संपादकीय
देश के एक सबसे चर्चित मामले, गुजरात दंगों के दौरान एक मुस्लिम गर्भवती युवती बिल्किस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार करने वाले, और उसकी छोटी सी बच्ची सहित परिवार के सात लोगों का कत्ल करने वाले 11 मुजरिमों को गुजरात सरकार ने उम्रकैद से छूट देकर रिहा कर दिया था, उसे सुप्रीम कोर्ट ने आज खारिज कर दिया है। रिहाई का यह फैसला गुजरात की भाजपा सरकार ने केन्द्र सरकार के साथ सहमति से लिया था, और पिछले बरस स्वतंत्रता दिवस पर कई हत्याओं और सामूहिक बलात्कार में उम्रकैद पाए हुए इन 11 लोगों को रिहा कर दिया गया था, जिनका जेल से छूटते ही स्वागत किया गया था, और ये लोग भाजपा के सांसद, विधायक के साथ मंच पर भी दिख रहे थे। बिल्किस बानो और उनके परिवार ने वक्त के पहले सरकार द्वारा की गई इस रिहाई को अदालत में चुनौती दी थी, और अब सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार का फैसला खारिज किया है। गुजरात दंगों के दौरान के इस गैंगरेप-हत्याओं के मामले की सुनवाई गुजरात के बाहर करनी पड़ी थी क्योंकि बिल्किस बानो को जान से मारने की धमकी मिल रही थी, और महाराष्ट्र में एक विशेष अदालत ने इन लोगों को उम्रकैद सुनाई थी जिसमें इन मुजरिमों ने बिल्किस की बेटी को भी जमीन पर पटककर मार डाला था।
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी.वी.नागरत्ना, और जस्टिस उज्जवल भुइयां की बेंच में अगस्त में इसकी सुनवाई चालू हुई थी, और आज इसका फैसला आया है। इस रिहाई को लेकर पूरे देश में लोग हक्का-बक्का थे, और बिल्किस बानो के अलावा भी कई दूसरे लोगों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की थीं। अगर हिन्दुस्तान के इंसाफ के सिलसिले को देखें, तो 2002 से बिल्किस बानो और उसके परिवार पर हुए इस भयानक जुर्म की अदालती लड़ाई लडऩा उसके लिए कभी आसान नहीं रहा, बार-बार उसे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक दौड़ लगानी पड़ी, और जरा भी कम हौसले वाले इंसान इतने में तो थककर घर बैठ चुके रहते। लेकिन अपने खिलाफ पूरी तरह बागी तेवरों वाली गुजरात की भाजपा सरकार के रूख को झेलते हुए भी बिल्किस बानो की अदालती लड़ाई का यह 20वां बरस चल रहा है, और अपनी उम्र का आधा हिस्सा वह इंसाफ मांगते गुजार चुकी है। पांच महीने की गर्भवती, 21 बरस की बिल्किस अपनी एक बच्ची और परिवार के आधा दर्जन दूसरे लोगों को खोने के बाद भी जिस तरह लगातार इंसाफ मांग रही है, यह अपने आपमें एक असाधारण और ऐतिहासिक हौसले का मामला है, और सुप्रीम कोर्ट को यह भी सोचना चाहिए कि जिन लोगों की जिंदगी का इतना बड़ा हिस्सा इंसाफ मांगते खत्म हो जाता है, उन लोगों को इस लोकतंत्र की तरफ से किसी मुआवजे का हक होना चाहिए, या नहीं? यह मामला इसलिए भी भयानक है कि गुजरात दंगों के वक्त इस गैंगरेप और हत्याओं के बाद राज्य की पुलिस ने इसे दबाने की इतनी कोशिश की थी कि बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, और सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद इसे सीबीआई को दिया गया था, और बाद में इसकी निष्पक्ष सुनवाई के लिए इसे प्रदेश के बाहर महाराष्ट्र ट्रांसफर भी किया गया था।
जजों ने इस फैसले में लिखा है- ‘एक महिला सम्मान की हकदार है, भले ही उसे समाज मेें कितना ही ऊंचा या नीचा क्यों न माना जाए, या वह किसी धर्म को मानती हो, या किसी भी पंथ को मानती हो। क्या महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराधों में छूट दी जा सकती है? ये ऐसे मुद्दे हैं जो उठते हैं। सजा अपराध रोकने के लिए दी जाती है, पीडि़त की तकलीफ की भी चिंता करनी होगी। गुजरात सरकार को रिहाई का फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है, वह दोषियों को कैसे माफ कर सकती है? सुनवाई महाराष्ट्र में हुई है तो रिहाई पर फैसला वहीं की सरकार करेगी।’ सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि उससे मई 2022 में धोखाधड़ी करके, और तथ्यों को छिपाकर ऐसा आदेश हासिल किया गया था कि गुजरात सरकार दोषियों को माफ करने पर विचार कर सकती है। अदालत ने उसे गुमराह करने की तोहमत गुजरात सरकार पर लगाई है। और आज के आदेश में अपने उस पिछले आदेश के खिलाफ यह समझ सामने रखी है कि गुजरात को इन मुजरिमों की उम्रकैद से पहले रिहाई का हक नहीं है।
हम अदालत के फैसले के शब्दों पर और अधिक जाना नहीं चाहते, लेकिन यह एक भयानक नौबत थी जब आजादी की सालगिरह पर इस तरह के भयानक सामूहिक जुर्म वाले लोगों को वक्त के पहले रिहा किया गया था। गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह हलफनामा दिया था कि इस रिहाई को केन्द्र सरकार की भी मंजूरी मिल चुकी थी। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह भी बताया था कि पुलिस के एसपी, सीबीआई, और मुम्बई की स्पेशल क्राईम ब्रांच, सीबीआई के स्पेशल जज, और ग्रेटर मुम्बई के सत्र न्यायाधीश ने पिछले बरस मार्च में इस रिहाई का विरोध किया था, और सीबीआई ने गोधरा जेल को भी लिखा था कि गंभीर अपराध को देखते हुए इनके साथ कोई रियायत नहीं की जा सकती, और समय पूर्व रिहाई नहीं होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भारतीय लोकतंत्र में उन लोगों को राहत मिलेगी जो यह देखकर सहम चुके थे कि राज्य (शासन) की ताकत अगर इस मनमानी की हद तक फैली हुई है, तो फिर इसमें सरकार की सहमति से तो हर किस्म के मुजरिम बच सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट को भी इस बात की जिम्मेदारी तय करनी चाहिए कि पिछले बरस गुजरात सरकार ने जब उससे रिहाई के हक का आदेश पा लिया था, तब सरकार ने अदालत को कैसे गुमराह किया था, कौन सी जानकारियां छुपाई थी, या गलत जानकारियां दी थी, और उनके लिए कौन जिम्मेदार था? सुप्रीम कोर्ट को यह आत्ममंथन भी करना चाहिए कि जिस तरह उसने गुमराह होकर, या गलती करके गुजरात को यह अधिकार दे दिया था, उससे आगे बचने का कौन सा तरीका हो सकता है? क्योंकि बिल्किस बानो तो सुप्रीम कोर्ट से गुजरात को मिली अदालत के खिलाफ एक बरस से ज्यादा लड़ती रही, ऐसे कितने लोग हैं जो ऐसा हौसला दिखा सकते हैं, और इतनी तकलीफ उठा सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट को ऐसे भयानक जुर्म के मामले में गुजरात सरकार को पिछले बरस दी गई रियायत की अपनी जिम्मेदारी में हुई चूक के बारे में सोचना चाहिए। और देश की सरकारों को तो अपने अधिकारों को खींचतान कर बेइंसाफी की हद तक ले जाने के मिजाज के बारे में सोचना चाहिए।
श्रीलंका में हफ्ते भर में एक बौद्ध धर्मगुरू समेत सात लोगों की मौत हुई है, जिनमें तीन बच्चे भी हैं। अधेड़ उम्र का यह बौद्धगुरू अपने उपदेशों में इस सोच को फैलाता था कि आत्महत्या के बाद लोग जल्द ही पुनर्जन्म ले सकते हैं। यह व्यक्ति पहले एक केमिकल लैब में काम करता था, और बाद में प्रवचनकर्ता बन गया। 28 दिसंबर को इसने जहर खाकर खुदकुशी की, इसके बाद इसकी पत्नी ने तीन बच्चों को जहर देकर खुदकुशी कर ली, और बाद में कुछ और लोगों ने भी आत्महत्या की। अब पुलिस का मानना है कि पुनर्जन्म की धारणा को इसने आत्महत्या से जोडक़र जिस तरह फैलाया, और ऐसी तमाम सात मौतों में एक ही किस्म का जहर मिला है, उसे भी इसी से जोडक़र देखा जा रहा है। बीबीसी की एक रिपोर्ट में इस तमाम जानकारी के साथ पांच साल पहले का दिल्ली का एक मामला भी लिखा गया है कि वहां एक परिवार के 11 लोगों ने मोक्ष पाने के फेर में खुदकुशी कर ली थी। यह परिवार आध्यात्म और मोक्ष की कई बातों को लिखकर मरा था। दिल्ली का यह मामला देश का अपने किस्म का सबसे भयानक मामला था जिसमें इतनी बड़ी संख्या में एक ही परिवार ने खुदकुशी की थी। श्रीलंका और दिल्ली की इन दोनों घटनाओं में मोक्ष पाने पर जो भरोसा है, वह दुनिया में कुछ और जगहों पर भी है जहां पर अलग-अलग धार्मिक या आध्यात्मिक सम्प्रदाय लोगों को इस तरह मरने और फिर से जन्म लेने का बढ़ावा देते हैं।
जब धर्म या किसी आध्यात्मिक सोच पर लोगों का ऐसा अंधविश्वास पैदा हो जाता है कि उन्हें उसकी नसीहतों को मानने के लिए पूरे परिवार सहित जान दे देना अच्छा लगता है, तो समाज को ऐसी आत्मघाती सोच के बारे में सावधान करने की जरूरत है। पहली बात तो यह कि जो कोई गुरू या प्रवचनकर्ता ऐसी आत्मघाती सोच को बढ़ावा देते हैं, उन पर सरकारी एजेंसियों को भी नजर रखनी चाहिए, और समाज के लोगों को भी। किसी धार्मिक किताब, मान्यता, या गुरू पर ऐसा अंधविश्वास मौत तक ले जाए तब तो वह खबरों में आता है, लेकिन उसके पहले तक वह लोगों की सोच को बर्बाद कर चुका रहता है। अपने भक्त की नाबालिग बच्ची से बलात्कार पर कैद भुगत रहे आसाराम के लिए उसके भक्तों में आज भी ऐसी अंधश्रद्धा भरी हुई है कि वे पूरे परिवार और बच्चों सहित आसाराम के पर्चे बांटते दिखते हैं। ऐसे ही पंजाब-हरियाणा इलाके में प्रभाव रखने वाले राम रहीम नाम के एक दूसरे गुरू को बलात्कार में सजा हुई है, लेकिन उसके भक्तों की आंखें अब तक नहीं खुली हैं, और राम रहीम आए दिन पैरोल पर जेल के बाहर रहता है, हर चुनाव के समय सरकारें उसका राजनीतिक उपयोग करने के लिए उसकी पैरोल मंजूर कर देती हैं, और उसके भक्त अब तक बने हुए हैं। हिन्दुस्तान से परे भी बहुत से ऐसे देशों में ऐसे तथाकथित गुरू रहे हैं जो कि अपने भक्तों को तरह-तरह की आत्मघाती और हिंसक चीजों की तरफ धकेल देते हैं, और उसी में अपना जीवन धन्य मानते हुए वे लोग अपने गुरू के कहे जान देने पर आमादा रहते हैं। इस सिलसिले में अमरीका के टेक्सास राज्य के एक सम्प्रदाय की घटना याद आती है, इसमें डेविड कोरेश नाम के एक आदमी ने ब्रांच डेविडियंस नाम का एक धार्मिक सम्प्रदाय स्थापित कर दिया था, जो कि अपने आश्रम में अंधाधुंध अवैध हथियार इकट्ठा कर चुका था, और जब सरकारी जांच एजेंसियां वहां पहुंचीं तो भयानक गोलीबारी की गई जिसमें सुरक्षा अधिकारी मारे गए, और इस आश्रम में रह रहे लोग भी। यह मोर्चा 51 दिनों तक चला, और इसमें 28 बच्चों, और 2 गर्भवती महिलाओं सहित आश्रम के 82 लोग मारे गए, जिनमें गुरू भी शामिल था। यह सम्प्रदाय ईसाई धर्म के भीतर बनाया गया था, और इसने एक बड़े इलाके में किलेबंदी करके एक हथियारबंद मोर्चा बना लिया था। अफ्रीका में भी अभी कुछ महीने पहले ऐसी कुछ घटनाएं सामने आई हैं, लेकिन उनमें से एक-एक के जिक्र की जरूरत नहीं है।
यह समझने की जरूरत है कि अंधश्रद्धा और अंधभक्ति वाले आध्यात्मिक और धार्मिक संगठनों में ऐसे लोग ही पहुंचते हैं, जिनकी अपनी सोच कमजोर रहती है। जब अपनी तर्कशक्ति और वैज्ञानिक समझ जवाब दे जाती है, तभी लोग कानून और मानवीय मूल्यों से परे की ऐसी बातों पर भरोसा करते हैं, और हिंसा या आत्मघात पर उतारू हो जाते हैं। किसी भी देश को अपनी जनता की वैज्ञानिक समझ को कमजोर नहीं होने देना चाहिए क्योंकि यह बात सिर्फ विज्ञान से जुड़ी हुई नहीं है, यह बात रोजाना की जिंदगी में एक तर्कसंगत और न्यायसंगत रूख से जुड़ी हुई भी है। जिस देश में धर्मान्धता, राष्ट्रवाद, अंधश्रद्धा जैसी चीजों के चलते हुए लोग मामूली समझ और इंसाफ से भी किनारा कर लेते हैं, वे हजार दूसरे किस्म के अंधविश्वासों के शिकार हो जाने का खतरा पाल लेते हैं। किसी देश की बर्बादी के लिए यह अपने आपमें एक पर्याप्त वजह रहती है क्योंकि जो लोग तर्कहीन बातों पर मरने-मारने को तैयार रहते हैं, वे जाहिर तौर पर अपनी जिंदगी से लापरवाह हो जाते हैं, और वे समाज के अधिक काम के भी नहीं रह जाते। देश के लोगों की वैज्ञानिक समझ खत्म हो जाने से उस देश के आगे बढऩे की संभावनाएं भी घटने लगती हैं।
धर्म और आध्यात्म, और इनसे जुड़े हुए सम्प्रदायों के साथ दिक्कत यही है कि ये तर्क और वैज्ञानिक समझ की लाशों पर ही खड़े हो सकते हैं। जिसके मन में तर्क जिंदा है, वे धर्म और आध्यात्म को आसानी से गले नहीं उतार पाते, और इनसे जुड़े अंधविश्वासों को तो बिल्कुल भी नहीं। धर्म और आध्यात्म से जुड़े अधिकतर सम्प्रदाय लोगों से उनके सवाल छीनकर ही आगे बढ़ते हैं। सवालों से परे पूरा समर्पण ही लोगों को भक्त बना पाता है, और फिर इनका दर्जा उस तबके में बढ़ते-बढ़ते अंधभक्त तक पहुंचता है। जिन लोगों को धर्म अपनी संस्कृति का हिस्सा लगता है, उन्हें धर्म से जुड़े हुए ऐसे खतरों के बारे में भी सोचना चाहिए। दुनिया के नास्तिक लोग ऐसे खतरों से कम प्रभावित होते हैं, और वे बेहतर इंसान भी बनते हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पश्चिम बंगाल में राशन घोटाले की जांच कर रहे ईडी के अफसरों पर उस वक्त हमला हुआ जब वे तृणमूल कांग्रेस के कुछ स्थानीय नेताओं के घरों पर छापा मारने जा रहे थे। मौके पर इन नेताओं के समर्थक इकट्ठा हो गए थे, और भीड़ के हमले में ईडी के अफसरों को चोटें आई हैं, और सिर फूटने से लहूलुहान अफसर की तस्वीरें दिल दहलाती हैं कि अगर सरकार के जांच अधिकारियों के साथ ऐसा हिंसक सुलूक किया जाता है तो किस तरह केन्द्र की जांच टीम राज्यों में जा सकती है, और किस तरह राज्यों की पुलिस किसी दूसरे राज्य में जाकर कार्रवाई कर सकती है? क्योंकि कोई भी जांच एजेंसी कहीं भी कार्रवाई करे, तो उसके निशाने पर कई बार ताकतवर लोग हो सकते हैं, और उनके समर्थक तो हिंसा की ताकत रखते ही हैं। केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियों के साथ बंगाल में सत्तारूढ़ ममता बैनर्जी के समर्थक पहले भी ऐसा कर चुके हैं। पिछले बरस जब सीबीआई की टीम कोलकाता के पुलिस कमिश्नर से शारदा चिटफंड घोटाले की पूछताछ के लिए पहुंची थी, तो स्थानीय पुलिस ने सीबीआई को कमिश्नर के घर के बाहर ही रोक दिया था, और इस कार्रवाई के खिलाफ ममता बैनर्जी 70 घंटे धरने पर बैठ गई थीं। इसके पहले एक दूसरे चिटफंड घोटाले की जांच के लिए एक फिल्म निर्माता के पास जा रही सीबीआई टीम को बंगाल पुलिस ने रोक दिया था। एक तो ममता बैनर्जी और केन्द्र की मोदी सरकार के रिश्ते लगातार खराब चल रहे हैं, और दोनों के बीच किसी लोकतांत्रिक बातचीत की संभावना भी नहीं दिखती है। दूसरी तरफ बंगाल में ममता बैनर्जी और उनकी पार्टी बहुत ही हमलावर तरीके से काम करती हैं। अब यह बात महज मोदी सरकार की ईडी और ममता के बीच की नहीं है, बंगाल के कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की है, और कहा है कि बंगाल की कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है, ईडी अधिकारियों पर हमले हो रहे हैं, राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए यह उपयुक्त मामला है। मजे की बात यह है कि इंडिया नामक गठबंधन में कांग्रेस और तृणमूल के साथ रहने पर भी दोनों पार्टियों के बंगाल के नेताओं के बीच परले दर्जे की तनातनी चलती रहती है, और जितनी मांग भाजपा के नेताओं ने नहीं की है, उतनी मांग बंगाल कांग्रेस ने कर दी है। अब सवाल यह है कि अगर इसे बंगाल में संवैधानिक सत्ता खत्म हो जाना मानते हुए मोदी सरकार बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू करती है, तो कांग्रेस का राष्ट्रीय संगठन क्या खाकर दिल्ली में इसका विरोध करेगा?
