विचार/लेख
भारतीय अर्थव्यवस्था को 5-6% की वृद्धि दर पर लौटने में 3 से 5 साल का वक़्त लगेगा. ये कहना है भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डॉ. डी. सुब्बाराव का. उन्होंने बीबीसी को ईमेल के ज़रिए दिए एक इंटरव्यू में ये कहा. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ये वृद्धि दर भी तब ही मुमकिन है जब सही तैयारी के साथ सही तरीक़े से सब कुछ किया जाएगा.
भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में क्या-क्या चुनौतियां होंगी और उनके क्या समाधान हो सकते हैं, उन्होंने विस्तार से बताया.
बड़ी चुनौतियां कौन सी हैं?
डॉ सुब्बाराव कहते हैं कि सबसे बड़ी चुनौती है लोगों की नौकरियां जाने से बचाना और फिर से विकास शुरू करना.
वो कहते हैं, "महामारी अब भी बढ़ रही है, ऐसे में अभी भी कई ख़तरे हैं. कहा नहीं जा सकता कि महामारी के प्रकोप में कब और कैसे कमी आ सकती है. इसलिए अर्थव्यवस्था की चुनौतियों के पैमाने और जटिलताओं का बहुत ज़्यादा अंदाज़ा लगाना संभव नहीं है."
डॉक्टर सुब्बाराव ने कहा कि निस्संदेह मनरेगा अभी लाइफ़लाइन बना है लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता.
वे कहते हैं, "अस्थायी राहत के तौर पर विस्तारित महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार अधिनियम (मनरेगा) एक जीवन रेखा बन गया, लेकिन यह एक स्थायी समाधान नहीं हो सकता है."
डॉ. सुब्बाराव ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि महामारी से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती की स्थिति में थी. विकास दर एक दशक में सबसे कम - लगभग 4.1% पर थी, राजकोषीय घाटा (सरकार की कुल आय और व्यय के बीच का अंतर) अधिक था और वित्तीय क्षेत्र ख़राब ऋण की समस्या से जूझ रहा था.
वो कहते हैं कि महामारी का प्रभाव कम होने के बाद ये समस्याएं और बड़ी हो जाएंगी. "वापसी की हमारी संभावनाएं इस बात पर निर्भर करेंगी कि हम इन चुनौतियों का कितने प्रभावी तरीक़े से समाधान निकालते हैं."
जब उनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था महामारी के प्रभाव से कब तक बाहर आएगी और कब वापसी करेगी? तो डॉ सुब्बाराव ने कहा, "अगर आपका मतलब है कि अर्थव्यवस्था में सकारात्मक वृद्धि कब से होने लगेगी तो ये अगले साल से संभव है, लेकिन इस साल के नकारात्मक आंकड़े को देखते हुए यह भी कह सकते हैं कि ये सकारात्मक वृद्धि बहुत ज़्यादा नहीं होगी."
इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़ों में लगभग एक चौथाई की गिरावट आई और कई अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि पूरे साल की ग्रोथ निगेटिव डबल डिजिट में रह सकती है.
"अगर आपका मतलब है कि वृद्धि दर में लंबे वक्त तक टिकने वाला 5-6% तक का सुधार कब आएगा, तो इसमें 3-5 साल लगेंगे और वो भी तब होगा जब सही तैयारी के साथ सही तरीक़े से सब कुछ किया जाएगा."

समाधानः अर्थव्यवस्था बेहतरी की ओर कैसे बढ़े?
वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ सुब्बाराव का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के पक्ष में कुछ सकारात्मक चीज़ें हैं और उस पर ही और काम किए जाने की ज़रूरत है.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने शहरी अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले बेहतर तरीक़े से रिकवर किया है. वो कहते हैं, "जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी तो मनरेगा के विस्तार की योजना ने एक लाइफलाइन दी, और महिलाओं, पेंशनभोगियों और किसानों के खातों में तुरंत पैसे डाले गए जिससे उनके हाथ में पैसे आए और फिर से मांग पैदा करने में मदद मिली."
"हाल में कृषि क्षेत्र में किए गए कई सुधार हालात बेहतर करने की दिशा में अच्छी शुरुआत है."
भारत का कंजम्पशन बेस भी देश के लिए एक बड़ी सकारात्मक चीज़ है. देश के 1.35 अरब लोग प्रोडक्शन को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं.
डॉ. सुब्बाराव कहते हैं कि अगर उन लोगों के हाथ में पैसा दिया जाता है तो वो खर्च करेंगे जिससे आख़िरकार खपत ही बढ़ेगी. लेकिन ये लक्ष्य हासिल करने के लिए "मज़बूत नीतियों और उनको दृढ़ निश्चय के साथ लागू करने की ज़रूरत होगी."
भारतीय केंद्रीय बैंक में पद संभालने से पहले वित्तीय सचिव रह चुके डी सुब्बाराव इस आम राय से सहमति जताते हैं कि मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार को पैसा खर्च करना शुरू करना चाहिए. निजी खपत, निवेश और शुद्ध निर्यात ग्रोथ के अन्य फैक्टर हैं, लेकिन फिलहाल ये सभी मुश्किल दौर में हैं.
साथ ही वो कहते हैं, "अगर सरकार इस वक़्त ज़्यादा खर्च करना शुरू नहीं करती है, तो ख़राब ऋण (बैड लोन) जैसी तमाम समस्याओं से निपटना और मुश्किल हो जाएगा और अर्थव्यवस्था की हालत और खस्ता होती जाएगी."
हालांकि वो चेतावनी देते हैं कि "सरकारी उधार की सीमा निर्धारित करना बहुत ज़रूरी होगा, ऐसा नहीं हो सकता कि इसकी कोई सीमा ही ना हो."
सरकार के लिए चार सूत्रीय कार्ययोजना
उन्होंने उन प्रमुख क्षेत्रों का ज़िक्र किया जिन पर उनके मुताबिक़ सरकार को फोकस करना चाहिए.
उनके मुताबिक़ सबसे पहले, आजीविका की रक्षा करनी होगी और ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीक़ा मनरेगा का विस्तार करना है जो सेल्फ-टार्गेटिंग है.
दूसरा है, सरकार को रोज़गार बचाने और बैड लोन को बढ़ने से रोकने के लिए संकटग्रस्त उत्पादन इकाइयों की मदद करनी चाहिए.
तीसरा, सरकार को बुनियादी ढांचे के निर्माण पर खर्च करना चाहिए जो संपत्ति के साथ-साथ नौकरियों का निर्माण करेगा.
अंत में, सरकार को बैंकों में अतिरिक्त पूंजी डालनी होगी ताकि क्रेडिट फ़्लो को बढ़ाया जा सके.
इस पहेली का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है नौकरियां पैदा करना. महामारी शुरू होने से पहले भी नौकरियों का सृजन एक बड़ी चुनौती थी.
रिसर्च फर्म, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के मुताबिक़, अगस्त में भारत की बेरोज़गारी दर नौ सप्ताह के उच्चतम स्तर यानी लगभग 9.1% पर थी.
"ज़रूरत है कि अर्थव्यवस्था एक महीने में 10 लाख नौकरियां पैदा करे; हम इसकी आधी भी पैदा नहीं कर रहे. बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 में पहली बार इसी वादे के साथ जीतकर आए थे कि वो "20 की उम्र वाले उन लोगों की ज़िंदगी बदल देंगे जो नए रोज़गार की तलाश कर रहे हैं. इस वादे का पूरा नहीं होना उनकी एक नाकामी मानी जानी चाहिए."
महामारी और फिर इसकी वजह से लगे लॉकडाउन ने नौकरियों के सृजन को कई गुनी बड़ी चुनौती दी है.
ये पूछे जाने पर कि नौकरियां आएंगी कहां से? डॉक्टर सुब्बाराव कहते हैं, "नौकरियों के सृजन के लिए भारत को मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर (विनिर्माण क्षेत्र) पर निर्भर होना पड़ेगा. इसीलिए, मेक इन इंडिया, मेक फॉर इंडिया और मेक फॉर द वर्ल्ड ये सभी महत्वपूर्ण नीतिगत उद्देश्य हैं."(BBCNEWS)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान में पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो ने लगभग सभी प्रमुख विरोधी दलों की बैठक बुलाई, जिसमें पाकिस्तानी फौज की कड़ी आलोचना की गई। पाकिस्तानी फौज की ऐसी खुले-आम आलोचना करना तो पाकिस्तान में देशद्रोह-जैसा अपराध माना जाता है। नवाज शरीफ ने अब इस फौज को नया नाम दे दिया है। उसे नई उपाधि दे दी है। फौज को अब तक पाकिस्तान में और उसके बाहर भी ‘सरकार के भीतर सरकार’ कहा जाता था लेकिन मियां नवाज ने कहा है कि वह ‘सरकार के ऊपर सरकार’ है। यह सत्य है।
पाकिस्तान में अयूब खान, याह्या खान, जिया-उल-हक और मुशर्रफ ने अपना फौजी शासन कई वर्षों तक चलाया ही लेकिन जब गैर-फौजी नेता लोग सत्तारुढ़ रहे, तब भी असली ताकत फौज के पास ही रहती चली आई है। अब तो यह माना जाता है कि इमरान खान को भी जबर्दस्ती जिताकर फौज ने ही पाकिस्तान पर लादा है। फौज ही के इशारे पर अदालतें जुल्फिकार अली भुट्टो, नवाज शरीफ और गिलानी जैसे नेताओं के पीछे पड़ती रही हैं। ये ही अदालतें क्या कभी पाकिस्तान के बड़े फौजियों पर हाथ डालने की हिम्मत करती हैं ? पाकिस्तान के सेनापति कमर जावेद बाजवा की अकूत संपत्तियों के ब्यौरे रोज उजागर हो रहे हैं लेकिन उन्हें कोई छू भी नहीं सकता। मियां नवाज ने कहा है कि विपक्ष की लड़ाई इमरान खान से नहीं है, बल्कि उस फौज से है, जिसने इमरान को गद्दी पर थोप रखा है।
यहां असली सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान के नेता लोग फौज से लड़ पाएंगे ? ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि फौज थोड़ी पीछे खिसक जाए। सामने दिखना बंद कर दे, जैसा कि 1971 के बाद हुआ था या जैसा कि कुछ हद तक आजकल चल रहा है लेकिन फौज का शिकंजा पाकिस्तानियों के मन और धन पर इतना मजबूत है कि उसे कमजोर करना इन नेताओं के बस में नहीं है। पाकिस्तान का चरित्र कुछ ऐसा ढल गया है कि फौजी वर्चस्व के बिना वह जिंदा भी नहीं रह सकता। यदि पंजाबी प्रभुत्ववाली फौज कमजोर हो जाए तो पख्तूनिस्तान और बलूचिस्तान टूटकर अलग हो जाएंगे। सिंध का भी कुछ भरोसा नहीं। 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद पाकिस्तानी जनता के मन में भारत-भय इतना गहरा पैठ गया है कि उसका एकमात्र मरहम फौज ही है। फौज है तो कश्मीर है। फौज के बिना कश्मीर मुद्दा ही नहीं रह जाएगा। इसके अलावा फौज ने करोड़ों-अरबों रु. के आर्थिक व्यापारिक संस्थान खड़े कर रखे हैं। जब तक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का मूल चरित्र नहीं बदलेगा, वहां फौज का वर्चस्व बना रहेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
माननीय मुख्य न्यायाधीशजी
यह पत्र एक डेजिग्नेटेड सीनियर एडवोकेट की तरफ से लिखा जा रहा है, जो 50 वर्ष की प्रैक्टिस हो जाने की जिंदगी के साथ है। कुछ वर्षों से कई संवैधानिक संस्थाओं की दुर्गति बहुत तेजी से वे खुद भी कर रही हैं। मुख्यत: कार्यपालिका अर्थात केंद्रीय मंत्रिपरिषद की खलनायकी इतिहास में दर्ज हो रही है। उसने चुन चुनकर संवैधानिक संस्थाओं की रीढ़ की हड्डी तोडऩे में सफलता प्राप्त की है।
सुप्रीम कोई की जो छवि बन गई है, उससे मुझ जैसे व्यक्ति का चिंतित होना जरूरी है। विशेषकर मौजूदा सरकार के पिछले 5, 6 वर्षों में जनहित के सभी बड़े मामले इस तरह उलझा दिए गए हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी उससे उम्मीद के अनुसार कोई सार्थक फैसला नहीं कर पाया है। आप तो बस कुछ महीनों में चले जाएंगे। बाकी जज भी एक के बाद एक चले जाएंगे। वकील कुछ ज्यादा समय तक टिकते हैं। वे भी चले जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट रहेगा। जनता रहेगी। देश रहेगा। इतिहास रहेगा।
संवैधानिक महत्व के कई प्रकरण जबरिया सुप्रीम कोर्ट में अटके हैं। कोर्ट की परंपरा के अनुसार इन पर फैसला हो जाना चाहिए था। कई जज ऐसे भी रहे हैं जिन्हें पूंजीपतियों और कॉरपोरेट हितों के मामले आनन फानन में निपटाने की बहुत जल्दी रही है। जनहित के पक्ष में बोलने वाले वकीलों को दंडित करने में कुछ जजों ने महारत हासिल कर ली थी। आपको यह पत्र कोई अनाड़ी नहीं लिख रहा है। उसने ईमानदारी से संविधान के मर्म को समझने की कोशिश की है।
मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि सभी महत्वपूर्ण संवैधानिक मामले दो में से एक विकल्प के अनुसार निपटाने की अगर आप आज्ञा दें, तो आपका कार्यकाल जो 23 अप्रेल 2021 को खत्म हो रहा है, अर्थात मात्र छह महीने में, एक ऊंचाई हासिल कर सकता है। जज तो रिटायर होने के बाद ही इतिहास में जीवित रहता है। इसका इल्म तो आप जैसे वरिष्ठ जज को होगा ही।
एक विकल्प यह है कि सबसे वरिष्ठ जज एन. वी. रमन्ना की अध्यक्षता में संविधान पीठ बने जिसमें क्रम से जजों रोहिंटन फली नरीमन, उदय यू. ललित, ए. एम. खानविलकर और धनंजय चंद्रचूड़ को रखा जाए। दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के जो वरिष्ठ वकील सीधे जज बनाए गए हैं। वे संवैधानिक मामलों को लेकर अन्य जजों के मुकाबले होते हुए वकील के रूप में बेहतर बहस भी करते रहे हैं। ऐसी हालत में आर.एफ. नरीमन, यू.यू. ललित, एल. नागेश्वर राव और इंदु मल्होत्रा जैसे जजों को बेंच में आपकी अध्यक्षता में रखा जाए तो बहस बेहद उत्तेजक, उर्वर और अर्थमयी हो सकती है। महत्वपूर्ण मामलों में मास्टर ऑफ रोस्टर वाली थ्योरी अपनाकर कनिष्ठ जजों को महत्वपूर्ण मामलों में रख दिया जाता है। इसी कारण चार वरिष्ठ जजों को प्रेस कान्फरेन्स करनी पड़ी थी। आशय अवमानना करना या तुलना करना नहीं है। वरिष्ठता का ध्यान रखना अनुभव के प्रति सम्मान भी होता है। इसी आधार पर आप भी चीफ जस्टिस बने हैं। आगे भी यही होगा।
एक विकल्प और है। यदि जस्टिस रमन्ना जस्टिस ललित जस्टिस चंद्रचूड़ के अतिरिक्त जस्टिस खन्ना जस्टिस गवई और जस्टिस सूर्यकांत में से शामिल करके कोई बेंच बने तो फायदा यह होगा कि ये सब के सब चीफ जस्टिस बनेंगे कम से कम 2026 तक। एक के बाद एक। तो सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक मामलों में विचारों में एकरूपता रहने की ज्यादा संभावना है।
कम से कम 15-20 महत्वपूर्ण मामले संविधान पीठ के लायक लंबित पड़े हैं। उनसे भारत के 137 करोड़ लोगों को अपने मूल अधिकारों के संदर्भ में लेना देना है। मेरा अनुरोध हवा हवाई नहीं है। मैं 80 वर्ष के ऊपर हूं। इस उम्र में लालच और लागलपेट से परे उठकर देश और युवा पीढ़ी का भविष्य देखना और चिंता करना मेरा कर्तव्य है।
आप यदि कर सकें तो चीफ जस्टिस के रूप में आपका कार्यकाल देश को कई नए साहसिक, जरूरी और परिणामधर्मी आयाम दे सकेगा। इस बात के लिए माफ करेंगे कि मैंने पत्र आपको हिन्दी में लिखा। अंग्रेजी में बहस करने से भी देश का बहुत भला नहीं हुआ है। इसीलिए हम सबके आराध्य गांधी ने अंत में कहा था जाओ दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है। कोरोना हट जाए। आप रिटायर हो जाएं। फिर आपसे मिलूंगा जरूर जिससे आपको आश्वस्त कर सकूं कि मैं इस पत्र के कथ्य को लेकर गंभीर रहा हूं।
-लक्ष्मण सिंहदेव
जैन धर्म, बौद्ध धर्म के समान ही एक अनीश्वरवादी दर्शन है। विश्व की उतपत्ति का जैन सिद्धांत वैज्ञानिक मान्यताओं के सबसे जयादा नजदीक है ऐसा मेरा मानना है। 1893 में शिकागो हुई विश्व धर्म संसद में वीरचंद गाँधी ने विश्व पटल पर जैन धर्म से परिचित करवाया।
इस कॉन्फ्रेंस के लिए आचार्य विजयचन्द सूरी को जाना था चूँकि जैन मुनि केवल पैदल चलते हैं इसलिए वीरचंद को चुना गया। वीरचंद का जन्म 1864 में महुआ। गुजरात में हुआ। वीर चंद ने बंबई के एल्फिंस्टीन कॉलेज से बेचलर डिग्री ली और 21 साल की उम्र में वीर चंद गाँधी को भारतीय जैन संगठन का सचिव चुन लिया गया।
शिकागो की धर्म संसद में वीरचंद, जैन धर्म के आधिकारिक प्रतिनिधि के तौर पर गए। वीरचंद गाँधी ने अपनी विद्धता से बहुत श्रोताओ को प्रभावित किया और धर्म दर्शन के अलावा अनेक विषयों पर 535 लेक्चर दिए। समुद्र पार यात्रा करने के कारण बहुत से जैनियों ने वीर चंद की आलोचना की। स्वामी विवेकानंद ने वीर चंद के समर्थन में आलेख लिखा। विवेकानंद, वीरचंद के ज्ञान से प्रभावित थे। 1895 में वीरचंद दोबारा अमेरिका की यात्रा पर गए और वहां जैन धर्म का प्रचार किया। उसी समय भारत में दुर्भिक्ष की स्थिति हो गई। वीर चंद ने अमेरिका से एक अनाज का भरा जहाज और हजारो रूपये भिजवाएं। वीरचंद की मृत्यु मात्र 37 वर्ष की अवस्था में बंबई में 1901 में हो गई।
- Ritika
ये शब्द हैं असोसिएशन ऑफ पैंरट्स ऑफ डिसअपीर्यड पर्सन्स की अध्यक्ष परवीना एंगर के। वह परवीना एंगर जिन्हें कश्मीर की आयरन लेडी के नाम से भी जाना जाता है। पांच बच्चों की मां परवीना एंगर 1990 तक कश्मीर की एक आम महिला ही थी लेकिन 1990 के एक घटनाक्रम ने उनके जीवन के उद्देश्य को ही बदल दिया। 18 अगस्त 1990 को नैशनल सेक्योरिटी गार्ड्स परवीना एंगर के बेटे को उठाकर ले गई। तब उनका बेटा जावेद अहमद एहंगर सिर्फ ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था। अपने बेटे की खोज में परवीना एंगर जो साक्षर भी नहीं थी, जम्मू-कश्मीर की एक जेल से दूसरी जेल, पुलिस स्टेशन, अस्पतालों और मुर्दाघरों में भटकती रही लेकिन कुछ पता न चला। अपने बेटे की खोज में जुटी परवीना एंगर को यह एहसास हुआ कि यह कहानी सिर्फ उनकी नहीं थी। उनकी तरह ही न जाने कितने लोग कश्मीर में अपने गुमशुदा परिजनों की तलाश में दर-ब-दर भटक रहे थे।
अपने बेटे की खोज के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रही परवीना एंगर इस दौरान कई ऐसे लोगों से मिली जो अपने बेटों, पति और पिता की तलाश में भटक रहे थे। उन्हें इन सबका दुख अपने दुख जैसा मालूम हुआ। अपने गुमशुदा परिजनों की तलाश में भटक रहे इन परिवारों ने आपस में मिलना-जुलना शुरू किया। इन पीड़ित परिवारों की अनऔपचारिक मुलाकात ही एपीडीपी की ओर बढ़ाया गया पहला कदम था। ये लोग अपने गायब हुए परिवारजनों के नाम की लिस्ट हाईकोर्ट और ज़िला न्यायालयों की दीवारों पर चिपका दिया करते थे। पुलिस इन लोगों को मारती थी, महिलाएं भी चोटिल होती थी फिर इन लोगों ने परवीना एंगर के घर पर मिलना शुरू किया। इस शुरुआत में परवीना को पहले उनके परिवार का साथ नहीं मिला लेकिन इससे उनकी हिम्मत नहीं टूटी। परवीना एंगर बताती हैं कि जबसे उन्होंने ये कदम उठाया तब से परिवार वालों का व्यवहार उनके प्रति काफी बदल गया। अपने बेटे को खोजने और दूसरे लोगों को हिम्मत देने में जुटी परवीना तब अपने परिवार और अपने बाकी बच्चों पर पूरी तरह ध्यान ही नहीं दे पा रही थी।
तमाम मुश्किलों के बाद कश्मीर के इन गुमशुदा लोगों और अपने बेटे की तलाश ने ही असोसिएशन ऑफ पैंरट्स ऑफ डिसअपीर्यड पर्सन्स की नींव रखी। परवीना एंगर ने साल 1994 कश्मीर के मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील परवेज़ इमरोज़ और अन्य लोगों के साथ मिलकर एपीडीपी की शुरुआत की। एपीडीपी का मुख्य उद्देश्य गुमशुदा लोगों के परिवारों को हर तरह की मदद मुहैया करवाना है। कई मामलों में घर के मर्द जो इकलौते कमाने वाले होते हैं उनके गुमशुदा होने के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो जाती है। इसलिए एपीडीपी गुमशुदा लोगों के परिवारों को न सिर्फ कानूनी बल्कि आर्थिक और मेडिकल मदद भी मुहैया करवाता है। गुमशुदा लोगों की तलाश के लिए परवीना एंगर हर महीने की 10 तारीख को श्रीनगर के प्रताप पार्क में एक विरोध-प्रदर्शन आयोजित करती हैं ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके। उनके इस प्रदर्शन का मकसद खोए हुए परिजनों के दर्द को ज़िंदा रखना भी है।
कश्मीर लाइफ को दिए गए एक इंटरव्यू में परवीना एंगर बताती हैं कि उनका यह सफर इतना आसान नहीं था। लोग अपने गुमशुदा परिजनों के बारे में बात करने से डरते थे। जब वह गुमशुदा लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने जाती तो लोग उनके मुंह पर दरवाज़ा बंद कर देते, उन्हें गालियां सुनने को मिलती लेकिन उन्होंने अपना मिशन जारी रखा। गुमशुदा लोगों के मामले में उनका पहला काम होता था एफआईआर दर्ज करवाना, अगर पुलिस ने गुमशुदगी के मामले में पहले से एफआईआर दर्ज न की हो तो। परवीना एंगर के बेटे को गायब हुए लगभग 30 साल बीत चुके हैं लेकिन वह आज भी उतनी ही शिद्दत से उसे ढूंढने में लगी हुई हैं। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में परवीना कहती हैं, मैं एक बेहद शर्मीली इंसान थी, मैंने कभी घर के बाहर अकेले कदम तक नहीं रखा था लेकिन 1990 में जब मेरा बेटा गायब हुआ, इस घटना ने मेरे जीवन को बदलकर रख दिया। परवीना आज भी मानती हैं कि उनका बेटा ज़िंदा है और कभी न कभी वह उसे ज़रूर ढूंढ निकालेंगी।
कश्मीर लाइफ को दिए गए एक इंटरव्यू में परवीना एंगर बताती हैं कि उनका यह सफर इतना आसान नहीं था। लोग अपने गुमशुदा परिजनों के बारे में बात करने से डरते थे। जब वह गुमशुदा लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने जाती तो लोग उनके मुंह पर दरवाज़ा बंद कर देते, उन्हें गालियां सुनने को मिलती
परवीना एंगर साल 2005 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भी नामित की जा चुकी हैं। उन्हें सीएनएन-आईबीएन के एक पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था लेकिन उन्होंने यह पुरस्कार मेनस्ट्रीम मीडिया में कश्मीर को लेकर होने वाली कवरेज के आधार पर ठुकरा दिया था। साल 2008 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र की तरफ से अपना केस पेश करना का न्योता भी दिया गया था।
उन्हें साल 2017 में परवेज़ इमरोज़ के साथ नॉर्वे के प्रतिष्ठित राफ्टो पुरस्कार से भी नवाज़ा जा चुका है। पुरस्कार के दौरान उनके द्वारा दिए गए भाषण को एक बेहद भावुक और सशक्त भाषण के रूप में देखा जाता है। अपने भाषण के दौरान उन्होंने कहा था, ‘शुरुआत में मैंने अपने बेटे को हर जगह खोजा, मैं दुख में लगभग पागल हो चुकी थी। लेकिन तब मैंने देखा कि मेरे जैसे कई और लोग थे जो अपने बेटे, अपने पति, अपने भाई को खोज रहे थे इसलिए मैंने और परवेज़ इमरोज़ ने मिलकर एपीडीपी की स्थापना की।’ वह फिलिपिंस, थाईलैंड, इंडोनेशिया, लंदन, कंबोडिया जैसे कई देशों में भी मानवाधिकार के मुद्दे पर बोलने जा चुकी हैं। इतना ही नहीं उन्होंने ऑक्सफर्ड और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में कश्मीर में गायब हुए लोगों के संबंध में लेक्चर भी दिया है।
