विचार/लेख
पूजा पवार
ये हैं संयुक्ता हेगड़े, संयुक्ता साउथ इंडियन फिल्म एक्ट्रेस हैं और कर्नाटक की रहने वाली हैं।
बैंगलोर के अगारा लेक पार्क में 4 सितंबर को संयुक्ता और उसकी दो दोस्त स्पोर्ट्स ब्रा पहनकर वर्कआउट कर रही थीं। तभी कांग्रेस की नेता कविता रेड्डी संयुक्ता और उसकी दोनों दोस्तों को शर्म, हया और लाज-लज्जा का पाठ पढ़ाने लगीं।
कविता रेड्डी ने भीड़ इक_ा करके उनको गाली-गलौज की, साथ ही पार्क के मेन गेट पर ताला लगवाकर संयुक्ता और उसकी दोस्तों को पार्क में ही कैद कर लिया।
कविता रेड्डी ने संयुक्ता की एक दोस्त को थप्पड़ तक मारने की कोशिश की। पर संयुक्ता और उसकी दोनों दोस्त कविता रेड्डी और भीड़ से डरी नहीं। संयुक्ता ने पूरे इंसिडेंस का लाइव वीडियो बनाया और लोगों को पूरी घटना से अवगत करवाया।
इसी बीच पुलिस आई और पुलिस ने भी कविता तथा भीड़ का साथ देते हुए संयुक्ता और उसकी दोस्तों को ‘नंगा नाच करने वाली’ तक कहा।
संयुक्ता ने बाद में कविता रेड्डी के खिलाफ एफआईआर लिखवाई।
सोशल साइट्स पर भी कविता रेड्डी संयुक्ता को उलटा सीधा लिख रही थीं। जिस पर कविता की खिंचाई खूब हुई।
इन सबका नतीजा यह हुआ कि आज कविता ने संयुक्ता से सार्वजनिक माफी भी मांग ली।
संयुक्ता साउथ इंडियन फिल्म्स का जाना-पहचाना चेहरा है। वे कई फिल्म्स और शो कर चुकी हैं।
उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग रोल के लिए फिल्म फेयर अवॉर्ड मिल चुका है। कुल मिलाकर इस पूरे इंसिडेंस के निचोड़ के रूप में यह सवाल उठते हैं कि यह देश कब लड़कियों के कपड़े देखकर उसको कैरेक्टर सर्टिफिकेट बांटना बंद करेगा?
कब लड़कियों की मोरल पुलिसिंग बंद होगी?और कब लड़कियों के साथ इस तरह की सार्वजनिक हिंसा बंद होगी??
संयुक्ता एक फिल्म एक्ट्रेस हैं इसलिए वे इतनी हिम्मत कर गईं। क्या कोई आम लडक़ी किसी नेता का इतना सामना कर पातीं?
मनीष सिंह
कोविड के विकराल होते स्वरूप के बीच स्कूलों के खुलने की संभावनाएं धूमिल होती जा रही है। मौजूदा हालात में स्कूलों का खुलना बेहद रिस्की है, और इस सत्र में स्कूलों का शुरू होना असंभव दिखता है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अगले बरस का सत्र भी विलंबित हो।
तमाम प्रयास के बावजूद ऑनलाइन पढ़ाई का असर सीमित ही होगा। इसलिए कि इससे अकादमिक हिस्सा ही पूरा किया जा सकता है। मगर कक्षा का माहौल, खेलकूद, शिक्षक की आमने-सामने की निगहबानी को क्युरिकुलर तथा एक्स्ट्रा क्युरिकुलर एक्टिविटीज का पूरा असर, ऑनलाइन शिक्षण नहीं दे सकता।
बच्चों पर अलग किस्म का दबाव है। घंटों मोबाइल स्क्रीन पर ताकते रहना, एकाग्रता बनाए रखना बेहद कठिन है। नजर की कमजोरी और सरदर्द जैसी शिकायतों के साथ ऊब और मानसिक थकान की समस्याएं भी दिख रही होंगी।
दरअसल इस तरीके में डिलीवरी और रिसीविंग में तिगुनी मेहनत लगती है। किशोरावस्था की ओर आ रहे बच्चे, जिनमें सेंस ऑफ रिस्पांसिबिलिटी पनप गई है, वह तो मैनेज कर सकते हैं। मगर छोटी क्लासों के बच्चों के लिए बेहद कठिन दौर है।
मां-बाप की जिम्मेदारी बेहद बढ़ गई है। बच्चों को मोबाइल या टैब दिला देने से काम नहीं चलेगा। उनके साथ समय बिताना, स्टडी पर निगाह रखना उंसके शिक्षकों से नियमित सम्पर्क रखना और बताए अनुसार फॉलो करवाना फिलहाल आपके हिस्से में है।
दिक्कत यह है कि ज्यादातर लोग गलत पेरेंटिंग में बड़े हुए हैं। स्कूल ट्यूशन की फीस, लाने-ले जाने और ‘कंट्रोल’ में रखने तक पेरेंटिंग सीमित रही है। अभी इन रोल्स को री-डिफाइन करना होगा। किताब-कॉपियों में घुसना होगा। दो-चार सवाल करने होंगे। टीचर से बतियाना होगा। और उसकी सलाह से जो भी मानसिक और शारीरिक विकास की गतिविधियां संभव हो, उसे घर पर करवाने की जरूरत है। याद रखिये, इस वक्त आपका घर, बच्चे की जेल है।
पेरेंटिंग से जुड़े हुए वीडियो, यू ट्यूब पर बहुतेरे उपलब्ध है। सपत्नीक देखिये। संबित और रिया को देखने से बेहतर नतीजे आएंगे, इसकी मैं गारंटी लेता हूँ।
पुनश्च यह कहना जरूरी है कि एक डिस्टेंस भी रखें। बच्चा एक इंडिविजुअल है। उसकी प्राइवेसी है, उसकी अपनी होशियारियाँ हैं। सब कुछ आपको पता होना जरूरी नहीं है। अगर पता है, तो यह बताना जरूरी नहीं कि आपको पता है। समझ गए? नहीं समझे?
वो नहीं समझने वाले ही गड़बड़ पेरेंटिंग के प्रोडक्ट है!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राज्यपालों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े पते की बात कह दी। उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति सरकार की नीति नहीं है, देश की नीति है। बिल्कुल वैसे ही जैसी कि विदेश नीति या रक्षा नीति होती है। उन्होंने शिक्षा नीति पर सर्वसम्मति की मांग की है लेकिन कुछ विपक्षी दल इस नई शिक्षा नीति में सुधार के लिए रचनात्मक सुझाव देने की बजाय उसकी भत्र्सना करने में जुटे हुए हैं।
प. बंगाल के एक तृणमूल-नेता ने कह दिया कि उनकी सरकार इस नीति को इसलिए लागू नहीं करेगी कि बांग्ला-भाषा को प्राचीन या शास्त्रीय भाषा का दर्जा क्यों नहीं दिया गया ? उनसे कोई पूछे कि बांग्ला को यह दर्जा दिया जाए तो देश की अन्य दर्जन भर भाषाओं को भी क्यों नहीं दिया जाए ? अब संसद के सत्र में इस नई शिक्षा नीति पर जमकर बहस होगी। इस नई शिक्षा नीति की प्रशंसा में अगणित लेख लिखे गए हैं और विशेषज्ञों ने अपनी शंकाएं और आपत्तियां भी दर्ज करवाई हैं। प्रधानमंत्री का आश्वासन है कि सरकार उन पर पूरा-पूरा ध्यान देगी। इस नई शिक्षा नीति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगी। यह अत्यंत सराहनीय कदम है लेकिन असली सवाल यह है कि संसद, सरकार और अदालतों के सभी महत्वपूर्ण कार्य अंग्रेजी में होंगे तो मातृभाषा के माध्यम से अपने बच्चों को कौन पढ़ाएंगे ?
ये लोग वही होंगे, जो ग्रामीण हैं, गरीब हैं, किसान हैं, पिछड़े हैं, आदिवासी हैं, मजदूर हैं। जो मध्यम वर्ग के हैं, ऊंची जात के हैं, शहरी हैं, पहले से सुशिक्षित हैं, वे तो अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाएंगे। नतीजा क्या होगा ? भारत के दो मानसिक टुकड़े हो जाएंगे। एक भारत और दूसरा इंडिया। यदि इस विभीषिका से बचना है तो बच्चों की पढ़ाई में से अंग्रेजी माध्यम पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना होगा, जैसा कि मादक द्रव्यों पर है। अंग्रेजी माध्यम पर यदि प्रतिबंध नहीं लगा तो तथाकथित पब्लिक स्कूलों की बाढ़ आ जाएगी। इसी तरह विदेशी विश्वविद्यालयों की भी भारत में भरमार हो जाएगी और वे वर्गभेद बढ़ाएंगे। जहां तक ‘पढ़ते की विद्या’ के साथ-साथ ‘करते की विद्या’ सिखाने की बात है, इससे बढिय़ा पहल क्या हो सकती है लेकिन जब तक देश में मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम का भेद कम नहीं होगा, कामधंधों का प्रशिक्षण लेनेवाले छात्र व्यावसायिक क्षेत्र में ‘शूद्र’ ही बने रहेंगे। दूसरे शब्दों में शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन तभी होगा, जबकि समाज के मूल ढांचे में हम आधारभूत बदलाव लाएंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अनंत प्रकाश
बॉलीवुड एक्ट्रेस कंगना रनौत ने महाराष्ट्र सरकार को चुनौती देते हुए कहा है कि अगर जाँच में उनके और ड्रग पैडलर्स के बीच किसी तरह के संबंध होने के सबूत मिलता है तो वह हमेशा के लिए मुंबई छोडऩे के लिए तैयार हैं। कंगना की ओर से ये ट्वीट तब आया है जब महाराष्ट्र सरकार के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने कहा है कि महाराष्ट्र सरकार कंगना रनौत के ड्रग्स लेने के मामले की जाँच करेगी। लेकिन ये पहला मौका नहीं है जब कंगना और महाराष्ट्र सरकार आमने-सामने आए हों। कंगना रनौत और ठाकरे सरकार बीते तीन महीनों में कई बार टकरा चुके हैं। दोनों पक्षों की ओर से आक्रामक बयानबाज़ी जारी है। इसी बीच केंद्र सरकार ने कंगना को ‘वाई ग्रेड’ की सुरक्षा दे दी है।
कंगना बनाम ठाकरे सरकार
बीते सोमवार कंगना रनौत ने एक ट्वीट से दावा किया था कि उन्हें सूचना मिली है कि बीएमसी मंगलवार को उनका दफ़्तर तोडऩे आ रही है। इसके बाद मंगलवार को कंगना ने ट्वीट किया कि उनके समर्थकों की आलोचना के बाद बीएमसी उनके दफ़्तर पर बुलडोजर लेकर नहीं आई, बल्कि लीकेज रोकने का नोटिस लगाकर गई।
बीबीसी ने बीएमसी के अधिकारियों से बात कर कंगना के दावे की पुष्टि करने की कोशिश की। बीएमसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर ये स्वीकार किया कि बीएमसी के अधिकारी कंगना के दफ्तर पहुँचे थे। उन्होंने कहा, ‘बीएमसी की टीम कंगना के दफ्तर पहुंची थी। लेकिन ये दौरा क्यों किया गया इसे लेकर जानकारी नहीं है। वार्ड अफसर ही बता सकेंगे कि आखिर बीएमसी की टीम क्यों गई थी।’ लेकिन इस समय कंगना रनौत और शिवसेना के नेतृत्व वाली बीएमसी के बीच जो कुछ चल रहा है, वो एक बड़ी कहानी का छोटा सा अंश मात्र लगता है।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि कंगना और महाराष्ट्र सरकार के बीच कलह की शुरुआत क्यों हुई और इस कलह की जड़ क्या है?
इस सवाल का जवाब कंगना के उस ट्वीट में मिलता है जिसमें उन्होंने सवाल किया था कि मुंबई धीरे-धीरे ‘पाक कब्जेवाला कश्मीर’ क्यों लगने लगी है। इस पर शिवसेना नेता संजय राउत समेत कई फिल्मी हस्तियों की ओर से कंगना रनौत की आलोचना की गई। शिवसेना नेता की ओर से कंगना के खिलाफ आपत्तिजनक शब्दों का भी इस्तेमाल किया गया। फिर कंगना ने भी इसका जवाब शिवसेना के अंदाज वाली आक्रामकता से दिया।
बॉलीवुड के बड़े एक्टर्स पर भी उठाए सवाल
17 साल की उम्र में ‘गैंगस्टर’ जैसी फिल्म से अपने करियर की शुरुआत करने वाली कंगना ने ‘क्वीन’ और ‘तनु वेड्स मनु’ जैसी फिल्मों से बॉलीवुड में अपनी एक खास जगह बनाई है। तीन नेशनल अवॉर्ड्स समेत कमर्शियल फिल्मों में धमाकेदार कमाई के बावजूद कंगना रनौत नेपोटिज्म से लेकर बॉलीवुड माफिय़ा वगैरह पर खुलकर बोलती रही हैं। पिछले विवादों और इस विवाद में एक अंतर ये है कि अब तक ये विवाद बॉलीवुड एक्टर्स के बीच रहा करते थे। लेकिन ये पहला मौका है जब कंगना एक ऐसे मुद्दे के केंद्र में आ गई हैं जिसमें उनके निशाने पर मुंबई पुलिस, बीएमसी और महाराष्ट्र सरकार है। कंगना ने बीते दिनों बॉलीवुड में ड्रग्स के इस्तेमाल को लेकर बड़े दावे किए हैं।
कंगना ने अपने ट्वीट में लिखा है, ‘मैं रणवीर सिंह, रनबीर कपूर, अयान मुखर्जी, विक्की कौशिक से प्रार्थना करती हूँ कि ड्रग टेस्ट के लिए अपने ब्लड सैंपल दें, अफवाह उड़ रही है कि ये कोकीन के आदी हैं। मैं चाहती हूँ कि इन अफवाहों को ख़त्म कर दें। ये युवा पुरुष अगर अपने क्लीन सैंपल दे सकें तो ये लाखों लोगों को प्रेरित कर सकते हैं।’ उन्होंने ये भी कहा है कि वह नारकोटिक्स ब्यूरो की मदद करने को तैयार हैं क्योंकि उन्हें बॉलीवुड पार्टीज में ड्रग्स के इस्तेमाल को लेकर काफी जानकारी है। उन्होंने लिखा, ‘मैं नारकोटिक्स ब्यूरो की मदद करने के लिए पूरी तरह तैयार हूँ। लेकिन मुझे केंद्र सरकार से सुरक्षा चाहिए। मैंने सिर्फ अपने करियर को जोखिम में नहीं डाला है। बल्कि मैंने अपनी जि़ंदगी को भी जोख़िम में डाला है। ये काफी स्पष्ट है कि सुशांत को कुछ बुरे राज़ पता थे, इसलिए उसे मार दिया गया।’
कंगना ऐसा क्यों कर रही हैं?
फिल्म समीक्षक तनुल ठाकुर मानते हैं कि कंगना ने एक अभिनेत्री के रूप में अपने करियर को महत्व देना कम कर दिया है। वह कहते हैं, ‘मैं उन्हें क्वीन और उससे पहले से देखता आ रहा हूँ। एक कलाकार के रूप में वह समय के साथ बेहतर से बेहतरीन हुई हैं। मुझे ये कहने में गुरेज नहीं है कि वह एक महान अदाकारा हैं। लेकिन जब बात आती है कि एक शख्स के रूप में कंगना के व्यवहार की तो मुझे काफी दुख होता है कि उन्होंने शायद अपने एक्टिंग करियर को महत्व देना बंद कर दिया है। और शायद वह राजनीति में जाने के संकेत दे रही हैं।’
‘मैं ये बात इसलिए नहीं कह रहा हूं क्योंकि वह एक ख़ास पार्टी की विचारधारा में यक़ीन रखती हैं। बल्कि मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जिस तरह वह अपने एक्टिंग करियर के रास्ते बंद कर रही हैं, ऐसे में उनके साथ कौन काम कर पाएगा? साल 2017-18 तक कंगना मुख्यधारा की अभिनेत्रियों में गिनी जाती थीं जिन्होंने अपने अच्छे काम से जगह बनाई लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे उनकी टिप्पणियां इतनी अपमानजनक होती गईं कि अब लोगों के लिए उनके साथ काम करना मुश्किल होगा।’
हाल ही में एक प्रतिष्ठित डायरेक्टर ऑफ़ फोटोग्राफी पीसी श्रीराम ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से कंगना के साथ काम न करने का ऐलान किया है।
तनुल इस स्थिति को समझाते हुए कहते हैं, ‘बात ये नहीं है कि लोग उन्हें पसंद नहीं करते हैं। एक अभिनेत्री के रूप में लोग उन्हें आज भी तरजीह देते हैं। लेकिन कंगना जिस तरह किसी भी विचार को एक हथियार की शक्ल देती हैं, उससे उनके साथ काम करने वाले असहज हो जाते हैं। ये एक ऐसी स्थिति पैदा करती है जिसमें कंगना स्वयं फिल्म बनाएंगी ‘जबकि वह कई सारे बेहतरीन फिल्म मेकर्स, एक्टर्स, और टेक्नीशियंस के साथ काम कर सकती थीं।’
क्या इसके पीछे राजनीति है वजह?
लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो कंगना-शिवसेना विवाद के पीछे एक राजनीतिक अंडर करंट है जिसकी वजह से दोनों पक्षों के बीच आक्रामकता इतनी ज़्यादा बढ़ गई है।
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत देसाई मानते हैं कि ये एक ऐसी स्थिति है जिसमें शिवसेना और बीजेपी दोनों ही पक्षों को भारी फायदा हो रहा है।
वह कहते हैं, ‘एक तरह से देखा जाए तो ये मुद्दा महाविकास अगाड़ी सरकार को फायदा पहुंचा रहा है क्योंकि महाराष्ट्र में पुणे और कोल्हापुर, सोल्हापुर जैसे छोटे शहरों में कोरोना वायरस बहुत तेजी से फैल रहा है। इसके लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन इस सबकी जगह वह सदन में अर्नब गोस्वामी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव लेकर आ रहे हैं। और उनके खिलाफ कोरोना को लेकर सवाल नहीं उठ रहे हैं।’
‘वहीं, दूसरी ओर ये मुद्दा बीजेपी के लिए भी फायदेमंद है क्योंकि इस वजह से उसे उत्तर भारतीय राज्यों में राजनीतिक फायदा होगा। अब अगर बात करें कि कंगना इस पूरे खेल में क्या कर रही हैं तो वह एक खिलाड़ी की भूमिका में हैं।’
हेमंत देसाई कहते हैं, ‘कंगना के करियर का पीक एक तरह से खत्म हो गया है। अब उनकी राष्ट्रीय छवि बढ़ रही है। अभी वह इसका फायदा भी उठा रही हैं। शायद वह राष्ट्रपति के कोटे से राज्यसभा जा सकती हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएं बड़ी हो सकती हैं। वह इसका राजनीतिक लाभ ले रही हैं। शिवसेना भी इसके जाल में फंसती नजर आ रही है। जैसे अभी उनके घर और दफ़्तर पर जाकर वैध या अवैध की जांच करने का मामला। मुंबई कॉरपोरेशन को पहले देखना चाहिए था कि निर्माण वैध या अवैध है। ऐसे में शिवसेना और कॉरपोरेशन जो कर रही है, वो पूरी तरह से गलत है।’ हालांकि इसी बीच बीते कुछ दिनों में सोशल मीडिया पर कंगना रनौत की जगह पहले से काफी मजबूत हो गई है। ट्विटर पर हाल ही में उनके फॉलोअर्स की संख्या 13 लाख पहुंच चुकी है। (bbc.com/hindi)
आज भारत का किसान अनुदानों की भीख नहीं बल्कि आत्मसम्मान के मूल्यों के लिये संघर्ष कर रहा है
- Ramesh Sharma
बहुसंख्यक ग्रामीण भारत इस सत्य को मानता है कि "कृषि, भारतीय अर्थतंत्र की रीढ़ है"। वास्तव में पुराने पाठ्यपुस्तकों में भी कृषि को भारतीय अर्थतंत्र की रीढ़ के रूप में मान्यता दी गयी थी। लेकिन भारतीय (राज) नीति के आधुनिकीकरण और शिक्षा के अतिआधुनिकीकरण ने इस रीढ़ को राजतंत्र से निकाल बाहर कर दिया है। वह महज संयोग नहीं था कि उदारीकरण के उदय के साथ-साथ तत्कालीन भारत सरकार के योजना भवन में अक्सर गंभीर बहसें होती थी कि- आखिर कैसे कृषि तंत्र से (तथाकथित अनुपयोगी) श्रमशक्ति को बाहर निकालकर उनका उद्धार किया जाये। योजना आयोग की अनेक रिपोर्टों में इन तर्कों और तथ्यों के आधार पर बनाये गये लालबुझक्कड़ी योजनाओं की अधूरी कहानियों, और उन कहानियों के नायकों-खलनायकों में- इसके इतिहास, वर्तमान और भविष्य को देखा-पढ़ा जा सकता है।
एक के बाद एक अनगिनत रिपोर्टें आयीं, शोध हुये, वार्तायें आयोजित की गयी, समितियों का गठन हुआ जिसका समग्र परिणाम ये रहा कि सकल घरेलू उत्पाद (अर्थात जीडीपी) में भारतीय कृषि का योगदान, गर्त में गिरता चला गया। केवल यही नहीं, दिशाहीन कायदे-कानूनों के चलते लाखों किसानों को भूमिहीन बना दिया गया। दुर्भाग्य से यह उस महात्मा गांधी जी के भारत में हुआ, जो मानते और कहते थे स्वाधीनता के बाद हमारा ध्येय 'भूमिहीनों को किसान' बनाने का होना चाहिये।
इसके साथ-साथ भारतीय कृषि के इतिहास का सबसे काला अध्याय शुरू हुआ जब 'अनिश्चितताओं, असुरक्षाओं और आपदाओं' की त्रासदी से त्रस्त हजारों अन्नदाताओं ने हिम्मत हारकर अपनी जान दे दी। आश्चर्य है खेती-किसानी के लिये मानसून को अनिश्चितता का जुआ मानने वाला, तमाम जोखिमों के बाद भी कृषि-तंत्र में मानवीय दायित्वों का वहन करने वाला, अपनी विपन्नता को लादकर भी देश को संपन्न करने वाला भारतीय अर्थतंत्र का स्थापित योद्धा, आखिर आत्महत्या के लिये क्यों प्रेरित हुआ? क्या उन कारणों और लोगों की निष्पक्ष पड़ताल नहीं होना चाहिये, जिन्होंने हजारों किसानों को आत्महत्या के कगार पर धकेल दिया? आखिर क्यों लाखों किसानों को खेती से बाहर धकियाते हुये उन्हें शहरों का सस्ता मजदूर बना दिया गया ? क्या समाज और सरकार दोनों ही किसानों के अधिकारों के अवमानना के दोषी नहीं हैं? ऐसे अनेक अनुत्तरित सवालों का जवाब, तलाशे और तराशे बिना भारतीय कृषि के परमार्थ के प्रयास न केवल अधूरे रहेंगे, बल्कि पूरे कृषि तंत्र को ही पतन की ओर धकेल देंगे। सकल घरेलू उत्पाद (अर्थात जीडीपी) में कृषि के योगदान का लगातार घटता अनुपात, इस त्रासदी का केवल एक अधूरा अक्स है।
भारतीय प्रशासनिक/अर्थ - व्यवस्था के हकीमों को यह जानना ही चाहिये कि वर्ष 1970 में कृषि का सकल घरेलू उत्पाद लगभग 25 बिलियन डॉलर था, जिसमें विगत पांच दशकों के दौरान मेहनतकश किसानों के अथक प्रयासों के चलते उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। भारत सरकार (जुलाई 2020) के अनुसार आज कृषि का सकल घरेलू उत्पाद अनुमानतः 4546 बिलियन रुपए (अर्थात 619 बिलियन डॉलर) हो चुका है। अर्थात केवल 50 बरस के दौरान कृषि के सकल घरेलू उत्पाद में बेहद सकारात्मक 24 गुना से अधिक की वृद्धि हुई है। सरकार यदि इस विकास और वृद्धि का श्रेय लेना चाहती है तो उसे इस बात का उत्तर पहले देना चाहिये कि वर्ष 1970 से 2020 के मध्य, कृषि के लिये निर्धारित बजट में आखिर कब-कैसे-क्यों और कितने गुना की वृद्धि हुई है?
