विचार/लेख
-विकास बहुगुणा
‘एक वक्त था, जब मूर्ख होना गाली था. अब बुद्धिजीवी होना गाली है.... बात गाली तक होती तब भी ठीक था. समाज में बुद्धिजीवियों से नफरत इस तरह है कि उन्हें मिटाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं.’
एक व्यंग्य में लिखी गई चर्चित लेखक राकेश कायस्थ की यह बात मौजूदा समय का कड़वा सच है. इन दिनों समाज के एक बड़े तबके में बुद्धिजीवी निंदा और कटाक्ष का विषय हैं. उनके लिए टुकड़े-टुकड़े गैंग और सिकुलर्स जैसे तमाम शब्द गढ़ लिए गए हैं. सोशल मीडिया में उन पर कीचड़ उछाला जाता है. असल जिंदगी में भी उनके मुंह पर कालिख मलने की घटनाएं हो चुकी हैं. उन्हें जेल भेजने की मांग होती है. गोविंद पानसारे और एमएम कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों की तो हत्या तक हो चुकी है.
बुद्धिजीवी समाज की चेतना माने जाते हैं. कहा जाता है कि उनके बिना समाज अंधा हो जाता है. इतिहास में झांकें तो कई बड़े सामाजिक-राजनीतिक बदलावों के उत्प्रेरक और अगुवा बुद्धिजीवी ही रहे हैं. अपने एक लेख में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू लिखते हैं, ‘प्रत्येक महान क्रांति का नेतृत्व बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया. उदाहरण के लिए - फ्रांसीसी क्रांति में रोबेस्पियर और डैंटन, अमेरिकी क्रांति में जेफ़रसन, जेम्स मैडिसन और जॉन एडम्स और रूसी क्रांति में लेनिन.’ वे आगे कहते हैं कि बुद्धिजीवी एक सोशल इंजीनियर होने के अलावा जनमत को दिशा देने और नए विचारों को फैलाने वाला भी होता है जो उन आदर्शों का प्रचार करता है जिनके लिए लोगों को संघर्ष करना चाहिए.’
भारत के संदर्भ में इस बात को और सरल तरीके से समझा जा सकता है. महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे कई बुद्धिजीवियों ने देश की आजादी की लड़ाई को एक नई दिशा दी. स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र का स्वरूप क्या हो, यह तय करने में भी उनकी अहम भूमिका रही. सामाजिक सुधार के मोर्चे पर भी उन्होंने कई असाधारण काम किए. इसके चलते देश-समाज से उन्हें खूब समर्थन और सम्मान भी मिला.
तो फिर ऐसा क्या हुआ कि आज बुद्धिजीवियों के खिलाफ नफरत की आंधी चलती दिख रही है?
इस सवाल के जवाब को समझने की शुरुआत मानव स्वभाव को समझने से की जा सकती है. मनोविज्ञानी कहते हैं कि ज्यादातर लोगों में खुद से ज्यादा तेज दिमाग वाले किसी शख्स के लिए एक सहज ईर्ष्या का भाव रहता ही है. यानी ऐसे लोगों के लिए एक स्वाभाविक नापंसदगी इसलिए भी होती है कि वे बाकी लोगों को हीन महसूस करवाते हैं. यह नापसंदगी अपना हीनताबोध कम करने में इन लोगों की मदद करती है.
लेकिन यह नापसंदगी सामाजिक रूप से इस कदर व्यापक और गहरी कैसे हो जाती है कि बुद्धिजीवियों की जान को ही आफत हो जाए जैसा कि इन दिनों भारत में हो रहा है? इस सवाल के जवाब के लिए दोनों तरफ देखना होगा. बुद्धिजीवियों के खिलाफ नफरत की कुछ वजहें बाहरी हैं तो झोल उनकी खुद की तरफ से भी कम नहीं हैं.
अगर पहली श्रेणी के कारकों को देखें तो पहली और सबसे साफ बात तो यही है कि आज बुद्धिजीवियों के खिलाफ एक तरह का संगठित अभियान चलाया जा रहा है. जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी कहते हैं, ‘सोशल मीडिया पर आप देखेंगे कि कोई बुद्धिजीवी - जिसने अपने जीवन के कई दशक गहन अध्ययन को दिए हैं - कोई बात कहता है तो ट्रोल तुरंत उसके पीछे लग जाते हैं. उसे कुछ भी कह देते हैं. और ये सिलसिला सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े व्यक्तियों तक जाता है.’
कई लोगों के अनुसार इस मामले में स्थिति इसलिए भी इतनी गंभीर है क्योंकि वर्तमान समय में तमाम तरह के विचारों को ही एक गैरजरूरी चीज़ माना जा रहा है. उदाहरण के तौर पर आज मानवता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्यों, भारतीय संस्कृति में मौजूद रहे समावेशी तत्वों आदि से जुड़े विचार न केवल एक बड़े तबके को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं बल्कि इनमें भरोसा रखने वाले और इनकी बात करने वाले लोग भी उन्हें अपने, समाज और देश के दुश्मन या मूर्ख लगते हैं. ‘आज माहौल ऐसा बना दिया गया है जिसमें अनपढ़ता आपका गहना है और पढ़ा-लिखा-समझदार होना आपकी मूर्खता’ हृदयेश जोशी कहते हैं.
इस प्रक्रिया में अक्सर उस सच को संदिग्ध बनाने की कोशिश की जाती है जो बुद्धिजीवियों के विचारों को संदर्भ या आधार देते हैं. जैसा कि अपने एक लेख में वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी कहते हैं, ‘कभी कहा गया था कि बुद्धिजीवी का काम सत्ता से निडर होकर सच बोलना है और अब कहा जा रहा है कि सच क्या है यह बेहद संदिग्ध मामला हो गया है.’ इस वजह से ऐसे सच पर टिके विचार और उन्हें हमारे सामने रखने वाले बुद्धिजीवी भी संदिग्ध लगने लगते हैं. उदाहरण के तौर पर अगर गांधी, नेहरू, संविधान, धर्म की पुरानी मान्यताओं आदि को ही अगर संदिग्ध बना दिया जाए तो अपने विचारों में उन्हें शामिल करने का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा.
इतिहास बताता है कि विचारों और सवालों को खतरा मानने वाली सत्ताएं हमेशा से समाज के लिए एक नई सच्चाई गढ़ने की कोशिश करती रही हैं और फिर इनके आधार पर बुद्धिजीवियों की एक ऐसी तस्वीर पेश की जाती है मानो वे किसी एजेंडे के तहत ही किसी विचारधारा या वर्ग का समर्थन या विरोध करते हैं, सही या गलत के आधार पर नहीं. लेकिन इस आरोप को अगर बुद्धिजीवी वर्ग चाहे तो पश्चिम बंगाल के लोकप्रिय गायक-संगीतकार कबीर सुमन के जरिये नकारने की कोशिश कर सकता है. कभी उन्होंने राज्य में सत्ताधारी सीपीएम की बर्बरताओं का तीखा प्रतिरोध किया था. कबीर सुमन बाद में तृणमूल के सांसद बन गये. फिर उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया.
अपने एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन कहते हैं, ‘लेखक और संस्कृतिकर्मी हमेशा प्रतिपक्ष में ही रह सकते हैं.’ उनके मुताबिक ‘इमरजेंसी में फणीश्वरनाथ रेणु और शिवराम कारंत ने अपने पद्मसम्मान लौटाए. रेणु, नागार्जुन, रघुवंश, हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह जैसे लेखकों, कुमार प्रशांत जैसे गांधीवादी और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों सहित अलग-अलग भाषाओं से जुड़े ढेर सारे प्राध्यापकों और बुद्धिजीवियों ने जेल काटी. यह सिलसिला हमेशा बना रहा है. 2009 में शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ सात लोगों ने अपने घोषित पुरस्कार लेने से इनकार किया.’
लेकिन कुछ समय पहले जब देश में बढ़ती असहिष्णुता का हवाला देकर लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटाए या फिर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी तो केंद्र में सत्तासीन भाजपा द्वारा इसे इस तरह पेश किया गया मानो बुद्धिजीवी हमेशा भाजपा के खिलाफ रहे हों. तब तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना था कि ये लोग दशकों से भाजपा के पीछे पड़े हैं और 2002 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इनकी वैचारिक असहिष्णुता के सबसे ज्यादा शिकार हुए हैं. उधर बुद्धिजीवियों का आरोप है कि चूंकि निष्पक्ष मीडिया और प्रभावी विपक्ष के अभाव को वे लोग अपने विचारों और क्रियाकलापों से भरने की कोशिश कर रहे थे इसलिए सत्ता पक्ष द्वारा येन-केन प्रकारेण उन्हें बदनाम करके अपना रास्ता निष्कंटक करने के प्रयास किये जाते रहे हैं.
यह तो हुई एक पक्ष की बात. लेकिन बहुतों का मानना है कि सवाल दूसरी तरफ भी हैं. यानी मौजूदा हालात का दोष काफी हद तक बुद्धिजीवियों पर भी आता है. यह सही है कि कई बुद्धिजीवी अपनी विद्धता की वजह से सामान्य लोगों को हीनता का अनुभव करा सकते हैं लेकिन बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हो जाती. अपने एक आलेख में शिव विश्वनाथन लिखते हैं कि लेफ्ट लिबरल्स ने भारतीय मध्यवर्ग को उनकी परंपराओं और विश्वासों को लेकर भी शर्मिंदा किया और नीचा दिखाया. उनके धार्मिक होने को लगभग सांप्रदायिक होना करार दे दिया. सरकार बनाने के बाद दक्षिणपंथी नेताओं ने उन्हें इस शर्म से बाहर निकालते हुए यकीन दिलाया कि उनकी परंपरा और विश्वास सर्वश्रेष्ठ हैं. और उनका दिल जीत लिया.
‘बुद्धिजीवियों के साथ दिक्कत ये भी है कि उनमें बहुत हद तक बौद्धिक बेईमानी रही है और इसने लोगों को उन पर हमला करने का मौका दे गया है जो उनसे घृणा करते हैं. मैं आपको इसका एक उदाहरण देता हूं. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने 1989-90 में कश्मीरी पंडितों की हत्या की 215 घटनाओं की जांच की मांग खारिज कर दी. लेकिन भारत के बुद्धिजीवियों ने इस पर कोई विमर्श नहीं किया. बहुतों को तो इसके बारे में मालूम ही नहीं होगा. अब इसकी तुलना 2002 के गुजरात दंगों से कीजिए. 1990 में कश्मीरी पंडितों को अपने घरों से निकाला गया जो बहुत दुखद घटना थी. मुस्लिम कट्टरपंथियों ने यह काम किया. मस्जिदों से ऐलान हुए. ये इस्लाम का एक भद्दा चेहरा था. लेकिन आप उस पर बोलना तक नहीं चाहते’ हृदयेश जोशी कहते हैं.
आरोप यह भी लगते हैं कि बुद्धिजीवियों ने इतिहास लेखन में भी पूरी ईमानदारी नहीं बरती. जैसा कि हृृदयेश जोशी कहते हैं, ‘हम मुस्लिम-दलित एकता की बात करते हैं. जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री थे. उन्होंने विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का फैसला किया था. लेकिन वहां उनके साथ इतना बुरा व्यवहार हुआ, पाकिस्तान की हुकूमत इतनी सांप्रदायिक थी कि वे व्यथित होकर भारत वापस आ गए. लेकिन इन बातों पर ज्यादातर बुद्धिजीवी बात नहीं करते.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘इसी तरह डॉ भीमराव अंबेडकर ने हिंदुओं को कितनी गालियां दीं, इस पर खूब बात होती है लेकिन मुस्लिमों के बारे में उनके क्या विचार थे. अंबेडकर ने उन्हें कितनी फटकार लगाई थी, ये बात बुद्धिजीवी नहीं लिखते.’
दिल्ली विश्वविद्यालय में लंबे समय तक पढ़ा चुके और इन दिनों अशोका यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर दिलीप सिमियन का मानना है कि बुद्धिजीवियों के लिए पैदा हुई यह नफरत असल में एक लंबे अरसे में घटित हुई प्रक्रिया का परिणाम है. एक समय नक्सल आंदोलन से जुड़े रहे प्रोफेसर दिलीप सिमियन कहते हैं, ‘असल में हर तरह के बुद्धिजीवियों ने पक्षपात किया.
पक्षपात का मतलब यह नहीं कि सही-गलत का अंतर करना, या सच्चाई और झूठ का भेद करना. वो तो हर बुद्धिजीवी को करना ही पड़ेगा. लेकिन अगर पहले से ही सामने वाला आदमी पहचान लेता है कि ये बुद्धिजीवी क्या बोलने वाला है. वह क्या उजाले में लाएगा और क्या अंधेरे में रखेगा तो यह बात सही नहीं है. यह बात मैं बड़े से बड़े बुद्धिजीवियों के बारे में कह सकता हूं और कइयों को तो यह अहसास भी नहीं होगा. आप मेरा सम्मान तभी करेंगे जब आप मेरे पास कोई प्रश्न लेकर आएंगे और आपको जिज्ञासा होगी ये जानने की कि मैं क्या कहता हूं. अगर आपको पता ही है कि मैं किस दिशा में क्या कहूंगा तो आप मेरे पास क्यों आएंगे. समस्या यही है.’
हृदयेश जोशी की बात आगे बढ़ाते हुए प्रोफेसर दिलीप सिमियन यह भी कहते हैं कि बुद्धिजीवी असल में जिसे विचारधारा कहते हैं वह उनकी मोहमाया है. क्योंकि धारा तो चलने का नाम है जबकि बुद्धिजीवी जड़ हो जाते हैं. वे कहते हैं, ‘सच्चाई किसी खेमे की संपत्ति नहीं हो सकती. अगर बन जाती है तो इसका मतलब ये है कि आप किसी वजह से सच्चाई का एक हिस्सा छिपा रहे हैं. मैं पिछले 15-20 साल से कश्मीरी पंडितों की बात भी करता रहा हूं. तो मेरे कई साथी कहते हैं कि आप तो प्रतिक्रियावादी ताकतों का साथ दे रहे हो. लेकिन ज्यादती हिंदू के साथ हो या मुसलमान के साथ या फिर किसी भी समुदाय के व्यक्ति के साथ, वह तो ज्यादती ही होती है.’
कई और लोग भी मानते हैं कि भारत के बुद्धिजीवी तबके का एक बड़ा वर्ग बहुत पहले ही खुला दिमाग, निष्पक्षता और दूसरे विचारों के प्रति सहिष्णुता जैसे उन गुणों से दूर हो चुका था जो बुद्धिजीवी होने की जरूरी शर्त होते हैं. अपनी एक टिप्पणी में चर्चित लेखक मिन्हाज मर्चेंट कहते हैं, ‘भाजपा निश्चित रूप से उदारवादी पार्टी नहीं है, लेकिन विपक्ष उससे भी कम उदारवादी है. कांग्रेस को ही देखिए जो उदारवाद के हर सिद्धांत को धता बताती हुई गुणों से ऊपर गांंधी परिवार के प्रति वफादारी को तरजीह देती है. तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा और आरजेडी ने धर्म और जाति को भाजपा की तुलना में ज्यादा बुरी तरह इस्तेमाल किया है.’ वे आगे लिखते हैं कि इसके बावजूद भारत के बुद्धिजीवी इस मामले में अपनी आलोचना में हमेशा एकपक्षीय रहे. यानी उन्होंने धर्म के इस्तेमाल को लेकर भाजपा पर तो सवाल उठाए, लेकिन दूसरी पार्टियों द्वारा किए जा रहे विभिन्न वर्गों के तुष्टिकरण पर चुप्पी साधे रखी.
मिन्हाज मर्चेंट की बात सरसरी तौर पर सही तो लगती है लेकिन इससे जुड़ा एक पहलू और है. ऐसा नहीं है कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग ने दूसरी राजनीतिक पार्टियों के गलत कामों को गलत नहीं कहा. लेकिन ज्यादातर मामले में अपेक्षाकृत हल्के तरीके से ऐसा तब किया गया जब भाजपा पर गंभीर सवाल उठाने से पहले खुद को निष्पक्ष दिखाने की जरूरत महसूस हो रही हो. या फिर ऐसा लग रहा हो कि अब भाजपा के बारे में बहुत लिख-बोल लिया तो थोड़ा कांग्रेस या दूसरी पार्टियों पर भी विमर्श कर लिया जाये.
जानकारों के मुताबिक ऐसा इसलिए हुआ कि भारत में अधिकांश बुद्धिजीवी उस खेमे के हैं जिसे वामपंथ कहा जाता है और जो हिंदुत्व की विचारधारा को सबसे बड़ा खतरा मानता रहा है. मिन्हाज मर्चेंट लिखते हैं, ‘बुद्धिजीवियों का काम बहस का स्तर समृद्ध करना होता है, दूसरी विचारधाराओं से हिसाब बराबर करना नहीं.’ उनके मुताबिक यही वजह है कि लोगों ने बुद्धिजीवियों को गंभीरता से लेना छोड़ दिया.
चर्चित राजनीतिक चिंतक अभय दुबे ने अपनी हालिया किताब ‘हिंदुत्व बनाम ज्ञान की राजनीति’ में बड़े साफ तरीके से इस बारे में लिखा है कि धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले लोग आज हिंदू या बहुसंख्यक विरोधी क्यों दिखते हैं. वे इसका कारण अल्पसंख्यकों के अधिकारों व हिंदू सांप्रदायिकता पर ही ध्यान देने और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की अनदेखी के साथ-साथ धर्मनिरपेक्षता के मामले में कांग्रेस पार्टी के दोगले व्यवहार से मुंह फेर लेने को मानते हैं. अभय दुबे मानते हैं कि अपनी विचारधारा और विरासत के चलते वामपंथी बुद्धिजीवियों संघ परिवार से जुड़े उन तथ्यों को अनदेखा किया जो उन्हें असुविधाजनक लगते थे. उन्होंने संघ और उससे जुड़े संगठनों को सांप्रदायिक, ब्राह्मणवादी और फासीवादी कहा लेकिन इन तथ्यों को अनदेखा किया कि मुसलमानों को अपने से अलग मानने वाले ये संगठन धीरे-धीरे निचले समुदायों को भी मुख्यधारा में प्रवेश देने के काम में लगे हुए हैं. और किस तरह से ये संगठन दूसरों की कमियों को ही अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
बुद्धिजीवियों की यह सीमित दृष्टि तब और स्पष्ट हो जाती है जब हम इस ओर ध्यान देते हैं कि उन्होंने कभी इस बात को नहीं माना कि हिंदू समुदाय कभी इतनी बड़ी संख्या में इस तरह से भी एक हो सकता है कि अकेले ही सत्ता स्थापित करने का कारण बन जाए. उन्हें हमेशा यह लगता रहा कि हमारे समाज में इतनी विभिन्नताएं हैं और हमारी संस्कृति इतनी गंगा-जमुनी रही है कि ऐसा होना लगभग असंभव है. लेकिन ऐसा हुआ तो उसने यह भी साबित कर दिया कि हमारा ज्यादातर बुद्धिजीवी वर्ग जमीनी सच्चाइयों से कितना कटा हुआ है.
लेकिन हमारे बुद्धिजीवी न केवल सच्चाई से दूर हो गये बल्कि कुछ लोगों के मुताबिक भारत में उनके प्रति बढ़ती नाराजगी की वजह उनके विचार और कर्म में बढ़ती दूरी भी है. इसी देश ने महात्मा गांधी को भी देखा है जिनके विचार और कर्म में असाधारण एकरूपता थी. बीबीसी हिंदी पर अपने एक लेख में गांधी दर्शन के अध्येता कुमार प्रशांत कहते हैं, ‘महात्मा गांधी इतिहास के उन थोड़े से लोगों में एक हैं जिन्होंने अपने मन, वचन और कर्म में ऐसी एकरूपता साध रखी थी कि किसी भ्रम या अस्पष्टता की गुंजाइश बची नहीं रहती बशर्ते कि आप ही कुछ मलिन मन से इतिहास के पन्ने न पलट रहे हों.’ यही वजह है कि भारत का जनमानस उनके साथ खड़ा हो गया था.
लेकिन हालिया समय के बुद्धिजीवियों के एक बड़े हिस्से की तस्वीर इसके उलट दिखती है. जैसा कि एनडीटीवी से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘मैंने ऐसे भी बुद्धिजीवी देखे हैं जो जल संरक्षण पर बड़े-बड़े लेख लिखते हैं और रोज अपनी अपनी गाड़ी की धुलाई पर बेतहाशा पानी भी बर्बाद करते हैं. दिन में उन्हें भारत की गरीबी की चिंता सताती है. रात को पार्टियों में उनकी बातचीत अपनी विदेश यात्रा और वहां खरीदे गए लुई वितॉन के पर्स पर केंद्रित होती है.’
वे आगे कहते हैं, ‘फिर भी 2014 तक इन बुद्धिजीवियों का एक आभामंडल हुआ करता था क्योंकि तब तक उस मीडिया का भी इस कदर ध्रुवीकरण नहीं हुआ था जिसमें वे छपा-दिखा करते थे और इससे अपनी ताकत हासिल करते थे. अब तो कुछेक अपवादों को छोड़कर मीडिया सत्ता प्रतिष्ठान के साथ खड़ा दिखता है. इसलिए बुद्धिजीवियों का वह स्पेस काफी कम हो गया है.’ और न केवल स्पेस कम हुआ बल्कि ज्यादातर मीडिया सत्ता या उसकी विचारधारा का विरोध करने पर उनके विरोध में ही खड़ा दिखाई देता है.
भारत में बुद्धिजीवियों के उतार की एक वजह यह भी मानी जा रही है कि बीते कुछ समय के दौरान समाज में हर तरह के विचारों का महत्व घटा है. जैसा कि अशोक वाजपेयी कहते हैं, ‘विचार अपने आप में गौण होता जा रहा है.’ उनके मुताबिक विचार बहुत तेजी से राय में बदल रहा है और मीडिया के असाधारण प्रसार के चलते यह भी माना जाने लगा है कि मीडिया में आये बगैर विचार की प्रासंगिकता अधूरी है. और मीडिया में आने की एक ही शर्त है साफ-साफ इस या उस तरफ होना. ऐसे में ‘मीडिया की तरह अब कई बुद्धिजीवी भी उस चलन का शिकार हो गए हैं जिसमें चीजें सिर्फ श्वेत-श्याम यानी ब्लैक एंड व्हाइट में देखी जाती हैं’ प्रोफेसर दिलीप सिमियन कहते हैं.
मार्कंडेय काटजू तो यह भी मानते हैं कि इन दिनों एक असल तो 10 फर्जी बुद्धिजीवी होते हैं. वे भारत के अधिकांश पत्रकारों और लेखकों को इस श्रेणी में रखते हैं. काटजू लिखते हैं, ‘इनमें से अधिकांश घमंड और दंभ से भरे होते हैं, इनमें विनय का अभाव होता है और ये ख़ुद को बहुत बड़ा समझते हैं. उन्हें ऐतिहासिक प्रक्रियाओं या सामाजिक विकास के नियमों की कोई गहरी समझ नहीं है, लेकिन वे समाज में चारों ओर अपने सतही किताबी ज्ञान और आधी पकी हुई समझ की अकड़ दिखाते फिरते हैं. वे केवल अपने स्वयं के आराम की परवाह करते हैं और जनता के लिए उन्हें कोई वास्तविक प्रेम नहीं है.’
