विचार/लेख
गिरीश मालवीय
आप अपने आसपास देखे तो जो दुकानें आपको प्रमुख रूप से नजर आती है उन रिटेल शॉप का धंधा अब मंदा होने वाला है। मंदी के दौर में ई कॉमर्स बहुत तेजी से पाँव पसार रहा है कल जो कैट ने अपनी रिपोर्ट में 5 महीनों में 20 प्रतिशत दुकानें बंद होने की वजह बताई है उसकी एक वजह ई कॉमर्स को भी बताया है कुछ ही दिनों में इसका सबसे बड़ा असर असर दवा की दुकानों पर पड़ेगा।
रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं ने अब सरकार की ई फार्मेसी पॉलिसी में संभावित बदलाव को देखते हुए लाखों लोगों का रोजगार छीनने को लेकर चिंता जताई है। पहले उन्होंने अमेजन को पत्र लिखा था अब वह रिलायन्स को पत्र लिख रहे हैं।
ऑल इंडिया ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन ने रिलायंस के मुकेश अंबानी को पत्र लिखकर उनके ई फार्मेसी संस्थान नेटमेड्स में निवेश को लेकर आपत्ति जताई है।
ई-फार्मेसी प्लेटफॉम्र्स के वर्किंग मॉडल से लाखों रिटेलर्स और फार्मासिस्ट की नौकरियां जा सकती हैं। उनका कारोबार बंद पड़ सकता है। इंडियन फार्मासिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष अभय कुमार कहते हैं कि ई-फार्मा प्लेटफॉर्म का जो वर्किंग मॉडल है वो फार्मासिस्ट की नौकरियों को धीरे-धीरे खत्म कर देगा।
अभय कुमार कहते हैं, ‘ई-फार्मा प्लेटफॉर्म्स अपने स्टोर, वेयरहाउस या इनवेंट्री बनाएंगे, जहां वो सीधे कंपनियों या वितरक से दवाएं लेकर स्टोर करेंगे और फिर ख़ुद वहां से दवाइयां सप्लाई करेंगे। ऐसे में जो स्थानीय केमिस्ट की दुकान है उसकी भूमिका ख़त्म हो जाएगी।’
बड़े छोटे केमिस्ट समझ गए हैं कि अब उनके धंधे पर गहरी चोट अमेजन ओर रिलायन्स दोनों ही डालने वाले है ई-फार्मा कंपनियां जिस तरह ज़्यादा डिस्काउंट देती हैं एक छोटा रिटेलर उनसे मुकाबला नहीं कर पाएगा।
जैसे इलेक्ट्रॉनिक मार्केट मोबाइल आदि को ई कामर्स वालों ने अपने कब्जे में लिया गया वैसे ही फार्मेसी भी उनके हाथ मे चला जाएगा
मोदी सरकार का रुख स्पष्ट है वह इन मेगा कंपनियों के साथ खड़ी हुई है अब जो कोरोना काल मे जो टेलीमेडिसिन को सपोर्ट देने के लिए नीतियां बनाई जा रही है वह ई फार्मेसी को मार्केट में स्टेबलिश कर देगी।
मनीष सिंह
जब चीन के फौजी अपने बूटों से भारत का सर कुचल रहे हंै, भारत की सरकार, जनता और मिडिया ने आंखें मूंद ली है। राष्ट्र की सुरक्षा पर बड़ी-बड़ी हांकने वाले रेजीम का यह सन्निपात आश्चर्यजनक है। मगर इससे ज्यादा आश्चर्यजनक, 130 करोड़ के देश की अपनी सीमाओं के अतिक्रमण से बेरुखी है।
शायद चीन ने भी न सोचा होगा, कि सब कुछ इतना आसान होगा। पिछले चालीस सालों में सीमा पर उसके एडवेंचर्स को माकूल जवाब मिलता रहा है। चीन की पहलकदमी की पहली खबर आते ही हर नागरिक का मनोमस्तिष्क उसकी ओर घूम जाता था। आज वह किलोमीटर फांदते हुए घुसा चला आ रहा है, और हम उसे चरागाह में घुस आए बैल से ज्यादा महत्व नही दे रहे।
हां अगर कभी कोई बहस है, तो वो यह कि 1962 में हमने कितनी जमीन खोई, 1947 में क्या खोया, या उसके पहले क्या-क्या खोया। सच्चे-झूठे किस्से सुनाए जा रहे हैं, गोया चीन जैसे आक्रांता का आना, और हिंदुस्तान की जमीन का जाना, हर दौर की एक सामान्य परिघटना है। जाहिर है कि हर सरकार, हर नेता तो चीन को जमीन खोता ही रहा है। मायने ये, कि यह सरकार, यह नेता भी अपने हिस्से की जमीन खो रहा है, तो इसमे कौन सी अचरज की बात है।
गाहे-बगाहे, चीनी फौजियों को मार डालने और उनकी नकली कब्रों की फोटो जरूर फ्लैश होते हंै। कुल जमा पांच रफेल की तस्वीरों और बमो धमाकों के पुराने फुटेज का रिपीट टेलीकास्ट भी है। मगर व्यापक रूप से देश की सुरक्षा के मुद्दे पर इतनी अरुचि सत्तर साल में नहीं देखी गई।
चीन की नीति, विस्तारवादी रही है। पर इस बार वह एक लोकलाइज्ड बखेड़ा नहीं कर रहा, वह कश्मीर से अरुणाचल और भूटान तक नए दावे कर रहा है। 1962 के बाद का सबसे बड़ा सैनिक जमावड़ा किया है। युद्ध की ताल ठोक रहा है, नए इलाकों में घुस चुका है।
तो क्यों दुनिया के पांचवें सबसे बड़े परमाणु जखीरे पर बैठे देश की सीमाओं के साथ सीमा विवाद ताकत के बूते निपटाने के लिए में, यह वक्त मुकर्रर किया। क्या सोचा होगा, क्या आकलन किया होगा? दरअसल उसे मालूम है, यह वक्त पिछले 40 साल में सबसे ज्यादा माकूल है।
बुरी तरह विभाजित, बेपरवाह यह देश अपने आंतरिक, मानसिक युद्दों में रत है। यह निरंतर छायायुद्धों में उलझा है। कहीं गलियों में, कहीं खाने की मेज पर। कहीं भाषणों में, कहीं टीवी पर। अपने आसपास, घरों, मित्रों सहपाठियों, सहकर्मियों के बीच गद्दारों और देशद्रोहियों की खोज करना।
किसी शहर का नाम बदलकर, कहीं इतिहास की किताबों में विजेताओं के नाम बदलकर। कहीं पड़ोस के मोहल्ले में धार्मिक नारेबाजी कर, कहीं युवाओं के हाथों में आदिम हथियार टिकाकर, कहीं किसी को गाली देकर। यह देश सात सालों से लगातार युद्ध लड़ रहा है। यह युद्धों से थका हुआ देश है।
हर शाम उसे पता चलता है कि वह आज की लड़ाई जीत चुका है। हां, मगर कल एक नई लड़ाई है, एक नया मुद्दा है। किसी को न्याय दिलाना, किसी को डिसलाइक करना, कुछ ट्रेंड करना, एक झूठ का फैलाव करना, फिर झूठ का बचाव करना और फिर इस नई लड़ाई को भी जीत जाना। यह जीतों से थका हुआ देश है।
नीम-नशे में दीवार से पीठ चिपकाए भारत, बंद आंखों से अपने मस्तिष्क की कंदराओं में लड़ाई-जीत-लड़ाई-जीत-लड़ाई-जीत की छवियों में डूबा है। उसे वो लपटें महसूस नहीं होती, जो उसके घर में लगी आग से निकल रहे हैं। वह मस्त है, अपने नशे, हैलुसिनेशन में.. गहरे नशे में डूबा, परछाइयों से लड़ता यह नया भारत है। यह भारत होश में नहीं है।
इसलिए चीन के लिए यह माकूल वक्त है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल मास्को में रक्षामंत्री की बातचीत चीन के रक्षा मंत्री वी फंगहे के साथ हुई। अगले हफ्ते दोनों देशों के विदेश मंत्री मिलकर बात करनेवाले हैं। पहले भी फोन पर उनकी बात हुई है। पिछले पांच दिनों से दोनों देशों के फौजी अफसर भी चुशूल में बैठकर बात कर रहे हैं। बातचीत के लिए चीन की तरफ से पहल हुई है, इससे क्या साबित होता है ? एक, तो यह कि भारत ने पेंगांग झील के दक्षिण में पहाडिय़ों पर जो कब्जा किया है, उससे चीन को पता चल गया है कि उसी की तरह भारत भी जवाबी कार्रवाई कर सकता है। दूसरा, आजकल अमेरिका चीन से इतना गुस्साया हुआ है कि उसके विदेश और रक्षा मंत्री लगभग रोज़ ही उसके खिलाफ बयान दे रहे हैं। इन बयानों में वे लद्दाख में हुई चीनी विस्तारवाद की हरकत का जिक्र जरुर करते हैं। तीसरा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान और भारत का जो चौगुटा बना है, वह अब सामरिक दृष्टि से भी सक्रिय हो रहा है।
चीन के लिए यह कई दृष्टियों से नुकसानदेह है। चौथा, भारत ने गलवान-घाटी हत्याकांड की वजह से चीनी माल, एप्स और कई समझौतों का बहिष्कार कर दिया है। भारत की देखादेखी अमेरिका और यूरोप के भी कुछ राष्ट्र इसी तरह का कदम उठाने जा रहे हैं। वे चीन में लगी अपनी पूंजी भी वापस खींच रहे हैं। दूसरे शब्दों में कोरोना और गलवान, ये दोनों मिलकर चीन की खाल उतरवा सकते हैं। इसीलिए चीन अब अपनी अकड़ छोडक़र बातचीत की मुद्रा धारण कर रहा है, हालांकि भारतीय सेना-प्रमुख ने लद्दाख का दौरा करने के बाद कहा है कि सीमांत की स्थिति बहुत नाजुक और गंभीर है। इस मामले में मेरी राय यह है कि दोनों तरफ से अब प्रयत्न यह होना चाहिए कि वे किसी भी नए क्षेत्र पर कब्जा करने की कोशिश न करें और वे बात सिर्फ गलवान घाटी के आस-पास की ही न करें बल्कि 3500 किमी की संपूर्ण वास्तविक नियंत्रण रेखा को स्पष्ट रुप से चिन्हित और निर्धारित करने की बात करें। यह बात तभी हो सकती है जबकि नरेंद्र मोदी और शी चिन फिंग, दोनों इसे हरी झंडी दे दें। ऐसी क्या बात है कि दोनों में बात नहीं हो रही ? यह नियंत्रण रेखा इतनी अवास्तविक है कि हर साल इसे हमारे और चीनी सैनिक 300 या 400 बार लांघ जाते हैं। पिछले कई दशकों से इस अपरिभाषित सीमा पर जैसी शांति बनी हुई थी, उसका उदाहरण मैं अपनी मुलाकातों में हमेशा पाकिस्तानी राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और सेनापतियों को देता रहा हूं। हमें किसी भी महाशक्ति के उकसावे में आकर कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए, जिससे परमाणुसंपन्न पड़ौसी आपस में भिड़ जाएं।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-बादल सरोज
लड़कियां हमेशा लड़कियां ही रहती हैं।
वे कभी बड़ी नहीं होती। उनकी उम्र बच्ची से किशोर, युवती से माँ, पत्नी से नानी और दादी होते हुए अंकों का जोड़ भर बढ़ाती रहती है-वे हमेशा लडक़ी ही बनी रहती हैं ।
-‘घोड़ी की घोड़ी हो गई है दुष्ट, जाने कब बड़ी होगी’ की फटकार सुनते ही
-किशोरी हुई लडक़ी चुपके से अपनी चुन्नी के धागों में छुपा लेती है अपने अंदर की लडक़ी-
-स्वेटर के फंदों में बुन लेती है कभी तो नीम के पत्तों के साथ बक्से में रख दी गई रजाई की रूई के बीच धर देती है सम्हाल कर।
-रसोई में, बिस्तर में, कॉलेज में दफ्तर में, खेतों में, सडक़ों पर; रोते में हँसते में, सोते में जगते में; चौबीसों घंटे अपने साथ रखती है।
-तपाक से इमली के पेड़ पर चढक़र, छाँटकर, सिर्फ काम लायक इमली तोड़, माली के आने से पहले फटाक से नीचे उतरकर हाथ पीछे कर मुंह पर ब्रह्मांड के सबसे भोले प्राणी के भाव सजा लेने वाली नटखट लडक़ी-विदा होते समय अपनी आंखों के जब्त किए आंसुओं में सहेज कर ले जाती है वह उसे, नहलाती-सुलाती है हमेशा अपने साथ-खेलती है उसके साथ, रस्सी कूदती है; रास्ते से गुजरते हुए आंखों ही आंखों में नापती है सडक़ किनारे खड़े इमली और कैरी के पेड़ की ऊंचाई-एक विजयी आश्वस्त मुस्कान के साथ।
-कुल्फी और आइसक्रीम खाने पर अक्सर डांटने वाली माँ-नानी-दादी के भीतर की नटखट लडक़ी मौका मिलते ही बाहर आ जाती है और पूरी उमंग के साथ जीती है अपना बचपन! चुस्की लगाते, आवाज करके आइसक्रीम खाते हुए।
-लड़कियां हमेशा लड़कियां रहती हैं। वे कभी बड़ी नहीं होती, उस तरह तो कतई नहीं जिस तरह लडक़े बड़े होते हैं।
- ज़फ़र आग़ा
‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम’! उर्दू भाषा की इस मिसाल का अर्थ कुछ यूं है कि न तो ईश्वर ही मिला और न ही इस दुनिया का आनंद प्राप्त हुआ। इन दिनों देश की स्थिति कुछ ऐसी ही है। क्योंकि इस लेख को लिखते समय मेरे सामने जो समाचारपत्र हैं, उनमें दो मोटी-मोटी सुर्खियां हैं। पहली सुर्खी के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में भारतीय अर्थव्यवस्था 23.9 प्रतिशत घट गई।
ऐसा भारत के सांख्यिकीय (स्टैस्टिकल) इतिहास में पहली बार हुआ है। नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उनके अनुसार, इमारतों का काम 50.3 प्रतिशत घटा है। कारखानों के कामकाज में 39.3 प्रतिशत की गिरावट आई है। खरीद-फरोख्त, होटल इंडस्ट्री- जैसे अन्य सेवा क्षेत्रों में 47.9 प्रतिशत की गिरावट है। केवल एक खेती-बाड़ी का काम ऐसा है, जिसमें 3.4 प्रतिशत की उन्नति है।
ये तो मोटे-मोटे आंकड़े हैं जिन्हें अर्थशास्त्री ही भली-भांति समझ सकते हैं। परंतु हम और आप जैसा आम व्यक्ति सरकारी आंकड़ों के आधार पर मोटा-मोटी यह कह सकता है कि पिछले तीन माह में शहर आर्थिक तौर पर डूब गए। केवल गांव-देहात में खेती-बाड़ी के कुछ काम से जीवन चल रहा है। अब सवाल यह है कि यह हुआ क्यों! सीधा उत्तर यह है कि मार्च से अब तक कोरोना महामारी को रोकने के लिए सरकार ने लगभग जून तक जैसा कठोर लॉकडाउन लगाया कि उसने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी।
अब दूसरा प्रश्न यह है कि कोरोना महामारी का हाल क्या है? तो उसकी स्थिति, समाचारपत्रों की दूसरी सुर्खी के अनुसार, यह है कि केवल अगस्त के महीने में लगभग बीस लाख भारतीय इस बीमारी की चपेट में आए जो दुनिया भर में एक रिकॉर्ड है। बात अब समझ में आई- ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम!’
अर्थात न तो महामारी का प्रकोप कम हुआ और न ही अर्थव्यवस्था संभल सकी, यानी दीन से भी गए और दुनिया से भी गए। लब्बोलुआब यह है कि एक आम भारतीय के लिए अब केवल एक रास्ता बचा है। वह केवल मौत का रास्ता है, क्योंकि एक आदमी या तो कोरोना की चपेट से मर सकता है या फिर अर्थव्यवस्था के जंजाल में फंसकर भूख से मर सकता है। अगर बच गया तो भगवान की कृपा से!
आखिर, इस भारतवर्ष को यह हो क्या रहा है! छह वर्ष पहले मोदी जी के सत्ता में पधारने से पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था संसार की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। भारत दुनिया का एक विशालतम मार्केट था, जिस पर संसार की निगाह थी। अब भारत का 12 करोड़ युवा सरकारी आंकड़ों के हिसाब से पिछले तीन माह में बेरोजगार हो चुका है। वह परेशानी से घबराकर नाउम्मीद होता जा रहा है और रोज आत्महत्या की खबरें आ रही हैं।
क्या यही मोदी जी का ‘न्यू इंडिया’ है जिसमें देशवासी या तो महामारी का शिकार हो अथवा बेरोजगारी और भूख का शिकार होकर आत्महत्या कर ले। खरी बात तो यह है कि मोदी के ‘न्यू इंडिया’ का यही अंजाम होना था, क्योंकि इसकी नींव घृणा पर आधारित है। इसमें अंग्रेजों की बांटो और राज करो की रणनीति के अनुसार, जनता को हर रोज हिंदू-मुस्लिम घृणा की अफीम तो पिलाई जा रही है, परंतु उनको रोजगार देना तो दूर, उलटा उनसे रोजगार छीना जा रहा है। एक ओर देश में भुखमरी फैल रही है, दूसरी ओर देश में लूट मची है।
अभी पिछले सप्ताह जीएसटी काउंसिल की बैठक हुई। इस बैठक में यह राज खुला कि केंद्र सरकार को राज्य सरकारों का जीएसटी का पैसा देना था, लेकिन केंद्र ने वह पैसा दिया ही नहीं। कई राज्य सरकारें ऐसी हैं जो अपने कर्मचारियों को वेतन देने तक में असमर्थ हैं। स्थिति यह है कि केंद्र सरकार पीढ़ियों की दौलत, यानी सरकारी कंपनियों को बेच-बेच कर खर्चा चला रही है। सरकार जो चाहे बेचे, जहां का माल चाहे लूटे, बैंकों में जमा जनता की गाढ़ी कमाई को पूंजीपतियों को लोन देकर डुबो दे। और जनता! उसके लिए कुछ भी नहीं। तब ही तो अर्थव्यवस्था का यह हाल है कि तीन माह में लगभग 24 प्रतिशत की घटोतरी।
परंतु दूसरी ओर एक अजीब स्थिति है जो हर किसी की समझ से बाहर है। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के खिलाफ घोर आक्रोश होना चाहिए था। परंतु भारत की सड़कों पर शांति है। कहीं कोई धरना-प्रदर्शन ही नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि टीवी मीडिया के माध्यम से लोगों को ऐसी अफीम पिलाई जा रही है कि आम आदमी अपनी समस्याएं भूलकर टीवी पर चलने वाले एक घंटे के ‘सोप ओपेरा’ के जंजाल में फंसकर सब कुछ भूला हआ है।
साहब, इन दिनों सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को एक ‘सोप ओपेरा’ बना दिया गया है। ‘रिपब्लिक टीवी’ और ‘इंडिया टुडे टीवी’ पर हर रोज एक ‘एपिसोड’ आता है जिसके जंजाल में रोज हर व्यक्ति फंसा रहता है। फिल्म जगत आम आदमी के लिए सदा से रहस्मय दुनिया रही है। बॉलीवुड की चमक-दमक, दौलत एवं शोहरत से हर व्यक्ति प्रभावित रहता है। हर किसी को यह जल्दी समझ में नहीं आता कि वह जगत जहां दौलत और हुस्न- दो सबसे बड़ी मानव कमजोरियों की बारिश होती है, आखिर वह जगत चलता कैसे है।
हर किसी को यह जानने की जिज्ञासा होती है कि बॉलीवुड में क्या हो रहा है? क्योंकि एक आम व्यक्ति को न ही वह दौलत, न ही वह शोहरत, न ही वह हुस्न नसीब होता है जो बॉलीवुड में हर समय दिखाई पड़ता है। ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक है कि साधारण व्यक्ति के मन में इस फिल्म जगत के प्रति केवल जिज्ञासा ही नहीं अपित ईर्ष्या का भी दबा-दबा-सा भाव होता ही है।
भारतीय टीवी ने सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को बॉलीवुड एपिसोड बना दिया है। संपूर्ण बॉलीवुड को अब सेक्स, ड्रग्स, षडयंत्र और हर गंदी प्रवृत्ति का भंडार बना दिया गया है। इस समय इस जगत का हीरो सुशांत सिंह राजपूत है और रिया चक्रवर्ती उसकी विलेन है। रोज टीवी पर इस कथा को एपिसोड-दर-एपिसोड ऐसे पेश किया जा रहा है कि सारे भारत की रुचि उसी में लगी है। जनता को यह होश ही नहीं है कि वह कोरोना महामारी और तबाह होती अर्थव्यवस्था के विकट जंजाल में फंसी है।
अर्नब गोस्वामी-जैसा माहिर एंकर जनता के मन में भरे आक्रोश को उसकी चरम सीमा पर ले जाता है। फिर, अपनी डांट-फटकार से रोज किसी विलेन का वध कर जनता के आक्रोश की तृप्ति जिसको अंग्रेजी में ‘कैर्थासिस’ कहते हैं, वह करवा देता है। और इस प्रकार टीवी के माध्यम से जनता का मन रोज हल्का कर दिया जाता है।
अर्थात आप टीवी पर जो पागलपन और चिल्लाना-फटकारना देखते हैं, वह कोई पागलपन नहीं, अपितु एक सोची-समझी रणनीति है, जिसका उद्दे्श्य रोज एक झूठे शत्रु का वध कर जनता में वास्तविक समस्याओं के प्रति होने वाले आक्रोश को उबाल तक पहुंचने से रोकना होता है। एक वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका फोन पर मुझसे पूछती हैं कि यह क्या पागलपन है? आखिर, हम कैसी दुनिया में जी रहे हैं।
निःसंदेह यह एक समझदार व्यक्ति के लिए पागलपन ही होना चाहिए। परंतु नरेंद्र मोदी जिस ‘न्यू इंडिया’ का निर्माण कर रहे हैं, उसमें घृणा ही घृणा है, रोज किसी शत्रु की हत्या है। वह ‘मॉब लिंचिंग’ भी हो सकती है अथवा ‘टीवी लिंचिंग’ भी हो सकती है, ताकि एक साधारण भारतीय अपनी आर्थिक और सामाजिक दुर्दशा को भूलकर अपने झूठे-मूठे शत्रु के वध का आनंद लेता रहे और सरकार मजे से देश का खजाना लूटती रहे। निःसंदेह यह पागलपन है परंतु यह सफल है जिसके शिकार हम और आप सब हैं। परंतु जब तक मोदी हैं, तब तक यही पागलपन रहेगा। और सफल भी रहेगा।(navjivan)
- रेहान फ़ज़ल
बात 19 नवंबर, 1962 की है. अचानक दोपहर में शिलॉन्ग के डॉन बॉस्को स्कूल में भारतीय सैनिकों का एक दस्ता पहुंचा और उसने वहाँ पढ़ रहे चीनी मूल के छात्रों को एक जगह जमा करना शुरू कर दिया. उनमें से एक थे- सोलह साल के यिंग शैंग वॉन्ग.
अगले दिन शाम को साढ़े चार बजे भारतीय सिपाहियों के एक दस्ते ने शिंग के घर के दरवाज़े पर दस्तक दी. उन्होंने परिवार को अपने साथ चलने को कहा. सिपाहियों ने शिंग के पिता से कहा कि आप अपने साथ कुछ सामान और पैसे रख लीजिए.
उस दिन यिंग शैंग वॉन्ग के पूरे परिवार को, जिसमें उनके माता-पिता, चार भाई और जुड़वां बहनें थीं, हिरासत में ले लिया गया. उन्हें शिलॉन्ग जेल ले जाया गया.
