विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसी देश का कोई नागरिक अपना या अपने बच्चों का नाम क्या रखे, इस पर तरह-तरह की पाबंदियां कई देशों में हैं। सउदी अरब ने तो ऐसे 51 नामों की सूची जारी कर रखी है, जिन्हें उसका कोई नागरिक नहीं रख सकता। वह सुन्नी राष्ट्र है। इसीलिए कई शिया नामों पर वहां प्रतिबंध है। लातीनी अमेरिका के कुछ राष्ट्र ऐसे हैं, जिनमें आप अपनी बेटी का नाम मरियम (ईसा मसीह की मां) तो रख सकते हैं लेकिन बेटे का नाम जिसस (मसीह) नहीं रख सकते।
तुर्की में कुर्द लोग बगावती माने जाते हैं। उनके नाम के साथ आप आरमेनियाई प्रत्यय (इयान) आदि नहीं लगा सकते। इस्राइल में काफी समय तक यह परंपरा चलती रही कि रुस और पूर्वी यूरोप से आनेवाले यहूदियों के नाम हिब्रू भाषा में रखे जाते थे। तुर्की में भी राष्ट्रवाद ने इतना जोर मारा था कि अरबी, फारसी, फ्रांसीसी नामों की बजाय नागरिकों, मोहल्लों और बाजारों के नामों का तुर्कीकरण किया गया था। भारत के आजाद होने के बाद बहुत से शहरों, मोहल्लों, सडक़ों, स्मारकों, बागों और भवनों के अंग्रेजी नामों को हटाकर भारतीय नामों को रखा गया है। ईरान में जब से आयतुल्लाहों का राज हुआ है, ईरान के शाहों और बदशाहों के नामों को दरी के नीचे सरका दिया गया है। अल्जीरिया के मुस्लिम शासकों से लडऩे वाली यहूदी योद्धा बेरबरा रानी का वहां अब कोई नाम भी नहीं लेता। चीन के शिनच्यांग (सिंक्यांग) प्रांत में उइगर मुसलमान रहते हैं। उन्हें भी कई इस्लामी नाम नहीं रखने दिए जाते हैं।
मध्य एशिया के ताजिकिस्तान में इस्लामी या अरबी नामों पर प्रतिबंध है। जब तक वह सोवियत संघ का हिस्सा था, वहां के लोग अपने नाम रुसी शैली में रखते थे लेकिन ज्यों ही वह राष्ट्र स्वतंत्र हुआ, वहां इस्लाम धर्म और अरबी संस्कृति ने जबर्दस्त आकर्षण पैदा किया लेकिन अब ताजिक सरकार ने ऐसे नाम रखने पर प्रतिबंध लगा दिया है और कहा है कि आप ताजिक भाषा और संस्कृति के नाम क्यों नहीं रखते ? आप अरबों की नकल क्यों करते है ? वैसे इंडोनेशिया के मुसलमान अपने नाम प्राय: संस्कृत भाषा में रखते हैं और अपने साहित्य और कला-कर्म में भारतीय नायकों का गुणानुवाद करते हैं लेकिन वे पक्के मुसलमान हैं।
अब सवाल यही है कि हम भारतीयों के नाम कैसे रखे जाएं ? वैसे भारत में भी अश्लील नाम रखने पर रोक जरुर है लेकिन नागरिकों को पूरी छूट है। वे अपना और अपने बच्चों का जैसा चाहें, वैसा नाम रखें। इस प्रक्रिया में न मजहब, न जाति, न भाषा और न ही सामाजिक-आर्थिक हैसियत का कोई प्रतिबंध है लेकिन मेरा अपना विचार है कि अपने बच्चों के नाम ऐसे रखने चाहिए, जो सार्थक हों, प्रेरणादायक हों और लोकप्रिय हों। ऐसे नाम या उपनाम क्यों रखे जाएं, जिनसे आपका मजहब, आपकी जाति, आपकी नस्ल और आपकी हैसियत का विज्ञापन होने लगे ? आपका नाम, नाम है या विज्ञापन ? सामान्य नामों पर सरकारी प्रतिबंध उचित नहीं है लेकिन क्या हमारे नाम और उपनाम जाति-निरपेक्ष और मजहब निरपेक्ष नहीं हो सकते ? क्या वे स्वदेशी भाषाओं में नहीं रखे जा सकते ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक वाजपेयी
घृणा का भूगोल
इस पर, बार-बार अनेक क्षेत्रों में, चिन्ता बढ़ रही है कि भारतीय समाज में घृणा और भेदभाव लगातार फैल रहे हैं. हमारा समय इस मामले में लगभग अभूतपूर्व है कि उसमें घृणा, भेदभाव, हत्या और हिंसा को उचित मानने वाले इतने अधिक हो गये हैं. यह भी पहली बार है कि इन वृत्तियों को फैलाने के साधन बहुत बढ़ गये हैं, अत्यन्त सक्षम हैं और उनकी पहुंच हमारी जनसंख्या के बड़े भाग तक हो गयी है.
हाल में बेहद लोकप्रिय और मनलुभावन फेसबुक को लेकर जो विवाद हुआ है उससे यह स्पष्ट है कि इस मंच को राजनैतिक और नैतिक रूप से तटस्थ मानना सरासर भूल है. और यह भी कि ऊपर जिन अभद्र-असामाजिक-अमानवीय वृत्तियों का ज़िक्र किया गया है उन्हें फैलाने में भी उसकी दुर्भाग्यपूर्ण और अलोकतांत्रिक भूमिका है. फेसबुक के मालिकों ने अपने बचाव में जो दलीलें दी हैं वे बेहद लचर हैं और यह स्पष्ट हो रहा है कि बिना किसी औचित्य और जवाबदेही के यह मंच सत्तारूढ़ शक्तियों का पक्षधर बन गया है और उसके हितसाधन में संलग्न भी है.
एक और पहलू उभरता है जिस पर विचार करना चाहिये. फ़ेसबुक जैसे माध्यम यह आकलन करके ही बाज़ार में आते हैं कि वहां किस तरह की वृत्तियां लोकप्रिय हैं और फैल सकती हैं. भले वह इसे स्वीकार न करे, पर फ़ेसबुक ने घृणा और भेदभाव के पक्ष में जो कुछ किया, वह इस आकलन पर आधारित है कि भारतीय समाज में घृणा और भेदभाव तेज़ी से फैल रहे हैं और फैलाये जा सकते हैं. इस आकलन के आधार पर ही वह सक्रिय हुई है. इससे फ़ेसबुक की बुनियादी अनैतिकता तो उजागर होती ही है, यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज में इन दुष्प्रवृत्तियों की चपेट में है और सत्तारूढ़ राजनीति उसका चतुर नियोजन अपने लिए कर रही है.
गनीमत यह है कि फेसबुक पर इनका विरोध करने वाले भी मौजूद हैं और इस माध्यम की व्याप्ति को देखते हुए हमें पहले आज़मायी ‘दुश्मन के मंच का इस्तेमाल’ करने की जुगत पर लौटना चाहिये. घृणा और भेदभाव को, किसी हद तक, प्रेम और सद्भाव की लगातार आक्रामक अभिव्यक्ति से संयमित किया जा सकता है. यह एक अनैतिक विडम्बना है कि हम ऐसे मंच का इस्तेमाल करें जो अनैतिक के पक्ष में सक्रिय-सचेष्ट है. लेकिन सत्तारूढ़ राजनीति ने गाली-गलौज करने वाली ट्रोलर्स की जो बड़ी टीम बनायी है वह भी इसी मंच का इस्तेमाल कर रही है. उनकी संख्या अपार लगती है. पर जो भी हो, प्रेम और सद्भाव को हिम्मत नहीं हारना चाहिये, न उम्मीद छोड़नी चाहिये.
नीचता की बेहद
सार्वजनिक जीवन में गिरावट, नैतिक और आध्यात्मिक गिरावट, राजनैतिक और सामाजिक गिरावट, थमने का नाम नहीं ले रही है. गिरावट-चौतरफ़ा है: राजनीति, सत्ता, मीडिया आदि सब इस गिरावट को तेज़ और गहरा करने में होड़ लगाये हुए है. और न्यायालय और अन्य संवैधानिक संस्थाएं इस गिरावट को रोकने के बजाय उसे बढ़ाने और कुतर्क से वैध ठहराने की होड़ में हैं. कोविड मामलों का आंकड़ा पचास लाख के पार जा चुका है, बेरोज़गारी का प्रतिशत ऐतिहासिक होने जा रहा है, लेकिन सप्ताहों से हमारे बड़े टेलीविजन चैनल एक फ़िल्मी अभिनेता की आत्महत्या को सबसे बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में पूरी नीचता से व्यस्त हैं. यही नहीं, जैसा कि सर्वथा प्रत्याशित था, बिहार के चुनावों में इस आत्महत्या को एक मुद्दा बनाने की ओर क़दम उठाये जा रहे हैं. नीचे गिरने की, लगता है, हमारे सार्वजनिक जीवन में कोई हद नहीं रह गयी है: सत्ताकामी और उसकी पिछलग्गू शक्तियां नीचता की हर हद को पार करने की ओर पूरे आत्मविश्वास और आक्रामता से बढ़ रही हैं. झूठ, झांसा, दुचितापन, वाक्हिंसा, निराधार लांछन आदि नयी राजनीति का स्वभाव बन गये हैं. उसके लिए किसी तरह की भी नीचता जायज़ है जिससे कोई हित सधता हो.
किसी भी क़ीमत पर सफल होने की होड़ में फंसा मध्यवर्ग, जो किसी तरह के नैतिक बोध से शून्य होने को अपनी भारतीयता की पहचान मानने लगा है, नीचता के इस रौरव में मुदित मन शामिल रहा है. अलबत्ता इसके कुछ चिह्न उभर रहे हैं कि उसके कुछ हिस्से का, ख़ासकर बेरोज़गार पढ़े-लिखे नौजवानों का, अब मोहभंग हो रहा है: पुण्यनगरी इलाहाबाद में उनका एक जुलूस थालियां बजाकर रोज़गार की मांग करते निकला है, कोविड महामारी को भगाने के लिए एकजुटता दिखाने के लिए नहीं. यह असन्तोष निश्चय ही बढ़ेगा. घृणा से पेट नहीं भरता और भेदभाव से रोज़गार नहीं मिलता या चलता.
जो विकल्पहीनता बार-बार बतायी जाती और बिना किसी सूक्ष्म विश्लेषण के, स्वीकार की जाती रही है वह हो सकता है कि अब मिटने के करीब है. सवा सौ करोड़ से अधिक आबादी वाला इतना बड़ा देश, इतनी बड़ी सभ्यता विकल्पहीन नहीं हो सकते. विकल्प तो उभर के रहेगा. बल्कि शायद कई विकल्प होंगे. पर उन्हें कारगर होने के लिए कोमल घृणा और कोमल भेदभाव का आसान रास्ता छोड़ना होगा. उनका काम उन मुद्दों पर फिर राजनीति को केन्द्रित करने का होना चाहिये जो ग़रीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, लोक स्वास्थ्य आदि के हैं. आज मानवीय नियति सारे संसार में घृणा-भेदभाव-हिंसा द्वारा निर्धारित की जा रही है. उसका भारत में एक अहिंसक सत्याग्रही प्रतिरोध उभरना चाहिये. हमें किसी महानायक की प्रतीक्षा नहीं है. हमें तो साधारण की गरिमा और पहल का इन्तज़ार है जो गिरावट को थाम ले.
आधुनिकता और हिंसा
इन दिनों आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता पर कम बात होती है. यह कुछ ऐसा है कि मानो दोनों ही बीत चुकी वृत्तियां हैं. उनकी जगह क्या है, क्या आ गया है यह बहुत स्पष्ट और व्यापक रूप से मान्य नहीं हुआ है. हमारा समय कुछ इस क़दर उलझा और उलझाने वाला है कि उसे किसी केन्द्रीय वृत्ति से परिभाषित करना बहुत कठिन है. इसमें कोई सन्देह फिर भी नहीं हो सकता कि यह समय बेहद हिंसक है. भारत में अधिक, पर अन्यत्र भी कम नहीं. हिंसा की विचित्र और कई बार अप्रत्याशित दुर्भाग्यपूर्ण निरन्तरता मानवीय विकास में है.
आधुनिकता जब पश्चिम में अपने चरम पर थी और सोचने-रचने के सभी पारम्परिक स्थापत्य ध्वस्त किये जा चुके थे तब वहां दो विश्वयुद्धों, नाज़ीवाद, फ़ासीवाद और सोवियत साम्यवाद के विविध रूपों में हिंसा का ताण्डव हुआ, दशकों चला. हिंसा इतनी अधिक व्यापी कि करोड़ों लोगों का नरसंहार हुआ. आधुनिकता को इसका दुश्श्रेय है कि उसके अन्तर्गत पहले दो विश्वयुद्ध हुए और इतना भीषण नरसंहार हुआ. यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि आधुनिकता के मूल में जो मुक्ति का स्वप्न था वह क्यों और कैसे हिंसा के रौरव में बदल गया? उसने मुक्ति के नाम पर परतंत्रता के नये संस्करण कैसे प्रस्तुत और पुष्ट किये? यह भी याद रहना चाहिये कि आधुनिकता का एक वैकल्पिक अहिंसक संस्करण महात्मा गांधी ने भारत में विकसित किया और इतिहास में सम्भवतः सबसे विकराल औपनिवेशिक साम्राज्य का अन्त शुरू किया. इस का स्पष्ट आशय यह है कि आधुनिकता से व्यापक मुक्ति, बिना हिंसा और नरसंहार के, संभव थी.
उत्तर-आधुनिकता ने दृष्टियों की बहुलता को स्वीकार किया और आधुनिकताओं की बहुलता को भी. पर उसने भी दशहतगर्दी के रूप में हिंसा, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के अधिक असहिष्णु और अनुदार होते रूप में व्यक्त हिंसा, हिंसा के कुछ रूपों जैसे जातीय घृणा और भेदभाव को बढ़ावा दिया. उत्तर-आधुनिकता ने, आधुनिकता का अनुगमन करते हुए, अत्याधुनिक तकनीकों का बर्बर प्रयोग करना शुरू किया. आज भारत में अत्याधुनिक तकनीक का धड़ल्ले से दुरुपयोग हिंसा-हत्या-भेदभाव-घृणा के लिए किये जाते हम लगातार देख रहे हैं. यों पहले भी उसके कुछ न कुछ तत्व सक्रिय थे, पर अब हम उत्तर-आधुनिक दौर में लोकतंत्र-न्याय-समता में कटौती, तानाशाही वृत्ति का वैध ठहराया जा रहा उदय, साम्प्रदायिक और धर्मान्धता का अपार विस्तार देख रहे हैं. पारंपरिक और आधुनिक झूठों और प्रपंचों की जगह बहुत आक्रामक ढंग से उत्तर-आधुनिक झूठों और प्रपंचों ने ले ली है. आज झूठ किसी को लज्जित नहीं करता और सच की सार्वजनिक जीवन में कोई जगह और परवाह नहीं रह गयी है. क्या उत्तर-आधुनिक हिंसा का कोई उत्तर-आधुनिक विकल्प, अहिंसक और मानवीय गरिमा की रक्षा करने वाला है या सम्भव है? उसके कोई लक्षण कहीं नज़र आते हैं, हमारे बेहद चकाचौंध और चिकने-चुपड़े समय में?(satyagrah.scroll.in)
-संजय पराते
हमारे देश की आज़ादी से पहले का इतिहास है अंग्रेजी उपनिवेशवाद के अधीन नील की खेती का और गांधीजी का इसके खिलाफ संघर्ष का. यह इतिहास स्वाधीनता-पूर्व उन दुर्भिक्षों से भी जुड़ता है, जो भारत ने भुगता-भोगा था. लाखों लोगों के भूख से मरने की कहानियां अभी भी हमारी स्मृतियों से बाहर नहीं हुई हैं, जबकि लाखों टन अनाज उस समय भी सरकारी गोदामों में भरे पड़े थे. तब नेहरूजी की नई स्वाधीन सरकार ने कृषि के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता की नीतियों को अपनाने की घोषणा की थी.
आत्म-निर्भरता की इन नीतियों की तीन बुनियादी बातें थीं : भूमि सुधार और किसानों को खेती के कच्चे माल के लिए सब्सिडी; समर्थन मूल्य पर उसके अनाज की खरीदी और उसके भंडारण की व्यवस्था तथा इस अनाज का राशन दुकानों के जरिये आम जनता में वितरण. इसका प्रभाव स्पष्ट था. खेती-किसानी की लागत कम हुई और खाद्यान्न उत्पादन के मामले में देश आत्मनिर्भर हुआ. ज्यादा उत्पादन होने पर भी फसलों का बाज़ार में भाव नहीं गिरा, क्योंकि सरकारी खरीद की गारंटी थी. कम उत्पादन या अकाल की स्थिति में भी खाद्यान्न का बाज़ार में भाव नहीं चढ़ा, क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली मौजूद थीं. आवश्यक वस्तु अधिनियम में खाद्यान्न के आने से कालाबाजारी और जमाखोरी पर रोक लगी. अब आत्म-निर्भरता की इन तीनों बुनियादी बातों को अलविदा कहा जा रहा है.
इस वर्ष जून में जो कृषि संबंधी अध्यादेश जारी किए गए थे, विधेयकों का रूप लेकर अब वे कानून बनने की प्रक्रिया में है. सार-रूप में ये अध्यादेश हैं :
1. ठेका कृषि पर अध्यादेश : यह अध्यादेश सभी खाद्यान्न फसलों, चारा व कपास को किसानों के साथ "आपसी सहमति" के आधार पर अपनी जरूरत के अनुसार ठेके पर खेती करवाने का किसी भी कंपनी को अधिकार देता है.
2. मंडी समिति, एपीएमसी कानून पर अध्यादेश : यह संशोधन किसानों की फसलों को किसी भी कीमत पर मंडी से बाहर खरीदने की कॉर्पोरेट कंपनियों को छूट देता है.
3. आवश्यक वस्तु कानून 1925 में संशोधन : यह संशोधन आम आदमी के भोजन की सभी वस्तुओं गेहूं, चावल समेत सभी अनाजों, दालों व तिलहनों को तथा आलू-प्याज को आवश्यक वस्तु की श्रेणी से बाहर करता है.
लोक-लुभावन भाषा में प्रस्तुत इन विधेयकों को 'किसान मुक्ति' का रास्ता बताया जा रहा है, क्योंकि अब किसान कहीं भी, किसी के भी साथ व्यापार कर सकेगा. यह सब 'एक देश, एक बाज़ार' के नाम पर किया जा रहा है. लेकिन इन विधेयकों के अंदर जो प्रावधान किए गए हैं, वे ढोल की पोल खोलने वाले हैं. ये विधेयक किसानों की मुक्ति का नहीं, किसानों और उपभोक्ताओं की तबाही का रास्ता तैयार करते हैं.
दुनिया के किसी भी देश में कृषि की जो प्रगति हुई है, वह संरक्षणवादी नीतियों के जरिये ही हुई है. अमेरिका और दुनिया के तमाम साम्राज्यवादी देश, जो तीसरी दुनिया की खेती-किसानी को अपनी लूट का निशाना बनाए हुए हैं, खुद अपने देश में कृषि क्षेत्र में संरक्षणवादी नीतियों को लागू कर रहे हैं और भारी सब्सिडी दे रहे हैं. भारत में भी जीडीपी में कम योगदान के बावजूद हमने खाद्यान्न आत्मनिर्भरता हासिल की है, तो इसका कारण सरकारों द्वारा कृषि को संरक्षण दिया जाना ही है. इन कानूनों के जरिये अब संरक्षणवादी नीतियों को हटाया जा रहा है. याद रहे, मुक्त व्यापार हमेशा दौलत-संपन्न बलशालियों के पक्ष में होता है, विपन्नों के पक्ष में नहीं. इन विपन्नों की सुरक्षा संरक्षण के जरिये ही हो सकती है.
कृषि का क्षेत्र त्रि-आयामी है और उत्पादन, व्यापार व वितरण से इसका सीधा संबंध है. इसके किसी भी आयाम को कमजोर करेंगे, तो कृषि के क्षेत्र पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा. यहां तो अब एक साथ तीनों आयामों पर ही हमला किया जा रहा है. ये तीनों विधेयक मिलकर कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए हमारे देश के किसानों और आम उपभोक्ताओं को लूटने का एक पैकेज तैयार करते हैं. हिन्दुत्ववादी कॉर्पोरेट का यह नंगा चेहरा है.
बात उत्पादन से शुरू करें. तीन दशक पहले नव-उदारवादी नीतियों को लागू किया गया था. कृषि के क्षेत्र में सब्सीडियां घटाने का नतीजा था कि खेती-किसानी की लागत महंगी हुई है. खेती-किसानी के घाटे का सौदा होने और क़र्ज़ में डूबने के कारण पिछले तीस सालों में कम-से-कम चार लाख किसानों ने रिकॉर्ड आत्महत्या की हैं. एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्ष भी 'मोदी राज के अच्छे दिनों में' 10357 खेतिहरों ने आत्महत्या की हैं. इसके बावजूद अब ठेका खेती की इजाजत दी जा रही है.
ठेका खेती के दो अनुभवों को याद करें. पहला, बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने गुजरात के 9 गरीब किसानों पर उसके द्वारा रजिस्टर्ड आलू बीज से आलू की अवैध खेती करने के लिए 5 करोड़ रूपये मुआवजे का दावा ठोंका था और व्यापारिक मामलों को देखने वाली गुजरात की कोर्ट पेप्सिको के साथ खड़ी हो गई थी. दूसरा मामला छत्तीसगढ़ का है, जहां मजिसा एग्रो-प्रोडक्ट नामक कंपनी ने इस प्रदेश के सात जिलों के 5000 किसानों से 1500 एकड़ से अधिक के रकबे पर काले चावल की फसल की खरीदी का समझौता किया था, लेकिन उत्पादन के बाद इस कंपनी ने या तो फसल नहीं खरीदी या फिर चेक ही बाउंस हो गए. आज तक किसानों को उनके नुकसान के 22 करोड़ रूपये नहीं मिले हैं. ये दो अनुभव अब देश के पैमाने पर किसानों के आम अनुभवों का हिस्सा बनने जा रहे हैं, किसानों की तबाही की नई कहानियों के साथ.
ठेका खेती का अर्थ है कि कॉर्पोरेट कंपनियां अब अपनी मनमर्जी से अपनी शर्तों के अनुसार किसानों को खेती के लिए बाध्य करेगी. "आपसी सहमति" का प्रावधान तो केवल दिखावा है. इन विधेयकों के प्रावधान भी कॉर्पोरेटों के पक्ष में ही रखे गए हैं, जो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि किसानों को खेती-किसानी का पूरा सामान कंपनी से उसके भाव पर खरीदना होगा. इसका अर्थ है कि उसे जमीन गिरवी रखकर क़र्ज़ लेना होगा. यदि बिक्री के समय फसल का बाज़ार भाव 'कंपनी से किए गए अनुबंध से कम' है, तो कंपनी फसल न खरीदने या कम कीमत देने के लिए स्वतंत्र है. ऊपर से तुक्का यह कि अनुबंध तोड़ने के लिए कंपनी को किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकेगी. लेकिन यदि बाज़ार में फसल का भाव अनुबंध से ज्यादा है, तो भी किसान को अपनी फसल कंपनी को बाज़ार भाव से कम दाम पर ही बेचना होगा और वह अपनी फसल बाज़ार में नहीं बेच सकता. लुब्बो-लुबाब यह कि जोखिम तुम्हारा, मुनाफा हमारा! इस प्रकार यह विधेयक किसानों को लाभकारी दाम नहीं, कंपनियों के लिए मुनाफा सुनिश्चित करता है. तो यह है किसानों की मुक्ति की असलियत!!
अब व्यापार पर बात करें. हमारे देश का खाद्य बाज़ार 62 लाख करोड़ रुपयों का है. दो-दो केन्द्रीय बजट इसमें समा जाते हैं - इतना बड़ा! देश की 35000 कृषि उपज मंडियों के जरिये इस बात को सुनिश्चित करने की कोशिश की जाती है कि किसानों को समर्थन मूल्य मिलें और केवल लाइसेंस प्राप्त व्यापारी ही इन मंडियों में प्रवेश करें. मंडियों के बाहर फसलों की खरीदी-बिक्री पर अभी रोक है और इसके लिए जुर्माने का प्रावधान है. लेकिन कंपनियों के लिए अब यह प्रतिबंध हटाया जा रहा है और उसे कोई शुल्क अदा किए बिना मंडियों से बाहर खरीदने, और यहां तक कि किसानों की खेतों से फसल उठाने, की छूट दी जा रही है. किसानों से कहा जा रहा है कि यदि उसे अच्छी कीमत मिलती है, तो उसे रायपुर का अपना माल दिल्ली ले जाकर बेचने की भी छूट है. यह ठीक वैसा ही सपना है, जैसा संविधान के अनुच्छेद-370 को हटाते हुए इस देश के लोगों को 'कश्मीर में जाकर जमीन खरीदने' का दिखाया जा रहा था. हकीकत तो यह है कि इस देश का गरीब किसान अपनी फसल ट्रेक्टर-ट्रोलियों में लादकर मंडियों में ले जाने, नीलामी के लिए कई-कई दिन इंतजार करने और फिर अपनी फसल का मूल्य पाने के लिए और कुछ दिन इंतजार करने की भी हालत में नहीं होता.
इस कानून के प्रावधानों का कुल मिलाकर यह असर होने जा रहा है कि मंडियों में किसानों की सामूहिक सौदेबाजी की जो ताकत बनती है, उस ताकत को ही ख़त्म किया जा रहा है. अब कॉर्पोरेट कंपनियों को यह अधिकार मिलने जा रहा है कि बिना कोई शुल्क चुकाए किसानों के खेतों से ही फसल उठवा लें और समर्थन मूल्य देने की भी उस पर कोई कानूनी बाध्यता नहीं रहेगी. कृषि व्यापार में अंतर्राज्यीय बाधाएं ख़त्म हो जाने के बाद अब कंपनियां भी अपनी निजी मंडियां स्थापित कर लेंगी और गांव-गांव में कम भाव में किसानों की फसल खरीदने के लिए दलाल नियुक्त करेगी, जो स्वाभाविक रूप से उस इलाके के ताकतवर लोग ही होंगे. इन्हें कानून में एग्रीगेटर (जमाकर्ता) कहा गया है. यही लोग ऑनलाइन व्यापार भी स्थापित करेंगे, जो फसल के बाज़ार में आने के समय भाव गिराने का खेल पूरे देश के पैमाने पर खेलेंगे. कागजों में सरकारी मंडियां तो होंगी, लेकिन किसानों की फसल खरीदने वाला कोई नहीं होगा और इसलिए बेहतर दाम पाने के लिए 'मंडियों के चयन की' कोई 'स्वतंत्रता' भी नहीं होगी, जिसका दावा विधेयक में किया गया है. फसलों का मूल्य निर्धारण और सब कुछ सरकारी नियंत्रण से बाहर होगा. यह है मुक्त व्यापार की असलियत!!
और अब वितरण पर बात. स्वाभाविक है कि सरकारी मंडियों के जरिये किसानों का अनाज नहीं बिकेगा, तो समर्थन मूल्य की बाध्यता से तो सरकार मुक्त होगी ही, राशन दुकानों के जरिये इसके सार्वजनिक वितरण की जिम्मेदारी से भी छुट्टी मिलेगी, क्योंकि सरकारी गोदाम तो खाली रहेंगे. इन तीनों कृषि विरोधी विधेयकों के पीछे सरकार का मकसद भी यही है कि कृषि क्षेत्र में इन जिम्मेदारियों से वह मुक्त हों. लेकिन आवश्यक वस्तुओं की सूची से खाद्यान्न को 'बाहर' निकालने का अर्थ यह है कि अब व्यापारी असीमित स्टॉक जमा कर सकेगा, कार्टेल बनाकर कृत्रिम संकट पैदा करेगा और कालाबाजारी के जरिये मुनाफा कमाएगा. अतः ये विधेयक केवल किसानों की ही नहीं, आम उपभोक्ताओं की लूट के दरवाजे भी खोलता है. विधेयक में स्पष्ट कहा गया है कि जब तक अनाज व तेल के दाम पिछले साल के औसत मूल्य की तुलना में डेढ़ गुना व आलू-प्याज, सब्जी-फलों के दाम दुगुने से ज्यादा नहीं बढ़ेंगे, तब तक सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी. इसका अर्थ है कि खाद्य वस्तुओं में महंगाई को 50-100% की दर से और अनियंत्रित ढंग से बढ़ाने की कानूनी इजाजत दी जा रही है और 30 रूपये किलो बिकने वाले आटे को अगले साल 45 रूपये में और उसके अगले साल 67 रूपये में बेचने की अनुमति है. इसी तरह इस समय बिक रहा 60 रूपये किलो का टमाटर अगले साल 120 रूपये किलो और उसके अगले साल 240 रूपये किलो बिकेगा, फिर भी सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी. इस प्रावधान का उपयोग वायदा कारोबार में सट्टेबाजी के लिए किया जाएगा. इसका मतलब है, खेती-किसानी के बाद जनता की थाली की सब्जी-रोटी, दाल-भात निशाने पर है. इस प्रकार, ये तीनों विधेयक सार-रूप में इस बात की घोषणा करते हैं कि अब भविष्य में कॉर्पोरेट कंपनियां ही खेती-किसानी करवायेंगी, खाद्यान्नों का देश के अंदर और बाहर (आयात-निर्यात) व्यापार करेगी और वितरण करेगी. इन कामों में सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा और वह केवल मक्खी मारने का काम करेगी.
