विचार/लेख
-रिचर्ड महापात्रा
नवजात, जल्द पैदा होने वाले और पांच साल तक के बच्चे महामारी से बचने के बाद भी इसके असर से बच नहीं पाएंगे।
हम कोविड-19 वैश्विक महामारी के दसवें महीने में पहुंच गए हैं। लेकिन हम अब तक अपने जीवन पर पडऩे वाले इसके तमाम प्रभावों को नहीं समझ पाए हैं। हम केवल स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले इसके तात्कालिक प्रभावों को ही ठीक से जान रहे हैं, क्योंकि हम प्रत्यक्ष रूप से इनसे प्रभावित होते हैं। इस अभूतपूर्व संकट ने हमारे जीवन के सभी पहलुओं पर असर डाला है। इस वायरस के कारण हम भविष्य को अनिश्चितताओं से भरा देख रहे हैं। यहां अक्सर कम पूछा जाने वाला एक सवाल यह उभरकर सामने आता है कि महामारी के दौरान जन्म लेने वाली पीढ़ी इस दौर को कैसे याद रखेगी? हम इस पीढ़ी को महामारी की पीढ़ी कह सकते हैं और इसमें वे बच्चे शामिल हैं जिनकी उम्र पांच साल तक है। इस पीढ़ी का महत्व इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 2040 तक यह देश के लगभग 46 प्रतिशत कार्यबल का हिस्सा होगी।
दुनियाभर में विकास की व्यापक असमानता के बावजूद महामारी की पीढ़ी ने एक दुनिया में जन्म लिया है जो किसी भी समय से अधिक संपन्न और स्वस्थ है। हम जैसी वयस्क पीढ़ी के विपरीत हाल ही में पैदा हुई पीढ़ी के जेहन में महामारी के दुखते घाव नहीं होंगे। क्या इसका मतलब है कि यह पीढ़ी के इतिहास की पाठ्यपुस्तक में महामारी के बारे में जानेगी? ठीक वैसे ही जैसे हमें किताबों से 1918-20 में फैली स्पेनिश फ्लू महामारी के बारे में पता चला था।
इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें इतिहास में झांकना होगा। वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने पाया है कि जो बच्चे 1918 के दौरान पैदा हुए या गर्भ में थे, उन्होंने कम शिक्षा प्राप्त की और वे गरीब भी रहे। 2008 की आर्थिक मंदी के दौरान गर्भवती माताओं ने कम वजन वाले शिशुओं को जन्म दिया, खासकर उन परिवारों में जहां गरीबी थी। 1998 में अल नीनो इक्वाडोर में विनाशकारी बाढ़ का कारण बना। इस अवधि के दौरान पैदा हुए बच्चों का वजन कम था और उनमें स्टंटिंग 5 से 7 साल तक जारी रही। इन तमाम प्रभावों का एक सामान्य निष्कर्ष यह निकलता है कि आपदाओं के कारण आर्थिक स्थिति कमजोर होने का असर कई रूपों में सामने आता है।
इसलिए ऊपर पूछे गए प्रश्न का उत्तर डरावना है। प्रारंभिक संकेत बताते हैं कि महामारी में पैदा होने वाली पीढ़ी की स्थिति पुरानी पीढिय़ों से भिन्न नहीं होगी। हाल में जारी और विश्व बैंक द्वारा तैयार वैश्विक ह्यूमन कैपिटल इंडेक्स (एचसीआई) बताता है कि महामारी की पीढ़ी इसकी सबसे बुरी शिकार होगी। 2040 में वयस्क होने वाली यह पीढ़ी अविकसित (स्टंटेड) होगी और ह्यूमन कैपिटल के मामले में पिछड़ जाएगी। हो सकता है कि दुनिया के लिए यह विकास की सबसे मुश्किल चुनौती बन जाए।
एचसीआई में उस मानव पूंजी को मापा जाता है जिसे आज जन्म लेने वाला बच्चा अपने 18वें जन्मदिन पर पाने की उम्मीद रखता है। इसमें स्वास्थ्य और शैक्षणिक योग्यता शामिल होती है। ये बच्चे के भविष्य की उत्पादकता पर असर डालती हैं।
कोविड-19 पुरानी महामारियों की तरह गर्भवती मां और बच्चे के स्वास्थ्य पर ही असर नहीं डालेगा, बल्कि महामारी के आर्थिक प्रभाव गर्भ में पल रहे बच्चों सहित इस पीढ़ी को लंबे समय तक परेशान करेंगे। इसका मुख्य कारण यह है कि इन बच्चों के परिवार स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा पर अधिक खर्च नहीं कर पाएंगे। इससे शिशु मृत्युदर बढ़ेगी और जो बचेंगे वे अविकसित रहेंगे। इसके अलावा लाखों बच्चे और गर्भवती महिलाएं बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम होंगे।
एचसीआई के अनुमानों के मुताबिक, कम और मध्यम आय वाले 118 देशों में शिशु मृत्युदर 45 प्रतिशत बढ़ जाएगी। विश्लेषण बताता है कि सकल घरेलू उत्पाद में 10 प्रतिशत की वृद्धि होने से शिशु मृत्युदर में 4.5 प्रतिशत गिरावट आती है। विभिन्न अनुमान बताते हैं कि महामारी के कारण अधिकांश देश जीडीपी में भारी नुकसान से जूझ रहे हैं। इससे संकेत मिलता है कि आगे शिशु मृत्युदर की क्या स्थिति होगी।
यही वह समय है जब दुनिया कुपोषण और गरीबी दूर करने के लिए गंभीर प्रयास कर सकती है। नया इंडेक्स स्पष्ट करता है कि भले ही महामारी एक अस्थायी झटका है, लेकिन यह नई पीढ़ी के बच्चों पर गहरा असर डालने वाला है। दुनिया को इस समय जन्म लेने वाली पीढ़ी के लिए गंभीर हो जाना चाहिए। (downtoearth.org)
-सुष्मिता सेनगुप्ता
एनजीटी के निर्देश पर मार्च से अप्रैल के बीच देश की 19 प्रमुख नदियों के पानी की गुणवत्ता पर नजर रखी गई।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की रिपोर्ट के अनुसार, कोरोनावायरस महामारी के प्रसार को कम करने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के दौरान भारत की प्रमुख नदियों के पानी की गुणवत्ता में खास सुधार नहीं हुआ।
16 सितंबर, 2020 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को सौंपी गई सीपीसीबी की रिपोर्ट के मुताबिक, मार्च से अप्रैल के बीच देश की 19 प्रमुख नदियों के पानी की गुणवत्ता पर नजर रखी गई और इसकी तुलना की गई। एनजीटी ने सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को ऐसा करने को निर्देश दिया था ताकि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों, एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट और सेंट्रल एफ्लुएंट प्लांट के लिए कार्यान्वयन योजनाएं सुनिश्चित की जा सकें।
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और प्रदूषण नियंत्रण समितियों ने ब्यास, ब्रह्मपुत्र, बैतमी व ब्राह्मणी, कावेरी, चंबल, गंगा, घग्गर, गोदावरी, कृष्णा, महानदी, माही, नर्मदा, पेनर, साबरमती, सतलुज, स्वर्णरेखा, तापी और यमुना के पानी की गुणवत्ता का आकलन किया।
रिपोर्ट के अनुसार, मार्च में नदियों के पानी के कम से कम 387 और अप्रैल में 365 नमूने एकत्र किए गए। मार्च के दौरान 387 (77.26 प्रतिशत) निगरानी स्थानों में से कम से कम 299 में आउटडोर स्नान के लिए सूचीबद्ध मापदंडों का पालन किया। वहीं अप्रैल में 365 (75.89 प्रतिशत) स्थानों में से 277 में मापदंडों का अनुपालन किया गया था।
रिपोर्ट के अनुसार, उद्योग बंद होने, बाहरी स्नान और कपड़ा धोने जैसी गतिविधियों में कमी के कारण ब्राह्मणी, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गोदावरी, कृष्णा, तापी और यमुना नदी में पानी की गुणवत्ता में सुधार देखा गया। दूसरी ओर ब्यास, चंबल, सतलुज, गंगा और स्वर्णरेखा में सीवेज का बहाव अधिक होने और पानी की मात्रा कम के कारण गुणवत्ता खराब हो गई।
रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन का असर दिल्ली से बहने वाली यमुना के 22 किलोमीटर के हिस्से पर ज्यादा साफ झलक रहा था। हालांकि पानी की गुणवत्ता में हुआ सुधार शहर में बेमौसम बारिश का नतीजा हो सकता है। नदी के पानी की गुणवत्ता का आकलन पीएच, घुलित ऑक्सीजन (डीओ), बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) और फीकल कॉलीफॉर्म (एफसी) के मापदंडों के आधार पर किया गया। इसके परिणामों की तुलना पर्यावरण (संरक्षण) नियमों, 1986 के तहत अधिसूचित आउटडोर स्नान के लिए प्राथमिक जल गुणवत्ता मानदंडों से की गई थी। (downtoearth)
रायगढ़ के एक रंगकर्मी अजय अठाले का कोरोना से निधन हो गया। उनके बारे में बहुत से रंगकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया पर बहुत तकलीफ के साथ श्रद्धांजलि देती है।
अजय अठाले के फेसबुक पेज को देखें तो उन्होंने इसी महीने 8 सितंबर को लिखा था- आज ही के दिन पिताजी ने अंतिम सांसें ली थीं, उनकी स्मृति में करीब 25 बरस पहले एक लेख लिखा था। आज उसे धारावाहिक किस्तों में दे रहा हूं। यह लिखकर उन्होंने 8 सितंबर और 10 सितंबर को दो किस्तें पोस्ट की थीं, और 13 सितंबर के बाद से कुछ और पोस्ट किया ही नहीं। ये दोनों किस्तें मिलाकर भी अधूरी हैं, लेकिन हम इस कभी पूरे न होने वाले क्रमश: के साथ इसे यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। -संपादक
-अजय अठाले
आज के ही दिन पिताजी ने अंतिम सांसे ली थी उनकी स्मृति में एक लेख लिखा था करीब 25 बरस पहले आज उसे धारावाहिक किश्तों में दे रहा हूं
घर के आंगन में लगा आम का पेड़ जब पहली बार बौराया था तब दादा बेतरह याद आये। जाने किसने किस घड़ी में आम खाया और पिछवाड़े आंगन में गुठली फेंक दी, अंकुर फूटा, धीरे-धीरे पौधे ने पेड़ का आकार ग्रहण किया, आई (माँ) हमेशा झल्लाती, ये पेड़ बेकार में ही जगह घेर रहा है, इसे कटवा दो, फल भी तो नहीं लगते हैं। दादा हमेशा की तरह कहते, रहने दो, एक दिन फलेगा और इस तरह वो पेड़ जीवनदान पाता रहा।
दादा की मृत्यु के बाद आए पहले बसंत में ही जब वह पेड़ पहली बार बौराया था , उसे देखकर दादा बहुत याद आये थे, और घूम गया था आंखो के सामने अस्पताल का वह वार्ड , जहाँ अच्छे-खासे,भले-चंगे दादा अचानक ब्रेन हैमरेज हो जाने से भर्ती कर दिए गएथे। सब कुछ छोटे से पल में घटित हो गया था, 15 मिनट के भीतर दादा अस्पताल में थे। ड्रिप लगाई जा चुकी थी, भाभी खुद उसी अस्पताल में डॉक्टर थी, लिहाजा सारा अस्पताल ही मुस्तैदी से लगा हुआ था। नींद का इंजेक्शन भी बेअसर हो रहा था और तकलीफ में दादा झल्ला उठते थे। लेकिन झल्लाहट में भी वाणी पर गजब का संयम था, वही शिष्ट भाषा। सुबह बिल्कुल ठीक लग रहे थे, लगा कल की रात मानो दुस्वपन थी, सुबह चाय पी, मिलने वालों की भीड़ देखकर गुस्सा भी हुए, यह कहते हुए कि तुम लोगों ने मेरा तमाशा बना दिया है, मुझे क्या हुआ है? हम सभी तनावमुक्त महसूस कर रहे थे। लेकिन एक दिन बाद ही जिसे दुस्वपन समझा वही हकीकत निकली, दादा कोमा में चले गये।
डॉक्टर मिश्रा ने रुंधे गले से जब कहा ‘दादा दगा दे गये’ तो लगा मानो पैरों के नीचे से जमीं ही खींच ली गई हो। मैं गिरता चला जा रहा हूं अनंत गहराई की ओर।
किसी तरह संभला, कमरे में आया, देखा लाइफ सेविंग्स ड्रग लगाई जा चुकी है। सभी परिचित आसपास खड़े हैं, बीच-बीच में दादा होश में आते तब अनचीन्ही नजऱों से कुछ ताकते, सब मुझे कह रहे थे कि उनकी अंतिम इच्छा पूछ लो। हिम्मत नहीं होती थी, जानता था मु_ी से बालू की तरह फिसलकर छूट रहे हैं, पर मन नहीं मान रहा था, उनका वो अनचीन्ही नजरों से कुछ खोजना। जानता था आई को खोज रहे हैं मगर संस्कार गत संकोच अंतिम क्षणों में भी बना हुआ है। आखिर दिल कड़ाकर मैने धीरे से पूछा था ‘आई से कुछ कहना है?’ उनकी आंखों में एक चमक आई, कहा, उनका ख्याल रखना, मुझे आराम करने दो। आंखे मूंद लीं, यही आखिरी संवाद था ‘उनका ख्याल रखना’।
दादा आई को हमेशा बहुवचन में ही संबोधित करते थे। बड़े होने पर हम लोगों के बीच की दूरियाँ कम हो चली थीं और हम लोग दादा से कभी-कभार मजाक भी कर लिया करते थे। एक दिन हम सारे बैठे थे आई कहीं बाहर गई थी, दादा कमरे में आये, नजरें घुमाई, धीरे से पूछा ‘सब लोग कहां हैं?‘ मै मजाक के मूड मे था, कहा ‘यहीं तो बैठे हैं सब लोग’ उन्होंने हल्की संकोचभरी मुस्कान से पूछा ‘बाकी लोग कहां हैं?’ हंसी दबाते हुए हमें बताना ही पड़ा आई काम से बाहर गई है।
सचमुच आई दादा के लिए ‘सब लोग’ ही थी। तमाम जिंदगी सारी जिम्मेदारियों को ओढक़र दादा को दुनियाबी बखेड़ो से दूर रखने वाली! हमारा बचपन आई के सामीप्य में ही गुजरा, दादा को हमने दूर से ही देखा और व्यस्त पाया। ऑफिस में अपने मुवक्किलों के साथ, या फिर फुर्सत के क्षणों में किसी मोटी सी किताब के पन्नों के बीच खोए हुए।
क्रमश:
दादा : एक आदमकद पिता
हमारे जमाने में पिता से बच्चों की एक स्वाभाविक दूरी ही होती थी और माँ हमेशा पुल का काम करती थीं। बच्चों के लिए दूरी के बावजूद पिता हीरो की तरह होते थे। मानो हर बच्चे का पिता उनके लिए नेहरू की तरह होता था जो उन्हें इतिहास की झलक दिखलाता था।
दादा को अध्ययन का बहुत चस्का था और यह शायद उन्हें उनके पिता लक्ष्मण गोविंद आठले से मिला था जो उस जमाने में अच्छे लेखक भी थे और हंस और सरस्वती में छपा करते थे। उनका एक लेख पुरी का गरजता समुद्र लेखक पंडित लक्ष्मण गोविंद आठले, पाठ्य पुस्तक मे भी था उनका देहांत बहुत जल्द हो गया था। बुआ ने यह किस्सा सुनाया था रि जब पहली बार उसने यह लेख पढ़ा और लेखक का नाम पढ़ा तो घर आकर उसने दादी से पूछा कि ये पंडित लक्ष्मण गोविंद आठले कौन हैं? तो दादी ने कहा था हां तेरे पिताजी लिखा करते थे कुछ-कुछ। मेरे सामने डॉक्टर सी वी रमन की घटना याद आ गई, उन्होंने जिक्र किया है कि जब माँ को पता चला कि उन्हें रमन इफेक्ट के लिए नोबल मिला तो उसने पूछा कि क्यों मिला है? जब डॉक्टर रमन ने उन्हें सरल शब्दों में रमन इफेक्ट समझाया तो उनकी माँ ने कहा इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा ईनाम?
बुआ की हालत भी डॉक्टर रमन की तरह हुई होगी।
लक्ष्मण गोविंद आठले जी की भी बहुत बड़ी लायब्रेरी थी और दादा को भी अध्ययन का चस्का यहीं से लगा होगा, अच्छा साहित्य खरीदकर पढऩा उनकी आदत में शुमार था, फटा कोट सिलकर पहनो मगर किताबें नई खरीदकर पहनो, ये मानो मंत्र था उनके जीवन का, किसी भी नई किताब के बारे में पता चलते ही उसे खरीदने को आतुर रहते थे, घर की सारी अल्मारियां किताबों से अटी पड़ी होतीं, पढऩा और मित्रों को पढ़वाना यही शौक था, इस चक्कर में कई किताबें गुम हो जातीं मगर उन्हे फर्क नहीं पड़ता था।
अच्छी किताबें पढऩा यही वो बिन्दु था, जहाँ मेरे दादा से तार जुड़ते थे, आग भी उन्हीं की लगाई हुए थी। बचपन में गर्मियों की दुपहरी हमारे लिए कष्टप्रद होती थी तब दादा के कोर्ट की भी छुट्टियां होती थीं और दादा दोपहर भर घर मे ही रहा करते थे। घर पर दादा की उपस्थिति मात्र का आतंक हमे मनचाही बदमाशियों से रोकता था। दादा कभी कभी अपने कमरे मे बुला लिया करते, लेंडस एण्ड द पीपुल या बुक ऑफ नोलेज के वॉल्यूम में से कुछ पढऩे के लिए दे देते और मुझे लगता कि स्कूल की छुट्टियों का सारा मज़ा ही खत्म हो गया, पढ़ते वक्त अगर समझ ना आए तो समझाया भी करते थे, मगर बाल सुलभ मन तो रेत के घरौंदे बनाने, कच्चे आम तोडऩे की योजना बनाने और पतंग उड़ाने को आतुर रहता था। ऐसी ही दुपहरी में दादा ने एक कहानी सुनाई थी तब बाल सुलभ मन को उसके गहरे अर्थ पता नहीं चले थे। बड़े होकर यह कहानी ज्यादा समझ में आई और आज भी मंै बच्चों के थिएटर वर्कशाप में जरूर सुनाता हूं। कहानी कुछ ऐसी है- एक बार एक टीचर ने स्कूल में बच्चों को सबक दिया कि कल सब लोग एक कहानी लिखकर लाना जो सबसे अच्छी कहानी लिखेगा उसे ईनाम दिया जाएगा। सब खुशी-खुशी चले गए, एक बच्चा उदास बैठा था टीचर ने उससे पूछा तो बच्चे ने कहा कहानी कैसे लिखें? टीचर ने कहा कि तुम एक जगह चुपचाप बैठकर देखते रहो क्या हो रहा है उसे नोट कर लेना और लिख देना कहानी बन जायेगी। बच्चा खुश होकर चला गया, दूसरे दिन टीचर ने सभी बच्चों से कहानी सुनी सभी ने किसी ना किसी किताब से पढ़ी कहानी सुनाई। इस बच्चे से जब पूछा तो इसने डरते-डरते कहा कि एक लाईन की लिखी है टीचर ने कहा सुनाओ, लडक़े ने हिचकते हुए सुनाई सूं!!!!!!! सर्र!!!!!!!! खट्ट!! बें!!!!!!पट्ट!! गुड गुड गुड गुड डब्ब
सारे बच्चे हॅंसने लगे, टीचर ने बच्चों को शांत कराया फिर बच्चे से पूछा ये तुमने क्या लिखा है? बच्चे ने कहा टीचरजी जैसा आपने कहा वैसे ही मंै कॉपी लेकर खेत में चला गया देखा कि एक खेत के किनारे एक बेल का झाड़ है पास ही कुआं है और वहीं एक बकरी चर रही है अचानक जोरों की हवा चलने लगी सूं!!!!!! सर्र!!!!!! तभी झाड़ से एक बेल टूटा खट्ट!!!! वो सीधे बकरी के सिर पर गिरा बकरी चिल्लाई बें!!!!!!! फिऱ बेल जमीन पर गिर पट्ट!!!!! और लुढक़ते-लुढक़ते कुएं में गिरा तो आवाज हुई गुड़ गुड़ गुड़ गुड़ डब्ब मैंने वही लिख दिया है। टीचर ने कहा शाब्बास बेटा तुमने अपने अनुभव से मौलिक रचना की है इसलिए पहला ईनाम तुम्हें ही मिलता है। तब यह कहानी दूसरे कारणों से अच्छी लगी थी अब अर्थ समझ आया। ऐसे ही एक बार पढऩे की कोशिश कर रहा था तो एक चैप्टर डू इट यौर सेल्फ में बूमरैन्ग के विषय में बताया गया था कि कैसे गत्ते के टुकड़े को काटकर बूमरैन्ग बनाया जा सकता है! प्रयोग करके देखा, सफल हुआ, फिर तो धीरे-धीरे उसके सभी वॉल्यूम पढऩे की कोशिश की और कैलिडास्कोप, प्रोजैक्टर आदि घर पर ही बनाए और पुस्तकों के प्रति मोह जागा वो फिर छूटा ही नहीं। बड़े होने पर उन्हीं के सुझाव पर प्रिजन एण्ड द चॉकलेट केक, गुड अर्थ, वार एंड पीस, आई एम नाट एन आइलेंड, ग्लिम्प्सेस ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री आदी पढ़ी।
किन्ही खास मौकों पर भी उन्हें वस्तु के बदले पुस्तक भेंट की जाय तो वे बहुत खुश होते थे, उनकी इस कमजोरी का मंैने भी फायदा उठाया है, एक बार रायपुर गया था और नियत तारीख पर लौट नहीं पाया, जानता था कि अब डांट पड़ेगी सो वापसी में फ्रीडम ऐट मिड नाईट और नाच्यो बहुत गोपाल खरीद ली। देर रात एक्सप्रेस से वापस लौटा और दोनों किताबें टेबल पर इस तरह रख दीं कि सीधे उनकी नजर पड़े, परिणाम अपेक्षित थे। किताबें देख खुश हुए और आई को कहा कि हजरत को मालूम था कि डांट पड़ेगी तो खुश करने के लिए किताबें लाए हैं।