इतिहास की इस घटना पर 'द देवली वालाज़' नाम के किताब के लेखक दिलीप डिसूज़ा बताते हैं, "1962 में भारत और चीन के बीच लड़ाई हुई थी. तब भारत में रह रहे चीनी मूल के लोगों को शक़ की निगाह से देखा जाने लगा था. इनमें से अधिकतर वो लोग थे जो भारत में पीढ़ियों से रहे थे और सिर्फ़ भारतीय भाषा बोलते थे."
"भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 'डिफ़ेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट' पर हस्ताक्षर किए थे जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को दुश्मन देश के मूल का होने के संदेह पर गिरफ़्तार किया जा सकता था."
"इससे पहले 1942 में अमरीका ने भी पर्ल हार्बर हमले के बाद वहाँ रह रहे क़रीब एक लाख जापानियों को इसी तरह हिरासत में ले लिया गया था."

दिलीप डिसूज़ा
गिरफ़्तार लोगों को एक विशेष ट्रेन में चढ़ाया गया
वॉन्ग परिवार को चार दिन शिलॉन्ग जेल में रखने के बाद गुवाहाटी जेल भेज दिया गया था. वहाँ पाँच दिन बिताने के बाद उन्हें रेलवे स्टेशन ले जाया गया.
वहाँ एक ट्रेन उनका इंतज़ार कर रही थी. ये ट्रेन माकुम स्टेशन से शुरू हुई थी. उस ट्रेन में हिरासत में लिए गए सैकड़ों चीनी मूल के लोगों में 'द देवली वाला' पुस्तक की सह-लेखिका जॉय मा की माँ एफ़ा मा भी थीं.
एफ़ा मा बताती हैं, "इस यात्रा के दौरान हर यात्री को ढाई रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के हिसाब से भत्ता दिया गया था. बच्चों को सवा रुपए प्रतिदिन के हिसाब से पैसे मिलते थे. दोपहर के आसपास ट्रेन रवाना हुई थी और तीन दिनों का सफ़र तय करती हुई राजस्थान में कोटा ज़िले के पास देवली पहुंची थी."
"हमारे साथ सिलिगुड़ी पुलिस के आठ जवान भी चल रहे थे. उन्होंने हमें आगाह किया कि हम न तो डिब्बे के दरवाज़े के पास जाएं और न ही प्लेटफ़ॉर्म पर उतरें. कुछ ही समय में हमें इसका कारण समझ में आ गया. कुछ स्टेशनों पर जैसे ही ट्रेन रुकती, हमारे ऊपर गोबर फेंका जाता."

जॉय मा
ट्रेन पर लिखा गया एनिमी ट्रेन
यिंग शैंग वॉन्ग बताते हैं, "एक स्टेशन पर करीब डेढ़ सौ से दो सौ ग्रामीण जमा हो गए. उनके हाथों में चप्पलें थीं और वो 'चीनी वापस जाओ' के नारे लगा रहे थे. उन्होंने हमारी ट्रेन पर चप्पलों के साथ पत्थर फेंकने शुरू कर दिए."
"हमने दौड़कर अपने डिब्बों की खिड़कियाँ बंद कीं. हम सोच रहे थे कि भीड़ को कैसे पता चला कि इस ट्रेन में चीनी लोग हैं? बाद में मालूम हुआ कि इस ट्रेन के बाहर 'एनिमी ट्रेन' लिखा हुआ था."
इस घटना के बाद से ट्रेन स्टेशन से थोड़ा पहले रुकने लगी ताकि ट्रेन में सफ़र कर रहे लोगों के लिए खाना बनाया जा सके.
इस घटना पर एक और किताब 'डुइंग टाइम विद नेहरू' लिखने वाली यिन मार्श लिखती है, "मेरे पिता का मानना था कि हर स्टेशन पर ट्रेन के रुकने की वजह थी कि भारत सरकार अपने नागरिकों को दिखा सके कि वो चीनियों को भारत पर हमला करने की सज़ा देकर उन्हें जेल में भेज रही है."
मार्श आगे लिखती हैं, "शाम को मेरे पिता ट्रेन अटेंडेंट से कुछ परांठे ले आए. हम और परांठे खाना चाहते थे लेकिन उन पर राशन था और हम सबके हिस्से में सिर्फ़ एक-एक परांठा ही आया. फिर हमें चाय दी गई लेकिन उसका स्वाद इतना ख़राब था कि हमने उसे बिना पिए ही छोड़ दिया."

कड़ी ठंड में बिना गर्म कपड़ों के रात बिताई
तीन दिन चलकर रात में ट्रेन देवली पहुंची. प्रशासन ने कैंप के बाहर एक मेज़ लगा रखी थी जहाँ हर व्यक्ति का विवरण लिखा जा रहा था कि उनके पास कितनी नकद राशि या सोना है.
सब कैदियों को संख्या और आइडेंटिटी कार्ड दिए गए. उनको पीने के लिए चाय और ब्रेड दी गई लेकिन ब्रेड इतनी सख्त थी कि उसे चाय में डुबोकर ही खाया जा सकता था.
दिलीप डिसूज़ा बताते हैं कि "वहाँ सैनिक टेंट लगाए गए थे. वो नवंबर का महीना था. वहाँ रहने वाले कैदी जाड़े में काँप रहे थे. उनके पास कोई गर्म कपड़े नहीं थे."
"चलते समय उनसे कहा कहा गया था कि वो अपने साथ सिर्फ़ एक जोड़ा कपड़ा ही ले कर चलें. वो बुरी तरह थके हुए थे इसलिए सर्दी के बावजूद उनकी आँख लग गई. तभी आधी रात के क़रीब औरतों की आवाज़ सुनाई दी- 'साँप ! साँप !' सारे लोग जागकर बैठ गए."

देवली कैम्प में बनाए गए किऊ पाओ चेन और उनकी मां अन्तेरी के पहचान पत्र. दोनों पहचान पत्रों में नाम की स्पेलिंग ग़लत लिखी गई है.
अधपका चावल और जली सब्ज़ियाँ
इस कैंप में खाना बनाने का ठेका बाहरी लोगों को दिया गया था. उन्हें इतने लोगों का खाना बनाने को कोई अनुभव नहीं था. शुरू में कैदियों को आधा पका चावल और जली हुई सब्ज़ियाँ परोसी गईं.
ये सिलसिला करीब दो महीनों तक चला. बाद में जब लोग नाराज़ होने लगे तो कमांडेंट ने हर परिवार को राशन देने की व्यवस्था शुरू की और उनसे कहा गया कि वो अपना खाना खुद बनाएं.
साप्ताहिक राशन में कभी-कभी अंडे, मछली और माँस भी दिया जाता था. 'द देवली वालाज़' पुस्तक की सह-लेखिका जॉय मा बताती हैं, "हर व्यक्ति को हर माह पाँच रुपए दिए जाते थे जिन्हें वो साबुन, टूथपेस्ट और निजी सामान लेने के लिए ख़र्च कर सकते थे. कुछ परिवार वो पैसा भी बचाते थे क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि भविष्य में उनके साथ क्या होने वाला है."
यिन शेंग वॉन्ग कहते हैं कि "दिन तो किसी तरह बीत जाता था लेकिन मुझसे रात काटे नहीं कटती थी. मैं अँधेरे में बिस्तर पर लेटे आसमान की तरफ़ देखा करता था लेकिन नींद आने का नाम ही नहीं लेती थी. मैं सिर्फ़ ये सोचा करता था कि मैं यहाँ से कब छूटकर अपने घर जाऊंगा."

अख़बारों में छेद
यिन शेंग वॉन्ग आगे बताते हैं, "गर्मी से बचने के लिए मैं और मेरे दोस्त खिड़कियों और दरवाज़ों पर बोरियों को गीला कर टाँग देते थे जिससे कमरे में अँधेरा और थोड़ी ठंडक हो जाए. वहाँ एक चीज़ की कोई कमी नहीं थी- पानी की. बोरियों को गीला कर हमें लगता था कि हम अपने जीवन को बेहतर करने के लिए कुछ तो कर रहे हैं."
कैंप में मनोरंजन का एक ही साधन हुआ करता था- हिंदी फ़िल्मों का प्रदर्शन. वहां हिंदी फ़िल्में दिखाने के लिए मैदान में स्क्रीन लगाई जाती थी और कैदी अपने कमरों से चारपाई खींच लाते थे और उन पर बैठकर फ़िल्म देखते थे.
जॉय बताती हैं, "रिक्रिएशन रूम में अख़बार तो आते थे लेकिन उनमें छेद होते थे, क्योंकि चीन से संबंधित और राजनीतिक ख़बरों को काटकर अख़बार से अलग कर दिया जाता था. हम लोग पोस्टकार्ड पर अंग्रेज़ी में पत्र लिखा करते थे. हमें पता चला था कि लिफ़ाफ़े में भेजे गए पत्र देर से पहुंचते थे क्योंकि उन्हें सेंसर करने के लिए दिल्ली भेजा जाता था."

2010 में ली गई इस तस्वीर में देवली में बने बैरक कुछ ऐसे दिखे
बूढ़े ऊँट का माँस परोसा
देवली कैंप में रहने वाले एक और बंदी स्टीवेन वैन बताते हैं, "अधिकारियों ने कैंप में रहने वाले लोगों को न तो कोई बर्तन दिए और न ही मग या चम्मच. हम लोग या तो बिस्कुट के टीन के डिब्बों में अपना खाना खाते थे या पत्तों पर."
"हमें ये देख कर बहुत धक्का पहुंचा कि रसोइए चावल को बिना धोए सीधे बोरी से पतीलों में उबालने के लिए डालते थे. चूँकि बहुत सारे लोगों के लिए खाना बनता था, इसलिए अक्सर या तो वो आधा पकता था या जल जाता था".
यिम मार्श लिखती हैं "चूंकि लोग लाइनों में खड़े होकर अपने खाने का बेसब्री से इंतज़ार करते थे, इसलिए रसोइए समय से पहले ही चूल्हे से खाना उतार लेते थे. कई बार तो हम खाना लेने के बाद दोबारा उसे उबालते थे."
"एक बार हमें राशन में मीट करी मिली. लेकिन वो माँस इतना कड़ा था कि हमें लगा कि हम पुराना चमड़ा खा रहे हैं. बाद में हमें ये जानकर बहुत धक्का लगा कि हमें बूढ़े ऊँट का माँस खिला दिया गया था. जब हमने इसका विरोध किया उसके बाद से हमें ऊँट का माँस परोसा जाना बंद हो गया."

चीनी सरकार ने कैम्प में रहने वालों की मदद के लिए जो सामान भेजा था उनमें ये मग भी था.
देवली कैंप में रहने वाले एक और शख़्स माइकेल चेंग बताते हैं, "मैं कैंप में मिलने वाले खाने का स्वाद कभी नहीं भूल सकता, क्योंकि वो लोग खाने में सरसों के तेल का इस्तेमाल करते थे. अब भी जब मैं अपने किसी दोस्त के यहाँ खाने पर जाता हूँ और उनके यहाँ सरसों के तेल के इस्तेमाल होता है तो मुझे देवली कैंप में बिताए अपने दिनों की याद आ जाती है."
"जब हम अपना खाना खुद बनाने लगे तो मैं दूर जाकर लकड़ियाँ चुनकर लाता था. लेकिन कुछ दिनों में वहाँ की सारी लकड़ियाँ ख़त्म हो गई थीं. फिर हम पेड़ों की जड़ों को ईंधन के लिए लाने लगे. हम अपनी गुलेल से कई पक्षी भी मारते थे ताकि हम उन्हें खा सकें."

दार्जीलिंग में ली गई इस तस्वीर में किऊ पाओ चेन अपने दादा के साथ हैं.
बर्तन माँजने से त्वचा हुई ख़राब
मार्श यिन लिखती हैं, "मेरे घर वालों ने मुझे बर्तन माँजने की ज़िम्मेदारी दी थी लेकिन हमारे पास बर्तन माँजने के लिए कोई साबुन नहीं था. मैंने भारतीय फ़िल्मों में ग्रामीण औरतों को राख से बर्तन माँजते देखा था. मैंने भी वही तरीका अपनाया और मेरे बर्तन चमकने लगे."
"लेकिन जब बाद में मुझे कैंप से छोड़ा गया तो मेरे हाथ की त्वचा ख़राब हो गई. मेरे हाथों से मेरी खाल इस तरह गिरने लगी जैसे प्याज़ के छिलके गिरते हैं. कई सालों के इलाज के बाद मेरी ये बीमारी ठीक हुई."
लाल बहादुर शास्त्री का देवली कैंप दौरा
शौचालयों में कोई छत नहीं होती थी और कई बार उन्हें बरसते पानी के बीच वहाँ जाना पड़ता था. रोज़ नाश्ते के बाद उनका एक ही शगल होता था फ़ुटबॉल खेलना. दिलचस्प बात ये थी कि पूरे कैंप में सिर्फ़ एक ही फ़ुटबॉल थी.
जॉय मा बताती हैं कि उनकी माँ एफ़ा मा ने उन्हें बताया था कि 1963 में भारत के तत्कालीन गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री देवली कैंप में आए थे. जब हमारी उनसे मुलाक़ात कराई गई तो उन्होंने हम सबसे पूछा जो भारत में रहना चाहते हैं वो एक तरफ़ खड़े हो जाएं और जो चीन जाना चाहते हैं वो दूसरी तरफ़ खड़े हो जाएं.
मेरे पिता और मेरी माँ भारत में रहने वालों की तरफ़ खड़े हो गए थे लेकिन इसके बाद कुछ हुआ नहीं. कुछ महीनों बाद मेरी माँ ने कैंप के कमांडेंट आरएच राव से पूछा कि गृहमंत्री ने हमसे वादा किया था कि जो लोग भारत में रहना चाहते हैं उन्हें उनके घर भेज दिया जाएगा.
कमांडर ने थोड़ा सोचकर जवाब दिया था, "आपने कहा था आप भारत में रहना चाहती हैं. जिस ज़मीन पर आप खड़ी हैं वो भी तो भारत है."

दार्जीलिंग में ली गई इस तस्वीर में किऊ पाओ चेन अपनी मां अन्तेरी और बहनों के साथ
युद्धबंदियों को भी रखा गया था देवली कैंप में
इन बंदियों में से अधिकतर ने क़रीब चार साल देवली जेल में बिताए. जहाँ कुछ लोगों की मौत इसी कैंप में हुई, वहीं जॉय मा जैसे कुछ बच्चों ने यहाँ जन्म भी लिया.
न तो चीनी सरकार ने उनकी सुध ली और भारत सरकार भी उन्हें वहाँ रखने के बाद एक तरह से भूल ही गई.
रफ़ीक इलियास ने ज़रूर इस पूरे प्रकरण पर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाई 'बियॉन्ड बार्ब्ड वायर्स: अ डिस्टेंट डॉन'. साल 1931 से ही ब्रिटिश सरकार देवली कैंप का इस्तेमाल राजनीतिक बंदियों को रखने के लिए करती रही थी.
चालीस के दशक में जयप्रकाश नारायण, श्रीपद अमृत डांगे, जवाहरलाल नेहरू और बीटी रणदिवे को यहाँ कैदी के रूप में रखा गया था. दूसरे विश्व युद्ध में जर्मन, जापानी और इतालवी युद्धबंदियों को भी यहाँ रखा गया. 1947 के विभाजन के बाद पाकिस्तान से भाग कर आए दस हज़ार सिंधियों को भी कुछ दिनों के लिए यहाँ रखा गया.
1957 में इसे सीआरपीएफ़ का एक कैंप बना दिया गया और यहाँ उसकी दो बटालियन तैनात कर दी गईं. 1980 में इसे सीआईएसएफ़ को दे दिया गया. 1984 से यह सीआईएसएफ़ के भर्ती प्रशिक्षण केंद्र के रूप में काम कर रहा है.

देवली कैम्प में रह रहे कई लोगों को वहीं नज़दीक बने कब्रिस्तान में दफनाया गया था. यिंग शेंग वॉन्ग के पिता को भी यहीं दफन किया गया था. बाद में जब सिंग शिलॉन्ग लौटे तो वो अपने पिता की अस्थियां अपने साथ ले कर गए.
कुछ बंदी मजबूरी में चीन गए
कुछ दिनों में चीन को पता चल गया कि भारत ने चीनी लोगों के मूल के लोगों को बंदी बनाकर देवली में रखा हुआ है. चीन ने प्रस्ताव दिया कि वो उन लोगों को अपने यहाँ बुलाना चाहता है.
बहुत से बंदियों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और वो चीन चले गए. बहुत से लोग चीन नहीं जाना चाहते थे क्योंकि ये अफ़वाह फैल गई थी कि चीन में सूखा पड़ गया है.
बहुत से लोग इसलिए भी चीन नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि पहले उन्होंने कम्युनिस्ट सरकार का विरोध कर ताइवान की सरकार का समर्थन किया था. लेकिन जब उन्होंने देखा कि भारत में उनके लिए कोई भविष्य नहीं है तो उन्होंने बुझे मन से चीन जाने का फ़ैसला किया.
इन लोगों की कई पीढ़ियाँ भारत में रही थीं और वो लोग सिर्फ़ भारतीय भाषाएं हिंदी, बांग्ला या नेपाली बोलते थे. ऐसे में उनके लिए चीन उतना ही विदेशी देश था, जैसे भारत के लिए कोई अफ्रीकी देश.

भारत सरकार से माफ़ी की माँग
जेल से छूटने के बाद जब ये लोग अपने पुराने घर पहुंचे तो उन पर दूसरे लोगों का कब्ज़ा हो चुका था. बहुत से दूसरे लोगों ने कनाडा, अमरीका और दूसरे देशों में बसने का फ़ैसला किया. इनमें से बहुत से परिवार आज भी कनाडा के टोरंटो शहर में रहते हैं.
उन्होंने 'एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया देवली कैंप इनटर्नीज़ 1962' के नाम से एक संस्था बनाई है. वर्ष 2017 की शुरुआत में उन्होंने कनाडा में भारतीय उच्चायोग के बाहर प्रदर्शन कर भारत सरकार से उस दुर्व्यवहार के लिए माफ़ी माँगने की माँग रखी.
'द देवली वालाज़' पुस्तक के लेखक दिलीप डिसूज़ा बताते हैं कि "जब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित एक पत्र उच्चायोग के अधिकारियों को देने की कोशिश की तो उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया. वो लोग वो पत्र उच्चायोग के गेट पर चिपका कर लौट आए. उन सब लोगों ने एक जैसी टीशर्ट पहन रखी थी जिन पर देवली कैंप के चित्र छपे हुए थे."

लौटते समय बस में संगठन के लोगों ने यिन शेंग वॉन्ग से एक गाना गाने की फ़रमाइश की तो लगा कि वो कोई चीनी गाना सुनाएंगे.
लेकिन तभी यिंग शिंग वॉन्ग ने 'दिल अपना और प्रीत पराई' फ़िल्म का गाना गाना शुरू किया, "अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...." ये सुनते ही कई लोगों की आँखों में आँसू आ गए.
दिलीप बताते हैं, "इसके दो कारण थे. एक ये कि एक चीनी भारतीय, जिसने कई दशक पहले दुखद परिस्तिथियों में भारत छोड़ दिया था, ओटावा से टोरंटो जाते हुए चलती बस में एक पुराना हिंदी गीत गा रहा है."
"दूसरे मुझे महसूस हुआ कि चीनियों की शक्ल और चमड़ी के रंग के बारे में मेरी धारणा कमोबेश वही थी जिसने एक बार वॉन्ग और उन सरीखे हज़ारों चीनियों को देवली के हिरासत कैंप में भेज दिया था. उनकी सिर्फ़ ये गलती थी कि वो चीनियों जैसे दिखते थे."
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-कँवल भारती
यह सवाल हैरान करने वाला है कि डा. राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में क्यों मान्यता दी गई? उनकी किस विशेषता के आधार पर उनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस घोषित किया गया? क्या सोचकर उस समय की कांग्रेस सरकार ने राधाकृष्णन का महिमा-मंडन एक शिक्षक के रूप में किया, जबकि वह कूप-मंडूक विचारों के घोर जातिवादी थे?
भारत में शिक्षा के विकास में उनका कोई योगदान नहीं थाI अलबत्ता 1948 में उन्हें विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का अध्यक्ष जरूर बनाया गया था, जिसकी अधिकांश सिफारिशें दकियानूसी और देश को पीछे ले जाने वाली थींI नारी-शिक्षा के बारे में उनकी सिफारिश थी कि ‘स्त्री और पुरुष समान ही होते हैं, पर उनका कार्य-क्षेत्र भिन्न होता हैI अत: स्त्री शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि वह सुमाता और सुगृहिणी बन सकेंI’ इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह किस स्तर के शिक्षक रहे होंगे?
क्या ही दिलचस्प है कि हम जिस आरएसएस और भाजपा पर ब्राह्मणवाद को फैलाने का आरोप लगाते हैं, उसको स्थापित करने का सारा श्रेय कांग्रेस को ही जाता हैI उसने वेद-उपनिषदों और भारत की वर्णव्यवस्था पर मुग्ध घोर हिन्दुत्ववादी राधाकृष्णन को शिक्षक के रूप में पूरे देश पर थोप दियाI वर्णव्यवस्था को आदर्श व्यवस्था मानने वाला व्यक्ति सार्वजनिक शिक्षा का हिमायती कैसे हो सकता है? भारत में शिक्षा को सार्वजनिक बनाने का श्रेय किसी भी हिन्दू शासक को नहीं जाता, अगर जाता है, तो सिर्फ अंग्रेजों को जाता हैI अगर उन्होंने शिक्षा को सार्वजनिक नहीं बनाया होता, तो क्या जोतिबा फुले को शिक्षा मिलती? उन्होंने अंग्रेजी राज में शिक्षित होकर ही शिक्षा के महत्व को समझा और भारत में बहुजन समाज और स्त्रियों के लिए पहला स्कूल खोलाI इस दृष्टि से यदि भारत में किसी महामानव के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में याद किया जाना चाहिए, तो वह महामानव बहुजन नायक जोतिबा फुले के सिवा कोई नहीं हो सकताI उनका स्थान सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन कैसे ले सकते हैं?
सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन को भारत का महान दार्शनिक कहा जाता हैI पर सच यह है कि वह दार्शनिक नहीं, धर्म के व्याख्याता थेI लेकिन बड़े सुनियोजित तरीके से उन्हें आदि शंकराचार्य की दर्शन-परम्परा में अंतिम दार्शनिक के रूप में स्थापित करने का काम किया गयाI जिस तरह आदि शंकराचार्य ने मनुस्मृति में प्रतिपादित काले कानूनों का समर्थन किया था, उसी तरह सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन भी मनु के जबर्दस्त समर्थक थेI देखिए, वह क्या कहते हैं, ‘मनुस्मृति मूल रूप में एक धर्मशास्त्र है, नैतिक नियमों का एक विधान हैI इसने रिवाजों एवं परम्पराओं को, ऐसे समय में जबकि उनका मूलोच्छेदन हो रहा था, गौरव प्रदान कियाI परम्परागत सिद्धांत को शिथिल कर देने से रूढ़ि और प्रामाण्य का बल भी हल्का पड़ गयाI वह वैदिक यज्ञों को मान्यता देता है और वर्ण (जन्मपरक जाति) को ईश्वर का आदेश मानता हैI अत: एकाग्रमन होकर अध्ययन करना ही ब्राह्मण का तप है, क्षत्रिय के लिए तप है निर्बलों की रक्षा करना, व्यापार, वाणिज्य तथा कृषि वैश्य के लिए तप है और शूद्र के लिए अन्यों की सेवा करना ही तप हैI’ वर्णव्यवस्था में विश्वास करने वाला एक धर्मप्रचारक तो हो सकता है, पर शिक्षक नहीं हो सकताI
इन्हीं सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू व्यू ऑफ़ लाइफ’ में वही डींगें मारी हैं, जो आरएसएस मारता है कि ‘हिन्दूसभ्यता कोई अर्वाचीन सभ्यता नहीं हैI उसके ऐतिहासिक साक्ष्य चार हजार वर्ष से ज्यादा पुराने हैंI वह उस समय से आज तक निरंतर गतिमान हैI’ बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने अपनी बहुचर्चित व्याख्यान-पुस्तक ‘जाति का विनाश’ में इस गर्वोक्ति का जबरदस्त खंडन किया हैI वे कहते हैं, ‘प्रश्न यह नहीं है कि ‘कोई समुदाय बचा रहता है, या मर जाता है, बल्कि प्रश्न यह है कि वह किस स्थिति में बचा हुआ है? बचे रहने के कई स्तर हैं, लेकिन इनमें से सभी समान रूप से सम्मानपूर्ण नहीं हैंI व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी, सिर्फ जीवित रहने और सम्मानपूर्ण तरीके से जीवित रहने के बीच एक खाई हैI युद्ध में लड़ना और गौरवपूर्वक जीना एक तरीका हैI पीछे लौट जाना, आत्मसमर्पण करना और एक कैदी की तरह जीवित रहना—यह भी एक तरीका हैI हिन्दू के लिए इस तथ्य में आश्वासन खोजना बेकार है कि वह और उसके लोग बचे रहे हैंI उसे इस पर विचार करना चाहिए कि इस जीवन का स्तर क्या है?