इन तीनों विधेयकों का मिला-जुला प्रभाव किसानों और देश के आम उपभोक्ताओं के जीवन-अस्तित्व के लिए बहुत खतरनाक होगा, क्योंकि :
1. अब फसल की खरीदी कंपनियां करेंगी और इस काम से सरकार व मंडियों का नियंत्रण समाप्त हो जाएगा.
2. अब यह कंपनियां किसानों से अपनी शर्तों पर बंधुआ के रूप में खेती करा पाएंगी, जिसमें जोखिम किसानों का ही होगा.
3. कंपनियों की खरीदी व्यवस्था स्थापित होते ही सरकार आसानी से न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने और फसल की खरीदारी करने की व्यवस्था से पीछे हट जायेगी. जब खाद्यान्न 'आवश्यक वस्तु' ही नहीं रहेगी, तो इनके भाव और व्यापार पर भी सरकारी नियंत्रण समाप्त हो जाएगा.
4. जब सरकारी खरीद ही रूक जायेगी, तो इसके भंडारण और सार्वजानिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था भी समाप्त हो जायेगी. इसी प्रकार, बीज, कीटनाशक व खाद की आपूर्ति करने और कृषि के लिए बिजली-पानी की व्यवस्था करने का जिम्मा कंपनियों पर छोड़ दिया जायेगा. इसके लिए इन कंपनियों को भारी सब्सीडी भी दी जाएगी.
5. इन कानूनों का सबसे बड़ा नुकसान भूमिहीन खेत मजदूरों और सीमांत व लघु किसानों को होगा, जो हमारे देश में कुल खेतिहर परिवारों का 85% से ज्यादा है. खेती-किसानी अवहनीय हो जाने से वे धीरे-धीरे अपनी जमीन और जीविका के साधन से वंचित हो जायेंगे. अलाभकारी कृषि से उन पर और कर्ज़ चढ़ेगा, किसान आत्महत्याओं में और तेजी से वृद्धि होगी.
6. इसका नुकसान हमारे देश के पर्यावरण को भी होगा, क्योंकि ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच में ये कंपनियां जीएम बीजों, अत्यधिक हानिकारक रसायनों के इस्तेमाल और खेती के हानिकारक तरीकों को बढ़ावा देगी. इससे भूमि की बंजरता बढ़ेगी और निकट भविष्य में खाद्यान्न आत्म-निर्भरता ख़त्म होगी. अनाज के लिए विकसित देशों पर निर्भरता बढने से हमारी राजनैतिक संप्रभुता को भी खतरा पैदा होगा, जो खाद्यान्न संकट का इस्तेमाल राजनैतिक ब्लैकमेल के लिए करते है.
ये विधेयक राज्यों के अधिकारों का भी हनन करते हैं. देश के संघीय ढांचे में कृषि राज्यों का विषय है. लेकिन राज्यों से बिना विचार-विमर्श किए जिस प्रकार केन्द्रीय कानून बनाए जा रहे हैं, वे राज्यों को कृषि क्षेत्र के विनियमन के अधिकार से ही वंचित करते हैं. यह देश के संघीय ढांचे का सीधा उल्लंघन और संविधान विरोधी कदम है.
अपने पाशविक बहुमत के आधार पर मोदी सरकार भले ही इन विधेयकों को संसद से पारित करवा लें, लेकिन इसे लागू होना उस जमीन पर ही है, जिसे हमारे देश के बहुसंख्यक छोटे किसान सदियों से जोतते-बोते आ रहे हैं. वे इसका प्रतिरोध करेंगे कि कॉर्पोरेट कंपनियां उनकी जमीन को हड़प कर जाएं. संसद के अंदर का जनतांत्रिक विपक्ष का प्रतिरोध अब सड़क की लड़ाई लड़ने के लिए उतर रहा है. जून से ही जारी किसानों का राज्य स्तरीय प्रतिरोध अब देशव्यापी प्रतिरोध में संगठित हो रहा है और नए जोश से मैदान में उतर रहा है. इस संगठित किसान आंदोलन को देश की आम जनता की मदद, समर्थन और एकजुटता की दरकार है – खेती-किसानी बचाने के लिए, खाद्य आत्म-निर्भरता बचाने के लिए और देश बचाने के लिए!!
(लेखक छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष हैं.)
- मानसी दाश
जोधपुर की विशेष सीबीआई कोर्ट ने बुधवार को पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और चार अन्य लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश दिया है.
ये मामला राजस्थान के उदयपुर में मौजूद होटल 'लक्ष्मी विलास पैलेस' के निजीकरण से जुड़ा है.
आरोप है कि साल 1999-2002 के बीच विनिवेश मंत्री रहे अरुण शौरी और विनिवेश सचिव प्रदीप बैजल ने अपने पद का दुरुपयोग कर इस सौदे में सरकारी ख़ज़ाने को नुकसान पहुंचाया है.
साल 2002 में इंडियन टूरीज़्म डेवेलपमेन्ट कॉर्पोरेशन (आईटीडीसी) के 29 एकड़ इलाके में फैले इस होटल को सरकार ने 7.52 करोड़ रुपये में भारत होटल्स लिमिटेड को बेचा था. आईटीडीसी के सबसे अधिक नुक़सान झेलने वाले 20-25 होटलों में इसका भी नाम शुमार था.

इससे पहले सीबीआई ने इस मामले में ये कहते हुए अपनी क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल कर दी थी कि अभियुक्त के ख़िलाफ़ अभियोग लगाने के लिए उनके पास पर्याप्त सबूत नहीं हैं.
उदयपुर के फतेह सागर झील के किनारे एक पहाड़ की चोटी पर बना लक्ष्मी विलास होटल इस विवाद के केंद्र में है (फ़ाइल फ़ोटो)
सीबीआई कोर्ट ने जिला प्रशासन को सौंपा होटल
सीबीआई की इस रिपोर्ट को कोर्ट ने ये कहते हुए खारिज कर दिया है कि "प्राथमिक तौर पर लगता है कि अरुण शौरी और प्रदीप बैजल के द्वारा की गई इस डील में केंद्र सरकार को 244 करोड़ रुपयों का नुक़सान उठाना पड़ा है."
सीबीआई जज पूरन कुमार शर्मा ने इस मामले की दोबारा जांच करने के आदेश दिए हैं और कहा है, "सीबीआई देश की एक सम्मानित संस्था है. प्रारंभिक जांच में धांधली होने संकेत मिलने के बावजूद क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल करना चिंता का विषय है."
कोर्ट ने आदेश दिया है कि होटल को तुरंत राज्य सरकार को सौंप दिया जाए और जब तक मामले का निपटारा नहीं हो जाता ये राज्य सरकार की कस्टडी में ही रहे.
जज ने भ्रष्ट्राचार रोधी क़ानून और भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी (आपराधिक साजिश) और 420 (धोखाधड़ी) के तहत दोषियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर कराने का आदेश भी दिया है.
इस मामले में अरुण शौरी, प्रदीप बैजल, लज़ार्ड इंडिया लिमिटेड के प्रबंध निदेशक आशीष गुहा, कांति करमसे एंड कंपनी के कांतिलाल करमसे विक्रमसे और भारत होटल्स लिमिटेड की चेयरपर्सन ज्योत्सना सुरी पर आरोप लगाए गए हैं.
क्या है पूरा मामला?
13 अगस्त 2014 को सीबीआई ने इस आधार पर पहली एफ़आईआर दर्ज की थी कि विनिवेश विभाग के कुछ अफसर और एक निजी होटल व्यवसायी ने साजिश कर 1999-2002 में लक्ष्मी विलास पैलेस की पहले मरम्मत की और फिर सस्ते दाम में उसे बेच दिया.
प्रारंभिक जांच के बाद सीबीआई ने इस मामले में कोर्ट को क्लोज़र रिपोर्ट सौंप दी. इस रिपोर्ट को जोधपुर सीबीआई कोर्ट ने खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि रिपोर्ट के अनुसार, ज़मीन की कीमत 151 करोड़ रुपये है, ऐसे में होटल के सौदे में ग़लत तरीके से सरकार को 143.48 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है.
कोर्ट ने कहा कि फाइल दोबारा खोली जाए और आरोपों की जांच हो. एक बार फिर इस मामले में क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल की गई जिसे खारिज कर दिया गया. लेकिन इस मामले में 13 अगस्त 2019 को सीबीआई ने तीसरी बार क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल की. इस बार फिर कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया है और फिर से मामले की जांच करने को कहा है.
तीसरी बार भी सीबीआई ने क्लोज़र रिपोर्ट फाइल की और कहा कि जांच आगे बढ़ाने के लिए उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं है.
इस मामले में 15 सितंबर 2020 को हुई सुनवाई में जज ने कहा कि सीबीआई को इस मामले में भ्रष्ट्राचार से जुड़े कुछ संकेत मिले हैं और उसकी रिपोर्ट के अनुसार होटल की संपत्ति असल में 252 करोड़ रुपये की है लेकिन इसे कम कीमत पर बेचा गया है.
सीबीआई के क्लोज़र रिपोर्ट फाइल करने को कोर्ट ने चिंता का विषय बताया और एक बार फिर सीबीआई को इसकी जांच के आदेश दिए है.
अरुण शौरी बीजेपी सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी और भरोसमंद लोगों में से एक माने जाते थे (तस्वीर में: नरेंद्र मोदी, भैरो सिंह शेखावत, लालकृष्ण आडवाणी और अरुण शौरी)
एफ़आईआर में नहीं था नाम
2014 अगस्त में सीबीआई ने जो एफ़आईआर दर्ज की थी उसमें अरुण शौरी का नाम नहीं था. इंडियन एक्सप्रेस अख़बार को अरुण शौरी ने बताया, "सीबीआई इस मामले को पहले ही बंद कर चुकी है क्योंकि उन्हें कोई सबूत नहीं मिले. जो एफ़आईआर थी उसमें मेरा नाम भी नहीं था, मुझे कोई अंदाज़ा नहीं कि मेरा नाम अब इसमें कैसे जोड़ा गया है."
साल 2014 में एक इंटरव्यू में अरुण शौरी ने कहा था कि होटल की कीमत का हिसाब करने वालों को चयन सरकार द्वारा अप्रूव्ड लिस्ट से किया गया था. उनका कहना था, "इसके मूल्य को लेकर राजस्थान हाई कोर्ट में भी चुनौती दी गई थी लेकिन कोर्ट ने आरोपों को बेबुनियाद पाया था."
साल 2014 में इस मुद्दे पर अरुण शौरी ने लिखा, "होटल के विनिवेश के फ़ैसले के बारह साल बाद एक अनाम व्यक्ति की मौखिक शिकायत के आधार पर सीबीआई ने ये जांच करने का फ़ैसला किया है."
उन्होंने लिखा, "2002 में हिंदुस्तान जिंक का निजीकरण हुआ जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने मामला खारिज कर दिया. लेकिन लक्ष्मी विलास होटल के संदर्भ में भी वही पैटर्न था. ये होटल 2002 में बेचा गया था."
"जब अधिकारी मेरे पाए आए तो मैंने उनसे पूछा कि किस आधार पर जांच शुरू की गई है. उन्होंने बताया कि उनके पास कुछ भी लिखित रूप में नहीं है, ये मौखिक शिकायत के आधार पर था."
2014 में इकोनॉमिक टाइम्स में इसी सौदे से जुड़ी एक ख़बर प्रकाशित हुई थी जिसमें कहा गया था कि अरुण शौरी के अनुसार उस समय विनिवेश पर बनी कैबिनेट समिति में अरुण जेटली शामिल थे, जो उस वक्त क़ानून मंत्री थे और उनके मंत्रालय ने तीन बार फाइल क्लीयर की थी.
जेटली ने इकोनॉमिक टाइम्स को बताया था, “मंत्री के तौर पर मैं पूरी प्रक्रिया का गवाह रहा था. मुझे इस बात पर कोई शक नहीं कि विनिवेश के दौरान जो लेनदेन हुआ वो पूरी तरह प्रक्रिया के तहत हुआ था."

क्या कहते हैं प्रदीप बैजल?
इसके कुछ दिन बाद प्रदीप बैजल ने एक अख़बार को बताया कि विनिवेश से जुड़े हर फ़ैसले अरुण शौरी और उस दौरान विनिवेश पर बनी कैबिनेट समिति के अध्यक्ष के तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लेते थे.
विनिवेश के दिनों के अपने अनुभवों पर प्रदीप बैजल ने 'द कंम्प्लीट स्टोरी ऑफ़ इंडियन रीफॉर्म्स: टूजी, पावर एंड प्राइवेट एंटरप्राइज़' शीर्षक से एक किताब लिखी थी.
इस किताब में उन्होंने दावा किया कि सीबीआई चाहती थी कि वो अरुण शौरी और रतन टाटा के ख़िलाफ़ बयान दें. साल 2004 से 2007 के बीच यूपीए सरकार के दौर में प्रदीप बैजल भारतीय टेलिकॉम नियामक, ट्राई के चेयरमैन थे.
शौरी- पत्रकार से विनिवेश चैंपियन बनने तक
पेशे से पत्रकार और लेखक अरुण शौरी को आपातकाल के दौरान अख़बारों में उनके लेखों के लिए जाना जाता है. इन्हीं लेखों को देखते हुए अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ने उन्हें एग्ज़ीक्यूटिव एडिटर के रूप में काम करने का न्योता दिया.
बात साल 1981 की है, उस वक्त महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अन्तुले थे. शौरी ने सरकारी पैसों के हेरफेर में उनकी भूमिका के बारे में जमकर लिखा जिसके बाद मामला इतना बिगड़ गया कि अन्तुले को पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा.
शौरी को 1982 में रेमन मैगसेसे पुरस्कार और 1990 में देश के तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण से नवाज़ा गया था.
साल 1998 के आते-आते वो बीजेपी में शामिल हो गए. इसके बाद वो राज्यसभा सदस्य मनोनीत हुए और वाजपेयी सरकार के दौर में विनिवेश, संचार और आईटी मंत्री के पद पर रहे.
विनिवेश मंत्री के तौर पर उन्होंने मारुति, वीएसएनएल और हिंदुस्तान ज़िन्क में निजी भागीदारी को बढ़ाया. इस दौर में सचिव के तौर पर उनके साथ प्रदीप बैजल रहे.
कहा जाता है कि दोनों की जोड़ी ने तीस से अधिक कंपनियों को निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपा जिससे सरकार को 5 हज़ार करोड़ से अधिक रुपये मिले.
2002 में अरुण शौरी ने संसद में बताया था कि सरकार 31 उद्योगों का विनिवेश कर रही है और 7 पीएसयू के निजीकरण कर रही है जिससे सरकारी ख़जाने को 5114 करोड़ रुपये मिले हैं.

वाजपेयी के साथ, लेकिन मोदी के विरोधी
अरुण शौरी बीजेपी सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी और भरोसमंद लोगों में से एक माने जाते थे. लेकिन बीजेपी की मोदी सरकार के विरोध में बोलने के लिए भी उन्हें पहचाना जाता है.
2014 अगस्त में एफ़आईआर दायर होने से पहले इसी साल मई में उन्होंने कहा था कि मोदी काम करने और जल्दी फ़ैसला लेने वाले नेताओं में हैं. लेकिन सरकार को लेकर उनका नज़रिया बदलने लगा. 2015 के मई में उन्होंने कहा कि लगता है है, "मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली ने अपने सहयोगियों के साथ-साथ अपने लोगों को भी डरा दिया है."
उन्होंने कहा कि मोदी के कार्यकाल के दौरान जो सामाजिक हालात हैं उसमें अल्पसंख्यक तनाव में हैं. नवंबर 2016 को अचानक घोषित हुई नोटबंदी को उन्होंने सरकार द्वारा की गई '‘पैसों की सबसे बड़ी धांधली’' करार दिया और कहा कि इससे काला धन सफेद करने वालों को मौक़ा मिला है.
रफ़ाल विमान डील मुद्दे पर साल 2018 में उन्होंने जानेमाने वकील प्रशांत भूषण और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा के साथ मिल कर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और कोर्ट की निगरानी में मामले की सीबीआई से जांच कराने की मांग की.
ये मामला दिलचस्प था. चार अक्तूबर को शौरी, प्रशांत भूषण और यशवंत सिन्हा ने सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा से मुलाक़ात की और जांच की ज़रूरत पर उनसे चर्चा की. इसके बाद आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया जिसके बाद इन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया.
बताया जाता है कि सीबीआई प्रमुख से इनकी मुलाक़ात से केंद्र सरकार नाराज़ थी. इसके बाद एक दौर वो भी आया जब अरुण शौरी ने कहा कि 2019 में एक बार फिर बीजेपी को चुनना देश के लिए सही नहीं होगा. उन्होंने इस साल होने वाले चुनावों को गणतंत्र के लिए आख़िरी मौक़ा कहा.
मुंबई में एक सभा में उन्होंने कहा कि, "जब देश संकट में हो तो राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं को किसी के हाथ बढ़ाने का इंतज़ार नहीं करना चाहिए."
अक्तूबर 2017 में खुशवंत सिंह साहित्य समारोह में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के पद के लिए नरेंद्र मोदी को समर्थन देना उनकी दूसरी ग़लती थी और वीपी सिंह की जनता सरकार को समर्थन करना उनकी पहली बड़ी ग़लती थी क्योंकि वीपी सिंह को पीछे से बीजेपी और वामपंथी पार्टियों का समर्थन हासिल था.
उन्होंने कहा, "ये मत सोचिए कि नेता सत्ता में आते ही बदल जाएंगे. उनके चरित्र को इस बात पर आंकिए कि वो सच का कितना साथ देते हैं."(bbc)
फिल्म उद्योग को बदनाम करने से बाज आएं! यह कोई धमकी नहीं, निवेदन है। वजह साफ है। बॉलीवुड समाज के कूड़ा-करकट की आश्रयस्थली नहीं। यह ड्रग्स लेने वाले, नशे में मदहोश लोगों का अड्डा नहीं है। जो लोग ऐसा मानते हैं, उन्हें यहां के बारे में कुछ भी पता नहीं।
- सुभाष के झा
जया बच्चन ने अभी राज्यसभा में बयान दिया कि मनोरंजन उद्योग में काम करने वाले लोग सोशल मीडिया से प्रभावि त हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने इंडस्ट्री में अपना नाम बनाया है, अब वे इसे गटर कह रहे हैं, जिस थाली में खाते हैं, उसमें ही छेद करते हैं। उनके इस बयान से बवाल मच गया है। आखिर क्या है बॉलीवुड की हकीकत। फिल्म इंडस्ट्री को कई दशक से जानने-समझने वाले सुभाष के झा क्या कहते हैं, पढ़ें:
फिल्म उद्योग को बदनाम करने से बाज आएं! यह कोई धमकी नहीं, करबद्ध निवेदन है। कारण साफ है। बॉलीवुड समाज के कूड़ा-करकट की आश्रयस्थली नहीं। फिल्म उद्योग ड्रग्स लेने वाले, नशे में मदहोश लोगों का अड्डा नहीं है। जो लोग भी ऐसा मानते हैं, उन्हें फिल्म उद्योग के बारे में कुछ भी पता नहीं।
मुझे याद है, काफी साल पहले मैं ट्विंकल खन्ना के साथ लंच कर रहा था। तब मेरे साथ मेरी बेटी भी थी और ट्विंकल के साथ इधर-उधर की बात करते-करते हम पैरेंटिंग के इर्द-गिर्द घूमने लगे थे। इस पर हम दोनों अपनी-अपनी बात रख रहे थे। तब अक्षय शहर के बाहर थे और उनका नन्हा बेटा अरव मटकता-लड़खड़ाता हुआ इधर-उधर घूम रहा था। पैरेंटिंग पर थोड़ी देर बात करने के बाद हम टीन्स में आए बच्चों की पैरेंटिंग से जुड़ी समस्याओं पर आ गए थे और फिर हम ड्रग के बढ़ते चलन पर आ गए। ट्विंकल ने तब कहा था, “कल होकर अगर मेरा बेटा ड्रग्स लेने लगे तो या तो मैं उसे जान से मार दूंगी या अपनी जान दे दूंगी।”
बाद में जब 18 साल के अरव की फोटो मेरी आंखों के सामने थी तो मुझे ट्विंकल की ‘मदर इंडिया’ जैसी वे बातें याद आ गईं। अच्छी बात है कि अरव बड़ा संस्कारी लड़का है। बिल्कुल अपने पिता की तरह उसकी भी आदतें अच्छी हैं- जल्दी सो जाना, संयमित खाना, जमकर एक्सरसाइज करना और सोच को सकारात्मक रखना।
ड्रग्स? मैं तो एक भी ऐसा स्टार किड नहीं जानता जो ड्रग्स लेता हो। आज की पीढ़ी के तो ज्यादातर लोग सिगरेट तक नहीं पीते, तो भला ड्रग्स की बात कौन करे? मैं यह नहीं कह रहा कि बॉलीवुड एक मोनैस्ट्री है या विकी कौशल एक पुजारी है या फिर कटरीना कैफ कोई नन। मैं जानता हूं कि इनकी अपनी-अपनी बुरी आदतें होंगी। मैंने तमाम एक्टरों को पार्टियों में शराब पीते देखा है लेकिन उसमें कोई गलत बात नहीं क्योंकि ये लोग पूरी तरह अपने आपे में रहते हैं। मैंने सलमान खान को भी पीते और अपने ऊपर से नियंत्रण खोते देखा है जो बिल्कुल सही नहीं। लेकिन फिर भी यह कोई बहुत बड़ी अय्याशी तो है नहीं।
पीने के बाद व्यवहार असामान्य ही हो जाएगा, ऐसा तो है नहीं। लेकिन कभी-कभार ऐसा हो जाता है और इस मामले में मनोरंजन उद्योग कोई अपवाद तो है नहीं कि वहां के लोग पीएंगे तो कभी-कभार किसी का व्यवहार असामान्य नहीं होगा। हां, इतना जरूर है कि मनोरंजन उद्योग की चीजें ज्यादा साफ दिखती हैं। अगर कोई इंजीनियर पीकर गलत व्यवहार करेगा तोऐसा करते हुए उसकी तस्वीर या वीडियो वायरल नहीं होगा। लेकिन बॉलीवुड के साथ और बात हो जाती है।
जो लोग कथित अय्याशी के लिए बॉलीवुड के खून के प्यासे हो रहे हैं, उनसे मैं जरूर पूछना चाहूंगा कि आपमें से कितने लोग किसी भी स्टार के स्वभाव के बारे में जानते हैं? बॉलीवुड में ड्रग्स के चलन की जानकारी का आपका स्रोत क्या है? कंगना रनौत? आखिर वह बॉलीवुड को कितने नजदीक से जानती है? क्या उसे पता है कि तमाम टॉप एक्टर बिल्कुल शराब नहीं पीतेः अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, आमिर खान, शाहरुख खान... ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने शराब को हाथ तक नहीं लगाया। और फिर ड्रग्स? शाहरुख खान ने एक बार मुझसे कहा था, “मुझ पर जिंदगी का नशा है। मुझे किसी और नशे की जरूरत नहीं।”
फिर आखिर वे कौन ऐक्टर हैं जो ड्रग्स लेने- देने के दोषी हैं? आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ड्रग्स के इस्तेमाल के लिए बॉलीवुड पर उंगली उठाने वाले कुछ लोग ही बॉलीवुड में सबसे बड़े ड्रग्स लेने वाले हैं। और अगर रिया चक्रवर्ती ड्रग लेने के लिए अपने सहयोगी कलाकारों के नाम ले रही है तो यह काम वह कानून पालन करने वाली एजेंसियों की नजर में अपने को बेहतर बताने के लिए ही कर रही है। यहां मैं एक बात बिस्कुल साफ कर देना चाहूंगा- मेरे कहने का यह मतलब कतई नहीं कि बॉलीवुड में ड्रग्स के इस्तेमाल को लेकर रवि किशन जो भी कह रहे हैं, वह सरासर गलत है। लेकिन इतना जरूर है कि एक ही तरीके से कूची चलाकर वह पूरे फिल्म उद्योग की तस्वीर नहीं उकेर सकते।(navjivan)
डॉ. परिवेश मिश्रा
1943 में युवराज और राज्य के शिक्षा मंत्री नरेशचन्द्र सिंह जी विवाह के बाद पत्नी के साथ कलकत्ता में छुट्टियां व्यतीत कर सारंगढ़ लौटे थे। पीछे पीछे डाक से ग्रेट ईस्टर्न होटल का जब बिल पंहुचा तो पिता राजा जवाहिर सिंह जी ने भुगतान पर यह लिख कर रोक लगा दी थी कि यह युवराज का निजी खर्च है, इसलिए इसका भुगतान वे अपने अलाऊंस में से करें, स्टेट भुगतान नहीं करेगा। नियम कानून के पक्के पिता राजा जवाहिर सिंह जी से जो सीख मिली वह नरेशचन्द्र सिंह जी की जीवनशैली का हिस्सा बन गई।
एक पोस्ट-कार्ड का फोटो, इसमें क्या लिखा गया और क्या पढ़ा गया, यह कहानी तो 1960 में पोस्ट-कार्ड लिखने और पढ़े जाने के बाद खत्म हो गई थी।
किन्तु यह पांच पैसे का पोस्ट-कार्ड उस जमाने में लोकप्रिय जीवनशैली और जीवनमूल्यों की याद दिलाने के लिए पीछे छूट गया।
किस परिवार में आपका जन्म होता है यह फैसला आपका नहीं होता। किन्तु जीवन में किन मूल्यों को अपनाना है उसका फैसला अवश्य आपकी पसंद का होता है।
जवाहर लाल नेहरू जी और उनकी छोटी बहन विजयलक्ष्मी पण्डित जी के पिता मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद हाईकोर्ट और देश के प्रसिद्ध और सफलतम् वकीलों में से एक थे। पिता की अकूत धन दौलत और जीवनशैली को लेकर अनेक सच्ची झूठी कहानियां प्रचारित होती रही हैं- वाट्सऐप के आने के बाद तो ढेर सारी।
जैसे- उनके कपड़े लॉन्ड्री के लिए पेरिस भेजे जाते थे (असत्य), उनका घर आनन्द भवन इलाहाबाद का पहला घर था जिसमें बिजली आयी और पानी के लिए नल लगे थे (सच), पहला घर था जिसमें अपना एक स्विमिंग पूल था (सच), आदि आदि।
कुछ सच और भी हैं। जैसे, 1904 में इलाहाबाद में पहली कार खरीदने/लाने वाले मोतीलाल नेहरू ही थे। 1905 और 1909 में भी खरीदीं और उसके बाद घर में गाडिय़ों की लाईन लगती रही।
1962 की गर्मियों में मेरी उम्र दस वर्ष थी। उस उम्र और उस ज़माने के अन्य बच्चों की तरह डाक टिकिटों, सिक्कों और क्रिकेट खिलाडिय़ों के अलावा कारों के बारे में अपनी जानकारी पर गर्व करता था।
मोतीलाल नेहरू के इकलौते बेटे जवाहर लाल नेहरू जी को जब मैंने दिल्ली में स्टैन्डर्ड-8 कार से उतरते देखा तो वह दृश्य मेरे बाल-मन के लिये किसी ऐन्टी क्लाइमेक्स से कम नहीं था। मैं पर्यटकों के एक छोटे से झुंड का हिस्सा था जो साउथ ब्लॉक के दरवाजे के पास उनकी एक झलक पाने के लिए खड़ा था।