आज महामारी के दौर में जब विकास की मीनारों के नीचे की ज़मीन खिसक रही हैं तब केवल और केवल किसान-मज़दूर ही हैं जो अपने ज़मीन और ज़मीर की ओर पूरी हिम्मत के साथ लौट रहे हैं। भारत सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट (सितम्बर 2020) के अनुसार औद्योगिक विकास, करोड़ों रुपयों की ज्ञात-अज्ञात राजकीय सहायता के बावज़ूद 38 फ़ीसदी के ऋणात्मक विकास पर पूरी रफ़्तार के साथ उलटी राह चल पड़ा है। करोड़ों बेरोज़गारों को पालने का कागज़ी दावा करने वाला सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) 20 फ़ीसदी ऋणात्मक विकास दर के साथ अब तक के सबसे बड़े ढलान पर बेबस औंधा पड़ा है। समाज और सरकार को आज गर्व होना ही चाहिये कि हज़ारों किसानों के असामयिक अंत के दुःख के बावज़ूद भी किसान ही हैं जो देश की उम्मीदों का ध्वजवाहक बना हुआ है।
सैद्धांतिक तौर पर यह सही है कि वर्ष 2024 तक (अर्थात अब से मात्र 3-4 वर्ष के भीतर) किसानों की आय दोगुनी होनी ही चाहिये लेकिन अभी तय होना बाकी है कि यह किसान तय करेगा अथवा सरकार ? सरकार जो कुछ कर सकती थी/है, वह सब तो केवल किसानों की आत्महत्या की जिंदा कहानियों और उनके बेमौत त्रासदी के सापेक्ष हुये राजनैतिक और नैतिक प्रायश्चितों के बानगी देखा-समझा जा सकता है। आज महामारी के दौर में भी कृषि क्षेत्र में विकास दर 3.4 फ़ीसदी रहने का अर्थ समझने के लिये समाज और सरकारों को योजनाओं की आत्मकेंद्रित राजनीति के दौर से बाहर आना चाहिये। किसानों को अपनी आय दुगुनी करने के लिये योजनाओं का मानसून नहीं बल्कि अधिकारों की ठोस ज़मीन चाहिये। अच्छा होता यदि आय दुगुनी करने के राजनैतिक अवसरों के बजाये किसानों को उनके नैतिक अधिकार दिये जाते।
गर्व होना चाहिये कि आज भारत का किसान अनुदानों की भीख नहीं बल्कि आत्मसम्मान के मूल्यों के लिये संघर्ष कर रहा है। यह परिस्थितियाँ, संपन्न उत्तरी देशों के उन नीतियों से बिलकुल अलग है जहाँ स्वयं सरकारें, किसानों के ख़ातिर रंग-बिरंगे अनुदानों के पक्ष में खड़ी हैं। भारतीय किसानों की तो अभी, लागत मूल्य के अधिकार की पहली मैदानी लड़ाई भी खत्म नहीं हुई है। ऐसे में किसानों के लिये घोषित, अंतहीन योजनाओं की कोई भी राजनैतिक परियोजना अब तक तो आधा-अधूरा प्रयोग ही साबित होता आया है। इसीलिये महामारी के दौर में किसानों के लिये घोषित विभिन्न योजनाओं में अवसर और उनके असर भी सीमित ही हैं/होंगे। दुर्भाग्य है कि आजादी के सात दशकों के बाद भी इस देश के नीति-नियंता, राजनैतिक योजनाओं के चौसर में अंतहीन बाजी खेल रहे हैं। यथार्थ तो यह है कि इस देश का बहुसंख्यक किसान, योजनायें के अवसर नहीं, बल्कि अपने नैतिक - राजनैतिक अधिकार चाहता है। योजनाएं तो केवल एक पात्रता का आधा-अधूरा अवसर है - इस सत्य को समझने और स्वीकारने में अब तक लगभग हरेक सरकारों की समग्र विफलतायें ही भारतीय कृषि और कृषकों की सबसे बड़ी त्रासदी बन चुकी है।
बरसों पहले, भारत देश / देह से कृषि की रीढ़ को निकालने वाले अनगिनत नीति-निर्माताओं, योग्य-राजनेताओं, नीमहकीम-विशेषज्ञों और बुद्धिजीवी-प्रशासकों के सामने ही नहीं, उस स्वकेंद्रित उपभोक्ता- समाज के समक्ष भी आज, किसानों के परमार्थ के रास्ते सीमित ही हैं। यदि सब चाहें तो अवसाद के कगार पर खड़े लाखों करोड़ों अन्नदाताओं को उनके अपने सपने और अधिकारों की नई इबारतें स्वयं गढ़ने की स्वाधीनता दे सकते हैं जिसका अर्थ होगा कि हम रीढ़ को पुनः सम्मानपूर्वक, देश/देह में स्थापित कर सकेंगे। किंतु यदि ऐसा नहीं होता तो भारतीय कृषि को तबाह करने वाला एक ऐसा नया तंत्र उठ खड़ा होगा जिसमें अन्नदाताओं को अपना अंतिम चुनाव करने से कदाचित कोई नहीं रोक सकेगा। भारतीय कृषि का इतिहास और भारतीय कृषकों का भविष्य, आज इसी दोराहे पर मौन खड़ा है।
(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)(downtoearth)
क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के नेतृत्व वाली शोध टीम ने खुलासा किया है कि कई लुप्तप्राय स्तनपायी प्रजातियां संरक्षित क्षेत्रों पर निर्भर हैं। संरक्षित क्षेत्रों के बिना ये प्रजातियां गायब हो जाएंगी
- Dayanidhi
संरक्षित क्षेत्र जैव विविधता संरक्षण के लिए आवश्यक हैं। यह क्षेत्र लुप्तप्राय होती जा रही प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। संरक्षण पारिस्थितिक प्रक्रियाओं को बनाए रखने में मदद करता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के अनुसार संरक्षित क्षेत्र दुनिया के भूमि क्षेत्र का लगभग 15.4 फीसदी और वैश्विक महासागर क्षेत्र का 3.4 फीसदी है। संरक्षित निवास स्थान प्रजातियों के नुकसान को कम करने में मदद करते हैं।
क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के नेतृत्व वाली शोध टीम ने खुलासा किया है कि कई लुप्तप्राय स्तनपायी प्रजातियां संरक्षित क्षेत्रों पर निर्भर हैं। संरक्षित क्षेत्रों के बिना ये प्रजातियां गायब हो जाएंगी।
वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ क्वींसलैंड (यूक्यू) के प्रोफेसर जेम्स वाटसन ने कहा कि संरक्षित क्षेत्रों की सफलता के बावजूद, संरक्षण करने के उपकरण के रूप में उनकी लोकप्रियता कम होने लगी है।
वाटसन ने कहा 1970 के दशक के बाद से, दुनिया भर में संरक्षित क्षेत्रों के नेटवर्क चार गुना बढ़े हैं। इनमें से कुछ संरक्षित क्षेत्र वन्यजीव आबादी को बचाने और यहां तक कि बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
हालांकि लुप्तप्राय होने वाली प्रजातियों को बनाए रखने में वैश्विक संरक्षित क्षेत्र की संपत्ति की भूमिका के बारे में चर्चा बढ़ रही है। हमारे शोध ने जो स्पष्ट रूप से दिखाया है संरक्षित क्षेत्र, जब अच्छी तरह से वित्त पोषित होते हैं और अच्छी तरह से इनकी निगरानी की जाती है, तो खतरे वाली प्रजातियों को बचाया जा सकता है। इन संरक्षित क्षेत्रों में हमने जिन 80 प्रतिशत स्तनपायी प्रजातियों की निगरानी की है। उन्होंने पिछले 50 वर्षों में कम से कम संरक्षित क्षेत्रों में विस्तार (कवरेज) को दोगुना कर दिया है।
वैज्ञानिकों ने मौजूदा 237 खतरे वाली प्रजातियों की तुलना 1970 के दशक के सीमाओं में हुए परिवर्तन को मापा, फिर उन्हें संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क के साथ मिलाया हैं।
प्रोफेसर वॉटसन ने कहा इसका एक अच्छा उदाहरण यह है कि एक से अधिक सींग वाले गैंडे (राइनोसेरोस यूनिकॉर्निस), जिनकी संख्या अब संरक्षित क्षेत्र में 80 फीसदी है। उनकी संख्या अन्य जगहों पर कम हो गई है। पिछले 50 वर्षों में प्रजातियों को अपने विस्तार के 99 फीसदी से अधिक सीमा का नुकसान हुआ है। अब शेष 87 प्रतिशत पशु केवल दो संरक्षित क्षेत्रों में रहते हैं - भारत में काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान और नेपाल में चितवन राष्ट्रीय उद्यान। यह शोध कंजर्वेशन लेटर्स नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
प्रोफेसर वॉटसन ने कहा कि स्तनधारी संरक्षित क्षेत्रों में पीछे हट रहे हैं और दुनिया की जैव विविधता की रक्षा के लिए संरक्षित क्षेत्र पहले से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि संरक्षित क्षेत्रों के बिना बाघ और पहाड़ी गोरिल्ला जैसी अद्भुत प्रजातियां गुम हो जाएंगी।
यह स्पष्ट रूप से दिखता है कि विलुप्त होने के संकट को समाप्त करने के लिए, हमें बेहतर वित्त पोषित और अधिक संरक्षित क्षेत्रों की आवश्यकता है। इन्हें सरकारों और अन्य भूमि प्रबंधकों द्वारा अच्छी तरह से समर्थित और प्रबंधित होना चाहिए। साथ ही, हमें उन प्रयासों को पुरस्कृत करने की आवश्यकता है जो संरक्षित क्षेत्र की सीमाओं से अलग दूसरे क्षेत्रों में वन्यजीव आबादी के पुन: विस्तार और पुनर्स्थापन को सुनिश्चित करते हैं। हमें पृथ्वी के शेष अखंड पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें प्रमुख संरक्षित क्षेत्र हों। (downtoearth)
छत्तीसगढ़ के दो दोस्तों की कहानी !
-डॉ. परिवेश मिश्रा
छत्तीसगढ़ के रायपुर में दो हमउम्र स्कूली बच्चों के पिता मित्र थे सो बच्चों में भी मित्रता हो गयी। समय के साथ बच्चे भी बड़े हुए और मित्रता भी बढ़ी। एक समय ऐसा आया कि एक ही वर्ष - 1969 - में मात्र चार महीने के अंतराल में एक मित्र टैक्सी में बैठकर राजभवन पहुंचा और मुख्यमंत्री बना। दूसरा एक अदद सहयोगी के साथ अपनी कार ड्राईव करते हुए राष्ट्रपति भवन पहुंचा और राष्ट्रपति बना।
इसमें से मुख्यमंत्री बनने वाले मित्र थे सारंगढ़ के राजा नरेशचन्द्र सिंह। राज्यपाल के.सी. रेड्डी और राजा साहब पुराने मित्र थे। शपथ के बाद दोनों ने साथ काॅफी पी और कार्यक्रम सम्पन्न हो गया था। बिना किसी तामझाम के।
यह कहानी मैं 9 अगस्त 2020 को विस्तार से लिख चुका हूं। Facebook टाईमलाईन पर है, यहां दोहराऊंगा नहीं।
आज की कहानी दूसरे मित्र मोहम्मद हिदायतुल्ला जी की है जो उसी वर्ष चार महीने के बाद एक दिन सुप्रीम कोर्ट में लंच ब्रेक में अपनी काॅफी छोड़ कर राष्ट्रपति भवन पंहुचे थे और वहां काॅफी का प्याला समाप्त होते तक उनका राष्ट्रपति बनना तय हो गया था।
-------
लेकिन पहले एक आवश्यक फ्लैश बैक
समय : 1915 से 1920 का काल
छत्तीसगढ़ में बस्तर राज्य के दीवान थे ख़ान बहादुर हाफ़िज़ मोहम्मद विलायतुल्ला (इनका ज़िक्र दुर्ग के जटार क्लब के बारे में 2 सितंबर 2020 को लिखी और Facebook टाईमलाईन में मौजूद मेरी पोस्ट में है)।
क्लिक करें और यह भी पढ़ें : आत्मसम्मान और उसूलों के लिये अड़ने की कहानी में तिलक और हिदायतुल्ला
राज्य के दीवान आमतौर पर राजा के द्वारा नियुक्त किये अधिकारी होते थे। किन्तु उन दिनों का बस्तर राज्य अपवाद था। कुछ विशेष परिस्थितियों के चलते ( बस्तर की इन असामान्य परिस्थितियों के बारे मे विस्तार से किसी और पोस्ट में) अंग्रेज़ों ने वहां दीवान को प्रशासक का अतिरिक्त जिम्मा सौंप कर अपने अधिकारी नियुक्त करना शुरू कर दिया था। इस प्रकार दीवान-सह-प्रशासक के रूप में एक वरिष्ठ अधिकारी मो. विलायतुल्ला को छिंदवाड़ा से बस्तर पदस्थ कर भेजा गया था।
रायपुर में राजकुमार काॅलेज के कैम्पस में दो बंगले थे जो उन्नीसवीं सदी की समाप्ति से पहले नागपुर के कस्तूरचंद पार्क वाले डागा परिवार से अंग्रेज़ों ने प्राप्त किये थे। (उनकी कहानी भविष्य की पोस्ट में। वर्तमान में ये काॅलेज के प्रिन्सिपल और वाईस-प्रिन्सिपल के निवास हैं।) उन दिनों इनमें छत्तीसगढ़ के दो सबसे महत्वपूर्ण अंग्रेज़ अफ़सर रहा करते थे। एक थे रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग (अंग्रेज़ों का द्रुग और छत्तीसगढियों का दुरुग) ज़िलों के कमिश्नर और दूसरे थे उन्ही के समकक्ष अधिकारी पोलिटिकल एजेंट। ब्रिटिश या खालसा इलाके के प्रभारी थे कमिश्नर। बाकी बचा पूरा छत्तीसगढ़ राजाओं के अधीन था और इस इलाके के लिए अधिकारी थे पोलिटिकल एजेंट।
उन दिनों राजकुमार काॅलेज की प्रबंध कमेटी के अध्यक्ष थे सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह। उनके बेटे नरेशचन्द्र सिंह उसी काॅलेज (स्कूल को ही काॅलेज कहा जाता था) में विद्यार्थी थे और वहीं रहते थे।
मो. विलायतुल्ला बस्तर में सात वर्ष रहे। इस दौरान वे रिपोर्ट करते थे छत्तीसगढ़ के पोलिटिकल एजेंट को। सो रायपुर के राजकुमार काॅलेज में आना जाना बना रहता था।
विलायतुल्ला ने रायपुर के बैरन बाज़ार इलाके में एक मकान किराये पर ले कर बेटों - इकरामुल्ला, अहमदुल्ला तथा हिदायतुल्ला - को पहले सेन्ट पाॅल और फिर कुछ ही दिनों में गवर्नमेंट हाई स्कूल में भर्ती करा दिया था।
अपनी बौद्धिक विलक्षणता के कारण डबल-प्रमोशन की छलांग लगा कर हिदायतुल्ला जी 1921 में मैट्रिक तक पंहुच तो गये किन्तु परीक्षा में बैठने की उम्र न होने के कारण उन्हें एक वर्ष का खाली समय बिताना पड़ा था। इन्ही दिनों राजकुमार काॅलेज में अच्छे राजा और प्रशासक बनने की शिक्षा और प्रशिक्षण पा रहे कुमार नरेशचन्द्र सिंह जी रायपुर शहर के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त किये जा चुके थे। दोनों के बीच मित्रता प्रगाढ़ होने के अवसर पैदा हुए।
1949 से 1956 तक राजा नरेशचन्द्र सिंह जी मंत्री के रूप में नागपुर में रहे (पहले मनोनीत तथा 1952 से निर्वाचित विधायक थे)। दोनों मित्रों का फिर साथ हुआ। हिदायतुल्ला जी नागपुर हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे, बाद में मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हो गये थे। दिन में दोनों अपना काम करते और शाम गोल्फ कोर्स में नियमित साथ खेलते व्यतीत होती।
------------
अब आते हैं 1969 पर
------------
भोपाल मे 13 मार्च 1969 के दिन राजा नरेशचन्द्र सिंह जी ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। इधर हिदायतुल्ला जी तब तक सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बन चुके थे।
15 जुलाई 1969 के दिन सुप्रीम कोर्ट में संविधान पीठ एक मामले की सुनवाई कर रही थी। एक से दो बजे का लंच ब्रेक हुआ तो पीठ की अध्यक्षता कर रहे मुख्य न्यायाधीश अपने चेम्बर मे आये। देखा तो उनके सचिव फोन हाथ में लिए खड़े हैं। भारत के राष्ट्रपति बात करना चाहते थे।
राष्ट्रपति ने फौरन लाईन पर आ कर कहा : "मैं आप से मिलना चाहता हूँ। क्या आप आ सकते हैं?"
हिदायतुल्ला जी ने निवेदन किया कि सुनवाई पूरी कर चार बजे आना चाहता हूँ।
किन्तु राष्ट्रपति ने कहा "नहीं, नहीं। बहुत ज़रूरी बात है। अभी आइये। और सीक्रेसी का ध्यान रखें। किसी को पता नहीं चलना चाहिए "।
जिन राष्ट्रपति से हिदायतुल्ला जी की बात हुई वे थे श्री वराह गिरी वेन्कट गिरी (वी वी गिरी)। श्री गिरी 1967 में भारत के उपराष्ट्रपति चुने गये थे। ठीक दो वर्ष के बाद 3 मई 1969 के दिन राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन का निधन हो गया। उसी दिन देर दोपहर राष्ट्रपति भवन के एक हिस्से में डॉ. ज़ाकिर हुसैन का शव रखा था और दूसरे हिस्से में श्री वी वी गिरी को राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई गयी थी। शपथ दिलाने वाले थे चीफ जस्टिस हिदायतुल्ला।
15 जुलाई 1969 की उस दोपहर राष्ट्रपति जी से बात होने के फौरन बाद हिदायतुल्ला जी ने सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार श्री देसाई (वे आगे चल कर गुजरात हाईकोर्ट के जज बने थे) को बुलाकर अपनी व्यक्तिगत कार बिना ड्राइवर के पोर्च में लगाने का निर्देश दिया। अपने लंच और काॅफी को छोड़ हिदायतुल्ला जी बाहर निकले। हमेशा की तरह लिफ्ट का इस्तेमाल करने की बजाए सीढ़ियों से उतरे। जब तक लोग देख पाते कार में बैठे और तब जाकर उन्होंने देसाई को बताया कि वे दोनों राष्ट्रपति भवन जा रहे हैं। पंहुच कर उन्होंने देसाई से कार में प्रतीक्षा करने को कहा। ए.डी.सी राह देखते खड़ा था। उसने अंदर पंहुचाकर दरवाजा बंद कर दिया। एकांत में श्री गिरी के साथ जो बातचीत हुई उसका विवरण हिदायतुल्ला जी ने अपनी पुस्तक "माय ओन बाॅज़वेल" में दिया है। ढीला अनुवाद कुछ इस तरह है :-
राष्ट्रपति (Prez) : मैंने फैसला किया है कि आपको राष्ट्रपति बनाऊं।
मुख्य न्यायाधीश (CJ): मेहरबानी कर अपनी बात स्पष्ट करें
Prez : मैंने तय किया है कि मैं इस्तीफा दे कर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ूंगा। लेकिन बताएं मैं किसे अपना इस्तीफा दूं।
आपको दूं ?