एपीडीपी के मुताबिक जम्मू-कश्मीर के लगभग 8000 लोग ऐसे हैं जो लापता हैं। कश्मीर में आफ्सपा लागू होने के बाद साल 1990 से लोगों के गुमशुदा होने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक नहीं थमा। यूनाइटेड नेशन डिक्लरेशन ऑन द प्रोटेक्शन ऑफ ऑल पर्सन फ्रॉम इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस (18 दिसबंर, 1992) के मुताबिक इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस मानवाधिकार उल्लंघन की श्रेणी में आता है। यूनाइटेड नेशन के अनुसार इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस का मतलब है किसी शख्स को उसकी मर्ज़ी के बगैर गिरफ्तार करना, हिरासत में लेना या अगवा करना और राज्य द्वारा उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर देना। साल 2007 में भारत ने इंटरनैशनल कंवेशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ ऑल पर्सन फ्रॉम इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस पर हस्ताक्षर तो किया था लेकिन इसे पूरी तरह लागू करने में असफल रहा है। इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस के बस कुछ ही मामलों की अब तक जांच हुई है।
परवीना एंगर को कश्मीर की आयरन लेडी के रूप में भी जाना जाता है पर वह कहती हैं कि कश्मीर की हर वो औरत आयरन लेडी है जो अपनों को खोज रही है। उनके मुताबिक यह उनकी अकेले की लड़ाई नहीं है क्योंकि उनकी तरह ही न जाने कितनी ही मांए अपने बेटों का इंतज़ार कर रही हैं। वह हर मामले से खुद को इतना जुड़ा हुआ इसलिए पाती हैं क्योंकि वह गुमशुदा लोगों के अधिकारों के लिए लड़ रही सिर्फ एक एक्टिविस्ट नहीं बल्कि खुद भी एक पीड़ित हैं।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
शोधकर्ताओं के अनुसार जंगलों के 5 किलोमीटर के दायरे में रहने वाली 71.3 फीसदी आबादी निम्न या मध्यम आय वाले देशों से सम्बन्ध रखती है
- Lalit Maurya
वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किए गए नए वैश्विक मानचित्र से पता चला है कि दुनिया भर में जंगलों के आस-पास 5 किलोमीटर के दायरे में करीब 160 करोड़ लोग बसे हुए हैं| यह विश्लेषण 2007 से 2012 के बीच एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित है| वन अर्थ नामक जर्नल में प्रकाशित इस शोध के अनुसार इस आबादी का करीब 64.5 फीसदी हिस्सा ट्रॉपिकल देशों में रहता है| वहीं विश्व बैंक द्वारा निम्न या मध्यम आय के रूप में वर्गीकृत देशों में इसकी 71.3 फीसदी आबादी बसती है|
इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और कोलोराडो बोल्डर विश्वविद्यालय से सम्बन्ध रखने वाले पीटर न्यूटन के अनुसार वैश्विक स्तर पर जंगलों के आसपास कितने लोग रहते हैं इस बारे में सही-सही कोई आंकड़े मौजूद नहीं हैं| यह शोध इस बारे में किया गया पहला प्रयास है जिसकी मदद से जंगलों के आसपास रहने वाले लोगों के लिए आजीविका का प्रबंध करने वाली परियोजनाओं में मदद मिल सकती है|
शोधकर्ताओं के अनुसार जो लोग अपनी आय के लिए जंगलों और उसके संसाधनों पर निर्भर रहते हैं उन्हें वन-निर्भर लोगों के रूप में जाना जाता है। हालांकि विश्व बैंक द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार संयोग से जंगलों के पास रहने वाले लोगों की संख्या वनों पर आश्रित लोगों की आबादी से मेल खाती है, जोकि करीब 160 करोड़ है| लेकिन जंगलों के पास रहने का यह मतलब नहीं है कि वो लोग अपनी जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं| न्यूटन के अनुसार वनों पर आश्रित लोगों से मतलब उनसे हैं जो वनों और उसके संसाधनों पर निर्भर हैं या फिर उनसे कुछ लाभ प्राप्त करते हैं| जबकि वनों के पास रहने वाले लोगों का तात्पर्य केवल जंगलों और उसके पास रहने वाले लोगों के स्थानिक सम्बन्ध से है|
जंगलों के आसपास रहने वाले लोगों की उनके संरक्षण में होती है महत्वपूर्ण भूमिका
न्यूटन के अनुसार जंगलों में और उसके आसपास बड़ी संख्या में लोग रहते हैं| जिनकी जंगलों के सतत विकास और संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है| ऐसे में जंगलों को प्रभावित करने वाले कार्यक्रम, परियोजनाएं और नीतियां इन लोगों को भी प्रभावित करती हैं|
जंगलों और उसके आसपास रहने वाले लोगों के बीच के स्थानिक संबंध को जानने के लिए न्यूटन और उनके सहयोगियों ने वर्ष 2000 से 2012 के बीच फारेस्ट कवर और जनसंख्या के घनत्व सम्बन्धी आंकड़ों का विश्लेषण किया है| इसके लिए जंगलों की सीमा के 5 किमी के दायरे में रहने वाले लोगों को शामिल किया गया है| साथ ही जिन क्षेत्रों में 5 एकड़ जमीन पर यदि 50 फीसदी से ज्यादा क्षेत्र पर यदि वृक्ष हैं तो उसे जंगल माना है| इसके साथ ही उन्होंने जिन क्षेत्रों में प्रति वर्ग किलोमीटर में 1,500 या उससे अधिक आबादी रहती है उसे वन क्षेत्र से बाहर रखा है|
शोधकर्ताओं का मानना है कि यह शोध अन्य शोधकर्ताओं और नीतिनिर्माताओं के लिए मददगार हो सकता है| जिसकी मदद से वो इन क्षेत्रों के विषय में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विश्लेषण कर सकते हैं| साथ ही इसकी मदद से जिन क्षेत्रों से जुड़े स्थानिक आंकड़े उपलब्ध हैं, उन स्थानों पर विश्लेषण किया जा सकता है| साथ ही इससे जंगलों के आसपास और उसपर निर्भर लोगों की स्थिति का जायजा लिया जा सकता है और उससे जुड़ी नीतियां बनाई जा सकती हैं|(downtoearth)
इस नई विकसित कोविड-19 त्वरित परीक्षण किट को अब ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से व्यावसायिक उपयोग के लिए विनियामक मंजूरी मिल गई है
कोरोना वायरस (एसएआरएस-सीओवी-2) के प्रकोप को नियंत्रित करने से जुड़े प्रयासों में एक महत्वपूर्ण कड़ी होती है कोविड-19 से संक्रमित रोगियों की पहचान। इस दिशा में लगातार काम कर रहे वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के शोधकर्ताओं द्वारा विकसित की गई कोविड-19 परीक्षण किट अब उपयोग के लिए तैयार है। इस नई विकसित कोविड-19 त्वरित परीक्षण किट को अब ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) से व्यावसायिक उपयोग के लिए विनियामक मंजूरी मिल गई है।
सीएसआईआर से संबद्ध नई दिल्ली स्थित जिनोमिकी और समवेत जीव विज्ञान संस्थान (आईजीआईबी) के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित यह एक पेपर-स्ट्रिप आधारित परीक्षण किट है, जिसकी मदद से कम समय में कोविड-19 के संक्रमण का पता लगाया जा सकता है। यह किट प्रेग्नेंसी का पता लगाने वाली किट की तरह है, जिसका उपयोग बेहद आसान है। इस पेपर स्ट्रिप किट में उभरी लकीरों से पता चल सकेगा कि कोई व्यक्ति कोरोना वायरस से संक्रमित है या नहीं। किट में ऐसे परीक्षण प्रोटोकॉल का उपयोग किया गया है, जिससे अन्य परीक्षण प्रोटोकॉल्स की तुलना में अपेक्षाकृत कम समय में परिणाम चिकित्सकों को मिल सकता है।
इस किट का विकास वैज्ञानिक समुदाय और उद्योग जगत के बीच एक प्रभावी साझेदारी का परिणाम है। भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विकसित इस परीक्षण को टाटा समूह द्वारा लॉन्च किया जाएगा। इसे सीएसआईआर-आईजीआईबी, आईसीएमआर और टाटा समूह ने साथ मिलकर विकसित किया है। उल्लेखनीय है कि इस किट के विकास और व्यावसायीकरण के लिए सीएसआईआर-आईजीआईबी और टाटा संस के बीच इस वर्ष मई के आरंभ में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे।
इस परीक्षण किट के नाम के साथ भी एक दिलचस्प बात जुड़ी है। बांग्ला फिल्मों के जासूसी किरदार के नाम पर इसको ‘फेलूदा’ नाम दिया गया है, शायद यह सोचकर कि किसी जासूस की तरह यह किट कोविड-19 संक्रमण का पता लगा सकती है। ‘फेलूदा’ किट वैज्ञानिकों की अपेक्षाओं पर खरी उतरी है। भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (आईसीएमआर) के दिशा-निर्देशों के अनुसार नये कोरोना वायरस का पता लगाने के लिए ‘फेलूदा’ किट को 96 प्रतिशत संवेदशनीलता और 98 प्रतिशत विशिष्टता के मापदंडों के अनुरूप पाया गया है।
यह पेपर स्ट्रिप-आधारित परीक्षण किट आईजीआईबी के वैज्ञानिक डॉ. सौविक मैती और डॉ. देबज्योति चक्रवर्ती की अगुवाई वाली शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा विकसित की गई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि फेलूदा परीक्षण किट, पारंपरिक आरटी-पीसीआर परीक्षणों की सटीकता के स्तर को प्राप्त कर सकता है। परीक्षण को विकसित करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि यह किट एक घंटे से भी कम समय में नये कोरोना वायरस (एसएआरएस-सीओवी-2) के वायरल आरएनए का पता लगा सकती है। आमतौर पर प्रचलित परीक्षण विधियों के मुकाबले यह किट काफी सस्ती है।
संक्रमण के संदिग्ध व्यक्तियों में कोरोना वायरस के जीनोमिक अनुक्रम की पहचान करने के लिए इस परीक्षण किट में स्वदेशी रूप से विकसित जीन-संपादन की अत्याधुनिक तकनीक क्रिस्पर (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats)-कैस-9 का उपयोग किया गया है। किट की प्रमुख विशेषता यह है कि इसका उपयोग तेजी से फैल रही कोविड-19 महामारी का पता लगाने के लिए व्यापक स्तर पर किया जा सकेगा। यह नैदानिक परीक्षण विशेष रूप से अनुकूलित कैस-9 प्रोटीन के उपयोग से विकसित किया गया है। वैज्ञानिक क्रिस्पर को भविष्य की तकनीक बताते हैं। उनका कहना है कि क्रिस्पर तकनीक का उपयोग आने वाले समय में कई अन्य रोगजनकों का पता लगाने के लिए भी किया जा सकता है।
सीएसआईआर के महानिदेशक डॉ शेखर सी. मांडे ने सीएसआईआर-आईजीआईबी के वैज्ञानिकों व शोध छात्रों, टाटा संस और डीसीजीआई को उनके अनुकरणीय कार्य और परस्पर सहयोग के लिए बधाई दी है। उन्होंने कहा है कि वर्तमान महामारी के दौरान इस नई नैदानिक किट को मंजूरी मिलना भारत के आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में बढ़ते कदमों को दर्शाता है। सीएसआईआर द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि यह भारतीय वैज्ञानिक समुदाय के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिसमें 100 दिनों से भी कम समय के भीतर शोध एवं विकास के क्रम से शुरू होकर उच्च सटीकता के साथ एक विश्वसनीय परीक्षण विकसित किया गया है।
सीएसआईआर-आईजीआईबी के निदेशक डॉ अनुराग अग्रवाल ने खुशी व्यक्त करते हुए कहा है कि इस प्रौद्योगिकी के विकास की परिकल्पना जीनोम डायग्नॉस्टिक्स और थैरेप्यूटिक्स के लिए सीएसआईआर के ‘सिकल सेल मिशन’ के तहत की गई थी। ‘सिकल सेल मिशन’ के तहत शुरू किए गए काम से एक नवीन ज्ञान का जन्म हुआ, जिसका उपयोग एसएआरएस-सीओवी-2 के नये नैदानिक परीक्षण को विकसित करने में किया गया है। उन्होंने कहा कि इस नई किट का विकास वैज्ञानिक ज्ञान व प्रौद्योगिकी के बीच परस्पर संबंधों एवं अनुसंधान टीम के नवाचार को दर्शाता है।
आईजीआईबी के वैज्ञानिकों ने बताया कि वे इस उपकरण को विकसित करने के लिए लगभग दो साल से काम कर रहे हैं। लेकिन, जनवरी के अंत में, जब चीन में कोरोना का प्रकोप चरम पर था, तो वैज्ञानिकों ने यह पता लगाने के लिए परीक्षण शुरू किया कि यह किट कोविड-19 का पता लगाने में कितनी कारगर हो सकती है। इस कवायद में किसी प्रभावी नतीजे पर पहुँचने के लिए वैज्ञानिक पिछले कई महीनों से दिन-रात जुटे हुए थे। अप्रैल में ही यह किट लगभग विकसित हो चुकी थी। पर, विश्वसनीयता और वैधता से जुड़े मानक परीक्षणों के बाद अब इस किट के व्यावसायिक उपयोग की मंजूरी मिली है।
टाटा मेडिकल ऐंड डायग्नोस्टिक्स लिमिटेड के सीईओ गिरीश कृष्णमूर्ति ने कहा है कि “कोविड-19 के लिए टाटा-क्रिस्पर परीक्षण की मंजूरी से वैश्विक महामारी से लड़ने के देश के प्रयासों को बढ़ावा मिलेगा। टाटा-क्रिस्पर परीक्षण का व्यावसायीकरण देश में शोध एवं विकास के लिए भारतीय प्रतिभा के संकल्प एवं समर्पण का द्योतक है। यह भारतीय प्रतिभा वैश्विक स्वास्थ्य सेवा और वैज्ञानिक अनुसंधान में दुनिया को अपना योगदान दे सकती है।”
(इंडिया साइंस वायर)(downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नौ आतंकियों और तीन जासूसों की गिरफ्तारी की खबर देश के लिए चिंताजनक है। आतंकी अल-कायदा और पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं और जासूस चीन से! जासूसी के आरेाप में राजीव शर्मा नामक एक पत्रकार को भी गिरफ्तार किया गया है। जिन नौ आतंकियों को गिरफ्तार किया गया है, वे सब केरल के हैं। वे मलयाली मुसलमान हैं। इनमें से कुछ प. बंगाल से भी पकड़े गए हैं। इन दोनों राज्यों में गैर-भाजपाई सरकारें हैं।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने इन लोगों को कुख्यात अल-कायदा और पाकिस्तान की जासूसी एजेंसी से संपर्क रखते हुए पकड़ा है। इन पर आरोप है कि इनके घरों से कई हथियार, विस्फोटक सामग्री, जिहादी पुस्तिकाएं और बम बनाने की विधियां और उपकरण पकड़े गए हैं। ये आतंकी दिल्ली, मुंबई और कोची में हमला बोलनेवाले थे। ये कश्मीर पहुंचकर पाकिस्तानी अल-कायदा द्वारा भेजे गए हथियार लेनेवाले थे। ये लोग केरल और बंगाल के भोले मुसलमानों को फुसलाकर उनसे पैसे भी उगा रहे थे।
भारत में लोकतंत्र है और कानून का राज है, इसलिए इन लोगों पर मुकदमा चलेगा। ये लोग अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने के लिए तथ्य और तर्क भी पेश करेंगे। उन्हें सजा तभी मिलेगी, जबकि वे दोषी पाए जाएंगे। लेकिन ये लोग यदि हिटलर के जर्मनी में या स्तालिन के सोवियत रुस में या माओ के चीन में या किम के उ. कोरिया में पकड़े जाते तो आप ही बताइए इनका हाल क्या होता? इन्हें गोलियों से भून दिया जाता। अन्य संभावित आतंकियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाती। ये आतंकी यह क्यों नहीं समझते कि इनके इन घृणित कारनामों की वजह से इस्लाम और मुसलमानों की फिजूल बदनामी होती है।
जहां तक चीन के लिए जासूसी करने का सवाल है, यह मामला तो और भी भयंकर है। जहां तक आतंकियों का सवाल है, वे लोग या तो मजहबी जुनून या जिहादी उन्माद में फंसे होते हैं। उनमें गहन भावुकता होती है लेकिन शीर्षासन की मुद्रा में। किन्तु जासूसी तो सिर्फ पैसे के लिए की जाती है। लालच के खातिर ये लोग देशद्रोह पर उतारु हो जाते हैं। पत्रकार राजीव शर्मा और उसके दो चीनी साथियों पर जो आरोप लगे हैं, वे यदि सत्य हैं तो उनकी सजा कठोरतम होनी चाहिए। राजीव पर पुलिस का आरोप है कि उसने एक चीनी औरत और एक नेपाली आदमी के जरिए चीन-सरकार को दोकलाम, गलवान घाटी तथा हमारी सैन्य तैयारी के बारे में कई गोपनीय और नाजुक जानकारियां भी दीं।
इन तीनों के मोबाइल, लेपटॉप और कागजात से ये तथ्य उजागर हुए। राजीव के बैंक खातों की जांच से पता चला है कि साल भर में उसे विभिन्न चीनी स्त्रोतों से लगभग 75 लाख रु. मिले हैं। भारत के विरुद्ध जहर उगलनेवाले अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ में राजीव ने लेख भी लिखे हैं। देखना यह है कि उन लेखों में उसने क्या लिखा है ? दिल्ली प्रेस क्लब के अध्यक्ष आनंद सहाय ने बयान दिया है कि राजीव शर्मा स्वतंत्र और अनुभवी पत्रकार है और उसकी गिरफ्तारी पुलिस का मनमाना कारनामा है। वैसे तो किसी पत्रकार पर उक्त तरह के आरोप यदि सत्य हैं तो यह पत्रकारिता का कलंक है और यदि यह असत्य है तो इसे सरकार और पुलिस का बेहद गैर-जिम्मेदाराना काम माना जाएगा।
दिल्ली पुलिस को पहले भी पत्रकारों के दो-तीन मामलों में मुंह की खानी पड़ी है। उसे हर कदम फूंक—फूंककर रखना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अव्यक्त
लगभग आठ साल पहले की बात है। दो जीव पंजाब सूबे के भारतीय हिस्सों में अपनी कुछ जिज्ञासाओं के साथ घूम रहे थे।
सबसे बड़ी जिज्ञासा थी कि पंजाब का किसान अपनी किसानी के बारे में क्या सोचता है? खासकर सरकार और आढ़तियों के साथ अपने संबंधों को कैसे देखता है?
हम पंजाब के लगभग सभी हिस्सों में गए, गाँवों में गए, मंडियों में गए, जिलों और तहसीलों में गए, खेतों और बागानों में भी गए।
दरबार साहिब के अमृत सरोवर में केसरिया रंग की मछलियों को अठखेलियाँ करते हुए भी देखा, मत्था ठेका, परसाद खाया, सबद-कीरतन भी सुने। गुरु अर्जुनदेवजी की बानी चल रही थी- ‘मिठ बोलणा जी.. हर सजण स्वामी मोरा...’ गुरु का, कुदरत का उपदेश था कि हम मीठी वाणी बोलें।
तो मीठी वाणी में ही किसानों से दिल खोलकर बातें हुईं। आढ़तियों से भी बिना किसी पूर्वाग्रह के मिले। सबसे प्रेम और करुणा से मिले। ऐसे मिले जैसे कोई अपने ही परिजनों से मिलता है।
किसान यूनियन के समृद्ध नेताओं में एक प्रकार का अत्युत्साह होता है। वे भी सज्जन लोग ही होते हैं, लेकिन उनकी किसानी में व्यापार और राजनीति घुली-मिली होती है।
आढ़तिया एसोसिएशन के नेताओं से भी उनकी ‘व्यावहारिक समस्याओं’ के बारे में खुलकर बातें हुईं। 2 परसेंट मार्जिन का माया-मोह किस तरह बाकी 98 परसेंट पर भारी पड़ता है, यह समझ में आया।
अपेक्षाकृत छोटे किसानों की ऋणग्रस्तता की कहानियाँ बड़ी कारुणिक थीं। घर की महिलाओं और 40 पार कर चुकीं अविवाहित बेटियों से बात करके कई बार हमारी आँखें सजल हो जातीं। फोटो खींचते हुए कई बार हाथ काँपने लगते और आखिरकार नहीं ही खींच पाते।
किसान और आढ़तिये के बीच का संबंध इतना शुष्क नहीं है। वे लंबे समय से एक साथ गर्भनाल की तरह जुड़े रहे हैं। महाजनी निर्भरता से शुरू होकर ये अब ये एक प्रकार के संरक्षक (पेट्रन) और यजमान (क्लाइंट) के सहोपकारी संबंधों में बदल चुका है। लेकिन पेट्रनेज चाहे कैसी भी हो, होती वह लगभग गुलामी ही है।
लेकिन इतना होते हुए भी सामाजिक रूप से यह संबंध केवल सौदेबाजी वाला या ट्रांजैक्शनल नहीं है। प्रचलित नज़रिए से एक को पीडि़त और दूसरे को पीडक़ के खाँचे में रखकर देखना आसान तो है, लेकिन यह दृष्टिकोण पूर्ण और पर्याप्त नहीं है।
राजनीतिशास्त्र की किताबों में पढ़ाते हैं कि राज्य या शासन एक ‘आवश्यक बुराई’ है। वह एक ‘नेससेरी ईविल’ है। ऐसे ही कभी-कभी आढ़तियों का चित्रण ‘डेविल’ के रूप में करते हैं। तो एक ‘ईविल’ हो गया और दूसरा ‘डेविल’ हो गया।
अब कॉरपोरेट के रूप में एक ‘सुपर-डेविल’ का भी भय व्याप्त है। वह गॉडजिला की तरह विचित्र शक्तियों से लैस बताया जाता है। वह पौराणिक कथाओं का ‘मय दानव’ बताया जाता है। यानी वह दिखता तो ‘रचनात्मक’ है, लेकिन वह छलिया भी (या छलिया ही) हो सकता है।
इधर शासन रूपी ‘ईविल’ किसी भी नाम, रूप या रंग को हो, वह ‘विकास’ नाम के चमकदार चेतक पर सवार होकर दायें-बायें देखे बिना ही दौड़ता रहता है। लेकिन उस चमकदार तुरंग के खुर में लगा कठोर नाल कब, किसे और कहाँ-कहाँ घायल कर सकता है, इसका उसे होश नहीं रहता।
किसान तो स्वभाव से ही राजा होता है। उसे राजा ही होना चाहिए। बल्कि उसी में असल शहंशाह होने की संभावना पाई जाती है। लेकिन आज वह भिखारी है। क्योंकि वह अपनी ताकत भूल गया है। वह भी इस पतनकारी और दिखावटी जीवन की अंधी दौड़ में पड़ गया है।
वह नशे में पड़ा। ऋण लेकर घी खाने के चक्कर में पड़ा। वह लाखों के दहेज के लेन-देन में पड़ा। खर्चीली और दिखावाबाज शादियों की अंधी खाई में गिरा। वह कनैडा और कैनबरा के अपने भाई-बंधुओं से प्रतियोगिता के कुचक्र में फँसा। वह धरती का श्रमनिष्ठ सेवक होने की जगह जमींदार बनने की चाह में स्वधर्म से च्युत हुआ।
वह खिलौनों या सामग्रियों की तरह सजी कुडिय़ों और हर बार एक नए मर्सीडीज़ से उतरकर उंगलियाँ लहराते मुंडों के वीडियोज़ के भुलावे में खो गया। गाँव-गाँव में महंगे रेस्तराँ और बार खुल चुके हैं। मौसमी तरकारी नहीं मिलेगी, लेकिन फ्राइज़, बर्गर, जिंगर और चिज्जा जरूर मिल जाएंगे।
बैंकों और केसीसी का मायाजाल फैला है। बीज से लेकर बोरी तक के लिए वह शासन और महाजन की दया पर निर्भर हो चुका है। अब वह तरह-तरह की बीमारियाँ लेकर बैठा है। इलाज के पैसे आढ़तिया देता है। जमीनें तक बंधक हो चुकी हैं।
वह अपना ही उगाया जहरीला गेहूँ और चावल नहीं खाना चाहता। सब्जियों पर जहरीली दवाइयाँ छिडक़ते-छिडक़ते वह खुद कैंसर के मुँह में जा गिरा है। मिट्टी उसकी कबकी मर चुकी है। मिट्टी के सूक्ष्म मनुष्योपकारी जीवों की चीख उसे समय रहते सुनाई नहीं पड़ी।
इसलिए आज वह शासन और महाजन के बीच थाली के बैगन की तरह इधर-उधर लुढक़ रहा है। वह अपनी ही शक्ति भूल चुका है। यह बात केवल पंजाब ही नहीं, कमोबेश देश के लगभग सभी हिस्सों के किसानों पर लागू होती है।
गुरु नानक देवजी स्वयं किसानी करते थे। स्वयं हल चलाते और फसल काटते हुए उनकी सौम्य छवियाँ आज के किसानों को आईना दिखा सकती हैं। उन्हें उनके स्वधर्म की याद दिला सकती हैं। पंथवादी कट्टरता की जगह उन्हें सच्ची रूहानियत की ओर ले जा सकती है।
‘जपुजी साहिब’ में गुरु नानक देव जी ने अपने अंतिम श्लोक (सलोकु) में कहा है—
‘पवणु गुरु, पाणी पिता, माता धरती महतु।
दिवसु राति दुइ दाइआ खैले सगल जगतु।
चंगिआईआ बुरिआईआ वाचै थरमु हदूरि।
करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि।’
यानी धरती माता है, पानी पिता है और हवा गुरु है। इनपर किसी की मालिकी नहीं हो सकती। रात और दिन काल के प्रतिनिधि हैं जो पूरे संसार को बच्चे की तरह खेल खेला रहे हैं। अच्छे और बुरे सभी कामों का हिसाब-किताब उसके दरबार में रखा जाता है। कोई उससे नजदीक रहे या दूर उसे अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है।
शासन और महाजन तो भटके हैं ही। धरती, पानी और हवा का वे सौदा कर चुके हैं। अहंकार और पतन के पंथ पर वे अपना मूल ही गँवा चुके हैं। दिखाई भले न देता हो, लेकिन भुगत तो रहे ही हैं। लेकिन किसान आज भी चाह ले तो अपनी रूहानियत से इन भूलों को राह दिखा सकता है।
फिर वो हाथ फैलाकर नहीं, बल्कि सिर उठाकर कविगुरु रवि ठाकुर की तरह मुक्तकंठ से उद्घोष करेगा—
(आमरा सबाइ राजा)
आमादेर एइ राजार राजत्वे—
नइले मोदेर राजार सने मिलब की स्वत्वे!
