विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गनीमत है कि चुनावी बहस के दौरान डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडन के बीच मारपीट नहीं हुई लेकिन एक-दूसरे की टांग-खिंचाई में दोनों ने कोई कमी नहीं छोड़ी। अमेरिका में यह एक अच्छा रिवाज है कि राष्ट्र्रपति के चुनाव में खड़े दोनों उम्मीदवारों के बीच टीवी चैनल पर खुली बहस होती है, जिसे करोड़ों अमेरिकी मतदाता बड़े चाव से देखते हैं। इस बार रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार राष्ट्रपति ट्रंप और डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बाइडन के बीच डेढ़ घंटे की जो बहस हुई, उसने अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। ये बहस अगर दोनों पार्टियों की नीतियों पर होती, दोनों पार्टियों की अगली कार्यसूची पर होती और अमेरिका की ज्वलंत समस्याओं पर होती तो अमेरिकी मतदाताओं को कोई दिशा मिलती लेकिन सारी बहस सतही रही। महत्वपूर्ण मुद्दों पर दोनों उम्मीदवारों ने चलताऊ टिप्पणियां कर दीं और व्यक्तिगत मामलों पर दोनों ने एक-दूसरे पर सडक़छाप प्रहार कर दिए।
जैसा ट्रंप ने बाइडन को कहा कि आपने (सांसद और उप-राष्ट्रपति रहते हुए) 47 साल में जो कुछ किया, उससे ज्यादा मैंने सिर्फ 47 माह में कर दिखाया। बाइडन ने कह दिया कि आप (तुम) अमेरिकी इतिहास के सबसे घटिया राष्ट्रपति रहे हो। दोनों गंभीरता से किसी विषय पर बोलते, इसकी बजाय दोनों एक दूसरे पर शाब्दिक मुक्केबाजी करते रहे। वे एक दूसरे को आप या तुम या तू कह रहे थे, यह भी पता नहीं, क्योंकि इन तीनों के लिए अंग्रेजी में एक ही शब्द प्रयोग होता है, ‘यू’। बाइडेन ने ट्रंप पर नस्ली हिंसा को प्रोत्साहित करने का आरोप लगाया तो ट्रंप ने पूछा कि वे किसे प्रोत्साहित कर रहे हैं। जब बाइडेन ने ‘प्राउड बॉयस’ नामक नस्लवादी संगठन का नाम लिया तो ट्रंप ने उस संगठन को शाबाशी दे दी। बाइडन ने जब कोरोना पर ट्रंप की विफलता का जिक्र किया तो ट्रंप बोले कि मेरी जगह यदि तुम होते तो 20 लाख लोग मरते। अभी तो दो लाख ही मरे हैं। ट्रंप ने अपनी हेकड़ी मारते हुए यह भी कहा कि चीन, रुस और भारत इस महामारी के बारे में सही दावे नहीं कर रहे हैं। दोनों ने इस महामारी पर 20 मिनिट बात की। एंकर ने ट्रंप को 25 बार टोका कि वे बाइडन को बोलने दें। ट्रंप ने बाइडन को 73 बार टोका। इसका नतीजा यह हुआ कि बाइडन ने ट्रंप को कहा कि ‘शट अप’ याने बकवास बंद करो। 4 नवंबर के पहले तक इसी तरह के दो संवाद दोनों के बीच अभी और होने हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि ये संवाद सिर्फ बोलचाल तक ही सीमित रहेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
बापू ! तुमने पार्टी के संविधान में लिखा था खादी पहनो। वे नहीं पहन रहे हैं। तुमने कहा था शराबबंदी करो। वे शराब बेचकर सरकार चला रहे हैं। तुमने कहा था अहिंसा मानो। वे अभिव्यक्ति की आजादी करने वालों को पिटवा रहे हैं गुंडों से। तुमने कहा था स्त्री के शील की रक्षा के लिए हिंसा भी करोगे तो वह अहिंसा होगी। वे कह रहे हैं कि किसी स्त्री के साथ बलात्कार होता ही नहीं है। जो नौजवान नेता उन्हें बचाने की कोशिश करेंगे। उन्हें सडक़ पर पटक देंगे। तुमने कहा था सच बोलो। वह लगातार झूठ बोलने का विश्व रिकॉर्ड बना चुके हैं। अब तो शायद चंद्रमा तक उनके झूठ की धमक पहुंच चुकी है। तुमने कहा था मैं आदिवासियों के लिए कुछ नहीं कर पाया।