आम धारणा है कि 1983 में मारूती 800 के आने से पहले भारत में केवल फिएट (पद्मिनी) और एम्बेसडर कार ही चला करती थीं। एक कम-ख्यात कार कम्पनी और थी-मद्रास की स्टैन्डर्ड मोटर कम्पनी। इसकी बनाई स्टैन्डर्ड-8 बाद मे आयी मारूती 800 जैसी ही थी और उन दिनों भारत में बिकने वाली सबसे सस्ती और छोटी कार थी। और हमारे देश के प्रधानमंत्री ने अपने उपयोग के लिये इसे चुना था।
1947 में जब आज़ादी मिली भारत की जीडीपी शून्य थी। विदेशी मुद्रा भंडार मायनस में था क्योंकि सारी उधारी ब्रिटेन पर थी और विश्व युद्ध के बाद कंगाल ब्रिटेन ने पैसों के मामले में हाथ ऊपर उठा दिये थे। तब विदेशी मुद्रा कमाने और बचाने की आवश्यकता थी। नेहरू जी ने आत्मनिर्भरता का नारा दिया था। लोगों को अपनी बात समझाने का उनका तरीका आसान था- भाषण के स्थान पर स्वयं का आचरण सामने रखते थे। नेहरू जी ने स्वयं कभी महंगी, विदेशी, ब्रैन्डेड घडिय़ों, जूतों, चश्मों और कारों का उपयोग नहीं किया। कपड़े चूंकि दिन में बार बार बदलते नहीं थे, और आमतौर पर सिर्फ सफेद खादी पहनते थे, सो उसके खर्च भी कम थे। देश की अर्थव्यवस्था सुधारना तब सबसे पहली आवश्यकता थी। आम जनता ने भी मोह संवरण करना सीख लिया था।
ये भारत के उस काल की बात है जब किफ़ायत या मितव्ययता (कम या केवल आवश्यक खर्च करने की आदत) को कंजूसी का समानार्थी शब्द नहीं माना जाता था। धन सम्पत्ति के सार्वजनिक प्रदर्शन या फिज़ूलखर्ची को फूहड़ माना जाता था।
पं. जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी जी के द्वारा राजा नरेशचन्द्र सिंहजी को लिखे अनेक ख़त गिरिविलास पैलेस सारंगढ़ में रखे हैं। इनमें से कुछ अंतर्देशीय पत्रों पर लिखे गए थे तो कुछ लिफाफों में आये थे। कुछ पत्र पोस्ट-कार्ड पर भी लिखे गये थे।
ऐसे ही एक पोस्ट-कार्ड का फोटो इस पोस्ट में है। सितम्बर 1960 में नेहरू जी की बहन विजयलक्ष्मी जी अपनी विदेश पोस्टिंग से भारत आयी हुई थीं और नई दिल्ली में थीं। यह पोस्ट-कार्ड उन्होंने प्रधानमंत्री के निवास तीनमूर्ति भवन में रहते हुए लिखा था।
मेरे जो फेसबुक मित्र स्पीड पोस्ट और कुरियर के दौर में पले बढ़े हैं उन्हें बताता चलूँ कि उन दिनों पत्र लिखने के लिए तीन सामान्य साधन मौजूद हुआ करते थे- पोस्ट-कार्ड, अंतर्देशीय (या इन-लैन्ड) और लिफाफा। तीनों प्री-पेड होते थे। पोस्ट-कार्ड का इस्तेमाल वे करते थे जिनके पास पैसों की कमी हो या वे जिनके पास लिखने के लिए मैटर कम हो।
विजयलक्ष्मी जी ने पांच पैसे वाले पोस्ट-कार्ड पर पत्र लिखा। वे उन दिनों ब्रिटेन में भारत की राजदूत (हाई कमिश्नर) थीं। वे विश्व की पहली महिला थीं जो संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा की अध्यक्ष रह चुकी थीं। वे मोतीलाल नेहरू की बेटी थीं। मैं नहीं मान सकता कि दस पैसे का अंतर्देशीय या पंद्रह पैसे का लिफाफा खरीदने की उनकी हैसियत नहीं थी। पर चूंकि उनके पास लिखने के लिए जितना मैटर था उसके लिये पोस्ट-कार्ड काफी था और पोस्ट-कार्ड लिखने में उन्हे कोई संकोच या शर्म नहीं थी, सो उन्होंने पोस्ट-कार्ड ही लिखा।
ये वो जमाना था जब सादगी शब्द लिखने बोलने में जितना प्रयुक्त होता था उससे अधिक इसका उपयोग जीवन जीने के ढंग में होता था। सादगी जैसा ही दूसरा महत्वपूर्ण शब्द था ‘सदाचरण।’ उच्च पदों पर बैठे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे निजि और शासकीय खर्चों में विभेद करने की समझ रखें। आमतौर पर वे निराश नहीं करते थे (अपवाद हर काल में होते हैं)।
उन दिनों डाक टिकिट दो प्रकार के होते थे। एक तो वो जो आम जनता के लिये थे और दूसरे थे रेवेन्यू डाक टिकिट। ये दूसरे प्रकार के टिकिट सरकारी डाक में इस्तेमाल होते थे और जाहिर है इनका भुगतान सरकारी कोष से होता था। सभी सरकारी विभागों और मंत्रियों के कार्यालयों से बाहर जाने वाली डाक में यही टिकिट चिपकाये जाते थे। (बाकी पेज 7 पर)
विजयलक्ष्मीजी ने पोस्ट-कार्ड पारिवारिक मित्र को लिखा और यह उनकी निजी डाक थी। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, उन दिनों वे प्रधानमंत्री निवास में रह रही थीं। यदि वे चाहतीं तो इसे कार्यालय के डिस्पैच सेक्शन में भेज सकती थीं। राजस्व डाक टिकिट लगे लिफाफे में यह पत्र सफर कर लेता। किन्तु उनसे ऐसी चूक संभव नहीं थी। पांच पैसे के लिए भी नहीं।
इससे कुछ साल पहले विजयलक्ष्मी जी के हाथों हुई एक अनजानी चूक के परिणाम स्वरूप भाई जवाहर लाल नेहरू के बैंक बैलेन्स की जानकारी सार्वजनिक हो गयी थी। उस घटना ने विजयलक्ष्मी जी को आर्थिक सदाचरण के प्रति अवश्य ही और भी अधिक सतर्क बनाया होगा।
यह घटना 1954 की है जब पंजाब के गवर्नर ने विजयलक्ष्मी जी को मेहमान के रूप में शिमला आमंत्रित किया। आजादी के बाद पंजाब का विभाजन हुआ तो भारत के हिस्से आये पूर्वी पंजाब की राजधानी शिमला बनी थी। राज्यपाल का न्योता मिला तो विजयलक्ष्मी जी ने स्वीकार कर लिया और कुछ दिन शिमला में बिता कर वापस दिल्ली आ गयीं।
शिमला के सरकारी गेस्ट हाउस में वे राज्यपाल के मेहमान के रूप में रही थीं। मेहमान के बिल का भुगतान राज्यपाल के द्वारा किया जाएगा ऐसा मान कर अधिकारियों ने विजयलक्ष्मी जी के सामने बिल पेश नहीं किया था। बाद में दफ्तर के किसी तकनीकी कारण के चलते राज्यपाल की ओर से भी भुगतान नहीं आया। इस बीच श्रीमती पंडित को राजदूत नियुक्त किया गया और वे दिल्ली से लंदन चली गयीं।
लगभग साल भर बीतने पर परेशान चीफ इंजीनियर 2064 रुपये के बिल के साथ पंजाब के मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर जी के पास पहुँचे। सच्चर जी का जब दिल्ली जाना हुआ तो ये बिल साथ लेते गये और उसे नेहरू जी के सामने रख दिया। भीमसेन जी के पुत्र राजेन्द्र सच्चर (सच्चर कमेटी वाले) आगे चल कर दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बने थे। उन्होंने पिता से सुनकर अपने संस्मरण में लिखा तो दुनिया को पता चला कि बिल देखते ही नेहरू जी ने तत्काल चेक बुक निकाल ली थी। पर जब पाया कि अकाऊंट में बैलेन्स कम है तो सिर्फ एक हज़ार रुपये का चेक काटा और भीमसेन जी से विनम्रता पूर्वक कहा- अभी मैं योरोप यात्रा पर जा रहा हूं। एक साथ इतनी राशि देने की स्थिति में नही हूँ। लौटकर बाकी भी चुका दूंगा। और दो किश्तों में प्रधानमंत्री ने परिवार के निजी खर्च का भुगतान कर दिया था। विजयलक्ष्मीजी से न पूछा न उन्हें बताया।
1943 में युवराज और राज्य के शिक्षा मंत्री नरेशचन्द्र सिंह जी विवाह के बाद पत्नी के साथ कलकत्ता में छुट्टियां व्यतीत कर सारंगढ़ लौटे थे। पीछे पीछे डाक से ग्रेट ईस्टर्न होटल का जब बिल पंहुचा तो पिता राजा जवाहिर सिंह जी ने भुगतान पर यह लिख कर रोक लगा दी थी कि यह युवराज का निजी खर्च है, इसलिए इसका भुगतान वे अपने अलाऊंस में से करें, स्टेट भुगतान नहीं करेगा। नियम कानून के पक्के पिता राजा जवाहिर सिंह जी से जो सीख मिली वह नरेशचन्द्र सिंह जी की जीवनशैली का हिस्सा बन गई।
कुछ समय में पिता की मृत्यु के बाद नरेशचन्द्र सिंहजी राजा बने और आज़ादी के बाद सत्रह वर्षों तक मध्यप्रदेश में कैबिनेट मंत्री रहे। इस हैसियत से समय समय पर राज्य में दौरे करते रहे। किन्तु सर्किट हाऊस के खाने पीने के बिल ताउम्र उन्होंने अपने निजी खाते से ही अदा किये।
सोशल मीडिया पर हर तरह के जोड़-तोड़ के लिए मशहूर बीजेपी की आईटी सेल इस समय वहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही बचाव नहीं कर पा रही है
-अंजलि मिश्रा
साल 2014 में आकाशवाणी पर शुरू हुआ ‘मन की बात’ एक लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम है जिसे खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होस्ट करते हैं. हर महीने के आखिरी इतवार को प्रसारित किए जाने वाले इस कार्यक्रम में पीएम मोदी, राजनीति और सरकार से जुड़े मुद्दों से इतर बातचीत करते हैं. इसे न सिर्फ उनके समर्थक और आलोचक काफी ध्यान से सुनते रहे हैं बल्कि इसमें कही गई बातें कई दिनों तक मीडिया और सोशल मीडिया पर सुर्खियों का हिस्सा बनी रहती हैं. इसका ताजा (68वां) एपिसोड बीते अगस्त की 30 तारीख को प्रसारित हुआ था. लेकिन इस बार मन की बात कार्यक्रम अपने विषय या प्रधानमंत्री के विचारों-सुझावों के चलते नहीं बल्कि किसी और ही वजह से चर्चा का विषय बना. वह वजह थी, यूट्यूब पर मन की बात कार्यक्रम के वीडियो को लाखों की संख्या में डिसलाइक किया जाना.
भारतीय जनता पार्टी के यूट्यूब चैनल से लाइव स्ट्रीम किए गए इस वीडियो पर महज 24 घंटों में सवा पांच लाख से अधिक डिसलाइक आ चुके थे. जबकि तब तक इस पर आए लाइक्स की गिनती महज 79 हजार ही थी. यहां पर चौंकाने वाली बात यह रही कि डिसलाइक्स कैंपेन से अचकचाकर बीजेपी ने अपने इस वीडियो पर लाइक और कॉमेन्ट का ऑप्शन ही कई दिनों के लिए बंद कर दिया. भाजपा के अलावा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यूट्यूब चैनल पर भी इसे अपलोड किया गया था. इस पर भी महज 13 घंटों में 40 हजार से ज्यादा डिसलाइक्स किए जा चुके थे. इन वीडियोज से जुड़ी ध्यान खींचने वाली बात यह रही कि बीच में डिसलाइक्स की गिनती हजारों की संख्या में कम भी हो गई. ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इसका पता अभी तक नहीं चल पाया है. फिलहाल, बीजेपी के चैनल पर प्रतिक्रियाओं के सभी विकल्प खोल दिए गए हैं और वहां मन की बात के वीडियो पर लगभग 12 लाख और नरेंद्र मोदी के चैनल पर दो लाख 86 हजार डिसलाइक्स देखे जा सकते हैं.
मन की बात कार्यक्रम के वीडियो पर आए डिसलाइक
मन की बात कार्यक्रम का वीडियो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ऐसा इकलौता वीडियो नहीं था जिस पर डिसलाइक्स की भरमार रही. हाल ही में वे हैदराबाद में आयोजित राष्ट्रीय पुलिस अकादमी के दीक्षांत परेड समारोह में भी वर्चुअली शामिल हुए थे. इस आयोजन के उनके वीडियो पर भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया देखी गई. भारतीय जनता पार्टी के यूट्यूब चैनल पर इस वीडियो को एक दिन पहले ही प्रीमियर कर दिया गया था. यानी जो लाइव वीडियो कुछ घंटे बाद आने वाला था, उसे लोग पहले ही शेयर कर सकते थे या उस पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते थे. यहां पर देखने वाली बात यह रही कि स्ट्रीमिंग के 13 घंटे पहले ही वीडियो पर एक हजार लाइक्स के मुकाबले 11 हजार डिसलाइक्स आ चुके थे. नतीजतन, इस वीडियो पर भी प्रतिक्रियाओं और टिप्पणियों का विकल्प बंद कर दिया गया. वीडियो जारी होने के बाद जब इसे फिर शुरू किया गया तो कुछ ही घंटों में 88 हजार डिसलाइक्स दर्ज हो चुके थे. इसके बाद से रिपोर्ट लिखे जाने तक इस वीडियो पर ये विकल्प डिसेबल ही रखे गए हैं. प्रतिक्रियाओं का यही क्रम प्रधानमंत्री के उस वीडियो पर भी रहा जिसमें वे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और राज्यों के राज्यपालों के साथ नई शिक्षा नीति पर चर्चा करते दिखाई दे रहे थे.
नरेंद्र मोदी के वीडियोज पर एकतरफा प्रतिक्रियाओं की भरमार होना कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार इनका पलड़ा उनके पक्ष में न होना ज़रूर नई और अनोखी बात है. अनोखी इसलिए कि इससे पहले सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री के लिए इस तरह की आलोचनात्मक टिप्पणियां या ट्रेंड्स पहले तो सामने आते नहीं थे और अगर ऐसा होता भी था तो भाजपा की आईटी सेल समय रहते इनमें से ज्यादातर से निपट लेती थी. लेकिन अब वह इस मामले में उतनी प्रभावी नज़र नहीं आ रही है. बीते कुछ हफ्तों से चल रहे छात्रों और युवाओं के सोशल मीडिया अभियान से जुड़ी कई बाते हैं जो इसकी तरफ इशारा करती हैं. इसे चलाने वालों में मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा (नीट और जेईई) को आगे बढ़ाने की मांग कर रहे छात्र और तमाम बेरोजगार युवा शामिल हैं. इनमें ऐसे लोग भी हैं जो किसी प्रतियोगी परीक्षा की तिथि, किसी के नतीजे या ये सब हो जाने के बाद अपने जॉइनिंग लेटर का इंतज़ार कर रहे हैं.
अगर युवाओं के इस कैंपेन को ध्यान से देखें तो यह बीजेपी की आईटी सेल को उसी की भाषा में जवाब देता दिखाई देता है. उदाहरण के लिए, पीएम मोदी के वीडियो पर आई डिसलाइक्स की यह भरमार पिछले दिनों सड़क-2 के ट्रेलर पर आए रिकॉर्ड डिसलाइक्स से प्रेरित थी. सोशल मीडिया पर सक्रिय और निष्पक्ष मौजूदगी रखने वाले कई लोगों का मानना है कि सड़क-2 के खिलाफ चला यह अभियान बीजेपी आईटी सेल का भी कारनामा था. इन लोगों का मानना था कि असली मुद्दों से ध्यान भटकाने, बिहार और महाराष्ट्र में अपने राजनीतिक हितों को साधने और ऐसा करने में कथित तौर पर भाजपा की मदद करने वालीं कंगना रनोट को मदद करने के उद्देश्य से आईटी सेल इस अभियान में शामिल थी. कैंपेन चला रहे युवा आईटी सेल से उसी के तरीके से निपटने की तैयारी में थे, इसका अंदाजा इस बात से भी लग जाता है कि जब मन की बात वाले वीडियो पर आने वाले डिसलाइक्स को बीजेपी आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय ने तुर्की से आने वाले बॉट्स बताया तो अगले वीडियो में छात्रों ने अपने शहर-कस्बों के नाम लिख भी लिख दिये. कई छात्रों ने व्यंग्य करते हुए अपने शहरों को तुर्की या कनाडा बता डाला.
पुलिस दीक्षांत कार्यक्रम के वीडियो पर आई छात्रों की टिप्पणियां
छात्रों के विरोध प्रदर्शन का अगला चरण बीजेपी आईटी सेल से आगे बढ़कर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुटकी लेता हुआ भी दिखाई दिया और यहां पर भी आईटी सेल कुछ भी करने में अक्षम ही दिखी. पांच सितंबर को युवाओं ने जहां छात्र कर्फ्यू आयोजित कर पांच बजे पांच मिनट तक थाली बजाई वहीं नौ सितंबर को वे रात 9 बजे 9 मिनट के लिए दिए जलाकर रोजगार की मांग करते दिखाई दिए. युवाओं ने सितंबर के तीसरे हफ्ते को बेरोजगार सप्ताह की तरह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन यानी 17 सितंबर को राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस की तरह मनाया. इस दिन सोशल मीडिया पर हैशटैग बेरोजगार सप्ताह और राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस के साथ लाखों की संख्या में ट्वीट किए गए. इसके जवाब में अगले दिन आईटी सेल हैशटैग राष्ट्रीय बार डांसर दिवस ट्रेंड करवाती दिखाई तो दी लेकिन तमाम लोगों ने इसे न सिर्फ गैरज़रूरी बल्कि आईटी सेल की खिसियाहट भी कहा.
आईटी सेल के बेअसर दिखने की वजहों पर गौर करें तो पहला कारण यही समझ में आता है कि इस बार उसकी भिड़ंत ऐसे युवाओं से हुई हैं, जो न सिर्फ सोशल मीडिया का हर तरह से इस्तेमाल करना जानते हैं बल्कि इस पर चलने वाले दांव-पेचों से भी भली तरह वाकिफ हैं. वे इसके लिए पीएम मोदी से ही प्रेरित होकर सृजनात्मक तरीकों का सहारा लेते हैं और बिना ज्यादा गाली-गलौज या भद्दी भाषा का प्रयोग किए आईटी सेल के हमलों का मुंहतोड़ जवाब भी देते हैं. वे अपने अभियान को राजनीतिक रंग देने की कोशिश करने वालों से भी बचते दिखते हैं. इसके अलावा, प्रधानमंत्री तक अपनी अलग-अलग मांगें पहुंचाने की कोशिश कर रहे इन युवाओं की संख्या भी लाखों में है. आईटी सेल और उसके सहयोगी समूहों को मिलाकर भी इसके सदस्यों की संख्या अधिकतम कुछ हजार ही बैठेगी. ऐसे में सेल के लिए इन युवाओं की आवाज़ को किसी जवाबी हैशटैग या ट्रोल्स के जरिये दबा पाना मुश्किल हो रहा है.
यह बात भी ध्यान देने लायक है कि रोजगार की मांग कर रहे इन युवाओं में एक बड़ी संख्या उनकी भी होगी जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट दिया था या अब तक उनका समर्थन करते रहे थे. आम तौर पर सोशल मीडिया पर आईटी सेल द्वारा चलाए जाने वाले किसी प्रोपगैंडा कैंपेन को युवा वर्ग का समर्थन भी हासिल रहा करता था जिसके चलते उनके ट्वीट या ट्रेंड्स बड़े-बड़े आंकड़े हासिल करते दिखाई पड़ते थे. लेकिन न केवल युवा इस समय आईटीसेल के प्रोपगैंडा को कम समर्थन दे रहे हैं बल्कि अन्य लोगों द्वारा उसे मिलने वाला समर्थन भी इन दिनों कम हो गया लगता है.
‘आम दिनों में, आम यूजर अपनी आंखों पर धर्म-संस्कृति की पट्टी लगाए बैठा रहता था लेकिन कोरोना त्रासदी ने उनकी आंखें कुछ हद तक खोल दी हैं. कुछ हद तक शब्द का इस्तेमाल मैं कोई अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए नहीं कर रहा हूं बल्कि लोगों में आई जागरुकता की मात्रा को देखकर कर रहा हूं. दरअसल, कई लोग इस बात से प्रभावित हुए कि उनके किसी करीबी की नौकरी गई, कई इससे कि उनका कोई जानने वाला जब कोरोना संक्रमण का शिकार हुआ तो अस्पतालों ने खून के आंसू रुला लिए, वहीं कई अपने आसपास मची बाकी अफरा-तफरी को देखकर मीडिया और सोशल मीडिया दोनों से विरक्त हो रहे हैं’ सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय और एक स्थापित मीडिया संस्थान में काम करने वाले आशीष मिश्रा आगे कहते हैं, ‘इसका फायदा ये हुआ है कि अब वे व्हाट्सएप फॉरवर्ड को क्रॉसचेक करने लगे हैं या घर के बच्चों से पूछते हैं कि यह सच है क्या. इन सब ने मिलाकर आईटी सेल की रफ्तार कम की है. मैं फिर से कहूंगा रोकी नहीं है, बस कम की है.’
इन आम लोगों में वे लोग भी शामिल हैं जिनके बच्चे सालों तैयारी करने के बाद भी प्रवेश परीक्षाओं को टालने की मांग कर रहे थे या जो परीक्षाएं पास करने के बाद भी नौकरी के बुलावे के इंतज़ार में बैठे हैं. इंदौर की मनीषा शुक्ला जो बीते दो सालों से नीट की तैयारी कर रही एक टीनएजर बेटी की मां हैं, पिछले दिनों नीट-जेईई का विरोध कर रहे बच्चों और पालकों के व्हाट्सएप ग्रुप का हिस्सा रहीं थी. वे बताती हैं कि ‘इस व्हाट्सएप ग्रुप पर मैंने कई अंध-भक्त अभिभावकों को 180 डिग्री पलटते देखा. क्योंकि बच्चे साथ ही पढ़ते हैं इसलिए इनमें से कइयों को मैं पहले से भी जानती थी. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि सूर्य को अर्घ्य देने और किसी खास मंत्र का जाप करने से कोरोना का नाश होने का दावा करने वाले ये लोग, आजकल तुर्की के बॉट्स और पेड ट्रेंड्स की बात करने लगे हैं. शायद नीट-जेईई आगे नहीं बढ़ा तो लोगों का पेशेंस खत्म हो गया क्योंकि मिडिल क्लास आदमी कुछ भी सह सकता है लेकिन अपने बच्चों पर बात आएगी तो वह बोलेगा ही.’
मनीषा शुक्ला की यह बात इन परिस्थितियों पर बिल्कुल सटीक बैठती हुई इसलिए भी लगती है क्योंकि मोदी समर्थकों में एक बड़ा हिस्सा निम्न मध्य वर्ग से आता है. इस वर्ग से आने वाले, खास कर छोटे शहरों और कस्बों के ज्यादातर लोग, ही फेसबुक और व्हाट्सएप को ज़रूरत से ज्यादा गंभीरता से लेते दिखते हैं. कहना नहीं होगा कि यही समूह प्रोपगैंडा मशीनरी का शिकार और टूल दोनों ही बनता है. यानी, आम तौर पर होता यह है कि आईटी सेल कोई झूठ रचती है जिसे उसके सदस्य व्हाट्सएप ग्रुपों में फैलातें है. इन ग्रुपों पर मिलने वाले संदेशों को यही मध्यवर्गीय तबका आगे बढ़ाता है. इस समय यह तबका, अगर सीधी तरह से प्रभावित नहीं है तो आसपास की बिगड़ी हुई परिस्थितियों को देखकर उदासीन हो गया है और अगर प्रभावित है तो जैसा कि मनीषा कहती हैं, अपने बच्चों के भविष्य को देखते हुए पहली बार सच को टटोलने की कोशिश कर रहा है.
इन आम लोगों तक सच पहुंचने और बीजेपी आईटी सेल का प्रभाव कम होने में एक छोटी भूमिका फेक-न्यूज की पोल खोलने वाली वेबसाइटों की भी मानी जा सकती है. आल्ट न्यूज, बूम लाइव और सोशल मीडिया हॉक्स स्लेयर जैसी तमाम वेबसाइटों के अलावा अब लगभग हर मीडिया ऑर्गनाइजेशन में एक फैक्ट चेकर टीम रखी जाती है. हालांकि इनकी भूमिका अभी तक सीमित ही है क्योंकि इनके द्वारा बताया गया सच सिर्फ इंटरनेट के माध्यम से ही लोगों तक पहुंच पाता है जबकि फेक न्यूज के लोगों तक पहुंचने की रफ्तार और साधन कहीं ज्यादा है. लेकिन इसके बावजूद लगातार बीजेपी आईटी सेल के झूठ पकड़े जाने की वजह से सोशल मीडिया पर मौजूद आम जनता पहले से ज्यादा जागरूक हो रही है.
इनके अलावा, कांग्रेस की आईटी सेल का अपेक्षाकृत सक्रिय हो जाना भी बीजेपी आईटी सेल के लिए थोड़ी मुश्किल बढ़ाने वाला लगता है. हालांकि कांग्रेस की आईटी सेल अभी भी संख्या और उपस्थिति में उतनी प्रभावी नहीं हो पाई है लेकिन इसकी कुछ इकाइयां हैं जो कई बार बीजेपी को मुहंतोड़ जवाब देती दिखाई देती हैं. इसमें सबसे ज्यादा चर्चित आईएनसी छत्तीसगढ़ का ट्विटर अकाउंट है. यह अकाउंट ज्यादातर मौकों पर पर कांग्रेस की उपलब्धियों का प्रचार करने का ही काम करता है लेकिन कई बार अपनी चुटीली और मारक टिप्पणियों के लिए सुर्खियों का हिस्सा भी बन चुका है. इसके अलावा भी कांग्रेस आईटी सेल अपने शीर्ष नेतृत्व पर होने वालों हमलों और रफाल या पीएम केयर्स जैसे मुद्दों को लेकर कई पॉपुलर ट्विटर ट्रेंड्स चलवाती रही है.
आम जनता और कांग्रेस से इतर भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी आजकल पार्टी की आईटी सेल से नाराज़ चल रहे हैं. हाल ही में उन्होंने ट्वीट कर आरोप लगाया था कि बीजेपी आईटी सेल धूर्तता पर उतर आया है. स्वामी का कहना था कि इसके कुछ सदस्य उनके बारे में अनाप-शनाप बातें फैला रहे हैं. यह ट्वीट करने के दो दिन बाद सुब्रमण्यम स्वामी ने एक ट्वीट और किया था जिसमें उन्होंने आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय को हटाए जाने की मांग की थी. पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को दिए गए प्रस्ताव का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘अगर मालवीय को नहीं हटाया जाता है तो मैं यह समझूंगा कि मेरा बचाव करने में पार्टी की कोई रुचि नहीं है.’ यह और बात है कि एक तरफ जहां पार्टी उनकी इस बात को कोई वरीयता देती नहीं दिखी. वहीं दूसरी तरफ वे भी, रिपोर्ट लिखे जाने तक इसके बारे में आगे कुछ और कहते या कोई बड़ी घोषणा करते नज़र नहीं आए हैं.
हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं था जब कोई बीजेपी नेता ही बीजेपी की आईटी सेल के निशाने पर आ गया हो. इससे पहले रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी इसकी ट्रोलिंग का शिकार हो चुके हैं. लेकिन सुब्रमण्यम स्वामी के मामले में विशेष यह है कि वे बीते कुछ दिनों से लगातार कई मुद्दों पर अपनी ही सरकार की आलोचना करते दिख रहे हैं. उदाहरण के लिए, पिछले दिनों उन्होंने जहां गलत आर्थिक नीतियों के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को निशाने पर लिया था. वहीं, नीट-जेईई परीक्षाओं के मसले पर भी वे छात्रों के पाले में ही खड़े दिखाई दिए थे. यहां पर यह बात भी ध्यान खींचने वाली है कि कुछ मीडिया रिपोर्टों में जिक्र किया गया है कि सुब्रमण्यम स्वामी को ट्रोल करने वाले कई ट्विटर खातों को खुद वित्तमंत्री सीतारमण भी फॉलो करती हैं. ऐसे में इस बात के कयास ही लगाए जा सकते हैं कि बीते कुछ समय से आईटी सेल के अप्रभावी होते जाने में पार्टी की अंदरूनी राजनीति का कितना हाथ है. (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसानों से संबंधित तीन कानूनों के बनने से एक केंद्रीय मंत्री हरसिमरत बादल इतनी नाराज हुईं कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया। वे अकाली दल की सदस्य हैं और पंजाब से सांसद हैं। पंजाब किसानों का गढ़ है। देश में सबसे ज्यादा फसल वहीं उगती है। कुछ पंजाबी किसान संगठनों ने इन तीनों कानूनों को किसान-विरोधी बताया है और वे इनके विरुद्ध आंदोलन चला रहे हैं। कुछ दूसरे प्रदेशों में भी विरोधी दलों ने किसानों को उकसाना शुरु कर दिया है।
वास्तव में ये तीनों कानून इसलिए बनाए गए हैं कि किसानों का ज्यादा से ज्यादा फायदा हो। पहले देश के किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए जरुरी था कि वे अपनी स्थानीय मंडियों में जाएं और आढ़तियों (दलालों) की मदद से अपना माल बेचें। अब उन पर से यह बंधन हट जाएगा। वे अपना माल सीधे बाजार में ले जाकर बेच सकते हैं। याने पूरा देश उनके लिए खुल गया है। अब वे स्थानीय मंडियों और आढ़तियों पर निर्भर नहीं रहेंगे।
उन्हें न तो अब मंडी-टैक्स देना पड़ेगा और न ही आड़तियों को दलाली ! अब उन्हें अपनी फसल की कीमतें ज्यादा मिलेंगी लेकिन फिर भी कुछ किसान इस नए प्रावधान का विरोध क्यों कर रहे हैं ? उन्हें डर है और यह डर बिल्कुल सही है। वह यह कि उनकी फसल अब औने-पौने दामों पर बिका करेंगी, क्योंकि बाजार तो बाजार है। वहां दाम अगर उठते हैं तो गिरते भी हैं लेकिन मंडियों में ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ तो मिलना ही है। किसानों के इस डर को भी कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने कल संसद में बिल्कुल दूर कर दिया है। उन्होंने साफ-साफ कहा है कि किसानों को उनकी फसल का न्यूनतम मूल्य हर हालत में मिलेगा। पंजाब में 12 लाख किसान परिवार हैं और 28000 पंजीकृत आढ़तिए हैं। इसी प्रकार हरयाणा में भी वे बड़ी संख्या में है। हरियाणा सरकार ने तो आढ़तियों पर 26 करोड़ रु. का टैक्स माफ कर दिया है। यह कानून मोटे तौर पर किसानों के लिए काफी फायदेमंद सिद्ध हो सकता है। बस, खतरा इसी बात का है कि उनकी फसलों पर देश के बड़े पूंजीपति अग्रिम कब्जा करके बाजार में बहुत महंगा न बेचने लगें। यह भी असंभव नहीं कि वे किसानों को लालच में फंसाने के लिए अग्रिम पैसा दे दें और फिर उनकी फसलों पर सस्ते में कब्जा कर लें। जरूरी यह है कि इस कानून को लागू करते समय सरकार आगा-पीछा विचार कर ले।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अभिजीत दासगुप्ता
मेरा पहला टीवी न्यूज प्रोडक्शन 9 अगस्त, 1975 का हुआ था। यह कोलकाता में आकाशवाणी-टीवी का उद्घाटन दिवस था। यह देखने योग्य समाचार थे। सरकारी प्लेटफॉर्म होने की वजह से इसकी अपनी सीमाएं थीं। लेकिन उस अवधि के दौरान मैंने करंट अफेयर्स की जो प्रस्तुतियां दीं, उस पर प्रख्यात फिल्म निर्माता-निर्देशक मृणाल सेन और प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक तपन सिन्हा ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी। उन लोगों को लगा कि मैं अपने दृष्टिकोण में कुछ ज्यादा ही बोल्ड हूं और चर्चा के विषय सारगर्भित हैं। तमाम सीमाओं के बावजूद हमने ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत किए जिन पर प्रतिक्रिया हुई और वे विचारों को झकझोरने वाले थे।
मैंने लगातार दो चुनावों में एनडीटीवी पर नया चलन शुरू करने वाला चुनाव विश्लेषण कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया। आजतक-इंडिया टुडे के लिए भी इसी किस्म के कार्यक्रम भी मैंने प्रस्तुत किए। मुझे याद है कि मैंने करण थापर को आक्रामक लेकिन चोट पहुंचाने वाला न होने वाला होने को कहा था। पीछे मुड़कर मैं देखता हूं, तो आज के ट्रेन्ड की तुलना में रुख और भाषा की दृष्टि से करण बिल्कुल जेंटलमैन थे। आखिरकार, हमने समाचार कार्यक्रम प्रस्तुत किए थे, नाटक नहीं। हमारे लिए समाचार ऐसे एफएमसीजी उत्पाद थे जो देश भर में बेचे जाने वाले हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर, धारावाहिकों और टीवी कथाओं की तरह ही आज समाचार भी असभ्य, प्रतिशोधी और क्रूर हैं।
लेकिन ऐसा क्यों है? अगर आप इसके प्रस्तोताओं से मिलें तो आप उन्हें बहुत शिष्ट और भद्र पाएंगे। तो क्या वह अभिनय करते हैं? क्या समाचारों की प्रस्तुति एक मंच है जहां मुक्तिदाता- देवात्मा की भूमिका निभानी है? व्यापक तौर पर एक खलनायक होना चाहिए जिसे ललकारा जाना, सवालों से तंग करना और किनारे कर दिए जाने की जरूरत है। असुर को दुर्गा द्वारा मारा जाना जरूरी है। देश की सुरक्षा उनके हाथों में है जबकि पुलिस तमाशबीन है। यह कितना हास्यास्पद हो सकता है... धारावाहिक पारिवारिक झगड़ों पर चलते हैं जहां लडाई- झगड़े, धोखा, कपट रणनीति का हिस्सा हैं, प्रतिशोध वह जादुई छड़ी है जो अपने अस्तित्व के लिए टीआरपी को बढ़ाता है।
क्या समाचार की भी यही रणनीति होती है? विश्वसनीय, अपक्षपाती संतुलित समाचारों को क्या हो गया? कमर्शियल समाचार- जहां पेड न्यूज प्रमुख भूमिका निभाती है, के आगमन के बाद हम इससे बेहतर क्या अपेक्षा कर सकते हैं? यह दुखद है कि देश इस तरह का कूड़ा-करकट देखता है। क्या यह इसके साक्षरता स्तर का प्रतिबिंब है?
अब सब्जी बेचने वालों को ही देखिए। वे विशिष्ट तरीके से आवाज निकालने की कला का उपयोग करते हैं ताकि घर में रह रही महिला तक उसकी आवाज पहुंच सके। यह जो समाचार बेचने वाले लोग हैं, उनके मामले में भी यही है- कि वे लोगों को बांध सकें जो उन्हें टीआरपी के प्वाइंट दिलाए। पेड न्यूज ऐसा टर्म है जिसका कभी-कभी उपयोग किया जाता है। यह अब खुला रहस्य हो गया है। मुझे संदेह होता है कि यह सिर्फ पेड न्यूज है या पेड चैनल है जो अपनी योजना के हिस्से के तौर पर हमारे उपद्रवी कोलाहल को हिलोड़ रहा है। राजनीतिज्ञ निश्चित तौर पर अपनी फसल काटेंगे, यह राजनीति का हिस्सा है। उन्हें देखा जाना है। उन्हें सुना ही जाना है। वे विवाद पैदा करते हैं। लेकिन धन के लालच में शिकार बनना, पत्रकारिता को खरीदा जाना- मेरे लिए इसे स्वीकार करना निश्चित तौर पर कठिन है। और यह सिर्फ उच्च स्तर पर ही समाप्त नहीं होता। बॉस सब दिन सही ही होता है। यह जमीन पर काम कर रहे लोगों तक भी पहुंचता है। आखिरकार, मार्केटिंग टीम सुनिश्चित करती है कि ब्रांड और प्रोडक्ट के मूल्य जमीनी स्तर पर भी दिखें।
आपको सवाल पूछने के लिए पढ़ने, रीसर्च करने की जरूरत नहीं है- आज कल आपको रास्ता बनाने, धक्का-मुक्की करने, किसी ऐसे व्यक्ति के सामने माइक्रोफोन घुसेड़ देने के लिए अपनी कोहनी का इस्तेमाल करने की क्षमता की जरूरत है जो संभव है, प्रतिक्रिया देने की जरूरत भी नहीं समझता हो। जब आप कैमरे पर बात कर रहे हों, तो आपको रिपोर्टर नहीं, कमेन्टेटर की तरह होना चाहिए... स्टूडियो एंकर की ओर से आए सवाल पर ‘आप बिल्कुल सही कह रहे हैं’ से अपनी बात शुरू करनी है। वहां जरा भी अंतर नहीं हो सकता, मगर हर चैनल एक्सक्लूसिव के तौर पर अपने टेलीकास्ट को आगे बढ़ाता रहता है!
ऐसा भी नहीं है कि पहले ‘खरीदे जाने योग्य’ रिपोर्टर नहीं होते थे, लेकिन तब उनकी संख्या नगण्य थी। ऐसे अधिकांश लोग इस पेशे में आए क्योंकि वह आसानी से ‘खरीदे जाने योग्य’ थे। पी. साईनाथ ने सब दिन व्यवस्था के खिलाफ लिखा। मैं यह यकीन नहीं कर सकता कि किसी ने उन्हें खरीदने की कोशिश नहीं की होगी। उन्हें पद्मश्री का प्रस्ताव नहीं दिया गया होगा जिसे उन्होंने ठुकरा दिया होगा?
मुझे लगता है, सत्यजीत रे के पिता सुकुमार रे को इस गिरोह का अंदाजा हो गया था और तभी उन्होंने ‘बाबूराम सपूरे’ लिखा। इसमें कुछ ऐसा वर्णन है- हैलो, बाबूराम - आपको वहां क्या मिला है? सांप? क्या आपको लगता है कि यह कोई ऐसा सांप है जिसे आप छोड़ सकते हैं? मुझे तो ऐसे सांप पसंद हैं, लेकिन एक बात बता दूं – न तो काटने और न ही फुफकारने वाले सांप मुझे पसंद हैं। मैं उन सांपों को भी छोड़ दूंगा जो फन से चोट करते हों, सनसनाहट की आवाज निकालते हों, फन तानकर खड़े हो जाते हों। जहां तक खाने की आदत बात है, मुझे वे अच्छे लगेंगे जो केवल दूधऔर भात खाते हों। मुझे भरोसा है कि आप समझ गए होंगे कि मुझे कैसे सांप चाहिए। जब आपके पास ऐसा कोई सांप हो तो बाबूराम, मुझे बताएं जिससे मैं इसके फन पर चोट कर सकूं।
सिर फोड़ने का कार्यक्रम चल रहा है। आधुनिक शब्दावली में, सुकुमार रे के बेटे ने ‘मगज़ धुलाई' या ब्रेन वाशिंगशब्द का इस्तेमाल करते हैं। हम सांप को देखने से इनकार करते हैं- जिसका दंश कभी भी आपको हमेशा के लिए चुप कर सकता है। समाज की झिझक उसी नींव को बर्बाद कर सकती है, जिस पर वह खड़ा है। (navjivan)
कोरोना महामारी की वजह से लगभग सभी राज्यों के सरकारी स्कूलों की पढ़ाई ठप हो चुकी है लेकिन दिल्ली और केरल इस मामले में अपवाद हैं
-अभय शर्मा
बीते मार्च के आखिर में कोरोना वायरस के चलते लगाए गए लॉकडाउन ने स्कूल-कॉलेजों को ठप कर दिया. बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह से इंटरनेट यानी ऑनलाइन माध्यम पर निर्भर हो गयी. बड़े-बड़े शहरों के प्राइवेट स्कूलों ने कुछ ही समय में ऑनलाइन क्लॉस लगाने का इंतजाम कर लिया. इन्हें देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों ने भी सरकारी स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन माध्यम से कराने के आदेश जारी कर दिए. अधिकांश राज्यों का यह भी कहना था कि शुरुआत में जो दिक्कतें ऑनलाइन क्लॉस लगाने में आ रही हैं, उन्हें जल्द ही दूर किया जाएगा. इसके लिए उन्होंने सरकारी स्कूलों को हर तरह की मदद देने का वादा भी किया. तब से अब तक इतना लंबा समय गुजर चुका है फिर भी जमीनी स्थिति जस की तस ही नजर आती है. कई बुनियादी समस्याएं अभी भी ज्यादातर राज्यों में पहले जैसी ही हैं. हालांकि दो राज्य - दिल्ली और केरल - ऐसे हैं जो इस मामले में अन्य राज्यों से अलग नजर आते हैं.
दिल्ली
अन्य राज्यों की तरह ही दिल्ली में करीब ढाई महीने पहले सरकार ने ऑनलाइन क्लास चलाने का आदेश जारी किया था. अध्यापकों से कहा गया कि वे हर बच्चे तक अपनी पहुंच बनाए और कोशिश करें कि पढ़ाई लगभग उसी तरह हो, जैसी महामारी न होने पर हो रही थी. नीति केवल कागजों पर ही न रह जाए, इसके लिए सरकार ने अध्यापक से लेकर प्रधानाचार्य और शिक्षा अधिकारियों तक की जवाबदेही तय की. अध्यापकों को ऑनलाइन क्लास में पढ़ाने की ट्रेनिंग भी दी गयी.
पूर्वी दिल्ली में स्थित एक सरकारी स्कूल - सर्वोदय बाल विद्यालय - के प्रधानाचार्य दिनेश शर्मा (बदला हुआ नाम) सत्याग्रह से बातचीत में बताते हैं, ‘ये पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन है. पहले हमने बच्चों का एडमिशन ऑनलाइन किया फिर अलग-अलग क्लास के बच्चों के अलग-अलग वाट्सएप ग्रुप बनाये. उन्हें हम इन्हीं ग्रुप में ऑनलाइन पढ़ाते हैं और वर्कशीट देते हैं. कुछ ऐसे भी बच्चे हैं, जो आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हैं और एंड्रॉयड फोन उनके घर में नहीं हैं, तो उनसे सम्पर्क कर उनके माता-पिता को स्कूल में बुलाते है और उन्हें वर्कशीट (होमवर्क) देते हैं.’
जब दिल्ली के स्कूलों में ऑनलाइन क्लास शुरू हुई थीं, तब कई अभिभावकों का कहना था कि उनके घर में एक ही एंड्रॉयड फोन है और कभी-कभी ऑनलाइन क्लॉस के समय फोन उनके पास होता है और वे घर पर नहीं होते, ऐसे में बच्चे की क्लास छूट जाती है. दिनेश शर्मा से जब हमने यह सवाल किया तो उनका कहना था, ‘हां, यह समस्या थी, साथ ही कई बार कुछ बच्चे इंटरनेट कनेक्टिविटी की प्रॉब्लम के चलते क्लास सही से नहीं कर पाते थे, इसका भी तरीका ढूंढा. टीचर्स क्लास में जो पढ़ाना है उसका वीडियो बनाकर ग्रुप में डालते हैं जिसे बच्चा किसी भी समय देख सकता है. कुछ टीचर वाट्सएप ग्रुप में वर्कशीट के साथ अपनी एक ऑडियो रिकॉर्डिंग भी डालते हैं जिसमें वर्कशीट में दिए गए होमवर्क को कैसे करना है यह समझाया जाता है.’
लेकिन क्या बच्चे अपना होमवर्क पूरा करके उन्हें दिखाते हैं? दिल्ली के आनंद विहार इलाके में स्थित एक सरकारी स्कूल के टीचर अखिलेश कुमार (बदला हुआ नाम) कहते हैं, ‘क्लॉस की वीडियो डालने और उस क्लॉस से संबंधित वर्कशीट देने के बाद बच्चे का काम शुरू होता है. हम हर हफ्ते बच्चे को सभी विषयों की करीब 20-22 वर्कशीट देते हैं. इनमें दिया गया होमवर्क करके बच्चे को शनिवार तक स्कूल भेजना होता है. जो बच्चे वाट्सएप ग्रुप में जुड़े हैं, वे होमवर्क की फोटो खींचकर या उसे स्कैन करके ग्रुप में ही जमा करते हैं. ऐसे लगभग 90 से 95 फीसदी तक बच्चे होमवर्क पूरा करके जमा करा देते हैं. जो माता-पिता स्कूल से हर सोमवार को वर्कशीट लेने आते हैं, उनके लिए हमने नियम बनाया है कि जब तक बच्चा पिछले हफ्ते का होमवर्क करके नहीं देगा, तब तक हम उसे अगले हफ्ते की वर्कशीट नहीं देंगे. इसके चलते जो बच्चे ऑनलाइन नहीं जुड़े हैं, उनका होमवर्क हमें सौ फीसदी तक मिल जाता है.’ अखिलेश आगे जोड़ते हैं, ‘जो लोग स्कूल से वर्कशीट ले जाते हैं उनके बच्चे ऑनलाइन क्लास या वीडियो या ऑडियो तो देख और सुन नहीं पाते हैं, तो ऐसे लोगों से हम आस-पड़ोस के बच्चे (जिसके पास एंड्रॉयड फोन हो) से संपर्क साधने को कहते हैं जो उनके बच्चे को क्लास का वीडियो दिखा सकें. टीचर अपना मोबाइल नंबर भी देते हैं जिससे बच्चे कुछ न समझ में आने पर टीचर को फोन कर लें.’
बच्चों के रिस्पॉन्स को लेकर दिल्ली के यमुना विहार के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक शिखा कन्नौजिया (बदला हुआ नाम) सत्याग्रह को बताती हैं, ‘देखिये, हम सभी अध्यापकों पर ऊपर से दबाव है. हमें बच्चों की ऑनलाइन क्लॉस में उपस्थिति से लेकर उनके रिस्पॉन्स की पूरी रिपोर्ट बनाकर प्रिंसिपल को देनी होती है. हमसे पूछा जाता है कि कितने बच्चे क्लॉस में थे, कितने बच्चों ने होमवर्क करके दिया है और जिन्होंने होमवर्क नहीं दिया तो क्यों नहीं दिया... हम होमवर्क न करने वाले बच्चे के माता-पिता को फोन तक करते हैं... हर तरह से कोशिश करते हैं कि बच्चा किसी तरह होमवर्क कर ले.’ बातचीत के दौरान शिखा जो एक बात कहती हैं उससे भी दिल्ली में इस वक्त शिक्षा की स्थिति का थोड़ा अंदाजा लग सकता है - ‘आपसे सच कहूं तो दिल्ली के सरकारी स्कूल में इस कठिन समय में भी केवल उसी बच्चे तक शिक्षा नहीं पहुंच रही होगी जिसने ठान लिया हो कि उसे पढ़ना ही नहीं है.’
दिल्ली के लिए कहा जाता है कि यहां रहने वाला हर तीसरा व्यक्ति किरायेदार है. यानी दिल्ली में ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है जो अन्य राज्यों के मूल निवासी हैं. कोविड-19 के चलते लगे लॉकडाउन के दौरान कई लोग आर्थिक तंगी की वजह से दिल्ली को छोड़कर अपने गृहराज्य चले गए. जाहिर सी बात है कि इन लोगों में से ज्यादातर के बच्चे दिल्ली के सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं. क्या ऐसे परिवारों से जुड़े बच्चों से संपर्क साधा गया था? इस सवाल के जवाब में कई अध्यापकों का कहना था कि उनकी ऐसे बच्चों से संपर्क करने की कोशिश जारी है. उन्हें विभाग को यह जानकारी भी देनी होती है कि ऐसे कितने बच्चों से संपर्क साधा जा सका है.
अखिलेश कुमार कहते हैं, ‘हमने दो रजिस्टर बनाये हैं, एक में वे छात्र हैं जो हमारे संपर्क में हैं और दूसरे में वे जो संपर्क में नहीं हैं. हमने शुरू से ही (जून-जुलाई से) अपनी स्कूल मैनेजमेंट कमेटी के हर सदस्य को 20-20 बच्चों को खोजने और स्कूल के सम्पर्क में बनाये रखने की जिम्मेदारी दे रखी है. इन लोगों ने बच्चों को खोजने के लिए काफी प्रयास किए हैं और हमें इसमें काफी सफलता भी मिली है. आज मेरे स्कूल में 1260 बच्चे में से 1050 से ज्यादा हमारे संपर्क में हैं... काफी बच्चे ऐसे हैं, जो लॉकडाउन के समय उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड जैसी जगह पर चले गए थे. इनमें से कुछ को हमने खोज निकाला और वे वहीं से ऑनलाइन क्लॉस भी ले रहे हैं.’
दिल्ली के शिक्षा विभाग की कोशिशों का बच्चों को कितना फायदा मिल रहा है, इसके लिए सत्याग्रह ने कुछ अभिभावकों से भी बातचीत की. इस दौरान उन्होंने ज्यादातर उन बातों से सहमति जताई जो सत्याग्रह को दिल्ली के शिक्षकों ने बतायी थीं. ‘बच्चों की पढ़ाई पर स्कूल की तरफ से जोर दिया जा रहा है, वर्कशीट दी जातीं है, टेस्ट भी ऑनलाइन हुए हैं. दिन भर बच्चा पढ़ाई में लगा भी रहता है, बच्चे के खाली बैठने से तो यह बहुत अच्छा है.’ उत्तर-पूर्वी दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली छात्रा के पिता विकास शर्मा इस मामले में एक अलग समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहते हैं, ‘लेकिन इससे वो फायदा फिर भी नहीं हो रहा, जो स्कूल की क्लास में बैठकर पढ़ने से बच्चे को होता है. इसमें टीचर लेक्चर देकर चले जाते हैं, बच्चे को अगर कुछ समझ में नहीं आता तो वह बार-बार तो टीचर को फोन नहीं करेगा, कोरोना के चलते साथी बच्चों से भी समस्या साझा नहीं कर सकते. आखिर में होता ये है कि वर्कशीट समझाने के लिए माता-पिता को बच्चे के साथ लगना पड़ता है क्योंकि समय पर होमवर्क जमा करना जरूरी है... मेरा मानना है कि इस सब में अभिभावकों पर बहुत बोझ बढ़ गया है.’
कई अन्य बच्चों के अभिभावकों ने भी सत्याग्रह से बातचीत में इस समस्या का जिक्र किया. एक बच्चे के पिता दुर्गा सिंह कहते हैं, ‘मेरे बच्चे के स्कूल वाले अच्छा प्रयास कर रहे हैं. लेकिन ऑनलाइन क्लास में वैसा तो नहीं हो सकता जैसा स्कूल में बैठकर पढ़ने में होता है, बच्चे को एक बार में समझने में परेशानी आती है.
लेकिन यह समस्या तो उस तरीके की ही है जो दुर्भाग्यवश इस समय पढ़ाई का सबसे अच्छा तरीका है. टीचर शिखा कनौजिया कहती हैं, ‘दिल्ली का शिक्षा विभाग इस मामले में काफी सख्त है. किसी तरह की कोताही नहीं बरती जा रही है. हमारे विभाग के डायरेक्टर और शिक्षा मंत्री (मनीष सिसोदिया) बेहद जागरूक हैं और इस ओर विशेष ध्यान दे रहे हैं. कोरोना के समय में भी वे हर दिन किसी न किसी स्कूल में दौरा करने आते हैं, अच्छा काम दिखने पर हमारी पीठ भी थपथपाते हैं. शिक्षा मंत्री खुद टीचर्स और अभिभावकों के साथ बैठक कर रहे हैं. इससे हम लोगों का उत्साह बढ़ता है.’
केरल
भारत में कोरोना महामारी के मरीज सबसे पहले केरल में ही मिले थे. फरवरी और मार्च में कोरोना के मरीजों के मामले में केरल अव्वल भी था. लेकिन मई के अंत तक केरल सरकार की सक्रियता के चलते स्थिति पलट गयी और कोरोना के मरीजों की संख्या में बड़ी गिरावट आने लगी. कोविड-19 से निपटने के लिए भारत के अन्य राज्यों को केरल से सीख लेने की सलाह दी जाने लगी. कोरोना से निपटने में वाहवाही बटोरने वाला यह राज्य, अब शिक्षा के मामले में अन्य राज्यों के सामने उदाहरण पेश करता दिख रहा है. केरल सरकार ने जिस तरह से ऑनलाइन शिक्षा शुरू की है, उसकी हर तरफ तारीफ़ हो रही है और उससे सीख लेने की बात की जा रही है.
राज्य सरकार से जुड़े अधिकारियों की मानें तो केरल सरकार को अप्रैल और मई के दौरान ही इस बात का आभास हो गया था कि कोरोना महामारी जल्द जाने वाली नहीं है. शिक्षा विभाग ने उसी समय से बच्चों की पढ़ाई को लेकर बैठकें शुरू कर दी थीं. मई से ही कई स्कूलों में वाट्सएप या ज़ूम जैसी एप के जरिये ऑनलाइन क्लास करवाई जाने लगी थीं. लेकिन, शिक्षा विभाग के कई अधिकारियों का कहना था कि अगर केवल इंटरनेट पर निर्भर हो गए तो राज्य के लाखों बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाएंगे. इसका कारण यह था कि राज्य के दूर-दराज के गांवों में ऐसे बच्चों की संख्या बहुत ज्यादा है जिनके पास कंप्यूटर या एंड्रायड फोन नहीं हैं. बताते हैं कि फिर कुछ अधिकारियों ने अध्ययन के बाद ऑनलाइन क्लास टीवी चैनल के माध्यम से करवाने की सलाह दी. इनका कहना था कि टीवी न रखने वाले अभिभावकों की संख्या, स्मार्टफोन न रखने वाले अभिभावकों की संख्या के आधे से भी कम है. अमूमन देखने में भी आता है कि किसी गांव में गिने-चुने लोग ही ऐसे होते हैं जिनके पास टीवी नहीं होता है.
अधिकारियों का मानना था कि अगर टीवी पर क्लास चलती है तो बहुत कम बच्चे ही ऐसे होगें, जो टीवी उपलब्ध न होने के चलते क्लास नहीं कर पाएंगे. और हर गांव में ऐसे बच्चों की संख्या इतनी कम होगी कि अगर इन्हें किसी जगह पर इकट्ठा करके क्लास एक साथ करवाई जाएगी तो इनके कोविड की चपेट में आने का खतरा न के बराबर ही होगा. इसके बाद सरकार ने एक सर्वेक्षण करवाया जिसमें पता लगा कि केरल में करीब 45 लाख ऐसे बच्चे हैं जिनके पास टीवी और स्मार्टफोन हैं और वे ऑनलाइन क्लास करने में सक्षम हैं. लेकिन, 2.61 लाख बच्चे ऐसे भी हैं जिनके पास न तो टीवी है, न ही स्मार्टफोन. और ऐसे बच्चे ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में ज्यादा हैं.
इस सर्वेक्षण के बाद केरल सरकार ने फैसला लिया कि एक जून 2020 से नया सत्र शुरू होगा और ऑनलाइन क्लास केरल सरकार के अपने चैनल - विक्टर्स पर चला करेंगी. इस योजना का नाम ‘फर्स्ट बेल’ रखा गया. इसके बाद से विक्टर्स चैनल पर पहली से बारहवीं कक्षा के बच्चों की ये कक्षाएं पूरे दिन आयोजित होती हैं. हर क्लास का फिक्स टाइम होता और दो क्लासों के बीच आधे घंटे का गैप दिया जाता है. हर रोज टीवी पर सभी क्लास का प्रसारण होने के बाद इनके वीडियो फेसबुक और यूट्यूब पर भी अपलोड किये जाते हैं. सरकार ने हर जिले के प्रशासन को यह आदेश दिया कि जिन बच्चों के घर में टीवी की उपलब्धता नहीं है, उन्हें आंगनबाड़ी केंद्रों और लाइब्रेरी में टीवी लगाकर क्लास करवाई जाए. कई नेताओं और स्वयंसेवी संगठनों ने भी दूर-दराज के गांवों तक टीवी पहुंचाने की मुहीम चलाई. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड में करीब 350 टीवी सेट्स दिए हैं, ताकि बच्चों को ऑनलाइन क्लास लेने में कोई दिक्कत ना आए.

केरल के एक गांव में विक्टर्स चैनल के माध्यम से क्लास करते बच्चे | फोटो : ट्विटर
केरल के पत्रकार एस रामा कृष्णा कहते हैं कि केरल सरकार ने शिक्षा के मामले में बहुत जमीनी स्तर पर काम किया है. उसने न सिर्फ सर्वेक्षण कराये, बल्कि इस पर भी काफी समय तक काम किया कि एक टीचर को क्लास किस तरह से पढानी है. वे कहते हैं, ‘अध्यापकों को काफी रिहर्सल और ट्रेनिंग के बाद ही ऑनलाइन क्लास के लिए चयनित किया गया और उनके वीडियो टीवी पर प्रसारित किये गए. सरकार यह ध्यान भी रख रही है कि क्लास होने के समय बिजली की कटौती न की जाए.’
