विचार/लेख
अगले 20 साल में भारत के 140 करोड़ लोगों को जल संकट का सामना करना पड़ सकता है
- Lalit Maurya
हाल ही में जारी इकोलॉजिकल थ्रेट रजिस्टर 2020 के अनुसार भारत में करीब 60 करोड़ लोग आज पानी की जबरदस्त किल्लत का सामना कर रहे हैं। भविष्य में यह आंकड़ा बढ़कर 140 करोड़ पर पहुंच जाएगी, जोकि आबादी के लिहाज से दुनिया में सबसे ज्यादा है। वहीं यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो दुनिया के करीब 260 करोड़ लोग गंभीर जल संकट का सामना करने को मजबूर हैं। जबकि अगले 20 वर्षों में यह आंकड़ा बढ़कर 540 करोड़ पर पहुंच जाएगा। जिसका सबसे ज्यादा असर एशिया-पैसिफिक क्षेत्र पर पड़ेगा।
इस रिपोर्ट ने उन 19 देशों की पहचान की है जो सबसे ज्यादा पर्यावरण से जुड़े संकटों का सामना कर रहे हैं। जिसमें भारत भी शामिल है। रिपोर्ट के अनुसार 135 करोड़ की आबादी वाला भारत, पर्यावरण से जुड़े चार अलग-अलग तरह के संकटों का सामना कर रहा है। जिसमें सूखा, चक्रवात और जल संकट शामिल हैं। यदि आंकड़ों को देखें तो आज भी देश की करीब 40 फीसदी आबादी उन क्षेत्रों में रहती है जो बारिश की कमी और सूखे की समस्या से त्रस्त हैं।
2010 से 2018 के बीच पानी को लेकर 270 फीसदी झड़पें बढ़ी
पानी की यह समस्या न केवल आपसी विवादों को जन्म दे रहे हैं साथ ही इनके चलते कृषि उत्पादन और खाद्य सुरक्षा पर भी असर पड़ रहा है। जिसके परिणामस्वरूप कुपोषण की समस्या भी बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट ने इस समस्या के लिए देश की बढ़ती आबादी को भी जिम्मेवार माना है। रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक भारत और चीन दुनिया की सबसे आबादी वाले देश होंगे। जहां चीन के बारे में अनुमान है कि उसकी जनसंख्या वृद्धि की दर में कमी आ जाएगी, इसमें हर साल 0.07 की दर से कमी आ रही है। वहीं दूसरी ओर भारत में यह हर साल 0.6 फीसदी की दर से बढ़ रही है जिसका परिणामस्वरूप अनुमान है कि 2026 तक भारत की आबादी चीन से ज्यादा हो जाएगी। बढ़ती आबादी का असर संसाधनों पर भी पड़ेगा जिससे पानी जैसे अमूल्य संसाधन की भारी किल्लत पैदा हो जाएगी।
भारत को ग्लोबल पीस इंडेक्स में 139 वां स्थान दिया गया है जो दर्शाता है कि देश पहले ही तनाव की स्थिति है। जैसे-जैसे इस क्षेत्र में मौजूद पानी की उपलब्धता घट रही है उससे तनाव की स्थिति और बढ़ रही है। यही वजह है कि आने वाले वक्त में इस क्षेत्र में स्थिति बद से बदतर हो सकती है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 2010 से 2018 के बीच पानी को लेकर हुए टकरावों में करीब 270 फीसदी की वृद्धि हुई है। इसमें भी सबसे ज्यादा मामले यमन, इराक और भारत में सामने आए हैं। जहां यमन में 134 और इराक में 64 मामले सामने आए हैं वहीं भारत में भी 40 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं।
यदि पानी का सबसे ज्यादा उपभोग करने वाले देशों की बात करें तो उसमें भी भारत शामिल है। जोकि हर साल 40,000 करोड़ क्यूबिक मीटर से भी ज्यादा पानी का उपभोग कर रहा है। जबकि हाल ही में एक्वाडक्ट वाटर रिस्क एटलस में भी जल संकट का सबसे ज्यादा सामना कर रहे 17 देशों की लिस्ट में भारत को 13वां स्थान दिया है। जो देश में बढ़ते जल संकट को दर्शाता है। कुछ समय पहले जिस तरह चेन्नई में डे जीरो की स्थिति बनी थी, वो देश में इस समस्या को उजागर करती है। केवल चेन्नई ही नहीं दिल्ली सहित देश के कई अन्य शहरों में भी पानी की समस्या गंभीर रूप लेती जा रही है।
इससे निपटने के लिए देश में न केवल नवीन तकनीकी ज्ञान की जरुरत पड़ेगी बल्कि साथ ही जल समस्या से निपटने के लिए अपनी पारम्परिक विरासत और पुरखों के ज्ञान की भी मदद लेनी होगी। देश में जितना जल बरसता है वो ऐसे ही बर्बाद चला जाता है अब समय आ गया है कि जिस तरह हमारे पुरखों ने इस जल को संजोया था हम भी उसी तरह इसको संरक्षित करें। पानी की जो बर्बादी हो रही है उसे कम किया जाए । साथ ही उसके प्रबंधन से जुड़ी नीतियों में भी सुधार करने की जरुरत है। यह न केवल सरकार की जिम्मेदारी है इसमें हर किसी को अपनी भूमिका समझनी होगी। जिससे भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के लिए भी इसे बचाया जा सके।(downtoearth)
-तथागत भट्टाचार्य
अमेरिका के 31वें राष्ट्रपति हर्बर्ट क्लार्क हूवर और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच अजब समानता है। हूवर का पूरा कार्यकाल मंदी की चपेट में रहा। इसी दौरान 1929-1933 की भयानक मंदी आई, जिसने अमेरिका के समाज और अर्थव्यवस्था पर कहर बरपाया था। मोदी के कार्यकाल में भी भारतीय अर्थव्यवस्था का क्रमिक पतन देखा गया है, जो अब पूरी तरह मंदी की गिरफ्त में है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब केवल छह साल पहले दुनिया की सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक रहे किसी देश की ऐसी हालत हो गई हो। इसमें संदेह नहीं कि कोविड की मार पूरी दुनिया पर पड़ी है, लेकिन हमारे यहां स्थिति कितनी खतरनाक है, इसका अंदाजा हाल ही में आए आंकड़ों से लग जाता है। इसमें शक नहीं कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के मैराथन उपाय करने होंगे, अब सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि सरकार क्या करती है।
वापस हूवर और मोदी पर आते हैं। डराने वाली बात तो यह है कि इन दोनों की समानता यहीं खत्म नहीं होती। जिस तरह हूवर वास्तविकता को स्वीकार करने से इनकार करते रहे, वैसा ही हाल मोदी का है। हूवर के वित्तमंत्री एंड्रयू मेलन ने सितंबर, 1929 में कहा था, “चिंता का कोई कारण नहीं है। समृद्धि का यह सिलसिला जारी रहेगा।” हूवर शासन के तमाम ओहदेदार इसी तरह की बातें करते रहे। इस दौड़ में सबसे आगे खुद हूवर रहे जिन्होंने मई, 1930 में कहा था, “अर्थव्यवस्था को नीचे आए अभी छह माह हुए हैं और मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि हम सबसे बुरे वक्त से निकल चुके हैं और एक साथ कोशिश करके हम तेजी से स्थिति पर काबू पा सकेंगे।”
उस महामंदी के दौर के तथ्यों और घटनाओं पर गौर करना दिलचस्प है क्योंकि निर्मला सीतारमण, अनुराग ठाकुर -जैसे मोदी सरकार के मंत्रियों से लेकर सरकार की हां में हां मिलाने वाले उद्योगपति जो कुछ भी कह रहे हैं, वह महामंदी के उसी दौर की याद दिला रहा है। ऐसे समय में जब 2020 की पहली तिमाही -अप्रैल से जून- की जीडीपी में 23.9 फीसद की गिरावट आई है और यह अर्थव्यवस्था में 40 प्रतिशत से अधिक के कुल संकुचन की ओर इशारा कर रहा है। फिर भी, सरकार है कि वास्तविकता को मानने को तैयार नहीं। करोड़ों लोगों का रोजगार छिन गया है और उनके परिवारों के पास बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का भी साधन नहीं।
जेएनयू के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग (सीईएसपी) के सहायक प्रोफेसर सुरजीत दास कहते हैं, “यह मानते हुए कि अगली दो तिमाहियों के दौरान विकास दर नकारात्मक रहेगी और अंतिम तिमाही में यह सुधरकर शून्य के स्तर पर आएगी, मुझे लगता है कि वार्षिक आधार पर अर्थव्यवस्था में कम-से-कम 20 फीसदी की कमी रहेगी। फिलहाल लगभग तीन करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं और 2020-21 वित्तीय वर्ष के अंत तक कम-से-कम 20 फीसदी कार्यबल, यानी लगभग 9 करोड़ और लोग बेरोजगारों में शामिल हो जाएंगे।”
जेएनयू प्रोफेसर सुरजीत दास ने आगे कहा, “साफ है, यह समय राजकोषीय रूढ़िवाद का नहीं है। जब तक ग्रामीण और शहरी गरीबों के हाथ में पैसा नहीं डाला जाता, मांग नहीं बढ़ेगी। अभी सरकार को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से उधार लेकर उसे अर्थव्यवस्था में डालना चाहिए।”
केंद्र के पास ऐसा नहीं करने का कोई तर्क नहीं है। राजकोषीय घाटे का लक्ष्य पहले ही पूरा नहीं किया जा सका है और जब मांग में जबर्दस्त मंदी की स्थिति हो तो ऐसे में आरबीआई से पैसे उधार लेने से मुद्रास्फीति पर भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। आरबीआई के पास जीडीपी के 18 प्रतिशत के बराबर विदेशी मुद्रा भंडार है। उसमें से कम-से-कम आठ प्रतिशत तो अर्थव्यवस्था में डाला ही जा सकता है जो मांग को बढ़ाने में मदद करेगा और इससे निवेश बढ़ेगा, रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। इसके अलावा अगर भारत की शीर्ष दस कंपनियों की बैलेंस शीट पर नजर डालें तो पता चलता है कि उन्होंने लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का भंडार बना रखा है। इसके एक हिस्से को बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में लगाकर अर्थव्यवस्था को गति देने की कोशिश की जा सकती है।
जाने-माने अर्थशास्त्री अरुण कुमार का मानना है कि आगे के लिए ऐसी व्यवस्था बेहतर होगी जिसमें नकदी का सीधे हस्तांतरण हो और लोगों को उनके घर तक अनाज और अन्य बुनियादी जरूरत की चीजें मुहैया कराई जाएं। वह कहते हैं, “चूंकि कीमतें बढ़ रही हैं और लोगों ने रोजगार खो दिए हैं, चिल्लर हस्तांतरण से काम नहीं चलने वाला। लॉकडाउन के शुरू में नौकरशाही और सरकारी मशीनरी को सक्रिय किया जाना चाहिए था। परिवहन विभाग की बसों से लोगों तक अनाज और अन्य जरूरी सामान पहुंचाए जाने चाहिए थे।”
जेएनयू के सीईएसपी में एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु कहते हैं, “मनरेगा का विस्तार समय की जरूरत है। इसके तहत मजदूरी को भी बढ़ाकर दोगुना किया जाना चाहिए, नहीं तो यह असंगठित क्षेत्र में बेरोजगार हुए लोगों को रोजगार देने में मददगार नहीं हो सकेगा।” सुरजीत दास भी मनरेगा के विस्तार के पक्ष में हैं। वह कहते हैं, “50 करोड़ से अधिक भारतीय अब शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। आय हानि के मुआवजे के लिए मांग को बढ़ाना होगा। इसका मतलब है कि हर जन-धन खाते में हर माह 7,000-8,000 रुपये आएं, ना कि 500-1000 रुपये।’’
इसके साथ ही, ग्रामीण और शहरी गरीबों को प्रतिदिन 350 रुपये और 450 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से भुगतान किया जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी सरकार की दिक्कत यह है कि कोविड-19 से पहले ही उसकी नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया था, बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि पतन शुरू हो गया था और सरकार ने हालात को सुधारने के गंभीर प्रयास नहीं किए। बाद में, जब कोरोना का संकट छाया तो जहां दुनिया के तमाम देशों ने अपने जीडीपी के 10-20 फीसदी के बराबर प्रोत्साहन पैकेज दिए, मोदी सरकार ने महज 63,000 करोड़ रुपये यानी जीडीपी का केवल एक प्रतिशत निकाला।
कॉर्पोरेट्स को छूट और कर राहत से हालात नहीं सुधर सकते। कम दरों पर ऋण की सुविधा का इस्तेमाल कॉरपोरेट अपनी महंगी पुरानी देनदारियों को चुकाने में करते हैं और अर्थव्यवस्था की स्थिति वैसी ही रहती है। इस स्थिति का नुकसान दूसरी तरह से होता है। उपभोक्ता मांग गिरती है, तो उत्पादन स्तर अपने आप नीचे आ जाता है और जब उत्पादन कम हो जाता है तो लोगों का रोजगार जाता है।
चूंकि कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में राज्य सबसे आगे रहे हैं और स्वास्थ्य और शिक्षा- जैसे सामाजिक क्षेत्र राज्यों की जिम्मेदारी हैं, केंद्र को चाहिए कि वह राज्यों को उनके बकाये का भुगतान जल्द से जल्द करे। आरबीआई से उधार लेकर अर्थव्यवस्था में डालने से नई पूंजी का मार्ग प्रशस्त होगा। केंद्र ने राज्यों से कहा है कि वह चालू वित्त वर्ष के लिए उनके जीएसटी बकाये के भुगतान की स्थिति में नहीं है, जबकि केंद्र सरकार तो जीएसटी का बकाया देने को बाध्य है। अर्थव्यवस्था के सुस्त पड़ने के साथ ही जीएसटी संग्रह और गिरने जा रहा है। नौकरियों और रोजगार में कमी होने से आयकर और अन्य अप्रत्यक्ष कर संग्रह में भी काफी कमी आएगी। सरकार को यह समझते हुए अर्थव्यवस्था में धन डालना चाहिए।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच लगभग 1.9 करोड़ वतेनभोगी लोगों की नौकरी चली गई। ऐसे में असंगठित क्षेत्र की स्थिति की सहज ही कल्पना की जा सकती है। जरूरत है कि चार-पांच वर्षों के नियोजित व्यय को अगले दो वर्षों में खर्च करें। सार्वजनिक निवेश को बढ़ाकर और आरबीआई से अल्पकालिक उधार लेकर अर्थव्यवस्था को दो साल के भीतर पटरी पर लाया जा सकता है। इसके लिए ठोस योजना होनी चाहिए। हमें मांग को बढ़ाना होगा, बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश करना होगा। मोदी सरकार को समझना चाहिए कि यह समय राजकोषीय रूढ़िवाद का नहीं है। दास कहते हैं, “क्रेडिट रेटिंग अब मायने नहीं रखती। जीवन और आजीविका अहम हैं।”(NAVJIVAN)
कोरोना वायरस जैसी महामारी के आने के बाद से दुनिया के लगभग सभी हिस्सों में स्कूल-कॉलेज बंद हैं. बीते छह महीने से भारत सहित सभी देशों में बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाई करवाई जा रही है. देखा जाए तो इस समय शिक्षा के मामले में बच्चे पूरी तरह से इंटरनेट पर निर्भर हैं. स्कूलों के अलावा बच्चे ट्यूशन बगैरह भी ऑनलाइन ही कर रहे हैं. कई कोचिंग सेंटर्स ने इस बीच अपने एप भी लॉन्च किये हैं, जिनसे घर बैठे पढ़ाई की जा सकती है. लेकिन बीते करीब छह महीनों के दौरान इंटरनेट पर ऐसे कोचिंग संस्थानों के ऐड भी छाए हुए हैं, जो पांच-छह साल के बच्चे को कोडिंग या प्रोग्रामिंग सिखाने की बात करते हैं. इनका दावा है कि ये बच्चों को कुछ ही समय में (तक़रीबन एक महीने के अंदर) ऐप और गेम बनाना सिखा देंगे. ऐसे कुछ संस्थानों ने कुछ स्कूलों के साथ भी अनुबंध किया है, जिसके बाद उनमें से कई स्कूल बच्चों के माता-पिताओं पर ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस का दबाव बना रहे हैं. पांच से छह साल की उम्र के बच्चों को कोडिंग सिखाने की बात सुनकर शायद ही कोई ऐसा हो जिसके दिमाग में कुछ सवाल न उठ रहे हों: क्या इतने छोटे बच्चों को कोडिंग सिखाई जा सकती है? ये संस्थान इन बच्चों को किस तरह से कोडिंग सिखाते हैं? और सबसे अहम सवाल यह कि इतनी छोटी सी उम्र के बच्चों को कोडिंग सिखाना कितना सही है?
बच्चों को कोडिंग की क्लॉस में क्या सिखाते हैं?
ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस में बच्चों को क्या सिखाया जाता है यह जानने के लिए सत्याग्रह ने कुछ ऐसे अभिभावकों से बात की, जिनके बच्चों ने ऑनलाइन कोडिंग सीखी है. नॉएडा के वरिंदर सैनी ने पिछले दिनों अपनी छह साल की बेटी को एक चर्चित संस्थान में ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस ज्वाइन करवाई थी. वे सत्याग्रह से अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘हमने अपनी बच्ची को करीब छह क्लॉस करवाई थीं. वो कुछ इस तरह की चीजें सिखाते थे कि एक चेस बोर्ड है, उस पर एक खरगोश है, दूर कहीं एक गाजर रखी है, अब आपको सबसे छोटे रास्ते से खरगोश को गाजर तक पहुंचाना है, इस रास्ते में कुछ मोड़ होंगे, आपको लेफ्ट, राइट और आगे बढ़ने की कमांड से (बटन दबाकर) खरगोश को गाजर तक पहुंचाना है. लगभग इसी तरह की चीजें वे मेरी बेटी को सिखाते थे.’
यह पूछने पर कि क्या आप इससे संतुष्ट थे और क्या आपकी उम्मीद के मुताबिक बच्चे को कोडिंग सिखाई जा रही थी. वरिंदर सैनी कहते हैं, ‘ये लोग (कोडिंग सिखाने वाले) अपने ऐड में दावा करते हैं कि बच्चे को कुछ ही दिनों में इतनी कोडिंग सिखा देंगे कि वो ऐप बनाना सीख जाएगा, ऐसा तो कुछ भी नहीं होता. जिस तरह का ये प्रचार करते हैं, वैसा तो कुछ भी नहीं होता... (जो उन्होंने सिखाया उसमें) कोडिंग जैसा तो कुछ भी नहीं था. वे लोग जो सिखाते हैं वो तो एक तरह से एल्गोरिथम (किसी काम को पूरा करने का क्रमबद्ध तरीका) सिखाना है.’ एक बहुराष्ट्रीय सॉफ्टवेयर निर्माता कंपनी में कार्यरत वरिंदर का मानना है कि ये संस्थान जो सिखा रहे हैं, वह बच्चे को सिखाया तो जाना चाहिए, लेकिन इसके लिए कोई विशेष ऑनलाइन कोर्स करवाने की जरूरत नहीं है क्योंकि ये सब तो यूट्यूब और तमाम फ्री एप के जरिये भी सिखाया जा सकता है.
वरिंदर ऑनलाइन कोडिंग संस्थानों के मार्केटिंग के तरीके से खासे नाराज दिखे. वे कहते हैं, ‘मुझे इन लोगों के ऐड का तरीका बिलकुल सही नहीं लगता है, ये अभिभावकों में हीन भावना भरते हैं कि आपका बच्चा कोडिंग नहीं करेगा तो पिछड़ जायेगा. यहां तो एक भेड़ चाल है, लोग इनकी बात सुनकर और देखकर दौड़ पड़ते हैं... यह तरीका सही नहीं है. ये लोग बिल गेट्स, सुंदर पिचाई और स्टीव जॉब्स का फोटो लगाकर लोगों को बेवकूफ बनाते हैं, जबकि ऐसे कई लोगों ने कभी कोडिंग ही नहीं की.’
ग्रेटर नॉएडा में रहने वाली ज्योत्सना श्रीवास्तव ने भी अपने आठ साल के बेटे को एक नामी संस्थान में ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस ज्वाइन करवाई. सत्याग्रह से बातचीत में वे बताती हैं, ‘इस क्लॉस में विशेष तरह का कुछ नहीं था. उनके पास कुछ रेडीमेड कोड ब्लॉक्स बने थे, इन ब्लॉक्स को बच्चे को इस तरह से व्यवस्थित करना था कि किसी ऐप का फंक्शन सही ढंग से काम करने लगे, या कुछ कोड ब्लॉक्स को इस तरह सेट करना होता था कि कोई शब्द बन जाए या किसी तस्वीर का बैकग्राउंड कलर चेंज हो जाए’
ज्योत्सना और साधारण तरीके से समझाते हुए कहती हैं, ‘ये लगभग वैसा ही था जैसे बच्चों के लिए बनाए गए वीडियो गेम्स में होता है - किसी गेम में अल्फाबेट को इस तरह व्यवस्थित करना पड़ता है कि उनसे कोई अर्थ पूर्ण शब्द बन जाए... कुछ गेम्स ऐसे होते हैं जिनमें टास्क दिया जाता है कि आपके पास चार लकड़ी हैं, अब उन्हें इस तरह से जमाओ कि कोई व्यक्ति उनके जरिये एक नदी को पार कर ले.’
छोटे बच्चों को ऑनलाइन कोडिंग क्लॉस में किस तरह से कोडिंग सिखाई जाती है, इसे लेकर मुंबई के सरफराज अहमद ने भी अपना अनुभव सत्याग्रह से साझा किया. ‘मेरा बेटा सातवीं क्लॉस में है. अन्य लोगों की तरह ही मैं भी ऐड देखकर एक चर्चित कोडिंग संस्थान की ओर आकर्षित हुआ, मैंने पहले बच्चे को एक ट्रायल क्लॉस करवाई, जो पूरी तरह मुफ्त थी. इस क्लॉस के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि आपका का बच्चा बहुत ज्यादा बुद्धिमान है और वह कोडिंग के लिए एकदम परफेक्ट है... मुझे पता था कि मेरा बच्चा पढ़ने में होशियार है इसलिए मैं और खुश हो गया और मैंने आगे की क्लॉस के लिए मन बना लिया.’
सरफ़राज़ अहमद सॉफ्टवेयर निर्माण का ही काम करते हैं और कोडिंग से उनका पुराना नाता है, उन्हें आईटी सेक्टर में करीब 17 सालों का लंबा अनुभव हो चुका है. कोडिंग की जानकारी होने के चलते ही उन्होंने कोडिंग ट्रेनर से कोर्स और पढ़ाने के तरीके को लेकर बेहद बारीकी से बातचीत की. वे कहते हैं, ‘ट्रेनर ने मुझे बताया कि उनका कोर्स (पाठ्यक्रम) बहुत विस्तृत है और नामी विशेषज्ञों द्वारा बनाया गया है. लेकिन उन्होंने मेरे बेटे के लिए जो पाठ्यक्रम दिया था, उसमें कोडिंग से जुडी काफी ऐसी चीजें थीं जिन्हें देखकर मुझे लगा कि एक सातवीं क्लॉस का बच्चा जिसने अभी-अभी गणित में एल्जेब्रा पढ़नी शुरू की है, वह इस तरह की कोडिंग कैसे करेगा? इसलिए, मैंने उनसे पूछा कि आप कोर्स में दी गयी चीजें बच्चे को कैसे सिखाओगे? क्या बच्चा सच में जावा (प्रोग्रामिंग लैंग्वेज) में कोडिंग करेगा?’
सरफ़राज़ के मुताबिक काफी पूछने पर ट्रेनर ने उन्हें जो बताया उसके बाद वे यह समझ गए कि माजरा क्या है. ‘मैं समझ गया कि इन्होंने रेडीमेड कोडिंग तैयार कर रखी है और ये बच्चे को केवल यह सिखाएंगे कि पूरी रेडीमेड कोडिंग में उसका कौन-सा हिस्सा (ब्लॉक) कहां फिट करना है जिससे ऐप या गेम डेवलप हो जाए... यह तो कुछ ऐसा हुआ कि आप किसी पहली कक्षा के बच्चे को कोई लंबा-चौड़ा संस्कृत का श्लोक रटवा दीजिये जबकि उस बच्चे को संस्कृत का बिलकुल ज्ञान न हो. आप ही बताइये इससे क्या फायदा होने वाला है’ सरफ़राज़ अहमद कहते हैं.
