विचार/लेख
कोरोना महामारी की वजह से लगभग सभी राज्यों के सरकारी स्कूलों की पढ़ाई ठप हो चुकी है लेकिन दिल्ली और केरल इस मामले में अपवाद हैं
-अभय शर्मा
बीते मार्च के आखिर में कोरोना वायरस के चलते लगाए गए लॉकडाउन ने स्कूल-कॉलेजों को ठप कर दिया. बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह से इंटरनेट यानी ऑनलाइन माध्यम पर निर्भर हो गयी. बड़े-बड़े शहरों के प्राइवेट स्कूलों ने कुछ ही समय में ऑनलाइन क्लॉस लगाने का इंतजाम कर लिया. इन्हें देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों ने भी सरकारी स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन माध्यम से कराने के आदेश जारी कर दिए. अधिकांश राज्यों का यह भी कहना था कि शुरुआत में जो दिक्कतें ऑनलाइन क्लॉस लगाने में आ रही हैं, उन्हें जल्द ही दूर किया जाएगा. इसके लिए उन्होंने सरकारी स्कूलों को हर तरह की मदद देने का वादा भी किया. तब से अब तक इतना लंबा समय गुजर चुका है फिर भी जमीनी स्थिति जस की तस ही नजर आती है. कई बुनियादी समस्याएं अभी भी ज्यादातर राज्यों में पहले जैसी ही हैं. हालांकि दो राज्य - दिल्ली और केरल - ऐसे हैं जो इस मामले में अन्य राज्यों से अलग नजर आते हैं.
दिल्ली
अन्य राज्यों की तरह ही दिल्ली में करीब ढाई महीने पहले सरकार ने ऑनलाइन क्लास चलाने का आदेश जारी किया था. अध्यापकों से कहा गया कि वे हर बच्चे तक अपनी पहुंच बनाए और कोशिश करें कि पढ़ाई लगभग उसी तरह हो, जैसी महामारी न होने पर हो रही थी. नीति केवल कागजों पर ही न रह जाए, इसके लिए सरकार ने अध्यापक से लेकर प्रधानाचार्य और शिक्षा अधिकारियों तक की जवाबदेही तय की. अध्यापकों को ऑनलाइन क्लास में पढ़ाने की ट्रेनिंग भी दी गयी.
पूर्वी दिल्ली में स्थित एक सरकारी स्कूल - सर्वोदय बाल विद्यालय - के प्रधानाचार्य दिनेश शर्मा (बदला हुआ नाम) सत्याग्रह से बातचीत में बताते हैं, ‘ये पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन है. पहले हमने बच्चों का एडमिशन ऑनलाइन किया फिर अलग-अलग क्लास के बच्चों के अलग-अलग वाट्सएप ग्रुप बनाये. उन्हें हम इन्हीं ग्रुप में ऑनलाइन पढ़ाते हैं और वर्कशीट देते हैं. कुछ ऐसे भी बच्चे हैं, जो आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हैं और एंड्रॉयड फोन उनके घर में नहीं हैं, तो उनसे सम्पर्क कर उनके माता-पिता को स्कूल में बुलाते है और उन्हें वर्कशीट (होमवर्क) देते हैं.’
जब दिल्ली के स्कूलों में ऑनलाइन क्लास शुरू हुई थीं, तब कई अभिभावकों का कहना था कि उनके घर में एक ही एंड्रॉयड फोन है और कभी-कभी ऑनलाइन क्लॉस के समय फोन उनके पास होता है और वे घर पर नहीं होते, ऐसे में बच्चे की क्लास छूट जाती है. दिनेश शर्मा से जब हमने यह सवाल किया तो उनका कहना था, ‘हां, यह समस्या थी, साथ ही कई बार कुछ बच्चे इंटरनेट कनेक्टिविटी की प्रॉब्लम के चलते क्लास सही से नहीं कर पाते थे, इसका भी तरीका ढूंढा. टीचर्स क्लास में जो पढ़ाना है उसका वीडियो बनाकर ग्रुप में डालते हैं जिसे बच्चा किसी भी समय देख सकता है. कुछ टीचर वाट्सएप ग्रुप में वर्कशीट के साथ अपनी एक ऑडियो रिकॉर्डिंग भी डालते हैं जिसमें वर्कशीट में दिए गए होमवर्क को कैसे करना है यह समझाया जाता है.’
लेकिन क्या बच्चे अपना होमवर्क पूरा करके उन्हें दिखाते हैं? दिल्ली के आनंद विहार इलाके में स्थित एक सरकारी स्कूल के टीचर अखिलेश कुमार (बदला हुआ नाम) कहते हैं, ‘क्लॉस की वीडियो डालने और उस क्लॉस से संबंधित वर्कशीट देने के बाद बच्चे का काम शुरू होता है. हम हर हफ्ते बच्चे को सभी विषयों की करीब 20-22 वर्कशीट देते हैं. इनमें दिया गया होमवर्क करके बच्चे को शनिवार तक स्कूल भेजना होता है. जो बच्चे वाट्सएप ग्रुप में जुड़े हैं, वे होमवर्क की फोटो खींचकर या उसे स्कैन करके ग्रुप में ही जमा करते हैं. ऐसे लगभग 90 से 95 फीसदी तक बच्चे होमवर्क पूरा करके जमा करा देते हैं. जो माता-पिता स्कूल से हर सोमवार को वर्कशीट लेने आते हैं, उनके लिए हमने नियम बनाया है कि जब तक बच्चा पिछले हफ्ते का होमवर्क करके नहीं देगा, तब तक हम उसे अगले हफ्ते की वर्कशीट नहीं देंगे. इसके चलते जो बच्चे ऑनलाइन नहीं जुड़े हैं, उनका होमवर्क हमें सौ फीसदी तक मिल जाता है.’ अखिलेश आगे जोड़ते हैं, ‘जो लोग स्कूल से वर्कशीट ले जाते हैं उनके बच्चे ऑनलाइन क्लास या वीडियो या ऑडियो तो देख और सुन नहीं पाते हैं, तो ऐसे लोगों से हम आस-पड़ोस के बच्चे (जिसके पास एंड्रॉयड फोन हो) से संपर्क साधने को कहते हैं जो उनके बच्चे को क्लास का वीडियो दिखा सकें. टीचर अपना मोबाइल नंबर भी देते हैं जिससे बच्चे कुछ न समझ में आने पर टीचर को फोन कर लें.’
बच्चों के रिस्पॉन्स को लेकर दिल्ली के यमुना विहार के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक शिखा कन्नौजिया (बदला हुआ नाम) सत्याग्रह को बताती हैं, ‘देखिये, हम सभी अध्यापकों पर ऊपर से दबाव है. हमें बच्चों की ऑनलाइन क्लॉस में उपस्थिति से लेकर उनके रिस्पॉन्स की पूरी रिपोर्ट बनाकर प्रिंसिपल को देनी होती है. हमसे पूछा जाता है कि कितने बच्चे क्लॉस में थे, कितने बच्चों ने होमवर्क करके दिया है और जिन्होंने होमवर्क नहीं दिया तो क्यों नहीं दिया... हम होमवर्क न करने वाले बच्चे के माता-पिता को फोन तक करते हैं... हर तरह से कोशिश करते हैं कि बच्चा किसी तरह होमवर्क कर ले.’ बातचीत के दौरान शिखा जो एक बात कहती हैं उससे भी दिल्ली में इस वक्त शिक्षा की स्थिति का थोड़ा अंदाजा लग सकता है - ‘आपसे सच कहूं तो दिल्ली के सरकारी स्कूल में इस कठिन समय में भी केवल उसी बच्चे तक शिक्षा नहीं पहुंच रही होगी जिसने ठान लिया हो कि उसे पढ़ना ही नहीं है.’
दिल्ली के लिए कहा जाता है कि यहां रहने वाला हर तीसरा व्यक्ति किरायेदार है. यानी दिल्ली में ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है जो अन्य राज्यों के मूल निवासी हैं. कोविड-19 के चलते लगे लॉकडाउन के दौरान कई लोग आर्थिक तंगी की वजह से दिल्ली को छोड़कर अपने गृहराज्य चले गए. जाहिर सी बात है कि इन लोगों में से ज्यादातर के बच्चे दिल्ली के सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं. क्या ऐसे परिवारों से जुड़े बच्चों से संपर्क साधा गया था? इस सवाल के जवाब में कई अध्यापकों का कहना था कि उनकी ऐसे बच्चों से संपर्क करने की कोशिश जारी है. उन्हें विभाग को यह जानकारी भी देनी होती है कि ऐसे कितने बच्चों से संपर्क साधा जा सका है.
अखिलेश कुमार कहते हैं, ‘हमने दो रजिस्टर बनाये हैं, एक में वे छात्र हैं जो हमारे संपर्क में हैं और दूसरे में वे जो संपर्क में नहीं हैं. हमने शुरू से ही (जून-जुलाई से) अपनी स्कूल मैनेजमेंट कमेटी के हर सदस्य को 20-20 बच्चों को खोजने और स्कूल के सम्पर्क में बनाये रखने की जिम्मेदारी दे रखी है. इन लोगों ने बच्चों को खोजने के लिए काफी प्रयास किए हैं और हमें इसमें काफी सफलता भी मिली है. आज मेरे स्कूल में 1260 बच्चे में से 1050 से ज्यादा हमारे संपर्क में हैं... काफी बच्चे ऐसे हैं, जो लॉकडाउन के समय उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड जैसी जगह पर चले गए थे. इनमें से कुछ को हमने खोज निकाला और वे वहीं से ऑनलाइन क्लॉस भी ले रहे हैं.’
दिल्ली के शिक्षा विभाग की कोशिशों का बच्चों को कितना फायदा मिल रहा है, इसके लिए सत्याग्रह ने कुछ अभिभावकों से भी बातचीत की. इस दौरान उन्होंने ज्यादातर उन बातों से सहमति जताई जो सत्याग्रह को दिल्ली के शिक्षकों ने बतायी थीं. ‘बच्चों की पढ़ाई पर स्कूल की तरफ से जोर दिया जा रहा है, वर्कशीट दी जातीं है, टेस्ट भी ऑनलाइन हुए हैं. दिन भर बच्चा पढ़ाई में लगा भी रहता है, बच्चे के खाली बैठने से तो यह बहुत अच्छा है.’ उत्तर-पूर्वी दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली छात्रा के पिता विकास शर्मा इस मामले में एक अलग समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहते हैं, ‘लेकिन इससे वो फायदा फिर भी नहीं हो रहा, जो स्कूल की क्लास में बैठकर पढ़ने से बच्चे को होता है. इसमें टीचर लेक्चर देकर चले जाते हैं, बच्चे को अगर कुछ समझ में नहीं आता तो वह बार-बार तो टीचर को फोन नहीं करेगा, कोरोना के चलते साथी बच्चों से भी समस्या साझा नहीं कर सकते. आखिर में होता ये है कि वर्कशीट समझाने के लिए माता-पिता को बच्चे के साथ लगना पड़ता है क्योंकि समय पर होमवर्क जमा करना जरूरी है... मेरा मानना है कि इस सब में अभिभावकों पर बहुत बोझ बढ़ गया है.’
कई अन्य बच्चों के अभिभावकों ने भी सत्याग्रह से बातचीत में इस समस्या का जिक्र किया. एक बच्चे के पिता दुर्गा सिंह कहते हैं, ‘मेरे बच्चे के स्कूल वाले अच्छा प्रयास कर रहे हैं. लेकिन ऑनलाइन क्लास में वैसा तो नहीं हो सकता जैसा स्कूल में बैठकर पढ़ने में होता है, बच्चे को एक बार में समझने में परेशानी आती है.
लेकिन यह समस्या तो उस तरीके की ही है जो दुर्भाग्यवश इस समय पढ़ाई का सबसे अच्छा तरीका है. टीचर शिखा कनौजिया कहती हैं, ‘दिल्ली का शिक्षा विभाग इस मामले में काफी सख्त है. किसी तरह की कोताही नहीं बरती जा रही है. हमारे विभाग के डायरेक्टर और शिक्षा मंत्री (मनीष सिसोदिया) बेहद जागरूक हैं और इस ओर विशेष ध्यान दे रहे हैं. कोरोना के समय में भी वे हर दिन किसी न किसी स्कूल में दौरा करने आते हैं, अच्छा काम दिखने पर हमारी पीठ भी थपथपाते हैं. शिक्षा मंत्री खुद टीचर्स और अभिभावकों के साथ बैठक कर रहे हैं. इससे हम लोगों का उत्साह बढ़ता है.’
केरल
भारत में कोरोना महामारी के मरीज सबसे पहले केरल में ही मिले थे. फरवरी और मार्च में कोरोना के मरीजों के मामले में केरल अव्वल भी था. लेकिन मई के अंत तक केरल सरकार की सक्रियता के चलते स्थिति पलट गयी और कोरोना के मरीजों की संख्या में बड़ी गिरावट आने लगी. कोविड-19 से निपटने के लिए भारत के अन्य राज्यों को केरल से सीख लेने की सलाह दी जाने लगी. कोरोना से निपटने में वाहवाही बटोरने वाला यह राज्य, अब शिक्षा के मामले में अन्य राज्यों के सामने उदाहरण पेश करता दिख रहा है. केरल सरकार ने जिस तरह से ऑनलाइन शिक्षा शुरू की है, उसकी हर तरफ तारीफ़ हो रही है और उससे सीख लेने की बात की जा रही है.
राज्य सरकार से जुड़े अधिकारियों की मानें तो केरल सरकार को अप्रैल और मई के दौरान ही इस बात का आभास हो गया था कि कोरोना महामारी जल्द जाने वाली नहीं है. शिक्षा विभाग ने उसी समय से बच्चों की पढ़ाई को लेकर बैठकें शुरू कर दी थीं. मई से ही कई स्कूलों में वाट्सएप या ज़ूम जैसी एप के जरिये ऑनलाइन क्लास करवाई जाने लगी थीं. लेकिन, शिक्षा विभाग के कई अधिकारियों का कहना था कि अगर केवल इंटरनेट पर निर्भर हो गए तो राज्य के लाखों बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाएंगे. इसका कारण यह था कि राज्य के दूर-दराज के गांवों में ऐसे बच्चों की संख्या बहुत ज्यादा है जिनके पास कंप्यूटर या एंड्रायड फोन नहीं हैं. बताते हैं कि फिर कुछ अधिकारियों ने अध्ययन के बाद ऑनलाइन क्लास टीवी चैनल के माध्यम से करवाने की सलाह दी. इनका कहना था कि टीवी न रखने वाले अभिभावकों की संख्या, स्मार्टफोन न रखने वाले अभिभावकों की संख्या के आधे से भी कम है. अमूमन देखने में भी आता है कि किसी गांव में गिने-चुने लोग ही ऐसे होते हैं जिनके पास टीवी नहीं होता है.
अधिकारियों का मानना था कि अगर टीवी पर क्लास चलती है तो बहुत कम बच्चे ही ऐसे होगें, जो टीवी उपलब्ध न होने के चलते क्लास नहीं कर पाएंगे. और हर गांव में ऐसे बच्चों की संख्या इतनी कम होगी कि अगर इन्हें किसी जगह पर इकट्ठा करके क्लास एक साथ करवाई जाएगी तो इनके कोविड की चपेट में आने का खतरा न के बराबर ही होगा. इसके बाद सरकार ने एक सर्वेक्षण करवाया जिसमें पता लगा कि केरल में करीब 45 लाख ऐसे बच्चे हैं जिनके पास टीवी और स्मार्टफोन हैं और वे ऑनलाइन क्लास करने में सक्षम हैं. लेकिन, 2.61 लाख बच्चे ऐसे भी हैं जिनके पास न तो टीवी है, न ही स्मार्टफोन. और ऐसे बच्चे ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में ज्यादा हैं.
इस सर्वेक्षण के बाद केरल सरकार ने फैसला लिया कि एक जून 2020 से नया सत्र शुरू होगा और ऑनलाइन क्लास केरल सरकार के अपने चैनल - विक्टर्स पर चला करेंगी. इस योजना का नाम ‘फर्स्ट बेल’ रखा गया. इसके बाद से विक्टर्स चैनल पर पहली से बारहवीं कक्षा के बच्चों की ये कक्षाएं पूरे दिन आयोजित होती हैं. हर क्लास का फिक्स टाइम होता और दो क्लासों के बीच आधे घंटे का गैप दिया जाता है. हर रोज टीवी पर सभी क्लास का प्रसारण होने के बाद इनके वीडियो फेसबुक और यूट्यूब पर भी अपलोड किये जाते हैं. सरकार ने हर जिले के प्रशासन को यह आदेश दिया कि जिन बच्चों के घर में टीवी की उपलब्धता नहीं है, उन्हें आंगनबाड़ी केंद्रों और लाइब्रेरी में टीवी लगाकर क्लास करवाई जाए. कई नेताओं और स्वयंसेवी संगठनों ने भी दूर-दराज के गांवों तक टीवी पहुंचाने की मुहीम चलाई. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड में करीब 350 टीवी सेट्स दिए हैं, ताकि बच्चों को ऑनलाइन क्लास लेने में कोई दिक्कत ना आए.

केरल के एक गांव में विक्टर्स चैनल के माध्यम से क्लास करते बच्चे | फोटो : ट्विटर
केरल के पत्रकार एस रामा कृष्णा कहते हैं कि केरल सरकार ने शिक्षा के मामले में बहुत जमीनी स्तर पर काम किया है. उसने न सिर्फ सर्वेक्षण कराये, बल्कि इस पर भी काफी समय तक काम किया कि एक टीचर को क्लास किस तरह से पढानी है. वे कहते हैं, ‘अध्यापकों को काफी रिहर्सल और ट्रेनिंग के बाद ही ऑनलाइन क्लास के लिए चयनित किया गया और उनके वीडियो टीवी पर प्रसारित किये गए. सरकार यह ध्यान भी रख रही है कि क्लास होने के समय बिजली की कटौती न की जाए.’
केरल सरकार ने इस बात पर भी ध्यान दिया है कि कहीं उनका यह प्रयास एकतरफ़ा न रह जाए, यानी सरकार टीवी पर ऑनलाइन क्लास का प्रसारण करती रहे, लेकिन ऐसा न हो कि बच्चे अपना होमवर्क ही न करें. ऐसा न हो इसके लिए सरकार ने अपने टीचर्स को काम पर लगाया है. उनसे कहा गया है कि हर हफ्ते टीचर को बच्चे के घर जाना है और वह किस तरह से क्लास ले रहा है, होमवर्क कर रहा है कि नहीं ये सब देखना है. टीचर्स को माता-पिता से ऑनलाइन क्लास को लेकर फीडबैक लेने के लिए भी कहा गया है. साथ ही बच्चे पढ़ाई में होने वाली कोई भी परेशानी टीचर से फोन पर साझा कर सकते हैं. विक्टर्स चैनल पर हफ्ते में एक बार माता-पिता के लिए भी क्लास आयोजित की जाती है जिसमें उन्हें ऑनलाइन क्लास का महत्व बताया जाता है. बच्चे और अभिभावक क्लास को गंभीरता से लें, इसके लिए यह भी साफ़ तौर पर कह दिया गया है कि कोरोना के दौरान इसी तरह से क्लास चलेगीं और परीक्षाएं भी आयोजित की जाएंगी.
केरल सरकार के इस तरह के प्रयास को देखते हुए कई अन्य राज्य भी उसी की राह पर चलने का मन बना रहे हैं. बीते हफ्ते ही तेलगाना सरकार ने केरल के ऑनलाइन क्लास के मॉडल का अध्ययन करने के लिए अपने एक आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल को वहां भेजने का फैसला किया है. तेलंगाना सरकार के शिक्षा से जुड़े चैनल - टीएटी - के सीईओ आर शैलेश रेड्डी ने यह जानकारी देते हुए कहा कि ऑनलाइन कक्षाओं में माता-पिता और शिक्षकों की भागीदारी सुनिश्चित करने में केरल का अनुभव अनुकरण करने लायक लग रहा है. इसलिए हमने यह फैसला लिया है.’
अन्य राज्यों का हाल
देश के अन्य सूबों में कोरोना काल में शिक्षा व्यवस्था किस तरह से चल रही है यह जानने के लिए सत्याग्रह ने कुछ और राज्यों की स्थिति का भी जायजा लिया. देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले उत्तर प्रदेश सहित अन्य सभी राज्यों में शिक्षा की स्थिति बदहाल ही नजर आयी. यहां के पीलीभीत जिले में बेसिक शिक्षा विभाग में बतौर डिस्ट्रिक्ट कॉऑर्डिनेटर (ट्रेनिंग) तैनात डॉ दीपक जैसवार से सत्याग्रह ने कोरोना काल में सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों पर बातचीत की. ‘हमने बच्चे तक शिक्षा पहुंचाने के लिए तीन माध्यम तैयार किए हैं. इनमें पहला हर स्कूल का वाट्सएप ग्रुप, दूसरा डीडी उत्तर प्रदेश चैनल और तीसरा माध्यम दीक्षा ऐप है.’ वे आगे कहते हैं, ‘हर विद्यालय का वाट्सएप ग्रुप बनवाया गया है, इसमें उस विद्यालय के सभी अध्यापक और (जितने संभव हो सकें उतने) बच्चों को जोड़ा गया है. सभी शिक्षक इस ग्रुप के माध्यम से बच्चों को होमवर्क देते हैं, वीडियो डालते हैं, राज्य शिक्षा परिषद द्वारा तैयार किया गया स्टडी मटेरियल डालते हैं, ऐसे लिंक डालते हैं जिन पर क्लिक करके बच्चा ऑनलाइन पढ़ाई कर सकता है.’
दीपक के मुताबिक जो बच्चे वाट्सएप ग्रुप में नहीं हैं, उनके लिए डीडी उत्तर प्रदेश चैनल पर रोज सुबह नौ बजे से एक बजे तक शिक्षा से जुड़े कार्यक्रम प्रसारित किये जाते हैं. एक घंटे का कार्यक्रम रेडियो पर भी आता है. ‘बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने के तीसरे माध्यम के तौर पर अध्यापकों से केंद्र सरकार के दीक्षा ऐप को अभिभावकों के स्मार्टफोन में डाउनलोड करवाने के लिए कहा गया है. इस ऐप में प्रत्येक कक्षा का स्टडी मटेरियल मौजूद है जिससे बच्चा पढ़ाई कर सकता है’ बच्चों से रिस्पॉन्स मिल रहा है कि नहीं यह पूछने पर दीपक जैसवार का कहना था, ‘हमारे टीचर लगातार बच्चों से फोन के माध्यम से सम्पर्क में हैं, बच्चों से पूछते हैं कि उन्होंने टीवी कार्यक्रम पर दिखाया गया और वाट्सएप ग्रुप में भेजा गया, स्टडी मटेरियल देखा कि नहीं.’
दीपक जैसवार ने जो जानकारी दी, उससे लगा कि उत्तर प्रदेश में शिक्षा के मामले में सब कुछ दुरुस्त है. लेकिन जब हमने छानबीन की तो सरकार के इन प्रयासों का असर जमीन पर होता नहीं दिखा. सत्याग्रह से बातचीत में राज्य के कई शिक्षकों और अभिभावकों ने साफ़ तौर पर कहा कि केवल कागजों पर ही यहां पढ़ाई होती नजर आ रही है, जबकि हकीकत ये है कि बच्चे शिक्षा से बिलकुल दूर हो गए हैं. उत्तर प्रदेश के एक प्राथमिक विद्यालय में कार्यरत अवधेश सक्सेना (बदला हुआ नाम) सत्याग्रह को बताते हैं, ‘शासन ने वाट्सएप ग्रुप बनाने का आदेश दिया है, लेकिन इस कवायद से बच्चों को कोई फायदा नहीं हो रहा. गांवों में बच्चों के माता-पिता के पास स्मार्टफोन ही नहीं हैं, शहरों और कस्बों में फिर भी 15 से 20 फीसदी बच्चों के माता-पिता के पास स्मार्टफोन हो सकते हैं, लेकिन गांवों में मुश्किल से दो-चार फीसदी के पास ही होंगे. अब आप ही बताइये कि ऐसे में कैसे पढ़ाई हो सकती है.’
एक अन्य गांव के जूनियर स्कूल में सहायक अध्यापक अरविंद दीक्षित (बदला हुआ नाम) भी लगभग वही बातें बताते हैं, जो अवधेश सक्सेना ने बतायीं. अरविंद बताते हैं, ‘मेरे विद्यालय में 170 बच्चों में से महज सात बच्चों के माता-पिता के पास एंड्रायड मोबाइल हैं, 160 के पास साधारण मोबाइल हैं और तीन बच्चों के माता-पिता के पास मोबाइल ही नहीं है. बहुत प्रयासों के बाद 15 से 17 बच्चों को हमने वाट्सग्रुप में जोड़ लिया है. इनमें कुछ के माता-पिता का नंबर है तो कुछ बच्चों के चाचा-ताऊ का. ग्रुप में स्टडी मटेरियल डालते रहते हैं. लेकिन यह बेहद कम बच्चों के पास ही पहुंच रहा है... यह पूरी कवायद केवल एकतरफा ही है, जिन दो-चार बच्चों को स्टडी मटेरियल और वर्कशीट मिलते हैं वो भी उसे पूरा करते हैं या नहीं इसकी गारंटी नहीं है. हम बच्चे पर किस तरह से दबाव बनायें.’
अरविंद दीक्षित ने बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने का व्यक्तिगत प्रयास भी किया, लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि वे इन प्रयासों से पीछे हट गए. उनके मुताबिक ‘विद्यालय तो सभी शिक्षक रोज जाते ही हैं, इसलिए हमने सोचा क्यों न बच्चों को गांव के किसी मैदान में दूर-दूर बिठाकर पढ़ाया जाए. कई माता-पिता इसके लिए तैयार हो गए, एक-दो दिन क्लास लगाई ही थी कि अखबार में पढ़ा कि बलिया में एक शिक्षक कुछ बच्चों को बिठाकर पढ़ा रहा था तो पूरा स्टॉफ निलंबित हो गया. यह खबर पढ़कर मेरी हिम्मत टूट गई.’
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने के तीसरे माध्यम दीक्षा ऐप को लेकर कुछ शिक्षकों का कहना है कि उनसे दीक्षा ऐप बच्चों के फोन में डाउनलोड करवाने के लिए कहा गया है. लेकिन यहां भी स्मार्टफोन की ही समस्या है. डीडी उत्तर प्रदेश चैनल पर आने वाले कार्यक्रम को बच्चे देखते हैं या नहीं, इसे लेकर भी सत्याग्रह ने कुछ अध्यापकों से सवाल किया. तो अधिकांश शिक्षकों का कहना था कि उन्हें यह जानकारी नहीं है कि रोज किसी चैनल पर बच्चों की पढ़ाई से जुड़े कार्यक्रम प्रसारित होते हैं. इन लोगों का कहना था कि उन्हें यह पता है कि कभी-कभार ऐसे कार्यक्रम टीवी और रेडियो पर प्रसारित होते हैं, जब भी ये प्रसारित होते हैं उससे कुछ दिन पहले विभाग की ओर से उन्हें इनकी जानकारी दे दी जाती है.
शिक्षकों के साथ-साथ अधिकांश अभिभावकों को भी इस बात की जानकारी नहीं है कि हर रोज चार घंटे किसी चैनल पर उनके बच्चों के लिए कार्यक्रम प्रसारित किये जा रहे हैं. कुछ माता-पिता का कहना है कि सरकार वाट्सएप ग्रुप बना ले या फिर टीवी पर कार्यक्रम चलवा ले, लेकिन जब तक अध्यापक घर-घर नहीं जाएंगे, इन कोशिशों का सकारात्मक नतीजा नहीं मिलने वाला. इन लोगों के मुताबिक ऐसा इसलिए है क्योंकि जब अध्यापक बच्चे के पास आकर उससे होमवर्क का हिसाब मांगेगा तभी बच्चे पर दबाव बनेगा और तब ही वह पढ़ाई करेगा.
