विचार/लेख
-आलोक जोशी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नए टैक्सेशन सिस्टम की शुरुआत कर दी है. खबर तो पहले से आम थी लेकिन अब औपचारिक एलान हो गया है. नए सिस्टम के दो हिस्से हैं, ट्रांसपेरेंट टैक्सेशन यानी पारदर्शी कर व्यवस्था और ऑनरिंग द ऑनेस्ट या ईमानदार का सम्मान. दोनों में ही नया क्या है यह अभी पता चलना बाकी है.
ट्रांसपेरेंट टैक्सेशन की खास बातें पहले ही बताई जा चुकी थीं. सूत्रों से भी और सरकारी एलान के जरिए भी. इसमें सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि इनकम टैक्स अफसर या अफसरों का डर खत्म होगा, उनकी मनमानी खत्म होगी और मुट्ठी गर्म करके अपनी फाइल क्लियर करवा लेने की व्यवस्था भी खत्म होगी.
यहां असेसमेंट भी फेसलेस होगा, अपील भी फेसलेस होगी और टैक्सपेयर चार्टर या करदाता का विधान भी जारी किया गया है जिसमें टैक्स भरने वाले के कर्तव्य और अधिकार दोनों शामिल हैं.
प्रधानमंत्री ने कहा कि आम आदमी की ईमानदारी पर विश्वास करके ही यह व्यवस्था चल सकती है. जबकि पहले ये व्यवस्था शुरुआत में ही ईमानदार करदाता को कटघरे में खड़ा करके चलती थी. चार्टर बनाकर नियम साफ करने की वजह भी यही बताई गई कि पॉलिसी साफ होती है तो ग्रे एरिया यानी भ्रम की गुंजाइश खत्म हो जाती है और फिर बात अफसरों के विवेक पर नहीं टिकी रहती.
इस बात को दूसरी तरफ से देखें तो आम आदमी को टैक्स अफसरों के हाथों परेशान न होना पड़े यह इंतज़ाम किया गया है. और यह सबसे पहले बता दिया गया कि इनकम टैक्स गजेटेड ऑफिसर्स एसोसिएशन ने पत्र लिखकर इस काम में सहयोग का भरोसा दिलाया है.
टैक्सपेयर में भरोसा जताने का फायदा कैसे होता है इसका उदाहरण भी प्रधानमंत्री ने बताया कि विवाद से विश्वास योजना में तीन करोड़ मामलों को सुलझाया जा चुका है. वरना ये मुकदमे बरसों चलते रहते.
फेसलेस सिस्टम के साथ ही अब यह भी ज़रूरी नहीं रहेगा कि आपकी इनकम टैक्स फाइल आपके ही शहर के इनकम टैक्स अफसर के पास जाए. खासकर स्क्रूटिनी का मामला रैंडम तरीके से देश के किसी भी टैक्स अधिकारी को आवंटित किया जाएगा. वो फेसलेस टीम के पास जा सकता है. उनके आदेश का रिव्यू भी किसी और शहर की किसी और टीम के पास जा सकता है.
फेसलेस टीम कौन होगी, उसमें कौन होगा, यह भी कंप्यूटर रैंडम तरीके से तय करेगा. करदाता और इनकम टैक्स अफसर को, दबाव बनाने का, जान पहचान का मौका कम हो गया. टैक्स की मुकदमेबाज़ी भी कम हो जाएगी. ऐसा ही तरीका अपील के लिए भी इस्तेमाल होगा. हालांकि अपील का सिस्टम शुरू होने में कुछ वक्त है. वो दीनदयाल जयंती यानी 25 सितंबर से लागू किया जाएगा.
ईमानदार का सम्मान
एलान का दूसरा बड़ा हिस्सा है ऑनरिंग द ऑनेस्ट, यानी ईमानदार का सम्मान. इसपर चर्चा बहुत समय से चल रही है कि टैक्स भरनेवालों को रेलवे रिजर्वेशन में कोटा मिल सकता है, एयरपोर्ट पर लाउंज इस्तेमाल करने की सुविधा मिल सकती है और यह भी हो सकता है कि चोटी के ईमानदार करदाताओं को प्रधानमंत्री के साथ चाय पर चर्चा का न्योता भी मिल जाए.
लेकिन यहां नया क्या होने जा रहा है? इनकम टैक्स देनेवालों को पासपोर्ट बनवाने में, इमिग्रेशन क्लियरेंस में और यहां तक कि सज़ा होने पर जेल में भी एक अलग दर्जा मिलता रहा है. पिछले साल लागू व्यवस्था में इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की तरफ से अनेक लोगों को सर्टिफिकेट भेजे गए हैं. गोल्ड, सिल्वर और ब्रॉंज कैटेगरी के सर्टिफिकेट.
अब यह पता लगाने का क्या तरीका है कि कौन ज्यादा ईमानदार है और कौन कम? तो जिसने जितना टैक्स भरा उसे उतना ईमानदार मान लिया गया. यानी गोल्ड या उससे ऊपर की कैटेगरी में तो वही लोग आएंगे जिन्हें यूं भी प्रधानमंत्री के साथ चाय पीने का मौका मिलता ही रहता है और जिनके लिए एयरपोर्ट लाउंज के दरवाज़े खुले ही रहते हैं. फिर कम कमाई वाला इंसान खुद को ज्यादा ईमानदार कैसे साबित करे?
इस सवाल का जवाब तो आएगा. लेकिन प्रधानमंत्री ने एक और सवाल भी खड़ा किया है जिसका जवाब उन्हें देश से यानी हम सब से चाहिए. उन्होंने बहुत दिनों के बाद एक बार फिर मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस का नारा याद किया और कहा कि एक वक्त था कि मजबूरी और दबाव में लिए गए फैसलों को रिफॉर्म कहा जाता था. अब ये सोच और अप्रोच दोनों बदल गई है. जो बदलाव किए गए हैं ये नए भारत के नए गवर्नेंस मॉडल का प्रयोग है.
साथ ही उन्होंने याद दिलाया कि टैक्सपेयर को टैक्स इसलिए देना है क्योंकि उसी से सिस्टम चलता है. इस पैसे के बल पर ही देश एक बहुत बड़ी आबादी के प्रति दायित्व निभा सकता है. और सरकार का कर्तव्य है कि टैक्स की पाई पाई का सदुपयोग करे. ईमानदार टैक्सपेयर राष्ट्रनिर्माण में बड़ी भूमिका निभाता है, वो आगे बढ़ता है तो देश भी आगे बढ़ता है.
यहां उनकी तरफ से एक अपील भी आई, एक सवाल भी और शायद भविष्य के लिए एक संकेत भी. उन्होंने बताया कि पिछले छह सात साल में देश में इनकम टैक्स रिटर्न भरनेवालों की संख्या में ढाई करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है. लेकिन अब भी एक सौ तीस करोड़ के देश में डेढ़ करोड़ लोग ही इनकम टैक्स जमा करते हैं. प्रधानमंत्री ने कहा कि इसपर हम सबको चिंतन करने की जरूरत है. देश को आत्मचिंतन करना होगा. जो टैक्स देने में सक्षम है, लेकिन टैक्स नेट में नहीं हैं, उन्हें स्वप्रेरणा से आगे आकर टैक्स भरने की ओर बढ़ना होगा.
कितने लोग इससे प्रेरणा लेंगे, पता नहीं. लेकिन जैसे एलपीजी पर सब्सिडी छोड़ने की अपील के बाद टैक्स भरनेवालों के लिए वो सब्सिडी खत्म करने का एलान हुआ उसे याद ज़रूर करना चाहिए. अब जबकि इनकम टैक्स रिटर्न में ब्योरा पहले से भरकर आ रहा है. फॉर्म 26एएस में तमाम ऐसी चीज़ें जोड़ दी गई हैं जो अभी नहीं थीं. और ज्यादातर बड़े लेनदेन छुपाना मुश्किल होता जा रहा है, वहां इन अपीलों को भी नजरंदाज करनेवाले लोग कब तक खैर मनाते रहेंगे कहना बहुत मुश्किल भी नहीं है.(bbc)
प्रकाश दुबे
4 मई 1947 को गांधी की माउंटबेटन से भेंट को माउंटबेटन ने गोपनीय रखा। 27 मई को कांग्रेस कार्यसमिति ने विभाजन के पक्ष में मत दिया। गांधी ने असहमत थे। कहा-विभाजन के विचार से ही देश भयभीत है। 3 जून को विभाजन की योजना रखने के बाद लार्ड माउंटबेटन (गांधी जी के सायंकाल प्रार्थना सभा में जाने से पहले) फिर मुलाकात की। कहा-यह मेरी मजबूरी है। 14-15 जून की बैठक में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 4 सौ में से 218 सदस्य उपस्थित रहे। लंबी, तीखी बहस के बाद 151 ने विभाजन के पक्ष में मत दिया। दूसरी उपेक्षा का उल्लेख प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगभग हर चुनाव प्रचार के दौरान करते हैं। गांधी चाहते थे कि सभी दल और व्यक्ति समान अवसर के सिद्धांत पर सत्ता पाने का प्रयास करें। आज़ाद भारत के पहले मंत्रिमंडल में डा भीमराव आम्बेडकर को शामिल करने में जवाहर लाल नेहरू की हिचक थी। आम्बेडकर ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा नहीं लिया। राजकुमारी अमृत कौर से जानकारी मिलने पर बापू ने कहा-जवाहर से कहना पूरे देश को आज़ादी मिली है, सिर्फ उसे नहीं। गाँधीजी ने 29 जनवरी 1948 की रात मसौदा तैयार किया-
‘भारत को...सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजा़दी हासिल करना अभी बाकी है। भारत में लोकतंत्र के लक्ष्य की ओर बढ़ते समय सैनिक सत्ता पर जनसत्ता के आधिपत्य के लिए संघर्ष होना अनिवार्य है। हमें कांग्रेस को राजनीतिक दलों और साम्प्रदायिक संस्थाओं की अस्वस्थ स्पर्धा से दूर रखना है। ऐसे ही कारणों से अ.भा. कांग्रेस कमेटी मौजूदा संस्था को भंग करने और नीचे लिखे नियमों के अनुसार लोक सेवक संघ के रूप में उसे विकसित करने का निश्चय करती है।" अगले ही दिन उनकी हत्या कर दी गई। कांग्रेस पार्टी को भंग नहीं हुई। वंशवाद के आरोप से बचने के लिए पिछले वर्ष राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया। देश भर में घूमने के लिए राहुल मुक्त रहना चाहते थे। कुछ कांग्रेसी गांधी परिवार को खूंटी पर टंगी शेरवानी समझते हैं। उसे पहनते ही शपथ ग्रहण के लिए न्यौता पक्का है। अब अनिश्चितता और असमंजस है। उप मुख्यमंत्री और प्रदेश पार्टी के अध्यक्ष पद की दोहरी पगड़ी बांधने के बावजूद सचिन पायलट ने बगावत की। महाराष्ट्र में मंत्री ही पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष है। मध्य प्रदेश में प्रदेशाध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष एक ही व्यक्ति है। भूपेश बघेल अपवाद हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष पद छोड़ा। 12 महीने में कांग्रेस अध्यक्ष नहीं चुन सकी। राजनीतिक दल के रूप में मान्यता रद्द होने का अंदेशा है। कांग्रेस को सत्ता और महत्ता दिलाने वाले महात्मा गांधी ने 1942 में फिरोज घेंडी को अपना गांधी सरनेम दिया। ताकि फिरोज से इंदिरा के विवाह पर जवाहर लाल नेहरू की हिचक दूर हो। स्वतंत्रता के तुरंत बाद अनेक साहसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कांग्रेस से अलग हुए। नई पार्टी बनाई। पहले और अंतिम भारतीय वायसराय राजगोपालाचार्य ने स्वतंत्र पार्टी बनाई। इंदिरा गांधी ने स्वयं ही कांग्रेस का नाम और चिह्न बदलकर पंजा छाप किया। आपात्काल के दौरान जनता पार्टी में भारतीय जनसंघ विलीन हुआ। जनता नाम की चमक का लाभ लेने के लिए नई पार्टी का नाम जनसंघ के बजाय भारतीय जनता पार्टी रखा गया। कांग्रेस और जनता पुछल्ले वाली दर्जनों पार्टियाँ हैं।
एक दल से दूसरे दल में आवागमन चलता रहता है। व्यक्तिगत विरोध के कारण जाते हैं। आम तौर पर सत्ता के लोभ में लौटते हैं। वैचारिक भूमिका नहीं होती। आपात्काल विरोधी पेट्रोल पंप, पद और पेंशन पाने लगे। यह देश तब भी चलेगा कांग्रेस नहीं होगी। हिंदू और अन्य भारतीय नागरिक तब रहेंगे जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में नहीं रहेगी। महज दलों के नाम से सत्ता नहीं मिलती। इस बात को कांग्रेस 70 बरस में नहीं समझ सकी। इस सत्य को वर्तमान सत्ताधीश समझें। सत्ता और राजनीतिक दल की आयु में कोई संबंध नहीं होता। जनता पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, पाकिस्तान में इमरान खान की तहरीक- ए- इंसाफ जैसे कई उदाहरण हैं। गांधी की बात मानकर कांग्रेस अब लोक सेवक संघ का चोला ओढ़ ले तब? राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अवश्य अचकचा जाएगा। सिर्फ विरासत, बयान और बैनर की बदौलत देश चलते होते तो सदियों पुरानी सभ्यता वाला यूनान दिवालियेपन की कगार पर न होता। भारत से होड़ लेने वाले दार्शनिक, शूर योद्धा और लोकतांत्रिक विचारक वहां भी हुए हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
जे.के. कर
सोमवार 3 अगस्त को विश्वस्वास्थ्य संगठन के डायरेक्टर जनरल टेड्रोस एडहनॉम गिब्रयेसॉस ने एक वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुये कहा कि......‘However, there's no silver bullet at the moment and there might never be.’ बात कोरोना वाइरस के संबंध में कही गई है। बीबीसी हिन्दी ने इस खबर को इस रूप में पेश किया है....‘फिलहाल इस वायरस के लिए कोई सटीक और पक्के तौर पर इलाज उपलब्ध नहीं है और हो सकता है कि कभी ना हो।’
हमें तीव्र आपत्ति है कि WHO की ओर से यह मान लिया जाए कि कोरोना वाइरस का इलाज कभी हो ही नहीं सकता। कारण, मानव समाज मूल रूप से अज्ञेयवादी नहीं अज्ञातवाद में विश्वास करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई चीज आज अज्ञात अवश्य हो सकती है लेकिन कभी न कभी उसे ज्ञात जरूर किया जा सकता है. जबकि जबकि अज्ञेयवाद का अर्थ होता है कभी ज्ञात न हो सकने वाला।
यदि मानव समाज निराशावादी होता तो न ही आग जला सकता था, न ही चक्के की खोज कर सकता था और न ही भाप के इंजन की खोज होती।
एक समय तो संक्रमण का भी कोई इलाज ही नहीं था। लेकिन एँटीबायोटिक की खोज ने मानव समाज को कई बीमारियों से राहत प्रदान की. हम आज भी अपने बुजुर्गो से सुन सकते हैं कि किस तरह से एक समय लोग टीबी रोग होने से लोग मर जाया करते थे। लेकिन आज यह सब पुरानी बातें हैं। हमारे पास कई एँटीबायोटिक तथा वैक्सीन उपलब्ध हैं जिससे मानव समाज को संक्रमण से बचाया जा रहा है।
हां यह सच है कि आज भी इबोला, एचआईव्ही, एवियन इन्फ्लूएंजा, सार्स तथा मर्स का कोई सटीक इलाज़ या वैक्सीन मानव समाज नहीं बना पाया है लेकिन वैज्ञानिकों तथा चिकित्सकों ने तो हार नहीं मानी है। लगातार खोज हो रहे हैं। कोरोना वाइरस की भी कोई वैक्सीन अभी तक नहीं बन पाई है तथा जानकारों का मानना है कि इस वाइरस के खिलाफ़ शरीर में एँटीबाडी ज्यादा समय तक रह पायेगी कि नहीं इसमें भी शक है। शायद, यही कारण है कि WHO की ओर से कहा गया है कि 'silver bullet' शायद कभी बन ही न पाए।
बहस के लिए माना जा सकता है कि यदि वैक्सीन ज्यादा दिन तक काम नहीं करेगा तो जब तक लंबे समय तक काम करने वाले वैक्सीन का ईज़ाद न हो जाये तब तक, अब जो भी वैक्सीन बन रहा है उसे बार-बार लगाकर काम चलाया जाए। हमें एक वाइरस से निराश नहीं होना चाहिए बल्कि उसके खिलाफ जंग लडऩी चाहिए।
ऐसे समय में WHO का काम लोगों में हिम्मत बढ़ाना है न कि एक निराशाजनक बयान जारी करना है।
जहां तक बात ‘silver bullet? की बात है तो WHO को खोज करनी चाहिये कि जिस चीन से इस जानलेवा कोरोना वाइरस की शुरूआत मानी जा रही है उसके पास कौन सा 'silver bullet' है जो उसने कोरोना वाइरस के प्रसार को रोककर रखा हुआ है। आकड़ों के अनुसार चीन में अब तक इस वाइरस से मात्र 84,428 लोग संक्रमित हुए हैं, मात्र 4,634 मौतें हुई हैं तथा आज की तारीख में एक्टिव केसों की संख्या भी आश्चर्यजनक रूप से केवल 781 ही हैं (स्रोत: 2worldometers.info)
कम से कम चीन से लेकर उस ‘silver bullet’ को अन्य देशों को दिया जाना चाहिए, यह काम जाहिरा तौर पर WHO का ही है।
आपका क्या ख्याल है जनाब़? क्या हम हार मान लें?
अपूर्व गर्ग
आज नेहरूजी होते तो राहत इंदौरी साहब और नेहरूजी की दोस्ती के कई किस्से सामने होते। नेहरूजी उन्हें सर्वोच्च सम्मान के साथ अलग अंदाज़ से ही बिदा कर रहे होते!
70 साल में क्या हुआ जिनका तकिया कलाम है, उन्हें जानना चाहिए तब पीएमओ में ‘सरस्वती’ निवास करती थीं। तब पीएम ब्लैक कमांडो से नहीं लेखक, बुद्धिजीवियों, कवियों, शायरों से घिरे होते थे। तब दुनिया के बड़े बुद्धिजीवी नेहरूजी को पढ़ते, सुनते और उनसे बात करने को उत्सुक रहते थे।
फिराक से लेकर जोश मलीहाबादी तक नेहरूजी से एक दोस्त की तरह पूरे अधिकार से मिलते थे। एक बार फिराक नेहरूजी से मिलने पहुंचे पहुंचे तो रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें पर्ची पर नाम लिख कर देने को कहा। उन्होंने लिखा रघुपति सहाय. रिसेप्शनिस्ट ने आगे आर सहाय लिखकर पर्ची अंदर भेज दी। जब 15 मिनट बीतने पर भी बुलावा न आया तो फिराक भडक़ गए। चिल्लाने लगे। शोर सुनकर नेहरू बाहर आए. माजरा समझने पर बोले कि मैं 30 साल से तुम्हें रघुपति के नाम से जानता हूं, मुझे क्या पता ये आर सहाय कौन है? उन्हें जब अंदर ले गए तो नेहरू ने उनकी सूरत देखकर पूछा, ‘नाराज हो?’