CJ : क्षमा कीजिये। मैं एक जज हूँ और यह सलाह मैं आपको नहीं दे सकता।
Prez : तो मैं किससे पूछें?
CJ : प्रधानमंत्री से पूछ सकते हैं, अटाॅर्नी जनरल से पूछ सकते हैं।
Prez : अच्छा तो इतना ही बता दीजिये मैं इस्तीफा किस पद से दूं ? राष्ट्रपति के पद से या उपराष्ट्रपति के ?
CJ : आप केवल उपराष्ट्रपति पद पर निर्वाचित हुए हैं। राष्ट्रपति का पद तो कार्यकारी है और उपराष्ट्रपति होने की बदौलत ही मिला है।
इस दौरान दोनों ने काॅफी पी और दो बजने से पांच मिनिट पहले चीफ जस्टिस सुप्रीम कोर्ट वापस पंहुच गये।
(श्री वी वी गिरी ने जिस चुनाव का उल्लेख किया वह सामान्य चुनाव नहीं था। 1967 में डॉ ज़ाकिर हुसैन देश के तीसरे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे। राष्ट्रपति का कार्यकाल पांच वर्षों का होता है। डॉ राजेंद्र प्रसाद (पांच-पांच वर्ष के दो कार्यकाल) तथा डॉ राधाकृष्णन के कार्यकाल भारतीय संसद के पांच सालों के साथ समानांतर चले थे। 3 मई 1969 के दिन डॉ ज़ाकिर हुसैन का निधन हो गया। इस समय देश में ऐसी स्थिति पहली बार निर्मित हुई जब राष्ट्रपति पद का चुनाव अनियमित समय पर कराए गये थे। पहले वाक्य में लिखा है यह चुनाव सामान्य नहीं था। दूसरा कारण जिसने इसे विशिष्ट बनाया वह था श्री वी वी गिरी का निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतरना और विजयी होना (यह अपने आप में एक पूरी पोस्ट का विषय है, सो, कभी और)। 1969 में अगस्त माह में यह चुनाव सम्पन्न हुआ था।)
------------
डॉ ज़ाकिर हुसैन भारत के पहले ऐसे राष्ट्रपति थे जिनकी मृत्यु पद में रहते हुए और कार्यकाल पूरा होने से पहले हुई थी। सांविधानिक व्यवस्था के अनुरूप उस समय उपराष्ट्रपति को कार्यकारी राष्ट्रपति बना दिया गया था। लेकिन यदि कार्यकारी राष्ट्रपति की भी मृत्यु हो जाए या किसी अन्य कारण से उन्हें पद छोड़ना पड़े तो कौन राष्ट्रपति पद की शपथ लेगा इसका प्रावधान संविधान में तब तक नहीं था। इस कमी को कुछ ही दिनों में (मई 1969 में ही) सुधार लिया गया था। नये प्रावधानों के अनुसार ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस (और वे भी अनुपस्थिति हों तो वरिष्ठता के क्रम में दूसरे जज) कार्यकारी राष्ट्रपति बनते हैं। (यह व्यवस्था आज भी लागू है।)
संविधान के इसी संशोधन ने श्री हिदायतुल्ला के लिए कार्यकारी राष्ट्रपति बनने का अवसर पैदा किया था।
दो दिन लगे पर श्री वी वी गिरी ने आखिर गुत्थी सुलझा ही ली। 18 जुलाई को उपराष्ट्रपति वी वी गिरी ने कार्यकारी राष्ट्रपति वी वी गिरी को संबोधित करते हुए अपना त्यागपत्र लिखा और एक कवरिंग लेटर के साथ श्री हिदायतुल्ला के पास भेज कर आगे की कार्यवाही करने का निवेदन किया। श्री हिदायतुल्ला ने अपने सबसे वरिष्ठ सहयोगी जस्टिस जे.सी.शाह को कार्यकारी चीफ जस्टिस की शपथ दिलाई। दोनों राष्ट्रपति भवन पंहुचे और वहां जस्टिस शाह ने श्री हिदायतुल्ला को कार्यकारी राष्ट्रपति के पद की शपथ ग्रहण करायी।
1969 का वर्ष छत्तीसगढ़ के दोनों मित्रों के जीवन में मील का पत्थर साबित हुआ।
-----------------
(गिरिविलास पैलेस, सारंगढ़)
प्रकाश दुबे
महात्मा गांधी दिल्ली में हरिजन बस्ती में रहते थे। 1977 में जनता सरकार आने के बाद आदिवासियों के बीच काम करने वाले मामा बालेश्वर दयाल राज्यसभा के लिए चुने गए। वे कई बार रेलवे स्टेशन से सरकारी निवास तक पैदल चल देते। इस सरकार के कुछ मंत्री कभी कभी साइकल से संसद जाते हैं। सांसद मुखर्जी संसद भवन के निकट छोटी कोठी में रहते थे। लोकसभा में सत्तारूढ़ दल के नेता रहे। वित्त, रक्षा आदि मंत्रालय संभाले। बड़ी कोठी का मोह नहीं पाला।
आतंकवादियों के निशाने पर रहने के कारण मनिंदरजीत सिंह बिट्टा को बाद में उसी मार्ग पर कोठी आवंटित की गई। बिट्टा की कोठी फ़ौजी छावनी था। लोग उसे मुखर्जी का बंगला समझते। मुखर्जी दादा के यहां गेट पर मात्र एक रक्षक। राष्ट्रपति बने। साहित्यकारों को राष्ट्रपति भवन में रहकर लिखने के लिए आमंत्रित किया। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तीन मूर्ति भवन में रहते थे। वर्तमान प्रधानमंत्री आवास में उस आकार की आधा दर्जन कोठियां शामिल की जा चुकी हैं। शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी न तो भूत हो चुके पूर्व सांसदों से कोठियां खाली करा पा रहे हैं और न सही मापदंड लागू करा सके।
की बोले मां?
ममता बनर्जी की कांग्रेस नेता प्रणव मुखर्जी से अनेक मुद्दों पर असहमति रहती थी। इसके बावजूद उनकी राय लेती थीं। पश्चिम बंगाल में मां दुर्गा की पूजा की जाती है। राष्ट्रपति मुखर्जी ने वर्ष 2018 में पैतृक ग्राम मिरासी में दुर्गा पूजा की। सुरक्षा एजेंसियां आनाकानी कर रही थीं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता ने पूरी सुरक्षा का वादा किया। निभाया। दादा हिंदी समझ लेते हैं। बोलने में अटकते हैं, इसलिए बोलने से बचते रहे। मां के बारे में हिंदी काव्य पर उनकी उत्सुकता और याददाश्त का प्रसंग।
बरसों पहले अविनाश पांडे अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के महासचिव और फिर सांसद बने। नरसिंहराव और मुखर्जी के विश्वासपात्र अविनाश ने अपने गुरु के मां पर लिखे वृहद काव्य की मुखर्जी से चर्चा की होगी। पक्की याददाश्त के धनी राष्ट्रपति ने रचनाकार से मुलाकात की। पुस्तक प्राप्त की। विश्व की आत्मा मां पर विश्वात्मा रचने वाले का नाम सुनकर हंसना मत। मधुप पांडेय की ख्याति व्यंग्य कवि की है।
करनी, करने वाले की
राजनीति में छोटा बड़ा नहीं होता। उस बात को सबसे अच्छी तरह जानते हैं-अरे भाई, लाल कृष्ण आडवाणी से पहले भी याद करो। इंदिरा गांधी के निधन के बाद ज्ञानी जेल सिंह, राजीव गांधी को शपथ दिलाने की हड़बड़ी में थे। प्रणव मुखर्जी की वरिष्ठता की अनदेखी करने के लिए सारे तार जोड़े गए। आडवाणी जी तो एक झटका खाकर मौन मार्गदर्शक बन गए। कर्मण्येवाधिकारस्ते पर भरोसा करने वाले मुखर्जी डटे रहे। बरस 1984 में दुनिया के सबसे यशस्वी वित्त मंत्री के रूप में सम्मानित हो चुके थे। जिसे रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया, वह प्रधानमंत्री बना। इसके बावजूद नेता प्रणव थे। डा मनमोहन सिंह लोकसभा के सदस्य नहीं थे। इसलिए साल 2009 से 2012 तक लोकसभा में सत्ता दल के नेता मुखर्जी थे। वित्त मंत्री की छोटी सी कोठी में जासूसी के तार मिले। हंगामा मचा। दादा से पहले वित्त मंत्रालय संभालने वाले पी चिदम्बरम गृह मंत्री थे। दुनिया रंग रंगीली बाबा, क्या छोटा? कौन बड़ा यहां पर??
तेरहवीं से पहले खनका कंगना
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पांच बरस पहले राष्ट्र के नाम संबोधन में भाईचारा बनाए रखने की अपील की। अभिनेता आम खान की पत्नी की राय पर विरोध हुआ। देशभक्ति का फरसा दिखाने के शौकीन सांसद सहित कुछ लोगों ने बिनमांगे देश छोडऩे की कीमती सलाह दी थी। राष्ट्रपति भवन छोडऩे के बाद प्रणव दा नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय पहुंचे। निडरता से भारत की समरसता की विरासत सहेज कर रखने की सलाह दी। महात्मा गांधी की याद दिलाई।
मुखर्जी की तेरहवीं से पहले अभिनेत्री कंगना रनौत ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से मुंबई शहर की तुलना कर श्रद्धांजलि देने का पुण्य कमाया। किरण राव ने कहा था-जिस तरह असहमति जताने वालों पर हमले हो रहे हैं, उससे देश में रहने में डर लगता है। उस सांसद पर अब तक कार्रवाई नहीं। कंगना को प्यार से समझाने की पहल का इंतजार है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
कनुप्रिया
रिया चक्रवर्ती अगर किसी मामले की दोषी हैं तो कानून अपनी कार्यवाही करेगा, मगर रिया चक्रवर्ती के बहाने अगर ये मान्यता स्थापित और पुष्ट की जा रही है कि स्त्रियाँ मक्कार, स्वार्थी, दौलत पर निगाह रखने वाली, ऐय्याश होती हैं और रिया को सजा समाज की स्त्रियों के लिए एक सबक है तो हम एक नजऱ इन तथ्यों पर भी डाल लें।
द हिन्दू की रिपोर्ट कहती है कि महज लॉकडाऊन के दौरान घरेलू हिंसा के मामले पिछले 10 सालो में सबसे ज़्यादा दर्ज हुए हैं, यह तब है जब शिकार महिलाओं में से 86 फीसदी कहीं से मदद लेने की कभी कोशिश नहीं करतीं और 77 फीसदी महिलाएँ किसी को अपनी तकलीफ तक नहीं कहतीं। इसके अलावा आत्महत्या की बात की जाए तो देश मे सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ दिहाड़ी मजदूर, किसान, बेरोजगार और गृहिणियों द्वारा की जाती हैं। 2019 की राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी)के अनुसार दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या के बाद देश में दूसरे नम्बर पर आत्महत्या के आँकड़े गृहिणियों के हैं।
उधर प्रजनन संबंधी सुविधाएँ भारत मे यूँ भी बड़ी समस्या हैं, नवजात मृत्यु दर की दर पहले ही काफी ज्यादा है, इसके अलावा परिवार नियोजन की समस्या इस लॉकडाऊन में विशेष रूप से महिलाओं को झेलनी पड़ी। आईपास डिवेलपमेंट फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक लॉकडाऊन के तीन महीनों (25 मार्च से 24 जून) के दौरान 18 लाख 50 हजार महिलाओं ने असुरक्षित गर्भपात कराया या अनचाहा गर्भ हुआ। हमारे देश में सामाजिक पक्षपात के कारण लड़कियों के लिए शिक्षा ग्रहण करना पहले ही एक संघर्ष है, अनुमान है कि इस महामारी के दौर के बाद महिला छात्र जो पहले ही 2 घंटे घर के काम के बाद माध्यमिक तक बमुश्किल शिक्षा प्राप्त कर पाती थीं उनके द्वारा स्थाई रूप से स्कूल छोडऩे का जोखिम बढ़ गया है, यानि स्त्रीशिक्षा में जो इतने दशकों में सुधार हुआ उसका फायदा खत्म होने की दिशा में है।
यानि देश की बहुसंख्यक स्त्रियाँ जो शिक्षा, चिकित्सा, काम के अधिकार से लेकर घरेलू हिंसा तक हर मामले में पुरुषों से कई गुना ज्यादा महामारी की मार झेल रही हैं, उन सब समस्याओं को कार्पेट के नीचे घुसाकर हमारा मीडिया स्त्री द्वेषी समाज से रिया चक्रवर्ती पर टीआरपी लूट रहा है।
आप जितनी खिडक़ी खोलोगे बाहर दुनिया उतनी ही दिखाई देगी, वो और उतना ही दृश्य आपका व्यक्तिगत सच हो सकता है मगर उससे हकीकत और तथ्य नहीं बदलते। आँकड़े और भी हैं, और देश में स्त्रियों की स्थिति की भयावह सच्चाई बयान करते हैं मगर टीआरपी खोर मीडिया हमारी दृष्टि और सोच को सीमित और संकुचित बनाए रखना चाहता है।
सवाल यह है कि क्या हम भी यही चाहते हैं?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने डॉ. कफील खान को रिहा करने का फैसला दिया था, उस पर मैंने जो लेख लिखा था, उस पर सैकड़ों पाठकों की सहमति आई लेकिन एक-दो पाठकों ने काफी अमर्यादित प्रतिक्रिया भी भेजी। उन्होंने इसे हिंदू-मुसलमान के चश्मे से देखा। मेरा निवेदन यह है कि न्याय तो न्याय होता है। वह सबके लिए समान होना चाहिए। उसके सामने मजहब, जात, ओहदा और हैसियत आदि का कोई ख्याल नहीं होना चाहिए। यदि डॉ. कफील खान की जगह कोई डॉ. रामचंद्र या डॉ. पीटर होते तो भी मैं यही कहता कि वे दोषी हों तो उन्हें दंडित किया जाए और निर्दोष हों तो उन्हें सजा क्यों दी जाए ? यह कानून दिसंबर 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार ने बनाया था। इसका असली मकसद क्या रहा होगा, यह कहने की जरुरत नहीं है। राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के नाम पर आप किसी को भी पकडक़र जेल में डाल दें, यह उचित नहीं। गिरफ्तार व्यक्ति को साल भर तक न जमानत मिले, न ही अदालत उसके बारे में शीघ्र फैसला करे, यह अपने आप में अन्याय है।
राष्ट्रीय सुरक्षा कानून आखिर किसलिए लाया गया था? दावा किया गया था कि इससे भारतीय संविधान की व्यवस्था सुरक्षित रहेगी। देश में कोई बड़ी अराजकता न फैले, किसी विदेशी शक्ति के साथ सांठ-गांठ करके कोई देशद्रोही गतिविधि नहीं चलाई जा रही हो या देश की शांति और व्यवस्था को भंग करने की कोशिश न की जाए। जिन प्रादेशिक और केंद्र सरकार ने इस कानून के तहत सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया हुआ है, क्या देश में इतने देशद्रोही पैदा हो गए हैं? इन तथाकथित देशद्रोहियों में हिंदू और मुसलमान दोनों हैं। किसी को कोई भाषण देने पर, किसी को लेख लिखने पर और किसी को किसी प्रदर्शन में भाग लेने पर गिरफ्तार कर लिया गया है। एक व्यक्ति को सांप्रदायिक तनाव फैलाने की आशंका में पकड़ लिया गया, क्योंकि उसके खेत में किसी पशु का कंकाल मिल गया था। इस तरह की गिरफ्तारियां इस कानून का पूर्ण दुरुपयोग है। वास्तव में इस कानून का इस्तेमाल बहुत गंभीर अपराधियों के विरुद्ध होना चाहिए लेकिन सत्तारुढ़ लोग अपने विरोधियों के विरुद्ध इसे इस्तेमाल करने में जरा भी नहीं चूकते। 1977 में अपदस्थ होने के बाद इंदिराजी यह कानून इसी डर के मारे लाई थीं कि कहीं वही इतिहास दुबारा नहीं दोहराया जाए। यह कानून अंग्रेजों के ‘रोलेट एक्ट’ की तरह दमनकारी है। इसे ‘डीआईआर’ और ‘मीसा’ की श्रेणी में रखा जा सकता है। यह ‘रासुका’ संविधान की मूल भावना से मेल नहीं खाता। इसका क्रियान्वयन इतना गड़बड़ है कि संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का यह अक्सर उल्लंघन कर देता है। सरकार इस पर पुनर्विचार कर सकती है। यह आपात्काल की अवांछित संतान है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
विटामिन डी की कमी वाले लोगों को कोविड-19 जल्दी चपेट में ले रहा है। देखा जा रहा है कि जहां विटामिन-डी कमी वाली आबादी अधिक है, वहां कोविड-19 का प्रकोप अधिक है
- Vibha Varshney
लीजिए, अब अच्छे खाने पर एक और खतरा मंडराने लगा है। पहले ही उद्योग और सरकार फूड फॉर्टिफिकेशन से विटामिन-डी बढ़ाने में लगी थी और अब उनकी कोशिश को समर्थन मिल गया है। ये देखा जा रहा है कि विटामिन-डी से नोवल कोरोनावायरस से होने वाली बीमारी (कोविड-19) से बचा जा सकता है। यह देखा गया है कि जिन लोगों को विटामिन डी की कमी होती है, वे कोविड-19 के शिकार हो रहे हैं और उनमें मौत की दर भी ज्यादा देखी जा रही है।
उदाहरण के लिए, स्पेन और इटली में लोगों में विटामिन डी की कमी अधिक पाई जाती है और यहां कोविड-19 की वजह से मौतें भी अधिक दर्ज की गई हैं। जबकि स्वीडन, नॉर्वे और फिनलैंड में लोगों के खाने में विटामिन डी की मात्रा अधिक होती हैं, वहां कोविड-19 के मामले कम दर्ज किए गए हैं।
3 सितंबर 2020 को जामा नेटवर्क ओपन में एक अध्ययन प्रकाशित हआ, जिसमें पाया गया कि विटामिन डी की कमी के शिकार मरीजों में कोविड होने की 77 फीसदी अधिक आशंका रहती है।
इसके चलते, कोविड-19 से बचने के लिए डॉक्टर विटामिन-डी की मात्रा बढ़ाने के लिए सलाह दे रहे हैं। साथ ही, लोग खुद ही ऐसे भोजन और सप्लीमेंट्स को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिससे कि विटामिन डी की कमी दूर हो जाए।
विटामिन डी ऐसा आहार है, जिसे जानवर खुद ही अपने लिए पैदा करते हैं जैसे कि पौधे अपने लिए प्रकाश संश्लेषण करते हैं। सूरज की रोशनी की अल्ट्रावायलेट किरणें जब जानवरों की त्वचा पर पड़ती हैं तो उसमें विटामिन डी विकसित होता है। यही प्रक्रिया इंसानों में भी होती है।
साथ ही, इंसान द्वारा खाए जाने वाले सभी जानवरों के मांस में विटामिन डी की मात्रा होती है। इसलिए अगर इंसान इन जानवरों का मांस खाता है तो उसे एक साथ बड़ी मात्रा में विटामिन मिल सकता है।
हालांकि विटामिन डी का सबसे बड़ा फायदा यह माना जाता है कि यह हड्डियों को मजबूती प्रदान करता है और सूखा रोग व हड्डियों की कमजोरी से बचाता है। पर इसके और भी फायदे हैं, जैसे कि इससे मांसपेशी मजबूत होती हैं और इम्यून (रोगों से लड़ने की प्रतिक्रिया) क्रिया भी मजबूत होती है।
लॉकडाउन के दौरान न तो लोग बाहर खुले में निकल कर सूरज की रोशनी ले पाए और ना ही उन्होंने मांस खाया। बल्कि लॉकडाउन खुलने के बावजूद लोगों ने खुद को ज्यादा-ज्यादा ढके रखा। इन वजहों से विटामिन डी की मात्रा कम होने का अंदेशा जताया जा रहा है।
परंतु विटामिन डी की मात्रा बढ़ाने के कृत्रिम तरीकों को अपनाने से पहले यह अच्छा होगा कि हम ये समझें कि विटामिन-डी और कोविड-19 का संबंध हर जगह एक सा नहीं है। ग्रीस, ऐसा देश है, जहां लोगों में विटामिन डी की कमी काफी ज्यादा है, लेकिन कोविड-19 के मरीज और मौतें फिर भी कम हैं। जबकि ब्राजील जहां सूरज की रोशनी प्रचुर मात्रा में है, वहां कोविड-19 के केस बहुत ज्यादा हैं। भारत में भी विटामिन डी की कमी काफी मात्रा में है, लेकिन फिर भी यहां कोविड-19 के कारण होने वाली मौतें के आंकड़े कम हैं।
बिना समझे विटामिन डी को बढ़ावा देने में खतरा है कि इंडस्ट्री इसका फायदा उठा सकती है। भारत में विटामिन डी की कमी को दूर करने के लिए पहले ही दूध और तेल में इस विटामिन का इजाफा करने पर जोर दिया जाता है। कई कंपनियां भी विटामिन डी फोर्टिफिकेशन के फायदों का दावा करती हैं, हालांकि यह काफी विवादित भी है।
लेकिन भारत में एक और विकल्प है। भारत में बड़ी तादात में कपास की खेती की जाती है, जिसके कपड़े बनाए जाते हैं। 2014 में जर्नल ऑफ फोटोकैमेस्ट्री एंड फोटोबायोलॉजी बी में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि 100 फीसदी सूती कपड़े पहनने पर लगभग 15 फीसदी सौर अल्ट्रावायलेट किरणें शरीर तक पहुंचती हैं, जो शरीर में विटामिन डी3 पहुंचाती हैं और इससे त्वचा कैंसर का खतरा भी नहीं रहता।
हाल के वर्षों में डेनिम के रूप में सिंथेटिक्स और मोटे कपड़ों का चलन बढ़ा है। इन कपड़ों की वजह से सूर्य का प्रकाश शरीर तक नहीं पहुंच पाता, जिस कारण विटामिन-डी पैदा होने में रुकावट आती है।
सूती कपड़े के इस लाभकारी असर का विस्तार से अध्ययन नहीं किया गया है, अब तक जो अध्ययन किए भी गए हैं, वो कैंसर से संबंधित हैं। यह माना जाता है कि कपड़ों के द्वारा त्वचा कैंसर से बचा जा सकता है। यहां हमें अपनी समझ का इस्तेमाल करना पड़ेगा। जैसा कि एक शोध बताता है कि एक सूती टी शर्ट सूरज की रोशनी से पर्याप्त बचाव नहीं करती है। तो क्यों न उसी टी शर्ट को पहन का विटामिन डी को बढ़ाया जाए और साथ ही कोविड-19 से भी बचा जाए।(downtoearth)
क्या आप जानते हैं कि पश्चिमी राजस्थान के दुर्गम रेतीले पल- पल में बदलने वाले रास्तों पर कैसे लोग ठीक ठीक अपनी मंजिल तक पहुंच जाया करते थे?
