विचार/लेख
- नीरज प्रियदर्शी
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घोषणा की है कि अनुसूचित जाति या फिर अनुसूचित जनजाति समुदाय में अगर किसी की हत्या हो जाती है तो उनके परिवार में से किसी एक सदस्य को नौकरी दी जाएगी.
लेकिन विपक्ष का कहना है कि नीतीश सरकार की घोषणाएं दलितों की हत्या को बढ़ावा देने वाली हैं.
इसी घोषणा के आधार पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ मुज़फ़्फ़रपुर के सिविल कोर्ट में मुक़दमा भी दर्ज कराया गया है. जिसमें याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री ने ऐसा कहकर प्रदेश में जातीय उन्माद फ़ैलाने की कोशिश की है. उन्होंने दलितों का अपमान भी किया है.
राज्य में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, दलितों के ख़िलाफ़ अपराधों के मामले में बिहार देशभर में दूसरे नंबर पर है.
नेशनल क्राइम ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार, साल 2018 में बिहार में अनुसूचित जातियों के ख़िलाफ़ अत्याचार के 7061 मामले दर्ज हुए. ये सारे देश में हुए ऐसे मामलों का 16.5 फ़ीसदी है.
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया के मुताबिक़, "बिहार में दलितों पर हो रहे अत्याचार के मामले देश के औसत से काफ़ी अधिक हैं. देश में इनका औसत 21 प्रतिशत है जबकि बिहार में ये आंकड़ा 42 प्रतिशत पर है. यहां ऐसे मामलों में सिर्फ़ चार प्रतिशत लोगों को ही सज़ा हुई है, जो राष्ट्रीय औसत से काफ़ी कम है."
महादलितों की राजनीति
वैसे तो बिहार में अब कोई दलित नहीं है क्योंकि नीतीश कुमार की सरकार ने अपने शासन काल में अनुसूचित जाति के सभी 23 वर्गों को महादलित की श्रेणी में रखकर उनकी 16 फ़ीसदी आबादी को साधने की भरसक कोशिश की है.
जहां तक बात बिहार विधानसभा में दलितों के प्रतिनिधित्व की है तो फ़िलहाल उनके लिए आरक्षित सीटों की संख्या 38 है. इस वक़्त बिहार के दलित नेताओं में रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी का नाम प्रमुख है.
रामविलास पासवान की मजबूती पांच फ़ीसदी दुसाध मतदाता हैं. पिछले कुछ चुनावों के आंकड़े देखें तो दुसाध समुदाय के क़रीब 80 फ़ीसदी वोट रामविलास की पार्टी को ही मिले हैं.
जीतन राम मांझी मुसहर समुदाय से आते हैं जिनकी संख्या दलितों में तीसरे नंबर पर हैं. चुनाव से पहले जीतन राम मांझी को अपने साथ लाने का नीतीश कुमार का फ़ैसला इसकी गवाही देता है. लोजपा से लड़ाई में भी वे दलितों की बड़ी आबादी को साधे रखना चाहते हैं.
दूसरे अन्य समुदायों के भी नेता हैं, जो अभी राजनीति कर रहे हैं. इनमें रविदास समाज के रमई राम, रजक यानी धोबी समुदाय के श्याम रजक, पासी समाज उदय नारायण चौधरी हैं और निषाद अथवा मल्लाह समाज के मुकेश सहनी हैं.
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर बिहार में इस समय के सबसे बड़े दलित चेहरे को लेकर कहते हैं, "इनका कोई सर्वमान्य नेता नहीं है. सबका सिर्फ़ अपने समुदाय पर दावा है. हो सकता है कि वे अपने समुदाय के नेता हों, मगर सबका नेता वही है जो इन नेताओं में से अधिक से अधिक को अपने साथ ले ले. यही हो भी रहा है."
राज्य के सबसे पिछड़े समुदाय का हाल
बिहार के सामाजिक ताने बाने में सबसे पिछड़ी माने जाने वाली जाति है मुसहर या मांझी.
पहाड़ काटकर रास्ता बनाने वाले दशरथ मांझी और राज्य के मुख्यमंत्री बनने वाले जीतनराम मांझी इस समुदाय की सबसे मशहूर हस्तियां हैं.
लेकिन बाक़ी समुदाय सदियों से संघर्ष की ज़िंदगी बसर कर रहा है.
शशिकांत मांझी कोई साल भर पहले जयपुर की एक चूड़ी बनाने की फ़ैक्ट्री में मज़दूरी करने गए थे.
उनकी काम करने की उम्र नहीं थी.
लॉकडाउन में फ़ैक्ट्री बंद हुई तो मालिक ने घर के कामकाज के लिए रख लिया. 12 जुलाई की सुबह काम करते-करते अचानक गिर गए, वहीं उनकी मौत हो गई.
पुलिस ने लावारिस हाल में शव का दाह-संस्कार कर दिया. सूचना मिलने के बावजूद, पिता को बहुत पहले खो चुके शशिकांत की मां उनके शव को आख़िरी बार देखने भी नहीं जा सकीं.
कुछ लोगों ने दान में पैसे दिए तो मां ने प्रतीक के तौर पर पुतला बनाकर जलाया.
मुसहर और बाल श्रम
बिहार में बाल श्रम उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रही संस्था सेंटर डायरेक्ट के सुरेश कुमार कहते हैं, "पूरे बिहार में जितने बाल श्रमिकों को रेस्क्यू करवाकर लाया जाता है उसमें 30 फ़ीसदी के क़रीब मामले गया के होते हैं. इनमें भी 95 फ़ीसदी बच्चे मुसहर समाज के हैं."
गया के बेलागंज प्रखंड के मेन गांव के 13 साल राकेश कुमार को जयपुर की एक चूड़ी फैक्ट्री से इसी लॉकडाउन के दौरान मई में रेस्क्यू करवा कर लाया गया था.
राकेश ने बाल श्रमिक बनकर क़रीब एक साल तक काम किया.
राकेश के पिता बताते हैं, "पिछले साल आई बाढ़ में हमारा घर ढह गया था. हम अपनी पत्नी के साथ हरियाणा में एक ईंट भट्ठे में काम करने चले गए थे. राकेश अपने मामा के घर था. वहीं का एक आदमी कुछ पैसे का लालच देकर उसे बहलाकर ले गया."
ऐसे बच्चों के बीच काम करने वाले विजय केवट कहते हैं कि पड़ोसी ही दो-ढाई हज़ार रुपये एडवांस और हर महीने पैसे भेजने का वादा कर, बच्चों को साथ ले जाते हैं.
तो क्या ऐसे परिवार को प्रधानमंत्री आवास, फ़्री राशन, नल का जल, शौचालय इत्यादि सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता?
राकेश के पिता कहते हैं, "फ़्री राशन के अलावा कुछ नहीं मिला. राशन भी इसलिए मिल गया क्योंकि कोरोना था. उससे पहले कभी नहीं मिला. हम लोग पढ़े लिखे नहीं हैं इसलिए कुछ कर भी नहीं सकते कि मिल जाए और कहने से हमारी बात सुनता कौन है, लोग फटकार कर भगा देते हैं."
उन्हें नहीं मालूम कि सरकार दलित की हत्या होने पर उसके एक परिजन को नौकरी की योजना बना रही है.
इस बारे में बताने पर वो कहते हैं, "सरकार हमको घर और रोज़गार दे दे. मेरे बेटे को पढ़ा-लिखा दे. नौकरी तो मिल ही जाएगी. क्या नौकरी के लिए यह साबित करना पड़ेगा कि मेरे परिवार के आदमी की हत्या हुई है?"
घोषणा पर विपक्ष ने उठाए सवाल
ऐसा नहीं है कि दलित की हत्या होने पर परिवार के सदस्य को नौकरी देने की नीतीश कुमार की घोषणा पर किसी को एतराज़ है.
विपक्ष इस क़दम को समस्या का हल नहीं मान रहा और इसे सीधा आने वाले दिनों में होने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़ रहा है.
बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव सवाल करते हैं, "हत्या होने पर परिजन को नौकरी देने की घोषणा सिर्फ़ एक वर्ग को क्यों? सवर्णों, पिछड़ों और अति पिछड़ों की हत्या पर उनके परिजन को नौकरी क्यों नहीं दी जा सकती है?"
कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल इसे राजनीतिक जुमलेबाज़ी क़रार देते हैं. वो कहते हैं कि ये फ़ैसला कल्याणकारी कम और उकसाने वाला ज़्यादा लगता है.
नीतीश कुमार की सहयोगी लोजपा के अध्यक्ष चिराग पासवान ने नीतीश कुमार को एक पत्र लिखकर राज्य में एससी-एसटी के कल्याण से संबंधित योजनाओं पर शीघ्र अमल करने की मांग की.
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती ने भी ट्वीट के ज़रिए इस फ़ैसले की आलोचना की है.
अपने ट्वीट में उन्होंने लिखा है, "अपने पूरे शासन काल में इस वर्ग की उपेक्षा की गई और अब चुनाव के ठीक पहले एससी-एसटी वर्ग के लोगों को लुभाने की कोशिश की जा रही है. अगर इतनी ही चिंता थी तो अब तक सरकार क्यों सोती रही."
क्या नौकरी का वादा काफ़ी?
विपक्ष की इस आलोचना के बारे में दलितों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ता क्या सोचते हैं?
गैर सरकारी संस्था सेंटर डायरेक्ट के सुरेश कुमार कहते हैं, "इसे हत्या के लिए उकसाना कहना ठीक नहीं. अपनी नौकरी के लिए, किसी अपने की हत्या कर देना अपवाद होता है. इस नियम का मक़सद तो पॉजिटिव है मगर इतना बहुत कम है."
सुरेश कुमार कहते हैं, "ग़रीबी का उल्टा धन नहीं हो सकता. यह समुदाय मानव विकास के सभी सूचकांकों में सबसे पीछे है. सबसे प्रमुख है इस समुदाय की 75 से 80 फ़ीसदी आबादी का निरक्षर होना. सबसे पहले इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए."
शिक्षा की अहमियत को दलित परिवार भी समझ रहे हैं.
कोरोनाकाल में भारत में बढ़ते बाल विवाह
जयपुर की चूड़ी फैक्ट्री से मुक्त करवा कर लाए गए राकेश मांझी जाने से पहले गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे. राकेश ने वापस आकर फिर से पढ़ाई शुरू कर दी है.
हालांकि कोरोना की वजह से स्कूल इन दिनों बंद पड़ा है.
राकेश को विज्ञान में गहरी रूचि है. वे कॉपी निकालकर अपने नोट्स दिखाते हैं, परावर्तन और अपवर्तन के नियम सुनाते हुए कहते हैं, "इसमें जितना लिखा है सब जानता हूं, लेकिन इससे ज़्यादा नहीं क्योंकि मेरे पास किताब नहीं है."
इन सबको शिक्षा के बराबर अवसर मिलें तो नौकरी मिलने की उम्मीद बढ़ ही जाएगी.(bbc)
- Shweta Chauhan
कोरोना महामारी के कारण दुनियाभर की अर्थव्यवस्था बिलकुल ठप्प पड़ चुकी है। लोगों के रोजगार छिन चुके हैं, व्यापार मंदी की मार झेल रहा है, लोगों के हाथों में पैसा नहीं है तो बाज़ारों में मांग भी कम है। लॉकडाउन के बाद धीरे-धीरे खुलने वाले व्यापारों को कारीगर और मज़दूर नहीं मिल रहे क्योंकि लोग अपने-अपने घर को लौट चुके हैं। जो प्रवासी मज़दूर शहरों की ओर दोबारा लौट रहे हैं उन्हें काम नहीं मिल रहा। कई रिपोर्ट में ये दावा किया जा चुका है कि कोरोना के कारण दुनिया की एक बड़ी आबादी गरीबी के मुंह में समा रही है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की माने तो यह महामारी अभी अपने अंतिम चरण में नहीं पहुंची है। कई देशों में कोरोना वायरस की दूसरी लहर भी शुरू हो गई है। इसी संबंध में यूएन वीमेन और सयुंक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के साझा अध्ययन में एक बात सामने आई है जिसके मुताबिक दुनिया के सामाजिक और आर्थिक हालात काफी दयनीय स्थिति में पहुंच सकते हैं।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना महामारी महिलाओं को बहुत ज़्यादा प्रभावित करेगी। कोविड-19 के आने से पहले साल 2019 से 2021 के बीच महिलाओं में गरीबी दर 2.7 फीसद तक घटने का अनुमान लगाया गया था। लेकिन अब महामारी के इस दौर में आई नई रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं की गरीबी में 9.1 फीसद की वृद्धि हुई है। वैश्विक महामारी 2021 तक करीब 9.6 करोड़ लोगों को अत्यधिक गरीबी की ओर धकेल देगी जिनमें से 4.7 करोड़ महिलाएं और लड़कियां होंगी। रिपोर्ट में बताया गया है कि महामारी से दुनिया भर में गरीबी की दर काफी बढ़ी है, लेकिन इसका सबसे अधिक असर महिलाओं और खासकर प्रजनन आयु वर्ग की महिलाओं पर हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक साल 2021 तक, 25 से 34 साल आयु वर्ग में शामिल अत्यधिक गरीबी का सामना करने वाले हर 100 पुरुषों की तुलना में 118 महिलाएं गरीबी का शिकार होंगी। यह अंतर साल 2030 तक प्रति 100 पुरुष पर 121 महिलाओं का हो जाएगा। इसी वजह से दुनिया की एक बड़ी आबादी को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के लिए दशकों में हुई प्रगति फिर से उसी अवस्था में आ पहुंची है।
‘फॉर्म इनसाइट्स टू एक्शन : जेंडर इक्वॉलिटी इन दी वेक ऑफ कोविड-19’ शीर्षक वाली इस रिपोर्ट में दिए गए आंकड़े बताते हैं कि कोविड-19 के कारण 9.6 करोड़ से ज्यादा लोग साल 2021 तक गरीबी रेखा के बिलकुल नीचे चले जाएंगे। इस तरह से कोविड-19 और उसके बाद के सामाजिक-आर्थिक हालातों के कारण दुनिया में गरीब लोगों की संख्या 43.50 करोड़ हो जाएगी।
वैश्विक महामारी 2021 तक करीब 9.6 करोड़ लोगों को अत्यधिक गरीबी की ओर धकेल देगी जिनमें से 4.7 करोड़ महिलाएं और लड़कियां होंगी।
बात अगर हम भारत की करें तो इस कठिन दौर में भारत में रोजगार खोने वालों की संख्या भी काफी अधिक है। ‘एशिया और प्रशांत क्षेत्र में कोविड-19 युवा रोजगार संकट से निपटना’ शीर्षक से आईएलओ-एडीबी द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 41 लाख युवाओं के रोज़गार जाने का अनुमान है। इनमें 7 प्रमुख क्षेत्रों में से निर्माण और कृषि क्षेत्र में लगे लोगों के रोज़गार गए हैं।” इसमें यह भी कहा गया है कि कोविड-19 महामारी के कारण युवाओं के लिए रोज़गार की संभावनाओं को भी बड़ा झटका लगा है। रिपोर्ट के मुताबिक महामारी के कारण 15 से 24 साल के युवा ज्यादा प्रभावित होंगे। इतना ही नहीं आर्थिक और सामाजिक लागत के हिसाब से यह जोखिम दीर्घकालिक और गंभीर है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में महामारी के दौरान कंपनी के स्तर पर दो तिहाई प्रशिक्षण पर असर पड़ा। वहीं तीन चौथाई ‘इंटर्नशिप’ पूरी तरह से बाधित हुई हैं।
रिपोर्ट में सरकारों से युवाओं के लिए रोज़गार पैदा करने, शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रमों को फिर से पटरी पर लाने और 66 करोड़ युवा आबादी के भविष्य को लेकर तुरंत बड़े पैमाने पर कदम उठाने के लिए कहा गया है। कोविड-19 से पहले भी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में युवाओं के सामने रोज़गार को लेकर बड़ी चुनौतियां मौजूद थी। इसी कारण बेरोज़गारी दर भी ऊंची थी और बड़ी संख्या में युवा स्कूल और काम दोनों से बाहर थे। साल 2019 में क्षेत्रीय युवा बेरोजगारी दर 13.8 प्रतिशत थी। वहीं 25 साल और उससे अधिक उम्र के वयस्कों में यह 3 प्रतिशत थी। वहीं, बिजसनस स्टैंडर्ड में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान यानी अप्रैल से लेकर अब तक 2 करोड़ से अधिक वेतनभोगी लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं।
इस बार अर्थव्यवस्था पर संकट 2008 के संकट से कहीं ज्यादा घातक है। अगर इन्हें बचाने के लिए बड़े स्तर पर प्रयास नहीं किये गए तो अमीर और गरीब के बीच का फासला अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाएगा। रिपोर्ट के हिसाब से तो वायरस से लड़ने का एक ही तरीका है, गरीब और अमीर देश मिलकर महामारी का सामना करें। गरीबी के संबंध में आई इस रिपोर्ट में महिलाओं की संख्या इसलिए ज्यादा है क्योंकि महिलाएं अक्सर असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं। खासकर कि विकाशसील देशों में काम कर रही महिलाओं का कार्यक्षेत्र असंगठित है, भारत के संदर्भ में बात करें तो नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमी रिसर्च’ के अनुसार भारत में 97 फीसद महिला मज़दूर असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं। इन महिलाओं के लिए ट्रेड यूनियन एक्ट (1926), न्यूनतम मज़दूरी क़ानून (1948), मातृत्व लाभ क़ानून (1961) और ऐसे कई क़ानून हैं, जो कहीं भी लागू नहीं होते क्योंकि मालिक मजदूरी का कहीं भी सबूत नहीं छोड़ते। वहीं, संगठित क्षेत्र में भी महिलाओं का प्रतिशत अभी काफी कम है और अब इस महामारी ने इन्हें भी ठप्प कर दिया है इसलिए ज़रूरी है कि रोज़गार के लिए सरकार द्वारा कड़े कदम उठाए जाएं।
लॉकडाउन में रह रही यह पीढ़ी आय के स्त्रोत ढूंढ रही है ऐसा कोई क्षेत्र अछूता नहीं जहां इस बीमारी ने अपना प्रकोप न दिखाया हो। वहीं, दुनियाभर में महिलाएं सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए संघर्ष कर ही रहीं थी लेकिन इस महामारी और लॉकडाउन ने उनके इस संघर्ष को दोगुना कर दिया है। फिलहाल अब देखना ये होगा कि सभी देशों की सरकारें इस समस्या से निपटने के लिए किस तरह के समाधान निकालती है।
...जिसे खुद भी सामान्य अर्थों में धर्म नहीं कहा जा सकता
- अशोक वाजपेयी
साधन और सच्चाई
इसमें कोई सन्देह नहीं कि सच्चाई को जानने, दर्ज़ करने और समझने के साधन बहुत बढ़ गये हैं. गतिशीलता भी बहुत बढ़ गयी है. हम चाहें तो बहुत तेज़ी से जान सकते हैं. लेकिन इसके साथ-साथ हमें सच्चाई से विरत करने वाले, हमें भटकाने वाले, हमें सच्चाई के बजाय झूठ बताने वाले साधन भी बहुत बढ़ गये हैं. जो साधन सच्चाई तेज़ी से बताते हैं वही साधन हमें उतनी ही तेजी से झूठ भी दिखा-समझा सकते हैं, रहे हैं. सच और झूठ के बीच जो पारम्परिक स्पर्धा रही है वह हमारे समय में बहुत तीख़ी, तेज़ और कई बार निर्णायक हो गयी है. कई बार तो सच्चाई हम तक पहुंच ही नहीं पाती क्योंकि उसी साधन से अधिक तेज़ी और आक्रान्ति से झूठ पहले आकर बैठ और पैठ जाता है.
यह अद्भुत समय है जब ज़्यादातर झूठ सच्चाई की शक्ल में पेश हो रहा है और उसे मान लेने वाले किसी बेचारगी से नहीं, बहुत उत्साह से ऐसा कर रहे हैं. कई बार लगता है कि सच्चाई जानने-फैलाने के सभी साधन झूठ और फ़रेब ने हथिया लिये हैं और उनसे सच्चाई लगातार अपदस्थ हो रही है. अगर संयोग से एकाध सच्चाई सामने आ भी जाये तो फ़ौरन ही उस पर इतनी तेज़ी से, पूरी अभद्रता और अश्लीलता से, हमले होते हैं कि एक सुनियोजित और बेहद फैला दिया झूठ सच्चाई को ओझल कर देता है. यह नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि अब जितनी तेज़ी से भक्ति फैलती है उतनी तेज़ी से घृणा भी. हम इस समय भक्ति और घृणा के अनोखे गणतन्त्र बन रहे हैं.
सच्चाई से ध्यान हटाने का एक और बेहद कारगर उपाय इन दिनों इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपना रहा है. वह असली मुद्दों को दरकिनार करने के लिए हास्यास्पद ढंग से ग़ैरज़रूरी मुद्दों पर इस क़दर बहस करता, चीखता-चिल्लाता है कि करोड़ों दर्शकों को यह याद भी नही रहता कि हमारे जीवन, समाज और देश के असली विचारणीय और परेशान करने वाले मुद्दे क्या हैं? हमारी आर्थिक व्यवस्था लगभग पूरी तरह से बर्बाद हो गयी है. हमारी शिक्षा व्यवस्था गम्भीर संकट में हैं. हमारी सीमाओं पर चौकसी में कुछ कमी रही है कि चीन ने इतनी घुसपैठ कर दी है और वहां से हटने को तैयार नहीं हो रहा है. कोरोना महामारी के चलते भारत में, दुनिया में सबसे ज़्यादा दैनिक नये मामले सामने आ रहे हैं और उनकी संख्या 45 लाख के करीब पहुंच रही है. निजी अस्पताल इस दौरान पूरी निर्ममता से अनाप-शनाप वसूली कर रहे हैं. हवाई अड्डे और रेलवे के कुछ हिस्से निजी हाथों में सौंपे जा रहे हैं. मंहगाई आसमान छू रही है. पुलिस, संवैधानिक संस्थाओं का राजनैतिक दुरुपयोग चरम पर है. पर इनमें से एक भी मुद्दा हमारे सार्वजनिक माध्यमों पर ज़ेरे-बहस नहीं है. यह आकस्मिक नहीं हो सकता. निश्चय ही इसके पीछे बहुत चतुर-सक्षम दुर्विनियोजन है. यह सवाल उठता है कि क्या सच्चाई इस समय निरुपाय है या कि अन्तःसलिल?
धर्म नहीं विचारधारा
हिन्दुत्व ने भले हिन्दू धर्म के कुछ प्रतीकों, अनुष्ठानों, देवताओं आदि को हथिया लिया है, उसका धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है. वह एक विचारधारा है. लगभग हर विचारधारा की तरह उसे लड़ने के लिए, घृणा करने के लिए, हिंसा करने और नष्ट करने के लिए ‘अन्य’ चाहिये जबकि हिन्दू धर्म के समूचे इतिहास में ऐसे ‘अन्य’ की कोई ज़रूरत या अनिवार्यता नहीं रही है. इस धर्म ने जो वर्णव्यवस्था विकसित की उसमें ऊंच-नीच, अपने-पराये के भाव तो बद्धमूल थे पर अन्ततः शूद्र भी हिन्दू रहे हैं. उनके साथ सामाजिक हिंसा का बेहद बेशर्म इतिहास तो रहा फिर भी वे अगर ‘अन्य’ थे तो धर्म के अन्तर्गत ही थे. इससे बिलकुल उलट हिन्दुत्व को ‘अन्य’ बाहर चाहिये और मुसलमान, ईसाई उसका ‘अन्य’ हैं. हिन्दू धर्म ने, व्यवहार और चिन्तन दोनों में, सदियों अन्य धर्मों के साथ, इस्लाम और ईसाइयत के साथ, गहरा संवाद किया है और उसका लक्ष्य समरसता रहा है, हिन्दुत्व की तरह सत्ता नहीं. फिर हिन्दू धर्मचिन्तन एकतान नहीं रहा है - उसमें लगभग स्वाभाविक रूप से बहुलता रही है, इसका सहज स्वीकार भी. हिन्दुत्व इस बहुलता के अस्वीकार, उसे ध्वस्त करने को अपना धर्म मानता है.
