विचार/लेख
बेबाक विचार डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस-अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने संकट से उबरने के बाद जो यह पहला कदम उठाया है, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। उन्होंने सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बात की और कहा कि ‘जी’ और ‘नीट’ की परीक्षाएं स्थगित की जाएं। इन दोनों प्रवेश-परीक्षाओं में लगभग 25 लाख छात्र बैठते हैं। इन सात मुख्यमंत्रियों में से चार कांग्रेस के हैं। दो मुख्यमंत्री कांग्रेस की मदद से अपनी कुर्सी पर हैं। सातवीं मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी हैं। ये सातों सोनियाजी की हां में हां मिलाएं, यह स्वाभाविक है।
दिल्ली की ‘आप’ सरकार और तमिलनाडु की भाजपा समर्थित सरकार भी इन परीक्षाओं के पक्ष में नहीं हैं। इन सरकारों का मुख्य तर्क यह है कि कोरोना की महामारी के दौरान ये परीक्षाएं देश में बड़े पैमाने पर रोग फैला सकती हैं। इन प्रांतीय सरकारों की यह चिंता स्वाभाविक है लेकिन इनसे कोई पूछे कि यह चिंता क्या विश्वविद्यालय अनुदान आयोग या शिक्षा मंत्रालय या सरकार को नहीं होगी ?
उन्हें तो विपक्षियों से भी ज्यादा होगी। इसीलिए उन्होंने परीक्षा के लिए बेहतरीन इंतजाम किए हैं। ‘जी’ की परीक्षाएं 660 और ‘नीट’ की परीक्षाएं 3842 केंद्रों पर होंगी। इन केंद्रों पर परीक्षार्थियों के लिए शारीरिक दूरी रखने, मुखपट्टी लगाने, जांच आदि का कड़ा इंतजाम होगा। 99 प्रतिशत छात्रों के लिए वे ही परीक्षा-स्थल तय किए गए हैं, जो उन्होंने पसंद किए हैं। जिन्हें दूर-दराज के केंद्रों में जाना है, उनके केंद्र बदलने की प्रक्रिया भी जारी है। इसके अलावा छात्रों की यात्रा और रात्रि-विश्राम की व्यवस्था भी कुछ राज्य सरकारें कर रही हैं। ऐसी स्थिति में इन परीक्षाओं को स्थगित करने की मांग कहां तक जायज है ? यदि ये परीक्षाएं स्थगित हो गईं तो लाखों छात्रों का पूरा एक वर्ष बर्बाद हो जाएगा। जो फीस उन्होंने भरी है, वह राशि बेकार हो जाएगी।
जब देश में रेलें और बसें चल रही हैं, मेट्रो खुलनेवाली हैं, मंडियां और बड़े बाजार खुल रहे हैं तो परीक्षाएं क्यों न हो ? यह बात एक याचिका पर बहस के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने भी पूछी है। अब यदि ये सातों राज्य फिर से अदालत की शरण में जाएंगे तो वह शुद्ध नौटंकी ही होगी। उसका नतीजा क्या होगा, यह उनको पता है। विपक्षी मुख्यमंत्रियों और कांग्रेस-नेताओं का यह कदम उन्हें लाखों छात्रों और उनके अभिभावकों से अलग करेगा। विपक्ष अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रहा है ? (नया इंडिया की अनुमति से)
-आलोक शुक्ला
सुधा भारद्वाज और अन्य 11 लोगों पर भीमा कोरेगांव की हिंसा का फर्जी आरोप लगाकर एफआईआर दर्ज कर उन्हें हिरासत में लिया गया है। जो हिंसा 1 जनवरी 2018 को पुणे शहर के पास भीमा कोरेगांव में भडक़ी थी उसके असली गुनहगारों मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े को छोडक़र यह मामला मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, जनपक्षधर वकीलों, लेखकों और प्रोफेसरों को फर्जी केस में फंसाकर हिरासत में लेने की साजिश में तब्दील हो गया है। भीमा कोरेगांव का कार्यक्रम जो दलित अस्मिता का प्रतीक है उसे हिंसक मोड़ देने और उसका आरोप इन कार्यकर्ताओं, वकीलों, लेखकों, प्रोफेसर और सांस्कृतिक कर्मियों पर लगाना
सत्ता के द्वारा विरोध के स्वरों को दबाने व भय का माहौल खड़ा करने की गहरी साजिश है।
गिरफ्तार सभी साथी कई दशकों से इंसाफ व न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये बेहद चिंताजनक है कि जो लोग संविधान और कानून के पालन और शोषण के खिलाफ एक समतापूर्ण समाज के निर्माण के लिए अपना जीवन, श्रम और संसाधनों को निस्वार्थ अर्पित कर रहे हैं, उन्हें देशद्रोही बताकर फर्जी केसों में फंसाया जा रहा है। ये केवल उन लोगों पर एक व्यक्तिगत हमला नहीं है बल्कि सभी जन-संघर्ष, मज़दूर आंदोलन, जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई व मनुवादी-फांसीवादी ताकतों के खिलाफ चल रहे दलित बहुजन आदिवासी आंदोलनों पर भी प्रहार है। दरअसल मोदी सरकार देश में लोकतांत्रिक अधिकारों को निलंबित कर अघोषित आपातकाल लागू कर रही हैं जिसका प्रमुख उद्देश्य देश के समस्त प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक उपक्रमों को बेशर्मी के साथ कार्पोरेट को सौंपना।
छत्तीसगढ़ के संदर्भ में वकील सुधा भारद्वाज ने अपने जीवन का तीन दशक से ज्य़ादा समय मज़दूरों व किसानों के हकों की लड़ाई कोर्ट में और एक ट्रेड यूनियन की नेत्री के बतौर कंधे से कंधा मिलाकर लडऩे में दिया है। राजनांदगांव में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के हक में, बस्तर में मानव अधिकार के हनन के खिलाफ, रायगढ़ व सरगुजा में औद्योगिक घरानों की लूट के खिलाफ जन-जंगल-ज़मीन की लड़ाई में, भिलाई में सीमेंट कारखानों के मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी के लिए, भिलाई, रायपुर व विलासपुर में बस्तियों के तोड़े जाने के खिलाफ उनके हक के लिए हाईकोर्ट में लडऩा - ये सब लड़ाइयां सुधा भारद्वाज ने लड़ी हैं। और उनकी इस फर्जी केस पर गिरफ्तारी से सभी जन-आंदोलन एवं मजदूर-किसान संगठन बेहद आक्रोशित हैं। हम ये बात समझ रहे हैं कि ये छत्तीसगढ़ में चल रही जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाइयों, मजदूर-किसानों के संघर्ष को दबाने पर सीधा हमला है।
सुधा भारद्वाज व अन्य 4 लोगों को 28 अगस्त 2018 में गिरफ्तार किया गया था। दो साल होने को हैं पर अभी तक उनके केस की न्यायिक कार्यवाही भी ठीक से आगे नहीं बढ़ी है। और अभी हाल ही में एक और गिरफ्तारी की गई। इसके अलावा, ऐसा प्रतीत होता है कि ज़मानत की सुनवाइयों में भी जानबूझकर और बिना वजह की देरी की जा रही है। अब जब कोविड के काल में सब तरफ जेलों को खाली करने की बात की जा रही है तब भी इस केस से जुड़े लोगों की ज़मानत की सुनवाई को टाला जा रहा है।
सुधाजी की 23 जुलाई को कोर्ट से मिली जेल की मेडिकल रिपोर्ट चिन्ताजनक थी। रिपोर्ट में बताया गया है कि सुधा भारद्वाज ‘इस्केमिक हार्ट डिजीज’ से पीडि़त हैं, जो हृदय की धमनियों के संकुचित होने के कारण होती है जिससे हृदय की मांसपेशियों में रक्त के प्रवाह की कम होती है और जिससे दिल का दौरा पड़ सकता है। यह बेहद चिंताजनक है क्योंकि 27 अक्टूबर, 2018 को हिरासत में लिए जाने से पहले सुधा भारद्वाज को दिल से जुड़ी कोई शिकायत नहीं थी, ऐसा उनकी बेटी मायशा ने बताया।
मायशा ने बताया कि उसकी माँ के दिल की बिगड़ती स्थिति स्पष्ट रूप से दो साल से कारागर में परिरुद्ध होने के तनाव के कारण ही पैदा हुई है, और अभी भी विचारण शुरू होने के कोई लक्षण नजऱ नहीं आ रहे हैं। चिकित्सकीय डॉक्टरों ने हृदय की ऐसी स्थिति को गंभीर बताया, जिससे दिल का दौरा पड़ सकता है। जेल से प्राप्त चिकित्सा रिपोर्ट यह स्पष्ट नहीं करती है कि इस स्थिति का निदान कब किया गया था, न ही इस निदान का आधार बताती है। इस अनिश्चितता और पूर्ण चिकित्सा इतिहास के प्रकटीकरण की कमी के कारण सुधाजी के सभी विस्तारित परिवार और करीबी सहयोगियों को गहरी चिंता है।
सुधा भारद्वाज की दिल की बीमारी की खबर नई है, पर पहले से ही उनको मधुमेह और रक्तचाप है, और कुछ सालों पहले तपेदिक भी था, जिस कारण उनको कोविद के संक्रमण से सामान्य से अधिक खतरा है। इस तरह की महामारी के समय, किसी असुरक्षित, भीड़-भाड़ वाली जगह पर ऐसे व्यक्ति का एक दिन भी व्यतीत करना उनको अनावश्यक जोखिम में डालना होता है। न्यायिक प्रक्रिया में इस तरह की देरी अति दु:खदायी है।
अत : हम सब मांग करते हैं कि, सुधा भारद्वाज और उनके साथ भीमा कोरेगांव मांमले में बंद सभी की रिहाई के लिए सुनवाई जल्द हो और इस फर्जी केस को रद्द किया जाय।
सभी को, खासकर सुधाजी और उनके साथ बंद वरिष्ठ एवं स्वास्थ्य-पीडि़त बंदियों को कोविड-19 को ध्?यान में रखते हुए स्वास्थ्य के आधार पर अंतरिम ज़मानत तुरंत दी जाए।
भीमा कोरेगांव केस की सही रूप में जांच की जाय और उसके असली गुनहगारों - मिलिंद एकबोटे व संभाजी भिड़े को तुरंत गिरफ्तार किया जाय।
न्याय व मानवाधिकारों के लिए लडऩे वाले मानव अधिकार कार्यकर्ता, दलित बहुजन के हकों की लड़ाई लडऩे वाले कार्यकर्ता, आदिवासी हक की बात करने वाले वकील एवं कार्यकर्ता और महिलाओं की आवाज़ बुलंद करने वाले प्रोफेसरों, लेखकों व वकीलों पर दमन बंद किया जाय।
एक हिंदी टीवी न्यूज़ चैनल पर सिविल सेवाओं में मुसलमानों के चयन पर सवाल उठाने वाले एक कार्यक्रम के टीज़र पर आपत्ति करते हुए कई नौकरशाहों और उनके संगठनों ने इसके ख़िलाफ़ कार्रवाई की माँग की है.
सुदर्शन न्यूज़ नाम के इस न्यूज़ चैनल ने मंगलवार को अपना एक टीज़र जारी किया जिसमें चैनल के संपादक ने ये दावा किया है कि 28 अगस्त को प्रसारित होने वाले इस कार्यक्रम में 'कार्यपालिका के सबसे बड़े पदों पर मुस्लिम घुसपैठ का पर्दाफ़ाश' किया जाएगा.
सोशल मीडिया पर इसे लेकर आलोचना शुरू हुई और जिसके बाद गुरूवार को भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के संगठन ने इसकी निंदा करते हुए इसे 'ग़ैर-ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता' क़रार दिया है.
A news story targeting candidates in civil services on the basis of religion is being promoted by Sudarshan TV.
— IPS Association (@IPS_Association) August 27, 2020
We condemn the communal and irresponsible piece of journalism.
पुलिस सुधार को लेकर काम करने वाले एक स्वतंत्र थिंक टैंक इंडियन पुलिस फ़ाउंडेशन ने भी इसे 'अल्पसंख्यक उम्मीदवारों के आईएएस और आईपीएस बनने के बारे में एक हेट स्टोरी' क़रार देते हुए उम्मीद जताई है कि ब्रॉडस्काटिंग स्टैंडर्ड ऑथोरिटी, यूपी पुलिस और संबंद्ध सरकारी संस्थाएँ इसके विरूद्ध सख़्त कार्रवाई करेंगे.
The hate story carried on a Noida TV channel against minority candidates joining IAS /IPS is dangerous bigotry. We refrain from retweeting it because it is pure venom. We hope #NewsBroadcastingStandardsAuthority, #UPPolice and concerned government authorities take strict action.
— Indian Police Foundation (@IPF_ORG) August 27, 2020
सुदर्शन न्यूज़ के संपादक सुरेश चव्हानके ने आईपीएस एसोसिएशन की प्रतिक्रिया पर अफ़सोस जताते हुए कहा है कि 'उन्होंने बिना मुद्दे को समझे इसे कुछ और रूप दे दिया है'. उन्होंने संगठन को इस कार्यक्रम में शामिल होने का निमंत्रण दिया है.
Unfortunate that @IPS_Association twisting without knowing the issue.
— Suresh Chavhanke “Sudarshan News” (@SureshChavhanke) August 27, 2020
Issue is sudden spike in no of people of certain category selected in UPSC Civils in the last few years.
You're invited to participate in our program for informed discussion, if you care for UPSC objectivity. https://t.co/jy4wJXhljk
राजनीतिक विश्लेषक तहसीन पूनावाला ने इस कार्यक्रम के बारे में दिल्ली पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई है.
A news story targeting candidates in civil services on the basis of religion is being promoted by Sudarshan TV.
— IPS Association (@IPS_Association) August 27, 2020
We condemn the communal and irresponsible piece of journalism.
पूनावाला ने साथ ही इस बारे में न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन (एनबीए) के अध्यक्ष रजत शर्मा को एक पत्र लिख उनसे इस कार्यक्रम का प्रसारण रूकवाने और सुदर्शन न्यूज़ तथा इसके संपादक के विरूद्ध क़ानूनी कार्रवाई करने का अनुरोध किया है.
दिल्ली की जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के शिक्षकों के संगठन ने भी एक बयान जारी कर यूनिवर्सिटी प्रशासन से इस बारे में अवमानना का मामला दायर करवाने का अनुरोध किया है.
Jamia Teachers’ Association requests the University administration to file Criminal Defamation Suit against anti-Indian and anti-JMI remarks by traitor @SureshChavhanke CMD and Chief Editor of @SudarshanNewsTV.#JamiaMilliaIslamia #SuspendSureshChavhanke pic.twitter.com/WMRbPbhVfV
— Jamia Millia Islamia (@jamiamillia_) August 27, 2020
आईएएस और आईपीएस अधिकारियों ने की आलोचना
छत्तीसगढ़ के आईपीएस अधिकारी आरके विज ने इस कार्यक्रम के टीज़र पर प्रतिक्रिया करते हुए इसे 'घृणित' और 'निंदनीय' बताया है और कहा है कि वो इस बारे में 'क़ानूनी विकल्पों पर ग़ौर कर रहे हैं'.
Exploring legal options @ashubh https://t.co/u4BK6cbuYk
— RK Vij, IPS (@ipsvijrk) August 27, 2020
छत्तीसगढ़ काडर के आईएएस अधिकारी अवनीश शरण ने भी इस शो पर प्रतिक्रिया करते हुए लिखा है कि 'इसे बनाने वाले से इस कथित पर्दाफ़ाश के स्रोत और उसकी विश्वसनीयता के बारे में पूछा जाना चाहिए'.
A new entry in the ‘मंडी’ of TRP. He should be asked about the source and reliability of this so called “पर्दाफ़ाश.” https://t.co/y0zh28Wz1j
— Awanish Sharan (@AwanishSharan) August 27, 2020
पुड्डुचेरी में तैनान आईपीएस अधिकारी निहारिका भट्ट ने लिखा है, "धर्म के आधार पर अफ़सरों की निष्ठा पर सवाल उठाना ना केवल हास्यापस्द है बल्कि इसपर सख़्त क़ानूनी कार्रवाई होनी चाहिए. हम सब पहले भारतीय हैं."
A despicable attempt at hate mongering. To question the credentials of officers on the basis of religion is not only laughable, but should also be dealt with strictest legal provisions.
— Niharika Bhatt IPS (@niharika_bhatt) August 27, 2020
We are all Indians first ???????? https://t.co/6NoDA1fiAU
हरियाणा के आईएएस अधिकारी प्रभजोत सिंह ने लिखा है, "पुलिस इस शख़्स को गिरफ़्तार क्यों नहीं करती और सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट या अल्पसंख्यक आयोग या यूपीएससी इस पर स्वतः संज्ञान क्यों नहीं लेते? ट्विटर इंडिया कृपया कार्रवाई करे और इस एकाउंट को सस्पेंड करे. ये हेट स्पीच है."
Why dont police arrest him and why SC or HCs or Minorities commission or UPSC dont take suo motto cognizance now? @TwitterIndia please take action and suspend this account. Its hate speech. https://t.co/A24LzH8Z3Y
— Prabhjot Singh IAS (@PrabhjotIAS) August 27, 2020
बिहार में पूर्णिया के ज़िलाधिकारी राहुल कुमार ने लिखा है, "ये बोलने की आज़ादी नहीं है. ये ज़हर है और संवैधानिक संस्थाओं की आत्मा के विरूद्ध है. मैं ट्विटर इंडिया से इस एकाउंट के विरूद्ध कार्रवाई करने का अनुरोध करता हूँ."
This is not free speech. This is sheer poison and against the fabric of our constitutional institutions. I request @TwitterIndia @TwitterSafety @Twitter to take action against this account. https://t.co/IBkP4EskD5
— Rahul Kumar (@rahulias6) August 27, 2020
The only identity that will forever matter and define us, the civil servants, is being Indian ????????
— Rakesh Balwal (@ips_balwal) August 27, 2020
Hate Speech Check @TwitterIndia https://t.co/m9Xnri4Ux4
राष्ट्रीय जाँच एजेंसी एनआईए में कार्यरत आईपीएस अधिकारी राकेश बलवल ने लिखा है, "हम सिविल सेवा अधिकारियों के लिए एकमात्र पहचान जो कोई अर्थ रखती है, वो है भारत का राष्ट्र ध्वज."(bbc)
- प्रवीण साहनी
अगर अमेरिका के सर्वोच्च सैन्य अधिकारी- ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी दक्षिण चीन सागर के मामले में चीन को सैन्य कार्रवाई की धमकी देते, तय मानिए कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की ओर से इसका उचित जवाब जरूर दिया जाता। लेकिन भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत ने हाल ही में कहा कि अगर लद्दाख में भारत-चीन की वार्ता विफल रहती है तो सैन्य कार्रवाई का विकल्प है, तो इस पर पीएलए एकदम से मौन है। ऐसा क्यों?