- Sandhya jha
दिक्सूचक या दिशासूचक अंजान रास्तों में भटक जाने या रास्ता भूल जाने पर दिशा का ज्ञान कराते हैं, जिसके नेतृत्व में हम अपने मंजिल तक पहुंच जाते हैं पर जब दिशासूचक अविष्कार नहीं हुआ होगा, तब खासकर पश्चिमी राजस्थान के दुर्गम रेतीले पल- पल में बदलने वाले रास्तों पर कैसे लोग ठीक ठीक अपनी मंजिल तक पहुंच जाया करते थे?
ऐसा कहा जाता है की मध्य एशिया में प्राचीन काल में व्यापारी रास्ते की खोज करने के लिए ऊंट की याददाश्त क्षमता को काम में लेते थे, जो ऊंटों में नेतृत्व क्षमता की बात को बल देता है।
नेतृत्व जीवों का एक मूलभूत गुण है। चाहे वो जानवर हो या फिर इंसान। इसके साथ ही हर जीव नेता बनना चाहता है क्योंकि नेतृत्व मायने रखता है तथा नेतृत्व करने के अनेक फायदे है मसलन उसे खाने के अधिक अवसर मिलते है, उसे अनेक मादाओं का साथ मिलता है साथ ही हर कोई उसका अनुसरण करता है। नेतृत्व करने की यह प्रकृति मुख्यतया जंगली जानवरों में मिलती है, क्योंकि पालतू जानवरों में यह गुण कम देखने को मिलता है क्योंकि पालतू जानवर को आसानी से खाना तथा सुरक्षा मिल जाती है, जिससे यह गुण धीरे-धीरे लुप्त हो गया या निष्क्रिय हो गया।
नेतृत्व कौशल एक स्किल सेट है, जिसे मनुष्यों और जानवरों दोनों में देखा जा सकता है। जानवरों में जो समूहों में रहते हैं, कुछ जानवर नेता हैं और अन्य अनुयायी हैं। नेतृत्व में भिन्नता सहज रूप से विकसित होती है और ज्ञान या षक्ति में अंतर से संबंधित होने की आवष्यकता नहीं है। सामाजिक जानवरों को एक दुविधा का सामना करना पड़ता है। समूह में रहने वाले लाभों का लाभ उठा ने के लिए, उन्हें एक साथ रहना होता है। हालांकि, हर एक जीव अपनी प्राथमिकताओं में भिन्न होते हैं जैसे कहां जाना है और आगे क्या करना है। यदि सभी जीव अपनी-अपनी प्राथमिकताओं का पालन करने लगे, तो समूह जुटना कम हो जायेगा, तथा समूह के फायदे नहीं मिलेंगे। इसलिए अपनी स्वयं की वरीयताओं की उपेक्षा करना और एक नेता का अनुसरण करना इस समन्वय समस्या को हल करने का एक तरीका होता है जिसका समूह में रहने वाले जीव अनुसरण करते है। लेकिन वो कोनसी विषेशताएँ है जो किसी को ’लीडर’ बनाती हैं?
कुछ खास विषेशताएं कुछ जानवरों को नेता बनाती हैं जैसे शारीरिक रूप से मजबूत, मजबूत माता-पिता की संतान होना, जवान होना आदि। पशु अपने समूहों को प्रभावित करके नेतृत्व करते हैं, उनका मार्गदर्शन करते हैं और अपने अनुयायियों से लगातार संवाद करते हैं औरअपने अनुयायियों के लिए लक्ष्य निर्धारित करते हैं तथा लक्ष्य का पालन करवाते हैं। उनमें से बहुत कम हैं जिनके पास पर्याप्त जानकारी हो, जैसे कि खाद्य स्रोत के स्थान के बारे में ज्ञान, या प्रवासन मार्ग, और इसलिए एक समूह में हमेषा एक नेता होता है जो सभी जानकारी जानता है और इस प्रकार अपने अनुयायियों को सही दिषा में निर्देषित करता है। यह नेता वह है जो अपने अनुयायियों (उनकी देखभाल) की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता है और बदले में, अनुयायी अपने नेता पर निर्भर हैं।
एक नेता को उसके विश्लेषणात्मक कौशल और सामाजिक या पारस्परिक कौशल का पूरा उपयोग करना चाहिए। नेता को उदाहरणों, कार्यों से आगे बढ़ना होता है क्यूंकि नेता बने रहने के लिए लगातार प्रदर्शन करने होते हैं।
पालतू जानवरों में नेतृत्व क्षमता पर बहुत कम अध्ययन हुआ है, तथा ऊंट में नेतृत्व क्षमता के बारे में ऐसा कोई विशेष अध्ययन नहीं मिलता है। ऊंट एक पालतू जानवर है लेकिन पुराने समय में यह एक जंगली जानवर था जिसको इंसान ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पालतू बना लिया, लेकिन आज भी इसमें अपने समूह में रहने तथा उस समूह का नेतृत्व, एक नेता के द्वारा किये जाने के गुण का पता करने के लिए राष्ट्रीय उष्ट अनुसंधान केंद्र, बीकानेर में वैज्ञानिकों द्वारा सितम्बर 2018 से फरवरी 2019 तक हर दिन ऊंटों के समूह का वैज्ञानिक तरीके से निरीक्षण किया गया तथा यह पाया गया कि ऊंटों के समूह में, खाने की खोज, रास्ते का निर्धारण, समूह के चलने की गति, तथा समूह को बनाये रखने के लिए उचित नेतृत्व पाया जाता है जो प्रमुखतया मजबूत कद-काठी की जवान मादा या नर द्वारा किया जाता है, मादाओं में नेतृत्व करने की क्षमता अधिक पायी जाती है। उपरोक्त अध्ययन ऊँटोके व्यवहार संबंधी अध्ययन विशेषकर नेतृत्व तथा समूह के अध्ययन के लिए आधारभूत अध्ययन हो सकता है।(downtoearth)
शोधकर्ताओं का मानना है कि इस नैनोबॉडी में कोविड-19 के खिलाफ एंटीवायरल उपचार करने की क्षमता है
- Dayanidhi
दुनिया भर में वैज्ञानिक कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। इसी क्रम में स्वीडन के कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने एक छोटे से न्यूट्रिलाइज़िंग एंटीबॉडी की पहचान की है। इस एंटीबॉडी को नैनोबॉडी कहते है, जिसमें सार्स-सीओवी-2 को मानव कोशिकाओं में प्रवेश करने से रोकने की क्षमता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि इस नैनोबॉडी में कोविड-19 के खिलाफ एंटीवायरल उपचार करने की क्षमता है।
शोधकर्ता जेराल्ड मैकइनर्नी ने कहा हम आशा करते हैं कि हमारे निष्कर्ष इस संक्रमण फैलाने वाले कोविड-19 महामारी के खिलाफ अहम भूमिका निभा सकते हैं। जेराल्ड मैकइनर्नी - कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट में माइक्रोबायोलॉजी विभाग, ट्यूमर और सेल बायोलॉजी विभाग में वायरोलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं।
प्रभावी नैनोबॉडीज की खोज-जो कि एंटीबॉडी के टुकड़े होते हैं जो स्वाभाविक रूप से कैमलिड्स में होते हैं। उन्हें मनुष्यों के लायक बनाया जा सकता है। कैमलिड्स आकार में बड़े, शाकाहारी जानवर है, जिसकी बड़ी गर्दन और पैर लंबे होते हैं, ये ऊंटों से मिलते जुलते हैं।- फरवरी में अलपाका जानवर में नए कोरोनोवायरस स्पाइक प्रोटीन के साथ इंजेक्ट किया गया था। 60 दिनों के बाद, अलपाका से रक्त के नमूनों ने स्पाइक प्रोटीन के खिलाफ एक मजबूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया दिखाई। अलपाका कैमलिड्स परिवार से संबंध रखता है। इसका वैज्ञानिक नाम विसुग्ना पैकोस है। यह अध्ययन जर्नल नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हुआ है।
इसके बाद, शोधकर्ताओं ने अलपाका की बी कोशिकाओं, एक प्रकार की श्वेत रक्त कोशिका से नैनो कणों का क्लोन बनाया। यह निर्धारित करने के लिए कि कौन से नैनोबॉडी आगे मूल्यांकन के लिए सबसे उपयुक्त हैं, उनका विश्लेषण किया। उन्होंने एक, टीवाई1 (अलपाका टायसन के नाम पर) की पहचान की, जो कुशलता से स्पाइक प्रोटीन के उस हिस्से से खुद को जोड़कर वायरस को बेअसर कर देता है, जो रिसेप्टर एसीई2 को बांधता है, जिसका उपयोग सार्स-सीओवी-2 द्वारा कोशिकाओं को संक्रमित करने के लिए किया जाता है। यह वायरस को कोशिकाओं में फैलने से रोकता है और इस तरह संक्रमण रुक जाता है।
शोधकर्ता लियो हांक ने कहा कि क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी का उपयोग करते हुए, हम यह देखने में सक्षम थे कि कैसे कोई भी एपिटोप पर संक्रमित स्पाइक को बांधता है, जो सेलुलर रिसेप्टर एसीई2-बाइंडिंग साइट के साथ मिल जाता है। जो इसकी गतिविधि के लिए एक संरचनात्मक समझ प्रदान करता है।
विशिष्ट चिकित्सा के रूप में नैनो एंटीबॉडी के कई फायदे हैं। वे पारंपरिक एंटीबॉडी के आकार के दसवें हिस्से से कम हैं और आम तौर पर कम लागत में उत्पादित किए जा सकते हैं। वर्तमान में इसे मनुष्यों के लायक बनाया जा सकता है और यह श्वसन संक्रमण को रोकने में अहम भूमिका निभा सकता है।
प्रोफेसर बेन मुर्रेल कहते हैं हमारे परिणाम बताते हैं कि टीवाई1 सार्स-सीओवी-2 स्पाइक प्रोटीन को शक्तिशाली रूप से बांध सकता है और वायरस को बेअसर कर सकता है। उन्होंने आगे जोड़ते हुए कहा हम अब विवो में टीवाई1 की बेअसर गतिविधि और चिकित्सीय क्षमता की जांच के लिए प्रीक्लिनिकल एनिमल स्टडीज पर विचार कर रहे हैं। बेन मुर्रेल माइक्रोबायोलॉजी, ट्यूमर और सेल बायोलॉजी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।(downtoearth)
केशवानंद भारती के मामले के चलते संसद और न्यायपालिका के बीच वह संतुलन कायम हो सका जो इस फैसले के पहले के 23 सालों में संभव नहीं हो सका था
-चंदन शर्मा
केशवानंद भारती का निधन हो गया है. वे 79 वर्ष के थे. उन्होंने रविवार को केरल के कासरगोड जिले में स्थित अपने आश्रम में अंतिम सांस ली. केशवानंद भारती इस मठ के प्रमुख थे. बताया जा रहा है कि अगले हफ्ते उनके दिल का ऑपरेशन होना था लेकिन रविवार, सुबह अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई और उन्हें बचाया नहीं जा सका.
देश के न्यायिक इतिहास में दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई हो जो केशवानंद भारती का नाम न जानता हो. 24 अप्रैल, 1973 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ के मामले में दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले के चलते कोर्ट-कचहरी की दुनिया में वे लगभग अमर हो गए. हालांकि बहुतों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि न्यायिक दुनिया में अभूतपूर्व लोकप्रियता के बावजूद केशवानंद भारती न तो कभी जज रहे और न ही वकील. उनकी ख्याति का कारण तो बतौर मुवक्किल सरकार द्वारा अपनी संपत्ति के अधिग्रहण को अदालत में चुनौती देने से जुड़ा रहा है.
केरल के शंकराचार्य
कासरगोड़ केरल का सबसे उत्तरी जिला है. पश्चिम में समुद्र और पूर्व में कर्नाटक से घिरे इस इलाके का सदियों पुराना एक शैव मठ है जो एडनीर में स्थित है. यह मठ नवीं सदी के महान संत और अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता आदिगुरु शंकराचार्य से जुड़ा हुआ है. शंकराचार्य के चार शुरुआती शिष्यों में से एक तोतकाचार्य थे जिनकी परंपरा में यह मठ स्थापित हुआ था. यह ब्राह्मणों की तांत्रिक पद्धति का अनुसरण करने वाली स्मार्त्त भागवत परंपरा को मानता है.
इस मठ का इतिहास करीब 1,200 साल पुराना माना जाता है. यही कारण है कि केरल और कर्नाटक में इसका काफी सम्मान है. शंकराचार्य की क्षेत्रीय पीठ का दर्जा प्राप्त होने के चलते इस मठ के प्रमुख को ‘केरल के शंकराचार्य’ का दर्जा दिया जाता है. इसीलिए स्वामी केशवानंद भारती केरल के मौजूदा शंकराचार्य कहे जाते थे. उन्होंने महज 19 साल की अवस्था में संन्यास लिया था जिसके कुछ ही साल बाद अपने गुरू के निधन की वजह से वे एडनीर मठ के मुखिया बन गए. 20 से कुछ ही ज्यादा की उम्र में यह जिम्मा उठाने वाले स्वामी छह दशक तक इस पद पर रहे. हालांकि उनके सम्मान में उन्हें ‘श्रीमत् जगदगुरु श्रीश्री शंकराचार्य तोतकाचार्य श्री केशवानंद भारती श्रीपदंगलावारू’ के लंबे संबोधन से बुलाया जाता था.
केशवानंद भारती की परेशानी क्या थी?
एडनीर मठ का न केवल अध्यात्म के क्षेत्र में दखल रहा है बल्कि संस्कृति के अन्य क्षेत्रों जैसे नृत्य, कला, संगीत और समाज सेवा में भी यह काफी योगदान करता रहा है. भारत की नाट्य और नृत्य परंपरा को बढ़ावा देने के लिए कासरगोड़ और उसके आसपास के इलाकों में दशकों से एडनीर मठ के कई स्कूल और कॉलेज चल रहे हैं.
इसके अलावा यह मठ सालों से कई तरह के व्यवसायों को भी संचालित करता है. साठ-सत्तर के दशक में कासरगोड़ में इस मठ के पास हजारों एकड़ जमीन भी थी. यह वही दौर था जब ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार भूमि सुधार के लिए काफी प्रयास कर रही थी. समाज से आर्थिक गैर-बराबरी कम करने की कोशिशों के तहत राज्य सरकार ने कई कानून बनाकर जमींदारों और मठों के पास मौजूद हजारों एकड़ की जमीन अधिगृहीत कर ली. इस चपेट में एडनीर मठ की संपत्ति भी आ गई. मठ की सैकड़ों एकड़ की जमीन अब सरकार की हो चुकी थी. ऐसे में एडनीर मठ के युवा प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी.
केरल हाईकोर्ट के समक्ष इस मठ के मुखिया होने के नाते 1970 में दायर एक याचिका में केशवानंद भारती ने अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए मांग की थी कि उन्हें अपनी धार्मिक संपदा का प्रबंधन करने का मूल अधिकार दिलाया जाए. उन्होंने संविधान संशोधन के जरिए अनुच्छेद 31 में प्रदत्त संपत्ति के मूल अधिकार पर पाबंदी लगाने वाले केंद्र सरकार के 24वें, 25वें और 29वें संविधान संशोधनों को चुनौती दी थी. इसके अलावा केरल और केंद्र सरकार के भूमि सुधार कानूनों को भी उन्होंने चुनौती दी. जानकारों के अनुसार स्वामी केशवानंद भारती के प्रतिनिधियों को संवैधानिक मामलों के मशहूर वकील नानी पालकीवाला ने सलाह दी थी कि ऐसा करने से मठ को उसका हक दिलाया जा सकता है. हालांकि केरल हाईकोर्ट में मठ को कामयाबी नहीं मिली जिसके बाद यह मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट चला गया.
देश की शीर्ष अदालत ने पाया कि इस मामले से कई संवैधानिक प्रश्न जुड़े हैं. उनमें सबसे बड़ा सवाल यही था कि क्या देश की संसद के पास संविधान संशोधन के जरिए मौलिक अधिकारों सहित किसी भी अन्य हिस्से में असीमित संशोधन का अधिकार है. इसलिए तय किया गया कि पूर्व के गोलकनाथ मामले में बनी 11 जजों की संविधान पीठ से भी बड़ी पीठ बनाई जाए. इसके बाद 1972 के अंत में इस मामले की लगातार सुनवाई हुई जो 68 दिनों तक चली.
अंतत: 703 पृष्ठ के अपने लंबे फैसले में केवल एक वोट के अंतर से शीर्ष अदालत ने स्वामी केशवानंद भारती के विरोध में फैसला दिया. यह फैसला 7:6 के न्यूनतम अंतर से दिया गया. यानी सात जजों ने पक्ष में फैसला दिया और छह जजों ने विपक्ष में. इस फैसले में छह के मुकाबले सात के बहुमत से जजों ने गोलकनाथ मामले के फैसले को पलट दिया. यानी अब न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर तो सकती है, लेकिन ऐसा कोई संशोधन वह नहीं कर सकती जिससे संविधान के मूलभूत ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) में कोई परिवर्तन होता हो या उसका मूल स्वरूप बदलता हो.
केशवानंद भारती मामले में आए इस फैसले से स्थापित हो गया कि देश में संविधान से ऊपर कोई भी नहीं है, संसद भी नहीं. यह भी माना जाता है कि अगर इस मामले में सात जज यह फैसला नहीं देते और संसद को संविधान से किसी भी हद तक संशोधन के अधिकार मिल गए होते तो शायद देश में गणतांत्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित नहीं रह पाती.
इस फैसले के दो साल बाद इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया और संविधान को पूरी तरह से बदल दिया गया. लेकिन आपातकाल के बाद केशवानंद भारती मामले का फैसला ही था जिसकी कसौटी पर कसकर संविधान को उसके मूल स्वरूप में वापस लाया गया. यह फैसला नहीं आया होता, या अगर इस फैसले में बहुमत ने मान लिया गया होता कि संसद किसी भी हद तक संविधान में संशोधन कर सकती है (जैसा कि इस पीठ के कुछ जजों ने माना भी था) तो आपातकाल के दौरान हुए संविधान संशोधन शायद कभी सुधारे नहीं जा सकते थे. तो कहा जा सकता है कि अपनी बाजी हारकर भी स्वामी केशवानंद भारती इतिहास के ‘बाजीगर’ बन गए थे.
और अंत में...
यह बात किसी को भी हैरान कर सकती है कि स्वामी केशवानंद भारती को जिस शख्स (नानी पालकीवाला) ने अपनी प्रतिभा के दम पर लोकप्रियता दिलाई थी, उनसे वे फैसला आने तक नहीं मिले थे. वहीं मुकदमे की सुनवाई के दौरान जब अखबारों में उनका नाम सुर्खियों में छाया रहता था, तो उन्हें इसका कारण कुछ समझ में नहीं आ रहा था. बताया जाता है कि स्वामी जी अपने मामले के बारे में समझते थे कि यह केवल संपत्ति विवाद का मामला है. उन्हें यह बिल्कुल भी पता नहीं था कि उनके मामले ने ऐसे सवाल खड़े किए हैं जिससे भारतीय लोकतंत्र दो दशकों से जूझ रहा था. माना जाता है कि अंतत: इस मामले में फैसला आते ही उनकी निजी समस्या भले ही न दूर हो सकी, लेकिन देश का बहुत बड़ा कल्याण हो गया. (satyagrah.scroll.in)
-सोनाली खत्री
अगर कभी कोई हमसे उनके साथ हुई यौन हिंसा या यौन शोषण के अनुभव को बांटता है तो अक्सर हमारे पास उन्हें कहने के लिए तसल्ली देने वाले शब्द नहीं होते या होते भी है तो हम उन्हें अपने शब्दों से चैन कम और दुःख ज्यादा देते हैं। आज हम अपने लेख के ज़रिये आपको बताएंगे वे 9 बातें जो हमें यौन हिंसा के सर्वाइवर को नहीं कहनी चाहिए।
'जो तुम्हारे साथ हुआ है वैसा हम सब के साथ हुआ है, इसमें कुछ विशेष बात नहीं है।'
आज हम एक ऐसी दुनिया में रहते है जहां लिंग आधारित यौन शोषण एक बहुत ही सामान्य बात है। इसी वजह से हम यौन शोषण के सर्वाइवर के अनुभवों को इतनी तवज्जो ही नहीं देते जब तक कि वो कोई दिल दहला देने वाला हादसा न हो। अगर कोई सर्वाइवर अपना अनुभव हमसे बांटता भी है, तो हम उसे तुरंत ही अपना अनुभव सुना देते हैं। ऐसा करके हमें लगता है कि हम उन्हें तसल्ली दे रहे है लेकिन वास्तविकता तो यह है कि अपना अनुभव सुनाकर हम उनके जख्मों की गहराई को खारिज़ कर देते है।
'लेकिन तुम ऐसी हिंसा करने वाले के खिलाफ कोई कानून कार्रवाई क्यों नहीं करती?'