कोरोना काल में उत्तर प्रदेश जैसी ही समस्याएं राजस्थान में भी नजर आ रही हैं. राजस्थान सरकार ने ऑनलाइन शिक्षा के लिए स्माइल (सोशल मीडिया इंटरफेस फॉर लर्निंग एंगेजमेंट) प्रोग्राम शुरू किया है. सवाई माधोपुर में एक जूनियर स्कूल में पढ़ाने वाले रजत अग्रवाल (बदला हुआ नाम) इस प्रोग्राम पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ‘छात्रों को रोज यूट्यूब वीडियोज भेजे जाते हैं. ये वीडियोज शिक्षक ही बनाते हैं और शाला दर्पण (शिक्षा विभाग का वेबपोर्टल) पर भेजते हैं. जिन्हें स्टेट लेवल पर बैठा पैनल सलेक्ट करके राज्य भर में भेजता है. स्कूलों में हर शिक्षक के पास एक क्लास का ग्रुप होता है. ऊपर से आने वाले कॉन्टेंट को हम बच्चों को फॉरवर्ड कर देते हैं. ये सारा उपक्रम बिल्कुल किसी आम व्हाट्सएप मैसेज फॉरवर्ड की तरह होता है, बतौर शिक्षक हमारी भूमिका ही खत्म हो गई है. मैसेज भेजने के बाद हमारी जिम्मेदारी ये होती है कि हम रोजाना पांच बच्चों को फोन करके पूछें कि उन्हें जो कॉन्टेंट भेजा गया था, उसे उन्होंने देखा या नहीं. इस जानकारी को हम ऑनलाइन अपडेट भी करते हैं. इसके अलावा रेडियो और टीवी प्रोग्राम भी सरकार चला रही है. बस बुरा ये है कि इतनी सब कवायद के बाद भी ये सब बहुत कम बच्चों तक ही पहुंच पा रहा है.’
अन्य राज्यों की तरह ही झारखंड सरकार ने बीते मई में ऑनलाइन शिक्षा का आदेश जारी कर दिया था. राज्य के हर स्कूल में वाट्सएप ग्रुप बनाया गया है इसमें अध्ययन सामग्री डाली जाती है. इसके अलावा ग्रुप में रोज सुबह नौ बजे से दस बजे तक ऑनलाइन पढ़ाई होती है और जिस अभिभावक के पास स्मार्ट फोन नहीं है उनसे कहा गया है कि अपने पड़ोसी या दोस्त से एक घंटे के लिए मांग कर बच्चों को दें.
झारखंड के तोर्पा जिले में एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाली सुमन गुप्ता डॉयचे वेले से बातचीत में कहती हैं कि पूरे स्कूल में पढ़ने वाले 115 बच्चों में से अब तक कुल 20-25 बच्चे ही ऑनलाइन क्लास का हिस्सा बन पा रहे हैं. क्योंकि ज्यादातर के पास या तो फोन नहीं, या इंटरनेट की कनेक्टिविटी इतनी खराब है कि बच्चों का ऑनलाइन आ पाना ही मुश्किल है. सुमन आगे कहती हैं, ‘कभी हम ऑनलाइन आ पाते हैं तो एक या दो बच्चे ही होते हैं, सिर्फ कुछ बच्चों को पढ़ाने का क्या फायदा जब बाकी बच्चों को अलग से पढ़ाना ही पड़ेगा.’ सुमन के मुताबिक उनके गांव में ज्यादातर लोग फीचर फोन इस्तेमाल करते हैं, और जिन गिने चुने घरों में स्मार्टफोन हैं भी, तो वहां या तो पिता के साथ फोन सारा दिन घर के बाहर रहता है, या फिर बड़े भाई के हाथ में. बच्चों की क्लास के टाइम के हिसाब से फोन मिल ही नहीं पाता.
देश के अलग-अलग राज्यों के सरकारी स्कूलों में कोरोना काल के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई की स्थिति को लेकर पत्रकार राकेश मालवीय कहते हैं, ‘शिक्षा के क्षेत्र में संसाधनों और दूरदर्शिता की कमी तो पहले से ही थी, कोरोना वायरस की वजह से स्थित और भी खराब हो गई है. बीते चार महीनों के ये अनुभव बताते हैं कि सरकारों ने गांव-गांव ऑनलाइन शिक्षा का आदेश तो जारी कर दिया, लेकिन इस बात पर गौर नहीं किया कि इंटरनेट और स्मार्टफोन की सुविधा का विस्तार और लैपटॉप या टैबलेट हर छात्र को देने की व्यवस्था करने की जरूरत है.’ राकेश मालवीय बच्चों की बेहतरी के लिए काम कर रहे कुछ स्वयंसेवी संगठनों से भी जुड़े हैं. सत्याग्रह से बातचीत में वे कहते हैं, ‘बच्चों से पहले सरकार को शिक्षकों को डिजिटल शिक्षा के लिए तैयार करने की जरूरत है और उनकी ट्रेनिंग कराने की जरूरत है. डिजिटल शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम भी बदलना होगा और नए टीचिंग मटीरियल तैयार करने होंगे. इस सबके बाद ही ऑनलाइन क्लास की बात सही लगती है.’ (satyagrah.scroll.in)
डॉ. परिवेश मिश्रा ने बांटी यादें.. एक पांच पैसे के पोस्ट-कार्ड ने याद दिलाया।
एक पोस्ट-कार्ड का फोटो, इसमें क्या लिखा गया और क्या पढ़ा गया, यह कहानी तो 1960 में पोस्ट-कार्ड लिखने और पढ़े जाने के बाद खत्म हो गयी थी।
किन्तु यह पांच पैसे का पोस्ट-कार्ड उस ज़माने में लोकप्रिय जीवनशैली और जीवनमूल्यों की याद दिलाने के लिए पीछे छूट गया।
किस परिवार में आपका जन्म होता है यह फैसला आपका नहीं होता। किन्तु जीवन में किन मूल्यों को अपनाना है उसका फैसला अवश्य आपकी पसन्द का होता है.
जवाहर लाल नेहरू जी और उनकी छोटी बहन विजयलक्ष्मी पण्डित जी के पिता मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद हाईकोर्ट और देश के प्रसिद्ध और सफलतम् वकीलों में से एक थे। पिता की अकूत धन दौलत और जीवनशैली को लेकर अनेक सच्ची झूठी कहानियां प्रचारित होती रही हैं - वाट्सऐप के आने के बाद तो ढेर सारी।
जैसे : उनके कपड़े लाॅन्ड्री के लिये पेरिस भेजे जाते थे (असत्य), उनका घर आनन्द भवन इलाहाबाद का पहला घर था जिसमें बिजली आयी और पानी के लिए नल लगे थे (सच), पहला घर था जिसमें अपना एक स्विमिंग पूल था (सच), आदि आदि।
कुछ सच और भी हैं। जैसे,1904 में इलाहाबाद में पहली कार खरीदने/लाने वाले मोतीलाल नेहरू ही थे।1905 और 1909 में भी खरीदीं और उसके बाद घर में गाड़ियों की लाईन लगती रही.
1962 की गर्मियों में मेरी उम्र दस वर्ष थी। उस उम्र और उस ज़माने के अन्य बच्चों की तरह डाक टिकिटों, सिक्कों और क्रिकेट खिलाड़ियों के अलावा कारों के बारे में अपनी जानकारी पर गर्व करता था।
मोतीलाल नेहरू के इकलौते बेटे जवाहर लाल नेहरू जी को जब मैंने दिल्ली में स्टैन्डर्ड-8 कार से उतरते देखा तो वह दृश्य मेरे बाल-मन के लिये किसी ऐन्टी क्लाइमेक्स से कम नहीं था। मैं पर्यटकों के एक छोटे से झुंड का हिस्सा था जो साउथ ब्लाॅक के दरवाजे के पास उनकी एक झलक पाने के लिए खड़ा था।
आम धारणा है कि 1983 में मारूती 800 के आने से पहले भारत में केवल फिएट (पद्मिनी) और एम्बेसडर कार ही चला करती थीं। एक कम-ख्यात कार कम्पनी और थी - मद्रास की स्टैन्डर्ड मोटर कम्पनी। इसकी बनायी स्टैन्डर्ड-8 बाद मे आयी मारूती 800 जैसी ही थी और उन दिनों भारत में बिकने वाली सबसे सस्ती और छोटी कार थी। और हमारे देश के प्रधानमंत्री ने अपने उपयोग के लिये इसे चुना था।
1947 में जब आज़ादी मिली भारत की GDP शून्य थी। विदेशी मुद्रा भंडार मायनस में था क्योंकि सारी उधारी ब्रिटेन पर थी और विश्व युद्ध के बाद कंगाल ब्रिटेन ने पैसों के मामले में हाथ ऊपर उठा दिये थे। तब विदेशी मुद्रा कमाने और बचाने की आवश्यकता थी। नेहरू जी ने आत्मनिर्भरता का नारा दिया था। लोगों को अपनी बात समझाने का उनका तरीका आसान था - भाषण के स्थान पर स्वयं का आचरण सामने रखते थे। नेहरू जी ने स्वयं कभी महंगी, विदेशी, ब्रैन्डेड घड़ियों, जूतों, चश्मों और कारों का उपयोग नहीं किया। कपड़े चूंकि दिन में बार बार बदलते नहीं थे, और आमतौर पर सिर्फ सफेद खादी पहनते थे, सो उसके खर्च भी कम थे। देश की अर्थव्यवस्था सुधारना तब सबसे पहली आवश्यकता थी। आम जनता ने भी मोह संवरण करना सीख लिया था।
ये भारत के उस काल की बात है जब किफ़ायत या मितव्ययता (कम या केवल आवश्यक खर्च करने की आदत) को कंजूसी का समानार्थी शब्द नहीं माना जाता था। धन सम्पत्ति के सार्वजनिक प्रदर्शन या फिज़ूलखर्ची को फूहड़ माना जाता था।
पं. जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी जी के द्वारा राजा नरेशचन्द्र सिंह जी को लिखे अनेक ख़त गिरिविलास पैलेस सारंगढ़ में रखे हैं। इनमें से कुछ अंतर्देशीय पत्रों पर लिखे गये थे तो कुछ लिफाफों में आये थे। कुछ पत्र पोस्ट-कार्ड पर भी लिखे गये थे।
ऐसे ही एक पोस्ट-कार्ड का फोटो इस पोस्ट में है। सितम्बर 1960 में नेहरू जी की बहन विजयलक्ष्मी जी अपनी विदेश पोस्टिंग से भारत आयी हुई थीं और नई दिल्ली में थीं। यह पोस्ट-कार्ड उन्होंने प्रधानमंत्री के निवास तीनमूर्ति भवन में रहते हुए लिखा था।
मेरे जो फेसबुक मित्र स्पीड पोस्ट और कुरियर के दौर में पले बढ़े हैं उन्हें बताता चलूँ कि उन दिनों पत्र लिखने के लिए तीन सामान्य साधन मौजूद हुआ करते थे - पोस्ट-कार्ड, अंतर्देशीय (या इन-लैन्ड) और लिफाफा। तीनों प्री-पेड होते थे। पोस्ट-कार्ड का इस्तेमाल वे करते थे जिनके पास पैसों की कमी हो या वे जिनके पास लिखने के लिए मैटर कम हो।
विजयलक्ष्मी जी ने पांच पैसे वाले पोस्ट-कार्ड पर पत्र लिखा। वे उन दिनों ब्रिटेन में भारत की राजदूत (हाई कमिश्नर) थीं। वे विश्व की पहली महिला थीं जो संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा की अध्यक्ष रह चुकी थीं। वे मोतीलाल नेहरू की बेटी थीं। मैं नहीं मान सकता कि दस पैसे का अंतर्देशीय या पंद्रह पैसे का लिफाफा खरीदने की उनकी हैसियत नहीं थी। पर चूंकि उनके पास लिखने के लिए जितना मैटर था उसके लिये पोस्ट-कार्ड काफी था और पोस्ट-कार्ड लिखने में उन्हे कोई संकोच या शर्म नहीं थी, सो उन्होंने पोस्ट-कार्ड ही लिखा।
ये वो ज़माना था जब सादगी शब्द लिखने बोलने में जितना प्रयुक्त होता था उससे अधिक इसका उपयोग जीवन जीने के ढंग में होता था। सादगी जैसा ही दूसरा महत्वपूर्ण शब्द था 'सदाचरण'। उच्च पदों पर बैठे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे निजि और शासकीय खर्चों में विभेद करने की समझ रखें। आमतौर पर वे निराश नहीं करते थे (अपवाद हर काल में होते हैं)।
उन दिनों डाक टिकिट दो प्रकार के होते थे। एक तो वो जो आम जनता के लिये थे और दूसरे थे रेवेन्यू डाक टिकिट। ये दूसरे प्रकार के टिकिट सरकारी डाक में इस्तेमाल होते थे और ज़ाहिर है इनका भुगतान सरकारी कोष से होता था। सभी सरकारी विभागों और मंत्रियों के कार्यालयों से बाहर जाने वाली डाक में यही टिकिट चिपकाये जाते थे।
विजयलक्ष्मी जी ने पोस्ट-कार्ड पारिवारिक मित्र को लिखा और यह उनकी निजी डाक थी। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, उन दिनों वे प्रधानमंत्री निवास में रह रही थीं। यदि वे चाहतीं तो इसे कार्यालय के डिस्पैच सेक्शन में भेज सकती थीं। राजस्व डाक टिकिट लगे लिफाफे में यह पत्र सफर कर लेता। किन्तु उनसे ऐसी चूक संभव नहीं थी। पांच पैसे के लिये भी नहीं।
इससे कुछ साल पहले विजयलक्ष्मी जी के हाथों हुई एक अनजानी चूक के परिणाम स्वरूप भाई जवाहर लाल नेहरू के बैंक बैलेन्स की जानकारी सार्वजनिक हो गयी थी। उस घटना ने विजयलक्ष्मी जी को आर्थिक सदाचरण के प्रति अवश्य ही और भी अधिक सतर्क बनाया होगा।
यह घटना 1954 की है जब पंजाब के गवर्नर ने विजयलक्ष्मी जी को मेहमान के रूप में शिमला आमंत्रित किया। आज़ादी के बाद पंजाब का विभाजन हुआ तो भारत के हिस्से आये पूर्वी पंजाब की राजधानी शिमला बनी थी। राज्यपाल का न्योता मिला तो विजयलक्ष्मी जी ने स्वीकार कर लिया और कुछ दिन शिमला में बिता कर वापस दिल्ली आ गयीं। शिमला के सरकारी गेस्ट हाउस में वे राज्यपाल के मेहमान के रूप में रही थीं। मेहमान के बिल का भुगतान राज्यपाल के द्वारा किया जाएगा ऐसा मान कर अधिकारियों ने विजयलक्ष्मी जी के सामने बिल पेश नहीं किया था। बाद में दफ्तर के किसी तकनीकी कारण के चलते राज्यपाल की ओर से भी भुगतान नहीं आया। इस बीच श्रीमती पंडित को राजदूत नियुक्त किया गया और वे दिल्ली से लंदन चली गयीं।
लगभग साल भर बीतने पर परेशान चीफ इंजीनियर 2064 रुपये के बिल के साथ पंजाब के मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर जी के पास पहुँचे। सच्चर जी का जब दिल्ली जाना हुआ तो ये बिल साथ लेते गये और उसे नेहरू जी के सामने रख दिया। भीमसेन जी के पुत्र राजेन्द्र सच्चर (सच्चर कमेटी वाले) आगे चल कर दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बने थे। उन्होंने पिता से सुनकर अपने संस्मरण में लिखा तो दुनिया को पता चला कि बिल देखते ही नेहरू जी ने तत्काल चेक बुक निकाल ली थी। पर जब पाया कि अकाऊंट में बैलेन्स कम है तो सिर्फ एक हज़ार रुपये का चेक काटा और भीमसेन जी से विनम्रता पूर्वक कहा : अभी मैं योरोप यात्रा पर जा रहा हूं। एक साथ इतनी राशि देने की स्थिति में नही हूँ। लौट कर बाकी भी चुका दूंगा। और दो किश्तों में प्रधानमंत्री ने परिवार के निजी खर्च का भुगतान कर दिया था। विजयलक्ष्मी जी से न पूछा न उन्हें बताया।
1943 में युवराज और राज्य के शिक्षा मंत्री नरेशचन्द्र सिंह जी विवाह के बाद पत्नी के साथ कलकत्ता में छुट्टियां व्यतीत कर सारंगढ़ लौटे थे। पीछे पीछे डाक से ग्रेट ईस्टर्न होटल का जब बिल पंहुचा तो पिता राजा जवाहिर सिंह जी ने भुगतान पर यह लिख कर रोक लगा दी थी कि यह युवराज का निजी खर्च है, इसलिए इसका भुगतान वे अपने अलाऊंस में से करें, स्टेट भुगतान नहीं करेगा। नियम कानून के पक्के पिता राजा जवाहिर सिंह जी से जो सीख मिली वह नरेशचन्द्र सिंह जी की जीवनशैली का हिस्सा बन गयी।
कुछ समय में पिता की मृत्यु के बाद नरेशचन्द्र सिंह जी राजा बने और आज़ादी के बाद सत्रह वर्षों तक मध्यप्रदेश में कैबिनेट मंत्री रहे। इस हैसियत से समय समय पर राज्य में दौरे करते रहे। किन्तु सर्किट हाऊस के खाने पीने के बिल ताउम्र उन्होंने अपने निजी खाते से ही अदा किये।
-डॉ. परिवेश मिश्रा
नर्मदा घाटी परियोजना में 30 बड़े, 135 मझौले और 300 छोटे बांधों के निर्माण का सिलसिला आज भी नही थमा है
- Medha Patkar
सरदार सरोवर परियोजना से विस्थापित और प्रभावित हजारों लोगों को जो मिला है, वह निश्चित ही दुनिया की किसी अन्य परियोजनाओं में इतने बड़े पैमाने पर नहीं मिला होगा, लेकिन इसके लिए बहुत लंबा संघर्ष किया गया। शासन करने वालों से लेकर समाज के विभिन्न तबकों, बुद्धिजीवियों, श्रमजीवियों से लगातार संवाद के बाद यह संभव हो पाया। हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व बैंक के समक्ष सवाल उठाने पड़े, तब परियोजना पर पुनर्मूल्यांकन के लिये निष्पक्ष आयोग गठित किया गया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि यह परियोजना केवल गलत मार्ग अपनाकर ही पूरी की जा सकती है अन्यथा नहीं। हमें सर्वोच्च अदालत में पहली बार छह सालों तक और फिर बार-बार खड़ा होना पड़ा। न्यायालय में हर प्रकार के अनुभव हमने सही तरीके से जांचे और धरातल से जुड़े रहे जनशक्ति के साथ और युवा व महिलाओं के योगदान लगातार सच्चाई को उजागर करते रहे।
मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में हमारी ताकत थे वहां के स्थानीय नागरिक, संगठन और आदिवासी, दलित, किसान, मजदूर, मछुआरे, केवट, व्यापारी आदि। विस्थापितों की हिम्मत और जीवटता के साथ हम कार्यकर्ता डटे हैं पिछले 35 सालों से। लेकिन हम तो आज भी न चुप बैठ पा रहे हैं, ना महोत्सव से अपने अनुभवों और सफलताओं को प्रचारित करना चाह रहे हैं। इसीलिए हमारी आंखों के सामने आज भी वे चेहरे, गांव और लोग संघर्ष कतते दिख पड़ रहे हैं, जिनका अब तक पुनर्वास बाकी है।
क्या हम ऐसी कोई चीज या लाभ मांग रहे है, जो कि कानूनी या नीतिगत दायरे से बाहर हो? क्या हम कोई जोर जबरदस्ती से छीन लेना चाहते हैं, किसी लालच में आकर? क्या हमने कभी हिंसा या अवैधता को अपनाया? गांधी जी के चौरीचौरा जैसे आंदोलन की तरह भी हमें कभी माफी नहीं मांगनी पड़ी जबकि हम उन्हीं के अहिंसा के मूल्य को गले लगाके रहे। यह हमारे संघर्ष का ही नतीजा था कि वह अब तक एक और ‘जालियांवाला बाग’ की पुनरावृत्ति नहीं कर पाई। हर हालात में हमारे लोग शांति का रास्ता पकड़कर चलते रहे। गलत तो नहीं किया। इससे भी हम संतुष्ट नहीं हैं। हिंसा के विविध रूपों में से एक होता है विस्थापन। आज महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और गुजरात के 214 किलोमीटर तक फैले 40,000 हेक्टेयर के जलाशय के क्षेत्र में उसके किनारे आज भी डटे हजारों परिवारों का संघर्ष जारी है।
पिछौडी, आवल्या, कडमाल, एकलवारा जैसे निमाड (मध्यप्रदेश) के मैदानी गांवों से उखाड़कर टिन शेड्स में फेंके गए परिवारों का संघर्ष भी आज भी जारी है। महाराष्ट्र के चिमलखेड़ी गांव में घरों में भी पानी घुस आया है। मणिबेली की जीवनशाला भी डूबने की कगार पर है। आज न केवल बांध के ऊपरी, बल्कि निचले हिस्से में भी किसान और मछुआरे परेशान हैं। इनका कभी डूबग्रस्तों या विस्थापितों की सूची में नाम ही नहीं है।
पर्यावरणीय सुरक्षा कानून, 1986 के तहत दी गई मंजूरी से यह स्पष्ट था कि कई प्रभावों पर न अध्ययन हुए थे और ना ही नुकसान के बारे में बात। बांधों के कारण नर्मदा नदी का पानी निर्मल न रहने की बात पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे को भी मंजूर न थी साथ ही वह यह जातने थे कि बांधों के के निर्माण से नदी का अन्त निश्चत है।
सरसदा सरोवर बांध पर नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की तमाम रिपोर्ट खोखली साबित हुई हैं अब तक। बांध की उपयोगिता और उसके लाभ पर देश की सर्वोच्च अदालत में बहस पूरे छह साल (1994 से 2000) तक चली। अंत में न्यायाधीश भरूचा ने अक्तूबर, 2000 के बहुचर्चित फैसले में स्वतंत्र राय देते हुए कहा है, “इस परियोजना का जबकि नियोजन ही पूरा नही हुआ है, तो जरूरी है कि इसे तब तक आगे न बढ़ने दिया जाय जब तक कि विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की समिति से पूरी जांच न करवाई जाय। उसी जांच के बाद इस योजना के लाभ-हानि का पता चलेगा। लेकिन अदालत में बहुमत (2 विरुद्ध 1) का फैसला इसे अनदेखा कर चुका है।
नर्मदा घाटी परियोजना में 30 बड़े, 135 मझौले और 300 छोटे बांधों के निर्माण का सिलसिला आज भी नही थमा है। बर्गी, इंदिरासागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर के विस्थापितों का दर्द नहीं मिट पाया है ऊपर से अब नए चुटका परमाणु योजना ने बांधों से पहले से ही विस्थापितों के सिर पर एक बार फिर से विस्थापन की तलवार लटक रही है।
हमने विस्थापन का दर्द तो सहा और यह मैं दावा से कह सकती हूं कि इस बांध के लाभों के जाल में आज भी फंसे हैं तीन राज्य (राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश)। सरदार सरोवर से लाभ दिलाने का दावा झूठ सावित हुआ है। बांध पूरा होते ही 18 लाख हेक्टर्स की सिंचाई का दावा अपने आसपास भी नहीं है। इसके अलावा गुजरात को 91 और राजस्थान को 9 प्रतिशत पानी का हिस्सा आज तक नहीं मिल पाया है। यही नहीं 20,000 किमी लम्बाई की छोटी-बड़र नहरों का निर्माण बाकी रहते ही बांध को 138.68 मीटर की ऊंचाई तक पहुंचा दिया गया।
आज का सरदार सरोवर निगम के अध्यक्ष का वक्तव्य बताता है कि अभी इस बांध के लिए 50 प्रतिशत नहरों का निर्माण बाकी है। सरदार सरोवर जलाशय से एक बूंद पानी पर न मध्यप्रदेश को, ना ही महाराष्ट्र को मिला है। महाराष्ट्र की पिछली सरकार ने तो 2015 में अपने हक का आधा पानी (5 टीएमसी) गुजरात को देने का अनुबंध भी किया, जो कि नर्मदा ट्रिब्युनल के फैसले के भी खिलाफ है। जहां तक गुजरात की बात है अब तक कच्छ की नहरें भी पूरी नहीं बन पाई हैं। यही हाल सौराष्ट्र का भी है।(downtoearth)
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तौमर ने संसद को लॉकडाउन के बाद मनरेगा योजना से संबंधित जानकारी दी
- Madhumita Paul, Dayanidhi
राज्यसभा में एक सवाल पूछा गया कि क्या कोविड-19 महामारी के कारण एमजीएनआरईजीए के तहत उत्पन्न औसत व्यक्ति दिनों के रोजगार में गिरावट आई है? सवाल के जवाब में ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, ने राज्यसभा में कहा कि कमी नहीं वृद्धि हुई है। एमजीएनआरईजीए के तहत अप्रैल से अगस्त 2020 के दौरान कुल रोजगार सृजन में 52.11 फीसदी की नहीं वृद्धि हुई है, जबकि अप्रैल से अगस्त 2019 के दौरान भी इतना ही था।
10,281 किसानों ने की आत्महत्या
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के रिपोर्ट एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सूइसाइड्स इन इंडिया' (एडीएसआई) 2019 के अनुसार, आत्महत्या करने वाले किसानों / खेत में काम करने वाले मजदूर जिन्होंने आत्महत्या की उनकी संख्या 10,281 थी जो वर्ष 2019 के दौरान कुल आत्महत्या करने वाले लोगों (1,39,123) का 7.4 फीसदी है। राज्य सभा में यह कृषि और किसान कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया।
बिहार में भारी बारिश के कारण 9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फसलों को हुआ नुकसान
कृषि और किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राज्य सभा में कहा कि देश के कुछ हिस्सों में भारी बारिश के रूप में चरम मौसम की घटनाएं हुई हैं। जिसके कारण खड़ी फसलें सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं। बिहार राज्य के अधिकतर क्षेत्र इससे ज्यादातर प्रभावित हुए हैं। जहां 9,22,038.82 हेक्टेयर क्षेत्र में धान, मक्का, फल और सब्जियों का नुकसान हुआ हैं।
छह वर्षों में जैविक खेती का क्षेत्र दोगुना हो गया (2014-2020)
जैविक खेती के तहत खेती योग्य भूमि क्षेत्र 2014 में 11.83 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2020 में 29.17 लाख हेक्टेयर हो गया है। यह सरकार केंद्रित प्रयासों के कारण हुआ है। जैविक पहल की सफलता को देखते हुए, 2024 तक 20 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र में जैविक खेती करने का लक्ष्य रखा गया है। कृषि और किसान कल्याण कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राज्य सभा में कहा कि जागरूकता कार्यक्रम के तहत पर्याप्त मात्रा में फसल होने के बाद उपलब्धता, विपणन सुविधाएं, जैविक उत्पादों की प्रीमियम कीमत आदि, निश्चित रूप से किसानों को जैविक खेती करने के लिए प्रेरित करेंगे।
टिड्डे के हमले के कारण फसल का नुकसान
गुजरात, छत्तीसगढ़, पंजाब और बिहार की राज्य सरकारों ने बताया है कि उनके राज्यों में किसी भी फसल का नुकसान नहीं हुआ है। हरियाणा सरकार ने चरखी दादरी के 2388 हेक्टेयर क्षेत्र, सिरसा में 489 हेक्टेयर, रेवाड़ी में 390 हेक्टेयर, भिवानी में 1700 हेक्टेयर, रोहतक जिले के महेंद्रगढ़ में 1129 हेक्टेयर, हिसार में 373 हेक्टेयर और 52 हेक्टेयर रोहतक जिले में कुल 33 फीसदी फसल के नुकसान होने के बारे में बताया है।
मध्य प्रदेश सरकार ने दमोह जिले में 4400 हेक्टेयर में सोयाबीन की फसल में 10-15 फीसदी नुकसान की सूचना दी है।
महाराष्ट्र की राज्य सरकार ने क्षेत्र में 33 फीसदी से कम, नागपुर में 236 हेक्टेयर, भंडारा में 160 हेक्टेयर, गोंदिया में 320 हेक्टेयर और अमरावती जिलों में 89.9 हेक्टेयर में फसल के नुकसान की सूचना दी है।
उत्तराखंड राज्य सरकार ने ऊधमसिंह नगर में 251 हेक्टेयर और बागेश्वर में 14 हेक्टेयर और पिथौरागढ़ जिलों में 2 हेक्टेयर में फसल क्षति (33 फीसदी से कम) की सूचना दी है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने जून / जुलाई, 2020 के दौरान टिड्डी हमले के कारण झांसी में 481 हेक्टेयर क्षेत्र और सोनभद्र जिलों में 071 हेक्टेयर क्षेत्र में फसल क्षति (33 फीसदी से कम) की सूचना दी है, यह सब कृषि और किसान कल्याण कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राज्य सभा में बतया।
चालू वित्त वर्ष में जॉब कार्डों में 137 फीसदी की वृद्धि हुई है
इस योजना में प्रवासी श्रमिक को जॉब कार्ड धारक / परिवार के रूप में वर्गीकृत जॉब कार्ड धारक के रूप में पंजीकृत करने का कोई प्रावधान नहीं है। प्रवासी श्रमिक / परिवार द्वारा मांग के खिलाफ अधिनियम के प्रावधान के अनुसार एक प्रवासी श्रमिक / परिवार को एक जॉब कार्ड जारी किया जा सकता है। ग्रामीण विकास मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राज्य सभा में कहा कि वित्त वर्ष 2019-20 की समान अवधि के दौरान जारी किए गए 36,64,368 नए जॉब कार्ड की तुलना में अब तक जारी वित्तीय वर्ष के दौरान कुल 86,81,928 नए जॉब कार्ड जारी किए गए हैं।
टीकाकरण सेवाओं में गिरावट
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने लोकसभा में कहा कि स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली (एचएमआईएस) के अनुसार कोविड-19 महामारी के कारण पिछले साल की तुलना में अप्रैल से 20 जून तक स्वास्थ्य सुविधा और आउटरीच सत्रों में आयोजित टीकाकरण सत्रों में हेपेटाइटिस-बी के जन्म की खुराक में 19.4 फीसदी की गिरावट आई है।(downtoearth)
एक तरफ बढ़ते तापमान और हीटवेव के चलते इन जीवों की उम्र तेजी से बढ़ रही है। वहीं दूसरी तरफ इनके शरीर पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है
- Lalit Maurya
वैसे तो जलवायु परिवर्तन सभी के लिए खतरनाक है पर वो जीव जो अपने शारीरिक गतिविधियों के लिए सूर्य की गर्मी के भरोसे पर जिन्दा रहते हैं, उनके लिए यह कुछ ज्यादा ही नुकसानदेह है | हीटवेव और बढ़ते तापमान के चलते इन जीवों की उम्र तेजी से बढ़ रही है। साथ ही इसके चलते इनके शरीर पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। साथ ही इन जीवों पर हीट स्ट्रेस बढ़ रहा है।
इन जीवों में मछली, उभयचर और सरीसृप जीव शामिल हैं जो अपने शरीर के तापमान को स्वयं नियंत्रित नहीं कर सकते इसके लिए उन्हें सूर्य की के प्रकाश की मदद लेनी पड़ती है। यही वजह है कि तापमान में हो रही वृद्धि का सीधा असर उनके शरीर पर भी पड़ रहा है। तेजी से बढ़ता तापमान उनके गतिविधियों को भी प्रभावित कर रहा है। इससे पहले भी पिछले वर्षों में किए गए शोधों से यह बात सामने आई है कि वातावरण में आ रहा बदलाव इन जीवों पर भी असर डाल रहा है। एक तरफ तापमान बढ़ने के कारण इनकी विकास दर भी बढ़ रही है साथ ही इसका असर इनके जीवन काल पर भी पड़ रहा है। जिसके कारण इनका जीवन काल भी घटता जा रहा है।
इस शोध से जुड़े शोधकर्ता जर्मन ओरिजोला के अनुसार तापमान में हो रही वृद्धि उनके शरीर की सहन क्षमता से भी ज्यादा बढ़ती जा रही है। जिसका प्रभाव उनकी गतिविधियों पर पड़ रहा है। जर्नल चेंज बायोलॉजी में छपे इस शोध से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन का इन जीवों की उम्र बढ़ने की दर पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
जीवों की संतान पैदा करने की क्षमता पर भी पड़ रहा है असर
ओरिजोला ने बताया कि इन जीवों की विकास दर में वृद्धिं होने से शारीरिक असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाएगी। उदाहरण के लिए इसके चलते प्रोटीन और डीएनए को ऑक्सीडेटिव क्षति होगी। साथ ही इससे टेलोमेरेस पर भी असर पड़ेगा। टेलोमेरेस, डीएनए को सुरक्षा प्रदान करता है। जितनी तेजी से टेलोमेरेस खत्म होते हैं उतनी तेजी से कोशिकाएं खराब होती हैं और शरीर की उम्र बढ़ती है। जिसका सीधा मतलब है कि जलवायु परिवर्तन सीधे तौर पर ठन्डे रक्त वाले जीवों में उम्र की दर पर अपना असर डाल रहे हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार क्लाइमेट चेंज के चलते जिस तेजी से जीवों की उम्र बढ़ रही है उसका इन जीवों की आबादी पर गंभीर प्रभाव हो सकता है। जैसे-जैसे जीवन प्रत्याशा घटती है, उसके साथ ही उनके संतान पैदा करने की क्षमता पर भी असर पड़ रहा है।
ऊपर से बाढ़, सूखा, बीमारियां और हीटवेव जैसी आपदाओं के चलते इन जीवों के उबरने की क्षमता पर असर पड़ रहा है। इसके साथ ही इन जीवों पर पड़ने वाला असर इनसे जुड़े अन्य जीवों पर भी असर डालेगा।
शोधकर्ताओं का मानना है कि इस बारे में बहुत ही सीमित खोज की गई है। उनके अनुसार इसके बारे में बेहतर समझ ने केवल जीवों पर क्लाइमेट चेंज के बढ़ते असर से निपटने में मददगार हो सकती है, साथ ही यह जानकारी इन जीवों के संरक्षण और प्रबंधन से जुड़ी बेहतर नीतियों के निर्माण में योगदान कर सकती हैं।
उदाहरण के लिए यदि मछलियों को ले लीजिये जिन्हें वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए पकड़ा जा रहा है, तब यह समझना जरुरी हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन इन जीवों की उम्र पर असर डाल रहा है ऐसे में इन्हें पकड़ने की दर को इनकी जनसंख्या के आधार पर तय किया जा सकता है। वहीं दूसरी तरफ जो प्रजातियां पहले ही खतरे में हैं उनपर उम्र घटने के कारण खतरा और बढ़ जाएगा, ऐसे में उनके संरक्षण के लिए सही समय पर कार्रवाई की जा सकती है। जबकि जिन जीवों के आवास पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ रहा है उन्हें वहां से अलग जगह पर भेजा जा सकता है।(downtoearth)
-दुनू राय
हाल में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर दिल्ली में झुग्गी बस्तियों के 48 हजार परिवारों को अपनी जमीन से हटाने की रेलवे की पहल पर सरकार ने रोक लगाने की कोशिश की है। दिल्ली और देशभर में खलबली मचाने और गरीबों के आशियानों और रोजगार पर चोट करने वाला यह मुद्दा कोई पहली बार नहीं उठा है। क्याआ है, अदालत के इस निर्देश की पृष्ठभूमि? प्रस्तु त है, इस विषय की पड़ताल करता दुनू राय का यह लेख। -संपादक
दिल्ली में रेलवे के इर्द-गिर्द बसे 48,000 परिवारों को बेदखल करने के सुप्रीमकोर्ट के फैसले ने तमाम लोगों को भयभीत कर दिया है। इन परिवारों का ‘दोष’ यह है कि उनकी वजह से रेलवे की ‘सुरक्षा’ को खतरा है। इस कानूनी पेंच को समझना जरूरी है।
फैसले की जड़ में एमसी मेहता की 1985 की वह याचिका है जिसमें गंगा प्रदूषण के बहाने कानपुर के चमड़ा उद्योग पर निशाना साधा गया था। उस समय अदालत में 35 वकीलों ने नगरपालिका, प्रशासन और 43 कारखानों की नुमाइंदगी की थी। हाल की सुनवाई में 417 वकीलों ने नियंत्रक, रेलवे, कचरा प्रबंधक, वायु-शुद्धि कम्पनी, मानक निर्माता और 12 ताप-विद्युत गृहों का पक्ष लिया।
गंगा प्रदूषण से बस्ती उजाडऩे तक का सफर कानून की चाल पर प्रकाश डालता है। 31 अगस्तु के मामले में ‘इनवायरनमेंट पॉल्यू शन (प्रिवेंशन एण्डा कन्ट्रोल) अथॅारिटी’ (ईपीसीए) ने सुझाया था कि रेलवे का कचरा उसे बीनने वालों को ही दे देना चाहिए, लेकिन फैसले में अदालत ने बीनने वाले को ही उजाड़ दिया! जब रेलवे खुद कहती है कि उसकी सुरक्षा खर्च पर निर्भर है, तब अदालत की निगाह इस पर क्यों नहीं जाती?
