संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हाईकोर्ट का एक के बाद दूसरा जज फजीहत पैदा करने इतना आमादा क्यों?
23-Mar-2025 12:58 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : हाईकोर्ट का एक के बाद दूसरा जज फजीहत पैदा करने इतना आमादा क्यों?

दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के बंगले में लगी आग, और वहां से बोरियां भर-भरकर मिले अधजले नोटों से न सिर्फ देश की न्यायपालिका हिल गई है, बल्कि लोकतंत्र के ढांचे में दरारें नजर आ रही हैं। अब कहने के लिए जस्टिस वर्मा कई तरह की सफाई दे रहे हैं कि ये नोट उनके नहीं हैं, लेकिन हाल के बरसों का उनका इतिहास भी इन नोटों को लेकर कई तरह के सवाल खड़े कर रहा है। वे जिस तरह के मामलों में उलझे हुए थे, उनसे सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने उन्हें बचाया था, लेकिन अब अधजले नोटों के ढेर के बाद वह विवाद फिर से खड़ा हो रहा है। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस नोटकांड की प्रारंभिक जांच रिपोर्ट के बाद दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से कहा है कि जस्टिस वर्मा को कोई काम न दिया जाए, और तीन अलग-अलग हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों की एक जांच कमेटी इस मामले में बनाई है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा है कि जस्टिस वर्मा अपना मोबाइल फोन इधर-उधर न करें, उसमें कुछ डिलिट न करें, और कोई न्यायिक काम न करें।

इस मौके पर एक पुराना विवाद कफन फाडक़र आ खड़ा हुआ है कि किस तरह यह जज सीबीआई के एक दूसरे मामले में जांच के घेरे में था, और उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने दखल देकर यशवंत वर्मा को बचाया था। यह मामला एक शक्कर कारखाने की बैंक जालसाजी को लेकर था, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दिया था, और यशवंत वर्मा उस समय उस शक्कर कारखाने के एक गैरकार्यकारी डायरेक्टर थे, और एफआईआर में उनका भी नाम था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को पलटा, और सीबीआई जांच बंद कर दी गई। इस डिफाल्टर कंपनी को बैंक लोन क्यों देते रहे, इसकी जांच होनी थी, लेकिन वह भी नहीं हो पाई थी। जस्टिस वर्मा दिल्ली हाईकोर्ट में दिल्ली सरकार के शराब घोटाले जैसे कई नाजुक मामलों की सुनवाई कर रहे थे, और अब सुप्रीम कोर्ट उनके पिछले फैसलों को भी देखने जा रहा है। पहले यह खबर आई थी कि नोट जलने के इस कांड के बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद हाईकोर्ट भेज दिया है, जहां से वे दिल्ली हाईकोर्ट आए थे, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया कि इलाहाबाद भेजने के फैसले का इस नोटकांड से लेना-देना नहीं है, और वह फैसला पहले लिया गया था। उधर इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकीलों के संगठन जस्टिस वर्मा को दागी मानते हुए उन्हें इलाहाबाद भेजने का सार्वजनिक तौर पर विरोध कर रहे हैं।

इलाहाबाद हाईकोर्ट से जुड़ा हुआ यह तीसरा विवाद पिछले तीन महीनों में सामने आया है। दिसंबर के महीने में हाईकोर्ट परिसर में ही विश्व हिन्दू परिषद के एक कार्यक्रम में वहां के जस्टिस यादव ने मंच और माईक से यह कहा था कि यह देश बहुसंख्यक समुदाय के मुताबिक चलेगा, और इसी भाषण में उन्होंने मुस्लिमों को गंदी और नफरती गालियां दी थीं। बाद में यह कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने उन्हें बुलाकर समझाईश दी थी, और अपना बयान वापिस लेने को कहा था। दूसरा मामला अभी तीन दिन पहले ही सामने आया जब सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के खिलाफ जाकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज, जस्टिस मिश्रा ने यह फैसला दिया कि दो बालिग लोग एक नाबालिग बच्ची को पुल के नीचे घसीटकर ले गए, उसका सीना भींचते रहे, और उसके पजामे का नाड़ा तोड़ दिया, लेकिन उसे बलात्कार का प्रयास नहीं माना जा सकता। इस फैसले के खिलाफ हमने अगले ही दिन अपने अखबार के यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल, पर जमकर कहा था, और देश में कई बड़े वकीलों ने, केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री ने, और भी बहुत से तबकों ने इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाई है, और सुप्रीम कोर्ट से इसे तुरंत खारिज करने को कहा है।