इस तरह के कोर्स को लेकर आईटी विशेषज्ञों का क्या कहना है?
छोटे बच्चों की कोडिंग क्लॉस को लेकर कुछ अभिभावकों द्वारा साझा किए गए अनुभव के बारे में सत्याग्रह ने आईटी सेक्टर के कुछ विशेषज्ञों से बात की. इन लोगों का साफ़ तौर पर कहना था कि किसी पांच या छह या फिर आठ साल के बच्चे को प्रोग्रामिंग सिखाना संभव ही नहीं है. और जो लोग इस तरह का दावा कर रहे हैं वे सिर्फ अपने व्यवसाय के लिए लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं. एक बहुराष्ट्रीय आईटी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत आकाश पाण्डेय सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘देखिये, प्रोग्रामिंग या कोडिंग हमेशा ही एक प्रॉब्लम सॉल्विंग तकनीक (समस्या को हल करने का तरीका) होती है. यानी आपको कोई समस्या बतायी गई तो आपको उसका सबसे बेहतर समाधान निकाल कर देना है. इसके लिए कम से कम बेसिक मैथ (गणित) और थोड़ी बहुत फिजिक्स की जानकारी भी होना जरूरी है. आप अगर कोई ऐप या गेम बनाते हो तो उसमें गणित का इस्तेमाल तो होना ही है. लेकिन पांच से छह साल के बच्चे को मैथ और फिजिक्स का बेसिक ज्ञान तो छोड़िए उसे जोड़, घटाना, गुणा और भाग के लिए खासी माथापच्ची करनी पड़ेगी. ऐसे में वह प्रोग्रामिंग कैसे सीखेगा.’
हालांकि, आकाश ऑनलाइन कोडिंग संस्थानों के कोर्स (पाठ्यक्रम) को लेकर एक और बात भी कहते हैं. ‘सही कहूं तो बच्चों के हिसाब से ऐसा ही पाठ्यक्रम हो सकता है क्योंकि आप उन्हें सीधे प्रोग्रामिंग नहीं सिखा सकते. कोडिंग की दुनिया में कदम रखने पर बच्चों को सबसे पहले ‘प्रॉब्लम सॉल्विंग’ जैसी चीजें ही सिखाई जा सकती हैं. लेकिन इसके लिए बच्चे को किसी नामी संस्थान में विशेष कोडिंग क्लॉस ज्वॉइन करवाने की जरूरत नहीं है, यह सब तो इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध है.’ आकाश पाण्डेय के मुताबिक, ‘एमआईटी (मैसाचुसेट्स इन्स्टिट्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी) का स्क्रैच सॉफ्टवेयर बच्चों के मामले में सबसे बेहतर विकल्प है, यह मुफ्त है और इसमें रेडीमेड कोडिंग ब्लॉक्स के जरिये ही बच्चों को प्रॉब्लम सॉल्व करना सिखाया जाता है. एक बच्चा यूट्यूब पर स्क्रैच के वीडियो देखकर इसके बारे में सबकुछ खुद ही सीख सकता है.’ हालांकि, आकाश का मानना है कि स्क्रैच के लिए भी बच्चे की उम्र कम से कम दस या बारह साल तो होनी ही चाहिए.’
सत्याग्रह से बातचीत में आकाश पाण्डेय की तरह कुछ अन्य विशेषज्ञ भी यह मानने को तैयार नहीं थे कि पांच से छह साल के बच्चे को कोडिंग सिखाई जा सकती है. दिल्ली के अनमोल वर्मा एक बहुराष्ट्रीय आईटी कंपनी में कार्यरत हैं और बीते दस सालों से कोर प्रोग्रामिंग कर रहे हैं. अनमोल सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘मैं काफी समय से कोर प्रोग्रामिंग ही कर रहा हूं और यह इतना भी आसान काम नहीं है कि आप पांच या दस साल के बच्चे को सिखा देंगे. पाठ्यक्रम कितना भी अच्छा क्यों ना हो, लेकिन आप इससे पांच या आठ साल के बच्चे को कोडर नहीं बना सकते हो, यह तो संभव नहीं है. हां, यह जरूर हो सकता है कि रेडीमेड कोड में ब्लॉक्स इधर-उधर सेट करवाकर आप बच्चे से ऐप या गेम बनवा दो. लेकिन इससे बच्चा प्रोग्रामर नहीं हो जाता... साफ़ कहूं तो इन संस्थानों ने माता-पिता की साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) पर बहुत रिसर्च किया है, जिससे वे उन्हें अपने जाल में फांस लेते हैं.’ कुछ संस्थान कोडिंग की बात करते हुए यह दलील देते हैं कि इससे बच्चे का मानसिक विकास होगा, उसके अंदर लॉजिक डेवलप होंगे, वह किसी समस्या का समाधान जल्द निकालना सीख जाएगा. इस पर अनमोल कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता इन सबके लिए बच्चे को विशेष कोडिंग क्लॉस करवानी चाहिए, ये खूबियां तो तमाम वीडियो गेम्स खेलकर और पज़ल सॉल्व करके बच्चों में डेवलप हो जाती हैं.’
क्या पांच-छह साल के बच्चों को कोडिंग सिखाना सही है?
बच्चों को कोडिंग सिखाने को लेकर दुनिया भर के शिक्षाविद कई बार अपनी राय सार्वजनिक रूप से साझा कर चुके हैं. इनमें अधिकांश का मानना है कि बच्चों को कोडिंग नहीं सिखाई जानी चाहिए. इनके मुताबिक पांच या आठ साल के बच्चों की उम्र को देखते हुए यह उनके लिए एक गैरजरूरी चीज है जिसका बोझ उनके दिमाग पर डालना सही नहीं है.
अमेरिका में बाल विकास और टीचर्स ट्रेनिंग के विशेषज्ञ जॉनी कास्त्रो का मानना है कि बच्चों पर 15 या 16 साल की उम्र से पहले कोडिंग सीखने का दबाव नहीं बनाना चाहिए. एक साक्षात्कार में कास्त्रो कहते हैं, ‘बच्चों को आप बचपन के मजे लेने दीजिये, यह उम्र उनके दिमाग पर बोझ बढ़ाने की नहीं है. उन्हें केवल गणित, विज्ञान, अग्रेजी ही सीखने दीजिये, उन्हें खेल के मैदान में छोड़ दीजिए, लोगों की बातें सुनने दीजिए, नैतिक शिक्षा पढ़ाइये... ये सभी चीजें पांच-दस साल के बच्चे के लिए सबसे ज्यादा जरूरी हैं क्योंकि इनसे ही उसका संपूर्ण विकास होगा न कि कोडिंग से.’
कास्त्रो का यह भी मानना है कि अगर किसी बच्चे को कोडिंग में विशेष दिलचस्पी है, तो भी उसे पहले बेसिक स्कूल पाठ्यक्रम जैसे - गणित, इंग्लिश, विज्ञान ही पढ़ने देना चाहिए. उनके मुताबिक किसी बच्चे को कोडिंग में एक्सपर्ट बनाने से पहले उसे बेसिक शिक्षा का पूरा ज्ञान होना चाहिए.
मुंबई के सरफराज अहमद ने सत्याग्रह से बातचीत के दौरान अपने जीवन की एक घटना भी साझा की थी, जिससे यह समझा जा सकता है कि बारहवीं कक्षा तक किसी बच्चे का पूरा ध्यान बेसिक स्कूल पाठ्यक्रम पर होना क्यों जरूरी है. सरफराज कहते हैं, ‘करीब 20 साल पहले मेरे एक दोस्त ने मुझे अपने छोटे भाई से मिलवाया था, जो तब आठवीं कक्षा में था लेकिन जबरदस्त कोडिंग करता था. उस समय उस बच्चे ने मीडिया प्लेयर बना लिया था. ऐसा लगता था कि उस बच्चे के अंदर कोडिंग का हुनर ‘गॉड गिफ्टेड’ है. मैं उससे काफी प्रभावित हुआ. लेकिन, वह आठवीं क्लॉस का बच्चा कोडिंग में इतना मशगूल हो गया था कि उसका अपनी स्कूल की पढ़ाई से ध्यान हट गया था. नतीजा यह हुआ कि वह नौवीं कक्षा में कई विषयों में फेल हो गया. इसके बाद घर वालों ने उसकी कोडिंग छुड़वाई और बारहवीं कक्षा तक केवल गणित, विज्ञान और अंग्रेजी पर ध्यान देने को कहा.’ सरफराज कहते हैं कि उस बच्चे को भी तब यह समझ आ गया था कि अगर वह दसवीं और बारहवीं पास नहीं कर पाया तो उसे कोडिंग का शायद ही कोई फायदा मिले.
अमेरिका के राष्ट्रीय साइबर वॉच सेंटर में पाठ्यक्रम निर्धारण विभाग की निदेशक मार्गरेट लेरी प्रोग्रामिंग और तकनीक के मामले में एक बेहद रोचक तथ्य बताती है. इससे भी यह समझा जा सकता है कि क्यों बच्चों को प्रोग्रामिंग सिखाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. एक समाचार पत्र से बातचीत में वे कहती हैं, ‘कई अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि हर तकनीक अगले दो साल में 60 फीसदी तक पुरानी हो जाती है क्योंकि बहुत जल्द नयी तकनीक बाजार में आ जाती है.’ उनके मुताबिक ऐसे में कम उम्र में किसी बच्चे को सिखाई गई कोई प्रोग्रामिंग लैंग्वेज दस या पंद्रह साल बाद उसे आईटी सेक्टर में नौकरी दिलवाने में मदद करगी इसकी संभावना न के बराबर ही है.
क्या कोडिंग देर से सीखने पर आपका बच्चा औरों से पिछड़ जाएगा?
सत्याग्रह ने वरिंदर सैनी के अलावा और भी कई अभिभावकों से ऑनलाइन कोडिंग संस्थानों को लेकर बातचीत की तो उन्होंने भी यही कहा कि इन संस्थानों की मार्केटिंग टीम के सदस्य अभिभावकों के अंदर हीन भावना भरने की पूरी कोशिश करते हैं. ये अभिभावकों से कहते हैं कि आज दुनिया भर में हर कोई अपने बच्चे को कोडिंग सिखा रहा है और अगर आप अपने बच्चे को नहीं सिखाओगे तो वह इस प्रतिस्पर्धी दौड़ में औरों से पिछड़ जाएगा.
बच्चों की तकनीक से जुडी शिक्षा पर कई किताबें लिख चुके अमेरिकी लेखक डॉ जिम टेलर भी मानते हैं कि अभिभावकों में यह डर रहता है कि उनका बच्चा दूसरे बच्चों से पिछड़ न जाए और इसलिए वे उन्हें कम उम्र में ही कोडिंग क्लॉस में भेजने लगते हैं. एक साक्षात्कार में टेलर कहते हैं, ‘बच्चों के मामले में कोडिंग इतनी लोकप्रिय इसीलिए है क्योंकि माता-पिता डरते हैं कि अगर उनका बच्चा तकनीक (कोडिंग) की ट्रेन में जल्द सवार नहीं हुआ, तो फिर वह कभी भी वह ट्रेन नहीं पकड़ पायेगा... लेकिन लोग यह नहीं समझते कि कम उम्र में कोडिंग सीखना सफलता की कुंजी नहीं है. तकनीक के मामले में जो आज है, वह कल नहीं होगा. उन्हें समझना चाहिए कि आने वाले तकनीक के युग में वह बच्चा सफल होगा जिसके अंदर अपने आइडिया होंगे, रचनात्मकता होगी, नया सोचने की क्षमता होगी.’ टेलर के मुताबिक, ‘इसलिए माता-पिता को बच्चों के सम्पूर्ण विकास पर ध्यान देना चाहिए, उन्हें गहरी सांस लेनी चाहिए और बच्चों को अच्छे माहौल में चीजों को परखने देना चाहिये.’
क्या कोडिंग देर से सीखने पर कोई बच्चा औरों से पिछड़ जाएगा? इस सवाल पर दिल्ली स्थित एक आईटी कंपनी में वरिष्ठ सॉफ्टवेयर डेवलपर सुचित कपूर जोर से ठहाका लगाते हैं. वे बहुत ही प्रैक्टिकल जबाव देते हुए कहते हैं, ‘कोडिंग कोई मैथ, साइंस या इंग्लिश नहीं है, जिसे आपका बच्चा अगर कुछ महीने या साल तक नहीं सीखेगा, तो अन्य बच्चों से पिछड़ जाएगा. प्रोग्रामिंग तो एक तकनीक है, आप इसे कभी भी सीख सकते हो.’ सुचित अपना ही उदाहरण देते हुए बताते हैं कि उन्होंने एमसीए (मास्टर ऑफ़ कंप्यूटर एप्लीकेशन) की पढ़ाई की है. एमसीए में ही उन्होंने प्रोग्रामिंग सीखी, उससे पहले प्रोग्रामिंग से उनका कोई नाता नहीं था, क्योंकि उन्होंने साइंस से बीएससी करने के बाद एमसीए किया था. सुचित के मुताबिक इसके बावजूद उन्हें एमसीए के दौरान कोडिंग सीखने में कोई परेशानी नहीं हुई और एक अच्छी कंपनी में उनका प्लेसमेंट हुआ, आज वे एक कोर एंड्रायड प्रोग्रामर हैं.(SATYAGRAH)
कनुप्रिया
आप सोचते हैं कि खाली जनता की ही बेरोजगारी है? सोचिये कि गोदी मीडिया के पास रोजगार की कितनी कमी है, सुशांत सिंह राजपूत के केस की आखिरी बूँद तक निचोड़ लेने और कँगना के मुद्दे की राई को पहाड़ बना लेने के बाद अब जब उसमें राई बराबर मसाला नहीं रह गया, गोदी मीडिया बेरोजगार हो गया है।
उधर जब उनकी खबरों में भारत के सैनिक चीन को धकेल रहे थे, चीन का ठंड से पहले थर थर काँपना ही बाकी था भारत सरकार को जाने क्या हुआ अक्साई चीन जीतते जीतते रूस में समझौता कर आई, अमित शाह के दावों पर पानी फेर दिया, मोदीजी को लाल-लाल आँख दिखाने का मौका ही नहीं मिला। मगर असल मार गोदी मीडिया पर पड़ी, स्टूडियो सैट में नकली पहाड़ों पर बर्फ की वर्दी पहनकर झंडा लहराते हुए चीन के दाँत खट्टे करने वाली रिपोर्टिंग का ख्वाब-ख्वाब रह गया, महीनों का काम प्रोजेक्ट चीन हाथ से निकल गया।
अब गोदी मीडिया क्या करेगा?
यूँ मीडिया के पास देखा जाए तो काम की कमी नहीं, हैं कुछ मुद्दे जो अनवरत बने हुए हैं, जिनसे जनता त्रस्त है, भयंकर बेरोजग़ारी है, पाताल तोड़ जीडीपी है, किसान समस्याएँ हैं, भारत की कोरोना रैंकिंग और चिकित्सा व्यवस्था है, आकाश तोड़ महँगाई है, डीजल-पेट्रोल की कीमतें हैं जिस रेट पर सब्जियाँ भी मिलने लगी हैं, फिर स्कूल खुलने वाले हैं और नई शिक्षा नीति भी बहस तलब है।
यानि जो सच मे मीडिया काम करना चाहे तो न मुद्दों की कमी है न काम की, फिर भी बेचारा गोदी मीडिया हर रोज कुआँ खोदता है, खोद कर एक गैरजरूरी मुद्दा निकालता है और हफ्तों जुगाली करता है।
मोदी जी दरख्वास्त है कोई इवेंट कर लें अब ताकि गोदी मीडिया को काम मिले, हफ्ता तो निकल जाए फिर नई दिहाड़ी ढूँढेगा।
या फिर घर बैठे 5 किलो चावल और गेहूँ ही क्यों नही दे देते, जहाँ इतनों को दिया इन्हें भी दे दीजिये, कहाँ जरूरत है इन्हें भी रोजगार की, यकीन कीजिये घर बैठे इन्हें भी राशन देने अर्थव्यवस्था कुछ और नहीं बिगड़ जाएगी।
अनुपमा सक्सेना
हाँ दोनों प्रकरणो में अंतर हैं,
कंगना अपने राजनीतिक संबंधों की कीमत चुका रही हैं और रिया सुशांत के साथ अपने प्यार के संबंधों की ।
कंगना राजनीति में और राजनीतिज्ञों को चुनौती दे रही हैं, ललकार रही हंै तो प्रतिक्रियाएँ तो मिलेगी। भारतीय राजनीति में यह सब रोज देख रहे। सरकारें बदलने पर बड़े-बड़े दलों के बड़े-बड़े नेताओं के साथ क्या होता है देख लें ।
कंगना, राजनीति के मैदाने जंग में खुद उतरी हैं तो जाहिर है कि लाभ-हानि का गणित लगाकर उतरी होंगी। और लाभ अधिक दिखे होंगे इसलिए उतरी हैं। रिया इस पूरे चक्कर में समय के चक्र से अनजाने ही आ गईं। वो न चाहते हुए भी राजनीति का हिस्सा बना दी गईं। उनके हिस्से मेंअभी फिलहाल तो सिर्फ नुकसान नजर आ रहे ।
वह करनी सेना जो दीपिका पादुकोण के विरुद्ध फतवे जारी कर रही थी और जिस करनी सेना के विरोध में सुशांत ने अपने नाम से राजपूत शब्द हटा दिया था अब कंगना के समय नारीवादी बन गई। कायदे से तो सुशांत के फैन को कंगना से अपील करनी चाहिए कि वे करनी सेना का विरोध करें। सुशांत के फैन अब कंगना के फैन बना दिए जाएँगे। शायद कंगना बिहार में चुनाव प्रचार के लिए भी आमंत्रित कर ली जाएँ ।
इन सबके बीच में सुशांत के फैन का जो मुद्दा था कि सुशांत की मौत की सच्चाई पता लगाने का, वो बचेगा या नहीं ?
हाँ एक बात ज़रूर है कि इस पूरे प्रकरण में चर्चा में जो प्रमुख सोच रही है उससे महिला पुरूष संबंधों में महिला को जिम्मेदार ठहरने की सोच जरूर और मज़बूत हो जाएगी। रिश्ते टूटे या घर, महिला ही जि़म्मेदार। पुरूष शराब, नशा करे तो भी महिला जि़म्मेदार। कई बार तो बिगड़े हुए लडक़े की शादी इसलिए की जाती है कि शादी के बाद सुधार जाएगा । न सुधरे तो पत्नी जि़म्मेदार।
एक बात और होगी कि मीडिया की व्यक्तियों का मीडिया ट्रायल करने की छूट लेने का दायरा भी जो बढ़ गया है वह अब छोटा नहीं होगा। और उसकी जद में हमारे आपके अपने भी आएँगे , आगे चलकर ।
और मेंटल हेल्थ , अरे वो इस प्रकरण में कोई मुद्दा था भी क्या ?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे माननीय सांसदों और विधायकों में से 4442 ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। इनमें पूर्व सांसद और विधायक भी हैं। सांसदों और विधायकों की कुल संख्या देश में 5 हजार भी नहीं है। वर्तमान संसद में 539 सांसद चुनकर आए हैं। उनमें से 233 ने खुद घोषित किया है कि उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। कुछ महानुभाव ऐसे भी हैं, जिन पर 100 से अधिक मुकदमे चल रहे हैं। यदि देश की संसद में लगभग आधे सदस्य ऐसे हैं तो क्या हमारी दूसरी संस्थाओं में भी यही हाल चल सकता है ? यदि देश के आधे शिक्षक, आधे अफसर, आधे पुलिसवाले, आधे फौजी जवान और आधे न्यायाधीश हमारे सांसदों- जैसे हों तो बताइए हमारा देश का क्या हाल होगा ? संसद और विधानसभाएं तो हमारे लोकतंत्र की श्वासनलिका है। यदि वही रुंधि हुई है तो हम कैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं ? पता नहीं कि हम बड़े हैं या सड़े हैं ? हमारा लोकतंत्र अंदर ही अंदर कैसे सड़ता जा रहा है, उसका प्रमाण यह है कि अपराधी नेतागण चुनाव जीतते जाते हैं और निर्दोष उम्मीदवार उनके खिलाफ टिक नहीं पाते हैं।
यदि नेताओं को जेल हो जाती है तो छूटने के बाद वे मैदान में आकर दुबारा खम ठोकने लगते हैं। ऐसे नेताओं के खिलाफ अश्विनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाकर मांग की है कि जो नेता गंभीर अपराधी सिद्ध हों, उन्हें जीवन भर के लिए चुनाव लडऩे से क्यों नहीं रोक दिया जाए, जैसा कि सरकारी कर्मचारियों को सदा के लिए नौकरी से निकाल दिया जाता है। यह ठीक है कि साम, दाम, दंड, भेद के बिना राजनीति चल ही नहीं सकती। भ्रष्टाचार और राजनीति तो जुड़वां भाई-बहन हैं। लेकिन हत्या, बलात्कार, डकैती जैसे संगीन अपराधों में लिप्त नेताओं को पार्टियां उम्मीदवार ही क्यों बनाती हैं ? इसीलिए कि उनके पास पैसा होता है तथा जात, मजहब और दादागीरी के दम पर चुनाव जीतने की क्षमता होती है। वह जमाना गया, जब गांधी और नेहरु की कांग्रेस में ईमानदार और तपस्वी लोगों को ढूंढ-ढूंढ कर उम्मीदवार बनाया जाता था। जनसंघ, सोश्यलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियां अपने उम्मीदवारों पर गर्व किया करती थीं। अब तो सभी पार्टियों का हाल एक-जैसा हो गया है। इसके लिए इन पार्टियों का दोष तो है ही लेकिन पार्टियों से ज्यादा दोष जनता का है, जो अपराधियों को अपना प्रतिनिधि चुन लेती हैं। यथा प्रजा, तथा राजा। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों, राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों को इस संबंध में तलब तो किया है। लेकिन यदि वह सख्त कानूनी फैसला दे दे तो भी क्या होगा ? यहां तो हाल इतने खस्ता हैं कि मुकदमों के फैसलों में भी तीस-तीस चालीस-चालीस साल लग जाते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-Ritika Bhattacharya
On October 2, 1990, Mukesh, Rekha’s husband, decided to take away his life. He had hanged himself to the ceiling fan of his room, using his wife’s dupatta.
Same Mukesh, who reportedly seemed happy on the fateful day, according to his brother Anil.
Rekha came to know about Mukesh’s chronic depression after getting married.
WHAT FOLLOWED:
1. A national witchhunt followed. People all over the country starting hating and shaming her as a cold-hearted man-eater.
2. Mukesh’s mother’s wail made headlines when she cried, ‘Woh daayan mere bete ko kha gayi. Bhagwan use kabhi maaf nahi karega.’ (That witch devoured my son. God will never forgive her.)
3. Anil Gupta said, “My brother loved Rekha truly. For him love was a do or die attempt. He could not tolerate what Rekha was doing to him. Now what does she want, does she want our money?”
4. Subhash Ghai said “Rekha has put such a blot on the face of the film industry that it’ll be difficult to wash it away easily. I think after this any respectable family will think twice before accepting any actress as their bahoo. It’’s going to be tough even professionally for her. No conscientious director will work with her ever again. How will the audience accept her as Bharat ki nari or insaf ki devi?”
5. Anupam Kher said “She’s become the national vamp. Professionally and personally, I think it’s curtains for her. I mean I don’t know how will I react to her if I come face to face with her.”
6. The press lapped up the sensational story of Mukesh’s suicide and featured reports with outrageous headlines like ‘The Black Widow’ (Showtime, November 1990) and ‘The Macabre Truth behind Mukesh’s Suicide’ (Cine Blitz, November 1990). Delhi high society and Bombay’s film industry vociferously condemned Rekha for ‘murdering’ Mukesh Agarwal.
1990-2020 : 30 years
Similar cases, similar reactions.
Still asking why is smashing the patriarchy and feminism relevant?