केरल सरकार ने इस बात पर भी ध्यान दिया है कि कहीं उनका यह प्रयास एकतरफ़ा न रह जाए, यानी सरकार टीवी पर ऑनलाइन क्लास का प्रसारण करती रहे, लेकिन ऐसा न हो कि बच्चे अपना होमवर्क ही न करें. ऐसा न हो इसके लिए सरकार ने अपने टीचर्स को काम पर लगाया है. उनसे कहा गया है कि हर हफ्ते टीचर को बच्चे के घर जाना है और वह किस तरह से क्लास ले रहा है, होमवर्क कर रहा है कि नहीं ये सब देखना है. टीचर्स को माता-पिता से ऑनलाइन क्लास को लेकर फीडबैक लेने के लिए भी कहा गया है. साथ ही बच्चे पढ़ाई में होने वाली कोई भी परेशानी टीचर से फोन पर साझा कर सकते हैं. विक्टर्स चैनल पर हफ्ते में एक बार माता-पिता के लिए भी क्लास आयोजित की जाती है जिसमें उन्हें ऑनलाइन क्लास का महत्व बताया जाता है. बच्चे और अभिभावक क्लास को गंभीरता से लें, इसके लिए यह भी साफ़ तौर पर कह दिया गया है कि कोरोना के दौरान इसी तरह से क्लास चलेगीं और परीक्षाएं भी आयोजित की जाएंगी.
केरल सरकार के इस तरह के प्रयास को देखते हुए कई अन्य राज्य भी उसी की राह पर चलने का मन बना रहे हैं. बीते हफ्ते ही तेलगाना सरकार ने केरल के ऑनलाइन क्लास के मॉडल का अध्ययन करने के लिए अपने एक आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल को वहां भेजने का फैसला किया है. तेलंगाना सरकार के शिक्षा से जुड़े चैनल - टीएटी - के सीईओ आर शैलेश रेड्डी ने यह जानकारी देते हुए कहा कि ऑनलाइन कक्षाओं में माता-पिता और शिक्षकों की भागीदारी सुनिश्चित करने में केरल का अनुभव अनुकरण करने लायक लग रहा है. इसलिए हमने यह फैसला लिया है.’
अन्य राज्यों का हाल
देश के अन्य सूबों में कोरोना काल में शिक्षा व्यवस्था किस तरह से चल रही है यह जानने के लिए सत्याग्रह ने कुछ और राज्यों की स्थिति का भी जायजा लिया. देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले उत्तर प्रदेश सहित अन्य सभी राज्यों में शिक्षा की स्थिति बदहाल ही नजर आयी. यहां के पीलीभीत जिले में बेसिक शिक्षा विभाग में बतौर डिस्ट्रिक्ट कॉऑर्डिनेटर (ट्रेनिंग) तैनात डॉ दीपक जैसवार से सत्याग्रह ने कोरोना काल में सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों पर बातचीत की. ‘हमने बच्चे तक शिक्षा पहुंचाने के लिए तीन माध्यम तैयार किए हैं. इनमें पहला हर स्कूल का वाट्सएप ग्रुप, दूसरा डीडी उत्तर प्रदेश चैनल और तीसरा माध्यम दीक्षा ऐप है.’ वे आगे कहते हैं, ‘हर विद्यालय का वाट्सएप ग्रुप बनवाया गया है, इसमें उस विद्यालय के सभी अध्यापक और (जितने संभव हो सकें उतने) बच्चों को जोड़ा गया है. सभी शिक्षक इस ग्रुप के माध्यम से बच्चों को होमवर्क देते हैं, वीडियो डालते हैं, राज्य शिक्षा परिषद द्वारा तैयार किया गया स्टडी मटेरियल डालते हैं, ऐसे लिंक डालते हैं जिन पर क्लिक करके बच्चा ऑनलाइन पढ़ाई कर सकता है.’
दीपक के मुताबिक जो बच्चे वाट्सएप ग्रुप में नहीं हैं, उनके लिए डीडी उत्तर प्रदेश चैनल पर रोज सुबह नौ बजे से एक बजे तक शिक्षा से जुड़े कार्यक्रम प्रसारित किये जाते हैं. एक घंटे का कार्यक्रम रेडियो पर भी आता है. ‘बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने के तीसरे माध्यम के तौर पर अध्यापकों से केंद्र सरकार के दीक्षा ऐप को अभिभावकों के स्मार्टफोन में डाउनलोड करवाने के लिए कहा गया है. इस ऐप में प्रत्येक कक्षा का स्टडी मटेरियल मौजूद है जिससे बच्चा पढ़ाई कर सकता है’ बच्चों से रिस्पॉन्स मिल रहा है कि नहीं यह पूछने पर दीपक जैसवार का कहना था, ‘हमारे टीचर लगातार बच्चों से फोन के माध्यम से सम्पर्क में हैं, बच्चों से पूछते हैं कि उन्होंने टीवी कार्यक्रम पर दिखाया गया और वाट्सएप ग्रुप में भेजा गया, स्टडी मटेरियल देखा कि नहीं.’
दीपक जैसवार ने जो जानकारी दी, उससे लगा कि उत्तर प्रदेश में शिक्षा के मामले में सब कुछ दुरुस्त है. लेकिन जब हमने छानबीन की तो सरकार के इन प्रयासों का असर जमीन पर होता नहीं दिखा. सत्याग्रह से बातचीत में राज्य के कई शिक्षकों और अभिभावकों ने साफ़ तौर पर कहा कि केवल कागजों पर ही यहां पढ़ाई होती नजर आ रही है, जबकि हकीकत ये है कि बच्चे शिक्षा से बिलकुल दूर हो गए हैं. उत्तर प्रदेश के एक प्राथमिक विद्यालय में कार्यरत अवधेश सक्सेना (बदला हुआ नाम) सत्याग्रह को बताते हैं, ‘शासन ने वाट्सएप ग्रुप बनाने का आदेश दिया है, लेकिन इस कवायद से बच्चों को कोई फायदा नहीं हो रहा. गांवों में बच्चों के माता-पिता के पास स्मार्टफोन ही नहीं हैं, शहरों और कस्बों में फिर भी 15 से 20 फीसदी बच्चों के माता-पिता के पास स्मार्टफोन हो सकते हैं, लेकिन गांवों में मुश्किल से दो-चार फीसदी के पास ही होंगे. अब आप ही बताइये कि ऐसे में कैसे पढ़ाई हो सकती है.’
एक अन्य गांव के जूनियर स्कूल में सहायक अध्यापक अरविंद दीक्षित (बदला हुआ नाम) भी लगभग वही बातें बताते हैं, जो अवधेश सक्सेना ने बतायीं. अरविंद बताते हैं, ‘मेरे विद्यालय में 170 बच्चों में से महज सात बच्चों के माता-पिता के पास एंड्रायड मोबाइल हैं, 160 के पास साधारण मोबाइल हैं और तीन बच्चों के माता-पिता के पास मोबाइल ही नहीं है. बहुत प्रयासों के बाद 15 से 17 बच्चों को हमने वाट्सग्रुप में जोड़ लिया है. इनमें कुछ के माता-पिता का नंबर है तो कुछ बच्चों के चाचा-ताऊ का. ग्रुप में स्टडी मटेरियल डालते रहते हैं. लेकिन यह बेहद कम बच्चों के पास ही पहुंच रहा है... यह पूरी कवायद केवल एकतरफा ही है, जिन दो-चार बच्चों को स्टडी मटेरियल और वर्कशीट मिलते हैं वो भी उसे पूरा करते हैं या नहीं इसकी गारंटी नहीं है. हम बच्चे पर किस तरह से दबाव बनायें.’
अरविंद दीक्षित ने बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने का व्यक्तिगत प्रयास भी किया, लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि वे इन प्रयासों से पीछे हट गए. उनके मुताबिक ‘विद्यालय तो सभी शिक्षक रोज जाते ही हैं, इसलिए हमने सोचा क्यों न बच्चों को गांव के किसी मैदान में दूर-दूर बिठाकर पढ़ाया जाए. कई माता-पिता इसके लिए तैयार हो गए, एक-दो दिन क्लास लगाई ही थी कि अखबार में पढ़ा कि बलिया में एक शिक्षक कुछ बच्चों को बिठाकर पढ़ा रहा था तो पूरा स्टॉफ निलंबित हो गया. यह खबर पढ़कर मेरी हिम्मत टूट गई.’
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने के तीसरे माध्यम दीक्षा ऐप को लेकर कुछ शिक्षकों का कहना है कि उनसे दीक्षा ऐप बच्चों के फोन में डाउनलोड करवाने के लिए कहा गया है. लेकिन यहां भी स्मार्टफोन की ही समस्या है. डीडी उत्तर प्रदेश चैनल पर आने वाले कार्यक्रम को बच्चे देखते हैं या नहीं, इसे लेकर भी सत्याग्रह ने कुछ अध्यापकों से सवाल किया. तो अधिकांश शिक्षकों का कहना था कि उन्हें यह जानकारी नहीं है कि रोज किसी चैनल पर बच्चों की पढ़ाई से जुड़े कार्यक्रम प्रसारित होते हैं. इन लोगों का कहना था कि उन्हें यह पता है कि कभी-कभार ऐसे कार्यक्रम टीवी और रेडियो पर प्रसारित होते हैं, जब भी ये प्रसारित होते हैं उससे कुछ दिन पहले विभाग की ओर से उन्हें इनकी जानकारी दे दी जाती है.
शिक्षकों के साथ-साथ अधिकांश अभिभावकों को भी इस बात की जानकारी नहीं है कि हर रोज चार घंटे किसी चैनल पर उनके बच्चों के लिए कार्यक्रम प्रसारित किये जा रहे हैं. कुछ माता-पिता का कहना है कि सरकार वाट्सएप ग्रुप बना ले या फिर टीवी पर कार्यक्रम चलवा ले, लेकिन जब तक अध्यापक घर-घर नहीं जाएंगे, इन कोशिशों का सकारात्मक नतीजा नहीं मिलने वाला. इन लोगों के मुताबिक ऐसा इसलिए है क्योंकि जब अध्यापक बच्चे के पास आकर उससे होमवर्क का हिसाब मांगेगा तभी बच्चे पर दबाव बनेगा और तब ही वह पढ़ाई करेगा.
कोरोना काल में उत्तर प्रदेश जैसी ही समस्याएं राजस्थान में भी नजर आ रही हैं. राजस्थान सरकार ने ऑनलाइन शिक्षा के लिए स्माइल (सोशल मीडिया इंटरफेस फॉर लर्निंग एंगेजमेंट) प्रोग्राम शुरू किया है. सवाई माधोपुर में एक जूनियर स्कूल में पढ़ाने वाले रजत अग्रवाल (बदला हुआ नाम) इस प्रोग्राम पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ‘छात्रों को रोज यूट्यूब वीडियोज भेजे जाते हैं. ये वीडियोज शिक्षक ही बनाते हैं और शाला दर्पण (शिक्षा विभाग का वेबपोर्टल) पर भेजते हैं. जिन्हें स्टेट लेवल पर बैठा पैनल सलेक्ट करके राज्य भर में भेजता है. स्कूलों में हर शिक्षक के पास एक क्लास का ग्रुप होता है. ऊपर से आने वाले कॉन्टेंट को हम बच्चों को फॉरवर्ड कर देते हैं. ये सारा उपक्रम बिल्कुल किसी आम व्हाट्सएप मैसेज फॉरवर्ड की तरह होता है, बतौर शिक्षक हमारी भूमिका ही खत्म हो गई है. मैसेज भेजने के बाद हमारी जिम्मेदारी ये होती है कि हम रोजाना पांच बच्चों को फोन करके पूछें कि उन्हें जो कॉन्टेंट भेजा गया था, उसे उन्होंने देखा या नहीं. इस जानकारी को हम ऑनलाइन अपडेट भी करते हैं. इसके अलावा रेडियो और टीवी प्रोग्राम भी सरकार चला रही है. बस बुरा ये है कि इतनी सब कवायद के बाद भी ये सब बहुत कम बच्चों तक ही पहुंच पा रहा है.’
अन्य राज्यों की तरह ही झारखंड सरकार ने बीते मई में ऑनलाइन शिक्षा का आदेश जारी कर दिया था. राज्य के हर स्कूल में वाट्सएप ग्रुप बनाया गया है इसमें अध्ययन सामग्री डाली जाती है. इसके अलावा ग्रुप में रोज सुबह नौ बजे से दस बजे तक ऑनलाइन पढ़ाई होती है और जिस अभिभावक के पास स्मार्ट फोन नहीं है उनसे कहा गया है कि अपने पड़ोसी या दोस्त से एक घंटे के लिए मांग कर बच्चों को दें.
झारखंड के तोर्पा जिले में एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाली सुमन गुप्ता डॉयचे वेले से बातचीत में कहती हैं कि पूरे स्कूल में पढ़ने वाले 115 बच्चों में से अब तक कुल 20-25 बच्चे ही ऑनलाइन क्लास का हिस्सा बन पा रहे हैं. क्योंकि ज्यादातर के पास या तो फोन नहीं, या इंटरनेट की कनेक्टिविटी इतनी खराब है कि बच्चों का ऑनलाइन आ पाना ही मुश्किल है. सुमन आगे कहती हैं, ‘कभी हम ऑनलाइन आ पाते हैं तो एक या दो बच्चे ही होते हैं, सिर्फ कुछ बच्चों को पढ़ाने का क्या फायदा जब बाकी बच्चों को अलग से पढ़ाना ही पड़ेगा.’ सुमन के मुताबिक उनके गांव में ज्यादातर लोग फीचर फोन इस्तेमाल करते हैं, और जिन गिने चुने घरों में स्मार्टफोन हैं भी, तो वहां या तो पिता के साथ फोन सारा दिन घर के बाहर रहता है, या फिर बड़े भाई के हाथ में. बच्चों की क्लास के टाइम के हिसाब से फोन मिल ही नहीं पाता.
देश के अलग-अलग राज्यों के सरकारी स्कूलों में कोरोना काल के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई की स्थिति को लेकर पत्रकार राकेश मालवीय कहते हैं, ‘शिक्षा के क्षेत्र में संसाधनों और दूरदर्शिता की कमी तो पहले से ही थी, कोरोना वायरस की वजह से स्थित और भी खराब हो गई है. बीते चार महीनों के ये अनुभव बताते हैं कि सरकारों ने गांव-गांव ऑनलाइन शिक्षा का आदेश तो जारी कर दिया, लेकिन इस बात पर गौर नहीं किया कि इंटरनेट और स्मार्टफोन की सुविधा का विस्तार और लैपटॉप या टैबलेट हर छात्र को देने की व्यवस्था करने की जरूरत है.’ राकेश मालवीय बच्चों की बेहतरी के लिए काम कर रहे कुछ स्वयंसेवी संगठनों से भी जुड़े हैं. सत्याग्रह से बातचीत में वे कहते हैं, ‘बच्चों से पहले सरकार को शिक्षकों को डिजिटल शिक्षा के लिए तैयार करने की जरूरत है और उनकी ट्रेनिंग कराने की जरूरत है. डिजिटल शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम भी बदलना होगा और नए टीचिंग मटीरियल तैयार करने होंगे. इस सबके बाद ही ऑनलाइन क्लास की बात सही लगती है.’ (satyagrah.scroll.in)
डॉ. परिवेश मिश्रा ने बांटी यादें.. एक पांच पैसे के पोस्ट-कार्ड ने याद दिलाया।
एक पोस्ट-कार्ड का फोटो, इसमें क्या लिखा गया और क्या पढ़ा गया, यह कहानी तो 1960 में पोस्ट-कार्ड लिखने और पढ़े जाने के बाद खत्म हो गयी थी।
किन्तु यह पांच पैसे का पोस्ट-कार्ड उस ज़माने में लोकप्रिय जीवनशैली और जीवनमूल्यों की याद दिलाने के लिए पीछे छूट गया।
किस परिवार में आपका जन्म होता है यह फैसला आपका नहीं होता। किन्तु जीवन में किन मूल्यों को अपनाना है उसका फैसला अवश्य आपकी पसन्द का होता है.
जवाहर लाल नेहरू जी और उनकी छोटी बहन विजयलक्ष्मी पण्डित जी के पिता मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद हाईकोर्ट और देश के प्रसिद्ध और सफलतम् वकीलों में से एक थे। पिता की अकूत धन दौलत और जीवनशैली को लेकर अनेक सच्ची झूठी कहानियां प्रचारित होती रही हैं - वाट्सऐप के आने के बाद तो ढेर सारी।
जैसे : उनके कपड़े लाॅन्ड्री के लिये पेरिस भेजे जाते थे (असत्य), उनका घर आनन्द भवन इलाहाबाद का पहला घर था जिसमें बिजली आयी और पानी के लिए नल लगे थे (सच), पहला घर था जिसमें अपना एक स्विमिंग पूल था (सच), आदि आदि।
कुछ सच और भी हैं। जैसे,1904 में इलाहाबाद में पहली कार खरीदने/लाने वाले मोतीलाल नेहरू ही थे।1905 और 1909 में भी खरीदीं और उसके बाद घर में गाड़ियों की लाईन लगती रही.
1962 की गर्मियों में मेरी उम्र दस वर्ष थी। उस उम्र और उस ज़माने के अन्य बच्चों की तरह डाक टिकिटों, सिक्कों और क्रिकेट खिलाड़ियों के अलावा कारों के बारे में अपनी जानकारी पर गर्व करता था।
मोतीलाल नेहरू के इकलौते बेटे जवाहर लाल नेहरू जी को जब मैंने दिल्ली में स्टैन्डर्ड-8 कार से उतरते देखा तो वह दृश्य मेरे बाल-मन के लिये किसी ऐन्टी क्लाइमेक्स से कम नहीं था। मैं पर्यटकों के एक छोटे से झुंड का हिस्सा था जो साउथ ब्लाॅक के दरवाजे के पास उनकी एक झलक पाने के लिए खड़ा था।
आम धारणा है कि 1983 में मारूती 800 के आने से पहले भारत में केवल फिएट (पद्मिनी) और एम्बेसडर कार ही चला करती थीं। एक कम-ख्यात कार कम्पनी और थी - मद्रास की स्टैन्डर्ड मोटर कम्पनी। इसकी बनायी स्टैन्डर्ड-8 बाद मे आयी मारूती 800 जैसी ही थी और उन दिनों भारत में बिकने वाली सबसे सस्ती और छोटी कार थी। और हमारे देश के प्रधानमंत्री ने अपने उपयोग के लिये इसे चुना था।
1947 में जब आज़ादी मिली भारत की GDP शून्य थी। विदेशी मुद्रा भंडार मायनस में था क्योंकि सारी उधारी ब्रिटेन पर थी और विश्व युद्ध के बाद कंगाल ब्रिटेन ने पैसों के मामले में हाथ ऊपर उठा दिये थे। तब विदेशी मुद्रा कमाने और बचाने की आवश्यकता थी। नेहरू जी ने आत्मनिर्भरता का नारा दिया था। लोगों को अपनी बात समझाने का उनका तरीका आसान था - भाषण के स्थान पर स्वयं का आचरण सामने रखते थे। नेहरू जी ने स्वयं कभी महंगी, विदेशी, ब्रैन्डेड घड़ियों, जूतों, चश्मों और कारों का उपयोग नहीं किया। कपड़े चूंकि दिन में बार बार बदलते नहीं थे, और आमतौर पर सिर्फ सफेद खादी पहनते थे, सो उसके खर्च भी कम थे। देश की अर्थव्यवस्था सुधारना तब सबसे पहली आवश्यकता थी। आम जनता ने भी मोह संवरण करना सीख लिया था।
ये भारत के उस काल की बात है जब किफ़ायत या मितव्ययता (कम या केवल आवश्यक खर्च करने की आदत) को कंजूसी का समानार्थी शब्द नहीं माना जाता था। धन सम्पत्ति के सार्वजनिक प्रदर्शन या फिज़ूलखर्ची को फूहड़ माना जाता था।
पं. जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी जी के द्वारा राजा नरेशचन्द्र सिंह जी को लिखे अनेक ख़त गिरिविलास पैलेस सारंगढ़ में रखे हैं। इनमें से कुछ अंतर्देशीय पत्रों पर लिखे गये थे तो कुछ लिफाफों में आये थे। कुछ पत्र पोस्ट-कार्ड पर भी लिखे गये थे।
ऐसे ही एक पोस्ट-कार्ड का फोटो इस पोस्ट में है। सितम्बर 1960 में नेहरू जी की बहन विजयलक्ष्मी जी अपनी विदेश पोस्टिंग से भारत आयी हुई थीं और नई दिल्ली में थीं। यह पोस्ट-कार्ड उन्होंने प्रधानमंत्री के निवास तीनमूर्ति भवन में रहते हुए लिखा था।
मेरे जो फेसबुक मित्र स्पीड पोस्ट और कुरियर के दौर में पले बढ़े हैं उन्हें बताता चलूँ कि उन दिनों पत्र लिखने के लिए तीन सामान्य साधन मौजूद हुआ करते थे - पोस्ट-कार्ड, अंतर्देशीय (या इन-लैन्ड) और लिफाफा। तीनों प्री-पेड होते थे। पोस्ट-कार्ड का इस्तेमाल वे करते थे जिनके पास पैसों की कमी हो या वे जिनके पास लिखने के लिए मैटर कम हो।
विजयलक्ष्मी जी ने पांच पैसे वाले पोस्ट-कार्ड पर पत्र लिखा। वे उन दिनों ब्रिटेन में भारत की राजदूत (हाई कमिश्नर) थीं। वे विश्व की पहली महिला थीं जो संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा की अध्यक्ष रह चुकी थीं। वे मोतीलाल नेहरू की बेटी थीं। मैं नहीं मान सकता कि दस पैसे का अंतर्देशीय या पंद्रह पैसे का लिफाफा खरीदने की उनकी हैसियत नहीं थी। पर चूंकि उनके पास लिखने के लिए जितना मैटर था उसके लिये पोस्ट-कार्ड काफी था और पोस्ट-कार्ड लिखने में उन्हे कोई संकोच या शर्म नहीं थी, सो उन्होंने पोस्ट-कार्ड ही लिखा।
ये वो ज़माना था जब सादगी शब्द लिखने बोलने में जितना प्रयुक्त होता था उससे अधिक इसका उपयोग जीवन जीने के ढंग में होता था। सादगी जैसा ही दूसरा महत्वपूर्ण शब्द था 'सदाचरण'। उच्च पदों पर बैठे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे निजि और शासकीय खर्चों में विभेद करने की समझ रखें। आमतौर पर वे निराश नहीं करते थे (अपवाद हर काल में होते हैं)।
उन दिनों डाक टिकिट दो प्रकार के होते थे। एक तो वो जो आम जनता के लिये थे और दूसरे थे रेवेन्यू डाक टिकिट। ये दूसरे प्रकार के टिकिट सरकारी डाक में इस्तेमाल होते थे और ज़ाहिर है इनका भुगतान सरकारी कोष से होता था। सभी सरकारी विभागों और मंत्रियों के कार्यालयों से बाहर जाने वाली डाक में यही टिकिट चिपकाये जाते थे।
विजयलक्ष्मी जी ने पोस्ट-कार्ड पारिवारिक मित्र को लिखा और यह उनकी निजी डाक थी। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, उन दिनों वे प्रधानमंत्री निवास में रह रही थीं। यदि वे चाहतीं तो इसे कार्यालय के डिस्पैच सेक्शन में भेज सकती थीं। राजस्व डाक टिकिट लगे लिफाफे में यह पत्र सफर कर लेता। किन्तु उनसे ऐसी चूक संभव नहीं थी। पांच पैसे के लिये भी नहीं।
इससे कुछ साल पहले विजयलक्ष्मी जी के हाथों हुई एक अनजानी चूक के परिणाम स्वरूप भाई जवाहर लाल नेहरू के बैंक बैलेन्स की जानकारी सार्वजनिक हो गयी थी। उस घटना ने विजयलक्ष्मी जी को आर्थिक सदाचरण के प्रति अवश्य ही और भी अधिक सतर्क बनाया होगा।
यह घटना 1954 की है जब पंजाब के गवर्नर ने विजयलक्ष्मी जी को मेहमान के रूप में शिमला आमंत्रित किया। आज़ादी के बाद पंजाब का विभाजन हुआ तो भारत के हिस्से आये पूर्वी पंजाब की राजधानी शिमला बनी थी। राज्यपाल का न्योता मिला तो विजयलक्ष्मी जी ने स्वीकार कर लिया और कुछ दिन शिमला में बिता कर वापस दिल्ली आ गयीं। शिमला के सरकारी गेस्ट हाउस में वे राज्यपाल के मेहमान के रूप में रही थीं। मेहमान के बिल का भुगतान राज्यपाल के द्वारा किया जाएगा ऐसा मान कर अधिकारियों ने विजयलक्ष्मी जी के सामने बिल पेश नहीं किया था। बाद में दफ्तर के किसी तकनीकी कारण के चलते राज्यपाल की ओर से भी भुगतान नहीं आया। इस बीच श्रीमती पंडित को राजदूत नियुक्त किया गया और वे दिल्ली से लंदन चली गयीं।
लगभग साल भर बीतने पर परेशान चीफ इंजीनियर 2064 रुपये के बिल के साथ पंजाब के मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर जी के पास पहुँचे। सच्चर जी का जब दिल्ली जाना हुआ तो ये बिल साथ लेते गये और उसे नेहरू जी के सामने रख दिया। भीमसेन जी के पुत्र राजेन्द्र सच्चर (सच्चर कमेटी वाले) आगे चल कर दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बने थे। उन्होंने पिता से सुनकर अपने संस्मरण में लिखा तो दुनिया को पता चला कि बिल देखते ही नेहरू जी ने तत्काल चेक बुक निकाल ली थी। पर जब पाया कि अकाऊंट में बैलेन्स कम है तो सिर्फ एक हज़ार रुपये का चेक काटा और भीमसेन जी से विनम्रता पूर्वक कहा : अभी मैं योरोप यात्रा पर जा रहा हूं। एक साथ इतनी राशि देने की स्थिति में नही हूँ। लौट कर बाकी भी चुका दूंगा। और दो किश्तों में प्रधानमंत्री ने परिवार के निजी खर्च का भुगतान कर दिया था। विजयलक्ष्मी जी से न पूछा न उन्हें बताया।
1943 में युवराज और राज्य के शिक्षा मंत्री नरेशचन्द्र सिंह जी विवाह के बाद पत्नी के साथ कलकत्ता में छुट्टियां व्यतीत कर सारंगढ़ लौटे थे। पीछे पीछे डाक से ग्रेट ईस्टर्न होटल का जब बिल पंहुचा तो पिता राजा जवाहिर सिंह जी ने भुगतान पर यह लिख कर रोक लगा दी थी कि यह युवराज का निजी खर्च है, इसलिए इसका भुगतान वे अपने अलाऊंस में से करें, स्टेट भुगतान नहीं करेगा। नियम कानून के पक्के पिता राजा जवाहिर सिंह जी से जो सीख मिली वह नरेशचन्द्र सिंह जी की जीवनशैली का हिस्सा बन गयी।
कुछ समय में पिता की मृत्यु के बाद नरेशचन्द्र सिंह जी राजा बने और आज़ादी के बाद सत्रह वर्षों तक मध्यप्रदेश में कैबिनेट मंत्री रहे। इस हैसियत से समय समय पर राज्य में दौरे करते रहे। किन्तु सर्किट हाऊस के खाने पीने के बिल ताउम्र उन्होंने अपने निजी खाते से ही अदा किये।
-डॉ. परिवेश मिश्रा
नर्मदा घाटी परियोजना में 30 बड़े, 135 मझौले और 300 छोटे बांधों के निर्माण का सिलसिला आज भी नही थमा है
- Medha Patkar
सरदार सरोवर परियोजना से विस्थापित और प्रभावित हजारों लोगों को जो मिला है, वह निश्चित ही दुनिया की किसी अन्य परियोजनाओं में इतने बड़े पैमाने पर नहीं मिला होगा, लेकिन इसके लिए बहुत लंबा संघर्ष किया गया। शासन करने वालों से लेकर समाज के विभिन्न तबकों, बुद्धिजीवियों, श्रमजीवियों से लगातार संवाद के बाद यह संभव हो पाया। हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व बैंक के समक्ष सवाल उठाने पड़े, तब परियोजना पर पुनर्मूल्यांकन के लिये निष्पक्ष आयोग गठित किया गया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि यह परियोजना केवल गलत मार्ग अपनाकर ही पूरी की जा सकती है अन्यथा नहीं। हमें सर्वोच्च अदालत में पहली बार छह सालों तक और फिर बार-बार खड़ा होना पड़ा। न्यायालय में हर प्रकार के अनुभव हमने सही तरीके से जांचे और धरातल से जुड़े रहे जनशक्ति के साथ और युवा व महिलाओं के योगदान लगातार सच्चाई को उजागर करते रहे।
मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में हमारी ताकत थे वहां के स्थानीय नागरिक, संगठन और आदिवासी, दलित, किसान, मजदूर, मछुआरे, केवट, व्यापारी आदि। विस्थापितों की हिम्मत और जीवटता के साथ हम कार्यकर्ता डटे हैं पिछले 35 सालों से। लेकिन हम तो आज भी न चुप बैठ पा रहे हैं, ना महोत्सव से अपने अनुभवों और सफलताओं को प्रचारित करना चाह रहे हैं। इसीलिए हमारी आंखों के सामने आज भी वे चेहरे, गांव और लोग संघर्ष कतते दिख पड़ रहे हैं, जिनका अब तक पुनर्वास बाकी है।