इसका बड़ा सीधा-सा कारण हैः आधुनिक प्रौद्योगिकियों के जानकार भली-भांति जानते हैं कि या तो जनरल रावत जुमलेबाजी कर रहे हैं या फिर आज युद्ध के पूरी तरह बदल चुके चरित्र से वह पूरी तरह नावाकिफ हैं। प्रौद्योगिकियों और ऑपरेशन या युद्ध लड़ने की कला के मामले में भारतीय सेना और चीन की पीएलए के बीच जो विशाल अंतर है, उसे शायद 1991 के खाड़ी युद्ध के उदाहरण से बेहतर समझा जा सकता है। खाड़ी युद्ध 43 दिनों तक चला जिसमें से जमीनी मुकाबला मात्र 100 घंटे का था जो अनिवार्य रूप से ऑपरेशन को समाप्त करने के लिए था। पड़ोसी देश ईरान के साथ एक दशक लंबी लड़ाई का अनुभव रखने वाली इराकी सेना के जाबांज रिपब्लिकन गार्ड्स अमेरिकी प्रौद्योगिकी के सामने बिना लड़ाई लड़े बुरी तरह हार गए थे।
दुनिया, विशेष रूप से पीएलए को अमेरिका की ‘स्टील्थ तकनीक, गाइडेड युद्धक सामग्री, और इनसे भी ज्यादा युद्ध नेटवर्क (सेंसर, निशानेबाजों और कमांड पोस्ट के बीच वास्तविक समय की कनेक्टिविटी) पर आधारित युद्ध लड़ने की रणनीति देखकर मानो काठ मार गया। पीएलए ने तत्काल समझ लिया कि अमेरिकी सैन्य प्रौद्योगिकीय क्षमताओं का मुकाबला कर सकने वाला तकनीकी, वैज्ञानिक-औद्योगिक बुनियादी ढांचा और पैसा उसके पास नहीं है। लेकिन चीन ने इसकी तोड़ निकाली। युद्ध में समय पर निर्णय लेना सबसे अहम होता है और इसके लिए उसने सिस्टम डिस्ट्रक्शन वारफेयर, यानी ऐसी व्यवस्था विकसित की जो अमेरिका के युद्ध नेटवर्क कमांड, कंट्रोल, संचार और निगरानी प्रणाली को या तो काम ही न करने दे या फिर उसे सूचना इकट्ठा करने में देरी हो।
चीन ने यह क्षमता साइबर और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध कौशल और मिसाइलों (बैलिस्टिक और क्रूज) पर ध्यान केंद्रित करके विकसित की। वर्ष 2000 के शुरू में ही चीन के पास असासिन्समेस, यानी दुश्मन की सूचना व्यवस्था को ठप करके उसे अचानक और पूरी तरह से अक्षम कर देने की क्षमता आ गई थी। दुश्मन से सीधे लड़ने के बजाय उसे पंगु बना देने की चीन की इस क्षमता ने अमेरिकी सेना का ध्यान अपनी ओर खींचा। अमेरिका को इससे भी तेज झटका 2012 में उस समय लगा जब उसे पता चला कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और 11 आधुनिक अवरोधात्मक प्रौद्योगिकी में भी चीन उसका एक बड़ा प्रतिस्पर्धी बन गया है और जाहिर है कि इन क्षमताओं के कारण समृद्धि के लिए चौथी औद्योगिक क्रांति की राह पर चलते हुए बीजिंग युद्ध-कौशल और भू-राजनीति को बदल देने जा रहा है।
चीन की ताकत को नया आयाम देने वाली ये प्रौद्योगिकियां हैंः माइक्रो इलेक्ट्रॉनिक, साइबर तकनीक, 5-जी वायरलेस संचार, अंतरिक्ष, हाइपरसोनिक, निर्देशित ऊर्जा हथियार, नेटवर्क संचार, मिसाइल रक्षा, क्वांटम तकनीक और परमाणु परीक्षण। और तो और, माना जाता है कि 5-जी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम-जैसी कुछ तकनीकों में तो चीन ने अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है। चीन की इस प्रौद्योगिकीय उन्नति का ही असर था कि अमेरिका ने 2014 में रोबोटिक्स, ऑटोनोमी और मानव- मशीन फ्यूजन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए अपनी तीसरी ऑफसेट रणनीति की घोषणा की। चीन की चुनौती का सामना करने के लिए ही अमेरिका ने यह तीसरी ऑफसेट रणनीति पर आगे बढ़ने का फैसला किया और यह चीन की युद्ध कौशल के लिए तकनीक प्रेरित उन्नति का स्पष्ट प्रमाण था।
दुर्भाग्य है कि भारत के वरिष्ठ सैन्य अधिकारी 1990 के बाद के महत्वपूर्ण 30 वर्षों तक पाकिस्तान और आतंकवाद-रोधी अभियानों में उलझे रहे और चीन से लगती वास्तविक नियंत्रण रेखा पर पीएलए की बढ़ती चुनौतियों से मुंह मोड़े रहे। यह बात खास तौर पर जनरल रावत के मामले में एकदम सटीक बैठती है जिन्हें दिसंबर, 2016 में इसलिए सेना प्रमुख बनाया गया क्योंकि आतंकवाद विरोधी ऑपरेशंस में उन्हें कथित तौर पर विशेषज्ञता हासिल थी।
पीएलए और पाकिस्तान की सेना में बहुत अंतर है इसलिए यह बात शीशे की तरह साफ है कि चीन को रोकने के लिए युद्ध का एकदम नया खाका तैयार करना होगा। भारतीय सेना बहादुरी के साथ युद्ध लड़ने वाली अनुभवी सेना है और यह तय है कि पीएलए भारतीय सेना की इस ताकत से दो-दो हाथ नहीं करेगा। इसके बजाय वह युद्ध को अपनी ताकत के मुताबिक लड़ेगा, यानी उसकी युद्ध रणनीति तकनीक आधारित होगी। जब सीडीएस रावत ने चीन को धमकी दी तो उन्होंने पीएलए की युद्ध लड़ने की क्षमताओं में हुई बेतहाशा वृद्धि को नजरअंदाज कर दिया। उन्हें और ज्यादातर विश्लेषकों को यह बात समझ में नहीं आ रही कि 2017 के डोकलाम और 2020 के लद्दाख संकट में जमीन-आसमान का अंतर है।
यह मानते हुए कि जनरल रावत लापरवाह हैं और वह पूर्वी लद्दाख में कब्जे वाले इलाके को खाली कराने के मकसद से पीएलए पर दबाव डालने के लिए 3,488 किमी लंबे एलएसी पर एक नया मोर्चा खोलने का फैसला करेंगे, यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि जैसे ही भारत की ओर से पहली गोली चली, चीन की ओर से तत्काल एक साथ चार मोर्चे पर जवाबी कार्रवाई का होना तय है। वैसी स्थिति में चीन युद्ध के निर्दिष्ट क्षेत्र से बाहर जाकर कार्रवाई करेगा। तब एक ऐसा बड़ा साइबर हमला संभव है जो पूरे देश को प्रभावित कर दे।
चूंकि चीनी कंपनियां भारत के दूरसंचार, बिजली, सूचना और संचार से लेकर रक्षा ग्रिड से भी जुड़ी हुई हैं, इसलिए सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि युद्ध के आभासी मैदान में एक साइबर युद्ध वास्तव में क्या कुछ कर जाएगा। इस तरह का युद्ध दुनिया ने अब तक देखा भी नहीं है। पूरे व्यावसायिक और वित्तीय क्षेत्र में घबराहट, भय और अफरा-तफरी का माहौल होगा और सरकार को समझ में नहीं आ रहा होगा कि क्या करे।
पीएलए की ओर से दूसरा संभावित हमला होगा कमांड और संचार प्रणाली पर। चीन की सर्वोच्च सैन्य नीति निर्धारक निकाय सेंट्रल मिलिट्री कमीशन इस रणनीति को अपने मातहत दो प्रमुख संगठनों के जरिये अंजाम देगा। ये संगठन हैंः साइबर, स्पेस, इलेक्ट्रॉनिक और मनोवैज्ञानिक क्षमताओं से युक्त स्ट्रैटेजिक सपोर्ट फोर्स और रॉकेट फोर्स जिसके तहत सभी बैलिस्टिक, क्रूज और हाइपरसोनिक मिसाइल आती हैं। ऐसी स्थिति में माना जा सकता है कि भारत के अंतरिक्ष उपग्रह साइबर मालवेयर हमलों से लेकर पीएलए की उप-कक्षीय उपग्रहों को पंगु बनाने और उपग्रह-विरोधी क्षमताओं के निशाने पर होंगे। इसके साथ ही कमांड सेंटर, विभिन्न फील्ड मुख्यालय, एयरफील्ड और महत्वपूर्ण सूचना उपलब्ध कराने वाले केंद्रों पर भी हमले किए जाएंगे।
मोटे तौर पर पीएलए का लक्ष्य होगा समय पर निर्णय लेने के लिए जरूरी सूचनाओं से भारतीय सेना को वंचित कर देना। इसका नतीजा यह होगा कि युद्ध के दौरान निर्णय लेने के मामले में पीएलए को अहम बढ़त मिल जाएगी और वह तेजी से सटीक कार्रवाई कर सकेगी। महत्वपूर्ण बात यह है कि पीएलए ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक से अपने हथियारों को लैस कर रखा है। इसका असर युद्ध लड़ने के हर पहलू पर पड़ेगा- तेज और सटीक जानकारी पाने, टोही और निगरानी से लेकर त्वरित कार्रवाई तक।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का विकास अभी आरंभिक चरण में है लेकिन ये दो उदाहरण यह समझने के लिए काफी हैं कि युद्ध में इनका इस्तेमाल किस तरह हो सकता है। इसका सीधा मतलब है कि क्रूज मिसाइल बिना नियंत्रण के खुद ही इतनी सक्षम होंगी कि लक्ष्य को खोजकर उसे खत्म कर सकें। इसके अलावा पीएलए ने बड़ी संख्या में ड्रोन या मानवरहित हवाई वाहनों को नियंत्रित करने वाले एक उन्नत जमीनी स्टेशन की क्षमता का भी प्रदर्शन किया है।
कुल मिलाकर यह यह निश्चित है कि उन्नत प्रौद्योगिकी क्षमता के मुकाबले खड़ी भारतीय प्रशिक्षित सेना पीएलए को कब्जे वाले क्षेत्रों से बेदखल नहीं कर सकेगी। वही वजह है जो जनरल रावत की चेतावनी को हवा-हवाई बनाती है।(navjivan)
जन्म 27 अगस्त, 1935, दिल्ली
- अनुराग भारद्वाज
कुछ समय पहले खबर आई थी कि आईआईटी कानपुर के छात्रों द्वारा मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ गाए जाने के मामले की जांच होगी. आईआईटी के छात्रों ने यह नज़्म नए नागरिकता कानून का विरोध करते दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्रों के समर्थन में गाई थी. इसके खिलाफ एक शिकायत की गई थी. इसमें कहा गया था कि फ़ैज की इस नज़्म में कुछ ऐसे शब्द हैं जो हिंदुओं की भावनाओं को आहत कर सकते हैं.
करीब साढ़े तीन दशक पहले भी इस नज़्म से भावनाएं आहत होने का डर था. फर्क बस इतना है कि यह डर सरहद पार था. किस्सा यूं है कि 1985 में पाकिस्तान के फौजी आमिर (डिक्टेटर) ज़िया-उल-हक़ ने मुल्क में कुछ पाबंदियां लगा दी थीं. इनमें औरतों का साड़ी पहनना और शायर फैज़ अहमद फैज़ के कलाम गाना शामिल था. दोनों ही बातें निहायत ही बचकाना थीं. तब एक गायिका जिनका नाम इकबाल बानो था, उन्होंने इन फैसलों की मुख़ालफ़त करने की ठान ली और ऐलान करवा दिया कि अमुक रोज़ वे इन पाबंदियों को तोड़ देंगी. इसके लिए उन्होंने लाहौर स्टेडियम का इंतेख़ाब किया.
तयशुदा दिन स्टेडियम में ख़ास इंतज़ाम किये गए थे- हुक्मरानों ने इकबाल बानो को रोकने के लिए और उन्होंने इसकी मुखालफ़त के लिए. शाम का वक़्त था. तकरीबन पचास हज़ार सामईन (दर्शक) इस वाक़ये के गवाह बनने के लिए हाज़िर हो गए.
उस रोज़ काली साड़ी पहने इकबाल बानो निहायत खूबसूरत लग रही थीं. उन्होंने माइक संभाला और अपनी खनकदार आवाज़ में फ़रमाया; ‘आदाब!’ स्टेडियम गूंज उठा. चंद सेकंड बाद उन्होंने फिर कहा; ‘देखिये, हम तो फैज़ का कलाम गायेंगे और अगर हमें गिरफ्तार किया जाए तो मय साजिंदों के किया जाए जिससे हम जेल में भी फैज़ को गाकर हुक्मरानों को सुना सकें!’ स्टेडियम सन्न रह गया था. फिर जब तबले बोल उठे, शहनाई गूंज उठी तो बानो गा उठीं - ‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे...’ यह फैज़ अहमद फैज़ की माक़ूल नज्मों में से एक थी.
इस नज़्म में बीच में आता है - ‘सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाएंगे’, तो एक लाख हाथों ने आपस में मिलकर वह शोर मचाया कि स्टेडियम गूंज उठा. तकरीबन दस मिनट तक तालियों की गडगडाहट सुनाई दी. पाबंदियों की धज्जियां उड़ाकर रख दी गयी थीं. माहौल में गर्मी देखकर पुलिस की हिम्मत नहीं हुई उन्हें गिरफ्तार करने की. इस कदर बेख़ौफ़-ऐ-ख़तर थीं इकबाल बानो.
इकबाल बानो का जन्म 27 अगस्त, 1935 को दिल्ली में हुआ था. उनके वालिद मूलतः रोहतक के रुबाबदार ज़मींदार थे जिनके पास अच्छी-खासी ज़मींदारी थी. कहते हैं, घर में खुला माहौल था. उन्होंने बानो को दिल्ली घराने के उस्ताद चांद खान की शागिर्दी में कर दिया. उस्ताद ने उनके हुनर को बखूबी तराशा. उनको दादरा और ठुमरी की ज़बरदस्त ट्रेनिंग दी गयी. बताते चलें कि दिल्ली घराना इस मुल्क के सबसे पुराने घरानों में से एक है.
1950 में एक रोज़ जब दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो को कुछ नए गायकों की ज़रूरत हुई तो उस्ताद अपनी शागिर्द को ले गए और ऑडिशन करवाया. इसके पहले ऑडिशन खत्म होता, बानो को गाने का कॉन्ट्रैक्ट मिल चुका था. बस यहीं से उनके सितारा बनने का सफ़र हो गया.
बानो जब 17 साल की हुईं तो उनका पाकिस्तान के सूबे मुल्तान के एक ज़मींदार से निकाह हो गया. मेहर की रस्म में उनके वालिद ने बानो को ताजिंदगी गाने देने का अहद लिया उनके शोहर से. शोहर ने भी इस अहद को बाकमाल खूब निभाया. 1955 के आते-आते इकबाल बानो शोहरत की बुलंदी पर थीं. उर्दू फिल्में जैसे गुमनाम, क़त्ल, इश्क-ए-लैला और नागिन में उनके गए नगमे खूब हिट हुए.
पर इकबाल बानो का असल हुनर तो क्लासिकल गायकी जैसे - ठुमरी, दादरा में था. किसी ने उनको सलाह दी कि उनकी आवाज़ गज़लों पर खूब फबेगी. बस फिर क्या था? उनके सफर में एक और राह जुड़ गई. ग़ज़ल सुनने वालों ने उनकी गायकी के अंदाज़ को ख़ूब पसंद किया. उनका शेर पढने का अंदाज़, शेर के अलग-अलग माने कहना और बेगम अख्तर की तरह लफ़्ज़ों के उच्चारण पर ख़ास ध्यान देना, सुनने वालों को बेइंतहा भाया.
1970 में इकबाल बानो के शोहर का इंतकाल हो गया. इसके बाद वे मुल्तान से लाहौर चली आईं और फिर यहीं की होकर रह गयीं. इस दौर में फैज़ अहमद फैज़, नासिर काज़मी (दिल में एक लहर सी उठी है अभी...) जैसे शायरों के कलाम उन्होंने तसल्लीबख्श गाये जो खूब पसंद भी किये गए. कहते हैं कि फैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ को गाकर इकबाल बानो ने इस नज्म को और इस नज़्म ने इकबाल बानो को अमर कर दिया. 1974 में उन्हें पाकिस्तान सरकार ने ‘तगमा–ए-इम्तियाज़’ से नवाज़ा.
फिर ये किस्सा यूं ख़त्म हुआ कि चंद रोज़ वे बीमार रहीं और 21 अप्रैल, 2009 में लाहौर में उनका इंतेकाल हो गया. लेकिन उनके सुनने वालों के लिए इकबाल बानो हमेशा हैं और रहेंगी.(satyagrah)
- Eesha
हमारा देश अनगिनत सामाजिक आंदोलनों के आधार पर बना है। हज़ारों स्वतंत्रता आंदोलनों और विरोध-प्रदर्शनों के बाद ही हमें साल 1947 में जाकर आज़ादी मिली। आज़ाद होने के बाद भी अनेक बार इस देश के नागरिकों को सामाजिक आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा है। मौजूदा खराब परिस्थितियों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए या सरकार द्वारा किए गए किसी अन्याय के विरोध के लिए लोग सामाजिक आंदोलनों का सहारा लेते हैं। इनमें से कई आंदोलन ऐसे हैं जो महिलाओं ने शुरू किए थे और आगे बढ़ाए थे।
साल 2019 में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में किस तरह देशभर की महिलाएं सड़कों पर उतर आई थी वह हम सबने देखा है। ‘शाहीन बाग की दादियों’ के बारे में आज पूरी दिल्ली जानती है। यह पहली बार नहीं है जब भारत की औरतों ने एकजुट होकर नया इतिहास रच दिया हो। इसलिए हम आज बात करेंगे औरतों द्वारा शुरू किए गए उन छह सामाजिक आंदोलनों की, जो इस देश की प्रगति में मील के पत्थर साबित हुए।
1. चिपको आंदोलन
साल 1973 में मौजूदा उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में ‘चिपको आंदोलन’ शुरू हुआ था। इस क्षेत्र के जंगल सरकार ने इलाहाबाद के एक खेल सामग्री बनाने वाले को बेच दिए थे ताकि पेड़ों को काटकर टेनिस रैकेट बनाए जा सके। स्थानीय महिलाओं ने इस निर्णय का विरोध किया और गौरा देवी के नेतृत्व में जंगलों को कटने से बचाने के लिए वे पेड़ों से चिपककर खड़ी हो गई। यह था ‘चिपको आंदोलन’। यह सामाजिक आंदोलन चार दिनों तक जारी रहा जिसके बाद खेल सामग्री की कंपनी को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद उत्तराखंड के पहाड़ों में पेड़ काटना 15 सालों के लिए प्रतिबंधित रहा। चिपको आंदोलन भारत के सबसे महत्वपूर्ण पर्यावरणीय आंदोलनों में से एक है।
2. ग्रंविक हड़ताल
यह आंदोलन भारत में तो नहीं हुआ, पर इसमें शामिल सभी महिलाएं भारतीय मूल की थी। लंदन की ग्रंविक फैक्ट्री में ज़्यादातर कामगार भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देशों की महिलाएं थी। साल 1976 में एक कामगार जयाबेन देसाई ने फैक्ट्री के असहनीय हालात और अधिकारियों की नाइंसाफ़ी के खिलाफ़ फैक्ट्री कामगारों का हड़ताल बुलाया था। उनका कहना यह था कि कुछ ही दिनों पहले उनके बेटे देवशी को फैक्ट्री से निकाल दिया गया था। उन्होंने यह शिकायत भी थी कि फैक्ट्री के मालिक नस्लवादी हैं और जानबूझकर अपने भारतीय, एशियाई और अफ्रीकन कामगारों से अमानवीय परिस्थितियों में काम करवाते हैं। इस हड़ताल में शामिल लगभग 130 कामगारों को नौकरी से निकाल दिया गया। एक साल तक ग्रंविक फैक्ट्री के खिलाफ़ विरोध-प्रदर्शन जारी रहे जिनमें बीस हज़ार से भी ज़्यादा भारतीय महिला कामगारों ने भाग लिया। यह आंदोलन अधूरा रह गया क्योंकि इन औरतों की मांगें कभी पूरी नहीं हुई पर इतिहास में पश्चिमी दुनिया ने देखा कि भारतीय औरत शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठा सकती हैं और अपने अधिकारों के लिए लड़ सकती है।
2019 में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में किस तरह देशभर की महिलाएं सड़कों पर उतर आई थीं वह हम सबने देखा है। ‘शाहीन बाग की दादियों’ के बारे में आज पूरी दिल्ली जानती है। यह पहली बार नहीं है जब भारत की औरतों ने एकजुट होकर नया इतिहास रच दिया हो।
3. न्यूक्लियर विरोधी आंदोलन
साल 1988 में तमिलनाडु के इडिंतकरई गांव की औरतों ने तिरुनेलवेली में बसाए जानेवाले कुडंकुलम न्यूक्लियर पावर प्लांट का विरोध करना शुरू किया। मछुआरा समुदाय की इन औरतों का कहना है कि न्यूक्लियर विकिरण समुंदर को नुकसान पहुंचा सकता है, जो पर्यावरण और उनके रोज़गार दोनों के लिए एक खतरा है। साल 2001 में इस पावर प्लांट का निर्माण शुरू हुआ और यह साल 2013 से क्रियाशील है। इस बीच कई हड़ताल, प्रदर्शन और आमरण अनशन भी किए गए हैं पर किसी भी सरकार ने अभी तक इन महिलाओं की नहीं सुनी है।
4. अरक विरोधी आंदोलन
साल 1990 से देशभर में साक्षरता अभियान शुरू हुए। इन अभियानों में महिलाओं ने भारी मात्रा में हिस्सा लिया। साक्षरता अभियान महिलाओं के लिए फ़ायदेमंद साबित हुए क्योंकि वे यहां सिर्फ़ पढ़ना-लिखना ही नहीं, बल्कि सामाजिक मुद्दों के बारे में भी सीख रही थी। आंध्र प्रदेश के नेल्लोर ज़िले में इन्हीं अभियानों ने एक सामाजिक आंदोलन छेड़ दिया। महिलाएं जितनी जागरूक होने लगी, उन्हें एहसास होने लगा कि उनके गांव में ठेका शराब या ‘अरक’ की बिक्री एक बहुत बड़ी समस्या है। उनके पति दिनभर शराब के नशे में चूर रहते और काम पर नहीं जाते, जिसका असर उनकी आर्थिक स्थिति पर पड़ता। शराब पीकर वे घरेलू हिंसा भी करते थे। साल 1992 में महिलाओं ने ‘अरक विरोधी आंदोलन’ शुरू किया जिसका मकसद था पूरे राज्य में ठेका शराब पर प्रतिबंध लगाया जाए। यह आसान नहीं था क्योंकि शराब माफ़िया के साथ कई बड़े राजनेता भी शामिल थे, पर लंबे संघर्ष के बाद यह आंदोलन कामयाब हुआ।
5. मुन्नार चाय बागान हड़ताल
साल 2015 में केरल के मुन्नार के चाय बागानों में काम करती महिलाओं ने अपनी पगार 230 रुपए से 500 रुपए में बढ़ाने के लिए आंदोलन किया। धीरे-धीरे आंदोलन बड़ा होता गया और सिर्फ़ पगार बढ़ाने तक सीमित नहीं रहा। नौ दिनों तक हड़ताल करती महिला कामगारों ने कहा कि पुरुष कामगारों से कहीं ज़्यादा काम करने के बावजूद उन्हें सही वेतन नहीं मिलता और उनके साथ काम करनेवाले मर्द दिनभर शराब के नशे में पड़े रहकर भी उनसे ज़्यादा कमाते हैं। महिलाओं की शिकायत यह भी थी कि सारी बड़ी राजनैतिक पार्टियों के मज़दूर संगठन उनका साथ देने का नाटक ही करते हैं और अपने राजनैतिक फ़ायदे के लिए उनका इस्तेमाल ही करते हैं। इसलिए इस आंदोलन में सिर्फ़ महिलाओं को हिस्सा लेने दिया गया और किसी भी नेता या राजनैतिक संगठन को इसमें भाग लेने की अनुमति नहीं दी गई। महिलाओं ने अपनी लड़ाई अकेले लड़ी और अपने अधिकार हासिल करने में सफल हुईं।
6. दिल्ली गैंगरेप के विरोध में प्रदर्शन
दिसंबर 2012 में दिल्ली की एक बस में एक छात्रा का सामूहिक बलात्कार किया गया और उसे नृशंस तरीके से मारा गया। इसके बाद दिल्ली में कई महिलाएं हमारे समाज के ‘रेप कल्चर’ का विरोध करने और एक सुरक्षित, आज़ाद ज़िंदगी जीने के अपने अधिकार के लिए सड़कों पर उतर आईं। इंडिया गेट के सामने हज़ारों प्रदर्शनकारी इकट्ठे हुए और संसद भवन के सामने भी प्रदर्शन हुए। पुलिस और प्रशासन ने बेरहमी से प्रदर्शनकारियों को दबाने की कोशिश की पर आंदोलन बड़ा होता गया और दिल्ली से पूरे देश में फैल गया।
अपूर्व गर्ग
लोकतंत्र बार-बार मौके देता है तानाशाही सोचने का भी मौका नहीं देती। लोकतंत्र कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति को भी सारे अधिकार देते हुए देश का प्रथम व्यक्ति बनने का अवसर देती है। तानाशाही अंतिम व्यक्ति तो दूर प्रथम व्यक्ति को भी सूली पर चढ़ाकर सारे अधिकार कुचल डालती है। इसलिए लोकतंत्र पर होने वाले हर हमले को कभी हलके में न लेकर सजग-सचेत रहकर एकजुटता से लडऩा चाहिए।
तानाशाही की सूली पर चढऩे वाले ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने भी गलती की थी। जनरल जिया का चुनाव भुट्टो ने यह जानते हुए किया कि उसके कट्टर पंथी संगठन से रिश्ते हैं, उन्हें यह भी बताया गया वह लालची, भ्रष्ट किस्म का है फिर भी जिया का चुनाव करते हुए भुट्टो ने कहा ‘सरकार को फौज के मामले में दखल नहीं देना चाहिए’।
भुट्टो ने सेना को हमेशा हल्के में लिया
बांग्लादेश के बँटवारे से पहले 20 मार्च 1971 को जब शेख मुजीब और भुट्टो कि ढाका में मुलाकात हुई तो शेख मुजीब ने भुट्टो को चेताया ‘सेना पर भरोसा मत करना नहीं तो यह हम दोनों को नष्ट कर देगी।, इस पर भुट्टो ने अपने ढंग का उत्तर दिया-‘मैं इतिहास द्वारा नष्ट किए जाने कि बजाय सेना के हाथो मरना पसंद करूँगा’।
इन दोनों के बीच हुई इस चर्चा को भुट्टो के भारतीय बचपन के दोस्त रूसी मोदी ने भुट्टो के प्रधान मंत्री रहते हुई अपनी किताब ‘मेरा दोस्त जुल्फी’ (1973 ) में इसका उल्लेख भी किया। पर भुट्टो को सेना पर भरोसा था, उधर शेख मुजीब की भविष्यवाणी सच साबित हुई बांग्लादेश बनने के बाद उनकी सेना ने उनकी हत्या कर दी और इधर जनरल जिया ने प्रधान मंत्री भुट्टो और उनके परिवार के साथ जानवरों से भी बुरा सलूक कर भुट्टो को फाँसी पर चढ़ा दिया।
इसके बाद जनरल जिया के रहते भुट्टो परिवार लगातार प्रताडि़त किया जाता रहा, इन्हें मुक्ति तब मिली जब कुछ लोकतंत्र की बहाली हुई और इसी लोकतंत्र के लिए बेनजीर को जेल से लेकर सडक़ तक लडऩा पड़ा और लोकतंत्र ने ही उन्हें प्रधानमंत्री भी बनाया।
...तो तानाशाही ने किसी को नहीं बख्शा न भुट्टो की लापरवाही को न ख़ुद तानाशाह जिय़ा को। जबकि लोकतंत्र आसिफ़ जऱदारी बिलावल भुट्टो तक को मौके पे मौका दे रही। लोकतंत्र अधिकार ही नहीं पूरे मौके देती है और तानाशाही सब कुछ छीन लेती है, समझिये।
सोनाली खत्री
पीरियड्स के दौरान हर लडक़ी और महिला का अनुभव एक जैसा नहीं होता। जहां कुछ के लिए यह एक बहुत ही सामान्य बात होती है, वहीं कुछ महिलाओं के लिए पीरियड्स बहुत ही दर्द भरा अनुभव होता है। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि एक कामकाजी महिला के पास अपनी इच्छानुसार पीरियड्स के लिए छुट्टी यानी पीरियड्स लीव लेने का अधिकार होना चाहिए। हाल ही में जोमैटो ने अपनी महिलाओं कर्मचारियों के लिए दस दिनों की पेड पीरियड्स लीव की पॉलिसी की घोषणा की है। इस नयी पॉलिसी के तहत पीरियड्स के दौरान महिला कर्मचारी पूरे साल भर में अधिकतम 10 छुट्टियां ले सकती हैं। इस पॉलिसी पर कई अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं और इसने फिर से वह बहस खड़ी कर दी है कि महिलाओं को पीरियड्स लीव मिलनी चाहिए या नहीं।
पीरियड्स लीव का विरोध क्यों हो रहा है ?
