विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले दो दिनों में अमेरिका एक बार उठ गया और एक बार गिर गया। वह उठा तब जबकि इस्राइल और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में समझौता हो गया और वह गिरा तब जबकि सुरक्षा परिषद में वह ईरान के विरुद्ध बुरी तरह से पछाड़ खा गया। इस्राइल की स्थापना 1948 में हुई लेकिन पश्चिम एशिया के राष्ट्रों में से सिर्फ दो देशों ने अभी तक उसे कूटनीतिक मान्यता दी थी। एक मिस्र और दूसरा जोर्डन। ये दोनों इस्राइल के पड़ौसी राष्ट्र हैं। इन दोनों के इस्राइल के साथ जबर्दस्त युद्ध हुए हैं।
इन युद्धों में दोनों की जमीन पर इस्राइल ने कब्जा कर लिया था लेकिन 1978 में मिस्र ने और 1994 में जोर्डन ने इस्राइल के साथ शांति-संधि कर ली और कूटनीतिक संबंध स्थापित कर लिए। इस्राइल ने मिस्र को उसका सिनाई का क्षेत्र वापस किया और जोर्डन ने पश्चिमी तट और गाजा में फलस्तीनी सत्ता स्थापित करवाई लेकिन संयुक्त अरब अमीरात याने अबू धाबी के साथ इस्राइल का जो समझौता हुआ है, उसमें इस्राइल को कुछ भी त्याग नहीं करना पड़ा है। अबू धाबी इसी बात पर राजी हो गया है कि इस्राइल ने उसे आश्वस्त किया है कि वह पश्चिमी तट के जिन क्षेत्रों का इस्राइल में विलय करना चाहता था, वह नहीं करेगा। इस समझौते का श्रेय डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिकी सरकार ले रही है, जो वाजिब है। उसने ईरान के विरुद्ध इस्राइल, सउदी अरब, तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात आदि कई सुन्नी देशों का एक सम्मेलन पिछले साल पोलैंड में बुलाया था। उसी में इस्राइल और अबू धाबी का प्रेमालाप शुरु हुआ था। इस समझौते से ईरान और तुर्की बेहद खफा हैं लेकिन ट्रंप अपने चुनाव में इसका दोहन करना चाहते हैं। ट्रंप की टोपी में यह एक मोरपंख जरुर बन गया है।
लेकिन सुरक्षा परिषद ने ट्रंप की लू उतारकर रख दी है। अमेरिका ने ईरान पर लगे हथियार खरीदने के प्रतिबंधों को बढ़ाने का प्रस्ताव रखा था लेकिन 15 सदस्यों वाली इस सुरक्षा परिषद में सिर्फ एक सदस्य ने उसका समर्थन किया। उसका नाम है-डोमिनिकन रिपब्लिक। यह एक छोटा-सा महत्वहीन देश है।
अमेरिका को ऐसी पराजय का मुंह पिछले 75 साल में पहली बार देखने को मिला है। यों भी डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडन और कमला हैरिस के जीतने के आसार इतने बढ़ गए हैं कि दुनिया के राष्ट्र बड़बोले ट्रंप का ज्यादा लिहाज नहीं कर रहे हैं। चीन ने हाल ही में ईरान के साथ अरबों डॉलर खपाने का समझौता किया है और रुस के व्लादिमीर पुतिन ने ईरान के साथ हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौते पर एक शिखर सम्मेलन बुलाने का भी सुझाव दिया है। ट्रंप की टोपी में ईरान एक बिच्छू बना हुआ है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
अंखी दास कौन हैं - इस सवाल के कई जवाब हो सकते हैं. मगर उनका एक परिचय ये बताने के लिए पर्याप्त है कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कितनी अहमियत रखती हैं.
नरेंद्र मोदी डॉट इन नाम से प्रधानमंत्री मोदी की एक व्यक्तिगत वेबसाइट है. उनका एक व्यक्तिगत ऐप भी है - नमो ऐप.
वेबसाइट पर न्यूज़ सेक्शन के रिफ़्लेक्शंस सेक्शन के कॉन्ट्रिब्यूटर्स कॉलम में, और नमो ऐप पर नमो एक्सक्लूसिव सेक्शन में एक टैब या स्थान पर कई लोगों के लेख प्रकाशित किए गए हैं.
वहाँ जो 33 नाम हैं, उनमें 32वें नंबर पर अंखी दास का नाम है. यानी अंखी दास का एक परिचय ये भी है कि वो नरेंद्र मोदी की वेबसाइट और ऐप की कॉन्ट्रिब्यूटर हैं, यानी वो वहाँ लेख लिखती हैं.
अलबत्ता, अप्रैल 2017 से ऐप के साथ जुड़े होने के बावजूद वहाँ उनका एक ही लेख दिखाई देता है जिसका शीर्षक है - प्रधानमंत्री मोदी और शासन की नई कला.
वहाँ उनका परिचय ये लिखा है - "अंखी दास, भारत और दक्षिण एवं मध्य एशिया में फेसबुक के लिए लोक नीति की निदेशिका हैं. उनके पास टेक्नोलॉजी सेक्टर में लोक नीति और रेगुलेटरी एफेयर्स में 17 साल का अनुभव है."
पर यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि अंखी दास मीडिया में लेख लिखती रही हैं. उनका नाम अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस के कॉलमनिस्ट लेखकों की सूची में भी है. वो अमरीकी वेबसाइट हफ़िंग्टन पोस्ट के भारतीय एडिशन के लिए भी लिखती रही हैं.
अंखी दास अक्तूबर 2011 से फ़ेसबुक के लिए काम कर रही हैं. वो भारत में कंपनी की पब्लिक पॉलिसी की प्रमुख हैं.
फ़ेसबुक से पहले वो भारत में माइक्रोसॉफ़्ट की पब्लिक पॉलिसी हेड थीं. माइक्रोसॉफ़्ट से वो जनवरी 2004 में जुड़ीं, और लगभग आठ साल काम करके बाद वो फ़ेसबुक में चली गईं.
उन्होंने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से 1991-94 के बैच में अंतरराष्ट्रीय संबंध और राजनीति शास्त्र में मास्टर्स की पढ़ाई की है. ग्रेजुएशन की उनकी पढ़ाई कोलकाता के लॉरेटो कॉलेज से पूरी हुई है.
हालाँकि, ये दिलचस्प है कि दुनिया की सबसे कामयाब और प्रभावशाली ताक़तों में गिनी जानेवाली कंपनी के फ़ेसबुक इंडिया पेज पर और ना ही वेबसाइट पर कंपनी के भारत में काम करने वाले अधिकारियों के बारे में कोई जानकारी दी गई है.
अंखी अभी चर्चा में क्यों हैं
ये समझने के लिए पहले अंखी दास के इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक लेख की चर्चा ज़रूरी है. मुंबई हमलों की दसवीं बरसी पर 24 नवंबर 2018 को छपे अंखी दास के इस लेख का शीर्षक था - No Platform For Violence.
इसमें वो कहती हैं कि "फ़ेसबुक संकल्पबद्ध है कि वो ऐसे लोगों को अपना इस्तेमाल नहीं करने देगा जो कट्टरवाद को बढ़ावा देते हैं." इसमें वो आगे लिखती हैं, हमने इस साल ऐसी 1 लाख 40 हज़ार सामग्रियों को हटा लिया है जिनमें आतंकवाद से जुड़ी बातें थीं.
लेख में वो कहती हैं कि "उनके पास ऐसी तकनीक और उपकरण हैं जिनसे अल क़ायदा और उनके सहयोगियों को पहचाना जा सका, इसी वजह से इस्लामिक स्टेट और अल क़ायदा से जुड़ी 99 फीसदी सामग्रियों को पहचाना जाए, उससे पहले ही उन्हें हटा लिया गया".
इस लेख में वो ये भी बताती हैं कि "फ़ेसबुक की अपनी विशेषज्ञों की एक टीम है जिनमें पूर्व सरकारी वकील, क़ानून का पालन करवाने वाले अधिकारी, ऐकेडमिक्स, आतंकवाद-निरोधी रिसर्चर शामिल हैं. साथ ही निगरानी करनेवाले और भी लोग हैं, जो आतंकी गतिविधियों वाले केंद्रों में बोली जाने वाली भाषाएँ समझते हैं".
यानी उनके इस लेख का आशय ये है कि फ़ेसबुक आतंकवाद से जुड़ी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार करने वाली सामग्रियों को पकड़ने को लेकर बहुत सक्रिय था और उसने इन पर प्रभावशाली तरीक़े से लगाम लगाई.
अभी जो विवाद चल रहा है उसके केंद्र में यही मुद्दा है - कि फ़ेसबुक पर भारत में कुछ ऐसी सामग्रियाँ आईं हैं जिन्हें नफ़रत फैलाने वाली सामग्री बताया गया, मगर अंखी दास ने उन्हें हटाने का विरोध किया.
क्या हैं आरोप?
अमरीकी अख़बार वॉल स्ट्रीट जर्नल में 14 अगस्त को एक रिपोर्ट छपी जिसमें आरोप लगाया कि दुनिया की सबसे बड़ी सोशल मीडिया कंपनी जो वॉट्सऐप की भी मालिक है, उसने भारत में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के सामने हथियार डाल दिए हैं.
अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अंखी दास ने ये जानकारी दबा दी कि फ़ेसबुक ने बीजेपी से जुड़े फ़र्ज़ी पन्नों को डिलीट किया था.
अख़बार ने ये भी दावा किया कि फ़ेसबुक ने अपने मंच से बीजेपी नेताओं के नफ़रत फैलाने वाले भाषणों को रोकने के लिए ये कहते हुए कुछ नहीं किया कि सत्ताधारी दल के सदस्यों को रोकने से भारत में उसके व्यावसायिक हितों को नुक़सान हो सकता है.
रिपोर्ट में तेलंगाना से बीजेपी विधायक टी राजा सिंह की एक पोस्ट का हवाला दिया गया था जिसमें कथित रूप से अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा की वकालत की गई थी.
मामले की जानकारी रखने वाले फ़ेसबुक के मौजूदा और पूर्व कर्मचारियों से बातचीत के आधार पर लिखी गई इस रिपोर्ट में दावा किया गया कि फ़ेसबुक के कर्मचारियों ने तय किया था कि पॉलिसी के तहत टी राजा सिंह को बैन कर देना चाहिए, लेकिन अंखी दास ने सत्तारूढ़ बीजेपी के नेताओं पर हेट स्पीच नियम लागू करने का विरोध किया था.
अख़बार ने लिखा - "देश में कंपनी की शीर्ष पब्लिक-पॉलिसी अधिकारी अंखी दास ने नफ़रत फैलाने वाले भाषणों के नियम को टी राजा सिंह और कम-से-कम तीन अन्य हिंदू राष्ट्रवादी व्यक्तियों और समूहों पर लागू करने का विरोध किया जबकि कंपनी के भीतर से लोगों ने इस मुद्दे को ये कहते हुए उठाया था कि इससे हिंसा को बढ़ावा मिलता है."
हालाँकि, विधायक टी राजा सिंह ने बीबीसी तेलुगू संवाददाता दीप्ति बथिनी से कहा कि वो अपने बयानों पर अभी भी क़ायम हैं और उन्हें नहीं लगता कि उनकी भाषा में कोई दिक़्क़त थी. उन्होंने दावा किया कि ये आपत्तियाँ उनकी छवि को ठेस लगाने के लिए की गईं.
टी राजा सिंह ने कहा, "क्यों केवल मुझे ही निशाना बनाया जा रहा है? जब दूसरा पक्ष ऐसी भाषा का इस्तेमाल करता है तो किसी को तो जवाब देना होगा. मैं बस उसी का जवाब दे रहा हूँ".
सियासी मुद्दा
बहरहाल, इस मुद्दे ने अब भारत में राजनीतिक रंग ले लिया है. राहुल गांधी समेत कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने जहाँ इसे लेकर सत्ताधारी बीजेपी पर हमला बोला है, वहीं बीजेपी के वरिष्ठ नेता पार्टी के बचाव में उतर आए हैं.
राहुल गांधी ने रविवार को ट्वीट कर लिखा - "भाजपा-RSS भारत में फेसबुक और व्हाट्सएप का नियंत्रण करती हैं. इस माध्यम से ये झूठी खबरें व नफ़रत फैलाकर वोटरों को फुसलाते हैं. आख़िरकार, अमरीकी मीडिया ने फेसबुक का सच सामने लाया है."
वहीं केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसके जवाब में ये ट्वीट किया, "जो लूज़र ख़ुद अपनी पार्टी में भी लोगों को प्रभावित नहीं कर सकते वो इस बात का हवाला देते रहते हैं कि पूरी दुनिया को बीजेपी और आरएसएस नियंत्रित करती है."
इस सारे मामले पर फ़ेसबुक ने कहा है कि वो नफ़रत फैलाने वाले भाषणों पर अपनी नीतियों को बिना किसी के राजनीतिक ओहदे या किसी पार्टी से उसके संपर्क को देखे लागू करती है.
फ़ेसबुक के एक प्रवक्ता नेबीबीसी संवाददाता सौतिक बिस्वास को बताया - "हम नफ़रत फैलाने वाले भाषणों और सामग्रियों को रोकते हैं और दुनिया भर में अपनी नीतियों को बिना किसी के राजनीतिक ओहदे या पार्टी से उसके संपर्क को देखे लागू करते हैं. हमें पता है कि इस बारे में और प्रयास किए जाने की ज़रूरत है, मगर हम निष्पक्षता और सत्यता को सुनिश्चत करने के लिए हमारी प्रक्रिया को लागू किए जाने की जाँच करने की दिशा में प्रगति कर रहे हैं."(BBCNEWS)
-मनीष सिंह
और पॉलिटिकल लीडरशिप की पहचान इससे होती है कि उसके इर्द-गिर्द राजनीति और ब्यूरोके्रसी में कितने नए लीडर्स नर्चर किये गए। गांधी नेहरू का दौर ऐसा सुनहरा दौर था, जिसने भारत को हर विंग में दूरदर्शी लोगों को पहचाना, गढ़ा और बढ़ाया गया। केएफ रुस्तमजी उनमें से एक थे।
रायपुर- नागपुर रेलवे लाइन पर एक छोटा से स्टेशन है, कामटी। इस गांव में खुसरो फरामुर्ज रुस्तमजी का जन्म हुआ। मुस्लिम से लगते नाम की वजह से खारिज न करें, वे पारसी थे। नागपुर और मुंबई में पले बढ़े, और फिर नागपुर के एक कॉलेज में प्रोफेसर हुए। वहीं से सलेक्शन अंग्रेजी पुलिस में हो गया। यह कोई 1938 के आसपास का दौर था।
यह इलाका सीपी और बरार कहलाता था, राजधानी थी नागपुर। असिस्टेंड एसपी के रूप में नागपुर में उन्हें पुलिस सेवा मेडल मिला। 1948 में हैदराबाद एक्शन के दौरान वे अकोला औए एसपी रहे और हैदराबाद एक्शन में भूमिका का निभाई। 1952 आते आते उन्हें एक खास जगह पोस्टिंग मिली।
रुस्तमजी को प्रधानमंत्री जवाहरलाल की पर्सनल सेक्युरिटी का इंचार्ज बनाया गया। इस दौर के अपने अनुभव उन्होंने अपनी डायरी में लिखे है, जो किताब की शक्ल में ढाले गए। (आई वाज शैडो ऑफ नेहरू) बहरहाल पांच साल बाद उन्होंने आगे बढऩे का निर्णय किया। न चाहते हुए नेहरू ने उन्हें रिलीव किया। सपत्नीक डिनर पर बुलाया, अपनी हस्ताक्षरित तस्वीर दी।
सीपी एंड बरार अब मध्यप्रदेश हो चुका था। रुस्तमजी यहां आईजी हुए। अब उस दौर का आईजी आज का डीजीपी होता था। स्टेट का टॉप कॉप.. पुराने पुलिसवाले यह दौर याद करते है, और चंबल के डाकू भी। इस दौर पर रुस्तमजी की डायरियों पर आधारित एक और किताब है। (द ब्रिटिश, बैंडिट एंड बार्डर मैन)
यह 1965 था और भोपाल से निकलकर रुस्तमजी वापस दिल्ली में थे। चीन युध्द का अनुभव हो चुका था। शास्त्रीजी एक नई फोर्स के लिए सोच रहे तो, ऐसा अर्द्धसैनिक बल जो सीमाओं की सुरक्षा करे। रुस्तमजी को बीएसएफ बनाने की कमान दी गयी। कुछ फौजी यूनिट्स, कुछ स्टेट आर्म्ड पुलिस को मिलाकर यह बल बना। रुस्तमजी की कमांड में यह बल एक सशक्त और सजग सीमा प्रहरी बन गया। इसकी परीक्षा की घड़ी भी जल्द आयी।
यह 1971 था। इंदिरा ने पाकिस्तान को सबक सिखाने का पूरा इरादा कर लिया था। मगर जनरल मानेकशॉ ने वक्त मांग लिया। उन्हें 6 माह चाहिए थे। इस वक्त में पाकिस्तान के हुक से बच निकलने का खतरा था। वक्त का इस्तेमाल किया रुस्तमजी ने ..
बांग्लादेश की मुक्तिबाहिनी को ट्रेनिंग, हथियार और पाकिस्तानी एडमिनिस्ट्रेशन पर धावे के लिए सारी रणनीति बनाकर देने के बाद रुस्तमजी ने सुनिश्चित किया कि पाकिस्तान को दम लेने की फुर्सत न मिले। छह माह बाद मानेकशॉ ने बाकी का काम तमाम कर दिया।
रिटायरमेंट के बाद रुस्तमजी को पुलिस आयोग का सदस्य बनाया गया। जेलों की दुव्र्यव्यवस्था को रुस्तमजी ने बेदर्दी से सामने निकालकर दिखाया। वह दौर सरकार की आलोचना करने वालो को उठवा लेने या उसके ऑफिस में आधी रात को छापे मारने का न था। रुस्तमजी की रिपोर्ट पर कार्यवाही हुई, हजारों बन्दी जमानत पर छोड़ दिये गए। जेलों के लिए नई गाइडलाइन बनी।
यह कोई पुलिस या फौजी सेवा न थी। यह राष्ट्र के लिए एक चाक चौबंद नागरिक की सेवा थी। भारत मे सिविलियन सेवा के दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मविभूषण’ से रुस्तमजी को नवाजा गया।
आजादी की बेला थी। अमरावती में पदस्थ एसपी रुस्तमजी को आदेश हुआ कि 5 प्रिंसली स्टेटस के मर्जर से बनने वाले के नए जिले की कमान संभाले। एक कार में सवार हो मियां बीवी नए जिले की कमान संभालने निकल पड़े।
सारंगढ़ रियासत के पैलेस में आकर रुके । 31 दिसम्बर 1948 को स्टेट गेस्ट बुक में उनके हस्ताक्षर और एंट्री मिलती है। अपनी डायरी में रुस्तमजी इस दिन के विषय में लिखते है- मैं एक ऐसे जिले का एसपी बनने जा रहा हूँ, जो अब तक अस्तित्व में नही आया। और मैं ऐसे राजा के साथ बैठा हूँ, जिसका राज्य कल खत्म हो जाएगा।
1 जनवरी 1948 को सारंगढ, रायगढ़, धरमजयगढ़, सक्ति और जशपुर की रियासतों को मिलाकर एक जिला बना, जो मेरा रायगढ़ है। रुस्तमजी इसके फाउंडर सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस थे। (सक्ति अब दूसरे जिले का हिस्सा है)
कमाऊ जिलों में और प्लम पोस्टिंग के लिए मरते, रीढें चटकाते युवा आईएएस/ आईपीएस के लिए पदमविभूषण के एफ रुस्तमजी का कद इतना ऊंचा है, कि उनकी ओर देखने के लिए सर ऊंचा करने से दर्द हो सकता है।
इसलिए कि उनका कद बेहद छोटा है। छोटे कद की पोलिटीकल लीडरशिप, अफसर भी छोटे कद के ही चाहती है।
(जानकारी परवेश मिश्रा की मदद से)
रुस्तमजी इतिहास के एकमात्र पुलिस कप्तान रहे जिन्होंने कलेक्टरी भी की। भले ही थोड़े दिनों के लिये। हुआ यह कि 1जनवरी 1948 को श्री रामाधार मिश्रा ने रायगढ़ के पहले कलेक्टर के रूप चार्ज लिया था। तीन सप्ताह बाद ही उनकी तबियत बिगड़ी। अंतडिय़ां आपस में उलझ गयी थीं। असहनीय पेटदर्द से परेशान श्री मिश्र को हावड़ा-बम्बई मेल से रायपुर पंहुचाया गया उनकी जान नहीं बच पायी थी। उन दिनों अंग्रेजों के अचानक वापस चले जाने के कारण अधिकारियों का जबर्दस्त अकाल था। सो पुलिस कप्तान रुस्तमजी को आदेश प्राप्त हुआ कि वे कलेक्टर का चार्ज लें। और इतिहास बन गया। -परवेश मिश्रा
पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में 15-16 जून की रात को चीन और भारत की सेना के बीच आमने-सामने का संघर्ष हुआ था. इसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए. इसके बाद दोनों देशों के बीच राजनयिक और सैन्य स्तरों पर बातचीत शुरू हुई. लेकिन बीते दो महीने में 22 से ज्यादा बैठकें होने के बाद भी बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी है. पिछले दो हफ़्तों के दौरान दोनों देशों की ओर से आये बयानों से इसका पता चलता है. चीन का कहना है कि उसकी सेना वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से पीछे हट चुकी है. जबकि भारत ने कहा है कि लद्दाख में एलएसी पर सेना के पीछे हटने की प्रक्रिया में बहुत थोड़ी प्रगति हुई है और चीन के साथ सीमा पर संघर्ष लंबा भी खिंच सकता है. इससे कुछ रोज पहले ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि दोनों देशों में बातचीत जारी है और समस्या का हल निकल जाना चाहिए. लेकिन ये मामला कब तक हल होगा, इसकी गारंटी वे नहीं दे सकते. कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत और चीन के बीच संघर्ष का खतरा अभी भी बना हुआ है.
बीते कुछ समय से भारत और चीन के बीच जो कुछ भी हो रहा है, उसे देखकर कई जानकारों को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय की याद ताजा हो गयी है. इतिहास के जानकारों की मानें तो भारत-चीन के बीच जैसे हालात 1950 से लेकर 1962 तक थे, बीते कुछ सालों से लगभग वैसे ही हालात फिर से बने हुए हैं. सीमा पर जो क्षेत्र तब विवादास्पद थे, वे आज भी वैसे ही हैं, जिस तरह राजनीतिक यात्राएं और वार्ताएं उस समय जारी थीं वैसी ही नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान भी दिखीं. उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरु और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ की दोस्ती के किस्से भी उसी तरह आम थे, जिस तरह अपने कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने संबंध चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बताते रहे हैं. 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी और शी जिंनपिंग 16 बार मुलाकातें कर चुके हैं. इनमें से कुछ तो बेहद गर्मजोशी भरे माहौल में हुई हैं.
#WATCH: PM Modi talks about Chinese President says,'scholar Xuanzang visited my village in India & in China he visited Pres Xi's village' pic.twitter.com/jZOuCTlxxM
— ANI (@ANI) October 8, 2017
कुछ जानकारों के मुताबिक तब और अब में एक बात और भी समान दिखती है, उस समय चीन को लेकर जवाहरलाल नेहरू ने जो गलती की थी, वैसी ही या उससे भी बड़ी गलती अपने कार्यकाल के दौरान नरेंद्र मोदी ने भी की है.
जवाहरलाल नेहरू की गलती
चीन को लेकर जवाहरलाल नेहरू ने क्या गलतियां की थीं इसका पता बीते पचास सालों में आई कई रिपोर्टों और किताबों से लगता है. अक्टूबर 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा किया तो कुछ भारतीय सैन्य अधिकारी और नेताओं ने चीन की विस्तारवादी नीति को भांप लिया था. इन्होंने भारत सरकार को समय-समय पर इसके बारे में आगाह भी किया.
तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने नेहरू से कहा था कि चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है और न ही हिंदुस्तान को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के तौर पर चीन की दावेदारी को बढ़ावा देना चाहिए. पटेल के इस विचार को नेहरू ने तरजीह नहीं दी. उनका मानना था कि चीनी साम्यवाद का मतलब यह नहीं हो सकता कि वह भारत की तरफ कोई दुस्साहस करेगा. उन्होंने, तिब्बत पर कब्जे के बावजूद चीन से गहरे रिश्ते बनाने पर ही जोर दिया. इसके कुछ ही महीनों बाद ही वल्ल्भभाई पटेल की मृत्यु हो गयी. और चीन पर नेहरू को समझा सकने वाला नहीं रहा.
इसके बाद जवाहरलाल नेहरू की चीन से करीबियां बढ़ीं और इस दौरान तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ से उनकी दोस्ती के किस्से अखबारों की सुर्खियां बनने लगे. 1956 में नेहरू के बुलावे पर चाऊ एन-लाइ भारत के दौरे पर आये और तब ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया गया. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि इसके साल भर बाद ही अक्टूबर 1957 में अचानक खबर आई कि चीन ने अपने शिनजियांग प्रांत से तिब्बत तक हाईवे का निर्माण कर लिया है और इसका कुछ हिस्सा भारतीय क्षेत्र अक्साई चिन से भी होकर जाता है. बताते हैं कि इसके बाद तत्कालीन सेनाध्यक्ष केएस थिमैय्या ने सरकार को चीन से लगती सीमा मज़बूत करने की सलाह दी. उनका कहना था कि भारत को असली ख़तरा चीन से ही है. लेकिन नेहरू सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई. उसका मानना था कि भारत को केवल पाकिस्तान से खतरा है और चीन से कोई खतरा नहीं है. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के करीबी और तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके मेनन का कहना था कि चीनी सीमा पर सेना बढ़ाने की जरूरत नहीं है.
इस घटनाक्रम के कुछ समय बाद ही चीनी घुसपैठ की खबरें आने लगीं. चीनी सैनिक बेख़ौफ़ भारतीय सीमा में घुसे चले आ रहे थे और हिंदी में लाउडस्पीकर से भारतीय गांवों को चीन का इलाक़ा बता रहे थे. चीन मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि आज की ही तरह उन दिनों भी संसद में आये दिन चीनी घुसपैठ पर नोंक-झोंक होती थी. एक बार संसद में अक्साई चिन में चीनी घुसपैठ पर नेहरू इतना ज्यादा बिफ़र पड़े कि बेख्याली में यह तक कह बैठे कि अक्साई चिन एक बंज़र इलाक़ा है जहां घास भी नहीं होती. उनके इस बयान के जवाब में एक सांसद ने कहा कि उनके (नेहरू के) सिर पर भी बाल नहीं उगते तो क्या वह भी चीन को दे दिया जाए.
1957 से लेकर 1960 तक भारत-चीन सीमा पर दोनों सेनाओं के बीच झड़प की कई घटनाएं हुईं. इस समय दोनों देशों के बीच पत्राचार भी लगातार चल रहा था. 1960 में नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ को फिर भारत आने का न्योता दिया. चाऊ एन-लाइ की इस यात्रा के बाद भी भारत-चीन सीमा विवाद जस का तस ही बना रहा. दोनों देश इस यात्रा और बातचीत के बाद भी किसी सहमति तक नहीं पहुंच पाए. इसके बाद 1962 के अक्टूबर में अचानक एक दिन युद्ध की शुरुआत हो गयी और चीनी सेना की कई टुकड़ियां हथियारों के साथ भारतीय सीमा के भीतर घुस आईं. भारतीय सेना के पास इनका मुकाबला करने के लिए न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही सैनिक. इस वजह से इस युद्ध में भारत की हार हुई और उसे काफी नुकसान उठाना पड़ा.
इतिहासकारों की मानें तो जवाहरलाल नेहरू ने चीन से धोखा खाने के बाद आठ नवंबर 1962 को संसद में एक प्रस्ताव रखा था. इसमें उन्होंने चीन से खाए धोखे की बात स्वीकार की. इस दिन उन्होंने सदन में कहा था, ‘हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे. हमने अपने लिए एक बनावटी माहौल तैयार किया और हम उसी में रहते रहे.’
नरेंद्र मोदी की गलती
2014 में नरेंद्र मोदी क प्रधानमंत्री बनने के तीन महीने बाद ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का अहमदाबाद में भव्य स्वागत किया गया. जिनपिंग भारत की यात्रा पर ही थे कि खबर आ गयी कि चीनी सैनिकों ने लद्दाख के चुमार और डेमचक में घुसपैठ शुरू कर दी है. चुमार में भारतीय इलाके में पांच किमी अंदर चीन ने सड़क बनाने की कोशिश की जिस पर कई दिनों तक गतिरोध चलता रहा. चीनी राष्ट्रपति की इस भारत यात्रा को मोदी सरकार ने अपनी बड़ी सफलता बताया जबकि जिनपिंग के वापस जाने के कई हफ्ते बाद तक चीनी सेना चुमार में तंबू लगाए बैठी रही. यह मसला तब सुलझा, जब एलएसी के निकट भारत ने वह निर्माण कार्य बंद किया जिसे वह अपने ही इलाकों में करवा रहा था. जानकार कहते हैं कि ऐसा करके मोदी सरकार ने चीन से सुलह नहीं की थी, बल्कि उसने चीन के प्रति तुष्टीकरण की नीति की शुरुआत की थी.
2015 में नरेंद्र मोदी चीन की यात्रा पर गए. इस दौरान उन्होंने अपने ही अधिकारियों को चौंकाते हुए चीनी नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक पर्यटक वीजा देने की घोषणा कर दी. मोदी की इस घोषणा से कुछ रोज पहले ही भारतीय गृह मंत्रालय और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने चीनी नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक पर्यटक वीजा देने का विरोध किया था. इनका मानना था कि इससे भारत को खतरा है. इस यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में चीनी निवेश को बढ़ाने के मकसद से उसका नाम ‘कंट्रीज ऑफ कंसर्न’ की सूची से हटा दिया. मोदी के इस फैसले से चीनी कंपनियों को भारत में आने की आजादी मिल गयी. इसके बाद से चीन का भारत के साथ व्यापार मुनाफा प्रति वर्ष 60 अरब डॉलर हो गया, जो इससे पहले से दोगुना है.