हिन्दुत्व में, विचारधारा होने के कारण और धर्म से कोई गहरा संबंध न होने के कारण, उन तीन धर्मों - बौद्ध, जैन और सिख - की कोई पहचान नहीं है जो हिन्दू धर्म से असहमत होकर स्वतंत्र धर्मों के रूप में पैदा और विकसित हुए. इस तरह से, ऐतिहासिक रूप से, कई सदियों तक ये धर्म हिन्दू धर्म का ‘अन्य’ थे. हिन्दू धर्म की संवादप्रियता के कारण ही भारतीय इस्लाम और भारतीय ईसाइयत काफ़ी बदले, उन्होंने हिन्दू धर्म को प्रभावित किया और स्वयं उससे प्रभावित हुए. भारत में इस्लाम और ईसाइयत अपने मौलिक, अरबी और पश्चिमी संस्करणों से ख़ासे अलग हैं. वे उन धर्मों के भारतीय संस्करण हैं जो इस बहुधार्मिक संवाद का प्रतिफल है. ऐसी कोई समझ हिन्दुत्व में नहीं है. उसकी जो भी समझ है, वह हिन्दू धर्म के इतिहास के विरोध या नकार की समझ है. इसका एक आशय यह भी है कि हिन्दुत्व धर्म नहीं, हिन्दू धर्म का एक कट्टर हिंसक संस्करण नहीं बल्कि उसके नाम का दुरुपयोग कर विकसित हुई विचारधारा है.
इस विचारधारा का भारतीय संस्कृति और परम्परा से भी कोई सम्बन्ध नहीं है, भले वह उनकी दुहाई देती है. भारतीय संस्कृति के कुछ मूल आधार हैं जिनमें बहुलता, परस्पर आदान-प्रदान, संवाद आदि हैं. जिन धर्मों को हिन्दुत्व अपना अन्य मानता है उनके सर्जनात्मक और बौद्धिक अवदान की कोई स्मृति और समझ उसमें नहीं है. भारत में साहित्य, संगीत, ललित कलाएं, भाषा, नृत्य, रंगमंच, स्थापत्य आदि अनेक क्षेत्रों में बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम, ईसाइयत आदि धर्मों का बहुत मूल्यवान और कई अर्थों में रूपान्तरकारी योगदान रहा है.
फिर हिन्दू धर्म पर लौटें जो सामान्य अर्थ में धर्म है ही नहीं. वह एक पैगन व्यवस्था रही है जिसमें बहुदेववाद, एकेश्वरवाद, निराकार ब्रह्म, अनीश्वरवाद आदि सब समाये हुए हैं. हिन्दुत्व इस पैगन संरचना को एक मन्दिर, एक देवता आदि में घटाकर इस धर्म की दरअसल अवमानना कर रहा है. एक और पक्ष विचारणीय है. हिन्दू धर्म में प्रकृति के साथ तादात्म्य और उसे दिव्यता का एक रूप मानने का आग्रह रहा है. इसके लिए ठीक उलट हिन्दुत्व जिस आर्थिक नीति का समर्थक है वह प्रकृति के शोषण और पर्यावरण की क्षति को विकास के लिए ज़रूरी मानती है. प्रकृति की पवित्रता को लगातार क्षत-विक्षत करने वाली इस वृत्ति को हिन्दू धर्म से बेमेल बल्कि उससे गम्भीर विचलन ही कहा जा सकता है.
सभ्यता-बोध
एक ग़ैर सिविल सेवक बन्धु ने मुझसे यह जिज्ञासा की कि भारतीय सिविल सेवाओं में किस तरह का सभ्यता-बोध सक्रिय है. उन्होंने यह जोड़ा कि आधुनिक प्रशासन-व्यवस्था का मूल चीनी राज्य व्यवस्था में विकसित मैंडेरिन रहे हैं जिनके लिए कलाओं में केलिग्राफ़ी, कविता आदि में दक्ष होना तक अनिवार्य माना जाता था. मैं थोड़ा सोच में पड़ गया. 35 वर्ष स्वयं सिविल सेवा में रहने और उसके बाद भी उसके कई सदस्यों से सम्पर्क रहने के कारण मेरा यह अनुभव है कि अधिकांश सिविल सेवकों में कोई अच्छा-बुरा, गहरा-सतही सभ्यता-बोध होता ही नहीं है. उन्हें यह लगता ही नहीं है कि वे जिस सभ्यता के हैं उसके प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी भी है. यह आकस्मिक नहीं है कि उनमें से अधिकांश पश्चिमी सभ्यता के कुछ बेहद सतही अभिप्रायों से प्रेरित रहते हैं और उसी के अनुसार अपनी सफलता का लक्ष्य निर्धारित करते हैं.
भारत जैसे निहायत बहुलतामूलक समाज में, उसके हज़ारों सम्प्रदायों, सैकड़ों भाषाओं और बोलियों, स्थानीय प्रथाओं और स्मृतियों में न तो सिविल सेवकों की दिलचस्पी होती है, न कोई समझ या संवाद. एक कामचलाऊ संस्कृति के लोकप्रिय तत्व जैसे बम्बइया फिल्में, फिल्म संगीत, पॉप संगीत, कैलेण्डर कला, ग़ज़ल गायकी, चालू टेलीविजन आदि से मिलकर उनका सभ्यता बोध बनता है. सिविल सेवा के प्रशिक्षण में इतिहास आदि पढ़ाया तो जाता है पर वह कोई बोध नहीं उपजाता या उकसाता. अलबत्ता जब-तब ऐसे सिविल सेवक मिलते हैं जिनमें, अपवाद स्वरूप, ऐसा बोध होता है. पर उनकी संख्या ख़ासी कम रही है और लगातार कम हो रही है.
इसका एक और पक्ष है. बहुत सारे सिविल सेवक किसी सभ्यता-बोध के अभाव में हिन्दुत्व जैसी घातक विचारधारा को बहुत आसानी से अपना लेते हैं. चूंकि इस विचारधारा ने कुछ पारंपरिक अभिप्राय-अनुष्ठान-प्रतीक आदि हथिया लिये हैं, इस अबोध सिविल सेवा को वह आसानी से आकर्षित कर लेती है. चीनियों से आजकल बड़ी स्पर्धा का माहौल है. उनसे हमने यह सीखा होता कि कैसे सभ्यता-बोध सिविल सेवा के लिए एक अनिवार्य तत्व है तो हम यह स्पर्धा बेहतर ढंग से कर सकते थे.
सिविल सेवा में प्रवेश कड़ी स्पर्धा से मिलता है और उसे कुशाग्रता की सर्वोच्च उपलब्धि माना जाता है. यह विचित्र है कि भारत जैसी संसार की गिनी-चुनी सभ्यताओं में से एक के सबसे कुशाग्र लोग सार्वजनिक सेवा में बिना सभ्यता-बोध के सक्रिय रहते हैं और इसके लिए उनके मन में कोई जिज्ञासा तक नहीं होती.(satyagrah)
हम चाहें या नहीं, कोविड के कारण आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का ढहना तय है और ये अप्रचलित होते जा रहे पुराने बाजार की तरह ही लुप्त हो जाएंगे। आपके पास तमाम ऐसे लोग हैं जो नई तकनीक से वाकिफ नहीं और इसलिए वे हाशिये पर डाल दिए जाएंगे।
- मृणाल पाण्डे
भारत में इतिहास की पहली विश्व प्रसिद्ध महिला विद्वानों में से एक- इरावती कर्वे ने महाभारत युद्ध के अपने अध्ययन, युगांत (1967 में प्रकाशित) में भारत के इतिहास के एक युग के अंत को चित्रित किया है। इस पतली-सी पुस्तक के लेख मूल संस्कृत ग्रंथों पर आधारित हैं और ये एक समाज वैज्ञानिक और मानवविज्ञानी की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि को समेटे हुए हैं। आखिरी निबंध ‘द एंड ऑफ ए युग’ में वह लिखती हैं, “सब बदल गया। सत्य, पराक्रम, कर्तव्यपराणता, भक्तिके आदर्शसब चरम सीमा पर थे। उस समय के लेखकों ने बड़ेही स्पष्टतरीके से जो कुछ भी लिखा, वह आज भी मौजूद है। बेशक पुराना कुछ भी नहीं रहता, लेकिनभाषा तो पुराने को भी सुरक्षित रखती है।”
भीषण युद्ध और महामारी ने अक्सर विद्वानों को अतीत के साहित्य पर गौर करने को प्रेरित किया है जब दुनिया व्यापक बदलाव के दौर से गुजरी। इसलिए मानव इतिहास में चहुं ओर एक काल खंड के अंत का उद्घोष करने वाला कोविड लेखकों को पीछे जाकर राष्ट्रों के रूप में हमारे अतीत की पुन: जांच-परख करने को बाध्यकर रहा है। मार्च, 2020 से अधिकांश भारत लॉकडाउन में है। भीड़भाड़ वाले हमारे कई महानगर वायरस प्रसार के केंद्र बन गए हैं क्योंकि वे मूल रूप से मध्ययुगीन काल के दौरान विकसित हुए। धीमी रफ्तार से खिसकती जिंदगी के उस दौर में दिल्ली, पुणे, लखनऊ, इलाहाबाद और अहमदाबाद कारों और दो-पहिया वाहनों के लिए नहीं बल्कि इंसानों के लिए बसाए गए थे। वास्तुकला के लिहाज से ये शहर आज भी मध्ययुगी नही हैं जो वर्ग, जाति और धर्म के प्रति पुराने दृष्टिकोण को अपनाए हुए हैं।
आज फर्क सिर्फ इतना है कि सड़कें ही बीमार या मरने वालों से पटी नहीं हैं बल्कि रोग और काल के पंजों ने भारतीय समाज और सत्ता के सभी स्तंभों को जकड़ लिया है। 14वीं शताब्दीकी शुरुआत के इटली की तरह हम भी समृद्ध से लेकर निपट गरीब रियासतों-रजवाड़ों का एक समूह थे जो सामंती और औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की बेड़ियों से मुक्त हुआ था। महामारी के प्रकोप से पहले तक मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद और कोलकाता-जैसे शहरों का इस्तेमाल नए वैश्विक पूंजीवाद के बीज को पुष्पित-पल्लवित करने वाले केंद्रके तौर पर, तो गोवा, उत्तराखंड और पांडिचेरी जैसी अन्य जगहों का इस्तेमाल केंद्र थके-मांदे व्यापारियों, सामंती घरानों के वंशजों और नेताओं के परिजनों के लिए पर्यटनस्थल के तौर पर होता था।
लेकिन इन्हीं सकारात्मकता का सायास इस्तेमाल दवा के बारे में भारत के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के खांटी मध्ययुगीन सोच को छिपाने के लिए किया जाता है। ये नेता बीमार और भयभीत लोगों को धड़ल्ले से आयुर्वेदिक उपचारों को आजमाने, गोमूत्र का सेवन करने, कोरोनिल की गोलियां (जिसका किसी भी आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में परीक्षणनहीं हुआ) खाने या फिर बस प्रार्थना करने और अपनी बालकनी में बर्तन पीटने की सलाह देते हैं। लेकिन धीरे-धीरे जिस तरह पूरे देश में कोरोना की यह भयंकर बीमारी फैल चुकी है, होशियार लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई है कि नेताओं और झाड़-फूंक करने वाले लोगों की ज्यादातर सलाह बेकार ही हैं। यहां तक कि प्रशिक्षित डॉक्टर और उनकी एंटी वायरल दवाओं के अक्षय पात्र की महिमा भी पूरी तरह बेकार ही साबित हुई है।
बोकाचियो ने 14वीं सदी में प्लेग की विभीषिका झेल रहे इटली का जिक्र किया है जहां कुछ लोगों ने जीवन के बचे-खुचे सुख को भोग लेने का फैसला किया, अलग-अलग समूहों का गठन किया और खुद को अतिरंजित हास्य और कहानियों (अर्नब याद है? ) के साथ एक दूसरे से अलगकर लिया। दिलचस्प है कि बोकाचियो की विश्वविख्यात हास्य कृति ‘डेकामौरॉन’ की कहानियों की तरह जो अलग- थलग पड़े भयातुर समूहों द्वारा सुनाई जाती हैं, हमारे ज्यादातर सामाजिक समाचार मीडिया ने समाज और कलुष, धर्मपरायणता अथवा अभिभावकीय अनुमति के बारे में पूर्व सोच को जैसे भुला ही दिया है। पंडित-पुजारी से लेकर राजनेता, बॉलीवुड अभिनेता- सबको खुलेआम अनैतिक और पाखंडी बताया जाता है। बाबाओं और झाड़-फूंक करने वाले आम तौर पर मूर्ख, कामुक और लालची होते हैं और उनके मठ-आश्रम नरक के द्वार हैं, जिन्हें लंबे समय तक नहीं खोला जाना चाहिए।
मानकर चलना चाहिए कि कोविड बाद के भारत में वही सब होने वाला है जो मध्ययुगीन यूरोप के उस विनाशकारी कालखंड के बाद हुआ। इटली में राजनीतिक-रूढ़ीवादी-चिकित्सीय प्रतिष्ठानों को उखाड़ फेंकने के बाद अंततः बदलाव की ताजा हवा का प्रवेश हुआ जिसने पुनर्जागरण का आधार रखा और विज्ञान, कला और राजनीतिक विचार के एक शानदार युग की शुरुआत हुई। जब दुनिया कोविड- 19 के लौह-पाश से मुक्त हो जाएगी तब ऐसी ही नाटकीयता देखने को मिल सकती है। हो सकता है कि दवा के क्षेत्र में ऐसा न हो जहां सभी इस वायरस के खिलाफ किसी चमत्कारिक टीके के इजाद की दुआ कर रहे हैं, लेकिन अर्थव्यवस्थाऔर संस्कृति में तो शर्तिया बड़ा बदलाव आने जा रहा है।
ब्लैक डेथ यानी प्लेग-काल का वर्णन करने वाले इतिहास लेखकों ने दर्ज किया है कि कैसे उस समय परिवार व्यवस्था धराशायी हो गई थी। आज भी वैसा ही दिखता है जब तमाम मुश्किलों का सामना करके घर गए प्रवासी अब इस एहसास के साथ वापस हो रहे हैं कि परिवार तो अब वैसा रहा ही नहीं। शहरों में छोटे-सी जगह में लंबे समय से कैद परिवार के सदस्यों की आपस में तीखी झड़प और चरम मनोभावों के तमाम मामले मनोचिकित्सकों के पास आ रहे हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति बीमार और बुजुर्गों की घर से दूर संस्थागत देखभाल की अवधारणा को लेकर भी है। वर्ष 1918 में जब फ्लू ने महामारी का रूप धरा, अंग्रेजों ने अपने परिवारों को पहाड़ों पर भेज दिया। लेकिन तब उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने पहाड़ों में जो दोहरी व्यवस्था बना रखी थी- हिल स्टेशनों में अपने रहने के लिए तो साफ-सुथरे सिविल लाइंस लेकिन गंदगी में जीवन गुजारती स्थानीय आबादी- वह उनके अपने ही स्वास्थ्य के लिए कितनी खतरनाक थी। इसलिए पहले हेल्थ बोर्ड और महामारी कानून तैयार किए गए और ‘साहब’ और उनके खान सामा, धोबियों और नौकरानियों तथा उनके परिवारों के लिए अस्पताल बनाए गए क्योंकि इन लोगों के बिना अंग्रेजों का काम नहीं चलने वाला था।
वापस वर्तमान में आते हैं। अंततः कर्फ्यूहटा लिए गए हैं और सबसे ज्यादा विस्फोटक स्थिति रोजगार क्षेत्र में आने वाली है। हमारे देखते-देखते पूरे सेवा क्षेत्र की जगह ऑनलाइन डिलीवरी सिस्टम ले रहा है। वैसे ही शिक्षा और मनोरंजन भी तेजी से डिजिटल हो रहे हैं। इसलिए पुराने स्टाइल के क्लास, सिनेमा हॉल और रेस्तरां को अलविदा कहने का समय है। पत्रकारों की तरह ही तमाम लोग जब काम पर लौटकर आते हैं तो पता चलता है कि उनके लिए तो काम ही नहीं रहा। प्रिंट मीडिया तेजी से अप्रचलित होता जा रहा है और फिल्मों की धूम-धड़ाके के साथ लॉन्च की जगह ओटीटी (ओवर दिटॉप) लॉन्च ले रहे हैं।
इसलिए हम चाहें या नहीं, कोविड के कारण आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का ढहना तय है और ये अप्रचलित होते जा रहे पुराने बाजार की तरह ही लुप्त हो जाएंगे। आपके पास तमाम ऐसे लोग हैं जो नई तकनीक से वाकिफ नहीं और इसलिए वे हाशिये पर डाल दिए जाएंगे लेकिन मुट्ठीभर नए प्रशिक्षित लोगों को मोटी तनख्वाह मिलेगी। पूंजी और श्रम की वर्तमान स्थिति उस कार की तरह है जो दुर्घटना के बाद अभी पलटियां मारती हुई घिसटती जा रही है। उसमें बैठे किसी को पता नहीं है कि अंततः कौन और कैसे जीवित बचेगा।
अब जरा देखते हैं कि इन स्थितियों से किस तरह के फायदे की संभावना है। उदाहरण के लिए, कॉरपोरेट जीवन का वह पुराना तरीका बदल जाने वाला है जिसमें लोगों को लगातार विभिन्न समय क्षेत्रों की बेतहाशा हवाई यात्रा करनी पड़ती थी। अब आलस के कारण तीसरी दुनिया के देशों को काम आउटसोर्स नहीं होंगे, संदिग्ध हेज फंडों की अल्पावधि जमा नहीं होगी और ‘राजनीतिक कनेक्शन’ के आधार पर दीर्घकालिक बैंक ऋण नहीं दिए जाएंगे। हमारे राष्ट्रीय कृत बैंक ऋण बोझ से दबे हुए हैं। नतो ईश्वरीय प्रारब्ध मानकर इन्हें बंद किया जा सकता है और नही उद्यमशीलता को कला, शिल्पया हाथ से तैयार खिलौनों के आधार पर आत्मनिर्भरता के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है।
जैसा कि जॉनमेनार्ड कींस ने कहा था कि जब आप संकट में होते हैं तो स्वस्थ अर्थव्यवस्था और दृढ़ राजनीति आधारित पहले की नैतिकता की परवाह नहीं करते और इससे संकट और गहरा जाता है। अगर आप नवाब आसफुद्दौला को पसंद करते हैं, तो आप इमामबाड़ा जैसा निर्माण करेंगे। आप बेशक कुछ भी बनाएं लेकिन रोजगार पैदा करें। भारत के शासक वर्ग को वास्तव में पुनर्विचार करना होगा। उन्हें महामारी को नए सोच का प्रेरक बनाना चाहिए। महामारी के पहले से ही अर्थव्यवस्था खस्ताहाल थी और हमारी रेटिंग हर माह गिर रही थी। 1918 में स्पैनिश फ्लू और विश्वयुद्ध में लाखों लोगों की मौत ने सत्याग्रह की रूपरेखा तैयार की, वैसे ही यूरोप में महिलाओं को मताधिकार के आंदोलन ने जन्म लिया। यह संयोग नहीं है कि उन महिलाओं ने गांधी का समर्थन किया, उनकी प्रशंसा की। इन घटनाओं को बदलाव की उन्हीं ताजा हवाओं ने आकार दिया था। दूसरे विश्व युद्ध ने महिलाओं के आंदोलन और गांधीवादी सत्याग्रह- दोनों को तेज किया था। हमें कोविड के इस काल का भी इस्तेमाल सामंती मध्ययुगीन मानसिकता से बाहर निकलने और अभूतपूर्व तरीके से दम तोड़ रही अपनी अर्थव्यवस्था, राज व्यवस्था और समाज-व्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए करना चाहिए। जब तक हम अपनी मरणासन्न अवस्था को स्वीकार नहीं करेंगे, कुछ भी ठीक नहीं होगा।(navjivan)
पूर्व में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम जो कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इन्हें दुरुस्त करने से कौन रोक रहा है।
- आकार पटेल
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर एक ऐसे परिवार से आते हैं जिसमें कई विद्धान हुए। उनके पिता के सुब्रह्मण्यम प्रसिद्ध थिंक टैंक आईडीएसए के संस्थापक और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सलाहकार थे। देश के न्यूक्लियर कार्यक्रम को हथियारबंद करने और बांग्लादेश में सैन्य दखल देने के मामलों में सुब्रह्मण्यम का भी दखल था।
सुब्रह्मण्यम के दूसरे पुत्र और एस जयशंकर के भाई संजय प्राचीन भारतीय इतिहास पर दुनिया के मशहूर विद्धानों में से एक हैं। उन्होंने सूरत (मेरे गृहनगर) के कारोबार और दक्षिण भारत के साथ ही वास्को डा गामा पर भी किताबें लिखी हैं।
मेरे कहने का अर्थ यह है कि डॉक्टर एस जयशंकर (वह पीएचडी हैं) की पृष्ठभूमि वैसी नहीं है जैसी कि मोदी सरकार के और मंत्रियों की है। एस जयशंकर की हाल ही में एक किताब आई है जिसमें उन्होंने कहा है कि तीन ऐसी बातें हैं जिन्होंने देश की विदेश नीति पर बुरा प्रभाव डाला है। पहला है विभाजन, जिससे देश का आकार छोटा हो गया और इससे चीन को हमारे मुकाबले ज्यादा अहमियत मिलने लगी। दूसरा है आर्थिक सुधारों को लागू करने में 1991 तक की देरी, क्योंकि अगर यह सुधार पहले आ गए होते तो हम बहुत पहले एक धनी राष्ट्र बन गए होते। और तीसरा है परमाणु हथियार चुनने में देरी करना। उन्होंने इन तीनों को एक बड़ा बोझ बताया है।
एस जयशंकर जो बाते कह रहे हैं इसके क्या अर्थ निकाले जाएं?