दुनिया का हर समाज प्रश्नवाचकता, जिज्ञासा, असहमति और बहुलता से ही आगे बढ़ता और सशक्त होता रहा है. तो कहा जा सकता है कि बुद्धिजीवियों के प्रति द्वेष का कारण जो भी हो, उससे समाज को आखिर में नुकसान ही होना है. ऐसे में सवाल उठता है कि बुद्धिजीवी अपनी खोई जमीन कैसे हासिल करें. प्रोफेसर दिलीप सिमियन का मानना है इसके लिए बुद्धिजीवियों को आत्ममंथन करके अपनी गलतियों को स्वीकारना होगा, तभी वह खाई पाटी जा सकती है जो उनके और शेष समाज के बीच है. मार्कंडेय काटजू कहते हैं, ‘केवल बुद्धिजीवी ही समाज को सही नेतृत्व दे सकते हैं. लेकिन लोगों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए वर्तमान बुद्धिजीवियों’ को एक दर्दनाक लेकिन आवश्यक प्रक्रिया से गुज़र कर अपनी मानसिकता बदलनी होगी, अन्यथा यह अंधे द्वारा अंधे को रास्ता दिखाना जैसा होगा.’ (satyagrah)
मालदीव की संसद के स्पीकर और पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद ने कहा है कि इंडिया आउट कैंपेन आईएसआईएस सेल का है। नाशीद ने कहा कि इस कैंपेन के तहत मालदीव से भारतीय सैनिकों को हटाने की मांग की जा रही है।
मालदीव में इंडिया आउट कैंपेन हाल के हफ्तों में जोर पकड़ा रहा है और इसे वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी हवा दे रही है। मालदीव की मुख्य विपक्षी पार्टी का कहना है कि भारतीय सैनिकों की मौजूदगी संप्रभुता और स्वतंत्रता के खलिाफ है।
मालदीव में विपक्षी पार्टी की भारत-विरोधी बातों के जवाब में वहां के विदेश मंत्री अब्दुल्ला ने कहा है कि जो लोग मजबूत होते द्विपक्षीय रिश्तों को पचा नहीं पा रहे हैं, वो इस तरह की आलोचना का सहारा ले रहे हैं।
भारत समर्थित एक स्ट्रीट लाइटिंग योजना के उदघाटन के मौके पर विदेश मंत्री ने कहा, ये दोनों देशों के बीच का संबंध है। ये दिलों से दिलों को जोडऩे वाला रिश्ता है। हम इसका आभार प्रकट करते हैं। उनका ये बयान ऐसे वक्त में आया है जब जेल में कैद पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यमीन के नेतृत्व वाली प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव्स-पीपल्स नेशनल कांग्रेस (पीपीएम-पीएनसी) मालदीव की धरती पर विदेशी सेना की मौजदूगी का विरोध कर रही है।
युवाओं के एक समूह की ओर से हाल में किए गए एक विरोध-प्रदर्शन के बाद पीपीएम-पीएनसी ने कहा कि वो पुलिस की कार्रवाई से हैरान हैं और शांतिपूर्ण मोटरबाइक रैली में भेदभावपूर्ण रूप से बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं।
दरअसल, ऐसी अकटलें लगाई जा रही हैं कि हा ढालू द्वीप के हनीमाधू पर भारतीय सेना पहुंच सकती है। इसके अलावा इससे पहले ही मालदीव में अतिरिक्त भारतीय अफसर मौजूद हैं, जो भारतीय सेना की ओर से मालदीव नेशनल डिफेंस फोर्स को उपहार में दिए गए हेलिकॉप्टर ऑपरेट कर रहे हैं।
लेकिन डिफेंस फोर्स के प्रमुख मेजर जनरल अब्दुल्ला शमाल ने जोर देकर कहा है कि मालदीव में कोई विदेशी सुरक्षाबल मौजूद नहीं हैं। पिछले कुछ हफ्तों में मालदीव के कुछ लोगों ने ट्वीटर पर ट्वीट किए और कुछ देर के लिए इस हैशटैग को ट्रेंड भी करवाया।
सत्तारूढ़ पार्टी ने राजनीतिक विपक्षी पर सोशल मीडिया अभियान चलवाने का आरोप लगाया। ये आरोप इस आधार पर भी लगाया है कि यामीन के कार्यकाल के वक्त माले और नई दिल्ली के रिश्तों में खटास आई थी। साथ ही उनकी सरकार पर चीन की तरफ स्पष्ट झुकाव के आरोप भी लगे थे।
चीन एक यहां एक करीबी डिवेलपमेंट पार्टनर और लीडर रहा है। मालदीव चीन से लिए कर्ज के 1.4 अरब डॉलर के लिए फिर से मोलभाव भी कर रहा है। दूसरी ओर राष्ट्रपति सोलेह के सत्ता में आने के बाद से भारत के साथ खासकर डिवलपमेंट पार्टनरशीप महत्वपूर्ण रूप से बढ़ी है।
पिछले महीने भारत ने 50 करोड़ डॉलर के पैकेज की घोषणा की, जिसमें 10 करोड़ डॉलर का अनुदान भी शामिल है। इससे पहले भारत ने 2018 में मालदीव के लिए 80 करोड़ डॉलर की घोषणा की थी।
हालांकि राष्ट्रपति सोलेह की सरकार कई चुनौतियों का सामना कर रही है, जिनमें हाल में खास तौर पर राजनीतिक प्रतिद्वंदी की ओर से की जा रही भारत-विरोधी बातें शामिल है, जिसका वो जवाब दे रहे हैं।
दो साल के कार्यकाल वाला सोलेह प्रशासन बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। पर्यटन पर काफी हद तक निर्भर मालदीव की अर्थव्यवस्था को कोविड-19 महामारी से बड़ा झटका लगा है।
मालदीव कोविड-19 से बिगड़े हालात को संभालने की कोशिश कर रहा है और भारत ने उनकी मदद के लिए 25 करोड़ डॉलर की विशेष आर्थिक सहायता की घोषणा की है। यूएनडीपी के मुताबिक, मालदीव एशिया क्षेत्र और संभावित रूप से दुनिया भर में कोविड-19 से सबसे ज्यादा प्रभाव होने वाले देशों में शामिल है।
अपने ताजा अनुमान में एशियन डिवेलपमेंट बैंक ने कहा कि मालदीव का आउटपुट 2020 में एक चौथाई से ज्यादा सिकुड़ सकता है। जीडीपी आंकड़ों को लेकर ये सबसे चिंताजनक अनुमान है। मालदीव में अब तक 9,000 से ज़्यादा मामले और 33 मौतें दर्ज की गई हैं।
इस बीच कुछ लोगों को डर है कि सत्ताधारी मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) के भीतर भी तनाव पनप रहा है। ये तनाव राष्ट्रपति सोलेह और स्पीकर और पूर्व राष्ट्रपति नशीद के बीच होने की बात कही जा रही है, जो एक गंभीर चुनौती पैदा कर सकता है। खासकर जब स्पीकर नशीद ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर कुछ मंत्रियों को हटाए जाने की मांग की है। माले में मौजूद एक सरकार के सांसद ने द हिंदू अखबार से पहचान छिपाने की शर्त पर बात की और कहा, स्पीकर एक संसदीय व्यवस्था पर भी जोर दे रहे हैं।
सरकार के भीतर ऐसी चिंताएं है कि उनका ये कदम राष्ट्रपति को चुनौती दे सकता है, जो गठबंधन सरकार के साथ मिलकर काम करने की कोशिश कर रहे हैं।
सांसद ने ये भी कहा, अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हो या लोकतंत्र के मोर्चे पर, हमारी सरकार अब तक बहुत कुछ नहीं कर पाई है और महामारी ने इस स्थिति को और बदतर कर दिया है। इस हालात में अंदरूनी तनाव और नुकसान करेगा। (bbc.com/hindi)
- अंकुर जैन
भारतीय राजनीति में रिटायरमेंट की कोई उम्र नहीं होती. लेकिन अब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 70 बरस के हो गए हैं तो सभी निगाहें इस पर होंगी कि वो यहां से आगे क्या रुख़ लेंगे और उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा.
अगले कुछ वर्ष पीएम मोदी की विरासत के लिए बेहद महत्वपूर्ण होंगे क्योंकि भारतीय जनता पार्टी ने अपने नेताओं के लिए स्वैच्छिक सेनानिवृति की उम्र 75 वर्ष तय की है. इसका मतलब ये है कि प्रधानमंत्री मोदी के पास अभी पाँच वर्ष और हैं. पीएम मोदी के पास साल 2024 के आम चुनाव के पहले भी चार साल हैं.
लेकिन 70 वर्ष की उम्र में प्रधानमंत्री के सपनों के समक्ष तीन महत्वपूर्ण चीज़ें हैं: अर्थव्यवस्था, विदेश नीति और उनकी राजनीतिक शैली.
नरेंद्र मोदी शासन के बीते छह सालों के दौरान उनके विरोधियों में उनके प्रति असंतोष और बढ़ा है, भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट आई है, सत्ता का ध्रुवीकरण और केंद्रीकरण हुआ है.
हालांकि बहुत से लोग पीएम मोदी शासन करने की शैली का समर्थन करते हुए ये मानते हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार को काबू में करने की कोशिश की है, जिसकी वजह से सरकारी मदद का लाभ ग़रीबों और असहाय लोगों तक पहुंच रहा है.
अमरीकी चुनाव पर निगाहें
वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीनी सैनिकों के जमावड़े के मद्देनज़र पीएम मोदी की असली परीक्षा उनकी विदेश नीति होगी.
साल 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी और शी ज़िनपिंग 18 बार मिले चुके हैं लेकिन ऐसा लगता है कि यह रिश्ता 'हैंडशेक' से आगे नहीं बढ़ पाया.
बीजेपी की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति के सदस्य शेषाद्री चारी कहते हैं कि प्रधानमंत्री को 'ऑउट ऑफ़ द बॉक्स' (लीक से हटकर) सोचना होगा, विदेशी व्यापार पर फिर से बातचीत करनी होगी, उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था के साथ संतुलन के लिए नई रणनीति बनानी होगी और उन्हें ये सब भारत की सामरिक स्वायत्तता को प्रभावित किए बगैर करना होगा.
विदेश नीति के विशेषज्ञ और संघ प्रचारक चारी का मानना है कि कोरोना वायरस महामारी के बाद प्रधानमंत्री के सामने विदेश नीति को लेकर कई चुनौतियां हैं.
वो कहते हैं, "2014 से ही प्रधानमंत्री ने 'नेबरहुड फर्स्ट' की विदेश नीति को तरजीह दी है. लेकिन छह साल बाद बदलती हुई ' जियो पॉलिटिक्स' से नई चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं. अमरीकी चुनाव के नतीजे, चीन के साथ अमरीका के व्यापार, भारत के ईरान के साथ रिश्ते और रूस से हमारा रक्षा आयात तय करेंगे. इन सब से ऊपर चीन के साथ प्रतिस्पर्धा और आर्थिक विषमता को कम करने के लिए इस क्षेत्र के देशों के साथ हमारा व्यापार भी अमरीकी चुनाव से ही जुड़ा है."
इन चुनौतियों के लिए तैयार रहें प्रधानमंत्री
अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिंदू' में राष्ट्रीय और कूटनीतिक मामलों की संपादक सुहासिनी हैदर का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी के सामने एलएसी पर चीनी सैनिकों की मौजूदगी तात्कालिक चुनौती है और इसके अलावा कोरोना संकट से उपजी अन्य चुनौतियाँ भी हैं.
वो कहती हैं, "कोरोना संकट के बाद पूरी दुनिया में वैश्वीकरण विरोधी और संरक्षणवादी विचारधारा उफ़ान पर है. ऐसे हालात में प्रवासी भारतीयों के लिए रोज़गार के मौक़े तेज़ी से कम हो रहे हैं. आने वाले वक़्त में अमरीका अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को हटा सकता है. भारत को इसके लिए और पड़ोस में तालिबान के मुख्यधारा में आने की संभावित स्थिति के लिए तैयार रहना होगा."
नरेंद्र मोदी को आज दुनिया जैसे देखती है, उसके लिए उनकी टीम यानी बीजेपी सदस्यों और पीआर एजेंसियों ने बरसों तक काम किया है.
हाँलाकि 2002 के गुजरात दंगों के बाद नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए), नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजन्स (एनआरसी) और जम्मू-कश्मीर को ख़ास दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद-370 को निरस्त किए जाने से पीएम मोदी की वैश्विक छवि को धक्का लगा है.
सुहासिनी कहती हैं, "मोदी सरकार के सामने इसकी घरेलू नीतियों से उपजी चुनौतियाँ अब भी मुंह बाए खड़ी हैं. मसलन, जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के बाद पड़ोसी देशों की प्रतिक्रियाएँ, सीएए और एनआरसी जैसे फ़ैसले."
पैसा बोलता है
नरेंद्र मोदी जब सत्ता में आए तब भारत में यूपीए विरोधी लहर थी और उसी लहर की सवारी कर उन्हें जीत हासिल हुए.
उन्होंने चुनावों से आर्थिक मोर्चे पर पहले यूपीए सरकार की नाकामियाँ गिनाई थीं. लेकिन ख़ुद पीएम मोदी ने जिन 'अच्छे दिनों' का वादा किया था, वो काफ़ी दूर मालूम पड़ते हैं.
विपक्षी दल पीएम मोदी और उनकी नीतियों को रोज़गार-विरोधी बताते हैं. प्रधानमंत्री के लिए निढाल होती अर्थव्यवस्था और लगातार उछाल मारती बेरोज़गारी जैसी बीमारियों के लिए वैक्सीन ढूँढना सबसे पहली ज़रूरत है.
हाँलाकि राज्यसभा सांसद, लेखक और अर्थशास्त्री स्वपन दासगुप्ता को लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं और वो सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
वो कहते हैं, "अभी जैसी स्थिति है, वैसी पहले कभी नहीं रही और हमारी अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा अभी सामान्य हालत में नहीं है. नरेंद्र मोदी बाज़ार में पैसा डालने में कामयाब रहे हैं. जनता के बीच यह मत है कि प्रधानमंत्री ने अच्छा काम किया है.''
''उन्होंने लोगों को यक़ीन दिलाया है कि कोरोना संकट के दौरान भी 'आपदा में अवसर' है. लेकिन किसी के पास कोरोना संकट से निबटने का पक्का उपाय नहीं है. न तो किसी के पास इसका प्रभावी चिकित्सकीय निदान है और न ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का उपाय."
दासगुप्ता मानते हैं कि पीएम मोदी की 'आत्मनिर्भर भारत' जैसी नीतियाँ, वैश्विक बाज़ार का रास्ता बंद किए बिना देश को सही दिशा में रोशनी दिखाती हैं.
हाँलाकि वो इस बात से भी सहमत हैं कि प्रधानमंत्री के लिए लोगों का सरकार में भरोसा बनाए रखना और उन पर रोजी-रोटी की चिंता हावी न होने देना, एक चुनौती साबित होगी.

लोकप्रियता के सहारे कब तक?
आर्थिक पत्रकार और 'द लॉस्ट डिकेड' किताब की लेखिका पूजा मेहरा का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने बढ़ती आर्थिक कठिनाइयों की ज़िम्मेदारी लेने से मुँह मोड़ लिया है.
वो कहती हैं, "सरकार के लिए आय के रास्ते बंद हो गए हैं और इसकी वजह से जनवादी नीतियों के लिए आने वाला उसका ख़र्च भी सीमित हो गया है. मोदी सरकार के लिए यह प्राथमिक चुनौती होगी.''
''सरकार समय पर भुगतान करने और कर्ज़ चुकाने में असफल हो रही है. इस वजह से भी अर्थव्यवस्था का बोझ कम नहीं हो पा रहा है. सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाला डीए रोका जा चुका है. क्या एक ऐसा वक़्त आएगा जब सरकार अपने कर्मचारियों को वेतन और पेंशन भी नहीं दे पाएगी?"
लेकिन क्या आगामी बिहार और पश्चिम बंगाल चुनाव में मतदाताओं के लिए अर्थव्यवस्था मुद्दा बन पाएगी?
इसका जवाब पूजा मेहरा 'हाँ' में देती हैं. वो कहती हैं, "नौकरियों और रोज़गार के पर्याप्त अवसर न मिलने के बावजूद वोटरों का भरोसा पीएम मोदी में बना रहा है. लेकिन अब सवाल है कि प्रधानमंत्री अपनी लोकप्रियता का सहारा कब तक ले सकते हैं."
प्रधानमंत्री को करीब से जानने वालों का दावा है कि कूटनीति और राजनीति में वो माहिर हैं लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़े फ़ैसलों के लिए वो अपने सलाहकारों पर भरोसा करते हैं. पूजा मेहरा जैसे अन्य कई विशेषज्ञों का मानना है कि प्रधानमंत्री के यही सलाहकार समस्या की जड़ हैं.
वो कहती हैं, "पीएम मोदी पेशेवर अर्थशास्त्रियों में कम भरोसा रखते हैं. उन्होंने अपने ऐसे सलाहकारों की सुनी जिन्होंने उन्हें नोटबंदी जैसे असामान्य प्रयोग करने को कहा. इन प्रयोगों से अर्थव्यवस्था को फ़ायदा कम, नुक़सान ज़्यादा हुआ है."
राजनीति की पिच
नरेंद्र मोदी ने 1980 के आख़िर में सक्रिय राजनीति में कदम रखा था. ऐसा लगता है कि तब से लेकर अब तक उन्होंने अपने लिए जो योजनाएँ बनाईं, वो उनके पक्ष में साबित होती रहीं. 70 वर्षीय नरेंद्र मोदी 50 वर्षीय राहुल गाँधी की तुलना में राजनीतिक रूप से कई कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं. लेकिन उनका भविष्य कैसा होगा?
अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' में डेप्युटी एडिटर रहीं सीमा चिश्ती कहती हैं, "लोकतंत्र में लोकप्रिय नेताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती तब आती है जब वो किसी शख़्स या संगठन को चुनौती नहीं मानते. ये स्थिति उन्हें हरा देती है. मुखर विपक्ष न सिर्फ़ लोकतंत्र के लिए अच्छा होता है बल्कि उनके लिए भी फ़ायदेमंद होता है जो सत्ता में काबिज हैं. इससे वो नियंत्रण में रहते हैं."
प्रधानमंत्री मोदी आने वाले कुछ वर्षों में अपनी विरासत बनाने के काम में जुटे रहेंगे.
शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी ने हाल ही में कहा था कि दिल्ली के राजपथ का पुनर्निमाण पीएम मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट है. इस प्रोजेक्ट के डिज़ाइन का जिम्मा अहमदाबाद के आर्किटेक्ट बिमल पटेल को दिया गया है. बिमल पटेल उस वक़्त से प्रधानमंत्री के करीबी रहे हैं जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे.
लेकिन पीएम मोदी रिटायर होने के बाद भारत और दुनिया की यादों में किस रूप में रहना चाहते हैं? उनके सामने कौन सी राजनीतिक चुनौतियाँ हैं?
इस बारे में सीमा चिश्ती कहती हैं, "मोदी हिंदुत्व की विचारधारा में पूरा भरोसा रखते हैं. लेकिन एक वैश्विक नेता के तौर पर वो महात्मा गाँधी को याद करते हैं और समावेशी भारत की बात करते हैं. इन दोनों में घोर विरोधाभास है. देश में वो सबको एक विचारधारा के भीतर लाना चाहते हैं लेकिन विदेश में संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का दावा करते हैं."

'प्रधानमंत्री के सामने कोई चुनौती नहीं'
वहीं, 'इंडिया टुडे' के उप संपादक उदय महुरकर का मानना है कि जब तक कांग्रेस की छवि नहीं बदलती, प्रधानमंत्री मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं होगी.
वो कहते हैं, "जब तक कांग्रेस अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण में जुटी रहेगी, पीएम मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं होगा. आम जनता के मन में मोदी की छवि एक ईमानदार और मज़बूत नेता की है."
महुरकर के मुताबिक़, "मोदी सरकार ने जिस गति से अपने वादे पूरे किए हैं, वो प्रभावशाली हैं. ज़्यादातर लोगों को, ख़ासकर ग्रामीण लोगों को उनकी योजनाओं का फ़ायदा मिला है. मोदी के आलोचका ऐसा दिखाते हैं कि उनके सामने कड़ी चुनौतियाँ हैं लेकिन असल में उनके सामने कोई चुनौती नहीं है. कोरोना संकट के बाद पीएम मोदी ज़्यादा मज़बूत होकर उभरेंगे."
लेकिन अपने 70वें जन्मदिन पर प्रधानमंत्री क्या चाहेंगे? ज़्यादा मज़बूत मोदी, वैश्विक मोदी, ज़्यादा हिंदूवादी मोदी, ज़्यादा स्वीकार्य मोदी या फिर ये सभी?(bbc)
- Shweta Chauhan
सभी देश विकास की होड़ में इस कदर मसरूफ़ है कि उन्हें पर्यावरण और जैव विवधता के सरंक्षण में कोई दिलचस्पी नहीं रही है। भारत में विवादित पर्यावरण प्रभाव आंकलन 2020 का मसौदा भी इन्हीं उदाहरणों में से एक है जिससे पर्यावरण के प्रति हमारी चिंता साफ़ ज़ाहिर होती है। अपने आप को विकसित देशों की कतार में लाने के लिए जैव विविधता को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया गया है। इसकी वजह से पशु पक्षियों की कई प्रजातियां या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने की कगार पर आ गई हैं। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2020 में ये चौंकाने वाला खुलासा हुआ है।
दरअसल, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के द्विवार्षिक प्रकाशन के तेरहवें संस्करण में लिविंग प्लैनेट इंडेक्स (एलपीआई) के माध्यम से प्राकृतिक स्थिति का आंकलन किया गया है। लीविंग प्लैनेट इंडेक्स के मुताबिक 1970-2016 के बीच धरती पर रहने वाले जीव जंतुओं की आबादी में करीब 68 फीसद की गिरावट देखी गई है। इनमें हवा, पानी और ज़मीन पर रहने वाले सभी छोटे और बड़े जीव शामिल हैं। इन आंकड़ों से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इंसान प्रकृति पर किस तरह के ज़ुल्म ढा रहा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक बीते पांच दशकों की विकास की लड़ाई में करीब 10 में से 7 जैव विविधता की प्रजातियां खत्म हो चुकी हैं। वहीं, ताज़े पानी में रहने वाली करीब 84 फीसद प्रजातियों में कमी आई है। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के मुताबिक जंगली जानवरों की संख्या तेज़ी से घट रही है क्योंकि प्रकृति के प्रति इंसानों की कठोरता समय के साथ बढ़ती जा रही है।
बात अगर हम भारत में इन हालातों की बात करें तो डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की प्रोग्राम डायरेक्टर सेजल वोराह के मुताबिक इस बारे में भारत की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2020 के मुताबिक भारत में 12 फीसद स्तनधारी जीव और 3 फीसद पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस बड़े बदलाव की वजह से ही कोविड-19 जैसे जानलेवा वायरस पैदा हो रहे हैं।
वन्यजीवों की आबादी में गिरावट का सीधा मतलब यह है कि हमारी धरती हमें चेतावनी दे रही है कि हमारा तंत्र पूरी तरह से फेल हो रहा है।
लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2020 के मुताबिक दक्षिण अमेरिका और केरेबियन क्षेत्र में करीब 94 फीसद तक जैव विविधता में कमी आई है। वहीं एशिया प्रशांत क्षेत्र में करीब 45 फीसद तक इसमें गिरावट दर्ज की गई। इस रिपोर्ट के अनुसार ताज़े पानी में रहने वाली तीन प्रजातियों में से एक प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। भारत के संदर्भ में भी यह स्थिति भयंकर है। सेजल वोराह के मुताबिक देश में वर्ष 2030 तक पानी की मांग उसकी पूर्ति के हिसाब से दोगुनी हो जाएगी। 20 में से 14 नदियों के तट सिकुड़ रहे हैं। उनके मुताबिक भारत के एक तिहाई नम भूमि वाले क्षेत्र बीते चार दशकों के दौरान खत्म हो चुके हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि साल 2018 में आए चक्रवाती तूफानों की वजह से दक्षिणी अरब प्रायद्वीप में जबरदस्त बारिश देखने को मिली थी और यही बाद में टिड्डी दलों के प्रजनन स्थल बने। उसी साल गर्मियों में जबरदस्त लू चली और भारत, पाकिस्तान के कुछ इलाकों को सूखे की मार भी झेलनी पड़ी थी। अभी हाल में ही भारत के कई राज्यों में टिड्डी दलों के आक्रमण की खबर भी बेहद चर्चा में रही थी जिससे किसानों की फसल को खासा नुकसान पहुंचा है।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के महानिदेशक मैक्रो लैम्बरतिनी के मुताबिक यह रिपोर्ट इस बात की ओर इशारा करती है कि इंसान ने प्रकृति से खिलवाड़ कर खुद पर और इस धरती पर रहने वाले असख्ंय जीव-जंतुओं के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। उन्होंने कहा कि हम सामने आए दिन इन सबूतों की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। वन्यजीवों की आबादी में गिरावट का सीधा मतलब यह है कि हमारी धरती हमें चेतावनी दे रही है कि हमारा तंत्र पूरी तरह से फेल हो रहा है। समुद्रों और नदियों की मछलियों से लेकर, मधुमक्खियों तक जो हमारी फसलों के उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं, वे अब नष्ट हो रही हैं। वन्यजीवों में कमी होना सीधे तौर पर मानव के पोषण, खाद्यान्न सुरक्षा और करोड़ों लोगों की आजीविका पर घातक प्रभाव डालता है।
जैव विविधता और पानी के संकट को जलपुरुष डॉक्टर राजेंद्र सिंह इससे कहीं अधिक बड़ी समस्या मानते हैं। उनके मुताबिक भारत के लगभग 365 जिलों में पेयजल उपलब्ध नहीं है। 190 जिले बाढ़ की समस्या से जूझ रहे है। उनका कहना है कि यदि यही हालात रहे तो आने वाले सालों में यूरोप, अफ्रीका और सेंट्रल एशिया में पानी को लेकर चिंता बढ़ती जाएगी। उनके मुताबिक यूरोप की तरफ रुख करने वाली अफ्रीकी या एशियाई लोगों को वहां के लोग ‘क्लाइमेटिक रिफ्यूजी’ कहने लगे हैं। जिसका मतलब है कि जहां से ये लोग आए हैं वहां पर कई तरह का प्राकृतिक संकट है। इस पलायन की वजह से यूरोप का परिदृश्य बदल रहा है। वहीं, पहले अमेज़न और अब कैलिफ़ोर्निया के जंगलों में लगी आग, अम्फान, निसर्ग, क्रिस्टबॉल चक्रवात, आए दिन भूकंप की घटनाएं कई जगहों पर भारी तबाही मचा चुकी हैं लेकिन ये सारी तबाही इंसानों की विकास की होड़ के कारण ही है जिसका खामियाज़ा आज पूरी दुनिया भुगत रही है।
हालांकि, इस बुरे दौर में कुछ अच्छी ख़बरें भी सुनने को मिली क्योंकि कोरोना वायरस के कारण लगे लॉकडाउन से हमारी प्रकृति इंसानों के घरों में कैद होने के बाद अपनी मरम्मत में जुट गई। पंजाब के जालंधर से ऐसी तस्वीरें साझा की जिनमें वहां से लोगों को हिमाचल प्रदेश में स्थित धौलाधार पर्वत श्रृंखला की चोटियां दिख रही हैं। प्रदूषण कम होने की वजह से लगभग पूरा देश इस तरह का नीला आसमान देख पा रहा था। दिल्ली से होकर बहने वाली यमुना नदी को इतना साफ देख कर लोग काफी हैरान थे। इस नदी को साफ करने की कोशिश में सालों से सरकारों ने कितनी ही योजनाएं और समितियां बनाईं और कितना ही धन खर्च किया लेकिन ऐसे नतीजे कभी नहीं दिखे जो लॉकडाउन के दौरान सामने आए हैं। इसी के साथ कई जानवर भी बिना डर के सड़कों पर भ्रमण करते नज़र आए। लेकिन अब डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की यह नयी रिपोर्ट इशारा करती है कि हम इंसानों के कारण प्रकृति का कितना दोहन हो रहा है। इस रिपोर्ट में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि अगर इस संबंध में तुरंत कदम उठाए जाए तो जंगल का इलाका बढ़ सकता है। साथ ही अगर प्रकृति का संरक्षण करना है तो हमें उर्जा पैदा करने के तरीकों को भी बदलना होगा और समुद्र को प्रदूषण से बचाना होगा।
(यह लेख पहले फेमिनिज्म इन इंडिया की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है.)