क्या हम ऐसी कोई चीज या लाभ मांग रहे है, जो कि कानूनी या नीतिगत दायरे से बाहर हो? क्या हम कोई जोर जबरदस्ती से छीन लेना चाहते हैं, किसी लालच में आकर? क्या हमने कभी हिंसा या अवैधता को अपनाया? गांधी जी के चौरीचौरा जैसे आंदोलन की तरह भी हमें कभी माफी नहीं मांगनी पड़ी जबकि हम उन्हीं के अहिंसा के मूल्य को गले लगाके रहे। यह हमारे संघर्ष का ही नतीजा था कि वह अब तक एक और ‘जालियांवाला बाग’ की पुनरावृत्ति नहीं कर पाई। हर हालात में हमारे लोग शांति का रास्ता पकड़कर चलते रहे। गलत तो नहीं किया। इससे भी हम संतुष्ट नहीं हैं। हिंसा के विविध रूपों में से एक होता है विस्थापन। आज महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और गुजरात के 214 किलोमीटर तक फैले 40,000 हेक्टेयर के जलाशय के क्षेत्र में उसके किनारे आज भी डटे हजारों परिवारों का संघर्ष जारी है।
पिछौडी, आवल्या, कडमाल, एकलवारा जैसे निमाड (मध्यप्रदेश) के मैदानी गांवों से उखाड़कर टिन शेड्स में फेंके गए परिवारों का संघर्ष भी आज भी जारी है। महाराष्ट्र के चिमलखेड़ी गांव में घरों में भी पानी घुस आया है। मणिबेली की जीवनशाला भी डूबने की कगार पर है। आज न केवल बांध के ऊपरी, बल्कि निचले हिस्से में भी किसान और मछुआरे परेशान हैं। इनका कभी डूबग्रस्तों या विस्थापितों की सूची में नाम ही नहीं है।
पर्यावरणीय सुरक्षा कानून, 1986 के तहत दी गई मंजूरी से यह स्पष्ट था कि कई प्रभावों पर न अध्ययन हुए थे और ना ही नुकसान के बारे में बात। बांधों के कारण नर्मदा नदी का पानी निर्मल न रहने की बात पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे को भी मंजूर न थी साथ ही वह यह जातने थे कि बांधों के के निर्माण से नदी का अन्त निश्चत है।
सरसदा सरोवर बांध पर नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की तमाम रिपोर्ट खोखली साबित हुई हैं अब तक। बांध की उपयोगिता और उसके लाभ पर देश की सर्वोच्च अदालत में बहस पूरे छह साल (1994 से 2000) तक चली। अंत में न्यायाधीश भरूचा ने अक्तूबर, 2000 के बहुचर्चित फैसले में स्वतंत्र राय देते हुए कहा है, “इस परियोजना का जबकि नियोजन ही पूरा नही हुआ है, तो जरूरी है कि इसे तब तक आगे न बढ़ने दिया जाय जब तक कि विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की समिति से पूरी जांच न करवाई जाय। उसी जांच के बाद इस योजना के लाभ-हानि का पता चलेगा। लेकिन अदालत में बहुमत (2 विरुद्ध 1) का फैसला इसे अनदेखा कर चुका है।
नर्मदा घाटी परियोजना में 30 बड़े, 135 मझौले और 300 छोटे बांधों के निर्माण का सिलसिला आज भी नही थमा है। बर्गी, इंदिरासागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर के विस्थापितों का दर्द नहीं मिट पाया है ऊपर से अब नए चुटका परमाणु योजना ने बांधों से पहले से ही विस्थापितों के सिर पर एक बार फिर से विस्थापन की तलवार लटक रही है।
हमने विस्थापन का दर्द तो सहा और यह मैं दावा से कह सकती हूं कि इस बांध के लाभों के जाल में आज भी फंसे हैं तीन राज्य (राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश)। सरदार सरोवर से लाभ दिलाने का दावा झूठ सावित हुआ है। बांध पूरा होते ही 18 लाख हेक्टर्स की सिंचाई का दावा अपने आसपास भी नहीं है। इसके अलावा गुजरात को 91 और राजस्थान को 9 प्रतिशत पानी का हिस्सा आज तक नहीं मिल पाया है। यही नहीं 20,000 किमी लम्बाई की छोटी-बड़र नहरों का निर्माण बाकी रहते ही बांध को 138.68 मीटर की ऊंचाई तक पहुंचा दिया गया।
आज का सरदार सरोवर निगम के अध्यक्ष का वक्तव्य बताता है कि अभी इस बांध के लिए 50 प्रतिशत नहरों का निर्माण बाकी है। सरदार सरोवर जलाशय से एक बूंद पानी पर न मध्यप्रदेश को, ना ही महाराष्ट्र को मिला है। महाराष्ट्र की पिछली सरकार ने तो 2015 में अपने हक का आधा पानी (5 टीएमसी) गुजरात को देने का अनुबंध भी किया, जो कि नर्मदा ट्रिब्युनल के फैसले के भी खिलाफ है। जहां तक गुजरात की बात है अब तक कच्छ की नहरें भी पूरी नहीं बन पाई हैं। यही हाल सौराष्ट्र का भी है।(downtoearth)
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तौमर ने संसद को लॉकडाउन के बाद मनरेगा योजना से संबंधित जानकारी दी
- Madhumita Paul, Dayanidhi
राज्यसभा में एक सवाल पूछा गया कि क्या कोविड-19 महामारी के कारण एमजीएनआरईजीए के तहत उत्पन्न औसत व्यक्ति दिनों के रोजगार में गिरावट आई है? सवाल के जवाब में ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, ने राज्यसभा में कहा कि कमी नहीं वृद्धि हुई है। एमजीएनआरईजीए के तहत अप्रैल से अगस्त 2020 के दौरान कुल रोजगार सृजन में 52.11 फीसदी की नहीं वृद्धि हुई है, जबकि अप्रैल से अगस्त 2019 के दौरान भी इतना ही था।
10,281 किसानों ने की आत्महत्या
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के रिपोर्ट एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सूइसाइड्स इन इंडिया' (एडीएसआई) 2019 के अनुसार, आत्महत्या करने वाले किसानों / खेत में काम करने वाले मजदूर जिन्होंने आत्महत्या की उनकी संख्या 10,281 थी जो वर्ष 2019 के दौरान कुल आत्महत्या करने वाले लोगों (1,39,123) का 7.4 फीसदी है। राज्य सभा में यह कृषि और किसान कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया।
बिहार में भारी बारिश के कारण 9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फसलों को हुआ नुकसान
कृषि और किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राज्य सभा में कहा कि देश के कुछ हिस्सों में भारी बारिश के रूप में चरम मौसम की घटनाएं हुई हैं। जिसके कारण खड़ी फसलें सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं। बिहार राज्य के अधिकतर क्षेत्र इससे ज्यादातर प्रभावित हुए हैं। जहां 9,22,038.82 हेक्टेयर क्षेत्र में धान, मक्का, फल और सब्जियों का नुकसान हुआ हैं।
छह वर्षों में जैविक खेती का क्षेत्र दोगुना हो गया (2014-2020)
जैविक खेती के तहत खेती योग्य भूमि क्षेत्र 2014 में 11.83 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2020 में 29.17 लाख हेक्टेयर हो गया है। यह सरकार केंद्रित प्रयासों के कारण हुआ है। जैविक पहल की सफलता को देखते हुए, 2024 तक 20 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र में जैविक खेती करने का लक्ष्य रखा गया है। कृषि और किसान कल्याण कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राज्य सभा में कहा कि जागरूकता कार्यक्रम के तहत पर्याप्त मात्रा में फसल होने के बाद उपलब्धता, विपणन सुविधाएं, जैविक उत्पादों की प्रीमियम कीमत आदि, निश्चित रूप से किसानों को जैविक खेती करने के लिए प्रेरित करेंगे।
टिड्डे के हमले के कारण फसल का नुकसान
गुजरात, छत्तीसगढ़, पंजाब और बिहार की राज्य सरकारों ने बताया है कि उनके राज्यों में किसी भी फसल का नुकसान नहीं हुआ है। हरियाणा सरकार ने चरखी दादरी के 2388 हेक्टेयर क्षेत्र, सिरसा में 489 हेक्टेयर, रेवाड़ी में 390 हेक्टेयर, भिवानी में 1700 हेक्टेयर, रोहतक जिले के महेंद्रगढ़ में 1129 हेक्टेयर, हिसार में 373 हेक्टेयर और 52 हेक्टेयर रोहतक जिले में कुल 33 फीसदी फसल के नुकसान होने के बारे में बताया है।
मध्य प्रदेश सरकार ने दमोह जिले में 4400 हेक्टेयर में सोयाबीन की फसल में 10-15 फीसदी नुकसान की सूचना दी है।
महाराष्ट्र की राज्य सरकार ने क्षेत्र में 33 फीसदी से कम, नागपुर में 236 हेक्टेयर, भंडारा में 160 हेक्टेयर, गोंदिया में 320 हेक्टेयर और अमरावती जिलों में 89.9 हेक्टेयर में फसल के नुकसान की सूचना दी है।
उत्तराखंड राज्य सरकार ने ऊधमसिंह नगर में 251 हेक्टेयर और बागेश्वर में 14 हेक्टेयर और पिथौरागढ़ जिलों में 2 हेक्टेयर में फसल क्षति (33 फीसदी से कम) की सूचना दी है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने जून / जुलाई, 2020 के दौरान टिड्डी हमले के कारण झांसी में 481 हेक्टेयर क्षेत्र और सोनभद्र जिलों में 071 हेक्टेयर क्षेत्र में फसल क्षति (33 फीसदी से कम) की सूचना दी है, यह सब कृषि और किसान कल्याण कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राज्य सभा में बतया।
चालू वित्त वर्ष में जॉब कार्डों में 137 फीसदी की वृद्धि हुई है
इस योजना में प्रवासी श्रमिक को जॉब कार्ड धारक / परिवार के रूप में वर्गीकृत जॉब कार्ड धारक के रूप में पंजीकृत करने का कोई प्रावधान नहीं है। प्रवासी श्रमिक / परिवार द्वारा मांग के खिलाफ अधिनियम के प्रावधान के अनुसार एक प्रवासी श्रमिक / परिवार को एक जॉब कार्ड जारी किया जा सकता है। ग्रामीण विकास मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राज्य सभा में कहा कि वित्त वर्ष 2019-20 की समान अवधि के दौरान जारी किए गए 36,64,368 नए जॉब कार्ड की तुलना में अब तक जारी वित्तीय वर्ष के दौरान कुल 86,81,928 नए जॉब कार्ड जारी किए गए हैं।
टीकाकरण सेवाओं में गिरावट
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने लोकसभा में कहा कि स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली (एचएमआईएस) के अनुसार कोविड-19 महामारी के कारण पिछले साल की तुलना में अप्रैल से 20 जून तक स्वास्थ्य सुविधा और आउटरीच सत्रों में आयोजित टीकाकरण सत्रों में हेपेटाइटिस-बी के जन्म की खुराक में 19.4 फीसदी की गिरावट आई है।(downtoearth)
एक तरफ बढ़ते तापमान और हीटवेव के चलते इन जीवों की उम्र तेजी से बढ़ रही है। वहीं दूसरी तरफ इनके शरीर पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है
- Lalit Maurya
वैसे तो जलवायु परिवर्तन सभी के लिए खतरनाक है पर वो जीव जो अपने शारीरिक गतिविधियों के लिए सूर्य की गर्मी के भरोसे पर जिन्दा रहते हैं, उनके लिए यह कुछ ज्यादा ही नुकसानदेह है | हीटवेव और बढ़ते तापमान के चलते इन जीवों की उम्र तेजी से बढ़ रही है। साथ ही इसके चलते इनके शरीर पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। साथ ही इन जीवों पर हीट स्ट्रेस बढ़ रहा है।
इन जीवों में मछली, उभयचर और सरीसृप जीव शामिल हैं जो अपने शरीर के तापमान को स्वयं नियंत्रित नहीं कर सकते इसके लिए उन्हें सूर्य की के प्रकाश की मदद लेनी पड़ती है। यही वजह है कि तापमान में हो रही वृद्धि का सीधा असर उनके शरीर पर भी पड़ रहा है। तेजी से बढ़ता तापमान उनके गतिविधियों को भी प्रभावित कर रहा है। इससे पहले भी पिछले वर्षों में किए गए शोधों से यह बात सामने आई है कि वातावरण में आ रहा बदलाव इन जीवों पर भी असर डाल रहा है। एक तरफ तापमान बढ़ने के कारण इनकी विकास दर भी बढ़ रही है साथ ही इसका असर इनके जीवन काल पर भी पड़ रहा है। जिसके कारण इनका जीवन काल भी घटता जा रहा है।
इस शोध से जुड़े शोधकर्ता जर्मन ओरिजोला के अनुसार तापमान में हो रही वृद्धि उनके शरीर की सहन क्षमता से भी ज्यादा बढ़ती जा रही है। जिसका प्रभाव उनकी गतिविधियों पर पड़ रहा है। जर्नल चेंज बायोलॉजी में छपे इस शोध से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन का इन जीवों की उम्र बढ़ने की दर पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
जीवों की संतान पैदा करने की क्षमता पर भी पड़ रहा है असर
ओरिजोला ने बताया कि इन जीवों की विकास दर में वृद्धिं होने से शारीरिक असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाएगी। उदाहरण के लिए इसके चलते प्रोटीन और डीएनए को ऑक्सीडेटिव क्षति होगी। साथ ही इससे टेलोमेरेस पर भी असर पड़ेगा। टेलोमेरेस, डीएनए को सुरक्षा प्रदान करता है। जितनी तेजी से टेलोमेरेस खत्म होते हैं उतनी तेजी से कोशिकाएं खराब होती हैं और शरीर की उम्र बढ़ती है। जिसका सीधा मतलब है कि जलवायु परिवर्तन सीधे तौर पर ठन्डे रक्त वाले जीवों में उम्र की दर पर अपना असर डाल रहे हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार क्लाइमेट चेंज के चलते जिस तेजी से जीवों की उम्र बढ़ रही है उसका इन जीवों की आबादी पर गंभीर प्रभाव हो सकता है। जैसे-जैसे जीवन प्रत्याशा घटती है, उसके साथ ही उनके संतान पैदा करने की क्षमता पर भी असर पड़ रहा है।
ऊपर से बाढ़, सूखा, बीमारियां और हीटवेव जैसी आपदाओं के चलते इन जीवों के उबरने की क्षमता पर असर पड़ रहा है। इसके साथ ही इन जीवों पर पड़ने वाला असर इनसे जुड़े अन्य जीवों पर भी असर डालेगा।
शोधकर्ताओं का मानना है कि इस बारे में बहुत ही सीमित खोज की गई है। उनके अनुसार इसके बारे में बेहतर समझ ने केवल जीवों पर क्लाइमेट चेंज के बढ़ते असर से निपटने में मददगार हो सकती है, साथ ही यह जानकारी इन जीवों के संरक्षण और प्रबंधन से जुड़ी बेहतर नीतियों के निर्माण में योगदान कर सकती हैं।
उदाहरण के लिए यदि मछलियों को ले लीजिये जिन्हें वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए पकड़ा जा रहा है, तब यह समझना जरुरी हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन इन जीवों की उम्र पर असर डाल रहा है ऐसे में इन्हें पकड़ने की दर को इनकी जनसंख्या के आधार पर तय किया जा सकता है। वहीं दूसरी तरफ जो प्रजातियां पहले ही खतरे में हैं उनपर उम्र घटने के कारण खतरा और बढ़ जाएगा, ऐसे में उनके संरक्षण के लिए सही समय पर कार्रवाई की जा सकती है। जबकि जिन जीवों के आवास पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ रहा है उन्हें वहां से अलग जगह पर भेजा जा सकता है।(downtoearth)
-दुनू राय
हाल में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर दिल्ली में झुग्गी बस्तियों के 48 हजार परिवारों को अपनी जमीन से हटाने की रेलवे की पहल पर सरकार ने रोक लगाने की कोशिश की है। दिल्ली और देशभर में खलबली मचाने और गरीबों के आशियानों और रोजगार पर चोट करने वाला यह मुद्दा कोई पहली बार नहीं उठा है। क्याआ है, अदालत के इस निर्देश की पृष्ठभूमि? प्रस्तु त है, इस विषय की पड़ताल करता दुनू राय का यह लेख। -संपादक
दिल्ली में रेलवे के इर्द-गिर्द बसे 48,000 परिवारों को बेदखल करने के सुप्रीमकोर्ट के फैसले ने तमाम लोगों को भयभीत कर दिया है। इन परिवारों का ‘दोष’ यह है कि उनकी वजह से रेलवे की ‘सुरक्षा’ को खतरा है। इस कानूनी पेंच को समझना जरूरी है।
फैसले की जड़ में एमसी मेहता की 1985 की वह याचिका है जिसमें गंगा प्रदूषण के बहाने कानपुर के चमड़ा उद्योग पर निशाना साधा गया था। उस समय अदालत में 35 वकीलों ने नगरपालिका, प्रशासन और 43 कारखानों की नुमाइंदगी की थी। हाल की सुनवाई में 417 वकीलों ने नियंत्रक, रेलवे, कचरा प्रबंधक, वायु-शुद्धि कम्पनी, मानक निर्माता और 12 ताप-विद्युत गृहों का पक्ष लिया।
गंगा प्रदूषण से बस्ती उजाडऩे तक का सफर कानून की चाल पर प्रकाश डालता है। 31 अगस्तु के मामले में ‘इनवायरनमेंट पॉल्यू शन (प्रिवेंशन एण्डा कन्ट्रोल) अथॅारिटी’ (ईपीसीए) ने सुझाया था कि रेलवे का कचरा उसे बीनने वालों को ही दे देना चाहिए, लेकिन फैसले में अदालत ने बीनने वाले को ही उजाड़ दिया! जब रेलवे खुद कहती है कि उसकी सुरक्षा खर्च पर निर्भर है, तब अदालत की निगाह इस पर क्यों नहीं जाती?
अदालत का यह कोई पहला निर्देश नहीं है। मेहता द्वारा दाखिल कई याचिकाओं के सहारे अदालत ने पहले दिल्लीक की 168 ज़हरीली फैक्टरियों को बंद किया था, फिर 75,000 और फैक्टरियों को भी अनियमित करार दिया था। डीजल बंद करवाया था और उसके तुरंत बाद 10,000 डीज़ल बसों की जगह 4,000 सीएनजी बसों पर ठप्पा लगा दिया था। पड़ोस के अरावली पर्वत की खदानों को सील किया तो भाटी माईन्सी की दो बस्तियों को उजाड़ दिया था। एक तरफ कोही को बचाने का हुक्म दिया, तो दूसरी तरफ वहां के 21 गावों में बेदखली का डर बसा दिया।
वर्ष 1996 में अलमित्रा पटेल के कचरा ना उठाने के मामले में अदालत ने पहले नगरपालिकाओं को फटकारा, फिर कहा कि ‘सबसे ज़्यादा प्रदूषण बस्तियों से है इसलिए उनको उठा देना चाहिए।’ उस पर टिप्पणी की गई कि ‘सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण करने वाले को मुफ्त पुर्नवास देना पाकेटमार को ईनाम देना है।’ ऐसे फैसले गऱीबों को प्रताडि़त करने में खूब काम आते हैं।
फैक्टरी मालिकों के समूह ने दिल्ली उच्च-न्यायालय में 1994 में कहा था कि ओखला में बहुत भीड़ है, सुविधाओं की कमी है। वर्ष 2002 में बर्तन निर्माताओं के समूह ने भी यही शिकायत वजीरपुर के बारे में की थी। अदालत ने दोनों को साथ मिला कर फैसला सुना दिया, ‘सरकार की जिम्मेदारी है आवास देना,’ लेकिन ‘हम झुग्गियों का पुनर्वास करने की नीति को ही खारिज कर देते हैं।’
उसी समय दिल्ली उच्च-न्यायालय की एक और पीठ झुग्गी उजाडऩे के खिलाफ 36 याचिकाएं सुन रही थी, लेकिन गरीबों की बात सुनने की जगह अदालत ने फरमान सुनाया, ‘फरवरी 1997 के बाद बनी सभी झुग्गियों को उजाड़ दिया जाये।’ बाद में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील करके दिल्ली अदालत के फैसले को रुकवा लिया था।
दिल्ली अदालत को इसकी खबर मिली तो उसने अपनी मजऱ्ी से झुग्गियों के खिलाफ यमुना को गंदा करने का मुकदमा दायर कर दिया। उनके सामने एक अध्ययन रखा गया कि पुश्ता से जो नालियां यमुना में मिल रही हैं उनमें पूरे प्रदूषण का केवल 0.08 फीसदी हिस्सा है, लेकिन हुक्म आया, ‘पुश्ता और खादर में जितनी भी इमारतें, झुग्गियां, धर्मस्थल हैं उनको तुरंत हटा दिया जाये।‘ वर्ष 2002 में पुश्ता से 60,000 गरीब परिवारों को उजाड़ दिया गया, जबकि खादर पर अमीरों के 23 अतिक्रमणों को किसी ने, कभी छुआ तक नहीं।
इसी तरह नागला माछी गांव पर, उनकी भैंसों की वजह से रिंग रोड पर गंदगी फैलाने और गाडिय़ों का जाम लगाने का दोष मढक़र अदालत ने निकालने का आर्डर दे दिया। सुरक्षा, प्राकृतिक-बचाव, प्रदूषण, भीड़, कचरा, ढोर, गन्दगी, ज़मीन-विषय कुछ भी हो, घुमा-फिराकर आखिर डंडा गरीबों पर ही पड़ता रहा है।
इस सबकी आड़ में यह बात छुपी है कि कानून के मुताबिक स्लम वो जगह है, जो रहने के लिए योग्य नहीं है; जो जर्जर और घनी है; जिसमें हवा, सडक़, रौशनी, सफाई की कमी है; जो ‘सुरक्षा, स्वास्थ्य और नैतिकता के लिए हानिकारक हैं।’ ‘दिल्ली विकास प्राधिकरण’ 60 वर्षों में गरीबों के लिए एक-तिहाई मकान बना पायी है। सरकार को मालूम है, इसीलिए पुनर्वास नीति है-घर तोड़ेंगे, तो दूसरा घर देंगे।
अब जमीन महँगी होती जा रही है और ‘अयोग्य’ जमीन गरीबों से छीनकर अमीरों को देना कुछ अटपटा सा है। इसलिए समाज में यह विश्वास फैलाया जा रहा है कि झुग्गी बाकी शहर की ‘सुरक्षा, स्वास्थ्य और नैतिकता के लिए हानिकारक हैं।’ जब तक अदालत और सरकार के इस दांव-पेंच को ईमानदार जनता, जन-प्रतिनिधि और मीडिया चुनौती नहीं देंगे, तब तक रोज़ी और रोटी से बेदखली का यह सिलसिला चलता रहेगा। (सप्रेस)
सामाजिक कार्यकर्ता और शोधकर्मी दुनू राय फिलहाल हॅजार्ड सेंटर दिल्ली से जुड़े हैं।
-राजेन्द्र चौधरी
तीस जनवरी को केरल में पहले मरीज की पहचान होने के बाद कोरोना वायरस से फैली कोविड-19 बीमारी को अब तक लंबा वक्त और अनुभव गुजर गए हैं। करीब साढ़े सात महीने के दुखद दौर के बाद भी कई लोग इसे महामारी तो दूर, सामान्य बीमारी तक मानने से इंकार कर रहे हैं। प्रस्तुत है, ऐसे लोगों के सवालों और जबाव पर आधारित राजेन्द्र चौधरी का यह लेख। -संपादक
देश-दुनिया में कोरोना से पीडि़तों की संख्या के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं और कई विशेषज्ञों के अनुसार कोरोना से पीडि़तों की संख्या वास्तव में इससे काफी अधिक है। दूसरी ओर कई लोग यह भी मानते हैं कि ये आंकड़े झूठे हैं, कि एक साजिश के तहत कोरोना के पीडि़तों की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पूछने पर कि ये बीमारी तो पूरे विश्व में फ़ैली है, क्या पूरी दुनिया की सरकारें झूठ बोल रही हैं, तो पट से जवाब आया कि ‘आप नहीं जानते, ये साजिश करने वाली कम्पनियां कितनी खतरनाक हैं और पूरी दुनिया की सरकारें आज कम्पनियों के शिकंजें में ही तो हैं।’
मैंने फिर कहा कि हमारे-आप के अड़ौस-पड़ौस में जो लोग बीमार हैं और मर रहे हैं, क्या वह भी झूठ है, तो जवाब था कि ‘सब पैसे का खेल है। लूटने की साजिश है। वरना दो दिन पहले संक्रमित पाया गया व्यक्ति दो दिन बाद कैसे ठीक हो जाता है। जहाँ तक मरने की बात है, व्यक्ति किसी भी बीमारी से मरे, अब उसे कोरोना के खाते में जोड़ दिया जाता है। कोरोना तो मौसमी सर्दी-ज़ुकाम जैसी बीमारी है, पर इसके चक्कर में साजिशन अर्थव्यवस्था और आम आदमी को तबाह करके रख दिया है।’ मैंने कहा कि मौसमी सर्दी-ज़ुकाम से तो कोई मरता नहीं सुना और यहाँ इंग्लैंड का प्रधानमंत्री मरते-मरते बचा है, अमित शाह को कितने दिन अस्पताल में रहना पड़ा है और उत्तंरप्रदेश में तो कई मंत्री मर भी गए हैं, तत्काशल जवाब आया कि ‘जब अमित शाह और अमिताभ बच्चन जैसे लोग, जिनके पास बचाव की हर तरह की सुविधा है, जब वो इसकी चपेट में आने से नहीं बच पाए, तो फिर हम किस खेत की मूली हैं।’ उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अहतियात बरतने से कोरोना के ‘आईसीयू’ में काम करने वाले स्वास्थ्य-कर्मी भी कोरोना से बच जाते हैं। इस तरह के कई और तर्क भी दिए गए, मसलन-यूरोप के लिए ये बीमारी बेशक घातक रही हो, पर भारत में तो इससे बहुत कम मौतें हो रही हैं आदि।
जब कोरोना को झूठ-मूठ खड़ा किया हुआ हउआ ही माना जाता हो, तो सावधानी बरतने की तो कोई संभावना ही नहीं है। चालान से बचने के लिए एक परत का एक मास्क मुंह पर बांध लिया जाता है, पर आम तौर पर नाक इससे बाहर ही रहती है। यह सही है कि लगभग 80 फीसदी मामलों में कोरोना मौसमी सर्दी-ज़ुकाम सरीखा ही है, पर शेष 20 फीसदी मामलों का क्या? ये भी ठीक है कि कोरोना के अलावा भी बीमारियाँ हैं जिनसे हर साल लाखों लोग मरते हैं, पर वो बीमारियाँ तो पहले से हैं और कोरोना से होने वाली मौतें, बीमारियाँ तो उनके अलावा हैं। ये ठीक है कि कोई भी जांच 100 फीसदी सही नहीं होती, पर सरकारें तो आमतौर पर कटु सच्चाई को दबाती हैं न कि बढ़ा-चढ़ाकर कहती हैं। विशेष तौर पर अब, जब तालाबंदी खुल चुकी है और अर्थव्यवस्था को बहाल करने का दबाव भी है, तो फिर सरकार क्यों कोरोना के मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगी? और दूसरी ओर कोरोना के बीच परीक्षा कराकर लोगों को नाराज़ करेगी?