सबका मंगल हो, सबका भला हो!
-डॉ राजू पाण्डेय
सरकार कोविड-19 के कारण उत्पन्न स्वास्थ्य आपातकाल जैसी दशाओं के मध्य - जबकि संसद से बाहर और संसद में भी चर्चा, विमर्श, प्रतिरोध एवं जनांदोलन के लिए स्थान लगभग नगण्य है- कृषि सुधारों को अध्यादेशों के रूप में चोर दरवाजे से जून माह में लागू करती है, फिर संसद के मानसून सत्र में इन्हें विधेयकों के रूप में पेश किया जाता है और संसद के अंदर एवं बाहर जबरदस्त विरोध के बावजूद यह बिल पास कराए जाते हैं। राज्यसभा में विपक्ष द्वारा मत विभाजन की माँग अस्वीकार कर दी जाती है और बिल को ध्वनि मत से पास करा दिया जाता है जबकि विपक्ष यह दावा कर रहा है कि यदि मत विभाजन होता तो सरकार की हार तय थी।
बहरहाल जैसी इस सरकार की रणनीति रही है राज्यसभा में विपक्षी सदस्यों के हंगामे को आधार बनाकर राजनाथ सिंह के नेतृत्व में 6 मंत्रियों की प्रेस कांफ्रेंस होती है और रक्षात्मक होने के स्थान पर हमलावर तेवर दिखाए जाते हैं। सरकार की हड़बड़ी और हठधर्मिता संदेह उत्पन्न करने वाले हैं।
सरकार के यह कृषि सुधार किसानों के सहस्राधिक छोटे बड़े संगठनों द्वारा वांछित नहीं थे। किसी भी किसान संगठन ने इन सुधारों की न तो माँग की थी न ही इनके लिए कोई आंदोलन ही हुआ था। कृषि और किसी राज्य के भीतर होने वाला व्यापार राज्य सूची के विषय हैं। केंद्र सरकार इनके विषय में बिना राज्यों से चर्चा किए और बिना उन्हें विश्वास में लिए कोई कानून कैसे बना सकती है? सरकार ने पहले इन सुधारों को कोविड-19 विषयक राहत पैकेज से जोड़ा और इन्हें कोविड-19 व लॉक डाउन के कारण बर्बाद हो गए किसानों की दशा सुधारने के आपात उपायों के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की। किंतु यह सभी को पता था कि इन कृषि सुधारों का कोविड-19 और लॉक डाउन की मार झेल रहे बदहाल किसानों से कुछ भी लेना देना नहीं है, इसलिए सरकार का यह झूठ चल नहीं पाया और अब सरकार खोखली आक्रामकता के साथ यह कह रही है कि पिछले दो दशकों से जिन कृषि सुधारों की मांग की जा रही थी उन्हें हमने क्रियान्वित किया है। हमारे इरादे मजबूत हैं। हम निर्णय लेने वाली सरकार हैं जिसका नेतृत्व श्री नरेन्द्र मोदी जी के हाथों में है जिनका आविर्भाव ही भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए हुआ है। इसके बाद सरकार के प्रवक्ता और मंत्रीगण अपनी स्मरण शक्ति और कल्पना शक्ति की सीमाओं के अनुसार मोदीजी के अलौकिक और दैवीय गुणों का बखान करने लगते हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इन कृषि सुधारों को लागू करने के पीछे सबसे बड़ा तर्क यही है कि मोदी जी ने इनके लिए इच्छा की है।
कुल मिलाकर यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार किसी भी कीमत पर इन कृषि सुधारों को लागू करना चाहती है और इसके लिए वह अतिशय सतर्कता और चातुर्य का सहारा ले रही है। किंतु अनेक बार ऐसा लगता है कि सरकार अनावश्यक रूप से इतनी सावधानी बरत रही है। देश में किसान आंदोलन की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ताकतवर कहे जाने वाले किसान नेताओं में एक बड़ी संख्या छोटे पूंजीपतियों की है जिनके लिए कृषि एक व्यापार रही है और खेत में हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले असली किसान से जिनका रिश्ता स्वार्थी मालिक और मजबूर मजदूर का ही रहा है। जिस प्रकार ट्रेड यूनियन आंदोलन को राजनीतिक दलों के प्रवेश ने छिन्न-भिन्न कर दिया है उसी प्रकार किसान आंदोलन भी राजनीतिक दलों के प्रवेश के बाद एक लक्ष्य के लिए एकरैखिक संघर्ष कर पाने में असमर्थ सा हो गया है। आज किसान राजनीति करने वाले अनेक नेता किसानों के हित के लिए राजनीति नहीं करते बल्कि किसानों के बल पर अपना हित साधने की राजनीति करते हैं। आंदोलन को मूल लक्ष्य से भटकाने वाले समझौतापरस्त नेताओं की संख्या बढ़ी है जिनके लिए किसान हित के स्थान पर दलीय स्वार्थ और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं अधिक महत्वपूर्ण हैं।
सरकार अंतत: कॉरपोरेट घरानों के लिए कार्य कर रही है और सरकार का विरोध कर रहे किसानों की असली लड़ाई इन्हीं से होनी है। इस बात की पूरी आशंका है कि कृषि के कॉरपोरेटीकरण के विरोध में होने वाले किसान आंदोलन छोटे-बड़े स्थानीय पूंजीपतियों और दानवाकार कॉरपोरेट्स के मध्य हितों के टकराव में न बदल जाएं। यह दोनों ही समान आदर्शों द्वारा संचालित हैं, किसी भी कीमत पर अपने मुनाफे को बरकरार रखना और बढ़ाना इनका एकमात्र ध्येय है। अत: इनके बीच सौदे, समझौते और गठजोड़ की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी। बाजारवादी वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था उस आदिम सिद्धांत द्वारा संचालित होती रही है जिसके अनुसार छोटी मछली की नियति ही यह है कि बड़ी मछली द्वारा उसे खा लिया जाए किंतु यह तभी संभव हो सकता है जब छोटी मछलियों में एकता न हो, वे असंगठित हों और उनमें बड़ी मछली को मदद देने वाली छोटी मछलियां हों। दुनिया के विकासशील देशों में बाजारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था ने छोटे व मझोले उद्योग धंधों और कृषि को तबाह किया है।
बाजारवाद अपने मंसूबों में कामयाब हुआ है, इसके पीछे एक बड़ा कारण यह रहा है कि छोटे पूंजीपतियों, संपन्न और ताकतवर किसानों तथा उच्च मध्यम वर्ग ने इसे प्रारंभ में समृद्धि के एक अवसर के रूप में समझने की गलती की है और इसकी बड़ी कीमत भी चुकाई है। यह देश का दुर्भाग्य होगा यदि यह किसान प्रतिरोध दो शोषकों की नूरा कुश्ती में बदल जाए जहाँ कॉर्पोरेट घराने तथा नए तेवर और कलेवर वाले जमींदारनुमा किसान नेता आम किसान का खून चूसने के अपने अपने हक के लिए दावे करते नजर आएं और कोई ऐसी दुरभि संधि हो जाए जिसमें आम किसान को मैनेज करने का ठेका इन आधुनिक जमींदारों को मिल जाए।
अभी तक किसानों ने अपने आंदोलन का स्वरूप अराजनीतिक बनाए रखा है किंतु जब उनके भाग्य का फैसला राजनीतिज्ञों को ही करना है तब यह अराजनीतिक स्वरूप लंबे समय तक बरकरार रह पाएगा ऐसा नहीं लगता। आंदोलन को महत्वहीन बनाने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। इन कृषि सुधारों के समर्थन में आंदोलनरत किसानों के समाचार टीवी चैनलों पर आने लगे हैं। अब प्रायोजित समर्थन और प्रायोजित विरोध जैसे आरोपों और प्रत्यारोपों का विमर्श प्रारंभ हो जाएगा। किसानों के प्रतिरोध को हरियाणा और पंजाब के किसानों तक सीमित बताने और बनाने की कोशिश भी हो रही है जिससे इसे राष्ट्रव्यापी विस्तार न मिल सके।
सत्तारूढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस सिद्धांतत: इन कृषि सुधारों के समर्थक हैं। भाजपा जब विपक्ष में थी तब वही संवाद बोलती थी जो आज कांग्रेस बोल रही है और जब कांग्रेस सत्ता में थी तब वही संवाद अदा करती थी जो आज भाजपा द्वारा अदा किए जा रहे हैं। अभी तक इन दोनों अदाकारों के ये संवाद जनता को पसंद आते रहे हैं और इसीलिए किसी तीसरे विकल्प को अवसर नहीं मिलता।
यह दु:खद संयोग है कि अब भी जब इन कृषि सुधारों पर संसद में चर्चा हो रही थी तो कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व चर्चा में सम्मिलित नहीं हो सका। संभवत: पुत्र राहुल अपनी रुग्ण माता सोनिया की चिकित्सा के लिए देश से बाहर हैं। राहुल उन जवाहरलाल नेहरू के वंशज हैं जिनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा जेलों में गुजरा। अपनी अर्द्धांगिनी की गंभीर अस्वस्थता के दौरान भी नेहरू अंग्रेजों की कैद में थे। राहुल उस कांग्रेस के सदस्य हैं जिसके हजारों कार्यकर्ता स्वतंत्रता संग्राम में बहादुरी से लड़े और अपने परिवार की कीमत पर उन्होंने देश को आजादी दिलाई। राहुल उस कांग्रेस से जुड़े हैं जिसने गांधी जी के नेतृत्व में किसानों के हक की लड़ाई को देश की आजादी के महाभियान में बदल दिया था। इसीलिए उनसे यह अपेक्षा हमेशा रहती है कि वे प्राथमिकताओं का बेहतर चयन करेंगे और असाधारण साहस एवं समर्पण का परिचय देंगे।
देश के लघु और सीमांत किसानों तथा कृषि मजदूरों को हमने 2018-19 के महाराष्ट्र के लांग मार्च के दौरान सडक़ों पर अपने हक के लिए प्रदर्शन करते देखा था। यह असंतोष देश के अनेक प्रदेशों में व्याप्त था, उग्र धरने-प्रदर्शन आयोजित किए जा रहे थे। 2019 के लोकसभा चुनाव निकट थे और हम सब प्रसन्न एवं आश्वस्त थे कि पहली बार किसान कम से कम कुछ प्रदेशों में एक किसान के रूप में मतदान करेंगे। किंतु किसानों का यह असंतोष वोटों में बदल नहीं पाया। बहुतेरे किसानों ने जाति, धर्म और उग्र राष्ट्रवाद के आधार पर मतदान किया। अनेक किसान स्थानीय मुद्दों और प्रांतवाद के फेर में पड़ गए और भाजपा को फिर जीत मिली।
हरित क्रांति के जमाने से हमारे देश में अपनाई गई नीतियाँ कुछ ऐसी रही हैं कि कृषि की उन्नति और किसानों की समृद्धि में व्युत्क्रमानुपाती संबंध रहा है। कृषि जितनी ज्यादा उन्नत होती है, कृषि उत्पादन जितना ही अधिक बढ़ता है किसान उतना ही निर्धन और पराधीन होता जाता है। वर्तमान कृषि सुधार कोई अपवाद नहीं हैं। इन कृषि सुधारों से कृषि क्षेत्र का घाटा कम हो जाएगा। उन्नत तकनीक और यंत्रीकरण के कारण लागत में कमी आएगी। कृषि उत्पादन में वृद्धि होगी। कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण और परिरक्षण की सुविधाएं बढ़ेंगी। कृषि में अधोसंरचना का विकास होगा। किंतु इन सारे क्रांतिकारी परिवर्तनों का लाभ छोटे, मझोले और सीमांत किसानों तथा कृषि मजदूरों को कभी नहीं मिल पाएगा। यह कृषि सुधार देश की मिट्टी से सने असली किसान के लिए नहीं हैं बल्कि इन लाखों मेहनतकशों को जो थोड़ी बहुत आर्थिक आजादी या जमीन की मालकियत का जो खोखला सा अहसास मयस्सर था उसे भी उनसे छीना जा रहा है। इन कृषि सुधारों को लागू करने के पीछे जो तर्क दिया जा रहा है वह भी नया नहीं है। मंडी व्यवस्था में जबरन प्रविष्ट कराई गई असंख्य बुराइयों और इस व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से हम सभी परिचित हैं। कहीं राजनीतिकरण तो कहीं लालफीताशाही किसानों को उनके हक से वंचित करती रही है। समर्थन मूल्य की अपर्याप्तता और उस अपर्याप्त समर्थन मूल्य पर भी खरीद न हो पाने तथा किसानों को खरीदी गई फसल का दाम न मिलने की शिकायतें आम रही हैं। किंतु इन बुराइयों को दूर करने के स्थान पर अप्रत्यक्ष रूप से मंडी व्यवस्था को ही समाप्त करने का निर्णय लिया गया है। कृषि के निजीकरण के लिए प्रयुक्त तरकीब पुरानी है और कारगर भी। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को भी पहले कुव्यवस्था, कुप्रबंधन, संसाधनों की कमी और भ्रष्टाचार का शिकार बनाया जाता है। इन बुराइयों को प्रश्रय देने वाली सरकार से इन्हें दूर करने की आशा तो कतई नहीं की जा सकती हाँ सरकार निजी क्षेत्र को जादुई चिराग के रूप में प्रस्तुत करने की बाजीगरी अवश्य दिखाती है।
प्रधानमंत्री जी ने कहा कि इन कृषि सुधारों का विरोध करने वाले दरअसल किसानों का हक मारने वाले बिचौलियों के लिए काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री जी को इन बिचौलियों को परिभाषित करना चाहिए था। ये कोई परग्रही प्राणी नहीं हैं बल्कि व्यापार और राजनीति के अवसरवादी गठजोड़ की पैदाइश हैं, यह हर राजनीतिक दल की पसंद हैं और इनमें एक बड़ी संख्या भाजपा के पारंपरिक मतदाताओं की है। यह इसी देश के छोटे-मझोले व्यापारी और आढ़तिये हैं जो ग्रामीण राजनीति में दखल रखते हैं। ग्रामीण शोषण तंत्र का हिस्सा होने के बावजूद अंतत: ये स्थानीय ही होते हैं और कागजों में सिमटी सरकारी योजनाओं के निकम्मेपन के बावजूद ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चलायमान रखते हैं। स्थानीय ग्रामीणों से इनकी लव-हेट रिलेशनशिप होती है, यह ग्रामीणों का शोषण भी करते हैं किंतु जरूरत के वक्त यह उनके काम भी आते हैं।
लापता सरकारी तंत्र के अदृश्य कल्याणकारी कार्यक्रम और ग्रामीणों की पहुंच से बाहर रहने वाली बैंकिंग व्यवस्था के कारण इनकी आवश्यकता और प्रासंगिकता हमेशा बनी रहती है। इनकी संख्या बहुत बड़ी है। इनकी व्यापारिक गतिविधियां ग्रामीण रोजगार का एक महत्वपूर्ण जरिया हैं। यह उतने ही भ्रष्ट या ईमानदार होते हैं जितने हम सब हैं। कम से कम यह कॉरपोरेट कंपनी की तरह अपराजेय तो कतई नहीं होते। इन्हें बदला जा सकता है, सुधारा जा सकता है, अनुशासित, नियमित, नियंत्रित और दंडित किया जा सकता है। अपनी तमाम अराजकता के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था को बचाने वाला असंगठित क्षेत्र गाँवों में कुछ ऐसे ही विद्यमान है।
कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट जगत की एंट्री और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के बाद क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए बहुत अनुसंधान की जरूरत नहीं है। भारत से पहले अनेक विकसित और विकासशील देशों में यह प्रयोग किया गया है और अनिवार्यत: किसानों के लिए विनाशकारी रहा है। किंतु हमारी अर्थनीति के कारण हमें सारे समाधान निजीकरण में नजर आते हैं। हम जीडीपी में कृषि की घटती हिस्सेदारी को एक शुभ संकेत मानते हैं तथा यह विश्वास करते हैं कि यह अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार और सेवा एवं उद्योग आदि क्षेत्रों के विस्तार का परिणाम है। इसी प्रकार हमारी कुल वर्कफोर्स के 50 प्रतिशत को रोजगार देने वाली खेती के बारे में हमारी मान्यता है कि इससे जरूरत से ज्यादा लोग जुड़े हुए हैं और बहुत कम लागत में बहुत कम मानव संसाधन के साथ हम विपुल कृषि उत्पादन कर सकते हैं। गांवों से लोग पलायन करेंगे तो शहरी कारखानों को सस्ते मजदूर मिलेंगे। जब मनुष्य के स्थान पर आंकड़े महत्वपूर्ण बन जाएं, मानव जीवन की गुणवत्ता के स्थान पर उत्पादन की मात्रा हमारी प्राथमिकता हो, संपन्नता के आकलन में हम वितरण की असमानता को नजरअंदाज करने लगें तथा मनुष्य को विकास के केंद्र में रखने के बजाए संसाधन का दर्जा देने लगें तो इन कृषि सुधारों के विरोध का कोई कारण शेष नहीं बचता।
कृषि सुधार तब सार्थक होते जब बटाई पर जमीन लेने वाले भूमिहीन किसानों और भूमि स्वामियों के बीच कोई न्यायोचित अनुबंध होता जिसमें अब तक दमन और शोषण के शिकार भूमिहीन किसानों के हितों को संरक्षण दिया जाता। कृषि सुधार तब ऐतिहासिक होते जब भूमि सुधारों को पूरी ईमानदारी से लागू करने के लिए कोई रणनीति बनती जिसके माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी खेतों में अपना खून-पसीना लगाने वाले इन असली किसानों को उन खेतों का मालिकाना हक मिलता।
आजादी के बाद भी बंधुआ मजदूरी जारी है और खेती से जुड़े बंधुआ मजदूरों की एक विशाल संख्या है जो नारकीय जीवन जीने को बाध्य हैं। कृषि सुधार तब महत्वपूर्ण होते जब इन बंधुआ कृषि मजदूरों की आजादी के लिए प्रावधान किया जाता। कृषि सुधार तब किसान हितैषी होते जब सीमांत, छोटे और मझोले किसानों के सार्थक सहकारिता समूह बनाने की पहल होती जो चकबंदी, जैविक खेती, प्रसंस्करण और परिरक्षण से संबंधित कार्यों को संपादित करती। फिलहाल तो खेती के निजीकरण के बाद देश के निर्धन लोगों को मिलने वाली खाद्य सुरक्षा तक खतरे में नजर आ रही है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
यूपी एसटीएफ को प्राप्त बिना वारंट और मजिस्ट्रेट की अनुमति के गिरफ्तारी के अधिकार के दुरुपयोग को लेकर रोज सवाल उठते हैं। फिर भी, यूपी सरकार ने नए फोर्स को लेकर कहा है कि बिना सरकार की इजाजत के इसके अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ कोर्ट भी संज्ञान नहीं लेगा।
- के संतोष
जौनपुर जिले के अलीखानपुर गांव के रहने वाले दिनेश को बोलेरो सवार कुछ लोगों ने बीते 13 सितंबर को घर से ही जबरिया उठा लिया। हैरान-परेशान परिवार वाले लाइन बाजार थाने पहुंचे और अपहरण का मुकदमा लिखने की मांग करने लगे। पुलिस वालों ने आपराधिक इतिहास की जानकारी खंगाली और बाद में यह कहते हुए परिवार वालों को लौटा दिया कि ‘एक-दो दिन इंतजार कर लो। नहीं लौटा, तो मुकदमा लिख देंगे।’
14 सितंबर को दिनेश सकुशल घर लौटा तो परिवार वालों ने राहत की सांस ली। युवक ने बताया कि उसे स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) ने संदेह होने पर उठाया था। दरअसल, एसटीएफ ने दिनेश को इसलिए उठा लिया था कि उसे बिना किसी वारंट और मजिस्ट्रेट की अनुमति के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार है। इस अधिकार के दुरुपयोग को लेकर एसटीएफ की कार्यशैली पर सवाल रोज उठते हैं।
फिर भी, यूपी सरकार ने बीते 13 सितंबर को एसटीएफ की ही तर्ज पर स्पेशल सिक्योरिटी फोर्स (एसएसएफ) के गठन का निर्णय लिया है। इसे बहुत सारी शक्तियां दी गई हैं। इस फोर्स को भी बिना वारंट और मजिस्ट्रेट की इजाजत के लोगों को गिरफ्तार करने का अधिकार होगा। बिना सरकार की इजाजत के यूपी एसएसएफ के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कोर्ट भी संज्ञान नहीं लेगा।
सरकार का कहना है कि केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) की तर्ज पर इसे मेट्रो, ऐतिहासिक धरोहरों, एयरपोर्ट, धार्मिक स्थलों आदि की सुरक्षा में लगाया जाएगा। पुलिस के आला अधिकारियों की दलील है कि ‘एसएसएफ मेट्रो, ताजमहल, अयोध्या, काशी या फिर गोरखनाथ- जैसे स्थानों पर तैनात होगी। यहां संदिग्ध अवस्था में कोई मिले तो मजिस्ट्रेट या वारंट का इंतजार नहीं किया जा सकता।’
एसटीएफ की तरह ही एसएसएफ को भी संदेह की नजर से देखने की वजह है। एसटीएफ की बीते कुछ वर्षों में हुई कार्रवाई को देखकर विरोधी इसे योगी आदित्यनाथ की ‘स्पेशल ठाकुर फोर्स’ कहकर पुकारने लगे हैं। कानपुर के माफिया विकास दूबे के कथित एनकाउंटर के बाद इन आरोपों को अधिक बल मिला है। गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन कांड के बाद चर्चा में आए डॉ. कफील खान को यूपी एसटीएफ ने जिस प्रकार मुंबई में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था, तब भी सवाल उठे थे। अब जब हाईकोर्ट की तल्ख टिप्पणी के साथ दिए गए आदेश के बाद डॉ. कफील को जेल से रिहा किया गया, उसके बाद एसटीएफ के सियासी इस्तेमाल को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं।
वैसे, मुख्यमंत्री योगी अदित्यनाथ ने बीते 26 जून को ही एसएसएफ के गठन की घोषणा की थी। एसएसएफ पर एक साल में 1,747 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इसके लिए 1,913 पदों का सृजन किया जाएगा। जो खाका खींचा गया है, उसके मुताबिक इसमें 9,919 जवान होंगे। इसकी पांच बटालियन होंगी। लखनऊ में मुख्यालय होगा जो डीजीपी के अधीन होगा। एडीजी स्तर का अधिकारी यूपी एसएसएफ का मुखिया होगा। यूपी एसएसएफ को भी तलाशी लेने, गिरफ्तार करने, हिरासत में लेकर पूछताछ करने- जैसे अधिकार होंगे।
सरकार की नजर में इस तरह का फोर्स बनाना सबसे जरूरी काम है। वह भी तब जब सरकारी सेवाओं में स्थायी नियुक्ति से पहले पांच साल संविदा पर रखने से लेकर कोरोना किट में करोड़ों के गोलमाल के आरोपों में फंसी यूपी सरकार जबर्जस्त आर्थिक तंगहाली में है। तब ही तो इसके औचित्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं।
इसीलिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू आरोप लगाते हैं कि ‘केंद्र से लेकर प्रदेश तक की सरकारों ने जांच एजेंसियों को सियासी मोहरा बना दिया है। एसटीएफ का गठन संगठित अपराध पर अंकुश के लिए हुआ था। लेकिन ये अब डॉ. कफील खान जैसे चिकित्सक को गिरफ्तार करने के काम आ रही है। कुल मिलाकर, यह नया फोर्स भी आम लोगों के उत्पीड़न के लिए ही तैयार किया जा रहा है।’
उन्होंने पूछा कि अदालत को भी कमतर साबित करके आम जनता के अधिकारों की सुरक्षा कैसे हो पाएगी? समाजवादी पार्टी ने भी कुछ इसी किस्म की आशंकाएं जताई हैं। पूर्व पुलिस अफसर भी कह रहे हैं कि सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह फोर्स अपने अधिकारों का दुरुपयोग न करे। यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह की सलाह है कि दुरुपयोग रोकने के लिए सरकार को उत्तरदायित्व निर्धारित करने चाहिए और वरिष्ठ अफसरों को भी एक मैकेनिज्म बनाना होगा।(navjivan)
-पुष्य मित्र
1. पहला बिल- जिस पर सबसे अधिक बात हो रही है कि अब किसानों की उपज सिर्फ सरकारी मंडियों में ही नहीं बिकेगी, उसे बड़े व्यापारी भी खरीद सकेंगे।
यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि आखिर ऐसा कब था कि किसानों की फसल को व्यापारी नहीं खरीद सकते थे। बिहार में तो अभी भी बमुश्किल 9 से 10 फीसदी फसल ही सरकारी मंडियों में बिकती है। बाकी व्यापारी ही खरीदते हैं।
क्या फसल की खुली खरीद से किसानों को उचित कीमत मिलेगी? यह भ्रम है। क्योंकि बिहार में मक्का जैसी फसल सरकारी मंडियों में नहीं बिकती, इस साल किसानों को अपना मक्का 9 सौ से 11 सौ रुपये क्विंटल की दर से बेचना पड़ा। जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल था।
चलिये, ठीक है। हर कोई किसान की फसल खरीद सकता है, राज्य के बाहर ले जा सकता है। आप ऐसा किसानों के हित में कर रहे हैं। कर लीजिये। मगर एक शर्त जोड़ दीजिये, कोई भी व्यापारी किसानों की फसल सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत में नहीं खरीद सकेगा। क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर हां, तभी माना जायेगा कि वह सचमुच किसानों की हित चिंतक है।
2. दूसरा बिल- कांट्रेक्ट फार्मिंग। जिस पर उतनी चर्चा नहीं हो रही है। इसमें कोई भी कार्पोरेट किसानों से कांट्रेक्ट करके खेती कर पायेगा। यह वैसा ही होगा जैसा आजादी से पहले यूरोपियन प्लांटर बिहार और बंगाल के इलाके में करते थे।
मतलब यह कि कोई कार्पोरेट आयेगा और मेरी जमीन लीज पर लेकर खेती करने लगेगा। इससे मेरा थोड़ा फायदा हो सकता है। मगर मेरे गाँव के उन गरीब किसानों का सीधा नुकसान होगा जो आज छोटी पूंजी लगाकर मेरे जैसे नॉन रेसिडेन्सियल किसानों की जमीन लीज पर लेते हैं और खेती करते हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर भूमिहीन होते हैं और दलित, अति पिछड़ी जाति के होते हैं। वे एक झटके में बेगार हो जायेंगे।
कार्पोरेट के खेती में उतरने से खेती बड़ी पूंजी, बड़ी मशीन के धन्धे में बदल जायेगी। मजदूरों की जरूरत कम हो जायेगी। गाँव में जो भूमिहीन होगा या सीमान्त किसान होगा, वह बदहाल हो जायेगा। उसके पास पलायन करने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा।
3. तीसरा बिल- एसेंशियल कमोडिटी बिल।
इसमें सरकार अब यह बदलाव लाने जा रही है कि किसी भी अनाज को आवश्यक उत्पाद नहीं माना जायेगा। जमाखोरी अब गैर कानूनी नहीं रहेगी। मतलब कारोबारी अपने हिसाब से खाद्यान्न और दूसरे उत्पादों का भंडार कर सकेंगे और दाम अधिक होने पर उसे बेच सकेंगे। हमने देखा है कि हर साल इसी वजह से दाल, आलू और प्याज की कीमतें अनियंत्रित होती हैं। अब यह सामान्य बात हो जायेगी। झेलने के लिए तैयार रहिये।
कुल मिलाकर ये तीनों बिल बड़े कारोबरियों के हित में हैं और खेती के वर्जित क्षेत्र में उन्होने उतरने के लिए मददगार साबित होंगे। अब किसानों को इस क्षेत्र से खदेड़ने की तैयारी है। क्योंकि इस डूबती अर्थव्यवस्था में खेती ही एकमात्र ऐसा सेक्टर है जो लाभ में है। अगर यह बिल पास हो जाता है तो किसानी के पेशे से छोटे और मझोले किसानों और खेतिहर मजदूरों की विदाई तय मानिये। मगर ये लोग फिर करेंगे क्या? क्या हमारे पास इतने लोगों के वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था है?