जो हिंदी-उर्दू भाषाएं देश में राजनीति, सामाजिक सुधार पर बतकही के लिए व्यापक जमीन तैयार कर सकती थीं, प्रतिगामी राजनीति का हथियार बन गईं। भारत और पाकिस्तान में सत्ता और नौकरशाही की भाषा अंग्रेजी ही बनी रही और अल्गोरिद्मचालित नेट के युग में आगे भी बनी रहेगी।
-मृणाल पाण्डे
हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान के आधुनिक हिमायती यह जान कर बेहोश न हों कि भाषा के लिए हिंदी शब्द के सबसे पहले उपयोग का श्रेय हिंदुओं को नहीं, मुसलमान लेखकों और कवियों को जाता है। अमीर खुसरो की ‘खालिक बारी’ हिंदी-उर्दू का सबसे पुराना कोष है। इसमें बारह बार हिंदी और पचपन बार हिंदवी शब्द का उपयोग मिलता है। दोनों शब्दों का सीधा मतलब है हिंद, यानी भारत के सभी निवासियों की भाषा। इन दोनों शब्दों के बीच जुड़ाव का सूचक (याय निस्बती) ईकार है।
शाह हातम अपने ‘दीवानजादे’ की भूमिका में लिखते हैं कि हिंदवी जिसे भाखा भी कहते हैं, आम लोग भी बखूबी समझते हैं और बड़े तबके के लोग भी। तुलसीदास ने भी इस भाषा के लिए भाखा शब्द ही इस्तेमाल किया है (भाखा भनति मोर मति थोरी)। 18वीं सदी में उर्दू भाषा के लिए रेख्ता लफ्ज भी मिलता है जो कवि समाज में फारसी के बरक्स उर्दू कविता के पढ़े जाने (मराख्ता) से निकला है। मूल मतलब है- हिंद में तमाम आसपास की बोली जाने वाली बोलियों से घुलमिल कर बनी जुबान। उर्दू कवियों में इस जुबान के महारथी मीर को माना जाता है जिनको परवर्ती गालिब ने भी सलाम किया है : ‘रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘गालिब’/ कहते हैं अगले जमाने में कोई ‘मीर’ भी था।’
18वीं सदी के भारत में लिखना-पढ़ना या तो पंडित वर्ग करता था या फिर दरबार से जुड़े सरकारी कर्मचारी जिनमें हिंदू और मुसलमान- दोनों ही शामिल थे। शेष समाज में साक्षरता दर बहुत कम थी। 19वीं सदी की शुरुआत में जॉन गिलक्राइस्ट ने जनता तक राजकीय निर्देश पहुंचाने और सरकारी राजकाज के निचले तबके के लिए मुदर्रिस मुंशी तैयार करने की नीयत से लिखित मानक भाषा रचने का काम चार भाखा मुंशियों को थमाया।
हुकुम था कि साक्षरता तेज हो और स्कूली प्रणाली में फारसी से जुड़ी उर्दू को मुसलमानों की और संस्कृत से जुड़ी हिंदी को हिंदुओं की भाषा मान कर पाठ्य पुस्तकों को दो अलग लिपियों में लिखाया-पढ़ाया जाए। भाखा मुंशियों ने इसी हुकुम तले जनभाषा को लिपि के आधार पर दो फाड़ कर दिया। लिपि का यही मुद्दा हिंदी-उर्दू-हिंदवी या हिंदुस्तानी को अलग-अलग संप्रदायों की भाषाएं मानने की गलतफहमी की जड़ बनता चला गया।
किसी भी मिले-जुले समाज में बोलचाल की भाषा खुद में धर्मनिरपेक्ष होती है। पर जबरन बांटे गए दो धार्मिक संप्रदायों के बीच भाषा की सीमा रेखा पर गरमी बढ़ना हर संप्रदाय को पुराने सामाजिक समन्वय, सह-अस्तित्व की जगह अपने-अपने धार्मिक और जातीय इतिहास की तरफ पक्षपाती बना देता है। ठीक इसी समय भारतीय समाज के बीच पच्छिमी हवाएं यूरोप से लगातार परंपरा, संस्कृति, देशभक्ति और राष्ट्रीयता की बाबत नए विचार ला रही थीं। इसका फल यह हुआ कि भाषा का मसला नाहक हिंदू पहचान, मुस्लिम पहचान का मसला बन गया।
फिर भी 20वीं सदी तक दोनों भाषाओं के बीच ताक-झांक साहब-सलामत रही। भाषा के इस सर्वधर्मसमभावी महत्व को गांधी ने पहचाना और अपने तीन भाषाई अखबारों (हिंदी और गुजराती में नवजीवन, कौमी आवाज) तथा प्रार्थना सभाओं की मार्फत भारत की अवाम तक सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह का संदेश पहुंचाने में कामयाब रहे।
अफसोस कि लोकभाषा और लोकमानस ने पिछली आठ सदियों में बार-बार एक बोलचाल की जनभाषा से जो ताकतवर बवंडर तैयार किया, उसका फायदा हमारा नवसाक्षर समाज नहीं उठा पाया। फारसी गई तो अंग्रेजी आई। जनता की जुबान जो हिंदी-उर्दू भाषाएं देश में राजनीति, सामाजिक सुधार और समन्वयवाद पर बतकही के लिए खुली व्यापक जमीन तैयार कर सकती थीं, प्रतिगामी राजनीति का हथियार बन गईं।
पाकिस्तान को इस मनमुटाव की सजा मिली कि पाकिस्तान में पंजाबी, सिंधी और बलूची बोलने वालों ने उर्दू को मुहाजिरों की भाषा कह कर उसे राजभाषा नहीं बनने दिया। उधर, उत्तर भारतीय राजनेताओं की कांइयां राजनीति और सवर्णमूलक सांप्रदायिक चुनाव प्रचार से नाराज अहिंदीभाषी राज्यों ने हिंदी के लिए भी भारत की राजभाषा बनने का रास्ता बंद करा दिया। सीमा के आर-पार सत्ता, नौकरशाही, रुतबेबाजी और महत्वाकांक्षा की भाषा अंग्रेजी ही बनी रही और अल्गोरिद्म-चालित नेट के युग में आगे भी काफी समय तक बनी रहेगी।
विजयदेव नारायण साही की मानें तो गालिब और मीर के बाद के शायर और मंटो के बाद के लेखक पाकिस्तान में उर्दू की दुनिया के स्थायी वासी नहीं बने। न ही हिंदी के लेखक भारतीय राजनीति में कोई बदलाव ला सके। इस बीच मिडनाइट्स चाइल्ड सलमान रुश्दी, हनीफ कुरेशी, आतिश तासीर, अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा, आलोक राय या राम गुहा तक आज के अंतरराष्ट्रीय फलक पर चर्चित लेखकों की एक लंबी फेहरिस्त है, जो अब अपनी मातृभाषा में सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ पर अंग्रेजी में ही लिखना पसंद करते हैं।
पिछली आधी सदी में सत्ता पक्ष से चिपक कर हिंदी हिंदुत्ववादी और अपनी अविनाशी सत्ता के छलावे में डूबी, ‘बाहरी’ शब्दों के जबरन विरेचन को व्याकुल होकर उर्दू के साथ अपनी ही शब्द संपदा का भी संहार करने पर तुली नजर आती है। निराला या गालिब की संयत वेदना, प्रसाद या महादेवी की शांत आत्मलीनता, छोटे शहरों के बुझे जाते निचले वर्गों की वेदना उकेरने वाले मुक्तिबोध, रामकुमार, कमलेश्वर और भारती, अपने व्यंग्य में भी अपनी जमीन के लोगों के लिए डबडबाई आत्मीयता रचने वाले शरद जोशी, परसाई धीमे-धीमे समय के कुहासे में लोप हो रहे हैं।
एक खास शहरियत का तेवर पाने के लिए सोशल मीडिया पर भी हिंदी-उर्दू, दोनों ने गांवों तक फैले बोलियों में बोलने वाले भारत से खुद को लगता है काट लिया है। कहते हैं, खजुराहो में किसी गाइड ने किसी विदेशी सैलानी को समझाते हुए कहा, ‘जी, ये असली मंदिर नहीं जहां पूजा होती है, ये तो बस भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं।’
सो, पाठक बुरा न मानें लेकिन हिंदी पत्रकारिता से साहित्य तक हिंदी-उर्दू के हमारे लेखक समाज से कस कर जुड़े हुए स्थायी भाषा साधक नहीं रहे। न ही वे लिपि, राजनीति या धर्म के मसलों में उलझी भारतीय संस्कृति को ठीक करने की मंशा रखते हैं। वे भाषा के सैलानी हैं जो थोड़ी देर के लिए पर्यटकों को अपने इलाके में लाकर उनको दूरबीन से स्थापत्य निहारने लायक मसाला जुटाते हैं। पर पर्यटकों की पीठ फिरी नहीं कि वे अपने लिए अंग्रेजी छापे की दुनिया से तगड़े गाहक जुटाने को चल देते हैं।(navjivan)
- अव्यक्त
अप्रैल, 1992 से प्रभाष जोशी ने अपना प्रसिद्ध स्तंभ ‘कागद कारे’ लिखना शुरू किया था. इस स्तंभ में कई बार उन्होंने अपने प्रिय व्यक्तित्वों के बारे में भी लिखा. बाद में इनमें से अलग-अलग तरह के आलेखों को छांटकर पांच पुस्तकें छपीं. इन्हीं में से एक पुस्तक है ‘जीने के बहाने’. अलग-अलग तरह की शख्सियतों के बारे में लिखे गए इन लेखों में पहले तीन लेख महात्मा गांधी पर हैं. इसके बाद चार लेख विनोबा पर हैं और एक लेख जयप्रकाश नारायण पर. हों भी क्यों नहीं. प्रभाष जी स्वयं कहा करते थे कि ‘मैं यदि कुछ हूं तो गांधीवादी.’ जब वे एक साल के शिशु थे, तभी 1937 में महात्मा गांधी इंदौर आए थे और प्रभाष जी की माताराम उन्हें गांधीजी से आशीर्वाद दिलाने के लिए ले गई थीं.
विनोबा और जेपी के साथ तो उनके निजी तौर पर बड़े ही आत्मीय संबंध रहे. विनोबा के बारे में तो उन्होंने यह लिखा है कि ‘विनोबा ने ही मुझे लिखने में डाला.’. एक स्थान पर प्रभाष जी ने यह भी लिखा है, ‘...जब विनोबा पहली बार नगर स्वराज का प्रयोग करने इंदौर आए तो नई दुनिया के लिए महीने भर उनको कवर किया. सुबह तीन बजे से शाम छह बजने तक विनोबा के साथ घूमता और फिर दफ्तर आकर टेबलॉइड साइज के पूरे दो पेज लिखता. कई बार हथेली पर भी नोट्स लेता क्योंकि विनोबा के साथ लगातार चलते रहना पड़ता था.’
साल 1995 विनोबा का जन्म-शताब्दी वर्ष था. इसे ठीक से न मनाए जाने को लेकर प्रभाष जी दुःखी थे. इस संदर्भ में उन्होंने ‘कागद कारे’ स्तंभ में ही एक के बाद एक चार लेख लिखे. इनका क्रमवार शीर्षक इस प्रकार था, ‘जिस परमधाम में बाबा हैं’, ‘बाबा विनोबा के सौ साल होंगे’, ‘एक विचार के रस्म हो जाने का दुख’ और ‘हम उस बाबा को क्या भुलाएं’.
‘हम उस बाबा को क्या भुलाएं’ शीर्षक से एक लेख में वे लिखते हैं, ‘गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी (यानी नेहरू) की शताब्दी तो सचमुच राजसी ढंग मनी, लेकिन उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी विनोबा की जन्म-शताब्दी तो ऐसे मनी कि जैसे किसी को याद ही न हो कि विनोबा नाम के कोई महापुरुष इस देश में हुए हैं और अभी कोई पंद्रह साल पहले तक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनसे आशीर्वाद लेने के लिए पवनार जाती थीं. सन् इक्कावन से सत्तर तक उनके भूदान ग्रामदान आंदोलन की धूम मची रहती थी. हज़ारों कार्यकर्ता गांव-गांव अलख जगाते रहते थे और हर कांग्रेस सरकार से उसे समर्थन मिला. महात्मा गांधी ने जब सन् चालीस में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया तो पहले सत्याग्रही न वे खुद बने, न नेहरू, पटेल, मौलाना या किसी और बड़े नेता को चुना. गांधी जी ने पहला सत्याग्रही चुना विनोबा को जो उनके आश्रम सेवाग्राम से कोई नौ किलोमीटर दूर अपने आश्रम परमधाम पवनार में रहते थे. विनोबा की सत्यनिष्ठा, नैतिक शक्ति और साधना में गांधीजी का ऐसा विश्वास था. तब आश्रम में रहनेवाले या गांधीजी के नजदीकी लोग तो विनोबा को जानते थे लेकिन देश नहीं जानता था. आखिर स्वयं गांधीजी ने ‘हरिजन’ में विनोबा का परिचय लिखा. गांधीजी ने दूसरा सत्याग्रही चुना था जवाहरलाल नेहरू को.’
‘...विनोबा ने इस देश की कई परिक्रमाएं की थीं. कांडला से डिब्रूगढ़ और कश्मीर से कन्याकुमारी तक. अस्सी हजार किलोमीटर वे पैदल चले और मोटर, रेल आदि की यात्राएं जोड़ लें तो पृथ्वी का एक और चक्कर यानी आजादी के बाद सामाजिक-आर्थिक आजादी के लिए इस वामन अवतार ने पृथ्वी के तीन चक्कर लगाए. ऐसा कोई प्रांत नहीं है जिसमें विनोबा ने पदयात्रा न की हो. देश के भूपतियों ने कोई पांच लाख एकड़ जमीन उन्हें दान में दी और एक लाख गांवों के लोगों ने अपने गांव ग्रामदान में दिए. ऐसे नेता की कोई भी यादगार लोगों को नहीं होगी? फिर ऐसा क्यों हुआ कि विनोबा जन्म शताब्दी मनती नहीं दिखी? सरकारी स्तर पर नहीं तो लोग ही मनाते. या जो आयोजनों के जरिए मनती दिखती है वही हम देखते हैं बाकी हमें दिखाई नहीं देता?’
प्रभाष जी ने विनोबा को भुलाए जाने को लेकर प्रेस और सामाजिक संगठनों पर भी बहुत ही मारक टिप्पणी की थी. उन्होंने लिखा- ‘...विनोबा इस देश की प्रेस के हीरो कभी नहीं रहे. सिर्फ इसलिए नहीं कि वे राजनीति में नहीं थे और राजनीति को वैसे प्रभावित भी नहीं करते थे जिस तरह से खबरें बनती हैं. बल्कि इसलिए भी कि उनके काम का ज्यादातर लेना-देना गांवों और भूमि से था और हमारी प्रेस नगर केंद्रित है. और आजकल तो उसका ऐसा खगोलीकरण हो रहा है कि वह पॉप गायक एलविस प्रेसली और बीटल जॉन लेनन को तो याद कर सकती है लेकिन विनोबा उसकी स्मृति में नहीं रह सकते. जिन लोगों को इस देश की ग्रामीण वास्तविकता से आंखें चार किए रहना पड़ता है और जो देश के भूमिहीन मजदूरों और उनकी भूमिहीनता और बेरोजगारी से चिंतित हैं कम से कम उन्हें तो विनोबा की जन्म शताब्दी पर उन्हें याद करना चाहिए था. देश में हज़ारों स्वैच्छिक संस्थाएं हैं और हजारों कार्यकर्ता किसी न किसी तरह की ग्राम सेवा या गांव से जुड़े लोगों के किसी काम में लगे हुए हैं. इनके लिए तो विनोबा न सिर्फ प्रासंगिक हैं बल्कि उनकी तपस्या और उनका काम प्रेरक होना चाहिए. ...प्रेस नगर और राजनीति केंद्रित है और रेडियो और टेलीविजन मनोरंजन के अलावा जो कुछ भी करना चाहते हैं सरकार के कहने पर करते हैं. चूंकि सरकार ने नहीं कहा इसलिए उनने भी विनोबा को उनकी जन्म शताब्दी पर याद नहीं किया.’
प्रभाष जी को आज के नेताओं में और यहां तक कि समाज में भी विनोबा के विचारों से जुड़ने और उसे समझने और अपनाने की काबिलियत पर ही संदेह होता है. अपने एक लेख में वे लिखते हैं, ‘कहां विनोबा और कहां उनकी जन्म-शताब्दी मनानेवाले हम लोग. शायद महान व्यक्तियों का दुर्भाग्य है कि उनकी शताब्दियां मनाने के लिए ऐसे लोग रह जाते हैं जो उनके उत्तराधिकार के सर्वथा अयोग्य होते हैं.’
‘बाबा विनोबा के सौ साल होंगे’ शीर्षक वाले लेख में प्रभाष जी लिखते हैं, ‘विनोबा का चलाया आंदोलन दरअसल आर्थिक और सामाजिक पुनर्रचना का अहिंसक प्रयोग था. ...सर्वोदय आंदोलन उन्होंने ‘सर्वेषां अविरोधेन’ ढंग से चलाया यानी किसी के भी विरोध में कोई काम नहीं किया. वे अहिंसा और करुणा से समाज और व्यक्ति में मूल परिवर्तन करके साम्ययोगी समाज बनाना चाहते थे. लेकिन गांधी के ऋण से मुक्त होने का विनोबा का प्रयोग अनिवार्यतः विनोबा का ही था. ...अगर विनोबा और जवाहरलाल नेहरू मिलकर राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक आजादी के लिए गांधी के क्रांतिकारी अहिंसक ढंग से काम करते तो क्या देश की वही हालत रहती जो हम देख रहे हैं. ...जवाहरलाल नेहरू ने वही लोकतंत्र अपनाया जिसे गांधी हिंद स्वराज्य में ही रद्द कर चुके थे. वे वेस्टमिंस्टर मॉडल के लोकतंत्र में रूसी मॉडल की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था चाहते थे. रूस की तर्ज पर जब जवाहरलाल पंचवर्षीय योजना बनवा रहे थे तब उनके बुलावे पर विनोबा ने योजना आयोग को कहा था कि आज जो नियोजन कर रहे हो वह निरसन के सिद्धांत पर है. जो कुछ थोड़ा बहुत पानी नीचे के गरीबों के पास ऊपर के अमीरों के तालाब से रिसकर आएगा वह गरीबी नहीं मिटा सकेगा. अमीर और अमीर होंगे और गरीब और गरीब. ऐसा कहकर विनोबा दिल्ली से चले गए और सर्वोदय आंदोलन में लग गए. वे जानते थे कि नेहरू की कोशिशों का क्या नतीजा होगा लेकिन उनने कभी नेहरू की आलोचना तक नहीं की.’
जिस ‘अनुशासन-पर्व’ वाले वक्तव्य को लेकर विनोबा के बारे में भ्रम फैलाया गया और उसकी मूढ़तापूर्ण व्याख्या-दुर्व्याख्या की गई, यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि प्रभाष जोशी उस दौर में भी उन अल्पसंख्यक बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधित्व करते नज़र आते हैं जिन्हें महाभारत के इस शब्द का विनोबा द्वारा किए गए प्रयोग का वास्तविक अर्थ और मर्म मालूम था और इसपर पूरे दम से सार्वजनिक तौर पर लिखने में उन्होंने गुरेज नहीं किया. विनोबा के अविरोध की साधना को प्रभाष जोशी गहनतम स्तर पर महसूस करते हुए लिखते हैं, ‘दिल्ली से जो राजनीति चल रही थी उसके खिलाफ अहिंसक संघर्ष की तो विनोबा से कोई आशा ही नहीं करता था. विनोबा ने इमरजंसी तक में इंदिरा गांधी का विरोध और जेपी आंदोलन का समर्थन नहीं किया. इमरजंसी को उन्होंने महाभारतीय अर्थ में ‘अनुशासन पर्व’ कहा जिसका मतलब राज्य नियंत्रित प्रचार तंत्र ने यह निकाला कि देश को अनुशासन में रहने की जरूरत है. लेकिन राज्य का शासन और आचार्यों-ऋषियों का अनुशासन बतानेवाले विनोबा के खड़ा किए आचार्य कुल ने जब प्रस्ताव पास कर के इमरजंसी उठाने की मांग की तो न सिर्फ इंदिरा गांधी की सरकार ने उसे छपने नहीं दिया बल्कि पवनार आश्रम की जिस मासिक पत्रिका— ‘मैत्री’ में आचार्य कुल सम्मेलन रपट छपी थी उसकी प्रतियां भी जब्त करवा लीं. फिर भी विनोबा ने कभी इंदिरा गांधी का विरोध नहीं किया. वे जेपी आंदोलन से भी सहमत नहीं थे लेकिन उनने जेपी का विरोध तो दूर आलोचना तक नहीं की. ‘सर्वेषां अविरोधेन’ को विनोबा ने इतना साध लिया था.’
लेकिन विनोबा की सबसे बड़ी साधना थी निष्काम कर्म को साधने की. प्रभाष जोशी लिखते हैं, ‘जब गांधी जैसे कर्मयोगी और कीर्तिवान गुरु ने विनोबा से कहा कि हमारे सभी कामों का परिणाम शून्य है, तो यह कैसे हो सकता था कि विनोबा अपने काम का परिणाम बहुत बड़ा मानते. गांधी जब सेवा करके छूट जाना चाहते थे तो विनोबा तो और भी निष्काम सेवक थे. विनोबा ने कहा कि इन दो वाक्यों में बापू का सारा तत्वज्ञान आ जाता है. विनोबा ने इसमें से वही लिया जो वे लेना चाहते थे. यानी निष्काम कर्म करो और उसके परिणाम की कोई चिंता न करो. वह तो वैसे भी शून्य है. इसलिए विनोबा अगर अपनी जन्म शताब्दी के दिन पैदल यात्रा करने निकलते तो अपने भुला दिए जाने का उन्हें कहीं कोई दुख नहीं होता. बल्कि वे मानते कि सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसी कि उन्हें अपेक्षा थी. विनोबा तो सन् बयासी में इच्छा मृत्यु का वरण करने के बारह साल पहले ही क्षेत्र सन्यास ले चुके थे.’
गांधीजी ने हिंद स्वराज में आखिरी अध्याय का शीर्षक दिया था, ‘छुटकारा’. यह एक अध्याय पिछले सारे अध्याय को अध्यात्मिकता के रस में विलीन कर देनेवाला है. और विनोबा तो मूलतः अध्यात्म के जीव थे. प्रभाष जोशी विनोबा के उस छुटकाराभाव को बहुत निकट से महसूस करते हुए कहते हैं, ‘देश सेवा और ब्रह्म साधना का योग गांधीजी ने विनोबा को दिया. कोई बत्तीस साल विनोबा चुपचाप रचनात्मक कार्यों में लगे रहे. गांधी की हत्या नहीं होती तो वे नहीं निकलते. गांधी का ऋण चुकाने के लिए ही वे भूदान-ग्रामदान यात्रा पर निकले और पृथ्वी की तीन परिक्रमाएं कर डालीं. जो उन्होंने किया वह उनका मूल पिंड नहीं था. गांधी ऋण चुकाने का प्रयास था. इसलिए वे भूदान-ग्रामदान को अपना पराक्रम, अपनी उपलब्धि मान ही नहीं सकते थे. गांधी से अपनी पहली भेंट के पचास साल बाद उन्होंने कर्ममुक्ति की, फिर ग्रंथमुक्ति, अध्यापन मुक्ति और स्मृति मुक्ति और फिर क्षेत्र संन्यास लेकर उसी परमधाम पवनार में पहुंच गए. सिर्फ दो बार अपने आश्रम से बाहर आए.’
‘...तब विनोबा ने कहा, ‘मैं अपने मन में मान कर चल रहा हूं कि अपनी मृत्यु के पूर्व मुझे मरना है. मनुष्य को मृत्यु के पूर्व मरना चाहिए. अपनी वफात अपनी आंखों से देखना चाहिए. यही मेरी आकांक्षा है. इसलिए मैंने सोचा कि मैं मरने के पहले मर जाऊं और देखूं कि भूदान का क्या होता है.’ तो विनोबा जीते जी देख चुके थे कि. उन्होंने जीते जी अपनी मृत्यु देख ली थी बल्कि बारह साल तक देखते रहे. उन्होंने कहा भी कि ‘मैंने अपनी मृत्यु अपनी आंखों से देखी वह अनुपम्य अवसर था’. पंद्रह नवंबर बयासी को दिवाली के दिन वे भीष्म पितामह की तरह इच्छामृत्यु से मरे. उन्होंने अपनी मृत्यु को सचमुच उत्सव बना दिया.