आपके वंशज भी कह रहे हैं कि हम आदिवासियों के लिए कुछ नहीं करेंगे क्योंकि आप नहीं कर पाए। अब हम उनकी सारी जमीन अडानी अंबानी को दे देंगे। कोई हमारा क्या बिगड़ेगा। उनके लिए आदिवासी सम्मेलन आयोजित कर उन्हें नाच गाने में व्यस्त रखेंगे। उनसे ही कहेंगे आदिवासियों के खिलाफ कानून बनाओ और वे बनाएंगे। हमारे विधायकों को तो तुम्हारे जन्म की तारीख तक नहीं मालूम है। तुमने कहा था अंग्रेजियत करो। वे कह रहे हैं कि हम अमेरिका की गुलामी करेंगे। तुम्हें तो अमेरिका के प्रेसिडेंट ने बुलाया था कि हम आजादी दिलाने में तुम्हारी मदद करेंगे। तुमने टका सा जवाब दे दिया था।
हमारे नेता तो अमेरिका जाने के लिए तड़प रहे हैं। वह तो कोरोना आ गया बापू ! वरना अभी वहीं बैठे होते। वहीं तुमको याद करते। बापू तुमने कहा था सरकार पिरामिड की तरह नहीं चलती। जहां वह सबसे ऊपर बैठी हो। तुमने कहा था सरकारों को समाज को समुद्र की लहरों की तरह होना चाहिए। एक के बाद एक। हमारी सरकारें रेत की दलाली करतीं कालाबाजारी करतीं उसके ऊपर पिरामिड की तरह चढक़र बैठी हैं। कभी भी भसक कर गिर जाएंगी। बापू! तुमने तो बहुत कुछ कहा था! तुम्हारा कहा तुमको कितना याद दिलाऊं? आज ऐसे सब लोग शानदार महंगी पोशाक पहनकर मांसाहारी भोजन करते हुए कभी-कभी कुछ गालियां बकते हुए महंगा जीवन जीते हुए गरीब आदमी को झिडक़ते हुए तुम को हैप्पी बर्थडे कह रहे होंगे बापू! और कहीं केक काट कर खा भी रहे होंगे। आप भी खुश रहो। हमें भी खुश रहने दो।
(आज गांधी जयंती पर विशेष)
गुंडरदेही के ‘गांधी गोरकापार’ से लेकर डौंडी लोहारा तक मौजूद है आजादी के इस सिपाही की गाथा, अब तक ठोस पहल नहीं हुई स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद की स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने की
-शिव जायसवाल
हमारे देश के स्वतंत्रता आंदोलन में एक सिपाही ऐसे भी हुए हैं, जिनकी रिहाई की वजह ‘बापू का सपना’ बना। जब बापू का यह सपना सच हो गया तो गांव वालों ने खुद ही नाम के आगे गांधी जोड़ लिया। अब इस बात को भी 100 साल होने जा रहे हैं। बात है उस वक्त के दुर्ग और अब के बालोद जिले के गुंडरदेही क्षेत्र के गांव गोरकापार की।
तब यहां के अमीन पटवारी वली मुहम्मद ने अंग्रेजों की नौकरी छोड़ स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे और एक वक्त ऐसा भी आया जब अंग्रेजों की जेल में ‘बापू का सपना’ उनकी रिहाई की वजह बना। इस घटना का असर यह हुआ कि ग्रामीणों ने अपने गांव का नाम ही गांधी गोरकापार कर दिया, जो आज भी कायम है। विडम्बना यह है कि स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद की वजह से इस गांव का नाम बदला, आज उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने अब तक कोई ठोस पहल नहीं हुई है। स्व. वली मुहम्मद के वंशजों को भी इस बात का मलाल है कि अब तक सरकारी स्तर पर कोई पहल नहीं हुई।
अंग्रेजों के मुलाजिम वली मुहम्मद ऐसे बन गए थे गांधी के सिपाही