हम सभी ये जानते है कि यौन हिंसा के मामले अगर कोर्ट पहुंच भी जाए, तो ऐसे मामलों में फैसले आने में कई साल लग जाते हैं। खासतौर पर तब जब पीड़िता या सर्वाइवर निचले सामजिक और आर्थिक तबके से आती है। अगर मामले में ट्रायल शुरू भी हो जाए तो पीड़िता को उस घाव से बार-बार गुजरना पड़ता है, इतना की न्याय पाने की प्रक्रिया ही एक सजा बन जाती है। यौन हिंसा के सर्वाइवर के चरित्र पर उंगलियां उठाई जाती हैं, गिरफ्तार कर लिया जाता है, जान से मारने की धमकियां दी जाती हं, हत्या तक कर दी जाती है। हमारा पूरा सिस्टम उसे न्याय देने की जगह उसी को कष्ट पहुंचाता है। ऐसे में हमें सर्वाइवर को कानून का दरवाजा खटखटाने की सलाह खुद नहीं देनी चाहिए।
'तुम अब कभी पूरा महसूस नहीं कर पाओगी।'
ऐसा कहकर हम सर्वाइवर को यह महसूस करवाते है कि उनके लिए अब बिना दर्द की जिंदगी जीना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। हम सर्वाइवर के पूरे अस्तित्व को उसकी लैंगिकता तक सीमित कर देते है और उनसे उनकी जिंदगी में आगे बढ़ने का अधिकार छीन लेते है।
'क्या सच में ऐसा ही हुआ था, क्योंकि तुम्हे पूरा हादसा याद नहीं है?'
जब भी कोई सर्वाइवर अपने उस हादसे के बारे में बताता है तो यह अपने आप में एक बहुत ही ट्रिगररिंग प्रक्रिया होती है जो सर्वाइवर को बहुत ही ज्यादा भावनात्मक रूप से कमजोर कर देती है। ऐसे में जो लोग सर्वाइवर को सुन रहे हैं उनका साथ उस समय बहुत ही जरूरी होता है। लेकिन अफ़सोस की बात तो यह है कि हमारी कानूनी प्रणाली और समाज उसे सहारा देने की जगह सर्वाइवर के पूरे अनुभव पर ही सवालिया निशान लगा देते है।
'तुमने ये सब बताने में इतनी देर क्यों लगा दी?'
यौन हिंसा की सच्चाई को स्वीकारने में काफी समय लगता है। ऐसे हादसों से उभरने में ही पीड़िता को काफी वक़्त लग जाता है और उसी के बाद ही यह सब सोचा जा सकता है कि उसके साथ क्या हुआ, क्यों हुआ और उसे उसकी शिकायत करनी चाहिए या नहीं। इन सब में वक़्त लगता है और इसीलिए पीड़िता से यह उम्मीद रखना बहुत ही गलत होगा कि वो हादसा होते ही उसकी रिपोर्ट करवा देगी। इसके अतिरिक्त अगर हिंसा करने वाला कोई शक्तिशाली पद पर हो या पीड़िता को सपोर्टिव माहौल न मिले या उसे क़ानूनी मदद न मिले, तो भी उसके लिए इस अनुभव के बारे में बताना मुश्किल हो जाता है। हमें ये भी समझना चाहिए कि पीड़िता के पास ये पूरा अधिकार है अपने अनुभव के बारे में बताने या न बताने का, कब बताने का और कैसे बताने का।
'अगर तुम एक नारीवादी हो तो तुम्हें अपनी कहानी को सार्वजनिक करना चाहिए।'
ये हो सकता है कि नारीवादी महिलाओं को अपने साथ हुए यौन शोषण के बारे में बताने में बहुत ज्यादा झिझक न हो, लेकिन सार्वजनिक रूप से अपने इस अनुभव के बारे में बताने का मतलब होता है बेमतलब के सवालों का सामना करना, अपने करियर और बाकी दूसरे रिश्तों को खतरे में डालना, मानहानि के केस का खतरा मोल लेना, वगैरह-वगैरह। इसलिए ये जरूरी नहीं है कि हर नारीवादी महिला अपने अनुभव को सार्वजनिक रूप से बताना चाहेगी।
'मैंने सोचा कि तुम लोग किसी रिश्ते में थे।'
ये कहना या सर्वाइवर की वैवाहिक स्थिति की आड़ लेकर उसके अनुभवों को रफा-दफा करना बेहद ही समस्या-ग्रसित एप्रोच है। कई बार ऐसी हिंसा करने वाले लोग पीड़िता के करीबी लोग ही होते हैं। लेकिन समाज हमें सिखाता है इस प्रकार की हिंसा को किसी ‘गैर’ से, ‘अनजाने’ व्यक्ति से, ताकि हमें सहमति, शादी में होने वाले रेप, हमारे अपनों द्वारा किये गए यौन शोषण आदि पर बात ही न करनी पड़े। दो लोगों के बीच दस साल या दस सेकंड पहले क्या रिश्ता था, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, सहमति हर बार जरूरी होती है।
'हम तुम्हारे साथ है, लेकिन अगली बार थोड़ा ध्यान रखना।'
अक्सर परिवारजन, मित्रगण, सहकर्मी आदि सर्वाइवर को अगली बार ‘थोड़ा ज्यादा ध्यान’ रखने की सलाह देते है। बिना नुकसान की लगने वाली ये सलाह अक्सर हादसे की पूरी जिम्मेदारी अपराधी की जगह सर्वाइवर पर डाल देती है। इसका मतलब ये भी होता है कि अगर सर्वाइवर ने थोड़ी और कोशिश की होती तो भयानक हादसा टल जाता। महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा ‘अजनबी’ और ‘प्रेमी’ दोनों ही करते पाए गए हैं। वे यौन हिंसा का सामना दिन में भी करती हैं और रात में भी, भीड़-भरे इलाकों में भी और अलग-थलग जगहों पर भी, जब वे नशे में थी तब भी और जब नहीं थी तब भी। इसलिए जब भी हम एक सर्वाइवर को ‘सावधान’ रहने की सलाह देते हैं, तो मुख्यतौर पर हम उन्हें यह कह रहे हैं कि वे जितनी जगह लेती हैं, वे जिस तरीके से सामान्य तौर पर जीती हैं, वैसे न जीए।
'सुरक्षा के लिए, मैं अपने सहकर्मियों के साथ बहुत ज्यादा मित्रता नहीं रखती।'
सबसे पहले तो बहुत ज्यादा मित्रता रखने का क्या मतलब होता है, एक इंसान दूसरे इंसान के प्रति अपनी मित्रता को कैसे नाप सकता है और अगर हम इस प्रकार के तर्क को स्वीकार भी कर ले तो तब क्या किया जाना चाहिए जब इस प्रकार की हिंसा करने वाला कोई अंजान व्यक्ति होता है। हम ऊपर दी गई सलाह इसलिए देते है क्योंकि हम ये मानते है कि इस शोषण के लिए लड़की/ महिला ही जिम्मेदार होगी, उसी ने पुरुष को इस हिंसा के लिए उकसाया होगा। वहीं दूसरी ओर शायद ही कभी लड़कों और मर्दों को उनकी सीमाओं के बारे में सिखाया जाता है। इस प्रकार की सामाजिक कंडीशनिंग से मर्द यह मानने लगते है कि इस प्रकार के अपराध करने के बावजूद भी वे बड़ी ही आसानी से बच जाएंगे।
इसीलिए जो लोग इस प्रकार की हिंसा के साक्षी बनते हैं/ सुनते हैं, ये उनकी जिम्मेदारी है कि वे सर्वाइवर को अपनी बातों से और दर्द न दे। महत्वपूर्ण ये भी है कि वे सर्वाइवर से ये पूछे कि वो उनसे किस प्रकार की प्रतिक्रिया की उम्मीद रखती है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- सैमेन्था पैट्रिक
वो अद्भुत है, अविश्वसनीय है, अकल्पनीय है. वो खुले आसमान में हवा के साथ क़दमताल करता है.
वो बिना थके, ज़मीन पर उतरे बिना एक महीने में 10 हज़ार किलोमीटर तक परवाज़ कर सकता है.
और अपनी पूरी ज़िंदगी में 85 लाख किलोमीटर तक उड़ान भर सकता है.
उसके तीन मीटर लंबे पंख उसे ग़जब की ताक़त देते हैं. वो एक ही उड़ान में समुद्र का चक्कर लगा सकता है.
वो है, एल्बाट्रॉस यानी एक विशेष प्रकार का समुद्री पक्षी जिसे बहुत जल्द एक नया काम मिलने वाला है.
प्रशासन की मदद
एल्बाट्रॉस अब समुद्र से मछली चुराने वालों और समुद्री डाकुओं की ख़बर लेगा और उन्हें उनके अंजाम तक पहुंचाने में प्रशासन की मदद करेगा.
मछुआरे समुद्र में मछली पकड़ने के लिए जाल डालते हैं. लेकिन, बहुत बार उसमें अन्य पक्षी भी फंस जाते हैं.

बायकैचिंग की वजह से ही हज़ारों समुद्री पक्षी हर साल मौत के मुंह में समा जाते हैं. पिछले कई दशकों में बार-बार बायकैचिंग का मुद्दा उठाया गया.
ख़ास तौर से एल्बाट्रॉस और समुद्र काक का मुद्दा उठाया गया जो सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं.
समुद्री लुटेरों पर नज़र
पर्यवेक्षकों के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से बायकैचिंग करने वाली नौकाओं पर कड़ी नज़र रखी गई.
जिसके बाद एलबेट्रोस की बायकैचिंग में ज़बरदस्त गिरावट आई.
इसके अलावा समुद्री लुटेरों पर नज़र रखने के लिए दक्षिणी महासागर में सैन्य जहाज़ भी गश्त करते हैं.
पर, सवाल ये है कि समुद्र में अवैध तरीक़े से मछलियां पकड़ने वाली नौकाओं की निगरानी कैसे की जाए?
अब कौन कानून असरदार साबित हो रहा है, और कौन नहीं, इसकी निगरानी का कोई सुनिश्चित तरीक़ा नहीं है.
अंतरराष्ट्रीय समुद्र
इसलिए एल्बाट्रॉस की बायकैचिंग पर नज़र रखना मुश्किल है. समुद्र में सभी देशों की अपनी सीमा होती है. उसके आगे समुद्र अंतरराष्ट्रीय है.
वहां किसी भी देश के लिए निगरानी करना बहुत मुश्किल है.
लेकिन, अब ये काम एल्बाट्रॉस करेंगे, जो 30 दिनों में 10 हज़ार किलोमीटर फ़ासला तय करेंगे और समुद्री लुटेरों की मुख़बिरी करेंगे.
मछली पकड़ने की रेखाओं में फंसने की वजह से अक्सर एल्बाट्रॉस मर रहे थे.
रिसर्चरों ने एल्बाट्रॉस और मछली पकड़ने की नौकाओं के बीच ओवरलैप का अध्ययन किया.

पक्षियों की बायकैचिंग
शोधकर्ताओं ने ये समझने का प्रयास किया कि समुद्री पक्षी मछली के संपर्क में कहां से आते हैं.
साथ ही ये भी जाना कि कौन-सा पक्षी किस तरह की नाव सबसे ज़्यादा पीछा करता है.
इससे ये समझने में मदद मिली कि पक्षियों की बायकैचिंग सबसे ज़्यादा कहां पर हो रही है.
ऑन बोर्ड मॉनिटरिंग सिस्टम से लिए गए डेटा की मदद से समुद्र में नौकाओं की मौजूदगी की मैपिंग संभव है. लेकिन ये रिकॉर्ड रियल टाइम नहीं होते.
पहले रिसर्चरों को ये अंदाज़ा नहीं था कि मछली पकड़ने वाली नौकाओं के साथ और खुले में समुद्री पक्षी कितना समय बिताते हैं.
मछली पकड़ने की गतिविधियां
जब रिसर्चरों को समय का अंदाज़ा हो गया. तो, उन्होंने एक ऐसा डेटा लॉगर विकसित किया जो एल्बाट्रॉस से जुड़ा था.
ये लॉगर नौकाओं का रडार पता लगाता है. और, अन्य कई प्रकार की जानकारियां जमा करता है.
आंकड़ों से पता चलता है कि मछली पकड़ने वाली नौकाओं के संपर्क में आने वाले हर परिंदे के लिंग और उसकी उम्र का भी ताल्लुक़ होता है.
उदाहरण के लिए नर पक्षी, अंटार्कटिका के क़रीब दक्षिण की ओर बढ़ते हैं. वहां मछली पकड़ने वाली नावें दुर्लभ हैं.
जबकि मादाएं उत्तर की ओर चलती हैं, जहां मछली पकड़ने की गतिविधियां ज़्यादा होती हैं.
वैश्विक मानचित्र
इस फ़र्क़ को समझना रिसर्च का पहला उद्देश्य था.
लॉगर से जो डेटा मिला वो एक तरह का बोनस साबित हुआ इससे खुले समुद्र में मछली पकड़ने की गतिविधियां मैनेज करने में मदद मिली.
मूल रूप से ये काम मछली पकड़ने वाली नौकाओं और सामान्य नौकाओं के बीच अंतर पता लगाने के लिए किया गया था.
साथ ही ये भी पता लगाने की कोशिश की गई कि क्या पक्षी मछली पकड़ने वाली नौकाओं के प्रति आकर्षित होते हैं या नहीं.
लेकिन जब लॉगर्स के डेटा को वैश्विक मानचित्र के साथ जोड़ दिया गया.
शोध के लिए सैमेन्था पैट्रिक ने सैमेन्था पैट्रिक पक्षियों को डेटा ट्रैकर लगाए थे
दक्षिण महासागर
तो, सभी नावों के स्थान को एक सक्रिय स्वचालित पहचान प्रणाली के साथ देखा जा सकता था.
इस रडार से नौकाओं के बीच होने वाले टकराव रोकने में मदद मिलती है.
एल्बाट्रॉस डेटा ने अनायास ही दक्षिण महासागर में अवैध मछली पकड़ने की संभावित सीमा और पैमाने को उजागर कर दिया था.
विशाल समुद्र में मछलियों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की चोरी सिर्फ़ नौकाओं के ज़रिए रोकना मुश्किल है.
लेकिन एल्बाट्रॉस एक बड़े क्षेत्र को अकेले ही कवर कर सकता है.
जब एलबेट्रोस पर लगा डेटा किसी फ़िशिंग बोट का पता लगाता है तो लॉगर की मदद से आसपास की नौकाओं को इसकी जानकारी मिल जाती है और पूछताछ शुरू हो जाती है.
अगर समय रहते बड़े पैमाने पर डेटा संग्रह कर लिया जाए तो समुद्री लुटेरों पर नज़र रखी जा सकती है.
साथ ही एल्बाट्रॉस और अन्य समुद्री को बचाने में भी मदद मिलेगी.(bbc)
भारतीय मूल की सीनेटर कमला हैरिस को अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडेन ने उपराष्ट्रपति पद के लिए चुना है. उन्हें लेकर यह दावा किया जा रहा कि वे पहली अश्वेत महिला हैं, जो उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनी हैं. हालांकि ऐतिहासिक तौर पर यह सही नहीं है. कमला हैरिस से पहले भी अमेरिका में एक अश्वेत महिला उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बन चुकी हैं, जिनका नाम था चार्लोटा बास.
दरअसल साल 1952 में प्रोग्रेसिव पार्टी के टिकट पर उपराष्ट्रपति पद के लिए पहली अश्वेत महिला उम्मीदवार के रूप में चार्लोटा बास के नाम की घोषणा हुई थी. तब उस समय शिकागो के वेस्ट साइड में एक ऑडिटोरियम में करीब दो हजार डेलीगेट्स के सामने बास के नाम पर मुहर लगी, जिसके बाद अपने संबोधन में चार्लोटा बास ने कहा, “अमेरिका की राजनीति में यह एक ऐतिहासिक क्षण है.”
उन्होंने आगे कहा, “यह क्षण मेरे लिए, मेरे अपने लोगों के लिए और सभी महिलाओं के लिए ऐतिहासिक है. इस राष्ट्र के इतिहास में पहली बार किसी राजनीतिक दल ने एक नीग्रो महिला को दूसरे सर्वोच्च पद के लिए चुना है.”
हारने के बावजूद बास के कैंपन स्लोगन की चर्चा
न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक, उस वक्त चुनावों में रिपब्लिकन उम्मीदवार ड्वाइट डी आइजनहावर ने राष्ट्रपति पद पर और रिचर्ड एम निक्सन ने उप-राष्ट्रपति पद पर जीत हासिल की, लेकिन फिर भी उनके कैंपेन में वो बात नहीं थी, जो बास के कैंपेन में थीं. उनका स्लोगन था, “जीतें या हारें, हम मुद्दे उठाकर जीतते हैं.” (Win or Lose, We Win by Raising the Issues).
चार्लोटा बास को टिकट मिलने के एक दशक से भी ज़्यादा समय के बाद अमेरिका में मतदान अधिकार कानून पर हस्ताक्षर किए गए, लेकिन न सिर्फ एक राजनेता के रूप में, बल्कि उससे पहले वेस्ट कोस्ट के सबसे पुराने अश्वेत अखबार, द कैलिफोर्निया ईगल की संपादक और पब्लिशर रहते हुए भी बास ने इस तरह के मुद्दे हमेशा उठाए.
अश्वेत लोगों की आवाज था द कैलिफोर्निया ईगल अखबार
एक समय था, जब द कैलिफोर्निया ईगल अखबार लॉस एंजिल्स में अश्वेत लोगों की आवाज था, उसने वहां पुलिस की बर्बरता और फिल्म इंडस्ट्री में नस्लवाद के खिलाफ अभियान का नेतृत्व किया था. ईगल का दफ्तर, जो कभी सेंट्रल एवेन्यू पर लॉस एंजिल्स में अश्वेत समुदाय के लोगों का दिल था, अब वहां एक स्टोर है.
बास ने एक पत्रकार और एक्टिविस्ट के रूप में अपने जीवन में एक अलग पहचान बनाई और शायद यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आज एक भारतीय मूल की महिला को एक प्रमुख पार्टी के टिकट पर उपराष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाने के पीछे, जो बुनियाद है वो चार्लोटा बास की मदद से ही रखी गई है.
“चुनाव जीतने पर नहीं मुद्दों पर था बास का ध्यान”
इतिहासकार और लेखक मार्था एस जोंस का कहना है कि हमारा ध्यान हमेशा जीतने या हारने वाले पर होता है, जबकि बास के लिए चुनाव में जीतना तो कभी कोई प्वाइंट रहा ही नहीं. वो तो राजनीतिक एजेंडे को ज़्यादा बड़ा रूप देने की कोशिश कर रही थीं.
बास का पूरा नाम चार्लोटा अमांडा स्पीयर्स था, माना जाता है कि उनका जन्म साउथ कैरोलिना के सम्टर में 1880 के आसपास हुआ. उनके माता-पिता केट और हीराम स्पीयर्स, गुलाम लोगों के वंशज थे, उनके पिता एक राजमिस्त्री थे.
हाई स्कूल के बाद चार्लोटा अपने भाई एलिस के साथ रहने के लिए रोड आइलैंड चली गईं, जहां उनके भाई के अपने दो रेस्टोरेंट थे. माना जाता था कि साउथ कैरोलिना का सम्टर महिलाओं के लिए एक खतरनाक जगह थी.
ईगल अखबार में ऑफिस गर्ल से संपादक तक का सफर
इसके बाद बास ने पेम्ब्रोक वूमेन कॉलेज में दाखिला लिया, जो अब ब्राउन यूनिवर्सिटी का एक हिस्सा है. पढ़ाई के साथ-साथ चार्लोटा एक स्थानीय ब्लैक न्यूज पेपर में नौकरी भी करने लगीं. साल 1910 में बास ने ईगल न्यूज पेपर में “ऑफिस गर्ल” की नौकरी शुरू की, जहां उन्हें वेतन के रूप में पांच डॉलर मिला करते थे. पेपर का ऑफिस सेंट्रल एवेन्यू पर था, जिसे “शहर का ब्लैक बेल्ट” भी कहा जाता था.
धीरे-धीरे बास ने भी ईगल अखबार में अश्वेत लोगों से जुड़े मुद्दों को उठाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते ईगल अखबार की कमान उन्होंने अपने हाथ में ले ली. बास ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- “पूरे शहर में इसी बात की चर्चा थी, क्योंकि इससे पहले कभी किसी ने किसी महिला को अखबार चलाते हुए नहीं देखा था.”