अगर लोग इस पर विचार करे, तो मुझे विश्वास है कि वह अपने बचे रहने पर गर्व करना छोड़ देगाI हिन्दू का जीवन लगातार पराजय का जीवन रहा है और उसे जो चीज सतत जीवन-युक्त लगती है, वह सतत जीवनदायी नहीं है, बल्कि वास्तव में ऐसा जीवन है, जो सतत विनाश-युक्त हैI यह बचे रहने का एक ऐसा तरीका है, जिस पर कोई भी स्वस्थ दिमाग का व्यक्ति, जो सत्य को स्वीकार करने से डरता नहीं, शर्मिंदगी महसूस करेगाI’
यह हैरान करने वाली बात है कि डा. राधाकृष्णन के हिन्दू ज्ञान पर न केवल आरएसएस मुग्ध है, जो हिंदुत्व को एक जीवन-शैली बताते हुए उनके कथन को आधार बनाती है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी 11 दिसम्बर 1995 को आर.वाई. प्रभु बनाम पी.के. कुंडे मामले में यह फैसला देते हुए कि हिन्दूधर्म का मतलब एक जीवन शैली है, और वह एक सहिष्णु धर्म है, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ में की गई व्याख्या को ही अपना आधार बनाया थाI जबकि इस मामले में दूसरा पक्ष, जोकि निश्चित रूप से डा. आंबेडकर हैं, उनको पढ़े वगैर हिन्दूधर्म पर कोई निर्णय न निष्पक्ष होगा, और न न्यायसंगतI डा. धर्मवीर ने इस पर सटीक टिप्पणी की थी, ‘लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह लिखते समय इस बात पर विचार नहीं किया, कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने डा. एस. राधाकृष्णन को पुराने ढर्रे का ‘धर्म-प्रचारक’ कहा हैI’
राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ की भूमिका में लिखा है कि ‘सर राधाकृष्णन जैसे पुराने ढर्रे के धर्म-प्रचारक का कहना है- ‘प्राचीन भारत में दर्शन किसी भी दूसरी साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न हो, सदा एक स्वतंत्र स्थान रखता रहा हैI’ इसके जवाब में राहुल जी ने लिखा है, ‘भारतीय दर्शन साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न रहा हो, किन्तु धर्म का लग्गू-भग्गू तो वह सदा से चला आता है और धर्म की गुलामी से बदतर और क्या हो सकती है?
डा. राधाकृष्णन के बारे में यह भ्रम फैलाया जाता है कि वह महान दार्शनिक थे, जबकि सच यह है कि यह केवल दुष्प्रचार हैI वह एक ऐसे ब्राह्मण लेखक थे, जिन्होंने हिंदुत्व को भारतीय दर्शन में, और ख़ास तौर से बौद्धदर्शन में वेद-वेदांत को घुसेड़ने का काम किया हैI राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में एक स्थान पर उन्हें ‘हिन्दू लेखक’ की संज्ञा दी हैI उन्होंने लिखा है, कि बुद्ध को ध्यान और प्रार्थना मार्गी तथा परम सत्ता को मानने वाला लिखने की गैर जिम्मवारी धृष्टता सर राधाकृष्णन जैसे हिन्दू लेखक ही कर सकते हैंI डा. आंबेडकर ने भी अपने निबन्ध ‘Krishna and his Gita’में डा. राधाकृष्णन के इस मत का जोरदार खंडन किया है कि गीता बौद्धकाल से पहले की रचना हैI डा. आंबेडकर ने डा. राधाकृष्णन जैसे हिन्दू लेखकों को सप्रमाण बताया है कि गीता बौद्धधर्म के ‘काउंटर रेवोलुशन’ में लिखी गई रचना हैI
भारतीय दर्शन में डा. राधाकृष्णन के हिन्दू ज्ञान की लीपापोती का विचारोत्तेजक खंडन राहुल सांकृत्यायन ने अपनी दूसरी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ में किया हैI वह लिखते हैं, ‘कितने ही लोग—हाँ, भारत के अंग्रेजी शिक्षितों में ही—यह समझने की बहुत भारी गलती करते हैं कि सर राधाकृष्णन जबर्दस्त दार्शनिक हैंI....इसके सबूत के लिए पढ़िए—‘मार पड़ने पर बुद्धि भक्ति (की गोद) में शरण ले सकती है’..राधाकृष्णन यथा नाम तथा गुण भक्तिमार्गी हैंI...शरण लेना कायरों का काम है, उसे जूझ मरना चाहिएI बुद्धि पर मार पड़ रही है, आगे बढ़ने के लिएI जो बुद्धि में अग्रसर है, उस पर मार पड़ती भी नहींI
राधाकृष्णन के इस कथन पर कि ‘भारत में मानव भगवान की उपज है, और भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सफलता का रहस्य उसका अनुदारात्मक उदारवाद है’, राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, ‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने हिन्दुओं में से एक-तिहाई को अछूत बनाने में किस तरह सफलता पाई? किस तरह जातिभेद को ब्रह्मा के मुख से निकली व्यवस्था पर आधारित कर जातीय एकता को कभी बनने नहीं दिया?.....यह सब अनुदारात्मक उदारवाद से है और इसलिए कि भारत में मानव भगवान की उपज हैI...यह हम जानते हैं कि सर राधाकृष्णन जैसे भक्तों और दार्शनिकों ने शताब्दियों से भारत की ऐसी रेड़ मारी है, कि वह जिन्दा से मुर्दा ज्यादा हैI’
इसी पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन एक जगह लिखते हैं, ‘सर राधाकृष्णन जैसे लोग भारत में शोषण के पोषण के लिए वही काम कर रहे हैं, जो कि इंग्लैंड में वहां के शासक प्रभु वर्ग के स्वार्थों की रक्षा में सर आर्थर एडिग्टन जैसे वैज्ञानिकों का रहा हैI’
घोर जातिवादी और घोर हिंदूवादी अर्थात ब्राह्मणवादी डा. राधाकृष्णन को शिक्षक के रूप में याद करना किसी तरह से भी न्यायसंगत नहीं हैI
(4/9/2018)
[1] भारतीय शिक्षा का इतिहास, डा. सीताराम जायसवाल, 1981, प्रकाशन केंद्र, सीतापुर रोड, लखनऊ, पृष्ठ 259
[2] यह इशारा बौद्धकाल की ओर हैI इससे स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति बौद्धकाल के बाद की रचना हैI
[3] भारतीय दर्शन, खंड 1, 2004, राजपाल एंड संज, दिल्ली, पृष्ठ 422
[4] डा. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस, खंड 1, 1989, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई, पृष्ठ 66
[5] जाति का विनाश, डा. बाबासाहेब आंबेडकर का प्रसिद्ध व्याख्यान, अनुवादक : राजकिशोर, 2018, फारवर्ड बुक्स, नयी दिल्ली, पृष्ठ 96
[6] डा. धर्मवीर, दलित भारतीयता बनाम न्यायपालिका में द्विज तत्व, 1996, पृष्ठ 6
[7] राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, 1944, भूमिका, पृष्ठ (5), संस्करण 1998 की भूमिका में पृष्ठ (i) हैI किताब महल, इलाहाबादI
[8] डा. राधाकृष्णन, हिस्ट्री ऑफ़ फिलोसोफी, वाल्यूम I, पेज 2, (नन्दकिशोर गोभिल द्वारा किये गये हिंदी अनुवाद ‘भारतीय दर्शन, खंड 1, 2004, पृष्ठ 18)
[9] राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, 1998, पृष्ठ (i)
[10] इंडियन फिलोसोफी, वाल्यूम I, फर्स्ट एडिशन, पेज 355
[11] दर्शन-दिग्दर्शन, 1998, पृष्ठ 408
[12] देखिए, डा. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग एंड स्पीचेस, वाल्यूम 3, 1987, चैप्टर 13
[13] वही, पेज 369
[14] राहुल सांकृत्यायन, वैज्ञानिक भौतिकवाद, 1981, लोकभारती इलाहाबाद, पृष्ठ 64-65
[15] वही, पृष्ठ 80-81
[16] वही, पृष्ठ 85
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आंध्र प्रदेश की सरकार ने पिछले साल अपने सारे स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी कर देने का फैसला किया और विधानसभा ने 19 जनवरी 2019 को उस पर मुहर लगा दी। भाजपा ने इसका विरोध किया और उसके दो नेताओं- सुदेश और श्रीनिवास ने उच्च न्यायालय में याचिका लगा दी। उच्च न्यायालय ने इस अंग्रेजी को थोपने के फैसले को गैर-कानूनी घोषित कर दिया लेकिन अब आंध्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय की शरण में चली गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर बहस की अनुमति दे दी है लेकिन राज्य सरकार के इस अनुरोध को निरस्त कर दिया है कि वह उच्च न्यायालय के फैसले को रोक दे। अर्थात अभी तो आंध्र में तेलुगु और हिंदी माध्यम से बच्चों का पढ़ाना जारी रखा जाएगा।
अपने पक्ष में आंध्र सरकार का तर्क यह था कि आंध्र के बच्चे यदि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ेंगे तो उन्हें देश और विदेश में नौकरियां आसानी से मिलेंगी। उसने यह प्रगतिशील कदम अपने बच्चों के पक्ष में उठाया है। यह तर्क बिल्कुल सही है, क्योंकि भारत में आज भी अंग्रेजी की गुलामी ज्यों की त्यों है। सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी माध्यम को प्राथमिकता मिलती है और महत्वपूर्ण सरकारी काम-काज पूरी तरह से अंग्रेजी में होता है। जिस दिन सरकारी कामकाज से अंग्रेजी विदा होगी, उसी दिन से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल दीवालिए हो जाएंगे।
अंग्रेजी के इसी अनावश्यक वर्चस्व के कारण देश में गैर-सरकारी निजी स्कूलों की बाढ़ आ गई है। अंग्रेजी माध्यम के ये स्कूल ठगी और ढोंग के अड्डे बन गए हैं। इसी ठगी को काटने का आसान रास्ता कुछ नेताओं को यह दिखने लगा है कि सभी बच्चों पर अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई थोप दी जाए लेकिन वे क्यों नहीं समझते कि शिक्षा की दृष्टि से यह कदम विनाशकारी है। यह आसान दिखने वाला रास्ता, रास्ता नहीं, खाई है। इस खाई में हमारे करोड़ों बच्चों को गिरने से बचाना है। देश की सभी सरकारें आज तक इस मामले में निकम्मी साबित हुई हैं। दुनिया के किसी भी संपन्न और शक्तिशाली देश में बच्चों की शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से नहीं होती।
हमारे यहां बच्चों को जो अनिवार्य अंग्रेजी पढ़ाई जाती है, उसमें विफल होनेवालों की संख्या सारे विषयों में सबसे ज्यादा होती है। विदेशी भाषाओं को पढऩे की उत्तम सुविधाएं जरुर होनी चाहिए लेकिन वे 10 वीं कक्षा के बाद हों और स्वैच्छिक हों। प्रादेशिक सरकारों और केंद्र सरकारों को ऐसा कानून तुरंत बनाना चाहिए कि विदेशी भाषा के माध्यम से बच्चों की पढ़ाई पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाए। अकबर इलाहाबादी के शब्दों में कहूं तो मैं कहूंगा, ‘हिरण पर घांस लादना बंद करें।’
(नया इंडिया की अनुमति से)
नई दिल्ली, 5 सितंबर (आईएएनएस)| देश को 1947 में आजादी मिलने से 46 साल पहले महात्मा गांधी 18 दिनों के लिए मॉरीशस गए थे और अपनी इस यात्रा में उन्होंने इस द्वीपीय देश में प्रवासी भारतीय श्रमिकों के अधिकारों के लिए पहला आंदोलन शुरू किया था। भारतीय कामगारों की दुर्दशा को उजागर करने के लिए उस वक्त महज 38 साल की उम्र में उन्होंने मीडिया को अपना अहम जरिया बनाया था। इसके लिए उन्होंने एक अनूठा प्रयोग करते हुए मॉरीशस में हिन्दी समाचार-पत्र 'हिन्दुस्तानी' शुरू कराया, जो कि शायद भारत के बाहर हिन्दी में प्रकाशित होने वाला पहला हिन्दी अखबार था। इस काम की जिम्मेदारी गांधी ने अपने मित्र मणिलाल डॉक्टर को दी और उन्हें 11 अक्टूबर, 1907 को मॉरिशस भेजा।
मॉरीशस के स्वतंत्रता आंदोलन में मीडिया, विशेष रूप से हिंदी पत्रकारिता की प्रमुख भूमिका को बताती हुई एक किताब वरिष्ठ टीवी पत्रकार सर्वेश तिवारी ने लिखी है। इस किताब का नाम 'मॉरिशस : इंडियन कल्चर एंड मीडिया' है। इस किताब में मॉरीशस में चलाए गए आंदोलन को बखूबी दर्शाया गया है, जिसका नेतृत्व भारतीय मूल के प्रवासी सेवूसागुर रामगुलाम ने किया था।
रोचक बात है कि तीन दशक के बाद जब मॉरीशस ब्रिटिश शासन से आजाद हुआ तो यही प्रवासी मजदूर रामगुलाम मॉरीशस के पहले प्रधानमंत्री बने थे।
वैसे हिंदुस्तानी अखबार को लॉन्च करने वाले गांधी के दूत मणिलाल डॉक्टर ने बैरिस्टर होने के नाते वहां भारतीय प्रवासी श्रमिकों के नागरिक अधिकारों के लिए लड़ाई भी लड़ी।
नागरिक अधिकारों के आंदोलन को मजबूत करने के लिए मणिलाल ने 'हिंदुस्तानी' अखबार निकालने की शुरुआत पहले अंग्रेजी और गुजराती भाषा से की और बाद में इसे हिन्दी में निकाला। दरअसल, वहां बड़ी संख्या में भोजपुरी बोलने वाले भारतीय लोग थे। हिन्दी के इस अखबार का प्रभाव ऐसा पड़ा कि इसने तत्काल लोगों के दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया।
जबकि 1900 की शुरूआत में जब यह हिन्दुस्तानी अखबार प्रेस से बाहर निकला था, उस वक्त मॉरीशस की मीडिया में फ्रेंच अखबार हावी थे। लेकिन हिन्दुस्तानी अखबार ने ऐसी ज्योत जलाई कि इसके प्रकाशन के कुछ ही सालों के अंदर मॉरीशस में दर्जन भर से ज्यादा हिंदी अखबार प्रकाशित होने लगे।
एक ओर जहां मॉरीशस में 'हिंदुस्तानी' के कारण हिन्दी अखबारों का दबदबा बढ़ रहा था, वहीं दूसरी ओर इस अखबार से मिल रही प्रेरणा ने प्रवासी श्रमिकों के मन में स्वतंत्रता की भावना को जगाया था। कागज और इसकी सामग्री ने भारतीय प्रवासियों को एकजुट किया और उनमें स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने का साहस जगाया।
गांधी के सिद्धांतों और भारतीय संस्कृति का असर इस देश पर ऐसा पड़ा कि अपनी स्वतंत्रता के इतने साल बाद आज भी मॉरीशस में हर क्षेत्र में भारतीयता की भावना नजर आती है।
लिहाजा इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मॉरीशस के राष्ट्रपति पृथ्वीराजसिंह रूपन ने कहा है, "अगर हम भारत को 'मां' कहते हैं, तो मॉरीशस 'बेटा' है ..यही कारण है कि जो लोग सदियों से यहां रह रहे हैं वे अपनी जड़ों का पता लगाने के लिए उप्र और बिहार की यात्रा करना चाहते हैं।"
जाहिर है अब मन में सवाल आएगा कि उप्र और बिहार ही क्यों? दरअसल, मॉरीशस में गन्ने की फसल लगाने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में भारतीय मजदूर वहां गए थे। इनमें से ज्यादातर मजदूर उत्तर भारत के भोजपुरी भाषी बेल्ट के थे।
जो आंकड़े मिले हैं उनके मुताबिक 1834 और 1923 के बीच करीब 4.50 लाख भारतीय मजदूरों को अनुबंधित श्रमिकों के रूप में मॉरीशस लाया गया था। इनमें से 1.5 लाख अपना अनुबंध खत्म होने पर भारत लौट गए, जबकि बाकी मजदूर यहीं बस गए। आज भी इस देश में इनकी करीब 12 लाख की आबादी रहती है।
इस किताब के लेखक सर्वेश तिवारी ने मॉरीशस के इतिहास और महत्वपूर्ण घटनाओं का भी जिक्र किया है। इसके साथ वहां की स्थानीय आबादी के साथ उनके संवाद और 30 सालों के दौरान मॉरीशस की ढेरों यात्राओं के अनुभव भी इस किताब में है।
बता दें कि लेखक सर्वेश तिवारी ने शीर्ष भारतीय समाचार चैनलों के साथ काम किया है और वर्तमान में वे मॉरीशस ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के साथ जुड़े हुए हैं।
-शिशिर सोनी
बिहार को रसातल में पहुंचा देने वाले नेताओं से सवाल करने के समय आ गया है। हिसाब किताब करने का समय आ गया है। चुनाव आज हो या कल। चुनावी बेला में मुखर हो कर सवाल करें। सोचें, समझें कि नीतीश, लालू से इतर क्या प्रयोग हो सकते हैं?
सत्ता में चूंकि नीतीश कुमार हैं। तो ज्यादा सवाल उनके हिस्से आयेगा। देश में शायद ही कोई नेता होगा जिसकी किस्मत नीतीश जैसी होगी। लगातार 26 सालों से सत्ता का सुख भोग रहे हैं। फिर भी बिहार की किस्मत क्यों नहीं बदली?
नीतीश कुमार से 26 सालों का हिसाब किताब लेना चाहिए। 1990 में नीतीश, लालू के साथ मंत्री थे। 1994 में लालू से अलग हो कर समता पार्टी बनाई। 1994 से 1997 चार साल सत्ता से दूर रहे। 1998 की केंद्र की वाजपेयी सरकार में मंत्री बने। फिर 2004 से लगातार बिहार के सीएम हैं। मतलब गत तीस सालों में नीतीश केवल चार साल सत्ता से बाहर रहे। तो ठीक है 30 साल का नहीं 26 साल का हिसाब लीजिये।
बिहार के स्कूल, कॉलेज, अस्पतालों की दुर्दशा का कौन जिम्मेदार है?
26 साल, शिक्षा व्यवस्था का बुरा हाल
बिहार से बच्चों की पढ़ाई पर सबसे ज्यादा पैसा दूसरे राज्यों को जाता है। क्यों? क्योंकि बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर कभी काम नहीं हुआ। आखिर क्यों हमारे बच्चे कोटा जाते हैं। पहले स्कूलिंग फिर कोचिंग सब राजस्थान के कोटा में। नीतीश कुमार ने क्या कभी कोशिश की कि कोटा कोचिंग स्कूल वाले बिहार में अपनी ब्रांच खोलें। ताकि बिहार का पैसा बिहार में रहे। स्थानीय लोगों को रोजगार मिले। बच्चों को बाहर न जाना पड़े! बस एक उदाहरण दे रहा हूँ। नीतीश और उनके कुनबे से सवाल होने चाहिए इस दिशा में उन्होंने क्या किया? सरकारी स्कूलों के हाल पर तो किसी को भी रोना आ जाए। लेकिन 26 साल राज करने वाले नीतीश बदहाल शिक्षा व्यवस्था में खुशहाल हैं !
26 साल, स्वास्थ्य व्यवस्था का बुरा हाल
अस्पतालों की दुर्दशा कैसी है उसकी पोल पट्टी कोरोना ने खोल दी। तीन दशक में पटना को एक एम्स मिला। वो भी सुषमा स्वराज की देन थी। राज्य सरकार ने कितने अस्पताल खोले? जो खुले हैं उनकी ऐसी अव्यवस्था क्यों है? ये सवाल होने चाहिए। आज भी क्यों बिहार के लोगों को समय पर समुचित इलाज का अभाव है? वहाँ के डॉक्टरों पर लोगों का भरोसा क्यों नहीं बन पा रहा? निजी अस्पतालों को लूट का अड्डा क्यों बनने दिया गया? सरकार और स्वास्थ्य माफिया के बीच सांठगांठ पर सवाल होने चाहिए?
26 साल, उद्योग धंधे का बुरा हाल
बिहार में एक भी कल कारखाने नहीं लगे, क्यों? नीतीश के पार्टनर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में मोतिहारी की जनता से वायदा किया था - अगली बार आऊंगा तो मोतिहारी चीनी मिल की चाय पियूँगा। मिल खुलेगी। चीनी मिल खुल गई क्या? आज तक नहीं खुली वो भी तब जब राधा मोहन सिंह मोतिहारी से सांसद बनने के बाद केंद्र में कृषि मंत्री बनाये गए। मोतिहारी की जनता झूठे वादे पर दौड़ाना जानती है, सो, उसके बाद से मोदी गायब हैं। 2019 के चुनाव में मोदी मोतिहारी से कन्नी काट गए। गये ही नहीं। नितीश ने इस संबंध में क्या किया?

कार्टूनिस्ट इरफान
चकिया, सुगौली, नरकटिया गंज सहित दजऱ्नों चीनी मिल बंद पड़े हैं। नीतीश कुमार ने इन्हे शुरू कराने के लिए क्या किया? इन मिलों में काम करने वाले लाखों कामगारों की हालत आज क्या है ? किस फटेहाली में वे जी रहे हैं, नितीश ने कभी सुध ली? क्यों नही ली? बिहार में बड़े पैमाने पर सीप से बटन बनाने के कारखाने थे सब बंद पड़े हैं। नितीश कुमार ने 26 सालों में इसे शुरू कराने के क्या प्रयास किये?
मुजफ़रपुर की लीची, दीघा का दूधिया मालदा आम, हजीपुर का केला, दरभंगा का मखाना, भागलपुर का सिल्क, देश विदेश में प्रसिद्ध है। फिर भी उद्योग धंधे क्यों नहीं ला रहे? एक भी फूड प्रोसेसिन्ग यूनिट आज तक क्यों नहीं लगा?