How China is thanking Modi for removing it from "countries of concern" list and granting Chinese e-visa on arrival: https://t.co/aVyrCliHoz
— Brahma Chellaney (@Chellaney) April 15, 2016
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चीन के हक़ में किए गए इन बड़े फैसलों के बाद भी चीन ने न तो भारत के बड़े राजनयिक और कूटनीतिक लक्ष्यों में अड़ंगा लगाना बंद किया और न ही उसकी सेना ने एलएसी पर भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ बंद की. भारत ने साल 2016 में वैश्विक संगठन - परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता पाने के लिए आवेदन किया. अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस और जर्मनी जैसे देश इस मामले में भारत के पक्ष में थे, लेकिन चीन ने पाकिस्तान से अपने संबंधों के चलते भारत के खिलाफ वीटो कर दिया. यह मोदी सरकार के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था.
इसके अगले ही साल यानी 2017 के मध्य में चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच सिक्किम के करीब डोकलाम में गतिरोध शुरू हो गया. इस गतिरोध का कारण चीन द्वारा भूटान के इलाके में कब्जा कर भारतीय सीमा तक सड़क बनाना था. 73 दिनों के बाद जब यह गतिरोध खत्म हुआ तो मोदी सरकार ने इसे अपनी जीत की तरह प्रचारित किया. जबकि गतिरोध समाप्त होने के बाद भी डोकलाम के आसपास के इलाकों में चीन की ओर से सैन्य ढांचे का विस्तार करना बंद नहीं हुआ था. ये ढांचा निर्माण इस मकसद से किए गए कि चीनी सेना को एलएसी तक पहुंचने में लगने वाले समय को कम किया जा सके. कुछ रिपोर्ट्स की मानें तो डोकलाम के आसपास जो निर्माण किया गया, उनमें बड़ी इमारतें जिनका आर्मी कैम्प्स की तरह इस्तेमाल किया जा सके, सुरंगे, चार लेन वाली सड़कें और हेलीपैड शामिल हैं. इसके अलावा चीन के इस निर्माण से यह भी साफ़ हो गया कि भारत अपने करीबी देश भूटान की संप्रभुता की रक्षा नहीं कर सका, जिसकी जिम्मेदारी उसी के हाथ में है.
लेकिन, इन सभी घटनाओं के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के प्रति भारत की तुष्टिकरण की नीति जारी रखी. डोकलाम विवाद के समय से ही मोदी सरकार ने नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच बैठक कराने के प्रयास तेज कर दिए थे. आखिरकार, अप्रैल 2018 में वुहान में अनाधिकारिक शिखर सम्मेलन पर बात बनी. लेकिन इससे पहले जो चीजें घटी वे हैरान करने वाली थीं. इस शिखर वार्ता से करीब एक महीने पहले मोदी सरकार की तरफ से अपने वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों को पत्र लिखकर दलाई लामा के कार्यक्रम में न जाने का आदेश दिया गया. बताया जाता है कि सरकार ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि दलाई लामा के भारत में 60 साल पूरे होने का उत्सव अगर दिल्ली में मनाया जाता और इसमें बड़े नेता और अधिकारी भी शामिल होते तो उससे चीन नाराज हो सकता था और शिखर सम्मेलन के लिए न भी कह सकता था. विदेश मंत्रालय के इस पत्र के बाद दलाई लामा का वह कार्यक्रम हिमाचल प्रदेश के मैक्लॉयडगंज में हुआ. कुछ मीडिया रिपोर्टों में तो यहां तक दावा किया गया कि यह पत्र चीन के कहने पर ही लिखा गया था क्योंकि जब भारतीय विदेश सचिव विजय गोखले ने इसे लिखा था तब वे चीन में ही थे.
वुहान के बाद नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच बीते साल अक्टूबर में एक और अनाधिकारिक शिखर सम्मेलन हुआ. दो दिवसीय यह सम्मलेन तमिलनाडु के महाबलीपुरम में हुआ. पहले की तरह ही इसे भी मोदी सरकार ने अपनी बड़ी सफलता बताया. लेकिन इसके चार महीने बाद ही लद्दाख के गलवान घाटी से चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबरें आनी शुरू हो गईं. जानकारों के मुताबिक चीनी सैनिकों ने गलवान में घुसपैठ बहुत सोच-समझकर की थी. उन्होंने यहां जिस तरह का बंदोबस्त कर रखा था उससे साफ़ पता चलता है कि इसकी तैयारी एक योजना के तहत काफी पहले शुरू की गयी थी.
विदेश मामलों के जानकार कहते हैं कि बीते छह सालों में नरेंद्र मोदी ने शी जिनपिंग के साथ 16 मुलाकातें की. मोदी सबसे ज्यादा बार चीन की यात्रा पर जाने वाले भारतीय प्रधानमंत्री भी हैं. लेकिन अगर इन सबका निष्कर्ष निकालें तो नतीजा सिफर नहीं बल्कि ऋणात्मक ही दिखता है. यानी इनसे भारत को कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि नुकसान ही उठाना पड़ा. जबकि इसके उलट चीन ने इन बैठकों से जमकर आर्थिक फायदा उठाया और साथ ही भारतीय क्षेत्रों में घुसता भी चला आया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह कई बार संसद में और खुले मंचों पर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आलोचना करते रहे हैं. ये लोग चीन से 1962 में हुए युद्ध और अक्साई चिन जैसे क्षेत्रों पर चीन के कब्जे के लिए नेहरू को गलत ठहराते रहे हैं. भाजपा के कई नेताओं ने तो गलवान विवाद के लिए भी देश के पहले प्रधानमंत्री को ही दोषी बताया है. लेकिन जानकारों की मानें तो चीन को लेकर नेहरू से कहीं बड़ी गलती नरेंद्र मोदी ने की है. इनके मुताबिक ऐसा इसलिए है कि नेहरू तो देश के पहले प्रधानमंत्री थे और उस समय तक चीन के छल-फरेब के बारे में उन्हें या उस समय के किसी भी अन्य नेता को कोई खास अनुभव नहीं था. लेकिन अब जब 1962 के युद्ध को 60 साल बीते चुके हैं और पूरी दुनिया चीन की चालों को बहुत अच्छी तरह से समझ चुकी है, तब नरेंद्र मोदी का चीन के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाना नेहरू से कहीं बड़ी गलती लगती है. इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि घड़ी-घड़ी जवाहरलाल नेहरू की गलतियां गिनाने वालों ने, उनकी गलतियों से भी कोई सबक नहीं लिया.(SATYAGRAH)
-अशोक मिश्रा
नीतीश कुमार की एक खासियत है कि जब वो किसी से नाराज होते हैं, तो उस संगठन के प्रति भी उदासीन हो जाते हैं, जिससे वो शख्स जुड़ा हुआ है। ऐसा होने पर नीतीश कुमार उस व्यक्ति के परिपेक्ष्य में ही संगठन को देखेंगे और संगठन की टिप्पणियों को नजरअंदाज करेंगे। हाल ही में नीतीश कुमार ने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भूमि पूजन का स्वागत न करके बीजेपी के प्रति अपनी उदासीनता जाहिर की थी। सत्ता और विपक्ष के तमाम नेता जहां भूमि पूजन अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे, वहीं नीतीश कुमार चुप्पी साधे हुए थे। इससे राजनीतिक हलकों में अटकलों को हवा मिली। सियासी गलियारों में एनडीए के साथ जेडीयू के संबंध की एक बार फिर से चर्चा होने लगी।
अभी तक वो दौर नहीं आया है, जब जनता दल (यूनाइटेड) बीजेपी के साथ रिश्ते तोडऩे की सोच सकता है। लेकिन जिस तरह से एनडीए की एक और सहयोगी, एलजेपी नीतीश कुमार को निशाना बना रही है, उससे एनडीए के साथ जेडीयू की तल्खियां बढ़ ही रही हैं। बिहार सरकार पर एलजेपी नेता चिराग पासवान के लगातार हमलों पर बीजेपी नेतृत्व ने चुप्पी साध रखी है, जिसे नीतीश कुमार पंसद नहीं कर रहे हैं।
चिराग पासवान ने कोरोना महामारी की भयानक स्थिति को देखते हुए अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव नहीं कराने की बात कही है, जिसे लेकर जेडीयू नेतृत्व ने आपत्ति भी जाहिर कर दी है। चिराग पासवान ही नहीं, बल्कि उनके पिता रामविलास पासवान ने भी यह कहकर नीतीश कुमार को भडक़ा दिया कि पार्टी के मामले चिराग पासवान संभालते हैं। इसमें अब उनकी पहले जैसी भूमिका नहीं है। सवाल ये है कि बीजेपी चिराग पासवान को लेकर चुप्पी क्यों साधे हुई है। या फिर चिराग पासवान खुद बीजेपी के इशारे पर काम कर रहे हैं?
जेडीयू के वरिष्ठ नेता पहले ही कह चुके हैं कि वे स्थिति को करीब से देख रहे हैं। यह पता लगाने की कोशिश की जा रही है कि क्या चिराग के जुबानी हमले बीजेपी प्रायोजित हैं या चिराग ऐसा गठबंधन में ज्यादा सीटें पाने की रणनीति के तहत कर रहे हैं।
बिहार में एनडीए के भविष्य को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है। ऐसे में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने गुरुवार को चिराग पासवान से मुलाकात की। माना जा रहा है कि इस मुलाकात में नड्डा ने एलजेपी को आश्वासन दिया है कि सीट की बातचीत के दौरान इसकी आशंकाओं पर ध्यान दिया जाएगा।
हालांकि, एलजेपी नड्डा के आश्वासन से खुश नहीं है और नीतीश कुमार सरकार से समर्थन वापस लेने पर अड़ी हुई है। बिहार विधानसभा में एलजेपी के 2 विधायक और एक एमएलसी हैं। ऐसे में भले ही एलजेपी समर्थन वापस ले ले, लेकिन सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा।
जेडीयू और एलजेपी के बीच मतभेद इस हद तक बढ़ गए हैं कि लोकसभा में जेडीयू संसदीय दल के नेता राजीव रंजन सिंह उर्फ लल्लन सिंह ने चिराग पासवान को ‘कालिदास’ तक कह डाला है, जो जिस शाखा पर बैठे हैं, उसे ही काटने पर तुले हुए हैं।
वहीं, एलजेपी नेता अशरफ अंसारी ने लल्लन को ‘सूरदास’ कह दिया है, जो कोरोना वायरस समेत बिहार की दुर्दशा करने वाले सभी मुद्दों की ओर आंखें मूंद कर बैठे हैं। एलजेपी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अवलोकन का हवाला दिया है, जिन्होंने बिहार में कोरोना वायरस-प्रभावित राज्यों में टेस्टिंग बढ़ाने पर जोर दिया था।
दोनों पार्टियों के बिगड़ते रिश्ते के बीच बीजेपी पूरे देश में और बिहार में अपने दम पर खड़ी होने की अपनी नीति का पालन कर रही है। राज्य में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना चाहती है। सभी सीटों पर जीत सुनिश्चित करने के लिए एनडीए ने रणनीति भी बदल ली है। लक्ष्य को हासिल करने के लिए बीजेपी ने हाल ही में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को चुनाव प्रभारी बनाया है, जो एक सख्त सौदेबाज माने जाते हैं।
बीजेपी के लिए 2020 का बिहार चुनाव 2015 के इलेक्शन से बहुत अलग है। बीजेपी अब बिहार में राजनीतिक स्थिति का पूरी तरह से दोहन करना चाहती है, क्योंकि प्रमुख विपक्षी दल आरजेडी कई आरोपों को लेकर अभी हाशिये पर है। कांग्रेस की हालत वैसे ही पस्त है। ऐसे में बीजेपी के पास उभरने का यही सही मौका है।
इसके अलावा नीतीश कुमार के ‘सुशासन बाबू’ वाली छवि की ब्रांडिंग में इस बार कोरोना वायरस संकट की वजह से देरी हो गई है। विपक्ष इसे एक नकारात्मक ब्रांडिंग के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। विपक्ष चीजों को ऐसे पेश करना चाहता है कि नीतीश कुमार सरकार ने शुरू से ही कोरोना वायरस को लेकर शिथिलता दिखाई। जिस वजह से राज्य के कई जिलों में अब कोरोना संक्रमण की विस्फोटक स्थिति पैदा हो गई है।
बिहार प्रभारी के रूप में फडणवीस के साथ राज्य बीजेपी यूनिट में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय, पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और राज्य बीजेपी अध्यक्ष डॉ. संजय जायसवाल हैं। जो एक साथ मिलकर बिहार चुनाव में बीजेपी के लिए अलग लॉबी तैयार कर रहे हैं।
बीजेपी ने हर चुनाव क्षेत्र में जमीनी स्तर पर पार्टी के संदेश को फैलाने के लिए ‘प्रमुख मतदाताओं’ की पहचान करके अपना चुनाव अभियान शुरू किया है। पार्टी ने प्रमुख मतदाताओं के विवरणों से भरे जाने के लिए सभी 1,000 मंडलों में 28 पेज वाली मंडल पुस्तिकाएं भी वितरित की हैं, जो सामान्य मतदाताओं के मन को प्रभावित कर सकती हैं। बता दें कि एक विधानसभा सीट में कम से कम 5 मंडल और एक मंडल में कम से कम 60 बूथ होते हैं।
पार्टी के अंदरूनी सूत्रों ने कहा कि उम्मीदवारों के चयन में फडणवीस की पसंद प्रबल होगी। साथ ही फडणवीस ही जनता दल (यूनाइटेड) के साथ सीट साझा करने वाली वार्ता का फैसला करेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
सदर्भ-वाल स्ट्रीट जर्नल की स्टोरी
-पुष्य मित्र
इसी साल 16 अप्रैल की बात है। मेरी न्यूज फीड में नजर आ रहे इस हेट स्पीच वाली पोस्ट (जो इस पोस्ट के साथ लगी है) को हटाने के लिए मैंने फेसबुक के कम्युनिटी स्टैंडर वाली टीम से अनुरोध किया था। मैंने उन्हें लिखा था, यह पोस्ट न सिर्फ फेक है, बल्कि एक खास धर्म के खिलाफ नफरत फैलाने वाला भी है। मुझे लगता है कि फेसबुक पर ऐसी पोस्ट को नहीं रहना चाहिये। मैंने इस फेसबुक गु्रप की भी समीक्षा करने का अनुरोध किया था, यह कहते हुए कि इस पर सिर्फ नफरत भरी सामग्रियां होती हैं। तब मुझे लगता था कि चूंकि हमलोग शिकायत नहीं करते इसलिये फेसबुक पर ऐसे घटिया पोस्ट और पेज की भरमार है। हमें इनके बारे में फेसबुक को बताना चाहिये। फेसबुक एक न्यूट्र्ल संस्था है, वह जरूर सही फैसले लेगी। मगर उस रोज फेसबुक ने मेरा भ्रम दूर कर दिया।
फेसबुक टीम का एक घंटे में इस पोस्ट और पेज की जांच कर मुझे सूचित कर दिया कि इसमें कुछ भी आपत्तिजनक या हमारी कम्यूनिटी स्टैंडर के खिलाफ नहीं है। हम आपका अनुरोध अस्वीकार करते हैं। मुझे तब दुख हुआ। मगर मुझे मालूम नहीं था, असली झटका आने वाला है।
अगले ही घंटे मेरे पास उनका मैसेज आया कि हम लोगों ने आपके फेसबुक पेज की पिछली पांच पोस्ट की समीक्षा की है, वे कम्युनिटी स्टैंडर के खिलाफ हैं। इसलिये हम आपको अगले 24 घंटे के लिए ब्लॉक कर रहे हैं।
मैंने अपने पिछले पांच पोस्टों को पढ़ा। संयोग से वे सभी पांच पोस्ट सूचनात्मक थे, उनमें किसी तरह का कोई विचार या ओपिनियन भी नहीं था। बहुत सोचा, मगर उन पोस्टों में ऐसी कोई बात नजर नहीं आई कि जिससे कोई दिक्कत हो रही हो। आखिरकार इस बात को मानना पड़ा कि इस हिन्दूवादी पेज की रिपोर्ट करना फेसबुक की टीम को पसंद नहीं आया। इसी के बदले में उसने मुझ पर इस तरह की कार्रवाई की है। तभी मतलब साफ हो गया था कि उस टीम में कोई इस विचार का हितैषी बैठा है।
दुख बहुत हुआ। कई मित्रों को व्यक्तिगत तौर पर बताया भी। उस रोज दिल इस कदर टूटा कि लगा, फेसबुक को ही छोड़ दें। फेसबुक की इंटरनेशनल सिक्योरिटी टीम को मेल से शिकायत भी की। मुकदमा करने का भी मन बना लिया। एक वैकल्पिक फेसबुक खाता भी खोल लिया। अपनी वाल के कई महत्वपूर्ण पोस्ट हटा भी ली।
मगर फिर लगा कि इस प्लेटफॉर्म पर पिछले 14 साल से मेहनत की है। उसे ऐसे नहीं छोडऩा। यहीं रह कर लडऩा है। सो लगा हूं।
मगर सच यही है कि मुझे उसी रोज वह सब अनुभव हो गया था, जो कल एक अमेरिकी अखबार में छपा है। तभी मैं समझ गया था कि अब फेसबुक भी भक्तिमार्ग पर है। फिर उसके भारत में रिटेल सेक्टर में निवेश करने की खबर आई। समझ और साफ हुई।
एक दिन देखा कि बहुत शांत भाव से गांधी और विनोबा के बारे में लिखने वाले साथी अव्यक्त जी के साथ भी यही हुआ। फिर कोई संदेह नहीं रहा।
अब यह सच्चाई है कि जिस तरह अपने देश की मीडिया सरकार के कब्जे में है, फेसबुक भी अब अपने हित के लिए सरकार को खुश करने में जुटा है। हमें इन्हीं स्थितियों में अपनी बात को कहते रहना है, अपना हस्तक्षेप करते रहना है। देर सवर फेसबुक की सच्चाईयां इसी तरह सामने आती रहेगी।
और हां, अभी भी मेरा यह अकाउंट फेसबुक द्वारा रिस्ट्रिक्टेड है। मुझे चेतावनी दी गयी है कि अगली दफा मेरा अकाउंट हमेशा के लिए ब्लॉक किया जा सकता है।
- *समय निकाल कर पढें*
- मैंने अपने एक दोस्त से पूछा, जो 60 पार कर चुके हैं और 70 की ओर जा रहा हैं। वह अपने जीवन में किस तरह का बदलाव महसूस कर रहे हैं?
- उन्होंने मुझे निम्नलिखित बहुत दिलचस्प पंक्तियाँ भेजीं, जिन्हें मैं आप सभी के साथ साझा करना चाहूँगा ....
- मैं माता-पिता, भाई-बहनों, पत्नी, बच्चों, दोस्तों से प्यार करने के बाद, अब मैं खुद से प्यार करने लगा हूं।
- मुझे बस एहसास हुआ कि मैं *एटलस* नहीं हूं। दुनिया मेरे कंधों पर टिकी नहीं है।
- मैंने अब सब्जियों और फलों के विक्रेताओं के साथ सौदेबाजी बंद कर दी। आखिरकार, कुछ रुपए अधिक देने से मेरी जेब में कोई छेद नहीं होगा, लेकिन इससे इन गरीबों को अपनी बेटी की स्कूल फीस बचाने में मदद मिल सकती है।
- मैं बची चिल्लर का इंतजार किए बिना टैक्सी चालक को भुगतान करता हूं। अतिरिक्त धन उसके चेहरे पर एक मुस्कान ला सकता है। आखिर वह मेरे मुकाबले जीने के लिए बहुत मेहनत कर रहा है7
- मैंने बुजुर्गों को यह बताना बंद कर दिया कि वे पहले ही कई बार उस कहानी को सुना चुके हैं। आखिर वह कहानी उनकी अतीत की यादें ताज़ा करती है और जिंदगी जीने का हौसला बढाती है 7
- कोई इंसान अगर गलत भी हो तो मैंने उसको सुधारना बंद कर दिया है । आखिर सबको परफेक्ट बनाने का जिम्मा मेरे ऊपर ही नहीं है। ऐसे परफेक्शन से शांति अधिक कीमती है।
- मैं अब सबकी तारीफ बड़ी उदारता से करता हूं। यह न केवल तारीफ प्राप्तकर्ता की मनोदशा को उल्हासित करता है, बल्कि यह मेरी मनोदशा को भी ऊर्जा देता है!!
- अब मैंने अपनी शर्ट पर क्रीज या स्पॉट के बारे में सोचना और परेशान होना बंद कर दिया है। मेरा अब मानना है कि दिखावे की अपेक्षा सच्चा व्यक्तित्व ज्यादा कीमती होता है ।
- मैं उन लोगों से दूर ही रहता हूं जो मुझे महत्व नहीं देते। आखिरकार, वे मेरी कीमत नहीं जान सकते, लेकिन मैं वह बखूबी जनता हूँ।
- मैं तब शांत रहता हूं जब कोई मुझे ‘चूहे की दौड’ से बाहर निकालने के लिए गंदी राजनीति करता है। आखिरकार, मैं कोई चूहा नहीं हूं और न ही मैं किसी दौड़ में शामिल हूं।
- मैं अपनी भावनाओं से शर्मिंदा ना होना सीख रहा हूं। आखिरकार, यह मेरी भावनाएं ही हैं जो मुझे मानव बनाती हैं।
- मैंने सीखा है कि किसी रिश्ते को तोडऩे की तुलना में अहंकार को छोडऩा बेहतर है। आखिरकार, मेरा अहंकार मुझे सबसे अलग रखेगा जबकि रिश्तों के साथ मैं कभी अकेला नहीं रहूंगा।
- मैंने प्रत्येक दिन ऐसे जीना सीख लिया है जैसे कि यह आखिरी दिन हो। क्या पता, आज का दिन आखिरी हो!
- सबसे महत्वपूर्ण मोस्ट इम्पार्टेंट
- मैं वही काम करता हूं जो मुझे खुश करता है। आखिरकार, मैं अपनी खुशी के लिए जिम्मेदार हूं, और मै उसका हक़दार भी हूँ।
- (कहीं से आया हुआ राजेश जोशी ने फेसबुक पर पोस्ट किया )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
स्वतंत्रता-दिवस पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने जो संदेश दिए हैं, वे काफी रचनात्मक हैं और यदि आप सिर्फ उन पर ही ध्यान दें तो वे उत्साहवर्द्धक भी हैं। हर प्रधानमंत्री लाल किले से सारे देश को पहले तो यह बताता है कि उसकी सरकार ने देश के कई तबकों के लिए क्या-क्या किया है और भविष्य में उसकी सरकार जनता के भले के लिए क्या-क्या करनेवाली है। इस दृष्टि से नरेंद्र मोदी के भाषण में कोई कमी ढूंढना मुश्किल है।
मेरे लिए ही नहीं, राहुल गांधी के लिए भी मुश्किल होगा लेकिन लाल किले से जो कुछ कहा गया है, उससे भी ज्यादा जरुरी वह पहलू है, जो नहीं कहा गया है। कहा तो यह भी जाना चाहिए था कि हर भारतवासी को गर्व है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और एशिया और अफ्रीका का ऐसा विलक्षण देश है, जिसमें 7 दशकों से एक ही संविधान चला आ रहा है। हमारे पड़ौसी देशों में उनके संविधान कई बार बदल दिए गए, उनके तख्ता-पलट कर दिए गए और उनके टुकड़े हो गए लेकिन भारत में लोकतंत्र (आपात्काल के अपवाद को छोडक़र) बराबर बना रहा है।
भारत में न केवल बहुदलीय व्यवस्था दनदना रही है बल्कि आम लोगों को भारत की अदालतों, सरकारों और सत्तारुढ़ नेताओं की कड़ी आलोचना करने का भी पूरा अधिकार है। कोई जान-बूझकर गुलामी करना चाहे, जैसे कि कुछ टीवी चैनल और अखबार करते हैं तो उन्हें उसकी भी सुविधा है लेकिन स्वतंत्रता-दिवस के इस अवसर पर हम सिर्फ अपने मुंह मियां मि_ू बनते रहें, यह ठीक नहीं है। यह सही है कि हम दुनिया की 5 वीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं लेकिन यह मोर का नाच है, क्योंकि 1 प्रतिशत सेठों के हाथ में देश की 60 प्रतिशत संपदा है। देश के सिर्फ 10 प्रतिशत शिक्षितों, शहरियों और ऊंची जातियों के लोगों के पास देश की 80 प्रतिशत संपदा है। देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं हैै। दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब लोग यदि कहीं रहते हैं तो वे भारत में ही रहते हैं। अशिक्षा और भ्रष्टाचार में भी हम काफी आगे हैं। शिक्षा और चिकित्सा में हम पश्चिम के नकलची बने हुए हैं। ये दोनों बुनियादी खंभे हमारे देश में सीमेंट की बजाय गोबर के बने हुए हैं। भाजपा सरकार ने इस दिशा में कुछ उल्लेखनीय कदम जरुर उठाए हैं लेकिन जब तक देश की जनता खुद खांडा नहीं खडक़ाएगी, अकेली सरकारें सिर्फ नौकरशाही के दम पर क्या कर पाएंगी ? स्वतंत्रता हमने आंदोलन करके पाई है लेकिन स्वतंत्रता-दिवस पर कोई नेता किसी आंदोलन की बात भूलकर भी नहीं करता।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-संजय पराते
किसी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करना हो, तो उसके पास जो जल, जंगल, जमीन, खनिज व अन्य प्राकृतिक संपदा है, उस पर कब्जा करो। वह सभ्यता अपने आप मर जाएगी। आर्य और अनार्य/द्रविड़ों के संघर्ष का इतिहास यही सच्चाई बताता है। यह संघर्ष आज भी जारी है, लेकिन विकास के नाम पर आधुनिकता के नए जामे के साथ।
पेनगुड़ी आदिवासी देवों का प्राकृतिक आवास है। यह एक घर (झोपड़ी) होता है, जहां आदिवासियों के देव प्रकृति-चिन्हों के रूप में रहते हैं। आदिवासी समुदाय प्रकृति पूजक है। वे पहाड़, नदी, जंगल पूजते हैं। सो इन पेनगुड़ियों में किसी देव की मूर्ति नहीं मिलेगी। आदिवासी देवों का आवास उनके आवास से अलग हो भी कैसे हो सकता है? उनके देव भी उनकी तरह झोपड़ियों में ही रहते हैं। कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार अब इन पेनगुड़ियों को मंदिरों में बदलने जा रही है।
प्रदेश में तब भाजपा की सरकार थी, तो राम को केंद्र में रखकर एक आक्रामक सांप्रदायिकता की नीति पर अमल किया जा रहा था। इसके लिए शोध का पाखंड रचा गया। राम के वन गमन की खोज पूरी की गई। बताया गया कि छत्तीसगढ़ के धुर उत्तर में कोरिया जिले के सीतामढ़ी से लेकर धुर दक्षिण में सुकमा जिले के रामाराम तक ऐसी कोई जगह नहीं है, जो कि राम के चरण-रज से पवित्र ना हुई हो। संघ के इतिहासकारों की यह नई खोज है। इतिहास-विज्ञान वैज्ञानिक साक्ष्यों पर जोर देता है, उसकी बात कृपया ना करें, तो अच्छा है।
आदिवासी क्षेत्रों में भले ही 3000 स्कूलों को बंद कर दिया गया हो, लेकिन इतिहासकारों, संस्कृतिविदों की एक फौज जरूर खड़ी हो गई है, जो आदिवासियों को उनके अज्ञात इतिहास से परिचित करवाने पर तुली हुई है। सुकमा-कोंटा क्षेत्र के लोगों को एक दिन पता चला कि उनकी पुरखों की माता चिटपीन माता का घर वास्तव में राम का घर है। इस क्षेत्र के वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता मनीष कुंजाम बताते हैं - "जहां मैं रहता हूं वहां लोगों को पता ही नहीं है कि राम कभी यहां आए थे। एक दिन सरकार के आदेश पर राम वन गमन का बोर्ड लगा दिया गया। जिस स्थल पर यह बोर्ड लगाया गया है, वह हमारे पुरखों का स्थान है। हम लोग उसे चिटपीन माता के स्थान से जानते हैं।"
प्रकारांतर से संघ के स्वघोषित इतिहासकारों का महान शोध है कि राम के स्थान पर आदिवासी देवों ने कब्जा कर लिया है। अनार्यों के इन देवों से 'आर्य' राम को मुक्त कराना है। यह छत्तीसगढ़ में राम के कथित चिन्हों को आदिवासियों के चंगुल से मुक्त कराने का अभियान है। इसके लिए राम वन गमन विकास के नाम पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। पहले यह खेल भाजपा खेल रही थी, अब सत्ता में आने के बाद उदार हिंदुत्व के नाम पर कांग्रेस खेल रही है।
आरएसएस की आक्रामक सांप्रदायिकता का दावा है कि उसने अयोध्या में एक राम जन्मभूमि को मुस्लिमों से मुक्त किया है। कांग्रेस के उदार हिंदुत्व का दावा है कि वह राम के 51 इतिहास-चिन्हों को आदिवासियों से मुक्त करने जा रही है। इसके लिए छत्तीसगढ़ के 29 जिलों में से 16 जिलों में हिंदुत्व की पताका फहराई जाएगी। कोरिया में 6, सरगुजा में 5, जशपुर में 3, जांजगीर में 4, बिलासपुर में 1, बलौदा बाजार-भाटापारा में 4, महासमुंद में 1, रायपुर में 3, गरियाबंद में 8, धमतरी में 4, कांकेर में 1, कोंडागांव में 2, नारायणपुर में 2, दंतेवाड़ा में 3, बस्तर में 4 और सुकमा में 4 -- इस प्रकार आदिवासियों के 51 स्थलों को मंदिरों में बदला जा रहा है।
आदिवासियों की सभ्यता व संस्कृति पर आक्रमण कोई नया नहीं है। वनवासी कल्याण आश्रम के जरिए संघ दशकों से यह काम आदिवासियों को शिक्षित करने के नाम पर कर रहा है। इस अभियान में उन्होंने रामायण का गोंडी व अन्य आदिवासी भाषाओं में अनुवाद कर उसे बांटने का काम किया है। जगह-जगह 'मानस जागरण' के कार्यक्रम भी हो रहे हैं। हिंदुओं के त्योहारों को मनाने व उनके देवों को पूजने, हिंदू धर्म की आस्थाओं पर टिके मिथकों को आदिवासी विश्वास में ढालने का काम भी किया जा रहा है। इस आक्रामक अभियान में आदिवासियों के आदि धर्म व उनके प्राकृतिक देवों से जुड़ी मान्यताओं, विश्वासों व मिथकों पर खुलकर हमला किया जा रहा है और जनगणना में आदिवासियों को हिंदू दर्ज करवाने का अभियान चलाया जा रहा है।
कारपोरेट पूंजी के हिंदुत्व की राजनीति के साथ गठजोड़ होने के बाद से यह अभियान और ज्यादा आक्रामक हो गया है। इतना आक्रामक कि अब समूची आदिवासी सभ्यता व संस्कृति को लील जाना चाहता है। अपने मुनाफे के लिए इस कारपोरेट पूंजी को आदिवासियों के स्वामित्व वाले जंगल चाहिए, ताकि उसे खोदकर उसके गर्भ में दबे खनिज को निकाल-बेच कर मुनाफा कमा सके। लेकिन बस्तर में टाटा को उल्टे पांव वापस लौटना पड़ा है। सलवा जुडूम अभियान भी आदिवासियों की हिम्मत नहीं तोड़ पाया। जिन जंगलों-गांवों से उसे भगाया गया था, अब वे फिर वापस आकर उस पर काबिज होने लगे हैं। जिन गांव-घरों को उसने जलाया था, उस पर फिर झोपड़ियां उगने लगी हैं ।
जो आदिवासी पेड़ की एक टहनी भी उससे पूछ कर ही तोड़ते हैं, जिनके जीवन में फसल बोने से लेकर काटने तक, जन्म से मृत्यु तक प्रकृति है, जो अपने आनंद के लिए सामूहिकता में रच-बस कर प्रकृति को धन्यवाद देता है, उसका आभार मानता है, वह आदिवासी और उसकी सामूहिकता कारपोरेट पूंजी के मुनाफे के लिए सबसे बड़ी दीवार बनकर उभरी है। पेड़ से पूछ कर ही उसकी टहनी तोड़ने वाला आदिवासी समुदाय भला जंगलों के विनाश की स्वीकृति कैसे देगा? इसलिए जरूरी है कि पूरे समुदाय का विनाश किया जाए। शाब्दिक अर्थों में उनका जनसंहार नहीं, तो सांस्कृतिक हत्या तो हो ही सकती है। अपनी सभ्यता और संस्कृति के बिना किसी समाज के पास प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती। वे आदिवासियों की प्रतिरोधक क्षमता को खत्म करके उन्हें जिंदा मांस के लोथड़ों में तब्दील कर देना चाहते हैं, ताकि कारपोरेट मुनाफे की भट्टी में उन्हें आसानी से झोंका जा सके।
बोधघाट परियोजना के प्रति बड़े पैमाने पर आदिवासियों का विरोध सामने आया है। बैलाडीला की पहाड़ियां आदिवासियों के सांस्कृतिक प्रतिरोध की नई कहानी कह रहे हैं। आज आदिवासी समुदाय अपने संवैधानिक अधिकारों की, पेसा व वनाधिकार कानून, पांचवी अनुसूची और ग्राम सभा की सर्वोच्चता की बात कर रहा है। वह अपनी जनसंख्या के कम होने के कारणों पर सवाल खड़ा कर रहा है व शिक्षा, रोजगार, आवास व स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी मुद्दों को भी दमदारी से उठा रहा है।
राम वन गमन के खिलाफ पेनगुड़ियों को राम मंदिर में बदलने के खिलाफ आदिवासियों का सांस्कृतिक प्रतिरोध विकसित हो रहा है। 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के सरकारी कार्यक्रम में जब मुख्यमंत्री बघेल आदिवासी विकास की बात कह रहे थे, तभी कांकेर में कांग्रेसी विधायक शिशुपाल शोरी व मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार राजेश तिवारी के पुतले जल रहे थे और मानपुर में भगवा ध्वज का दहन किया जा रहा था। आदिवासियों के इस सांस्कृतिक प्रतिरोध का दमन जिस तरह तब की भाजपा सरकार ने किया था, उसी तरह कांग्रेस भी कर रही है। यही कारपोरेट मुनाफा है, जो कांग्रेस और भजपा को आपस में जोड़ रही है और चाहे बोधघाट हो या राम वन गमन, दोनों मुद्दों पर हमनिवाला - हमप्याला बना रही हैं।
हिंदुत्व के इस सांस्कृतिक आक्रमण ने पेसा कानून के जरिए आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम सभा को मिली सर्वोच्चता के मुद्दे को सामने लाकर रख दिया है। इस कानून को लागू करने से सरकार का इंकार और इस कानून से मिले अधिकारों का प्रयोग करने की आदिवासियों की जिद -- आदिवासियों और गैर- आदिवासी सरकार के बीच संघर्ष का एक नया मैदान खोल रही है। बस्तर के आदिवासियों ने साफ तौर पर घोषणा कर दी है कि चाहे सिंचाई के विकास के नाम पर बोधघाट परियोजना हो या पर्यटन स्थल के विकास के नाम पर राम मंदिरों के निर्माण का, ग्राम सभा की अनुमति के बिना किसी भी विकास योजना की इजाजत नहीं दी जाएगी और आदिवासी समुदाय इसके खिलाफ ग्राम सभा में प्रस्ताव पारित कर अपने अधिकारों का उपयोग करेगा। सर्व आदिवासी समाज की महिला अध्यक्ष चंद्रलता तारम पूछती है -- "हमारा एक आंगा देव होता है, जिसकी यात्राओं में कभी राम का जिक्र नहीं हुआ। हमारे गीतों में कभी राम का जिक्र नहीं हुआ। हमारी भाषा बोली सब अलग है, तो भूपेश बघेल सरकार जबरदस्ती राम वन गमन योजना के तहत मंदिर निर्माण क्यों कर रही है?"