- Eesha
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले पर अभिनेत्री कंगना रनौत शुरू से ही काफ़ी मुखर रही हैं। मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर बेहद आपत्तिजनक और विवादित बयान देने के साथ-साथ उन्होंने बॉलीवुड के कई अभिनेता और अभिनेत्रियों पर गंभीर आरोप लगाए हैं। साथ ही उन्होंने यह दावा किया है कि वह फ़िल्मी दुनिया के कई बड़े राज़ जानती हैं। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद कंगना ने कई वीडियो जारी किए जहां उन्होंने कई आपत्तिजनक बयान दिए। अपने एक ट्वीट में उन्होंने यह तक कहा था कि उन्हें मुंबई और ‘पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर’ में कोई फ़र्क नज़र नहीं आ रहा।
कंगना रनौत के इस बयान की कठोर निंदा हुई। कई लोगों का कहना रहा कि इस तरह उन्होंने मुंबई शहर का अपमान किया है। महाराष्ट्र सरकार के प्रवक्ता संजय राउत ने भी कंगना की बातों पर आपत्ति जताई और उनके लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। कंगना ने ट्विटर पर यह कहा कि उन्हें खास सुरक्षा की ज़रूरत है क्योंकि वे मुंबई पुलिस और सरकार पर भरोसा नहीं कर सकतीं, जिसके बाद केंद्र सरकार ने उनके लिए ‘वाई-प्लस’ सुरक्षा के प्रबंध के लिए अनुमति दी। ट्विटर पर कंगना ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को धन्यवाद दिया है और यह कहा है कि अब कोई ‘फ़ासीवादी’ किसी देशभक्त की आवाज़ नहीं दबा पाएगा।
हाल ही में मुंबई की सड़कों पर एक कलाकार ने ‘वॉक ऑफ़ शेम’ नाम की ‘स्ट्रीट आर्ट’ पेंटिंग भी बनाई थी, जिसमें उन सभी लोगों के नाम दिए गए जो सुशांत की मौत को सनसनीखेज बनाकर सुर्खियां बटोर रहे हैं। कई राजनेताओं और पत्रकारों के साथ इसमें कंगना का भी नाम था। कंगना रनौत ने इस पर यह प्रतिक्रिया दी कि उनका चरित्र हनन किया जा रहा है, जिसकी वजह से वे अब मुंबई में सुरक्षित महसूस नहीं कर रहीं। कला, ख़ासकर स्ट्रीट आर्ट या ग्रैफिटी, समकालीन परिस्थितियों के बारे में कलाकार के विचार व्यक्त करने और विरोध प्रकट करने का एक साधन मात्र है। ‘वॉक ऑफ़ शेम’ चित्रकला के निर्माता ने भी इसके माध्यम से कंगना रनौत जैसे लोगों द्वारा सुशांत की मृत्यु पर पब्लिसिटी लूटने पर आपत्ति जताई है। इसमें कोई अश्लीलता नहीं थी, न ही किसी तरह की हिंसात्मक भाषा का प्रयोग किया गया। कंगना को किसी धमकी या शारीरिक और मानसिक हमले का भी सामना नहीं करना पड़ा है। सिर्फ़ निंदा और आलोचना से बचने के लिए एक व्यक्ति को सरकार से सुरक्षा की मांग करनी पड़ी यह सोचकर आश्चचर्य होता है। ऐसे में यह सवाल पूछना लाज़मी है कि कंगना को इतने ऊंचे दर्जे की सिक्योरिटी क्यों दी जा रही है?
‘वाई-प्लस’ सिक्योरिटी फोर्स 11 से 22 सुरक्षा कर्मियों से बना होता है, जिनमें से एक या दो कमांडो भी होते हैं। कंगना रनौत की सुरक्षा के लिए जिन्हें तैनात किया गया है, वे सब सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स यानी सीआरपीएफ़ के जवान हैं। इससे पहले कभी किसी बॉलीवुड कलाकार की निजी सुरक्षा के लिए अर्धसैनिक बलों की ज़रूरत नहीं पड़ी है। आमतौर पर इस तरह की सुरक्षा मंत्रियों और विदेशी अतिथियों को दी जाती है। वह भी यह तय करने के बाद कि उन्हें किस तरह का खतरा होने की संभावना है।
देशभर में ऐसी हज़ारों औरतें हैं जिनके पास कंगना रनौत की तरह विशेषाधिकार नहीं हैं और न वे संभ्रांत हैं, जिनके लिए उनकी रोज़ की ज़िंदगी एक संघर्ष से कम नहीं है।
जहां लगभग हर सेलेब्रिटी के पास उसके निजी बॉडीगार्ड्स होते हैं, क्या सचमुच एक अभिनेत्री की सुरक्षा के लिए कमांडो और सीआरपीएफ तैनात करने की ज़रूरत है? इससे भी ज़रूरी सवाल यह है कि क्या देश की बाकी औरतों को इसकी आधी सिक्योरिटी भी मिलती है? कंगना रनौत को वह सिक्योरिटी दी गई है जो पूरे देश में सिर्फ़ 15 लोगों के पास है। देशभर में ऐसी लाखों औरतें हैं जिनके पास कंगना रनौत की तरह विशेषाधिकार नहीं हैं और न वे सभ्रांत हैं, जिनके लिए उनकी रोज़ की ज़िंदगी एक संघर्ष से कम नहीं है। ‘वाई-प्लस’ तो छोड़ो, क्या सरकार उन्हें न्यूनतम सुरक्षा और संसाधन दिलाने में सक्षम रही है?
हमारे देश में औरतों की एक बड़ी संख्या अपने ही घरों में सुरक्षित नहीं हैं। इन औरतों के लिए शोषण, बलात्कार, हिंसा हर रोज़ की बात है और कई क्षेत्रों में सारी ज़िंदगी अपने उत्पीड़कों के साथ गुज़ारनी पड़ती है क्योंकि कहीं और जाने का विकल्प उनके पास नहीं रहता। कानून व्यवस्था भी उनका साथ नहीं देती और कई बार उन्हें अपने ही शोषण के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। ऐसे में एक संभ्रांत सेलेब्रिटी को अगर ‘वाई-प्लस’ सिक्योरिटी सिर्फ़ आहत भावनाओं के आधार पर दी जाए तो यह हर उस औरत के साथ नाइंसाफी है जिसे हिंसा और उत्पीड़न से न्यूनतम सुरक्षा भी नहीं मिलती। यहां इस बात पर गौर करना भी ज़रूरी है कि कंगना वर्तमान केंद्र सरकार की समर्थक हैं और उनका प्रचार करने में काफ़ी सक्रिय रही हैं। यह कहना ज़रूरी इसलिए है क्योंकि पिछले छह सालों में हर महिला, जिसने सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई हो, मानसिक उत्पीड़न, यौन शोषण, और कई क्षेत्रों में हत्या की शिकार हुई हैं।
पिछले ही हफ़्ते 5 सितंबर में पत्रकार गौरी लंकेश की पुण्यतिथि मनाई गई। आज से तीन साल पहले साल 2017 में गौरी लंकेश की आवाज़ दबाने के लिए उनकी हत्या कर दी गई थी। उनकी तरह ऐसी कई महिला पत्रकार और हैं जिन्हें वर्तमान सरकार की निष्पक्ष आलोचना के लिए भद्दी भाषा में धमकियां दी गई हैं और सोशल मीडिया के जरिए जिन पर रोज़ आक्रमण किया जाता है। पत्रकारों के अलावा तमाम महिला छात्र नेताओं, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं इत्यादि ने भी खुलेआम सरकार का विरोध किया है जिनके लिए उन पर हर तरह का हमला किया गया है।
क्यों इन सबके बावजूद भी इन महिलाओं को सरकार की तरफ़ से कोई सुरक्षा या आश्वासन नहीं मिलता, बल्कि अक्सर सरकार उन पर बेबुनियाद आरोप लगाकर उनके ही खिलाफ़ कार्रवाई करती है? क्यों कुछ मामूली टिप्पणियों की वजह से सरकार समर्थक कंगना की सुरक्षा के लिए कमांडो रखे जाते हैं? इसके पीछे सिर्फ़ राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है। सुरक्षा इस देश के हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। किसी एक व्यक्ति को सिर्फ़ सेलेब्रिटी होने और सरकार के पक्ष में बोलने के लिए तथाकथित रूप से विशेष सुरक्षा और सुविधाएं दी जाएं तो यह एक तरह से असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्म इन इंडिया की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है.)
- Ritika Srivastava
कोरोना काल में हम सभी को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। लाखों लोग गरीबी, भुखमारी, बेरोजगारी, बीमारी की चपेट में हैं अथवा धकेल दिए गए हैं। शिक्षा के क्षेत्र में लोगों ने ऑनलाइन पढ़ना-पढ़ाना शुरू कर दिया है। मैंने कुछ शिक्षक, शिक्षिकाओं और छात्र, छात्राओं से ऑनलाइन शिक्षा की चुनौतियों के विषय में बात की। कई छात्रों और शिक्षकों ने यह साझा किया कि ऑनलाइन टीचिंग-लर्निंग, इंटरनेट और टेक्नोलॉजी के संसाधन ना होने की वजह से गरीब और वंचित बच्चों के लिए शिक्षा पाना एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। इतना ही नहीं संसाधन संपन्न छात्र भी ऑनलाइन शिक्षा से अब उकता गए हैं। छात्रों और शिक्षकों का एक तबका है जिनके घर में आए दिन परिवार का कोई ना कोई सदस्य कोविड-19 से संक्रमित हो रहा है या अवसाद और दूसरी बीमारियों से ग्रसित है। ऐसी स्थिति में भी शिक्षकों और बच्चों से उम्मीद की जा रही है कि वे ऑनलाइन कक्षाओं में मौजूद रहें। कुछ प्राइवेट स्कूल में बच्चों को ऑनलाइन क्लास में स्कूल ड्रेस पहनकर स्कूल के समय पर ऑनलाइन कक्षा के लिए मौजूद होना अनिवार्य है।
स्कूल और उच्च शिक्षा के संस्थान में पढ़ने वाले छात्र किसी ना किसी प्रकार से कोशिश कर रहे हैं कि वे शिक्षा से वंचित ना रह जाए। कई छात्र ऐसे भी हैं जिनके घर में एक ही कमरा है और पूरा परिवार उसी एक कमरे में रहता है। ऐसे में छात्र ऑनलाइन कक्षा में ना ही ध्यान से बैठ कर पढ़ पा रहे हैं, ना ही कुछ सवाल कर पा रहे हैं। जिनके घर में एक ही मोबाइल है या घर में उपयुक्त जगह नहीं है वे ऑनलाइन शिक्षा में सक्रिय नहीं हैं। मोबाइल नेटवर्क लगभग सभी छात्रों के लिए एक बड़ी समस्या है। छात्रों के परिवार मोबाइल इंटरनेट का रिचार्ज बार-बार कर सकें इसके लिए उनके पास पर्याप्त पैसे भी नहीं है।
लड़कियों के लिए दोगुनी चुनौती
महिला अध्यापकों और छात्राओं से बात करने पर ऑनलाइन शिक्षा की स्थिति और भी विकराल समस्या को उजागर कर देती है। दलित, बहुजन और आदिवासी छात्राएं घर में आर्थिक तंगी और पारिवारिक स्थिति बिगड़ने के कारण पढ़ाई छोड़ने की स्थिति में हैं। कई ऐसी छात्राएं हैं जो ऑनलाइन कक्षा में शामिल तो हो जाती हैं पर घर में परिवार का कोई ना कोई सदस्य उन्हें पढ़ाई के दौरान कुछ ना कुछ घर का काम करने को कहता रहता है। अब स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि लड़कियों को कहा जाने लगा है कि उनका खुद ही पढ़ने में मन ही नहीं लगता। घर का काम करके लड़कियां इतना थक जाती हैं कि पढ़ाई के दौरान उन्हें थकावट महसूस होना स्वाभाविक है। कुछ लड़कियां तो कक्षा के बीच में ही थकान के कारण सो भी जाती हैं।
कोरोना काल में लड़कियों को घर में स्पेस ना देना, उनकी पढ़ाई को महत्व ना देना और उनको शादी के लिए बाध्य करना ये समस्याएं खुलकर सामने आ रही हैं। यह लड़कियों की हमारे परिवार और समाज में स्थिति को दर्शाता है।
लड़कियां लड़कों के मुकाबले ऑनलाइन कक्षाओं में उतनी सक्रिय नहीं रह पाती। कई यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली लड़कियों ने बताया कि उनकी शिक्षा को लेकर घर के सदस्य अब चिंतित नज़र नहीं आते हैं। अब तो घर के सदस्य कहने लगे हैं कि पढ़ाई करने का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकी आने वाले समय में नौकरी मिलना असंभव है। ऑनलाइन पढ़ाने वाली शिक्षिकाओं ने अपने शिक्षण अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि ऑनलाइन पढ़ाना उनके लिए बेहद मुश्किल हो रहा है क्योंकी घर में रहकर घर के काम ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते। घर के काम में उनकी मदद करने के लिए कोई नहीं है। अधिकतर शिक्षिकाएं छात्रों या उनके माता पिता के फ़ोन और बेवक्त वॉट्सऐप मैसेज से परेशान हैं। कई महिला शिक्षिकाएं जो प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी अब अपनी नौकरी छोड़ चुकी हैं और कुछ शिक्षिकाएं नौकरी छोड़ने की सोच रही हैं।
यूनिवर्सिटीज में पढ़ रही लड़कियां घर में लैपटॉप न होने के कारण मोबाइल से पढ़ने के लिए मजबूर हैं। अधिक समय तक फ़ोन पर व्यस्त होने की वजह से घर के सदस्य यूनिवर्सिटी की लड़कियों के व्यक्तित्व को मात्र युवा होने की वजह से शक की निगाह से देखने लगे हैं। कई युवा लड़कियों को घर में रोज़ मोबाइल की वजह से ही डांट, गालियां और कभी- कभी तो शारीरिक हिंसा का भी सामना करना पड़ रहा है। कोरोना काल के चलते यूनिवर्सिटीज में पढ़ने वाली लड़कियां उन्हीं के परिवार द्वारा की जाने वाली मौखिक, भावनात्मक और शारीरिक हिंसा की शिकार हो रही हैं। यह लड़कियां ऐसी स्थिति में हैं कि उनको किसी अन्य प्रकार से मदद मिलना भी मुश्किल हो गया है। कोरोना के चलते घरेलू हिंसा का दायरा इतना बड़ा हो गया है कि आंकड़े भी मौजूदा स्थिति बताने में असमर्थ हैं।
परिवार के सभी सदस्य लड़कियों को जल्द से जल्द लैपटॉप या मोबाइल बंद करने के लिए कहते हैं। कुछ यूनिवर्सिटीज की लड़कियों ने साझा किया कि जब वे मोबाइल पर नहीं पढ़ रही होती तो उनकी गैर-मौजूदगी में परिवार के सदस्य पूरा फ़ोन ठीक से चेक करते हैं। परिवार वाले मोरल पोलिसिंग करते हैं। वे देखते हैं कि लड़की कब, किससे और क्यों बात करती है। युवा लड़कियों ने कहा महामारी से पहले जब वो कभी-कभी हॉस्टल से घर आती थी तो उनको घर पर आना अच्छा लगता था। पर अब उनको घर में रहना अच्छा नहीं लगता, उनको एहसास होता है कि कोई हर समय उन पर नज़र रख रहा हैं। वे खुद को आज़ाद महसूस नहीं करती। युवा लड़कियों ने यह भी कहा कि लड़की होने की वजह से उनको घर में कोई स्पेस नहीं दिया जाता है, ना ही उनकी पढ़ाई के समय की कोई कद्र करता है। कई लड़कियों को शादी के लिए विवश किया जा रहा है। ना चाहते हुए भी परिवार वाले लड़कियों को शादी के लिए लड़का देखने या कम से कम लड़के से बात करने के लिए दबाव डाल रहे हैं। युवा लड़कियों को लगने लगा है कि परिवार जब भी चाहे उनसे उनका शिक्षा का अधिकार छीन सकते हैं। जो लड़कियां हॉस्टल में रहती थी वे अब आपस में और शिक्षिकाओं से पूछने लगी हैं कि हॉस्टल कब खुलेगा, कब वे घर से यूनिवर्सिटी या अपने संस्थान जा सकेंगी।
कोरोना काल में लड़कियों को घर में स्पेस ना देना, उनकी पढ़ाई को महत्व ना देना और उनको शादी के लिए बाध्य करना ये समस्याएं खुलकर सामने आ रही हैं। यह लड़कियों की हमारे परिवार और समाज में स्थिति को दर्शाता है। कोरोना काल में परिवारों ने यह बता दिया है कि लड़कियों की शिक्षा परिवार लिए अधिक महत्व नहीं रखती। साथ ही यह दर्शाता है कि युवा लड़कियों पर परिवार का विश्वास बेहद जर्जर और ना के बराबर है, जो हम सब के लिए बहुत ही शर्मनाक बात है। लड़कियों की यह स्थिति समाज का एक आईना है जो दर्शाता है कि हम लड़कियों की शिक्षा या अपनी प्रगति के कितने भी गुण गाएं, पितृसत्ता के आगे हमारी सब बातें और हमारे सब वादे खोखले हैं।
(यह लेख पहले फेमिनिज्म इन इंडिया की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है.)
-राकेश दीवान
कंगना रनौत और रिया चक्रवर्ती की चटखारेदार, सीरियल-नुमा कहानियों में डूबते-उतराते लोगों के लिए भले ही मीडिया मनोरंजन परोसने की एक फैक्ट्री की तरह स्थापित हो चुका हो, लेकिन क्या खबरों की अब हमारे संसार में कुल मिलाकर इतनी-भर हैसियत बची है? क्या खबरें और मनोरंजन अब ‘सहोदर’ हो गए हैं जिनमें किसी एक की बढ़ोतरी, दूसरे को भी कई-कई गुना लाभ पहुंचा सकती है? पारंपरिक माक्र्सवाद में मीडिया की इस भूमिका को धर्म की तरह ‘अफीम’ माना जाता है। मीडिया की यह ‘अफीम’ नागरिकों को सम-सामयिक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन से बेजार रखती है, ताकि पूंजी अपनी बेहूदी, बेहिसाब उड़ान भर सके। तो क्या ‘सास बहू’ के सोप-ऑपेरा से लगाकर कंगना-रिया के ‘रीयलिटी-शो’ तक पहुंचा भारतीय मीडिया अब कुल मिलाकर सिर्फ मनोरंजन दिखाने, सुनाने भर का कारखाना बन गया है?
एक तरह से देखें तो कंगना-रिया की कथा पूंजीवाद के विकास की मार्क्सवादी अवधारणा में फिट बैठती दिखती है। एन कोविड-19 के महामारी-काल में भीषण बेरोजगारी, भुखमरी और बीमारियों को सिरे से भुलाकर भारतीय मीडिया कंगना-रिया की चटखारेदार कहानी में रमा है। मानो देश के सामने अब कुल मिलाकर कंगना का टूटा दफ्तर और रिया की कथित नशे की आदतें भर कुल मुद्दे बचे हैं। लेकिन क्या इसे हम देशभर की समस्या मान सकते हैं? क्या चहुंदिस ‘विकास’ के हल्ले के बावजूद मीडिया हमारे समूचे समाज में अपनी पैठ जमा पाया है? और यदि यह भूमंडलीकरण की कृपा से फले-फूले-फैले कुल आबादी के करीब तीस फीसदी शहरी मध्यमवर्ग की आदतों में शुमार हो गया है तो फिर बाकी के सत्तर फीसदी आम लोग कैसे जीते-मरते हैं? क्या उनके लिए, उनका भी कोई मीडिया है? इन सवालों का जबाव खोजने के लिए हमें 1990 के दशक के बदलाव पर गौर करना होगा।
आजादी के बाद से जारी ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ को ठेंगे पर मारते हुए नब्बे के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सदारत में भूमंडलीकरण का पदार्पण हुआ था। उस जमाने में खुले बाजारों वाली इस नीति की मान्यता थी कि बाजार, बिना सरकारी इमदाद और नियंत्रण के, अपनी चाल से, अपनी शर्तों पर चल लेगा। सब जानते हैं कि आज का मीडिया बाजार का पिछलग्गू् है और भूमंडलीकरण में बाजारों के खुलते ही मीडिया ने भी तरह-तरह के सरकारी, सामाजिक नियंत्रणों को धता बताते हुए अपनी राह बनाना शुरु कर दिया। यही वह दौर था जब बाजार के प्रभाव में, एक फलते-फूलते बाजार की शक्ल में शहरी मध्यम वर्ग की हैसियत में इजाफा हुआ और नतीजे में मीडिया उसी की चाकरी को अपना सबसे अहम काम मानने लगा। यही वह समय था जब तरह-तरह के सीरियल, ‘सोप-ऑपेरा’ और रीयलिटी-शो बने, पनपे और खूब लोकप्रिय भी हुए।
अलबत्ता, इस सबको खडा करने वालों को ठीक पिछले दशकों में हुई कवि-सम्मेलनों की मिट्टी-पलीती दिखाई नहीं दी। साठ, सत्तर के दशकों में युवा रहे लोग जानते हैं कि उन दिनों कवि-सम्मेलनों की धूम हुआ करती थी और इक्का-दुक्का सिनेमाघरों के अलावा लोग भवानीप्रसाद मिश्र, गोपालदास ‘नीरज,’ सोम ठाकुर, देवराज दिनेश, शैल चतुर्वेदी, रमेश ‘रंजक,’ विनोद निगम, सुरेश उपाध्याय, माहेश्वुर तिवारी आदि को ही देखने-सुनने का ‘क्रेज’ था। धीरे-धीरे कवि-सम्मेलन भी व्यवसाय बनते गए और साहित्यिक और लोकप्रियता के बीच की बहसों के अलावा उनमें हास्य और फूहड़ता समाती गई। ऐसे अनेक कवि-सम्मेलनों के उदाहरण हैं जिनमें खुद को ‘जमाने’ के लिए कवि अश्लील, फूहड़, द्विअर्थी कविताएं सुनाते थे और कई बार तो बेशर्म शारीरिक हरकतें तक किया करते थे। जाहिर है, कवि-सम्मेलन अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे और उन्हें प्रासंगिक बनाए रखने की जद्दोजेहद में कवि भोंडे, अश्लील बनने तक को तैयार थे।
कवि सम्मेलनों की यही दुख भरी दास्तान आज के टीवी कार्यक्रमों, खासकर समाचारों की मार्फत दोहराई जा रही है। अस्सी और नब्बे के दशकों में टीवी के जरिए परोसा जा रहा गंभीर, सोद्देश्य और सकारात्मक मनोरंजन और समाचार धीरे-धीरे फूहड़, अश्लील और निरुद्देश्य-निरर्थक कसरत में तब्दील होते जा रहे हैं। एन समाचारों में परोसी जा रही कंगना-रिया की चीखती हुई कहानियां असल में मीडिया, खासकर टीवी की बदहाली की कहानी बयां कर रही हैं। कहा भी जा रहा है कि समाचार चैनलों के मुकाबले ‘रीयलिटी शो’ से अधिक राजस्व कमाया जा सकता है और इसीलिए समाचार भी ‘रीयलिटी शो’ में तब्दील होते जा रहे हैं। तो क्या एक जमाने के कवि-सम्मेलनों की तरह अब टीवी समाचारों, सीरियलों की भी समाप्ति का समय आ गया है?
अव्वल तो शहरों की चौहद्दी के बाहर जो सत्तर फीसदी आबादी आबाद है, उसे मीडिया ने सप्रयास अपने धतकरमों से बाहर कर दिया है। यह सत्तर फीसदी आबादी उन तीस फीसदी शहरी मध्यवर्गीयों की तरह बाजार नहीं है कि अपनी तमाम वैध-अवैध बातों को मीडिया और दूसरे संस्थानों से मनवा ले। बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, विस्थापन जैसी व्याधियों से इसी सत्तर फीसदी को लगातार निपटते रहना होता है और मीडिया इसे दिखाने-पढ़ाने से आमतौर पर परहेज ही करता है। कंगना-रिया की कहानियों के दौरान अभी दो दिन पहले हरियाणा के किसानों ने अपनी मांगों को लेकर बेहद प्रभावी प्रदर्शन किया और देश के एक प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग को ठप्प तक कर दिया, लेकिन मीडिया में इसकी कोई सुगबुगाहट नहीं हुई।
दूसरे, कोविड-19 की मेहरबानी से लगे लॉकडाउन ने पिछले पांच-छह महीनों में शहरी मध्यम वर्ग को भी सडक़ों पर ला दिया है। नब्बे के दशक के बाद के अपने ‘उत्थान’ के चलते खासी आरामतलब, अलिप्त और कभी-कभार सत्तानुरागी जिन्दगी जीने वाले शहरी मध्यम-वर्गीय लोगों को भी अब बेरोजगारी, वेतन-कटौती और बदहाली से दो-चार होना पड रहा है। ऐसे में रीयलिटी-शो की तरह परोसी जाने वाली खबरें तक उनमें चिढ पैदा करती हैं। सवाल है कि क्या अपने ‘उपभोक्ताओं’ की इस बदहाली के चलते मीडिया वैसा ही रह पाएगा, जैसा वह आज है? यानी क्या कंगना-रिया के दर्जे की कहानियों को सुनने वाला कोई ग्राहक मिलेगा? खासकर तब, जब सोशल-मीडिया खबरों के एक अखंड स्रोत की तरह स्थापित हो गया हो?
तमाम विज्ञापनों, ‘पेड-न्यूज,’ और भूत-प्रेत से लगाकर भगवानों तक की मार्फत ‘राजस्व ’ कूटने वाले मीडिया के लिए भी समाचार, जानकारियां और सूचनाएं देना एक प्रकार की जन-सेवा माना जाता है। इसे निर्बाध चलाए रखने के लिए विज्ञापनों के जरिए राजस्व उगाना जरूरी है, लेकिन यह किसी हालत में केवल पैसा बनाने की प्रक्रिया नहीं हो सकती। आज के दौर में पूंजी बनाने की हुलफुलाहट में समाचार भी मनोरंजन की श्रेणी में आ गए हैं। ऐसे में मीडिया पर नियंत्रण के लिए पारंपरिक ‘स्व-नियमितीकरण’ यानी ‘सेल्फ-रेगुलेशन’ की एक तरकीब मौजूद है, हालांकि इस ‘नख-दंतहीन’ प्रक्रिया का कोई पालन नहीं करता। एक और तरीका मीडिया से ‘अघाने’ का भी है जिसे पश्चिम के कई देशों में अब महसूस किया, देखा जा रहा है। यानी एक ही तर्ज-तरकीब से लगातार चलने वाले मीडिया को देख-देखकर लोग ऊब जाते हैं और नतीजे में मीडिया को खारिज कर देते हैं। भारत में ये तरकीबें कितनी कारगर होती है, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन मीडिया को खुद अपना भविष्य देखने की आदत डाल लेनी चाहिए। ऐसा न हो कि सत्तर फीसदी आबादी से दूर बैठा मीडिया अपने तीस फीसदी शहरी मध्यवर्ग के ग्राहकों की नजरों से भी उतर न जाए?