ये मान सकते हैं कि कोरोना की जांच एवं इलाज में लगी कम्पनियों को कोरोना को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने का लालच हो सकता है, पर हवाई यात्रा, होटल, सिनेमा उद्योग जैसे क्षेत्रों में दुनिया की कितनी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां लगी हैं जो कोरोना के ‘तथा कथित हउए’ के चलते बंद होने की कगार पर हैं। वे इस झूठी साजिश का पर्दाफाश क्यों नहीं करतीं? आम आदमी के पास भले ही ऐसा करने के संसाधन न हों, पर इन कम्पनियों के पास तो इस साजिश का भांडा फोडऩे के पर्याप्त साधन होंगे। हाँ, यह भी हो सकता है कि हाल में कोरोना के मामलों में हुई वृद्धि जाँच में आई तेज़ी का परिणाम हों, पर इससे यह तो साबित नहीं होता कि कोरोना झूठा हुआ है।
यह भी सही है कि न केवल भारत, अपितु एशिया के अनेकों देशों में कोरोना से यूरोप और अमरीका के मुकाबले कम अनुपात में मौतें हुई हैं, पर यूरोप से कम घातक होने में और कोरोना के घातक न होने में तो दिन-रात का फर्क है। वास्तव में विस्तार से चर्चा करने पर अंत में पता चलता है कि ये लोग सरकार की कोरोना नियंत्रित करने की नीति से परेशान हैं। एकाएक, बिना पूर्व तैयारी के तालाबंदी निश्चित तौर पर गलत थी और इसलिए तालाबंदी से पर्याप्त लाभ भी नहीं हुआ, पर सरकारी नीति की कमियों के चलते यह कहना कि कोरोना झूठ-मूठ का हउआ है, गलत है। निम्नलिखित तथ्यों का घालमेल नहीं होना चाहिए- कि सरकार की कोरोना नीति सही नहीं है, कि कोरोना सब मामलों में घातक नहीं है, बल्कि कई मामलों में साधारण ज़ुकाम सरीखा है, कि कोरोना भारत में उतना घातक नहीं है जितना यूरोप और अमरीका में या कि कोरोना के बारे में अलग-अलग विशेषज्ञ अलग-अलग बातें कह रहे हैं, कि कोरोना के वायरस को जानबूझ कर छोड़ा गया है इत्यादि। इन बातों का घालमेल इसलिए नहीं होना चाहिए क्योंकि इनके निहितार्थ अलग-अलग हैं।
निश्चित तौर पर कोरोना एक झूठ-मूठ का हउआ नहीं है। सावधानी न बरती गई, तो ऐसा भी समय आ सकता है, और दिल्ली व मुंबई में आया भी था, कि जब अस्पताल में दाखिले के लिए बिस्तर ही न मिलें। इसलिए अपनी एवं दूसरों की सुरक्षा के लिए हमें पर्याप्त सावधानी बरतनी ही चाहिए। ठीक तरीके के मास्क-जो कम-से-कम तीन परत का हो, जिसके आर-पार बल्ब का प्रकाश न आ सके और जो मुंह और नाक को पूरी तरह ढकता हो, को ठीक तरीके से पहनना और उतारना जरूरी है।
कई बार खाने-पीने के लिए मास्क उतार कर फिर पहनते हैं तो यह ध्यान रहे कि अंदर और बाहर की दिशा बदल न जाए वरना मास्क पहनने से फायदे की बजाय नुकसान हो जाएगा। दुपट्टे या अंगोछे से चेहरा ढकने से अन्दर-बाहर की दिशा का अंतर करना संभव नहीं होता इसलिए ऐसा करने के बजाए मास्क का ही प्रयोग करें। मास्क के बाहर वाले हिस्से को छूने से बचें। उतारे हुए मास्क को ऐसे ही जेब में न डाल लें या इधर-उधर रख दें। केवल लोक-दिखावे के लिए सेनिटाईजऱ की एक बूँद मात्र का प्रयोग न करके हाथ को अच्छे से साफ करें। जहाँ तक संभव है, भीड़-भाड वाली जगह और अनजान लोगों के नजदीकी संपर्क में आने से बचना चाहिए। कोरोना से निपटने में सरकारी नीति की आलोचना अपनी जगह है और वह जरूर की जानी चाहिए, पर इसके चलते कोरोना के खतरे को नजरंदाज नहीं करना चाहिए। (सप्रेस)
श्री राजेन्द्र चौधरी महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक (हरियाणा) से सेवानिवृत्ती प्रोफेसर हैं।
-अमित कोहली
संसद के मौजूदा सत्र में किसानों और किसानी को प्रभावित करने वाले उन तीन विवादास्पद अध्यादेशों के कानून बनने की संभावना है जिन्हें केन्द्र सरकार ने अभी जून में लागू करके देशभर के किसान संगठनों के बीच बवाल खड़ा कर दिया था। सवाल है कि ऐसे स्पष्ट किसान विरोधी कानूनों को लेकर कोई देशव्यापी आंदोलन क्यों खड़ा नहीं होता? क्या हैं, किसान आंदोलनों के अडंगे? प्रस्तुदत है, तीन चर्चित अध्यादेशों के बरक्स किसान आंदोलन को लेकर अमित कोहली का यह लेख।-संपादक
केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने जून 2020 में कृषि से संबंधित तीन अध्यादेश पारित किए थे- ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य’ (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश-2020,’ ‘किसानों (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) का मूल्या आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं अध्यादेश-2020’ और ‘आवश्यक वस्तुत (संशोधन) अध्यादेश-2020।’ ये तीनों ही अध्यादेश कोविड-19 जैसी अभूतपूर्व आपदा में जारी तालाबंदी के दौरान लाए गए थे और संसद के मौजूदा मानसून सत्र में इन अध्यादेशों पर चर्चा होने और इन्हें कानून की शक्ल दिए जाने की उम्मीद है।
भारत में किसान अपने उत्पादों को ‘कृषि उपज मंडी’ में लाइसेंसधारी व्यापारियों को ही बेच सकते हैं। देखा जा रहा है कि इन मंडियों में व्यापारियों की संख्या कम होती जा रही है, जिससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं हो पाती, नतीजतन किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है। कानून किसान अपने उत्पाद को बाहर खुले में नहीं बेच सकते थे इसलिए मजबूरन वो मंडी के व्यापारियों के मोहताज बन जाते थे। ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य’ (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश-2020’ किसानों को आजादी देता है कि वे अपने उत्पाद को कहीं भी बेच सकें- वे सीधे खेत-खलिहान या फिर गोदामों और शीतगृहों से अपने उत्पााद बेच सकते हैं। वे अपना माल ले जाकर किसी कारखाने को भी बेच सकते हैं। किसान और व्यापारी अपने माल को अन्य राज्यों में भी ले जाकर बेच सकेंगे और व्यापारी खुद खेतों व गोदामों तक जाकर कृषि उत्पाद खरीद सकेंगे। यह अध्यादेश कृषि उपज की ऑनलाइन खरीदी-बिक्री को भी मान्यता देता है और राज्य सरकारों को किसानों, व्यापारियों और इलेक्ट्रॉनिक व्यापार प्लेटफार्मों से किसी भी तरह के लेवी, मंडी शुल्क या सेस लेने से भी रोकता है।
केन्द्र सरकार ने दावा किया है कि यह किसानों, व्यापारियों और आम उपभोक्ता ओं को कृषि उत्पाद बेचने, खरीदने, भंडारण और परिवहन करने जैसी आवश्यक गतिविधियों में आ रही अड़चनों को दूर करने के लिए व्यापक लोकहित में उठाए गए समीचीन कदम हैं। इसके जरिए किसानों को बेहतर मूल्य मिलेगा, ‘कृषि उपज मंडी समितियों’ का एकाधिकार खत्म होगा एवं व्यापारियों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा। सरकार का कहना है कि इससे कृषि उत्पादों की खरीदी-बिक्री में कुशलता, पारदर्शिता और बाधा-रहित व्यापार को प्रोत्साहन मिलेगा। सरकार के मुताबिक तीनों अध्यादेश किसान और व्यापारियों के हित में, उन्हें अपना माल खरीदने-बेचने की आज़ादी देते हैं। अनुमान लगाया जा रहा है कि सरकार कृषि उत्पादों की स्वतंत्र खरीदी-बिक्री सुनिश्चित करने के लिए ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) की व्यवस्था भी खत्म करने जा रही है।
‘किसानों (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) का मूल्य‘ आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं अध्याकदेश-2020’ के तहत किसान किसी व्यक्ति, सहकारी संस्था, कम्पनी आदि के साथ अपनी उपज को बेचने का अग्रिम करार, यानी फसल कटने से पहले ही उसे बेचने के लिए किया गया समझौता, कर सकते हैं। इस करार में उत्पाद की कीमत परस्पर सहमति से तय किए जाने की छूट है। करार के तहत किसान को मिलने वाली रकम, उसके द्वारा बैंक या किसी सरकारी योजना से लिए गए कर्ज से लिंक कर दी जाएगी।
मतलब, उपज के दाम मिलने पर पहले कर्जा चुकाया जाएगा, बची हुई रकम किसान के खाते में आएगी। कृषि उत्पाद की खरीद-बिक्री को नियंत्रित करने वाले राज्य सरकारों के कानून इस करार पर लागू नहीं होंगे। ‘आवश्य्क वस्तुफ (संशोधन) अध्यादेश-2020’ में भी जून 2020 में संशोधन किया गया है। इसके तहत अनाज, दालें, खाद्य तेल और चीनी को आवश्यक वस्तु के दायरे से बाहर कर दिया गया है। यानी अब इनका असीमित संग्रहण, भंडारण और परिवहन किया जा सकता है। जाहिर है कि ये तीनों अध्यादेश कृषि उपज को खुले बाजार के हवाले कर रहे हैं। किसान से अपेक्षा की जा रही है कि वो व्यापारियों, कम्पनियों, सहकारी समितियों से सौदेबाजी करके अपनी उपज का लाभप्रद मूल्य वसूल करे। आजादी के बाद से कृषि को मिले सरकारी संरक्षण का यह खात्मा है।
कृषि उपज के दाम नियंत्रित करना दुधारी तलवार है। उपज के दाम कम हों तो किसान संकट में आ जाता है और अगर किसान को उपज का पूरा दाम दे दिया जाए, मंहगाई अनियंत्रित हो सकती है। कृषि उत्पाद अन्य कई उद्योगों के लिए कच्चा माल होते हैं इसलिए आमतौर पर विश्व के अधिकांश मुल्कों की सरकारें अपने किसानों के हितों का संरक्षण करने के लिए, कृषि उपज के बाज़ार भाव को नियंत्रित करने के लिए, जमाखोरी और मुनाफाखोरी रोकने के लिए विशिष्ट प्रावधान करती हैं। हम जानते हैं कि 1990 के दशक में विदर्भ, तेलंगाना और फिर पंजाब में किसानों की आत्महत्या की खबरों ने देश को झकोरना शुरू किया था। उसके बाद से किसानों के हालात बदतर होते जा रहे हैं, लेकिन विरोध में कोई व्यापक आंदोलन जमीन पर नजर नहीं आता। इस विडम्बना की पड़ताल की जानी चाहिए।
पहली बात तो यह कि ‘किसान’ अपने आप में कोई एक समूह या वर्ग नहीं हैं। किसान जाति, जोत, वर्ग और राजनीतिक प्रतिबद्धता (यानी ‘वोट बैंक’) के रूप में न केवल बँटे हुए हैं, बल्कि परस्पर संघर्ष करते भी नजर आते हैं। इससे जुड़ा दूसरा पहलू किसानों की हैसियत का है। समाजशास्री एमएन श्रीनिवासन का विश्लेषण बताता है कि 1960-70 के दशक में जो ‘हरित क्रान्ति’ हुई थी, उसका लाभ देश के विभिन्न इलाकों में कुछ जातियों ने उठाया था। ये जाति समूह वर्ण-व्यवस्था में भले ही तथाकथित निचली और मध्यम पायदानों पर अवस्थित हों, लेकिन ‘हरित क्रान्ति’ का लाभ उठाकर उन्होंने अपनी न सिर्फ आर्थिक, बल्कि समाजिक और राजनैतिक हैसियत भी बढ़ाई और इसीलिए श्रीनिवासन इन्हें ‘प्रभुत्वशाली जाति’ (डॉमिनेन्ट कास्ट) कहते हैं। इनके राजनीतिक-आर्थिक हित हाशिए के उन किसानों से बेहद अलग, कुछ अर्थों में प्रतिकूल हैं, जो कम जोत की खेती करते हैं, कृषि आधारित अन्य दस्तकारी करते हैं या फिर कृषि मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं। देश में संसदीय और गैर-संसदीय दोनों तरह के राजनीतिक संगठन जब भी किसानों की बात करते हैं तब आमतौर पर वे किसानों के ‘सोपानबद्ध’ और परस्पर विरोधी समूहों में से किसी एक वर्ग की बात कर रहे होते हैं। परिणामस्वरूप किसानों की समस्याएँ गम्भीर और व्यापक होते हुए भी देश के राजनीतिक पटल पर कोई गम्भीर और व्यापक ‘किसान आन्दोलन’ नजऱ नहीं आता।
इसके बाद, अगली समस्या नेतृत्व और उसकी समझ की है। आजाद भारत के इतिहास में किसान नेता के रुप में हम 5-7 नामों की गिनती कर सकते हैं, जिनका काम और असर अधिकांशत: किसी भौगोलिक क्षेत्र या सामाजिक वर्ग तक ही सीमित रहा है। किसान नेतृत्व ऐसा राष्ट्रीय स्वरूप नहीं ले सका है जिसके साथ तमाम इलाकों और वर्गों के किसान लामबंद हो सकें। नेतृत्व से यहाँ यह आशय नहीं है कि कोई एक व्यक्ति ही हो, सामूहिक नेतृत्व की शक्ल में भी कोई आवाज सुनाई नहीं देती। विविध क्षेत्रीय आंदोलनों को जोडऩे और आपसी साझेदारी बनाने के प्रयासों की सीमा है। गणित के विपरीत राजनीति में भिन्न टुकड़ों को जोडऩे पर टुकड़ों का समूह बनता है, पूर्णांक नहीं बनता।
इसलिए मसला किसान आंदोलन की समझ का भी है। 1980 के दशक में देशभर में बड़े बांध, औद्यौगिक मछलीपालन, विस्थापन आदि के खिलाफ और वनोपज पर जनजातियों के अधिकार जैसे जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दों पर, मुद्दा आधारित क्षेत्रीय आंदोलन चल रहे थे। ये तमाम आन्दोलन 1990 के दशक के अंत तक धीरे-धीरे कमजोर होते गए और बीसवीं सदी के अंत तक पर्यावरण और आमजन को इनसे जो हासिल होना था, वह हो चुका था। इसके बाद से ये आंदोलन लगभग निष्प्रभावी हो गए हैं। किसानों की समस्या कोई मुद्दा नहीं है, ना ही किसान देश के किसी एक भौगोलिक क्षेत्र में बसते हैं। किसान के हित की बात करते हुए व्यापारी और कृषि मजदूर के हितों की अनदेखी नहीं की जा सकती। इसके साथ ही आम उपभोक्ता के सरोकारों का भी ध्यान रखना जरूरी है। इस रूप में कृषि की बात किसी एक वर्ग या क्षेत्र की बात न रहकर एक व्यापक स्वरूप ग्रहण कर लेती है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हाल में पेश हुए तीनों अध्यादेश कोई अकेली घटना नहीं है। एक बडे एजेण्डे के तहत सरकारों के समाजवादी और लोक-कल्याणकारी स्वरूप को सीमित करके बाज़ार की पहुँच और असर को बढ़ाया जा रहा है। ‘बहुपक्षीय व्यापार वार्ता’ के जरिए ‘तटकर और व्यापार पर सामान्य समझौते’ (जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड) तक पहुँचने के लिए ‘उरुग्वे दौर की बातचीत’ (1986 से 1994), जिसमें भारत समेत 123 राष्ट्र शामिल थे, में यह एजेण्डा खुलकर सामने आया था। इस बातचीत की परिणति एक जनवरी 1995 को ‘विश्व व्यापार संगठन’ (डब्ल्यूटीओ) के रूप में हुई थी।
इसमें कृषि उपज के साथ-साथ तमाम क्षेत्रों में सरकारी संरक्षणवाद को खत्म करके बाज़ार में बेलगाम वित्त के प्रवाह को खुली छूट देने की वकालत की गई थी। हम देख सकते हैं कि कृषि के साथ-साथ बैंक, खनन, भारी उद्योग, अधोसंरचना जैसे अर्थव्यवस्था के बुनियादी क्षेत्रों के हितों की रक्षा करने वाले कानूनों में आमूल-चूल बदलाव करते हुए विदेशी पूंजी निवेश के लिए जगह बनाई गई। हाल के अध्यादेश भी उसी श्रृंखला का हिस्सा हैं। इसलिए इसे सिर्फ कृषि या मंडी के व्यापारियों की समस्या के रूप में एकांगी दृष्टिकोण से देखने के बदले देश की व्यापक अर्थनीति और संवैधानिक प्रावधानों पर आए एक तात्कालिक संकट के रूप में देखना होगा।
तात्कालिक संकट की फौरी और पुरज़ोर प्रतिक्रिया जरूर होनी चाहिए, लेकिन यहीं तक सीमित रह जाना व्यापक लड़ाई को कमज़ोर करने वाला कदम हो सकता है। अर्थव्यवस्था और संवैधानिक मूल्य संकट में हैं। आजादी की लड़ाई जिन महान उद्देश्यों के लिए लड़ी गई, वो उद्देश्य भुलाए जा रहे हैं। आजादी के शुरुआती दशकों में नवनिर्माण के जिन सपनों को साकार करने के लिए लोगों ने खून-पसीना बहाया, उन सपनों को झुठलाया जा रहा है। समावेशी और प्रभावी आन्दोलन खड़ा करने के लिए हमें नेतृत्व, संगठन और लड़ाई के तौर-तरीकों पर नए सिरे से विचार करना होगा। इसकी राह तो आपसी संवाद और विमर्श से ही निकल सकती है, लेकिन इतना तय है कि मुद्दा आधारित और क्षेत्रीय आन्दोलनों का समय अब बीत चुका है। (सप्रेस) (लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
एक तरफ संसद में रक्षा मंत्री और गृहराज्य मंत्री के बयान और दूसरी तरफ चीनी विदेश मंत्रालय का बयान, इन सबको एक साथ रखकर आप पढ़ें तो आपको पल्ले ही नहीं पड़ेगा कि गलवान घाटी में हुआ क्या था ? भारत और चीन के फौजी आपस में भिड़े क्यों थे ? हमारे 20 जवानों का बलिदान क्यों हुआ है ? हमारे फौजी अफसर चीनी अफसरों से दस-दस घंटे क्या बात कर रहे हैं ? हमारे और चीन के विदेश और रक्षा मंत्री आपस में किन मुद्दों पर बात करते रहे हैं ? उनके बीच जिन पांच मुद्दों पर सहमति हुई है, वे वाकई कोई मुद्दे हैं या कोई टालू मिक्सचर है ?
गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय ने बुधवार को राज्यसभा में कह दिया कि पिछले छह माह में चीन ने भारतीय सीमा में कोई घुसपैठ नहीं की है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस कथन पर दुबारा मुहर लगा दी कि चीन ने भारत की किसी चौकी पर कब्जा नहीं किया है और वह भारत की सीमा में बिल्कुल नहीं घुसा है। जब मैंने नरेंद्र भाई के राष्ट्रीय संबोधन में इस आशय की बात सुनी तो मुझे बहुत धक्का लगा और मैं सोचने लगा कि चीन के इस अचानक हमले ने उन्हें इतना विचलित कर दिया कि यह बात उनके मुंह से अनचाहे ही निकल गई लेकिन मुझे तब और भी आश्चर्य हुआ, जब वे लद्दाख जाकर टीवी चैनलों पर बोले और उन्होंने चीन का नाम तक नहीं लिया।
अब भी संसद के दोनों सदनों में सिर्फ रक्षामंत्री बोले। प्रधानमंत्री क्यों नहीं बोले ? वे गैर-हाजिर ही रहे। उनका डर स्वाभाविक था कि चीन के नाम पर उनकी चुप्पी के कारण विपक्ष उन पर हमला बोलेगा। रक्षामंत्री राजनाथसिंह ने अपने मर्यादित लहजे में सारी कहानी कह दी। वह लहजा इतना संयत रहा कि उससे न तो चीन भडक़ सकता था और न ही चीन के खिलाफ भारत की जनता! सच्चाई तो यह है कि गलवान घाटी में हमारे सैनिकों के बलिदान पर संसद का खून खौल जाना चाहिए था लेकिन हमारा विपक्ष कितना निस्तेज, निष्प्रभ और निकम्मा है कि उसकी बोलती ही बंद रही।
इस संकट के वक्त वह सरकार का साथ दे, यह बहुत अच्छी बात है लेकिन वह सच्चाई का पता क्यों नहीं लगाए कि गलवान घाटी में गलती किसने की है ? हमारे जवानों के बलिदान के लिए जिम्मेदार कौन है ? उधर चीनी विदेश मंत्रालय ने भारत सरकार के सभी तेवरों और दावों पर पानी फेर दिया है। उसका कहना है कि चीन ने कहीं कोई घुसपैठ नहीं की है।
गलवान घाटी में जो मुठभेड़ हुई है, वह चीन की जमीन पर हुई है। भारत ने 1993 और 1996 में हुए सीमा पर शांति संबंधी जो समझौते हुए थे, उनका उल्लंघन किया है। भारत ही घुसपैठिया है। भारत पीछे हटे, यह जरुरी है। राहुल गांधी ने पूछा है कि मोदी किसके साथ है ? भारतीय सेना के साथ है या चीन के साथ ? सरकार के इस अटपटे रवैए पर राहुल का यह सवाल थोड़ा फूहड़ है लेकिन सटीक है लेकिन राहुल का वजऩ इतना हल्का हो चुका है कि ऐसी बात भी हवा में उड़ जाती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-राजू साजवान
केंद्र सरकार ने 18 सितंबर 2020 को जानकारी दी कि चीन में लॉकडाउन खुलते ही भारत में दवाओं के कच्चे माल (जिसे एपीआई -एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट- कहा जाता है) की आपूर्ति शुरू हो गई थी और मार्च से अगस्त के बीच लगभग 5,500 करोड़ रुपए का एपीआई आयात किया जा चुका है।
राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में रसायन एवं उर्वरक मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने बताया कि दवा के निर्माण के कई एपीआई चीन से आयात किए जाते हैं। सीडीएसओ के विभिन्न बंदरगाह कार्यालयों के आंकड़ों के अनुसार मार्च में 4448.9 टन एपीआई चीन से आयात किया गया, जिसकी कीमत लगभग 795 करोड़ रुपए थी। इसी तरह अप्रैल में 897 करोड़ रुपए की कीमत के 5,341 टन एपीआई आयात किया गया। इसके बाद मई-जून में आयात में कमी आई। जुलाई में आयात में तेजी आई और पिर अगस्त में आयात में कमी आई है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि सीमा पर लगातार तनाव की खबरों के बीच सरकार बार-बार कहती रही है कि चीन से व्यापारिक रिश्ते खत्म किए जाएंगे, लेकिन एपीआई आयात में कुछ गिरावट के बाद फिर से तेजी बनी हुई है।
दिलचस्प बात यह है कि केंद्र सरकार कह रही है कि उसके पास चीन द्वारा एपीआई पर वसूले जा रहे किसी तरह के अतिरिक्त शुल्क की शिकायत नहीं आई है, लेकिन सरकार के आंकड़े बताते हैं कि मई 2020 में एपीआई का आयात तो कम किया गया, लेकिन कीमत अधिक चुकानी पड़ी। जैसे कि अप्रैल 2020 में चीन से 5,341 मीट्रिक टन एपीआई का आयात किया गया, जिसका मूल्य 897.57 करोड़ बताया गया है, लेकिन मई में केवल 3,961.4 टन एपीआई आयात किया गया, जबकि इसका मूल्य कम होने की बजाय बढ़ गया और 949.42 करोड़ रुपए कीमत की एपीआई का आयात हुआ बताया गया है। इसी तरह जून-जुलाई में भी आयात कम हुआ, लेकिन कीमत ज्यादा देनी पड़ी।
महीना आयात की मात्रा, टन में मूल्य करोड़ में
मार्च, 2020 4,448.9 795.02
अप्रैल, 2020 5,341.7 897.57
मई, 2020 3,961.4 949.42
जून, 2020 3,634.1 973.42
जुलाई, 2020 4,812.1 1,094.82
अगस्त 2020 4,023.5 804.81
स्त्रोत: डीसीजीआई, सीडीएसओ
चीन से आयात होता है 72 फीसदी कच्चा माल
राज्यसभा में पूछे गए एक अन्य सवाल के जवाब में गौड़ा ने बताया कि भारत दवाइयों के उत्पादन के लिए विभन्न बल्क औषधि/सक्रिय औषधीय सामग्री (एपीआई) का आयात करता है। बल्क औषधि, माध्यमिक औषध के कुल आयात का दो तिहाई हिस्सा चीन से आयात किया जाता है। रसायन मंत्री ने बताया कि 2017 में 68.62 फीसदी कच्चा माल चीन से आयात हुआ, जबकि 2018 में 66.53 फीसदी और 2019 में 72.40 फीसदी कच्चा माल चीन से आया।
आत्मनिर्भरता के प्रयास में जुटी सरकार
सरकार ने बताया है कि एपीआई और बल्क औषधियों के आयात पर निर्भरता कम करने और आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए औषध विभाग ने दो योजनाओं की शुरुआत की है। एक- भारत में महत्वपूर्ण मुख्य प्रारंभिक सामग्रियों /ड्रग इंटरमीडिएट और एपीआई के घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना और दूसरा- बल्क औषधि पार्कों का संवर्धन। इन दोनों योजनाओं के दिशानिर्देश 27 जुलाई 2020 को जारी किए गए हैं।
एपीआई क्या है
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार तैयार फार्मा उत्पाद यानी फॉर्मुलेशन के लिए इस्तेमाल होने वाले किसी भी पदार्थ को एपीआई यानी एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट कहते हैं। एपीआई ही किसी दवा के बनाने का आधार होता है, जैसे क्रोसीन दवा के लिए एपीआई पैरासीटामॉल होता है, तो आपने यदि पैरासीटामॉल का एपीआई मंगा लिया, तो उसके आधार पर किसी भी नाम से तैयार दवाएं बनाकर उसे निर्यात कर सकते हैं। इसे एक तरह से तैयार दवाओं का कच्चा माल भी कहा जा सकता है।(DOWNTOEARTH)
-ओम थानवी
डॉ कपिला वात्स्यायन के निधन पर कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा। यों उन्होंने कमोबेश पूरा (वे 92 साल की थीं) और सार्थक जीवन जिया। कला और संस्कृति के क्षेत्र में उनके योगदान पर बहुत कुछ कहा गया है। संस्थाएँ खड़ी करने पर भी। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र उन्हीं की देन है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आइआइसी) को सांस्कृतिक तेवर प्रदान करने में उनकी भूमिका जग-ज़ाहिर है। इतने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयोजन मैंने आइआइसी में देखे-सुने कि उससे दिल्ली के कुछ अलग दिल्ली होने का अहसास होता था।
जयदेव कृत 'गीत-गोविंद' पर अपने शोध और भरत के नाट्यशास्त्र के विवेचन से बौद्धिक हलकों में उन्होंने नाम कमाया। पारंपरिक नाट्य परंपरा पर भी उन्होंने विस्तार से लिखा है। बाद में उन्होंने शास्त्रीय और लोक दोनों नृत्य शैलियों पर काम किया। मूर्तिकला — ख़ासकर देवालयों में उत्कीर्ण नृत्य-मुद्राओं — का उनका गहन अध्ययन सुविख्यात है। साहित्य और चित्रकला के नृत्य विधा से रिश्ते पर भी उन्होंने शोधपूर्ण ढंग से लिखा। सांसद के नाते उन्होंने कई बार राज्यसभा में पुराने वास्तुशिल्प और मंदिरों की मूर्तिकला को सहेजने का सरोकार ज़ाहिर किया।
मुझे उनका निजी स्नेह हासिल था। एक बार अनिल बोर्दिया जी ने संकेत किया था कि अज्ञेयजी से अपने संबंधों का ज़िक्र कपिलाजी के सामने न छेड़ बैठूँ। दरअसल अज्ञेय की शादी पहले 1940 में संतोष मलिक से हुई थी। दिल्ली में लेखिका सत्यवती मलिक (कपिलाजी की माँ) का लेखक समुदाय में बड़ा दायरा था। वह शादी चंद रोज़ में टूट गई। संतोष की शादी बाद में अज्ञेय के सहपाठी रहे फ़िल्म अभिनेता बलराज साहनी से हुई। दस साल बाद रेडियो में काम करते हुए संतोष की भतीजी कपिला मलिक से अज्ञेय की घनिष्ठता हुई और कुछ समय बाद विवाह। तेरह साल बाद वे भी अलग हो गए।
बहरहाल, बोर्दियाजी की सलाह पर मैं कुछ समय ही सावधान रह सका। फिर वह सीख बिसरा गया। अच्छा ही हुआ। पाया कि कपिलाजी के मन में, आम धारणा के विपरीत, अज्ञेयजी के प्रति अब कटुता नहीं है। संबंध-विच्छेद के दौर में लोगों ने जो देखा-सुना, उससे धारणा बनी होगी। जबकि 2011 में अज्ञेय जन्मशती मनाई गई तो वे साहित्य अकादेमी में अज्ञेय रचनावली के लोकार्पण में शामिल हुई थीं। मैंने 'अपने अपने अज्ञेय' के संपादन के दौरान जो-जो सहयोग माँगा, उन्होंने दिया। सिवाय स्वयं कोई संस्मरण लिखने के। सुख-दुख के इतने लम्बे साथ पर क्या लिखतीं, क्या नहीं!