-गिरीश मालवीय
इस बार आईपीएल के साथ जमकर ऑनलाइन जूए से सम्बंधित गेम्स को प्रमोट किया जा रहा है. कल पेटीएम पर जो गूगल ने प्रतिबंध लगाया था वह इसी से जुड़ा हुआ था लेकिन 4 घण्टे में ही पेटीएम ने गूगल से समझौता कर लिया. लेकिन इस घटना ने भारत मे बढ़ती ऑनलाइन स्पोर्ट्स गैंबलिंग की तरफ हमारा ध्यान खींच लिया है.
‘ऑनलाइन गेमिंग इन इंडिया 2021’ रिपोर्ट में बताया गया कि भारत का ऑनलाइन गेमिंग उद्योग जो 2016 में 29 करोड़ डॉलर का था वह 2021 तक 1 अरब डालर तक पहुंच जाएगा और इसमें 19 करोड़ गेमर्स शामिल हो जाएंगे. लेकिन अब गेमिंग के नाम पर जुआ खिलाया जा रहा है यदि आप टीवी पर ध्यान दे तो पाएंगे कि सबसे ज्यादा ऑनलाइन गेम से जुड़े विज्ञापन फैंटेसी क्रिकेट जैसे ड्रीम 11, एमपीएल ओर ऑनलाइन रमी खिलाने वाली कंपनियों के हैं.
उत्तर भारत मे इसका जोर अपेक्षाकृत कम है लेकिन दक्षिण भारत मे लोग युवाओं में इस ऑनलाइन जुए की प्रवृत्ति से परेशान हो गए हैं. आंध्र प्रदेश सरकार ने तो रमी और पोकर जैसे ऑनलाइन गेम्स पर प्रतिबंध तक लागू कर दिया है.
कुछ दिन पहले ही मुख्यमंत्री वाईएस जगन रेड्डी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में ऑनलाइन रमी और पोकर गेम को बैन करने का फैसला लिया गया. आंध्रप्रदेश में अब अगर कोई व्यक्ति ऑनलाइन जुआ आयोजित करते हुआ पाया जाता है तो पहली दफा पकड़े जाने पर जुर्माना लगाया जाएगा. अगर वही शख्स दोबारा ऐसे करता हुआ पकड़ा जाता है तो उसे दो साल तक की जेल भी हो सकती है. वहीं ऑनलाइन जुआ खेलने वालों को छह महीने तक की सजा हो सकती है.
ऑनलाइन रमी का प्रचलन समाज में बढ़ता ही जा रहा है. माना जाता है कि देश में ऑनलाइन रमी उद्योग के मौजूदा समय में करीब साढ़े पांच करोड़ खिलाड़ी हैं. लॉकडाउन के दौरान घर बैठे लोगो में तेजी से इसका प्रचलन बढ़ा है. फरवरी से मार्च 2020 के बीच ऑनलाइन गेमिंग साइट और ऐप इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या 24 फीसद बढ़ गई. जिस तरह से ऑनलाइन गेमिंग का प्रचलन बढ़ रहा है एक दिन गेमिंग इंडस्ट्री म्यूजिक और मूवीज को भी पीछे छोड़ देगी. अब ऑनलाइन गेमिंग को रेगुलेट करने की बात भी उठने लगी है........
लेकिन जिस तरह से समाज मे ऑनलाइन गैंबलिंग का जोर बढ़ रहा है यह अच्छे संकेत नहीं हैं. आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में स्थित पंजाब नेशनल बैंक का एक मामला सुर्खियों में बहुत आया. उस शाखा के कैशियर रवि तेजा ने ऑनलाइन गेमिंग के चक्कर में पहले अपना पैसा बर्बाद किया, फिर कर्ज लेकर गेम खेलने लगा. जब कर्ज का बोझ बढ़ गया और कर्ज देने वाले तकादा करने लगे, जब कर्ज का बोझ बढ़ने लगा तो उसने बैंक में जमा लोगों के पैसे को अपने अकाउंट में ट्रांसफर करना शुरू कर दिया. ऑडिट में जब 1 करोड़ 56 लाख 56 हजार 897 रुपये की कमी पाई गई. जांच में पता चला कि पैसा कैशियर के अकाउंट में ट्रांसफर हुआ है और वहां से ऑनलाइन गेमिंग साइट्स पर ट्रांसफर किया गया.
साफ दिख रहा है कि ऑनलाइन गैंबलिंग का जहर युवाओं में अपनी पुहंच बनाता जा रहा है और मोदी सरकार सब कुछ देखते हुए भी चुप होकर बैठी हुई है...(sabrangindia)
- chetnak
हमारे समाज में बदलाव के अलावा कुछ भी स्थायी नहीं होता। इसी बदलाव के चलते आज एक औरत को पुरुषों की ही भांति शिक्षा लेते, नौकरी पर जाते और व्यापार जगत में अपनी जगह बनाते हुए देखते हैं। हालांकि समानता पाने के इस सफर में बहुत सी जगह महिलाओं को आज भी बहुत ख़ास सफलता नहीं मिली है, पर धीरे-धीरे लोग अब स्त्रियों से जुड़े मुद्दो पर मुखर हो रहें हैं। इन्हीं मुद्दों में एक प्रमुख विषय है – महिलाओं का अपमानजनक निरूपण या उन्हें किसी वस्तु की तरह चित्रित करना।
हमारे इस विकासशील जगत में, जहां महिला सशक्तिकरण की बातें होतीं हैं, वहीं जमीनी हकीकत अक्सर यह देखने के लिए मिलती है कि विश्व का एक बहुत बड़ा भाग आज भी एक औरत को किसी निर्जीव वस्तु, मूक प्राणी या विलास के साधन से ज्यादा नहीं समझता। हम इसबात को उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। अक्सर कहा जाता है कि ‘लड़कियां घर की तिजोरी की तरह होती हैं।’ अगर कभी अकेली हों तो खुली तिजोरी बन जाती हैं, इसलिए उनकी निगरानी करते रहनी चाहिए। इसके अलावा, हमनें अनेकों बार लोगो को यह कहते हुए सुना होगा कि ‘औरत तो गऊ होती है, एकदम भोली, जिसे जैसा कहो वैसा ही करती है।’ पर क्या सच में इन बातों का कोई आधार है? क्या औरत को एक खुली या बन्द तिज़ोरी जैसी वस्तु बनाकर हम उसकी स्वतंत्रता पर सवाल तो नहीं खड़े कर देते? या गाय से जोड़कर उसे भोला, सहनशील या मूक बनने के लिए तो नहीं कहा जाता होगा? इन सब बातो का प्रभाव हमारे समाज पर बहुत गहरा पड़ता है। लोग नारी को सच में किसी वस्तु की तरह लेते हैं। जिसपर वो अपना निरंकुश अधिकार स्थापित कर सके, जो अपनी बात या विचारों को लेकर मूक रहे या जो किसी को खुश रखने और मोहित करने का साधन बने।
जियानी वर्सेस की कहानी
जियानी वर्सेस एक फैशन डिजाइनर थें। जिन्होंने नब्बे के दशक में ऐसी पोशाक बनाने का सोचा जिसमें एक औरत सशक्त, हीरो और पुरुषों से प्रबल लगे। उन्होंने यह पोशाक चमड़े से तैयार की और वोग के 100 साल पूरे होने पर उनकी बहन डोनातेला वर्सेस ने उस पोशाक को पहना। सबने उस पोशाक की तारीफ की, क्रिटिक्स से उसे अच्छी रेटिंग भी मिली पर वो पोशाक बाज़ार में अपना जादू नहीं बिखेर पाई। लोगो ने कहा कि ऐसे वस्त्र महिलाओ पर फबते नहीं हैं। इस घटना के बाद कुछ ऐसे प्रश्न सामने आए, कि जब फिल्मों के अंदर अभिनेत्रियों ने छोटे कपड़े पहनें तब उनकी फिल्म हिट हुई। पर जहां बात वैसे वस्त्रों को असल ज़िन्दगी में अपनाने की आयी, वहीं लोग पीछे हट गए। क्या लोग उन वस्त्रों में नारी के मोहक स्वरूप को ही अपनाना चाहते थे और जब वैसे ही वस्त्रों में उसका प्रबल रूप सामने आया, तब लोगो ने उसे स्वीकार नहीं किया? क्योंकि शायद उसके प्रबल अस्तित्व से लोगों को अपनी रूढ़िवादी सत्ता के गिरने का भय था। शायद वो आगे बढ़कर खुद को वस्तु की तरह इस्तेमाल किए जाने की प्रथा पर विराम लगा देती।
ये कोई नई बात नही है
महिलाओं का अपमानजनक निरूपण या वस्तु के समान चित्रण करना कोई नई बात नहीं है। इसका एक अच्छा खासा इतिहास है, जो हमें फिल्म जगत की ओर ले जाता है। क्या आपको नब्बे के दशक की फिल्मों में अभिनेत्री की ड्रेस याद हैं? वो कपड़े शरीर से इतने चिपके हुए होते थे कि सामान्य दिनचर्या में उन्हें पहनने पर सांस लेना भी मुश्किल हो सकता है। पर उस समय से ही फिल्मों में एक अभिनेत्री की शारीरिक बनावट को ज्यादा से ज्यादा दर्शाने की कोशिश होती थी, ताकि लोगो को फिल्म में मसाला मिल सके। जितना उन फिल्मों में अभिनेत्री मटक कर चलती थीं, क्या असलियत में भी कोई लड़की इतना मटक कर चलती हैं?
मदर इंडिया जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो हमें पता चलता है कि नारी का स्वरूप या तो साड़ियों में लिपटी आज्ञाकारी पत्नी या कोई फटी पुरानी साड़ी पहने बेबस मां या शरीर से चिपके हुए कपड़ों में बार डांसर, जैसे पात्रो में सिमटा हुआ था। क्या आपको सत्यम शिवम् सुंदरम फिल्म याद है? उस फिल्म के अंदर ज़ीनत अमान को जिस तरह की पोशाकें मंदिर के सीन में पहनने के लिए दी गई, क्या असल में भी गांव की औरतें वैसे वस्त्र पहनकर बाहर निकलती हैं? इन फिल्मों में वो दिखता था, जो बाज़ार में बिकता था।
बाज़ार में बेचने के लिए औरत को वस्तु की तरह चित्रित किया गया। एक ओर लोग अपने घर की स्त्रियों को घूंघट में रहना सिखाते थे और दूसरी ओर महिलाओं का अपमानजनक निरूपण करने वाली फिल्में हिट हो रहीं थीं। यह बात बहुत विचित्र सच्चाई है पर इन फिल्मों को हिट करने वाले वही आदर्शवादी लोग थे, जो अपने घर की बहू, बेटियों के सामने अभिनेत्रियों के कम कपड़े पहनने की बुराई करते थे और फिर हॉल में जाकर उन अभिनेत्रियों की फ़िल्मों को हिट बना देते थे। इसके अलावा भी अनेको उदाहरण हैं, जिनको यदि सोचा और समझा जाए तो पता चलता है कि महिलाओं की काबिल-ए-ऐतराज़ तशकील की जड़े इतनी गहरी क्यों हैं।
बाज़ार ने औरत को वस्तु की तरह चित्रित किया गया, जिसमें महिलाओं को ‘इंसान’ की बजाय एक ‘वस्तु’ की तरह दिखाया जाता है।
आज की बात करें तो हम देश में क्वारांटाइन लगने से कुछ समय पहले की घटना को लेते हैं। राजधानी दिल्ली के राजौरी गार्डन में स्थित एक बार ने एक औरत के शरीर के आकार की, बिकनी पहने हुई बोतल बनाई, जिसमें वो अपने ग्राहको को अल्कोहल देते थे। जब उन्होंने अपनी नई बोतल के चित्र इंस्टाग्राम पर साझा किए तब बहुत सी महिलाओं ने उसका विरोध किया। उनमें से कुछ महिलाओ का कहना था कि उस बार को अपनी नाराज़गी जताने पर भी उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसके बाद बार की तरफ से एक मैसेज आया कि, ‘हम पुरुषों के शरीर के आकर वाली बोतले भी बनातें हैं। और किसी भी महिला को ठेस पहुंचाने का हमारा कोई इरादा नहीं था।’ जबकि ग्राहक महिला का यह भी दावा रहा कि बार ने अपनी गलती की कोई माफ़ी नहीं मांगी और न ही वो पुरुषों के आकार की कोई बोतल बनातें हैं। तीन से चार दिन के बाद बार ने इंस्टाग्राम से अपनी उस पोस्ट को हटा दिया था। पर बोतल का उत्पादन बन्द हुआ या नहीं, इस विषय में अभी कोई सूचना नहीं है।
अब बात करतें हैं, टीवी पर आने वाले विज्ञापनों की जहां लड़के के डियो लगाते ही लड़कियां उसकी तरफ खींची चलीं जाती है। या स्लाइस के उस एड की जिसमें कटरीना कैफ बड़े कामुक तरीके से आम का रस बोतल से पीती हैं। बॉलीवुड ने अपने इतिहास को कायम रखने में कोई कमी नहीं की है। आज भी फिल्मों के अंदर औरत को अधिकांश खूबसूरती बिखेरने के लिए लिया जाता है। एक तरफ जहां आमिर खान जैसे अभिनेता अपने अभिनय में निपुणता लाने के लिए खुद को महीनों तैयार करतें हैं, अपने पात्र में ढलने के लिए भाषाएं सीखते है।
लोगों के मन में अब नारी की ऐसी छवि बन चुकी है, जहां उसे अपनी पहचान को नए आयाम देने के लिए किसी भी पुरुष से ज्यादा मेहनत करनी ही पड़ती है। औरत के सशक्त रूप को अपनाना, जहां उसकी अपनी सोच है, लोगो के लिए आसान नहीं है। और ऐसा अनपढ़ या ग्रामीण स्तर पर ही नहीं, अपितु पढ़े लिखे लोगो के स्तर पर भी है।
आपके अनुसार क्या उचित है? क्या स्त्री को एक वस्तु बनाकर उसके गुणों को अनदेखा करना चाहिए? क्यों हमारी इंडस्ट्री में तापसी पन्नू जैसी और अभिनेत्रियां नहीं है? नारी की पहचान सिर्फ उसके शरीर से है? या क्या उसके शरीर को मार्केटिंग पॉलिसी बनाना सही है? ऐसे बहुत सारे सवाल इस मुद्दे के साथ आते हैं, जिनका जवाब सिर्फ तभी मिलेगा जब लोग अपनी सोच पर काम करना पसंद करेंगे। जब वो समाज में स्थापित पूर्व आयामों से आगे बढ़कर सोचने का प्रयास करेंगे, तब जाकर शायद इस समस्या का हल हो पाएगा।
-कनुप्रिया
एक बात के लिए बीजेपी की शुक्रगुज़ार हूँ. एक बड़ा वर्ग जो राजनीति को गन्दा समझता था, उससे दूर रहता था, वो वर्ग जिसके लिये सीरियल्स थे और उनके आदमियों के लिये ख़बरें, वो वर्ग जिनकी दुनिया शॉपिंग, गृहशोभा, घर और बच्चों तक सीमित थी, वह वर्ग जिसके लिये वोट का मतलब घरवाले जहाँ कहें वहाँ निशान लगा देना था, राजनीति से उदासीन इस political reservoir को बीजेपी ने tap किया और अपने political motives का carrier बनाया.
BJP IT Cell ने जब अपने ऐतिहासिक झूठ, अश्वत्थामा मर गया जैसे अर्धसत्य और देशभक्ति मतलब हिंदू होने की विचारधारा व्हाट्सएप के जरिये प्रचारित करनी शुरू की तो यह वर्ग उसे फॉरवर्ड करने लगा और "कोई नृप होए हमें क्या हानि" की जगह मोदीजी आने चाहिये जैसा राजनीतिक चुनाव करने लगा. इन नवभक्तिनों को भक्तों का ख़ूब समर्थन मिला, अब महिलाओं के लिये " तुम्हें राजनीति का क्या " पता जैसे जुमले ग़ायब होने लगे क्योंकि यह राजनीति झुकाव सत्ता के लिये लाभकारी था, इस तरह अनजाने ही किनारे बैठा यह वर्ग राजनीति की मुख्यधारा का किंचित सजग हिस्सेदार बन गया.
कँगना को जिस तरह बीजेपी ने हाथों-हाथ लिया वह भी बहुत सकारात्मक है, कँगना एक उन्मुक्त अभिनेत्री रही हैं, उन्होंने अपने रोल्स के चुनाव में किसी संस्कृति को आड़े न आने दिया, न ही अपने जीवन में. मणिकर्णिका का रोल भले ही उन्हें देशभक्ति से जोड़ता हो मगर देशभक्ति को हिन्दूभक्ति की पर्याय मानने वाली विचारधारा के जो स्त्रियों को देखने के cultural resvervations हैं, वो उसके अनुरूप कभी नहीं रहीं. इसका सीधा सा मतलब है कि कंगना का समर्थन और उन्हें राजनीति अगुआई देना कहीं न कहीं उस जीवन शैली का भी स्वीकार है जिसे वो आजतक जीती आई हैं. इस तरह की जीवन शैली जीने वाली अन्य स्त्रियों के लिये कुत्सित शब्द बोलना और महिलाओं को तंग नज़रिए से देखने वाली मानसिकता का प्रदर्शन इतना आसान भी नहीं. स्त्रीद्वेषी दक्षिणपंथियों द्वारा इस खुलेपन के स्वीकार का स्वागत है.
महिलाओं को जिस तरह विरोधियों पर हमले के लिये राजनीतिक टूल के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है, यह भी स्त्रीवाद के लिये नकारात्मक कहाँ हैं. पायल घोष का आरोप अनुराग कश्यप पर सच है कि झूठ वो अलग बात है, मगर ये घोर दक्षिणपंथी जो कहा करते थे कि महिलाएँ झूठे आरोप गढ़ती हैं, 100 में से 90 बलात्कार के केस झूठे होते हैं, $%@ ख़ुद तो जगह जगह मुँह मारती हैं और फँसा आदमियों को देती हैं, अगर वो इसपर चुप रहते हैं या पायल घोष का समर्थन करते हैं तो भी यह महिलाओं के पक्ष की बात है. आप कीजिये समर्थन, उदाहरण सैट कीजिये, अगली बार किसी मामले में उपरोक्त बातें बोलना आसान नहीं होगा.
बाक़ी निर्मला सीतारमन तो हैं ही, कारगुज़ारी किसी की गालियाँ वो खा रही हैं, मगर कौन कहता है कि महिलाएँ वित्त नहीं सम्भाल सकतीं, मोदीजी ने उन्हें विभाग दिया है तो सोच समझकर ही दिया होगा.
मैं बीजेपी की शुक्रगुज़ार हूँ, वो इसी तरह महिलाओं को हर मामले में अपने बचाव के लिये आगे लाती रही, उन्हें अपनी रक्षा की अग्रिम पंक्ति में जगह देती रही, माने के front fighters, भले अपने स्वार्थ के लिये ही सही, इस तरह वो महिलाओं के जाने अनजाने सशक्तिकरण में बड़ा योगदान देती रहेगी.