हमें दो अलग-अलग बातों को अलग तरीके से देखना होगा। सबसे पहले देखना होगा कि जो कुछ वे कह रहे हैं, सत्य है या नहीं। भारत के विभाजन से इसके आकार में निश्तित रूप से कमी आई और अगर ऐसा नहीं होता तो भौगोलिक तौर पर हम बहुत बड़े देश होते, जिसका विस्तान बर्मा से लेकर इरान तक होता और हमारी आबादी 1.7 अरब के आसपास होती। इससे आर्थिक तौर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, न ही प्रति व्यक्ति आय या उत्पादकता या किसी अन्य तरह से कोई फर्क पड़ता। पूरा दक्षिण एशिया एक साथ ही विकसित हुआ है। ब्रिटिश काल में भारत का हिस्सा रहे ये तीनों ही देश न तो विकसित देश बन पाए और न ही बाकी दूसरे देश विकासशील बन सके। पाकिस्तान और बांग्लादेश का दौरा करने पर हकीकत सामने आ जाएगी और हालात भारत के ज्यादातर जगहों की तरह ही नजर आएंगे।
दूसरी बात है आर्थिक सुधारों को लागू करने में देरी। एस जयशंकर अर्थशास्त्री तो हैं नहीं, तो यह उनका विषय नहीं है। ऐसे में उनकी बात को सत्य मानने में थोड़ी एहतियात बरतनी होगी। नेहरू के समय की भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता बहुत ज्यादा नहीं थी। हर जगह, खासतौर से भारी उद्योगों के क्षेत्र में सरकारी पूंजी की जरूरत थी। और अगर इसमें सरकारी पूंजी, जिसे हम यूं ही अपना मान लेते हैं. मसलन उच्च शिक्षा आदि के क्षेत्र, का निवेश नहीं हुआ होता तो जाने क्या होता।
हम निजीकरण के कितने ही भजन गा लें, लेकिन आईआईटी और आईआईएम का कोई निजी विकल्प हो ही नहीं सकता। लेकिन यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि इंदिरा गांधी के दौर का लाइसेंस राज सही था। इसलिए एक तरह से आर्थिक सुधारों में देरी के जयशंकर के तर्क को हम हां कह सकते हैं।
तीसरी बात है परमाणु हथियारों का विकल्प, जिसका पहली बार मई 1974 में परीक्षण किया गया। भारत ने परमाणु बम बनाकर धमाका कर दिया था। वैसे यह कोई ऐसी बड़ी बात नहीं थी क्योंकि दक्षिण अमेरिका, यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कई देशों के पास ऐसी क्षमता थी, लेकिन उन्होंने परीक्षण नहीं किया। इससे जुड़ी एक बात यह भी है कि भारत ने परमामणु बम बनाकर अपने अंतरराष्ट्रीय वादों का उल्लंघन किया था। परमाणु बम बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाला जरूरी मटीरियल कनाडा से आया था, जिससे हमने वादा किया था कि इसका इस्तेमाल हम सिर्फ शांतिपूर्ण उद्देश्यों में इस्तेमाल होने वाली परमाणु तकनीक में करेंगे। इंदिरा गांधी ने कहा था कि 1974 का परमाणु परीक्षण शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए था।
हमारे पास अब बीते 45 साल से ये हथियार हैं। इससे हमें क्या फायदा मिला? हम इसका पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल नहीं कर सकते, भले ही हम बीते तीन दशक से कह रहे हैं कि वह आतंकवाद फैलाता है। हम इसका चीन के खिलाफ भी इस्तेमाल नहं कर सकते, जो कि हमारी सीमा में घुस आया है। इस पर बहस हो सकती है कि आखिर इन हथियारों को विकसित करके हमें क्या मिला।
जयशंकर ने इन तीनों को एक बोझ बताते हुए इसका जिम्मेदार कांग्रेस को ठहरा दिया है। आइए देखते हैं कि उनकी अपनी पार्टी ने इन तीनों पर क्या किया और क्या कर रह है। भारत का विभाजन भले ही हो गया, लेकिन पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही हमारे पड़ोसी हैं। वे किसी अफ्रीकी देश में नहीं चले गए हैं। आखिर पूरे उपमहाद्वीप को व्यापार और ट्रैवल के जरिए एकजुट करने से भारत को कौन रोक रहा है। यह हमारा राष्ट्रवाद है। नेपाल के साथ तो बिना वीजा के आना-जाना हम कर सकते हैं लेकिन बांग्लादेश के साथ नहीं। क्यों? अगर हम तय कर लें तो हम वीजा मुक्त यात्रा शुरु कर दक्षिण एशिया को एकजुट कर सकते हैं। लेकिन बीजेपी ऐसा नहीं चाहती।
आर्थिक उदारवाद को लेकर जयशंकर की राय एकदम गलत है। बीजेपी के शासन में भारती का आर्थिक विकास जनवरी 2018 से लगातार नीचे जा रहा है। ऐसा सरकार के आंकड़ों से ही सामने आया है। यानी बीते 6 वर्षों में से ढाई वर्ष तक देश के विकास की रफ्तार में कमी आई है। ऐसा तो समाजवाद या लाइसेंस राज में भी नहीं हुआ था। और इस साल तो अर्थव्यवस्था में ऐसी सिकुड़न होने वाली है जो ऐतिहासिक है। सिर्फ उदारवाद का अर्थ ही आर्थिक विकास नहीं होता है।
जयशंकर तीनों मुद्दों पर जो भी कह रहे हैं वह मुद्दों का बेहद सरलीकरण है। पूर्व में या बीते दशकों में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर हम ऐसा मानते हैं कि इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम आज जो कुछ कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इस सरकार को कौन रोक रहा है इन्हें दुरुस्त करने से। उनकी किताब में इसका कोई जिक्र नहीं है। हो सकता है कि आने वाले वक्त में किसी और किताब में वे ऐसा लिखें।(navjivan)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
स्वामी अग्निवेश अब से 53-54 साल पहले जब कलकत्ता से दिल्ली आए तो रेल से उतरते ही वे मेरे पास दिल्ली के बाराखंबा रोड पर सप्रू हाउस में आ गए। मैं छात्रावास संघ का अध्यक्ष भी था। उन दिनों मेरे पीएच.डी. को लेकर संसद बार-बार ठप्प हो रही थी और सारे अखबारों में उसकी चर्चा मुखपृष्ठों पर छपती रहती थी। उस समय अग्निवेशजी का नाम वेपा श्यामराव था और वे सफेद झक लुंगी और कुर्ता पहने हुए ब्रह्मचारी वेश में थे। उस दिन से कल तक उनसे मेरी घनिष्टता सतत बनी रही। उनका कहना था कि मैं महर्षि दयानंद का भक्त हूं और आप भी हैं तो हम दोनों मिलकर इस भारत देश का नक्शा ही क्यों नहीं बदल दें ? कलकत्ता में वे पं. रमाकांत उपाध्याय के संपर्क में आए और आर्यसमाजी बन गए लेकिन वे इतने स्वायत्त और स्वतंत्रचेता थे कि देश के ज्यादातर आर्यसमाजी लोग उन्हें आर्यसमाजी ही नहीं मानते। असलियत तो यह है कि वे अपने जीवन में आर्यसमाज की सीमाएं भी लांघ गए थे। आर्यसमाज की परंपरागत विधि के पार जाकर वे मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों को भी दयानंद से जोडऩा चाहते थे। उनके कई विचारों और कार्यों से मेरी घोर असहमति बनी रहती थी लेकिन फिर भी उन्होंने मुझसे कभी संपर्क नहीं तोड़ा। उन्होंने अभी सात-आठ महीने पहले एक विश्व आर्यसमाज स्थापित करने का संकल्प किया था, जिसमें वे सभी धर्मों के लोगों को जोडऩा चाहते थे।
वह सम्मेलन दिल्ली में मेरी अध्यक्षता में बुलाया गया था। मैंने इस धारणा को सर्वथा अव्यवहारिक बताया। इसी प्रकार 1970 में शक्तिनगर आर्यसमाज में आर्यसभा (राजनीतिक दल) बनाने का जब प्रस्ताव आया तो मेरी राय थी कि संन्यासियों को राजनीति की कीचड़ में बिल्कुल नहीं धंसना चाहिए। मैं उन्हीं दिनों न्यूयार्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में शोध-कार्य कर रहा था। अग्निवेशजी ने तार भेजकर मुझे जल्दी वापिस भारत आने का आग्रह किया और कहा कि आप, मैं और इंद्रवेशजी साथ-साथ संन्यास लेंगे। संन्यास लेते ही ये दोनों मित्र हरियाणा की राजनीति में कूद पड़े। अग्निवेशजी 1977 में विधायक चुने गए। मैंने राजनारायणी और चौधरी चरणसिंहजी से अनुरोध करके चौधरी देवीलालजी के साथ उन्हें हरयाणा में मंत्री बनवाया। मंत्रिपद से उन्होंने जल्दी ही इस्तीफा दे दिया लेकिन उसके बाद वे सामाजिक आंदोलनों में पूरी तरह से जुट गए। उन्होंने सती-प्रथा, बाल-मजदूरी, अंग्रेजी के वर्चस्व, मूर्ति-पूजा, पाखंड और भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किए। उनके- जैसे सतत आंदोलनकारी संन्यासी भारत में बहुत कम हुए हैं। वे महर्षि दयानंद, स्वामी सहजानंद, सोहम स्वामी, बाबा रामचंद्र और संन्यासी भवानी दयाल की परंपरा के संन्यासी थे। आजकल के राजनीतिक दलों के संन्यासियों से वे अलग थे। झारखंड के पाकुर में उन पर जानलेवा हमला नहीं होता तो वे शायद शतायु हो जाते, क्योंकि वे सर्वथा सदाचारी, शाकाहारी, यम-नियम का पालन करने वाले साहसिक व्यक्ति थे। इसीलिए 81 वर्ष की आयु में भी उनके निधन को मैं असामयिक कहता हूं। उनका महाप्रयाण देश की क्षति तो है ही, मेरी गहरी व्यक्तिगत क्षति भी है। अग्निवेशजी की माताजी कहा करती थीं कि ‘श्याम आपसे उम्र में कुछ बड़ा है लेकिन यह सिर्फ आपकी बात सुनता है।’’ अब उसे कौन सुनेगा ? मेरे अभिन्न मित्र को हार्दिक श्रद्धांजलि!
(नया इंडिया की अनुमति से)
-समरेन्द्र सिंह
दो दिन पहले रघुवंश बाबू के एक पत्रकार मित्र से बात हो रही थी। उनके पत्रकार मित्र मेरे भी मित्र हैं। मैंने ऐसे ही कहा कि राजद ने उनके साथ भी बुरा किया। ऐसा नहीं होना चाहिए था। उन्होंने कहा ये फालतू की बात है। वो चिट्ठी उन्होंने अपनी इच्छा से नहीं लिखी है। वह चिट्ठी लिखवाई गई है। मैंने पूछा कि क्या वो नाराज नहीं थे? उन्होंने कहा कि थोड़ा नाराज तो थे। उनकी उपेक्षा तो हो ही रही थी। पार्टी के फैसलों में उनकी कोई पूछ नहीं थी। राज्यसभा भी किसी और को भेज दिया। लेकिन फिर भी वो चिट्ठी लिखने के पक्ष में नहीं थे। दरअसल, वो गंभीर रूप से बीमार हैं और उनके बचने की उम्मीद बहुत थोड़ी है। मृत्यु के करीब खड़े एक व्यक्ति को भावनात्मक तरीके से ब्लैकमेल करके चिट्ठी लिखवाई गई है। राजनीति के ऐसे अनेक चेहरे हमने देखे हैं। यहां सिर्फ जिंदगी की ही नहीं, मौत का भी सौदा होता है। रघुवंश बाबू ने अपनी जिंदगी लालू यादव के नाम की थी, समाजवादी सिद्धांतों के नाम की थी और अपनी मृत्यु परिवार के नाम कर गए।
रघुवंश प्रसाद सिंह और लालू प्रसाद यादव दोस्त थे। दोस्ती का सीधा संबंध ईमान से होता है। जिस रिश्ते में ईमान नहीं हो, निश्छलता नहीं हो वह और कुछ भी हो सकता है मगर दोस्ती नहीं हो सकती। दोस्त से झगड़ा भी हो जाए तो भी अहित करने का ख्याल नहीं आता है। इसलिए रघुवंश बाबू ने वह चिट्ठी लिखी होगी तब वह कितने बेबस होंगे, कितने मजबूर होंगे, यह सोचा और समझा जा सकता है।
आप उस खत की भाषा देखिए। वह कितनी मर्यादित है। न कोई लांछन है। ना ही कोई शिकायत। बस इतना कि अब साथ नहीं चल सकते और उन लोगों से माफी है जो उनकी दोस्ती और सफर के साक्षी थे।
वो संबंध कितना खूबसूरत होगा कि उसे तोड़ते वक्त भी मर्यादाओं की सीमा याद रह जाए और दोनों तरफ से कोई... वो सीमा पार न कर सके। प्रेम, बंधुत्व और वैचारिक आधार पर बने संबंध ऐसे ही होते हैं। उनमें आह और आंसू के साथ एक मुस्कान भी छिपी होती है। बीते हुए लम्हों की खुशनुमां यादें गुदगुदाती रहती हैं। टूटते वक्त भी बहुत कुछ जोड़े रखती हैं।
ऐसे मर्यादित व्यक्ति की मजबूरी का लाभ उठाने वाले कितने लोभी और मौकापरस्त इंसान होंगे ये अंदाजा भी लगाया जा सकता है। वैसे सियासत में लोभी और मौकापरस्त लोगों की भरमार है। नैतिक और सामाजिक मूल्य कोई अहमियत नहीं रखते। इन मूल्यों को कचरे की पेटी में डाल दिया गया है।
आजाद हिंदुस्तान में गरीबों के लिए दो योजनाएं सबसे चर्चित रही हैं। मनरेगा और मिड डे मील। यह बहस हो सकती है और होनी भी चाहिए कि अतीत में हमने ऐसी क्या तरक्की की, जब हमें मनरेगा जैसी स्कीम लागू करनी पड़े। 2.5-3 रुपये वाली वाली मिड डे मील जैसी योजना चलानी पड़े। लेकिन यह बहस नहीं हो सकती है कि इन योजनाओं से लाभ हुआ है या नहीं हुआ है। यकीनन लाभ हुआ है। करोड़ों परिवारों और करोड़ों बच्चों की सेहत में सुधार भी हुआ है। इनमें से मनरेगा को लागू करने का श्रेय रघुवंश बाबू को जाता है। ऐसी सोच उनके जैसे ही किसी शख्स की हो सकती है, जिसका दिल करुणा और ममत्व से भरा हुआ हो। रघुवंश बाबू अपने दौर के सबसे ईमानदार और प्रतिबद्ध नेताओं में शामिल रहे। नेताओं की यह नस्ल अब समाप्त होने को है।
लालू यादव जी ने अपने दोस्त को अलविदा कहते हुए कहा है कि वो बहुत याद आएंगे। दोस्तों को तो याद रहेंगे इसमें कोई शक नहीं। लेकिन यह जमाना उन्हें बहुत दिन याद रखेगा, इसमें संदेह है। जहां महात्मा गांधी जैसे लोगों को खलनायक बनाकर पेश किया जाता हो, वहां रघुवंश बाबू को भला कौन और कितने दिन याद रखेगा!
लेकिन जिसने जिंदगी अपनी शर्तों पर जी हो, जो सियासत में रहते हुए भद्दे, ओछे और क्रूर सियासी रीति-रिवाजों से बेपरवाह रहा हो ... कोई याद रखे या नहीं रखे उसे इससे फर्क ही कहां पड़ेगा! वो मस्त हवा का एक झोंका था, जो करोड़ों लोगों की जिंदगी में बहार बन कर आया, कुछ पल ठहरा, मुस्कान बिखेरी और चला गया।
अलविदा रघुवंश बाबू! अलविदा! आपको मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!!
-थॉम पूले
शायद ही कोई ऐसा दिन गुज़रता है जब ट्रंप का कोई पुराना सहयोगी ट्रंप पर एक किताब लेकर नहीं आता. ये सब मिलकर ट्रंप के बारे में क्या बताना चाहते हैं?
ट्रंप पर लिखी एक किताब के लेखक से किसी ने पूछा कि क्या इससे पहले ऐसा कोई राष्ट्रपति रहा है?
जवाब था, “मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.”
एक रिएलिटी स्टार और बिज़नेसमैन से राष्ट्रपति बनने का सफ़र किताबों के लिए एक अच्छी कहानी है. यह लेखकों को आकर्षित करती है और ऐसी किताबें आती रहती हैं.
पिछले हफ़्ते वरिष्ठ पत्रकार बॉब वुडवर्ड और ट्रंप के पुराने वकील माइकल कोहन की एक किताब ने सुर्खियां बटोरी.
पत्रकार, परिवार को जानने वाले लोग और ट्रंप के समर्थक लेखकों ने इस दौरान शानदार काम किया है.
यह लेख उन लोगों के बारे में है जो या तो ट्रंप के कैंपेन के दौरान या फिर व्हाइट हाउस में उनके साथ काम कर चुके हैं.

लिस्ट काफ़ी लंबी है
जॉन बॉलटन: ट्रंप के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जिन्हें या तो निकाल दिया गया था या फिर उन्होंने इस्तीफ़ा दिया था– ये इस बात पर निर्भर करती है कि आपने कौन सा वर्ज़न सुना है, ट्रंप के मुताबिक, “वो सरकार के सबसे मूर्ख लोगों” में से एक थे.
जेम्स कॉमी: एफबीआई के पूर्व डायरेक्टर जिन्हें ट्रंप ने निकाल दिया था. ट्रंप ने उन्हें “स्लीज़ बैग”(घटिया) कहकर बुलाया था.
एंड्रयू मैकेब: कॉमी को बाहर का रास्ता दिखाने के कुछ ही दिनों के बाद ट्रंप ने एफबीआई के डिप्टी डायरेक्टर मैक्कैबे को निकाल दिया. ट्रंप ने उन्हें “मेजर स्लीज़बैग” बुलाया था.
एंथनी स्कारामुच: साल 2017 में ट्रंप के बहुत कम वक़्त के लिए कम्युनिकेशन डायरेक्टर थे. अपनी किताब में ट्रंप की तारीफ़ करते हैं, लेकिन बाद में उनके आलोचक बन गए थे.
शॉन स्पाइसर : स्कारामुची के कम्युनिकेशन डायरेक्टर बनाए जाने के बाद स्पाइसर ने इस्तीफ़ा दे दिया था. अपनी किताब में उन्होंने ट्रंप की आलोचना नहीं की है.
सारा सैंडर्स: स्पाइसर के बाद सारा ने पद संभाला और पिछले साल जुलाई तक पद पर बनी रहीं. वो ट्रंप की वफ़ादार थीं और ट्रंप उन्हें ‘योद्धा’ कहते थे.
क्रिस क्रिस्टी: साल 2016 में सबसे पहले ट्रंप की पैरवी करने वाले पहले गवर्नर. वो ट्रंप की ट्रांज़िशन टीम के प्रमुख थे, रिपोर्ट्स के मुताबिक़ ट्रंप के दामाद जैरेड कशनर के कहने पर उन्हें हटा दिया गया. ऐसा माना जाना है कि ट्रंप के चुनावी भाषणों के पीछे उनका बड़ा योगदान था.
ओमारोसा मैनीगॉल्ट न्यूमैन: ट्रंप के टीवी शो द अप्रेंटिस में भाग लेने बाद उनके कैंपेन का हिस्सा बनीं. ट्रंप उन्हें “सभी के द्वारा तिरस्कृत” कहते थे.
अज्ञात: लेखक जो खुद को ट्रंप सरकार के वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं. उन्होंने अपनी पहचान उजागर नहीं की है, ये ज़रूर कहा है कि वो आने वाले समय में सामने आएंगे. हालांकि ट्रंप का कहना हैं वो उनका नाम जानते हैं और उनके मुताबिक़ वो “धोखेबाज़” हैं.
कोरी ल्यूवनडाउस्की: राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ट्रंप के पहले कैंपेन मैनेजर और डिप्टी कैंपेन मैनेजर डेविड बॉसी से साथ मिलकर लिखी किताब में कई सकारात्मक पहलू पेश किए हैं.
क्लिफ़ सिम्स: एक कंज़रवेटिव पत्रकार जिन्होंने कम्युनिकेशन एड की तरह काम किया. इस किताब को जल्दबाज़ी या तारीफ़ में लिखी किताब की तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता. ट्रंप ने उन्हें एक ‘बिख़रा हुआ’ और ‘निचले दर्जे’ का स्टाफ़ कहा था.
ये सभी किताबें पक्षपाती हैं. ज़्यादातर जानकारियां निजी संवादों पर आधारित हैं इसलिए आपके पास लेखक पर भरोसा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. सहानुभूति जताने वालों को माफ़ी मांगने वालों की तरह पेश किया गया है और आलोचकों को बदला लेने वालों की तरह.
लेकिन इन सब को मिलाकर देखें तो हमें क्या मिलता है?
ट्रंप के बारे में लेखकों का मत जो भी हो, एक मुख्य थीम है जो बार-बार नज़र आती है.
स्पाइसर लिखते हैं, “डोनाल्ड ट्रंप से वफ़ादारी को लेकर सख़्त नियम हैं. कोई उन्हें धोखा दे, इससे बुरा उनके लिए कुछ नहीं है.” ल्यूवनडाउस्की और बॉसी के मुताबिक, “वफ़ादारी उनके लिए एक अहम फ़ैक्टर है.”
कोहन की किताब ‘डिस्लॉयल’ और कॉमी की किताब ‘अ हायर लॉयलटी’ का मूल कॉन्सेप्ट यही है. कॉमी की किताब जो उनके अनुभवों से जुड़ी है, थोड़ी लीडरशिप से और थोड़ी चीज़ों को बेनकाब करने से, उसमें वो लिखते हैं कि जब वो एफ़बीआई डायरेक्टर थे तब ट्रंप ने कहा था, “मुझे वफ़ादारी चाहिए, मुझे वफ़ादारी की उम्मीद है.”
कॉमी के मुताबिक़ उन्होंने इनकार कर दिया और वो बहुत दिन उस पद पर कायम नहीं रह सके.
ट्रंप कि अपनी दुनिया में उनके प्रति निष्ठा ही है जिस पर यह फ़ैसला किया जाता है कि कौन रहेगा और राष्ट्रपति किसकी बातें सुनेंगे. कभी-कभी यह पॉलिसी बनाने में भी मददगार साबित होता है.
बॉलटन अपनी किताब में लिखते हैं कि वेनेज़ुएला मामले में ट्रंप ने वहां के विपक्षी नेता जुआन गुऐडो को लेकर कहा था, “मैं चाहता हूं कि वो कहें कि वो अमरीका के प्रति बहुत वफ़ादार हैं, और किसी के प्रति नहीं.”
लेकिन निष्ठावान रहना ट्रंप की दुनिया में एकतरफ़ा है. सिम्स अपनी किताब के आख़िरी चैप्टर में लिखते हैं, “सच यही है कि उनके रिश्तेदारों के अलाना कोई भी कभी भी हटाया जा सकता है.”

ट्रंप एक ‘यूनीकॉर्न’!
अपने प्रति निष्ठा रखने की मांग करने के कारण ही ट्रंप को कई लेखकों ने मॉब बॉस यानी भीड़ का नेता कहा है. जब कई साल क़ानून लागू करने वाली संस्थाओं को देने वाले कॉमी और मैकेब ऐसा कहते हैं तो बात वाजिब लगती है.
अज्ञात लेखक के मुताबिक, ट्रंप एक “12 साल के बच्चे हैं जिन्हें एयर ट्रैफिक कंट्रोल टावर में बैठा दिया गया है.”
कॉमी कहते हैं कि उनका नेतृत्व “जंगल में फैली आग” की तरह है.
ओमारोसा की किताब में तो उन्हें नस्लवादी, कट्टर और महिला विरोधी बताया गया है.
स्पाइसर के मुताबिक ट्रंप एक “यूनिकॉर्न हैं, इंद्रधनुष पर चलने वाले यूनिकॉर्न.”
राष्ट्रपति के साथ रहना...क्या अच्छा था?
ट्रंप के आलोचकों और समर्थकों की किताबों में ट्रंप को लेकर कही गई बातों में बहुत कम समानताएं हैं. लेकिन एक बात है कि वो एक करिश्माई इंसान हैं, तेज़ तर्रार और कुशल राजनीतिक स्किल के साथ. उनके बोलने की अलग स्टाइल, कई बार उनके लिए बड़बोलापन एक तोहफ़ा है.
ल्यूवनडाउस्की और बॉसी के मुताबिक़, “उन्हें पता है कि लोगों से कैसे बात करनी है.”
स्पाइसर के मुताबिक़ उनके पिता कहते हैं, “कई उम्मीदवार कहते हैं कि हम पॉलिसी और बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए लड़ेंगे लेकिन ट्रंप कहते हैं कि हम आपको वापस नौकरियां दिलाएंगे.”
सिम्स कहते हैं कि ट्रंप अपनी जिन ख़ूबियों के बारे में सबसे ज़्यादा बात करते हैं, उनकी ‘एनर्जी’ और ‘स्टैमिना’, वो दरअसल सच हैं. बाक़ी लेखक भी ये बात मानते हैं और शायद इसलिए ही ट्रंप विपक्ष के लोगों को उनके आलस को लेकर हमला करते हैं.
इन लेखकों में से कोई भी नहीं कहता है कि कैमरों के बंद होने के बाद ट्रंप के व्यवहार में कोई बदलाव आता है. सिम्स कहते हैं, “उनका कोई प्राइवेट वर्ज़न नहीं है.”
लेकिन कुछ कहानियां हैं जो बताती हैं कि उनका भी एक दूसरा पहलू है, जैसे कि चुनाव कि रात जब उनके जीतने की ख़बर आई तो वह शांत हो गए थे. कुछ लेखकों ने उनके उन फ़ोन कॉल्स का ज़िक्र किया है, जब वो किसी क़रीबी की मौत के बाद संवेदना प्रकट करते थे, अपने परिवार और सेना के लोगों से लगाव की बातें भी सामने आई हैं.
सैंडर्स बताती हैं कि ट्रंप क्रिसमस के दौरान इराक़ में एक सेना के जवान से मिले तब “सेना के अधिकारी ने बताया कि उसने ट्रंप के कारण फिर से सेना ज्वाइन की.”
उसके जवाब में ट्रंप ने कहा, “और मैं यहां आपकी वजह से हूं.”

…जो बुरा था
इसको इस तरीक़े से कहा जाना चाहिए कि सिर्फ़ स्पाइसर ही ट्रंप को यूनिक़ॉर्न की तरह बताते हैं. ओमारोसा के मुताबिक़, “ट्रंप में संवेदना बिल्कुल नहीं है, इसके पीछे उनकी आत्ममुगधता है. मैकेब उन्हें “सबसे अच्छा झूठ बोलने” वाला बताते हैं.
बॉलटन की किताब को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है क्योंकि ट्रंप सरकार पर लिखने वालों में उनकी सरकार के वो सबसे वरिष्ठ अधिकारी हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर उन्हें कई महत्वपूर्ण मामलों पर अपनी बात रखने का मौक़ा मिला.
अपनी किताब में वो लिखते हैं कि ट्रंप ने दोबारा चुनाव जीतने के लिए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को मदद के लिए कहा. उन्होंने चीन से कहा कि वो अमरीका के मुख्य राज्यों से कृषि उत्पाद ख़रीदें.
बॉलटन अपनी किताब में ये भी लिखते हैं कि ट्रंप, “देश के हित और अपने हित के बीच फ़र्क नहीं कर पा रहे थे.”
कई ऐसे उदाहरण हैं जब ट्रंप किसी चुने हुए नेता नहीं बल्कि तानाशाह से मिलती जुलती हरकतें करने के क़रीब आ गए.