अदालत का यह कोई पहला निर्देश नहीं है। मेहता द्वारा दाखिल कई याचिकाओं के सहारे अदालत ने पहले दिल्लीक की 168 ज़हरीली फैक्टरियों को बंद किया था, फिर 75,000 और फैक्टरियों को भी अनियमित करार दिया था। डीजल बंद करवाया था और उसके तुरंत बाद 10,000 डीज़ल बसों की जगह 4,000 सीएनजी बसों पर ठप्पा लगा दिया था। पड़ोस के अरावली पर्वत की खदानों को सील किया तो भाटी माईन्सी की दो बस्तियों को उजाड़ दिया था। एक तरफ कोही को बचाने का हुक्म दिया, तो दूसरी तरफ वहां के 21 गावों में बेदखली का डर बसा दिया।
वर्ष 1996 में अलमित्रा पटेल के कचरा ना उठाने के मामले में अदालत ने पहले नगरपालिकाओं को फटकारा, फिर कहा कि ‘सबसे ज़्यादा प्रदूषण बस्तियों से है इसलिए उनको उठा देना चाहिए।’ उस पर टिप्पणी की गई कि ‘सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण करने वाले को मुफ्त पुर्नवास देना पाकेटमार को ईनाम देना है।’ ऐसे फैसले गऱीबों को प्रताडि़त करने में खूब काम आते हैं।
फैक्टरी मालिकों के समूह ने दिल्ली उच्च-न्यायालय में 1994 में कहा था कि ओखला में बहुत भीड़ है, सुविधाओं की कमी है। वर्ष 2002 में बर्तन निर्माताओं के समूह ने भी यही शिकायत वजीरपुर के बारे में की थी। अदालत ने दोनों को साथ मिला कर फैसला सुना दिया, ‘सरकार की जिम्मेदारी है आवास देना,’ लेकिन ‘हम झुग्गियों का पुनर्वास करने की नीति को ही खारिज कर देते हैं।’
उसी समय दिल्ली उच्च-न्यायालय की एक और पीठ झुग्गी उजाडऩे के खिलाफ 36 याचिकाएं सुन रही थी, लेकिन गरीबों की बात सुनने की जगह अदालत ने फरमान सुनाया, ‘फरवरी 1997 के बाद बनी सभी झुग्गियों को उजाड़ दिया जाये।’ बाद में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील करके दिल्ली अदालत के फैसले को रुकवा लिया था।
दिल्ली अदालत को इसकी खबर मिली तो उसने अपनी मजऱ्ी से झुग्गियों के खिलाफ यमुना को गंदा करने का मुकदमा दायर कर दिया। उनके सामने एक अध्ययन रखा गया कि पुश्ता से जो नालियां यमुना में मिल रही हैं उनमें पूरे प्रदूषण का केवल 0.08 फीसदी हिस्सा है, लेकिन हुक्म आया, ‘पुश्ता और खादर में जितनी भी इमारतें, झुग्गियां, धर्मस्थल हैं उनको तुरंत हटा दिया जाये।‘ वर्ष 2002 में पुश्ता से 60,000 गरीब परिवारों को उजाड़ दिया गया, जबकि खादर पर अमीरों के 23 अतिक्रमणों को किसी ने, कभी छुआ तक नहीं।
इसी तरह नागला माछी गांव पर, उनकी भैंसों की वजह से रिंग रोड पर गंदगी फैलाने और गाडिय़ों का जाम लगाने का दोष मढक़र अदालत ने निकालने का आर्डर दे दिया। सुरक्षा, प्राकृतिक-बचाव, प्रदूषण, भीड़, कचरा, ढोर, गन्दगी, ज़मीन-विषय कुछ भी हो, घुमा-फिराकर आखिर डंडा गरीबों पर ही पड़ता रहा है।
इस सबकी आड़ में यह बात छुपी है कि कानून के मुताबिक स्लम वो जगह है, जो रहने के लिए योग्य नहीं है; जो जर्जर और घनी है; जिसमें हवा, सडक़, रौशनी, सफाई की कमी है; जो ‘सुरक्षा, स्वास्थ्य और नैतिकता के लिए हानिकारक हैं।’ ‘दिल्ली विकास प्राधिकरण’ 60 वर्षों में गरीबों के लिए एक-तिहाई मकान बना पायी है। सरकार को मालूम है, इसीलिए पुनर्वास नीति है-घर तोड़ेंगे, तो दूसरा घर देंगे।
अब जमीन महँगी होती जा रही है और ‘अयोग्य’ जमीन गरीबों से छीनकर अमीरों को देना कुछ अटपटा सा है। इसलिए समाज में यह विश्वास फैलाया जा रहा है कि झुग्गी बाकी शहर की ‘सुरक्षा, स्वास्थ्य और नैतिकता के लिए हानिकारक हैं।’ जब तक अदालत और सरकार के इस दांव-पेंच को ईमानदार जनता, जन-प्रतिनिधि और मीडिया चुनौती नहीं देंगे, तब तक रोज़ी और रोटी से बेदखली का यह सिलसिला चलता रहेगा। (सप्रेस)
सामाजिक कार्यकर्ता और शोधकर्मी दुनू राय फिलहाल हॅजार्ड सेंटर दिल्ली से जुड़े हैं।
-राजेन्द्र चौधरी
तीस जनवरी को केरल में पहले मरीज की पहचान होने के बाद कोरोना वायरस से फैली कोविड-19 बीमारी को अब तक लंबा वक्त और अनुभव गुजर गए हैं। करीब साढ़े सात महीने के दुखद दौर के बाद भी कई लोग इसे महामारी तो दूर, सामान्य बीमारी तक मानने से इंकार कर रहे हैं। प्रस्तुत है, ऐसे लोगों के सवालों और जबाव पर आधारित राजेन्द्र चौधरी का यह लेख। -संपादक
देश-दुनिया में कोरोना से पीडि़तों की संख्या के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं और कई विशेषज्ञों के अनुसार कोरोना से पीडि़तों की संख्या वास्तव में इससे काफी अधिक है। दूसरी ओर कई लोग यह भी मानते हैं कि ये आंकड़े झूठे हैं, कि एक साजिश के तहत कोरोना के पीडि़तों की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पूछने पर कि ये बीमारी तो पूरे विश्व में फ़ैली है, क्या पूरी दुनिया की सरकारें झूठ बोल रही हैं, तो पट से जवाब आया कि ‘आप नहीं जानते, ये साजिश करने वाली कम्पनियां कितनी खतरनाक हैं और पूरी दुनिया की सरकारें आज कम्पनियों के शिकंजें में ही तो हैं।’
मैंने फिर कहा कि हमारे-आप के अड़ौस-पड़ौस में जो लोग बीमार हैं और मर रहे हैं, क्या वह भी झूठ है, तो जवाब था कि ‘सब पैसे का खेल है। लूटने की साजिश है। वरना दो दिन पहले संक्रमित पाया गया व्यक्ति दो दिन बाद कैसे ठीक हो जाता है। जहाँ तक मरने की बात है, व्यक्ति किसी भी बीमारी से मरे, अब उसे कोरोना के खाते में जोड़ दिया जाता है। कोरोना तो मौसमी सर्दी-ज़ुकाम जैसी बीमारी है, पर इसके चक्कर में साजिशन अर्थव्यवस्था और आम आदमी को तबाह करके रख दिया है।’ मैंने कहा कि मौसमी सर्दी-ज़ुकाम से तो कोई मरता नहीं सुना और यहाँ इंग्लैंड का प्रधानमंत्री मरते-मरते बचा है, अमित शाह को कितने दिन अस्पताल में रहना पड़ा है और उत्तंरप्रदेश में तो कई मंत्री मर भी गए हैं, तत्काशल जवाब आया कि ‘जब अमित शाह और अमिताभ बच्चन जैसे लोग, जिनके पास बचाव की हर तरह की सुविधा है, जब वो इसकी चपेट में आने से नहीं बच पाए, तो फिर हम किस खेत की मूली हैं।’ उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अहतियात बरतने से कोरोना के ‘आईसीयू’ में काम करने वाले स्वास्थ्य-कर्मी भी कोरोना से बच जाते हैं। इस तरह के कई और तर्क भी दिए गए, मसलन-यूरोप के लिए ये बीमारी बेशक घातक रही हो, पर भारत में तो इससे बहुत कम मौतें हो रही हैं आदि।
जब कोरोना को झूठ-मूठ खड़ा किया हुआ हउआ ही माना जाता हो, तो सावधानी बरतने की तो कोई संभावना ही नहीं है। चालान से बचने के लिए एक परत का एक मास्क मुंह पर बांध लिया जाता है, पर आम तौर पर नाक इससे बाहर ही रहती है। यह सही है कि लगभग 80 फीसदी मामलों में कोरोना मौसमी सर्दी-ज़ुकाम सरीखा ही है, पर शेष 20 फीसदी मामलों का क्या? ये भी ठीक है कि कोरोना के अलावा भी बीमारियाँ हैं जिनसे हर साल लाखों लोग मरते हैं, पर वो बीमारियाँ तो पहले से हैं और कोरोना से होने वाली मौतें, बीमारियाँ तो उनके अलावा हैं। ये ठीक है कि कोई भी जांच 100 फीसदी सही नहीं होती, पर सरकारें तो आमतौर पर कटु सच्चाई को दबाती हैं न कि बढ़ा-चढ़ाकर कहती हैं। विशेष तौर पर अब, जब तालाबंदी खुल चुकी है और अर्थव्यवस्था को बहाल करने का दबाव भी है, तो फिर सरकार क्यों कोरोना के मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगी? और दूसरी ओर कोरोना के बीच परीक्षा कराकर लोगों को नाराज़ करेगी?
ये मान सकते हैं कि कोरोना की जांच एवं इलाज में लगी कम्पनियों को कोरोना को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने का लालच हो सकता है, पर हवाई यात्रा, होटल, सिनेमा उद्योग जैसे क्षेत्रों में दुनिया की कितनी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां लगी हैं जो कोरोना के ‘तथा कथित हउए’ के चलते बंद होने की कगार पर हैं। वे इस झूठी साजिश का पर्दाफाश क्यों नहीं करतीं? आम आदमी के पास भले ही ऐसा करने के संसाधन न हों, पर इन कम्पनियों के पास तो इस साजिश का भांडा फोडऩे के पर्याप्त साधन होंगे। हाँ, यह भी हो सकता है कि हाल में कोरोना के मामलों में हुई वृद्धि जाँच में आई तेज़ी का परिणाम हों, पर इससे यह तो साबित नहीं होता कि कोरोना झूठा हुआ है।
यह भी सही है कि न केवल भारत, अपितु एशिया के अनेकों देशों में कोरोना से यूरोप और अमरीका के मुकाबले कम अनुपात में मौतें हुई हैं, पर यूरोप से कम घातक होने में और कोरोना के घातक न होने में तो दिन-रात का फर्क है। वास्तव में विस्तार से चर्चा करने पर अंत में पता चलता है कि ये लोग सरकार की कोरोना नियंत्रित करने की नीति से परेशान हैं। एकाएक, बिना पूर्व तैयारी के तालाबंदी निश्चित तौर पर गलत थी और इसलिए तालाबंदी से पर्याप्त लाभ भी नहीं हुआ, पर सरकारी नीति की कमियों के चलते यह कहना कि कोरोना झूठ-मूठ का हउआ है, गलत है। निम्नलिखित तथ्यों का घालमेल नहीं होना चाहिए- कि सरकार की कोरोना नीति सही नहीं है, कि कोरोना सब मामलों में घातक नहीं है, बल्कि कई मामलों में साधारण ज़ुकाम सरीखा है, कि कोरोना भारत में उतना घातक नहीं है जितना यूरोप और अमरीका में या कि कोरोना के बारे में अलग-अलग विशेषज्ञ अलग-अलग बातें कह रहे हैं, कि कोरोना के वायरस को जानबूझ कर छोड़ा गया है इत्यादि। इन बातों का घालमेल इसलिए नहीं होना चाहिए क्योंकि इनके निहितार्थ अलग-अलग हैं।
निश्चित तौर पर कोरोना एक झूठ-मूठ का हउआ नहीं है। सावधानी न बरती गई, तो ऐसा भी समय आ सकता है, और दिल्ली व मुंबई में आया भी था, कि जब अस्पताल में दाखिले के लिए बिस्तर ही न मिलें। इसलिए अपनी एवं दूसरों की सुरक्षा के लिए हमें पर्याप्त सावधानी बरतनी ही चाहिए। ठीक तरीके के मास्क-जो कम-से-कम तीन परत का हो, जिसके आर-पार बल्ब का प्रकाश न आ सके और जो मुंह और नाक को पूरी तरह ढकता हो, को ठीक तरीके से पहनना और उतारना जरूरी है।
कई बार खाने-पीने के लिए मास्क उतार कर फिर पहनते हैं तो यह ध्यान रहे कि अंदर और बाहर की दिशा बदल न जाए वरना मास्क पहनने से फायदे की बजाय नुकसान हो जाएगा। दुपट्टे या अंगोछे से चेहरा ढकने से अन्दर-बाहर की दिशा का अंतर करना संभव नहीं होता इसलिए ऐसा करने के बजाए मास्क का ही प्रयोग करें। मास्क के बाहर वाले हिस्से को छूने से बचें। उतारे हुए मास्क को ऐसे ही जेब में न डाल लें या इधर-उधर रख दें। केवल लोक-दिखावे के लिए सेनिटाईजऱ की एक बूँद मात्र का प्रयोग न करके हाथ को अच्छे से साफ करें। जहाँ तक संभव है, भीड़-भाड वाली जगह और अनजान लोगों के नजदीकी संपर्क में आने से बचना चाहिए। कोरोना से निपटने में सरकारी नीति की आलोचना अपनी जगह है और वह जरूर की जानी चाहिए, पर इसके चलते कोरोना के खतरे को नजरंदाज नहीं करना चाहिए। (सप्रेस)
श्री राजेन्द्र चौधरी महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक (हरियाणा) से सेवानिवृत्ती प्रोफेसर हैं।
-अमित कोहली
संसद के मौजूदा सत्र में किसानों और किसानी को प्रभावित करने वाले उन तीन विवादास्पद अध्यादेशों के कानून बनने की संभावना है जिन्हें केन्द्र सरकार ने अभी जून में लागू करके देशभर के किसान संगठनों के बीच बवाल खड़ा कर दिया था। सवाल है कि ऐसे स्पष्ट किसान विरोधी कानूनों को लेकर कोई देशव्यापी आंदोलन क्यों खड़ा नहीं होता? क्या हैं, किसान आंदोलनों के अडंगे? प्रस्तुदत है, तीन चर्चित अध्यादेशों के बरक्स किसान आंदोलन को लेकर अमित कोहली का यह लेख।-संपादक
केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने जून 2020 में कृषि से संबंधित तीन अध्यादेश पारित किए थे- ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य’ (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश-2020,’ ‘किसानों (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) का मूल्या आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं अध्यादेश-2020’ और ‘आवश्यक वस्तुत (संशोधन) अध्यादेश-2020।’ ये तीनों ही अध्यादेश कोविड-19 जैसी अभूतपूर्व आपदा में जारी तालाबंदी के दौरान लाए गए थे और संसद के मौजूदा मानसून सत्र में इन अध्यादेशों पर चर्चा होने और इन्हें कानून की शक्ल दिए जाने की उम्मीद है।
भारत में किसान अपने उत्पादों को ‘कृषि उपज मंडी’ में लाइसेंसधारी व्यापारियों को ही बेच सकते हैं। देखा जा रहा है कि इन मंडियों में व्यापारियों की संख्या कम होती जा रही है, जिससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं हो पाती, नतीजतन किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है। कानून किसान अपने उत्पाद को बाहर खुले में नहीं बेच सकते थे इसलिए मजबूरन वो मंडी के व्यापारियों के मोहताज बन जाते थे। ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य’ (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश-2020’ किसानों को आजादी देता है कि वे अपने उत्पाद को कहीं भी बेच सकें- वे सीधे खेत-खलिहान या फिर गोदामों और शीतगृहों से अपने उत्पााद बेच सकते हैं। वे अपना माल ले जाकर किसी कारखाने को भी बेच सकते हैं। किसान और व्यापारी अपने माल को अन्य राज्यों में भी ले जाकर बेच सकेंगे और व्यापारी खुद खेतों व गोदामों तक जाकर कृषि उत्पाद खरीद सकेंगे। यह अध्यादेश कृषि उपज की ऑनलाइन खरीदी-बिक्री को भी मान्यता देता है और राज्य सरकारों को किसानों, व्यापारियों और इलेक्ट्रॉनिक व्यापार प्लेटफार्मों से किसी भी तरह के लेवी, मंडी शुल्क या सेस लेने से भी रोकता है।
केन्द्र सरकार ने दावा किया है कि यह किसानों, व्यापारियों और आम उपभोक्ता ओं को कृषि उत्पाद बेचने, खरीदने, भंडारण और परिवहन करने जैसी आवश्यक गतिविधियों में आ रही अड़चनों को दूर करने के लिए व्यापक लोकहित में उठाए गए समीचीन कदम हैं। इसके जरिए किसानों को बेहतर मूल्य मिलेगा, ‘कृषि उपज मंडी समितियों’ का एकाधिकार खत्म होगा एवं व्यापारियों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा। सरकार का कहना है कि इससे कृषि उत्पादों की खरीदी-बिक्री में कुशलता, पारदर्शिता और बाधा-रहित व्यापार को प्रोत्साहन मिलेगा। सरकार के मुताबिक तीनों अध्यादेश किसान और व्यापारियों के हित में, उन्हें अपना माल खरीदने-बेचने की आज़ादी देते हैं। अनुमान लगाया जा रहा है कि सरकार कृषि उत्पादों की स्वतंत्र खरीदी-बिक्री सुनिश्चित करने के लिए ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) की व्यवस्था भी खत्म करने जा रही है।
‘किसानों (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) का मूल्य‘ आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं अध्याकदेश-2020’ के तहत किसान किसी व्यक्ति, सहकारी संस्था, कम्पनी आदि के साथ अपनी उपज को बेचने का अग्रिम करार, यानी फसल कटने से पहले ही उसे बेचने के लिए किया गया समझौता, कर सकते हैं। इस करार में उत्पाद की कीमत परस्पर सहमति से तय किए जाने की छूट है। करार के तहत किसान को मिलने वाली रकम, उसके द्वारा बैंक या किसी सरकारी योजना से लिए गए कर्ज से लिंक कर दी जाएगी।
मतलब, उपज के दाम मिलने पर पहले कर्जा चुकाया जाएगा, बची हुई रकम किसान के खाते में आएगी। कृषि उत्पाद की खरीद-बिक्री को नियंत्रित करने वाले राज्य सरकारों के कानून इस करार पर लागू नहीं होंगे। ‘आवश्य्क वस्तुफ (संशोधन) अध्यादेश-2020’ में भी जून 2020 में संशोधन किया गया है। इसके तहत अनाज, दालें, खाद्य तेल और चीनी को आवश्यक वस्तु के दायरे से बाहर कर दिया गया है। यानी अब इनका असीमित संग्रहण, भंडारण और परिवहन किया जा सकता है। जाहिर है कि ये तीनों अध्यादेश कृषि उपज को खुले बाजार के हवाले कर रहे हैं। किसान से अपेक्षा की जा रही है कि वो व्यापारियों, कम्पनियों, सहकारी समितियों से सौदेबाजी करके अपनी उपज का लाभप्रद मूल्य वसूल करे। आजादी के बाद से कृषि को मिले सरकारी संरक्षण का यह खात्मा है।
कृषि उपज के दाम नियंत्रित करना दुधारी तलवार है। उपज के दाम कम हों तो किसान संकट में आ जाता है और अगर किसान को उपज का पूरा दाम दे दिया जाए, मंहगाई अनियंत्रित हो सकती है। कृषि उत्पाद अन्य कई उद्योगों के लिए कच्चा माल होते हैं इसलिए आमतौर पर विश्व के अधिकांश मुल्कों की सरकारें अपने किसानों के हितों का संरक्षण करने के लिए, कृषि उपज के बाज़ार भाव को नियंत्रित करने के लिए, जमाखोरी और मुनाफाखोरी रोकने के लिए विशिष्ट प्रावधान करती हैं। हम जानते हैं कि 1990 के दशक में विदर्भ, तेलंगाना और फिर पंजाब में किसानों की आत्महत्या की खबरों ने देश को झकोरना शुरू किया था। उसके बाद से किसानों के हालात बदतर होते जा रहे हैं, लेकिन विरोध में कोई व्यापक आंदोलन जमीन पर नजर नहीं आता। इस विडम्बना की पड़ताल की जानी चाहिए।
पहली बात तो यह कि ‘किसान’ अपने आप में कोई एक समूह या वर्ग नहीं हैं। किसान जाति, जोत, वर्ग और राजनीतिक प्रतिबद्धता (यानी ‘वोट बैंक’) के रूप में न केवल बँटे हुए हैं, बल्कि परस्पर संघर्ष करते भी नजर आते हैं। इससे जुड़ा दूसरा पहलू किसानों की हैसियत का है। समाजशास्री एमएन श्रीनिवासन का विश्लेषण बताता है कि 1960-70 के दशक में जो ‘हरित क्रान्ति’ हुई थी, उसका लाभ देश के विभिन्न इलाकों में कुछ जातियों ने उठाया था। ये जाति समूह वर्ण-व्यवस्था में भले ही तथाकथित निचली और मध्यम पायदानों पर अवस्थित हों, लेकिन ‘हरित क्रान्ति’ का लाभ उठाकर उन्होंने अपनी न सिर्फ आर्थिक, बल्कि समाजिक और राजनैतिक हैसियत भी बढ़ाई और इसीलिए श्रीनिवासन इन्हें ‘प्रभुत्वशाली जाति’ (डॉमिनेन्ट कास्ट) कहते हैं। इनके राजनीतिक-आर्थिक हित हाशिए के उन किसानों से बेहद अलग, कुछ अर्थों में प्रतिकूल हैं, जो कम जोत की खेती करते हैं, कृषि आधारित अन्य दस्तकारी करते हैं या फिर कृषि मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं। देश में संसदीय और गैर-संसदीय दोनों तरह के राजनीतिक संगठन जब भी किसानों की बात करते हैं तब आमतौर पर वे किसानों के ‘सोपानबद्ध’ और परस्पर विरोधी समूहों में से किसी एक वर्ग की बात कर रहे होते हैं। परिणामस्वरूप किसानों की समस्याएँ गम्भीर और व्यापक होते हुए भी देश के राजनीतिक पटल पर कोई गम्भीर और व्यापक ‘किसान आन्दोलन’ नजऱ नहीं आता।
इसके बाद, अगली समस्या नेतृत्व और उसकी समझ की है। आजाद भारत के इतिहास में किसान नेता के रुप में हम 5-7 नामों की गिनती कर सकते हैं, जिनका काम और असर अधिकांशत: किसी भौगोलिक क्षेत्र या सामाजिक वर्ग तक ही सीमित रहा है। किसान नेतृत्व ऐसा राष्ट्रीय स्वरूप नहीं ले सका है जिसके साथ तमाम इलाकों और वर्गों के किसान लामबंद हो सकें। नेतृत्व से यहाँ यह आशय नहीं है कि कोई एक व्यक्ति ही हो, सामूहिक नेतृत्व की शक्ल में भी कोई आवाज सुनाई नहीं देती। विविध क्षेत्रीय आंदोलनों को जोडऩे और आपसी साझेदारी बनाने के प्रयासों की सीमा है। गणित के विपरीत राजनीति में भिन्न टुकड़ों को जोडऩे पर टुकड़ों का समूह बनता है, पूर्णांक नहीं बनता।
इसलिए मसला किसान आंदोलन की समझ का भी है। 1980 के दशक में देशभर में बड़े बांध, औद्यौगिक मछलीपालन, विस्थापन आदि के खिलाफ और वनोपज पर जनजातियों के अधिकार जैसे जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दों पर, मुद्दा आधारित क्षेत्रीय आंदोलन चल रहे थे। ये तमाम आन्दोलन 1990 के दशक के अंत तक धीरे-धीरे कमजोर होते गए और बीसवीं सदी के अंत तक पर्यावरण और आमजन को इनसे जो हासिल होना था, वह हो चुका था। इसके बाद से ये आंदोलन लगभग निष्प्रभावी हो गए हैं। किसानों की समस्या कोई मुद्दा नहीं है, ना ही किसान देश के किसी एक भौगोलिक क्षेत्र में बसते हैं। किसान के हित की बात करते हुए व्यापारी और कृषि मजदूर के हितों की अनदेखी नहीं की जा सकती। इसके साथ ही आम उपभोक्ता के सरोकारों का भी ध्यान रखना जरूरी है। इस रूप में कृषि की बात किसी एक वर्ग या क्षेत्र की बात न रहकर एक व्यापक स्वरूप ग्रहण कर लेती है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हाल में पेश हुए तीनों अध्यादेश कोई अकेली घटना नहीं है। एक बडे एजेण्डे के तहत सरकारों के समाजवादी और लोक-कल्याणकारी स्वरूप को सीमित करके बाज़ार की पहुँच और असर को बढ़ाया जा रहा है। ‘बहुपक्षीय व्यापार वार्ता’ के जरिए ‘तटकर और व्यापार पर सामान्य समझौते’ (जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड) तक पहुँचने के लिए ‘उरुग्वे दौर की बातचीत’ (1986 से 1994), जिसमें भारत समेत 123 राष्ट्र शामिल थे, में यह एजेण्डा खुलकर सामने आया था। इस बातचीत की परिणति एक जनवरी 1995 को ‘विश्व व्यापार संगठन’ (डब्ल्यूटीओ) के रूप में हुई थी।
इसमें कृषि उपज के साथ-साथ तमाम क्षेत्रों में सरकारी संरक्षणवाद को खत्म करके बाज़ार में बेलगाम वित्त के प्रवाह को खुली छूट देने की वकालत की गई थी। हम देख सकते हैं कि कृषि के साथ-साथ बैंक, खनन, भारी उद्योग, अधोसंरचना जैसे अर्थव्यवस्था के बुनियादी क्षेत्रों के हितों की रक्षा करने वाले कानूनों में आमूल-चूल बदलाव करते हुए विदेशी पूंजी निवेश के लिए जगह बनाई गई। हाल के अध्यादेश भी उसी श्रृंखला का हिस्सा हैं। इसलिए इसे सिर्फ कृषि या मंडी के व्यापारियों की समस्या के रूप में एकांगी दृष्टिकोण से देखने के बदले देश की व्यापक अर्थनीति और संवैधानिक प्रावधानों पर आए एक तात्कालिक संकट के रूप में देखना होगा।
तात्कालिक संकट की फौरी और पुरज़ोर प्रतिक्रिया जरूर होनी चाहिए, लेकिन यहीं तक सीमित रह जाना व्यापक लड़ाई को कमज़ोर करने वाला कदम हो सकता है। अर्थव्यवस्था और संवैधानिक मूल्य संकट में हैं। आजादी की लड़ाई जिन महान उद्देश्यों के लिए लड़ी गई, वो उद्देश्य भुलाए जा रहे हैं। आजादी के शुरुआती दशकों में नवनिर्माण के जिन सपनों को साकार करने के लिए लोगों ने खून-पसीना बहाया, उन सपनों को झुठलाया जा रहा है। समावेशी और प्रभावी आन्दोलन खड़ा करने के लिए हमें नेतृत्व, संगठन और लड़ाई के तौर-तरीकों पर नए सिरे से विचार करना होगा। इसकी राह तो आपसी संवाद और विमर्श से ही निकल सकती है, लेकिन इतना तय है कि मुद्दा आधारित और क्षेत्रीय आन्दोलनों का समय अब बीत चुका है। (सप्रेस) (लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
एक तरफ संसद में रक्षा मंत्री और गृहराज्य मंत्री के बयान और दूसरी तरफ चीनी विदेश मंत्रालय का बयान, इन सबको एक साथ रखकर आप पढ़ें तो आपको पल्ले ही नहीं पड़ेगा कि गलवान घाटी में हुआ क्या था ? भारत और चीन के फौजी आपस में भिड़े क्यों थे ? हमारे 20 जवानों का बलिदान क्यों हुआ है ? हमारे फौजी अफसर चीनी अफसरों से दस-दस घंटे क्या बात कर रहे हैं ? हमारे और चीन के विदेश और रक्षा मंत्री आपस में किन मुद्दों पर बात करते रहे हैं ? उनके बीच जिन पांच मुद्दों पर सहमति हुई है, वे वाकई कोई मुद्दे हैं या कोई टालू मिक्सचर है ?
गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय ने बुधवार को राज्यसभा में कह दिया कि पिछले छह माह में चीन ने भारतीय सीमा में कोई घुसपैठ नहीं की है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस कथन पर दुबारा मुहर लगा दी कि चीन ने भारत की किसी चौकी पर कब्जा नहीं किया है और वह भारत की सीमा में बिल्कुल नहीं घुसा है। जब मैंने नरेंद्र भाई के राष्ट्रीय संबोधन में इस आशय की बात सुनी तो मुझे बहुत धक्का लगा और मैं सोचने लगा कि चीन के इस अचानक हमले ने उन्हें इतना विचलित कर दिया कि यह बात उनके मुंह से अनचाहे ही निकल गई लेकिन मुझे तब और भी आश्चर्य हुआ, जब वे लद्दाख जाकर टीवी चैनलों पर बोले और उन्होंने चीन का नाम तक नहीं लिया।
अब भी संसद के दोनों सदनों में सिर्फ रक्षामंत्री बोले। प्रधानमंत्री क्यों नहीं बोले ? वे गैर-हाजिर ही रहे। उनका डर स्वाभाविक था कि चीन के नाम पर उनकी चुप्पी के कारण विपक्ष उन पर हमला बोलेगा। रक्षामंत्री राजनाथसिंह ने अपने मर्यादित लहजे में सारी कहानी कह दी। वह लहजा इतना संयत रहा कि उससे न तो चीन भडक़ सकता था और न ही चीन के खिलाफ भारत की जनता! सच्चाई तो यह है कि गलवान घाटी में हमारे सैनिकों के बलिदान पर संसद का खून खौल जाना चाहिए था लेकिन हमारा विपक्ष कितना निस्तेज, निष्प्रभ और निकम्मा है कि उसकी बोलती ही बंद रही।
इस संकट के वक्त वह सरकार का साथ दे, यह बहुत अच्छी बात है लेकिन वह सच्चाई का पता क्यों नहीं लगाए कि गलवान घाटी में गलती किसने की है ? हमारे जवानों के बलिदान के लिए जिम्मेदार कौन है ? उधर चीनी विदेश मंत्रालय ने भारत सरकार के सभी तेवरों और दावों पर पानी फेर दिया है। उसका कहना है कि चीन ने कहीं कोई घुसपैठ नहीं की है।
गलवान घाटी में जो मुठभेड़ हुई है, वह चीन की जमीन पर हुई है। भारत ने 1993 और 1996 में हुए सीमा पर शांति संबंधी जो समझौते हुए थे, उनका उल्लंघन किया है। भारत ही घुसपैठिया है। भारत पीछे हटे, यह जरुरी है। राहुल गांधी ने पूछा है कि मोदी किसके साथ है ? भारतीय सेना के साथ है या चीन के साथ ? सरकार के इस अटपटे रवैए पर राहुल का यह सवाल थोड़ा फूहड़ है लेकिन सटीक है लेकिन राहुल का वजऩ इतना हल्का हो चुका है कि ऐसी बात भी हवा में उड़ जाती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-राजू साजवान
केंद्र सरकार ने 18 सितंबर 2020 को जानकारी दी कि चीन में लॉकडाउन खुलते ही भारत में दवाओं के कच्चे माल (जिसे एपीआई -एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट- कहा जाता है) की आपूर्ति शुरू हो गई थी और मार्च से अगस्त के बीच लगभग 5,500 करोड़ रुपए का एपीआई आयात किया जा चुका है।
राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में रसायन एवं उर्वरक मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने बताया कि दवा के निर्माण के कई एपीआई चीन से आयात किए जाते हैं। सीडीएसओ के विभिन्न बंदरगाह कार्यालयों के आंकड़ों के अनुसार मार्च में 4448.9 टन एपीआई चीन से आयात किया गया, जिसकी कीमत लगभग 795 करोड़ रुपए थी। इसी तरह अप्रैल में 897 करोड़ रुपए की कीमत के 5,341 टन एपीआई आयात किया गया। इसके बाद मई-जून में आयात में कमी आई। जुलाई में आयात में तेजी आई और पिर अगस्त में आयात में कमी आई है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि सीमा पर लगातार तनाव की खबरों के बीच सरकार बार-बार कहती रही है कि चीन से व्यापारिक रिश्ते खत्म किए जाएंगे, लेकिन एपीआई आयात में कुछ गिरावट के बाद फिर से तेजी बनी हुई है।
दिलचस्प बात यह है कि केंद्र सरकार कह रही है कि उसके पास चीन द्वारा एपीआई पर वसूले जा रहे किसी तरह के अतिरिक्त शुल्क की शिकायत नहीं आई है, लेकिन सरकार के आंकड़े बताते हैं कि मई 2020 में एपीआई का आयात तो कम किया गया, लेकिन कीमत अधिक चुकानी पड़ी। जैसे कि अप्रैल 2020 में चीन से 5,341 मीट्रिक टन एपीआई का आयात किया गया, जिसका मूल्य 897.57 करोड़ बताया गया है, लेकिन मई में केवल 3,961.4 टन एपीआई आयात किया गया, जबकि इसका मूल्य कम होने की बजाय बढ़ गया और 949.42 करोड़ रुपए कीमत की एपीआई का आयात हुआ बताया गया है। इसी तरह जून-जुलाई में भी आयात कम हुआ, लेकिन कीमत ज्यादा देनी पड़ी।
महीना आयात की मात्रा, टन में मूल्य करोड़ में
मार्च, 2020 4,448.9 795.02
अप्रैल, 2020 5,341.7 897.57
मई, 2020 3,961.4 949.42
जून, 2020 3,634.1 973.42
जुलाई, 2020 4,812.1 1,094.82
अगस्त 2020 4,023.5 804.81
स्त्रोत: डीसीजीआई, सीडीएसओ
चीन से आयात होता है 72 फीसदी कच्चा माल
राज्यसभा में पूछे गए एक अन्य सवाल के जवाब में गौड़ा ने बताया कि भारत दवाइयों के उत्पादन के लिए विभन्न बल्क औषधि/सक्रिय औषधीय सामग्री (एपीआई) का आयात करता है। बल्क औषधि, माध्यमिक औषध के कुल आयात का दो तिहाई हिस्सा चीन से आयात किया जाता है। रसायन मंत्री ने बताया कि 2017 में 68.62 फीसदी कच्चा माल चीन से आयात हुआ, जबकि 2018 में 66.53 फीसदी और 2019 में 72.40 फीसदी कच्चा माल चीन से आया।
आत्मनिर्भरता के प्रयास में जुटी सरकार
सरकार ने बताया है कि एपीआई और बल्क औषधियों के आयात पर निर्भरता कम करने और आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए औषध विभाग ने दो योजनाओं की शुरुआत की है। एक- भारत में महत्वपूर्ण मुख्य प्रारंभिक सामग्रियों /ड्रग इंटरमीडिएट और एपीआई के घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना और दूसरा- बल्क औषधि पार्कों का संवर्धन। इन दोनों योजनाओं के दिशानिर्देश 27 जुलाई 2020 को जारी किए गए हैं।
एपीआई क्या है
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार तैयार फार्मा उत्पाद यानी फॉर्मुलेशन के लिए इस्तेमाल होने वाले किसी भी पदार्थ को एपीआई यानी एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट कहते हैं। एपीआई ही किसी दवा के बनाने का आधार होता है, जैसे क्रोसीन दवा के लिए एपीआई पैरासीटामॉल होता है, तो आपने यदि पैरासीटामॉल का एपीआई मंगा लिया, तो उसके आधार पर किसी भी नाम से तैयार दवाएं बनाकर उसे निर्यात कर सकते हैं। इसे एक तरह से तैयार दवाओं का कच्चा माल भी कहा जा सकता है।(DOWNTOEARTH)
-ओम थानवी
डॉ कपिला वात्स्यायन के निधन पर कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा। यों उन्होंने कमोबेश पूरा (वे 92 साल की थीं) और सार्थक जीवन जिया। कला और संस्कृति के क्षेत्र में उनके योगदान पर बहुत कुछ कहा गया है। संस्थाएँ खड़ी करने पर भी। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र उन्हीं की देन है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आइआइसी) को सांस्कृतिक तेवर प्रदान करने में उनकी भूमिका जग-ज़ाहिर है। इतने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयोजन मैंने आइआइसी में देखे-सुने कि उससे दिल्ली के कुछ अलग दिल्ली होने का अहसास होता था।
जयदेव कृत 'गीत-गोविंद' पर अपने शोध और भरत के नाट्यशास्त्र के विवेचन से बौद्धिक हलकों में उन्होंने नाम कमाया। पारंपरिक नाट्य परंपरा पर भी उन्होंने विस्तार से लिखा है। बाद में उन्होंने शास्त्रीय और लोक दोनों नृत्य शैलियों पर काम किया। मूर्तिकला — ख़ासकर देवालयों में उत्कीर्ण नृत्य-मुद्राओं — का उनका गहन अध्ययन सुविख्यात है। साहित्य और चित्रकला के नृत्य विधा से रिश्ते पर भी उन्होंने शोधपूर्ण ढंग से लिखा। सांसद के नाते उन्होंने कई बार राज्यसभा में पुराने वास्तुशिल्प और मंदिरों की मूर्तिकला को सहेजने का सरोकार ज़ाहिर किया।
मुझे उनका निजी स्नेह हासिल था। एक बार अनिल बोर्दिया जी ने संकेत किया था कि अज्ञेयजी से अपने संबंधों का ज़िक्र कपिलाजी के सामने न छेड़ बैठूँ। दरअसल अज्ञेय की शादी पहले 1940 में संतोष मलिक से हुई थी। दिल्ली में लेखिका सत्यवती मलिक (कपिलाजी की माँ) का लेखक समुदाय में बड़ा दायरा था। वह शादी चंद रोज़ में टूट गई। संतोष की शादी बाद में अज्ञेय के सहपाठी रहे फ़िल्म अभिनेता बलराज साहनी से हुई। दस साल बाद रेडियो में काम करते हुए संतोष की भतीजी कपिला मलिक से अज्ञेय की घनिष्ठता हुई और कुछ समय बाद विवाह। तेरह साल बाद वे भी अलग हो गए।
बहरहाल, बोर्दियाजी की सलाह पर मैं कुछ समय ही सावधान रह सका। फिर वह सीख बिसरा गया। अच्छा ही हुआ। पाया कि कपिलाजी के मन में, आम धारणा के विपरीत, अज्ञेयजी के प्रति अब कटुता नहीं है। संबंध-विच्छेद के दौर में लोगों ने जो देखा-सुना, उससे धारणा बनी होगी। जबकि 2011 में अज्ञेय जन्मशती मनाई गई तो वे साहित्य अकादेमी में अज्ञेय रचनावली के लोकार्पण में शामिल हुई थीं। मैंने 'अपने अपने अज्ञेय' के संपादन के दौरान जो-जो सहयोग माँगा, उन्होंने दिया। सिवाय स्वयं कोई संस्मरण लिखने के। सुख-दुख के इतने लम्बे साथ पर क्या लिखतीं, क्या नहीं!
उन्हें पहले-पहल मैंने अज्ञेयजी के अंतिम संस्कार में देखा था, निगम बोधघाट पर। तब वे बड़ी अधिकारी थीं। दूरदर्शन उनके अधीन था। फूट-फूट कर रोते वक़्त दूरदर्शन का कैमरा उनकी ओर हुआ तो उन्होंने ग़ुस्से से उसे परे धकेल दिया। घाट से पहले वे अज्ञेयजी के घर भी गई थीं। इला डालमिया ने उन्हें फ़ोन कर निधन की सूचना दी।
संस्कृति के बौद्धिक परिवेश में कमलादेवी चट्टोपाध्याय, रुक्मिणी देवी अरुंडेल और कपिला वात्स्यायन की एक विदुषी-त्रयी बनती है। कल अंतिम कड़ी भी टूट गई। पता नहीं, एक साथ ऐसा समर्पित समूह अब कब अवतरित होगा।
कपिलाजी की मंद-मंद मुसकान को स्मरण करते हुए उन्हें विदा का प्रणाम।
पढ़ें : ‘साथी’ संस्था के भूपेश तिवारी का लिखा -
बस्तर का परम्परागत सपोर्ट सिस्टम (एक दूसरे को सहयोग करने की भावना) अद्भुत है, शादी विवाह, धार्मिक अनुष्ठान, मृत्यु के समय होने वाले कार्यो अथवा अन्य किसी भी प्रकार के सार्वजनिक आयोजनों का प्रबंधन बहुत ही आसान एवं बिना आर्थिक भार के सबके सहयोग से सम्पन्न किया जाता है, जबकि सभ्य एवं विकसित समाजों में इस प्रकार के आयोजनों की जिम्मेदारी उस व्यक्ति की होती है, जिसके यहां कार्यक्रम आयोजित हो रहा है।
बस्तर का आदिवासी समुदाय विपरीत परिस्थितियों में, न्यूनतम शासकीय सुविधाओं के बावजूद खुश रहने वाला है। सरकार द्वारा स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, रोजगार आदि जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध ना करवाने के बाद भी कभी शिकायत ना करते हुए जो मिल रहा है उसी में खुश है।
बस्तर के लोग संग्रह करने की जगह अपरिग्रही है, प्रकृति से उतना ही लेते है, जितने की आवश्यकता है। हमारे जैसे पढ़े-लिखे लोग अपने घरों में सालभर हेतु आवश्यक खाद्यान्न एक बार में ही संग्रह करके रखते हैं, जबकि उसके उलट स्थानीय लोग ज्यादा से ज्यादा 1 या 2 सप्ताह के राशन अथवा अन्य संसाधनों की व्यवस्था करके रखते है।

वैश्विक महामारी कोविड-19 के कारण मार्च माह से जब लॉकडाउन प्रारंभ हुआ तो आनन्द से जीने वाले बस्तर के लोगों को काफी परेशानी में डाल दिया। नारायणपुर, कोण्डागांव, बस्तर जिले के लोगों के साथ ग्रामीण विकास के कार्य करने वाली ‘साथी’ समाज सेवी संस्था ने कोरोनाकाल में अपने हितग्राहियों को कोरोना के कारण उत्पन्न स्थिति में बहुत मुसीबत में देखा तथा अपने सामाजिक दायित्व को समझते हुए आपदा की इस घड़ी में ग्रामीण समुदाय को यथा योग्य सहयोग उपलब्ध कराने का जिम्मा उठाया।
नारायणपुर एक छोटा सा जिला जिसकी जनसंख्या सिर्फ 140000 तथा सभी गांवों तक खाने-पीने राशि आदि की सप्लाई या तो नारायणपुर शहर से है या फिर साप्ताहिक हाट बाजारों से है। लॉकडाउन के कारण नारायणपुर शहर तथा गांव-गांव में लगने वाले साप्ताहिक हाट बाजार बंद होने तथा गांवों से शहर तक आने वाले वाहनों का संचालन पूर्णत: जब बंद हो गया तो नारायणपुर से गांव-गांव तक पहुंचने वाली आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बन्द हो गई। गांव के दुकानदारों के पास अपने स्वंय के वाहन ना होने के कारण वो लोग नारायणपुर से आवश्यक वस्तुओं को गांव तक ले जाने में असमर्थ हो गए। ऐसी परिस्थिति में ग्रामीणों को दैनन्दिन खाने पीने की वस्तुओं का मिलना मुश्किल हो गया था।
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साथी समाज सेवी संस्था जो पिछले 30 वर्षों से बस्तर के लोगों के विकास के लिए कार्य कर रही है, जब हमारे संज्ञान में खाने-पीने की वस्तुओं की गांव में अनुपलब्धता की समस्या आई तो संस्था ने इस समस्या के समाधान की दिशा में कार्य करने का निर्णय लिया। हमारा मानना था कि जिस समाज के साथ हम वर्षों से कार्य कर रहे हैं अगर आज हम उस समाज के कठिन समय में उनके साथ खड़े नहीं होंगे तो कल उन्हें अपना मुंह कैसे दिखाएंगे।
संस्था के कार्यकर्ताओं तथा पदाधिकारियों के संयुक्त प्रयासों से 5 लाख रुपये एकत्रित कर उससे राहत सामग्री वितरण का कार्य प्रारंभ किया। राहत सामग्री में हमने राशन तथा स्वच्छता किट का वितरण करना प्रारंभ किया, प्राथमिकता के आधार पर पहचान कर अति जरूरतमंद परिवारों तक राशन पहुंचाने का जो सिललिसा अप्रैल माह में प्रारंभ हुआ वो आज भी जारी है, संस्था ने अपने सहयोगी संस्थानों को प्रस्ताव भेज कर राहत सामग्री वितरण हेतु सहयोग मांगा और अधिकतर संस्थाओं ने हमें भरपूर सहयोग उपलब्ध कराया है, प्रमुख रूप से अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन, अजीम प्रेमजी फिलियोथ्रोपिक इनीशियेटिव, अकाई फाउण्डेशन, क्रियेटिव डिग्निटी, जीव दया फाउण्डेशन के साथ व्यक्तिगत रूप से शेफाली खन्ना डिजाइनर तथा रूचि एवं आकाश शर्मा लंदन, रवि शर्मा बैंगलोर, डॉ बी.एल. शर्मा, ग्वालियर आदि ने बढ़-चढक़र इस राहत के यज्ञ में अपना योगदान दिया ।
नारायणपुर जिले में बुजुर्ग, दिव्यांग, गर्भवती महिलाओं, विधवाओं, परित्यक्ताओं, सिंगल मदर्स आदि को मिलाकर लगभर 1347 परिवारों के 5611 लोगों तक प्रथम चरण में राहत सामग्री पहुंचाई गई।
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सघन मलेरिया, डायरिया तथा कोविड-19 से बचाव हेतु जागरूकता अभियान
नारायणपुर छत्तीसगढ़ राज्य का अत्यंत पिछड़ा जिला है, जिले का ओरछा (अबुझमाड़) विकासखण्ड तो विकास के कोसों दूर है। साथी संस्था नारायणपुर जिले में यूनिसेफ के सहयोग से वर्ष 2012 से लगभग 140 गांवों में स्वास्थ्य एवं पोषण हेतु कार्यरत है, नारायणपुर जिले में मातृ मृत्युदर तथा शिशु मृत्यृदर राज्य के औसत की तुलना में बहुत अधिक है, विगत 9 वर्षों में संस्था ने मातृ मृत्युदर एवं शिशु मृत्युदर को कम करने हेतु कई नवाचार प्रारंभ किये हैं जिसके परिणामस्वरूप दोनों की मृत्युदर में कमी दर्ज की गई है। जब कोरोना महामारी के कारण स्थितियां भारत में बिगडऩे लगी तो हमारी समझ में एक बात पूरी स्पष्टता से आई कि बस्तर क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं, सेवा प्रदाताओं के साथ अन्य संसाधनों की भारी कमी तो है ही शासन के लिए भी यहां के क्षेत्रफल को देखते हुए सेवाएं दे पाना एक बड़ी चुनौती है, अशिक्षा, जागरूकता की कमी तथा पराम्परागत, नकारात्मक व्यवहारों को अपनाने के कारण अगर यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना आ गया तो परिस्थितियों अत्यंत भयानक तथा अनियंत्रित हो सकती हैं, यही सोचकर संस्था ने 16 मार्च 2020 से ही अपने लगभर 65 कार्यकर्ताओं को कोरोना से बचाव एवं जागरूकता हेतु सतर्क रहने तथा समुदाय के साथ सतत संपर्क बनाकर रहने के दिशा निर्देश जारी कर दिये थे।
जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक गांव में बाहरी लोगों के प्रवेश पर रोक के साथ-साथ प्रत्येक घर में हाथ धोने हेतु साबुन एवं पानी की व्यवस्था गांव में चेक पोस्ट पर गांव के युवाओं की ड्यूटी के साथ वहां पर भी ड्रम में पानी रखवाने की व्यवस्था की गई । स्थानीय भाषा में छोटे-छोटे ऑडियो द्वारा साफ एवं स्पष्ट संदेश व्हाट्सअप गु्रप में डाले गए। लगभग 72 गांवों में कला जत्था दल के माध्यम से मलेरिया, डायरिया, हैजा तथा कोरोना से बचाव हेतु जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।
नारायणपुर जिला प्रशासन को सक्रिय सहयोग-
जिला प्रशासन नारायणपुर द्वारा जिले में फंसे बाहर के मजदूरों के लिए स्थापित शिविरों में राशन एवं हरी सब्जियों की व्यवस्था संस्था द्वारा लगातार की जाती रही। जब बाहर के मजदूर जो बाहर से वापस आए थे उनके लिए बनाए गए क्वॉरंटीन सेन्टर्स में भी राशन सब्जी, सेनिटाइजर, सेनेटरी पैड, साबुन आदि की व्यवस्था लगातार उपलब्ध कराई जाती रही। दक्षिण भारत से वापस आने वाले मजदूरों को कोण्डागांव से नारायणपुर तक पहुंचाने हेतु वाहनों की व्यवस्था भी की गई, तमिलनाडु में फंसे नाबालिग बच्चों को रेस्क्यू कराने में भी साथी संस्था ने चाइल्ड लाइन के माध्यम से महत्वपूर्ण सहयोग दिया ।
परम्परागत हस्तशिल्पियों को राहत वितरण का द्वितीय चरण
वैश्विक महामारी कोविड-19 का प्रभाव वैसे तो सभी के ऊपर पड़ा है, व्यापारी, नौकरीपेशा, छोटे व्यवसायी, उद्योगपति कोई भी इसकी भार से अछूता नहीं हैं। बस्तर की विभिन्न हस्तशिल्प कलाओं से जुड़े समुदायों पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा है, स्थानीय अथवा बाहरी बाजारों की मांग अनुरूप अपनी शिल्प कला का उत्पादन करने वाले लोहार, कुम्हार, घड़वा, बांस शिल्पी आदि के ऊपर बहुत विपरीत प्रभाव पड़े है । इन सभी शिल्पकारों का असली व्यापार का सीजन मार्च से प्रारंभ होकर दीपावली के बाद तक चलता है, जिससे ये शिल्पकार अपने वर्ष भर की आवश्कताओं की पूर्ति हेतु कमाई कर लेते है। कुम्हारों ने पूरी तरह से अपनी गर्मी का धंधा खोया, गणेश उत्सव, दुर्गापूजा, दीपावली के मुख्य त्यौहारी सीजन में किसी शिल्पकार के पास कोई काम धंधा नहीं है, हाट बाजार, बाहर शहरों में प्रदर्शनी पूरी तरह बंद है, यहां तक कि ये शिल्पी अपने ऑर्डर की आपूर्ति भी नहीं कर पा रहे है। देश भर के हस्तशिल्प के व्यापार से जुड़े लोग असमंजस में है इस कारण शिल्पकारों को दिये गये लगभग सभी आर्डर निरस्त हो गए है ऐसी परिस्थितियों में साथी समाज सेवी संस्था ने महसूस किया कि कोण्डागांव, नारायणपुर तथा जगदलपुर जिले के अधिकांश शिल्पी मुसीबत में है। अपना जीवन चलाने हेतु ऊंची दरों पर ब्याज में ऋण लेकर अपने भोजन की व्यवस्था कर रहे है तथा जिनके पास अपने कार्य हेतु जो थोड़ी बहुत पंूजी है उसे अपने भोजन पर खर्च कर रहे है । ऐसी गंभीर स्थिति में साथी संस्था ने अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बहुत ही संवेदनशीलता से निभाते हुए कोण्डागांव जिले के लगभग 1660 परिवारों तक तथा जगदलपुर के 123 परिवारों तक एक माह का राशन पहुंचाकर शिल्पकार समुदायों की मदद की।
- राम पुनियानी
दिनदहाड़े बाबरी मस्जिद ध्वस्त किए जाते समय एक नारा बार-बार लगाया जा रहा था “यह तो केवल झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है”।
सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद की भूमि उन्हीं लोगों को सौंपते हुए, जिन्होंने उसे ध्वस्त किया था, यह कहा था कि वह एक गंभीर अपराध था। बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद राम मंदिर का उपयोग सत्ता पाने के लिए और समाज को धार्मिक आधार पर बांटने के लिए किया गया। बार-बार यह दावा किया गया कि भगवान राम ने ठीक उसी स्थान पर जन्म लिया था। यही आस्था राजनीति का आधार बन गई और अदालत के फैसले का भी। यह धार्मिक राष्ट्रवाद देश की राजनीति में मील का पत्थर बना। परंतु अब क्या?
