हैं।’
क्या कह रहे हैं एक्सपर्ट
बांग्लादेश में भारत की उच्चायुक्त रहीं वीना सीकरी ने बीबीसी को बताया, ‘भारत और बांग्लादेश के बीच व्यापार मार्गों के बारे में सटीक बॉर्डर एग्रीमेंट हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।’
उन्होंने कहा, ‘बांग्लादेश की मौजूदा लीडरशिप द्वारा भारत के पूर्वोत्तर के लैंडलॉक्ड होने वाले बयान का मैं कोई लॉजिक नहीं समझ पा रही हैं।’
साउथ एशियन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर धनंजय त्रिपाठी ने बीबीसी से कहा, ‘चीन में भारत के पूर्वोत्तरी राज्यों का जि़क्र करते वक्त मोहम्मद यूनुस भूल जाते हैं कि यह भारत का हिस्सा है। बांग्लादेश के एक जि़म्मेदार राजनीतिक व्यक्ति के रूप में उन्हें किसी तीसरे देश में इस पर चर्चा नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह एक अच्छी कूटनीतिक प्रथा नहीं है।’
‘पूर्वोत्तर लैंडलॉक्ड नहीं है और भारत का हिस्सा है। इस हिस्से के बारे में अगर चीन से बात करनी हो तो भारत स्वयं कर सकता है। अगर यूनुस भारत के साथ बेहतर आर्थिक एकीकरण चाहते हैं तो द्विपक्षीय दृष्टिकोण अधिक कारगर हो सकता है। हालाँकि, इसके लिए बांग्लादेश में राजनीतिक स्थिरता की ज़रूरत होगी। ये वर्तमान में एक गंभीर चिंता का विषय है।’
भारत के विदेश सचिव रहे कंवल सिब्बल ने मोहम्मद यूनुस के बयान को ‘खतरनाक विचार’ बताया है।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘बांग्लादेश में हसीना के पहले की राजनीति में यह चर्चा थी कि अगर भारत बांग्लादेश को तीन तरफ़ से घेरता है और उसकी हालत नाज़ुक है, तो बांग्लादेश भी हमारे पूर्वोत्तर को तीन तरफ़ से घेरता है और बांग्लादेश की ओर से इसे दबाव के बिंदु के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। उनका ग़लती से हमारे पूर्वोत्तर के राज्यों को एक देश कहना और फिर सुधार करना बहुत कुछ कहता है।’
‘पाकिस्तान के साथ बांग्लादेश के बेहतर होते सैन्य समबंधों के चलते, बीएनपी (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) के दिनों में जाने का जोखिम पैदा हो गया है। ऐसा लगता है कि यूनुस, बांग्लादेश के माफऱ्त हमारे पूर्वोत्तर क्षेत्र में चीन के प्रभाव को बढ़ाने, और समंदर के तट पर बांग्लादेश के नियंत्रण का लाभ उठाते हुए, हमारे पूर्वोत्तर के लैंडलॉक्ड राज्यों को चीन के प्रभाव में लाने के लिए चीन को और अधिक खुलकर प्रोत्साहित कर रहे हैं।’
‘हमें आधिकारिक रूप से इस पर उचित प्रतिक्रिया देनी चाहिए।’
अर्थशास्त्री संजीव सान्याल ने पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को लैंडलॉक्ड वाले मोहम्मद यूनुस के बयान पर सवाल उठाए हैं।
उन्होंने यूनुस के बयान की एक वीडियो क्लिप को साझा करते हुए एक्स पर लिखा, ‘दिलचस्प है कि यूनुस चीन से सार्वजनिक रूप से अपील कर रहे हैं कि भारत के सात राज्य लैंडलॉक्ड हैं। बांग्लादेश में निवेश के लिए चीन का स्वागत है, लेकिन इसमें सात राज्यों के लैंडलॉक्ड होने का हवाला देने का असल मतलब क्या है?’
बांग्लादेश और चीन की कऱीबी पर पाकिस्तान में चर्चा
बांग्लादेश और चीन के बीच बढ़ती कऱीबी और मोहम्मद यूनुस के चीन दौरे को लेकर पाकिस्तान में हलचल है।
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे अब्दुल बासित ने कहा है कि ‘चीन को तीस्ता रिवर प्रोजेक्ट मिल गया।’
‘ऐसा लगता है कि ढाका ने चीन के साथ संबंधों को और मजबूत करने का फैसला किया है और इससे भारत की परेशानी बढ़ सकती है ख़ासकर तीस्ता को लेकर।’
अपने एक वीडियो ब्लॉग में उन्होंने कहा है कि ‘दोनों देशों ने अपने संबंधों को कॉम्प्रिहेंसिव स्ट्रेटिजिक कोआपरेटिव पार्टनरशिप, यह बहुत अहम सूत्रीकरण है और इससे लगता है कि दोनों देशों के बीच कऱीबी और बढ़ेगी।’
-भागीरथ
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व के कोर क्षेत्र में बसे अमाड़ गांव के आदिवासियों को महुआ का मौसम लखपति बनने का पूरा अवसर देता है। गांव में जिसके पास जितने ज्यादा महुआ के पेड़ हैं, वह उतना ही अमीर है। उदाहरण के लिए अपने 60 महुआ के पेड़ों से करीब 20-25 क्विंटल महुआ हासिल करने वाले धनेश्वर इस मौसम में लखपति बन जाते हैं।
करीब 240 परिवारों वाले इस गांव में हर परिवार में औसतन 5-6 सदस्य हैं। कुछ परिवारों में 20 सदस्य भी हैं। गांव में बड़े परिवार का अर्थ है, महुआ संग्रहण के लिए अधिक हाथ और ज्यादा आय।
गांव की वन संसाधन प्रबंधन समिति के अध्यक्ष गणेश राम यादव बताते हैं कि 70-75 प्रतिशत परिवारों के पास महुआ के पेड़ हैं। गांव के अधिकार क्षेत्र में करीब 1,517 हेक्टेयर का जंगल है, जहां महुआ के पेड़ बहुतायत में हैं। जिन 20-25 प्रतिशत परिवारों के पास महुआ के पेड़ नहीं हैं, वे इस मौसम में जंगल पर पूरी तरह आश्रित हो जाते हैं।