बॉलटन कहते हैं कि “अपनी पसंद के तानाशाहों को निजी फ़ायदा” पहुंचाने की उनकी आदत है और वो उनसे बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं.
उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन की लिखी एक चिट्ठी का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं, “ऐसा लग रहा था कि उसे किसी ऐसे व्यक्ति ने लिखा है जिसे पता है कि कैसे ट्रंप के आत्मविश्वास बढ़ाने वाली नब्ज़ पकड़नी है.” एक समिट में ट्रंप रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ अकेले रहना नहीं चाहते थे.
सिम्स के मुताबिक़, “ट्रंप के लिए हर चीज़ उनके निजी महत्व की है. "वैश्विक मुद्दों पर उन्हें लगता है कि दूसरे देशों के नेताओं के साथ उनके निजी संबंध साझा हितों और भूराजनीतिक मसलों से ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं.” सिम्स कहते हैं कि ट्रंप “अभूतपूर्व योग्यता और आश्चर्यजनक कमियों” वाले व्यक्ति हैं.
‘कोई नहीं चाहता मैं यह बटन दबाऊं’
ट्रंप पर लिखी हर किताब में उनसे जुड़े कुछ किस्से हैं, जैसे कि ओमारोसा लिखती हैं कि ट्रंप ने पूछा था क्या वो उनकी किताब द आर्ट ऑफ़ डील पर शपथ लें – “वो चाहते थे कि मैं विश्वास करूं कि वो मज़ाक कर रहे हैं.”
सैंडर्स लिखती हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति ने उत्तर कोरिया के किम जोंग उन को अपने मुंह को स्वस्थ रखने के नुस्ख़े बताए.
“जब लंच शुरू होने वाला था तो राष्ट्रपति ने किम को मिंट ऑफ़र किया. ‘टिक टैक?’ किम हैरान थे और शायद चिंतित भी कि कहीं यह उन्हें ज़हर देने की कोशिश तो नहीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दें. राष्ट्रपति ने फिर हवा में सांस छोड़ते हुए उन्हें दिलासा दिया कि वो सिर्फ़ एक मिंट था”
लेकिन एक क़िस्सा इन सबसे अच्छा है, जो सिम्स ने लिखा है. उनका कहना है कि राष्ट्रपति के ओवल ऑफ़िस में एक छोटा लकड़ी का बॉक्स रखा होता है जिस पर एक लाल बटन है. ट्रंप अगर किसी को उसे देखते हुए देख लेते हैं तो उसे उठा कर अपने से दूर रखते हुए कहते, “इसकी चिंता मत करो, कोई नहीं चाहता कि मैं इस बटन को दबाऊं.”
“गेस्ट नर्वस हुए हंसते और बातचीत आगे बढ़ती. कुछ मिनटों के बाद ट्रंप अचानक उस बॉक्स को अपने पास लाते हैं और बातचीत के बीच वो बटन दबा देते हैं. वहां मौजूद लोगों को कुछ समझ नहीं आता, वो एक दूसरे को देखने लगते हैं. कुछ ही देर के बाद रुम में एक व्यक्ति एक ग्लास में डाइट कोक लेकर आता है. ट्रंप ज़ोर से हँसने लगते हैं.”
फैशन और कल्चर
ट्रंप ज़्यादातर तस्वीरों में एक लंबी टाई के साथ नज़र आते हैं जो कि उनकी कमर तक होती है. क्रिस्टी के मुताबिक ट्रंप को लगता है कि इससे वो पतले दिखते हैं.
जहां तक उनके अजीब बालों की बात है तो सिम्स कहते हैं कि वो हमेशा अपने पॉकिट में एक हेयर स्प्रे रखते हैं.
ओमारोसा के मुताबिक़ राष्ट्रपति के घर में एक टैनिंग बेड भी है.
दूसरी किताबों के मुताबिक़ ‘गन्स एंड रोज़ेज’ उन्हें “अब तक का सबसे अच्छा म्यूज़िक वीडियो” लगता है और वो एल्टन जॉन की रॉकेट मैन की सीडी उत्तर कोरिया के नेता किम को भेजना चाहते थे.
दस्तावेज़ों और अख़बारों के अलावा उनके किताबें पढ़ने के बारे में ज़्यादा ज़िक्र नहीं है. स्कारामुच ने हालांकि ‘ऑल क्वायट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट' को उनकी पसंदीदा किताब बताया है. ल्यूवनडाउस्की और बॉसी के मुताबिक़ स्विस साइकोलॉजिस्ट कार्ल जंग की आत्मकथा उन्हें बहुत पसंद है.
हमने क्यों काम किया?
वो लोग जो ट्रंप के साथ काम करते थे लेकिन बाद में उनके ख़िलाफ़ हो गए, वो उनके साथ क्यों थे?
ओमारोसा कहती हैं कि ये उनके लिए वफ़ादारी की बात थी. कई तरह की आलोचनाओं के बावजूद एक कम विविधता वाली सरकार में वह एक काली महिला होते हुए काम कर रही थीं.
कुछ लोगों के लिए वफ़ादारी रिपब्लिकन पार्टी के लिए है और एक एजेंडा के लिए है, न कि सिर्फ़ राष्ट्रपति के लिए. सैंडर्स लिखती हैं कि ये कैंपेन से जुड़ने के बारे में था. सारा लिखती हैं, “ये ट्रंप और हिलेरी के बीच चुनने के बारे में थे- या तो देश को बचाएं या नर्क में जाने दें”
बॉलटन कहते हैं कि उन्हें “ख़तरे के बारे में” पता था लेकिन उन्हें लगा कि वो संभाल लेंगे.
ग़लतियां हुई हैं
ट्रंप के स्टाफ के सदस्यों की लिखी गई किताबों में दूसरे स्टाफ़ के सदस्यों पर कई तरह के हमले किए गए हैं. कुछ लोगों का कहना है कि ग़लतियां ग़लत लोगों के ग़लत ज़ॉब में होने का कारण हुईं.
बॉलटन जब व्हाइट हाउस में पहुंचे तब जॉन केली ने उन्हें कहा था कि, “काम करने के लिए यह एक ख़राब जगह है, आपको जल्द ही पता चल जाएगा.”
स्पाइसर और सैंडर्स प्रेस को ज़िम्मेदार मानते हैं. ट्रंप को “मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा कभी उनके अच्छे कामों की तारीफ़ और क्रेडिट नहीं मिला.”
इसके अलावा ट्रंप के कई अधिकारी खुलकर सामने नहीं आए. बॉलटन ने कई बार इस्तीफ़ा देने के बारे में सोचा लेकिन तब तक बने रहे जब तक "तालिबान के साथ बातचीत नहीं बिगड़ी”
कॉमी और मैकेब कहते हैं कि उन्हें इस बात का अफ़सोस है कि वो ट्रंप के सामने कभी खड़े नहीं हुए.
इस साल की वोटिंग
ये किताबें इस साल नवंबर में होने वाले चुनावों के बारे में बहुत कुछ नहीं बतातीं. इनमें से कई इस्तीफ़े की कहानी से शुरू होती हैं. इसलिए ये कहना कि ये व्हाइट हाउस के बारे में बहुत कुछ बताती हैं, सही नहीं होगा. लेकिन हां, कुछ इशारे ज़रूर करती हैं.
ट्रंप अपनी जीत को दोहराना चाहते हैं और ल्यूवनडाउस्की और बोसी की किताब ‘लेट ट्रंप बी ट्रंप’ बताती हैं कि ट्रंप बदलने वालों में से नहीं हैं और पिछली सफलताओं के देखें तो उन्हें बदलना भी नहीं चाहिए.(bbc)
मुंबई पाक अधिकृत कश्मीर है कि नहीं, यह विवाद जिसने पैदा किया, उसी को मुबारक। मुंबई के हिस्से में अक्सर यह विवाद आता रहता है। लेकिन इन विवाद माफियाओं की फिक्र न करते हुए मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित है। सवाल सिर्फ इतना है कि कौरव जब दरबार में द्रौपदी का चीरहरण कर रहे थे, उस समय सारे पांडव अपना सिर झुकाए बैठे थे। उसी तरह का दृश्य इस बार तब देखने को मिला जब मुंबई का वस्त्रहरण हो रहा था। शिवसेना प्रमुख हमेशा घोषित तौर पर कहते थे कि देश एक है और अखंड है। राष्ट्रीय एकता तो है ही लेकिन राष्ट्रीय एकता का ये तुनतुना हमेशा मुंबई-महाराष्ट्र के बारे में ही क्यों बजाया जाता है? राष्ट्रीय एकता की ये बात अन्य राज्यों के बारे में क्यों लागू नहीं होती? जो आता है, वही महाराष्ट्र को राष्ट्रीय एकता सिखाता है। जिस शाहू-फुले-आंबेडकर ने महाराष्ट्र में जन्म लिया, विषमता के खिलाफ लड़े, उन डॉ. आंबेडकर के साथ महाराष्ट्र का बहुजन समाज पूरी ताकत के साथ हमेशा खड़ा रहा, वो क्या एकता की कब्र खोदने के लिए? हमें कोई एकता न सिखाए। महाराष्ट्र में ही राष्ट्र है और महाराष्ट्र मरा तो राष्ट्र मरेगा। ऐसा हमारे सेनापति बापट ने कहा है। लेकिन विवाद खड़ा किया जाता है सिर्फ मुंबई को लेकर। इसमें एक प्रकार का राजनीतिक पेटदर्द है ही। मुंबई महाराष्ट्र की है और रहेगी। संविधान के जनक डॉ. आंबेडकर ने डंके की चोट पर ऐसा कहा है। मुंबई सहित संयुक्त महाराष्ट्र की लड़ाई में वे प्रबोधनकार ठाकरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लडऩे के लिए उतरे। लेकिन जिनका डॉ. आंबेडकर के विचारों से कौड़ी का भी लेना-देना नहीं है, ऐसे दिखावटी अनुयायी हवाई अड्डे पर महाराष्ट्र द्वेषियों का स्वागत करने के लिए नीले रंग का झंडा लेकर हंगामा करते हैं। यह तो आंबेडकर का सबसे बड़ा अपमान है। डॉ. आंबेडकर का अपमान हुआ तो भी चलेगा लेकिन महाराष्ट्र द्वेषियों के साथ कुर्सी गर्म करने को मिल जाए, बस। जब हमारे बीच ही ऐसे नमूने होते हैं तो 106 शहीदों का अपमान करने वाली विकृत शक्ति को बल मिलता है। संयुक्त महाराष्ट्र की लड़ाई में जैसे अन्नाभाऊ साठे और शाहिर अमर शेख जैसे वीर थे तो कुछ आस्तीन के सांप भी थे। लेकिन इससे मुंबई महाराष्ट्र को मिलने से रह गई क्या? लड़ाई की अग्निपरीक्षा में तपकर और निखरकर मुंबई महाराष्ट्र के हिस्से में आई। महाराष्ट्र के दुश्मनों की जय जयकार करनेवालों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए। बॉलीवुड नामक हिंदी सिनेमा जगत का ‘तंबू’ मुंबई में गड़ा और एक उद्योग के रूप में फैला।। इस सिने जगत की नींव दादासाहेब फालके नामक एक मराठी माणुस ने ही रखी थी। मुंबई के हर भाषा के कलाकार आज उस वृक्ष के मीठे फल खा रहे हैं। मुंबई के सिने जगत में और संगीत में नसीब आजमाने के लिए आनेवाले लोग पहले फुटपाथ पर रहते हैं। किसी का नसीब चमक जाने पर इसी मुंबई के जुहू, मलबार हिल और पाली हिल जैसे क्षेत्रों में महल खड़ा करते हैं। इतना तो है कि ये लोग हमेशा मुंबई-महाराष्ट्र के प्रति कृतज्ञ ही रहे। मुंबई की माटी से उन्होंने कभी बेईमानी नहीं की। दादासाहेब फालके को कभी ‘भारत रत्न’ के खिताब से सम्मानित नहीं किया गया। लेकिन उनके द्वारा बनाई गई माया नगरी के कई लोगों को ‘भारत रत्न’ ही नहीं, बल्कि ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ तक का खिताब मिला। मुंबई में कोई भी आए और अपनी प्रतिभा आजमाए। मुंबई का फिल्म उद्योग आज लाखों लोगों को रोजी-रोटी दे रहा है। फिलहाल यहां ‘जलपान गृह’ है, ऐसी टीका-टिप्पणी होती है। वैसे कभी मराठी और कभी पंजाबी लोगों की चलती ही थी। लेकिन मधुबाला, मीना कुमारी, दिलीप कुमार और संजय खान जैसे दिग्गज मुसलमान कलाकारों ने पर्दे पर अपना ‘हिंदू’ नाम ही रखा क्योंकि उस समय यहां धर्म नहीं घुसा था। कला और अभिनय के सिक्के बजाए जा रहे थे। परिवारवाद का आज वर्चस्व है ही। ऐसा उस समय भी था। कपूर, रोशन, दत्त, शांताराम जैसे खानदान से अगली पीढ़ी आगे आई है लेकिन जिन लोगों ने अच्छा काम किया, वे टिके। मुंबई ने हमेशा केवल गुणवत्ता का गौरव किया। राजेश खन्ना किसी घराने के नहीं थे। जीतेंद्र और धर्मेंद्र भी नहीं थे। लेकिन उनके बेटे-नातियों का वही घराना होगा तो उनकी उंगलियां क्यों मरोड़ें? घराना संगीत में होता है। निर्देशन में भी है। इनमें से हर किसी ने मुंबई को अपनी कर्मभूमि माना। मुंबई को बनाने और संवारने में योगदान दिया। पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया या खुद कांच के घर में रहकर दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंका। जिन्होंने फेंका उन्हें मुंबई और महाराष्ट्र का श्राप लगा। मुंबई को कम आंकना मतलब खुद-ही-खुद के लिए गड्ढा खोदने जैसा है। महाराष्ट्र संतों-महात्माओं और क्रांतिकारों की भूमि है। हिंदवी स्वराज्य के लिए, स्वतंत्रता के लिए और महाराष्ट्र के निर्माण के लिए मुंबई की भूमि यहां के भूमिपुत्रों के खून और पसीने से नहाई है। स्वाभिमान और त्याग मुंबई के तेजस्वी अलंकार हैं। औरंगजेब की कब्र संभाजीनगर में और प्रतापगढ़ में अफजल खान की कब्र सम्मानपूर्वक बनानेवाला यह विशाल हृदय वाला महाराष्ट्र है। इस विशाल हृदयवाले महाराष्ट्र के हाथ में छत्रपति शिवाजी महाराज ने भवानी तलवार दी। बालासाहेब ठाकरे ने दूसरे हाथ में स्वाभिमान की चिंगारी रखी। अगर किसी को ऐसा लग रहा होगा कि उस चिंगारी पर राख जम गई है तो वह एक बार फूंक मार कर देख ले!
अगले 20 साल में भारत के 140 करोड़ लोगों को जल संकट का सामना करना पड़ सकता है
- Lalit Maurya
हाल ही में जारी इकोलॉजिकल थ्रेट रजिस्टर 2020 के अनुसार भारत में करीब 60 करोड़ लोग आज पानी की जबरदस्त किल्लत का सामना कर रहे हैं। भविष्य में यह आंकड़ा बढ़कर 140 करोड़ पर पहुंच जाएगी, जोकि आबादी के लिहाज से दुनिया में सबसे ज्यादा है। वहीं यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो दुनिया के करीब 260 करोड़ लोग गंभीर जल संकट का सामना करने को मजबूर हैं। जबकि अगले 20 वर्षों में यह आंकड़ा बढ़कर 540 करोड़ पर पहुंच जाएगा। जिसका सबसे ज्यादा असर एशिया-पैसिफिक क्षेत्र पर पड़ेगा।
इस रिपोर्ट ने उन 19 देशों की पहचान की है जो सबसे ज्यादा पर्यावरण से जुड़े संकटों का सामना कर रहे हैं। जिसमें भारत भी शामिल है। रिपोर्ट के अनुसार 135 करोड़ की आबादी वाला भारत, पर्यावरण से जुड़े चार अलग-अलग तरह के संकटों का सामना कर रहा है। जिसमें सूखा, चक्रवात और जल संकट शामिल हैं। यदि आंकड़ों को देखें तो आज भी देश की करीब 40 फीसदी आबादी उन क्षेत्रों में रहती है जो बारिश की कमी और सूखे की समस्या से त्रस्त हैं।
2010 से 2018 के बीच पानी को लेकर 270 फीसदी झड़पें बढ़ी
पानी की यह समस्या न केवल आपसी विवादों को जन्म दे रहे हैं साथ ही इनके चलते कृषि उत्पादन और खाद्य सुरक्षा पर भी असर पड़ रहा है। जिसके परिणामस्वरूप कुपोषण की समस्या भी बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट ने इस समस्या के लिए देश की बढ़ती आबादी को भी जिम्मेवार माना है। रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक भारत और चीन दुनिया की सबसे आबादी वाले देश होंगे। जहां चीन के बारे में अनुमान है कि उसकी जनसंख्या वृद्धि की दर में कमी आ जाएगी, इसमें हर साल 0.07 की दर से कमी आ रही है। वहीं दूसरी ओर भारत में यह हर साल 0.6 फीसदी की दर से बढ़ रही है जिसका परिणामस्वरूप अनुमान है कि 2026 तक भारत की आबादी चीन से ज्यादा हो जाएगी। बढ़ती आबादी का असर संसाधनों पर भी पड़ेगा जिससे पानी जैसे अमूल्य संसाधन की भारी किल्लत पैदा हो जाएगी।
भारत को ग्लोबल पीस इंडेक्स में 139 वां स्थान दिया गया है जो दर्शाता है कि देश पहले ही तनाव की स्थिति है। जैसे-जैसे इस क्षेत्र में मौजूद पानी की उपलब्धता घट रही है उससे तनाव की स्थिति और बढ़ रही है। यही वजह है कि आने वाले वक्त में इस क्षेत्र में स्थिति बद से बदतर हो सकती है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 2010 से 2018 के बीच पानी को लेकर हुए टकरावों में करीब 270 फीसदी की वृद्धि हुई है। इसमें भी सबसे ज्यादा मामले यमन, इराक और भारत में सामने आए हैं। जहां यमन में 134 और इराक में 64 मामले सामने आए हैं वहीं भारत में भी 40 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं।
यदि पानी का सबसे ज्यादा उपभोग करने वाले देशों की बात करें तो उसमें भी भारत शामिल है। जोकि हर साल 40,000 करोड़ क्यूबिक मीटर से भी ज्यादा पानी का उपभोग कर रहा है। जबकि हाल ही में एक्वाडक्ट वाटर रिस्क एटलस में भी जल संकट का सबसे ज्यादा सामना कर रहे 17 देशों की लिस्ट में भारत को 13वां स्थान दिया है। जो देश में बढ़ते जल संकट को दर्शाता है। कुछ समय पहले जिस तरह चेन्नई में डे जीरो की स्थिति बनी थी, वो देश में इस समस्या को उजागर करती है। केवल चेन्नई ही नहीं दिल्ली सहित देश के कई अन्य शहरों में भी पानी की समस्या गंभीर रूप लेती जा रही है।
इससे निपटने के लिए देश में न केवल नवीन तकनीकी ज्ञान की जरुरत पड़ेगी बल्कि साथ ही जल समस्या से निपटने के लिए अपनी पारम्परिक विरासत और पुरखों के ज्ञान की भी मदद लेनी होगी। देश में जितना जल बरसता है वो ऐसे ही बर्बाद चला जाता है अब समय आ गया है कि जिस तरह हमारे पुरखों ने इस जल को संजोया था हम भी उसी तरह इसको संरक्षित करें। पानी की जो बर्बादी हो रही है उसे कम किया जाए । साथ ही उसके प्रबंधन से जुड़ी नीतियों में भी सुधार करने की जरुरत है। यह न केवल सरकार की जिम्मेदारी है इसमें हर किसी को अपनी भूमिका समझनी होगी। जिससे भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के लिए भी इसे बचाया जा सके।(downtoearth)
-तथागत भट्टाचार्य
अमेरिका के 31वें राष्ट्रपति हर्बर्ट क्लार्क हूवर और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच अजब समानता है। हूवर का पूरा कार्यकाल मंदी की चपेट में रहा। इसी दौरान 1929-1933 की भयानक मंदी आई, जिसने अमेरिका के समाज और अर्थव्यवस्था पर कहर बरपाया था। मोदी के कार्यकाल में भी भारतीय अर्थव्यवस्था का क्रमिक पतन देखा गया है, जो अब पूरी तरह मंदी की गिरफ्त में है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब केवल छह साल पहले दुनिया की सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक रहे किसी देश की ऐसी हालत हो गई हो। इसमें संदेह नहीं कि कोविड की मार पूरी दुनिया पर पड़ी है, लेकिन हमारे यहां स्थिति कितनी खतरनाक है, इसका अंदाजा हाल ही में आए आंकड़ों से लग जाता है। इसमें शक नहीं कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के मैराथन उपाय करने होंगे, अब सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि सरकार क्या करती है।
वापस हूवर और मोदी पर आते हैं। डराने वाली बात तो यह है कि इन दोनों की समानता यहीं खत्म नहीं होती। जिस तरह हूवर वास्तविकता को स्वीकार करने से इनकार करते रहे, वैसा ही हाल मोदी का है। हूवर के वित्तमंत्री एंड्रयू मेलन ने सितंबर, 1929 में कहा था, “चिंता का कोई कारण नहीं है। समृद्धि का यह सिलसिला जारी रहेगा।” हूवर शासन के तमाम ओहदेदार इसी तरह की बातें करते रहे। इस दौड़ में सबसे आगे खुद हूवर रहे जिन्होंने मई, 1930 में कहा था, “अर्थव्यवस्था को नीचे आए अभी छह माह हुए हैं और मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि हम सबसे बुरे वक्त से निकल चुके हैं और एक साथ कोशिश करके हम तेजी से स्थिति पर काबू पा सकेंगे।”
उस महामंदी के दौर के तथ्यों और घटनाओं पर गौर करना दिलचस्प है क्योंकि निर्मला सीतारमण, अनुराग ठाकुर -जैसे मोदी सरकार के मंत्रियों से लेकर सरकार की हां में हां मिलाने वाले उद्योगपति जो कुछ भी कह रहे हैं, वह महामंदी के उसी दौर की याद दिला रहा है। ऐसे समय में जब 2020 की पहली तिमाही -अप्रैल से जून- की जीडीपी में 23.9 फीसद की गिरावट आई है और यह अर्थव्यवस्था में 40 प्रतिशत से अधिक के कुल संकुचन की ओर इशारा कर रहा है। फिर भी, सरकार है कि वास्तविकता को मानने को तैयार नहीं। करोड़ों लोगों का रोजगार छिन गया है और उनके परिवारों के पास बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का भी साधन नहीं।
जेएनयू के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग (सीईएसपी) के सहायक प्रोफेसर सुरजीत दास कहते हैं, “यह मानते हुए कि अगली दो तिमाहियों के दौरान विकास दर नकारात्मक रहेगी और अंतिम तिमाही में यह सुधरकर शून्य के स्तर पर आएगी, मुझे लगता है कि वार्षिक आधार पर अर्थव्यवस्था में कम-से-कम 20 फीसदी की कमी रहेगी। फिलहाल लगभग तीन करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं और 2020-21 वित्तीय वर्ष के अंत तक कम-से-कम 20 फीसदी कार्यबल, यानी लगभग 9 करोड़ और लोग बेरोजगारों में शामिल हो जाएंगे।”
जेएनयू प्रोफेसर सुरजीत दास ने आगे कहा, “साफ है, यह समय राजकोषीय रूढ़िवाद का नहीं है। जब तक ग्रामीण और शहरी गरीबों के हाथ में पैसा नहीं डाला जाता, मांग नहीं बढ़ेगी। अभी सरकार को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से उधार लेकर उसे अर्थव्यवस्था में डालना चाहिए।”
केंद्र के पास ऐसा नहीं करने का कोई तर्क नहीं है। राजकोषीय घाटे का लक्ष्य पहले ही पूरा नहीं किया जा सका है और जब मांग में जबर्दस्त मंदी की स्थिति हो तो ऐसे में आरबीआई से पैसे उधार लेने से मुद्रास्फीति पर भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। आरबीआई के पास जीडीपी के 18 प्रतिशत के बराबर विदेशी मुद्रा भंडार है। उसमें से कम-से-कम आठ प्रतिशत तो अर्थव्यवस्था में डाला ही जा सकता है जो मांग को बढ़ाने में मदद करेगा और इससे निवेश बढ़ेगा, रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। इसके अलावा अगर भारत की शीर्ष दस कंपनियों की बैलेंस शीट पर नजर डालें तो पता चलता है कि उन्होंने लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का भंडार बना रखा है। इसके एक हिस्से को बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में लगाकर अर्थव्यवस्था को गति देने की कोशिश की जा सकती है।
जाने-माने अर्थशास्त्री अरुण कुमार का मानना है कि आगे के लिए ऐसी व्यवस्था बेहतर होगी जिसमें नकदी का सीधे हस्तांतरण हो और लोगों को उनके घर तक अनाज और अन्य बुनियादी जरूरत की चीजें मुहैया कराई जाएं। वह कहते हैं, “चूंकि कीमतें बढ़ रही हैं और लोगों ने रोजगार खो दिए हैं, चिल्लर हस्तांतरण से काम नहीं चलने वाला। लॉकडाउन के शुरू में नौकरशाही और सरकारी मशीनरी को सक्रिय किया जाना चाहिए था। परिवहन विभाग की बसों से लोगों तक अनाज और अन्य जरूरी सामान पहुंचाए जाने चाहिए थे।”
जेएनयू के सीईएसपी में एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु कहते हैं, “मनरेगा का विस्तार समय की जरूरत है। इसके तहत मजदूरी को भी बढ़ाकर दोगुना किया जाना चाहिए, नहीं तो यह असंगठित क्षेत्र में बेरोजगार हुए लोगों को रोजगार देने में मददगार नहीं हो सकेगा।” सुरजीत दास भी मनरेगा के विस्तार के पक्ष में हैं। वह कहते हैं, “50 करोड़ से अधिक भारतीय अब शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। आय हानि के मुआवजे के लिए मांग को बढ़ाना होगा। इसका मतलब है कि हर जन-धन खाते में हर माह 7,000-8,000 रुपये आएं, ना कि 500-1000 रुपये।’’
इसके साथ ही, ग्रामीण और शहरी गरीबों को प्रतिदिन 350 रुपये और 450 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से भुगतान किया जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी सरकार की दिक्कत यह है कि कोविड-19 से पहले ही उसकी नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया था, बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि पतन शुरू हो गया था और सरकार ने हालात को सुधारने के गंभीर प्रयास नहीं किए। बाद में, जब कोरोना का संकट छाया तो जहां दुनिया के तमाम देशों ने अपने जीडीपी के 10-20 फीसदी के बराबर प्रोत्साहन पैकेज दिए, मोदी सरकार ने महज 63,000 करोड़ रुपये यानी जीडीपी का केवल एक प्रतिशत निकाला।
कॉर्पोरेट्स को छूट और कर राहत से हालात नहीं सुधर सकते। कम दरों पर ऋण की सुविधा का इस्तेमाल कॉरपोरेट अपनी महंगी पुरानी देनदारियों को चुकाने में करते हैं और अर्थव्यवस्था की स्थिति वैसी ही रहती है। इस स्थिति का नुकसान दूसरी तरह से होता है। उपभोक्ता मांग गिरती है, तो उत्पादन स्तर अपने आप नीचे आ जाता है और जब उत्पादन कम हो जाता है तो लोगों का रोजगार जाता है।
चूंकि कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में राज्य सबसे आगे रहे हैं और स्वास्थ्य और शिक्षा- जैसे सामाजिक क्षेत्र राज्यों की जिम्मेदारी हैं, केंद्र को चाहिए कि वह राज्यों को उनके बकाये का भुगतान जल्द से जल्द करे। आरबीआई से उधार लेकर अर्थव्यवस्था में डालने से नई पूंजी का मार्ग प्रशस्त होगा। केंद्र ने राज्यों से कहा है कि वह चालू वित्त वर्ष के लिए उनके जीएसटी बकाये के भुगतान की स्थिति में नहीं है, जबकि केंद्र सरकार तो जीएसटी का बकाया देने को बाध्य है। अर्थव्यवस्था के सुस्त पड़ने के साथ ही जीएसटी संग्रह और गिरने जा रहा है। नौकरियों और रोजगार में कमी होने से आयकर और अन्य अप्रत्यक्ष कर संग्रह में भी काफी कमी आएगी। सरकार को यह समझते हुए अर्थव्यवस्था में धन डालना चाहिए।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच लगभग 1.9 करोड़ वतेनभोगी लोगों की नौकरी चली गई। ऐसे में असंगठित क्षेत्र की स्थिति की सहज ही कल्पना की जा सकती है। जरूरत है कि चार-पांच वर्षों के नियोजित व्यय को अगले दो वर्षों में खर्च करें। सार्वजनिक निवेश को बढ़ाकर और आरबीआई से अल्पकालिक उधार लेकर अर्थव्यवस्था को दो साल के भीतर पटरी पर लाया जा सकता है। इसके लिए ठोस योजना होनी चाहिए। हमें मांग को बढ़ाना होगा, बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश करना होगा। मोदी सरकार को समझना चाहिए कि यह समय राजकोषीय रूढ़िवाद का नहीं है। दास कहते हैं, “क्रेडिट रेटिंग अब मायने नहीं रखती। जीवन और आजीविका अहम हैं।”(NAVJIVAN)
कोरोना वायरस जैसी महामारी के आने के बाद से दुनिया के लगभग सभी हिस्सों में स्कूल-कॉलेज बंद हैं. बीते छह महीने से भारत सहित सभी देशों में बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाई करवाई जा रही है. देखा जाए तो इस समय शिक्षा के मामले में बच्चे पूरी तरह से इंटरनेट पर निर्भर हैं. स्कूलों के अलावा बच्चे ट्यूशन बगैरह भी ऑनलाइन ही कर रहे हैं. कई कोचिंग सेंटर्स ने इस बीच अपने एप भी लॉन्च किये हैं, जिनसे घर बैठे पढ़ाई की जा सकती है. लेकिन बीते करीब छह महीनों के दौरान इंटरनेट पर ऐसे कोचिंग संस्थानों के ऐड भी छाए हुए हैं, जो पांच-छह साल के बच्चे को कोडिंग या प्रोग्रामिंग सिखाने की बात करते हैं. इनका दावा है कि ये बच्चों को कुछ ही समय में (तक़रीबन एक महीने के अंदर) ऐप और गेम बनाना सिखा देंगे. ऐसे कुछ संस्थानों ने कुछ स्कूलों के साथ भी अनुबंध किया है, जिसके बाद उनमें से कई स्कूल बच्चों के माता-पिताओं पर ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस का दबाव बना रहे हैं. पांच से छह साल की उम्र के बच्चों को कोडिंग सिखाने की बात सुनकर शायद ही कोई ऐसा हो जिसके दिमाग में कुछ सवाल न उठ रहे हों: क्या इतने छोटे बच्चों को कोडिंग सिखाई जा सकती है? ये संस्थान इन बच्चों को किस तरह से कोडिंग सिखाते हैं? और सबसे अहम सवाल यह कि इतनी छोटी सी उम्र के बच्चों को कोडिंग सिखाना कितना सही है?