महिला कर्मचारियों को पीरियड्स लीव दिए जाने के जोमैटो के फैसले के विरोध के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा रहे हैं-
अगर कार्यस्थल पर भी लिंग के आधार पर पॉलिसी बनाई जाएगी तो फिर जिस प्रकार का काम पुरुषों को दिया जाता है वह महिलाओं को नहीं दिया जाएगा। इस प्रकार की छुट्टियों की वजह से महिलाओं को पुरुषों की तरह कार्यस्थल पर बढऩे के बराबर अवसर नहीं मिलेंगे।
पीरियड्स लीव देने की जगह जो महिलाएं पीरियड्स के दौरान बहुत ही कष्टदायी दर्द से गुजरती हैं, वे मेडिकल लीव ले सकती हैं।
इस प्रकार की छुट्टियों की वजह से कार्यस्थल पर महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और बढ़ेगा जैसे कि कम तनख्वाह, कम महिला कर्मचारियों का प्रमोशन, आदि।
यह भी कहा जा रहा है कि जब कार्यस्थल पर महिलाओं को हर चीज़ में बराबरी चाहिए फिर वह तनख्वाह हो, प्रमोशन हो तो फिर छुट्टियों में भी उन्हें बराबरी क्यों नहीं चाहिए। पीरियड्स के लिए अतिरिक्त छुट्टियां क्यों चाहिए। यह बराबरी के नाम पर धोखा है। यह भी कहा जा रहा है कि इस वजह से कार्यस्थल पर महिलाओं को एक कमजोरी और बोझ की तरह देखा जाएगा।
महिलाओं के लिए पीरियड्स
लीव क्यों ज़रूरी है ?
इस प्रकार की पॉलिसी की वजह से पीरियड्स के चारों और जो चुप्पी है वह टूटेगी। यह भी माना जा रहा है कि इससे पीरियड्स को कार्यस्थलों पर सामान्य समझना शुरू किया जाएगा। इस मुद्दे पर खुलकर बातचीत भी बढ़ेगी। महिलाएं खुलकर अपने दर्द को अभिव्यक्त कर पाएंगी। जोमैटो की 10 दिन की ये छुट्टियां महिलाओं के इस कष्टकारी दर्द को पहचानते हुए एक ऐसा कार्यस्थल बनाने की कोशिश करती हैं जो महिलाओं के प्रति सवंदेनशील हो।
जोमैटो की यह पॉलिसी बताती है कि यह कंपनी वास्तव में यह स्वीकारती है कि दफ्तर में सिर्फ पुरुष नहीं बल्कि महिलाएं भी आती हैं। यह नीति कार्यस्थल में विविधता और समावेश को भी बढ़ावा देती है।
इस पॉलिसी के पक्ष में जो लोग हैं वे कई सारे आंकड़ों का हवाला दे रहे है यह बताने के लिए के पीरियड्स के दौरान कुछ महिलाएं वास्तव में बहुत ही कष्टदायक पीड़ा से गुजरती हैं। पीरियड्स कैम्प्स कोई बहाना नहीं है। ऐसे में महिलाओं के लिए यह पॉलिसी बहुत ही मददगार साबित होगी।
मशहूर पत्रकार बरखा दत्त का पीरियड्स लीव के मुद्दे पर कहना है कि इस प्रकार की पॉलिसी की वजह से महिलाएं फाइटर जेट नहीं उड़ा पाएंगी, स्पेस में नहीं जा पाएंगी, वॉर की रिपोर्टिंग नहीं कर पाएंगी, आदि। लेकिन पीरियड्स लीव का समर्थन करने वाले लोगों का कहना है कि क्या औरतों से आगे बढऩे का मौका सिर्फ इसलिए छीन लिया जाना चाहिए क्योंकि वे पीरियड्स के दौरान छुट्टी ले सकती हैं?
इतना ही नहीं, इस पॉलिसी के खिलाफ यह भी तर्क दिया गया है कि इस प्रकार की पॉलिसी की वजह से महिला कर्मचारियों को कमज़ोर समझा जाएगा। इस तर्क का जवाब कुछ इस तरीके से दिया जा रहा है, ‘अगर पीरियड्स के कष्टदायी दर्द की वजह से किसी महिला को 1 या 2 दिनों की छुट्टी लेनी पड़े, तो उससे यह कैसे साबित होता है कि वह महिला कमज़ोर है?’ अन्य मुद्दों की तरह, इस मुद्दे पर कोई एक मत हो, जरूरी नहीं। मेरी समझ में जोमैटो की यह पॉलिसी नारीवाद-विरोधी नहीं है। बराबरी का मतलब यह नहीं है कि बायॉलॉजिकल स्तर पर पुरुष और महिलाओं को एक समान रूप से देखा जाए। पीरियड्स के दर्द से महिलाएं गुजरती है न कि पुरुष, बच्चे महिलाएं पैदा करती है न कि पुरुष। ऐसी में अगर कार्यस्थल पर इन जैविक अंतरों को पहचानते हुए महिलाओं के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जा रहा है तो वह महिला या पुरुष विरोधी नहीं बल्कि लैंगिक रूप से न्यायसंगत है।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 के तहत लिंग के आधार पर किसी भी भेदभाव के लिए मना करता है। लेकिन अगले ही अनुच्छेद 15 में संसद को महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए विशेष कदम उठाने की मंजूरी देता है। महिलाओं के लिए ख़ास कदम उठाने की यह मंजूरी क्या नारीवाद विरोधी नहीं है क्योंकि संविधान बनाने वाले यह समझते थे कि बराबरी का मतलब दोनों लिंगों के बीच में समान व्यवहार करना नहीं होता। कभी कभी, समान से कुछ ज्यादा होता है ताकि जो लिंग काफी वर्षों से पीछे छूट गया है वह भी आगे बढ़ पाए। ऐसी में जोमैटो की यह पीरियड पॉलिसी कैसे गलत है? पीरियड्स महिलाओं के लिए एक विकल्प नहीं है। वे चाहे या न चाहे, उन्हें इससे गुजरना ही पड़ता है और अगर इस वजह से वे अपने काम में अपना पूरा योगदान नहीं दे पा रही, तो ऐसे में पीरियड्स के लिए छुट्टियां लेना गलत नहीं है। (hindi.feminisminindia.com)
( यह लेख पहले ‘फेमिनिज्म इन इंडिया’ वेबसाईट पर प्रकाशित हुआ है )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्तराष्ट्र संघ में पाकिस्तान के दूत मुनीर अकरम ने एक ऐसा पैंतरा मारा है, जिसे देखकर उन पर तरस आता है। उन्होंने पाकिस्तान की इमरान सरकार की भद्द पीट कर रख दी है। अकरम ने दावा किया है कि उन्होंने सुरक्षा परिषद में भाषण देकर ‘भारतीय आतंकवाद’ की निंदा की है। अकरम से कोई पूछे कि सुरक्षा परिषद में आपको घुसने किसने दिया?
15 सदस्यी सुरक्षा परिषद का पाकिस्तान सदस्य है ही नहीं। गैर-सदस्य उसकी बैठक में जा ही नहीं सकता। संयुक्तराष्ट्र के महासचिव ने एक बैठक बुलाई थी, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के बारे में। इस बैठक का एक फोटो जर्मन दूतावास ने जारी किया है, जिसमें पाकिस्तान का प्रतिनिधि कहीं नहीं है। फिर भी पाकिस्तानी दूतावास ने जो बयान जारी किया है, वह झूठों का ऐसा पुलिंदा है, जिस पर खुद पाकिस्तानी लोग विश्वास नहीं करते।
पहला, अकरम ने दावा किया है कि अल-क़ायदा गिरोह का खात्मा और उसामा बिन लादेन का सफाया पाकिस्तान ने किया है। सबको पता है कि उसामा को अमेरिका ने मारा था और इमरान उसे ‘शहीद उसामा’ कहते रहे हैं। दूसरा, यह भी मनगढ़ंत गप्प है कि भारत ने कुछ आतंकवादियों को भाड़े पर ले रखा है, जो पाकिस्तान में हिंसा फैला रहे हैं।
सच्चाई तो यह है पाकिस्तान अपने आतंकवादियों से भारत से भी ज्यादा तंग है। खुद इमरान ने पिछले साल संयुक्तराष्ट्र महासभा के अपने भाषण में कहा था कि उनके देश में 40 से 50 हजार दहशतगर्द सक्रिय हैं। तीसरा, पाकिस्तान ने अपनी नीति को भारत की नीति बता दिया। भारत सीमा-पार आतंकवाद क्यों फैलाएगा। चौथा, 1267 प्रस्ताव की प्रतिबंधित आतंकवादियों की सूची में भारतीयों के नाम भी हैं, यह सरासर झूठ है। उसमें एक भी भारतीय का नाम नहीं है।
पांचवां, अकरम का यह कहना भी गलत है कि भारत में अल्पसंख्यकों का जीना हराम है। वास्तव में 1947 में पाकिस्तान में 23 प्रतिशत अल्पसंख्यक थे जबकि अब 3 प्रतिशत रह गए हैं। भारत में अल्पसंख्यक लोग कई बार राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, राज्यपाल और मुख्यमंत्री तक बने हैं। मुनीर अकरम ने भारत के विरुद्ध ये बेबुनियाद आरोप लगाकर इमरान सरकार की जगहंसाई करवा दी है। प्रधानमंत्री इमरान खान को चाहिए कि वे मुनीर अकरम को इस्लामाबाद बुलाकर डांट पिलाएं। इन्हीं गैर-जिम्मेदाराना बयानों के कारण इस्लामी देशों में भी पाकिस्तान की साख गिरती जा रही है।(नया इंडिया की अनुमति से)
- Raju Sajwan, Srikant Chaudhary
उत्तराखंड में एक कहावत प्रचलित है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ में नहीं रहती, बह कर मैदानों में चली जाती है। लेकिन कोरोना काल में जब छोटे-बड़े शहरों में काम बंद हो गए तो पहाड़ की जवानी पहाड़ वापस लौटी है। उत्तराखंड के अधिकृत आंकड़ों के मुताबिक 3.30 लाख प्रवासी उत्तराखंड लौटे हैं। राज्य सरकार का दावा है कि प्रवासियों को राज्य में रोका जाएगा, लेकिन क्या यह संभव है? यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने उत्तराखंड के पौड़ी जिले की यात्रा की।
दरअसल, 2011 की जनगणना के मुताबिक उत्तराखंड के कुल 16 हजार 793 गांवों में 1048 गांव निर्जन हो चुके थे। यानी इन गांवों में कोई नहीं रहता और इन्हें घोस्ट विलेज या भुतहा गांव घोषित कर दिया गया। इसके बाद सितंबर 2019 में उत्तराखंड ग्रामीण विकास और पलायन आयोग की एक रिपोर्ट आई, जिसमें कहा गया कि 2011 और 2018 के बीच 734 गांव और निर्जन हो गए। इन 8 सालों में सबसे अधिक 181 गांव पौड़ी में निर्जन हुए। इसलिए डाउन टू अर्थ ने अपनी ग्राउंड रिपोर्ट को पौड़ी जिले को ही चुना।
इससे पहले वर्ष 2015 में डाउन टू अर्थ ने पौड़ी के कुछ भूतहा गांव (घोस्ट विलेज) की यात्रा की थी। इनमें से एक गांव था बौंडुल। इन पांच सालों में इस गांव में क्या कुछ बदला है और कोरोना के प्रकोप के चलते इस गांव में भी लोग लौटे हैं। 2020 में कोरोना के कारण क्या इस गांव में कुछ बदलाव आया है। जब डाउन टू अर्थ की टीम वहां पहुंची तो गांव में कुछ लोग काम करते दिखाई देते। यहां बताते चले कि 2015 में जब डाउन टू अर्थ यहां पहुंचा था, तब यहां विमला देवी और पुष्पा देवी अकेली रह रही थी और दोनों महिलाओं के बच्चे रोजगार के लिए बड़े शहरों में रह रहे थे।
लेकिन लॉकडाउन के चलते जब बड़े शहरों में काम बंद हो गया तो दोनों महिलाओं के बेटे अपने परिवार के साथ लौट आए हैं। विमला देवी के पुत्र दुर्गेश जुयाल और पुष्पा देवी के पुत्र किशन जुयाल वहां मनरेगा का काम कर रहे थे। हालांकि दोनों का कहना था कि मनरेगा के काम से परिवार नहीं चलने वाला। इसलिए अगर सरकार यहां रोजगार के साथ-साथ बच्चों के बेहतर भविष्य का भरोसा दिलाए तो वे लोग कोरोना खत्म होने के बाद भी रह सकते हैं, लेकिन अभी फिलहाल जो स्थिति है, उससे उनके पास दोबारा वहां से पलायन के अलावा कोई नहीं रास्ता दिखता।
इसके बाद डाउन टू अर्थ ने पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लॉक के गांव बलूणी का दौरा किया। पढ़ें, बलूणी में क्यों नहीं लौटे लोग
निराशा के बीच जब डाउन टू अर्थ कोट ब्लॉक के गांव कठुड़ पहुंचा तो वहां उम्मीद की किरण दिखाई दी। यहां कुछ युवा बंजर खेतों में काम कर रहे थे। वे लॉकडाउन के बाद गांव लौटे थे, लेकिन खाली बैठने की बजाय उन्होंने बंजर खेतों में काम शुरू किया और अब नई इबारत लिख रहे हैं। कुछ ऐसी ही हिम्मत पौड़ी ब्लॉक के बलोड़ी गांव के अचलानंद जुगरान ने भी दिखाई है। अचलानंद एक इंजीनियरिंग कॉलेज में केंटीन चलाते थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद गांव लौट आए और बंजर पड़े खेतों में हाथ आजमाने लगे।
दरअसल, जो युवा बड़े शहरों से लौटे हैं, उनमें से काफी युवा वापस आना चाहते हैं, लेकिन कुछ युवा शहरी जिंदगी परेशान से आकर पहाड़ों में काम करना चाहते हैं। डाउन टू अर्थ ने गांव बूंग में दिल्ली से लौटे किशनदेव कत्याल से बात की। वह अब गांव में अपनी जमीन आम और लीची के बाग लगाना चाहते हैं, हालांकि उन्हें अभी तक सरकार की ओर से कोई सहयोग नहीं मिला है।
उत्तराखंड ग्रामीण विकास एवं पलायन आयोग ने 3.30 लाख प्रवासियों में से लगभग 2.75 लाख लोगों का विश्लेषण किया है। आयोग की रिपोर्ट बताती है कि राज्य में सबसे अधिक 80.68 फीसदी प्रवासी देश के दूसरे राज्यों से आए हैं, जबकि उत्तराखंड के ही अन्य जनपद से अपने गांव-कस्बे में लौटे प्रवासियों की संख्या 18.11 प्रतिशत, जनपद से जनपद में ही लौटे लोगों की संख्या 0.92 प्रतिशत और विदेशों से लौटे प्रवासियों की संख्या लगभग 0.29 प्रतिशत थी।
इनमें से कितने लोग लौटे हैं, इस बारे में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने डाउन टू अर्थ को बताया कि लगभग 45 फीसदी राज्य में रुक सकते हैं। पढ़ें, पूरा इंटरव्यू -
हालांकि विशेषज्ञ इससे सहमत नहीं हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संस्थान, हैदराबाद में एसआर शंकरन चेयर (रूरल लेबर) प्रोफेसर राजेंद्र पी. ममगाईं कहते हैं कि कोविड-19 के बाद जब प्रवासी उत्तराखंड लौट रहे थे तो उस समय उन्होंने भी सैंपल सर्वे किया था, जिसमें लगभग 85 फीसदी लोगों ने कहा था कि वे वापस चले जाएंगे, क्योंकि उत्तराखंड में रोजगार के साधन नहीं हैं। वहीं, पिछले कई सालों से उत्तराखंड में पलायन के मुद्दे पर काम कर रही संस्था के संयोजक रतन सिंह असवाल ने लॉकडाउन के दौरान 10 जिलों का दौरा किया और प्रवासी युवकों से बात की। वह कहते हैं कि केवल 5 से 10 फीसदी युवा ही रुकेंगे, हालांकि उन्हें काम मिल जाए, यह जरूरी नहीं, इसलिए इन युवाओं को उन लोगों के साथ जोड़ना चाहिए, जो पहले से राज्य में अपने-अपने स्तर पर काम कर रहे हैं।
दरअसल, जब देश में कोरोनावायरस संक्रमण फैला और प्रवासियों ने अपने गांव की ओर रुख किया तो उत्तराखंड सरकार, जो पहले से लगातार दावा कर रही थी कि वे पलायन को रोकने की दिशा में काफी काम कर रही है के लिए यह चुनौती बन गया कि जो प्रवासी अब वापस आ रहे हैं। उन्हें रोका कैसे जाए? इसलिए तुरत-फुरत में कई योजनाओं की घोषणा कर दी गई। राज्य के मुख्यमंत्री बताते हैं कि प्रवासियों को रोकने के लिए राज्य में कई योजनाओं की शुरुआत की गई है। पढ़ें, पूरा इंटरव्यू
अब सवाल यही है कि जो लोग अब उत्तराखंड में रहना चाहते हैं, उनके लिए सरकार को क्या करना चाहिए। ममगाईं कहते हैं कि सरकार केवल पांच फीसदी प्रवासियों को रोकने का प्रयास करे और उन्हें हर संभव सुविधाएं दें। अगर ये प्रवासी यहां सफल रहते हैं तो उन्हें रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करके सरकार अगले पांच साल में 50 फीसदी प्रवासियों को वापस बुलाने में कामयाब हो सकती है।
कोविड-19 वैश्विक आपदा उत्तराखंड के लिए एक अवसर लेकर जरूर आई है, लेकिन सरकार के प्रयास और जमीनी हकीकत में काफी अंतर दिखता है। अभी चूंकि हालात सामान्य नहीं हुए हैं, इसलिए बहुत से प्रवासी सामान्य होने का इंतजार कर रहे हैं तो कई प्रवासी अपने गांव में ही अपना करियर तलाशने के लिए उत्साहित हैं। ऐसे में, आरपी ममगाई की इस बात पर गौर करना चाहिए कि अगर इस मौके पर केवल 5 फीसदी प्रवासियों को रोकने में सरकार सफल रहती है और ये प्रवासी अगले पांच साल के दौरान यहीं अपनी नई इबारत लिख लेते हैं तो इन 5 फीसदी प्रवासियों की देखादेखी 50 फीसदी प्रवासी वापस लौट सकते हैं।(downtoearth)
25 अगस्त 2020 को सीएसई द्वारा जारी एक नई रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में कंस्ट्रक्शन एंड डेमोलिशन वेस्ट का केवल 1 फीसदी हिस्सा ही रिसाइकल किया जा रहा है| बाकि को खुले स्थानों या फिर लैंडफिल में छोड़ दिया जाता है जोकि वायु और जल को प्रदूषित कर रहा है|
बिल्डिंग मटेरियल प्रमोशन काउंसिल के अनुसार देश में हर साल कंस्ट्रक्शन एंड डेमोलिशन से जुड़ा करीब 15 करोड़ टन कचरा उत्पन्न होता है। जबकि उसकी आधिकारिक रूप से ज्ञात रीसाइक्लिंग क्षमता केवल 6,500 टन प्रतिदिन है| जोकि उसके करीब 1 फीसदी के बराबर है|
जबकि यदि गैर आधिकारिक आंकड़ों को देखें तो देश में उत्पन्न होने वाले कंस्ट्रक्शन एंड डेमोलिशन कचरा सरकारी अनुमान से तीन से पांच गुना अधिक है। ऐसे में सीएसई द्वारा जारी यह रिपोर्ट "अनादर ब्रिक ऑफ द वाल: इम्प्रोविंग कंस्ट्रक्शन एंड डिमोलिशन वेस्ट मैनेजमेंट इन इंडियन सिटीज" इस कचरे के प्रबंधन में सुधार करने और एक ठोस योजना प्रस्तुत करने की सिफारिश करती है|
2020 तक केवल 13 शहरों में स्थापित की गई है कंस्ट्रक्शन वेस्ट रीसाइक्लिंग की सुविधा
इस रिपोर्ट को सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने एक ऑनलाइन राउंड टेबल के दौरान जारी की थी| उन्होंने बताया कि हमारे अध्ययन से पता चलता है कि 2017 तक 53 शहरों में कंस्ट्रक्शन एंड डेमोलिशन वेस्ट को रीसाइक्लिंग करने के लिए प्लांट स्थापित करने की योजना थी| लेकिन 2020 तक केवल 13 शहरों ने ऐसा किया है। जबकि यदि निर्माण सामग्री की बात करें तो पत्थर, रेत, लौहा, एल्यूमीनियम और लकड़ी की मांग लगातार बढ़ती जा रही है, ऐसे में इस कचरे को रीसाइक्लिंग के बिना ऐसे ही फेंक देना सही नहीं है|
उन्होंने आगे बताया कि इस वेस्ट का एक बड़ा भाग फिर से पुनःउपयोग किया जा सकता है| जिससे निर्माण के लिए जो प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है उसे कम किया जा सकता है| लेकिन इसके लिए सर्कुलर इकोनॉमी पर जोर देना जरुरी है, जिससे इस कचरे को फिर से संसाधन में बदला जा सके| इससे न केवल ऊर्जा की मांग घटेगी साथ ही बिल्डिंग्स और अन्य निर्माण के कारण पर्यावरण पर जो दबाव पड़ रहा है वो भी कम होगा|
सीएसई की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अनुमिता रॉय चौधरी के अनुसार कंस्ट्रक्शन एंड डेमोलिशन से जो वेस्ट उत्पन्न हो रहा है वह देश के कई शहरों में जलस्रोत, सार्वजनिक स्थानों और हरित क्षेत्रों के लिए एक बड़ी समस्या बन गया है| उन्होंने बताया कि एक तरफ जहां शहरों में 2024 तक वायु प्रदूषण के स्तर में 20 से 30 फीसदी कटौती करने का लक्ष्य है वहीं दूसरी ओर इस मलबे से निकलने वाली डस्ट, वायु को और प्रदूषित कर रही है|
सीएसई के शोधकर्ताओं के अनुसार हालांकि कंस्ट्रक्शन एंड डेमोलिशन वेस्ट (सीएंडडीएस) के पुनःउपयोग में जो कानूनी बाधाएं थी, वो दूर हो चुकी हैं इसके बावजूद इस कचरे के पुनःउपयोग की स्थिति अभी भी खराब बनी हुई है| गौरतलब है कि भारतीय मानक ब्यूरो ने भी कंस्ट्रक्शन एंड डेमोलिशन वेस्ट को रीसायकल करने से बने कंक्रीट के उपयोग को अनुमति दे दी है| इसके साथ ही द कंस्ट्रक्शन एंड डिमोलिशन वेस्ट रूल्स 2016 में भी रिसाइकल मैटेरियल के उपयोग को जरुरी कर दिया है|
स्वच्छ भारत मिशन में भी सीएंडडीएस वेस्ट मैनेजमेंट को दी है मान्यता
यहां तक कि स्वच्छ भारत मिशन ने भी सीएंडडीएस कचरा प्रबंधन की आवश्यकता को मान्यता दी है। स्वच्छ सर्वेक्षण 2021के लिए भी सीएंडडी वेस्ट प्रबंधन के लिए रैंकिंग के 100 अंकों को दोगुना कर दिया गया है| जो प्रबंधन के बुनियादी ढांचे और अपशिष्ट प्रसंस्करण दक्षता के बीच समान रूप से विभाजित है। इसके अंतर्गत शहरों में जगह-जगह सीएंडडी वेस्ट कलेक्शन सिस्टम लगाना होगा| जिसमें कचरे की प्रसंस्करण दक्षता के आधार पर रैंकिंग के अंक दिए जाएंगे। साथ ही इसमें एकत्र किये कचरे के पुन: उपयोग को भो ध्यान में रखा जाएगा|
अनुमिता रॉयचौधरी के अनुसार, स्वच्छ भारत मिशन और सीएंडडी वेस्ट रूल्स द्वारा इस कचरे को मान्यता देना एक नया अवसर प्रदान करेगा|
उनके अनुसार “हमारे इस नए अध्ययन में कंस्ट्रक्शन एंड डेमोलिशन वेस्ट सम्बन्धी नियमों को लागु करने में सामने आने वाली चुनौतियों से लेकर तकनीकी और नियमों सम्बन्धी बाधाओं का विस्तृत विश्लेषण किया गया है| इसमें उन आवश्यक रणनीतियों की पहचान की है जिसकी मदद से नियमों को लागु किया जा सकता है और रिसाइकल मैटेरियल को तेजी से बाजार में लाया जा सकता है| साथ ही इस विश्लेषण में कई शहरों की जमीनी हकीकत की भी जांच की गई है|"(downtoearth)
इस साल फ़रवरी में दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाक़े में हुए दंगों पर लिखी गई किताब 'दिल्ली रायट्स 2020: द अनटोल्ड स्टोरी' को छापने वाले प्रकाशक ब्लूम्सबरी इंडिया ने इसके प्रकाशन से हाथ पीछे खींच लिए हैं.