आखिर क्यों हमारे खेतिहर पंजाब जाते हैं मजदूरी करने? जाहिर है रोजगार के लिए। बिहारी बिहार में इज़्ज़त से जीवन बसर कर सकते हैं अगर यहाँ कल कारखाने लगेंगे तो हमारे मेहनतकश लोगों को बिहार में ही काम मिलेगा। स्कूल, कॉलेज, कोचिंग की व्यवस्था ठीक होगी तो बिहार का पैसा बिहार में रुकेगा। रोजगार के साधन बढ़ेंगे। अस्पतालों की स्थिति ठीक होगी तो गरीब निजी अस्पतालों में लुटने से बचेंगे। समय पर गरीबों को इलाज मिल सकेगा।
बिहार जहाँ तीस साल पहले था, वहाँ से कितने कदम आगे चल पाया? सवाल होने चाहिए। बिहार में सबसे ज्यादा युवा आबादी है, ्रनीतीश कुमार की इनके लिए क्या योजऩा है? युवाओं को सवाल करना चाहिए आखिर सबसे ज्यादा 46 फीसदी बेरोजगारी बिहार में क्यों है? स्वच्छ भारत के सर्वे में बिहार की राजधानी पटना को सबसे गंदे शहर का मेडल मिला, नितीश कुमार के 26 साल में हमें ये मिला? सोचिये। मीमांसा कीजिये। सवाल बनाइये। सवाल उठाइये।
मैं ये सवाल इसलिए उठा रहा हूँ क्योंकि अभी ही उचित समय है। तकरीबन एक करोड़ ऐसे बिहारी अभी बिहार में हैं जो रोजी-रोटी की तलाश में असम से कन्याकुमारी तक खाक छान कर कोरोना काल में लौटे हैं। राज्य दर राज्य से आये बिहारी लोगों के मन में इस बात की जबरदस्त टीस है कि बिहार की ऐसी दुर्गति क्यों है?
बिहार की जनता को चाहिए कि इसबार चुनावी मैदान में आये सभी दलों से विजन डॉक्यूमेंट मांगे। बिहार को ये दल पांच सालों में किस रास्ते पर और कैसे ले जाना चाहते हैं उसका लिखित दस्तावेज हो। फिर ये तय हो की किस दल को वोट किया जाए। जाहिर है इसके लिए जातपात से ऊपर उठना होगा।
मगर नीतीश कुमार से 26 साल का हिसाब जरूर मांगे। हर मंच से। हर चौक चौराहे से। हर चाय, पान की दुकान से।
-राकेश दीवान
गोस्वामी तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ में एक प्रसंग है, राक्षसी सुरसा का। रावण की लंका में कैद जानकी को राम का संदेश देने जा रहे हनुमान की शक्ति-परीक्षा करने के लिए देवताओं ने सर्पों की माता सुरसा को भेजा था। तुलसी बाबा कहते हैं कि – ‘जस-जस सुरसा बदन बढावा, तासु दून कपि रूप देखावा। सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा, अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।’ यानि पहले तो सुरसा से दुगना आकार ग्रहण करके हनुमान ने अपनी अहमियत दिखाई, परन्तु अंत में वे ‘अति लघु रूप’ में ही सुुरसा से निपट पाए।
दुनियाभर में वापरी जाने वाली ‘उपयुक्त तकनीक’ यानि ‘एप्रोप्रिएट टैक्नॉलॉजी’ को सर्वप्रथम रेखांकित करने वाले अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर ने भी अपनी ख्यात किताब का नाम ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ यानि ‘लघु ही सुन्दर है’ रखा था। बौद्ध दर्शन के ‘मज्झिम निकाय’ यानि ‘मध्यमार्ग’ से प्रभावित और तत्कालीन बर्मा सरकार के आर्थिक सलाहकार रहे शूमाकर लघु को सुन्दर ही नहीं, कारगर भी मानते थे। शूमाकर ने अपने विचारों पर उन महात्मा गांधी के प्रभाव को माना था जो खुद भी जीवनभर छोटे और उपयुक्त के तरफदार रहे थे। सवाल है कि क्या आज की बदहाली के लिए, खासतौर पर भारत में, लघु और विशाल के बीच का द्वंद्व ही जिम्मेदार है? क्या आजादी के बाद गांधी के लघु और उपयुक्त को नजरअंदाज कर बनाई गई ‘बिगेस्ट इन द वर्ल्ड’ की विशालकाय राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक योजनाओं में ही कोई खोट है जिसने हमें मौजूदा बदहाली की तरफ ढकेल दिया है?
तुलसीबाबा और शूमाकर की मान्यताओं को हमारे लोकतंत्र, आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक विकास और तरह-तरह के राजनीतिक-सामाजिक ढांचों की बदहाली के बरक्स देखें तो क्या पता चलता है? क्या आजादी के बाद स्थानीय, लघु और कारगर ताने-बाने को अनदेखा करते हुए विशालता की तरफदारी में बनाई गई योजनाओं ने हमारी मौजूदा गत नहीं बनाई है? इन दिनों हम बाढ की सालाना त्रासदी में डूब-उतरा रहे हैं और यदि इसी का उदाहरण लें तो स्थानीय स्तर के छोटे और कारगर ढांचे बचे होते और उनमें वर्षा-जल रोक लिया जाता तो क्या बाढ के इतने बडे संकट में फंसना पडता? क्या ये छोटे और नियंत्रित ढांचे पानी की स्थानीय आपूर्ति और सिंचाई के लिए सर्वथा उपयुक्त नहीं होते? क्या मौजूदा विशालकाय, केन्द्रीकृत जल-विद्युत परियोजनाएं अपने उद्देश्यों को पूरा करने में इस कदर नकारा साबित हुई हैं कि उनसे मामूली बाढ-नियंत्रण तक नहीं हो पा रहा? बडी, विशाल परियोजनाओं के कई अलमबरदार अब भी मानते हैं कि बडे बांध सिंचाई, जल-विद्युत उत्पादन और बाढ-नियंत्रण का अचूक नुस्खा हैं, लेकिन आजादी के बाद अब तक बने करीब पांच हजार बडे बांध अपनी इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों को निभा पाने में नकारा साबित हुए हैं। अपने आसपास ही देखें तो कोई भी बता सकता है कि बडे बांधों के पहले की बाढ, भले ही बडी हो, लेकिन उतना नुकसान नहीं पहुंचाती थी जितना अब होने लगा है। पहले जमाने में बाढ का पानी कहीं रुकता नहीं था, लेकिन अब बडे बांधों की चपेट में आने के बाद से पानी कई-कई दिन बस्तियों में ठहरा रहता है और नतीजे में भारी नुकसान पहुंचाता है।
एक और बानगी अभी दो दिन पहले आए ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) के आंकडों से देशभर में मचे बवाल की भी है। इनके मुताबिक भारत का ‘जीडीपी’ अपनी पहली तिमाही में ही लुढककर ‘ऋण-23.9 प्रतिशत’ पर पहुंच गया है। इस ‘लुढकन’ में उस ‘निर्माण क्षेत्र’ (50 प्रतिशत) का सबसे अधिक हाथ है जिसकी कसमें खाकर हमारे विकास-वादी सत्ताधारी वाह-वाही कमाते थे। इसके अलावा अप्रैल से जून के बीच बढी इस राष्ट्रीय बदहाली के मुकाबले एक और आंकडा है, मुकेश अम्बानी की सम्पन्नता का। ‘जीडीपी’ गिरने के ठीक इसी दौर में अकूत कमाकर अम्बानी दुनिया के पांचवें सबसे अमीर व्यक्ति बन गए हैं। पहले से ‘दूबरे’ और ‘कोरोना’ की मार में ‘दो अषाढ’ झेलने वाले भारत में कोई एक आदमी, भले ही वह कैसा और कितना भी ‘बलवान’ क्यों न हो, कैसे दुनियाभर के ‘टॉप’ पूंजीपतियों में जगह बना सकता है? यह कैसा लोकतंत्र और संविधान है जिसमें नागरिकों के देखते-देखते देश की ‘जीडीपी’ लुढकने के एन बीचमबीच कोई अपनी संपत्ति में 35 फीसदी का इजाफा करके दुनिया के अमीरों की नंबर एक की दौड में शामिल हो जाता है? संविधान से बंधे लोकतांत्रिक देश के नागरिक क्या इस परिस्थिति में कुछ नहीं कर सकते? और क्या यह गफलत विशालकाय, राक्षसी के बरक्स लघु के विरोधाभास का ही नतीजा नहीं है?
इस लिहाज से पडताल करें तो सरलता से समझा जा सकता है कि हमारा और तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों का बुनियादी द्वंद्व ‘विशालता’ और ‘लघुता’ के बीच का है। इसे थोडी और गहराई से देखें तो लोकतंत्र और संविधान के विरोधाभासों को भी समझा जा सकता है। देश का संविधान हमें ‘क्या है’ की बजाए ‘क्या होना चाहिए’ तो बताता है, लेकिन हमारी मौजूदा हालातों में कोई हस्तक्षेप नहीं करता। मसलन, क्या हमारे संविधान में राज्य-राज्य में जारी मौजूदा शर्मनाक राजनीतिक उठा-पटक के लिए कोई जगह है? क्या संविधान हमारे राजनेताओं को वैसा बनने और बने रहने से रोक सकता है, जैसे कि वे हैं? और यदि यह सब नहीं है, तो फिर इससे कैसे पार पाया जा सकता है? लोकतंत्र और संविधान की श्रेष्ठतम उपलब्धि समाज के अंतिम नागरिक की तंत्र में भागीदारी मानी जाती है, लेकिन क्या मौजूदा राजनीतिक ताने-बाने में यह किसी भी तरह से संभव दिखती है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर एक काल्पनिक, आभासी लोकतंत्र और संविधान की क्या भूमिका होगी? क्या ऐसे में नागरिक की पहुंच की न्यूनतम राजनीतिक इकाई ग्रामसभा को मजबूत करें तो अपेक्षित परिणाम नहीं पाए जा सकते? गांधी तो लगातार इसी ग्राम गणराज्य की बात करते रहे थे।
ग्रामसभा को मजबूत और कारगर बनाकर बिगडैल राजनीतिक जमातों को रास्ते पर लाया जा सकता है, लेकिन हमारी राजनीतिक बिरादरी में इसके प्रति कोई लगाव नहीं है। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में आए ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून’ (मनरेगा) या ‘वनाधिकार अधिनियम’ जैसे कानूनों ने पंचायतों और ग्रामसभाओं को पैसा और ताकत दी है। नतीजे में कतिपय राजनीतिक दल लोकतंत्र की इन लघुतम इकाइयों के प्रति थोडे-बहुत आकर्षित भी हुए हैं, लेकिन यह आकर्षण पंचायतों, ग्रामसभाओं को मजबूत बनाने की बजाए उन्हें और कमजोर करने के प्रति है। आखिर मजबूत नागरिक और उनकी पंचायतें, ग्रामसभाएं मौजूदा राजनीति को कहां रास आती हैं? लेकिन आप चाहें, न चाहें, भविष्य तो इन्हीं का है।
थोडी गहराई से खंगालें तो साफ देखा, महसूस किया जा सकता है कि इंसानी वजूद के सभी क्षेत्रों में अब विशालता का समय समाप्त होता जा रहा है। बडे बांधों से लेकर बडी राष्ट्रीय पार्टियों तक सभी धीरे-धीरे अपनी चमक खोते, अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। खेती-पाती, रहन-सहन, इलाज-बीमारी, पढाई-लिखाई आदि सभी क्षेत्र अब स्थानीय, छोटे ढांचों में ज्यादा कारगर दिखाई देने लगे हैं। जिस तरह पानी के लिए बडे, विशालकाय बांधों की जगह छोटी, कारगर जल-संरचनाएं उपयुक्त साबित हो रही हैं, ठीक उसी तरह प्रशासन, राजनीति और समाज-व्यवस्थाएंं भी स्थानीय, छोटे ताने-बाने में अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी साबित हो रही हैं। यह समय है, जब हमें अपने मौजूदा ढांचे में पैबन्द लगाने की बजाए उसे बदलने पर विचार करना चाहिए। ऐसे में विशालकाय, राक्षसी के मुकाबले छोटे, स्थानीय ढांचों को तरजीह देना एक विकल्प हो सकता है।
आयुष मंत्रालय की बैठक से अहिंदी भाषियों को निकाले जाने से माहौल गर्मा गया है। बहस फिर से शुरु हो गई है। हालांकि खुद नेतृत्व क्षेत्रीय चुनावों में इलाकाई भाषाओं के चुनिंदा वाक्य बोल रहा है, पर विदेश नीति बैंकों से बातचीत तो अंग्रेजी में ही हो रही है।
बात पुरानी है। जून का महीना शुरू ही हुआ था। हम चार भारतीय भाषाओं के लेखक- कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति, असमिया के वरिष्ठ लेखक बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य, उर्दू के लेखक समालोचक गोपीचंद नारंग और यह लेखिका, बांग्लाभाषी साहित्य अकादमी सचिव सहित बीजिंग हवाई अड्डे पर उतरे। उतरते ही हमको लेने आए चीनी दुभाषिये की मार्फत और अधिकारियों के तेवरों से जाहिर हुआ कि उनकी सरकार ने हमको सादर न्योता तो था लेकिन बीजिंग में यकायक फूटे भारी नागरिक विद्रोह के कारण हमारा आना उनको न उगलते बन रहा था, न निगलते। हमको संगीनों के सायों से घिरी वीरान सड़कों से सीधे हमारे भव्य होटल ले जाया गया और हमारी सुचारू व्यवस्था के साथ ही ताकीद की गई कि किसी भी कीमत पर हमें होटल से बाहर पैर नहीं रखने। मरते, क्या न करते? अगले दो सप्ताह के उस क्वारंटाइन में हमने वही किया जो लेखक कर सकते हैं: साहित्य, समाज और भाषा के रिश्तों पर बहस। हमारा होटल ठीक थ्येनआनमन चौक से सटा हुआ था और वहां के डाइनिंग हॉल से हमें भीमाकार टी-59 चीनी टैंक और धरने पर बैठे हजारों युवा हमें खिड़कियों से साफ नजर आते थे।
कई-कई तरह की सुस्वादु डिशेज के बीच भाषा के मसले पर बातचीत गरमा चली। शिष्ट शांत मिजाज के अनंतमूर्ति और बीरेनदा के सुर भी हिन्दी की राष्ट्र भाषा बनने की जिद और सरकारी हिंदी के औपनिवेशक इरादों पर तल्ख हुए। सचिव महोदय सरकारी मुलाजिम थे, पर बंगाल का गुस्सा उनकी बातों से भी साफ झलकता था। गोपीचंद नारंग तो ठहरे गर्म मिजाज पंजाबी भाई! उनको हिंदी द्वारा उर्दू की राजनैतिक मदद से बार-बार हुई बेदखली और उसे सिर्फ मुसलमानों की भाषा कहकर सांप्रदायिक रंगत देने वाले दक्षिणपंथी प्रचारकों से बेपनाह नफरत थी जो वह काफी रंगीन विशेषणों से व्यक्त कर रहे थे। हिंदी के पक्ष को सुर देने का सारा दारोमदार मुझ पर आन पड़ा तो मैंने यह कहकर बात शांत करने की कोशिश की कि हिंदी एक भाषा नहीं, एक विराट् सरोवर है जिसमें उर्दू और अनगिनत बोलियों की धाराएं मिलजुल कर हमारी समन्वयवादी संस्कृति को स्वर देती हैं। हिंदी न होती तो क्या बादल सरकार के नाटक, अनंतमूर्ति और बीरेनदा-जैसे ज्ञानपीठ विजेता लेखकों की कृतियां, पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, मलयालम और तमिल की कई-कई कालजयी कृतियों को करोड़ों नए दर्शक पाठक मिल पाते? शायद नहीं।
अहिंदी भाषी लेखकों का कहना थाः लेकिन क्या यह नकारा जा सकता है कि गैर हिंदी इलाके के भारतीयों को हिंदी के जबरिया सरकारी प्रचार और उसके स्कूली पाठ्यक्रमों में लादे जाने से हुई पीड़ा का किसी को अंदाज़ है? दाक्षिणात्य लोगों की तुलना में खुद हिंदी पट्टी के कितने लोग दक्षिणी भाषाएं जानते हैं? क्या हिंदी वालों या बॉलीवुड के लिए औसतन विंध्य के दक्षिणी क्षेत्र का हर आदमी मदरासी नहीं? क्या तमिल संस्कृत से कहीं पुरानी और कहीं बड़ा साहित्य भंडार नहीं रखती? क्या उर्दू से लगातार नागरी लिपि अपनाकर हिंदी में विलीन होने और सेकुलर माने जाने का आग्रह एक अनधिकार चेष्टा नहीं?
सच कहूं तो इन तीखे सवालों को सिरे से खारिज करना सही नहीं था। नैतिक तौर से भी और लोकतांत्रिकता के तहत भी। बीरेनदा का यह कहना भी असत्य नहीं था कि लगातार दिल्ली की शह पाकर बांग्लाभाषी, या बिहारी कामगारों तथा शरणार्थियों के आकर असम में बसते जाने से उनकी क्षेत्रीय संस्कृति और भाषा अल्पसंख्यकों के दर्जे की तरफ लुढकती जा रही हैं। जैसे-तैसे दो सप्ताह बीते लेकिन बोरियत का कोई क्षण नहीं रहा। इन संवेदनशील लेखकों की मार्फत मेरी निजी संवेदना का दायरा बहुत बढ़ गया और उस यात्रा की स्मृतियों की डोर से बंधे हम लोग आजीवन मित्र बने। पर राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे सघन वार्तालाप कहां संभव हैं जो मनोमालिन्य मिटा दें? यही नहीं, जब तक हम वापस रवाना हुए, हमें अपनी अनेकता में एकता साफ महसूस होने लगी थी।
होटल की कसकर बंद लॉबी से बाहर लहूलुहान छात्रों की भीड़ को निर्ममता से धकेले जाते देखकर अनंतमूर्ति ने क्रौंचवध से विचलित वाल्मीकि की तरह हमसे और खुद से पूछा: ‘ऐसे तानाशाह शासन, ऐसी लीडरशिप के लिए क्या विशेषण इस्तेमाल करें?’ अचानक हम सबके मुख से एक ही शब्द फूटा, ‘राक्षस’ (यह बात और है कि अपने बीरेनदा उसे राक्खोस कहते रहे!)। हमारे शब्दों में हमारे देश की कालातीत करुणा मानो एक साथ बोल रही थी। उस क्षण मुझे लगा कि राजनेता अपने स्वार्थों के लिए भाषा के सवाल को चाहे जितनी निर्ममता और चतुराई से हांकें, हमारी तमाम भाषाओं के लेखकों-कलाकारों के बीच एक अंत: सलिला की तरह हमारी समग्र संस्कृति की इस धारा को वे अवरुद्ध नहीं कर सकते। मन में तब उठी यह बात अब तलक कई मौकों पर मन को मथती आ रही है।
गत 22 अगस्त को आयुष मंत्रालय के सचिव द्वारा कथित तौर से अहिंदी भाषियों को मीटिंग छोड़ने का आदेश देने की खबर पढ़ी। मंत्रालय की एक ऑनलाइन मीटिंग के दौरान कुछ तमिल भागीदारों द्वारा हिंदी में की जा रही कार्रवाई के दौरान आपत्ति व्यक्त कर बातचीत अंग्रेजी में करने की मांग की गई। उनके अनुसार, सुनवाई की बजाय उनको सीधे कह दिया गया कि वे हिंदी नहीं जानते तो बाहर जा सकते हैं।
इस बात पर आजादी के बाद से हिंदी ‘थोपने के खिलाफ’ एक खदकते लावे की तरह देश के अहिंदीभाषी राज्यों में भीतर ही भीतर उफनाता गुस्से का प्रवाह भलभला कर बाहर आना शुरू हो गया। हमेशा की तरह यह होते ही राजनीति ने इसे भुनाना शुरू कर दिया। विपक्षी द्रमुक की नेत्री सांसद कनिमोझी ने ट्विटर पर हिंदी के औपनिवेशिक मंसूबों का आरोप जड़कर कटु प्रतिक्रिया दी, तो मंत्रालय और भाजपा से जुड़े तमाम हिंदी के पक्षधर भी मैदान में उतर पड़े। होते-होते गोष्ठी का मूल विषय- राज्यों में योग के शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था, तो ताख पर धरा रहा और हिंदी-हिंदू- हिंदुस्तान का पुराना बवंडर क्षितिज पर छा गया। दक्षिण भारत से मांग उठने लगी कि दाक्षिणात्यों का अपमान करने वाले सचिव को तुरत निलंबित किया जाए।
1968 में भारत सरकार ने राज्यों से लंबी उदारमना बातचीत के बाद शिक्षा माध्यम और भारत की एकसूत्रता के लिए एक ईमानदार त्रिसूत्री फार्मूला बनाया था। इसके तहत प्राइमरी स्तर तक क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा दी जानी थी और मिडिल स्कूल से उसके साथ-साथ हर छात्र को अंग्रेजी और एक अपने क्षेत्र से बाहर की भारतीय भाषा सीखना अनिवार्य बनाया गया था। नीयत यह थी कि शिक्षण संस्थानों में बेल्जियम या स्विट्ज़रलैंड- जैसे बहुभाषा भाषी देशों की तरह छात्रों को एकाधिक भाषाएं सीखने को मिलें। उत्तर के छात्र दक्षिण की भाषाओं से परिचित हों और दक्षिण उत्तर की भाषा से। दक्षिणी राज्यों को लगा कि किसी राज्य की भाषा के साथ चतुराई से संस्कृत का विकल्प डालकर हिंदी पट्टी ने उत्तर की हिंदी या अन्य कोई भाषा सीखने को राजी दक्षिण के साथ विश्वासघात किया है। बात इतनी बिगड़ी कि तेलुगु के सवाल पर पोत्तिरामुलु ने आत्मदाह कर लिया। तय अंत में यही हुआ कि जब तक दक्षिण के राज्य औपचारिक स्वीकृति न दें, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का सवाल इकतरफा तय नहीं किया जाएगा।
इस सबके बाद जाने किस जिद के तहत हर बरस सितंबर में राजकीय हिंदी दिवस मनाया जाना चालू रहा जिसकी सालों तक दक्षिण भारत में वार्षिक परिणति हिंदी बोर्डों पर तारकोल पोतने और हिंदी फिल्मों के पोस्टर जलाने के रूप में होती रही। जयललिता के समय हुई तरक्की और शेष दाक्षिणात्य राज्यों के सुथरे विकास ने मनोमालिन्य काफी हद तक कम कर दिया था, पर तभी भाजपा बहुमत से आई और हिंदी पट्टी में अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए उसकी खुली हिंदीपरस्त योजनाओं ने भाषा का माहौल फिर गर्मा दिया।
आज भाजपानीत एनडीए ने उत्तर भारत में राजनीतिक विमर्श की भाषा को लगभग पूरी तरह से हिंदीमय बना दिया है। अंग्रेजी चैनलों में भी दलीय प्रवक्ता अब अंग्रेजी से शुरू कर तुरत हिंदी पर उतर आते हैं। कर्नाटक फतह के बाद दक्षिण भारत के सभी सार्वजनिक स्थलों पर अंग्रेजी तथा लोकल भाषा के नामपट्टों में हिंदी का अनिवार्य प्रयोग धुकाया जाने लगा है। पर मजे की बात यह कि इसी के साथ शिक्षा के निजीकरण की बाढ़ को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है जबकि सबको पता है कि इसका मतलब है अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा। चूंकि भली नौकरियों से लेकर शादी के रिश्तों तक की राह अब अंग्रेजी पकड़कर ही तय की जा सकती है, हिंदी पट्टी के मध्यवर्गीय अभिभावक भी पेट काटकर बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं। कॉलेज तक पहुंचते-पहुंचते छात्र तीन तो दूर, दो भाषाएं भी नहीं लिख-पढ़ सकते। खुद नेतृत्व भी घरेलू चुनावों में हिंदी को प्रधानता देकर क्षेत्रीय चुनावों के लिए कुछेक चुनिंदा इलाकाई भाषा के वाक्य बोल रहा है और विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय बैंकों से बातचीत तो पूरी तरह अंग्रेजी से ही चलाई जा रही है।
