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लीडर वो होते हैं, जो लीडर पैदा करते हैं..
17-Aug-2020 5:34 PM
लीडर वो होते हैं, जो लीडर पैदा करते हैं..

-मनीष सिंह
और पॉलिटिकल लीडरशिप की पहचान इससे होती है कि उसके इर्द-गिर्द राजनीति और ब्यूरोके्रसी में कितने नए लीडर्स नर्चर किये गए। गांधी नेहरू का दौर ऐसा सुनहरा दौर था, जिसने भारत को हर विंग में दूरदर्शी लोगों को पहचाना, गढ़ा और बढ़ाया गया। केएफ रुस्तमजी उनमें से एक थे।

रायपुर- नागपुर रेलवे लाइन पर एक छोटा से स्टेशन है, कामटी। इस गांव में खुसरो फरामुर्ज रुस्तमजी का जन्म हुआ। मुस्लिम से लगते नाम की वजह से खारिज न करें, वे पारसी थे। नागपुर और मुंबई में पले बढ़े, और फिर नागपुर के एक कॉलेज में प्रोफेसर हुए। वहीं से सलेक्शन अंग्रेजी पुलिस में हो गया। यह कोई 1938 के आसपास का दौर था।

यह इलाका सीपी और बरार कहलाता था, राजधानी थी नागपुर। असिस्टेंड एसपी के रूप में नागपुर में उन्हें पुलिस सेवा मेडल मिला। 1948 में हैदराबाद एक्शन के दौरान वे अकोला औए एसपी रहे और हैदराबाद एक्शन में भूमिका का निभाई। 1952 आते आते उन्हें एक खास जगह पोस्टिंग मिली।

रुस्तमजी को प्रधानमंत्री जवाहरलाल की पर्सनल सेक्युरिटी का इंचार्ज बनाया गया। इस दौर के अपने अनुभव उन्होंने अपनी डायरी में लिखे है, जो किताब की शक्ल में ढाले गए। (आई वाज शैडो ऑफ नेहरू) बहरहाल पांच साल बाद उन्होंने आगे बढऩे का निर्णय किया। न चाहते हुए नेहरू ने उन्हें रिलीव किया। सपत्नीक डिनर पर बुलाया, अपनी हस्ताक्षरित तस्वीर दी।

सीपी एंड बरार अब मध्यप्रदेश हो चुका था। रुस्तमजी यहां आईजी हुए। अब उस दौर का आईजी आज का डीजीपी होता था। स्टेट का टॉप कॉप.. पुराने पुलिसवाले यह दौर याद करते है, और चंबल के डाकू भी। इस दौर पर रुस्तमजी की डायरियों पर आधारित एक और किताब है। (द ब्रिटिश, बैंडिट एंड बार्डर मैन)

यह 1965 था और भोपाल से निकलकर रुस्तमजी वापस दिल्ली में थे। चीन युध्द का अनुभव हो चुका था। शास्त्रीजी एक नई फोर्स के लिए सोच रहे तो, ऐसा अर्द्धसैनिक बल जो सीमाओं की सुरक्षा करे। रुस्तमजी को बीएसएफ बनाने की कमान दी गयी। कुछ फौजी यूनिट्स, कुछ स्टेट आर्म्ड पुलिस को मिलाकर यह बल बना। रुस्तमजी की कमांड में यह बल एक सशक्त और सजग सीमा प्रहरी बन गया। इसकी परीक्षा की घड़ी भी जल्द आयी।

यह 1971 था। इंदिरा ने पाकिस्तान को सबक सिखाने का पूरा इरादा कर लिया था। मगर जनरल मानेकशॉ ने वक्त मांग लिया। उन्हें 6 माह चाहिए थे। इस वक्त में पाकिस्तान के हुक से बच निकलने का खतरा था। वक्त का इस्तेमाल किया रुस्तमजी ने ..