जैसे आजकल के मां-बाप को अपने बच्चों को प्यार से आतंकवादी कहते सुना है इसके ठीक विपरीत दादा जब प्यार जताना हो तो हजरत कहकर बुलाते थे।
क्रमश:
-राजीव रंजन प्रसाद
आप रचनात्मकता को कम से कम शब्दों में कैसे पारिभाषित कर सकते हैं? इस प्रश्न के लिए मेरा उत्तर है-सत्यजीत भट्टाचार्य। बस्तर की पृष्ठभूमि से रंगकर्म को आधुनिक बनाकर देश-विदेश में चर्चित कर देने वाले सत्यजीत अपने चर्चित नाम बापी दा से अधिक जाने जाते थे। वे अपने आप में नितांत जटिल चरित्र थे, चटखीले रंगों की टीशर्ट, भरे-भरे बालों वाला सर और दाढ़ी से ढंका पूरा चेहरा; पहली बार की मुलाकात से आप न व्यक्ति का अंदाजा लगा सकते थे, न व्यक्तित्व का। यदि आपने अपनी ही धुन में रहने वाले इस व्यक्ति के साथ काम किया तो कुछ ही दिनों में आप पाते कि निर्देशक पीछे छूट गया और किसी फ्रेंड-फिलॉसफर-गाईड का जीवन में प्रवेश हो गया। आपके वे निर्देशक हैं, उससे क्या? आपके ऊपर अभी थोड़ी देर में चीखेंगे भी, उससे क्या? लेकिन आप फिर दिल खोल कर सामने रख दीजिये, आप हँसी-मजाक कीजिये, किसी साथी की टांग खींचिये, चुगली कीजिये, गाली बकिये...आपकी जो मर्जी, क्योंकि बापी दा की उम्र घटती-बढ़ती रहती थी। आपमें क्षमता है तो प्रतिपल आप उनसे कुछ न कुछ सीख सकते हैं और क्षमता नहीं है तो वे आपको सिखा कर ही दम लेंगे। उनकी निर्देशन शैली में आधुनिकता थी, नाटक निर्देशन को लेकर किसी शैली-विशेष के प्रति कोई मोह भी नहीं था। वे प्रयोगधर्मी थे तथा रास्ते पर गिरे पत्थर और किसी मुस्कुराती बुढिय़ा से भी सीख लेते, फिर उसे अपने किसी पात्र में पिरो देते थे। एक मुस्कुराता हुआ चेहरा जिसे मैंने कभी थका हुआ नहीं देखा, ऐसे थे बापी दा।
बापी दा की जन्म तिथि और वर्ष है 13 जून 1963; पिता का नाम श्री धीराज भट्टाचार्य तथा माता का नाम श्रीमति मीरा भट्टाचार्य। माता जी के नाम पर ही उनका स्टूडियो है जो उनका पता भी है-कुम्हारपारा, जगदलपुर। बापी दा की मातृभाषा बंगाली है साथ ही साथ उनका हिन्दी, ओडिया, असामी और अंग्रेजी के साथ साथ अंचल की छत्तीसगढ़ी, हलबी और भरथरी बोलियों में भी पर्याप्त दखल था। बापी दा रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर से स्नातक हुए हैं। सत्यजीत भट्टाचार्य केवल एक निर्देशक ही नहीं, वे मंच की हर आवश्यकता का समाधान भी थे। वे अभिनय भी कर लेते, प्रकाश संयोजन भी बेमिसाल करते; मंच सज्जा, संगीत संयोजन सभी में उनकी दक्षता अद्वितीय थी। वे बहुत अच्छे फोटोग्राफर थे, यह बात तो सभी जानते हैं किंतु उनके भीतर की रचनात्मकता का अंदाजा लगाईये कि उन्होंने काष्ठकला और मूर्तिकला में भी हाँथ आजमाया हुआ है, वृत्तचित्र भी बनाए हैं तो विज्ञापन फिल्मों का निर्देशन किया है। बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि मंचीय संवाद लिखने के साथ-साथ बापी दा ने लेखन में भी हाँथ आजमाया हुआ है; टेलीप्ले ही नहीं अपितु लघुकथा विधा में भी। एक व्यक्ति के भीतर जैसे कई व्यक्ति छिपे हुए हैं; कई मष्तिष्क एक साथ काम करते हैं और यह उनके व्यक्तित्व में भी झलकता था; शायद यही उन्हें नाटकों के दृश्यबंध सोचने में सहायक भी होता था।
अपने प्रत्येक नाटक और हर दृश्य पर वे पूरी मेहनत करते तथा लेखक की कृति से न्याय करते हुए भी उसमे अपनी सोच डालने से नहीं चूकते। आपने बस्तर में 1960 से स्थापित मैत्री संघ में नाटक की बाकायदा ट्रेनिंग ली थी और यहीं से बस्तर का रंगमंच के क्षेत्र में नाम देश भर में प्रसारित कर रहे थे। आपने अभियान नाम से संस्था बनायी, जिसके तहत अनेकों नाट्य शिविरों तथा जनजागृति के कार्यों को प्रतिपादित किया गया। बापी दा को अनेकों पुरस्कार तथा सम्मान प्राप्त हुए हैं क्या और कितने इसकी गिनती उन्हें भी याद नहीं होगी तो मेरी क्या मजाल। उनके घर का पहला कमरा केवल प्राप्त पुरस्कारों की शील्ड से भरा पडा है। बापीदा ने अनेकों नाटक निर्देशित किए, कुछ प्रमुख का मैं उल्लेख कर रहा हूँ-अंधा युग, गाँधी, घेरा, कोरस, खुल्लमखुल्ला, अंधों का हाँधी, आदाब, राई-द स्टोन, मौजूदा हालात को देखते हुए, मशीन, इंसपेक्टर मातादीन चाँद पर आदि। आंचलिक बोलियों में आपके निर्देशित अंधार राज बैहा राजा, जीवना चो दंड, फंसलो बुदरू फांदा ने प्रमुख नाटक हैं। आपने बंगाली में भी कई नाटक निर्देशित किए। दूरदर्शन के लिए निर्देशित आपकी टेलीफिल्म हैं-भविष्यवाणी, केकड़ा चाल, उड़ान, आलू के पराठे, अंधार राज बैहा राजा। इन सबके बीच बापीदा समय निकाल लेते हैं राष्ट्रीय बाल विज्ञान कॉग्रेस के लिये जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय से सम्बद्ध है जिससे जुड कर आप पर्यावरण के लिए कार्य कर रहे थे।
बापी दा लम्बे समय से कैंसर से जूझ रहे थे। अपनी बीमारी के दौर में भी उनसे जब जब बात हुई जिंदादिली और आशावादिता से ही परिचय मिला, वे अपनी वेदना और पीड़ा कब किसी से साझा करते थे। निजी तौर पर मेरा सौभाग्य है कि मैने बापी दा के निर्देशन में काम किया, उन्होंने मेरे लिये नाटक 'किसके हाथ लगाम’ का निर्देशन किया, यही नहीं उनके दिये कथानक पर मैंने नाटक 'खण्डहर’ लिखा था। यह सब बीते समय की बात हो गई, आँखों के आगे अब वह जिंदादिल चेहरा रह गया है जिससे फिर कभी बात करना संभव न हो सकेगा। आज 27/09/2020 को प्रात:1.30 बजे उन्होंने आखिरी सांस ली परंतु उनकी जिजीविषा अब भी है। बस्तर में जब-जब भी रंगकर्म की बात होगी, वे रहेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि बापी दा।
-अनुपमा सक्सेना
मैंने काफी पहले पढ़ा था किन्तु राज्य के बारे में यह सकारात्मक और महत्वपूर्ण खबर सोशल मीडिया पर कहीं दिखी नहीं इसलिए सोचा लिख दूँ।
देश में बच्चों के बीच कुपोषण एक महत्वपूर्ण समस्या है। इसके समाधान के लिए बच्चो को स्कूलों में गर्म खाना प्रदान किया जाता है। इस योजना का 60 प्रतिशत खर्चा केंद्र सरकार और 40 प्रतिशत खर्चा राज्य सरकार उठाती है। करोना के समय में यह समस्या और भी बड़ी हो जाती है क्योंकि लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद हैं। मध्यान्ह भोजन न मिलने की स्थिति में कुपोषण बढऩे और बच्चों का इम्युनिटी का स्तर कम हो जाने के खतरे होते हैं।
मार्च में आई एक रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के दौरान लगभग 11 करोड़ बच्चे मध्यान्ह भोजन न मिलने के कारण कुपोषित होने के कगार पर थे। जिसमे अधिकांशत: जनजातीय और अनुसूचित जाति के बच्चे थे। मार्च 2020 में इसी संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों को आदेश दिया कि स्कूल जाने वाले बच्चों को मध्यान्ह भोजन मिलना सुनिश्चित किया जाए। छत्तीसगढ़ में लॉकडाउन के ठीक पहले 21 मार्च को ही घोषणा कर दी गई थी कि स्कूल जाने वाले बच्चों के माता-पिता अगले 40 दिनों का मध्यान्ह भोजन सूखे राशन के रूप में घर ले जा सकते हैं। उसके बाद पुन: 45 दिनों का राशन दिया गया। प्राइमरी स्कूल में पढऩे वाले प्रत्येक बच्चे के हिसाब से 4 किलो चावल, 800 ग्राम दाल और सेकेंडरी में पढऩे वाले प्रत्येक बच्चे के हिसाब से 6 किलो चावल और 1200 ग्राम दाल प्रदान कर दी गई। पैकेट में सोयाबीन, तेल, नमक और अचार भी था।
ऑक्सफेम इंडिया के मई-जून 2020 के दौरान उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिशा और उत्तराखंड, इन पांच राज्यों में किए गए सर्वे के अनुसार मध्यान्ह भोजन बच्चों तक पहुंचाने के मामले में उत्तरप्रदेश की स्थिति सबसे खराब रही, जहाँ 90 फीसदी बच्चों को मध्यान्ह भोजन नहीं मिला और छत्तीसगढ़ का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा जहाँ 90 फीसदी बच्चों को मध्यान्ह भोजन मिला। इकानॉमिक टाईम्स के द्वारा एकत्रित आंकड़ों पर 01 अगस्त की उनकी रिपोर्ट के अनुसार के अनुसार भी छत्तीसगढ़ आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश ओडिशा और उत्तराखंड देश में बच्चों को मध्यान्ह भोजन देने के मामले में सबसे अच्छे रहे। देश के कई राज्य मध्यान्ह भोजन के मामले में बहुत पीछे रहे। समाचार पत्रों की खबरों के अनुसार बिहार में जहाँ बच्चो का पोषण का स्तर देश में सबसे खराब है, वहां मार्च अप्रैल के लॉकडाउन के दौरान बच्चों के मध्यान्ह भोजन के विकल्प की कोई व्यवस्था नहीं की गई। बिहार में मई से मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था शुरू हो पाई। दिल्ली में भी मार्च के महीने में तो व्यवस्था की गई किन्तु अप्रैल-मई-जून में व्यवस्था नहीं की गई। कारण यह दिया गया कि सार्वजनिक स्थानों पर खाने की व्यवस्था सबके लिए की गई है। महाराष्ट्र में भी अप्रैल से जून के बीच मध्यान्ह भोजन नहीं दिया गया।
यह तो बात हुई मध्यान्ह भोजन के विकल्प को करोना काल में बच्चों तक पहुंचाने की। इसमे तो हमारा राज्य सर्वश्रेठ राज्यों में रहा। दूसरा पक्ष होगा, इन प्रयासों के परिणामों का। स्कूलों में मिलने वाले मध्यान्ह भोजन के विकल्प के रूप में देश में तीन मॉडल अपनाए गए। केरल में पका हुआ खाना बच्चों के घरों में पहुँचाया गया। उत्तरप्रदेश, दिल्ली आदि में नगद राशि बच्चों के अकाउंट में ट्रांसफर की गई और छत्तीसगढ़ में सूखा राशन प्रदान किया गया। आगे आने वाले दिनों में जब लॉकडाउन के दौरान कुपोषण के स्तर से संबंधित डाटा आने शुरू होंगे तब विभिन्न विकल्पों के प्रभाव का भी पता लग सकेगा।
-ओम थानवी
1984 की बात है। राजेंद्र माथुर नवभारत टाईम्स का संस्करण शुरू करने के इरादे से जयपुर आए। पहली, महज परिचय वाली, मुलाकात में कहा- ‘जानता हूँ आप इतवारी का काम देखते हैं।’ फिर अगले ही वाक्य में, ‘और अच्छा देखते हैं।’ कुछ रोज बाद में उन्होंने मुझे नवभारत टाईम्स में आने को कहा। बड़े जिम्मे का प्रस्ताव था। फिर दिल्ली बुलाया नियुक्ति की अंतिम कार्रवाई के लिए।
बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित टाईम्स हाउस में मैं दूसरी बार दाखिल हुआ। (पहले अज्ञेय जब संपादक थे तब गया था; संभवत: 1978 में)। माथुर साहब अपनी परिचित गरमाई के साथ मिले। लंच में अपने घर ले गए। जमुना पार, स्वास्थ्य विहार। अपनी ऐम्बैसडर ख़ुद ड्राइव करते हुए। रास्ते में बोले, टाईम्स वाले इतना
पैसा नहीं देते कि ड्राइवर रख सकूं। यह बात मुझे हमेशा याद रही। मैं टाईम्स वालों पर तरस खाता रहा।
घर पर उन्होंने अनौपचारिक रूप से मेरा इम्तिहान ले डाला। वैसे रास्ते में भी ज़्यादा बात जयपुर के प्रस्तावित संस्करण को लक्ष्य कर ही हुई। श्रीमती माथुर का आतिथ्य आत्मीय था। घर पर किताबों का पहाड़ देखकर पिताजी का जुनून याद आया (जो बाद में मुझ पर भी छाया)।
मुझे सुनकर हैरानी हुई, जब माथुर साहब के मुँह से बरबस निकला- मैं जनसत्ता जैसा अखबार निकालना चाहता हूँ। आज कुछ मित्रों को यह जानकर अजीब ही लग सकता है। पर सचाई यह है कि जनसत्ता नया अखबार था, नई टीम थी, नया तेवर था। भाषा में भी ताजगी थी। एक बाँकपन भी था। नभाटा की टीम काफ़ी पुरानी थी। शायद अकारण नहीं था कि जनसत्ता से कुछ पत्रकार (ख़ासकर रामबहादुर राय, श्याम आचार्य, व्यंग्य चित्रकार काक आदि) नभाटा में लाए भी गए।
दफ्तर लौटकर माथुर साहब मुझे ऊपर की मंजि़ल में बैठने वाले कम्पनी के कार्यकारी निदेशक रमेशचंद्र जैन के पास ले गए। जैन उस वक्त समूह के मालिक अशोक जैन से बात कर रहे थे, जो इलाज के लिए विदेश जाने की तैयारी में थे। हमारे सामने ही रमेशजी ने उस यात्रा के प्रबंध के सिलसिले में एक पत्र डिक्टेट करवाया। फिर हमसे मुखातिब हुए। सवाल-जवाब करने लगे।
रमेशजी को ठीक से अंदाजा नहीं था कि मुझे क्या जि़म्मा सौंपा जाने वाला है। साप्ताहिक के अनुभव के बारे में सुन अपने पठन-पाठन की बात करने लगे। बीच-बीच में भावी योजना के बारे में मेरे विचार जान लेते। उनकी हिंदी अच्छी थी।
मुझे उनके सामने जाना अजीब लगा। जब प्रधान सम्पादक ने किसी को चुन लिया, हर तरह की बात तय हो चुकी, तब यह दखल कैसा। पत्रिका में तो ऐसा नहीं देखा था (बाद में जनसत्ता में भी नहीं)। सम्पादक ने चुन लिया, बात वहीं खत्म। हालाँकि राजस्थान पत्रिका के सम्पादक अखबार के संस्थापक ही थे। पर जनसत्ता में प्रभाषजी ने चुना। किसी से नहीं मिलवाया। मैं बीकानेर (वहाँ पत्रिका का बीकानेर संस्करण देखता था) से दिल्ली पहुँचा। वे कार में (उनके पास भी सफेद ऐम्बैसडर थी) चंडीगढ़ छोड़ कर आए। मैंने भी जनसत्ता और उससे पहले पत्रिका में जिन-जिन को अपने साथ लिया, मेरा निर्णय अंतिम था। आगे किसी से कोई मिलना-मिलाना नहीं।
बहरहाल, टाईम्स हाउस में प्रबंधन से मेरी मुठभेड़ ऊपर की मंजि़ल पर ही नहीं थमी। कैबिन में लौटने के बाद माथुर साहब ने कहा कि नीचे पर्सोनेल (अब एचआर) में हो आओ। इमारत से बाहर निकलने के रास्ते पर दाईं ओर छोटे-से कैबिन में एक झक्की आदमी मिले। नाम था तोताराम। उन्होंने काम की बात करने की जगह मेरा इंटरव्यू-सा शुरू कर दिया। माथुर साहब से जो वेतन तय हुआ, उससे भी वे मुकर गए। एक सयाने की मुद्रा में नम्रता का लबादा ओढक़र पता नहीं क्या-क्या समझाने लगे।
उनकी एक दलील पर मेरा धीरज जवाब दे गया। उन्होंने कहा, यह सोचिए कि आप कहाँ आ रहे हैं। एक छोटी-सी दुकान से निकल कर कितने बड़े संसार में। टाईम्स कितना बड़ा एंपायर है, इसे समझिए। इस ज्ञान से मेरा मन और उखड़ गया। इस साम्राज्य में सम्पादक बड़ा है या मैनेजर?
मैंने उन्हें एक ही बात कही- मैं जानता हूँ कि यह एक विराट एम्पायर है। मगर राजस्थान में जहाँ मैं काम करता हूँ, उसकी तूती बोलती है। आपके अखबार का अभी वहाँ कोई निशान तक नहीं; बल्कि आप उसे वहाँ हमारे सहयोग से शुरू करने की सोच रहे हैं।
इतना कहकर मैंने विदा का ऊँचे हाथों वाला नमस्कार किया और उठ गया। वे भाँप गए कि बात बिगड़ गई है। तुरंत पलटने लगे कि आपकी तो सारी बात तय हो चुकी है। फिक्र न करें। बैठें। पर मेरा मन डगमग रहा। शांत मुद्रा में बाहर निकल आया। फिर मुख्य इमारत से भी। वहाँ से सीधे बीकानेर हाउस पहुँचा, जहाँ से जयपुर को बसें जाती थीं और लौट के सीधे घर को।
रास्ते में खय़ाल आया कि अब पत्रिका की नौकरी भी गई। गई तो गई। असल में शहर में पहले ही बहुत हल्ला हो चुका था नभाटा के बुलावे का।
दो रोज बाद कुलिशजी ने घर बुलाया। पहले भी जाता रहा था। उनके साथ बैठकर ध्रुपद के दर्जनों कैसेट कापी किए थे। तेईस साल की उम्र में उन्होंने साप्ताहिक का बड़ा जिम्मा मुझे सौंपा था। लग रहा था कि आज यह किस्सा यहाँ तमाम हुआ।
उन्होंने पूछा, नभाटा जयपुर आ रहा है? मैंने कहा, सही बात है। सुना, तुम जा रहे हो? मैंने कहा, अब नहीं। बोले, जाओ भी तो इसमें संकोच कैसा? मैं भी तो राष्ट्रदूत छोडक़र आया था। मैंने उन्हें सारी दास्तान सुनाई। कि बुलावा था। दिल्ली भी होकर आया हूँ। पर मन नहीं माना। नहीं जा रहा।
उनकी आँखों में चमक आ गई। बोले, तुम्हारे जाने की बात जय क्लब में डॉ गौरीशंकर से सुनी थी। उन्हें भी मैंने राष्ट्रदूत वाली बात कही। पर अब नहीं जा रहे हो तब और भी अच्छा। तुम्हारा घर है। और देखते-देखते पत्रिका छूटने की जो आशंका थी, वह उलटे पदोन्नति में बदल गई। इतना ही नहीं, शायद पत्रिका में मैं पहला पत्रकार था जिसे अख़बार की तरफ से घर मिला। यानी घर का पूरा किराया।
बहरहाल, माथुर साहब का स्नेह मुझे हासिल हुआ। उन्होंने इज्जत बख्शी। प्रेरणा दी। बस तोताराम के कारण उनके साथ काम करने से वंचित रह गया। शायद दुबारा मिलता तो बात बन जाती।
पाँच साल बाद कुलिशजी ने पत्रिका से निवृत्ति ले ली। तब प्रभाषजी ने बुलाया तो मैं भी जनसत्ता से जुड़ गया। छब्बीस साल उनके अखबार में रहा। सम्पादक की आजादी प्रधान सम्पादक के नाते कुलिशजी ने भी भरपूर दी और प्रभाषजी ने भी। उसे लेकर दिया। वही लेकर जिया।
हाँ, एक बात ज़रूर कभी न समझ सका कि माथुर साहब ने दीनानाथ मिश्र को जयपुर का नभाटा सँभालने के लिए क्या सोचकर भेजा? क्या इस मामले वे प्रबंधन के कहने में आ गए थे?
अंत में एक दिलचस्प मोड़। टाईम्स में अपना दाय पूरा कर तोताराम इंडियन एक्सप्रेस में आ गए। वहीं नोएडा में, जहाँ जनसत्ता में मेरा दफ़्तर था। कोई बीस बरस बीत चुके थे। उन्होंने मुझे नहीं पहचाना। मैंने बखूबी पहचान लिया था। पर उन्हें कभी याद नहीं दिलाया। शायद इसलिए भी कि उन्हें बिना समय लिए मिलने आने की आदत थी। मैं व्यस्त होता तो तुरंत मिल नहीं पाता था। उन्हें एंपायर वाला किस्सा सुना देता तो वे समझते कि शायद बदला ले रहा हूँ!
इंडियन एक्सप्रेस टाईम्स से इस मायने में तो बहुत अलग था ही कि वहाँ संपादकों की क़द्र ज़्यादा थी। शहर के सबसे अभिजात इलाक़े में घर और शोफऱ वाली गाड़ी। मैनेजर संपादकों से रश्क करते थे। वे जब-तब किसी विज्ञापनदाता की या जगराते की खबर छपवाने की कोशिश भी करते तो विफल हो जाते। खबरों का दबाव होने पर या विज्ञापन देर से आने पर अंतिम अधिकार संपादक को था कि एक अटल ना कहते हुए संस्करण छोडऩे को कह दे।
सबसे अहम बात- रामनाथ गोयनका तो कुछ समय बाद नहीं रहे; छब्बीस साल में उनके दत्तक पुत्र विवेक गोयनका से मैं सिर्फ एक बार मिला!