जवाब फिराक ने इस शे’र से दिया,
‘तुम मुखातिब भी हो, करीब भी
तुमको देखें कि तुमसे बात करें’
1952 के चुनाव प्रचार में जवाहरलाल नेहरू गोंडा के दौरा पर आए थे। इसी समय ‘बेकल वारिस’ की कविता ‘किसान भारत का’ सुनकर उनके उत्साह की प्रशंसा की, पंडित नेहरू ने उसे पास बुलाकर कहा, ‘तुमने जनता में उत्साह भर दिया, तुम तो वास्तव में उत्साही हो। ’ पंडित नेहरू ने उस नौजवान कवि को नया तख़ल्लुस दिया ‘उत्साही’। तब से से ‘बेकल उत्साही’ बन गए। चाँद और तारों के साथ रहने से आसमान जितना सुन्दर दीखता है उतनी ही सुन्दर-सजीव दोस्ती थी नेहरू-जोश मलीहाबादी की।
जोश मलीहाबादी को पता चला नेहरूजी भी शिमला में हैं। उन्होंने फोन किया सेक्रेटरी मुलाकात न करवा सकी। जोश मलीहाबादी ने अपने जोश के मुताबिक नेहरूजी को कड़ा पत्र लिखा। दूसरे दिन इंदिरा गाँधी का फोन आया आप आइये मेरे साथ चाय पीजिये। जोश ने कहा, ‘बेटी वहां तुम्हारे बाप मौजूद होंगे, मैं उनसे मिलना नहीं चाहता।’ इंदिरा ने कहा-‘मैं पिताजी को अपने कमरे में बुलाऊंगी ही नही।’
जोश जब पहुंचे तो पंडित नेहरू पीछे से जोश पकडक़र सीधे अपने कमरे में ले गए और इसके बाद पंडित नेहरू जोश से जिस दोस्ती से मिले जोश नेहरूजी के गले लग कर रोने लगे। नेहरू जी और जोश की दोस्ती की ऐसी कई दास्ताँ जानने के लिए जरूर पढि़ए ‘यादों की बरात’।
नेहरूजी के न रहने पर जोश ने लिखा था शराफत के आसमान का सूरज डूब गया। हिन्दुस्तान में ही नहीं सारे एशिया में अँधेरा छा गया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले ने देश की बेटियों को अपने पिता की संपत्ति में बराबरी का हकदार बना दिया है। अदालत के पुराने फैसले रद्द हो गए हैं, जिनमें कई किंतु-परंतु लगाकर बेटियों को अपनी पैतृक संपत्ति का अधिकार दिया गया था। मिताक्षरा पद्धति या हिंदू कानून में यह माना जाता है कि बेटी का ज्यों ही विवाह हुआ, वह पराई बन जाती है। मां-बाप की संपत्ति में उसका कोई अधिकार नहीं रहता।
पीहर के मामलों में उसका कोई दखल नहीं होता लेकिन अब पैतृक संपत्ति में बेटियों का अधिकार बेटों के बराबर ही होगा। यह फैसला नर-नारी समता का संदेशवाहक है। यह स्त्रियों के सम्मान और सुविधाओं की रक्षा करेगा। उनका आत्मविश्वास बढ़ाएगा। इस फैसले का सबसे बड़ा संदेश तो यह है कि यदि हिंदू कानून में सुधार हो सकता है तो मुस्लिम, ईसाई, सिख आदि कानूनों में सुधार क्यों नहीं हो सकता ? सारे कानूनों पर देश में खुली बहस चले ताकि समान नागरिक संहिता का मार्ग प्रशस्त हो। यह एतिहासिक फैसला कई नए प्रश्नों को भी जन्म देगा। जैसे पिता की संपत्ति पर तो उसकी संतान का बराबर अधिकार होगा लेकिन क्या यह नियम माता की संपत्ति पर भी लागू होगा ? आजकल कई लोग कई-कई कारणों से अपनी संपत्तियां अपने नाम पर रखने की बजाय अपनी पत्नी के नाम करवा देते हैं। क्या ऐसी संपत्तियों पर भी अदालत का यह नया नियम लागू होगा? क्या सचमुच सभी बहनें अपने भाइयों से अब पैतृत-संपत्ति की बंदरबांट का आग्रह करेंगी ? क्या वे अदालतों की शरण लेंगी ? यदि हां, तो यह निश्चित जानिए कि देश की अदालतों में हर साल लाखों मामले बढ़ते चले जाएंगे। यदि बहनें अपने भाइयों से संपत्ति के बंटवारे का आग्रह नहीं भी करें तो भी उनके पति और उनके बच्चे लालच में फंस सकते हैं। दूसरे शब्दों में यह नया अदालती फैसला पारिवारिक झगड़ों की सबसे बड़ी जड़ बन सकता है।
क्या हमारी न्यायपालिका में इतनी क्षमता है कि इन मुकदमों को वे साल-छह महीने में निपटा सके ? इन मुकदमों के चलते-चलते तीन-तीन पीढिय़ां निकल जाएंगी। बेटियों का पीहर से कोई औपचारिक आर्थिक संबंध नहीं रहे, शायद इसीलिए दहेज-प्रथा भी चली थी। दहेज-प्रथा तो अभी भी मजबूत है लेकिन अब राखी का क्या होगा? मुकदमेबाज़ बहन से क्या कोई भाई राखी बंधवाएगा ? भाई यह दावा कर सकता है कि पिता के संपत्ति-निर्माण में उसकी अपनी भूमिका सर्वाधिक रही है। उसमें बहन या बहनोई दखलंदाजी क्यों करें ? इस समस्या का तोड़ यह भी निकाला जाएगा कि पिता अपने संपत्तियां अपने नाम करवाने की बजाय पहले दिन से ही अपने बेटों के नाम करवाने लगेंगे। वे अदालत को कहेंगे कि तू डाल-डाल तो हम पांत-पांत।
(नया इंडिया की अनुमति से)
जब कोविड-19 का टीका बनकर तैयार होगा, वैश्विक आवश्यकता की तुलना में इसकी आपूर्ति सीमित होगी। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि टीका सबसे पहले दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को, फिर गंभीर जोखिम वाले लोगों को, फिर उन क्षेत्रों को जहां बीमारी तेज़ी से फैल रही है, और आखिर में बाकी लोगों को मिलना चाहिए। टीका वितरण की यह रणनीति सबसे अधिक ज़िंदगियां बचाएगी और संक्रमण के प्रसार को रोकेगी। यह बेतुका होगा कि टीका दक्षिण अफ्रीका के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की बजाय अमीर देशों के कम जोखिम वाले लोगों को पहले मिले।
फिर भी पैसा और राष्ट्रीय हित जीत सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप पहले ही टीका निर्माताओं को करोड़ों खुराक का ऑर्डर दे रहे हैं जिससे शायद दुनिया के गरीब देशों के लिए बहुत कम टीके बचेंगे। इस स्थिति से बचने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने टीके के समतामूलक वितरण का एक तरीका निकाला है: कोविड-19 वैक्सीन ग्लोबल एक्सेस (COVAX) फेसिलिटी। वे अमीर देशों से इस पर हस्ताक्षर करवा कर टीकों पर उनकी अनुचित दावेदारी के खतरे को कम करना चाहते हैं।
वैसे टीका या औषधि वितरण का इतिहास आशाजनक नहीं रहा है। 1996 में एचआईवी संक्रमण के उपचार में एंटीवायरल औषधि ने पश्चिम देशों में कई ज़िंदगियां बचाई, लेकिन इसे व्यापक रूप से अफ्रीका तक पहुंचने में 7 साल लग गए। 2009 में H1N1 इन्फ्लूएंज़ा महामारी के दौरान कई देशों को बहुत कम संख्या में टीके मिले थे वह भी लंबे इंतज़ार के बाद।
इस बार भी अमीर देशों की चिंता अपने नागरिकों तक सीमित है। यूएस ने टीका कंपनियों के साथ 6 अरब डॉलर के समझौते किए हैं और युरोपीय संघ ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ 40 करोड़ टीके खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं। यूके ने भी यही रणनीति अपनाई है।
COVAX के पीछे विचार यह है कि विभिन्न 12 टीकों में निवेश किया जाए और उन तक आसान पहुंच सुनिश्चित की जाए। 2021 के अंत तक टीकों की 2 अरब खुराक प्राप्त करने का लक्ष्य है: 95 करोड़ उच्च व उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिए, 95 करोड़ निम्न व निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लिए और 10 करोड़ आपात उपयोग के लिए।
COVAX के अधिकारी जानते हैं कि COVAX से जुड़ने के बावजूद कई अमीर देश टीका निर्माता कंपनियों के साथ सौदे तो करेंगे। लेकिन COVAX अनुबंध एक प्रकार का बीमा है कि यदि उनके खरीदे टीके असफल रहे तो COVAX के माध्यम से उनकी पहुंच अन्य टीकों तक रहेगी।
टीकों के असफल होने के जोखिम को कम करने के लिए COVAX की योजना विभिन्न प्रकार के टीकों में निवेश करने की है। इसके अलावा COVAX विभिन्न देशों की कंपनियों से टीके लेना चाहता है ताकि कोई भी देश उनका निर्यात रोक ना सके।
अब तक, 70 से अधिक देशों ने COVAX में रुचि दिखाई है। यह बात और है कि वे इस पर हस्ताक्षर करते हैं या नहीं। वहीं युरोपीय संघ के कुछ देश, जो अक्सर वैश्विक एकजुटता के महत्व पर बल देते हैं, COVAX को वित्तीय मदद देने का इरादा रखते हैं लेकिन COVAX के माध्यम से खुद के लिए टीके नहीं लेंगे। डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक्सेस अभियान की टीका विशेषज्ञ कैट एल्डर का कहना है कि COVAX समतामूलक वितरण का अच्छा तरीका है लेकिन यह अधिक पारदर्शी होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
-मनोज श्रीवास्तव
वे राधा ही बस गईं वृंदावन में जो कभी कदंब के तने से टिककर खड़े कृष्ण को कभी यहां और कभी वहां देखने का भरम पाले रखीं। गोकुलनाथ गौवंश को छोड़कर चल दिये। वे जो ‘गो’ ही को अपना ‘कुल’ मानते थे, अब द्वारिकेश हैं। लेकिन न वह धेनु है और न वह वेणु है उनके पास, जिनकी ईश्वरी हुआ करती थीं राधा । वही रह गयीं उन गायों के पास जिन्हें कृष्ण को घेरे रहने में जाने कैसी तृप्ति मिलती थी। वही रह गयीं उस यमुना के करीब जिसे जन्मने पर कृष्ण ने पांवों के स्पर्श से शांत कर दिया था किन्तु जो अब पछाड़ें खाती हुई कृष्ण को ढूंढती है। वे घनप्रिय, वे श्यामकंठ मोर जिनके पंखों को धारण करके ही कृष्ण इस अगजग के सम्राट लगते थे, अब राधा के हाथों से दुलराये जाते हैं जैसे वही इनकी वनदेवी है। कौन रह गया उस भूसर्ग के साथ ? उन तितलियों और जुगनुओं, उन भृंगों और वीरबहूटियों के साथ ? उन बत्तखों और हंसों, उन सारसों और टिटहरियों के साथ ? उन चातकों और चकोरों, उन हिरनों और गिलहरियों के साथ ? राधा ही न।जो शेष रह गईं तो जैसे अशेष हो गयीं। वे वाकई प्रकृति थीं। कभी ब्रम्हा कृष्ण का प्रभाव जानने के लिए सारे गौएं, बछड़े और ग्वालबाल चुरा ले गये थे और सर्वसृष्टा योगीन्द्र हरि ने योगमाया से पुन: सबकी सृष्टि कर उन्हें लज्जित कर दिया था। अब कृष्ण स्वयं ही जैसे इन गौओं, बछड़ों, ग्वालबालों की हँसी चुरा ले गये हैं और अब वे सब राधा से ही जैसे प्रार्थना करते हैं कि वही उनका नवसृजन करे।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में उद्धव श्रीकृष्ण से उचित ही कहते हैं कि मैंने उस पुण्यमय वृन्दावन को भी देख लिया जो भारतवर्ष का साररूप है। उस का साररूप परमरणीय रासमण्डल है । उसकी सारभूता गोलोक वासिनी श्रेष्ठ गोपिकाएं हैं। उनकी सारभूता परात्परा रासेश्वरी राधा हैं।सो यह हुआ कि कृष्ण के हाथ महाभारत आया, लेकिन भारत की सारभूत राधा ही हुईं।कृष्ण ने देश बचाया,राधा ने देस।‘सार’ के इन रूपों को क्रमश: मथते चले जाने के बाद जो अंतिमत: उपलब्ध हुईं वे हैं राधा । उनके लिए यहां इस पुराण में दो शब्द हैं : परात्परा और रासेश्वरी।परात्पर’ की परिभाषा यों की गई है : ‘परात् श्रेष्ठादापि पर:’ कि जिसके परे या जिससे बढ़कर कोई दूसरा न हो। किन्तु यदि अर्थ यह है कि जिसके परे कोई दूसरा न हो, तब वही तो राधा की आत्मीयता का ही सर्वव्यापकत्व है। राधा जैसे एक समष्टि को सम्बोधित हैं। कृष्ण व्रज से निकलकर विश्व के हुए तो राधा जहां थीं वहीं विश्वात्मिका हो गईं। कृष्ण अपनी परात्परता में पराक्रमिन हुए तो राधा की परिपूर्ति भी परहितरता होने में हुई। राधा के इस पहलू को अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने अपनी कृति ‘प्रिय प्रवास’ में पकड़ा।वहां राधा कृष्ण को विश्व के लिए उन्मुक्त करती हैं। लेकिन कृष्ण भी तो राधा को अपना कदंब और अपना कुंज, अपनी धेनु और अपना यमुनातट छोड़ के गये हैं। कृष्ण को राधा का उन्मोचन सम्भालना है, राधा को कृष्ण के बंधन। कृष्ण को राधा के द्वारा खोल दिया विश्वमंच सम्हालना है, राधा को कृष्ण की जीवित-जाग्रत कविताएं। राधा ने भी वह सीढ़ी पूरी तरह नहीं देखी जिस पर कृष्ण को चढ़ना था, लेकिन उसकी पहली पायदान तय करने के लिए कृष्ण को पहला कदम उठाने की अनुमति उन्होंने दे ही दी। कृष्ण ने कोई वायदा किया भी नहीं, राधा ने कोई वादा मांगा भी नहीं। कृष्ण को उनके कर्त्तव्य-पथ पर बढ़ने के लिए रासेश्वरी ने स्वतंत्र छोड़ दिया। रासेश्वरी परात्परा हो आईं।रासेश्वरी रसेश्वरी भी थी। रस नौ तरह के हैं। जीवन में आने जाने वाले कई तरह के रस हैं ।रस रास के विरोधी नहीं थे लेकिन उन्हें बहुत सी भूमियों को तय करना था। सिर्फ ब्रजभूमि पर नहीं इसलिए राधा भारतवर्ष की सारभूत हुईं, सिर्फ ब्रजभूमि की नहीं। पूरा जीवन ब्रज में लगाकर भी राधा भारत की ही निर्यूषा रहीं। भारत का सार।भारत का मकरंद ।भारत का मधु । उस भारत का मधु जो एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं है उस भारत का जो नि:श्रेयस है। बृज को भारत से अविभक्त देखना, स्वयं को भारत से अखंड देखना – यह साधना राधा ने की थी। कृष्ण के अभ्युदय के लिए राधा को नि:श्रेयसी होना ही था।
शंकराचार्य ने कहा था कि अभ्युदय का फल धर्मज्ञान है और नि:श्रेयस का फल ब्रह्म ज्ञान इसी कारण ब्रज में रहकर ही वह लोकसंग्रह कर लेती हैं। ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है । इसलिए राधा को वह हैसियत प्राप्त हुई। इसलिए राधा कृष्ण से कहीं अलग नहीं हैं। इसलिए वे भारत की सारभूता हैं क्योंकि भारत मनुष्य को और प्रकृति को कभी भी ईश्वर से अलग नहीं देखता। वे लोग जो कभी अपनी जन्मभूमि से अलग नहीं हुए, वहीं रह गये – उनमें राधा-तत्व है। वे जो बाहर निकल गये, जिन्होंने दुनिया की सैर कर ली अपने कर्म और कर्त्तव्य के लिए उनमें कृष्ण-तत्व है। लेकिन हैं ये दोनों एक ही। हैं राधा और कृष्ण दोनों ही परदु:खकातर, दोनों ही सुश्रवा हैं,दोनों ही नैष्ठिक। राधा किंचित् अंतर्मुखी हैं, कृष्ण किंचित बहिर्मुखी। लेकिन राधा की अंतमर्नस्कता ऐसी नहीं है कि कृष्ण के तैजस का लाभ विश्व को न मिले और न कृष्ण की बहिर्मनस्कता ऐसी है कि राधा की अंतर्लीनता का आदर न करे।दोनों में वह अनुदात्तता कहीं नहीं है।
प्रेम के लिए दुनिया को ठुकराने का भी एक सौंदर्य है। किंग एडवर्ड अष्टम ने श्रीमती वालिसवारफील्ड (सैंपसन) के लिए ब्रिटेन का ताज ठुकराया था। पर कृष्ण क्या त्याग करते ? वे तो गोपाल थे। और सिंहासन से प्रेम उन्हें भी न था। लेकिन उन्हें उस कर्त्तव्य का भान अवश्य था जो उनके द्वारा एक आततायी शासन का अन्त करने में निहित था। बच्चों पर सत्ता का क्रूर प्रहार करने वाला, वृद्धों पर अत्याचार करने वाला शासन ।कृष्ण ने कंस को मारकर उसके पिता उग्रसेन को सिंहासनाभिषिक्त किया। वे स्वयं नहीं बैठे। कंस ने सिर्फ वसुदेव और देवकी को ही बंदी नहीं बनाया था, अपने पिता उग्रसेन को भी बंदी बनाया था। कृष्ण ने अपने पिता को ही मुक्त नहीं कराया था, जिसे मारा था, उसके पिता को भी मुक्त कराया था। यह राधा के स्वभाव की ही मृदुता थी जो कंस की कठोरता का प्रतिध्रुव थी। रासेश्वरी का रास प्रेमोत्सव था जो कंस के क्रूरता-पर्व का प्रतिध्रुव था। ब्रज की अकृत्रिमता कंस के बनावटी साम्राज्य से एकदम अलग थी। कंस ने तो विवाह भी साम्राज्य के लिए किए थे। जरासंध की दोनों पुत्रियों से विवाह करके उसने अपने राज्य को और शक्तिशाली बना लिया था। लेकिन उसी हद तक वह निरंकुश भी होता चला गया था। उधर कृष्ण तो राधा के अंकुश में थे। राधा के वशानुग। राधा को स्वाधीनपतिका या स्वाधीनभर्तृका नायिका के रूप में चित्रित भी किया गया है। राधाकृपाकटाक्षस्तोत्र में ‘निरंतर वशीकृतं प्रतीतनन्दनन्दने’ में राधा के द्वारा कृष्ण को लगातार वशीकृत रखने की पुष्टि है। उस नायिका की तरह जिसका प्रेमी उसके वश में हो। वे ही राधा अपनी परात्परता के कारण अपना खुद का रास रचाते नहीं रह सकती थीं। सदात्मा राधा नष्टात्मा कंस के कारण जगत् में प्रेम का पतन होना भी देखती थीं।
मूर्ख थे वे जो राधा को परकीया बताते रहे। राधा को परकीया बताने वाले श्रीमान लोग स्थूल सामाजिक नैतिकता को ही सभी चीजों पर वरीयता देते हैं। ऐसे आलोचकों से वे पुराण बेहतर है जो राधा और कृष्ण के प्रेम की इस आत्मिकता को इस अध्यात्म को, इस पारलौकिकता की पूजा करते हैं। ट्रेसी कोलमेन कहती हैं कि ‘Krishna is free from obligation and free to do as he pleases contrasts sharply with Radha’s stridharma and her passionate bhakti, which bind her to husband and lover in different ways. लेकिन राधा द्वारा भक्ति पर ध्यान देने वाली ट्रेसी और अन्य ये क्यों भुला देते हैं कि राधा स्वयं ईश्वरी हैं और स्वयं उनकी भक्ति की एक प्राचीन परंपरा है। श्रुति में कण्ठशाखा के भीतर राधा की प्रशंसा की गई है। भारत में शिव राम के भक्त हैं, वे भगवान भी हैं। राधा की प्रतिष्ठा पुराणों में उसी तरह है। उद्धव राधा की वंदना यों करते हैं, ‘’मैं श्रीराधा के उन चरणकमलों की वंदना करता हूं, जो ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा वन्दित है तथा जिनकी कीर्ति के कीर्तन से ही तीनों भुवन पवित्र हो जाते हैं। गोकुल में वास करने वाली राधिका को बारंबार नमस्कार। शतश्रंग पर निवास करने वाली चंद्रवती को नमस्कार-नमस्कार। तुलसीवन तथा वृन्दावन में बसने वाली को नमस्कार नमस्कार। रासमण्डलवासिनी रासेश्वरीको नमस्कार नमस्कार। वृन्दावन विलासिनी कृष्णा को नमस्कार नमस्कार। कृष्णप्रिया को नमस्कार नमस्कार। कृष्ण के वक्ष: स्थल पर स्थित रहने वाली कृष्णप्रिया को नमस्कार नमस्कार देठि। जैसे दूध और उसकी धवलता में, गंध और भूमि में, जल और शीतलता में, शब्द और आकाश में तथा सूर्य और प्रकाश में कभी भेद नहीं है, वैसे ही लोक, वेद और पुराण में- कहीं भी राधा और माधव में भेद नहीं है।
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ट्रेसी ध्यान नहीं दे पाई कि लोक, वेद और पुराण तीनों ही इनका अभेद मानते हैं। इसलिए वे किस परंपरा की बात करती हैं जब वे यह कहती है कि : ‘ The tradition thus privileges masculine freedom in contrast to feminine duty and devotion, celebrating a woman who sacrifice everything for her man, but who may get nothing in return.’ काश राधा ने ऐसा कोई करोबार किया होता जो ‘’रिटर्न्स ऑन इन्वेस्मेंट’’ पर आधारित होता लेकिन तब कृष्ण ‘’मा फलेषु कदाचन’’ कैसे कह पाते ? ट्रेसी तो फल भी नहीं, प्रतिफल की बात करती है। राधा को ‘’शुद्ध लाभ’’ क्या प्राप्त हुआ ? निवेश के अनुपात में। Year -o से हिसाब लगाओ। अब इसका क्या करें कि यह राधा इतनी ‘’शुद्ध ‘’ है कि यह व्यापार को तैयार नहीं है। ट्रेसी की निवेश-दक्षता की कसौटियां तो क्या, यह तो उद्धव के योग के बदले अपने वियोग का सौदा करने को तैयार नहीं । जोग ठगौरी ब्रज न बिकै है । यह तो बालपन की प्रीत ही नहीं, जन्म जन्म की प्रीत है्। किसी जनम किसी का पलड़ा भारी होगा, किसी जन्म किसी का।
ट्रेसी के असल इरादे क्या हैं, यह तब स्पष्ट होता है जब वे कहती हैं : Given that Rama and krsna are God, then, one could say that god makes women utterly dependent, extremely vulnerable, and finally destitute when he abandons them with nothing, not even themselves, for the women have given themselves totally and unconditionally to their men, rendering an independent life meaningless. तो बात इन ‘ईश्वरों' की है। मेरा गॉड तेरे गॉड से बेहतर। कृष्ण तो गारूड़ी बनकर राधा पर चढ़ गया जहर उतार दिये थे, पर यह जहर कौन उतारे। कृष्ण की निर्दयता को इनसे उपालंभ मिलते हैं। पर इसका क्या करें कि चार्ल्स वाट्स ने ‘द क्रिश्चियन डीटी’ में लिखा कि The Bible character of God is continuously and consistently cruel. बाईबल में उसकी निर्दयताएं भरी पड़ी हैं ऐसा वे कहते हैं। तो शायद उसी की स्पर्धा या कुंठा में भारत के ‘God’ के बारे में भी यही निष्कर्ष निकालने की कोशिश की जा रही है। लेकिन कोशिश इसलिए औंधे मुंह गिरती है क्योंकि भारत में सीता और राधा भी देवी हैं, सिर्फ राम या कृष्ण ही ‘गॉड’ नहीं हैं। लोक ने उन राधा को मंदिरों में प्रतिष्ठित किया। वेद में राम या कृष्ण से ज्यादा उल्लेख उनका है और पुराणों में तो वे बहुत बहुत है। लोक ने उन्हें देवताओं से ज्यादा आदर बख्शा। ‘सीताराम’ ‘या’ ‘राधाकृष्ण’ जैसे सम्बोधनों में पहले उन्हें रखा गया। उनके गायत्री मंत्र बने। यदि रामनवमी है तो सीता नवमी भी है। यदि कृष्ण जन्माष्टमी है तो राधाष्टमी भी है। राधा कृष्ण का ही स्त्रैण रूप समझी जाती हैं। नारद पंचरात्र उन्हें गोकुलेश्वरी कहता है और महाभाव का साक्षात रूप। उस महाभाव को ट्रेसी तवज्जो न देकर उन्हें एक करोबारी दुनियादार किस्म की स्त्री में बदलना चाहती हैं। उनकी संतुष्टि तभी होगी। पर राधा कहेंगी : ‘यह ब्योपार तिहारो, ट्रेसी, ऐसोई फिरि जैहै ‘ और ब्रज की गोपियां कहेंगी – ‘ आयो घोष बड़ो व्यौपारी। ट्रेसी कितनी ही कोशिश कर लें, ब्रज में कोई अपना दूध छोड़ के खारे कुँए का जल नहीं पीने वाला और उनकी बातों के भरम में आने वाली कोई अज्ञानी नारी वहां उन्हें मिलेगी भी नहीं- इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी/ अपनो दूध छौडि के पीवै खार कूप को पानी। कौन कहेगा कि कृष्ण ने राधा को निर्भर और दरिद्र बनाया। राधा इतनी आत्मगर्विता हैं कि वे कृष्ण से भी कुछ न मांगें। और वे राधा दरिद्र जिन्हें ब्रज की गोपियां चंवर डुलाती हैं। राधा का मंत्र उनकी श्री को बताता है : राधा साध्यं साधनं यस्य राधा मंत्रो राधा मंत्रदात्री च राधा/सर्वं राधा जीवन यस्य राधा राधा वाचि किं तस्य शेष’’। यानी राधा साध्य है, उसे पाने का साधन भी राधा ही हैं, राधा मंत्र हैं और मंत्रदात्री भी वही हैं। सबका प्राण भी राधा ही है। राधा नाम के अतिरिक्त ब्रह्मांड में शेष बचता ही क्या है ? राधा का कृपाकटक्षस्तोत्र उन्हें ‘’प्रभूतसंपदालये’’ कहता है और ट्रेसी उन्हें destitute कहती हैं। श्रीकृष्ण ही नहीं, धर्म ने, ब्रह्मा ने, अनन्त ने, वासुकि ने, महादेव ने, सूर्य और चन्द्रमा ने , देवराज इन्द्र, रूद्रगण, मनु, मनुपुत्र, देवगण, मुनींद्रगण ने राधा की पूजा की है। (ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृतिखंड)।
दृष्टि दृष्टि का फर्क है। राधा से कोई वास्तविक सहानुभूति थोड़े ही है ट्रेसी को। वे लिखती हैं : Radha is an adulteress, after all – a woman who in the real social and economic world where relationships are legislated would be extremely vulnerable, possibly rejected and deserted. Perhaps abused and left utterly destitute . राधा को व्यभिचारिणी कहने वाली एक यह दृष्टि है और दूसरी और उसे सती कहने वाली भारतीय दृष्टि है : ‘परमानंदराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती/श्रुतिभि: कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी.’ इन दृष्टियों के फर्क देखकर कई बार लगता है कि इन महाशया से कहा जाए कि देवि, ये रहस्य आपसे न समझे जायेंगे। पर इस दौर में देव भी हैं। ए.के.मजुमदार लिखते है : ‘In the whole range of Indian mythology a mistress, even divine, was never thought worthy of worship. राधा की पूजा इसका प्रमाण है कि भारत में ‘स्वकीया’ और ‘परकीया’ की रीतिकालीन श्रेणियों से कुछ नहीं निर्णीत होता बल्कि प्रेम की तीव्रता, हृदय और बुद्धि की शुद्धता से ही सब तय होता है।राधा और कृष्ण की दुनिया में यह नहीं है कि शौहर बीबी को अपनी खेती माने, कि यह कहा जाए कि ‘’Your Maker is your husband’’ (Isaiah 54:5) कि ‘’wives should be subordinated to their husbands as to the Lord’’ यहां यह तथाकथित ‘’ adulteress ‘’ देवी के रूप में स्वीकृत है। राधा को दांपत्य देवत्व नहीं देता। देवत्व राधा अपनी भावना की पवित्रता और नियतात्मता से उपलब्ध करती हैं। वे कृष्ण की मातहत नहीं हैं। कृष्ण का अवतार हैं। कृष्ण का आधा हिस्सा- उनकी पसली नहीं। राधा का ऋत और सरलता उन्हें पूज्य बना पायी वरना उन्हें कहीं किसी और मूल्य-प्रणाली में खेती की खरपतवार की तरह उखाड़ के फेंक दिया गया होता या वे अपने पति की अधीनस्थता में अपने मन के तथ्य का गला घोंट कर मर जातीं। "रिलेशनशिप्स’’ को ‘’लेजिस्लेट’’ करना एक क्षुद्राशय और अनृताधारित समाज का निर्माण करना हो सकता है। लेकिन धर्म न तो लेबल हैं, न लेबलों का अनुशासन। राधा और कृष्ण जन्मे ही लेजिस्लेट करने की मनोवृत्ति के असल टुच्चेपन को उजागर करने के लिए हैं। उनके अवतार के प्रयोजन ह्रदय के धर्म की संस्थापना करते हैं और इसीलिए वे दोनों भारत के ह्रदयों पर राज करते हैं।
क्या भारत ख़रीदेगा ये टीका
- सरोज सिंह
केवल दो महीने के ट्रायल के बाद रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दावा किया है कि उनके वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस की ऐसी वैक्सीन तैयार कर ली है, जो कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ कारगर है. गेमालेया इंस्टीट्यूट में विकसित इस वैक्सीन के बारे में उन्होंने कहा कि उनकी बेटी को भी यह टीका लगा है.
रूस ने इस वैक्सीन का नाम 'स्पुतनिक वी' दिया है. रूसी भाषा में 'स्पुतनिक' शब्द का अर्थ होता है सैटेलाइट. रूस ने ही विश्व का पहला सैटेलाइट बनाया था.
उसका नाम भी स्पुतनिक ही रखा था. इसलिए नए वैक्सीन के नाम को लेकर ये भी कहा जा रहा है कि रूस एक बार फिर से अमरीका को जताना चाहता है कि वैक्सीन की रेस में उसने अमरीका को मात दे दी है, जैसे सालों पहले अंतरिक्ष की रेस में सोवियत संघ ने अमरीका को पीछे छोड़ा था.
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राष्ट्रपति पुतिन ने अपनी बेटी का ज़िक्र करके सबको अचरज में डाल दिया है. वो पब्लिक प्लेटफॉर्म पर अपनी बेटियों के बारे में कहने से हमेशा बचते रहे हैं.