यदि आदिवासी समाज इस सवाल का जवाब खोज लेता है, तो वह अपने सांस्कृतिक प्रतिरोध को कॉर्पोरेट मुनाफे के खिलाफ विकसित हो रहे राजनैतिक प्रतिरोध से जोड़ने में सफल हो सकता है। आदिवासी समाज का यही जुड़ाव उसके अस्तित्व की रक्षा की गारंटी बनेगा।
-संतोष कुमार सिंह
प्रिय संपादकजी, आपके समाचारपत्र में इस अभियान के बारे में पूर्व में कई समाचार प्रकाशित करने हेतु कृतज्ञता ज्ञापित करने ही वाला था कि अभियान के बारे में संपादकीय लेख पढऩे का अवसर मिला। इस अभियान को ‘निजी व गैरजरूरी’ कहकर उन लाखों-लाख रायगढिय़ां लोगों को अपमान करने जैसा है जो इस महाअभियान में शामिल हुए और लाभान्वित हुए। इसलिए लेख पर अपनी राय रखना उचित लगा।
आदरणीय मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के निर्देश पर शासन के उच्चाधिकारी व समस्त विभाग कोरोना संक्रमण से लोगों को बचाने के लिए कई मोर्चों पर प्रभावी लड़ाई लड़ रहे हैं। पुलिस विभाग के लिए कोरोना का संक्रमण एक बड़ी चुनौती लेकर आया है कि लोगों की सुरक्षा हेतु हर संभव प्रयास करें, जो पुलिस का सर्वोच्च दायित्व है। सीमित संसाधन व संख्याबल में पहले से ही अत्याधिक कार्य से जूझ रहे पुलिस के लिए अपने नियमित कार्यों के अतिरिक्त कोविड संबंधित दिशा-निर्देशों का पालन करवाना एक बड़ी चुनौती है। कंप्लीट लॉकडाउन के दौरान शासन के निर्देशानुसार कठोरतम सख्ती हुई। चौक-चौराहों पर अनावश्यक घूमने वालों व गैर-जिम्मेदारों पर कार्यवाही हुई, बड़ी संख्या में एफआईआर भी दर्ज किए गए। इन कार्यवाहियों की समान्यतया शिकायत के बजाय लोगों ने इसे सबके हित में होने पर और सख्ती बरतने की मांग लगातार की जाती रही। छत्तीसगढ़ सहित पूरे देश में महामारी के दौरान पुलिस के किए गए कार्यों की लोगों द्वारा सराहना मिली हैं।
कोरोना योद्धा के रूप में पुलिस जवानों को सडक़, चौराहों और गलियों में चौबीसों घण्टों के लिए तैनात किया गया। जवानों द्वारा मजदूरों के क्वॉरेंटाइन सेंटर की सुरक्षा, कंटेनमेंट जोन, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, अन्तराज्यीय व अंतरजिला नाकों, घरों में क्वॉरंटीन लोगों की मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं। कंप्लीट लॉकडाउन के समय जिला प्रशासन व समाजसेवी संस्थाओं के सहयोग से जरूरतमंद और लॉकडाउन में फंसे गरीब लोगों को राशन व बना हुआ खाना उपलब्ध कराया गया। इससे मुफ्तखोरी नहीं बढ़ीं, बल्कि जरूरतमंदों के लिए पेट्रोलिंग और थाना स्तर पर हर ग्राम पंचायत तक बीट कांस्टेबल द्वारा प्रभावी तरह से बांटा गया। प्रतिदिन आकस्मिक सेवाएं देने वाली पुलिस का पहली बार ऐसा व्यापक संवेदनशील व मानवीय चेहरा लोगों को देखने में सामने आया। इस तरह की सामुदायिक पुलिसिंग से पुलिस की जन मानस में स्थापित छवि में सकारात्मक बदलाव आया हैं। मुख्यमंत्रीजी के निर्देश पर प्रवासी मजदूरों के वापसी के समय राज्य से गुजरने वाले दूसरे राज्यों के मजदूरों की सडक़ पर सुरक्षा के साथ कर्मवीर सहायता केंद्रों द्वारा नाश्ते व भोजन की व्यवस्था की गई। जब सभी लोगों को घरों के अंदर अपनी रक्षा के लिए घरों में रहना पड़ रहा था, उस समय सुरक्षाकर्मी सुरक्षा हेतु सडक़ों पर दिन रात एक किए थे । आम लोगों द्वारा पुलिस को खाने-पीने के लिए पूछना उनको आह्लादित करने वाला था। स्वास्थ्य कर्मियों व विभिन्न सेवा प्रदाता सरकारी विभागों के साथ व्यापारियों व गैरसरकारी संस्थाओं ने अभूतपूर्व भूमिकाएं निभाई। महामारी के इस समय में मीडिया कर्मियों की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही जिन्होंने रिपोर्टिंग के अलावा जागरूकता के लिए लोगों के बीच काम किया।
राज्य के अन्य जिलों की तरह पुलिस महानिदेशक व आईजी बिलासपुर के मार्गदर्शन में रायगढ़ पुलिस द्वारा लोगों को कोविड संबंधित जागरूकता लाने के लिए कई अभिनव प्रयोग किए गए। वायरस के वेशभूषा, फिल्मी सीन को रीक्रिएट कर मैसेज होर्डिंग, पम्पलेट्स के रूप में लगाना, कोरोनायोद्धाओं को सम्मानित करना और घरों में कैद लोगों व बच्चों के लिए जागरूकता संबंधी प्रतियोगिताएं रखना आदि के साथ शारीरिक दूरी व मास्क का पालन करवाना प्रमुख लक्ष्य रहा। इन सब अभियानों में लोगों की प्रशंसा व सहयोग मिला।
अनलॉकडाउन के इस दौर में जब सभी तरह के आर्थिक गतिविधियों को अनलॉक किया गया है, बाजार व सार्वजनिक जगहें खुल रहे हैं, लोगों के बीच संक्रमण का खतरा घटने की बजाय बढ़ा हैं। लगातार पुलिस नियंत्रण कक्ष में कोविड निर्देशों के उल्लंघन की शिकायतें मिलती रहती हैं, जिस पर पुलिस सतत कार्रवाई करती है।
रायगढ़ पुलिस के आह्वान पर रायगढ़वासियों के सहयोग से प्राप्त मॉस्क को रक्षाबंधन के दिन ‘एक रक्षासूत्र मास्क का’ जागरूकता के महाअभियान के रूप में चलाया गया और लोंगों को मास्क पहनने का संदेश दिया गया। पुलिस द्वारा रक्षाबंधन के दिन कोरोना समय में बहनों को प्रेरित किया गया कि वो रक्षासूत्र रूपी राखी के साथ, रक्षासूत्र के रूप में मॉस्क भाइयों को दें और भाई उपहारस्वरूप मॉस्क गिफ्ट दें। सभी लोग व संस्थान अपने दोस्तों, परिजनों और परिचितों, कर्मचारियों को मॉस्क दें। इसके साथ ही पुलिस द्वारा इस अभियान के में पूरे जिले में मास्क वितरण का अभियान चलाया गया। पहले इस अभियान में 7-8 लाख मॉस्क बाँटने थे। लेकिन अंतिम दिन तक जिले के 362 विभिन्न संस्थानों/संगठनों के सहयोग से 12.37 लाख मॉस्क प्राप्त हुए, जिसे 985 पुलिसकर्मियों, जिला प्रशासन व 7,500 पुलिस मित्रों के विशेष सहयोग से पूरे रायगढ़ जिले में बांटा गया। विभिन्न संस्थाओं/लोगों ने अपने संस्थानों/ अपने-अपने घरों में अनुमानित 2.5 लाख मॉस्क बांटे। जिले में रिकार्ड लगभग 14.87 लाख मास्क का वितरण हुआ।
संपादकीय लेख में पुलिस की नीयत पर प्रश्न उठाया गया। अनुरोध है कि पुलिस की नीयत पर शक न करें। इसमें कोई शक नहीं कि पुलिस का काम मास्क बांटना नहीं है। ये भी सही है कि जरूरतमंदों के अलावा बड़े-बड़े लोगों में भी मास्क बंटा है। लेकिन इससे जरूरतमंदों के बीच बांटे गए मास्क की महत्ता कम नहीं होती। पुलिस ने इसको मास्क बाँटने के अभियान के रूप में नहीं सोचा था। एक हफ्ते पूर्व सोचे गए, यह एक जागरूकता अभियान के रूप में चलाया जाना था, उसमें सिर्फ एक लाख लोगों को पुलिसकर्मियों द्वारा स्वैच्छिक चंदे से मास्क देने की योजना थी। प्रचारित होने पर लोगों में इस सदभाविक अभियान में सहभागिता देने की होड़ लग गई। लेख में दिलचस्प रूप से संख्या के बारे में विश्लेषण हैं। आज रायगढ़ की आबादी 18-19 लाख के करीब हैं । पुलिस विज्ञप्ति में बताया गया है कि 1 व्यक्ति को एक से अधिक मास्क दिए गए और जरूरतमंदों को अधिकाधिक मास्क वितरित हुए। वैसे 5-6 लाख लोगों में 12 लाख क्या, 50 लाख भी मास्क बांट सकते हैं। यद्यपि ये रिकॉर्ड बनने के उद्देश्य से नहीं किया गया, लेकिन इस तरह का रिकॉर्ड गूगल करने पर नहीं मिलेगा। देश मे रिकॉर्ड रजिस्टर करने वाली संस्था का कोई मानकीकरण नहीं हैं। एक आरएनआई रजिस्टर्ड संस्था गोल्डन बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड ने फिलहाल इसे एक अनूठे केटेगरी में विश्व-रिकॉर्ड के रूप में रजिस्टर किया हैं। हम स्वयं चाहते हैं कि ये रिकॉर्ड जल्द से जल्द टूट जाए। रायगढ़ और पूरे प्रदेश का गौरव बढ़ा हैं। इसकी चर्चा व प्रकाशन देश के अधिकांश बड़े चैनल्स व अखबारों में हुई, जो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। पोस्ट-इवेंट के रूप में यह अन्य प्रसिद्ध रिकॉर्ड एजेंसियों के पास प्रक्रियाधीन हैं।
प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और वेब पोर्टल्स के सहयोग के साथ ही युवा वर्ग द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मस व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर पर इससे जुडऩे का अभियान चलाया गया। जिले भर में होर्डिंग्स लगाए गए और पम्पलेट्स बांटें गए। इसे लेकर जिले से लेकर चर्चा रही । जिलेवासियों का अपार समर्थन व सहयोग से दिन प्रतिदिन मासिक वितरण का लक्ष्य बढ़ता गया। कार्ययोजना अनुसार 02 अगस्त रविवार दोपहर सभी मास्क संग्रहण केंद्र से मास्क जिले के सभी थाना/चौकी क्षेत्र के प्रत्येक गांव के दूरस्थ अंचल तक वितरण हेतु पहुंचाया गया। अब वितरण के तरीके के बारे में, हमने रक्षाबंधन के अवसर का लाभ लिया, जब ज्यादा लोग अपने घरों से निकले थे। सामाजिक दूरी जो प्रमुख चुनौती थी, उसका ध्यान रखते हुए थाना स्तर पर पुलिस के प्रत्येक बीट आरक्षक द्वारा मॉनिटरिंग कर गांवों में रोज निकलने वाले लोगों यथा- सरपंच, सचिव, कोटवार, मितानिन से व शहर में पार्षद और कुछ स्वयंसेवी संस्थावों के सहयोग से बंटवाया गया। इस अभियान में जिले के विभिन्न राजनीतिक दलों के जनप्रतिनिधियों, उद्योगपतियों, छोटे-बड़े गई-सरकारी संस्थानों, सभी धर्म, समाज के लोगों, मीडिया समूह व जिला प्रशासन का अभूतपूर्व समर्थन मिला।
अभी, रायगढ़ में हमने नया अभियान भी शुरू कर दिया हैं कि जो मॉस्क न लगाएं हो उनकी फोटो खींचकर गुप्त रूप से पर्याप्त जानकारी पुलिस को दें, जुर्माने की कार्रवाई होगी। पिछले सात दिनों उल्लंघन पाए जाने पर बड़ी संख्या मे लोगों और दुकानों पर कार्रवाई की गई है।
पुलिस की नीयत, मास्क के प्रकार व संख्या व रिकॉर्ड के बारे में चिंतित होने के बजाय अभियान के मुख्य उद्देश्य की बात की जानी चाहिए थी। अभियान अपने जागरूकता के उद्देश्य में सफल रहा हैं। लोगों से अपील हैं कि जब तक इसका वैक्सीन न आ जाएं, कोविड से लडऩे के कारगर हथियार-शारीरिक दूरी और मॉस्क-सैनिटाईजर का प्रयोग करे और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करें।
(संतोष कुमार सिंह, भारतीय पुलिस सेवा अधिकारी, रायगढ़ पुलिस अधीक्षक के रूप में पदस्थ हैं)
-Varsha Singh
जंगल के संसार के नन्हे जीव उड़न गिलहरी के बारे में जानकारी जुटाना आसान नहीं। सिर्फ रात में दिखने वाली ये नन्ही प्राणी वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के शेड्यूल-2 के तहत दर्ज है। यानी धरती पर इनकी कम होती संख्या के चलते इन्हें सुरक्षा की जरूरत है। इनका शिकार या किसी तरह से भी नुकसान पहुंचाना प्रतिबंधित है। अपने पंजों के बीच फर को पैराशूट की तरह इस्तेमाल कर ये गिलहरी 450 मीटर तक ग्लाइड कर सकती है। अपने इसी कमाल की वजह से ये उड़न गिलहरी कही गई।
उड़न गिलहरी का दिखाई देना ही अपने आप में एक खबर होती है। उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र ने राज्य में उड़न गिलहरी की मौजूदगी को लेकर अध्ययन किया। शोधार्थी ज्योति प्रकाश बताते हैं कि जंगल में इनका घोसला तलाशने में ही 10-12 दिन लग गए। 6-7 दिन लगातार कैमरा ट्रैप लगाए रखने के बाद इनकी कुछ तस्वीरें मिल सकीं। वह बताते हैं कि शिकार होने से बचने के लिए ये उड़न गिलहरी अमूमन पेड़ की छोटी खोखली जगह में अपना घोसला बनाती है। उल्लू, चील या सांप बड़ी खोखली जगह में आसानी से इनका शिकार कर सकते हैं। अध्ययन में ये भी सामने आया कि इस जीव को घोसला बनाने के लिए सुरई का पेड़ ज्यादा पसंद है।
उड़न गिलहरी को लेकर अक्सर लोग ऐसी प्रतिक्रिया देते हैं कि आखिरी बार शायद दो बरस पहले देखा। ये भी कहा जाता है कि पहले ये ठीकठाक संख्या में दिख जाती थी लेकिन अब बेहद कम दिखाई पड़ती है। एक अध्ययन के मुताबिक विश्व में 15 पीढ़ियों की 40 से अधिक उड़न गिलहरी की प्रजातियां मौजूद हैं। इसमें से तीन उत्तर अमेरिका, दो उत्तरी यूरेशिया और ज्यादातर एशिया और भारत के जंगलों में मिलती है।
उत्तराखंड में उड़न गिलहरी की मौजूदगी पता लगाने के लिए वन अनुसंधान केंद्र ने इस वर्ष फरवरी में सभी 13 फॉरेस्ट डिविजन में अध्ययन शुरू किया। ताकि इनके संरक्षण के लिए नीति बनायी जा सके। उत्तराखंड के जंगलों से अच्छी खबर ये मिली कि वूली (woolly) उड़न गिलहरी की उत्तरकाशी के गंगोत्री नेशनल पार्क के गंगोत्री रेंज में रिपोर्टिंग हुई है। हालांकि इसकी पुष्टि अभी नहीं हो सकी है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट में शामिल वूली गिलहरी 70 वर्ष पहले विलुप्त मानी जाती थी। लेकिन वर्ष 2004 में पाकिस्तान के साई घाटी में ये दिखाई दी। इसके बाद देहरादून वाइल्ड लाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों ने भी उत्तरकाशी के भागीरथी घाटी में भी इसकी मौजूदगी की बात कही।
उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र के सर्वेक्षण में राज्य के 13 फॉरेस्ट डिविजन में ये 18 अलग-अलग जगहों पर देखी गईं। ज्यादातर पौड़ी जिले में दिखाई दीं। इसके अलावा कोटद्वार के लैंसडोन फॉरेस्ट डिविजन में 30-45 सेंटीमीटर लंबी इंडियन जाएंट उड़न गिलहरी देखी गई। गले पर सफेद धारियों की वजह से स्थानीय लोग इन्हें पट्टा बाघ कहते हैं।
मसूरी और पौड़ी वन प्रभाग ने अपने क्षेत्र में बहुत सी इंडियन जाएंट उड़न गिलहरी दिखने की पुष्टि की। बागेश्वर के जंगलों में इक्का-दुक्का उड़न गिलहरी दिखने की जानकारी मिली। पिथौरागढ़ के वन कर्मचारियों ने भी धारचुला और तवाघाट में इनके दिखने की पुष्टि की। नरेंद्र नगर फॉरेस्ट डिवीजन में उड़न गिलहरी दिखने की पुष्टि हुई। चकराता वन प्रभाग ने बताया कि उनके क्षेत्र में पिछले चार वर्षों में सिर्फ दो बार उड़न गिलहरी देखी गई। कालागढ़ टाइगर रिजर्व और केदारनाथ वाइल्ड लाइफ सेंचुरी में ये बेहद कम संख्या में देखी गईं।
चीड़, देवदार, खैर, तून, ओक और शीशम के जंगल इनका निवास स्थान हैं। भूरे, सुनहरे, लाल, स्याह रंगों में देखी गई उड़न गिलहरियों में से ज्यादातर इंडियन जाएंट उड़न गिलहरी थी। इसके अलावा कॉमन उड़न गिलहरी, सफेद पेट वाली उड़न गिलहरी और इंडियन रेड जाएंट गिलहरी भी देखी गई। उत्तरकाशी में स्याह रंग की वूली उड़न गिलहरी देखी गई।
उंचे पेड़ों पर घोसला बनाने वाली ये जीव पूरी तरह शाकाहारी है। जंगल में बीज बिखेरने और पॉलीनेशन में इनकी अहम भूमिका होती है। बीज के उपर की सख्त सतह को ये अपने पंजों से तोड़ देती हैं। जिससे बीज को पनपने का मौका मिलता है। कभी-कभार जादू की तरह दिख जाने वाली इस जीव के बारे में जितनी अधिक जानकारी होगी, इनका संरक्षण उतना ही आसान होगा। उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र ने इसी मकसद से ये अध्ययन कराया है।(downtoearth)
-Vivek Mishra
"मैं केले के खेतों में लाखों रुपये की दवाई डाल चुका हूं, मुश्किल से दो महीने तक ही संक्रमण रुकता है। इसके बाद केलों के पेड़ों में संक्रमण का फैलाव फिर शुरु हो जाता है। इस संक्रमण में केले के पेड़ ही सूख और सड़कर गिर जाते हैं। यह सिलसिला बीते कई वर्षों से चल रहा है। लखनऊ और गोरखपुर से डॉक्टर आए, लेकिन इस बीमारी का कोई इलाज नहीं निकला। वैज्ञानिक कहते हैं कि यह केले का कैंसर है, जिसकी कोई दवाई नहीं है। मैं तीस वर्षों से केले की खेती कर रहा हूं लेकिन जैसी बर्बादी इस बार लगातार हुई बारिश और फैलते संक्रमण के बाद हुई है, ऐसी कभी नहीं हुई"।
भारत-नेपाल की सीमा साझा करने वाले उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले में खुनियांव ब्लॉक में बेलवा गांव के किसान सुदर्शन मौर्या ने यह बात डाउन टू अर्थ से साझा की।
केले की खेती के बारे में ग्रामीण अपना अनुभव साझा करते हैं औऱ कहते हैं कि पानी ही केले की खेती को जिंदा करता है और पानी ही केले की खेती को मार देता है। हल्की नमी हो तो केला अच्छा पनपता है जबकि इस बार मई से लेकर जुलाई के बीच गांव वालों ने लगातार बारिश का अनुभव किया है। सुदर्शन कहते हैं कि दो महीनों में शायद ही कोई दिन ऐसा रहा हो जिस दिन बारिश न हुई हो, वे कहते हैं कि उनका अनुभव है कि बारिश के साथ केले के पेड़ों में कवक संक्रमण का तेजी से विस्तार होता है।
सिद्धार्थनगर जिले के खुनियांव क्षेत्र में मुख्य रूप से केले की खेती होती है। लगातार हो रही बारिश ने खेतों की मिट्टी को केले की खेती के प्रतिकूल दलदली बना दिया है। हालांकि, मनरेगा के तहत इस बार ज्यादातर खेतों को जोड़ने वाली कच्ची सड़कों ने किसानों को उनके केला बागानों तक पहुंचने का रास्ता थोड़ा सुगम बना दिया है।
सुदर्शन मौर्या कुल सात भाई हैं और संयुक्त तौर पर 42 बीघे में केले की खेती करते हैं। चारो तरफ केले के खेत ही खेत हैं। वर्षा हुई है लेकिन खेतों के आस-पास बेहद उमस है। कृषक सुदर्शन मौर्य और उनके भाई जब हसे मिलते हैं तो उनकी बुशर्ट और पैंट मिट्टी में सने हुए हैं।
वे कहते हैं “बीते वर्ष जून के पहले सप्ताह में कुल 42 बीघे में 90 हजार रुपए सरकारी अनुदान के सहयोग के साथ केले लगाए थे। अब तक खाद, कीटनाशक, दवाईयां, लेबर चार्ज आदि का खर्चा लगभग 12 लाख रुपए से अधिक लग चुका है, जबकि बर्बादी के कारण यह लागत भी शायद नहीं निकल पाएगी।“
आस-पास के गांव में खेतों में भी केलों के गुच्छे तो लगे हुए हैं जिन्हें बोरों से ढ़का गया है लेकिन तमाम केलों की पत्तियां सूख रही हैं या फिर पेड़ जड़ से ही खराब होकर गिर रहे हैं।
जिला बागान अधिकारी एन राम डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि बीते वर्ष कुछ किसानों ने कवक संक्रमण को लेकर शिकायत की थी वहीं, असमय वर्षा और तूफान आदि के कारण होने वाले नुकसान से तमाम किसान हतोत्साहित भी हुए थे, लेकिन स्थिति अब सुधर रही है। जिले में कुल करीब 500 हेकट्येर में केले की खेती होती है।
बेलवा गांव के ही एक अन्य केला किसान खैरू चौधरी भी बारिश और संक्रमण के फैलाव से परेशान हैं। छोटू चौधरी कहते हैं कि करीब 18 महीनों में केले तैयार होते हैं, लगातार बढ़ रहे दवाई और कीटनाशक के प्रयोग के कारण प्रत्येक बीघे में केले की खेती की लागत में काफी इजाफा हुआ है। मसलन अब करीब 25 हजार रुपये तक प्रति बीघे केले की खेती में खाद, लेबर और दवाई आदि की लागत लगती है।
श्रावस्ती के पारेवपुर गांव में दिनेश प्रताप सिंह कुल 13 एकड़ में केले की खेती करते हैं। वे कहते हैं कि पनामा विल्ट जैसी महामारी उनके यहां कभी अनुभव नहीं हुई है लेकिन बीते चार से पांच वर्षों में केले के पत्ते मार्च से अप्रैल महीने के बीच जल जाते हैं। यह कैसा संक्रमण है और इसका कारण क्या है, यह अभी पता नहीं है। आस-पास काफी ईंट-भट्ठे हैं तो एक कारण शायद यह हो सकता है लेकिन यह समस्या अभी इतनी ज्यादा नहीं बढ़ी है।
संक्रमण ने हाल-फिलहाल पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ जिलों में केले के कृषकों को परेशान किया है और कई किसान लागत न निकलने से काफी हताश हो चुके हैं।(dowmtoearth)
- Dayanidhi
टिड्डियां दुनिया के कई हिस्सों में फसलों को तबाह कर रही हैं। अब वैज्ञानिक इस बात का पता लगाने में जुटे हैं कि ये कीट विनाशकारी झुंड क्यों और कैसे बनाते हैं?
