विचार/लेख
इमारात-बहरैन इस्राईल की गोद में, अलजीरिया खुलकर फ़िलिस्तीन के साथ!
अलजीरिया के राष्ट्रपति अब्दुल मजीद तबून शायद एकमात्र अरब शासक हैं जिन्होंने बड़ी बहादुरी और साहस से अपना पक्ष रखते हुए इस्राईल से दोस्ती के लिए अरब देशों के बीच जारी होड़ की निंदा की।
राष्ट्र संघ महासभा के अधिवेशन को संबोधित करते हुए तबून ने कहा कि फ़िलिस्तीनी राष्ट्र को यह अधिकार है कि अपने देश की स्थापना करे जिसकी राजधानी बैतुल मुक़द्दस हो और इस अधिकार पर किसी से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं उन्होंने इसके बाद अलजीरियाई पत्रकारों के सम्मेलन में यही बात दोहराई और साथ ही इस्राईल से शांति समझौते के लिए अरब सरकारों में मची होड़ की कड़े शब्दों में निंदा भी की।
अलजीरिया की ओर से इस प्रकार का साहसी और दो टूक स्टैंड कोई नई बात नहीं है। इस देश ने हमेशा खुलकर फ़िलिस्तीन का साथ दिया है। इस देश के लोगों ने इस्राईल के ख़िलाफ़ फ़िलिस्तीनियों की जंग में हिस्सा भी लिया। मगर इस समय जब अरब सरकारें इस्राईल से दोस्ती के लिए पागल हुई जा रही हैं तो अलजीरिया की सरकार का अपने पिछले गौरवपूर्ण स्टैंड पर क़ायम रहना सराहनीय है इसके लिए बड़ी बहादुरी की ज़रूरत होती है।
अलजीरिया अरब लीग के उन गिने चुने देशों में था जिसने सीरिया को इस संगठन से निकाले जाने का विरोध किया और इस देश की राष्ट्रीय एकता व अखंडता का समर्थन किया आज भी वह अरब लीग में सीरिया की वापसी की मांग कर रहा है।
अब ज़रा इस स्टैंड को सामने रखते हुए इमारात, बहरैन, मिस्र और सऊदी अरब के अधिकारियों के इस्राईली संबंधी बयानों पर एक नज़र डाल लीजिए।
-रायुल यौम
-उत्तम सेनगुप्ता
भारत में हमने दुनिया के चंद सबसे सख्त लॉकडाउन में से एक को देखा। आज छह माह बाद इस पर गौर करना वाजिब होगा कि भारत में रोजगार संकट का हाल क्या है। ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि स्थिति हद से ज्यादा खतरनाक है। सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी) के सीईओ और अर्थशास्त्री महेश व्यास का कहना है, “ उम्मीद थी कि युवाओं को नौकरी मिलेगी जिससे विकास दर को तेज करने में मदद मिलेगी और इन युवाओं को अपने भविष्य के लिए बचत करने का मौका मिलेगा। लेकिन वे सारी बातें धरी की धरी रह गईं... हमारे युवा अब भविष्य के लिए बचत की स्थिति में नहीं और इसका बुरा असर आने वाली पीढ़ी पर पड़ना तय है।”
जमीनी हालत कितनी विस्फोटक है, इसका अंदाजा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 70वें जन्मदिन के मौके पर ट्विटर पर मचे तूफान से लगाया जा सकता है। 17 सितंबर को शाम होते-होते 40 लाख से ज्यादा ट्वीट के जरिये लोगों ने इस दिन को ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ के तौर पर मनाया और 2014 में मोदी के उस वादे की याद दिलाई जिसमें उन्होंने कहा था कि हर साल 2 करोड़ रोजगार पैदा किए जाएंगे। ट्विटर ट्रेंड से सड़कों पर होने वाले प्रदर्शनों तक लोगों की दिलचस्पी प्रधानमंत्री के जन्मदिन समारोह की अपेक्षा बेरोजगारी में अधिक रही। ट्विटर पर #17Baje17Minute, #NationalUnemploymentDay और #RashtriyaBerozgariDiwas सबसे ज्यादा ट्रेंडिंग हैशटैग रहे और शाम 7.30 बजे तक इनपर 40 लाख से ज्यादा ट्वीट किए गए जबकि #HappyBirthdayPMModi और #RespectYourPM जैसे प्रधानमंत्री के जन्मदिन को मनाने वाले हैशटैग के पास केवल पांच लाख ट्वीट की पूंजी जमा हो सकी।
शिक्षित बेरोजगार चाहते हैं कि उन्हें सुरक्षित सरकारी नौकरी मिले क्योंकि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान देखा कि उनके आसपास निजी क्षेत्र में जहां कत्लेआम मचा है और लोगों की नौकरी जा रही है, वहीं सरकारी कर्मचारियों पर इन सबका कोई असर नहीं और वे पहले जितना ही पैसा घर ला रहे हैं। एक ऑटोमाबाइल कंपनी में काम करने वाले मनीष कहते हैं, “मैं ऑटोमाबोइल इंजीनियर हूं लेकिन मुझे कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट में काम करना पड़ रहा है और मेरे वेतन में भी काफी कमी कर दी गई है।” सचिन मराठे कॉल सेंटर में काम करते थे और उन्होंने इस भरोसे में फरवरी में नौकरी छोड़ दी थी कि उन्हें इससे बेहतर नौकरी खोजने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन आज उनका आत्मविश्वास बुरी तरह हिल चुका है। वह कहते हैं, “कहीं कोई नौकरी नहीं। समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं। सारा दिन जॉब साइट पर ऑनलाइन नौकरी खोजता रहता हूं लेकिन कोई फायदा नहीं।” राजस्थान के करौली से फोनपर हंसराज मीणा कहते हैं, “सरकारी नौकरी तो मिल नहीं रही। ऐसे में लोगों की शादी नहीं हो रही।” ट्विटर पर 17 सितंबर को मोदी के खिलाफ अपने संगठन ट्राइबल आर्मी के जरिये आक्रामक अभियान चलाने वाले मीणा कहते हैं कि भर्ती परीक्षाओं के लिए फीस देकर फॉर्म भरने वाले लोग सालों से नौकरी का इंतजार कर रहे हैं। वह आगाह करते हैं, “ सरकार रेलवे और पीएसयू का निजीकरण कर रही है क्योंकि वह सरकारी नौकरियों से आरक्षण को धीरे-धीरे खत्म करना चाहती है।”
ट्राइबल आर्मी के राष्ट्रीय प्रवक्ता ऋषिकेश मीणा बताते हैं कि इस संगठन को 2016 में बनाया गया ताकि दबे-कुचले लोगों की आवाज को सोशल मीडिया पर उठाया जा सके। उनका दावा है कि कुछ समय पहले तक बेरोजगारी, वनाधिकार या विस्थापन के मामलों को ट्विटर पर बहुत कम ही उठाया जाता था लेकिनअब स्थिति बदल चुकी है। 2004 से 2016 के बीच भारत की विकास दर ऐसी थी जो संतोषजनक रूप से बढ़तो रही थी लेकिन इसमें रोजगार के अवसर अपेक्षित स्तर पर पैदा नहीं हो रहे थे। अब पिछले तीन सालों के दौरान तो बेरोजगारी की दर में तेजी से वृद्धि हुई है। इस साल मार्च में घोषित लॉकडा उनके कारण तो बेरोजगारी दर एकदम से आसमान छूने लगी। जिस तरह बेरोजगारों और समझौता कर योग्यता से नीचे की नौकरी करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, विशेषज्ञों को आशंका है कि इससे सामाजिक अस्थिरता के हालात पैदा हो सकते हैं, अपराध की घटनाओं में तेज वृद्धि हो सकती है और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर गंभीर हालात पैदा हो सकते हैं। अमेरिका में 1932 से 1933 में महामंदी के दौरान बेरोजगारों की संख्या 1.5 करोड़ थी और अगर इसमें पूरे यूरोप के बेरोजगारों की संख्या को जोड़ दिया जाए तो भी यह आंकड़ा किसी भी हालत में 5 करोड़ को पार नहीं करता।
लेकिन सीएमआईई का आकलन है कि इस साल अप्रैल से अगस्त के दौरान भारत में 12 करोड़ लोगों का रोजगार जाता रहा। इस अवधि के दौरान वेतनवाली नौकरियों की संख्या में ही 2 करोड़ की कमी रही। इसमें उन 3.4 करोड़ लोगों को जोड़ दीजिए जो लॉकडाउन के ऐलान के समय बेरोजगार थे तो आज देश में बेरोजगारों की कुल संख्या 15 करोड़ को पार कर जाती है। यह होश उड़ादेने वाला आंकड़ा है। जरा सोचिए, अमेरिका की तो पूरी आबादी ही 33 करोड़ है। जिन लोगों की नौकरियां आज बची हुई हैं, उनमें भी ज्यादातर सेल्समैन, डिलीवरी बॉय, वेटर जैसे लोग हैं जो महीने में 6 से 16 हजार रुपये घर ला रहे हैं। सीएमआईई का एक अध्ययन कहता है कि ऐसे तो वेतनवाली नौकरियां जल्दी जाती नहीं लेकिन अगर चली गई तो आसानी से मिलती नहीं। इसे भी याद रखना चाहिए कि खुद सरकार के आंकड़े कहते हैं कि 2018-19 में स्वरोजगार करने वाले लोगों की औसत आय 8,363 रुपये मासिक है। दूसरी ओर, एक नियमित औपचारिक नौकरी में औसत मासिक वेतन 25,866 रुपये रहा।
मेलबोर्न में प्रोफेसर क्रेगजेफरी ने 2010 में एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश के ‘समय काटने वाले युवाओं’ के बारे में काफी कुछ लिखा था। तब जेफरी ऑक्सफोर्ड में प्रोफेसर थे। उन्होंने मेरठ के युवाओं के साथ बातचीत करने, उन्हें समझने में सालों लगाए और फिर उन्होंने एक ऐसी युवा पीढ़ी के बारे में लिखा जिसने ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन के बाद फुल टाइम जॉब के इंतजार में सारा समय गुजार दिया। एक इंटरव्यू में जेफरी कहते हैं, “वे गलियों के नुक्कड़ों पर खड़े, ताश खेलते, टीवी देखते, गप्पें मारते और लड़ते-झगड़ते मिल जाएंगे। इनमें से ज्यादातर अपने मां-बाप पर आश्रित होते हैं और इस कारण दो पीढ़ियोंके बीच तनाव पैदा होता है... यहां-वहां मंडराते इन लोगों की पहचान बन गया है ‘टाइम पास’।”
इनमें से कई ऐसे होते हैं जो बिचौलिए बन जाते हैं। अपने सामाजिक और राजनीतिक संपर्कों के जरिये ये लोग जमीन के सौदे और सरकारी रिकॉर्ड में हेरफेर करने लगते हैं तो कई अदालतों में गवाही देने को धंधा बना लेते हैं तो कुछ पुलिस के लिए मुखबिरी करने लगते हैं या फिर राजनीतिक दलों को भीड़ जुटाने में मदद करने लगते हैं। कुछ अदालतों में मुंशी बनजाते हैं तो कुछ गैरसरकारी संगठनों के साथ जुड़कर समाज सेवक या रिसर्चर बन जाते हैं। जेफरी और चर्चित पुस्तक ‘दि ड्रीमर्स’ लिखने वाली स्निग्धा पूनम का मानना है कि छोटे शहरों और गांवों का महत्वाकांक्षी युवा अब शारीरिक मेहनत या पारंपरिक व्यापार करना नहीं चाहता। उसे पैसे कमाने का शॉर्टकट चाहिए। इस मानसिकता और बदली प्राथमिकताओं वाले युवाओं की यह बेरोजगार फौज कब तक सब्र के साथ इंतजार कर सकती है, यह समझा जा सकता है। भविष्य के गर्भमें जो कुछ भी छिपा है, उसके बारे में हर किसी को चिंतित होना चाहिए।(navjivan)
ध्रुव गुप्त
हिंदी सिनेमा के सदाबहार अभिनेता कहे जाने वाले देव आनंद ने अपनी ज्यादातर फिल्मों में जिस बेफिक्र, अल्हड, विद्रोही और रूमानी युवा का चरित्र जिया है, वह भारतीय सिनेमा का एकदम नया चेहरा और अलग अंदाज़ था। हिंदी सिनेमा की पहली त्रिमूर्ति में जहां दिलीप कुमार प्रेम की संजीदगी और पीड़ा के लिए तथा राज कपूर प्रेम के भोलेपन और सरलता के लिए जाने जाते थे, देव आनंद के हिस्से में प्रेम की शरारतें और खिलंदड़ापन आए थे।
लोगों को उनका यह रूप इतना पसंद आया कि उनके जीवन-काल में ही उनकी एक-एक अदा किंवदंती बन गई। उनकी चाल, उनका पहनावा और उनके बालों का स्टाइल उस दौर के युवाओं के क्रेज बने। 1946 में फिल्म ‘हम एक हैं’ से अभिनय यात्रा शुरू करने वाले देव साहब ने अपने लगभग साठ साल लंबे कैरियर में सौ से ज्यादा फिल्मों में अभिनय ही नहीं, अपने नवकेतन फिल्म्स के बैनर तले पैतीस फिल्मों का निर्माण और उन्नीस फिल्मों का निर्देशन भी किया।
अपनी शुरूआती फिल्मों की नायिका सुरैया के साथ उनके असफल प्रेम का शुमार हिंदी सिनेमा की सबसे त्रासद प्रेम कहानियों में होता है। सुरैया के पारिवारिक दबाव में अलगाव होने के बाद देव साहब ने अपनी एक अलग दुनिया बसा ली, लेकिन सुरैया आजीवन अविवाहित रही। अपने प्रेम को सीने से लगाए उन्होंने अकेलापन जिया और गुमनामी की मौत मरी।
‘गाइड’ को देव साहब की अभिनय - प्रतिभा का उत्कर्ष माना जाता है। सातवे दशक के बाद भी अपनी ढलती उम्र में उन्होंने दजऱ्नों फिल्मों में नायक की भूमिकाएं निभाईं, लेकिन तबतक उम्र के साथ उनका जादू शिथिल और मैनरिज्म पुराना पड़ चुका था। निर्देशन में भी उनकी पकड़ ढीली होती चली गई। जीवन के आखिरी दिनों तक फिल्मों के प्रति उनकी दीवानगी बनी रही, लेकिन तब तक वक्त उनसे बहुत आगे निकल चुका था। उनकी आत्मकथा ’रोमांसिंग विद लाइफ’ बहुत चर्चित रही जिसमें उन्होंने अपने जीवन के कई अजाने पहलुओं का खुलासा किया था, लेकिन चर्चा किताब के उस अंश की ज्यादा हुई जिसमें सुरैया के साथ अपने रिश्ते को सार्वजनिक करते हुए उन्होंने बड़ी भावुकता से लिखा था कि सुरैया उनका पहला प्यार थी जिन्हें वे कभी नहीं भुला सके। सुरैया के साथ उनकी शादी हो गई होती तो उनका जीवन शायद कुछ और होता। सिनेमा में उनके अपूर्व योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’ से नवाज़ा था।
जन्मदिन (26 सितंबर) पर हरदिलअजीज़ मरहूम देव आनंद को हार्दिक श्रद्धांजलि !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक ने अपनी ताजा रपट में बहुत गंभीर टिप्पणियां कर दी हैं, जो सरकार के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। हम लोग बहुत खुश थे कि सरकार ने रफाल विमानों का सौदा इतने अच्छे ढंग से किया है कि ये लड़ाकू विमान भारत पहुंच भी चुके हैं और उनके प्रदर्शन से शत्रुओं को उचित संदेश भी चला गया है। लेकिन भा.नि.म. (सीएजी) की रपट ने जनता के उत्साह पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है। उन्होंने पूछा है कि फ्रांसीसी कंपनी दस्सॉल्ट एविऐशन ने जब 26 विमानों के लिए भारत से 59000 करोड़ रु. लिये हैं तो उसने अपने वायदों को पूरा क्यों नहीं किया? उसका वायदा यह था कि भारत उसे जितनी राशि देगा, उसकी 50 प्रतिशत याने आधी राशि वह भारत में इसलिए लगाएगा कि भारत विमान-निर्माण की तकनीक खुद विकसित कर सके। वैसे सरकारी नीति यह है कि यदि कोई भी सौदा 300 करोड़ रु. से ज्यादा का हो तो उसका 30 प्रतिशत पैसा उस तकनीक के विकास के लिए वह देश भारत में लगाएगा। लेकिन फ्रांस की इस दस्सॉल्ट एवियेशन कंपनी ने भारत में 50 प्रतिशत पैसा लगाना स्वीकार किया था।
इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि ये विदेशी कंपनियां अपना शस्त्रास्त्र अपने लागत मूल्य से चार-छह गुना ज्यादा कीमत पर बेचती हैं ताकि खरीददार को लालच में फंसा सकें और अपना फायदा भी जमकर कमा सकें। जो भी हो, यह सौदा शुरु में मनमोहनसिंह सरकार ने ही किया था। इसके मुताबिक भारत को 126 रफाल विमान खरीदने थे, जिनमें से 108 भारत में बनने थे लेकिन उनमें देर लगती, इसलिए मोदी सरकार ने फ्रांस से बने-बनाए विमान खरीद लिए। विमान सही कीमत पर खरीदे गए हैं और बोफर्स की तरह इस सौदे में दलाली नहीं खाई गई है, यह बात सर्वोच्च न्यायालय की राय से भी पता चलती है। दस्सॉल्ट एविएशन ने अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप के साथ मिलकर भारत में इन विमानों को बनाने का समझौता किया था लेकिन भा.नि.म. (सीएजी) ने उसकी शून्य प्रगति को भी रेखांकित किया है। हमारे रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान (डीआरडीओ) को दस्सॉल्ट से छह नई तकनीक मिलनेवाली थीं। आज तक उसे एक भी नहीं मिली है।
भारत में जब तक हम उच्चकोटि के युद्धक विमान नहीं बनाएंगे, हमारी वायु सेना अक्षम ही रहेगी। उसके पास युद्धक विमानों के 42 बेड़े होने चाहिए थे लेकिन उसके पास अभी सिर्फ 27 हैं। रफाल-सौदे में पाई गई इसी कमी पर उंगली रखकर सीएजी ने सरकार को ठीक समय पर चेता दिया है। अभी तक यह पता नहीं है कि दस्सॉल्ट एवियेशन ने अपने दायित्वों को पूरा क्यों नहीं किया है? इस सौदे में इस लचक के लिए कौन जिम्मेदार है? इन सवालों के संतोषजनक और शीघ्र उत्तर देने की जिम्मेदारी सरकार की है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
हुजूर जागिए! कुछ रहम कीजिए!
-समरेन्द्र सिंह
आज दो वीडियो वायरल हुए हैं। अर्णब गोस्वामी के चैनल रिपब्लिक भारत की महिला रिपोर्टर दीपिका पादुकोण की गाड़ी का पीछा कर रही है। बीच सडक़ में रिपोर्टर का ड्राइवर अपनी कार को दीपिका की कार से बगल में ले आता है। रिपोर्टर शीशा खोल कर चीखते हुए चलती गाड़ी से दीपिका से सवाल पूछने लगती है।
दूसरा वीडियो अशोक सिंघल का है। ये अरुण पुरी के चैनल आज तक (कभी ये सर्वश्रेष्ठ चैनल हुआ करता था) के बड़े रिपोर्टर हैं। राजनीतिक संपादक भी रह चुके हैं। ये भी दीपिका की गाड़ी का पीछा कर रहे थे। मैं दोनों दृश्य देख कर घबरा गया। लगा कि जैसे पापारात्सी ने मिलकर प्रिसेंस डायना की जान ले ली थी, वैसे ही किसी दिन हमारे देश के ये महान पत्रकार किसी मासूम की हत्या कर देंगे। और अपनी खोह में छिपे हम लोग बुजदिलों की तरह तमाशा देखते रह जाएंगे।
कुछ दिन पहले मैंने डेमोक्रेसी कैसे मरते हैं नाम की किताब का जिक्र किया था। उस किताब में बहुत अच्छे से बताया गया है कि किसी मुल्क में रैफरी जब सरकार से गठजोड़ कर लेता है तो उस मुल्क में लोकतंत्र की हत्या हो जाती है। वह देश हार जाता है। फिर वहां के लोग त्रासद जिंदगी जीते हैं। किताब में वेनेजुएला, पेरू समेत कई देशों के उदाहरण दिए गए हैं।
इसलिए रैफरी का निष्पक्ष रहना बहुत जरूरी है। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रैफरी की भूमिका अदालत की होती है। संविधान सही से लागू हो रहा है या नहीं-यह देखने की जिम्मेदारी कोर्ट की है।
यहां मैं आपको छोटा सा किस्सा सुनाता हूं। करीब 11 साल पहले मुझे अपनी वेबसाइट जनतंत्र पर छापने के लिए कुछ गोपनीय दस्तावेज मिले थे। वो दस्तावेज ऐसे मामले से जुड़े थे, जिसकी जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही थी। मैं कानूनी सलाह के लिए अपने वकील मित्र के पास पहुंचा। उन्होंने ऐसी बात बताई, जो मुझे अब भी याद है। शायद ताउम्र याद रहे।
उन्होंने कहा कि किसी ताकतवर व्यक्ति या संगठन से लड़ लो, देख लिया जाएगा। चाहो तो सरकार से लड़ लो-उसे भी देख लेंगे। लेकिन अदालत से मत लड़ो। बाकी सबसे लड़ोगे तो अदालत है बचाने के लिए। लेकिन जब अदालत से ही लड़ लोगे तो कौन बचाएगा? अदालत का कोई फैसला गलत है तो सम्मानजनक तरीके से उसकी आलोचना करो। लेकिन उसके किसी काम में दखल मत दो। अगर कोर्ट और उसमें भी सुप्रीम कोर्ट खिलाफ गया तो फिर कहीं कोई सुनवाई नहीं होगी।
बात सही है। अदालत नाराज हो जाए तो फिर भुगतना ही होता है। अतीत में अनेक ताकतवर लोगों ने भुगता है। लेकिन भुगतना तब भी होता है जब अदालत सहयोग करने लगे। न्याय में नहीं बल्कि सरकार के अन्याय में। मीडिया के अन्याय में। नुकसान तब भी होता है जब अदालत सिस्टम के ताकतवर धड़े के अपराधों को रोकने की जगह, संविधान की रक्षा करने की जगह-मौन हो जाए। सलेक्टिव हो जाए। तब देश और समाज भुगतान करता है।
यही नहीं तमाम जांच एजेंसियों से भी तटस्थता की उम्मीद की जाती है। सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, एनसीबी और पुलिस-ये सब कानून व्यवस्था का हिस्सा हैं। जांच की जिम्मेदारी इन्हीं के पास है। इन्हें निष्पक्ष रहना चाहिए। लेकिन अभी लग रहा है कि ये सब मिल कर हुकूमत कर रहे हैं। जब जांच एजेंसियां सियासी औजार बन जाएं और लोकतांत्रिक आवाजों को खामोश करने में जुट जाएं तो फिर लोकतंत्र बचाने की महती जिम्मेदारी न्यायपालिका के कंधों पर ही रहती है। और अगर वो भी मौन हो जाए तो फिर लोकतंत्र बचेगा कैसे?
अब लौटते हैं मीडिया की उस अराजक भूमिका पर जिससे मैंने ये पोस्ट शुरू किया था। हमारे कानूनों में फ्री स्पीच और हेट स्पीच का अंतर अच्छी तरह दर्ज है। हमारे यहां हेट स्पीच पर सजा का प्रावधान भी है। हमारे संविधान में निजता का अधिकार भी दिया गया है। लेकिन हेट स्पीच और निजता हनन के मामलों में सुप्रीम कोर्ट खामोश है। वह सत्ता के विरुद्ध तन कर खड़े व्यक्तियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ सुनियोजित प्रोपगैंडा को चुपचाप देख रहा है। यह एक किस्म का मूक समर्थन है।
मैं और मेरे जैसे तमाम लोग यह सोच नहीं पा रहे हैं कि अदालतें ऐसे मामलों में मौन कैसे रह सकती हैं? माननीय न्यायाधीशों की न्यायिक चेतना कहां चली गई है? क्या उन्हें संविधान और मानवता के विरुद्ध चल रही ये साजिशें नजर नहीं आ रही हैं? अगर नजर नहीं आ रही है तो फिर ऐसा क्यों नहीं समझा जाए कि ये सभी न्यायाधीश बनने के काबिल नहीं है? और अगर नजर आ रही है और फिर भी खामोश हैं तो फिर यह क्यों नहीं समझा जाए कि मीडिया और सरकार के अपराधों में ये सब सम्मिलित हैं?