वैक्सीन के बारे में उन्होंने सरकार के मंत्रियों को मंगलवार को संबोधित करते हुए कहा, "आज सुबह कोरोना वायरस की पहली वैक्सीन का पंजीकरण हो गया है."
पुतिन ने कहा कि इस टीके का इंसानों पर दो महीने तक परीक्षण किया गया और ये सभी सुरक्षा मानकों पर खरा उतरा है.
इस वैक्सीन को रूस के स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी मंज़ूरी दे दी है. माना जा रहा है कि रूस में अब बड़े पैमाने पर लोगों को यह वैक्सीन देनी की शुरुआत होगी, जिसके लिए अक्तूबर के महीने में मास प्रोडक्शन शुरू करने की बात कही जा रही है.
रूसी मीडिया के मुताबिक़ 2021 में जनवरी महीने से पहले दूसरे देशों के लिए ये उपलब्ध हो सकेगी.
हालाँकि रूस ने जिस तेज़ी से कोरोना वैक्सीन विकसित करने का दावा किया है, उसको देखते हुए वैज्ञानिक जगत में इसको लेकर चिंताएँ भी जताई जा रही हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन समेत दुनिया के कई देशों के वैज्ञानिक अब खुल कर इस बारे में कह रहे हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की चिंता
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि उसके पास अभी तक रूस के ज़रिए विकसित किए जा रहे कोरोना वैक्सीन के बारे में जानकारी नहीं है कि वो इसका मूल्यांकन करें.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्गत आने वाले पैन-अमेरिकन हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के सहायक निदेशक जरबास बारबोसा ने कहा, "कहा जा रहा है कि अब ब्राज़ील वैक्सीन बनाना शुरू करेगा. लेकिन जब तक और ट्रायल पूरे नहीं हो जाते ये नहीं किया जाना चाहिए."
उनका कहना था- वैक्सीन बनाने वाले किसी को भी इस प्रक्रिया का पालन करना है, जो ये सुनिश्चित करेगा कि वैक्सीन सुरक्षित है और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उसकी सिफ़ारिश की है.
पिछले हफ़्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रूस से आग्रह किया था कि वो कोरोना के ख़िलाफ़ वैक्सीन बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय गाइड लाइन का पालन करे.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के तहत जिन छह वैक्सीन का तीसरे चरण का ट्रायल चल रहा हैं, उनमें रूस की वैक्सीन का ज़िक्र नहीं है. विश्व के दूसरे देश इसलिए भी रूस की वैक्सीन को लेकर थोड़े आशंकित हैं.
वैक्सीन ट्रायल डेटा उपलब्ध नहीं
स्पुतनिक-वी को लेकर एक और भी चिंता है.
दरअसल जिस कोरोना वैक्सीन को बना लेने का दावा रूस कर रहा है, उसके पहले फेज़ का ट्रायल इसी साल जून में शुरू हुआ था.
बीबीसी लंदन के चिकित्सा संवाददाता, फ़र्गस वाल्श के मुताबिक़ रूस ने वैक्सीन बनाने के सारे ट्रायल पूरा करने में ज़्यादा ही तेज़ी दिखाई है. चीन, अमरीका और यूरोप में वैक्सीन ट्रायल शुरू होने के बाद रूस ने अपने वैक्सीन का ट्रायल 17 जून को शुरू किया था.
मॉस्को के गेमालेया इंस्टीट्यूट में विकसित इस वैक्सीन के ट्रायल के दौरान के सेफ़्टी डेटा अभी तक जारी नहीं किए गए हैं. इस वज़ह से दूसरे देशों के वैज्ञानिक ये स्टडी नहीं कर पाए हैं कि रूस का दावा कितना सही है.
फ़र्गस वाल्श के मुताबिक़ किसी भी बीमारी में केवल पहले वैक्सीन बना लेने का दावा ही सब कुछ नहीं होता. वैक्सीन कोरोना संक्रमण से बचाव में कितनी कारगर है, ये साबित करना सबसे ज़रूरी है. रूस की वैक्सीन के बारे में ये जानकारी दुनिया को अभी नहीं है और ना ही रूस ने इस बारे में कोई दावा ही किया है.
अमरीका और रूस में भी उठ रहे हैं सवाल
पिछले महीने अमरीका के संक्रमण रोग विशेषज्ञ डॉक्टर एंथनी फाउची ने भी रूस और चीन के वैक्सीन के ट्रायल की तेज़ी पर शक जताया था.
उस वक़्त भी डब्लूएचओ के प्रवक्ता ने कहा था कि किसी वैज्ञानिक ने वैक्सीन बनाने की दिशा में कोई भी क़ामयाबी हासिल की, ये अच्छी ख़बर है. लेकिन नया वैक्सीन खोजना और उस दिशा में एक क़दम आगे बढ़ाने, इन दोनों बातों में बहुत बड़ा फ़र्क होता है.
दरअसल वैक्सीन ट्रायल में कई स्टेज होते हैं, जिनको पार करने में सालों का वक़्त लगता है.
मेडिकल जर्नल लैंसेट के एडिटर इन चीफ़ रिचर्ड आर्टन के मुताबिक़ विश्व में सबसे तेज़ी से आज तक जो टीका बना है, वो ज़ीका वायरस का बना है, जिसमें दो साल का वक़्त लगा था.
लेकिन उन्होंने ये भी जोड़ा कि जब तक ज़ीका वायरस के ख़िलाफ़ टीका बन कर तैयार हुआ, तब तक, उसका कहर कम हो चुका था, इसलिए वो टीका कितना सफल रहा है, इस बारे में ज़्यादा डेटा उपलब्ध नहीं है. हालाँकि किसी भी वैक्सीन का पूरी तरह ट्रायल ख़त्म होने में अमूमन 7 साल लगते हैं.
अगर कोरोना वैक्सीन दुनिया इतने समय से पहले खोज लेती है, तो ये अब तक का सबसे तेज़ी से खोजा जाने वाला वैक्सीन होगा.
रूस के वैक्सीन बना लेने के दावे पर विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमरीका को ही केवल भरोसा नहीं है. ख़ुद रूस में भी इन दावों पर सवाल उठ रहे हैं.
मॉस्को स्थित एसोसिएशन ऑफ क्लीनिकल ट्रायल्स ऑर्गेनाइजेशन (एक्टो) ने रूसी सरकार से इस वैक्सीन की अप्रूवल प्रक्रिया को टालने की गुज़ारिश की है. उनके मुताबिक़ जब तक इस वैक्सीन के फेज़ तीन के ट्रायल के नतीजे सामने नहीं आ जाते, तब तक रूस की सरकार को इसे मंज़ूरी नहीं देनी चाहिए.
एक्टो नाम के इस एसोसिएशन में विश्व की टॉप ड्रग कंपनियों का प्रतिनिधित्व है. एक्टो के एक्ज़िक्यूटिव डायरेक्टर स्वेतलाना ज़ाविडोवा नें रूस की मेडिकल पोर्टल साइट से कहा है कि बड़े पैमाने पर टीकाकरण का फ़ैसला 76 लोगों पर इस वैक्सीन के ट्रायल के बाद लिया गया है. इतने छोटे सैम्पल साइज़ पर आज़माए गए टीके की सफलता की पुष्टि बहुत ही मुश्किल है.
आपको बता दें कि ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में जिस कोरोना वैक्सीन के तीसरे चरण का ट्रायल चल रहा है, उसमें 10000 लोगों पर इसका ट्रायल किया जा रहा है. पहले चरण में भी 1000 से ज़्यादा लोगों पर इसका ट्रायल किया गया था.
द टेलीग्राफ़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ब्रिटेन ने रूस की वैक्सीन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है.
क्या भारत इस वैक्सीन को ख़रीदेगा
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या डब्लूएचओ, अमरीका और ब्रिटेन के बाद भरोसा ना करने पर भी भारत ये वैक्सीन ख़रीदेगा?
भारत और रूस अच्छे दोस्त हैं. हाल ही में देश के रक्षा मंत्री कोरोना के समय में रूस का दौरा करके भी लौटे हैं. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ रूस भारत को भी ये वैक्सीन बेचना चाहता है. लेकिन भारत की तरफ़ से अब तक इस पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है.
मंगलवार को रूस की वैक्सीन संबंधित दावे आने के बाद स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण ने कहा कि इस बारे में वैक्सीन पर बनी एक्सपर्ट ग्रुप ही फ़ैसला करेगी.
भारत में कोरोना की वैक्सीन कब और कैसे मिलेगी, इसको लेकर बुधवार को एक अहम बैठक होने वाली है. इस बैठक की अध्यक्षता नीति आयोग के सदस्य वीके पॉल करेंगे. इसमें इस बात पर भी चर्चा होगी कि क्या भारत रूस से उनकी बनाई वैक्सीन ख़रीदेगा या नहीं.
इस बैठक से पहले एम्स के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने कहा कि रूस की वैक्सीन ख़रीदने का फ़ैसला करने से पहले भारत को दो बातों का पता लगाना होगा. पहला ये कि उनका ट्रायल डेटा क्या कहता है. मसलन कितने लोगों पर ट्राई किया गया, नतीजे क्या आए, कितने दिनों तक के लिए ये कारग़र साबित होता है.
साथ ही ये पता लगाना भी आवश्यक होगा कि ये वैक्सीन सेफ़ भी या नहीं. एक निज़ी टेलीविज़न चैनल को इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि इन दोनों पैमानों पर आश्वस्त होने के बाद ही भारत को रूस से वैक्सीन ख़रीदने की दिशा में क़दम उठाना चाहिए.
यहाँ ये जानना ज़रूरी है कि भारत में भी स्वदेशी वैक्सीन का ट्रायल चल रहा है. भारत बायोटेक की वैक्सीन का फेज़ टू, फेज़ थ्री ट्रायल चल रहा है. इसके साथ ही ब्रिटेन में जिस वैक्सीन का ट्रायल तीसरे चरण में पहुँच चुका है, उसके लिए भारत के सीरम इंस्टीट्यूट ने ऑक्सफोर्ड के साथ करार किया है. भारत में बड़े पैमाने पर वैक्सीन तैयार करने की क्षमता भी है.
इसलिए जानकार रूस के साथ वैक्सीन के करार को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिख रहे हैं.
विश्व भर में कोरोना वैक्सीन की रेस
रूस अकेला देश नहीं है, जो वैक्सीन बनाने में लगा है. दुनिया भर में 100 से भी ज़्यादा वैक्सीन शुरुआती स्टेज में हैं और 20 से ज़्यादा वैक्सीन का मानव पर परीक्षण हो रहा है.
अमरीका में छह तरह की वैक्सीन पर काम हो रहा है और अमरीका के जाने माने कोरोना वायरस विशेषज्ञ डॉक्टर एंथनी फ़ाउची ने कहा है कि साल के अंत तक अमरीका के पास एक सुरक्षित और प्रभावी वैक्सीन हो जाएगी.
ब्रिटेन ने भी कोरोना वायरस वैक्सीन को लेकर चार समझौते किए हैं. चीन की सिनोवैक बायोटेक लिमिटेड ने मंगलवार को कोविड-19 वैक्सीन के ह्यूमन ट्रायल के अंतिम चरण की शुरुआत की है. इस वैक्सीन का ट्रायल इंडोनेशिया में 1620 मरीज़ों पर किया जा रहा है. भारत में भी स्वेदशी वैक्सीन का ह्यूमन ट्रायल शुरू हो चुका है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि 2021 के शुरुआत में ही कोरोना का टीका आम जनता के लिए उपलब्ध होगा.(bbc)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान-कांग्रेस के दोनों गुटों—गहलोत और सचिन में सुलह तो हो गई है लेकिन जैसी कि कहावत है कि ‘काणी के ब्याह में सौ—सौ जोखम’ हैं। यदि दोनों में सुलह हो गई है तो कांग्रेस हायकमान ने तीन सदस्यों की कमेटी किसलिए बनाई है ? यह कमेटी क्या सचिन पायलट को दुबारा प्रदेशाध्यक्ष और उप-मुख्यमंत्री बनवाने की सलाह देगी ? यदि नहीं तो क्या सचिन को गहलोत के बोझ तले दबना नहीं पड़ेगा, जिसे मैंने पहले जीते-जी मर जाना कहा था। यों भी मुझे पता चला है कि सचिन गुट के 18 में से लगभग 10 सदस्य अपनी विधानसभा की सदस्यता खत्म होने से डरे हुए थे।
14 अगस्त को होनेवाले शक्ति-परीक्षण में यदि सचिन गुट कांग्रेस के विरुद्ध वोट करता या व्हिप के बावजूद गैर-हाजिर रहता तो उसकी सदस्यता ही खत्म हो जाती और फिर उप-चुनाव में पता नहीं कौन जीतता और कौन हारता। यों भी सचिन गुट के बिना भी गहलोत को बहुमत का समर्थन तो मिलना ही था।
अब सचिन अपने गुट के कितने लोगों को अपने साथ रख पाएंगे, यह देखना है। गालिब के शेर को सचिन अब उल्टा पढ़े तो वह उन पर बिल्कुल फिट बैठेगा। ‘बड़े बे-आबरु होकर तेरे कूचे में हम फिर घुस आए।’ सचिन-गुट ने अपनी नादानी के कारण अपनी इज्जत तो गिराई ही, साथ में भाजपा की इज्जत भी वह ले बैठा। भाजपा भी दो हिस्सों में बंटी दिखी। पैसों के लेन-देन की खबरें चाहे झूठी ही हों लेकिन जनता ने उन्हें सच माना। इस नौटंकी के कारण विधानपालिका का मान घटा और न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ा। कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व पर भी सवाल उठे। वह इस बात का झूठा श्रेय ले सकती है कि उसने राजस्थान-कांग्रेस के दोनों गुटों में सुलह करवा दी लेकिन यह है— मजबूरी का नाम राहुल गांधी। इस नेतृत्व में इतना दम कहां रह गया है कि वह गलत को गलत कह सके और सही को सही? पंजाब-कांग्रेस पर भी संकट के बादल घिर रहे हैं। यदि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इसी तरह लकवाग्रस्त रहा तो पता नहीं कांग्रेस— शासित राज्यों में कितनी स्थिरता रह पाएगी। राजस्थान में भाजपा फिर से कुछ नए सचिन पायलट खड़े कर दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कांग्रेस नेतृत्व की कंगाली पता नहीं, क्या-क्या गुल खिलाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
औरैया, 12 अगस्त (वार्ता)। उत्तरप्रदेश का औरैया जिला जहां क्रांतिकारियों की भूमि के नाम से इतिहास में दर्ज है वही पौराणिक धरोहरों के साथ जिले के गांव कुदरकोट (पूर्व में कुंडिनपुर) का नाम भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। मान्यता है कि यहां भगवान श्रीकृष्ण की ससुराल है। यहां भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रुकमिणी के हरण करने के प्रमाण भी मिलते हैं।
भागवत पुराण में उल्लेख है कि कुंदनपुर में पांडु नदी पार करके भगवान कृष्ण रुकमिणी का हरण कर ले गए थे और द्वारका ले जाकर विवाह कर उन्हें अपनी रानी बनाया था। इसके अलावा देवी के अ²श्य होने का भी तथ्य भागवत पुराण में मिलता हैै। कुदरकोट में अलोपा देवी का मंदिर भी है। हालांकि भगवान श्रीकृष्ण की ससुराल को लेकर लोगों के अलग-अलग तर्क भी हैं। तर्क है कि कुंडिनपुर जिसका अपभ्रंस कुंदनपुर का नाम बाद में कुदरकोट पड़ा है। भगवान कृष्ण की ससुराल होने के बाद भी आज तक न कुदरकोट का न तो विकास हो सका है और न ही इस स्थल को पौराणिक महत्व मिल सका है।
श्रीमद् भागवत ग्रंथो के उल्लेख के अनुसार लगभग 5 हजार बर्ष पूर्व कुंडिनपुर (मौजूदा कुदरकोट) के राजा भीष्मक धर्म प्रिय राजा थे। उनकी एक पुत्री रुक्मणि व पांच पुत्र रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली थे। रुक्मी की मित्रता शिशुपाल से थी, इसलिये वह अपनी बहिन रुक्मणि का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था। जबकि राजा भीष्मक व उनकी पुत्री रुक्मणि की इच्छा भगवान श्रीकृष्ण से विवाह करने की थी। जब राजा भीष्मक की अपने पुत्र रुक्मी के आगे न चली तो उन्होंने रुकमनी का विवाह शिशुपाल से तय कर दिया।
रुक्मणि को शिशुपाल के साथ शादी तय होने नागवार गुजरा तो उन्होंने द्वारका नगरी में भगवान कृष्ण के यहां एक दूत भेजकर अपने को हरण करने का आग्रह भिजवा दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मणि का संदेश स्वीकार कर लिया और रुक्मणि को द्वारका ले जाकर अपनी रानी बनाने की पूरी तैयारी कर ली।
मान्यता है कि कुंडिनपुर महल से कुछ दूरी पर स्थित गौरी माता मंदिर से रुक्मणि के हरण के बाद देवी गौरी अलोप हो गयी। जिसके बाद वहां पर अलोपा देवी मंदिर की स्थापना की गयी और अब इसी मंदिर को अलोपा देवी मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर के पश्चिम दिशा में स्थित द्वापर कालीन महाराजा भीष्मक द्वारा स्थापित शिवलिंग है। जहां अब मंदिर बना हुआ है और ये मंदिर अब बाबा भयानक नाथ के नाम से जाना जाता है।
इस मंदिर के पुजारी सुभाष चौरसिया ने बताया कि यहां पर चैत्र व आषाढ़ माह की नवरात्रि में हर वर्ष मेला का आयोजन होता है। पिछले 116 बर्षो से भव्य रामलीला का आयोजन होता आ रहा है। दशहरा को रावण का बध होता है। माँ अलोपा देवी मंदिर धरती तल से 60 मीटर की ऊंचाई पर खेरे पर बना हुआ है, हर साल फाल्गुनी अमावश्या को चौरासी कोसी परिक्रमा का आयोजन भी होता है।
कुंडिनपुर जो बाद में कुंदनपुर के नाम से जाना जाता था। जब मुगलो का शासन हुआ तभी से इसका नाम कुदरकोट पढ़ गया। आज भी यहां राजा भीष्मक के 50 एकड़ में फैले महल के अवशेष स्पष्ट दिखाई देते है। आज के समय में जहां कुदरकोट में माध्यमिक स्कूल है वहां पर कभी राजा भीष्मक का निवास स्थान होता था और यहां पर रुक्मणि खेला करती थी। मुगलो ने इस नगर पर कब्जे के बाद इसके पूरे इतिहास को तहस नहस करने के लिए भौगोलिक स्थिति बदलने का भरसक प्रयास किया था। लेकिन यहां पर अवशेष व ग्रंथो में कुंडिनपुर का उल्लेख आज भी है। पुरातत्व विभाग की उदासीनता व जागरूकता की कमी के कारण मथुरा बृन्दावन जैसे पूज्य स्थान कुदरकोट को पौराणिक बिश्व प्रख्याति नही मिल सकी। पिछले बर्ष ही खेरे के ऊपर एक मकान में निकली सुरंग इसका उदाहरण है। जिसका आज तक कोई पता न चल सका है।
-अमरीक
जनाब राहत इंदौरी का जाना ग़ज़ल के एक युग का जाना है। एक जनवरी 1950 को इंदौर में उनका जन्म हुआ था। इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक 1369 हिजरी थी और तारीख 12 रबी उल अव्वल थी। उन्होंने 1969-70 के दौरान शायरी शुरू की थी। वह जोश मलीहाबादी, साहिर लुधियानवी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अहमद फ़राज़ और हबीब जालिब की परंपरा के शायर थे। सचबयानी के उतने ही कायल। हुकूमत किसी भी रहनुमा की हो, राहत इंदौरी की ग़ज़ल ने उसे नहीं बख्शा।
उन्होंने 1986 में कराची में एक शेर पढ़ा और पाकिस्तान के नेशनल स्टेडियम में हजारों लोग खड़े होकर पांच मिनट तक ताली बजाते रहे। उसी शेर को कुछ अर्से बाद दिल्ली के लाल किले के मुशायरे में पढ़ा, तब भी उसी तरह की शोरअंगेजी हुई। शेर था: 'अब के जो फ़ैसला होगा वो यहीं पे होगा/हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली...।' यह शेर पाकिस्तान और हिंदुस्तान के अवाम के मुश्तरका गम को बखूबी बयान करता है। उनका एक और शेर है: 'मेरी ख्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे/मेरे भाई मेरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले...।' यह शेर भी गौरतलब है: 'ऐसे फूल कहां रोज़-रोज़ खिलते हैं/सियाह गुलाब बड़ी मुश्किलों से मिलते हैं...।'
राहत इंदौरी दुनिया भर में घूमे, लेकिन मन हिंदुस्तान और अपने घर ही रमा। उनकी शरीके-हयात सीमा जी ने कहीं एक इंटरव्यू में कहा था कि वह एक बार एक महीने अमेरिका रहकर लौटे तो सीधे रसोई में पहुंच गए और कहने लगे- "घर का खाना लाओ, इससे अच्छा खाना पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलता।" उनका एक शेर है: 'फुर्सतें चाट रही हैं मेरी हस्ती का लहू/मुंतज़िर हूं कि कोई मुझको बुलाने आए...।'
उनकी तीन संतानें हैं- शिब्ली, फैसल और सतलज। राहत बेहतरीन ग़ज़लकार और गीतकार के साथ-साथ एक उम्दा चित्रकार भी थे। मुसव्विरी में भी उनके जज्बात खूब-खूब उभरते थे। जिन्होंने उनकी चित्रकारी देखी है, वे बताते हैं कि ब्रश और रंगों से भी वह नायाब ग़ज़ल रचते थे। राहत साहब ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि चित्रकारी की प्रेरणा उन्हें गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर से हासिल हुई।
पेंटिंग सीखने की बकायदा शुरुआत उन्होंने इंदौर के ज्योति स्टूडियो (ज्योति आर्ट्स) से की, जिस के संचालक छगनलाल मालवीय थे। इंदौर के गांधी रोड पर हाईकोर्ट के पास यह स्टूडियो था। उन दिनों ज्यादातर सिनेमा के बैनर और होर्डिंग का काम यहां होता था। इसी स्टूडियो के पास सिख मोहल्ला था, जहां किवंदती गायिका लता मंगेशकर जी का जन्म हुआ। प्रसंगवश, राहत साहब ने नायाब गीत भी लिखे और उनमें कुछ को लता जी ने स्वर भी दिया।
राहत इंदौरी जब नौवीं जमात में थे तब उनके नूतन हायर सेकेंडरी स्कूल में एक मुशायरा हुआ। जांनिसार अख्तर की खिदमत उनके हवाले थी। वह उनसे ऑटोग्राफ लेने गए तो कहा कि मैं भी शेर कहना चाहता हूं, इसके लिए मुझे क्या करना होगा। अख्तर साहब का जवाब था कि पहले कम से कम-से-कम पांच हजार शेर याद करो। राहत साहब ने कहा की इतने तो मुझे अभी याद हैं। जनाब जांनिसार ने सिर पर हाथ रखा और कहा कि तो फिर अगला शेर जो होगा वह तुम्हारा खुद का होगा। ऑटोग्राफ देने के बाद अख्तर साहिब ने अपनी ग़ज़ल का एक शेर लिखना शुरू किया: 'हम से भागा न करो दूर, ग़जालों की तरह...।' राहत साहब के मुंह से बेसाख्ता दूसरा मिसरा निकला: 'हमने चाहा है तुम्हें चाहनेवालों की तरह...।'
राहत इंदौरी ताउम्र जांनिसार अख्तर का बेहद एहेतराम करते रहे, लेकिन शायरी में उनके उस्ताद कैसर इंदौरी साहब थे। उनकी शागिर्दी में आने के बाद राहत साहब ने अपना नाम 'राहत कैसरी' रख लिया था। उनका पहला मज्मूआ (किताब) 'धूप-धूप' राहत कैसरी नाम से छपा था। बाद में अपने उस्ताद की सलाह पर ही उन्होंने अपना नाम राहत इंदौरी कर लिया।
शुरुआती मुशायरों में उन्हें 'इंदौरी' होने का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। खासतौर पर जो मुशायरे दिल्ली, लखनऊ और भोपाल में होते थे। उनका गोशानशीं उस्तादों और उनके नामनिहाद शागिर्दों को जवाब होता था: 'जो हंस रहा है मेरे शेरों पे वही इक दिन/क़ुतुबफरोश से मेरी किताब मांगेगा..।' शुरुआती दिनों का ही उनका एक शेर है: 'मैं नूर बन के ज़माने में फैल जाऊंगा/तुम आफ्ताब में कीड़े निकालते रहना..।'
राहत इंदौरी वस्तुतः सियासी शायर थे। इन दिनों के मुशायरों में भी अक्सर वह विपरीत हवा पर शेर कहते थे। उनके ये अल्फ़ाज़ जिक्र-ए-खास हैं: 'जिन चराग़ों से तअस्सुब का धुआं उठता है/ उन चराग़ो को बुझा दो तो उजाले होंगे..।' इस शेर के जरिए वह सीधा फिरकापरस्त सियासत पर कटाक्ष करते हैं। उनके बेशुमार प्रशंसकों का एक पसंदीदा शेर है : 'ज़रूर वो मेरे बारे में राय दे लेकिन/यह पूछ लेना कभी मुझसे वो मिला भी है?'