पब्लिशर के मुताबिक़ उनकी जानकारी के बिना किताब के बारे में एक ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजन किया गया था जिसमें बीजेपी के नेता और दिल्ली दंगे से पहले भड़काऊ भाषण देने के आरोप झेल रहे कपिल मिश्रा को मुख्य अतिथि बनाया गया था.
लेकिन, इस किताब के प्रकाशन से ख़ुद को हटाने के बाद से ब्लूम्सबरी इंडिया को तगड़े विरोध का सामना करना पड़ा है.
किताब के लेखकों समेत दक्षिणपंथी विचारधारा के कुछ लोगों ने प्रकाशक के फ़ैसले पर विरोध जताया. किताब को गरुड़ प्रकाशन के रूप में दूसरा पब्लिकेशन हाउस भी मिल गया और इसका जमकर प्रचार भी हो गया. कहा यह भी जा रहा है कि बड़ी संख्या में इस किताब की प्रतियां प्रीबुक हो चुकी हैं.
'दिल्ली रायट्स 2020: द अनटोल्ड स्टोरी' किताब को मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितलकर और प्रेरणा मलहोत्रा ने लिखा है.
यूं तो हर मसले पर सोशल मीडिया पर लेफ़्ट और राइट के बीच ट्रोलिंग का खेल शुरू हो जाता है. और इसमें कुछ भी ख़ास नहीं है. लेकिन, इस बार एक अजीब चीज़ नज़र आ रही है.
इस किताब के प्रकाशन से ब्लूम्सबरी के पीछे हटने को लेकर उदारवादी तबक़े में दोफाड़ नज़र आ रहा है.
'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का तर्क देते हुए उदारवादियों का एक धड़ा यह मानता है कि किसी भी किताब को छपने से रोकना ठीक नहीं है.
वहीं, दूसरे धड़े का मानना है कि 'घृणा फैलाना' अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में नहीं आता है. और इस तरह से इस किताब से प्रकाशन से ब्लूम्सबरी का पीछे हटना एक सही फ़ैसला है.
दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकनॉमिक्स समाजशास्त्र की प्रोफ़ेसर नंदिनी सुंदर लिखती हैं कि ब्लूम्सबरी इंडिया ने दिल्ली दंगों पर लिखी किताब को छापने से पहले किस तरह की फ़ैक्ट-चेकिंग की थी?
उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा है, "यह पूरी किताब झूठ का एक पुलिंदा है."
पत्रकार और उपन्यासकार नीलांजना रॉय ने ट्वीट किया है, "दक्षिणपंथी ट्रोल्स, आपको याद दिला दूं. 1. फ्री स्पीच निरंकुश नहीं है, हर किसी को शिकायत का अधिकार है - तब दीनानाथ बत्रा ने वेंडी डोनिगर की द हिंदूज़ को क़ानूनी पेंच में फँसा दिया था. 2. फ्री स्पीच निरंकुश होनी चाहिए, किसी किताब में तथ्यों के पूर्ण अभाव पर सवाल न उठाएं- आज. किसी एक का चुनाव कर लें, नहीं?"
एक और ट्वीट में उन्होंने लिखा है, "इस किताब की लेखिकाओं में से एक मोनिका अरोड़ा वेंडी डोनिगर की हिंदुओं पर लिखी किताब के अंश हटाने की याचिका दायर करने वालों की वकील रही हैं."
एक्टिविस्ट साकेत गोखले ने एक ट्वीट में लिखा है, "कई लिबरल्स जो कि खुलेआम शरजील इमाम की गिरफ्तारी की वकालत कर रहे थे, अब कपिल मिश्रा के अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बाल्टियां भर-भरकर आंसू बहा रहे हैं."
वे आगे लिखते हैं, "केवल भारत में ही कोई इस तरह के दोहरे व्यवहार को करने के बावजूद अपनी लिबरल साख को बरक़रार रख सकता है."
एक अन्य ट्वीट में उन्होंने लिखा है, "दिल्ली नरसंहार पर लिखी गई फ़ेक सांप्रदायिक किताब को छापने से पीछे हटने के ब्लूम्सबरी इंडिया के फ़ैसले से ख़ुश हूं. जिन लोगों ने आवाज़ उठाई उन सभी का धन्यवाद."
अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी इस किताब के छपने के पक्ष में नहीं हैं. वे लिखती हैं, "आपने किताब क्यों छापी? क्या आपने इसके फ़ैक्ट-चेक किए थे? अगर यह किताब उस रिपोर्ट पर आधारित है जिसे मैंने देखा है तो यह पीड़ितों पर आरोप लगाने और लोगों को ग़लत नज़रिये से बहलाने की खुलेआम कोशिश है कि दिल्ली दंगों के लिए एंटी-सीएए-एनआरसी प्रदर्शनकारी दोषी थे."
लेकिन, ऐसे भी लिबरल्स हैं जिन्हें इस किताब को न छापने का ब्लूम्सबरी इंडिया का फ़ैसला रास नहीं आया है.
ऐसे लोगों में फ़िल्म निर्देशक अनुराग कश्यप भी शामिल हैं.
अनुराग कश्यप ने ट्वीट के ज़रिए अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की है. उन्होंने लिखा है, "लोकतंत्र आपको मत और इसका विपक्षी मत रखने की जगह देता है. और इससे लड़ने का तरीक़ा विरोध और शिक्षा है. सत्य के लिए यही तरीक़ा रहा है और रहेगा. लेकिन, बैन करना या फ़ैसले से मुकरना एक स्वस्थ लोकतंत्र में समाधान नहीं है. मैं बस यही कहना चाहता था."
वे आगे लिखते हैं, "एक ऐसी किताब जिससे मैं सहमत नहीं हूं उसे बैन करना ठीक वैसा ही है जैसा कि जिस किताब से मैं सहमत हूं उसे बैन करना....कुछ भी बैन करना अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबाना है. इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि यह झूठ से भरा हुआ है."
द प्रिंट की ओपीनियन एडिटर रामा लक्ष्मी एक आर्टिकल में कटाक्ष करते हुए लिखती हैं कि एक और सेल्फ गोल करने के लिए लिबरल्स आपको बधाई. इस आर्टिकल में उन्होंने लिखा है, "मुझे पूरा भरोसा है कि इस किताब को कोई नया घर, नया प्रकाशक और एक नया प्लेटफॉर्म मिल जाएगा. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सरकार में यह सोचना भी नामुमकिन है कि इस तरह की किताब को छपने से रोका जा सकता है. असलियत तो यह है कि यह अब और ज्यादा मशहूर होगी, जो कि यह शायद डिज़र्व नहीं करती है."
वे लिखती हैं, "लेकिन, मैं ज्यादा बड़े मसले की बात कर रही हूं. आप अपने तर्कों को कितना भी तोड़-मरोड़ कर पेश करें और उसमें क़ानूनी पेचीदगियों का ज़िक्र करें और हर तरीक़े का वैचारिक माहौल बनाएं ताकि आपको शांति मिल सके, लेकिन लिबरल्स के लिए यह उछल-उछलकर जीत का जश्न मनाने का मौक़ा नहीं है."
सेंटर फ़ॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के पॉलिसी डायरेक्टर प्रणेश प्रकाश ने अपने ट्वीट में लिखा है, "मैं किसी किताब को बैन करने को उचित नहीं मानता हूं. मैं मानता हूं कि किसी कारोबारी वजह या किताब के पक्ष में खड़े नहीं हो सकने की बजाय जिन लोगों ने इस किताब को पढ़ा ही नहीं है उनकी ओर से मिलने वाले डर/क़ानूनी धमकियों/विचारों के आधार पर किताब छापने से पीछे हटना ग़लत है."(bbc)
-राजू पाण्डेय
प्रशांत भूषण के समर्थन में कुछ अत्यंत विद्वतापूर्ण आलेख पढ़ने को मिले। इन आलेखों में विश्व के विभिन्न देशों में न्यायालय की अवमानना को लेकर प्रचलित अवधारणाओं, कानूनी प्रावधानों और इनके क्रियान्वयन की प्रक्रियाओं के गहन मंथन के बाद ससन्दर्भ यह बताया गया है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट उदार न्यायिक परंपराओं की अनदेखी कर रहा है और उसका व्यवहार न्यायालय की गरिमा के विपरीत है।
प्रशांत भूषण के समर्थन में लिखे गए यह शोधपरक आलेख हमारी न्याय व्यवस्था में व्याप्त विराट अराजकता, घनघोर भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद की यदि अनदेखी नहीं करते हैं तब भी जाने अनजाने प्रशांत भूषण प्रकरण में इनकी भूमिका को गौण बना देते हैं और इन आलेखों को पढ़ने से कभी कभी यह आभास होता है कि सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान आचरण एक आकस्मिक प्रतिक्रिया है तथा यह प्रकरण मानव व्यवहार की जटिलताओं से अधिक संबंधित है। यह एक मेधावी वकील और शायद उससे कम प्रतिभाशाली न्यायाधीशों के बीच अहं का टकराव है एवं दोनों को- और विशेष रूप से न्यायाधीशों को- यदि उनके पद की गरिमा और दायित्वों का स्मरण दिलाया जाए तो इस अप्रिय विवाद का सुखद पटाक्षेप हो सकता है।
जबकि वस्तु स्थिति यह है कि लोकतंत्र पर होने वाले आक्रमणों से रक्षा के लिए एक सशक्त और अभेद्य दुर्ग की भांति खड़ा सुप्रीम कोर्ट अब अपनी अंतर्निहित आत्मघाती कमजोरियों के कारण इतना जीर्ण हो चुका है कि चंद शब्दों के ट्वीट से इसके धराशायी होने की स्थिति आन पड़ी है।
न्यायपालिका का अंग रह चुके न्यायविदों द्वारा समय समय पर की जाने वाली आक्रोश एवं असंतोष की अभिव्यक्ति न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार और पक्षपात के विषाक्त वातावरण की प्रामाणिक और निर्णायक रूप से तसदीक करती रही है। सामान्य लोक व्यवहार में जब यह उक्ति बार बार दुहराई जाती है कि कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ना ठीक नहीं- पूरी जिंदगी बीत जाएगी, सारी जमा पूंजी खर्च हो जाएगी और हासिल कुछ नहीं होगा तब हम न्यायपालिका की निस्पृह,निर्मम निस्सारता को ही स्वर दे रहे होते हैं। सामंत युगीन राजाओं के न्याय, अंग्रेज शासकों के न्याय और स्वतंत्र भारत की जनता के पैसे से पालित पोषित न्यायाधीशों के न्याय में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है और न्याय मोटे तौर पर शासक की इच्छा को उचित ठहराने का साधन बना है। न्यायालय संपन्न और समर्थवान के हर उचित अनुचित कृत्य को संरक्षण देने के केंद्र प्रतीत होते हैं। न्यायपालिका के भ्रष्टाचार के विषय में यह मानना कि इसका प्रसार लोअर जुडिशरी तक है और उच्चतर अदालतें इससे लगभग मुक्त हैं दरअसल एक आत्मप्रवंचना है जो न्यायपालिका में उच्चतर पदों पर रह चुके लोगों को प्रीतिकर लगती है- इस तरह वे न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को स्वीकार भी कर लेते हैं और स्वयं को उससे अलग भी कर लेते हैं। बहुत सारे लोग यह विश्वास करते हैं और उनका यह विश्वास अकारण नहीं है कि उच्चतर अदालतों का भ्रष्टाचार परिष्कृत और परिमार्जित है और यह नकद के नग्न आदान प्रदान से कहीं दूर दो शक्ति केंद्रों द्वारा एक दूसरे को उपकृत करने के रूप में दिखाई देता है- न्यायपालिका के कर्ताधर्ताओं के प्रति राजनीति या प्रशासन का कोई शीर्षस्थ व्यक्ति इनके द्वारा की गई अपनी सहायता के लिए आभारी होता है। न तो यह सहायता न्याय संगत होती है न व्यक्त किया गया आभार नीति सम्मत होता है।
अनेक आलेखों में बहुत तार्किक रूप से यह सिद्ध किया गया है कि जिस ट्वीट या बयान के आधार पर प्रशांत भूषण को दंड का पात्र माना गया है उसमें कोई ऐसी बात नहीं है जिससे न्यायालय की अवमानना होती हो। न्यायालय ने इस मामले में असाधारण रूप से हड़बड़ी दिखाई है, परिस्थितियों के सामान्य होने तक प्रतीक्षा की जा सकती थी जब वर्चुअल के स्थान पर भौतिक सुनवाई संभव हो पाती। यदि प्रशांत भूषण के आरोपों का परीक्षण कर उनके असत्य पाए जाने पर उन्हें दंडित किया जाता तो कोई विवाद ही उत्पन्न नहीं होता। पुनः इन आलेखों का मूल भाव यह है कि सर्वोच्च न्यायालय एक बहुत बड़ी भूल करने जा रहा है और जन दबाव उसे ऐसी गलती करने से रोक सकता है।
जिस ढंग से प्रशांत भूषण का प्रकरण आगे बढ़ रहा है उससे तो यही लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का आरोप लगाने के लिए एक कमजोर मामले का चयन, हड़बड़ी में सुनवाई और फिर दोषी माना जाना अनायास नहीं था बिल्कुल उसी तरह जिस तरह न्यायालय का यह विश्वास कि न्यायाधीश ही न्याय पालिका का पर्याय है एक खास मकसद की ओर इशारा करता है। यदि यह मकसद न्यायपालिका के कामकाज पर बार बार नुक्ताचीनी करने वाले और जजों की दृष्टि में एक बड़बोले वकील को सबक सिखाने का है तो इसे व्यक्तिगत वैमनस्य का परिणाम माना जा सकता है। किंतु यदि यह राजसत्ता की सरपट और अंधाधुंध दौड़ में बार बार अवरोध पैदा करने वाले विरोध के एक प्रखर स्वर को ऐलानिया ढंग से कमजोर करने और यह जतलाने की कोशिश है कि यदि हम चाहें तो बिना समुचित कारण के भी तुम्हें तुम्हारी हद दिखा सकते हैं तो चिंता स्वाभाविक है।
अभी तक कमिटेड जुडिशरी के विषय में चर्चाएं होती थीं। किंतु अब अनेक सवाल उठ रहे हैं। क्या जुडिशरी को इस सीमा तक कमिटेड बनाया जा सकता है कि वह सरकार के किसी सीबीआई, ईडी या इनकम टैक्स नुमा विंग की तरह कार्य करने लगे? अभी तक न्यायाधीशों को मैनेज करने के किस्से सुनाई देते थे, क्या पूरी न्याय पालिका को ही या उसके एक बड़े भाग को मैनेज करना संभव है? क्या राजसत्ताएं अब न्यायालय की सर्वोच्चता का लाभ उठाकर ऐसे आर्थिक सामाजिक फैसलों को स्वीकार्य बनाने में लगी हैं जिनको लेकर जनता में असंतोष है? क्या अपने प्रयासों में उन्हें सफलता मिल रही है? पिछले कुछ महीनों में वर्तमान सरकार ने जो फैसले लिए हैं उनका दूरगामी प्रभाव भारतीय गणतंत्र के स्वरूप और उसकी प्रकृति पर पड़ना है। संभव है कि आने वाले दिनों में बहुमत वाली सरकार संविधान में ऐसे परिवर्तन करे जो बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व की स्थापना करें और अल्पसंख्यक धीरे धीरे दोयम दर्जे के नागरिक बना दिए जाएं। यह भी संभव है कि उत्तर कोरोना काल के नए भारत में तकनीकी में निष्णात संपन्न वर्ग का वर्चस्व हमारे आर्थिक-सामाजिक जीवन पर स्थापित हो तथा अप्रत्यक्ष रूप से गुण तंत्र की वापसी हो जाए। ऐसा विशाल अशिक्षित-अकुशल-असंगठित-असहाय आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े जन समुदाय के अधिकारों में कटौती द्वारा ही मुमकिन हो सकता है। अनेक ऐसे निर्णय पिछले दिनों में-कभी सरकार द्वारा तो कभी न्यायपालिका द्वारा- लिए गए जिनका प्रभाव अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकारों को संरक्षण देने वाले वैधानिक प्रावधानों को कमजोर करने वाला था किंतु जन असंतोष की तीव्रता को देखकर इन्हें वापस लेना पड़ा। कोरोना का हवाला देकर निजीकरण को बढ़ावा देने वाले अनेक ऐसे फैसले लिए जा रहे हैं जिनका प्रभाव हमारे प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन, पर्यावरण के विनाश और आदिवासियों के विस्थापन के रूप में दिखाई देगा। संविधान की संरचना और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार इन परिवर्तनों के मार्ग में अवरोध की भांति खड़े हैं। इन जनविरोधी परिवर्तनों को क्रियान्वित करने हेतु कमिटेड जुडिशरी द्वारा संवैधानिक प्रावधानों की सरकार के मनोनुकूल व्याख्या भर से काम नहीं चलेगा, नया संविधान रचना पड़ेगा। यदि नया संविधान गढ़ने का विवादास्पद प्रयास किया जाता है तो न्यायपालिका के विशेष सहयोग के बिना इसकी सफलता संदिग्ध होगी।
न्यायाधीशों की नियुक्तियों, पदस्थापनाओं और पदोन्नति में सरकार का घोषित-अघोषित, नियमतः-जबरिया, उचित-अनुचित, सैद्धांतिक-व्यवहारिक हस्तक्षेप हमेशा से रहा है। वेतन भत्तों और दीगर सुविधाओं के लिए भी सरकार पर न्यायाधीशों की निर्भरता रहती ही है। हर सरकार की इच्छा रहती है कि न्यायपालिका बहुत ज्यादा अड़ंगेबाज और पंगेबाज न हो। यदि न्यायाधीश धन और शक्ति की लालसा जैसी मानवीय दुर्बलताओं से ग्रसित हैं तो स्वाभाविक रूप से वे गलतियां करते हैं और मीडिया को उन पर निशाना साधने और सरकार को उन पर शिकंजा कसने का मौका मिलता है। स्वयं को सार्वजनिक जीवन में संयमित, मर्यादित, अनुशासित तथा सामाजिक- राजनीतिक कार्यक्रमों से अलग-थलग रखना न्यायाधीशों की विवशता है-इस पेशे का ऑक्यूपेशनल हैजर्ड है। या दूसरे शब्दों में कहें तो यह समाज द्वारा स्वयं को मिलने वाले असीमित मान सम्मान की कीमत है जो न्यायाधीशों को चुकानी पड़ती है। किंतु जब कोई न्यायाधीश अपने अंदर उठ रही बालोचित अथवा युवकोचित तरंगों की बिंदास अभिव्यक्ति को अपने निजी जीवन का हिस्सा मानता है तो वह जस्टिस बोबडे की भांति हार्ले डेविडसन बाइक पर सवार हो जाता है और आलोचना तथा टीका टिप्पणी को निमंत्रित करता है। स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब ऐसी टीका टिप्पणियों पर निर्णायक रूप से अंकुश लगाने के लिए न्यायपालिका कमर कस लेती है और अपने आलोचकों को कठोर संदेश देने के लिए प्रशांत भूषण जैसी शख्सियत का चयन करती है जो न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार का सबसे मुखर और प्रखर आलोचक रहा है। न्यायपालिका अपने किसी भी आचरण से अगर ऐसे निरंकुश और स्वेच्छाचारी लोगों का गिरोह प्रतीत होने लगे जो अपनी उच्छृंखलता और कदाचरण को उजागर करने वालों का मुँह बंद करने के लिए स्वयं को प्रदत्त शक्तियों का दुरुपयोग करना अपना विशेषाधिकार समझते हैं तब चिंता तो होगी ही। जब न्यायपालिका से जुड़े शीर्ष जन न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा और आपसी भाईचारे को बनाए रखने के नाम पर न्यायपालिका के असली चरित्र को उजागर करने वाले अपने ही साथियों को सबक सिखाने पर आमादा हो जाते हैं तब इनका व्यवहार भय उत्पन्न करने लगता है। आखिर यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की न्यायपालिका है जिस पर संविधान और कानून की व्याख्या एवं रक्षा का उत्तरदायित्व है कोई संगठित अपराधी गिरोह नहीं जहाँ संगठन की गोपनीयता भंग करने वालों को कठोर सजा दी जाती है। न्यायाधीशों पर जब भी भ्रष्टाचार और कदाचरण के आरोप लगते हैं, तब हम उन्हें अभूतपूर्व एकता का प्रदर्शन करते हुए आरोपकर्ता पर हमलावर होते देखते हैं। स्वयं पर लगे आरोपों की चर्चा मात्र से ही न्यायाधीश असहज हो जाते हैं और उनकी कोशिश अपारदर्शी एवं गोपनीय आंतरिक जांच द्वारा खुद को जल्द से जल्द क्लीन चिट देने की रहती है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगे यौन दुराचरण के आरोपों की जांच का हालिया उदाहरण सबके सामने है जब मुख्य न्यायाधीश के पद पर खुद को बरकरार रखते हुए एवं कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न संबंधी कानून में वर्णित प्रक्रिया का पालन न करते हुए जांच की गई और स्वयं को क्लीन चिट भी दे दी गई। आरोप सत्य थे या असत्य यह एक जुदा मसला है किंतु स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का यह तरीका अटपटा और आपत्तिजनक ही था।