एक अकेली टिड्डी नुकसान कम करती है। लेकिन तथाकथित अकेले रहने वाले टिड्डे एक बदलाव (मेटामोर्फोसिस) के दौर से गुजरते हैं। ये रंग बदलते हैं और लाखों अन्य टिड्डियों के साथ मिलकर तबाही मचाते हैं।
अकेले रहने वाले टिड्डे झुण्ड में कैसे बदल जाते हैं, ये आपस में एक दूसरे को क्या संकेत देते हैं? इसके पीछे एक गंध संबंधी रहस्य छिपा होता है।
टिड्डियों द्वारा एक ऐसी गंध छोड़ी जाती है जो आसानी से समाप्त नहीं होती है। यह इत्र की तरह एक रासायनिक यौगिक होता है। इससे वे अपनी तरह के अन्य टिड्डियों से निकटता महसूस करते हैं।
यह केमिकल अन्य टिड्डियों को एक दूसरे की ओर आकर्षित करता है। टिड्डियां समूह में शामिल हो जाती हैं और खुद भी गंध का उत्सर्जन करना शुरू कर देती हैं। इस प्रक्रिया से भारी संख्या में टिड्डियों का झुंड बन जाता है। जिसके बाद ये भारी मात्रा में फसल को बर्बाद कर दते हैं।
यह खोज कई आशावान संभावनाएं प्रदान करती है, जिसमें सूघंने की क्षमता के बिना आनुवंशिक रूप से इंजीनियरिंग टिड्डे शामिल हैं जो कि झुंड के गंध (फेरोमोन) का पता लगाते हैं, या कीड़ों को अपनी ओर आकर्षित करने और फंसाने के लिए गंध को हथियार बनाते हैं। यह अध्ययन नेचर नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
अध्ययन से पता चलता है कि पूर्वी अफ्रीका में टिड्डों ने भारी मात्रा में फसलों को नष्ट किया है, ये भारत, पाकिस्तान में खाद्य आपूर्ति के लिए खतरा बने हुए हैं।
गंध के रूप में कौन सा केमिकल छोड़ती है टिड्डियां
प्रवासी टिड्डियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए इसे कीटों की सबसे व्यापक रूप से वितरित प्रजाति माना गया है, और इस दौरना अध्ययनकर्ताओं ने कीड़ों द्वारा उत्पादित कई यौगिकों की जांच भी की।
अध्ययन में पाया गया कि एक विशेष रूप से 4-विनाइनिसोल, या 4वीए (4VA)- जो एक तरह का केमिकल है, इसके उत्सर्जित होने पर टिड्डियां इसकी ओर आकर्षित होती दिखाई दिए। 4वीए के अधिक उत्सर्जन से टिड्डियों इसकी ओर अधिक आकर्षित हुई और उनका झुंड बन गया।
चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज के प्रोफेसर ले कांग की अगुवाई वाली टीम ने चार टिड्डियों को एक पिंजरे में एक साथ रखा और उन्होंने पाया कि टिड्डों ने एक दूसरे को आकर्षित करने के लिए 4-विनाइनिसोल (4वीए) केमिकल छोड़ना शुरू कर दिया था।
तब टीम ने जांच की कि कैसे टिड्डों ने गंध को महसूस किया, टिड्डी में झुंड बनाने वाले केमिकल (फेरोमोन) का पता लगाने के लिए जिम्मेदार एंटीना के हिस्से को टिड्डी से अलग कर दिया गया। उन्होंने इसे जीन का पता लगाने की प्रक्रिया के लिए आवश्यक बताया। आनुवंशिक रूप से संशोधित टिड्डियों का उत्पादन किया गया जिसमें मुख्य ओआर35 (OR35) जीन की कमी थी।
क्या टिड्डियों के जीन में बदलाव कर उन्हें झुंड बनाने से रोका जा सकता है
अध्ययन में कहा गया कि जीन में परिवर्तन (उत्परिवर्ती) किए गए टिड्डों ने जंगली प्रकार के टिड्डों की तुलना में 4वीए की ओर आकर्षित होना बंद कर दिया था, अर्थात 4वीए के प्रति उनका आकर्षण समाप्त हो गया था।
खोजों ने फसलों को उजाड़ने वाले कीटों से निपटने के लिए कई संभावनाओं को खोला है। इनमें आनुवांशिक संशोधन का उपयोग करना, या झुंड के बनने का पूर्वानुमान के लिए 4वीए के उत्पादन पर नजर रखना शामिल है।
कांग और उनकी टीम ने क्षेत्र में दो तरह के नियंत्रित तरीके से जाल स्थापित किए, और दोनों मामलों में उन्होंने टिड्डियों को प्रभावी ढंग से लुभा कर फसाया था।
रॉकफेलर यूनिवर्सिटी की प्रयोगशाला न्यूरोएजेनेटिक्स एंड बिहेवियर के प्रमुख लेस्ली वॉशहॉल ने कहा कि शायद सबसे रोमांचक प्रयोग एक ऐसा रसायन ढूंढना होगा जो 4वीए के सूंघने (रिसेप्शन) को अवरुद्ध कर दे।
इस तरह के एक अणु की खोज कीटों के झुंड बनाने को रोकने के लिए एक केमिकल ऐन्टिडोट प्रदान कर सकता है। यह टिड्डियों के झुंड बनाने को रोक सकता है और उनके शांतिपूर्ण, एकान्त जीवन के मार्ग पर लौटा सकता है।
कांग ने कहा कि टिड्डियों के आनुवंशिक संशोधन से टिकाऊ उपाय किया जा सकता है, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि ऐसी परियोजना के लिए बड़े पैमाने पर और दीर्घकालिक प्रयासों की आवश्यकता होती है।(downtoearh)
-रामचंद्र गुहा
15 अगस्त 2007 यानी भारत की आजादी के साठ साल पूरे होने के मौके पर मैंने देश के हालात को लेकर हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख लिखा था. उन दिनों यह खूब कहा जा रहा था कि भारत एक उभरती हुई विश्वशक्ति है. चीन पहले ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपना लोहा मनवा चुका था और कहा जा रहा था कि अब हमारी बारी है. बहुत से लोगों का मानना था कि 21वीं सदी एशिया की सदी होने वाली है. उनकी राय थी कि जिस तरह ग्रेट ब्रिटेन ने 19वीं और अमेरिका ने 20वीं सदी में अर्थ और राजनीतिक जगत पर प्रभुत्व जमाया वैसा ही चीन और भारत भी करेंगे और दुनिया हैरानी और प्रशंसा की दृष्टि से उन्हें देखेगी.
हमारी आसन्न वैश्विक महानता की इन भविष्यवाणियों को करने वाले मुख्यत: दो तरह के लोग थे : मुंबई और बेंगलुरु में बैठे उद्यमी और नई दिल्ली में बैठे संपादक. एक साल पहले ही इन्होंने दावोस में आयोजित होनी वाली विश्व आर्थिक मंच की बैठक में भारत को शानदार तरीके से दुनिया के सामने रखा था. इसमें हमें ‘दुनिया में सबसे तेजी से तरक्की करने वाला लोकतंत्र’ बताया गया था. इस टैगलाइन के आखिरी शब्द में चतुराई से चीन पर तंज किया गया था. कुल मिलाकर अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों को संकेत दिया जा रहा था कि न सिर्फ उनके कर्मचारियों के रहने और काम करने के लिहाज से भारत कहीं बेहतर जगह है बल्कि यहां उन्हें अपने निवेश पर अच्छा रिटर्न भी मिलेगा.
उद्यमी लोग मिजाज से आशावादी होते हैं और कभी-कभी तो यह आशावादिता निरी काल्पनिकता में बदल जाती है. दूसरी तरफ, इतिहासकार स्वभाव से संशयी होते हैं और दोष ढूंढने वाले भी. तो अपने पेशेवर डीएनए के अनुरूप 15 अगस्त 2007 को हिंदुस्तान टाइम्स में छपे अपने लेख में मैंने कहा था कि दुनिया पर प्रभुत्व जमाने की हमारी महत्वाकांक्षाएं अवास्तविक हैं, हमारे यहां जाति, वर्ग और धर्म की गहरी खाइयां अब भी मौजूद हैं, हमारी संस्थाएं उतनी मजबूत नहीं हैं जितनी उनके बारे में संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी और पर्यावरण को हो रहा व्यापक नुकसान हमारे आर्थिक विकास के टिकाऊपन को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. दावोस और इसके इतर मंचों पर जो कहानी बताई जा रही थी उसमें इन जमीनी सच्चाइयों के लिए कोई जगह न थी. अपने लेख के आखिर में मैंने कहा था कि हमारा देश विश्व शक्ति नहीं बनने वाला है बल्कि भारत बीच में रहेगा जैसा वह हमेशा रहा है.
मुझे मालूम था कि मेरे उद्यमी मित्रों को मेरा यह आकलन निराशावादी लगेगा. ऐसा हुआ भी. लेकिन आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि 13 साल पहले मैंने जो लिखा था वह भी असल में कुछ ज्यादा ही आशावाद था. देश की आजादी की 60वीं वर्षगांठ से पहले भारतीय अर्थव्यवस्था आठ फीसदी सालाना की बढ़िया रफ्तार से बढ़ रही थी. कोरोना महामारी से ठीक पहले यह आंकड़ा गिरकर चार फीसदी पर आ चुका था जो अब तो बुरी तरह से नकारात्मक हो चुका होगा.
2006 और 2007 में किए गए दावों का सच जो भी हो, यह तो साफ है कि बीते कुछ सालों से हम दुनिया में ‘सबसे तेजी से तरक्की करता लोकतंत्र’ नहीं हैं. यही नहीं, इस टैगलाइन के आखिर शब्द यानी लोकतंत्र पर भी संदेह के बादल दिनों-दिन बढ़ते दिखते हैं. न हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और न ही कोई आज यह कह सकता है कि भारत में लोकतंत्र अच्छी तरह से चल रहा है. अपने पहले के लेखों में मैं सत्ताधारी पार्टी द्वारा योजनाबद्ध तरीके से हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर कब्जे का जिक्र कर चुका हूं. इन संस्थाओं की निष्पक्षता पर सवाल लगातार बड़े होते जा रहे हैं. इनमें हमारी नौकरशाही, जांच एजेंसियां, सेना, रिजर्व बैंक, चुनाव आयोग और कुछ हद तक हमारी न्यायपालिका भी शामिल है. गोपनीय चुनावी बॉन्डों और अलग-अलग राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त ने इस स्थिति को और गंभीर किया है. इस बीच मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी सत्ता के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है. साहसी और स्वतंत्र विचारों वाले मीडिया का जो थोड़ा सा हिस्सा बचा है, राज्य व्यवस्था की तरफ से उसके लिए पैदा होने वाली परेशानियां बढ़ती जा रही हैं.
2007 की बात करें तो उस समय मैंने भारत के विश्व शक्ति बनने का दावा करने वालों का मजाक तो उड़ाया था. लेकिन तब मैं भारत को लेकर काफी उत्साही भी था. इसका संबंध अर्थव्यवस्था से नहीं बल्कि दूसरी चीजों से था. मैं सधे हुए शब्दों में भारत के लोकतंत्र और खुलकर सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलता का सम्मान करने वाली इसकी संस्कृति की तारीफ करता था. उस समय भारत में एक सिख प्रधानमंत्री था जिसे एक मुस्लिम राष्ट्रपति ने शपथ दिलाई थी. हमारे नोटों पर 17 भाषाओं बल्कि कहें तो 17 लिपियों में उनकी कीमत लिखी होती थी. इन सारी बातों को मैं उन आदर्शों की जीत मानता था जो हमारे गणतंत्र की नींव रखने वालों ने तय किए थे.
पीछे मुड़कर देखूं तो 2004 और फिर 2009 के आम चुनाव में भाजपा की हार ने मुझ जैसे उदारवादियों को हिंदुत्व के भविष्य को लेकर अतिआत्मविश्वास से भर दिया था. लेकिन उन पराजयों के बाद भी न तो एक राजनीतिक ताकत और न ही एक शक्तिशाली और अहितकारी विचार के तौर पर हिंदुत्व की ताकत कम हुई. 2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व के बूते भाजपा ने बहुमत हासिल कर सरकार बना ली. प्रधानमंत्री के तौर पर उनका पहला कार्यकाल मुख्य तौर पर नोटबंदी जैसे विनाशकारी प्रयोग के लिए याद किया जाएगा जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को कई साल पीछे धकेल दिया. नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल का पहला साल अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और नागरिकता संशोधन कानून जैसे कदमों के लिए याद किया जाएगा जिन्होंने भारत में बहुलतावाद की संस्कृति पर बड़ी चोट की. अर्थव्यवस्था और समाज पर ऐसी और कितनी चोटें पड़नी शेष हैं, यह आने वाले सालों में देखा जाना है.
2007 में भारत को उभरती हुई विश्व शक्ति कहना शायद अपरिपक्वता थी. फिर भी भारत अपनी तरह की सफलता की कहानी तो था ही - एक ऐसे विशाल, जटिल और विविधताओं से भरे देश की कहानी जिसने किसी तरह खुद को संगठित करके एक राज्य व्यवस्था बनाने में सफलता हासिल की, पितृसत्ता और कम साक्षरता वाले एक ऐसे देश की कहानी जिसने दुनिया के इतिहास में लोकतंत्र की सबसे बड़ी कवायद को कई बार सफलता से अंजाम दिया, अकाल और अभाव से सदियों तक जूझते एक देश की कहानी जिसने न सिर्फ करोड़ों लोगों को गरीबी के जाल से बाहर निकाला बल्कि सूचना और जैव तकनीकी जैसे क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया.
अगस्त 2007 में वैश्विक महानता के दावे और पूर्वानुमान अनावश्यक थे. लेकिन उस शांत और शालीन गर्व के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता था जो हमें आजादी के बाद हासिल अपनी असाधारण उपलब्धियों पर था. अब अगस्त 2020 में भारत की किसी तरह की कोई कहानी नहीं है जिसे सुनाया जा सके. कोविड -19 के देश में आने से पहले ही हमारी अर्थव्यवस्था हांफ रही थी. हमारे लोकतंत्र को काफी तक भ्रष्ट और खस्ताहाल कहा जा रहा था. हमारे अल्पसंख्यक डरे हुए और असुरक्षित थे. यहां तक कि वे उद्यमी भी आशंकाओं से घिरे हुए थे जिन्हें मैं जानता हूं और जो कभी आशावादी हुआ करते थे. उस पर अब महामारी आ गई है जिसने हमारे आर्थिक संकटों, सामाजिक खाइयों और लोकतांत्रिक खामियों को बढ़ाने का ही काम किया है. अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर आने में बरसों लगेंगे. हमारे लोकतंत्र का संस्थागत ताना-बाना और हमारे समाज का बहुलतावादी चरित्र 2014 के बाद से इसे हुए नुकसान से उबर पाएगा या नहीं, यह एक खुला सवाल है.
एक देश के रूप में हमारी ढलान कैसे शुरू हुई और इसके लिए कौन लोग या संस्थान किस तरह से जिम्मेदार रहे, इसका आकलन भविष्य के इतिहासकार करेंगे. मेरी अपनी राय यह है कि हमारे पतन के बीज मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में बोए गए, हालांकि वास्तविक नुकसान मोदी सरकार के कार्यकाल में हुआ है. इस बात पर दो राय हो सकती है, लेकिन यह निश्चित है कि 15 अगस्त 2007 को अपनी आजादी की 60वीं वर्षगांठ मनाते हुए हम कम से कम इस पर बहस कर सकते थे कि क्या हमारा देश अगली विश्व शक्ति बनने की प्रक्रिया में है. 13 साल बाद आज ऐसी बहस अति की सीमा तक हास्यास्पद लगेगी.(satyagrah)
-रेहान फ़ज़ल
जनवरी 1977 की एक सर्द शाम. दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की एक रैली थी. रैली यूँ तो 4 बजे शुरू हो गई थी, लेकिन अटल बिहारी बाजपेयी की बारी आते आते रात के साढ़े नौ बज गए थे. जैसे ही वाजपेयी बोलने के लिए खड़े हुए, वहाँ मौजूद हज़ारों लोग भी खड़े हो कर ताली बजाने लगे.
अचानक वाजपेयी ने अपने दोनों हाथ उठा कर लोगों की तालियों को शाँत किया. अपनी आँखें बंद की और एक मिसरा पढ़ा, ''बड़ी मुद्दत के बाद मिले हैं दीवाने....'' वाजपेयी थोड़ा ठिठके. लोग आपे से बाहर हो रहे थे. वाजपेयी ने फिर अपनी आंखें बंद कीं. फिर एक लंबा पॉज़ लिया और मिसरे को पूरा किया, ' कहने सुनने को बहुत हैं अफ़साने.'
इस बार तालियों का दौर और लंबा था. जब शोर रुका तो वाजपेयी ने एक और लंबा पॉज़ लिया और दो और पंक्तियाँ पढ़ीं, ''खुली हवा में ज़रा सांस तो ले लें, कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने?''
उस जनसभा में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह बताती हैं, ''ये शायद 'विंटेज वाजपेयी' का सर्वश्रेष्ठ रूप था. हज़ारों हज़ार लोग कड़कड़ाती सर्दी और बूंदाबांदी के बीच वाजपेयी को सुनने के लिए जमा हुए थे. इसके बावजूद कि तत्कालीन सरकार ने उन्हें रैली में जाने से रोकने के लिए उस दिन दूरदर्शन पर 1973 की सबसे हिट फ़िल्म 'बॉबी' दिखाने का फ़ैसला किया था. लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ था. बॉबी और वाजपेयी के बीच लोगों ने वाजपेयी को चुना. उस रात उन्होंने सिद्ध किया कि उन्हें बेबात ही भारतीय राजनीति का सर्वश्रेष्ठ वक्ता नहीं कहा जाता.''
भारतीय संसद में हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वक्ता
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष अनंतशयनम अयंगार ने एक बार कहा था कि लोकसभा में अंग्रेज़ी में हीरेन मुखर्जी और हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी से अच्छा वक्ता कोई नहीं है.
जब वाजपेयी के एक नज़दीकी दोस्त अप्पा घटाटे ने उन्हें यह बात बताई तो वाजपेयी ने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले, "तो फिर बोलने क्यों नहीं देता."
हालांकि, उस ज़माने में वाजपेयी बैक बेंचर हुआ करते थे, लेकिन नेहरू बहुत ध्यान से वाजपेयी द्वारा उठाए गए मुद्दों को सुना करते थे.
नेहरू थे वाजपेयी के मुरीद
किंगशुक नाग अपनी किताब 'अटलबिहारी वाजपेयी- ए मैन फ़ॉर ऑल सीज़न' में लिखते हैं कि एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए कहा था, "इनसे मिलिए. ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं. हमेशा मेरी आलोचना करते हैं, लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूँ."
एक बार एक दूसरे विदेशी मेहमान से नेहरू ने वाजपेयी का परिचय संभावित भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी कराया था. वाजपेयी के मन में भी नेहरू के लिए बहुत इज़्ज़त थी.
साउथ ब्लॉक में नेहरू का चित्र वापस लगवाया
1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभालने साउथ ब्लॉक के अपने दफ़्तर गए तो उन्होंने नोट किया कि दीवार पर लगा नेहरू का एक चित्र ग़ायब है.
किंगशुक नाग बताते हैं कि उन्होंने तुरंत अपने सचिव से पूछा कि नेहरू का चित्र कहां है, जो यहां लगा रहता था.
उनके अधिकारियों ने ये सोचकर उस चित्र को वहां से हटवा दिया था कि इसे देखकर शायद वाजपेयी ख़ुश नहीं होंगे.
वाजपेयी ने आदेश दिया कि उस चित्र को वापस लाकर उसी स्थान पर लगाया जाए जहां वह पहले लगा हुआ था.
प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि जैसे ही वाजपेयी उस कुर्सी पर बैठे जिस पर कभी नेहरू बैठा करते थे, उनके मुंह से निकला, "कभी ख़्वाबों में भी नहीं सोचा था कि एक दिन मैं इस कमरे में बैठूँगा."
विदेश मंत्री बनने के बाद उन्होंने नेहरू के ज़माने की विदेश नीति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं किया.
भाषणों के लिए बहुत मेहनत करते थे वाजपेयी
वाजपेयी के निजी सचिव रहे शक्ति सिन्हा बताते हैं कि सार्वजनिक भाषणों के लिए वाजपेयी कोई ख़ास तैयारी नहीं करते थे, लेकिन लोकसभा का भाषण तैयार करने के लिए वो ख़ासी मेहनत किया करते थे.
शक्ति के मुताबिक़, "संसद के पुस्तकालय से पुस्तकें, पत्रिकाएं और अख़बार मंगवाकर वाजपेयी देर रात अपने भाषण पर काम करते थे. वो पॉइंट्स बनाते थे और उस पर सोचा करते थे. वो पूरा भाषण कभी नहीं लिखते थे, लेकिन उनके दिमाग़ में पूरा ख़ाका रहता था कि अगले दिन उन्हें लोकसभा में क्या-क्या बोलना है."
मैंने शक्ति सिन्हा से पूछा कि मंच पर इतना सुंदर भाषण देने वाले वाजपेयी हर 15 अगस्त को लाल किले से दिया जाने वाला भाषण पढ़कर क्यों देते थे?
शक्ति का जवाब था कि ''वह लाल किले की प्राचीर से कोई चीज़ लापरवाही में नहीं कहना चाहते थे. उस मंच के लिए उनके मन में पवित्रता का भाव था. हम लोग अक्सर उनसे कहा करते थे कि आप उस तरह से बोलें जैसे आप हर जगह बोलते हैं, लेकिन वह हमारी बात नहीं मानते थे. यह नहीं था कि वो किसी और का लिखा भाषण पढ़ते थे. हम लोग उनको इनपुट देते थे जिसको वो बहुत काट-छांट के बाद अपने भाषण में शामिल करते थे.''
आडवाणी को कॉम्पलेक्स
अटल बिहारी वाजपेयी के काफ़ी क़रीब रहे उनके साथी लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार बीबीसी को बताया था कि अटलजी के भाषणों को लेकर वह हमेशा हीनभावना से ग्रस्त रहे.
आडवाणी ने बताया था, "जब अटलजी चार वर्ष तक भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके तो उन्होंने मुझसे अध्यक्ष बनने की पेशकश की. मैंने ये कहकर मना कर दिया कि मुझे हज़ारों की भीड़ के सामने आपकी तरह भाषण देना नहीं आता. उन्होंने कहा संसद में तो तुम अच्छा बोलते हो. मैंने कहा संसद में बोलना एक बात है और हज़ारों लोगों के सामने बोलना दूसरी बात. बाद में मैं पार्टी अध्यक्ष बना, लेकिन मुझे ताउम्र कॉम्पलेक्स रहा कि मैं वाजपेयी जैसा भाषण कभी नहीं दे पाया."
कई दफ़ा आडवाणी ने राजनीतिक पटल पर भी वाजपेई से आगे निकलने की कोशिशें की. वरिष्ठ न्यायाधीश ए जी नूरानी लिखते हैं, ''जुलाई 2001 में अडवाणी ने उनके फ़ैसले को खारिज करते हुए आगरा सम्मेलन को खराब कर दिया था. इसके बाद अप्रैल 2002 में उन्होंने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चुनाव में वाजपेई की पसंद को भी खारिज किया. इसके बाद वाजपेई ने उन्हें उप प्रधानमंत्री बनाया.''
अंतर्मुखी और शर्मीले
दिलचस्प बात यह है कि हज़ारों लोगों को अपने भाषण से मंत्रमुग्ध कर देने वाले वाजपेयी निजी जीवन में अंतर्मुखी और शर्मीले थे.
उनके निजी सचिव रहे शक्ति सिन्हा बताते हैं कि ''अगर चार-पांच लोग उन्हें घेरे हुए हों तो उनके मुंह से बहुत कम शब्द निकलते थे. लेकिन वो दूसरों की कही बातों को बहुत ध्यान से सुनते थे और उस पर बहुत सोच-समझकर बारीक प्रतिक्रिया देते थे. एक दो ख़ास दोस्तों के सामने वो खुलकर बोलते थे, लेकिन वो बैक स्लैपिंग वेराइटी कभी नहीं रहे.''
मणिशंकर अय्यर याद करते हैं कि जब वाजपेयी पहली बार 1978 में विदेश मंत्री के तौर पर पाकिस्तान गए तो उन्होंने सरकारी भोज में गाढ़ी उर्दू में भाषण दिया. पाकिस्तान के विदेश मंत्री आगा शाही चेन्नई में पैदा हुए थे. उनको वाजपेयी की गाढ़ी उर्दू समझ में नहीं आई.
शक्ति सिन्हा बताते हैं कि ''एक बार न्यूयॉर्क में प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ वाजपेयी से बात कर रहे थे. थोड़ी देर बाद उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करना था. उन्हें चिट भिजवाई गई कि बातचीत ख़त्म करें ताकि वो भाषण देने जा सकें. चिट देखकर नवाज़ शरीफ़ ने वाजपेयी से कहा, "इजाज़त है... फिर उन्होंने अपने को रोका और पूछा आज्ञा है." वाजपेयी ने हंसते हुए जवाब दिया, "इजाज़त है."
वाजपेयी की स्कूटर सवारी
वाजपेयी अपनी सहजता और मिलनसार स्वभाव के लिए हमेशा मशहूर रहे हैं. मशहूर पत्रकार और कई अख़बारों के संपादक रहे एच के दुआ बताते हैं, "एक बार मैं अपने स्कूटर से एक संवाददाता सम्मेलन को कवर करने काँस्टिट्यूशन क्लब जा रहा था जिसे अटल बिहारी वाजपेयी संबोधित करने जा रहे थे. उस ज़माने में मैं एक युवा रिपोर्टर हुआ करता था. रास्ते में मैंने देखा कि जनसंघ के अध्यक्ष वाजपेयी एक ऑटो को रोकने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने अपना स्कूटर धीमा करके वाजपेयी से ऑटो रोकने का कारण पूछा. उन्होंने बताया कि उनकी कार ख़राब हो गई है. मैंने कहा कि आप चाहें तो मेरे स्कूटर के पीछे की सीट पर बैठकर काँस्टिट्यूशन क्लब चल सकते हैं."
उन्होंने बताया, "वाजपेयी मेरे स्कूटर पर पीछे बैठकर उस संवाददाता सम्मेलन में पहुंचे जिसे वो ख़ुद संबोधित करने वाले थे. जब हम वहाँ पहुंचे तो जगदीश चंद्र माथुर और जनसंघ के कुछ नेता हमारा इंतज़ार कर रहे थे. माथुर ने हमें देखते ही चुटकी ली, 'कल एक्सप्रेस में छपेगा, वाजपेयी राइड्स दुआज़ स्कूटर.' वाजपेयी ने खिलखिला कर जवाब दिया, 'नहीं हेडलाइन होगी दुआ टेक्स वाजपेयी फॉर अ राइड.''
नाराज़गी से दूर दूर का वास्ता नहीं
शिव कुमार पिछले 51 सालों से अटल बिहारी वाजपेयी के साथ रहे हैं. ख़ुद उनके शब्दों में वो एक साथ अटल के चपरासी, रसोइये, बॉडीगार्ड, सचिव और लोकसभा क्षेत्र प्रबंधक की भूमिका निभाते रहे हैं.
जब मैंने उनसे पूछा कि क्या अटल बिहारी वाजपेयी को कभी ग़ुस्सा आता था तो उन्होंने एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाया, "उन दिनों मैं उनके साथ 1, फ़िरोज़शाह रोड पर रहा करता था. वो बेंगलुरू से दिल्ली वापस लौट रहे थे. मुझे उन्हें लेने हवाई अड्डे जाना था. जनसंघ के एक नेता जेपी माथुर ने मुझसे कहा चलो रीगल में अंग्रेज़ी पिक्चर देखी जाए. छोटी पिक्चर है जल्दी ख़त्म हो जाएगी. उन दिनों बेंगलुरू से आने वाली फ़्लाइट अक्सर देर से आती थी. मैं माथुर के साथ पिक्चर देखने चला गया."
शिव कुमार ने बताया, "उस दिन पिक्चर लंबी खिंच गई और बेंगलुरू वाली फ़्लाइट समय पर लैंड कर गई. मैं जब हवाई अड्डे पहुंचा तो पता चला कि फ़्लाइट तो कब की लैंड कर चुकी. घर की चाबी मेरे पास थी. मैं अपने सारे देवताओं को याद करता हुआ 1, फ़िरोज़ शाह रोड पहुंचा. वाजपेयी अपनी अटैची पकड़े लॉन में टहल रहे थे. उन्होंने मुझसे पूछा कहाँ चले गए थे? मैंने झिझकते हुए कहा कि पिक्चर देखने गया था. वाजपेयी ने मुस्कराकर कहा यार हमें भी ले चलते. चलो कल चलेंगे. वो मुझ पर नाराज़ हो सकते थे लेकिन उन्होंने मेरी उस लापरवाही को हंसकर टाल दिया."
जब वाजपेयी रामलीला मैदान में सोए000
शिव कुमार एक और किस्सा सुनाते हैं. 'वाजपेयी हमेशा इस बात का ध्यान रखते ते कि उनकी वजह से किसी दूसरे को कोई परेशानी न हो. बहुत समय पहले जनसंघ का दफ़्तर अजमेरी गेट पर हुआ करता था. वाजपेयी, आडवाणी और जे पी माथुर वहीं रहा करते थे. एक दिन वाजपेयी रात की ट्रेन से दिल्ली लौटने वाले थे. उनके लिए खाना बना कर रख दिया गया था. रात 11 बजे आने वाली गाड़ी 2 बजे पहुंची."
