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अटल बिहारी वाजपेयी 15 अगस्त को लाल क़िले से भाषण पढ़कर क्यों देते थे?
16-Aug-2020 9:10 AM
अटल बिहारी वाजपेयी 15 अगस्त को लाल क़िले से भाषण पढ़कर क्यों देते थे?

-रेहान फ़ज़ल

जनवरी 1977 की एक सर्द शाम. दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की एक रैली थी. रैली यूँ तो 4 बजे शुरू हो गई थी, लेकिन अटल बिहारी बाजपेयी की बारी आते आते रात के साढ़े नौ बज गए थे. जैसे ही वाजपेयी बोलने के लिए खड़े हुए, वहाँ मौजूद हज़ारों लोग भी खड़े हो कर ताली बजाने लगे.

अचानक वाजपेयी ने अपने दोनों हाथ उठा कर लोगों की तालियों को शाँत किया. अपनी आँखें बंद की और एक मिसरा पढ़ा, ''बड़ी मुद्दत के बाद मिले हैं दीवाने....'' वाजपेयी थोड़ा ठिठके. लोग आपे से बाहर हो रहे थे. वाजपेयी ने फिर अपनी आंखें बंद कीं. फिर एक लंबा पॉज़ लिया और मिसरे को पूरा किया, ' कहने सुनने को बहुत हैं अफ़साने.'

इस बार तालियों का दौर और लंबा था. जब शोर रुका तो वाजपेयी ने एक और लंबा पॉज़ लिया और दो और पंक्तियाँ पढ़ीं, ''खुली हवा में ज़रा सांस तो ले लें, कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने?''

उस जनसभा में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह बताती हैं, ''ये शायद 'विंटेज वाजपेयी' का सर्वश्रेष्ठ रूप था. हज़ारों हज़ार लोग कड़कड़ाती सर्दी और बूंदाबांदी के बीच वाजपेयी को सुनने के लिए जमा हुए थे. इसके बावजूद कि तत्कालीन सरकार ने उन्हें रैली में जाने से रोकने के लिए उस दिन दूरदर्शन पर 1973 की सबसे हिट फ़िल्म 'बॉबी' दिखाने का फ़ैसला किया था. लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ था. बॉबी और वाजपेयी के बीच लोगों ने वाजपेयी को चुना. उस रात उन्होंने सिद्ध किया कि उन्हें बेबात ही भारतीय राजनीति का सर्वश्रेष्ठ वक्ता नहीं कहा जाता.''

भारतीय संसद में हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वक्ता

पूर्व लोकसभा अध्यक्ष अनंतशयनम अयंगार ने एक बार कहा था कि लोकसभा में अंग्रेज़ी में हीरेन मुखर्जी और हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी से अच्छा वक्ता कोई नहीं है.

जब वाजपेयी के एक नज़दीकी दोस्त अप्पा घटाटे ने उन्हें यह बात बताई तो वाजपेयी ने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले, "तो फिर बोलने क्यों नहीं देता."

हालांकि, उस ज़माने में वाजपेयी बैक बेंचर हुआ करते थे, लेकिन नेहरू बहुत ध्यान से वाजपेयी द्वारा उठाए गए मुद्दों को सुना करते थे.

नेहरू थे वाजपेयी के मुरीद

किंगशुक नाग अपनी किताब 'अटलबिहारी वाजपेयी- ए मैन फ़ॉर ऑल सीज़न' में लिखते हैं कि एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए कहा था, "इनसे मिलिए. ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं. हमेशा मेरी आलोचना करते हैं, लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूँ."

एक बार एक दूसरे विदेशी मेहमान से नेहरू ने वाजपेयी का परिचय संभावित भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी कराया था. वाजपेयी के मन में भी नेहरू के लिए बहुत इज़्ज़त थी.

साउथ ब्लॉक में नेहरू का चित्र वापस लगवाया

1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभालने साउथ ब्लॉक के अपने दफ़्तर गए तो उन्होंने नोट किया कि दीवार पर लगा नेहरू का एक चित्र ग़ायब है.

किंगशुक नाग बताते हैं कि उन्होंने तुरंत अपने सचिव से पूछा कि नेहरू का चित्र कहां है, जो यहां लगा रहता था.

उनके अधिकारियों ने ये सोचकर उस चित्र को वहां से हटवा दिया था कि इसे देखकर शायद वाजपेयी ख़ुश नहीं होंगे.

वाजपेयी ने आदेश दिया कि उस चित्र को वापस लाकर उसी स्थान पर लगाया जाए जहां वह पहले लगा हुआ था.