मैं जानता हूं कि मैं जो बोल रहा हूं उससे न्यायाधीशों को बुरा लग सकता है। इसलिए मैं अग्रिम माफी मांगता हूं। लेकिन जो हो रहा है वह और भी खतरनाक है। किसी चैनल का कोई संपादक लोगों को खुलेआम अपराधी बता रहा है। और अदालत चुप है। क्या न्यायाधीशों को यह नहीं पता कि कोर्ट द्वारा गुनहगार ठहराए जाने से पहले किसी को अपराधी नहीं कहा जा सकता है? अगर कोई कहता है तो यह न्याय की अवहेलना है?
कोई संपादक अपने रिपोर्टरों को किसी की गाड़ी का पीछा करने को कहता है। उसके रिपोर्टर पीछा करते हैं और चलती गाड़ी से चीख-चीख कर सवाल पूछते हैं।
आसपास सभी लोगों की जान संकट में डालते हैं। क्या यह लोगों की जान से खिलवाड़ नहीं है? क्या ये किसी की निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है? क्या यह न्याय व्यवस्था को धत्ता बताने की कोशिश नहीं है?
कोई चैनल मुसलमानों के खिलाफ निरंतर साजिश करता है, उनके खिलाफ जहर उगलता है, लोगों को हिंसा के लिए उकसाता है-क्या यह भारत की धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ाना नहीं है, उसे संकट में डालना नहीं है? लोगों की जान और माल को संकट में डालना नहीं है?
इसलिए मैं दोनों हाथ जोडक़र सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश कर रहा हूं कि वो इन मामलों का संज्ञान लें और कोई ठोस कदम उठाएं। वरना आने वाली पीढिय़ों की नजर में हम सब गुनहगार साबित होंगे। हमारा भविष्य जब हमारे वर्तमान को इंसाफ और इंसानियत के तराजू पर तौलेगा तो न्याय की तुलना में अन्याय का पलड़ा भारी होगा। और इस अन्याय की सबसे बड़ी जिम्मेदारी और जवाबदेही कोर्ट की होगी। माननीय न्यायाधीशों की होगी। इसलिए कि न्याय का अधिकार और दायित्व उन्हीं का है। हमारे संविधान ने ये अधिकार और दायित्व ना तो किसी नरेंद्र मोदी को दिया है और ना ही किसी अर्णब गोस्वामी को।
-श्याम मीरा सिंह
जब हजारों मुस्लिम महिलाएं शाहीनबाग में अपनी पहचान और सम्मान की लड़ाई इस मुल्क के निजाम से लड़ रही थीं, तब उस लड़ाई में अपना कंधा देने के लिए पंजाब से आए सिख भाइयों ने खुली सडक़ पर लंगर लगा दिए थे। आज सिख किसान सडक़ पर हैं, आधा पंजाब सडक़ पर है, तो लंगर की जिम्मेदारी मुसलमानों ने उठा ली। पंजाब शहर के मलेरकोटला शहर में किसान संघ से जुड़े सिख किसान प्रदर्शन कर रहे थे।
सिख किसानों की भूख-प्यास की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेते हुए वहां के मुसलमानों ने लंगर लगाना शुरू कर दिया। मुसलमानों ने अपने सिख भाइयों का कर्ज अदा नहीं किया बल्कि वही काम किया जो इस मुल्क के जिंदा नागरिकों को करना चाहिए, शाहीनबाग के समय सिख कर रहे थे, किसान आंदोलन के समय मुसलमान कर रहे हैं।
इससे कुछ दिन पहले आपने एक खबर पढ़ी होगी जब मुस्लिमों का एक जत्था 300 च्ंिटल अनाज लेकर सिख गुरुद्वारे पहुंचा था। वह जगह भी मलेरकोटला ही थी। 1947 में जब धर्मिक नफरत अपने चरम पर थी, उस दौर में भी मलेरकोटला में कोई दंगे नहीं हुए, जबकि विभाजन के समय पंजाब सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में से एक था चूंकि पंजाब की सीमा पाकिस्तान से मिलती है। यहां के मुस्लिम बाहुल्य परिवारों ने रहने के लिए अपने ही मुल्क हिंदुस्तान को चुना।
लॉकडाउन के समय सिख गुरुद्वारों ने मुस्लिम मजदूरों की मदद की थी, इसकी भी खबरें आपको पढऩे को मिल जाएंगी। आज हिन्दू-मुस्लिम बहसों का माहौल इतना घृणाजनक है कि ऐसी तस्वीरें राहत देती हैं, कई बार हैरान करती हैं जबकि ये हैं एकदम सामान्य। पूरे देश को मलेरकोटला से सीखना चाहिए। यहां के मुस्लिमों से पूरी दुनिया के मुस्लिमों को सीखना चाहिए। यहां के सिखों से इस मुल्क की बहुसंख्यक आबादी को सीखना चाहिए। हिंदुस्तान मुम्बई की बड़ी बड़ी इमारतों से सुंदर नहीं है, हिंदुस्तान क्रिकेट में जीती ट्रॉफियों से सुंदर नहीं है, हिंदुस्तान अपनी खूबसूरती की कहानियां इन दो चार तस्वीरों से लेता है। आप किसी भी विदेशी से कहिए क्या अच्छा लगता है हिंदुस्तान में? तो जवाब होगा ‘कल्चर’
कल्चर जो साझी विरासत है, कल्चर जिसकी बलखायी फिजाओं में हिन्दू और मुसलमान सांस लेते हैं। लेकिन याद रखिए अगर ये तस्वीरें आपको चुभ रही हैं
तो कोई ऐसा है जो आपको हिंदुस्तान की गलत मीनिंग सिखा रहा है, कोई है जो आपको गलत मतलब सिखा रहा है, ऐसा आदमी इस मुल्क के भले का नहीं, इन लोगों को पहचानिए, जिन्होंने धर्म की इतनी मोटी परत आपके मस्तिष्कों पर चढ़ा दी है कि एक नेता का समर्थन करते करते आप किसान विरोधी हो गए हैं।
मुझे मालूम है मीडिया ने आपके प्रदर्शन की तस्वीरें नहीं दिखाईं, मुझे मालूम है जिस मीडिया ने दीपिका के पीछे 4-4, 5-5 रिपोर्टर छोड़े हुए हैं उसने आपकी चिंताएं, आपके प्रदर्शन कवरेज करने के लिए एक भी रिपोर्टर नहीं भेजा। फिर भी सोशल मीडिया तो अपनी है, हम तो इसे अपने लोगों तक पहुंचा सकते हैं। मैं अपना काम कर रहा हूँ, आप अपना काम करते रहिए।
एक किसान के पास अब निवेश के लिए आधार पूंजी भी नहीं है और न ही उसमें कृषि क्षेत्र में वापस जाने के लिए जोखिम लेने की क्षमता है
- Richard Mahapatra
अशोक दलवाई के नेतृत्व में बनी “द कमेटी ऑन डबलिंग फार्मर्स इनकम” की पहली रिपोर्ट में 100 विशेषज्ञों के रिसर्च और इनपुट का उपयोग किया गया थी। इस रिपोर्ट में कहा गया कि 2004-2014 के दौरान देश के कृषि क्षेत्र में सर्वाधिक विकास हुआ। रिपोर्ट इसे सेक्टर का “रिकवरी फेज” कहती है। ये एक ऐसा शब्द है, जो इसे ऐतिहासिक बनाता है। ये रिपोर्ट, किसानों की आय दोगुना करने के तरीकों का सुझाव देने से ज्यादा, भारतीय कृषि की हालत पर आंख खोलती है। डाउन टू अर्थ यहां देश की कृषि से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत कर रहा है, जिनकी खबरें आमतौर पर सामने नहीं आतीं
किसान घटे, कृषि मजदूर बढ़े
कोई भी राष्ट्र अपनी कृषि और किसानों से समझौता नहीं कर सकता और भारत जैसे देश में तो बिल्कुल भी नहीं। भारत में, जहां 1951 में 70 मिलियन (7 करोड़ परिवार) हाउसहोल्ड (घर) कृषि से जुड़े हुए थे, वहीं 2011 में ये संख्या 11.9 करोड़ हो गई। इसके अलावा, भूमिहीन कृषि मजदूर भी हैं, जिनकी संख्या 1951 में 2.73 करोड़ थी और 2011 में बढ़कर ये संख्या 14.43 करोड़ हो गई। भारत की इतनी बड़ी आबादी का कल्याण एक मजबूत कृषि विकास रणनीति से ही हो सकती है, जो आय वृद्धि की दृष्टिकोण से प्रेरित हो।
भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए कृषि आजीविका का स्रोत बनी रही। 2014-15 में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इस सेक्टर ने करीब 13 फीसदी का योगदान दिया था। 1971 से कृषि में लगे श्रमिकों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। हालांकि, 2001 से 2011 के बीच किसानों की संख्या में कमी आई है। कृषि मजदूरों की संख्या 107 मिलियन से बढ़कर 144 मिलियन हो गई। इसके विपरीत, कृषि मजदूरों की संख्या 2004-05 के 92.7 मिलियन से घटकर 2011-12 में 78.2 मिलियन हो गई। ये दर्शाता है कि प्रति वर्ष लगभग 22 लाख कृषि मजदूरों ने इस क्षेत्र को छोड़ दिया। उसी समय, रोजगार और बेरोजगारी पर एनएसएसओ सर्वेक्षण के अनुसार, 2004-05 से 2011-12 के दौरान खेती करने वालों की संख्या प्रति वर्ष 1.80 प्रतिशत की दर से घटती गई। 1967-71 के बाद, हाल के दशक में कृषि में लगे किसानों की संख्या में नकारात्मक वृद्धि देखी गई, जिससे यह संकेत मिलता है कि लोग खेती से दूर जा रहे हैं।

किसानों की आय 7 रुपये प्रति माह
गैर-कृषि मजदूर, किसान से तीन गुना अधिक कमाता है
आइए, भारत में एक किसान की आय को देखें। “रिकवरी फेज” के दौरान भी, एक कृषक परिवार का एक सदस्य लगभग 214 रुपये प्रति माह कमाता था। लेकिन, उसका खर्च करीब 207 रुपये था।
सरल भाषा में कहें तो एक किसान की डिस्पोजल मासिक आय 7 रुपए थी। 2015 के बाद से, भारत में दो भयंकर सूखे पड़े। बेमौसम बरसात से और अन्य संबंधित घटनाओं के कारण फसल बर्बाद होने की लगभग 600 घटनाएं हुईं। और अंत में बंपर फसल के दो साल के दौरान किसानों को उचित कीमत ही नहीं मिली।
इसका मतलब है कि एक किसान के पास अब निवेश के लिए आधार पूंजी भी नहीं है और न ही उसमें कृषि क्षेत्र में वापस जाने के लिए जोखिम लेने की क्षमता है। इससे संकट में बढ़ोतरी हुई, जिसने असंतोष को और अधिक बढ़ा दिया।
अक्सर यह महसूस किया जाता है कि कृषि आय और गैर-कृषि आय के बीच असमानता बढ़ रही है और जो लोग कृषि क्षेत्र से बाहर काम करते हैं, वे उन लोगों की तुलना में बहुत तेजी से प्रगति कर रहे हैं, जो कृषि क्षेत्र में काम करते हैं। 1983-84 में एक मजदूर की कमाई से तीन गुना अधिक किसान कमाता था। एक गैर-कृषि मजदूर उन किसानों या उसके परिवार के सदस्यों द्वारा कमाई गई आय से तीन गुना अधिक कमाता था, जो मुख्य रूप से कृषि से जुड़े हुए थे।
हाल के इतिहास में पहली बार, अपेक्षाकृत अमीर किसान अपने उत्पादों के बेहतर मूल्य के लिए सड़क पर विरोध कर रहे थे। दलवाई समिति की रिपोर्ट बताती है कि मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए, खाद्यान्न आयात करने की सरकार के कदम ने घरेलू किसानों के बाजार को कमजोर किया है। भारत का कृषि उत्पादन का निर्यात कम हो गया है। यह 2004-2014 के दौरान, पांच गुना वृद्धि दर्ज करते हुए 50,000 करोड़ रुपए से बढ़कर 260,000 करोड़ रुपए हो गया था। एक साल में, यानी 2015-16 में ये 210,000 करोड़ रुपए तक आ गया। इसका अर्थ है कि बाजार को 50,000 करोड़ रुपए का संभावित नुकसान हुआ।
दूसरी ओर, कृषि आयात में लगातार वृद्धि दर्ज की गई। यह 2004-5 में 30,000 करोड़ रुपए था, जो 2013-14 में बढ़कर 90,000 करोड़ रुपए हो गया। यह यूपीए-2 सरकार का अंतिम साल था। 2015-16 में, यह बढ़कर 150,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया।
करीब 22 प्रतिशत किसान गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। किसानों की आय में गिरावट को देखते हुए, आय दोगुना करने का वादा “न्यू इंडिया” के लिए एक और भव्य योजना नहीं होनी चाहिए, क्योंकि कृषि विकास ही किसानों की गंभीर गरीबी कम करने का काम कर सकता है।

बागवानी: मुख्य संचालक
अपने उत्पाद को बेचने में सक्षम नहीं होना ही किसानों की सबसे बड़ी पीड़ा है
लगातार छह साल तक, बागवानी (फल और सब्जियां) उत्पादन अनाज उत्पादन से आगे रहा है। हाल के समय में, बागवानी का उदय, कृषि विकास का एक कम स्वीकार्य पहलू रहा है। विशेषकर 2004-14 के उच्च विकास चरण के दौरान। हालांकि यह सिर्फ खेती के 20 प्रतिशत हिस्से को ही कवर करता है, लेकिन यह कृषि जीडीपी में एक तिहाई से भी ज्यादा का योगदान देता है। पशुधन के साथ, कृषि के इन दो उपक्षेत्रों में वृद्धि जारी रही है और ये अधिकतम रोजगार भी दे रहे हैं। देश में फलों और सब्जियों का उत्पादन, खाद्यान्न से आगे निकल गया है। कृषि मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक बयान में कहा गया है कि वर्ष 2016-17 (पूर्वानुमान) के दौरान 300.6 मिलियन टन बागवानी फसलों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ, जो पिछले वर्ष की तुलना में 5 प्रतिशत अधिक है।
बागवानी किसानों की सबसे बड़ी चुनौती बिक्री और फसल होने के बाद में होने वाली हानि (बर्बादी) है। इससे यह किसानों के लिए कम आकर्षक सेक्टर बन जाता है। हालांकि, सरकार ये बात गर्व के साथ कहती है कि भारत दुनिया में सब्जियों और फलों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है, लेकिन यहां ध्यान दिया जाना चाहिए कि फसल पैदा होने के बाद होने वाली बर्बादी की वजह से फल और सब्जियों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता काफी कम है। फल और सब्जियों की बर्बादी कुल उत्पादन का लगभग 25 से 30 प्रतिशत होता है।
फल और सब्जियों की ये बर्बादी कोल्ड चेन (शीत गृह) की संख्या में कमी, कमजोर अवसंरचना, अपर्याप्त कोल्ड स्टोरेज क्षमता, खेतों के निकट कोल्ड स्टोरेज का न होना और कमजोर परिवहन साधन की वजह से होती है। किसानों की आय दोगुना करने के लिए बनी कमेटी के मुताबिक, “अखिल भारतीय स्तर पर, किसानों को 34% फल, 44.6%,सब्जियां और 40 फीसदी फल और सब्जी के लिए मौद्रिक लाभ नहीं मिल पाता है। यानी, इतनी मात्रा में फल और सब्जियां किसान बेच नहीं पाते या बर्बाद हो जाती है।”
इसका मतलब है कि हर साल, किसानों को अपने उत्पाद नहीं बेच पाने के कारण 63,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो जाता है, जिसके लिए उन्होंने पहले ही निवेश किया होता है। इस चौंकाने वाले आंकड़े को ऐसे समझ सकते है कि यह राशि फसल कटाई के बाद होने वाली बर्बादी से बचने के लिए आवश्यक कोल्ड चेन अवसंरचना उपलब्ध कराने के लिए जरूरी निवेश का 70 प्रतिशत है। यह किसानों द्वारा किए जा रहे व्यापक विरोध प्रदर्शन की व्याख्या करता है। मिर्च, आलू और प्याज की कम कीमत इसके पीछे प्रमुख कारणों में से एक थी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक, 2014 में जहां 628 कृषि से जुड़े प्रदर्शन हुए थे, वहीं 2016 में इसमें 670 फीसदी बढ़ोतरी हुई और ये संख्या बढ़कर 4,837 हो गई थी।
दोगुनी आय: एक नया सौदा
कृषि योग्य भूमि का 60 प्रतिशत हिस्सा बारिश पर निर्भर
2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे महत्वाकांक्षी राजनीतिक वादा है। लेकिन दलवाई समिति की रिपोर्ट के निष्कर्षों को देखते हुए, यह एक मुश्किल चुनौती प्रतीत होती है, हालांकि यह संभव है। इन रिपोर्टों के अनुसार, इसमें कृषि के लिए बड़े पैमाने पर निजी और सार्वजनिक खर्च को शामिल किया गया है, जिसने लगातार कम निवेश नहीं देखा है। कृषि से कम होती आय के कारण, किसान इस आजीविका को छोड़ रहे हैं। इसलिए, पहले उन्हें खेतों तक वापस लाया जाना चाहिए और फिर आय बढ़ाने के लिए काम किए जाने चाहिए, ताकि वे खेती जारी रखें।
नीति आयोग के अर्थशास्त्री रमेश चंद, एसके श्रीवास्तव और जसपाल सिंह ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन और रोजगार सृजन पर इसके प्रभावों पर एक चर्चा पत्र जारी किया था। इस पत्र के अनुसार, 1970-71 से 2011-12 के दौरान, “भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था 2004-05 की कीमतों पर 3,199 खरब रुपये से बढ़कर 21,107 खरब हो गई।” यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सात गुना वृद्धि थी। अब इस वृद्धि की तुलना रोजगार वृद्धि के साथ करें। इसी अवधि में ये 19.1 करोड़ से बढ़कर 33.6 करोड़ हो गई। दलवाई समिति की रिपोर्ट में कहा गया है, “किसानों की आय को दोगुनी करने की रणनीति के तहत मुख्य रूप से खेती की व्यवहार्यता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. इसलिए, इस रणनीति का उद्देश्य कृषि आय का अनुपात गैर-कृषि आय के 60 से 70 प्रतिशत मौजूदा दर को बढ़ाना चाहिए।” इसी के साथ, इस विकास रणनीति को समानता पर भी ध्यान देना चाहिए, जैसे कम विकसित क्षेत्रों में उच्च कृषि विकास को बढ़ावा देना, जिसमें बारिश पर निर्भर क्षेत्रों सहित, सीमांत और छोटे भूमि धारक भी शामिल हों।
भारत की खेती योग्य भूमि का 60 प्रतिशत हिस्सा बारिश पर निर्भर है और इन्हीं क्षेत्रों में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं और इन्हें सूखे का सामना करना पड़ रहा है। ये वो क्षेत्र है, जहां सरकार वर्तमान में हरित क्रांति 2 को क्रियान्वित कर रही है।
छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले की लक्ष्मी साहू का कहना है कि उनके पति ने जून 2017 को आत्महत्या कर ली। क्योंकि वह 4.48 लाख रुपए का कृषि ऋण चुकाने में असमर्थ थे (पुरुषोत्तम ठाकुर)

प्रदर्शनों से निपटने का तरीका
मध्य प्रदेश के मंदसौर में पिछले साल भड़की गुस्से की चिंगारी अभी शांत नहीं हुई है। मंदसौर की जमीन राज्य के बाकी जिलों से उपजाऊ हैं और यहां के किसान दूसरे जिलों की तुलना में संपन्न हैं। 6 जून 2017 को किसानों के उग्र प्रदर्शन को दबाने के लिए पुलिस ने गोलियां चला दीं जिसमें छह लोगों की मौत हो गई। प्रदर्शनकारी किसान कर्ज माफी और अपनी उपज के सही दाम की मांग कर रहे थे। बंपर उत्पादन के बाद प्याज के दाम गिरने और खरीदार न मिलने पर किसानों ने यह प्रदर्शन किया था। पुलिस की गोली से मारे गए लोगों में बरखेड़ा पंत गांव के अभिषेक पाटीदार भी शामिल थे।
मौके पर अभिषेक के 30 वर्षीय भाई मधुसूदन भी थे। वह बताते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 14 जून को सांत्वना देने उनके घर आए थे। उन्होंने परिवार के सदस्यों को नौकरी और फायरिंग करने वाले पुलिसवालों पर मुकदमा दर्ज करने का आश्वासन दिया था। लेकिन अब तक न तो पुलिसवालों पर कार्रवाई हुई है और न ही परिवार के किसी सदस्य को नौकरी दी गई है। अभिषेक के 80 वर्षीय दादा भवरलाल पाटीदार कहते हैं “कोई दूसरी सरकार किसानों पर गोली नहीं चलाती। प्रदर्शन के छह महीने बाद भी किसानों के मुद्दे अनसुलझे हैं।”
मध्य प्रदेश क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एमपीआरसीबी) के अनुसार, पिछले 15 साल में राज्य में 18,000 किसानों ने खुदकुशी की है। फरवरी 2016 से फरवरी 2017 के बीच करीब 2,000 किसान और खेतीहर मजदूर राज्य में आत्महत्या कर चुके हैं। 2013-14 को छोड़कर पिछले 15 साल में हर साल सामान्य से कम बारिश दर्ज की गई है। इससे किसान बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। पिछले एक साल के दौरान राज्य में किसानों के 25 से ज्यादा विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं। मीडिया में आई खबरों की मानें तो मंदसौर गोलीकांड के बाद 160 किसान आत्महत्या कर चुके हैं जबकि 27 ने जान देने की कोशिश की है।
कक्काजी बताते हैं “जब शिवराज सिंह चौहान पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब राज्य के कुल किसानों पर 2,000 करोड़ रुपए का कर्ज था। आज यह बढ़कर 44,000 करोड़ रुपए हो गया है।”
गैर राजनीतिक संगठन आम किसान यूनियन के संस्थापक केदार सिरोही मध्य प्रदेश में किसानों के हित में काम कर रहे हैं। उनका कहना है “सरकार दावा करती है कि उसने किसानों के हित में कुछ कदम उठाए हैं। लेकिन तथ्य यह है कि किसानों का व्यापारियों और नौकरशाहों द्वारा शोषण किया जा रहा है।” फसलों के दाम में उतार-चढ़ाव का देखते हुए राज्य सरकार ने भावांतर योजना शुरू की है। मध्य प्रदेश कृषि विभाग में प्रमुख सचिव राजेश राजौरा बताते हैं, “अगर फसल का विक्रय मूल्य एमएसपी से कम रहता है तो इसके अंतर की भरपाई सरकार करेगी।
यह अंतर सीधा किसान के खाते में भेज दिया जाएगा।” राजौरा बताते हैं कि इससे किसान को अपनी फसल का उचित मूल्य मिलेगा। करीब 40 प्रतिशत किसानों ने योजना के तहत पंजीकरण करा लिया है। वह बताते हैं कि तिलहन और दलहन समेत आठ फसलों का भुगतान सरकार करेगी। बागवानी की फसलों को भी इस योजना के दायरे में लाया जाएगा।
कक्काजी बताते हैं “सरकार भावांतर योजना के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है लेकिन इसके लागू होने के बाद फसलों के दाम 400 प्रतिशत तक गिर गए हैं। जो उड़द 5,500 रुपए प्रति क्विंटल बिक रही थी वह योजना लागू होने के बाद 1,000 रुपए प्रति क्विंटल बिक रही है। चना और मूंग भी सस्ती हो गई है। सरकार ने जिन फसलों की खरीद की है, उसके दाम भी अब तक नहीं मिले हैं। यह योजना मंडी एक्ट का सरासर उल्लंघन है।
सीएम के खिलाफ हमने उच्च न्यायालय में केस किया है।” वह बताते हैं, “प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के बाद किसान 10 से 15 गुणा कर्जदार हो गया है। यही वजह है कि मध्य प्रदेश में किसान आत्महत्या की दर में तेजी
से बढ़ोतरी हो रही है।” कक्काजी ने बताया कि राष्ट्रीय किसान महासंघ के तहत आंदोलन में शामिल हुए संगठनों की केवल दो ही मांगें हैं। पहली, किसानों को उसकी फसल लागत का 50 प्रतिशत लाभकारी मूल्य और दूसरी, पूरे देश के किसानों को ऋण मुक्ति।