ईगल अखबार की स्थापना तो एक अश्वेत व्यक्ति ने की थी, लेकिन आगे चल कर इसका मालिक एक श्वेत व्यक्ति हो गया, जिसने बास के सामने शर्त रखी की वो अखबार चलाने के लिए अपना समर्थन तभी देगा, जब बास उनसे शादी करेंगी. बास ने इस प्रस्ताव के बाद उस मालिक को काफी बुरी तरह से फटकार लगाई और डीड खरीदने के लिए एक स्थानीय स्टोर के मालिक से 50 डॉलर उधार लिए.
इसके बाद से बास का जीवन पूरी तरह से बदल गया और उन्होंने अगले 40 साल के लिए खुद को ईगल अखबार और सामाजिक मुद्दों को उठाने के लिए समर्पित कर दिया. बास ने द टोपेका प्लेनडेलर से एक अनुभवी संपादक जेबी. बास को नौकरी पर रखा और जो आगे चलकर वो उनके पति बने, लेकिन शादी के बाद भी दोनों पति-पत्नि के पास एक दूसरे के साथ वक्त बिताने का समय नहीं था.
ज्वाइंट पब्लिशर्स के रूप में उन्होंने ईगल को वेस्ट कोस्ट में सबसे ज्यादा सर्कुलेशन वाले अश्वेत अखबार के रूप में विकसित किया. साल 1934 में अपने पति की मृत्यु के बाद लगभग दो दशकों तक चार्लोटा ने अपने दम पर वो न्यूज पेपर चलाया.
रिपब्लिकन पार्टी में रहते हुए भी दिया डेमोक्रेट उम्मीदवार को वोट
1940 के दशक में चार्लोटा बास ने पूरी तरह से राजनीति में प्रवेश किया. बास की सबसे खास बात यह रही कि वे लंबे समय से रिपब्लिकन पार्टी में थीं, लेकिन 1936 के चुनाव में उन्होंने डेमोक्रेट के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट को वोट दिया और बाद में अश्वेत समुदाय और महिलाओं के अधिकारों की उपेक्षा करने के लिए उन्होंने दोनों दलों की निंदा भी की.
उन्होंने 1947 में कैलिफोर्निया की इंडिपेंडेंट प्रोग्रेसिव पार्टी की स्थापना में मदद की और 1950 में कांग्रेस के लिए चुनाव लड़ा, लेकिन हार गईं. ऐनी रैप, एक इतिहासकार जिन्होंने बास पर अपने डॉक्टरेट शोध प्रबंध को लिखा था, उन्होंने बताया कि आगे चल कर चार्लोटा बास पर सरकार ने अपनी निगरानी बढ़ा दी और उनकी मौत तक उन पर सरकारी एजेंसियों की तरफ से काफी सख्त निगरानी रखी गई.
यहां तक उनकी विदेशी यात्राओं पर रोक लगा दी गई और सीआईए के एजेंट्स ने विदेशों में उनके सम्मेलनों की भी जांच की. बास ने 1951 में अश्वेत महिलाओं के ग्रुप को ईगल अखबार को बेच दिया. इसके बाद 12 अप्रैल 1969 को सेरेब्रल हेमरेज से उनकी मृत्यु हो गई.(tv9bhartvarsh)
भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि राहत उपायों के बिना अर्थव्यवस्था में वृद्धि की क्षमता बहुत गंभीर रूप से प्रभावित होगी. यदि अर्थव्यवस्था को इस भयावह स्थिति से निकालना है तो सरकार को अधिक से अधिक ख़र्च करना होगा.
नई दिल्ली: मौजूदा वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में भारत की जीडीपी में रिकॉर्ड 23.9 फीसदी की गिरावट पर भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राम ने कहा है ये आंकड़े ‘हम सभी को चौंकाने चाहिए’ और सरकार एवं नौकरशाहों को इससे डरने की जरूरत है.
अपने लिंक्डइन पोस्ट में राजन ने तर्क दिया कि सरकार भविष्य में प्रोत्साहन पैकेज देने के लिए आज संसाधनों को बचाने की रणनीति पर चल रही है जो कि ‘आत्मघाती’ साबित हुई है. सरकार द्वारा राहत प्रदान करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि कोविड-19 महामारी के रुकने तक विवेकाधीन खर्च कम ही रहेगा.
पूर्व आरबीआई गवर्नर ने कहा, ‘वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही के लिए हाल ही में जारी जीडीपी वृद्धि के आंकड़े हम सभी को चिंतित करने चाहिए. भारत में 23.9 फीसदी संकुचन (और शायद यह तब और भी बुरा होगा जब हम इसमें अनौपचारिक क्षेत्र (इन्फॉर्मल सेक्टर) में क्षति का जोड़ देंगे) कोरोना से प्रभावित उन्नत अर्थव्यवस्थाओं इटली में 12.4% और अमेरिका में 9.5% की गिरावट की तुलना में काफी अधिक है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘भारत में अभी भी महामारी बढ़ ही रही है. इसलिए वायरस पर काबू पाए जाने तक विवेकाधीन खर्च या मनमुताबिक खर्च कम ही रहेगा.’
राजन ने कहा कि राहत उपायों के बिना अर्थव्यवस्था में वृद्धि की क्षमता बहुत गंभीर रूप से प्रभावित होगी. उन्होंने कहा कि सरकार को चालाकी के साथ अधिक से अधिक खर्च करने की जरूरत है.
उन्होंने कहा, ‘यदि आप मानते हैं कि अर्थव्यवस्था बीमार है तो उसे बीमारी से लड़ने के लिए राहत उपायों की जरूरत है. बिना राहत राशि के लोग भोजन में कमी लाएंगे, अपने बच्चों को स्कूल से निकाल कर उन्हें काम करने या भीख मांगने भेज देंगे, उधार लेने के लिए अपना सोना गिरवी रख देंगे और उनकी कर्ज की किस्त और किराया बढ़ता ही जाएगा.’
अर्थशास्त्री ने आगे कहा, ‘इसी तरह बिना राहत के छोटे उद्योग, दुकानें, रेस्टोरेंट मजदूरों को वेतन देना बंद कर देंगे, उनके कर्ज बढ़ते जाएंगे या हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे. इस तरह जब तक कोविड-19 वायरस काबू में आएगा, तब तक अर्थव्यवस्था बर्बाद हो जाएगी.’
रघुराम राजन ने कहा कि अधिकारियों की ये मानसिकता बहुत निराशाजनक है कि महामारी से पहले आर्थिक सुस्ती और सरकार की खराब वित्तीय हालत के कारण वे राहत और प्रोत्साहन दोनों पर खर्च नहीं कर सकते हैं.
मालूम हो कि कोरोना महामारी के शुरुआत से ही रघुराम राजन आर्थिक गतिविधियों को सावधानीपूर्वक संभालने के लिए सरकार को सतर्क करते रहे हैं.
इससे पहले राजन ने कहा था कि भारत एक बहुत बड़ी आर्थिक तबाही का सामना कर रहा है और इसके समाधान के लिए सरकार को विपक्ष के विशेषज्ञों को शामिल करना चाहिए, क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय अकेले ये काम नहीं कर सकता है.
भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार और आईएमएफ के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री के रूप में काम कर चुके रघुराम राजन ने कहा था कि यह चुनौती सिर्फ कोरोना वायरस और लॉकडाउन से हुए नुकसान को ठीक करने के लिए नहीं है, बल्कि पिछले 3-4 साल में उत्पन्न हुईं आर्थिक समस्याओं को ठीक करना होगा.
इसके अलावा उन्होंने जाने-माने अर्थशास्त्रियों और नोबेल विजेताओं अभिजीत बनर्जी और अमर्त्य सेन के साथ लिखे एक लेख में महामारी से उबरने के लिए गरीबों के हाथ में तत्काल पैसे देने की बात की थी.
इस संबंध में उन्होंने कहा था, ‘लोन को प्रभावी होने में समय लगता है. दूसरी तरफ भूख एक तत्काल समस्या है.’
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ एक संवाद में राजन ने कहा था कि कोविड-19 संकट के दौरान देश में गरीबों की मदद के लिए 65,000 करोड़ रुपये की जरूरत होगी. उन्होंने कहा था, ‘यदि गरीबों की जान बचाने के लिए हमें इतना खर्च करने की जरूरत है तो हमें करना चाहिए.’
अधिकारी अब आत्मसंतोष की स्थिति से बाहर निकलेंगे
उन्होंने कहा कि इतने खराब जीडीपी आंकड़ों की एक अच्छी बात यह हो सकती है कि अधिकारी तंत्र अब आत्मसंतोष की स्थिति से बाहर निकलेगा और कुछ अर्थपूर्ण गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करेगा. राजन फिलाहल शिकॉगो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. उन्होंने कहा कि भारत में कोविड-19 के मामले अब भी बढ़ रहे हैं. ऐसे में रेस्तरां जैसी सेवाओं पर विवेकाधीन खर्च और उससे जुड़ा रोजगार उस समय तक निचले स्तर पर रहेगा, जब तक कि वायरस को नियंत्रित नहीं कर लिया जाता.
राजन ने कहा कि सरकार संभवत: इस समय अधिक कुछ करने से इसलिए बच रही है, ताकि भविष्य के संभावित प्रोत्साहन के लिए संसाधन बचाए जा सकें. उन्होंने राय जताई कि यह आत्मघाती रणनीति है.
अर्थव्यवस्था के लिए दिया उदाहरण
एक उदाहरण देते हुए राजन ने कहा कि यदि हम अर्थव्यवस्था को मरीज के रूप में लें, तो मरीज को उस समय सबसे अधिक राहत की जरूरत होती है जबकि वह बिस्तर पर है और बीमारी से लड़ रहा है. उन्होंने कहा, ‘‘बिना राहत या सहायता के परिवार भोजन नहीं कर पाएंगे, अपने बच्चों को स्कूल से निकल लेंगे और उन्हें काम करने या भीख मांगने भेज देंगे. अपना सोना गिरवी रखेंगे. ईएमआई और किराये का भुगतान नहीं करेंगे. ऐसे में जब तक बीमारी को नियंत्रित किया जाएगा, मरीज खुद ढांचा बन जाएगा.’’
वी शेप रिकवरी की संभावना नहीं
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ने कहा कि अब आर्थिक प्रोत्साहन को ‘टॉनिक’ के रूप में देखें. ‘‘जब बीमारी समाप्त हो जाएगी, तो मरीज तेजी से अपने बिस्तर से निकल सकेगा. लेकिन यदि मरीज की हालत बहुत ज्यादा खराब हो जाएगी, तो प्रोत्साहन से उसे कोई लाभ नहीं होगा. राजन ने कहा कि वाहन जैसे क्षेत्रों में हालिया सुधार वी-आकार के सुधार (जितनी तेजी से गिरावट आई, उतनी ही तेजी से उबरना) का प्रमाण नहीं है. उन्होंने कहा, ‘‘यह दबी मांग है. क्षतिग्रस्त, आंशिक रूप से काम कर रही अर्थव्यवस्था में जब हम वास्तविक मांग के स्तर पर पहुंचेंगे, यह समाप्त हो जाएगी.’’
महामारी से पहले ही अर्थव्यवस्था में सुस्ती थी-राजन
राजन ने कहा कि महामारी से पहले ही अर्थव्यवस्था में सुस्ती थी और सरकार की वित्तीय स्थिति पर भी दबाव था. ऐसे में अधिकारियों का मानना है कि वे राहत और प्रोत्साहन दोनों पर खर्च नहीं कर सकते. उन्होंने कहा, ‘‘यह सोच निराशावादी है. सरकार को हरसंभव तरीके से अपने संसाधनों को बढ़ाना होगा और उसे जितना संभव हो, समझदारी से खर्च करना होगा.’’(thewire)
शर्मनाक आपाधापी और लाल बुझक्कड़ी सलाहों से घिरे इस देश की अर्थव्यवस्था विकसित तो क्या ही होती, जितनी थी, उतनी भी नहीं रह पाई। आंकड़ों के अनुसार, उसमें 23.9 फीसदी की सिकुड़न आ गई है। सबसे ज्यादा सिकुड़न निर्माण क्षेत्र में है, फिर खदान, सेवा क्षेत्रों में।
- मृणाल पाण्डे
भारत सचमुच एक अजूबा है। 2020 के पहले छः महीनों में हजारों की तादाद में कोविड महामारी से लोग मर गए। कोविड संक्रमण के सबसे अधिक मामले आज भारत में दर्ज हो रहे हैं और हमारे स्वास्थ्य मंत्री कह रहे हैं कि उनको उम्मीद है, अक्टूबर तक बीमारी थमने लगेगी। मार्च, 2020 में देश पर अचानक बिना सलाह-मशविरे के लाद दी गई इकतरफा तालाबंदी ने अगस्त के अंत तक कल-कारखाने ठप्प कर सकल राष्ट्रीय उत्पाद दर का कचूमर निकाल दिया। रातों रात बेरोजगार हुए लाखों प्रवासी शहरी कामगारों को घर लौटते सब देखते रहे, पर कोई दंगा या बड़ा जनांदोलन नहीं उठा। अब जब तालाबंदी पूरी तरह उठ जाएगी तो मध्यवर्ग का सुविधा भोगी हिस्सा भी बेरोजगारी की आंच अपनी देह पर महसूस करेगा क्योंकि हर कहीं से आंकड़े आ रहे हैं कि कॉरपोरेट और सेवा क्षेत्र से लेकर मीडिया तक बेरोजगारी दर चौकड़ीभर रही है। फिर भी कम-से-कम गोदी मीडिया कह रहा है कि उनको मोदी जी सर्वमान्य नेता नजर आते हैं, दूसरा न कोई।
अचंभा यह कि कथित सर्वमान्य शिखर से मास्क लगाकर युवाओं को किसी नए पैकेज की बजाय सलाह दी जा रही है कि वे व्यायाम करें, पारंपरिक खिलौने बेचें, महामारी के बीच भी प्रतियोगी परीक्षा में मास्क लगाकर एग्जाम वॉरियर बन जेईई/नीट परीक्षा दें, परिसर खुलें और बच्चे तथा शिक्षक पढ़ाई-लिखाई में लगें। उत्तर प्रदेश को देखिए जहां हत्याएं या कोरोना के मामले तेजी से बढ़ते दिख रहे हैं और जातीय आधार पर सूबे में हथियारों की मालिकी की तालिकाएं बनवाए जाने की भी खबरें बार-बार आ रही हैं। भव्य राम मंदिर बनवाया जा रहा है। कहा जा रहा है रामजी भला करेंगे।
इन तमाम चुनौतियों की बजाय युवा क्षेत्रीय स्तर पर किन बातों पर उत्तेजित बताए जा रहे हैं? कि मंत्रालयीन गोष्ठियों में लिंक भाषा अंग्रेजी की जगह हिंदी को काहे लादा जा रहा है। कि गिने-चुने लोगों की नौकरशाही सिविल सेवा में इतनी बड़ी तादाद में अल्पसंख्यक लोग क्यों आ रहे हैं? कि रिया ने क्या भोले बिहारी मित्र पर बंगाल का जादू चलाया था?
शर्मनाक आपाधापी और लाल बुझक्कड़ी सलाहों से घिरे इस देश की अर्थव्यवस्था विकसित तो क्या ही होती, वह जितनी थी, उतनी भी नहीं रह पाई। ताजा सरकारी आंकड़ों के अनुसार, उसमें 23.9 फीसदी की सिकुड़न आ गई है। सबसे ज्यादा सिकुड़न निर्माण क्षेत्र में है, फिर खदान और सेवा क्षेत्रों में। गौरतलब है कि यही वे क्षेत्र हैं जिनमें सबसे अधिक रोजगार उपजते रहे हैं। कृषि क्षेत्र ने तनिक नाक रख ली है, पर 3 फीसदी से कुछ अधिक वृद्धि दर कोई बहुत उत्साहजनक नहीं कही जा सकती। मीडिया से उम्मीद थी। लेकिन वहां जो झागदार झगड़े या आक्रोश है, वह ठोस मुद्दों पर नहीं टुटपूंजिये प्रतीकों पर है। सूचनाधिकार को तो ताक पर धर दिया गया है और जरूरत हो तो भी सरकार से बेरोजगारी के सरकारी आंकड़े या प्रधानमंत्री केयर्स फंड के आंकड़े नहीं पाए जा सकते। अलबत्ता देश का सबसे लोकप्रिय नेता कौन? शिखर नेता की मोर को दाना खिलाती छवियां आज जनता का मनोबल बढ़ाएंगी कि कम करेंगी कि वैसा ही रखेंगी, इस पर राय शुमारियां हो रही हैं। उड़ता बॉलीवुड कितनी ड्रग्स लेता है? एक रुपये का दंडभर कर प्रशांत भूषण जीते हैं कि न्याय व्यवस्था? अगर प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री बन गए होते तो क्या होता? गोदी मीडिया हर चारेक सप्ताह में इसको पुष्ट करने वाले शोध-आंकड़े आपको बरबस थमाता है। पखवाड़े पहले हमने देश की आजादी की सालगिरह मनाई थी या उसकी अनौपचारिक समाप्तिका सोग?