प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि जैसे ही वाजपेयी उस कुर्सी पर बैठे जिस पर कभी नेहरू बैठा करते थे, उनके मुंह से निकला, "कभी ख़्वाबों में भी नहीं सोचा था कि एक दिन मैं इस कमरे में बैठूँगा."

विदेश मंत्री बनने के बाद उन्होंने नेहरू के ज़माने की विदेश नीति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं किया.

भाषणों के लिए बहुत मेहनत करते थे वाजपेयी

वाजपेयी के निजी सचिव रहे शक्ति सिन्हा बताते हैं कि सार्वजनिक भाषणों के लिए वाजपेयी कोई ख़ास तैयारी नहीं करते थे, लेकिन लोकसभा का भाषण तैयार करने के लिए वो ख़ासी मेहनत किया करते थे.

शक्ति के मुताबिक़, "संसद के पुस्तकालय से पुस्तकें, पत्रिकाएं और अख़बार मंगवाकर वाजपेयी देर रात अपने भाषण पर काम करते थे. वो पॉइंट्स बनाते थे और उस पर सोचा करते थे. वो पूरा भाषण कभी नहीं लिखते थे, लेकिन उनके दिमाग़ में पूरा ख़ाका रहता था कि अगले दिन उन्हें लोकसभा में क्या-क्या बोलना है."

मैंने शक्ति सिन्हा से पूछा कि मंच पर इतना सुंदर भाषण देने वाले वाजपेयी हर 15 अगस्त को लाल किले से दिया जाने वाला भाषण पढ़कर क्यों देते थे?

शक्ति का जवाब था कि ''वह लाल किले की प्राचीर से कोई चीज़ लापरवाही में नहीं कहना चाहते थे. उस मंच के लिए उनके मन में पवित्रता का भाव था. हम लोग अक्सर उनसे कहा करते थे कि आप उस तरह से बोलें जैसे आप हर जगह बोलते हैं, लेकिन वह हमारी बात नहीं मानते थे. यह नहीं था कि वो किसी और का लिखा भाषण पढ़ते थे. हम लोग उनको इनपुट देते थे जिसको वो बहुत काट-छांट के बाद अपने भाषण में शामिल करते थे.''

आडवाणी को कॉम्पलेक्स

अटल बिहारी वाजपेयी के काफ़ी क़रीब रहे उनके साथी लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार बीबीसी को बताया था कि अटलजी के भाषणों को लेकर वह हमेशा हीनभावना से ग्रस्त रहे.

आडवाणी ने बताया था, "जब अटलजी चार वर्ष तक भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके तो उन्होंने मुझसे अध्यक्ष बनने की पेशकश की. मैंने ये कहकर मना कर दिया कि मुझे हज़ारों की भीड़ के सामने आपकी तरह भाषण देना नहीं आता. उन्होंने कहा संसद में तो तुम अच्छा बोलते हो. मैंने कहा संसद में बोलना एक बात है और हज़ारों लोगों के सामने बोलना दूसरी बात. बाद में मैं पार्टी अध्यक्ष बना, लेकिन मुझे ताउम्र कॉम्पलेक्स रहा कि मैं वाजपेयी जैसा भाषण कभी नहीं दे पाया."

कई दफ़ा आडवाणी ने राजनीतिक पटल पर भी वाजपेई से आगे निकलने की कोशिशें की. वरिष्ठ न्यायाधीश ए जी नूरानी लिखते हैं, ''जुलाई 2001 में अडवाणी ने उनके फ़ैसले को खारिज करते हुए आगरा सम्मेलन को खराब कर दिया था. इसके बाद अप्रैल 2002 में उन्होंने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चुनाव में वाजपेई की पसंद को भी खारिज किया. इसके बाद वाजपेई ने उन्हें उप प्रधानमंत्री बनाया.''

अंतर्मुखी और शर्मीले

दिलचस्प बात यह है कि हज़ारों लोगों को अपने भाषण से मंत्रमुग्ध कर देने वाले वाजपेयी निजी जीवन में अंतर्मुखी और शर्मीले थे.

उनके निजी सचिव रहे शक्ति सिन्हा बताते हैं कि ''अगर चार-पांच लोग उन्हें घेरे हुए हों तो उनके मुंह से बहुत कम शब्द निकलते थे. लेकिन वो दूसरों की कही बातों को बहुत ध्यान से सुनते थे और उस पर बहुत सोच-समझकर बारीक प्रतिक्रिया देते थे. एक दो ख़ास दोस्तों के सामने वो खुलकर बोलते थे, लेकिन वो बैक स्लैपिंग वेराइटी कभी नहीं रहे.''