बच्चों को कोडिंग की क्लॉस में क्या सिखाते हैं?
ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस में बच्चों को क्या सिखाया जाता है यह जानने के लिए सत्याग्रह ने कुछ ऐसे अभिभावकों से बात की, जिनके बच्चों ने ऑनलाइन कोडिंग सीखी है. नॉएडा के वरिंदर सैनी ने पिछले दिनों अपनी छह साल की बेटी को एक चर्चित संस्थान में ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस ज्वाइन करवाई थी. वे सत्याग्रह से अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘हमने अपनी बच्ची को करीब छह क्लॉस करवाई थीं. वो कुछ इस तरह की चीजें सिखाते थे कि एक चेस बोर्ड है, उस पर एक खरगोश है, दूर कहीं एक गाजर रखी है, अब आपको सबसे छोटे रास्ते से खरगोश को गाजर तक पहुंचाना है, इस रास्ते में कुछ मोड़ होंगे, आपको लेफ्ट, राइट और आगे बढ़ने की कमांड से (बटन दबाकर) खरगोश को गाजर तक पहुंचाना है. लगभग इसी तरह की चीजें वे मेरी बेटी को सिखाते थे.’
यह पूछने पर कि क्या आप इससे संतुष्ट थे और क्या आपकी उम्मीद के मुताबिक बच्चे को कोडिंग सिखाई जा रही थी. वरिंदर सैनी कहते हैं, ‘ये लोग (कोडिंग सिखाने वाले) अपने ऐड में दावा करते हैं कि बच्चे को कुछ ही दिनों में इतनी कोडिंग सिखा देंगे कि वो ऐप बनाना सीख जाएगा, ऐसा तो कुछ भी नहीं होता. जिस तरह का ये प्रचार करते हैं, वैसा तो कुछ भी नहीं होता... (जो उन्होंने सिखाया उसमें) कोडिंग जैसा तो कुछ भी नहीं था. वे लोग जो सिखाते हैं वो तो एक तरह से एल्गोरिथम (किसी काम को पूरा करने का क्रमबद्ध तरीका) सिखाना है.’ एक बहुराष्ट्रीय सॉफ्टवेयर निर्माता कंपनी में कार्यरत वरिंदर का मानना है कि ये संस्थान जो सिखा रहे हैं, वह बच्चे को सिखाया तो जाना चाहिए, लेकिन इसके लिए कोई विशेष ऑनलाइन कोर्स करवाने की जरूरत नहीं है क्योंकि ये सब तो यूट्यूब और तमाम फ्री एप के जरिये भी सिखाया जा सकता है.
वरिंदर ऑनलाइन कोडिंग संस्थानों के मार्केटिंग के तरीके से खासे नाराज दिखे. वे कहते हैं, ‘मुझे इन लोगों के ऐड का तरीका बिलकुल सही नहीं लगता है, ये अभिभावकों में हीन भावना भरते हैं कि आपका बच्चा कोडिंग नहीं करेगा तो पिछड़ जायेगा. यहां तो एक भेड़ चाल है, लोग इनकी बात सुनकर और देखकर दौड़ पड़ते हैं... यह तरीका सही नहीं है. ये लोग बिल गेट्स, सुंदर पिचाई और स्टीव जॉब्स का फोटो लगाकर लोगों को बेवकूफ बनाते हैं, जबकि ऐसे कई लोगों ने कभी कोडिंग ही नहीं की.’
ग्रेटर नॉएडा में रहने वाली ज्योत्सना श्रीवास्तव ने भी अपने आठ साल के बेटे को एक नामी संस्थान में ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस ज्वाइन करवाई. सत्याग्रह से बातचीत में वे बताती हैं, ‘इस क्लॉस में विशेष तरह का कुछ नहीं था. उनके पास कुछ रेडीमेड कोड ब्लॉक्स बने थे, इन ब्लॉक्स को बच्चे को इस तरह से व्यवस्थित करना था कि किसी ऐप का फंक्शन सही ढंग से काम करने लगे, या कुछ कोड ब्लॉक्स को इस तरह सेट करना होता था कि कोई शब्द बन जाए या किसी तस्वीर का बैकग्राउंड कलर चेंज हो जाए’
ज्योत्सना और साधारण तरीके से समझाते हुए कहती हैं, ‘ये लगभग वैसा ही था जैसे बच्चों के लिए बनाए गए वीडियो गेम्स में होता है - किसी गेम में अल्फाबेट को इस तरह व्यवस्थित करना पड़ता है कि उनसे कोई अर्थ पूर्ण शब्द बन जाए... कुछ गेम्स ऐसे होते हैं जिनमें टास्क दिया जाता है कि आपके पास चार लकड़ी हैं, अब उन्हें इस तरह से जमाओ कि कोई व्यक्ति उनके जरिये एक नदी को पार कर ले.’
छोटे बच्चों को ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस में किस तरह से कोडिंग सिखाई जाती है, इसे लेकर मुंबई के सरफराज अहमद ने भी अपना अनुभव सत्याग्रह से साझा किया. ‘मेरा बेटा सातवीं क्लॉस में है. अन्य लोगों की तरह ही मैं भी ऐड देखकर एक चर्चित कोडिंग संस्थान की ओर आकर्षित हुआ, मैंने पहले बच्चे को एक ट्रायल क्लॉस करवाई, जो पूरी तरह मुफ्त थी. इस क्लॉस के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि आपका का बच्चा बहुत ज्यादा बुद्धिमान है और वह कोडिंग के लिए एकदम परफेक्ट है... मुझे पता था कि मेरा बच्चा पढ़ने में होशियार है इसलिए मैं और खुश हो गया और मैंने आगे की क्लॉस के लिए मन बना लिया.’
सरफ़राज़ अहमद सॉफ्टवेयर निर्माण का ही काम करते हैं और कोडिंग से उनका पुराना नाता है, उन्हें आईटी सेक्टर में करीब 17 सालों का लंबा अनुभव हो चुका है. कोडिंग की जानकारी होने के चलते ही उन्होंने कोडिंग ट्रेनर से कोर्स और पढ़ाने के तरीके को लेकर बेहद बारीकी से बातचीत की. वे कहते हैं, ‘ट्रेनर ने मुझे बताया कि उनका कोर्स (पाठ्यक्रम) बहुत विस्तृत है और नामी विशेषज्ञों द्वारा बनाया गया है. लेकिन उन्होंने मेरे बेटे के लिए जो पाठ्यक्रम दिया था, उसमें कोडिंग से जुडी काफी ऐसी चीजें थीं जिन्हें देखकर मुझे लगा कि एक सातवीं क्लॉस का बच्चा जिसने अभी-अभी गणित में एल्जेब्रा पढ़नी शुरू की है, वह इस तरह की कोडिंग कैसे करेगा? इसलिए, मैंने उनसे पूछा कि आप कोर्स में दी गयी चीजें बच्चे को कैसे सिखाओगे? क्या बच्चा सच में जावा (प्रोग्रामिंग लैंग्वेज) में कोडिंग करेगा?’
सरफ़राज़ के मुताबिक काफी पूछने पर ट्रेनर ने उन्हें जो बताया उसके बाद वे यह समझ गए कि माजरा क्या है. ‘मैं समझ गया कि इन्होंने रेडीमेड कोडिंग तैयार कर रखी है और ये बच्चे को केवल यह सिखाएंगे कि पूरी रेडीमेड कोडिंग में उसका कौन-सा हिस्सा (ब्लॉक) कहां फिट करना है जिससे ऐप या गेम डेवलप हो जाए... यह तो कुछ ऐसा हुआ कि आप किसी पहली कक्षा के बच्चे को कोई लंबा-चौड़ा संस्कृत का श्लोक रटवा दीजिये जबकि उस बच्चे को संस्कृत का बिलकुल ज्ञान न हो. आप ही बताइये इससे क्या फायदा होने वाला है’ सरफ़राज़ अहमद कहते हैं.
इस तरह के कोर्स को लेकर आईटी विशेषज्ञों का क्या कहना है?
छोटे बच्चों की कोडिंग क्लॉस को लेकर कुछ अभिभावकों द्वारा साझा किए गए अनुभव के बारे में सत्याग्रह ने आईटी सेक्टर के कुछ विशेषज्ञों से बात की. इन लोगों का साफ़ तौर पर कहना था कि किसी पांच या छह या फिर आठ साल के बच्चे को प्रोग्रामिंग सिखाना संभव ही नहीं है. और जो लोग इस तरह का दावा कर रहे हैं वे सिर्फ अपने व्यवसाय के लिए लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं. एक बहुराष्ट्रीय आईटी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत आकाश पाण्डेय सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘देखिये, प्रोग्रामिंग या कोडिंग हमेशा ही एक प्रॉब्लम सॉल्विंग तकनीक (समस्या को हल करने का तरीका) होती है. यानी आपको कोई समस्या बतायी गई तो आपको उसका सबसे बेहतर समाधान निकाल कर देना है. इसके लिए कम से कम बेसिक मैथ (गणित) और थोड़ी बहुत फिजिक्स की जानकारी भी होना जरूरी है. आप अगर कोई ऐप या गेम बनाते हो तो उसमें गणित का इस्तेमाल तो होना ही है. लेकिन पांच से छह साल के बच्चे को मैथ और फिजिक्स का बेसिक ज्ञान तो छोड़िए उसे जोड़, घटाना, गुणा और भाग के लिए खासी माथापच्ची करनी पड़ेगी. ऐसे में वह प्रोग्रामिंग कैसे सीखेगा.’
हालांकि, आकाश ऑनलाइन कोडिंग संस्थानों के कोर्स (पाठ्यक्रम) को लेकर एक और बात भी कहते हैं. ‘सही कहूं तो बच्चों के हिसाब से ऐसा ही पाठ्यक्रम हो सकता है क्योंकि आप उन्हें सीधे प्रोग्रामिंग नहीं सिखा सकते. कोडिंग की दुनिया में कदम रखने पर बच्चों को सबसे पहले ‘प्रॉब्लम सॉल्विंग’ जैसी चीजें ही सिखाई जा सकती हैं. लेकिन इसके लिए बच्चे को किसी नामी संस्थान में विशेष कोडिंग क्लॉस ज्वॉइन करवाने की जरूरत नहीं है, यह सब तो इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध है.’ आकाश पाण्डेय के मुताबिक, ‘एमआईटी (मैसाचुसेट्स इन्स्टिट्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी) का स्क्रैच सॉफ्टवेयर बच्चों के मामले में सबसे बेहतर विकल्प है, यह मुफ्त है और इसमें रेडीमेड कोडिंग ब्लॉक्स के जरिये ही बच्चों को प्रॉब्लम सॉल्व करना सिखाया जाता है. एक बच्चा यूट्यूब पर स्क्रैच के वीडियो देखकर इसके बारे में सबकुछ खुद ही सीख सकता है.’ हालांकि, आकाश का मानना है कि स्क्रैच के लिए भी बच्चे की उम्र कम से कम दस या बारह साल तो होनी ही चाहिए.’
सत्याग्रह से बातचीत में आकाश पाण्डेय की तरह कुछ अन्य विशेषज्ञ भी यह मानने को तैयार नहीं थे कि पांच से छह साल के बच्चे को कोडिंग सिखाई जा सकती है. दिल्ली के अनमोल वर्मा एक बहुराष्ट्रीय आईटी कंपनी में कार्यरत हैं और बीते दस सालों से कोर प्रोग्रामिंग कर रहे हैं. अनमोल सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘मैं काफी समय से कोर प्रोग्रामिंग ही कर रहा हूं और यह इतना भी आसान काम नहीं है कि आप पांच या दस साल के बच्चे को सिखा देंगे. पाठ्यक्रम कितना भी अच्छा क्यों ना हो, लेकिन आप इससे पांच या आठ साल के बच्चे को कोडर नहीं बना सकते हो, यह तो संभव नहीं है. हां, यह जरूर हो सकता है कि रेडीमेड कोड में ब्लॉक्स इधर-उधर सेट करवाकर आप बच्चे से ऐप या गेम बनवा दो. लेकिन इससे बच्चा प्रोग्रामर नहीं हो जाता... साफ़ कहूं तो इन संस्थानों ने माता-पिता की साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) पर बहुत रिसर्च किया है, जिससे वे उन्हें अपने जाल में फांस लेते हैं.’ कुछ संस्थान कोडिंग की बात करते हुए यह दलील देते हैं कि इससे बच्चे का मानसिक विकास होगा, उसके अंदर लॉजिक डेवलप होंगे, वह किसी समस्या का समाधान जल्द निकालना सीख जाएगा. इस पर अनमोल कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता इन सबके लिए बच्चे को विशेष कोडिंग क्लॉस करवानी चाहिए, ये खूबियां तो तमाम वीडियो गेम्स खेलकर और पज़ल सॉल्व करके बच्चों में डेवलप हो जाती हैं.’
क्या पांच-छह साल के बच्चों को कोडिंग सिखाना सही है?
बच्चों को कोडिंग सिखाने को लेकर दुनिया भर के शिक्षाविद कई बार अपनी राय सार्वजनिक रूप से साझा कर चुके हैं. इनमें अधिकांश का मानना है कि बच्चों को कोडिंग नहीं सिखाई जानी चाहिए. इनके मुताबिक पांच या आठ साल के बच्चों की उम्र को देखते हुए यह उनके लिए एक गैरजरूरी चीज है जिसका बोझ उनके दिमाग पर डालना सही नहीं है.
अमेरिका में बाल विकास और टीचर्स ट्रेनिंग के विशेषज्ञ जॉनी कास्त्रो का मानना है कि बच्चों पर 15 या 16 साल की उम्र से पहले कोडिंग सीखने का दबाव नहीं बनाना चाहिए. एक साक्षात्कार में कास्त्रो कहते हैं, ‘बच्चों को आप बचपन के मजे लेने दीजिये, यह उम्र उनके दिमाग पर बोझ बढ़ाने की नहीं है. उन्हें केवल गणित, विज्ञान, अग्रेजी ही सीखने दीजिये, उन्हें खेल के मैदान में छोड़ दीजिए, लोगों की बातें सुनने दीजिए, नैतिक शिक्षा पढ़ाइये... ये सभी चीजें पांच-दस साल के बच्चे के लिए सबसे ज्यादा जरूरी हैं क्योंकि इनसे ही उसका संपूर्ण विकास होगा न कि कोडिंग से.’
कास्त्रो का यह भी मानना है कि अगर किसी बच्चे को कोडिंग में विशेष दिलचस्पी है, तो भी उसे पहले बेसिक स्कूल पाठ्यक्रम जैसे - गणित, इंग्लिश, विज्ञान ही पढ़ने देना चाहिए. उनके मुताबिक किसी बच्चे को कोडिंग में एक्सपर्ट बनाने से पहले उसे बेसिक शिक्षा का पूरा ज्ञान होना चाहिए.
मुंबई के सरफराज अहमद ने सत्याग्रह से बातचीत के दौरान अपने जीवन की एक घटना भी साझा की थी, जिससे यह समझा जा सकता है कि बारहवीं कक्षा तक किसी बच्चे का पूरा ध्यान बेसिक स्कूल पाठ्यक्रम पर होना क्यों जरूरी है. सरफराज कहते हैं, ‘करीब 20 साल पहले मेरे एक दोस्त ने मुझे अपने छोटे भाई से मिलवाया था, जो तब आठवीं कक्षा में था लेकिन जबरदस्त कोडिंग करता था. उस समय उस बच्चे ने मीडिया प्लेयर बना लिया था. ऐसा लगता था कि उस बच्चे के अंदर कोडिंग का हुनर ‘गॉड गिफ्टेड’ है. मैं उससे काफी प्रभावित हुआ. लेकिन, वह आठवीं क्लॉस का बच्चा कोडिंग में इतना मशगूल हो गया था कि उसका अपनी स्कूल की पढ़ाई से ध्यान हट गया था. नतीजा यह हुआ कि वह नौवीं कक्षा में कई विषयों में फेल हो गया. इसके बाद घर वालों ने उसकी कोडिंग छुड़वाई और बारहवीं कक्षा तक केवल गणित, विज्ञान और अंग्रेजी पर ध्यान देने को कहा.’ सरफराज कहते हैं कि उस बच्चे को भी तब यह समझ आ गया था कि अगर वह दसवीं और बारहवीं पास नहीं कर पाया तो उसे कोडिंग का शायद ही कोई फायदा मिले.
अमेरिका के राष्ट्रीय साइबर वॉच सेंटर में पाठ्यक्रम निर्धारण विभाग की निदेशक मार्गरेट लेरी प्रोग्रामिंग और तकनीक के मामले में एक बेहद रोचक तथ्य बताती है. इससे भी यह समझा जा सकता है कि क्यों बच्चों को प्रोग्रामिंग सिखाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. एक समाचार पत्र से बातचीत में वे कहती हैं, ‘कई अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि हर तकनीक अगले दो साल में 60 फीसदी तक पुरानी हो जाती है क्योंकि बहुत जल्द नयी तकनीक बाजार में आ जाती है.’ उनके मुताबिक ऐसे में कम उम्र में किसी बच्चे को सिखाई गई कोई प्रोग्रामिंग लैंग्वेज दस या पंद्रह साल बाद उसे आईटी सेक्टर में नौकरी दिलवाने में मदद करगी इसकी संभावना न के बराबर ही है.
क्या कोडिंग देर से सीखने पर आपका बच्चा औरों से पिछड़ जाएगा?
सत्याग्रह ने वरिंदर सैनी के अलावा और भी कई अभिभावकों से ऑनलाइन कोडिंग संस्थानों को लेकर बातचीत की तो उन्होंने भी यही कहा कि इन संस्थानों की मार्केटिंग टीम के सदस्य अभिभावकों के अंदर हीन भावना भरने की पूरी कोशिश करते हैं. ये अभिभावकों से कहते हैं कि आज दुनिया भर में हर कोई अपने बच्चे को कोडिंग सिखा रहा है और अगर आप अपने बच्चे को नहीं सिखाओगे तो वह इस प्रतिस्पर्धी दौड़ में औरों से पिछड़ जाएगा.