बांग्लादेश की मुक्तिबाहिनी को ट्रेनिंग, हथियार और पाकिस्तानी एडमिनिस्ट्रेशन पर धावे के लिए सारी रणनीति बनाकर देने के बाद रुस्तमजी ने सुनिश्चित किया कि पाकिस्तान को दम लेने की फुर्सत न मिले। छह माह बाद मानेकशॉ ने बाकी का काम तमाम कर दिया।

रिटायरमेंट के बाद रुस्तमजी को पुलिस आयोग का सदस्य बनाया गया। जेलों की दुव्र्यव्यवस्था को रुस्तमजी ने बेदर्दी से सामने निकालकर दिखाया। वह दौर सरकार की आलोचना करने वालो को उठवा लेने या उसके ऑफिस में आधी रात को छापे मारने का न था। रुस्तमजी की रिपोर्ट पर कार्यवाही हुई, हजारों बन्दी जमानत पर छोड़ दिये गए। जेलों के लिए नई गाइडलाइन बनी।

यह कोई पुलिस या फौजी सेवा न थी। यह राष्ट्र के लिए एक चाक चौबंद नागरिक की सेवा थी। भारत मे सिविलियन सेवा के दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मविभूषण’ से रुस्तमजी को नवाजा गया।

आजादी की बेला थी। अमरावती में पदस्थ एसपी रुस्तमजी को आदेश हुआ कि 5 प्रिंसली स्टेटस के मर्जर से बनने वाले के नए जिले की कमान संभाले। एक कार में सवार हो मियां बीवी नए जिले की कमान संभालने निकल पड़े।

सारंगढ़ रियासत के पैलेस में आकर रुके । 31 दिसम्बर 1948 को स्टेट गेस्ट बुक में उनके हस्ताक्षर और एंट्री मिलती है। अपनी डायरी में रुस्तमजी इस दिन के विषय में लिखते है- मैं एक ऐसे जिले का एसपी बनने जा रहा हूँ, जो अब तक अस्तित्व में नही आया। और मैं ऐसे राजा के साथ बैठा हूँ, जिसका राज्य कल खत्म हो जाएगा।

1 जनवरी 1948 को सारंगढ, रायगढ़, धरमजयगढ़, सक्ति और जशपुर की रियासतों को मिलाकर एक जिला बना, जो मेरा रायगढ़ है। रुस्तमजी इसके फाउंडर सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस थे। (सक्ति अब दूसरे जिले का हिस्सा है)

कमाऊ जिलों में और प्लम पोस्टिंग के लिए मरते, रीढें चटकाते युवा आईएएस/ आईपीएस के लिए पदमविभूषण के एफ रुस्तमजी का कद इतना ऊंचा है, कि उनकी ओर देखने के लिए सर ऊंचा करने से दर्द हो सकता है।

इसलिए कि उनका कद बेहद छोटा है। छोटे कद की पोलिटीकल लीडरशिप, अफसर भी छोटे कद के ही चाहती है।

(जानकारी परवेश मिश्रा की मदद से)

रुस्तमजी इतिहास के एकमात्र पुलिस कप्तान रहे जिन्होंने कलेक्टरी भी की। भले ही थोड़े दिनों के लिये। हुआ यह कि 1जनवरी 1948 को श्री रामाधार मिश्रा ने रायगढ़ के पहले कलेक्टर के रूप चार्ज लिया था। तीन सप्ताह बाद ही उनकी तबियत बिगड़ी। अंतडिय़ां आपस में उलझ गयी थीं। असहनीय पेटदर्द से परेशान श्री मिश्र को हावड़ा-बम्बई मेल से रायपुर पंहुचाया गया उनकी जान नहीं बच पायी थी। उन दिनों अंग्रेजों के अचानक वापस चले जाने के कारण अधिकारियों का जबर्दस्त अकाल था। सो पुलिस कप्तान रुस्तमजी को आदेश प्राप्त हुआ कि वे कलेक्टर का चार्ज लें। और इतिहास बन गया। -परवेश मिश्रा


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