स्व.अरुणा आसफ अली ने एक बार मुझे एक मजेदार कहानी सुनाई थी। आजादी से ठीक पहले दिल्ली में भारतीय महिला कांग्रेस की मीटिंग चल रही थी। भारत के सभी राज्यों से आईं पढी-लिखी कई कम उम्र माताएं भी इसमें शामिल थीं। उनके साथ आए उनके बच्चे मीटिंग के दौरान पीछे के किसी कमरे में परिचारिकाओं की देखभाल में बिठा दिए गए थे। राष्ट्रभाषा का सवाल उठते ही महिलाओं के बीच भी तलवारें खिंच गईं। गहमागहमी इतनी बढ़ी कि शोर मच गया। तभी भीतर से एक परिचारिका भागती हुई आई और बोली, मेमसाब जी किसी का एक बच्चा हल्ला सुनकर जोर से रोने लगा है। संभल ही नहीं रहा है। उसकी मां को आना होगा। अब महिलाएं परस्पर मुंह देखने लगीं। तभी अध्यक्षा सरोजिनी नायडू ने मुस्कुरा कर कहा, ‘अब बच्चा तो किसी का भी हो सकता है बहन, सो जरा जाकर देख आओ कि बच्चा हिंदी में रो रहा है कि अंग्रेजी में?’ (navjivanindia.com)
-मनीष सिंह
जब चीन के फौजी अपने बूटों से भारत का सर कुचल रहे हैं, भारत की सरकार, जनता और मिडिया ने आंखें मूंद ली है। राष्ट्र की सुरक्षा पर बड़ी-बड़ी हांकने वाले रेजीम का यह सन्निपात आश्चर्यजनक है। मगर इससे ज्यादा आश्चर्यजनक, 130 करोड़ के देश की अपनी सीमाओं के अतिक्रमण से बेरुखी है।
शायद चीन ने भी न सोचा होगा, कि सब कुछ इतना आसान होगा। पिछले चालीस सालों में सीमा पर उसके एडवेंचर्स को माकूल जवाब मिलता रहा है। चीन की पहलकदमी की पहली खबर आते ही हर नागरिक का मनोमस्तिष्क उसकी ओर घूम जाता था। आज वह किलोमीटर फांदते हुए घुसा चला आ रहा है, और हम उसे चरागाह में घुस आए बैल से ज्यादा महत्व नही दे रहे।
हां अगर कभी कोई बहस है, तो वो यह कि 1962 में हमने कितनी जमीन खोई, 1947 में क्या खोया, या उसके पहले क्या-क्या खोया। सच्चे-झूठे किस्से सुनाए जा रहे हैं, गोया चीन जैसे आक्रांता का आना, और हिंदुस्तान की जमीन का जाना, हर दौर की एक सामान्य परिघटना है। जाहिर है कि हर सरकार, हर नेता तो चीन को जमीन खोता ही रहा है। मायने ये, कि यह सरकार, यह नेता भी अपने हिस्से की जमीन खो रहा है, तो इसमे कौन सी अचरज की बात है।
गाहे-बगाहे, चीनी फौजियों को मार डालने और उनकी नकली कब्रों की फोटो जरूर फ्लैश होते हंै। कुल जमा पांच रफेल की तस्वीरों और बमो धमाकों के पुराने फुटेज का रिपीट टेलीकास्ट भी है। मगर व्यापक रूप से देश की सुरक्षा के मुद्दे पर इतनी अरुचि सत्तर साल में नहीं देखी गई।
चीन की नीति, विस्तारवादी रही है। पर इस बार वह एक लोकलाइज्ड बखेड़ा नहीं कर रहा, वह कश्मीर से अरुणाचल और भूटान तक नए दावे कर रहा है। 1962 के बाद का सबसे बड़ा सैनिक जमावड़ा किया है। युद्ध की ताल ठोक रहा है, नए इलाकों में घुस चुका है।
तो क्यों दुनिया के पांचवें सबसे बड़े परमाणु जखीरे पर बैठे देश की सीमाओं के साथ सीमा विवाद ताकत के बूते निपटाने के लिए में, यह वक्त मुकर्रर किया। क्या सोचा होगा, क्या आकलन किया होगा? दरअसल उसे मालूम है, यह वक्त पिछले 40 साल में सबसे ज्यादा माकूल है।
बुरी तरह विभाजित, बेपरवाह यह देश अपने आंतरिक, मानसिक युद्दों में रत है। यह निरंतर छायायुद्धों में उलझा है। कहीं गलियों में, कहीं खाने की मेज पर। कहीं भाषणों में, कहीं टीवी पर। अपने आसपास, घरों, मित्रों सहपाठियों, सहकर्मियों के बीच गद्दारों और देशद्रोहियों की खोज करना।
किसी शहर का नाम बदलकर, कहीं इतिहास की किताबों में विजेताओं के नाम बदलकर। कहीं पड़ोस के मोहल्ले में धार्मिक नारेबाजी कर, कहीं युवाओं के हाथों में आदिम हथियार टिकाकर, कहीं किसी को गाली देकर। यह देश सात सालों से लगातार युद्ध लड़ रहा है। यह युद्धों से थका हुआ देश है।
हर शाम उसे पता चलता है कि वह आज की लड़ाई जीत चुका है। हां, मगर कल एक नई लड़ाई है, एक नया मुद्दा है। किसी को न्याय दिलाना, किसी को डिसलाइक करना, कुछ ट्रेंड करना, एक झूठ का फैलाव करना, फिर झूठ का बचाव करना और फिर इस नई लड़ाई को भी जीत जाना। यह जीतों से थका हुआ देश है।
नीम-नशे में दीवार से पीठ चिपकाए भारत, बंद आंखों से अपने मस्तिष्क की कंदराओं में लड़ाई-जीत-लड़ाई-जीत-लड़ाई-जीत की छवियों में डूबा है। उसे वो लपटें महसूस नहीं होती, जो उसके घर में लगी आग से निकल रहे हैं। वह मस्त है, अपने नशे, हैलुसिनेशन में.. गहरे नशे में डूबा, परछाइयों से लड़ता यह नया भारत है। यह भारत होश में नहीं है।
इसलिए चीन के लिए यह माकूल वक्त है।
हत्या : 5 सितम्बर 2017
-कनक तिवारी
श्रीराम सेने के प्रमोद मुतालिक ने गौरी लंकेश पर कुत्ते की याद करते फब्ती कसी थी। पहले भी एक हिन्दुत्वपरस्त ने उसे सीधे-सीधे कुतिया कहकर सुर्खियां बटोरी थीं। चार गोलियां मारकर उसकी घर में हत्या की गई।
कुतिया तो एक पशु का नाम है लेकिन उसे सभ्यों ने अपनी हिकारत उगलते विशेषण बना दिया है। इसलिए कुतिया भी चाहती रही होगी कि उसकी आत्मा को नया शरीर मिले। मनुष्य भी महसूस करे कि पशु होकर वह पशु की नस्ल का हो गया है। गौरी लंकेश को पता नहीं था कि वह कुतिया है। वह तो सोचती थी कि जाहिलों, भ्रष्टों, अत्याचारियों और हिंसकों के खिलाफ न्याय और साहस की लड़ाई लड़ रही है। उसे शायद इलहाम रहा भी होगा कि उसे मार दिया जाएगा। लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, समाजसेवक और कई साधारण लोग भी अपनी मौत को लेकर उलझन में नहीं रहते। यह अलग बात है कि उन्हें देशभक्त नहीं कहा जाता, जबकि वे होते हैं। मृत्युंजय होने का अर्थ भगतसिंह, अशफाकउल्ला, चंद्रशेखर आजाद और महात्मा गांधी ने भी सिखाया था। खुद चले गए। मरने के लिए कुछ औलादें छोड़ गए।
नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की गालियों से सजी चैकड़ी है। कई नाम जुड़ भी रहे हैं। मासूम और उम्मीद भरा देश खुद को आश्वस्त करता रहता है। जघन्य हत्याएं हो रही हैं। बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक जनता का नारा लगता है। सीबीआई जांच होनी चाहिए। एस.आई.टी. गठित करें। सीबीआई स्वर्ग से उतरी एजेंसी नहीं है। बकौल सुप्रीम कोर्ट वह केन्द्र सरकार के पिजड़े में कैद तोता है। तोता उतना ही बोलता है जितना सिखाया जाता है। वह मालिक के भोजन से कुछ जूठन खाता हरा-भरा रहता है। पिंजरे से बाहर तयशुदा दूरी तक ही उड़ता है। जनआकाश के नागरिक पक्षियों से घबराकर स्वेच्छा से गुलामी के पिंजरे में भाग आता है। उसकी वफादार मुद्रा से मालिक को मालिक को गर्व महसूस होता है। मुल्जिम नहीं पकड़े जाते। उम्मीदें जिंदगी की अमावस्या के खिलाफ टिमटिमाते दीपों की तरह अलबत्ता होती हैं।
राजधानियों, व्यापारधानियों और हत्यारे कारखानों से मितली करते प्रदूषण को ‘आर्ट ऑफ लाइफ’ कह दिया जाता है। गंगा एक्शन प्लान टाट में मखमली पैबंद है। भारत की संस्कृति, सभ्यता, प्रज्ञा और सोच की गंगा-यमुना-नर्मदा से बेखबर विदेशी ग्रांट लाकर ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी’, ‘बीफ’, ‘बुलेट ट्रेन’, ‘स्टार्ट अप’, ‘जुमला’, ‘जीएसटी’, ‘नोटबंदी’, ‘न्यू इंडिया’, ‘आत्मनिर्भरता’, ‘थाली ताली घंटी बजाओ’ वगैरह के जरिए इतिहास का चरित्रशोधन हो रहा है। पशु और कीड़े-मकोड़े हिंसक होते हैं लेकिन अपने बचाव के लिए। उस पर पैर पड़े तभी सांप तभी काटता है। वनैले पशुओं को छेड़ा नहीं जाए, तो नहीं काटते। मासूम गाय भी बछड़े के बचाव के लिए हिंसक और आक्रामक हो जाती है। बुद्ध, महावीर और गांधी ने भारतीयों में सहनशीलता, विश्व बंधुत्व और भाईचारा के जींस इंजेक्ट किए। अंगरेजों को खदेडऩे हिंसा की तलवार से ज्यादा अहिंसा की ढाल हथियार बनी। जनवादी क्रांति के जनपथ के बरक्स बगल की अंधी अपराधी गली में एक विचारधारा कुंठाओं के हाथ शस्त्र पकड़ाने की हैसियत में पनपती रही। बावडिय़ां, कुएं, गुप्त सुरंगें, बोगदे वगैरह लोगों को तबाह करने खोजे और बनाए गए।

हम अपने मुंह मियांमिट्ठू देश हैं। अफीम के नशे या गांजे की चिलम की सरकारी चुस्कियां लगातार बहला रही हैं। दस-बीस बरस में भारत विश्व गुरु बनेगा। माहौल बनाए रखते बस वोट देते रहिए। खबर छपती है, भारत एशिया का सबसे भ्रष्ट देश है, गरीबी में स्वर्ण पदक पाने ही वाला है। हिंसा, झूठ और फरेब में नए विश्व रिकॉर्ड बना रहा है। इंसानों के बदले मजहब, जातियां, प्रदेश, अछूत, नेता, अफसर, पूंजीपति, वेश्याएं, मच्छर, शक्कर तथा एड्स की बीमारियां, गोदी मीडिया तथा कुछ सिरफिरे देशभक्त एक साथ रहते हैं। कभी कोई घुंधली किरण अंधेरा चीरने की कोशिश कर भी लेती है। उसे उम्मीद के साथ मुगालता भी रहता है कि लोग उसे देखेंगे सुनेंगे। गांधी भगतसिंह तक को किसी ने स्थायी रूप से नहीं सुना। वे लेकिन जानते थे कि लोग नहीं सुनेंगे। फिर भी कहना जरूरी था। वे नया जमाना रचने अपवाद या घटना की तरह आए थे। वैश्य गांधी दूधदाता बकरी के बदले कुतिया पालते युधिष्ठिर के साथ धर्मराज कुत्ते के बदले कुतिया बनकर स्वर्गारोहण करते तो गौरी लंकेश को कुतिया नहीं कहा जाता!
भोपाल गैस त्रासदी के हजारों पीडि़तों के साथ इंसाफ नहीं हुआ। पार्टियों के जनसेवक चोला ओढक़र केंद्र मंत्री भी होते रहे। गोरखपुर और राजस्थान के अस्पताल के बच्चों के साथ इंसाफ तो जयश्रीराम नहीं कर पाये। करोड़ों बच्चों को पालतू कुत्तों, बिल्लियों से भी कम प्यार मिलता है। निर्भया नाम जपने से भी लाखों बच्चियों की अस्मत नहीं बच रही है। दाती महाराज रामपाल, गुरमीत राम रहीम, आसाराम और भी कई शंकर, राम, महमूद, जॉर्ज वगैरहों को हिकारत और गुमनामी की खंदकों में दफ्न क्यों नहीं किया जा सकता। एक वीर हुंकारता रहता है ‘मेरा देश बदल रहा है।’ वह हिंसा को पराक्रम बना रहा है। महान अंग्रेज लेखक Oliver Goldsmith ने एक पागल कुत्ते की मौत पर अमर शोकगीत रचा है। गौरी लंकेश कुतिया तो इन्सान है। मैं लेकिन goldsmith जैसा कवि होने की हैसियत नहीं रखता। उसे अमर कैसे बना सकता हूं। अच्छा है मर गई! उसके साथ कायरों की भी यादें कभी कभी कायम तो रहती हैं।
साहस, साफगोई और पारदर्शी योद्धा बेटी को कुतिया कहा गया है। उसे लाखों लोग ट्रोल भी करते रहे। वे ही धृतराष्ट्र हैं। राजरानी सीता या महारानी द्रौपदी पर भद्दे आक्रमण से ही जनक्रांति हुई। रामायण और महाभारत लिखी गईं। नागरिक समाज ने कुब्जा, मंथरा, अहिल्या, झलकारीबाई, सोनी सोरी, इरोम शर्मिला, आंग सान सू की जैसों को लेकर उतनी जिल्लतें कहां उठाईं। बुद्धिजीवी तबका श्रेष्ठि या सामंती वर्ग की महिलाओं की प्रचारित वेदना से उन्मादित होकर इतिहास बदल देने अभिव्यक्त होता रहता है। गौरी लंकेश! तुम्हारी भी याद तो लोगों को बस धूमिल ही हो रही है। मध्यवर्ग की यह लगातार त्रासदी है। तुम इसमें अपवाद कैसे हो सकती हो? कातिलों के बार बार आगे आकर उनके फिर कुछ करने से ही तो जनता के बयान कलमबद्ध होते रहते हैं।
- मोहर सिंह मीणा
एक सितंबर 2013 सुबह के क़रीब 11 बजे थे. देश भर की निगाहें जोधपुर पर टिकी हुई थीं. हवाई अड्डे पर मीडिया और लोगों का जमावड़ा था.
पुलिस का एक बड़ा अमला चौकसी से तैनात था. थोड़ी देर में दिल्ली से आई फ़्लाइट हवाई अड्डे पर उतरी.
इस फ़्लाइट में नाबालिग़ लड़की से रेप के अभियुक्त और अपने को आध्यात्मिक गुरु कहने वाले आसाराम थे. जोधपुर पुलिस की स्पेशल टीम इंदौर से उन्हें गिरफ़्तार करके लाई थी.
राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी जोधपुर आ रहे थे, इसलिए शहर में ख़ासी पुलिस व्यवस्था थी.
हवाई अड्डे से आसाराम को आरएसी परिसर में बनाए पूछताछ केंद्र में ले जाया गया. आसाराम को अहसास भी नहीं था कि पुलिस की तफ़्तीश कैसे होती है.
शाम के पाँच बज रहे थे. जोधपुर ईस्ट के डीसीपी रूम में मौजूद थे.
पश्चिमी राजस्थान के तेज़-तर्रार सब इंस्पेक्टर अमित सिहाग ने आसाराम से मुख़ातिब होकर कहा, "बाबा, सोफ़े पर कैसे बैठो हो. चलो उठो वहाँ से और नीचे ज़मीन पर बैठो."
पूछताछ की शुरुआत में ही अभियुक्त को अहसास हो गया कि यहाँ कोई रियायत मिलने की उम्मीद नहीं है.
ज़मीन पर बैठते ही उनकी आँखों में आँसू आ गए, "ऐसा मत करो डीसीपी साहब."
डीसीपी ने जवाब दिया, "बाबा, ये बताएँ कि ये सब कैसे किया, जल्दी बताएँ."
आसारामः "ग़लती कर दी. ग़लती कर दी मैंने..."
आसाराम बापू के सामने बैठे डीसीपी थे, उस वक्त जोधपुर ईस्ट में तैनात, आईपीएस अजय पाल लांबा.
ये हिस्सा है पुलिस अधिकारी अजय लांबा की किताब 'गनिंग फ़ॉर द गॉडमैन, द ट्रू स्टोरी बिहाइंड द आसाराम बापूज़ कन्विक्शन' का. इस किताब में ऐसी कई घटनाओं का ज़िक्र है.
आगे की कहानी भी इसी पुस्तक पर आधारित है.
पैसों का लालच और परिवार को धमकियाँ
दो सितंबर 2013 को आसाराम को न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाता है. अजय लांबा की किताब दावा करती है कि इसके बाद से ही जोधपुर पुलिस टीम को ख़तों, लगातार फ़ोन, जान से मारने की धमकियाँ और पैसों का लालच देने वालों की बाढ़ सी आ जाती है.
आसाराम समर्थक एक दिन आईपीएस लांबा के दफ़्तर तक पहुँच जाते हैं.
किताब के मुताबिक़, ये लोग लांबा से कहते हैं, "आप जितनी कल्पना कर सकते हैं उससे भी ज़्यादा पैसा बापू देंगे आपको, लेकिन आप इस केस में उनको गिरफ़्तार मत करो."
धमकियों और इंटेलिजेंस की रिपोर्ट से परेशान लांबा की पत्नी, अपनी बेटी को स्कूल भेजना बंद कर देती हैं.
अजय लांबा कहते हैं कि समर्थकों ने उनके माता-पिता को भी धमकाने का प्रयास किया.
नवंबर 2013 में चार्जशीट फ़ाइल करने के बाद भी लगातार पुलिस टीम और ख़ास कर आईपीएस लांबा को जान से मारने की धमकियाँ मिलती रही थीं.
अजय लांबा बताते हैं कि उन्हें राजनेताओं, ब्यूरोक्रेट्स, पुलिस विभाग के कुछ अधिकारियों और परिचित तक ने आसाराम केस में बैकफ़ुट पर रहने की सलाह दी थी.
केस की इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर चंचल मिश्रा का आसाराम समर्थक कोर्ट में भी पीछा करते थे. मिश्रा को आईईडी ब्लास्ट से मारने की साज़िश भी सामने आई थी. इस वजह से उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा भी दी गई थी.
केस की तफ़्तीश से जुड़े एक अन्य सब इंसपेक्टर, सत्यप्रकाश को राजस्थान में आसाराम की करोड़ों की प्रॉपर्टी देने तक का ऑफ़र दिया जाता है.
इस सब बातों को अब सात साल बीत चुके हैं. आसाराम बापू को दो साल पहले इन्हीं अधिकारियों की विवेचना के आधार पर दोषी पाकर सज़ा सुनाई जा चुकी है और वे जेल में हैं.
लेकिन अब भी तफ़्तीश करने वाली टीम के कई सदस्यों को पुलिस ने बाक़ायदा सिक्योरिटी दी हुई है.
प्रेस कॉन्फ़्रेंस से हुई गिरफ़्तारी की राह आसान
आसाराम केस में राजस्थान पुलिस की एंट्री मध्य प्रदेश में इंदौर में स्थित उनके आश्रम से हुई थी.
पुलिस टीम 30 अगस्त 2013 को जोधपुर से एडिशनल डीसीपी सतीश चंद्र जांगिड़ के नेतृत्व में इंदौर के लिए रवाना हुई थी.
जोधपुर पुलिस टीम इंदौर के सफ़र में थी और इधर जोधपुर में शाम पाँच बजे डीसीपी अजय पाल लांबा ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी.
लांबा ने पत्रकारों को बताया था, "हम आसाराम को गिरफ़्तार करने वाले हैं. एक टीम गिरफ़्तारी के लिए भेजी जा चुकी है. हम जानते हैं वह कहाँ है और हमारी टीम जल्द ही वहाँ पहुँच कर उसे गिरफ़्तार करेगी."
अजय लांबा बताते हैं कि वो उस दिन अंधेरे में तीर चला रहे थे, क्योंकि उनके पास आसाराम के बारे में कोई पुख़्ता जानकारी नहीं थी.
लेकिन पुलिस का ये दांव सही पड़ा और आसाराम शायद पुलिस से दूर जाने के लिए भोपाल एयरपोर्ट पहुँच गए.
पुलिस को इसकी जानकारी हुई, लेकिन इंदौर से इतनी जल्दी भोपाल पहुँचना मुश्किल था.
पुलिस ने इसकी जानकारी मीडिया को लीक कर दी और भोपाल एयरपोर्ट पर मीडिया जमा हो गया.
आसाराम शायद ख़ुद को कैमरों की नज़रों से छिपाने और ख़ुद छिपने के इरादे से इंदौर में अपने आश्रम के लिए निकल पड़े. एयरपोर्ट में हो रहे सारे घटनाक्रम की सूचना पुलिस तक टीवी चैनलों के माध्यम से मिल रही थी.
आसाराम बापू ख़ुद ब ख़ुद पुलिस के जाल में फँसते जा रहे थे. पुलिस के इंदौर में उनका इंतज़ार करने के बारे में वे पूरी तरह से अनभिज्ञ थे.
पुलिस का सामना
रात के नौ बजे इंदौर आश्रम के मुख्य गेट पर हज़ारों समर्थक नारेबाज़ी कर रहे थे. पुरुषों से ज़्यादा संख्या महिलाओं की थी. मीडिया और पुलिस बल भी बड़ी संख्या में मौजूद था.
आश्रम में आसाराम, उनके बेटे नारायण साईं, बेटी और उनके क़रीबी भक्त मौजूद थे. पुलिस ने नारायण साईं से कहा कि एक मामले में आसाराम से पूछताछ करनी है.
काफ़ी कोशिशों के बाद रात 11 बजे पुलिस आसाराम तक पहुँचती है.
आगे की कहानी अजय लांबा की किताब से
पुलिस को देखते ही आसाराम कहने लगते हैं, "तुम्हें पता है मैं कौन हूँ? तुम जानते हो देश में मेरे कितने भक्त हैं? तुम्हें पता है कि कितने राजनीति के लोगों के सिर पर मेरा हाथ है? तुम लोगों की हिम्मत कैसे होती है मेरे ही आश्रम में घुस कर मुझसे यह सब बेवकूफ़ी की बातें करने की? बताओ? "
यह पुलिस टीम और आसाराम का पहली बार आमना-सामना था.
देर तक आसाराम कभी अपनी सेहत का तो कभी सुबह चलने की बात करते हैं. बीच-बीच में वो पुलिस को अपने रसूख़ की भी याद दिलाते रहते हैं.
अजय लांबा बताते हैं कि आसाराम नित्य क्रियाओं के नाम पर ख़ुद अपने कमरे में चले गए, और शायद अपने बेटे नारायण साईं से समर्थकों को बुलाने के लिए कहा.
जोधपुर से डीसीपी अजय पाल लांबा ने भी सुबह के बजाय रात में ही उन्हें गिरफ़्तार करने को कह दिया था.
आख़िर में देर रात क़रीब 12 बजे राजस्थान पुलिस के टीम लीडर एडिशनल डीसीपी सतीश चंद्रजांगिड़ आसाराम से कहते हैं, "बाबा, कल सुबह नहीं. हम आपको अभी अरेस्ट करके जोधपुर ले जा रहे हैं. सुबह तक तो बहुत देर हो जाएगी."
फ़िल्मी अंदाज़ में आसाराम की गिरफ़्तारी
पुलिस ने आसाराम को पकड़कर बाहर खड़ी अपनी गाड़ी में बिठा दिया.
अजय लांबा की किताब के मुताबिक़ गिरफ़्तारी के समय आसाराम अपने बेटे और भक्तों को पुकारते हुए कह रहे थे, "अरे अरे, ये क्या कर रहे हो. नारायण इनको रोको. भक्तों देखो ये तुम्हारे बाबा को पकड़ कर ले जा रहे हैं. सब इनको रोको."