प्रशांत भूषण मामले की जटिलता यह है कि इसका सुखद पटाक्षेप तभी संभव है जब इसे एक वकील और कुछ न्यायाधीशों के अहम के टकराव का रूप दे दिया जाए। एक ऐसा प्रकरण जिसमें दोनों पक्षों ने गुस्से में अपनी सीमाएं लांघी हैं और चूंकि प्रशांत भूषण वकील हैं अतः जजों की तुलना में क्षमा याचना करना उनके लिए अधिक सहज और सरल होगा।उनके ऐसा करने पर न्यायाधीश गण अपनी हठधर्मिता त्यागते हुए तत्काल उन्हें क्षमादान देकर खुद को स्वयं द्वारा ही पैदा गई इस अटपटी स्थिति से निकाल सकेंगे।
किंतु प्रशांत भूषण ने स्वयं को उस विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया है जो हमारे लोकतंत्र की मजबूती के लिए असहमति की बेबाक अभिव्यक्ति को आवश्यक मानती है और यह विश्वास करती है कि सरकार और उत्तरदायित्व के पदों पर आसीन लोगों से प्रश्न पूछकर ही उनकी कार्य प्रणाली को बेहतर बनाया जा सकता है। हर सवाल आरोप नहीं होता और इन सवालों के जवाब देना सफाई देने जैसा तो बिल्कुल नहीं है। प्रशांत भूषण उन मुट्ठी भर न्यायविदों की लड़ाई लड़ रहे हैं जो न्यायपालिका को अधिक उत्तरदायी, पारदर्शी और जनोन्मुख बनाना चाहते हैं- एक ऐसी न्यायपालिका जो लोकतंत्र पर आने वाले संकटों को दूर करे और उस आम आदमी के लिए सोचे जो लोकतंत्र का मूलाधार है। लोकतंत्र को जीवित और जाग्रत बनाए रखने का उत्तरदायित्व बोध प्रशांत भूषण को अपनी बात पर अडिग रहने की शक्ति देगा।
यदि यह मामला अधिक दिन तक चलता है तो मीडिया ट्रायल की आशंका बनी रहेगी। सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों की शुरुआत हो चुकी है जो प्रशांत भूषण को राष्ट्र द्रोही, आतंकवादियों और नक्सलियों का हिमायती, विरोधी दलों के लिए काम करने वाला वकील आदि के रूप में प्रस्तुत कर रही है। हो सकता है आने वाले दिनों में संबंधित न्यायाधीशों की गौरवशाली पृष्ठभूमि की चर्चा इन वायरल पोस्टों में हो और उनकी राष्ट्र भक्ति को प्रमाणित करने वाले कुछ फैसलों की सूची भी प्रस्तुत की जाए। शायद यह भी कहा जाए कि न्यायपालिका का धीरे धीरे शोधन हो रहा है और आतंकवादियों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए रात को खुलने वाले सुप्रीम कोर्ट का स्वरूप इतना बदल गया है कि वह अब राम मंदिर मामले को देशहित के अन्य मामलों पर वरीयता देते हुए इसकी लगातार सुनवाई करता है। यह भी संभव है कि इस परिवर्तन का श्रेय वर्तमान सरकार और उसके करिश्माई नेतृत्व को दिया जाए। निश्चित ही यह एक करिश्मा ही होगा यदि देश की सर्वोच्च अदालत अपने विवेक का विलय सरकार के हितों और इच्छाओं के साथ कर देगी। हो सकता है कि कुछ सोशल मीडिया पोस्टों में इस बात की ओर संकेत किया जाए कि कमिटेड जुडिशरी का प्रारंभ तो श्रीमती इंदिरा गाँधी के जमाने में हुआ था और बेचारे प्रधानमंत्री एवं उनकी सरकार इस परंपरा को बस आगे बढ़ा रहे हैं।
कुछ बहुत बुनियादी सवाल हमेशा की तरह अनुत्तरित रह जाएंगे। क्या न्यायपालिका को अधिक स्वायत्त और अधिक उत्तरदायी बनाने के लिए इसमें आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक है? क्या न्यायपालिका को अपने अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार को स्वीकारने और उस पर अंकुश लगाने के लिए बाध्य किया जा सकता है? क्या बहुसंख्यक वर्ग की इच्छा न्याय है? क्या हम ऐसी न्यायपालिका की ओर बढ़ रहे हैं जो प्लेइंग टु द गैलरी पर भरोसा करती है? क्या विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की प्राथमिकताओं का एकाकार हो जाना लोकतंत्र के लिए घातक नहीं है? यदि लोकतंत्र के तीनों आधार स्तंभ अपना मूल चरित्र खोकर किसी खास उद्देश्य, किसी विशेष विचारधारा या किसी ताकतवर शक्ति केंद्र के प्रति समर्पित हो जाएं तो क्या इसे लोकतांत्रिक आवरण में अधिनायकवाद के आगमन की आहट माना जा सकता है? जिस मतभिन्नता को प्रजातंत्र के तीनों आधार स्तंभों की ऐसी टकराहट के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो विकास की गति को अवरुद्ध करती है वह दरअसल विकास प्रक्रिया को पारदर्शी और जनोन्मुख बनाने का जरिया है। क्या हमें लोकतंत्र के इन आधार स्तंभों को सशक्त और स्वायत्त नहीं बनाना चाहिए?
प्रशांत भूषण में अनेक लोग लोकनायक जयप्रकाश नारायण की छवि देख रहे हैं। इनके मन में यह आशा है कि गांधी के देश के बाशिंदे अभिव्यक्ति की आजादी और न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर मुखर होंगे और सरकार के पास ऐसे सत्याग्रहियों को रखने के लिए जेलें कम पड़ जाएंगी। किंतु यथार्थ इससे एकदम विपरीत है। प्रशांत भूषण को समर्थन देने वाले चेहरे वही हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकारों की रक्षा, लोकतंत्र के संविधान सम्मत संचालन और आदर्श न्याय व्यवस्था की स्थापना के लिए दशकों से संघर्ष करते रहे हैं। राजनीतिक दलों का समर्थन इन विषयों पर विशेषज्ञता रखने वाले अपने प्रवक्ताओं के रस्मी बयानों तक सीमित है। राजनीति में अपने पिछले अनुभव के आधार पर प्रशांत भूषण यह समझ ही गए होंगे कि उनके उद्देश्य की पवित्रता की रक्षा के लिए न्यायिक संघर्ष ही श्रेयस्कर है। नए भारत में गांधी और जेपी के करिश्मे को दुहराना आसान नहीं है। हाँ, यदि तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया अपनी बाजीगरी दिखाए तो प्रशांत भूषण को दूसरा अन्ना हजारे अवश्य बना सकता है। निश्चित ही प्रशांत भूषण अन्ना के सम्मोहन और मायाजाल से बाहर आ चुके होंगे और कम से कम उन जैसा बनना तो बिल्कुल नहीं चाहेंगे। वैसे भी मीडिया अभी दूसरे कार्य में व्यस्त है। सुप्रीम कोर्ट से राहत प्राप्त कर चुके अर्णव गोस्वामी और अमीश देवगन जैसे नए भारत के नए राष्ट्रवाद की हिमायत करने वाले पत्रकार अभी सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाने में व्यस्त हैं। बढ़ती बेरोजगारी, प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा, कोरोना से लड़ने में सरकार की नाकामी, चरम कोरोना संक्रमण के काल में परीक्षाओं के आयोजन की सुप्रीम कोर्ट सम्मत सरकारी जिद जैसे ढेरों मुद्दों की बात करने वाले पत्रकार, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट इन एंकरों की भांति भाग्यशाली नहीं रहे हैं और विनोद दुआ एवं अरुंधति राय की भांति सुप्रीम कोर्ट की बेरुखी के शिकार हुए हैं। आम आदमी इतने प्रगाढ़ सम्मोहन में है कि ताली और थाली बजाने तथा दीपक जलाने को ही राष्ट्रीय कर्त्तव्य समझ बैठा है- ऐसे में परिवर्तन की आशा कम ही है।
हाल की परिस्थितियां पता नहीं क्यों अमेरिका के फ्रंटियर टाउन्स पर बनी फिल्मों की याद दिलाती हैं। इन फिल्मों की कहानी चार पात्रों मेयर, शेरिफ, जज और जर्नलिस्ट के इर्द गिर्द बुनी गई होती थी। कुछ फिल्मों में इनमें से तीन आपस में गठजोड़ कर अपनी मनमानी चलाते थे और जनता डर के साये में जीती थी। चौथा जो ईमानदार होता था और फ़िल्म का नायक भी- जनता के सहयोग और अपनी वीरता तथा सूझबूझ से इन्हें परास्त कर न्याय का राज्य कायम करता था। ऐसी बहुत कम, बल्कि इक्का दुक्का फिल्में होंगी जिनमें यह चारों मुख्य पात्र नकारात्मक विशेषताओं वाले थे और नायक आम जनता का कोई बहादुर नौजवान था। वह सुखांत फिल्में होती थीं इसलिए उनमें नायकों की जीत होती थी। आज की हकीकत तो अंतहीन ट्रेजेडी की है।
डॉ राजू पाण्डेय
रायगढ़, छत्तीसगढ़
- Sonali Khatri
पीरियड्स के दौरान हर लड़की और महिला का अनुभव एक जैसा नहीं होता। जहां कुछ के लिए यह एक बहुत ही सामान्य बात होती है, वहीं कुछ महिलाओं के लिए पीरियड्स बहुत ही दर्द भरा अनुभव होता है। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि एक कामकाजी महिला के पास अपनी इच्छानुसार पीरियड्स के लिए छुट्टी यानी पीरियड्स लीव लेने का अधिकार होना चाहिए। हाल ही में जोमैटो ने अपनी महिलाओं कर्मचारियों के लिए दस दिनों की पेड पीरियड्स लीव की पॉलिसी की घोषणा की है। इस नयी पॉलिसी के तहत पीरियड्स के दौरान महिला कर्मचारी पूरे साल भर में अधिकतम 10 छुट्टियां ले सकती हैं। इस पॉलिसी पर कई अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं और इसने फिर से वह बहस खड़ी कर दी है कि महिलाओं को पीरियड्स लीव मिलनी चाहिए या नहीं।
पीरियड्स लीव का विरोध क्यों हो रहा है ?
महिला कर्मचारियों को पीरियड्स लीव दिए जाने के जोमैटो के फैसले के विरोध के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा रहे हैं :
अगर कार्यस्थल पर भी लिंग के आधार पर पॉलिसी बनाई जाएगी तो फिर जिस प्रकार का काम पुरुषों को दिया जाता है वह महिलाओं को नहीं दिया जाएगा।
इस प्रकार की छुट्टियों की वजह से महिलाओं को पुरुषों की तरह कार्यस्थल पर बढ़ने के बराबर अवसर नहीं मिलेंगे।
पीरियड्स लीव देने की जगह जो महिलाएं पीरियड्स के दौरान बहुत ही कष्टदायी दर्द से गुजरती हैं, वे मेडिकल लीव ले सकती हैं।
इस प्रकार की छुट्टियों की वजह से कार्यस्थल पर महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और बढ़ेगा जैसे कि कम तनख्वाह, कम महिला कर्मचारियों का प्रमोशन, आदि।
यह भी कहा जा रहा है कि जब कार्यस्थल पर महिलाओं को हर चीज़ में बराबरी चाहिए फिर वह तनख्वाह हो, प्रमोशन हो तो फिर छुट्टियों में भी उन्हें बराबरी क्यों नहीं चाहिए। पीरियड्स के लिए अतिरिक्त छुट्टियां क्यों चाहिए। यह बराबरी के नाम पर धोखा है। यह भी कहा जा रहा है कि इस वजह से कार्यस्थल पर महिलाओं को एक कमजोरी और बोझ की तरह देखा जाएगा।
महिलाओं के लिए पीरियड्स लीव क्यों ज़रूरी है ?
इस प्रकार की पॉलिसी की वजह से पीरियड्स के चारों और जो चुप्पी है वह टूटेगी। यह भी माना जा रहा है कि इससे पीरियड्स को कार्यस्थलों पर सामान्य समझना शुरू किया जाएगा। इस मुद्दे पर खुलकर बातचीत भी बढ़ेगी। महिलाएं खुलकर अपने दर्द को अभिव्यक्त कर पाएंगी। जोमैटो की 10 दिन की ये छुट्टियां महिलाओं के इस कष्टकारी दर्द को पहचानते हुए एक ऐसा कार्यस्थल बनाने की कोशिश करती हैं जो महिलाओं के प्रति सवंदेनशील हो। जोमैटो की यह पॉलिसी बताती है कि यह कंपनी वास्तव में यह स्वीकारती है कि दफ्तर में सिर्फ पुरुष नहीं बल्कि महिलाएं भी आती हैं। यह नीति कार्यस्थल में विविधता और समावेश को भी बढ़ावा देती है।
इस पॉलिसी के पक्ष में जो लोग हैं वे कई सारे आंकड़ों का हवाला दे रहे है यह बताने के लिए के पीरियड्स के दौरान कुछ महिलाएं वास्तव में बहुत ही कष्टदायक पीड़ा से गुजरती हैं। पीरियड्स क्रैम्प्स कोई बहाना नहीं है। ऐसे में महिलाओं के लिए यह पॉलिसी बहुत ही मददगार साबित होगी।
मशहूर पत्रकार बरखा दत्त का पीरियड्स लीव के मुद्दे पर कहना है कि इस प्रकार की पॉलिसी की वजह से महिलाएं फाइटर जेट नहीं उड़ा पाएंगी, स्पेस में नहीं जा पाएंगी, वॉर की रिपोर्टिंग नहीं कर पाएंगी, आदि। लेकिन पीरियड्स लीव का समर्थन करने वाले लोगों का कहना है कि क्या औरतों से आगे बढ़ने का मौका सिर्फ इसलिए छीन लिया जाना चाहिए क्योंकि वे पीरियड्स के दौरान छुट्टी ले सकती हैं?
इतना ही नहीं, इस पॉलिसी के खिलाफ यह भी तर्क दिया गया है कि इस प्रकार की पॉलिसी की वजह से महिला कर्मचारियों को कमज़ोर समझा जाएगा। इस तर्क का जवाब कुछ इस तरीके से दिया जा रहा है, ‘अगर पीरियड्स के कष्टदायी दर्द की वजह से किसी महिला को 1 या 2 दिनों की छुट्टी लेनी पड़े, तो उससे यह कैसे साबित होता है कि वह महिला कमज़ोर है?’ अन्य मुद्दों की तरह, इस मुद्दे पर कोई एक मत हो, जरुरी नहीं। मेरी समझ में जोमैटो की यह पॉलिसी नारीवाद-विरोधी नहीं है। बराबरी का मतलब यह नहीं है कि बायॉलॉजिकल स्तर पर पुरुष और महिलाओं को एक समान रूप से देखा जाए। पीरियड्स के दर्द से महिलाएं गुज़रती है न कि पुरुष, बच्चे महिलाएं पैदा करती है न कि पुरुष। ऐसी में अगर कार्यस्थल पर इन जैविक अंतरों को पहचानते हुए महिलाओं के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जा रहा है तो वह महिला या पुरुष विरोधी नहीं बल्कि लैंगिक रूप से न्यायसंगत है।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 के तहत लिंग के आधार पर किसी भी भेदभाव के लिए मना करता है। लेकिन अगले ही अनुच्छेद 15 में संसद को महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए विशेष कदम उठाने की मंजूरी देता है। महिलाओं के लिए ख़ास कदम उठाने की यह मंजूरी क्या नारीवाद विरोधी नहीं है क्योंकि संविधान बनाने वाले यह समझते थे कि बराबरी का मतलब दोनों लिंगों के बीच में समान व्यवहार करना नहीं होता। कभी कभी, समान से कुछ ज्यादा होता है ताकि जो लिंग काफी वर्षों से पीछे छूट गया है वह भी आगे बढ़ पाए। ऐसी में जोमैटो की यह पीरियड पॉलिसी कैसे गलत है? पीरियड्स महिलाओं के लिए एक विकल्प नहीं है। वे चाहे या न चाहे, उन्हें इससे गुजरना ही पड़ता है और अगर इस वजह से वे अपने काम में अपना पूरा योगदान नहीं दे पा रही, तो ऐसे में पीरियड्स के लिए छुट्टियां लेना गलत नहीं है।
( यह लेख पहले 'फेमिनिज्म इन इंडिया' वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस पार्टी की दुर्दशा देखकर किसे रोना नहीं आएगा? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी अब जिंदा भी रहेगी या नहीं? इस पार्टी की स्थापना 1885 में एक विदेश में जन्मे अंग्रेज ए.ओ. ह्यूम ने की थी। अब क्या इस पार्टी की अंत्येष्टि भी विदेश में जन्मी सोनिया गांधी के हाथों ही होगी? पिछले 135 साल में इस महान पार्टी में दर्जनों बार फूट पड़ी है और नेतृत्व बदला है लेकिन उसके अस्तित्व को जैसा खतरा आजकल पैदा हुआ है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ।
आज वह इतनी अधमरी हो गई और उसके नेता इतने अपंग हो गए हैं कि वे फूट डालने लायक भी नहीं रह गए हैं? जिन 23 नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा था, क्या उनमें से किसी की हिम्मत है कि जो बाल गंगाधर तिलक, सुभाषचंद्र बोस, आचार्य कृपालानी, डा. लोहिया, जयप्रकाश, निजलिंगप्पा, शरद पवार आदि की तरह पार्टी-नेतृत्व को चुनौती दे सके?