कोरोना वायरस उनके जिस्मानी अंत की वजह बना और कोरोना काल में हिजरत ने दुनिया भर में इतिहास बनाया। बहुत पहले उन्होंने लिखा था: 'तुम्हें पता ये चले घर की राहतें क्या हैं/अगर हमारी तरह चार दिन सफ़र में रहो...।' जनाब इंदौरी के ये अल्फ़ाज़ भी रोशनी की मानिंद हैं: 'रिवायतों की सफें तोड़कर बढ़ो वर्ना, जो तुमसे आगे हैं वो रास्ता नहीं देंगे..।'।
जिस प्रगतिशील रिवायत से उनकी शायरी थी, उसी में यह लिखना संभव था: 'हम अपने शहर में महफूज भी हैं, खुश भी हैं/ये सच नहीं है, मगर ऐतबार करना है..।' इसी कलम से यह भी निकला: 'मुझे ख़बर नहीं मंदिर जले हैं या मस्जिद/मेरी निगाह के आगे तो सब धुआं है मियां..।' उन्होंने यह भी लिखा: 'महंगी कालीनें लेकर क्या कीजिएगा/अपना घर भी इक दिन जलनेवाला है...।' और यह भी कि: 'गुजिश्ता साल के ज़ख्मों हरे-भरे रहना/जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा..।'
बहरहाल, अब आप जिस्मानी तौर पर हमारे बीच नहीं हैं राहत इंदौरी साहब, लेकिन आपका यह शेर आपके चाहने वालों के अंतर-कोनों में जरूर है: 'घर की तामीर चाहे जैसी हो/उसमें रोने की कुछ जगह रखना..!' आमीन!!(navjivan)
कनुप्रिया
लडक़ों से गलतियाँ हो जाती हैं, लडक़ों का मनचलापन समाजिक रूप से स्वीकार्य है। लडक़े होते ही ऐसे हैं तो ऐसे कहा जाता है मानो उनका स्वभाव कोई जेनेटिक डिसऑर्डर है जो सदियों पहले किसी कारण से इनकी प्रजाति में हो गया अब बदल नहीं सकता।
लडक़ों के इस मनचलेपन की कीमत लड़कियां सदियों से घरों में बंद होकर चुका रही हैं, उनके लिए खेल के मैदान नहीं हैं, वहाँ लडक़ों का कब्जा है, उनके लिए पार्क नहीं हैं, शाम गए सडक़ नहीं हैं, अगर मुहल्ले के किसी कोने पर मनचलों की टोली का ठिहा है तो लड़कियों का स्कूल भी बंद हो सकता है। लडक़ों का मनचलापन सडक़ों, पार्कों, मैदानों सब पर क़ब्ज़ा किए हंै और लड़कियों ने ये सब जगहें एक-एक करके खाली कर दीं, तब भी सुरक्षित रहने की जिम्मेदारी उन्हीं पर है। स्कूल से घर तक पीछा करने वाले लडक़ों के ग्रुप के भय से लगभग हर लडक़ी गुजरी होगी, कितनी बार रुट बदल दिए जाते हैं, लंबे रुट लिए जाते हैं, नहीं तो छोडऩे-लाने की जिम्मेदारी घर के किसी आदमी को सौंप दी जाती है, रक्षा भार। रक्षा सूत्र पर्व हो जाते हैं मगर लडक़ों का मनचलापन नहीं बंद होता।
इन सबके बीच से गुजरकर भी कोई लडक़ी सुदीक्षा अपने बूते 4 करोड़ की स्कॉलरशिप लेकर अमेरिका चली जाती हैं मगर जब अपने घर लौटती है तो कुछ नहीं बदलता, मनचले लडक़े अब भी खुले सांड की तरह सडक़ों पर मिलते हैं जिनको नगरपालिका भी बंद नहीं कर सकती। ऐसे साँडो के कारण हुई मौत यूपी पुलिस की नजऱ में अगर महज दुर्घटना ही है तो क्या आश्चर्य, परिवार वालों के लिए तो मर्डर ही है।
इस परिवार के सपनों की मौत तो दिखाई दे रही है कितने सपनों की मौत चुपचाप आँखों में ही हो जाती है, ऐसे ही मनचलों के कारण पढ़ाई छुड़ाई एक लडक़ी ने मुझे कहा था मैं हैंडबॉल प्लेयर बनना चाहती हूँ, मगर मेरे स्कूल के रास्ते में रोज बैठने वाले लडक़ों के कारण मेरा स्कूल छूट गया है, माँ-बाप काम पर जाते हैं। मैं छोटे भाई-बहनों को देखती हूँ, मैं बाहर मैदान में भी नहीं खेल सकती क्यों?
क्योंकि हमारे समाज में लडक़े ऐसे ही होते हैं, क्या करें।
रुचिका शर्मा
कृष्ण की कहानी ईसा पूर्व छठी शताब्दी में एक जनजाति विशेष के नायक के तौर पर शुरू होती है और ईसवी की पांचवीं सदी आते-आते विष्णु के अवतार के रूप में पूरी हो जाती है।
हिंदू धर्मग्रंथों में जितने भी देवी-देवताओं का जिक्र मिलता है, उनमें श्रीकृष्ण सबसे लोकप्रिय हैं-ग्वालों के बालगोपाल, प्रेम के देवता, धर्मोपदेशक और एक अजेय योद्धा। उनकी पूरी कहानी, जिसे कृष्णगाथा भी कह सकते हैं, कई बिलकुल अलग-अलग तरह के तत्वों को बडी सुंदरता से जोडऩे पर बनी है। यह करीब 800-900 साल के लंबे अंतराल में विकसित हुई। दिलचस्प बात यह है कि इस गाथा का विकास उल्टे क्रम में हुआ है। इसमें पहले पांडवों के मित्र और द्वारका के संस्थापक के रूप में युवा कृष्ण सामने आते हैं फिर गायें चराने वाले बाल कृष्ण और ग्वालिनों के साथ रास रचाने वाले प्रेम के प्रतीक कृष्ण का वर्णन आता है।
कृष्ण का सबसे पहला जिक्र छठी शताब्दी ईसापूर्व ‘छंदोग्य उपनिषद’ में मिलता है। इसमें उन्हें एक साधु और उपदेशक बताया गया है
वासुदेव और कृष्ण
ब्रिटेन में लैंकैस्टर विश्वविद्यालय के धार्मिक अध्ययन विभाग में मानद शोधकर्ता रहीं फ्रीडा मैशे ने एक किताब लिखी है - ‘कृष्ण, ईश्वर या अवतार? कृष्ण और विष्णु के बीच संबंध’। इसमें वे लिखती हैं कि कृष्ण-वासुदेव, पहले यादव समुदाय की सत्वत्त और वृष्णि जनजातियों के नायक हुआ करते थे। इन्हें समय के साथ-साथ देवता मान लिया गया। फिर दोनों एक हो गए।
कृष्ण का सबसे पहला जिक्र छठी शताब्दी ईसापूर्व में ‘छंदोग्य उपनिषद’ में मिलता है। इसमें उन्हें एक साधु और उपदेशक बताया गया है। साथ ही इसमें उनका देवकीपुत्र के रूप में भी उल्लेख है। चौथी शताब्दी ईसापूर्व में पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ (संस्कृत व्याकरण का ग्रंथ) में कृष्ण को एक देव की तरह प्रस्तुत किया गया है। साथ ही इसमें वृष्णिवंशी यादव जनजाति के बारे में भी विस्तार से बताया गया है, जिससे कृष्ण जुड़े हुए थे। मौर्य राजदरबार में यूनान (ग्रीस) के दूत रहे मेगस्थनीज की किताब ‘इंडिका’ में बताया गया है कि किस तरह शूरसेनियों (वृष्णिवंशी यादवों की ही एक शाखा) ने मथुरा में कृष्ण को देवता की तरह पूजना शुरू किया। इस तरह चौथी शताब्दी ईसापूर्व में कृष्ण-वासुदेव न सिर्फ नायक से देवता के रूप में परिवर्तित हुए, बल्कि काफी लोकप्रिय भी हो चुके थे।
विष्णु रूप कृष्ण
दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक वैदिक पूजा पद्धति कठोर हो चुकी थी और उसके धार्मिक संस्कार महंगे। इसी दौरान सम्राट अशोक के समर्थन और प्रचार कार्य की वजह से बौद्ध दर्शन अपना आधार बढ़ाता जा रहा था। इसी बीच, बड़े पैमाने पर विदेशी आक्रमणकारियों (जैसे शक आदि) का भारत में आगमन शुरू हो गया। वे बौद्ध दर्शन आदि से ज्यादा सहानुभूति रखते थे। ऐसे में, पुरोहित वर्ग के अधिकार और असर में कमी आने लगी। निचले वर्णों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर हुई और उन्होंने वर्ण व्यवस्था को चुनौती देना शुरू कर दिया। और जैसा कि सुवीरा जायसवाल अपनी किताब ‘वैष्णववाद की उत्पत्ति और विकास’ में लिखती हैं - ‘ब्राह्मणों ने कृष्ण-वासुदेव के भक्ति-पंथ पर कब्जा कर लिया। वे कृष्ण को नारायण-विष्णु का स्वरूप बताने लगे। इसके पीछे उनका मकसद संभवत: सामाजिक आचार-व्यवहार में अपना अधिकार और प्रभुत्व एक बार फिर से स्थापित करना था।’ यहां जिक्र करना दिलचस्प होगा कि नारायण और विष्णु भी पहले अलग देवों की तरह पूजे जाते थे। बाद में दोनों को एक ही मान लिया गया।
महाभारत में तमाम जगहों पर उस असमंजस या दुविधा का भी जिक्र मिलता है कि किसी अनार्य जनजातीय देव (कृष्ण) को परमेश्वर का दर्जा कैसे दिया जाए
यानी इस काल में कृष्ण-वासुदेव का नारायण-विष्णु के साथ घालमेल हो गया। उन्हें महाभारत के युद्ध के नायक का दर्जा मिला। साथ ही भगवद् गीता का उपदेश देने वाले उपदेशक के रूप में भी मान्यता मिली। हालांकि महाभारत में ही तमाम जगहों पर इस असमंजस या दुविधा का भी जिक्र मिलता है कि किसी अनार्य जनजातीय देव (कृष्ण) को परमेश्वर का दर्जा कैसे दिया जाए। इसीलिए शुरू-शुरू में कृष्ण-वासुदेव का विवरण नारायण-विष्णु के अंशावतार के रूप में ही दिया जाता है।
बाल कृष्ण
इस तरह, पहली शताब्दी ईसापूर्व तक कृष्ण की पूजा सिर्फ उनके युवा स्वरूप में ही होती थी। वे पांडवों के मित्र, एक उपदेशक, वृष्णिवंशी यादवों के नायक और विष्णु के अंशावतार माने जा चुके थे। लेकिन उनकी महागाथा में एक सबसे अहम चीज अब भी नदारद थी। उनका बचपन। जबकि आज उनके बारे में सबसे ज्यादा जिक्र उनके बचपन का ही होता है। कालांतर में जब कृष्ण को अभीर (अहीर) जनजाति के देव का दर्जा मिला तो यह कमी भी पूरी हो गई। कृष्ण के साथ गोपाल (गाय चराने और पालने वाले) का मेल भी हो गया। हालांकि यह अब तक साफ नहीं है कि अभीर जनजाति भारतीय उपमहाद्वीप की ही मूल निवासी थी या किसी और जगह से आकर यहां बसी थी। लेकिन इतना साफ है कि पहली सदी ईसवी में यह जनजाति सिंधु घाटी के निचले इलाकों में निवास करती थी और बाद में पलायन कर सौराष्ट्र (अब गुजरात) में जा बसी। शक और सातवाहन के शासनकाल में यह जनजाति राजनीतिक रूप से भी सक्रिय हुई।
वृष्णिवंशी यादवों और अभीरों में काफी समानताएं थीं। खासकर दोनों समाजों में महिलाओं को किस तरह देखा जाता था। संभवत: इन्हीं समानताओं की वजह से वृष्णिवंशियों के कृष्ण-वासुदेव को अभीरों का आराध्य भी मान लिया गया। उदाहरण के लिए दो प्रसंग सामने रखे जा सकते हैं। पहला, महाभारत में अर्जुन को कृष्ण अपनी बहन का हरण कर लेने की सलाह देते हैं। इसके पक्ष में वे यह दलील देते हैं कि इस तरह धर्म की रक्षा होगी। यह शायद इस बात का संकेत भी है कि महिलाओं का हरण करना वृष्णिवंशियों में एक सामान्य परंपरा रही होगी। दूसरा, कृष्ण के श्रीधाम सिधारने के बाद जब अर्जुन अपनी छत्रछाया में वृष्णिवंशी महिलाओं को लेकर मथुरा की ओर जाते हैं, तो उन पर अभीरों का हमला हो जाता है और हमलावर उनके काफिले में शामिल कई महिलाओं का अपहरण कर लेते हैं।
पहली से पांचवीं शताब्दी तक विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण जैसे महाकाव्यों ने टूटी हुई उन कडिय़ों को जोडऩे का काम किया, जिनसे कृष्ण-वासुदेव और विष्णु-नारायण को समग्र रूप से एक ही रूवरूप में स्थापित किया जा सके।
बहरहाल, कृष्ण-वासुदेव को अभीरों के देव की मान्यता मिलते ही गोपियों के साथ उनके हास-परिहास-रास की कहानियां और प्रसंग भी सामने आने लगते हैं। चूंकि अभीर खानाबदोश किस्म की जनजाति थी, इसलिए उनकी संस्कृति में महिलाओं-पुरुषों के लिए ज्यादा उन्मुक्तता का माहौल था। अभीरों में उन्मुक्तता की यही संस्कृति कृष्ण की रासलीलाओं का आधार भी बनी।
परमपिता परमेश्वर श्रीकृष्ण
हम जानते हैं कि कृष्ण की कहानी में कृष्ण-गोपाल का सम्मिश्रण बाद में हुआ। क्योंकि महाभारत की मूल कहानी में कहीं भी कृष्ण के बचपन का जिक्र नहीं मिलता। चौथी सदी ईसवीं में जब परिशिष्ट या उपबंध के रूप में महाभारत के साथ हरिवंश पुराण का जोड़ हुआ, तब कृष्ण-अभीर की पहचान को एक सुनिश्चित आकार मिला। इस तरह, पहली से पांचवीं शताब्दी ईसवीं तक विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण जैसे महाकाव्यों ने टूटी हुई उन कडिय़ों को जोडऩे का काम किया, जिनसे कृष्ण-वासुदेव और विष्णु-नारायण को समग्र रूप में स्थापित किया जा सका।
इस तरह, कृष्ण की जो कहानी अब सामने आती है, उसके मुताबिक, वे यादव क्षत्रियों (एक योद्धा जाति) के कुल में पैदा हुए। उनके पिता का नाम वसुदेव था, इसी आधार पर उनका एक नाम वासुदेव भी पड़ गया। उनका मामा कंस आततायी था, उन्हें मारना चाहता था, इसलिए उसके डर से उन्हें रातों-रात चोरी-छिपे ले जाकर अभीरों के संरक्षण में (नंद नामक गोप के घर) छोड़ आया गया। इसके बाद इस गाथा में समय के साथ-साथ गोपियों के प्रेमी, अर्जुन के सारथी और गीता में धर्म का उपदेश देने वाले उपदेशक के तौर पर कृष्ण परिपक्व होते हैं। और इस तरह कृष्णगाथा आखिरकार पूरी होती है। इसके बाद जनजातीय समुदाय के देवता को परम ईश्वर मानने को लेकर महाभारत में शुरू-शुरू में दिखी दुविधा भी खत्म हो जाती है। और छठी शताब्दी ईस्वी में लिखी गई भागवत पुराण में उन्हें परमपिता परमेश्वर का दर्जा मिल जाता है। (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार ने कल दो महत्वपूर्ण घोषणाएं की हैं। एक तो देश की सुरक्षा से संबंधित है और दूसरे का संबंध है, देश के किसानों से! किसी देश में सभी क्षेत्रों में पिछड़ापन रहे लेकिन यदि उसके लाखों-करोड़ों लोगों को खाना-पीना सुलभ रहे और उनकी सुरक्षा बनी रहे तो इसे भी उसकी बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में सुधार के कुछ कदम सरकार उठा ही रही है लेकिन रक्षामंत्री राजनाथसिंह की यह घोषणा कई दृष्टियों से काफी महत्वपूर्ण है कि अब 101 हथियारों और सैन्य-उपकरणों का निर्माण भारत में ही होगा।
अब उन्हें विदेशों से नहीं खरीदा जाएगा। ये उपकरण 4 लाख करोड़ रु. के होंगे। इन सामरिक उपकरणों की खरीद पर तत्काल प्रतिबंध नहीं लगेगा, जैसी कि नोटबंदी हुई थी या जैसे कि कई चीनी चीज़ों के साथ हो रहा है। राजनाथसिंह का मंत्रालय इन प्रतिबंधों को सोच-समझकर धीरे-धीरे लगाएगा। अगले पांच साल में पूरी तरह से ये लागू हो जाएंगे। यह भारतीय सुरक्षा और अर्थ-व्यवस्था के लिए एतिहासिक कदम होगा। इसके कई पहलू हैं। एक तो विदेशों पर भारत की निर्भरता घटेगी।
पिछले पांच साल में भारत ने 3.50 लाख करोड़ रु. के हथियार खरीदे थे। दूसरा, विदेशी हथियार खरीदने में जो ठगाई होती है, उससे भारत बचेगा। तीसरा, विदेशी हथियारों के मुकाबले जब हम खुद हथियार बनाएंगे तो वे हमारी जरुरत के एकदम मुताबिक बनेंगे। चौथा, उन हथियारों की मारक-क्षमता और गोपनीयता सिर्फ हमें पता होगी, किसी विदेशी शक्ति को नहीं। पांचवां, अभी भारत लगभग डेढ़ दर्जन देशों को छोटे-मोटे हथियार निर्यात करता है। हो सकता है कि अगले पांच-सात साल में भारत सारी तीसरी दुनिया के देशों में हथियार का सबसे बड़ा सौदागर बन जाए। छठा, अब सरकार ने शस्त्र-निर्माण कार्य में विदेशी विनियोग की सीमा 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दी है। भारत में शस्त्र-निर्माण के लिए विदेशी पूंजी भी अब जमकर आनी चाहिए।
जहां तक खेती का सवाल है, किसानों को तरह-तरह की सुविधाएं देने की घोषणा सरकार पहले भी करती रही है लेकिन प्रधानमंत्री ने इस बार एक लाख करोड़ रुपया सिर्फ इसलिए देने के लिए कहा है कि किसानों की उपज की रक्षा हो सके। भारत में हर साल करोड़ों रु. के फल, सब्जियां और अनाज सड़ जाते हैं उन्हें रखने के लिए देश में समुचित भंडारण और रख-रखाव की व्यवस्था नहीं है।
अब किसान लोग अपने गांवों में कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था कर सकेंगे। उन्हें 2 करोड़ रु. तक कर्ज मिल सकेगा। किसान अपना माल अब किसी भी मंडी या बाजार में बेच सकते हैं। भंडारण की यह सुविधा उनके लिए सोने में सुहागा सिद्ध होगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. अजय खेमरिया
कोरोना महामारी के शोर में इस साल जून से अब तक करीब बीस हजार भारतीय अपने खेतों में सर्पदंश से मौत का शिकार हो चुके हैं। देश भर में करीब तीन लाख लोग हर साल सांप के काटने का शिकार होते है। हर दस मिनट में एक व्यक्ति की मौत इसके चलते हो रही है। स्वास्थ्य पर तमाम बड़े वादों और मिशन मोड़ वाले कार्यक्रमों के इतर सर्पदंश का यह जानलेवा सिलसिला पिछले 20 वर्षों से बदस्तूर जारी है। पूरी दुनियां में हर साल करीब सवा लाख लोग सांप के जहरीले दंश से मारे जाते है जिनमें से लगभग आधे भारतीय होते हंै।
हाल ही में टोरंटो विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर ग्लोबल रिसर्च ने यूनाइटेड किंगडम के सहयोग से इस मामले पर एक शोध के नतीजे सार्वजनिक किए है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2000 से 2019 के मध्य भारत में करीब 12 लाख लोग सर्पदंश से मौत के मुंह में समाये जा चुके हैं। चौकाने वाला तथ्य यह है कि इनमें से 25 फीसदी 15 से 29 साल के लोग है। यानी भारत में बच्चे सर्वाधिक शिकार हो रहे है। ट्रेंड इन स्नेकबाइट डेथ इन ए नेशनली रिप्रजेंटेटिव मोरेटेलिटी स्टडी नामक शीर्षक से जारी इस शोध दस्तावेज में विस्तार से भारत के इस स्याह पक्ष को रेखांकित किया गया है। खास बात यह है कि इस त्रासदी को फीसदी भोगने वाला 97 फीसदी तबका गांव का गरीब आदमी है। ऐसी मौतें खेत में काम करते वक्त या उन गरीबों के साथ होती है जिनके पास पक्के घर और सोने के लिए ऊँचे पलँग नहीं हैं। जो मजदूरी के लिए जूते, रात्रि टार्च, दस्ताने जैसे साधनों से वंचित रहते हैं। जाहिर है सर्पदंश का केंद्र गांव, गरीब, किसान और मजदूर ही है। शहरी इलाकों में केवल 3 फीसदी सर्पदंश की मौत का खुलासा करने वाली इस शोध रपट के अनुसार करीब 58 हजार भारतीय प्रति वर्ष इसलिये मारे जाते हैं क्योंकि उनके रहवास के आसपास एंटी वेनम डोज या तो उपलब्ध नहीं होते हैं और अगर है भी तो वहां ट्रेंड स्टाफ नहीं होता है।
सांप के काटने के बाद अगले एक से दो घण्टे निर्णायक होते है लेकिन जागरूकता के आभाव में ग्रामीण पहले तो झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ते हैं और जब अस्पताल की बारी आती है तब वहां एंटी वेनम की उपलब्धता ही नहीं रहती। इस शोध के मुताबिक आधी से ज्यादा मौतें जून से सितंबर के महीनों में होती है जब मानसून के साथ देश भर में धान, सोयाबीन, मूंगफली जैसी फसलों की पैदावार में किसान खेतों में लगे रहते हंै।
देश में एक चौथाई घटनाओं के केंद्र महाराष्ट्र, गोवा, और गुजरात है। लेकिन सर्पदंश से 70 फीसदी मौतें आठ राज्य बिहार, यूपी, मप्र, राजस्थान, आंध्रप्रदेश (तेलंगाना सहित) झारखण्ड, ओडिशा, और गुजरात में होती हैं। इनमें से भी हर वर्ष यूपी में 8700, बिहार में 4500 एवं आंध्र तेलंगाना मिलाकर 5200 लोगों की मौत सांप के जहर और एंटी वेनम नहीं मिलने के चलते हो रहीं है। समझा जा सकता है कि अन्य सभी मानकों में पिछड़े यूपी बिहार जैसे बड़े राज्य इस मामले में भी गरीबों के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या सर्पदंश से मौत के मुंह में जाने वाले लोग देश के मजदूर, किसान है इसलिए इस मामले पर कोई बुनियादी पहल आज तक नहीं हुई?