खैर, हम राजनीतिक दलों की बयानबाजी से परे यह बात साफ करना चाहते हैं कि राजनीतिक मतभेद किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी को यह हक नहीं देते कि वह अपनी राज्य सरकार की मेहरबानी से वहां कानून हाथ में ले, और अदालतों के जिंदा रहने पर भी खुद जांच एजेंसियों पर ऐसे हमले करे। इसके पहले भी कई मामलों में हमने देखा है कि तृणमूल के ऐसे हिंसक और हमलावर रूख को देखते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने राज्य के कई मामलों और कई घटनाओं पर कड़ा रूख दिखाया है, या तो केन्द्रीय एजेंसियों को जांच दी है, या राज्य सरकार से जवाब-तलब किया है। यह भी हो सकता है कि अपने अतिरिक्त हमलावर रूख के लिए मशहूर ममता बैनर्जी सोच-समझकर केन्द्र के साथ तनाव को इस स्तर पर ले जा रही हैं कि आने वाले लोकसभा चुनाव के पहले मोदी सरकार बंगाल विधानसभा भंग करके राष्ट्रपति शासन लगाने पर मजबूर हो जाए, और ममता उसे एक बड़ा चुनावी मुद्दा बना सके।
लोगों का देखा हुआ है कि छत्तीसगढ़ में भी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के दर्जनों लोगों के खिलाफ जब ईडी की कार्रवाई चल रही थी, तो कहीं-कहीं पर स्थानीय समर्थकों और नेताओं-कार्यकर्ताओं ने भारी भीड़ लेकर उसका विरोध किया था, और ईडी के अफसरों को स्थानीय पुलिस को खबर करके हिफाजत मांगनी पड़ी थी, लेकिन मामला हिंसा तक नहीं पहुंचा था। देश में जहां कहीं भी केन्द्रीय जांच एजेंसियां काम करती हैं, उनके बहुत से अधिकार राज्य सरकार से परे के रहते हैं, और राज्य सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी अगर उनकी किसी कार्रवाई से असहमत हैं, तो उन्हें अदालत जाना चाहिए, बजाय अपने समर्थकों के साथ सडक़ों पर शक्ति-प्रदर्शन करने के। सत्तारूढ़ पार्टी की हिंसा किसी दूसरी राजनीतिक पार्टी के लोगों के हिंसा के बजाय अधिक गंभीर होती है, क्योंकि यह माना जाता है कि सत्ता की मेहरबानी से उनकी बददिमागी हिंसा की ताकत रखती है। केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियों की कार्रवाई से बहुत सी राज्य सरकारें असहमत हो सकती हैं, देश में जगह-जगह ऐसी कार्रवाई को बदनीयत कहा भी जा रहा है, और कम से कम एक मामले में तमिलनाडु में स्थानीय पुलिस ने ईडी के अफसरों को रिश्वत लेते पकड़ा भी है जो कि राज्य के अधिकार क्षेत्र का मामला है। तमिलनाडु सरकार जिसका कि केन्द्र की मोदी सरकार के साथ टकराव चल रहा है, उसने कानूनी तरीके से जाल बिछाकर ईडी के अफसर को रिश्वत लेते रंगे हाथों गिरफ्तार किया। अगर राज्य सरकार के पास केन्द्र के अफसरों की किसी ज्यादती के सुबूत रहें, तो उन्हें इसी तरह कार्रवाई करनी चाहिए, लेकिन बंगाल में बार-बार होती हिंसा कानून व्यवस्था के कमजोर पडऩे का एक सुबूत तो है ही।
ममता बैनर्जी की सरकार के कुछ मंत्रियों को भ्रष्टाचार की इतनी बड़ी रकम के साथ गिरफ्तार किया गया जो कि अविश्वसनीय रकम थी, और उसके पूरे सुबूत भी मिले। इसके अलावा कई तरह के दूसरे घोटालों में ममता के दूसरे कई मंत्री, कई नेता, और कई सरकारी अफसर फंसे हुए मिले हैं। अब ऐसी हालत में केन्द्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई, चाहे वे सिर्फ भाजपा-विरोधी सरकारों पर ही क्यों न हो रही हों, किसी मासूम को फंसाने के लिए तो होती नहीं दिखती हैं। दूसरे भी कई राज्यों में जहां-जहां ईडी या आईटी की कार्रवाई हुई है, वहां कोई बेकसूर उसके घेरे में नहीं दिखते, यह एक अलग बात है कि मोदी सरकार को पसंद कई पार्टियों के नेताओं, या उनकी सरकारों पर कोई कार्रवाई नहीं होती। अपने लोगों के साथ रियायत एक अलग बात है, लेकिन विरोधियों पर कार्रवाई दुर्भावना से हो रही हों, ऐसा तो तभी साबित होगा जब विरोधी पहली नजर में ही भ्रष्ट और मुजरिम नहीं दिखेंगे। बहुत से राज्यों और बहुत से मामलों में यह बात साफ है कि केन्द्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई पहली नजर में भ्रष्ट और मुजरिम दिखते लोगों पर ही हो रही है। इसलिए एनडीए के साथियों पर कार्रवाई न होने को हम इसके साथ जोडक़र देखना नहीं चाहते, और उस पर अलग से बात होनी चाहिए। सरकार को पसंद लोगों पर कार्रवाई न होने का मतलब नापसंद लोगों की हिंसा नहीं हो सकता। खासकर सरकारों और सत्तारूढ़ पार्टियों को संविधान का सम्मान करना चाहिए, और उनका विरोध कानूनी और लोकतांत्रिक रहना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
2023 का पूरा साल दुनिया में जगह-जगह चल रही घोषित और अघोषित जंग समेत गुजरा, और इनमें से कुछ भी थमा नहीं है, और चल ही रहा है। उधर रुस और यूक्रेन के बीच जानलेवा जंग जारी है, उधर फिलीस्तीन के गाजा पर इजराइल के जानलेवा हमले जारी हैं और रोजाना ही वहां दर्जनों या सैकड़ों बेकसूर नागरिक मारे जा रहे हैं जिनमें बड़ी संख्या में बच्चे भी हैं। यूक्रेन के साथ तो फिर भी तमाम नाटो देश अपनी पूरी ताकत के साथ मौजूद हैं, और उसकी फौजी और गैरफौजी दोनों किस्म की भरपूर मदद की जा रही है, लेकिन फिलीस्तीन के साथ तो कोई खड़े नहीं दिख रही हैं, अमरीका जैसे जितने पश्चिमी मवाली देश हैं, वे इजराइल के साथ हैं। संयुक्त राष्ट्र भी आधी सदी से फिलीस्तीनियों पर जुर्म के खिलाफ प्रस्ताव पर प्रस्ताव पार किए जा रहा है, लेकिन उसका कोई भी बस इजराइल पर नहीं चल रहा है, और न ही उसके हिमायती देशों पर। इस किस्म के छोटे-छोटे जंग जगह-जगह चल रहे हैं, कुछ हथियारों वाले हैं, और कुछ ईरान की सरकार और महिलाओं के बीच चल रही निहत्थी लड़ाई है, जिसे वैचारिक आधार पर पश्चिम समर्थन तो दे रहा है, लेकिन उसका यह समर्थन हिजाब के खिलाफ खड़ी ईरानी महिलाओं के लिए है, और इजराइली बमों से चिथड़े बने हुए फिलीस्तीनी बच्चों के लिए नहीं हैं।
दुनिया भर में बिखरी हुई लड़ाई और बेइंसाफी को देखें तो लगता है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था का न तो कोई अस्तित्व रह गया है, और न ही कोई इस्तेमाल ही उसका दिखता है। दुनिया की सबसे बड़ी, और एक किस्म से सर्वमान्य संस्था, संयुक्त राष्ट्र, इस हद तक अप्रासंगिक हो जाएगी, यह उसे बनाने वालों ने सोचा भी नहीं था। लेकिन ऐसा लगता है कि संयुक्त राष्ट्र मेें पांच देशों को जो वीटो-अधिकार दिया गया था, वही उसे चलने नहीं दे रहा है, आज दुनिया में कितनी भी बड़ी गुंडागर्दी हो रही हो, अगर गुंडे के साथ वीटो की ताकत वाला एक देश खड़ा हुआ है, तो संयुक्त राष्ट्र भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वीटो की इस विध्वंसकारी ताकत को देखते हुए बाकी अंतरराष्ट्रीय संगठनों को यह सबक लेना चाहिए कि ऐसी बर्बादी का सामान ईजाद ही न किया जाए। आज दुनिया की बड़ी से बड़ी बेइंसाफी को बस अपना हिमायती एक वीटो लगता है, और बाकी दुनिया उसके खिलाफ कुछ नहीं कर सकती।
फिलीस्तीन पर इजराइली जुल्म और जुर्म के बाद ऐसा लगता है कि दुनिया में फिलीस्तीन के लिए कोई जगह ही नहीं बचेगी, और वहां जिस किस्म की मिलिट्री बर्बादी की गई है, उसके बाद वहां पर शायद ही कोई आबादी बस सके। जो मुस्लिम दुनिया कहने के लिए फिलीस्तीनियों के साथ खड़ी है, उनमें से कुछ को अपनी जगह का कुछ हिस्सा निकालकर एक नए फिलीस्तीन के लिए देना चाहिए क्योंकि इजराइल का यह पड़ोस फिलीस्तीनियों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी खत्म किए जा रहा है। खाड़ी के देशों में, मुस्लिम राष्ट्रों के बीच कहीं भी एक जगह फिलीस्तीनियों के लिए निकालनी चाहिए ताकि उनमें से कुछ तो जिंदा बच सकें। जब दुनिया में गुंडे को रोकने की ताकत न हो, तो फिर यही एक जरिया बचता है कि उसे गुंडे के निशाने को ही कहीं सिर छुपाने को जगह दी जाए। जो लोग यह मानते हैं कि दुनिया में धर्म एक सबसे बड़ा गठजोड़ होता है, उन्हें भी यह देखना चाहिए कि इतने रईस मुस्लिम देशों के रहते हुए भी किस तरह फिलीस्तीन बेसहारा पड़ गया है, और उसकी आने वाली कई पीढिय़ों को इंसानों सी जिंदगी नसीब नहीं होने वाली है।
कहने के लिए लोग फिलीस्तीन की हर चर्चा पर यूक्रेन को ले आते हैं, या हिन्दुस्तान के मणिपुर की चर्चा करने लगते हैं कि यहां भी जुल्म हो रहा है। लेकिन हमारा ख्याल है कि दूसरी कमजोर मिसालें फिलीस्तीन जैसी सबसे नाजुक मिसाल का वजन कम करती हैं। इसलिए हम किसी और के साथ उसे जोडक़र देखना नहीं चाहते। फिर यह भी है कि आज दुनिया के लोग इतने मतलबपरस्त हो गए हैं कि वे फिलीस्तीन में मौत बरसाने वाले अमरीका-इजराइल गठबंधन का आर्थिक बहिष्कार करने की भी नहीं सोच सकते। ऐसे में दुनिया में अब इंसाफ मुमकिन नहीं दिखता है। ऐसा लगता है कि ईरान सरीखे इजराइल-विरोधी देश अगर खुलकर फिलीस्तीन की मदद करेंगे, तो उस पर कल सरीखा आतंकी हमला हो सकता है, जो कि कहने के लिए तो किसी मुस्लिम संगठन ने किया है, लेकिन जिसके पीछे अमरीका और इजराइल सरीखी ताकतें हो सकती हैं।
आज दुनिया में ऐसे महान नेताओं का अकाल पड़ गया है जो कि अपने देश की सरहद से जुड़ी न होने पर भी किसी जंग को खत्म करवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय भूमिका निभा सकें। और यह भी लगता है कि इजराइल सरीखी आर्थिक ताकत के साथ जिन देशों के कारोबारी रिश्ते हैं, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कितने हजार बेकसूर फिलीस्तीनी नागरिकों को मार रहा है। हमारे पास इस नौबत का कोई इलाज नहीं है, लेकिन हमें पढऩे वाले लोग इस हमले को सही संदर्भ में समझ सकें, इसलिए इन बातों को साफ-साफ यहां रख रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजे सामने आए कल ठीक एक महीना पूरा हुआ, और राज्य सरकार ने आईएएस अफसरों में राज्य के इतिहास का सबसे बड़ा फेरबदल करके प्रदेश में छाया एक असमंजस खत्म किया है। पहले तो मंत्रियों के नामों को लेकर अटकलें चल रही थीं, फिर उनके विभागों को लेकर, और उसके बाद सरकार के कामकाज को समझने वाले लोगों के बीच यह असमंजस जारी था कि किस विभाग में कौन सचिव रह जाएंगे, सचिवों के मातहत कौन संचालक रहेंगे, किस जिले में कौन कलेक्टर रहेंगे। कल आधी रात आई 88 आईएएस अफसरों की लिस्ट ने वह सारा असमंजस पूरी तरह खत्म कर दिया है। अगले दो-चार दिनों के भीतर लोग नए काम संभाल लेंगे, और हर विभाग का ढांचा काम करने लगेगा। प्रदेश में प्रशिक्षणार्थियों को मिलाकर भी कुल 162 आईएएस हैं, और इनके आधे से अधिक लोगों की पोस्टिंग कल की लिस्ट में की गई है। प्रदेश के आधे से अधिक जिलों के कलेक्टर भी बदल गए हैं। तीन चौथाई विभागों में सचिव बदल गए हैं, या उनके कामकाज में कमी-बेसी हुई है। विष्णु देव साय सरकार अब पूरी रफ्तार से काम करने के लिए तैयार है। और ऐसी उम्मीद की जा रही है कि एक-दो दिनों में ही आईपीएस, और आईएफएस अफसरों की लिस्ट भी आ जाएगी। उसके बाद राज्य प्रशासनिक सेवा, और राज्य पुलिस सेवा के अफसरों का तबादला बाकी रहेगा जो कि अखिल भारतीय सेवा के अफसरों के मातहत ही काम करेंगे।
मुख्यमंत्री विष्णु देव साय मंत्रियों के बीच विभागों के बंटवारे से लेकर अभी अफसरों के नाम तय होने तक, कुछ लोगों को धीमी रफ्तार से काम करते हुए लग रहे थे, लेकिन कल की लिस्ट देखकर समझ आता है कि बहुत बारीकी से अफसरों के काम बदले गए हैं, और जिन लोगों ने पिछली सरकार के वक्त भी ईमानदारी से अच्छा काम किया था, उन्हें कल के फेरबदल में भी जिम्मेदारियां दी गई हैं। हम अपने इस कॉलम में किसी एक अफसर या व्यक्ति के बारे में कुछ लिखना नहीं चाहते, लेकिन इतना जरूर दिख रहा है कि पिछली भूपेश बघेल सरकार के दौरान जो अफसर विवादों से घिरे हुए थे, उन्हें जरूर अभी किनारे किया गया है, जो कि किसी तरह की ज्यादती नहीं है। डेढ़ दर्जन से अधिक जिलों के कलेक्टरों को बदलना भी स्वाभाविक इसलिए लग रहा है कि आज सत्तारूढ़ भाजपा ने पिछले बरसों में इनमें से कई के खिलाफ गंभीर शिकायतें की थीं, औपचारिक रूप से चुनाव आयोग या राज्यपाल को इनके खिलाफ सुबूत या कागजात दिए थे, और यह स्वाभाविक ही था कि नई भाजपा सरकार में इन अफसरों को जिलों से अलग कहीं पदस्थ किया जाए, और वही हुआ है।
लेकिन इस विश्लेषण से परे हम अपनी एक सोच को यहां दुहराना चाहते हैं कि मुख्यमंत्री विष्णु देव साय को अधिकारियों को नई जगह काम संभालते हुए फिजूलखर्ची से बचने को कहना चाहिए। आमतौर पर सरकारों में यह होता है कि अफसर किसी नए दफ्तर में जाते ही सबसे पहले वहां अपनी मर्जी का फर्नीचर, मर्जी की साज-सज्जा के चक्कर में पड़ जाते हैं। आज प्रदेश को वैसे भी कर्ज में डूबा हुआ बताया जा रहा है, और शासन को चाहिए कि सारे अफसरों को किफायत बरतने, और साज-सज्जा पर कोई भी खर्च न करने को कहे। एक दूसरी बात यह भी होती है कि जब एक-एक अफसर के पास एक से अधिक विभाग रहते हैं, तो इनमें से हर विभाग की गाडिय़ां उनके बंगलों पर खड़ी रहती हैं, यह सिलसिला भी भाजपा सरकार को खत्म करना चाहिए। हम मंत्रियों और अफसरों के बंगलों पर तैनात कर्मचारियों को लेकर कुछ तरह की किफायत की बातें पहले भी लिख चुके हैं, और अपनी यूट्यूब चैनल पर बोल चुके हैं, इसलिए उसे यहां दुहराने का मतलब नहीं है, लेकिन सरकार को हर तरह की किफायत बरतना चाहिए क्योंकि आने वाले वक्त में कब किस संक्रामक रोग का हमला हो जाए, राज्य की कमाई दसियों हजार करोड़ रूपए कम हो जाए, खर्च दसियों हजार करोड़ रूपए बढ़ जाए, उसका कोई ठिकाना तो है नहीं। वैसे भी सत्तारूढ़ पार्टी की चुनावी घोषणाओं के मुताबिक सरकार पर एक बड़ा आर्थिक बोझ रहने वाला है, और इससे निपटने के लिए भी सरकार को अपने कामकाज में सादगी और किफायत बरतना चाहिए।
सत्ता की भाषा में कई चीजें लोगों की सोच ढालने लगती है। मंत्री अपने लिए वीआईपी शब्द का इस्तेमाल करने लगते हैं, और वह बात उन्हें आम जनता से काट देती है। जनता सिर्फ परसन रह जाती है, और सत्तारूढ़ नेता वेरी इम्पॉर्टेंट परसन हो जाते हैं। अगर भाजपा सरकार चाहे तो इस शब्द का इस्तेमाल बंद करके सत्ता की सोच को भी बदल सकती है। दूसरी बात यह कि अफसरों के पदनाम के बारे में भी सरकार को सोचना चाहिए। भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में कलेक्टर, या जिलाधीश जैसे शब्द एक असंवैधानिक ताकत से लैस प्रतीक बन गए हैं। अब कलेक्टरों को अंग्रेजों के अफसरों की तरह कुछ कलेक्ट तो करना नहीं होता है, क्योंकि कलेक्टरों के स्तर पर जितना टैक्स इकट्ठा होता है उससे कहीं ज्यादा खर्च उनके मार्फत होता है। इसलिए कलेक्टर शब्द अब अप्रासंगिक हो गया है। दूसरी तरफ जिलाधीश शब्द बड़ा ही सामंती लगता है, और किसी मठाधीश की तरह बेतहाशा ताकत से लैस लगता है। इस शब्द को बदलकर जिला जनसेवक करना चाहिए, ताकि अफसरों को अपने पद नाम से ही यह अहसास रहे कि उनका काम क्या है। सरकार अगर सचमुच अफसरों से जनसेवा करवाना चाहती है, तो इसके लिए उनके पदनाम को बदलना भी जरूरी है।
छत्तीसगढ़ सरकार को मध्यप्रदेश की ताजा घटना देखना चाहिए जहां पर हड़ताली ट्रक ड्राइवरों से बात करते हुए एक कलेक्टर ने कैमरे के सामने उसे कहा कि उसकी औकात क्या है? मुख्यमंत्री ने इसके बाद तुरंत ही कलेक्टर को हटाया है। यह तो वीडियो आ गया था, इसलिए यह कार्रवाई हो गई, सच तो यह है कि बहुत से जिलों में कलेक्टरों की यही बददिमागी, और बदमिजाजी रहती है। इसे ध्यान में रखते हुए भी हम इस पदनाम को बदलने की सलाह दे रहे हैं।
हमारी इस सोच में नया कुछ भी नहीं है, और हम हर सरकार के सामने जनहित की इन बातों को रखना, और याद दिलाना अपनी जिम्मेदारी मानते हैं। यह सरकारों पर रहता है कि वे उनमें से किन बातों को काम की मानें, या उन्हें अनदेखा कर दें। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय खुद सादगी से रहने वाले जाने जाते हैं, और वे अगर चाहें, तो सरकार की जनसेवा की एक तस्वीर पेश कर सकते हैं। शासन-प्रशासन में ऐसे बुनियादी सुधार एक जनकल्याणकारी लोकतंत्र को बढ़ावा देंगे, और आम जनता इन बातों के लिए सरकार की शुक्रगुजार भी रहेगी। देखते हैं आगे क्या होता है।
गुजरात की एक खबर है कि वहां बनासकांठा जिले में दलित समाज के लोग इलाके के तहसीलदार के दफ्तर पहुंचे, और मांग की कि दलितों को श्मशान के लिए जगह आबंटित की जाए। उनका कहना है कि पांच साल से दलित श्मशान की मांग कर रहे हैं। लेकिन उन्हें जमीन मिल नहीं रही है, और जो सार्वजनिक श्मशान हैं वहां दलितों को अंतिम संस्कार नहीं करने दिया जाता। जब इस खबर की और जानकारी के लिए गूगल पर खबरें ढूंढी गईं तो बस गुजरात दलित डेड बॉडी, इन चार शब्दों को सर्च करने से ही सैकड़ों खबरें निकलकर सामने आ गईं जिनमें देश के तमाम अलग-अलग बड़े अखबारों और प्रतिष्ठित और विश्वसनीय वेबसाइटों की खबरें हैं। ये बताती हैं कि किस तरह किसी एक जिले में सरकार की तरफ से दलितों को अलग से दी गई श्मशान की जगह पर भी ओबीसी समुदाय के लोग उन्हें वहां अंतिम संस्कार करने नहीं दे रहे हैं, और उन्हें रोकने के लिए हिंसा भी की जा रही है। एक दूसरी खबर बताती है कि किस तरह क्षत्रीय समुदाय के लोगों ने दो दलित भाईयों को मार डाला, और जब पुलिस ने परिवार को हिफाजत की गारंटी दी, तब जाकर परिवार अपने लोगों की लाशें लेने को तैयार हुआ। अब ऐसे दलित परिवारों में बंदूकों के लाइसेंस मांगे जा रहे हैं, और शायद वहां की सरकार इसके लिए तैयार भी रही है। एक अलग खबर है कि एक दलित नौजवान के दायर किए हुए एक मुकदमे को वापस न लेने पर दो गैरदलित लोगों ने उसकी मां को पीट-पीटकर मार डाला। वे उसे तब तक पीटते रहे जब तक वह मर नहीं गई, और वे उससे कहते रहे कि वो अपने बेटे को मामला वापिस लेने के लिए तैयार करे। पिछले एक-दो बरस के भीतर ही गुजरात की ऐसी खबरें अलग-अलग दर्जन भर जिलों से आई हुई दिख रही हैं, जिनमें बहुत सी खबरें दलितों को अंतिम संस्कार का हक न मिलने की है।
यह मामला उस गुजरात का है जहां के गांधी थे, और जिन्होंने दलितों की बेहतरी के लिए अपने उस वक्त के अंदाज में बहुत कुछ किया था। यह एक अलग बात है कि आज देश के दलितों के एक बड़े तबके को इस बात पर आपत्ति है कि गांधी अपनी हिन्दू सोच के मुताबिक इन दलितों को हरिजन कहते थे, और यह शब्द उनके प्रति बेइंसाफी का था क्योंकि जिस हरि के दरबार में दलितों को पांव भी धरने न मिले, उस हरि के जन वे कैसे हो सकते हैं, क्यों हों? फिर भी इस शब्द से परे गांधी ने अपनी जिंदगी में जाति व्यवस्था तोडऩे के लिए बहुत कुछ किया था, और दलितों के साथ छुआछूत के खिलाफ वे जिंदगी भर करते रहे। ऐसे गांधी के गुजरात में वैसे तो यह अकेला मामला नहीं है जो गांधी की सोच के खिलाफ है, और भी बहुत से मामले गांधी के दर्शन के खिलाफ वहां होते हैं, इसलिए आज का गुजरात गांधी और उनकी सोच से मोटेतौर पर अनछुआ है। सवाल यह भी उठता है कि गुजरातियों को बाकी देश में आमतौर पर झगड़ों से परे रहने वाली बिरादरी माना जाता है, वे न तो फौज में अधिक जाते, न किसी और पैरामिलिट्री बल में, और न ही उन्हें हिंसा के लिए जाना जाता। लेकिन खुद गुजरात के भीतर समय-समय पर कई तरह की साम्प्रदायिक और जातिगत हिंसा सामने आते रहती है, और गुजराती समाज के भीतर यह एक बड़ा विरोधाभास नजर आता है जो कि उस प्रदेश में समाज के भीतर हिंसा को भी बताता है।
आज जब देश भर में अलग-अलग राजनीतिक दलों के लोग दलित पर्यटन करते दिखते हैं, और दलितों के घरों में जाकर आयातित बर्तनों में, शायद आयातित खाना खाते हैं, और उसे दलितों को गले लगाने की बात कहते हैं, तब यह भी सोचना चाहिए कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के अपने गृहप्रवेश में, उनकी ही पार्टी की सरकार दशकों से रहते हुए अगर इस तरह की दलित-विरोधी हिंसा होती है, तो उस पर रोक क्यों नहीं लगती? यह बात तो बिल्कुल साफ है कि धर्म और जाति पर आधारित हिंसा उन्हीं जगहों पर पनप सकती है, जिन जगहों पर सरकार हिंसा करने वालों के साथ रहम करती है। यह बात सिर्फ गुजरात की नहीं है, देश के बहुत से प्रदेशों में ऐसा होता है, और मध्यप्रदेश में तो शायद गुजरात से भी अधिक ऐसी घटनाएं लगातार होती हैं, जहां पर सामंतशाही के दिनों का सामाजिक अहंकार अब तक लोगों को हिंसक बनाए रखता है, और दलित दूल्हों को भी बहुत से इलाकों में घोड़ी पर चढऩे नहीं मिलता, गांव के भीतर दलित जूते-चप्पल पहनकर सवर्ण बस्ती पार नहीं कर सकते। ऐसा भी नहीं कि सिर्फ भाजपा की सत्ता वाले राज्यों में ऐसा है, कांग्रेस सरकार रहते हुए भी राजस्थान में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, और हिन्दीभाषी दूसरे कई प्रदेशों में ऐसा होता है। ऐसा लगता है कि दलितों और आदिवासियों की हिफाजत के लिए जो खास कानून देश में लागू है, उसे लागू करने वाली पुलिस, और उस पर फैसला सुनाने वाली अदालत, इन दोनों ही जगहों पर दलितों के लिए हमदर्दी नहीं है, और अत्याचारी जातियों के लोग हावी हैं।
हमने कुछ हफ्ते पहले इसी जगह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों में आरक्षण लागू करने की वकालत की थी, और हमको ऐसी कोई वजह नहीं दिखती कि 140 करोड़ आबादी वाले इस देश में सुप्रीम कोर्ट में जजों की 32 कुर्सियों, और हाईकोर्ट की कुछ सौ कुर्सियों के लिए देश में आरक्षित तबके से काबिल लोग नहीं मिलेंगे। अगर हम बड़ी अदालतों के जजों की बात को किनारे भी रखें तो भी देश में और तमाम प्रदेशों में दलित और आदिवासी लोगों के अधिकार बचाने के लिए, उन्हें हिंसा से बचाने के लिए संवैधानिक आयोग बनाए गए हैं। लेकिन देश के तमाम मनोनीत आयोगों की तरह इनके साथ भी दिक्कत यह होती है कि ये अपने को मनोनीत करने वाली सत्ता के लिए कोई असुविधा खड़ी करना नहीं चाहते, और तमाम किस्म के जुर्म होते देखते रहते हैं। हमने पहले भी इस चीज को सुझाया था कि ऐसे आयोगों में मनोनयन राज्यों के बाहर के लोगों का होना चाहिए, उसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर लोगों को छांटने की एक गैरराजनीतिक व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि ऐसे आयोग सचमुच ही अपना संवैधानिक मकसद पूरा कर सके। आज अगर गुजरात के अनुसूचित जाति आयोग, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग में अगर अलग-अलग प्रदेशों से आए हुए लोग रहते, तो हो सकता है कि वे सरकार की लापरवाही के खिलाफ कुछ बोल भी सकते। लेकिन आमतौर पर पार्टी के कार्यकर्ताओं को ही संवैधानिक कुर्सियों पर बिठा दिया जाता है, और फिर वे लोग उन तबको को बचाने के बजाय सरकार को ही असुविधा से बचाने में अपनी जान लगा देते हैं। किसी को सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका लेकर जाना चाहिए, और राज्यों के संवैधानिक आयोगों में उन राज्यों के लोगों के मनोनयन के खिलाफ फैसला मांगना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर विशेषज्ञों और अनुभवी लोगों की एक ऐसी फेहरिस्त भी बननी चाहिए जो कि देश भर के संवैधानिक आयोगों में मनोनयन का काम सरकारों के काबू से परे भी कर सके। ऐसे बहुत से फैसलों के बिना दलितों पर जुल्म जारी रहेगा, और इस खतरे को अनदेखा नहीं करना चाहिए कि ऐसा हर जुल्म, ऐसा हर जुर्म समाज के भीतर सदियों से चली आ रही खाई को और गहरा ही करते चलता है।
देश भर में ट्रक, टैंकर, और बसों के ड्राइवर हड़ताल पर हैं क्योंकि केन्द्र सरकार ने सडक़ हादसों को लेकर एक नया कानूनी प्रावधान किया है जिसके तहत एक्सीडेंट के बाद अगर ड्राइवर मौके से भाग जाते हैं, और पुलिस को खबर नहीं करते हैं, तो उन्हें दस साल तक की कैद, और सात लाख तक का जुर्माना हो सकता है। कल से देश के बहुत से हिस्सों में बड़ी गाडिय़ों के चक्के थम गए हैं, पेट्रोल पंपों पर लंबी कतारें लग गई हैं क्योंकि टैंकर ड्राइवरों की हड़ताल से पंप सूखने जा रहे हैं, बसों के मुसाफिर परेशान खड़े हैं, और अगर हड़ताल का यह रूख जारी रहा तो कई और सामानों की कमी हो सकती है। ट्रांसपोर्ट कारोबारियों का कहना है कि यह नियम आने के बाद बड़ी गाडिय़ों के ड्राइवर नौकरियां छोड़ रहे हैं। उनका कहना है कि पहले से ही देश में जरूरत से कम ड्राइवर हैं, और ड्राइवरों के काम छोडऩे से पूरे देश का कारोबार प्रभावित हो जाएगा। कारोबारियों का यह भी कहना है कि ड्राइवर किसी एक्सीडेंट के बाद भागना नहीं चाहते, लेकिन आसपास जो भीड़ जमा हो जाती है, उसकी हिंसा से बचने के लिए ऐसा करना पड़ता है। देश में करीब एक करोड़ ट्रक हैं, और इनसे करोड़ों लोगों का रोजगार जुड़ा हुआ है। यह बात समझने की जरूरत है कि लंबी दूरी की एक-एक गाड़ी में एक से अधिक ड्राइवर रखे जाते हैं ताकि सामान सफर में कम से कम घंटे रहे, और कारोबार की बचत हो सके। अब अगर ड्राइवर नौकरी छोड़ रहे हैं, वे कोई और रोजगार करने की सोच रहे हैं, तो यह बड़ी फिक्र की बात रहेगी कि देश का कारोबार इससे कितना प्रभावित होगा।
लोगों को याद होगा कि हमने इसी जगह अभी दो-चार दिन पहले ही जापान के बारे में लिखा था कि वहां ट्रक ड्राइवरों की कमी होने से सामानों की आवाजाही नहीं हो पा रही है, लोगों तक उनके पार्सल नहीं पहुंच रहे हैं, बाजार खाली हो रहे हैं, और कारखानों में बनने वाले सामान उठ नहीं पा रहे हैं। जापान सरकार का अंदाज है कि 2030 तक ड्राइवरों की ऐसी कमी बनी रहेगी। उसी सिलसिले में हमने यह भी सुझाया था कि अंतरराष्ट्रीय ड्राइविंग की ट्रेनिंग के बाद हिन्दुस्तान भी दूसरे देशों को अपने ड्राइवर भेज सकता है, और कल से शुरू हुई हड़ताल के सिलसिले में पता लग रहा है कि खुद हिन्दुस्तान में ड्राइवरों की कमी है।
एक दूसरी बात यह कि देश में अभी बनाए गए तीन क्रिमिनल कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका पेश की गई है जिसमें एक पिछले मुख्य न्यायाधीश एन.वी.रमना की कही एक बात गिनाई गई है कि संसद में बहस लोकतांत्रिक कानून निर्माण का एक बुनियादी हिस्सा है, बहस और विचार-विमर्श से विधेयकों को कानून में बदलते हुए कई तरह की जरूरी बातें जोडऩे-घटाने में मदद मिलती है, और इसके बाद बने कानूनों की जब अदालतें व्याख्या करती हैं, तो उन्हें भी इससे मदद मिलती है। जाहिर है कि जस्टिस रमना बहस को जरूरी बताते हैं, और आज जब ये तीन बड़े महत्वपूर्ण क्रिमिनल कानून संसद में पास किए गए, तो 141 सांसद निलंबित थे, और जाहिर है कि ऐसे कोई संसदीय बहस हो नहीं सकती थी। जब बिना विचार-विमर्श और बहस के महज सत्ता के बहुमत से कानून बना दिए जाते हैं, तो ये कानून आगे जाकर अदालतों के लिए भी दिक्कत और दुविधा खड़ी करते हैं, अदालतों से परे भी सरकारों के सामने उनको अमल करते हुए वैसी ही दिक्कतें आती हैं जैसी कि आज सडक़ हादसों को लेकर बनाए गए कानून को लेकर खड़ी हो रही है।
हमने कुछ ट्रक ड्राइवरों के वीडियो भी देखें हैं जिनमें वे बता रहे हैं कि किस तरह कुछ हजार रूपए की नौकरी करते हुए वे किसी हादसे की नौबत में दस साल की कैद, और सात लाख का जुर्माना झेल सकते हैं? उनका कहना है कि इसके मुकाबले मजदूरी कर लेना अधिक सुरक्षित होगा। यह बात पहली नजर में तर्कसंगत लगती है कि भीड़ की हिंसा से बचने के लिए न केवल ट्रक-बस ड्राइवर, बल्कि कई बार कारों के ड्राइवर भी मौके से भाग जाते हैं, वरना वे भीड़ के हाथों मारे जाएं। और ऐसे में अगर वे इतनी लंबी कैद, और इतने बड़े जुर्माने में फंसने वाले हैं, तो बहुत से लोग इस रोजगार से दूर रहेंगे। हम लंबे समय से इस एक नौबत से परे भी एक बात लिखते आ रहे हैं कि किसी व्यक्ति को दी जाने वाली सजा, और सुनाया गया जुर्माना उस व्यक्ति की हैसियत के अनुपात में ही होना चाहिए। एक करोड़ की कार से टक्कर मारकर भागने वाले किसी अरबपति के लिए तो यह कैद और जुर्माना जायज हो सकता है, लेकिन दस-पन्द्रह हजार की नौकरी करने वाले ट्रक ड्राइवर कहां से यह खर्च उठा सकते हैं? कैसे वे दस बरस की कैद का खतरा उठा सकते हैं? उनके परिवार का क्या होगा? ऐसा लगता है कि भारत सरकार में बैठे किसी अफसर ने किसी पश्चिमी विकसित देश से सजा और जुर्माने के आंकड़े उठा लिए हैं, और उन्हें हिन्दुस्तानी ड्राइवरों पर लागू कर दिया है। जिनकी तनख्वाह लाख या लाखों रूपए महीने हों, उनके लिए तो ऐसा जुर्माना जायज हो सकता है, लेकिन अगर किसी की पांच साल की तनख्वाह जितना बड़ा जुर्माना लगा दिया जाए, तो भला कौन ऐसा काम करने की हिम्मत कर सकते हैं?