मणिशंकर अय्यर याद करते हैं कि जब वाजपेयी पहली बार 1978 में विदेश मंत्री के तौर पर पाकिस्तान गए तो उन्होंने सरकारी भोज में गाढ़ी उर्दू में भाषण दिया. पाकिस्तान के विदेश मंत्री आगा शाही चेन्नई में पैदा हुए थे. उनको वाजपेयी की गाढ़ी उर्दू समझ में नहीं आई.

शक्ति सिन्हा बताते हैं कि ''एक बार न्यूयॉर्क में प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ वाजपेयी से बात कर रहे थे. थोड़ी देर बाद उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करना था. उन्हें चिट भिजवाई गई कि बातचीत ख़त्म करें ताकि वो भाषण देने जा सकें. चिट देखकर नवाज़ शरीफ़ ने वाजपेयी से कहा, "इजाज़त है... फिर उन्होंने अपने को रोका और पूछा आज्ञा है." वाजपेयी ने हंसते हुए जवाब दिया, "इजाज़त है."

वाजपेयी की स्कूटर सवारी

वाजपेयी अपनी सहजता और मिलनसार स्वभाव के लिए हमेशा मशहूर रहे हैं. मशहूर पत्रकार और कई अख़बारों के संपादक रहे एच के दुआ बताते हैं, "एक बार मैं अपने स्कूटर से एक संवाददाता सम्मेलन को कवर करने काँस्टिट्यूशन क्लब जा रहा था जिसे अटल बिहारी वाजपेयी संबोधित करने जा रहे थे. उस ज़माने में मैं एक युवा रिपोर्टर हुआ करता था. रास्ते में मैंने देखा कि जनसंघ के अध्यक्ष वाजपेयी एक ऑटो को रोकने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने अपना स्कूटर धीमा करके वाजपेयी से ऑटो रोकने का कारण पूछा. उन्होंने बताया कि उनकी कार ख़राब हो गई है. मैंने कहा कि आप चाहें तो मेरे स्कूटर के पीछे की सीट पर बैठकर काँस्टिट्यूशन क्लब चल सकते हैं."

उन्होंने बताया, "वाजपेयी मेरे स्कूटर पर पीछे बैठकर उस संवाददाता सम्मेलन में पहुंचे जिसे वो ख़ुद संबोधित करने वाले थे. जब हम वहाँ पहुंचे तो जगदीश चंद्र माथुर और जनसंघ के कुछ नेता हमारा इंतज़ार कर रहे थे. माथुर ने हमें देखते ही चुटकी ली, 'कल एक्सप्रेस में छपेगा, वाजपेयी राइड्स दुआज़ स्कूटर.' वाजपेयी ने खिलखिला कर जवाब दिया, 'नहीं हेडलाइन होगी दुआ टेक्स वाजपेयी फॉर अ राइड.''

नाराज़गी से दूर दूर का वास्ता नहीं

शिव कुमार पिछले 51 सालों से अटल बिहारी वाजपेयी के साथ रहे हैं. ख़ुद उनके शब्दों में वो एक साथ अटल के चपरासी, रसोइये, बॉडीगार्ड, सचिव और लोकसभा क्षेत्र प्रबंधक की भूमिका निभाते रहे हैं.

जब मैंने उनसे पूछा कि क्या अटल बिहारी वाजपेयी को कभी ग़ुस्सा आता था तो उन्होंने एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाया, "उन दिनों मैं उनके साथ 1, फ़िरोज़शाह रोड पर रहा करता था. वो बेंगलुरू से दिल्ली वापस लौट रहे थे. मुझे उन्हें लेने हवाई अड्डे जाना था. जनसंघ के एक नेता जेपी माथुर ने मुझसे कहा चलो रीगल में अंग्रेज़ी पिक्चर देखी जाए. छोटी पिक्चर है जल्दी ख़त्म हो जाएगी. उन दिनों बेंगलुरू से आने वाली फ़्लाइट अक्सर देर से आती थी. मैं माथुर के साथ पिक्चर देखने चला गया."

शिव कुमार ने बताया, "उस दिन पिक्चर लंबी खिंच गई और बेंगलुरू वाली फ़्लाइट समय पर लैंड कर गई. मैं जब हवाई अड्डे पहुंचा तो पता चला कि फ़्लाइट तो कब की लैंड कर चुकी. घर की चाबी मेरे पास थी. मैं अपने सारे देवताओं को याद करता हुआ 1, फ़िरोज़ शाह रोड पहुंचा. वाजपेयी अपनी अटैची पकड़े लॉन में टहल रहे थे. उन्होंने मुझसे पूछा कहाँ चले गए थे? मैंने झिझकते हुए कहा कि पिक्चर देखने गया था. वाजपेयी ने मुस्कराकर कहा यार हमें भी ले चलते. चलो कल चलेंगे. वो मुझ पर नाराज़ हो सकते थे लेकिन उन्होंने मेरी उस लापरवाही को हंसकर टाल दिया."

