विचार / लेख

ऐसे में क्या फैसला लेगा 'हंस' परिवार?
30-Jul-2025 10:10 PM
ऐसे में क्या फैसला लेगा 'हंस' परिवार?

-शालिनी श्रीनेत

क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?

मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानी 'पंच परमेश्वर' की एक लाइन है।

'हंस' के कार्यक्रम में एक ऐसे व्यक्ति को पैनल में रखा गया है जिस पर एक स्त्री ने आरोप लगाया है कि वह उसके साथ प्रेम में रहते हुए हिंसा करते थे।

कैंपेन Metoo में भी एक लड़की ने उन पर आरोप लगाया। पर उनके बचाव में कुछ लोग आ गये और उन पर कार्रवाई से बचा लिए।

क्या 'हंस' के संचालकों को मालूम नहीं था कि इस व्यक्ति पर आरोप है, एक केस भी चल रहा है मीनाक्षी ने केस भी किया है। मीनाक्षी ने मेरा रंग को मेल करके संजय राजौरा के दुर्व्यवहार और हिंसा की डिटेल दी है।

मीनाक्षी का कहना है कि 27 जुलाई को हंस के पेज पर पोस्टर शेयर हुआ और 28 जुलाई को मीनाक्षी ने देखा और 'हंस' के पदाधिकारियों से शिकायत दर्ज की तो उन लोगों ने कहा कि अब तो कार्यक्रम बहुत पास है कुछ नहीं कर सकते, पहले पता होता तो सोचते...

क्या स्त्री होते हुए भी स्त्री का दर्द समझने और फैसला लेने में इतनी लापरवाही कि पहले पता होता तो कुछ सोचते,अरे जब पता चल गया तभी क्यों नहीं सोचना?

'हंस' के पदाधिकारियों से मेरा सवाल है कि किसी भी कार्यक्रम में पैनल का सलेक्शन करते समय क्या मापदंड होता है?

मीनाक्षी का कहना है कि कार्यक्रम की संचालक स्त्रीवादी शीबा असलम फहमी को सब कुछ मालूम है । तो मेरा सवाल शीबा असलम जी से भी है कि उन्होंने इस पैनल में आने से इनकार क्यों नहीं किया?

मीनाक्षी का कहना है कि संजय राजौरा का हंस से कोई सम्बन्ध नहीं, कोई लेखक तो हैं नहीं कि 'हंस' में छपते रहे हों। पैनल के लिए उनका नाम शीबा असलम फहमी ने दिया है।

हंस की डायरेक्टर भी महिला हैं और प्रेमचंद जयंती पर होने वाले कार्यक्रम की संचालक भी महिला हैं।

पूरी घटना से अवगत होने के बाद भी पैनल में लिया गया है। ऐसी कौन सी मजबूरी लगी है कि जिस व्यक्ति पर आरोप है वहीं पैनल में हो। अच्छे काम करने वालों की कमी है जो इस व्यक्ति को इतना सम्मान दिया जा रहा है?

कहना तो नहीं चाहिए लेकिन इधर लगातार ऐसे लोगों का सहयोग है, हंस को जो तमाम तरह के विवाद में हैं।एक ऐसे सज्जन का सहयोग जो अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार और तमाम कम उम्र की लड़कियों के साथ अभद्रता कर चुके हैं Metoo में नाम आते आते रह गया।

आम जनता को सब मालूम है 'हंस' परिवार को कैसे नहीं मालूम?

क्या 'हंस' को अपनी प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं है?

ऐसे बहुत से सवाल हैं।

कल ही कार्यक्रम है और आज सवालों के घेरे में, ऐसे में क्या फैसला लेगा हंस परिवार?

क्या स्त्री होने के नाते कुछ न्याय संगत फैसला कर पायेंगी? क्योंकि सवाल एक स्त्री की गरिमा और उस पर हुई हिंसा का है।

उम्मीद है 'हंस' पत्रिका संज्ञान लेगी

-मीनाक्षी झा

'हंस' का सालाना उत्सव हो रहा है इस अवसर पर मैं अपनी बात कहना चाहूँगी। हंस पत्रिका की परंपरा रही है कि उसने स्त्री अधिकारों, स्वतंत्रा और सुरक्षा को लेकर हमेशा आवाज़ बुलंद की है। मेरा हंस पढ़ना वैसा नियमित नहीं रहा लेकिन इसकी प्रक्रिया, कुछ चर्चित लेख आदि से वास्ता तो रहा ही।

अब वह बात जिसकी वज़ह से मैं पोस्ट लिख रही हूँ। हंस ने अपने आयोजन में संजय राजौरा को एक वक्ता के रूप में बुलाया है। एक पत्रिका जिसकी ऐसी शानदार परंपरा रही है वह ऐसे व्यक्ति को कैसे बुला सकती है जिसने अपनी प्रेमिका पर हमले किए और उस बाबत जिस पुरुष पर अदालत में केस चल रहा हो ?

कहना न होगा कि वह स्त्री मैं हूँ

संजय साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ बोलता है इसी से उसकी क्रांतिकारिता सिद्ध करने वाले लोग, उससे मदद लिए हुए लोग और ऊँची जगह पर पहुँचे हुए उसके यार दोस्त सब उसके हैं और उसके इस अपराध को देखकर भी नजरअंदाज कर रहे हैं। ऐसे लोगों से मुझे कोई शिकायत भी नहीं है, उपकृत हुए लोग उसके साथ खड़े होंगे ही। लेकिन हंस को उसे वक्ता बनाना बहुत अखरने वाली बात है।

संजय का अपराध ऐसा समझिए कि मैं उसके घर से अपनी जान बचाकर भागी। वह मेरे साथ प्रेम में रहते हुए कई अन्य स्त्रियों से संबंध में था। इस धोखे को छोड़ भी दूँ तो अपने ऊपर हुए हमलों को कैसे भूल जाउँ। ये बातें कहकर मैं भावुक नहीं करना चाहती लेकिन जो उसके अपराध को जानना चाहते हैं उनके लिए सूत्र छोड़ रही हूँ। मेरी वॉल पर पूर्व में किए गए ऐसे पोस्ट हैं जिन्हें देखा जा सकता है।

उम्मीद है मेरी बात आगे तक जाएगी और हंस पत्रिका संज्ञान लेगी।


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