हकीकत भी कुछ ऐसी ही बिहार, मप्र या यूपी के किसी भी दूरदराज के प्राथमिक/उप स्वास्थ्य केंद्र में चले जाइये आपको एंटी वेनम की उपलब्धता खोजने से नहीं मिलेगी। इसका रखरखाव फ्रिज में करना होता और देश के अधिकांश पीएचसी पर यह सुविधा आज भी उपलब्ध नहीं है मजबूरन लोग ऐसे मामलों में जिला अस्पताल या निजी नर्सिंग होम्स में जाते हंै। वहां तक आने में लगने वाला समय ही सर्पदंश के मामले में निर्णायक होता है। सरकार के स्तर पर पहली बार 2009 में नेशनल स्नेकबाइट मैनेजमेंट प्रोटोकॉल तैयार किया गया था लेकिन इस पर अमल के मामले में फिलहाल कोई ठोस काम नहीं हुआ है। आज एंटी वेनम की बाजार में कीमत साढ़े पांच सौ रुपए है और इसका मानक डोज देने वाले ट्रेंड लोगों की देश भर में कोई ट्रेनिंग नहीं होती है इसीलिए कई लोग तो ओवर डोज के चलते भी मर जाते हैं या स्थाई विकलांगता का शिकार हो जाते हंै। ग्वालियर की प्रतिष्ठित डॉक्टर नीलिमा सिंह का मानना है कि अधिकांश मौतों को रोका जा सकता है बशर्ते समय पर निर्धारित एंटी वेनम डोज उपलब्ध हो। वह जोड़ती है कि भारत में प्रशिक्षित डॉक्टरों एवं पैरा मेडिकल स्टाफ की भारी कमी है क्योंकि ऐसी कोई प्रमाणिक व्यवस्था है ही नहीं। चूंकि इस डोज को बनाने में दवा कम्पनियों को बड़ा फायदा नहीं होता है इसलिए चुनिंदा कम्पनियों में ही इसका निर्माण होता है। भारत में डोज बनाने वाली प्रीमियम सीरम्स एन्ड वैक्सीन्स के मालिक एमबी खंडेलकर मानते है कि मुनाफे में न्यूनता बड़ी कम्पनियों की दिलचस्पी न होने का अहम कारण है हालांकि वह इसकी तकनीकी दिक्कतों को भी एक वजह मानते है।
एंटी वेनम भेड़ों और घोड़े से बनाई जाती है जो एक लंबी और खर्चीली प्रक्रिया है । साथ ही इसकी खपत डॉक्टरों और दवा कम्पनियों के मध्य बदनाम पारम्परिक संव्यवहार का हिस्सा भी नहीं है। इसका संधारण कठिन होने से भी यह निजी दवा कम्पनियों के लिए प्राथमिकता में नहीं रहती है।
डॉ नीलिमा सिंह का दावा है कि पिछले 12 साल से पौधों के एंटी ऑक्सीडेंट लेकर गोली के रूप में एंटी वेनम ईजाद करने पर काम चल रहा है जो कि अंतिम चरण में है। गोली के रूप में इसके आने के बाद डोज को लेकर आने वाली तकनीकी समस्या का समाधान होने की बात कही जा रही है। यह संधारण की दिक्कतों से भी निजात दिलाने वाला नवोन्मेष होगा। इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन भी गंभीरता से काम कर रहा है उसका लक्ष्य 2030 तक सर्पदंश से होने वाली मौतों के आंकड़े को आधा करने का है। हालांकि इसके लिए एंटी वेनम का उत्पादन 25 से 40 फीसदी बढ़ाने पर भी काम करना होगा।
भारत में होने वाली मौतों को लेकर सरकारी आंकड़े अक्सर दुरूह प्रक्रिया के चलते वास्तविकता को बयां नहीं करते हैं क्योंकि सरकार उन्हीं मामलों की गणना करती है जो उसके। राजस्व और पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज होते हैं।
गांव देहात में लोग अक्सर ऐसे मामलों की रिपोर्ट थानों में नहीं करते हैं क्योंकि मृत्यु के बाद पोस्टमार्टम कराना पड़ता है तब जाकर पुलिस मर्ग कायमी कर प्रकरण राजस्व अधिकारियों को भेजती है। मप्र जैसे राज्यों में ऐसे मामलों में पचास हजार की सांत्वना राशि देने का प्रावधान है लेकिन अधिकतर लोग इस प्रक्रिया का पालन ही नहीं करते हैं। इसीलिए केंद्रीय स्तर पर ऐसी मौतों का आंकड़ा वास्तविकता से बहुत दूर होता है। संभवत: इसीलिये अन्य बीमारियों या कैज्युल्टी की तुलना में सर्पदंश को लेकर सरकार गंभीर नहीं हैं। बेहतर होगा देश की मौजूदा स्वास्थ्य नीति में सर्पदंश को दुर्घटनाजन्य चिकित्सा सुविधा के दायरे से बाहर निकालकर स्थाई इलाज के मैदानी प्रावधान किए जाए। चूंकि इसका केंद्र गांव है इसलिए पीएचसी/सीएचसी स्तर पर एंटी वेनम की सहज उपलब्धता कम से कम मानसून के दौरान तो सुनिश्चित की ही जा सकती है। इस मामले पर शोध एवं प्रशिक्षण को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है। फिलहाल देश में केवल मुंबई के हाफकीन इंस्टिट्यूट एवं चेन्नई के इरुला कोपरेटिव सोसायटी में ही इस मामले पर थोड़ा बहुत काम किया जाता है। देश में होने वाली मौतों के मद्देनजर रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर काम बढ़ाये जाने की भी समानान्तर आवश्यकता है।
डॉ. गोल्डी एम.जार्ज
विश्व मूल निवासी दिवस पर विशेष
केंद्र सरकार ने चार राज्यों में स्थित 41 कोयला ब्लाकों की नीलामी करने की घोषणा की है। इनमें से दस ब्लॉक मध्यप्रदेश में हैं। छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखण्ड में नौ-नौ ब्लॉक हैं तथा तीन ब्लॉक महाराष्ट्र में हैं। इनमें से कई ब्लॉक ऐसे क्षेत्रों में हैं जहां आदिवासी व अन्य मूल निवासी समुदाय निवासरत हैं और वहां के वनों पर निर्भर हैं। उनका पुनर्वास या तो संभव ही नहीं है या उसके लिए कोई योजना नहीं है। जाहिर है, यह निर्णय उनके जीवन के लिए खतरनाक है।
9 अगस्त दुनियाभर के आदिवासियों के लिए गर्व का उत्सव है, जिसे विश्व के सभी मूल निवासी अपने अन्तरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाते हैं। विश्व के 195 देशों में से 90 देशों में 5000 आदिवासी समुदाय हैं, जिनकी आबादी लगभग 37 करोड है तथा उनकी अपनी 7000 भाषाएं हैं। लेकिन इनके अधिकारों का सबसे ज्यादा हनन भी होता रहा है। आदिवासियों के अधिकारों का मसला और आदिवासी दिवस मनाने के पीछे एक लंबा इतिहास रहा है। आदिवासियों के साथ हो रहे प्रताडऩा एवं भेदभाव के मुद्दे को अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने, जो लीग ऑफ नेशन के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ का एक प्रमुख अंग बना, 1920 मे उठाना शुरू किया। इस संगठन ने 1957 मे ‘इंडिजिनस एंड ट्राईबल पापुलेशन कन्वेंशन’ क्र. 107 नामक दस्तावेज को अंगीकृत किया। यह आदिवासी मसले का पहला अन्तरराष्ट्रीय दस्तावेज है, जिसे दुनियाभर के आदिवासियों के उपर किये जाने वाले प्रताडऩा एवं भेदभाव से सुरक्षा प्रदान करने के लिए समर्पित किया गया था।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्रारा पारित आदिवासी अधिकारों के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने के बावजूद भारत सरकार ने आज तक आदिवासी अधिकारों के लिए कोई विशेष कदम नहीं उठाया है। यहां तक कि संविधान की पांचवी और छठी अनुसूची जो आदिवासी स्वशासन से संबंधित है, उसे भी वास्तविक अर्थ में लागू नहीं किया। देश के पहाड़ी और मैदानी इलाकों में रहनेवाले आदिवासियों की संवैधानिक अधिकारों की अवहेलना आम राजनीतिक घटना है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे बुनियादी नागरिक अधिकारों से आदिवासी वंचित तो है ही, साथ ही विकास की परियोजनाओं से लगातार बेदखली, पलायन, मानव तस्करी का शिकार बने हुए हैं। वे अपनी भाषा और संस्कृति से हर रोज विस्थापित हो रहे हैं।
आदिवासी संदर्भ में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान जो नीतियां बनी थीं, उसी तर्ज पर स्वाधीन भारत में भी नीति और कानून बनते गए। 1952 में स्वतंत्र भारत ने अपनी वन नीति बनाई जिसके अंतर्गत वनों को राष्ट्रीय संपदा माना गया और ‘राष्ट्रहित’ को सामुदायिक हितों पर प्राथमिकता दी गई। यह साफ कर दिया गया कि स्थानीय प्राथमिकताएं व हित और स्थानीय समुदायों के दावे, व्यापक राष्ट्रीय हितों के अधीन होंगे। 1952 में ही वन्यजीव सुरक्षा अधिनियम पारित किया गया जिसके अंतर्गत चिन्हित वन क्षेत्रों को केवल वन्य प्राणियों के लिए आरक्षित कर दिया गया और उनमें मनुष्यों के रहवास और प्रवेश को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया। सभी राष्ट्रीय उद्यान और वन्य प्राणी अभ्यारण्य इसी अधिनियम के प्रावधानों से शासित होते हैं।
1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने यह अनुशंसा की कि ‘औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए लकड़ी का उत्पादन वनों का मूल प्रयोजन होना चाहिए’ और व्यक्तियों व समुदायों की आवश्यकताएं, औद्योगिक आवश्यकताओं के अधीन होनी चाहिए। उसी वर्ष, संविधान के 42वां संशोधन के जरिए वन को राज्य सूची से हटा कर समवर्ती सूची में शामिल कर दिया और इस प्रकार, वनों का प्रबंधन केंद्र सरकार के हाथों चला गया।
1980 में वन संरक्षण अधिनियम पारित किया गया, जिसके अंतर्गत, निम्न उपाय किए गए (अ) वनों के गैर-वानिकी उपयोग पर प्रतिबंध, (ब) भारतीय वन अधिनियम 1927 के अंतर्गत जिन वनों को आरक्षित घोषित किया गया है उन्हें अनारक्षित करने पर रोक, (स) वन भूमि को व्यक्तियों या गैर-सरकारी संस्थाओं, निगमों आदि को लीज पर दिए जाने पर रोक और (ड) प्राकृतिक रूप से उगे वृक्षों को काटने पर प्रतिबंध। मूलत: यह अधिनियम वन भूमि के उपयोग के संबंध में निर्णय लेने के अधिकार को राज्य सरकारों से वापस लेकर, केंद्र के हाथों में सौंपता है।
1947 से लेकर 1986 तक, केंद्र सरकार के पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत देश में औद्योगिक विकास बढ़ा, विशेषकर उत्खनन के क्षेत्र में। औद्योगिक और उत्खनन परियोजनों की स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर वन क्षेत्रों को साफ किया गया। इसके चार चरण थे- सिलेक्टिव फेलिंग (1947-60), क्लियर फेलिंग एंड मोनोकल्चर प्लांटेशन्स (1960-75), फॉर्म फॉरेस्ट्री (1975-85) और इम्पोर्ट एंड कैप्टिव प्लांटेशन (1985 से अब तक)। इस तरह वनों को राज्य की संपत्ति मानने की नीति जारी रही और आदिवासियों को वन और वन भूमि पर अधिकार वापस नहीं मिला। इस कारण, आदिवासी इलाकों में जमीन, जंगल, जल, से जुड़े मसलों पर कई आंदोलन और संघर्ष हुए।
इन संघर्षों के चलते, 1988 में जो राष्ट्रीय वन नीति बनाई गई, वह 1952 में बनाई गई नीति से कई मामलों में बहुत भिन्न थी। विशेषकर वन प्रबंधन के संदर्भ में। एक नीति के रूप में उसकी यह सीमा थी कि इसे कानून की तरह लागू करना संभव नहीं था। इसके बाद पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, 1986 ने विशाल उद्योगों के विरुद्ध चल रहे जन आंदोलनों में आशा की एक किरण जगाई, परन्तु यह आशा जल्दी ही समाप्त हो गई। यह अधिनियम पर्यावरण की रक्षा के लिए कानूनी ढ़ांचे की मांग और उसके लिए चल रहे संघर्षों के मद्देनजर बनाया गया था। इस कानून के अंतर्गत किसी भी औद्योगिक परियोजना को लागू करने से पहले उसके पर्यावरणीय प्रभाव और सामाजिक-आर्थिक लाभ-हानि का आंकलन करना और जन सुनवाई आयोजित करना आवश्यक बना दिया गया।
पंचायत (अधिसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा), 1996 के अंतर्गत, औद्योगिक परियोजनाओं के प्रमोटरों के लिए ग्राम सभा से चर्चा करना और उसकी सहमति प्राप्त करना आवश्यक बना दिया गया है। परन्तु इन सभी प्रावधानों का कुछ ही समय तक ठीक से पालन हुआ। पिछले एक दशक के दौरान, जन सुनवाईंयां महज औपचारिकता भर रह गईं हैं जिनकी स्क्रिप्ट पहले से तैयार रहती है। जिन मामलों में स्थानीय रहवासी इस आशय के पर्याप्त प्रमाण जुटा भी लेते हैं कि वे वनों पर निर्भर हैं और वनों को काटने से क्षेत्र के पर्यावरण को हानि होगी, तब भी उनकी आपत्तियों और दावों को दरकिनार कर दिया जाता है। उनकी जमीनें उनसे छीन ली जातीं हैं और उन्हें विस्थापित कर दिया जाता है। पेसा और वन अधिकार अधिनियम के बावजूद पर्यावरण संबंधी कानूनों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं।
आदिवासी आज भी अपने उन नैसर्गिक अधिकारों को पाने के लिए संघर्षरत हैं, जो उनसे छीन लिए गए हैं। वन अधिकार अधिनियम, 2006 के पारित होने के बाद ऐसी आशा जगी थी कि सदियों से आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय पर कुछ लगाम लगेगी। इस अधिनियम के अंतर्गत भूमि अधिकार देने में कई विभागों और मंत्रालयों और अनेक कानूनों की भूमिका रहती है। इस अधिनियम में वन अधिकारों को निम्न श्रेणियों में बांटा गया है- 1) व्यक्तिगत भू अधिकार व 2) सामुदायिक भू अधिकार-अ) आदिवासियों के लिए व ब) अन्य पारंपरिक वनवासियों के लिए। परन्तु ये अधिकार पाने की राह में कई विभाग और कानून रोड़ा बनते हैं। इस अधिनियम के अंतर्गत, किसी भी विकास परियोजना या औद्योगिक गतिविधि या किसी भी बाह्य एजेंसी के लिए ग्राम सभा की पूर्व स्वीकृति लेना ज़रूरी है।
विकास, औद्योगिकारण और खनन परियोजनाएं, पारंपरिक रूप से वनों पर निर्भर समुदायों के जीवन और जीवनयापन से संबंधित कई चुनौतियां देती हैं। हाल में केंद्र सरकार ने चार राज्यों में स्थित 41 कोयला ब्लाकों की नीलामी करने की घोषणा की है। इनमें से दस ब्लॉक मध्यप्रदेश में हैं। छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखण्ड में नौ-नौ ब्लॉक हैं तथा तीन ब्लॉक महाराष्ट्र में हैं। इनमें से कई ब्लॉक ऐसे क्षेत्रों में हैं जहां आदिवासी व अन्य मूल निवासी समुदाय निवासरत हैं और वहां के वनों पर निर्भर हैं। उनका पुनर्वास या तो संभव ही नहीं है या उसके लिए कोई योजना नहीं है। जाहिर है, यह निर्णय उनके जीवन के लिए खतरनाक है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि वन अधिकारों के खतरे में पडऩे का मूल कारण यह है कि न तो औपनिवेशिक काल में और ना ही स्वाधीन भारत में, लोगों के पारंपरिक वासस्थलों और वनों पर उनकी निर्भरता को मान्यता दी गई। इसके कारण, आदिवासियों और अन्य पारंपरिक समुदायों के साथ सदियों से अन्याय होता चला आ रहा है। और यह तब जब कि वे वनों के पारिस्थितिकी तंत्र का अविभाज्य हिस्सा हैं और वनों के बचे रहने में उनकी अनिवार्य भूमिका है। हूल से लेकर उलगुलान तक और आज भी यह संघर्ष जारी है। विश्व मूल निवासी दिवस पर इन सवालों का जवाब सरकार और समाज को देना अनिवार्य होगा।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता है, तथा वर्तमान में फॉरवर्ड प्रेस नई दिल्ली में सलाहकार संपादक है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि अयोध्या के पास बननेवाली मस्जिद के शिलान्यास में मैं नहीं जाऊंगा, क्योंकि मैं योगी हूं और हिंदू हूं। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें पूरा विश्वास है कि उन्हें निमंत्रित भी नहीं किया जाएगा। आज की खबर यह है कि मस्जिद बनानेवाले सुन्नी वक्फ बोर्ड के एक अधिकारी ने दावा किया है कि उन्हें निमंत्रण भेजा जा रहा है और उन्हें उसे स्वीकार करना चाहिए। इसके लिए उसने तर्क दिया है।
तर्क यह है कि मस्जिदों के शिलान्यास की इस्लाम में कोई परंपरा नहीं है। इस्लाम के चारों प्रमुख संप्रदायों की यही मान्यता है। जो शिलान्यास अयोध्या के धन्नीपुर गांव में होगा, वह होगा मस्जिद के साथ बननेवाले अस्पताल, लायब्रेरी, सामूहिक रसोईघर, संग्रहालय और शोध केंद्र का ! मैं खुद मानता हूं कि मुख्यमंत्री होने के नाते उन्हें मुसलमानों के इस निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।
हालांकि मैं यह भी सोचता हूं किसी मस्जिद या मंदिर से किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का क्या लेना-देना ? उनके उदघाटन या शिलान्यास के लिए इन कुर्सीधारियों को बुलाने की तुक क्या है ? राजनीति के दलदल में फंसे हुए इन लोगों का आचरण क्या अनुकरण के योग्य होता है ? अयोध्या में जो मंदिर और मस्जिद बनेंगे, वे क्या इन नेताओं की मेहरबानी से बन रहे हैं ? वे तो अदालत के फैसले की वजह से बन रहे हैं। ऐसे अवसर पर कुर्सीधारियों को बुलाना क्या सिद्ध करता है ? क्या यह नहीं कि आप धर्म को राजनीति के चरणों में लिटा रहे हैं ?
योगी आदित्यनाथ का यह कहना कि वे योगी और हिंदू हैं, इसलिए मस्जिद के शिलान्यास में नहीं जाएंगे, यह भी तर्कसंगत नहीं है। ‘योग दर्शन’ या ‘योग वाशिष्ठ’ या किसी अन्य योग-ग्रंथ में क्या यह लिखा है कि योगी किसी मंदिर या मस्जिद में जाए या न जाए ? जब योग-दर्शन की रचना हुई, तब भारत में हिंदू नाम का कोई प्राणी ही नहीं था और मूर्ति-पूजा नाम की कोई चीज नहीं थी। कोई मंदिर भी नहीं था।
‘हिंदू’ नाम तो आपको हजार-डेढ़ हजार साल पहले विदेशी मुसलमानों ने ही दिया है। आप अपने नामदाता का तिरस्कार क्यों कर रहे हैं ? आप मुख्यमंत्री हैं। आप सबके हैं। आपका प्रेम और सम्मान सबको समान रुप से क्यों नहीं मिलना चाहिए ? मैं न तो मूर्ति-पूजा करता हूं, न ‘नमाज’ पढ़ता हूं और न ही ‘प्रेयर’ करता हूं लेकिन मैं मंदिर में भी जाता हूं, मस्जिद में भी, गिरजे में भी, गुरुद्वारे में भी और साइनेगॉग में भी ! इसीलिए कि इनमें जानेवाले हर व्यक्ति के प्रति मेरा प्रेम है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-मनोज श्रीवास्तव
राधा कृष्ण का रहस्य नहीं हैं, कृष्ण का रस हैं। आखिरकार विष्णु के अवतार कृष्ण ने जिससे प्रेम किया होगा, वह कोई साधारण तरुणी तो न रही होगी। पर राधा की साधारणताओं ने ही उन्हें भारतीय चित्त की अधिकारिणी बनाया है। यह ठीक है कि वे कृष्ण की आत्म-गुप्ति हैं। कृष्ण का ह्रदय वहीं विश्राम करता है । पर उनकी एक लोकभूमिका भी है। कृष्ण की गीता की अनुल्लिखित प्रेरक शक्ति हैं वे। यदि गीता कहती है कि कर्म में ही तेरा अधिकार है, उससे उत्पन्न होने वाले फलों में कदापि नहीं तो राधा वे हैं जो कहतीं हैं कि सिर्फ प्रेम में ही उनका अधिकार है, उसके फलों का उन्होंने त्याग किया हुआ है। ऐसे कि जैसे कभी उन पर उनका अधिकार था ही नहीं। बल्कि प्रेम में भी उनकी एक अकर्तृ उपस्थिति है। यदि गीता सम्बन्धों के पार जाने का कहती है तो राधा सम्बन्धों के पार जा ही चुकी हैं।
कृष्ण उनके क्या हैं? वे उनकी क्या हैं? ये उनके शिरीष, वे उनकी मौलश्री? ये उनके पारिजात, वे उनकी माधवी? ये उनके पारिभद्र, वे उनकी श्रीमंजरी? लेकिन क्या राधा श्रीकृष्ण की पत्नी हैं? या श्रीकृष्ण उनके पति हैं? महाभारत सिखाता है कि सत्य बड़ा है, सम्बन्ध नहीं।राधा और कृष्ण को यह बात कितने शुरू से पता है। इसलिए कि प्रेम ही उनका सत्य है। वह इतना मृदु है कि सम्बन्ध का भार भी नहीं उठा सकता। एक ऐसा प्रेम जो कोई प्रमाणपत्र नहीं प्रस्तुत करता।यदि कुछ पुराणों ने ब्रह्माजी को राधा और कृष्ण का विवाह कराते हुए दिखाया भी तो वह भी इसी बात का सूचक ठहरा कि इस प्रेम में जो भी है वह सृष्टिकर्ता के आदि कवित्व का आदेश है। लोग सम्बन्ध होने पर बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद चाहते हैं। मां बाप, सास-ससुर, चाचा-चाची, मामा-मामी, ताऊ-ताई, दादा-दादी, नाना-नानी का। लेकिन राधा और कृष्ण का प्रेम सामाजिकता में नहीं, निसर्ग में है। इसलिए इनके लिए तो सर्ग के, सृष्टि के रचयिता को ही होना है।
ध्यान दें कि यह गंधर्व विवाह नहीं है। गंधर्व ब्रह्मा के सर्ग के ही अंग हैं। वे देवगायक मात्र हैं। ब्रह्मा बुजुर्ग हैं, पितामह हैं। लेकिन विदेह हैं। उनका एक पर्याय है ‘अशरीरी’। और एक पर्याय है उनका-सात्विक। उनका होना यह बताता है कि राधा कृष्ण के इस प्रेम की कोई मानव समाज वाली सीमा नहीं है और न किसी शरीरी के लिए यह संभव है कि वह उनके प्यार का गवाह बन सके। यह पूरा अग जग उनके प्यार को जानता है। यह ब्रह्मवैवर्त। यह किसी पुराण का ही नाम नहीं है। यह इस ब्रह्मांड को भी कहते हैं। सो उस पुराण के इस प्रसंग का अर्थ यही है कि राधा कृष्ण के प्रेम की सांस्कारिकता यह संपूर्ण निखिल, यह नक्षत्राकाश, यह मरुत्पथ, यह अमरापगा, यह द्यावापृथ्वी,यह शशिचक्र, यह सूर्य, यह चंद्र, यह कांतार, यह वट, यह बेला, यह जूही, यह अद्रि, यह कल्लोलिनी प्रमाणित करते हैं।
राधा और कृष्ण को किसी कचहरी नहीं जाना। कोई दावा नहीं ठोंकना। कोई मुतालबा नहीं मांगना। वहाँ कोई हलफनामा नहीं है। न कोई मुख्त्यारनामा है। वहाँ बस वे दो हैं। और वह दुई भी खत्म हो गई है। वे एक ही हैं। राधा कोई अनंत प्रतीक्षा करती हुई प्रेमिका नहीं हैं। वे आत्मविभोर हैं क्योंकि कृष्ण उनका आत्म हैं। इस आत्म को ही गीता द्योतित करती है।
कृष्ण को अध्यात्म और साहित्य के अलावा इतिहास ने भी किसी हद तक अपनाया, लेकिन राधा इतिहास से जैसे अदृश्य हो गईं। इतिहास वैसे भी सत्ता के लिए लडऩे वालों का होता है। राधा सत्ता नहीं, सत्य के लिए थीं। उनका सत्यार्पण ही उनकी पहचान थी। अध्यात्म की दुनिया में उनकी वह पहचान बनी भी रही लेकिन साहित्य की दुनिया में उनकी पहचान वाली वह अद्वितीयता खत्म हो गई। साधारणीकरण की कवि-कोशिशों ने राधा की साधारणता का इस तरह और इस कदर उपयोग किया कि वे श्रृंगार रस की नायिका के रूप में रूढ़ हो गईं।