मुक्ति और छुटकारे का यही मंत्र विनोबा ने प्रभाष जोशी को भी दिया था. इसे याद करते हुए एक अन्य लेख में प्रभाष जोशी लिखते हैं, ‘(विनोबा की समाधि वाली) संगमरमर की शिला पर अपने दोनों हाथ रखकर और उनपर पूरा वजन देकर सिर नीचा किए ध्यान में एकचित्त हो गया. उस स्पर्श को पाने के लिए जो कोई बत्तीस साल पहले विनोबा की कोमल हथेली से मिला था और जिससे मैंने अपने आप को शुद्ध होते महसूस किया था. उतरती शाम की उस सघन शांति में बाबा ने मुझे कहा, कर्म का मोह और अहंकार तुझे नष्ट कर देगा. इसे छोड़.’
इसी लेख में प्रभाष जोशी स्वयं विनोबा का वह प्रसंग भी सुनाते हैं जब विनोबा सेवाग्राम आश्रम छोड़कर पवनार में आश्रम बसाने जा रहे थे. उनका स्वास्थ्य बहुत कमजोर था और वे पैदल चल नहीं सकते थे. इसलिए जब वे मोटर से पवनार पहुंचने के दौरान धाम नदी का पुल पार कर रहे थे, तब उन्होंने तीन बार कहा, ‘संन्यस्तं मया, संन्यस्तं मया, संन्यस्तं मया (मैंने छोड़ा, मैंने छोड़ा, मैंने छोड़ा.)’ इसपर प्रभाष जोशी आगे कहीं लिखते हैं, ‘विनोबा ने बहुत साधन और तपस्या से स्मृति से मुक्ति पाई थी. देश को उन्हें भुलाने में कोई खास कोशिश नहीं करनी पड़ी.’
विनोबा तो मुक्त हुए. जयंतियों और पुण्यतिथियों से उनका क्या वास्ता? स्वयं प्रभाष जोशी ने भी विनोबा की इच्छा मृत्यु के दिन कुछ भी नहीं लिखा था जबकि वे उस समय इंडियन एक्सप्रेस दिल्ली के स्थानीय संपादक थे. प्रभाष जोशी के शब्दों में, ‘ऐसे बाबा से अपने संबंध का तकाजा कभी नहीं रहा कि उनके अग्नि संस्कार में शामिल होते या उनके जन्म दिवस या पुण्यतिथि पर परमधाम पवनार जाते.’
और राजनीतिक दलों और सरकारों से इसकी क्या अपेक्षा करना. विनोबा स्वयं कह गए थे ‘अ-सरकारी असरकारी’ और प्रभाष जोशी ने किसी अन्य संदर्भ में लिखा था- ‘एक पार्टी नागनाथ, दूसरी पार्टी सांपनाथ और अपना हाथ जगन्नाथ’.(satyagrah)
- Shagun Kapil
केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) द्वारा मॉनिटर किए जा रहे 123 में से 24 जलाशय 100 फीसदी भर गए हैं। सीडब्ल्यूसी द्वारा 10 सितंबर, 2020 को जारी बुलेटिन के अनुसार, आठ जलाशय महाराष्ट्र में, पांच कर्नाटक में, दो-दो झारखंड, गुजरात, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में, एक-एक ओडिशा और राजस्थान में स्थित हैं।
महाराष्ट्र और कर्नाटक में मौसम विभाग ने कुछ हिस्सों में भारी बारिश होने की भविष्यवाणी की थी, इसलिए इन राज्यों के जलाशयों में हालात बिगड़ सकते हैं। दोनों राज्यों में कम से कम पांच बांध पूर्ण रूप से 100 फीसदी भर गए हैं। सीडब्ल्यूसी ने यहां कड़ी निगरानी की सलाह देते हुए कहा था कि बांध के अधिकारियों को पानी को छोड़ने में सावधानी बरतनी चाहिए और अंतिम क्षण तक इंतजार नहीं करना चाहिए।
कई राज्य-स्तरीय बांध प्राधिकरणों पर अक्सर ’रूल क्रव’ का ठीक से पालन नहीं करने और केवल वर्षा के दौरान पानी छोड़ने का आरोप लगाया जाता है।
रूल क्रव से आशय बांधों के प्रबंधन के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनाए जा रहे अभ्यास से है, जो यह सुनिश्चित करता है कि बांध केवल मानसून के अंत तक भरे हों, जिससे उन्हें अतिरिक्त बारिश के दौरान एक कुशन प्रदान किया जाए और बहाव वाले क्षेत्रों में बाढ़ की संभावनाओं पर अंकुश लगाया जा सके। बांध प्रबंधन अधिकारियों द्वारा इसका पालन किया जाना चाहिए, क्योंकि किसी भी चूक से बांध की वजह से बाढ़ आ सकती है। देश में इस तरह के कई उदाहरण भी हैं।
गुजरात का सरदार सरोवर बांध इस तरह के कुप्रबंधन का उदाहरण है। आरोप है कि 31 अगस्त को बांध की वजह से भरूच जिले में बाढ़ आ गई, क्योंकि बांध 90 फीसदी से अधिक भर चुका था, लेकिन 29 अगस्त के शुरुआती घंटों में बांध के गेट नहीं खोले गए, जबकि लगातार भारी बारिश हो रही थी।
नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की नर्मदा बेसिन की दैनिक रिपोर्ट बताती है कि जलाशय में लगातार पानी भर रहा था, लेकिन बांध संचालकों ने समय पर पानी नहीं छोड़ा, जिस वजह से बाढ़ आई।
29 अगस्त को ही 3231.1 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड (क्यूमेक्स) पानी छोड़ा गया था, जबकि बांध में 28 अगस्त को 2422 क्यूमेक्स पानी भरा, जो 29 अगस्त को बढ़कर 5501 क्यूमेक्स आया।
लेकिन 30 अगस्त को बड़े पैमाने पर (16,379.7 क्यूमेक्स) पानी छोड़ा गया, जो आसपास के कई गांवों में भर गया। 29 अगस्त और 2 सितंबर के बीच लगभग 95,209 क्यूमेक्स पानी छोड़ा गया।
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डेम्स, रिवर्स एंड पीपुल द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जब बांध का जलस्तर 70 प्रतिशत के आसपास था तो बांध संचालक ने बिजली घरों को चालू नहीं किया।
29 अगस्त और 1 सितंबर के बीच तकरीबन 30,000 क्यूमेक्स पानी स्पिलवे के माध्यम से छोड़ा गया था, जबकि इससे पहले या बाद में कुछ भी नहीं छोड़ा गया। सीडब्ल्यूसी की एक रिपोर्ट में कहा गया, "इससे गौड़ेश्वर और चंदोद से भरुच तक बहाव के साथ बड़े पैमाने पर बाढ़ के हालात बन गए, लेकिन सरदार सरोवर परियोजना प्राधिकरण या गुजरात सरकार परेशान नहीं दिखाई दी।"
सीडब्ल्यूसी द्वारा मॉनिटर किए जा रहे 123 जलाशयों में जलस्तर 142.234 बिलियन क्यूबिक मीटर दर्ज किया गया, जो इनकी कुल लाइव स्टोरेज क्षमता का 83 प्रतिशत है।(downtoearth)
अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ रोचेस्टर मेडिकल सेंटर (यूआरएमसी) के एक शोध दल ने कोरोनावायरस से संक्रमित युवाओं पर अध्ययन किया है
- Dayanidhi
एक शोध में कहा गया है कि ई-सिगरेट या धूम्रपान करने वाले युवाओं में कोरोनावायरस संक्रमण का खतरा अधिक होता है। फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स एक शोध में कहा गया है कि ई-सिगरेट या धूम्रपान करने वाले युवाओं में कोरोनावायरस संक्रमण का खतरा अधिक होता है।
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि निकोटीन कैसे लिया जा रहा है। निकोटीन युवाओं और वयस्कों के लिए हानिकारक है। ई-सिगरेट में आमतौर पर निकोटीन के साथ-साथ अन्य रसायन होते हैं जो स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने के लिए जाने जाते हैं। कोरोना बीमारी का अधिकतर संबंध श्वसन तंत्र से हैं, यदि पहले ही हम ई-सिगरेट का उपयोग कर हानिकारक रसायनों से अपने श्वसन तंत्र को हानि पहुंचा रहे है, तो ऐसे में कोरोना का खतरा और बढ़ जाता है।
जब लोग उच्च रक्तचाप या मधुमेह जैसी पुरानी बीमारियों से ग्रसित हो, इसके बावजूद वे ई-सिगरेट (वेपिंग) और धूम्रपान करते है तो ऐसे लोगों को कोविड-19 का खतरा सबसे अधिक होता है।
इसके पीछे के वैज्ञानिक सार को समझना कठिन है और अभी तक यह निश्चित नहीं है। लेकिन यह एसीई2 (ACE2) नामक एक एंजाइम से इसका सार निकल सकता है। यह फेफड़ों में कई कोशिकाओं की सतह पर रहता है और कोरोनावायरस के प्रवेश मार्ग के रूप में कार्य करता है।
साक्ष्यों से पता चलता है कि पुरानी सूजन की बीमारी वाले, कमजोर वयस्कों और ई-सिगरेट का उपयोग करने वाले या धूम्रपान करने वाले लोगों में घातक वायरस के प्रवेश द्वार के रूप में काम करने के लिए एसीई 2 रिसेप्टर में प्रोटीन की अधिकता होती है। यह शोध फ्रंटियर्स इन फार्माकोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
प्रोफेसर इरफ़ान रहमान के नेतृत्व में अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ रोचेस्टर मेडिकल सेंटर (यूआरएमसी) के एक शोध दल ने अध्ययन किया है। शोध दल ने महामारी के दौरान अध्ययन की एक श्रृंखला प्रकाशित की, जो एसीई 2 की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में बताता है। जो पहले से ही कई अन्य वैज्ञानिक गतिविधियों के केंद्र में रहा है। महत्वपूर्ण सेलुलर तंत्रों को प्रभावित करने के लिए यह घातक वायरस ई-सिगरेट (वेपिंग) को नियंत्रित करता है।
प्रोफेसर रहमान की विशेष रुचि उन युवाओं की बढ़ती समस्या पर है जिनका कोरोना परीक्षण पॉजिटिव आया हैं और वे खतरनाक दर पर कोरोनोवायरस को फैला सकते हैं। यहां तक कि कुछ बड़े बच्चे और किशोर जिनके पास एसीई 2 रिसेप्टर का स्तर अधिक है, वे वायरस के लिए अधिक असुरक्षित लगते हैं। प्रोफेसर रहमान, पर्यावरण चिकित्सा, चिकित्सा (पल्मोनरी) और सार्वजनिक स्वास्थ्य विज्ञान के अध्यक्ष हैं।
प्रोफेसर रहमान ने कहा हमारा अगला कदम यह जांचना है कि क्या एसीई 2 का स्तर आम तौर पर युवाओं में कम होता है। इसलिए कोविड-19 से उनकी अपेक्षाकृत संक्रमण और मृत्यु दर कम है। लेकिन यह पता लगाने के लिए कि क्या एसीई 2 ई-सिगरेट (वेपिंग) या धूम्रपान से बढ़ जाता है जो उन्हें वायरस के लिए अधिक संवेदनशील बना देता है। यह बूढ़े लोगों में फेफड़ों के रोगों जैसे सीओपीडी और फाइब्रोसिस के विपरीत होगा, जिन्हें हम पहले से ही जानते हैं जिनमें गंभीर संक्रामक बीमारियां और मृत्यु का खतरा अधिक होता है।
रहमान की प्रयोगशाला में पोस्ट-डॉक्टरेट वैज्ञानिक गंगदीप कौर, को (टीबी) तपेदिक की जांच करने का पहले का अनुभव था और इस तरह उन्होंने ई-सिगरेट (वेपिंग) और कोरोनावायरस के बीच संबंधों का अध्ययन करने का नया प्रयास किया। टीम ने इस मुद्दे से संबंधित कई महत्वपूर्ण समीक्षा लेख प्रकाशित किए हैं।
चूंकि ई-सिगरेट (वेपिंग) और धूम्रपान दीर्घकालिक आदतें हैं, यूआरएमसी के शोधकर्ताओं ने चूहों के फेफड़े के ऊतकों पर निकोटीन के पुराने प्रभावों की जांच की, कोविड-19 प्रोटीन का संबंध इसके साथ जुड़ता है। उन्होंने एसीई 2 से सीधे संबंध रखने वाले अन्य रिसेप्टर्स की खोज की, जिनकी फेफड़ों में सूजन, जलन प्रतिक्रिया को विनियमित करने में एसीई 2 की अहम भूमिका पाई गई है।
हाल के अन्य अध्ययनों में रहमान और यूआरएमसी के वैज्ञानिकों ने ई-सिगरेट (वेपिंग) में उपयोग होने वाले, ई-तरल पदार्थों को स्वादिष्ट बनाने और फेफड़े के ऊतकों पर उनके हानिकारक प्रभावों का विवरण देते हुए 40 रसायनों का खुलासा किया। दर्शाया गया है कि ई-सिगरेट (वेपिंग) का उपयोग (व्हीज़िंग) घरघराहट के साथ जुड़ा हुआ है, जो अक्सर (एम्फिसीम) वातस्फीति, रीफ्लक्स रोग, हृदय रोग, फेफड़ों के कैंसर और स्लीप एपनिया का कारण होता है।(downtoearth)
मनीष सिंह
आखिरकार 1906 में ब्रिटेन रानी और रूस राजा ने तिब्बत पर चीन राजा की सुजेर्निटी मान ली। सुजेर्निटी का मतलब सरल भाषा में ‘तुम जानो -तुम्हारा काम जाने’ होता है।
1912 चीन मे राजतंत्र खत्म हुआ, नेशनलिस्ट सरकार बनी। तो राजा की फौजों ने अपने आपको नेशनलिस्ट सरकार के अंडर मे मान लिया। 1949 तक यही व्यवस्था चली, जब तक कि माओ ने यहां सीधा नियंत्रण न ले लिया।
संघी इतिहास के अनुसार यह भारत की अक्ष्म्य गलती थी। उनके अनुसार एक स्वत्रंत देश पर चीन ने कब्जा कर लिया और नेहरू चुपचाप बैठे रहे ।
तिब्बत क्या है? मेरा मतलब, नेहरू की गलती के अलावे और क्या है ...
आठवीं के बाद भूगोल और इतिहास कभी न पढऩे वाले ज्यादातर लोग इस बात को नहीं जानते कि नेहरू की अनगिनत गलतियों में से एक तिब्बत दरअसल एक पठार भी है। न जानने वालों के लिए, पठार का मतलब एक टेबल टॉप की तरह की जमीन है, जो आसपास की धरती से बेहद ऊंचा होता है। नीचे से देखने पर वह पहाड़ की तरह लगता है, मगर टॉप पर मैदान होता है।
तिब्बत का पठार दुनिया की छत है। छत, याने ऐसी जगह से जहां से बारिश का पानी नीचे आता है। ठीक वैसे ही तिब्बत के पठार से जो नदियां निकलती हैं, वह दुनिया की एक तिहाई आबादी का पोषण करती हैं।
दुनिया का पोषण करने वाला पठार को प्रकृति ने बड़ा कुपोषित रखा है। एवरेज चार हजार मीटर की हाइट पर साल के आठ महीने बर्फ, बेहद ठंड और साल भर सूखी सर्द हवा होती हैं। दुनिया के सबसे कम आबादी के घनत्व का यह पठार चीन के मध्य तक घुसा हुआ है। तीन ओर चीन है और चौथी ओर हिमालय.. हिमालय के नीचे हम।
जी हां, आप तिब्बत को हिमालय पर बसा देश समझते हैं। ऐसा नहीं है, जहां से हिमालय खत्म होता है, वहां से तिब्बत का पठार शुरू होता है। मगर भूमि की संरचना इस प्रकार मिलीजुली है कि यह बताना कठिन है कि कहां से हिमालय खत्म होता है, कहां तिब्बत शुरू होता है। ऐसे में आपका कन्फयूज होना लाजिमी हैै।
मगर कन्फयूजन पर बात करने के पहले हिस्टी-जियोग्राफी जान लेना अच्छा है। तिब्बत का पठार एक तरफ मध्य एशिया के दूसरे ऊंचे पठारों से जुडा़ है, और दूसरी ओर चीन से। भारत और इस पठार के बीच की लक्ष्मण रेखा हिमालय है, इसलिए हमारा इससे ज्यादा वास्ता नहीं रहा। इसके इतिहास के सफहे, बीजिंग के राजघरानों और मध्य एशिया के चंगेज खान टाइप के लोगों के बीच डोलता रहा है।
बेहद कम आबादी के इस क्षेत्र में सातवीं-आठवीं शताब्दी के दौरान, यह इलाका कबीलों में बंटा, एक होता, फिर बंटता रहा। 1244 में मध्य एशिया से आए मंगोलों ने इस इलाके को जीता। मगर उनका शासन ढीला-ढाला था। तिब्बत के लोग उनके अंडर थे, मगर इन्टर्नल ऑटोनमी थी। इस इलाके में शासन करना दुरूह था। मंगोलों ने बढिय़ा युक्ति निकाली।
यहां ज्यादातर लोग बुद्धिष्ट थे। सो एक लामा को दलाई लामा घोषित किया, जो तिब्बत का लीडर होगा। सारे कबीले वाले दलाई लामा के अंडर में होंगे, और दलाई लामा मंगोलों के अन्डर में। इस अनोखी व्यवस्था में, अलग-अलग क्षेत्र के प्रमुख तो वहीं के कबीले वाले थे, मगर सारे अपने आप को बाबाजी की स्प्रिचुअल कमांड में मानते। न मानते तो मंगोल आकर सजा देते। मगर फिर मंगोल कमजोर हुए और चीन के राजा लोग मजबूत तब यही व्यवस्था चीन के अंडर में चलने लगी।
मंगोलों के अंडर दलाई लामा, याने कि उनके अंडर के कबीले वालों को काफी स्वायत्ता थी। मगर चीन राजा के अंडर वैसी स्वायत्ता नहीं थी। वे अपनी फौज भी गाहे-बगाहे भेजते। 1717 मंगोलों का फिर से अटैक हुआ, उन्होंने दलाई लामा को हटा दिया। चीनी सम्राट ने अपनी फौज लगाकर उन्हें भगाया। फिर से दलाई लामा को बिठाया। लेकिन साथ में अपनी स्थाई फौज तथा रेजीडेंट कमिश्नर भी बिठा दिया।
चीनी कमिश्नर की दखलंदाजी ज्यादा थी। तिब्बत पठार के कुछ इलाके चीन राजा ने डायरेक्ट अपने शासन में ले लिया। 1750 के आते आते, चीन राजा के विरूद्ध कबीलों ने विद्रोह कर दिया। चीन ने विद्रोह दबाया। अब तक नीचे भारत में अंग्रेज आ चुके थे। उन्होंने हिमालयी दर्रों के रास्ते व्यापार के प्रपोजल भेजे। चीन राजा न माने, तो आतंकी गतिविधियां शुरू कर दी गई।
जी हां, ये टैक्टिक उस जमाने में भी थी। नेपाली घुसपैठियों की मदद से तिब्बती कबीलों मे असंतोष भडक़ाया गया। चीन ने स्थाई फौज रख दी। एक और काम किया। दलाई लामा का पद वंशानुगत नहीं होता, उसे तो वर्तमान दलाई लामा चुनता है। चीन ने चुनने की इस व्यवस्था को अपने रेजिडेंट और फौज के सुपरविजन में रख दिया। विदेशियों का आना बैन कर दिया।
आखिरकार 1906 में ब्रिटेन रानी और रूस राजा ने तिब्बत पर चीन राजा की सुजेर्निटी मान ली। सुजेर्निटी का मतलब सरल भाषा में ‘तुम जानो-तुम्हारा काम जाने’ होता है।
1912 चीन मे राजतंत्र खत्म हुआ, नेशनलिस्ट सरकार बनी। तो राजा की फौजों ने अपने आपको नेशनलिस्ट सरकार के अंडर मे मान लिया। 1949 तक यही व्यवस्था चली, जब तक कि माओ ने यहां सीधा नियंत्रण न ले लिया।
संघी इतिहास के अनुसार यह भारत की अक्ष्म्य गलती थी। उनके अनुसार एक स्वत्रंत देश पर चीन ने कब्जा कर लिया और नेहरू चुपचाप बैठे रहे ।
रात की न उतरने पर अलसुबह हैंगओवर में आये ख्बाबो के अनुसार, जुम्मा-जुम्मा दो साल पहले पैदा हुए भारत के प्रधानमंत्री नेहरू को चाहिए था कि तिब्बत में फौज घुसाकर उसे चीन के पंजों से निकाल लेते। दलाई लामा को वापस गद्दी पर बिठाकर जयकारा लगवाते। दलाई लामा की सुरक्षा के लिए दो-चार लाख की फौज वहां छोड़ देते।
ऐसा अगर हो जाता तो भारत की सीमा चीन से कभी मिलती ही नहीं। मुझे लगता है कि भाजपा के इतिहास के कुछ दिग्गज तब के पीएम होते तो ऐसा पक्के तौर पर हो जाता।
इनके पास तीन दिन में तैयार होने वाली सेना जो थी।
(इन सबके बाद भी भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा न माना। अटल बिहारी ने पहली बार तिब्बत को चीन का हिस्सा माना।)
राज ढाल
शिव सेना के बारे में कइयों को बहुत गलतफहमी हो गई है। कई उनको अंडर एस्टीमेट कर रहे है। मैं उनको कहना चाहता हूँ कि वो ऐसी भूल ना करे। सत्ताएं आती हैं जाती हैं समझौते बनते हैं टूटते हैं लेकिन ये सत्ताएं किसी विचारधारा को खत्म नहीं कर सकती।
मराठा कौम को जानना जरूरी है तभी मराठों की स्ट्रेंथ पता चलेगी। ये कौम अपनी कला साहित्य रंगमंच और राजनीति में गहन समझ रखती है। आजादी के बाद बनिया गुजरातियों के महाराष्ट्र पर वर्चस्व ने इन्हें अलग राज्य बनाने को प्रेरित किया।
(तब महाराष्ट्र गुजरात का ही एक हिस्सा था)
सत्ता तब भी अकड़ में थी, गुजराती मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने अलग राज्य की मांग करते मराठाओं को अपने काफिले की चलती कारों से कुचलवा दिया था लेकिन फिर भी महाराष्ट्र वजूद में आया और उसके साथ वजूद में आई शिव सेना यानी शिवाजी की सेना जिसका काम मुख्यत: मराठा अस्मिता की रक्षा करने का था।
जब बिहारी बिहार की अस्मिता की बात कर सकता है तमिलियन तमिल इलम की तो मराठा मराठियों की अस्मिता की बात क्यों नहीं कर सकता?
क्यों उसके राज्य में पहले नौकरी किसी बिहारी को गुजराती को या तमिलियन को मिले?
पहला हक मराठाओं का होना चाहिए मराठाओं को अगर महाराष्ट्र में ही नौकरीं नहीं मिलेगी तो और कहां मिलेगी..?