वैसे तो ऐसे मुद्दों की कोई कमी नहीं है, जिनसे धार्मिक आधार पर समाज को बांटा जाता है और धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिये पर लाने के लिए जिनका उपयोग होता है। इनमें से कुछ तो विघटनकारी राजनीति करने वालों के एजेंडे में स्थायी रूप से शामिल कर लिए गए हैं। जैसे, लव जिहाद (अब इसमें भूमि जिहाद, कोरोना जिहाद, सिविल सर्विसेस जिहाद आदि भी जुड़ गए हैं), पवित्र गाय, बड़ा परिवार, समान नागरिक संहिता आदि। इसके अलावा इस तरह के नए-नए मुद्दे खोज कर भी सूची में जोड़े जाते हैं। इन मुद्दों को इस तरह पेश किया जाता है जैसे बहुसंख्यक, अल्पसंख्यकों की राजनीति से पीड़ित हैं।
इसी इरादे से उठाए गए दो महत्वपूर्ण मुद्दे हैं- काशी और मथुरा। काशी में विश्वनाथ मंदिर से सटी हुई ज्ञानव्यापी मस्जिद है। कुछ लोगों का कहना है कि यह मस्जिद अकबर के शासनकाल में बनाई गई थी। तो कुछ अन्य मानते हैं कि इसका निर्माण औरंगजेब के राज में किया गया था। इसी तरह मथुरा के बारे में कहा जाता है कि शाही ईदगाह, कृष्ण जन्मभूमि के नजदीक बनी हुई है। हिन्दुओं की आस्था के अनुसार राम, शिव और कृष्ण सबसे प्रमुख देवता हैं। इस तरह धार्मिक दृष्टि से अयोध्या (राम), वाराणसी (शिव) और मथुरा (कृष्ण) आस्था के तीन केन्द्र हैं और इन्हें मुक्त कराना आवश्यक है।
यह कहा जाता है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने सैकड़ों मंदिर ध्वस्त किए। परंतु हिन्दू राष्ट्रवादियों के अनुसार कम से कम इन तीन को तो पुनः प्रतिष्ठापित किया ही जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी प्रचारित किया जाता है कि दिल्ली की जामा मस्जिद और अहमदाबाद की जामा मस्जिद भी हिन्दुओं के पूजास्थलों को तोड़कर बनाई गईं हैं।
मंदिरों को ध्वस्त किए जाने की घटनाओं का इतिहास और पुरातत्व के विद्वानों ने विश्लेषण किया है। यह कहा जाता है कि मंदिर तोड़े जाने का प्रमुख कारण राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता थी। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि अपनी सत्ता का सिक्का जमाने के लिए या संपत्ति हड़पने के लिए मंदिर तोड़े गए।
एक पक्ष यह भी है कि जहां मुस्लिम राजाओं ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा वहीं उनमें से कुछ ने हिन्दू मंदिरों को उदारतापूर्वक दान भी दिया। ऐसे कुछ फरमान मिले हैं, जिनमें इस बात का उल्लेख है कि औरंगजेब ने अनेक हिन्दू मंदिरों को दान दिया। इनमें गुवाहाटी का कामाख्या देवी मंदिर, उज्जैन का महाकाल और वृंदावन का कृष्ण मंदिर शामिल है। यह दावा भी किया जाता है कि औरंगजेब ने गोलकुंडा में एक मस्जिद को भी ध्वस्त किया, क्योंकि गोलकुंडा का शासक तीन वर्षों से लगातार बादशाह को शुक्राना नहीं चुका रहा था।
प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डी. डी. कोशाम्बी ने अपनी पुस्तक (रिलिजियस नेशनलिज्म, मीडिया हाउस, 2020, पृष्ठ 107) में लिखा है कि “11वीं सदी में कश्मीर के राजा हर्षदेव ने दोवोत्वपतन नायक पदनाम के अधिकारी की नियुक्ति की थी। इस अधिकारी को यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वह ऐसी मूर्तियों पर कब्जा करे, जिनमें हीरे, मोती और कीमती पत्थर जड़े हों।”
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता रिचर्ड ईटन बताते हैं कि विजयी हिन्दू राजा पराजित होने वाले राजाओें के कुलदेवता के मंदिरों को ध्वस्त करते थे और उनके स्थान पर अपने कुलदेवता के मंदिरों की स्थापना करते थे। श्रीरंगपट्टनम में मराठा फौजों ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा और बाद में टीपू सुलतान ने उनकी मरम्मत करवाई।
कुछ चुनिंदा साम्प्रदायिक इतिहासज्ञों ने मंदिरों के ध्वस्त होने की घटनाओं को देश में विभाजनकारी राजनीति को मजबूती देने के लिए प्रमुख हथियार बनाया है। इतिहास का एक पहलू यह भी है कि बौद्धों और हिन्दुओं के बीच टकराव में सैकड़ों बौद्ध विहार तोड़े गए। अभी हाल में राममंदिर की नींव तैयार करने के दौरान बौद्ध विहारों के अवषेष पाए गए।
इतिहासवेत्ता डॉ एमएस जयप्रकाश के अनुसार, 830 और 966 ईसवी के बीच हिन्दू धर्म के पुनरूद्धार के इरादे से सैकड़ों की संख्या में बुद्ध की मूर्तियां, स्तूप और विहार नष्ट किए गए। भारतीय और विदेशी साहित्यिक और पुरातात्विक स्त्रोतों से यह पता लगता है कि हिन्दू अतिवादियों ने बौद्ध धर्म को नष्ट करने के लिए कितने क्रूर अत्याचार किए। अनेक हिन्दू शासकों को गर्व था कि उन्होंने बौद्ध धर्म और संस्कृति को पूर्ण रूप से तबाह करने में भूमिका अदा की।
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने घोषणा की है कि वह शीघ्र ही काशी और मथुरा को मुक्त करने के लिए अभियान प्रारंभ करेगी। परिषद ने यह इरादा भी जाहिर किया है कि इस अभियान में वह संघ से जुड़े संगठनों की सहायता भी लेगी। इस समय तो आरएसएस यह कह रहा है कि इस मुद्दे में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। परंतु जैसा पूर्व में हो चुका है- ज्योंही अखाड़ा परिषद का अभियान जोर पकड़ेगा संघ उससे जुड़ जाएगा- इसकी भरपूर संभावना है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि मस्जिदों को गुलामी का प्रतीक बताया जाता है। कर्नाटक के बीजेपी नेता और ग्रामीण विकास और पंचायत मंत्री के एस ईष्वरप्पा ने 5 अगस्त को यह दावा किया कि गुलामी के ये प्रतीक बराबर हमारा ध्यान खींचते हैं और हम से यह कहते हैं कि “तुम गुलाम हो”। उन्होंने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहा, “विश्व के सभी हिन्दुओं का एक स्वप्न है कि गुलामी के इन प्रतीकों को वैसे ही नष्ट किया जाए, जैसे अयोध्या में किया गया था। मथुरा और काशी की मस्जिदों को निश्चित ही ध्वस्त किया जाएगा और वहां मंदिर का पुनर्निर्माण होगा।”
ऐसी बातें इस तथ्य के बावजूद कही जा रही हैं कि इस संबंध में कानूनी स्थिति यह है कि “किसी भी धार्मिक स्थान में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं किया जाएगा, जिससे उसके धार्मिक स्वरूप में परिवर्तन हो और उसमें वही स्थिति कायम रखी जाएगी जो 15 अगस्त 1947 को थी।”
इस पृष्ठभूमि में हमारा आगे का रास्ता क्या होना चाहिए? हम अयोध्या के राम मंदिर को लेकर हुए उपद्रव को देख चुके हैं। इसके सामाजिक और राजनीतिक परिणामों ने हमारे लोकतंत्र को कई दशकों पीछे धकेल दिया है। नतीजे में धार्मिक अल्पसंख्यक लगभग दूसरे दर्जे के नागरिक बन गए हैं।
मंदिरों की यह राजनीति हमारे बहुवादी लोकतांत्रिक संस्कारों के विपरीत है। राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से दक्षिणपंथी ताकतें अपना प्रभुत्व बढ़ाने में सफल हुई हैं और इस सफलता से उत्साहित होकर वे इसे दोहराना चाहेंगीं, जो देश की प्रगति और विकास में बाधक सिद्ध होगा। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय ऐसे मुद्दों को दुबारा उठाए जाने के खिलाफ उठ खड़ा होगा।
(लेख का हिंदी रूपांतरणःअमरीश हरदेनिया द्वारा)(navjivan)
गिरीश मालवीय
राष्ट्रीय सुरक्षा को आखिर ऐसा कौन सा खतरा उत्तरप्रदेश में योगी सरकार को नजर आ गया है जो कल उसने ‘यूपी स्पेशल सिक्योरिटी फोर्स’ एसएसएफ के गठन को मंजूरी दे दी ?
इस फोर्स को ढेर सारी असीमित शक्तियां दी गई हैं। जिनमें बिना वारंट गिरफ्तारी और तलाशी की पॉवर भी शामिल है। एक ओर बड़ी बात यह है कि बिना सरकार की इजाजत के एसएसएफ के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कोर्ट भी संज्ञान नहीं लेगी। यूपी एसएसएफ अलग अधिनियम के तहत काम करेगी। अभी उत्तरप्रदेश में राज्य में कानून व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी यूपी पुलिस, पीएसी और आरआरएफ की थी, लेकिन अब एसएसएफ भी इसमें अहम भूमिका निभाएगी।
यूपी एसएसएफ को स्पेशल पॉवर दी गई हैं। इसके तहत यूपी एसएसएफ के किसी भी सदस्य के पास अगर यह विश्वास करने का कारण है कि धारा 10 में निर्दिष्ट कोई अपराध किया गया है या किया जा रहा है और यह कि अपराधी को निकल भागने का, या अपराध के साक्ष्य को छिपाने का अवसर दिए बिना तलाशी वारंट प्राप्त नहीं हो सकता तब वह उक्त अपराधी को निरुद्ध कर सकता है। इतना ही नहीं वह तत्काल उसकी संपत्ति व घर की तलाशी ले सकता है। यदि वह उचित समझे तो ऐसे किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, लेकिन शर्त यही है कि उसे यह विश्वास हो कि उसके पास यह वजह हो कि उसने अपराध किया है।
इस तरह की पॉवर सिर्फ आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में फोर्स को दी जाती है जैसे असम राइफल्स के जवानों को पूर्वोत्तर के राज्यों असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नगालैंड और मिजोरम के सीमावर्ती जिलों में बिना वारंट के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और किसी भी स्थान की तलाशी लेने का अधिकार दिया गया है लेकिन वहाँ की परिस्थिति बेहद भिन्न है। कश्मीर में भी सेना इन्ही पावर का इस्तेमाल करती है
क्या योगी सरकार समझ रही है कि आतंकवाद प्रभावित पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर और उत्तर प्रदेश में कोई अंतर ही नही रह गया है ?
दरअसल जब पहली बार यूपी स्पेशल सिक्योरिटी फोर्स का विचार सामने आया था तो यह बताया गया था कि इस फोर्स को सीआईएसएफ की तर्ज पर बनाया जाएगा। सीआईएसएफ की तरह ही एसएसएफ यूपी में मेट्रो रेल, एयरपोर्ट, औद्योगिक संस्थानों, बैंकों, वित्तीय संस्थानों, ऐतिहासिक, धार्मिक व तीर्थ स्थानों, जनपदीय न्यायालयों की सुरक्षा करेगा यानी राज्य में महत्वपूर्ण सरकारी इमारतों, दफ्तरों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाएगी।
कल जिस अधिनियम को लागू किया गया है उसमे एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि प्राइवेट कंपनियां भी भुगतान कर एसएसएफ की सेवाएं ले सकेंगी। अब ये समझ नही आ रहा है कि कैसे एक प्राइवेट कंपनी को सेवा देने वाली बॉडी को ऐसी एब्सोल्यूट पावर दी जा रही हैं
साफ दिख रहा है कि यह एक काला कानून है जिसे आने वाले जनाक्रोश के उभरने के पहले ही लागू कर दिया गया है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कतर की राजधानी दोहा में चल रही अफगान-वार्ता में भारत भाग ले रहा है, यह शुभ-संकेत है। अफगान-संकट को हल करने के लिए नियुक्त विशेष अमेरिकी दूत जलमई खलीलजाद कुछ घंटों के लिए भारत आए, यह अपने आप में महत्वपूर्ण बात है लेकिन इस आवागमन का उद्देश्य क्या हो सकता है ? वैसे भी पिछले पौने दो साल में खलीलजाद पांच बार भारत आ चुके हैं। दोहा में चल रही वार्ता के बीच उनका पहले पाकिस्तान जाना और फिर भारत आना, इसका मतलब क्या है ? उनका पाकिस्तान जाना तो इसलिए जरुरी है कि तालिबान की चाबी वहीं है। तालिबान पर पाकिस्तान जितना दबाव डाल सकता है, कोई और देश नहीं डाल सकता। लेकिन अमेरिकी दूत बार-बार भारत क्यों आता है ? क्या भारत के बिना काबुल का झगड़ा निपटाया नहीं जा सकता ? अब से पहले तो भारत को कोई घास भी नहीं डालता था। पिछले दो-तीन वर्ष से भारत की ज्यादा पूछ इसलिए हो रही है कि अमेरिका अपनी बंदूक भारत के कंधे पर रखना चाहता है। उसकी रणनीति यह हो सकती है कि उसके अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाने के बाद वह भारत के गले पड़ जाए। यदि समझौते के बाद तालिबान तंग करें तो भारत अपनी सेनाएं काबुल भेज दे। ऐसा अंदाज मैं क्यों लगा रहा हूं ? जनवरी 1981 में जब अफगान प्रधानमंत्री बबरक कारमल से मेरी तीन लंबी भेटें हुईं तो उन्होंने कहा कि आप इंदिराजी से कहकर रुसी फौजों की जगह भारतीय फौजें भिजवा दीजिए। वे अफगान मुजाहिदीन से भी लड़ेंगी और पाकिस्तान की काट भी करेंगी। मैंने अपने घनिष्ट मित्र बबरक को साफ-साफ कहा कि भारत यह खतरा कभी मोल नहीं लेगा। इस बारे में इंदिराजी से पहले ही मेरी बात हो चुकी थी। मैं यह मानता हूं कि यदि भारत और पाकिस्तान आज इस तरह के सहयोग का कोई कदम मिलकर उठाएं तो वह जरुर सफल हो सकता है। इस वक्त ऐसे कदम के आसार तभी होंगे जबकि दोनों देशों में परिपक्व नेतृत्व हो। उनके बीच सीधा संवाद हो। ऐसी स्थिति में भारत को अमेरिकी प्रलोभनों में फंसने से बचना होगा। डर यही है कि भारत कहीं ट्रंप की फिसलपट्टी पर फिसल न जाए। बेहतर तो यह होगा कि भारत का विदेश मंत्रालय इस समय का सदुपयोग दो कामों के लिए करे। एक तो काबुल सरकार के सभी धड़ों से उत्तम संपर्क बनाए रखे और दूसरा यह कि विभिन्न तालिबान संगठनों से भी सीधा संवाद कायम करे ताकि दक्षिण एशिया के महादेश के रुप में वह अफगानिस्तान में शांति कायम करवा सके।
(लेखक, अफगान-मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विकास बहुगुणा
‘एक वक्त था, जब मूर्ख होना गाली था. अब बुद्धिजीवी होना गाली है.... बात गाली तक होती तब भी ठीक था. समाज में बुद्धिजीवियों से नफरत इस तरह है कि उन्हें मिटाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं.’
एक व्यंग्य में लिखी गई चर्चित लेखक राकेश कायस्थ की यह बात मौजूदा समय का कड़वा सच है. इन दिनों समाज के एक बड़े तबके में बुद्धिजीवी निंदा और कटाक्ष का विषय हैं. उनके लिए टुकड़े-टुकड़े गैंग और सिकुलर्स जैसे तमाम शब्द गढ़ लिए गए हैं. सोशल मीडिया में उन पर कीचड़ उछाला जाता है. असल जिंदगी में भी उनके मुंह पर कालिख मलने की घटनाएं हो चुकी हैं. उन्हें जेल भेजने की मांग होती है. गोविंद पानसारे और एमएम कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों की तो हत्या तक हो चुकी है.
बुद्धिजीवी समाज की चेतना माने जाते हैं. कहा जाता है कि उनके बिना समाज अंधा हो जाता है. इतिहास में झांकें तो कई बड़े सामाजिक-राजनीतिक बदलावों के उत्प्रेरक और अगुवा बुद्धिजीवी ही रहे हैं. अपने एक लेख में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू लिखते हैं, ‘प्रत्येक महान क्रांति का नेतृत्व बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया. उदाहरण के लिए - फ्रांसीसी क्रांति में रोबेस्पियर और डैंटन, अमेरिकी क्रांति में जेफ़रसन, जेम्स मैडिसन और जॉन एडम्स और रूसी क्रांति में लेनिन.’ वे आगे कहते हैं कि बुद्धिजीवी एक सोशल इंजीनियर होने के अलावा जनमत को दिशा देने और नए विचारों को फैलाने वाला भी होता है जो उन आदर्शों का प्रचार करता है जिनके लिए लोगों को संघर्ष करना चाहिए.’
भारत के संदर्भ में इस बात को और सरल तरीके से समझा जा सकता है. महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे कई बुद्धिजीवियों ने देश की आजादी की लड़ाई को एक नई दिशा दी. स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र का स्वरूप क्या हो, यह तय करने में भी उनकी अहम भूमिका रही. सामाजिक सुधार के मोर्चे पर भी उन्होंने कई असाधारण काम किए. इसके चलते देश-समाज से उन्हें खूब समर्थन और सम्मान भी मिला.
तो फिर ऐसा क्या हुआ कि आज बुद्धिजीवियों के खिलाफ नफरत की आंधी चलती दिख रही है?
इस सवाल के जवाब को समझने की शुरुआत मानव स्वभाव को समझने से की जा सकती है. मनोविज्ञानी कहते हैं कि ज्यादातर लोगों में खुद से ज्यादा तेज दिमाग वाले किसी शख्स के लिए एक सहज ईर्ष्या का भाव रहता ही है. यानी ऐसे लोगों के लिए एक स्वाभाविक नापंसदगी इसलिए भी होती है कि वे बाकी लोगों को हीन महसूस करवाते हैं. यह नापसंदगी अपना हीनताबोध कम करने में इन लोगों की मदद करती है.
लेकिन यह नापसंदगी सामाजिक रूप से इस कदर व्यापक और गहरी कैसे हो जाती है कि बुद्धिजीवियों की जान को ही आफत हो जाए जैसा कि इन दिनों भारत में हो रहा है? इस सवाल के जवाब के लिए दोनों तरफ देखना होगा. बुद्धिजीवियों के खिलाफ नफरत की कुछ वजहें बाहरी हैं तो झोल उनकी खुद की तरफ से भी कम नहीं हैं.
अगर पहली श्रेणी के कारकों को देखें तो पहली और सबसे साफ बात तो यही है कि आज बुद्धिजीवियों के खिलाफ एक तरह का संगठित अभियान चलाया जा रहा है. जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी कहते हैं, ‘सोशल मीडिया पर आप देखेंगे कि कोई बुद्धिजीवी - जिसने अपने जीवन के कई दशक गहन अध्ययन को दिए हैं - कोई बात कहता है तो ट्रोल तुरंत उसके पीछे लग जाते हैं. उसे कुछ भी कह देते हैं. और ये सिलसिला सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े व्यक्तियों तक जाता है.’
कई लोगों के अनुसार इस मामले में स्थिति इसलिए भी इतनी गंभीर है क्योंकि वर्तमान समय में तमाम तरह के विचारों को ही एक गैरजरूरी चीज़ माना जा रहा है. उदाहरण के तौर पर आज मानवता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्यों, भारतीय संस्कृति में मौजूद रहे समावेशी तत्वों आदि से जुड़े विचार न केवल एक बड़े तबके को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं बल्कि इनमें भरोसा रखने वाले और इनकी बात करने वाले लोग भी उन्हें अपने, समाज और देश के दुश्मन या मूर्ख लगते हैं. ‘आज माहौल ऐसा बना दिया गया है जिसमें अनपढ़ता आपका गहना है और पढ़ा-लिखा-समझदार होना आपकी मूर्खता’ हृदयेश जोशी कहते हैं.
इस प्रक्रिया में अक्सर उस सच को संदिग्ध बनाने की कोशिश की जाती है जो बुद्धिजीवियों के विचारों को संदर्भ या आधार देते हैं. जैसा कि अपने एक लेख में वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी कहते हैं, ‘कभी कहा गया था कि बुद्धिजीवी का काम सत्ता से निडर होकर सच बोलना है और अब कहा जा रहा है कि सच क्या है यह बेहद संदिग्ध मामला हो गया है.’ इस वजह से ऐसे सच पर टिके विचार और उन्हें हमारे सामने रखने वाले बुद्धिजीवी भी संदिग्ध लगने लगते हैं. उदाहरण के तौर पर अगर गांधी, नेहरू, संविधान, धर्म की पुरानी मान्यताओं आदि को ही अगर संदिग्ध बना दिया जाए तो अपने विचारों में उन्हें शामिल करने का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा.
इतिहास बताता है कि विचारों और सवालों को खतरा मानने वाली सत्ताएं हमेशा से समाज के लिए एक नई सच्चाई गढ़ने की कोशिश करती रही हैं और फिर इनके आधार पर बुद्धिजीवियों की एक ऐसी तस्वीर पेश की जाती है मानो वे किसी एजेंडे के तहत ही किसी विचारधारा या वर्ग का समर्थन या विरोध करते हैं, सही या गलत के आधार पर नहीं. लेकिन इस आरोप को अगर बुद्धिजीवी वर्ग चाहे तो पश्चिम बंगाल के लोकप्रिय गायक-संगीतकार कबीर सुमन के जरिये नकारने की कोशिश कर सकता है. कभी उन्होंने राज्य में सत्ताधारी सीपीएम की बर्बरताओं का तीखा प्रतिरोध किया था. कबीर सुमन बाद में तृणमूल के सांसद बन गये. फिर उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया.
अपने एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन कहते हैं, ‘लेखक और संस्कृतिकर्मी हमेशा प्रतिपक्ष में ही रह सकते हैं.’ उनके मुताबिक ‘इमरजेंसी में फणीश्वरनाथ रेणु और शिवराम कारंत ने अपने पद्मसम्मान लौटाए. रेणु, नागार्जुन, रघुवंश, हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह जैसे लेखकों, कुमार प्रशांत जैसे गांधीवादी और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों सहित अलग-अलग भाषाओं से जुड़े ढेर सारे प्राध्यापकों और बुद्धिजीवियों ने जेल काटी. यह सिलसिला हमेशा बना रहा है. 2009 में शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ सात लोगों ने अपने घोषित पुरस्कार लेने से इनकार किया.’
लेकिन कुछ समय पहले जब देश में बढ़ती असहिष्णुता का हवाला देकर लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटाए या फिर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी तो केंद्र में सत्तासीन भाजपा द्वारा इसे इस तरह पेश किया गया मानो बुद्धिजीवी हमेशा भाजपा के खिलाफ रहे हों. तब तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना था कि ये लोग दशकों से भाजपा के पीछे पड़े हैं और 2002 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इनकी वैचारिक असहिष्णुता के सबसे ज्यादा शिकार हुए हैं. उधर बुद्धिजीवियों का आरोप है कि चूंकि निष्पक्ष मीडिया और प्रभावी विपक्ष के अभाव को वे लोग अपने विचारों और क्रियाकलापों से भरने की कोशिश कर रहे थे इसलिए सत्ता पक्ष द्वारा येन-केन प्रकारेण उन्हें बदनाम करके अपना रास्ता निष्कंटक करने के प्रयास किये जाते रहे हैं.