उनका कहता है कि इसके अतिरिक्त जिन लोगों के पास अधिक पेड़ हैं और वे पूरा महुआ बीनने में सक्षम नहीं हैं, वे भी महुआ के पेड़ों से वंचित परिवारों को महुआ बीनने की इजाजत दे देते हैं।
इस तरह गांव का प्रत्येक परिवार इस सीजन में कम से कम पांच क्विंटल महुआ इक_ा कर ही लेता है। यादव के अनुसार, अधिकतम संग्रहण की कोई सीमा नहीं हैं। 15-20 सदस्यीय परिवार जंगल और निजी पेड़ों से आसानी से 20 क्विंटल तक महुआ संग्रहित कर करीब एक लाख रुपए तक की आय सृजित कर सकता है।
-शंभूनाथ
रामायण में बाली और सुग्रीव की कथा है। यह कथा आज की लड़ाइयों और बहसों का सामान्य चरित्र स्पष्ट करने के लिए काफी है। बाली से जो भी लड़ता था उसकी आधी ताकत घटकर बाली के पास चली जाती थी। बाली पहले से अधिक बलशाली हो जाता था।
आज बड़े–बड़े नेता और बुद्धिजीवी सांप्रदायिकता से जितना लड़ते हैं, सांप्रदायिकता उतनी मजबूत हो जाती है। वे जाति का प्रश्न जितना उठाते हैं, उच्च वर्णकेंद्रिक जातिवाद पिछड़ी– दलित जातियों को उतनी आसानी से निगल लेता है। स्त्री विमर्श जितना तीखा होता है, महिलाओं की कलश यात्राएं, प्रवचनों में उनकी भीड़ और उनकी धर्म–प्रवणता उतनी बढ़ जाती है। राष्ट्रवाद का जितना विरोध किया जाता है, राष्ट्रवाद उतना अधिक लोकप्रिय हो जाता है। बाजार के खिलाफ जितना बोलते हैं , बाजार की तानाशाही उतनी बढ़ जाती है। इस ’बाली सिंड्रोम’ को समझना चाहिए।
आज धार्मिक कर्मकांड, जातिवाद, पितृसत्तात्मकता, बहिष्कारपरक राष्ट्रवाद आदि ने उन्हें भी अपनी चपेट में ले लिया है जो इसकी चपेट से काफी बचे हुए थे। आज जो विपक्ष में हैं वे सभी कभी सत्ता में रहते हुए इतने ’पाप’ कर चुके हैं कि घड़ा अभी तक खाली नहीं हुआ है!लोगों को उनके अत्याचार और स्वार्थपूर्ति की बातें याद आ जा रही हैं। बाली क्यों न मजबूत हो!
मुख्य विडंबना यह नहीं है कि उधर फुटबॉल की 11 व्यक्तियों की सुगठित टीम है और इधर 11 के 11 खिलाड़ी ही कैप्टन हैं। मुख्य बात यह है कि हमारे देश का संपूर्ण विपक्ष बौद्धिक विकलांगता का शिकार है। वह तोता की तरह रटे हुए अपने उन्हीं पुराने विचारों की दुनिया में है जो अपना तर्क और अपनी जमीन खो चुके हैं। उसके विचारों में प्राण शेष नहीं है और आम जनता से उसके संबंध में दम नहीं है।
यह हाल फिलहाल सभी रंग के लोकतंत्रवादियों, वामपंथियों और विमर्शकारों का है। इन्होंने दुनिया को पाकर भी खो दिया, बल्कि अंतत: जर्जर होकर ऐसे कठोर हाथों में दुनिया को सौंप दिया है जिन्होंने इसमें आज आग लगा रखी है!
-सौत्विक बिस्वास
अमेरिका के लाख चाहने के बावजूद भी भारत शायद ही उससे मक्का खऱीदे।
अमेरिकी वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक ने हाल ही में भारत की व्यापार नीतियों की आलोचना करते हुए यह सवाल उठाया था। उन्होंने भारत के लगाए गए प्रतिबंध पर भी प्रश्न उठाया था।
लुटनिक ने एक साक्षात्कार में भारत पर अमेरिकी कृषि उत्पादों को ब्लॉक करने का आरोप लगाया था। उन्होंने भारत से कृषि बाजार को खोलने का भी अनुरोध किया।
अमेरिका दो अप्रैल से रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ट्रेड वॉर में कृषि एक बड़ा मसला बनने जा रहा है।
टैरिफ अन्य देशों से आने वाली वस्तुओं पर लगाया जाने वाला कर है। ट्रंप ने बार-बार भारत को ‘टैरिफ किंग’ और व्यापार संबंधों का ‘दुरुपयोग’ करने वाला देश करार दिया है।
भारत में अनाज के भंडार
अमेरिका कई सालों से भारत पर कृषि क्षेत्र को व्यापार के लिए खोलने के लिए दबाव बना रहा है।
वो भारत को एक बड़े बाज़ार के रूप में देखता है लेकिन भारत खाद्य सुरक्षा, आजीविका और लाखों किसानों के हित का हवाला देकर इससे बचते रहा है।
जो देश कभी खाद्यान की कमी से जूझता था वो अब अनाज लेकर फल तक एक्सपोर्ट कर रहा है।
1950 और 60 के दशक में भारत अपने नागरिकों को खाना खिलाने के लिए विदेशी खाद्य सहायता पर निर्भर था लेकिन कृषि क्षेत्र में मिली कई सफलताओं ने इस तस्वीर का उलट दिया।
भारत को अब मुख्य खाद्य पदार्थों के लिए विदेशों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। भारत अब दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश भी बन गया है। बागवानी और मुर्गीपालन में भी तेजी से वृद्धि हुई है।
भारत आज न केवल अपने देश के 1।4 अरब लोगों को भोजन उपलब्ध करा रहा है बल्कि विश्व का आठवां सबसे बड़ा कृषि उत्पाद निर्यातक है। भारत दुनिया भर में अनाज, फल और डेयरी प्रोडक्ट्स भी भेज रहा है।
रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर है आधी आबादी
कृषि में इस सफलता के बाद भी भारत उत्पादकता, बुनियादी ढांचे और बाजार में पहुंच के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। दुनिया में दामों के उतार-चढ़ाव और जलवायु परिवर्तन इस चुनौती को और भी बढ़ा देते हैं।