हां अगर उनको देने के बाद बच जाए तो दूसरो को मिले, इसमें कोई क्षेत्रवाद नहीं है। ये सीधे-सीधे अपने हितों को संरक्षण देना है। इसमें कोई दोष नहीं।
शिवसेना इसी सोच से पनपी
उसका महाराष्ट्र से बाहर आने का कोई इरादा नहीं था लेकिन मुसलमानों के अग्रेशन ने उन्हें अपने विस्तार का मौका दिया। किसी जमाने में मुसलमानों के एक बड़े तबके को अपनी बाजुओं पर बड़ा नाज रहता था। ताकत की जुबान समझते और समझाते थे।
हिन्दुओं को दाल-चावल खाने वाले समझते और गोश्त खाने वालों से क्या मुकाबला करेंगे ऐसी सोच रखते थे। रामजन्म भूमि बाबरी विवाद ने ये सोच और गहरी कर दी।
हिन्दुओं को अग्रेशन सिखाया शिवसेना ने ना कि भाजपा ने। आज मोदी मोदी का जाप करने वाले नहीं जानते कि मोदी बाला साहब ठाकरे के प्रशंसक थे उनका आशीर्वाद लेने जाते थे।
कौन नहीं जानता कि उस समय बाल ठाकरे क्या हैसियत रखते थे। अब चूंकि सत्ता का केंद्रीय पक्ष भाजपा के पास है वो शिवसेना को मामूली समझ रही है जबकि राज्यस्तर पर शिवसैनिक जमीन पर मौजूद है।
बाल ठाकरे मरे हैं, शिवसैनिक नहीं, मराठाओं को उनकी अस्मिता को चुनौती देने वाले इस बात को समझें। शिवसेना सत्ता में रहे या ना रहे, पर शिव सेना महाराष्ट्र में हमेशा रहेगी।
बिहार को उतरप्रदेश को गुजरात को ये बात समझ जानी चाहिए और उन्हें बाबर समझने की भूल नहीं करनी चाहिए ।
वो कट्टर हिन्दू है और उनका हिंदुत्व भाजपा का मोहताज नहीं जहाँ मराठी अस्मिता का सवाल खड़ा होगा वहां मराठी एक ही पाले में होगा।
अगर कोई उन्हें हिन्दू मुस्लिम के खेल में कटघरे में खड़ा करने की चेष्ठा करेगा तो वो जान ले कि मराठाओं को हिन्दू सर्टिफिकेट लेने की नही बल्कि दूसरों को देने की आदत है।
ध्रुव गुप्त
अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो गया।चीन और पाक के छक्के छुड़ाने के लिए सीमा पर राफेल की तैनाती हो गई। न्यूज चैनलों ने मोदी जी की कूटनीति की डंका बजा दी। रिया जेल चली गई।
कंगना को वाई-प्लस सुरक्षा मिल गई। अपने देश में चुनाव जीतने के लिए इससे ज्यादा और क्या चाहिए ? बेरोजगारी, श्रमिकों की बदहाली, गिरते विकास दर, बाढ़ की विनाशलीला, चरमराती शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को इस देश में चुनावी मुद्दा बनने में अभी वक़्त लगेगा।
सो बिहार चुनाव में नीतीश कुमार की अगुवाई में एन.डी.ए आत्मविश्वास से भरा हुआ है।उसके मुकाबले विपक्ष तेजहीन और अपाहिज नजऱ आ रहा है। लालू प्रसाद के चुनावी परिदृश्य से हट जाने के बाद उनके बेटों -तेजस्वी या तेज प्रताप का नेतृत्व स्वीकार करने में राजद की सहयोगी पार्टियों में ही नहीं, खुद राजद के वरिष्ठ नेताओं में भी असमंजस है। इस परिवारवाद के कारण ‘हम’ पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी गठबंधन छोड एन.डी.ए का दामन थाम चुके हैं।
राजद के सबसे अनुभवी, स्वच्छ छवि के नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपनी उपेक्षा से आहत होकर राजद से त्यागपत्र दे दिया है। आने वाले दिनों में अब्दुल बारी सिद्दीकी सहित पार्टी के कुछ और वरिष्ठ नेता उनका अनुसरण कर सकते हैं।
दूसरे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस की छवि राजद के पिछलग्गू की है जिसके पास ऐसा कोई प्रभावशाली चेहरा नहीं है जो अपने बूते पांच-दस सीटें भी जितवा सके। एक-दो जगहों को छोड़ दें तो कम्युनिस्ट पार्टियों की बिहार में पकड़ अब नहीं रही।
बिहार का राजनीतिक समीकरण अभी एन.डी.ए के पक्ष में है।राज्य का प्रमुख विपक्षी दल राजद यदि परिवार के बाहर निकल रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता को वापस लाकर उनके नेतृत्व में चुनाव लडऩे की सोचे तो विपक्ष की एकता भी बनी रह सकती है और एन डी.ए को राज्य में एक बड़ी चुनौती भी मिलेगी। लेकिन क्या यह संभव है ? अगर नहीं तो बिहार एक बार फिर एनडीए शासन के लिए तैयार हैं।
बेबाक विचार डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की गठबंधन सरकार की कई गांठें एक साथ ढीली पड़ रही हैं। कोरोना की महामारी ने सबसे ज्यादा महाराष्ट्र की जनता को ही परेशान कर रखा है। इसके बाद उस पर दो मुसीबतें एक साथ और आन पड़ी है। एक तो फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत की और दूसरी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मराठा आरक्षण को रद्द करने की। कल जिस तरह से कंगना के दफ्तर को मुंबई में आनन-फानन में तोड़ा गया, क्या उससे शिवसेना और ठाकरे की छवि कुछ ऊंची हुई होगी ? बिल्कुल नहीं। शिवसेना यह कहकर अपने हाथ धो रही है कि इस घटना से उसका क्या लेना-देना है ?
यह कार्रवाई तो मुंबई महानगर निगम ने की है। शिवसेना की सादगी पर कौन कुर्बान नहीं हो जाएगा? क्या लोग उसे बताएंगे कि महानगर निगम भी आपकी ही है ? इस घटना से साफ जाहिर होता है कि महाराष्ट्र सरकार ने गुस्से में आकर यह तोड़-फोड़ गैर-कानूनी ढंग से की है। अदालत ने उस पर रोक भी लगाई है। कंगना ने अपने दफ्तर के निर्माण पर यदि 48 करोड़ रु. खर्च किए थे तो महाराष्ट्र सरकार पर कम से कम 60 करोड़ रु. का जुर्माना तो ठोका जाना चाहिए।
शिवसेना का कहना है कि उनकी सरकार ने सिर्फ अवैध निर्माण-कार्यों को ढहाया है। हो सकता है कि यह ठीक हो लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि कंगना को पहले नोटिस क्यों नहीं दिया गया और इसी तरह के अवैध-निर्माण मुंबई में हजारों हैं तो सिर्फ कंगना के दफ्तर को ही निशाना क्यों बनाया गया? यह ठीक है कि कंगना के बयानों में अतिवाद होता है, जैसे मुंबई को पाकिस्तानी ‘आजाद कश्मीर’ कहना और अपने दफ्तर को राम मंदिर बताना और शिव सैनिकों को बाबर के प_े कहना आदि। लेकिन कंगना या कोई भी व्यक्ति इस तरह की अटपटी बातें कहता रहे तो भी उसका महत्व क्या है ? उसे फिजूल तूल क्यों देना ? यह प्रश्न शरद पवार ने भी उठाया है। यह मामला अब भाजपा और शिवसेना के बीच का हो गया है। इसीलिए केंद्र सरकार ने कंगना की सुरक्षा का विशेष प्रबंध किया है। ठाकरे-सरकार को जो दूसरा धक्का लगा है, वह उसके मराठा आरक्षण पर लगा है। सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार के मराठा जाति के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा-संस्थाओं में 16 प्रतिशत आरक्षण के कानून को भी फिलहाल अधर में लटका दिया है। वह अभी लागू नहीं होगा, क्योंकि कुल आरक्षण 64-65 प्रतिशत हो जाएगा, जो कि 50 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है। कई राज्यों ने भी अदालत द्वारा निर्धारित इस सीमा का उल्लंघन कर रखा है। मैं तो चाहता हूं कि नौकरियों में जन्म के आधार पर आरक्षण पूरी तरह खत्म किया जाना चाहिए। सिर्फ शिक्षा में 80 प्रतिशत तक आरक्षण की सुविधा दे दी जानी चाहिए, जन्म के नहीं, जरुरत के आधार पर ! (नया इंडिया की अनुमति से)
-सत्याग्रह ब्यूरो
11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले की जो सबसे ज्यादा देखी गई तस्वीरें हैं उनमें लोग नहीं हैं. वे बार-बार वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के 110 मंजिला टॉवरों और उनसे टकराते जहाजों को ही दिखाती हैं. बहुत हुआ तो टॉवरों के गिरने से उठे धूल के गुबार को.
लेकिन इसी हादसे की एक और तस्वीर है जो बनिस्बत कम देखे जाने के बावजूद इतिहास में अमर हो गई है. इसमें खुद को बचाने के लिए कूदा एक शख्स दिखता है. छटपटाहट के बगैर वह जैसे किसी तीर की तरह धरती की तरफ जाता नजर आता है. फोटो पत्रकारिता के इतिहास की सबसे चर्चित तस्वीरों में से एक इस तस्वीर का नाम है द फॉलिंग मैन.
यह तस्वीर एसोसिएटेड प्रेस के फोटोग्राफर रिचर्ड ड्रूयू ने खींची थी. एक साक्षात्कार में रिचर्ड उस क्षण को याद करते हुए बताते हैं, ‘लोग हादसे वाली जगह से दूर भाग रहे थे. लेकिन हमारा पेशा ऐसा है कि हमें ऐसी जगहों की तरफ भागना पड़ता है.’
रिचर्ड बताते हैं कि इसी दौरान उन्होंने 110 मंजिला टॉवर की ऊपर मंजिलों की खिड़कियों पर खड़े कई लोगों को जान बचाने के लिए कूदते देखा. इन्हीं में यह शख्स भी था जो 106वीं मंजिल से कूदा था. रिचर्ड ने तेजी से गिरते इस व्यक्ति की कई तस्वीरें लीं. इनमें से एक फ्रेम ऐसा था जिसमें यह शख्स किसी तीर की तरह नीचे जाता दिख रहा था. अगले दिन न्यूयॉर्क टाइम्स सहित कई प्रकाशनों ने इसे अपने यहां छापा.
हालांकि पाठकों ने इस पर बहुत नाराजगी भरी प्रतिक्रिया दी. ज्यादातर का कहना था कि जिस शख्स का कुछ सेकेंड बाद मरना तय हो, उसकी तस्वीर छापकर प्रेस ने अच्छा काम नहीं किया है. यही वजह है कि बाद में इस तस्वीर की कम ही चर्चा हुई. लेकिन आज इसे किसी त्रासदी को सबसे प्रभावशाली तरीके से बयां करने वाली ऐतिहासिक तस्वीरों में से एक माना जाता है.
लेकिन यह शख्स था कौन? यह अब तक कयास का ही विषय है क्योंकि सरकार ने उसकी पहचान कभी नहीं बताई. उस दिन इस तरह से करीब 200 लोगों ने जान बचाने के लिए छलांग लगाई थी. पहले कहा गया कि ये 106वीं मंजिल पर बने विंडोज ऑन द वर्ल्ड नाम के रेस्टोरेंट कम बार में काम करने वाले पेस्ट्री शेफ नॉर्बेर्तो हेर्नांडिस थे. उनके परिवार के लोगों ने भी यह बात कही. लेकिन जब उन्होंने रिचर्ड ड्र्यू की सारी तस्वीरों और कपड़ों को ध्यान से देखा तो पता चला कि ऐसा नहीं था.
एक दूसरे अनुमान में कहा गया कि यह शख्स जॉनाथन ब्रिली थे. 43 साल के ब्रिली भी विंडोज ऑन द वर्ल्ड में काम करते थे और ऑडियो टेकनीशियन थे. उनके एक सहकर्मी और भाई ने भी इसकी पुष्टि की. हालांकि इस बात पर भी कोई अंतिम राय नहीं बन पाई है.
खैर, वह जो भी रहा हो, माना जाता है कि यह तस्वीर उस शख्स से ज्यादा उस त्रासदी की कहानी कहती है जिसमें दो पक्षों की लड़ाई का शिकार किसी ऐसे को बनना पड़ता है जिसका इस लड़ाई से कोई लेना-देना न हो. (satyagrah)
-डॉ. अजय खेमरिया
मप्र में प्रमुख सचिव स्वास्थ्य के पद से हटाए गए अफसर बीए पास कर आईएएस बने है। इसी तरह न्यूक्लियर साइंस से एम टेक एक आईएएस पहले चिकित्सा शिक्षा, खाद्य और अब सँस्कृति के प्रमुख सचिव है। एमबीबीएस एमडी पृष्ठभूमि से आये अफसर बिजली कम्पनी के सीएमडी या जनसंपर्क के कमिश्नर हैं। इसे भारतीय प्रशासन तन्त्र की एक विसंगति और इससे खड़ी हुई व्यवस्थागत त्रासदी के रूप में विश्लेषित किये जाने की सामयिक आवश्यकता है। आजादी के 74 साल बाद भी क्या भारत एक सक्षम एवं उत्कृष्ट नागर प्रशासनिक सेवा के लिए भटक रहा है? अनुभवजन्य जबाव हमारी सिविल सेवा के लिए समेकित रूप से कटघरे में खड़ा करते है।
सुशासन, नवोन्मेष, लोककल्याण और राष्ट्रीय पुनर्निमाण में सिविल सेवा के सामाजिक अंकेक्षण का यह सबसे उपयुक्त समय भी कहा जा सकता है। कोविड संकट के बाद जब पूरी दुनियां में जीवन से जुड़े प्रतिमान ध्वस्त हुए है और नए विकल्प तेजी के साथ विश्व व्यवस्था का हिस्सा बन रहे है तब भारतीय नौकरशाही को लेकर चर्चा स्वाभाविक ही है। बुनियादी रूप से कुछ पहलुओं पर हमें सोचना होगा मसलन जिस संघ लोकसेवा आयोग की विश्वसनीयता पर कभी सवाल नहीं उठा उसके द्वारा चयनित लोकसेवक देश में वैसी ही साख अपनी कार्यसंस्कृति के मामले में क्यों नही बना पाए है? दूसरा क्या इस जटिल और पराक्रम केंद्रित परीक्षा को पास करने वाले अभ्यर्थी विशेषज्ञ के रूप में स्वत: अधिमान्यता प्राप्त कर लेनें के स्वाभाविक हकदार है? कलेक्टर यानी जिलाधिकारी के रूप में हम जिस आईएएस को सिविल सेवक के रुप में देखते हैं वह उसी सीमित भूमिका में 60 साल की आयु तक काम नही करता है। सेवावधि बढऩे के साथ ही उसे मौजूदा प्रशासनिक ढांचे में नीति निर्माता के रूप में भी काम करना होता है। सवाल यही है कि क्या नीतियों का निर्माण केवल पब्लिक पॉलिसी में विदेशी डिग्री हासिल करने से समावेशी हो सकता है? जैसा कि अधिकतर आईएएस अफसर इस डिग्री को सेवा में आने के बाद हासिल करते रहते है।
सवाल यह भी है कि जो विशेषज्ञ अफसर इस सेवा में मौजूद है उनकी एकेडमिक पृष्ठभूमि का उपयोग मौजूदा ढांचे में कहां तक हो पाता है। कोविड संकट के दौरान करीब साढ़े तीन हजार आदेश, सरक्युलर, एडवाइजरी, केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जारी किए गए है। यह प्रशासन के ‘लेवियाथन’ स्वरूप को प्रमाणित करने वाला पक्ष है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी ‘मिनिमम गवर्मेंट मैक्सिमम गवर्नेंस’ के दर्शन में भरोसा करते है। कोविड संकट में कभी आगरा तो कभी भीलवाड़ा मॉडल की चर्चाएं हमने मीडिया में सुनीं लेकिन अंतत: नतीजे सिफर रहे।
देश में एक भी जिला कलेक्टर अपनी निर्णयन क्षमता के आधार पर कोविड मामले में नवोन्मेषी और अनुकरणीय साबित नही हुआ। जबकि यह एक ऐसा अवसर भी था जब भारत के सर्वाधिक प्रज्ञावान अफसर अपने सुपर एलीट और एक्सपर्टीज वैशिष्ट्य को प्रमाणित कर सकते थे। मैदानी स्तर पर सभी कलेक्टर अपने राज्यों की राजधानियों या दिल्ली के सरक्युलर का इंतजार कर तत्संबंधी आदेश अपनी पदमुद्राएँ लगाकर जारी करते रहे। धारा 144 औऱ कफऱ््यू के लिए पाबन्द करती मैदानी पदस्थापना ऐसी कोई मिसाल प्रस्तुत नहीं कर पाईं जो तत्कालीन संकट में अनुकरणीय हो।
जिस अंग्रेजियत मनोविज्ञान और नफासत के लिए भारत की सिविल सेवा बदनाम है उसका उच्चतम स्वरूप हमें कोविड में भी नजर आया।कल्पना कीजिये अगर हर जिले का डीएम अपने जिले के व्यापारियों, धार्मिक ट्रस्टों, एनजीओ के प्रतिनिधियों से व्यक्तिगत संपर्क, संवाद कर वंचितों और प्रवासी श्रमिकों के लिए मदद के हाथ फैलाता तो क्या बदली हुई तस्वीरें सामने नहीं आई होती। हर जिले में कलेक्टर एक टीम लीडर की तरह नजर आ सकते थे वे जनभागीदारी की वैश्विक मिसाल कायम कर सकते थे। लेकिन अधिकतर जगह बिल्कुल उलट हुआ जिला और पुलिस प्रशासन का पूरा जोर डंडे के बल पर लोकडाउन सफल करने में रहा। जबकि यह लॉकडाउन कानून व्यवस्था या सुरक्षा से सीधा जुड़ा न होकर जनस्वास्थ्य से संबद्ध था। लेकिन हमारी सिविल सर्विस बिल्कुल अंग्रेजी हुकूमत की तरह काम करती दिखी जबकि आवश्यकता एक भरोसे को कायम करने की थी।
कानूनी सख्ती में भी न समरूपता नजर आई न निष्पक्षता। विवेकाधिकार के रूप में डीएम उन कामों से भी किनारा करते रहे जो इस दौरान प्रशासन और गरीब वर्ग के बीच नया रिश्ता कायम कर सकते थे। मसलन हजारों गरीब राशन के लिए दफ्तरों में चक्कर लगाते रहे लेकिन किसी डीएम ने ऐसे वास्तविक जरूरतमंद लोगों के हक में सरकारों से अनुमति की प्रत्याशा में उपलब्ध अनाज का वितरण तक नहीं किया। क्या एक कलेक्टर अपने स्तर पर अपने हजारों कर्मचारियों के प्रमाणीकरण के आधार पर ऐसा नहीं कर सकता था? संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से लगाइए की लगभग 40 फीसदी पीडीएस का कोटा तो इस दौरान वितरित ही नहीं हुआ है। खुद खाद्य मंत्री रामविलास पासवान इस पर अफसोस जाहिर कर चुके है। क्या जिलों में इस स्थिति को अपना पूरा पराक्रम झोंक कर आईएएस अफसर बदल नही सकते थे। लेकिन वे अतिरिक्त रिस्क और पश्चावर्ती शिकवा शिकायत से डरे नजर आए। जबकि तथ्य यह है कि हर शिकायत की तस्दीक सरकार के लिए अंतिम रूप से आईएएस ही करते हैं।
जाहिर है त्वरित निर्णयन,लोककल्याण और संवेदनशीलता के मोर्चे पर भारतीय सिविल सेवा का ढांचा आज भी यथास्थितिवाद पर अबलंबित है।
जर्मन विद्वान मैक्स वेबर ने 1920 में अपनी पुस्तक ‘the theory of social and economic organization’ में पहली बार ब्यूरोक्रेसी को लोकतन्त्र का आदर्श प्रतिरूप कहा। उन्होंने ‘निष्पक्षता’ और ‘तटस्थता’ को नौकरशाही का बुनियादी तत्व भी निरूपित किया है।
संविधान सभा में आईसीएस को समाप्त करने या न करने को लेकर व्यापक बहस हुई थी। इस दौरान यह विनिश्चय किया गया कि नई अखिल भारतीय सेवाएं लोककल्याण और संवैधानिक प्रत्याभूति को समर्पित रहेंगी। हालांकि डॉ राममनोहर लोहिया इस औपनिवेशिक व्यवस्था के विरोधी थे। सरदार पटेल ने तत्कालीन परिस्थितियों के लिहाज से इसकी वकालत करते हुए इस सेवा को ‘स्टील फ्रेम’ की संज्ञा दी थी।
73 साल बाद भारत का नागरिक प्रशासन तंत्र क्या इसके ध्येय अनुरूप अबलंबित रहा है? इस सवाल के जबाब में हमें हांगकांग की एक प्रतिष्ठित कंसल्टेंट फर्म ‘पॉलिटिकल एन्ड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी लिमिटेड’ की वैश्विक व्यूरोक्रेसी रैंकिंग पर नजर डालनी होगी। भारत की ब्यूरोक्रेसी को 10 में से 9.21वें स्थान पर रखा गया है। यानी सबसे बदतर। वियतनाम 8.54, इंडोनेशिया 8.37, फिलीपींस 7.57, चीन 7.11, सिंगापुर 2.25, हांगकांग 3.53, थाईलैंड 5.25, जापान 5.77, दक्षिण कोरिया 5.87, मलेशिया 5.84 रैंक पर रखे गए है। इस रपट में भारत की अफसरशाही को सबसे खराब रैंकिंग दी गई है। सवाल यह है कि क्या इस स्थिति के लिए केवल नेताओं को दोषी ठहराया जाना चाहिए?