हिंदुस्थान का सिनेजगत पवित्र गंगा की तरह निर्मल है, ऐसा दावा कोई नहीं करेगा। लेकिन जैसा कि कुछ टीनपाट कलाकार दावा करते हैं कि सिनेजगत ‘गटर’ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। श्रीमती जया बच्चन ने संसद में इसी पीड़ा को व्यक्त किया है। ‘जिन लोगों ने सिनेमा जगत से नाम-पैसा सब कुछ कमाया। वे अब इस क्षेत्र को गटर की उपमा दे रहे हैं। मैं इससे सहमत नहीं हूं।’ श्रीमती जया बच्चन के ये विचार जितने महत्वपूर्ण हैं, उतने ही बेबाक भी हैं। ये लोग जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। ऐसे लोगों पर जया बच्चन ने हमला किया है। श्रीमती बच्चन सच बोलने और अपनी बेबाकी के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक और सामाजिक विचारों को कभी छुपाकर नहीं रखा। महिलाओं पर अत्याचार के संदर्भ में उन्होंने संसद में बहुत भावुक होकर आवाज उठाई है। ऐसे वक्त जब सिनेजगत की बदनामी और धुलाई शुरू है, अक्सर तांडव करनेवाले अच्छे-खासे पांडव भी जुबान बंद किए बैठे हुए हैं। मानो वे किसी अज्ञात आतंकवाद के साए में जी रहे हैं और कोई उन्हें उनके व्यवहार और बोलने के लिए परदे के पीछे से नियंत्रित कर रहा है। परदे पर वीरता और लड़ाकू भूमिका निभाकर वाहवाही प्राप्त करनेवाले हर तरह के कलाकार मन और विचारों पर ताला लगाकर पड़े हुए हैं। ऐसे में श्रीमती बच्चन की बिजली कड़कड़ाई है। मनोरंजन उद्योग रोज पांच लाख लोगों को रोजगार देता है। फिलहाल अर्थव्यवस्था उद्ध्वस्त हो चुकी है और जब ‘लाइट, कैमरा, एक्शन’ बंद है, लोगों का ध्यान मुख्य मुद्दों से हटाने के लिए हमें (मतलब बॉलीवुड को) सोशल मीडिया पर बदनाम किया जा रहा है। ऐसा जया बच्चन ने कहा है। कुछ अभिनेता-अभिनेत्रियां ही पूरा बॉलीवुड नहीं है। लेकिन उनमें से कुछ लोग जो अनियंत्रित वक्तव्य दे रहे हैं, यह सब घृणास्पद है। सिनेजगत के छोटे-बड़े हर कलाकार या तकनीशियन मानो ‘ड्रग्स’ के जाल में अटके हुए हैं, २४ घंटे वे गांजा और चिलम पीते हुए दिन बिता रहे हैं, ऐसा बयान देनेवालों की ‘डोपिंग’ टेस्ट होनी चाहिए, क्योंकि इनमें से बहुतों के खाने के और तथा दिखाने के और दांत हैं। हिंदुस्थानी सिनेजगत की एक परंपरा और इतिहास है। यह मायानगरी होगी लेकिन इस मायानगरी में जैसे ‘मायावी’ लोग आए और चले गए, उसी प्रकार कई संत-सज्जन भी थे ही। जिन दादासाहेब फाल्के ने हिंदुस्थानी सिनेजगत की नींव रखी, वह महाराष्ट्र के ही हैं। दादासाहेब फाल्के ने बहुत मेहनत करके इस साम्राज्य को मूर्त रूप दिया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ और ‘मंदाकिनी’ जैसी ‘मूक फिल्मों’ से हुई हिंदी सिनेजगत की शुरुआत आज जिस शिखर तक पहुंची है, वो कई लोगों की मेहनत के कारण ही। जो अपनी प्रतिभा और कला दिखाएगा, वही यहां टिकेगा। एक जमाना सहगल और देविका रानी का था। आज भी अमिताभ बच्चन महानायक पद पर विराजमान हैं। कभी उस जगह पर राजेश खन्ना थे। धर्मेंद्र, जीतेंद्र, देव आनंद, पूरा कपूर खानदान, मा. भगवान, वैजयंती माला से लेकर हेमा मालिनी और माधुरी दीक्षित से लेकर ऐश्वर्या राय तक, एक से एक बढ़िया कलाकारों ने यहां योगदान दिया है। बॉक्स ऑफिस को हमेशा चलायमान रखने के लिए आमिर, शाहरुख और सलमान जैसे ‘खान’ लोगों की भी मदद हुई ही है। ये सारे लोग सिर्फ गटर में लेटते थे और ड्रग्स लेते थे, ऐसा दावा कोई कर रहा होगा तो ऐसी बकवास करनेवालों का मुंह पहले सूंघना चाहिए। खुद गंदगी खाकर दूसरों के मुंह को गंदा बताने का काम चल रहा है। इस विकृति पर ही जया बच्चन ने हमला किया है। हमारे सिनेमा के कलाकार सामाजिक दायित्व को भी पूरा करते रहते हैं। युद्ध के दौरान सुनील दत्त और उनके सहयोगी सीमा पर जाकर सैनिकों का मनोरंजन करते थे। मनोज कुमार ने हमेशा ‘राष्ट्रीय’ भावना से ही फिल्में बनार्इं। कई कलाकार संकट के समय अपनी जेब से मदद करते रहते हैं। राज कपूर की हर फिल्म में सामाजिक दृष्टिकोण और समाजवाद की चिंगारी दिखती थी। आमिर खान की फिल्में भी उसी तरह की हैं। ये सारे लोग नशे में धुत्त होकर यह राष्ट्रीय कार्य कर रहे हैं। ऐसे गरारे करना देश का ही अपमान है। कई कलाकारों ने आपातकाल के दौरान की मनमानी के विरोध में आवाज उठाई और उन्हें उसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। आज भी सिनेजगत में एक हलचल साफ दिख रही है। आज कई कलाकार सत्तापक्ष के मंत्री और सांसद हुए दिख रहे हैं। इसलिए उनकी मजबूरी समझनी चाहिए। सत्ता और सत्य के बीच में एक खाई होती है। सिनेजगत से ईमान रखना होगा तो सत्ताधारियों की ओर से टपली मारी जाएगी। इसलिए सूर्य पश्चिम से उगता है, ऐसा प्रचार करना ही उनका धर्म बन जाता है। फिल्म जगत ‘गटर’ बन चुका है, ऐसा बोलनेवालों ने अपनी लाज बेच दी। लेकिन उनके साथ सत्ताधारियों की ‘झांज’ होने के कारण इन लोगों को भी करताल बजानी पड़ती है। फिर ये सिनेजगत से बेईमानी हो तो भी चलेगा। हिंदी सिनेमा जगत वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध हो चुका है। हॉलीवुड के बराबर तुम्हारे बॉलीवुड का नाम लिया जाता है। लेकिन उद्योग क्षेत्र में जैसे टाटा, बिरला, नारायणमूर्ति और अजीम प्रेमजी हैं, वैसे ही नीरव मोदी और माल्या भी हैं। सिनेजगत के बारे में भी ऐसा ही कहना होगा। सब के सब गए गुजरे हैं, ऐसा कहना सच्चे कलाकारों का अपमान साबित होता है। जया बच्चन ने इसी आवाज को उठाकर सिनेमाजगत की नींद तोड़ी है। इससे कितने लोगों का कंठ फूटेगा, देखते हैं। (hindisaamana.com)
आकार पटेल
पूर्व में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम जो कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इन्हें दुरुस्त करने से कौन रोक रहा है।
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर एक ऐसे परिवार से आते हैं जिसमें कई विद्धान हुए। उनके पिता के सुब्रह्मण्यम प्रसिद्ध थिंक टैंक आईडीएसए के संस्थापक और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सलाहकार थे। देश के न्यूक्लियर कार्यक्रम को हथियारबंद करने और बांग्लादेश में सैन्य दखल देने के मामलों में सुब्रह्मण्यम का भी दखल था।
सुब्रह्मण्यम के दूसरे पुत्र और एस जयशंकर के भाई संजय प्राचीन भारतीय इतिहास पर दुनिया के मशहूर विद्धानों में से एक हैं। उन्होंने सूरत (मेरे गृहनगर) के कारोबार और दक्षिण भारत के साथ ही वास्को डा गामा पर भी किताबें लिखी हैं।
मेरे कहने का अर्थ यह है कि डॉक्टर एस जयशंकर (वह पीएचडी हैं) की पृष्ठभूमि वैसी नहीं है जैसी कि मोदी सरकार के और मंत्रियों की है। एस जयशंकर की हाल ही में एक किताब आई है जिसमें उन्होंने कहा है कि तीन ऐसी बातें हैं जिन्होंने देश की विदेश नीति पर बुरा प्रभाव डाला है। पहला है विभाजन, जिससे देश का आकार छोटा हो गया और इससे चीन को हमारे मुकाबले ज्यादा अहमियत मिलने लगी। दूसरा है आर्थिक सुधारों को लागू करने में 1991 तक की देरी, क्योंकि अगर यह सुधार पहले आ गए होते तो हम बहुत पहले एक धनी राष्ट्र बन गए होते। और तीसरा है परमाणु हथियार चुनने में देरी करना। उन्होंने इन तीनों को एक बड़ा बोझ बताया है।
एस जयशंकर जो बाते कह रहे हैं इसके क्या अर्थ निकाले जाएं?
हमें दो अलग-अलग बातों को अलग तरीके से देखना होगा। सबसे पहले देखना होगा कि जो कुछ वे कह रहे हैं, सत्य है या नहीं। भारत के विभाजन से इसके आकार में निश्तित रूप से कमी आई और अगर ऐसा नहीं होता तो भौगोलिक तौर पर हम बहुत बड़े देश होते, जिसका विस्तान बर्मा से लेकर इरान तक होता और हमारी आबादी 1.7 अरब के आसपास होती। इससे आर्थिक तौर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, न ही प्रति व्यक्ति आय या उत्पादकता या किसी अन्य तरह से कोई फर्क पड़ता। पूरा दक्षिण एशिया एक साथ ही विकसित हुआ है। ब्रिटिश काल में भारत का हिस्सा रहे ये तीनों ही देश न तो विकसित देश बन पाए और न ही बाकी दूसरे देश विकासशील बन सके। पाकिस्तान और बांग्लादेश का दौरा करने पर हकीकत सामने आ जाएगी और हालात भारत के ज्यादातर जगहों की तरह ही नजर आएंगे।
दूसरी बात है आर्थिक सुधारों को लागू करने में देरी। एस जयशंकर अर्थशास्त्री तो हैं नहीं, तो यह उनका विषय नहीं है। ऐसे में उनकी बात को सत्य मानने में थोड़ी एहतियात बरतनी होगी। नेहरू के समय की भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता बहुत ज्यादा नहीं थी। हर जगह, खासतौर से भारी उद्योगों के क्षेत्र में सरकारी पूंजी की जरूरत थी। और अगर इसमें सरकारी पूंजी, जिसे हम यूं ही अपना मान लेते हैं. मसलन उच्च शिक्षा आदि के क्षेत्र, का निवेश नहीं हुआ होता तो जाने क्या होता।
हम निजीकरण के कितने ही भजन गा लें, लेकिन आईआईटी और आईआईएम का कोई निजी विकल्प हो ही नहीं सकता। लेकिन यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि इंदिरा गांधी के दौर का लाइसेंस राज सही था। इसलिए एक तरह से आर्थिक सुधारों में देरी के जयशंकर के तर्क को हम हां कह सकते हैं।
तीसरी बात है परमाणु हथियारों का विकल्प, जिसका पहली बार मई 1974 में परीक्षण किया गया। भारत ने परमाणु बम बनाकर धमाका कर दिया था। वैसे यह कोई ऐसी बड़ी बात नहीं थी क्योंकि दक्षिण अमेरिका, यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कई देशों के पास ऐसी क्षमता थी, लेकिन उन्होंने परीक्षण नहीं किया। इससे जुड़ी एक बात यह भी है कि भारत ने परमामणु बम बनाकर अपने अंतरराष्ट्रीय वादों का उल्लंघन किया था। परमाणु बम बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाला जरूरी मटीरियल कनाडा से आया था, जिससे हमने वादा किया था कि इसका इस्तेमाल हम सिर्फ शांतिपूर्ण उद्देश्यों में इस्तेमाल होने वाली परमाणु तकनीक में करेंगे। इंदिरा गांधी ने कहा था कि 1974 का परमाणु परीक्षण शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए था।
हमारे पास अब बीते 45 साल से ये हथियार हैं। इससे हमें क्या फायदा मिला? हम इसका पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल नहीं कर सकते, भले ही हम बीते तीन दशक से कह रहे हैं कि वह आतंकवाद फैलाता है। हम इसका चीन के खिलाफ भी इस्तेमाल नहं कर सकते, जो कि हमारी सीमा में घुस आया है। इस पर बहस हो सकती है कि आखिर इन हथियारों को विकसित करके हमें क्या मिला।
जयशंकर ने इन तीनों को एक बोझ बताते हुए इसका जिम्मेदार कांग्रेस को ठहरा दिया है। आइए देखते हैं कि उनकी अपनी पार्टी ने इन तीनों पर क्या किया और क्या कर रह है। भारत का विभाजन भले ही हो गया, लेकिन पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही हमारे पड़ोसी हैं। वे किसी अफ्रीकी देश में नहीं चले गए हैं। आखिर पूरे उपमहाद्वीप को व्यापार और ट्रैवल के जरिए एकजुट करने से भारत को कौन रोक रहा है। यह हमारा राष्ट्रवाद है। नेपाल के साथ तो बिना वीजा के आना-जाना हम कर सकते हैं लेकिन बांग्लादेश के साथ नहीं। क्यों? अगर हम तय कर लें तो हम वीजा मुक्त यात्रा शुरु कर दक्षिण एशिया को एकजुट कर सकते हैं। लेकिन बीजेपी ऐसा नहीं चाहती।
आर्थिक उदारवाद को लेकर जयशंकर की राय एकदम गलत है। बीजेपी के शासन में भारती का आर्थिक विकास जनवरी 2018 से लगातार नीचे जा रहा है। ऐसा सरकार के आंकड़ों से ही सामने आया है। यानी बीते 6 वर्षों में से ढाई वर्ष तक देश के विकास की रफ्तार में कमी आई है। ऐसा तो समाजवाद या लाइसेंस राज में भी नहीं हुआ था। और इस साल तो अर्थव्यवस्था में ऐसी सिकुडऩ होने वाली है जो ऐतिहासिक है। सिर्फ उदारवाद का अर्थ ही आर्थिक विकास नहीं होता है।
जयशंकर तीनों मुद्दों पर जो भी कह रहे हैं वह मुद्दों का बेहद सरलीकरण है। पूर्व में या बीते दशकों में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर हम ऐसा मानते हैं कि इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम आज जो कुछ कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इस सरकार को कौन रोक रहा है इन्हें दुरुस्त करने से। उनकी किताब में इसका कोई जिक्र नहीं है। हो सकता है कि आने वाले वक्त में किसी और किताब में वे ऐसा लिखें।(navjivanindia.com)
रवि अरोरा
साल 2011 की जनगणना के अनुरूप देश में मात्र 4 लाख 88 हजार किन्नर थे। उनमें से भी 28 फीसदी केवल उत्तर प्रदेश के निवासी हैं। एक सर्वे के अनुसार एक छोटे से ऑपरेशन के बाद इनमे से आधे किन्नरों को स्त्री अथवा पुरुष बनाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ के समाज कल्याण विभाग ने एसा प्रयोग शुरू भी किया है।
पाकिस्तान की मशहूर फिल्म है- बोल। इस फि़ल्म में एक हकीम के यहाँ पाँच बेटियों के बाद एक और बच्चा पैदा होता है मगर दुर्भाग्य से वह हिजड़ा यानि किन्नर है। यह बात हिजड़ों के गुरु को पता चलती है और वह उस बच्चे को लेने हकीम के पास आता है और बेहद ख़ूबसूरती से कहता है कि जनाब गलती से हमारी एक चि_ी आपके पते पर आ गई है, बराए मेहरबानी आप हमें वह लौटा दें।
हकीम बच्चा गुरु को नहीं देता और डाँट कर भगा देता है। हकीम उस बच्चे को बेटे की तरह पालता है मगर कुदरत अपना काम करती है। बच्चा बड़ा होता है और उसकी शारीरिक संरचना और हाव भाव से जाहिर होने लगता है कि वह पुरुष नहीं ट्रांसजेंडर है। इस पर लोक लाज के चलते हकीम अपने उस बेटे का कत्ल कर देता है और बाद में हकीम की ही बड़ी बेटी उसकी भी हत्या कर देती है।
हालाँकि यह फिल्म किन्नरों पर न होकर समाज में महिलाओं की विषम परिस्थितियों पर है मगर किन्नर वाला विषय भी इस फिल्म में बेहद संजीदगी से चला आता है। मेरा दावा है कि इस फिल्म को देखने के बाद आपको किन्नरों से प्यार हो जाएगा और यदि नहीं भी हुआ तब भी किन्नरों को लेकर आपके मन में जमी बर्फ जरूर कुछ पिघलेगा। आज अखबार में एक अच्छी पढ़ी कि प्रदेश की योगी सरकार ने राजस्व संहिता विधेयक के जरिये ट्रांसजेंडर को भी परिवार का सदस्य माना है और पारिवारिक सम्पत्ति में भी उनको अधिकार दे दिया है। इस खबर को पढऩे के बाद आज बोल फिल्म बहुत याद आई ।
यह बात समझ में नहीं आती कि जिन तीसरे लिंग वाले लोगों का जिक्र रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में बड़े सम्मान से किया गया हो, बाद में उनका यह हश्र कैसे हो गया कि सदियों तक उनकी खैर-खबर भी किसी ने नहीं ली? ऐसा कैसे हुआ कि राजा-महाराजा, बादशाह और नवाबों के हरम की रखवाली जैसा महत्वपूर्ण काम जिन्हें मिला हुआ था उन्हें अब नाच-गाकर अथवा सडक़ों पर भीख माँग कर गुजारा करना पड़ता है? शायद यह कुरीति भी अंग्रेजों की देन हो। वही तो इन्हें अपराधी, समलैंगिक, भिखारी और अप्राकृतिक वेश्याओं के रूप में चिन्हित करते थे। पुलिस के मन में किन्नरों के प्रति नफरत का बीज भी शायद अंग्रेज ही बो गए थे। शुक्र है कि अब पिछले कुछ दशकों में तमाम सरकारें और अदालतें किन्नरों के प्रति संवेदनशील हो गई हैं और एक के बाद एक किन्नरों के हित में आदेश पारित हो रहे हैं। अवसर मिलना शुरू हुआ है तो किन्नरों ने भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके दिखाया है।
आज किन्नर जज, राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, शास्त्रीय गायक और लेखक भी बन रहे हैं। कई किन्नर उच्च पदों तक भी पहुँच गए हैं। अन्य सरकारी नौकरियों के साथ साथ बीएसएफ, सीआरपीएफ और आईटीबीटी जैसे सुरक्षा बलों में भी अब केंद्र सरकार इनकी भर्ती शुरू करने जा रही है। जाहिर है कि समाज का थोड़ा बहुत नजरिया बदलने भर से ही यह संभव हुआ है ।
कहते हैं कि भारतीय समाज में सुधारों की गति सदा से ही बेहद धीमी रही है। अब देखिये न कि सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ही किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देते हुए उनके लिये देश भर में अलग से वॉश रूप बनाने के आदेश दिए थे मगर आज तक केवल एक एसा पेशाब घर मैसूर में ही बन सका है। किन्नरों को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने का आदेश बेशक अब पारित हो गया है मगर भारतीय समाज में जब आज तक महिलाओं को ही बराबर की हिस्सेदारी नहीं मिली तो एसे में किन्नरों को उनका हक मिलेगा, यह उम्मीद कैसे की जा सकती है।
साल 2011 की जनगणना के अनुरूप देश में मात्र 4 लाख 88 हजार किन्नर थे। उनमें से भी 28 फीसदी केवल उत्तर प्रदेश के निवासी हैं। एक सर्वे के अनुसार एक छोटे से ऑपरेशन के बाद इनमे से आधे किन्नरों को स्त्री अथवा पुरुष बनाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ के समाज कल्याण विभाग ने एसा प्रयोग शुरू भी किया है। यह काम अन्य राज्य भी करें तो न जाने कितने परिवार बोल फिल्म की तरह बिखरने से बच जायें । कैसी विडम्बना है कि दूसरों को जम कर दुआएँ देने वालों को ख़ुद दुआ देने वालों का बेहद टोटा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रक्षा मंत्री राजनाथसिंह ने लोकसभा में आज एक ऐसे विषय पर भाषण दिया, जो 1962 के बाद का सबसे गंभीर मुद्दा था। गलवान घाटी में हुई हमारे जवानों की शहादत से पूरा देश गरमाया हुआ है। करोड़ों लोग बड़ी उत्सुकता से जानना चाहते थे कि गलवान घाटी में चीन के साथ मुठभेड़ क्यों हुई ? जब प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि चीनियों ने हमारी जमीन पर कोई कब्जा नहीं किया और वे हमारी सीमा में घुसे नहीं तो रक्षा मंत्री को यह बताना चाहिए था कि उस मुठभेड़ का असली कारण क्या था ?