(यह पोस्ट दरअसल माथुर साहब पर अग्रज पत्रकार, महान साप्ताहिक दिनमान की टीम के सदस्य, त्रिलोक दीपजी के एक स्मरण पर ‘कमेंट’ के बतौर लिखी गई थी। पर वहाँ शब्दों की सीमा के चलते लम्बी पड़ गई। तब यहाँ पोस्ट की है।)
परमाणु परीक्षणों के बाद जब भारत आर्थिक प्रतिबंधों की आंधी में फंसा था तब दुनिया को जवाब देने के लिए अटल जी ने अपने ‘हनुमान’ जसवंत सिंह को ही आगे किया था
-सुमेर सिंह राठौड़
2014 के लोकसभा चुनावों के परिणामों का दिन। मई का महीना। दोपहर का वक्त। तपकर तंदूर बनने को तैयार रेगिस्तान की सूनी सडक़ें। सभी लोग टीवी पर आते चुनावी नतीजों पर नजरें गड़ाए हैं। दो बजे के आस-पास खबर आती है कि बीजेपी के उम्मीदवार सोनाराम जीत गए हैं और उसके बागी उम्मीदवार जसवंत सिंह बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा क्षेत्र से तकरीबन एक लाख मतों से चुनाव हार गए हैं। राजस्थान भाजपा के ज्यादातर कार्यकर्ताओं में यह सुनकर खुशी की लहर दौड़ जाती है, एकाध को छोडक़र, जिन्हें याद रहता है कि कभी जसवंत सिंह का मतलब भी उनके लिए भाजपा ही हुआ करता था।
राजस्थान के बाड़मेर जिले के एक छोटे से गांव - जसोल - में जन्मे जसवंत सिंह एक ऐसे नेता थे जो अपने राजनैतिक करियर की शुरूआत से लेकर कोमा में चले जाने तक लगातार सक्रिय रहे। एनडीए सरकार में वित्त, विदेश और रक्षामंत्री रह चुके जसवंत सिंह ने ‘दिल्ली से कई मायनों में बहुत दूर बसे’ देश की पश्चिमी सीमा के एक रेगिस्तानी गांव से दिल्ली के सियासी गलियारों तक का लंबा सफर तय किया।
अजमेर के मेयो कॉलेज से पढ़ाई और फिर कच्ची उम्र में ही आर्मी ज्वॉइन करने के बाद जसवंत सिंह ने 1966 में अपनी नाव राजनीति की नदी में उतार ली। कुछ वक्त तक हिचकोले खाने के बाद इस नाव को सहारा मिला भैरों सिंह शेखावत रूपी पतवार का। इसके बाद 1980 में वे पहली बार राज्यसभा के लिए चुने गए।
जसवंत सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी का हनुमान कहा जाता रहा है। एनडीए के कार्यकाल में वे अटल जी के लिए एक संकटमोचक की तरह रहे। 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद जब भारत आर्थिक प्रतिबंधों की आंधी में फंसा था तब दुनिया को जवाब देने के लिए वाजपेयी ने उन्हें ही आगे किया था।
कंधार विमान अपहरण कांड के वक्त वे विदेश मंत्री थे। तीन आंतकियों को कंधार छोडऩे भी वही गए थे। अपनी एक किताब में उन्होंने लिखा है कि इस फैसले का आडवाणी और अरूण शौरी ने विरोध किया था। लेकिन मौके पर कोई गड़बड़ न हो इसलिए उनका साथ जाना जरूरी था। वे लिखते हैं कि उन्हें मालूम था कि इस फैसले के लिए उन्हें कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा। शुरूआत में जसवंत सिंह भी आतंकियों से किसी भी तरह का समझौता करने के खिलाफ थे। लेकिन बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय के आगे बिलखते अपह्रत यात्रियों के परिजनों को देखकर उनका मन बदल गया।
जसवंत सिंह जिन्ना पर लिखी अपनी किताब को लेकर भारतीय जनता पार्टी से निष्कासित किए गये थे। वे अपनी किताब ‘जिन्ना : इंडिया-पार्टीशन, इंडिपेंडेंस’ में एक तरीके से जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट देते नजर आए थे। अपनी किताब में उन्होंने सरदार पटेल और पंडित नेहरू को देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया था। लेकिन ये बातें भाजपा और आरएसएस की सोच से मेल नहीं खाती थीं। वर्ष 2009 में उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया।
2014 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा से टिकट मांगा था। वे अपना अंतिम चुनाव अपनी मायड़ धरती से लडऩा चाहते थे। लेकिन पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। वे अकेले पड़ गए थे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा अपने वरिष्ठ नेताओं को किनारे करने की राह पर थी। अटल जी राजनीति से दूर थे और भैरों सिंह शेखावत पहले ही दुनिया से रुखसत हो चुके थे। लाल कृष्ण आडवाणी खुद संघर्ष कर रहे थे। बीजेपी की कमान जिनके हाथों में थी उनमें से कोई ऐसा नहीं था जो उनके साथ खड़ा हो। टिकट दिया गया कुछ ही दिन पहले पार्टी में शामिल हुए कांग्रेसी नेता सोनाराम चौधरी को। इससे जसवंत सिंह समर्थक नाराज हो गए। सोनाराम चुनाव तो जीत गए थे लेकिन उनको टिकट देना भाजपा का बेहद चौंकाने वाला फैसला था। अगर कुछ दिन पहले पार्टी में शामिल हुए नेता को पार्टी टिकट न देती तो उनके समर्थक भी शायद उनपर निर्दलीय के तौर पर चुनाव लडऩे का दबाव नहीं डालते।
वसुंधरा राजे को पहली बार राजस्थान की मुख्यमंत्री बनाने में भैरों सिंह शेखावत के साथ-साथ जसवंत सिंह के आशीर्वाद की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन बाद में वसुंधरा राजे ने भैरों सिंह को तवज्जो देनी कम कर दी थी। अपने राजनीतिक गुरू का अपमान जसवंत सिंह कैसे सह पाते। इसके अलावा दोनों के बीच रिश्ते खराब होने का एक और कारण वर्चस्व की लड़ाई भी थी। कहा जाता है कि इसी आपसी कलह के कारण वसुंधरा राजे ने भी उनका टिकट कटवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
दोनों के बीच की कड़वाहट यहां तक बढ़ गई थी कि वसुंधरा राजे को देवी के रूप में पूजे जाने पर जसवंत सिंह की पत्नी शीतल कंवर ने धार्मिक भावनाएं आहत करने का केस दर्ज करवा दिया था। इसके कुछ ही दिनों बाद जसवंत सिंह ने अपने पैतृक गांव जसोल में रियाण का आयोजन किया। रियाण में एक-दूसरे को रस्म के रूप में अफीम की मनुहार की जाती है। वसुंधरा के इशारे पर पुलिस ने उनके खिलाफ अफीम परोसने का मामला दर्ज कर लिया था। 2014 के चुनावों में भी उन्हें हराने के लिए वसुंधरा ने खुद को पूरी तरह से बाड़मेर-जैसलमेर में झोंक दिया था।
अपनी विद्वता, अंग्रेजों से भी अच्छी अंग्रेजी और सोच-समझ कर बोलने के अंदाज के कारण जसवंत सिंह हमेशा अपने समय के बाकी नेताओं से अलग दिखाई देते रहे। घुड़सवारी, संगीत, किताबों और अपनी संस्कृति से उन्हें बेहद लगाव रहा। खुद को लिबरल डेमोक्रेट कहने वाले जसवंत सिंह हमेशा विवादों से घिरे रहे लेकिन उनपर कोई भ्रष्टाचार का आरोप कभी नहीं लगा।
उन्होंने अपनी राजनीति अपनी शर्तों पर की। भाजपा में होते हुए भी कभी भी बाबरी प्रकरण या हिंदुत्व के राजनीतिकरण के पक्षधर नहीं रहे। अपने क्षेत्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों का उनको जबर्दस्त आत्मीय समर्थन हासिल था। उनके क्षेत्र के सारे मुसलमान उनके पक्षधर रहे। यहां तक कि कांग्रेस के नेता भी जसवंत सिंह के नाम पर पार्टी से अलग हो जाते थे। एक भाजपा नेता के लिए इस तरह का समर्थन विरले ही देखने को मिलता है।
2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद जब सारी राजनीतिक पार्टियां पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी कार्रवाई के लिए एकमत थीं - यहां तक कि सेना भी सीमा पर तैनात की जा चुकी थी - उस दौरान जसवंत सिंह पर आरोप लगे कि उन्होंने ऐसा न होने देने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। उन्हें पता था कि युद्ध से दोनों देशों के रिश्ते कभी सुधर नहीं सकते। मुनाबाव-खोखरापार के बीच थार एक्सप्रेस चलवाकर उन्होंने दोनों देशों के रिश्ते सुधारने की ओर एक कदम बढ़ाया था। एक निजी चैनल पर जब उनसे कहा गया कि वे जिस बस को लेकर लाहौर गए थे पाकिस्तान ने उस बस की हवा निकाल दी तो इसके जवाब में उनका कहना था कि ऐतिहासिक फैसलों पर इतनी हल्की टिप्पणी करना सही बात नहीं है।
उन्होंने कई किताबें लिखी। जिनमें जिन्ना : इंडिया-पार्टीशन, इंडिपेंडेंस, इंडिया एट रिस्क और डिफेंडिंग इंडिया चर्चित किताबें हैं। इंडियन एक्सप्रेस में उनके लिखे आलेखों पर छपी किताब डिस्ट्रिक्ट डायरी को पढक़र उनका तमाम चीज़ों से जुड़ाव नजर आता है। इस किताब में उनकी कुछ कहानियां आपका दिल छू लेती है।
1980 में जो जसवंत सिंह की जो नाव राजनीति की नदी में चलना शुरू हुई थी वह देश को कई मसलों पर किनारे लगाकर 2014 में एक भंवर में फंस गई। पिछले लोकसभा चुनाव के कुछ दिन बाद वे अपने घर के बाथरूम में गिर गए। तभी से वे लगातार कोमा में थे। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच शांति का उनका सपना भी अभी अधूरा ही है। इसे लेकर कभी उन्होंने कहा था - भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक ही मां की सिजेरियन प्रसव से पैदा हुई संतानें हैं।
सऊदी अरब के कुछ नागरिकों ने अपने देश की व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन आरंभ करते हुए लंदन में एक विपक्षी संगठन के गठन का एलान किया है।
लगभग सौ साल और कुछ वर्ष पहले ईरान में भी इसी प्रकार कुछ युवाओं ने एक आंदोलन को शुरु किया था जो बाद में ईरान में संविधान क्रांति का कारण बन गया।
जब ओटोमन शासकों ने इस्लामी देशों की बागडोर संभाली तो उनकी एक नीति यह थी कि प्रजा को हमेशा अनपढ़ रखा जाए ताकि वह हमेशा प्रजा ही रहे। ओटोमन या उस्मानी काल में प्रजा उन लोगों को कहा जाता था तो उस्मानी नहीं थे और उस्मानी शासन के अधीन इलाक़ों में रहते थे। उसी काल में ओटोमन के युवाओं को पढ़ने के लिए विदेश भेजने या न भेजने पर खूब गर्मा गर्म बहस होती थी और बहुत से धर्म गुरुओं का कहना था कि मुस्लिम युवाओं को शिक्षा के लिए नास्तिकों के देश में नहीं भेजा जाना चाहिए। इस्लाम और गैर इस्लाम की बातें इस लिए की जा रही थीं क्योंकि ओटोमन शासकों ने स्वंय को इस्लाम से जोड़ लिया था और उन्हें खतरा था कि अगर युवा, विदेश गये और ज्ञान के प्रकाश से उनके दिमाग खुल गये तो फिर इन शासकों के लिए अपनी प्रजा को प्रजा बनाए रखना कठिन होगा।
युरोपीय विशेष कर अंग्रेज़ और फ्रांसीसी जब मिस्र और वर्तमान सीरिया और उसके आस पास के क्षेत्रों में गये तो ओटोमन साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध के लिए सब से पहला जो काम किया वह इन क्षेत्रों में स्कूल, कालेज और युनिवर्सिटियां बनाना था। ओटोमान दरबार के बहुत से युवाओं ने इन स्कूलों और कालेजों में शिक्षा प्राप्त की और फिर उन्हें ब्रिटेन और फ्रांस भेजा गया जहां उनके दिमाग में उदारता भरी गयी और जब इन लोगों की मदद से ओटोमन साम्राज्य खत्म हुआ तो फिर यही लोग सेकुलर वर्ग के गठन के लिए इस्तेमाल किये गये।
ईरान में मामला थोड़ा अलग था और अमीर कबीर ने युरोपीय देशों में जाकर शिक्षा प्राप्त करने का दरवाज़ा खोला और फिर ईरानी विदेश में जाकर पढ़ कर आए तो अपने साथ राजनीतिक विचारधारा भी ले आए और अब वह देश की व्यवस्था बदलने के बारे में सोचने लगे।
चूंकि उस समय ईरान मे काजारी शासकों का राज था और उसकी वजह से देश काफी पिछड़ा हुआ था इस लिए जनता ने भी इस विचार को हाथों हाथ लिया और अंत में आयतित व्यवस्था पर सहमति बनी जो काफी सीमा तक ब्रिटिश व्यवस्था से मिलती जुलती थी। संविधान क्रांति के समर्थकों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि ईरान की सांस्कृतिक परस्थितियां, ब्रिटेन से अलग हैं और यही वजह थी कि अन्ततः रज़ा शाह के हाथों ईरान में फिर से राजशाही लौट आयी और फिर दशकों तक मेहनत की गयी तब जाकर कहीं ईरान में इस्लामी क्रांति सफल हुई।
आज कल सऊदी अरब से जो रिपोर्टें मिल रही हैं उनमें सौ साल पहले ईरान में संविधान क्रांति के आरंभ के काल की झलक नज़र आती है।
आज सऊदी अरब में जो हालात हैं उनका इंतेज़ार पिछले 90 वर्षों से लोग कर रहे हैं। 90 साल पहले अब्दुलअज़ीज़, ब्रिटेन की मदद से अरब जगत के एक बड़े भाग पर राजशाही व्यवस्था लागू करने में सफल हुए थे। उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि इस क्षेत्र में तेल निकल आएगा और फिर इस इलाक़े के पास इतना धन होगा कि जिससे सब कुछ बदल जाएगा।
समझा यह जा रहा था कि इस इलाक़े के अरब, हमेशा की, बंजारों की तरह ज़िंदगी गुज़ारेंगे और जैसे वह हज़ारों साल से रहते आ रहे हैं उसी तरह आगे भी रहेंगे इस लिए न कोई सत्ता चाहेगा न ही किसी को इन सब चीज़ों से मतलब होगा और इस तरह से सऊद वंश, आलुश्शैख की मदद से अरब के इस बड़े भाग पर हमेशा और शांति के साथ राज करता रहेगा।
सत्ता सऊदी वंश के हाथ में थी और धार्मिक नेतृत्व आलुश्शेख के हाथ में था और आमदनी का साधन, हज और खजूर के अलावा कुछ नहीं था लेकिन जब तेल की दौलत मिली तो इस देश के बंजारे, शहरों में रहने लगे और युवा शिक्षा प्राप्त करने लगे और फिर अब उनमें यह विचार भी पैदा होने लगा कि क्यों एक ही परिवार हमेशा उनके देश पर राज करे? और क्यों उनके देश की दौलत पर एक परिवार का अधिकार हो और वह जैसे चाहे उसे खर्च करे?
सऊदी अरब के पूर्व शासक किंग फहद के काल में सऊदी शासकों को अपने देश के युवाओं के बदलते विचारों का भनक लगी तो उन्हों ने विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करने और वहीं मज़े करने का रास्ता अपने देश के युवाओं के लिए खोल दिया, उन्हें बड़ी बड़ी रक़म दी जाती थी ताकि वह विदेशों में जाकर रहें और देश में राजनीतिक व्यवस्था बदलने का ख्याल मन से निकाल दें।
इस प्रकार के विदेश में रहने वाले सऊदी नागरिकों में शायद सब से अधिक प्रसिद्ध खाशुकजी थे लेकिन रिपोर्टों के अनुसार सऊदी अरब में जमाल खाशुकजी जैसे न जाने कितनों को इस तरह से गायब किया गया कि आज तक उनका कोई पता नहीं चल पाया।
कुछ सऊदी युवाओं को इस्लाम से बहुत लगाव था तो सऊदी अरब ने उन्हें दूसरे देशों में इस्लाम फैलाने के लिए भेज दिया जहां उन्होंने मदरसे खोले और सऊदी अरब के पैसे से इस्लाम फैलाया लेकिन इनमे से अधिकांश अन्त में आतंकवादी संगठनों से जुड़ गया और पूरी दुनिया में इस्लाम की छवि खराब की।
इन सब के अलावा सऊदी अरब के लिए एक और बड़ा खतरा है। सऊदी अरब के एक तिहाई नागरिक शिया हैं और जिन इलाक़ों में वह रहते हैं, सऊदी अरब का तेल वहीं से निकलता है लेकिन सऊदी सरकार उनका बुरी तरह से दमन करती है और न केवल यह कि उन्हें अलग से कोई सुविधा नहीं देती बल्कि आम सऊदी नागरिकों के अधिकारों से भी उन्हें वंचित रखती है।
महल से बाहर देश के तो यह हालात हैं मगर महल के भीतर और शाही परिवार में भी सत्ता के लिए खींचतान जारी है जिससे इस देश में एक नयी राजनीतिक व्यवस्था की संभावना बढ़ रही है। आज शाही घराने के सदस्यों की संख्या 7 हज़ार से अधिक है और सब को राज पाट में अपना हिस्सा चाहिए।
हालांकि सऊदी शासकों ने हमेशा इन सदस्यों को पद और धन दे कर खुश रखने की कोशिश की है लेकिन चूंकि सऊदी अरब के तेल और सारी आमदनी पर केवल सऊदी नरेश का ही अधिकार होता है इस लिए बहुत से लोग इस पद तक पहुंचने के लिए पूरी शक्ति खर्च कर रहे हैं। सऊदी अरब की सरकार अब्दुलअज़ीज़ की वसीयत के हिसाब से चलती थी और सभी शासकों ने अपने पिता की वसीयत का पालन किया लेकिन वर्तमान नरेश किंग सलमान ने अपने पिता की वसीयत के विपरीत और अपने तीन भाई के जीवित रहने के बावजूद अपने बेटे को उत्तराधिकारी बना दिया इस तरह से बहुत से अन्य सदस्यों में भी शासन का लोभ पैदा हो गया।
मुहम्मद बिन सलमान क्राउन प्रिंस बन गये और उन्हें लगता था कि अमरीका की मदद से वह बड़ी आसानी से सऊदी अरब के राजा बन जाएंगे और इसी लिए सत्ता पर पकड़ मज़बूत बनाने के लिए उन्होंने यमन युद्ध आरंभ किया और अपने सभी विरोधियों को इस युद्ध की भट्टी में झोंक दिया, बचे खुचे शाही परिवार के सदस्यों को एक होटल में बुला कर जब को वहीं बंद कर दिया और उनकी पूरी संपत्ति पर क़ब्ज़ा कर लिया जो एक अनुमान के हिसाब से 100 अरब डालर से अधिक थी।
किंग सलमान ने भी सऊदी अरब में होने वाले बदलाव पर खामोशी के लिए ट्रम्प के साथ हथियारों के 450 अरब डालर के समझौते पर हस्ताक्षर किये। कहा यह भी जाता है कि इस रक़म का बड़ा भाग फेक कंपनियों के नाम पर ट्रम्प, उनकी बेटी और दामाद के एकांउट में डाला गया है।
बहरहाल इन हालात में अब ट्रम्प की हार की बातें की जा रही हैं जिसके बाद सऊदी अरब में राजनीतिक कार्यकर्ता फिर से सक्रिय हो गये हैं और उन्हें उम्मीद हो चली है कि ट्रम्प के जाते ही बिन सलमान भी चले जाएंगे।
अब कहा जा रहा है कि सऊदी अरब के जिन युवाओं ने शासन विरोधी संगठन बनाया है वह सऊदी अरब में सशर्त राजशाही के इच्छुक हैं और ब्रिटेन और फ्रांस और जर्मनी भी इसका समर्थन करते हैं और कहा जा रहा है कि अगर अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प की हार हो जाती है तो फिर अमरीका में इन लोगों के समर्थकों में शामिल हो सकता है।
हालांकि इस प्रकार की राजशाही वही है जो सौ साल पहले ईरान में लायी गयी थी और इस प्रकार की सरकार, सऊदी अरब की सामाजिक परिस्थितियों से भी मेल नहीं खाती लेकिन फिर भी इसे सऊदी अरब में हालात बदलने के लिए उम्मीद की एक किरण समझा जा सकता है।
यहां तक भी कहा जा रहा है सऊदी अरब के सिहांसन पर बैठने की तैयारी कर रहे बिन सलमान हो सकता है अपने विरोधियों की वजह से इन लोगों के साथ किसी सहमति पर पहुंच जाएं मतलब सशर्त राजशाही को स्वीकार कर लें। युरोपियों का तो यहां तक मानना है कि बिन सलमान, सशर्त राजशाही चाहने वालों के साथ समझौता करने पर मजबूर हैं। Q.A. साभार, स्पूतनिक न्यूज़ एजेन्सी(parstoday)
- Girish Malviya
यदि आप समझना चाहते हैं कि अनुबंध कृषि यानी कांट्रेक्ट फार्मिंग किस हद तक घातक हो सकती है तो गुजरात के पेप्सिको केस के बारे में एक बार जान लें...
पेप्सिको विवाद इस कृषि कानून की विसंगतियों को समझने का बहुत अच्छा उदाहरण है आपने बहुराष्ट्रीय कम्पनी पेप्सिको का सबसे लोकप्रिय प्रोडक्ट पेप्सी पी ही होगी लेकिन पेप्सी ब्रांड के अलावा यह कम्पनी क्वेकर ओट्स, गेटोरेड, फ्रिटो ले, सोबे, नेकेड, ट्रॉपिकाना, कोपेल्ला, माउंटेन ड्यू, मिरिंडा और 7 अप जैसे दूसरे ब्रांड की भी मालिक है। इसका एक अन्य मशहूर प्रोडक्ट है Lay's चिप्स......
इस चिप्स में जो आलू इस्तेमाल होता है आलू की इस किस्म का पेटेंट पेप्सिको ने अपने नाम पर करवा रखा है, पेप्सिको का दावा है कि अपने ब्रांड के चिप्स के निर्माण के लिये वह स्पेशल आलू इस्तेमाल करती है, इसलिए ऐसे आलुओं पर केवल उसका ही अधिकार है.
पेप्सिको कम्पनी भारत के किसानो से वह स्पेशल आलू उगाने के लिए कांट्रेक्ट करती है बीज भी वह देती है और फसल भी वही खरीदती है यह कांट्रेक्ट फार्मिंग ही है,....
एक साल पहले पेप्सिको ने गुजरात के तीन किसानों पर मुकदमा दायर किया........ पेप्सिको का आरोप था कि यह किसान अवैध रूप से आलू की एक किस्म जो कि पेप्सिको के साथ रजिस्टर है उसे उगा और बेच रहे थे। कंपनी का दावा था कि आलू की इस किस्म से वो Lay's ब्रैंड के चिप्स बनाती है और इसे उगाने का उसके पास एकल अधिकार है।
पेप्सिको कंपनी के मुताबिक, बिना लाइसेंस के इन आलू को उगाने के लिये गुजरात के तीन किसानों ने वैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया है। ऐसे में पता चलते ही आलू के नमूने एकत्र किए गये और इन-हाउस प्रयोगशाला के साथ-साथ डीएनए विश्लेषण के लिए शिमला स्थित आईसीएआर और केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान में सत्यापन के लिए भेजे। परिणामों से पता चला कि गुजरात के यह किसान पंजीकृत आलू बेच रहे थे।
कंपनी की शिकायत और आलू की किस्म के पंजीकरण को देखते हुए वाणिज्यिक अदालत ने तीनों किसान, छबिलभाई पटेल, विनोद पटेल और हरिभाई पटेल को दोषी पाया और उनके द्वारा आलू उगाने और बेचने पर रोक लगा दी साथ ही कोर्ट ने तीनों किसान से जवाब भी मांगा जवाब आने के बाद उन पर ओर कड़ी कार्यवाही की जा सकती है उन पर इतना जुर्माना भी लगाया जा सकता है कि उन्हें अपना खेत ही बेच देना पड़े.
यहाँ समझने लायक मूल बात यह है किसान कई जगह से बीज लाता है, ऐसे में कंपनी किस तरह से उन पर करोड़ों का दावा कर सकती है और ये कैसे कह सकती है कि छोटे-छोटे किसान उनके लिए ख़तरा हैं.
पेप्सिको कंपनी के खिलाफ गुजरात मे आवाज उठाने वाले किसानों ने कंपनी द्वारा पंजीकृत आलू की किस्म उगाकर बुआई सत्याग्रह भी किया.
पेप्सिको ने प्रत्येक किसान के ख़िलाफ़ क़रीब एक-एक करोड़ का दावा ठोंका लेकिन बाद में बढ़ते हुए विरोध को देखते हुए दावे को वापस ले लिया....
दरअसल इस तरह की संविदा खेती से जुड़े अपने ही खतरे हैं. छोटे और मझोले किसान इन अनुबंध की बारीकियों को समझ नहीं पाएंगे यदि फसल कम्पनी के मानकों के अनुसार नही हुई तो खुले बाजार में उसे बेच भी नही पाएंगे, यदि बेचने गए तो उनका हश्र इस गुजरात के तीन किसानों जैसा हो सकता है.
बहुराष्ट्रीय कंपनी किसी की सगी नही है कांट्रेक्ट फार्मिंग का सीधा अर्थ है बिल्लीयो को दूध की रखवाली सौप देना....(sabrangindia)
इमारात-बहरैन इस्राईल की गोद में, अलजीरिया खुलकर फ़िलिस्तीन के साथ!