चिंता की बात यह भी है कि पिछले साल दिसंबर में क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने अनुमान लगाया है कि सामान्य मानसून और अत्यधिक पैदावार के कारण आगे भी किसानों को इच्छानुसार दाम नहीं मिलेंगे। यानी किसानों की नाराजगी कम होने के बजाय बढ़ेगी और कृषि संकट चुनावी मुद्दा बनेगा। कुछ समय पहले किसान संगठनों ने वित्त मंत्री अरुण जेटली से मिलकर कुछ आंकड़े सौंपे हैं, मसलन एक किसान की दैनिक आमदनी महज 50 रुपए है। इन संगठनों ने चेता भी दिया है कि किसान इस भ्रम में नहीं है कि सरकार उनके बारे में सोच रही है। किसानों की चेतावनी बताती है कि बीजेपी के लिए आगे का रास्ता बेहद मुश्किल है।
किसानों ने क्यों नकारा गुजरात मॉडल
मोहम्मद कलीम सिद्दीकी
गुजरात में बीजेपी को किसानों की नाराजगी का खामियाजा विधानसभा चुनावों में उठाना पड़ा। दरअसल जिस गुजरात मॉडल का बीजेपी ढोल पीट रही है, उसे किसानों ने सबसे अधिक खारिज किया। इसकी वजह भी है। गुजरात की मुख्य फसल कपास और मूंगफली है। गुजरात खेडूत समाज के महासचिव सागर रबारी के अनुसार, राज्य सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बहुत कम मात्रा में खरीदी करती है। किसान को तुरंत पैसों की आवश्यकता होती है, लेकिन सरकार चेक से पैसे देती है जो समय पर नहीं मिल पाता। इस कारण किसान खुले बाजार में नुकसान में ही बेचकर चला जाता है।
भावनगर के गरियाधार के किसान रमेश भाई वल्लभ भाई वीरानी बताते हैं कि आज भी सिंचाई बारिश आधारित है। बारिश देर सवेर होने पर किसानों का नुकसान होता है। मूंगफली का न्यूनतम समर्थन मूल्य 900 रुपये प्रति 20 किलो और खुले बाजार में 700 रुपये के भाव में लागत नहीं मिल पाती। यदि 1400-1500 का भाव मिले तो किसान को लाभ होगा। सरकार 10 से 15 प्रतिशत सिर्फ दिखावे के लिए खरीदी करती है। रमेश भाई मानते हैं कि इस वर्ष कपास की खेती अच्छी हुई है। पाकिस्तान और चीन में मांग बढ़ने के कारण किसानों को कपास का भाव 5,200 रुपये तक मिला जबकि इस वर्ष कपास न्यूनतम समर्थन मूल्य 4,200 रुपये प्रति क्विंटल था।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, गुजरात में 1998 से 2010 तक दस हजार से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। क्रांति संस्था के भरत सिंह झाला को आरटीआई के माध्यम से मिली जानकारी के अनुसार, गुजरात में वर्ष 2003–2007 के दरमियान 2479 किसानों ने आत्महत्या की थी। 2008–12 के बीच 152 और 2013–16 के बीच 89 किसान आत्महत्या के केस दर्ज हुए। गुजरात में हो रही किसानों की आत्महत्या लेकर क्रांति संस्था ने जुलाई 2014 में गुजरात हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। याचिका में आत्महत्या रोकने के लिए नीति बनाए जाने की मांग की गई थी जिसे गुजरात हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया।
उसके बाद क्रांति संस्था सुप्रीम कोर्ट गई। 27 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सहित अन्य राज्यों को भी किसान आत्महत्या रोकने के लिए 6 हफ्तों के भीतर नीति बनाने का आदेश दिया लेकिन अब तक किसी भी राज्य या केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल नहीं किया। भरत सिंह झाला कहते हैं मोदी सरकार को तीन तलाक पर कानून बनाने की जल्दी है परन्तु किसानों की आत्महत्या दिखाई नहीं देती।
इसी वर्ष फरवरी में सानंद के 32 गांव के 4-5 हजार किसान नर्मदा का पानी किसानों को न देकर उद्योग को दिए जाने के खिलाफ सानंद से गांधीनगर तक पैदल मार्च कर रहे थे लेकिन उपरथल गांव के पास ही पुलिस ने बल उपयोग कर उन्हें रोक दिया। लाठी चार्ज में सैकड़ों किसान घायल भी हुए थे। 22 किसानों को धारा 307 के तहत गिरफ्तार कर मुकदमा भी दर्ज किया था।
गुजरात में आदिवासियों की जनसंख्या 15 प्रतिशत है। इनकी मुख्य समस्या जल, जंगल और जमीन के अलावा नेताओं और प्रशासन के सहयोग से आदिवासी इलाकों में चलने वाली चिट फंड कंपनियों द्वारा गरीब बेरोजगार आदिवासियों को लूटे जाने का है। आदिवासी किसान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष रोमेल सुतारिया ने 22,000 चिट फंड पीड़ित आदिवासियों की सूची गुजरात पुलिस सूरत रेंज के आईजी ज्ञानेंद्र सिंह मलिक को सौंपी है लेकिन अब तक संतोषजनक कार्रवाई नहीं हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी के कारण ही चिट फंड कंपनियों को फलने-फूलने का मौका मिलता है।
उड़ीसा स्थित सामाजिक कार्यकर्ता आलोक जेना ने सुप्रीम कोर्ट में 78 चिट फंड कंपनियों के खिलाफ जनहित याचिका दायर की थी। 78 में से 17 गुजरात की थी। दरअसल, गुजरात मॉडल में लाभार्थी वर्ग ही सुखी संपन्न है, अन्य वर्ग पीड़ित हैं। इन पीड़ितों की उपेक्षा के चलते ही भारतीय जनता पार्टी दहाई के आंकड़े पर सिमट गई है।
(लेखक इंसाफ फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं)(downtoearth)
संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुके तीनों कृषि विधेयकों के बारे में कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा ने विस्तृत जानकारी दी
- Raju Sajwan
20 सितंबर 2020 को रविवार के दिन संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा ने तीन कृषि विधेयकों को मंजूरी दे दी। लोकसभा पहले ही इसे मंजूरी दे चुकी है। ये तीनों विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद कानून बन जाएंगे। जहां सरकार लगातार दावे कर रही है कि यह बिल किसानों के लिए बहुत फायदेमंद है, लेकिन कई किसान संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। आखिर इन तीन विधेयकों में क्या है, यह समझने के लिए डाउन टू अर्थ के राजू सजवान ने कृषि अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा से बात की-
जो कानून बनकर आ रहे है। सरकार का मकसद स्पष्ट है कि किसान की आमदनी बढ़े, उनकी समृद्धि बढ़े। कृषि क्षेत्र में निजी निवेश आए, नई टेक्नोलॉजी आए। प्रोसेसिंग इंडस्ट्री निवेश करे। सरकार चाहती है कि निजी क्षेत्र खेती में उत्पादन से लेकर मार्केटिंग तक न केवल निवेश बढ़ाए, बल्कि नई तकनीक का इस्तेमाल करे। यह दावा किया जा रहा है कि इससे किसानों को अपनी उपज की ऊंची कीमत मिलेगी और उनकी आमदनी बढ़ेगी।
हम तो चाहेंगे कि यह सच हो, क्योंकि किसान भी सालों से इसी बात को लेकर संघर्ष कर रहे हैं कि उनकी आमदनी और उनकी उपज की सही कीमत उन्हें मिले।
लेकिन यह एक बड़ी चुनौती है। अब तक यह बताया जा रहा है कि प्राइवेट सेक्टर ही किसान को सही कीमत दे सकता है और किसान को इसका फायदा मिलेगा। लेकिन इसके दो तीन पहलुओं पर बात करनी जरूरी है। यह बात किसानों को भी समझनी चाहिए, देश के हर नागरिक को भी समझनी चाहिए और नीतियां बनाने वाले लोगों को भी समझनी चाहिए।
पहले बिल कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक, 2020 की बात करते हैं।
अगर हम दुनिया भर में देखें तो ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता कि मार्केट रिफॉर्म्स की वजह से किसानों को फायदा हुआ हो। क्योंकि अमेरिका और यूरोप में कई दशकों पहले ओपन मार्केट के लिए कृषि उत्पादों को खोल दिया गया था। और अगर ओपन मार्केट इतनी अच्छी होती और किसानों को फायदा दिया होता तो अमीर देश विकसित देश कृषि को जीवित रखने के लिए भारी सब्सिडी दी जाती है।
2018 की बात करें तो अमेरिका और यूरोप में 246 बिलियन डॉलर की सब्सिडी किसानों को दी गई। अकेले यूरोप में देखें तो 100 बिलियन डॉलर की सब्सिडी दी गई। जिसमें तकरीबन 50 फीसदी डायरेक्ट इनकम सपोर्ट दी जाती है। और अमेरिका की बात की जाए तो अध्ययन बताते हैं कि अमेरिका के एक किसान को औसतन लगभग 60 हजार डॉलर सालाना सब्सिडी दी जाती है। यह सिर्फ औसत है, जबकि वैसे देखा जाए तो किसानों को और भी सब्सिडी दी जाती है। इसके बावजूद भी अमेरिका के किसान बैंकों के दिवालिया है, यह राशि लगभग 425 बिलियन डॉलर है।
अगर मार्केट इतनी अच्छी होती तो अमेरिका के ग्रामीण क्षेत्रों में आत्महत्याओं की दर नहीं बढ़ती। यहां शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में 45 फीसदी अधिक आत्महत्याएं होती हैं। दुनिया भर के अखबार बताते हैं कि अमेरिका में किस तरह धीरे-धीरे कृषि खत्म होती जा रही है।
मेरा यह कहना है कि अमेरिका में ओपन मार्केट के 6-7 दशक बाद कृषि पर निर्भर आबादी घटकर 1.5 फीसदी रह गई है तो हमें इस पर दोबारा चिंतन करना चाहिए कि क्या वो मॉडल जो अमेरिका और यूरोप में फेल हो चुका है, भारत के लिए उपयोगी रहेगा और भारत के किसानों के लिए फायदेमंद रहेगा।
यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर के चीफ इकोनॉमिस्ट का कहना है कि 1960 के दशक के बाद से अमेरिका के किसानों की आमदनी लगातार घट रही है। इसलिए किसानों को सब्सिडी देनी पड़ रही है तो यह मॉडल कैसे भारत के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इतना ही नहीं, अगर एक्स्पोर्ट की बात की जाए तो अगर सब्सिडी हटा दी जाए तो अमेरिका, यूरोप और कनाडा का एक्सपोर्ट 40 फीसदी तक घट जाएगा। इसका मतलब यह है कि केवल उत्पादन ही नहीं, बल्कि एक्सपोर्ट भी गिर जाएगा।
यहां तक कि भारत में भी एक प्रयोग किया जा चुका है। 2006 में बिहार में एपीएमसी (एग्री प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) भंग कर दी गई और कमेटी की मंडियों को हटा दिया गया। कहा गया कि इससे प्राइवेट इंवेस्टमेंट आएगी। पब्लिक सेक्टर बिल्कुल हट जाएगा। प्राइवेट मंडिया आएंगी और उससे प्राइस रिक्वरी होगी (यह टर्म अकसर देश के अर्थशास्त्री इस्तेमाल करते हैं)। प्राइस रिक्वरी का मतलब है कि किसानों को ज्यादा दाम मिलेगा।
उस समय यह कहा जा रहा था कि बिहार में क्रांति आ जाएगी और बिहार पूरे देश के लिए एक उदाहरण बन जाएगा। यह भी कहा गया कि अब पंजाब भूल जाएंगे और कृषि क्षेत्र के लिए बिहार देश का एक नया मॉडल साबित होगा। 14 साल हो चुके हैं, क्या ऐसा हुआ? जिन अर्थशास्त्रियों ने उस समय इस बात को प्रमोट किया था। वो आज आकर क्यों नहीं बताते कि इस रिफॉर्म से बिहार को क्या फायदा पहुंचा।
कोविड-19 महामारी के समय में यह स्पष्ट दिखाई दिया कि बिहार जैसे राज्य के लोग बड़ी संख्या में प्रवास के लिए मजबूर हैं। बिहार के किसान पंजाब जाकर काम करते हैं, क्या आपने सुना कि पंजाब के किसान बिहार जाकर काम कर रहे हों? कहने का आशय है कि 2006 में अगर एपीएमसी मंडियां न हटाई जाती, बल्कि बिहार में मंडियों का नेटवर्क उसी तरह विकसित किया जाता, जिस तरह पंजाब में किया जाता तो आज बिहार के हालात ऐसे नहीं होते।
अब बात करते हैं दूसरे बिल कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 की
किसानों का कहना है कि अगर कांट्रेक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया गया कि वे कंपनियों के अधीन हो जाएंगे और अपनी ही जमीन पर वे गुलाम हो जाएंगे। यह बात कुछ हद तक सही है, लेकिन मेरा यह कहना है कि किसानों को यह कहा जा रहा है कि कांट्रेक्ट पांच साल के लिए होगा और एडवांस में ही किसान को यह बता दिया जाएगा कि उसे इनकम कितने मिलेगी। यह दोनों बातें अपनी जगह सही हैं, लेकिन अगर किसान को एमएसपी से कम कीमत मिलती है तो इससे किसान का क्या फायदा होगा? इसलिए इस कानून में यह भी व्यवस्था होनी चाहिए कि किसान को एमएसपी से कम कीमत नहीं दी जाएगी।
लेकिन इससे हट कर देखा जाए तो हमारे देश में एक प्रयोग करने का सही समय आ गया है। मैं बहुत साल यह बात कहता रहा हूं कि अगर हम दूध में कॉपरेटिव का सिस्टम ले सकते हैं और वह मॉडल पूरी तरह से सफल रहता है तो क्यों नहीं हम खाद्यान्न, फल, सब्जियों में एक कॉपरेटिव सिस्टम लेकर आ सकते हैं। लेकिन हमारे देश में तो कॉपरेटिव्स को तोड़ने की कोशिश की जाती रही है। इस बात से वर्गीज कूरियन बहुत नाराज थे।
यह हम भी जानते हैं कि इन्हें क्यों तोड़ा जा रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि कॉपरेटिव को बढ़ावा देना चाहिए। इन कॉपरेटिव्स में किसानों का नियंत्रण होगा। उन्हें किसी कंपनी पर निर्भर नहीं रहना होगा। अगर किसान इकट्ठा होकर काम करते हैं तो किसान अपनी उपज का मोल भाव करने की भी स्थिति में होंगे। और अगर इसे एमएसपी के साथ लिंक कर दिया जाता तो ये कॉपरेटिव देश को एक नई दिशा दिखा सकते हैं। वर्गीज कूरियन ने दूध के संकट से निकलने का रास्ता दिखाया था, इसी तरह खेती के संकट से भी कॉपरेटिव्स निकाल सकती हैं।
बेशक सरकार इन दिनों फार्मर्स प्रोड्यूसर एसोसिएशन (एफपीओ) बनाने की बात करती है, लेकिन मेरा मानना है कि कॉपरेटिव ही कॉपरेटिव ही रहती हैं। एफपीओ में भी बहुत सारी खामियां हैं। इस तरह की भी शिकायतें हैं कि आढ़तियों ने ही एफपीओ बना लिए हैं। कई सरकारी अधिकारियों ने एफपीओ बना लिए हैं। लेकिन अगर एफपीओ भी किसान को उचित दाम (एमएसपी) नहीं दिला पाता तो उनका कोई फायदा नहीं। यह कहा जाता है कि एफपीओ किसान को ज्यादा दाम देंगे, लेकिन ज्यादा का मतलब क्या?
अगर ये एफपीओ बाजार में मिल रहे कम दाम में कुछ बढ़ा कर किसान को देते हैं, लेकिन तब भी एमएसपी से कम कीमत किसान को मिलती है तो किसान को नुकसान होना तय है। मेरे सामने दो उदाहरण हैं कि जिन एफपीओ ने एमएसपी पर खरीदारी की थी, लेकिन वे दोनों अब नुकसान में हैं। एफपीओ के नाम पर अगर एक मिडल मैन खड़ा किया जा रहा है तो उसे स्वीकार कैसे किया जा सकता है।
तीसरा बिल है, आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम
जैसे ही मैं इस बिल के बारे में सोचता हूं तो मुझे मदर इंडिया फिल्म की याद आ जाती है। जब यह फिल्म देखी तो कन्हैया कुमार की भूमिका एक विलेन के रूप में दिखाई दी, लेकिन अब जब यह नया कानून आया है तो मुझे लगता है कि कन्हैया लाल की क्या गलती थी। वो भी तो होल्डिंग ही करता था। अगर यह कानून पहले ही लागू हो जाता था तो हम कन्हैया लाल को विलेन नहीं मानते। बल्कि उन्हें आर्थिक प्रगति को घोतक मानते।
अब देखिए, अगर ये बड़े-बड़े रिटेलर जैसे वालमार्ट, टेस्को आदि अमेरिका के किसानों को सही कीमत दे रहे होते तो अमेरिका का किसान कर्ज में क्यों डूबता या खेती क्यों छोड़ता। क्या हम यह कह सकते हैं कि भारतीय कंपनियों का हृदय परिवर्तन हो गया है या उन्हें नया हृदय लगा लिया है। ऐसा मुझे तो दिखता। लेकिन यह कानून लागू होने के बाद किसान को तो दाम नहीं मिलने वाला, क्योंकि जब किसी एक बड़ी कंपनी का एकाधिकार हो जाएगा तो वह अपनी मनमानी कीमत पर कृषि उपज खरीदेगी, जिसका नुकसान किसान को झेलना पड़ेगा, लेकिन किसान के अलावा यदि आम उपभोक्ता या मिडल क्लास पर इसका असर पड़ेगा, जो कि पड़ना तय है, क्योंकि बड़ी कंपनियां जितना मर्जी उपज खरीदकर होल्ड कर लेंगे तो महंगाई बढ़ना तय है। ऐसे में मिडल क्लास अब किसान को दोष नहीं दे सकेगा। कुछ ऐसा ही इन दिनों कर्नाटक में हो रहा है, जिसकी वजह से प्याज के दाम बढ़े हुए हैं।
यहां एक बात जानना जरूरी है कि 2005 में सरकार एपीएमसी एक्ट में एक संशोधन लेकर आई थी। जिसमें बड़ी कंपनियों को यह छूट दी गई थी कि वे सीधे किसान के पास जाकर उपज खरीद सकते हैं। कंपनियों से एपीएसी टैक्स नहीं लिया जाएगा। तब कई बड़ी-बड़ी कंपनियों ने जाकर किसानों से गेहूं खरीदा। उन्होंने इतना खरीद लिया कि सरकार को पीडीएस के तहत राशन देने की दिक्कत हो गई। तब सरकार ने कंपनियों से पूछा कि उनके पास कितना स्टॉक है तो किसी भी कंपनी नहीं बताया। तब सरकार को 5 मिलियन टन गेहूं आयात करना पड़ा था, जो कि हरित क्रांति के बाद का सबसे बड़ा आयात था। बल्कि इसकी जो कीमत दी गई, वो किसानों को दी जाने वाली कीमत से लगभग दोगुनी थी। उस समय भाजपा विपक्ष में थी और भाजपा ने इसकी जांच सीबीआई से कराने की मांग भी की थी। अब समझ नहीं आता कि आखिर भाजपा सत्ता में आने के बाद इस तरह का कानून क्यों बनाना चाहती है। (downtoearth)
- ज़फ़र आग़ा
संसद के बारे में यह सुनते चले आए थे कि यह लोकतंत्र का मंदिर होता है। परंतु भारतीय संसद लोकतंत्र की हत्यास्थली बन जाएगी, ऐसा कभी किसी ने पहले सोचा नहीं था। रविवार 20 सितंबर, 2020 को राज्यसभा में जो कुछ हुआ, उसके बाद अब यह स्पष्ट है कि संसद का उपयोग अब खुले तौर पर लोकतंत्र का गला घोटने के लिए हो रहा है। उस रोज राज्यसभा में कृषि संबंधी विधेयक पास कराने के लिए जो कुछ हुआ, उससे आप अवगत हैं। फिर भी एक बार आपको राज्यसभा में हुई दुर्घटना का घटनाक्रम याद दिला दें, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि नरेंद्र मोदी सरकार ने किस प्रकार लोकतंत्र की हत्या स्वयं भारतीय लोकतंत्र के मंदिर संसद में की।
मोदी सरकार ने खेती-बाड़ी से संबंधित दो अध्यादेश जारी किए थे। एक, मंडियों में रिफॉर्म की खातिर था एवं दूसरा किसानों की अनाज खरीदी में परिवर्तन से संबंधित था। भारतीय किसानों में इसको लेकर गहरी चिंता थी। तब ही तो पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान इन अध्यादेशों के विरुद्ध सड़कों पर निकल पड़े थे।
20 सितंबर, 2020 को सरकार ने इन दोनों अध्यादेशों से संबंधित विधेयक राज्यसभा में लगभग तीन-चार घंटे की बहस के बाद वोटिंग के लिए रखे। इस संबंध में पहले तो विपक्ष ने यह मांग रखी कि बिल को संसद की ‘सेलेक्ट कमेटी’ के पास भेज दिया जाए। उनकी दलील यह थी कि ये बिल सदियों से चली आ रही खेती-बाड़ी की व्यवस्था में मूल परिवर्तन कर देंगे, अतः ये बिल जल्दबाजी में पास नहीं होने चाहिए। परंतु उस समय राज्यसभा में उपस्थित उपसभापति ने यह मांग रद्द कर दी। अब विपक्ष ने यह मांग की कि इस मामले पर ‘डिविजन’ हो, अर्थात वोटिंग हो। परंतु उपसभापति ने मत विभाजन की अनुमति देने के बजाय ध्वनिमत के आधार पर यह कह दिया कि क्योंकि बहुमत कानून के पक्ष में है, अतः बिल पारित घोषित किया जाता है। उनके इस फैसले पर संसद में हंगामा खड़ा हो गया। उससे भी आप अवगत हैं और उस हंगामे के बाद राज्यसभा के आठ सांसद एक हफ्ते के लिए संसद से निलंबित कर दिए गए।
अब प्रश्न यह है कि पिछले कई वर्षों से ऐसा हंगामा संसद में आए दिन होता रहता है और यदि ऐसा फिर एक बार राज्यसभा में हो गया तो उससे लोकतंत्र की हत्या कैसे हो गई! यह मूल प्रश्न है जिसका उत्तर देना आवश्यक है। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि लोकतंत्र का आधार ही वोटिंग प्रक्रिया है क्योंकि वोटके जरिये ही तो बहुमत एवं अल्पमत तय होता है। तब ही हर पांच वर्ष में चुनाव में वोटिंग के आधार पर बहुमत वाली पार्टी या गठबंधन की सरकार बनती है। फिर इसी वोटिंग के आधार पर सरकार संसद के भीतर कानून बनाती है। राज्यसभा के उपसभापति ने उस रोज सदन में लोकतंत्र की इस मूलभूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन नहीं करके लोकतंत्र की पीठ पर छुरा घोंप दिया जबकि संविधान में यह स्पष्ट किया गया है कि सदन में हर बिल वोटिंग के आधार पर पारित होना चाहिए। फिर, स्वयं राज्यसभा की ‘रूल बुक’ के अनुसार, यदि एक भी सांसद किसी मामले पर ‘डिविजन’ अर्थात वोटिंग की मांग करता है तो सदन में वोटिंग अनिवार्य होनी चाहिए।
परंतु ऐसा नहीं हुआ और उपसभापति ने ध्वनिमत के आधार पर खेती-बाड़ी से संबंधित दोनों अध्यादेशों को कानून का रूप दे दिया। स्पष्ट है कि उस समय सदन में सरकार के पास बहुमत नहीं था और सरकार को जल्दी थी कि हर हाल में इसी सत्र में किसी भी प्रकार ‘कृषि रिफॉर्म’ को कानून का रूप दे दिया जाए। अतः सरकार के इशारे पर उपसभापति ने वोटिंग के मूल नियम के बगैर खेती-बाड़ी व्यवस्था में परिवर्तन का कानून पास करवा दिया। बहुत संभव है कि यह कानून बहुमत नहीं बल्कि अल्पमत के आधार पर पास हुआ है। अतः इसको आप स्वयं संसद में लोकतंत्र की हत्या एवं इस कानून को काला कानून नहीं तो और क्या कहेंगे!