आश्चर्य की बात है कि जिस मुद्दे पर सारे देश का ध्यान टिका हुआ है, उसकी चर्चा के वक्त सदन में प्रधानमंत्री मौजूद नहीं थे। रक्षा मंत्री ने वे सब बातें दोहराईं, जो प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और वे स्वयं कहते रहे हैं। उन्होंने भारतीय फौज की वीरता और बलिदान को बहुत प्रभावशाली और भावुक ढंग से रेखांकित किया। उनके भाषण का सार यही है कि दोनों देश सीमा-विवाद को शांति से निपटाना चाहते हैं। दोनों युद्ध नहीं चाहते। रक्षा मंत्री ने अपने भाषण में जरा भी आक्रामक-मुद्रा अख्तियार नहीं की।
उन्होंने बहुत ही संयत शब्दों में बताया कि दोनों पक्षों ने माना कि 3500 किमी की भारत-चीन के बीच जो वास्तविक नियंत्रण रेखा है, वह कितनी अनिश्चित है, अनिर्धारित है और कितनी अस्पष्ट है। वे यह भी बता देते तो ठीक रहता कि साल में कई सौ बार उनके और हमारे सैनिक और नागरिक उस रेखा का अनजाने ही उल्लंघन करते रहते हैं।
रक्षा मंत्री ने यह भी बताया कि दोनों पक्ष सीमा पर यथास्थिति बनाए रखने पर राजी हो गए हैं। साथ ही उन्होंने माना है कि जो भी आपस में बैठकर तय किया जाएगा, उसका पालन दोनों पक्ष अवश्य करेंगे। मुझे खुशी होती अगर राजनाथजी इशारे में भी यह कहते कि उस नियंत्रण-रेखा को, जो झगड़े की रेखा है, उसे वास्तविक बनाने पर भी दोनों देश विचार कर रहे हैं ताकि हमेशा के लिए इस तरह के विवादों का खात्मा हो जाए। ऐसा स्थायी इंतजाम करते वक्त बहुत-कुछ ले-दे तो करना ही पड़ती है। रक्षा मंत्री ने अपने बहादुर फौजी जवानों का जबर्दस्त उत्साहवर्द्धन किया लेकिन अपने आत्मीय मित्र राजनाथजी से पूछता हूं कि उनका ‘हिंगलिश’ भाषा में दिया गया भाषण कितने जवानों को समझ में आया होगा। किसी अधपढ़ अफसर का लिखा हुआ भाषण लोकसभा में पढऩे की बजाय वे अपनी धाराप्रवाह, सरल और सुसंयत शैली में हिंदी-भाषण देते तो उसका प्रभाव कई गुना ज्यादा होता। हिंदी-दिवस के दूसरे दिन उनके इस ‘हिंगलिश-भाषण’ ने उनके प्रशंसकों को आश्चर्यचकित कर दिया। भारत-चीन को मिलाते-मिलाते उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी का घाल-मेल कर दिया।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
दिल्ली में रेलवे की जमीन पर काबिज 48000 झुग्गियों को हटाए जाने विषयक सर्वोच्च न्यायालय का आदेश अनेक कारणों से असंगत है और इसलिए इसकी पुनर्समीक्षा की जानी चाहिए। यूएन स्पेशल रेपोर्टर ऑन द राइट टू एडिक्वेट हाउसिंग (28 अप्रैल 2020) के अनुसार ‘इस महामारी के समय में अपने घर से बेदखल किया जाना मृत्युदंड तुल्य है।’ अत: देशों से आग्रह है कि नियम विरुद्ध बने आवासों से जबरन बेदखली या विस्थापन न किया जाए। अनेक देशों के न्यायालयों द्वारा आदेश पारित कर यह सुनिश्चित किया गया है कि वैश्विक महामारी के इस दौर में अवैध आवासों से बेदखली की प्रक्रिया पर रोक लगे। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय का आदेश उस वैश्विक सहमति के विरुद्ध है जो कोविड काल में आवास के अधिकार की रक्षा के संबंध में बनी है।
सर्वोच्च न्यायालय का वर्तमान आदेश मूलभूत नागरिक अधिकारों और बेदखली से संबंधित वर्तमान वैधानिक प्रावधानों एवं स्थापित प्रक्रियाओं से भी संगति नहीं दर्शाता। यह आदेश इन लाखों झुग्गीवासियों के राइट टू हाउसिंग के विषय में मौन है। ओल्गा टेलिस एवं अन्य विरुद्ध बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन मामले में 1985 में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की एक बेंच ने यह माना था कि संविधान का अनुच्छेद 21 हमें आजीविका और आवास का अधिकार प्रदान करता है। पीठ के अनुसार राइट टू हाउसिंग द्वारा नागरिक को अतिक्रमण हटाने से पूर्व नोटिस दिए जाने और उसके पक्ष की सुनवाई की पात्रता तथा विस्थापन के बाद उस समय प्रचलित सरकारी योजनाओं के तहत पुनर्वास की पात्रता प्राप्त होती है।
ओल्गा टेलिस मामले में पीठ के निर्णय में बेदखल किए गए लोगों के पक्ष में किए प्रावधानों को विधि विशेषज्ञ कमजोर मानते हैं और इसलिए इस फैसले की आलोचना होती रही है। व्यवहार में नागरिक को मिलने वाले एंटाइटलमेंट अप्रभावी ही सिद्ध होते हैं। नोटिस और सुनवाई का स्वरूप इस प्रकार निर्धारित किया गया होता है कि बेदखली से प्रभावित के पक्ष में निर्णय होने की संभावना नगण्य होती है। इसी प्रकार पुनर्वास के लिए तत्समय प्रचलित योजनाओं के अधीन पात्रता हासिल करना एक दुरूह कार्य होता है क्योंकि उक्त स्थान पर बसने के विषय में जो कट ऑफ डेट निर्धारित की जाती है वह कुछ ऐसी होती है कि अधिकांश प्रभावित उसके बाद से ही उस स्थान पर निवास कर रहे होते हैं और इस प्रकार पुनर्वास का लाभ प्राप्त नहीं कर पाते। कई बार प्रभावितों के लिए दस्तावेजों के अभाव में यह सिद्ध करना कठिन होता है कि वे कब से उक्त स्थान पर निवास कर रहे हैं। अनेक बार पुनर्वास योजनाओं की अनुपलब्धता, उनका स्वरूप और क्रियान्वयन तिथि आदि भी तकनीकी जटिलता उत्पन्न करते हैं। प्राय: बेदखल होने वाले लोग निर्धन,अशिक्षित एवं असंगठित होते हैं और इनके लिए कानूनी लड़ाई लडऩा कठिन होता है।
उषा रामनाथन जैसे जानकार यह मानते हैं कि ओल्गा टेलिस मामले में पीठ का निर्णय आजीविका और आवास के अधिकार को नोटिस और हियरिंग की न्यूनतम प्रक्रिया में सीमित कर कमजोर कर देता है जबकि अनिंदिता मुखर्जी कहती हैं कि जीवन के अधिकार के तहत आवास की आवश्यकता को न्यायालय स्वीकारते तो हैं किंतु उनकी यह स्वीकृति शाब्दिक अधिक है क्योंकि वे इसके लिए ठोस प्रावधान नहीं करते।
किंतु सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान निर्णय में तो ओल्गा टेलिस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट की अधिक बड़ी बेंच द्वारा बेदखली से प्रभावित लोगों को दी गई मामूली राहत का भी ध्यान नहीं रखा गया है। रिषिका सहगल जैसे विधि विशेषज्ञ यह ध्यान दिलाते हैं कि ओल्गा टेलिस मामले का फैसला सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच द्वारा दिया गया था इसलिए इसे 31 अगस्त 2020 को 48000 झुग्गियों को हटाने का आदेश पारित करने वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच को ध्यान में रखना था और यदि वे ऐसा कर पाने में असफल रहे हैं तो यह आदेश विधि विरुद्ध माना जाएगा। इन विशेषज्ञों के अनुसार वर्ष 2010 में सुदामा सिंह मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि यह राज्य सरकार का कर्तव्य है कि वह बेदखली से पहले बेदखली से प्रभावित होने वाले लोगों का सर्वेक्षण कर यह ज्ञात करे कि वे वर्तमान पुनर्वास योजनाओं के अंतर्गत लाभ प्राप्त करने की पात्रता रखते हैं अथवा नहीं और तदुपरांत प्रत्येक बेदखली प्रभावित से चर्चा करते हुए पुनर्वास की प्रक्रिया का सार्थक क्रियान्वयन करे। दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सुदामा सिंह प्रकरण में दिए गए इस फैसले के निष्कर्षों को सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2012 एवं 2017 में सही ठहराया है। दिल्ली हाई कोर्ट ने 18 मार्च 2019 को अजय माकन एवं अन्य विरुद्ध यूनियन ऑफ इंडिया एवं अन्य मामले में सुदामा सिंह प्रकरण में दिए निर्णय की ही फिर से पुष्टि की।
उक्त मामले में रेल मंत्रालय ने बिना नोटिस दिए और बिना तत्कालीन पुनर्वास योजनाओं के अंतर्गत बेदखली प्रभावित लोगों की पात्रता संबंधी सर्वे कराए रेलवे की जमीन पर बनी शकूर बस्ती को ढहा दिया था जिससे 5000 लोग बेघर हो गए थे। दिल्ली हाईकोर्ट ने इसे गलत ठहराया और सुदामा सिंह मामले में अपनाई गई प्रक्रिया का पालन करने हेतु कहा। सुदामा सिंह और अजय माकन प्रकरणों से यह स्पष्ट होता है कि दिल्ली में दिल्ली स्लम एंड झुग्गी झोपड़ी रिहैबिलिटेशन एंड रिलोकेशन पॉलिसी 2015 अब प्रभावी है, यह पॉलिसी दिल्ली अर्बन शेल्टर इम्प्रूवमेंट बोर्ड एक्ट 2010 के प्रावधानों के अनुसार तैयार की गई है। यह नीति झुग्गी बस्तियों के उसी स्थल पर उन्नयन और सुधार पर बल देती है जहाँ वे अवस्थित हैं। इस नीति में यह स्पष्ट उल्लेख है कि 2006 से पूर्व निर्मित बस्तियों को असाधारण कारणों से ही हटाया जाए। सुप्रीम कोर्ट का 31 अगस्त 2020 का आदेश इस वैधानिक ढांचे की अनदेखी करता है।
जिस असंवेदनशील, अदूरदर्शी और अविचारित विकास प्रक्रिया के कारण झुग्गी बस्तियां अस्तित्व में आती हैं उसकी छाप इन झुग्गी बस्तियों से संबंधित शासकीय आदेशों और नियमों में भी स्पष्ट दिखाई देती है। जब हम भारत में झुग्गी बस्तियों या गंदी बस्तियों में निवास करने वाले लोगों की विशाल संख्या पर नजर डालते हैं तब प्रशासन तंत्र की यह बेरहमी और डरावनी लगने लगती है। देश की 2011 की जनगणना और यूनाइटेड नेशंस के मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स डाटाबेस, स्लम पापुलेशन इन अर्बन एरियाज ऑफ इंडिया 2014 के अनुसार शहरी झुग्गी वासियों की संख्या 5 करोड़ 20 लाख से 9 करोड़ 80 लाख के बीच है। यह दुर्भाग्य का विषय है कि झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों की संख्या और उनकी जीवन दशाओं के संबंध में मानक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में बारंबार यह उल्लेख मिलता है कि इन अर्बन स्लम्स में रहने वाली आबादी हर स्वास्थ्य मानक में अन्य देशवासियों से कहीं पीछे है।
देश की 59 प्रतिशत झुग्गी बस्तियां अधिसूचित नहीं हैं। अधिसूचित न होने के कारण जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के संदर्भ में उन्हें विभिन्न शासकीय योजनाओं का वैसा लाभ प्राप्त नहीं हो पाता जैसा अन्य लोगों को मिलता है। बिजली, पानी, स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में झुग्गी वासी भेदभाव का शिकार होते हैं। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन के 2013 के आंकड़े यह बताते हैं कि 37 प्रतिशत झुग्गियां इस कारण नोटिफाई नहीं हो पाई हैं क्योंकि जिन झुग्गी बस्तियों में ये अवस्थित हैं उनकी जनसंख्या निर्धारित मानकों से कम है। लारा बी नोलान, डेविड ई ब्लूम और रामनाथ सुब्बारमन ने एक शोधपत्र में यह बताया है कि अधिसूचित होने के बाद इन झुग्गी वासियों को मिलने वाले कानूनी अधिकारों में भी भिन्नता है। कई राज्य अधिसूचित झुग्गी बस्तियों को एक निश्चित अवधि तक न उजाड़े जाने का आश्वासन देते हैं और विकास योजनाओं के कारण बेदखल किए जाने पर पुनर्वास का भरोसा भी। अधिसूचित करने के मापदंडों में भी विविधता है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और तमिलनाडु में झुग्गी बस्तियों को अधिसूचित करने के नियम अत्यंत कठोर हैं। दिल्ली में 1973 और तमिलनाडु में 1985 के बाद से किसी स्लम को नोटिफाई नहीं किया गया है। जबकि आंध्रप्रदेश में अधिसूचित करने के नियम सरल और उदार हैं और वहाँ 2012 की स्थिति में 89 प्रतिशत झुग्गी बस्तियाँ अधिसूचित थीं।
यूएनडीपी की एक रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली की कुल भूमि के 18.9 प्रतिशत भाग पर स्लम्स हैं जबकि कोलकाता के 11.72, चेन्नई के 25.6 और मुम्बई के 6 प्रतिशत भूभाग पर झुग्गी बस्तियां स्थित हैं।
दिल्ली की आधी आबादी झुग्गियों और अनाधिकृत बसाहटों में रहती है। 69 वें नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार दिल्ली की 6343 झुग्गी बस्तियों में से 28 प्रतिशत रेलवे की भूमि पर हैं। दिल्ली की पुल मिठाई जैसी तीन दशक पुरानी बस्तियों को रेल विभाग 1990 के दशक से ही उजाड़ता रहा है। पिछले 15 वर्षों में भी 2006, 2008, 2009 और 2010 में इस बस्ती को उजाड़ा गया है। यहाँ के निवासियों के पुनर्वास के कोई प्रबंध नहीं किए गए बल्कि इन्हें उन भू माफियाओं की शरण में जाने के लिए छोड़ दिया गया है जो इन्हें उसी स्थान पर या नए स्थान पर अतिक्रमण करने को उकसाते रहे हैं और संरक्षण के बदले में इनसे रकम की वसूली करते रहे हैं।
इंडियन रेलवेज हमारे देश का एक ऐसा महकमा है जिसके पास सर्वाधिक जमीन है। एक आरटीआई के जवाब में रेल विभाग ने यह जानकारी दी थी कि इंडियन रेलवेज के पास पूरे देश भर में विभिन्न राज्यों में फैली 4 लाख 32 हजार हेक्टेयर जमीन है। इसमें से 31 मार्च 2007 की स्थिति में 1905 हेक्टेयर जमीन पर अतिक्रमण था जो इंडियन रेलवेज की कुल भूमि का केवल .44 प्रतिशत है। आरटीआई के जवाब में यह भी कहा गया था कि रेल विभाग राज्यवार डाटा नहीं रखता।
वर्ष 2006 से ही रेल विभाग अपने अधिकार की ऐसी भूमि को जो उसकी आवश्यकताओं के अतिरिक्त है, व्यावसायिक प्रयोजन हेतु प्रयुक्त कर लाभ कमाने के विषय में सोचता रहा है और इसी वर्ष 2006 में रेलवे लैंड डेवलपमेंट अथॉरिटी की स्थापना की गई थी जिसका उद्देश्य रेलवे की भूमि को अतिक्रमण मुक्त कर व्यावसायिक प्रयोजन हेतु उपयोग में लाना था। रेलवे दो कानूनों के माध्यम से अपनी भूमि को अतिक्रमण मुक्त करता है- पब्लिक प्रीमाईसेस (एविक्शन ऑफ अनऑथोराइज़्ड ऑक्यूपैंट) एक्ट,1971 तथा द रेलवेज एक्ट, 1989। जैसा कि हर शहर में रेलवे की जमीन के साथ है, दिल्ली में भी रेलवे की अतिक्रमित भूमि प्राइम लोकेशन में है और देश के नामी धनकुबेरों के लिए इससे बड़ी खुशकिस्मती और क्या हो सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से सारे अवरोध हटा दिए जाएं एवं रेलवे इस भूमि को आननफानन में अतिक्रमण मुक्त कर उन्हें औने पौने दामों पर बेच दे। हालांकि रेलवे बोर्ड की गाईड लाईन में यह प्रावधान भी है कि यदि अतिक्रमण की गई भूमि रेलवे के लिए अनुपयोगी है तो यह राज्य सरकार को मार्केट वैल्यू के 99 प्रतिशत के भुगतान के बाद 35 साल की लीज पर भी दी जा सकती है।
जो झुग्गी बस्तियां रेलवे की भूमि पर स्थित हैं वे अधिकांशतया अधिसूचित नहीं हैं। लोग यहाँ मूलभूत सुविधाओं के अभाव में अमानवीय दशाओं में वर्षों से रह रहे हैं। दिल्ली की कुछ झुग्गी बस्तियां तो तीस से भी अधिक वर्षों से मौजूद हैं फिर भी यहाँ सार्वजनिक शौचालय तक नहीं बनाए गए हैं और लोग पटरियों के किनारे शौच के लिए विवश हैं। भारतीय रेलवेज के पास कोई रिहैबिलिटेशन एंड रीसेटलमेंट पॉलिसी नहीं है। भारतीय रेलवेज के अनुसार हाउसिंग राज्य का विषय है और रेलवे की जमीन से बेदखल किए गए झुग्गीवासियों के पुनर्वास की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर है। यद्यपि दिल्ली और महाराष्ट्र सरकार की आर एंड आर पॉलिसी में ऐसे प्रावधान हैं जिनके अनुसार रेलवे की जमीन से बेदखल किए गए लोगों के पुनर्वास पर आने वाला खर्च पूर्ण या आंशिक रूप से रेलवे द्वारा वहन किया जाएगा-किंतु जैसा बेदखली और विस्थापन के हर प्रकरण में होता है कि यह केवल घर पर बुलडोजर चलाने की प्रक्रिया नहीं होती बल्कि आजीविका छीनने और सपनों को कुचलने का क्रूर प्रक्रम होता है- इन सारे प्रावधानों के लाभ कदाचित ही प्रभावितों को मिल पाते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के 31 अगस्त 2020 के आदेश के समर्थन में अनेक वेब पोर्टल्स में और सोशल मीडिया पर कुछ टिप्पणियां एवं आलेख पढऩे को मिले। इन आलेखों से गुजरना एक डरावना अनुभव है। इनमें बताया गया है कि यह झुग्गी बस्तियां देश की राजधानी के चेहरे पर एक बदनुमा दाग की भांति हैं। यह राजधानी में गंदगी, बीमारी और अपराध फैलाने के केंद्र हैं। यहाँ के लोगों की आजीविका अवैध शराब, ड्रग्स, देह व्यापार, हथियारों की खरीद बिक्री आदि के माध्यम से चलती है। कुछ एक सोशल मीडिया पोस्टों में यह भी कहा गया था कि इन झुग्गी बस्तियों में रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं जो देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। यह कल्पना करना भी कठिन है कि नफरत, संदेह और अविश्वास के नैरेटिव का विस्तार नव उदारवादी आर्थिक विकास के दुष्परिणामों के शिकार इन निरीह झुग्गी वासियों तक हो सकता है। किंतु ऐसा हो रहा है और ऐसी पोस्टों को हजारों लाइक्स और शेयर भी मिल रहे हैं।
पहले औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण और अब नव उदारवाद ने नगरीकरण को बढ़ावा दिया है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि की उपेक्षा कर यह हालात पैदा किए गए हैं कि लोग आजीविका की तलाश में शहरों की ओर पलायन करें और शहरी कारखानों को सस्ते मजदूर मिल सकें। शहरी सभ्यता को इन मजदूरों की मेहनत की आवश्यकता तो है किंतु इन्हें सम्मानजनक आवास और जीवन सुविधाएं देने को कोई तैयार नहीं है। सस्ते आवास की तलाश इन झुग्गी बस्तियों के निर्माण और विस्तार का कारण बनती है। पुख्ता वोट बैंक तलाशते राजनेता, भ्रष्ट पुलिस महकमा और नगरीय प्रशासन तथा इनसे जुड़े अपराधी तत्व लोगों को इन झुग्गी बस्तियों में बसने के लिए प्रेरित करते हैं। धीरे धीरे नगरों का विस्तार होता है और यह गंदी बस्तियां नगर के मध्य में आ जाती हैं। फिर इन्हें शहर के सौंदर्यीकरण के नाम पर हटाया जाता है। बेदखली के बाद पुनर्वास के अभाव में इनके निवासी फिर शहरों से बाहर दूसरी जगह तलाशने लगते हैं और फिर नेताओं,स्थानीय प्रशासन और पुलिस का भ्रष्ट और स्वार्थी गठबंधन इनके मददगार के रूप में खड़ा मिलता है। इन सुविधाहीन, जनसंकुल और सघन बस्तियों में कुछ अपराधी तत्व भी शरण ले लेते हैं और इनके कारण इन झुग्गी बस्तियों में निवास करने वाले हजारों मजदूरों पर अपराधी का ठप्पा लग जाता है यद्यपि ये रोज हाड़तोड़ मेहनत कर अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने यह कहा कि कोरोना काल में लगाए गए लॉकडाउन के कारण अपना रोजगार गंवाकर पलायन करने और अपनी जान गंवाने वाले प्रवासी मजदूरों के आंकड़े उसके पास उपलब्ध नहीं हैं इसलिए उन्हें मुआवजा देने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह प्रवासी मजदूर ही इन गंदी बस्तियों में सर्वाधिक संख्या में निवास करते हैं। यह सरकारी आंकड़ों से बाहर और सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित लोग हैं जिन्हें जब चाहा बसाया और जब चाहा उजाड़ा जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला उस दृष्टिकोण को बढ़ावा दे सकता है जिसके अनुसार यह झुग्गी बस्तियाँ अपराध, आतंकवाद, गंदगी और रोग फैलाने के लिए उत्तरदायी हैं और इनके निवासियों के साथ वैसा ही बर्ताव होना चाहिए जैसा किसी अपराधी के साथ होता है। ऐसा ही एक निर्णय वर्ष 2000 में अलमित्रा एच पटेल वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया मामले में दिया गया था। इस निर्णय से भी ऐसा संकेत गया था कि झुग्गियां और झुग्गी वासी गंदगी फैलाते हैं और इस गंदगी की सफाई जरूरी है। यह फैसला भी इन झुग्गीवासियों के मूल मानवीय अधिकारों के विषय में मौन था। इसी प्रकार का फैसला एनजीटी ने 2015 में एक पीआईएल पर दिया था जब उसने रेल ट्रैक के किनारे के प्लास्टिक और अन्य कचरे के लिए रेलवे के स्थान पर इन झुग्गियों को जिम्मेदार ठहराया था और इन्हें हटाने हेतु दिल्ली सरकार को निर्देशित किया था।
रेलवे की परियोजनाएं वैसे ही पर्यावरणीय उत्तरदायित्वों से मुक्त रहती हैं और एनजीटी के इस प्रकार के निर्णय अंतत: निर्धनों की परेशानियों में इजाफा करेंगे। पूंजीवादी पर्यावरणवाद अपने फायदे के लिए पहले भी आदिवासियों को वनों और दुर्लभ वन्य पशुओं के विनाश के लिए उत्तरदायी ठहराने की कोशिश करता रहा है ताकि उनका विस्थापन किया जा सके।
बहरहाल नए भारत में मनुष्य होना और उस पर भी निर्धन होना यदि अपराध की श्रेणी में आने वाला है तो इन झुग्गी वासियों के लिए आने वाला समय बहुत कठिन होगा।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
एक दशक के दौरान आई महामारी के मुकाबले कोविड-19 महामारी 6 गुणा अधिक घातक साबित हो रही है
- Richard Mahapatra
15 सितंबर 2020 की रात 10 बजे भारत में कोविड-19 के मामलों ने 50 लाख का आंकड़ा पार कर लिया। हालांकि यह आंकड़ा महामारी के लिए कोई मील का पत्थर नहीं है, लेकिन इस पड़ाव में यह जानना जरूरी है कि एक देश में कैसे इस आंकड़े तक पहुंचा और इस महामारी के लिए सरकार की रणनीति और तैयारियां कैसे ध्वस्त हो गई।
कोविड-19 इंडिया डॉट ओआरजी के रात 10 बजे तक के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में कोरोना संक्रमण के मामले 50 लाख 4 हजार हो चुके हैं। भारत अमेरिका के बाद दुनिया का दूसरा बड़ा देश है, जिसे कोविड-19 महामारी ने बुरी तरह प्रभावित किया है। दुनिया भर में कुल 2.90 करोड़ लोग कोरोनावायरस से संक्रमित हो चुके हैं और इनमें से लगभग 17 फीसदी भारत में हैं। कोरोना से दुनिया भर में 922,252 लोगों की मौत हो चुकी हैं, इनमें से 82 हजार से अधिक लोग भारत से हैं।
30 जुलाई 2020 के बाद कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा, जब भारत में रोजाना 50 हजार से अधिक नए मामले न आए हों। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मामले कितने तेजी से बढ़ रहे थे, लेकिन 6 सितंबर 2020 के बाद भारत में रोजाना 80 हजार से अधिक मामले आने लगे और चार दिन से लगातार 90 हजार से अधिक मामले सामने आ रहे हैं।
जनवरी के अंत तक भारत में कोविड-19 के केवल पांच मामले थे, तब तक कोविड-19 को महामारी भी घोषित नहीं किया गया था और भारत ने केवल चीन से आने वाले हवाई यात्रियों के आगमन पर पाबंदी लगाने की बात की थी। लेकिन इसके 227 दिन भारत में कोविड-19 मरीजों की संख्या 50 लाख से अधिक पहुंच गई और अमेरिका की तरह भारत भी तेजी से संक्रमण फैलने वाले देश बन गया।
इसी तरह 8 जून से शुरू हुए सप्ताह के बाद भारत में हर सप्ताह 1 लाख से अधिक केस आने लगे और अगस्त के मध्य में देश में पांच लाख से अधिक मामले पहुंच गए।
इस तरह 21वीं सदी के लिए कोविड-19 सबसे घातक महामारी साबित होने वाली है। इससे पहले 2009 में दुनिया में स्वाइन फ्लू महामारी फैली थी। मौसमी फ्लू बनने से पहले स्वाइन फ्लू की वजह से 2,85,000 से अधिक लोगों की मौत हुई थी। इसका मतलब यह है कि इसके बाद बेशक दुनिया ने इस बीमारी के बारे में बात नहीं की, लेकिन इसकी वजह से मौतों का सिलसिला जारी है।
पिछली महामारी की वजह से भारत में 2009-10 में 36,240 लोग प्रभावित हुए थे, जबकि 1,833 लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद भी स्वाइन फ्लू का संक्रमण और मौतों का सिलसिला जारी है। 2012 से लेकर 2019 के बीच स्वाइन फ्लू से 1,38,394 लोग प्रभावित हुए और 9,150 लोगों की मौत हुई। राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) के तहत चल रहे इंटिग्रेटेड डिजीज सर्वलांस प्रोग्राम के ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2020 के पहले दो माह के दौरान 1,100 लोग संक्रमित हुए और 18 लोग मौत हुई। हालांकि बीमारी के केंद्र अलग-अलग रहे। 2009 में दिल्ली, महाराष्ट्र और राजस्थान, जबकि 2017 में गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश और 2019 में फिर से दिल्ली, राजस्थान और गुजरात में सबसे अधिक मामले सामने आए।
कुल मिलाकर, स्वाइन फ्लू महामारी का प्रकोप 2009 में शुरू हुआ और 10 साल के दौरान लगभग 11,600 लोगों की मौत हो चुकी है। जबकि कोविड-19 केवल 9 माह में पिछली महामारी से लगभग 600 फीसदी अधिक मौतों का कारण बन चुकी है।
यहां तक कि सामान्य बीमारियों या संक्रमण से तुलना की जाए तो कोविड-19 इस मामले में भी रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। इतना ही नहीं, कोरोना संक्रमण के कुल मामलों की संख्या पिछले छह साल के मलेरिया मामलों से भी अधिक हो चुकी है।(downtoearth)
इम्यूनिटी किसी एक वस्तु को खाकर या न खाकर नहीं बढ़ायी जा सकती और न कोई एक अच्छा-बुरा आचार उसके लिए जिम्मेदार ही है
- Skand Shukla
इम्यूनिटी यानी प्रतिरक्षा शब्द जितना विज्ञान में इस्तेमाल होता है , उससे कहीं अधिक आम बोलचाल में। वैज्ञानिकों और डॉक्टरों से अलग आम सामान्य जन इन शब्दों को ढीले-ढाले ढंग से प्रयोग करते हैं। आपको बार-बार ज़ुकाम होता है ? लगता है आपकी प्रतिरोधक क्षमता कम है! आप को कमजोरी महसूस होती है? डॉक्टर से अपनी इम्यूनिटी की जाँच कराइए और पूछिए कि इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए क्या खाएं, कैसे रहें , कैसा जीवन जिएं!
इम्यूनिटी को समझने के लिए शरीर के एक मूल व्यवहार को समझना जरूरी है। सभी जीवों के शरीर निज और पर का भेद समझते हैं। वे जानते हैं कि क्या उनका अपना है और क्या पराया। शरीरों के लिए अपने-पराये की यह पहचान रखनी बेहद जरूरी होती है। अपनों की रक्षा करनी है, परायों से सावधान रहना है। जो पराये आक्रमण करने आये हैं --- उनसे लड़ना है , उन्हें नष्ट करना है।
शरीर का प्रतिरक्षक तन्त्र यानी इम्यून सिस्टम इसे अपनत्व-परत्व के भेद को बहुत भली-भांति जानता है। उदाहरण के लिए, मनुष्य के शरीर की प्रतिरक्षक कोशिकाओं को पता चल जाता है कि अमुक कोशिका अपने रक्त की है और अमुक बाहर से आई जीवाणु-कोशिका है।
फिर वह अपने परिवार की रक्त-कोशिका से अलग बर्ताव करता है और बाहर से आयी जीवाणु-कोशिका से अलग। यह भिन्न-भिन्न बर्ताव प्रतिरक्षा-तन्त्र के लिए बेहद जरूरी है। जब तक पहचान न हो सकेगी , रक्षा भला कैसे होगी !