अलजीरिया के राष्ट्रपति अब्दुल मजीद तबून शायद एकमात्र अरब शासक हैं जिन्होंने बड़ी बहादुरी और साहस से अपना पक्ष रखते हुए इस्राईल से दोस्ती के लिए अरब देशों के बीच जारी होड़ की निंदा की।
राष्ट्र संघ महासभा के अधिवेशन को संबोधित करते हुए तबून ने कहा कि फ़िलिस्तीनी राष्ट्र को यह अधिकार है कि अपने देश की स्थापना करे जिसकी राजधानी बैतुल मुक़द्दस हो और इस अधिकार पर किसी से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं उन्होंने इसके बाद अलजीरियाई पत्रकारों के सम्मेलन में यही बात दोहराई और साथ ही इस्राईल से शांति समझौते के लिए अरब सरकारों में मची होड़ की कड़े शब्दों में निंदा भी की।
अलजीरिया की ओर से इस प्रकार का साहसी और दो टूक स्टैंड कोई नई बात नहीं है। इस देश ने हमेशा खुलकर फ़िलिस्तीन का साथ दिया है। इस देश के लोगों ने इस्राईल के ख़िलाफ़ फ़िलिस्तीनियों की जंग में हिस्सा भी लिया। मगर इस समय जब अरब सरकारें इस्राईल से दोस्ती के लिए पागल हुई जा रही हैं तो अलजीरिया की सरकार का अपने पिछले गौरवपूर्ण स्टैंड पर क़ायम रहना सराहनीय है इसके लिए बड़ी बहादुरी की ज़रूरत होती है।
अलजीरिया अरब लीग के उन गिने चुने देशों में था जिसने सीरिया को इस संगठन से निकाले जाने का विरोध किया और इस देश की राष्ट्रीय एकता व अखंडता का समर्थन किया आज भी वह अरब लीग में सीरिया की वापसी की मांग कर रहा है।
अब ज़रा इस स्टैंड को सामने रखते हुए इमारात, बहरैन, मिस्र और सऊदी अरब के अधिकारियों के इस्राईली संबंधी बयानों पर एक नज़र डाल लीजिए।
-रायुल यौम
-उत्तम सेनगुप्ता
भारत में हमने दुनिया के चंद सबसे सख्त लॉकडाउन में से एक को देखा। आज छह माह बाद इस पर गौर करना वाजिब होगा कि भारत में रोजगार संकट का हाल क्या है। ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि स्थिति हद से ज्यादा खतरनाक है। सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी) के सीईओ और अर्थशास्त्री महेश व्यास का कहना है, “ उम्मीद थी कि युवाओं को नौकरी मिलेगी जिससे विकास दर को तेज करने में मदद मिलेगी और इन युवाओं को अपने भविष्य के लिए बचत करने का मौका मिलेगा। लेकिन वे सारी बातें धरी की धरी रह गईं... हमारे युवा अब भविष्य के लिए बचत की स्थिति में नहीं और इसका बुरा असर आने वाली पीढ़ी पर पड़ना तय है।”
जमीनी हालत कितनी विस्फोटक है, इसका अंदाजा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 70वें जन्मदिन के मौके पर ट्विटर पर मचे तूफान से लगाया जा सकता है। 17 सितंबर को शाम होते-होते 40 लाख से ज्यादा ट्वीट के जरिये लोगों ने इस दिन को ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ के तौर पर मनाया और 2014 में मोदी के उस वादे की याद दिलाई जिसमें उन्होंने कहा था कि हर साल 2 करोड़ रोजगार पैदा किए जाएंगे। ट्विटर ट्रेंड से सड़कों पर होने वाले प्रदर्शनों तक लोगों की दिलचस्पी प्रधानमंत्री के जन्मदिन समारोह की अपेक्षा बेरोजगारी में अधिक रही। ट्विटर पर #17Baje17Minute, #NationalUnemploymentDay और #RashtriyaBerozgariDiwas सबसे ज्यादा ट्रेंडिंग हैशटैग रहे और शाम 7.30 बजे तक इनपर 40 लाख से ज्यादा ट्वीट किए गए जबकि #HappyBirthdayPMModi और #RespectYourPM जैसे प्रधानमंत्री के जन्मदिन को मनाने वाले हैशटैग के पास केवल पांच लाख ट्वीट की पूंजी जमा हो सकी।
शिक्षित बेरोजगार चाहते हैं कि उन्हें सुरक्षित सरकारी नौकरी मिले क्योंकि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान देखा कि उनके आसपास निजी क्षेत्र में जहां कत्लेआम मचा है और लोगों की नौकरी जा रही है, वहीं सरकारी कर्मचारियों पर इन सबका कोई असर नहीं और वे पहले जितना ही पैसा घर ला रहे हैं। एक ऑटोमाबाइल कंपनी में काम करने वाले मनीष कहते हैं, “मैं ऑटोमाबोइल इंजीनियर हूं लेकिन मुझे कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट में काम करना पड़ रहा है और मेरे वेतन में भी काफी कमी कर दी गई है।” सचिन मराठे कॉल सेंटर में काम करते थे और उन्होंने इस भरोसे में फरवरी में नौकरी छोड़ दी थी कि उन्हें इससे बेहतर नौकरी खोजने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन आज उनका आत्मविश्वास बुरी तरह हिल चुका है। वह कहते हैं, “कहीं कोई नौकरी नहीं। समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं। सारा दिन जॉब साइट पर ऑनलाइन नौकरी खोजता रहता हूं लेकिन कोई फायदा नहीं।” राजस्थान के करौली से फोनपर हंसराज मीणा कहते हैं, “सरकारी नौकरी तो मिल नहीं रही। ऐसे में लोगों की शादी नहीं हो रही।” ट्विटर पर 17 सितंबर को मोदी के खिलाफ अपने संगठन ट्राइबल आर्मी के जरिये आक्रामक अभियान चलाने वाले मीणा कहते हैं कि भर्ती परीक्षाओं के लिए फीस देकर फॉर्म भरने वाले लोग सालों से नौकरी का इंतजार कर रहे हैं। वह आगाह करते हैं, “ सरकार रेलवे और पीएसयू का निजीकरण कर रही है क्योंकि वह सरकारी नौकरियों से आरक्षण को धीरे-धीरे खत्म करना चाहती है।”
ट्राइबल आर्मी के राष्ट्रीय प्रवक्ता ऋषिकेश मीणा बताते हैं कि इस संगठन को 2016 में बनाया गया ताकि दबे-कुचले लोगों की आवाज को सोशल मीडिया पर उठाया जा सके। उनका दावा है कि कुछ समय पहले तक बेरोजगारी, वनाधिकार या विस्थापन के मामलों को ट्विटर पर बहुत कम ही उठाया जाता था लेकिनअब स्थिति बदल चुकी है। 2004 से 2016 के बीच भारत की विकास दर ऐसी थी जो संतोषजनक रूप से बढ़तो रही थी लेकिन इसमें रोजगार के अवसर अपेक्षित स्तर पर पैदा नहीं हो रहे थे। अब पिछले तीन सालों के दौरान तो बेरोजगारी की दर में तेजी से वृद्धि हुई है। इस साल मार्च में घोषित लॉकडा उनके कारण तो बेरोजगारी दर एकदम से आसमान छूने लगी। जिस तरह बेरोजगारों और समझौता कर योग्यता से नीचे की नौकरी करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, विशेषज्ञों को आशंका है कि इससे सामाजिक अस्थिरता के हालात पैदा हो सकते हैं, अपराध की घटनाओं में तेज वृद्धि हो सकती है और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर गंभीर हालात पैदा हो सकते हैं। अमेरिका में 1932 से 1933 में महामंदी के दौरान बेरोजगारों की संख्या 1.5 करोड़ थी और अगर इसमें पूरे यूरोप के बेरोजगारों की संख्या को जोड़ दिया जाए तो भी यह आंकड़ा किसी भी हालत में 5 करोड़ को पार नहीं करता।
लेकिन सीएमआईई का आकलन है कि इस साल अप्रैल से अगस्त के दौरान भारत में 12 करोड़ लोगों का रोजगार जाता रहा। इस अवधि के दौरान वेतनवाली नौकरियों की संख्या में ही 2 करोड़ की कमी रही। इसमें उन 3.4 करोड़ लोगों को जोड़ दीजिए जो लॉकडाउन के ऐलान के समय बेरोजगार थे तो आज देश में बेरोजगारों की कुल संख्या 15 करोड़ को पार कर जाती है। यह होश उड़ादेने वाला आंकड़ा है। जरा सोचिए, अमेरिका की तो पूरी आबादी ही 33 करोड़ है। जिन लोगों की नौकरियां आज बची हुई हैं, उनमें भी ज्यादातर सेल्समैन, डिलीवरी बॉय, वेटर जैसे लोग हैं जो महीने में 6 से 16 हजार रुपये घर ला रहे हैं। सीएमआईई का एक अध्ययन कहता है कि ऐसे तो वेतनवाली नौकरियां जल्दी जाती नहीं लेकिन अगर चली गई तो आसानी से मिलती नहीं। इसे भी याद रखना चाहिए कि खुद सरकार के आंकड़े कहते हैं कि 2018-19 में स्वरोजगार करने वाले लोगों की औसत आय 8,363 रुपये मासिक है। दूसरी ओर, एक नियमित औपचारिक नौकरी में औसत मासिक वेतन 25,866 रुपये रहा।
मेलबोर्न में प्रोफेसर क्रेगजेफरी ने 2010 में एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश के ‘समय काटने वाले युवाओं’ के बारे में काफी कुछ लिखा था। तब जेफरी ऑक्सफोर्ड में प्रोफेसर थे। उन्होंने मेरठ के युवाओं के साथ बातचीत करने, उन्हें समझने में सालों लगाए और फिर उन्होंने एक ऐसी युवा पीढ़ी के बारे में लिखा जिसने ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन के बाद फुल टाइम जॉब के इंतजार में सारा समय गुजार दिया। एक इंटरव्यू में जेफरी कहते हैं, “वे गलियों के नुक्कड़ों पर खड़े, ताश खेलते, टीवी देखते, गप्पें मारते और लड़ते-झगड़ते मिल जाएंगे। इनमें से ज्यादातर अपने मां-बाप पर आश्रित होते हैं और इस कारण दो पीढ़ियोंके बीच तनाव पैदा होता है... यहां-वहां मंडराते इन लोगों की पहचान बन गया है ‘टाइम पास’।”
इनमें से कई ऐसे होते हैं जो बिचौलिए बन जाते हैं। अपने सामाजिक और राजनीतिक संपर्कों के जरिये ये लोग जमीन के सौदे और सरकारी रिकॉर्ड में हेरफेर करने लगते हैं तो कई अदालतों में गवाही देने को धंधा बना लेते हैं तो कुछ पुलिस के लिए मुखबिरी करने लगते हैं या फिर राजनीतिक दलों को भीड़ जुटाने में मदद करने लगते हैं। कुछ अदालतों में मुंशी बनजाते हैं तो कुछ गैरसरकारी संगठनों के साथ जुड़कर समाज सेवक या रिसर्चर बन जाते हैं। जेफरी और चर्चित पुस्तक ‘दि ड्रीमर्स’ लिखने वाली स्निग्धा पूनम का मानना है कि छोटे शहरों और गांवों का महत्वाकांक्षी युवा अब शारीरिक मेहनत या पारंपरिक व्यापार करना नहीं चाहता। उसे पैसे कमाने का शॉर्टकट चाहिए। इस मानसिकता और बदली प्राथमिकताओं वाले युवाओं की यह बेरोजगार फौज कब तक सब्र के साथ इंतजार कर सकती है, यह समझा जा सकता है। भविष्य के गर्भमें जो कुछ भी छिपा है, उसके बारे में हर किसी को चिंतित होना चाहिए।(navjivan)
ध्रुव गुप्त
हिंदी सिनेमा के सदाबहार अभिनेता कहे जाने वाले देव आनंद ने अपनी ज्यादातर फिल्मों में जिस बेफिक्र, अल्हड, विद्रोही और रूमानी युवा का चरित्र जिया है, वह भारतीय सिनेमा का एकदम नया चेहरा और अलग अंदाज़ था। हिंदी सिनेमा की पहली त्रिमूर्ति में जहां दिलीप कुमार प्रेम की संजीदगी और पीड़ा के लिए तथा राज कपूर प्रेम के भोलेपन और सरलता के लिए जाने जाते थे, देव आनंद के हिस्से में प्रेम की शरारतें और खिलंदड़ापन आए थे।
लोगों को उनका यह रूप इतना पसंद आया कि उनके जीवन-काल में ही उनकी एक-एक अदा किंवदंती बन गई। उनकी चाल, उनका पहनावा और उनके बालों का स्टाइल उस दौर के युवाओं के क्रेज बने। 1946 में फिल्म ‘हम एक हैं’ से अभिनय यात्रा शुरू करने वाले देव साहब ने अपने लगभग साठ साल लंबे कैरियर में सौ से ज्यादा फिल्मों में अभिनय ही नहीं, अपने नवकेतन फिल्म्स के बैनर तले पैतीस फिल्मों का निर्माण और उन्नीस फिल्मों का निर्देशन भी किया।
अपनी शुरूआती फिल्मों की नायिका सुरैया के साथ उनके असफल प्रेम का शुमार हिंदी सिनेमा की सबसे त्रासद प्रेम कहानियों में होता है। सुरैया के पारिवारिक दबाव में अलगाव होने के बाद देव साहब ने अपनी एक अलग दुनिया बसा ली, लेकिन सुरैया आजीवन अविवाहित रही। अपने प्रेम को सीने से लगाए उन्होंने अकेलापन जिया और गुमनामी की मौत मरी।
‘गाइड’ को देव साहब की अभिनय - प्रतिभा का उत्कर्ष माना जाता है। सातवे दशक के बाद भी अपनी ढलती उम्र में उन्होंने दजऱ्नों फिल्मों में नायक की भूमिकाएं निभाईं, लेकिन तबतक उम्र के साथ उनका जादू शिथिल और मैनरिज्म पुराना पड़ चुका था। निर्देशन में भी उनकी पकड़ ढीली होती चली गई। जीवन के आखिरी दिनों तक फिल्मों के प्रति उनकी दीवानगी बनी रही, लेकिन तब तक वक्त उनसे बहुत आगे निकल चुका था। उनकी आत्मकथा ’रोमांसिंग विद लाइफ’ बहुत चर्चित रही जिसमें उन्होंने अपने जीवन के कई अजाने पहलुओं का खुलासा किया था, लेकिन चर्चा किताब के उस अंश की ज्यादा हुई जिसमें सुरैया के साथ अपने रिश्ते को सार्वजनिक करते हुए उन्होंने बड़ी भावुकता से लिखा था कि सुरैया उनका पहला प्यार थी जिन्हें वे कभी नहीं भुला सके। सुरैया के साथ उनकी शादी हो गई होती तो उनका जीवन शायद कुछ और होता। सिनेमा में उनके अपूर्व योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’ से नवाज़ा था।
जन्मदिन (26 सितंबर) पर हरदिलअजीज़ मरहूम देव आनंद को हार्दिक श्रद्धांजलि !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक ने अपनी ताजा रपट में बहुत गंभीर टिप्पणियां कर दी हैं, जो सरकार के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। हम लोग बहुत खुश थे कि सरकार ने रफाल विमानों का सौदा इतने अच्छे ढंग से किया है कि ये लड़ाकू विमान भारत पहुंच भी चुके हैं और उनके प्रदर्शन से शत्रुओं को उचित संदेश भी चला गया है। लेकिन भा.नि.म. (सीएजी) की रपट ने जनता के उत्साह पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है। उन्होंने पूछा है कि फ्रांसीसी कंपनी दस्सॉल्ट एविऐशन ने जब 26 विमानों के लिए भारत से 59000 करोड़ रु. लिये हैं तो उसने अपने वायदों को पूरा क्यों नहीं किया? उसका वायदा यह था कि भारत उसे जितनी राशि देगा, उसकी 50 प्रतिशत याने आधी राशि वह भारत में इसलिए लगाएगा कि भारत विमान-निर्माण की तकनीक खुद विकसित कर सके। वैसे सरकारी नीति यह है कि यदि कोई भी सौदा 300 करोड़ रु. से ज्यादा का हो तो उसका 30 प्रतिशत पैसा उस तकनीक के विकास के लिए वह देश भारत में लगाएगा। लेकिन फ्रांस की इस दस्सॉल्ट एवियेशन कंपनी ने भारत में 50 प्रतिशत पैसा लगाना स्वीकार किया था।
इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि ये विदेशी कंपनियां अपना शस्त्रास्त्र अपने लागत मूल्य से चार-छह गुना ज्यादा कीमत पर बेचती हैं ताकि खरीददार को लालच में फंसा सकें और अपना फायदा भी जमकर कमा सकें। जो भी हो, यह सौदा शुरु में मनमोहनसिंह सरकार ने ही किया था। इसके मुताबिक भारत को 126 रफाल विमान खरीदने थे, जिनमें से 108 भारत में बनने थे लेकिन उनमें देर लगती, इसलिए मोदी सरकार ने फ्रांस से बने-बनाए विमान खरीद लिए। विमान सही कीमत पर खरीदे गए हैं और बोफर्स की तरह इस सौदे में दलाली नहीं खाई गई है, यह बात सर्वोच्च न्यायालय की राय से भी पता चलती है। दस्सॉल्ट एविएशन ने अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप के साथ मिलकर भारत में इन विमानों को बनाने का समझौता किया था लेकिन भा.नि.म. (सीएजी) ने उसकी शून्य प्रगति को भी रेखांकित किया है। हमारे रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान (डीआरडीओ) को दस्सॉल्ट से छह नई तकनीक मिलनेवाली थीं। आज तक उसे एक भी नहीं मिली है।
भारत में जब तक हम उच्चकोटि के युद्धक विमान नहीं बनाएंगे, हमारी वायु सेना अक्षम ही रहेगी। उसके पास युद्धक विमानों के 42 बेड़े होने चाहिए थे लेकिन उसके पास अभी सिर्फ 27 हैं। रफाल-सौदे में पाई गई इसी कमी पर उंगली रखकर सीएजी ने सरकार को ठीक समय पर चेता दिया है। अभी तक यह पता नहीं है कि दस्सॉल्ट एवियेशन ने अपने दायित्वों को पूरा क्यों नहीं किया है? इस सौदे में इस लचक के लिए कौन जिम्मेदार है? इन सवालों के संतोषजनक और शीघ्र उत्तर देने की जिम्मेदारी सरकार की है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
हुजूर जागिए! कुछ रहम कीजिए!
-समरेन्द्र सिंह
आज दो वीडियो वायरल हुए हैं। अर्णब गोस्वामी के चैनल रिपब्लिक भारत की महिला रिपोर्टर दीपिका पादुकोण की गाड़ी का पीछा कर रही है। बीच सडक़ में रिपोर्टर का ड्राइवर अपनी कार को दीपिका की कार से बगल में ले आता है। रिपोर्टर शीशा खोल कर चीखते हुए चलती गाड़ी से दीपिका से सवाल पूछने लगती है।
दूसरा वीडियो अशोक सिंघल का है। ये अरुण पुरी के चैनल आज तक (कभी ये सर्वश्रेष्ठ चैनल हुआ करता था) के बड़े रिपोर्टर हैं। राजनीतिक संपादक भी रह चुके हैं। ये भी दीपिका की गाड़ी का पीछा कर रहे थे। मैं दोनों दृश्य देख कर घबरा गया। लगा कि जैसे पापारात्सी ने मिलकर प्रिसेंस डायना की जान ले ली थी, वैसे ही किसी दिन हमारे देश के ये महान पत्रकार किसी मासूम की हत्या कर देंगे। और अपनी खोह में छिपे हम लोग बुजदिलों की तरह तमाशा देखते रह जाएंगे।
कुछ दिन पहले मैंने डेमोक्रेसी कैसे मरते हैं नाम की किताब का जिक्र किया था। उस किताब में बहुत अच्छे से बताया गया है कि किसी मुल्क में रैफरी जब सरकार से गठजोड़ कर लेता है तो उस मुल्क में लोकतंत्र की हत्या हो जाती है। वह देश हार जाता है। फिर वहां के लोग त्रासद जिंदगी जीते हैं। किताब में वेनेजुएला, पेरू समेत कई देशों के उदाहरण दिए गए हैं।
इसलिए रैफरी का निष्पक्ष रहना बहुत जरूरी है। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रैफरी की भूमिका अदालत की होती है। संविधान सही से लागू हो रहा है या नहीं-यह देखने की जिम्मेदारी कोर्ट की है।
यहां मैं आपको छोटा सा किस्सा सुनाता हूं। करीब 11 साल पहले मुझे अपनी वेबसाइट जनतंत्र पर छापने के लिए कुछ गोपनीय दस्तावेज मिले थे। वो दस्तावेज ऐसे मामले से जुड़े थे, जिसकी जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही थी। मैं कानूनी सलाह के लिए अपने वकील मित्र के पास पहुंचा। उन्होंने ऐसी बात बताई, जो मुझे अब भी याद है। शायद ताउम्र याद रहे।
उन्होंने कहा कि किसी ताकतवर व्यक्ति या संगठन से लड़ लो, देख लिया जाएगा। चाहो तो सरकार से लड़ लो-उसे भी देख लेंगे। लेकिन अदालत से मत लड़ो। बाकी सबसे लड़ोगे तो अदालत है बचाने के लिए। लेकिन जब अदालत से ही लड़ लोगे तो कौन बचाएगा? अदालत का कोई फैसला गलत है तो सम्मानजनक तरीके से उसकी आलोचना करो। लेकिन उसके किसी काम में दखल मत दो। अगर कोर्ट और उसमें भी सुप्रीम कोर्ट खिलाफ गया तो फिर कहीं कोई सुनवाई नहीं होगी।
बात सही है। अदालत नाराज हो जाए तो फिर भुगतना ही होता है। अतीत में अनेक ताकतवर लोगों ने भुगता है। लेकिन भुगतना तब भी होता है जब अदालत सहयोग करने लगे। न्याय में नहीं बल्कि सरकार के अन्याय में। मीडिया के अन्याय में। नुकसान तब भी होता है जब अदालत सिस्टम के ताकतवर धड़े के अपराधों को रोकने की जगह, संविधान की रक्षा करने की जगह-मौन हो जाए। सलेक्टिव हो जाए। तब देश और समाज भुगतान करता है।
यही नहीं तमाम जांच एजेंसियों से भी तटस्थता की उम्मीद की जाती है। सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, एनसीबी और पुलिस-ये सब कानून व्यवस्था का हिस्सा हैं। जांच की जिम्मेदारी इन्हीं के पास है। इन्हें निष्पक्ष रहना चाहिए। लेकिन अभी लग रहा है कि ये सब मिल कर हुकूमत कर रहे हैं। जब जांच एजेंसियां सियासी औजार बन जाएं और लोकतांत्रिक आवाजों को खामोश करने में जुट जाएं तो फिर लोकतंत्र बचाने की महती जिम्मेदारी न्यायपालिका के कंधों पर ही रहती है। और अगर वो भी मौन हो जाए तो फिर लोकतंत्र बचेगा कैसे?
अब लौटते हैं मीडिया की उस अराजक भूमिका पर जिससे मैंने ये पोस्ट शुरू किया था। हमारे कानूनों में फ्री स्पीच और हेट स्पीच का अंतर अच्छी तरह दर्ज है। हमारे यहां हेट स्पीच पर सजा का प्रावधान भी है। हमारे संविधान में निजता का अधिकार भी दिया गया है। लेकिन हेट स्पीच और निजता हनन के मामलों में सुप्रीम कोर्ट खामोश है। वह सत्ता के विरुद्ध तन कर खड़े व्यक्तियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ सुनियोजित प्रोपगैंडा को चुपचाप देख रहा है। यह एक किस्म का मूक समर्थन है।
मैं और मेरे जैसे तमाम लोग यह सोच नहीं पा रहे हैं कि अदालतें ऐसे मामलों में मौन कैसे रह सकती हैं? माननीय न्यायाधीशों की न्यायिक चेतना कहां चली गई है? क्या उन्हें संविधान और मानवता के विरुद्ध चल रही ये साजिशें नजर नहीं आ रही हैं? अगर नजर नहीं आ रही है तो फिर ऐसा क्यों नहीं समझा जाए कि ये सभी न्यायाधीश बनने के काबिल नहीं है? और अगर नजर आ रही है और फिर भी खामोश हैं तो फिर यह क्यों नहीं समझा जाए कि मीडिया और सरकार के अपराधों में ये सब सम्मिलित हैं?
मैं जानता हूं कि मैं जो बोल रहा हूं उससे न्यायाधीशों को बुरा लग सकता है। इसलिए मैं अग्रिम माफी मांगता हूं। लेकिन जो हो रहा है वह और भी खतरनाक है। किसी चैनल का कोई संपादक लोगों को खुलेआम अपराधी बता रहा है। और अदालत चुप है। क्या न्यायाधीशों को यह नहीं पता कि कोर्ट द्वारा गुनहगार ठहराए जाने से पहले किसी को अपराधी नहीं कहा जा सकता है? अगर कोई कहता है तो यह न्याय की अवहेलना है?
कोई संपादक अपने रिपोर्टरों को किसी की गाड़ी का पीछा करने को कहता है। उसके रिपोर्टर पीछा करते हैं और चलती गाड़ी से चीख-चीख कर सवाल पूछते हैं।
आसपास सभी लोगों की जान संकट में डालते हैं। क्या यह लोगों की जान से खिलवाड़ नहीं है? क्या ये किसी की निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है? क्या यह न्याय व्यवस्था को धत्ता बताने की कोशिश नहीं है?
कोई चैनल मुसलमानों के खिलाफ निरंतर साजिश करता है, उनके खिलाफ जहर उगलता है, लोगों को हिंसा के लिए उकसाता है-क्या यह भारत की धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ाना नहीं है, उसे संकट में डालना नहीं है? लोगों की जान और माल को संकट में डालना नहीं है?