भारत में एक तो ट्रांसपोर्ट कारोबार को नियंत्रित करने वाले दो विभाग देश के सबसे भ्रष्ट विभाग हैं। आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस इन दोनों का रोज का कामकाज ही इतने किस्म की साजिशों से भरा होता है कि इनके जिम्मे छोड़े गए कानूनों का कैसा भ्रष्ट इस्तेमाल होगा, यह अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है। ट्रक-बस ड्राइवरों से बेहतर इस बात को और कौन जानते होंगे कि ऐसे अमले के हाथों लुटने से तैयार न होने पर उन्हें मोटे जुर्माने और लंबी कैद के लिए तैयार होना पड़ेगा। ऐसे में आज अगर उनको हड़ताल ठीक लग रही है, तो उनकी फिक्र जायज है। केन्द्र सरकार को अपने इस कानून के बारे में फिर से सोचना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि किसी हादसे के बाद इकट्ठा हो जाने वाली भीड़ की हिंसा से बचने के लिए ड्राइवर का मौके से चले जाने के अलावा और क्या विकल्प हो सकता है? साथ ही यह कैद और यह जुर्माना बिल्कुल ही अनुपातहीन लग रहे हैं, और इनके बारे में सोचने में इतना समय नहीं लगाना चाहिए कि देश की आर्थिक बर्बादी शुरू होने के बाद इस नए प्रावधान को खत्म करने पर विचार शुरू हो।
उत्तरप्रदेश की बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में दो महीने पहले विश्वविद्यालय परिसर में एक छात्रा की राह रोककर उससे गैंगरेप करने और उसका वीडियो बनाने वाले तीन नौजवानों को योगी की पुलिस ने अब 60 दिन बाद गिरफ्तार किया है। इनका वीडियो और इनकी तस्वीरें पहले दिन से पुलिस के पास रहने के बावजूद, और एक हफ्ते के भीतर शिनाख्त हो जाने के बावजूद गिरफ्तारी में दो महीने शायद इसलिए लगे कि ये तीनों ही भाजपा के आईटी सेल से जुड़े हुए लोग थे। अब खबर आई है कि पिस्तौल की नोंक पर किए गए इस कुकर्म के बाद भाजपा ने इन लोगों को पार्टी से निकाल दिया है। इस बीच अखबारों और सोशल मीडिया पर ऐसी अनगिनत तस्वीरें आई हैं जिनमें बलात्कार के ये तीनों आरोपी भाजपा के सबसे बड़े नेताओं के साथ तस्वीरें तैर रही हैं, और बहुत से विपक्षी दलों ने भाजपा को इस बात को लेकर घेरा भी है। यह मामला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अपने चुनाव क्षेत्र का भी है। और हैरानी की बात यह है कि गैंगरेप के आरोपियों की शिनाख्त हो जाने के बाद भी 60 दिन बाद जाकर उन्हें पकड़ा गया, और इस बीच वे मध्यप्रदेश में भाजपा का चुनाव प्रचार भी करते रहे।
यह बात समझने की जरूरत है कि भाजपा आईटी सेल कहे जाने वाले लोगों के सोशल मीडिया पोस्ट बरसों से ऐसे रहते आए हैं जो कि दूसरी विचारधारा के लोगों को बलात्कार की धमकी देने वाले रहे हैं, और असहमत लोगों के परिवार की महिलाओं के खिलाफ सबसे गंदी जुबान इस्तेमाल करके उनकी मानसिक शांति खत्म करने की संगठित कोशिश चलती ही रहती है। लोगों को यह बात भी हक्का-बक्का करती है कि ऐसा पोस्ट करने वाले कई लोग अपनी प्रोफाइल पर यह भी लिखते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें फॉलो करते हैं। ऐसे लोग भी जब दूसरों के खिलाफ परले दर्जे की हिंसक और अश्लील जुबान में जुर्म के दर्जे की धमकियां लिखते हैं, तो यह हैरानी भी होती है कि क्या सचमुच ही प्रधानमंत्री का इतना बड़ा निगरानीतंत्र इस बात को पकड़ नहीं पाता है कि उनके सोशल मीडिया अकाउंट कैसे-कैसे लोगों को फॉलो करते हैं। अब जब गैंगरेप, और ब्लैकमेल के वीडियो बनाने वाले ये तीन नौजवान भाजपा आईटी सेल के निकले हैं, तो पार्टी को सचमुच ही अपनी मशीनरी के बारे में सोचना चाहिए। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा किस तरह के कार्यकर्ता और कर्मचारी रखती है, वे किस तरह के काम करते हैं, इसे अनदेखा करना लोकतांत्रिक नहीं होगा।
हमारा मानना है कि जो लोग सत्ता की हिफाजत पाते हुए बरसों तक हिंसक और अश्लील धमकियां देने में लगे रहते हैं, उनकी अपनी सोच उन्हें खुद भी की-बोर्ड से परे भी हिंसक और अश्लील बनाकर छोड़ती है। किसी भी संगठन को अपने लोगों को इतना बुरा बनने से बचाना चाहिए क्योंकि कोई संगठन, कंपनी, धर्म, जाति, या पेशा उतने ही अच्छे गिनाते हैं जितने कि उसके सबसे बुरे लोग रहते हैं। किसी धर्म के लोग जब हिंसक घटनाएं करते हैं, तो अपने पूरे धर्म को बदनाम करते हैं। यहां पर हम इस बात की खास चर्चा करना चाहेंगे कि हर धर्म के हर व्यक्ति के लिए बराबरी का सेवाभाव रखना, और उस पर अमल करना सिक्खों का आम मिजाज है, और उनके धर्म का सम्मान दूसरे धर्म के लोगों में भी इससे बढ़ता है। हमारा ऐसा ख्याल है कि अमृतसर के स्वर्णमंदिर में दूसरे धर्मों के जितने लोग पूरी आस्था से जाते हैं, वहां के रिवाज मानते हुए वहां वक्त गुजारते हैं, वैसा शायद ही दुनिया में किसी और धर्म के साथ होता होगा। और ऐसा होने के पीछे दुनिया भर के गुरुद्वारों में बिना किसी भेदभाव के सबको एक लंगर में बराबरी से खाना खिलाने की बात भी है, और किसी भी हादसे या प्राकृतिक विपदा के वक्त मदद करने में सिक्खों का सबसे आगे रहना भी है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सिक्ख धर्म को तलवार के दम पर किसी दूसरे पर नहीं लादा गया, बल्कि गुरूनानक देव ने दूसरे धर्मों, और उन धर्मों में नीची मानी जाने वाली जातियों के संतों का लिखा हुआ जिस उदारता से गुरूग्रंथ साहब में जोड़ा है, वह उदारता भी सिक्ख धर्म को दुनिया का एक सबसे महान धर्म बनाती है। लोगों को याद होगा कि जब संत कहे जाने वाले जनरैल सिंह भिंडरावाले के आतंकी चारों तरफ दूसरे धर्मों के लोगों से खून-खराबा करते थे, उस वक्त लोगों के मन में देश भर में सिक्खों के प्रति भावनाएं भी ऐसी नहीं थी जैसी कि उस दौर के निकल जाने के बाद और सिक्खों के सेवाभाव को देखने के बाद लोगों के मन में उसके बाद जल्द ही बदल गई थी। किसी भी धर्म, जाति, या संगठन का सम्मान और कुछ भी नहीं होता, सिवाय उसके लोगों के बर्ताव और कामकाज के। इसलिए हर संगठन और संस्था को यह ख्याल रखना चाहिए कि उसके सबसे बुरे लोग उसकी कितनी बुरी साख बना रहे हैं।
आज टेक्नॉलॉजी के इस जमाने में सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग किन संगठनों से जुड़े हुए हैं, वे किस विचारधारा के लिए काम कर रहे हैं, इसे न तो जानना मुश्किल रहता है, और न ही उसके सुबूत जुटाना मुश्किल रहता है। दुनिया भर के कई विश्वविद्यालयों ने बड़ी आसानी से ऐसा रिसर्च और अध्ययन किया है कि ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर किन संगठनों के लोग किस तरह एक-दूसरे से जुडक़र संगठित हमले की शक्ल में दूसरों का जीना हराम करते हैं, उनका मनोबल तोड़ते हैं, उनकी साख खत्म करते हैं। जब ऐसे ही लोग इस काम को अपना पेशा और भविष्य दोनों मान लेते हैं, और जब उन्हें यह भी भरोसा हो जाता है कि देश-प्रदेश का कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, तो वे सोशल मीडिया पर अपनी दी गई धमकियों पर अमल करते हुए असल जिंदगी में भी किसी लडक़ी को घेरकर उससे गैंगरेप करते हैं, उसके वीडियो बनाते हैं, और उसका जीना मुश्किल करते हैं। दिक्कत यह है कि जो योगी सरकार अपने प्रदेश में सैकड़ों आरोपियों को मुजरिम करार देते हुए मुठभेड़ में उन्हें मार रही है, उसे इन नौजवानों की तस्वीरें रहते हुए, उनके वीडियो रहते हुए, चेहरे साफ दिखते हुए भी पकडऩे के लिए दुनिया भर का सामाजिक दबाव लगता है, और 60 दिन का वक्त लगता है। जिस पार्टी की भी सरकार अपने मुजरिमों के लिए ऐसी नरमी बरतती है, वह अपने और लोगों को भी ऐसा करने का हौसला देती है। और जब यह पार्टी किसी एक धर्म का झंडा लेकर चलती है, उसके भाड़े के सैनिक इसी धर्म का प्रचार करते हुए असहमत लोगों से अश्लील हिंसा की धमकियां देते हैं, तो उससे फिर धर्म का नाम भी बदनाम होता है। और किसी धर्म का एकाधिकार किसी एक पार्टी या संगठन के पास नहीं रहता, उस धर्म को मानने वाले तमाम लोगों का यह हक रहता है कि उनके धर्म को बदनाम करने की छूट किसी पार्टी या संगठन को न मिले।
हम एक बार फिर सिक्खों पर लौटना चाहेंगे, जिस तरह आम सिक्ख सेवाभाव से भरे हुए किसी धर्म का भेदभाव किए बिना सबकी सेवा करते हैं, सबकी मदद करते हैं, किसी दूसरे धर्म को निशाना नहीं बनाते हैं, अपने धर्म को ही महान, और दूसरों को घटिया नहीं बताते हैं, उनसे सीखने की जरूरत है। जिस तरह कबीर से लेकर रैदास तक, अनगिनत गैरसिक्ख संतों को ग्रंथ साहब में सम्मान से शामिल किया गया है, उससे उन धर्मों को भी सोचना चाहिए जिनके आज के ठेकेदार अपने ही धर्म की कुछ नीची कही जाने वाली जातियों को अपमान से देखते हैं, उनके साथ भेदभाव करते हैं, उन्हें शामिल नहीं करते हैं। यह एक व्यापक मुद्दा है, और कोई एक राजनीतिक पार्टी या धार्मिक संगठन किसी धर्म का एकाधिकार नहीं रखते, उसका पट्टा अपने नाम लिखाए हुए नहीं हैं, इसलिए उस धर्म को बदनाम करने वाले सभी लोगों को यह परवाह करनी चाहिए कि उसके कौन से झंडाबरदार गैंगरेप करते हुए अपने आपको धर्म का सिपाही भी करार देते हैं।
अगले लोकसभा चुनाव को लेकर उद्धव ठाकरे की लीडरशिप वाली शिवसेना के प्रवक्ता और बड़े नेता संजय राउत ने अभी कहा था कि सीटों के बंटवारे पर कांग्रेस के साथ उनकी बातचीत शून्य से शुरू होगी, क्योंकि राज्य में उसके पास कोई भी लोकसभा सीट नहीं है। उन्होंने यह भी याद दिलाया था कि कांग्रेस को यह बात याद रखना चाहिए कि अभी-अभी वह तीन राज्यों में चुनाव हारी है। संजय राउत ने यह भी कहा था कि शिवसेना महाराष्ट्र में 23 सीटों पर लड़ेगी। इसके पहले महाराष्ट्र के कांग्रेस नेताओं ने शिवसेना के विभाजित होने पर तंज कसा था, और इसके जवाब में संजय राउत ने कहा था कि कांग्रेस विभाजित तो नहीं है, लेकिन वह तीन राज्य हार गई है। मानो इन सबके जवाब में, और कांग्रेस की स्वाभाविक नाराजगी को घटाने के लिए उद्धव ठाकरे ने कहा है कि वे ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे जिससे महाराष्ट्र के गठबंधन को नुकसान पहुंचे। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र में उद्धव-शिवसेना का एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन राज्य शासन में भी था, और विपक्ष में आने के बाद भी वह जारी है। उद्धव ने कहा कि वे इस तरह के बयान देने वाले लोगों पर ध्यान नहीं देंगे, और जब तक कांग्रेस अध्यक्ष सीट बंटवारे पर नहीं बोलेंगे, तब तक न तो मैं, और न ही मेरी तरफ से कोई और टिप्पणी करेंगे।
अभी दो-चार दिन पहले ही कांग्रेस के ओवरसीज संगठन के मुखिया, सैम पित्रोदा ने एक समाचार एजेंसी को अयोध्या की प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर यह कहा था कि भारत के लोगों को तय करना होगा कि क्या वे देश को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, या फिर वे एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हो, और जिसमें तमाम विविधताओं की जगह हो। उन्होंने कहा था कि मंदिर देश का मुख्य मुद्दा नहीं बन सकता है, और लोगों को तय करना है कि बेरोजगारी, महंगाई या राम मंदिर, असली मुद्दे क्या हैं। इसके तुरंत बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता जयराम रमेश ने इस बयान को पार्टी का नजरिया मानने से इंकार कर दिया था, और कहा था कि यह सैम का निजी विचार होगा, यह पार्टी की सोच नहीं है। उल्लेखनीय है कि अयोध्या में 22 जनवरी को प्राण-प्रतिष्ठा में शामिल होने या न होने पर अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग रूख सामने आ रहे हैं, और कुछ पार्टियों ने जाने से इंकार कर दिया है, कुछ को न्यौता नहीं मिला है, और कुछ का फैसला अभी सामने नहीं आया है। इस बीच में विदेश में बसे हुए सैम पित्रोदा को कांग्रेस के एक जिम्मेदार ओहदे पर रहते हुए, और राहुल गांधी के तमाम विदेशी कार्यक्रमों के इंचार्ज भी रहते हुए क्या कहना चाहिए था, और क्या नहीं, इस पर उनकी खुद की समझ जमीन से कटी हुई, और कमजोर दिखती है।
हम पहले भी इस मुद्दे पर कई बार कह चुके हैं कि राजनीतिक दलों के अनगिनत नेता और प्रवक्ता जटिल और नाजुक मुद्दों पर अपनी निजी राय धड़ल्ले से पेश करते रहते हैं, और शायद खबरों में जगह पाने के लिए उन्हें ऐसा जरूरी लगता है। सवाल यह है कि राजनीतिक दल अपने लोगों की जुबान पर लगाम क्यों नहीं लगा सकते? कम से कम जो जलते-सुलगते मुद्दे हैं, जिनसे सहयोगी दलों का लेना-देना है, या जिनसे देश की जनभावनाएं जुड़ी हुई हैं, उन पर पार्टी के औपचारिक सार्वजनिक रूख से परे अलग-अलग बातें लोग क्यों करते हैं? इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि हम कुछ अधिक तर्कसंगत होकर सोच रहे हैं, और राजनीतिक दल सोच-समझकर ऐसी धुंध फैलाकर रखते हैं ताकि वोटरों का रूख भांपा जा सके। ऐसा तो हो नहीं सकता कि पार्टी अपने लोगों को कुछ मुद्दों पर बयानबाजी न करने को कहे, उसके बाद भी लोग बयान देते ही रहें। भाजपा के कई नेताओं ने अलग-अलग मौकों पर बहुत ही साम्प्रदायिक और हिंसक बयान भी दिए हैं, जिनमें से कुछ गिने-चुने बयानों से पार्टी ने अपने को अलग भी किया है, लेकिन उनमें से अधिकतर बयानों का कोई खंडन नहीं होता। तो यह समझने की जरूरत है कि क्या यह वोटरों के बर्दाश्त को तौलने का एक तरीका रहता है कि और कितनी हिंसक बात कही जा सकती है? यह तो होता ही है कि लोकतंत्र में हर हिंसक और नफरती बयान धीरे-धीरे पहले के कम हिंसक और कम नफरती बयान को बेअसर करते चलते हैं, और नफरत-हिंसा की नई ऊंचाई एक नई सामान्य भाषा बनकर स्थापित हो जाती है।
किसी गठबंधन की जमीन अभी तैयार हो ही रही है, और उसके बीच अगर लगातार हर साथी दल की तरफ से बयानबाजी चलती रहेगी, तो उसका नतीजा क्या होगा? किसी गठबंधन पर पार्टी का बयान देने के लिए हर पार्टी को अपने किसी एक नेता को अधिकृत करना चाहिए कि उनसे परे कोई और गठबंधन के मामलों में कुछ भी नहीं कहेंगे। उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस के कुछ नेताओं, और संजय राउत के बीच की बयानबाजी को लेकर उसका जिक्र किए बिना जो कहा है कि वे कांग्रेस अध्यक्ष के बयान पर ही प्रतिक्रिया देंगे, वह एक बहुत समझदारी का रूख है। बड़बोले लोगों के आए दिन के बयानों से गठबंधन का तो नुकसान होगा ही, खुद ऐसे लोगों की पार्टियों का भी नुकसान होगा। यह सिलसिला शुरू नहीं होने देना चाहिए। पार्टियों को यह तय करना चाहिए कि किस तरह के आम मुद्दों पर पार्टी के नेता क्या कहें, और किन खास मुद्दों पर कुछ पूछे जाने पर भी वे अपनी पार्टी के अधिकृत नेता का नाम बता दें कि इस बारे में वे ही कुछ कह सकेंगे।
दूसरी बात यह भी है कि कुछ जरूरी मुद्दों पर पार्टी के सबसे अधिकृत व्यक्ति को समय रहते साफ-साफ बयान देना चाहिए, और उसे निजी राय के रूप में पेश भी नहीं करना चाहिए। जब पार्टी के प्रवक्ता यह कहते हैं कि उनका ऐसा सोचना है, या वे ऐसा मानते हैं, तो ऐसे प्रवक्ता एक गलतफहमी पैदा करते हैं। प्रवक्ता को निजी राय का इस्तेमाल ही नहीं करना चाहिए, उसे सीधे-सीधे पार्टी का रूख ही बताना चाहिए। और जब दूसरे नेता कुछ कहें तो उन्हें साफ कर देना चाहिए कि यह उनका निजी विचार है, और इसे पार्टी की ओर से कोई मंजूरी मिली हुई नहीं है। भारत के राजनीतिक दल बहुत अनुभवी हैं, और उन्हें ऐसी किसी नसीहत की जरूरत होनी नहीं चाहिए, लेकिन तरह-तरह की बकवास से लोकतंत्र का भी खासा समय खराब होता है, इसलिए सार्वजनिक जीवन के लोगों को, राजनीति से परे भी, अवांछित बातें कहने से बचना चाहिए।
छत्तीसगढ़ सरकार ने कल आकार ले लिया। तीन हफ्ते पहले चुनावी नतीजे आ चुके थे, एक पखवाड़े पहले मंत्री तय हो चुके थे, लेकिन उनके विभाग तय नहीं हुए थे। एक मुख्यमंत्री, दो उपमुख्यमंत्री, कुछ 15 साल और अधिक मंत्री रह चुके मंत्री, इनके बीच हो सकता है कि विभागों का बंटवारा आसान न रहा हो, और यह भी हो सकता है कि तीन राज्यों में साथ-साथ, समानांतर चल रहे सरकार-गठन में कुछ चीजों को साथ रखकर देखा जा रहा हो, कुछ चीजों को लोकसभा चुनाव के मद्देनजर तय किया जा रहा हो। जो भी वजहें रही हों, किसी सरकार के गठन को बहुत तेज या बहुत धीमा कहना गलत होगा क्योंकि मामला पांच साल का रहता है। ये बातें हम लिख तो छत्तीसगढ़ के सिलसिले में रहे हैं, लेकिन ये बाकी राज्यों पर भी लागू होती हैं जहां पर अभी सरकार बन ही रही है। छत्तीसगढ़ में मंत्रियों के विभागों के बाद हो सकता है कि अब सरकार की मर्जी के, या मंत्रियों की पसंद के बड़े अफसर भी बदले जाएं, और यह भी हो सकता है कि कुछ हफ्ते बाद के बजट को देखते हुए सरकार तब तक मौजूदा अफसरों को उनकी जगह पर बनाए भी रखे। इस बारे में हमारी कोई राय नहीं है जिसकी वजह से हम आज यहां लिख रहे हों।
लेकिन पांच बरस के लिए बनने वाली सरकार को लेकर प्रदेशों के तमाम सोचने वाले लोगों को कुछ फिक्र भी करनी चाहिए। फिक्र का मतलब सरकार को फिक्र में डालना नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में यह भी माना जाता है कि किसी सरकार को हंड्रेड-डे-हनीमून का मौका मिलना चाहिए। वह सौ दिन अपने हिसाब से काम कर सके, उसके बाद उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। लोगों को याद होगा कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने अपने तमाम मंत्रियों को सौ दिनों का लक्ष्य तय करने को कहा था, और उसे पूरा करने के लिए वे हर मंत्री के साथ अलग-अलग भी बैठते थे। लोकतंत्र में मीडिया और विपक्ष को भी अपना रोज का काम भी करना चाहिए, और सरकार को अपना कामकाज साबित करने के लिए सौ दिन का वक्त भी देना चाहिए। सरकार की रोजाना की निगरानी जरूरी है ताकि उसकी गलती या गलत काम को रोजाना सुधारा जा सके, लेकिन मूल्यांकन की हड़बड़ी सौ दिन के पहले नहीं करनी चाहिए, जिसमें से करीब तीस दिन तो छत्तीसगढ़ सरकार के निकल चुके हैं। आज के लोकतंत्र में विपक्ष और परंपरागत मीडिया से परे सोशल मीडिया पर जनता के चौकन्नेपन, और उसकी जागरूकता को भी एक नई लोकतांत्रिक ताकत मानना चाहिए जो कि कई बार विपक्ष से अधिक धारदार रहती है, और विपक्ष की तरह समझौतापरस्त नहीं रहती, मीडिया की तरह दबाव या प्रभाव में नहीं रहती। जनता आज सोशल मीडिया पर उसे मुफ्त में हासिल एक तकरीबन बेकाबू आजादी के चलते सत्ता या विपक्ष दोनों का पल-पल मूल्यांकन कर सकती है, करती है।