यह तो हुई एक पक्ष की बात. लेकिन बहुतों का मानना है कि सवाल दूसरी तरफ भी हैं. यानी मौजूदा हालात का दोष काफी हद तक बुद्धिजीवियों पर भी आता है. यह सही है कि कई बुद्धिजीवी अपनी विद्धता की वजह से सामान्य लोगों को हीनता का अनुभव करा सकते हैं लेकिन बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हो जाती. अपने एक आलेख में शिव विश्वनाथन लिखते हैं कि लेफ्ट लिबरल्स ने भारतीय मध्यवर्ग को उनकी परंपराओं और विश्वासों को लेकर भी शर्मिंदा किया और नीचा दिखाया. उनके धार्मिक होने को लगभग सांप्रदायिक होना करार दे दिया. सरकार बनाने के बाद दक्षिणपंथी नेताओं ने उन्हें इस शर्म से बाहर निकालते हुए यकीन दिलाया कि उनकी परंपरा और विश्वास सर्वश्रेष्ठ हैं. और उनका दिल जीत लिया.
‘बुद्धिजीवियों के साथ दिक्कत ये भी है कि उनमें बहुत हद तक बौद्धिक बेईमानी रही है और इसने लोगों को उन पर हमला करने का मौका दे गया है जो उनसे घृणा करते हैं. मैं आपको इसका एक उदाहरण देता हूं. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने 1989-90 में कश्मीरी पंडितों की हत्या की 215 घटनाओं की जांच की मांग खारिज कर दी. लेकिन भारत के बुद्धिजीवियों ने इस पर कोई विमर्श नहीं किया. बहुतों को तो इसके बारे में मालूम ही नहीं होगा. अब इसकी तुलना 2002 के गुजरात दंगों से कीजिए. 1990 में कश्मीरी पंडितों को अपने घरों से निकाला गया जो बहुत दुखद घटना थी. मुस्लिम कट्टरपंथियों ने यह काम किया. मस्जिदों से ऐलान हुए. ये इस्लाम का एक भद्दा चेहरा था. लेकिन आप उस पर बोलना तक नहीं चाहते’ हृदयेश जोशी कहते हैं.
आरोप यह भी लगते हैं कि बुद्धिजीवियों ने इतिहास लेखन में भी पूरी ईमानदारी नहीं बरती. जैसा कि हृृदयेश जोशी कहते हैं, ‘हम मुस्लिम-दलित एकता की बात करते हैं. जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री थे. उन्होंने विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का फैसला किया था. लेकिन वहां उनके साथ इतना बुरा व्यवहार हुआ, पाकिस्तान की हुकूमत इतनी सांप्रदायिक थी कि वे व्यथित होकर भारत वापस आ गए. लेकिन इन बातों पर ज्यादातर बुद्धिजीवी बात नहीं करते.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘इसी तरह डॉ भीमराव अंबेडकर ने हिंदुओं को कितनी गालियां दीं, इस पर खूब बात होती है लेकिन मुस्लिमों के बारे में उनके क्या विचार थे. अंबेडकर ने उन्हें कितनी फटकार लगाई थी, ये बात बुद्धिजीवी नहीं लिखते.’
दिल्ली विश्वविद्यालय में लंबे समय तक पढ़ा चुके और इन दिनों अशोका यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर दिलीप सिमियन का मानना है कि बुद्धिजीवियों के लिए पैदा हुई यह नफरत असल में एक लंबे अरसे में घटित हुई प्रक्रिया का परिणाम है. एक समय नक्सल आंदोलन से जुड़े रहे प्रोफेसर दिलीप सिमियन कहते हैं, ‘असल में हर तरह के बुद्धिजीवियों ने पक्षपात किया.
पक्षपात का मतलब यह नहीं कि सही-गलत का अंतर करना, या सच्चाई और झूठ का भेद करना. वो तो हर बुद्धिजीवी को करना ही पड़ेगा. लेकिन अगर पहले से ही सामने वाला आदमी पहचान लेता है कि ये बुद्धिजीवी क्या बोलने वाला है. वह क्या उजाले में लाएगा और क्या अंधेरे में रखेगा तो यह बात सही नहीं है. यह बात मैं बड़े से बड़े बुद्धिजीवियों के बारे में कह सकता हूं और कइयों को तो यह अहसास भी नहीं होगा. आप मेरा सम्मान तभी करेंगे जब आप मेरे पास कोई प्रश्न लेकर आएंगे और आपको जिज्ञासा होगी ये जानने की कि मैं क्या कहता हूं. अगर आपको पता ही है कि मैं किस दिशा में क्या कहूंगा तो आप मेरे पास क्यों आएंगे. समस्या यही है.’
हृदयेश जोशी की बात आगे बढ़ाते हुए प्रोफेसर दिलीप सिमियन यह भी कहते हैं कि बुद्धिजीवी असल में जिसे विचारधारा कहते हैं वह उनकी मोहमाया है. क्योंकि धारा तो चलने का नाम है जबकि बुद्धिजीवी जड़ हो जाते हैं. वे कहते हैं, ‘सच्चाई किसी खेमे की संपत्ति नहीं हो सकती. अगर बन जाती है तो इसका मतलब ये है कि आप किसी वजह से सच्चाई का एक हिस्सा छिपा रहे हैं. मैं पिछले 15-20 साल से कश्मीरी पंडितों की बात भी करता रहा हूं. तो मेरे कई साथी कहते हैं कि आप तो प्रतिक्रियावादी ताकतों का साथ दे रहे हो. लेकिन ज्यादती हिंदू के साथ हो या मुसलमान के साथ या फिर किसी भी समुदाय के व्यक्ति के साथ, वह तो ज्यादती ही होती है.’
कई और लोग भी मानते हैं कि भारत के बुद्धिजीवी तबके का एक बड़ा वर्ग बहुत पहले ही खुला दिमाग, निष्पक्षता और दूसरे विचारों के प्रति सहिष्णुता जैसे उन गुणों से दूर हो चुका था जो बुद्धिजीवी होने की जरूरी शर्त होते हैं. अपनी एक टिप्पणी में चर्चित लेखक मिन्हाज मर्चेंट कहते हैं, ‘भाजपा निश्चित रूप से उदारवादी पार्टी नहीं है, लेकिन विपक्ष उससे भी कम उदारवादी है. कांग्रेस को ही देखिए जो उदारवाद के हर सिद्धांत को धता बताती हुई गुणों से ऊपर गांंधी परिवार के प्रति वफादारी को तरजीह देती है. तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा और आरजेडी ने धर्म और जाति को भाजपा की तुलना में ज्यादा बुरी तरह इस्तेमाल किया है.’ वे आगे लिखते हैं कि इसके बावजूद भारत के बुद्धिजीवी इस मामले में अपनी आलोचना में हमेशा एकपक्षीय रहे. यानी उन्होंने धर्म के इस्तेमाल को लेकर भाजपा पर तो सवाल उठाए, लेकिन दूसरी पार्टियों द्वारा किए जा रहे विभिन्न वर्गों के तुष्टिकरण पर चुप्पी साधे रखी.
मिन्हाज मर्चेंट की बात सरसरी तौर पर सही तो लगती है लेकिन इससे जुड़ा एक पहलू और है. ऐसा नहीं है कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग ने दूसरी राजनीतिक पार्टियों के गलत कामों को गलत नहीं कहा. लेकिन ज्यादातर मामले में अपेक्षाकृत हल्के तरीके से ऐसा तब किया गया जब भाजपा पर गंभीर सवाल उठाने से पहले खुद को निष्पक्ष दिखाने की जरूरत महसूस हो रही हो. या फिर ऐसा लग रहा हो कि अब भाजपा के बारे में बहुत लिख-बोल लिया तो थोड़ा कांग्रेस या दूसरी पार्टियों पर भी विमर्श कर लिया जाये.
जानकारों के मुताबिक ऐसा इसलिए हुआ कि भारत में अधिकांश बुद्धिजीवी उस खेमे के हैं जिसे वामपंथ कहा जाता है और जो हिंदुत्व की विचारधारा को सबसे बड़ा खतरा मानता रहा है. मिन्हाज मर्चेंट लिखते हैं, ‘बुद्धिजीवियों का काम बहस का स्तर समृद्ध करना होता है, दूसरी विचारधाराओं से हिसाब बराबर करना नहीं.’ उनके मुताबिक यही वजह है कि लोगों ने बुद्धिजीवियों को गंभीरता से लेना छोड़ दिया.
चर्चित राजनीतिक चिंतक अभय दुबे ने अपनी हालिया किताब ‘हिंदुत्व बनाम ज्ञान की राजनीति’ में बड़े साफ तरीके से इस बारे में लिखा है कि धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले लोग आज हिंदू या बहुसंख्यक विरोधी क्यों दिखते हैं. वे इसका कारण अल्पसंख्यकों के अधिकारों व हिंदू सांप्रदायिकता पर ही ध्यान देने और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की अनदेखी के साथ-साथ धर्मनिरपेक्षता के मामले में कांग्रेस पार्टी के दोगले व्यवहार से मुंह फेर लेने को मानते हैं. अभय दुबे मानते हैं कि अपनी विचारधारा और विरासत के चलते वामपंथी बुद्धिजीवियों संघ परिवार से जुड़े उन तथ्यों को अनदेखा किया जो उन्हें असुविधाजनक लगते थे. उन्होंने संघ और उससे जुड़े संगठनों को सांप्रदायिक, ब्राह्मणवादी और फासीवादी कहा लेकिन इन तथ्यों को अनदेखा किया कि मुसलमानों को अपने से अलग मानने वाले ये संगठन धीरे-धीरे निचले समुदायों को भी मुख्यधारा में प्रवेश देने के काम में लगे हुए हैं. और किस तरह से ये संगठन दूसरों की कमियों को ही अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
बुद्धिजीवियों की यह सीमित दृष्टि तब और स्पष्ट हो जाती है जब हम इस ओर ध्यान देते हैं कि उन्होंने कभी इस बात को नहीं माना कि हिंदू समुदाय कभी इतनी बड़ी संख्या में इस तरह से भी एक हो सकता है कि अकेले ही सत्ता स्थापित करने का कारण बन जाए. उन्हें हमेशा यह लगता रहा कि हमारे समाज में इतनी विभिन्नताएं हैं और हमारी संस्कृति इतनी गंगा-जमुनी रही है कि ऐसा होना लगभग असंभव है. लेकिन ऐसा हुआ तो उसने यह भी साबित कर दिया कि हमारा ज्यादातर बुद्धिजीवी वर्ग जमीनी सच्चाइयों से कितना कटा हुआ है.
लेकिन हमारे बुद्धिजीवी न केवल सच्चाई से दूर हो गये बल्कि कुछ लोगों के मुताबिक भारत में उनके प्रति बढ़ती नाराजगी की वजह उनके विचार और कर्म में बढ़ती दूरी भी है. इसी देश ने महात्मा गांधी को भी देखा है जिनके विचार और कर्म में असाधारण एकरूपता थी. बीबीसी हिंदी पर अपने एक लेख में गांधी दर्शन के अध्येता कुमार प्रशांत कहते हैं, ‘महात्मा गांधी इतिहास के उन थोड़े से लोगों में एक हैं जिन्होंने अपने मन, वचन और कर्म में ऐसी एकरूपता साध रखी थी कि किसी भ्रम या अस्पष्टता की गुंजाइश बची नहीं रहती बशर्ते कि आप ही कुछ मलिन मन से इतिहास के पन्ने न पलट रहे हों.’ यही वजह है कि भारत का जनमानस उनके साथ खड़ा हो गया था.
लेकिन हालिया समय के बुद्धिजीवियों के एक बड़े हिस्से की तस्वीर इसके उलट दिखती है. जैसा कि एनडीटीवी से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘मैंने ऐसे भी बुद्धिजीवी देखे हैं जो जल संरक्षण पर बड़े-बड़े लेख लिखते हैं और रोज अपनी अपनी गाड़ी की धुलाई पर बेतहाशा पानी भी बर्बाद करते हैं. दिन में उन्हें भारत की गरीबी की चिंता सताती है. रात को पार्टियों में उनकी बातचीत अपनी विदेश यात्रा और वहां खरीदे गए लुई वितॉन के पर्स पर केंद्रित होती है.’
वे आगे कहते हैं, ‘फिर भी 2014 तक इन बुद्धिजीवियों का एक आभामंडल हुआ करता था क्योंकि तब तक उस मीडिया का भी इस कदर ध्रुवीकरण नहीं हुआ था जिसमें वे छपा-दिखा करते थे और इससे अपनी ताकत हासिल करते थे. अब तो कुछेक अपवादों को छोड़कर मीडिया सत्ता प्रतिष्ठान के साथ खड़ा दिखता है. इसलिए बुद्धिजीवियों का वह स्पेस काफी कम हो गया है.’ और न केवल स्पेस कम हुआ बल्कि ज्यादातर मीडिया सत्ता या उसकी विचारधारा का विरोध करने पर उनके विरोध में ही खड़ा दिखाई देता है.
भारत में बुद्धिजीवियों के उतार की एक वजह यह भी मानी जा रही है कि बीते कुछ समय के दौरान समाज में हर तरह के विचारों का महत्व घटा है. जैसा कि अशोक वाजपेयी कहते हैं, ‘विचार अपने आप में गौण होता जा रहा है.’ उनके मुताबिक विचार बहुत तेजी से राय में बदल रहा है और मीडिया के असाधारण प्रसार के चलते यह भी माना जाने लगा है कि मीडिया में आये बगैर विचार की प्रासंगिकता अधूरी है. और मीडिया में आने की एक ही शर्त है साफ-साफ इस या उस तरफ होना. ऐसे में ‘मीडिया की तरह अब कई बुद्धिजीवी भी उस चलन का शिकार हो गए हैं जिसमें चीजें सिर्फ श्वेत-श्याम यानी ब्लैक एंड व्हाइट में देखी जाती हैं’ प्रोफेसर दिलीप सिमियन कहते हैं.
मार्कंडेय काटजू तो यह भी मानते हैं कि इन दिनों एक असल तो 10 फर्जी बुद्धिजीवी होते हैं. वे भारत के अधिकांश पत्रकारों और लेखकों को इस श्रेणी में रखते हैं. काटजू लिखते हैं, ‘इनमें से अधिकांश घमंड और दंभ से भरे होते हैं, इनमें विनय का अभाव होता है और ये ख़ुद को बहुत बड़ा समझते हैं. उन्हें ऐतिहासिक प्रक्रियाओं या सामाजिक विकास के नियमों की कोई गहरी समझ नहीं है, लेकिन वे समाज में चारों ओर अपने सतही किताबी ज्ञान और आधी पकी हुई समझ की अकड़ दिखाते फिरते हैं. वे केवल अपने स्वयं के आराम की परवाह करते हैं और जनता के लिए उन्हें कोई वास्तविक प्रेम नहीं है.’
दुनिया का हर समाज प्रश्नवाचकता, जिज्ञासा, असहमति और बहुलता से ही आगे बढ़ता और सशक्त होता रहा है. तो कहा जा सकता है कि बुद्धिजीवियों के प्रति द्वेष का कारण जो भी हो, उससे समाज को आखिर में नुकसान ही होना है. ऐसे में सवाल उठता है कि बुद्धिजीवी अपनी खोई जमीन कैसे हासिल करें. प्रोफेसर दिलीप सिमियन का मानना है इसके लिए बुद्धिजीवियों को आत्ममंथन करके अपनी गलतियों को स्वीकारना होगा, तभी वह खाई पाटी जा सकती है जो उनके और शेष समाज के बीच है. मार्कंडेय काटजू कहते हैं, ‘केवल बुद्धिजीवी ही समाज को सही नेतृत्व दे सकते हैं. लेकिन लोगों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए वर्तमान बुद्धिजीवियों’ को एक दर्दनाक लेकिन आवश्यक प्रक्रिया से गुज़र कर अपनी मानसिकता बदलनी होगी, अन्यथा यह अंधे द्वारा अंधे को रास्ता दिखाना जैसा होगा.’ (satyagrah)
मालदीव की संसद के स्पीकर और पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद ने कहा है कि इंडिया आउट कैंपेन आईएसआईएस सेल का है। नाशीद ने कहा कि इस कैंपेन के तहत मालदीव से भारतीय सैनिकों को हटाने की मांग की जा रही है।
मालदीव में इंडिया आउट कैंपेन हाल के हफ्तों में जोर पकड़ा रहा है और इसे वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी हवा दे रही है। मालदीव की मुख्य विपक्षी पार्टी का कहना है कि भारतीय सैनिकों की मौजूदगी संप्रभुता और स्वतंत्रता के खलिाफ है।
मालदीव में विपक्षी पार्टी की भारत-विरोधी बातों के जवाब में वहां के विदेश मंत्री अब्दुल्ला ने कहा है कि जो लोग मजबूत होते द्विपक्षीय रिश्तों को पचा नहीं पा रहे हैं, वो इस तरह की आलोचना का सहारा ले रहे हैं।
भारत समर्थित एक स्ट्रीट लाइटिंग योजना के उदघाटन के मौके पर विदेश मंत्री ने कहा, ये दोनों देशों के बीच का संबंध है। ये दिलों से दिलों को जोडऩे वाला रिश्ता है। हम इसका आभार प्रकट करते हैं। उनका ये बयान ऐसे वक्त में आया है जब जेल में कैद पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यमीन के नेतृत्व वाली प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव्स-पीपल्स नेशनल कांग्रेस (पीपीएम-पीएनसी) मालदीव की धरती पर विदेशी सेना की मौजदूगी का विरोध कर रही है।
युवाओं के एक समूह की ओर से हाल में किए गए एक विरोध-प्रदर्शन के बाद पीपीएम-पीएनसी ने कहा कि वो पुलिस की कार्रवाई से हैरान हैं और शांतिपूर्ण मोटरबाइक रैली में भेदभावपूर्ण रूप से बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं।
दरअसल, ऐसी अकटलें लगाई जा रही हैं कि हा ढालू द्वीप के हनीमाधू पर भारतीय सेना पहुंच सकती है। इसके अलावा इससे पहले ही मालदीव में अतिरिक्त भारतीय अफसर मौजूद हैं, जो भारतीय सेना की ओर से मालदीव नेशनल डिफेंस फोर्स को उपहार में दिए गए हेलिकॉप्टर ऑपरेट कर रहे हैं।
लेकिन डिफेंस फोर्स के प्रमुख मेजर जनरल अब्दुल्ला शमाल ने जोर देकर कहा है कि मालदीव में कोई विदेशी सुरक्षाबल मौजूद नहीं हैं। पिछले कुछ हफ्तों में मालदीव के कुछ लोगों ने ट्वीटर पर ट्वीट किए और कुछ देर के लिए इस हैशटैग को ट्रेंड भी करवाया।
सत्तारूढ़ पार्टी ने राजनीतिक विपक्षी पर सोशल मीडिया अभियान चलवाने का आरोप लगाया। ये आरोप इस आधार पर भी लगाया है कि यामीन के कार्यकाल के वक्त माले और नई दिल्ली के रिश्तों में खटास आई थी। साथ ही उनकी सरकार पर चीन की तरफ स्पष्ट झुकाव के आरोप भी लगे थे।
चीन एक यहां एक करीबी डिवेलपमेंट पार्टनर और लीडर रहा है। मालदीव चीन से लिए कर्ज के 1.4 अरब डॉलर के लिए फिर से मोलभाव भी कर रहा है। दूसरी ओर राष्ट्रपति सोलेह के सत्ता में आने के बाद से भारत के साथ खासकर डिवलपमेंट पार्टनरशीप महत्वपूर्ण रूप से बढ़ी है।
पिछले महीने भारत ने 50 करोड़ डॉलर के पैकेज की घोषणा की, जिसमें 10 करोड़ डॉलर का अनुदान भी शामिल है। इससे पहले भारत ने 2018 में मालदीव के लिए 80 करोड़ डॉलर की घोषणा की थी।
हालांकि राष्ट्रपति सोलेह की सरकार कई चुनौतियों का सामना कर रही है, जिनमें हाल में खास तौर पर राजनीतिक प्रतिद्वंदी की ओर से की जा रही भारत-विरोधी बातें शामिल है, जिसका वो जवाब दे रहे हैं।
दो साल के कार्यकाल वाला सोलेह प्रशासन बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। पर्यटन पर काफी हद तक निर्भर मालदीव की अर्थव्यवस्था को कोविड-19 महामारी से बड़ा झटका लगा है।
मालदीव कोविड-19 से बिगड़े हालात को संभालने की कोशिश कर रहा है और भारत ने उनकी मदद के लिए 25 करोड़ डॉलर की विशेष आर्थिक सहायता की घोषणा की है। यूएनडीपी के मुताबिक, मालदीव एशिया क्षेत्र और संभावित रूप से दुनिया भर में कोविड-19 से सबसे ज्यादा प्रभाव होने वाले देशों में शामिल है।
अपने ताजा अनुमान में एशियन डिवेलपमेंट बैंक ने कहा कि मालदीव का आउटपुट 2020 में एक चौथाई से ज्यादा सिकुड़ सकता है। जीडीपी आंकड़ों को लेकर ये सबसे चिंताजनक अनुमान है। मालदीव में अब तक 9,000 से ज़्यादा मामले और 33 मौतें दर्ज की गई हैं।
इस बीच कुछ लोगों को डर है कि सत्ताधारी मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) के भीतर भी तनाव पनप रहा है। ये तनाव राष्ट्रपति सोलेह और स्पीकर और पूर्व राष्ट्रपति नशीद के बीच होने की बात कही जा रही है, जो एक गंभीर चुनौती पैदा कर सकता है। खासकर जब स्पीकर नशीद ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर कुछ मंत्रियों को हटाए जाने की मांग की है। माले में मौजूद एक सरकार के सांसद ने द हिंदू अखबार से पहचान छिपाने की शर्त पर बात की और कहा, स्पीकर एक संसदीय व्यवस्था पर भी जोर दे रहे हैं।
सरकार के भीतर ऐसी चिंताएं है कि उनका ये कदम राष्ट्रपति को चुनौती दे सकता है, जो गठबंधन सरकार के साथ मिलकर काम करने की कोशिश कर रहे हैं।
सांसद ने ये भी कहा, अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हो या लोकतंत्र के मोर्चे पर, हमारी सरकार अब तक बहुत कुछ नहीं कर पाई है और महामारी ने इस स्थिति को और बदतर कर दिया है। इस हालात में अंदरूनी तनाव और नुकसान करेगा। (bbc.com/hindi)
- अंकुर जैन
भारतीय राजनीति में रिटायरमेंट की कोई उम्र नहीं होती. लेकिन अब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 70 बरस के हो गए हैं तो सभी निगाहें इस पर होंगी कि वो यहां से आगे क्या रुख़ लेंगे और उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा.
अगले कुछ वर्ष पीएम मोदी की विरासत के लिए बेहद महत्वपूर्ण होंगे क्योंकि भारतीय जनता पार्टी ने अपने नेताओं के लिए स्वैच्छिक सेनानिवृति की उम्र 75 वर्ष तय की है. इसका मतलब ये है कि प्रधानमंत्री मोदी के पास अभी पाँच वर्ष और हैं. पीएम मोदी के पास साल 2024 के आम चुनाव के पहले भी चार साल हैं.
लेकिन 70 वर्ष की उम्र में प्रधानमंत्री के सपनों के समक्ष तीन महत्वपूर्ण चीज़ें हैं: अर्थव्यवस्था, विदेश नीति और उनकी राजनीतिक शैली.
नरेंद्र मोदी शासन के बीते छह सालों के दौरान उनके विरोधियों में उनके प्रति असंतोष और बढ़ा है, भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट आई है, सत्ता का ध्रुवीकरण और केंद्रीकरण हुआ है.
हालांकि बहुत से लोग पीएम मोदी शासन करने की शैली का समर्थन करते हुए ये मानते हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार को काबू में करने की कोशिश की है, जिसकी वजह से सरकारी मदद का लाभ ग़रीबों और असहाय लोगों तक पहुंच रहा है.
अमरीकी चुनाव पर निगाहें
वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीनी सैनिकों के जमावड़े के मद्देनज़र पीएम मोदी की असली परीक्षा उनकी विदेश नीति होगी.
साल 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी और शी ज़िनपिंग 18 बार मिले चुके हैं लेकिन ऐसा लगता है कि यह रिश्ता 'हैंडशेक' से आगे नहीं बढ़ पाया.
बीजेपी की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति के सदस्य शेषाद्री चारी कहते हैं कि प्रधानमंत्री को 'ऑउट ऑफ़ द बॉक्स' (लीक से हटकर) सोचना होगा, विदेशी व्यापार पर फिर से बातचीत करनी होगी, उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था के साथ संतुलन के लिए नई रणनीति बनानी होगी और उन्हें ये सब भारत की सामरिक स्वायत्तता को प्रभावित किए बगैर करना होगा.
विदेश नीति के विशेषज्ञ और संघ प्रचारक चारी का मानना है कि कोरोना वायरस महामारी के बाद प्रधानमंत्री के सामने विदेश नीति को लेकर कई चुनौतियां हैं.
वो कहते हैं, "2014 से ही प्रधानमंत्री ने 'नेबरहुड फर्स्ट' की विदेश नीति को तरजीह दी है. लेकिन छह साल बाद बदलती हुई ' जियो पॉलिटिक्स' से नई चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं. अमरीकी चुनाव के नतीजे, चीन के साथ अमरीका के व्यापार, भारत के ईरान के साथ रिश्ते और रूस से हमारा रक्षा आयात तय करेंगे. इन सब से ऊपर चीन के साथ प्रतिस्पर्धा और आर्थिक विषमता को कम करने के लिए इस क्षेत्र के देशों के साथ हमारा व्यापार भी अमरीकी चुनाव से ही जुड़ा है."
इन चुनौतियों के लिए तैयार रहें प्रधानमंत्री
अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिंदू' में राष्ट्रीय और कूटनीतिक मामलों की संपादक सुहासिनी हैदर का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी के सामने एलएसी पर चीनी सैनिकों की मौजूदगी तात्कालिक चुनौती है और इसके अलावा कोरोना संकट से उपजी अन्य चुनौतियाँ भी हैं.
वो कहती हैं, "कोरोना संकट के बाद पूरी दुनिया में वैश्वीकरण विरोधी और संरक्षणवादी विचारधारा उफ़ान पर है. ऐसे हालात में प्रवासी भारतीयों के लिए रोज़गार के मौक़े तेज़ी से कम हो रहे हैं. आने वाले वक़्त में अमरीका अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को हटा सकता है. भारत को इसके लिए और पड़ोस में तालिबान के मुख्यधारा में आने की संभावित स्थिति के लिए तैयार रहना होगा."
नरेंद्र मोदी को आज दुनिया जैसे देखती है, उसके लिए उनकी टीम यानी बीजेपी सदस्यों और पीआर एजेंसियों ने बरसों तक काम किया है.
हाँलाकि 2002 के गुजरात दंगों के बाद नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए), नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजन्स (एनआरसी) और जम्मू-कश्मीर को ख़ास दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद-370 को निरस्त किए जाने से पीएम मोदी की वैश्विक छवि को धक्का लगा है.
सुहासिनी कहती हैं, "मोदी सरकार के सामने इसकी घरेलू नीतियों से उपजी चुनौतियाँ अब भी मुंह बाए खड़ी हैं. मसलन, जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के बाद पड़ोसी देशों की प्रतिक्रियाएँ, सीएए और एनआरसी जैसे फ़ैसले."
पैसा बोलता है
नरेंद्र मोदी जब सत्ता में आए तब भारत में यूपीए विरोधी लहर थी और उसी लहर की सवारी कर उन्हें जीत हासिल हुए.
उन्होंने चुनावों से आर्थिक मोर्चे पर पहले यूपीए सरकार की नाकामियाँ गिनाई थीं. लेकिन ख़ुद पीएम मोदी ने जिन 'अच्छे दिनों' का वादा किया था, वो काफ़ी दूर मालूम पड़ते हैं.
विपक्षी दल पीएम मोदी और उनकी नीतियों को रोज़गार-विरोधी बताते हैं. प्रधानमंत्री के लिए निढाल होती अर्थव्यवस्था और लगातार उछाल मारती बेरोज़गारी जैसी बीमारियों के लिए वैक्सीन ढूँढना सबसे पहली ज़रूरत है.
हाँलाकि राज्यसभा सांसद, लेखक और अर्थशास्त्री स्वपन दासगुप्ता को लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं और वो सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
वो कहते हैं, "अभी जैसी स्थिति है, वैसी पहले कभी नहीं रही और हमारी अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा अभी सामान्य हालत में नहीं है. नरेंद्र मोदी बाज़ार में पैसा डालने में कामयाब रहे हैं. जनता के बीच यह मत है कि प्रधानमंत्री ने अच्छा काम किया है.''