इसलिए मैं दोनों हाथ जोडक़र सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश कर रहा हूं कि वो इन मामलों का संज्ञान लें और कोई ठोस कदम उठाएं। वरना आने वाली पीढिय़ों की नजर में हम सब गुनहगार साबित होंगे। हमारा भविष्य जब हमारे वर्तमान को इंसाफ और इंसानियत के तराजू पर तौलेगा तो न्याय की तुलना में अन्याय का पलड़ा भारी होगा। और इस अन्याय की सबसे बड़ी जिम्मेदारी और जवाबदेही कोर्ट की होगी। माननीय न्यायाधीशों की होगी। इसलिए कि न्याय का अधिकार और दायित्व उन्हीं का है। हमारे संविधान ने ये अधिकार और दायित्व ना तो किसी नरेंद्र मोदी को दिया है और ना ही किसी अर्णब गोस्वामी को।
-श्याम मीरा सिंह
जब हजारों मुस्लिम महिलाएं शाहीनबाग में अपनी पहचान और सम्मान की लड़ाई इस मुल्क के निजाम से लड़ रही थीं, तब उस लड़ाई में अपना कंधा देने के लिए पंजाब से आए सिख भाइयों ने खुली सडक़ पर लंगर लगा दिए थे। आज सिख किसान सडक़ पर हैं, आधा पंजाब सडक़ पर है, तो लंगर की जिम्मेदारी मुसलमानों ने उठा ली। पंजाब शहर के मलेरकोटला शहर में किसान संघ से जुड़े सिख किसान प्रदर्शन कर रहे थे।
सिख किसानों की भूख-प्यास की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेते हुए वहां के मुसलमानों ने लंगर लगाना शुरू कर दिया। मुसलमानों ने अपने सिख भाइयों का कर्ज अदा नहीं किया बल्कि वही काम किया जो इस मुल्क के जिंदा नागरिकों को करना चाहिए, शाहीनबाग के समय सिख कर रहे थे, किसान आंदोलन के समय मुसलमान कर रहे हैं।
इससे कुछ दिन पहले आपने एक खबर पढ़ी होगी जब मुस्लिमों का एक जत्था 300 च्ंिटल अनाज लेकर सिख गुरुद्वारे पहुंचा था। वह जगह भी मलेरकोटला ही थी। 1947 में जब धर्मिक नफरत अपने चरम पर थी, उस दौर में भी मलेरकोटला में कोई दंगे नहीं हुए, जबकि विभाजन के समय पंजाब सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में से एक था चूंकि पंजाब की सीमा पाकिस्तान से मिलती है। यहां के मुस्लिम बाहुल्य परिवारों ने रहने के लिए अपने ही मुल्क हिंदुस्तान को चुना।
लॉकडाउन के समय सिख गुरुद्वारों ने मुस्लिम मजदूरों की मदद की थी, इसकी भी खबरें आपको पढऩे को मिल जाएंगी। आज हिन्दू-मुस्लिम बहसों का माहौल इतना घृणाजनक है कि ऐसी तस्वीरें राहत देती हैं, कई बार हैरान करती हैं जबकि ये हैं एकदम सामान्य। पूरे देश को मलेरकोटला से सीखना चाहिए। यहां के मुस्लिमों से पूरी दुनिया के मुस्लिमों को सीखना चाहिए। यहां के सिखों से इस मुल्क की बहुसंख्यक आबादी को सीखना चाहिए। हिंदुस्तान मुम्बई की बड़ी बड़ी इमारतों से सुंदर नहीं है, हिंदुस्तान क्रिकेट में जीती ट्रॉफियों से सुंदर नहीं है, हिंदुस्तान अपनी खूबसूरती की कहानियां इन दो चार तस्वीरों से लेता है। आप किसी भी विदेशी से कहिए क्या अच्छा लगता है हिंदुस्तान में? तो जवाब होगा ‘कल्चर’
कल्चर जो साझी विरासत है, कल्चर जिसकी बलखायी फिजाओं में हिन्दू और मुसलमान सांस लेते हैं। लेकिन याद रखिए अगर ये तस्वीरें आपको चुभ रही हैं
तो कोई ऐसा है जो आपको हिंदुस्तान की गलत मीनिंग सिखा रहा है, कोई है जो आपको गलत मतलब सिखा रहा है, ऐसा आदमी इस मुल्क के भले का नहीं, इन लोगों को पहचानिए, जिन्होंने धर्म की इतनी मोटी परत आपके मस्तिष्कों पर चढ़ा दी है कि एक नेता का समर्थन करते करते आप किसान विरोधी हो गए हैं।
मुझे मालूम है मीडिया ने आपके प्रदर्शन की तस्वीरें नहीं दिखाईं, मुझे मालूम है जिस मीडिया ने दीपिका के पीछे 4-4, 5-5 रिपोर्टर छोड़े हुए हैं उसने आपकी चिंताएं, आपके प्रदर्शन कवरेज करने के लिए एक भी रिपोर्टर नहीं भेजा। फिर भी सोशल मीडिया तो अपनी है, हम तो इसे अपने लोगों तक पहुंचा सकते हैं। मैं अपना काम कर रहा हूँ, आप अपना काम करते रहिए।
एक किसान के पास अब निवेश के लिए आधार पूंजी भी नहीं है और न ही उसमें कृषि क्षेत्र में वापस जाने के लिए जोखिम लेने की क्षमता है
- Richard Mahapatra
अशोक दलवाई के नेतृत्व में बनी “द कमेटी ऑन डबलिंग फार्मर्स इनकम” की पहली रिपोर्ट में 100 विशेषज्ञों के रिसर्च और इनपुट का उपयोग किया गया थी। इस रिपोर्ट में कहा गया कि 2004-2014 के दौरान देश के कृषि क्षेत्र में सर्वाधिक विकास हुआ। रिपोर्ट इसे सेक्टर का “रिकवरी फेज” कहती है। ये एक ऐसा शब्द है, जो इसे ऐतिहासिक बनाता है। ये रिपोर्ट, किसानों की आय दोगुना करने के तरीकों का सुझाव देने से ज्यादा, भारतीय कृषि की हालत पर आंख खोलती है। डाउन टू अर्थ यहां देश की कृषि से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत कर रहा है, जिनकी खबरें आमतौर पर सामने नहीं आतीं
किसान घटे, कृषि मजदूर बढ़े
कोई भी राष्ट्र अपनी कृषि और किसानों से समझौता नहीं कर सकता और भारत जैसे देश में तो बिल्कुल भी नहीं। भारत में, जहां 1951 में 70 मिलियन (7 करोड़ परिवार) हाउसहोल्ड (घर) कृषि से जुड़े हुए थे, वहीं 2011 में ये संख्या 11.9 करोड़ हो गई। इसके अलावा, भूमिहीन कृषि मजदूर भी हैं, जिनकी संख्या 1951 में 2.73 करोड़ थी और 2011 में बढ़कर ये संख्या 14.43 करोड़ हो गई। भारत की इतनी बड़ी आबादी का कल्याण एक मजबूत कृषि विकास रणनीति से ही हो सकती है, जो आय वृद्धि की दृष्टिकोण से प्रेरित हो।
भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए कृषि आजीविका का स्रोत बनी रही। 2014-15 में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इस सेक्टर ने करीब 13 फीसदी का योगदान दिया था। 1971 से कृषि में लगे श्रमिकों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। हालांकि, 2001 से 2011 के बीच किसानों की संख्या में कमी आई है। कृषि मजदूरों की संख्या 107 मिलियन से बढ़कर 144 मिलियन हो गई। इसके विपरीत, कृषि मजदूरों की संख्या 2004-05 के 92.7 मिलियन से घटकर 2011-12 में 78.2 मिलियन हो गई। ये दर्शाता है कि प्रति वर्ष लगभग 22 लाख कृषि मजदूरों ने इस क्षेत्र को छोड़ दिया। उसी समय, रोजगार और बेरोजगारी पर एनएसएसओ सर्वेक्षण के अनुसार, 2004-05 से 2011-12 के दौरान खेती करने वालों की संख्या प्रति वर्ष 1.80 प्रतिशत की दर से घटती गई। 1967-71 के बाद, हाल के दशक में कृषि में लगे किसानों की संख्या में नकारात्मक वृद्धि देखी गई, जिससे यह संकेत मिलता है कि लोग खेती से दूर जा रहे हैं।

किसानों की आय 7 रुपये प्रति माह
गैर-कृषि मजदूर, किसान से तीन गुना अधिक कमाता है
आइए, भारत में एक किसान की आय को देखें। “रिकवरी फेज” के दौरान भी, एक कृषक परिवार का एक सदस्य लगभग 214 रुपये प्रति माह कमाता था। लेकिन, उसका खर्च करीब 207 रुपये था।
सरल भाषा में कहें तो एक किसान की डिस्पोजल मासिक आय 7 रुपए थी। 2015 के बाद से, भारत में दो भयंकर सूखे पड़े। बेमौसम बरसात से और अन्य संबंधित घटनाओं के कारण फसल बर्बाद होने की लगभग 600 घटनाएं हुईं। और अंत में बंपर फसल के दो साल के दौरान किसानों को उचित कीमत ही नहीं मिली।
इसका मतलब है कि एक किसान के पास अब निवेश के लिए आधार पूंजी भी नहीं है और न ही उसमें कृषि क्षेत्र में वापस जाने के लिए जोखिम लेने की क्षमता है। इससे संकट में बढ़ोतरी हुई, जिसने असंतोष को और अधिक बढ़ा दिया।
अक्सर यह महसूस किया जाता है कि कृषि आय और गैर-कृषि आय के बीच असमानता बढ़ रही है और जो लोग कृषि क्षेत्र से बाहर काम करते हैं, वे उन लोगों की तुलना में बहुत तेजी से प्रगति कर रहे हैं, जो कृषि क्षेत्र में काम करते हैं। 1983-84 में एक मजदूर की कमाई से तीन गुना अधिक किसान कमाता था। एक गैर-कृषि मजदूर उन किसानों या उसके परिवार के सदस्यों द्वारा कमाई गई आय से तीन गुना अधिक कमाता था, जो मुख्य रूप से कृषि से जुड़े हुए थे।
हाल के इतिहास में पहली बार, अपेक्षाकृत अमीर किसान अपने उत्पादों के बेहतर मूल्य के लिए सड़क पर विरोध कर रहे थे। दलवाई समिति की रिपोर्ट बताती है कि मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए, खाद्यान्न आयात करने की सरकार के कदम ने घरेलू किसानों के बाजार को कमजोर किया है। भारत का कृषि उत्पादन का निर्यात कम हो गया है। यह 2004-2014 के दौरान, पांच गुना वृद्धि दर्ज करते हुए 50,000 करोड़ रुपए से बढ़कर 260,000 करोड़ रुपए हो गया था। एक साल में, यानी 2015-16 में ये 210,000 करोड़ रुपए तक आ गया। इसका अर्थ है कि बाजार को 50,000 करोड़ रुपए का संभावित नुकसान हुआ।
दूसरी ओर, कृषि आयात में लगातार वृद्धि दर्ज की गई। यह 2004-5 में 30,000 करोड़ रुपए था, जो 2013-14 में बढ़कर 90,000 करोड़ रुपए हो गया। यह यूपीए-2 सरकार का अंतिम साल था। 2015-16 में, यह बढ़कर 150,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया।
करीब 22 प्रतिशत किसान गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। किसानों की आय में गिरावट को देखते हुए, आय दोगुना करने का वादा “न्यू इंडिया” के लिए एक और भव्य योजना नहीं होनी चाहिए, क्योंकि कृषि विकास ही किसानों की गंभीर गरीबी कम करने का काम कर सकता है।

बागवानी: मुख्य संचालक
अपने उत्पाद को बेचने में सक्षम नहीं होना ही किसानों की सबसे बड़ी पीड़ा है
लगातार छह साल तक, बागवानी (फल और सब्जियां) उत्पादन अनाज उत्पादन से आगे रहा है। हाल के समय में, बागवानी का उदय, कृषि विकास का एक कम स्वीकार्य पहलू रहा है। विशेषकर 2004-14 के उच्च विकास चरण के दौरान। हालांकि यह सिर्फ खेती के 20 प्रतिशत हिस्से को ही कवर करता है, लेकिन यह कृषि जीडीपी में एक तिहाई से भी ज्यादा का योगदान देता है। पशुधन के साथ, कृषि के इन दो उपक्षेत्रों में वृद्धि जारी रही है और ये अधिकतम रोजगार भी दे रहे हैं। देश में फलों और सब्जियों का उत्पादन, खाद्यान्न से आगे निकल गया है। कृषि मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक बयान में कहा गया है कि वर्ष 2016-17 (पूर्वानुमान) के दौरान 300.6 मिलियन टन बागवानी फसलों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ, जो पिछले वर्ष की तुलना में 5 प्रतिशत अधिक है।
बागवानी किसानों की सबसे बड़ी चुनौती बिक्री और फसल होने के बाद में होने वाली हानि (बर्बादी) है। इससे यह किसानों के लिए कम आकर्षक सेक्टर बन जाता है। हालांकि, सरकार ये बात गर्व के साथ कहती है कि भारत दुनिया में सब्जियों और फलों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है, लेकिन यहां ध्यान दिया जाना चाहिए कि फसल पैदा होने के बाद होने वाली बर्बादी की वजह से फल और सब्जियों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता काफी कम है। फल और सब्जियों की बर्बादी कुल उत्पादन का लगभग 25 से 30 प्रतिशत होता है।
फल और सब्जियों की ये बर्बादी कोल्ड चेन (शीत गृह) की संख्या में कमी, कमजोर अवसंरचना, अपर्याप्त कोल्ड स्टोरेज क्षमता, खेतों के निकट कोल्ड स्टोरेज का न होना और कमजोर परिवहन साधन की वजह से होती है। किसानों की आय दोगुना करने के लिए बनी कमेटी के मुताबिक, “अखिल भारतीय स्तर पर, किसानों को 34% फल, 44.6%,सब्जियां और 40 फीसदी फल और सब्जी के लिए मौद्रिक लाभ नहीं मिल पाता है। यानी, इतनी मात्रा में फल और सब्जियां किसान बेच नहीं पाते या बर्बाद हो जाती है।”
इसका मतलब है कि हर साल, किसानों को अपने उत्पाद नहीं बेच पाने के कारण 63,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो जाता है, जिसके लिए उन्होंने पहले ही निवेश किया होता है। इस चौंकाने वाले आंकड़े को ऐसे समझ सकते है कि यह राशि फसल कटाई के बाद होने वाली बर्बादी से बचने के लिए आवश्यक कोल्ड चेन अवसंरचना उपलब्ध कराने के लिए जरूरी निवेश का 70 प्रतिशत है। यह किसानों द्वारा किए जा रहे व्यापक विरोध प्रदर्शन की व्याख्या करता है। मिर्च, आलू और प्याज की कम कीमत इसके पीछे प्रमुख कारणों में से एक थी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक, 2014 में जहां 628 कृषि से जुड़े प्रदर्शन हुए थे, वहीं 2016 में इसमें 670 फीसदी बढ़ोतरी हुई और ये संख्या बढ़कर 4,837 हो गई थी।
दोगुनी आय: एक नया सौदा
कृषि योग्य भूमि का 60 प्रतिशत हिस्सा बारिश पर निर्भर
2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे महत्वाकांक्षी राजनीतिक वादा है। लेकिन दलवाई समिति की रिपोर्ट के निष्कर्षों को देखते हुए, यह एक मुश्किल चुनौती प्रतीत होती है, हालांकि यह संभव है। इन रिपोर्टों के अनुसार, इसमें कृषि के लिए बड़े पैमाने पर निजी और सार्वजनिक खर्च को शामिल किया गया है, जिसने लगातार कम निवेश नहीं देखा है। कृषि से कम होती आय के कारण, किसान इस आजीविका को छोड़ रहे हैं। इसलिए, पहले उन्हें खेतों तक वापस लाया जाना चाहिए और फिर आय बढ़ाने के लिए काम किए जाने चाहिए, ताकि वे खेती जारी रखें।
नीति आयोग के अर्थशास्त्री रमेश चंद, एसके श्रीवास्तव और जसपाल सिंह ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन और रोजगार सृजन पर इसके प्रभावों पर एक चर्चा पत्र जारी किया था। इस पत्र के अनुसार, 1970-71 से 2011-12 के दौरान, “भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था 2004-05 की कीमतों पर 3,199 खरब रुपये से बढ़कर 21,107 खरब हो गई।” यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सात गुना वृद्धि थी। अब इस वृद्धि की तुलना रोजगार वृद्धि के साथ करें। इसी अवधि में ये 19.1 करोड़ से बढ़कर 33.6 करोड़ हो गई। दलवाई समिति की रिपोर्ट में कहा गया है, “किसानों की आय को दोगुनी करने की रणनीति के तहत मुख्य रूप से खेती की व्यवहार्यता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. इसलिए, इस रणनीति का उद्देश्य कृषि आय का अनुपात गैर-कृषि आय के 60 से 70 प्रतिशत मौजूदा दर को बढ़ाना चाहिए।” इसी के साथ, इस विकास रणनीति को समानता पर भी ध्यान देना चाहिए, जैसे कम विकसित क्षेत्रों में उच्च कृषि विकास को बढ़ावा देना, जिसमें बारिश पर निर्भर क्षेत्रों सहित, सीमांत और छोटे भूमि धारक भी शामिल हों।
भारत की खेती योग्य भूमि का 60 प्रतिशत हिस्सा बारिश पर निर्भर है और इन्हीं क्षेत्रों में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं और इन्हें सूखे का सामना करना पड़ रहा है। ये वो क्षेत्र है, जहां सरकार वर्तमान में हरित क्रांति 2 को क्रियान्वित कर रही है।
छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले की लक्ष्मी साहू का कहना है कि उनके पति ने जून 2017 को आत्महत्या कर ली। क्योंकि वह 4.48 लाख रुपए का कृषि ऋण चुकाने में असमर्थ थे (पुरुषोत्तम ठाकुर)

प्रदर्शनों से निपटने का तरीका
मध्य प्रदेश के मंदसौर में पिछले साल भड़की गुस्से की चिंगारी अभी शांत नहीं हुई है। मंदसौर की जमीन राज्य के बाकी जिलों से उपजाऊ हैं और यहां के किसान दूसरे जिलों की तुलना में संपन्न हैं। 6 जून 2017 को किसानों के उग्र प्रदर्शन को दबाने के लिए पुलिस ने गोलियां चला दीं जिसमें छह लोगों की मौत हो गई। प्रदर्शनकारी किसान कर्ज माफी और अपनी उपज के सही दाम की मांग कर रहे थे। बंपर उत्पादन के बाद प्याज के दाम गिरने और खरीदार न मिलने पर किसानों ने यह प्रदर्शन किया था। पुलिस की गोली से मारे गए लोगों में बरखेड़ा पंत गांव के अभिषेक पाटीदार भी शामिल थे।
मौके पर अभिषेक के 30 वर्षीय भाई मधुसूदन भी थे। वह बताते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 14 जून को सांत्वना देने उनके घर आए थे। उन्होंने परिवार के सदस्यों को नौकरी और फायरिंग करने वाले पुलिसवालों पर मुकदमा दर्ज करने का आश्वासन दिया था। लेकिन अब तक न तो पुलिसवालों पर कार्रवाई हुई है और न ही परिवार के किसी सदस्य को नौकरी दी गई है। अभिषेक के 80 वर्षीय दादा भवरलाल पाटीदार कहते हैं “कोई दूसरी सरकार किसानों पर गोली नहीं चलाती। प्रदर्शन के छह महीने बाद भी किसानों के मुद्दे अनसुलझे हैं।”
मध्य प्रदेश क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एमपीआरसीबी) के अनुसार, पिछले 15 साल में राज्य में 18,000 किसानों ने खुदकुशी की है। फरवरी 2016 से फरवरी 2017 के बीच करीब 2,000 किसान और खेतीहर मजदूर राज्य में आत्महत्या कर चुके हैं। 2013-14 को छोड़कर पिछले 15 साल में हर साल सामान्य से कम बारिश दर्ज की गई है। इससे किसान बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। पिछले एक साल के दौरान राज्य में किसानों के 25 से ज्यादा विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं। मीडिया में आई खबरों की मानें तो मंदसौर गोलीकांड के बाद 160 किसान आत्महत्या कर चुके हैं जबकि 27 ने जान देने की कोशिश की है।
कक्काजी बताते हैं “जब शिवराज सिंह चौहान पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब राज्य के कुल किसानों पर 2,000 करोड़ रुपए का कर्ज था। आज यह बढ़कर 44,000 करोड़ रुपए हो गया है।”
गैर राजनीतिक संगठन आम किसान यूनियन के संस्थापक केदार सिरोही मध्य प्रदेश में किसानों के हित में काम कर रहे हैं। उनका कहना है “सरकार दावा करती है कि उसने किसानों के हित में कुछ कदम उठाए हैं। लेकिन तथ्य यह है कि किसानों का व्यापारियों और नौकरशाहों द्वारा शोषण किया जा रहा है।” फसलों के दाम में उतार-चढ़ाव का देखते हुए राज्य सरकार ने भावांतर योजना शुरू की है। मध्य प्रदेश कृषि विभाग में प्रमुख सचिव राजेश राजौरा बताते हैं, “अगर फसल का विक्रय मूल्य एमएसपी से कम रहता है तो इसके अंतर की भरपाई सरकार करेगी।
यह अंतर सीधा किसान के खाते में भेज दिया जाएगा।” राजौरा बताते हैं कि इससे किसान को अपनी फसल का उचित मूल्य मिलेगा। करीब 40 प्रतिशत किसानों ने योजना के तहत पंजीकरण करा लिया है। वह बताते हैं कि तिलहन और दलहन समेत आठ फसलों का भुगतान सरकार करेगी। बागवानी की फसलों को भी इस योजना के दायरे में लाया जाएगा।
कक्काजी बताते हैं “सरकार भावांतर योजना के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है लेकिन इसके लागू होने के बाद फसलों के दाम 400 प्रतिशत तक गिर गए हैं। जो उड़द 5,500 रुपए प्रति क्विंटल बिक रही थी वह योजना लागू होने के बाद 1,000 रुपए प्रति क्विंटल बिक रही है। चना और मूंग भी सस्ती हो गई है। सरकार ने जिन फसलों की खरीद की है, उसके दाम भी अब तक नहीं मिले हैं। यह योजना मंडी एक्ट का सरासर उल्लंघन है।
सीएम के खिलाफ हमने उच्च न्यायालय में केस किया है।” वह बताते हैं, “प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के बाद किसान 10 से 15 गुणा कर्जदार हो गया है। यही वजह है कि मध्य प्रदेश में किसान आत्महत्या की दर में तेजी
से बढ़ोतरी हो रही है।” कक्काजी ने बताया कि राष्ट्रीय किसान महासंघ के तहत आंदोलन में शामिल हुए संगठनों की केवल दो ही मांगें हैं। पहली, किसानों को उसकी फसल लागत का 50 प्रतिशत लाभकारी मूल्य और दूसरी, पूरे देश के किसानों को ऋण मुक्ति।
चिंता की बात यह भी है कि पिछले साल दिसंबर में क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने अनुमान लगाया है कि सामान्य मानसून और अत्यधिक पैदावार के कारण आगे भी किसानों को इच्छानुसार दाम नहीं मिलेंगे। यानी किसानों की नाराजगी कम होने के बजाय बढ़ेगी और कृषि संकट चुनावी मुद्दा बनेगा। कुछ समय पहले किसान संगठनों ने वित्त मंत्री अरुण जेटली से मिलकर कुछ आंकड़े सौंपे हैं, मसलन एक किसान की दैनिक आमदनी महज 50 रुपए है। इन संगठनों ने चेता भी दिया है कि किसान इस भ्रम में नहीं है कि सरकार उनके बारे में सोच रही है। किसानों की चेतावनी बताती है कि बीजेपी के लिए आगे का रास्ता बेहद मुश्किल है।