इस बीच संसद में इस बार उठने जा रहे महत्व के मुद्दों की ज्ञानवर्धक चर्चा या कि विदेश नीति तथा सीमा सुरक्षा पर कमरे में खड़ा हाथी जिनको नहीं दिखता, वे सब कांग्रेस में तनिक भी भीतरी कलह की भनक होने पर शेष सब खबरें नेपथ्य में भेज कर उनपर ब्रेकिंग न्यूज चलवाने लगते हैं। विपक्ष, खासकर कांग्रेस, उसमें भी गांधी परिवार को लेकर योजनाबद्ध तरीके से पापशंकी बना दिए गए मीडिया में राहुल गांधी का उतरना उनके पूछे सही सवालों पर ध्यान देने की बजाय उनकी कथनशैली के पुर्जे-पुर्जे करने बैठ रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर मोदी जी की तुलना में उनकी छाप सुदूर और अपरिचित है तो एक हद तक यह स्वाभाविक है। अपनी सक्षम मां और मनमोहन सिंह जी के जमाने में वह काफी हद तक नेपथ्य में ही थे। और मीडिया ने जो अतिनाटकीयता ओढ़ ली है, उसमें उनकी गंभीर मुखमुद्रा और लगभग मास्टरी तर्ज-ए-बयां कांग्रेस के प्रतिस्पर्धी और भाषा की उस जादूगरी से फर्क है जो बरबस दर्शकों से वंस मोर निकलवाती रहती है।
फिर भी मीडिया पर सफल होने और आमजन तक अपनी खरी बात पहुंचाने के लिए शायद आज हर नेता को कुछ जरूरी बदलाव करने होंगे। पहली यह कि मातृभक्ति और बुजुर्गी का अतिरिक्त आदर उनकी जनता से खरी बात में आड़े न आए। हां, हां, बड़ों का आशीर्वाद अच्छी बात है, यह तो हम हर बरस टीवी पर प्रचारित किया जाता देखते ही रहे हैं। लेकिन सचाई यह भी है कि एक युवा नेता एक हद तक अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से जूझ कर ही राजनीति में इस्पात बनता है। नेहरू न केवल मोतीलाल जी से लड़े बल्कि उन्होंने उनको भी बदल दिया। दूसरी बात, कोई बड़ा नेता किसी दूसरे के पगचिह्नों पर पग रख कर बहुत आगे नहीं जा सकता। उसे अपनी राह खुद बनानी होती है और चट्टानें काटनी पड़ें तो वह भी करना होता है। जनमानस में नेता की शक्ल उस युवा की ही नहीं बनी रहनी चाहिए जिसने तूफानों को करीब से देखा-झेला है लेकिन हर बवंडर की हुमक कर सड़क से संसद तक सवारी नहीं की।
नेतृत्व में क्या गुण हों, न हों, यह समझने के लिए हालिया अखबारों में मरणोपरांत प्रणव मुखर्जी पर कई लेखों को पढ़ना रोचक था। कई जगह चर्चा दिखी कि यदि मनमोहन सिंह की जगह वह प्रधानमंत्री बनाए जाते तो भारत कैसा होता? मनमोहन सिंह का बतौर एक प्रधानमंत्री तथा वित्त मंत्री उजला साफ रिकॉर्ड सामने है। उनकी तुलना में प्रणव बाबू का सारा दृष्टिकोण एक काबिल ब्यूरोक्रैट का था जो विकास पर कम और सही नियम-कायदों (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स) पर अधिक ध्यान देता है। मूल बात यह है कि उनमें आधुनिक विश्व अर्थव्यवस्था की वह गहरी पकड़ नहीं थी जिसके बल पर मनमोहन सिंह देश की विकास दर 10 फीसदी बढ़ाले गए। प्रणव बाबू बहुश्रत बहुपाठी थे, पर मनमोहन सिंह उनकी तुलना में शांत, अमर्ष भाव से रहित नजर आते हैं। और भारत की परंपरा में उसके जो सबसे जनता के प्रिय और बेहतरीन शासक- कनिष्क, अशोक, अकबर और नेहरू, शास्त्रीजी या मनमोहन सिंह हैं, वे उदार हृदय, सहिष्णु और ईर्ष्यावश बदला लेने की भावना से लगभग रहित रहे।
2020 में आजाद भारत की सबसे पुरानी पार्टी में पीढ़ियों के बीच के फर्क को सामने उभरते देख भविष्य का अनुमान लगाना दिलचस्प है। लोग मानते हैं कि हमारे यहां सत्ता के लीवरों पर बूढ़े ही बहुतायत में काबिज रहे। पर यह सच नहीं है। नेहरू जी के बाद शास्त्रीजी प्रधानमंत्री बने जो 1947 तक कांग्रेस के संसदीय सचिव थे। उनके बाद (मोरारजी को निराशकर) इंदिरा जी आईं जो उनसे कहीं कम उम्र थीं। जगजीवन बाबू जब मंत्री बने कुल 38 बरस के थे, प्रणव बाबू 33 बरस के। इसलिए कांग्रेस नेतृत्व के लिए अब जरूरी काम यह है कि वह अगले बीस सालों के लिए एक ताजा नई पीढ़ी को संवारे और तैयार होने पर उसे जिम्मेदारी देने में कंजूसी न करे। बुजुर्ग नेता जो आज कांग्रेस में हैं, इसलिए कि कांग्रेसियत की उनको आदत है। पर नई पीढ़ी, नया खून तभी पार्टी की तरफ खिंचेंगे जब उनको अपने समवयसी या लगभग समवयसी वहां बहुतायत से दिखाई दें।(nvjivan)
मौसम विभाग का कहना है कि मानसून 2020 की वापसी कब होगी, यह कह पाना अभी मुश्किल है, बल्कि सितंबर के तीसरे सप्ताह में अत्याधिक बारिश हो सकती है
- DTE Staff
भारत में सितंबर में सामान्य से अधिक बारिश होने की संभावना है, हालांकि सितंबर के दूसरे सप्ताह में उत्तर पश्चिम और मध्य भारत सहित देश के अधिकांश हिस्सों में मानसून की बारिश में कमी होने की संभावना है। लेकिन 17 सितंबर के बाद इसके फिर से शुरू होने की संभावना है। मानसून की वापसी की सामान्य तिथि 17 सितंबर है।
यह जानकारी भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के महानिदेशक डॉ. एम. महापात्रा ने दी। इससे पहले केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव डॉ. एम राजीवन ने कहा, 'इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून की व्यापकता और प्रसार ने किसानों की मदद की और उत्पादन बहुत अच्छा होना चाहिए। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को भी मदद करेगा, हालांकि इस समय सटीक मात्रा का आंकलन नहीं किया जा सकता है। हम यह मूल्यांकन नहीं कर सकते कि यह अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित करेगा। डॉ. एम. राजीवन और डॉ. महापात्र यहां एक वर्चुअल संवाददाता सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे।
राजस्थान से हो सकती है वापसी
डॉ. महापात्रा ने बताया कि आईएमडी ने अपने साप्ताहिक मौसम अपडेट में उल्लेख किया है कि राजस्थान के पश्चिमी भागों से मानसून की वापसी 18 सितंबर को समाप्त होने वाले सप्ताह से शुरू हो सकती है, लेकिन हम उम्मीद कर रहे हैं कि उसी समय बंगाल के पश्चिम मध्य में कम दबाव वाला क्षेत्र विकसित हो सकता है। उन्होंने कहा कि मानसून की वापसी के समय यह शुरू हो सकता है, लेकिन हम अभी भी अध्ययन कर रहे हैं कि यह पूरी तरह कब तक वापस लौट सकता है। हम केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में 17 सितंबर और उसके बाद सामान्य बारिश की उम्मीद कर रहे हैं। हालांकि उन्होंने आगे कहा कि अगस्त की तुलना में सितंबर में बारिश की गतिविधि में गिरावट आई है और अब सामान्य से कम बारिश हुई है, अगले कुछ दिनों में फिर से बारिश होने की संभावना है क्योंकि ताजा मौसम प्रणाली विकसित हो रही है।
डॉ. महापात्रा ने विस्तार से बताया कि इस सीजन में मानसून की बारिश की विविधता इस वर्ष अधिक थी, जून में अधिक बारिश, जुलाई में कमी और अगस्त में फिर से अत्यधिक बारिश हुई। उन्होंने कहा कि सक्रिय मैडेन-जूलियन दोलन (एमजेओ), उष्णकटिबंधीय वायुमंडल में इंट्रासेन्सनल (30- से 90-दिवसीय) परिवर्तनशीलता का सबसे बड़ा कारण है।
उन्होंने कहा कि भारी बारिश की भविष्यवाणी करने में आईएमडी की सटीकता 80 प्रतिशत से अधिक हो गई है। डॉ. राजीव और डॉ. महापात्रा दोनों ने यह भी बताया कि आईएमडी ने सुपर साइक्लोन अम्फान को लेकर पहले ही बहुत सटीक भविष्यवाणी की थी और मानव जीवन तथा जानमाल के नुकसान को बचाने में मदद की। हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि पूर्वी और पश्चिमी तट चक्रवात अलग-अलग मौसम के पैटर्न हैं और कभी-कभी इन्हें पूर्वानुमान से अलग ट्रैक करना होता है। हालांकि चक्रवात निसार्ग को भी अच्छी तरह से ट्रैक किया गया था और कम दबाव वाले क्षेत्र से उसके शिखर तक पहुंचने की भविष्यवाणी की गई थी, लेकिन इसके जमीन पर टकराने के बारे में कुछ अंतर था।
भारतीय मानसून के व्यवहार पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को लेकर डॉ. राजीवन ने कहा कि इसका प्रभाव पड़ता है और आईएमडी ने इस पर बहुत काम किया है। उन्होंने कहा कि ये प्रभाव समय-समय पर अलग-अलग होते हैं और इसके बारे में कोई एकरूपता नहीं होती है।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव ने अधिक डेटा एकत्र करने और निकट भविष्य में विभिन्न मौसम की घटनाओं को लेकर पूर्वानुमान लगाने में सक्षम होने के लिए देश भर में नए और अधिक रडार स्थापित करने के प्रयासों के बारे में भी विस्तार से जानकारी दी।(downtoearth)
-एक आर्थिक समीक्षा
नरेंद्र मोदी को उनका भूत डरा रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के अपने दो ट्वीटस ने अगस्त के अंतिम दिनों से ही उन्हें परेशान कर रखा है।
मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर जून, 2012 में ट्वीट किया थाः ‘यूपीए सरकार ने पहली तिहाई में 9 साल का सबसे कम दर वाला जीडीपी विकास दर दिया है। अब तक मानसून कमजोर है। हम एक देश के तौर पर किधर जा रहे हैं?’ 2020 में तो मानसून अच्छा रहा है, फिर भी जीडीपी पिछली नौ तिमाहियों से गिर रहा है और 2020-21 की पहली तिमाही में आजादी के बाद यह दबाव सबसे अधिक है।
गुजरात के मुख्यमंत्री ने नवंबर, 2013 में फिर ट्वीट किया थाः ‘अर्थव्यवस्था संकट में है, युवा रोजगार चाहते हैं। क्षुद्र राजनीति नहीं, अर्थव्यवस्था को अधिक समय दें। चिदंबरम जी, कृपया रोजगार पर ध्यान दें।’ यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इस वक्त विपक्ष में रहते हुए पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने उस ट्वीट की याद दिलाई है और चुटकी ली है,’ मुझे माननीय प्रधानमंत्री से कुछ कहना है।
31 अगस्त को की गई इस घोषणा ने अर्थशास्त्रियों और उसी तरह उद्योगों को डरा दिया है कि भारत की जीडीपी 23.9 प्रतिशत तक सिकुड़ गई है। कई लोगों को लगता है कि यह तो किसी हॉरर फिल्म का ट्रेलर भर है और अभी तो और बुरे दिन आने वाले हैं। आखिर, केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कह ही रही हैं कि सरकार ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकती थी क्योंकि यह मंदी ‘भगवान का किया-धरा’ (एक्टऑफ गॉड) है।
कुछ ऐसी बातें भी कही जा रही हैं जिन्हें सुनना सामान्य दिनों में तो मजेदार होता लेकिन इस वक्त चुभने वाली हैं। मुख्य आर्थिक सलाहकार के.वी. सुब्रह्मण्यम ने कहा कि दूसरी और तीसरी तिमाही में विभिन्न सेक्टरों में हम अंग्रेजी के ‘वी’ अक्षर की तरह रिकवरी देखने जा रहे हैं। अर्थशास्त्र में इसका मतलब होता है- तेजी से गिरावट के बाद उतनी ही तेजी से बढ़त।
पिछले साल तक प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रहे और अब लंदन में ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट में रिसर्च और पॉलिसी के डायरेक्टर रथिन रॉय ने सुब्रह्मण्यम के बयान के बारे में पूछे जाने पर कहा कि ‘क्या उन्होंने ऐसा कहा? मुझे नहीं पता। मैं अर्थशास्त्र जानता हूं, वर्णमाला नहीं। अगर अर्थशास्त्र का मेरा ज्ञान किसी अक्षर के समान होता है, तो पहले मैं उसे समझता हूं और तब समानता के तर्क तक पहुंचता हूं। मैं इसे उलटा करने में सक्षम नहीं हूं।’
रॉय ने पिछले साल मई में ही एक टीवी इंटरव्यू में कहा था, ‘हम संरचनात्मक मंदी की ओर बढ़ रहे हैं। यह पूर्व चेतावनी है। 1991 से अर्थव्यवस्था निर्यात के आधार पर नहीं बढ़ रही है... बल्कि यह भारतीय आबादी के ऊपर के 10 करोड़ लोग क्या उपभोग कर रहे हैं, उस आधार पर बढ़ रही है।’ उन्होंने कहा कि भारत के विकास की कहानी को ‘शक्ति देने वाले’ ये 10 करोड़ उपभोक्ता स्थिर होना शुरू हो गए हैं। उनका कहना था, ‘संक्षेप में इसका मतलब है कि हम दक्षिण कोरिया नहीं होंगे। हम चीन नहीं होंगे। हम ब्राजील हो जाएंगे। हम दक्षिण अफ्रीका बन जाएंगे। हम मध्य आय वर्ग के देश हो जाएंगे जहां गरीबी में जी रहे लोगों की बड़ी संख्या होगी और हम अपराध बढ़ते देखेंगे।’ उन्होंने इससे भी अधिक अनिष्ट सूचक बात यह कही थी, ‘दुनिया के इतिहास में देशों ने मध्य आय के जाल में फंसना किसी भी तरह टाला है लेकिन एक बार इसमें फंस जाने के बाद इससे बाहर निकलने में कोई देश कभी सक्षम नहीं हुआ।’
मार्च, 2020 में अचानक लगाए गए कठोर लॉकडाउन ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर उसी किस्म का ब्रेक लगाया जिस तरह नवंबर, 2016 में नोटबंदी के बाद लगा था। एक अर्थशास्त्री ने इसे इस तरह बताया थाः यह उसी तरह है जैसी खूब तेज गति की स्पोर्ट्स कार के चक्के पर गोली दाग दी जाए। जीएसटी की अपेक्षाएं वैसे ही धूल-धुसरित हो चुकी हैं। उस पर से यह सब।
जो आंकड़े सामने आए हैं, वे और भी बुरे होते अगर कृषि क्षेत्र 3.4 प्रतिशत और सरकार का अपना उपभोग खर्च 16.4 प्रतिशत की दर से न बढ़ा होता। आखिर, खनन में 23.8 प्रतिशत, मैन्युफैक्चरिंग में 39.3, निर्माण में 50.3 और ट्रांसपोर्ट तथा कम्युनिकेशन में 47 प्रतिशत की कमी हो गई। इसी तरह वित्तीय सेवा सेक्टर में 5.3, निजी अंतिम उपभोग खर्च में दिखाए गए निजी उपभोग में 26.7 और निवेश में 47.1 प्रतिशत की कमी रही।
वैसे, जितनी कमी दिखाई जा रही है, स्थिति उससे अधिक बदतर होने की आशंका है। कई लोगों ने सवाल उठाए हैं कि ‘जब लॉकडाउन पूरी तरह था, तब अप्रैल में होटल और हॉस्पिटैलिटी की कमी सिर्फ 47 प्रतिशत किस तरह हो सकती है।’ उनका अंदेशा है कि इस सेक्टर में 80 फीसदी तक की कमी हो गई होगी। भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन का कहना है कि तिमाही आकलन लिस्टेड कॉरपोरेट के कॉरपोरेट डेटा पर आधारित होते हैं। उन्होंने कहा, ‘हमें आशंका है कि बड़ी कंपनियों की तुलना में छोटी कंपनियों ने बदतर किया होगा इसलिए हमें उस दृष्टि से एक अन्य दौर के पुनरीक्षण की अपेक्षा करनी चाहिए। दूसरा पुनरीक्षण तब होगा जब अनौपचारिक सेक्टर का डेटा आएगा और तब वृहत्तर पुनरीक्षण हो सकेगा।’
लेकिन सरकार अपने को मजबूत दिखाने की कोशिश कर रही है। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यम ने ‘भगवान के किए-धरे’ को आगे बढ़ाते हुए कहा कि महामारी ‘डेढ़ सौ साल में एक दफा आती है’ और भारत तथा दुनिया इससे गुजर रही है। उन्होंने दावा किया कि अर्थव्यवस्था की मजबूती का अच्छा संकेतक- रेलवे से माल ढुलाई, पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 95 प्रतिशत तक है। ऊर्जा खपत पिछले साल की तुलना में सिर्फ 1.9 प्रतिशत कम है और ई-वे बिल के जरिये कलेक्शन बढ़ी है। इसका मतलब, ट्रांसपोर्ट का मूवमेंट बढ़ा है। वित्त मंत्रालय में प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल ने भी आशापूर्वक कहा कि भारत एकमात्र देश है जो ब्याज दर में कटौती की हालत में है। उन्होंने संकेत दिए कि और कटौती करने पर मांग और निवेश में गति आएगी।
देशहित के खयाल से, यह उम्मीद करनी चाहिए कि उनकी बातें सही हों। वैसे तो फिलहाल अंधकार ही दिख रहा।(NAVJIVAN)
देश में खेला जा रहा है यह नाटक
देश में आज जिस तरह किसी भी विवाद में महिलाओं को घेरकर उनकी मीडिया-लिचिंग हो रही है, उस पर बहुत कुछ लिखा भी जा रहा है। आज ही इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ में इस पर संपादक सुनील कुमार का कॉलम ‘आजकल’ लिखा गया है। विख्यात फिल्मकार अशोक मिश्र से इस पर बातचीत भी आज के अखबार में जा रही है। ऐसे मौके पर सुशांत राजपूत केस में रिया चक्रवर्ती को जिस तरह घेरा जा रहा है, उससे विख्यात नाटककार विजय तेंदुलकर के एक नाटक की याद आती है। शांतता कोर्ट चालू आहे नाम का यह नाटक खामोश, अदालत जारी है, नाम से हिन्दी में भी हजारों बार खेला गया है। आज के देश के मीडिया ट्रायल के बीच इस नाटक के बारे में पढऩा जरूरी है जो कि समाज की पुरूषवादी सोच की एक तेजाबी मिसाल हैं। यहां का यह अंश हिन्दी की एक प्रमुख वेबसाईट दलल्लनटॉपडॉटकॉम के एक लेख से लिया गया है।
1968 में पहली बार इस नाटक का मंचन हुआ। और तबसे आज तक ये ये नाटक दर्शकों को विचलित करने के अपने सामर्थ्य के साथ प्रासंगिक बना हुआ है। दरअसल ये नाटक महज नाटक नहीं है। एक अकेली स्त्री की जिंदगी में समाज की किस हद तक घुसपैठ होती है और यही समाज कैसे क्रूरता की हद तक असंवेदनशील हो सकता है, इसका दस्तावेज़ है। मज़ाक में शुरू हुई एक कोर्ट की कार्यवाही कैसे एक महिला के लिए मानसिक प्रताडऩा वाला खेल बन जाती है, इसका परत दर परत खुलासा है।
नाटक में मुख्य कैरेक्टर्स के नाम हैं मिस लीला बेणारे, सामंत, सुखात्मे, पोंक्षे, काशीकर। ये सब लोग एक नाटक मंडली के सदस्य हैं। मुंबई से एक छोटे से कस्बे में नाटक करने आ पहुंचे हैं। नाटक के मंचन में अभी समय है। तब तक वक्तगुज़ारी के लिए एक झूठ-मूठ का मुकदमा खेलने का प्लान बनता है। सब राजी हो जाते हैं। मिस बेणारे को आरोपी की भूमिका मिलती है। बाकी पात्रों का चुनाव भी फ़ौरन हो जाता है। सुखात्मे वकील का काला कोट चढ़ा लेते हैं, तो काशीकर जज की कुर्सी पर काबिज़ हो जाते हैं। बाकी सब लोग गवाह वगैरह की भूमिका में घुस जाते हैं। और शुरू होता है नाटक भीतर नाटक।
लीला बेणारे पर आरोप तय होता है। भ्रूण-हत्या का आरोप। लीला बेणारे निश्चिंत है कि ये सब मज़ाक चल रहा है। उसे नहीं पता कि ये सब प्लान कर के हो रहा है। वो सब मजाक में लेती है। केस आगे बढ़ता है। गवाहियां होती है। बेणारे सारी प्रक्रिया को हंसी में उड़ाती हुई चलती है। बाकियों से ये बर्दाश्त नहीं होता। उनका ईगो हर्ट हो जाता है। वो पूरे जोश-ओ-खरोश से मिस बेणारे की व्यक्तिगत जिंदगी के परखच्चे उड़ाने में जुट जाते हैं। उसकी जिंदगी में आ चुके और नहीं आए हुए तमाम मर्दों की चर्चा खुले कोर्ट में होने लगती है। मिस बेणारे को लहूलुहान करने में हर एक शख्स बढ़-चढ़ के हिस्सा लेता है। अपनी जलन, पूर्वाग्रह को हथियार बना कर सब टूट पड़ते है उस पर। एक महिला की पर्सनल लाइफ के चौराहे पर चीथड़े उडाए जाते हैं। खुद को पाक-साफ़ ज़ाहिर करते हुए मिस बेणारे पर जो मन में आए वो इल्ज़ाम लगाए जाते हैं।
जी भर के ‘मज़े लेने के बाद’ अपनी साइड रखने के लिए मिस बेणारे को 10 सेकंड का वक़्त दिया जाता है। पूरी तरह टूट चुकी मिस बेणारे बेजान सी पड़ी रहती है। न्यायाधीश अपना जजमेंट सुनाते हैं। विवाह-संस्था की तारीफ़ करते हुए और मातृत्व के पवित्र होने की ज़रूरत पर जोर देते हुए जज साहब उसका गर्भ नष्ट करने की सज़ा सुनाते हैं।
हिला के रख देने वाले संवाद और दिमाग की नसें झिंझोड़ के रख देने वाला अभिनय इस नाटक को वहां ले गए, जहां भारतीय नाट्य जगत में इसे एवरेस्ट जैसा स्थान हासिल हो गया। अपनी कुंठा में मुब्तिला समाज किस तरह से क्रूर, झूठा, डरपोक और हिंसक होता है, इसका सबूत है ये नाटक। किसी को ध्वस्त करके विकृत सुख प्राप्त करने में ये समाज जिस हद तक सहज है, वो देख कर सिहरन होती है। विजय तेंडुलकर के लिखे और पहले सुलभा देशपांडे और बाद में रेणुका शहाणे की जुबानी सुने गए इन संवादों की बानगी देखिए।
‘मीलॉर्ड, जिंदगी एक महाभयंकर चीज है। इसे फांसी दे देनी चाहिए। जिंदगी से पूछताछ करके उसे नौकरी से निकाल देना चाहिए। इस जि़ंदगी में सिर्फ एक ही चीज़ है जो सर्वमान्य है। शरीर! ये देखिए बीसवीं सदी के सुसंस्कृत मनुष्य के अवशेष! देखिए कैसे हर एक चेहरा जंगली नजर आ रहा है। इनके होठों पर घिसे हुए सुंदर-सुंदर लफ्ज हैं। और अंदर अतृप्त वासना।’
-मुबारक