उन्होंने बताया, 'सवेरे 6 बजे दरवाज़े की घंटी बजी तो मैंने देखा वाजपेयी सूटकेस और होल्डाल (बड़ा बैग) लिए दरवाज़े पर खड़े हैं. हमने पूछा, आप तो रात को आने वाले थे. वाजपेयी ने कहा, गाड़ी 2 बजे पहुंची तो आप लोगों को जगाना ठीक नहीं समझा. इसलिए मैं रामलीला मैदान में जा कर सो गया.'
शिव कुमार बताते हैं कि 69 साल की उम्र में भी वाजपेयी डिज़नीलैंड की राइड्स लेने का आनंद नहीं चूकते थे. अपनी अमरीका यात्राओं के दौरान वो अक्सर अपने कुर्ते धोती को सूटकेस में रख कर पतलून और कमीज़ पहन लेते थे. न्यूयार्क की सड़कों पर उन्होंने कई बार अपने सुरक्षाकर्मियों के लिए साफ़्ट ड्रिंक्स और आइसक्रीम ख़रीदी है. वो अपनी नातिन निहारिका को लिए खिलौने ख़रीदने के लिए खिलौनों की मशहूर दुकान श्वार्ज़ जाना पसंद करते थे. उनका एक और शौक था, न्यूयार्क की पेट शाप्स में जाना जहाँ से वो अपने कुत्तों सैसी और सोफ़ी और बिल्ली रितु के लिए कालर्स और खाने का सामान ख़रीदा करते थे.
उम्दा खाने के शौकीन
वाजपेयी को खाना खाने और बनाने का बहुत शौक़ था. मिठाइयां उनकी कमज़ोरी थी. रबड़ी, खीर और मालपुए के वो बेहद शौक़ीन थे. आपातकाल के दौरान जब वो बेंगलुरू जेल में बंद थे तो वो आडवाणी, श्यामनंदन मिश्र और मधु दंडवते के लिए ख़ुद खाना बनाते थे.
शक्ति सिन्हा बताते हैं, "जब वो प्रधानमंत्री थे तो सुबह नौ बजे से एक बजे तक उनसे मिलने वालों का तांता लगा करता था. आने वालों को रसगुल्ले और समोसे वग़ैरह सर्व किए जाते थे. हम सर्व करने वालों को ख़ास निर्देश देते थे कि साहब के सामने समोसे और रसगुल्ले की प्लेट न रखी जाए."
शक्ति सिन्हा कहते हैं, "शुरू में वह शाकाहारी थे लेकिन बाद में वह मांसाहारी हो गए थे. उन्हें चाइनीज़ खाने का ख़ास शौक था. वो हम लोगों की तरह एक सामान्य व्यक्ति थे. मैं कहूंगा- ही वाज़ नाइदर अ सेंट नॉर सिनर. ही वाज़ ए नॉरमल ह्यूमन बीइंग, ए वार्म हार्टेड ह्यूमन बीइंग."
शेरशाह सूरी के बाद सबसे अधिक सड़कें वाजपेयी ने बनवाईं
अटल बिहारी वाजपेयी के पसंदीदा कवि थे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंशराय बच्चन, शिवमंगल सिंह सुमन और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़. शास्त्रीय संगीत भी उन्हें बेहद पसंद था. भीमसेन जोशी, अमजद अली खाँ और कुमार गंधर्व को सुनने का कोई मौक़ा वह नहीं चूकते थे.
किंगशुक नाग का मानना है कि हालांकि वाजपेयी की पैठ विदेशी मामलों में अधिक थी लेकिन अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उन्होंने सबसे ज़्यादा काम आर्थिक क्षेत्र में किया.
वे कहते हैं, "टेलिफ़ोन और सड़क निर्माण में वाजपेयी के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता. भारत में आजकल जो हम हाइवेज़ का जाल बिछा हुआ देखते हैं उसके पीछे वाजपेयी की ही सोच है. मैं तो कहूँगा कि शेरशाह सूरी के बाद उन्होंने ही भारत में सबसे अधिक सड़कें बनवाई हैं."
गुजरात दंगों को लेकर हमेशा असहज
रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत अपनी किताब 'द वाजपेयी इयर्स' में लिखते हैं कि वाजपेयी ने गुजरात दंगों को अपने कार्यकाल की सबसे बड़ी ग़लती माना था.
किंगशुक नाग भी कहते हैं गुजरात दंगों को लेकर वह कभी सहज नहीं रहे. वो चाहते थे कि इस मुद्दे पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें.
नाग कहते हैं, "उस समय के वहाँ के राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी के एक बहुत क़रीबी ने मुझे बताया था कि मोदी के इस्तीफ़े की तैयारी हो चुकी थी लेकिन गोवा राष्ट्रीय सम्मेलन आते-आते पार्टी के शीर्ष नेता मोदी के बारे में वाजपेयी की राय बदलने में सफल हो गए थे.
वरिष्ठ न्यायाधीश एजी नूरानी ने 2004 में फ्रंटलाइन के लिए लिखे अपने चर्चित लेख द मैन बिहाइंड द इमेज़ में गुजरात दंगों के बारे में लिखा है, "गुजरात दंगों पर अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी की प्रतिक्रियाएं मानवता और नैतिकता से प्रेरित नहीं थीं. वे पहले दिन से ही राजनीति से प्रेरित थीं."
कठोर निर्णय लेने की क्षमता नहीं
जाने माने पत्रकार एच के दुआ का भी मानना है कि वाजपेयी के पूरे चरित्र में एक कमी साफ़ तौर पर उभर कर सामने आती है, महत्वपूर्ण मौकों पर मज़बूत फ़ैसले न ले पाना.
दुआ कहते हैं, "गुजरात के मामले में वो मोदी को हटाना चाहते थे लेकिन पार्टी के नेताओं के दबाव में आ कर वो ये फ़ैसला न ले सके. अयोध्या में जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ तो उन्होंने उस प्रकरण से अपनी दूरी तो बनाई लेकिन चोटी के नेता होते हुए भी वो ऐसा होने से रोक नहीं पाए."
कुछ लोग उनके बाबरी विध्वंस से एक दिन पहले लखनऊ में दिए गए भाषण का भी ज़िक्र करते है जिसमें उन्होंने ज़मीन समतल करने की बात कही थी.
उन्होंने ये भी कहा था, "मैं नहीं जानता कि कल अयोध्या में क्या होगा. मैं वहाँ जाना चाहता था, लेकिन मुझसे दिल्ली वापस जाने के लिए कहा गया है."
बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि ये कह कर उनका उद्देश्य किसी को भड़काना नहीं था.
1998 में भी जब वो जसवंत सिंह को अपने मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, आरएसएस के दबाव में उन्हें अपना फ़ैसला बदलना पड़ा. जब पार्टी किसी मुद्दे पर ज़ोर देने लगती थी, चाहे वो जितना भी गलत मुद्दा हो, वो उससे दब जाते थे. वो तूफ़ान को अपने ऊपर से गुज़र जाने देते थे, लेकिन इंदिरा गाँधी की तरह उनमें उसे 'हेड ऑन' लेने की क्षमता नहीं थी.'
कंधार विमान अपहरण
वाजपेयी की इस मुद्दे पर भी आलोचना हुई जिस तरह से उन्होंने कंधार हाईजैकिंग मामले को हैंडिल किया. विमान अपहरणकर्ताओं के दबाव में वो ना सिर्फ़ तीन चरमपंथियों को रिहा करने के लिए राज़ी हो गए. उनकी इस बात पर भी किरकिरी हुई कि भारत का विदेश मंत्री उन चरमपंथियों को अपने विमान में बैठा कर कंधार ले गया.
'इंडिया शाइनिंग' उल्टा पड़ा
वाजपेयी से एक और राजनीतिक चूक तब हुई जब उन्हें लगा कि इंडिया शाइनिंग प्रचार चुनाव में उनकी नैया पार लगा देगा.
लेकिन भारतीय मतदाताओं ने उनको ग़लत साबित किया और वो 2004 का संसदीय चुनाव हार गए.(bbc)
पुण्यतिथि : महादेव देसाई
दो दशक से ज्यादा समय तक महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेव देसाई को ‘गांधी की छाया’ कहा जाता था
-अव्यक्त
महादेव देसाई तब कोई बीसेक साल के नौजवान रहे होंगे. उनके कई सहपाठी और दोस्त खूब पैसे कमा रहे थे. ऐसे ही एक दोस्त के पिता उनके घर चाय पीने आए. घर की बैठकी से पड़ोस का एक महलनुमा बंगला दिख रहा था. दोस्त के पिता ने महादेव से कहा— ‘देखो भाई, मैं तो तब समझूंगा जब तुम उतना ही बड़ा बंगला अपनी कमाई से बनाकर दिखाओगे!’ इस पर महादेव के पिता ने ऐतराज़ करते हुए कहा - ‘हम तो महल या बंगला नहीं चाहते. हमारी झोपड़ियां ही हमारे महल हैं. हमें कैसे पता कि इन महलों में रहने वाले लोग वास्तव में कैसा जीवन जी रहे हैं? न ही हमें यह मालूम कि वे खुश हैं या दुखी हैं. अगर हम एक निष्कलुष और बेदाग जीवन जी सकें तो हम अपने मौजूदा हाल में ही पूरी तरह संतुष्ट हैं.’ यह घटना जानकर कहा जा सकता है कि आज भी हमारे समाज में ऐसे पिता कम ही होते होंगे और महादेव इस मामले में भाग्यशाली रहे.
पिता हरिभाई गुजराती साहित्य के मर्मज्ञ थे और प्राइमरी स्कूल में सहायक शिक्षक की नौकरी से शुरू करके वीमेंस ट्रेनिंग कॉलेज के प्राचार्य पद तक पहुंचे थे. मां जमनाबाई बहुत ही सुघड़ और समझदार महिला थीं. महादेव से पहले उनके तीन बच्चे शैशवावस्था में ही चल बसे थे. इसलिए जब महादेव गर्भ में थे तो वे सरस के सिद्धनाथ महादेव मंदिर में मन्नत मांग आई कि यदि यह बच्चा जीवित बच गया तो लड़की होने पर ‘पार्वती’ और लड़का होने पर ‘महादेव’ नाम रखूंगी. बच्चा बच गया और महादेव के नाम से अपना नाम सार्थक भी कर गया. लेकिन महादेव केवल सात वर्ष के थे जब उनकी मां चल बसीं. लालन-पालन पिता और दादी ने मिलकर किया. महादेव को मां के बारे में केवल इतना याद रहा कि पिता का केवल पंद्रह रुपये मासिक वेतन होने के बावजूद मां उन्हें राजकुमार की तरह लाड़ करती थीं और जब कहो तब हलवा बनाकर खिलाती थीं!
महादेव की पढ़ाई-लिखाई वैसी ही हुई जैसी एक गरीब लेकिन सुसंस्कृत और मेधावी पिता के सुतीक्ष्ण बच्चे की होती है. अंग्रेजी शिक्षा के लिए उन्हें सूरत भेजना पड़ता, लेकिन पिता उन्हें अपनी नज़रों से दूर भेजना नहीं चाहते थे. बाद में गांव में ही एक अंग्रेजी स्कूल खुला तो नौ साल की उमर में उसमें दाखिला लिया. तबके अंग्रेजी के कड़क अध्यापक का उनपर गहरा असर हुआ और उन्हें वे जीवनभर नहीं भूल सके. बाद में जब वे ‘अर्जुनवाणी’ के संपादक बने तो उसकी एक प्रति पर अपने उन शिक्षक को लिख भेजा- ‘प्रेज़ेन्टेड विद प्रणाम्स टू माय फर्स्ट इंग्लिश टीचर.’ महादेव अंग्रेजी भाषा और साहित्य के बहुत बड़े विद्वान के रूप में भी जाने गए. वे लड़कपन में इतने शर्मीले थे कि नशाखोरी की बुराई के खिलाफ एक जगह भाषण देना था तो मंच पर पर्दे के पीछे खड़े रहकर दिया. तालियां फिर भी खूब बजीं. सुदर्शन और सुकुमार इतने थे कि एक बार दोस्तों के उकसावे पर एक पारसी ताड़ी विक्रेता को धमकाने के लिए साहब की वेश-भूषा बनाकर चले. हैट पहनी और स्टिक हाथ में पकड़ी और धड़ाधड़ अंग्रेजी में लगे उसे हड़काने. ताड़ीवाला डर भी गया. लेकिन तभी सिर में खुजली हुई और जैसे ही हैट उतारा तो पकड़े जाने के डर से भाग खड़े हुए.
तेरह साल की छोटी उम्र में ही महादेव का विवाह बारह साल की दुर्गाबहन से हो गया. महादेव तब छठी कक्षा में ही पढ़ते थे. इस बारे में दुर्गाबहन एक दिलचस्प किस्सा सुनाती थीं. शादी के बाद यह जोड़ा बैलगाड़ी में बैठकर सूरत से दिहेन आ रहा था. महादेव और दुर्गाबहन के अलावा उस गाड़ी में महादेव की दो हमउम्र बहनें भी थीं. उन्होंने महादेव से पूछा - ‘तुम तो बड़ी डींगें हांकते थे कि शादी नहीं करूंगा, मंडप पर से भाग जाऊंगा. लेकिन तुम तो बड़े मज़े से खुश होकर फेरे लगा रहे थे.’ इस पर महादेव ने जवाब दिया - ‘भागता तो तब, जब दुल्हन पसंद नहीं आती. लेकिन ये दुल्हन तो मुझे बहुत पसंद है.’ जब गाड़ी ससुराल (महादेव के घर) पहुंची और दुर्गाबहन को एक फूस और मिट्टी के घर के सामने उतरने को कहा गया तो उन्हें लगा कि यह किसी अन्य गरीब की झोपड़ी होगी. लेकिन यही महादेव का घर था. जल्दी ही दुर्गा को यहां इतना प्यार मिला कि वे इसमें पूरी तरह से रच-बस गईं.
1907 में जब एलिफिन्स्टन कॉलेज में दाखिले का समय आया तो पिता की आय 40 रुपये मासिक की थी. उस समय इस कॉलेज में केवल अमीर घरानों के छात्र ही पढ़ पाते थे और यहां के छात्रावास का जीवन भी विलासितापूर्ण और खर्चीला था. यह सब देखकर महादेव फूट-फूटकर रोए थे. वह तो ऐसा हुआ कि उन्हें गोकुलदास तेजपाल बोर्डिंग हाउस में निःशुल्क रहने की सुविधा मिल गई और कॉलेज की आधी-फीस के साथ-साथ छात्रवृत्ति भी मिल गई. छात्र जीवन में ही महादेव स्वामी विवेकानंद के जीवन और लेखन से बहुत प्रभावित हुए थे.
एलएलबी की पढ़ाई के दौरान ही महादेव ओरिएंटल ट्रांसलेटर्स ऑफिस में प्रशिक्षण भी लेने लगे. अनुवाद का यह अनुभव जीवनभर उनके और गांधीजी के काम आया. अंग्रेजी, गुजराती और हिंदी इन तीनों ही भाषाओं में महादेव देसाई की ग़ज़ब की दक्षता थी. इसके अलावा उन्हें मराठी भी खूब अच्छी आती थी. ट्रांसलेटर्स ऑफिस में काम करने के दौरान महादेव के सामने एक गुजराती किताब आई जिसका नाम तो था ‘सब्जियों से बनने वाली दवाइयां’, लेकिन वास्तव में उसमें बम बनाने के तरीके दिए गए थे.
इसके लेखक थे क्रांतिकारी मोहनलाल पंड्या, जो बाद में गांधीजी के प्रभाव में अहिंसक सत्याग्रही बन गए. महादेव ने इस पुस्तक को प्रतिबंधित करने की सिफारिश की. हालांकि जब इसके बाद पुलिस पंड्या के पीछे पड़ गई, तो राहत के लिए गवर्नर को आवेदन लिखने वाले भी महादेव देसाई ही थे. इसके बाद जब लोकमान्य तिलक ने बर्मा के मांडले जेल में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गीता-रहस्य’ लिखी, तो उसकी पांडुलिपी सेंसरशिप परीक्षण के लिए महादेव देसाई के पास ही आई. इस तरह तिलक की लिखी वह पुस्तक सबसे पहले महादेव देसाई ने ही पढ़ी थी. उन्होंने अपने बचपने से लेकर आजवीन बने रहने वाले मित्र और बाद में उनके जीवनीकार नरहरि परीख के साथ मिलकर टैगोर की विभिन्न कृतियों, जैसे-‘चित्रांगदा’, ‘विदाई अभिशाप’ और ‘प्राचीन साहित्य’ इत्यादि का गुजराती में अनुवाद भी किया था.
महादेव के पिताजी रिटायर होने वाले थे और घर का भार भी महादेव के कंधों पर आनेवाला था. इसलिए थोड़े समय तक वकालत करने के बाद उन्होंने को-ऑपरेटिव सोसाइटी के इन्स्पेक्टर का काम स्वीकार कर लिया. इसके तहत उन्हें गुजरात और महाराष्ट्र में को-ऑपरेटिव सोसाइटियों के काम की जांच और समीक्षा करनी होती थी. इस काम के सिलसिले में महादेव को बैलगाड़ी पर महाराष्ट्र और गुजरात के सुदूर गांवों में घूमने का मौका मिला. उन्होंने इस अवसर का लाभ गुजराती और मराठी लोक-साहित्य और संत-साहित्य को जुटाने और समझने में लगाया. हालांकि अपना काम भी उन्होंने उतनी की कड़ाई से किया. फिर भी एक साहित्य-रसिक का कहां इन सबमें मन इसमें लगने वाला था!
प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था और उस दौरान भारत सचिव मोंटेग्यू ने युद्ध की समाप्ति पर भारत में एक जिम्मेदार सरकार बनाने के बारे में एक जोरदार भाषण दिया था. बम्बई की होमरूल लीग ने इस भाषण का अनुवाद महादेव देसाई से कराया और जब वह अखबारों छपा तो सब उसे पढ़कर वाह-वाह कर उठे. इसके बाद तो बंबई के कई दिग्गज नेता उन्हें अपना निजी सचिव बनाने की कोशिश करने लगे. लेकिन महादेव इन प्रलोभनों में भी कहां फंसने वाले थे. उनकी मंजिल तो कहीं और थी.
महादेव के जीवन में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया, जब वे महात्मा गांधी से मिले. अप्रैल 1915 में गांधी ने अहमदाबाद के कोचरब में एक किराए के मकान में अपना आश्रम शुरू किया. कुछ दिनों बाद उन्होंने आश्रम की नियमावली का एक मसौदा बनाया और देशभर के लोगों से अपील की कि वे इस पर अपनी राय और आलोचनाओं से उन्हें अवगत कराएं.
महादेव देसाई और नरहरि परीख को यह मसौदा गुजरात क्लब की टेबल पर पड़ा मिला और दोनों ने संयुक्त रूप से अपने किताबी ज्ञान के आधार पर इसकी आलोचना महात्मा गांधी को लिख भेजी. दो आलोचनाएं प्रमुख थीं - पहली कि आश्रम में ब्रह्मचर्य अनिवार्य कर देने से बुराइयां बढ़ेंगी और दूसरी कि हथकरघा पर ज्यादा जोर देने से देश के आर्थिक विकास में बाधा पहुंचेगी. यह भी लिखा कि गांधी इन आलोचनाओं का लिखित जवाब पत्र के रूप न दें, बल्कि यदि इस पर चर्चा करनी हो तो उन्हें व्यक्तिगत रूप से आश्रम बुला लें. एक सप्ताह तक जब महादेव और नरहरि को इसका जवाब न मिला तो उन्होंने समझ लिया कि गांधी ने उनके पत्र को कोई महत्व नहीं दिया.
इसके बाद गांधी स्थानीय प्रेमाबाई हॉल में एक जनसभा में बोलने आने वाले थे. कार्यक्रम के बाद जब गांधी हमेशा की तरह अपनी तेज गति में आश्रम वापस जाने लगे तो दोनों ने लगभग दौड़ते हुए उनके साथ चलना शुरू कर दिया.
उन्होंने पूछा - ‘आपको हमारा पत्र मिला?’
गांधीजी ने कहा - ‘अच्छा, वो पत्र आप दोनों ने ही लिखा है?’
फिर गांधीजी ने पूछा - ‘आप लोग करते क्या हो?’
महादेव ने कहा - ‘वकालत की प्रैक्टिस.’
गांधी ने पूछा - ‘इंडियन ईयर बुक का ताज़ातरीन संस्करण है आपके पास?’
इस बार नरहरि ने कहा— ‘नहीं जी, वो पिछले साल वाला है हमारे पास. आपको नया वाला चाहिए तो हम ला देंगे आपको.’
गांधी ने कहा - ‘तो इसी तरह करते हैं आप लोग वकालत की प्रैक्टिस? जब मैं अपनी दाढ़ी खुद बनाता था न, तो उसके आधुनिकतम औजार अपने पास रखता था.’
उसके बाद आश्रम पहुंचकर गांधी ने उनका पत्र निकाला और डेढ़ घंटे तक दोनों को विस्तार से अपनी बात समझाई. रात के दस बज चुके थे. वापस लौटते हुए एलिस ब्रिज पर महादेव ने नरहरि से कहा- ‘नरहरि, मेरा तो आधा मन बन गया है कि मैं जाऊं और इस आदमी के चरणों में बैठ जाऊं.’
उसी साल फोर्ब्स एसोसिएशन ने महादेव देसाई को एक कड़ी प्रतियोगिता के बाद लॉर्ड मोर्ले की पुस्तक ‘ऑन कॉम्प्रोमाइज़’ के अनुवाद के लिए चुना था. अनुवाद सौंपने से पहले महादेव देसाई ने सोचा कि गांधी साहब विदेशों से लौटे हैं और अंग्रेजों के साथ काफी समय बिताया है इसलिए उस देश की भाषा-संस्कृति को ये बेहतर समझते हैं और इसलिए इन्हें अपना ड्राफ्ट दिखा लेना एक बार ठीक रहेगा. महादेव ने अनुवाद और लॉर्ड मॉर्ले को लिखी जाने वाली चिट्ठी का ड्राफ्ट आश्रम जाकर गांधीजी को दिखाया. गांधीजी को यह ड्राफ्ट बिल्कुल भी पसंद नहीं आया.
गांधी ने कहा - ‘ऐसे ही नहीं अंग्रेज हमें चापलूस और स्वराज के लिए अयोग्य समझते हैं. मोर्ले की प्रशंसा इतना विद्वान और दार्शनिक के रूप में बढ़ा-चढ़ाकर करने की क्या जरूरत है? और उसे एक चिट्ठी लिखने में तुम्हारे हाथ क्यों कांप रहे हैं?’ इसके बाद गांधी ने आपसी बातचीत में अंग्रेजी के लच्छेदार शब्दों का बार-बार इस्तेमाल करने को लेकर भी महादेव को आड़े हाथों लिया. कहा- ‘ऐसी भाषा यदि तुम अपनी मां के सामने बोलो तो वह तुम्हें विद्वान भले ही समझ ले, लेकिन बेचारी तुम्हारी एक भी बात समझ नहीं पाएगी.’ गांधीजी की इन बातों ने महादेव को अवश्य ही भीतर तक झकझोरा होगा.
इसके बाद महादेव के साथी नरहरि परीख ने गांधीजी के आश्रम स्थित स्कूल में बतौर शिक्षक काम करना शुरू कर दिया. महादेव देसाई आश्रम आते-जाते रहते थे. एक दिन गांधीजी ने ‘सत्याग्रह’ पर गुजराती में एक पर्चा लिखा और सभी शिक्षकों से कहा कि वे अंग्रेजी में इसका अनुवाद करें. सभी जानते थे कि गांधी द्वारा ली गई अंग्रेजी की इस परीक्षा में पास होना आसान नहीं था. उसी समय महादेव देसाई वहां आ गए. नरहरि ने महादेव देसाई से उसका अनुवाद कराया और गांधीजी के पास ले गए. उसके बाद उस अनुवाद पर महादेव देसाई और गांधीजी के बीच लंबी बहस हुई. इस बहस ने महादेव की योग्यता को गांधीजी की नज़रों में बहुत ऊंचा उठा दिया. गांधी समझ चुके थे कि यही वह व्यक्ति है जिसकी उन्हें तलाश है.
इसके बाद दोनों की रोज मुलाकात होती और खूब अंतरंग बातचीत होती. एक दिन गांधीजी ने कह दिया - ‘महादेव, दो साल से मुझे जिस व्यक्ति की तलाश थी, वो तुमसे मिलकर खत्म हो गई. तुमसे पहले मैंने इतना खुलकर, इतने विश्वास के साथ केवल तीन व्यक्तियों से बातचीत की है. मिस्टर पोलक (दक्षिण अफ्रीका में गांधी के अन्यतम सहयोगी), मिस शेल्सिन (दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के दौरान गांधी की निजी सचिव), और मगनलाल.’ महादेव ने पूछा - ‘लेकिन आप जानते ही क्या हैं मेरे कार्यों के बारे में कि आपको इतना विश्वास हो चला? मैंने तो आपको इतना कुछ बताया भी नहीं है.’ इस पर गांधी ने कहा - ‘मिस्टर पोलक को मैंने पांच घंटों के भीतर पहचान लिया था.’
इधर महादेव के मन में तो चल ही रहा था कि वे जल्दी-से-जल्दी गांधी के साथ हो जाएं. वे अब सब कुछ छोड़कर गांधीजी के साथ चंपारण जाना चाहते थे लेकिन महादेव के पिताजी इसके पक्ष में नहीं थे. उन्हें धन-दौलत की लालसा नहीं थी. बल्कि इसके दो कारण थे. पहला यह कि पिताजी की दृष्टि में महादेव देसाई बड़े सुकुमार थे और उन्हें शरीरिक श्रम की आदत नहीं रही थी, जो उन्हें गांधीजी के साथ करना ही पड़ता. दूसरा, वे चाहते थे कि महादेव पहले अपना खुद का मुकाम या समाज में अपनी खुद की पहचान हासिल कर लें, फिर गांधीजी या राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ें. इन बातों पर महादेव का कहना था - ‘मैं महानता हासिल करने की महत्वाकांक्षा से गांधीजी के साथ नहीं जाना चाहता हूं. मैं तो बस उनकी छाया की तरह उनके साथ रहना चाहता हूं, उनसे सीखना चाहता हूं, उनके सान्निध्य में अधिक-से-अधिक ज्ञान हासिल करना चाहता हूं. जहां तक नाम और सम्मान की बात है तो वह तो गांधीजी के पास है ही, फिर मुझे इसकी क्या चिंता करनी?’
महादेव अपनी जिद में गांधीजी के साथ चंपारण चले तो आए, लेकिन पिताजी बहुत नाराज औऱ दुखी थे. पिता को मनाने के लिए उन्हें चंपारण से वापस दिहेन (गुजरात) आना पड़ा. एक दिन नरहरि परीख को चंपारण में महादेव का टेलीग्राम मिला कि मैं फलां तारीख को अपनी पत्नी के साथ फिर से चंपारण आ रहा हूं. नरहरि उन्हें लेने स्टेशन गए तो देखा कि वे आए ही नहीं. वापस आए तो गांधीजी ने महादेव का दूसरा टेलीग्राम दिखाया जिसमें लिखा था कि कितना समझाने पर भी वे अपने दुखी पिता को मना नहीं पाए हैं, इसलिए चंपारण नहीं आ पाएंगे. लेकिन आखिरकार पिताजी महादेव का दुःख देखकर पसीज गए. तीसरे दिन फिर से महादेव का टेलीग्राम आया कि पिताजी मान गए हैं और उनका आशीर्वाद लेकर मैं चंपारण के लिए रवाना हो चुका हूं. जैसे ही महादेव देसाई को लेने नरहरि फिर से स्टेशन चलने लगे, तो गांधीजी ने मजाक किया - ‘कितना मज़ेदार होगा न,यदि हमें फिर से महादेव का टेलीग्राम मिले कि वह नहीं आ रहा है!’
हालांकि उस दिन महादेव अपनी पत्नी के साथ चंपारण पहुंच ही गए. और उसके बाद इन दोनों के बीच कभी न बिछड़ने वाला रिश्ता बन गया. फिर भी, महादेव देसाई पर अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी कार्यशैली का बहुत प्रभाव था. निजी सचिव की भूमिका को वे यांत्रिक दृष्टि से ही देख-समझ पा रहे थे. गांधीजी के प्रति आत्मार्पण को लेकर उनके मन में अभी भी एक द्वंद चल रहा था. असहयोग आंदोलन के दौरान गांधी पूरे देश में घूम रहे थे, और महादेव देसाई चाहते थे कि गांधी हमेशा उन्हें अपने साथ ही रखें. लेकिन उनका एक सबक अभी बाकी था. इस बारे में गांधी ने अपनी गया यात्रा के दौरान ही 13 अगस्त, 1921 को महादेव देसाई को पत्र में लिखा -
‘किसी के प्रति आत्मार्पण में मनुष्य की अपनी मौलिकता का लोप न होता है और न ही होना चाहिए. अर्जुन ने कृष्ण से सवाल पर सवाल पूछने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. आत्मार्पण का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य स्वयं अपनी विचार-शक्ति ही गंवा बैठे. बल्कि शुद्ध आत्मार्पण से विचार-शक्ति कुंठित होने के बजाय और अधिक तीव्र हो जाती है. ऐसा मनुष्य यह समझकर कि उसका एक अंतिम अवलंब तो है ही, वह अपनी मर्यादा के भीतर रहता हुआ हजारों प्रयोग करता है. लेकिन उन सबके मूल में उसकी विनम्रता रहती है. उसका ज्ञान और विवेक रहता है.
मेरे प्रति मगनलाल की आत्मार्पण की भावना बहुत अधिक है, फिर भी उसने स्वयं विचार करना कभी नहीं छोड़ा, ऐसी मेरी मान्यता है. तुम्हारा आचरण उससे भिन्न है, तुममें साहस की कमी है. जब भी सहारा मिलता है, तुम साहस खो देते हो. बहुत ज्यादा पढ़-लिख लेने की वजह से तुम्हारी अपनी सृजन की शक्ति कुंठित हो गई है, इसी कारण तुम सहकारी होना चाहते हो. मनुष्य स्वतंत्र कार्य करने की इच्छा रखते हुए भी अति विनम्र हो सकता है.