सरकारें बदलना जम्हूरियत में एक स्वाभाविक घटनाक्रम है। नई सरकार अपनी सुविधा और भरोसे के अनुरूप अफसरों को पदस्थ कर सकती है। बुनियादी रूप से शीर्ष अफसरशाही को न केवल कोड ऑफ कंडक्ट बल्कि कोड ऑफ इथिक्स का पालन करना चाहिये। लेकिन अनुभव बताते हैं कि अफसर अपनी सुविधा के लिए दोनों कोड खूंटी पर टांग देते हंै। जिन्हें जनता की बोली में मलाईदार कुर्सी कहा जाता है उसे पाने के लिए आज अधिकतर अफसर मंत्रियों के इर्द गिर्द परिक्रमा करते रहते है। मुख्यमंत्री के परिजनों, उनके सम्पर्क के सत्ताधारी कार्यकर्ताओं को साधते है। जिलों में कलेक्टर, एसपी, एसएसपी, डीएफओ की मैदानी पोस्टिंग के लिए क्या क्या हथकंडे अफसर नही अपनाते यह अब किसी से छिपा नहीं है। यह आमधारणा बन गई है कि कलेक्टर, एसपी, डीएफओ की कुर्सी मुफ्त में नहीं मिलती है। इसी तरह माइनिंग, आबकारी, मंडी बोर्ड, परिवहन, जनसंपर्क, ट्राइबल, बिजली कम्पनी की कमान संभालने वाले अफसर केवल योग्यता के बल पर पदस्थापना नहीं पाते हैं।
खासबात यह है कि राज्य का मुख्यसचिव, डीजीपी भी केवल तभी तक पद पर रह सकते है जब उन्हें मुख्यमंत्री का निजी बिश्वास हासिल रहता है। अफसरों ने इस स्थिति को खुद अपनी नैतिक समझौता परस्ती से निर्मित किया है क्योंकि आज के किसी मुख्य सचिव या डीजीपी में इतना नैतिक साहस नही रहता है कि वह मुख्यमंत्री से आंख मिलाकर बात कर सकें। अधिकतर मुख्य सचिव और डीजीपी वरिष्ठताक्रम को दरकिनार कर कुर्सी पा रहे है और यह अनुकम्पा विशेष और व्यक्तिगत समर्पण के संभव नहीं होती है। मैदानी और मलाईदार पदस्थापना के लालच में अधिकतर अफसर नैतिक रूप से पथभृष्ट हो जाते हैं और वे राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र को अमल में लाने की प्रतिस्पर्धा में जुट रहते है। दिग्विजय सिंह के बारे में कहा जाता था कि वे प्राय: रोज सभी कलेक्टर और एस पी से टेलीफोन पर चर्चा करते थे।
अफसर खुद अपने व्यवहार से सत्ताधारी दल के अर्दली की भूमिका ले लेते है। जिस दल की सरकार होती है उसके विधायक और स्थानीय कार्यक्रमों के तमाम कलेक्टर एसपी अपने चैम्बर में चाय पिलाते हैं और विपक्षी विधायकों को बाहर इंतजार कराते हंै। जबकि सत्कार नियम ‘पदक्रम’ कहता है विधायक राज्य के मुख्य सचिव के समकक्ष है। किसी भी राज्य में इस कानून का पालन नहीं होता है। यानी राज्य की अफसरशाही दलीय एजेंडे के हिसाब से काम करती है। विरोधियों को कुचलने के लिए अब न केवल पुलिस बल्कि प्रशासन के अफसर भी चैम्पियन की तरह काम करते हंै। जबकि कानून ऐसे किसी राजनीति आधारित भेदभाव की इजाजत नहीं देता है। समझा जा सकता है यह समझौता परस्ती क्यों और किस निमित्त से होती है। नेताओं ने अफसरशाही के इस दुर्बल पक्ष को पकड़ लिया है वे भी समानांतर रूप से संविधान के मूल्यों और भावनाओं को रौंदने में इनका उपयोग करते है।
शुचिता और निष्पक्षता की मान्य परम्पराओं आजादी के बाद शुरुआती दौर में दोनों पक्षों ने कायम रखने की कोशिशें की थी।एक जिले में पदस्थ कलेक्टर और एसपी अमूमन अपने सेवाकाल में फिर से उस जिले में पदस्थ नही किये जाते थे। गृह जिलों के आसपास भी अफसरों को तैनात करने से परहेज होता था।आज हालात यह है कि जिन डीएम एसपी को चुनाव में निर्वाचन आयोग शिकायतों के बाद हटा देता है। वे अचार सहिंता हटते ही ठसक के साथ उन्हीं जिलों में पदस्थ कर दिये जाते हैं। मानो सरकार उन्हें अपने चुनावी एजेंडे पर काम करने का इनाम दे रहीं हो।
देश भर की मीडिया में थप्पड़ कांड के चलते छाई रहीं राजगढ़ की कलेक्टर निधि निवेदिता को शिवराज सिंह ने शपथ लेते ही हटा दिया।सवाल यह है कि सीएए समर्थक बीजेपी के कार्यकर्ताओं को थप्पड़ मारकर क्या निधि निवेदिता तत्कालीन कमलनाथ सरकार के लिए स्वप्रेरित रोल मॉडल नहीं बन रही थी? उनका यह कृत्य कलेक्टर संस्था को बीजेपी कांग्रेस में बांटने का काम कर गया। सीएए पर राज्यों में बीजेपी और गैर बीजेपी राज्यों के कलेक्टर ने धरना, प्रदर्शन, जुलूस अनुमतियों के मामले में विशुद्ध राजनीतिक आधार पर निर्णय लिए।यहां कोड ऑफ कंडक्ट का कोई पालन नहीं हुआ।
एक दौर तक डीएम या एसपी मुख्यमंत्री या दूसरे मंत्रियों के साथ सार्वजनिक मंचों पर नहीं आते थे। अब लगभग सभी अफसर ठसक से मंच साझा करते है जहां विशुद्ध राजनीतिक प्रलाप होते हैं। बेशर्मी की सीमाएं लांघते हुए अधिकतर कलेक्टर सीएम, पीएम या अन्य नेताओं की सभाओं के लिए भीड़ जुटाने में सरकारी मशीनरी का प्रयोग करते हैं। यह स्थिति देश के सभी राज्यों में है। तथ्य यह है कि मैदानी और मंत्रालय के अफसर सत्ताधारी दल के एजेंट बनकर रह गए है। असल में खुद को सबसे ताकतवर समझने वाली आईएएस, आईपीएस बिरादरी खुद नैतिक रूप से आज इतनी कमजोर है कि वह अशोक खेमका (हरियाणा), श्रीमती गौरी सिंह (मप्र) अभिताभ ठाकुर (यूपी) जैसे कई अफसरों के साथ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाती हैं।
जाहिर है एक ऐसी सिविल सेवा की आज आवश्यकता है जो इस औपनिवेशिक मनोविज्ञान की जगह बदलती जनाकांक्षाओं के अनुरूप हो। लैटरल इंट्री के जरिये जो प्रयोग मोदी सरकार ने किया है उसे आगे विस्तार देने की आवश्यकता है। भर्ती प्रक्रिया में विशेषज्ञता के प्रावधान जोडऩे से फ्लैगशिप स्कीमों का क्रियान्वयन त्वरित होगा। मसलन स्वास्थ्य, शिक्षा, तकनीकी, कला, विज्ञान और खेल जैसे क्षेत्रों के लिए स्थाई सिविल सेवा कोटा बनाया जाए। ऊर्जा, स्वास्थ्य, सूचना तकनीकी जैसे क्षेत्र के विशेषज्ञ उपाधिधारक रिटायरमेंट तक अपने ही क्षेत्र में काम करें। इससे सबंधित क्षेत्रों में नीति निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक मे बेहतर नतीजे आएंगे। सिविल सेवा भर्ती का दायरा भी सीमित किया जाना चाहिये यानी नागरिक प्रशासन के लिए यूपीएससी की सयुंक्त भर्ती को खत्म किया जाए ताकि वित्त, विदेश, सूचना, पुलिस, के लिए अलग से विशेषज्ञ प्रशासक मिल सकें। आईएएस के स्थान पर भारतीय नागरिक सेवा का विशिष्ट संवर्ग मैदानी प्रशासन के लिए कारगर साबित हो सकता है और इसके लिए आवश्यक है कि भर्ती की न्यूनतम और अधिकतम आयु सीमा को 1970 के नियमों पर लाया जाए ताकि युवा और ऊर्जावान जिलाधिकारी देश को मिल सकें।बेहतर होगा यूएसए की तर्ज पर निश्चित समयावधि के लिए भी इन अफसरों की भर्ती का प्रावधान हो ताकि मिशन मोड़ वाले कार्यक्रम अपने उद्देश्यों में सफल हो।
फिलहाल विसंगतियों का आलम यह है कि बीए पास आईएएस हैल्थ मिशन चलाते है अगले कुछ दिनों वही अफसर जलग्रहण मिशन, शिक्षा मिशन के डायरेक्टर हो जाते है। इस सरंचणात्मक ढांचे में न कोई विशिष्टता है न कार्यक्रमों को लागू करने की प्रतिबद्धता ही। आईएएस परीक्षा पास करने वाले प्रज्ञावान अफसर एक वक्त के बाद बड़े बाबू बनकर रह जाते हंै। यह भारत जैसे देश के लिए बेहद गंभीर स्थिति है। नए आईएएस अफसरों को। संबोधित करते हुए कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि वह सिस्टम की प्रोसेस को आज तक नहीं समझ पाए हैं क्योंकि जिस काम के लिए वह निजी तौर पर निर्देश देते है वह घण्टों में हो जाता है और रूटीन काम प्रोसेस के नाम पर सालों तक फाइलों में कैद रहते हैं। प्रधानमंत्री असल में इसी बाबूशाही और जड़ता की बात कर रहे थे। बेहतर होगा सरकार लेटरल इंट्री पर आगे बढ़े। बगैर आईएएस के पतंजलि, अमूल जैसे सहकारी संस्थानों ने जो गजब की प्रगति की है उसे हम सड़ चुके समाजवाद के नाम पर ढोने के लिये क्यों विवश है।
स्वयंसेवी संगठन पीपुल्स एक्शन फॉर इम्प्लायमेंट जनरेशन गारंटी ने मनरेगा पर अपनी रिपोर्ट जारी की
- Raju Sajwan
उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के गांव धमना में मनरेगा के काम से लौटे लोग। उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के गांव धमना में मनरेगा के काम से लौटे लोग। उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के गांव धमना में मनरेगा के काम से लौटे लोग।
कोरोनावायरस संक्रमण को रोकने के लिए देश भर में लगाए गए लॉकडाउन के दौरान बेशक महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) ही एकमात्र कार्यक्रम था, जिसके तहत लोगों को रिकॉर्ड रोजगार दिया गया, लेकिन फिर भी लगभग 1.55 करोड़ लोगों ने काम मांगा और उन्हें काम नहीं दिया गया। पीपुल्स एक्शन फॉर इम्प्लायमेंट जनरेशन गारंटी (पीएईजी) द्वारा जारी रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है।
10 सितंबर को पीईएजी ने एक प्रेस कांफ्रेस में यह रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2020-21 के बजट में मनरेगा के लिए आवंटित राशि छह माह के भीतर ही खर्च कर दी गई है। बजट में 60 हजार करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था, जबकि नौ सितंबर 2020 तक 64,000 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। सरकार ने वादा किया था कि कोरोना राहत पैकेज के तौर पर मनरेगा के लिए 40 हजार करोड़ रुपए जारी किए जाएंगे, जो अब तक जारी नहीं किए गए हैं। कई राज्यों ने आवंटित फंड से ज्यादा खर्च कर दिया है।
आठ सितंबर 2020 तक के आंकड़े बताते हैं कि बिहार को मनरेगा के तहत 4,149 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं, जबकि बिहार 4,373 करोड़ रुपए खर्च कर चुका है। इसी तरह छत्तीसगढ़ सबसे अधिक 3,170 करोड़ रुपए अधिक खर्च कर चुका है। पीईएजी की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र के मनरेगा मद में 481 करोड़ रुपए का नेगेटिव बैलेंस है। यानी कि यह राशि देनदारी की है। हालांकि केंद्र सरकार छत्तीसगढ़ को लगभग 3,200 करोड़ रुपए दे अतिरिक्त दे चुका है। उत्तर प्रदेश भी आवंटित बजट से लगभग 93.87 करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च कर चुका है
जून के बाद घटा काम
रिपोर्ट बताती है कि 2020-21 में सबसे अधिक काम जून 2020 में दिया गया। इस माह में 3.9 करोड़ परिवारों को काम दिया गया, जबकि इससे पहले मई में 3.3 करोड़ और अप्रैल में 1.1 करोड़ परिवारों को काम दिया गया। लेकिन जून के बाद काम देने का सिलसिला कम होता गया। जुलाई 2020 में 2.8 करोड़ परिवारों को काम दिया गया, जबकि अगस्त में 1.8 करोड़ परिवारों को काम दिया गया।
केवल 1.4 फीसदी परिवारों को 100 दिन काम
रिपोर्ट में कहा गया है कि 6.8 लाख परिवारों ने 100 दिन का काम कर लिया है, लेकिन नरेगा के तहत दिए गए कुल रोजगार के मुकाबले यह केवल 1.2 प्रतिशत है। इसके अलावा 51 लाख परिवार 70 दिन का काम कर चुके हैं, जबकि पिछले पांच साल का औसत देखें तो 42 लाख परिवार ही साल भर में 100 दिन का काम कर पाते हैं।
बिहार में 2 हजार परिवार को ही मिला 100 दिन काम
अगर राज्यवार आंकड़े देखा तो सबसे अधिक आंध्र प्रदेश ने 2.65 परिवारों को 100 दिन का काम दिया है, लेकिन बिहार में केवल 2000 परिवार ही 100 दिन का काम कर पाएं हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि लॉकडाउन के चलते बिहार में बड़ी तादात में प्रवासी मजदूर लौटे थे और वहां मनरेगा का काम मांग रहे थे। इसी तरह उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक प्रवासी मजदूर लौटे, लेकिन यहां केवल 29 हजार परिवारों को ही 100 दिन का काम दिया जा सका है।
16 फीसदी को नहीं मिला काम
लॉकडाउन के बाद पीएईजी ने तीन नरेगा ट्रेकर जारी किए हैं। पहला ट्रेकर 10 जुलाई 2020 को जारी किया, जिसमें बताया गया कि नरेगा के तहत काम मांगने वाले और काम पाने वाले परिवारों की संख्या में लगभग 1.76 करोड़ का अंतर था। यानी कि 1.76 करोड़ परिवारों को काम नहीं मिला। यानी कि 1.74 करोड़ लोगों को काम नहीं मिल पाया। 3 अगस्त 2020 को पीएईजी की रिपोर्ट में कहा गया कि 1.52 करोड़ लोगों को काम नहीं मिल पाया, जबकि 8 सितंबर 2020 तक 1.55 करोड़ लोगों को काम नहीं मिल पाया।
मनरेगा के तहत सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में काम मांगने वालों को काम नहीं मिल पाया। यहां 35 लाख लोगों को काम नहीं मिला। इसी तरह छत्तीसगढ़ में 11.74 लाख, राजस्थान में 13.7 लाख लोगों को मांगने के बावजूद काम नहीं मिल पाया।
कैसे मिलेगी 1200 करोड़ रुपए मजदूरी
रिपोर्ट बताती है कि पिछले पांच साल से जुलाई 2020 तक लगभग 5 करोड़ वित्तीय लेनदेन (ट्रांजेक्शन) रद्द हो चुके हैं और लगभग 4800 करोड़ रुपए की मजदूरी, मजदूरों को नहीं दी गई है। यानी कि 23 में से 1 ट्रांजेक्शन रिजेक्ट हुआ है। इस तरह लगभग 6.43 करोड़ दिन की मजदूरी लोगों को नहीं मिली है। सबसे अधिक ट्रांजेक्शन मध्य प्रदेश, फिर छत्तीसगढ़, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और आंध्रप्रदेश में रिजेक्ट हुई है।(downtoearth)
-कृष्ण कांत
एक तरफ एक अभिनेत्री का आशियाना है। दूसरी तरफ 48 हजार घर हैं। इन घरों को सभ्य समाज घर नहीं, झुग्गियां कहता है। इन दोनों पर अवैध होने का आरोप है। अभिनेत्री के आशियाने पर बड़े-बड़े नेता, पत्रकार और तमाम जनता ने आंसू बहाया, सरकारी कार्रवाई की मजम्मत की। 48 हजार घरों के ढहाए जाने के आदेश पर कहीं कोई चर्चा तक नहीं।
अभिनेत्री के पास हजारों विकल्प हैं। उनके पास अकूल संपत्ति है। उन्हें देश की सत्ताधारी पार्टी का समर्थन है। लेकिन उन 48 हजार गरीब परिवारों के पास न दूसरी जमीनें हैं, न संपत्ति है, न कोई समर्थन है। इनमें बहुत से लोग ऐसे होंगे जिनको आजकल काम भी नहीं मिल रहा होगा। उन्हें उजाड़ दिया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि नई दिल्ली रेलवे ट्रैक के आसपास बनीं झुग्गियां तीन महीने के भीतर हटा दी जाएं। कोर्ट ने ये भी निर्देश दिया है कि कोई भी अदालत इन झुग्गी-झोपडिय़ों को हटाने को लेकर कोई स्टे न दे।
वे कौन लोग हैं जो आकर रेल की पटरियों के आसपास झोपड़ी बनाकर बस गए? वे इसी देश के गरीब लोग हैं जो रोजी कमाने के लिए अपने-अपने गांव घर छोडक़र शहर आए हैं। वे मजदूर और कामगार हैं। कोई बोरा ढोता होगा, कोई बर्तन मांजता होगा, कोई घर बनाता होगा, कोई बाल काटता होगा, कोई कुली होगा, कोई ड्राइवर होगा।
कानून कहता है कि वे अवैध हैं, उन्हें उजाड़ देना चाहिए। कानून ये कभी नहीं कहता कि उन्हें कहीं बसा देना चाहिए। कानून ये भी नहीं कहता कि उन्हें उनके घरों में ही रोजगार दे देना चाहिए।
वही कानून जिसने आदेश दिया है कि अभिनेत्री का घर फिलहाल बचा रहना चाहिए।
कानून का सिद्धांत सबके लिए समान है, लेकिन कानून का क्रियान्वयन हमेशा ताकतवर के पक्ष में होता है।
हमारी संवेदनाएं भी इसी तरह उफनती हैं। गांधी जी जिस गरीबी को अभिशाप मानते थे, उसने अब भी भारतीय जनता का पीछा नहीं छोड़ा है। अमीरों ने भी देश के तमाम संसाधन कब्जाएं हैं। छत्तीसगढ़ के हजारों आदिवासी आजकल अपने पहाड़ बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। एक दिन कानून उन आदिवासियों को भी अवैध कह देगा और पूंजीपति के पक्ष में फैसला देगा कि गांव को उजाड़ कर पहाड़ खोद दिए जाएं।
अमीरों के साथ पूरा सिस्टम है, इसलिए अमीरों के हर कारनामे वैधानिक हैं। गरीबों के साथ कोई नहीं है, इसलिए उनकी मौजूदगी भी अवैध है। ये दुनिया ऐसे ही अन्यायपूर्ण तरीके से चलती है और हमें बड़ी सुंदर लगती है।
राम पुनियानी
हम आज ऐसे दौर में हैं, जहां धार्मिक पहचान अपना घिनौना चेहरा बेपर्दा कर रही है। पहचान की राजनीति के सबसे बड़े शिकार मुसलमान हैं। भारत में ऐसी सोच का मुख्य स्त्रोत देश विभाजन है, जबकि यूरोप में पश्चिम एशिया में युद्धों के कारण वहां से आने वाले शरणार्थी हैं।
पैगंबर हजरत मोहम्मद के बारे में आपत्तिजनक पोस्ट और कुरान की प्रतियां जलाने की प्रतिक्रिया स्वरूप अभी हाल में अनेक हिंसक घटनाएं हुई हैं। हाल में नवीन कुमार, जो बेंगलुरू के एक कांग्रेस विधायक के भतीजे हैं, ने फेसबुक पर पैगम्बर मोहम्मद के बारे में अत्यधिक आपत्तिजनक पोस्ट लिखा। इसके बाद मुस्लिम समुदाय का एक नेता, भीड़ के साथ नवीन के विरूद्ध थाने में शिकायत दर्ज कराने गया। पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने में आनाकानी की। इस दरम्यान भीड़ बढ़ती गई और उसने तोडफ़ोड़ शुरू कर दी। पुलिस ने गोलियां चलाईं, जिसके नतीजे में तीन लोगों की मौत हो गई।
स्वीडन के मेल्मो शहर में अगस्त के अंत में एक दक्षिणपंथी नेता ने कुरान की प्रति को आग के हवाले कर दिया। यह भडक़ाऊ घटना ऐसी जगह हुई जहां मुस्लिम प्रवासी रहते हैं। ‘स्वीडन डेमोक्रेट्स’ नाम की नव-नाजीवादी पार्टी स्वीडन की संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। इस पार्टी का मानना है कि स्वीडन की सारी समस्याओं की जड़ वहां बसे शरणार्थी हैं। मेल्मो में लगभग तीन सौ लोगों की भीड़ ने कुरान के अपमान का विरोध करते हुए हिंसा की। स्वीडन की दक्षिणपंथी पार्टियों का आरोप है कि नार्डिक देशों का इस्लामीकरण किया जा रहा है और इन देशों में बढ़ते अपराधों के पीछे सीरिया के युद्ध के बाद वहां आए मुसलमान हैं।
इस बीच अनेक यूरोपीय देशों में भी दक्षिणपंथी ताकतों का दबदबा बढ़ रहा है। एएफजी (अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी) ऐसी ही एक दक्षिणपंथी पार्टी है। ऐसी सभी पार्टियों का वैचारिक आधार फासिज्म है। ये दल अति-राष्ट्रवाद में विश्वास करते हैं और प्रवासियों को निशाना बनाते हैं। प्रवासियों ने पश्चिम एशिया में युद्ध और हिंसा के कारण यूरोपीय देशों में शरण ली है।
इस युद्ध और हिंसा का कारण है बढ़ती इस्लामिक कट्टरपंथी राजनीति। इस राजनीति को हवा दे रहे हैं अलकायदा, आईएसआईएस और आईएस। इन संगठनों को सशक्त किया है अमेरिका की कट्टर इस्लाम को प्रोत्साहन देने की नीति ने। सच पूछा जाए तो तेल की लिप्सा इस इलाके में अमेरिकी हस्तक्षेप का मुख्य कारण है।
एक अन्य घटना में ‘शार्ली हेब्दो’ नामक फ्रांस की कार्टून पत्रिका ने हाल में पैगम्बर मोहम्मद से संबंधित कार्टूनों का पुनप्रर्काशन ऐसे समय किया, जब उन आतंकवादियों पर मुकदमा शुरू हुआ था, जिन्होंने 2015 में इस पत्रिका के दफ्तर पर हमला किया था। उल्लेखनीय है कि पत्रिका ने जो कार्टून प्रकशित किए थे, वे अनेक लोगों की नजर में अत्यधिक आपत्तिजनक थे। आतंकी हमले में पत्रिका के अनेक कार्टूनिस्ट मारे गए थे। इस घटना के अपराधी गिरफ्तार कर लिए गए थे और वे इस समय अदालत के सामने हैं।
इसी तरह साल 2007 में फ्रांस में उस समय एकाएक हिंसा भडक़ उठी, जब पुलिस ने दो मुस्लिम प्रवासी युवकों को मार डाला। यह घटना पुलिस द्वारा एक श्वेत नागरिक की हत्या की जांच के दौरान हुई। ये युवक गैर-कानूनी प्रवासी थे और इसलिए छिपकर रह रहे थे। उनकी हत्या के बाद फ्रांस में अनेक हिंसक घटनाएं हुईं। फ्रांस में रहने वाले अधिकांश प्रवासी मोरक्को, टयूनिशिया, माली, सेनेगल और अल्जीरिया समेत ऐसे देशों से आए हैं, जो एक जमाने में फ्रेंच साम्राज्य का हिस्सा थे। ये सब 1950 और 1960 के दशकों में फ्रांस में बसे थे। ये सब मुस्लिम और अश्वेत हैं और पेरिस और फ्रांस के अन्य शहरों में अत्यधिक दयनीय स्थिति में रह रहे हैं।
हमें बोको हरम द्वारा बच्चों के अपहरण और पाकिस्तान के पेशावर में तालिबानियों द्वारा बच्चों की हत्या जैसी अत्यधिक लोमहर्षक घटनाएं याद हैं। जिस तरह हमारे देश में मुसलमानों को उनके पिछड़ेपन और बड़े परिवारों के लिए दोषी ठहराया जाता है, उसी तरह यूरोप में भी दक्षिणपंथियों का मानना है कि मुसलमान उन देशों की संस्कृति में घुलना-मिलना नहीं चाहते और अपनी अलग पहचान बनाए रखते हैं। कुछ दक्षिणपंथी अतिवादी नेता, आबादी के इस हिस्से को नीची निगाहों से देखते हैं और उन्हें कीड़े-मकोड़े, बर्बर और जाने क्या-क्या कहते हैं।
हम आज एक ऐसे दौर में रह रहे हैं, जिसमें धार्मिक पहचान अपना घिनौना चेहरा बेपर्दा कर रही है। पहचान की राजनीति के सबसे प्रमुख शिकार मुसलमान हैं। भारत में इस तरह की सोच का मुख्य स्त्रोत देश का विभाजन है, जिसके चलते संपन्न मुसलमान पाकिस्तान चले गए और यहां बड़ी संख्या में गरीब और हाशिए पर पड़े मुसलमान रह गए। समय-समय पर होने वाली हिंसक घटनाओं के कारण उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गई और इसका एक असर यह हुआ कि वे अपने-अपने मोहल्लों में सिमट गए।
यूरोप में इस्लामोफोबिया के दूसरे कारण हैं। पश्चिम एशिया में लगातार होने वाले युद्धों के कारण वहां के निवासी, शरणार्थियों की हैसियत से यूरोप के देशों में बस गए। स्वीडन उन देशों में है जिन्होंने इन शरणार्थियों को जगह दी। इनमें से बहुसंख्यकों को इसलिए कोई रोजगार नहीं मिल सका, क्योंकि वे लगभग अशिक्षित थे। वे इन देशों में पूरी तरह सामाजिक सुरक्षा पर निर्भर थे। इन्हीं मुद्दों को उठाकर नव-नाजी पार्टियां उन्हें निशाना बना रही हैं।
पूरी दुनिया में इस्लामोफोबिया को हवा दे रही है अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियां। अमेरिका की नीतियों ने जिस तरह की राजनीति को गढ़ा उससे दुनिया के एक बड़े हिस्से की नियति तय हुई। पाकिस्तान में मदरसों के माध्यम से अल्कायदा को प्रशिक्षित किया गया। इसके साथ ही तेल उत्पादक क्षेत्र में हिंसा के बीज बोए गए। कट्टर इस्लामवादियों को अमेरिका द्वारा प्रोत्साहन दिया गया।
परंतु 9/11 के हमले ने सब कुछ बदल दिया। अमेरिका को यह अहसास हो गया कि उसने एक भस्मासुर को जन्म दे दिया है। इस हमले के बाद अमेरिकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द गढक़र मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया। दुनिया के अनेक अन्य राष्ट्रों के मीडिया ने इस दुष्प्रचार को और हवा दी। हमारा देश भी इस मामले में पीछे नहीं रहा। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति ने साम्प्रदायिकता के लिए उपजाऊ जमीन पहले ही तैयार कर दी थी। 21वीं सदी में अमेरिका की नीतियों की खाद-मिट्टी पाकर इस जमीन पर घृणा की फसल लहलहाने लगी।
इस बीच जहां अनेक मुस्लिम देशों ने विभिन्न रास्तों से धर्मनिरपेक्षता की ओर कदम बढ़ाने शुरू किये, वहीं दुनिया के तेल उत्पादक देश कट्टरवाद के चंगुल में फंसते गए। तुर्की, जो 1920 के आसपास से धर्मनिरपेक्षता का गढ़ बन गया था, वहां अब कट्टरवादी ताकतें मजबूत होती जा रही हैं। सूडान में राज्य और धर्म में कोई नाता नहीं रह गया है। इंडोनेशिया और मलेशिया दो ऐसे मुस्लिम बहुल राष्ट्र हैं जो कट्टरपंथी विचारधारा से दूरी बना रहे हैं। इसके विपरीत पश्चिम एशिया के देश अभी तक पोंगापंथ के जाल में फंसे हुए हैं।
यह बहुत स्पष्ट है कि यदि भारत, पश्चिम एशिया और यूरोप के देशों में रहने वाले मुसलमान पिछड़ेपन का शिकार हैं तो उसका कारण इस्लाम नहीं है। उसका असली कारण दुनिया की बड़ी ताकतों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं हैं, जो इस्लाम का सहारा लेकर अपने आर्थिक स्वार्थों को पूरा कर रही हैं। सच पूछा जाए तो मुसलमानों का वह हिस्सा जो अपनी धार्मिक पहचान को प्राथमिकता देता है, वास्तव में एक अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक चक्रव्यूह का शिकार है। (navjivanindia.com)
(लेख का हिंदी रूपांतरण: अमरीश हरदेनिया)
प्रशांत चाहल
रूस की सरकार अपने यहाँ बनी कोरोना वैक्सीन ‘स्पूतनिक-5’ के उत्पादन में तेज़ी लाने के लिए भारत के साथ चर्चा में है।
रूसी चाहते हैं कि अपनी वैक्सीन के ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन के लिए वो भारत की औद्योगिक सुविधाओं और क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल करें। वहीं भारत को भी यह ’सिफऱ् फ़ायदे‘ की ही बात लग रही है।
भारत में कोविड-19 वैक्सीन संबंधी राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह के प्रमुख और नीति आयोग के सदस्य (स्वास्थ्य) डॉक्टर वी के पॉल ने कहा है कि भारत बड़ी मात्रा में उस (स्पूतनिक-5) वैक्सीन का उत्पादन कर सकता है जो रूस के लिए तो बढिय़ा होगा ही, साथ ही भारत के लिए भी यह एक ज़बरदस्त मौक़ा होगा। साथ ही दुनिया को भी हम वैक्सीन उपलब्ध करा पायेंगे।
उन्होंने जानकारी दी है कि ‘रूस ने अपने कोविड-19 वैक्सीन ‘स्पूतनिक-5’ के तीसरे चरण के परीक्षण और भारतीय कंपनियों द्वारा इसके विनिर्माण के लिए उचित माध्यमों के ज़रिये भारत सरकार से बात शुरू की, और अच्छी बात ये है कि दोनों पक्षों के बीच इसे लेकर सकारात्मक विमर्श हो रहा है।’ उन्होंने बताया कि ‘भारतीय वैज्ञानिक स्पूतनिक-5 के पहले के दो ट्रायल्स के डेटा का अध्ययन कर रहे हैं जिसके बाद जरूरत के आधार पर तीसरे चरण के ट्रायल की कार्यवाही शुरू की जायेगी।’
भारतीय दवा कंपनियों से सहयोग की उम्मीद
रूस ने स्पूतनिक-5 को बाजार में लाने के लिए ‘फ़ास्ट-ट्रैक’ तरीका आजमाया है जिसके तहत पुतिन प्रशासन ने इस वैक्सीन को कुछ आपातकालीन स्वीकृतियाँ दी हैं। हालांकि लेंसेट हेल्थ जर्नल में छपी रिपोर्ट के अनुसार, स्पूतनिक-5 के नतीज़े कोरोना से लडऩे में बढिय़ा पाये गए हैं।
रूस चाहता है कि इस वैक्सीन को जल्द से जल्द सभी स्वीकृतियाँ दिलाकर बाजार में लाया जाये, मगर फिर भी रूस के सामने जो एक बड़ी चुनौती बचती है, वो इस वैक्सीन के उत्पादन की है और इसी के लिए रूस की सरकार ने भारत सरकार के ज़रिये भारतीय दवा कंपनियों से सहयोग माँगा है। डॉक्टर पॉल के अनुसार, ‘भारत सरकार ने कई भारतीय कंपनियों से पूछा है कि कौन-कौन इस रूसी वैक्सीन को तैयार करने की इच्छुक हैं? तो तीन भारतीय कंपनियाँ अब तक सामने आयी हैं जिन्होंने इसकी इच्छा जाहिर की है। कई कंपनियाँ रूस सरकार के प्रस्ताव का अध्ययन कर रही हैं और कई अपनी रूसी समकक्षों से इस बारे में चर्चा कर रही हैं।’
सबकी निगाहें कोरोना वायरस की वैक्सीन पर
दुनिया भर में अब तक कोरोना संक्रमण के 2 करोड़ 75 लाख से ज़्यादा मामले दर्ज हो चुके हैं और कऱीब नौ लाख लोगों की कोविड-19 से मौत हो गई है।
संक्रमण के मामले में अब ब्राज़ील को पीछे छोड़, भारत दूसरे स्थान पर आ गया है। ऐसी स्थिति में जाहिर है कि सबकी निगाहें कोरोना वायरस की वैक्सीन पर हैं जिसे भारत समेत कई देश बनाने की कोशिश में हैं।
दुनिया भर में कोरोना वैक्सीन के दर्जनों क्लीनिकल ट्रायल हो रहे हैं और कुछ देशों में अब तीसरे फ़ेज के ट्रायल शुरू करने की बात हो रही है। वैक्सीन के इंतजार के बीच यह काफ़ी हद तक स्पष्ट हुआ है कि महज़ वैक्सीन बन जाने से लोगों की मुश्किलें रातों-रात ख़त्म नहीं हो जायेंगी क्योंकि आम लोगों तक इसे पहुँचाने की एक लंबी और जटिल प्रक्रिया होती है।
ग्लोबल इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट (वैश्विक बौद्धिक संपदा अधिकार) के तहत वैक्सीन बनानेवाले को 14 साल तक डिज़ाइन और 20 साल तक पेटेंट का अधिकार मिलता है, लेकिन इस अप्रत्याशित महामारी के प्रकोप को देखते हुए सरकारें 'अनिवार्य लाइसेंसिंग' का ज़रिया भी अपना रही हैं ताकि कोई थर्ड-पार्टी इसे बना सके। यानी कोरोना महामारी से जूझ रहे किसी देश की सरकार कुछ दवा कंपनियों को इसके निर्माण की इजाज़त दे सकती हैं। (बाकी पेज 8 पर)
कितना बड़ा है भारत का वैक्सीन बाज़ार?