प्रकाश दुबे
कुपित घर वालों ने घर में घेरा। नौबत यहां तक आ पहुंची कि बड़े घर के उप कप्तान ने महकमे के मैनेजर से शिकायत कर डाली। केन्द्रीय रसायन और उर्वरक राज्य मंत्री मनसुख मांडविया उर्वरक और रसायन कारखाने का मुआयना करने रामगुंडम पहुंचे। प्रदर्शनकारियों ने रास्ता छेंक लिया। साइकल सवारी के शौकीन मनसुख भाई अकेले होते तो पैडल मारकर निकल लेते। केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी साथ थे। पूरे देश में पुलिस महकमे पर हक्म चलाने के हकदार राज्य मंत्री को लगा- तौहीन हुई। केन्द्रीय गृह सचिव अशोक कुमार भल्ला संसद अधिवेशन के दौरान तैयारियों मे व्यस्त हैं। रेड्डी ने तेलंगाना पुलिस की शिकायत की। कहा- हम बीच सडक़ में अटके रहे। पुलिस ने रास्ता खुलवाने में घंटा भर लगा दिया। गृह सचिव जानते थे कि क्षेत्रीय लोकसभा सदस्य वेंकटेश नतकानी विधायक और समर्थकों के साथ धरने पर डटे थे। वेंकटेश की मांग घरेलू किस्म की थी-स्थानीय लोगों को रोजग़ार दो।
अच्छे दिन का खाता
अच्छे कारोबार का मतलब है -पैसा जा रहा है तो दूसरी तरफ से आता रहे। देश की वित्त मंत्री से बेहतर इस बात को कौन समझ सकता है? जवाहर लाल नेहरू विवि की छात्रा रहीं सुघड़ गृहिणी निर्मला सीतारामन के हाथ 14 हजार कर्मचारियों को नौकरी देने का नुस्खा हाथ लग गया है। देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक में इनकी नियुक्ति की जाएगी। संसद ा अधिवेशन समाप्त होने के बाद विज्ञापन ध्यान से देखते रहें। कुछ लोगों के मन में सिर्फ सवाल और संदेह उठते हैं। वे पूछेंगे कि इनकी जरूरत क्यों पड़ी? देश के गांव-देहात तक बैंकिंग सेवा पहुंचने तक का कारण सरकार बता देगी। छोटा सा एक कारण और है। कोई बताए न बताए, आप अभी जान लें।
स्टेट बैंक ने करीब 30 हजार कर्मचारियों की पक्की सूची बना ली हैं, जिन्हें दीपावली के आसपास स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दी जाने वाली है। गेट से आने वाले पढ़ते हैं-प्रवेश।
दूसरे दरवाज़े पर लिखा प्रस्थान पढ़ लिया करो।
जनता हवलदार की चुटकी
मुंबई महानगरी हो या पंजाब, जूलियो एफ रिबेरो ने पुलिस के नाम कामयाबी के कई मेडल जोड़े। उच्च्तम न्यायालय ने पुलिस सुधार केलिए रिबेरो समिति बनाई थी। रिबेरो ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को चिट्ठी लिखकर दंगों की जांच मेंं एकतरफ़ा कार्रवाई पर सवाल किया। पुलिस महकमे तथा कानून के शासन की पैरवी करने वालों में हलचल मची। दिल्ली के पुलिस आयुक्त ने लटपटाते हुए रिबेरो की चिट्ठी का जवाब दिया। रिबेरो ने दूसरा प्रेम पत्र ठोंका। दिल्ली के पुलिस आयुक्त से सवाल किया कि हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री के सुपुत्र अनुराग ठाकुर, रामेश्वर पंकज के लाडले कपिल मिश्र और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री के सपूत प्रवेश साहब सिंह वर्मा ने भडक़ाऊ भाषण दिए। उनके खिलाफ कार्रवाई में चुप्पी क्यों साधी? पुलिस आयुक्त जिन्हें दंगाई कह रहे थे, रिबेरो ने उन्हें गाँधीवादी माना। आईएएस से त्यागपत्र देकर सामाजिक सरोकार से जुड़े हर्षमंदर, शिक्षाविद प्रो अपूर्वानंद और तीसरे रिबेरो स्वयं। शब्दकोष में न सही, रिबेरो का अर्थ है-निडर। रिबेरो ने चिट्?ठी में चुटकी ली- लगता है यह निज़ाम गांधीवादियों को अच्छी निगाह से नहीं देखता। दिल्ली पुलिस ने गांधी जी के तीन बंदरों की शक्ल अख्तियार कर ली।
घर की खेती
शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल भारतीय जनता पार्टी के सबसे पुराने साथी हैं। शिवसेना के छिटकने के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल से हरसिमरत कौर ने त्यागपत्र दिया। विषय सूची में जिक्र न होने के बावजूद मंत्रिमंडल की बैठक में आए तीनों कृषि विधेयकों का हरसिमरत ने विरोध किया था। मंत्रिमंडल में हरसिमरत और लोकसभा में सुखबीर सिंह बादल के विरोध को सरकार ने तवज्जो नहीं दी। हरसिमरत की मां सघन चिकित्सा कक्ष में भर्ती है। इधर मां, उधर करतार। संसद में हाजिऱ रहकर विरोध में मतदान किया। मतदान करने का मतलब संसद में ना कहा। तीनों विधेयक लोकसभा में ध्वनि मत से पारित हुए हुए। लोकसभा में शिरोमणि अकाली दल के कुल जमा दो ही सदस्य हैं। यानी पति-पत्नी। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने कहा- मैं, बेटा, पोता और 90 प्रतिशत पार्टी सदस्य किसान हैं। छह साल तक मंत्रिमंडल में बादल की बहूरानी विराजी रहीं। अब किसान याद आ रहा है। पूछना मत उनसे।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसी देश का कोई नागरिक अपना या अपने बच्चों का नाम क्या रखे, इस पर तरह-तरह की पाबंदियां कई देशों में हैं। सउदी अरब ने तो ऐसे 51 नामों की सूची जारी कर रखी है, जिन्हें उसका कोई नागरिक नहीं रख सकता। वह सुन्नी राष्ट्र है। इसीलिए कई शिया नामों पर वहां प्रतिबंध है। लातीनी अमेरिका के कुछ राष्ट्र ऐसे हैं, जिनमें आप अपनी बेटी का नाम मरियम (ईसा मसीह की मां) तो रख सकते हैं लेकिन बेटे का नाम जिसस (मसीह) नहीं रख सकते।
तुर्की में कुर्द लोग बगावती माने जाते हैं। उनके नाम के साथ आप आरमेनियाई प्रत्यय (इयान) आदि नहीं लगा सकते। इस्राइल में काफी समय तक यह परंपरा चलती रही कि रुस और पूर्वी यूरोप से आनेवाले यहूदियों के नाम हिब्रू भाषा में रखे जाते थे। तुर्की में भी राष्ट्रवाद ने इतना जोर मारा था कि अरबी, फारसी, फ्रांसीसी नामों की बजाय नागरिकों, मोहल्लों और बाजारों के नामों का तुर्कीकरण किया गया था। भारत के आजाद होने के बाद बहुत से शहरों, मोहल्लों, सडक़ों, स्मारकों, बागों और भवनों के अंग्रेजी नामों को हटाकर भारतीय नामों को रखा गया है। ईरान में जब से आयतुल्लाहों का राज हुआ है, ईरान के शाहों और बदशाहों के नामों को दरी के नीचे सरका दिया गया है। अल्जीरिया के मुस्लिम शासकों से लडऩे वाली यहूदी योद्धा बेरबरा रानी का वहां अब कोई नाम भी नहीं लेता। चीन के शिनच्यांग (सिंक्यांग) प्रांत में उइगर मुसलमान रहते हैं। उन्हें भी कई इस्लामी नाम नहीं रखने दिए जाते हैं।
मध्य एशिया के ताजिकिस्तान में इस्लामी या अरबी नामों पर प्रतिबंध है। जब तक वह सोवियत संघ का हिस्सा था, वहां के लोग अपने नाम रुसी शैली में रखते थे लेकिन ज्यों ही वह राष्ट्र स्वतंत्र हुआ, वहां इस्लाम धर्म और अरबी संस्कृति ने जबर्दस्त आकर्षण पैदा किया लेकिन अब ताजिक सरकार ने ऐसे नाम रखने पर प्रतिबंध लगा दिया है और कहा है कि आप ताजिक भाषा और संस्कृति के नाम क्यों नहीं रखते ? आप अरबों की नकल क्यों करते है ? वैसे इंडोनेशिया के मुसलमान अपने नाम प्राय: संस्कृत भाषा में रखते हैं और अपने साहित्य और कला-कर्म में भारतीय नायकों का गुणानुवाद करते हैं लेकिन वे पक्के मुसलमान हैं।
अब सवाल यही है कि हम भारतीयों के नाम कैसे रखे जाएं ? वैसे भारत में भी अश्लील नाम रखने पर रोक जरुर है लेकिन नागरिकों को पूरी छूट है। वे अपना और अपने बच्चों का जैसा चाहें, वैसा नाम रखें। इस प्रक्रिया में न मजहब, न जाति, न भाषा और न ही सामाजिक-आर्थिक हैसियत का कोई प्रतिबंध है लेकिन मेरा अपना विचार है कि अपने बच्चों के नाम ऐसे रखने चाहिए, जो सार्थक हों, प्रेरणादायक हों और लोकप्रिय हों। ऐसे नाम या उपनाम क्यों रखे जाएं, जिनसे आपका मजहब, आपकी जाति, आपकी नस्ल और आपकी हैसियत का विज्ञापन होने लगे ? आपका नाम, नाम है या विज्ञापन ? सामान्य नामों पर सरकारी प्रतिबंध उचित नहीं है लेकिन क्या हमारे नाम और उपनाम जाति-निरपेक्ष और मजहब निरपेक्ष नहीं हो सकते ? क्या वे स्वदेशी भाषाओं में नहीं रखे जा सकते ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक वाजपेयी
घृणा का भूगोल
इस पर, बार-बार अनेक क्षेत्रों में, चिन्ता बढ़ रही है कि भारतीय समाज में घृणा और भेदभाव लगातार फैल रहे हैं. हमारा समय इस मामले में लगभग अभूतपूर्व है कि उसमें घृणा, भेदभाव, हत्या और हिंसा को उचित मानने वाले इतने अधिक हो गये हैं. यह भी पहली बार है कि इन वृत्तियों को फैलाने के साधन बहुत बढ़ गये हैं, अत्यन्त सक्षम हैं और उनकी पहुंच हमारी जनसंख्या के बड़े भाग तक हो गयी है.
हाल में बेहद लोकप्रिय और मनलुभावन फेसबुक को लेकर जो विवाद हुआ है उससे यह स्पष्ट है कि इस मंच को राजनैतिक और नैतिक रूप से तटस्थ मानना सरासर भूल है. और यह भी कि ऊपर जिन अभद्र-असामाजिक-अमानवीय वृत्तियों का ज़िक्र किया गया है उन्हें फैलाने में भी उसकी दुर्भाग्यपूर्ण और अलोकतांत्रिक भूमिका है. फेसबुक के मालिकों ने अपने बचाव में जो दलीलें दी हैं वे बेहद लचर हैं और यह स्पष्ट हो रहा है कि बिना किसी औचित्य और जवाबदेही के यह मंच सत्तारूढ़ शक्तियों का पक्षधर बन गया है और उसके हितसाधन में संलग्न भी है.
एक और पहलू उभरता है जिस पर विचार करना चाहिये. फ़ेसबुक जैसे माध्यम यह आकलन करके ही बाज़ार में आते हैं कि वहां किस तरह की वृत्तियां लोकप्रिय हैं और फैल सकती हैं. भले वह इसे स्वीकार न करे, पर फ़ेसबुक ने घृणा और भेदभाव के पक्ष में जो कुछ किया, वह इस आकलन पर आधारित है कि भारतीय समाज में घृणा और भेदभाव तेज़ी से फैल रहे हैं और फैलाये जा सकते हैं. इस आकलन के आधार पर ही वह सक्रिय हुई है. इससे फ़ेसबुक की बुनियादी अनैतिकता तो उजागर होती ही है, यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज में इन दुष्प्रवृत्तियों की चपेट में है और सत्तारूढ़ राजनीति उसका चतुर नियोजन अपने लिए कर रही है.
गनीमत यह है कि फेसबुक पर इनका विरोध करने वाले भी मौजूद हैं और इस माध्यम की व्याप्ति को देखते हुए हमें पहले आज़मायी ‘दुश्मन के मंच का इस्तेमाल’ करने की जुगत पर लौटना चाहिये. घृणा और भेदभाव को, किसी हद तक, प्रेम और सद्भाव की लगातार आक्रामक अभिव्यक्ति से संयमित किया जा सकता है. यह एक अनैतिक विडम्बना है कि हम ऐसे मंच का इस्तेमाल करें जो अनैतिक के पक्ष में सक्रिय-सचेष्ट है. लेकिन सत्तारूढ़ राजनीति ने गाली-गलौज करने वाली ट्रोलर्स की जो बड़ी टीम बनायी है वह भी इसी मंच का इस्तेमाल कर रही है. उनकी संख्या अपार लगती है. पर जो भी हो, प्रेम और सद्भाव को हिम्मत नहीं हारना चाहिये, न उम्मीद छोड़नी चाहिये.
नीचता की बेहद
सार्वजनिक जीवन में गिरावट, नैतिक और आध्यात्मिक गिरावट, राजनैतिक और सामाजिक गिरावट, थमने का नाम नहीं ले रही है. गिरावट-चौतरफ़ा है: राजनीति, सत्ता, मीडिया आदि सब इस गिरावट को तेज़ और गहरा करने में होड़ लगाये हुए है. और न्यायालय और अन्य संवैधानिक संस्थाएं इस गिरावट को रोकने के बजाय उसे बढ़ाने और कुतर्क से वैध ठहराने की होड़ में हैं. कोविड मामलों का आंकड़ा पचास लाख के पार जा चुका है, बेरोज़गारी का प्रतिशत ऐतिहासिक होने जा रहा है, लेकिन सप्ताहों से हमारे बड़े टेलीविजन चैनल एक फ़िल्मी अभिनेता की आत्महत्या को सबसे बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में पूरी नीचता से व्यस्त हैं. यही नहीं, जैसा कि सर्वथा प्रत्याशित था, बिहार के चुनावों में इस आत्महत्या को एक मुद्दा बनाने की ओर क़दम उठाये जा रहे हैं. नीचे गिरने की, लगता है, हमारे सार्वजनिक जीवन में कोई हद नहीं रह गयी है: सत्ताकामी और उसकी पिछलग्गू शक्तियां नीचता की हर हद को पार करने की ओर पूरे आत्मविश्वास और आक्रामता से बढ़ रही हैं. झूठ, झांसा, दुचितापन, वाक्हिंसा, निराधार लांछन आदि नयी राजनीति का स्वभाव बन गये हैं. उसके लिए किसी तरह की भी नीचता जायज़ है जिससे कोई हित सधता हो.
किसी भी क़ीमत पर सफल होने की होड़ में फंसा मध्यवर्ग, जो किसी तरह के नैतिक बोध से शून्य होने को अपनी भारतीयता की पहचान मानने लगा है, नीचता के इस रौरव में मुदित मन शामिल रहा है. अलबत्ता इसके कुछ चिह्न उभर रहे हैं कि उसके कुछ हिस्से का, ख़ासकर बेरोज़गार पढ़े-लिखे नौजवानों का, अब मोहभंग हो रहा है: पुण्यनगरी इलाहाबाद में उनका एक जुलूस थालियां बजाकर रोज़गार की मांग करते निकला है, कोविड महामारी को भगाने के लिए एकजुटता दिखाने के लिए नहीं. यह असन्तोष निश्चय ही बढ़ेगा. घृणा से पेट नहीं भरता और भेदभाव से रोज़गार नहीं मिलता या चलता.
जो विकल्पहीनता बार-बार बतायी जाती और बिना किसी सूक्ष्म विश्लेषण के, स्वीकार की जाती रही है वह हो सकता है कि अब मिटने के करीब है. सवा सौ करोड़ से अधिक आबादी वाला इतना बड़ा देश, इतनी बड़ी सभ्यता विकल्पहीन नहीं हो सकते. विकल्प तो उभर के रहेगा. बल्कि शायद कई विकल्प होंगे. पर उन्हें कारगर होने के लिए कोमल घृणा और कोमल भेदभाव का आसान रास्ता छोड़ना होगा. उनका काम उन मुद्दों पर फिर राजनीति को केन्द्रित करने का होना चाहिये जो ग़रीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, लोक स्वास्थ्य आदि के हैं. आज मानवीय नियति सारे संसार में घृणा-भेदभाव-हिंसा द्वारा निर्धारित की जा रही है. उसका भारत में एक अहिंसक सत्याग्रही प्रतिरोध उभरना चाहिये. हमें किसी महानायक की प्रतीक्षा नहीं है. हमें तो साधारण की गरिमा और पहल का इन्तज़ार है जो गिरावट को थाम ले.
आधुनिकता और हिंसा
इन दिनों आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता पर कम बात होती है. यह कुछ ऐसा है कि मानो दोनों ही बीत चुकी वृत्तियां हैं. उनकी जगह क्या है, क्या आ गया है यह बहुत स्पष्ट और व्यापक रूप से मान्य नहीं हुआ है. हमारा समय कुछ इस क़दर उलझा और उलझाने वाला है कि उसे किसी केन्द्रीय वृत्ति से परिभाषित करना बहुत कठिन है. इसमें कोई सन्देह फिर भी नहीं हो सकता कि यह समय बेहद हिंसक है. भारत में अधिक, पर अन्यत्र भी कम नहीं. हिंसा की विचित्र और कई बार अप्रत्याशित दुर्भाग्यपूर्ण निरन्तरता मानवीय विकास में है.
आधुनिकता जब पश्चिम में अपने चरम पर थी और सोचने-रचने के सभी पारम्परिक स्थापत्य ध्वस्त किये जा चुके थे तब वहां दो विश्वयुद्धों, नाज़ीवाद, फ़ासीवाद और सोवियत साम्यवाद के विविध रूपों में हिंसा का ताण्डव हुआ, दशकों चला. हिंसा इतनी अधिक व्यापी कि करोड़ों लोगों का नरसंहार हुआ. आधुनिकता को इसका दुश्श्रेय है कि उसके अन्तर्गत पहले दो विश्वयुद्ध हुए और इतना भीषण नरसंहार हुआ. यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि आधुनिकता के मूल में जो मुक्ति का स्वप्न था वह क्यों और कैसे हिंसा के रौरव में बदल गया? उसने मुक्ति के नाम पर परतंत्रता के नये संस्करण कैसे प्रस्तुत और पुष्ट किये? यह भी याद रहना चाहिये कि आधुनिकता का एक वैकल्पिक अहिंसक संस्करण महात्मा गांधी ने भारत में विकसित किया और इतिहास में सम्भवतः सबसे विकराल औपनिवेशिक साम्राज्य का अन्त शुरू किया. इस का स्पष्ट आशय यह है कि आधुनिकता से व्यापक मुक्ति, बिना हिंसा और नरसंहार के, संभव थी.
उत्तर-आधुनिकता ने दृष्टियों की बहुलता को स्वीकार किया और आधुनिकताओं की बहुलता को भी. पर उसने भी दशहतगर्दी के रूप में हिंसा, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के अधिक असहिष्णु और अनुदार होते रूप में व्यक्त हिंसा, हिंसा के कुछ रूपों जैसे जातीय घृणा और भेदभाव को बढ़ावा दिया. उत्तर-आधुनिकता ने, आधुनिकता का अनुगमन करते हुए, अत्याधुनिक तकनीकों का बर्बर प्रयोग करना शुरू किया. आज भारत में अत्याधुनिक तकनीक का धड़ल्ले से दुरुपयोग हिंसा-हत्या-भेदभाव-घृणा के लिए किये जाते हम लगातार देख रहे हैं. यों पहले भी उसके कुछ न कुछ तत्व सक्रिय थे, पर अब हम उत्तर-आधुनिक दौर में लोकतंत्र-न्याय-समता में कटौती, तानाशाही वृत्ति का वैध ठहराया जा रहा उदय, साम्प्रदायिक और धर्मान्धता का अपार विस्तार देख रहे हैं. पारंपरिक और आधुनिक झूठों और प्रपंचों की जगह बहुत आक्रामक ढंग से उत्तर-आधुनिक झूठों और प्रपंचों ने ले ली है. आज झूठ किसी को लज्जित नहीं करता और सच की सार्वजनिक जीवन में कोई जगह और परवाह नहीं रह गयी है. क्या उत्तर-आधुनिक हिंसा का कोई उत्तर-आधुनिक विकल्प, अहिंसक और मानवीय गरिमा की रक्षा करने वाला है या सम्भव है? उसके कोई लक्षण कहीं नज़र आते हैं, हमारे बेहद चकाचौंध और चिकने-चुपड़े समय में?(satyagrah.scroll.in)
-संजय पराते
हमारे देश की आज़ादी से पहले का इतिहास है अंग्रेजी उपनिवेशवाद के अधीन नील की खेती का और गांधीजी का इसके खिलाफ संघर्ष का. यह इतिहास स्वाधीनता-पूर्व उन दुर्भिक्षों से भी जुड़ता है, जो भारत ने भुगता-भोगा था. लाखों लोगों के भूख से मरने की कहानियां अभी भी हमारी स्मृतियों से बाहर नहीं हुई हैं, जबकि लाखों टन अनाज उस समय भी सरकारी गोदामों में भरे पड़े थे. तब नेहरूजी की नई स्वाधीन सरकार ने कृषि के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता की नीतियों को अपनाने की घोषणा की थी.
आत्म-निर्भरता की इन नीतियों की तीन बुनियादी बातें थीं : भूमि सुधार और किसानों को खेती के कच्चे माल के लिए सब्सिडी; समर्थन मूल्य पर उसके अनाज की खरीदी और उसके भंडारण की व्यवस्था तथा इस अनाज का राशन दुकानों के जरिये आम जनता में वितरण. इसका प्रभाव स्पष्ट था. खेती-किसानी की लागत कम हुई और खाद्यान्न उत्पादन के मामले में देश आत्मनिर्भर हुआ. ज्यादा उत्पादन होने पर भी फसलों का बाज़ार में भाव नहीं गिरा, क्योंकि सरकारी खरीद की गारंटी थी. कम उत्पादन या अकाल की स्थिति में भी खाद्यान्न का बाज़ार में भाव नहीं चढ़ा, क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली मौजूद थीं. आवश्यक वस्तु अधिनियम में खाद्यान्न के आने से कालाबाजारी और जमाखोरी पर रोक लगी. अब आत्म-निर्भरता की इन तीनों बुनियादी बातों को अलविदा कहा जा रहा है.
इस वर्ष जून में जो कृषि संबंधी अध्यादेश जारी किए गए थे, विधेयकों का रूप लेकर अब वे कानून बनने की प्रक्रिया में है. सार-रूप में ये अध्यादेश हैं :
1. ठेका कृषि पर अध्यादेश : यह अध्यादेश सभी खाद्यान्न फसलों, चारा व कपास को किसानों के साथ "आपसी सहमति" के आधार पर अपनी जरूरत के अनुसार ठेके पर खेती करवाने का किसी भी कंपनी को अधिकार देता है.
2. मंडी समिति, एपीएमसी कानून पर अध्यादेश : यह संशोधन किसानों की फसलों को किसी भी कीमत पर मंडी से बाहर खरीदने की कॉर्पोरेट कंपनियों को छूट देता है.
3. आवश्यक वस्तु कानून 1925 में संशोधन : यह संशोधन आम आदमी के भोजन की सभी वस्तुओं गेहूं, चावल समेत सभी अनाजों, दालों व तिलहनों को तथा आलू-प्याज को आवश्यक वस्तु की श्रेणी से बाहर करता है.
लोक-लुभावन भाषा में प्रस्तुत इन विधेयकों को 'किसान मुक्ति' का रास्ता बताया जा रहा है, क्योंकि अब किसान कहीं भी, किसी के भी साथ व्यापार कर सकेगा. यह सब 'एक देश, एक बाज़ार' के नाम पर किया जा रहा है. लेकिन इन विधेयकों के अंदर जो प्रावधान किए गए हैं, वे ढोल की पोल खोलने वाले हैं. ये विधेयक किसानों की मुक्ति का नहीं, किसानों और उपभोक्ताओं की तबाही का रास्ता तैयार करते हैं.
दुनिया के किसी भी देश में कृषि की जो प्रगति हुई है, वह संरक्षणवादी नीतियों के जरिये ही हुई है. अमेरिका और दुनिया के तमाम साम्राज्यवादी देश, जो तीसरी दुनिया की खेती-किसानी को अपनी लूट का निशाना बनाए हुए हैं, खुद अपने देश में कृषि क्षेत्र में संरक्षणवादी नीतियों को लागू कर रहे हैं और भारी सब्सिडी दे रहे हैं. भारत में भी जीडीपी में कम योगदान के बावजूद हमने खाद्यान्न आत्मनिर्भरता हासिल की है, तो इसका कारण सरकारों द्वारा कृषि को संरक्षण दिया जाना ही है. इन कानूनों के जरिये अब संरक्षणवादी नीतियों को हटाया जा रहा है. याद रहे, मुक्त व्यापार हमेशा दौलत-संपन्न बलशालियों के पक्ष में होता है, विपन्नों के पक्ष में नहीं. इन विपन्नों की सुरक्षा संरक्षण के जरिये ही हो सकती है.
कृषि का क्षेत्र त्रि-आयामी है और उत्पादन, व्यापार व वितरण से इसका सीधा संबंध है. इसके किसी भी आयाम को कमजोर करेंगे, तो कृषि के क्षेत्र पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा. यहां तो अब एक साथ तीनों आयामों पर ही हमला किया जा रहा है. ये तीनों विधेयक मिलकर कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए हमारे देश के किसानों और आम उपभोक्ताओं को लूटने का एक पैकेज तैयार करते हैं. हिन्दुत्ववादी कॉर्पोरेट का यह नंगा चेहरा है.
बात उत्पादन से शुरू करें. तीन दशक पहले नव-उदारवादी नीतियों को लागू किया गया था. कृषि के क्षेत्र में सब्सीडियां घटाने का नतीजा था कि खेती-किसानी की लागत महंगी हुई है. खेती-किसानी के घाटे का सौदा होने और क़र्ज़ में डूबने के कारण पिछले तीस सालों में कम-से-कम चार लाख किसानों ने रिकॉर्ड आत्महत्या की हैं. एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्ष भी 'मोदी राज के अच्छे दिनों में' 10357 खेतिहरों ने आत्महत्या की हैं. इसके बावजूद अब ठेका खेती की इजाजत दी जा रही है.