गुंडरदेही में अमीन पटवारी वली मुहम्मद का अंग्रेजों की नौकरी छोड़ स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने से जुड़ा तथ्य भी बेहद रोचक है। उनसे जुड़ी घटनाओं का जिक्र जिला कांग्रेस कमेटी दुर्ग के तत्कालीन महामंत्री बदरुद्दीन कुरैशी के संपादन में 1995 में निकाली गई किताब ‘आजादी के दीवाने’ और फरवरी 2020 में जगदीश देशमुख द्वारा लिखित किताब ‘छत्तीसगढ़ के भूले बिसरे स्वतंत्रता सेनानी’ में विस्तार से है। इन्हें छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं पर प्रकाशित कई दूसरी किताबों में भी दर्ज किया गया है।
जेब में थी बापू की तस्वीर और बदल गई तकदीर
दस्तावेजों में दर्ज घटनाक्रम के मुताबिक 1920-21 में जब वली मुहम्मद पटवारी के तौर पर गुंडरदेही के गोरकापार में पदस्थ थे, तब एक आदिवासी को उसकी गुम भैंस का पता खुले बदन में सिर्फ धोती पहनेे हुए बूढ़े ने बताया था। जब आदिवासी उस बूढ़े को धन्यवाद देने खोजने लगा, तब अमीन पटवारी वली मुहम्मद वहां उसे मिल गए। संयोग से वली मुहम्मद की जेब में महात्मा गांधी की एक तस्वीर थी और अचानक आदिवासी की नजर इस तस्वीर पड़ी तो उसने उस बूढ़े के तौर पर महात्मा गांधी की इसी फोटो की शिनाख्त कर दी । इस घटना से वली मुहम्मद इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने महात्मा गांधी को एक संत महात्मा मानते हुए अंग्रेजों की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
‘बापू का सपना’ ऐसे बना था वली मुहम्मद की रिहाई की वजह
स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद की पहली जेलयात्रा और वहां से रिहाई का एक रोचक किस्सा भी इन किताबों में दर्ज है, जिसके मुताबिक असहयोग आंदोलन के दौर में उन्हें नागपुर जेल में रखा गया था। यहां से उन्हें गोंदिया जेल भेज दिया गया था।
इस दौरान उन्हें जेल में आभास हुआ कि उनके ग्राम गोरकापार की संत प्रवृत्ति की महिला महात्मा दाई उन्हें बड़ा व सोंहारी देते हुए कह रही है कि जन्माष्टमी पर तुम्हारी रिहाई हो जाएगी। इस घटना का रोचक पहलू यह है कि महात्मा दाई ने प्रत्यक्ष तौर पर यह बात गोरकापार गांव के लोगों को भी बताई थी कि पटवारी वली मुहम्मद जन्माष्टमी के दिन रिहा हो जाएंगे। वाकई ऐसा हुआ भी। जब अंग्रेजों की कैद से रिहा होकर वली मुहम्मद गोरकापार पहुंचे तो उनका खूब स्वागत हुआ। इसके बाद वली मुहम्मद ने महात्मा दाई से मुलाकात की और उनसे अपने सपने के बारे में बताया। इस पर महात्मा दाई ने कहा कि उन्हें सपने में आकर बापू ने कहा था। इसके बाद से आसपास गांव में मशहूर हो गया कि महात्मा दाई को स्वप्न में आकर महात्मा गांधी निर्देश देते हैं। धीरे-धीरे चर्चा बढ़ी तो फिर आस-पास के तमाम स्वतंत्रता सेनानी गोरकापार पहुंच कर महात्मा दाई और वली मुहम्मद से निर्देश लेने लगे। तब से इस गांव का नाम गांधी गोरकापार हो गया।
डौंडी लोहारा में एकजुट किया स्वतंत्रता सेनानियों को
स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद ने बाद के दिनों में डौंडी लोहारा को अपना कर्मक्षेत्र चुना। दस्तावेजों के मुताबिक डौण्डीलोहारा जमींदारी में उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लोगों को एकजुट किया और लगभग 100 लोगों ने उनके साथ जेल यात्रा की थी। उनके प्रमुख सहयोगी बालोद के स्व. सूरज प्रसाद वकील रहे है। वहीं कुटेरा के स्व. कृष्णाराम ठाकुर और भेड़ी गांव के रामदयाल ने उनसे प्रेरणा लेकर जंगल सत्याग्रह में भाग लिया था। 24 जुलाई 1957 को स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद का निधन डौंडी लोहारा में हुआ।