भारत में फसल की पैदावार भी वैश्विक स्तर पर सबसे कम है।
छोटी जोत इस समस्या को और भी बदतर बना देती है। भारतीय किसान औसतन एक हेक्टेयर से भी कम जमीन पर काम करते हैं। वहीं 2020 में अमेरिका में एक किसान के पास 46 हेक्टेयर से अधिक जमीन थी।
भारत में खेती से देश की आधी आबादी करीब 70 करोड़ लोगों का भरण पोषण हो रहा है। यह भारत की रीढ़ बनी हुई है।
खेती भारत के करीब आधे कामगारों को रोजगार देती है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में इसका केवल 15 फीसदी योगदान है। वहीं अमेरिका की दो फीसदी से कम आबादी खेती पर निर्भर है।
मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में सीमित नौकरियों के कारण कम वेतन पाने वाले अधिक लोग खेती के कार्य में लगे हुए हैं।
अमेरिका ने कृषि उत्पादों पर लगाया है औसतन 5।3 फीसदी टैरिफ
कृषि सरप्लस यानी अधिशेष के बावजूद भी भारत अपने किसानों को बचाने के लिए आयात पर शून्य से 150त्न तक टैरिफ लगाता है।
दिल्ली स्थित थिंक टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) के अनुसार, भारत में अमेरिकी कृषि उत्पादों पर लगाया जाने वाला औसत टैरिफ 37.7त्न है, जबकि अमेरिका में भारतीय कृषि उत्पादों पर यह 5।3त्न है।
भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय कृषि व्यापार मात्र 800 करोड़ रुपए का है। भारत मुख्य रूप से चावल, झींगा, शहद, वनस्पति अर्क, अरंडी का तेल और काली मिर्च का निर्यात करता है, जबकि अमेरिका बादाम, अखरोट, पिस्ता, सेब और दालें भेजता है।
दोनों देश एक व्यापार समझौते पर काम कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिका अब भारत के साथ अपने 4500 करोड़ के व्यापार घाटे को कम करने के लिए गेहूं, कपास और मक्के का निर्यात करना चाहता है।
छोटे किसानों को तबाह कर सकती है प्रतिस्पर्धा
दिल्ली स्थित काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट थिंक टैंक के व्यापार विशेषज्ञ विश्वजीत धर कहते हैं, ‘अमेरिका इस बार बेरीज और अन्य सामान निर्यात करने पर विचार नहीं कर रहा है, खेल बहुत बड़ा है।’
विशेषज्ञों का तर्क है कि भारत पर कृषि शुल्क कम करने, समर्थन मूल्य में कटौती करने और आनुवंशिक रूप से संशोधित यानी जीएम फसलों और डेयरी के लिए रास्ता खोलने के? लिए दबाव डालना वैश्विक कृषि में मूलभूत विषमता की अनदेखी करना है।
उदाहरण के लिए, अमेरिका अपने कृषि क्षेत्र को भारी सब्सिडी देता है और फसल बीमा के माध्यम से किसानों को सुरक्षा भी प्रदान करता है।
जीटीआरआई के अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘कुछ मामलों में, अमेरिकी सब्सिडी उत्पादन लागत से 100 फीसदी अधिक है। इससे असमान प्रतिस्पर्धा का माहौल बनता है और यह भारत के छोटे किसानों को तबाह कर सकता है।’
आजीविका बचाने के लिए आयात शुल्क
भारतीय विदेश व्यापार संस्थान में डब्ल्यूटीओ अध्ययन केन्द्र के पूर्व प्रमुख अभिजीत दास कहते हैं, ‘मुख्य बात यह है कि दोनों देशों में कृषि पूरी तरह से अलग है।’
‘अमेरिका में वाणिज्यिक कृषि होती है, जबकि भारत निर्वाहन खेती पर निर्भर है। यह लाखों भारतीयों की आजीविका बनाम अमेरिकी कृषि व्यवसाय के हितों का प्रश्न है।’ भारत की कृषि संबंधी चुनौतियाँ सिफऱ् बाहरी नहीं हैं।
धर कहते हैं कि इस क्षेत्र में चुनौतियों की अपनी वजह है। 90 फीसदी जोत के मालिक छोटे किसानों के पास निवेश की क्षमता नहीं है और निजी क्षेत्र को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है।
भारत के कुल सरकारी बुनियादी ढांचे के निवेश में खेती को छह फीसदी से भी कम निवेश मिलता है। इससे सिंचाई और भंडारण सुविधाओं को कम पैसा मिल पाता है।
सरकार लाखों लोगों की आजीविका को बचाने के लिए गेहूं, चावल और डेयरी जैसी प्रमुख फसलों पर आयात शुल्क लगाती है और समर्थन मूल्य की घोषणा करती है।
कैसे साधा जाए हितों का संतुलन?
चार वर्ष पहले, हजारों किसानों ने मुख्य रूप से गेहूं और चावल जैसे प्रमुख खाद्यान्नों के लिए बेहतर कीमतों और न्यूनतम सरकारी समर्थन मूल्य गारंटी के कानून की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया था।
धर कहते हैं, ‘अपेक्षाकृत समृद्ध किसान जो अपनी बची फसल बेचते हैं, उन्हें भी निकट भविष्य में कोई सुधार नजर नहीं आता और यदि उन्हें ऐसा लगता है, तो जीविका चलाने वाले किसानों की दुर्दशा की कल्पना कीजिए।’
घरेलू असंतोष के अलावा, व्यापार वार्ता जटिलता का एक और स्तर जोड़ती है।
दास कहते हैं कि भारत के लिए वास्तविक चुनौती यह होगी कि ‘अमेरिका के साथ ऐसा समझौता कैसे किया जाए जो कृषि क्षेत्र में अमेरिकी निर्यात और भारत के हितों के बीच संतुलन स्थापित करे।’
तो फिर आगे का रास्ता क्या है?
अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘भारत को अपने कृषि क्षेत्र को खोलने के लिए अमेरिकी दबाव के आगे नहीं झुकना चाहिए। अगर भारत झुका तो लाखों लोगों की रोज़ी रोटी प्रभावित होगी। इससे खाद्य सुरक्षा को खतरा होगा और हमारे बाज़ार सस्ते में बिकने वाले विदेशी अनाज से भर जाएंगे।’
‘भारत को अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए और अपनी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रक्षा करनी चाहिए। व्यापार सहयोग हमारे देश के किसानों, खाद्य संप्रभुता या नीति स्वायत्तता की कीमत पर नहीं होना चाहिए।’
विशेषज्ञों का कहना है कि भविष्य में भारत को अपनी कृषि को आधुनिक बनाना चाहिए ताकि खेती से ज़्यादा मुनाफ़ा हो सके।
-पंकज शर्मा
इस बुधवार लोकसभा में स्पीकर ओम बिरला को प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी का सदन के भीतर अपनी बहन प्रियंका के प्रति स्नेह का थोड़ाअनौपचारिक प्रदर्शन करना इतना खल गया कि उन्होंने हलके गुस्से से पगा तनाव भरा चेहरा लिए फऱमान सुनाया: ‘‘सदन में मेरे संज्ञान में ऐसी कई घटनाएं हैं, जब माननीय सदस्यों के आचरण सदन की उच्च परंपराओं-मापदंडों के अनुरूप नहीं है। इस सदन में पिता-पुत्री, मां-बेटी, पति-पत्नी सदस्य रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मेरी नेता प्रतिपक्ष से यह अपेक्षा है कि लोकसभा प्रक्रिया के पालनीय नियम 349 के अनुसार सदन में आचरण करें, जो सदन की मर्यादा और प्रतिष्ठा के अनुरूप रहना चाहिए। मैं पुन: आग्रह करता हूं कि सदन में विशेष रूप से प्रतिपक्ष के नेता से तो यह अपेक्षा की जाती है कि उचित आचरण रखें।’’ यह कहने के फ़ौरन बाद स्पीकर ने राहुल को कुछ कहने का मौक़ा दिए बिना सदन की कार्यवाही दो बजे तक के लिए स्थगित कर दी।
-दीपक मंडल
साल 1996 का वक्त। बनारस के रहने वाले श्याम सुंदर दुबे ने दिल्ली आकर केंद्र सरकार के मंत्रालय में अपनी नई नौकरी शुरू की थी। नए कर्मचारियों के उस बैच में झारखंड की सुनीता कुशवाहा भी थीं।
दोनों की नजदीकियां बढ़ीं और साल भर बाद उन्होंने शादी करने का फैसला किया। लेकिन न तो श्याम सुंदर और न ही सुनीता के घरवाले इस अंतरजातीय शादी को मंजूरी देने के लिए तैयार थे।
दुबे के घरवालों को ये मंजूर नहीं था कि ओबीसी समुदाय की कोई लडक़ी उनके परिवार में आए।
सुनीता के माता-पिता की नजर भी कुशवाहा समुदाय के एक ‘अच्छे लडक़े’ पर थी।
परिवार वालों की रज़ामंदी न मिलने पर श्याम सुंदर और सुनीता ने दिल्ली में कोर्ट मैरिज की।
दोनों के परिवारों ने वर्षों के बहिष्कार के बाद उन्हें स्वीकार किया।
दिल्ली में रह रहीं पत्रकार पूजा श्रीवास्तव ने भी जब 2013 में अपने सहकर्मी पवित्र मिश्रा के साथ शादी करने का फैसला किया तो दोनों के परिवार में इसका विरोध हुआ।
दोनों भारतीय समाज में ऊंची मानी जाने वाली जातियों से ताल्लुक रखते हैं।
लेकिन उनका परिवार इस अंतरजातीय प्रेम विवाह को सहमति देने के लिए तैयार नहीं था।
परिवार की मंजूरी न मिलने पर इस पत्रकार जोड़े को भी अदालत में शादी करनी पड़ी।
शादी की दीवारें
हल्द्वानी में वो जिस मोहल्ले में रहते हैं वहां ज्यादातर भट्ट (ब्राह्मण) लोग ही हैं। उनमें रिश्तेदारियां हैं।
संजय भट्ट का एक अनसूचित जाति की लडक़ी से शादी करना उन परिवारों में चर्चा का विषय बन गया।
2016 में जब संजय ने कीर्ति से शादी करने का फैसला किया तो उनके रिश्तेदारों ने उनके माता-पिता पर इस बात का दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वो अपने बेटे को समझाएं।
संजय अपने फैसले को बदलने को तैयार नहीं थे और उनके माता-पिता को ये मंजूर नहीं था।
संजय ने कीर्ति से आर्य समाज मंदिर में शादी की। उस दौरान दोनों का कोई रिश्तेदार वहां मौजूद नहीं था।
शादी के बाद संजय को शहर में ही दूसरी जगह मकान तलाशना पड़ा।
सात साल बाद जब संजय और कीर्ति एक बच्चे के पैरेंट बने तब जाकर संजय के घरवालों से उनका बोलचाल शुरू हुआ।
ये तीनों कहानियां बताती हैं कि भारतीय समाज में अंतरजातीय शादियों को परिवार की मंजूरी मिलना अभी भी कितना मुश्किल है।
अंतरजातीय शादियों की कछुआ चाल
शहरीकरण, महिलाओं की शिक्षा, वर्किंग प्लेस में उनकी बढ़ती मौज़ूदगी के साथ महिला-पुरुषों के मिलने-जुलने के मौके बढऩे के बावज़ूद भारत में अंतरजातीय शादियां अभी भी काफी कम हैं।
देश में अंतर-जातीय शादियों को लेकर कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है। क्योंकि केंद्र ने सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना में से जाति का आंकड़ा जारी नहीं किया है।
लेकिन सैंपल सर्वे के आधार पर किए गए अध्ययनों से ये साफ है कि भारतीय परिवारों में अंतरजातीय शादियों का विरोध काफी ज्य़ादा है।