...तुम जिस दृष्टि से मेरे साथ रहना चाह रहे हो, वह शुद्ध है, लेकिन वह भ्रमयुक्त है. तुम तो केवल पश्चिम का अनुकरण करना चाहते हो. यदि मैं किसी मनुष्य को केवल इसलिए हमेशा अपने साथ रखूं कि वह मेरे कार्य का लेखा-जोखा रखे, तो मेरा यह व्यवहार अस्वाभाविक हो जाएगा. कोई सामान्यतः मेरे साथ रहे और मेरे कार्य का लेखा अदृश्य रूप से रखे, यह एक बात है, और कोई इसी इरादे से मेरे साथ रहकर लेखा रखे यह बिल्कुल दूसरी बात है....लेकिन मैं यह तो चाहता ही हूं कि तुम मेरे साथ हर वक्त रहो. तुम्हारी ग्रहणशक्ति और तैयारी अच्छी है. इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम मेरी सभी बातें जान लो. मेरे मस्तिष्क में विचार बहुत हैं, लेकिन वे प्रसंग आने पर ही व्यक्त होते हैं. उनमें कई सूक्ष्मताएं होती हैं जो किसी को दिखाई नहीं देतीं. ...यदि तुम जैसा कोई मनुष्य मेरे साथ में रहे, तो वह अंत में मेरे काम को हाथ में ले सकता है, यह लोभ मेरे मन में रहता है.
...अभी मेरी इच्छा तुम्हें किसी एक काम में लगा देने की नहीं होती. बल्कि मैं तुम्हें अनुभव कराना चाहता हूं. फिर जिन लोगों को मैं जानता हूं, उन सबसे तुम्हारा संपर्क हो जाए तो भविष्य में हमारा कामकाज बहुत आसानी से चल पाएगा.’
गांधी के इस पत्र ने महादेव की सारी बची-खुची दुविधाओं का भी अंत कर दिया. इसके बाद के 22 सालों के साथ की कहानी भी अलग से कहने की जरूरत होगी.
उस दौर में महादेव देसाई को ‘गांधी की छाया’ कहा जाता था और सचमुच शब्दों के सही अर्थों में अपनी अंतिम सांस तक वे गांधी की छाया ही बने रहे. गांधीजी की छाया के रूप में ही उन्होंने अपने प्राण भी त्यागे. उनका निधन 15 अगस्त 1942 को हुआ था. कहते हैं कि तब यह जानते हुए कि महादेव की सांसें रुक चुकी हैं, महात्मा गांधी ने बहुत उत्तेजना के साथ उन्हें आवाज़ दी - ‘महादेव! महादेव!’ यह पूछने पर कि उन्होंने ऐसा क्यों किया, गांधी ने कहा - ‘मुझे लगा कि यदि महादेव अपनी आंखें खोल दे और मेरी ओर देख ले, तो मैं उसे कहूंगा कि उठ जाओ. उसने अपने जीवन में कभी मेरी बात नही काटी. मुझे विश्वास था कि अगर उसने मेरे शब्द सुन लिए तो वह मौत को भी हराकर उठ खड़ा हो जाएगा.’
महादेव देसाई के पार्थिव शरीर को गांधी ने अपने हाथों से स्नान कराया था और उसका अंतिम संस्कार किया था.
जब 14 अगस्त, 1947 की शाम लॉर्ड माउंटबेटन कराची से दिल्ली लौटे तो वो अपने हवाई जहाज़ से मध्य पंजाब में आसमान की तरफ़ जाते हुए काले धुएं को साफ़ देख सकते थे. इस धुएं ने नेहरू के राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े क्षण की चमक को काफ़ी हद तक धुंधला कर दिया था.
14 अगस्त की शाम जैसे ही सूरज डूबा, दो संन्यासी एक कार में जवाहर लाल नेहरू के 17 यॉर्क रोड स्थित घर के सामने रुके. उनके हाथ में सफ़ेद सिल्क का पीतांबरम, तंजौर नदी का पवित्र पानी, भभूत और मद्रास के नटराज मंदिर में सुबह चढ़ाए गए उबले हुए चावल थे.
जैसे ही नेहरू को उनके बारे में पता चला, वो बाहर आए. उन्होंने नेहरू को पीतांबरम पहनाया, उन पर पवित्र पानी का छिड़काव किया और उनके माथे पर पवित्र भभूत लगाई. इस तरह की सारी रस्मों का नेहरू अपने पूरे जीवन विरोध करते आए थे लेकिन उस दिन उन्होंने मुस्कराते हुए संन्यासियों के हर अनुरोध को स्वीकार किया.
लाहौर में हिंदू इलाक़ों की जल आपूर्ति काटी गई
थोड़ी देर बाद अपने माथे पर लगी भभूत धोकर नेहरू, इंदिरा गांधी, फ़िरोज़ गाँधी और पद्मजा नायडू के साथ खाने की मेज़ पर बैठे ही थे कि बगल के कमरे मे फ़ोन की घंटी बजी.
ट्रंक कॉल की लाइन इतनी ख़राब थी कि नेहरू ने फ़ोन कर रहे शख़्स से कहा कि उसने जो कुछ कहा उसे वो फिर से दोहराए. जब नेहरू ने फ़ोन रखा तो उनका चेहरा सफ़ेद हो चुका था.
उनके मुँह से कुछ नहीं निकला और उन्होंने अपना चेहरा अपने हाथों से ढँक लिया. जब उन्होंने अपना हाथ चेहरे से हटाया तो उनकी आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं. उन्होंने इंदिरा को बताया कि वो फ़ोन लाहौर से आया था.
वहाँ के नए प्रशासन ने हिंदू और सिख इलाक़ों की पानी की आपूर्ति काट दी थी. लोग प्यास से पागल हो रहे थे. जो औरतें और बच्चे पानी की तलाश में बाहर निकल रहे थे, उन्हें चुन-चुन कर मारा जा रहा था. लोग तलवारें लिए रेलवे स्टेशन पर घूम रहे थे ताकि वहाँ से भागने वाले सिखों और हिंदुओं को मारा जा सके.
फ़ोन करने वाले ने नेहरू को बताया कि लाहौर की गलियों में आग लगी हुई थी. नेहरू ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, 'मैं आज कैसे देश को संबोधित कर पाऊंगा? मैं कैसे जता पाऊंगा कि मैं देश की आज़ादी पर ख़ुश हूँ, जब मुझे पता है कि मेरा लाहौर, मेरा ख़ूबसूरत लाहौर जल रहा है.'
इंदिरा गाँधी ने अपने पिता को दिलासा देने की कोशिश की. उन्होंने कहा आप अपने भाषण पर ध्यान दीजिए जो आपको आज रात देश के सामने देना है. लेकिन नेहरू का मूड उखड़ चुका था.
ट्रिस्ट विद डेस्टिनी
नेहरू के सचिव रहे एम ओ मथाई अपनी किताब 'रेमिनिसेंसेज ऑफ़ नेहरू एज' में लिखते हैं कि नेहरू कई दिनों से अपने भाषण की तैयारी कर रहे थे. जब उनके पीए ने वो भाषण टाइप करके मथाई को दिया तो उन्होंने देखा कि नेहरू ने एक जगह 'डेट विद डेस्टिनी' मुहावरे का इस्तेमाल किया था.
मथाई ने रॉजेट का इंटरनेशनल शब्दकोश देखने के बाद उनसे कहा कि 'डेट' शब्द इस मौके के लिए सही शब्द नहीं है क्योंकि अमरीका में इसका आशय महिलाओं या लड़कियों के साथ घूमने के लिए किया जाता है.
मथाई ने उन्हें सुझाव दिया कि वो डेट की जगह रान्डेवू या ट्रिस्ट शब्द का इस्तेमाल करें. लेकिन उन्होंने उन्हें ये भी बताया कि रूज़वेल्ट ने युद्ध के दौरान दिए गए अपने भाषण में 'रान्डेवू' शब्द का इस्तेमाल किया है.
नेहरू ने एक क्षण के लिए सोचा और अपने हाथ से टाइप किया हुआ डेट शब्द काट कर 'ट्रिस्ट' लिखा. नेहरू के भाषण का वो आलेख अभी भी नेहरू म्यूज़ियम लाइब्रेरी में सुरक्षित है.
जब पूरी दुनिया सो रही होगी
संसद के सेंट्रल हॉल में ठीक 11 बजकर 55 मिनट पर नेहरू की आवाज़ गूंजी, 'बहुत सालों पहले हमने नियति से एक वादा किया था. अब वो समय आ पहुंचा है कि हम उस वादे को निभाएं...शायद पूरी तरह तो नहीं लेकिन बहुत हद तक ज़रूर. आधी रात के समय जब पूरी दुनिया सो रही है, भारत आज़ादी की सांस ले रहा है.'
अगले दिन के अख़बारों के लिए नेहरू ने अपने भाषण में दो पंक्तियाँ अलग से जोड़ीं. उन्होंने कहा, 'हमारे ध्यान में वो भाई और बहन भी हैं जो राजनीतिक सीमाओं की वजह से हमसे अलग-थलग पड़ गए हैं और उस आज़ादी की ख़ुशियाँ नहीं मना सकते जो आज हमारे पास आई है. वो लोग भी हमारे हिस्से हैं और हमेशा हमारे ही रहेंगे चाहे जो कुछ भी हो. '
जैसे ही घड़ी ने रात के बारह बजाए शंख बजने लगे. वहाँ मौजूद लोगों की आँखों से आंसू बह निकले और महात्मा गाँधी की जय के नारों से सेंट्रल हॉल गूंज गया.
सुचेता कृपलानी ने, जो साठ के दशक में उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं, पहले अल्लामा इक़बाल का गीत 'सारे जहाँ से अच्छा' और फिर बंकिम चंद्र चैटर्जी का 'वंदे मातरम' गाया, जो बाद में भारत का राष्ट्रगीत बना. सदन के अंदर सूट पहने हुए एंग्लो - इंडियन नेता फ़्रैंक एन्टनी ने दौड़ कर जवाहरलाल नेहरू को गले लगा लिया.
संसद भवन के बाहर मूसलाधार बारिश में हज़ारों भारतीय इस बेला का इंतज़ार कर रहे थे. जैसे ही नेहरू संसद भवन से बाहर निकले मानो हर कोई उन्हें घेर लेना चाहता था. 17 साल के इंदर मल्होत्रा भी उस क्षण की नाटकीयता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे.
जैसे ही घड़ी ने रात के बारह बजाए उन्हें ये देख कर ताज्जुब हुआ कि दूसरे लोगों की तरह उनकी आँखें भी भर आई थीं.
वहाँ पर मशहूर लेखक खुशवंत सिंह भी मौजूद थे जो अपना सब कुछ छोड़ कर लाहौर से दिल्ली पहुंचे थे. उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा था. 'हम सब रो रहे थे और अनजान लोग खुशी से एक दूसरे को गले लगा रहे थे.'
ख़ाली लिफ़ाफ़ा
आधी रात के थोड़ी देर बाद जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद लॉर्ड माउंटबेटन को औपचारिक रूप से भारत के पहले गवर्नर जनरल बनने का न्योता देने आए.
माउंटबेटन ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया. उन्होंने पोर्टवाइन की एक बोतल निकाली और अपने हाथों से अपने मेहमानों के गिलास भरे. फिर अपना गिलास भर कर उन्होंने अपना हाथ ऊँचा किया,' 'टु इंडिया.'
एक घूंट लेने के बाद नेहरू ने माउंटबेटन की तरफ अपना गिलास कर कहा 'किंग जॉर्ज षष्टम के लिए.' नेहरू ने उन्हें एक लिफ़ाफ़ा दिया और कहा कि इसमें उन मंत्रियों के नाम हैं जिन्हें कल शपथ दिलाई जाएगी.
नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के जाने के बाद जब माउंटबेटन ने लिफ़ाफ़ा खोला तो उनकी हँसी निकल गई क्योंकि वो खाली था. जल्दबाज़ी में नेहरू उसमें मंत्रियों के नाम वाला कागज़ रखना भूल गए थे.
प्रिंसेज़ पार्क पर लाखों लोगों का मजमा
अगले दिन दिल्ली की सड़कों पर लोगों का सैलाब उमड़ा पड़ा था. शाम पाँच बजे इंडिया गेट के पास प्रिंसेज़ पार्क में माउंटबेटन को भारत का तिरंगा झंडा फहराना था. उनके सलाहकारों का मानना था कि वहाँ करीब तीस हज़ार लोग आएंगे लेकिन वहाँ पाँच लाख लोग इकट्ठा थे.
भारत के इतिहास में तब तक कुंभ स्नान को छोड़ कर एक जगह पर इतने लोग कभी नहीं एकत्रित हुए थे. बीबीसी के संवाददाता और कमेंटेटर विनफ़र्ड वॉन टामस ने अपनी पूरी ज़िदगी में इतनी बड़ी भीड़ नहीं देखी थी.
माउंटबेटन की बग्घी के चारों ओर लोगों का इतना हुजूम था कि वो उससे नीचे उतरने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. चारों ओर फैले हुए इस अपार जन समूह की लहरों ने झंडे के खंबे के पास बनाए गए छोटे से मंच को अपनी लपेट में ले लिया था.
भीड़ को रोकने के लिए लगाई गई बल्लियाँ, बैंड वालों के लिए बनाया गया मंच, बड़ी मेहनत से बनाई गई विशिष्ट अतिथियों की दर्शक दीर्घा और रास्ते के दोनों ओर बाँधी गई रस्सियाँ- हर चीज़ लोगों की इस प्रबल धारा में बह गईं थीं. लोग एक दूसरे से इतना सट कर बैठे हुए थे कि उनके बीच से हवा का गुज़रना भी मुश्किल था.
फ़िलिप टालबोट अपनी किताब 'एन अमेरिकन विटनेस' में लिखते हैं, 'भीड़ का दवाब इतना था कि उससे पिस कर माउंटबेटन के एक अंगरक्षक का घोड़ा ज़मीन पर गिर गया. सब की उस समय जान में जान आई जब वो थोड़ी देर बाद खुद उठ कर चलने लगा.'
पामेला की ऊँची हील की सैंडिल
माउंटबेटन की 17 वर्षीय बेटी पामेला भी दो लोगों के साथ उस समारोह को देखने पहुंचीं थीं. नेहरू ने पामेला को देखा और चिल्ला कर कहा लोगों के ऊपर से फाँदती हुई मंच पर आ जाओ.
पामेला भी चिल्लाई, 'मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ. मैंने ऊंची एड़ी की सैंडल पहनी हुई है.' नेहरू ने कहा सैंडल को हाथ में ले लो. पामेला इतने ऐतिहासिक मौके पर ये सब करने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकती थीं.
अपनी किताब 'इंडिया रिमेंबर्ड' में पामेला लिखती हैं, 'मैंने अपने हाथ खड़े कर दिए. मैं सैंडल नहीं उतार सकती थी. नेहरू ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा तुम सैंडल पहने-पहने ही लोगों के सिर के ऊपर पैर रखते हुए आगे बढ़ो. वो विल्कुल भी बुरा नहीं मानेंगे. मैंने कहा मेरी हील उन्हें चुभेगी. नेहरू फिर बोले बेवकूफ़ लड़की सैंडल को हाथ में लो और आगे बढ़ो.'
पहले नेहरू लोगों के सिरों पर पैर रखते हुए मंच पर पहुंचे और फिर उनकी देखा देखी भारत के अंतिम वॉयसराय की लड़की ने भी अपने सेंडिल को उतार कर हाथों में लिया और इंसानों के सिरों की कालीन पर पैर रखते हुए मंच तक पहुंच गईं, जहाँ सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल पहले से मौजूद थीं.
डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिंस इपनी किताब 'फ़्रीडम एट मिडनाइट' में लिखते हैं, 'मंच के चारों ओर उमड़ते हुए इंसानों के उस सैलाब में हज़ारों ऐसी औरतें भी थीं जो अपने दूध पीते बच्चों को सीने से लगाए हुए थीं. इस डर से कि कहीं उनके बच्चे बढ़ती हुई भीड़ में पिस न जाएं, जान पर खेल कर वो उन्हें रबड़ की गेंद की तरह हवा में उछाल देतीं और जब वो नीचे गिरने लगते तो उन्हें फिर उछाल देतीं. एक क्षण में हवा में इस तरह सैकड़ों बच्चे उछाल दिए गए. पामेला माउंटबेटन की आखें आश्चर्य से फटी रह गईं और वो सोचने लगीं, 'हे भगवान, यहाँ तो बच्चों की बरसात हो रही है.''
बग्घी से ही तिरंगे को सलाम
उधर अपनी बग्घी में कैद माउंटबेटन उससे नीचे ही नहीं उतर पा रहे थे. उन्होंने वहीं से चिल्ला कर नेहरू से कहा,' बैंड वाले भीड़ के बीच में खो गए हैं. लेट्स होएस्ट द फ़्लैग.'
वहाँ पर मौजूद बैंड के चारों तरफ़ इतने लोग जमा थे कि वो अपने हाथों तक को नहीं हिला पाए. मंच पर मौजूद लोगों ने सौभाग्य से माउंटबेटन की आवाज़ सुन ली. तिंरंगा झंडा फ़्लैग पोस्ट के ऊपर गया और लाखों लोगों से घिरे माउंटबेटन ने अपनी बग्घी पर ही खड़े खड़े उसे सेल्यूट किया.
लोगों के मुंह से बेसाख़्ता आवाज़ निकली,'माउंटबेटन की जय..... पंडित माउंटबेटन की जय !' भारत के पूरे इतिहास में इससे पहले किसी दूसरे अंग्रेज़ को ये सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था कि वो लोगों को इतनी दिली भावना के साथ ये नारा लगाते हुए सुने. उस दिन उन्हें वो चीज़ मिली जो न तो उनकी परनानी रानी विक्टोरिया को नसीब हुई थी और न ही उनकी किसी और संतान को.
भारत के इतिहास में किसी दूसरे अंग्रेज़ को ये सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ था कि वो लोगों को इतनी शिद्दत के साथ ये नारा लगाते हुए सुने. यह माउंटबेटन की कामयाबी को भारत की जनता का समर्थन था.
इंद्रधनुष ने किया आज़ादी का स्वागत
उस मधुर क्षण के उल्लास में भारत के लोग प्लासी की लड़ाई, 1857 के अत्याचार, जालियाँवाला बाग की ख़ूनी दास्तान सब भूल गए. जैसे ही झंडा ऊपर गया उसके ठीक पीछे एक इंद्रधनुष उभर आया, मानो प्रकृति ने भी भारत की आज़ादी के दिन का स्वागत करने और उसे और रंगीन बनाने की ठान रखी हो.
वहाँ से अपनी बग्घी पर गवर्नमेंट हाउज़ लौटते हुए माउंटबेटन सोच रहे थे सब कुछ ऐसा लग रहा है जैसे लाखों लोग एक साथ पिकनिक मनाने निकले हों और उन में से हर एक को इतना आनंद आ रहा हो जितना जीवन में पहले कभी नहीं आया था.
इस बीच माउंटबेटन और एडवीना ने उन तीन औरतों को अपनी बग्घी में चढ़ा लिया जो थक कर निढ़ाल हो चुकी थीं और उनकी बग्घी के पहिए के नीचे आते आते बची थीं. वो औरतें काले चमड़ों से मढ़ी हुई सीट पर बैठ गईं जिसकी गद्दियाँ इंग्लैंड के राजा और रानी के बैठने के लिए बनाई गई थीं.
उसी बग्घी में भारत के प्रधानमंत्री जवाहललाल नेहरू उसके हुड पर बैठे हुए थे क्योंकि उनके लिए बग्घी में बैठने के लिए कोई सीट ही नहीं बची थी.
पूरी दिल्ली में रोशनी
अगले दिन माउंटबेटन के बेहद करीबी उनके प्रेस अटाशे एलन कैंपबेल जॉन्सन ने अपने एक साथी से हाथ मिलाते हुए कहा था, 'आखिरकार दो सौ सालों के बाद ब्रिटेन ने भारत को जीत ही लिया !'
उस दिन पूरी दिल्ली में रोशनी की गई थी. कनॉट प्लेस और लाल किला हरे केसरिया और सफ़ेद रोशनी से नहाये हुए थे. रात को माउंटबेटन ने तब के गवर्नमेंट हाउस और आज के राष्ट्रपति भवन ने 2500 लोगों के लिए भोज दिया.
क्नाट प्लेस के सेंटर पार्क में हिंदी के जानेमाने साहित्यकार करतार सिंह दुग्गल ने आज़ादी का बहाना ले कर अपनी ख़ूबसूरत माशूका आएशा जाफ़री का पहली बार चुंबन लिया. करतार सिंह दुग्गल सिख थे और आएशा मुसलमान.
बाद में दोनों ने भारी सामाजिक विरोध का सामना करते हुए शादी की.(BBC)
-राकेश दीवान
‘राहत’ इंदौरी की विदाई ने साहित्यिक हलकों में एक बार फिर वही पुराना ‘लोकप्रिय बनाम शास्त्रीय’ का मुद्दा छेड दिया है। ‘राहत’ भाई की धुआंधार लोकप्रियता में डूबते-उतराते कई लोग उन्हें आवाम की आवाज कह रहे हैं तो कुछ विद्वान उन पर ‘लोकप्रिय’ होने की तोहमत लगा रहे हैं, गोया लोकप्रिय होना शास्त्रीय अर्थों में साहित्यकार होना नहीं माना जा सकता। गजल गायक जगजीत सिंह के शुरुआती दौर में उन पर भी आरोप थे कि उन्होंने गजल को लोकप्रियता के नाम पर ‘हलका’ कर दिया है। कई विद्वान साहित्यकार आज भी मानते हैं कि पचास-बावन साल और दर्जनों संस्करणों वाली ‘रागदरबारी’ केवल मनोरंजन की किताब है और उसमें सम-सामयिक समाज का कोई भरोसेमंद विश्लेषण नहीं है। कुल मिलाकर घूम-फिरकर सवाल यही है कि क्या लोकप्रियता शास्त्रीयता से कमतर और अल्प-जीवी होती है और लाखों-लाख लोगों को प्रभावित करने वाली रचना असल में साहित्य या कलाओं के संसार में दो-कौडी की हैसियत नहीं रखती?
भोपाल में तब के ‘शासन साहित्य परिषद’ की कार्यक्रम-श्रंखला ‘समय और हम’ में बोलते हुए हरिशंकर परसाई ने एक मार्के की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि साहित्य सृजन का ‘कच्चा माल’ समाज ही देता है, जिसे बाद में अपने विचार, शैली, भाषा और अनुभवों के जरिए सजा-संवारकर साहित्यकार वापस उसी समाज के सामने पेश कर देता है। कुम्हार, मिट्टी और मटके के आपसी रिश्तों का उदाहरण देते हुए परसाई जी ने इसे रचना प्रक्रिया की द्वंद्वात्मकता बताया था। सवाल है कि किसी विधा की रचना प्रक्रिया में समाज नाम के ‘कच्चे माल’ का आजकल कितना हिस्सा होता है? क्या हमारा साहित्य और दूसरी कलाएं समाज, खासकर निम्न और निम्न-मध्यवर्गीय समाज की धडकन पहचान पाती हैं? क्या रचनाकार उस समाज को ठीक जानता-पहचानता है जिसके बारे में उसकी रचनाएं अहर्निश गुहार लगाती रहती हैं? और सबसे अहम, क्या रचनाकार समाज नाम की ‘कच्ची मिट्टी’ से अपनी भौतिक, संवेदनात्मक और आध्यात्मिक दूरी को पहचान पा रहा है?
साहित्य और कलाओं के ही सहोदर मीडिया की ‘कच्ची मिट्टी’ यानि जीते-जागते समाज से कोसों दूरी की बानगी पिछले अनेक चुनावों में की गई उसकी उन भविष्यवाणियों से बुरी तरह उजागर हो गई थीं जिनमें इस-या-उस राजनीतिक जमात को विजयी या हारता हुआ बताया जा रहा था और नतीजे भविष्यवाणियों के ठीक विपरीत आ रहे थे। देसी मीडिया में कृषि और ग्रामीण जीवन की लगातार घटती हैसियत और उनकी ‘बीट’ समाप्त होने को इसकी वजह बताया गया था, लेकिन फिर ‘न्यूयार्क टाइम्स’ को क्या हो गया था जिसने एन चुनाव के नतीजों के एक दिन पहले हिलरी क्लिंटन की जीत बताते हुए पूरे पहले पन्ने् पर उनका फोटू छापा था। सब जानते हैं, एक दिन पहले की गई इस ‘पक्की’ भविष्यवाणी के ठीक विपरीत चुनाव में मौजूदा राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प की जीत हुई थी। जाहिर है, देशी हो या विदेशी, मीडिया अपनी-अपनी ‘कच्ची मिट्टी’ को पढने, पहचान पाने में नकारा साबित हुआ है।
कला-साहित्य–मीडिया की तरह यदि हम अपने आसपास की राजनीति को भी देखें तो ‘कच्ची मिट्टी’ से दूरी का यह कारनामा वहां ज्यादा तीखे रूप में दिखाई देता है। अभी पिछले हफ्ते न्यूज-पोर्टल ‘गांव कनेक्शन’ और ख्यात शोध संस्थान ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डॅवलपिंग सोसाइटीज’ (सीएसडीएस) के लॉकडाउन के दौरान हुए अनुभवों पर एक संयुक्त रिपोर्ट आई है। मई 30 से जुलाई 16 के बीच देश के 20 राज्यों, जिनमें दक्षिण के चार बडे राज्य शामिल नहीं हैं, और तीन केन्द्र शासित क्षेत्रों के 179 जिलों में 25 हजार लोगों के रूबरू साक्षात्कार के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में बताया गया है कि तरह-तरह के संकटों, चिंताओं और कमियों के बावजूद लोगों को मौजूदा केन्द्र और राज्य सरकारों पर पूरा भरोसा है। रिपोर्ट में 78 फीसदी लोगों ने कहा है कि उनके यहां काम पूरी तरह ठप्प है, 68 फीसदी लोग आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं और 77 फीसदी के गांवों में रोजगार की समस्या है। पांच फीसदी परिवारों को छोडकर बाकी सभी पर लॉकडाउन का असर पडा है, एक तिहाई परिवारों को लॉकडाउन के दौरान बहुत बार (12 फीसदी) और कई बार (23 फीसदी) पूरा दिन भूखा रहना पडा है। उन्हें घर खर्च के लिए कर्ज लेना पडा है और जायदाद, जेवर, जमीन आदि बेचना पडे हैं। दो-तिहाई प्रवासी मजदूरों ने बताया कि उन्हें सरकारी खाना नहीं मिला और आठ में से एक प्रवासी मजदूर की पुलिस ने पिटाई भी की।
विडंबना यह है कि इन तमाम-ओ-तमाम दुखों, तकलीफों के बावजूद, इसी अध्ययन के मुताबिक 74 फीसदी लोग केन्द्र और राज्य सरकारों के कदमों से संतुष्ट पाए गए। यहां तक कि प्रवासी मजदूरों के दो-तिहाई हिस्से ने भी सरकारी कार्रवाइयों से संतुष्टि जाहिर की। लॉकडाउन के संकटों पर कमोबेश इसी तरह का अध्ययन मीडिया समूह ‘इंडिया टुडे’ ने भी करवाया था और उसके नतीजे भी लगभग ऐसे ही थे। यानि ढेर सारी असहनीय पीडाओं के बावजूद समाज में अपनी सरकारों से कोई गिला-शिकवा नहीं पाया गया। मानो तकलीफें और सरकार दो अलग-अलग बातें हैं और उन्हें चुनने या भोगने के मापदंड भी भिन्न -भिन्न। तमाम अटकल-पच्चियों के बावजूद सवाल है कि क्या हमारा समाज आजादी के बाद के सबसे बडे पलायन को भोगने की तकलीफों को महसूस करना भी छोड चुका है? या फिर ‘पहचान,’ ‘धर्म’,’ ‘बहु-संख्यकवाद’ जैसी कोई और बात है जिसके चलते आम लोग अपने दुख-दर्द भुला देते हैं? या फिर अध्ययन-कर्ताओं समेत विस्तारित मध्य और उच्च-मध्य वर्ग अपने ही समाज के ‘निचले’ तबकों के बारे में निरा अनजान है?