अदालतों के जज अपनी साम्प्रदायिकता से, धर्मान्धता और नफरत से, संवेदनशून्यता से, या कि भ्रष्टाचार से, जब-जब विवादों में फंसते हैं, लोगों का भरोसा अदालतों पर से कुछ और हद तक घट जाता है। आज भी अदालतों के जो तौर-तरीके रहते हैं, वहां जो वक्त लगता है, सब कुछ जितना खर्चीला हो गया है, बड़े जजों के जो तेवर रहते हैं, उन सबको देखकर आम जनता के बीच बड़ी अदालतों के लिए अधिक सम्मान नहीं बच जाता। फिर इसके साथ-साथ जब कभी कोई जज सत्ता को खुश करने वाले फैसले देते हैं, और रिटायर होते ही तुरंत राजभवन, राज्यसभा, या मोटी सुख-सुविधाओं वाले किसी ओहदे पर चले जाते हैं, तो भी जनता उसे देखती ही है। जब सुप्रीम कोर्ट के एक मुख्य न्यायाधीश उनके खिलाफ मातहत कर्मचारी द्वारा की गई यौन शोषण की शिकायत की सुनवाई करने खुद ही बेंच के मुखिया बनकर बैठ जाते हैं, तो सुप्रीम कोर्ट की इज्जत मिट्टी में मिल जाती है, और उसकी साख पर किसी का भरोसा नहीं बचता। फिर यही जज रिटायर होते ही, सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा राज्यसभा भेज दिए जाते हैं, तो लोग उनके राम मंदिर के फैसले को भी उससे जोडक़र देखते हैं, और लोगों को यह याद पड़ता है कि ऊंचे ओहदों पर बैठे हुए लोगों के चाल-चलन के लिए रामराज्य से किस तरह के पैमाने चले आ रहे हैं। फिर बिना किसी जरूरत के जब देश का एक मुख्य न्यायाधीश अपने घर की गणपति पूजा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अकेले आमंत्रित करता है, और फिर जज और उनकी पत्नी के साथ पीएम का आरती का वीडियो जारी होता है, तो लोगों को लगता है कि महाराष्ट्र चुनाव के ठीक पहले महाराष्ट्रियन टोपी लगाए मोदी एक महाराष्ट्रियन जज के घर पर गणपति पूजा कर रहे हैं, तो वह एक किस्म से चुनावी फायदा भी है, तो भी जज सवालों के घेरे में आ जाते  हैं।

यह तो इस ताजा नोटकांड की प्रारंभिक जांच के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सख्त तेवर दिखाए हैं, और जांच रिपोर्ट को भी तुरंत अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक कर दिया है, इसलिए जनता के मन में बेचैनी अभी सीमित है। लेकिन यह बात साफ है कि भारत की न्यायपालिका को अपने चाल-चलन और तौर-तरीकों को अधिक सुरक्षित बनाना होगा। वह बात बहुत पुरानी नहीं है जब देश के एक भूतपूर्व कानून मंत्री, और सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील शांतिभूषण, और उनके चर्चित वकील बेटे प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट में अवमानना के आरोप में कटघरे में बुलाया गया था, क्योंकि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आधा दर्जन जजों के भ्रष्ट होने का आरोप लगाया था। उस पर कई चेतावनियां देने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट उन्हें कोई सजा नहीं दे पाया था, और उस मामले को सहूलियत के साथ भुला दिया गया। अब अदालत को सावधान रहना चाहिए कि जजों को अपनी साख भी बचाकर रखनी चाहिए, ताकि लोकतंत्र के तीन में से इस एक स्तंभ पर जनता का भरोसा बना रहे, बाकी दो स्तंभों पर तो वह डांवाडोल हो ही चुका है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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