स्वतंत्रता आंदोलन में रहे मुखर, कई बार की जेलयात्रा
वली मुहम्मद स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बेहद मुखर रहे। उनके वंशजों के पास मौजूद दस्तावेज के मुताबिक अंग्रेजी राज के विरोध के चलते 7 मार्च 1923 को उन्हें गिरफ्तार कर नागपुर जेल भेज दिया गया। फिर वहां से उन्हें 23 जुलाई 1923 को अकोला नागपुर में स्थानांतरित कर दिया गया। इसी तरह 23 अक्टूबर 1939 से 24 नवंबर 1939 तक उन्हें रायपुर की केन्द्रीय जेल में रखा गया। अंतिम बार सन 1943 से 1945 तक पूरे दो साल तक उन्हें नागपुर जेल में कैद कर रखा गया। देश आजाद होने पर स्वतंत्रता आंदोलन में उनके इस विशिष्ट योगदान के लिए महाकौशल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी जबलपुर के सभापति सेठ गोविंददास के हस्ताक्षर युक्त एक ताम्रपत्र 15 अगस्त 1947 को प्रदान किया गया। जो आज भी वली मुहम्मद के वंशजों के पास एक धरोहर के तौर पर रखा है।
शासकीय भवन, योजना अथवा नगर का नामकरण हो वली मुहम्मद के नाम पर
स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद के गुजरने के छह दशक बाद भी आज तक उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने किसी तरह का ठोस प्रयास नहीं हुआ है। वर्ष 1997 में जब देश में स्वतंत्रता की 50 वीं वर्षगांठ मनाई गई तो उनका नाम अंकित शिलालेख डौंडी लोहारा में लगाया गया। उनके वंशजों में पौत्र और शिक्षा विभाग से रिटायर सहायक संचालक मुहम्मद अब्दुल रशीद खान बताते हैं कि डौंडी लोहारा में एक मुहल्ले का नाम वली मुहम्मद नगर रखने की पहल की गई थी लेकिन इस पर अब तक सरकारी मुहर नहीं लग पाई है। वहीं लोहारा के स्कूल का भी नामकरण वली मुहम्मद के नाम पर करने की मांग लंबे समय से रही है। उन्होंने राज्य सरकार से अपेक्षा की है कि शासन अपनी संवेदना का परिचय देते हुए स्व. वली मुहम्मद की स्मृति में किसी शासकीय भवन, योजना अथवा नगर का नामकरण करेगा। यही बापू के इस अनुयायी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-मिर्जा मसूद
पिछले सप्ताह सुपरिचित गायक कैलाश खेर का वक्तव्य पढ़ा-हमारे जो बुनकर हैं वे कपड़े नहीं जिंदगी बुनते हैं। इस काव्यात्मक अभिव्यक्ति पर नजर पड़ी तो एक विचार मन में आया। सोचा एक पुर्जेे पर लिखकर आपके अखबार में भिजवा दूं। लेकिन पुर्जे का आकार बढ़ता गया।
बात जगजाहिर है कि अंग्रेजों के भारत आने से वर्षों पूर्व जहाजों में लद कर भारत के बने हुए कपड़े चीन, जापान, ईरान, कम्बोडिया आदि देशों में जाते थे जहां उनकी बहुत मांग थी। अंग्रेजी राज्य क्रांति के बाद जब मलका मेरी इंग्लिस्तान पहुंची तो भारतवर्ष के रंगीन कपड़ों का शौक उसके साथ वहां पहुंचा।
फिर ऐसा भी समय आया जब भारत अंग्रेजी कंपनी और ब्रितानी सामाज्य के अधीन हो गया। भारतीय उद्योग धंधों का सर्वनाश हो गया। अंग्रेजों की नीति ऐसी थी कि इंग्लैंड के उद्योग धंधे भारत के कच्चे माल के कारण पनपते गए। अंग्रेज अपने अर्थतंत्र को मजबूत करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने भारतीय किसानों दस्तकारों कारीगरों की फौज में भर्ती पर रोक लगा रखी थी और इस पर सख्ती से पालन होता था। भारतीय किसानों पर तरह-तरह की पाबंदियां लगा दी गई थी। उनकी रोजी-रोटी छिन गई और कलात्मकता बर्बाद हो गई। इतिहासकारों ने ढाका की मलमल को मैनचेस्टर में फांसी लगाई।