ठेका खेती के दो अनुभवों को याद करें. पहला, बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने गुजरात के 9 गरीब किसानों पर उसके द्वारा रजिस्टर्ड आलू बीज से आलू की अवैध खेती करने के लिए 5 करोड़ रूपये मुआवजे का दावा ठोंका था और व्यापारिक मामलों को देखने वाली गुजरात की कोर्ट पेप्सिको के साथ खड़ी हो गई थी. दूसरा मामला छत्तीसगढ़ का है, जहां मजिसा एग्रो-प्रोडक्ट नामक कंपनी ने इस प्रदेश के सात जिलों के 5000 किसानों से 1500 एकड़ से अधिक के रकबे पर काले चावल की फसल की खरीदी का समझौता किया था, लेकिन उत्पादन के बाद इस कंपनी ने या तो फसल नहीं खरीदी या फिर चेक ही बाउंस हो गए. आज तक किसानों को उनके नुकसान के 22 करोड़ रूपये नहीं मिले हैं. ये दो अनुभव अब देश के पैमाने पर किसानों के आम अनुभवों का हिस्सा बनने जा रहे हैं, किसानों की तबाही की नई कहानियों के साथ.
ठेका खेती का अर्थ है कि कॉर्पोरेट कंपनियां अब अपनी मनमर्जी से अपनी शर्तों के अनुसार किसानों को खेती के लिए बाध्य करेगी. "आपसी सहमति" का प्रावधान तो केवल दिखावा है. इन विधेयकों के प्रावधान भी कॉर्पोरेटों के पक्ष में ही रखे गए हैं, जो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि किसानों को खेती-किसानी का पूरा सामान कंपनी से उसके भाव पर खरीदना होगा. इसका अर्थ है कि उसे जमीन गिरवी रखकर क़र्ज़ लेना होगा. यदि बिक्री के समय फसल का बाज़ार भाव 'कंपनी से किए गए अनुबंध से कम' है, तो कंपनी फसल न खरीदने या कम कीमत देने के लिए स्वतंत्र है. ऊपर से तुक्का यह कि अनुबंध तोड़ने के लिए कंपनी को किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकेगी. लेकिन यदि बाज़ार में फसल का भाव अनुबंध से ज्यादा है, तो भी किसान को अपनी फसल कंपनी को बाज़ार भाव से कम दाम पर ही बेचना होगा और वह अपनी फसल बाज़ार में नहीं बेच सकता. लुब्बो-लुबाब यह कि जोखिम तुम्हारा, मुनाफा हमारा! इस प्रकार यह विधेयक किसानों को लाभकारी दाम नहीं, कंपनियों के लिए मुनाफा सुनिश्चित करता है. तो यह है किसानों की मुक्ति की असलियत!!
अब व्यापार पर बात करें. हमारे देश का खाद्य बाज़ार 62 लाख करोड़ रुपयों का है. दो-दो केन्द्रीय बजट इसमें समा जाते हैं - इतना बड़ा! देश की 35000 कृषि उपज मंडियों के जरिये इस बात को सुनिश्चित करने की कोशिश की जाती है कि किसानों को समर्थन मूल्य मिलें और केवल लाइसेंस प्राप्त व्यापारी ही इन मंडियों में प्रवेश करें. मंडियों के बाहर फसलों की खरीदी-बिक्री पर अभी रोक है और इसके लिए जुर्माने का प्रावधान है. लेकिन कंपनियों के लिए अब यह प्रतिबंध हटाया जा रहा है और उसे कोई शुल्क अदा किए बिना मंडियों से बाहर खरीदने, और यहां तक कि किसानों की खेतों से फसल उठाने, की छूट दी जा रही है. किसानों से कहा जा रहा है कि यदि उसे अच्छी कीमत मिलती है, तो उसे रायपुर का अपना माल दिल्ली ले जाकर बेचने की भी छूट है. यह ठीक वैसा ही सपना है, जैसा संविधान के अनुच्छेद-370 को हटाते हुए इस देश के लोगों को 'कश्मीर में जाकर जमीन खरीदने' का दिखाया जा रहा था. हकीकत तो यह है कि इस देश का गरीब किसान अपनी फसल ट्रेक्टर-ट्रोलियों में लादकर मंडियों में ले जाने, नीलामी के लिए कई-कई दिन इंतजार करने और फिर अपनी फसल का मूल्य पाने के लिए और कुछ दिन इंतजार करने की भी हालत में नहीं होता.
इस कानून के प्रावधानों का कुल मिलाकर यह असर होने जा रहा है कि मंडियों में किसानों की सामूहिक सौदेबाजी की जो ताकत बनती है, उस ताकत को ही ख़त्म किया जा रहा है. अब कॉर्पोरेट कंपनियों को यह अधिकार मिलने जा रहा है कि बिना कोई शुल्क चुकाए किसानों के खेतों से ही फसल उठवा लें और समर्थन मूल्य देने की भी उस पर कोई कानूनी बाध्यता नहीं रहेगी. कृषि व्यापार में अंतर्राज्यीय बाधाएं ख़त्म हो जाने के बाद अब कंपनियां भी अपनी निजी मंडियां स्थापित कर लेंगी और गांव-गांव में कम भाव में किसानों की फसल खरीदने के लिए दलाल नियुक्त करेगी, जो स्वाभाविक रूप से उस इलाके के ताकतवर लोग ही होंगे. इन्हें कानून में एग्रीगेटर (जमाकर्ता) कहा गया है. यही लोग ऑनलाइन व्यापार भी स्थापित करेंगे, जो फसल के बाज़ार में आने के समय भाव गिराने का खेल पूरे देश के पैमाने पर खेलेंगे. कागजों में सरकारी मंडियां तो होंगी, लेकिन किसानों की फसल खरीदने वाला कोई नहीं होगा और इसलिए बेहतर दाम पाने के लिए 'मंडियों के चयन की' कोई 'स्वतंत्रता' भी नहीं होगी, जिसका दावा विधेयक में किया गया है. फसलों का मूल्य निर्धारण और सब कुछ सरकारी नियंत्रण से बाहर होगा. यह है मुक्त व्यापार की असलियत!!
और अब वितरण पर बात. स्वाभाविक है कि सरकारी मंडियों के जरिये किसानों का अनाज नहीं बिकेगा, तो समर्थन मूल्य की बाध्यता से तो सरकार मुक्त होगी ही, राशन दुकानों के जरिये इसके सार्वजनिक वितरण की जिम्मेदारी से भी छुट्टी मिलेगी, क्योंकि सरकारी गोदाम तो खाली रहेंगे. इन तीनों कृषि विरोधी विधेयकों के पीछे सरकार का मकसद भी यही है कि कृषि क्षेत्र में इन जिम्मेदारियों से वह मुक्त हों. लेकिन आवश्यक वस्तुओं की सूची से खाद्यान्न को 'बाहर' निकालने का अर्थ यह है कि अब व्यापारी असीमित स्टॉक जमा कर सकेगा, कार्टेल बनाकर कृत्रिम संकट पैदा करेगा और कालाबाजारी के जरिये मुनाफा कमाएगा. अतः ये विधेयक केवल किसानों की ही नहीं, आम उपभोक्ताओं की लूट के दरवाजे भी खोलता है. विधेयक में स्पष्ट कहा गया है कि जब तक अनाज व तेल के दाम पिछले साल के औसत मूल्य की तुलना में डेढ़ गुना व आलू-प्याज, सब्जी-फलों के दाम दुगुने से ज्यादा नहीं बढ़ेंगे, तब तक सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी. इसका अर्थ है कि खाद्य वस्तुओं में महंगाई को 50-100% की दर से और अनियंत्रित ढंग से बढ़ाने की कानूनी इजाजत दी जा रही है और 30 रूपये किलो बिकने वाले आटे को अगले साल 45 रूपये में और उसके अगले साल 67 रूपये में बेचने की अनुमति है. इसी तरह इस समय बिक रहा 60 रूपये किलो का टमाटर अगले साल 120 रूपये किलो और उसके अगले साल 240 रूपये किलो बिकेगा, फिर भी सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी. इस प्रावधान का उपयोग वायदा कारोबार में सट्टेबाजी के लिए किया जाएगा. इसका मतलब है, खेती-किसानी के बाद जनता की थाली की सब्जी-रोटी, दाल-भात निशाने पर है. इस प्रकार, ये तीनों विधेयक सार-रूप में इस बात की घोषणा करते हैं कि अब भविष्य में कॉर्पोरेट कंपनियां ही खेती-किसानी करवायेंगी, खाद्यान्नों का देश के अंदर और बाहर (आयात-निर्यात) व्यापार करेगी और वितरण करेगी. इन कामों में सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा और वह केवल मक्खी मारने का काम करेगी.
इन तीनों विधेयकों का मिला-जुला प्रभाव किसानों और देश के आम उपभोक्ताओं के जीवन-अस्तित्व के लिए बहुत खतरनाक होगा, क्योंकि :
1. अब फसल की खरीदी कंपनियां करेंगी और इस काम से सरकार व मंडियों का नियंत्रण समाप्त हो जाएगा.
2. अब यह कंपनियां किसानों से अपनी शर्तों पर बंधुआ के रूप में खेती करा पाएंगी, जिसमें जोखिम किसानों का ही होगा.
3. कंपनियों की खरीदी व्यवस्था स्थापित होते ही सरकार आसानी से न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने और फसल की खरीदारी करने की व्यवस्था से पीछे हट जायेगी. जब खाद्यान्न 'आवश्यक वस्तु' ही नहीं रहेगी, तो इनके भाव और व्यापार पर भी सरकारी नियंत्रण समाप्त हो जाएगा.
4. जब सरकारी खरीद ही रूक जायेगी, तो इसके भंडारण और सार्वजानिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था भी समाप्त हो जायेगी. इसी प्रकार, बीज, कीटनाशक व खाद की आपूर्ति करने और कृषि के लिए बिजली-पानी की व्यवस्था करने का जिम्मा कंपनियों पर छोड़ दिया जायेगा. इसके लिए इन कंपनियों को भारी सब्सीडी भी दी जाएगी.
5. इन कानूनों का सबसे बड़ा नुकसान भूमिहीन खेत मजदूरों और सीमांत व लघु किसानों को होगा, जो हमारे देश में कुल खेतिहर परिवारों का 85% से ज्यादा है. खेती-किसानी अवहनीय हो जाने से वे धीरे-धीरे अपनी जमीन और जीविका के साधन से वंचित हो जायेंगे. अलाभकारी कृषि से उन पर और कर्ज़ चढ़ेगा, किसान आत्महत्याओं में और तेजी से वृद्धि होगी.
6. इसका नुकसान हमारे देश के पर्यावरण को भी होगा, क्योंकि ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच में ये कंपनियां जीएम बीजों, अत्यधिक हानिकारक रसायनों के इस्तेमाल और खेती के हानिकारक तरीकों को बढ़ावा देगी. इससे भूमि की बंजरता बढ़ेगी और निकट भविष्य में खाद्यान्न आत्म-निर्भरता ख़त्म होगी. अनाज के लिए विकसित देशों पर निर्भरता बढने से हमारी राजनैतिक संप्रभुता को भी खतरा पैदा होगा, जो खाद्यान्न संकट का इस्तेमाल राजनैतिक ब्लैकमेल के लिए करते है.
ये विधेयक राज्यों के अधिकारों का भी हनन करते हैं. देश के संघीय ढांचे में कृषि राज्यों का विषय है. लेकिन राज्यों से बिना विचार-विमर्श किए जिस प्रकार केन्द्रीय कानून बनाए जा रहे हैं, वे राज्यों को कृषि क्षेत्र के विनियमन के अधिकार से ही वंचित करते हैं. यह देश के संघीय ढांचे का सीधा उल्लंघन और संविधान विरोधी कदम है.
अपने पाशविक बहुमत के आधार पर मोदी सरकार भले ही इन विधेयकों को संसद से पारित करवा लें, लेकिन इसे लागू होना उस जमीन पर ही है, जिसे हमारे देश के बहुसंख्यक छोटे किसान सदियों से जोतते-बोते आ रहे हैं. वे इसका प्रतिरोध करेंगे कि कॉर्पोरेट कंपनियां उनकी जमीन को हड़प कर जाएं. संसद के अंदर का जनतांत्रिक विपक्ष का प्रतिरोध अब सड़क की लड़ाई लड़ने के लिए उतर रहा है. जून से ही जारी किसानों का राज्य स्तरीय प्रतिरोध अब देशव्यापी प्रतिरोध में संगठित हो रहा है और नए जोश से मैदान में उतर रहा है. इस संगठित किसान आंदोलन को देश की आम जनता की मदद, समर्थन और एकजुटता की दरकार है – खेती-किसानी बचाने के लिए, खाद्य आत्म-निर्भरता बचाने के लिए और देश बचाने के लिए!!
(लेखक छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष हैं.)
- मानसी दाश
जोधपुर की विशेष सीबीआई कोर्ट ने बुधवार को पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और चार अन्य लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश दिया है.
ये मामला राजस्थान के उदयपुर में मौजूद होटल 'लक्ष्मी विलास पैलेस' के निजीकरण से जुड़ा है.
आरोप है कि साल 1999-2002 के बीच विनिवेश मंत्री रहे अरुण शौरी और विनिवेश सचिव प्रदीप बैजल ने अपने पद का दुरुपयोग कर इस सौदे में सरकारी ख़ज़ाने को नुकसान पहुंचाया है.
साल 2002 में इंडियन टूरीज़्म डेवेलपमेन्ट कॉर्पोरेशन (आईटीडीसी) के 29 एकड़ इलाके में फैले इस होटल को सरकार ने 7.52 करोड़ रुपये में भारत होटल्स लिमिटेड को बेचा था. आईटीडीसी के सबसे अधिक नुक़सान झेलने वाले 20-25 होटलों में इसका भी नाम शुमार था.

इससे पहले सीबीआई ने इस मामले में ये कहते हुए अपनी क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल कर दी थी कि अभियुक्त के ख़िलाफ़ अभियोग लगाने के लिए उनके पास पर्याप्त सबूत नहीं हैं.
उदयपुर के फतेह सागर झील के किनारे एक पहाड़ की चोटी पर बना लक्ष्मी विलास होटल इस विवाद के केंद्र में है (फ़ाइल फ़ोटो)
सीबीआई कोर्ट ने जिला प्रशासन को सौंपा होटल
सीबीआई की इस रिपोर्ट को कोर्ट ने ये कहते हुए खारिज कर दिया है कि "प्राथमिक तौर पर लगता है कि अरुण शौरी और प्रदीप बैजल के द्वारा की गई इस डील में केंद्र सरकार को 244 करोड़ रुपयों का नुक़सान उठाना पड़ा है."
सीबीआई जज पूरन कुमार शर्मा ने इस मामले की दोबारा जांच करने के आदेश दिए हैं और कहा है, "सीबीआई देश की एक सम्मानित संस्था है. प्रारंभिक जांच में धांधली होने संकेत मिलने के बावजूद क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल करना चिंता का विषय है."
कोर्ट ने आदेश दिया है कि होटल को तुरंत राज्य सरकार को सौंप दिया जाए और जब तक मामले का निपटारा नहीं हो जाता ये राज्य सरकार की कस्टडी में ही रहे.
जज ने भ्रष्ट्राचार रोधी क़ानून और भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी (आपराधिक साजिश) और 420 (धोखाधड़ी) के तहत दोषियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर कराने का आदेश भी दिया है.
इस मामले में अरुण शौरी, प्रदीप बैजल, लज़ार्ड इंडिया लिमिटेड के प्रबंध निदेशक आशीष गुहा, कांति करमसे एंड कंपनी के कांतिलाल करमसे विक्रमसे और भारत होटल्स लिमिटेड की चेयरपर्सन ज्योत्सना सुरी पर आरोप लगाए गए हैं.
क्या है पूरा मामला?
13 अगस्त 2014 को सीबीआई ने इस आधार पर पहली एफ़आईआर दर्ज की थी कि विनिवेश विभाग के कुछ अफसर और एक निजी होटल व्यवसायी ने साजिश कर 1999-2002 में लक्ष्मी विलास पैलेस की पहले मरम्मत की और फिर सस्ते दाम में उसे बेच दिया.
प्रारंभिक जांच के बाद सीबीआई ने इस मामले में कोर्ट को क्लोज़र रिपोर्ट सौंप दी. इस रिपोर्ट को जोधपुर सीबीआई कोर्ट ने खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि रिपोर्ट के अनुसार, ज़मीन की कीमत 151 करोड़ रुपये है, ऐसे में होटल के सौदे में ग़लत तरीके से सरकार को 143.48 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है.
कोर्ट ने कहा कि फाइल दोबारा खोली जाए और आरोपों की जांच हो. एक बार फिर इस मामले में क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल की गई जिसे खारिज कर दिया गया. लेकिन इस मामले में 13 अगस्त 2019 को सीबीआई ने तीसरी बार क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल की. इस बार फिर कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया है और फिर से मामले की जांच करने को कहा है.
तीसरी बार भी सीबीआई ने क्लोज़र रिपोर्ट फाइल की और कहा कि जांच आगे बढ़ाने के लिए उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं है.
इस मामले में 15 सितंबर 2020 को हुई सुनवाई में जज ने कहा कि सीबीआई को इस मामले में भ्रष्ट्राचार से जुड़े कुछ संकेत मिले हैं और उसकी रिपोर्ट के अनुसार होटल की संपत्ति असल में 252 करोड़ रुपये की है लेकिन इसे कम कीमत पर बेचा गया है.
सीबीआई के क्लोज़र रिपोर्ट फाइल करने को कोर्ट ने चिंता का विषय बताया और एक बार फिर सीबीआई को इसकी जांच के आदेश दिए है.
अरुण शौरी बीजेपी सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी और भरोसमंद लोगों में से एक माने जाते थे (तस्वीर में: नरेंद्र मोदी, भैरो सिंह शेखावत, लालकृष्ण आडवाणी और अरुण शौरी)
एफ़आईआर में नहीं था नाम
2014 अगस्त में सीबीआई ने जो एफ़आईआर दर्ज की थी उसमें अरुण शौरी का नाम नहीं था. इंडियन एक्सप्रेस अख़बार को अरुण शौरी ने बताया, "सीबीआई इस मामले को पहले ही बंद कर चुकी है क्योंकि उन्हें कोई सबूत नहीं मिले. जो एफ़आईआर थी उसमें मेरा नाम भी नहीं था, मुझे कोई अंदाज़ा नहीं कि मेरा नाम अब इसमें कैसे जोड़ा गया है."
साल 2014 में एक इंटरव्यू में अरुण शौरी ने कहा था कि होटल की कीमत का हिसाब करने वालों को चयन सरकार द्वारा अप्रूव्ड लिस्ट से किया गया था. उनका कहना था, "इसके मूल्य को लेकर राजस्थान हाई कोर्ट में भी चुनौती दी गई थी लेकिन कोर्ट ने आरोपों को बेबुनियाद पाया था."
साल 2014 में इस मुद्दे पर अरुण शौरी ने लिखा, "होटल के विनिवेश के फ़ैसले के बारह साल बाद एक अनाम व्यक्ति की मौखिक शिकायत के आधार पर सीबीआई ने ये जांच करने का फ़ैसला किया है."
उन्होंने लिखा, "2002 में हिंदुस्तान जिंक का निजीकरण हुआ जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने मामला खारिज कर दिया. लेकिन लक्ष्मी विलास होटल के संदर्भ में भी वही पैटर्न था. ये होटल 2002 में बेचा गया था."
"जब अधिकारी मेरे पाए आए तो मैंने उनसे पूछा कि किस आधार पर जांच शुरू की गई है. उन्होंने बताया कि उनके पास कुछ भी लिखित रूप में नहीं है, ये मौखिक शिकायत के आधार पर था."
2014 में इकोनॉमिक टाइम्स में इसी सौदे से जुड़ी एक ख़बर प्रकाशित हुई थी जिसमें कहा गया था कि अरुण शौरी के अनुसार उस समय विनिवेश पर बनी कैबिनेट समिति में अरुण जेटली शामिल थे, जो उस वक्त क़ानून मंत्री थे और उनके मंत्रालय ने तीन बार फाइल क्लीयर की थी.
जेटली ने इकोनॉमिक टाइम्स को बताया था, “मंत्री के तौर पर मैं पूरी प्रक्रिया का गवाह रहा था. मुझे इस बात पर कोई शक नहीं कि विनिवेश के दौरान जो लेनदेन हुआ वो पूरी तरह प्रक्रिया के तहत हुआ था."

क्या कहते हैं प्रदीप बैजल?
इसके कुछ दिन बाद प्रदीप बैजल ने एक अख़बार को बताया कि विनिवेश से जुड़े हर फ़ैसले अरुण शौरी और उस दौरान विनिवेश पर बनी कैबिनेट समिति के अध्यक्ष के तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लेते थे.
विनिवेश के दिनों के अपने अनुभवों पर प्रदीप बैजल ने 'द कंम्प्लीट स्टोरी ऑफ़ इंडियन रीफॉर्म्स: टूजी, पावर एंड प्राइवेट एंटरप्राइज़' शीर्षक से एक किताब लिखी थी.
इस किताब में उन्होंने दावा किया कि सीबीआई चाहती थी कि वो अरुण शौरी और रतन टाटा के ख़िलाफ़ बयान दें. साल 2004 से 2007 के बीच यूपीए सरकार के दौर में प्रदीप बैजल भारतीय टेलिकॉम नियामक, ट्राई के चेयरमैन थे.
शौरी- पत्रकार से विनिवेश चैंपियन बनने तक
पेशे से पत्रकार और लेखक अरुण शौरी को आपातकाल के दौरान अख़बारों में उनके लेखों के लिए जाना जाता है. इन्हीं लेखों को देखते हुए अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ने उन्हें एग्ज़ीक्यूटिव एडिटर के रूप में काम करने का न्योता दिया.
बात साल 1981 की है, उस वक्त महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अन्तुले थे. शौरी ने सरकारी पैसों के हेरफेर में उनकी भूमिका के बारे में जमकर लिखा जिसके बाद मामला इतना बिगड़ गया कि अन्तुले को पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा.
शौरी को 1982 में रेमन मैगसेसे पुरस्कार और 1990 में देश के तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण से नवाज़ा गया था.
साल 1998 के आते-आते वो बीजेपी में शामिल हो गए. इसके बाद वो राज्यसभा सदस्य मनोनीत हुए और वाजपेयी सरकार के दौर में विनिवेश, संचार और आईटी मंत्री के पद पर रहे.
विनिवेश मंत्री के तौर पर उन्होंने मारुति, वीएसएनएल और हिंदुस्तान ज़िन्क में निजी भागीदारी को बढ़ाया. इस दौर में सचिव के तौर पर उनके साथ प्रदीप बैजल रहे.
कहा जाता है कि दोनों की जोड़ी ने तीस से अधिक कंपनियों को निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपा जिससे सरकार को 5 हज़ार करोड़ से अधिक रुपये मिले.
2002 में अरुण शौरी ने संसद में बताया था कि सरकार 31 उद्योगों का विनिवेश कर रही है और 7 पीएसयू के निजीकरण कर रही है जिससे सरकारी ख़जाने को 5114 करोड़ रुपये मिले हैं.

वाजपेयी के साथ, लेकिन मोदी के विरोधी
अरुण शौरी बीजेपी सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी और भरोसमंद लोगों में से एक माने जाते थे. लेकिन बीजेपी की मोदी सरकार के विरोध में बोलने के लिए भी उन्हें पहचाना जाता है.
2014 अगस्त में एफ़आईआर दायर होने से पहले इसी साल मई में उन्होंने कहा था कि मोदी काम करने और जल्दी फ़ैसला लेने वाले नेताओं में हैं. लेकिन सरकार को लेकर उनका नज़रिया बदलने लगा. 2015 के मई में उन्होंने कहा कि लगता है है, "मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली ने अपने सहयोगियों के साथ-साथ अपने लोगों को भी डरा दिया है."
उन्होंने कहा कि मोदी के कार्यकाल के दौरान जो सामाजिक हालात हैं उसमें अल्पसंख्यक तनाव में हैं. नवंबर 2016 को अचानक घोषित हुई नोटबंदी को उन्होंने सरकार द्वारा की गई '‘पैसों की सबसे बड़ी धांधली’' करार दिया और कहा कि इससे काला धन सफेद करने वालों को मौक़ा मिला है.
रफ़ाल विमान डील मुद्दे पर साल 2018 में उन्होंने जानेमाने वकील प्रशांत भूषण और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा के साथ मिल कर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और कोर्ट की निगरानी में मामले की सीबीआई से जांच कराने की मांग की.
ये मामला दिलचस्प था. चार अक्तूबर को शौरी, प्रशांत भूषण और यशवंत सिन्हा ने सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा से मुलाक़ात की और जांच की ज़रूरत पर उनसे चर्चा की. इसके बाद आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया जिसके बाद इन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया.
बताया जाता है कि सीबीआई प्रमुख से इनकी मुलाक़ात से केंद्र सरकार नाराज़ थी. इसके बाद एक दौर वो भी आया जब अरुण शौरी ने कहा कि 2019 में एक बार फिर बीजेपी को चुनना देश के लिए सही नहीं होगा. उन्होंने इस साल होने वाले चुनावों को गणतंत्र के लिए आख़िरी मौक़ा कहा.