2014 के एक सर्वे के मुताबिक़ उस समय तक भारत में सिर्फ पांच फ़ीसदी शादियां अंतरजातीय थीं।
2018 में अंतरजातीय शादियों के बारे में जानकारी जुटाने के लिए 1,60,000 परिवारों का सर्वे किया गया था। सर्वे के नतीजे बताते हैं कि 93 फ़ीसदी लोगों ने परिवारों की ओर से तय शादियां की थी। सिर्फ 3 फ़ीसदी ने प्रेम विवाह किया था।
सिर्फ दो फ़ीसदी प्रेम विवाहों को परिवार की मंजूरी मिल सकी थी।
भारत में बहुसंख्यक हिंदू परिवारों में ज्य़ादातर 'अरैंज्ड मैरिज’ (परिवार की ओर से तय) एक ही जातियों की भीतर होती हैं।
इस सर्वे के मुताबिक़ कई दशकों के बाद भी अंतरजातीय शादियों को मंजूरी मिलने की दर बेहद कम है।
2018 में हुए इस सर्वे में जिन बुजुर्गों से बात की गई ( अस्सी वर्ष की उम्र वालों से) उनमें 94 फ़ीसदी ने अपनी ही जाति में शादी की थी।
इसके मुताबिक़ 21 की उम्र या इससे बाद में शादी करने वालों में 90 फ़ीसदी ने अपनी ही जाति के युवक या युवती से शादी की थी।
यानी इतने दशकों के अंतराल के बाद अपनी ही जाति में शादी करने वालों का आंकड़ा सिर्फ चार फ़ीसदी कम हुआ था।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 के 2005-06 के आंकड़ों के आधार पर किए गए अध्ययन के मुताबिक़ भारत में सभी धर्मों और समुदायों के बीच अंतरजातीय शादियों का आंकड़ा 11 फ़ीसदी था।
इसके तहत जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मेघालय और तमिलनाडु में जिन लोगों का सर्वे किया गया था उनमें 95 फ़ीसदी लोगों ने कहा था कि उनकी शादी जाति के भीतर हुई है।
पंजाब, गोवा, केरल में स्थिति थोड़ी बेहतर थी। वहां 80 फ़ीसदी लोगों ने कहा था कि उन्होंने अपनी जाति में शादी की।
इंडियन स्टेटस्टिकल्स इंस्टीट्यूट के रिसर्चरों ने इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे और नेशनल सैंपल सर्वे 2011-12 के आंकड़ों का हवाला देते हुए 2017 के एक पेपर में दिखाया था कि लोगों के पढ़े-लिखे होने के बावज़ूद भारतीय समाज में जाति बंधन कम नहीं हुआ है। ज्यादातर लोग जाति के अंदर शादी करने को प्राथमिकता देते हैं।
2016-17 में भी दिल्ली और उत्तर प्रदेश में किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि उच्च शिक्षित और कम शिक्षित या गैर साक्षर लोगों के बीच अंतरजातीय या अंतर धार्मिक शादियों का विरोध लगभग समान था।
इस सर्वे में जिन लोगों से सवाल पूछे गए थे उनमें हर जाति, समुदाय और धर्म के लोग शामिल थे।
अड़चनें कहां हैं ?
अंतरजातीय और अंतर धार्मिक शादी करने पर परिवार में असुरक्षा या हिंसा का सामना करने वाले जोड़ों को सुरक्षा देने और लैंगिक समानता के लिए काम करने वाले एनजीओ ‘धनक’ के को-फाउंडर आसिफ़ इक़बाल का कहना है कि अंतरजातीय प्रेम विवाहों के लेकर परिवार के अंदर अभी भी हालात आसान नहीं है।
‘धनक’ के पास अक्सर ऐसे अंतरजातीय और अंतर धार्मिक जोड़े आते हैं, जिनकी शादियों का उनके परिवार या समुदाय में विरोध हो रहा होता है।
आसिफ़ कहते हैं, ‘भारतीय परिवारों के अंदर अभी भी अंतरजातीय शादियों को मंजूरी की दर ज्यादा नहीं है। इसके बजाय ऐसी शादी करने वालों जोड़ों के लिए परिवार के बाहर स्थिति ज्यादा आसान है। क्योंकि राज्य उन्हें सुरक्षा देता है। शादी का सर्टिफिकेट मिलते ही पुलिस और अदालत उनकी हिफ़ाजत के लिए आगे आ जाती है।’
वो कहते हैं, ‘गांवों में अंतरजातीय शादियों को लेकर हिंसा और विवाद ज्यादा दिखते हैं। शहरों में हिंसा की स्थिति नहीं दिखती। क्योंकि अंतरजातीय शादियों को राज्य और अदालतों की ओर से संरक्षण हासिल है। हालांकि शहरों में भी परिवारों के अंदर अंतरजातीय और अंतर धार्मिक शादियों की स्वीकार्यता बहुत कम है।’
विवेक कुमार दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं।
वो अंतरजातीय शादियों की संख्या धीमी होने पर अचरज नहीं जताते। उनका मानना है कि इसकी जड़ें भारतीय समाज की संरचना में है।
विवेक कुमार कहते हैं कि भारत में पांच-सात फ़ीसदी अंतरजातीय विवाह भी हो रहे हैं तो ये यहां की आबादी के हिसाब से बहुत बड़ी संख्या है। हालांकि ऐसी शादियों के बढऩे की रफ़्तार धीमी है।
वो कहते हैं, ‘भारत में अभी भी 68 फ़ीसदी आबादी गांवों में रहती है। अभी तक एक ही गांव में रहने वाले युवक-युवतियों के बीच भाई-बहन का रिश्ता मानने की परंपरा चली आ रही है, चाहे वो किसी भी जाति के क्यों न हों। भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं में भाई-बहन के बीच शादियां नहीं होती है। इसलिए अंतरजातीय विवाह कम हैं।’
विवेक कुमार का मानना है कि यूनिवर्सिटी में लड़कियों की संख्या कम होने से भी अंतरजातीय शादियां कम दिख रही हैं। उच्च शिक्षा संस्थानों में लडक़े-लड़कियां साथ पढ़ते हैं। जैसे-जैसे यहां लड़कियों की संख्या बढ़ेगी अंतरजातीय विवाह ज्यादा होंगे।