मैंने 20 सितंबर, 2020 को राज्यसभा में हुए घटनाक्रम एवं उसके पीछे सरकार की रणनीति के बारे में इतने विस्तार से इसलिए बताया है कि यह समझा जा सके कि मोदी सरकार की असल मंशा क्या है। दरअसल मोदी जी भारतीय अर्थव्यवस्था में रिफॉर्म-2 को पूरा करने की जल्दी में हैं। यह रिफॉर्म-2 असल में क्या है! नरसिंह राव एवं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था में जो रिफॉर्म-1 हुआ था, उसकी बुनियादी मंशा अर्थव्यवस्था का बाजारीकरण करना था। इस प्रक्रिया का एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य था और वह यह था कि जिस मिली-जुली अर्थव्यवस्था का आधार 1950 के दशक में रखा गया था, उस समय संसार दो सुपरपावर- यानी, अमेरिका एवं सोवियत संघ के बीच बंटा हुआ था।
भारतीय स्वतंत्रता के समय संसार में अर्थव्यवस्था के संबंध में दो विचारधाराएं थीं। एक, अमेरिकी पूंजीवाद अर्थात बाजार को संपूर्ण आजादी की विचारधारा और दूसरी सोवियत संघ की समाजवादी अर्थात सोशलिस्ट अर्थव्यवस्था जिसमें हर चीज की मालिक स्वयं सरकार होती थी। भारत ने बीच का रास्ता अपनाया जिसमें पूंजीवाद अर्थात बाजार को व्यापार की पूर्ण आजादी दी गई। दूसरी ओर, सरकार ने मूल आर्थिक चीजें- जैसे, रेलवे इत्यादि स्वयं अपने हाथ में रखीं ताकि आम आदमी के मौलिक अधिकार कायम रहें और उसका घोर शोषण न हो। इस आधार पर भारत में एक ‘वेलफेयर स्टेट’ (कल्याणकारी राज्य) की नींव रखी गई जिसमें किसानों, मजदूरों और गरीबों को सरकार की ओर से सब्सिडी अधिकार एवं सहायता का प्रावधान किया गया।
परंतु 1990 के दशक में सोवियत संघ के टूटने के बाद जब दुनिया में अर्थव्यवस्था के रिफॉर्म, अर्थात बाजारीकरण की हवा चली तो भारत में भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व में अर्थव्यवस्था का बाजारीकरण हुआ। फिर भी, कांग्रेस सरकारों ने यह तय किया कि वे किसान, मजदूर एवं गरीब के मूलभूत अधिकारों को संपूर्ण रूप से समाप्त नहीं करेंगे। तब ही तो मनमोहन सरकार ने मनरेगा- जैसी योजना चलाई जिसने भारतीय गरीबों और भारतीय अर्थव्यवस्था- दोनों में एक नई जान डाल दी। लेकिन बाजार की पूंजीवादी लॉबी की यह मंशा है कि भारत में जिस ‘वेलफेयर स्टेट’ के आधार पर किसान, मजदूर एवं गरीब को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता का प्रावधान है, उसे पूरी तरह से समाप्त किया जाए, अर्थात खेती-बाड़ी एवं मजदूरों के मौलिक अधिकार समाप्त हों और हर जगह पूंजीवाद को खुली छूट मिले।
यह है रिफॉर्म-2! इसका सीधा सा अर्थ यह है कि भारतीय ‘वेलफेयर स्टेट’ को पूरी तरह से दफन कर गांव, देहात, खेती-बाड़ी, फैक्टरी- हर जगह पर गरीब के तमाम अधिकार समाप्त हों एवं हर जगह पर पूंजीपति को खुली छूट मिले। पिछले सप्ताह संसद का जो सत्र समाप्त हुआ है, उसमें तीन कानून ऐसे पारित हुए हैं जो इस देश के किसान-मजूदर की कमर तोड़ देंगे। दो कानून खेती-बाड़ी से संबंधित हैं जिनको अभी अल्पमत के आधार पर राज्यसभा में पारित करवाया गया। इन दोनों कानूनों के तहत अब मंडी खरीदी में पूंजीपति के कदम पहुंच गए और जल्द ही किसान की फसल के दाम वह तय करेगा, अर्थात धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली खत्म और मंडी में पूंजीपति की मनमानी चलेगी। लब्बोलुआब यह है कि भारत की लगभग 60 प्रतिशत खेतिहर आबादी का जीवन अब पूंजीपति के शिकंजे में होगा।
तीसरा कानून जो अभी पारित हुआ है, वह मजदूरों से संबंधित है। इस कानून के तहत जिस फैक्टरी में तीन सौ तक की संख्या में मजदूर काम करते हैं, वहां अब फैक्टरी मालिक बिना कारण बताए जब चाहे किसी को भी नौकरी से बाहर कर सकता है, अर्थात मजदूरों के मौलिक अधिकार भी समाप्त।
अब आप समझे मानसून सत्र में लोकतंत्र की हत्या क्यों की गई। कारण यह था कि जल्द-से-जल्द भारतीय वेलफेयर स्टेट समाप्त कर किसान और मजदूर का गला घोंटने का संपूर्ण अधिकार बड़े औद्योगिक घरानों को को मिल जाए।(navjivan)
70 के दशक में हैजा भी महामारी के रूप में पूरे विश्व में फैला था, तब अमेरिका में किसी ने ओशो रजनीश जी से प्रश्न किया
-इस महामारी से कैसे बचे?
ओशो ने विस्तार से जो समझाया वो आज कोरोना के संबंध में भी बिल्कुल प्रासंगिक है।
ओशो- यह प्रश्न ही आप गलत पूछ रहे हैं, प्रश्न ऐसा होना चाहिए था कि महामारी के कारण मेरे मन में मरने का जो डर बैठ गया है उसके संबंध में कुछ कहिए!
इस डर से कैसे बचा जाए...?
क्योंकि वायरस से बचना तो बहुत ही आसान है, लेकिन जो डर आपके और दुनिया के अधिकतर लोगों के भीतर बैठ गया है, उससे बचना बहुत ही मुश्किल है।
अब इस महामारी से कम लोग, इसके डर के कारण लोग ज्यादा मरेंगे...।
‘डर’ से ज्यादा खतरनाक इस दुनिया में कोई भी वायरस नहीं है।
इस डर को समझिये, अन्यथा मौत से पहले ही आप एक जिंदा लाश बन जाएँगे।
यह जो भयावह माहौल आप अभी देख रहे हैं, इसका वायरस आदि से कोई लेना-देना नहीं है। यह एक सामूहिक पागलपन है, जो एक अन्तराल के बाद हमेशा घटता रहता है, कारण बदलते रहते हैं, कभी सरकारों की प्रतिस्पर्धा, कभी कच्चे तेल की कीमतें, कभी दो देशों की लड़ाई, तो कभी जैविक हथियारों की टेस्टिंग!
इस तरह का सामूहिक पागलपन समय-समय पर प्रगट होता रहता है। व्यक्तिगत पागलपन की तरह कौमगत, राज्यगत, देशगत और वैश्विक पागलपन भी होता है।
इस में बहुत से लोग या तो हमेशा के लिए विक्षिप्त हो जाते हैं या फिर मर जाते हैं ।
ऐसा पहले भी हजारों बार हुआ है, और आगे भी होता रहेगा और आप देखेंगे कि आने वाले बरसों में युद्ध तोपों से नहीं बल्कि जैविक हथियारों से लड़ें जाएंगे।
मैं फिर कहता हूं हर समस्या मूर्ख के लिए डर होती है, जबकि ज्ञानी के लिए अवसर!
इस महामारी में आप घर बैठिए, पुस्तकें पढि़ए, शरीर को कष्ट दीजिए और व्यायाम कीजिये, फिल्में देखिये, योग कीजिये और एक माह में 15 किलो वजन घटाइए, चेहरे पर बच्चों जैसी ताजगी लाइये अपने शौक़ पूरे कीजिए।
मुझे अगर 15 दिन घर बैठने को कहा जाए तो में इन 15 दिनों में 30 पुस्तकें पढूंगा और नहीं तो एक बुक लिख डालिये, इस महामंदी में पैसा इन्वेस्ट कीजिये, ये अवसर है जो बीस तीस साल में एक बार आता है पैसा बनाने की सोचिए....क्युं बीमारी की बात करके वक्त बर्बाद करते हैं...
ये ’भय और भीड़’ का मनोविज्ञान सब के समझ नहीं आता है।
‘डर’ में रस लेना बंद कीजिए...
आमतौर पर हर आदमी डर में थोड़ा बहुत रस लेता है, अगर डरने में मजा नहीं आता तो लोग भूतहा फिल्म देखने क्यों जाते?
यह सिर्फ एक सामूहिक पागलपन है जो अखबारों और टीवी के माध्यम से भीड़ को बेचा जा रहा है। लेकिन सामूहिक पागलपन के क्षण में आपकी मालकियत छिन सकती है...आप महामारी से डरते हैं तो आप भी भीड़ का ही हिस्सा है
ओशो कहते है...टीवी पर खबरें सुनना या अखबार पढऩा बंद करें, ऐसा कोई भी विडियो या न्यूज मत देखिये जिससे आपके भीतर डर पैदा हो।
महामारी के बारे में बात करना बंद कर दीजिए, डर भी एक तरह का आत्म-सम्मोहन ही है। एक ही तरह के विचार को बार-बार घोकने से शरीर के भीतर रासायनिक बदलाव होने लगता है और यह रासायनिक बदलाव कभी कभी इतना जहरीला हो सकता है कि आपकी जान भी ले ले, महामारी के अलावा भी बहुत कुछ दुनिया में हो रहा है, उन पर ध्यान दीजिए;
ध्यान-साधना से साधक के चारों तरफ एक प्रोटेक्टिव आभा बन जाता है, जो बाहर की नकारात्मक उर्जा को उसके भीतर प्रवेश नहीं करने देता है, अभी पूरी दुनिया की उर्जा नाकारात्मक हो चुकी है।
ऐसे में आप कभी इस ब्लैक-होल में गिर सकते हैं....ध्यान की नाव में बैठ कर हीं आप इस झंझावात से बच सकते हैं।
शास्त्रों का अध्ययन कीजिए,
साधू-संगत कीजिए, और साधना कीजिए, विद्वानों से सीखें
आहार का भी विशेष ध्यान रखिए, स्वच्छ जल पीएं,
अंतिम बात-
धीरज रखिए... जल्द ही सब कुछ बदल जाएगा...
जब तक मौत आ ही न जाए, तब तक उससे डरने की कोई जरूरत नहीं है और जो अपरिहार्य है उससे डरने का कोई अर्थ भी नहीं है, डर एक प्रकार की मूढ़ता है, अगर किसी महामारी से अभी नहीं भी मरे तो भी एक न एक दिन मरना ही होगा, और वो एक दिन कोई भी दिन हो सकता है, इसलिए विद्वानों की तरह जीयें, भीड़ की तरह नहीं!
नवनीत शर्मा/डॉ.अन्नपूर्णा
खेती के जिस व्यवसाय में देश की तीन चौथाई आबादी लगी हो उसका हाल में जारी ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में अपेक्षित जिक्र भी न होना विचित्र है। क्या भूख, उत्पाहदन और ‘जीडीपी’ जनित अर्थव्यवस्था को साधे रखने तथा सर्वाधिक रोजगार देने वाली खेती शिक्षा सरीखे बुनियादी विषय में कोई अहमियत नहीं रखती? प्रस्तुत है, इसी विषय पर प्रकाश डालता नवनीत शर्मा और अन्नपूर्णा का यहा लेख।
-संपादक
खुशहाल किसान की छवि में हम सर पर साफा बांधे, हाथों में हंसिया लिए, कानों में बाली पहने, मूछों पर ताव देते पुरुष को लहलहाते खेतों की तरफ देखते हुए कल्पित करते हैं। फिल्मी संकल्पना में भी खेत और किसान की खुशहाली सरसों के खेतों और बैसाखी के मेलों से ही की जाती है। अखबार पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसान बीसवीं सदी का वही मजबूर नायक है जो सूदखोरों, बिचौलियों और बाढ़-सूखे से त्रस्त है। इसी नायक की बढ़ती आत्महत्याओं की दर हमें यह सोचने का सहस ही नहीं देती कि कृषि बतौर पेशा या करियर 21वीं सदी के युवा का भी चयन हो सकता है।
आधुनिक किसान की प्रति छवि में अभी भी एक ठेठ-सा गंवईपन देखने के हम आदी है। ऐसे में पढ़-लिखकर खेती करना ऐसा लगता है कि डिग्रियों को जोत दिया गया है। यह बात इस सर्वेक्षण के सहारे भी पुष्ट होती है कि कृषि विश्वविद्यालयों में पढऩे के लिए आने वाले 52 प्रतिशत छात्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से होते हैं। जिस देश की 80 प्रतिशत आबादी अभी भी कृषि या उससे जुड़े व्यवसायों से जीवन-यापन करती हो, उस देश की ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में इस पर एक पूरे अध्याय की उम्मीद की जाती है, पर शिक्षा शायद अभी भी उस औपनिवेशिक मनोदशा से नहीं उभर पायी है जिसका उद्देश्य ही पढ़-लिखकर ‘बाबू’ बनना है।
कौशल-परक शिक्षा में भी ‘खेती’ बतौर कौशल शायद ही स्थान पाये, क्योंकि ‘कुशल’ होने का सम्बन्ध एक निश्चित और मानकीकृत उत्पादन की क्षमता से ही होगा और भारतीय कृषि मंत्री जब यह बयान देते हों कि भारत में असल कृषि मंत्री तो ‘मानसून’ होता है तो खेती ‘कौशल’ कैसे बनेगी!
जमीन के मालिकाने, रैय्यतवाड़ी, बीज, सिंचाई, कटाई के संघर्षों के बाद फसल का सुरक्षित मंडी पहुंचना और उसका उचित मूल्य पर बिकना दिवास्वप्न-सा रहता है। खेती की शिक्षा पौधों की उपज भर का ज्ञान नहीं है, बल्कि यह एक समाज विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का हस्तक्षेप है।
भुखमरी और अकाल से निपटने और सब तक भोजन और पौष्टिकता पहुंचाने की कवायद है। इस कृषि शिक्षा की तुलना में कहीं अधिक चिंता हम चिकित्सा शिक्षा की करते हैं, यह दीगर बात है कि कुपोषण और भूख के मसले तो केवल कृषि और उसकी पढ़ाई से ही हल किए जा सकते हैं।
बीसवीं सदी के पहले दशक में औपनिवेशिक शासन ने भी चिंता व्यक्त करते हुए छह कृषि अध्ययन संस्थानों की स्थापना की थी। उन्नीसवीं सदी के अंत में आए भीषण अकाल ने भी खेती की शिक्षा को पेशेवर तरीके से आजमाने का संबल दिया होगा। हालाँकि सन 47 में आज़ाद होने के तेरह साल बाद हमने कृषि शिक्षा की सुध ली। स्वतंत्र भारत में पहला कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर में 1960 में खुला, जबकि पहला ‘आईआईटी’ (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थाहन) 1950 में ही खोल दिया गया था। इस क्रम में हम भारत के उस रुझान को समझ सकते हैं जो आधुनिक भारत में गावों को कस्बों और कस्बों को शहरों में बदल देने की चाहत और खेती योग्य भूमि पर चमचमाते पंचतारा भवन बना देने को विकास मान लेता है।
खेती में बढ़ती लागत, मांग के अनुरूप फसल की उगाई, बीज की उपलब्धता से लेकर तैयार फसल को मंडी तक पहुंचाने की व्यवस्था, भंडारण की समस्या और सही समय पर उपज के प्रसंस्करण की अनुपलब्धता, भूमंडलीकरण के दबाव में ‘जीन संवर्धित’ (जीएम) बीजों की खरीद और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बढ़ती दखल न केवल खेती को एक नुकसान भरा पेशा बनाती है, वरन किसानों को आत्महत्या की तरफ भी धकेलती है। खेती बतौर पेशा पहले से ही युवाओं को लुभावना नहीं लगता और न ही उन्हें इसमें करियर बनाने की असीम संभावनाएं ही नजर आती हैं। युवा वर्ग उस पेशे के प्रति आकर्षित नहीं होता जिसमें हाथ और इच्छाओं दोनों का कुम्हलाना पहले से ही तय है।
कृषि विज्ञान में हुई अभूतपूर्व प्रगति ने कैसी भी परिस्थिति में उपज के लिए प्रजातियां विकसित कर ली हैं, परन्तु यह सब ज्ञान-विज्ञान अभी तक प्रयोगशाला की चौहद्दी में ही हैं और बड़े पैमाने पर खेती के चलन में नहीं आ सके हैं। प्रयोगशाला और खेत की दूरी पाटने के लिए ही ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ की संकल्पना की गयी है। आज लगभग हर जिले में एक ‘कृषि विज्ञान केंद्र’ है और सूचना तकनीक भी अपने स्तर पर किसानों तक ‘ज्ञान’ पहुंचाने के लिए प्रयासरत है। खेती करने की पारम्परिक समझ में वैज्ञानिक पुट को जोडऩे के प्रयास में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ व्यापक स्तर पर ‘कृषि प्रौद्योगिक पार्कों’ को खोलने की संस्तुति करती है। इस नीति में पहले से मौजूद ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ तथा अशोक दलवाई की अध्यक्षता में बनी किसानों की आय को दोगुना करने वाली समिति की संस्तुतियों की विवेचना न करते हुए एक नए उपक्रम की स्थापना की सिफारिश की है।
प्रयोगशाला-जनित ज्ञान को किसान तक पहुंचाने के प्रयास में कोई मौलिक योगदान ‘राष्ट्री य शिक्षा नीति’ में नहीं दिखता और खेती की शिक्षा को बड़े चलताऊ नज़रिये से औपचारिकता पूरी करने हेतु एक पैबंद जैसा जोड़ दिया गया है। यह नीति प्राथमिक शिक्षा से लेकर अध्यापक शिक्षा तक के लिए एजेंडा तैयार करते हुए उन पर एक नई पाठ्यचर्या की तैयारी का सुझाव तो देती है, परन्तु कृषि शिक्षा की रूपरेखा के निर्माण और शिक्षण की योजना का उल्लेख नहीं करती। दूसरी तरफ, यह दस्तावेज चिन्हित करता है कि देशभर के तमाम विश्वविद्यालयों में से केवल 9 प्रतिशत में ही कृषि की पढाई होती है और उच्च शिक्षा में पहुंचने वाले समस्त विद्यार्थियों में से एक प्रतिशत से भी कम कृषि को बतौर अध्ययन का विषय चुनते हैं।
देश का कोई-न-कोई भाग हर साल सूखे, बाढ़ अथवा टिड्डियों जैसी समस्या की चपेट में होता है। साल-दर-साल अगली फसल की उम्मीद में किसान मानसून, मंडी और सरकारी सहयोग की अपेक्षा करता है। प्रत्येक वर्ष के राष्ट्रीय बजट में कृषि के लिए घटते आबंटन, तदनन्तर शिक्षा और शोध के लिए सरकारी मद का और भी कम होना कृषि विश्वविद्यालयों और ‘कृषि विज्ञान केंद्रों’ को सांस्थानिक और अकादमिक संकटों को झेलने के लिए मजबूर करता है।
इस संदर्भ में यह कोई आश्चर्य नहीं है कि आज़ादी के समय ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में लगभग 58 फीसदी योगदान करने वाला कृषि-क्षेत्र अब केवल 15 फीसदी ही योगदान कर पा रहा है।
औद्योगीकरण, शहरीकरण और खेती के आंतरिक विरोधाभासों ने किसानों को बटाईदार से मालिकान खेतिहर बनने का सपना देखने का साहस भी छीन लिया है और साथ ही अपने बच्चों को भविष्य में खेती करते देखने का भी। ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ ने जिन आत्मनिर्भर भारतीय नागरिकों के निर्माण का सपना संजोया है, जो न केवल ज्ञान, कर्म और व्यवहार, वरन विचार एवं बुद्धि के स्तर पर भी भारतीय हों। ऐसे नागरिकों की निर्मित में कृषि और कृषि शिक्षा के माध्यम से ‘उत्तम खेती, मध्यम बान’ की लोकोक्ति की संकल्पना को साकार किया जा सकता था, परन्तु ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ के वृहद्, विस्तृत और भविष्याग्रही दस्तावेज में भी खेती की शिक्षा खेत रही। (सप्रेस)
नवनीत शर्मा हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय में अध्यापनरत हैं और अन्नपूर्णा स्वतंत्र कृषि वैज्ञानिक हैं जो महिलाओं के स्व-सहायता समूहों को संचालित करती हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस बार संसद ने 8 दिन में 25 विधेयक पारित किए। जिस झपाटे से हमारी संसद ने ये कानून बनाए, उससे ऐसा लगने लगा कि यह भारत की नहीं, माओ के चीन या स्तालिन के रुस की संसद है। न संसदीय समितियों ने उन पर विचार किया और न ही संसद में उन पर संगोपांग बहस हुई। बहुत दिनों बाद मैंने टीवी चैनलों पर संसद की ऐसी लचर-पचर कार्रवाई देखी। मुझे याद है 55-60 साल पुराने वे दिन जब संसद में डा. लोहिया, आचार्य कृपालानी, मधु लिमये, नाथपाई और हीरेन मुखर्जी जैसे- लोग सरकार की बोलती बंद कर देते थे। प्रधानमंत्रियों और मंत्रियों के पसीने छुड़ा देते थे। इस बार विपक्ष के कुछ सांसदों को सुनकर उनकी बहस पर मुझे बहुत तरस आया। सरकार ने तीन विधेयक किसानों और अन्य तीन विधेयक औद्योगिक मजदूरों के बारे में पेश किए थे।
इन विधेयकों का सीधा असर देश के 80-90 करोड़ लोगों पर पडऩा है। इन विधेयकों की कमियों को उजागर किया जाता, इनमें संशोधन के कुछ ठोस सुझाव दिए जाते और देश के किसानों व मजदूरों के दुख-दर्दों को संसद में गुंजाया जाता तो विपक्ष की भूमिका सराहनीय और रचनात्मक होती लेकिन राज्यसभा में जैसा हुड़दंग मचा, उसने संसद की गरिमा गिराई।अब 25 सितंबर को भारत-बंद का नारा दिया गया है। भारत तो वैसे भी बंद पड़ा है। महामारी कुलांचे मार रही है। अब किसानों और मजदूरों को अगर प्रदर्शनों और आंदोलनों में झोंका जाएगा तो वे कोरोना के शिकार हो जाएंगे। उन्हें क्या विपक्षी नेता सम्हालेंगे ? पक्ष और विपक्ष सभी के नेता तो इतने डरे हुए हैं कि भूखों को अनाज बांटने तक के लिए वे घर से बाहर नहीं निकलते। संसद से वेतन और भत्ते तो सभी ले रहे हैं लेकिन सदन में कितने सदस्य दिखाई पड़ते थे?
खैर, ये विधेयक अब कानून बन जाएंगे। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी हो जाएंगे। लेकिन सरकार और भाजपा का कर्तव्य है कि वह किसानों और मजदूरों से सीधा संवाद करे, विपक्षी नेताओं से सम्मानपूर्वक बात करे और विशेषज्ञों से पूछे कि किसान और मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए वह और क्या-क्या प्रावधान करे ? भाजपा सरकार को जो अच्छा लगता है, वह उसे धड़ल्ले से कर डालती है।उसके पीछे उसका सदाशय ही होता है लेकिन विपक्ष से मुझे यह कहना है कि वह इन कानूनों को साल-छह महिने तक लागू तो होने दे। फिर देखें कि यदि ये ठीक नहीं है तो इन्हें बदलने या सुधारने के लिए पूरा देश उनका साथ देगा। कोई भी सरकार कितनी ही मजबूत हो, वह देश के 80-90 करोड़ लोगों को नाराज़ करने का खतरा मोल नहीं ले सकती।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- सुशीला सिंह
साल 1991, नवंबर महीने में बिहार राज्य में एक अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू हुई. हड़ताल कर रहे सरकारी कर्मचारियों की माँग थी कि केंद्र सरकार की तर्ज़ पर ही राज्य में जो वेतनमान लागू किया गया है उसमें हुई विसंगतियों को दूर किया जाए.
इस हड़ताल में एक चार्टर ऑफ़ डिमांड भी बनाया गया था जिसमें सबसे प्रमुख माँग समान वेतनमान लागू करने में विसंगतियों को दूर करना था. इस हड़ताल में स्कूल, यूनिवर्सिटी टीचर्स, बोर्ड कॉर्पोरेशन और बिहार राज्य कर्मचारी महासंघ भी शामिल था.
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन(ऐपवा) की राष्ट्रीय महासचिव मीना तिवारी कहती हैं कि उस दौर में महिलाएं आंदोलन में बहुत सक्रिय हो रही थीं और 1985 में ही किसान और मज़दूर अपने अधिकारों और सामंतवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे थे और इसमें ग्रामीण और निम्नवर्गीय महिलाएं भी शामिल होने लगी थीं.