मुंबई में एक सभा में उन्होंने कहा कि, "जब देश संकट में हो तो राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं को किसी के हाथ बढ़ाने का इंतज़ार नहीं करना चाहिए."
अक्तूबर 2017 में खुशवंत सिंह साहित्य समारोह में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के पद के लिए नरेंद्र मोदी को समर्थन देना उनकी दूसरी ग़लती थी और वीपी सिंह की जनता सरकार को समर्थन करना उनकी पहली बड़ी ग़लती थी क्योंकि वीपी सिंह को पीछे से बीजेपी और वामपंथी पार्टियों का समर्थन हासिल था.
उन्होंने कहा, "ये मत सोचिए कि नेता सत्ता में आते ही बदल जाएंगे. उनके चरित्र को इस बात पर आंकिए कि वो सच का कितना साथ देते हैं."(bbc)
फिल्म उद्योग को बदनाम करने से बाज आएं! यह कोई धमकी नहीं, निवेदन है। वजह साफ है। बॉलीवुड समाज के कूड़ा-करकट की आश्रयस्थली नहीं। यह ड्रग्स लेने वाले, नशे में मदहोश लोगों का अड्डा नहीं है। जो लोग ऐसा मानते हैं, उन्हें यहां के बारे में कुछ भी पता नहीं।
- सुभाष के झा
जया बच्चन ने अभी राज्यसभा में बयान दिया कि मनोरंजन उद्योग में काम करने वाले लोग सोशल मीडिया से प्रभावि त हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने इंडस्ट्री में अपना नाम बनाया है, अब वे इसे गटर कह रहे हैं, जिस थाली में खाते हैं, उसमें ही छेद करते हैं। उनके इस बयान से बवाल मच गया है। आखिर क्या है बॉलीवुड की हकीकत। फिल्म इंडस्ट्री को कई दशक से जानने-समझने वाले सुभाष के झा क्या कहते हैं, पढ़ें:
फिल्म उद्योग को बदनाम करने से बाज आएं! यह कोई धमकी नहीं, करबद्ध निवेदन है। कारण साफ है। बॉलीवुड समाज के कूड़ा-करकट की आश्रयस्थली नहीं। फिल्म उद्योग ड्रग्स लेने वाले, नशे में मदहोश लोगों का अड्डा नहीं है। जो लोग भी ऐसा मानते हैं, उन्हें फिल्म उद्योग के बारे में कुछ भी पता नहीं।
मुझे याद है, काफी साल पहले मैं ट्विंकल खन्ना के साथ लंच कर रहा था। तब मेरे साथ मेरी बेटी भी थी और ट्विंकल के साथ इधर-उधर की बात करते-करते हम पैरेंटिंग के इर्द-गिर्द घूमने लगे थे। इस पर हम दोनों अपनी-अपनी बात रख रहे थे। तब अक्षय शहर के बाहर थे और उनका नन्हा बेटा अरव मटकता-लड़खड़ाता हुआ इधर-उधर घूम रहा था। पैरेंटिंग पर थोड़ी देर बात करने के बाद हम टीन्स में आए बच्चों की पैरेंटिंग से जुड़ी समस्याओं पर आ गए थे और फिर हम ड्रग के बढ़ते चलन पर आ गए। ट्विंकल ने तब कहा था, “कल होकर अगर मेरा बेटा ड्रग्स लेने लगे तो या तो मैं उसे जान से मार दूंगी या अपनी जान दे दूंगी।”
बाद में जब 18 साल के अरव की फोटो मेरी आंखों के सामने थी तो मुझे ट्विंकल की ‘मदर इंडिया’ जैसी वे बातें याद आ गईं। अच्छी बात है कि अरव बड़ा संस्कारी लड़का है। बिल्कुल अपने पिता की तरह उसकी भी आदतें अच्छी हैं- जल्दी सो जाना, संयमित खाना, जमकर एक्सरसाइज करना और सोच को सकारात्मक रखना।
ड्रग्स? मैं तो एक भी ऐसा स्टार किड नहीं जानता जो ड्रग्स लेता हो। आज की पीढ़ी के तो ज्यादातर लोग सिगरेट तक नहीं पीते, तो भला ड्रग्स की बात कौन करे? मैं यह नहीं कह रहा कि बॉलीवुड एक मोनैस्ट्री है या विकी कौशल एक पुजारी है या फिर कटरीना कैफ कोई नन। मैं जानता हूं कि इनकी अपनी-अपनी बुरी आदतें होंगी। मैंने तमाम एक्टरों को पार्टियों में शराब पीते देखा है लेकिन उसमें कोई गलत बात नहीं क्योंकि ये लोग पूरी तरह अपने आपे में रहते हैं। मैंने सलमान खान को भी पीते और अपने ऊपर से नियंत्रण खोते देखा है जो बिल्कुल सही नहीं। लेकिन फिर भी यह कोई बहुत बड़ी अय्याशी तो है नहीं।
पीने के बाद व्यवहार असामान्य ही हो जाएगा, ऐसा तो है नहीं। लेकिन कभी-कभार ऐसा हो जाता है और इस मामले में मनोरंजन उद्योग कोई अपवाद तो है नहीं कि वहां के लोग पीएंगे तो कभी-कभार किसी का व्यवहार असामान्य नहीं होगा। हां, इतना जरूर है कि मनोरंजन उद्योग की चीजें ज्यादा साफ दिखती हैं। अगर कोई इंजीनियर पीकर गलत व्यवहार करेगा तोऐसा करते हुए उसकी तस्वीर या वीडियो वायरल नहीं होगा। लेकिन बॉलीवुड के साथ और बात हो जाती है।
जो लोग कथित अय्याशी के लिए बॉलीवुड के खून के प्यासे हो रहे हैं, उनसे मैं जरूर पूछना चाहूंगा कि आपमें से कितने लोग किसी भी स्टार के स्वभाव के बारे में जानते हैं? बॉलीवुड में ड्रग्स के चलन की जानकारी का आपका स्रोत क्या है? कंगना रनौत? आखिर वह बॉलीवुड को कितने नजदीक से जानती है? क्या उसे पता है कि तमाम टॉप एक्टर बिल्कुल शराब नहीं पीतेः अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, आमिर खान, शाहरुख खान... ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने शराब को हाथ तक नहीं लगाया। और फिर ड्रग्स? शाहरुख खान ने एक बार मुझसे कहा था, “मुझ पर जिंदगी का नशा है। मुझे किसी और नशे की जरूरत नहीं।”
फिर आखिर वे कौन ऐक्टर हैं जो ड्रग्स लेने- देने के दोषी हैं? आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ड्रग्स के इस्तेमाल के लिए बॉलीवुड पर उंगली उठाने वाले कुछ लोग ही बॉलीवुड में सबसे बड़े ड्रग्स लेने वाले हैं। और अगर रिया चक्रवर्ती ड्रग लेने के लिए अपने सहयोगी कलाकारों के नाम ले रही है तो यह काम वह कानून पालन करने वाली एजेंसियों की नजर में अपने को बेहतर बताने के लिए ही कर रही है। यहां मैं एक बात बिस्कुल साफ कर देना चाहूंगा- मेरे कहने का यह मतलब कतई नहीं कि बॉलीवुड में ड्रग्स के इस्तेमाल को लेकर रवि किशन जो भी कह रहे हैं, वह सरासर गलत है। लेकिन इतना जरूर है कि एक ही तरीके से कूची चलाकर वह पूरे फिल्म उद्योग की तस्वीर नहीं उकेर सकते।(navjivan)
डॉ. परिवेश मिश्रा
1943 में युवराज और राज्य के शिक्षा मंत्री नरेशचन्द्र सिंह जी विवाह के बाद पत्नी के साथ कलकत्ता में छुट्टियां व्यतीत कर सारंगढ़ लौटे थे। पीछे पीछे डाक से ग्रेट ईस्टर्न होटल का जब बिल पंहुचा तो पिता राजा जवाहिर सिंह जी ने भुगतान पर यह लिख कर रोक लगा दी थी कि यह युवराज का निजी खर्च है, इसलिए इसका भुगतान वे अपने अलाऊंस में से करें, स्टेट भुगतान नहीं करेगा। नियम कानून के पक्के पिता राजा जवाहिर सिंह जी से जो सीख मिली वह नरेशचन्द्र सिंह जी की जीवनशैली का हिस्सा बन गई।
एक पोस्ट-कार्ड का फोटो, इसमें क्या लिखा गया और क्या पढ़ा गया, यह कहानी तो 1960 में पोस्ट-कार्ड लिखने और पढ़े जाने के बाद खत्म हो गई थी।
किन्तु यह पांच पैसे का पोस्ट-कार्ड उस जमाने में लोकप्रिय जीवनशैली और जीवनमूल्यों की याद दिलाने के लिए पीछे छूट गया।
किस परिवार में आपका जन्म होता है यह फैसला आपका नहीं होता। किन्तु जीवन में किन मूल्यों को अपनाना है उसका फैसला अवश्य आपकी पसंद का होता है।
जवाहर लाल नेहरू जी और उनकी छोटी बहन विजयलक्ष्मी पण्डित जी के पिता मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद हाईकोर्ट और देश के प्रसिद्ध और सफलतम् वकीलों में से एक थे। पिता की अकूत धन दौलत और जीवनशैली को लेकर अनेक सच्ची झूठी कहानियां प्रचारित होती रही हैं- वाट्सऐप के आने के बाद तो ढेर सारी।
जैसे- उनके कपड़े लॉन्ड्री के लिए पेरिस भेजे जाते थे (असत्य), उनका घर आनन्द भवन इलाहाबाद का पहला घर था जिसमें बिजली आयी और पानी के लिए नल लगे थे (सच), पहला घर था जिसमें अपना एक स्विमिंग पूल था (सच), आदि आदि।
कुछ सच और भी हैं। जैसे, 1904 में इलाहाबाद में पहली कार खरीदने/लाने वाले मोतीलाल नेहरू ही थे। 1905 और 1909 में भी खरीदीं और उसके बाद घर में गाडिय़ों की लाईन लगती रही।
1962 की गर्मियों में मेरी उम्र दस वर्ष थी। उस उम्र और उस ज़माने के अन्य बच्चों की तरह डाक टिकिटों, सिक्कों और क्रिकेट खिलाडिय़ों के अलावा कारों के बारे में अपनी जानकारी पर गर्व करता था।
मोतीलाल नेहरू के इकलौते बेटे जवाहर लाल नेहरू जी को जब मैंने दिल्ली में स्टैन्डर्ड-8 कार से उतरते देखा तो वह दृश्य मेरे बाल-मन के लिये किसी ऐन्टी क्लाइमेक्स से कम नहीं था। मैं पर्यटकों के एक छोटे से झुंड का हिस्सा था जो साउथ ब्लॉक के दरवाजे के पास उनकी एक झलक पाने के लिए खड़ा था।
आम धारणा है कि 1983 में मारूती 800 के आने से पहले भारत में केवल फिएट (पद्मिनी) और एम्बेसडर कार ही चला करती थीं। एक कम-ख्यात कार कम्पनी और थी-मद्रास की स्टैन्डर्ड मोटर कम्पनी। इसकी बनाई स्टैन्डर्ड-8 बाद मे आयी मारूती 800 जैसी ही थी और उन दिनों भारत में बिकने वाली सबसे सस्ती और छोटी कार थी। और हमारे देश के प्रधानमंत्री ने अपने उपयोग के लिये इसे चुना था।
1947 में जब आज़ादी मिली भारत की जीडीपी शून्य थी। विदेशी मुद्रा भंडार मायनस में था क्योंकि सारी उधारी ब्रिटेन पर थी और विश्व युद्ध के बाद कंगाल ब्रिटेन ने पैसों के मामले में हाथ ऊपर उठा दिये थे। तब विदेशी मुद्रा कमाने और बचाने की आवश्यकता थी। नेहरू जी ने आत्मनिर्भरता का नारा दिया था। लोगों को अपनी बात समझाने का उनका तरीका आसान था- भाषण के स्थान पर स्वयं का आचरण सामने रखते थे। नेहरू जी ने स्वयं कभी महंगी, विदेशी, ब्रैन्डेड घडिय़ों, जूतों, चश्मों और कारों का उपयोग नहीं किया। कपड़े चूंकि दिन में बार बार बदलते नहीं थे, और आमतौर पर सिर्फ सफेद खादी पहनते थे, सो उसके खर्च भी कम थे। देश की अर्थव्यवस्था सुधारना तब सबसे पहली आवश्यकता थी। आम जनता ने भी मोह संवरण करना सीख लिया था।
ये भारत के उस काल की बात है जब किफ़ायत या मितव्ययता (कम या केवल आवश्यक खर्च करने की आदत) को कंजूसी का समानार्थी शब्द नहीं माना जाता था। धन सम्पत्ति के सार्वजनिक प्रदर्शन या फिज़ूलखर्ची को फूहड़ माना जाता था।
पं. जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी जी के द्वारा राजा नरेशचन्द्र सिंहजी को लिखे अनेक ख़त गिरिविलास पैलेस सारंगढ़ में रखे हैं। इनमें से कुछ अंतर्देशीय पत्रों पर लिखे गए थे तो कुछ लिफाफों में आये थे। कुछ पत्र पोस्ट-कार्ड पर भी लिखे गये थे।
ऐसे ही एक पोस्ट-कार्ड का फोटो इस पोस्ट में है। सितम्बर 1960 में नेहरू जी की बहन विजयलक्ष्मी जी अपनी विदेश पोस्टिंग से भारत आयी हुई थीं और नई दिल्ली में थीं। यह पोस्ट-कार्ड उन्होंने प्रधानमंत्री के निवास तीनमूर्ति भवन में रहते हुए लिखा था।
मेरे जो फेसबुक मित्र स्पीड पोस्ट और कुरियर के दौर में पले बढ़े हैं उन्हें बताता चलूँ कि उन दिनों पत्र लिखने के लिए तीन सामान्य साधन मौजूद हुआ करते थे- पोस्ट-कार्ड, अंतर्देशीय (या इन-लैन्ड) और लिफाफा। तीनों प्री-पेड होते थे। पोस्ट-कार्ड का इस्तेमाल वे करते थे जिनके पास पैसों की कमी हो या वे जिनके पास लिखने के लिए मैटर कम हो।
विजयलक्ष्मी जी ने पांच पैसे वाले पोस्ट-कार्ड पर पत्र लिखा। वे उन दिनों ब्रिटेन में भारत की राजदूत (हाई कमिश्नर) थीं। वे विश्व की पहली महिला थीं जो संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा की अध्यक्ष रह चुकी थीं। वे मोतीलाल नेहरू की बेटी थीं। मैं नहीं मान सकता कि दस पैसे का अंतर्देशीय या पंद्रह पैसे का लिफाफा खरीदने की उनकी हैसियत नहीं थी। पर चूंकि उनके पास लिखने के लिए जितना मैटर था उसके लिये पोस्ट-कार्ड काफी था और पोस्ट-कार्ड लिखने में उन्हे कोई संकोच या शर्म नहीं थी, सो उन्होंने पोस्ट-कार्ड ही लिखा।
ये वो जमाना था जब सादगी शब्द लिखने बोलने में जितना प्रयुक्त होता था उससे अधिक इसका उपयोग जीवन जीने के ढंग में होता था। सादगी जैसा ही दूसरा महत्वपूर्ण शब्द था ‘सदाचरण।’ उच्च पदों पर बैठे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे निजि और शासकीय खर्चों में विभेद करने की समझ रखें। आमतौर पर वे निराश नहीं करते थे (अपवाद हर काल में होते हैं)।
उन दिनों डाक टिकिट दो प्रकार के होते थे। एक तो वो जो आम जनता के लिये थे और दूसरे थे रेवेन्यू डाक टिकिट। ये दूसरे प्रकार के टिकिट सरकारी डाक में इस्तेमाल होते थे और जाहिर है इनका भुगतान सरकारी कोष से होता था। सभी सरकारी विभागों और मंत्रियों के कार्यालयों से बाहर जाने वाली डाक में यही टिकिट चिपकाये जाते थे। (बाकी पेज 7 पर)
विजयलक्ष्मीजी ने पोस्ट-कार्ड पारिवारिक मित्र को लिखा और यह उनकी निजी डाक थी। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, उन दिनों वे प्रधानमंत्री निवास में रह रही थीं। यदि वे चाहतीं तो इसे कार्यालय के डिस्पैच सेक्शन में भेज सकती थीं। राजस्व डाक टिकिट लगे लिफाफे में यह पत्र सफर कर लेता। किन्तु उनसे ऐसी चूक संभव नहीं थी। पांच पैसे के लिए भी नहीं।
इससे कुछ साल पहले विजयलक्ष्मी जी के हाथों हुई एक अनजानी चूक के परिणाम स्वरूप भाई जवाहर लाल नेहरू के बैंक बैलेन्स की जानकारी सार्वजनिक हो गयी थी। उस घटना ने विजयलक्ष्मी जी को आर्थिक सदाचरण के प्रति अवश्य ही और भी अधिक सतर्क बनाया होगा।
यह घटना 1954 की है जब पंजाब के गवर्नर ने विजयलक्ष्मी जी को मेहमान के रूप में शिमला आमंत्रित किया। आजादी के बाद पंजाब का विभाजन हुआ तो भारत के हिस्से आये पूर्वी पंजाब की राजधानी शिमला बनी थी। राज्यपाल का न्योता मिला तो विजयलक्ष्मी जी ने स्वीकार कर लिया और कुछ दिन शिमला में बिता कर वापस दिल्ली आ गयीं।
शिमला के सरकारी गेस्ट हाउस में वे राज्यपाल के मेहमान के रूप में रही थीं। मेहमान के बिल का भुगतान राज्यपाल के द्वारा किया जाएगा ऐसा मान कर अधिकारियों ने विजयलक्ष्मी जी के सामने बिल पेश नहीं किया था। बाद में दफ्तर के किसी तकनीकी कारण के चलते राज्यपाल की ओर से भी भुगतान नहीं आया। इस बीच श्रीमती पंडित को राजदूत नियुक्त किया गया और वे दिल्ली से लंदन चली गयीं।
लगभग साल भर बीतने पर परेशान चीफ इंजीनियर 2064 रुपये के बिल के साथ पंजाब के मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर जी के पास पहुँचे। सच्चर जी का जब दिल्ली जाना हुआ तो ये बिल साथ लेते गये और उसे नेहरू जी के सामने रख दिया। भीमसेन जी के पुत्र राजेन्द्र सच्चर (सच्चर कमेटी वाले) आगे चल कर दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बने थे। उन्होंने पिता से सुनकर अपने संस्मरण में लिखा तो दुनिया को पता चला कि बिल देखते ही नेहरू जी ने तत्काल चेक बुक निकाल ली थी। पर जब पाया कि अकाऊंट में बैलेन्स कम है तो सिर्फ एक हज़ार रुपये का चेक काटा और भीमसेन जी से विनम्रता पूर्वक कहा- अभी मैं योरोप यात्रा पर जा रहा हूं। एक साथ इतनी राशि देने की स्थिति में नही हूँ। लौटकर बाकी भी चुका दूंगा। और दो किश्तों में प्रधानमंत्री ने परिवार के निजी खर्च का भुगतान कर दिया था। विजयलक्ष्मीजी से न पूछा न उन्हें बताया।
1943 में युवराज और राज्य के शिक्षा मंत्री नरेशचन्द्र सिंह जी विवाह के बाद पत्नी के साथ कलकत्ता में छुट्टियां व्यतीत कर सारंगढ़ लौटे थे। पीछे पीछे डाक से ग्रेट ईस्टर्न होटल का जब बिल पंहुचा तो पिता राजा जवाहिर सिंह जी ने भुगतान पर यह लिख कर रोक लगा दी थी कि यह युवराज का निजी खर्च है, इसलिए इसका भुगतान वे अपने अलाऊंस में से करें, स्टेट भुगतान नहीं करेगा। नियम कानून के पक्के पिता राजा जवाहिर सिंह जी से जो सीख मिली वह नरेशचन्द्र सिंह जी की जीवनशैली का हिस्सा बन गई।
कुछ समय में पिता की मृत्यु के बाद नरेशचन्द्र सिंहजी राजा बने और आज़ादी के बाद सत्रह वर्षों तक मध्यप्रदेश में कैबिनेट मंत्री रहे। इस हैसियत से समय समय पर राज्य में दौरे करते रहे। किन्तु सर्किट हाऊस के खाने पीने के बिल ताउम्र उन्होंने अपने निजी खाते से ही अदा किये।
सोशल मीडिया पर हर तरह के जोड़-तोड़ के लिए मशहूर बीजेपी की आईटी सेल इस समय वहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही बचाव नहीं कर पा रही है
-अंजलि मिश्रा
साल 2014 में आकाशवाणी पर शुरू हुआ ‘मन की बात’ एक लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम है जिसे खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होस्ट करते हैं. हर महीने के आखिरी इतवार को प्रसारित किए जाने वाले इस कार्यक्रम में पीएम मोदी, राजनीति और सरकार से जुड़े मुद्दों से इतर बातचीत करते हैं. इसे न सिर्फ उनके समर्थक और आलोचक काफी ध्यान से सुनते रहे हैं बल्कि इसमें कही गई बातें कई दिनों तक मीडिया और सोशल मीडिया पर सुर्खियों का हिस्सा बनी रहती हैं. इसका ताजा (68वां) एपिसोड बीते अगस्त की 30 तारीख को प्रसारित हुआ था. लेकिन इस बार मन की बात कार्यक्रम अपने विषय या प्रधानमंत्री के विचारों-सुझावों के चलते नहीं बल्कि किसी और ही वजह से चर्चा का विषय बना. वह वजह थी, यूट्यूब पर मन की बात कार्यक्रम के वीडियो को लाखों की संख्या में डिसलाइक किया जाना.
भारतीय जनता पार्टी के यूट्यूब चैनल से लाइव स्ट्रीम किए गए इस वीडियो पर महज 24 घंटों में सवा पांच लाख से अधिक डिसलाइक आ चुके थे. जबकि तब तक इस पर आए लाइक्स की गिनती महज 79 हजार ही थी. यहां पर चौंकाने वाली बात यह रही कि डिसलाइक्स कैंपेन से अचकचाकर बीजेपी ने अपने इस वीडियो पर लाइक और कॉमेन्ट का ऑप्शन ही कई दिनों के लिए बंद कर दिया. भाजपा के अलावा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यूट्यूब चैनल पर भी इसे अपलोड किया गया था. इस पर भी महज 13 घंटों में 40 हजार से ज्यादा डिसलाइक्स किए जा चुके थे. इन वीडियोज से जुड़ी ध्यान खींचने वाली बात यह रही कि बीच में डिसलाइक्स की गिनती हजारों की संख्या में कम भी हो गई. ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इसका पता अभी तक नहीं चल पाया है. फिलहाल, बीजेपी के चैनल पर प्रतिक्रियाओं के सभी विकल्प खोल दिए गए हैं और वहां मन की बात के वीडियो पर लगभग 12 लाख और नरेंद्र मोदी के चैनल पर दो लाख 86 हजार डिसलाइक्स देखे जा सकते हैं.
मन की बात कार्यक्रम के वीडियो पर आए डिसलाइक
मन की बात कार्यक्रम का वीडियो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ऐसा इकलौता वीडियो नहीं था जिस पर डिसलाइक्स की भरमार रही. हाल ही में वे हैदराबाद में आयोजित राष्ट्रीय पुलिस अकादमी के दीक्षांत परेड समारोह में भी वर्चुअली शामिल हुए थे. इस आयोजन के उनके वीडियो पर भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया देखी गई. भारतीय जनता पार्टी के यूट्यूब चैनल पर इस वीडियो को एक दिन पहले ही प्रीमियर कर दिया गया था. यानी जो लाइव वीडियो कुछ घंटे बाद आने वाला था, उसे लोग पहले ही शेयर कर सकते थे या उस पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते थे. यहां पर देखने वाली बात यह रही कि स्ट्रीमिंग के 13 घंटे पहले ही वीडियो पर एक हजार लाइक्स के मुकाबले 11 हजार डिसलाइक्स आ चुके थे. नतीजतन, इस वीडियो पर भी प्रतिक्रियाओं और टिप्पणियों का विकल्प बंद कर दिया गया. वीडियो जारी होने के बाद जब इसे फिर शुरू किया गया तो कुछ ही घंटों में 88 हजार डिसलाइक्स दर्ज हो चुके थे. इसके बाद से रिपोर्ट लिखे जाने तक इस वीडियो पर ये विकल्प डिसेबल ही रखे गए हैं. प्रतिक्रियाओं का यही क्रम प्रधानमंत्री के उस वीडियो पर भी रहा जिसमें वे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और राज्यों के राज्यपालों के साथ नई शिक्षा नीति पर चर्चा करते दिखाई दे रहे थे.
नरेंद्र मोदी के वीडियोज पर एकतरफा प्रतिक्रियाओं की भरमार होना कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार इनका पलड़ा उनके पक्ष में न होना ज़रूर नई और अनोखी बात है. अनोखी इसलिए कि इससे पहले सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री के लिए इस तरह की आलोचनात्मक टिप्पणियां या ट्रेंड्स पहले तो सामने आते नहीं थे और अगर ऐसा होता भी था तो भाजपा की आईटी सेल समय रहते इनमें से ज्यादातर से निपट लेती थी. लेकिन अब वह इस मामले में उतनी प्रभावी नज़र नहीं आ रही है. बीते कुछ हफ्तों से चल रहे छात्रों और युवाओं के सोशल मीडिया अभियान से जुड़ी कई बाते हैं जो इसकी तरफ इशारा करती हैं. इसे चलाने वालों में मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा (नीट और जेईई) को आगे बढ़ाने की मांग कर रहे छात्र और तमाम बेरोजगार युवा शामिल हैं. इनमें ऐसे लोग भी हैं जो किसी प्रतियोगी परीक्षा की तिथि, किसी के नतीजे या ये सब हो जाने के बाद अपने जॉइनिंग लेटर का इंतज़ार कर रहे हैं.