इतिहास में रेशम की खेती और कीड़े लपेटने के पेशे से जुड़े लोगों पर बहुत अत्याचार हुए। अंग्रेजों की व्यवस्था इस प्रकार की थी कि अंग्रेजों के रखे हुए रेजिडेंट जितनी ज्यादा रेशम कंपनी के लिए एकत्र करता उतनी अधिक उसकी आमदनी होती थी।
हिन्दुस्तानी किसान को इस बात की अनुमति नहीं थी कि वो अपने पाले हुए रेशम के कीड़े किसी हिन्दुस्तानी कास्तकार को बेच सके। उसे अंग्रेज व्यवसायी को ही बेचना होता था। नियम बहुत अमानवीय था। यदि कोई किसान इंकार करता है, तो दो अंग्रेज मुलाजिम उसके दरवाजे पर पहुंचते एक के हाथ में रजिस्टर होता और दूसरे के हाथ में रुपयों की थैली। रजिस्टर में उस किसान का नाम दर्ज कर लिया जाता और उसके दरवाजे पर एक रुपये का सिक्का फेंक दिया जाता था। इस तरह उस माल पर से किसान का अधिकार समाप्त हो जाता था।
जब भारतीय किसानों से अंग्रेजों का जुलम-=सितम सहन नहीं हुआ, तो उन्होंने अपने हाथों के अंगूठे काट दिए पर अंग्रेजों का अत्याचार स्वीकार नहीं किया।
सच है भारतीय कास्तकारों, कलाकारों, शिल्पियों की एक लंबी परंपरा रही है, जिसमें वे अपनी कला संस्कृति को बुनते, उकेरते और आकार देते है। उनके जीवन के सुख-दुख रंग-रूप सभी उसमें शामिल होते है। यही नहीं बुनावट में जो ताने-बाने होते हैं उनमें कबीर की परंपरा भी होती है। प्रतिरोध की भावना भी जिसे शायद गांधीजी ने समझा था और ब्रितानी सामाज्यवाद के आर्थिक गुब्बारे की हवा निकालने में भारतीय हस्तकला को हथियार बनाया था।
अब भी बुनकर जब कपड़ा बुनते हैं तो साडिय़ों की किनार में डिजाइन बनाते समय तरूण शहीद खुदी राम बोस की ये पंक्तियां बुनते हैं-
एक बार बिदाई दे मां घुरे आसि
हासि-हासि पोरबो कांसी
देखबे भारतबासि।
(लेखक प्रदेश के एक सबसे वरिष्ठ रंगकर्मी हैं, और इस अखबार के लिए कभी-कभी लिखते हैं)
-राजगोपाल पी.व्ही
सरकार ने हाल में खेती-किसानी से जुड़े तीन कानून पारित करवाए हैं। उनको लेकर किसानों के बीच आक्रोश तो है ही, किसान, आदिवासी और मछुआरा समुदाय के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के मन में भी आक्रोश है। नतीजतन देश भर में एक आंदोलन का माहौल बनता जा रहा है। ऐसे में इन कानूनों को जल्द-से-जल्द वापस लेने में ही सरकार की बुद्धिमानी होगी।
किसानों के संदर्भ में कोई निर्णय लेना जरुरी हो तो भी किसानों के साथ परिचर्चा कर उनकी अभिलाषाओं के अनुकूल नियम-कानून बनाना चाहिए था। सलाह, परिचर्चा और व्यापक संवाद के बिना जो कानून बनाए गए हैं और उनके माध्यम से देश भर की कृषि को चलाने की जो कोशिशें हो रही हैं, उससे लोकतंत्र को भी खतरा है।
यदि खेती-किसानी के लिये कानून बनाना बहुत जरूरी हो तो भी सरकार को पहले ‘एमएस स्वामीनाथन कमीशन’ का ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) और कर्जमाफी के सुझाव को लागू करना चाहिये था। उसके बाद बाकी बातों पर सरकार को चर्चा शुरू करना चाहिए थी। यह नहीं करने से जाहिर होता है कि सरकार को जो करना चाहिए, वह नहीं कर रही और जो नहीं करना चाहिए वह कर रही है। यह कोई प्रजातांत्रिक तरीका नहीं है।