मीना तिवारी कहती हैं कि इन आंदोलन में महिलाओं के मुद्दों पर भी चर्चा होने लगी और उनके अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठने लगी थी. इसमें संविधान में मिले अधिकार के बावजूद महिलाओं को वोट से दूर रखना, बराबर मज़दूरी की माँग जैसे मुद्दे गांव, देहात में महिलाएं उठा रही थीं. वहीं, शहरों में युवा महिलाओं पर भी इन मुद्दों का असर हो रहा था. राज्य में बुद्दिजीवी महिलाएं और कामकाजी महिलाएं, उनके लिए हॉस्टल और क्रेच की सुविधा देने की माँग उठाने लगीं. वहीं, इस बीच सरकारी कर्मचारियों का ये आंदोलन भी ज़ोर पकड़ रहा था.
जब ये हड़ताल चल रही थी उस दौरान सरोज चौबे ऐपवा में सचिव के पद पर थीं.
वे बताती हैं कि सरकारी महिला कर्मचारियों की संख्या बहुत कम थी और महिला संगठनों ने जब उन्हें हड़ताल में शामिल होने को कहा था तो उनमें हिचकिचाहट भी थी क्योंकि उनका मानना था कि जब इसमें पुरुष शामिल हो रहे हैं तो उनका बैठकों या आंदोलन में भाग लेने का क्या काम.
लेकिन अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ द्वारा संचालित इस हड़ताल में धीरे-धीरे महिला कर्मचारी, शिक्षिका, नर्स और टाइपिस्ट जुड़ती चली गईं. जब समस्याओं पर चर्चा हुई और सारी माँगों को सूचीबद्ध किया जा रहा था तभी हड़ताल में शामिल महिलाओं की तरफ़ से ये माँग उठी थी कि पीरियड्स के दौरान छुट्टी मिलनी चाहिए.
कैसे माने लालू प्रसाद
उस समय राज्य के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव. ये वो ज़माना था जब नीतिश कुमार जनता दल में ही थे.
अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ के अध्यक्ष रामबलि प्रसाद कहते हैं कि केंद्रीय और राज्य स्तर पर समान वेतनमान के बीच विसंगतियां दूर करने और तमाम माँग मनवाने के लिए कोशिशें हो रही थीं और सरकार को ज्ञापन दिए भी गए लेकिन समाधान की ओर चीज़ें बढ़ती नज़र नहीं आ रही थीं.
फिर हमने हड़ताल करने की ठानी. वे बताते हैं कि इस दौरान मुख्यमंत्री और उनके प्रतिनिधियों के साथ कई बैठकों का दौर चलता था. जब पीरियड्स लीव वाला फ़ैसला लिया गया तो उस बैठक में रामबलि प्रसाद मौजूद थे.
रामबलि प्रसाद बताते हैं, ''मुख्यमंत्री और प्रतिनिधियों के साथ बैठक कई घंटे चलती थी. कई बैठक तो रात के आठ-नौ बजे शुरु होती और रात के दो बजे तक चलती रहती. जब हमारी माँगों पर चर्चा हो रही थी उसी समय महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान तीन दिन की छुट्टी का मुद्दा भी उठा. लालू प्रसाद ने उसे सुना और क़रीब पाँच मिनट के लिए चुप रहे और फिर इस पर सहमति जताते हुए कहा कि दो दिन छुट्टी दी जा सकती है और अपने अधिकारी को उसे नोट करने को कहा.''
बिहार सरकार की तरफ़ से राज्य की सभी नियमित महिला सरकारी कर्मचारियों को हर महीने दो दिनों के विशेष आकस्मिक अवकाश की सुविधा देने का फ़ैसला लिया गया.
बिहार में महिलाओं को पीरियड्स के दौरान मिली ये दो दिन की छुट्टी एक बड़ा और आंदोलनकारी क़दम था और शायद बिहार उस समय पहला ऐसा राज्य था जिसने सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए इस तरह का ऐलान किया था.
महिलाओं को सुविधा देने वाले इस फ़ैसले ने उनके लिए रास्ते तो खोल दिए थे लेकिन शर्म और झिझक का दरवाज़ा खुलना अभी बाक़ी था.
किसने खोला ये दरवाज़ा
प्रोफ़ेसर भारती एस कुमार पहली महिला मानी जाती हैं जिन्होंने यूनिवर्सिटी के स्तर पर ये लीव या छुट्टी लेने की शुरुआत की थी. वे उस समय पटना यूनिवर्सिटी में इतिहास के पीजी विभाग में प्रोफ़ेसर थीं.
उनका कहना है कि सरकार की तरफ़ से आदेश तो जारी हो गया था लेकिन यूनिवर्सिटी में इस अधिसूचना को नहीं लगाया गया था और वो कहीं फ़ाइल में बस पड़ा हुआ था.
जो हड़ताल हुई थी उसमें पटना यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (PUTA) और फ़ेडेरेशन ऑफ़ यूनिवर्सिटी (सर्विस) टीचर्स एसोसिएशन ऑफ़ बिहार(FUSTAB) भी शामिल हुआ था.
हम लोगों ने एसोसिएशन से भी पूछा कि इस बात पर सहमति बनी है न कि छुट्टी दी जाएगी, तो उन्होंने भी कहा कि ये फ़ैसला लिया जा चुका है और आदेश भी जारी किया जा चुका है. लेकिन वो बात यूनिवर्सिटी में सर्कुलेट होकर हम तक नहीं पहुँच रही थी. हम इस लीव को लेकर चर्चा करते थे लेकिन महिला शिक्षिकाएं इसे लेने में झिझक रही थीं.
वे बताती हैं, ''मैंने ये ठान लिया था कि मैं अपने पीरियड्स के लिए छुट्टी लूंगी. मैंने कहा कि मैं इसकी शुरुआत करुंगी. जब मेरे पीरियड्स का समय आया तो मैंने इस बारे में चिट्ठी लिखी और मेरे विभाग के हेड को दी. उन्होंने पहले मेरी चिट्ठी को देखा और फिर मुझे. मैंने चिट्ठी तो दे दी थी लेकिन मेरे पांव कांप रहे थे और मुझे बहुत झिझक भी हो रही थी. क्योंकि हमने तो बचपन से कभी पीरियड्स के बारे में खुलकर किसी से बात ही नहीं की थी और न कोई करता था. जब उन्होंने उस चिट्ठी को साइन करके क्लर्क को बढ़ाया. उनके चेहरे पर तंज़ वाली मुस्कराहट आई जैसे ये कहना चाहते हों कि अच्छा अब तुम लोगों को इसके लिए भी छुट्टी चाहिए''.
इसके बाद मैंने टीचर्स लेडीज़ क्लब में जाकर बताया कि हम जीत गए तो उन्होंने पूछा कि क्या मतलब? तो मैंने कहा कि मुझे छुट्टी मिल गई तो उन्होंने कहा कि अरे आपको मिल गई है तो हम भी अप्लाई कर सकेंगे.
वे बताती हैं कि छुट्टी तो मिल गई थी और ये हमारा हक़ भी था लेकिन इस छुट्टी के लिए आवेदन देने में महिलाओं को झिझक थी और उस टैबू को तोड़कर निकलने में वक़्त लगा लेकिन महिलाएं धीरे-धीरे आगे आईं और छुट्टी लेने लगीं.
क्या राज्यों में हो सकता है ये प्रावधान
नीति आयोग में लोकनीति विशेषज्ञ उर्वशी प्रसाद का भी कहना है कि बिहार में महिलाओं का अनुभव अच्छा रहा है. ये अब वहां एक समान्य चीज़ बन गई है और आपको पीरियड्स के वक़्त छुट्टी लेने के लिए कोई बहाने या कारण देने की ज़रुरत नहीं पड़ती.
अरुणाचल प्रदेश से आने वाली सांसद, निनांग एरिंग ने एक प्राइवेट मेंबर बिल, मेन्सटूरेशन बेनीफ़िट 2017 में लोकसभा में पेश किया था. इस बिल में सरकारी और नीजि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान दो दिन की छुट्टी देने का प्रस्ताव दिया गया. साथ ही ये पूछा गया था कि सरकार क्या ऐसी किसी योजना पर विचार कर रही है. इस पर महिला और विकास मंत्रालय ने कहा था कि ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है.
यहां ये सवाल उठता है कि क्या अपने स्तर पर राज्य सरकारें इस तरह का क़दम नहीं उठा सकती हैं?
उर्वशी प्रसाद कहती हैं कि इस मुद्दे पर महिलाओं को आगे आना होगा और सरकार को हर क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं से पूछना चाहिए कि क्या इसकी ज़रुरत है? क्या इससे लाभ होगा?
क्योंकि जब मैटरनीटी लीव में छह महीने का प्रावधान किया गया तो कई संस्थानों की तरफ़ से ये भी कहा गया कि महिला को क्यों लें, उन्हें छह महीने की छुट्टी देनी पड़ेगी. ऐसे में कई चीज़ें महिलाओं की भलाई के लिए की जाती हैं और वो उनके लिए ही उल्टी साबित हो जाती हैं.
वहीं, कई बार समानता का भी सवाल उठता है कि महिला और पुरुष बराबर हैं तो ये छुट्टी क्यों? लेकिन इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता कि महिला और पुरुष का शरीर अलग है, उसे पीरियड्स होते हैं और वो मां बन सकती है जो पुरुष का शरीर नहीं कर सकता. ऐसे में ये तर्क ही बेमानी हो जाता है.
उर्वशी प्रसाद भी कहती हैं कि कई महिलाओं को पीरियड्स के दौरान ज़्यादा तकलीफ़ होती है, किसी को कम और किसी को बिल्कुल नहीं होती है. ऐसे में छुट्टी, घर से काम करने की आज़ादी जैसी सुविधा दी जानी चाहिए. जहां अब कोविड ने साबित कर दिया है कि घर से भी काम हो सकता है और सरकारी कर्मचारी तक कर रहे है. हां जो फ़ैक्टरी में काम करती हैं उनके लिए ये नहीं चल पाएगा इसलिए लचीला होने की ज़रुरत है. साथ ही जब समानता की बात होती है तो सरकारी नौकरियों में तो महिलाओं को बराबर वेतन मिलता है लेकिन निजी संस्थानों या असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को पुरुषों के मुक़ाबले कम वेतन मिलता है तो समानता की बात तो वहीं झूठी साबित हो जाती है.
उनके मुताबिक़ ये बात भी बेमानी है कि इस तरह की लीव का महिलाएं फ़ायदा उठाती हैं. वे कहती हैं कि कुछ मामलों में ऐसा हो सकता है लेकिन पुरुष भी ऐसे मामलों में फ़ायदा उठाते हैं. लेकिन राज्य सरकारों के स्तर पर ऐसी लीव का प्रावधान आएगा तो उसे लागू करना भी आसान हो सकता है.(bbc)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्त राष्ट्र संघ के 75 वें अधिवेशन के उद्घाटन पर दुनिया के कई नेताओं के भाषण हुए लेकिन उन भाषणों में इन नेताओं ने अपने-अपने राष्ट्रीय स्वार्थों को परिपुष्ट किया, जैसा कि वे हर साल करते हैं लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ ऐसे बुनियादी सवाल उठाए, जो विश्व राजनीति के वर्तमान नक्शे को ही बदल सकते हैं। उन्होंने सुरक्षा परिषद के मूल ढांचे को ही बदलने की मांग रख दी। इस समय दुनिया में अमेरिका और चीन ही दो सबसे शक्तिशाली राष्ट्र हैं। आजकल दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध मुक्का ताने हुए हैं। उनके नेता डोनाल्ड ट्रंप और शी चिन फिंग ने एक-दूसरे को निशाना बनाया। ट्रंप ने दुनिया में कोरोना विषाणु फैलाने के लिए चीन को जिम्मेदार ठहराया और चीन ने कहा कि अमेरिका सारी दुनिया मे& राजनीतिक विषाणु फैला रहा है।
शी चिन फिंग ने कहा कि चीन की दिलचस्पी न तो गर्म युद्ध में है और न ही शीत युद्ध में। मोदी ने अपने आप को इस चीन-अमेरिकी अखाड़ेबाजी से बचाया और सुरक्षा परिषद का विस्तार करने की बात कही। उन्होंने कहा कि जमाना काफी आगे निकल चुका है लेकिन संयुक्तराष्ट्र संघ 75 साल पहले जहां खड़ा था, वहीं खड़ा है। सुरक्षा परिषद के सिर्फ पांच सदस्यों को वीटो (निषेध) का अधिकार है याने उन पांच सदस्यों में से यदि एक सदस्य भी किसी प्रस्ताव या सुझाव को वीटो कर दे तो वह लागू नहीं किया जा सकता।याने उनमें से कोई एक राष्ट्र भी चाहे तो सारी सुरक्षा परिषद को ठप्प कर सकता है। कौन से हैं, ये पांच राष्ट्र ? अमेरिका, चीन, रुस, ब्रिटेन और फ्रांस ! इन पांचों को यह निषेधाधिकार क्यों मिला था? क्योंकि द्वितीय महायुद्ध (1939-45) में ये राष्ट्र हिटलर, मुसोलिनी और तोजो के खिलाफ एकजुट होकर लड़े थे। जो जीते हुए राष्ट्र थे, उन्होंने बंदरबांट कर ली।
संयुक्तराष्ट्र यों तो लगभग 200 राष्ट्रों का विश्व-संगठन है लेकिन इन पांच शक्तियों के हाथ में वह कठपुतली की तरह है। उसकी सुरक्षा परिषद में न तो कोई अफ्रीकी, न लातीन-अमेरिका और न ही कोई सुदूर-पूर्व का देश है। भारत-जैसा दुनिया का दूसरा बड़ा राष्ट्र भी सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं है। 10 अस्थायी सदस्यों में इस वर्ष भारत भी चुना गया है। पांचों महाशक्तियां अपना मतलब गांठने के लिए गोलमाल शब्दों में भारत को स्थायी सदस्य बनाने की बात तो करती हैं लेकिन होता-जाता कुछ नहीं है। भारत के नेता भी दब्बू हैं। वरना आज तक उन्होंने ये मांग क्यों नहीं कि या तो वीटो (निषेधाधिकार) खत्म करो या चार-पांच अन्य राष्ट्र को भी दो। वीटो अधिकार का कोई सुनिश्चित आधार होना चाहिए। भारत चाहे संयुक्तराष्ट्र के बहिष्कार की भी धमकी दे सकता है। वह अपने साथ दर्जनों राष्ट्रों को जोड़ सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
क्या आपको पता है कि आपके पसंदीदा बॉयलर चिकन के शरीर का आकार, हड्डियों की बनावट और आनुवांशिकी उसके पूर्वज मुर्गों या जंगली मुर्गों से मेल नहीं खाते? यह जानने के बाद आपका अगला सवाल हो सकता है, इसका मुझ पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? ब्रिटेन में लीसेस्टर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस सवाल पर वर्षों तक गहराई से शोध किया। दिसंबर, 2018 में जब उन्होंने अपने निष्कर्षों के बारे में लिखा, तो दुनिया एक ऐसी वास्तविकता से रूबरू हुई जिसकी आशंका हमें लंबे समय से थी। उनका निष्कर्ष था, “बॉयलर चिकन पूरी तरह से मानव निर्मित है।” शोधकर्ताओं में से एक एलिसन फोस्टर ने कहा, “मुर्गों को पालतू बनाए जाने के बाद से उनकी कई अजीब और सुंदर नस्लें आई हैं लेकिन बॉयलर शायद इनका सबसे चरम रूप है।”
यह अध्ययन बॉयलर चिकन की शारीरिक संरचना का पता लगाने के लिए नहीं था। इसके पीछे की मुख्य वजह एंथ्रोपोसीन नामक एक नए मानव युग के आगमन की पड़ताल करना था। हमारी धरती पर मौजूदा वक्त में 2,300 करोड़ बॉयलर चिकन मानवों का भोजन बनने के लिए तैयार हैं। इस तरह ये चिकन भूमि पर पाए जाने वाले कशेरुकी यानी रीढ़ की हड्डी वाले जीवों की सबसे बड़ी प्रजाति है।
शोधकर्ता ऐसी चीज की तलाश कर रहे थे, जिसमें मानव हस्तक्षेप के भारी संकेत हों। इसका उपयोग वैज्ञानिक रूप से यह इंगित करने के लिए किया जाएगा कि मनुष्यों ने पृथ्वी पर जीवन और पर्यावरण को कैसे प्रभावित किया है। यह बदले में नए मानव युग की घोषणा करने के लिए एक संकेतक के रूप में उपयोग किया जाएगा। शोधकर्ताओं ने कहा, “आधुनिक चिकन अब अपने पूर्वजों से इतना बदल गया है कि इसकी विशिष्ट हड्डियां निस्संदेह उस समय के जीवाश्म संकेत बन जाएंगी जब मनुष्य ने ग्रह पर शासन किया था।”
रोमन काल के मुर्गों के साथ बॉयलर चिकन की हड्डियों की तुलना करना इस शोध में शामिल था। शोधकर्ताओं ने दोनों मुर्गों की हड्डियों में शायद ही कोई समानता पाई। बॉयलर चिकन अपने मध्यकालीन रिश्तेदार की तुलना में दो गुना बड़ा है। इसका कंकाल तो बड़ा होता ही है, साथ ही हड्डियों की रासायनिक बनावट भी अलग होती है। इसके अलावा इनमें आनुवंशिक विविधता की भी काफी कमी है। बॉयलर चिकन के वैज्ञानिक मूल्यांकन से पता चला कि उनका आहार भी लगभग समान होता है। ये सब सिर्फ एक उद्देश्य से पाले जाते हैं और वह है मानव उपभोग के लिए मांस उपलब्ध कराना।
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष था, “आधुनिक चिकन के वर्तमान रूप के लिए केवल और केवल मानव हस्तक्षेप जिम्मेदार है। हमने उनके जीन को बदलकर उनके चयापचय को नियंत्रित करने वाले रिसेप्टर (ग्राही) को म्यूटेट (परिवर्तित होना) कर दिया है जिसके कारण वे हमेशा भूखे रहते हैं। इस कारण वे ज्यादा से ज्यादा खाते हैं और उनके आकार में वृद्धि होती है। इतना ही नहीं, उनका पूरा जीवन चक्र मानव प्रौद्योगिकी द्वारा नियंत्रित होता है। उदाहरण के लिए, मुर्गियां जिस कारखाने में अपने अंडों से निकलती हैं, वहां का तापमान और आर्द्रता कंप्यूटर द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं। पहले ही दिन से उन्हें बिजली की रोशनी में रखा जाता है ताकि उनके भोजन के घंटे बढ़ाए जा सकें। उन्हें मारा भी मशीनों की ही मदद से जाता है। इससे एक घंटे में हजारों मुर्गों का मांस तैयार हो जाता है।”(DOWNTOEARTH)
-दिनेश श्रीनेत
उसकी आँखों के पीछे कुछ सुलगता रहता था। एक नाराज़गी, जो जाने कब लंबी उदासी में तब्दील हो चुकी थी- उसके चेहरे का स्थायी भाव बन गई थी। वह मुस्कुराता तो लगता कि किसी पर एहसान कर रहा है। कंधों पर उसका कोट झूलता रहता था। कमीज़ अक्सर बाहर होती थी। उसका गुस्सा निजी हदों को पार कर जाता था। उसकी नाराज़गी पूरे सिस्टम से थी। हमें हमेशा महसूस होता था कि उसकी सुलगन कभी भी एक भभकती आग में बदल सकती है। और ये सलीम-जावेद का कमाल था, जिन्होंने क्रोध को कविता में बदल दिया था। अमिताभ के खामोश गुस्से वाले वाले उन किरदारों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सारी दुनिया से नाराज़ यह शख्स भी प्रेम करता था। उसकी आवाज़ में कोमलता आ जाती थी। उसके इस प्रेम में सामने वाले के प्रति सम्मान था। वह अपने प्रेम को अभिव्यक्त नहीं करना चाहता था। प्रेम पानी की तरह खुद ही उसके भीतर अपनी शक्ल ले लेता था। मुझे तीन चेहरे याद आते हैं, तीन फिल्में याद आती हैं और तीन गीत भी याद आते हैं। फिल्में हैं- 'काला पत्थर', 'त्रिशूल' और 'शक्ति'।
'काला पत्थर' में अंधेरी रात और बारिश के बीच एक छतरी के नीचे जाते राखी और अमिताभ को हम देखते हैं। ढाबे की धधकती भट्टी और धुएं के बीच पंजाबी गीत के बोल उठते हैं-
इश्क़ और मुश्क़ कदे न छुपदे
ते चाहे लख छुपाइये
अखाँ लख झुकाके चलिये
पल्ला लख बचाइए
इश्क़ है सच्चे रब दी रहमत
इश्क़ तो क्यूँ शर्माइए
राखी असहज हो उठी हैं मगर अमिताभ उसी तरह मंथर चाल से सिर झुकाए उनके साथ कदम मिलाते हुए आगे बढ़ रहे हैं। ये कुछ ही कदमों में सिमटा हुआ गीत है। उस समय के चलन के विपरीत न तो नायक नायिका ख्वाब देखते हैं और न ही उनकी ड्रेस बदलती है। निर्देशक यश चोपड़ा बड़ी खूबसूरती से कदमों का यह सफर नायक नायिका के साथ तय करते हैं। अमिताभ की खामोशी यहां बोलती है। उनकी आंखें, वे जिस तरह चलते हैं, जैसे उन्होंने एक हाथ में छतरी और दूसरे हाथ में बाक्स थाम रखा है। बारिश और प्रेम की अभिव्यक्ति के मिलते-जुलते बहुत से गीत हिंदी फिल्मों में हैं। उनमें से ये गीत बेहद खूबसूरत है मगर अंडररेटेड है, इसकी कोई चर्चा नहीं मिलती।
दूसरा एक पार्टी गीत है। ख़य्याम की खूबसूरत धुन मानों पर्वतों से आने वाली ठंडी हवा हो। पिछले गीत की तरह यहां भी बोल साहिर के हैं, फिल्म है 'त्रिशूल'। प्रेम में डूबा एक जोड़ा गीत शुरू करता है और साहिर उसे एक धारदार बहस में तब्दील कर देते हैं। निजी प्रतिशोध में सुलगता हुआ एक व्यक्ति जो अपने ही वजूद के एक हिस्से यानी अपने पिता से नफरत लेकर आया है प्रेम को किस तरह देखता है? साहिर लिखते हैं-
किताबों में छपते है, चाहत के किस्से
हक़ीकत की दुनिया में चाहत नहीं
ज़माने के बाज़ार में, ये वो शै' है
के जिसकी किसी को, ज़रूरत नहीं है
ये बेकार बेदाम की चीज़ है
इस झुंझलाहट के बीच राखी की मौजूदगी भी है। वे पार्टी ड्रेस में हैं और उन्होंने आरेंज साड़ी पहन रखी है। ऐसा लगता है कि जैसे वे उसे छटपटाते गु्स्से को समझ रही हैं। अमिताभ जब उनकी तरफ देखते हैं तो लगता है कि उनकी निगाहों में एक उम्मीद है कि कोई मुझे समझ पाएगा।
आखिरी गीत 'शक्ति' फिल्म से है। पूरी फिल्म में कंधे पर कोट थामे एक नाराज़गी से भरा शख्स यहां पर थोड़े सुकून में दिखता है। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट भी है और वह प्रेम का इज़हार भी कर पा रहा है। खुश वो इतने हैं कि खिलते हुए फूलों के बीच जाकर कहते हैं, "लगता है मेरा सेहरा तैयार हो गया..." उनके साथ एक सांवली, खूबसूरत, उनके ही जैसी गंभीर स्त्री है- स्मिता पाटील। हालांकि जब आप पूरी फिल्म देखते हैं तो इस गीत में निहित त्रासदी उभर कर आती है, क्योंकि उनके बीच यह खुशी लंबे समय तक टिकने वाली नहीं है।
इन तीनों फिल्मों में अमिताभ जिस खूबसूरती से अपनी कठोरता, क्रोध, खुद के जीवन की त्रासदी के बीच प्रेम की कोमलता को अभिव्यक्त करते हैं, उसमें कविता छिपी है। वे एक साथ लाखों लोगों के दिल पर असर कर जाते हैं। समय की सीमा पार कर जाते हैं और उनकी खामोश सुलगती निगाहें, वो सौम्य प्रेम- हमेशा-हमेशा के लिए आपके मन में बस जाता है। यह अमिताभ के अभिनय का कमाल तो है ही, ये सलीम-जावेद थे जिन्होंने उदासी, गुस्से और प्रेम के इन रंगों का ऐसा खूबसूरत संतुलन बनाया था। टॉमस हार्डी के किरदारों की तरह त्रासदी कहीं बाहर नहीं इन किरदारों के भीतर ही थी। जमाने से नाराज़गी भी, प्रेम भी, जिंदगी जीने की ललक भी और मृत्यु भी। (फेसबुक से)
किसान भाइयों और बहनों,
सुना है आप सभी ने 25 सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया है। विरोध करना और विरोध के शांतिपूर्ण तरीके का चुनाव करना आपका लोकतांत्रिक अधिकार है। मेरा काम सरकार के अलावा आपकी गलतियां भी बताना है। आपने 25 सितंबर को भारत बंद का दिन गलत चुना है। 25 सितंबर के दिन फिल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण बुलाई गई हैं। उनसे नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो नशा-सेवन के एक अतिगंभीर मामले में लंबी पूछताछ करेगा। जिन न्यूज चैनलों से आपने 2014 के बाद राष्ट्रवाद की सांप्रदायिक घुट्टी पी है, वही चैनल अब आपको छोडक़र दीपिका के आने-जाने से लेकर खाने-पीने का कवरेज करेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा आप उन चैनलों से आग्रह कर सकते हैं कि दीपिका से ही पूछ लें कि क्या वह भारत के किसानों का उगाया हुआ अनाज खाती हैं या यूरोप के किसानों का उगाया हुआ अनाज खाती हैं। बस यही एक सवाल है जिसके बहाने 25 सितंबर को किसानों के कवरेज की गुजाइश बनती है। 25 सितंबर को किसानों से जुड़ी खबर ब्रेकिंग न्यूज बन सकती है। वर्ना तो नहीं।
आप भारत बंद कर रहे हैं। आपके भारत बंद से पहले ही आपको न्यूज चैनलों ने भारत में बंद कर दिया है। चैनलों के बनाए भारत में बेरोजगार बंद हैं। जिनकी नौकरी गई वो बंद हैं। इसी तरह से आप किसान भी बंद हैं। आपकी थोड़ी सी जगह अख़बारों के जिला संस्करणों में बची है जहां आपसे जुड़ी अनाप-शनाप ख़बरें भरी होंगी मगर उन खबरों का कोई मतलब नहींं होगा। उन ख़बरों में गांव का नाम होगा, आपमें से दो-चार का नाम होगा, ट्रैक्टर की फोटो होगी, एक बूढ़ी महिला पर सिंगल कॉलम खबर होगी। जि़ला संस्करण का जिक्र इसलिए किया क्योंकि आप किसान अब राष्ट्रीय संस्करण के लायक नहीं बचे हैं। न्यूज चैनलों में आप सभी के भारत बंद को स्पीड न्यूज में जगह मिल जाए तो आप इस खुशी में अपने गांव में भी एक छोटा सा गांव-बंद कर लेना।
25 सितंबर के दिन राष्ट्रीय संस्करण की मल्लिका दीपिका जी होंगी।उस दिन जब वे घर से निकलेंगी तो रास्ते में ट्रैफिक पुलिस की जगह रिपोर्टर खड़े होंगे। अगर जहाज से उडक़र मुंबई पहुंचेंगी तो जहाज में उनके अलावा जितनी भी सीट खाली होगी सब पर रिपोर्टर होंगे। उनकी गाड़ी से लेकर साड़ी की चर्चा होगी। न्यूज चैनलों पर उनकी फिल्मों के गाने चलेंगे। उनके संवाद चलेंगे। दीपिका ने किसी फिल्म में शराब या नशे का सीन किया होगा तो वही दिन भर चलेगा। किसान नहीं चलेगा।
2017 का साल याद कीजिए। संजय लीला भंसाली की फिल्म पद़्मावत आने वाली थी। उसे लेकर एक जाति विशेष के लोगों ने बवाल कर दिया। कई हफ्ते तक उस फिल्म को लेकर टीवी में डिबेट होती थी। तब आप भी इन कवरेज में खोए थे। हरियाणा, मध्यप्रदेश, गुजरात सहित कई राज्यों में इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए हिंसा हुई थी। दीपिका के सर काट लाने वालों के लिए 5 करोड़ के इनाम की राशि का एलान हुआ। वही दीपिका अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो जाएंगी तो चैनलों के कैमरे उनके कदमों को चूम रहे होंगे। उनकी रेटिंग आसमान चूम रही होगी। किसानों से चैनलों को कुछ नहीं मिलता है। बहुत से एंकर तो खाना भी कम खाते हैं। उनकी फिटनेस बताती है उन्हें आपके अनाज की मु_ी भर ही जरूरत है। खेतों में टिड्डी दलों का हमला हो तो इन एंकरों को बुला लेना। एक एंकर तो इतना चिल्लाता है कि उसकी आवाज से ही सारी टिड्डियां पाकिस्तान लौट जाएंगी। आपको थाली बजाने और डीजे बुलाने की जरूरत नहीं होगी।
2014 से आप किसान भाई भी तो यही सब न्यूज चैनलों पर देखते आ रहे थे। जब एंकर गौ-रक्षा को लेकर लगातार भडक़ाऊ कवरेज़ करते थे तब आपका भी तो खून गरम होता था। आपको लगा कि आप कब तक खेती-किसानी करेंगे, कुछ धर्म की रक्षा-वक्षा भी की जाए। धर्म के नाम पर नफरत की अफीम आपको थमा दी गई। विचार की जगह तलवार भांजने का जोश भरा गया। आप रोज न्यूज चैनलों के सामने बैठकर वीडियो गेम खेल रहे थे। आपको लगा कि आपकी ताकत बढ़ गई है। आपके ही बीच के नौजवान व्हाट्स एप से जोड़ कर भीड़ में बदल दिए गए। जैसे ही गौ-रक्षा का मुद्दा उतरा आपके खेतों में सांडों का हमला हो गया। आप सांडों से फसल को बचाने के लिए रात भर जागने लगे।
मैं गिनकर तो नहीं बता सकता कि आपमें से कितने सांप्रदायिक हुए थे मगर जितने भी हुए थे उसकी कीमत सबको चुकानी पड़ेगी। यह पत्र इसलिए लिख रहा हूं ताकि 25 सितंबर को कवरेज होने पर आप शिकायत न करें। आपने इस गोदी मीडिया में कब जनता को देखा है। 17 सितंबर को बेरोजगारों ने आंदोलन किया, वे भी तो आपके ही बच्चे थे। क्या उनका कवरेज हुआ, क्या उनके सवालों को लेकर बहस आपने देखी?