किसानों ने क्यों नकारा गुजरात मॉडल
मोहम्मद कलीम सिद्दीकी
गुजरात में बीजेपी को किसानों की नाराजगी का खामियाजा विधानसभा चुनावों में उठाना पड़ा। दरअसल जिस गुजरात मॉडल का बीजेपी ढोल पीट रही है, उसे किसानों ने सबसे अधिक खारिज किया। इसकी वजह भी है। गुजरात की मुख्य फसल कपास और मूंगफली है। गुजरात खेडूत समाज के महासचिव सागर रबारी के अनुसार, राज्य सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बहुत कम मात्रा में खरीदी करती है। किसान को तुरंत पैसों की आवश्यकता होती है, लेकिन सरकार चेक से पैसे देती है जो समय पर नहीं मिल पाता। इस कारण किसान खुले बाजार में नुकसान में ही बेचकर चला जाता है।
भावनगर के गरियाधार के किसान रमेश भाई वल्लभ भाई वीरानी बताते हैं कि आज भी सिंचाई बारिश आधारित है। बारिश देर सवेर होने पर किसानों का नुकसान होता है। मूंगफली का न्यूनतम समर्थन मूल्य 900 रुपये प्रति 20 किलो और खुले बाजार में 700 रुपये के भाव में लागत नहीं मिल पाती। यदि 1400-1500 का भाव मिले तो किसान को लाभ होगा। सरकार 10 से 15 प्रतिशत सिर्फ दिखावे के लिए खरीदी करती है। रमेश भाई मानते हैं कि इस वर्ष कपास की खेती अच्छी हुई है। पाकिस्तान और चीन में मांग बढ़ने के कारण किसानों को कपास का भाव 5,200 रुपये तक मिला जबकि इस वर्ष कपास न्यूनतम समर्थन मूल्य 4,200 रुपये प्रति क्विंटल था।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, गुजरात में 1998 से 2010 तक दस हजार से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। क्रांति संस्था के भरत सिंह झाला को आरटीआई के माध्यम से मिली जानकारी के अनुसार, गुजरात में वर्ष 2003–2007 के दरमियान 2479 किसानों ने आत्महत्या की थी। 2008–12 के बीच 152 और 2013–16 के बीच 89 किसान आत्महत्या के केस दर्ज हुए। गुजरात में हो रही किसानों की आत्महत्या लेकर क्रांति संस्था ने जुलाई 2014 में गुजरात हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। याचिका में आत्महत्या रोकने के लिए नीति बनाए जाने की मांग की गई थी जिसे गुजरात हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया।
उसके बाद क्रांति संस्था सुप्रीम कोर्ट गई। 27 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सहित अन्य राज्यों को भी किसान आत्महत्या रोकने के लिए 6 हफ्तों के भीतर नीति बनाने का आदेश दिया लेकिन अब तक किसी भी राज्य या केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल नहीं किया। भरत सिंह झाला कहते हैं मोदी सरकार को तीन तलाक पर कानून बनाने की जल्दी है परन्तु किसानों की आत्महत्या दिखाई नहीं देती।
इसी वर्ष फरवरी में सानंद के 32 गांव के 4-5 हजार किसान नर्मदा का पानी किसानों को न देकर उद्योग को दिए जाने के खिलाफ सानंद से गांधीनगर तक पैदल मार्च कर रहे थे लेकिन उपरथल गांव के पास ही पुलिस ने बल उपयोग कर उन्हें रोक दिया। लाठी चार्ज में सैकड़ों किसान घायल भी हुए थे। 22 किसानों को धारा 307 के तहत गिरफ्तार कर मुकदमा भी दर्ज किया था।
गुजरात में आदिवासियों की जनसंख्या 15 प्रतिशत है। इनकी मुख्य समस्या जल, जंगल और जमीन के अलावा नेताओं और प्रशासन के सहयोग से आदिवासी इलाकों में चलने वाली चिट फंड कंपनियों द्वारा गरीब बेरोजगार आदिवासियों को लूटे जाने का है। आदिवासी किसान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष रोमेल सुतारिया ने 22,000 चिट फंड पीड़ित आदिवासियों की सूची गुजरात पुलिस सूरत रेंज के आईजी ज्ञानेंद्र सिंह मलिक को सौंपी है लेकिन अब तक संतोषजनक कार्रवाई नहीं हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी के कारण ही चिट फंड कंपनियों को फलने-फूलने का मौका मिलता है।
उड़ीसा स्थित सामाजिक कार्यकर्ता आलोक जेना ने सुप्रीम कोर्ट में 78 चिट फंड कंपनियों के खिलाफ जनहित याचिका दायर की थी। 78 में से 17 गुजरात की थी। दरअसल, गुजरात मॉडल में लाभार्थी वर्ग ही सुखी संपन्न है, अन्य वर्ग पीड़ित हैं। इन पीड़ितों की उपेक्षा के चलते ही भारतीय जनता पार्टी दहाई के आंकड़े पर सिमट गई है।
(लेखक इंसाफ फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं)(downtoearth)
संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुके तीनों कृषि विधेयकों के बारे में कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा ने विस्तृत जानकारी दी
- Raju Sajwan
20 सितंबर 2020 को रविवार के दिन संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा ने तीन कृषि विधेयकों को मंजूरी दे दी। लोकसभा पहले ही इसे मंजूरी दे चुकी है। ये तीनों विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद कानून बन जाएंगे। जहां सरकार लगातार दावे कर रही है कि यह बिल किसानों के लिए बहुत फायदेमंद है, लेकिन कई किसान संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। आखिर इन तीन विधेयकों में क्या है, यह समझने के लिए डाउन टू अर्थ के राजू सजवान ने कृषि अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा से बात की-
जो कानून बनकर आ रहे है। सरकार का मकसद स्पष्ट है कि किसान की आमदनी बढ़े, उनकी समृद्धि बढ़े। कृषि क्षेत्र में निजी निवेश आए, नई टेक्नोलॉजी आए। प्रोसेसिंग इंडस्ट्री निवेश करे। सरकार चाहती है कि निजी क्षेत्र खेती में उत्पादन से लेकर मार्केटिंग तक न केवल निवेश बढ़ाए, बल्कि नई तकनीक का इस्तेमाल करे। यह दावा किया जा रहा है कि इससे किसानों को अपनी उपज की ऊंची कीमत मिलेगी और उनकी आमदनी बढ़ेगी।
हम तो चाहेंगे कि यह सच हो, क्योंकि किसान भी सालों से इसी बात को लेकर संघर्ष कर रहे हैं कि उनकी आमदनी और उनकी उपज की सही कीमत उन्हें मिले।
लेकिन यह एक बड़ी चुनौती है। अब तक यह बताया जा रहा है कि प्राइवेट सेक्टर ही किसान को सही कीमत दे सकता है और किसान को इसका फायदा मिलेगा। लेकिन इसके दो तीन पहलुओं पर बात करनी जरूरी है। यह बात किसानों को भी समझनी चाहिए, देश के हर नागरिक को भी समझनी चाहिए और नीतियां बनाने वाले लोगों को भी समझनी चाहिए।
पहले बिल कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक, 2020 की बात करते हैं।
अगर हम दुनिया भर में देखें तो ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता कि मार्केट रिफॉर्म्स की वजह से किसानों को फायदा हुआ हो। क्योंकि अमेरिका और यूरोप में कई दशकों पहले ओपन मार्केट के लिए कृषि उत्पादों को खोल दिया गया था। और अगर ओपन मार्केट इतनी अच्छी होती और किसानों को फायदा दिया होता तो अमीर देश विकसित देश कृषि को जीवित रखने के लिए भारी सब्सिडी दी जाती है।
2018 की बात करें तो अमेरिका और यूरोप में 246 बिलियन डॉलर की सब्सिडी किसानों को दी गई। अकेले यूरोप में देखें तो 100 बिलियन डॉलर की सब्सिडी दी गई। जिसमें तकरीबन 50 फीसदी डायरेक्ट इनकम सपोर्ट दी जाती है। और अमेरिका की बात की जाए तो अध्ययन बताते हैं कि अमेरिका के एक किसान को औसतन लगभग 60 हजार डॉलर सालाना सब्सिडी दी जाती है। यह सिर्फ औसत है, जबकि वैसे देखा जाए तो किसानों को और भी सब्सिडी दी जाती है। इसके बावजूद भी अमेरिका के किसान बैंकों के दिवालिया है, यह राशि लगभग 425 बिलियन डॉलर है।
अगर मार्केट इतनी अच्छी होती तो अमेरिका के ग्रामीण क्षेत्रों में आत्महत्याओं की दर नहीं बढ़ती। यहां शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में 45 फीसदी अधिक आत्महत्याएं होती हैं। दुनिया भर के अखबार बताते हैं कि अमेरिका में किस तरह धीरे-धीरे कृषि खत्म होती जा रही है।
मेरा यह कहना है कि अमेरिका में ओपन मार्केट के 6-7 दशक बाद कृषि पर निर्भर आबादी घटकर 1.5 फीसदी रह गई है तो हमें इस पर दोबारा चिंतन करना चाहिए कि क्या वो मॉडल जो अमेरिका और यूरोप में फेल हो चुका है, भारत के लिए उपयोगी रहेगा और भारत के किसानों के लिए फायदेमंद रहेगा।
यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर के चीफ इकोनॉमिस्ट का कहना है कि 1960 के दशक के बाद से अमेरिका के किसानों की आमदनी लगातार घट रही है। इसलिए किसानों को सब्सिडी देनी पड़ रही है तो यह मॉडल कैसे भारत के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इतना ही नहीं, अगर एक्स्पोर्ट की बात की जाए तो अगर सब्सिडी हटा दी जाए तो अमेरिका, यूरोप और कनाडा का एक्सपोर्ट 40 फीसदी तक घट जाएगा। इसका मतलब यह है कि केवल उत्पादन ही नहीं, बल्कि एक्सपोर्ट भी गिर जाएगा।
यहां तक कि भारत में भी एक प्रयोग किया जा चुका है। 2006 में बिहार में एपीएमसी (एग्री प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) भंग कर दी गई और कमेटी की मंडियों को हटा दिया गया। कहा गया कि इससे प्राइवेट इंवेस्टमेंट आएगी। पब्लिक सेक्टर बिल्कुल हट जाएगा। प्राइवेट मंडिया आएंगी और उससे प्राइस रिक्वरी होगी (यह टर्म अकसर देश के अर्थशास्त्री इस्तेमाल करते हैं)। प्राइस रिक्वरी का मतलब है कि किसानों को ज्यादा दाम मिलेगा।
उस समय यह कहा जा रहा था कि बिहार में क्रांति आ जाएगी और बिहार पूरे देश के लिए एक उदाहरण बन जाएगा। यह भी कहा गया कि अब पंजाब भूल जाएंगे और कृषि क्षेत्र के लिए बिहार देश का एक नया मॉडल साबित होगा। 14 साल हो चुके हैं, क्या ऐसा हुआ? जिन अर्थशास्त्रियों ने उस समय इस बात को प्रमोट किया था। वो आज आकर क्यों नहीं बताते कि इस रिफॉर्म से बिहार को क्या फायदा पहुंचा।
कोविड-19 महामारी के समय में यह स्पष्ट दिखाई दिया कि बिहार जैसे राज्य के लोग बड़ी संख्या में प्रवास के लिए मजबूर हैं। बिहार के किसान पंजाब जाकर काम करते हैं, क्या आपने सुना कि पंजाब के किसान बिहार जाकर काम कर रहे हों? कहने का आशय है कि 2006 में अगर एपीएमसी मंडियां न हटाई जाती, बल्कि बिहार में मंडियों का नेटवर्क उसी तरह विकसित किया जाता, जिस तरह पंजाब में किया जाता तो आज बिहार के हालात ऐसे नहीं होते।
अब बात करते हैं दूसरे बिल कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 की
किसानों का कहना है कि अगर कांट्रेक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया गया कि वे कंपनियों के अधीन हो जाएंगे और अपनी ही जमीन पर वे गुलाम हो जाएंगे। यह बात कुछ हद तक सही है, लेकिन मेरा यह कहना है कि किसानों को यह कहा जा रहा है कि कांट्रेक्ट पांच साल के लिए होगा और एडवांस में ही किसान को यह बता दिया जाएगा कि उसे इनकम कितने मिलेगी। यह दोनों बातें अपनी जगह सही हैं, लेकिन अगर किसान को एमएसपी से कम कीमत मिलती है तो इससे किसान का क्या फायदा होगा? इसलिए इस कानून में यह भी व्यवस्था होनी चाहिए कि किसान को एमएसपी से कम कीमत नहीं दी जाएगी।
लेकिन इससे हट कर देखा जाए तो हमारे देश में एक प्रयोग करने का सही समय आ गया है। मैं बहुत साल यह बात कहता रहा हूं कि अगर हम दूध में कॉपरेटिव का सिस्टम ले सकते हैं और वह मॉडल पूरी तरह से सफल रहता है तो क्यों नहीं हम खाद्यान्न, फल, सब्जियों में एक कॉपरेटिव सिस्टम लेकर आ सकते हैं। लेकिन हमारे देश में तो कॉपरेटिव्स को तोड़ने की कोशिश की जाती रही है। इस बात से वर्गीज कूरियन बहुत नाराज थे।
यह हम भी जानते हैं कि इन्हें क्यों तोड़ा जा रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि कॉपरेटिव को बढ़ावा देना चाहिए। इन कॉपरेटिव्स में किसानों का नियंत्रण होगा। उन्हें किसी कंपनी पर निर्भर नहीं रहना होगा। अगर किसान इकट्ठा होकर काम करते हैं तो किसान अपनी उपज का मोल भाव करने की भी स्थिति में होंगे। और अगर इसे एमएसपी के साथ लिंक कर दिया जाता तो ये कॉपरेटिव देश को एक नई दिशा दिखा सकते हैं। वर्गीज कूरियन ने दूध के संकट से निकलने का रास्ता दिखाया था, इसी तरह खेती के संकट से भी कॉपरेटिव्स निकाल सकती हैं।
बेशक सरकार इन दिनों फार्मर्स प्रोड्यूसर एसोसिएशन (एफपीओ) बनाने की बात करती है, लेकिन मेरा मानना है कि कॉपरेटिव ही कॉपरेटिव ही रहती हैं। एफपीओ में भी बहुत सारी खामियां हैं। इस तरह की भी शिकायतें हैं कि आढ़तियों ने ही एफपीओ बना लिए हैं। कई सरकारी अधिकारियों ने एफपीओ बना लिए हैं। लेकिन अगर एफपीओ भी किसान को उचित दाम (एमएसपी) नहीं दिला पाता तो उनका कोई फायदा नहीं। यह कहा जाता है कि एफपीओ किसान को ज्यादा दाम देंगे, लेकिन ज्यादा का मतलब क्या?
अगर ये एफपीओ बाजार में मिल रहे कम दाम में कुछ बढ़ा कर किसान को देते हैं, लेकिन तब भी एमएसपी से कम कीमत किसान को मिलती है तो किसान को नुकसान होना तय है। मेरे सामने दो उदाहरण हैं कि जिन एफपीओ ने एमएसपी पर खरीदारी की थी, लेकिन वे दोनों अब नुकसान में हैं। एफपीओ के नाम पर अगर एक मिडल मैन खड़ा किया जा रहा है तो उसे स्वीकार कैसे किया जा सकता है।
तीसरा बिल है, आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम
जैसे ही मैं इस बिल के बारे में सोचता हूं तो मुझे मदर इंडिया फिल्म की याद आ जाती है। जब यह फिल्म देखी तो कन्हैया कुमार की भूमिका एक विलेन के रूप में दिखाई दी, लेकिन अब जब यह नया कानून आया है तो मुझे लगता है कि कन्हैया लाल की क्या गलती थी। वो भी तो होल्डिंग ही करता था। अगर यह कानून पहले ही लागू हो जाता था तो हम कन्हैया लाल को विलेन नहीं मानते। बल्कि उन्हें आर्थिक प्रगति को घोतक मानते।
अब देखिए, अगर ये बड़े-बड़े रिटेलर जैसे वालमार्ट, टेस्को आदि अमेरिका के किसानों को सही कीमत दे रहे होते तो अमेरिका का किसान कर्ज में क्यों डूबता या खेती क्यों छोड़ता। क्या हम यह कह सकते हैं कि भारतीय कंपनियों का हृदय परिवर्तन हो गया है या उन्हें नया हृदय लगा लिया है। ऐसा मुझे तो दिखता। लेकिन यह कानून लागू होने के बाद किसान को तो दाम नहीं मिलने वाला, क्योंकि जब किसी एक बड़ी कंपनी का एकाधिकार हो जाएगा तो वह अपनी मनमानी कीमत पर कृषि उपज खरीदेगी, जिसका नुकसान किसान को झेलना पड़ेगा, लेकिन किसान के अलावा यदि आम उपभोक्ता या मिडल क्लास पर इसका असर पड़ेगा, जो कि पड़ना तय है, क्योंकि बड़ी कंपनियां जितना मर्जी उपज खरीदकर होल्ड कर लेंगे तो महंगाई बढ़ना तय है। ऐसे में मिडल क्लास अब किसान को दोष नहीं दे सकेगा। कुछ ऐसा ही इन दिनों कर्नाटक में हो रहा है, जिसकी वजह से प्याज के दाम बढ़े हुए हैं।
यहां एक बात जानना जरूरी है कि 2005 में सरकार एपीएमसी एक्ट में एक संशोधन लेकर आई थी। जिसमें बड़ी कंपनियों को यह छूट दी गई थी कि वे सीधे किसान के पास जाकर उपज खरीद सकते हैं। कंपनियों से एपीएसी टैक्स नहीं लिया जाएगा। तब कई बड़ी-बड़ी कंपनियों ने जाकर किसानों से गेहूं खरीदा। उन्होंने इतना खरीद लिया कि सरकार को पीडीएस के तहत राशन देने की दिक्कत हो गई। तब सरकार ने कंपनियों से पूछा कि उनके पास कितना स्टॉक है तो किसी भी कंपनी नहीं बताया। तब सरकार को 5 मिलियन टन गेहूं आयात करना पड़ा था, जो कि हरित क्रांति के बाद का सबसे बड़ा आयात था। बल्कि इसकी जो कीमत दी गई, वो किसानों को दी जाने वाली कीमत से लगभग दोगुनी थी। उस समय भाजपा विपक्ष में थी और भाजपा ने इसकी जांच सीबीआई से कराने की मांग भी की थी। अब समझ नहीं आता कि आखिर भाजपा सत्ता में आने के बाद इस तरह का कानून क्यों बनाना चाहती है। (downtoearth)
- ज़फ़र आग़ा
संसद के बारे में यह सुनते चले आए थे कि यह लोकतंत्र का मंदिर होता है। परंतु भारतीय संसद लोकतंत्र की हत्यास्थली बन जाएगी, ऐसा कभी किसी ने पहले सोचा नहीं था। रविवार 20 सितंबर, 2020 को राज्यसभा में जो कुछ हुआ, उसके बाद अब यह स्पष्ट है कि संसद का उपयोग अब खुले तौर पर लोकतंत्र का गला घोटने के लिए हो रहा है। उस रोज राज्यसभा में कृषि संबंधी विधेयक पास कराने के लिए जो कुछ हुआ, उससे आप अवगत हैं। फिर भी एक बार आपको राज्यसभा में हुई दुर्घटना का घटनाक्रम याद दिला दें, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि नरेंद्र मोदी सरकार ने किस प्रकार लोकतंत्र की हत्या स्वयं भारतीय लोकतंत्र के मंदिर संसद में की।
मोदी सरकार ने खेती-बाड़ी से संबंधित दो अध्यादेश जारी किए थे। एक, मंडियों में रिफॉर्म की खातिर था एवं दूसरा किसानों की अनाज खरीदी में परिवर्तन से संबंधित था। भारतीय किसानों में इसको लेकर गहरी चिंता थी। तब ही तो पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान इन अध्यादेशों के विरुद्ध सड़कों पर निकल पड़े थे।
20 सितंबर, 2020 को सरकार ने इन दोनों अध्यादेशों से संबंधित विधेयक राज्यसभा में लगभग तीन-चार घंटे की बहस के बाद वोटिंग के लिए रखे। इस संबंध में पहले तो विपक्ष ने यह मांग रखी कि बिल को संसद की ‘सेलेक्ट कमेटी’ के पास भेज दिया जाए। उनकी दलील यह थी कि ये बिल सदियों से चली आ रही खेती-बाड़ी की व्यवस्था में मूल परिवर्तन कर देंगे, अतः ये बिल जल्दबाजी में पास नहीं होने चाहिए। परंतु उस समय राज्यसभा में उपस्थित उपसभापति ने यह मांग रद्द कर दी। अब विपक्ष ने यह मांग की कि इस मामले पर ‘डिविजन’ हो, अर्थात वोटिंग हो। परंतु उपसभापति ने मत विभाजन की अनुमति देने के बजाय ध्वनिमत के आधार पर यह कह दिया कि क्योंकि बहुमत कानून के पक्ष में है, अतः बिल पारित घोषित किया जाता है। उनके इस फैसले पर संसद में हंगामा खड़ा हो गया। उससे भी आप अवगत हैं और उस हंगामे के बाद राज्यसभा के आठ सांसद एक हफ्ते के लिए संसद से निलंबित कर दिए गए।
अब प्रश्न यह है कि पिछले कई वर्षों से ऐसा हंगामा संसद में आए दिन होता रहता है और यदि ऐसा फिर एक बार राज्यसभा में हो गया तो उससे लोकतंत्र की हत्या कैसे हो गई! यह मूल प्रश्न है जिसका उत्तर देना आवश्यक है। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि लोकतंत्र का आधार ही वोटिंग प्रक्रिया है क्योंकि वोटके जरिये ही तो बहुमत एवं अल्पमत तय होता है। तब ही हर पांच वर्ष में चुनाव में वोटिंग के आधार पर बहुमत वाली पार्टी या गठबंधन की सरकार बनती है। फिर इसी वोटिंग के आधार पर सरकार संसद के भीतर कानून बनाती है। राज्यसभा के उपसभापति ने उस रोज सदन में लोकतंत्र की इस मूलभूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन नहीं करके लोकतंत्र की पीठ पर छुरा घोंप दिया जबकि संविधान में यह स्पष्ट किया गया है कि सदन में हर बिल वोटिंग के आधार पर पारित होना चाहिए। फिर, स्वयं राज्यसभा की ‘रूल बुक’ के अनुसार, यदि एक भी सांसद किसी मामले पर ‘डिविजन’ अर्थात वोटिंग की मांग करता है तो सदन में वोटिंग अनिवार्य होनी चाहिए।
परंतु ऐसा नहीं हुआ और उपसभापति ने ध्वनिमत के आधार पर खेती-बाड़ी से संबंधित दोनों अध्यादेशों को कानून का रूप दे दिया। स्पष्ट है कि उस समय सदन में सरकार के पास बहुमत नहीं था और सरकार को जल्दी थी कि हर हाल में इसी सत्र में किसी भी प्रकार ‘कृषि रिफॉर्म’ को कानून का रूप दे दिया जाए। अतः सरकार के इशारे पर उपसभापति ने वोटिंग के मूल नियम के बगैर खेती-बाड़ी व्यवस्था में परिवर्तन का कानून पास करवा दिया। बहुत संभव है कि यह कानून बहुमत नहीं बल्कि अल्पमत के आधार पर पास हुआ है। अतः इसको आप स्वयं संसद में लोकतंत्र की हत्या एवं इस कानून को काला कानून नहीं तो और क्या कहेंगे!