राधा ने कृष्ण से प्रेम में जिस स्वतंत्रता का अनुभव किया था, वह अनुभव राधा के माध्यम से और उनके दृष्टांत की प्रेरणा से बहुत सी बोझिल मर्यादाओं, नैतिकताओं और बंधनों से मुक्ति का अहसास कराने के लिए एक स्थाई संदर्भ-बिन्दु हो गया। गृहस्थियों को चलाने के एकतरफा बोझ से लाद दी गई पुरुष-प्रधान समाज की स्त्रियों के लिए राधा के रूप में एक विरेचन-भूमि उपलब्ध हुई। अध्यात्म ने उसे पूज्य समझा, उसे आराध्य माना जिसके प्रेम ने समाज की प्रचलित सरहदों की जंजीरों को अपने भावातिरेक से पिघला दिया। जैसे कृष्ण के जनमते ही कारागृह के द्वार खुल गये, हथकड़ी-बेड़ी टूट गयीं—वह अवतार हुआ ही इसलिए कि वह निष्प्राण मर्यादाओं की जानलेवा जकडऩों से हमें मुक्त करा सके—वैसे ही राधा के प्रेमाधिक्य ने भी स्त्री ह्रदय के द्वारा किये जा रहे निर्वाचन को आदर का स्थान दिलाया।
मर्यादाओं को चुनौती जैसे द्रौपदी देतीं हैं, उनसे पहले राधा देती हैं। बस उनकी शैली में फर्क है। पर राधा के कारण ही कृष्ण द्रौपदी को समझ सके। गीता में भगवान कृष्ण जिस निश्चयात्मिका बुद्धि की बात करते हैं, राधा और भ्रमरगीत की गोपियाँ उसका साक्षात् प्रमाण हैं । अलबत्ता उन्हें निश्चयात्मक ह्रदय का कहा जाना और उपयुक्त होता।भक्तिकाल में राधा की यह हार्दिकता अक्षुण्ण रही। लेकिन जिसने सामाजिक रीतियों का अतिक्रम किया, उसे ही रीतिबद्ध कवियों ने अपनी कवि-परंपरा, कवि-समय और कवि-रूढि़ से बांध दिया। तब राधा एक सब्जेक्ट से ज़्यादा एक आब्जेक्ट हो गयीं। यानी जिस तरह से द्रौपदी का आब्जेक्टिफिकेशन हुआ, उसी तरह से अंतत: राधा का भी हो गया। जैसे द्यूत सभा सामंती थी, वैसे ही रीतिकालीन दरबारों के सामंतों ने राधा के साथ व्यवहार किया। जैसे द्यूत सभा ने द्रौपदी को एक संपत्ति के रूप में दिखाकर उन्हें निर्वैयक्तिकीकृत किया, वैसे ही नायिका भेद आदि में राधा का बारहा इस्तेमाल कर उनका व्यक्तित्व उनसे छीन लिया गया।
राधा इनकी सामंती दुष्प्रवृत्तियों के औचित्यीकरण के लिए नहीं थीं। राधा की प्रतिबद्धता जीवन भर की थी। बल्कि जनम जनम की थी। एक बाँसुरी की ध्वनि-सी जो राधा के मन में लगातार बजती रहती थी। वह ध्वनि थी क्या? वह जीवन का संगीत थी। जीवन जो बहुत सी औपचारिकताओं और पांडित्यों से, बहुत से निर्वचनों और उपाधियों से अधिक और आगे है। उस अनिर्वचनीय, उस अनाम्य, उस अपरिमेय, उस परिभाषातीत, उस वर्णनातीत, उस शब्दातीत, उस सीमातीत को बाँसुरी की तान में जज़्ब करती रहती थीं राधिका। राधा को पूरी दुनिया जिस एक में मिल गई थी, वह एक उन्हें फिर पूरी दुनिया में नहीं मिला। वह विश्वगोप्ता था, लेकिन फिर वह उसी विश्व में राधा के लिए गुप्त हो गया। वह जो अच्युत था, राधा के हाथों से बालू की तरह फिसल गया। कभी उस केशी ने राधा के केश संवारे थे, अब वही केशव कहाँ है जब राधा के केश उनकी प्रतीक्षा में रूखे हो आये हैं? वे चक्रपाणि समय के किस चक्र में उलझाकर चले गये हैं? द्वारिकाधीश की दुनिया के द्वार राधा के लिए नहीं हैं, यह राधा ने कब जान लिया था? वनमाली मथुरा को जाते हुए अपनी ग्राम्य पृष्ठभूमि पर एक पल के लिए भी शंका नहीं लाए, तब राधा ही क्यों ठिठक गयीं? क्या उन्हें ब्रज की मिट्टी से, उसके कुंजों और पुलिनों से, उसके पर्बतों और गलियों से इतना प्यार था कि वे वहीं रह गईं और इसी की कृतज्ञतास्वरूप वहां आज भी ‘राधे राधे’ ही कहा जाता है? कि वे ही हैं जो वृंदावनेश्वरी हैं, होंगे कृष्ण वृंदावनविहारी।
-कुमार विकास
झारखंड की राजधानी रांची से करीब 125 किमी दूर लातेहार जिले के हेरहंज में देशी जुगाड़ से बना बिना पिलर का झूलता पुल लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। कटांग नदी पर स्थानीय ग्रामीणों की जुगाड़ तकनीक से बना यह पुल आस-पास के कई गाँव को जोड़ता है। इस इलाके में हर साल बारिश के बाद बाढ़ क वजह से दर्जनों गांव का संपर्क अन्य इलाके से टूट जाता था।
दशकों से पुल की आस लिए ग्रामीणों की उम्मीद जब टूटने लगी तो उन्होंने इस समस्या का हल खुद ही निकाल लिया। ग्रामीणों ने उत्तराखंड के ऋषिकेश के झूला पुल की तर्ज पर देशी पुल बनाने का निर्णय लिया। फिर क्या था ग्रामीणों ने चंदा कर पैसा जमा किया और रोजाना श्रमदान कर पुल बनाने में जुट गए। बाँस, तार, रस्सी और बल्ली के सहारे इस पुल को तैयार किया गया।
गाँव वालों ने आपस में चंदा करके यह कार्य शुरू किया
नदी के दोनों किनारों पर बड़े-बड़े पेड़ों पर तार खींचकर उस पर बांस बिछाकर पुल में चलने के रास्ते तैयार किए गये और करीब 25 से 30 दिनों की मेहनत के बाद कटांग का झूला पुल आज लोगों का संकटमोचक बनकर तैयार है।
पुल निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाने वाले प्रेमचंद उरांव ने पुल के निर्माण में दिन-रात मेहनत किया। प्रेमचंद बताते हैं, “हम लोगों ने पुल निर्माण के लिए सरकार, प्रशासन सबका दरवाजा खटखटाया लेकिन दशकों तक कुछ भी नहीं हुआ। इसके बाद ही हम सब ग्रामीणों ने मिलकर श्रमदान से पुल बनाया। झूला पुल के निर्माण होने से हमारे गाँव के बच्चों को हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए हेरहंज में भाड़े पर रहने की जरुरत अब नहीं पड़ेगी, अब बच्चे बरसात में भी स्कूल जा सकते हैं। वहीं बरसात के दिनों में हमारे गांव में डाकिया चिट्ठी तक नहीं दे पाता था। पिछले 20 साल से हमलोग इस दुर्दशा को देख रहे थे। अब वो बीते दिन की बात हो गई है।”
कटंगा के एक अन्य ग्रामीण निर्मल उरांव बताते है कि इस पुल के बनने से लोकल बाजार एवं प्रखण्ड कार्यालय हेरहंज सिर्फ 2 किमी दूर है, जबकि पहले दूसरी ओर से करीब 25 किमी दूरी तय कर हेरहंज जाना पड़ता था। यही नहीं करीब 8000 की आबादी वाले कटांग एवं आस-पास के गाँव के लोग अब पैदल एवं साइकिल के जरिए इस झूला पुल से दूसरे तरफ आराम से जा सकते हैं।
निर्मल बताते हैं, “हम लोग जब पुल बनाने के लिए माथापच्ची कर रहे थे तो उसी समय हमारे गाँव के दामाद प्रकाश कुजूर लॉकडाउन के दौरान यहीं फंस गए थे। प्रकाश जी के बिना यह पुल बनाना संभव नहीं था, वह पेशे से सिविल इंजिनीयर हैं और इस पुल के पीछे का पूरा विज्ञान उन्हीं का है। नक्शा के जरिए स्टील के तार एवं बांस के क्लैम्प से जोड़ कर हमलोग पुल का निर्माण कर चुके है जो 100 फीट लंबा एवं करीब 4 फीट चौड़ा है। यह झूला पुल एक बार में करीब 35 लोगों का वजन झेल सकता है।”
पुल बनाते ग्रामीण
झूला पुल के निर्माण में सिर्फ पुरूषों ने ही नहीं महिलाओं ने भी श्रमदान दिया है। गाँव की सरिता कुजूर बताती हैं, “अभी और काम करना है ताकि पुल को और सुरक्षित बनाया जा सके। प्लेटफार्म पर स्टील प्लेट्स एवं दोनों तरफ फेन्सिंग करना है ताकि बैलेंस खराब होने पर कोई नदी में न गिरे। अब तक करीब 50 हजार की राशि हमलोगों ने खर्च की है जल्द ही हम सब मिलकर बचे हुए काम भी पूरा कर लेंगे।”
प्रेमचंद बताते हैं कि बारिश के दिनों में कटांग नदी में डूबने से कई लोगों की मौत हो चुकी है। उन्हें उम्मीद है कि पुल की वजह से लोग अब नहीं। वह बताते हैं, “सालों से हम बरसात से पहले 3 महीने का राशन एक साथ खरीदते थे। इन दिनों में बाजार, प्रखण्ड कार्यालय या कहीं और जाना हमारे लिए बड़ी समस्या थी। बिना पिलर के इस झूला पुल ने हम गांव के लोगों को एक नई उम्मीद दी है औऱ हम ग्रामीणों ने अब सीख लिया है कि कुछ भी मुश्किल नहीं है, कुछ करने का दृढ़ संकल्प अगर कर लिया जाए तो लाख परेशानियां भी बाधक नहीं बनती है।”
हेरहंज के प्रखण्ड विकास पदाधिकारी संजय कुमार यादव इस पहल की तारीफ करते हुए बताते हैं कि ग्रामीणों ने बिना किसी बाहरी मदद के पुल का निर्माण किया जो प्रशंसनीय है। करीब 5000 से ज्यादा लोग जो कटांग के आस-पास के गाँव में रहते है उनको हेरहंज आने में इस पुल की वजह से काफी आसानी हो जाएगी।
ग्रामीणों ने पूरे ताकत झोंक कर इस असंभव कम को संभव कर दिया
सालों से अपने हालात का रोना रो रहे ग्रामीणों ने जब ठान लिया तो महीने भर के श्रमदान से स्टील रोप एवं बांस का बना झूला पुल बना दिया। कटांग एवं आसपास के गांव में खुशी की लहर है, अब बरसात के मौसम में ग्रामीणों को नदी किनारे पेड़ के नीचे रात काटने को मजबूर नहीं होना पड़ेगा।
देशी जुगाड़ तकनीक से अपनी चुनौतियों को अवसर में तब्दील कर अपने बूते झूला पुल का निर्माण करने वाले कटांग गाँव के ग्रामीणों को द बेटर इंडिया का सलाम।(betterindia)
-बाबा मायाराम
प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, नारीवादी आंदोलन की अग्रणी पंक्ति की सिद्धांतकार इलीना सेन नहीं रहीं।
कल उनका निधन हो गया। वे लम्बे समय से कैंसर से पीडि़त थीं। लेकिन अंत समय तक बीमारी से लड़ते हुए भी वे मानसिक रूप से सक्रिय थीं।
इलीना सेन, एक शोधकर्ता, एक लेखक के साथ जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता थीं। उन्होंने छत्तीसगढ़ (अब पहले संयुक्त मध्यप्रदेश) के दल्ली राजहरा में लौह खान मजदूरों के संगठन छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा व महिला मुक्ति मोर्चा के साथ काम किया।
वे दल्ली राजहरा में रहकर महिलाओं के संगठन के साथ काम करती थीं। उनके पति डॉ. विनायक सेन दल्ली राजहरा में मजदूरों के अस्पताल में काम करते थे।
मशहूर मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी के मजदूरों के संघर्ष और निर्माण के काम में इलीना सेन और उनका परिवार शामिल रहा। उनका अंत समय तक इस संगठन व दल्ली राजहरा के साथियों से परिवारिक संबंध व स्नेह अंत तक बना रहा।
इलीना सेन ने 90 के दशक में रूपान्तर नाम की संस्था बनाई और साक्षरता, शिक्षा, स्वास्थ्य, जैविक खेती, ग्रामीण विकास जैसे मुद्दों पर बरसों तक काम किया।
इस बीच उन्होंने छत्तीसगढ़ में पलायन की समस्या पर शोधपरक सुखवासिन नाम की किताब लिखी, जिसकी काफी चर्चा हुई। महिला हिंसा पर भी उनकी किताब आई।
रूपान्तर ने छत्तीसगढ़ गाथा नाम से कई छोटी छोटी पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया, जिसमें छत्तीसगढ़ की अस्मिता से लेकर संस्कृति, जल, जंगल, जमीन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया।
वे राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर लगातार काम करती रही। आठ मार्च को महिला दिवस और 6 अगस्त को हिरोशिमा दिवस पर हर साल कार्यक्रम आयोजित करती थीं।
उन्होंने अपनी संस्था में महिला कार्यकर्ता को महत्व दिया, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया। ग्रामीण महिलाओं के बीच छत्तीसगढ़ी में गुठियाती (बातचीत) करती थीं और ऐसे घुल मिल जाती थीं, जैसे उनकी खुद की बहन हों।
इलीना सेन ने छत्तीसगढ़ 35 साल रहीं। कुछ समय पहले ही वे वर्धा में अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय और बाद में मुंबई में टाटा समाज शोध संस्थान में पढ़ाया।
लेकिन उनका छत्तीसगढ़ से नाता बना रहा। उनकी दोनों बेटियां प्राणहिता और अपराजिता रायपुर के स्कूलों में ही पढ़ी बढ़ीं।
इलीना सेन ने खुद की पगडंडी बनाई। दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से समाज शास्र में पीएचडी और जनसांख्यिकीय अध्ययन और स्रियों के काम तथा भारत में नारी आंदोलन के सिद्धांत व व्यवहार पक्ष पर अनेकों लेख, व्याख्यानों से एक नई धार दी।
बौद्धिक जगत के साथ महिला खान मजदूरों के साथ उनका काम सदैव ही याद किया जाएगा। दल्ली राजहरा व छत्तीसगढ़ की महिलाओं के दिल में उनका हमेशा स्थान रहेगा। उन्हें सादर नमन।
-संतोषी मरकाम
विश्व आदिवासी दिवस: मूल निवासियों की पहचान उनकी अपनी विशेष भाषा और संस्कृति से होती है, लेकिन बीते कुछ समय से ये चलन-सा बनता नज़र आया है कि आदिवासी क्षेत्र के लोग मुख्यधारा की शिक्षा मिलते ही अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराओं को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं.
गोंडी भारत की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है, जिसे देश के बीचोंबीच बसे ‘गोंडवाना’ क्षेत्र में बोला जाता है.
छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा से सटे हुए एक व्यापक इलाके में रहने वाले लाखों-करोड़ों लोगों की ये मातृभाषा आज अपनी आख़िरी सांसें गिन रही है.
आज सिर्फ दूर-दराज़ के जंगली क्षेत्रों में बसे गांवों तक ही ये भाषा सिमटकर रह गई है. हालांकि इसे नए सिरे से संजोए रखने का जद्दोजहद भी कुछ हद तक जारी है लेकिन इसके भविष्य पर अभी भी प्रश्नचिह्न लगा हुआ है.
मेरा जन्म बस्तर क्षेत्र में एक गोंड परिवार में हुआ है. मैं जैसे-जैसे बड़ी हुई, मैंने अपने ही घर-परिवार और गांव के अंदर गोंडी भाषा का पतन होते हुए देखा है.
मेरे परिवार में गोंडी भाषा मेरे माता-पिता की पीढ़ी के साथ ही खत्म होने जा रही है क्योंकि मेरे अलावा मेरे भाई-बहनों में किसी को भी अब गोंडी बोलना नहीं आता.
मेरे माता-पिता को गोंडी इसलिए आती थी क्योंकि वे स्कूल नहीं गए थे जहां उन्हें किसी अन्य भाषा में सीखना अनिवार्य कर दिया जाना था.
बचपन में हम, यानी मेरे भाई-बहन सब घर में आपस में थोड़ी-बहुत गोंडी बोल लेते थे. लेकिन जैसे-जैसे हम प्राथमिक से माध्यमिक शालाओं में बढ़ते गए, हम अपनी मातृभाषा गोंडी से दूर होते गए और अब हम में से किसी को भी को उसमें सहजता से बोलना भी नहीं आता.
अपने अनुभव में मैंने यही देखा कि लोगों में शिक्षा का प्रसार शुरू होते ही गोंडी परिवारों में उनकी मातृभाषा का पतन भी शुरू हो जाता है.
ये मेरे अकेले परिवार की बात नहीं, बल्कि एक पूरे इलाके में, जहां मैं पली-बढ़ी हूं, कमोबेश यही स्थिति है. बल्कि कई जगहों में तो हालत और भी खराब है.
खासकर स्कूलों में और कुछ हद तक ‘बाहरी’ समाज में भी गोंडी भाषा को लेकर एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि इसे बोलना गंवार या पिछड़ेपन की निशानी समझा जाने लगा है.
जो गोंडी बोलता है उसे अनपढ़ या गंवार समझा जाता है, जिससे लोग अनजाने में ही अपनी भाषा से दूरी बनाना शुरू कर देते हैं. इतना ही क्यों, कई लोग तो अपनी आदिवासी या गोंडी पहचान को भी छुपाने की कोशिश करते हैं.
बचपन में मेरी पढ़ाई रामकृष्ण मिशन की एक आश्रमशाला में हुई थी. वहां स्कूल के चौखट पर कदम रखते ही अपनी मातृभाषा के प्रति विमुखता के बीज हमारे मन में बोए गए थे.
बाद में ये पता चला कि देश के दूसरे आदिवासी क्षेत्रों में चलने वाली भिन्न-भिन्न आश्रमशालाओं में यही कुछ हो रहा है.
हाल ही में एक प्रेस विज्ञप्ति नजर में आई थी जिसमें ये बताया गया कि ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में आदिवासी-मूलवासी बच्चों के लिए बनी विशालकाय फैक्ट्री स्कूल- कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (किस) में कैसे आदिवासी बच्चों को अपनी जड़ों से दूर किया जा रहा है.
इसकी एक खास बात यह भी है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा मूल निवासी आवासीय-स्कूल है. यहां देशभर के तकरीबन तीस हजार आदिवासी बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं.
ये स्कूल आदिवासी बच्चों में उनके इतिहास और समाज के प्रति अनिच्छा या अनादर की भावना भर देता है. उनके रहन-सहन, जीवनशैली, भाषा… इन सबसे उन्हें दूर कर देता है. उनकी तमाम जीवनशैली को पिछड़ेपन का संकेत मानने पर मजबूर कर देती है, ऐसा उस विज्ञप्ति में कहा गया.
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ एंथ्रोपालॉजिकल एंड एथ्नोलॉजिकल साइंसेज के नाम कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा लिखे गए उस पत्र में कहा गया है कि आदिवासी बच्चों को अपनी मातृभाषाओं से भी वंचित कर दिया जाता है और उड़िया, अंग्रेजी बोलने और पढ़ने पर जोर दिया जाता है.
यह भी कहा गया था कि वहां अपने आदिवासी तीज-त्योहार मनाना मना है, उन्हें हिंदू पर्व और हिंदू देवी-देवताओं की ही पूजा करनी होगी.
इसे पढ़कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मैं जिस क्षेत्र से आती हूं, वहां भी कमोबेश यही स्थिति थी और आज भी है. मेरे अनुभव भी लगभग इसी प्रकार के हैं.
रामकृष्ण मिशन आश्रम की जिस स्कूल में मैंने प्राथमिक स्तर तक पढ़ाई की थी, वहां हिंदी बोलने पर हम पर ज्यादा जोर डाला जाता था. वहां एक अघोषित नियम-सा था कि कोई अपनी मातृभाषा में नहीं बोलेगा, चाहे वह आपस में ही क्यों न हो.
हालांकि स्कूल में दाखिला लेने वालों में गोंडी, माड़िया, हल्बी, छत्तीसगढ़ी बोलने वाले बच्चे होते थे लेकिन किसी को अपनी मातृभाषा में बात करने की अनुमति नहीं थी.
बच्चों को आपस में आपनी आदिवासी भाषा में बोलते हुए देखने पर शिक्षक टोका करते थे. वहां हमें सुबह से शाम तक पढ़ाई के अलावा हिंदू धर्म के नियम-कायदे भी सीखने पड़ते थे.
सुबह उठते ही हमें मंदिर जाकर पूजा करनी होती थी. शाम को भी मंदिर में पूजा के साथ हमारी दिनचर्या समाप्त होती थी. खाने से पहले मंत्र पढ़ना होता था. यानी हमारी दिन मंत्र पाठ से शुरू होकर मंत्र पाठ से समाप्त होता था.
ये सब हमारी संस्कृति और रीति-रिवाजों से पूरी तरह अलग था. यानी हमारी पढ़ाई के साथ हमारे हिंदूकरण की प्रक्रिया भी सुनियोजित तरीके से चल रहा था जिसके बारे में, कम से कम उस समय तो हमें कुछ भी मालूम नहीं था.
ये सब मुझे बहुत सालों बाद, जब मेरी राजनीतिक सोच विकसित हुई, समझ में आया.
आदिवासी समाज में कभी किसी को पैर छूने का रिवाज नहीं था. अपने बचपन में, कम से कम हमारे आसपास में तो मैंने ऐसे रिवाज कभी नहीं देखे थे.
अगर हमउम्र हैं, तो हाथ मिलाकर ‘जोहार’ बोलते थे और छोटे हैं तो बड़ों के द्वारा गाल छूकर जोहार बोला जाता था. लेकिन हमें स्कूल में बड़ों को पैर छूना सिखाया गया था.
जब भी मिशन के स्वामी या महाराज दौरे पर आते थे तो हमें घुटने टेककर या साष्टांग दंडवत प्रणाम करना पड़ता था. यानी जो रिवाज या जो संस्कृति हम पर थोपी गई थी उससे हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का कोई लेना-देना नहीं था.
हालांकि उस समय ये सब हमें ‘थोपना’ नहीं लगता था क्योंकि उन रिवाजों और पद्धतियों को ‘श्रेष्ठ’ या ‘उन्नत’ मानने पर पहले ही हमें मानसिक रूप से मजबूर किया जा चुका था.
और अंदर ही अंदर हमें ये लगने लगता था कि हम अपने घरों में जो भाषा या जो संस्कृति-रीति-रिवाज सीख कर आए थे, वो सब ‘पिछड़े’ या ‘बुरे’ थे.
रामकृष्ण मिशन आश्रम बस्तर के नारायणपुर जिला में आदिवासी बच्चों को 12वीं तक निशुल्क पढ़ाई और रहने की सुविधा उपलब्ध कराता है.
खासकर अबूझमाड़ इलाके में, जहां विलुप्तप्राय माड़िया जनजाति निवास करती है, इनके स्कूल ही एक मात्र आसरा है.
अविभाजित मध्य प्रदेश सरकार ने साल 1989 में माड़िया जनजाति को विलुप्तप्राय जनजातियों की सूची में रखकर उस इलाके में बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सरकार ने 2009 में इस प्रतिबंध को हटा दिया.
माड़िया आदिवासी बच्चों को पहली से 12वीं कक्षा तक यानी बारह साल आश्रम में ही रखकर पढ़ाया जाता है. यानी एक प्रकार से 12 सालों के अंदर उन बच्चों को पूरी तरह से उनके समाज से ही नहीं, बल्कि परिवार से भी काट दिया जाता है.
गर्मी की छुट्टियों या अन्य तीज-त्योहारों में भी उन्हें उनके गांवों में जाने नहीं दिया जाता है या बहुत कम जाने दिया जाता है. कोचिंग, खेलकूद, टूर आदि के नाम पर बच्चों को छुट्टियों में एंगेज करके रखा जाता है.
जब वे वहां से निकलते हैं तो उनके अंदर ‘आदिवासीपन’ बहुत कम रह जाता है. उनके सारे तौर-तरीके बदल चुके होते हैं, यहां तक कि उनको अपने मूल गांवों में रहना भी पंसद नहीं आता.
वहां के खान-पान आदि उनको भिन्न या अनजाना-सा लगने लगता है. उनके अंदर अपने समाज के प्रति हीनदृष्टि पैदा हो चुकी होती है.
अपनी पहचान का कोई भी पहलू, यानी भाषा, रीति-रिवाज, पहनावा, खानपान… कुछ भी उनके लिए गौरव या गर्व करने योग्य नहीं लगता.
ये सब वह जानबूझकर तो नहीं करेगा या ऐसा करने के लिए सीधा-सीधा कोई प्रेरित नहीं करता, लेकिन 12 सालों में उसका दिलोदिमाग अपने आप ऐसा तैयार हो जाता है.
ये मेरा खुद का अनुभव भी है. मैं भी पढ़ाई के बीच में छुट्टियों में जब घर जाती थी, परिवार में चलने वाली परंपरागत रस्में बिना किसी कारण के ही ‘ख़राब’ लगने लगती थीं.
हालांकि उम्र गुजरने के साथ जब मुझे अपने अस्तित्व और पहचान की राजनीतिक समझ मिली, तब जाकर मैं विश्लेषण कर पाई कि ‘पढ़ाई’ ने मुझे क्या से क्या बनाया था.
ऐसे स्कूलों में 10-12 साल पढ़ने के बाद आदिवासी बच्चे क्या बन रहे हैं, ये जानना भी दिलचस्प होगा.
अधिकतर चपरासी, नर्स, टीचर जैसी छोटी-छोटी नौकरियों तक ही पहुंच पाए हैं. बहुत कम संख्या में लेक्चरर, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियरिंग बन पाए हैं.
पिछले 30-35 सालों से जारी प्रयासों से कोई ऐसा बच्चा तो आज तक नहीं निकला, जिसने वापस जाकर अपने समुदाय की संस्कृति पर शोध किया हो या फिर अपनी पहचान को लेकर समुदाय में सजगता लाने का प्रयास किया हो.
सांस्कृतिक हमला
ब्रिटिशों द्वारा भारत पर कब्जा करने के बाद भारतीय संस्कृति पर हमले के बारे में तो हमने बहुत कुछ पढ़ा-सुना है, लेकिन आदिवासी इलाकों में शिक्षा के नाम पर उनकी संस्कृति पर हमला जो उस समय में शुरू हुआ, वो आज भी बेरोकटोक जारी है.