वो ये भी कहते हैं कि भारत में लड़कियों की तुलना में लडक़ों के विचार ज्यादा परंपरावादी हैं और अभी भी वो पितृसत्ता के बंधन में बंधे हैं और दहेज लेकर शादी करना पसंद करते हैं।
उनका कहना है कि चूंकि परिवार की ओर से तय अंतरजातीय शादियों में वर पक्ष को दहेज मिलता है इसलिए माता-पिता बेटे की मर्जी से होने वाली अंतरजातीय शादियों का विरोध करते हैं। क्योंकि ऐसी शादियों में दहेज मिलने की संभावना कम हो जाती है।
यहां भी हैं मुश्किलें
भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ मुस्लिम, सिख और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक समुदायों में भी जाति विभाजन है।
इस्लाम सैद्धांतिक तौर पर सभी मुसलमानों को बराबर मानता है लेकिन भारतीय मुस्लिमों में भी अंतरजातीय शादियां को परिवारवालों की मंजूरी की दर काफी कम है। देश में पसमांदा (पिछड़े) और दलित मुसलमानों के हकों के लिए लंबा आंदोलन करने वाले राजनीतिक नेता और सामाजिक कार्यकर्ता अली अनवर कहते हैं कि इस्लाम के मुताबिक़ सभी मुसलमान बराबर हैं। लेकिन भारत में मुस्लिमों में जातिगत भेदभाव मौजूद है।
अनवर कहते हैं कि मुसलमानों में ऊंची जातियों यानी अशराफ़ और अजलाफ़ (पसमांदा यानी पिछड़े) अरजाल जातियों (दलित मुसलमान) के युवक-युवतियों की आपस में शादियां बहुत कम देखने को मिलती है।
वो कहते हैं कि मुस्लिमों की 20 से 25 करोड़ (अनुमानित) आबादी में ऐसी शादियां इतनी कम हैं कि इसे नगण्य मानना चाहिए।
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा,‘पांच-छह दशक पहले तो भारतीय मुसलमानों में इस तरह की शादियां बहुत कम दिखती थीं। लेकिन पिछले 20-30 साल से मुसलमानों में ऐसी अंतरजातीय शादियां दिखने लगी हैं, जिन्हें परिवारों की मंजूरी मिल रही है।’
हालांकि इसमें एक पेंच है। अनवर कहते हैं, ‘मुसलमानों में ऊंची जाति के माने जाने वाले लोग अपनी बेटियों की शादियां पिछड़ी जातियों (पसमांदा) के ऐसे मुसलमान युवकों से कराने के लिए तैयार दिखते हैं जो ऊंचे सरकारी ओहदे या बढिय़ा कारोबार वाला हो। लेकिन बहू लाने के वक़्त वो ऊंची जातियों के मुसलमान परिवारों को ही प्राथमिकता देते हैं। ऐसे लोग बहू लाते वक़्त वंशावली खोजने लगते हैं। कहते हैं कि पिछड़ी जाति से बहू लाकर क्या ख़ानदान की ‘हड्डी’ खऱाब करोगे।’
अली अनवर कहते हैं,‘मुसलमानों में अशराफ़ और अजलाफ़ के बीच तो छोड़ ही दीजिए अजलाफ़ और अरजाल यानी दलित मुस्लिमों के बीच भी विवाह संबंध बहुत ही कम हैं। ऐसी शादियों को बढ़ावा देने के लिए हमने पसमांदा आंदोलन के तहत पहल की थी लेकिन हालात ज्यादा बदले नहीं हैं।’
गांधी, आंबेडकर और लोहिया से मिला था बढ़ावा
भारत में लंबे समय से अंतरजातीय शादियों की वकालत की जाती रही है।
ऐसी शादियों को जातियों में बंटे भारतीय समाज में समरसता लाने का अहम औजार समझा गया।
महात्मा गांधी ने शुरुआती हिचकिचाहट के बाद अंतरजातीय शादियों की जरूरत समझी और वो इनका समर्थन करने लगे थे। वो इसे अपने अस्पृश्यता निवारण (छुआछूत विरोध) कार्यक्रम की सफलता के लिए जरूरी समझते थे। बाद में उन्होंने ये कहना शुरू किया कि वो उसी शादी समारोह में हिस्सा लेंगे जिसमें वर या वधू में से एक हरिजन हो।
भारत में दलितों के बड़े नेता बीआर आंबेडकर ने अंतरजातीय शादियों की जमकर वकालत की। उन्होंने अपने प्रसिद्ध भाषण ( जो उन्हें देने नहीं दिया गया था। बाद में ये पुस्तिका के तौर पर छपा) ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में कहा था कि जाति तोडऩे की असली दवा अंतरजातीय शादियां हैं।
आंबेडकर का मानना था कि भारतीय समाज में जातियों के बीच रोटी-बेटी का संबंध कायम होने से एकता बढ़ेगी।
मशहूर समाजवादी नेता और राजनीतिक चिंतक राममनोहर लोहिया का कहना था कि भारत में जाति के बंधनों को कमजोर करने के लिए अलग-अलग जातियों के बीच ‘रोटी-बेटी’ का संबंध बेहद जरूरी है।
उन्होंने सुझाव दिया था कि सरकारी कर्मचारियों के लिए अंतरजातीय शादी अनिवार्य बना देना चाहिए।
1970 के दशक में सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान अंतरजातीय शादियों और उपनाम (जाति सूचक) न लगाने का चलन काफ़ी बढ़ा।
इस आंदोलन में शामिल बड़ी तादाद में युवक-युवतियों ने जाति के बाहर शादी की और उपनाम लगाना छोड़ दिया।
लेकिन इसके बाद देश के राजनीतिक आंदोलनों में इस तरह के सामाजिक सुधारों की वकालत कम दिखी।
माना गया कि बढ़ता शहरीकरण, औद्योगीकरण और शिक्षा का प्रसार खुद-ब-खुद जाति के बंधनों को तोड़ देगा। लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है।