बच्चों की तकनीक से जुडी शिक्षा पर कई किताबें लिख चुके अमेरिकी लेखक डॉ जिम टेलर भी मानते हैं कि अभिभावकों में यह डर रहता है कि उनका बच्चा दूसरे बच्चों से पिछड़ न जाए और इसलिए वे उन्हें कम उम्र में ही कोडिंग क्लॉस में भेजने लगते हैं. एक साक्षात्कार में टेलर कहते हैं, ‘बच्चों के मामले में कोडिंग इतनी लोकप्रिय इसीलिए है क्योंकि माता-पिता डरते हैं कि अगर उनका बच्चा तकनीक (कोडिंग) की ट्रेन में जल्द सवार नहीं हुआ, तो फिर वह कभी भी वह ट्रेन नहीं पकड़ पायेगा... लेकिन लोग यह नहीं समझते कि कम उम्र में कोडिंग सीखना सफलता की कुंजी नहीं है. तकनीक के मामले में जो आज है, वह कल नहीं होगा. उन्हें समझना चाहिए कि आने वाले तकनीक के युग में वह बच्चा सफल होगा जिसके अंदर अपने आइडिया होंगे, रचनात्मकता होगी, नया सोचने की क्षमता होगी.’ टेलर के मुताबिक, ‘इसलिए माता-पिता को बच्चों के सम्पूर्ण विकास पर ध्यान देना चाहिए, उन्हें गहरी सांस लेनी चाहिए और बच्चों को अच्छे माहौल में चीजों को परखने देना चाहिये.’
क्या कोडिंग देर से सीखने पर कोई बच्चा औरों से पिछड़ जाएगा? इस सवाल पर दिल्ली स्थित एक आईटी कंपनी में वरिष्ठ सॉफ्टवेयर डेवलपर सुचित कपूर जोर से ठहाका लगाते हैं. वे बहुत ही प्रैक्टिकल जबाव देते हुए कहते हैं, ‘कोडिंग कोई मैथ, साइंस या इंग्लिश नहीं है, जिसे आपका बच्चा अगर कुछ महीने या साल तक नहीं सीखेगा, तो अन्य बच्चों से पिछड़ जाएगा. प्रोग्रामिंग तो एक तकनीक है, आप इसे कभी भी सीख सकते हो.’ सुचित अपना ही उदाहरण देते हुए बताते हैं कि उन्होंने एमसीए (मास्टर ऑफ़ कंप्यूटर एप्लीकेशन) की पढ़ाई की है. एमसीए में ही उन्होंने प्रोग्रामिंग सीखी, उससे पहले प्रोग्रामिंग से उनका कोई नाता नहीं था, क्योंकि उन्होंने साइंस से बीएससी करने के बाद एमसीए किया था. सुचित के मुताबिक इसके बावजूद उन्हें एमसीए के दौरान कोडिंग सीखने में कोई परेशानी नहीं हुई और एक अच्छी कंपनी में उनका प्लेसमेंट हुआ, आज वे एक कोर एंड्रायड प्रोग्रामर हैं.(SATYAGRAH)
कनुप्रिया
आप सोचते हैं कि खाली जनता की ही बेरोजगारी है? सोचिये कि गोदी मीडिया के पास रोजगार की कितनी कमी है, सुशांत सिंह राजपूत के केस की आखिरी बूँद तक निचोड़ लेने और कँगना के मुद्दे की राई को पहाड़ बना लेने के बाद अब जब उसमें राई बराबर मसाला नहीं रह गया, गोदी मीडिया बेरोजगार हो गया है।
उधर जब उनकी खबरों में भारत के सैनिक चीन को धकेल रहे थे, चीन का ठंड से पहले थर थर काँपना ही बाकी था भारत सरकार को जाने क्या हुआ अक्साई चीन जीतते जीतते रूस में समझौता कर आई, अमित शाह के दावों पर पानी फेर दिया, मोदीजी को लाल-लाल आँख दिखाने का मौका ही नहीं मिला। मगर असल मार गोदी मीडिया पर पड़ी, स्टूडियो सैट में नकली पहाड़ों पर बर्फ की वर्दी पहनकर झंडा लहराते हुए चीन के दाँत खट्टे करने वाली रिपोर्टिंग का ख्वाब-ख्वाब रह गया, महीनों का काम प्रोजेक्ट चीन हाथ से निकल गया।
अब गोदी मीडिया क्या करेगा?
यूँ मीडिया के पास देखा जाए तो काम की कमी नहीं, हैं कुछ मुद्दे जो अनवरत बने हुए हैं, जिनसे जनता त्रस्त है, भयंकर बेरोजग़ारी है, पाताल तोड़ जीडीपी है, किसान समस्याएँ हैं, भारत की कोरोना रैंकिंग और चिकित्सा व्यवस्था है, आकाश तोड़ महँगाई है, डीजल-पेट्रोल की कीमतें हैं जिस रेट पर सब्जियाँ भी मिलने लगी हैं, फिर स्कूल खुलने वाले हैं और नई शिक्षा नीति भी बहस तलब है।
यानि जो सच मे मीडिया काम करना चाहे तो न मुद्दों की कमी है न काम की, फिर भी बेचारा गोदी मीडिया हर रोज कुआँ खोदता है, खोद कर एक गैरजरूरी मुद्दा निकालता है और हफ्तों जुगाली करता है।
मोदी जी दरख्वास्त है कोई इवेंट कर लें अब ताकि गोदी मीडिया को काम मिले, हफ्ता तो निकल जाए फिर नई दिहाड़ी ढूँढेगा।
या फिर घर बैठे 5 किलो चावल और गेहूँ ही क्यों नही दे देते, जहाँ इतनों को दिया इन्हें भी दे दीजिये, कहाँ जरूरत है इन्हें भी रोजगार की, यकीन कीजिये घर बैठे इन्हें भी राशन देने अर्थव्यवस्था कुछ और नहीं बिगड़ जाएगी।
अनुपमा सक्सेना
हाँ दोनों प्रकरणो में अंतर हैं,
कंगना अपने राजनीतिक संबंधों की कीमत चुका रही हैं और रिया सुशांत के साथ अपने प्यार के संबंधों की ।
कंगना राजनीति में और राजनीतिज्ञों को चुनौती दे रही हैं, ललकार रही हंै तो प्रतिक्रियाएँ तो मिलेगी। भारतीय राजनीति में यह सब रोज देख रहे। सरकारें बदलने पर बड़े-बड़े दलों के बड़े-बड़े नेताओं के साथ क्या होता है देख लें ।
कंगना, राजनीति के मैदाने जंग में खुद उतरी हैं तो जाहिर है कि लाभ-हानि का गणित लगाकर उतरी होंगी। और लाभ अधिक दिखे होंगे इसलिए उतरी हैं। रिया इस पूरे चक्कर में समय के चक्र से अनजाने ही आ गईं। वो न चाहते हुए भी राजनीति का हिस्सा बना दी गईं। उनके हिस्से मेंअभी फिलहाल तो सिर्फ नुकसान नजर आ रहे ।
वह करनी सेना जो दीपिका पादुकोण के विरुद्ध फतवे जारी कर रही थी और जिस करनी सेना के विरोध में सुशांत ने अपने नाम से राजपूत शब्द हटा दिया था अब कंगना के समय नारीवादी बन गई। कायदे से तो सुशांत के फैन को कंगना से अपील करनी चाहिए कि वे करनी सेना का विरोध करें। सुशांत के फैन अब कंगना के फैन बना दिए जाएँगे। शायद कंगना बिहार में चुनाव प्रचार के लिए भी आमंत्रित कर ली जाएँ ।
इन सबके बीच में सुशांत के फैन का जो मुद्दा था कि सुशांत की मौत की सच्चाई पता लगाने का, वो बचेगा या नहीं ?
हाँ एक बात ज़रूर है कि इस पूरे प्रकरण में चर्चा में जो प्रमुख सोच रही है उससे महिला पुरूष संबंधों में महिला को जिम्मेदार ठहरने की सोच जरूर और मज़बूत हो जाएगी। रिश्ते टूटे या घर, महिला ही जि़म्मेदार। पुरूष शराब, नशा करे तो भी महिला जि़म्मेदार। कई बार तो बिगड़े हुए लडक़े की शादी इसलिए की जाती है कि शादी के बाद सुधार जाएगा । न सुधरे तो पत्नी जि़म्मेदार।
एक बात और होगी कि मीडिया की व्यक्तियों का मीडिया ट्रायल करने की छूट लेने का दायरा भी जो बढ़ गया है वह अब छोटा नहीं होगा। और उसकी जद में हमारे आपके अपने भी आएँगे , आगे चलकर ।
और मेंटल हेल्थ , अरे वो इस प्रकरण में कोई मुद्दा था भी क्या ?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे माननीय सांसदों और विधायकों में से 4442 ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। इनमें पूर्व सांसद और विधायक भी हैं। सांसदों और विधायकों की कुल संख्या देश में 5 हजार भी नहीं है। वर्तमान संसद में 539 सांसद चुनकर आए हैं। उनमें से 233 ने खुद घोषित किया है कि उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। कुछ महानुभाव ऐसे भी हैं, जिन पर 100 से अधिक मुकदमे चल रहे हैं। यदि देश की संसद में लगभग आधे सदस्य ऐसे हैं तो क्या हमारी दूसरी संस्थाओं में भी यही हाल चल सकता है ? यदि देश के आधे शिक्षक, आधे अफसर, आधे पुलिसवाले, आधे फौजी जवान और आधे न्यायाधीश हमारे सांसदों- जैसे हों तो बताइए हमारा देश का क्या हाल होगा ? संसद और विधानसभाएं तो हमारे लोकतंत्र की श्वासनलिका है। यदि वही रुंधि हुई है तो हम कैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं ? पता नहीं कि हम बड़े हैं या सड़े हैं ? हमारा लोकतंत्र अंदर ही अंदर कैसे सड़ता जा रहा है, उसका प्रमाण यह है कि अपराधी नेतागण चुनाव जीतते जाते हैं और निर्दोष उम्मीदवार उनके खिलाफ टिक नहीं पाते हैं।
यदि नेताओं को जेल हो जाती है तो छूटने के बाद वे मैदान में आकर दुबारा खम ठोकने लगते हैं। ऐसे नेताओं के खिलाफ अश्विनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाकर मांग की है कि जो नेता गंभीर अपराधी सिद्ध हों, उन्हें जीवन भर के लिए चुनाव लडऩे से क्यों नहीं रोक दिया जाए, जैसा कि सरकारी कर्मचारियों को सदा के लिए नौकरी से निकाल दिया जाता है। यह ठीक है कि साम, दाम, दंड, भेद के बिना राजनीति चल ही नहीं सकती। भ्रष्टाचार और राजनीति तो जुड़वां भाई-बहन हैं। लेकिन हत्या, बलात्कार, डकैती जैसे संगीन अपराधों में लिप्त नेताओं को पार्टियां उम्मीदवार ही क्यों बनाती हैं ? इसीलिए कि उनके पास पैसा होता है तथा जात, मजहब और दादागीरी के दम पर चुनाव जीतने की क्षमता होती है। वह जमाना गया, जब गांधी और नेहरु की कांग्रेस में ईमानदार और तपस्वी लोगों को ढूंढ-ढूंढ कर उम्मीदवार बनाया जाता था। जनसंघ, सोश्यलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियां अपने उम्मीदवारों पर गर्व किया करती थीं। अब तो सभी पार्टियों का हाल एक-जैसा हो गया है। इसके लिए इन पार्टियों का दोष तो है ही लेकिन पार्टियों से ज्यादा दोष जनता का है, जो अपराधियों को अपना प्रतिनिधि चुन लेती हैं। यथा प्रजा, तथा राजा। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों, राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों को इस संबंध में तलब तो किया है। लेकिन यदि वह सख्त कानूनी फैसला दे दे तो भी क्या होगा ? यहां तो हाल इतने खस्ता हैं कि मुकदमों के फैसलों में भी तीस-तीस चालीस-चालीस साल लग जाते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-Ritika Bhattacharya
On October 2, 1990, Mukesh, Rekha’s husband, decided to take away his life. He had hanged himself to the ceiling fan of his room, using his wife’s dupatta.
Same Mukesh, who reportedly seemed happy on the fateful day, according to his brother Anil.
Rekha came to know about Mukesh’s chronic depression after getting married.
WHAT FOLLOWED:
1. A national witchhunt followed. People all over the country starting hating and shaming her as a cold-hearted man-eater.
2. Mukesh’s mother’s wail made headlines when she cried, ‘Woh daayan mere bete ko kha gayi. Bhagwan use kabhi maaf nahi karega.’ (That witch devoured my son. God will never forgive her.)
3. Anil Gupta said, “My brother loved Rekha truly. For him love was a do or die attempt. He could not tolerate what Rekha was doing to him. Now what does she want, does she want our money?”
4. Subhash Ghai said “Rekha has put such a blot on the face of the film industry that it’ll be difficult to wash it away easily. I think after this any respectable family will think twice before accepting any actress as their bahoo. It’’s going to be tough even professionally for her. No conscientious director will work with her ever again. How will the audience accept her as Bharat ki nari or insaf ki devi?”
5. Anupam Kher said “She’s become the national vamp. Professionally and personally, I think it’s curtains for her. I mean I don’t know how will I react to her if I come face to face with her.”
6. The press lapped up the sensational story of Mukesh’s suicide and featured reports with outrageous headlines like ‘The Black Widow’ (Showtime, November 1990) and ‘The Macabre Truth behind Mukesh’s Suicide’ (Cine Blitz, November 1990). Delhi high society and Bombay’s film industry vociferously condemned Rekha for ‘murdering’ Mukesh Agarwal.
1990-2020 : 30 years
Similar cases, similar reactions.
Still asking why is smashing the patriarchy and feminism relevant?
जो हिंदी-उर्दू भाषाएं देश में राजनीति, सामाजिक सुधार पर बतकही के लिए व्यापक जमीन तैयार कर सकती थीं, प्रतिगामी राजनीति का हथियार बन गईं। भारत और पाकिस्तान में सत्ता और नौकरशाही की भाषा अंग्रेजी ही बनी रही और अल्गोरिद्मचालित नेट के युग में आगे भी बनी रहेगी।
-मृणाल पाण्डे
हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान के आधुनिक हिमायती यह जान कर बेहोश न हों कि भाषा के लिए हिंदी शब्द के सबसे पहले उपयोग का श्रेय हिंदुओं को नहीं, मुसलमान लेखकों और कवियों को जाता है। अमीर खुसरो की ‘खालिक बारी’ हिंदी-उर्दू का सबसे पुराना कोष है। इसमें बारह बार हिंदी और पचपन बार हिंदवी शब्द का उपयोग मिलता है। दोनों शब्दों का सीधा मतलब है हिंद, यानी भारत के सभी निवासियों की भाषा। इन दोनों शब्दों के बीच जुड़ाव का सूचक (याय निस्बती) ईकार है।
शाह हातम अपने ‘दीवानजादे’ की भूमिका में लिखते हैं कि हिंदवी जिसे भाखा भी कहते हैं, आम लोग भी बखूबी समझते हैं और बड़े तबके के लोग भी। तुलसीदास ने भी इस भाषा के लिए भाखा शब्द ही इस्तेमाल किया है (भाखा भनति मोर मति थोरी)। 18वीं सदी में उर्दू भाषा के लिए रेख्ता लफ्ज भी मिलता है जो कवि समाज में फारसी के बरक्स उर्दू कविता के पढ़े जाने (मराख्ता) से निकला है। मूल मतलब है- हिंद में तमाम आसपास की बोली जाने वाली बोलियों से घुलमिल कर बनी जुबान। उर्दू कवियों में इस जुबान के महारथी मीर को माना जाता है जिनको परवर्ती गालिब ने भी सलाम किया है : ‘रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘गालिब’/ कहते हैं अगले जमाने में कोई ‘मीर’ भी था।’
18वीं सदी के भारत में लिखना-पढ़ना या तो पंडित वर्ग करता था या फिर दरबार से जुड़े सरकारी कर्मचारी जिनमें हिंदू और मुसलमान- दोनों ही शामिल थे। शेष समाज में साक्षरता दर बहुत कम थी। 19वीं सदी की शुरुआत में जॉन गिलक्राइस्ट ने जनता तक राजकीय निर्देश पहुंचाने और सरकारी राजकाज के निचले तबके के लिए मुदर्रिस मुंशी तैयार करने की नीयत से लिखित मानक भाषा रचने का काम चार भाखा मुंशियों को थमाया।
हुकुम था कि साक्षरता तेज हो और स्कूली प्रणाली में फारसी से जुड़ी उर्दू को मुसलमानों की और संस्कृत से जुड़ी हिंदी को हिंदुओं की भाषा मान कर पाठ्य पुस्तकों को दो अलग लिपियों में लिखाया-पढ़ाया जाए। भाखा मुंशियों ने इसी हुकुम तले जनभाषा को लिपि के आधार पर दो फाड़ कर दिया। लिपि का यही मुद्दा हिंदी-उर्दू-हिंदवी या हिंदुस्तानी को अलग-अलग संप्रदायों की भाषाएं मानने की गलतफहमी की जड़ बनता चला गया।
किसी भी मिले-जुले समाज में बोलचाल की भाषा खुद में धर्मनिरपेक्ष होती है। पर जबरन बांटे गए दो धार्मिक संप्रदायों के बीच भाषा की सीमा रेखा पर गरमी बढ़ना हर संप्रदाय को पुराने सामाजिक समन्वय, सह-अस्तित्व की जगह अपने-अपने धार्मिक और जातीय इतिहास की तरफ पक्षपाती बना देता है। ठीक इसी समय भारतीय समाज के बीच पच्छिमी हवाएं यूरोप से लगातार परंपरा, संस्कृति, देशभक्ति और राष्ट्रीयता की बाबत नए विचार ला रही थीं। इसका फल यह हुआ कि भाषा का मसला नाहक हिंदू पहचान, मुस्लिम पहचान का मसला बन गया।
फिर भी 20वीं सदी तक दोनों भाषाओं के बीच ताक-झांक साहब-सलामत रही। भाषा के इस सर्वधर्मसमभावी महत्व को गांधी ने पहचाना और अपने तीन भाषाई अखबारों (हिंदी और गुजराती में नवजीवन, कौमी आवाज) तथा प्रार्थना सभाओं की मार्फत भारत की अवाम तक सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह का संदेश पहुंचाने में कामयाब रहे।
अफसोस कि लोकभाषा और लोकमानस ने पिछली आठ सदियों में बार-बार एक बोलचाल की जनभाषा से जो ताकतवर बवंडर तैयार किया, उसका फायदा हमारा नवसाक्षर समाज नहीं उठा पाया। फारसी गई तो अंग्रेजी आई। जनता की जुबान जो हिंदी-उर्दू भाषाएं देश में राजनीति, सामाजिक सुधार और समन्वयवाद पर बतकही के लिए खुली व्यापक जमीन तैयार कर सकती थीं, प्रतिगामी राजनीति का हथियार बन गईं।
पाकिस्तान को इस मनमुटाव की सजा मिली कि पाकिस्तान में पंजाबी, सिंधी और बलूची बोलने वालों ने उर्दू को मुहाजिरों की भाषा कह कर उसे राजभाषा नहीं बनने दिया। उधर, उत्तर भारतीय राजनेताओं की कांइयां राजनीति और सवर्णमूलक सांप्रदायिक चुनाव प्रचार से नाराज अहिंदीभाषी राज्यों ने हिंदी के लिए भी भारत की राजभाषा बनने का रास्ता बंद करा दिया। सीमा के आर-पार सत्ता, नौकरशाही, रुतबेबाजी और महत्वाकांक्षा की भाषा अंग्रेजी ही बनी रही और अल्गोरिद्म-चालित नेट के युग में आगे भी काफी समय तक बनी रहेगी।
विजयदेव नारायण साही की मानें तो गालिब और मीर के बाद के शायर और मंटो के बाद के लेखक पाकिस्तान में उर्दू की दुनिया के स्थायी वासी नहीं बने। न ही हिंदी के लेखक भारतीय राजनीति में कोई बदलाव ला सके। इस बीच मिडनाइट्स चाइल्ड सलमान रुश्दी, हनीफ कुरेशी, आतिश तासीर, अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा, आलोक राय या राम गुहा तक आज के अंतरराष्ट्रीय फलक पर चर्चित लेखकों की एक लंबी फेहरिस्त है, जो अब अपनी मातृभाषा में सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ पर अंग्रेजी में ही लिखना पसंद करते हैं।
पिछली आधी सदी में सत्ता पक्ष से चिपक कर हिंदी हिंदुत्ववादी और अपनी अविनाशी सत्ता के छलावे में डूबी, ‘बाहरी’ शब्दों के जबरन विरेचन को व्याकुल होकर उर्दू के साथ अपनी ही शब्द संपदा का भी संहार करने पर तुली नजर आती है। निराला या गालिब की संयत वेदना, प्रसाद या महादेवी की शांत आत्मलीनता, छोटे शहरों के बुझे जाते निचले वर्गों की वेदना उकेरने वाले मुक्तिबोध, रामकुमार, कमलेश्वर और भारती, अपने व्यंग्य में भी अपनी जमीन के लोगों के लिए डबडबाई आत्मीयता रचने वाले शरद जोशी, परसाई धीमे-धीमे समय के कुहासे में लोप हो रहे हैं।
एक खास शहरियत का तेवर पाने के लिए सोशल मीडिया पर भी हिंदी-उर्दू, दोनों ने गांवों तक फैले बोलियों में बोलने वाले भारत से खुद को लगता है काट लिया है। कहते हैं, खजुराहो में किसी गाइड ने किसी विदेशी सैलानी को समझाते हुए कहा, ‘जी, ये असली मंदिर नहीं जहां पूजा होती है, ये तो बस भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं।’
सो, पाठक बुरा न मानें लेकिन हिंदी पत्रकारिता से साहित्य तक हिंदी-उर्दू के हमारे लेखक समाज से कस कर जुड़े हुए स्थायी भाषा साधक नहीं रहे। न ही वे लिपि, राजनीति या धर्म के मसलों में उलझी भारतीय संस्कृति को ठीक करने की मंशा रखते हैं। वे भाषा के सैलानी हैं जो थोड़ी देर के लिए पर्यटकों को अपने इलाके में लाकर उनको दूरबीन से स्थापत्य निहारने लायक मसाला जुटाते हैं। पर पर्यटकों की पीठ फिरी नहीं कि वे अपने लिए अंग्रेजी छापे की दुनिया से तगड़े गाहक जुटाने को चल देते हैं।(navjivan)
- अव्यक्त
अप्रैल, 1992 से प्रभाष जोशी ने अपना प्रसिद्ध स्तंभ ‘कागद कारे’ लिखना शुरू किया था. इस स्तंभ में कई बार उन्होंने अपने प्रिय व्यक्तित्वों के बारे में भी लिखा. बाद में इनमें से अलग-अलग तरह के आलेखों को छांटकर पांच पुस्तकें छपीं. इन्हीं में से एक पुस्तक है ‘जीने के बहाने’. अलग-अलग तरह की शख्सियतों के बारे में लिखे गए इन लेखों में पहले तीन लेख महात्मा गांधी पर हैं. इसके बाद चार लेख विनोबा पर हैं और एक लेख जयप्रकाश नारायण पर. हों भी क्यों नहीं. प्रभाष जी स्वयं कहा करते थे कि ‘मैं यदि कुछ हूं तो गांधीवादी.’ जब वे एक साल के शिशु थे, तभी 1937 में महात्मा गांधी इंदौर आए थे और प्रभाष जी की माताराम उन्हें गांधीजी से आशीर्वाद दिलाने के लिए ले गई थीं.
विनोबा और जेपी के साथ तो उनके निजी तौर पर बड़े ही आत्मीय संबंध रहे. विनोबा के बारे में तो उन्होंने यह लिखा है कि ‘विनोबा ने ही मुझे लिखने में डाला.’. एक स्थान पर प्रभाष जी ने यह भी लिखा है, ‘...जब विनोबा पहली बार नगर स्वराज का प्रयोग करने इंदौर आए तो नई दुनिया के लिए महीने भर उनको कवर किया. सुबह तीन बजे से शाम छह बजने तक विनोबा के साथ घूमता और फिर दफ्तर आकर टेबलॉइड साइज के पूरे दो पेज लिखता. कई बार हथेली पर भी नोट्स लेता क्योंकि विनोबा के साथ लगातार चलते रहना पड़ता था.’