देश भर में मंडियों का गठन इसलिए हुआ था कि किसान को स्वाभिमान से जीने के लिए उनकी एक संस्थागत व्यवस्था कायम हो सके, ताकि किसान को भी लगे कि हमारे संरक्षण के लिए कोई संस्था है। खुले बाजार में बाजार की ही शर्तों पर बेचने और ताकतवर लोगों के सामने हाथ फैलाकर खड़े रहने के खिलाफ और इस व्यमवस्था को बदलने के लिए ही तो मंडी व्यवस्था कायम की गई थी। उस मंडी व्यवस्था को समाप्त करना कोई बुद्धिमता नहीं है।
इसी तरह संविदा खेती (कांट्रेक्ट फार्मिंग) की बात की जा रही है। हम सब जानते हैं कि यह संविदा खेती कितनी खतरनाक है। हमने कोयले का व्यापार कर लिया, अन्य खनिजों का व्यापार कर लिया, पानी का व्यापार कर लिया और अब खेती का व्यापार करने जा रहे हैं। संविदा खेती में ताकतवर लोग आएंगे। खेती पर स्वाभिमानी ढंग से जीवन-यापन करते साधारण किसानों को ताकतवर बनाने के बदले उनको संविदा खेती के तहत कमजोर करने की जो प्रक्रिया है, वह सही नहीं है। कोविड के दौरान प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि ‘मैं इस देश को स्वावलंबी बनाना चाहता हूँ।’
ऐसा स्वावलंबी समाज गाँव से ही तो बनेगा। जल, जंगल और जमीन पर यदि लोगों का अधिकार नहीं है, जीवन जीने का निर्णय लेने का अधिकार उन लोगों को नहीं है तो स्वावलंबी समाज की रचना कैसे होगी? इसमें समन्वय की कमी झलकती है। एक तरफ हम स्वावलंबी समाज बनाना चाहते हैं, लेकिन दूसरी तरफ आप जो कर रहे हैं वह इसके बिल्कुल विपरीत है।
सन् 2012 में बड़े आंदोलन के बाद, जहाँ एक लाख लोगों को लेकर ‘एकता परिषद’ और उसके सहयोगी संगठनों ने दिल्ली की ओर कूच किया तो 2013 में ‘भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा एवं पारदर्शिता का अधिकार, सुधार तथा पुनर्वास अधिनियम’ कानून लाने में हम सफल हुए थे। इस कानून में यह कोशिश की गई है कि जैसे भूमि-अधिग्रहण के मामले में अच्छी भूमि उद्योग के लिए नहीं देने की बात है, उसी तरह सिर्फ भूमि-स्वामी को ही नहीं, बल्कि भूमि-स्वामी के अलावा जो भूमि पर आश्रित समाज है उसका पुनर्वास इस कानून में शामिल है। इसके साथ-साथ ‘सामाजिक प्रभाव आंकलन’ (एसआईए) भी किया जाए, ऐसी कई बातें इस कानून में हैं। इस कानून को बदलने के लिए भी सरकार ने विधेयक का ही प्रयोग किया था, इसलिए हमको बड़े पैमाने पर पलवल से दिल्ली तक आंदोलन करना पड़ा था।
मेरा निवेदन है कि पूरे देश को आंदोलन में झोंकने के बदले, बिना किसी सलाह-मशविरा के, विधेयक के माध्यम से देश को चलाने की बजाए सरकार चर्चा के आधार पर काम को आगे बढ़ाए। मैं केन्द्री य कृषि मंत्री से हमेशा यह निवेदन करता रहा हूँ कि ‘एकता परिषद’ के दिल्ली-कूच के दौरान आगरा में भूमि सुधार के लिए जो सहमति बनी थी, किसानों की समस्या हल करने के लिए सरकार पहले उसे लागू करे। उसको लागू किए बिना जल्दबाजी में कानून बनाकर बड़े लोगों को ताकत पहुंचाने और ताकतवर लोगों तथा कॉर्पोरेट को फायदा पहुंचाने के लिए ये जो प्रयास किए जा रहे हैं उनसे तो पूरे देश में आंदोलन होगा।
सरकार से निवेदन है कि वह इन कानूनों को वापस ले और किसान, आदिवासी, मछुआरा और खेतीहर मजदूरों को सम्मान देना सीखे। इससे बने माहौल में मिल-जुलकर बैठकर बात करें कि देश का भविष्य क्या होना चाहिए। (सप्रेस)
श्री राजगोपाल पीव्ही एकता परिषद जनसंगठन के संस्थापक हैं।