भारतीय अख़बारों में छपने वाले मेट्रोमोनियल्स यानी शादी के लिए दिए जाने वाले विज्ञापनों में बाकायदा जातियों के कॉलम होते हैं। ये ‘जाति बंधन नहीं’ वाले कॉलम से बहुत बड़े होते हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और दलित महिलाओं के संघर्ष को अपनी कविताओं का विषय बनाने वाली कवियित्री अनिता भारती ने अंतरजातीय शादियां कम होने की वजहों पर बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘भारत में जाति व्यवस्था थोड़ी ढीली पड़ी है लेकिन अभी भी अंतरजातीय शादियों को ज्यादा प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है। समाज में इसका सपोर्ट सिस्टम नहीं है।’
वो कहती हैं, ‘ हम अपने आसपास देखते हैं कि अंतरजातीय शादी करने वाले लोगों को संघर्ष करना पड़ता है। कई जोड़ों को अपने माता-पिता को मनाने में वर्षों लग जाते हैं और कइयों को उनकी मर्जी के खिलाफ शादी करनी पड़ती है। दरअसल हम जब तक जाति व्यवस्था के बंधनों को नहीं तोड़ेंगे ऐसी दिक्कतें बनी रहेंगीं। मैं तो कहूंगी कि अंतरजातीय ही नहीं अंतर धार्मिक शादियों को भी बढ़ावा मिले तभी भारत एक खूबसूरत समाज वाला देश बनेगा।’
अख़बार में छपा मेट्रोमोनियल्स
भारत में अंतरजातीय शादियों को प्रोत्साहन देने के लिए मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2006 में अंतरजातीय शादी करने वाले जोड़ों को 50 हजार रुपये देने की स्कीम शुरू की थी।
2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने डॉक्टर आंबेडकर फाउंडेशन के ज़रिये ऐसे जोड़ों के लिए ये राशि बढ़ा कर ढाई लाख रुपये कर दी थी।
इस स्कीम की शर्त थी कि शादी करने वाले जोड़े में से कोई एक ( वर या वधू) दलित हो।
शुरू में इस स्कीम के तहत हर साल 500 जोड़ों को ये राशि देने का लक्ष्य रखा गया था।
लेकिन 2014-15 में सिर्फ पांच जोड़ों को ये राशि मिली। 2015-16 में सिर्फ 72 जोड़ों को ये रकम मिली। जबकि 522 जोड़ों ने आवेदन किया था।
2016-17 में 736 आवेदनों में सिर्फ 45 मंजूर हुए। वहीं 2017-18 में 409 आवेदनों में से सिर्फ 74 मंजूर हुए।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
आज देश में जनता का एक बड़ा हिस्सा व्रत की उन्मादना में डूबा है। इस प्रसंग में मुझे अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध निबंध ‘बांगलार व्रत ’ का ध्यान आ रहा है, इस प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने लिखा है- व्रत मात्र एक इच्छा है। इसे हम चित्रों में देखते हैं : यह गान और पद्य में प्रतिध्वनित होती है, नाटकों और नृत्यों में इसकी प्रतिक्रिया दिखाई देती है। संक्षेप में व्रत केवल वे इच्छाएं हैं जिन्हें हम गीतों और चित्रों में चलते-फिरते सजीव रूपों में देखते हैं।’’ जो लोग सोचते हैं कि व्रत-उपवास का संबंध धर्म से है ,धार्मिक क्रिया से है,वे गलत सोचते हैं। अवनीन्द्रनाथ ने साफ लिखा है ‘‘व्रत न तो प्रार्थना है न ही देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयत्न है।’’
दर्शनशास्त्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘‘व्रत में निहित उद्देश्य अनिवार्यत: क्रियात्मक उद्देश्य होता है। इसका उद्देश्य देवी देवताओं के समक्ष दंडवत करके किसी वर की याचना करना नहीं है। बल्कि इसके पीछे दृष्टिकोण यह है कि कुछ निश्चित कर्म करके अपनी इच्छा पूर्ण की जाए। वास्तव में परलोक या स्वर्ग का विचार व्रतों से कतई जुड़ा हुआ नहीं है। ’’
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने साफ लिखा है व्रत-उपवास को धार्मिकता के आवरण में कुछ स्वार्थी तत्वों ने बाद में लपेटा था। अवनीन्द्रनाथ मानते हैं व्रत ‘‘संगीत के साथ समस्वर है।’’
व्रत की एक विशेषता यह है कि समान इच्छा को लेकर इसे अनेक लोगों को सामूहिक रूप में रखना होता है। यदि किसी व्यक्ति की कोई निजी इच्छा है और वह इसकी पूर्ति के लिए कोई कार्य करता तो इसे व्रत नहीं कहा जाएगा। यह केवल तभी व्रत बनता है जब एक ही परिणाम की प्राप्ति के लिए कई व्यक्ति मिलकर आपस में सहयोग करें।
अवनीन्द्रनाथ ने लिखा है ‘‘किसी व्यक्ति के लिए नृत्य करना संभव हो सकता है किंतु अभिनय करना नहीं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के लिए प्रार्थना करना और देवताओं को संतुष्ट करना संभव हो सकता है, किंतु व्रत करना नहीं। प्रार्थना और व्रत दोनों का लक्ष्य इच्छाओं की पूर्ति है, प्रार्थना केवल एक व्यक्ति करता है और अंत में यही याचना करता है कि उसकी इच्छा पूरी हो। व्रत अनिवार्यत:सामूहिक अनुष्ठान होता है और इसके परिणामस्वरूप वास्तव में इच्छा पूर्ण होती है।’’
-रेचल हेगन
म्यांमार और थाईलैंड में भूकंप के बाद वहां के लोग सहमे हुए हैं। भूकंप का ख़ौफ और सदमा उनकी बातों से साफ झलक रहा है।