याद कीजिए जब मुजफ्फरनगर में दंगे हुए थे। एक घटना को लेकर आपके भीतर किस तरह से कुप्रचारों से नफरत भरी गई। आपके खेतों में दरार पड़ गई। जब आप सांप्रदायिक बनाए जाते हैं तभी आप गुलाम बनाए जाते हैं। जिस किसी से यह गलती हुई है, उसे अब अकेलेपन की सज़ा भुगतनी होगी। आज भी दो-चार अफवाहों से आपको भीड़ में बदला जा सकता है। व्हाट्स एप के नंबरों को जोड़ कर एक समूह बनाया गया। फिर आपके फोन में आने लगे तरह तरह के झूठे मैसेज। आपके फोन में कितने मैसेज आए होंगे कि नेहरू मुसलमान थे। जो लोग ऐसा कर रहे थे उन्हें पता है कि आपको सांप्रदायिक बनाने का काम पूरा हो चुका है। आप जितने आंदोलन कर लो, सांप्रदायिकता का एक बटन दबेगा और गांव का गांव भीड़ में बदल जाएगा। गांव में पूछ लेना कि रवीश कुमार ने बात सही कही है या नहीं।
भारत वाकई प्यारा देश है। इसके अंदर बहुत कमियां हैं। इसके लोकतंत्र में भी बहुत कमियां हैं मगर इसके लोकतंत्र के माहौल में कोई कमी नहीं थी। मीडिया के चक्कर में आकर इसे जिन तबकों ने खत्म किया है उनमें से आप किसान भाई भी हैं। आप एक को वोट देते थे तो दूसरे को भी बगल में बिठाते थे। अब आप ऐसा नहीं करते हैं। आपके दिमाग से विकल्प मिटा दिया गया है। आप एक को वोट देते हैं और दूसरे को लाठी मार कर भगा देते हैं। आप ही नहीं, ऐसा बहुत से लोग करने लगे हैं। जैसे ही आपकी बातों से विकल्प की जगह खत्म हो जाती है, विपक्ष खत्म होने लगता है। विपक्ष के ख़त्म होते ही जनता खत्म होने लगती है। विपक्ष जनता खड़ा करती है। विपक्ष को मार कर जनता कभी खड़ी नहीं हो सकती है। जैसे ही विपक्ष खत्म होता है, जनता खत्म हो जाती है। मेरी इस बात को गाढ़े रंग से अपने गांवों की दीवारों पर लिख देना और बच्चों से कहना कि आपसे गलती हो गई, वो गलती न करें।
किसानों के पास कभी भी कोई ताकत नहीं थी। एक ही ताकत थी कि वे किसान हैं। किसान का मतलब जनता हैं। किसान सडक़ों पर उतरेगा, ये एक दौर की सख्त चेतावनी हुआ करती थी। हेडलाइन होती थी। अखबार से लेकर न्यूज चैनल कांप जाते थे। अब आप जनता नहीं हैं। जैसे ही जनता बनने की कोशिश करेंगे चैनलों पर दीपिका का कवरेज बढ़ जाएगा और आपकी पीठ पर पुलिस की लाठियां चलने लगेंगी। मुकदमे दर्ज होने लगेंगे। भारत बंद के दौरान आपको कैमरे वाले खूब दिखेंगे मगर कवरेज दिखाई नहीं देगा। लोकल चैनलों पर बहुत कुछ दिख जाएगा मगर राष्ट्रीय चैनलों पर कुछ से ज्यादा नहीं दिखेगा। अपने भारत बंद के आंदोलन का वीडियो बना लीजिएगा ताकि गांव में वायरल हो सके।
आपको इन चैनलों ने एक सस्ती भीड़ में बदल दिया है। आप आसानी से इस भीड़ से बाहर नहीं आ सकते। मेरी बात पर यकीन न हो कोशिश कर लें। मोदी जी कहते हैं कि खेती के तीन कानून आपकी आजादी के लिए लाए गए हैं। इस पर पक्ष-विपक्ष में बहस हो सकती है। बड़े-बड़े पत्रकार जिन्होंने आपके खेत से फ्री का गन्ना तोड़ कर खाते हुए फोटो खींचाई थी वे भी सरकार की तारीफ़ कर रहे हैं। मैं तो कहता हूं कि क्यों भारत बंद करते हैं, आप इन्हीं एंकरों से खेती सीख लीजिए। उन्हीं से समझ लीजिए।
शास्त्री जी के एक आह्वान पर आपने जान लगा दी। उन्होंने एक नारा दिया जय जवान-जय किसान। उनके बाद से जब भी यह नारा लगता है कि किसान की जेब कट जाती है। नेताओं को पता चल गया कि हमारा किसान भोला है। भावुकता में आ जाता है। देश के लिए बेटा और अनाज सब दे देगा। आपका यह भोलापन वाकई बहुत सुंदर है। आप ऐसे ही भोले बने रहिए। सब न्यूज चैनलों के बनाए प्यादों की तरह हो जाएंगे तो कैसे काम चलेगा। बस जब भी कोई नेता जय जवान-जय किसान का नारा लगाए, अपने हाथों से जेब को भींच लीजिए।
आप तो कई दिनों से प्रदर्शन कर रहे हैं। न्यूज चैनल चाहते तो तभी बहस कर सकते थे। बाकी किसानों को पता होता कि क्या कानून आ रहा है, क्या होगा या क्या नहीं होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने तो कहा था कि न्यूज चैनल और अखबार खरीदना बंद कर दें। वो पैसा आप प्रधानमंत्री राहत कोष में दे दें। आप माने नहीं। जो गुलाम मीडिया का खऱीदार होता है वह भी गुलाम ही समझा जाता है। वैसे मई 2015 में प्रधानमंत्रीजी ने आपके लिए किसान चैनल लांच किया है। उम्मीद है आप वहां दिख रहे होंगे।
पत्र लंबा है। आपके बारे में कुछ छपेगा-दिखेगा तो नहीं इसलिए भी लंबा लिख दिया ताकि 25 तारीख को आप यही पढ़ते रहें। मेरा यह पत्र खेती के कानूनों के बारे में नहीं है। मेरा पत्र उस मीडिया संस्कृति के बारे में हैं जहां एक फिल्म अभिनेता की मौत के बहाने बालीवुड को निशाने बनाने का तीन महीने से कार्यक्रम चल रहा है। आप सब भी वही देख रहे हैं। आप सिर्फ यह नहीं देख रहे हैं कि निशाने पर आप हैं।
-रवीश कुमार
राज्यसभा में विपक्ष की अनुपस्थिति में तीन श्रम विधेयकों को मंजूरी दे दी गई
- DTE Staff
राज्यसभा में 23 सितंबर 2020 को श्रम कानून से जुड़े तीन अहम विधेयक भी पास हो गए। लोकसभा में इन्हें 22 सितंबर को पास किया गया था। ये तीनों श्रम कानून उन चार कोड का हिस्सा हैं, जिन्हें श्रम मंत्रालय ने 29 केंद्रीय श्रम कानूनों को समेकित करने के लिए तैयार किया था। संसद ने 2019 में मजदूरी पर इस कोड को पारित किया था, जिसे बाद में सरकार ने अधिसूचित किया था।
23 सितंबर को राज्यसभा ने जिन तीन विधेयक को पास किया, उनमें सामाजिक सुरक्षा बिल 2020, आजीविका सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता बिल 2020 और औद्योगिक संबंध (इंडस्ट्रियल रिलेशंस) संहिता बिल 2020 शामिल हैं। हालांकि विपक्षी दलों ने इनका विरोध किया और उनकी गैर-मौजूदगी में इन विधेयक को मंजूरी दे दी गई।
इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड के तहत कंपनियों को भर्ती और छंटनी को लेकर ज्यादा अधिकार दिए गए हैं। अभी के श्रम कानून के मुताबिक 100 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों को छंटनी या यूनिट बंद करने से पहले सरकार की मंजूरी नहीं लेनी पड़ती है, लेकिन अब नए विधेयक में यह सीमा बढ़ाकर 300 कर्मचारी कर दी है। इसका आशय यह है कि जिन कंपनियों में 300 तक कर्मचारी हैं, उन्हें कर्मचारियों की भर्ती या छंटनी के लिए श्रम विभाग की इजाजत लेने की जरूरत नहीं होगी। इसका फायदा बड़ी कंपनियों को मिलेगा, वे कर्मचारियों की छंटनी करने के अलावा कंपनी बंद करना भी आसान होगा। इसके अलावा नए विधेयक में राज्य सरकारों को अपनी जरूरत के अनुसार इस संख्या को बढ़ाने की शक्तियां भी प्रदान की गई हैं।
राज्यसभा में विधेयक के बारे में जानकारी देते हुए केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने कहा कि इससे बड़ी फैक्ट्रियों को निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा। साथ ही, कंपनी ज्यादा कर्मचारी रखेंगी, क्योंकि इस कानून से बचने के लिए कई कंपनियां 100 से अधिक कर्मचारियों की भर्ती नहीं करती थी। इसके अलावा विधेयक में फिक्स्ड-टर्म इम्प्लॉयमेंट को कानूनी वैद्यता देने की बात कही गई है। साथ ही, कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स के छंटनी के नियमों को भी आसान किया गया है।
श्रम मंत्री ने कहा कि सभी वर्कर्स को किसी न किसी प्रकार से सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने के लिए सामाजिक सुरक्षा संहिता बिल पारित किया गया है। इसमें असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले वर्कर्स को सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई है।
इसके अलावा आजीविका सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता बिल के तहत सरकार ने स्टाफिंग कंपनियों के लिए एकल लाइसेंस की अनुमति दी जाएगी। अनुबंध (कांट्रेक्ट) पर श्रमिकों को काम पर रखने के लिए इसकी जरूरत पड़ती है। पहले इसके लिए कई लाइसेंस लेने पड़ते थे, लेकिन अब इसमें बदलाव किया गया है। इसके अलावा अनुबंध पर काम करने वाले कर्मचारियों की सीमा 20 से बढ़ाकर 50 कर दी गई है। इससे सभी क्षेत्रों में ठेके पर काम पर रखने में नियोक्ताओं को आसानी होगी।(downtoearth)
विलुप्ति की टाइमिंग बताती है कि उनका गायब होना एक नई प्रजाति के उदय का नतीजा हो सकती है। यह प्रजाति थी होमो सेपियंस
निक लॉन्गरिच
तीन लाख साल पहले धरती पर मनुष्यों की 9 प्रजातियों का प्रादुर्भाव हुआ। वर्तमान में केवल एक प्रजाति ही बची है। इनकी एक प्रजाति थी होमो निअंडरथलेंसिस जिसे निअंडरथल्स के नाम से जाना जाता था। ये नाटे शिकारी थे और यूरोप के ठंडे मैदानों में रहने के अभ्यस्थ थे। इसी तरह डेनिसोवंस प्रजाति एशिया में रहती थी जबकि आदिम प्रजाति होमो इरेक्टस इंडोनेशिया और होमो रोडेसिएंसिस मध्य अफ्रीका में पाई जाती थी। इनके समानांतर कम ऊंचाई और छोटे मस्तिष्क वाली मनुष्यों की अन्य प्रजातियां भी थीं। दक्षिण अफ्रीका में होमो नलेदी, फिलीपींस में होमो लूजोनेंसिस, इंडोनेशिया में होमो फ्लोरेसिएंसिस (होबिट्स) और चीन में रहस्यमय रेड डियर केव प्रजाति के मानव होते थे। जिस तरह से हमें बहुत जल्दी नई-नई प्रजातियों का पता चल रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि अभी और प्रजातियों की जानकारी सामने आएगी।
उपरोक्त प्रजातियां करीब 10 हजार साल पहले खत्म हो गईं। इन प्रजातियों की विलुप्ति को मास एक्सटिंग्शन यानी व्यापक विलुप्ति के रूप में देखा जा रहा है। क्या ये विलुप्ति प्राकृतिक कारकों जैसे ज्वालामुखी फटने, जलवायु परिवर्तन या एस्टोरॉइड प्रभाव का नतीजा थी? यह कहना मुश्किल है क्योंकि अब तक इसके प्रमाण नहीं मिले हैं। मनुष्यों की विलुप्ति की टाइमिंग बताती है कि उनका गायब होना एक नई प्रजाति के उदय का नतीजा हो सकती है। यह प्रजाति 2,60,000-3,50,000 साल पहले दक्षिणी अफ्रीका में पनपी और इसका नाम था होमो सेपियंस। आधुनिक मानव इसी प्रजाति से ताल्लुक रखता है। ये मानव अफ्रीका से निकलकर दुनियाभर में फैल गए और छठी विलुप्ति का कारण बने। करीब 40 हजार साल पहले हिमयुग के स्तनधारियों की समाप्ति से वर्षा वनों के नष्ट होने के बाद इसकी शुरुआत हुई थी। ऐसे में क्या कहा जा सकता है कि छठी विलुप्ति के पहले शिकार मनुष्य बने?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम बेहद खतरनाक प्रजाति हैं। हमने विशालकाय ऊनी हाथी मैमथ, ग्राउंड स्लोथ और विशाल पक्षी मोआ का इतना शिकार किया कि वे खत्म हो गए। हमने जंगलों और वनों को खेती के लिए बर्बाद कर दिया। हमने आधी से अधिक धरती की तस्वीर बदलकर रख दी। हमने धरती की जलवायु में तब्दीली कर दी। हम मनुष्यों की दूसरी प्रजातियों के लिए सबसे खतरनाक साबित हुए क्योंकि हम संसाधनों और जमीन के भूखे हैं। इतिहास इसका गवाह है। हमने युद्धों से असंख्य लोगों को विस्थापित किया और उनका नामोनिशान तक मिटा दिया। चाहे प्राचीन कार्थेज शहर में रोम द्वारा किया गया विनाश हो या पश्चिम में अमेरिकी जीत अथवा ऑस्ट्रेलिया पर ब्रिटेन का कब्जा। हाल की बात करें तो बोस्निया, रवांडा, ईराक, दरफूर और म्यानमार का संदर्भ लिया जा सकता है जहां अलग मतावलंबियों का बड़े पैमाने पर नरसंहार हुआ। नरसंहार में शामिल होना मानव की प्रवृत्ति रही है। इसलिए यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि शुरुआती होमो सेपियंस कम प्रादेशिक, कम हिंसक और कम असहनशील थे। दूसरे शब्दों में कहें तो उनमें मानवीय गुण कम थे।
बहुत से आशावादियों ने शुरुआती शिकारियों और संग्रहकर्ताओं को शांति चाहने वाले व सभ्य समाज के रूप में चित्रित किया है। उनकी दलील है कि प्रकृति के बजाय हमारी संस्कृति हिंसा के लिए जिम्मेदार है। लेकिन फील्ड अध्ययन, ऐतिहासिक घटनाक्रम और पुरातत्व विज्ञान बताता है कि शुरुआती सभ्यताओं में होने वाले युद्ध भीषण, व्यापक और खतरनाक होते थे। गुरिल्ला युद्ध में नवपाषाण (न्यूलिथिक) के औजार जैसे डंडे, बरछी, कुल्हाड़ी, धनुष आदि बड़े विनाशक साबित होते थे। इन समाजों में पुरुषों की मौत का मुख्य कारण ऐसे हिंसक संघर्ष थे। ऐसी हिंसाओं में प्रथम और दूसरे विश्वयुद्ध से अधिक मौतें हुई हैं। प्राचीन हड्डियां और कलाकृतियां बताती हैं कि ऐसी हिंसा प्राचीन काल से हो रही है।
“केनेविक मैन” नामक किताब में उत्तरी अमेरिका के केनेविक शहर में मिले एक ऐसे कंकाल का अध्ययन किया गया है जिसके कूल्हे में भाले का अगला हिस्सा टूटा मिला है। यह कंकाल करीब 9,000 साल पुराना है। केन्या का 10,000 साल पुराना एक ऐतिहासिक स्थल नटारुक कम से कम 27 महिलाओं, पुरुषों और बच्चों की निर्मम हत्या की गवाही देता है। अत: यह मानना संभव नहीं है कि मनुष्यों की दूसरी प्रजातियां शांतिप्रिय थीं। पुरुषों की संयुक्त रूप से होने वाली हिंसा बताती है कि युद्ध के साथ मनुष्यों का विकास हुआ है। निअंडरथल के कंकाल युद्ध कौशल दर्शाते हैं यानी उनके शरीर की बनावट युद्ध में शामिल होने की प्रवृति को इंगित करती है। बाद में परिष्कृत हथियारों ने होमो सेपियंस को सैन्य लाभ दिया। शुरुआती होमो सेपियंस के हथियारों में जावलिन, भाले, तीर व डंडे शामिल थे। उन्नत हथियारों ने बड़ी संख्या में जानवरों का शिकार करने और पौधों को काटने में मदद पहुंचाई। इससे बड़ी संख्या में लोगों को भोजन उपलब्ध हो सका और हमारी प्रजाति को अपनी संख्या बढ़ाने में रणनीतिक मदद मिली।
श्रेष्ठ हथियार
गुफाओं में बनी चित्रकारी, नक्काशियां और संगीत के यंत्र एक बेहद खतरनाक संकेत देते हैं। वह संकेत है अपने विचारों को व्यक्त करने और संचार की बेहतर क्षमता। सहयोग करना, योजना बनाना या रणनीति बनाना, चालाकी और धोखा देना हमारे उत्तम हथियार बन गए। जीवाश्म रिकॉर्ड अधूरे होने की वजह से इन विचारों को ठीक से नहीं परखा जा सका है। लेकिन यूरोप एक ऐसा स्थान है, जहां तुलनात्मक रूप से पूर्ण पुरातात्विक रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। यहां के जीवाश्म रिकॉर्ड बताते हैं कि हमारे आने के कुछ हजार सालों में ही निअंडरथल्स विलुप्त हो गए। यूरेशियन लोगों में निअंडरथल्स के डीएनए के कुछ अंश मिले हैं जो बताते हैं कि उनकी विलुप्ति के बाद हमने केवल उनका स्थान ही नहीं लिया बल्कि हम मिले और हमारा मिलन होता गया। यानी हम अपनी संख्या दिन दूनी, रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ाते गए।
अन्य कुछ डीएनए भी आदिम प्रजातियों से हुए हमारे संपर्क पर रोशनी डालते हैं। पूर्वी एशियाई, पोलिनेशियन और ऑस्ट्रेलियाई समूहों के डीएनए डेनिसोवंस के मेल खाते हैं। बहुत से एशियाई लोगों में होमो इरेक्टस प्रजाति के डीएनए मिले हैं। अफ्रीकी जीनोम अन्य आदिम प्रजातियों के डीएनए पर रोशनी डालते हैं। ये तथ्य साबित करते हैं कि दूसरी प्रजातियां हमसे संपर्क में आने के बाद ही खत्म हुईं। ऐसे में सवाल उठता है कि हमारे पूर्वजों ने अपने रिश्तेदारों को खत्म क्यों किया और मास एक्सटिंग्शन का कारण क्यों बने? क्या यह व्यापक नरसंहार था? इस प्रश्न का उत्तर जनसंख्या की वृद्धि में निहित है। मनुष्य बहुत तेजी से अपनी संख्या बढ़ाते हैं। अगर हम प्रजनन पर लगाम न लगाएं तो हर 25 साल में अपनी संख्या दोगुनी कर लेते हैं। ऐसे में अगर हम सामूहिक शिकार करने लग जाएं तो हमसे हिंसक और खतरनाक कोई नहीं हो सकता। अपनी संख्या पर लगाम नहीं लगाने और परिवार नियोजन पर ध्यान नहीं देने पर आबादी उपलब्ध संसाधनों का दोहन करने की दिशा में अग्रसर होती है। आगे का विकास, सूखे के कारण पैदा हुआ खाद्य संकट, भीषण ठंड और संसाधनों के अत्यधिक दोहन जनजातियों के बीच संघर्ष पैदा करता है। यह संघर्ष मुख्य रूप से भोजन पर अधिकार को लेकर होता है। इस तरह युद्ध जनसंख्या में हो रही वृद्धि को नियंत्रित करता है।
ऐसा भी नहीं है कि हमने योजनाबद्ध तरीके से दूसरी प्रजातियों को विलुप्त कर दिया। न ही यह हमारी सभ्यता द्वारा संयुक्त प्रयास का नतीजा था, लेकिन यह युद्ध का नतीजा जरूर था। आधुनिक मनुष्य ने हमले दर हमले कर अपने दुश्मनों को परास्त किया और उनकी जमीन हथिया ली। इसके बावजूद निअंडरथल्स को विलुप्त होने में हजारों साल लग गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शुरुआती होमो सेपियंस बाद की विजेता सभ्यताओं जितने सक्षम नहीं थे। ये विजेता सभ्यताएं बड़ी संख्या में थीं और कृषि पर आधारित थीं। चेचक, फ्लू, खसरा जैसी महामारियां भी इनके दुश्मनों पर बहुत भारी पड़ीं। भले ही निअंडरथल्स युद्ध हार गए हों लेकिन उन्होंने लंबा युद्ध लड़ा और कई युद्ध जीते भी। इससे पता चलता है कि उनकी बौद्धिकता भी हमारी बौद्धिकता के करीब थी।
(लेखक बाथ विश्वविद्यालय के इवोल्यूशनरी बायोलॉजी एंड जीवाश्म विज्ञान में सीनियर लेक्चरर हैं)(downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसानों के बारे में लाए गए विधेयकों पर राज्यसभा में जिस तरह का हंगामा हुआ है, क्या इससे हमारी संसद की इज्जत बढ़ी है ? दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा देश भारत है। पड़ौसी देशों के सांसद हमसे क्या सीखेंगे ? विपक्षी सांसदों ने इन विधेयकों पर सार्थक बहस चलाने के बजाय राज्यसभा के उप-सभापति हरिवंश पर सीधा हमला बोल दिया। उनका माइक तोड़ दिया। नियम-पुस्तिका फाड़ दी। धक्का-मुक्की की। सदन में अफरा-तफरी मचा दी। उच्च सदन को निम्न कोटि का बाजार बना दिया। यही विधेयक लोकसभा में भी पारित हुआ है लेकिन वहां तो ऐसा हुड़दंग नहीं हुआ। जिसे वरिष्ठ नेताओं का उच्च सदन कहा जाता है, उसके आठ सदस्यों को निलंबित करना पड़ जाए तो उसे आप सदन कहेंगे या अखाड़ा ? विपक्षी नेता आरोप लगा रहे हैं कि उपसभापति ने ध्वनिमत से इन किसान-कानूनों को पारित करके ‘लोकतंत्र की हत्या’ कर दी है और सत्तारुढ़ दल के नेता इसे विपक्षियों की ‘शुद्ध गुंडागर्दी’ बता रहे हैं। यह ठीक है कि ध्वनि मत से प्राय: वे ही विधेयक पारित किए जाते हैं, जिन पर लगभग सर्वसम्मति-सी होती है।
यदि एक भी सांसद किसी विधेयक पर बाकायदा मतदान की मांग करे तो पीठासीन अध्यक्ष को मजबूरन मतदान करवाना पड़ता है। इस संसदीय नियम का पालन नहीं हो पाया, क्योंकि विपक्षी सांसदों ने इतना जबर्दस्त हंगामा मचाया कि सदन में अराजकता फैल गई। विपक्ष का सोच है कि यदि बाकायदा मतदान होता तो ये विधेयक कानून नहीं बन पाते। विपक्ष को पिछले 6 साल में यही मुद्दा हाथ लगा है, जिसके दम पर देश में गलतफहमी फैलाकर कोई आंदोलन खड़ा कर सकता है। प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री ने साफ-साफ कहा है कि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्यों, मंडियों और आड़तियों की व्यवस्था ज्यों की त्यों रहेगी लेकिन अब किसानों के लिए खुले बाजार के नए विकल्प भी खोले जा रहे हैं ताकि उनकी आमदनी बढ़े। इस नए प्रयोग के लागू होने के पहले ही उसे बदनाम करने की कोशिश को घटिया राजनीति नहीं कहें तो क्या कहेंगे ? सरकार ने छह रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में 50 से 300 रु. प्रति क्विंटल की वृद्धि कर दी है। प्रसिद्ध किसान नेता स्व. शरद जोशी के लाखों अनुयायियों ने इस कानून के पक्ष में आंदोलन छेड़ दिया है। मेरी राय में ये दोनों आंदोलन इस समय अनावश्यक हैं। जऱा सोचें कि कोई राजनीतिक दल देश के 50 करोड़ किसानों को लुटवाकर अपने पांव पर क्या कुल्हाड़ी मारना चाहेगा ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विकास बहुगुणा
अर्थशास्त्र का एक नियम कहता है कि किसी चीज की कीमत उसकी मांग और आपूर्ति के समीकरण पर निर्भर करती है. यानी मांग ज्यादा है और आपूर्ति कम तो कीमत ज्यादा हो जाएगी और इसकी उल्टी स्थिति में कम. लेकिन जैसा कि हर नियम के साथ होता है, इस नियम के भी कुछ अपवाद हैं. पूरी दुनिया को हिला चुके कोरोना वायरस के टेस्ट की कीमत को भी इन अपवादों में शामिल किया जा सकता है. इस कीमत में पहले से काफी कमी होने के बावजूद.