प्रतिरक्षा-तन्त्र को लोग जितना सरल समझ लेते हैं, उससे यह कहीं बहुत-ही ज्यादा जटिल है। इम्यूनिटी किसी एक वस्तु को खाकर या न खाकर नहीं बढ़ायी जा सकती और न कोई एक अच्छा-बुरा आचार उसके लिए जिम्मेदार ही है।
प्रतिरक्षा-तन्त्र में अनेक रसायन हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार की कोशिकाएं हैं। इन सब का कार्य-कलाप भी अलग-अलग है। यह एक ऐसे हजार-हजार तारों वाले संगीत-यन्त्र की तरह जिसके एक तार को समझकर या बजाकर उत्तम संगीत न समझा जा सकता है और न बजाया ही।
जटिलता के अलावा प्रतिरक्षा-तन्त्र का दूसरा गुण सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होना है। प्रतिरक्षक कोशिकाएं हर जगह गश्त लगाती हैं या पायी जाती हैं: रक्त में, त्वचा के नीचे , फेफड़ों व आंतों में, मस्तिष्क व यकृत में भी। इस जटिल सर्वव्याप्त तन्त्र के दो मोटे हिस्से हैं: पहला अंतस्थ प्रतिरक्षा-तन्त्र और दूसरा अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र। इम्यून सिस्टम के इन दोनों हिस्सों को समझकर ही हम इसके कार्यकलाप का कुछ आकलन कर सकते हैं।
अन्तःस्थ का अर्थ है जो पहले से हमारे भीतर मौजूद हो। अंग्रेजी में इसे इनेट कहते हैं। प्रतिरक्षा-तन्त्र के इस हिस्से में वह संरचनाएं, वह रसायन और वह कोशिकाएं आती हैं , जो प्राचीन समय से जीवों के पास रहती रही हैं। यानी वह केवल मनुष्यों में ही हों, ऐसा नहीं है; अन्य जीव-जन्तुओं में भी उन-जैसी संरचनाएं-रसायन-कोशिकाएं पाई जाती हैं, जो संक्रमणों से शरीर की रक्षा करती हैं।
उदाहरण के तौर पर हमारी त्वचा की दीवार और आमाशय में पाए जाने वाले हायड्रोक्लोरिक अम्ल को ले लीजिए। ये संरचना और रसायन अनेक जीवों में पाये जाते हैं और इनका काम उन जीवों को बाहरी कीटाणुओं से बचाना होता है। इसी तरह से हमारे शरीर के मौजूद अनेक न्यूट्रोफिल व मोनोसाइट जैसी प्रतिरक्षक कोशिकाएँ हैं। ये सभी अन्तस्थ तौर पर हम-सभी मनुष्यों के भीतर मौजूद हैं।
अन्तःस्थ प्रतिरक्षा-तन्त्र सबसे पहले किसी कीटाणु के शरीर में दाखिल होने पर उससे मुठभेड़ करता है। पर यह बहुत उन्नत और विशिष्ट नहीं होता। इस तन्त्र की कोशिकाओं की अलग-अलग शत्रुओं की पहचान करने की ट्रेनिंग नहीं होती।
शत्रु को मुठभेड़ में नष्ट कर देने के बाद ये कोशिकाएं इस युद्ध की कोई स्मृति यानी मेमोरी भी नहीं रखतीं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए अब तनिक प्रतिरक्षा-तन्त्र के दूसरे हिस्से अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र को समझिए।
अर्जित का अर्थ होता है अक्वायर्ड। वह जो हमारे पास है नहीं , हमें पाना है। वह जो विरासत में नहीं मिला , बनाना पड़ेगा। प्रतिरक्षा-तन्त्र का यह अधिक उन्नति भाग है। इसके रसायन और कोशिकाएँ विशिष्ट होते हैं , यानी ख़ास रसायन और कोशिकाएं खास शत्रु-कीटाणुओं से लड़ते हैं। प्रत्येक किस्म के कीटाणुओं के शरीर में प्रवेश करने पर खास किस्म की प्रतिरक्षक कोशिकाओं का विकास किया जाता है, जो कीटाणुओं से लड़कर उन्हें नष्ट करती हैं। लड़ाई में इन कीटाणुओं को हारने के बाद ये कोशिकाएं अपने भीतर इन हराये गये कीटाणुओं की स्मृति रखती हैं, ताकि भविष्य में दुबारा आक्रमण होने पर और अधिक आसानी से इन्हें हरा सकें। लिम्फोसाइट-कोशिकाएँ अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र की प्रमुख कोशिकाओं का प्रकार हैं।
अन्तःस्थ और अर्जित , प्रतिरक्षा-तन्त्र के दोनों हिस्से मिलकर के शत्रु-कीटाणुओं से लड़ते हैं। किसी संक्रमण में अन्तःस्थ प्रतिरक्षा अधिक काम आती है , किसी में अर्जित प्रतिरक्षा , तो किसी में दोनों। इतना ही नहीं कैंसर-जैसे रोगों में भी प्रतिरक्षा तन्त्र की कोशिकाएं लड़कर उससे शरीर को बचाने का प्रयास करती हैं। कैंसर-कोशिकाएं यद्यपि शरीर के भीतर ही पैदा होती हैं , किन्तु उनके सामने पड़ने पर प्रतिरक्षा-तन्त्र यह जान जाता है कि ये कोशिकाएं वास्तव में अपनी नहीं हैं , बल्कि परायी व हानिकारक हैं। ऐसे में प्रतिरक्षा-तन्त्र कैंसर-कोशिकाओं को तरह-तरह से नष्ट करने का प्रयास करता है।
वहीं, अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र का विकास संक्रमण से हो सकता है और वैक्सीन लगा कर भी। संक्रमण से होने वाला विकास प्राकृतिक है और टीके ( वैक्सीन ) द्वारा होने वाला विकास मानव-निर्मित होता है।
वर्तमान कोविड-19 पैंडेमिक ( वैश्विक महामारी ) एक विषाणु सार्स-सीओवी 2 के कारण हो रही है। इस विषाणु के शरीर में प्रवेश करने के बाद प्रतिरक्षा-तन्त्र के दोनों हिस्से अन्तःस्थ व अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र सक्रिय हो जाते हैं। वे विषाणुओं से भरी कोशिकाओं को तरह-तरह से नष्ट करने की कोशिश करते हैं। चूंकि यह विषाणु नया है , इसलिए ज़ाहिर है कि अन्तःस्थ प्रतिरक्षा-तन्त्र इससे सुरक्षा में बहुत योगदान नहीं दे पाता। ऐसे में अर्जित प्रतिरक्षा तन्त्र पर ही यह ज़िम्मा आ पड़ता है कि वह उचित कोशिकाओं व रसायनों का विकास करके इस विषाणु से शरीर की रक्षा करे।
मनुष्य के प्रतिरक्षा-तन्त्र के लिए यह संक्रमण नया है , वह उसे समझने और फिर लड़ने में लगा हुआ है। ऐसे में उचित टीके ( वैक्सीन ) के निर्माण से हम प्रतिरक्षा-तन्त्र की उचित ट्रेनिंग कराकर अर्जित प्रतिरक्षा को मजबूत कर सकते हैं। उचित प्रशिक्षण पायी योद्धा-कोशिकाओं के पहले से मौजूद होने पर शरीर के भीतर जब सार्स-सीओवी 2 दाखिल होगा , तब ये कोशिकाएँ उसे आसानी से नष्ट कर सकेंगी। किन्तु सफल वैक्सीन के निर्माण व प्रयोग में अभी साल-डेढ़ साल से अधिक का समय लग सकता है , ऐसा विशेषज्ञों का मानना है।
अपने व पराये रसायनों व कीटाणुओं में भेद , जटिलता और शरीर-भर में उपस्थिति और अन्तःस्थ व अर्जित के रूप में दो प्रकार होना प्रतिरक्षा-तन्त्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ हैं। इस प्रतिरक्षा तन्त्र को न आसानी से समझा जा सकता है और न केवल प्रयासों से हमेशा स्वस्थ रखा जा सकता है। प्रतिरक्षा-तन्त्र काफ़ी हद तक हमारी आनुवंशिकी यानी जेनेटिक्स पर भी निर्भर रहता है। कोशिकाओं के भीतर स्वस्थ जीन ही आएँ , इसके लिए हम बहुत-कुछ कर नहीं सकते। नीचे बताये गये चार विषयों पर किन्तु हम ज़रूर ध्यान दे सकते हैं ; साथ ही आसपास के पर्यावरण से प्रदूषण को घटाकर प्रतिरक्षा-तन्त्र को स्वस्थ रखने का साझा प्रयास भी कर सकते हैं।
1 ) सही और सन्तुलित भोजन का सेवन।
2 ) निरन्तर शारीरिक व मानसिक व्यायाम।
3 ) उचित निद्रा व तनाव से मुक्ति।
4 ) नशे से दूरी।
यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस तरह से कोई केवल पढ़ने से पास नहीं हो सकता , उसी तरह केवल कोशिश करने से इम्यून सिस्टम को मज़बूत नहीं किया जा सकता है। क्योंकि पढ़ना पास होने की कोशिश है , पास होने की गारंटी नहीं। उसी तरह प्रतिरक्षा-तन्त्र को सही खा कर , ठीक से सो कर , नशा न करके, तनाव से दूर रहकर व व्यायाम द्वारा स्वस्थ रहने की केवल कोशिश की जा सकती है।
व्यक्तिगत और सार्वजनिक पर्यावरण को यथासम्भव स्वस्थ रखना ही प्रतिरक्षा-तन्त्र के सुचारु कामकाज के लिए हमारा योगदान हो सकता है। आनुवंशिकी तो फिर जैसी है , वैसी है ही।
(लेखक डॉ.स्कन्द शुक्ल चिकित्सा विज्ञान और प्रतिरक्षा विषय के विशेषज्ञ हैं।)(downtoearth)
भारत अपनी जीडीपी का 1.28 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है, जबकि चीन 3 प्रतिशत। ऐसे में अब हमें अपना एजेंडा बदलने की जरूरत है
- Sunita Narain
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जोर देकर कहा है कि अमेरिका में कोविड-19 के कारण होनेवाली मौतों की संख्या इतनी अधिक नहीं हैं। ऐसा उन्होंने उस दिन कहा जिस दिन इस वायरस के कारण अमेरिका में हुई मौतों की संख्या 1,60,000 को पार कर गई। हालांकि ट्रम्प कितने भी गलत क्यों न प्रतीत हों, उनकी बात में सच्चाई अवश्य है। यदि उनकी ही तरह आप भी अमेरिका में हो रही मौतों को कुल मामलों की तुलना में देखें, यानि केवल मृत्यु दर पर ध्यान दें, तो यह सच है कि अमरीका की हालत कई अन्य देशों से बेहतर है। अमेरिका में, मृत्यु दर 3.3 प्रतिशत के आसपास है, यह यूके और इटली में 14 प्रतिशत और जर्मनी में लगभग 4 प्रतिशत है। अतः वह सही भी है और पूरी तरह से गलत भी। अमेरिका में संक्रमण नियंत्रण से बाहर है। दुनिया की 4 प्रतिशत आबादी वाला देश 22 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार है। लेकिन अंततः बात इस पर आकर टिकती है कि आप किन बिंदुओं को चुनते हैं और किन आंकड़ों को प्रमुखता देते हैं।
यही कारण है कि भारत सरकार कहती आ रही है कि हमारी हालत भी अधिक बुरी नहीं है। भारत में मृत्यु दर कम (2.1 प्रतिशत) तो है ही, साथ ही यह अमेिरका की मृत्यु दर से भी कम है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे यहां संक्रमण की दर भले ही अधिक है लेकिन लोगों की उस हिसाब से मृत्यु नहीं हो रही है । लेकिन फिर सरकार यह भी कहती है कि भारत एक बड़ा देश है और इसलिए हमारे यहां होने वाले संक्रमण एवं मौतों की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक होगी। यही कारण है कि भारत में रोजाना औसतन 60,000 नए मामले (6 अगस्त तक, 2020 के पहले हफ्ते तक) आने के बावजूद, दस लाख आबादी पर कुल 140 मामले ही हैं और हम यह कह सकते हैं कि दुनिया के अन्य देशों के बनिस्पत हमारे यहां हालात नियंत्रण में हैं। अमेरिका में दस लाख पर 14,500 मामले हैं, ब्रिटेन में 4,500 और सिंगापुर में भी दस लाख पर 9,200 मामले हैं।
लेकिन हमारे यहां मामलों की संख्या इसलिए भी कम हो सकती है क्योंकि भारत में टेस्टिंग की दर बढ़ी अवश्य है लेकिन यह अब भी हमारी कुल आबादी की तुलना में नगण्य है। 6 अगस्त तक भारत ने प्रति हजार लोगों पर 16 परीक्षण किए जबकि अमेरिका ने 178 किए। यह स्पष्ट है कि हमारे देश के आकार और हमारी आर्थिक क्षमताओं को देखते हुए, अमेरिकी परीक्षण दर की बराबरी करना असंभव होगा। लेकिन फिर अपनी स्थिति को बेहतर दिखाने के लिए अमेिरका के साथ तुलना करने की क्या आवश्यकता है।
ऐसे में सवाल यह है कि हमसे क्या गलतियां हुई हैं और आगे क्या करना चाहिए। मेरा मानना है कि यही वह क्षेत्र है जिसमें भारत ने अमेरिका से बेहतर काम किया है। हमारी सरकार ने शुरू से ही मास्क पहनने की आवश्यकता पर जोर दिया और कभी इस वायरस को कमतर करके नहीं आंका है। हमने दुनिया के अन्य हिस्सों में सफल रहे सुरक्षा नुस्खों का पालन करने की पुरजोर कोशिश की है।
भारत ने मार्च के अंतिम सप्ताह में एक सख्त लॉकडाउन लगाया जिसकी हमें बड़ी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ी है। इस लॉकडाउन की वजह से हमारे देश के सबसे गरीब तबके को जान माल की भारी हानि उठानी पड़ी है। जो भी संभव था हमने किया। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि वायरस हमसे जीत चुका है या कम से कम फिलहाल तो जीत रहा है। हमें हालात को समझने की आवश्यकता है और इस बार विषय बदलने और लीपापोती से काम नहीं चलेगा।
इसका मतलब है कि हमें अपनी रणनीति का विश्लेषण करके अर्थव्यवस्था को फिर से चालू करने और करोड़ों गरीब जनता तक नगद मदद पहुंचाने की आवश्यकता है। देश में व्यापक संकट है, भूख है, बेरोजगारी है, चारों ओर अभाव का आलम है। इसकी भी लीपापोती नहीं की जा सकती।
हमारे समक्ष शीर्ष पर जो एजेंडा है वह है सार्वजनिक बुनियादी ढांचे और उससे भी महत्वपूर्ण, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के मुद्दे का समाधान। हमारे सबसे सर्वोत्तम शहरों में भी गरीब लोग रहते हैं। ऐसा न होता तो हमारे गृह मंत्री सहित हमारे सभी उच्च अधिकारी जरूरत पड़ने पर निजी स्वास्थ्य सेवाओं की मदद क्यों लेते। संदेश स्पष्ट है, भले ही हम इन प्रणालियों को चलाते हों, लेकिन जब अपने खुद के स्वास्थ्य की बात आती है तो हम उन सरकारी प्रणालियों पर भरोसा नहीं करते। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि उन राज्यों, जिलों और गांवों में, जहां संक्रमण में इजाफा हो रहा है, वहां स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा न के बराबर है।
यह भी एक तथ्य है कि सरकारी प्रणालियां अपनी क्षमता से कहीं अधिक बोझ उठाते-उठाते थक चुकी हैं। वायरस के जीतने के पीछे की असली वजह यही है। डॉक्टर, नर्स, क्लीनर, नगरपालिका के अधिकारी, प्रयोगशाला तकनीशियन, पुलिस आदि सभी दिन-रात काम कर रहे हैं और ऐसा कई महीनों से चला आ रहा है। सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में शीघ्र निवेश किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि अब समय आ चुका है जब सरकार को इन एजेंसियों और संस्थानों के महत्व को स्वीकार करना चाहिए। हम सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी भी करें और समय आने पर वे निजी सेवाओं से बेहतर प्रदर्शन करें, यह संभव नहीं है।
अतः हमारी आगे की रणनीति ऐसी ही होनी चाहिए। हमें सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों और नगरपालिका शासन में भारी निवेश करने की आवश्यकता है। हमें इस मामले में न केवल आवाज उठानी है बल्कि इसे पूरा भी करना है। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करने की हमारी वर्तमान दर न के बराबर है। जीडीपी का लगभग 1.28 प्रतिशत।
हमारी तुलना में, चीन अपनी कहीं विशाल जीडीपी का लगभग 3 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है और पिछले कई वर्षों से ऐसा करता आया है। हम इस एजेंडे को अब और नजरअंदाज नहीं कर सकते। कोविड-19 का मतलब है स्वास्थ्य को पहले नंबर पर रखना। इसका मतलब यह भी है कि हमें अपना पैसा वहां लगाना चाहिए जहां इसकी सर्वाधिक आवश्यकता हो। यह स्पष्ट है कि हमें बीमारियों को रोकने के लिए बहुत कुछ करना होगा। दूषित हवा, खराब भोजन एवं पानी और स्वच्छता की कमी के कारण होने वाली बीमारियों पर लगाम लगाना हमारा उद्देश्य होना चाहिए। अब बात हमारे देश, हमारे स्वास्थ्य की है।(downtoearth)
वैक्सीन पर लोग कितना भरोसा करते हैं, इस बारे में लांसेट ने 149 देशों के 284,381 व्यक्तियों लोगों के बीच एक सर्वेक्षण किया
- DTE Staff
2015 और 2019 के बीच कई देशों में वैक्सीन के प्रति झिझक की प्रवृत्ति बढ़ी है। 10 सितंबर 2020 को द लांसेट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में यह जानकारी दी गई है। अध्ययन के शोधकर्ताओं ने यह समझने की कोशिश की है कि दुनिया भर के लोग टीकों के प्रभाव, सुरक्षा और महत्व के बारे में कैसा महसूस करते हैं।
यह सर्वेक्षण 149 देशों के 284,381 व्यक्तियों के बीच किया गया। सर्वेक्षण के मुताबिक, दूसरे देशों के मुकाबले भारत में सबसे अधिक लोगों ने माना कि वैक्सीन के टीके प्रभावी रहते हैं। 2019 में भारत में 84.26 प्रतिशत माना कि टीका प्रभावी रहते हैं। अल्बानिया इस संबंध में सबसे निचले स्थान पर है, जिसमें 14.2 प्रतिशत लोग मानते हैं कि टीके प्रभावी रहते हैं।
युगांडा के सबसे अधिक लोगों (87.24 प्रतिशत ) ने माना कि वैक्सीन के टीके सुरक्षित रहते हैं, जबकि जापान में सबसे कम 17.13 प्रतिशत लोगों ने टीका की सुरक्षा पर विश्वास जताया।
जापानियों में वेक्सीन के प्रति असुरक्षा की भावना के बारे में लेखकों ने कहा कि ऐसा हयूमन पैपिलोमावायरस (एचपीवी) वैक्सीन की वजह से हो सकता है। यह वैक्सीन 2013 में शुरू हुआ था, जो सर्वाइकल कैंसर को रोकने के लिए था, लेकिन तब जापान के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय ने एचपीवी वैक्सीन की सिफारिशों को निलंबित कर दिया था।
लंदन के इम्पीरियल कॉलेज की क्लैरिसा सिमास और लंदन स्कूल ऑफ हेल्थ एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के अलेक्जेंड्रे डी फिगुएरेडो इस पेपर के प्रथम संयुक्त लेखक हैं।
2019 में इराक में सबसे अधिक (95.17 प्रतिशत) लोगों ने माना कि वैक्सीन बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन अल्बानिया में सबसे कम 26.06 प्रतिशत लोगों ने वैक्सीन की महत्ता को माना।
अध्ययन के लेखकों ने कहा कि कुल मिलाकर कई देशों में टीकों पर विश्वास की प्रवृत्ति घट रही है। नवंबर 2015 से दिसंबर 2019 के बीच अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और दक्षिण कोरिया में तीनों मापदंडों पर भरोसा सबसे ज्यादा गिर गया।
फिलीपींस एक बड़ा उदाहरण है, जहां टीके के प्रति विश्वास में सबसे ज्यादा कमी देखी गई है। यह देश 2015 के अंत में इस श्रेणी में 10वें स्थान पर था, लेकिन 2019 में वह 70वें स्थान से पार पहुंच गया।
इस अध्ययन के अनुसार, सनोफी एसए द्वारा निर्मित डेंगू वैक्सीन (डेंगवाक्सिया) के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह वहां (फिलीपींस) 2017 में पेश किया गया था, लेकिन यह वैक्सीन सेहत के लिए नुकसान पहुंचाने से लगभग 850,000 बच्चों को दिया जा चुका था।
अध्ययन के लेखकों के अनुसार, इंडोनेशिया में 2015 और 2019 के बीच टीके प्रति विश्वास में एक बड़ी गिरावट देखी, जो आंशिक रूप से खसरा, कण्ठमाला, और रूबेला (एमएमआर) वैक्सीन की सुरक्षा पर सवाल उठा रहे थे। उन्होंने कहा कि धार्मिक नेताओं ने एक फतवा जारी किया, जिसमें कहा गया कि वैक्सीन में सूअरों का मांस पाया गया, इसलिए लोगों ने वैक्सीन को नकारना शुरू कर दिया।
हालांकि, केवल धर्म को ही वैक्सीन के प्रति अविश्वास का कारण नहीं माना गया, बल्कि गलत प्रचार और वैज्ञानिक साक्ष्य उपलब्ध न करा पाने के कारण भी लोगों ने वैक्सीन पर विश्वास नहीं किया।
दक्षिण कोरिया और मलेशिया में, वैक्सीन के खिलाफ ऑनलाइन अभियान चलाए गए। दक्षिण कोरिया में, एक ऑनलाइन एंटी-वैक्सीनेशन ग्रुप जिसका नाम ANAKI है ने बचपन के टीकाकरण के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया।
हालांकि, फ्रांस, भारत, मैक्सिको, पोलैंड, रोमानिया और थाईलैंड ने वैक्सीन के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया है। इन देशों में टीकों के प्रति विश्वास के साथ-साथ कई निर्धारक भी पाए गए। जैसे
- वैक्सीन पर उच्च विश्वास (66 देश)
- परिवार, दोस्तों या अन्य गैर-चिकित्सा स्रोतों से अधिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर भरोसा करना (43 देशों)
- विज्ञान शिक्षा का उच्च स्तर (35 देश)
- लिंग, महिलाओं के साथ पुरुषों की तुलना में किसी भी बच्चे की रिपोर्ट करने की अधिक संभावना
- आयु (युवा आयु वर्ग में आगे बढ़ने की संभावना बेहतर थी
नोवल कोरोनावायरस रोग (कोविड-19) महामारी ने दुनिया की सबसे तेज वैक्सीन बनाने की प्रक्रियाओं की शुरुआत की है, जिसके चलते लोगों में भी वैक्सीन के प्रति उम्मीद बंधी है। (downtoearth)
ऐसा पहली बार है कि भारत में कोई महत्वपूर्ण चुनाव न होने पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक लंबे समय से देश में ही हैं
- अभय शर्मा
दुनिया भर में कोरोना वायरस का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है. भारत सहित पूरी दुनिया में सवा लाख से ज्यादा लोग इसके चलते अपनी जान गवां चुके हैं. इस महामारी के चलते आम लोग ही नहीं दुनिया भर के बड़े नेताओं का भी दूसरे देशों में आना-जाना बेहद कम या फिर बंद हो गया है. भारत की तरफ से देखें तो सबसे बड़े नेताओं में विदेश मंत्री एस जयशंकर और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कोरोना काल में विदेश यात्राएं की हैं. ये दोनों हाल ही में रूस और फिर ईरान की यात्रा पर गए थे. राजनाथ सिंह ने बीते जून में भी रूस की यात्रा की थी.
लेकिन, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना काल के दौरान विदेश का रुख नहीं किया. अगर आंकड़ों को देखें तो आज विदेश से लौटे हुए उन्हें पूरे दस महीने हो गए हैं. बीते साल 15 नवंबर को वे दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील की दो दिवसीय यात्रा से लौटे थे. इसके बाद से वे किसी भी विदेश यात्रा पर नहीं जा पाए हैं.
आइए जानते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी ने हर साल नवंबर से लेकर सितंबर तक कितने देशों की यात्राएं कीं. यह भी कि वे इससे पहले कब-कब लंबे समय तक देश में ही रुके रहे और रुकने की वजह क्या थी?
नवंबर 2014 से सितंबर 2015
नरेंद्र मोदी मई 2014 में भारत के प्रधानमंत्री बने थे. इसके बाद अगले चार महीनों यानी सितंबर तक उन्होंने अमेरिका सहित पांच देशों की यात्रा कर ली थी. इसके बाद उन्होंने नवंबर 2014 से लेकर सितंबर 2015 तक यानी 11 महीनों में कुल 24 देशों की यात्राएं की. नवंबर में वे म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया, फिजी और नेपाल की यात्रा पर गए. इसके बाद मार्च 2015 में उन्होंने सेशेल्स, मॉरीशस, श्रीलंका और सिंगापुर की यात्रा की. इसी साल अप्रैल में पहली बार बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने यूरोप का रुख किया और फ्रांस एवं जर्मनी की यात्रा की.
2015 की फ्रांस की यात्रा बीते दिनों काफी चर्चा में रही थी और इसे लेकर भारत में काफी सियासी घमासान हुआ था. इसकी वजह थी कि इसी यात्रा में भारत और फ्रांस के बीच रफाल लड़ाकू विमान खरीदने पर सहमति बनी थी. 2018 में फ्रांसीसी खबरिया वेबसाइट ‘मीडियापार्ट’ ने फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का एक बयान छापा था. इसमें उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री की फ्रांस यात्रा के दौरान भारत सरकार ने रफाल सौदे में अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस को शामिल करने का प्रस्ताव रखा था. हालांकि, इन विवादों का इस डील पर कोई असर नहीं पड़ा और सरकार ने इन आरोपों को गलत बताते हुए कहा कि 36 विमानों की डील फाइनल हो चुकी है. इस डील के तहत ही बीते जुलाई में फ़्रांस ने पांच रफाल लड़ाकू विमानों की पहली खेप भारत को सौंप दी.
बहरहाल, 2015 के अप्रैल महीने से लेकर सितंबर तक प्रधानमंत्री ने 14 देशों की यात्राएं की. इनमें कनाडा, चीन, मंगोलिया, दक्षिण कोरिया, बांग्लादेश, उज्बेकिस्तान, कजाख्स्तान, रूस, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, आयरलैंड और अमेरिका शामिल हैं. अगस्त 2015 में नरेंद्र मोदी संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) भी गए थे. उनके रूप में कोई भारतीय प्रधानमंत्री 34 साल बाद यूएई पहुंचा था.