राजस्थान पुलिस, स्थानीय पुलिस के बताए रास्ते पर आश्रम से बाहर निकल जाती है. बाहर भारी तादाद में मौजूद समर्थकों ने पुलिस की गाड़ियों को रोकने की कोशिश की और कुछ ने कहा कि ये लोग एयरपोर्ट न पहुँच पाएँ.
लेकिन इंदौर पुलिस के सहयोग से पुलिस टीम एयरपोर्ट पर पहुँच जाती है. फ़्लाइट में भी आसाराम समर्थकों से उलझते हुए पुलिस टीम आसाराम को लेकर इंदौर से दिल्ली और फिर दिल्ली से 1 सितंबर सुबह 11 बजे जोधपुर पहुँचती है.
केस की इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर चंचल मिश्रा ने बीबीसी को बताया, "रात क़रीब 12.30 बजे थे, जब आश्रम से इंदौर एयरपोर्ट के सफ़र में आसाराम ने कहा- मुझसे ग़लती हो गई. मुझे उससे नहीं मिलना चाहिए था, वो बहुत छोटी थी."
इस केस को ठीक सात साल बीत चुके हैं. लंबा ट्रायल, कुछ गवाहों की हत्या और पुलिस टीम को मिली धमकियों के बाद आसाराम को दोषी पाया जा चुका है और वो सज़ा काट रहे हैं.
अब अजय लांबा की किताब एक बार फिर से भारत के एक चर्चित केस के कुछ अनछुए पहलुओं को आम जनता के बीच ला रही है. लेकिन, इन सबके बीच पीड़िता का परिवार अब भी ख़ुद को संभाल नहीं सका है.
पीड़िता के पिता ने बीबीसी को बताया, "हमने अपने जिगर के टुकड़ों को गुरुकुल में पढ़ने भेजा था. लेकिन उस दुष्ट ने ऐसा किया कि हम टूट गए. लेकिन सुकून है कि उसे सज़ा हुई, पूरे परिवार को तसल्ली है कि वो जेल में बंद है."(bbc)
अध्ययन से पता चलता है कि वास्तव में दुनिया भर में वनों की कटाई को धीमा करने में काफी सफलता मिली है
- Dayanidhi
हाल के वर्षों में मैंग्रोव वनों की कटाई के कारण वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि हुई है। सिंगापुर-ईटीएच सेंटर के नेतृत्व में किए गए शोध से पता चलता है कि 1996 से 2016 के बीच दुनिया भर में वनों की कटाई से जारी कार्बन की शुद्ध मात्रा केवल 1.8 फीसदी है, जो कि वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) उत्सर्जन का 0.1 फीसदी से कम है। मैंग्रोव वनों द्वारा किया जाने वाला कार्बन संग्रहण (स्टॉक्स) कम हुआ है। इसकी मात्रा को बढ़ाने के नए तरीके में मैंग्रोव वनों का विस्तार करना, संरक्षण और इनका ध्यान रखना महत्वपूर्ण है।
अध्ययन में बताया गया है कि मैंग्रोव कार्बन संग्रहण (स्टॉक्स) के शुद्ध घाटे को कम करने के लिए, लोगों के द्वारा वृक्षारोपण के माध्यम से मैंग्रोव का विस्तार किया जाना चाहिए। पिछले अनुमानों ने केवल मैंग्रोव वनों की कटाई के बुरे प्रभावों के बारे में बताया था, लेकिन इस बात की संभावना पर प्रकाश नहीं डाला कि नए मैंग्रोव भी उगेंगे।
नई विधि में मैंग्रोव पर दुनिया भर के आंकड़े बताते है कि इनका बेहतर विस्तार हुआ है, अर्थात मैंग्रोव के जंगल बढ़े हैं। इस नए शोध में मैंग्रोव के विस्तार के साथ-साथ कार्बन घनत्व और इसकी मात्रा निर्धारित की है। इसमें बताया गया है कि आम तौर पर जब मैंग्रोव वनों की कमी होती है तो कितनी मात्रा में कार्बन संग्रहण का नुकसान होता है। नई पद्धति का उपयोग करते हुए, पिछले मॉडल से तुलना करने पर पता चलता है लगभग 66 फीसदी कार्बन का नुकसान हुआ है। यह अध्ययन नेचर कम्युनिकेशन्स पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
शोध की अगुवाई करने वाले, सिंगापुर-ईटीएच सेंटर के डॉ. डैन रिचर्ड्स के अनुसार, मैंग्रोव कार्बन स्टॉक का शुद्ध नुकसान कम होना आश्चर्यजनक था। मैंग्रोव वनों की कटाई को अक्सर संकट के रूप में देखा जाता है, लेकिन हाल के कामों के बीच हमारे अध्ययन से पता चलता है कि वास्तव में दुनिया भर में वनों की कटाई को धीमा करने में काफी सफलता मिली है। मेक्सिको और म्यांमार के कुछ हिस्सों में 1996 की तुलना में 2016 में मैंग्रोव में अधिक कार्बन संग्रहीत था।
मोनाश विश्वविद्यालय के डॉ. बेंजामिन थॉम्पसन ने कहा मैंग्रोव वनों को काटे जाने से बचाने में संरक्षण प्रयासों की स्पष्ट सफलता के बराबर अन्य कोई संतोष नहीं हो सकता है। मैंग्रोव किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में कार्बन के उच्चतम घनत्व को संग्रहीत करते हैं। प्रभावी संरक्षण और बहाली को अभी भी शुद्ध नुकसान की इन कम दरों को बनाए रखने के लिए काफी प्रबंधन, प्रयास और निवेश की आवश्यकता है।
इसके अलावा, मैंग्रोव संरक्षण और पुनर्स्थापना गतिविधियों से ली गई सीख को अन्य पारिस्थितिक तंत्रों को फायदा पहुंचाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर के डॉ. लाहिरु विजाडेसा कहते हैं उष्णकटिबंधीय पीटलैंड कार्बन के बड़े स्टॉक में से एक पारिस्थितिकी तंत्र है, जहां हाल के दशकों में वनों की कटाई की दर बहुत अधीक थी।
पीटलैंड : प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ (आईसीयूएन) के अनुसार पीटलैंड एक प्रकार की आर्द्रभूमि है जो पृथ्वी पर सबसे मूल्यवान पारिस्थितिक तंत्रों में से एक हैं। ये वैश्विक जैव विविधता के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं, सुरक्षित पेयजल प्रदान करते हैं, बाढ़ के जोखिम को कम करते हैं और जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करते हैं।
पीटलैंड सबसे बड़ा प्राकृतिक स्थलीय कार्बन स्टोर है। संयुक्त रूप से दुनिया में अन्य सभी प्रकार की वनस्पति की तुलना में अधिक कार्बन का भंडारण करते हैं।(downtoearth)
-भगीरत श्रीवास
महामारी की पृष्ठभूमि में लिखी गई कविताएं इस भीषण दौर की टीस और छटपटाहट को स्वर देती हैं
दुनियाभर में फैली महामारियां या बीमारियां हमेशा से साहित्य की विषयवस्तु रही हैं। इतिहास महामारियों का उतना बारीक और जीवंत चित्रण नहीं करता, जितना साहित्य में मिलता है। उपन्यास, कहानियों, नाटकों और कविताओं के रूप में हमें ऐसी असंख्य रचनाएं मिलती हैं। इस श्रृंखला में वाम प्रकाशन की “कोरोना में कवि” भी शामिल हो गई है। इस काव्य संग्रह में जाने-माने और नवोदित कवियों की कविताएं शामिल की गई हैं। अधिकांश कवियों ने लॉकडाउन से उपजी परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण किया है। ज्यादातर कवियों ने प्रवासी मजदूरों का पीड़ा को स्वर दिया है।
पुस्तक की भूमिका में संपादक संजय कुंदन ने उन महत्वपूर्ण रचनाओं पर रोशनी डाली है जिनके केंद्र में बीमारियां रही हैं। वह लिखते हैं कि रवीन्द्रनाथ टैगोर की काव्य रचना पुरातन भृत्य और उपन्यास चतुरंग में उन्होंने महामारी को लेकर तत्कालीन समाज में धार्मिक दृष्टिकोण की पड़ताल की तो वहीं शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने श्रीकांत में प्लेग की दारुण स्थितियों का चित्रण किया। ओड़िया साहित्य को आधुनिक स्वरूप देने वाले फकीर मोहन सेनापति की कहानी रेबती में हैजे की भयावहता का वर्णन है। निराला के उपन्यास कुल्ली भाट में 1918 में फ्लू से हुई मौतों का दिल दहला देने वाला चित्रण है। िनराला लिखते हैं, “मैं दालमऊ में गंगा के तट पर खड़ा था। जहां तक नजर जाती थी, गंगा के पानी में इंसानी लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं। मेरे ससुराल से खबर आई कि मेरी पत्नी मनोहरा देवी भी चल बसी हैं। मेरी एक साल की बेटी ने भी दम तोड़ दिया था। मेरे परिवार के और भी कई लोग हमेशा के लिए जाते रहे थे। लोगों के दाह संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ गई थीं। पलक झपकते ही मेरा परिवार मेरी आंखों के सामने से गायब हो गया।”
संजय कुंदन आगे लिखते हैं, “हर तरह की तकनीक और उन्नत चिकित्सा प्रणाली एक वायरस के सामने फिलहाल तो असहाय दिख रही है। हालांकि ऐसी ही असहायता के बीच पहले भी रास्ते निकले हैं और निश्चय ही इस बार भी हम इससे उबर जाएंगे। यह भी कम हैरत की बात नहीं कि सत्ता तंत्र का व्यवहार आज भी वैसा ही है, जैसा सौ साल पहले की किसी महामारी में रहा है।” वह आगे लिखते हैं, “महामारी के बहाने जनतांत्रिक मूल्यों व जनता के अधिकारों पर कुठाराघात की कोशिशें भी देखी जा रही हैं। इतिहास का यह खतरनाक दोहराव चिंतित करने वाला है।”
इसी दोहराव को रेखांकित करते हुए सुभाष राय ने साइकिल पर अपने पिता को बिठाकर गुड़गांव से दरभंगा पहुंचने वाली 15 साल की ज्योति पासवान को लिखी चिट्ठी में कहा है-
ज्योति बेटी! वे तुम्हें साइकिलिंग
का मौका देना चाहते हैं
लेकिन अभी उन्हें भरोसा नहीं है
तुम्हारे साहस पर, तुम्हारे इरादे पर
वे तुम्हारी परीक्षा लेंगे
वे आम बच्चियों को मौका नहीं देते
तुम भी आम होती
पिता की निरुपायता पर रोती
और रोते राेते मर जाती
तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
संजय कुंदन “जा रहे हम” शीर्षक से प्रकाशित कविता में अपने गांव लौट रहे प्रवासी मजदूरों की व्यथा और शहरों के उपेक्षित व्यवहार पर लिखते हैं-
जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हम
यही दो-चार पोटलियां साथ थीं तब भी
आज भी हैं
और यह देह
लेकिन अब आत्मा पर खरोंचे कितनी बढ़ गई हैं
कौन देखता है
कोई रोकता तो रुक भी जाते
बस दिखलाता आंख में थोड़ा पानी
इतना ही कहता
-यह शहर तुम्हारा भी तो है
उन्होंने देखा भी नहीं पलटकर
जिनके घरों की दीवारें हमने चमकाईं
उन्होंने भी कुछ नहीं कहा
जिनकी चूड़ियां हमने 1300 डिग्री तापमान में
कांच पिघलाकर बनाईं
किसी ने नहीं देखा एक ब्रश, एक पेचकर
एक रिंच और हथौड़े के पीछे एक हाथ भी है
जिसमें खून दौड़ता है
जिसे किसी और हाथ की ऊष्मा चाहिए।
मदन कश्यप ने 65 साल से अधिक उम्र के व्यक्ति की पीड़ा को स्वर देते हुए लिखा है-
अपने ही घर में कुछ इस तरह छिप गया हूं
कि डरकर भी डरा हुआ नहीं हूं
हो तो गया था
पर एक साल बाद अब जाकर हुआ
65 पार होने का एहसास
जब काल की पनाह से निकलकर
कोरोना के हवाले कर दिया गया
एक ढीठ खामोशी मुझे घूरती रहती है
बंद कारखानों की उदास बत्तियां
मानों संध्या का स्वागत करना भूल गई है
अंधेरे की चुप्पी से कहीं ज्यादा भयावह होती है
रोशनी की नीरवता।
लीलाधर मंडलोई ने सारा डेटा होते हुए भी कुछ न करने पर व्यवस्था पर बेहद तीखा कटाक्ष किया है। “आपको सब मालूम है” कविता में उन्होंने मेहनतकश मजदूरों की जिजीविषा और सरकारी उपेक्षा पर लिखा है-
कितना सच समझा हमें
कितनी सटीक बात की आपने
और कौन समझ सकता है इतना सूक्ष्म
कि आपके पास सारा डेटा है
हमारी हड्डियो, मांस-मज्जा, रक्त में बहते लहू की ताकत
हमारे धैर्य, तप और बल को अकेले
आप जानते हैं
आपको मालूम है कि हम बीच सड़क में
जन सकते हैं अपना बच्चा
और चुपचाप चल सकते हैं
गर्म लू के थपेड़ों में
आपको मालूम है मऊ का रहने वाला मजूर-राहुल
अपने एक बैल को भूख से लड़ने
के लिए बेचकर
बैलगाड़ी में खुद जुतकर ढो सकता है गृहस्थी-परिवार
थकने पर उसकी भाभी जुतकर
खींच सकती है बोझ
चिलचिलाती कड़ी धूप में
आपको मालूम है हैदराबाद से 800 कि.मी.दूर
रामू हाथ से बनी एक गाड़ी में
8 माह की गर्भवती बीवी और बेटी को
बिना किसी सहायता के बाहुबल से
खींच सकता है
आपको यह भी मालूम है साहब
कि अहमदाबाद से रतलाम तक
9 माह का गर्भ लिए एक स्त्री अपने पति
और दो बच्चों के साथ पैदल
196 कि.मी. चल सकती है
आपको सब मालूम है
सिवाय इसके
कि हमें आपकी मनुष्यता के बारे में
जो मालूम न था आज तक
अब सब मालूम हुआ।
काव्य संग्रह में 15 कवियों की कुल 23 कविताओं का संकलन है। ये कविताएं कोरोना काल की पीड़ा और छटपटाहट को स्वर देती हैं। कुछ समय बाद जब देश कोरोनावायरस की जद से बाहर निकल चुका होगा, तब यह काव्य संग्रह इस भयंकर दौर की रह रहकर याद दिलाता रहेगा।(DOWNTOEARTH)
रुबीना अय्याज व संदीप पाण्डेय
देश के ख्यारत वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘सुओ-मोटो’ लगाए गए अवमानना के प्रकरण में फैसला आ गया है। उन्हें एक रुपए का जुर्माना और यह न देने पर तीन महीने की कैद और तीन साल तक सुप्रीम कोर्ट में वकालत से प्रतिबंधित करने का दंड दिया गया है। प्रशांत ने एक रुपए का जुर्माना देना कुबूल करते हुए आगे लडऩे की मंशा जाहिर की है। सवाल है कि प्रशांत भूषण पर अवमानना की कार्रवाई क्यों महत्वपूर्ण है? क्या हैं, इस समूचे प्रकरण से उठने वाले सवाल? प्रस्तुत है, इसी मसले की पड़ताल करता रूबीना अय्याज और संदीप पाण्डेय का यह लेख। -संपादक
हमारे देश में लाखों मुकदमें सुनवाई के लिए पड़े हैं। बलात्कार, कत्ल, धोखाधड़ी, जमीनों पर कब्जे, लोगों के मौलिक अधिकार एवं समुदायों के जीने के अधिकार से संबंधित मुकदमे, नेताओं एवं प्रभावशाली व्यक्तियों पर मुकदमे सुनवाई की आस जोह रहे हैं। इन सब मुकदमों पर सुनवाई के लिए न न्यायाधीश उपलब्ध हैं, न ही कोई बहस होती है। कुछ मुकदमे तो ऐसे हैं जो फर्जी हैं और पुलिस या जांच एजेंसियों के पास कोई ठोस सबूत भी नहीं हैं, लेकिन उन पर सुनवाई के लिए हमारे देश के न्यायाधीशों के पास समय नहीं है और निर्दोष आरोपी जेल में बिना उनका अपराध साबित हुए सजा काट रहे हैं। इस समय कितने ही बुद्धिजीवी, पत्रकार, प्रोफेसर, मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकील भारत की जेलों में बंद हैं और आपातकाल में जेल भुगतने वालों से अधिक समय जेलों में बिता चुके हैं। उनकी न तो कोई सुनवाई हो रही है, न ही उनकी जमानत याचिकाएं स्वीकार की जा रही हैं।
आपातकाल को छोडक़र न्यायालय ने कभी इस तरह से अपनी स्वायत्तहता राजनीतिक सत्ता के सामने गिरवी रखी हो, ऐसा भारत में कम ही हुआ है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के वकील प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स पर न्यायाधीश हरकत में आ गए। न्यायाधीशों का मानना है कि प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स से अदालत की गरिमा को ठेस पहुंची है। त्वरित प्रतिक्रिया के बजाए, न्या्यपालिका ने अपने अंदर भी झांक लिया होता तो न्यायाधीशों पर उंगली न उठती। अदालत के बहुत से फैसले ऐसे हैं जिनसे उसकी गरिमा तार-तार हुई है। कभी उस पर भी चिंतन किया गया होता, तो अच्छा होता।
जब से सरकार ने जम्मू व कश्मीर के संबंध में बड़ा फैसला लिया है तबसे, खासकर न्यायालय के चरित्र में, गुणात्मक परिवर्तन देखा जा सकता है। कश्मीर में कितने ही लोगों को अवैध तरीके से बिना कोई मुकदमा लिखे या लिखित आदेश के नजरबंद कर लिया गया है। बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हैबियस कार्पस) के मुकदमे दायर किए गए, लेकिन न्यायालय ने लोगों के मौलिक अधिकारों की अवहेलना करते हुए इन मामलों को गम्भीरता से नहीं लिया। भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज कहते हैं कि वे साल भर से अपने घर में नजरबंद हैं, लेकिन इसे सरकार नकारती है।
हकीकत यह है कि उनके घर के बाहर पुलिस लगी है, जो उन्हें कहीं जाने नहीं देती। पांच अगस्त, 2019 को जब जम्मू व कश्मीर से धारा 370 व 35ए हटाई जा रही थी, सांसद फारुक अब्दुल्लाह, जिनके पिता की जम्मू व कश्मीर को भारत में शामिल कराने में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी, को संसद पहुंचने नहीं दिया गया। उनके घर के बाहर भी पुलिस लगी थी। गृहमंत्री संसद में बता रहे थे कि फारुक अब्दुल्लाह अपनी मर्जी से घर पर हैं।
क्या लोकतंत्र में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की इस तरह धज्जियां उड़ते हुए देखकर भी न्यायालय को खामोश रहना चाहिए? पत्रकार अनुराधा भसीन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका, जिसमें जम्मू व कश्मीर में इंटरनेट व मोबाइल फोन पर लगे प्रतिबंध हटाने की प्रार्थना की गई थी, में जब न्यायालय ने प्रतिबंध लगाने वाले आदेश की प्रति सरकार से मांगी तो सरकार उसे उपलब्ध कराने में असफल रही। क्या यहां सरकार के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही नहीं होनी चाहिए थी?