मैंने 20 सितंबर, 2020 को राज्यसभा में हुए घटनाक्रम एवं उसके पीछे सरकार की रणनीति के बारे में इतने विस्तार से इसलिए बताया है कि यह समझा जा सके कि मोदी सरकार की असल मंशा क्या है। दरअसल मोदी जी भारतीय अर्थव्यवस्था में रिफॉर्म-2 को पूरा करने की जल्दी में हैं। यह रिफॉर्म-2 असल में क्या है! नरसिंह राव एवं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था में जो रिफॉर्म-1 हुआ था, उसकी बुनियादी मंशा अर्थव्यवस्था का बाजारीकरण करना था। इस प्रक्रिया का एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य था और वह यह था कि जिस मिली-जुली अर्थव्यवस्था का आधार 1950 के दशक में रखा गया था, उस समय संसार दो सुपरपावर- यानी, अमेरिका एवं सोवियत संघ के बीच बंटा हुआ था।
भारतीय स्वतंत्रता के समय संसार में अर्थव्यवस्था के संबंध में दो विचारधाराएं थीं। एक, अमेरिकी पूंजीवाद अर्थात बाजार को संपूर्ण आजादी की विचारधारा और दूसरी सोवियत संघ की समाजवादी अर्थात सोशलिस्ट अर्थव्यवस्था जिसमें हर चीज की मालिक स्वयं सरकार होती थी। भारत ने बीच का रास्ता अपनाया जिसमें पूंजीवाद अर्थात बाजार को व्यापार की पूर्ण आजादी दी गई। दूसरी ओर, सरकार ने मूल आर्थिक चीजें- जैसे, रेलवे इत्यादि स्वयं अपने हाथ में रखीं ताकि आम आदमी के मौलिक अधिकार कायम रहें और उसका घोर शोषण न हो। इस आधार पर भारत में एक ‘वेलफेयर स्टेट’ (कल्याणकारी राज्य) की नींव रखी गई जिसमें किसानों, मजदूरों और गरीबों को सरकार की ओर से सब्सिडी अधिकार एवं सहायता का प्रावधान किया गया।
परंतु 1990 के दशक में सोवियत संघ के टूटने के बाद जब दुनिया में अर्थव्यवस्था के रिफॉर्म, अर्थात बाजारीकरण की हवा चली तो भारत में भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व में अर्थव्यवस्था का बाजारीकरण हुआ। फिर भी, कांग्रेस सरकारों ने यह तय किया कि वे किसान, मजदूर एवं गरीब के मूलभूत अधिकारों को संपूर्ण रूप से समाप्त नहीं करेंगे। तब ही तो मनमोहन सरकार ने मनरेगा- जैसी योजना चलाई जिसने भारतीय गरीबों और भारतीय अर्थव्यवस्था- दोनों में एक नई जान डाल दी। लेकिन बाजार की पूंजीवादी लॉबी की यह मंशा है कि भारत में जिस ‘वेलफेयर स्टेट’ के आधार पर किसान, मजदूर एवं गरीब को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता का प्रावधान है, उसे पूरी तरह से समाप्त किया जाए, अर्थात खेती-बाड़ी एवं मजदूरों के मौलिक अधिकार समाप्त हों और हर जगह पूंजीवाद को खुली छूट मिले।
यह है रिफॉर्म-2! इसका सीधा सा अर्थ यह है कि भारतीय ‘वेलफेयर स्टेट’ को पूरी तरह से दफन कर गांव, देहात, खेती-बाड़ी, फैक्टरी- हर जगह पर गरीब के तमाम अधिकार समाप्त हों एवं हर जगह पर पूंजीपति को खुली छूट मिले। पिछले सप्ताह संसद का जो सत्र समाप्त हुआ है, उसमें तीन कानून ऐसे पारित हुए हैं जो इस देश के किसान-मजूदर की कमर तोड़ देंगे। दो कानून खेती-बाड़ी से संबंधित हैं जिनको अभी अल्पमत के आधार पर राज्यसभा में पारित करवाया गया। इन दोनों कानूनों के तहत अब मंडी खरीदी में पूंजीपति के कदम पहुंच गए और जल्द ही किसान की फसल के दाम वह तय करेगा, अर्थात धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली खत्म और मंडी में पूंजीपति की मनमानी चलेगी। लब्बोलुआब यह है कि भारत की लगभग 60 प्रतिशत खेतिहर आबादी का जीवन अब पूंजीपति के शिकंजे में होगा।
तीसरा कानून जो अभी पारित हुआ है, वह मजदूरों से संबंधित है। इस कानून के तहत जिस फैक्टरी में तीन सौ तक की संख्या में मजदूर काम करते हैं, वहां अब फैक्टरी मालिक बिना कारण बताए जब चाहे किसी को भी नौकरी से बाहर कर सकता है, अर्थात मजदूरों के मौलिक अधिकार भी समाप्त।
अब आप समझे मानसून सत्र में लोकतंत्र की हत्या क्यों की गई। कारण यह था कि जल्द-से-जल्द भारतीय वेलफेयर स्टेट समाप्त कर किसान और मजदूर का गला घोंटने का संपूर्ण अधिकार बड़े औद्योगिक घरानों को को मिल जाए।(navjivan)
70 के दशक में हैजा भी महामारी के रूप में पूरे विश्व में फैला था, तब अमेरिका में किसी ने ओशो रजनीश जी से प्रश्न किया
-इस महामारी से कैसे बचे?
ओशो ने विस्तार से जो समझाया वो आज कोरोना के संबंध में भी बिल्कुल प्रासंगिक है।
ओशो- यह प्रश्न ही आप गलत पूछ रहे हैं, प्रश्न ऐसा होना चाहिए था कि महामारी के कारण मेरे मन में मरने का जो डर बैठ गया है उसके संबंध में कुछ कहिए!
इस डर से कैसे बचा जाए...?
क्योंकि वायरस से बचना तो बहुत ही आसान है, लेकिन जो डर आपके और दुनिया के अधिकतर लोगों के भीतर बैठ गया है, उससे बचना बहुत ही मुश्किल है।
अब इस महामारी से कम लोग, इसके डर के कारण लोग ज्यादा मरेंगे...।
‘डर’ से ज्यादा खतरनाक इस दुनिया में कोई भी वायरस नहीं है।
इस डर को समझिये, अन्यथा मौत से पहले ही आप एक जिंदा लाश बन जाएँगे।
यह जो भयावह माहौल आप अभी देख रहे हैं, इसका वायरस आदि से कोई लेना-देना नहीं है। यह एक सामूहिक पागलपन है, जो एक अन्तराल के बाद हमेशा घटता रहता है, कारण बदलते रहते हैं, कभी सरकारों की प्रतिस्पर्धा, कभी कच्चे तेल की कीमतें, कभी दो देशों की लड़ाई, तो कभी जैविक हथियारों की टेस्टिंग!
इस तरह का सामूहिक पागलपन समय-समय पर प्रगट होता रहता है। व्यक्तिगत पागलपन की तरह कौमगत, राज्यगत, देशगत और वैश्विक पागलपन भी होता है।
इस में बहुत से लोग या तो हमेशा के लिए विक्षिप्त हो जाते हैं या फिर मर जाते हैं ।
ऐसा पहले भी हजारों बार हुआ है, और आगे भी होता रहेगा और आप देखेंगे कि आने वाले बरसों में युद्ध तोपों से नहीं बल्कि जैविक हथियारों से लड़ें जाएंगे।
मैं फिर कहता हूं हर समस्या मूर्ख के लिए डर होती है, जबकि ज्ञानी के लिए अवसर!
इस महामारी में आप घर बैठिए, पुस्तकें पढि़ए, शरीर को कष्ट दीजिए और व्यायाम कीजिये, फिल्में देखिये, योग कीजिये और एक माह में 15 किलो वजन घटाइए, चेहरे पर बच्चों जैसी ताजगी लाइये अपने शौक़ पूरे कीजिए।
मुझे अगर 15 दिन घर बैठने को कहा जाए तो में इन 15 दिनों में 30 पुस्तकें पढूंगा और नहीं तो एक बुक लिख डालिये, इस महामंदी में पैसा इन्वेस्ट कीजिये, ये अवसर है जो बीस तीस साल में एक बार आता है पैसा बनाने की सोचिए....क्युं बीमारी की बात करके वक्त बर्बाद करते हैं...
ये ’भय और भीड़’ का मनोविज्ञान सब के समझ नहीं आता है।
‘डर’ में रस लेना बंद कीजिए...
आमतौर पर हर आदमी डर में थोड़ा बहुत रस लेता है, अगर डरने में मजा नहीं आता तो लोग भूतहा फिल्म देखने क्यों जाते?
यह सिर्फ एक सामूहिक पागलपन है जो अखबारों और टीवी के माध्यम से भीड़ को बेचा जा रहा है। लेकिन सामूहिक पागलपन के क्षण में आपकी मालकियत छिन सकती है...आप महामारी से डरते हैं तो आप भी भीड़ का ही हिस्सा है
ओशो कहते है...टीवी पर खबरें सुनना या अखबार पढऩा बंद करें, ऐसा कोई भी विडियो या न्यूज मत देखिये जिससे आपके भीतर डर पैदा हो।
महामारी के बारे में बात करना बंद कर दीजिए, डर भी एक तरह का आत्म-सम्मोहन ही है। एक ही तरह के विचार को बार-बार घोकने से शरीर के भीतर रासायनिक बदलाव होने लगता है और यह रासायनिक बदलाव कभी कभी इतना जहरीला हो सकता है कि आपकी जान भी ले ले, महामारी के अलावा भी बहुत कुछ दुनिया में हो रहा है, उन पर ध्यान दीजिए;
ध्यान-साधना से साधक के चारों तरफ एक प्रोटेक्टिव आभा बन जाता है, जो बाहर की नकारात्मक उर्जा को उसके भीतर प्रवेश नहीं करने देता है, अभी पूरी दुनिया की उर्जा नाकारात्मक हो चुकी है।
ऐसे में आप कभी इस ब्लैक-होल में गिर सकते हैं....ध्यान की नाव में बैठ कर हीं आप इस झंझावात से बच सकते हैं।
शास्त्रों का अध्ययन कीजिए,
साधू-संगत कीजिए, और साधना कीजिए, विद्वानों से सीखें
आहार का भी विशेष ध्यान रखिए, स्वच्छ जल पीएं,
अंतिम बात-
धीरज रखिए... जल्द ही सब कुछ बदल जाएगा...
जब तक मौत आ ही न जाए, तब तक उससे डरने की कोई जरूरत नहीं है और जो अपरिहार्य है उससे डरने का कोई अर्थ भी नहीं है, डर एक प्रकार की मूढ़ता है, अगर किसी महामारी से अभी नहीं भी मरे तो भी एक न एक दिन मरना ही होगा, और वो एक दिन कोई भी दिन हो सकता है, इसलिए विद्वानों की तरह जीयें, भीड़ की तरह नहीं!
नवनीत शर्मा/डॉ.अन्नपूर्णा
खेती के जिस व्यवसाय में देश की तीन चौथाई आबादी लगी हो उसका हाल में जारी ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में अपेक्षित जिक्र भी न होना विचित्र है। क्या भूख, उत्पाहदन और ‘जीडीपी’ जनित अर्थव्यवस्था को साधे रखने तथा सर्वाधिक रोजगार देने वाली खेती शिक्षा सरीखे बुनियादी विषय में कोई अहमियत नहीं रखती? प्रस्तुत है, इसी विषय पर प्रकाश डालता नवनीत शर्मा और अन्नपूर्णा का यहा लेख।
-संपादक
खुशहाल किसान की छवि में हम सर पर साफा बांधे, हाथों में हंसिया लिए, कानों में बाली पहने, मूछों पर ताव देते पुरुष को लहलहाते खेतों की तरफ देखते हुए कल्पित करते हैं। फिल्मी संकल्पना में भी खेत और किसान की खुशहाली सरसों के खेतों और बैसाखी के मेलों से ही की जाती है। अखबार पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसान बीसवीं सदी का वही मजबूर नायक है जो सूदखोरों, बिचौलियों और बाढ़-सूखे से त्रस्त है। इसी नायक की बढ़ती आत्महत्याओं की दर हमें यह सोचने का सहस ही नहीं देती कि कृषि बतौर पेशा या करियर 21वीं सदी के युवा का भी चयन हो सकता है।
आधुनिक किसान की प्रति छवि में अभी भी एक ठेठ-सा गंवईपन देखने के हम आदी है। ऐसे में पढ़-लिखकर खेती करना ऐसा लगता है कि डिग्रियों को जोत दिया गया है। यह बात इस सर्वेक्षण के सहारे भी पुष्ट होती है कि कृषि विश्वविद्यालयों में पढऩे के लिए आने वाले 52 प्रतिशत छात्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से होते हैं। जिस देश की 80 प्रतिशत आबादी अभी भी कृषि या उससे जुड़े व्यवसायों से जीवन-यापन करती हो, उस देश की ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में इस पर एक पूरे अध्याय की उम्मीद की जाती है, पर शिक्षा शायद अभी भी उस औपनिवेशिक मनोदशा से नहीं उभर पायी है जिसका उद्देश्य ही पढ़-लिखकर ‘बाबू’ बनना है।
कौशल-परक शिक्षा में भी ‘खेती’ बतौर कौशल शायद ही स्थान पाये, क्योंकि ‘कुशल’ होने का सम्बन्ध एक निश्चित और मानकीकृत उत्पादन की क्षमता से ही होगा और भारतीय कृषि मंत्री जब यह बयान देते हों कि भारत में असल कृषि मंत्री तो ‘मानसून’ होता है तो खेती ‘कौशल’ कैसे बनेगी!
जमीन के मालिकाने, रैय्यतवाड़ी, बीज, सिंचाई, कटाई के संघर्षों के बाद फसल का सुरक्षित मंडी पहुंचना और उसका उचित मूल्य पर बिकना दिवास्वप्न-सा रहता है। खेती की शिक्षा पौधों की उपज भर का ज्ञान नहीं है, बल्कि यह एक समाज विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का हस्तक्षेप है।
भुखमरी और अकाल से निपटने और सब तक भोजन और पौष्टिकता पहुंचाने की कवायद है। इस कृषि शिक्षा की तुलना में कहीं अधिक चिंता हम चिकित्सा शिक्षा की करते हैं, यह दीगर बात है कि कुपोषण और भूख के मसले तो केवल कृषि और उसकी पढ़ाई से ही हल किए जा सकते हैं।
बीसवीं सदी के पहले दशक में औपनिवेशिक शासन ने भी चिंता व्यक्त करते हुए छह कृषि अध्ययन संस्थानों की स्थापना की थी। उन्नीसवीं सदी के अंत में आए भीषण अकाल ने भी खेती की शिक्षा को पेशेवर तरीके से आजमाने का संबल दिया होगा। हालाँकि सन 47 में आज़ाद होने के तेरह साल बाद हमने कृषि शिक्षा की सुध ली। स्वतंत्र भारत में पहला कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर में 1960 में खुला, जबकि पहला ‘आईआईटी’ (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थाहन) 1950 में ही खोल दिया गया था। इस क्रम में हम भारत के उस रुझान को समझ सकते हैं जो आधुनिक भारत में गावों को कस्बों और कस्बों को शहरों में बदल देने की चाहत और खेती योग्य भूमि पर चमचमाते पंचतारा भवन बना देने को विकास मान लेता है।
खेती में बढ़ती लागत, मांग के अनुरूप फसल की उगाई, बीज की उपलब्धता से लेकर तैयार फसल को मंडी तक पहुंचाने की व्यवस्था, भंडारण की समस्या और सही समय पर उपज के प्रसंस्करण की अनुपलब्धता, भूमंडलीकरण के दबाव में ‘जीन संवर्धित’ (जीएम) बीजों की खरीद और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बढ़ती दखल न केवल खेती को एक नुकसान भरा पेशा बनाती है, वरन किसानों को आत्महत्या की तरफ भी धकेलती है। खेती बतौर पेशा पहले से ही युवाओं को लुभावना नहीं लगता और न ही उन्हें इसमें करियर बनाने की असीम संभावनाएं ही नजर आती हैं। युवा वर्ग उस पेशे के प्रति आकर्षित नहीं होता जिसमें हाथ और इच्छाओं दोनों का कुम्हलाना पहले से ही तय है।
कृषि विज्ञान में हुई अभूतपूर्व प्रगति ने कैसी भी परिस्थिति में उपज के लिए प्रजातियां विकसित कर ली हैं, परन्तु यह सब ज्ञान-विज्ञान अभी तक प्रयोगशाला की चौहद्दी में ही हैं और बड़े पैमाने पर खेती के चलन में नहीं आ सके हैं। प्रयोगशाला और खेत की दूरी पाटने के लिए ही ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ की संकल्पना की गयी है। आज लगभग हर जिले में एक ‘कृषि विज्ञान केंद्र’ है और सूचना तकनीक भी अपने स्तर पर किसानों तक ‘ज्ञान’ पहुंचाने के लिए प्रयासरत है। खेती करने की पारम्परिक समझ में वैज्ञानिक पुट को जोडऩे के प्रयास में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ व्यापक स्तर पर ‘कृषि प्रौद्योगिक पार्कों’ को खोलने की संस्तुति करती है। इस नीति में पहले से मौजूद ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ तथा अशोक दलवाई की अध्यक्षता में बनी किसानों की आय को दोगुना करने वाली समिति की संस्तुतियों की विवेचना न करते हुए एक नए उपक्रम की स्थापना की सिफारिश की है।
प्रयोगशाला-जनित ज्ञान को किसान तक पहुंचाने के प्रयास में कोई मौलिक योगदान ‘राष्ट्री य शिक्षा नीति’ में नहीं दिखता और खेती की शिक्षा को बड़े चलताऊ नज़रिये से औपचारिकता पूरी करने हेतु एक पैबंद जैसा जोड़ दिया गया है। यह नीति प्राथमिक शिक्षा से लेकर अध्यापक शिक्षा तक के लिए एजेंडा तैयार करते हुए उन पर एक नई पाठ्यचर्या की तैयारी का सुझाव तो देती है, परन्तु कृषि शिक्षा की रूपरेखा के निर्माण और शिक्षण की योजना का उल्लेख नहीं करती। दूसरी तरफ, यह दस्तावेज चिन्हित करता है कि देशभर के तमाम विश्वविद्यालयों में से केवल 9 प्रतिशत में ही कृषि की पढाई होती है और उच्च शिक्षा में पहुंचने वाले समस्त विद्यार्थियों में से एक प्रतिशत से भी कम कृषि को बतौर अध्ययन का विषय चुनते हैं।
देश का कोई-न-कोई भाग हर साल सूखे, बाढ़ अथवा टिड्डियों जैसी समस्या की चपेट में होता है। साल-दर-साल अगली फसल की उम्मीद में किसान मानसून, मंडी और सरकारी सहयोग की अपेक्षा करता है। प्रत्येक वर्ष के राष्ट्रीय बजट में कृषि के लिए घटते आबंटन, तदनन्तर शिक्षा और शोध के लिए सरकारी मद का और भी कम होना कृषि विश्वविद्यालयों और ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ को सांस्थानिक और अकादमिक संकटों को झेलने के लिए मजबूर करता है।
इस संदर्भ में यह कोई आश्चर्य नहीं है कि आज़ादी के समय ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में लगभग 58 फीसदी योगदान करने वाला कृषि-क्षेत्र अब केवल 15 फीसदी ही योगदान कर पा रहा है।
औद्योगीकरण, शहरीकरण और खेती के आंतरिक विरोधाभासों ने किसानों को बटाईदार से मालिकान खेतिहर बनने का सपना देखने का साहस भी छीन लिया है और साथ ही अपने बच्चों को भविष्य में खेती करते देखने का भी। ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ ने जिन आत्मनिर्भर भारतीय नागरिकों के निर्माण का सपना संजोया है, जो न केवल ज्ञान, कर्म और व्यवहार, वरन विचार एवं बुद्धि के स्तर पर भी भारतीय हों। ऐसे नागरिकों की निर्मित में कृषि और कृषि शिक्षा के माध्यम से ‘उत्तम खेती, मध्यम बान’ की लोकोक्ति की संकल्पना को साकार किया जा सकता था, परन्तु ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ के वृहद्, विस्तृत और भविष्याग्रही दस्तावेज में भी खेती की शिक्षा खेत रही। (सप्रेस)
नवनीत शर्मा हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय में अध्यापनरत हैं और अन्नपूर्णा स्वतंत्र कृषि वैज्ञानिक हैं जो महिलाओं के स्व-सहायता समूहों को संचालित करती हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस बार संसद ने 8 दिन में 25 विधेयक पारित किए। जिस झपाटे से हमारी संसद ने ये कानून बनाए, उससे ऐसा लगने लगा कि यह भारत की नहीं, माओ के चीन या स्तालिन के रुस की संसद है। न संसदीय समितियों ने उन पर विचार किया और न ही संसद में उन पर संगोपांग बहस हुई। बहुत दिनों बाद मैंने टीवी चैनलों पर संसद की ऐसी लचर-पचर कार्रवाई देखी। मुझे याद है 55-60 साल पुराने वे दिन जब संसद में डा. लोहिया, आचार्य कृपालानी, मधु लिमये, नाथपाई और हीरेन मुखर्जी जैसे- लोग सरकार की बोलती बंद कर देते थे। प्रधानमंत्रियों और मंत्रियों के पसीने छुड़ा देते थे। इस बार विपक्ष के कुछ सांसदों को सुनकर उनकी बहस पर मुझे बहुत तरस आया। सरकार ने तीन विधेयक किसानों और अन्य तीन विधेयक औद्योगिक मजदूरों के बारे में पेश किए थे।
इन विधेयकों का सीधा असर देश के 80-90 करोड़ लोगों पर पडऩा है। इन विधेयकों की कमियों को उजागर किया जाता, इनमें संशोधन के कुछ ठोस सुझाव दिए जाते और देश के किसानों व मजदूरों के दुख-दर्दों को संसद में गुंजाया जाता तो विपक्ष की भूमिका सराहनीय और रचनात्मक होती लेकिन राज्यसभा में जैसा हुड़दंग मचा, उसने संसद की गरिमा गिराई।अब 25 सितंबर को भारत-बंद का नारा दिया गया है। भारत तो वैसे भी बंद पड़ा है। महामारी कुलांचे मार रही है। अब किसानों और मजदूरों को अगर प्रदर्शनों और आंदोलनों में झोंका जाएगा तो वे कोरोना के शिकार हो जाएंगे। उन्हें क्या विपक्षी नेता सम्हालेंगे ? पक्ष और विपक्ष सभी के नेता तो इतने डरे हुए हैं कि भूखों को अनाज बांटने तक के लिए वे घर से बाहर नहीं निकलते। संसद से वेतन और भत्ते तो सभी ले रहे हैं लेकिन सदन में कितने सदस्य दिखाई पड़ते थे?
खैर, ये विधेयक अब कानून बन जाएंगे। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी हो जाएंगे। लेकिन सरकार और भाजपा का कर्तव्य है कि वह किसानों और मजदूरों से सीधा संवाद करे, विपक्षी नेताओं से सम्मानपूर्वक बात करे और विशेषज्ञों से पूछे कि किसान और मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए वह और क्या-क्या प्रावधान करे ? भाजपा सरकार को जो अच्छा लगता है, वह उसे धड़ल्ले से कर डालती है।उसके पीछे उसका सदाशय ही होता है लेकिन विपक्ष से मुझे यह कहना है कि वह इन कानूनों को साल-छह महिने तक लागू तो होने दे। फिर देखें कि यदि ये ठीक नहीं है तो इन्हें बदलने या सुधारने के लिए पूरा देश उनका साथ देगा। कोई भी सरकार कितनी ही मजबूत हो, वह देश के 80-90 करोड़ लोगों को नाराज़ करने का खतरा मोल नहीं ले सकती।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- सुशीला सिंह
साल 1991, नवंबर महीने में बिहार राज्य में एक अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू हुई. हड़ताल कर रहे सरकारी कर्मचारियों की माँग थी कि केंद्र सरकार की तर्ज़ पर ही राज्य में जो वेतनमान लागू किया गया है उसमें हुई विसंगतियों को दूर किया जाए.
इस हड़ताल में एक चार्टर ऑफ़ डिमांड भी बनाया गया था जिसमें सबसे प्रमुख माँग समान वेतनमान लागू करने में विसंगतियों को दूर करना था. इस हड़ताल में स्कूल, यूनिवर्सिटी टीचर्स, बोर्ड कॉर्पोरेशन और बिहार राज्य कर्मचारी महासंघ भी शामिल था.
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन(ऐपवा) की राष्ट्रीय महासचिव मीना तिवारी कहती हैं कि उस दौर में महिलाएं आंदोलन में बहुत सक्रिय हो रही थीं और 1985 में ही किसान और मज़दूर अपने अधिकारों और सामंतवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे थे और इसमें ग्रामीण और निम्नवर्गीय महिलाएं भी शामिल होने लगी थीं.
मीना तिवारी कहती हैं कि इन आंदोलन में महिलाओं के मुद्दों पर भी चर्चा होने लगी और उनके अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठने लगी थी. इसमें संविधान में मिले अधिकार के बावजूद महिलाओं को वोट से दूर रखना, बराबर मज़दूरी की माँग जैसे मुद्दे गांव, देहात में महिलाएं उठा रही थीं. वहीं, शहरों में युवा महिलाओं पर भी इन मुद्दों का असर हो रहा था. राज्य में बुद्दिजीवी महिलाएं और कामकाजी महिलाएं, उनके लिए हॉस्टल और क्रेच की सुविधा देने की माँग उठाने लगीं. वहीं, इस बीच सरकारी कर्मचारियों का ये आंदोलन भी ज़ोर पकड़ रहा था.