कांग्रेस में अब तो नारायणदत्त तिवारी, अर्जुनसिंह, नटवरसिंह और शीला दीक्षित जैसे लोग भी नहीं हैं, जो पार्टी में वापिस भी आ गए लेकिन जिन्होंने पार्टी अध्यक्ष को चुनौती देने की हिम्मत तो की थी। जिन 23 नेताओं ने सोनिया को पत्र लिखकर कांग्रेस की दुर्दशा पर विचार करने के लिए कहा था, जब वे कार्यसमिति की बैठक में बोले तो उनकी घिग्घी बंधी हुई थी। राहुल गांधी ने इन सबकी हवा निकाल दी। कौन हैं, ये लोग ? ये सब इंदिरा-सोनिया परिवार के घड़े हुए कठपुतले हैं। इनकी अपनी हैसियत क्या है ? इनमें से किसी की जड़ जमीन में नहीं है। ये राजनीतिक चमगादड़ हैं। ये उध्र्वमूल हैं। इनकी जड़ें छत में हैं। ये उल्टे लटके हुए हैं। इनमें से किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि कांग्रेस जैसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है, उसे बाकायदा एक लोकतांत्रिक पार्टी बनाने का आग्रह करें।
छह माह बाद जो कार्यसमिति की बैठक होगी, उसमें यदि गैर-सोनिया परिवार के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष बना दिया गया तो वह भी देवकांत बरुआ की तरह दुम हिलाने के अलावा क्या करेगा ? अब तो एक ही रास्ता बचा रह गया है। वह यह कि राहुल गांधी थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे, अनुभवी नेताओं और बुद्धिजीवियों से सतत मार्गदर्शन ले, ठीक से भाषण देना सीखे और इंतजार करे कि मोदी से कोई भयंकर भूल हो जाए। कोई धक्का ऐसा जबर्दस्त लगे कि पस्त होती कांग्रेस की हृदय गति फिर लौट आए तो शायद कांग्रेस बच जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पंकज मुकाती (राजनीतिक विश्लेषक )
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बुधवार को अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की। वे अब कभी खुद को वैचारिक मुद्दों वाला नेता नहीं कह सकेंगे। राजनीतिक दलों को छोड़कर दूसरे दल में जाना अलग बात है। सियासत में अब सब जायज है। पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस ) के मुख्यालय में जाना अलग है।
ऐसा करके ज्योतिरादित्य ने अपनी खुद की गरिमा को अपनी ही नजरों में गिरा लिया। क्योंकि संघ मुख्यालय जाने का मतलब है, अपनी पूरी ज़िंदगी भर की विचारधारा को केवल चुनावी राजनीति और सत्ता हथियाने के लिए कुर्बान कर देना। एक तरह से सिंधिया का ये कदम उनको वैचारिक रूप से शून्य साबित करता है। वे राजनीति के इस बाज़ार में अब निर्वस्त्र दिखाई दे रहे हैं।
कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होना आवरण बदलना है। पर अपने विचारों को फायदों के लिए किसी ‘संघ’ के चरणों में रख देना दीनता का प्रतीक है। ज्योतिरादित्य ने कुछ ऐसा ही किया। सिंधिया ने अपने पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के उसूलों का भी ख्याल नहीं किया।
अपना पहला चुनाव जनसंघ के बैनर तले लड़ने वाले माधवराव सिंधिया ने जब उसे छोड़ा तो फिर कभी पलटकर नहीं देखा। तमाम मतभेदों के बावजूद वे कांग्रेस में बने रहे। कांग्रेस भी उन्हें विचारधारा वाला प्रतिबद्ध नेता मानते हैं।
1996 में माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ी पर उस दौर में उन्होंने अपने सोच को ज़िंदा रखा। भाजपा का दामन थामने के बजाय सिंधिया ने मध्यप्रदेश विकास पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा और जीते भी। उनका रुतबा और हैसियत ऐसी थी कि भाजपा ने उनके खिलाफ 1996 में कोई उम्मीदवार ही मैदान में नहीं उतारा।
1999 में वे कांग्रेस से सांसद बने। यही कारण है कि माधवराव सिंधिया आज भी राजनीति में एक सम्मानीय नाम है। ज्योतिरादित्य ने ये अवसर खो दिया। अब उनपर अवसरवादी होने की मोहर लग गई।
आखिर ज्योतिरादित्य इतने कमजोर क्यों हो गए ? वो महाराज जिसके नाम पर भाजपा ने पूरा अभियान चलाया हो। माफ़ करो महाराज। वो शिवराज और संघ जिसने हमेशा 1857 की गद्दारी को सिंधिया विरासत को जमकर कोसा, उनके खेल में सिंधिया एक मोहरा बनकर खड़े हो गए। क्या सिर्फ एक चुनाव हारने से कोई आदमी इस कदर हताश हो जाता है।
इसके मायने हैं कि ज्योतिरादित्य एक खोखले और कमजोर नेता हैं। जो एक आंधी में अपने उसूल, परिवार की साख और खुद की गरिमा को बचाने में नाकामयाब रहे। अगर वे मजबूत होते तो कांग्रेस के भीतर ही रहकर संघर्ष करते और खुद को साबित करते। 1857 के ‘गद्दारी’ के दाग को उनकी दादी और उनके पिता ने अपने कर्मों से बड़ी मेहनत करके धोया था। आज संघ की शरण में जाकर ज्योतिरादित्य ने फिर एक नया दाग अपने दामन पर लगा लिया।
इस लेख का मकसद संघ के अच्छे या बुरे होने से कतई नहीं है। संघ अपनी विचारधारा से जुड़ा संगठन है। पर ज्योतिरादित्य जिस संघ के खिलाफ पूरी ज़िंदगी बोलते रहे, वे अब कैसे अपने करीबियों से नजरे मिला पाएंगे। संघ के प्रतिबद्ध #कितने लोग सिंधिया और उनके समर्थकों को वोट देंगे इसका फैसला तो वक्त करेगा। पर जो संघ अपनी विचारधारा के आगे देश और किसी व्यक्ति विशेष दोनों को कुछ न समझता हो, वो क्या सिंधिया के चार कदम चलने से उनके प्रति उदार हो जाएगा ?
शायद, कभी नहीं। सिंधिया ने अपनी गरिमा के साथ अपने समर्थक 22 विधायकों के लिए भी मुश्किल खड़ी कर दी है। संघ से नजदीकी के चलते सिंधिया ने बहुत बड़े वर्ग को नाराज़ भी कर लिया है। उप चुनाव में इसका असर देखने को मिल सकता है। एक पल के लिए सोचिये यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया संघ मुख्यालय नागपुर न भी जाते तो उनकी हैसियत में कौन सी कमी हो जाती ?
इलायची… अब शायद ही लोगों को याद हो। रफी अहमद किदवई नामक एक नेता थे। कानून की डिग्री थी उनके पास, पर कभी वकालत नहीं की। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के रहनेवाले. वहां मिट्टी का पुश्तैनी घर था ,खपरैल। आजीवन केंद्रीय मंत्री रहे, पर मरने के बाद उनकी पत्नी और बच्चे गांव, बाराबंकी लौट आये. उसी टूटे-फूटे खपड़ैल घर में। आजीवन केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता रहने के बावजूद उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी, दिल्ली में घर नहीं था। स्वतंत्रता सेनानी किदवई साहब अकेले, गांधीवादी राजनीति के पुष्प नहीं थे। राजनीति में सिद्धांतों-विचारों पर चलनेवाले ऐसे लोगों की तब लंबी कतार थी।
फिर…आज की राजनीति में सामंत और संपन्न व्यक्ति अपनी विचारधारा से समझौता करके खुद को दीन बनाने पर क्यों आमादा रहते हैं।(POLITICSWALA.COM)
-ध्रुव गुप्त
बीसवी सदी के पूर्वार्द्ध ने भारतीय उपशास्त्रीय संगीत का एक स्वर्णकाल देखा था। ठुमरी, दादरा, पूरबी, चैती कजरी जैसी गायन शैलियों के विकास में उस दौर की तवायफ़ों के कोठों का सबसे बड़ा योगदान था। तब वे कोठे देह व्यापार के नहीं, संगीत के केंद्र हुआ करते थे। उन कोठों की कुछ बेहतरीन गायिकाओं में एक थी जानकीबाई 'छप्पनछुरी'। उनके जीवन के बारे में जो थोड़ा कुछ पता है उसके अनुसार बनारस की उनकी मां मानकी धोखे से इलाहाबाद के एक कोठे के हाथों बिक गई। कालांतर में वह उस कोठे की मालकिन भी बनी। जानकी की संगीत में रूचि देखते हुए मानकी ने उसे संगीत की शिक्षा दिलाने के साथ उर्दू, फ़ारसी, हिंदी, अंग्रेजी भाषाओं की जानकार भी बनाया।
संगीत की समझ और मधुर आवाज़ की वज़ह से जानकी के कोठे को शोहरत मिलने लगी। सांवले रंग और मोटे नाकनक्श की जानकी देखने में कुछ सुन्दर नहीं थी, लेकिन संगीत की प्रतिभा और आवाज़ के जादू ने उनकी इस कमी की भरपाई की। खुद्दार जानकी ने संगीत में अश्लीलता को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। एक बार किसी प्रशंसक की अश्लील फरमाईश पर वे उससे लड़ बैठी। अपराधी किस्म के उस व्यक्ति ने उसके चेहरे पर छुरी से छप्पन बार वार कर उनका चेहरा बिगाड़ दिया। 'छप्पनछुरी' का नाम तब से जानकी के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया।
इतने जख्म खाकर भी जानकी के दिल से संगीत का जुनून कम नहीं हुआ। वह घूंघट से अपने जख्मों को ढांककर गाती रही। धीरे-धीरे उनका का यश फैला तो उन्हें संगीत-सभाओं और राजाओं, नवाबों, रईसों की महफ़िलों से बुलावा आने लगा। धीरे-धीरे उनकी कला उनके चेहरे पर हावी होती चली गई। संगीत सभाओं में उनपर पैसे बरसते थे। जानकी की लोकप्रियता को भुनाने में ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ इंडिया भी पीछे नहीं रहीं। गौहर जान के साथ जानकी देश की पहली गायिका थीं जिनके गीतों के डेढ़ सौ से ज्यादा डिस्क बने। इन गीतों में ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी, भजन और ग़ज़ल सब शामिल थे।
गायन के अलावा जानकी गीत भी लिखती थीं। अपने तमाम गाए गीत उन्होंने ख़ुद लिखे थे। उनके गीतों का एक संग्रह तब 'दीवान-ए-जानकी' नाम से छपा था। उनका एक गीत 'इस नगरी के दस दरवाज़े / ना जाने कौन सी खिड़की खुली थी / सैया निकल गए मैं ना लड़ी थी' बेहद लोकप्रिय हुआ था। राज कपूर ने अपनी फिल्म 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' में कुछ फेरबदल के साथ इस गीत का इस्तेमाल किया था। उनके कुछ और प्रसिद्द गीत हैं - राम करे कहीं नैना न उलझे, यार बोली न बोलो चले जाएंगे, नाहीं परत मोहे चैन, प्यारी प्यारी सूरत दिखला जा, एक काफिर पे तबियत आ गई, रूम झूम बदरवा बरसे, मैं भी चलूंगी तोरे साथ, और कान्हा न कर मोसे रार। अपने लिखे गीतों की धुन भी वह ख़ुद बनाती थीं। गायिका के तौर पर तो अद्भुत वह थीं ही।
अपनी तमाम जवानी संगीत को समर्पित करने के बाद बढ़ती उम्र में जानकी ने इलाहाबाद के एक वकील से शादी की लेकिन वह रिश्ता जल्द ही टूट गया। उनके जीवन का शेष भाग सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित हो गया।1934 में उनकी मौत हुई। वह समय रसूलन बाई जैसी गायिकाओं के उत्कर्ष और बेगम अख्तर जैसी गायिका के उदय का था। उनकी मृत्यु के साठ साल बाद एच.एम.वी ने 1994 में 'चेयरमैन्स चॉइस' श्रृंखला के अंतर्गत उनके कुछ गीतों के ऑडियो ज़ारी किए थे जिन्हें सुनने वाले संगीत प्रेमियों की संख्या आज भी कम नहीं है।
-श्रवण गर्ग
कांग्रेस में इस समय जो कुछ चल रहा है क्या उसे लेकर जनता में किसी भी तरह की उत्सुकता, भावुकता या बेचैनी है ? उन बचे-खुचे प्रदेशों में भी जहां वह इस समय सत्ता में है ? केरल के उस वायनाड संसदीय क्षेत्र में भी जहां से राहुल गांधी चुने गए हैं ? उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जहां से सोनिया गांधी विजयी हुईं हैं और अमेठी जहां से राहुल गांधी हार गए थे ? या फिर देश के उन विपक्षी दलों के बीच जो केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ नेतृत्व के लिए कांग्रेस की तरफ़ ही ताकते रहते हैं ? शायद कहीं भी नहीं ! कांग्रेस के दो दर्जन नेताओं ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर माँग उठाई है कि पार्टी में अब एक ‘पूर्ण कालिक’, ‘सक्रिय’और ‘दिखाई पड़ने वाले’ नेतृत्व की ज़रूरत आन पड़ी है। कांग्रेस में ऐसे संस्थागत नेतृत्व का तरीक़ा स्थापित हो जो ‘सामूहिक’ रूप से पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान कर सके।
सोनिया गांधी को लिखी गई गोपनीय चिट्ठी मीडिया को लीक भी कर दी गई जिससे कि उस पर तुरंत विचार करने का दबाव बनाया जा सके। जिस तरह की माँग चिट्ठी में उठाई गई है, उसे तेईस हस्ताक्षरकर्ताओं में से कुछ अपने तरीक़ों से व्यक्तिगत स्तर पर पूर्व में भी उठाते रहे हैं। जैसा कि होना भी था, कार्य समिति की मंगलवार को बैठक बुलाई गई, जिसमें चिट्ठी पर विचार करने के अलावा बाक़ी सब कुछ हुआ। कोई दो दर्जन हस्ताक्षरकर्ताओं में केवल चार ही कार्य समिति के सदस्य हैं, पर गोपनीय बैठक की सारी जानकारी मीडिया को लगातार प्राप्त होती रही। अब जाँच इस बात की होगी कि चिट्ठी किसने लीक की और बैठक की जानकारी कैसे बाहर आती रही। पार्टियों में आंतरिक प्रजातंत्र के नाम पर जब अराजकता मचती है, तो वह कांग्रेस बन जाती है।
राहुल गांधी ने बैठक में नाराज़गी ज़ाहिर की कि चिट्ठी लिखने के लिए ग़लत वक्त चुना गया पर यह नहीं बताया कि सही वक्त कौन सा हो सकता था। ऐसा इसलिए हुआ होगा कि जनता को अब परवाह नहीं बची है कि उसे कांग्रेस या किसी और दल की कोई ज़रूरत है। मध्य प्रदेश जहाँ कि पहले कांग्रेस की हुकूमत थी और अब भाजपा की है, वहाँ महीनों तक और बाद में राजस्थान में जहाँ वह अभी बची हुई है कई दिनों तक सरकारें ठप रहीं पर जनता की तरफ़ से सोनिया गांधी या जेपी नड्डा को कोई चिट्ठी नहीं लिखी गई। जनता अब सरकार और दल निरपेक्ष हो गई है। इसे किसी भी कल्याणकारी राज्य के अध्ययन योग्य विषयों में शामिल किया जा सकता है कि जनता को उसकी स्वयं की मुसीबतों में व्यस्त कर दिया जाए, तो उसे पता ही नहीं चलेगा कि उसकी क़िस्मत के फ़ैसले क्या और कहाँ लिए जा रहे हैं !
जनता, राजनीतिक दलों में प्रजातांत्रिक मूल्यों और असहमति की आवाज़ को जगह देने की चिंता तब करती है, जब ‘चिट्ठियों के ज़रिए’ उठाई जाने वाली माँगों को एक व्यक्ति के तौर पर अपने लिए और समाज के तौर पर समस्त प्रजातांत्रिक संस्थानों के लिए न सिर्फ़ अत्यंत आवश्यक मानती है, उसे अपने जीने-मरने का सवाल भी बना लेती है।वर्तमान की ओर ही नज़रें घुमाना चाहें तो हांग कांग और बेलारुस सहित कई देशों में इस समय लाखों लोग सड़कों पर यही कर रहे हैं। वहाँ सैन्य उपस्थिति के बावजूद ऐसा हो रहा है। व्यापक जन-उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हमारे यहाँ आख़िरी बार ऐसा कोई प्रयोग दस वर्ष पूर्व अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान देखा गया था, जिसका अरविंद केजरीवाल एंड कम्पनी द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने के साथ ही अंत भी हो गया। जिन मुद्दों को लेकर लड़ाई लड़ी गई थी वे आज भी वैसे ही क़ायम हैं।
कांग्रेस के मामले में व्यापक उदासीनता का एक कारण यह भी हो सकता है कि जिन ‘असंतुष्ट’ लोगों ने चिट्ठी पर हस्ताक्षर किए हैं, उनके वास्तविक उद्देश्यों के प्रति जनता पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है ।जनता की जानकारी में यह बात अच्छे से है कि चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में अधिकांश मनमोहन सिंह सरकार में दस वर्षों तक उच्च मंत्री पदों पर रह चुके हैं।तब भी कांग्रेस की स्थिति वही थी, जो आज है। 'सामूहिक निर्णय' की माँग को लेकर तब इस तरह की चिट्ठियाँ नहीं लिखी गईं। या लिखी भी गईं हों तो मीडिया में लीक नहीं की गईं।हस्ताक्षरकर्ताओं में एक ग़ुलाम नबी आज़ाद तो इस समय राज्य सभा में पार्टी के नेता भी हैं। कहा जाता है कि असंतुष्टों का नेतृत्व भी वे ही कर रहे हैं। भाजपा में तो ख़ैर इस तरह की किसी चिट्ठी का सोच मात्र भी कल्पना से परे है। आडवाणी जी, डॉ जोशी और यशवंत सिन्हा के अलावा शांता कुमार, अरुण शौरी,शत्रुघ्न सिन्हा और सिद्धू आदि इस बारे में ज़्यादा जानकारी दे सकते हैं। जनता को पता है इस या उस ‘परिवार’ की ताबेदारी करना अब सभी पार्टी सेवकों की नियति बन गई है।
इस बात की उम्मीद करना कि कांग्रेस के मौजूदा संकट का कोई सर्व सम्मत हल अगले छह महीनों में निकल आएगा कोरोना के अंतिम निदान की खोज करने जैसा है। कोरोना के ताजा मामले उन मरीज़ों के हैं जो दो-चार महीने पहले ठीक घोषित हो चुके थे। असहमति को बर्दाश्त करने की इम्यूनिटी सभी राजनीतिक दलों में काफ़ी पहले समाप्त हो चुकी है। याद किया जा सकता है कि जो प्रशांत भूषण इस समय सबसे ज़्यादा चर्चा में हैं उन्हें असहमति व्यक्त करने के कारण ही योगेन्द्र यादव आदि के साथ केजरीवाल द्वारा पार्टी से बाहर कर दिया गया था।कांग्रेस में जो निर्णय हुआ है, उसे केवल एक युद्ध विराम से दूसरे युद्ध विराम के बीच की अवधि पर सहमति माना जाना चाहिए जिससे कि दोनों ही पक्ष ज़रूरी तैयारी कर सकें।
संकट का हल निकल सकता है अगर सोनिया गांधी साहस दिखा सकें और चिट्ठी लिखने वाले नेताओं को बुलाकर कह दें कि आप ही किसी सर्वसम्मत नेता का नाम तय करके बता दीजिए, गांधी परिवार उसे स्वीकार कर लेगा। ऐसा कुछ नहीं किया गया तो छह महीने बाद ऐसी ही और भी कई चिट्ठियाँ लिखने वालों की संख्या चार दर्जन से ज़्यादा हो जाएगी।तकलीफ़ों के आँकड़े चारों ही ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हम जानते हैं कि सोनिया गांधी ऐसा साहस दिखा नहीं पाएँगी।
- स्वेता चौहान
हमारे देश का संविधान कहता है कि भारत में किसी के भी साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा क्योंकि यहां सभी वर्ग समान हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस समय में भी भारत के कई कोनों में से ऐसी खबरें हर दिन हमारे सामने आती हैं जिसमें किसी न किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर बुरा बर्ताव किया जाता है। फिर चाहे वह भीड़ से किसी की हत्या कहे जाने वाली मॉब लिंचिंग हो, दहेज के लिए प्रताड़ित कोई महिला हो या जाति के आधार पर ऊंची जातियों का दलितों पर किए जाने वाले अत्याचार। आज का हमारा लेख ऐसी ही दो घटनाओं के बारे में जहां दलित समुदाय को ऊंची जाति के हाथों जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा है। ये घटनाएं आपको चांद से चमकते ‘मॉडर्न इंडिया’ में मौजूद उन दागों से अवगत कराएंगी जो दूर से भले ही नज़र न आते हो पर गहराई में उतरे तो यह काफी गंभीर समस्या मालूम पड़ती है।
ये खबर है ओडिशा के एक गांव की जहां एक ज्योति नाइक नाम की एक दलित लड़की द्वारा मात्र फूल तोड़ लेने से दलित जाति के चालीस परिवारों का बहिष्कार कर दिया गया। यह मामला ओडिशा के ढेनकनाल जिले के कांटियो केटनी गांव का है जहां एक 15 वर्ष की बच्ची ने ऊंची जाति के लोगों के बगीचे से एक फूल तोड़ लिया जिसके बाद नाराज़ ऊंची जाति के लोगों ने गांव के सभी दलित 40 परिवारों का सामाजिक रूप से बहिष्कार कर दिया।
अखबार द इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए लड़की के पिता निरंजन नाइक ने कहा कि उन्होंने तुरंत अपनी बच्ची की गलती के लिए माफ़ी मांग ली थी जिससे इस मसले को आसानी से सुलझाया जा सके। लेकिन उसके बाद गांव में एक बैठक बुलाई गई और गांव के लोगों ने वहां रह रहे सभी 40 दलित परिवारों का बहिष्कार करने का फैसला लिया। इतना ही नहीं दलितों ने आरोप लगाया है कि उन्हें गांव की सड़क पर शादी या अंतिम संस्कार आयोजन के लिए लोगों की भीड़ नहीं लगाने की चेतावनी दी गई है। यह भी कहा गया है कि दलित समुदाय के बच्चे स्थानीय सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ेंगे।