साल 1995 विनोबा का जन्म-शताब्दी वर्ष था. इसे ठीक से न मनाए जाने को लेकर प्रभाष जी दुःखी थे. इस संदर्भ में उन्होंने ‘कागद कारे’ स्तंभ में ही एक के बाद एक चार लेख लिखे. इनका क्रमवार शीर्षक इस प्रकार था, ‘जिस परमधाम में बाबा हैं’, ‘बाबा विनोबा के सौ साल होंगे’, ‘एक विचार के रस्म हो जाने का दुख’ और ‘हम उस बाबा को क्या भुलाएं’.
‘हम उस बाबा को क्या भुलाएं’ शीर्षक से एक लेख में वे लिखते हैं, ‘गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी (यानी नेहरू) की शताब्दी तो सचमुच राजसी ढंग मनी, लेकिन उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी विनोबा की जन्म-शताब्दी तो ऐसे मनी कि जैसे किसी को याद ही न हो कि विनोबा नाम के कोई महापुरुष इस देश में हुए हैं और अभी कोई पंद्रह साल पहले तक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनसे आशीर्वाद लेने के लिए पवनार जाती थीं. सन् इक्कावन से सत्तर तक उनके भूदान ग्रामदान आंदोलन की धूम मची रहती थी. हज़ारों कार्यकर्ता गांव-गांव अलख जगाते रहते थे और हर कांग्रेस सरकार से उसे समर्थन मिला. महात्मा गांधी ने जब सन् चालीस में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया तो पहले सत्याग्रही न वे खुद बने, न नेहरू, पटेल, मौलाना या किसी और बड़े नेता को चुना. गांधी जी ने पहला सत्याग्रही चुना विनोबा को जो उनके आश्रम सेवाग्राम से कोई नौ किलोमीटर दूर अपने आश्रम परमधाम पवनार में रहते थे. विनोबा की सत्यनिष्ठा, नैतिक शक्ति और साधना में गांधीजी का ऐसा विश्वास था. तब आश्रम में रहनेवाले या गांधीजी के नजदीकी लोग तो विनोबा को जानते थे लेकिन देश नहीं जानता था. आखिर स्वयं गांधीजी ने ‘हरिजन’ में विनोबा का परिचय लिखा. गांधीजी ने दूसरा सत्याग्रही चुना था जवाहरलाल नेहरू को.’
‘...विनोबा ने इस देश की कई परिक्रमाएं की थीं. कांडला से डिब्रूगढ़ और कश्मीर से कन्याकुमारी तक. अस्सी हजार किलोमीटर वे पैदल चले और मोटर, रेल आदि की यात्राएं जोड़ लें तो पृथ्वी का एक और चक्कर यानी आजादी के बाद सामाजिक-आर्थिक आजादी के लिए इस वामन अवतार ने पृथ्वी के तीन चक्कर लगाए. ऐसा कोई प्रांत नहीं है जिसमें विनोबा ने पदयात्रा न की हो. देश के भूपतियों ने कोई पांच लाख एकड़ जमीन उन्हें दान में दी और एक लाख गांवों के लोगों ने अपने गांव ग्रामदान में दिए. ऐसे नेता की कोई भी यादगार लोगों को नहीं होगी? फिर ऐसा क्यों हुआ कि विनोबा जन्म शताब्दी मनती नहीं दिखी? सरकारी स्तर पर नहीं तो लोग ही मनाते. या जो आयोजनों के जरिए मनती दिखती है वही हम देखते हैं बाकी हमें दिखाई नहीं देता?’
प्रभाष जी ने विनोबा को भुलाए जाने को लेकर प्रेस और सामाजिक संगठनों पर भी बहुत ही मारक टिप्पणी की थी. उन्होंने लिखा- ‘...विनोबा इस देश की प्रेस के हीरो कभी नहीं रहे. सिर्फ इसलिए नहीं कि वे राजनीति में नहीं थे और राजनीति को वैसे प्रभावित भी नहीं करते थे जिस तरह से खबरें बनती हैं. बल्कि इसलिए भी कि उनके काम का ज्यादातर लेना-देना गांवों और भूमि से था और हमारी प्रेस नगर केंद्रित है. और आजकल तो उसका ऐसा खगोलीकरण हो रहा है कि वह पॉप गायक एलविस प्रेसली और बीटल जॉन लेनन को तो याद कर सकती है लेकिन विनोबा उसकी स्मृति में नहीं रह सकते. जिन लोगों को इस देश की ग्रामीण वास्तविकता से आंखें चार किए रहना पड़ता है और जो देश के भूमिहीन मजदूरों और उनकी भूमिहीनता और बेरोजगारी से चिंतित हैं कम से कम उन्हें तो विनोबा की जन्म शताब्दी पर उन्हें याद करना चाहिए था. देश में हज़ारों स्वैच्छिक संस्थाएं हैं और हजारों कार्यकर्ता किसी न किसी तरह की ग्राम सेवा या गांव से जुड़े लोगों के किसी काम में लगे हुए हैं. इनके लिए तो विनोबा न सिर्फ प्रासंगिक हैं बल्कि उनकी तपस्या और उनका काम प्रेरक होना चाहिए. ...प्रेस नगर और राजनीति केंद्रित है और रेडियो और टेलीविजन मनोरंजन के अलावा जो कुछ भी करना चाहते हैं सरकार के कहने पर करते हैं. चूंकि सरकार ने नहीं कहा इसलिए उनने भी विनोबा को उनकी जन्म शताब्दी पर याद नहीं किया.’
प्रभाष जी को आज के नेताओं में और यहां तक कि समाज में भी विनोबा के विचारों से जुड़ने और उसे समझने और अपनाने की काबिलियत पर ही संदेह होता है. अपने एक लेख में वे लिखते हैं, ‘कहां विनोबा और कहां उनकी जन्म-शताब्दी मनानेवाले हम लोग. शायद महान व्यक्तियों का दुर्भाग्य है कि उनकी शताब्दियां मनाने के लिए ऐसे लोग रह जाते हैं जो उनके उत्तराधिकार के सर्वथा अयोग्य होते हैं.’
‘बाबा विनोबा के सौ साल होंगे’ शीर्षक वाले लेख में प्रभाष जी लिखते हैं, ‘विनोबा का चलाया आंदोलन दरअसल आर्थिक और सामाजिक पुनर्रचना का अहिंसक प्रयोग था. ...सर्वोदय आंदोलन उन्होंने ‘सर्वेषां अविरोधेन’ ढंग से चलाया यानी किसी के भी विरोध में कोई काम नहीं किया. वे अहिंसा और करुणा से समाज और व्यक्ति में मूल परिवर्तन करके साम्ययोगी समाज बनाना चाहते थे. लेकिन गांधी के ऋण से मुक्त होने का विनोबा का प्रयोग अनिवार्यतः विनोबा का ही था. ...अगर विनोबा और जवाहरलाल नेहरू मिलकर राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक आजादी के लिए गांधी के क्रांतिकारी अहिंसक ढंग से काम करते तो क्या देश की वही हालत रहती जो हम देख रहे हैं. ...जवाहरलाल नेहरू ने वही लोकतंत्र अपनाया जिसे गांधी हिंद स्वराज्य में ही रद्द कर चुके थे. वे वेस्टमिंस्टर मॉडल के लोकतंत्र में रूसी मॉडल की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था चाहते थे. रूस की तर्ज पर जब जवाहरलाल पंचवर्षीय योजना बनवा रहे थे तब उनके बुलावे पर विनोबा ने योजना आयोग को कहा था कि आज जो नियोजन कर रहे हो वह निरसन के सिद्धांत पर है. जो कुछ थोड़ा बहुत पानी नीचे के गरीबों के पास ऊपर के अमीरों के तालाब से रिसकर आएगा वह गरीबी नहीं मिटा सकेगा. अमीर और अमीर होंगे और गरीब और गरीब. ऐसा कहकर विनोबा दिल्ली से चले गए और सर्वोदय आंदोलन में लग गए. वे जानते थे कि नेहरू की कोशिशों का क्या नतीजा होगा लेकिन उनने कभी नेहरू की आलोचना तक नहीं की.’
जिस ‘अनुशासन-पर्व’ वाले वक्तव्य को लेकर विनोबा के बारे में भ्रम फैलाया गया और उसकी मूढ़तापूर्ण व्याख्या-दुर्व्याख्या की गई, यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि प्रभाष जोशी उस दौर में भी उन अल्पसंख्यक बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधित्व करते नज़र आते हैं जिन्हें महाभारत के इस शब्द का विनोबा द्वारा किए गए प्रयोग का वास्तविक अर्थ और मर्म मालूम था और इसपर पूरे दम से सार्वजनिक तौर पर लिखने में उन्होंने गुरेज नहीं किया. विनोबा के अविरोध की साधना को प्रभाष जोशी गहनतम स्तर पर महसूस करते हुए लिखते हैं, ‘दिल्ली से जो राजनीति चल रही थी उसके खिलाफ अहिंसक संघर्ष की तो विनोबा से कोई आशा ही नहीं करता था. विनोबा ने इमरजंसी तक में इंदिरा गांधी का विरोध और जेपी आंदोलन का समर्थन नहीं किया. इमरजंसी को उन्होंने महाभारतीय अर्थ में ‘अनुशासन पर्व’ कहा जिसका मतलब राज्य नियंत्रित प्रचार तंत्र ने यह निकाला कि देश को अनुशासन में रहने की जरूरत है. लेकिन राज्य का शासन और आचार्यों-ऋषियों का अनुशासन बतानेवाले विनोबा के खड़ा किए आचार्य कुल ने जब प्रस्ताव पास कर के इमरजंसी उठाने की मांग की तो न सिर्फ इंदिरा गांधी की सरकार ने उसे छपने नहीं दिया बल्कि पवनार आश्रम की जिस मासिक पत्रिका— ‘मैत्री’ में आचार्य कुल सम्मेलन रपट छपी थी उसकी प्रतियां भी जब्त करवा लीं. फिर भी विनोबा ने कभी इंदिरा गांधी का विरोध नहीं किया. वे जेपी आंदोलन से भी सहमत नहीं थे लेकिन उनने जेपी का विरोध तो दूर आलोचना तक नहीं की. ‘सर्वेषां अविरोधेन’ को विनोबा ने इतना साध लिया था.’
लेकिन विनोबा की सबसे बड़ी साधना थी निष्काम कर्म को साधने की. प्रभाष जोशी लिखते हैं, ‘जब गांधी जैसे कर्मयोगी और कीर्तिवान गुरु ने विनोबा से कहा कि हमारे सभी कामों का परिणाम शून्य है, तो यह कैसे हो सकता था कि विनोबा अपने काम का परिणाम बहुत बड़ा मानते. गांधी जब सेवा करके छूट जाना चाहते थे तो विनोबा तो और भी निष्काम सेवक थे. विनोबा ने कहा कि इन दो वाक्यों में बापू का सारा तत्वज्ञान आ जाता है. विनोबा ने इसमें से वही लिया जो वे लेना चाहते थे. यानी निष्काम कर्म करो और उसके परिणाम की कोई चिंता न करो. वह तो वैसे भी शून्य है. इसलिए विनोबा अगर अपनी जन्म शताब्दी के दिन पैदल यात्रा करने निकलते तो अपने भुला दिए जाने का उन्हें कहीं कोई दुख नहीं होता. बल्कि वे मानते कि सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसी कि उन्हें अपेक्षा थी. विनोबा तो सन् बयासी में इच्छा मृत्यु का वरण करने के बारह साल पहले ही क्षेत्र सन्यास ले चुके थे.’
गांधीजी ने हिंद स्वराज में आखिरी अध्याय का शीर्षक दिया था, ‘छुटकारा’. यह एक अध्याय पिछले सारे अध्याय को अध्यात्मिकता के रस में विलीन कर देनेवाला है. और विनोबा तो मूलतः अध्यात्म के जीव थे. प्रभाष जोशी विनोबा के उस छुटकाराभाव को बहुत निकट से महसूस करते हुए कहते हैं, ‘देश सेवा और ब्रह्म साधना का योग गांधीजी ने विनोबा को दिया. कोई बत्तीस साल विनोबा चुपचाप रचनात्मक कार्यों में लगे रहे. गांधी की हत्या नहीं होती तो वे नहीं निकलते. गांधी का ऋण चुकाने के लिए ही वे भूदान-ग्रामदान यात्रा पर निकले और पृथ्वी की तीन परिक्रमाएं कर डालीं. जो उन्होंने किया वह उनका मूल पिंड नहीं था. गांधी ऋण चुकाने का प्रयास था. इसलिए वे भूदान-ग्रामदान को अपना पराक्रम, अपनी उपलब्धि मान ही नहीं सकते थे. गांधी से अपनी पहली भेंट के पचास साल बाद उन्होंने कर्ममुक्ति की, फिर ग्रंथमुक्ति, अध्यापन मुक्ति और स्मृति मुक्ति और फिर क्षेत्र संन्यास लेकर उसी परमधाम पवनार में पहुंच गए. सिर्फ दो बार अपने आश्रम से बाहर आए.’
‘...तब विनोबा ने कहा, ‘मैं अपने मन में मान कर चल रहा हूं कि अपनी मृत्यु के पूर्व मुझे मरना है. मनुष्य को मृत्यु के पूर्व मरना चाहिए. अपनी वफात अपनी आंखों से देखना चाहिए. यही मेरी आकांक्षा है. इसलिए मैंने सोचा कि मैं मरने के पहले मर जाऊं और देखूं कि भूदान का क्या होता है.’ तो विनोबा जीते जी देख चुके थे कि. उन्होंने जीते जी अपनी मृत्यु देख ली थी बल्कि बारह साल तक देखते रहे. उन्होंने कहा भी कि ‘मैंने अपनी मृत्यु अपनी आंखों से देखी वह अनुपम्य अवसर था’. पंद्रह नवंबर बयासी को दिवाली के दिन वे भीष्म पितामह की तरह इच्छामृत्यु से मरे. उन्होंने अपनी मृत्यु को सचमुच उत्सव बना दिया.
मुक्ति और छुटकारे का यही मंत्र विनोबा ने प्रभाष जोशी को भी दिया था. इसे याद करते हुए एक अन्य लेख में प्रभाष जोशी लिखते हैं, ‘(विनोबा की समाधि वाली) संगमरमर की शिला पर अपने दोनों हाथ रखकर और उनपर पूरा वजन देकर सिर नीचा किए ध्यान में एकचित्त हो गया. उस स्पर्श को पाने के लिए जो कोई बत्तीस साल पहले विनोबा की कोमल हथेली से मिला था और जिससे मैंने अपने आप को शुद्ध होते महसूस किया था. उतरती शाम की उस सघन शांति में बाबा ने मुझे कहा, कर्म का मोह और अहंकार तुझे नष्ट कर देगा. इसे छोड़.’
इसी लेख में प्रभाष जोशी स्वयं विनोबा का वह प्रसंग भी सुनाते हैं जब विनोबा सेवाग्राम आश्रम छोड़कर पवनार में आश्रम बसाने जा रहे थे. उनका स्वास्थ्य बहुत कमजोर था और वे पैदल चल नहीं सकते थे. इसलिए जब वे मोटर से पवनार पहुंचने के दौरान धाम नदी का पुल पार कर रहे थे, तब उन्होंने तीन बार कहा, ‘संन्यस्तं मया, संन्यस्तं मया, संन्यस्तं मया (मैंने छोड़ा, मैंने छोड़ा, मैंने छोड़ा.)’ इसपर प्रभाष जोशी आगे कहीं लिखते हैं, ‘विनोबा ने बहुत साधन और तपस्या से स्मृति से मुक्ति पाई थी. देश को उन्हें भुलाने में कोई खास कोशिश नहीं करनी पड़ी.’
विनोबा तो मुक्त हुए. जयंतियों और पुण्यतिथियों से उनका क्या वास्ता? स्वयं प्रभाष जोशी ने भी विनोबा की इच्छा मृत्यु के दिन कुछ भी नहीं लिखा था जबकि वे उस समय इंडियन एक्सप्रेस दिल्ली के स्थानीय संपादक थे. प्रभाष जोशी के शब्दों में, ‘ऐसे बाबा से अपने संबंध का तकाजा कभी नहीं रहा कि उनके अग्नि संस्कार में शामिल होते या उनके जन्म दिवस या पुण्यतिथि पर परमधाम पवनार जाते.’
और राजनीतिक दलों और सरकारों से इसकी क्या अपेक्षा करना. विनोबा स्वयं कह गए थे ‘अ-सरकारी असरकारी’ और प्रभाष जोशी ने किसी अन्य संदर्भ में लिखा था- ‘एक पार्टी नागनाथ, दूसरी पार्टी सांपनाथ और अपना हाथ जगन्नाथ’.(satyagrah)
- Shagun Kapil
केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) द्वारा मॉनिटर किए जा रहे 123 में से 24 जलाशय 100 फीसदी भर गए हैं। सीडब्ल्यूसी द्वारा 10 सितंबर, 2020 को जारी बुलेटिन के अनुसार, आठ जलाशय महाराष्ट्र में, पांच कर्नाटक में, दो-दो झारखंड, गुजरात, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में, एक-एक ओडिशा और राजस्थान में स्थित हैं।
महाराष्ट्र और कर्नाटक में मौसम विभाग ने कुछ हिस्सों में भारी बारिश होने की भविष्यवाणी की थी, इसलिए इन राज्यों के जलाशयों में हालात बिगड़ सकते हैं। दोनों राज्यों में कम से कम पांच बांध पूर्ण रूप से 100 फीसदी भर गए हैं। सीडब्ल्यूसी ने यहां कड़ी निगरानी की सलाह देते हुए कहा था कि बांध के अधिकारियों को पानी को छोड़ने में सावधानी बरतनी चाहिए और अंतिम क्षण तक इंतजार नहीं करना चाहिए।
कई राज्य-स्तरीय बांध प्राधिकरणों पर अक्सर ’रूल क्रव’ का ठीक से पालन नहीं करने और केवल वर्षा के दौरान पानी छोड़ने का आरोप लगाया जाता है।
रूल क्रव से आशय बांधों के प्रबंधन के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनाए जा रहे अभ्यास से है, जो यह सुनिश्चित करता है कि बांध केवल मानसून के अंत तक भरे हों, जिससे उन्हें अतिरिक्त बारिश के दौरान एक कुशन प्रदान किया जाए और बहाव वाले क्षेत्रों में बाढ़ की संभावनाओं पर अंकुश लगाया जा सके। बांध प्रबंधन अधिकारियों द्वारा इसका पालन किया जाना चाहिए, क्योंकि किसी भी चूक से बांध की वजह से बाढ़ आ सकती है। देश में इस तरह के कई उदाहरण भी हैं।
गुजरात का सरदार सरोवर बांध इस तरह के कुप्रबंधन का उदाहरण है। आरोप है कि 31 अगस्त को बांध की वजह से भरूच जिले में बाढ़ आ गई, क्योंकि बांध 90 फीसदी से अधिक भर चुका था, लेकिन 29 अगस्त के शुरुआती घंटों में बांध के गेट नहीं खोले गए, जबकि लगातार भारी बारिश हो रही थी।
नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की नर्मदा बेसिन की दैनिक रिपोर्ट बताती है कि जलाशय में लगातार पानी भर रहा था, लेकिन बांध संचालकों ने समय पर पानी नहीं छोड़ा, जिस वजह से बाढ़ आई।
29 अगस्त को ही 3231.1 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड (क्यूमेक्स) पानी छोड़ा गया था, जबकि बांध में 28 अगस्त को 2422 क्यूमेक्स पानी भरा, जो 29 अगस्त को बढ़कर 5501 क्यूमेक्स आया।
लेकिन 30 अगस्त को बड़े पैमाने पर (16,379.7 क्यूमेक्स) पानी छोड़ा गया, जो आसपास के कई गांवों में भर गया। 29 अगस्त और 2 सितंबर के बीच लगभग 95,209 क्यूमेक्स पानी छोड़ा गया।
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डेम्स, रिवर्स एंड पीपुल द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जब बांध का जलस्तर 70 प्रतिशत के आसपास था तो बांध संचालक ने बिजली घरों को चालू नहीं किया।
29 अगस्त और 1 सितंबर के बीच तकरीबन 30,000 क्यूमेक्स पानी स्पिलवे के माध्यम से छोड़ा गया था, जबकि इससे पहले या बाद में कुछ भी नहीं छोड़ा गया। सीडब्ल्यूसी की एक रिपोर्ट में कहा गया, "इससे गौड़ेश्वर और चंदोद से भरुच तक बहाव के साथ बड़े पैमाने पर बाढ़ के हालात बन गए, लेकिन सरदार सरोवर परियोजना प्राधिकरण या गुजरात सरकार परेशान नहीं दिखाई दी।"
सीडब्ल्यूसी द्वारा मॉनिटर किए जा रहे 123 जलाशयों में जलस्तर 142.234 बिलियन क्यूबिक मीटर दर्ज किया गया, जो इनकी कुल लाइव स्टोरेज क्षमता का 83 प्रतिशत है।(downtoearth)
अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ रोचेस्टर मेडिकल सेंटर (यूआरएमसी) के एक शोध दल ने कोरोनावायरस से संक्रमित युवाओं पर अध्ययन किया है
- Dayanidhi
एक शोध में कहा गया है कि ई-सिगरेट या धूम्रपान करने वाले युवाओं में कोरोनावायरस संक्रमण का खतरा अधिक होता है। फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स एक शोध में कहा गया है कि ई-सिगरेट या धूम्रपान करने वाले युवाओं में कोरोनावायरस संक्रमण का खतरा अधिक होता है।
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि निकोटीन कैसे लिया जा रहा है। निकोटीन युवाओं और वयस्कों के लिए हानिकारक है। ई-सिगरेट में आमतौर पर निकोटीन के साथ-साथ अन्य रसायन होते हैं जो स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने के लिए जाने जाते हैं। कोरोना बीमारी का अधिकतर संबंध श्वसन तंत्र से हैं, यदि पहले ही हम ई-सिगरेट का उपयोग कर हानिकारक रसायनों से अपने श्वसन तंत्र को हानि पहुंचा रहे है, तो ऐसे में कोरोना का खतरा और बढ़ जाता है।
जब लोग उच्च रक्तचाप या मधुमेह जैसी पुरानी बीमारियों से ग्रसित हो, इसके बावजूद वे ई-सिगरेट (वेपिंग) और धूम्रपान करते है तो ऐसे लोगों को कोविड-19 का खतरा सबसे अधिक होता है।
इसके पीछे के वैज्ञानिक सार को समझना कठिन है और अभी तक यह निश्चित नहीं है। लेकिन यह एसीई2 (ACE2) नामक एक एंजाइम से इसका सार निकल सकता है। यह फेफड़ों में कई कोशिकाओं की सतह पर रहता है और कोरोनावायरस के प्रवेश मार्ग के रूप में कार्य करता है।
साक्ष्यों से पता चलता है कि पुरानी सूजन की बीमारी वाले, कमजोर वयस्कों और ई-सिगरेट का उपयोग करने वाले या धूम्रपान करने वाले लोगों में घातक वायरस के प्रवेश द्वार के रूप में काम करने के लिए एसीई 2 रिसेप्टर में प्रोटीन की अधिकता होती है। यह शोध फ्रंटियर्स इन फार्माकोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
प्रोफेसर इरफ़ान रहमान के नेतृत्व में अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ रोचेस्टर मेडिकल सेंटर (यूआरएमसी) के एक शोध दल ने अध्ययन किया है। शोध दल ने महामारी के दौरान अध्ययन की एक श्रृंखला प्रकाशित की, जो एसीई 2 की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में बताता है। जो पहले से ही कई अन्य वैज्ञानिक गतिविधियों के केंद्र में रहा है। महत्वपूर्ण सेलुलर तंत्रों को प्रभावित करने के लिए यह घातक वायरस ई-सिगरेट (वेपिंग) को नियंत्रित करता है।
प्रोफेसर रहमान की विशेष रुचि उन युवाओं की बढ़ती समस्या पर है जिनका कोरोना परीक्षण पॉजिटिव आया हैं और वे खतरनाक दर पर कोरोनोवायरस को फैला सकते हैं। यहां तक कि कुछ बड़े बच्चे और किशोर जिनके पास एसीई 2 रिसेप्टर का स्तर अधिक है, वे वायरस के लिए अधिक असुरक्षित लगते हैं। प्रोफेसर रहमान, पर्यावरण चिकित्सा, चिकित्सा (पल्मोनरी) और सार्वजनिक स्वास्थ्य विज्ञान के अध्यक्ष हैं।
प्रोफेसर रहमान ने कहा हमारा अगला कदम यह जांचना है कि क्या एसीई 2 का स्तर आम तौर पर युवाओं में कम होता है। इसलिए कोविड-19 से उनकी अपेक्षाकृत संक्रमण और मृत्यु दर कम है। लेकिन यह पता लगाने के लिए कि क्या एसीई 2 ई-सिगरेट (वेपिंग) या धूम्रपान से बढ़ जाता है जो उन्हें वायरस के लिए अधिक संवेदनशील बना देता है। यह बूढ़े लोगों में फेफड़ों के रोगों जैसे सीओपीडी और फाइब्रोसिस के विपरीत होगा, जिन्हें हम पहले से ही जानते हैं जिनमें गंभीर संक्रामक बीमारियां और मृत्यु का खतरा अधिक होता है।
रहमान की प्रयोगशाला में पोस्ट-डॉक्टरेट वैज्ञानिक गंगदीप कौर, को (टीबी) तपेदिक की जांच करने का पहले का अनुभव था और इस तरह उन्होंने ई-सिगरेट (वेपिंग) और कोरोनावायरस के बीच संबंधों का अध्ययन करने का नया प्रयास किया। टीम ने इस मुद्दे से संबंधित कई महत्वपूर्ण समीक्षा लेख प्रकाशित किए हैं।
चूंकि ई-सिगरेट (वेपिंग) और धूम्रपान दीर्घकालिक आदतें हैं, यूआरएमसी के शोधकर्ताओं ने चूहों के फेफड़े के ऊतकों पर निकोटीन के पुराने प्रभावों की जांच की, कोविड-19 प्रोटीन का संबंध इसके साथ जुड़ता है। उन्होंने एसीई 2 से सीधे संबंध रखने वाले अन्य रिसेप्टर्स की खोज की, जिनकी फेफड़ों में सूजन, जलन प्रतिक्रिया को विनियमित करने में एसीई 2 की अहम भूमिका पाई गई है।
हाल के अन्य अध्ययनों में रहमान और यूआरएमसी के वैज्ञानिकों ने ई-सिगरेट (वेपिंग) में उपयोग होने वाले, ई-तरल पदार्थों को स्वादिष्ट बनाने और फेफड़े के ऊतकों पर उनके हानिकारक प्रभावों का विवरण देते हुए 40 रसायनों का खुलासा किया। दर्शाया गया है कि ई-सिगरेट (वेपिंग) का उपयोग (व्हीज़िंग) घरघराहट के साथ जुड़ा हुआ है, जो अक्सर (एम्फिसीम) वातस्फीति, रीफ्लक्स रोग, हृदय रोग, फेफड़ों के कैंसर और स्लीप एपनिया का कारण होता है।(downtoearth)
मनीष सिंह
आखिरकार 1906 में ब्रिटेन रानी और रूस राजा ने तिब्बत पर चीन राजा की सुजेर्निटी मान ली। सुजेर्निटी का मतलब सरल भाषा में ‘तुम जानो -तुम्हारा काम जाने’ होता है।
1912 चीन मे राजतंत्र खत्म हुआ, नेशनलिस्ट सरकार बनी। तो राजा की फौजों ने अपने आपको नेशनलिस्ट सरकार के अंडर मे मान लिया। 1949 तक यही व्यवस्था चली, जब तक कि माओ ने यहां सीधा नियंत्रण न ले लिया।
संघी इतिहास के अनुसार यह भारत की अक्ष्म्य गलती थी। उनके अनुसार एक स्वत्रंत देश पर चीन ने कब्जा कर लिया और नेहरू चुपचाप बैठे रहे ।
तिब्बत क्या है? मेरा मतलब, नेहरू की गलती के अलावे और क्या है ...