हम फिर से नई सरकार के गठन पर लौटें, तो हमारे पास किसी ब्रांड वाली कोई सिफारिश नहीं है, डॉक्टरी में इस्तेमाल होने वाली जेनेरिक दवाओं सरीखी सलाह जरूर है जो कि किसी भी सरकार के काम की हो सकती है, किसी भी प्रदेश में काम आ सकती है, या रद्दी की टोकरी में भी डाली जा सकती है। किसी भी नई सरकार को अपने चुनावी वायदों के प्रति ईमानदार रहते हुए पिछली विपक्षी सरकार के गलत कामों की अनिवार्य रूप से जांच करवानी चाहिए, क्योंकि विपक्ष में रहते हुए पार्टी कई तरह के आरोप लगाती है, और छत्तीसगढ़ में हमारा देखा हुआ है कि भाजपा ने बहुत से सुबूतों और दस्तावेजों के साथ कभी राज्यपाल को, तो कभी चुनाव आयोग को सिफारिशें की थीं, कभी ईडी को कागजात दिए थे। अब वक्त आ गया है कि भाजपा की सरकार बनने पर उसे ऐसे सभी मामलों की जांच करवानी चाहिए क्योंकि उसे जानकारी रहते हुए वह जांच न करवाए, ऐसा कोई विकल्प संवैधानिक शपथ उसे नहीं देती है।
जब सत्तारूढ़ पार्टी बदलती है, तो कुछ बुनियादी फर्क भी आता है। एक बार फिर छत्तीसगढ़ की मिसाल दें, तो पिछली कांग्रेस सरकार ने देश की भाजपा लीडरशिप वाली मोदी सरकार से सीबीआई की जांच शुरू करवाने का अधिकार वापिस ले लिया था। ऐसा कुछ दूसरी कांग्रेस सरकारों ने भी किया था, और गैरभाजपा सरकारों ने भी। अब छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसी नई भाजपा सरकारों से यह स्वाभाविक उम्मीद की जाती है कि वे देश की पुरानी परंपरा के मुताबिक केन्द्र सरकार को, मतलब सीबीआई को अपने राज्य में खुद होकर जांच शुरू करने की एक सामान्य इजाजत दे। छत्तीसगढ़ में यह काम मंत्रियों को विभाग बंटने के पहले भी हो सकता था, लेकिन अब तो यह हो ही जाना चाहिए। फिर कुछ दूसरे और टकराव भूपेश सरकार और मोदी सरकार के बीच चले आ रहे थे, वे मुद्दे सुप्रीम कोर्ट के रास्ते होते हुए अभी नई सरकार के सामने सवाल बनकर खड़े हैं। इनमें सबसे बड़ा मुद्दा बस्तर की झीरम घाटी के नक्सल हमले का है जिसकी एनआईए जांच से असहमत होते हुए भूपेश सरकार ने एक नई एफआईआर दर्ज की थी, और उसने सुप्रीम कोर्ट तक से अपने पक्ष में यह आदेश पाया था कि वह इस एफआईआर पर जांच कर सकती है। अब यह तो मोदी सरकार के मातहत काम करने वाली एनआईए के खिलाफ भूपेश सरकार की पहल थी, आज कोई वजह तो है नहीं कि छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार एनआईए से असहमत होकर वैसी कोई जांच जारी रखे। इस पर भी फैसला कानूनी और राजनीतिक दोनों पहलुओं से होगा क्योंकि झीरम की राज्य पुलिस से जांच बंद करवाने पर कांग्रेस इसे एक मुद्दा बना सकती है कि पिछली भाजपा सरकार के वक्त हुआ वह हमला एक साजिश थी, और इसलिए आज की सरकार उसे बंद कर रही है। लोकतंत्र में फैसले कानूनी, राजनीतिक, और प्रशासनिक, कई पहलुओं से लिए जाते हैं, और झीरम का फैसला वैसा ही रहेगा।
छत्तीसगढ़ में पिछले पांच बरस में ईडी और इंकम टैक्स ने राज्य सरकार, इसके कई अफसर, इसके कई नेताओं के खिलाफ कई किस्म के नोटिस निकाले हैं, गिरफ्तारियां की हैं, संपत्ति जब्त की है, और भूपेश सरकार के खिलाफ बहुत ही गंभीर अपराधों के आरोप अदालत में पेश किए हैं। अब विष्णुदेव साय की सरकार को यह भी तय करना होगा कि सरकार और राज्य के जो लोग ऐसे कथित जुर्म से जुड़े हुए थे, उनमें शामिल थे, जिनके खिलाफ केन्द्र से राज्य को कार्रवाई के लिए लिखा जा चुका था, उन मामलों में क्या किया जाए? क्योंकि ईडी और आईटी की कार्रवाई कुछ धाराओं के तहत ही होती है, इन दोनों एजेंसियों के लगाए गए आरोपों में बहुत किस्म के जुर्म ऐसे दिखाई पड़ते हैं जो कि इनके अपने अधिकार क्षेत्र में नहीं आते। अपने अधिकार के दायरे को तो इन्होंने अदालत में पेश किया है, राज्य सरकार को लिखा है, लेकिन उन्हीं सुबूतों से भारत के कानून के तहत कई और जुर्म हैं जिनकी जांच राज्य अपनी एजेंसी से भी करवा सकता है, और चाहे तो उन्हें सीबीआई को भी दे सकता है। हमारा ख्याल है कि नए मंत्रिमंडल को ऐसे कानूनी पहलुओं पर प्राथमिकता के आधार पर गौर करना होगा क्योंकि कुछ ही महीनों में लोकसभा चुनाव का माहौल बनने लगेगा, और उसके करीब आने पर लिए गए ऐसे फैसले चुनावी-राजनीतिक असुविधा भी पैदा कर सकते हैं, और बदनीयत के आरोपों को भी न्यौता दे सकते हैं।
हम सैद्धांतिक रूप से इस बात के हिमायती हैं कि किसी भी सरकार को पिछली किसी सरकार या किसी नेता पर लगे आरोपों को अनदेखा करने का हक नहीं होना चाहिए। संविधान की जो शपथ लेकर सरकार बनती है, तो वह ऐसी हर जांच के लिए जवाबदेह भी होती है। अगर पिछली सरकार के जुर्म भूलकर सिर्फ आगे काम करने की बात होगी, तो फिर लोकतंत्र में किसी गलत काम पर कार्रवाई हो ही नहीं पाएगी। इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी को अपने पिछले आरोपों के साथ भी खड़े रहना चाहिए, और मौजूदा सरकार को बिना किसी बदनीयत के पिछले सारे संदिग्ध मामलों की ईमानदार जांच करवाना चाहिए। जब बहुत से राजनीतिक और सरकारी मुजरिम जेल जाएंगे, तो राजनीति धीरे-धीरे साफ-सुथरी भी होगी।
दुनिया के एक सबसे आधुनिक और विकसित देश जापान में ट्रक ड्राइवरों की कमी से एक अजीब सी नौबत आ खड़ी हुई है, जिसकी कल्पना करना भी बाकी दुनिया के लिए कुछ मुश्किल होगा। वहां पर बुजुर्ग आबादी बढ़ते चल रही है, कामकाज की उम्र वाले कामगारों का अनुपात घटते चल रहा है, कुल जमा आबादी भी गिर रही है, और घरों पर आराम की जिंदगी जीने वाले बुजुर्गों को हर सामान घर पहुंच लगता है। ऐसे में सामानों को शहरों और फिर घरों तक पहुंचाने के लिए ट्रक ड्राइवर भी बहुत कम पडऩे लगे हैं। द न्यूयॉर्क टाईम्स की एक खबर को देखें तो वहां पर सामानों की डिलिवरी में हफ्तों देर हो रही है, और इसे आने वाले बरस की सबसे बड़ी समस्या करार दिया गया है। सरकार का मानना है कि यह कमी 2030 तक दूर नहीं हो सकेगी, और बनने वाले सामानों में से एक तिहाई की डिलिवरी कभी भी नहीं हो पाएगी। यह बात जापान में कई दूसरे किस्म की चर्चाओं में लंबे समय से सामने आ रही थी कि कामकाजी लोगों का अनुपात घटते जाने, बुजुर्गों का अनुपात बढ़ते जाने, और आबादी लगातार गिरते जाने से कई किस्म की दिक्कतें और खतरे सामने दिखेंगे। और वह होना शुरू हो गया है। दुनिया के इस एक सबसे विकसित, औद्योगिक देश में साधारण से ड्राइवरों की ऐसी भयानक कमी से पूरी सप्लाई चेन ऐसी गड़बड़ा गई है कि अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पडऩा शुरू हो गया है, और लोगों की जिंदगी पर भी इसका असर पड़ रहा है।
हम बीच-बीच में कभी आर्थिक मंदी की वजह से होने वाली छंटनी के कारण, तो कभी ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से होने वाली बेरोजगारी को लेकर यह बात कहते आए हैं कि दुनिया के जिन देशों में मानव कामगारों की जरूरत बनी रहेगी, वहां के लायक कामगार तैयार करके गरीब देश अपने लोगों का भला कर सकते हैं, और देश की अर्थव्यवस्था में इजाफा भी कर सकते हैं। भारत जैसे देश जहां पर बेरोजगारों की बड़ी आबादी सरकारों के लिए बड़ी चुनौती रहती है, और लोग अपने देश-प्रदेश के भीतर ही काम तलाशते रह जाते हैं। दक्षिण भारत के कुछ राज्य, और उत्तर का पंजाब जरूर कामगारों को दुनिया भर में भेजते आए हैं, और यहां से बाहर गए हुए शायद करोड़ों लोग देश के भीतर कामकाज के मुकाबले बेहतर रोजगार पाए हुए हैं, या कारोबार भी कर रहे हैं। अभी तक हिन्दुस्तान के बाहर जाकर काम करने वाले लोग अंग्रेजीभाषी देशों और खाड़ी के देशों में अधिक जाते हैं, लेकिन जापान जैसे दुनिया के बहुत से ऐसे देश हैं जहां पर हिन्दुस्तानियों के काम करने की अधिक मिसालें नहीं हैं। हम इस बात को पहले भी सुझाते आए हैं कि कुछ चुनिंदा कामों के लिए लोगों को अधिक हुनरमंद बनाने के साथ-साथ अगर उन्हें दुनिया के जरूरतमंद संपन्न देशों की भाषा और संस्कृति की ट्रेनिंग भी दी जाए, तो वे वहां जाकर कई किस्म के काम पा सकते हैं। अब जापान अगर ट्रक ड्राइवरों की कमी झेल रहा है, और वहां आज ड्राइवरों को 18-18 घंटे काम करना पड़ रहा है, तो इस तरह के काम करने में हिन्दुस्तानी माहिर हैं, और आज भी अमरीका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा सरीखे बहुत से विकसित देशों में लाखों हिन्दुस्तानी ट्रक ड्राइवर काम कर ही रहे हैं।
किसी एक जगह की आपदा किसी दूसरी जगह के लिए अवसर भी बन सकती है। जापान में गिरती आबादी, और कामगारों की बढ़ती जरूरत अगले दस-बीस बरस तक किसी भी तरह बदलने वाली नहीं है, और वह ऐसे देशों में शुमार हो सकता है जो कि दूसरे देशों से आने वाले कामगारों के भरोसे चल सके। ऐसे में वहां की भाषा, संस्कृति, तहजीब के साथ-साथ अपने हुनर में माहिर कामगार हो सकता है कि सरकार की पहल से भी जापान में काम पा सके। और यह तो एक खबर की आने की वजह से हम जापान की चर्चा कर रहे हैं। देशों की ऐसी लिस्ट देखें तो उनमें बल्गारिया, लिथुआनिया, लातविया, यूक्रेन, सर्बिया, बोस्निया, क्रोएशिया, मालदोवा, अल्बानिया, रोमानिया, ग्रीस, स्तोनिया, हंगरी, पोलैंड, जॉर्जिया, पुर्तगाल, क्यूबा, और इटली सरीखे देश हैं। इनमें एक ही चीज एक सरीखी है कि ये सब गैरअंग्रेजीभाषी देश हैं। लेकिन भारत सरकार अगर चाहे तो इन देशों के साथ अभी से तालमेल करके कई बरस के बाद के हिसाब से भी कामगार तैयार कर सकती है, और वहां की सरकारें भी सरकारों के स्तर पर बेहतर कामगार पाने को पसंद कर सकती हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि इन देशों में सिर्फ ड्राइवरी जैसे काम ही पैदा हों, दुनिया इस बात की गवाह है कि वहां पहुंचे हुए मजदूरों के बच्चे भी उन देशों में राष्ट्रपति तक बनते आए हैं। इसलिए अपने देश के नागरिकों, खासकर बेरोजगार नौजवानों को बेहतर हुनरमंद बनाकर किसी विदेशी भाषा से लैस करके उन्हें किसी विकसित और संपन्न देश में भारत सरकार अगर काम दिलवा सकती है, तो इससे देश में बेरोजगारी भी घटेगी, और अंतरराष्ट्रीय पैमानों पर शिक्षण-प्रशिक्षण से देश के भीतर भी काम की उत्कृष्टता बढ़ेगी।
इस बीच भारत के अलग-अलग प्रदेश भी अपनी नौजवान पीढ़ी को बिना किसी पूर्वाग्रह और परहेज के, अंग्रेजी सिखा-पढ़ा सकते हैं, ताकि वे न सिर्फ दूसरे देशों के लायक तैयार हो सके, बल्कि देश के भीतर भी अंग्रेजी से जुड़े रोजगारों में उनकी संभावना पैदा हो सके। दुनिया के दर्जनों देशों में अगले कई दशक तक स्थानीय कामगार अनुपात घटते जाना है, इनको ध्यान में रखकर बेरोजगारों वाले देशों को अपने लोगों के लिए योजना बनानी चाहिए, ताकि एक अंतरराष्ट्रीय शून्य को भरा जा सके। भारत में जहां चार-चार बरस के लिए फौज में अग्निवीर बनाए जा रहे हैं, और चार साल बाद के लिए उनके पास कोई पुख्ता भविष्य नहीं रहेगा, ऐसे लोगों को भी बाकी दुनिया के लिए तैयार किया जा सकता है, और भारत सरकार के अलावा देश की राज्य सरकारें भी अपने स्तर पर ऐसा कर सकती हैं। यह बात अधिक लोगों को शायद नहीं पता होगी कि ब्रिटेन जैसे देश दूसरे देशों से अपने यहां नर्सें भर्ती करते हुए अलग-अलग देशों के लिए अधिकतम सीमा भी तय करते हैं, ताकि वहां काबिल नर्सों की कमी न हो जाए। ऐसे में जाहिर है कि अच्छी तरह शिक्षित-प्रशिक्षित हिन्दुस्तानी कामगारों के लिए संभावनाओं का आसमान बहुत बड़ा है, और रहेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तेलंगाना में अभी कांग्रेस की सरकार बनी ही है कि नए मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने यह आरोप लगाया है कि विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीआरएस के पिछले मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव ने किसी को बताए बिना गुपचुप तरीके से 22 महंगी, बुलेटप्रूफ कारों की सरकारी खरीद की थी। उनका इरादा दुबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद इनको अपने काफिले में इस्तेमाल करने का था। इन कारों को विजयवाड़ा में एक जगह छुपाकर रख दिया गया था। कांग्रेस को अंधाधुंध शानदार जीत दिलाने वाले रेवंत रेड्डी ने कल एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि उन्हें भी मुख्यमंत्री बनने के बाद दस दिनों तक इन कारों के बारे में नहीं बताया गया था। उन्होंने जब अपने लिए पुरानी सरकारी कारों की मरम्मत की बात कही, तो उन्हें कुछ अफसरों ने कहा कि तीन-तीन करोड़ दाम वाली 22 कारें पिछले मुख्यमंत्री खरीदकर गए हैं, और उनका इस्तेमाल दुबारा शपथ ग्रहण के बाद करने की उनकी योजना थी। यह लोकतंत्र में एक बहुत बड़ा दुस्साहस दिखता है कि कोई नेता चुनाव में जाने के ठीक पहले जीतने की उम्मीद के साथ इतनी बड़ी फिजूलखर्ची करे। किसी और राज्य से किसी मुख्यमंत्री के अपने लिए नए विमान खरीदने की चर्चा है, कहीं कोई मुख्यमंत्री अपने लिए नया हेलीकॉप्टर भी लेते हैं, लेकिन इन सबके बीच कारों के अपने काफिले पर 66 करोड़ रूपए खर्च करने का तेलंगाना का यह मामला बहुत ही भयानक है। तेलंगाना के जानकार अखबारनवीस बताते हैं कि राज्य का सचिवालय भी साढ़े 6 सौ करोड़ रूपए (जमीन के दाम शामिल नहीं) की लागत से केसीआर ने बनवाया, इस महलनुमा इमारत के उद्घाटन के बाद से वे खुद इसमें एक दिन के लिए भी नहीं गए, और अब कांग्रेस के रेवंत रेड्डी इसके मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठेंगे। सचिवालय की यह इमारत एक महल की तरह दर्शनीय बनी हुई है, और पर्यटक इसके सामने आकर सेल्फी लेने को एक जरूरी रिवाज मानने लगे हैं।
तेलंगाना में पिछले मुख्यमंत्री के मंत्री बेटे, केटीआर प्रदेश में सबसे अधिक मंत्रालयों वाले मंत्री थे, और अभी वे कांग्रेस सरकार पर नजर रखने के लिए अपने नेताओं को, एक शैडो टीम (छाया मंत्रिमंडल) खुला आव्हान कर चुके हैं। इसके जवाब में रेवंत रेड्डी ने कहा है कि शैडो टीम की क्या जरूरत है, उनके नेता तो यहां मंत्री रहे हुए हैं, और उन्हीं को अब सरकार पर नजर रखने के लिए लगा देना चाहिए, वे एक छाया मंत्रिमंडल की तरह काम कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सरकार में रहते तो काम किया नहीं था। दरअसल तेलंगाना में पिछली सरकार के गलत कामों को उजागर करने का सिलसिला नई सरकार चला रही है, और इसी को लेकर वहां टकराव चल रहा है, जिससे कई तरह के मामले उजागर हो रहे हैं। इसी सिलसिले में यह बात उजागर हुई कि सादे सफेद कपड़ों में आम इंसान सरीखे दिखने वाले पिछले मुख्यमंत्री केसीआर के काफिले के लिए 22 बुलेटप्रूफ गाडिय़ां खरीदी गई थीं। यह बात अकल्पनीय है कि कोई मुख्यमंत्री अपने काफिले की हर गाड़ी को बुलेटप्रूफ बनाने के लिए तीन-तीन करोड़ रूपए खर्च करे।
मुख्यमंत्री हों, या प्रधानमंत्री, अपने घर, दफ्तर, काफिले की कारों, अपने विमान और इन सबकी साज-सज्जा पर इस तरह खर्च करते हैं कि मानो वे पूरी जिंदगी वहीं बने रहने की लीज लिखाकर लाए हैं। देश की आबादी इतनी गरीब है कि केन्द्र सरकार, या अलग-अलग राज्य सरकारों को मुफ्त में राशन देना पड़ता है, तो लोग भुखमरी से बच पाते हैं। बच्चे तो फिर भी अन्न से परे कुछ भी न मिल पाने की वजह से कुपोषण के शिकार रहते ही हैं। ऐसे देश में जब जनता का पैसा नेताओं के शाही निजी आराम पर खर्च होता है, तो लगता है कि लोकतंत्र कहां है? सरकारी इमारतों को महलों की शक्ल में बनयाा जाता है, और फिर वहां रहने वालों का मिजाज सामंती हो जाए, तो इसमें हैरानी कैसी? हम जनता के पैसों पर बनने वाले सरकारी दफ्तरों को महलों की शक्ल में देख-देखकर थक गए हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जो म्युनिसिपल ठीक से कचरा साफ नहीं करवा सकता, उसने अपना दफ्तर महलनुमा बनाया है, नाम व्हाईट हाऊस रखा है कि मानो वह अमरीकी राष्ट्रपति का दफ्तर है। सत्ता अपने छोटे-छोटे अहंकार सहलाने के लिए जनता का बड़ा-बड़ा पैसा खर्च करती है, और हिन्दुस्तान में ऐसी सरकारी आपराधिक फिजूलखर्ची पर कोई अदालती रोक भी नहीं है क्योंकि इसे सरकार का विवेकाधिकार मान लिया जाता है। यह एक अलग बात है कि यह गरीब जनता के प्रति हिकारत दिखाने वाला विवेकहीन अधिकार अधिक है क्योंकि यह जनता का खून निचोडऩे के साथ-साथ उसे यह गौरव दिलाने की कोशिश भी करता है कि यह लोकतंत्र की ताकत है।
जब संसद या विधानसभा में विपक्ष की आवाज या तो निकले ही नहीं, या उसे सुना नहीं जाए, तो फिर जनता के पैसों की फिजूलखर्ची पर कोई रोक नहीं लग पाती। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कई एकड़ जमीन पर 65 करोड़ रूपए से मुख्यमंत्री निवास बना है, इसे डॉ.रमन सिंह के कार्यकाल में मंजूरी दी गई थी, भूपेश बघेल ने पांच बरस ईंट-गारा ढोकर इसे पूरा किया, और अब विष्णुदेव साय इसमें रहने जा रहे हैं। हमने कुछ दिन पहले अपने यूट्यूब चैनल पर मंत्री-मुख्यमंत्री, और अफसरों के लिए बहुत अंधाधुंध बड़े बंगले बनवाने के बारे में कहा था जिस पर लोगों की तीखी प्रतिक्रिया भी आई थी। लोकतंत्र में जो जनसेवा के नाम पर सत्ता पर आते हैं, उन्हें एक सेवक सरीखी जिंदगी जीने की भी आदत रखनी चाहिए। सरकारी इमारतों को न सिर्फ बनाना खर्चीला रहता है, बल्कि उनके रख-रखाव पर भी जनता का ही पैसा लगता है। इसलिए किसी भी जनकल्याणकारी सरकार को ऐसा नया खर्च शुरू करने के पहले यह भी सोचना चाहिए कि उसे देश-प्रदेश की जनता को मुफ्त में अनाज क्यों देना पड़ रहा है? और ऐसी जनता के खजाने से खुद पर इतना खर्च क्यों करना चाहिए कि मुख्यमंत्री निवास 8 एकड़ पर बने, और प्रधानमंत्री निवास 15 एकड़ पर!
हमारा ख्याल है कि लोकतंत्र में हर सरकार को अपने से पहले वाली सरकार के गलत कामों, फिजूलखर्चियों, और अपराधों पर श्वेत पत्र जारी करना ही चाहिए जैसा कि आज तेलंगाना में हो रहा है। श्वेत पत्र एक किस्म का तथ्य पत्र होता है जिसमें जानकारी लोगों के सामने रख दी जाती है। सत्ता में आने के पहले हर पार्टी अपने चुनाव अभियान में कई तरह के आरोप लगाती है, और सत्ता में आने पर ऐसी पार्टी को पूरे पारदर्शी तरीके से तथ्य जनता के सामने रख देने चाहिए। देश में आज सूचना के अधिकार का जो कानून लागू है, वह सूचना मांगने का अधिकार है। जबकि लोकतंत्र और संविधान की भावना यह होनी चाहिए कि सरकार खुद होकर जनता के सामने तमाम चीजों को रखती चले। यह सबका तजुर्बा है कि जहां-जहां चीजों को छुपाया जाता है, वहां-वहां जुर्म अधिक होते हैं, जैसे कि गरीब जनता के पैसों से 66 करोड़ का कार काफिला!