अगर युवाओं के इस कैंपेन को ध्यान से देखें तो यह बीजेपी की आईटी सेल को उसी की भाषा में जवाब देता दिखाई देता है. उदाहरण के लिए, पीएम मोदी के वीडियो पर आई डिसलाइक्स की यह भरमार पिछले दिनों सड़क-2 के ट्रेलर पर आए रिकॉर्ड डिसलाइक्स से प्रेरित थी. सोशल मीडिया पर सक्रिय और निष्पक्ष मौजूदगी रखने वाले कई लोगों का मानना है कि सड़क-2 के खिलाफ चला यह अभियान बीजेपी आईटी सेल का भी कारनामा था. इन लोगों का मानना था कि असली मुद्दों से ध्यान भटकाने, बिहार और महाराष्ट्र में अपने राजनीतिक हितों को साधने और ऐसा करने में कथित तौर पर भाजपा की मदद करने वालीं कंगना रनोट को मदद करने के उद्देश्य से आईटी सेल इस अभियान में शामिल थी. कैंपेन चला रहे युवा आईटी सेल से उसी के तरीके से निपटने की तैयारी में थे, इसका अंदाजा इस बात से भी लग जाता है कि जब मन की बात वाले वीडियो पर आने वाले डिसलाइक्स को बीजेपी आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय ने तुर्की से आने वाले बॉट्स बताया तो अगले वीडियो में छात्रों ने अपने शहर-कस्बों के नाम लिख भी लिख दिये. कई छात्रों ने व्यंग्य करते हुए अपने शहरों को तुर्की या कनाडा बता डाला.
पुलिस दीक्षांत कार्यक्रम के वीडियो पर आई छात्रों की टिप्पणियां
छात्रों के विरोध प्रदर्शन का अगला चरण बीजेपी आईटी सेल से आगे बढ़कर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुटकी लेता हुआ भी दिखाई दिया और यहां पर भी आईटी सेल कुछ भी करने में अक्षम ही दिखी. पांच सितंबर को युवाओं ने जहां छात्र कर्फ्यू आयोजित कर पांच बजे पांच मिनट तक थाली बजाई वहीं नौ सितंबर को वे रात 9 बजे 9 मिनट के लिए दिए जलाकर रोजगार की मांग करते दिखाई दिए. युवाओं ने सितंबर के तीसरे हफ्ते को बेरोजगार सप्ताह की तरह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन यानी 17 सितंबर को राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस की तरह मनाया. इस दिन सोशल मीडिया पर हैशटैग बेरोजगार सप्ताह और राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस के साथ लाखों की संख्या में ट्वीट किए गए. इसके जवाब में अगले दिन आईटी सेल हैशटैग राष्ट्रीय बार डांसर दिवस ट्रेंड करवाती दिखाई तो दी लेकिन तमाम लोगों ने इसे न सिर्फ गैरज़रूरी बल्कि आईटी सेल की खिसियाहट भी कहा.
आईटी सेल के बेअसर दिखने की वजहों पर गौर करें तो पहला कारण यही समझ में आता है कि इस बार उसकी भिड़ंत ऐसे युवाओं से हुई हैं, जो न सिर्फ सोशल मीडिया का हर तरह से इस्तेमाल करना जानते हैं बल्कि इस पर चलने वाले दांव-पेचों से भी भली तरह वाकिफ हैं. वे इसके लिए पीएम मोदी से ही प्रेरित होकर सृजनात्मक तरीकों का सहारा लेते हैं और बिना ज्यादा गाली-गलौज या भद्दी भाषा का प्रयोग किए आईटी सेल के हमलों का मुंहतोड़ जवाब भी देते हैं. वे अपने अभियान को राजनीतिक रंग देने की कोशिश करने वालों से भी बचते दिखते हैं. इसके अलावा, प्रधानमंत्री तक अपनी अलग-अलग मांगें पहुंचाने की कोशिश कर रहे इन युवाओं की संख्या भी लाखों में है. आईटी सेल और उसके सहयोगी समूहों को मिलाकर भी इसके सदस्यों की संख्या अधिकतम कुछ हजार ही बैठेगी. ऐसे में सेल के लिए इन युवाओं की आवाज़ को किसी जवाबी हैशटैग या ट्रोल्स के जरिये दबा पाना मुश्किल हो रहा है.
यह बात भी ध्यान देने लायक है कि रोजगार की मांग कर रहे इन युवाओं में एक बड़ी संख्या उनकी भी होगी जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट दिया था या अब तक उनका समर्थन करते रहे थे. आम तौर पर सोशल मीडिया पर आईटी सेल द्वारा चलाए जाने वाले किसी प्रोपगैंडा कैंपेन को युवा वर्ग का समर्थन भी हासिल रहा करता था जिसके चलते उनके ट्वीट या ट्रेंड्स बड़े-बड़े आंकड़े हासिल करते दिखाई पड़ते थे. लेकिन न केवल युवा इस समय आईटीसेल के प्रोपगैंडा को कम समर्थन दे रहे हैं बल्कि अन्य लोगों द्वारा उसे मिलने वाला समर्थन भी इन दिनों कम हो गया लगता है.
‘आम दिनों में, आम यूजर अपनी आंखों पर धर्म-संस्कृति की पट्टी लगाए बैठा रहता था लेकिन कोरोना त्रासदी ने उनकी आंखें कुछ हद तक खोल दी हैं. कुछ हद तक शब्द का इस्तेमाल मैं कोई अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए नहीं कर रहा हूं बल्कि लोगों में आई जागरुकता की मात्रा को देखकर कर रहा हूं. दरअसल, कई लोग इस बात से प्रभावित हुए कि उनके किसी करीबी की नौकरी गई, कई इससे कि उनका कोई जानने वाला जब कोरोना संक्रमण का शिकार हुआ तो अस्पतालों ने खून के आंसू रुला लिए, वहीं कई अपने आसपास मची बाकी अफरा-तफरी को देखकर मीडिया और सोशल मीडिया दोनों से विरक्त हो रहे हैं’ सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय और एक स्थापित मीडिया संस्थान में काम करने वाले आशीष मिश्रा आगे कहते हैं, ‘इसका फायदा ये हुआ है कि अब वे व्हाट्सएप फॉरवर्ड को क्रॉसचेक करने लगे हैं या घर के बच्चों से पूछते हैं कि यह सच है क्या. इन सब ने मिलाकर आईटी सेल की रफ्तार कम की है. मैं फिर से कहूंगा रोकी नहीं है, बस कम की है.’
इन आम लोगों में वे लोग भी शामिल हैं जिनके बच्चे सालों तैयारी करने के बाद भी प्रवेश परीक्षाओं को टालने की मांग कर रहे थे या जो परीक्षाएं पास करने के बाद भी नौकरी के बुलावे के इंतज़ार में बैठे हैं. इंदौर की मनीषा शुक्ला जो बीते दो सालों से नीट की तैयारी कर रही एक टीनएजर बेटी की मां हैं, पिछले दिनों नीट-जेईई का विरोध कर रहे बच्चों और पालकों के व्हाट्सएप ग्रुप का हिस्सा रहीं थी. वे बताती हैं कि ‘इस व्हाट्सएप ग्रुप पर मैंने कई अंध-भक्त अभिभावकों को 180 डिग्री पलटते देखा. क्योंकि बच्चे साथ ही पढ़ते हैं इसलिए इनमें से कइयों को मैं पहले से भी जानती थी. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि सूर्य को अर्घ्य देने और किसी खास मंत्र का जाप करने से कोरोना का नाश होने का दावा करने वाले ये लोग, आजकल तुर्की के बॉट्स और पेड ट्रेंड्स की बात करने लगे हैं. शायद नीट-जेईई आगे नहीं बढ़ा तो लोगों का पेशेंस खत्म हो गया क्योंकि मिडिल क्लास आदमी कुछ भी सह सकता है लेकिन अपने बच्चों पर बात आएगी तो वह बोलेगा ही.’
मनीषा शुक्ला की यह बात इन परिस्थितियों पर बिल्कुल सटीक बैठती हुई इसलिए भी लगती है क्योंकि मोदी समर्थकों में एक बड़ा हिस्सा निम्न मध्य वर्ग से आता है. इस वर्ग से आने वाले, खास कर छोटे शहरों और कस्बों के ज्यादातर लोग, ही फेसबुक और व्हाट्सएप को ज़रूरत से ज्यादा गंभीरता से लेते दिखते हैं. कहना नहीं होगा कि यही समूह प्रोपगैंडा मशीनरी का शिकार और टूल दोनों ही बनता है. यानी, आम तौर पर होता यह है कि आईटी सेल कोई झूठ रचती है जिसे उसके सदस्य व्हाट्सएप ग्रुपों में फैलातें है. इन ग्रुपों पर मिलने वाले संदेशों को यही मध्यवर्गीय तबका आगे बढ़ाता है. इस समय यह तबका, अगर सीधी तरह से प्रभावित नहीं है तो आसपास की बिगड़ी हुई परिस्थितियों को देखकर उदासीन हो गया है और अगर प्रभावित है तो जैसा कि मनीषा कहती हैं, अपने बच्चों के भविष्य को देखते हुए पहली बार सच को टटोलने की कोशिश कर रहा है.
इन आम लोगों तक सच पहुंचने और बीजेपी आईटी सेल का प्रभाव कम होने में एक छोटी भूमिका फेक-न्यूज की पोल खोलने वाली वेबसाइटों की भी मानी जा सकती है. आल्ट न्यूज, बूम लाइव और सोशल मीडिया हॉक्स स्लेयर जैसी तमाम वेबसाइटों के अलावा अब लगभग हर मीडिया ऑर्गनाइजेशन में एक फैक्ट चेकर टीम रखी जाती है. हालांकि इनकी भूमिका अभी तक सीमित ही है क्योंकि इनके द्वारा बताया गया सच सिर्फ इंटरनेट के माध्यम से ही लोगों तक पहुंच पाता है जबकि फेक न्यूज के लोगों तक पहुंचने की रफ्तार और साधन कहीं ज्यादा है. लेकिन इसके बावजूद लगातार बीजेपी आईटी सेल के झूठ पकड़े जाने की वजह से सोशल मीडिया पर मौजूद आम जनता पहले से ज्यादा जागरूक हो रही है.
इनके अलावा, कांग्रेस की आईटी सेल का अपेक्षाकृत सक्रिय हो जाना भी बीजेपी आईटी सेल के लिए थोड़ी मुश्किल बढ़ाने वाला लगता है. हालांकि कांग्रेस की आईटी सेल अभी भी संख्या और उपस्थिति में उतनी प्रभावी नहीं हो पाई है लेकिन इसकी कुछ इकाइयां हैं जो कई बार बीजेपी को मुहंतोड़ जवाब देती दिखाई देती हैं. इसमें सबसे ज्यादा चर्चित आईएनसी छत्तीसगढ़ का ट्विटर अकाउंट है. यह अकाउंट ज्यादातर मौकों पर पर कांग्रेस की उपलब्धियों का प्रचार करने का ही काम करता है लेकिन कई बार अपनी चुटीली और मारक टिप्पणियों के लिए सुर्खियों का हिस्सा भी बन चुका है. इसके अलावा भी कांग्रेस आईटी सेल अपने शीर्ष नेतृत्व पर होने वालों हमलों और रफाल या पीएम केयर्स जैसे मुद्दों को लेकर कई पॉपुलर ट्विटर ट्रेंड्स चलवाती रही है.
आम जनता और कांग्रेस से इतर भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी आजकल पार्टी की आईटी सेल से नाराज़ चल रहे हैं. हाल ही में उन्होंने ट्वीट कर आरोप लगाया था कि बीजेपी आईटी सेल धूर्तता पर उतर आया है. स्वामी का कहना था कि इसके कुछ सदस्य उनके बारे में अनाप-शनाप बातें फैला रहे हैं. यह ट्वीट करने के दो दिन बाद सुब्रमण्यम स्वामी ने एक ट्वीट और किया था जिसमें उन्होंने आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय को हटाए जाने की मांग की थी. पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को दिए गए प्रस्ताव का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘अगर मालवीय को नहीं हटाया जाता है तो मैं यह समझूंगा कि मेरा बचाव करने में पार्टी की कोई रुचि नहीं है.’ यह और बात है कि एक तरफ जहां पार्टी उनकी इस बात को कोई वरीयता देती नहीं दिखी. वहीं दूसरी तरफ वे भी, रिपोर्ट लिखे जाने तक इसके बारे में आगे कुछ और कहते या कोई बड़ी घोषणा करते नज़र नहीं आए हैं.
हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं था जब कोई बीजेपी नेता ही बीजेपी की आईटी सेल के निशाने पर आ गया हो. इससे पहले रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी इसकी ट्रोलिंग का शिकार हो चुके हैं. लेकिन सुब्रमण्यम स्वामी के मामले में विशेष यह है कि वे बीते कुछ दिनों से लगातार कई मुद्दों पर अपनी ही सरकार की आलोचना करते दिख रहे हैं. उदाहरण के लिए, पिछले दिनों उन्होंने जहां गलत आर्थिक नीतियों के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को निशाने पर लिया था. वहीं, नीट-जेईई परीक्षाओं के मसले पर भी वे छात्रों के पाले में ही खड़े दिखाई दिए थे. यहां पर यह बात भी ध्यान खींचने वाली है कि कुछ मीडिया रिपोर्टों में जिक्र किया गया है कि सुब्रमण्यम स्वामी को ट्रोल करने वाले कई ट्विटर खातों को खुद वित्तमंत्री सीतारमण भी फॉलो करती हैं. ऐसे में इस बात के कयास ही लगाए जा सकते हैं कि बीते कुछ समय से आईटी सेल के अप्रभावी होते जाने में पार्टी की अंदरूनी राजनीति का कितना हाथ है. (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसानों से संबंधित तीन कानूनों के बनने से एक केंद्रीय मंत्री हरसिमरत बादल इतनी नाराज हुईं कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया। वे अकाली दल की सदस्य हैं और पंजाब से सांसद हैं। पंजाब किसानों का गढ़ है। देश में सबसे ज्यादा फसल वहीं उगती है। कुछ पंजाबी किसान संगठनों ने इन तीनों कानूनों को किसान-विरोधी बताया है और वे इनके विरुद्ध आंदोलन चला रहे हैं। कुछ दूसरे प्रदेशों में भी विरोधी दलों ने किसानों को उकसाना शुरु कर दिया है।
वास्तव में ये तीनों कानून इसलिए बनाए गए हैं कि किसानों का ज्यादा से ज्यादा फायदा हो। पहले देश के किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए जरुरी था कि वे अपनी स्थानीय मंडियों में जाएं और आढ़तियों (दलालों) की मदद से अपना माल बेचें। अब उन पर से यह बंधन हट जाएगा। वे अपना माल सीधे बाजार में ले जाकर बेच सकते हैं। याने पूरा देश उनके लिए खुल गया है। अब वे स्थानीय मंडियों और आढ़तियों पर निर्भर नहीं रहेंगे।
उन्हें न तो अब मंडी-टैक्स देना पड़ेगा और न ही आड़तियों को दलाली ! अब उन्हें अपनी फसल की कीमतें ज्यादा मिलेंगी लेकिन फिर भी कुछ किसान इस नए प्रावधान का विरोध क्यों कर रहे हैं ? उन्हें डर है और यह डर बिल्कुल सही है। वह यह कि उनकी फसल अब औने-पौने दामों पर बिका करेंगी, क्योंकि बाजार तो बाजार है। वहां दाम अगर उठते हैं तो गिरते भी हैं लेकिन मंडियों में ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ तो मिलना ही है। किसानों के इस डर को भी कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने कल संसद में बिल्कुल दूर कर दिया है। उन्होंने साफ-साफ कहा है कि किसानों को उनकी फसल का न्यूनतम मूल्य हर हालत में मिलेगा। पंजाब में 12 लाख किसान परिवार हैं और 28000 पंजीकृत आढ़तिए हैं। इसी प्रकार हरयाणा में भी वे बड़ी संख्या में है। हरियाणा सरकार ने तो आढ़तियों पर 26 करोड़ रु. का टैक्स माफ कर दिया है। यह कानून मोटे तौर पर किसानों के लिए काफी फायदेमंद सिद्ध हो सकता है। बस, खतरा इसी बात का है कि उनकी फसलों पर देश के बड़े पूंजीपति अग्रिम कब्जा करके बाजार में बहुत महंगा न बेचने लगें। यह भी असंभव नहीं कि वे किसानों को लालच में फंसाने के लिए अग्रिम पैसा दे दें और फिर उनकी फसलों पर सस्ते में कब्जा कर लें। जरूरी यह है कि इस कानून को लागू करते समय सरकार आगा-पीछा विचार कर ले।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अभिजीत दासगुप्ता
मेरा पहला टीवी न्यूज प्रोडक्शन 9 अगस्त, 1975 का हुआ था। यह कोलकाता में आकाशवाणी-टीवी का उद्घाटन दिवस था। यह देखने योग्य समाचार थे। सरकारी प्लेटफॉर्म होने की वजह से इसकी अपनी सीमाएं थीं। लेकिन उस अवधि के दौरान मैंने करंट अफेयर्स की जो प्रस्तुतियां दीं, उस पर प्रख्यात फिल्म निर्माता-निर्देशक मृणाल सेन और प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक तपन सिन्हा ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी। उन लोगों को लगा कि मैं अपने दृष्टिकोण में कुछ ज्यादा ही बोल्ड हूं और चर्चा के विषय सारगर्भित हैं। तमाम सीमाओं के बावजूद हमने ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत किए जिन पर प्रतिक्रिया हुई और वे विचारों को झकझोरने वाले थे।
मैंने लगातार दो चुनावों में एनडीटीवी पर नया चलन शुरू करने वाला चुनाव विश्लेषण कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया। आजतक-इंडिया टुडे के लिए भी इसी किस्म के कार्यक्रम भी मैंने प्रस्तुत किए। मुझे याद है कि मैंने करण थापर को आक्रामक लेकिन चोट पहुंचाने वाला न होने वाला होने को कहा था। पीछे मुड़कर मैं देखता हूं, तो आज के ट्रेन्ड की तुलना में रुख और भाषा की दृष्टि से करण बिल्कुल जेंटलमैन थे। आखिरकार, हमने समाचार कार्यक्रम प्रस्तुत किए थे, नाटक नहीं। हमारे लिए समाचार ऐसे एफएमसीजी उत्पाद थे जो देश भर में बेचे जाने वाले हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर, धारावाहिकों और टीवी कथाओं की तरह ही आज समाचार भी असभ्य, प्रतिशोधी और क्रूर हैं।
लेकिन ऐसा क्यों है? अगर आप इसके प्रस्तोताओं से मिलें तो आप उन्हें बहुत शिष्ट और भद्र पाएंगे। तो क्या वह अभिनय करते हैं? क्या समाचारों की प्रस्तुति एक मंच है जहां मुक्तिदाता- देवात्मा की भूमिका निभानी है? व्यापक तौर पर एक खलनायक होना चाहिए जिसे ललकारा जाना, सवालों से तंग करना और किनारे कर दिए जाने की जरूरत है। असुर को दुर्गा द्वारा मारा जाना जरूरी है। देश की सुरक्षा उनके हाथों में है जबकि पुलिस तमाशबीन है। यह कितना हास्यास्पद हो सकता है... धारावाहिक पारिवारिक झगड़ों पर चलते हैं जहां लडाई- झगड़े, धोखा, कपट रणनीति का हिस्सा हैं, प्रतिशोध वह जादुई छड़ी है जो अपने अस्तित्व के लिए टीआरपी को बढ़ाता है।
क्या समाचार की भी यही रणनीति होती है? विश्वसनीय, अपक्षपाती संतुलित समाचारों को क्या हो गया? कमर्शियल समाचार- जहां पेड न्यूज प्रमुख भूमिका निभाती है, के आगमन के बाद हम इससे बेहतर क्या अपेक्षा कर सकते हैं? यह दुखद है कि देश इस तरह का कूड़ा-करकट देखता है। क्या यह इसके साक्षरता स्तर का प्रतिबिंब है?
अब सब्जी बेचने वालों को ही देखिए। वे विशिष्ट तरीके से आवाज निकालने की कला का उपयोग करते हैं ताकि घर में रह रही महिला तक उसकी आवाज पहुंच सके। यह जो समाचार बेचने वाले लोग हैं, उनके मामले में भी यही है- कि वे लोगों को बांध सकें जो उन्हें टीआरपी के प्वाइंट दिलाए। पेड न्यूज ऐसा टर्म है जिसका कभी-कभी उपयोग किया जाता है। यह अब खुला रहस्य हो गया है। मुझे संदेह होता है कि यह सिर्फ पेड न्यूज है या पेड चैनल है जो अपनी योजना के हिस्से के तौर पर हमारे उपद्रवी कोलाहल को हिलोड़ रहा है। राजनीतिज्ञ निश्चित तौर पर अपनी फसल काटेंगे, यह राजनीति का हिस्सा है। उन्हें देखा जाना है। उन्हें सुना ही जाना है। वे विवाद पैदा करते हैं। लेकिन धन के लालच में शिकार बनना, पत्रकारिता को खरीदा जाना- मेरे लिए इसे स्वीकार करना निश्चित तौर पर कठिन है। और यह सिर्फ उच्च स्तर पर ही समाप्त नहीं होता। बॉस सब दिन सही ही होता है। यह जमीन पर काम कर रहे लोगों तक भी पहुंचता है। आखिरकार, मार्केटिंग टीम सुनिश्चित करती है कि ब्रांड और प्रोडक्ट के मूल्य जमीनी स्तर पर भी दिखें।
आपको सवाल पूछने के लिए पढ़ने, रीसर्च करने की जरूरत नहीं है- आज कल आपको रास्ता बनाने, धक्का-मुक्की करने, किसी ऐसे व्यक्ति के सामने माइक्रोफोन घुसेड़ देने के लिए अपनी कोहनी का इस्तेमाल करने की क्षमता की जरूरत है जो संभव है, प्रतिक्रिया देने की जरूरत भी नहीं समझता हो। जब आप कैमरे पर बात कर रहे हों, तो आपको रिपोर्टर नहीं, कमेन्टेटर की तरह होना चाहिए... स्टूडियो एंकर की ओर से आए सवाल पर ‘आप बिल्कुल सही कह रहे हैं’ से अपनी बात शुरू करनी है। वहां जरा भी अंतर नहीं हो सकता, मगर हर चैनल एक्सक्लूसिव के तौर पर अपने टेलीकास्ट को आगे बढ़ाता रहता है!
ऐसा भी नहीं है कि पहले ‘खरीदे जाने योग्य’ रिपोर्टर नहीं होते थे, लेकिन तब उनकी संख्या नगण्य थी। ऐसे अधिकांश लोग इस पेशे में आए क्योंकि वह आसानी से ‘खरीदे जाने योग्य’ थे। पी. साईनाथ ने सब दिन व्यवस्था के खिलाफ लिखा। मैं यह यकीन नहीं कर सकता कि किसी ने उन्हें खरीदने की कोशिश नहीं की होगी। उन्हें पद्मश्री का प्रस्ताव नहीं दिया गया होगा जिसे उन्होंने ठुकरा दिया होगा?
मुझे लगता है, सत्यजीत रे के पिता सुकुमार रे को इस गिरोह का अंदाजा हो गया था और तभी उन्होंने ‘बाबूराम सपूरे’ लिखा। इसमें कुछ ऐसा वर्णन है- हैलो, बाबूराम - आपको वहां क्या मिला है? सांप? क्या आपको लगता है कि यह कोई ऐसा सांप है जिसे आप छोड़ सकते हैं? मुझे तो ऐसे सांप पसंद हैं, लेकिन एक बात बता दूं – न तो काटने और न ही फुफकारने वाले सांप मुझे पसंद हैं। मैं उन सांपों को भी छोड़ दूंगा जो फन से चोट करते हों, सनसनाहट की आवाज निकालते हों, फन तानकर खड़े हो जाते हों। जहां तक खाने की आदत बात है, मुझे वे अच्छे लगेंगे जो केवल दूधऔर भात खाते हों। मुझे भरोसा है कि आप समझ गए होंगे कि मुझे कैसे सांप चाहिए। जब आपके पास ऐसा कोई सांप हो तो बाबूराम, मुझे बताएं जिससे मैं इसके फन पर चोट कर सकूं।
सिर फोड़ने का कार्यक्रम चल रहा है। आधुनिक शब्दावली में, सुकुमार रे के बेटे ने ‘मगज़ धुलाई' या ब्रेन वाशिंगशब्द का इस्तेमाल करते हैं। हम सांप को देखने से इनकार करते हैं- जिसका दंश कभी भी आपको हमेशा के लिए चुप कर सकता है। समाज की झिझक उसी नींव को बर्बाद कर सकती है, जिस पर वह खड़ा है। (navjivan)