अर्थशास्त्री प्रोफेसर रामप्रताप गुप्ता ने मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह और उत्तरप्रदेश में मायावती की सरकारों के अपने तुलनात्मक अध्ययन में बताया था कि तरह-तरह की आर्थिक योजनाओं, नीतियों के बावजूद दिग्विजय सिंह दलित वोटों को अपनी तरफ नहीं खींच पाए थे। दूसरी तरफ, पहचान और अस्मिता की राजनीति करने वाली मायावती ने भले ही दलितों को अम्बेडकर पार्कों, हाथी और पार्टी के नीले रंग के अलावा कोई और ठोस मदद न भी की हो, दलितों के बीच अपना वोट प्रतिशत बढा पाने में सफल हुई थीं। तो क्या लॉकडाउन में भी तमाम तकलीफों के बावजूद राम मंदिर, धारा-370 और ‘समान नागरिक संहिता’ का झुनझुना काम कर गया? जो भी हो, इतना तो पक्का है कि हमारी राजनीतिक जमातें अपने-अपने ‘कच्चे माल’ यानि समाज से कोसों दूर बैठी हैं। यह दूरी समाज में एक तरह का राजनीतिक शून्य पैदा करती है और नतीजे में समाज उन संकटों की राजनीतिक अभिव्यक्ति तक नहीं कर पाता जो उसे अहर्निश तकलीफ देते रहते हैं, संकटों पर गोलबंद होना तो दूर की बात है। नब्बे के दशक की शुरुआत में आए भूमंडलीकरण ने और कुछ किया हो, न किया हो, तीस फीसद आबादी का ऐसा एक शहरी मध्यमवर्ग जरूर खडा कर दिया है जिसे अपने अलावा किसी की कोई परवाह नहीं रहती। डर है, हमारी कलाएं, साहित्य और राजनीति कहीं इसी के लपेटे में न आ जाएं।
“कोई भी भोजपुरी फ़िल्म महिला-केंद्रित नहीं है। इस भाषा में फिल्माए गए सभी गीत स्त्री को वस्तु के रूप में प्रदर्शित करते हैं।”
यह कथन है, साल 2001 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (बेहतरीन समीक्षक श्रेणी) के विजेता विनोद अनुपम का जिनके मुताबिक भोजपुरी में फ़िल्म बनाने वाले लोग भोजपुरी संस्कृति और समाज को बिल्कुल नहीं समझते। असल में भोजपुरी सिनेमा कहीं से भी भोजपुरी के उद्देश्यों को पोषित नहीं करता। क्षेत्रीय कला और साहित्य के निहित उद्देश्यों से इतर भोजपुरी सिनेमा का मूल उद्देश्य आर्थिक फायदे तक सीमित रह गया है। भोजपुरी सिनेमा अश्लीलता और फूहड़ता दर्शाकर अशिक्षित दर्शक वर्ग की सेक्स कुंठा की मांग पूरी करता है।
भोजपुरी सिनेमा की शुरुआती फिल्में आज की तुलना में काफ़ी अलग थी। ऐसा समाज जिसकी अभिव्यक्ति भिखारी ठाकुर के नाटकों और शारदा सिन्हा के गीतों से होती थी, आज वह सिनेमा में लगभग हर मायने में बदल गया है। इसमें एक ढर्रे के तहत बॉडी शेमिंग, ट्रांस समुदाय को उपेक्षित करना और औरतों के शरीर को हद से ज़्यादा ऑब्जेक्टिफाई करना सामान्य हो गया है।
भोजपुरी समाज और फिल्में
भोजपुरी हिंदी की उपभाषा है। यह अपने शब्दों के लिए हिंदी और संस्कृत पर निर्भर है। हालांकि इसे भाषा के रूप में प्रयोग करने वाला एक बड़ा समूह है। भारत में लगभग 3.3 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं और विश्व के अलग-अलग देशों में भी रोज़गार की तलाश में गए या उपनिवेशवाद के समय दूसरे देशों में भेजे गए मजदूरों की नई पीढ़ियां भी यह भाषा समझती हैं। इसलिए भोजपुरी सिनेमा के पास एक बड़ा दर्शक वर्ग है। यह बड़ा समूह तमाम कुरीतियों और रूढ़ियों का ग्राउंड ज़ीरो है। दरअसल, भोजपुरी दर्शक वर्ग जिस क्षेत्र से आता है वहां सामाजिक सुधार कार्यक्रमों से भी कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया है। यहां की अधिकतर जनता अशिक्षित है। राजनीति में धर्म और उच्च जाति का प्रभुत्व है। महिलाएं अभी भी घूंघट काढ़े चारदीवारी में सेवा करते हुए अपने कर्तव्य निभा रही हैं।
इस उत्तर-आधुनिक दौर में यहां एक बड़े सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है जो कला आदि के माध्यम से लाया जाना चाहिए था। लेकिन, पृष्ठभूमि की सच्चाई यह है कि क्षेत्रीय सिनेमा अपने आप में ख़ुद जातिवाद, पितृसत्ता और शोषण की नींव रखता नज़र आता है। भोजपुरी फिल्मों के माध्यम से अपने शोषणात्मक रवैये को वैधता देने की कोशिश करता है। यहां क्लीशे कहानियां प्रस्तुत की जाती हैं जिनमें उच्च वर्गीय जमींदार ‘ठाकुर’ होता है और किसी अन्य ‘ठाकुर’ से उसकी दुश्मनी होती है। बदलते समय के साथ भोजपुरी सिनेमा अधिक ‘रिजिड’ ही हुआ है, उसमें प्रगतिशीलता का लेशमात्र भी नहीं मिलता।
भोजपुरी फिल्मों के माध्यम से अपने शोषणात्मक रवैये को वैधता देने की कोशिश करता है।
सिनेमा की भूमिका
सिनेमा समाज का आईना है और समाज को सिनेमा से बहुत कुछ सीखना चाहिए। असल में, सिनेमा, समाज और साहित्य एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। सिनेमा की विधा अपने भीतर तमाम दूसरी विधाओं को शामिल करते हुए एक बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंचती है। इसलिए वैचारिक संचार में इसका महत्व अधिक है। फिल्में असल में केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं हैं। उनमें एक निहित उद्देश्य होता है, समाज के उत्थान व बेहतरी का उद्देश्य। भारत के मुख्य सिनेमा बॉलीवुड को देखें तो उसमें सत्यजीत रे, बलराज साहनी, देविका रानी जैसे प्रमुख नाम हैं जिन्होंने नए सिरे से सिनेमा को गढ़ा। उसे मनोरंजन मात्र का उद्देश्य और सामाजिक शोषण को वैधता देने वाला माध्यम न बनाकर सामाजिक परिवर्तन की नींव रखने वाला माध्यम बनाया।
ऐसा बदलाव भोजपुरी सिनेमा में नहीं हुआ। भोजपुरी सिनेमा का शुरुआती दौर साल 1963- ‘गंगा मईया तोहके पियरी चढ़ईबै’ में धार्मिक रहा, बाद में 1990 के बाद ये पूरी तरह कमर्शिअल सिनेमा हो गया जिसमें सामाजिक पितृसत्ता के कारण स्त्री देह का बाज़ारीकरण किया गया। जब यह धार्मिक था, तब भी स्त्रियों पर धर्म के नियम और कानून थोपकर उनका शोषण करता था। आज भोजपुरी सिनेमा में धड़ल्ले से स्त्री शरीर को निशाना बनाते हुए गाने बन रहे हैं, जिन्होंने स्त्री की परिभाषा वस्तु होने भर तक सीमित कर दी है। स्त्री के अंगों, वस्त्रों और उसकी मुद्राओं को इस तरह दिखाया जा रहा है, जिससे यह नैरेटिव सिद्ध हो कि तथाकथित वस्त्र अथवा मुद्रा ‘अपीलिंग’ होती है। यही कारण है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों के साथ यौन हिंसा और बलात्कार के लिए लड़कियों को ही दोषी ठहरा दिया जाता है।
यौनिकता और भोजपुरी सिनेमा
सामंतवादी दौर के बाद धर्म अधिक शक्तिशाली हुआ जिससे दिन-प्रतिदिन के जीवन में उसकी पैठ बनी। तमाम धार्मिक ग्रन्थों के आचारों और नियमों के माध्यम से स्त्री को हाशिए पर ढकेल दिया गया। धर्म स्त्री को माया और वासना के रूप में दर्शाते हुए उसे संतों और समाज कल्याण के इच्छुकों के लिए सदैव श्राप बताता आया है। धार्मिक कथाओं में अक्सर दर्शाया जाता है कि अप्सराएं ऋषियों का ध्यान भंग करने आती थीं यानी एक मापदंड बना दिया गया, जिसके अनुसार सेक्स की इच्छा को हमेशा बुरी चीज़ मानकर प्रसारित किया गया।
आज भी परिवार इसपर बात नहीं करते और यह ‘गन्दी बात’ मानी जाती है। बढ़ती उम्र के साथ व्यक्ति हार्मोन्स के कारण सेक्स की इच्छा तो महसूस करता है लेकिन तथाकथित सभ्य होने की परिभाषा के कारण वह इसे ज़ाहिर नहीं कर पाता, नतीजतन वह इच्छा कुंठा बनकर उभरती है। दरअसल, यह समाज स्त्री के शरीर को नहीं जानता, वह एक औरत के शरीर को अपने शरीर की तरह सहजता से नहीं स्वीकार करता है। रोक-टोक के कारण किसी भी स्त्री से बात तक नहीं कर पाने के कार उस शरीर के प्रति आकर्षण और उसे भेदने की इच्छा और तीव्र होती है। यही कारण है कि अशिक्षित ग्रामीण भोजपुरी समाज में इतनी तेज़ी से खेसारी लाल यादव और रितेश के अश्लील और औरतों के शरीर पर टिके गाने इतने पसंद किए जाते हैं।
भोजपुरी समाज अभी भी रूढ़ियों और कुरीतियों से जूझ रहा है। इन क्षेत्रों में धर्म और जाति अभी भी सबसे महत्वपूर्ण मसले हैं। स्त्रियां हाशिए पर हैं और पितृसत्ता चरम पर है, धर्म जीवन का अभिन्न अंग है। यहां फ़िल्म के महत्वपूर्ण तकनीशियन और कारीगर पुरुष हैं। फ़िल्म निर्माता पुरुष हैं इसलिए वे पुरुषों के चश्मे से ही फिल्में बनाते हैं। दर्शक वर्ग भी पुरुष है। इसलिए पूरी फिल्म इस उद्देश्य से बनती है कि उक्त समूह को आकर्षित कर बड़ी हिट हो जाए। भोजपुरी सिनेमा में जो कुछ फिल्में अश्लील नहीं भी होती वे भी पितृसत्ता को ढोती दिखती हैं। उनके माध्यम से पत्नी, बहन और बेटी के रूप में आदर्श स्वरूप गढ़े जाते हैं जिनके जीवन का मूल उद्देश्य पिता, पति और भाई के ‘सम्मान’ के लिए अपना जीवन न्योछावर करना होता है।
इन फिल्मों में अधिकतर ‘ठाकुर’, ‘ब्राह्मण’ और ‘यादव’ जातियों को दिखाया जाता है जो सीधे तौर पर अन्य जातियों को कमतर आंकने और समाज में उनकी मौजूदगी को नकारती मालूम पड़ती हैं। यहां की अमिनेत्रियों और गायिकाओं को बोलने तक की स्वायत्तता नहीं होती। रोजगार की कमी के कारण लगातार नए लोग आ रहे हैं और वे किसी भी समय प्रतिस्थापित की जा सकती हैं, यह डर उन महिलाओं को अपनी राय रखने का पूरा मौका नहीं देता। हाल ही में एक प्रसिद्द भोजपुरी अभिनेत्री ‘रानी चटर्जी’ ने यह बात ट्विटर पर शेयर करते हुए कहा कि महिलाएं बोल नहीं सकती क्योंकि फिल्म से उन्हें हटाकर दूसरे लोगों को रख दिया जाएगा।
भोजपुरी सिनेमा जिस समाज का नेतृत्व कर रहा है उसमें बहुत सारे बदलाव किए जाने की आवश्यकता है। ऐसे में अगर सिनेमा भी उसी पितृसत्ता और स्त्री-द्वेष को पोषित करेगा तो संपूर्ण बदलाव के लिए दूसरे अवसर खोजने होंगे। यह अवसर भोजपुरी साहित्य को मिले। साथ ही, पढ़े-लिखे लोगों को इन समस्याओं को समझने की ज़रूरत है। इन क्षेत्रों में जाकर व्यापक सुधार करने और कुंठाओं को तोड़ने की आवश्यकता है। इसमें महिलाओं को आगे बढ़ना होगा और तमाम रूढ़ियों को खत्म करना होगा। ये गाने और फिल्में सेंसर किए जाने चाहिए क्योंकि ये कम पढ़े लिखे युवाओं को वो सब करने के लिए उकसा रहे, जिसमें महिला को इंसान नहीं समझा जाता, उसकी राय नहीं ली जाती, न ही उसकी भावनाओं का कोई मोल होता है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी ने कमला हैरिस को उप-राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित करके एक तीर से कई शिकार कर लिये हैं। यदि वे जीत गईं तो वे अमेरिका की पहली महिला उप-राष्ट्रपति बनेंगी।
डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडन हैं, जो स्वयं दो बार उप-राष्ट्रपति रह चुके हैं। यदि वे राष्ट्रपति चुने गए तो वे दूसरी बार राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ेंगे, क्योंकि वे 77 साल के हो गए हैं। अर्थात यह असंभव नहीं कि 2024 में अमेरिका की पहली राष्ट्रपति भी कमला हैरिस ही हों। उनकी उम्र अभी सिर्फ 55 साल है। कमला वैसे अभी अमेरिकी सीनेट (राज्यसभा) की सदस्य हैं। यह सीट उन्होंने बाकायदा चुनाव लडक़र जीती है। इसके पहले वे केलिफोर्निया की एटार्नी जनरल रह चुकी हैं। उनकी मां श्यामला गोपालन हमारे तमिलनाडु की थीं और पिता डोनाल्ड हैरिस जमैका के।
याने वे भारतीय मूल की भी है और लातीन अमेरिकी और अफ्रीकी मूल की भी। उन्हें अमेरिका में अश्वेत ही माना जाता है। वे वास्तव में न तो काली हैं, न गौरी हैं। वे गेहुंआ है। ऐसा लगता है कि यह गेहुंआ रंग अब अमेरिका के सिर पर चढक़र बोलेगा। उन्होंने जार्ज फ्लायड हत्याकांड पर अपनी आवाज़ इतने जोर से उठाई थी कि अमेरिकी लोगों के दिलों में उनका स्थान एक बहादुर महिला का बन गया था। उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने की भी कोशिश की थी। उन्होंने जो बाइडन का विरोध करने में भी कोई संकोच नहीं किया था।
बाइडन के प्रतिद्वंदी होने के बावजूद उनको बाइडन ने अपने साथ उप-राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया है। इसका फायदा उन्हें अपने चुनाव में जरुर मिलेगा। प्रवासी भारतीयों के लगभग 18 लाख वोट हैं और वोटों से भी कहीं ज्यादा उनका प्रभाव है। यों भी डेमोक्रेटिक पार्टी अमेरिका के भारतीयों में लोकप्रिय रही है। डोनाल्ड ट्रंप की तरफ उनका झुकाव इधर जरुर बढ़ा है लेकिन कमला हैरिस इस प्रभाव को बाइडन की तरफ मोडऩे में सफल होंगी।
कमला हैरिस से उम्मीद की जाती है कि उप-राष्ट्रपति बनने पर भारत के प्रति उनका रवैया काफी रचनात्मक रहेगा लेकिन कश्मीर और नागरिकता संशोधन कानून जैसे मुद्दों पर उनकी भारत से स्पष्ट असहमति रही है। वे स्पष्टवादी और निडर महिला हैं। उनका दृढ़ आत्म-विश्वास ही उन्हें इस ऊंचे मुकाम तक ले आया है। कमला की वजह से अमेरिका के भारतीय लोगों में नई चेतना का संचार होगा। अमेरिकी संस्कृति में एक नया आयाम जुड़ेगा। कमला हैरिस के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
महेन्द्र सिंह
एक समय था जब दलबदल कभी-कभी होता था। अब लगातार ऐसे समाचार आते हैं। किसी न किसी राज्य में यह मामला चलता रहता है। लगता है राज्यों में किसी दल को बहुमत मिलने का कोई अर्थ ही नहीं रहा। तुरंत कयास लगने लगते हैं कि कितनी देर सरकार चलेगी। विधायक अपनी नाराजगी के संदेश आसपास छोड़ते रहते हैं। अब यह मान लेना चाहिए कि दलबदल राज्यों की राजनीति का स्थायी पहलू हो गया है। क्या यह मतदाता के चुनने के अधिकार को कमजोर करना नहीं है।
दलबदल कानून जब बना था तब सोचा गया था कि इससे राजनीतिक पार्टियों में विधायक चुने जाने के बाद एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल होने के सिलसिले पर रोक लगेगी। राजनीतिक दृष्टि से अस्थिरता का माहौल निर्मित होने से रोकने के लिए यह कानून बना था। कानून में व्यवस्था दी गई कि पार्टी के विधायकों में से एक तिहाई विधायक, सांसद होने पर ही पार्टी बदली जा सकती है। बाद में इसे दो-तिहाई कर दिया गया।
लोभी लालची विधायक, सांसदों ने मंत्री पद, राज्यसभा सांसद एवं मोटी रकम के लोभ में दल बदल के नए-नए तरीके निकाल लिए। जिस पार्टी के टिकट पर उन्होंने विधायक सांसद पद पर जीत हासिल की, उसी पार्टी के विरूद्ध मनमाफिक आरोप भी लगा दिए। नारा दिया, जनता की भलाई का और क्षेत्र के विकास की तरफ ध्यान न देने का। वास्तव में देखा जाए तो अधिकांश विधायक सांसद जीत के बाद अपने क्षेत्र के किसी गांव कस्बे में जनता की समस्या जानने के लिए जाते ही नहीं हैं।
वैसे तो जब तक जनता ही ऐसे नेताओं और लोभी, लालची फरेबी नेताओं को चुनाव में नहीं हराएगी, तब तक इनका भ्रामक खेल चलता रहेगा। मगर वर्तमान हालात को देखते हुए दल बदल कानून में बदलाव भी जरूरी लगता है। कुछ सुधार विचारार्थ प्रस्तुत हैं। यदि किसी पार्टी के टिकट पर जीतने वाला विधायक सांसद इस्तीफा देता है अथवा दल बदलता है तो 6 वर्ष के लिए चुनाव लडऩे से वंचित किया जाए। क्योंकि पिछले सात-आठ सालों में राजनीति में इतनी धनशक्ति का प्रवेश हो गया है कि दलबदलूविधायकी से इस्तीफा देने और फिर चुनाव लडक़र वापस आने के लिए तैयार रहते हैं। प्रलोभन इतना है कि उन्हें अपनी विधानसभा सदस्यता गंवाने का थोड़ा सा भी डर नहीं होता।
साथ ही इस बारे में भी विचार किया जाना चाहिए कि दलबदलू विधायक टिकट देने वाली पार्टी को पाँच करोड़ रुपए दे। उसे कुछ न कुछ दिन की सजा देने पर भी विचार किया जा सकता है। साथ ही इस प्रस्ताव पर भी कि दलबदल करने वाला या कार्यकाल के बीच इस्तीफा देने वाले विधायक को मंत्री या किसी भी अन्य पद के लिए छह साल तक अयोग्य करारदिया जाए। ऐसा सुधार होने से ही लोभी नेता सौ बार सोचेने को विवश होंगे और दल बदलके प्रति हतोत्साहित होंगें।
मगर कानून के अलावा जनता के बीच भी इस बारे में बात होनी चाहिए। पद लोलुपता और लालच का एक उदाहरण विचारार्थप्रस्तुत है, जिसके कारण देश अंग्रेजों का गुलाम बना और तरह-तरह के जुल्मों सितम सहता रहा। अंग्रेजों का देश में आगमन ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा हुआ। ब्रिटेन की इस ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के नवाब से व्यापार की इजाजत मांगी। इजाजत मिलने पर कंपनी ने अपना व्यापार शुरू कर दिया। धीरे, धीरे अंग्रेज गुप्त रूप से अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने के साथ कद्दावर, लोभी व्यक्तियों से संपर्क बढ़ाने लगे आखिरकार, उन्हें बंगालव नवाब की सेना का सेनापति मीर जाफर मिल गया। एक फर्जी नकली लड़ाई लड़ लो, कुछ सैनिक मरेंगे, और हार मान लेना। हमारा शासन पर कब्जा होते ही तुम्हें नवाब बना देंगे। ऐसा ही हुआ और बंगाल पर अंग्रेजों का शासन हो गया। गद्दारी के आरोप में मीर जाफर को भी मरवा दिया। लगातार अंग्रेजों की ताकत बढ़ती गई और पूरे देश में उनका शासन हो गया।
मीर जाफर जैसी सोच वाले अनेकोंकद्दावर नेता देश की राजनीतिक पार्टियों में भी हैं। वे अवसर की तलाश में रहते हैं और लाभ का मौका मिलने पर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाते हैं। दल बदलने कानून में छेद के लिए नए-नए तरीके निकल रहे हैं। मध्य प्रदेश में 22 विधायकों, जिनमें 6 मंत्री भी थे, ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा देकर कांग्रेस पार्टी की सरकार गिरा दी और भाजपा की सरकार बनवा दी। इसके बाद यह प्रवृत्ति राजस्थान की तरफ चली गई। वहां यथास्थिति है, मगर अस्थिरता भी बनी हुई है।
मीर जाफर को इस बात से कोई मतलब न था कि ईस्ट इंडिया कंपनी देश के साथ क्या करेगी। इसी तरह आज के मीर जाफरों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उनके ऐसे कदम से लोकतंत्र का क्या होगा। इसी तरह चलता रहा तो लोकतंत्र के एक मजाक में परिवर्तित होने में देर नहीं लगेगी। किसी राज्य में ऐसा लगातार दो बार हो गया तो लोगों में मतदान के प्रति वास्तविक रुचि भी घट जाएगी। ऐसे विधायकों को इस बात से कोई मतलब नहीं कि जिस नई पार्टी या सरकार में वे शामिल होने जा रहे हैं, उसकी अर्थतंत्र या समाज को लेकर क्या नीति है।
(लेखक सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं / लेखक शिक्षा विभाग के सेवानिवृत अधिकारी हैं।)
-परिवेश मिश्र
कुछ सप्ताह पहले मेरे पते पर स्पीड पोस्ट के जरिये दिल्ली से एक लिफाफा रवाना हुआ। मैं नेट पर ट्रैक कर रहा था। ठीक ठाक चलते हुए लिफाफा 50 किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय रायगढ़ तक पंहुचा और वहीं अटक गया। एक दो करते जब दस दिन हो गये तो अपने पोस्टमास्टर से फोन करवाया वजह जानने के लिये। रायगढ़ वालों ने कन्फर्म किया लिफाफा उनके पास है लेकिन वे इंतजार कर रहे थे कि कुछ और डाक आ जाए (संख्या सम्मानजनक हो जाए) तो भेजें।
मुझे वो जमाना याद आ गया जब मेरे शहर में कुछ सिनेमा हॉल (तब टॉकीज शब्द प्रचलित था) की रेपुटेशन थी कि वे पर्याप्त दर्शक इक_ा हो जाने के बाद ही शो शुरू करते थे। (और पर्याप्त संख्या न हो पाये तो जो आ चुके हों उन्हें टिकट के पैसे लौटा कर घर भेज दिया जाता था)। पर्याप्त यात्री न होने पर कभी कोई बस या ट्रेन ने रवाना होना कैन्सिल कर दिया हो ऐसी जानकारी अलबत्ता मुझे नहीं है, गनीमत है।
सत्तर के दशक के मध्य तक रायगढ़ और सारंगढ़ के बीच बिना पुल की एक बड़ी नदी थी। रायगढ़ से आने वाली बस बीच के स्थान चन्द्रपुर में नदी के उत्तरी तट पर रुक जाती थी। कंडक्टर सवारियों में से सबसे विश्वसनीय दिखते व्यक्ति को चुन कर डाक का झोला पकड़ा देता था। पैदल चलती नदी पार करती सवारी के साथ में भीगते भागते, झूलते झालते झोला नदी के दक्षिण तट पर प्रतीक्षा कर रही दूसरी बस के कंडक्टर के हाथ में पंहुच जाता था।
पीछे की ओर चलते हुए कंडक्टर और झोला वाली ये व्यवस्था जिस दिन फिर मिल जाएगी मेरा लिफाफा जल्दी आने लगेगा।
वैसे पूरा देश इन दिनों समय की उंगली पकड़े पीछे की ओर चल रहा है। यात्रा यूं ही जारी रही तो बादशाहों को ख़त पंहुचाते बेगमों के कबूतरों और कालीदास के संदेस ले जाते मेघों को पार करते हुए महाभारत काल के इंटरनेट की रेन्ज में भी पंहुच ही जाऊंगा। फिर संचार व्यवस्था से मेरी कोई शिकायत नहीं होगी। किसी भी व्यवस्था से नहीं होगी। मैं तो तब रामराज्य में पंहुच चुका होऊंगा।
-अनिल सिंह
कोविड-19 से बदहाल देश के सामने, बिना किसी संतोषजनक संवाद, बातचीत के, हड़बड़ी में लाई गई ‘शिक्षा नीति-2020’ आखिर क्या उपलब्ध करना चाहती है? क्या यह तेजी से बढ़ती निजी पूंजी को और बढाने की खातिर सस्ते मजदूरों की व्यवस्था करने वाली है या फिर, जैसा हमारे राजनेता बारंबार कहते हैं, भारत को ‘विश्वगुरु’ बनाने की ओर एक कदम है? ‘मानव संसाधन विकास मंत्रलय’ जो शायद इस नीति के बाद वापस शिक्षा मंत्रालय में तब्दील हो जाए, के मुताबिक शिक्षा की मौजूदा हालत कोई उल्लेखनीय नहीं है। ऐसे में ‘नई शिक्षा नीति’ क्या ‘तीर’ मारेगी? प्रस्तुत है, इसकी पड़ताल करता अनिल सिंह का यह लेख। – संपादक
बहु-प्रतीक्षित ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ (एनईपी-2020) एक रोज़ एकदम से आई और एकदम से ही स्वीकार ली गई। कोई चिल्ल-पों नहीं हुआ। तर्क यह कि पहले ही राष्ट्रव्यापी, बहुस्तरीय कन्सलटेशन और सुझाव आदि हो चुका है और इस तरह अब यह फुल-प्रूफ शिक्षा नीति जनाकांक्षाओं और जन-अपेक्षाओं से ओत-प्रोत है। दावा है कि इसे समय की नब्ज़ को पहचान कर बनाया गया है और इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसका आमतौर पर संदेह किया जा रहा था। पर संदेह न करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्रियान्वयन को मौजूदा सरकार और उसकी कार्य प्रणालियों व नीति- रीति के बरक्स देखना भी तो जरूरी है।
सन् 1950 से हम शिक्षा को संविधान के ‘नीति निर्देशक सिद्धांतों’ में शामिल करके, एक-के-बाद-एक नीतियाँ और कार्यक्रम बनाते चले आए हैं। उन दिनों हमने दम ठोंककर, दस सालों में सभी बच्चों को समान रूप से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने का वादा किया था। तब तो राजनीतिक प्रतिबद्धता भी थी, अब वह थोड़ी संदेहास्पद है। सन् 1950 से गिनें तो 70 साल हो गए हैं, लेकिन नतीजा सिफर से थोड़ा ही आगे आया है। अब ‘नई शिक्षा नीति – 2020’ के अनुसार दस सालों में स्कूल से बाहर हुये 2 करोड़ बच्चों को वापस लाने का विशाल लक्ष्य सचमुच विशाल है। यह न होने जैसी बात का ही दुहराव मात्र है।
‘एनईपी-20’ बाकी नीतियों की तरह ही एक गोल-मोल नीति है। समय के साथ यह समय की जरूरतों को पूरा करने वाली नीति ही कही जा सकती है। यह नीति वैश्विक विकास एजेंडा की बात करती है और इसीलिए 2030 तक सभी देशों की तरह, सभी के लिए समावेशी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए और जीवन पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिये जाने के लक्ष्य को सामने रखती है। भारत के लिए यह वैश्विक एजेंडा, विश्वबैंक के उस एजेंडे से कदमताल करता है जिसकी साफ हिदायतें हैं कि राज्य का ऐसा कल्याणकारी स्वरूप (वेल्फेयर स्टेट) धीरे-धीरे खत्म करते जाना चाहिए जो मुफ़्तखोरी को बढ़ावा देता है। जनता को स्वयं सक्षम और उपभोक्ता बनने की दिशा में ले जाया जाना चाहिए।
‘स्किल इंडिया’ के बाद एक बार फिर ज्ञान और तकनीकी के नाम पर आत्मनिर्भरता के जुमले के साथ स्कूल शिक्षा को ‘स्किल बेस्ड नॉलेज’ (हुनर आधारित ज्ञान) और ‘रिसोर्स’ (संसाधन) से जोड़ने की बात बहुत ही चतुराई से कही गई है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि बुनियादी तालीम के साथ गांधी का भी सपना आत्मनिर्भर समाज बनाने का रहा था जिसमें शिक्षा को रोजगारोन्मुखी, जीवन और समुदाय से जुड़ी, श्रम के प्रति सम्मान सिखाने वाली, ग्राम-स्वराज की ओर ले जाने वाली माना गया था, लेकिन इस नीति में जो प्रावधान हैं वे ग्राम-स्वराज के लिए नहीं, बल्कि बाज़ार राज के लिए जान पड़ता है।
स्कूल के दौरान ही वोकेशनल ट्रेनिंग (व्यावसायिक प्रशिक्षण), कौशल उन्नयन और विषय की तरह उनकी पढ़ाई व प्रशिक्षण, शिक्षा और उसके अनुशासन में विविधता की बात तक तो ठीक है, लेकिन इसकी मंशा पर गौर करना जरूरी है। मौजूदा ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ की ही एक रिपोर्ट कहती है कि ‘ड्रॉप-आउट रेट’ (स्कूल छोडने वालों की दर) 40 % है, हर साल नामांकित में से 50% बच्चे ही 8वीं तक पहुँचते हैं, उनमें भी 17% लड़कियां 14 साल या 8 वीं के बाद स्कूल छोड़ देती हैं, 12 वीं तक सिर्फ 10% बच्चे पहुँचते हैं। छूटने वाले और पहुँचने वाले ये कौन बच्चे हैं यह किसी से छुपा नहीं है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, ग्रामीण लड़कियों और विशेष जरूरतों वाले बच्चों का शिक्षा के इस संसार में क्या हश्र है इसके लिए ये आंकड़े पर्याप्त हैं। अब आठवीं (14 साल की उम्र) तक उन्हें किसी कौशल से नवाजने का मतलब आखिर क्या है? क्या एक बार फिर कामधंधों के हिसाब से जातियों वाला समाज बनने जा रहा है? क्या बच्चे अपने पुश्तैनी काम-धंधों में धकेल दिये जाएंगे? क्या उन्हें एक ऐसे मानव संसाधन के रूप में तैयार करके छोड़ दिया जाएगा जो बाद में कॉरपोरेट जगत के लिए कल-पुर्जे की तरह इस्तेमाल किए जाएंगे? क्या शिक्षा इसी का नाम है जिसके लिए इतनी महत्वाकांक्षी नीति बनाई गई है? या फिर ज्ञान के ‘सुपर पॉवर’ वाले जुमले की आड़ में यह सस्ते श्रम उपलब्ध कराने वाले बाज़ार खड़े करने की दूरगामी योजना है? सवाल कई हैं, क्योंकि मंशा में खोट है।
छह से 14 साल तक के शिक्षा के अधिकार कानून का दायरा बढ़ाकर 3 से 18 साल कर दिया गया है और अब मध्यान्ह भोजन के साथ नाश्ते का भी वादा किया गया है। इसे कुछ मायनों में ठीक कहा जा सकता है, लेकिन पिछला कानून ही जब कुछ नहीं कर पाया तो अब सिर्फ प्रावधान करने भर से क्या हो जाएगा? क्या ही अच्छा होता यदि तीन से 18 साल के इस निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के लिए भी तुरत-फुरत कानून बना दिया जाता। जब तक यह नहीं होता, यह दिखावटी झुनझुने से ज्यादा कुछ नहीं होगा।
बच्चों के सीखने के शुरुआती महत्वपूर्ण सालों (3 से 6 साल) को औपचारिक ढांचे में बांधकर उन्हें स्कूल की दृढ़ संरचना के भीतर लाना एक तरह से उदार, लचीले, नैसर्गिक और स्वाभाविक रूप से सीखने के सिद्धान्त के विरुद्ध है। उसका ‘ढाँचाकरण’ और केंद्रीय नियंत्रण एक बार फिर सवाल खड़े करता है कि कहीं यह एक वैचारिक घुट्टी पिलाने की कवायद का हिस्सा तो नहीं है?