बात दवाओं की हो तो जेनेरिक दवाएं बनाने और उनके निर्यात के मामले में भारत टॉप के देशों में शामिल है। साल 2019 में भारत ने 201 देशों को जेनेरिक दवाईयाँ बेचीं और अरबों रुपये की कमाई की।
मगर इंटरनेशनल मार्केट एनालिसिस रिसर्च एंड कन्सल्टिंग (आईएमएआरसी) ग्रुप की रिपोर्ट के अनुसार, ‘भारत इस समय दुनिया में वैक्सीन उत्पादक और आपूर्तिकर्ता देशों की फ़ेहरिस्त में भी ‘सबसे अग्रणी देशों में से एक’ है जो अकेले ही यूनीसेफ़ को 60 प्रतिशत वैक्सीन बनाकर देता है।’
चूंकि भारत में क्लीनिकल ट्रायल का ख़र्च कम आता है और उत्पादन में लागत भी तुलनात्मक रूप से कम आती है, इसलिए अन्य विकसित और विकासशील देशों की तुलना में भारत को वैक्सीन के उत्पादन के लिहाज़ से सही जगह माना जाता है।
15 जुलाई 2020 को एक प्रेस वार्ता में ‘कोरोना वैक्सीन बनाने की दिशा में भारत के योगदान’ के सवाल पर आईसीएमआर के प्रमुख डॉक्टर बलराम भार्गव ने कहा था कि ‘कोरोना वैक्सीन भले ही दुनिया के किसी भी कोने में विकसित की जाये, मगर उसके व्यापक उत्पादन में भारत के सहयोग के बिना क़ामयाबी हासिल करना संभव नहीं होगा।’
60 फीसदी वैक्सीन का उत्पादक
भारतीय फ़ार्मा इंडस्ट्री की क्षमताओं और उम्मीदों पर बात करते हुए डॉक्टर भार्गव ने बताया था कि ‘भारत के फ़ार्मा क्षेत्र का दुनिया में नाम है। भारत दुनिया की 60 प्रतिशत वैक्सीन की आपूर्ति करता है, चाहे अफ्ऱीका, यूरोप, दक्षिण पूर्व एशिया या संसार का कोई और हिस्सा हो। सभी जगह भारत में बनी वैक्सीन की बड़ी सप्लाई है।’
उन्होंने कहा था कि ‘भारत कोरोना वैक्सीन के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक होने वाला है, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।’
आईएमएआरसी की रिपोर्ट के मुताबिक़, बीते वर्षों में बेहतर तकनीक विकसित होने और कोल्ड स्टोरेज की बड़ी व्यवस्थाएं विकसित होने के कारण भारत की वैक्सीन उत्पादन क्षमता पहले से काफ़ी बढ़ी है।
इस समूह का आंकलन है कि भारत का वैक्सीन बाज़ार वर्ष 2025 तक 250 अरब रुपये से अधिक का हो जायेगा, जिसका आकार वर्ष 2019 में 94 अरब रुपये रहा था।
साल 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, ग्लेक्सो स्मिथ क्लाइन भारत के वैक्सीन बाजार में सबसे बड़ा खिलाड़ी था। उसके बाद सिनोफी एवेंटिस, फाइजर, नोवार्टिस और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया का नाम भारत के बड़े वैक्सीन उत्पादकों की लिस्ट में आता है।
काया पलट करने का मौक़ा
पूरी दुनिया में, कम से कम 140 कोरोना वैक्सीन पर काम चल रहा है जिनमें से 11 को ह्यूमन ट्रायल की अनुमति मिली है जो अलग-अलग लेवल पर हैं। इनमें से दो वैक्सीन भारतीय कंपनियों के हैं जो ह्यूमन ट्रायल के चरण में पहुँचे हैं और इनकी सफलता की उम्मीद की जा रही है।
जिन दो भारतीय कंपनियों ने कोरोना की संभावित वैक्सीन तैयार करने में सफलता हासिल की है, उनमें पहली कंपनी है हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक इंटरनेशनल लिमिटेड जिसने आईसीएमआर और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी के साथ मिलकर कोवाक्सिन नामक वैक्सीन तैयार की है। वहीं दूसरी दवा कंपनी है ज़ायडस कैडिला जिसकी वैक्सीन को हाल ही में ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया से ह्यूमन ट्रायल करने की अनुमति मिली है। दोनों ही कंपनियों की वैक्सीन दूसरे और तीसरे चरण के ट्रायल के लिए अनुमति प्राप्त कर चुकी हैं।
भारत बायोटेक कंपनी जिसने कोवाक्सिन तैयार की है, वो इससे पहले पोलियो, रोटा वायरस और जीका वायरस का टीका भी विकसित कर चुकी है।
माना जा रहा है कि अगर कोई भारतीय वैक्सीन 'सबसे शुरुआती वैक्सीन' के तौर पर बाज़ार में आ पाया तो उससे भारतीय वैक्सीन और फ़ार्मा इंडस्ट्री की काया पलट पूरी तरह से पलट जायेगी। (bbc.com/hind)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सर्वोच्च प्रमुख मोहन भागवत ने तीन राष्ट्रीय मुद्दों पर बहुत ही तर्कसंगत विचार प्रस्तुत किए हैं। ये मुद्दे हैं- काशी और मथुरा के मंदिर, समान आचार संहिता और शरणार्थी कानून। इन तीनों मुद्दों को लेकर संघ और भाजपा पर आरोप लगाया जाता है कि उनकी दृष्टि अत्यंत संकीर्ण, सांप्रदायिक और समाज-विरोधी है लेकिन इन तीनों मुद्दों पर पहले जो भी कुछ लिखा और कहा जाता रहा हो, वर्तमान सर संघचालक ने एक ऐसा दृष्टिकोण पेश किया है, जो पुरानी धारणाओं को रद्द करता है। कुछ समय पहले विज्ञान भवन में भाषण देते हुए मोहनजी ने कहा था कि जो भारत में पैदा हुआ और जो भी भारत का नागरिक है, वह हिंदू है। हिंदू होने और भारतीय होने में कोई फर्क नहीं है। यही बात मैंने दस साल पहले मेरी पुस्तक ‘भाजपा, हिंदुत्व और मुसलमान’ में विस्तार से कही थी। ‘हिंदू’ शब्द संस्कृत और प्राकृत का नहीं है। यह शब्द किसी वेद, किसी दर्शन ग्रंथ या किसी उपनिषद में कहीं नहीं है। इसका सीधा-सादा अर्थ यह है कि जो सिंधु नदी के पार रहते हैं, वे सब हिंदू हैं। चीन में भी प्रत्येक भारतीय को ‘इन्दुरैन’ कहा जाता है।
हिंदू या इंदू शब्द हमें विदेशियों का दिया हुआ है। जब इन विदेशियों ने भारत पर हमला बोला तो उन्होंने हमारे पूजा-केंद्रों को तोड़ा, औरतों के साथ बलात्कार किया और हमारी संपत्ति लूटकर अपने देश ले गए। उन्होंने कई मंदिर तोड़े तो मस्जिदें भी तोड़ीं। अफगानिस्तान में तो मस्जिदों के साथ-साथ दरगाहें भी तोड़ी गईं। यूरोप में गिरजाघर तोड़े गए। मजहब की आड़ में यह सब सत्ता का खेल रहा। अयोध्या में राम मंदिर फिर से बन रहा है। इसे मुसलमानों ने भी स्वीकार किया है। अब काशी और मथुरा की मस्जिदें तुड़वाने पर संघ उत्साहित नहीं है, हालांकि अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने इस मुद्दे पर आंदोलन चलाने का प्रस्ताव पारित किया है। इस मुद्दे पर और समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर भी मोहनजी की राय है कि सर्वसम्मति के बिना इसे लागू करना उचित नहीं होगा, क्योंकि इसके कई प्रावधानों पर मुसलमानों और ईसाइयों के साथ-साथ हिंदुओं को भी आपत्ति हो सकती है। इसी प्रकार पड़ोसी देशों से आने वाले मुसलमान शरणार्थियों के बारे में संघ का विचार भी बहुत ही उदार है। उसका कहना है कि जो भी पीडि़त है, उसे किसी भेदभाव के बिना शरण दी जानी चाहिए। आशा है, मोदी सरकार संघ के इस रवैए को ध्यान में रखकर अपने कानून में जरुरी संशोधन करेगी। उक्त तीनों मुद्दों पर संघ ने जो राय व्यक्त की है, वह उसे सचमुच ‘राष्ट्रीय संघ’ की हैसियत प्रदान करता है, किसी सांप्रदायिक संगठन की नहीं। इसीलिए सर संघचालक मोहन भागवत बधाई के पात्र हैं। उनका बौद्धिक साहस सराहनीय है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
कोरोना महामारी के शुरुआती दौर की तुलना में कोविड-19 से होने वाली मृत्यु दर में कमी देखी जा रही है। यह परिवर्तन विशेष रूप से यूरोप में देखा गया है लेकिन इसके पीछे के कारणों पर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है।
यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के जैसन ओक और उनके सहयोगियों ने बताया है कि इंग्लैंड में जून से अगस्त माह के दौरान विभिन्न डैटा सेट के अनुसार संक्रमण से मृत्यु दर (आईएफआर) में 55 से 80 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की गई है। 17 अगस्त से शुरू होने वाले सप्ताह में ब्रिटेन में 7000 से अधिक संक्रमितों में से 95 लोगों की मृत्यु हुई (आईएफआर 1.4) जबकि अप्रैल के पहले हफ्ते में 40,000 पॉजिटिव मामलों में से 7164 लोगों की मृत्यु हुई थी (आईएफआर 17.9)।
आईएफआर का पता पॉजिटिव मामलों को मृत्यु की संख्या से विभाजित कर लगाया जाता है लेकिन ओक इन आकड़ों को सही आईएफआर नहीं मानते क्योंकि एक तो संक्रमण और उससे होने वाली मौतों के बीच कुछ सप्ताह का फर्क रहता है और समय के साथ परीक्षण में भी बदलाव होता है। फिर भी इन आंकड़ों से मोटा-मोटा अंदाज तो मिलता ही है। ओक और उनके सहयोगियों ने आईएफआर में बदलाव का अनुमान लगाने के लिए अधिक परिष्कृत विधि का उपयोग किया है। उन्होंने पाया कि पूरे यूरोप में पैटर्न यही रहा है। लेकिन इसका कारण स्पष्ट नहीं है।
आंकड़ों के आधार पर एक कारण यह हो सकता है कि अप्रैल माह के दौरान संक्रमितों में युवा लोगों का अनुपात कम था और 10-16 अगस्त के बीच संक्रमितों में 15-44 वर्ष के लोगों का का अनुपात अधिक था। मान्यता यह है कि युवाओं में मौत का जोखिम कम रहता है। लेकिन ओक इसे पर्याप्त व्याख्या नहीं मानते हैं। अभी भी पाए जाने वाले पॉजिटिव मामलों में वृद्ध लोगों की संख्या काफी अधिक है।
कुछ शोधकर्ता अस्पतालों में बेहतर उपचार व्यवस्था को भी घटती मृत्यु दर का कारण मानते हैं।
इसी संदर्भ में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के पॉल टमब्या का दावा है कि कोरोनावायरस का उत्परिवर्तित संस्करण (डी614जी) इस बीमारी की जानलेवा प्रकृति को कम कर रहा है। इस नए संस्करण से संक्रमण दर में तो वृद्धि हुई है लेकिन जान का जोखिम कम हो गया है। अन्य शोधकर्ता सहमत नहीं हैं।
जैसे, इम्पीरियल कॉलेज लंदन के एरिक वोल्ज के नेतृत्व में ब्रिटेन के 19,000 रोगियों से लिए गए वायरस के नमूनों के जीनोम पर अध्ययन किया गया। इस अध्ययन की अभी समकक्ष समीक्षा तो नहीं हुई है लेकिन वोल्ज़ के अनुसार वायरस के डी614जी संस्करण के कम जानलेवा होने के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)
और इनमें से हजारों लोगों की जान इस तरह से बचाई जा सकती थी कि कई जनजातीय समुदायों को रोजगार भी मिल जाता
- अश्वनी कबीर और दिक्षा नारंग
कुछ बीमारियां तो मौसमी हैं जो खास समय और जलवायु में फैलती हैं. और कुछ कोविड-19 की तरह अचानक ही हमारे सामने आ जाती हैं. लेकिन क्या तमाम मौसमी बीमारियों और कोरोना महामारी के बीच किसी को इस बात की भी सुध है कि बीते दो महीनों में 20 हज़ार से ज्यादा लोग ‘सर्पदंश’ के शिकार होकर हमारे बीच नहीं हैं.
पिछले पखवाड़े राजस्थान के बूंदी ज़िले की बालचंदपाड़ा तहसील में रहने वाले राजकुमार धोबी को सांप ने काट लिया. वे अपने खेत में जा रहे थे तभी यह घटना हुई. सूचना मिलते ही राजकुमार के परिजन उन्हें तेजाजी के थान पर ले गए. तेजाजी एक स्थानीय लोक देवता हैं जिन्हें शिव का अवतार या सांपों का देवता भी माना जाता है. वहां उन्हें करीब दो घंटे तक रखा गया. जब राजकुमार की स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो उन्हें दूर जिला अस्पताल ले जाया गया. वहां उनका इलाज शुरु हो पाता तब तक उनकी मौत हो चुकी थी. राजस्थान में अकेले बीकानेर ज़िले में ही बीते 15 दिनों में करीब 500 से ज्यादा सांप द्वारा काटे जाने के मामले सामने आये हैं.
दूसरे राज्यों की बात करें तो सात अगस्त को उत्तर-प्रदेश के सीतापुर ज़िले के सदरपुर थाना क्षेत्र में तीन सगे भाइयों की मौत सांप के काटने से हो गई. वहीं बहराइच ज़िले के रुपईडीहा थाना क्षेत्र में बीते 15 दिनों में 30 से ज्यादा लोगों को सांप ने डसा हैं. बिहार में जहां एक तरफ तो बाढ़ का तांडव है, वहीं दूसरी ओर पानी के साथ सांपों ने भी घरों में डेरा जमाया हुआ है. छत्तीसगढ़ में एक कवारन्टीन सेन्टर में कोरोना से ज्यादा सांपों के काटने से मौत हुई हैं. मीडिया रिपोर्टों की मानें तो जुलाई के महीने तक यहां 40 से ज्यादा लोगों की मौत सर्पदंश से हो चुकी थी.
सर्पदंश के आंकड़ों की कहानी
पूरी दुनिया में हर वर्ष सवा लाख से ज्यादा लोग सांप के काटने से मर जाते हैं. इन मरने वाले लोगों में करीब आधे भारतीय होते हैं. हमारे यहां हर वर्ष करीब 60 हज़ार लोग सर्पदंश के कारण अपनी जान गंवा देते हैं. इनमें से 60 फ़ीसदी मौतें अकेले जून से सितंबर के महीनों में होती हैं. इनमें से भी 97 फीसदी मौतें ग्रामीण क्षेत्रों में जबकि तीन फीसदी मौतें शहरी क्षेत्रों में होती हैं.
जून से सितंबर का समय मानसून (बारिश) या उसके तुरंत बाद का होता है. इस दौरान बारिश का पानी सांपों के बिलों और बाम्बियों में भर जाता है जिससे सांप सुरक्षित स्थान की तलाश में बाहर निकलता है. यही समय सांप की मेटिंग का भी होता है. इसके कारण भी उसका व्यवहार थोड़ा आक्रामक रहता है. और इसी बारिश के मौसम में किसान और मजदूर धान, सोयाबीन ओर बाजरे की फसल की बुवाई करते हैं जिसकी वजह से इस दौरान सर्पदंश की घटनाएं और भी ज्यादा होती हैं.
टोरंटो विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर ग्लोबल रिसर्च ने यूनाइटेड किंगडम के सहयोग से इस मामले पर एक शोध के नतीजे सार्वजनिक किए हैं. इसमें कहा गया है कि वर्ष 2000 से 2019 के दौरान भारत में करीब 12 लाख लोग सर्पदंश से मौत के मुंह में समा गए. इन मौतों में से 70 फ़ीसदी केवल बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में ही हुई हैं.
सांपों की दुनिया
धरती पर पाया जाने वाला बगैर पैर और पुतलियों का यह प्राणी बड़ा ही अजीब है. पूरी दुनिया में करीब 2500 प्रजातियों के सांप पाये जाते हैं. इनमें से केवल 40 फीसदी सांपों में ही विष पाया जाता है. इनमें भी मात्र 10 फीसदी सांप ऐसे होते हैं जिनके काटने से इंसान की मौत हो सकती है. अकेले भारत में 270 से ज्यादा प्रकार के सांप पाये जाते हैं जिनमें महज 50 प्रजातियां ही जहरीली हैं और इनमें से भी पांच ही ऐसी हैं जो ज्यादातर जगहों पर पाये जाने की वजह से इंसानी मौत का कारण बनती हैं.
जिन सांपों के काटने से इंसान की मौत होती हैं उनमें ‘कोबरा’ सबसे आगे है. इसे नाग भी कहा जाता है. इसके फन से इसे पहचानना बहुत आसान होता है. ‘कॉमन करैत’ नाम का सांप अधिकांश रात में ही काटता है. इस सांप को इंसानी गंध पसंद हैं. रसेल वाइपर ओर सो-स्केल वाइपर को सबसे आक्रामक सांप माना जाता है और इसकी आवाज दूर से ही सुनाई पड़ती है. ये दोनो सांप अजगर से मिलते -जुलते हैं. इनके अलावा पश्चिमी पठार, दलदली एवं वन क्षेत्र में किंग कोबरा सांप भी मिलता हैं. यह सांप करीब 15 से 18 फीट लंबा होता हैं. पहले ये चारों तरह के सांप पूरे भारत में पाए जाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. इन चारों सांपों को बिग-4 के नाम से जाना जाता है.