''उन्होंने लोगों को यक़ीन दिलाया है कि कोरोना संकट के दौरान भी 'आपदा में अवसर' है. लेकिन किसी के पास कोरोना संकट से निबटने का पक्का उपाय नहीं है. न तो किसी के पास इसका प्रभावी चिकित्सकीय निदान है और न ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का उपाय."
दासगुप्ता मानते हैं कि पीएम मोदी की 'आत्मनिर्भर भारत' जैसी नीतियाँ, वैश्विक बाज़ार का रास्ता बंद किए बिना देश को सही दिशा में रोशनी दिखाती हैं.
हाँलाकि वो इस बात से भी सहमत हैं कि प्रधानमंत्री के लिए लोगों का सरकार में भरोसा बनाए रखना और उन पर रोजी-रोटी की चिंता हावी न होने देना, एक चुनौती साबित होगी.

लोकप्रियता के सहारे कब तक?
आर्थिक पत्रकार और 'द लॉस्ट डिकेड' किताब की लेखिका पूजा मेहरा का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने बढ़ती आर्थिक कठिनाइयों की ज़िम्मेदारी लेने से मुँह मोड़ लिया है.
वो कहती हैं, "सरकार के लिए आय के रास्ते बंद हो गए हैं और इसकी वजह से जनवादी नीतियों के लिए आने वाला उसका ख़र्च भी सीमित हो गया है. मोदी सरकार के लिए यह प्राथमिक चुनौती होगी.''
''सरकार समय पर भुगतान करने और कर्ज़ चुकाने में असफल हो रही है. इस वजह से भी अर्थव्यवस्था का बोझ कम नहीं हो पा रहा है. सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाला डीए रोका जा चुका है. क्या एक ऐसा वक़्त आएगा जब सरकार अपने कर्मचारियों को वेतन और पेंशन भी नहीं दे पाएगी?"
लेकिन क्या आगामी बिहार और पश्चिम बंगाल चुनाव में मतदाताओं के लिए अर्थव्यवस्था मुद्दा बन पाएगी?
इसका जवाब पूजा मेहरा 'हाँ' में देती हैं. वो कहती हैं, "नौकरियों और रोज़गार के पर्याप्त अवसर न मिलने के बावजूद वोटरों का भरोसा पीएम मोदी में बना रहा है. लेकिन अब सवाल है कि प्रधानमंत्री अपनी लोकप्रियता का सहारा कब तक ले सकते हैं."
प्रधानमंत्री को करीब से जानने वालों का दावा है कि कूटनीति और राजनीति में वो माहिर हैं लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़े फ़ैसलों के लिए वो अपने सलाहकारों पर भरोसा करते हैं. पूजा मेहरा जैसे अन्य कई विशेषज्ञों का मानना है कि प्रधानमंत्री के यही सलाहकार समस्या की जड़ हैं.
वो कहती हैं, "पीएम मोदी पेशेवर अर्थशास्त्रियों में कम भरोसा रखते हैं. उन्होंने अपने ऐसे सलाहकारों की सुनी जिन्होंने उन्हें नोटबंदी जैसे असामान्य प्रयोग करने को कहा. इन प्रयोगों से अर्थव्यवस्था को फ़ायदा कम, नुक़सान ज़्यादा हुआ है."
राजनीति की पिच
नरेंद्र मोदी ने 1980 के आख़िर में सक्रिय राजनीति में कदम रखा था. ऐसा लगता है कि तब से लेकर अब तक उन्होंने अपने लिए जो योजनाएँ बनाईं, वो उनके पक्ष में साबित होती रहीं. 70 वर्षीय नरेंद्र मोदी 50 वर्षीय राहुल गाँधी की तुलना में राजनीतिक रूप से कई कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं. लेकिन उनका भविष्य कैसा होगा?
अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' में डेप्युटी एडिटर रहीं सीमा चिश्ती कहती हैं, "लोकतंत्र में लोकप्रिय नेताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती तब आती है जब वो किसी शख़्स या संगठन को चुनौती नहीं मानते. ये स्थिति उन्हें हरा देती है. मुखर विपक्ष न सिर्फ़ लोकतंत्र के लिए अच्छा होता है बल्कि उनके लिए भी फ़ायदेमंद होता है जो सत्ता में काबिज हैं. इससे वो नियंत्रण में रहते हैं."
प्रधानमंत्री मोदी आने वाले कुछ वर्षों में अपनी विरासत बनाने के काम में जुटे रहेंगे.
शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी ने हाल ही में कहा था कि दिल्ली के राजपथ का पुनर्निमाण पीएम मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट है. इस प्रोजेक्ट के डिज़ाइन का जिम्मा अहमदाबाद के आर्किटेक्ट बिमल पटेल को दिया गया है. बिमल पटेल उस वक़्त से प्रधानमंत्री के करीबी रहे हैं जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे.
लेकिन पीएम मोदी रिटायर होने के बाद भारत और दुनिया की यादों में किस रूप में रहना चाहते हैं? उनके सामने कौन सी राजनीतिक चुनौतियाँ हैं?
इस बारे में सीमा चिश्ती कहती हैं, "मोदी हिंदुत्व की विचारधारा में पूरा भरोसा रखते हैं. लेकिन एक वैश्विक नेता के तौर पर वो महात्मा गाँधी को याद करते हैं और समावेशी भारत की बात करते हैं. इन दोनों में घोर विरोधाभास है. देश में वो सबको एक विचारधारा के भीतर लाना चाहते हैं लेकिन विदेश में संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का दावा करते हैं."

'प्रधानमंत्री के सामने कोई चुनौती नहीं'
वहीं, 'इंडिया टुडे' के उप संपादक उदय महुरकर का मानना है कि जब तक कांग्रेस की छवि नहीं बदलती, प्रधानमंत्री मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं होगी.
वो कहते हैं, "जब तक कांग्रेस अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण में जुटी रहेगी, पीएम मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं होगा. आम जनता के मन में मोदी की छवि एक ईमानदार और मज़बूत नेता की है."
महुरकर के मुताबिक़, "मोदी सरकार ने जिस गति से अपने वादे पूरे किए हैं, वो प्रभावशाली हैं. ज़्यादातर लोगों को, ख़ासकर ग्रामीण लोगों को उनकी योजनाओं का फ़ायदा मिला है. मोदी के आलोचका ऐसा दिखाते हैं कि उनके सामने कड़ी चुनौतियाँ हैं लेकिन असल में उनके सामने कोई चुनौती नहीं है. कोरोना संकट के बाद पीएम मोदी ज़्यादा मज़बूत होकर उभरेंगे."
लेकिन अपने 70वें जन्मदिन पर प्रधानमंत्री क्या चाहेंगे? ज़्यादा मज़बूत मोदी, वैश्विक मोदी, ज़्यादा हिंदूवादी मोदी, ज़्यादा स्वीकार्य मोदी या फिर ये सभी?(bbc)
- Shweta Chauhan
सभी देश विकास की होड़ में इस कदर मसरूफ़ है कि उन्हें पर्यावरण और जैव विवधता के सरंक्षण में कोई दिलचस्पी नहीं रही है। भारत में विवादित पर्यावरण प्रभाव आंकलन 2020 का मसौदा भी इन्हीं उदाहरणों में से एक है जिससे पर्यावरण के प्रति हमारी चिंता साफ़ ज़ाहिर होती है। अपने आप को विकसित देशों की कतार में लाने के लिए जैव विविधता को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया गया है। इसकी वजह से पशु पक्षियों की कई प्रजातियां या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने की कगार पर आ गई हैं। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2020 में ये चौंकाने वाला खुलासा हुआ है।
दरअसल, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के द्विवार्षिक प्रकाशन के तेरहवें संस्करण में लिविंग प्लैनेट इंडेक्स (एलपीआई) के माध्यम से प्राकृतिक स्थिति का आंकलन किया गया है। लीविंग प्लैनेट इंडेक्स के मुताबिक 1970-2016 के बीच धरती पर रहने वाले जीव जंतुओं की आबादी में करीब 68 फीसद की गिरावट देखी गई है। इनमें हवा, पानी और ज़मीन पर रहने वाले सभी छोटे और बड़े जीव शामिल हैं। इन आंकड़ों से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इंसान प्रकृति पर किस तरह के ज़ुल्म ढा रहा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक बीते पांच दशकों की विकास की लड़ाई में करीब 10 में से 7 जैव विविधता की प्रजातियां खत्म हो चुकी हैं। वहीं, ताज़े पानी में रहने वाली करीब 84 फीसद प्रजातियों में कमी आई है। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के मुताबिक जंगली जानवरों की संख्या तेज़ी से घट रही है क्योंकि प्रकृति के प्रति इंसानों की कठोरता समय के साथ बढ़ती जा रही है।
बात अगर हम भारत में इन हालातों की बात करें तो डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की प्रोग्राम डायरेक्टर सेजल वोराह के मुताबिक इस बारे में भारत की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2020 के मुताबिक भारत में 12 फीसद स्तनधारी जीव और 3 फीसद पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस बड़े बदलाव की वजह से ही कोविड-19 जैसे जानलेवा वायरस पैदा हो रहे हैं।
वन्यजीवों की आबादी में गिरावट का सीधा मतलब यह है कि हमारी धरती हमें चेतावनी दे रही है कि हमारा तंत्र पूरी तरह से फेल हो रहा है।
लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2020 के मुताबिक दक्षिण अमेरिका और केरेबियन क्षेत्र में करीब 94 फीसद तक जैव विविधता में कमी आई है। वहीं एशिया प्रशांत क्षेत्र में करीब 45 फीसद तक इसमें गिरावट दर्ज की गई। इस रिपोर्ट के अनुसार ताज़े पानी में रहने वाली तीन प्रजातियों में से एक प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। भारत के संदर्भ में भी यह स्थिति भयंकर है। सेजल वोराह के मुताबिक देश में वर्ष 2030 तक पानी की मांग उसकी पूर्ति के हिसाब से दोगुनी हो जाएगी। 20 में से 14 नदियों के तट सिकुड़ रहे हैं। उनके मुताबिक भारत के एक तिहाई नम भूमि वाले क्षेत्र बीते चार दशकों के दौरान खत्म हो चुके हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि साल 2018 में आए चक्रवाती तूफानों की वजह से दक्षिणी अरब प्रायद्वीप में जबरदस्त बारिश देखने को मिली थी और यही बाद में टिड्डी दलों के प्रजनन स्थल बने। उसी साल गर्मियों में जबरदस्त लू चली और भारत, पाकिस्तान के कुछ इलाकों को सूखे की मार भी झेलनी पड़ी थी। अभी हाल में ही भारत के कई राज्यों में टिड्डी दलों के आक्रमण की खबर भी बेहद चर्चा में रही थी जिससे किसानों की फसल को खासा नुकसान पहुंचा है।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के महानिदेशक मैक्रो लैम्बरतिनी के मुताबिक यह रिपोर्ट इस बात की ओर इशारा करती है कि इंसान ने प्रकृति से खिलवाड़ कर खुद पर और इस धरती पर रहने वाले असख्ंय जीव-जंतुओं के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। उन्होंने कहा कि हम सामने आए दिन इन सबूतों की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। वन्यजीवों की आबादी में गिरावट का सीधा मतलब यह है कि हमारी धरती हमें चेतावनी दे रही है कि हमारा तंत्र पूरी तरह से फेल हो रहा है। समुद्रों और नदियों की मछलियों से लेकर, मधुमक्खियों तक जो हमारी फसलों के उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं, वे अब नष्ट हो रही हैं। वन्यजीवों में कमी होना सीधे तौर पर मानव के पोषण, खाद्यान्न सुरक्षा और करोड़ों लोगों की आजीविका पर घातक प्रभाव डालता है।
जैव विविधता और पानी के संकट को जलपुरुष डॉक्टर राजेंद्र सिंह इससे कहीं अधिक बड़ी समस्या मानते हैं। उनके मुताबिक भारत के लगभग 365 जिलों में पेयजल उपलब्ध नहीं है। 190 जिले बाढ़ की समस्या से जूझ रहे है। उनका कहना है कि यदि यही हालात रहे तो आने वाले सालों में यूरोप, अफ्रीका और सेंट्रल एशिया में पानी को लेकर चिंता बढ़ती जाएगी। उनके मुताबिक यूरोप की तरफ रुख करने वाली अफ्रीकी या एशियाई लोगों को वहां के लोग ‘क्लाइमेटिक रिफ्यूजी’ कहने लगे हैं। जिसका मतलब है कि जहां से ये लोग आए हैं वहां पर कई तरह का प्राकृतिक संकट है। इस पलायन की वजह से यूरोप का परिदृश्य बदल रहा है। वहीं, पहले अमेज़न और अब कैलिफ़ोर्निया के जंगलों में लगी आग, अम्फान, निसर्ग, क्रिस्टबॉल चक्रवात, आए दिन भूकंप की घटनाएं कई जगहों पर भारी तबाही मचा चुकी हैं लेकिन ये सारी तबाही इंसानों की विकास की होड़ के कारण ही है जिसका खामियाज़ा आज पूरी दुनिया भुगत रही है।
हालांकि, इस बुरे दौर में कुछ अच्छी ख़बरें भी सुनने को मिली क्योंकि कोरोना वायरस के कारण लगे लॉकडाउन से हमारी प्रकृति इंसानों के घरों में कैद होने के बाद अपनी मरम्मत में जुट गई। पंजाब के जालंधर से ऐसी तस्वीरें साझा की जिनमें वहां से लोगों को हिमाचल प्रदेश में स्थित धौलाधार पर्वत श्रृंखला की चोटियां दिख रही हैं। प्रदूषण कम होने की वजह से लगभग पूरा देश इस तरह का नीला आसमान देख पा रहा था। दिल्ली से होकर बहने वाली यमुना नदी को इतना साफ देख कर लोग काफी हैरान थे। इस नदी को साफ करने की कोशिश में सालों से सरकारों ने कितनी ही योजनाएं और समितियां बनाईं और कितना ही धन खर्च किया लेकिन ऐसे नतीजे कभी नहीं दिखे जो लॉकडाउन के दौरान सामने आए हैं। इसी के साथ कई जानवर भी बिना डर के सड़कों पर भ्रमण करते नज़र आए। लेकिन अब डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की यह नयी रिपोर्ट इशारा करती है कि हम इंसानों के कारण प्रकृति का कितना दोहन हो रहा है। इस रिपोर्ट में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि अगर इस संबंध में तुरंत कदम उठाए जाए तो जंगल का इलाका बढ़ सकता है। साथ ही अगर प्रकृति का संरक्षण करना है तो हमें उर्जा पैदा करने के तरीकों को भी बदलना होगा और समुद्र को प्रदूषण से बचाना होगा।
(यह लेख पहले फेमिनिज्म इन इंडिया की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है.)
- Eesha
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले पर अभिनेत्री कंगना रनौत शुरू से ही काफ़ी मुखर रही हैं। मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर बेहद आपत्तिजनक और विवादित बयान देने के साथ-साथ उन्होंने बॉलीवुड के कई अभिनेता और अभिनेत्रियों पर गंभीर आरोप लगाए हैं। साथ ही उन्होंने यह दावा किया है कि वह फ़िल्मी दुनिया के कई बड़े राज़ जानती हैं। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद कंगना ने कई वीडियो जारी किए जहां उन्होंने कई आपत्तिजनक बयान दिए। अपने एक ट्वीट में उन्होंने यह तक कहा था कि उन्हें मुंबई और ‘पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर’ में कोई फ़र्क नज़र नहीं आ रहा।
कंगना रनौत के इस बयान की कठोर निंदा हुई। कई लोगों का कहना रहा कि इस तरह उन्होंने मुंबई शहर का अपमान किया है। महाराष्ट्र सरकार के प्रवक्ता संजय राउत ने भी कंगना की बातों पर आपत्ति जताई और उनके लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। कंगना ने ट्विटर पर यह कहा कि उन्हें खास सुरक्षा की ज़रूरत है क्योंकि वे मुंबई पुलिस और सरकार पर भरोसा नहीं कर सकतीं, जिसके बाद केंद्र सरकार ने उनके लिए ‘वाई-प्लस’ सुरक्षा के प्रबंध के लिए अनुमति दी। ट्विटर पर कंगना ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को धन्यवाद दिया है और यह कहा है कि अब कोई ‘फ़ासीवादी’ किसी देशभक्त की आवाज़ नहीं दबा पाएगा।
हाल ही में मुंबई की सड़कों पर एक कलाकार ने ‘वॉक ऑफ़ शेम’ नाम की ‘स्ट्रीट आर्ट’ पेंटिंग भी बनाई थी, जिसमें उन सभी लोगों के नाम दिए गए जो सुशांत की मौत को सनसनीखेज बनाकर सुर्खियां बटोर रहे हैं। कई राजनेताओं और पत्रकारों के साथ इसमें कंगना का भी नाम था। कंगना रनौत ने इस पर यह प्रतिक्रिया दी कि उनका चरित्र हनन किया जा रहा है, जिसकी वजह से वे अब मुंबई में सुरक्षित महसूस नहीं कर रहीं। कला, ख़ासकर स्ट्रीट आर्ट या ग्रैफिटी, समकालीन परिस्थितियों के बारे में कलाकार के विचार व्यक्त करने और विरोध प्रकट करने का एक साधन मात्र है। ‘वॉक ऑफ़ शेम’ चित्रकला के निर्माता ने भी इसके माध्यम से कंगना रनौत जैसे लोगों द्वारा सुशांत की मृत्यु पर पब्लिसिटी लूटने पर आपत्ति जताई है। इसमें कोई अश्लीलता नहीं थी, न ही किसी तरह की हिंसात्मक भाषा का प्रयोग किया गया। कंगना को किसी धमकी या शारीरिक और मानसिक हमले का भी सामना नहीं करना पड़ा है। सिर्फ़ निंदा और आलोचना से बचने के लिए एक व्यक्ति को सरकार से सुरक्षा की मांग करनी पड़ी यह सोचकर आश्चचर्य होता है। ऐसे में यह सवाल पूछना लाज़मी है कि कंगना को इतने ऊंचे दर्जे की सिक्योरिटी क्यों दी जा रही है?
‘वाई-प्लस’ सिक्योरिटी फोर्स 11 से 22 सुरक्षा कर्मियों से बना होता है, जिनमें से एक या दो कमांडो भी होते हैं। कंगना रनौत की सुरक्षा के लिए जिन्हें तैनात किया गया है, वे सब सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स यानी सीआरपीएफ़ के जवान हैं। इससे पहले कभी किसी बॉलीवुड कलाकार की निजी सुरक्षा के लिए अर्धसैनिक बलों की ज़रूरत नहीं पड़ी है। आमतौर पर इस तरह की सुरक्षा मंत्रियों और विदेशी अतिथियों को दी जाती है। वह भी यह तय करने के बाद कि उन्हें किस तरह का खतरा होने की संभावना है।
देशभर में ऐसी हज़ारों औरतें हैं जिनके पास कंगना रनौत की तरह विशेषाधिकार नहीं हैं और न वे संभ्रांत हैं, जिनके लिए उनकी रोज़ की ज़िंदगी एक संघर्ष से कम नहीं है।
जहां लगभग हर सेलेब्रिटी के पास उसके निजी बॉडीगार्ड्स होते हैं, क्या सचमुच एक अभिनेत्री की सुरक्षा के लिए कमांडो और सीआरपीएफ तैनात करने की ज़रूरत है? इससे भी ज़रूरी सवाल यह है कि क्या देश की बाकी औरतों को इसकी आधी सिक्योरिटी भी मिलती है? कंगना रनौत को वह सिक्योरिटी दी गई है जो पूरे देश में सिर्फ़ 15 लोगों के पास है। देशभर में ऐसी लाखों औरतें हैं जिनके पास कंगना रनौत की तरह विशेषाधिकार नहीं हैं और न वे सभ्रांत हैं, जिनके लिए उनकी रोज़ की ज़िंदगी एक संघर्ष से कम नहीं है। ‘वाई-प्लस’ तो छोड़ो, क्या सरकार उन्हें न्यूनतम सुरक्षा और संसाधन दिलाने में सक्षम रही है?
हमारे देश में औरतों की एक बड़ी संख्या अपने ही घरों में सुरक्षित नहीं हैं। इन औरतों के लिए शोषण, बलात्कार, हिंसा हर रोज़ की बात है और कई क्षेत्रों में सारी ज़िंदगी अपने उत्पीड़कों के साथ गुज़ारनी पड़ती है क्योंकि कहीं और जाने का विकल्प उनके पास नहीं रहता। कानून व्यवस्था भी उनका साथ नहीं देती और कई बार उन्हें अपने ही शोषण के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। ऐसे में एक संभ्रांत सेलेब्रिटी को अगर ‘वाई-प्लस’ सिक्योरिटी सिर्फ़ आहत भावनाओं के आधार पर दी जाए तो यह हर उस औरत के साथ नाइंसाफी है जिसे हिंसा और उत्पीड़न से न्यूनतम सुरक्षा भी नहीं मिलती। यहां इस बात पर गौर करना भी ज़रूरी है कि कंगना वर्तमान केंद्र सरकार की समर्थक हैं और उनका प्रचार करने में काफ़ी सक्रिय रही हैं। यह कहना ज़रूरी इसलिए है क्योंकि पिछले छह सालों में हर महिला, जिसने सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई हो, मानसिक उत्पीड़न, यौन शोषण, और कई क्षेत्रों में हत्या की शिकार हुई हैं।
पिछले ही हफ़्ते 5 सितंबर में पत्रकार गौरी लंकेश की पुण्यतिथि मनाई गई। आज से तीन साल पहले साल 2017 में गौरी लंकेश की आवाज़ दबाने के लिए उनकी हत्या कर दी गई थी। उनकी तरह ऐसी कई महिला पत्रकार और हैं जिन्हें वर्तमान सरकार की निष्पक्ष आलोचना के लिए भद्दी भाषा में धमकियां दी गई हैं और सोशल मीडिया के जरिए जिन पर रोज़ आक्रमण किया जाता है। पत्रकारों के अलावा तमाम महिला छात्र नेताओं, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं इत्यादि ने भी खुलेआम सरकार का विरोध किया है जिनके लिए उन पर हर तरह का हमला किया गया है।
क्यों इन सबके बावजूद भी इन महिलाओं को सरकार की तरफ़ से कोई सुरक्षा या आश्वासन नहीं मिलता, बल्कि अक्सर सरकार उन पर बेबुनियाद आरोप लगाकर उनके ही खिलाफ़ कार्रवाई करती है? क्यों कुछ मामूली टिप्पणियों की वजह से सरकार समर्थक कंगना की सुरक्षा के लिए कमांडो रखे जाते हैं? इसके पीछे सिर्फ़ राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है। सुरक्षा इस देश के हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। किसी एक व्यक्ति को सिर्फ़ सेलेब्रिटी होने और सरकार के पक्ष में बोलने के लिए तथाकथित रूप से विशेष सुरक्षा और सुविधाएं दी जाएं तो यह एक तरह से असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्म इन इंडिया की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है.)
- Ritika Srivastava
कोरोना काल में हम सभी को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। लाखों लोग गरीबी, भुखमारी, बेरोजगारी, बीमारी की चपेट में हैं अथवा धकेल दिए गए हैं। शिक्षा के क्षेत्र में लोगों ने ऑनलाइन पढ़ना-पढ़ाना शुरू कर दिया है। मैंने कुछ शिक्षक, शिक्षिकाओं और छात्र, छात्राओं से ऑनलाइन शिक्षा की चुनौतियों के विषय में बात की। कई छात्रों और शिक्षकों ने यह साझा किया कि ऑनलाइन टीचिंग-लर्निंग, इंटरनेट और टेक्नोलॉजी के संसाधन ना होने की वजह से गरीब और वंचित बच्चों के लिए शिक्षा पाना एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। इतना ही नहीं संसाधन संपन्न छात्र भी ऑनलाइन शिक्षा से अब उकता गए हैं। छात्रों और शिक्षकों का एक तबका है जिनके घर में आए दिन परिवार का कोई ना कोई सदस्य कोविड-19 से संक्रमित हो रहा है या अवसाद और दूसरी बीमारियों से ग्रसित है। ऐसी स्थिति में भी शिक्षकों और बच्चों से उम्मीद की जा रही है कि वे ऑनलाइन कक्षाओं में मौजूद रहें। कुछ प्राइवेट स्कूल में बच्चों को ऑनलाइन क्लास में स्कूल ड्रेस पहनकर स्कूल के समय पर ऑनलाइन कक्षा के लिए मौजूद होना अनिवार्य है।
स्कूल और उच्च शिक्षा के संस्थान में पढ़ने वाले छात्र किसी ना किसी प्रकार से कोशिश कर रहे हैं कि वे शिक्षा से वंचित ना रह जाए। कई छात्र ऐसे भी हैं जिनके घर में एक ही कमरा है और पूरा परिवार उसी एक कमरे में रहता है। ऐसे में छात्र ऑनलाइन कक्षा में ना ही ध्यान से बैठ कर पढ़ पा रहे हैं, ना ही कुछ सवाल कर पा रहे हैं। जिनके घर में एक ही मोबाइल है या घर में उपयुक्त जगह नहीं है वे ऑनलाइन शिक्षा में सक्रिय नहीं हैं। मोबाइल नेटवर्क लगभग सभी छात्रों के लिए एक बड़ी समस्या है। छात्रों के परिवार मोबाइल इंटरनेट का रिचार्ज बार-बार कर सकें इसके लिए उनके पास पर्याप्त पैसे भी नहीं है।
लड़कियों के लिए दोगुनी चुनौती
महिला अध्यापकों और छात्राओं से बात करने पर ऑनलाइन शिक्षा की स्थिति और भी विकराल समस्या को उजागर कर देती है। दलित, बहुजन और आदिवासी छात्राएं घर में आर्थिक तंगी और पारिवारिक स्थिति बिगड़ने के कारण पढ़ाई छोड़ने की स्थिति में हैं। कई ऐसी छात्राएं हैं जो ऑनलाइन कक्षा में शामिल तो हो जाती हैं पर घर में परिवार का कोई ना कोई सदस्य उन्हें पढ़ाई के दौरान कुछ ना कुछ घर का काम करने को कहता रहता है। अब स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि लड़कियों को कहा जाने लगा है कि उनका खुद ही पढ़ने में मन ही नहीं लगता। घर का काम करके लड़कियां इतना थक जाती हैं कि पढ़ाई के दौरान उन्हें थकावट महसूस होना स्वाभाविक है। कुछ लड़कियां तो कक्षा के बीच में ही थकान के कारण सो भी जाती हैं।
कोरोना काल में लड़कियों को घर में स्पेस ना देना, उनकी पढ़ाई को महत्व ना देना और उनको शादी के लिए बाध्य करना ये समस्याएं खुलकर सामने आ रही हैं। यह लड़कियों की हमारे परिवार और समाज में स्थिति को दर्शाता है।
लड़कियां लड़कों के मुकाबले ऑनलाइन कक्षाओं में उतनी सक्रिय नहीं रह पाती। कई यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली लड़कियों ने बताया कि उनकी शिक्षा को लेकर घर के सदस्य अब चिंतित नज़र नहीं आते हैं। अब तो घर के सदस्य कहने लगे हैं कि पढ़ाई करने का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकी आने वाले समय में नौकरी मिलना असंभव है। ऑनलाइन पढ़ाने वाली शिक्षिकाओं ने अपने शिक्षण अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि ऑनलाइन पढ़ाना उनके लिए बेहद मुश्किल हो रहा है क्योंकी घर में रहकर घर के काम ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते। घर के काम में उनकी मदद करने के लिए कोई नहीं है। अधिकतर शिक्षिकाएं छात्रों या उनके माता पिता के फ़ोन और बेवक्त वॉट्सऐप मैसेज से परेशान हैं। कई महिला शिक्षिकाएं जो प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी अब अपनी नौकरी छोड़ चुकी हैं और कुछ शिक्षिकाएं नौकरी छोड़ने की सोच रही हैं।
यूनिवर्सिटीज में पढ़ रही लड़कियां घर में लैपटॉप न होने के कारण मोबाइल से पढ़ने के लिए मजबूर हैं। अधिक समय तक फ़ोन पर व्यस्त होने की वजह से घर के सदस्य यूनिवर्सिटी की लड़कियों के व्यक्तित्व को मात्र युवा होने की वजह से शक की निगाह से देखने लगे हैं। कई युवा लड़कियों को घर में रोज़ मोबाइल की वजह से ही डांट, गालियां और कभी- कभी तो शारीरिक हिंसा का भी सामना करना पड़ रहा है। कोरोना काल के चलते यूनिवर्सिटीज में पढ़ने वाली लड़कियां उन्हीं के परिवार द्वारा की जाने वाली मौखिक, भावनात्मक और शारीरिक हिंसा की शिकार हो रही हैं। यह लड़कियां ऐसी स्थिति में हैं कि उनको किसी अन्य प्रकार से मदद मिलना भी मुश्किल हो गया है। कोरोना के चलते घरेलू हिंसा का दायरा इतना बड़ा हो गया है कि आंकड़े भी मौजूदा स्थिति बताने में असमर्थ हैं।
परिवार के सभी सदस्य लड़कियों को जल्द से जल्द लैपटॉप या मोबाइल बंद करने के लिए कहते हैं। कुछ यूनिवर्सिटीज की लड़कियों ने साझा किया कि जब वे मोबाइल पर नहीं पढ़ रही होती तो उनकी गैर-मौजूदगी में परिवार के सदस्य पूरा फ़ोन ठीक से चेक करते हैं। परिवार वाले मोरल पोलिसिंग करते हैं। वे देखते हैं कि लड़की कब, किससे और क्यों बात करती है। युवा लड़कियों ने कहा महामारी से पहले जब वो कभी-कभी हॉस्टल से घर आती थी तो उनको घर पर आना अच्छा लगता था। पर अब उनको घर में रहना अच्छा नहीं लगता, उनको एहसास होता है कि कोई हर समय उन पर नज़र रख रहा हैं। वे खुद को आज़ाद महसूस नहीं करती। युवा लड़कियों ने यह भी कहा कि लड़की होने की वजह से उनको घर में कोई स्पेस नहीं दिया जाता है, ना ही उनकी पढ़ाई के समय की कोई कद्र करता है। कई लड़कियों को शादी के लिए विवश किया जा रहा है। ना चाहते हुए भी परिवार वाले लड़कियों को शादी के लिए लड़का देखने या कम से कम लड़के से बात करने के लिए दबाव डाल रहे हैं। युवा लड़कियों को लगने लगा है कि परिवार जब भी चाहे उनसे उनका शिक्षा का अधिकार छीन सकते हैं। जो लड़कियां हॉस्टल में रहती थी वे अब आपस में और शिक्षिकाओं से पूछने लगी हैं कि हॉस्टल कब खुलेगा, कब वे घर से यूनिवर्सिटी या अपने संस्थान जा सकेंगी।
कोरोना काल में लड़कियों को घर में स्पेस ना देना, उनकी पढ़ाई को महत्व ना देना और उनको शादी के लिए बाध्य करना ये समस्याएं खुलकर सामने आ रही हैं। यह लड़कियों की हमारे परिवार और समाज में स्थिति को दर्शाता है। कोरोना काल में परिवारों ने यह बता दिया है कि लड़कियों की शिक्षा परिवार लिए अधिक महत्व नहीं रखती। साथ ही यह दर्शाता है कि युवा लड़कियों पर परिवार का विश्वास बेहद जर्जर और ना के बराबर है, जो हम सब के लिए बहुत ही शर्मनाक बात है। लड़कियों की यह स्थिति समाज का एक आईना है जो दर्शाता है कि हम लड़कियों की शिक्षा या अपनी प्रगति के कितने भी गुण गाएं, पितृसत्ता के आगे हमारी सब बातें और हमारे सब वादे खोखले हैं।
(यह लेख पहले फेमिनिज्म इन इंडिया की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है.)