हमारे देश का संविधान कहता है कि भारत में किसी के भी साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा क्योंकि यहां सभी वर्ग समान हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस समय में भी भारत के कई कोनों में से ऐसी खबरें हर दिन हमारे सामने आती हैं जिसमें किसी न किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर बुरा बर्ताव किया जाता है।
आरोप यह भी है कि स्कूल में पढ़ा रहे दलित समुदाय के शिक्षकों से कहा गया है कि वे अपना ट्रांसफर करवाकर कहीं और की पोस्टिंग ले लें। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक एक ग्रामीण ने बताया कि सार्वजनिक प्रणाली की दुकानों से उन्हें राशन तक नहीं दिया जा रहा है। किराने वाले भी उन्हें सामान नहीं दे रहे हैं। इस वजह से गांव के लोग पांच किलोमीटर दूर जाकर दूसरे गांव से राशन खरीद कर ला रहे हैं। यहां तक की ज्योति नाइक के गांव वाले उनलोगों से बात भी नहीं कर रहे हैं।
इसी बीच एक खबर और स्वंतंत्रता दिवस के मौके पर सामने आयी थी जिसमे एक दलित पंचायत अध्यक्ष को झंडा फहराने से रोक दिया गया। आपको बता दें कि तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में तिरुवल्लुर जिले के अथुपक्कम गांव की 60 वर्षीय पंचायत प्रमुख वी अमुर्थम को 15 अगस्त के अवसर पर उन्हें एक सरकारी स्कूल में झंडा फहराने के लिए आमंत्रित किया गया था। हालांकि, बाद में उन्हें आने से मना कर दिया गया। दरअसल उन्हें बताया गया कि गांव के अन्य पंचायत सदस्य और इसके सचिव एक ऊंची जाति वन्नियार जाति के हैं और उन्होंने ही 15 अगस्त को पंचायत प्रमुख को झंडा फहराने की अनुमति नहीं दी थी। इसके बाद इस मामले का प्रशासन द्वारा संज्ञान लेते हुए पंचायत उपाध्यक्ष के पति और पंचायत सचिव को हिरासत में ले लिया गया। 15 अगस्त के पांच दिन बीत जाने के बाद यानी 20 अगस्त को वी अमुर्थम ने महिला अध्यक्ष ने जिला कलेक्टर और एसपी की मौजूदगी में झंडा फहराया।
ये दोनों ही घटनाएं समाज की उस बीमार मानसिकता को दर्शाती है जो संविधान में लिखी बातों को नकारने से जरा भी गुरेज नहीं करते क्योंकि सदियों से दिमाग में मौजूद वर्ण व्यवस्था का दीमक संविधान में लिखी बातों को भी मानने को तैयार नहीं होता। ये दोनों घटनाएं दर्शाती हैं कि हमारे समाज में जातिगत भेदभाव नाम का अपराध अब तक मौजूद है। शिक्षा व्यवस्था में बदलाव कर विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चों को इस बारें में बताया जा सकता है जिससे आगे आने वाली पीढ़ी में इस तरह की मानसिकता न पनपे। संविधान में मौजूद अधिकारों को जन-जन तक पहुंचाया जाए। समाज की पहल ही जातिगत बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने में सहायक हो सकती है।
- सुनीता नारायण
कोविड- 19 एक ऐसी समस्या है जिसने हमारा पूरा ध्यान खींच रखा है। हालात ऐसे हो चुके हैं कि हम उन चीजों के बारे में बेखबर हो चले हैं जो हमारे भूतकाल का हिस्सा होने के साथ साथ हमारे भविष्य के निर्माण के लिए भी जिम्मेदार हैं। हमारे जीवन में ऐसा ही एक मुद्दा है प्लास्टिक का। यह एक सर्वव्यापी पदार्थ है जो हमारी भूमि और महासागरों में फैलकर उन्हें प्रदूषित करता है और हमारे स्वास्थ्य संबंधी तनाव में इजाफा करता है। वर्तमान में चल रही स्वास्थ्य आपातकाल जैसी स्थिति ने प्लास्टिक के उपयोग को सामान्य कर दिया है क्योंकि हम वायरस के खिलाफ सुरक्षा उपायों के रूप में अधिक से अधिक उपयोग करते हैं। दस्ताने, मास्क से लेकर बॉडी सूट तक जैसे प्लास्टिक प्रोटेक्शन गियर कोविड-19 के खिलाफ इस युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य निभा रहे हैं लेकिन अगर इस मेडिकल कचरे को ठीक से नियंत्रित एवं प्रबंधित नहीं किया गया तो यह हमारे शहरों के कूड़े के पहाड़ों की संख्या में इजाफा ही करेगा।
प्लास्टिक की राजनीति का पूरा किस्सा पुनर्चक्रण नामक एक शब्द में सन्निहित है। वैश्विक उद्योग जगत ने यह तर्क लगातार सफलतापूर्वक दिया है कि हम इस अत्यधिक टिकाऊ पदार्थ का उपयोग करना जारी रख सकते हैं क्योंकि इसका एक बार प्रयोग कर लिए जाने के बाद भी प्लास्टिक को रीसाइकिल किया जा सकता है। हालांकि यह अलग बात है कि इसका अर्थ सबकी समझ से परे है। वर्ष 2018 में चीन ने पुन: प्रसंस्करण के लिए प्लास्टिक कचरे के आयात को रोकने के लिए नेशनल सोर्ड पॉलिसी तैयार की जिसके फलस्वरूप कई अमीर देशों का कठोर वास्तविकताओं से सामना हुआ। प्लास्टिक कचरे से लदे जहाजों को मलेशिया और इंडोनेशिया सहित कई अन्य देशों ने अपने तटों से वापस कर दिया था। यह कचरा किसी के काम का नहीं था। हर देश के पास पहले से ही प्लास्टिक का अंबार है।
आंकड़े बताते हैं कि 2018 के प्रतिबंध से पहले यूरोपीय संघ में रीसाइक्लिंग के लिए एकत्र किए गए कचरे का 95 प्रतिशत और संयुक्त राज्य अमेरिका के प्लास्टिक कचरे का 70 प्रतिशत चीन भेज दिया जाता था। चीन पर निर्भरता का मतलब था कि रीसाइक्लिंग मानक शिथिल हो गए थे। खाद्य अपशिष्ट एवं प्लास्टिक को साथ मिलाकर उद्योग जगत ने कचरे के नए उत्पाद, डिजाइन और रंग बनाने में महारत हासिल की थी। इस सब के कारण कचरा अधिक दूषित हो जाता और उसके पुनर्चक्रण में भी कठिनाइयां आतीं हैं। हालात यहां तक पहुंच गए कि कचरे में भी व्यापार ढूंढ लेने में माहिर चीन जैसे देश को भी इसमें कोई फायदा नहीं नजर आया।
भारत की प्लास्टिक अपशिष्ट समस्या समृद्ध दुनिया के देशों जितनी भयावह तो नहीं है, लेकिन यह लगातार बढ़ती जा रही है। प्लास्टिक कचरे पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, गोवा जैसे समृद्ध राज्य प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति 60 ग्राम प्लास्टिक का उत्पादन करते हैं। दिल्ली 37 ग्राम प्रतिव्यक्ति, प्रतिदिन के साथ इस रेस में ज्यादा पीछे नहीं है। राष्ट्रीय औसत लगभग 8 ग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन है। दूसरे शब्दों में, जैसे-जैसे समाज अधिक समृद्ध होगा वैसे-वैसे प्लास्टिक कचरे की मात्रा भी बढ़ेगी । यह समृद्धि की वह सीढ़ी है जिस पर चढ़ने से हमें बचना होगा।
हालांकि, हमारे शहरों में फैले प्लास्टिक अपशिष्ट की इस भारी मात्रा को देखकर यह अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि हालात काबू से बाहर जा रहे हैं और कुछ ही समय में ऐसी स्थिति आएगी जब इस कचरे का निपटान हमारे बस में नहीं रहेगा। इस समस्या के समाधान के लिए अलग तरीके से सोचने और निर्णायक कदम उठाने की आवश्यकता है और आज हमारे समाज में इसकी भारी कमी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर एक ओजपूर्ण भाषण दिया और हमें प्लास्टिक की आदत छोड़ने का आह्वान करते हुए वादा किया कि उनकी सरकार इसके इस्तेमाल में कटौती के लिए महत्वपूर्ण योजनाओं की घोषणा करेगी। लेकिन उनकी सरकार इसका ठीक उल्टा कर रही है।
यहां भी सारी राजनीति रीसाइक्लिंग को लेकर है। उद्योग जगत ने एक बार फिर नीति निर्माताओं को यह समझाने में कामयाबी हासिल कर ली है कि प्लास्टिक कचरा कोई समस्या नहीं है क्योंकि हम लगभग हर चीज को रीसाइकल कर पुन: उपयोग में ला सकते हैं। यह कुछ-कुछ तंबाकू सा है। अगर हम धूम्रपान करना बंद कर देते हैं, तो किसान प्रभावित होंगे। यदि हम प्लास्टिक का उपयोग करना बंद कर देते हैं, तो छोटे स्तर पर चलने वाले रीसाइक्लिंग उद्योग जिसका अधिकांश हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में है, बंद हो जाएंगे और उनमें काम कर रहे मजदूर बेरोजगार हो जाएंगे। पूरी व्यवस्था चरमरा जाएगी और कई नौकरियां जाएंगी।
आइए पहले चर्चा करें कि उस कचरे का क्या होता है जिसे रीसाइकल नहीं किया जा सकता है? सभी अध्ययन (सीमित रूप में) दिखाते हैं कि नालियों या लैंडफिल में जमा प्लास्टिक अपशिष्ट में कम से कम रिसाइकिल करने योग्य सामग्री शामिल होती है। इसमें बहुस्तरीय पैकेजिंग (सभी प्रकार की खाद्य सामग्री), पाउच , ( गुटखा या शैम्पू) और प्लास्टिक की थैलियां शामिल हैं। 2016 के प्लास्टिक प्रबंधन नियमों ने इस समस्या को स्वीकारा और कहा कि पाउच पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा और दो साल में हर तरह के बहुस्तरीय प्लास्टिक के उपयोग को समाप्त कर दिया जाएगा। वर्ष 2018 में इस कानून को लगभग पूरी तरह बदल दिया गया और केवल वैसे कचरे को इस श्रेणी में रखा जो रीसाइकल न किया जा सके। बशर्तें ऐसी कोई चीज हो।
यह कहना सही नहीं है कि सैद्धांतिक रूप से बहुस्तरीय प्लास्टिक या पाउच को रीसाइकल नहीं किया जा सकता है। उन्हें सीमेंट संयंत्रों में भेजा जा सकता है या सड़क निर्माण में उपयोग किया जा सकता है। लेकिन हर कोई जानता है कि इन खाली, गंदे पैकेजों को पहले अलग करना, इकट्ठा करना और फिर परिवहन करना लगभग असंभव है। इसलिए सब पहले के जैसा ही चल रहा है। हमारी कचरे की समस्या बरकरार है। दूसरा मुद्दा यह है कि हम वास्तव में रीसाइक्लिंग से क्या समझते हैं? हम जानते हैं कि प्लास्टिक के पुनर्चक्रण हेतु घरेलू स्तर पर सावधानी से कचरे का अलगाव करने की आवश्यकता है। यह हमारी और स्थानीय संस्थाओं की जिम्मेदारी बनती है। अतः अब समय या चुका है जब हम रीसाइक्लिंग की इस दुनिया को नए सिरे से निर्मित करें। मैं आपसे आने वाले हफ्तों में इसके बारे में चर्चा करूंगी।(downtoearth)
- संध्या झा
ऊंट यानी रेगिस्तान का टाइटैनिक डूब रहा है। इसे बचाने के तमाम सरकारी उपाय असफल साबित होते दिख रहे हैं। अब से एक दशक पहले आबादी के लिहाज से भारतीय ऊंटों का सूडान और सोमालिया के बाद तीसरा स्थान था। लेकिन इनकी गणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि अब ये 10वें स्थान पर पहुंच गए हैं।
रेगिस्तान का अपना आकर्षण है। जिस तरह समुद्र के किनारे खड़ा होने पर प्रकृति की विराटता का अहसास होता है, उसी प्रकार रेगिस्तान के बीच से गुजरने पर भी ऐसा लगता है। माना जाता है कि जहां आज रेगिस्तान है, वहां कभी न कभी समुद्र रहा है, जो अब या तो सूख गया या फिर पीछे हट गया है। यही कारण है कि रेगिस्तान के गर्भ में तेल, गैस, कोयला या फिर अन्य प्राकृतिक खनिजों का अथाह भंडार छिपा हुआ है। रेगिस्तान के भूगोल का अध्ययन करने से इस बात जानकारी भी मिलती है। इसीलिए ऊंट को रेतीले रेगिस्तान का जहाज (टाइटैनिक) भी कहा जाता है।
रेगिस्तान के टाइटैनिक का इतिहास
पृथ्वी पर विचरण करने वाले सबसे लंबे-चौड़े पशुओं में शामिल ऊंट के बारे में आज यदि यह कहा जाए कि कभी यह खरगोश जितना छोटा हुआ करता था तो किसी को सहसा विश्वास नहीं होगा, लेकिन यह सच है कि पोटीपोलस नामक ऊंट खरगोश जितना ही ऊंचा था। माना जाता है कि लगभग 50 हजार साल पहले विकास क्रम में ऊंट की उत्पत्ति हुई और ऊंट के कैमिलीड वर्ग का उद्भव सबसे पहले उत्तरी अमेरिका में हुआ था। जंगली ऊंट अनुमानतः आटीया और डकटेला कोटि तथा टाइलोपोडा उपकोटि में आने वाले उष्ट्रवंश से ताल्लुक रखता है। प्राचीन काल में एक और दो कूबड़ वाले ऊंट पाए जाते थे।
भारत में एक कूबड़ वाला ऊंट पाया जाता है। भारत में ऊंटों के बारे में इतिहासकार डॉविल्सन ने लिखा है कि ईसा से तीन हजार साल पहले आर्यों के यहां आगमन के दौरान एक कूबड़ वाले ऊंट के बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन लगभग 2300 साल पहले सिकंदर के आक्रमण के समय एक कूबड़ वाले ऊंट भारत में लाए गए थे। ईसा से 3000 से 1800 साल पहले हड़प्पा संस्कृति काल में भी भारत में ऊंटों का उल्लेख मिलता है। लेकिन यह भी माना जाता है कि वर्तमान में सिंध और राजस्थान के रूप में पहचाने जाने वाले क्षेत्र में आदिकाल से एक कूबड़ वाले ऊंट थे।
रेगिस्तानी टाइटैनिक के डूबने का खतरनाक मंजर दिखाने के लिए कुछ आंकड़े रखना जरूरी होगा। साल 2001 में देश में ऊंटों की तादाद 10 लाख से ज्यादा थी। ध्यान रहे कि प्रदेशों में ऊंटों की गणना हर चार साल में होती है। आखिरी गणना 2011 में हुई थी लेकिन उसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं। और अगर राजस्थान की ही बात करें तो 2001 के मुकाबले 2007 में प्रदेश में ऊंटों की आबादी आधे के करीब आ गई। इस हिसाब से आज की स्थिति का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। देश में सबसे ज्यादा ऊंट राजस्थान में ही पाए जाते हैं। 2007 में 4136 लाख ऊंट यहां के रेगिस्तानी समंदर में तैरने के लिए बचे थे।
देश और प्रदेश में ऊंटों की लगातार कम होती आबादी की सबसे बड़ी वजह है इस पशु का लगातार अनुपयोगी होते जाना। पहले राजस्थान के हजारों किमी के रेतीले समंदर में यातायात और जुताई वगैरह के काम में सबसे उपयोगी साधन ऊंट ही हुआ करता था। पर खेती में मशीनों के बढ़ते उपयोग की वजह से इनकी जरूरत लगातार घटती जा रही है। दूसरी ओर, विकास की तेज लहर में चारागाह भी साफ होते जा रहे हैं, जो ऊंटों के लिए चारे के सबसे बड़े स्त्रोत रहते आए हैं। क्या आपने सोचा है अगर ऐसे ही रेगिस्तान का टाइटैनिक डूबने लगे तो क्या होगा? रेगिस्तान की इकोलॉजी इन पर निर्भर करती है और इनकी संख्या ऐसे ही कम होने लगी तो रेगिस्तान के लिए कई प्रकार की समस्याएं खड़ी हो जाएंगी
मिट्टी का प्रबंधन
ऊंटों से किसानों को खेतों के अंदर जैविक खाद मिल जाती हैं। इससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है और पानी भी जहरीला नहीं होता। बदले में पशुपालकों को अपने पशुओं हेतु खेतों से फसल निकालने के बाद अनावश्यक बचे फूल-पत्ते, फलियां ओर भूसा मिल जाता है। ये काफी पौष्टिक होता है जिसे पशु बड़े चाव से खाते हैं। ऊंटों के कम होने से ये जुगलबंदी तो टूटेगी ही, साथ में मिट्टी के प्राकृतिक तरीके से होने वाला प्रबन्धन भी बिगड़ेगा।
अरावली और थार के मध्य सम्बन्ध
गुजरात से लेकर दिल्ली तक विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली स्थित है। इसके एक ओर भारत का महान मरुस्थल है और दूसरी ओर दक्कन का पठार। अरावली रेगिस्तान के फैलाव को रोकती है और मॉनसून की स्थिति को निर्धारित करती है, वहीं दूसरी ओर ये जल विभाजक की भूमिका निभाती है।
इसकी अपनी खास पारिस्थितिकी उसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है। इसे अलग और खास बनाने में ऊटों और घुमन्तू की भूमिका है जो वहां की जैव विविधता को फैलाने में मदद करते हैं। इससे वहां मौजूद पेड़-पौधे ओर झाड़ियों की हर वर्ष कटाई-छंटाई होती रहती है। अरावली को इन जानवरों से खाद मिलती है। वहां से प्राप्त होने वाली असंख्य जड़ी- बूटियों को ये चरवाहे अपने साथ अन्य राज्यों तक ले जाते हैं।
यदि ऊंट और चरवाहे नहीं गए तो ये चक्र रुक जाएगा। तब अरावली को खाद कहां से मिलेगी और वहां मौजूद सूखी झाड़ियों को कौन हटायेगा? हमें ये देखना है कि अरावली में आग लगने की घटनाएं क्यों नहीं होतीं? अरावली केवल राजस्थान से दिल्ली के बीच ही कटा फटा है किंतु इससे पहले गुजरात से लेकर राजस्थान के अलवर तक तो ये निरन्तर फैला है। वहां मौजूद सूखी घास ओर झाड़ियां पशुपालक हर वर्ष हटाते हैं।
ऐसा नहीं है कि अरावली ओर थार के मध्य सम्बन्ध कोई एक-दो साल से बना है। ये सम्बन्ध तो कई हजार सदियों में निर्मित हुआ है। अरावली की जैव विविधता को फैलाने में इन्हीं ऊंटों और घुमन्तू समाज का योगदान है।(downtoearth)
- संजय पराते
हर साल की तरह इस साल भी छत्तीसगढ़ की सहकारी सोसाइटियों में यूरिया खाद की कमी हो गई है। गरीब किसान दो-दो दिनों तक भूखे-प्यासे लाइन में खड़े है और फिर उन्हें निराश होकर वापस होना पड़ रहा है। सरकार उन्हें आश्वासन ही दे रही है कि पर्याप्त स्टॉक है, चिंता न करे और फिजिकल डिस्टेंसिंग को बनाकर रखें। किसान अपने अनुभव से जानता है कि मात्र आश्वासन से उसे खाद नहीं मिलने वाला। और यदि वह जद्दोजहद न करें, तो धरती माता भी उसे माफ नहीं करेगी और पूरी फसल बर्बाद हो जाएगी। अपनी फसल बचाने के लिए अब उसके पास एक सप्ताह का भी समय नहीं है। इसलिए वह सड़कों पर है। प्रशासन की लाठियां भी खा रहा है और अधिकारियों की गालियां भी। यह सब इसलिए कि अपना और इस दुनिया का पेट भरने के लिए उसे धरती माता का पेट भरना है।
धान की फसल के लिए यूरिया प्रमुख खाद है। कृषि वैज्ञानिक पी एन सिंह के अनुसार एक एकड़ धान की खेती के लिए 200 किलो यूरिया खाद चाहिए। इस हिसाब से छत्तीसगढ़ को कितना खाद चाहिए?
छत्तीसगढ़ में लगभग 39 लाख हेक्टेयर में धान की खेती होती है। तो प्रदेश को 19 लाख टन यूरिया की जरूरत होगी, जबकि सहकारी सोसायटियों को केवल 6.3 लाख टन यूरिया उपलब्ध कराने का लक्ष्य ही राज्य सरकार ने रखा है और जुलाई अंत तक केवल 5.77 लाख टन यूरिया ही उपलब्ध कराया गया है।
इस प्रकार प्रदेश में प्रति हेक्टेयर यूरिया की उपलब्धता केवल 122 किलो और प्रति एकड़ 49 किलो ही है। बाकी 12-13 लाख टन यूरिया के लिए किसान बाजार पर निर्भर है। आप कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ में इतनी उन्नत खेती नहीं होती कि 19 लाख टन खाद की जरूरत पड़े। यह सही है। लेकिन क्या सरकार को उन्नत खेती की ओर नहीं बढ़ना चाहिए और इसके लिए जरूरी खाद उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी नहीं बनती?
देश मे रासायनिक खाद का पूरे वर्ष में प्रति हेक्टेयर औसत उपभोग 170 किलो है, जबकि छत्तीसगढ़ में यह मात्र 75 किलो ही है। वर्ष 2009 में यह उपभोग 95 किलो था। स्पष्ट है कि उपलब्धता घटने के साथ उपभोग भी घटा है और इसका कृषि उत्पादन और उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। आदिवासी क्षेत्रों में तो यह उपभोग महज 25 किलो प्रति हेक्टेयर ही है। क्या एक एकड़ में 10 किलो यूरिया खाद के उपयोग से धान की खेती संभव है? आदिवासी क्षेत्रों में यदि खेती इतनी पिछड़ी हुई है, तो इसका कारण उनकी आर्थिक दुरावस्था भी है। सोसाइटियों के खाद तक उनकी पहुंच तो है ही नहीं।
जुलाई अंत तक सरगुजा, सूरजपुर, बलरामपुर, कोरिया और जशपुर जिलों के लिए कुल 2400 टन यूरिया खाद सोसाइटियों को दिया गया है, जबकि पांचों जिलों का सम्मिलित कृषि रकबा 9 लाख हेक्टेयर से अधिक है। इस प्रकार प्रति हेक्टेयर 2.7 किलो या प्रति एकड़ एक किलो यूरिया खाद ही सोसाइटियों को उपलब्ध कराया गया है। अब दावा किया जा रहा है कि 18 अगस्त तक सरगुजा संभाग में 18825 टन यूरिया की आपूर्ति की जा चुकी है, लेकिन सहकारी समितियों तक यह सप्लाई नहीं हुई है! क्या यह दावा अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं लगता? जो सरकार और प्रशासन अप्रैल-जुलाई के 120 दिनों में केवल 2400 टन खाद उपलब्ध कराए, वह महज 18 दिनों में 16000 टन से अधिक यूरिया खाद का जुगाड़ करने का अखबारी दावा करें, तो वास्तविकता की छानबीन भी जरूर होनी चाहिए कि प्रशासन के इस चमत्कार को सराहा जाएं या फिर नमस्कार किया जाये!