नवंबर 2015 से सितंबर 2016
नवंबर 2015 से लेकर सितंबर 2016 तक पीएम नरेंद्र मोदी ने कुल 26 मुल्कों की यात्रा की. 2015 नवंबर में वे पहली यात्रा पर ब्रिटेन गए. इसके बाद वे इसी महीने तुर्की, मलेशिया और सिंगापुर गए. दिसंबर में उन्होंने फ्रांस, रूस और अफगानिस्तान की आधिकारिक यात्राएं की. अफगानिस्तान की इसी यात्रा के बाद प्रधानमंत्री ने एक ऐसा निर्णय लिया जिसने भारत सहित पूरी दुनिया को चौंका दिया था. 25 दिसंबर को काबुल से निकलने के बाद अचानक नरेंद्र मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ से मिलने लाहौर पहुंच गए. लाहौर हवाई अड्डे पर शरीफ़ ने खुद मोदी की अगवानी की. इसके बाद वे हेलीकॉप्टर से नवाज़ शरीफ़ के घर रायविंद पैलेस पहुंचे और उनकी नातिन की शादी में शरीक हुए. इसके बाद मार्च 2016 में पीएम मोदी बेल्जियम और अप्रैल में सऊदी अरब के दौरे पर गए. मार्च 2016 में वे अमेरिका में हुए परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मलेन में भी हिस्सा लेने गए थे. यह यात्रा एक दिन की थी.
इसी साल मई से लेकर सितंबर तक प्रधानमंत्री ने 15 देशों की यात्राएं कीं, इनमें अफगानिस्तान और अमेरिका दो ऐसे देश हैं जिनकी यात्रा पर प्रधानमंत्री एक साल में दूसरी बार गए. इसके अलावा वे जिन देशों की यात्रा पर गए थे, उनमें ईरान, क़तर स्विट्जरलैंड, मैक्सिको, उज्बेकिस्तान, अफ्रीका के दक्षिण में स्थित छोटे देश मोजाम्बिक, दक्षिण अफ्रीका, तंजानिया, केन्या, वियतनाम और चीन शामिल हैं. सितंबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में शामिल होने लाओस गए थे.
नवंबर 2016 से सितंबर 2017
नरेंद्र मोदी के अब तक के पूरे कार्यकाल में नवंबर 2016 से लेकर सितंबर 2017 तक की समयावधि ऐसी है जब उन्होंने सबसे कम (13) देशों यात्राएं कीं. इस दौरान उन्होंने शुरूआती छह महीनों में यानी नवंबर 2016 से अप्रैल 2017 की समयावधि में केवल तीन दिन ही विदेश में गुजारे. इस दौरान उन्होंने केवल थाईलैंड और जापान का दौरा ही किया. इन छह महीनों के दौरान नरेंद्र मोदी के कम यात्रायें करने की वजह उत्तर प्रदेश के चुनाव को माना जाता है. फरवरी और मार्च 2017 में हुए इस चुनाव के लिये प्रधानमंत्री ने जनवरी से ही प्रचार करना शुरू कर दिया था.
उत्तर प्रदेश के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बड़ी जीत दिलवाने के एक महीने बाद प्रधानमंत्री ने फिर विदेश का रुख किया और अगले पांच महीनों में 11 देशों की यात्रायें की. मई में वे सबसे पहले एक दिन के लिए श्रीलंका पहुंचे फिर इसी महीने के अंत में उन्होंने जर्मनी, स्पेन और रूस की यात्रा की. 2 जून को रूस से सीधे फ्रांस का रुख किया. जून 2017 में पीएम मोदी ने कजाखस्तान, पुर्तगाल, अमेरिका और नीदरलैंड का दौरा भी किया. इस साल जुलाई में वे इजरायल और सितंबर में चीन और म्यांमार के दौरे पर गए. जुलाई 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी20 शिखर सम्मेलन में शामिल होने एक दिन के लिए जर्मनी भी गए थे.
नवंबर 2017 से सितंबर 2018
नवंबर 2017 से सितंबर 2018 तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई ऐसे देशों का दौरा किया जहां कई दशकों से कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था. नवंबर में फिलीपींस और जनवरी में स्विटजरलैंड जाने के बाद उन्होंने फरवरी में एक के बाद एक चार मुस्लिम देशों - जॉर्डन, यूएई, फिलस्तीन और ओमान का दौरा किया. नरेंद्र मोदी के रूप में कोई भारतीय प्रधानमंत्री 58 साल बाद फिलस्तीन, 30 साल बाद जॉर्डन और 10 साल बाद ओमान पहुंचा था. इसके बाद अप्रैल में प्रधानमंत्री ने स्वीडन, ब्रिटेन, जर्मनी और चीन की यात्रा की. इस साल अगले पांच महीनों के दौरान नरेंद्र मोदी ने 10 देशों की यात्राएं की, इनमें उन्होंने नेपाल का दो बार दौरा किया.
नवंबर 2018 से सितंबर 2019
नवंबर 2018 से सितंबर 2019 के बीच पीएम मोदी 15 देशों की यात्राओं पर गये. इस दौरान कुछ देशों की यात्राओं पर वे दो बार भी गए. नवंबर 2018 में उन्होंने सिंगापुर, मालदीव और अर्जेंटीना का दौरा किया. इसके बाद फरवरी 2019 में उन्होंने दक्षिण कोरिया की दो दिवसीय यात्रा की. इसके बाद लोकसभा चुनाव के चलते अगले तीन महीने वे देश में ही रहे. लोकसभा का चुनाव निपटने के बाद जून 2019 से प्रधानमंत्री ने फिर विदेश यात्रा शुरू की और 11 देशों की यात्रायें कीं. इस दौरान उनकी जो विदेश यात्रा सुर्ख़ियों में रही थी, वह बहरीन की थी. दरअसल, नरेंद्र मोदी के रूप में पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने मध्यपूर्व के इस छोटे मुस्लिम देश की सरजमीं पर अपने कदम रखे थे.
नवंबर 2019 से सितंबर 2020
बीते सालों में अगर देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय तक विदेश यात्रा पर तब नहीं गए, जब देश में कोई महत्वपूर्ण चुनाव था. ऐसा पहली बार ही हुआ है कि देश में कोई बड़ा चुनाव नहीं है और प्रधानमंत्री इतने लंबे समय से देश में हैं. कोरोना वायरस संकट के चलते बीते मार्च में उनका बांग्लादेश का दौरा रद्द हो गया था. इसके बाद मार्च में ही इसी कारण से उन्हें अपना यूरोप का दौरा भी रद्द करना पड़ा.
हालांकि, मार्च से पहले प्रधानमंत्री के विदेश न जाने की वजह जानकार कोरोना वायरस के संकट को नहीं मानते. इनके मुताबिक 15 नवंबर 2019 से लेकर फरवरी 2020 तक प्रधानमंत्री नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के चलते विदेश नहीं गए. दुनिया भर में भारत सरकार के इस कदम का विरोध हो रहा था. यही नहीं, यूरोप से लेकर अमेरिका और मध्यपूर्व से लेकर चीन तक में सत्ताधारी नेता इस कानून को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना कर रहे थे. विश्लेषकों की मानें तो ऐसे समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी असहज स्थिति से बचने के लिए घर में बैठना ही बेहतर समझा.(satyagrah)
रमेश शर्मा
दसरू आदिवासी 80 साल के हैं। उनका जन्म किसमरधा गांव में हुआ था। आजा पुरखा से उसने कहानी सुनी कि उनकी 11 पीढिय़ां किसमरधा गांव में ही रहती आई है। दसरू बताते हैं कि तब गोंड और बैगा समाज के सब लोग खुशहाल थे। अन्नदा खेत खलिहान और फल-फूल से भरपूर जंगल था और तब हम सब अपने आपको सुखवासी कहते थे।
यह महज संयोग नहीं है कि 1 नवम्बर 2000 को जिस आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के महान नारों के साथ छत्तीसगढ़ का नए राज्य के रूप में गठन किया गया और उसमें जो सबसे पहली नीति घोषित हुई, वह बहुसंख्यक आदिवासी समाज की अपनी ‘आदिवासी नीति’ नहीं, बल्कि बल्कि आदिवासियों के विकास के लिए प्रतिबद्ध सरकार की ‘औद्योगिक नीति-2000’ थी। उस समय का सबसे प्रमुख राजनैतिक दर्शन मानता था कि छत्तीसगढ़ की अमीर धरती में रहने वाले आखिर गरीब क्यों होने चाहिए? छत्तीसगढ़ की अमीर धरती के गरीबों के लिए सामाजिक न्याय, आर्थिक सम्पन्नता, संसाधनों के अधिकार जैसे नए पैमानों के सुलझे-उलझे तर्कों और तथ्यों के साथ विकास की अंधाधुंध योजनाएं बननी शुरू हुई। और किसमरधा जैसे अमीर धरती वाले गांवों से तथाकथित विकास की महानदी बह निकली।
भारतीय संदर्भों में विकास की एक कीमत होती है, जिसे राजनेताओं, उद्योगपतियों, प्रशासकों और निवेशकों का गठजोड़ निर्धारित करता है और उसका भुगतान-अमीर धरती के गरीबों को ही गिरवी रखकर किया जाता रहा है। छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बाहुल्य राज्य के बीस बरसों का संक्षिप्त इतिहास और वर्तमान उनके अपने विकास की कही-अनकही कहानी है। छत्तीसगढ़ जैसे नए और प्राकृतिक संपदा से भरपूर राज्य में विकास की तमाम योजनाएं बनी, योजनाओं को लागू करने समर्पित लोगों का पूरा महकमा खड़ा किया गया, महकमे को बनाए रखने के लिए नए कायदे-कानून निर्धारित किए गए और फिर अमीर धरती के गरीब लोगों को यह बताया गया कि विकास की ‘कुछ कीमत’ चुकानी होगी। नए संदर्भों मे विकास, स्थापित लोकतंत्र की नैतिक-राजनैतिक आवश्यकता है, लेकिन हरेक विकास लोकतांत्रिक ही होना चाहिए या नहीं, यह चुनाव उनके हाथ में तो कतई नहीं है, जिन्हें विकास के लाभार्थी के रूप में अक्सर स्थापित अथवा विस्थापित किया जाता रहा है।
किसमरधा, छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के आदिवासी बहुल दलदली बोदाई क्षेत्र का एक बेहद खूबसूरत गांव हुआ करता था। मैकाल की पहाडिय़ों के शिखर पर बसे किसमरधा, रपदा, सेमसाता, मुंडादादर आदि गावों में वर्ष 2003 से वेदांता - बालको कंपनी के द्वारा बॉक्साइट उत्खनन शुरू किया गया। इन गांवों के निहत्थे नागरिक दसरू, लेमरू, उजियारो बाई और परमा बाई जैसे वो बुज़ुर्ग जिन्होंने इस विकास के दंश को अपने दिलो-दिमाग से महसूस किया। वो बताते हैं कि - छत्तीसगढ़ के विकास और आदिवासी अधिकारों के नाम पर निर्वाचित सरकारों द्वारा, किस बेहियाई के साथ उनकी अमीर धरती का सौदा कर दिया गया।
लेमरू बैगा कहते हैं कि धीरे-धीरे हमें विश्वास होता गया कि अपनी चुनी हुई सरकार और सरकार की चुनी हुई कंपनी में कोई भी अब अपना नहीं है। किसमरधा, रपदा, सेमसाता और मुंडादादर के लोगों को विकास के चौसर में दांव पर लगा दिया गया। दसरू, लेमरू, उजियारो बाई और परमा बाई एकस्वर मे कहते हैं कि हमारे जंगल जमीन के सौदे की असलियत मालूम होते-होते कंपनी के बड़े-बड़े मशीन, धरती के सीने को छलनी करने लगे। और फिर डायनामाइट की गंध और गर्द से हमारे आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा।
‘छत्तीसगढ़ में अंजोर’ (उजाला) शीर्षक से विकास की रिपोर्टें छपी और बरस दर बरस छपती चली गयी। विकास की इन रिपोर्टों में दसरू, लेमरू और उजियारो के अस्तित्व, अब संज्ञाहीन आंकड़ों में बदल चुके थे। हरे भरे आंकड़ों के रंगबिरंगे रिपोर्टों में किसमरधा, रपदा, सेमसाता और मुंडादादर-विकास के गर्दिश में गुमनाम होते चले गये। बेबस गांवों के मु_ीभर लोगों ने मिलकर घोषणा कर दी कि वो अपनी जमीनों से कभी भी और किसी भी कीमत पर नहीं हटेंगे। तब तक कंपनी के रिकॉर्ड में लगभग 261 परिवारों की जमीन, तथाकथित ‘सहमति’ के शर्तों पर खरीदी गई और लगभग 182 लोगों का कागजी पुनर्वास भी पूरा कर दिया गया। लेमरू सहित अधिकांश बैगा आदिवासी परिवार खदेड़ दिए गए, क्योंकि उनके पास अपनी जमीनों का पट्टा ही नहीं था। उनके अपने आजा-पुरखा के जंगल, विकास के लिए कुर्बान कर दिए गए। बेजमीन हो चुके लोगों ने यह मान लिया कि अब खुला आकाश ही उनका नया आशियाना है।
दुनिया को बताया गया कि ‘छत्तीसगढ़ की पुनर्वास नीति’ सबसे बेहतर और प्रभावशाली है। उजियारो और परमा बाई ने कभी इस पुनर्वास नीति की कोई कथा नहीं सुनी। दुर्भाग्यवश उनकी व्यथा, कभी पुनर्वास नीति का हिस्सा ही नहीं हो सकी। इसीलिए उन जैसे बेजमीन कर दिए गए लोगों के लिए विकास के सपने और पुनर्वास के यथार्थ दोनों ही अर्थहीन रह गए।
मगनू जैसा नौजवान उन चंद किस्मत वालों में शामिल रहा जिसे हाड़तोड़ मजदूरी के लिए खदान के ठेकेदारों ने अपेक्षाकृत उपयुक्त व्यक्ति माना। मगनू बताते हैं कि धरती के चीथड़ों से बॉक्साइट के पत्थर ढोते-ढोते हाथ- रक्तिम लाल हो जाते थे, कभी-कभी ऐसा महसूस होता था कि मैं बॉक्साइट के टुकड़े नहीं, मानो अपने ही हाथों से धरती के रक्त से सना कतरा निकाल रहा हूँ। बहरहाल, विकास के सतरंगी शब्दकोष, अर्थतंत्र के अकड़ते हुए आंकड़ों और पुनर्वास के भरे-पूरे आश्वासनों में बेजमीन हो चुके लोग, शनै: शनै: समाप्त होते चले गए। छत्तीसगढ़ के विकास की कथायें रायगढ़, रायपुर और राजनाँदगाँव जैसे विकास में जगमगाते शहरों के लैम्पपोस्टों पर लटकते इश्तेहारों मे पूरा देश देखता और आश्वस्त होता रहा। लेकिन- दसरू, लेमरू और उजियारों के गांव-बरस दर बरस-रायपुर से और दूर होते गए।
उत्खनन के लगभग 15 बरस बाद बेजमीन हो चुका लेमरू बैगा, आज अपनी ही जन्मभूमि में किसी अपराधी की तरह रहने को अभिशप्त है। उसे अब भी विश्वास है कि एक दिन वो और उस जैसे तमाम बेज़मीन लोग, अपने आजा-पुरखा के उस पवित्र भूमी पर लौट सकेंगे जहाँ उनका इतिहास और भूगोल दफऩ है। बैगा आदिवासियों के अपने जीवनदर्शन में भविष्य की कोई परिकल्पना नहीं है। दरअसल उनका इतिहास ही है जो संपन्न विरासत की जीवित दंतकथा है। वो मानते हैं कि प्रकृति के प्रति उनका प्रेम ही आने वाले अपने भविष्य की एकमात्र आवश्यकता है। विचित्र विरोधाभास है कि इतिहास में जीने वाला एक आदिवासी समाज तो ऐसा मानता है लेकिन भविष्य के सपनों पर अपना एकाधिकार मानने वाला तथाकथित आधुनिक समाज, अब तक छद्म विकास के मुग़ालते में जी रहा है।
आज का नया छत्तीसगढ़ गढऩे वालों के समक्ष चुनौती केवल यह नहीं है कि वह आंकड़ों के बाजीगरी से परे आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के भूले-बिसरे सवालों का नया जवाब तराशे, बल्कि अवसर इस बात के भी हैं कि विकास के लिए नए जवाब अब उन हजारों भूले-बिसरे लोगों से भी/ही पूछे। छत्तीसगढ़ के लगभग आधे भू-भाग से उठते आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के सवालों का समाधान स्थापित करने का अर्थ होगा कि विकास की आपाधापी में बहुत पीछे छूट चुके सर्वहारा समाज को उनके अपने छत्तीसगढ़ के पुनर्निर्माण के अवसर और अधिकार दोनों देना। नये छत्तीसगढ़ की नई यात्रा यहीं से शुरू होगी। कल - आज और कल के बीच खड़ा आदिवासी समाज इस नई यात्रा के ख़ातिर अब किसी सार्थक उत्तर की प्रतीक्षा में है। (downtoearth.org.in/hindistory)
(लेखक एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार को हिंदी दिवस मनाते-मनाते 70 साल हो गए लेकिन कोई हमें बताए कि सरकारी काम-काज या जन-जीवन में हिंदी क्या एक कदम भी आगे बढ़ी? इसका मूल कारण यह है कि हमारे नेता नौकरशाहों के नौकर हैं। वे दावा करते हैं कि वे जनता के नौकर हैं। चुनावों के दौरान जनता के आगे वे नौकरों से भी ज्यादा दुम हिलाते हैं लेकिन वे ज्यों ही चुनाव जीतकर कुर्सी में बैठते हैं, नौकरशाहों की नौकरी बजाने लगते हैं। भारत के नौकरशाह हमारे स्थायी शासक हैं। उनकी भाषा अंग्रेजी है।
देश के कानून अंग्रेजी में बनते हैं, अदालतें अपने फैसले अंग्रेजी में देती हैं, ऊंची पढ़ाई और शोध अंग्रेजी में होते हैं, अंग्रेजी के बिना आपको कोई ऊंची नौकरी नहीं मिल सकती। क्या हम हमारे नेताओं और सरकार से आशा करें कि हिंदी-दिवस पर उन्हें कुछ शर्म आएगी और अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर वे प्रतिबंध लगाएंगे? यह सराहनीय है कि नई शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषाओं के माध्यम को लागू किया जाएगा लेकिन उच्चतम स्तरों से जब तक अंग्रेजी को विदा नहीं किया जाएगा, हिंदी की हैसियत नौकरानी की ही बनी रहेगी।
हिंदी-दिवस को सार्थक बनाने के लिए अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर प्रतिबंध की जरुरत क्यों है? इसलिए नहीं कि हमें अंग्रेजी से नफरत है। कोई मूर्ख ही होगा जो किसी विदेशी भाषा या अंग्रेजी से नफरत करेगा। कोई स्वेच्छा से जितनी भी विदेशी भाषाएं पढ़ें, उतना ही अच्छा! मैंने अंग्रेजी के अलावा रुसी, जर्मन और फारसी पढ़ी लेकिन अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा। 55 साल पहले देश में हंगामा हो गया। संसद ठप्प हो गई, क्योंकि दिमागी गुलामी का माहौल फैला हुआ था। आज भी वही हाल है। इस हाल को बदलें कैसे?
हिंदी-दिवस को सारा देश अंग्रेजी-हटाओ दिवस के तौर पर मनाए! अंग्रेजी मिटाओ नहीं, सिर्फ हटाओ! अंग्रेजी की अनिवार्यता हर जगह से हटाएं। उन सब स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की मान्यता खत्म की जाए, जो अंग्रेजी माध्यम से कोई भी विषय पढ़ाते हैं। संसद और विधानसभाओं में जो भी अंग्रेजी बोले, उसे कम से कम छह माह के लिए मुअत्तिल किया जाए। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह महात्मा गांधी ने कहा था।
सारे कानून हिंदी और लोकभाषाओं में बनें और अदालती बहस और फैसले भी उन्हीं भाषाओं में हों। अंग्रेजी के टीवी चैनल और दैनिक अखबारों पर प्रतिबंध हो। विदेशियों के लिए केवल एक चैनल और एक अखबार विदेशी भाषा में हो सकता है। किसी भी नौकरी के लिए अंग्रेजी अनिवार्य न हो। हर विश्वविद्यालय में दुनिया की प्रमुख विदेशी भाषाओं को सिखाने का प्रबंध हो ताकि हमारे लोग कूटनीति, विदेश व्यापार और शोध के मामले में पारंगत हों। देश का हर नागरिक प्रतिज्ञा करे कि वह अपने हस्ताक्षर स्वभाषा या हिंदी में करेगा तथा एक अन्य भारतीय भाषा जरुर सीखेगा। हम अपना रोजमर्रा का काम—काज हिंदी या स्वभाषाओं में करें। भारत में जब तक अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा याने अंग्रेजी महारानी बनी रहेगी तब तक आपकी हिंदी नौकरानी ही बनी रहेगी। (लेखक, भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनुप्रिया
संसद में प्रश्नकाल को खत्म करने के कारण हमें समझ आते हैं, कि यह सरकार विपक्ष को कमजोर किए रखना चाहती है, कि इस सरकार को सवालों से डर लगता है और यह उनका सामना करने में पूरी तरह असमर्थ है, कि सरकार देश के जरूरी मसलों को नजरंदाज करके अपनी कॉरपोरेट नत मस्तक पॉलिसी और जनता को लगातार विभाजित करते हुए फूट डालो और शासन करो पॉलिसी पर फोकस बनाए रखना चाहती है और नहीं चाहती कि इससे इतर सवाल इससे पूछे जाएँ या देश के असल मुद्दों पर ध्यान देने के लिये इस पर दबाव बनाया जाए।
प्रधानमंत्री ख़ुद अपने मामले में इस एजेंडे में बहुत अधिक सफल भी हुए हैं, उनका प्रेस से बात न करने, एकतरफा मन की बात करने, किसी भी सवाल का जवाब न देने यहाँ तक प्रधानमंत्री केयर फंड को आरटीआई से अलग रखने और उस बाबत भी कोई जवाब न देने जैसे प्रयोग सफल रहे हैं। उनके विरोधी भले ही बतौर प्रधानमंत्री उनके हद दर्जे से ज्यादा गैर लोकतांत्रिक तरीके पर सवाल उठाते रहें मगर अबतक कोई भी ऐसा संवैधानिक तरीका नजर नहीं आया है जिससे उनके इस तरीके को गैर संवैधानिक ठहराकर उन्हें प्रेस, विपक्ष और जनता के सवालों का जवाब देने के लिए मजबूर किया जा सके।
उनका यह सफल प्रयोग अब संसद में भी लागू किया जा रहा है, जहाँ विपक्ष उनसे प्रश्नकाल में कोई सवाल नहीं पूछ सकता, और इसका कारण महज कोरोना नहीं है, बड़ी हास्यास्पद दलील यह दी गई है कि पिछले सत्रों में पाया गया है कि संसद में प्रश्नकाल का 50 फीसदी समय व्यर्थ गया है, यानि उसकी कोई उपयोगिता नही रही है, संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी का कहना है कि 60 फीसदी राज्यसभा और 40 फीसदी राज्यसभा के समय व्यर्थ गया है।
आप इस दलील पर महज हैरान हो सकते हैं कि लोकतंत्र के एक जरूरी स्तंभ को इसलिए ढहाया जा रहा है कि वह 100 फीसदी उपयोगी नहीं रहा? बजाय उसे और उपयोगी बनाए जाने की कोशिश किए जाने के उसे खत्म करना ही सरकार को ठीक लग रहा है?