-राकेश दीवान
कंगना रनौत और रिया चक्रवर्ती की चटखारेदार, सीरियल-नुमा कहानियों में डूबते-उतराते लोगों के लिए भले ही मीडिया मनोरंजन परोसने की एक फैक्ट्री की तरह स्थापित हो चुका हो, लेकिन क्या खबरों की अब हमारे संसार में कुल मिलाकर इतनी-भर हैसियत बची है? क्या खबरें और मनोरंजन अब ‘सहोदर’ हो गए हैं जिनमें किसी एक की बढ़ोतरी, दूसरे को भी कई-कई गुना लाभ पहुंचा सकती है? पारंपरिक माक्र्सवाद में मीडिया की इस भूमिका को धर्म की तरह ‘अफीम’ माना जाता है। मीडिया की यह ‘अफीम’ नागरिकों को सम-सामयिक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन से बेजार रखती है, ताकि पूंजी अपनी बेहूदी, बेहिसाब उड़ान भर सके। तो क्या ‘सास बहू’ के सोप-ऑपेरा से लगाकर कंगना-रिया के ‘रीयलिटी-शो’ तक पहुंचा भारतीय मीडिया अब कुल मिलाकर सिर्फ मनोरंजन दिखाने, सुनाने भर का कारखाना बन गया है?
एक तरह से देखें तो कंगना-रिया की कथा पूंजीवाद के विकास की मार्क्सवादी अवधारणा में फिट बैठती दिखती है। एन कोविड-19 के महामारी-काल में भीषण बेरोजगारी, भुखमरी और बीमारियों को सिरे से भुलाकर भारतीय मीडिया कंगना-रिया की चटखारेदार कहानी में रमा है। मानो देश के सामने अब कुल मिलाकर कंगना का टूटा दफ्तर और रिया की कथित नशे की आदतें भर कुल मुद्दे बचे हैं। लेकिन क्या इसे हम देशभर की समस्या मान सकते हैं? क्या चहुंदिस ‘विकास’ के हल्ले के बावजूद मीडिया हमारे समूचे समाज में अपनी पैठ जमा पाया है? और यदि यह भूमंडलीकरण की कृपा से फले-फूले-फैले कुल आबादी के करीब तीस फीसदी शहरी मध्यमवर्ग की आदतों में शुमार हो गया है तो फिर बाकी के सत्तर फीसदी आम लोग कैसे जीते-मरते हैं? क्या उनके लिए, उनका भी कोई मीडिया है? इन सवालों का जबाव खोजने के लिए हमें 1990 के दशक के बदलाव पर गौर करना होगा।
आजादी के बाद से जारी ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ को ठेंगे पर मारते हुए नब्बे के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सदारत में भूमंडलीकरण का पदार्पण हुआ था। उस जमाने में खुले बाजारों वाली इस नीति की मान्यता थी कि बाजार, बिना सरकारी इमदाद और नियंत्रण के, अपनी चाल से, अपनी शर्तों पर चल लेगा। सब जानते हैं कि आज का मीडिया बाजार का पिछलग्गू् है और भूमंडलीकरण में बाजारों के खुलते ही मीडिया ने भी तरह-तरह के सरकारी, सामाजिक नियंत्रणों को धता बताते हुए अपनी राह बनाना शुरु कर दिया। यही वह दौर था जब बाजार के प्रभाव में, एक फलते-फूलते बाजार की शक्ल में शहरी मध्यम वर्ग की हैसियत में इजाफा हुआ और नतीजे में मीडिया उसी की चाकरी को अपना सबसे अहम काम मानने लगा। यही वह समय था जब तरह-तरह के सीरियल, ‘सोप-ऑपेरा’ और रीयलिटी-शो बने, पनपे और खूब लोकप्रिय भी हुए।
अलबत्ता, इस सबको खडा करने वालों को ठीक पिछले दशकों में हुई कवि-सम्मेलनों की मिट्टी-पलीती दिखाई नहीं दी। साठ, सत्तर के दशकों में युवा रहे लोग जानते हैं कि उन दिनों कवि-सम्मेलनों की धूम हुआ करती थी और इक्का-दुक्का सिनेमाघरों के अलावा लोग भवानीप्रसाद मिश्र, गोपालदास ‘नीरज,’ सोम ठाकुर, देवराज दिनेश, शैल चतुर्वेदी, रमेश ‘रंजक,’ विनोद निगम, सुरेश उपाध्याय, माहेश्वुर तिवारी आदि को ही देखने-सुनने का ‘क्रेज’ था। धीरे-धीरे कवि-सम्मेलन भी व्यवसाय बनते गए और साहित्यिक और लोकप्रियता के बीच की बहसों के अलावा उनमें हास्य और फूहड़ता समाती गई। ऐसे अनेक कवि-सम्मेलनों के उदाहरण हैं जिनमें खुद को ‘जमाने’ के लिए कवि अश्लील, फूहड़, द्विअर्थी कविताएं सुनाते थे और कई बार तो बेशर्म शारीरिक हरकतें तक किया करते थे। जाहिर है, कवि-सम्मेलन अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे और उन्हें प्रासंगिक बनाए रखने की जद्दोजेहद में कवि भोंडे, अश्लील बनने तक को तैयार थे।
कवि सम्मेलनों की यही दुख भरी दास्तान आज के टीवी कार्यक्रमों, खासकर समाचारों की मार्फत दोहराई जा रही है। अस्सी और नब्बे के दशकों में टीवी के जरिए परोसा जा रहा गंभीर, सोद्देश्य और सकारात्मक मनोरंजन और समाचार धीरे-धीरे फूहड़, अश्लील और निरुद्देश्य-निरर्थक कसरत में तब्दील होते जा रहे हैं। एन समाचारों में परोसी जा रही कंगना-रिया की चीखती हुई कहानियां असल में मीडिया, खासकर टीवी की बदहाली की कहानी बयां कर रही हैं। कहा भी जा रहा है कि समाचार चैनलों के मुकाबले ‘रीयलिटी शो’ से अधिक राजस्व कमाया जा सकता है और इसीलिए समाचार भी ‘रीयलिटी शो’ में तब्दील होते जा रहे हैं। तो क्या एक जमाने के कवि-सम्मेलनों की तरह अब टीवी समाचारों, सीरियलों की भी समाप्ति का समय आ गया है?
अव्वल तो शहरों की चौहद्दी के बाहर जो सत्तर फीसदी आबादी आबाद है, उसे मीडिया ने सप्रयास अपने धतकरमों से बाहर कर दिया है। यह सत्तर फीसदी आबादी उन तीस फीसदी शहरी मध्यवर्गीयों की तरह बाजार नहीं है कि अपनी तमाम वैध-अवैध बातों को मीडिया और दूसरे संस्थानों से मनवा ले। बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, विस्थापन जैसी व्याधियों से इसी सत्तर फीसदी को लगातार निपटते रहना होता है और मीडिया इसे दिखाने-पढ़ाने से आमतौर पर परहेज ही करता है। कंगना-रिया की कहानियों के दौरान अभी दो दिन पहले हरियाणा के किसानों ने अपनी मांगों को लेकर बेहद प्रभावी प्रदर्शन किया और देश के एक प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग को ठप्प तक कर दिया, लेकिन मीडिया में इसकी कोई सुगबुगाहट नहीं हुई।
दूसरे, कोविड-19 की मेहरबानी से लगे लॉकडाउन ने पिछले पांच-छह महीनों में शहरी मध्यम वर्ग को भी सडक़ों पर ला दिया है। नब्बे के दशक के बाद के अपने ‘उत्थान’ के चलते खासी आरामतलब, अलिप्त और कभी-कभार सत्तानुरागी जिन्दगी जीने वाले शहरी मध्यम-वर्गीय लोगों को भी अब बेरोजगारी, वेतन-कटौती और बदहाली से दो-चार होना पड रहा है। ऐसे में रीयलिटी-शो की तरह परोसी जाने वाली खबरें तक उनमें चिढ पैदा करती हैं। सवाल है कि क्या अपने ‘उपभोक्ताओं’ की इस बदहाली के चलते मीडिया वैसा ही रह पाएगा, जैसा वह आज है? यानी क्या कंगना-रिया के दर्जे की कहानियों को सुनने वाला कोई ग्राहक मिलेगा? खासकर तब, जब सोशल-मीडिया खबरों के एक अखंड स्रोत की तरह स्थापित हो गया हो?
तमाम विज्ञापनों, ‘पेड-न्यूज,’ और भूत-प्रेत से लगाकर भगवानों तक की मार्फत ‘राजस्व ’ कूटने वाले मीडिया के लिए भी समाचार, जानकारियां और सूचनाएं देना एक प्रकार की जन-सेवा माना जाता है। इसे निर्बाध चलाए रखने के लिए विज्ञापनों के जरिए राजस्व उगाना जरूरी है, लेकिन यह किसी हालत में केवल पैसा बनाने की प्रक्रिया नहीं हो सकती। आज के दौर में पूंजी बनाने की हुलफुलाहट में समाचार भी मनोरंजन की श्रेणी में आ गए हैं। ऐसे में मीडिया पर नियंत्रण के लिए पारंपरिक ‘स्व-नियमितीकरण’ यानी ‘सेल्फ-रेगुलेशन’ की एक तरकीब मौजूद है, हालांकि इस ‘नख-दंतहीन’ प्रक्रिया का कोई पालन नहीं करता। एक और तरीका मीडिया से ‘अघाने’ का भी है जिसे पश्चिम के कई देशों में अब महसूस किया, देखा जा रहा है। यानी एक ही तर्ज-तरकीब से लगातार चलने वाले मीडिया को देख-देखकर लोग ऊब जाते हैं और नतीजे में मीडिया को खारिज कर देते हैं। भारत में ये तरकीबें कितनी कारगर होती है, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन मीडिया को खुद अपना भविष्य देखने की आदत डाल लेनी चाहिए। ऐसा न हो कि सत्तर फीसदी आबादी से दूर बैठा मीडिया अपने तीस फीसदी शहरी मध्यवर्ग के ग्राहकों की नजरों से भी उतर न जाए?
हिंदुस्थान का सिनेजगत पवित्र गंगा की तरह निर्मल है, ऐसा दावा कोई नहीं करेगा। लेकिन जैसा कि कुछ टीनपाट कलाकार दावा करते हैं कि सिनेजगत ‘गटर’ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। श्रीमती जया बच्चन ने संसद में इसी पीड़ा को व्यक्त किया है। ‘जिन लोगों ने सिनेमा जगत से नाम-पैसा सब कुछ कमाया। वे अब इस क्षेत्र को गटर की उपमा दे रहे हैं। मैं इससे सहमत नहीं हूं।’ श्रीमती जया बच्चन के ये विचार जितने महत्वपूर्ण हैं, उतने ही बेबाक भी हैं। ये लोग जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। ऐसे लोगों पर जया बच्चन ने हमला किया है। श्रीमती बच्चन सच बोलने और अपनी बेबाकी के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक और सामाजिक विचारों को कभी छुपाकर नहीं रखा। महिलाओं पर अत्याचार के संदर्भ में उन्होंने संसद में बहुत भावुक होकर आवाज उठाई है। ऐसे वक्त जब सिनेजगत की बदनामी और धुलाई शुरू है, अक्सर तांडव करनेवाले अच्छे-खासे पांडव भी जुबान बंद किए बैठे हुए हैं। मानो वे किसी अज्ञात आतंकवाद के साए में जी रहे हैं और कोई उन्हें उनके व्यवहार और बोलने के लिए परदे के पीछे से नियंत्रित कर रहा है। परदे पर वीरता और लड़ाकू भूमिका निभाकर वाहवाही प्राप्त करनेवाले हर तरह के कलाकार मन और विचारों पर ताला लगाकर पड़े हुए हैं। ऐसे में श्रीमती बच्चन की बिजली कड़कड़ाई है। मनोरंजन उद्योग रोज पांच लाख लोगों को रोजगार देता है। फिलहाल अर्थव्यवस्था उद्ध्वस्त हो चुकी है और जब ‘लाइट, कैमरा, एक्शन’ बंद है, लोगों का ध्यान मुख्य मुद्दों से हटाने के लिए हमें (मतलब बॉलीवुड को) सोशल मीडिया पर बदनाम किया जा रहा है। ऐसा जया बच्चन ने कहा है। कुछ अभिनेता-अभिनेत्रियां ही पूरा बॉलीवुड नहीं है। लेकिन उनमें से कुछ लोग जो अनियंत्रित वक्तव्य दे रहे हैं, यह सब घृणास्पद है। सिनेजगत के छोटे-बड़े हर कलाकार या तकनीशियन मानो ‘ड्रग्स’ के जाल में अटके हुए हैं, २४ घंटे वे गांजा और चिलम पीते हुए दिन बिता रहे हैं, ऐसा बयान देनेवालों की ‘डोपिंग’ टेस्ट होनी चाहिए, क्योंकि इनमें से बहुतों के खाने के और तथा दिखाने के और दांत हैं। हिंदुस्थानी सिनेजगत की एक परंपरा और इतिहास है। यह मायानगरी होगी लेकिन इस मायानगरी में जैसे ‘मायावी’ लोग आए और चले गए, उसी प्रकार कई संत-सज्जन भी थे ही। जिन दादासाहेब फाल्के ने हिंदुस्थानी सिनेजगत की नींव रखी, वह महाराष्ट्र के ही हैं। दादासाहेब फाल्के ने बहुत मेहनत करके इस साम्राज्य को मूर्त रूप दिया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ और ‘मंदाकिनी’ जैसी ‘मूक फिल्मों’ से हुई हिंदी सिनेजगत की शुरुआत आज जिस शिखर तक पहुंची है, वो कई लोगों की मेहनत के कारण ही। जो अपनी प्रतिभा और कला दिखाएगा, वही यहां टिकेगा। एक जमाना सहगल और देविका रानी का था। आज भी अमिताभ बच्चन महानायक पद पर विराजमान हैं। कभी उस जगह पर राजेश खन्ना थे। धर्मेंद्र, जीतेंद्र, देव आनंद, पूरा कपूर खानदान, मा. भगवान, वैजयंती माला से लेकर हेमा मालिनी और माधुरी दीक्षित से लेकर ऐश्वर्या राय तक, एक से एक बढ़िया कलाकारों ने यहां योगदान दिया है। बॉक्स ऑफिस को हमेशा चलायमान रखने के लिए आमिर, शाहरुख और सलमान जैसे ‘खान’ लोगों की भी मदद हुई ही है। ये सारे लोग सिर्फ गटर में लेटते थे और ड्रग्स लेते थे, ऐसा दावा कोई कर रहा होगा तो ऐसी बकवास करनेवालों का मुंह पहले सूंघना चाहिए। खुद गंदगी खाकर दूसरों के मुंह को गंदा बताने का काम चल रहा है। इस विकृति पर ही जया बच्चन ने हमला किया है। हमारे सिनेमा के कलाकार सामाजिक दायित्व को भी पूरा करते रहते हैं। युद्ध के दौरान सुनील दत्त और उनके सहयोगी सीमा पर जाकर सैनिकों का मनोरंजन करते थे। मनोज कुमार ने हमेशा ‘राष्ट्रीय’ भावना से ही फिल्में बनार्इं। कई कलाकार संकट के समय अपनी जेब से मदद करते रहते हैं। राज कपूर की हर फिल्म में सामाजिक दृष्टिकोण और समाजवाद की चिंगारी दिखती थी। आमिर खान की फिल्में भी उसी तरह की हैं। ये सारे लोग नशे में धुत्त होकर यह राष्ट्रीय कार्य कर रहे हैं। ऐसे गरारे करना देश का ही अपमान है। कई कलाकारों ने आपातकाल के दौरान की मनमानी के विरोध में आवाज उठाई और उन्हें उसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। आज भी सिनेजगत में एक हलचल साफ दिख रही है। आज कई कलाकार सत्तापक्ष के मंत्री और सांसद हुए दिख रहे हैं। इसलिए उनकी मजबूरी समझनी चाहिए। सत्ता और सत्य के बीच में एक खाई होती है। सिनेजगत से ईमान रखना होगा तो सत्ताधारियों की ओर से टपली मारी जाएगी। इसलिए सूर्य पश्चिम से उगता है, ऐसा प्रचार करना ही उनका धर्म बन जाता है। फिल्म जगत ‘गटर’ बन चुका है, ऐसा बोलनेवालों ने अपनी लाज बेच दी। लेकिन उनके साथ सत्ताधारियों की ‘झांज’ होने के कारण इन लोगों को भी करताल बजानी पड़ती है। फिर ये सिनेजगत से बेईमानी हो तो भी चलेगा। हिंदी सिनेमा जगत वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध हो चुका है। हॉलीवुड के बराबर तुम्हारे बॉलीवुड का नाम लिया जाता है। लेकिन उद्योग क्षेत्र में जैसे टाटा, बिरला, नारायणमूर्ति और अजीम प्रेमजी हैं, वैसे ही नीरव मोदी और माल्या भी हैं। सिनेजगत के बारे में भी ऐसा ही कहना होगा। सब के सब गए गुजरे हैं, ऐसा कहना सच्चे कलाकारों का अपमान साबित होता है। जया बच्चन ने इसी आवाज को उठाकर सिनेमाजगत की नींद तोड़ी है। इससे कितने लोगों का कंठ फूटेगा, देखते हैं। (hindisaamana.com)
आकार पटेल
पूर्व में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम जो कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इन्हें दुरुस्त करने से कौन रोक रहा है।
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर एक ऐसे परिवार से आते हैं जिसमें कई विद्धान हुए। उनके पिता के सुब्रह्मण्यम प्रसिद्ध थिंक टैंक आईडीएसए के संस्थापक और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सलाहकार थे। देश के न्यूक्लियर कार्यक्रम को हथियारबंद करने और बांग्लादेश में सैन्य दखल देने के मामलों में सुब्रह्मण्यम का भी दखल था।
सुब्रह्मण्यम के दूसरे पुत्र और एस जयशंकर के भाई संजय प्राचीन भारतीय इतिहास पर दुनिया के मशहूर विद्धानों में से एक हैं। उन्होंने सूरत (मेरे गृहनगर) के कारोबार और दक्षिण भारत के साथ ही वास्को डा गामा पर भी किताबें लिखी हैं।
मेरे कहने का अर्थ यह है कि डॉक्टर एस जयशंकर (वह पीएचडी हैं) की पृष्ठभूमि वैसी नहीं है जैसी कि मोदी सरकार के और मंत्रियों की है। एस जयशंकर की हाल ही में एक किताब आई है जिसमें उन्होंने कहा है कि तीन ऐसी बातें हैं जिन्होंने देश की विदेश नीति पर बुरा प्रभाव डाला है। पहला है विभाजन, जिससे देश का आकार छोटा हो गया और इससे चीन को हमारे मुकाबले ज्यादा अहमियत मिलने लगी। दूसरा है आर्थिक सुधारों को लागू करने में 1991 तक की देरी, क्योंकि अगर यह सुधार पहले आ गए होते तो हम बहुत पहले एक धनी राष्ट्र बन गए होते। और तीसरा है परमाणु हथियार चुनने में देरी करना। उन्होंने इन तीनों को एक बड़ा बोझ बताया है।
एस जयशंकर जो बाते कह रहे हैं इसके क्या अर्थ निकाले जाएं?
हमें दो अलग-अलग बातों को अलग तरीके से देखना होगा। सबसे पहले देखना होगा कि जो कुछ वे कह रहे हैं, सत्य है या नहीं। भारत के विभाजन से इसके आकार में निश्तित रूप से कमी आई और अगर ऐसा नहीं होता तो भौगोलिक तौर पर हम बहुत बड़े देश होते, जिसका विस्तान बर्मा से लेकर इरान तक होता और हमारी आबादी 1.7 अरब के आसपास होती। इससे आर्थिक तौर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, न ही प्रति व्यक्ति आय या उत्पादकता या किसी अन्य तरह से कोई फर्क पड़ता। पूरा दक्षिण एशिया एक साथ ही विकसित हुआ है। ब्रिटिश काल में भारत का हिस्सा रहे ये तीनों ही देश न तो विकसित देश बन पाए और न ही बाकी दूसरे देश विकासशील बन सके। पाकिस्तान और बांग्लादेश का दौरा करने पर हकीकत सामने आ जाएगी और हालात भारत के ज्यादातर जगहों की तरह ही नजर आएंगे।
दूसरी बात है आर्थिक सुधारों को लागू करने में देरी। एस जयशंकर अर्थशास्त्री तो हैं नहीं, तो यह उनका विषय नहीं है। ऐसे में उनकी बात को सत्य मानने में थोड़ी एहतियात बरतनी होगी। नेहरू के समय की भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता बहुत ज्यादा नहीं थी। हर जगह, खासतौर से भारी उद्योगों के क्षेत्र में सरकारी पूंजी की जरूरत थी। और अगर इसमें सरकारी पूंजी, जिसे हम यूं ही अपना मान लेते हैं. मसलन उच्च शिक्षा आदि के क्षेत्र, का निवेश नहीं हुआ होता तो जाने क्या होता।
हम निजीकरण के कितने ही भजन गा लें, लेकिन आईआईटी और आईआईएम का कोई निजी विकल्प हो ही नहीं सकता। लेकिन यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि इंदिरा गांधी के दौर का लाइसेंस राज सही था। इसलिए एक तरह से आर्थिक सुधारों में देरी के जयशंकर के तर्क को हम हां कह सकते हैं।
तीसरी बात है परमाणु हथियारों का विकल्प, जिसका पहली बार मई 1974 में परीक्षण किया गया। भारत ने परमाणु बम बनाकर धमाका कर दिया था। वैसे यह कोई ऐसी बड़ी बात नहीं थी क्योंकि दक्षिण अमेरिका, यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कई देशों के पास ऐसी क्षमता थी, लेकिन उन्होंने परीक्षण नहीं किया। इससे जुड़ी एक बात यह भी है कि भारत ने परमामणु बम बनाकर अपने अंतरराष्ट्रीय वादों का उल्लंघन किया था। परमाणु बम बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाला जरूरी मटीरियल कनाडा से आया था, जिससे हमने वादा किया था कि इसका इस्तेमाल हम सिर्फ शांतिपूर्ण उद्देश्यों में इस्तेमाल होने वाली परमाणु तकनीक में करेंगे। इंदिरा गांधी ने कहा था कि 1974 का परमाणु परीक्षण शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए था।
हमारे पास अब बीते 45 साल से ये हथियार हैं। इससे हमें क्या फायदा मिला? हम इसका पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल नहीं कर सकते, भले ही हम बीते तीन दशक से कह रहे हैं कि वह आतंकवाद फैलाता है। हम इसका चीन के खिलाफ भी इस्तेमाल नहं कर सकते, जो कि हमारी सीमा में घुस आया है। इस पर बहस हो सकती है कि आखिर इन हथियारों को विकसित करके हमें क्या मिला।
जयशंकर ने इन तीनों को एक बोझ बताते हुए इसका जिम्मेदार कांग्रेस को ठहरा दिया है। आइए देखते हैं कि उनकी अपनी पार्टी ने इन तीनों पर क्या किया और क्या कर रह है। भारत का विभाजन भले ही हो गया, लेकिन पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही हमारे पड़ोसी हैं। वे किसी अफ्रीकी देश में नहीं चले गए हैं। आखिर पूरे उपमहाद्वीप को व्यापार और ट्रैवल के जरिए एकजुट करने से भारत को कौन रोक रहा है। यह हमारा राष्ट्रवाद है। नेपाल के साथ तो बिना वीजा के आना-जाना हम कर सकते हैं लेकिन बांग्लादेश के साथ नहीं। क्यों? अगर हम तय कर लें तो हम वीजा मुक्त यात्रा शुरु कर दक्षिण एशिया को एकजुट कर सकते हैं। लेकिन बीजेपी ऐसा नहीं चाहती।
आर्थिक उदारवाद को लेकर जयशंकर की राय एकदम गलत है। बीजेपी के शासन में भारती का आर्थिक विकास जनवरी 2018 से लगातार नीचे जा रहा है। ऐसा सरकार के आंकड़ों से ही सामने आया है। यानी बीते 6 वर्षों में से ढाई वर्ष तक देश के विकास की रफ्तार में कमी आई है। ऐसा तो समाजवाद या लाइसेंस राज में भी नहीं हुआ था। और इस साल तो अर्थव्यवस्था में ऐसी सिकुडऩ होने वाली है जो ऐतिहासिक है। सिर्फ उदारवाद का अर्थ ही आर्थिक विकास नहीं होता है।
जयशंकर तीनों मुद्दों पर जो भी कह रहे हैं वह मुद्दों का बेहद सरलीकरण है। पूर्व में या बीते दशकों में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर हम ऐसा मानते हैं कि इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम आज जो कुछ कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इस सरकार को कौन रोक रहा है इन्हें दुरुस्त करने से। उनकी किताब में इसका कोई जिक्र नहीं है। हो सकता है कि आने वाले वक्त में किसी और किताब में वे ऐसा लिखें।(navjivanindia.com)