छत्तीसगढ़ की 1333 सहकारी सोसाइटियों में सदस्यों की संख्या 14 लाख है, जिसमें से 9 लाख सदस्य ही इन सोसाइटियों से लाभ प्राप्त करते हैं। प्रदेश में 8 लाख बड़े और मध्यम किसान है, जो इन सोसाइटियों की पूरी सुविधा हड़प कर जाते हैं। इन सोसाइटियों से जुड़े 5 लाख सदस्य और इसके दायरे के बाहर के 20 लाख किसान, कुल मिलाकर 25 लाख लघु व सीमांत किसान इनके लाभों से वंचित हैं और बाजार के रहमो-करम पर निर्भर है। उनकी हैसियत इतनी नहीं है कि वे बाजार जाकर सरकारी दरों से दुगुनी-तिगुनी कीमत पर कालाबाजारी में बिक रहे खाद को खरीद सके।
भारत सरकार की वेबसाइट india.gov.in पर 45 किलो और 50 किलो यूरिया की बोरियों की कीमत क्रमशः 242 रुपये और 268 रुपये प्रदर्शित की गई है। इस कीमत पर आज छत्तीसगढ़ में न तो सोसाइटियों में और न ही बाजार में यूरिया खाद उपलब्ध है। सोसाइटियों में पिछले साल की तुलना में यूरिया खाद की कीमत बढ़ गई है - नीम कोटेड यूरिया के नाम पर और 50 किलो की जगह 40 किलो की बारी आ रही है। बाजार में यही यूरिया 700-800 रुपये में बिक रहा है।
गरीब किसानों के सामने इस सरकार ने यही रास्ता छोड़ा है कि वे खेती-किसानी छोड़ दे या फिर आत्महत्या का रास्ता अपनाएं। लेकिन छत्तीसगढ़ के किसानों ने संघर्ष का रास्ता चुना है। पूरे प्रदेश में और खासकर सरगुजा संभाग में किसान सड़कों पर है।
*(लेखक छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष हैं। मो.: 094242-31650)*
चारु कार्तिकेय
कहा जा रहा है कि सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की जांच के सिलसिले में सीबीआई सुशांत की ‘मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी’ करेगी। जानिए क्या और कितनी उपयोगी होती है मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी।
हिंदी फिल्मों के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की सीबीआई द्वारा जांच में एक नया मोड़ आया है। मीडिया में आई खबरों के अनुसार सुशांत के घर की जांच और उनसे जुड़े कई लोगों से पूछताछ के बाद केंद्रीय जांच एजेंसी अब सुशांत की ‘मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी’ करेगी। ऑटोप्सी यानी शव का परीक्षण होता है। मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी को एक प्रकार का दिमाग का पोस्टमार्टम कहा जा रहा है।
सुशांत सिंह राजपूत 14 जून को मुंबई में अपने फ्लैट में मृत पाए गए थे। उनकी मौत को शुरू में आत्महत्या माना जा रहा था, लेकिन बाद में पटना में रहने वाले उनके पिता ने दावा किया कि उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाया गया था। उन्होंने उनके बेटे को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में छह लोगों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई, जिनमें सुशांत की पूर्व गर्लफ्रेंड अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती और उनके परिवार के तीन सदस्य शामिल हैं। सीबीआई द्वारा जांच की मांगों के बीच मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और सर्वोच्च न्यायालय ने जांच सीबीआई को सौंप दी।
मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी हत्या के मामलों में और विशेष रूप से आत्महत्या के मामलों में जांच की एक तकनीक होती है। इसमें मृतक के जीवन से जुड़े कई पहलुओं की जांच के जरिए मृत्यु के पहले उसकी मनोवैज्ञानिक अवस्था समझने की कोशिश की जाती है। इसका इस्तेमाल खास कर उन मामलों में कारगर होता है जिनमें मृत्यु के कारण को लेकर संदेह हो। इसमें मृतक के नजदीकी लोगों से बातचीत की जाती है, उसका मेडिकल इतिहास देखा जाता है और अगर वो कोई दवाइयां ले रहा हो तो उनका भी अध्ययन किया जाता है।
वो कहां कहां गया था, उसने क्या क्या पढ़ा था और विशेष रूप से उसने इंटरनेट पर क्या क्या किया था, इसकी जांच की जाती है। इसमें मुकम्मल रूप से मृतक की मानसिक अवस्था की रूपरेखा तैयार की जाती है और इसके लिए आवश्यकता पडऩे पर व्यक्ति के निजी इतिहास में लंबे समय तक भी पीछे जाना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह के मुताबिक, इस तरह की प्रोफाइलिंग में मृतक की कम से कम छह महीने तक की गतिविधियां तो देखनी ही चाहिए।
मीडिया में आई खबरों में कहा जा रहा है कि मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी का इस्तेमाल इसके पहले सिर्फ सुनंदा पुष्कर की मृत्यु और दिल्ली के बुराड़ी में एक ही परिवार के 11 लोगों के एक साथ मृत पाए जाने वाले मामलों में किया गया था। लेकिन विक्रम सिंह ने डीडब्ल्यू को बताया कि इसका इस्तेमाल बहुत आम है और उन्होंने खुद दहेज को लेकर उत्पीडऩ से संबंधित मौत और दूसरे भी ऐसे कई मामलों में इसका इस्तेमाल किया है।
विक्रम सिंह ने यह भी बताया कि मनोवैज्ञानिक ऑटोप्सी को अदालत में सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके बावजूद उनका मानना है कि इसका इस्तेमाल जांच में बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर की छह प्रमुख पार्टियों ने एक बैठक में यह मांग की है कि धारा 370 और 35 को वापस लाया जाए और जम्मू-कश्मीर को वापस राज्य का दर्जा दिया जाए। जो नेता अभी तक नजरबंद हैं, उनको भी रिहा किया जाए। मांगे पेश करनेवाली पार्टियों में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल हैं।
नजरबंद और मुक्त हुए नेता ऐसी मांगें रखें, यह स्वाभाविक है। अब फारुक अब्दुल्ला और मेहबूबा मुफ्ती यदि फिर से चुने जाएं तो क्या वे उप-राज्यपाल के मातहत लस्त-पस्त मुख्यमंत्री होकर काम कर सकेंगे ? यों भी गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा था कि जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा फिर से मिल सकता है। मैं तो समझता हूं कि कश्मीरी नेताओं को राज्य के दर्जे की वापसी के लिए जरुर संघर्ष करना चाहिए लेकिन यह तभी भी संभव होगा जबकि सारे नेताओं की रिहाई के बाद भी कश्मीर की घाटी में शांति बनी रहे।
यदि राज्य का दर्जा कश्मीर को वापस मिल जाता है तो वह भी उतना ही शक्तिशाली और खुशहाल बन सकता है, जितने कि देश के दूसरे राज्य हैं। लद्दाख के अलग हो जाने से प्रशासनिक क्षमता भी बढ़ेगी और कश्मीर को मिलनेवाली केंद्रीय सहायता में भी वृद्धि होगी।
जहां तक धारा 370 की बात है, वह तो कभी की खोखली हो चुकी थी। जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल जितना ताकतवर होता था, उतना किसी भी राज्य का नहीं होता था। उस धारा का ढोंग बनाए रखने से बेहतर है, अन्य राज्यों की तरह रहना। धारा 35 ए के जैसी धाराओं का पालन नगालैंड और उत्तराखंड- जैसे राज्यों में भी होता है। कश्मीर तो पृथ्वी पर स्वर्ग है। वह वैसा ही बना रहे, यह बेहद जरुरी है। उसे गाजियाबाद या मूसाखेड़ी नहीं बनने देना है। इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कश्मीर का हल इंसानियत और कश्मीरियत के आधार पर ही होगा। कश्मीर की कश्मीरियत बनी रहे और वह अन्य प्रांतों की तरह पूरी शांति और आजादी में जी सके, यह देखना ही कश्मीरी नेताओं के लिए उचित है। उन्हें पता है कि हिंसक प्रदर्शन और आतंकवाद के जरिए हजार साल में भी कश्मीर को भारत से अलग नहीं किया जा सकता। भारत सरकार को भी चाहिए कि वह सभी कश्मीरी नेताओं को रिहा करे और उनसे स्नेहपूर्ण संवाद कायम करे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सरोज सिंह
बात 2014 लोकसभा चुनाव के बाद की है. कांग्रेस की हार हुई थी और हार पर समीक्षा के लिए टीवी पर डिबेट शो चल रहा था. जाहिर है कांग्रेसी हार से हताश तो थे, लेकिन टीवी स्क्रीन पर उसका कैसे इजहार करते. टीवी डिबेट के दौरान एक कांग्रेसी नेता ने कहा, "देश में कांग्रेस पार्टी एक डिफ़ॉल्टऑप्शन की तरह है."
भले ही उस वक़्त कांग्रेस के नेता ने ये बात अपनी पार्टी के लिए कही थी.
लेकिन जिस नेतृत्व संकट के दौर से कांग्रेस पार्टी इस वक़्त गुज़र रही है, उसमें ये कहना ग़लत नहीं है कि गांधी परिवार भी पार्टी में 'डिफ़ॉल्ट ऑप्शन' ही बन कर रह गया है. जब कहीं से कोई नहीं मिलता, तो पार्टी की कमान अपने आप ही उनके हाथ में चली जाती है.
लेकिन इस बार पार्टी के अंदर इस डिफ़ॉल्ट सेटिंग को बदलने की एक कोशिश हुई है.
कोशिश कितनी कामयाब होगी, इसके लिए 6 महीने और इंतज़ार करना पड़ेगा, लेकिन इतना ज़रूर है कि अगर ये कोशिश सफल हुई तो पार्टी का स्वरूप बदल जाएगा और विफल हुई तो फिर पार्टी में दोबारा ऐसी हिम्मत अगली बार कब होगी, उसमें कितना वक़्त लगेगा, ये बता पाना मुश्किल हो जाएगा.
Resolution passed by Congress Working Committee. pic.twitter.com/yXBg0qi0fE
— Congress (@INCIndia) August 24, 2020
रविवार और सोमवार दो दिन तक कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक की चर्चा अख़बार से लेकर मीडिया चैनलों और विपक्षी पार्टियों के बीच हर जगह छाई रही.
लेकिन मंगलवार को सीडब्लूसी की बैठक की चर्चा के बजाए एक दूसरी ही बैठक की चर्चा हो रही है. वो बैठक, जो वर्किंग कमेटी की बैठक के ठीक बाद हुई कांग्रेस नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद के घर पर.
बताया जा रहा है कि कांग्रेस में नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए जो चिट्ठी लिखी गई थी, उसमें दस्तख़त करने वालों की वो बैठक थी. ज़ाहिर है, बैठक के बाद जब दूसरी बैठक होती है, तो पहली बैठक का ज़िक्र होता है, चर्चा भी होती है, और इस बैठक में भी हुई होगी.
ऐसे में सवाल उठता है कि चिट्ठी भी लिख दी, पार्टी की वर्किंग कमेटी की बैठक भी बुला ली, कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष भी चुन लिया, अब आगे क्या? क्या छह महीने में सब शांत हो जाएगा, दूध की उबाल की तरह, या फिर आँच धीमी कर उसे और उबाला जाना अभी बाक़ी है ?
चिट्ठी में लिखी बातों पर अमल हो
इसका जवाब कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के आज के ट्वीट से थोड़ा बहुत समझा जा सकता है. कपिल सिब्बल ने ट्वीट में लिखा है- ये एक पोस्ट की बात नहीं, बल्कि उस देश की बात है, जो मेरे लिए सबसे ज़्यादा मायने रखता है.
कपिल सिब्बल का नाम उन 23 नेताओं की लिस्ट में लिया जा रहा है, जिन्होंने वो चिट्ठी सोनिया गांधी को लिखी है और कथित तौर पर पार्टी में 'असंतुष्ट' हैं. सोमवार को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक के दौरान बीजेपी के साथ सांठ-गांठ के आरोप पर उन्होंने एक ट्वीट किया, जिसे उन्होंने राहुल गांधी के एक फ़ोन कॉल के बाद (कपिल सिब्बल के अनुसार) डिलीट कर दिया.
आज के ट्वीट में कपिल सिब्बल ने जो बातें लिखी हैं, उसके दो अर्थ हो सकते हैं. वो उस डिलीट किए गए पोस्ट के लिए भी हो सकता है. और पार्टी के अध्यक्ष पद या दूसरे पद के लिए भी हो सकता है. तो क्या कांग्रेस के 'असंतुष्ट' नेता, कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं?
'ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ साथ चलते' - पार्टी को क़रीब से जानने और कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा पार्टी के असंतुष्ट नेताओं की हालात बॉलीवुड के इसी गाने के अंदाज़ में करते हैं.
वो कहते हैं कि सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले सभी नेता पार्टी के साथ हैं, लेकिन कुछ बदलाव चाहते हैं.
विनोद शर्मा के मुताबिक़ पार्टी में कुछ नेताओं को इस बात पर आपत्ति है कि वैसे तो राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष नहीं है, लेकिन वास्तव में अध्यक्ष ही बने हुए हैं. उनकी 100 में से 70 बात आज भी मान ली जाती है. हर मुद्दे पर वीडियो बना रहे हैं.
आज पार्टी में राहुल का रोल क्या हो, ये बात अधर में अटकी है, वो ना ख़ुद अध्यक्ष बन रहे हैं और ना दूसरे को बनने दे रहे है, ये बात ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकती. इसलिए पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होना ही चाहिए.
उनका मानना है कि अगर राहुल गांधी आज भी पार्टी अध्यक्ष के पद के लिए अपना मन बना लें तो वो बिना किसी मुश्किल के दोबारा अध्यक्ष बन सकते हैं. सोमवार को जो कुछ हुआ उससे सोनिया गांधी को एक मोहलत मिल गई है, ताकि पार्टी में जो रायता फैला है उसे समेट लिया जाए.
पार्टी के लिए आगे की राह क्या हो? इस पर विनोद शर्मा कहते हैं कि राह वही है, जो चिट्ठी में सुझाव दिए गए हैं. पार्टी का एक फुल टाइम अध्यक्ष, कांग्रेस वर्किंग कमेटी और संसदीय बोर्ड का दोबारा गठन, यही वो काम हैं, जो पार्टी की प्राथमिकता होनी चाहिए. इसमें काबिलियत और अनुभव दोनों का सही मिश्रण होना ज़रूरी है.
कांग्रेस पार्टी के संविधान के मुताबिक़ हर नए अध्यक्ष के चुनाव के लिए सीडब्लूसी का गठन होना चाहिए. लेकिन पिछले एक साल से सोनिया गांधी ही पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष है, इस वजह से ये नहीं हो पाया था. कांग्रेस वर्किंग कमेटी में कुछ लोग चुनाव से आते हैं, कुछ मनोनीत होते हैं और कुछ स्पेशल इन्वाइटी होते हैं.
2017 में राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष बने थे. उस वक़्त उनका चुनाव निर्विरोध हुआ था. 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी की हार की ज़िम्मेदारी देते हुए उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था. उसके बाद से कांग्रेस में अध्यक्ष पद पर चुनाव नहीं हुआ है. 1998 से 2017 तक सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष रही थी.
अध्यक्ष पद पर चुनाव और ग़ैर गांधी अध्यक्ष
ऐसे में अटकलें लगाई जा रही है कि क्या असंतुष्ट नेताओं के खेमें में से कोई नेता पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ सकता है. क्या ग़ुलाम नबी आज़ाद आने वाले समय में पार्टी में गैर-गांधी अध्यक्ष का चेहरा हो सकते हैं. विनोद शर्मा इससे इनकार करते हैं. उनके मुताबिक़ ग़ुलाम नबी ने इस मंशा से कोई काम नहीं किया होगा.
लेकिन कांग्रेस पर किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई इस संभावना से इनकार नहीं करते.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि राहुल गांधी दोबारा अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हो जाए तो और बात होगी. लेकिन अगर गांधी परिवार ने ही कांग्रेस में अपने किसी पुराने वफ़ादार को ही अध्यक्ष पद के लिए चुनाव में उतारा, तो बहुत संभव है कि पार्टी के असंतुष्ट नेताओं में से कोई उस उम्मीदवार को टक्कर देने के लिए सामने आए.
ऐसे में वो चेहरा ग़ुलाम नबी आज़ाद का हो सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. वो यूथ कांग्रेस में रहे हैं, जम्मू- कश्मीर में मुख्यमंत्री रहे हैं, कई बार केंद्र में मंत्री रहे हैं, फ़िलहाल राज्यसभा में पार्टी का चेहरा है. अनुभव और काबिलियत दोनों पैमानों पर उनका क़द पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए कमज़ोर नहीं हैं. ऐसा रशीद का मानना है.
विनोद शर्मा कहते हैं कि पार्टी को फ़िलहाल एक चुनाव वाली सर्जरी की आवश्यकता है. लेकिन उसके लिए ज़रूरी है कि परिस्थितियाँ अनुकूल हों.
जैसे किसी इंसान की सर्जरी के पहले ये देखा जाता है कि उसको ब्लड प्रेशर तो नहीं, किडनी की, लीवर की दिक्क़त तो नहीं. अगर ऐसी कोई दिक्कत सर्जरी के वक़्त होती है तो डॉक्टर दवा दे कर थोड़े दिन मर्ज़ को ठीक करने की कोशिश करता है.
ठीक वैसे ही पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव कराने के लिए फ़िलहाल वातावरण अनुकूल नहीं है. 6 महीने के वक़्त में वो दवा पार्टी को दी जा सकती है और फिर चुनाव कराए जा सकते हैं. अगर तुंरत चुनाव हुए तो गुटबाज़ी बढ़ने का ख़तरा हो सकता है.
विनोद शर्मा कहते हैं, "अध्यक्ष पद के चुनाव से पहले ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का सेशन बुलाना एक विकल्प हो सकता है, जहाँ सभी को खुल कर बोलने की इजाज़त होनी चाहिए."
सोमवार की मीटिंग का ज़िक्र करते हुए वो कहते हैं कि एक काम वहाँ बहुत अच्छा हुआ. कपिल सिब्बल ने जैसे ही ट्वीट किया, राहुल ने फ़ोन कर उन्हें कहा कि मैंने ऐसा नही बोला है और सिब्बल ने ट्वीट डिलीट कर दिया गया. ये राहुल गांधी की अच्छी बात थी. जो उन्हें आगे भी जारी रखनी चाहिए. उन्हें दूसरे नेताओं की बात सुननी चाहिए.
विनोद शर्मा कहते हैं कि आज की तारीख़ में राहुल गांधी को किसी दूसरे नेता से कोई ख़तरा नहीं होगा अगर वो दूसरा अध्यक्ष बना दें. बल्कि इससे उनकी साख़ और बेहतर होगी. राहुल की इमेज और बेहतर होगी, परिवार की इमेज बेहतर होगी और पार्टी की इमेज भी और बेहतर होगी.
पार्टी के अंदर एक अलग धड़ा
रशीद एक तीसरे विकल्प की भी बात करते हैं. रशीद के मुताबिक़ सोमवार की बैठक में सुलह सफ़ाई नहीं हुई. दोबारा बैठक करने का मतलब ये है कि असंतुष्ट नेताओं की तरकश में अब भी कई तीर हैं. कल जो हुआ वो पहला राउंड था. लड़ाई लंबी चल सकती है.
इस मौक़े पर रशीद वीपी सिंह को याद करते हैं. जब वीपी सिंह को रक्षा मंत्री के पद से हटाया गया था, तो उन्होंने सीधे पार्टी नहीं छोड़ी थी, अंदर ही अंदर पार्टी को क्षति पहुँचाई थी, फिर जनमोर्चा बनाया था और बाद में जनता दल के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
ऐसे में रशीद को लगता है कि ठीक उसी तरह एक समीकरण आने वाले दिनों में बनते देख सकते हैं. वो कहते हैं कि बहुत मुमकिन है कि कांग्रेस के निकले दल, जैसे शरद पवार हों ममता बनर्जी हों या फिर जगन रेड्डी हों - इनसे असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं का खेमा एक साथ आने की पहल कर सकता है.
इस तरह का एक शह-मात का खेल भी पर्दे के पीछे चल रहा है. सीडब्लूसी के बाद की बैठक इसी तरफ़ इशारा करती है. फ़िलहाल ये संभावना दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन इन नेताओं की भारत की राजनीति में अपनी अलग पहचान है, अपना वज़न है, इसमे दो राय नहीं है. अपने-अपने क्षेत्र में चुनाव जीत कर तीनों नेताओं ने ख़ुद को साबित किया है.
ग़ुलाम नबी आज़ाद के बारे में रशीद कहते हैं कि उनकी सभी पार्टी के नेताओं के साथ ट्यूनिंग अच्छी है. विपक्ष को राज्यसभा में एकजुट रखने में कई बार उन्होंने पहल की है, ये हमने देखा है. फिर कपिल सिब्बल भी उनके साथ है, जिन्होंने पार्टी से इतर जाकर दूसरे राजनीतिक दलों के लिए कोर्ट में केस लड़ा है. मनीष तिवारी भी उनके साथ है.
चिट्ठी पर भले ही 23 नेताओं ने दस्तख़त किया हो, लेकिन कई और नेता हैं जो पार्टी में इन नेताओं के समर्थन में हैं. ऐसे में राजनीति में किसी भी संभावना को ख़ारिज नहीं किया जा सकता.
रशीद कहते हैं कि अभी तक जिन नेताओं ने चिट्ठी लिखी उनसे बुला कर पार्टी नेतृत्व ने अलग से बात नहीं की है, जिसकी उनको एक आस रही होगी. रशीद कहते हैं कि चिट्ठी लिखने वालों में तीन तरह के नेता हैं- एक वो, जिन्हें पार्टी में जो कुछ मनमाने ढंग से चल रहा है उसका दुख है. दूसरे वो नेता हैं, जिन्हें राहुल के साथ काम करने में हिचकिचाहट है और तीसरे वो कांग्रेस नेता हैं, जो वाक़ई में पार्टी को नुक़सान पहुँचाना चाहते हैं, जिसको लगता है कि पार्टी में उनका अच्छा नहीं हो रहा है.
अगर पार्टी नेतृत्व इनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने का फ़ैसला लेती है, तो हो सकता है कि असंतुष्ट नेता कोर्ट का सहारा लें. सोमवार को ग़ुलाम नबी आज़ाद के घर हुई बैठक में इस पर भी चर्चा हुई होगी. रशीद ये भी साथ में जोड़ते हैं कि ऐसा बहुत कम होता है कि पार्टी के अंदरूनी संविधान को कोर्ट में चैलेंज किया गया हो.
तो क्या कांग्रेस, अब पुरानी कांग्रेस नहीं रह जाएगी? क्या इसकी संभावना ना के बराबर है? वहाँ पहले जैसे कुछ नहीं रहेगा- इन सवालों के जवाब में रशीद बीजेपी का उदाहरण देते हैं.
जैसे बीजेपी के अटल आडवाणी युग में सारे नेताओं की वफ़ादारी इन्हीं दो नेताओं की तरफ़ थी, नरेंद्र मोदी के आते ही सबकी वफ़ादारी मोदी की तरफ़ हो गई, वैसे ही जब तक कांग्रेस की कमान सोनिया या राहुल गांधी हैं तब तक नेता उनके साथ है, जैसे ही दूसरा विकल्प तैयार होगा, वफ़ादारी बदलते देर नहीं लगेगी.
ऐसे में बहुत ज़रूरी है कि कांग्रेस ख़ुद को देश के डिफ़ॉल्ट आप्शन के तौर पर देखना बंद करे. ख़ुद को पाज़िटिव ऑप्शन के तौर पर तैयार करे. दोनों जानकारों की कांग्रेस को एक ही सलाह है. (bbc)