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के रक्षामंत्री राजनाथसिंह और चीन के रक्षामंत्री वेई फेंगहे की मास्को में दो घंटे बात हुई लेकिन उसका नतीजा क्या निकला ? दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े रहे। फेंगहे कहते रहे कि वे चीन की एक इंच जमीन नहीं छोड़ेंगे और यही बात भारत की जमीन के बारे में राजनाथ भी कहते रहे। दोनों एक-दूसरे पर उत्तेजना फैलाने का आरोप लगाते रहे, फिर भी दोनों सारे मामले को बातचीत से हल करने की इच्छा दोहराते रहे। क्या आपने कभी सोचा कि दोनों देशों के नेता इस मुद्दे पर खोए-खोए-से क्यों लगते हैं ? जहां तक भारत का सवाल है, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में चीन का नाम एक बार भी नहीं लिया।
उन्होंने गलवान घाटी में शहीद हुए सैनिकों को भावभीनी श्रद्धांजलि दी, उन पर हुए हमले की भर्त्सना की लेकिन साथ में यह भी कह दिया कि चीन ने हमारी सीमा में कोई घुसपैठ नहीं की और हमारी किसी चौकी पर कब्जा भी नहीं किया। तो फिर उनसे अब संसद में पूछा जाएगा कि आखिर झगड़ा किस बात का है ? उनसे प्रश्न होगा कि क्या उन्होंने अपने सैनिकों को चीन की सीमा में घुसने का आदेश दिया था ? उन्हें जो मारा गया वह तो चीनी तंबुओं में घुसने पर मारा गया था।
संसद में सरकार को स्पष्ट बताना होगा कि गलवान में हुई मुठभेड़ का सच क्या है ? क्या चीन ने गलवान घाटी में उसी तरह कब्जा कर लिया था, जैसे हमने चुशूल की टेकरियों पर कर लिया है ? चीन कह सकता है कि जैसे आप मानते हैं कि आपके कब्जे से आपने वास्तविक नियंत्रण रेखा का कोई उल्लंघन नहीं किया है, वैसे ही हमने भी गलवान घाटी में कोई सीमा नहीं लांघी है। जाहिर है कि चीन ने अप्रैल माह तक ऐसी कई जगहों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। संसद में विरोधी पूछेंगे कि चीनी जब ऐसी हरकतें कर रहे थे, तब क्या हमारी सरकार सो रही थी ? उसने तत्काल जवाबी कार्रवाई क्यों नहीं की ? हो सकता है कि कब्जे की ये कार्रवाइयां वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथवाले उन इलाकों में हुई हों, जो दोनों तरफ खाली रखे जाते हैं।
दूसरे शब्दों में दोनों देशों के बीच जो झंझट चल रहा है, वह नकली है, तात्कालिक है, आकस्मिक है और स्थानीय है। उसे अब दोनों देश बैठकर सुलझा सकते हैं। जब बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के साथ सीमा-विवादों को कुछ ले-देकर सुलझाया जा सकता है तो चीन के साथ क्यों नहीं सुलझाया जा सकता है ? यदि चीनी रक्षा मंत्री हमारे रक्षामंत्री से बार-बार मिलने का अनुरोध कर सकता है और उनसे मिलने के लिए उनके होटल में आ सकता है तो सारे विवाद को आसानी से हल भी किया जा सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विमलेंदु झा
स्थानीय लोगों की अनभिज्ञता या शासन की शिथिलता का खामियाजा भुगत रहे तथाकथित कंटेनमेंट जोन में रह रहे लोग, आज यह जानना चाहते हैं कि कंटेनमेंट जोन कितने दिनों के लिए लागू किया जाता है। स्थानीय जनप्रतिनिधि (पार्षद, सरपंच, पंच और विधायक) भी इन स्थानों से दूरी बनाकर चल रहे है, वहीं दूसरी ओर कंटेनमैंट जोन के करीब रहने वाले स्थानीय लोग भी उन स्थानों और खास कर लोगों से कन्नी काटते दिखते है। सरकारी प्रावधान के तहत अगर किसी परिवार में कोई कोरोना पॉजिटिव मरीज सामने आता है तो जिस स्थान में वह रहता है उस स्थान की सडक़ को बंद किया जाता है। वहां आवागमन की मनाही होती है, ऐसे में केवल जनप्रतिनिधि और प्रशासनिक अमला ही उस स्थान में अन्न, सब्ज़ी और आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति करने के लिए अधिकृत होते है। लेकिन अलग-अलग स्थानों से शिकायत आ रही है कि उस स्थान को कंटेनमेंट ज़ोन तो बनाया गया है, किन्तु उन्हें आवश्यक वस्तुएं मुहैया कराने के नाम पर केवल खानापूर्ति की जा रही है।
अब सवाल ये उठता है कि यह जो सील करने वाली प्रक्रिया है यह कितने दिन की होगी क्योंकि इस कंटेनमेंट जोन यानी क्षेत्र को सील करने वाली प्रक्रिया के कारण संक्रमित एवं आस पड़ोस के अन्य परिवारों का हर व्यक्ति लगभग अपने घर में कैद हो जाता है। क्षेत्र को सील कर दिए जाने के कारण वहां के रहवासियों को काफी दिन तक अपने क्षेत्र के अंतर्गत रहना पड़ता है और वे लोग काम रोजगार में भी कहीं जा नहीं पाते।
खैर! यहां हम प्रधानमंत्री जी की बात मान लेते है ‘जान है तो जहान है’ मगर सवाल ये उठता है कि लोग आर्थिक रूप से भले ही पिछड़ जाएं, लेकिन उन्हें मूलभूत आवश्यकताओं (भोजन, पानी, साफ-सफाई ‘सेनिटाइजेशन’) की पूर्ति ही अगर ना की गई तो वे किसकी शरण में जाएंगे? प्रशासनिक अधिकारी से शिकायत करने पर वे त्वरित कार्यवाही करने के नाम पर, उन कर्मचारियों को बदलने की कार्यवाही अवश्य करते है, मगर व्यवस्था तो बद से बदतर होती जाती है। ऐसी स्थिति में लोगों की जीवनशैली में काफी प्रतिकूल प्रभाव पडऩा लाजमी है, क्योंकि इस क्षेत्र के लोग अपने घर के अंदर ही खुद को कैद करके रखते हैं जो बहुत जरूरी भी है।
‘एक तो खुजली ऊपर से फोड़ा’ एक व्यंगात्मक वाक्य है, जो इन ज़ोन में लागू होता साफ दिखाई देता है, एक ओर प्रशासन की अनदेखी और दूसरी ओर पड़ोसियों की लानतों का दर्द है, जिसकी छाप शायद लंबे समय तक हमारे समाज में जरूर नजऱ आएगा। हॉलीवुड की फिल्मों में जैसे एक प्रकार के भूत दिखाए जाते है जिन्हें जोंबी कहा जाता है। ये आपके और हमारे जैसे आम लोग होते है जिनकी संक्रमण की वजह से मौत हो जाती है, लेकिन उनका मृत शरीर फिर भी चलता रहता है, और सामने आने वाले हर जिंदा आदमी का खून पीता है और उन्हें भी जोंबी बना देता है। कुछ ऐसा ही कंटेनमेंट जोन के लोगों को समझा जा रहा है।
बस्तर के बेलर गांव के कंटेनमेंट जोन में रह रहे एक निवासी से हमारी बात हुई, उन्होंने बताया कि ‘यदि इस महामारी से बचना है तो कुछ तो त्याग करना ही होगा, लेकिन सवाल यह उठता है कि यह कंटेनमेंट जोन कब से कब तक रहेगा एवं इसके परिपालन में लोगों को किस ढंग से रहना है और क्या क्या सावधानी बरतना है इस पर पूरी जानकारी नहीं दी जा रही है।’ अन्य संक्रमित मरीज ने कहा कि ‘गांव के कुछ लोग कोविड-19 के जो मरीज हैं उनसे काफी दूरी बनाकर चल रहे हैं जो कि बहुत जरूरी भी है लेकिन कुछ लोग अज्ञानता वश इस बीमारी को इतना अछूत बना दिए हैं की वह लोग उनके परछाई से तक दूरी बनाकर चल रहे हैं, मेरा अनुरोध है कि बीमारी को खत्म करे, बीमार को भूखे प्यासे खत्म ना करें।’
हम सभी जानते ही हैं कि कोरोना मरीज मानसिक रूप से काफी परेशान रहता है उसके ऊपर उसके साथ इस तरह का गलत व्यवहार यानी यह कह सकते हैं कि पूरे परिवार को मानसिक प्रताडऩा देता है। संक्रमित को बहुत ही छूत बीमारी मानकर उस मरीज का काफी अपमान भी किया जाता है जिससे उस मरीज को मानसिक ठेस पहुंचती है एवं उसे गांव के जो अच्छे लोग भी होते हैं जो कुछ लोगों के बहकावे में आकर ऐसे मरीजों का अपमान करने से भी बाज नहीं आते। ऐसी सोच रखने वालों के लिए शासन प्रशासन को चाहिए की यह स्थिति किसी के भी साथ घट सकती है इसलिए हर व्यक्ति को सभी के साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाना चाहिए, क्योंकि यह जो कोरोना महामारी है जिस तरीके से अपना पैर पसार रही है इससे लगभग सभी लोग ग्रसित होंगे ही और जो इन लोगों से गलती हो रही है जो संक्रमित लोगों के साथ बुरा व्यवहार कर रहे हैं वही स्थिति इनके साथ भी घट सकती है उस समय इन लोगों के मन में जो दर्द होगा उसका एहसास उन्हें तभी होगा जब वे खुद संक्रमित होंगे इसलिए लोगों को अपनी इस विचारधारा को बदल कर सहयोगात्मक रवैया अपनाना चाहिए।
अधिकांश लोगों को मालूम ही है की विकास खंड लोहंडीगुड़ा से दो पिता-पुत्र कोरोना पॉजिटिव पाए गए इस हेडिंग से अखबारों में एवं सोशल मीडिया में समाचार चला था मैं खुद मीडिया से जुड़ा हुआ व्यक्ति हूं और मेरे साथ मेरा लडक़ा वेदांत झा मेरा कैमरामैन लक्ष्मीधर बघेल भी मेरे ही साथ रहते हैं और हम लोग फील्ड में जाकर लोगों की समस्याओं को सामने लाकर निराकरण करने की पूरी कोशिश करते हैं एवं शासन-प्रशासन तक लोगों की समस्याओं को लेकर जाना अपना कर्तव्य समझते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश हम भी लोहंडीगुड़ा में पॉजिटिव पाए गए और हमारा इलाज जगदलपुर में किया गया मेरा यानी विमलेंदु शेखर झा का इलाज मेडिकल कॉलेज जगदलपुर में किया गया जहां से वर्तमान में मैं पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर अपने गांव बेलर में आ चुका हूं मैं दिनांक 10.08.2020 को जगदलपुर के मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुआ और उसी दिन मेरा लडक़ा वेदांत झा धरमपुरा के पीजी कॉलेज छात्रावास में अपने उपचार हेतु भर्ती हुआ। हम लोगों को पूर्ण स्वस्थ होने के बाद वहां से छुट्टी दे दी गई, जिसके बाद हमें 25 तारीख तक होम क्वारंटाइन में रहने को कहा गया था, जिसे भी हमने पूरे अनुशासन से पालन किया।
बता दें कि 10 अगस्त के बाद बेलर ग्राम पंचायत विकासखंड लोहंडीगुड़ा के खालेपारा को सील कर दिया गया सील करने की तारीख 11.08.2020 थी जो आज दिनांक 06.09.2020 तक कंटेंटमेंट ज़ोन के नाम से सील कर दिया गया है और इस क्षेत्र के लोगों को कहीं भी आने-जाने से रोक दिया गया है। आज दिनांक तक बेलर खालेपारा के लोग खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं एवं कहीं भी काम में नहीं जा पा रहे हैं। यहां तक की अपने खेत को भी देखने नहीं जा पा रहे हैं जिससे भविष्य में उनकी माली हालत पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩा स्वाभाविक है। बेलर से गुदामपारा की ओर जाने वाली सडक़ पूरी तरह सील कर दी गई है और यह बताना भी जरूरी है कि इसी मार्ग पर गांव का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, राशन की दुकान एवं पोस्ट ऑफिस भी है और यह बताना भी जरूरी है कि यह सडक़ लोहंडीगुड़ा विकासखंड और तोकापाल विकासखंड को जोडऩे वाला सबसे निकटतम सडक़ है जिसका भी खामियाजा गांव वालों को एवं दोनों विकासखंड के लोगों को भुगतना पड़ रहा है अब लोग यह चाहते हैं कि जो भी संक्रमित होगा उसके घर को ही सील किया जाए ना कि मुख्य सडक़ों को सील करके लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया जाए।
- अरुण शर्मा
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संपर्क विभाग, गुरुग्राम की तरफ से आयोजित अखंड भारत संकल्प दिवस (इसका चाहे जो भी मतलब होता हो) के उपलक्ष्य में 14 अगस्त को आयोजित वेबिनार में केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग राज्यमंत्री जनरल (रिटायर्ड) वीके सिंह ने आरोप लगाया कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी अहिंसावादी छवि को चमकाने के चक्कर में चीन को तिब्बत सौंप दिया। इससे तिब्बत से सदियों पुराने हमारे रिश्ते बिगड़ गए। इस बारे में हिंदी अखबार दैनिक जागरण की खबर के मुताबिक, अन्य बातों के अलावा उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान केंद्र सरकार चीन के सामने मजबूती के साथ अपना पक्ष रख रही है।
कुछ ही साल पहले उन्होंने जिस राजनीतिक दल में प्रवेश पायाहै, उसके कर्तव्यनिष्ठ सदस्य के तौर पर दिए गए उनके बयान पर मुझे कुछ नहीं कहना है। नेहरू की छवि को बिगाड़ने की भाजपा-आरएसएस की सत्तर साल की विफल कोशिश में वह अपनी भागीदारी कर रहे थे। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि सिंह पूर्व जनरल और भारतीय सेना के प्रमुख रहे हैं, इसलिए मुझे लगा कि वह तिब्बत के सवाल को बेहतर समझते होंगे। लेकिन सिंह के भाषण में तथ्यात्मक गलतियां थीं।
सबसे पहले, जैसा कि सिंह ने दावा किया, तिब्बत कोई आजाद देश नहीं था। इसका किसी देश के साथ राजनयिक संबंध नहीं था, वह विशेषाधिकार जिसका सभी स्वायत्त और स्वतंत्र देश उपयोग करते हैं। तिब्बत का कोई अंतरराष्ट्रीय अस्तित्व नहीं था। 1911 में चीनी सत्ता के पराभव के बाद इसने छोटा-सा वस्तुतः स्वतंत्र दर्जा हासिल कर लिया था। उस वक्त भारत में ब्रिटिश शासन था और उसने ‘औपचारिक चीनी आधित्य के अंतर्गत’ तिब्बत की वस्तुतः स्वतंत्रता की पुष्टि करने की कोशिश की। 1943 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव रखा कि दूसरे देशों के साथ राजनयिक प्रतिनिधित्व के आदान-प्रदान के तिब्बत के अधिकार की अनुशंसा की जानी चाहिए। लेकिन अमेरिकियों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दियाः ’अमेरिकी सरकार इस मत की है कि चीन सरकार ने लंबे समय से तिब्बत पर आधिपत्य का दावा किया है और चीनी संविधान चीनी गणतंत्र के क्षेत्र के घटक वाले क्षेत्रों में तिब्बत को शामिल करता है। इस सरकार ने किसी भी वक्त इन दावों को लेकर कभी भी सवाल नहीं उठाए।’ (इंडियाज चाइना वॉर में नेविले मैक्सवेल द्वारा उद्धृत, 1963)
नेहरू इस स्थिति से अवगत थे जिसे उन्होंने देश के सामने और संसद के बाहर भी बार-बार रखा। उन्होंने कहा थाः ’यह साफ था कि चीन तिब्बत पर अपनी सत्ता स्थापित करेगा। यह सैकड़ों वर्षों से चीन की नीति रही थी और अब जबकि मजबूत चीनी सरकार बन गई है, इस नीति को निस्संदेह अमल में ला दिया गया है। हम इसे किसी भी तरह नहीं रोक सकते थे और निस्संदेह हमारे पास ऐसा प्रयास करने का कोई वैधानिक औचित्य भी नहीं था। हम सिर्फ यह आशा कर सकते थे कि चीनी आधिपत्य के अंतर्गत तिब्बत को स्वायत्तता-जैसी चीज मिल जाए। (1 जुलाई, 1954 को नेहरू का मुख्यमंत्रियों को लिखा पत्र)
सिंह का यह बयान भी असत्य और भ्रामक है कि भारत ने तिब्बत में सेना की तीन कंपनियां रखी हुई थीं और जवाहरलाल नेहरू के कमजोर राजनीतिक संकल्प के कारण हम चीन के सामने खड़े नहीं हो सके। भारतीय सैन्य टुकड़ी निश्चित तौर पर तिब्बत में चीनियों के खिलाफ अपनी सुरक्षा के लिए तैनात नहीं थी। यहां यह स्पष्ट किया जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार को यातुंग और गायन्टेज में अपने व्यापार अधिकारियों को छोटे सैन्य सुरक्षा रखने का अधिकार हासिल था। उन लोगों ने अपने व्यापारिक केंद्रों में संपर्क बनाए रखने के लिए टेलीग्राफ और फोन सेवाओं की भी व्यवस्था की थी। लेकिन ये अधिकार और सुविधाएं ब्रिटेन के चीन के साथ संबंधों के तहत हासिल थे। अपने स्वभाव के अनुरूप नेहरू ने इस बारे में भी बता दिया था। उन्होंने कहा थाः यह जरूर याद किया जाना चाहिए कि ’हमने तिब्बत में कुछ खास विशेषाधिकार हासिल किए थे जिसे ब्रिटेन ने वहां हासिल किया था। इस तरह, प्रभावी तौर पर, हम पुरानी ब्रिटिश सरकार की कुछ विस्तारवादी नीतियों के उत्तराधिकारी थे। हमारे लिए इन सभी विशेषाधिकारों को बनाए रखना संभव नहीं था क्योंकि कोई स्वतंत्र राष्ट्र इस स्थिति को स्वीकार नहीं करता। इसलिए, अपने व्यापार मार्गों की सुरक्षा के लिए तिब्बत के कुछ शहरों में हमारी सेना की छोटी टुकड़ियां थीं। हम वहां इन टुकड़ियों को बनाए रखने में संभवतः सफल नहीं हो सके। हमारा अन्य विशेषाधिकार व्यापार मामलों और संचार को लेकर था।’
जनरल सिंह की एक और टिप्पणी नेहरू को लेकर कृपणता वाली है और यह चीनियों के गुस्से की कीमत पर दलाई लामा को शरण देने के भारत के नेक भाव की अनदेखी भी करती है। जनरल सिंह का कहना है कि तिब्बती क्षेत्र में चीनियों की बढ़त के दौरान तिब्बत की सुरक्षा करने में नेहरू की अनिच्छा ने उनके साथ अपने संबंधों को कमजोर किया। यह कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर सिंह की अज्ञानता ही दिखाता है। जहां तक क्षेत्रीय अधिकारों की बात है, तिब्बती भारत के मित्र कतई नहीं थे। अक्टूबर, 1947 में उन लोगों ने लद्दाख से असम तक बहुत बड़े हिस्से को वापस करने के लिए भारत को औपचारिक तौर से कहा। वैसे, चीन से बड़े खतरे को देखते हुए उन लोगों ने इस मसले पर आगे जोर नहीं दिया। फरवरी, 1951 में ल्हासा में तिब्बती प्रशासन ने यह आरोप लगाते हुए तवांग में भारत की उपस्थिति का विरोध किया कि भारत सरकार इसे ’अपने आप कब्जा कर रही है जबकि यह उसका नहीं है।’ उन्होंने कहा कि इसका उन्हें ’गहरा पछतावा है और वे इसे कतई स्वीकार नहीं कर सकते।’ इससे भी आगे बढ़कर तिब्बतियों ने तवांग से अपनी सेना तत्काल वापस बुलाने की मांग की। नेहरू की सरकार ने तिब्बत के प्रतिरोध की अनदेखी की। भारत तवांग में बना रहा और वहां से तिब्बती प्रशासन को निकाल बाहर किया। इसके साथ ही, ब्रिटिश सरकार को गहरे तक चिंतित किए रहे कथित तिब्बत क्षेत्र के ‘खतरनाक खूंटे’ को अंततः हटा दिया गया और भारत की पूर्वोत्तर सीमा के तौर पर नक्शे की जगह जमीन पर मैकमोहन रेखा को बदल दिया गया। (नेविल मैक्सवेल, इंडियाज चाइनावार, पेज 69, 73)
जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा धक्का पहुंचाया है, वह यह है कि जनरल ने गलत ढंग से दावा किया है कि 7 नवंबर, 1950 को नेहरू को लिखे पत्र में सरदार पटेल ने उन्हें चेतावनी दी थी कि चीन दस से बारह साल के अंदर भारत पर हमला करेगा, जैसा उसने अक्टूबर, 1962 में किया भी और इस तरह पटेल सही साबित हुए। शुरू से आखिर तक सरदार के इस पत्र को पढ़ने पर मैंने पाया कि इस पत्र में कहीं भी लौह पुरुष ने वैसी भविष्यवाणी नहीं की है जैसा कि जनरल सिंह उन्हें कहते हुए बताते हैं। इस चिट्ठी में अपने उत्तरी से लेकर पूर्वोत्तर क्षेत्र तक खतरे के बारे में पटेल ने नेहरू के सामने आम संशय प्रकट किया था जिसके बारे में नेहरू भी जानते थे और इस पर पूरी तवज्जो दी गई। पटेल ने कहीं भी नहीं कहा कि भारत को तिब्बत के मुद्दे पर चीन से युद्ध करना चाहिए जैसा कि कई बार अर्थ निकाला जाता है।
नेहरू सही ही समझते थे कि तिब्बत के मसले पर चीन के साथ युद्ध वैधानिक तौर पर अनौचित्यपूर्ण तो होगा ही, साथ ही यह देश के लिए आर्थिक तौर पर विनाशकारी होगा। इसीलिए उन्होंने अमेरिकी राजदूत लॉय हेंडरसन के इस अस्पष्ट संकेत की अनदेखी कि अगर वह चाहें, तो विदेश मंत्रालय उनकी मदद कर प्रसन्नता अनुभव करेगा। (नेहरू का 1 नवंबर, 1950 को विजयालक्ष्मी को लिखा पत्र) एक लेखक के अनुसार, राष्ट्रपति ट्रूमैन ने तिब्बत की रक्षा के लिए भारत को एयरक्राफ्ट भेजने का प्रस्ताव किया। कोरियाई युद्ध के दौरान चीन को भारत की तरफ से घेरना वाशिंगटन को पसंद हो सकता था; लेकिन अगर यह प्रस्ताव किया गया था, तो भारत ने इस तरह की चढ़ाई के खतरे और निष्फलता को जरूर ही देखा होगा और मनाकर दिया होगा। (नेविल मैक्सवेल, इडियाज चाइनावार, इस टिप्पणी पर पाद टिप्पणी कि क्या भारत ने तिब्बत मसले पर चीन के साथ युद्ध करने पर विचार किया था, पेज 71, 72) तिब्बत मसले पर चीन के साथ 1950 में युद्ध टालना नेहरू के सबसे चतुर निर्णयों में से एक था।
जनरल सिंह ने वेबिनार में यह भी टिप्पणी की कि वर्तमान सरकार चीनियों के खिलाफ दृढ़ता से खड़ी है और हमारे मसले को मजबूती से रख रही है। अगर वर्तमान प्रधानमंत्री 5 मई, 2020 से चीन शब्द जुबान पर लाने में भी अक्षम हैं, तो चीनियों के खिलाफ खड़े होने का क्या मतलब निकाला जा सकता है, तब पूर्व जनरल शायद सही हैं!(navjivan)