असम के गुवाहाटी हाईकोर्ट ने अभी राज्य की पुलिस को कहा है कि एक मामले में गिरफ्तार किए गए एक वकील को हथकड़ी लगाकर अदालत लाने, जेल ले जाने की नुमाइश करने वाले पुलिसवालों पर 5 लाख रूपए का जुर्माना लगाया जाए, और यह रकम अदालत से रिहा किए जा चुके इस वकील को हर्जाने के रूप में दी जाए। हाईकोर्ट ने यह पाया है कि असम पुलिस के एक होमगार्ड से एक मामूली से पार्किंग के झगड़े में इस वकील को गिरफ्तार किया गया था, उसके साथ बुरा सुलूक किया गया। अदालत ने इस बात को सुप्रीम कोर्ट के बड़े स्पष्ट आदेश-निर्देश के खिलाफ पाया कि अभियुक्त को हथकड़ी लगाकर अदालत में पेश किया गया, और अदालत से मेडिकल जांच के लिए, और जेल तक हथकड़ी लगाकर ही ले जाया गया। हाईकोर्ट ने यह माना है कि ऐसा बर्ताव इस अभियुक्त के बुनियादी मानवाधिकारों और गरिमा से जीने के हक के खिलाफ था। निचली अदालत से इस मामले में बरी हो जाने के बाद वकील ने मानवाधिकार आयोग में शिकायत की थी, लेकिन इस शिकायत को आयोग ने इस आधार पर बंद कर दिया था कि जिस अफसर के खिलाफ शिकायत है, वह गुजर चुका है। इसके बाद वकील ने हाईकोर्ट में इस आदेश के खिलाफ अपील की, और हथकड़ी लगाने से उसकी साख और गरिमा को हुए नुकसान का हर्जाना मांगा। अदालत ने माना कि जांच अधिकारी ने सोच-समझकर हथकड़ी लगाई थी जबकि सारे आरोप जमानतीय थे। अदालत ने राज्य शासन को आदेश दिया है कि दो महीने के भीतर इस वकील को पांच लाख रूपए हर्जाना दिया जाए, साथ ही असम पुलिस को हथकडिय़ों के बारे में सुप्रीम कोर्ट की दी गई व्यवस्था को लेकर संवेदनशील भी बनाया जाए।
अदालत ने इस मामले में जुर्माने की रकम पुलिस विभाग से वसूलने का निर्देश दिया है। यहीं पर हम अदालत से कुछ असहमत होना चाहेंगे। किसी अभियुक्त को हथकड़ी लगाई जाए या नहीं, इस बारे में पुलिस को बरसों से पर्याप्त जानकारी है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1980 के एक फैसले में बहुत विस्तार से ये निर्देश दिए थे कि किस तरह के मामलों में किस इजाजत के बाद ही हथकड़ी लगाई जाए। इस बात को 40 साल हो चुके थे, जब असम पुलिस ने अपने होमगार्ड के साथ हुए झगड़े पर एक वकील के साथ यह सुलूक किया था। इसे पूरी तरह, या किसी तरह भी मासूम कार्रवाई नहीं कहा जा सकता था। एक मामूली से झगड़े की शिकायत पर स्थानीय अदालत में वकालत करने वाले वकील के फरार हो जाने या हिंसक हमला करने का ऐसा कोई खतरा नहीं था कि उसे हथकड़ी लगाई जाती। यह बात साफ-साफ है कि अपने ही विभाग के एक कर्मचारी के साथ हुए इस झगड़े के बाद पुलिस ने अतिउत्साह में, और बदले की भावना से यह कार्रवाई की थी, जिसकी नीयत किसी इंसाफ की न होकर वकील को बेइज्जत करने की थी। इसलिए इस मामले में हाईकोर्ट का यह दखल तो ठीक है कि पुलिस को इस ज्यादती के लिए जिम्मेदार मानते हुए उस पर जुर्माना लगाया जाए, लेकिन बदनीयत के ऐसे मामलों में जुर्माने का कम से कम एक हिस्सा जिम्मेदार अफसर और कर्मचारी के मत्थे भी मढ़ा जाना चाहिए क्योंकि यह किसी नियमित और मासूम कार्रवाई का हिस्सा नहीं था, यह बदनीयत से की गई कार्रवाई थी। लोगों को सरकारी कामकाज के दौरान रियायत सिर्फ अच्छी नीयत से की गई कार्रवाई के लिए ही मिलनी चाहिए, निजी दुश्मनी भंजाने के लिए ऐसी छूट नहीं दी जानी चाहिए।
अभी-अभी एक हाईकोर्ट में चल रही सुनवाई का एक वीडियो सामने आया है जिसमें एक मकान को तुड़वाने पर आमादा वकील को जज याद दिलाते हैं कि लोग बड़ी मुश्किल से एक मकान बना पाते हैं, और अगर किसी व्यक्ति ने अपनी जमीन के भीतर ही ऐसा मकान बनाया है, तो फिर उसे तुड़वाते हुए यह भी याद रखना चाहिए कि वकील ने खुद ने, या उनके मुवक्किल ने अपना मकान पूरी तरह नियमों के मुताबिक बनाया है क्या? अदालत ने इस प्रसारण में काफी सख्त रूख बताते हुए शिकायकर्ता के मकान का नक्शा और निर्माण की इजाजत भी मांगी है ताकि देखा जा सके कि शिकायत करने वाले लोगों का अपना खुद का क्या हाल है। इन दो मामलों का एक-दूसरे से कुछ भी लेना-देना नहीं है लेकिन दोनों ही मामले अदालत के इस रूख को बताते हैं कि सरकारी, पुलिसिया, या कानूनी ताकत हाथ में रहने पर किसी को परेशान करने या नीचा दिखाने का हक नहीं मिल जाता। हम गुवाहाटी हाईकोर्ट के इस ताजा आदेश पर लौटें, तो यह बाकी राज्यों के लिए भी एक सबक और चेतावनी हो सकती है कि पुलिस को मनमानी से किस तरह बचना चाहिए। मनमानी पर सरकार अपने अधिकारियों और कर्मचारियों की तरफ से जुर्माना जमा करे, यह हर मामले में ठीक नहीं है। जब व्यक्तियों की बदनीयत हो, तब उन पर भी जुर्माने का कुछ बोझ तो आना ही चाहिए।
देश में पुलिस सुधार पर बहुत सी बड़ी-बड़ी रिपोर्ट बन चुकी हैं, जो धूल खा रही हैं। देश भर के राज्यों में पुलिस राजनीतिक ताकतों के हाथ एक औजार की तरह काम करती है, और उसकी असल हसरत तो यह रहती है कि उसे हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाए। पुलिसवर्दी के बड़े-बड़े लोग अपने आपको सत्ता के हाथों हथियार की तरह पेश करने के लिए बेचैन रहते हैं ताकि उन्हें मोटी कमाई करने वाली कुर्सियां मिल जाएं। देश की ऐसी पुलिस व्यवस्था को सुधारने के लिए, और उसके कामकाज में राजनीतिक दखलंदाजी को कम करने के लिए दशकों से बात ही बात हो रही है, बात किसी किनारे नहीं पहुंच रही है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। यह मामला तो एक वकील का था, और यह बात अदालत में अच्छी तरह साबित पाई थी कि उसे पूरे वक्त हथकड़ी लगाकर रखा गया था, लेकिन जो कमजोर लोग पुलिस के जाल में फंसते हैं वे तो ऐसी कानूनी लड़ाई लडऩे की हालत में भी नहीं रहते हैं, और उनकी कोई भी मदद तभी हो सकती है जब पुलिस को संवेदनशील बनाया जा सके, वरना पुलिस ताकत को सलाम करते हुए, कमजोरों को अपने बूटतले कुचलने का काम करती रहेगी।
क्रिसमस मनाने हिमाचल के शिमला और कुल्लू मनाली जा रहे लोगों की दसियों हजार गाडिय़ां सडक़ों पर ऐसे जाम रहीं कि उसके वीडियो देख हैरानी होती रही कि इनमें से किसी की तबियत बहुत खराब हो जाने पर क्या होगा? कैसे कोई एम्बुलेंस वहां तक पहुंच सकेगी? हिमाचल की बहुत सी सडक़ों पर जाम का यह हाल था कि पूरे 24-24 घंटे गाडिय़ां हिल नहीं सकीं। एक जगह तो 55 हजार गाडिय़ां फंसने की खबर थी। अब इससे पहाड़ की सडक़ों की क्षमता का भी अंदाज लग रहा है, और लोगों की कार लेकर जाने की दीवानगी भी समझ आ रही है। जहां पर तापमान शून्य से नीचे चले जाता है, जहां पर बर्फबारी होती है, वहां 24-24 घंटे का ट्रैफिक जाम किसे जिंदा रखेगा, किसे मारेगा इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। खबरें बताती हैं कि इसी मानसून की बाढ़ में कई रास्ते तबाह हुए थे, जिनकी पूरी मरम्मत अभी तक नहीं हो पाई है, और अब उन जगहों पर भी ट्रैफिक जाम लगा हुआ है। जिन सैलानी शहर-कस्बों तक पहुंचने के लिए ये लोग कारों से सपरिवार, या दोस्तों सहित जा रहे हैं, वहां पर भी होटलों का इंतजाम दम तोड़ देता है, और अभी कुछ बरस पहले वहां पानी की कमी से यह अपील जारी करनी पड़ी थी कि और सैलानी वहां पर न आएं। पड़ोस के उत्तराखंड का हाल तीर्थयात्राओं की वजह से इससे भी अधिक बुरा रहता है, और वहां भी सडक़ और तीर्थों की क्षमता ध्वस्त हो जाती है, लेकिन लोगों का आना रूकता ही नहीं है। लोगों की दीवानगी, और भक्ति के चलते हुए एक आसान और तुरत इलाज यह हो सकता है कि निजी गाडिय़ों का वहां जाना अंधाधुंध महंगा कर दिया जाए, और सिर्फ बसों को छूट दी जाए ताकि कम ईंधन और कम सडक़ घेरकर अधिक मुसाफिर सफर कर सकें। पब्लिक ट्रांसपोर्ट हमेशा ही पर्यावरण के लिए कम नुकसानदेह होता है, और पहाड़ी इलाकों में ट्रैफिक जाम भी इससे बचता है।
आज हिन्दुस्तान के गिने-चुने पहाड़ी तीर्थों, और पर्यटन केन्द्रों पर देश की बहुत बड़ी आबादी का हमला सरीखा चलते रहता है। देश में समुद्र तट तो बहुत से हैं, और वहां पर अधिक लोगों के पहुंचने पर भी वैसी दिक्कत नहीं होती जैसी पहाड़ पर होती है। समंदर तक जाने के रास्तों पर ट्रैफिक जाम नहीं होता, आसपास के इलाकों में होटलों की कमी नहीं रहती, और वहां की पर्यटक-क्षमता काफी होती हैं। हिन्दुस्तान समुद्रतटों से घिरा हुआ देश है, इसलिए सैलानियों की वजह से समंदर किनारे भीड़ नहीं होती। लेकिन कश्मीर, उत्तराखंड, और हिमाचल, सैलानियों और तीर्थयात्रियों के लिए पहाड़ तो बस इतने ही हैं, इसलिए इनकी क्षमता को ध्यान में रखना चाहिए। आज जिस तरह निजी कारों पर सवार होकर लोग पहाड़ों के लिए निकल पड़ते हैं, पहाड़ी राज्यों को यह भी देखना चाहिए कि किसी मुसीबत से जूझने की उनकी ताकत कितनी है? अगर किसी सडक़ पर भूस्खलन हो गया, या कहीं पर बाढ़ से पुल बह गए, तो क्या होगा? दसियों हजार फंसे हुए सैलानियों को किस तरह बचाया जा सकेगा? और अभी तो हम किसी किस्म की साजिश और आतंकी हमले की बात भी नहीं कर रहे हैं। अगर किसी आतंकी हमले में दो तरफ के पुल उड़ा दिए जाएं, तो बीच में फंसे हुए मुसाफिरों और सैलानियों का क्या होगा? कई बार स्थानीय शासन और प्रदेश शासन पर कारोबारी दबाव इतना अधिक रहता है कि साल में कुछ महीने आने वाले सैलानियों को न रोका जाए क्योंकि उन्हीं की वजह से पहाड़ी कारोबार चलता है, लेकिन ऐसे कारोबार को पर्यावरण और प्रशासन दोनों की क्षमता को देखते हुए ही इजाजत दी जानी चाहिए।
पर्यावरण के लिए, और प्रशासन की दृष्टि से भी सबसे आसान तरीका पहाड़ों पर जाने वाली गाडिय़ों पर एक मोटा टैक्स लगाना हो सकता है। निजी कारों या टैक्सियों का यह सफर इतना महंगा कर दिया जाए कि लोग बसों से जाने को मजबूर हों। इससे जो प्रदूषण घटेगा, उससे ही पहाड़ भी बचेंगे, वरना प्रदूषण से जो जलवायु परिवर्तन हो रहा है, वह पहाड़ों को खतरे में डालते चल रहा है। चूंकि पहाड़ी इलाकों की अर्थव्यवस्था तीर्थ या पर्यटन पर टिकी रहती हैं, इसलिए ऐसी जगहों पर टैक्स बढ़ाकर भीड़ को कम करना ही अकेला जरिया हो सकता है। अभी जब यह अभूतपूर्व ट्रैफिक जाम लगा है, और इसके पहले जब बाढ़ से तबाही आई, तब यह बात भी सामने आई कि पहाड़ी इलाकों में भ्रष्टाचार और रिश्वत के चलते चारों तरफ अवैध निर्माण हो रहे हैं, इससे भी वहां पर्यटकों की क्षमता बढ़ रही है, और स्थानीय पर्यावरण बर्बाद हो रहा है। देश के बाकी मैदानी इलाकों में अवैध निर्माण से उस तरह का फर्क नहीं पड़ता जिस तरह का फर्क पहाड़ी इलाकों पर इससे पड़ता है। इसलिए इन राज्य सरकारों को अधिक ईमानदार रहना चाहिए, वरना वहां पर सब अवैध ही अवैध रह जाएगा, और जब जख्मी की गई कुदरत की मार पड़ेगी, तो किसी सरकार के हाथ कोई बचाव नहीं रह जाएगा। यह भी हो सकता है कि इन प्रदेशों की किसी गलती के बिना भी दूसरे इलाकों के प्रदूषण से जलवायु परिवर्तन हो रहा हो, लेकिन पहाड़ों पर होने वाले कुदरती नुकसान को तो इन्हीं प्रदेशों को झेलना पड़ेगा।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में जो शासन व्यवस्था है उसमें राज्यों को बहुत दूर तक उनके ही हाल पर छोड़ दिया जाता है। किसी समझदार सरकार को कुदरत के रखरखाव वाले प्रदेशों को उनके नुकसान की भरपाई करनी चाहिए। भारत में भी केन्द्र सरकार को चाहिए कि जिन प्रदेशों में पहाड़, जंगल, नदी, और कुदरत को बचाने का जिम्मा दिया जाता है, उन्हें उसकी भरपाई भी दी जाए। पूरे बदन में फेंफड़ा तो एक ही जगह होता है, लेकिन उसकी वजह से बाकी का बदन भी चलता है। इसलिए देश के जिन हिस्सों को अछूता रखने की मजबूरी रहती है, उन्हें उनके नुकसान की भरपाई भी करनी चाहिए। राज्यों को उनके रहमोकरम पर छोड़ देना ठीक नहीं है। पहाड़ी इलाकों के रोजगार और कारोबार को किस तरह पर्यावरण-दोस्ताना बनाया जा सकता है, इस बारे में केन्द्र और राज्य सरकारों को सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे शारीरिक और मानसिक दिक्कतें झेल रहे लोगों के साथ रहम बरतें। आयोग ने भाषणों और बयानों में ऐसे लोगों के बारे में उनकी विकलांगता को गिनाने वाले शब्द इस्तेमाल न करने को कहा है। ऐसे शब्दों की एक लिस्ट भी आयोग ने गिनाई है जिनमें गूंगा, बहरा, अंधा, काना, लंगड़ा, लूला, अपाहिज, पागल, सिरफिरा जैसे बहुत से शब्द बताए गए हैं, और कहा गया है कि चुनाव प्रचार में इनका इस्तेमाल चुनाव कानून के खिलाफ होगा, और ऐसा करने पर दिव्यांगजन अधिकार कानून-2016 के तहत पांच साल की कैद हो सकती है। देश में राजनीतिक दल और नेता लापरवाह जुबान इस्तेमाल करने के लिए जाने जाते हैं, और ऐसे में शारीरिक-मानसिक विकलांगता के अलावा महिलाओं के बारे में भी बहुत अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल एक आम बात है। हमारा ख्याल है कि चुनाव आयोग को किसी कानून के तहत महिलाओं के अपमान पर भी चेतावनी जारी करनी चाहिए जो कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन में मर्दों की सोच से उपजी रहती है।
लेकिन भारत के सुप्रीम कोर्ट के बार-बार के तल्ख हुक्म के बाद भी चुनावों में नफरती बातों का कोई अंत नहीं दिख रहा है, और बहुत साम्प्रदायिक और नफरती बातों का इस्तेमाल बड़ा आम है। चुनाव आयोग इस बात को अच्छी तरह देख रहा है कि चुनाव या उससे परे किसी भी वक्त, किसी भी जगह नफरती बातों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट कितना कड़ा है, लेकिन चुनाव आयोग ऐसे बयानों और भाषणों पर कोई कार्रवाई करते नहीं दिखता है। नतीजा यह है कि हर चुनाव में नफरत कुछ बढ़ा दी जाती है, क्योंकि नफरत के पिछले बयान अब लोगों का ध्यान उतना नहीं खींचते हैं, लोगों की वाहवाही पाने के लिए कुछ अधिक की जरूरत पड़ती है। यह तो ठीक है कि चुनाव आयोग ने विकलांगों या दिव्यांगजनों के बारे में यह संवेदनशील आदेश निकाला है, और इस देश में सैकड़ों बरस से भाषाओं और बोलियों में इन लोगों के बारे में हिकारत एक आम बात रहते आई है। लेकिन इससे परे देश में साम्प्रदायिक नफरत, धार्मिक उन्माद, और कट्टरता के खतरे बहुत अधिक हैं, और उनके बारे में चुनाव आयोग तकरीबन चुप्पी साधे रखता है। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें चुनाव आयोग की सीधी-सीधी दखल की उम्मीद रहती है, लेकिन आयोग शिकायत मिलने पर भी उसकी अनदेखी ही करते रहता है।
हम राजनीति और चुनाव की भाषा से परे अगर देखें, तो चुनाव आयोग अब महज ईवीएम के रास्ते चुनाव करवाने की विकसित हो चुकी एक तकनीक पर चलते जा रहा है, लेकिन उसने चुनावों को प्रभावित करने वाले दूसरे नाजायज तरीकों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया है। आज हर तरफ चुनाव में कालेधन का अंधाधुंध इस्तेमाल के खिलाफ आयोग पूरी तरह बेअसर दिखता है। अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव हुए उनमें अकेले तेलंगाना में ही सात सौ करोड़ रूपए नगद जब्त हुए। किसी राजनीतिक दल और नेता ने इस पर दावा नहीं किया। पांच राज्यों में कुल मिलाकर 1760 करोड़ रूपए की नगदी जब्त हुई थी, जिसे कि 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद के इन पांच बरसों में सात गुना बताया गया है। इस जब्ती में कुछ हिस्सा शराब और दूसरे नशे के सामानों का भी था जो कि नगदी के मुकाबले कम खतरनाक नहीं थे। एक तरफ तो चुनाव आयोग के अधिकार अंधाधुंध हैं, और वे राज्यों के पुलिस और प्रशासन को भी अपनी मर्जी से बदल सकते हैं। दूसरी तरफ जो नगदी पकड़ा रही है उससे दर्जनों या सैकड़ों गुना अधिक नगदी चुनाव में इस्तेमाल होती है, ऐसा आम जानकारी से पता लगता है। ऐसे में पैसों का इतना बड़ा इस्तेमाल चुनावी नतीजों को किस हद तक प्रभावित करता होगा यह अंदाज लगाना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए।
शारीरिक-मानसिक विकलांगता को लेकर चुनाव आयोग की पहल ठीक है, लेकिन वह देश में चुनावों में होने वाली नाजायज बातों का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है। आयोग को अधिक असरदार होना चाहिए जैसा कि एक वक्त के मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने साबित किया था। यह एक अलग बात है कि अब चुनाव आयुक्त नियुक्त करने की प्रक्रिया से सुप्रीम कोर्ट जजों को जिस तरह अलग किया गया है, और अब प्रधानमंत्री और उनके मनोनीत मंत्री ही चुनाव आयुक्त नियुक्त करेंगे। इसके लिए अभी संसद में एक विधेयक लाया गया है जो कि राज्यसभा में पास हो गया है, और लोकसभा में पास होना शायद बाकी है। सरकार का यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की रोशनी में आया है जिसमें इसी बरस मार्च में अदालत में कहा था कि चुनाव आयुक्त नियुक्त करने के बारे में संसद ने पिछले 73 बरसों में कोई कानून नहीं बनाया है, और इसलिए इस पर एक स्पष्ट कानून होना चाहिए। इसके पहले देश में चुनाव सुधार के लिए तैयार कुछ रिपोर्ट में यह सुझाया गया था कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, देश के मुख्य न्यायाधीश, और लोकसभा के सबसे बड़े दल के मुखिया की एक कमेटी करे। सुप्रीम कोर्ट में भी ऐसी ही सिफारिश की वकालत की थी, और कहा था कि जब तक संसद कोई कानून नहीं बनाती है तब तक ऐसी कमेटी चुनाव आयुक्त बनाए। अब नया कानून जो तरीका लागू करने जा रहा है उसके मुताबिक प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और एक केन्द्रीय मंत्री मिलकर चुनाव आयुक्त नियुक्त करेंगे, और इस कमेटी से देश के मुख्य न्यायाधीश को बाहर कर दिया गया है। मतलब यह कि कमेटी के तीन सदस्यों में खुद प्रधानमंत्री और उनके मनोनीत मंत्री का हमेशा ही एक बहुमत रहेगा, और प्रधानमंत्री की मर्जी से परे इसमें कुछ नहीं हो सकेगा। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में अपना रूख साफ किया था।
दिव्यांगजनों या विकलांगों के बारे में चुनाव आयोग की पहल उसके सरोकार को दिखाती है, लेकिन यह बात भी है कि इससे चुनाव के बुनियादी मकसद में निष्पक्षता और ईमानदारी पर कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये दोनों बुनियादी जरूरतें अभी खतरे में ही हैं, और आने वाले दिनों में जिन शर्तों पर जिन लोगों के द्वारा ये नियुक्तियां, निष्पक्षता और खतरे में ही पड़ेगी। इसलिए चुनाव आयोग जैसी एक संवैधानिक संस्था को लेकर जिस तरह की पारदर्शिता होनी चाहिए थी, वही जब नहीं हो रही है, तो उसकी साख भी खतरे में ही रहेगी। ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग सरकार के ही एक विभाग की तरह काम करेगा, और सरकार के पसंदीदा और वफादार लोगों को वहां बिठाया जाएगा। दुनिया के विकसित लोकतंत्रों में संवैधानिक संस्थाओं के लिए ऐसा कमजोर इंतजाम नहीं रहता है, लेकिन भारत में यह लगातार चल रहे एक सिलसिले की कड़ी है कि किस तरह संवैधानिक संस्थाओं को सरकार के मातहत रखा जाए।
इस बरस की शुरूआत में दुनिया की एक सबसे बड़ी टेक्नॉलॉजी कंपनी गूगल ने 12 हजार कर्मचारियों को एक साथ निकाल दिया था। अभी कुछ अरसा पहले इस कंपनी के भारतवंशी मुखिया सुन्दर पिचई ने यह गलती मानी थी कि छंटनी को सही तरीके से लागू नहीं किया गया था, और इससे कर्मचारियों का मनोबल टूटा था। अब आज एक खबर यह है कि गूगल में फिर से दसियों हजार कर्मचारियों को नौकरी से निकालने की योजना बन रही है। साल के शुरू में जिन लोगों को निकाला गया था, उनके बारे में कंपनी का यह तर्क था कि मंदी की आशंका में लोग हटाए गए थे। अब ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और मशीन लर्निंग जैसी टेक्नॉलॉजी की वजह से लोगों की जरूरत घटते चल रही है, और न सिर्फ गूगल, बल्कि दुनिया की और भी बहुत सी कंपनियां कर्मचारियों को लगातार घटाती चली जाएंगी। ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से नौकरियों का खत्म होना जिस रफ्तार से सोचा जा रहा था, हो सकता है कि वह उससे बहुत अधिक रफ्तार से होने लगे।
लोगों को याद होगा कि अमरीका में फिल्म और टीवी इंडस्ट्री के लेखकों ने कई महीने चली लंबी हड़ताल की थी क्योंकि वे फिल्म-सीरियल बनाने वाली कंपनियों के ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से आगे की कहानी बना लेने की वजह से अपने रोजगार को खतरे में पा रहे थे। अब कल बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि लाखों लोगों को रोजगार देने वाले भारतीय फिल्म उद्योग ने ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के इस्तेमाल से बहुत सी नौकरियां जा सकती हैं। अभी किसी एक फिल्म में एक एक्शन सीन को पूरे का पूरा एआई से बनाया गया। एक तमिल फिल्म के ढाई मिनट के इस सीन को गढऩे में सैकड़ों लोगों को कई हफ्तों का काम मिलता, अब वह एआई कर रहा है। इस रिपोर्ट में एक दूसरी खतरनाक मिसाल दी गई है कि 1983 में मासूम नाम की एक चर्चित फिल्म बनाने वाले फिल्म निर्देशक शेखर कपूर ने जब इस फिल्म की अगली कड़ी को बनाना तय किया, तो उन्होंने एआई टूल चैटजीपीटी से मासूम की कहानी को आगे बढ़ाकर देखा। शेखर कपूर का कहना है कि एआई ने मासूम की कहानी की सारी नैतिक जटिलताओं को तुरंत ही बारीकी से समझ लिया, और आगे की एक कहानी बनाकर पेश कर दी जिसमें यह दिखता है कि विवाहेत्तर संबंधों से पैदा हुआ एक बच्चा बड़ा होकर कैसे अपने पिता से नाराजगी पाल लेता है। फिल्म मासूम की कहानी ऐसे ही एक बच्चे पर थी, और एआई टूल ने कहानी को सारी मानवीय, सामाजिक, और नैतिक जटिलताओं के साथ आगे बढ़ा दिया!