जब वाजपेयी रामलीला मैदान में सोए000

शिव कुमार एक और किस्सा सुनाते हैं. 'वाजपेयी हमेशा इस बात का ध्यान रखते ते कि उनकी वजह से किसी दूसरे को कोई परेशानी न हो. बहुत समय पहले जनसंघ का दफ़्तर अजमेरी गेट पर हुआ करता था. वाजपेयी, आडवाणी और जे पी माथुर वहीं रहा करते थे. एक दिन वाजपेयी रात की ट्रेन से दिल्ली लौटने वाले थे. उनके लिए खाना बना कर रख दिया गया था. रात 11 बजे आने वाली गाड़ी 2 बजे पहुंची."

उन्होंने बताया, 'सवेरे 6 बजे दरवाज़े की घंटी बजी तो मैंने देखा वाजपेयी सूटकेस और होल्डाल (बड़ा बैग) लिए दरवाज़े पर खड़े हैं. हमने पूछा, आप तो रात को आने वाले थे. वाजपेयी ने कहा, गाड़ी 2 बजे पहुंची तो आप लोगों को जगाना ठीक नहीं समझा. इसलिए मैं रामलीला मैदान में जा कर सो गया.'

शिव कुमार बताते हैं कि 69 साल की उम्र में भी वाजपेयी डिज़नीलैंड की राइड्स लेने का आनंद नहीं चूकते थे. अपनी अमरीका यात्राओं के दौरान वो अक्सर अपने कुर्ते धोती को सूटकेस में रख कर पतलून और कमीज़ पहन लेते थे. न्यूयार्क की सड़कों पर उन्होंने कई बार अपने सुरक्षाकर्मियों के लिए साफ़्ट ड्रिंक्स और आइसक्रीम ख़रीदी है. वो अपनी नातिन निहारिका को लिए खिलौने ख़रीदने के लिए खिलौनों की मशहूर दुकान श्वार्ज़ जाना पसंद करते थे. उनका एक और शौक था, न्यूयार्क की पेट शाप्स में जाना जहाँ से वो अपने कुत्तों सैसी और सोफ़ी और बिल्ली रितु के लिए कालर्स और खाने का सामान ख़रीदा करते थे.

उम्दा खाने के शौकीन

वाजपेयी को खाना खाने और बनाने का बहुत शौक़ था. मिठाइयां उनकी कमज़ोरी थी. रबड़ी, खीर और मालपुए के वो बेहद शौक़ीन थे. आपातकाल के दौरान जब वो बेंगलुरू जेल में बंद थे तो वो आडवाणी, श्यामनंदन मिश्र और मधु दंडवते के लिए ख़ुद खाना बनाते थे.

शक्ति सिन्हा बताते हैं, "जब वो प्रधानमंत्री थे तो सुबह नौ बजे से एक बजे तक उनसे मिलने वालों का तांता लगा करता था. आने वालों को रसगुल्ले और समोसे वग़ैरह सर्व किए जाते थे. हम सर्व करने वालों को ख़ास निर्देश देते थे कि साहब के सामने समोसे और रसगुल्ले की प्लेट न रखी जाए."

शक्ति सिन्हा कहते हैं, "शुरू में वह शाकाहारी थे लेकिन बाद में वह मांसाहारी हो गए थे. उन्हें चाइनीज़ खाने का ख़ास शौक था. वो हम लोगों की तरह एक सामान्य व्यक्ति थे. मैं कहूंगा- ही वाज़ नाइदर अ सेंट नॉर सिनर. ही वाज़ ए नॉरमल ह्यूमन बीइंग, ए वार्म हार्टेड ह्यूमन बीइंग."

शेरशाह सूरी के बाद सबसे अधिक सड़कें वाजपेयी ने बनवाईं

अटल बिहारी वाजपेयी के पसंदीदा कवि थे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंशराय बच्चन, शिवमंगल सिंह सुमन और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़. शास्त्रीय संगीत भी उन्हें बेहद पसंद था. भीमसेन जोशी, अमजद अली खाँ और कुमार गंधर्व को सुनने का कोई मौक़ा वह नहीं चूकते थे.

किंगशुक नाग का मानना है कि हालांकि वाजपेयी की पैठ विदेशी मामलों में अधिक थी लेकिन अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उन्होंने सबसे ज़्यादा काम आर्थिक क्षेत्र में किया.