हालांकि शिक्षा के अभाव ने बेशक आदिवासियों को बेहद नुकसान पहुंचाया, लेकिन सरकारी या विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के माध्यम से उनको दी जा रही शिक्षा से भी उनकी संस्कृति को जो नुकसान हो चुका है और आज भी हो रहा है वो कम नहीं है. बल्कि उसकी भरपाई भी मुमकिन नहीं है.
स्कूल में दाखिला लेने के साथ ही आदिवासी बच्चों के नामों का ‘हिंदूकरण’ शुरू होता है. माता-पिता द्वारा आदिवासी परंपराओं के तहत दिए गए नामों को बदलकर या उनके नामों के आगे ‘राम’ को जोड़कर रजिस्टर में दर्ज किया जाता है.
उदाहरण के तौर पर ‘चमरू’ है तो उसे ‘चंद्रेश’ या ‘चंद्रूराम’ कर दिया जाता है. ‘बंडू’ है ‘भावेश’, ‘कोसा’ है तो ‘कन्हैया’ के रूप में बदला जाता है.
ऐसे ही हर नाम के आगे ‘राम’ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाता है, जैसे कि ‘मानूराम’, ‘चैनूराम’ ‘संतूराम’ आदि. इसका प्रभाव इतना ज्यादा है कि कई युवतियों-युवकों ने तो बड़े होकर अपने नामों को बदल लिया.
सरकारी दस्तावेजों में सिर्फ इंसानों के नाम ही नहीं बदले हैं, बल्कि उनके गांवों, नदियों, पहाड़ों आदि के नामों को बदल दिया जाता है. जैसे नारायणपुर का ही असली आदिवासी नाम है ‘नगुर,’ वहां के ग्रामीण लोग आज भी उसे ‘नगुर’ ही कहते हैं.
नारायणपुर से होकर बहने वाली ‘कुकुर नदी’ का असली नाम है ‘नैयबेरेड़’ (दरअसल लोग बताते हैं कि इस नदी का नाम ‘नायुम’ यानी नाग सांप, ‘बेरेड़’ यानी नदी से बना है लेकिन गोंडी में कुत्ता को ‘नैयु’ कहा जाता है तो इस तरह उसे ‘कुकुर नदी’ कर दिया.) जैसे कोंडागांव का नाम कोडानार था, (कोडा यानी घोड़ा).
स्कूलों में हमें ये भी बताया जाता था कि हमारा आदिवासी समाज जिस संस्कृति को मानता है वह ‘राक्षसी संस्कृति’ है.
हिंदू देवी-देवताओं को आदिवासियों के प्राकृतिक मान्यताओं से श्रेष्ठ होने की सीख दी जाती थी. इसके कारण के तौर पर ये बताया जाता था कि चूंकि आदिवासी मांसाहारी हैं और मांस खाना राक्षसी संस्कृति का हिस्सा है.
आदिवासियों के देवी-देवताओं को भी मुर्गे, बकरी, सुअर, भैंस आदि जंतुओं की बलि दी जाती है, इसलिए वह सब देवता नहीं बल्कि भूत-प्रेत हैं, ऐसा सिखाया जाता था.
बचपन में मेरे मन भी यही बैठ गया था कि हमारी संस्कृति बहुत ही नीच होगी. इसको लेकर हम घर में अपने मां-बाप से भी बहस करने लगते थे. उन्हें समझाने की कोशिश करते थे कि हम जिन परंपराओं को मान रहे हैं वो अच्छी नहीं हैं.
स्कूलों में हुए हमारे ‘ब्रेनवॉश’ का असर इतना ज्यादा था कि मैं और मेरे दोनों भाइयों ने मांस खाना ही छोड़ दिया था. हिंदू देवी-देवताओं को श्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा-पाठ करने लगे थे. घर में दीवारों पर हिंदू देवताओं की तस्वीरें टांगने लगे थे.
समय के साथ मैं तो बदल गई, लेकिन मेरे दोनों भाई आज भी नहीं बदले. उसके प्रभाव से निकलने का मौका या माहौल उन्हें आज तक नहीं मिल पाया.
स्कूलों में हमारे देश की विविधता के बारे में बड़ी-बड़ी बातें बताई जाती हैं लेकिन सभी संस्कृतियों का सम्मान करना या सभी को समान दृष्टि से देखना नहीं सिखाया जाता है.
सीधे तौर न सही, लेकिन कदम-कदम पर हमें यही बोध कराया जाता था और आज भी यही होता है कि हिंदू तौर-तरीके ही सभ्य और श्रेष्ठ हैं, बाकी सब तुच्छ या नीच हैं.
मैं यहां हिंदू तौर-तरीकों के बारे में इसलिए कह रही हूं क्योंकि हमारे आसपास में इसी का बोलबाला है. हालांकि देश के दूसरे इलाकों, जैसे झारखंड या पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में ईसाईकरण का क्रम भी लगभग ऐसा ही कुछ होगा.
वैसे हिंदूकरण का माध्यम सिर्फ स्कूल ही नहीं था. मेरे बचपन में हमारे गांव में गायित्री मठ वालों का भी बोलबाला रहा था. इन लोगों ने हमारे गांव में या इलाके में कब और कैसे प्रवेश किया पता नहीं.
हमारे गांव में एक सामूहिक भवन हुआ करता था, जो पहले गोटूल था. वहां हफ्ते में एक दिन रामायण का पाठ होता था. पौराणिक कहानियां सुनाई जाती थीं. मेरी दादी मां हमें लेकर वहां जाती थी.
कुछ समय बाद गणेश चतुर्थी के दौरान गणेश उत्सव बड़े धूमधाम से मनने लगा जोकि पहले कभी नहीं था. दुर्गा पूजा के दौरान नौ दिनों तक उत्सव होने लगा जो पहले कभी नहीं हुआ करता था.
दुर्गा उत्सव प्रचलित होने से पहले हमारे गांव में एक त्योहार मनाया जाता था, जिसे हम ‘जगार’ कहते थे. इस पर्व में खेत से धान के कुछ पौधों को गाजे-बाजे के साथ धूमधाम से सामुदायिक भवन (गोटूल) में लाया जाता था.
वहां नौ दिनों तक रोज शाम को गांव की महिलाएं, युवक, बच्चे जमा होकर नाचते-गाते, खेलते, कहानियां सुनाते थे. नौवें दिन उसे तालाब में धूमधाम से बहा दिया जाता था. दुर्गा मूर्ति की स्थापना के साथ ही ये त्योहार भी अब पुरानी यादों में सिमटकर रह गया है.
दशहरे का त्योहार हमारे गांव में पीढ़ियों से बड़े धूमधाम से मनाने का रिवाज रहा है क्योंकि विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे में हमारे गांव और हमारे परिवार से प्रतिनिधि जाते थे.
हमारे दादा जी को ढोल-नगाड़ों के साथ जगदलपुर दशहरा में प्रतिनिधि के तौर पर विदा करते थे, लेकिन उसमें भी समय के साथ परिवर्तन आया.
अब हमारे आसपास के गांव में रामलीला होने लगी है. गांव में रावण दहन होने लगा जो पहले कभी नहीं था.
आदिवासियों के देवी-देवताओं का स्थान अब लगभग पूरी तरह से हिंदू देवी-देवताओं ने ले ली. अब कई आदिवासी इलाकों में उनके पारंपारिक तीज-त्योहारों की जगह हिंदू तीज-त्योहारों ले चुके हैं.
मेरे दादा जी बताया करते थे कि हमारे गांव में मांस खाने को लेकर काफी विवाद हुआ था. मामला मारपीट तक पहुंच गई थी. जो लोग हिंदू मठों के धार्मिक प्रभाव से मांस खाना छोड़ चुके थे वो लोग बाकी लोगों पर दबाव डालते थे कि कोई मांस न खाए.
बीफ को लेकर कई लड़ाई-झगड़े हुए थे, जिनके किस्से हिंदू पुराणों में दर्ज ब्राह्मणों और राक्षसों की लड़ाइयों की कहानियों से मेल खाते हैं.
बचपन में हमारे गांव में गोटूल हुआ करता था. शाम को युवक-युवतियां जमा होकर नाच-गाने आदि करते थे. लेकिन हिंदू रीति-रिवाजों के फैलाव के साथ ही गोटूल की संस्कृति समाप्त हो गई.
ऊपर से उसको लेकर ढेर सारी गलतफ़हमियां! गोटूल के साथ ही आदिवासी नाच-गाने भी लगभग खत्म हो गए. अब गांवों में मादर, ढोल, चिटकुरी जैसे वाद्ययंत्र और आदिवासी साज-सज्जा की चीजें लगभग विलुप्त हो गईं.
शादी-ब्याह के तौर तरीके बदल गए. अब शादियां भी हिंदू रीति-रिवाजों के साथ हो रही हैं जो खर्चीली भी हो चली हैं.(thewire)
>शादी-ब्याह के तौर तरीके बदल गए. अब शादियां भी हिंदू रीति-रिवाजों के साथ हो रही हैं जो खर्चीली भी हो चली हैं.
-राघव बहल
The Quint के संपादक के मोदी को सुझाव
1991 में, कुवैत पर सद्दाम हुसैन के हमले ने भारत के लिए भयानक तेल संकट पैदा कर दिया था. आज, कोविड-19 की वजह से देश में अभूतपूर्व तौर पर मांग में कमी आई है. हालांकि ये दोनों संकट विषय और बनावट में बहुत अलग लगते हैं, लेकिन नुकसान की गंभीरता के नजरिए से दोनों पूरी तरह से तुलना के लायक हैं.
तब भारत को सरकारी कर्ज का भुगतान ना कर पाने के कलंक से बचने के लिए 67 टन सोना गिरवी रखना पड़ा था. आज, अर्थव्यवस्था दोहरे अंकों में सिकुड़ रही है और राजस्व को लेकर केंद्र सरकार राज्यों से अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने में चूक रही है.
उस वक्त, भारत की आर्थिक हैसियत घटकर 'कबाड़' के बराबर हो गई थी, जबकि आज शायद उन्हीं वजहों से हम पर नजर रखी जा रही है.
फिर, उस समय जहां जरूरी आयात के लिए हमारा विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो चुका था. आज, बेरोजगारों की बढ़ती भीड़ के लिए हमारे पास नौकरियां खत्म हो चुकी हैं; कई दशकों की गिरावट के बाद गरीबी फिर बढ़ती जा रही है.
इसलिए, प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री सीतारमण को अगर लीक-से-हटकर किसी विचार की जरूरत है, तो नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की बनी बनाई नीति उनके पास मौजूद है जिससे उन्होंने निराशा की खाई से निकालकर देश में आर्थिक चमत्कार को अंजाम दिया था. 90 के दशक की शुरुआत में मिले तीन ‘सकारात्मक झटकों’ में ऐसी कई सीख छिपी है – जब साहसी, जोखिम भरे, करीब-करीब हताशा में उठाए गए कदमों ने नाटकीय बदलाव को जन्म दे दिया.
दोहरे अवमूल्यन के जवाब में दोहरा ऋण-स्थगन
आम तौर पर संयमित रहने वाले डॉ मनमोहन सिंह को ‘Hop, skip और jump’ करते हुए कल्पना कीजिए – (जल्दबाजी में शुरू किए गए ऑपरेशन को यही नाम दिया गया था). सोमवार, 1 जुलाई 1991 को सरकार के आदेश से रुपये का नौ फीसदी अवमूल्यन कर दिया गया. यह तेजी से घटते विदेशी मुद्रा भंडार पर रोक लगाने के लिए बेसब्री में उठाया गया कदम था. लेकिन पहले से घबराए बाजार में इससे और भगदड़ मच गई. इसलिए, इससे निजात पाने के लिए दो दिन बाद, 3 जुलाई 1991 को सरकार ने रुपये का मूल्य और 11 फीसदी कम कर दिया, इस वादे के साथ कि आगे ऐसा नहीं किया जाएगा. इससे बाजार में शांति आई और बिकवाली पर रोक लगी. आखिरकार, दो साल बाद, भारत ने काबू में रखी करेंसी को ‘नियंत्रित विदेशी मुद्रा विनिमय दर’ के हवाले कर दिया. जैसे ही आर्थिक झटके खत्म हुए, यह एक साहसिक और सुंदर फैसला साबित हुआ.
आज ऋणों में बदलाव का फैसला सैद्धांतिक तौर पर रिजर्व बैंक के पास होने के बावजूद, क्योंकि इस पर आखिरी मुहर एक कमेटी लगाती है, ये सवाल बना है कि - क्या इसे कॉरपोरेट और व्यक्तिगत कर्ज के ‘अयोग्य’ बदलाव की अनुमति देनी चाहिए, या इसे रोके रखना चाहिए? मुझे लगता है कि इसका जवाब राव/सिंह की पहल, यानी कि ‘जुड़वां ऋण-स्थगन’, में मौजूद है:
जहां तक कॉरपोरेट कर्ज की बात है, इसे बिना किसी वैकल्पिक अपवाद के, वास्तविक तौर पर संकटग्रस्त कर्जदारों के लिए, कम से कम एक बार पुनर्गठन की अनुमति दे देनी चाहिए, जबकि आदतन कर्ज का भुगतान ना करने वालों के लिए इसमें कोई राहत की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए.
अनुशासित निजी कर्जदारों के लिए ‘सोना गिरवी रखकर और कर्ज’ देने की योजना के बजाय नए विचार के साथ ‘इक्विटी टॉप-अप’ प्लान लाना चाहिए. मैं आपको विस्तार से बताता हूं. कल्पना कीजिए कि मिस्टर X ने पांच साल पहले एक घर खरीदने के लिए एक करोड़ रुपये उधार लिए. अब घर की कीमत 50 फीसदी बढ़ गई है, लेकिन मिस्टर X इस बीच मूलधन से 30 लाख रुपये बैंक को लौटा चुके हैं. इसलिए, वो अब वो मौजूदा गारंटी के दम पर बिना EMI बढ़ाए 80 लाख रुपये अतिरिक्त कर्ज ले सकते हैं (जिससे कि उनकी कुल बकाया राशि 70 लाख से 1.50 करोड़ रुपये हो जाएगी), लेकिन कर्ज चुकाने की अवधि बढ़ जाएगी. अब इसमें कोई हैरान होने की बात नहीं कि मिस्टर और मिसेज X मिलकर एक नई कार, रेफ्रिजरेटर या कुछ और खरीदते हैं... क्या आप समझ गए?
लाइसेंस से मुक्ति से लेकर ‘मारुति विनिवेश के मॉडल’ तक: साहसिक, मौन सुधार
बिलकुल नरसिम्हा राव के अंदाज में, सबसे प्रबल आर्थिक सुधार सबसे ज्यादा मौन भी था. 24 जुलाई 1991 को (रुपये के नाटकीय अवमूल्यन के सिर्फ 20 दिन बाद), राव ने उद्योग मंत्रालय का पदभार अपने पास होने के बावजूद, छोटे-पद वाले मंत्री पी जे कुरियन को संसद में ‘1991 की नई औद्योगिक नीति’ पेश करने को कहा. वह एक विस्फोटक दस्तावेज था. जिसमें 18 नियंत्रित उद्योगों को छोड़कर, सभी की लाइसेंस की जरूरत को खत्म कर दिया गया था. उद्योगपति नई दिल्ली की इजाजत की चिंता किए बैगर किसी भी क्षेत्र में दाखिल होने और क्षमता बढ़ाने के लिए स्वतंत्र थे. अब तक 40 प्रतिशत तक सीमित विदेशी स्वामित्व को एक और बड़े ‘Hop, skip और jump’ के साथ 51 प्रतिशत की अहम सीमा के ऊपर ले जाया गया था.
एकाधिकार कानून को समाप्त कर दिया गया. सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के शेयरों को बेचने की अनुमति दे दी गई. बदलाव की ये रफ्तार बेदम कर देने वाली थी.
अब प्रधानमंत्री मोदी भी राव के साहस की बराबरी करते हुए ऐसे ही निडर और ‘मौन’ सुधार को अंजाम दे सकते हैं, जैसे कि ‘सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश का मारुति मॉडल’ जिसमें बैंकों और रणनीतिक भागीदारों समेत प्रत्येक यूनिट में 26 फीसदी हिस्सा बेचने के बाद सरकार ने भारी फायदे के साथ अपना ‘नियंत्रण हटा लिया’.
भारत सरकार मारुति उद्योग लिमिटेड की मुख्य शेयरधारक थी, लेकिन इसका नियंत्रण सुजुकी के हाथ में था, इसके बावजूद कि ये एक unlisted कंपनी थी और इसकी साझेदारी सिर्फ 26 प्रतिशत थी.
1982 और 1992 में सुजुकी को अपना शेयर बढ़ाने की इजाजत दी गई, पहले 26 से 40 फीसदी, और फिर 50 फीसदी तक.
लेकिन भारत सरकार, जिसके पास लगभग बराबर की हिस्सेदारी थी, ने सुजुकी को और अधिक अधिकार दे दिए, बदले में उसे कई कीमती रियायतें हासिल हुई, जिसमें बड़े निर्यात बाजारों तक पहुंच और भारतीय प्लांट में वैश्विक मॉडल का निर्माण शामिल था. नतीजा ये हुआ कि साझा उद्यम का मूल्य कई गुना बढ़ गया.
इसके बाद सरकार ने मास्टरस्ट्रोक खेलते हुए अपने शेयर राइट्स से छुटकारा पाकर 400 करोड़ रुपये कमाए और नियंत्रण खत्म करने के एवज में ऊपर से 1000 करोड़ रुपये का प्रीमियम भी हासिल किया. इसने सुजुकी से 2300 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से जनता को ऑफर-ऑफ-सेल भी दिलवाए.
भारत सरकार ने इसके जरिए निवेश पर शानदार कमाई (ROI) की – ये सब इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि स्वामित्व रखते हुए नियंत्रण छोड़ने का फैसला लिया गया, और साझा उद्यम में अपने साथी को मूल्य में जबरदस्त बढ़ोतरी करने का मौका दिया.
अपने अडिग इरादे को साबित करने के लिए, प्रधानमंत्री मोदी को अगले छह महीनों के भीतर एयर इंडिया, बीपीसीएल और कॉनकोर को बेचने की कोशिश करनी चाहिए, इस प्रतिबद्धता के साथ कि अगले पांच साल में हर साल ‘मारुति मॉडल’ की तर्ज पर दो दर्जन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विनिवेश कर दिया जाएगा, यानी कि पूर्व मारुती जैसी 120 PSU तैयार की जाएंगी. भारत में सुधार की कहानी से दुनिया भर के बोर्डरूम में बिजली कौंध जाएगी, अरबों डॉलर की उगाही होगी और सरकार के पास नए निवेश के लिए अतिरिक्त रकम मौजूद होगी.
निडरता से अमेरिकी डॉलर जुटाकर भारतीय बचतकर्ताओं में ‘कर्ज परंपरा’ शुरू करने की जरूरत
90 के दशक की शुरुआत में, राव और सिंह ने अमेरिकी डॉलर को साधने और देश में इक्विटी की परंपरा शुरू करने के लिए बिलकुल अनदेखे फैसलों को अंजाम दिया. भारत के बंद, दमघोंटू, और घोटालों से भरे शेयर बाजार को विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिया. नियंत्रित और नाजुक रुपये को आंशिक रूप से पूंजी खाते में तब्दील किए जाने लायक बनाया गया. गंदे अस्तबल को साफ करने के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) जैसे दो नए संस्थानों का उद्घाटन किया गया. जल्द ही, भारत के शानदार digitized शेयर बाजार ने, उस समय शायद दुनिया में सबसे आधुनिक, विदेशियों का दिल जीत लिया. और भारत में शेयर की परंपरा का जन्म हुआ!
अब मोदी और सीतारमण के पास भारत के लिए अत्यावश्यक-लेकिन-हमेशा-से-उपेक्षित कॉरपोरेट बॉन्ड बाजार तैयार करने का बेहतरीन विकल्प मौजूद है. असल में वो डॉलर बॉन्ड के अपने साहसिक विचार को भी दोबारा जिंदा कर सकते हैं – दुर्भाग्य से जिसे जोखिम-से-भागने-वाले उनके नौकरशाहों ने ही खत्म कर दिया – और राव/सिंह की तरह हिम्मत दिखा सकते हैं.
भारत ‘सरकारी डॉलर बॉन्ड’ से शिकागो, लंदन और सिंगापुर बॉन्ड मार्केट से 10 बिलियन डॉलर जुटाता है, वो भी ऐसे समय में जब डॉलर कमजोर हो रहा है और अमेरिका में डॉलर की सरकारी दर 1 फीसदी से नीचे है. इस नकदी का उपयोग एक नई इकाई, यानी इंडियन कॉरपोरेट बॉन्ड AMC के पूंजीकरण में किया जाता है, जो कि NYSE और LSE में सूचीबद्ध है.
इसके साथ ही, एक सीमा से बड़ी भारतीय कंपनियों को निर्देश दिया गया कि वो अपने ऋणपत्र (Debentures) को नेशनल बॉन्ड एक्सचेंज (NBE) पर सूचीबद्ध करें, जो कि NSE का नया मंच है.
मार्जिन, प्रोविजन और लेवरेज से जुड़े पुराने कानूनों की झाड़ी हटा कर आधुनिक तौर तरीकों को मंजूरी दी जाए.
इंडियन कॉरपोरेट बॉन्ड एएमसी, जिसमें सरकार के पास $10 अरब मौजूद है, को बाजार में पूरी सक्रियता दिखाने का अधिकार हासिल है - संक्षेप में, हर वो उपाय कीजिए कि NBE के पैस फंड कमी न हो; AMC को अपनी एसेट बुक का फायदा उठाकर अपनी पूंजी और बढ़ाने की आजादी मिलनी चाहिए.
फिर क्या, भारत में एक मल्टी-बिलियन डॉलर का कॉरपोरेट बॉन्ड एक्सचेंज वजूद में आ जाएगा, जिससे कि बचतकर्ताओं के लिए नई ‘कर्ज परंपरा’ शुरू हो जाएगी, एक निवेश क्रांति का आगाज हो जाएगा.
मुझे इस कयास के साथ इसे खत्म करने दीजिए कि आलोचकों के दिमाग में अभी क्या चल रहा होगा: ‘ये पतंग उड़ा रहा है, मुमकिन ही नहीं है, काफी जोखिम भरा है’. लेकिन बस इतना याद रखिएगा कि 1991 में भी इन लोगों ने यही बातें कही होंगी, लेकिन नरसिम्हा राव अपने इरादे से हिले नहीं थे.(thequint)
ना ही सरकारी योजनाओं का लाभ
- चिंकी सिन्हा
उस कोठे में घुसते ही किसी बंकर-सा अहसास होता है. एक के ऊपर एक लकड़ी के पटरे लगा कर बनाई गई छोटी-छोटी कोठरियां ट्रेन के डिब्बों में बनी बर्थ जैसी लगती हैं. कोठरियों में एग्जॉस्ट पंखे लगे हैं.
पतले गद्दे, बेडशीट के बजाय तिरपाल से सजे हैं. परदे हैं लेकिन बिल्कुल घिसे हुए. ये ढांचे सिर्फ़ तुरत-फुरत सेक्स के लिए खड़े किए गए हैं. इसके सिवा ये किसी काम के नहीं हैं. इन कोठरियों में सिर्फ़ एक सौदा होता है. ऐसा सौदा, जिसमें किसी जज़्बात की कोई गुंजाइश नहीं होती.
मुंबई के कमाठीपुरा के गली नंबर 1 के रमाबाई चाल की ये बंकरनुमा कोठरियां भी देश के दूसरे तमाम वेश्यालयों के कमरों की तरह ही हैं, जहां जगहें बेहद कम होती हैं. लेकिन धंधा तो धंधा ही होता है सो बदस्तूर चलता रहता है.
इन्हें आप सर्विस चैंबर कह सकते हैं. किसी दूसरे वर्कप्लेस की तरह यहां भी काम ही होता है. रोशनी थोड़ी कम हो सकती है लेकिन वर्कप्लेस तो यह है ही.
बरसों पहले निधि (नाम बदल दिया गया है) को उनके परिवारवालों ने घर से निकाल बाहर किया था. सिर्फ़ इसलिए कि वह ट्रांसजेंडर (हिजड़ा) पैदा हुई थीं. खुली गलियों में रेप और हिंसा से गुजरने के बाद उन्हें यहां पनाह मिली. जैसे ही इस कोठे ने उन्हें अपने आगोश में लिया, उन्होंने खुद से कहा- "अब मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा. मैं महफूज़ हूं."
ये काम उन्हें पसंद नहीं था लेकिन मन को समझाना पड़ा. दूसरा कोई चारा नहीं था. यहां मौजूद दूसरी औरतों के पास भी कोई चारा नहीं था. फिर वो तो ट्रांसजेंडर थीं.
कमाठीपुरा में तबाहियों का दौर
पिछली बार जब मैं उनसे मिली तो उनकी पीठ पर सामान लदा हुआ था. उनकी नजरें टैक्सी तलाश रही थीं. उन्हें बिखरोली जाना था. कमाठीपुरा की गली नंबर 1 की कोठरियों को छोड़ कर उन्हें वहीं शिफ्ट होना था. कमाठीपुरा में चल रहे री-डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की वजह से बड़ी तादाद में यौनकर्मियों को वहां से विस्थापित होना पड़ा था. महानगर के बीचोंबीच होने की वजह से यह बेशकीमती जगह थी.