लेकिन ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल सिर्फ रचनात्मक चीजों के लिए होगा ऐसा भी नहीं है, दुनिया भर में बिखरे हुए कॉल सेंटरों में जवाब देने वाले कर्मचारी भी एआई की वजह से नौकरियां खोएंगे क्योंकि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस इंसानों से बेहतर काम तकरीबन मुफ्त कर देगा। एआई की मदद से सीसीटीवी कैमरों से होने वाली निगरानी का मानवीय विश्लेषण जरूरी नहीं रह जाएगा, और हजारों गुना रफ्तार से एआई टूल्स ऐसी निगरानी करके खतरा बता सकेंगे, जिन लोगों की तलाश है उन्हें पकड़ सकेंगे। अभी तक न तो ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस टेक्नॉलॉजी अपनी पूरी ऊंचाई पर पहुंची है, और न ही हासिल हो चुकी कामयाबी का पूरा इस्तेमाल हो रहा है। जब इन दोनों ही मामलों में बात आगे बढ़ेगी, तब नौकरियों पर खतरा एक विस्फोट की तरह सामने आएगा। ऐसे में दुनिया भर के लोगों को अपने कामकाज को बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि जब नौकरियां जाती हैं तो भी सबसे अच्छे कर्मचारी और कामगार बचे रह जाते हैं। जिनका काम बहुत अच्छा नहीं होता, उनकी नौकरियां पहले जाती हैं।
लेकिन ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस टेक्नॉलॉजी से परे भी दुनिया भर के कामगारों को अपने काम को बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए। दुनिया के पूंजीवादी देशों में तो नौकरी की कोई गारंटी रहती नहीं है, बिना किसी एडवांस नोटिस के लोगों को महीने भर की तनख्वाह देकर निकाल दिया जाता है। अब हिन्दुस्तान में भी मजदूर कानून कमजोर किए जा रहे हैं, और कंपनियों के लिए सहूलियत के कानून बढ़ते जा रहे हैं। इसके अलावा सरकारी कंपनियों और सरकारी कामकाज का जिस रफ्तार से निजीकरण हो रहा है, उससे धीरे-धीरे कर्मचारी हक के लिए यूनियन और आंदोलन सरीखी बातें इतिहास बन जाएंगी। एक वक्त देश में एक मजबूत श्रमजीवी पत्रकार आंदोलन रहता था, फिर जैसे-जैसे इस आंदोलन ने पत्रकारों और दीगर मीडिया कर्मचारियों के हक वेतन आयोग के रास्ते मजबूत करवाए, वैसे-वैसे मीडिया-मालिकों ने नौकरी की शर्तें ही कड़ी कर दीं, नियमित नौकरियों के घटा दिया, और संपादक तक ठेका-मजदूर जैसी शर्तों पर रखे जाने लगे। आज हालत कारोबार के लिए और अधिक दोस्ताना हो चुकी है, और मजदूर कानून नामौजूद और बेअसर से हो चुके हैं। ऐसे में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के निशाने पर मीडिया उद्योग भी रहने वाला है, और भारत की कुछ टीवी समाचार चैनलों ने एआई न्यूज रीडर से समाचार पढ़वाना शुरू भी कर दिया है। न पोशाक, न मेकअप, और न ही तनख्वाह। यह चलन जरा सा आगे बढ़ेगा तो दसियों हजार न्यूज रीडरों और एंकरों की नौकरियां खतरे में पडऩे लगेंगी। वैसे वक्त सिर्फ वही लोग बच पाएंगे जिनका काम सबसे अच्छा होगा।
टेक्नॉलॉजी पहाड़ से लुढक़ते हुए बर्फ के गोले सरीखी रहती है, उसका आकार और उसकी रफ्तार दोनों बढ़ते चलते हैं। इसलिए कम्प्यूटरों के इस्तेमाल वाले किसी भी कारोबार में एआई की घुसपैठ महज वक्त की बात है, और समझदारी इसी में है कि लोग छंटनी के ऐसे खतरे से आगाह रहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली से लगे यूपी के नोएडा की खबर है कि देश के एक चर्चित मोटिवेशनल स्पीकर विवेक बिन्द्रा के खिलाफ पत्नी से मारपीट की पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराई गई है। यह शादी इसी 6 दिसंबर को होना बताया गया है, और पत्नी के भाई का कहना है कि उनकी बहन से इस बुरी तरह मारपीट की गई है कि एक कान का पर्दा फट गया, और बदन पर पिटाई के निशान हैं, उसका इलाज एक अस्पताल में चल रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि शादी के अगले ही दिन विवेक बिन्द्रा अपनी मां से बहस कर रहे थे, और बीच-बचाव करने के लिए नवविवाहिता पत्नी ने बीच-बचाव की कोशिश की, उस पर बहुत बुरी तरह पिटाई की गई। पुलिस को एक वीडियो भी दिया गया जिसमें विवेक बिन्द्रा अपनी रिहायशी सोसायटी के मेनगेट पर पत्नी से जबर्दस्ती कर रहे हैं। अब जिस व्यक्ति को बहुत बड़ा मोटिवेशनल स्पीकर कहा जाता है, उसका यह हाल है कि शादी के दस दिन के भीतर ही पत्नी पर हिंसा का यह मामला दर्ज हुआ है। दूसरों को जिंदगी जीने के और कामयाबी के तरीके सिखाने का दावा करने वाले आदमी ने यह कैसी मिसाल पेश की है?
आज ही सुबह इस खबर को देखे बिना यह संपादकीय लिख रहे संपादक ने फेसबुक पर कुछ बातें लिखी थीं कि ऐसे परिवार जो कि बेटे और बेटी में फर्क करते हैं, वे एक को हिंसक बनने के लिए, और दूसरे को हिंसा का शिकार बनने के लिए तैयार करते हैं। यह भी लिखा था कि बेटे सबसे तेजी से सीखते हैं, अपनी मां-बहन से घर पर होती हिंसा से, फिर वे अपनी बीवी-बेटी तक वही ले जाते हैं। एक और बात लिखी थी कि जाति का अहंकार दूसरी जातियों पर ही नहीं उतरता, अपने घर की महिलाओं और लड़कियों पर भी उतरता है। अब अनजाने में लिखी गई इन बातों को आज अगर इस तथाकथित मोटिवेशनल स्पीकर विवेक बिन्द्रा से जोडक़र देखें, तो वह शादी के अगले ही दिन बीवी को इस तरह पीट रहा है, और इसकी वजह मां से की जा रही बदसलूकी में बीवी का बीच-बचाव करना है। यानी यह आदमी मां से भी बदसलूकी कर रहा था, और बीवी से भी! यह कुछ उसी किस्म की बात है जैसी कि इस संपादक ने सुबह फेसबुक पर लिखी थी।
भारत में जिन जातियों को अपने बेहतर होने का घमंड रहता है, उसके लोग न सिर्फ बाहर की दुनिया में दूसरी जातियों से बदसलूकी करते हैं, बल्कि वे घर के भीतर भी लड़कियों और महिलाओं को मर्दों से नीचा मानते हैं, और उनके साथ हिंसा करते हैं। जाति व्यवस्था और धर्म व्यवस्था मिलकर ऐसा माहौल बनाते हैं कि महिलाएं नीचे दर्जे वाली हैं, और उनके साथ हिंसा एक जायज बात है। यह मनुस्मृति से लेकर दूसरे कई धर्मों तक की सोच है, और धीरे-धीरे धार्मिक कहानियों से शुरू होकर लोगों की सोच में यह हिंसा आने लगती है। मर्दों को लगने लगता है कि वे बेहतर इंसान होते हैं, और औरतें गुलामी के लायक होती हैं। यही सोच परिवार के भीतर पिछली पीढ़ी, अपनी पीढ़ी, और अगली पीढ़ी, सबकी महिलाओं और लड़कियों से हिंसा का माहौल खड़ा करती हैं। जिस परिवार में एक पुरूष लड़कियों और महिलाओं से हिंसा करता है, उसकी अगली पीढ़ी के पुरूष भी ऐसे ही खतरनाक होने की गुंजाइश रखते हैं। दुनिया भर में शोहरत पाने वाला मोटिवेशनल स्पीकर या तो खुद परिवार की किसी ऐसी मिसाल से प्रभवित है, या कम से कम वह आसपास के और लोगों को धीरे-धीरे ऐसी ही हिंसा की प्रेरणा देते रहेगा।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बाप-भाई की हिंसा से प्रभावित परिवार की लड़कियां और महिलाएं भी अपनी अगली पीढ़ी की बेटी-बहू के साथ हो रही हिंसा को प्राकृतिक, स्वाभाविक, और जायज मानने लगती हैं, और परिवार के पुरूषों की ऐसी हिंसा में साथ भी देने लगती हैं। इन दिनों तो दहेज-हत्याएं कड़े कानून की वजह से कम हुई हैं, वरना परिवार में महिला के रहते हुए बाहर से आई बहू की हत्या हो जाए, और उसकी सास-ननद-जेठानी की उसमें सहमति न हो, ऐसा हो नहीं सकता। जबरिया गर्भपात से लेकर गुलाम सरीखी जिंदगी देने में परिवार की महिलाएं भी पुरूषों के साथ हो जाती हैं क्योंकि उन्होंने भी अपने वक्त पर ऐसे जुल्म सहे हुए रहते हैं, और शायद उन्हें उनका बदला निकालने के लिए भी ऐसा जायज लगता है। इस तरह परिवार के भीतर का हिंसक माहौल अगली कई पीढिय़ों को प्रभावित कर सकता है, और ऐसी हिंसक सोच से उबरने के लिए अगली पीढ़ी को एक सचमुच की सामाजिक न्याय की सोच की जरूरत रहती है, जो कि भारत जैसे समाज में बहुत आसान भी नहीं रहती।
औरत और मर्द के हकों में फर्क करने वाली लैंगिक-असमानता से उबरना न तो सिर्फ कानून के बस का रहता है, और न ही समाज अकेले इसे कर सकता है। इन दोनों की साथ-साथ जरूरत रहती है। भारत की ही मिसाल को लें, तो यहां पर सतीप्रथा से लेकर बालविवाह तक को खत्म करने के लिए, देवदासीप्रथा को खत्म करने के लिए कानून की भी जरूरत पड़ी, और सामाजिक आंदोलन की भी। कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए भी इन दोनों की साथ-साथ जरूरत पड़ी। इन सबके लिए महिलाओं की पढ़ाई-लिखाई और आर्थिक आत्मनिर्भरता की जरूरत पड़ी जो कि एक दीर्घकालीन सामाजिक सुधार की बात रही। लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे महिलाएं आत्मनिर्भर हो रही हैं, वे हिंसा का प्रतिकार भी करने लगी हैं, और उससे उबरना भी जानती हैं। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ शहरीकरण ने भी नौबत सुधारने का काम किया है, और संयुक्त परिवार टूटने से भी महिलाओं को बेहतर हक मिल पाए हैं। संयुक्त परिवारों में जो सबसे पुरानी पीढ़ी रहती है, उसके दकियानूसी खयालों से उबर पाना परिवार की किसी भी पीढ़ी के बस का नहीं रह जाता। इसलिए परिवार के भीतर पुरूषवादी हिंसक सोच को खत्म करने के जो-जो तरीके हो सकते हैं, उन सबके बारे में कोशिश करने की जरूरत है। इसमें धर्म और जाति, इन दोनों के बेइंसाफ ढांचों में औरत को गुलाम की तरह माना गया है, और धर्म और जाति की कट्टरता से लैस लोग परिवार के भीतर भी औरत को गुलाम बनाकर चलने की सोच रखते हैं। इसलिए धर्म और जाति के ढांचों के रहते हुए भी उनके भीतर से लैंगिक-हिंसा खत्म करने की जरूरत है। दुनिया के अलग-अलग देशों, धर्मों, और संस्कृतियों में महिलाओं के सामने चुनौतियां अलग-अलग हैं। हिन्दुस्तान एक बहुत बड़ा मुल्क है, और यहां की अलग किस्म की सामाजिक बेइंसाफी से निपटने के तरीके अपने आपमें बहुत अलग-अलग किस्म के रहेंगे। देश के कई महिला-अधिकार संगठन इस तरफ काम कर रहे हैं, लेकिन उनकी रफ्तार और क्षमता दोनों ही जरूरत के मुकाबले बहुत कम है। कानून, उस पर अमल, अदालती निपटारे, और समाज सुधार, इन सब मोर्चों पर कोशिश करने के साथ-साथ महिला की आर्थिक आत्मनिर्भरता पर सबसे अधिक जोर देना चाहिए।
चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में एक विश्वविद्यालय में वहीं के एक छात्र ने किसी किस्म की बंदूक से गोलियां चलाईं जिसमें 15 लोगों की मारे जाने की खबर है, और दो दर्जन के करीब लोग जख्मी हुए हैं। वहां से आई इस सरकारी खबर के मुताबिक इसके पीछे कोई अंतरराष्ट्रीय उग्रवादी हाथ नहीं है, और विदेश में हुए इसी किस्म के किसी जनसंहार से प्रभावित होकर इस छात्र ने ऐसा किया है। चेक गणराज्य में ऐसी घटनाएं आम नहीं हैं, और इस हमले के पहले इस संदिग्ध हमलावर के पिता का भी शव मिला था, जिससे ऐसा लगता है कि उसकी हिंसा की शुरूआत परिवार से हुई। जो भी हो, यह वारदात दो बातों को साफ करती है, पहली तो यह कि थोक में मारने की ताकत रखने वाले हथियारों की आसान उपलब्धता, और बड़ी संख्या में मौजूदगी से ऐसे खतरे बने ही रहेंगे। दूसरी बात यह कि किसी दूसरे देश के किसी हमले से दुनिया में दूसरी जगहों पर भी लोगों को ऐसी हिंसा की प्रेरणा मिल सकती है, मिलती है।
इस किस्म की सामूहिक हत्याओं की सबसे अधिक खबरें अमरीका से आती हैं जहां पर लोग नस्लीय नफरत से परे भी सिर्फ अपनी भड़ास निकालने को इस तरह लोगों को थोक में मार डालते हैं। खुद अमरीका का एक बड़ा तबका इस किस्म की हिंसा को लेकर परेशान है, और लगातार यह कोशिश कर रहा है कि किसी तरह अमरीकियों की दिमाग पर से हथियारों की दीवानगी घटाई जाए, ताकि बच्चे-बच्चे के हाथ अनगिनत हथियारों तक न पहुंच सकें। लेकिन वहां की एक सबसे बड़ी पार्टी, ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी हथियारों के कारोबार और शौक को बढ़ावा देते चलती है, और हथियार किसी तरह कम हो नहीें रहे हैं। दूसरी तरफ पूरी दुनिया में अमरीका की खबरें सबसे तेजी से पहुंचती हैं, और ऐसी हिंसा की मिसालें दूसरी जगहों पर भी किसी तनाव या नफरत से गुजरते हुए दिमागों को वैसा ही करने का हौसला देती होंगी, और रास्ता दिखाती होंगी।
दुनिया के बाकी देशों को भी यह याद रखना चाहिए कि किसी भी तरह की नफरत और हिंसा की मिसालें बाकी दुनिया को भी प्रभावित करती हैं। और आज तो दुनिया के अधिकतर देशों में अधिकतर धर्मों और नस्लों के लोग मौजूद हैं, और कब, कौन, कहां का बदला कहां निकालने लगे, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। लोगों को याद रखना चाहिए कि जब वे अपने देश में किसी नस्ल या धर्म के लोगों के खिलाफ नफरत और हिंसा खड़ी करते हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया दुनिया के किसी दूसरे देश में, हमलावर नस्ल या धर्म के लोगों के खिलाफ हो सकती है। यह भी हो सकता है कि ऐसी प्रतिक्रिया किसी बड़ी हिंसा की शक्ल में सामने न आए, बल्कि सामाजिक नफरत की शक्ल में निकले। आज भी पश्चिम के बहुत से देशों में इस्लाम और मुस्लिमों के खिलाफ कुछ तबकों में एक सोच है, और ऐसी सोच इन देशों में मुस्लिम शरणार्थियों के खिलाफ माहौल खड़ा करती है, और इस्लामिक रीति-रिवाजों की साख खराब करती है। भारत जैसे दूसरे देशों को भी यह समझने की जरूरत है कि भारत के जातिवाद के खिलाफ अमरीका जैसे देश में कई शहरों की स्थानीय सरकारें नियम बना रही हैं, और भारत में मुस्लिमों के खिलाफ जितने किस्म की कार्रवाई चलती है, उसकी प्रतिक्रिया मुस्लिम देशों में भारत के लोगों के खिलाफ होती है। यह एक अलग बात है कि बड़ी हिंसक घटना के बिना ऐसी प्रतिक्रिया खबरों में नहीं आती हैं, लेकिन जो लोग वहां काम करते हैं, कारोबार करते हैं, उन्हें भेदभाव झेलना पड़ता है।
यह भी समझने की जरूरत है कि हिंसा से प्रभावित होकर कोई अकेले व्यक्ति भी बड़े पैमाने पर हिंसा कर सकते हैं जैसा कि कल चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में सामने आया है। दुनिया को हिंसक मिसालों से भी बचने की जरूरत है क्योंकि जब किसी व्यक्ति में कोई हत्यारी सोच आ जाती है, तो उनके नुकसान करने की ताकत कई गुना बढ़ जाती है। आज हिंसा को बढ़ाने वाले वीडियो गेम भी इतने लोकप्रिय हो गए हैं कि बच्चे भी उन्हें खेलते हुए हत्या या आत्महत्या के बारे में सोचने लगे हैं, और ऐसे हिंसक खेलों से प्रभावित हिंसा की बहुत सी घटनाएं सामने आई हैं। हॉलीवुड की फिल्में हथियारों की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए लंबे समय से बदनाम हैं, और फिल्मों से परे टीवी के कार्यक्रमों से लेकर चुनौतियां देने वाले वीडियो गेम तक हिंसा को बढ़ाते चल रहे हैं। इन सबसे प्रभावित लोगों की सोच को जब दुनिया की किसी एक जगह पर थोक में कत्ल करने की मिसालें मिलती हैं, तो वह पेट्रोल को आग मिल जाने सरीखा होता है। खुद अमरीका के भीतर हर कुछ दिनों में कहीं न कहीं बेकसूरों पर गोलीबारी होती है, और इनमें से बहुत सी घटनाएं नस्लीय-हिंसा से भी प्रभावित होती हैं।
दुनिया को अगर रंग, धर्म, जाति, नस्ल, और राष्ट्रीयता की नफरत से बचाना है, तो आज उसे किसी एक देश की सरहद के भीतर कैद करके नहीं बचाया जा सकता। भूमंडलीयकरण एक हकीकत है, और हर देश में बहुत से किस्म के लोग मौजूद हैं। ऐसे में अपनी-अपनी किस्मों के भीतर लोगों को कट्टरता घटानी होगी, तभी उनके खिलाफ बाकी दुनिया में नफरत घट सकेगी। लोग कट्टर बने रहें, और उनके खिलाफ दुनिया में कोई प्रतिक्रिया न हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग खुद को, अपने परिवार और समाज को सुरक्षित रखना चाहते हैं, उन्हें अपने इलाकों में अपनी कट्टरता को घटाना होगा, और दूसरों के साथ हिंसा को खत्म भी करना होगा। ऐसा न करने पर हो सकता है कि कई धर्मान्ध और साम्प्रदायिक, नस्लीय हिंसा करने वाले लोग खुद तो अपने इलाकों में महफूज बैठे रहें, लेकिन उनके समाज के लोग दूसरे देशों में हिंसा के शिकार हों। पश्चिम के बहुत से देशों में धार्मिक शिनाख्त की बिना पर कई लोगों पर हमले होते हैं, क्योंकि उनके जैसी शिनाख्त वाले लोग दुनिया में किसी और जगह पर कट्टरता फैलाते बदनाम रहते हैं। इसलिए आज कोई भी व्यक्ति तभी सुरक्षित हो सकते हैं, जब सब लोग सुरक्षित हों। अमरीका जैसे दुनिया के सबसे हथियारबंद देश में भी लोगों के हथियार धरे रह जाते हैं जब एक स्कूल, एक मॉल, या एक यूनिवर्सिटी में एक अकेला बंदूकबाज जाकर दर्जनों लोगों को मार डालता है। इससे यही साबित होता है कि हथियारों की अधिक मौजूदगी हिफाजत की गारंटी नहीं होती। दूसरी तरफ लोगों का किसी भी किस्म के तनाव से, किसी भी तरह की नफरत से मुक्त होना, अहिंसक होना, सहनशील होना, लोकतांत्रिक होना ही सुरक्षा का सामान हो सकता है।
राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने सदन के बाहर तृणमूल कांग्रेस के लोकसभा सदस्य कल्याण बैनर्जी द्वारा की गई उनकी मिमिक्री (नकल का अभिनय) को जिस तरह अपनी जात से जोड़ लिया है, और इसे जाट समुदाय का अपमान बताया है, उस पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने आपत्ति की है। उन्होंने कहा है कि हर चीज को जाति से जोड़ लेना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि उन्हें भी राज्यसभा में कई बार बोलने का मौका नहीं मिलता है तो क्या वे यह दावा करें कि संसद में दलितों को बोलने का अवसर नहीं दिया जाता? उन्होंने सभापति को सलाह दी है कि उन्हें सदन में जाति का मुद्दा उठाकर लोगों को नहीं भडक़ाना चाहिए। धनखड़ ने उनकी मिमिक्री को जाट समुदाय का अपमान करार दिया था, और किसानों का भी। पाठकों को याद होगा कि हमने कल ही इस बारे में लिखा, और यूट्यूब पर कहा है कि इसका जाति से क्या लेना-देना है? और मानो धनखड़ की बात को इशारा समझकर एक जाट संगठन ने अगले चुनाव में विपक्ष को सबक सिखाने का सार्वजनिक बयान भी जारी कर दिया है।
हिन्दुस्तान में जाति की एक भूमिका तो रहती है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि जाति हर जगह हथियार की तरह इस्तेमाल नहीं होती है। जगदीप धनखड़ का परिचय देखें, तो वे राजस्थान के गांव में पैदा होकर सैनिक स्कूल में पढ़े, कानून की पढ़ाई की, राजस्थान हाईकोर्ट में वे सीनियर वकील रहे, और वे सुप्रीम कोर्ट में भी एक सीनियर वकील का दर्जा पाए हुए थे, और कई हाईकोर्ट में भी वे संवैधानिक मामलों में वकालत करते आए हैं, वे जनता दल और कांग्रेस के भी सदस्य रहे, लोकसभा का चुनाव जीतकर आए, विधायक भी रहे, और 2003 से भाजपा में हैं। वे 2019 से 2022 तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे, और वहां रहते हुए वे सार्वजनिक रूप से और सोशल मीडिया पर ममता सरकार से लगातार टकराते भी रहे। 2022 में वे उपराष्ट्रपति चुने गए, और उसी नाते वे राज्यसभा के सभापति भी हैं। अब जिन्हें अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग राजनीतिक दलों ने इतना महत्व दिया, और जो खुद अपनी पढ़ाई और अपनी वकालत की वजह से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हुए हैं, उन्हें एक मिमिक्री को अपनी जात पर नहीं ले लेना था। उन्होंने दर्जनों सांसदों को निलंबित किया है, और लोकसभा से भी ऐसे ही निलंबित सांसद बाहर प्रदर्शन कर रहे थे, जिसमें धनखड़ के सदन-संचालन की नकल की गई। किसी ने भी उनकी जाति का कोई जिक्र नहीं किया, और इतने ऊंचे ओहदे पर पहुंचने के बाद उन्हें खुद भी अपनी जाति को ढाल की तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था। वैसे भी भारत के संदर्भ में देखा जाए तो जाट एसटी-एससी जैसे किसी सामाजिक उपेक्षा और शोषण की शिकार जाति नहीं है। जाट एक मजबूत बिरादरी है, और यह संपन्न तबका भी है। जाटों को लेकर किसी तरह की सामाजिक हिकारत कहीं नहीं रहती, इसलिए धनखड़ का जाति को जगाना एक किस्म की राजनीति है, जिससे राज्यसभा की कुर्सी पर बैठे हुए व्यक्ति को, उपराष्ट्रपति को बचना चाहिए था।
यह संपादकीय लिखने वाले संपादक को अच्छी तरह याद है कि जब दो दशक पहले, भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी मोहम्मद अजहरुद्दीन के बारे में दक्षिण अफ्रीकी टीम के कप्तान ने यह बयान दिया था कि अजहर ने उन्हें सट्टेबाजों से मैच फिक्सिंग के लिए मिलवाया था, इसके बाद इस मामले की सीबीआई जांच हुई थी, और अजहर को इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल और बीसीसीआई ने जिंदगी भर के लिए प्रतिबंधित कर दिया था। यह एक अलग बात है कि 2012 में आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया था। अजहर ने प्रतिबंध के खिलाफ एक बयान में यह कहा था कि वे मुस्लिम हैं इसलिए उनके साथ यह भेदभाव किया जा रहा है। उस वक्त इस संपादक के साप्ताहिक कॉलम (आजकल) में इस मुद्दे पर लिखते हुए यह अफसोस जाहिर किया गया था कि जिस देश ने अजहर को राष्ट्रीय टीम का कप्तान बनाया था, और जिसने 47 टेस्ट मैच और 174 वनडे इंटरनेशनल में टीम की अगुवाई की थी, 14 टेस्ट और 90 वनडे में टीम को जीत दिलाई थी, उसे इतना महत्व मिलने के बाद मैच फिक्सिंग के आरोप पर मुस्लिम होने की आड़ नहीं लेनी थी। उस वक्त इस संपादक ने कॉलम में लिखा था कि देश से इतना सब पाने के बाद जब अजहर पर एक आरोप साबित हुआ, तो उसने पतलून उतार दी।