नई नीति एक लोक-लुभावन बयान देती है कि प्राइवेट स्कूलों पर नकेल कसी जाएगी। यह हर सरकार कहती है और उसके नियमन का एक ढांचा भी बनाती है, लेकिन दूसरे रास्ते से वही सरकार निजी स्कूलों को तमाम तरह की रियायतें देती है, फीस के बहाने लूट की खुली छूट देती है। अब फिर बाजारीकरण और निजीकरण को रोकने की खातिर सरकार की तरफ से कोई नियामक और नियंत्रक ढांचे का जिक्र इस नीति में नहीं है, बल्कि इसके उलट, ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप’ (सार्वजनिक-निजी गठबंधन) को बढ़ावा देने की बात करती है। तमाम कॉरपोरेट फ़ाउंडेशन, पाठ्यक्रम बनाने से लेकर, शिक्षक प्रशिक्षण, स्कूल प्रबंधन, मूल्यांकन और निगरानी के काम में आगे आ रहे हैं और सरकार के सलाहकार की भूमिका में हैं। शिक्षक-प्रशिक्षण की ‘डाइट’ जैसी सरकारी महत्वाकांक्षी संस्थाओं को दरकिनार कर निजी संस्थान शिक्षा की डिग्रियाँ बाँट रहे हैं। निजी दानदाता संस्थाओं को शिक्षा के क्षेत्र की कमान सौंप कर एक तरह से निजीकरण, व्यवसायीकरण और कोर्पोरेटीकरण को ही प्रोत्साहित किया जा रहा है, ताकि शिक्षा का भार परिवारों पर पड़े और राज्य की जवाबदेही धीरे-धीरे खत्म हो।
उससे भी आगे विरोधाभास तो यह है कि युक्ति-युक्तकरण के नाम पर अकेले मध्यप्रदेश में ही हजारों स्कूल बंद करने का पूरा बंदोबस्त कर लिया गया है। इसके नाम पर बजट कटौती और मर्जर का काम तेजी से चल रहा है। ‘नई शिक्षा नीति-2020’ इस पर चुप्पी साधे दिखती है। ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) का 6% शिक्षा में खर्च करने का वादा तो है पर ये जुटाया कहाँ से जाएगा, इस पर कोई खुलासा नहीं है। क्या विश्वबैंक और कॉरपोरेट पूंजी मिलकर देश की शिक्षा व्यवस्था चलाने वाले हैं? क्योंकि एक तरफ से ऋण आ रहा है और दूसरी तरफ से विचार। ये जुगलबंदी गरीब-गुरबा के बच्चों के लिए क्या समावेशी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की चिंता करेगी या कारपोरेट धर्म निभाएगी! समय की माँग है बाज़ार, बाज़ार और बाज़ार। और सब जानते हैं कि यह सरकार समय की नब्ज़ पहचानती है। ‘नई शिक्षा नीति’ में इस बाज़ार की जरूरत को पूरा करने और भारत में सस्ता, कुशल श्रम उपलब्ध कराने के पूरे इंतजाम कर लिए गए हैं। (सप्रेस)
-मीनाक्षी नटराजन
हे राम !
सारा बचपन तुम्हारी कथा को सुनते-सुनते बीता है। नानी की लोरियों के राम यानि तुम अलौकिक थे। जाहिर है कि कल्पना ने तुम्हारे कई चित्र उकेरे, कई तरह से तुम्हें गढ़ा।
तीसरी कक्षा की बात है। आज भी वे दिन बंद आंखों के सामने सजीव हो उठते हैं। घर के आंगन में हरसिंगार के फूल बिखरे रहते थे और मैं तुम्हें “अमर चित्र कथा’’ मे पढ़ती थी। जैसे ही तुम्हारे वन गमन का प्रसंग आता, मन भारी हो जाता। आंखें छलछला उठतीं। बाल मन ने पहली बार पीड़ा का अहसास किया था। “ओह ! सारा एरेंजमेंट वेस्ट हो गया।’’ यह पहली प्रतिक्रिया ज्यों की त्यों याद है। शब्द नहीं बदले। उन चित्रों को देखकर बहुत दुख हुआ था। तुम्हारा राज्याभिषेक धरा रह गया। किन्तु तुम हंसते-हंसते लेश मात्र गुस्से के बिना वन चले गये।
मैंने तरूणाई मे प्रवेश किया। मन आंगन मे सवाल हिलोर भरने लगे। तुम्हें खरी-खोटी सुनाने का मन करता। तुमने सीता के साथ अन्याय किया था। तुम तो युग पुरूष थे। तुमसे ही तो बदलाव की उम्मीद थी। शंबूक के साथ जो तुमने किया उससे मैं और विचलित हुई। वो उम्र ही ऐसी होती है।
फिर भी तुमसे कभी विरक्त नहीं हो सकी। जब-जब भी घर में माता-पिता, वृद्ध जनों से मुंहजोरी करती, फिर तुम्हें पढ़ती तो मन लज्जित हो उठता था। बार-बार तुम्हारा आवेशरहित मुखमंडल सामने आ जाता। लोगों के साझे सहज बोध में सदियों से आखिर तुम्हारी यही तो छवि बसी थी। कृपासिन्धु की छवि। निषादराज गुह को गले लगाते, माता शबरी की जूठन खाते, विमाता को प्रेम से तारते करूणानिधान की छवि अंतस में बसी थी।
एकाएक सब बदलने लगा। तुम्हारा इस्तेमाल वैमनस्य घोलने के लिए चंद स्वार्थी लोगों ने किया। बहुत रक्तपात हुआ। कृपासिन्धु की छवि बदली गई। अब जहां-तहां तुम्हें योद्धा के रूप में उकेरा जाने लगा।
उन्हीं दिनों महज संजोग से इस धरती के लाल उस अनन्त सत्यान्वेषी के सत्य प्रयोगी मार्ग को समझने की जिज्ञासा जाग उठी। वो जिसने जीवन का हर पल तुम्हें समर्पित कर दिया और अंतिम क्षण मे तुम्हें “हे राम’’ कहकर पुकारा। उन्होंने अपने लिए यही कसौटी मानी थी। तुम ही ने तो उन्हें भवसागर पार कराया। हां । सत्य ही तो है। ऐसी अनन्य आस्था रखने वाले को तुम्हीं तो संचालित करते हो। अन्य ज्यादातर मुझ जैसे लोग तो तुम्हें सुन ही नहीं पाते। उन्हें उनका अहं संचालित करता है।
उस महात्मन् के लिए तुम “सत्य’’ थे। दशरथी राम केवल सत्य का लोक प्रतीक। “राम’’ माने “सत्य’’ और कुछ नहीं। उसी सत्य में उनकी आस्था थी। वैसे भी संसार में बाकी तो सब क्षण-क्षण बदलते नाम रूपों का जंजाल भर हैं। उनके मार्ग को जानने की जिज्ञासा ने मन की अधीरता को शांत किया। सोचने की नई रीत सिखाई। कहीं न कहीं यह समझना शुरू किया की हर एक को उसी के नजरिये से देखना चाहिए।
तुमसे असहमत और नाराज आज भी हूं। लेकिन अब तुम्हारे “राजधर्म’’ को खारिज नहीं कर पाती। व्यक्तिगत त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किये बिना कोई बदलाव संभव नहीं। तुमने सुविधा नहीं, सत्य का कठिन क्रूर मार्ग चुना। लोगों की प्रतिक्रिया को “द्रोह’’ कहकर आसानी से दंड के सहारे मामले को टाल सकते थे। आज की व्यवस्था में तो आक्षेप लगाना बहुत दूर की बात है। यहां तो सवाल पूछना “द्रोह’’ कहलाता है।
शंबूक के प्रसंग को लेकर तो मेरा जी अब भी तुमसे झगड़ने को चाहता है। मैं जानती हूं कि यह तुम्हारे उदार बड़प्पन और क्षमाशीलता के कारण है। तुम अपने से लड़ने का हक जो देते हो। अब धीरे-धीरे सोच की दिशा बदलने लगी है। वैसे भी तुम्हारी कहानी कई तरह से कही गई है। वाल्मीकि “रामायण” लोकनायक की कथा अधिक लगती है। “अध्यात्म रामायण’’ से प्रेरित तुलसीकृत “मानस’’ में तुम “ब्रह्म’’ और सीता “जगत’’ के रूप में वर्णित किये गये हो। “मानस’’ में उपरोक्त दोनों ही प्रसंग नहीं है। “आनंद रामायण’’ में तो सीता हरण के पूर्व तुम्हारा एक सुंदर संवाद है। तुम सीता से कहते हो कि “रजो’’ रूप में वे अग्नि के पास संरक्षित रहें। “तम’’ रूप मे रावण द्वारा हरण कर ली जाये और “सत्व’’ के रूप में तुम्हारे हृदय में बसी रहें।
जैन परंपरा में “पौमचरियम्’’ और “त्रिषष्टीशलाका पुरूष चरितं’’ में तुम्हारी अलग दिव्य कथा है। सांख्य मत तो तुम्हें “पुरूष’’ और सीता को “प्रकृति’’ का प्रतीक मानता है। तुम्हें निर्गुण निराकार “सत्य’’ के लौकिक प्रतीक के रूप में देखती आई थी। अब भी देखती हूं। लेकिन अब तुम “सत’’ और सीता “चित्त’’ के रूप में दिखाई पड़ते हो। इस सत और चित्त का गठजोड़ ही “आनंद’’ मय होता होगा। सत और चित्त का परस्पर कभी त्याग नहीं हो सकता। वे दो कहां हैं? एक ही हैं। यह तो हुआ चैतन्य का बोध।
इतिहास कई राजाओं की कहानी कहता है। लोक मानस को तो “राम राज्य’’ याद है। कहते हैं कि “राम राज्य’’ मे कभी ताले नहीं लगते थे। बचपन में सोचती थी कि घर खुले रहते होंगे। चोरों का डर नहीं था। यह कितनी अद्भुत बात है। राम! तुम्हारे राज्य में सबके घर हर एक के लिए हमेशा खुले रहते थे। किसी के लिए किसी का भी घर कभी बंद नहीं होता था। वो चाहे कोई भी क्यूं न हो।
दरअसल “राम राज्य’’ में चित्त पर ताला नहीं लगता था। मन खुला हुआ था। हर पंथ, मार्ग, विचार, ख्याल के लिए हमेशा खुला था। तभी तो वह “राम राज्य’’ था। “सत्य’’ का राज्य ऐसा ही तो होगा। जहां विविध, विपरीत विपक्ष को विकार न माना जाये। “सत्य’’ की खोज बंद दिमाग से कहां हो सकती है।
कहते हैं कि रावण बड़ा मायावी था। कोई भी रूप धारण कर सकता था। फिर उसने राम का रूप धारण करके सीता को छलने का प्रयास क्यों नहीं किया? यह तो सही है कि सीता को तब भी छला नहीं जा सकता था। शायद रावण जानता था कि राम का तो रूप भी धारण करने से रावणत्व नष्ट हो जाएगा। वो “सत्’’ की ओर बढ़ जाएगा। सोचती हूं कि “राम’’ यदि कभी रावण का रूप धारण करते तो क्या होता? “सत्य’’ के प्रभाव से “दंभ’’ का दहन हो जाता। “राम’’! तुम्हारी यानि “सत्य’’ की ऐसी ही पावन महिमा है।
मुझे याद है कि तुम पर आधारित धारावाहिक प्रसारित हुआ, पुर्नप्रसारित भी हुआ। तुम पर लोकमानस की ऐसी श्रद्धा है कि सीरियल और गांवों, कस्बों में खेली जाती रामलीला के पात्रों को भी लोगों ने मान दिया। तुम्हारे चरित्र का अभिनय करना भी सम्मानजनक माना जाता है।
क्यूं न हो? तुम हो ही ऐसे। तुमसे विभीषण ने पूछा कि रावण का सामना कैसे करोगे? रथ तक तो है नहीं। तुमने शांत भाव से कह दिया कि तुम जिस रथ पर सवार हो, उसके बाद किसी भौतिक संसाधन की आवश्यकता नहीं। “धर्म’’ तुम्हारा रथ था। “धर्म’’ यानि “सत्य’’। कुछ दशक पहले “रथ यात्रा’’ कहलाता आधुनिक गाड़ी का कारवां तुम्हारी जन्मभूमि का अधिकार पाने के नाम पर निकला। जहां-तहां “सत्य’’ को रौंदता हुआ आगे बढ़ा । वहां धर्म यानि “सत्य’’ नहीं था। सत्य तो केवल प्रेम के कारवां में हो सकता है। विध्वंस मे नहीं।
“सत्य’’ की जन्मभूमि कहां है? मैं सोच रही हूं। तुम्हारा ही प्रसंग बरबस याद हो आया। तुमने सर्वथा अनजान बनकर ऋषि वाल्मीकि से पूछा कि मैं अपनी पत्नी और भाई के साथ कहां वास करूं? उन्होंने क्या खूब उत्तर दिया- “तुम्हारा वास कहां नहीं है राम ?’’
“काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें ह्दय बसहु रघुराया।।’’
आगे उन्होंने यह भी जोड़ा कि जाति, पाति, धन, धर्म, बड़ाई को छोड़कर जो अपने हृदय में तुमको धारण करे, वहीं बस जाओ रघुराई।
हां भौतिक स्थान चित्रकूट हो सकता है। अब तुम्हारा मंदिर बनने जा रहा है। लेकिन मैं जानती हूं कि तुम कहां वास करते हो। मेरा मंदिर वहीं होगा। पैदल चलते मजदूरों के पैर के छालों में, असंख्य बेदखल शबरियों की प्रेम कुटिया में, किसानों के पसीने में, सत्यान्वेषियों के बलिदान में, कबीरों के ताने-बाने में, मैं तुम्हें ढूंढ लूंगी। यही मेरे जीवन का लक्ष्य है, मेरी तपस्या, मेरी भक्ति है।(navjivan)
-विभुराज और सलमान रावी
"भारत के चीफ़ जस्टिस ऐसे वक़्त में राज भवन, नागपुर में एक बीजेपी नेता की 50 लाख की मोटरसाइकिल पर बिना मास्क या हेलमेट पहने सवारी करते हैं जब वे सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन में रखकर नागरिकों को इंसाफ़ पाने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित कर रहे हैं."
"आने वाले कल में जब इतिहासकार पीछे मुड़कर बीते छह सालों के दौर को देखेंगे कि भारत में बिना औपचारिक रूप से इमर्जेंसी लगाए लोकतंत्र को किस तरह से तबाह कर दिया गया तो वे ख़ास तौर पर इस बर्बादी में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका का जिक्र करेंगे और उनमें से भी विशेष रूप से भारत के अंतिम चार मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका पर बात होगी."
देश की सबसे बड़ी अदालत शुक्रवार को ये फ़ैसला सुनाएगी कि जानेमाने वकील प्रशांत भूषण के इन दो ट्वीट्स से सुप्रीम कोर्ट की मानहानि हुई या नहीं.
अगर वे दोषी पाए जाते हैं तो कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट, 1971 के तहत प्रशांत भूषण को छह महीने तक की जेल की सज़ा जुर्माने के साथ या इसके बगैर भी हो सकती है.
इसी क़ानून में ये भी प्रावधान है कि अभियुक्त के माफ़ी मांगने पर अदालत चाहे तो उसे माफ़ कर सकती है.
इस बीच गुरुवार को वरिष्ठ पत्रकार एन राम, अरुण शौरी और एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट के कुछ प्रावधानों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली अपनी याचिका वापस ले ली है.
मामला क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट प्रशांत भूषण के इन ट्वीट्स पर स्वतः संज्ञान लेते हुए अदालत की मानहानि का मामला शुरू किया.
कोर्ट ने कहा, "पहली नज़र में हमारी राय ये है कि ट्विटर पर इन बयानों से न्यायपालिका की बदनामी हुई है और सुप्रीम कोर्ट और ख़ास तौर पर भारत के चीफ़ जस्टिस के ऑफ़िस के लिए जनता के मन में जो मान-सम्मान है, ये बयान उसे नुक़सान पहुंचा सकते हैं."
चीफ़ जस्टिस बोबडे के मोटरसाइकिल पर बैठने को लेकर की गई टिप्पणी पर प्रशांत भूषण ने अपने हलफनामे में कहा कि पिछले तीन महीने से भी ज़्यादा समय से सुप्रीम कोर्ट का कामकाज सुचारू रूप से न हो पाने के कारण वे व्यथित थे और उनकी टिप्पणी इसी बात को जाहिर कर रही थी.
उनका कहना था कि इसकी वजह से हिरासत में बंद, ग़रीब और लाचार लोगों के मौलिक अधिकारों का ख्याल नहीं रखा जा रहा था और उनकी शिकायतों पर सुनवाई नहीं हो पा रही थी.
लोकतंत्र की बर्बादी वाले बयान पर प्रशांत भूषण की ओर से ये दलील दी गई कि "विचारों की ऐसी अभिव्यक्ति स्पष्टवादी, अप्रिय और कड़वी हो सकती है लेकिन ये अदालत की अवमानना नहीं कहे जा सकते."
लेकिन ऐसा नहीं है कि प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के केवल इसी मामले में कटघरे में खड़े हैं. उन पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का एक और मामला लंबित है.
अदालत की अवमानना का एक और मामला
प्रशांत भूषण ने साल 2009 में 'तहलका' मैगज़ीन को दिए एक इंटरव्यू में आरोप लगाया था कि भारत के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीशों में आधे भ्रष्ट थे.
इस मामले में तीन सदस्यों की बेंच ने 10 नवंबर, 2010 को कंटेम्प्ट पिटीशन पर सुनवाई करने का फ़ैसला सुनाया था.
इसी महीने की 10 तारीख को सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "जजों को भ्रष्ट कहना अवमानना है या नहीं, इस पर सुनवाई की आवश्यकता है."
गौर करने वाली बात ये भी है कि पिछले दस सालों में इस मामले पर केवल 17 बार सुनवाई हुई है.
प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट को एक लिखित बयान में खेद जताने की बात कही थी. लेकिन अदालत ने इसे ठुकरा दिया.
जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यों वाली बेंच ने इस मामले की अगली सुनवाई की तारीख़ 17 अगस्त तय की है.
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अवमानना के बीच एक पतली रेखा है. जजों ने कहा है कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और एक संस्था के रूप में जजों की गरिमा की रक्षा की ज़रूरत को संतुलित करना चाहते हैं.
दूसरी ओर, वकील प्रशांत भूषण का कहना है कि भ्रष्टाचार के उनके आरोप में किसी वित्तीय भ्रष्टाचार की बात नहीं थी बल्कि उचित व्यवहार के अभाव की बात थी. उन्होंने कहा कि अगर उनके बयान से जजों और उनके परिजनों को चोट पहुँची है, तो वे अपने बयान पर खेद व्यक्त करते हैं.
कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट का मतलब क्या है?
हिमाचल प्रदेश नेश्नल लॉ यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह कहते हैं, "भारत के संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को 'कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड' का दर्जा दिया गया है और उन्हें अपनी अवमानना के लिए किसी को दंडित करने का हक़ भी हासिल है."
"कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड से मतलब हुआ कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के आदेश तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि उन्हें किसी क़ानून या दूसरे फ़ैसले से ख़ारिज न कर दिया जाए."
साल 1971 के कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट में पहली बार वर्ष 2006 में संशोधन किया गया.
इस संशोधन में दो बिंदु जोड़े गए ताकि जिसके ख़िलाफ़ अवमाना का मामला चलाया जा रहा हो तो 'सच्चाई' और 'नियत' भी ध्यान में रखा जाए.
इस क़ानून में दो तरह के मामले आते हैं - फौजदारी और ग़ैर फौजदारी यानी 'सिविल' और 'क्रिमिनल कंटेम्प्ट.'
'सिविल कंटेम्प्ट' के तहत वो मामले आते हैं जिसमे अदालत के किसी व्यवस्था, फैसले या निर्देश का उल्लंघन साफ़ दिखता हो जबकि 'क्रिमिनल कंटेम्प्ट' के दायरे वो मामले आते हैं जिसमें 'स्कैंडलाइज़िंग द कोर्ट' वाली बात आती हो. प्रशांत भूषण पर 'आपराधिक मानहानि' का मामला ही चलाया जा रहा है.
प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह कहते हैं, "कोर्ट की आम लोगों के बीच जो छवि है, जो अदब और लिहाज है, उसे कमज़ोर करना क़ानून की नज़र में अदालत पर लांछन लगाने जैसा है."
'कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट' बनाम 'अभिव्यक्ति की आज़ादी'
अभिव्यक्ति की आज़ादी को लोकतंत्र की बुनियाद के तौर पर देखा जाता है.
भारत का संविधान अपने नागरिकों के इस अधिकार की गारंटी देता है.
लेकिन इस अधिकार के लिए कुछ शर्तें लागू हैं और उन्हीं शर्तों में से एक है अदालत की अवमानना का प्रावधान.
यानी ऐसी बात जिससे अदालत की अवमानना होती हो, अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में नहीं आएगी.
प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह की राय में संविधान में ही इस तरह की व्यवस्था बनी हुई है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास 'कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट' की असीमित शक्तियां हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार इसके आगे गौण हो जाता है.
दिल्ली ज्यूडिशियल सर्विस एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और सीके दफ़्तरी बनाम ओपी गुप्ता जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट बार-बार ये साफ़ कर चुकी है कि संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 के तहत मिले उसके अधिकारों में न तो संसद और न ही राज्य विधानसभाएं कोई कटौती कर सकती है.
दूसरे लोकतंत्रों में क्या स्थिति है?
साल 2012 तक ब्रिटेन में 'स्कैंडलाइज़िंग द कोर्ट' यानी 'अदालत पर लांछन' लगाने के जुर्म में आपराधिक कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता था.
लेकिन ब्रिटेन के विधि आयोग की सिफारिश के बाद 'अदालत पर लांछन' लगाने के जुर्म को अपराध की सूची से हटा दिया गया.
बीसवीं सदी में ब्रिटेन और वेल्स में अदालत पर लांछन लगाने के अपराध में केवल दो अभियोग चलाए गए थे.
इससे ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अवमानना से जुड़े ये प्रावधान अपने आप ही अप्रासंगिक हो गए थे.
हालांकि अमरीका में सरकार के ज्यूडिशियल ब्रांच की अवज्ञा या अनादर की स्थिति में कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट के प्रावधन है लेकिन देश के संविधान के फर्स्ट अमेंडमेंट के तहत अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के अधिकार को इस पर तरजीह हासिल है.
विरोध और समर्थन में चिट्ठी
प्रशांत भूषण के ख़िलाफ़ अदालत की अवमानना के मामलों ने समाज में बहस छेड़ दी है.
जहां कुछ पूर्व न्यायाधीशों, पूर्व नौकरशाहों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया है कि "सर्वोच्च न्यायलय की गरिमा को देखते हुए प्रशांत भूषण के ख़िलाफ़ अवमाना के मामले वापस लिए जाएं."
तो एक दूसरे समूह ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर संस्थानों की गरिमा को बचाने का अनुरोध किया है.
भूषण के पक्ष में जारी किए गए बयान में जिन 131 लोगों के हस्ताक्षर हैं उनमें सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व चीफ़ जस्टिस जस्ती चेलामेस्वर, जस्टिस मदन बी लोकुर के अलावा दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस (रिटायर्ड) एपी शाह, पटना उच्च न्यायालय की जस्टिस (रिटायर्ड) अंजना प्रकाश शमिल हैं.
इनके अलावा हस्ताक्षर करने वालों में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा, लेखक अरुंधति रॉय और वकील इंदिरा जयसिंह भी हैं.
वहीं, राष्ट्रपति को पत्र भेजने वाले पूर्व न्यायाधीशों, वकीलों, पूर्व नौकरशाहों और सामजिक कार्यकर्ताओं के एक दूसरे समूह का कहना था कि कुछ प्रतिष्ठित लोग संसद और चुनाव आयोग जैसी भारत की पवित्र संस्थाओं को दुनिया के सामने बदनाम करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ना चाहते हैं. अब सुप्रीम कोर्ट भी उनके निशाने पर है.
राष्ट्रपति को भेजी गई इस चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में राजस्थान उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अनिल देव सिंह, सिक्किम हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस प्रमोद कोहली के अलावा 15 रिटायर्ड जज शामिल हैं.
कुल मिलाकर 174 लोगों के हस्ताक्षर वाले इस पत्र में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट में अवमाना का मामला पूरी तरह से प्रशांत भूषण और अदालत के बीच का मामला है. इसपर सार्वजनिक रूप से टिप्पणियाँ कर सुप्रीम कोर्ट के गौरव को हल्का दिखाना है.
समर्थक और विरोधी क्या कह रहे हैं?
सेंट्रल एडमिन्सट्रेटिव ट्रिब्यूनल (सीएटी) के अध्यक्ष और सिक्किम हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रह चुके प्रमोद कोहली कहते हैं, "अवमाना का क़ानून अगर ना हो तो कोई भी सुप्रीम कोर्ट या दूसरी अदालतों के फ़ैसलों को नहीं मानेगा."
उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पूरे देश पर लागू होते हैं और सभी अदालतें और कार्यपालिका उन फैसलों को मानने के लिए बाध्य हैं. सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता, अखंडता और साख बनी रहे, ये सुनिश्चित करना सबके लिए ज़रूरी है.
लेकिन क़ानून के जानकारों की राय इस मुद्दे पर बंटी हुई है.
दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड चीफ़ जस्टिस एपी शाह कहते हैं, "ये अफ़सोसनाक है कि जज ऐसा सोचें कि आलोचना को दबाने से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बढ़ेगी."
शाह के अनुसार, अवमानना के क़ानून पर फिर से गौर किए जाने ज़रूरत तो है ही, साथ ही ये भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका इस्तेमाल किसी तरह की आलोचना को रोकने के लिए नहीं किया जाए.
आलोचना बनाम अवमानना
कानून के जानकारों को लगता है कि टकराव वहाँ होता है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संविधान के अनुच्छेद 129 आमने-सामने आ जाते हैं.
संविधान के अनुसार हर नागरिक अपने विचार रखने या कहने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन जब वो अदालत को लेकर टिप्पणी करे तो फिर अनुच्छेद 129 को भी ध्यान में रखे.
अदालत की अवमाना को लेकर भारत के न्यायिक हलकों में हमेशा से ही बहस होती रही.
दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस (रिटायर्ड) एपी शाह के अनुसार अवमानना का क़ानून विश्व के कई देशों में और ख़ास तौर पर मज़बूत लोकतांत्रिक देशों में अप्रचलित होता जा रहा है. मिसाल के तौर पर अमरीका में अदालतों के फैसलों पर टिप्पणियाँ करना आम बात है और वो अवमानना के दायरे में नहीं आते हैं.
लेकिन पूर्व चीफ़ जस्टिस प्रमोद कोहली कहते हैं कि अगर अवमाना का कड़ा कानून नहीं हो तो फिर अदालतों का डर किसी को नहीं रहेगा. कार्यपालिका और विधायिका को मनमानी करने से रोकने का एक ही ज़रिया है और वो है न्यायपालिका.
वो कहते हैं, "अगर कानून और अदालतों का डर ही ख़त्म हो जाए तो फिर अदालतें बेमानी हो जाएंगी और सब मनमानी करने लगेंगे. इस लिए अदालत और कानून का सम्मान सबके अंदर होना ज़रूरी है."
कैसे वजूद में आया अवमानना क़ानून
साल 1949 की 27 मई को पहले इसे अनुच्छेद 108 के रूप में संविधान सभा में पेश किया गया. सहमति बनने के बाद इसे अनुच्छेद 129 के रूप में स्वीकार कर लिया गया.
इस अनुच्छेद के दो प्रमुख बिंदु थे- पहला कि सुप्रीम कोर्ट कहाँ स्थित होगा और दूसरा प्रमुख बिंदु था अवमानना. भीम राव आंबेडकर नए संविधान के लिए बनायी गई कमिटी के अध्यक्ष थे.
चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों ने अवमानना के मुद्दे पर सवाल उठाया था. उनका तर्क था कि अवमाना का मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए रुकावट का काम करेगा.
आंबेडकर ने विस्तार से सुप्रीम कोर्ट को इस अनुच्छेद के ज़रिये अवमानना का स्वतः संज्ञान लेने के अधिकार की चर्चा करते हुए इसे ज़रूरी बताया था.
मगर संविधान सभा के सदस्य आरके सिधवा का कहना था कि ये मान लेना कि जज इस क़ानून का इस्तेमाल विवेक से करेंगे, उचित नहीं होगा.
उनका कहना था कि संविधान सभा में जो सदस्य पेशे से वकील हैं वो इस क़ानून का समर्थन कर रहे हैं जबकि वो भूल रहे हैं कि जज भी इंसान हैं और ग़लती कर सकते हैं.
लेकिन आम सहमति बनी और अनुच्छेद 129 अस्तित्व में आ गया.(bbc)