9 नवम्बर, 2019 को अयोध्या से संबंधित फैसला हमेशा अपने अंतर्विरोध के लिए ही याद किया जाएगा जो बाबरी मस्जिद गिराने की कार्यवाही को तो अवैध मानता है, किंतु उसी भूमि पर राम मंदिर बनाने के लिए सौंपकर एक तरह से अवैध कार्यवाही करने वालों को पुरस्कृत भी करता है। ‘नागरिकता संशोधन अधिनियिम’ (सीएए), संविधान के उस ‘अनुच्छेद-14’ का स्पष्ट उल्लंघन है जो हरेक व्यक्ति को न्याय के सामने बराबरी का अधिकार देता है। देश भर में इसके विरोध में प्रदर्शन के चलते सर्वोच्च न्यायालय से अपेक्षा थी कि वह इसमें हस्तक्षेप करेगा, लेकिन नहीं किया।
कोरोना वायरस के प्रकोप से बचने के लिए लागू की गई तालाबंदी के दौरान प्रवासी मजदूर जिस तरह से परिवार सहित पैदल चल कर अपने घरों को जा रहे थे उससे भी सर्वोच्च न्यायालय का दिल न पिघला। मजदूरों के अधिकारों के हक में सर्वोच्च न्यायालय की एक प्रभावी भूमिका हो सकती थी जिससे करोड़ों लोगों को राहत मिलती, किंतु ऐसे नाजुक मौके पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने देश को मायूस किया। पूरी दुनिया में मजदूरों को ऐसा कष्ट नहीं झेलना पड़ा जैसा भारत में। यह पूरे देश के लिए शर्म की बात होनी चाहिए थी।
हाल ही में ‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ द्वारा किसी परियोजना के शुरू होने से पहले किए जाने वाले ‘पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन’ में उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से तमाम परिवर्तन के सुझाव दिए गए हैं। न्यायालय ने मंत्रालय से प्रस्तावित अध्यादेश को भारत की 22 भाषाओं में अनुवाद कराकर लोगों को उपलब्ध। कराने की अपेक्षा की थी, किंतु मंत्रालय ने ऐसा नहीं किया और इसके बावजूद मंत्रालय के खिलाफ कोई अवमानना की कार्यवाही नहीं हुई। सुशांत सिंह राजपूत की मौत की ‘केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूीरो’ (सीबीआई) द्वारा जांच का आदेश पारित करते हुए न्यायालय ने कहा कि उनकी मौत के रहस्य से पर्दा उठना चाहिए। कर्ज के बोझ में दब कर भोजन उपलब्ध कराने वाले तीन लाख से अधिक किसानों की अब तक आत्मनहत्याजएं हो चुकी हैं, लेकिन न्यायालय ने यह संवेदना नहीं दिखाई कि किसानों की आत्महत्या रुके और उनके कर्ज की जांच कराई जाए। कर्ज अदा न कर पाने की दशा में किसान हवालात में बंद हैं, लेकिन उद्योपति अपने आप को दिवालिया घोषित कर बच जाते हैं।
इधर न्यायालय की भूमिका की वजह से देश के बहुत सारे लोग घुटन महसूस कर रहे थे। प्रशांत भूषण तो सिर्फ मुखरित हुए हैं। वे लोगों की आवाज बने, इसीलिए देश में इतने सारे वकील और साधारण लोग प्रशांत भूषण के साथ खड़े हुए। प्रशांत भूषण उस दौर में सच बोलते हैं और सच के साथ खड़े हैं जिस दौर में सच बोलना ही अपराध की श्रेणी में आता है। प्रशांत भूषण एक बेबाक वकील एवं जिम्मेदार नागरिक हैं। वे जानते हैं कि क्या बोलना है, क्या नहीं। प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करने वालों में अग्रणी भूमिका में रहे हैं। प्रशांत भूषण भी उन्हीं की राह पर हैं और अन्याय व भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हैं। यह तो हमेशा से होता आया है कि अगर आप सच के साथ खड़े हैं तो कुछ लोग आपके खिलाफ होंगे, लेकिन आखिर में जीत सच की ही होती है। (सप्रेस)
रुबीना अय्याज सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखिका हैं एवं संदीप पाण्डेय वैज्ञानिक, समाजकर्मी एवं लेखक हैं।
अंकिता
न्यूज़ीलैंड ने जो किया वैसा दुनिया के हर देश को करना चाहिए। पिछले दिनों न्यूज़ीलैंड में एक नया कानून पारित हुआ जिसके बाद अब वहाँ घरेलू हिंसा झेल रही स्त्रियों को दस दिन की पेड लीव यानि कि सैलेरी काटे बिना छुट्टी दी जाएगी। ताकि़ वे उस नरक से निकलने का निर्णय ले सकें, अपने रहने के लिए एक नया सुरक्षित घर ढूँढ सकें। अपने और अपने बच्चों को मानसिक या शारीरिक प्रताडऩा से बचा सकें। ऐसा शायद इसलिए ही हो सका क्योंकि न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री एक महिला है और वहाँ के दूसरे पुरुष नेता भी स्त्रियों के हक़ में सोचते हैं।
लॉकडाउन में बढ़ी घरेलू हिंसा के लिए भी बाहर के कई देशों में अच्छे क़दम उठाए गए। इटली, फ्ऱांस, अमेरिका, से लेकर भारत तक घरेलू हिंसा के मामले इस लॉकडाउन में 60-70त्न तक बढ़े हैं। ढेरों ख़बरें उपलब्ध हैं। लेकिन इन समस्याओं पर सरकारें क्या करती हैं यही बताता है कि वह अपने देश की स्त्रियों के लिए कितना सजग है। फ्रांस सरकार ने ‘मास्क 19’ एक कोडवर्ड चलाया जिसके तहत महिला ग्रोसरी या मेडिकल स्टोर पर दुकानदार से ये कोडवर्ड बोलकर अपने लिए घरेलू हिंसा के खिलाफ़ मदद माँग सकती है। साथ ही 20 हज़ार से ज़्यादा रातें होटल्स में मुफ्त बुक की उन औरतों के लिए जो लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा झेल रही हैं। एक हमारा ही देश हैं जहाँ के नेता चादर ताने सो रहे हैं। उन्हें ये ख़बरें इस लायक़ भी नहीं लगतीं कि इन पर अपने दो शब्द भी ख़र्च कर सकें।
कई दूसरे देशों ने भी स्त्रियों के हित बहुत सारे आवश्यक कानून बनाए हैं। ख़ैर कानून तो हमारे यहाँ भी बहुत हैं बस लोगों ने उनका मज़ाक बना दिया है यह अलग बात है। ना तो हमारे यहाँ क़ानून तेज़ी से काम करता है ना ही कुत्सित मानसिकता के लोगों में उसका डर है। यही कारण है कि आज भी जब आप ख़बर पढ़ते हैं तो हर दिन एक ख़बर बलात्कार की होती ही है। घरेलू हिंसा के कई मामले तो दजऱ् ही नहीं होते। पुरुष छोड़ो यहाँ की स्त्रियाँ तक कहती दिखती हैं, ‘एक थप्पड़ से कोई तलाक़ लेता है क्या?’ कई लोग तो आँख मूँद बैठे होते हैं। देश की महानता में इतने डूबे होते हैं कि मानने को ही तैयार नहीं होते कि देश में स्त्रियों के साथ कुछ ग़लत होता भी है।अपने देश को स्त्रियों के लिए चौतरफ़ा सुरक्षित बनाने के लिए अभी बहुत बदलाव की ज़रूरत है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद का यह वर्षाकालीन सत्र शुरु होगा 14 सितंबर से लेकिन उसे लेकर अभी से विवाद छिड़ गया है। विवाद का मुख्य विषय यह है कि सदन में अब प्रश्नोत्तर काल नहीं होगा। इसके पक्ष में सत्तारुढ़ पार्टी भाजपा का एक तर्क यह है कि लोकसभा और राज्यसभा सिर्फ चार-चार घंटे रोज़ चलेंगी। यदि उनमें एक घंटा सवाल-जवाब में खर्च हो गया तो कानून-निर्माण का काम अधूरा रह जाएगा।
दूसरा तर्क यह है कि सांसदों के जवाब जब मंत्री देते हैं तो उनके मंत्रालय के कई अफसरों को वहां उपस्थित रहना पड़ता है। इस कोरोना-काल में यह शारीरिक दूरी के नियम का उल्लंघन होगा। सरकार के ये तर्क प्रथम दृष्टया ठीक मालूम पड़ते हैं लेकिन वह संसद भी क्या संसद है, जिसमें जवाबदेही न हो। वह लोकतंत्र की संसद है या किसी राजा का दरबार ? संसद की सार्थकता इसी में है कि जनता के प्रतिनिधि जन-सेवकों (मंत्रियों) से सवाल कर सकें, जनता के दुख-दर्दों को आवाज़ दे सकें और सरकार उनके हल सुझा सके। यदि मंत्रिगण सवालों के जवाब ठीक से तैयार करें तो अफसरों को साथ लाने की भी जरुरत नहीं रहेगी।
इस प्रश्नोत्तर की प्रक्रिया को स्थगित करना लोकतंत्र की हत्या है, ऐसा आरोप विरोधी लगा रहे हैं। यह आरोप अतिरंजित है, क्योंकि इस सत्र में ‘शून्य-काल’ बनाए रखा गया है, जिसमें अचानक ही कोई भी ज्वलंत प्रश्न उठाया जा सकता है। प्रश्नोत्तर प्राय: सुबह 11 से 12 और शून्य काल 12 बजे से शुरु होता है। इसे भी अब आधे घंटे का कर दिया गया है। इसी तरह प्रश्नोत्तर-काल भी आधे घंटे का किया जा सकता है। संसद की कार्रवाई यदि सिर्फ 14-15 दिन ही चलनी है तो उसके सत्रों को रोज 8-10 घंटे तक क्यों नहीं चलाया जाता ? यदि वे शनिवार और रविवार को चल सकते हैं तो 8-10 घंटे रोज़ क्यों नहीं चल सकते ?
यदि जगह कम पड़ रही है तो दिल्ली के विज्ञान भवन जैसे कई भवनों में सांसदों के बैठने की व्यवस्था भी की जा सकती है। भारतीय संसद का प्रश्नोत्तर-काल पिछले 70 वर्ष में सिर्फ चीनी हमले के वक्त स्थगित किया गया था। अब तो कोई युद्ध नहीं हो रहा है। इस कोरोना-काल में प्रश्नोत्तर-काल ज्यादा जरुरी और उपयोगी होगा, क्योंकि सभी सांसद अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं से सरकार को अवगत कराएंगे ताकि वह इस महामारी का मुकाबला ज्यादा मुस्तैदी से कर सके।
(नया इंडिया की अनुमति से)
तापमान में हो रही वृद्धि के कारण ठन्डे इलाकों में भी धान की एक से ज्यादा बार फसल प्राप्त की जा सकती है
- Lalit Maurya
चावल दुनिया में सबसे ज्यादा खाया जाने वाला अनाज है। विश्व की आधी से भी ज्यादा आबादी के लिए यह एक मुख्य भोजन है। विशेष रूप से एशिया में यह बहुत आम है। एशिया जोकि पहले ही भुखमरी की समस्या से त्रस्त है वहां यह अनाज पेट भरने का एक प्रमुख साधन है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया का करीब 90 फीसदी धान एशिया में ही पैदा किया जाता है।
धान हर साल पैदा की जाने वाली फसल है जिसका मतलब है कि इसे एक मौसम में लगाया जाता है और फसल प्राप्त की जाती है। यदि इनकी ठीक से देखभाल की जाए तो धान में साल दर साल वृद्धि होती रहती है और इससे एक से ज्यादा बार फसल प्राप्त की जा सकती है। कुछ उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में इससे एक से ज्यादा बार फसल काटी जाती है।
100 से भी ज्यादा देशों में की जाती है इसकी खेती
दुनिया के 100 से भी ज्यादा देशों में इसकी खेती की जाती है। आपको जानकर हैरानी होगी कि धान की 110,000 से भी ज्यादा किस्मों की खेती की जाती है जो गुणवत्ता और पोषण के मामले में एक दूसरे से अलग होती हैं।
धान का पौधा घास की तरह होता है जब उसे एक बार काटा जाता है तो वो फिर से दोबारा बढ़ जाता है। धान को काटने और फिर से बढ़ने देने की खेती को रटूनिंग कहा जाता है। इस पद्दति में एक ही खेत में धान की कई फसल प्राप्त की जा सकती है इसलिए पारम्परिक खेती की तुलना में इनके लिए फसल के लम्बे उपजाऊ सीजन की जरुरत पड़ती है।
दुनिया के कई देशों में जहां ट्रॉपिकल क्लाइमेट होता है वहां उपजाऊ मौसम समस्या नहीं है। लेकिन जापान जैसे देशों में जहां मौसम सर्द होता है वहां धान की फसल को बार-बार रोपना पड़ता है। हिरोशी नकानो जोकि राष्ट्रीय कृषि और खाद्य अनुसंधान संगठन से जुड़े हैं उन्होंने जापान में इसपर एक शोध किया है। जिसमें उन्होने रटूनिंग की क्षमता के बारे में अधिक जानने का प्रयास किया है। यह शोध एग्रोनोमी जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
क्या कहता है शोध
नकानो के अनुसार तापमान में आ रहे बदलावों का असर जापान पर भी पड़ रहा है, जिस कारण वहां का तापमान औसत से अधिक हो गया है। यह धान के किसानों के लिए लाभदायक हो सकता है। इससे उन्हें धान के लिए अधिक वक्त मिल जाता है, और वो एक से ज्यादा फसल प्राप्त कर सकते हैं। उनके अनुसार इसकी मदद से वो बसंत आने से पहले ही धान की रोपाई कर सकते हैं और बाद में उसकी कटाई कर सकते हैं। उनका बताया कि उनका मकसद जलवायु परिवर्तन का लाभ उठाते हुए कृषि के लिए नई रणनीतियां बनाना है जिससे अधिक से अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके।
इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने पहली फसल की दो पैदावार के बीच के समय और कटाई के समय उनकी ऊंचाई की तुलना की है। पहली कटाई के बाद उन्होंने बीज एकत्र किये हैं। जिसमें उन्होंने बीज की गिनती और वजन करके पैदावार को मापा है। इसी तरह दूसरी पैदावार को भी मापा है। जिसमें उन्हें पता चला की दोनों बार पैदावार अलग-अलग थी, क्योंकि फसल का समय और ऊंचाई, उपज को प्रभावित करती है।
अध्ययन से पता चला है कि जब पौधों को ज्यादा ऊंचाई से काटा जाता है तो उनसे ज्यादा पैदावार प्राप्त होती है। उनके अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब पौधे ऊंचाई से काटे जाते हैं तो उनके तनो और पत्तियों में अधिक ऊर्जा और पोषक तत्त्व होते हैं जो दूसरी फसल के लिए फायदेमंद होते हैं। इसी तरह जब पहली फसल को सामान्य समय पर काटा जाता है तो उनसे अधिक फसल प्राप्त होती है। उनके अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इससे बीजों को बढ़ने के लिए अधिक समय मिल जाता है।
नकानों के अनुसार हमारे शोध के नतीजे दिखाते हैं कि पौधों को सामान्य समय और अधिक ऊंचाई से काटा जाना चाहिए। जिससे धान की अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके। उनके अनुसार यह तकनीक ने केवल दक्षिण-पश्चिम जापान के लिए फायदेमंद है बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में जहां इस तरह का मौसम है वहां भी इसकी मदद से एक से अधिक फसलें और अधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है। साथ ही जलवायु परिवर्तन के कारण उन जगहों पर भी इस तकनीक की मदद से अधिक पैदावार मिल सकती है जहां यह पहले नहीं की जाती थी।(downtoearth)
बादल सरोज
मुद्दे पर आने से पहले एक बात साफ है कि प्रशांत भूषण के दोनों ट्वीट्स से हम सहमत हैं। सुनाई गई सजा के हिसाब से 1 रुपए का दण्ड जमा करने के उनके निर्णय को एकदम उचित मानते हैं और यह मानते हैं कि प्रशांतजी ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के खिलाफ, कार्यशैली में सुधार और उसकी जनता के बीच में इज्जत तथा स्वीकार्यता को बचाए रखने के लिए जिस साहस के साथ लड़ाई लड़ी वह एक मिसाल है। देश का लोकतांत्रिक समाज उन्हें सलाम करेगा।
यहां मुद्दा द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास है जो अब उनमें शिलाजीत बाबा की तलाश कर रहा है। (हालांकि यह एक ऐसा मेटाफर-रूपक है जिसे अमूमन उपयोग में नहीं लाते, किन्तु यहां जिस ग्रेट इण्डियन मिडिल क्लास की बात करना है उसे इसी तरह के रूपक, बिम्ब और उपमाएं भाती और समझ आती हैं।)
इस वर्ग की तीन खासियतें हैं
एक यह हमेशा ही पिटता-पिटाता रहता है मगर पीटने वाले दुष्ट जबर के खिलाफ खुद चूँ तक नहीं करता।
दो उस जबर के खिलाफ दमदारी से लड़ रहे अपने नीचे के वर्ग- मजदूर, किसानों की जद्दोजहद में शामिल नहीं होता, उनके जलसे जुलूसों को, जी-रिपब्लिक-आज तक के चश्मे से, हिकारत से देखता है।
मगर एट द सेम टाईम
तीन अपनी सुप्त आकांक्षा और दमित कुंठा के समाधान के लिए किसी शिलाजीत बाबा का इंतजार करता रहता है।
हाल के दौर में इसके पहले शिलाजीत बाबा थे टीएन शेषन! उनकी फुलझडिय़ों पर ये मार ऐसा फि़दा था कि पूछिए मत। फिर कुछ समय तक रहे लिंगदोह और तो और किरण बेदी तक पर यह निछावर हुआ था। उसके बाद आये परमपूज्य सिरी सिरी 1008 अन्ना हजारे। उन्हें आसमाँ पै है खुदा और जमीं पै अन्ना बनाते बनाते यहां तक पहुँच गया कि 1962 के युद्द में चीन के पीछे हटने की वजह उस वक्त मिलिट्री की रसोई में काम करने वाले अन्ना भाऊ हजारे की भूमिका बताने पर आमादा हो गया। आखिर में आए केजरीवाल जिन पर तो हाय रब्बा मूमेंट में यह एकदम ट्रान्स अवस्था को प्राप्त होता भया।
(बुद्दू नहीं है, चूजी बहुत है। नेताओं में ईमानदारी की तलाश करता है मगर कभी माणिक सरकार या पिनाराई विजयन या ज्योति बाबू के चक्कर में नहीं फँसता!)
यही था जो रामदेव की डंगाडोली में मगन था- यही थे जिसने अच्छे दिनों वाले छप्पन इंची की पालकी ढोई थी। नोटबंदी की हिमायत में फिदायीन बना भी यही घूमा था-परसेंट और परसेंटेज पॉइंट में अंतर न समझने के बावजूद रात 12 बजे जीएसटी के लिए संसद में बजे घंटे को बाद में यही बजाता फिरता रहा था।
यही था जो कोरोना दौर में थाली, लोटा, बाल्टी बजाने, दिए मोमबत्ती जलाने और न जाने कौन से नक्षत्र में पांच मिनट तक थाली बजने से उत्पन्न हुई झंकार से कोरोना के मर जाने की अमिताभ अंकल की अद्भुत वैज्ञानिक खोज को आइंस्टीन के बाद की सबसे बड़ी वैज्ञानिकता साबित करने में लगा था।
कोरोना ने इसके बाजे बजा दिए हैं-
अर्थव्यवस्था रसातल के गहरे घनेरे अँधेरे में पहुँच गई है और ज्योति के कोसों पते चलते नहीं है।
बेटे-बेटियों की रोजगार संभावना तो तेल लेने गयी खुद की नौकरी और काम धंधा आफत में फँसा है। ईएमआई चुकाने के लिए धेला नहीं है। दुकान और मकान के किराए चुकाने और खर्चा निकालने में नानी याद आ रही है।
कोरोना के डर से ज्यादा डर बीमार पड़ गए तो इलाज के पांच लाख कहाँ से लायेगे का है।
आदि, आदि, आदि!
ऐसे में भी अब ये ग्रेट इण्डियन मिडिल क्लास खुद तो लडऩे से रहा। मजदूर किसानों और वैकल्पिक नीतियों के लिए लड़ रहे वाम लोकतांत्रिक जमातों और इंसानों की लड़ाई में जुडऩे से रहा। तो ?
तो ये कि अब उसे एक शिलाजीत बाबा की तलाश है। इनमें से कुछ को प्रशांत भूषण में वे नजर आने लगे हैं।
ठंड रखो वत्स, राजा विचित्रवीर्य का वंश चलाने वेद व्यास और दशरथ की रानियों को खीर खिलाने श्रृंगी ऋषि महाभारत और रामायण में ही आते हैं। असली दुनिया में लड़ाई खुद ही लडऩी पड़ती है। जब पानी गले-गले तक आ जाता है तो डूबने से बचने के लिए खुद के ही हाथ-पाँव चलाने पड़ते हंै।
चलिए बहुत कहासुनी हो गई। अब राहत इंदौरी साहब की गजल के तीन शेर समाद फरमाइये-
न हम-सफर न किसी हमनशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा ।
बुज़ुर्ग कहते थे इक वक्त आएगा जिस दिन
जहाँ पे डूबेगा सूरज वहीं से निकलेगा ।
गुजिश्ता साल के जख्मों हरे-भरे रहना
जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर और न्यायाधीश सौमित्रदयाल सिंह को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने डॉ. कफील खान के मामले में दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। सात महीने से जेल में पड़े डॉ. खान को उन्होंने तत्काल रिहा करने का आदेश दे दिया। डॉ. खान को इसलिए गिरफ्तार किया गया था कि उन्होंने 12 दिसंबर 2019 को अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. के गेट पर एक ‘उत्तेजक’ भाषण दे दिया था। उन पर आरोप यह था कि उन्होंने शाहीन बाग, दिल्ली में चल रहे नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन का समर्थन करते हुए नफरत और हिंसा फैलाने का अपराध किया है। उन्हें पहले 19 जनवरी को मुंबई से गिरफ्तार किया गया और जब उन्होंने जमानत पर छूटने की कोशिश की तो उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत फिर से जेल में डाल दिया गया। यदि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इन दो जजों का यह साहसिक फैसला अभी नहीं आता तो पता नहीं कितने वर्षों तक डॉ. कफील खान जेल में सड़ते रहते, क्योंकि रासुका के तहत दो बार उनकी नजरबंदी को बढ़ा दिया गया था।
दोनों जजों ने डॉ. खान के भाषण की ‘रिकार्डिंग’ को ध्यान से सुना और उन्होंने पाया कि वे तो हिंसा के बिल्कुल खिलाफ बोल रहे थे और राष्ट्रीय एकता की अपील कर रहे थे। यह ठीक है कि भारत सरकार द्वारा पड़ोसी देशों के शरणार्थियों को शरण देने के कानून में भेदभाव का वे उग्र विरोध कर रहे थे लेकिन उनका विरोध देश की शांति और एकता के लिए किसी भी प्रकार से खतरनाक नहीं था। जिला-जज और प्रांतीय सरकार ने डॉ. खान के भाषण को ध्यान से नहीं सुना और उसका मनमाना अर्थ लगा लिया। अपनी मनमानी के आधार पर किसी को भी नजरबंद करना और उसको जमानत नहीं देना गैर-कानूनी है। यह ठीक है कि डॉ. खान के भाषण के कुछ वाक्यों को अलग करके आप सुनेंगे तो वे आपको एतराज के लायक लग सकते हैं लेकिन कोई भी कानूनी कदम उठाते समय आपको पूरे भाषण और उसकी भावना को ध्यान में रखना जरूरी है। इलाहाबाद न्यायालय का यह फैसला उन सब लोगों की मदद करेगा, जिन्हें देशद्रोह के फर्जी आरोप लगाकर जेलों में सड़ाया जाता है। इस फैसले से न्यायापालिका की प्रतिष्ठा भी बढ़ती है और यह आरोप भी गलत सिद्ध होता है कि सरकार ने न्यायपालिका को अपना जी-हुजूर बना लिया है। डॉ. कफील खान ने जो सात महीने फिजूल में जेल काटी, उसका हर्जाना भी यदि अदालत वसूल करवाती तो इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना गिरफ्तारियां काफी हतोत्साहित होतीं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
असम विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस उस एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन करने जा रही है जिस पर कभी वह भाजपा की बी-टीम होने का आरोप लगाया करती थी
-अभय शर्मा
असम में साल 2006 में हुए विधानसभा चुनाव की बात है. तत्कालीन मुख्यमंत्री और दिग्गज कांग्रेस नेता तरुण गोगोई से एक पत्रकार ने बदरुद्दीन अजमल के बारे में पूछा, तो उन्होंने पलट कर सवाल किया, ‘यह बदरुद्दीन कौन है?’ 2006 के इस चुनाव से साल भर पहले ही असम में इत्र के मशहूर व्यापारी बदरूदीन अजमल ने अपनी पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) का गठन किया था. यानी तब यह पार्टी पहली बार चुनावी मैदान में थी. इस चुनाव में कांग्रेस की बड़ी जीत हुई. एआईयूडीएफ ने भी अपने प्रदर्शन से सभी को चौंकाया और नौ फीसदी वोटों के साथ राज्य की कुल 126 में से दस सीटें हासिल करने में सफल रही. इसके बाद 13 सालों तक तरुण गोगोई यही कहते रहे कि एआईयूडीएफ एक मुस्लिम और सांप्रदायिक पार्टी होने के साथ-साथ भाजपा की बी-टीम भी है जिसे असम में कांग्रेस के वोट काटने के लिए बनाया गया है.
लेकिन, इस साल मार्च में राज्यसभा चुनाव के दौरान एक तस्वीर वायरल हुई जिसने असम की राजनीति में बड़े बदलाव का संकेत दे दिया. इस तस्वीर में पूर्व
मुख्यमंत्री तरुण गोगोई और बदरुद्दीन अजमल एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर मुस्कराते हुए विधानसभा भवन से बाहर आ रहे हैं. यह राज्यसभा चुनाव असम की तीन सीटों पर हुआ था और इसमें कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों ने ही वरिष्ठ पत्रकार अजीत कुमार भुयान को संयुक्त उम्मीदवार बनाया था. यह तस्वीर तब ली गयी थी, जब तरुण गोगोई और बदरुद्दीन अजमल भुयान का नामांकन दाखिल करवाकर वापस लौट रहे थे. इसके बाद यह साफ़ हो गया था कि कांग्रेस और एआईयूडीएफ के बीच के रिश्ते बदल गए हैं. बीते चार महीनों से सूत्रों के हवाले से ऐसी खबरें भी आ रही थीं कि 2021 की शुरुआत में होने वाले असम विधानसभा चुनाव को लेकर दोनों दलों के नेता बातचीत कर रहे हैं. फिर अगस्त महीने की शुरुआत में कांग्रेस और एआईयूडीएफ के नेताओं ने यह साफ़ कर दिया कि उनकी पार्टियां एक गठबंधन बनाकर आगामी विधानसभा चुनाव लड़ेंगी. इनके मुताबिक कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की ओर से हरी झंडी मिलते ही गठबंधन की आधिकारिक घोषणा कर दी जायेगी.
सत्याग्रह को दिए साक्षात्कार में असम कांग्रेस के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद रिपुन बोरा ने भी आगामी विधानसभा चुनाव के लिए इस महागठबंधन के होने की पुष्टि की है. उन्होंने कहा, ‘हम एक महागठबंधन बनाने जा रहे हैं, इसमें वे पार्टियां शामिल होंगी जो भाजपा की गलत नीतियों के चलते उसे सत्ता से हटाना चाहती हैं. एआईयूडीएफ के अलावा सीपीआई, सीपीएम और छोटी-छोटी कई क्षेत्रीय पार्टियों से भी महागठबंधन को लेकर बातचीत चल रही है.’ एआईयूडीएफ के महासचिव और मुख्य प्रवक्ता अमीनुल इस्लाम ने भी ऐसी ही बात कही. ‘पहले एक-दूसरे के लिए काफी बातें कही गयीं. लेकिन अब उन बातों को भूलकर कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों आगे बढ़ रही हैं. साझा न्यूनतम कार्यक्रम के तहत महागठबंधन बनाने का राज्य कांग्रेस कमेटी फैसला ले चुकी है. उन्होंने हमें इससे अवगत कराया, जिसका हमने स्वागत किया है’ गठबंधन की अन्य पार्टियों के बारे में अमीनुल इस्लाम का कहना था कि ‘इस महागठबंधन में अजित भुयान की पार्टी, वामपंथी पार्टियां और कृषक मुक्ति संग्राम समिति जैसी कुछ क्षेत्रीय पार्टियां भी शामिल हो सकती हैं. हालांकि, इसकी आधिकारिक घोषणा कुछ समय बाद ही होगी क्योंकि चुनाव होने में अभी आठ महीने का समय बाकी है.’