लोगों को अपनी जाति का इस्तेमाल सोच-समझकर, और न्यायसंगत, तर्कसंगत तरीके से ही करना चाहिए। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि सार्वजनिक जीवन में जाति का महत्व नहीं रहता, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि जाति के आधार पर अगर शोषण नहीं होता है, हमला नहीं होता है, तो उसे नाजायज तरीके से ढाल बनाना सबको समझ भी आ जाता है। अभी धनखड़ ने कुछ वैसा ही किया है। दूसरी एक बात और निराश करती है कि जब देश की संसद में दर्जनों जलते-सुलगते जनहित के मुद्दे उठ रहे हैं, विपक्ष और सत्ता के बीच टकराव चल रहा है, सत्ता अपने अंधाधुंध बाहुबल के साथ विपक्ष को कुचलकर धर दे रही है, प्रस्तावित कानूनों पर चर्चा भी नहीं हो पा रही है, तब राज्यसभा का सभापति अपना मजाक उड़ाने को ही तीन दिन से देश का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा मान बैठे, तो यह आत्ममुग्धता की एक बड़ी मिसाल है। जब दमकलकर्मी आग बुझाने कहीं जाते हैं, तो बचाव मेें लगे किसी व्यक्ति का पांव अपने पांव पर पड़ जाने को अपनी जाति से जोडक़र नहीं देखते। उपराष्ट्रपति और राज्यसभा सभापति का यह बर्ताव उनके पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है, और उन्हें अपने आपको देश से अधिक महत्वपूर्ण साबित करने से बचना चाहिए था, अपनी जाति को ढाल बनाने से बचना चाहिए था, क्योंकि देश में जाटों को लेकर किसी तरह का जाति भेदभाव है भी नहीं। राजनीति में यह सिलसिला बहुत घटिया रहता है जब लोग दूसरों पर हमला करने के लिए उनकी किसी भी बात को अपनी जाति पर हमला करार देने लगते हैं। लोकतंत्र के सार्वजनिक बयानों के इतिहास में ऐसे खोखले काम अलग से दर्ज होते हैं, हो सकता है कि कुछ बरस के शासन काल में सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ अधिक न लिखा जाए, लेकिन जब कभी राजनीति या किसी दूसरे सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति का पूरा मूल्यांकन होता है, तो कहे और लिखे गए एक-एक शब्द कटघरे में खड़े रहते हैं।
हमारा मानना है कि मल्लिकार्जुन खडग़े ने धनखड़ को सही आईना दिखाया है। उन्होंने धनखड़ को यह भी कहा है कि अगर उनकी मिमिक्री सदन के बाहर हुई है तो सदन में प्रस्ताव क्यों लाया जा रहा है? उनकी बात इस हिसाब से भी सही है कि मिमिक्री करने वाले सांसद लोकसभा के निलंबित सदस्य हैं, और उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग करने के लिए जिस राहुल गांधी को घेरा जा रहा है, वे भी लोकसभा के सदस्य हैं। क्या यह मुद्दा संसद में पेश किए जा रहे कानूनों के मुकाबले अधिक अहमियत का हो गया है? और धनखड़ के बयान को देखें तो हैरानी होती है कि वे अपने सम्मान की रक्षा के लिए किसी भी आहुति देने के लिए तैयार होने जैसी बातें कह रहे हैं। देश से अपने आपको अधिक महत्वपूर्ण समझना, और साबित करना देश के किसी भी इंसान को उसके अपने व्यक्तित्व से छोटा ही साबित करता है। खडग़े ने उन्हें इस मुद्दे पर जाति को न भडक़ाने की जो सलाह दी है, वह भी एकदम सही है। लोकतंत्र में संसदीय परंपराएं ओछी नहीं, गरिमामय होनी चाहिए, और जो व्यक्ति जितनी ऊंची कुर्सी पर पहुंचे, उसे उतना ही अधिक विनम्र और न्यायप्रिय भी होना चाहिए। किसी को भी अपने सम्मान को इतना नाजुक नहीं मान लेना चाहिए कि वह एक मजाक से जख्मी हो जाएगा।
भारतीय संसद के दोनों सदनों में लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति दोनों की कड़ी कार्रवाई से विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा सदन के बाहर हो गया है। दस से अधिक दिन हो गए हैं, और विपक्ष और सत्ता के चल रहे टकराव के बीच हालत यह है कि संसद विपक्षमुक्त होने की तरफ बढ़ रही है। 18 दिसंबर को एक दिन में 78 सांसदों को निलंबित किया गया। लगातार टकराव, और आसंदी द्वारा लगातार निलंबन और निष्कासन के चलते हुए विपक्ष अपने को प्रताडि़त महसूस कर रहा है, और उसे ऐसा लग रहा है कि अध्यक्ष और सभापति विपक्ष के खिलाफ आमादा हैं। हम अभी निलंबन सही या गलत होने पर जाना नहीं चाहते, क्योंकि जिस तरह थोक में संसद खाली करवाई जा रही है, उससे देश का संसदीय लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। यह पूरा सिलसिला अभूतपूर्व है। ऐसे में जब निलंबित सांसदों की भीड़ संसद परिसर में जुटी हुई थी, तो तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद कल्याण बैनर्जी ने बाकी सांसदों के सामने उपराष्ट्रपति जो कि राज्यसभा के सभापति भी होते हैं, जगदीप धनखड़ के सदन चलाने के तरीके की नकल करना शुरू किया, और वहां मौजूद सभी पार्टियों के सांसदों ने उसका मजा लिया। राहुल गांधी अपने मोबाइल पर उसका वीडियो बनाते दिखे। सांसदों के इस बर्ताव पर प्रधानमंत्री सहित बहुत से सत्तारूढ़ नेताओं ने अफसोस जाहिर किया, और उपराष्ट्रपति ने इस घटना को शर्मनाक बताया है कि एक सांसद मजाक उड़ा रहा है, और दूसरा सांसद उसका वीडियो बना रहा है। धनखड़ ने कहा कि यह एक किसान और एक समुदाय का अपमान मात्र नहीं है, यह राज्यसभा के सभापति के पद का भी अपमान है। उन्होंने कहा कि यह सबसे गिरा हुआ स्तर है, और उन्हें इससे बहुत कष्ट हुआ है। उन्होंने इसे अपने जाट होने से भी जोड़ा, और सदन के बाहर कल ही किसी जाट संगठन ने इस पर सार्वजनिक आपत्ति भी की थी। एक दूसरी खबर बताती है कि दिल्ली के किसी वकील ने वहां थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है कि यह उपराष्ट्रपति का अपमान है। अभी तक इस रिपोर्ट के बारे में और जानकारी तो नहीं मिली है, लेकिन पुलिस ने रिपोर्ट ले ली है।
इस मामले के इतिहास को भी थोड़ा सा समझना जरूरी है कि जगदीप धनखड़ इससे पहले पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे, और वहां तृणमूल सरकार के साथ उनका नियमित और लगातार टकराव चलते ही रहता था। अभी तृणमूल सांसद ने निलंबन के बाद उनकी जो नकल की इसके पीछे धनखड़ के बंगाल राजभवन के कार्यकाल का टकराव भी रहा है। राज्यसभा में अलग-अलग पार्टियों के साथ उनका टकराव अलग-अलग मुद्दों पर चल रहा है, जो कि गंभीर संवैधानिक मुद्दे भी हैं। ऐसे में सदन से निलंबित सदस्यों के बीच उनकी मिमिक्री करके उनकी खिल्ली उड़ाना कितना बड़ा अपमान है, और कितना बड़ा जुर्म है इसकी साफ मिसालें अभी नहीं हैं, और पुलिस रिपोर्ट के बावजूद इस पर कोई कानून लागू होगा ऐसा लगता नहीं है। हालांकि दिल्ली पुलिस केन्द्र सरकार के मातहत काम करती है, और वह अगर कोई जुर्म दर्ज करके तृणमूल सांसद की गिरफ्तारी भी कर लेती है, तो भी उन्हें अपने आपको बेकसूर साबित करने में बरसों लग सकते हैं। इसलिए यह बात साफ है कि बहुत से दूसरे मामलों की तरह किसी भी राज्य या केन्द्र के मातहत काम करने वाली पुलिस के रिपोर्ट दर्ज कर लेने से उस काम के जुर्म होने का अधिक लेना-देना नहीं रहता। इसलिए हम कानूनी बारीकियों से परे अपनी सामान्य समझबूझ से इसकी चर्चा कर रहे हैं।
लोकसभा, राज्यसभा, या राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के कुछ विशेषाधिकार रहते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह कि अदालती जजों को हम बात-बात पर अदालत की अवमानना मानकर किसी को कटघरे में खड़ा करते देखते हैं। हो सकता है कि संसद के विशेषाधिकार में यह आता हो कि सदनों के मुखिया, या कि किसी आम सदस्य भी, की अवमानना पर सदन की विशेषाधिकार कमेटी को मामला दिया जा सके। और ऐसी कमेटियां चूंकि सत्ता के बहुमत वाली होती हैं, इसलिए सत्ता के साफ रूख को देखते हुए उनके रुझान का अंदाज भी लगाया जा सकता है, जैसा कि लोकसभा से तृणमूल की ही सांसद महुआ मोइत्रा को आनन-फानन बर्खास्त करने के मामले में दिखा है। यह एक अलग बात है कि इसी संसद में एक मुस्लिम सांसद को नफरती और साम्प्रदायिक गंदी गालियां देने वाले भाजपा सांसद को अगली बार ऐसा न करने की चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। जबकि सदन के बाहर अगर ये गालियां दी गई होतीं, तो सुप्रीम कोर्ट के दर्जन भर बार के आदेशों के मुताबिक उस पर हेट-स्पीच का जुर्म दर्ज होता ही, और हमारा अंदाज है कि उस पर कैद भी हुई होती। लेकिन संसद के भीतर की हिंसक बात पर भी अदालती दखल नहीं हो सकता, और लोकसभा ने इसे अपने रूख और रुझान के मुताबिक नरमी से निपटा दिया, भाजपा सांसद को एक असाधारण रियायत मिली, जो कि देश के कानून के तहत संसद के बाहर नहीं मिल सकती थी। इसलिए आज अलग-अलग पार्टियों के सांसद कई वजहों को लेकर लोकसभा, राज्यसभा, और सरकार के रूख से बहुत ही हक्का-बक्का हैं, और ऐसे में बंगाल के एक राज्यसभा सदस्य ने राज्यसभा के उपसभापति की खिल्ली उड़ाई, और बाकी लोगों ने उसका मजा लिया।
लोकतंत्र में कानून दो किस्म के हैं, एक संसद और विधानसभाओं के भीतर के लिए, और एक इन सदनों के बाहर के लिए। सदन के बाहर किसी की खिल्ली उड़ाने को हम लोगों का लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं। वह सही या गलत हो सकता है, उसकी तारीफ या निंदा की जा सकती है, लेकिन वह जुर्म नहीं होता। लोकतंत्र बहुत किस्म के व्यंग्य और हास्य की आजादी देता है। लेकिन जब सदन और अदालतें कुछ खास कानूनों हिफाजत में काम करती हैं, तो किसी जज या किसी संसद सदस्य की ऐसी खिल्ली उड़ाना, अदालत या सदन के भीतर एक अलग परेशान का सामान बन सकता है। अदालतों और सदनों के अवमानना और विशेषाधिकार भंग होने के ये अधिकार अपने आपमें अलोकतांत्रिक रहते हैं, लेकिन ये ताकतवर तबके के अपने आपको अधिक हिफाजत देने की मनमानी रहते हुए भी भारत जैसे लोकतंत्र में कानूनी हैं। अब आज तो देश का कानून ऐसा है कि सांसद की किसी भी बात को सदन के अध्यक्ष या सभापति अनदेखा कर सकते हैं, या किसी की भी किसी दूसरी बात को जुर्म ठहरा सकते हैं। संसदीय परंपरा में सदन के मुखिया को कल्याणकारी-तानाशाह (बेनेवलेंट-डिक्टेटर) कहा जाता है, जबकि ये दो शब्द अपने आपमें विरोधाभासी हैं। न कोई तानाशाह जनकल्याणकारी हो सकते, और न किसी जनकल्याणकारी व्यक्ति को तानाशाही की छूट दी जा सकती। अब आज के संसद के विशेषाधिकार के चलते तृणमूल सांसद की व्यंग्य की मिमिक्री पर संसद की विशेषाधिकार कमेटी, या सांसदों की आचार कमेटी जो चाहे वह सजा सुना सकती हैं, लेकिन लोकतंत्र की भावना व्यंग्य को छूट देती है, और वह तीखा, हमलावर, और अपमानजनक, या बदमजा होने के बावजूद लोकतांत्रिक ही कहलाता है। हमारा ख्याल है कि सभ्य और विकसित लोकतंत्रों के इतिहास में इस मिमिक्री को सजा के लायक ठहराना, न तो देश के आम कानून के तहत मुमकिन होगा, और न ही संसद के विशेषाधिकार से महफूज लोगों को इस पर सजा दिलवाना ठीक लगेगा। इतिहास ऐसी कार्रवाई को लोकतंत्र की परिपक्वता से परे ही दर्ज करेगा। लोकतंत्र का एक मतलब मखौल उड़ाने की आजादी भी होता है। सत्ता चाहे वह अदालत की हो, संसद की, या सरकार की, उसे लोगों के पीछे लगातार लाठी लेकर नहीं दौडऩा चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी किसी की खिल्ली उड़ाने की हद तक जा सकती है, और उस पर कार्रवाई लोकतंत्र का गौरव नहीं बढ़ाएगी।
कर्नाटक के एक सरकारी हॉस्टल-स्कूल में दलित बच्चों को सजा देने के लिए प्रिंसिपल ने उनसे पखाने के सेप्टिक टैंक की सफाई करवाई। स्कूली बच्चे जब सेप्टिक टैंक के भीतर उतरकर उसकी सफाई कर रहे थे, तो उस वक्त के कुछ फोटो और वीडियो चारों तरफ फैले। सोशल मीडिया पर इनके आने के बाद सरकार की नींद खुली, और प्रिंसिपल और उसके मातहत कुछ शिक्षक-कर्मचारी निलंबित किए गए, और सरकार की तरफ से पुलिस में इसके खिलाफ एसटी-एससी कानून के तहत रिपोर्ट दर्ज कराई गई। कोलार जिले के मोरारजी देसाई आश्रम-स्कूल के इस मामले में हिन्दुस्तान में दलितों के खिलाफ भेदभाव, छुआछूत, और हिंसा को एक बार फिर बुरी तरह उजागर कर दिया है। भारत में सफाई कर्मचारी हर बरस सेप्टिक टैंक और गटर साफ करते हुए मारे जाते हैं, और पिछले पांच बरस में सवा तीन सौ से अधिक ऐसी मौतें हो चुकी हैं। जो लोग आरक्षण के खिलाफ हिंसक बातें करते हैं, कभी उनके मुंह से यह सुनाई नहीं पड़ता कि सफाई कर्मचारियों में भी गैरदलितों के लिए आरक्षण होना चाहिए। सच तो यह है कि शहरी संपन्न तबका पूरी तरह से इस भरोसे पर गंदगी करते चलता है कि सफाई करने को दलित तबका अनंतकाल तक मौजूद रहेगा। अब दलितों के बारे में गैरदलितों की यह सोच हिंसक होकर इस हद तक पहुंच गई कि एक सरकारी स्कूल-हॉस्टल के प्रिंसिपल ने दलित बच्चों को सेप्टिक टैंक की सफाई की सजा दी, जबकि ऐसी सफाई में मौतों की खबरें आती रहती हैं।
हम किसी एक प्रदेश की एक स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षकों पर ही आज की इस पूरी बात को खत्म करना नहीं चाहते क्योंकि देश के कई प्रदेशों में इस तरह की हिंसा होती रहती है। आज कर्नाटक में जिस कांग्रेस पार्टी की सरकार है, उसी पार्टी की सरकार राजस्थान में थी, जब आजादी की 75वीं सालगिरह देश भर में मनाई जा रही थी, और एक शिक्षक ने एक दलित छात्र को पीट-पीटकर इसलिए मार डाला था कि उसने सवर्ण जाति के लिए अलग से रखी गई मटकी का पानी पी लिया था। शिक्षक ने उसे गालियां बकते हुए इतना पीटा था कि भीतरी चोटों से वह मर गया। तमिलनाडु में जहां पर कि दलित-हिमायती डीएमके सरकार है, वहां पर अभी सितंबर के महीने में ही एक दलित स्कूली बच्चे को तीन गैरदलित छात्रों ने इतना मारा कि वह टूटे हाथ-पैर सहित अस्पताल में पड़ा है, और उसकी बहन भी द हिन्दू अखबार में छपी इस तस्वीर में टूटे हाथ सहित अस्पताल के कमरे में एक कुर्सी पर दिख रही है। इस अखबार की खबर कहती है कि तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में बहुत से छात्र-छात्राएं अपनी कलाई पर जाति सूचक धागे बांधते हैं। एक दलित-हिमायती शासन वाले राज्य में जाति सूचक ऐसे संगठनों की भरमार है जो कि अपने सवर्ण होने के अहंकार में डूबे रहते हैं। आजादी की सालगिरह वाले अगस्त महीने में ही तमिलनाडु में दलितों पर ऐसे तीन हमले हुए हैं। भाजपा के योगीराज वाले यूपी के अमेठी जिले में दस-दस बरस के दलित स्कूली बच्चों को दोपहर के भोजन की कतार में अलग खड़े रखने के लिए स्कूल प्रिंसिपल ने ही उन पर हिंसा की थी। यह एक सरकारी स्कूल का मामला था, और गैरदलित प्रिंसिपल दलित बच्चों को लगातार पीटती रहती है। यूपी में ही सितंबर 2022 में एक दलित बच्चे की हिज्जे की एक गलती पर एक टीचर ने उसे इतना पीटा था कि यह बच्चा इन चोटों से अस्पताल में मर गया।
ऐसी घटनाओं को इंटरनेट पर बड़ी आसानी से एक पल में ढूंढा जा सकता है, और हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के इस अमृतकाल में देश में आज दलितों की जो हालत है उसे देखने के लिए मोबाइल-इंटरनेट वाले लोगों को ऐसी खबरों को पल भर में ढूंढ भी लेना चाहिए, और कुछ मिनट देश की इस हकीकत को जानने में लगाना भी चाहिए क्योंकि गैरदलितों के बीच इन मुद्दों की ऐसी कोई समझ नहीं है, न उनके कोई सरोकार हैं। संविधान में दलितों को जो आरक्षण मिला है, उससे परे उन्हें कानून से भी पूरी हिफाजत नहीं मिल पाती, क्योंकि उसे लागू करने वाले अफसर, जुर्म पर सजा देने वाली अदालतें, इन सबके भीतर एक बहुत गहरा दलित-विरोधी पूर्वाग्रह भरा हुआ है। दलित-आदिवासी आरक्षण को लेकर देश के अनारक्षित तबकों में अब तक सरकारी दामाद कहने का चलन रहा है। और तो और वे ओबीसी लोग भी इसी जुबान का इस्तेमाल करते थे, जो कि कुछ अरसे से ओबीसी आरक्षण पा रहे हैं, और आज जाति जनगणना के बाद संसद और विधानसभाओं में भी राजनीतिक आरक्षण पाने का भरोसा रख रहे हैं।
हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने अभी दो-चार दिन पहले ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों में आरक्षण लागू करने की वकालत की है, और ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि आरक्षित तबके के लोगों को, खासकर दलित-आदिवासियों को नालायक मानने की एक सवर्ण सोच खत्म हो। देश के संविधान निर्माताओं में एक दलित, डॉ.भीमराव अंबेडकर का नाम सबसे ऊपर है, जो कि दलित समाज के थे, लेकिन आज 140 करोड़ आबादी के इस शहर में सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि उसकी 32 कुर्सियों में से कुछ कुर्सियों पर आरक्षण के लायक भी दलित नहीं मिल पाएंगे। हमारा ख्याल है कि कर्नाटक के स्कूल में प्रिंसिपल ने दलित बच्चों को जो यह सजा दी है, वह ऐसे ही सवर्ण अहंकार से उपजी हुई सजा है। जब तक देश की बड़ी अदालतों में यह आरक्षण लागू नहीं होगा, तब तक स्कूली प्रिंसिपलों और टीचरों से दलितों के सम्मान की उम्मीद करना फिजूल बात होगी।
बॉम्बे हाईकोर्ट में अभी एक केस सामने आया जिसमें एक आदमी ने शादी के कुछ साल बाद तक लडक़ा न हुआ, तो दूसरी शादी कर ली। दूसरी बीवी से बेटा हो गया। साथ रह रही पहली बीवी को भी बेटा हो गया। इसके बाद उस आदमी ने पहली बीवी के कहने पर दूसरी को घर से निकाल दिया, जो कि उसके बेटे की मां भी थी। अब मामला गुजारा-भत्ता के लिए हाईकोर्ट तक पहुंचा तो वहां अदालत ने इस आदमी को जमकर फटकार लगाई, और कहा कि पहली शादी के बरकरार रहते हुए उसने पहले तो दूसरी शादी की, और अब वह दूसरी पत्नी को अलग करके उसके गुजारे की जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकता। यह मामला 1989 में हुई दूसरी शादी का है, और 2012 में दूसरी पत्नी को गुजारे के लिए अदालत जाने की जरूरत पड़ी। 2015 में निचली अदालत के हुक्म पर भी अब पति ने दूसरी पत्नी को मासिक भत्ता देना बंद कर दिया है, अब हाईकोर्ट ने इस पति को फटकार लगाई है, और महिला को छूट दी है कि वह भत्ता बढ़ाने की मांग कर सकती है।
इंसान बात-बात पर अपने भीतर की हिंसा, दगाबाजी, बेईमानी को लेकर जानवरों की मिसालें देते हैं। कहीं भेड़ की खाल ओढक़र धोखा देने वाले भेडिय़े की बात कहते हैं, कहीं आस्तीन में सांप की मिसाल, कहीं मूर्खता के लिए गधे की कहानियां, तो कहीं बहादुरी की मिसाल के लिए शेर की कहावतें, यह अंतहीन है। इनमें से कोई भी जानवर इंसानों जैसे घटिया नहीं होते। वे अपनी नस्ल के प्राकृतिक मिजाज के मुताबिक रहते हैं, अगर वहां एक से अधिक साथियों से देहसंबंध स्वाभाविक है, तो उसे निभाते हैं, और पेंगुइन जैसे कुछ प्राणी एक साथी के साथ भी जीने वाले कहे जाते हैं। हम किसी पेंगुइन को कोई चरित्र प्रमाणपत्र नहीं दे रहे, लेकिन कई और भी ऐसे पशु-पक्षी हैं जिन्हें एक ही जोड़ीदार के लिए जाना जाता है। सैंडहिल क्रेन नामक पंछी, दरियाई घोड़े, सलेटी-भेडिय़े, बार्न-उल्लू, बाल्ड-ईगल, गिबन जाति के बंदर, काले गिद्ध, हंस ऐसे ही कुछ और प्राणी हैं जिन्हें आमतौर पर अपने एक साथी के लिए वफादार माना जाता है। अब जानवरों को गाली बकने वाली इंसानी नस्ल को देखें तो उनमें वफादार-मर्द की धारणा भूतों और चुड़ैलों जितनी ही हकीकत होती है। लेकिन जब गाली देना हो तो पशु-पक्षियों की मिसाल आसान रहती है क्योंकि वे मानहानि का मुकदमा दायर नहीं कर सकते।
बॉम्बे हाईकोर्ट के इस ताजा मामले को देखें तो समझ पड़ता है कि इंसानों में कमीनगी धरती पर किसी भी दूसरे प्राणी के मुकाबले हजारों गुना अधिक रहती है, और हो सकता है कि इंसानों से परे किसी भी प्राणी में कमीनगी रहती भी न हो। लोगों को याद रखना चाहिए कि दूसरों को लूट लेने की कीमत पर भी अपने परिवार के लिए दौलत जुटा लेने जैसा घटिया काम दुनिया के करोड़ों किस्म के प्राणियों में से सिर्फ इंसान का एकाधिकार है। कहने के लिए इंसानी समाज के जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं, उनके खिलाफ जाकर अपने ही बच्चों से बलात्कार करना सिर्फ इंसान ही कर सकते हैं। बाकी पशु-पक्षी तो उनके समाज में प्रचलित काम ही करते हैं। अब सिर्फ इंसानों की बात पर लौटें, तो आए दिन ऐसी खबरें आती हैं कि किसी बालिग ने शादी का वायदा करके किसी नाबालिग से देहसंबंध बनाए, और फिर धोखा दे दिया। शिकायतकर्ता के नाबालिग होने पर कार्रवाई के लिए देश में कड़ा कानून है, लेकिन दोनों लोगों के बालिग होने पर शादी के वायदे को लेकर अगर बाद में धोखे की कोई शिकायत खड़ी होती है, तो अब देश की अदालतें ऐसी शिकायतों पर सजा सुनाने से मना कर रही हैं। अदालतों ने भी यह ठीक ही अहसास किया है कि बालिग लोगों के बीच शादी के वायदे को पूरा न करना, या न कर पाना किसी किस्म का जुर्म मानना गलत है। जब शादीशुदा जोड़ों के बीच भी निभना मुश्किल हो जाता है, और तलाक हो जाते हैं, तो फिर प्रेमसंबंधों में जी भर जाने, या कोई शिकायत हो जाने की गुंजाइश तो हमेशा ही रहती है। पुरूष साथी पर तोहमत मढऩे के बजाय लडक़ी या महिला के लिए बेहतर यही होता है कि किसी रिश्ते में पडऩे के पहले इस बात को समझ ले कि हर वायदे कभी पूरे नहीं होते, और ऐसा सिर्फ मर्द की तरफ से औरत के साथ हो, ऐसा भी नहीं है, कई मामलों में कोई लडक़ी या महिला भी शादी का वायदा पूरा नहीं कर पातीं, और ऐसे में क्या उन पर यह तोहमत लगाई जाए कि उन्होंने धोखा दिया है?