उन्हें पहले-पहल मैंने अज्ञेयजी के अंतिम संस्कार में देखा था, निगम बोधघाट पर। तब वे बड़ी अधिकारी थीं। दूरदर्शन उनके अधीन था। फूट-फूट कर रोते वक़्त दूरदर्शन का कैमरा उनकी ओर हुआ तो उन्होंने ग़ुस्से से उसे परे धकेल दिया। घाट से पहले वे अज्ञेयजी के घर भी गई थीं। इला डालमिया ने उन्हें फ़ोन कर निधन की सूचना दी।
संस्कृति के बौद्धिक परिवेश में कमलादेवी चट्टोपाध्याय, रुक्मिणी देवी अरुंडेल और कपिला वात्स्यायन की एक विदुषी-त्रयी बनती है। कल अंतिम कड़ी भी टूट गई। पता नहीं, एक साथ ऐसा समर्पित समूह अब कब अवतरित होगा।
कपिलाजी की मंद-मंद मुसकान को स्मरण करते हुए उन्हें विदा का प्रणाम।
पढ़ें : ‘साथी’ संस्था के भूपेश तिवारी का लिखा -
बस्तर का परम्परागत सपोर्ट सिस्टम (एक दूसरे को सहयोग करने की भावना) अद्भुत है, शादी विवाह, धार्मिक अनुष्ठान, मृत्यु के समय होने वाले कार्यो अथवा अन्य किसी भी प्रकार के सार्वजनिक आयोजनों का प्रबंधन बहुत ही आसान एवं बिना आर्थिक भार के सबके सहयोग से सम्पन्न किया जाता है, जबकि सभ्य एवं विकसित समाजों में इस प्रकार के आयोजनों की जिम्मेदारी उस व्यक्ति की होती है, जिसके यहां कार्यक्रम आयोजित हो रहा है।
बस्तर का आदिवासी समुदाय विपरीत परिस्थितियों में, न्यूनतम शासकीय सुविधाओं के बावजूद खुश रहने वाला है। सरकार द्वारा स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, रोजगार आदि जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध ना करवाने के बाद भी कभी शिकायत ना करते हुए जो मिल रहा है उसी में खुश है।
बस्तर के लोग संग्रह करने की जगह अपरिग्रही है, प्रकृति से उतना ही लेते है, जितने की आवश्यकता है। हमारे जैसे पढ़े-लिखे लोग अपने घरों में सालभर हेतु आवश्यक खाद्यान्न एक बार में ही संग्रह करके रखते हैं, जबकि उसके उलट स्थानीय लोग ज्यादा से ज्यादा 1 या 2 सप्ताह के राशन अथवा अन्य संसाधनों की व्यवस्था करके रखते है।

वैश्विक महामारी कोविड-19 के कारण मार्च माह से जब लॉकडाउन प्रारंभ हुआ तो आनन्द से जीने वाले बस्तर के लोगों को काफी परेशानी में डाल दिया। नारायणपुर, कोण्डागांव, बस्तर जिले के लोगों के साथ ग्रामीण विकास के कार्य करने वाली ‘साथी’ समाज सेवी संस्था ने कोरोनाकाल में अपने हितग्राहियों को कोरोना के कारण उत्पन्न स्थिति में बहुत मुसीबत में देखा तथा अपने सामाजिक दायित्व को समझते हुए आपदा की इस घड़ी में ग्रामीण समुदाय को यथा योग्य सहयोग उपलब्ध कराने का जिम्मा उठाया।
नारायणपुर एक छोटा सा जिला जिसकी जनसंख्या सिर्फ 140000 तथा सभी गांवों तक खाने-पीने राशि आदि की सप्लाई या तो नारायणपुर शहर से है या फिर साप्ताहिक हाट बाजारों से है। लॉकडाउन के कारण नारायणपुर शहर तथा गांव-गांव में लगने वाले साप्ताहिक हाट बाजार बंद होने तथा गांवों से शहर तक आने वाले वाहनों का संचालन पूर्णत: जब बंद हो गया तो नारायणपुर से गांव-गांव तक पहुंचने वाली आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बन्द हो गई। गांव के दुकानदारों के पास अपने स्वंय के वाहन ना होने के कारण वो लोग नारायणपुर से आवश्यक वस्तुओं को गांव तक ले जाने में असमर्थ हो गए। ऐसी परिस्थिति में ग्रामीणों को दैनन्दिन खाने पीने की वस्तुओं का मिलना मुश्किल हो गया था।
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साथी समाज सेवी संस्था जो पिछले 30 वर्षों से बस्तर के लोगों के विकास के लिए कार्य कर रही है, जब हमारे संज्ञान में खाने-पीने की वस्तुओं की गांव में अनुपलब्धता की समस्या आई तो संस्था ने इस समस्या के समाधान की दिशा में कार्य करने का निर्णय लिया। हमारा मानना था कि जिस समाज के साथ हम वर्षों से कार्य कर रहे हैं अगर आज हम उस समाज के कठिन समय में उनके साथ खड़े नहीं होंगे तो कल उन्हें अपना मुंह कैसे दिखाएंगे।
संस्था के कार्यकर्ताओं तथा पदाधिकारियों के संयुक्त प्रयासों से 5 लाख रुपये एकत्रित कर उससे राहत सामग्री वितरण का कार्य प्रारंभ किया। राहत सामग्री में हमने राशन तथा स्वच्छता किट का वितरण करना प्रारंभ किया, प्राथमिकता के आधार पर पहचान कर अति जरूरतमंद परिवारों तक राशन पहुंचाने का जो सिललिसा अप्रैल माह में प्रारंभ हुआ वो आज भी जारी है, संस्था ने अपने सहयोगी संस्थानों को प्रस्ताव भेज कर राहत सामग्री वितरण हेतु सहयोग मांगा और अधिकतर संस्थाओं ने हमें भरपूर सहयोग उपलब्ध कराया है, प्रमुख रूप से अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन, अजीम प्रेमजी फिलियोथ्रोपिक इनीशियेटिव, अकाई फाउण्डेशन, क्रियेटिव डिग्निटी, जीव दया फाउण्डेशन के साथ व्यक्तिगत रूप से शेफाली खन्ना डिजाइनर तथा रूचि एवं आकाश शर्मा लंदन, रवि शर्मा बैंगलोर, डॉ बी.एल. शर्मा, ग्वालियर आदि ने बढ़-चढक़र इस राहत के यज्ञ में अपना योगदान दिया ।
नारायणपुर जिले में बुजुर्ग, दिव्यांग, गर्भवती महिलाओं, विधवाओं, परित्यक्ताओं, सिंगल मदर्स आदि को मिलाकर लगभर 1347 परिवारों के 5611 लोगों तक प्रथम चरण में राहत सामग्री पहुंचाई गई।
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सघन मलेरिया, डायरिया तथा कोविड-19 से बचाव हेतु जागरूकता अभियान
नारायणपुर छत्तीसगढ़ राज्य का अत्यंत पिछड़ा जिला है, जिले का ओरछा (अबुझमाड़) विकासखण्ड तो विकास के कोसों दूर है। साथी संस्था नारायणपुर जिले में यूनिसेफ के सहयोग से वर्ष 2012 से लगभग 140 गांवों में स्वास्थ्य एवं पोषण हेतु कार्यरत है, नारायणपुर जिले में मातृ मृत्युदर तथा शिशु मृत्यृदर राज्य के औसत की तुलना में बहुत अधिक है, विगत 9 वर्षों में संस्था ने मातृ मृत्युदर एवं शिशु मृत्युदर को कम करने हेतु कई नवाचार प्रारंभ किये हैं जिसके परिणामस्वरूप दोनों की मृत्युदर में कमी दर्ज की गई है। जब कोरोना महामारी के कारण स्थितियां भारत में बिगडऩे लगी तो हमारी समझ में एक बात पूरी स्पष्टता से आई कि बस्तर क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं, सेवा प्रदाताओं के साथ अन्य संसाधनों की भारी कमी तो है ही शासन के लिए भी यहां के क्षेत्रफल को देखते हुए सेवाएं दे पाना एक बड़ी चुनौती है, अशिक्षा, जागरूकता की कमी तथा पराम्परागत, नकारात्मक व्यवहारों को अपनाने के कारण अगर यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना आ गया तो परिस्थितियों अत्यंत भयानक तथा अनियंत्रित हो सकती हैं, यही सोचकर संस्था ने 16 मार्च 2020 से ही अपने लगभर 65 कार्यकर्ताओं को कोरोना से बचाव एवं जागरूकता हेतु सतर्क रहने तथा समुदाय के साथ सतत संपर्क बनाकर रहने के दिशा निर्देश जारी कर दिये थे।
जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक गांव में बाहरी लोगों के प्रवेश पर रोक के साथ-साथ प्रत्येक घर में हाथ धोने हेतु साबुन एवं पानी की व्यवस्था गांव में चेक पोस्ट पर गांव के युवाओं की ड्यूटी के साथ वहां पर भी ड्रम में पानी रखवाने की व्यवस्था की गई । स्थानीय भाषा में छोटे-छोटे ऑडियो द्वारा साफ एवं स्पष्ट संदेश व्हाट्सअप गु्रप में डाले गए। लगभग 72 गांवों में कला जत्था दल के माध्यम से मलेरिया, डायरिया, हैजा तथा कोरोना से बचाव हेतु जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।
नारायणपुर जिला प्रशासन को सक्रिय सहयोग-
जिला प्रशासन नारायणपुर द्वारा जिले में फंसे बाहर के मजदूरों के लिए स्थापित शिविरों में राशन एवं हरी सब्जियों की व्यवस्था संस्था द्वारा लगातार की जाती रही। जब बाहर के मजदूर जो बाहर से वापस आए थे उनके लिए बनाए गए क्वॉरंटीन सेन्टर्स में भी राशन सब्जी, सेनिटाइजर, सेनेटरी पैड, साबुन आदि की व्यवस्था लगातार उपलब्ध कराई जाती रही। दक्षिण भारत से वापस आने वाले मजदूरों को कोण्डागांव से नारायणपुर तक पहुंचाने हेतु वाहनों की व्यवस्था भी की गई, तमिलनाडु में फंसे नाबालिग बच्चों को रेस्क्यू कराने में भी साथी संस्था ने चाइल्ड लाइन के माध्यम से महत्वपूर्ण सहयोग दिया ।
परम्परागत हस्तशिल्पियों को राहत वितरण का द्वितीय चरण
वैश्विक महामारी कोविड-19 का प्रभाव वैसे तो सभी के ऊपर पड़ा है, व्यापारी, नौकरीपेशा, छोटे व्यवसायी, उद्योगपति कोई भी इसकी भार से अछूता नहीं हैं। बस्तर की विभिन्न हस्तशिल्प कलाओं से जुड़े समुदायों पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा है, स्थानीय अथवा बाहरी बाजारों की मांग अनुरूप अपनी शिल्प कला का उत्पादन करने वाले लोहार, कुम्हार, घड़वा, बांस शिल्पी आदि के ऊपर बहुत विपरीत प्रभाव पड़े है । इन सभी शिल्पकारों का असली व्यापार का सीजन मार्च से प्रारंभ होकर दीपावली के बाद तक चलता है, जिससे ये शिल्पकार अपने वर्ष भर की आवश्कताओं की पूर्ति हेतु कमाई कर लेते है। कुम्हारों ने पूरी तरह से अपनी गर्मी का धंधा खोया, गणेश उत्सव, दुर्गापूजा, दीपावली के मुख्य त्यौहारी सीजन में किसी शिल्पकार के पास कोई काम धंधा नहीं है, हाट बाजार, बाहर शहरों में प्रदर्शनी पूरी तरह बंद है, यहां तक कि ये शिल्पी अपने ऑर्डर की आपूर्ति भी नहीं कर पा रहे है। देश भर के हस्तशिल्प के व्यापार से जुड़े लोग असमंजस में है इस कारण शिल्पकारों को दिये गये लगभग सभी आर्डर निरस्त हो गए है ऐसी परिस्थितियों में साथी समाज सेवी संस्था ने महसूस किया कि कोण्डागांव, नारायणपुर तथा जगदलपुर जिले के अधिकांश शिल्पी मुसीबत में है। अपना जीवन चलाने हेतु ऊंची दरों पर ब्याज में ऋण लेकर अपने भोजन की व्यवस्था कर रहे है तथा जिनके पास अपने कार्य हेतु जो थोड़ी बहुत पंूजी है उसे अपने भोजन पर खर्च कर रहे है । ऐसी गंभीर स्थिति में साथी संस्था ने अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बहुत ही संवेदनशीलता से निभाते हुए कोण्डागांव जिले के लगभग 1660 परिवारों तक तथा जगदलपुर के 123 परिवारों तक एक माह का राशन पहुंचाकर शिल्पकार समुदायों की मदद की।
- राम पुनियानी
दिनदहाड़े बाबरी मस्जिद ध्वस्त किए जाते समय एक नारा बार-बार लगाया जा रहा था “यह तो केवल झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है”।
सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद की भूमि उन्हीं लोगों को सौंपते हुए, जिन्होंने उसे ध्वस्त किया था, यह कहा था कि वह एक गंभीर अपराध था। बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद राम मंदिर का उपयोग सत्ता पाने के लिए और समाज को धार्मिक आधार पर बांटने के लिए किया गया। बार-बार यह दावा किया गया कि भगवान राम ने ठीक उसी स्थान पर जन्म लिया था। यही आस्था राजनीति का आधार बन गई और अदालत के फैसले का भी। यह धार्मिक राष्ट्रवाद देश की राजनीति में मील का पत्थर बना। परंतु अब क्या?
वैसे तो ऐसे मुद्दों की कोई कमी नहीं है, जिनसे धार्मिक आधार पर समाज को बांटा जाता है और धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिये पर लाने के लिए जिनका उपयोग होता है। इनमें से कुछ तो विघटनकारी राजनीति करने वालों के एजेंडे में स्थायी रूप से शामिल कर लिए गए हैं। जैसे, लव जिहाद (अब इसमें भूमि जिहाद, कोरोना जिहाद, सिविल सर्विसेस जिहाद आदि भी जुड़ गए हैं), पवित्र गाय, बड़ा परिवार, समान नागरिक संहिता आदि। इसके अलावा इस तरह के नए-नए मुद्दे खोज कर भी सूची में जोड़े जाते हैं। इन मुद्दों को इस तरह पेश किया जाता है जैसे बहुसंख्यक, अल्पसंख्यकों की राजनीति से पीड़ित हैं।
इसी इरादे से उठाए गए दो महत्वपूर्ण मुद्दे हैं- काशी और मथुरा। काशी में विश्वनाथ मंदिर से सटी हुई ज्ञानव्यापी मस्जिद है। कुछ लोगों का कहना है कि यह मस्जिद अकबर के शासनकाल में बनाई गई थी। तो कुछ अन्य मानते हैं कि इसका निर्माण औरंगजेब के राज में किया गया था। इसी तरह मथुरा के बारे में कहा जाता है कि शाही ईदगाह, कृष्ण जन्मभूमि के नजदीक बनी हुई है। हिन्दुओं की आस्था के अनुसार राम, शिव और कृष्ण सबसे प्रमुख देवता हैं। इस तरह धार्मिक दृष्टि से अयोध्या (राम), वाराणसी (शिव) और मथुरा (कृष्ण) आस्था के तीन केन्द्र हैं और इन्हें मुक्त कराना आवश्यक है।
यह कहा जाता है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने सैकड़ों मंदिर ध्वस्त किए। परंतु हिन्दू राष्ट्रवादियों के अनुसार कम से कम इन तीन को तो पुनः प्रतिष्ठापित किया ही जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी प्रचारित किया जाता है कि दिल्ली की जामा मस्जिद और अहमदाबाद की जामा मस्जिद भी हिन्दुओं के पूजास्थलों को तोड़कर बनाई गईं हैं।
मंदिरों को ध्वस्त किए जाने की घटनाओं का इतिहास और पुरातत्व के विद्वानों ने विश्लेषण किया है। यह कहा जाता है कि मंदिर तोड़े जाने का प्रमुख कारण राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता थी। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि अपनी सत्ता का सिक्का जमाने के लिए या संपत्ति हड़पने के लिए मंदिर तोड़े गए।
एक पक्ष यह भी है कि जहां मुस्लिम राजाओं ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा वहीं उनमें से कुछ ने हिन्दू मंदिरों को उदारतापूर्वक दान भी दिया। ऐसे कुछ फरमान मिले हैं, जिनमें इस बात का उल्लेख है कि औरंगजेब ने अनेक हिन्दू मंदिरों को दान दिया। इनमें गुवाहाटी का कामाख्या देवी मंदिर, उज्जैन का महाकाल और वृंदावन का कृष्ण मंदिर शामिल है। यह दावा भी किया जाता है कि औरंगजेब ने गोलकुंडा में एक मस्जिद को भी ध्वस्त किया, क्योंकि गोलकुंडा का शासक तीन वर्षों से लगातार बादशाह को शुक्राना नहीं चुका रहा था।
प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डी. डी. कोशाम्बी ने अपनी पुस्तक (रिलिजियस नेशनलिज्म, मीडिया हाउस, 2020, पृष्ठ 107) में लिखा है कि “11वीं सदी में कश्मीर के राजा हर्षदेव ने दोवोत्वपतन नायक पदनाम के अधिकारी की नियुक्ति की थी। इस अधिकारी को यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वह ऐसी मूर्तियों पर कब्जा करे, जिनमें हीरे, मोती और कीमती पत्थर जड़े हों।”
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता रिचर्ड ईटन बताते हैं कि विजयी हिन्दू राजा पराजित होने वाले राजाओें के कुलदेवता के मंदिरों को ध्वस्त करते थे और उनके स्थान पर अपने कुलदेवता के मंदिरों की स्थापना करते थे। श्रीरंगपट्टनम में मराठा फौजों ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा और बाद में टीपू सुलतान ने उनकी मरम्मत करवाई।
कुछ चुनिंदा साम्प्रदायिक इतिहासज्ञों ने मंदिरों के ध्वस्त होने की घटनाओं को देश में विभाजनकारी राजनीति को मजबूती देने के लिए प्रमुख हथियार बनाया है। इतिहास का एक पहलू यह भी है कि बौद्धों और हिन्दुओं के बीच टकराव में सैकड़ों बौद्ध विहार तोड़े गए। अभी हाल में राममंदिर की नींव तैयार करने के दौरान बौद्ध विहारों के अवषेष पाए गए।
इतिहासवेत्ता डॉ एमएस जयप्रकाश के अनुसार, 830 और 966 ईसवी के बीच हिन्दू धर्म के पुनरूद्धार के इरादे से सैकड़ों की संख्या में बुद्ध की मूर्तियां, स्तूप और विहार नष्ट किए गए। भारतीय और विदेशी साहित्यिक और पुरातात्विक स्त्रोतों से यह पता लगता है कि हिन्दू अतिवादियों ने बौद्ध धर्म को नष्ट करने के लिए कितने क्रूर अत्याचार किए। अनेक हिन्दू शासकों को गर्व था कि उन्होंने बौद्ध धर्म और संस्कृति को पूर्ण रूप से तबाह करने में भूमिका अदा की।
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने घोषणा की है कि वह शीघ्र ही काशी और मथुरा को मुक्त करने के लिए अभियान प्रारंभ करेगी। परिषद ने यह इरादा भी जाहिर किया है कि इस अभियान में वह संघ से जुड़े संगठनों की सहायता भी लेगी। इस समय तो आरएसएस यह कह रहा है कि इस मुद्दे में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। परंतु जैसा पूर्व में हो चुका है- ज्योंही अखाड़ा परिषद का अभियान जोर पकड़ेगा संघ उससे जुड़ जाएगा- इसकी भरपूर संभावना है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि मस्जिदों को गुलामी का प्रतीक बताया जाता है। कर्नाटक के बीजेपी नेता और ग्रामीण विकास और पंचायत मंत्री के एस ईष्वरप्पा ने 5 अगस्त को यह दावा किया कि गुलामी के ये प्रतीक बराबर हमारा ध्यान खींचते हैं और हम से यह कहते हैं कि “तुम गुलाम हो”। उन्होंने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहा, “विश्व के सभी हिन्दुओं का एक स्वप्न है कि गुलामी के इन प्रतीकों को वैसे ही नष्ट किया जाए, जैसे अयोध्या में किया गया था। मथुरा और काशी की मस्जिदों को निश्चित ही ध्वस्त किया जाएगा और वहां मंदिर का पुनर्निर्माण होगा।”
ऐसी बातें इस तथ्य के बावजूद कही जा रही हैं कि इस संबंध में कानूनी स्थिति यह है कि “किसी भी धार्मिक स्थान में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं किया जाएगा, जिससे उसके धार्मिक स्वरूप में परिवर्तन हो और उसमें वही स्थिति कायम रखी जाएगी जो 15 अगस्त 1947 को थी।”
इस पृष्ठभूमि में हमारा आगे का रास्ता क्या होना चाहिए? हम अयोध्या के राम मंदिर को लेकर हुए उपद्रव को देख चुके हैं। इसके सामाजिक और राजनीतिक परिणामों ने हमारे लोकतंत्र को कई दशकों पीछे धकेल दिया है। नतीजे में धार्मिक अल्पसंख्यक लगभग दूसरे दर्जे के नागरिक बन गए हैं।
मंदिरों की यह राजनीति हमारे बहुवादी लोकतांत्रिक संस्कारों के विपरीत है। राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से दक्षिणपंथी ताकतें अपना प्रभुत्व बढ़ाने में सफल हुई हैं और इस सफलता से उत्साहित होकर वे इसे दोहराना चाहेंगीं, जो देश की प्रगति और विकास में बाधक सिद्ध होगा। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय ऐसे मुद्दों को दुबारा उठाए जाने के खिलाफ उठ खड़ा होगा।
(लेख का हिंदी रूपांतरणःअमरीश हरदेनिया द्वारा)(navjivan)
गिरीश मालवीय
राष्ट्रीय सुरक्षा को आखिर ऐसा कौन सा खतरा उत्तरप्रदेश में योगी सरकार को नजर आ गया है जो कल उसने ‘यूपी स्पेशल सिक्योरिटी फोर्स’ एसएसएफ के गठन को मंजूरी दे दी ?
इस फोर्स को ढेर सारी असीमित शक्तियां दी गई हैं। जिनमें बिना वारंट गिरफ्तारी और तलाशी की पॉवर भी शामिल है। एक ओर बड़ी बात यह है कि बिना सरकार की इजाजत के एसएसएफ के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कोर्ट भी संज्ञान नहीं लेगी। यूपी एसएसएफ अलग अधिनियम के तहत काम करेगी। अभी उत्तरप्रदेश में राज्य में कानून व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी यूपी पुलिस, पीएसी और आरआरएफ की थी, लेकिन अब एसएसएफ भी इसमें अहम भूमिका निभाएगी।
यूपी एसएसएफ को स्पेशल पॉवर दी गई हैं। इसके तहत यूपी एसएसएफ के किसी भी सदस्य के पास अगर यह विश्वास करने का कारण है कि धारा 10 में निर्दिष्ट कोई अपराध किया गया है या किया जा रहा है और यह कि अपराधी को निकल भागने का, या अपराध के साक्ष्य को छिपाने का अवसर दिए बिना तलाशी वारंट प्राप्त नहीं हो सकता तब वह उक्त अपराधी को निरुद्ध कर सकता है। इतना ही नहीं वह तत्काल उसकी संपत्ति व घर की तलाशी ले सकता है। यदि वह उचित समझे तो ऐसे किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, लेकिन शर्त यही है कि उसे यह विश्वास हो कि उसके पास यह वजह हो कि उसने अपराध किया है।
इस तरह की पॉवर सिर्फ आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में फोर्स को दी जाती है जैसे असम राइफल्स के जवानों को पूर्वोत्तर के राज्यों असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नगालैंड और मिजोरम के सीमावर्ती जिलों में बिना वारंट के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और किसी भी स्थान की तलाशी लेने का अधिकार दिया गया है लेकिन वहाँ की परिस्थिति बेहद भिन्न है। कश्मीर में भी सेना इन्ही पावर का इस्तेमाल करती है
क्या योगी सरकार समझ रही है कि आतंकवाद प्रभावित पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर और उत्तर प्रदेश में कोई अंतर ही नही रह गया है ?
दरअसल जब पहली बार यूपी स्पेशल सिक्योरिटी फोर्स का विचार सामने आया था तो यह बताया गया था कि इस फोर्स को सीआईएसएफ की तर्ज पर बनाया जाएगा। सीआईएसएफ की तरह ही एसएसएफ यूपी में मेट्रो रेल, एयरपोर्ट, औद्योगिक संस्थानों, बैंकों, वित्तीय संस्थानों, ऐतिहासिक, धार्मिक व तीर्थ स्थानों, जनपदीय न्यायालयों की सुरक्षा करेगा यानी राज्य में महत्वपूर्ण सरकारी इमारतों, दफ्तरों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाएगी।
कल जिस अधिनियम को लागू किया गया है उसमे एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि प्राइवेट कंपनियां भी भुगतान कर एसएसएफ की सेवाएं ले सकेंगी। अब ये समझ नही आ रहा है कि कैसे एक प्राइवेट कंपनी को सेवा देने वाली बॉडी को ऐसी एब्सोल्यूट पावर दी जा रही हैं
साफ दिख रहा है कि यह एक काला कानून है जिसे आने वाले जनाक्रोश के उभरने के पहले ही लागू कर दिया गया है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कतर की राजधानी दोहा में चल रही अफगान-वार्ता में भारत भाग ले रहा है, यह शुभ-संकेत है। अफगान-संकट को हल करने के लिए नियुक्त विशेष अमेरिकी दूत जलमई खलीलजाद कुछ घंटों के लिए भारत आए, यह अपने आप में महत्वपूर्ण बात है लेकिन इस आवागमन का उद्देश्य क्या हो सकता है ? वैसे भी पिछले पौने दो साल में खलीलजाद पांच बार भारत आ चुके हैं। दोहा में चल रही वार्ता के बीच उनका पहले पाकिस्तान जाना और फिर भारत आना, इसका मतलब क्या है ? उनका पाकिस्तान जाना तो इसलिए जरुरी है कि तालिबान की चाबी वहीं है। तालिबान पर पाकिस्तान जितना दबाव डाल सकता है, कोई और देश नहीं डाल सकता। लेकिन अमेरिकी दूत बार-बार भारत क्यों आता है ? क्या भारत के बिना काबुल का झगड़ा निपटाया नहीं जा सकता ? अब से पहले तो भारत को कोई घास भी नहीं डालता था। पिछले दो-तीन वर्ष से भारत की ज्यादा पूछ इसलिए हो रही है कि अमेरिका अपनी बंदूक भारत के कंधे पर रखना चाहता है। उसकी रणनीति यह हो सकती है कि उसके अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाने के बाद वह भारत के गले पड़ जाए। यदि समझौते के बाद तालिबान तंग करें तो भारत अपनी सेनाएं काबुल भेज दे। ऐसा अंदाज मैं क्यों लगा रहा हूं ? जनवरी 1981 में जब अफगान प्रधानमंत्री बबरक कारमल से मेरी तीन लंबी भेटें हुईं तो उन्होंने कहा कि आप इंदिराजी से कहकर रुसी फौजों की जगह भारतीय फौजें भिजवा दीजिए। वे अफगान मुजाहिदीन से भी लड़ेंगी और पाकिस्तान की काट भी करेंगी। मैंने अपने घनिष्ट मित्र बबरक को साफ-साफ कहा कि भारत यह खतरा कभी मोल नहीं लेगा। इस बारे में इंदिराजी से पहले ही मेरी बात हो चुकी थी। मैं यह मानता हूं कि यदि भारत और पाकिस्तान आज इस तरह के सहयोग का कोई कदम मिलकर उठाएं तो वह जरुर सफल हो सकता है। इस वक्त ऐसे कदम के आसार तभी होंगे जबकि दोनों देशों में परिपक्व नेतृत्व हो। उनके बीच सीधा संवाद हो। ऐसी स्थिति में भारत को अमेरिकी प्रलोभनों में फंसने से बचना होगा। डर यही है कि भारत कहीं ट्रंप की फिसलपट्टी पर फिसल न जाए। बेहतर तो यह होगा कि भारत का विदेश मंत्रालय इस समय का सदुपयोग दो कामों के लिए करे। एक तो काबुल सरकार के सभी धड़ों से उत्तम संपर्क बनाए रखे और दूसरा यह कि विभिन्न तालिबान संगठनों से भी सीधा संवाद कायम करे ताकि दक्षिण एशिया के महादेश के रुप में वह अफगानिस्तान में शांति कायम करवा सके।
(लेखक, अफगान-मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)