शुक्रवार को म्यांमार में आए 7।7 तीव्रता के भूकंप ने दोनों देशों में कई इमारतों को ध्वस्त कर दिया। म्यांमार में कम से कम 144 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है और सैकड़ों लोग घायल हैं।
म्यांमार के सबसे बड़े शहर यंगून में रहने वाले एक शख़्स ने बीबीसी को कहा कि भूकंप के झटके काफी तेज थे और लगभग चार मिनट तक ये जारी रहे।
बीबीसी वर्ल्ड सर्विसेज के न्यूजड़े प्रोग्राम को इस शख़्स ने बताया कि वो हल्की नींद लेकर उठे ही थे कि बिल्डिंग बुरी तरह कांपने लगी।
उन्होंने बताया,‘भूकंप के झटके तीन-से चार मिनट तक लगते रहे। मुझे अपने दूसरे दोस्तों से लगातार मैसेज मिल रहे थे। तब मुझे लगा कि सिर्फ यंगून में ही भूकंप नहीं आया। देश के दूसरे हिस्सों में भी भूकंप के झटके महसूस किए जा रहे हैं।’
म्यांमार के साथ ही थाईलैंड और चीन में भी भूकंप के झटके महसूस किए गए। भूकंप के तेज़ झटकों की वजह से थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में एक 30 मंजिला इमारत गिर गई और यहां काम करने वाले 43 मजदूर मलबे में फंस गए।
इमारतों के हिलने से लोग बुरी तरह डर गए और सडक़ों की ओर भागे। कई इमारतों के रूफटॉप पर बने स्वीमिंग पूल का पानी सडक़ों पर बहता दिखा।
‘ऐसा लगा कि हम पर पत्थर बरस रहे हैं’
बैंकॉक में रहने वाली सिरिन्या नकुता ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि वो अपने बच्चों के साथ अपने अपार्टमेंट में थीं। उन्होंने कहा, '' पहले तेज झटका आया फिर जमीन बुरी तरह हिलने लगी। मैंने सीढिय़ों से चीजों के गिरने की तेज आवाजें सुनीं। ऐसा लगा कि हम पर पत्थर बरस रहे हैं। मैंने अपने बच्चों को जल्दी से निकलने को कहा और हम ऊपर से तेजी से दौडक़र बाहर निकल आए।’
थाईलैंड में बांग सुई जिले के डिप्टी पुलिस चीफ वोरापत सुख़ताई ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि एक टॉवर ब्लॉक गिर गया था और उन्हें लोगों के चीखने की आवाज़ें सुनाई पड़ रही थी।
उन्होंने बताया, '' जब मैं वहां पहुंचा तो लोग मदद के लिए चिल्ला रहे थे। लोग जोर-जोर से चिल्ला कर कह रहे थे मदद कीजिए, मदद कीजिए। हमारा अनुमान है कि भूकंप में सैकड़ों लोग घायल हुए होंगे। लेकिन हम अभी भी ऐसे लोगों की संख्या के बारे में पता कर रहे हैं।''
भूकंप से जितनी भारी तबाही हुई उसे देखते हुए नेपीडॉ जनरल अस्पताल को 'मास कैजुअल्टी एरिया' घोषित कर दिया गया है।
वहां कई लोग अस्पताल के बाहर स्ट्रेचर पर लेटे देखे गए। कई लोगों को स्लाइन चढ़ाई जा रही थी।
सैन्य शासन ने की अंतरराष्ट्रीय मदद की अपील
म्यांमार में 2021 से ही सैन्य शासन है। सैन्य शासन ने अंतरराष्ट्रीय मदद की अपील की है।
सैन्य शासन आमतौर पर ऐसी अपील नहीं करता है। उसने देश के सभी छह इलाकों में इमरजेंसी की घोषित कर दी है।
सैन्य शासन प्रमुख मिन ऑन्ग हल्येंग को नेपीडॉ अस्पताल का दौरा करते देखा गया। उन्होंने विदेश से मदद की अपील की है।
उन्होंने कहा, ‘हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय से जितना संभव हो सके मदद की उम्मीद रख रहे हैं।’
सैन्य शासन वाले म्यांमार से सूचनाएं मिलने में दिक्कतें आती हैं। यहां इंटरनेट का इस्तेमाल सीमित कर दिया गया है। कम्यूनिकेशन लाइनें बंद लग रही हैं।
इस वजह से बीबीसी का ज़मीन पर काम कर रही सहायता एजेंसियों से संपर्क नहीं हो पाया है।
थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में मेट्रो और रेल सर्विस रोक दी गई है। वहां की रहने वाली सुज़सान्ना वारी-कोवेक्स ने बताया, ‘मैं रेस्तरां में बैठकर बिल का इंतजार कर रही थी तभी अचानक जमीन हिलने लगी। पहले तो लगा कि सिर्फ मुझे ही ऐसा महसूस हो रहा है लेकिन तभी मैंने देखा कि हर कोई अपने चारों ओर देख रहा है। हम तुरंत वहां से भागे।’
एक दूसरी महिला देवोरा पनमैस ने बताया कि वो अपना फोन चेक कर रही थी तभी अपनी कुर्सी पलट गई।
उन्होंने कहा, ‘ मैं अपने रीक्लाइनर में थी लेकिन अचानक ये तेजी से हिलने लगी। इसके बाद ये पलट गई और मेरा सिर मेज से टकरा गया।’
म्यांमार में इमारतें भरभरा कर गिर रही थीं
बैंकॉक में रह रहीं बीबीसी पत्रकार बुई थु ने कहा कि देश में इतना बड़ा भूकंप कम से कम पिछले एक दशक में नहीं आया था।
म्यांमार के दूसरे बड़े शहर मांडले से आ रही सोशल मीडिया तस्वीरों में इमारतें गिरती दिख रही हैं।
इसमें ऐतिहासिक रॉयल पैलेस का हिस्सा भी था। 90 साल पुरानी ये इमारत गिरती दिख रही है। इस शहर को यंगून से जोडऩे वाली मुख्य मार्ग का एक हिस्सा पूरी तरह फट गया है।
अमेरिका के जियोलॉजिक सर्वे ने रेड अलर्ट जारी करते हुए कहा है कि भूकंप से बड़ी तादाद में लोग हताहत हो सकते हैं। इससे भारी ताबही की आशंका है।
अभी तक ये पता नहीं चल पाया है कि कितने लोगों की मौत हुई है। लेकिन अमेरिकी जियोलॉजिकल सर्वे ने कहा कि हजारों लोगों की मौत की आशंका है।