सांपों की प्रकृति के बारे में भारत में जो कुछ समुदाय सबसे ज्यादा जानकारी रखते हैं उनमें से एक है राजस्थान का कालबेलिया समुदाय. सांप एक तरह से इस समुदाय का एक सदस्य ही होता है. डूंगरपुर के कालबेलिया समुदाय से आने वाले 70 वर्षीय जोरानाथ हमें बताते हैं कि नुगरा (कोबरा) सांप अधिकांश सुबह या शाम को ही काटता है. जबकि थुगरा (कॉमन करैत) सांप के काटने का अक्सर पता ही नहीं चल पाता. इसके काटने पर न के बराबर दर्द होता है और यह अक्सर रात को ही काटता है इसलिए इसके द्वारा काटे जाने पर अधिकांश लोग नींद में ही मर जाते हैं. जबकि फुगरा (वाइपर) सांप सबसे ज्यादा तेज और चालक होता है. उसको गुस्सा भी बहुत ज्यादा आता है.
सांप के विष का गणित
सांपों के जहर को न्यूरोटॉक्सिक और हीमोटॉक्सिक वर्ग में विभाजित किया जाता है. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है न्यूरोटॉक्सिक जहर हमारे मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है और हीमोटॉक्सिक रक्त और हृदय से जुड़े शरीर के क्रियाकलापों को. कोबरा व करैत जैसे सांपों का जहर न्यूरोटॉक्सिक होता है और वाइपर का हीमोटॉक्सिक. सांप का ज़हर असल में प्रोटीन और एनजाइम्स से बना होता है. यह सांप के ऊपरी जबड़े में स्थित थैलियों में मौजूद रहता है. ऊपरी जबड़े के दोनों ओर स्थित एक-एक थैली ज़हरीले दांतों की जड़ों में खुलती है.
वाइपर के ज़हरीले दांत अंदर से नलीनुमा होते हैं (इन्जेक्शन की सुई की तरह) इसलिए ज़हर ठीक शरीर के अंदर चला जाता है. और कुछ कोबरा जैसे सांप जिस जगह पर काटते हैं वहां जहर की एक पिचकारी सी छोड़ते हैं.
यहां सर्पदंश का इलाज
सांप के विष के प्रभाव को रोकने के लिये उसके जहर से ही दवा बनाई जाती है. इस दवा को एंटीवेनिन या एंटीवेनम सीरम कहा जाता है. सरकारी दावों के मुताबिक यह दवा हमारे यहां के सभी जिला अस्पतालों, प्राइमरी हेल्थ सेंटर्स (पीएचसी) एवं कम्युनिटी हेल्थ सेंटर्स (सीएचसी) पर निशुल्क उपलब्ध है. इसलिए जब कोई व्यक्ति सर्पदंश का शिकार बन जाता है तो उसको नजदीक के इन केंद्रों पर ले जाया जाता है.
लेकिन एंटीवेनम सीरम की उपब्धता एवं आपूर्ति पर सवाल उठाते हुए राजस्थान समग्र सेवा संघ के सदस्य अनिल गोस्वामी बताते हैं, “कहने को तो एंटीवेनम सीरम पीएचसी एवं सीएचसी पर उपलब्ध हैं, किंतु हकीकत में जिला अस्पतालों में भी इसकी ठीक आपूर्ति नहीं हैं. पीएचसी एवं सीएचसी केंद्रों पर जब फ्रिज की सुविधा ही नहीं हैं तो फिर इसे वे रखेंगे कहां पर?’
राजस्थान के स्वास्थ्य विभाग के एक कर्मचारी अनिल गोस्वामी की आधी बात से सहमत होते हुए बताते हैं कि ट्रेंड स्टाफ ओर सीरम की पर्याप्त उपलब्धता होने की वजह से यहां के जिला अस्पतालों की स्थिति बाकी स्वास्थ्य केंद्रों के मुकाबले अलग है.
लेकन अनिल गोस्वामी का यह तर्क भी सही है कि अगर ऐसा कुछ जगहों पर है भी तो “सांप के काटने से मरता कौन हैं? गांव-देहात में रहने वाले लोग. यदि उन्हें अपने पास के स्वास्थ्य केंद्रों पर सीरम मिल भी गई तो वहां ट्रेंड स्टाफ नहीं होता. यदि एंटीवेनम सीरम ज्यादा मात्रा में दे दी जाए तो व्यक्ति की वैसे ही मौत निश्चित है.’ शायद यह भी एक वजह है कि सांप काटने के बाद पीएचसी ओर सीएचसी पहुंचने वाले अधिकांश मरीजों के बचने की संभावना काफी कम होती है.
जयपुर के प्रख्यात स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ राकेश पारिख एंटीवेनम से जुड़ी एक और समस्या की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ”दवा कंपनियां भी एटीवेनम सीरम कम बनाती हैं. इससे इस सीरम की आपूर्ति कम होती है. इसके पीछे एक बड़ा कारण मुनाफा कम होना हैं. बाजार में एंटीवेनम सीरम की औसत कीमत 5 से 6 हज़ार के बीच है. हमें इसका उत्पादन बढ़ाना होगा जिससे इसकी आपूर्ति बढ़ाई जा सके, अन्यथा हम सर्पदंश से हुई मौत पर रोक नहीं लगा सकेंगे.”
लेकिन सर्पदंश के इलाज में मौजूद जटिलताएं सिर्फ इतनी ही नहीं हैं. एक तो किसी एक सांप के एंटीवेनम का उपयोग दूसरे सांप द्वारा काटने पर नहीं किया जा सकता, और दूसरा यह सोचना भी सही नहीं है कि यदि सांप की प्रजाति एक समान है तो उनका एंटीवेनम एक ही होगा. उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु के कोबरा सांप के जहर से बना एंटीवेनम सीरम राजस्थान या झारखंड के कोबरा सांप के सर्पदंश में ज्यादा प्रभावी नहीं होता. ऐसे ही राजस्थान के रसेल वाइपर सांप के जहर से बने एंटीवेनम सीरम का कर्नाटक या पश्चिम बंगाल के रसेल वाइपर के सर्पदंश पर खास असर नहीं होता.
तरह-तरह के भ्रम और धारणाएं
सांप को लेकर बहुत सी गलत धारणाएं भी प्रचलित हैं. जिनमें से एक यह है कि यदि किसी इंसान को सांप ने काट लिया और ओझा मंत्र पढ़ेगा तो वह सांप वापस आकर उस जहर को चूस लेगा. ऐसे अंधविश्वासों के चलते भी सर्पदंश का इलाज करना आसान नहीं होता. दरअसल सांप काटने के बाद के 1-2 घण्टे बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. उसमें अगर कोई व्यक्ति ऐसे फालतू के चक्करों में उलझ जाता है तो फिर उसका बचना मुश्किल हो जाता है. ग्रामीण क्षेत्रों में सर्पदंश से होने वाली मौतों के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है.
सांपों से जुड़ी एक अजीबोगरीब धारणा यह भी है कि इच्छाधारी नाग या कोबरा के सर पर एक मणि होती है जिसे हासिल करके इंसान अमर हो सकता है. ऐसी कुछ धारणाएं न केवल सांपों के मरने की बल्कि उनके द्वारा काटे जाने की वजह भी बनती रही हैं.
इरुला कोऑपरेटिव सोसाइटी का सफल मॉडल
भारत के सुदूर दक्षिण राज्यों तमिलनाडु और कर्नाटक में इरुला आदिवासी जनजाति रहती है जो सदियों से सांपों के साथ अपना जीवन जीती आई है. इरुला लोग सांप से जहर लेने, सर्पदंश का इलाज करने तथा जड़ी-बूटियों के जानकार लोग माने जाते हैं. भारत सरकार ने 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम बना दिया जिससे सांप पकड़ने ओर जंगल के गहराई में जाने पर रोक लग गई.इसके बाद एक अमेरिकन प्रकृतिविद रोम व्हाइटेकर ने 1978 में फारेस्ट विभाग से अनुमति प्राप्त करके सांपों से जहर एकत्रित करने का काम शुरु किया. इस काम में इरुला आदिवासी समुदाय को जोड़ा गया. इरुला का काम जंगल से जहरीले सांपों को पकड़ना, उनसे जहर लेना/निकालना फिर उन्हें वापस जंगल में छोड़ देना हैं.
इरुला कोऑपरेटिव सोसायटी को हॉपकिंस इंस्टीट्यूट के साथ जोड़ा गया है. यह इंस्टीट्यूट उससे जहर लेकर एंटीवेनम सीरम तैयार करता है. इस प्रक्रिया में वेनम की कम मात्रा को एक घोड़े में इंजेक्ट किया जाता है जिससे उसके शरीर मे एंटीजन बन सकें. उन एंटीजन को बाहर निकाल लिया जाता है, जिससे एंटीवेनम सीरम तैयार होता है.
इरुला कोऑपरेटिव सोसायटी की रिपोर्ट बताती है कि इरुला जनजाति से पहले दवा कम्पनी के लोग ही सांप पकड़ा करते थे. इनमें से अधिकांश जहरीले नहीं होते थे इसलिए उन्हें वापस छोड़ना पड़ता था. जब विषैला सांप मिलता तो वे जिस तरह से उन्हें पकड़ते और उनका जहर निकालते उससे कई सांप जख्मी हो जाते थे और जब उनको वापस जंगल में छोड़ा जाता तो उनमें से कई मर जाते थे. रिपोर्ट बताती है कि यह प्रक्रिया ज्यादा खर्चीली और समयखाऊ थी और सबसे बड़ी बात इससे वन्य जीवों (सांपों) को नुकसान भी पहुचता था.
अब इरुला लोग बगैर नुकसान पहुचाए आसानी से केवल जहरीले सांपों को ही पकड़ते हैं. वे बड़ी सावधानी से कई-कई बार उनका जहर निकालते हैं और फिर उन्हें वापस जंगल में छोड़ देते हैं. रिपोर्ट के अनुसार इस प्रक्रिया का सफलता अनुपात 93 फीसद है. मतलब 100 जहरीले सांपों में से 93 सांप बच जाते हैं केवल सात ही मरते हैं.
इस कोऑपरेटिव सोसायटी के बनने से इरुला समुदाय को स्थाई रोजगार मिल गया है. उनका सदियों का सीखा हुआ ज्ञान/हुनर बच गया. इससे दवा कंपनियों को भी आसानी से कम पैसा खर्च किये सांप का ऐसा जहर मिल गया जिससे एंटीवेनम सीरम तैयार किया जा सकता है. और सबसे बड़ी बात यह कि इससे वन्य जीवन की भी क्षति नहीं हुई.
यह प्रयोग दोहराया क्यों नहीं गया?
केवल इरुला समुदाय ही नहीं है जिसका भारत में सांपों से इतना घनिष्ठ रिश्ता है. इरुला तमिलनाडु और कर्नाटक में रहता है और जैसा कि हम थोड़ा सा ऊपर जान चुके हैं इनकी ही तरह का एक और समुदाय कालबेलिया है जो राजस्थान, गुजरात, दिल्ली और हरियाणा में पाया जाता है. इनके अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में सपेरा समुदाय है. महाराष्ट्र एवं पंजाब में जोगी समुदाय. और उड़ीसा, छत्तीसगढ़ व झारखंड में मुरिया जनजाति. ये सभी समुदाय सांपों के साथ ही अपने जीवन को जीते आये हैं.
“हम अपने बच्चों को जन्म से ही सांपों के साथ रहना सिखाते हैं’ कालबेलिया समुदाय के सांपों से रिश्ते के बारे में इसी समुदाय से आने वाले जोरानाथ कहते हैं “सांप तो हमारी मोहब्बत हैं. मोहब्बत जितनी पुरानी होती है. उसका नशा उतना ही ज्यादा चढ़ता है. हम तो उसी नशे के साथ ही जीते हैं और उसी के आग़ोश में मरते हैं. ये हमारी मोहब्बत ही है जिसे सदियों से हम अपने कंधों पर डाले गली-गली घूम रहे हैं.”
ये समुदाय केवल भावनाओं की वजह से ही नहीं बल्कि ठोस कारणों की वजह से भी सांप को अपने और समाज के लिए उपयोगी मानते हैं. “सांप तो किसान का मित्र होता है जो खेतों में चूहों, कीटों, मेंढकों व छिपकलियों की संख्या को बढ़ने नहीं देता. वो छोटे पक्षियों के अंडे तथा टिड्डियों को भी खाता है” सांप की खूबियों पर प्रकाश डालते हुए जैसलमेर के मिश्रनाथ कालबेलिया कहते हैं.
इरुला कोऑपरेटिव सोयायटी को बने आज 42 वर्ष गुजर गए हैं किन्तु कोई दूसरी इस तरह की सोयायटी फिर नहीं बनाई गई. पिछले 20 वर्षों में जो 12 लाख लोग सांप काटने की वजह से मारे गए हैं. यदि उससे पहले भी 20 वर्षों का आंकड़ा जोड़ दें तो ये संख्या 24 लाख पहुंचती हैं. क्या इनमें से कुछ हजार लोगों को भी कुछ और प्रयास करके हम नहीं बचा सकते थे? या कुछ लाख?
राज्य सरकारों ने सर्पदंश को राज्य आपदा घोषित किया है. इसे भूकम्प, बाढ़, सूखा, बादल फटना, सुनामी इत्यादि की सूची में रखा जाता हैं. राज्य सरकारें इसके लिए मुवावजा देती हैं. मध्य प्रदेश और बिहार सरकार सांप काटने के कारण हुई मौत पर पांच लाख रुपये का मुआवज़ा देती हैं. उत्तर प्रदेश, उड़ीसा व राजस्थान की सरकारें चार लाख रुपये, पंजाब सरकार तीन लाख रुपये, झारखंड 2.5 लाख रुपये, बंगाल दो लाख और केरल एक लाख रुपये. मुआवजा लेने के लिए सर्पदंश से मृत व्यक्ति का पोस्टमार्टम होना और उसकी रिपोर्ट में यह उल्लेखित होना जरूरी है कि उस व्यक्ति की मौत सर्पदंश से हुई. उसी रिपोर्ट व पहचान के अन्य दस्तावेजों के आधार पर क्लेम किया जाता है.
एक वर्ष में सर्पदंश से होने वाली करीब 60 हज़ार मौतों का 2.5 लाख रुपये के औसत मुआवजे के हिसाब से 1500 करोड़ रुपये होते हैं. पिछले 40 साल के लिए यह आंकड़ा 60 हजार करोड़ रुपये हो जाता है. फिर इतने धन और इतने लोगों की जान बचाने और लाखों लोगों को रोजगार देने और उनके परंपरागत ज्ञान को बचाने के लिए इरुला जैसा कोई और प्रयोग क्यों नहीं किया गया?
यह मुद्दा अगर कभी हमारी चिंता की कोई बड़ी वजह नहीं बन सका तो इसका दोषी कौन है? बस सांपों से परंपरागत तरीके से जुड़े रहे समुदायों को कोऑपरेटिव सोसायटी या किसी अन्य तरीके से दवा कम्पनियों से ही तो जोड़ना था ताकि उचित एंटीवेनम सीरम की देश में कमी न हो. ये समुदाय हमें तरह तरह के सांपों से बचाव के लिए उनके ही जहर उपलब्ध करवा सकते थे. और जब हमारे पास 1500 करोड़ रुपये साल में खर्च करने के लिए हैं तो फिर पीएचसी और सीएचसी केंद्रों में फ्रिज का भी इंतजाम किया ही जा सकता था.
लेकिन जब जागो, तभी सवेरा. यदि विभिन्न राज्य सरकारें चाहें तो कभी भी ऐसा कर सकती हैं. ताकि सांपों के काटने से होने वाली मौतों का आंकड़ा नीचे आ सके और देश भर में फैले कई समुदायों का जीवन स्तर बहुत नीचे से थोड़ा ऊपर जा सके.(satyagrah)
औषधियां, जो सामान्य पानी को खुशबूदार और स्वास्थ्यवर्धक पेय में बदलकर जीवन में नई स्फूर्ति पैदा करती हैं
- Vibha Varshney
आयुर्वेद कहता है कि हर खाद्य पदार्थ अपने आप में एक औषधि है। इसी को मूल मंत्र मानते हुए केरल के लोगों ने सामान्यत: पानी को भी औषधीय गुणों से परिष्कृत करने के लिए एक तरीका ढूंढ निकाला है। सामान्यतः केरल जैसे तटीय राज्यों में पानी को उबाल कर पीने की परम्परा रही है, जिससे पानी के कारण होने वाली बीमारियों से बचा जा सके। इस क्षेत्र के लोग पानी को उबालने के क्रम में कुछ औषधियां (जड़ी-बूटी) डाल देते हैं, ताकि पानी में उस औषधि के गुण घुल-मिल जाएं। जड़ी-बूटी मिश्रित इस पानी को दाहशमनी के नाम से जाना जाता है।
यह सर्वविदित है कि मनुष्य के शरीर को प्रतिदिन दो से तीन लीटर पानी की आवश्यकता होती है। ऐसे में यदि पेयजल औषधीय गुणों को भी धारण करता हो, तो यह सोने पे सुहागा जैसा हो जाता है। दाहशमनी में प्रचुर मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट पाया जाता है, जो वर्तमान के प्रदूषित वातावरण में एक वरदान से कम नहीं है। हालांकि, मौजूदा वक्त में स्पार्कलिंग (कार्बोनेटेड) वाटर, हर्बल चाय और फलों को भिगोकर बना पानी (इनफ्यूज्ड वाटर) स्वास्थ्य के प्रति सचेत लोगों में काफी लोकप्रिय हैं। इनके सामने केरल के इस औषधीय व गुणकारी पानी को जितना महत्व मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है।
दाहशमनी को तैयार करने के लिए कई प्रकार की जड़ी-बूटियों और मसालों का इस्तेमाल किया जाता है, जिनमें सोंठ (सूखी अदरख), इलाइची, लौंग, धनिया, जीरा, खस और चंदन की लकड़ी शामिल हैं। जीरे के साथ तैयार पानी को जीरका वेला और धनिया से तैयार पानी को मल्ली वेला कहा जाता है। इस गुणकारी पानी को तैयार करने के लिए इसमें अपनी पसंद की जड़ी-बूटियों या मसालों का उपयोग किया जा सकता है।
हालांकि, आयुर्वेदिक दवाओं की दुकानों में कुछ तैयार मिश्रण भी मिल जाते हैं। जड़ी-बूटियों के इन पैकेटों में एक औषधि ऐसी भी होती है जो पानी के रंग को गुलाबी बना देती है। इस औषधीय जल का सेवन मैंने पहली बार तब किया था, जब मैं चिकनगुनिया की रिपोर्टिंग करने केरल के कई गांवों में गई थी। वहां मुझे गांव के लोगों ने पीने के लिए यही गुलाबी पानी दिया था।
दाहशमनी में यह गुलाबी रंग हिमालय क्षेत्र में पाए जाने वाले पेड़ की लकड़ी से आता है, जिसे पदिमुखम के नाम से जाना जाता है। यह पेड़ हिमालय के जंगलों में पाया जाता है, इसलिए इसे जंगली हिमालयन चेरी (प्रूनस सेरासोइड्स) भी कहा जाता है। यह रोजेसी परिवार का पेड़ है। सेब भी इसी परिवार का हिस्सा है। केरल फाॅरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक पी सुजनपाल बताते हैं कि केरल में यह पेड़ नहीं पाए जाते हैं। हिमालय के जंगलों से यहां तक पहुंचने में इसकी कीमत काफी बढ़ जाती है, इसलिए केरल के कई गांवों में दाहशमनी बनाने के लिए पदिमुखम के स्थान पर झाड़ीदार पेड़ सिसलपीनिया सप्पन की लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। सुजनपाल बताते हैं, “इंडो-मलेशियन क्षेत्र का यह झाड़ीनुमा पेड़ केरल के जलवायु में पनपने के लिए बिल्कुल मुफीद है। कभी-कभी इसका इस्तेमाल जंगल के चारों तरफ बाड़ के तौर पर भी किया जाता है, ताकि जंगली जानवरों को बचाया जा सके।”
औषधीय गुणों से भरपूर
पदिमुखम के पेड़ शुष्क मिट्टी पसंद करते हैं और किसी अन्य पेड़ों की छाया में अच्छी तरह से पनपते हैं। पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में इस पेड़ के विभिन्न हिस्सों का इस्तेमाल कई प्रकार की दवाओं के निर्माण में किया जाता है, जिनमें दशमूलारिष्ट, द्रक्षादि क्वाथ चूर्ण, कुंकुमादी तेल और चंदनादि तेल शामिल हैं। कई नए अध्ययनों के परिणाम भी पदिमुखम की लकड़ी के औषधीय गुणों की पुष्टि करते हैं। हाल ही में फायटोथेरेपी रिसर्च नामक जर्नल में जून 2020 में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है, जिसमें पदिमुखम के पेड़ के विभिन्न हिस्सों में प्रचुर मात्रा में फ्लावोनेस और आइसोफ्लावोनेस पाए जाने की पुष्टि की गई है। ये दोनों तत्व महिलाओं में रजोनिवृत्ति के बाद शुरू होने वाले लक्षणों को सुस्त करने में मदद कर सकते हैं। यह अध्ययन दक्षिण कोरिया, अमेरिका और चीन के शोधकर्ताओं ने किया है।
पानी को शुद्ध करने की पेड़ों की क्षमता को गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के माइक्रोबायोलॉजी विभाग द्वारा किये गए शोध के परिणामों से भी आंका जा सकता है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पेड़ों के घटकों की जांच कर इनके एंटीमाइक्रोबियल व्यवहार को जानने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि इथाइल एसिटेट का उपयोग कर इस पेड़ की लकड़ी से निकाले गए रस में ऐसे बैक्टीरिया को मारने की क्षमता मौजूद है, जिन पर अन्य एंटीबायोटिक रसायनों का असर नहीं होता। अगस्त 2019 में एप्लाइड बायोकेमिस्ट्री एंड बायोटेक्नोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित इस शोध के परिणाम बताते हैं कि जंगली हिमालयन चेरी के तत्व बहुऔषधि प्रतिरोधी कीटाणुओं (मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट बैक्टीरिया) को मारने के लिए बनाई जाने वाली दवाई के लिए संभावित स्रोत हो सकते हैं।
मिजोरम में पारंपरिक तौर पर इस पेड़ की छालों का इस्तेमाल चर्म रोगों, सूजन और घावों के उपचार के लिए किया जाता रहा है। सितंबर 2014 में एशियन पेसिफिक जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, यूनिवर्सिटी ऑफ मिजोरम, आइजोल के शोधकर्ताओं ने इस पेड़ की लकड़ी में आयरन, जिंक, कॉपर, मैंगनीज, कोबाल्ट और वेनेडियम की मौजूदगी की पुष्टि की है, जिसके कारण यह चर्म रोगों के उपचार में कारगर है।
कई शोध बताते हैं कि इस पेड़ की लकड़ी का रस श्वसन तंत्र और पाचन तंत्र को बेहतर बनाने के साथ ही शरीर को भी स्वस्थ रखने में मदद करता है। हालांकि इस पेड़ के नए कोंपल और बीज में साय्नोजेनिक ग्लायकोसाइड्स (एक विषैला रसायन) पाया जाता है, जिसका अत्यधिक मात्रा में इस्तेमाल घातक साबित हो सकता है।
सप्पल की लकड़ी है विकल्प
दाहशमनी में पारंपरिक तौर पर इस्तेमाल होने वाली सामग्री में सप्पन की लकड़ी का इस्तेमाल भले ही ज्यादा प्रचलित न हो, लेकिन यह अपने आप में अनेक गुणों को धारण करता है। सप्पन की लकड़ी में लाल रंग का एक रंजक पाया जाता है, जिसका इस्तेमाल कपड़ों को रंगने के लिए और पेंट एवं स्याही बनाने के लिए किया जाता है। इससे बनने वाले रंजक का इस्तेमाल आज भी सूती, रेशमी और ऊनी कपड़ों को रंगने के लिए किया जाता है। हालांकि कृत्रिम रसायनों से बने रंजकों के सस्ता होने के कारण अब इस प्राकृतिक रंजक के इस्तेमाल में बेहद गिरावट दर्ज की जा रही है। तमिलनाडु के शोधकर्ताओं के अनुसार, सप्पन के पेड़ से निकलने वाले रंजक अन्य रसायनों की तुलना में विषैले नहीं होते हैं, इसलिए इसका इस्तेमाल खाद्य रंगों के तौर पर भी मनुष्यों के लिए सुरक्षित है।(downtoearth)