पुलिस और अदालत तक पहुंचने वाले बहुत से मामलों को देखें तो यह समझ पड़ता है कि लोग अपनी सामान्य समझबूझ, और बहुत मामूली तर्कशक्ति, बहुत सीमित तजुर्बे को भी अनदेखा करते हुए खतरनाक रिश्तों में पड़ते हैं। ऐसे अनगिनत मामले सामने आते हैं जिनमें दूसरी बीवी यह कहती है कि उसे पहली बीवी से तलाक का वायदा किया गया था। अगर ऐसी नौबत है तो शादीशुदा से रिश्ता बनाने के पहले उसके तलाक का इंतजार भी कर लेना चाहिए। लेकिन लोग पहले ऐसे उलझे हुए रिश्तों में पड़ते हैं, और फिर उनमें धोखा होने की बात कहते हुए झींकते हैं। यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि इंसान जानवरों जितने ईमानदार नहीं होते, और वे कई किस्म से बेवफा हो सकते हैं, उनसे बहुत ऊंचे दर्जे की वफा की उम्मीद जीते जी जन्नत के नजारे सरीखी होगी। इसलिए हर किसी को चाहिए कि सामाजिक और कानूनी रूप से पुख्ता रिश्तों में ही पड़ें। अगर लोगों को सिर्फ प्रेम और देहसंबंधों में पडऩा, तो उनके बीच में दोनों के बालिग होने पर किसी तरह का कानून शामिल नहीं होता। यहां तक तो सब ठीक है, लेकिन जहां शादी की बात आती है, वहां पर पहली या दूसरी पत्नी, परिवार के दूसरे कानूनी वारिसान जैसे बहुत से उलझाने वाले पहलू जुड़ जाते हैं। इसलिए दस-दस, बीस-बीस बरस बाद जाकर अदालत से मिले मामूली से इंसाफ पर भरोसा करके लोगों को अधिक रिश्ते नहीं बनाने चाहिए। अब यह कल्पना करें कि दस बरस की अदालती लड़ाई के बाद, और यह लड़ाई शुरू होने के पहले की बीस बरस की तकलीफदेह शादीशुदा जिंदगी के बाद अगर ढाई हजार रूपए महीने का कोई गुजारा-भत्ता मिलना है, तो उससे एक महिला और उसके बेटे का क्या काम चल सकता है? इसलिए अपनी समझ और दुनिया के तजुर्बे को कानूनी संभावना से ऊपर मानना चाहिए। कानून को एक आखिरी विकल्प की तरह रखना चाहिए क्योंकि वह अधिकतर मामलों में ऐसे सुबूतों पर काम करता है जिन्हें जुटाना किसी मामूली के बस का काम नहीं रहता है। इंसानी समाज पशु-पक्षियों के समाज सरीखे ईमानदार नहीं हैं, इसलिए यहां पर लोगों को दूसरों की कही बातों, और उनके दिखाए गए सपनों पर लापरवाही से जरूरत से ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए।
तीन राज्यों में भाजपा की सरकार बनने का सिलसिला चल रहा है, और इन हिन्दीभाषी राज्यों से परे, तेलंगाना और मिजोरम भी इसी दौर से गुजर रहे हैं। पांचों राज्यों में नए मुख्यमंत्री हैं, जो कि पहली बार यह जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। तीन बड़े और हिन्दीभाषी राज्यों में देश के एक ही नेता, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी के, और उनकी पसंद के नेता सरकार और विधानसभा के ओहदे संभालने वाले हैं। मोदी हिन्दुस्तान के एक ऐसे अनोखे नेता हैं जिनकी पूरी पार्टी उनके काबू में है, और जनता का एक पर्याप्त बड़ा हिस्सा उनके हर फैसले पर ताली बजाने को तैयार खड़े ही रहता है। जब वे अपने एक फैसले से देश के करोड़ों लोगों के हाथों में झाड़ू थमवा सकते हैं, तो फिर अपनी पार्टी की राज्य सरकारों के लिए तो उनकी मर्जी ही हुक्म सरीखी होगी। ऐसे में कुछ महीनों बाद के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले अगर वे हिन्दी पट्टी कहे जाने वाले इलाके के इन तीन राज्यों में अगर सरकारों को जनता के करीब ला सकते हैं, उन्हें जनसरोकारों से जोड़ सकते हैं, तो इससे नए मुख्यमंत्रियों की एक सादगी और किफायत की बुनियाद भी बन सकती है, इन राज्यों का भला भी हो सकता है, और लोकसभा चुनाव में इसका फायदा मोदी और उनकी पार्टी को तो होगा ही होगा।
यह कोई रहस्य की बात नहीं है कि सरकारों में बैठे मंत्री और अफसर अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल करते हुए बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारियों को बंगलों पर तैनात करवाते हैं, जो कि जनता की जेब पर ही बोझ रहता है, और इसके साथ-साथ ऐसे कर्मचारियों को मजबूरी की नौकरी या रोजी के लिए मानवीय गरिमा के खिलाफ काम करने पड़ते हैं। एक-एक बड़े अफसर के बंगले पर दर्जन भर या दर्जनों कर्मचारियों की तैनाती रहती है, और वे घोषित रूप से तो कहीं और ड्यूटी पर रहते हैं, लेकिन अघोषित रूप से वे बंगला ड्यूटी करते हैं। कुत्तों को घुमाने से लेकर बच्चों का पखाना साफ करने तक, कपड़े धोने, और प्रेस करने तक, खाना पकाने और सब्जियां उगाने तक सैकड़ों किस्म के काम सरकारी कर्मचारियों से करवाए जाते हैं, जो कि पूरी तरह से गैरकानूनी इंतजाम है, और बहुत से बड़े अफसर तो खुद जितनी तनख्वाह पाते हैं, उससे अधिक कुल तनख्वाह के कर्मचारियों का बेजा इस्तेमाल करते हैं।
हमारा ख्याल है कि प्रधानमंत्री या उनकी पार्टी अपने नए मुख्यमंत्रियों को सादगी और किफायत की नसीहत देकर सरकारी फिजूलखर्ची घटाने की बात करेंगे, तो यह देश के सामने एक मिसाल हो सकती है, और एक-एक राज्य में दसियों हजार ऐसे कर्मचारियों को इंसान की तरह जीना नसीब हो सकता है। आज सरकार में ऊपर से नीचे तक तमाम लोग इस पूरी तरह गैरकानूनी इस्तेमाल के लिए इस हद तक संगठित रहते हैं कि छोटे कर्मचारियों की जुबान ही सिली रहती है, और वे नौकरी खोने के डर से, या रोजी खत्म हो जाने के खतरे से कुछ कह नहीं पाते। हमारा ख्याल है कि सरकारी कर्मचारियों के ऐसे अघोषित इस्तेमाल के खिलाफ एक कड़ा कानून बनाना चाहिए, और इस पर सजा का इंतजाम करना चाहिए। इस देश में संस्कृति यह हो गई है कि जब तक अदालती डंडे का डर न हो, किसी को किसी कानून की परवाह नहीं रह गई है।
देश में गरीबी इतनी है कि केन्द्र और राज्य सरकारों को तरह-तरह की अनाज-योजनाएं चलानी पड़ रही हैं, स्कूली बच्चों को दोपहर का भोजन देने से ही वे कुपोषण से बच पा रहे हैं, देश के दसियों करोड़ लोग आज भी बेघर हैं, और दसियों करोड़ लोग न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर काम करने को मजबूर हैं। ऐसे देश में सरकारी ओहदों पर बैठे हुए लोग न सिर्फ भ्रष्टाचार में डूबे रहते हैं, बल्कि सरकारी ढांचे का बेजा निजी इस्तेमाल करने को वे अपना जायज हक मान बैठे हैं। हमारा ख्याल है कि जब भाजपा आज देश में सबसे अधिक संख्या में राज्यों पर काबिज है, और ये तीन प्रमुख राज्य अभी सरकार बनाने के दौर से गुजर रहे हैं, तो यह पार्टी अपने नरेन्द्र मोदी सरीखे मजबूत नेता की अगुवाई में एक सुधार शुरू करने के लिए सबसे अधिक काबिल संगठन है। भाजपा के भीतर पार्टी की राष्ट्रीय लीडरशिप की हालत कांग्रेस सरीखी बर्बाद नहीं है कि जिसे सुनने से पार्टी के मुख्यमंत्री ही मना कर दें। इसलिए भी हम आज यह सुझाने की हालत में हैं कि प्रधानमंत्री अगर भाजपा मुख्यमंत्रियों को किफायत और सादगी की नसीहत दें, और मंत्रियों-अफसरों के निजी इस्तेमाल में सरकारी अमले को झोंकने के खिलाफ कड़ाई से कहें, तो हर राज्य में हजारों करोड़ रूपए सालाना की बचत हो सकती है। और किसी को भी नौकरी या रोजगार से निकाले बिना उनका बेहतर इस्तेमाल सार्वजनिक जरूरत की जगहों पर किया जा सकता है।
और यह बात प्रधानमंत्री तक न पहुंचे, तो हर राज्य के मुख्यमंत्री अपने स्तर पर भी ऐसा कर सकते हैं, और इससे अफसरी बददिमागी भी जमीन पर आएगी। आज जिन लोगों को यह लगता है कि उनके बिना सरकार नहीं चल सकती, उन्हें भी यह अहसास कराना जरूरी है कि स्थाई रूप से नियम-कानून तोड़ते हुए वे सरकारी अमले को घर पर नहीं जोत सकते। कल ही हमने अपने यूट्यूब चैनल पर छत्तीसगढ़ की राजधानी, नया रायपुर में मंत्री-मुख्यमंत्री और अफसरों के लिए बने बड़े-बड़े बंगलों की बात की थी कि अब उनके रखरखाव के लिए साधन और सुविधाओं का कई गुना अधिक बेजा इस्तेमाल शुरू हो जाएगा। प्रधानमंत्री को पूरे देश में सरकारी अमले की सादगी को भी लागू करना चाहिए, यह एक अलग बात है कि नया रायपुर में सरकारी बंगलों की यह योजना उन्हीं की पार्टी की रमन सिंह सरकार ने मंजूर की थी, उसका टेंडर किया था, और कांग्रेस सरकार ने पांच बरस ईंट-गारा ढोकर ये बंगले पूरे किए, और अब भाजपा के मंत्री-मुख्यमंत्री उसमें रहने जा रहे हैं। हमने उस वक्त भी इतनी बड़ी फिजूलखर्ची के खिलाफ लिखा था, लेकिन सत्ता को फिजूलखर्ची सुहाती है, और किफायत की हमारी सलाह कूड़े के ढेर में गई थी, और अब यह प्रदेश हाथी सरीखे विशाल रखरखाव का खर्च बाकी जिंदगी उठाता रहेगा। चाहे पीएम, चाहे सीएम जिस स्तर पर भी हो, जनता की जेब काटना बंद होना चाहिए।
भारत की संसदीय प्रणाली ब्रिटेन के मॉडल पर ढली हुई है, इसलिए भारतीय संसद या यहां की विधानसभाओं के जानकार लोगों को यह बात चौंका सकती है कि अभी ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण एक बिल संसद में पेश किया, तो उन्हीं की पार्टी के 29 सांसद गैरहाजिर थे। ऐसा नहीं कि वे इस बिल के खिलाफ थे, लेकिन वे कानून बनने जा रहे इस बिल के प्रावधानों को और कड़ा बनाना चाहते थे, और इसलिए उन्होंने वोट नहीं दिया। फिर भी वहां संसद के निचले सदन ने इसे बहुमत से पास कर दिया। रवांडा बिल नाम का यह विधेयक ब्रिटेन में दूसरे देशों से पहुंचने वाले लोगों को रोकने के लिए बनाया गया है क्योंकि देश अब शरणार्थियों और घुसपैठियों से थक गया सा लगता है। वहां के कुछ आंकड़े देखें, तो ब्रिटिश सरकार ने हर बरस एक लाख प्रवासियों को बसाने का वायदा किया था, लेकिन 2022 में ऐसे लोगों की संख्या 7 लाख 45 हजार पहुंच गई थी। ऐसे में ब्रिटेन ने एक अफ्रीकी देश रवांडा के साथ मिलकर यह योजना बनाई है कि ब्रिटेन रवांडा में ऐसे गैरकानूनी पहुंचने वालों को बसाएगा, और उसका खर्च खुद उठाएगा। अब इस योजना को लेकर खुद ब्रिटेन के भीतर कुछ लोग सरकार की इस सोच के खिलाफ हैं, वे इसको अमानवीय मानते हैं, और इसे ब्रिटेन का अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी से मुंह चुराना कहते हैं। दूसरी तरफ सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी इस पर प्रधानमंत्री के पेश किए गए रवांडा प्लान के मुकाबले अधिक कड़ा कानून चाहती है क्योंकि अवैध घुसपैठियों, और इजाजत पाकर आए शरणार्थियों से ब्रिटिश खजाने की कमर टूट रही है।
लोगों के याद होगा कि 2016 में जब ब्रिटेन में यूरोपियन यूनियन को छोडऩे के मुद्दे पर ब्रेक्जिट नाम का जनमतसंग्रह हुआ था, तब लोगों ने जिन वजहों से इस ऐतिहासिक गठबंधन को छोडऩा चाहा था, उसमें बाहर से आने वाले लोगों का मुद्दा एक सबसे बड़ा था। तब से लेकर अब तक ब्रिटेन में सरकार के सामने यह एक दुविधा बनी रही कि यूनियन छोड़ देने के बाद भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए ब्रिटेन की जवाबदेही खत्म नहीं हुई थी, और खुद उसके लोग देश के भीतर भी गरीब और हिंसा झेल रहे देशों से आ रहे मजबूर लोगों को रवांडा में शरणार्थी या राहत शिविरों जैसे इंतजाम में बसाने के खिलाफ हैं। ब्रिटेन में यह नया कानून लागू हो जाने के बाद भी इस पर चर्चा खत्म नहीं होगी, और खुद सत्तारूढ़ पार्टी अपने प्रधानमंत्री की इस पहल से संतुष्ट नहीं हैं, और इसमें और कड़ाई चाहती है।
हम दो पहलुओं से इस मुद्दे को हमारे पाठकों के बीच चर्चा के लायक पाते हैं, एक तो यह कि किसी देश की शरणार्थी नीति कैसी होनी चाहिए, क्योंकि खुद भारत म्यांमार और बांग्लादेश से कानूनी और गैरकानूनी तरीकों से आने वाले लोगों को लेकर एक चुनौती से गुजरता है, यह देश में आज बसे हुए लोगों की नागरिकता को पीढिय़ों पहले से साबित करने के कानून की बहस में भी उलझा हुआ है। दूसरी बात यह कि किसी संसदीय व्यवस्था में सत्तारूढ़ या कोई दूसरी पार्टी किस तरह अपने सदस्यों की असहमति को बर्दाश्त कर सकती है। हिन्दुस्तान में तो हम बात-बात में संसद या विधानसभाओं में पार्टियों के व्हिप देखते हैं जिनके मुताबिक अगर सदस्य सदन में मौजूद नहीं रहे, और उन्होंने पार्टी के फैसले के मुताबिक वोट नहीं दिया, तो उनकी सदस्यता खत्म हो सकती है। ऐसे में दूसरे कुछ अधिक विकसित लोकतंत्रों में यह देखना दिलचस्प रहता है कि आंतरिक असहमति से पार्टियां किस तरह जूझती हैं। हिन्दुस्तान की संसदीय व्यवस्था में यह कल्पना से परे है कि किसी पार्टी के इतने सदस्य अपनी ही सरकार से असहमत होकर किसी विधेयक पर मतदान के दौरान गैरहाजिर हों। कुछ लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है कि हम ऐसी असहमति की वकालत कर रहे हैं जो कि भारत जैसे माहौल में किसी मुद्दे पर दाम पाकर भी खड़ी हो सकती है। आज भारत में संसदीय व्यवस्था की जो साख है, उसमें ऐसा भी हो सकता है कि किसी कारोबारी घराने के हाथों बिककर सांसद या विधायक किसी फैसले को प्रभावित करें। दूसरी तरफ पार्टियों को भी यह बात सहूलियत की लगती है कि सदन में मौजूदगी और पार्टी के फैसले के मुताबिक वोट देने का एक कानून रहे, ताकि जिस किस्म का भी सौदा-समझौता करना हो, उसे पार्टी खुद करे, और सांसदों को अलग-अलग अपनी ‘आत्मा’ बेचने की छूट न रहे। हम असहमति की गुंजाइश को खत्म करने को अलोकतांत्रिक भी पाते हैं कि वोटरों के फैसले से चुनकर आए सांसद या विधायक उनकी या अपनी पसंद से वोट नहीं डाल सकते, बल्कि अपनी पार्टी की गिरोहबंदी का एक पुर्जा बनकर रह जाते हैं। इससे किसी पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक विचार-विमर्श की संभावना भी खत्म हो जाती है। इसलिए लोकतंत्र में दलबदल कानून के रास्ते, व्हिप (कोड़ा) चलाकर अपने सांसदों को जानवरों की तरह एक रास्ते पर, एक दिशा में हांकने का इंतजाम पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं लगता है।
फिर दूसरी तरफ ब्रिटेन, और योरप के दूसरे देशों की तरह इस मुद्दे पर सोचने की जरूरत भी है कि पड़ोस के देशों से, या दूर-दराज के देशों से भी आने वाले लोगों को अपनी जमीन पर किस तरह बर्दाश्त किया जा सकता है। अफ्रीका से लेकर सीरिया और इराक तक, पाकिस्तान और दूसरे कई देशों से आने वाले शरणार्थियों तक के लिए योरप-अमरीका जैसे विकसित इलाकों की नीति कैसी रहती है, उसे भी भारत जैसे देशों को देखना चाहिए, क्योंकि यहां पर पड़ोस के म्यांमार जैसे हिंसाग्रस्त देश से बहुत ही मजबूर शरणार्थी पहुंचते हैं, और उन्हें उनके धर्म के आधार पर रोक देने की एक मजबूत सरकारी सोच भारत में बनी हुई है। लोकतंत्र तंगदिली का नाम नहीं रहता है, और यह एक आक्रामक राष्ट्रवाद का शिकार होकर भी नहीं चल सकता है। लोकतंत्र अपने देश की सरहदों के पार भी लोकतांत्रिक बने रहने का नाम है, और सरहद पार के लोगों के लिए भी एक लोकतांत्रिक रूख बने रहना जरूरी रहता है। हम ब्रिटेन के इस ताजा मामले को लेकर भारत के बारे में इन दोनों ही पहलुओं से सोचते हैं कि अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों के प्रति भारत का रूख क्या रहना चाहिए, और भारत के भीतर संसदीय लोकतंत्र में पार्टी के भीतर की असहमति का क्या महत्व हो सकता है। दुनिया के लोकतंत्र एक-दूसरे से हमेशा ही कुछ न कुछ सीखते रहते हैं, और हो सकता है कि ब्रिटेन के इस रवांडा-प्लान और उस पर सत्तारूढ़ पार्टी के दर्जनों सदस्यों की संसदीय असहमति से भारत में भी सोच-विचार का सामान जुटे।
देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के चलते हिन्दीभाषी इलाकों से मणिपुर की खबरें गायब ही हो गई थीं। और बात महज हिन्दी इलाकों की नहीं है, उत्तर-पूर्व के बाहर भारत के बहुत कम हिस्से की कोई बड़ी दिलचस्पी उत्तर-पूर्वी राज्यों में रहती है, और ये इलाका देश की खबरों की मूलधारा से तब तक कटा सा रहता है जब तक वहां से किसी बड़ी हिंसा की बड़ी खबर नहीं आ जाती। पिछले कई महीनों से मणिपुर धीरे-धीरे खबरों में किनारे होते चले गया, और अब एक बार फिर वहां की एक खबर सामने आई है कि कई महीने पहले जातीय हिंसा में मारे गए 64 लोगों के शव उनके परिवारों को दिए जा रहे हैं, और आज उनके अंतिम संस्कार के लिए मणिपुर के अलग-अलग इलाकों में सुरक्षाबलों ने छूट दी है, और संघर्ष कर रहे समुदायों ने भी कुछ घंटे की शांति का आव्हान किया है। सुप्रीम कोर्ट की बनाई भूतपूर्व हाईकोर्ट जजों की एक कमेटी की रिपोर्ट के बाद अदालत के आदेश पर महीनों से मुर्दाघरों में रखे गए वे शव अब परिवारों को दिए जा रहे हैं, जिनमें 60 ईसाई-आदिवासी कुकी समुदाय के हैं, और 4 मणिपुर के शहरी और गैरआदिवासी, हिन्दू मैतेई समुदाय के हैं।
मई के महीने से मणिपुर में शुरू हुई हिंसा का अभी भी कोई अंत नहीं हुआ है, और जिन दो समुदायों के बीच टकराव चल रहा है, वे अलग-अलग इलाकों में सीमित हो गए हैं, और मणिपुर के भीतर जातीय आधार पर एक भौगोलिक विभाजन हो गया है जो कि सुरक्षाबलों की असाधारण बड़ी मौजूदगी की वजह से किसी तरह टकराव को टालते हुए जारी है। लेकिन यह यथास्थिति शांति से कोसों दूर है, और महज बंदूकें हंै जो कि बड़ी संख्या में तैनात हैं, और मणिपुर के दो समुदायों को एक-दूसरे को मारने से रोक रही हैं। जिन लोगों को मणिपुर के इस तनाव के ताजा इतिहास की याद न हो, उन्हें यह बताना ठीक होगा कि इस छोटे से राज्य की 40 लाख से कम आबादी में आधी आबादी नगा-कुकी आदिवासी समुदाय की है जो कि ईसाई हैं, और जिन्हें आदिवासी-आरक्षण मिला हुआ है। ये लोग राजधानी इम्फाल के शहरी इलाके से परे के पहाड़ी इलाकों पर अधिक बसे हैं। दूसरी तरफ इम्फाल के घाटी जैसे इलाके में मैतेई समुदाय बसा है जिसके अधिकतर लोग हिन्दू हैं, और इस समाज के कुछ लोगों ने मणिपुर हाईकोर्ट में एक याचिका लगाई थी जिसमें उन्हें भी आदिवासी-आरक्षण में शामिल करने की मांग की गई थी। इस पर मई के पहले हफ्ते में हाईकोर्ट का एक फैसला आया जिसमें राज्य सरकार से कहा गया था कि वह मैतेई समुदाय को आरक्षण देने की सिफारिश केन्द्र सरकार से करे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस आदेश को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर माना, लेकिन तब तक हिंसा के कुछ महीने गुजर चुके थे, और पौने दो सौ लाशें गिर चुकी थीं। केन्द्र सरकार की कोशिशें भी देर से शुरू हुईं, और वे मणिपुर का कोई समाधान नहीं निकाल पाईं क्योंकि राज्य के भाजपाई मुख्यमंत्री बीरेन सिंह वहां की आधी आबादी का भरोसा खो बैठे हैं, और अड़ोस-पड़ोस के दूसरे राज्यों में भी मणिपुर के आदिवासियों के खिलाफ हुई सरकारी और मैतेई हिंसा को लेकर बड़ी नाराजगी है। इस सिलसिले में यह याद दिलाना बेहतर होगा कि अभी पांच राज्यों में मणिपुर के पड़ोस के मिजोरम में भी चुनाव हुआ है, और वहां आदिवासियों के बीच जिस तरह की नाराजगी है उसे देखते हुए एनडीए में भागीदार मिजोरम की सत्तारूढ़ पार्टी के मुख्यमंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ एक मंच पर आने से भी इंकार कर दिया था कि मिजो आदिवासी मतदाता उससे नाराज होंगे।
खैर, मिजोरम का चुनाव तो निपट गया, लेकिन मणिपुर में ऐसी गहरी दरार पड़ी है कि पहाडिय़ों के बीच घाटी की तलहटी की तरह बसा हुआ राजधानी इम्फाल शहर मैतेई समुदाय का एक ऐसा इलाका बन गया है जहां पर राज्य की सरकार, विधानसभा, हाईकोर्ट सब कुछ है, लेकिन वहां पर प्रदेश की आधी नगा-कुकी आदिवासी आबादी पहुंच भी नहीं सकती। केन्द्र सरकार के सुरक्षाबलों की बहुत बड़ी मौजूदगी से हिंसा स्थगित चल रही है, वह किसी भी तरह से खत्म नहीं हुई है, उसे बस बंदूकों की नोंक पर रोककर रखा गया है, लेकिन ऐसी जिंदगी में मणिपुर के लोगों का वक्त थम गया है। दोनों समुदायों के लोग एक-दूसरों के इलाकों में आ-जा नहीं सकते, और तो और, आदिवासी इलाकों के अस्पतालों से मैतेई डॉक्टरों को भी छोडक़र जाना पड़ गया है, दोनों तरफ के अफसर-कर्मचारी एक-दूसरे के इलाकों में काम नहीं कर सकते, दस हजार से अधिक स्कूली बच्चे मां-बाप के साथ सैकड़ों राहत शिविरों में बंटे हुए हैं, और वहां उनकी कोई पढ़ाई भी नहीं हो रही है। मणिपुर की जिंदगी के बाकी तमाम पहलू भी इन दो तबकों के बीच बंटे हुए, थमे हुए हैं, और एक प्रदेश के भीतर नौबत दो दुश्मन देशों की तरह की हो गई है। आठ महीने से अधिक का वक्त गुजर चुका है, और मणिपुर के इस आंतरिक टकराव का कोई राजनीतिक समाधान आसपास भी नहीं दिख रहा है। दिक्कत यह भी है कि मणिपुर की एक बड़ी लंबी सरहद पड़ोसी देश म्यांमार के साथ लगी हुई है जो कि चार सौ किलोमीटर लंबी है। म्यांमार चीन के प्रभाव वाली एक ऐसी फौजी तानाशाही बना हुआ है जो कि नशे की तस्करी के बड़े धंधे में शामिल है। इसलिए वहां से मणिपुर में बड़े पैमाने पर हथियार, हथियारबंद म्यांमारी लोग, और नशे की कमाई आने की खबरें भी बनी रहती हैं। एक फौजी-रणनीतिक महत्व के इस सरहदी प्रदेश में इतनी लंबी अशांति और हिंसा के अपने खतरे हैं, और भारत के साथ फौजी मुकाबले वाले चीन का इस नौबत से फायदा उठाना बड़ा स्वाभाविक लगता है।
देश के सरहदी राज्यों को भुला देना एक आम और आसान बात दिखती है। और ऐसा सिर्फ देश की राजनीति में नहीं हो रहा है, प्रदेशों में भी जो हिस्से राजधानियों से सबसे दूर रहते हैं, वहां तक पहुंचते हुए शासन-प्रशासन बेअसर होने लगते हैं। ठीक उसी तरह की नौबत उत्तर-पूर्व के राज्यों को लेकर भारत सरकार की रहती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार इन इलाकों को यह सोचकर भुला देती है। यहां की समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी। जो भी हो, मणिपुर आज देश की बाकी बड़ी आबादी को सीधा खतरा न दिख रहा हो, यहां के लोगों के बुनियादी हक आज निलंबित हैं, और यह सिलसिला जल्द से जल्द खत्म होना चाहिए। जिस प्रदेश में वहां के सबसे बड़े हिस्से के विधायक भी राजधानी, और विधानसभा न पहुंच सकें, उसे उस राज्य के रहमोकरम पर छोड़ देना समझदारी नहीं है।