वे कहते हैं, "टेलिफ़ोन और सड़क निर्माण में वाजपेयी के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता. भारत में आजकल जो हम हाइवेज़ का जाल बिछा हुआ देखते हैं उसके पीछे वाजपेयी की ही सोच है. मैं तो कहूँगा कि शेरशाह सूरी के बाद उन्होंने ही भारत में सबसे अधिक सड़कें बनवाई हैं."

गुजरात दंगों को लेकर हमेशा असहज

रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत अपनी किताब 'द वाजपेयी इयर्स' में लिखते हैं कि वाजपेयी ने गुजरात दंगों को अपने कार्यकाल की सबसे बड़ी ग़लती माना था.

किंगशुक नाग भी कहते हैं गुजरात दंगों को लेकर वह कभी सहज नहीं रहे. वो चाहते थे कि इस मुद्दे पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें.

नाग कहते हैं, "उस समय के वहाँ के राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी के एक बहुत क़रीबी ने मुझे बताया था कि मोदी के इस्तीफ़े की तैयारी हो चुकी थी लेकिन गोवा राष्ट्रीय सम्मेलन आते-आते पार्टी के शीर्ष नेता मोदी के बारे में वाजपेयी की राय बदलने में सफल हो गए थे.

वरिष्ठ न्यायाधीश एजी नूरानी ने 2004 में फ्रंटलाइन के लिए लिखे अपने चर्चित लेख द मैन बिहाइंड द इमेज़ में गुजरात दंगों के बारे में लिखा है, "गुजरात दंगों पर अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी की प्रतिक्रियाएं मानवता और नैतिकता से प्रेरित नहीं थीं. वे पहले दिन से ही राजनीति से प्रेरित थीं."

कठोर निर्णय लेने की क्षमता नहीं

जाने माने पत्रकार एच के दुआ का भी मानना है कि वाजपेयी के पूरे चरित्र में एक कमी साफ़ तौर पर उभर कर सामने आती है, महत्वपूर्ण मौकों पर मज़बूत फ़ैसले न ले पाना.

दुआ कहते हैं, "गुजरात के मामले में वो मोदी को हटाना चाहते थे लेकिन पार्टी के नेताओं के दबाव में आ कर वो ये फ़ैसला न ले सके. अयोध्या में जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ तो उन्होंने उस प्रकरण से अपनी दूरी तो बनाई लेकिन चोटी के नेता होते हुए भी वो ऐसा होने से रोक नहीं पाए."

कुछ लोग उनके बाबरी विध्वंस से एक दिन पहले लखनऊ में दिए गए भाषण का भी ज़िक्र करते है जिसमें उन्होंने ज़मीन समतल करने की बात कही थी.

उन्होंने ये भी कहा था, "मैं नहीं जानता कि कल अयोध्या में क्या होगा. मैं वहाँ जाना चाहता था, लेकिन मुझसे दिल्ली वापस जाने के लिए कहा गया है."

बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि ये कह कर उनका उद्देश्य किसी को भड़काना नहीं था.

1998 में भी जब वो जसवंत सिंह को अपने मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, आरएसएस के दबाव में उन्हें अपना फ़ैसला बदलना पड़ा. जब पार्टी किसी मुद्दे पर ज़ोर देने लगती थी, चाहे वो जितना भी गलत मुद्दा हो, वो उससे दब जाते थे. वो तूफ़ान को अपने ऊपर से गुज़र जाने देते थे, लेकिन इंदिरा गाँधी की तरह उनमें उसे 'हेड ऑन' लेने की क्षमता नहीं थी.'

कंधार विमान अपहरण

वाजपेयी की इस मुद्दे पर भी आलोचना हुई जिस तरह से उन्होंने कंधार हाईजैकिंग मामले को हैंडिल किया. विमान अपहरणकर्ताओं के दबाव में वो ना सिर्फ़ तीन चरमपंथियों को रिहा करने के लिए राज़ी हो गए. उनकी इस बात पर भी किरकिरी हुई कि भारत का विदेश मंत्री उन चरमपंथियों को अपने विमान में बैठा कर कंधार ले गया.

'इंडिया शाइनिंग' उल्टा पड़ा

वाजपेयी से एक और राजनीतिक चूक तब हुई जब उन्हें लगा कि इंडिया शाइनिंग प्रचार चुनाव में उनकी नैया पार लगा देगा.

लेकिन भारतीय मतदाताओं ने उनको ग़लत साबित किया और वो 2004 का संसदीय चुनाव हार गए.(bbc)


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