तब तो गृहमंत्री के पद की भी कोई उपयोगिता हमे नजर नहीं आती, देश के सबसे महत्वपूर्ण और आपात स्थिति में वो हर तरह से असमर्थ होकर लगातार अस्पतालों में बने हुए हैं और देश उनके बिना भी चल रहा है, कहीं कुछ रूक नहीं रहा।
जरूरत और उपयोगिता तो सरकार की भी कम नजर आती है जिसे देश में कितने प्रवासी मजदूरों की मृत्यु हुई इस आँकड़े का पता ही नहीं है, जो अर्थव्यवस्था के गिरने को महज भगवान का कार्य कहती है, जिसके पास कोरोना से निबटने के लिए कोई योजनबद्ध कदमों की जगह ताली, थाली, घण्टे जैसे झाड़-फूंक तरीके थे, और जो लगभग सभी सरकारी निकायों को संभालने में पूरी तरह विफल रही, इसलिए उन्हें लगातार बेच रही है।
उपगोगिता तो चौथे खम्बे कहलाए जाने वाले न्यूज मीडिया की भी न के बराबर है जो देश के सभी जरूरी मुद्दों को नजरंदाज करके एक बड़े महत्वपूर्ण काल में महज सिने कलाकारों पर फोकस रखती है।
प्रधानमंत्री ने फिर से सीमा पर सैनिक का वास्ता देकर संसद से एकजुटता का संदेश जाना चाहिए ऐसी गुहार लगाई है, साफ है कि वो बचना चाहते हैं हर उस सवाल से जो उनके लिये असुविधाजनक है, जिन सैनिकों की शहादत के सम्मान में वो सीमा पार के दुश्मन का नाम तक न ले सके आज फिर उनकी दुहाई दे रहे हैं।
यूँ भी अब दुनिया मे हमला करने के तरीके बदल गए हैं, अब हमले बमों से नहीं, सर्वरों से किये जाते हैं, निजता और गोपनीयता को खत्म करने से किए जाते हैं, आपको प्रोफाइल प्रोटेक्शन देने वाला फेसबुक आपके मोबाइल की एक एक गतिविधि का सुराग रखता है, और बेहद राष्ट्रवादी तौर तरीकों के बावजूद ट्रम्प शांति के नोबल के लिये नामित हो जाते हैं। इसलिए आज के युग में इंदिरा गाँधी के ढाई साल के आपातकाल की लगातार दुहाई देने वाली सरकार को अब उन तरीकों की जरूरत नहीं रही, लोकतंत्र पर साफ हमले की जगह घुन ही काफी है, इससे स्पष्ट जिम्मेदारी भी नहीं आती।
जिस तरह लोकतांत्रिक स्तंभों को लगातार कमजोर किया जा रहा है, साफ है इस सरकार का लोकतंत्र में भरोसा इनकी नीयत की ही तरह खोखला है।
अभी का जमाना सोशल मीडिया और उस पर शुरू घमासान का है। उस पर किसी प्रकार का न अंकुश है, न ही मर्यादा। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायमूर्ति रमण ने इस मुद्दे पर बोलते हुए न्यायाधीशों के मन की पीड़ा कही है। दिल्ली में एक पुस्तक विमोचन समारोह में न्यायमूर्ति रमण ने कहा, ‘देश के न्यायाधीश सोशल साइट्स की जननिंदा और तथ्यहीन गॉसिप के शिकार हो रहे हैं।’ कानून ने ही न्यायाधीशों के मुंह को बांध रखा है और ऐसे हालात बने हैं। न्यायाधीश रमण के उद्गार में यह भाव सामने आया। न्यायाधीश रमण ने जो कुछ कहा, वह सही ही है और थोड़े-बहुत फर्क के साथ आज हर क्षेत्र में यही स्थिति है। इसके पहले भी ‘गॉसिप’ होता ही था। पुरातन काल में भी यह अपवाद नहीं रहा। महाभारत के युद्ध में ‘अश्वत्थामा’ नामक हाथी मारा गया या द्रोणपुत्र? इस बारे में धर्मराज युधिष्ठिर ने जो ‘नरोवा कुंजरोवा’ के रूप में अपना पक्ष रखा, वह एक प्रकार से ‘गॉसिप’ जैसा ही था। इसलिए यह सब पहले से ही शुरू है। सिर्फ उसका फैलाव मर्यादित था। जो भी ‘मीडिया’ था, वह आज के जैसा ‘सोशल’ नहीं था इसलिए गॉसिप या खुसुर-फुसुर मर्यादित थी। फिर दूरदर्शन, उसके बाद न्यूज चैनल और मनोरंजन के चैनल शुरू होते गए और सीमित गॉसिप के भी पर निकल आए। अगले पांच-छह वर्षों में तो इन चैनलों के साथ ‘सोशल मीडिया’ भी आ गया और गॉसिपिंग के नाम पर निंदा के घोड़े दौडऩे लगे। उस पर किसी भी प्रकार का अंकुश नहीं रहा। कोई भी मामला हो, सोशल साइट्स और सोशल मीडिया क्रिया-प्रतिक्रियाओं से भरा होना चाहिए, मानो ऐसा नियम ही बन चुका है। इसमें जिम्मेदारी की बजाय अधिकार की बात होने के कारण यहां का हर काम बेकाबू और बेलगाम होता है। गत कुछ दिनों से महाराष्ट्र और मराठी माणुस इसका अनुभव ले रहा है। मुंबई और महाराष्ट्र को सुनियोजित तरीके से बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया का बाकायदा उपयोग किया जा रहा है। इस गॉसिपिंग का और इस तरीके पर आक्षेप लेने पर तुम्हारी वह अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता की काली बिल्ली आड़े आ जाती है। आवाज दबाने का शोर मचाया जाता है।
न्यायाधीश रमण का इशारा सोशल मीडिया पर निरंकुश टीका-टिप्पणी की ओर है। कानूनन हाथ बंधे होने के कारण उसका प्रतिवाद करने में न्याय-व्यवस्था के हाथ बंधे हुए हैं। उन्होंने इस बंधन की भी बात कही है। सोशल साइट्स और मीडिया की खबरों में न्यायाधीशों को झूठे अपराधों का सामना करना होता है। हम बड़े पदों पर हैं इसलिए ‘त्यागमूर्ति’ बनकर झूठी जननिंदा सहन करनी पड़ती है। इसमें कानूनी बंधन होने के कारण खुद का पक्ष भी नहीं रखा जा सकता, ऐसी टीस जब न्यायाधीश रमण जैसे वरिष्ठ न्यायाधीश व्यक्त करते हैं, तब उसके पीछे की बात को समझना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश शरद बोबडे ने भी न्यायाधीश रमण के सुर में सुर मिलाया है और कहा है कि इस त्याग का ध्यान रखते हुए सबको न्याय-व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश की आशा सही ही है।
सरकारी बंधनों के कारण झूठी टीका-टिप्पणी को सहन करना कुछ यंत्रणाओं के लिए अपरिहार्य भले हो, फिर भी सोशल मीडिया पर उधम मचानेवालों को इस अंकुश का गलत फायदा नहीं उठाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायमूर्ति रमण को यही बताना रहा होगा। हालांकि, रमण ने जो टीस व्यक्त की है, वह न्यायाधीशों तक के लिए सीमित भले हो लेकिन आजकल गॉसिपिंग से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। ना क्षेत्र का बंधन है, ना टीका-टिप्पणी की मर्यादा। सोशल मीडिया पर सक्रिय होने वाले सभी लोग सचेत रहते हैं, ऐसा नहीं है बल्कि अधिकतर लोग किसी भी तरह सचेत नहीं रहते। न्यायाधीश रमण द्वारा व्यक्त की गई पीड़ा महत्वपूर्ण साबित होती है। सवाल यह है कि उसे समझते हुए सोशल मीडिया के बेलगाम लोग कुछ समझदारी दिखाएंगे क्या?
मनरेगा में मजदूरी करने के बाद भी आधार या बैंक खाते की जानकारी सही न होने के कारण भुगतान रद्द हो जाता है
- Raju Sajwan
कोरोना आपदा के दौरान महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा पर सरकार ही नहीं, बल्कि ग्रामीणों का भरोसा बढ़ा। अपना पेट भरने के लिए गांवों में पहुंचें प्रवासियों और ग्रामीणों ने मनरेगा का काम भी किया, लेकिन काम करने के बाद भी मजदूरी न मिले तो क्या होगा? आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 2020-21 यानी कोरोना काल में मनरेगा का 123 करोड़ रुपया (लगभग 73 लाख ट्रांजेक्शन) का भुगतान रद्द कर दिया गया है। स्वयंसेवी संगठन पीपुल्स एक्शन फॉर इम्प्लायमेंट जनरेशन गारंटी (पीएइजी) की एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले पांच साल के दौरान मजदूरों का लगभग 1,200 करोड़ रुपया फंसा हुआ है। जिसके बारे में किसी की जवाबदेही नहीं है।
दरअसल, मनरेगा के तहत प्रावधान किया गया है कि मजदूरों को भुगतान मिलने में 15 दिन से अधिक समय नहीं लगना चाहिए। इसलिए व्यवस्था की गई है कि ग्रामीण विकास विभाग के स्थानीय अधिकारी हर सप्ताह जितना काम होता है, उसका एक फंड ट्रांसफर ऑर्डर (एफटीओ) जनरेट करते हैं। यह एक तरह का डिजीटल चेक या पेऑर्डर होता है। यह एफटीओ ऑनलाइन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय से सीधे पब्लिक फंड मेनजमेंट सिस्टम (पीएफएमएस) तक पहुंच जाता है। लेकिन यदि भुगतान की प्रक्रिया “आधार” पर आधारित होती है (जो कि अब लगभग सभी राज्यों में है) तो मजदूरी का भुगतान नेशनल पेमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के माध्यम से मजदूर के बैंक खाते में पहुंच जाता है।
पीएइजी से जुड़े राजेंद्रन बताते हैं कि इस प्रक्रिया के बावजूद मजदूर तक उसकी मजदूरी नहीं पहुंच रही है। जैसे ही, स्थानीय अधिकारी एफटीओ जनरेट किया जाता है, उससे यह मान लिया जाता है कि मजदूर को भुगतान मिलने में देरी नहीं हुई है, लेकिन हकीमत में मजदूर के खाते तक पैसे नहीं पहुंचते हैं। इसकी चार प्रमुख वजह सामने आई हैं। एक, मजदूर के बैंक खाते का नंबर सही नहीं है तो उस भुगतान का एफटीओ जनरेट होने के बावजूद रिजेक्ट कर दिया जाता है। दूसरा, किन्ही कारणों से बैंक खाता फ्रीज कर दिया गया है तो पेमेंट रिजेक्ट कर दी जाती है। तीसरा, बैंक ने खाता बंद कर दिया है तो भी पेमेंट रिजेक्ट कर दी जाती है, लेकिन चौथा सबसे बड़ा कारण यह है कि मजदूर ने जो खाता अपने जॉब कार्ड में दर्शाया है और उस खाते को अपने आधार नंबर से लिंक नहीं किया है तो भी मजदूरों का भुगतान रद्द कर दिया जाता है।
मनरेगा की वेबसाइट पर अपलोड एमआईएस रिपोर्ट बताती है कि वित्त वर्ष 2020-21 में 14 सितंबर 2020 तक 3.04 करोड़ ट्रांजेक्शन जनरेट हुए। इसमें से 73,04,712 ट्रांजेक्शन रिजेक्ट हुए हैं। जो लगभग 123 करोड़ रुपया बनता है।
राजेंद्रन बताते हैं कि उनकी संस्था ने पिछले पांच साल और इस साल के जुलाई माह तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया तो पाया कि हर 23 वें भुगतान (ट्रांजेक्शन) में से एक भुगतान रिजेक्ट हो रहा है और इस अवधि के दौरान लगभग 5 करोड़ ट्रांजेक्शन रिजेक्ट किए गए, जो लगभग 4,800 करोड़ रुपए बनता है। इन ट्रांजेक्शन को रिजनरेट तो किया गया, लेकिन अभी भी लगभग 1,200 करोड़ रुपया मजदूरों का नहीं मिला है। वह कहते हैं कि हालांकि यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं है कि ट्रांजेक्शन रिजनरेट होने के बावजूद मजदूरों को पैसा मिल ही गया होगा। क्योंकि मनरेगा की वेबसाइट पर जो जानकारी दी गई है, उसमें यह तो बताया गया है कि ट्रांजेक्शन रिजेक्ट होने के बाद रिजनरेट कर दी गई है, लेकिन पेमेंट प्रोसेस्ड हो गई है, यह जानकारी उपलब्ध नहीं है।
डाउन टू अर्थ ने भी मनरेगा की एमआईएस रिपोर्ट की जांच की तो पाया कि बार-बार रिजनरेट होने के बाद भी पेमेंट प्रोसेस नहीं हो रही है। हरियाणा के फरीदाबाद जिले के गांव बिजोपुर में गुलिस्ता नामक एक मजदूर ने तालाब खोदने का काम किया। 16 जुलाई 2020 को पहली बार पेमेंट रिजेक्ट हो गई। कारण बताया गया कि जो बैंक खाता दर्शाया गया है, वह खाता है ही नहीं। लेकिन इस खाते का सही कराने की बजाय एक बार फिर से 24 जुलाई 2020 को ट्रांजेक्शन रिजनरेट कर दी गई। जो फिर रिजेक्ट हो गई। एक बार फिर से नौ सितंबर 2020 को ट्रांजेक्शन प्रोसेस की गई और फिर रिजेक्ट कर दी गई। इस बार कारण साफ-साफ लिखा गया कि जो बैंक खाता बताया जा रहा है, वह मैच नहीं कर रहा है। इस तरह 14 सितंबर 2020 तक गुलिस्ता को पैसा नहीं मिला है। जबकि मनरेगा एक्ट के तहत उसे 15 दिन के भीतर मजदूरी मिल जानी चाहिए। (देखें, मनरेगा वेबसाइट का स्क्रीन शॉट)
राजेंद्रन बताते हैं कि ऐसे बहुत से केस हैं। मजदूरों को उनकी मजदूरी का पैसा कई-कई साल से नहीं मिला। दिलचस्प बात यह है कि यह पैसा क्यों नहीं मिल रहा है, इसकी जिम्मेवारी लेने वाला भी कोई नहीं है। मजदूर जब अपनी मजदूरी के लिए सरपंच या स्थानीय अधिकारी के पास जाता है तो उसे बताया जाता है कि उन्होंने तो उसी सप्ताह एफटीओ जनरेट कर दिया था। बैंक में जाता है तो बताया जाता है कि बैंक के पास पैसा आया ही नहीं है। एनपीसीआई, जिसके पास पूरे देश के आधार लिंक्ड बैंक खातों की जानकारी है, उससे कोई सवाल कर नहीं सकता। यानी कि मजदूरों को उनकी मजदूरी मिलेगी या नहीं, इसकी जिम्मेवारी भी तय नहीं है।
24 से 28 अगस्त 2020 के बीच केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा आयोजित परफॉरमेंस रिव्यू कमेटी की वर्चुअल मीटिंग में भी यह मुद्दा उठ चुका है। बैठक में वर्ष 2020-21 में 17 अगस्त 2020 तक रिजेक्ट हुई ट्रांजेक्शन के बारे में बताया गया कि सात राज्यों में 60 फीसदी से अधिक बकाया भुगतान रिजनरेट नहीं हुआ है। इनमें सबसे अधिक मणिपुर में 92 फीसदी, बिहार में 72 फीसदी, ओडिशा में 70 फीसदी, झारखंड में 69 फीसदी और मिजोरम में 66 फीसदी मजदूरी का भुगतान रद्द होने के बाद रिजनरेशन के लिए भेजा गया है।
राजेंद्रन कहते हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान जब कहीं रोजगार नहीं मिल रहा था तो मनरेगा अकेली ऐसी योजना थी, जिसमें लोगों ने यह सोच कर काम किया कि कुछ तो पैसा हाथ में आएगा, लेकिन ऐसे बुरे वक्त में जब पूरा काम करने के बाद भी मजदूरी न मिले तो इन मजदूरों पर क्या बीती होगी? कई बार ऐसा भी होता है कि बैंक खाते का नंबर गलत लिखने के कारण एक सप्ताह की मजदूरी का भुगतान रिजेक्ट कर दिया जाता है, लेकिन अगले सप्ताह फिर उसी गलत खाते का एफटीओ जनरेट कर दिया जाता है, इस तरह अगर वह मजदूर 100 दिन भी काम कर ले तो उसे पूरा पैसा नहीं मिलता। इतना ही नहीं, अगर 15 दिन में भुगतान न मिले तो मनरेगा के तहत मुआवजा देने का प्रावधान है, लेकिन ऐसे मजदूरों को कोई मुआवजा नहीं दिया जाता। वह कहते है कि सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से ले और मजदूरों को उनकी मजदूरी हर हाल में 15 दिन के भीतर मिले, यह व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए।(downtoearth)
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में माना कि संक्रमण तेजी से फैला। हालांकि उन्होंने सामुदयिक प्रसार शब्द के इस्तेमाल से परहेज किया
- DTE Staff
केंद्र सरकार भविष्य में महामारियों से निपटने के लिए 65,560.98 करोड़ रुपए के विशेष व्यय वित्त मेमोरेंडम पर विचार कर रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री हर्षवर्धन ने 14 सितंबर 2020 को लोकसभा में कहा कि प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर स्वस्थ भारत योजना के तहत होने वाले आवंटन से शोध, स्वास्थ्य सेवाओं और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर निवेश सुनिश्चित होगा। खासकर महामारी के प्रबंधन पर जोर दिया जाएगा।
मंत्री ने बताया कि देश अब यात्रा संबंधी मामलों को प्रबंधित करने में कामयाब हो गया है। अब मामले क्लस्टर स्तर पर आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि बड़े पैमाने पर सामने आ रहे मामले स्थानीय ट्रांसमिशन के कारण हैं। उन्होंने बड़े पैमाने पर ट्रांसमिशन की बात स्वीकार की लेकिन कम्युनिटी ट्रांसमिशन शब्द से परहेज किया।
उन्होंने कहा कि संक्रमण शहरों से ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत तेजी से फैला है। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बिहार, तेलंगाना, ओडिशा, असम, केरल और गुजरात में सबसे अधिक मामले और मृत्यु दर्ज की गई है। मंत्री ने बताया कि इन सभी राज्यों ने 1,00,000 से अधिक सामने आए हैं।
मंत्री ने बताया कि भारत में सामने आए मामलों में कम से कम 92 प्रतिशत हल्के लक्षण वाले हैं। उन्होंने कहा कि केवल 5.8 प्रतिशत मामलों में ऑक्सीजन थेरेपी की जरूरत होती है। यह बीमारी मात्र 1.7 प्रतिशत मामलों में गंभीर हो सकती है जिन्हें गहन देखभाल की आवश्यकता होती है।
वैश्विक स्तर पर किए गए दो दर्जन से अधिक अध्ययनों से पता चला है कि मलेरिया रोधी दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का कोविड-19 रोगियों पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है, लेकिन भारत सरकार ने दवा के उपयोग को जारी रखा है।
स्वास्थ्य मंत्री ने कहा, “फार्मास्यूटिकल्स विभाग ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के उत्पादन को कई गुणा बढ़ा दिया। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 11 सितंबर, 2020 तक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की 10.84 करोड़ गोलियां जारी की थीं।”
केंद्रीय आयुष मंत्रालय कोविड-19 की रोकथाम और पोस्ट कोविड रिकवरी प्रोटोकॉल के लिए कई आयुर्वेदिक दवाओं को शामिल कर चुका है। विशेषज्ञों ने कई बार पूछा कि क्या इसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है।
वर्धन के अनुसार, आयुष मंत्रालय ने आयुष-संजीवनी ऐप शुरू किया है। इसके माध्यम से कोविड-19 की रोकथाम में दवाओं की प्रभावशीलता, स्वीकार्यता और उसके उपयोग का मूल्यांकन किया जा रहा है। हालांकि उन्होंने इसके परिणामों पर कुछ नहीं कहा। मंत्री ने मंत्री ने स्वास्थ्य कर्मियों की प्रशंसा की है लेकिन उनके संबंध में कोई घोषणा नहीं की।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने मंत्री को दो बार टोका और उनसे अपना वक्तव्य टेबल करने को कहा क्योंकि पूरा वक्तव्य पढ़ने पर बहुत समय लगेगा। उन्होंने वर्धन को पहली बार तब टोका जब उन्होंने मुश्किल से चार मिनट बोला था। करीब 13 मिनट बाद अध्यक्ष ने फिर उन्हें टोका और अपना भाषण टेबल करने को कहा। हर्षवर्धन के बाद केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को अपनी बात रखने को कहा गया।(downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इसी वर्ष के मार्च और मई में मैंने लिखा था कि कतर की राजधानी दोहा में तालिबान और अफगान-सरकार के बीच जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत की भी कुछ न कुछ भूमिका जरुरी है। मुझे खुशी है कि अब जबकि दोहा में इस बातचीत के अंतिम दौर का उदघाटन हुआ है तो उसमें भारत के विदेश मंत्री ने भी वीडियो पर भाग लिया। उस बातचीत के दौरान हमारे विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे.पी. सिंग दोहा में उपस्थित रहेंगे।
जे.पी. सिंग अफगानिस्तान और पाकिस्तान, इन दोनों देशों के भारतीय दूतावास में काम कर चुके हैं। वे जब जूनियर डिप्लोमेट थे, वे दोनों देशों के कई नेताओं से मेरे साथ मिल चुके हैं। इस वार्तालाप के शुरु में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ ने भी काफी समझदारी का भाषण दिया। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भी जो कुछ कहा, उससे यही अंदाज लगता है कि तालिबान और काबुल सरकार इस बार कोई न कोई ठोस समझौता जरुर करेंगे। इस समझौते का श्रेय जलमई खलीलजाद को मिलेगा। जलमई नूरजई पठान हैं और हेरात में उनका जन्म हुआ था। वे मुझे 30-32 साल पहले कोलंबिया यूनिवर्सिटी में मिले थे। वे काबुल में अमेरिकी राजदूत रहे और भारत भी आते रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि अमेरिकी नागरिक के तौर पर वे अमेरिकी हितों की रक्षा अवश्य करेंगे। लेकिन वे यह नहीं भूलेंगे कि वे पठान हैं और उनकी मातृभूमि तो अफगानिस्तान ही है।
दोहा-वार्ता में अफगान-प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला कर रहे हैं, जो कि अफगानिस्तान के विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उनका परिवार वर्षों से दिल्ली में ही रहता है। वे भारतप्रेमी और मेरे मित्र हैं। इस दोहा-वार्ता में भारत का रवैया बिल्कुल सही और निष्पक्ष है। बजाय इसके कि वह किसी एक पक्ष के साथ रहता, उसने कहा कि अफगानिस्तान में भारत ऐसा समाधान चाहता है, जो अफगानों को पूर्णरुपेण स्वीकार हो और उन पर थोपा न जाए। लगभग यही बात माइक पोंपियों और शाह महमूद कुरैशी ने भी कही है। अब देखना यह है कि यह समझौता कैसे होता है? क्या कुछ समय के लिए तालिबान और अशरफ गनी की काबुल सरकार मिलकर कोई संयुक्त मंत्रिमंडल बनाएंगे ? या नए सिरे से चुनाव होंगे ? या तालिबान सीधे ही सत्तारुढ़ होना चाहेंगे याने वे गनी सरकार की जगह लेना चाहेंगे ?
इसमें शक नहीं कि तालिबान का रवैया इधर काफी बदला है। उन्होंने काबुल सरकार के प्रतिनिधि मंडल में चार महिला प्रतिनिधियों को आने दिया है और कश्मीर के मसले को उन्होंने इधर भारत का आंतरिक मामला भी बताया है। यदि तालिबान थोड़ा तर्कसंगत और व्यावहारिक रुख अपनाएं तो पिछले लगभग पचास साल से उखड़ा हुआ अफगानिस्तान फिर से पटरी पर आ सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
(लेखक, अफगान-मामलों के विशेषज्ञ हैं)
विवेक त्रिपाठी
लखनऊ, 14 सितम्बर (आईएएनएस)| बदलते समय के साथ हिंदी में भी बदलाव हो रहा है। वह नए जमाने के हिसाब से कदमताल करती नजर आ रही है। हिंदी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली तीसरी भाषा है, लेकिन बीते कुछ वर्षों में जिस कदर अंग्रेजी का प्रचार प्रसार हुआ, उसका नुकसान हिंदी को ही हुआ। किताबों में कठिन शब्दों के प्रयोग ने भाषा को जटिल बना दिया है। हालांकि बीते कुछ वर्षों में स्थितियां बदली हैं और युवा लेखकों ने हिंदी कहानियों को सरल हिंदी भाषा में लिखना शुरू किया जिससे हिंदी के पाठक वर्ग का व्यापक विस्तार हुआ है।
प्रकाशकों ने भी युवा लेखकों को तरजीह दी तो एक नई तस्वीर उभर कर आयी है। कुछ ही महीनों में ही इन लेखको की किताबें सर्वश्रेष्ठ विक्रेता बनीं। इतना ही नहीं पाठकों के बीच में उनकी अच्छी छवि भी बनी। जैसे अंग्रेजी के लेखकों से पाठक मिलने और उनके साथ तस्वीर खिंचाने को आतुर रहते हैं ठीक वैसे ही हिंदी के इन नए चेहरों के प्रति दीवानगी देखी जाती है। ये नए चेहरे आज हर साहित्य उत्सव की शान होते हैं।
लेखकों के साथ साथ प्रकाशकों ने भी हिंदी को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाने का काम किया है। राजकमल प्रकाशन, राजपाल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, हिंद पॉकेट बुक्स, हिंद युग्म और रेडग्रैब बुक्स जैसे प्रकाशनों ने युवाओं को जिस तरह तरजीह दी, वह वाकई मील का पत्थर साबित हुई। इन प्रकाशकों ने किताबों का प्रकाशन उसी गुणवत्ता के साथ किया जैसे अंग्रेजी की किताबों का होता है।
हिंदी एक नई राह पर चल निकली है। अभी यह शुरूआत ही है, लंबी दौड़ बाकी है। यह लेखक लिखने के साथ दिखने और बिकने पर भी ध्यान देते हैं और यह अपनी किताबों की भरपूर प्रचार भी करते हैं। हिंदी दिवस के अवसर पर ऐसी ही कुछ लेखकों और उनकी कृतियों के बारे में आपको बता रहे है।
युवा लेखक कुलदीप राघव हिंदी कहानियों में रोमांस और इश्क का तड़का लगा रहे हैं। 'आईलवयू' और 'इश्क मुबारक' जैसी पुस्तकों से उन्होंने युवाओं के दिल में जगह बनाई है। उनकी किताबों को युवाओं ने हाथों हाथ लिया और अमेजन पर नंबर 1 बेस्ट सेलर बनाया। कुलदीप को उनकी कृति के लिए यूपी सरकार की ओर से हिंदुस्तानी अकादमी युवा लेखन पुरस्कार भी मिलने जा रहा है।
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के 'बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' पुरस्कार 2017 से सम्मानित हो चुके लेखक भगवंत अनमोल भी अपने जुदा अंदाज के लिए जाने जाते हैं। उनकी किताब 'जिंदगी 50-50' और 'बाली उमर' खूब चर्चित हैं। बेस्ट सेलर लेखक भगवंत ने 'बाली उमर' में बचपन की यादों को पिरोया तो यह कहानी पाठकों के दिल में उतर गई।
लेखक नवीन चौधरी का उपन्यास 'जनता स्टोरी' खूब चर्चा में रहा है। इस उपन्यास में बीती सदी के अंतिम दशक की छात्र-राजनीति के दांव-पेंच और उन्हीं के बीच पलते और दम तोड़ते मोहब्बत के किस्सों को बहुत जीवंत ढंग से दिखाया गया है।
दर्जन भर ऐसे लेखक है जो हिंदी साहित्य को स्वर्णिम युग की तरफ ले जाने का काम कर रहे हैं। नई वाली हिंदी के लेखक सत्य व्यास की किताब '1984' काफी चर्चित है। यह उपन्यास सन 1984 के सिख दंगों से प्रभावित एक प्रेम कहानी है। यह कथा नायक ऋषि के एक सिख परिवार को दंगों से बचाते हुए स्वयं दंगाई हो जाने की कहानी है।
दिव्य प्रकाश दुबे की 'मुसाफिर कैफ' और 'अक्टूबर जंक्शन' जैसे उपन्यासों को देशभर में सराहा गया। हाल ही में आई उनकी नई किताब 'इब्नेबतूती' को भी पाठकों का प्यार मिल रहा है। सरल भाषा में क्राइम आधारित किताब 'नैना' ने भी खूब चर्चा बटोरी है। लेखक संजीव पालीवाल ने आम बोलचाल की भाषा में कहानी लिखते हुए रोचकता का नया उदाहरण पेश किया।
इसी तरह नीलोत्पल मृणाल की 'डार्क हॉर्स' और 'औघड़', अंकिता जैन की 'ऐसी वैसी औरत' और 'बहेलिए', निशान्त जैन की 'रुक जाना नहीं', अनु सिंह चौधरी की 'नीला स्कार्फ', अणुशक्ति सिंह की 'शर्मिष्ठा', विजय श्री तनवीर की 'अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार', जैसी कहानियों को पाठक पसंद कर रहे हैं।