उत्तर प्रदेश सरकार ने बीते दिनों कोविड-19 की पुष्टि के लिए होने वाले आरटी-पीसीआर टेस्ट के दाम पर लगी सीमा को और कम कर दिया है. पहले यह 2500 रु थी जो अब 1600 रु हो गई है. सरकार का कहना है कि कोरोना टेस्टिंग के लिए इससे ज्यादा पैसा वसूलने वाली लैब्स के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. पहले यह सीमा 4500 रु थी जिसे जून में 2500 रु कर दिया गया था. महाराष्ट्र और झारखंड सहित दूसरी राज्य सरकारों ने भी हाल में ऐसे कदम उठाए हैं. इस तरह देखें तो अब देश में हर जगह कोरोना वायरस की टेस्टिंग की कीमत 2000 रु या इससे नीचे आ गई है. मार्च 2020 तक इसके लिए पांच हजार रु तक वसूले जा रहे थे. लेकिन कइयों को यह कीमत अब भी ज्यादा लग रही है.
कोरोना वायरस का टेस्ट तीन तरह से किया जा सकता है. पहला तरीका जेनेटिक है जिसमें मरीज के गले या नाक से लिए गए किसी सैंपल में कोरोना वायरस के डीएनए का पता लगाया जाता है. इसे ‘रिवर्स ट्रांस पॉलीमेरेज चेन रिएक्शन’ यानी आरटी-पीसीआर टेस्ट कहते हैं. दूसरा तरीका एंटीजन टेस्ट है जिसमें सैंपल में वे खास प्रोटीन तलाशे जाते हैं जो कोरोना वायरस की सतह पर पाए जाते हैं और इस तरह शरीर में संक्रमण की पहचान की जाती है. इसकी विशेषता यह है कि यह करीब आधा घंटे में निपट जाता है. हालांकि यह पूरी तरह विश्वसनीय नहीं है क्योंकि इसमें 60 फीसदी तक गलत नतीजे मिलने की बात कही जा रही है.
तीसरा तरीका एंटीबॉडी टेस्ट है. इसमें खून का सैंपल लेकर यह देखा जाता है कि उसमें कोरोना वायरस से लड़ने वाली रक्त कोशिकाएं यानी एंटीबॉडीज मौजूद हैं या नहीं. अगर हैं तो पुष्टि हो जाती है कि संबंधित व्यक्ति को कोरोना वायरस का संक्रमण हो चुका है. हालांकि यह तरीका सक्रिय संक्रमण की पहचान के लिए इस्तेमाल नहीं होता. बाकी दोनों तरीकों में से पीसीआर टेस्ट को ही विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कोरोना वायरस टेस्टिंग का ‘गोल्ड स्टैंडर्ड’ माना जाता है. यही वजह है कि यह सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है और इसको लेकर ही सबसे ज्यादा बहस भी हो रही है.
पहले यह समझते हैं कि आरटी-पीसीआर टेस्ट कैसे होता है. इसके लिए वायरसों से जुड़ी कुछ मोटी-मोटी जानकारियां समझनी होंगी. वायरस असल में कोशिकाओं में पाए जाने वाले अम्ल (न्यूक्लेइक एसिड) और प्रोटीन से बने सूक्ष्मजीव होते हैं. इन्हें एक जेनेटिक मटीरियल (आनुवांशिक सामग्री) भी कहा जा सकता है क्योंकि ये आरएनए और डीनए जैसी जेनेटिक सूचनाओं का एक सेट (जीनोम) होते हैं. जब कोई वायरस किसी जीवित कोशिका में पहुंचता है तो कोशिका के मूल आरएनए और डीएनए की जेनेटिक संरचना में अपनी जेनेटिक सूचनाएं डाल देता है. इससे वह कोशिका संक्रमित हो जाती है और अपने जैसी ही संक्रमित कोशिकाएं बनाने लगती है. यह ठीक वैसा ही है जैसा कोई सॉफ्टवेयर वायरस करता है. वह किसी सॉफ्टवेयर में प्रवेश करता है, उसे करप्ट करता है और उससे अपने मनचाहे काम करवाता है.
किसी व्यक्ति के शरीर में कोरोना वायरस के संक्रमण की पुष्टि के लिए उसके नाक या गले से स्वाब लेकर उसे लैब में भेजा जाता है क्योंकि कोरोना वायरस यहीं पैठ जमाए होता है. यह स्वाब मानव कोशिकाओं, वायरस और जीवाणुओं का मिश्रण होता है. इसके बाद कई तरह के केमिकल्स के जरिये इस सैंपल से प्रोटीन और दूसरी अवांछित चीजें हटाई जाती हैं. इसके बाद जो बचता है वह संबंधित व्यक्ति और वायरस (अगर वह संक्रमित है तो) दोनों के जेनेटिक मटीरियल का मिश्रण होता है. यानी सैंपल में दोनों का आरएनए होता है.
अब प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए इस आरएनए को डीएनए में बदलने की जरूरत पड़ती है. ऐसा रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस नाम के एक एंजाइम की मदद से किया जाता है. लेकिन इसके नतीजे में मिले डीएनए की मात्रा इतनी नहीं होती कि इसका ठीक से और सटीक विश्लेषण किया जा सके इसलिए इस डीएनए की असंख्य प्रतिलिपियां यानी कॉपीज बनाई जाती हैं. इस चरण को पॉलीमेरेस चेन रिएक्शन या पीसीआर कहते हैं. इसके लिए सैंपल में एक विशेष एंजाइम मिलाकर और उसे एक मशीन में रखकर इस मिश्रण को कई बार गर्म और ठंडा किया जाता है.
गर्म और ठंडा करने का हर चक्र कुछ ऐसी रासायनिक अभिक्रियाओं को जन्म देता है जिससे डीएनए की कॉपीज बनने लगती हैं. हर चक्र में यह संख्या दोगुनी हो जाती है. यानी पहले चक्र में दो कॉपीज बनती हैं तो दूसरे में चार और तीसरे में आठ. सटीक नतीजे के लिए औसतन ऐसे 35 चक्र दोहराये जाते हैं. इसका मतलब यह है कि यह चरण खत्म होने तक डीएनए की अरबों कॉपीज बन चुकी होती हैं. इसी दौरान सैंपल में एक फ्लूरोसेंट यानी चमकने वाली डाइ मिलाई जाती है और अगर इस प्रक्रिया के दौरान उसकी चमक एक खास स्तर को पार कर जाती है तो सैंपल में कोरोना वायरस के जेनेटिक मटीरियल की पुष्टि हो जाती है. यानी साफ हो जाता है कि मरीज कोरोना पॉजिटिव है. इस पूरी प्रक्रिया में कम से कम 24 घंटे का समय लगता है. लेकिन अच्छी बात यह है कि मशीन में एक साथ कई सैंपल्स का परीक्षण किया जा सकता है.
इसी आरटी-पीसीआर टेस्ट की कीमत को लेकर कुछ समय से बहस गर्म है जिस पर अलग-अलग पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं. नोएडा में लॉजिस्टिक्स के कारोबार से जुड़े विभांशु द्विवेदी कहते हैं, ‘कुछ दिनों पहले हमारे पास दक्षिण अफ्रीका से एक रिक्वायरमेंट आई जिसमें क्लाइंट को कोरोना टेस्टिंग किट चाहिए थी. तो हमने इसकी कॉस्टिंग वगैरह पर काम किया. किट में एक कॉटन स्वाब स्टिक और कंटेनर होते हैं जिनकी मदद से मरीज के नाक या गले से सैंपल लिया जाता है और लैब तक पहुंचने तक सुरक्षित रखा जाता है. हमने कुछ मैन्युफैक्चरर्स से पता किया तो इन दोनों चीजों की लागत 12 रु के करीब आ रही थी. सात रु की स्वाब स्टिक और पांच रु का कंटेनर.’ सवाल है कि इसके बाद लैब संबंधी प्रक्रियाओं से जुड़े दूसरे तमाम खर्चों का भी हिसाब लगा लें तो क्या टेस्ट के लिए डेढ़ से लेकर दो हजार रु या कुछ समय पहले की साढ़े चार हजार रुपये की कीमत को सही ठहराया जा सकता है?
इस साल मार्च में कोरोना वायरस संक्रमण से निपटने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान हुआ था. उस समय चुनिंदा सरकारी लैब्स को ही कोरोना टेस्ट की अनुमति थी. धीरे-धीरे प्राइवेट लैब्स को भी इस कवायद में शामिल किया गया और अब सरकार के ही मुताबिक देश भर में 1700 से भी ज्यादा लैब्स कोरोना वायरस की टेस्टिंग कर रही हैं. लेकिन इस टेस्टिंग की कीमत तय किए जाने को लेकर मापदंड क्या हैं, इसे लेकर अब भी ज्यादा जानकारी नहीं है. कई लोग मौजूदा कीमत के बारे में मानते हैं कि इसे काफी बढ़ा-चढ़ाकर तय किया गया है. उनके मुताबिक इससे सबसे ज्यादा परेशानी उन्हें हो रही है जिन्हें अपना इलाज निजी अस्पतालों में कराना पड़ रहा है क्योंकि पीड़ितों को यह टेस्ट कई बार कराना पड़ता है.
स्वास्थ्य क्षेत्र पर नजर रखने वाली संस्था ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क से जुड़ीं मालिनी आइसोला का कुछ समय पहले हमारी सहयोगी वेबसाइट स्क्रोल.इन से बात करते हुए कहना था, ‘ये टेस्ट उतना महंगा है ही नहीं जितना इसे बना दिया गया है.’ उनकी मांग थी कि सरकार को यह जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए कि वह जो कीमत तय कर रही है उसका आधार क्या है.
कोरोना वायरस संक्रमण के शुरुआती महीनों में पूरी दुनिया में उथल-पुथल मची हुई थी. सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) से लेकर टेस्टिंग किट तक कोरोना वायरस की पहचान, इससे सुरक्षा और इसके इलाज से जुड़ी हर चीज की एकाएक भारी मांग पैदा हो गई थी जबकि आपूर्ति कम थी. हालांकि जानकारों के मुताबिक उस समय भी कोरोना टेस्टिंग के दाम पांच या साढ़े चार हजार रखने को जायज नहीं ठहराया जा सकता था. अब तो न पीपीई की कमी है, न किट की और न ही एंजाइम या दूसरे केमिकल्स की. इसके बावजूद टेस्ट के दाम 1600 या 2000 रु क्यों हैं, कइयों के मुताबिक यह एक बड़ा सवाल है.
जैसा कि एक सरकारी संस्था में काम करने वाले बायोटेक्नॉलॉजिस्ट एन रघुराम कहते हैं, ‘हम शोध संबंधी काम के लिए अपनी लैब में आरटी-पीसीआर टेस्ट करते रहते हैं और इसकी लागत प्रति टेस्ट 500 रु से भी काफी कम आती है.’ हालांकि वे पौधों को संक्रमित करने वाले वायरसों का आरटी-पीसीआर टेस्ट करते हैं, लेकिन उनका दावा है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि टेस्ट की प्रक्रिया और उसमें काम आने वाली चीजें लगभग वही होती हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक प्रतिष्ठित संस्थान में पढ़ाने वाले एक अन्य बायोटेक्नॉलॉजिस्ट कहते हैं, ‘सब कुछ मिलाकर आरटी-पीसीआर टेस्ट की कीमत 450-500 रु तक निपट जानी चाहिए.’
तो सवाल उठता है कि यह टेस्ट अब भी डेढ़ से दो हजार रु के बीच क्यों हो रहा है. कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट में अपने एक हलफनामे में इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने कहा था कि टेस्ट का दाम उस विशेष किट की कीमत के आधार पर तय किया गया है जो इस टेस्ट के लिए इस्तेमाल हो रहा है. जानकारों के मुताबिक पहला फर्क इसी से पैदा हो रहा है. एन रघुराम कहते हैं कि निजी और सरकारी लैब्स को किट्स सप्लाई कर रहे उत्पादक इन्हें बहुत ज्यादा कीमत पर बेच रहे हैं और इसलिए टेस्ट की कीमत भी बहुत बढ़ जा रही है. मसलन सैंपल निकालने और कलेक्ट करने के लिए 12 रु की लागत वाला किट अभी भी कम से कम 500 रु में बेचा जा रहा है.
उधर, टेस्टिंग के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों की दलील है कि सिर्फ किट की लागत का हिसाब लगाकर इस टेस्ट की कीमत तय नहीं की जा सकती. उनका कहना है कि आरटी-पीसीआर टेस्ट की प्रक्रिया में कई तरह के दूसरे संसाधन भी लगते हैं और आलोचकों को इस पहलू पर भी ध्यान देना चाहिए. थायरोकेयर टेक्नॉलॉजीज के एमडी ए वेलुमनी के मुताबिक पूरे टेस्ट की कीमत में किट के दाम की हिस्सेदारी सिर्फ 25 फीसदी होता है. स्क्रोल.इन से बातचीत में वे कहते हैं, ‘जब आप एक फ्लाइट का टिकट खरीदते हैं तो उसकी लागत में सिर्फ ईंधन की कीमत शामिल नहीं होती. वह कुल रकम का एक हिस्सा भर होती है.’ इंदौर की एक निजी कंपनी सेंट्रल लैब का भी कहना है कि टेस्टिंग की कीमत तय करने में मुख्य भूमिका किट की नहीं होती.
लाल पैथ लैब्स के सीईओ ओपी मनचंदा भी इन दोनों की बातों से इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं, ‘कई ऐसे खर्च हैं जो करने पड़ रहे हैं, लेकिन उनकी बात नहीं होती. उदाहरण के लिए कर्मचारियों का बीमा.’ तर्क यह भी है कि संक्रमण की आशंका के चलते लैब कर्मचारियों पर परिवार की ओर से काम न करने का दबाव है इसलिए लैब्स को उन्हें ज्यादा पैसा भी देना पड़ रहा है. ए वेलुमनी कहते हैं, ‘इसके अलावा सैंपल लाने वालों को पीपीई किट देने पड़ते हैं. ऑफिस स्पेस और इसकी मेंटेनेंस का खर्च होता है. एचआर कॉस्ट है. सैंपल को लैब तक लाने में भी खर्च होता है.’ उदाहण के लिए यह व्यवस्था भी करनी पड़ती है कि लैब तक पहुंचने के समय सैंपल का तापमान दो से आठ डिग्री के बीच रहे. ऐसा न होने पर सैंपल खराब होने और नतीजा गलत आने का जोखिम रहता है.
इसके अलावा स्वास्थ्य क्षेत्र के जानकार कहते हैं कि अगर काम का दबाव ज्यादा हो तो लैब्स को शिफ्टें और कर्मचारियों की संख्या बढ़ानी पड़ सकती है. साथ ही पीसीआर और दूसरी मशीनों की संख्या में भी बढ़ोतरी करनी पड़ सकती है. पीसीआर मशीन में जितने ज्यादा सैंपल एक साथ जांचे जा सकें, एंजाइमों और नतीजनत लागत में उतनी ही अधिक बचत हो सकती है. लेकिन जब नतीजे जल्द से जल्द देने का दबाव हो तो मशीनों की कुल क्षमता से कम सैंपल्स के साथ भी टेस्ट शुरू करना पड़ता है.
हालांकि दूसरे वर्ग का दावा है कि इन सब कारकों को ध्यान में रखते हुए भी टेस्ट की कीमत में अभी कमी की गुंजाइश है. उसके मुताबिक मार्च की तरह अब पीसीआर मशीनों के क्षमता से कम सैंपल्स के साथ चलने जैसी स्थिति बिल्कुल नहीं है क्योंकि अब रोज ही 10 लाख से ज्यादा टेस्ट हो रहे हैं. यानी 1700 लैब्स के हिसाब से देखें तो एक लैब रोज औसतन करीब 600 टेस्ट कर रही है. विभांशु कहते हैं, ‘इसी तरह मार्च में जो स्टैंडर्डाइज पीपीई किट 1100 रु का मिल रहा था वो अब करीब 250 रु का आ रहा है.’ जानकारों के मुताबिक इसी तरह और भी खर्च काफी कम हुए हैं. जहां तक मशीनों की बात है तो करीब 100 सैंपलों की क्षमता वाला एक थर्मोसाइक्लर (जिसमें कूलिंग और हीटिंग को अंजाम दिया जाता है) डेढ़ से दो लाख रु में उपलब्ध है. कुछ जानकारों के मुताबिक टेस्टिंग के आंकड़े देखें तो लैब्स को इस तरह की मशीनों में एक या दो की ही बढ़ोतरी करनी पड़ी होगी जो कि कोई बहुत भारी निवेश नहीं है.