आठवीं के बाद भूगोल और इतिहास कभी न पढऩे वाले ज्यादातर लोग इस बात को नहीं जानते कि नेहरू की अनगिनत गलतियों में से एक तिब्बत दरअसल एक पठार भी है। न जानने वालों के लिए, पठार का मतलब एक टेबल टॉप की तरह की जमीन है, जो आसपास की धरती से बेहद ऊंचा होता है। नीचे से देखने पर वह पहाड़ की तरह लगता है, मगर टॉप पर मैदान होता है।
तिब्बत का पठार दुनिया की छत है। छत, याने ऐसी जगह से जहां से बारिश का पानी नीचे आता है। ठीक वैसे ही तिब्बत के पठार से जो नदियां निकलती हैं, वह दुनिया की एक तिहाई आबादी का पोषण करती हैं।
दुनिया का पोषण करने वाला पठार को प्रकृति ने बड़ा कुपोषित रखा है। एवरेज चार हजार मीटर की हाइट पर साल के आठ महीने बर्फ, बेहद ठंड और साल भर सूखी सर्द हवा होती हैं। दुनिया के सबसे कम आबादी के घनत्व का यह पठार चीन के मध्य तक घुसा हुआ है। तीन ओर चीन है और चौथी ओर हिमालय.. हिमालय के नीचे हम।
जी हां, आप तिब्बत को हिमालय पर बसा देश समझते हैं। ऐसा नहीं है, जहां से हिमालय खत्म होता है, वहां से तिब्बत का पठार शुरू होता है। मगर भूमि की संरचना इस प्रकार मिलीजुली है कि यह बताना कठिन है कि कहां से हिमालय खत्म होता है, कहां तिब्बत शुरू होता है। ऐसे में आपका कन्फयूज होना लाजिमी हैै।
मगर कन्फयूजन पर बात करने के पहले हिस्टी-जियोग्राफी जान लेना अच्छा है। तिब्बत का पठार एक तरफ मध्य एशिया के दूसरे ऊंचे पठारों से जुडा़ है, और दूसरी ओर चीन से। भारत और इस पठार के बीच की लक्ष्मण रेखा हिमालय है, इसलिए हमारा इससे ज्यादा वास्ता नहीं रहा। इसके इतिहास के सफहे, बीजिंग के राजघरानों और मध्य एशिया के चंगेज खान टाइप के लोगों के बीच डोलता रहा है।
बेहद कम आबादी के इस क्षेत्र में सातवीं-आठवीं शताब्दी के दौरान, यह इलाका कबीलों में बंटा, एक होता, फिर बंटता रहा। 1244 में मध्य एशिया से आए मंगोलों ने इस इलाके को जीता। मगर उनका शासन ढीला-ढाला था। तिब्बत के लोग उनके अंडर थे, मगर इन्टर्नल ऑटोनमी थी। इस इलाके में शासन करना दुरूह था। मंगोलों ने बढिय़ा युक्ति निकाली।
यहां ज्यादातर लोग बुद्धिष्ट थे। सो एक लामा को दलाई लामा घोषित किया, जो तिब्बत का लीडर होगा। सारे कबीले वाले दलाई लामा के अंडर में होंगे, और दलाई लामा मंगोलों के अन्डर में। इस अनोखी व्यवस्था में, अलग-अलग क्षेत्र के प्रमुख तो वहीं के कबीले वाले थे, मगर सारे अपने आप को बाबाजी की स्प्रिचुअल कमांड में मानते। न मानते तो मंगोल आकर सजा देते। मगर फिर मंगोल कमजोर हुए और चीन के राजा लोग मजबूत तब यही व्यवस्था चीन के अंडर में चलने लगी।
मंगोलों के अंडर दलाई लामा, याने कि उनके अंडर के कबीले वालों को काफी स्वायत्ता थी। मगर चीन राजा के अंडर वैसी स्वायत्ता नहीं थी। वे अपनी फौज भी गाहे-बगाहे भेजते। 1717 मंगोलों का फिर से अटैक हुआ, उन्होंने दलाई लामा को हटा दिया। चीनी सम्राट ने अपनी फौज लगाकर उन्हें भगाया। फिर से दलाई लामा को बिठाया। लेकिन साथ में अपनी स्थाई फौज तथा रेजीडेंट कमिश्नर भी बिठा दिया।
चीनी कमिश्नर की दखलंदाजी ज्यादा थी। तिब्बत पठार के कुछ इलाके चीन राजा ने डायरेक्ट अपने शासन में ले लिया। 1750 के आते आते, चीन राजा के विरूद्ध कबीलों ने विद्रोह कर दिया। चीन ने विद्रोह दबाया। अब तक नीचे भारत में अंग्रेज आ चुके थे। उन्होंने हिमालयी दर्रों के रास्ते व्यापार के प्रपोजल भेजे। चीन राजा न माने, तो आतंकी गतिविधियां शुरू कर दी गई।
जी हां, ये टैक्टिक उस जमाने में भी थी। नेपाली घुसपैठियों की मदद से तिब्बती कबीलों मे असंतोष भडक़ाया गया। चीन ने स्थाई फौज रख दी। एक और काम किया। दलाई लामा का पद वंशानुगत नहीं होता, उसे तो वर्तमान दलाई लामा चुनता है। चीन ने चुनने की इस व्यवस्था को अपने रेजिडेंट और फौज के सुपरविजन में रख दिया। विदेशियों का आना बैन कर दिया।
आखिरकार 1906 में ब्रिटेन रानी और रूस राजा ने तिब्बत पर चीन राजा की सुजेर्निटी मान ली। सुजेर्निटी का मतलब सरल भाषा में ‘तुम जानो-तुम्हारा काम जाने’ होता है।
1912 चीन मे राजतंत्र खत्म हुआ, नेशनलिस्ट सरकार बनी। तो राजा की फौजों ने अपने आपको नेशनलिस्ट सरकार के अंडर मे मान लिया। 1949 तक यही व्यवस्था चली, जब तक कि माओ ने यहां सीधा नियंत्रण न ले लिया।
संघी इतिहास के अनुसार यह भारत की अक्ष्म्य गलती थी। उनके अनुसार एक स्वत्रंत देश पर चीन ने कब्जा कर लिया और नेहरू चुपचाप बैठे रहे ।
रात की न उतरने पर अलसुबह हैंगओवर में आये ख्बाबो के अनुसार, जुम्मा-जुम्मा दो साल पहले पैदा हुए भारत के प्रधानमंत्री नेहरू को चाहिए था कि तिब्बत में फौज घुसाकर उसे चीन के पंजों से निकाल लेते। दलाई लामा को वापस गद्दी पर बिठाकर जयकारा लगवाते। दलाई लामा की सुरक्षा के लिए दो-चार लाख की फौज वहां छोड़ देते।
ऐसा अगर हो जाता तो भारत की सीमा चीन से कभी मिलती ही नहीं। मुझे लगता है कि भाजपा के इतिहास के कुछ दिग्गज तब के पीएम होते तो ऐसा पक्के तौर पर हो जाता।
इनके पास तीन दिन में तैयार होने वाली सेना जो थी।
(इन सबके बाद भी भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा न माना। अटल बिहारी ने पहली बार तिब्बत को चीन का हिस्सा माना।)
राज ढाल
शिव सेना के बारे में कइयों को बहुत गलतफहमी हो गई है। कई उनको अंडर एस्टीमेट कर रहे है। मैं उनको कहना चाहता हूँ कि वो ऐसी भूल ना करे। सत्ताएं आती हैं जाती हैं समझौते बनते हैं टूटते हैं लेकिन ये सत्ताएं किसी विचारधारा को खत्म नहीं कर सकती।
मराठा कौम को जानना जरूरी है तभी मराठों की स्ट्रेंथ पता चलेगी। ये कौम अपनी कला साहित्य रंगमंच और राजनीति में गहन समझ रखती है। आजादी के बाद बनिया गुजरातियों के महाराष्ट्र पर वर्चस्व ने इन्हें अलग राज्य बनाने को प्रेरित किया।
(तब महाराष्ट्र गुजरात का ही एक हिस्सा था)
सत्ता तब भी अकड़ में थी, गुजराती मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने अलग राज्य की मांग करते मराठाओं को अपने काफिले की चलती कारों से कुचलवा दिया था लेकिन फिर भी महाराष्ट्र वजूद में आया और उसके साथ वजूद में आई शिव सेना यानी शिवाजी की सेना जिसका काम मुख्यत: मराठा अस्मिता की रक्षा करने का था।
जब बिहारी बिहार की अस्मिता की बात कर सकता है तमिलियन तमिल इलम की तो मराठा मराठियों की अस्मिता की बात क्यों नहीं कर सकता?
क्यों उसके राज्य में पहले नौकरी किसी बिहारी को गुजराती को या तमिलियन को मिले?
पहला हक मराठाओं का होना चाहिए मराठाओं को अगर महाराष्ट्र में ही नौकरीं नहीं मिलेगी तो और कहां मिलेगी..?
हां अगर उनको देने के बाद बच जाए तो दूसरो को मिले, इसमें कोई क्षेत्रवाद नहीं है। ये सीधे-सीधे अपने हितों को संरक्षण देना है। इसमें कोई दोष नहीं।
शिवसेना इसी सोच से पनपी
उसका महाराष्ट्र से बाहर आने का कोई इरादा नहीं था लेकिन मुसलमानों के अग्रेशन ने उन्हें अपने विस्तार का मौका दिया। किसी जमाने में मुसलमानों के एक बड़े तबके को अपनी बाजुओं पर बड़ा नाज रहता था। ताकत की जुबान समझते और समझाते थे।
हिन्दुओं को दाल-चावल खाने वाले समझते और गोश्त खाने वालों से क्या मुकाबला करेंगे ऐसी सोच रखते थे। रामजन्म भूमि बाबरी विवाद ने ये सोच और गहरी कर दी।
हिन्दुओं को अग्रेशन सिखाया शिवसेना ने ना कि भाजपा ने। आज मोदी मोदी का जाप करने वाले नहीं जानते कि मोदी बाला साहब ठाकरे के प्रशंसक थे उनका आशीर्वाद लेने जाते थे।
कौन नहीं जानता कि उस समय बाल ठाकरे क्या हैसियत रखते थे। अब चूंकि सत्ता का केंद्रीय पक्ष भाजपा के पास है वो शिवसेना को मामूली समझ रही है जबकि राज्यस्तर पर शिवसैनिक जमीन पर मौजूद है।
बाल ठाकरे मरे हैं, शिवसैनिक नहीं, मराठाओं को उनकी अस्मिता को चुनौती देने वाले इस बात को समझें। शिवसेना सत्ता में रहे या ना रहे, पर शिव सेना महाराष्ट्र में हमेशा रहेगी।
बिहार को उतरप्रदेश को गुजरात को ये बात समझ जानी चाहिए और उन्हें बाबर समझने की भूल नहीं करनी चाहिए ।
वो कट्टर हिन्दू है और उनका हिंदुत्व भाजपा का मोहताज नहीं जहाँ मराठी अस्मिता का सवाल खड़ा होगा वहां मराठी एक ही पाले में होगा।
अगर कोई उन्हें हिन्दू मुस्लिम के खेल में कटघरे में खड़ा करने की चेष्ठा करेगा तो वो जान ले कि मराठाओं को हिन्दू सर्टिफिकेट लेने की नही बल्कि दूसरों को देने की आदत है।
ध्रुव गुप्त
अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो गया।चीन और पाक के छक्के छुड़ाने के लिए सीमा पर राफेल की तैनाती हो गई। न्यूज चैनलों ने मोदी जी की कूटनीति की डंका बजा दी। रिया जेल चली गई।
कंगना को वाई-प्लस सुरक्षा मिल गई। अपने देश में चुनाव जीतने के लिए इससे ज्यादा और क्या चाहिए ? बेरोजगारी, श्रमिकों की बदहाली, गिरते विकास दर, बाढ़ की विनाशलीला, चरमराती शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को इस देश में चुनावी मुद्दा बनने में अभी वक़्त लगेगा।
सो बिहार चुनाव में नीतीश कुमार की अगुवाई में एन.डी.ए आत्मविश्वास से भरा हुआ है।उसके मुकाबले विपक्ष तेजहीन और अपाहिज नजऱ आ रहा है। लालू प्रसाद के चुनावी परिदृश्य से हट जाने के बाद उनके बेटों -तेजस्वी या तेज प्रताप का नेतृत्व स्वीकार करने में राजद की सहयोगी पार्टियों में ही नहीं, खुद राजद के वरिष्ठ नेताओं में भी असमंजस है। इस परिवारवाद के कारण ‘हम’ पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी गठबंधन छोड एन.डी.ए का दामन थाम चुके हैं।
राजद के सबसे अनुभवी, स्वच्छ छवि के नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपनी उपेक्षा से आहत होकर राजद से त्यागपत्र दे दिया है। आने वाले दिनों में अब्दुल बारी सिद्दीकी सहित पार्टी के कुछ और वरिष्ठ नेता उनका अनुसरण कर सकते हैं।
दूसरे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस की छवि राजद के पिछलग्गू की है जिसके पास ऐसा कोई प्रभावशाली चेहरा नहीं है जो अपने बूते पांच-दस सीटें भी जितवा सके। एक-दो जगहों को छोड़ दें तो कम्युनिस्ट पार्टियों की बिहार में पकड़ अब नहीं रही।
बिहार का राजनीतिक समीकरण अभी एन.डी.ए के पक्ष में है।राज्य का प्रमुख विपक्षी दल राजद यदि परिवार के बाहर निकल रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता को वापस लाकर उनके नेतृत्व में चुनाव लडऩे की सोचे तो विपक्ष की एकता भी बनी रह सकती है और एन डी.ए को राज्य में एक बड़ी चुनौती भी मिलेगी। लेकिन क्या यह संभव है ? अगर नहीं तो बिहार एक बार फिर एनडीए शासन के लिए तैयार हैं।
बेबाक विचार डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की गठबंधन सरकार की कई गांठें एक साथ ढीली पड़ रही हैं। कोरोना की महामारी ने सबसे ज्यादा महाराष्ट्र की जनता को ही परेशान कर रखा है। इसके बाद उस पर दो मुसीबतें एक साथ और आन पड़ी है। एक तो फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत की और दूसरी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मराठा आरक्षण को रद्द करने की। कल जिस तरह से कंगना के दफ्तर को मुंबई में आनन-फानन में तोड़ा गया, क्या उससे शिवसेना और ठाकरे की छवि कुछ ऊंची हुई होगी ? बिल्कुल नहीं। शिवसेना यह कहकर अपने हाथ धो रही है कि इस घटना से उसका क्या लेना-देना है ?
यह कार्रवाई तो मुंबई महानगर निगम ने की है। शिवसेना की सादगी पर कौन कुर्बान नहीं हो जाएगा? क्या लोग उसे बताएंगे कि महानगर निगम भी आपकी ही है ? इस घटना से साफ जाहिर होता है कि महाराष्ट्र सरकार ने गुस्से में आकर यह तोड़-फोड़ गैर-कानूनी ढंग से की है। अदालत ने उस पर रोक भी लगाई है। कंगना ने अपने दफ्तर के निर्माण पर यदि 48 करोड़ रु. खर्च किए थे तो महाराष्ट्र सरकार पर कम से कम 60 करोड़ रु. का जुर्माना तो ठोका जाना चाहिए।
शिवसेना का कहना है कि उनकी सरकार ने सिर्फ अवैध निर्माण-कार्यों को ढहाया है। हो सकता है कि यह ठीक हो लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि कंगना को पहले नोटिस क्यों नहीं दिया गया और इसी तरह के अवैध-निर्माण मुंबई में हजारों हैं तो सिर्फ कंगना के दफ्तर को ही निशाना क्यों बनाया गया? यह ठीक है कि कंगना के बयानों में अतिवाद होता है, जैसे मुंबई को पाकिस्तानी ‘आजाद कश्मीर’ कहना और अपने दफ्तर को राम मंदिर बताना और शिव सैनिकों को बाबर के प_े कहना आदि। लेकिन कंगना या कोई भी व्यक्ति इस तरह की अटपटी बातें कहता रहे तो भी उसका महत्व क्या है ? उसे फिजूल तूल क्यों देना ? यह प्रश्न शरद पवार ने भी उठाया है। यह मामला अब भाजपा और शिवसेना के बीच का हो गया है। इसीलिए केंद्र सरकार ने कंगना की सुरक्षा का विशेष प्रबंध किया है। ठाकरे-सरकार को जो दूसरा धक्का लगा है, वह उसके मराठा आरक्षण पर लगा है। सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार के मराठा जाति के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा-संस्थाओं में 16 प्रतिशत आरक्षण के कानून को भी फिलहाल अधर में लटका दिया है। वह अभी लागू नहीं होगा, क्योंकि कुल आरक्षण 64-65 प्रतिशत हो जाएगा, जो कि 50 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है। कई राज्यों ने भी अदालत द्वारा निर्धारित इस सीमा का उल्लंघन कर रखा है। मैं तो चाहता हूं कि नौकरियों में जन्म के आधार पर आरक्षण पूरी तरह खत्म किया जाना चाहिए। सिर्फ शिक्षा में 80 प्रतिशत तक आरक्षण की सुविधा दे दी जानी चाहिए, जन्म के नहीं, जरुरत के आधार पर ! (नया इंडिया की अनुमति से)
-सत्याग्रह ब्यूरो
11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले की जो सबसे ज्यादा देखी गई तस्वीरें हैं उनमें लोग नहीं हैं. वे बार-बार वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के 110 मंजिला टॉवरों और उनसे टकराते जहाजों को ही दिखाती हैं. बहुत हुआ तो टॉवरों के गिरने से उठे धूल के गुबार को.
लेकिन इसी हादसे की एक और तस्वीर है जो बनिस्बत कम देखे जाने के बावजूद इतिहास में अमर हो गई है. इसमें खुद को बचाने के लिए कूदा एक शख्स दिखता है. छटपटाहट के बगैर वह जैसे किसी तीर की तरह धरती की तरफ जाता नजर आता है. फोटो पत्रकारिता के इतिहास की सबसे चर्चित तस्वीरों में से एक इस तस्वीर का नाम है द फॉलिंग मैन.
यह तस्वीर एसोसिएटेड प्रेस के फोटोग्राफर रिचर्ड ड्रूयू ने खींची थी. एक साक्षात्कार में रिचर्ड उस क्षण को याद करते हुए बताते हैं, ‘लोग हादसे वाली जगह से दूर भाग रहे थे. लेकिन हमारा पेशा ऐसा है कि हमें ऐसी जगहों की तरफ भागना पड़ता है.’
रिचर्ड बताते हैं कि इसी दौरान उन्होंने 110 मंजिला टॉवर की ऊपर मंजिलों की खिड़कियों पर खड़े कई लोगों को जान बचाने के लिए कूदते देखा. इन्हीं में यह शख्स भी था जो 106वीं मंजिल से कूदा था. रिचर्ड ने तेजी से गिरते इस व्यक्ति की कई तस्वीरें लीं. इनमें से एक फ्रेम ऐसा था जिसमें यह शख्स किसी तीर की तरह नीचे जाता दिख रहा था. अगले दिन न्यूयॉर्क टाइम्स सहित कई प्रकाशनों ने इसे अपने यहां छापा.
हालांकि पाठकों ने इस पर बहुत नाराजगी भरी प्रतिक्रिया दी. ज्यादातर का कहना था कि जिस शख्स का कुछ सेकेंड बाद मरना तय हो, उसकी तस्वीर छापकर प्रेस ने अच्छा काम नहीं किया है. यही वजह है कि बाद में इस तस्वीर की कम ही चर्चा हुई. लेकिन आज इसे किसी त्रासदी को सबसे प्रभावशाली तरीके से बयां करने वाली ऐतिहासिक तस्वीरों में से एक माना जाता है.
लेकिन यह शख्स था कौन? यह अब तक कयास का ही विषय है क्योंकि सरकार ने उसकी पहचान कभी नहीं बताई. उस दिन इस तरह से करीब 200 लोगों ने जान बचाने के लिए छलांग लगाई थी. पहले कहा गया कि ये 106वीं मंजिल पर बने विंडोज ऑन द वर्ल्ड नाम के रेस्टोरेंट कम बार में काम करने वाले पेस्ट्री शेफ नॉर्बेर्तो हेर्नांडिस थे. उनके परिवार के लोगों ने भी यह बात कही. लेकिन जब उन्होंने रिचर्ड ड्र्यू की सारी तस्वीरों और कपड़ों को ध्यान से देखा तो पता चला कि ऐसा नहीं था.
एक दूसरे अनुमान में कहा गया कि यह शख्स जॉनाथन ब्रिली थे. 43 साल के ब्रिली भी विंडोज ऑन द वर्ल्ड में काम करते थे और ऑडियो टेकनीशियन थे. उनके एक सहकर्मी और भाई ने भी इसकी पुष्टि की. हालांकि इस बात पर भी कोई अंतिम राय नहीं बन पाई है.
खैर, वह जो भी रहा हो, माना जाता है कि यह तस्वीर उस शख्स से ज्यादा उस त्रासदी की कहानी कहती है जिसमें दो पक्षों की लड़ाई का शिकार किसी ऐसे को बनना पड़ता है जिसका इस लड़ाई से कोई लेना-देना न हो. (satyagrah)