जब ये हड़ताल चल रही थी उस दौरान सरोज चौबे ऐपवा में सचिव के पद पर थीं.
वे बताती हैं कि सरकारी महिला कर्मचारियों की संख्या बहुत कम थी और महिला संगठनों ने जब उन्हें हड़ताल में शामिल होने को कहा था तो उनमें हिचकिचाहट भी थी क्योंकि उनका मानना था कि जब इसमें पुरुष शामिल हो रहे हैं तो उनका बैठकों या आंदोलन में भाग लेने का क्या काम.
लेकिन अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ द्वारा संचालित इस हड़ताल में धीरे-धीरे महिला कर्मचारी, शिक्षिका, नर्स और टाइपिस्ट जुड़ती चली गईं. जब समस्याओं पर चर्चा हुई और सारी माँगों को सूचीबद्ध किया जा रहा था तभी हड़ताल में शामिल महिलाओं की तरफ़ से ये माँग उठी थी कि पीरियड्स के दौरान छुट्टी मिलनी चाहिए.
कैसे माने लालू प्रसाद
उस समय राज्य के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव. ये वो ज़माना था जब नीतिश कुमार जनता दल में ही थे.
अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ के अध्यक्ष रामबलि प्रसाद कहते हैं कि केंद्रीय और राज्य स्तर पर समान वेतनमान के बीच विसंगतियां दूर करने और तमाम माँग मनवाने के लिए कोशिशें हो रही थीं और सरकार को ज्ञापन दिए भी गए लेकिन समाधान की ओर चीज़ें बढ़ती नज़र नहीं आ रही थीं.
फिर हमने हड़ताल करने की ठानी. वे बताते हैं कि इस दौरान मुख्यमंत्री और उनके प्रतिनिधियों के साथ कई बैठकों का दौर चलता था. जब पीरियड्स लीव वाला फ़ैसला लिया गया तो उस बैठक में रामबलि प्रसाद मौजूद थे.
रामबलि प्रसाद बताते हैं, ''मुख्यमंत्री और प्रतिनिधियों के साथ बैठक कई घंटे चलती थी. कई बैठक तो रात के आठ-नौ बजे शुरु होती और रात के दो बजे तक चलती रहती. जब हमारी माँगों पर चर्चा हो रही थी उसी समय महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान तीन दिन की छुट्टी का मुद्दा भी उठा. लालू प्रसाद ने उसे सुना और क़रीब पाँच मिनट के लिए चुप रहे और फिर इस पर सहमति जताते हुए कहा कि दो दिन छुट्टी दी जा सकती है और अपने अधिकारी को उसे नोट करने को कहा.''
बिहार सरकार की तरफ़ से राज्य की सभी नियमित महिला सरकारी कर्मचारियों को हर महीने दो दिनों के विशेष आकस्मिक अवकाश की सुविधा देने का फ़ैसला लिया गया.
बिहार में महिलाओं को पीरियड्स के दौरान मिली ये दो दिन की छुट्टी एक बड़ा और आंदोलनकारी क़दम था और शायद बिहार उस समय पहला ऐसा राज्य था जिसने सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए इस तरह का ऐलान किया था.
महिलाओं को सुविधा देने वाले इस फ़ैसले ने उनके लिए रास्ते तो खोल दिए थे लेकिन शर्म और झिझक का दरवाज़ा खुलना अभी बाक़ी था.
किसने खोला ये दरवाज़ा
प्रोफ़ेसर भारती एस कुमार पहली महिला मानी जाती हैं जिन्होंने यूनिवर्सिटी के स्तर पर ये लीव या छुट्टी लेने की शुरुआत की थी. वे उस समय पटना यूनिवर्सिटी में इतिहास के पीजी विभाग में प्रोफ़ेसर थीं.
उनका कहना है कि सरकार की तरफ़ से आदेश तो जारी हो गया था लेकिन यूनिवर्सिटी में इस अधिसूचना को नहीं लगाया गया था और वो कहीं फ़ाइल में बस पड़ा हुआ था.
जो हड़ताल हुई थी उसमें पटना यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (PUTA) और फ़ेडेरेशन ऑफ़ यूनिवर्सिटी (सर्विस) टीचर्स एसोसिएशन ऑफ़ बिहार(FUSTAB) भी शामिल हुआ था.
हम लोगों ने एसोसिएशन से भी पूछा कि इस बात पर सहमति बनी है न कि छुट्टी दी जाएगी, तो उन्होंने भी कहा कि ये फ़ैसला लिया जा चुका है और आदेश भी जारी किया जा चुका है. लेकिन वो बात यूनिवर्सिटी में सर्कुलेट होकर हम तक नहीं पहुँच रही थी. हम इस लीव को लेकर चर्चा करते थे लेकिन महिला शिक्षिकाएं इसे लेने में झिझक रही थीं.
वे बताती हैं, ''मैंने ये ठान लिया था कि मैं अपने पीरियड्स के लिए छुट्टी लूंगी. मैंने कहा कि मैं इसकी शुरुआत करुंगी. जब मेरे पीरियड्स का समय आया तो मैंने इस बारे में चिट्ठी लिखी और मेरे विभाग के हेड को दी. उन्होंने पहले मेरी चिट्ठी को देखा और फिर मुझे. मैंने चिट्ठी तो दे दी थी लेकिन मेरे पांव कांप रहे थे और मुझे बहुत झिझक भी हो रही थी. क्योंकि हमने तो बचपन से कभी पीरियड्स के बारे में खुलकर किसी से बात ही नहीं की थी और न कोई करता था. जब उन्होंने उस चिट्ठी को साइन करके क्लर्क को बढ़ाया. उनके चेहरे पर तंज़ वाली मुस्कराहट आई जैसे ये कहना चाहते हों कि अच्छा अब तुम लोगों को इसके लिए भी छुट्टी चाहिए''.
इसके बाद मैंने टीचर्स लेडीज़ क्लब में जाकर बताया कि हम जीत गए तो उन्होंने पूछा कि क्या मतलब? तो मैंने कहा कि मुझे छुट्टी मिल गई तो उन्होंने कहा कि अरे आपको मिल गई है तो हम भी अप्लाई कर सकेंगे.
वे बताती हैं कि छुट्टी तो मिल गई थी और ये हमारा हक़ भी था लेकिन इस छुट्टी के लिए आवेदन देने में महिलाओं को झिझक थी और उस टैबू को तोड़कर निकलने में वक़्त लगा लेकिन महिलाएं धीरे-धीरे आगे आईं और छुट्टी लेने लगीं.
क्या राज्यों में हो सकता है ये प्रावधान
नीति आयोग में लोकनीति विशेषज्ञ उर्वशी प्रसाद का भी कहना है कि बिहार में महिलाओं का अनुभव अच्छा रहा है. ये अब वहां एक समान्य चीज़ बन गई है और आपको पीरियड्स के वक़्त छुट्टी लेने के लिए कोई बहाने या कारण देने की ज़रुरत नहीं पड़ती.
अरुणाचल प्रदेश से आने वाली सांसद, निनांग एरिंग ने एक प्राइवेट मेंबर बिल, मेन्सटूरेशन बेनीफ़िट 2017 में लोकसभा में पेश किया था. इस बिल में सरकारी और नीजि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान दो दिन की छुट्टी देने का प्रस्ताव दिया गया. साथ ही ये पूछा गया था कि सरकार क्या ऐसी किसी योजना पर विचार कर रही है. इस पर महिला और विकास मंत्रालय ने कहा था कि ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है.
यहां ये सवाल उठता है कि क्या अपने स्तर पर राज्य सरकारें इस तरह का क़दम नहीं उठा सकती हैं?
उर्वशी प्रसाद कहती हैं कि इस मुद्दे पर महिलाओं को आगे आना होगा और सरकार को हर क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं से पूछना चाहिए कि क्या इसकी ज़रुरत है? क्या इससे लाभ होगा?
क्योंकि जब मैटरनीटी लीव में छह महीने का प्रावधान किया गया तो कई संस्थानों की तरफ़ से ये भी कहा गया कि महिला को क्यों लें, उन्हें छह महीने की छुट्टी देनी पड़ेगी. ऐसे में कई चीज़ें महिलाओं की भलाई के लिए की जाती हैं और वो उनके लिए ही उल्टी साबित हो जाती हैं.
वहीं, कई बार समानता का भी सवाल उठता है कि महिला और पुरुष बराबर हैं तो ये छुट्टी क्यों? लेकिन इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता कि महिला और पुरुष का शरीर अलग है, उसे पीरियड्स होते हैं और वो मां बन सकती है जो पुरुष का शरीर नहीं कर सकता. ऐसे में ये तर्क ही बेमानी हो जाता है.
उर्वशी प्रसाद भी कहती हैं कि कई महिलाओं को पीरियड्स के दौरान ज़्यादा तकलीफ़ होती है, किसी को कम और किसी को बिल्कुल नहीं होती है. ऐसे में छुट्टी, घर से काम करने की आज़ादी जैसी सुविधा दी जानी चाहिए. जहां अब कोविड ने साबित कर दिया है कि घर से भी काम हो सकता है और सरकारी कर्मचारी तक कर रहे है. हां जो फ़ैक्टरी में काम करती हैं उनके लिए ये नहीं चल पाएगा इसलिए लचीला होने की ज़रुरत है. साथ ही जब समानता की बात होती है तो सरकारी नौकरियों में तो महिलाओं को बराबर वेतन मिलता है लेकिन निजी संस्थानों या असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को पुरुषों के मुक़ाबले कम वेतन मिलता है तो समानता की बात तो वहीं झूठी साबित हो जाती है.
उनके मुताबिक़ ये बात भी बेमानी है कि इस तरह की लीव का महिलाएं फ़ायदा उठाती हैं. वे कहती हैं कि कुछ मामलों में ऐसा हो सकता है लेकिन पुरुष भी ऐसे मामलों में फ़ायदा उठाते हैं. लेकिन राज्य सरकारों के स्तर पर ऐसी लीव का प्रावधान आएगा तो उसे लागू करना भी आसान हो सकता है.(bbc)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्त राष्ट्र संघ के 75 वें अधिवेशन के उद्घाटन पर दुनिया के कई नेताओं के भाषण हुए लेकिन उन भाषणों में इन नेताओं ने अपने-अपने राष्ट्रीय स्वार्थों को परिपुष्ट किया, जैसा कि वे हर साल करते हैं लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ ऐसे बुनियादी सवाल उठाए, जो विश्व राजनीति के वर्तमान नक्शे को ही बदल सकते हैं। उन्होंने सुरक्षा परिषद के मूल ढांचे को ही बदलने की मांग रख दी। इस समय दुनिया में अमेरिका और चीन ही दो सबसे शक्तिशाली राष्ट्र हैं। आजकल दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध मुक्का ताने हुए हैं। उनके नेता डोनाल्ड ट्रंप और शी चिन फिंग ने एक-दूसरे को निशाना बनाया। ट्रंप ने दुनिया में कोरोना विषाणु फैलाने के लिए चीन को जिम्मेदार ठहराया और चीन ने कहा कि अमेरिका सारी दुनिया मे& राजनीतिक विषाणु फैला रहा है।
शी चिन फिंग ने कहा कि चीन की दिलचस्पी न तो गर्म युद्ध में है और न ही शीत युद्ध में। मोदी ने अपने आप को इस चीन-अमेरिकी अखाड़ेबाजी से बचाया और सुरक्षा परिषद का विस्तार करने की बात कही। उन्होंने कहा कि जमाना काफी आगे निकल चुका है लेकिन संयुक्तराष्ट्र संघ 75 साल पहले जहां खड़ा था, वहीं खड़ा है। सुरक्षा परिषद के सिर्फ पांच सदस्यों को वीटो (निषेध) का अधिकार है याने उन पांच सदस्यों में से यदि एक सदस्य भी किसी प्रस्ताव या सुझाव को वीटो कर दे तो वह लागू नहीं किया जा सकता।याने उनमें से कोई एक राष्ट्र भी चाहे तो सारी सुरक्षा परिषद को ठप्प कर सकता है। कौन से हैं, ये पांच राष्ट्र ? अमेरिका, चीन, रुस, ब्रिटेन और फ्रांस ! इन पांचों को यह निषेधाधिकार क्यों मिला था? क्योंकि द्वितीय महायुद्ध (1939-45) में ये राष्ट्र हिटलर, मुसोलिनी और तोजो के खिलाफ एकजुट होकर लड़े थे। जो जीते हुए राष्ट्र थे, उन्होंने बंदरबांट कर ली।
संयुक्तराष्ट्र यों तो लगभग 200 राष्ट्रों का विश्व-संगठन है लेकिन इन पांच शक्तियों के हाथ में वह कठपुतली की तरह है। उसकी सुरक्षा परिषद में न तो कोई अफ्रीकी, न लातीन-अमेरिका और न ही कोई सुदूर-पूर्व का देश है। भारत-जैसा दुनिया का दूसरा बड़ा राष्ट्र भी सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं है। 10 अस्थायी सदस्यों में इस वर्ष भारत भी चुना गया है। पांचों महाशक्तियां अपना मतलब गांठने के लिए गोलमाल शब्दों में भारत को स्थायी सदस्य बनाने की बात तो करती हैं लेकिन होता-जाता कुछ नहीं है। भारत के नेता भी दब्बू हैं। वरना आज तक उन्होंने ये मांग क्यों नहीं कि या तो वीटो (निषेधाधिकार) खत्म करो या चार-पांच अन्य राष्ट्र को भी दो। वीटो अधिकार का कोई सुनिश्चित आधार होना चाहिए। भारत चाहे संयुक्तराष्ट्र के बहिष्कार की भी धमकी दे सकता है। वह अपने साथ दर्जनों राष्ट्रों को जोड़ सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
क्या आपको पता है कि आपके पसंदीदा बॉयलर चिकन के शरीर का आकार, हड्डियों की बनावट और आनुवांशिकी उसके पूर्वज मुर्गों या जंगली मुर्गों से मेल नहीं खाते? यह जानने के बाद आपका अगला सवाल हो सकता है, इसका मुझ पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? ब्रिटेन में लीसेस्टर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस सवाल पर वर्षों तक गहराई से शोध किया। दिसंबर, 2018 में जब उन्होंने अपने निष्कर्षों के बारे में लिखा, तो दुनिया एक ऐसी वास्तविकता से रूबरू हुई जिसकी आशंका हमें लंबे समय से थी। उनका निष्कर्ष था, “बॉयलर चिकन पूरी तरह से मानव निर्मित है।” शोधकर्ताओं में से एक एलिसन फोस्टर ने कहा, “मुर्गों को पालतू बनाए जाने के बाद से उनकी कई अजीब और सुंदर नस्लें आई हैं लेकिन बॉयलर शायद इनका सबसे चरम रूप है।”
यह अध्ययन बॉयलर चिकन की शारीरिक संरचना का पता लगाने के लिए नहीं था। इसके पीछे की मुख्य वजह एंथ्रोपोसीन नामक एक नए मानव युग के आगमन की पड़ताल करना था। हमारी धरती पर मौजूदा वक्त में 2,300 करोड़ बॉयलर चिकन मानवों का भोजन बनने के लिए तैयार हैं। इस तरह ये चिकन भूमि पर पाए जाने वाले कशेरुकी यानी रीढ़ की हड्डी वाले जीवों की सबसे बड़ी प्रजाति है।
शोधकर्ता ऐसी चीज की तलाश कर रहे थे, जिसमें मानव हस्तक्षेप के भारी संकेत हों। इसका उपयोग वैज्ञानिक रूप से यह इंगित करने के लिए किया जाएगा कि मनुष्यों ने पृथ्वी पर जीवन और पर्यावरण को कैसे प्रभावित किया है। यह बदले में नए मानव युग की घोषणा करने के लिए एक संकेतक के रूप में उपयोग किया जाएगा। शोधकर्ताओं ने कहा, “आधुनिक चिकन अब अपने पूर्वजों से इतना बदल गया है कि इसकी विशिष्ट हड्डियां निस्संदेह उस समय के जीवाश्म संकेत बन जाएंगी जब मनुष्य ने ग्रह पर शासन किया था।”
रोमन काल के मुर्गों के साथ बॉयलर चिकन की हड्डियों की तुलना करना इस शोध में शामिल था। शोधकर्ताओं ने दोनों मुर्गों की हड्डियों में शायद ही कोई समानता पाई। बॉयलर चिकन अपने मध्यकालीन रिश्तेदार की तुलना में दो गुना बड़ा है। इसका कंकाल तो बड़ा होता ही है, साथ ही हड्डियों की रासायनिक बनावट भी अलग होती है। इसके अलावा इनमें आनुवंशिक विविधता की भी काफी कमी है। बॉयलर चिकन के वैज्ञानिक मूल्यांकन से पता चला कि उनका आहार भी लगभग समान होता है। ये सब सिर्फ एक उद्देश्य से पाले जाते हैं और वह है मानव उपभोग के लिए मांस उपलब्ध कराना।
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष था, “आधुनिक चिकन के वर्तमान रूप के लिए केवल और केवल मानव हस्तक्षेप जिम्मेदार है। हमने उनके जीन को बदलकर उनके चयापचय को नियंत्रित करने वाले रिसेप्टर (ग्राही) को म्यूटेट (परिवर्तित होना) कर दिया है जिसके कारण वे हमेशा भूखे रहते हैं। इस कारण वे ज्यादा से ज्यादा खाते हैं और उनके आकार में वृद्धि होती है। इतना ही नहीं, उनका पूरा जीवन चक्र मानव प्रौद्योगिकी द्वारा नियंत्रित होता है। उदाहरण के लिए, मुर्गियां जिस कारखाने में अपने अंडों से निकलती हैं, वहां का तापमान और आर्द्रता कंप्यूटर द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं। पहले ही दिन से उन्हें बिजली की रोशनी में रखा जाता है ताकि उनके भोजन के घंटे बढ़ाए जा सकें। उन्हें मारा भी मशीनों की ही मदद से जाता है। इससे एक घंटे में हजारों मुर्गों का मांस तैयार हो जाता है।”(DOWNTOEARTH)
-दिनेश श्रीनेत
उसकी आँखों के पीछे कुछ सुलगता रहता था। एक नाराज़गी, जो जाने कब लंबी उदासी में तब्दील हो चुकी थी- उसके चेहरे का स्थायी भाव बन गई थी। वह मुस्कुराता तो लगता कि किसी पर एहसान कर रहा है। कंधों पर उसका कोट झूलता रहता था। कमीज़ अक्सर बाहर होती थी। उसका गुस्सा निजी हदों को पार कर जाता था। उसकी नाराज़गी पूरे सिस्टम से थी। हमें हमेशा महसूस होता था कि उसकी सुलगन कभी भी एक भभकती आग में बदल सकती है। और ये सलीम-जावेद का कमाल था, जिन्होंने क्रोध को कविता में बदल दिया था। अमिताभ के खामोश गुस्से वाले वाले उन किरदारों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सारी दुनिया से नाराज़ यह शख्स भी प्रेम करता था। उसकी आवाज़ में कोमलता आ जाती थी। उसके इस प्रेम में सामने वाले के प्रति सम्मान था। वह अपने प्रेम को अभिव्यक्त नहीं करना चाहता था। प्रेम पानी की तरह खुद ही उसके भीतर अपनी शक्ल ले लेता था। मुझे तीन चेहरे याद आते हैं, तीन फिल्में याद आती हैं और तीन गीत भी याद आते हैं। फिल्में हैं- 'काला पत्थर', 'त्रिशूल' और 'शक्ति'।
'काला पत्थर' में अंधेरी रात और बारिश के बीच एक छतरी के नीचे जाते राखी और अमिताभ को हम देखते हैं। ढाबे की धधकती भट्टी और धुएं के बीच पंजाबी गीत के बोल उठते हैं-
इश्क़ और मुश्क़ कदे न छुपदे
ते चाहे लख छुपाइये
अखाँ लख झुकाके चलिये
पल्ला लख बचाइए
इश्क़ है सच्चे रब दी रहमत
इश्क़ तो क्यूँ शर्माइए
राखी असहज हो उठी हैं मगर अमिताभ उसी तरह मंथर चाल से सिर झुकाए उनके साथ कदम मिलाते हुए आगे बढ़ रहे हैं। ये कुछ ही कदमों में सिमटा हुआ गीत है। उस समय के चलन के विपरीत न तो नायक नायिका ख्वाब देखते हैं और न ही उनकी ड्रेस बदलती है। निर्देशक यश चोपड़ा बड़ी खूबसूरती से कदमों का यह सफर नायक नायिका के साथ तय करते हैं। अमिताभ की खामोशी यहां बोलती है। उनकी आंखें, वे जिस तरह चलते हैं, जैसे उन्होंने एक हाथ में छतरी और दूसरे हाथ में बाक्स थाम रखा है। बारिश और प्रेम की अभिव्यक्ति के मिलते-जुलते बहुत से गीत हिंदी फिल्मों में हैं। उनमें से ये गीत बेहद खूबसूरत है मगर अंडररेटेड है, इसकी कोई चर्चा नहीं मिलती।
दूसरा एक पार्टी गीत है। ख़य्याम की खूबसूरत धुन मानों पर्वतों से आने वाली ठंडी हवा हो। पिछले गीत की तरह यहां भी बोल साहिर के हैं, फिल्म है 'त्रिशूल'। प्रेम में डूबा एक जोड़ा गीत शुरू करता है और साहिर उसे एक धारदार बहस में तब्दील कर देते हैं। निजी प्रतिशोध में सुलगता हुआ एक व्यक्ति जो अपने ही वजूद के एक हिस्से यानी अपने पिता से नफरत लेकर आया है प्रेम को किस तरह देखता है? साहिर लिखते हैं-
किताबों में छपते है, चाहत के किस्से
हक़ीकत की दुनिया में चाहत नहीं
ज़माने के बाज़ार में, ये वो शै' है
के जिसकी किसी को, ज़रूरत नहीं है
ये बेकार बेदाम की चीज़ है
इस झुंझलाहट के बीच राखी की मौजूदगी भी है। वे पार्टी ड्रेस में हैं और उन्होंने आरेंज साड़ी पहन रखी है। ऐसा लगता है कि जैसे वे उसे छटपटाते गु्स्से को समझ रही हैं। अमिताभ जब उनकी तरफ देखते हैं तो लगता है कि उनकी निगाहों में एक उम्मीद है कि कोई मुझे समझ पाएगा।
आखिरी गीत 'शक्ति' फिल्म से है। पूरी फिल्म में कंधे पर कोट थामे एक नाराज़गी से भरा शख्स यहां पर थोड़े सुकून में दिखता है। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट भी है और वह प्रेम का इज़हार भी कर पा रहा है। खुश वो इतने हैं कि खिलते हुए फूलों के बीच जाकर कहते हैं, "लगता है मेरा सेहरा तैयार हो गया..." उनके साथ एक सांवली, खूबसूरत, उनके ही जैसी गंभीर स्त्री है- स्मिता पाटील। हालांकि जब आप पूरी फिल्म देखते हैं तो इस गीत में निहित त्रासदी उभर कर आती है, क्योंकि उनके बीच यह खुशी लंबे समय तक टिकने वाली नहीं है।
इन तीनों फिल्मों में अमिताभ जिस खूबसूरती से अपनी कठोरता, क्रोध, खुद के जीवन की त्रासदी के बीच प्रेम की कोमलता को अभिव्यक्त करते हैं, उसमें कविता छिपी है। वे एक साथ लाखों लोगों के दिल पर असर कर जाते हैं। समय की सीमा पार कर जाते हैं और उनकी खामोश सुलगती निगाहें, वो सौम्य प्रेम- हमेशा-हमेशा के लिए आपके मन में बस जाता है। यह अमिताभ के अभिनय का कमाल तो है ही, ये सलीम-जावेद थे जिन्होंने उदासी, गुस्से और प्रेम के इन रंगों का ऐसा खूबसूरत संतुलन बनाया था। टॉमस हार्डी के किरदारों की तरह त्रासदी कहीं बाहर नहीं इन किरदारों के भीतर ही थी। जमाने से नाराज़गी भी, प्रेम भी, जिंदगी जीने की ललक भी और मृत्यु भी। (फेसबुक से)