उन्होंने मुझसे कहा था- "इस प्रोजेक्ट ने बड़ा परेशान किया है. यौनकर्मियों को अपने कोठे रियल एस्टेट कंपनियों के हाथों बेचने पड़े."
यह इस साल जनवरी की बात है. लेकिन मार्च का लॉकडाउन इन यौनकर्मियों के लिए तबाहियों का दौर लेकर आया. अब उन्हें अपना वजूद बचाना मुश्किल हो रहा है. वे सरकार की किसी स्कीम के दायरे में नहीं आतीं. ज़्यादातर प्रवासी हैं और अपनी पहचान साबित करने के लिए उनके पास कोई दस्तावेज़ी सबूत नहीं है.
कमाई ख़त्म
मई में जब लॉकडाउन का दूसरा फे़ज शुरू हुआ तो ट्रांसजेंडर यौनकर्मियों ने कहा अब उनके लिए ज़िंदा रहना बेहद मुश्किल हो गया है. कमाठीपुरा में काम करने वाले कुछ एनजीओ उन्हें राशन दे रहे थे.
लेकिन सरकार की ओर से कोई पहल नहीं हुई थी. हाल में महाराष्ट्र में एक पत्र वितरित किया गया, जिसमें प्रशासन से अनुरोध किया गया था कि वह यौनकर्मियों की मदद करे क्योंकि उनकी कमाई ख़त्म हो गई है.
यौनकर्मियों के अधिकारों को पहचान दिलाने वाला पत्र
इस पत्र की भाषा ध्यान खींचने वाली है. महिला और बाल विकास विभाग के प्रभारी कमिश्नर हृषिकेश यशोध ने यह पत्र लिखा था. इस पत्र की भाषा यौनकर्मियों के बारे में पुरानी घिसे-पिटे अंदाज़ में की जाने वाली बातचीत की भाषा से अलग थी.
इसने इन यौनकर्मियों के काम को पहचान दिलाने के लिए लड़ने वालों को उम्मीद बंधाई थी. यौनकर्मियों के काम को सर्विस के तौर पर मान्यता दिलाने के लिए आंदोलनरत लोगों को इसने सुकून पहुंचाया था. ऐसा लगता है, शायद सरकार उनके काम को सर्विस मानने के लिए किसी वैश्विक महामारी का इंतज़ार कर रही थी.
23 जुलाई को महिला और बाल विकास विभाग की ओर से भेजे गए पत्र की सबजेक्ट लाइन में लिखा गया है, "यौन कर्म पर निर्भर महिलाओं को कोविड-19 के दौरान आवश्यक सेवाएं मुहैया कराने के बारे में". यह यौनकर्मियों के अधिकारों और उनके आत्मनिर्णय की दिशा में एक निश्चित क़दम है.
पत्र में कहा गया था, "यौन कर्म (वेश्या व्यवसाय) में लगी और इसे छोड़ चुकी महिलाओं की कमाई के विकल्प ख़त्म हो गए हैं. लॉकडाउन की वजह से उन्हें काम भी नहीं मिल रहा है, जिससे उनके और उनके परिवार वालों के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है. उनके लिए ज़िंदा रहना मुश्किल होता जा रहा है".
इस पत्र से ज़ाहिर हुआ कि पहली बार भारत में किसी राज्य की सरकार ने यौनकर्मियों (सेक्स वर्कर्स) के 'काम' या सेक्स वर्कर्स के 'वर्क' को मान्यता दी है. वे सेक्स वर्कर्स, जिन्हें हमेशा नैतिकता का बोझ ढोना पड़ता है और जो हमारी बातचीत का हिस्सा तभी बनती हैं जब मामला एचआईवी/एड्स का हो सेक्स ट्रैफिकिंग का.
हाशिये के लोगों के लिए काम करने वाले रजिस्टर्ड नॉन-प्राफ़िट संगठन संपदा ग्रामीण महिला संस्था ( SANGRAM) की संस्थापक मीना सेशु के लिए यह पत्र स्वागतयोग्य है. इस पत्र में पहली बार यौनकर्मी महिलाओं को देह बेचने वाली महिला (मराठी में देह बिक्री) कहने से बचा गया. इसमें उनके पेशे पर फोकस किया गया है.
वेश्या व्यवसाय
सेशु कहती हैं, "पत्र में संस्कृत के शब्द वेश्या का इस्तेमाल किया गया है, जो इन महिलाओं को गरिमा देता है. यौनकर्मी महिलाएं भी इस शब्द का इस्तेमाल करती आई हैं. यह पत्र उनके 'काम' के बारे में बात करता है. इसके सबजेक्ट लाइन में लिखा है- वे महिलाएं जो 'वेश्या व्यवसाय' पर निर्भर हैं. व्यवसाय का हिंदी में मतलब पेशा है. अंग्रेजी में इसे प्रोफे़शन कहते हैं. पत्र के सबजेक्ट लाइन कुछ इस तरह है, "यौन कर्म पर निर्भर महिलाओं को कोविड-19 के दौरान आवश्यक सेवाएं मुहैया कराने के बारे में".
यौनकर्मी चाहती हैं लाइसेंस
सेशु सांगली में रहती हैं, जहां लगभग 250 यौनकर्मी महिलाएं रहती हैं. इससे पहले तक इन यौनकर्मी महिलाओं को सिर्फ़ एचआईवी रोकथाम स्कीमों के तहत ही पहचान मिली थी.
कोरोना के दौरान जारी सरकारी स्कीमों से यौनकर्मी बाहर क्यों?
यौनकर्मी महिलाएं इससे पहले एक और बार इस तरह हालात से गुज़र चुकी हैं. नब्बे के दशक में मुंबई का रेड लाइट इलाक़ा कमाठीपुरा एचआईवी/एड्स महामारी का केंद्र बन गया था. उन दिनों इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ( ICMR) ने रेड लाइट इलाकों में एड्स नियंत्रण के लिए एक योजना बनाई थी लेकिन जल्दी ही इसकी मौत हो गई.
इस महामारी का असर कम होते-होते बरसों लग गए. और अब कोरोना वायरस ने भी महिला यौनकर्मियों के सामने पहले जैसे ही हालात पैदा कर दिए हैं. निधि कहती हैं, उन्हें और उनकी सहकर्मियों का पता है कि ये काफ़ी मुश्किल भरे दिन साबित होने वाले हैं.
मुश्किल भरे दिन
फ़ोन से बातचीत के दौरान वह कहती हैं. "आप एचआईवी/ एड्स की प्रवृति के बारे में जानते हैं. आपको पता है इससे कैसे लड़ना है. लेकिन कोरोना वायरस को तो किसी भी तरह से
मुंबई में कमाठीपुरा का रेड लाइट एरिया कंटेनमेंट जोन की लिस्ट में नहीं आया है. इस इलाक़े की यौनकर्मियों का कहना है कि अभी तक यहां किसी वेश्यालय से कोविड-19 का कोई केस सामने नहीं आया है.
कोई कोरोना केस नहीं
इसके बावजूद उन्हें हमेशा की तरह इस बार भी बहिष्कृत कर दिया गया है. राज्य की ओर से उन्हें असहाय छोड़ दिया गया है. ग़रीबों के लिए चल रही उसकी तमाम स्कीमों में 'यौनकर्मियों' के लिए कोई जगह नहीं है. कोविड-19 से लड़ने के लिए भारत सरकार ने 11 अधिकार प्राप्त समूह बनाए हैं.
सेशु का कहना है कि अधिकार प्राप्त समूह 6 ने SANGRAM के साथ संपर्क किया और देश में यौनकर्मियों की समस्याओं के बारे में विस्तार से बातचीत की. इसके बाद इस समूह ने मंत्रालय को लिखा, "हमारा अनुरोध है कि मंत्रालय राज्यों में खाद्य वितरण से जुड़े विभागों को पीडीएस के तहत यौनकर्मियों को अनाज देने का निर्देश दें. अगर ये महिलाएं पीडीएस के दायरे में नहीं आतीं तो उन्हें किसी दूसरी कल्याणकारी योजनाओं के तहत अनाज दिया जाए''.
कोई राहत योजना नहीं
सेशु कहती हैं ''इस पत्र के बावजूद अब तक यौनकर्मियों के लिए किसी राहत योजना का ऐलान नहीं किया गया है. उनकी पूरी तरह अनदेखी की गई है''.
हाल में दिल्ली हाई कोर्ट में दायर की गई एक जनहित याचिका में मांग की गई कि केंद्र और दिल्ली सरकार राजधानी में रह रहे यौनकर्मियों और एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के सदस्यों को वित्तीय मदद के साथ सोशल सिक्योरिटी भी मुहैया कराए.
यौनकर्मी का पेशासर्विस क्यों नहीं?
अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (Prevention of Immoral Trafficking Act ) के तहत जिन वेश्यालयों में यौनकर्मी रहती हैं और काम करती हैं, वे गैरक़ानूनी हैं. लेकिन शहरों और महानगरों में ये वर्षों से चल रहे हैं. अक्सर लड़कियों को यहां से निकाल कर शेल्टर होम्स में भेज दिया जाता है या फिर पुलिस इन्हें चेतावनी देकर छोड़ देती है.
लेकिन इनमें से कइयों ने यह कहा है वे इस काम को अपनी मर्ज़ी से कर रही हैं. नेशनल सेक्स वर्कर्स एसोसिएशन से जुड़ी आयशा का ही मामला ले लीजिये.
सांगली में रहने वाली आयशा अपनी मर्ज़ी से यह काम करती हैं. ग़रीबी की वजह से पश्चिम बंगाल के अपने गांव में यह काम करने लगी थीं. पति गुज़र गए थे. उनका बच्चा छोटा था. बाद में वह एक दोस्त के साथ सुरक्षित जगह की तलाश में आसनसोल चली आईं. इसके कुछ महीनों के बाद वह सांगली आ गईं. आयशा यहां के कुछ वेश्यालयों में काम करने लगीं. तब से उन्हें यहां काम करते हुए आठ साल हो गए हैं.
मौलिक अधिकार
अब उनके लिए सेक्स एक सर्विस की तरह है. एक लेन-देन की तरह. वैसा ही लेन-देन जैसे स्पा में किया जाने वाला मसाज. वर्षों से यौनकर्मियों की एक छवि गढ़ी जाती रही है. उन्हें मानसिक चोट, प्रताड़ना और शोषण का शिकार बताया जाता है या फिर 'बुरी औरत' को तौर पर पेश किया जाता है. एक कामगार के तौर पर उन्हें जो मौलिक अधिकार मिलने चाहिए, उसकी राह में यह गढ़ी हुई छवि अड़चन बन गई है.
सोनागाछीः रेड लाइट के बाद भी एक ज़िंदगी है...
लेकिन आयशा बहादुर हैं. आयशा और उनकी तरह दूसरी महिलाएं इस तरह के संकट झेलती रही हैं. वे कोरोना जैसे संकट को भी झेल लेंगी. सांगली में जहां वह रहती हैं वहीं अपने ग्राहकों को सर्विस देती हैं. लेकिन आयशा और उनकी सहकर्मियों के काम को कोरोनावायरस ने बुरी तरह प्रभावित किया है.
आयशा कहती हैं, "हमारे ज़्यादातर ग्राहक प्रवासी कामगार हैं. वे कर्नाटक जैसे राज्यों के रहने वाले हैं. हमें एक दिन में एक-दो ग्राहक ही मिलते हैं. और हम सेक्स के दौरान सावधानी भी बरतते हैं. लेकिन यह पर्याप्त नहीं है."
जब लॉकडाउन लगा तो आयशा को यह समझ नहीं आया कि आगे क्या होगा. उन्होंने कोरोना वायरस संक्रमण के बारे में सुन रखा था. आयशा और उनकी साथी यौनकर्मी सावधानी भी बरत रही थीं.
आयशा कहती हैं, "हालात ने हमें सदमे में डाल दिया था. लेकिन हमने एक दूसरे की मदद की. हमने तय किया था कि हम भूख से नहीं मरेंगे. हमने मदद की गुहार लगाई".
वह कहती हैं, "लेकिन अब ब्यूटी पार्लर और स्पा खुल गए हैं. लोगों ने काम करना शुरू कर दिया है. हम कोविड-19 से मुक़ाबले के लिए तैयार हैं. इससे भी हम वैसे ही लड़ेंगे जैसे कोविड/एचआईवी के ख़िलाफ़ लड़े थे."
यौनकर्मियों की उम्मीद
इस बीच, महिला और बाल विकास कमिश्नर यशोध की ओर से महाराष्ट्र के सारे कलेक्टरों को पत्र भेजने के बाद आयेशा के संगठन ने दूसरे राज्यों के अधिकारियों से संपर्क करना शुरू कर दिया है. संगठन को उम्मीद है कि वहां भी यौनकर्मियों की मदद के लिए निर्देश जारी किए जाएंगे.
आयशा कहती हैं, "हम चाहते हैं कि हमें सर्विस प्रोवाइडर की मान्यता मिले".
पूरी दुनिया में यौनकर्मियों से जुड़े क़ानून स्पष्ट नहीं हैं. सरकार ने प्रवासी कामगारों और रेहड़ी-पटरी पर सामान बेचने वालों के लिए राहत योजनाओं का ऐलान किया है लेकिन यौनकर्मियों के लिए कोई पैकेज नहीं दिया गया है.
यौनकर्मी भी प्रवासी कामगार की तरह ही हैं लेकिन ज़रूरी सेवाओं और सूचनाओं तक उनकी पहुंच के रास्ते में कई अड़चनें हैं. उनकी राह में सामाजिक, सांस्कृतिक, क़ानूनी और भाषाई दिक्कतें रोड़ा बन जाती हैं.
भारत में यौन कर्म गैर क़ानूनी नहीं
भारत में यौन कर्म गैर क़ानूनी नहीं हैं. लेकिन वेश्यालय चलाना, सेक्स के लिए खुलेआम लुभाना या यौनकर्म से पैसा कमाने वाली महिला की आय पर अपनी जीविका के लिए निर्भर रहना गैरक़ानूनी है.
हाशिये के समुदायों के लिए काम करने वाली वकील आरती पई कहती हैं कि यौनकर्मियों के लिए महिला और बाल विकास कमिश्नर की ओर से लिखी गई चिट्ठी एडवाइजरी ही है लेकिन यह लीक से हट कर है. यह दो कैटेगरी में साफ़ अंतर करती है- एक कैटेगरी उन यौनकर्मियों की है, जिनके इस पेशे में इस्तेमाल किया जा रहा है. दूसरी कैटेगरी उन यौनकर्मियों की है जो अपनी मर्ज़ी में इस पेशे में आए हैं.
वह कहती हैं, "इस तरह की पहलक़दमियों से थोड़ा बदलाव तो आता ही है. यह बेहद अहम है क्योंकि यह पहल सरकार की ओर से हुई है. इसका मतलब यह है कि सामाजिक अधिकारों से जुड़ी सरकारी योजनाओं में यौनकर्मियों लिए निश्चित तौर पर जगह तय है."
परिवार का सहारा
इन यौनकर्मियों में ज़्यादातर महिलाएं अपने घर की मुखिया हैं और परिवार के लोग उनकी ही कमाई पर आश्रित हैं. कई यौनकर्मी महिलाएं कमाठीपुरा में कमरों का किराया देने में असमर्थ हैं. वहां एक बेड का किराया 250 रुपये है. अब वे यह जगह छोड़ने को विवश हैं.
कमाठीपुरा में इस वक्त साढ़े तीन हज़ार यौनकर्मी हैं. पूरे मुंबई के अलग-अलग हिस्सों में हज़ारों यौनकर्मी रहते हैं. इन यौनकर्मियों को राशन के साथ दवाइयों की भी ज़रूरत है. नाको (NACO) के निर्देश में कहा गया है कि नोडल एजेंसियों को उन तक दवाइयां और एंटी-रेट्रोवायरल (ART) दवाइयां पहुंचानी होगी.
कोरोना वायरस फैलने से पहले ही कमाठीपुरा छोड़ कर दूसरी जगह बस चुकी महिलाओं को ग्राहकों का इंतज़ार करते देखा गया था. वे अपने ग्राहकों को सर्विस देने के लिए यहां 50 रुपये या इससे ज़्यादा पर किराये पर कमरे लेती हैं. ग्राहकों को सर्विस देने के बाद आख़िरी लोकल से वे महानगर के दूसरे इलाक़ों में अपने घरों को लौट जाती हैं.
पिछले कई सालों से यहां से यौनकर्मियों का जाना जारी है. ट्रांसजेंडर (हिजड़े यौनकर्मी) यहां से जाने वाले शायद आख़िरी पेशेवर होंगे. लेकिन फ़िलहाल वे यहां लकड़ी से बनी ट्रेन के बर्थ जैसी कोठरियों में टिके हुए हैं.
लंबी राह
उनकी राह काफ़ी लंबी है. महिला और बाल विकास कमिश्नर ने कलेक्टरों को जो चिट्ठी लिखी है वह उनके अधिकारों की दिशा में एक क़दम भर है.लेकिन वे इस लड़ाई में टिके हुए हैं. जंग ने उन्हें मज़बूत कर दिया है.
निधि कहती हैं, "हमें किसी से डर नहीं लगता है. हम अपना परिवार चलाने के लिए यह काम करते हैं. अपना वजूद बचाए रखने के लिए हम यह काम कर रहे हैं. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है."
"मैं याद करती हूं कि किस तरह वह अपने धर्म की पाबंद हैं. मैंने अक्सर उन्हें शुक्रवार की नमाज़ के लिए मस्जिद जाते देखा है. उनके छोटे देवी-देवता हैं. "
शबनम (बदला हुआ नाम) शाम को अपना काम शुरू करने से पहले अगरबत्ती जलाती हैं. वैसे ही जैसे कोई दुकानदार शाम को अपनी दुकान पर अगरबत्ती जलाता है.
इस काम की नैतिकता-अनैतिकता, इसके कलंक और ग़रीबी की बात छोड़ दीजिए. इसमें लगी महिलाओं का दावा है कि यह ईमानदारी का पेशा है. उन्होंने कभी अपना शरीर नहीं बेचा. सिर्फ़ उन ग्राहकों को अपनी सर्विस दी, जिन्होंने इसकी कीमत चुकाई.
वे इस काम में अपनी मर्ज़ी से हैं. निधि कहती हैं, "हम भी आपकी तरह एक कामगार हैं(bbc)
गिरीश मालवीय
जनवरी की एक सर्द सुबह थी, अमेरिका के वाशिंगटन डीसी का मेट्रो स्टेशन। एक आदमी वहां करीब घंटा भर तक वायलिन बजाता रहा। इस दौरान लगभग दो हजार लोग वहां से गुजरे, अधिकतर लोग अपने काम से जा रहे थे। उस व्यक्ति ने वायलिन बजाना शुरू किया। उसके तीन मिनट बाद एक अधेड़ आदमी का ध्यान उसकी तरफ गया। उसकी चाल धीमी हुई वह कुछ पल उसके पास रूका और फिर जल्दी से निकल गया।
4 मिनट बाद : वायलिन वादक को पहला सिक्का मिला। एक महिला ने उसकी टोपी में सिक्का और बिना रूके चलती बनी। छह मिनट बाद एक युवक दीवार के सहारे टिककर उसे सुनता रहा, फिर उसने घड़ी पर नजर डाली और चलता बना। 10 मिनट बाद : एक 3 वर्षीय बालक वहां रूक गया, पर जल्दी में दिख रही उसकी माँ उसे खींचते हुए वहां से ले गई। माँ के साथ लगभग घिसटते हुए चल रहा बच्चा मुड़-मुडक़र वायलिन वादक को देख रहा था। ऐसा ही कई बच्चों ने किया और हर बच्चे के अभिभावक उसे घसीटते हुए ही ले गए।
45 मिनट बाद : वह लगातार बजा रहा था, अब तक केवल छ: लोग ही रूके थे और उन्होंने भी कुछ देर ही उसे सुना। लगभग 20 लोगों ने सिक्का उछाला पर रुके बगैर अपनी सामान्य चाल में चलते रहे। उस आदमी को कुल मिलकर 32 डॉलर मिले। 1 घंटे बाद : उसने अपना वादन बंद किया। फिर से शांति छा गई। इस बदलाव पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। किसी ने वादक की तारीफ नहीं की।
किसी भी व्यक्ति ने उसे नहीं पहचाना। वह था- विश्व के महान वायलिन वादकों में से एक जोशुआबेल, जोशुआ 16 करोड़ रुपए की अपनी वायलिन से इतिहास की सबसे कठिन धुन बजा रहे थे। महज दो दिन पहले ही उन्होंने बोस्टन शहर में मंचीय प्रस्तुति दी थी, जहां प्रवेश टिकिटों का औसत मूल्य 100 डॉलर (लगभग 6500 ) रुपए था ।
यह बिल्कुल सच्ची घटना है!
जोशुआ बेल प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘वाशिंगटन पोस्ट ’ द्वारा ग्रहणबोध और समझ को लेकर किये गए एक सामाजिक प्रयोग का हिस्सा बने थे। इस प्रयोग का उद्देश्य यह पता लगाना था कि किसी सार्वजनिक जगह पर किसी अटपटे समय में हम खास चीजों और बातों पर कितना ध्यान देते हैं? क्या हम सुन्दरता या अच्छाई की सराहना करते हैं? क्या हम आम अवसरों पर प्रतिभा की पहचान कर पाते हैं ?
इसका एक सामान्य अर्थ यह निकलता है- जब दुनिया का एक श्रेष्ठ वादक एक बेहतरीन साज़ से इतिहास की सबसे कठिन धुनों में से एक बजा रहा था, तब अगर हमारे पास इतना समय नहीं था कि कुछ पल रुककर उसे सुन सकें, तो सोचिए, हम कितनी सारी अन्य बातों से वंचित हो गये हैं, लगातार वंचित हो रहे हैं? इसका जिम्मेदार कौन है?अब आप कुछ पल बैठिए और सोचिए आपने जिंदगी की इतनी तेजी से भागदौड़ में कितनी खूबसूरत चीजें मिस कर दीं।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका में हुए संसदीय चुनाव में वहां भाई-भाई राज कायम कर दिया है। अब उस पर मोहर लगा दी है। बड़े भाई महिंद राजपक्ष तो होंगे प्रधानमंत्री और छोटे भाई गोटाबया राजपक्ष होंगे राष्ट्रपति ! इनकी पार्टी का नाम है- ‘श्रीलंका पोदुजन पेरामून’। यह नई पार्टी है। जिन दो बड़ी पार्टियों के नाम हम दशकों से सुनते आ रहे थे—श्रीलंका फ्रीडम पार्टी और युनाइटेड नेशनल पार्टी वे लगभग शून्य हो गई हैं। इन पार्टियों के नेताओं श्रीमावो भंडारनायक, चंद्रिका कुमारतुंग, जयवर्द्धन, प्रेमदास आदि से मैं कई बार मिलता रहा हूं, उनके साथ यात्राएं और प्रीति-भोज भी होते रहे हैं। इनमें से ज्यादातर दिवंगत हो गए हैं, जो बचे हैं, उन्हें श्रीलंका के लोगों ने घर बिठा दिया है।
पिछली सरकार में राष्ट्रपति थे मैत्रीपाल श्रीसेन और प्रधानमंत्री थे- रनिल विक्रमसिंघ। इन दोनों ने गठबंधन करके सरकार बनाई थी लेकिन दोनों की आपसी खींचातानी और भ्रष्टाचार ने इन्हें सत्ता से हाथ धोने के लिए मजबूर कर दिया। दो साल पहले श्रीलंका के एक गिरजाघर पर हुए आतंकवादी हमले में 250 से ज्यादा लोग मारे गए थे। उस घटना ने इस सरकार की गुप्तचर व्यवस्था और लापरवाही की पोल खोल कर रख दी थी। इसीलिए इस संसदीय चुनाव में राजपक्ष की पार्टी को 60 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले और 225 सदस्यों की संसद में 145 सीटें मिलीं। पांच सीटों वाली कुछ पार्टियों को मिलाकर 150 सीटों का दो-तिहाई बहुमत बन जाएगा। इस प्रचंड बहुमत का लाभ उठाकर दोनों भाई चाहते हैं, जैसा कि तीसरे भाई बसील राजपक्ष ने कहा है कि उनकी पार्टी अब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की भारतीय जनता पार्टी की तरह श्रीलंका में एकछत्र शासन करेगी। इस प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल श्रीलंका के संविधान में हुए संशोधनों को पलटने के लिए भी किया जाएगा। 19 वें संशोधन द्वारा राष्ट्रपति की अवधि और शक्तियों में जो कटौतियां की गई थीं, उनकी वापसी की जाएगी। 13 वां संशोधन भारत-श्रीलंका समझौते के बाद किया गया था। उसमें श्रीलंका के तमिलों को संघवादी छूटें दी गई थीं। उन्हें भी ठीक किया जाएगा। यों भी इस चुनाव में तमिल स्वायत्ता के लिए लडऩेवाले ‘तमिल नेशनल एलायंस’ की सीटें 16 से घटकर 10 रह गई हैं।
दूसरे शब्दों में श्रीलंका के तमिलों का जीना अब मुहाल हो सकता है। भारत के साथ श्रीलंका के संबंधों में अब तनाव बढऩे की पूरी आशंका है। राजपक्ष बंधुओं का चीन-प्रेम पहले ही काफी उजागर हो चुका है। डर यही है कि श्रीलंका का यह भाई-भाई राज कहीं वहां के लोकतंत्र के लिए खतरा न बन जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)