दोनों पार्टियों की राज्य में स्थिति
2005 में जब बदरुद्दीन अजमल ने एआईयूडीएफ का गठन किया था तो उनका कहना था कि असम में अवैध घुसपैठियों की पहचान करने के नाम पर मुसलमानों का उत्पीड़न किया जा रहा है. मुस्लिमों को इससे बचाने के लिए ही उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी का गठन किया है. इसके बाद एआईयूडीएफ ने असम में तेजी से पांव पसारे और कुछ ही सालों के भीतर यहां की प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन गयी. असम में करीब 35 फीसदी मुस्लिम आबादी है और यही तबका बदरुद्दीन अजमल की पार्टी की सबसे बड़ी ताकत बनकर सामने आया है.
मुस्लिम मतदाताओं के बीच जनाधार के चलते ही एआईयूडीएफ ने 2006 के असम विधानसभा चुनाव में दस सीटें जीतीं. 2011 के विधानसभा चुनाव में 12 फीसदी वोट के साथ उसने राज्य की 126 में से 18 सीटों पर कब्जा जमाया और विधानसभा में प्रमुख विपक्षी पार्टी बन गई. 2016 के चुनाव में एआईयूडीएफ का मत प्रतिशत बढ़कर 13 फीसदी तक पहुंच गया, हालांकि इस बार उसकी सीटें घटकर केवल 13 ही रह गयीं. 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के तीन प्रत्याशी संसद में पहुंचे थे. 2019 में एआईयूडीएफ को राज्य की कुल 14 लोकसभा सीटों में से दो सीटें मिलीं.
कांग्रेस की बात करें तो 2014 के लोकसभा चुनाव से बाद से असम में उसका राजनीतिक ग्राफ लगातार नीचे गिरा है. 2011 के विधानसभा चुनाव में 78 सीटें पाने वाली कांग्रेस 2016 के विधानसभा चुनाव में महज 26 सीटों पर सिमट कर रह गयी. इसके बाद निकाय और ग्राम पंचायत चुनाव में भी उसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा. 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस को तीन सीटें ही मिलीं, राज्य में अब तक का उसका यह सबसे खराब प्रदर्शन था.
दोनों कैसे करीब आए
असम की राजनीति पर करीब से निगाह रखने वाले कुछ पत्रकार बताते हैं कि एआईयूडीएफ को मुस्लिमों की पार्टी के तौर पर देखा जाता है. इसके कुछ नेता भड़काऊ बयानबाजी के लिए भी चर्चा में रहे हैं. इन लोगों के मुताबिक अब तक कांग्रेस असम में बहुसंख्यक हिंदू वोटों को खोने की चिंता के चलते एआईयूडीएफ से दूर रहा करती थी. लेकिन बीते साल आए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) ने राज्य की राजनीतिक परिस्थितयों को बदल दिया है. राज्य में हुए सीएए के तीखे विरोध ने लगभग सभी विपक्षी पार्टियों को भाजपा के खिलाफ एक छतरी के नीचे ला दिया है. असम कांग्रेस के महासचिव अपूर्व कुमार भट्टाचार्जी भी ऐसा मानते हैं. सत्याग्रह से बातचीत में वे कहते हैं, ‘सीएए का सबसे ज्यादा विरोध कांग्रेस और एआईयूडीएफ ने किया. दोनों पार्टियों ने एक ऐसे शख्स (अजीत कुमार भुयान) को राज्यसभा चुनाव में समर्थन देकर संसद भेजा, जो सीएए के विरोध के चलते चर्चा में रहे थे. कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों असम की जनता की भलाई चाहते हैं. दोनों ही असम समझौते में विश्वास रखते हैं, न कि भाजपा द्वारा लाये गए सीएए कानून में.’
असम समझौता 1985 में हुआ था. इसमें कहा गया था कि 24 मार्च, 1971 की मध्यरात्रि के बाद भारत आये विदेशी नागरिकों को असम में ‘अवैध विदेशी नागरिक’ माना जाएगा. हाल के सालों में असम में हुए एनआरसी में भी इसी को आधार माना गया. लेकिन, असम की कई समाजसेवी संस्थाओं और राजनीतिक दलों का कहना है कि मोदी सरकार द्वारा लाया गया सीएए कानून असम समझौते का उल्लंघन करता है. इनके मुताबिक यह कानून 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आए गैर मुस्लिम विदेशी नागरिकों को नागरिकता देने की वकालत करता है.
कांग्रेस प्रवक्ता रितुपर्णा कोनवार साफ़ तौर पर कहते हैं, ‘सीएए से पहले, स्थिति अलग थी... लेकिन सीएए के बाद स्थिति बदल गई है. हमें ऐसे दलों का एक महागठबंधन बनाने की जरूरत है, जो असम समझौते में विश्वास करते हैं, और जो सीएए और भाजपा के विरोध में हैं.’
कुछ जानकारों की मानें तो कांग्रेस ने एआईयूडीएफ की तरफ हाथ बढ़ने से पहले नफा-नुकसान पर काफी विचार-विमर्श किया है. इनके मुताबिक कांग्रेस ने सीएए की वजह से असमिया भाषी लोगों में भाजपा विरोध का रुख भांपने के बाद ही गठबंधन करने का फैसला किया है. कांग्रेस को लगता है कि एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन अब उतना नुकसानदायक नहीं होगा जितना अतीत में हो सकता था. दरअसल, राज्य में 36 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां असमिया भाषी लोग चुनावी नतीजे तय करते हैं. कांग्रेस नेताओं का मानना है कि इन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी कम होने के चलते एआईयूडीएफ अपनी दावेदारी पेश नहीं करेगा और फिर यहां सीधी लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच होगी. 2016 के विधानसभा चुनावों में इन 36 सीटों में से कांग्रेस को महज चार सीटें ही मिली थी. लेकिन, अब कांग्रेस को उम्मीद है कि इन क्षेत्रों में सीएए के कारण नाराज असमिया भाषी लोग भाजपा के बजाय उसे तरजीह देंगे. और यहां के जितने भी मुस्लिम वोट हैं वे भी अब नहीं बटेंगे.
एआईयूडीएफ के अस्तित्व में आने से पहले असम के ज्यादातर मुस्लिम वोट कांग्रेस को ही मिला करते थे. लेकिन बीते कुछ चुनावों से यह साफ़ हो गया है कि असम के 35 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा एआईयूडीएफ की ओर चला गया हैं. इसका सीधा फायदा भाजपा को मिला. कांग्रेस और एआईयूडीएफ के नेताओं की मानें तो अगर अब वे राज्य में मुस्लिम वोटों का बिखराव रोकने में कामयाब रहते हैं तो 33 मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटों के साथ-साथ और भी कई सीटों पर उन्हें कामयाबी हासिल होगी और इसके बाद उन्हें सत्ता की चाबी हासिल करने से कोई नहीं रोक पाएगा.
एआईयूडीएफ के महासचिव अमीनुल इस्लाम भी मुस्लिम वोटों के बिखराव की बात मानते हुए कहते हैं, ‘आप 2016 के चुनाव पर गौर कीजिये, करीब 27 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जिन पर कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों के प्रत्याशी होने के चलते वोटों का जबरदस्त बिखराव हुआ और यहां भाजपा जीत गयी. कुछ सीटों पर लेफ्ट पार्टियों का भी अच्छा जनाधार है. अगर हम सभी साथ आते हैं तो निश्चित तौर पर हमारा फायदा और भाजपा का नुकसान होगा.’
एआईयूडीएफ से समझौते पर भाजपा के आरोप और कांग्रेस का जवाब
कांग्रेस और एआईयूडीएफ के गठबंधन की खबरें आम होने के बाद से भाजपा लगातार कांग्रेस पर निशाना साध रही है. असम भाजपा के कुछ नेता सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं कि कांग्रेस और एआईयूडीएफ का कई सालों से छिपा हुआ गठबंधन था, लेकिन कांग्रेस इसे उजागर इसलिए नहीं करती थी क्योंकि एआईयूडीएफ एक सांप्रदायिक पार्टी है. भाजपा के इन नेताओं की मानें तो बीते साल हुए लोकसभा चुनाव में इस छिपे गठबंधन का पता भी चला था, जब तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई के सामने एआईयूडीएफ ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था. इसके अलावा कई अन्य सीटों पर भी बदरुद्दीन अजमल और तरुण गोगोई के बीच सांठ-गांठ थी, हालांकि तब भी भाजपा ने यहां की नौ लोकसभा सीटें जीती थीं.
एआईयूडीएफ कैसे एक सांप्रदायिक पार्टी है, यह पूछने पर असम से भाजपा सांसद दिलीप सैकिया सत्याग्रह से कहते हैं, ‘आप एआईयूडीएफ के बनने की कहानी से इस बात को समझ जाएंगे. 2005 में जब सुप्रीम कोर्ट ने असम में विदेशी घुसपैठियों की सही से पहचान न हो पाने के चलते राज्य में लागू अवैध प्रवासी पहचान ट्रिब्यूनल (आईएमडीटी) कानून को निरस्त किया तो संदिग्ध घुसपैठियों को बचाने के लिए ही एआईयूडीएफ का गठन किया गया था....एआईयूडीएफ के नेताओं का उद्देश्य केवल असम की सत्ता पर कब्ज़ा करना ही नहीं है, बल्कि हमारी संस्कृति और हमारी पहचान को खत्म करना है.. इनका छिपा एजेंडा बहुत बड़ा है.’
असम कांग्रेस के अध्यक्ष रिपुन बोरा सत्याग्रह से बातचीत के दौरान भाजपा के इन आरोपों का जवाब देते हैं. वे कहते हैं, ‘अगर एआईयूडीएफ मुस्लिम पार्टी है तो इसमें गलत क्या है, अगर वे मुसलमानों के विकास की बात करते हैं तो क्या गलत है? अपने लोगों के विकास के लिए बोलने वाला आखिर सांप्रदायिक कैसे हो गया. कोई तब तक सांप्रदायिक नहीं हो सकता जब तक वह दूसरे जाति-संप्रदाय से नफरत नहीं करता... एआईयूडीएफ हिन्दू विरोधी नहीं है.’ लेकिन सिर्फ यही बात नहीं है जिसके आधार पर रिपुन बोरा एआईयूडीएफ और कांग्रेस के साथ आने को गलत नहीं मानते. उनके मुताबिक, ‘अगर, जम्मू-कश्मीर में भाजपा आतंकी अफजल गुरु को शहीद का दर्जा देने वाली पार्टी - पीडीपी से गठबंधन कर सकती है तो कांग्रेस असम में एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन क्यों नहीं कर सकती. एआईयूडीएफ ने कभी आतंकियों का पक्ष तो नहीं लिया.’
एआईयूडीएफ के महासचिव अमीनुल इस्लाम भी भाजपा के आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहते हैं, ‘हम पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं, लेकिन अब एआईयूडीएफ केवल मुसलमानों की पार्टी नहीं रही. हमारी पार्टी में सांसद और कई विधायक हिंदू हैं. इसके अलावा बड़ी संख्या में हमारे कार्यकर्ता और ऊंचे पदों पर मनोनीत किये गए कई नेता हिंदू और अन्य धर्मों से आते हैं.’
असम कांग्रेस के महासचिव अपूर्व कुमार भट्टाचार्जी एआईयूडीएफ पर लग रहे आरोपों को भाजपा की बौखलाहट बताते हैं. उनके मुताबिक, ‘एआईयूडीएफ को भारत के निर्वाचन आयोग ने मान्यता दी है, ऐसे में उसे सांप्रदायिक पार्टी नहीं कह सकते...कांग्रेस और एआईयूडीएफ के साथ आने से भाजपा बौखलाई हुई है, इसलिए उसके नेता ऐसे आरोप लगा रहे हैं, इस गठबंधन से उनकी - बांटो और राज करो - वाली रणनीति फेल होने वाली है, सत्ता खिसकने वाली है इसलिए घबराहट लाजमी है.’
हालांकि, भाजपा नेताओं का कहना है कि उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-एआईयूडीएफ गठबंधन से कोई नुकसान नहीं होगा. भाजपा सांसद दिलीप सैकिया का मनाना है कि कांग्रेस और एआईयूडीएफ का वोट बैंक लगभग एक ही है जबकि भाजपा का वोट बैंक इनसे अलग है, ऐसे में गठबंधन के बाद अगर इन दोनों पार्टियों का वोटर एक हो भी जाता है तो भाजपा को नुकसान नहीं होगा. सैकिया आगे कहते, ‘अगर, कांग्रेस और एआईयूडीएफ के नेता ये सोचते हैं कि वे विधानसभा चुनाव में सीएए का मुद्दा उठाकर फायदा ले लेंगे तो ऐसा भी नहीं होने वाला है. असम के लोग इनके बहकावे में आकर एक बार भावनाओं में बह गए और प्रदर्शन कर दिया, लेकिन अब वही लोग देख रहे हैं कि सीएए कानून लागू होने के बाद से असम में एक भी घुसपैठिया नहीं घुसा है.’
राज्य भाजपा अध्यक्ष रंजीत दास भी आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत को लेकर आश्वस्त दिखते हैं. एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, ‘पूरे असम में भारतीय जनता पार्टी के 42 लाख सदस्य हैं. अगर प्रत्येक सदस्य अपने साथ केवल एक अतिरिक्त व्यक्ति को भी जोड़ता है, तो भी हमारे पास 84 लाख वोट हैं. इसलिए हम चिंतित नहीं हैं. भाजपा एक लोकतांत्रिक पार्टी है और इसलिए हम किसी भी नई राजनीतिक पार्टी या गठन का स्वागत करते हैं.’
रंजीत दास आगे जोड़ते हैं, ‘भाजपा अपनी सरकार द्वारा किए गए विकास कार्यों के दम पर चुनाव लड़ेगी, हम लोगों को यह भी बताएंगे कि हमारे प्रयासों के चलते राज्य में विभिन्न समुदायों के बीच शांति और सद्भाव बना रहा... सरकार का ध्यान एक आत्म निर्भर असम बनाने पर रहा है और इसके केंद्र में कृषि और किसान हैं.’ (satyagrah.scroll.in)
हाल में दो मामलों में न्यायपालिका ने आगे बढ़कर प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा की अपनी भूमिका और जिम्मेदारी का शानदार निर्वहन किया। पहला तबलीगी जमात के लोगों को फिजूल के आरोपों से मुक्त करना और दूसरा सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम ‘बिंदास बोल’ के प्रसारण पर रोक लगाना।
-राम पुनियानी
प्रतिबद्ध और सत्यनिष्ठ विधिवेत्ता प्रशान्त भूषण ने हाल में न्यायपालिका को आईना दिखलाया। इसके समानांतर दो मामलों में न्यायपालिका ने आगे बढ़कर प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने की अपनी भूमिका और जिम्मेदारी का शानदार निर्वहन किया। इनमें से पहला मामला था अनेक अदालतों द्वारा तबलीगी जमात के सदस्यों को कोरोना फैलाने, कोरोना बम होने और कोरोना जिहाद करने जैसे फिजूल के आरोपों से मुक्त करना। और दूसरा था सुदर्शन टीवी की कार्यक्रमों की श्रृंखाल ‘बिंदास बोल’ के प्रसारण पर रोक लगाना।
सुदर्शन टीवी के संपादक सुरेश चव्हाणके ने ट्वीट कर यह घोषणा की थी कि उनका चैनल मुसलमानों द्वारा किए जा रहे ‘यूपीएससी जिहाद’ का खुलासा करने के लिए कार्यक्रमों की एक श्रृंखला प्रसारित करेगा। उनके अनुसार एक षड़यंत्र के तहत मुसलमान यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा के जरिए नौकरशाही में घुसपैठ कर रहे हैं। इस परीक्षा के जरिए वे आईएएस और आईपीएस अधिकारी बन रहे हैं।
इस श्रृंखला के 45 सेकंड लंबे प्रोमो में यह दावा किया गया था कि ‘जामिया जिहादी’ उच्च पद हासिल करने के लिए जिहाद कर रहे हैं। यह दिलचस्प है कि जामिया मिल्लिया के जिन 30 पूर्व विद्यार्थियों ने सिविल सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की है, उनमें से 14 हिन्दू हैं। जामिया के विद्यार्थियों ने अदालत में याचिका दायर कर इस श्रृंखला के प्रसारण पर रोक लगाने की मांग की थी, जिसे न्यायालय ने इस आधार पर स्वीकृत किया कि यह कार्यक्रम समाज में नफरत फैलाने वाला है।
सिविल सेवा के पूर्व अधिकारियों के एक संगठन कांस्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप, जो किसी राजनैतिक दल या विचारधारा से संबद्ध नहीं है, ने एक बयान जारी कर कहा कि 'यह कहना विकृत मानसिकता का प्रतीक है कि एक षड़यंत्र के तहत सिविल सेवाओं में मुसलमान घुसपैठ कर रहे हैं’’। उन्होंने कहा कि “इस संदर्भ में यूपीएससी जिहाद और सिविल सर्विसेस जिहाद जैसे शब्दों का प्रयोग निहायत गैर-जिम्मेदाराना और नफरत फैलाने वाला है। इससे एक समुदाय विशेष की गंभीर मानहानि भी होती है।'
देश में इस समय 8,417 आईएएस और आईपीएस अधिकारी हैं। इनमें से मात्र 3.46 प्रतिशत मुसलमान हैं। कुल अधिकारियों में से 5,682 ने यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा पास की है। शेष 2,555 अधिकारी, राज्य पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं से पदोन्नत होकर आईपीएस या आईएएस में आए हैं। कुल 292 मुसलमान आईएएस और आईपीएस अधिकारियों में से 160 सिविल सेवा परीक्षा के जरिए अधिकारी बने हैं। शेष 132 मुस्लिम अधिकारी पदोन्नति से आईएएस या आईपीएस में नियुक्त किए गए हैं।
साल 2019 की सिविल सेवा परीक्षा में चयनित कुल 829 उम्मीदवारों में से 35 अर्थात 4.22 प्रतिशत मुसलमान थे। वहीं, साल 2018 की सिविल सेवा परीक्षा में जो 759 उम्मीदवार सफल घोषित किए गए उनमें से केवल 20 (2.64 प्रतिशत) मुसलमान थे। इसी तरह साल 2017 की सिविल सेवा परीक्षा में 810 सफल उम्मीदवारों में से मात्र 41 (5.06 प्रतिशत) मुसलमान थे। जबकि साल 2011 की जनगणना के अनुसार मुसलमान देश की कुल आबादी का 14.2 प्रतिशत हैं।
चव्हाणके का आरोप है कि मुस्लिम विद्यार्थी इसलिए इस परीक्षा में सफलता हासिल कर पा रहे हैं क्योंकि उन्हें वैकल्पिक विषय के रूप में अरबी चुनने का अधिकार है, जिसके कारण वे आसानी से उच्च अंक हासिल कर लेते हैं। सुदर्शन टीवी और उसके मुखिया चव्हाणके की यह स्पष्ट मान्यता है कि मुसलमानों को किसी भी स्थिति में ऐसे पद पर नहीं होना चाहिए, जहां उनके हाथों में सत्ता और निर्णय लेने का अधिकार हो। बहुसंख्यकवादी राजनीति का भी यही ख्याल है।
सच तो यह है कि सिविल सेवाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व, उनकी आबादी के अनुपात में बहुत कम है। हमारे देश की नौकरशाही से यह अपेक्षा की जाती है कि वह भारतीय संविधान के मूल्यों और प्रावधानों के अनुरूप काम करे। नौकरशाहों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव न करें। इसलिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की किसी अधिकारी का धर्म क्या है।
सुदर्शन टीवी के चव्हाणके और उनके जैसे अन्य व्यक्ति हमेशा ऐसे मुद्दों की तलाश में रहते हैं जिनसे वे मुसलमानों का दानवीकरण कर, उन्हें खलनायक और देश का दुश्मन सिद्ध कर सकें। दरअसल होना तो यह चाहिए था कि इस श्रृंखला के प्रसारण पर रोक लगाने के साथ-साथ इसके निर्माताओं पर मुकदमा भी चलाया जाता।
सरकारी सेवाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व अत्यंत कम है। सभी श्रेणियों के सरकारी कर्मचारियों में मुसलमानों का प्रतिशत 6 से अधिक नहीं है और उच्च पदों पर 4 के आसपास है। इसका मुख्य कारण मुसलमानों का शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन तो है ही इसके अतिरिक्त समय-समय पर इस समुदाय के खिलाफ होने वाली सुनियोजित हिंसा भी उनकी प्रगति में बाधक है। भिवंडी, जलगांव, भागलपुर, मेरठ, मलियाना, मुज्जफ्फरनगर और हाल ही में दिल्ली में जिस तरह की हिंसा हुई क्या उससे पढ़ने-लिखने वाले मुस्लिम युवाओं की शैक्षणिक प्रगति बाधित नहीं हुई होगी?
विभिन्न सरकारी सेवाओं में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर आयोगों और समितियों ने विचार किया है। वे सभी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मुसलमानों का सेवाओं में प्रतिनिधित्व बहुत कम है। गोपाल सिंह और रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर समिति आदि की रपटों से यह साफ है कि जेल ही वे एकमात्र स्थान हैं जहां मुसलमानों का प्रतिशत उनकी आबादी से अधिक है। पिछले कुछ वर्षों में संसद और विधानसभाओं में भी मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में कमी आई है।
कई मुस्लिम नेताओं ने तो यहां तक कहा है कि चूंकि उनके समुदाय को राजनीति और समाज के क्षेत्रों में हाशिए पर धकेल दिया गया है, इसलिए अब मुस्लिम युवाओं को केवल अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना चाहिए। विदेश में रह रहे भारतीय मुसलमानों के कई संगठन भी देश में मुसलमानों की शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए कार्यक्रम चला रहे हैं।
सईद मिर्जा की शानदार फिल्म ‘सलीम लंगड़े पर मत रोओ’ मुसलमान युवकों को अपनी भविष्य की राह चुनने में पेश आने वाली समस्याओं और उनके असमंजस का अत्यंत सुंदर और मार्मिक चित्रण करती है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसी प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं को चव्हाणके जैसे लोगों द्वारा निशाना बनाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। चव्हाणके यूपीएससी की प्रतिष्ठा भी धूमिल कर रहे हैं, जिसकी चयन प्रक्रिया पर शायद ही कभी उंगली उठाई गई हो। उनके जैसे लोगों की हरकतों से देश में सामाजिक सौहार्द पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और मुसलमानों का हाशियाकारण और गंभीर स्वरूप अख्तियार कर लेगा।
सुदर्शन चैनल विचारधारा के स्तर पर संघ के काफी नजदीक है। उसके संपादक को अनेक चित्रों में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के काफी नजदीक खड़े देखा जा सकता है। यह विवाद तबलीगी जमात के मुद्दे पर खड़े किए गए हौव्वे की अगली कड़ी है। मुसलमानों पर अब तक लैंड जिहाद, लव जिहाद, कोरोना जिहाद और यूपीएससी जिहाद करने के आरोप लग चुके हैं। और शायद आगे भी यह सिलसिला जारी रहेगा।
फिलहाल अदालत ने सुदर्शन टीवी की श्रृंखला के प्रसारण पर रोक लगाकर अत्यंत सराहनीय काम किया है। इससे एक बार फिर यह आशा बलवती हुई है कि हमारी न्यायपालिका देश के बहुवादी और प्रजातांत्रिक स्वरूप की रक्षा करने के अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुई है। (navjivanindia.com)
(लेख का हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)