यानी दोनों तरफ से अपनी-अपनी दलीलें हैं. यही वजह है कि कई जानकार इस मामले में सरकार का भी दोष मानते हैं. उनके मुताबिक जब वह इस टेस्ट की कीमत तय कर रही है तो उसे यह जानकारी भी सार्वजनिक कर देनी चाहिए कि इसका आधार क्या है. इन लोगों के मुताबिक अगर ऐसा हो जाता तो कीमत को लेकर उठ रहे सवाल अपने आप ही खत्म हो जाते. वहीं, कुछ लोगों का यह मानना है कि यह जानकारी इसीलिए सार्वजनिक नहीं हो रही है क्योंकि इससे आरटी-पीसीआर टेस्ट के नाम पर हो रही मुनाफाखोरी को लेकर नए सवाल खड़े हो सकते हैं. (satyagrah)
-कनक तिवारी
दुर्लभ व्यक्तित्व के धनी प्रोफेसर पीडी खेरा से हम लोगों का बरसों का परिचयरहा है। कभी पता चला था कि ग्राम लमनी में बैगा आदिवासियों के बीच कोई एक व्यक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापकी से सेवानिवृत्त होने के बाद उनमें रच बस गया है। उनसे बार बार मिलना हुआ। लंबी बातें भी हुईं।
एक बार अपने सात्विक अहंकार में हम कुछ मित्रों ने कुछ पुराने कपड़े इक_े किए अन्य सामानों के अतिरिक्त। उन्हें जा कर बैगा बच्चों और पुरुषों महिलाओं आदि के लिए देने की पेशकश की। दवाइयां खाद्य सामग्री आदि उन्होंने स्वीकार कर लीं। लेकिन अपनी अत्यंत संजीदगी और विनम्रता में बोले पुराने कपड़े इन्हें नहीं देना चाहिए। उनके आत्मसम्मान को चोट पहुंचती है। उन्हें लगता है कि वे समाज की अतिरिक्ताए हैं। हम शर्मसार हो गए और तत्काल हमने बिलासपुर लौट कर अपने आप को संशोधित किया और बच्चों के लिए नए कपड़े और खाद्य सामग्री वगैरह फिर से उन्हें भिजवाई।
रायपुर में समाजशास्त्रियों के एक सम्मेलन में व्याख्यान देने बुलाया था। तब बहुत कम लोगों को समझ में आया था इस व्यक्ति को यहां बुलाए जाने का क्या अर्थ हो सकता है। उनकी कोई कुटिया जाकर देखे या उसे पोस्ट कर दे वह तस्वीर यदि किसी के पास है। तो मैं कह सकता हूं जिम्मेदारी के साथ कि गांधी की कुटिया भी इतनी अकिंचन नहीं थी नहीं थी। एक बार ही अपना भोजन पकाते और वही भोजन करते। इतनी सादगी बल्कि गरीबी ऐसा लगता था कि झोपड़ी में गांधी के अनुसार समाज का अंतिम व्यक्ति रहता है। आज हमारे समाज के हमारे छत्तीसगढ़ के मनुष्यता के सिरमौर हैं।
प्रोफेसर खेरा चले गए। आखिरी कुछ वर्षों में भी बहुत बीमार रहे हैं। उनके इलाज का प्रबंध तो हो सा गया था छत्तीसगढ़ में बिलासपुर में किया गया। लेकिन उम्र और स्वास्थ्य कभी किसी का साथ बहुत दिन तक नहीं देते। उन्होंने अपना पूरा जीवन छत्तीसगढ़ के बैगा आदिवासियों की सेवा में लगा दिया। सरकार ने बहुत देर से उनकी प्रतिभा को उनके महत्व को उनकी सेवा को पहचाना और कुछ उनके लिए करने की कोशिश की। तब तक देर हो चुकी थी। लेकिन केवल श्रद्धांजलि देने से काम नहीं बनेगा। जो काम उन्होंने अपने हाथ में लिया था। वह काम सरकार को अपनी कल्याणकारी योजनाओं में शामिल करना चाहिए।
अभी तो बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता। एक एकाकी जीवन जीने वाला महारथी हमारे बीच में से चला गया। उनकी झोपड़ी तो गांधीजी की झोपड़ी से ज्यादा मामूली थी। एक बार अपने हाथ से भोजन बनाना दिन भर उसी को खाना एक ही झोपड़ी में सब कुछ करना वही निवास वहीं सोना वहीं अध्ययन वही सेवा करने का जतन करना। ऐसे ऐसे लोग तो पैदा ही नहीं होंगे लगता है। वे प्राचीन भारतीय ऋषि परंपरा के प्रतीक थे।
- Eesha
सती प्रथा भारतीय समाज के इतिहास में सबसे शर्मनाक कुरीतियों में से एक है। जैसा कि हम सब जानते हैं, इस प्रथा के तहत विवाहित महिलाओं और लड़कियों को अपने मृत पति की चिता पर ज़िंदा जला दिया जाता था। छोटी-छोटी बच्चियों को भी इस नृशंस प्रथा का शिकार होना पड़ता था। ऐसा माना जाता था कि एक नारी का अस्तित्व उसके पति की मृत्यु के साथ खत्म हो जाता है और एक पत्नी को पति की मृत्यु होने पर भी उसका साथ नहीं छोड़ना चाहिए। सती प्रथा का उल्लेख कई विदेशी लेखकों की कृतियों में मिलता है, जो पर्यटक, वाणिज्यिक या औपनिवेशिक शासक के रूप में मध्यकालीन भारत में आए थे। जिन्होंने अपनी आंखों से इस कुप्रथा का पालन होते हुए देखा था। सुनने में अचरज होता है कि यह मध्ययुगीन प्रथा 20वीं सदी के आधुनिक, आज़ाद भारत में भी चलती आ रही थी, जबकि हमें पढ़ाया यही गया है कि सामाजिक आंदोलन इस पर पूरी तरह से रोक लगाने में सफल हुए थे, पर सच यही है। भारत में सती प्रथा की आखिरी घटना हुई थी 1980 के दशक में। सती प्रथा की आखिरी पीड़ित थी 1987 में राजस्थान की रहनेवाली एक 18 साल की लड़की ‘रूप कंवर।’
19वीं सदी में सती प्रथा भारत में कानूनी तौर पर रद्द हुई। कई भारतीय समाज सुधारकों के प्रयासों के चलते ब्रिटिश सरकार ने साल 1829 में देशभर में सती पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून जारी किया पर कानूनी प्रतिबंध लगने के बावजूद पूरे देश में इस प्रथा पर रोक नहीं लगाई जा सकी। नतीजन साल 1987 में सती प्रथा के कारण रूप कंवर को अपनी जान गंवानी पड़ी। रूप कंवर राजस्थान के सीकर ज़िले के एक राजपूत परिवार की लड़की थी। जनवरी 1987 में उसकी शादी देवराला गांव के रहनेवाले, 24 साल के माल सिंह शेखावत से करवा दी गई। माल सिंह कॉलेज में बी.एस.सी का छात्र था और शादी के कुछ ही महीनों बाद वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया, जिसकी वजह से उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। लंबे समय तक अपनी ज़िंदगी के लिए लड़ने के बाद, 3 सितंबर 1987 को माल सिंह शेखावत का देहांत हो गया।
रूप कंवर की हत्या का मामला एकबार फिर यही दिखाता है कि कानून में चाहे कितने भी बदलाव आए, समाज और लोगों की मानसिकता को बदलना इससे कहीं ज़्यादा मुश्किल है।
4 सितंबर 1987 को माल सिंह का अंतिम संस्कार किया गया। उसकी चिता पर उसकी पत्नी रूप कंवर को भी ज़िंदा जला दिया गया। मरने के बाद रूप कंवर ‘सती माता’ बन गई। जिस जगह पर उसे जलाया गया था, आज वहां एक बड़ा तीर्थस्थल है जहां देवी के रूप में उसकी पूजा होती है। आज भी पूरे राजस्थान से सैकड़ों श्रद्धालु यहां ‘सती माता’ के दर्शन करने आते हैं।
महिला संगठनों ने इस घटना पर खूब आपत्ति जताई थी। यह घटना एक महिला की नृशंस हत्या तो थी ही, ऊपर से इस हत्या को पीड़िता का ‘त्याग’ और ‘बलिदान’ बताकर इस अपराध का महिमामंडन किया जा रहा था। नारीवादी कार्यकर्ताओं और आंदोलनों के चलते साल 1987 में ही ‘सती निवारण कानून’ पारित किया गया। यह कानून सती प्रथा को परिभाषित करता है और इसका पालन करने या बढ़ावा देने वालों को एक साल से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा सुनाता है। यह सज़ा सिर्फ़ औरत की हत्या करने के लिए ही नहीं बल्कि किसी भी तरह से सती प्रथा का समर्थन करने के लिए है। जैसे, पीड़िता को ‘देवी’ या ‘माता’ बनाकर पूजना, उसके नाम पर तीर्थस्थल या मंदिर बनाना, चंदा इकट्ठा करना वगैरह। इसी कानून के तहत देवराला गांव के 45 निवासियों को रूप कंवर की हत्या के लिए गिरफ़्तार किया गया था। हालांकि कोई ठोस सबूत न मिलने की वजह से आज वे सब बरी हो गए हैं।
देवराला का राजपूत समाज यह मानता है कि सती होना प्रेम और बलिदान का प्रतीक है। पति के प्रेम में जो औरत अपने प्राण त्याग देती है उसे साधारण औरत नहीं, देवी माना जाता है। उनका विश्वास है कि अदालत इन औरतों के प्रेम की भावना नहीं समझ पाती और सती प्रथा की घटनाओं को बेवजह हत्या और अपराध घोषित कर दिया जाता है। रूप कंवर के भाई गोपाल सिंह राठौर आज 61 साल के हैं। वे कहते हैं कि उन्हें अपनी बहन पर गर्व है कि उसने सती होने का निर्णय लिया था। गांव के कई लोग मानते हैं कि रूप कंवर सचमुच देवी थी। उनके अनुसार माल सिंह के मरने के बाद वह ज़रा भी नहीं रोई, बल्कि अपनी शादी के जोड़े और सोलह श्रृंगार में सजकर अपने पति की चिता पर बैठ गई। माल सिंह के सिर को अपनी गोद में रखा और भगवान का नाम लेने लगी। गांव वालों का कहना है कि चिता पर भी किसी इंसान ने आग नहीं लगाई, बल्कि चिता अपने आप जल उठी थी। जलती चिता पर बैठकर रूप कंवर मुस्कराती रही और उसने अपना दाहिना हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में रखा था।
कुछ लोग, जो इस घटना के समय वहां मौजूद थे, इस कहानी पर विश्वास नहीं करते। उनका कहना है कि रूप कंवर बुरी तरह रो रही थी और उसने खुद को कमरे में बंद कर दिया था। बाद में जब उसे बाहर निकाला गया, वह नशे की हालत में थी और ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। उसके ससुराल वालों ने उसे चिता पर लिटाया और उसकी छाती पर लकड़ियां रख दीं ताकि वह भाग न पाए, और इसी हालत में उसे जला दिया गया था। देवराला के निवासी मानते हैं कि आज सती प्रथा कानूनी रूप से प्रतिबंधित है, पर इसके बावजूद रूप कंवर के प्रति उनकी भक्ति ज़रा भी कम नहीं होती। वे मानते हैं कि रूप कंवर के पास दिव्य शक्ति थी जिसके रहते वह सती हो पाई, और जो हर औरत के पास नहीं रहती।
रूप कंवर की हत्या का मामला यही दिखाता है कि कानून में चाहे कितने भी बदलाव आएं, समाज और लोगों की मानसिकता को बदलना ज़्यादा मुश्किल है। सती प्रथा जैसे जघन्य कानूनन अपराध के लिए एक प्रगतिशील समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए, फिर भी इसके शिकार हुई महिलाओं का महिमामंडन करके इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। रूप कंवर की मृत्यु को 33 साल पूरे होने को आए हैं, फिर भी समाज आज भी वैसा का वैसा ही है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- Vandana
‘अच्छी लड़कियां हमेशा अपने पति की बात मानती हैं।’
‘अच्छी लड़कियों को घूंघट में रहना चाहिए।’
ये बातें गांव में किशोरियों के साथ बातचीत करते हुए कुछ छोटी बच्चियों ने अच्छी औरत और बुरी औरत पर अपने विचार रखते हुए कहा। मात्र नौ-दस साल की बच्चियों के मुंह से ऐसी बातें सुनना बेहद अजीब था, क्योंकि ये बच्चियां जिस परिवेश से आती है वह आर्थिक रूप से बेहद कमजोर है। यहां ज़्यादातर आदमी-औरत दोनों ही मज़दूरी का काम करते हैं। शायद इसलिए महिलाएं अन्य संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की अपेक्षा में ज़्यादा स्वतंत्र है। वे घूंघट नहीं लेती है और न ही अपने पति की हर बात मानती है। कम ही सही लेकिन खुद पैसे कमाती हैं, इसलिए सभी नहीं लेकिन कुछ फ़ैसले ज़रूर खुद लेती हैं। अब ऐसे परिवार की बच्चियों का अच्छी औरत के नाम पर घूंघट करने और पति की बात मानने की बात करना अजीब था। जब मैंने उनसे पूछा कि ये सब तुम्हें किसने बोला? तो ज़वाब में बच्चियों ने कहा टीवी पर आता है। बौन्दिता ऐसे ही करती है।
ये बौन्दिता टीवी पर आने वाले सीरियल बैरिस्टर बाबू की नायिका है। सीरियल में बौन्दिता का किरदार एक आठ-नौ साल की बच्ची ने निभाया है। बैरिस्टर बाबू की कहानी आज से सौ साल पहले की है। कहने को तो सीरियल से जुड़े लोग इंटरव्यू में कहते हैं कि ‘ये सीरियल उस समय के समाजिक ढांचे की तरफ ध्यान दिलाता है। सामाजिक समस्याओं का समाधान सिर्फ तर्क से है इसीलिए शो की टैगलाइन भी ‘तर्क से फर्क’ रखी गई है और बौन्दिता जो कि एक बच्ची है, अपने तर्कों, सवालों और जिज्ञासा से सामाजिक खामियों को तार-तार करती है। बैरिस्टर बाबू की लड़ाई सामाजिक सोच से है।’ साथ ही यह भी कहा गया कि सीरियल रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़ने की कहानी है।
बौन्दिता का किरदार बच्चियों को किताबों से दूर समाज के बनाए जेंडर के साँचे में ढलने और उसमें रहने को प्रेरित करता है।
लेकिन अब सोचने वाली बात ये है कि इस सीरियल को दिखाने का विचार आमलोगों तक ख़ासकर बच्चियों तक कैसे पहुंच रहा है? क्योंकि बच्चों को तो समाज क्या है इसका मतलब भी नहीं पता। समाज में बचपन से ही लड़की को लड़की की तरह रहने का पाठ पढ़ाया जाता है। हर पल डांट-मार और उपदेश देकर उनके लड़की के खांचे में ढालने की कोशिश की जाती है। ऐसे में बैरिस्टर बाबू सीरियल में बौन्दिता जैसे किरदार बच्चियों को घुट्टी की तरह दी जाने वाली सीख को और मज़बूत कर देते है। लैंगिक भेदभाव की जड़ें मज़बूती से बच्चियों के मन में पैठ जमा लेती हैं और उन्हें लगता है सारी डांट-मार और बंदिशें उन्हें अच्छा बनाने के लिए है। बौन्दिता क्या कह रही है, क्या कर रही है, ये सब समझना गांव की छोटी बच्चियों के लिए बेहद मुश्किल है, क्योंकि उन्हें शहरी बच्चों की तरह अच्छे क्या स्कूल भी नसीब नहीं है और न वैचारिक स्तर पर घर में भी कोई मज़बूत है। ऐसे में बौन्दिता के कपड़े, उसके माथे की बिंदी, चूड़ी, सिर का पल्लू और पति के नाम पर प्यार-सम्मान दिखाने का तरीक़ा उन्हें अलग ही दुनिया में ले जाता है।
कोरोना के दौर में स्कूल बंद है। गांव में बच्चों की पढ़ाई और दस साल पीछे जा रही है। छोटे बच्चे जिन्हें संज्ञा-सर्वनाम पढ़ना था वो क-ख भी नहीं पढ़ पा रहे है। पर घर में टीवी देखकर वो अब टीवी कलाकारों की कहानियों को जीने ज़रूर लगे हैं।
हो सकता है कि बहुत लोग मेरी बात से सहमत न हो और इसके लिए वे ऐसे टीवी सीरियल की खूबी बताएं। पर ऐसे लोगों से मैं यही कहूंगी कि सीरियल में कही जाने वाली बातें हम और आप समझ सकते है लेकिन छोटी बच्चियों को ये समझाना मुश्किल है। वे जो अपने सामने घटित होता देखती हैं वही समझती हैं, उसे ही सच्चाई मान लेती हैं। इसलिए ऐसे सीरियल और किरदारों पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि आज के ज़माने में यह दिखाना कि हर बौन्दिता को बैरिस्टर बाबू मिले इसकी संभावना न के बराबर है। सभी बच्चियां बौन्दिता जैसी समझदार हो ये ज़्यादा ही अपेक्षा है। पर ये तय है कि बौन्दिता का किरदार बच्चियों को किताबों से दूर समाज के बनाए जेंडर के सांचे में ढलने और उसमें रहने को प्रेरित करता है। इसलिए हमें और आपको भी इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी कि घर में बच्चे ऐसे सीरियल से बचे, क्योंकि इनसे बचना ही बच्चों के बचपन को बचाएगा।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
पहली पुण्यतिथि : ‘छत्तीसगढ़’ विशेष
-मो. उस्मान कुरैशी
आज से ठीक एक वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर पी.डी. खेरा का 93 वर्ष की आयु में अपोलो हॉस्पिटल में देहावसान हो गया था। वे 36 साल पहले अचानकमार टाइगर रिजर्व घूमने के लिये आये थे और महानगर की आरामदेह जीवन शैली को त्यागकर यहीं के होकर रह गये। मिट्टी की एक झोपड़ी पर उन्होंने अपना बसेरा बना लिया। उन्होंने गरीब और वंचित बैगाओं की दशा सुधारने के लिये अपना शेष सारा जीवन लगा दिया। उनके स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा और आर्थिक दशा ठीक करने के लिये वे निष्काम भाव से काम करते रहे। इस खास रिपोर्ट में उनसे लिया गया 7 वर्ष पुराने एक साक्षात्कार का अंश भी है जो बैगाओं की सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर गहरे चिंतन की अभिव्यक्ति है। प्रो. खेड़ा को चाहने वाले उनकी समझ को केन्द्र में रखते हुए जन-जातियों को बचाने का काम कर सकते हैं। सरकार नीतियां बना सकती है। उनकी पहली पुण्यतिथि पर पढ़ें स्वतंत्र पत्रकार मो. उस्मान कुरैशी की यह विशेष रिपोर्ट-
छत्तीसगढ के मुंगेली जिले में बाघ और जंगली जानवरों से समृद्ध अचानकमार टाइगर रिजर्व के भीतर लमनी गांव है। ठीक एक साल पहले 23 सितंबर 2019 की सुबह अनजान शहरी लोगों की बढ़ती भीड़ का जमा होते जाना, इस गांव में बसे बैगा आदिवासियों के लिए कौतूहल था। ऐसा नहीं था कि ऐसी गाडियों और शहरी लोगों को वे पहली बार देख रहें हो। देखते थे, इन गाड़ियों को तेज रफ्तार के साथ अपने गांव की सडक से गुजरते हुए या फिर सीधे विश्राम-गृह में घुसते हुए। आज सड़क पर गाडियां और शहरी लोग तेज रफ्तार से भाग नहीं रहे थे, उनकी तेज रफ्तार गाड़ियों के पहिए गांव में सड़क किनारे बनी मिट्टी की झोपडी पर आकर थम जा रहे थे। इस भीड़ की वजह थी जंगल में तीन दशक से रह रहा शहरी आदमी और आदिवासियों के हमदर्द ‘दिल्ली वाले साब’। यानी प्रो. पीडी खेरा। जो बरसों पहले उनके बीच उनके पोशाकों से इतर कुर्ते पाजामे में उनकी ही तरह मिट्टी की झोपड़ी में ठहर कर उनके बीच रच-बस गए थे।

गांव के लोग सालों देखते रहे कि कभी-कभी कुछ लोग उनसे आकर मिलते है, लंबी बातचीत भी होते देखते रहे पर कभी इनका उनके साथ सरोकार हो, ऐसा महसूस नहीं किया। जंगल में बसे बैगा आदिवासियों को बीती शाम ही खबर हो गई थी उनके सिर पर अब आसमान नहीं रहा। दावानल की तरह ही तो ये खबर पूरे जंगल में फैल गई थी। समझ नहीं पा रहे थे कि ये क्या हो गया। पूरा जंगल उदास था। जंगल से निकल कर अल-सुबह ये सड़क के किनारे अपने मसीहा के पार्थिव देह को विदा करने उमड़ पड़े थे।
कम नहीं होता 35 साल का लम्हा, युवाओं की दो पीढ़ियों को अपने ज्ञान और सेवा से सींच कर बड़ा किया था, ज्ञान की रोशनी से रास्ता दिखा रहे थे। आज वे कृतज्ञ दृष्टि से अपने मसीहा को विदा होते देख रहे थे। और वे देख रहे थे उन अनजान चेहरों को जो उनके काफिले का हिस्सा बने हुए थे। न जाने क्या सोचकर ही तो वे कोई 35 साल पहले सैकडों मील दूर बड़े शहर के अभिजात्य जीवन और अपने लोगों की भीड़ को छोड़कर इस जंगल में अनजान लोगों के बीच आ बसे। इनके बीच ऐसे रचे-बसे की उनको लगा कि ये उनके ही हिस्से है। फिर ये कौन सी भीड़ थी जो उनका पीछा करते जंगल के बीच बने मिट्टी की झोपड़ी तक आ पहुंची थी। ऐसी जगह, जहां उनके बैठने तक की जगह नहीं। जहां रखी चारपाई के आधे हिस्से में किताबें पसरी हुई थी। इस जनसैलाब में उनका कोई रिश्तेदार, नातेदार नहीं था। जो थे उनमें नेता, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, आला दर्जे के प्रशासनिक अफसर शामिल रहे. जिनको प्रोफसर डॉ, पीडी खेरा के त्याग, सेवा और समपर्ण ने मुरीद बना दिया था।

दिसम्बर 2013 में उनसे इस रिपोर्टर की लम्बी बात हुई थी। तब प्रो. खेरा ने बताया कि जब सन् 1984 में पहली बार जब यहां आए तो यहां के बैगाओं को देखकर लगा कि जीवन की सार्थकता यहीं है। सच्ची मानव सेवा यहीं हो सकती है। जब वे यहां आए आदिवासी बहुत पिछड़े थे। मन को शांति मिली पर रुकने में बड़ी कठिनाईयां आती रही। समझ गया कि यहां बसेरा बनाना आसान काम नहीं है। शुरू में यहां कुछ भी नहीं था। राशन दुकानें भी नहीं थीं। ये सब चीजें यहां का सौर उर्जा का स्टेशन हमारी दौड़-धूप से बना। टाटा की एक टीम आई थी हम अचानकमार में थे। हमने मिलकर ये स्टेशन शिफ्ट करवाया। पता ही नहीं लगता था कि इस जंगल का मालिक कौन है, क्योंकि सरकारी सेवायें इन तक पहुंचती ही नहीं थीं। बसों की यात्रा कर कलेक्टर दफ्तर के (तब बिलासपुर जिला) दर्जनों बार चक्कर लगाये तब एक चलित खाद्यान्न सेवा शुरू हुई।

बैगाओं की सेहत को लेकर उनकी चिंता
बैगाओं के स्वास्थ्य पर चिंता जताते प्रोफेसर खेरा कहते कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। खाना नही मिलता, क्योंकि शिकार पर रोक है। पहले गोश्त शिकार करके खाते थे अब खरीदना पड़ता है जो बहुत महंगा है। यहां इनको कम से कम सूअर रखने की इजाजत दी जाए। ज्यादातर लोग दारू पीते हैं। दारू पीयें और खाना ठीक नहीं मिले तो टीबी हो जाता है। और भी बहुत सी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।ये निरक्षर लोग हैं। गलती से अपना खुराक ठीक करने कभी सूअर को पकड़ कर खा भी लें तो वन विभाग वाले नहीं छोड़ते। वे जंगली सूअर न खाएं तो क्या खाएं। एक गिलहरी को खा लिया तो जेल भेज दिया। सरकार इस खत्म होती जाति बचाने की बात करती है पर उनके जीने के तौर-तरीके पर भारी दखल है। ये उनके लिये अच्छा नहीं है। बैगाओं के लिये खादी के थैले में उनके पास हमेशा मलेरिया, बुखार की दवायें रहती थीं। बच्चों को नहलाना-धुलाना, साफ धुले कपड़े पहनाना, उनके रोज का काम था।

झूम खेती पर रोक ने पहुंचाया नुकसान
बैगाओं की संख्या लगातार घट रही है । पहले ये बहुतायत में थे अब वे जंगल में भी अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। बाहरी लोग बहुत आ गए हैं। उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं। बेटी की शादी होती है तो दामाद को भी यहां बसा लेते हैं। गोड़ हैं, अहीर हैं, सारी जातियां यहां आ गई। मूल तो असल में ये बैगा ही थे। वे झूम खेती (शिफ्टिंग कल्टिवेशन या बेवर खेती) करते थे। 20-25 लोगों का परिवार होता था, जितनी जरूरत होती थी उतना किसी भी जगह फसल उगा लेते थे। अब इस पर रोक लग गई है। जंगल के फल-फूल, पौधे पत्ते, धूप छांव सब उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। यह प्रथा बंद क्या हुई बैगा मारे गये, कुचल दिये गये। शहरों से डिग्री लेकर आये जंगल के अफसर इन बातों को क्या समझेंगे? वर्दी में आते हैं, सहमे हुए बैगा दुबक जाते हैं। जंगल में जो उपजता है, उसी पर बैगाओं का जीवन निर्भर है पर सब जंगल के अफसरों ने धीरे-धीरे अपने कब्जे में ले लिया। अब ये खायें तो क्या, जीवन बचायें तो कैसे?