-डॉ. ओ.पी. जोशी
साठ के दशक में प्लास्टिक से बने स्ट्रास बाजार में आए एवं इसके बाद बहुत ही कम समय में इनका उपयोग बहुतायत से होने लगा। स्ट्रा एक बार उपयोग में लाई जाने वाली प्लास्टिक की वस्तुओं में प्रमुख है। फलों का रस, नारियल पानी, शीतल पेय एवं अन्य प्रकार के पेय पदार्थों में स्ट्रा का उपयोग जमकर किया जा रहा है। अमेरीका में लगभग 50 करोड़ स्ट्रा रोजाना कचरे के रूप में फेंकी जाती हैं। हमारे देश के केरल राज्य में भी 33 लाख स्ट्रा प्रतिदिन उपयोग में लाई जाती हैं। विश्व में स्ट्रा का व्यापार लगभग 1200 करोड़ रूपये सालाना का होता है।
प्लास्टिक के स्ट्रा के पहले अमेरिका के मार्विन सी. स्टोन ने 1888 में कागज से स्ट्रा बनाकर पेटेंट लिया था। कागज के स्ट्रा जल्दी गलने के कारण ज्यादा सुविधाजनक नहीं रहे एवं इसीलिए इनका बाजार ठंडा रहा। कुछ लोगों का यह भी मत था कि कागज पेड़ों से प्राप्त लकड़ी की लुगदी से बनाया जाता है अत: कागज के स्ट्रा पेड़ों के लिए खतरनाक हैं।
वर्तमान में उपयोगी प्लास्टिक के स्ट्रा बहुत ही हल्के होने से इनका रिसायकलिंग नहीं होता। पर्यावरण में जो प्रदूषण फैलता है उसमें स्ट्रा की भागीदारी लगभग 8 से 10 प्रतिशत आंकी गयी है। प्लास्टिक से बने स्ट्रा का उपयोग जन-स्वस्थ्य एवं पर्यावरण के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है। चिकित्सकों का कहना है कि स्ट्रा से पेय पीने के दौरान मुंह को बार-बार फैलाना एवं सिकोडऩा पड़ता है जिससे चेहरे पर झुर्रियां पडऩे की संभावना काफी बढ़ जाती है। इसके साथ ही पेय पदार्थ मजा लेकर स्ट्रा से धीरे-धीरे पीने से दांतों के सम्पर्क में आकर उनके इनेमल पर विपरीत प्रभाव डालता है। इनेमल दांतों की बाहरी कठोर परत होती है। कुछ पेय पदार्थों की क्रिया से स्ट्रा में उपस्थित रसायन आहार नली को हानि पहुंचाते हैं। स्ट्रा वास्तव में पेट्रोलियम इंडस्ट्री का सह-उत्पाद (बाय प्रोडक्ट) है एवं पाली-प्रोपिलीन रसायन का बना होता है।
रिसायकलिंग नहीं होने के कारण स्ट्रास कचरे के साथ मिट्टी एवं जल को प्रदूषित कर जानवरों के लिए भी खतरा बन जाते हैं। मीठे पेय पदार्थों में उपयोगी स्ट्रा में फेकने के बाद भी मिठास बनी रहती है। इस मिठास से आकर्षित होकर कई चौपाये इन्हें खा जाते हैं जो बाद में उनके लिए घातक सिद्ध होता है। कचरे में फेंके गए स्ट्रा कई माध्यमों से समुद्र में पहुंचकर वहां के प्राणियों के नथुनों में फंस जाते हैं। समुद्री पक्षी, सील-मछली, व्हेल, डाल्फीन एवं कछुओं पर स्ट्रा के खतरे ज्यादा देखे गए हैं। समुद्र में पाये जाने वाले पांच प्रमुख कचरों में स्ट्रा प्रमुख है। समुद्री जीव वैज्ञानिक प्रोफेसर क्रिस्टीन फिगेनट ने वर्ष 2015 में कोस्टारिका में एक समुद्री कछुए की नाक में फंसा स्ट्रा निकाला जिससे काफी खून बहा एवं वह घायल हो गया। इसका वीडियो जब वायरल हुआ तो लोगों ने यह दर्दनाक घटना देखी। इसे देखकर लोगों में थोड़ी जागरूकता आयी एवं स्ट्रा के उपयोग को घटाने पर सोचा जाने लगा। प्लास्टिक से पैदा खतरों पर ध्यान दिया जाने लगा एवं एकल उपयोग (सिंगल यूज) प्लास्टिक के सामान के उपयोग पर कई देशों में रोक लगायी गई एवं कई देश रोक लगाने के लिए प्रयासरत है।
‘मेकडोनाल्ड कंपनी’ ने चीन में शीतल पेय पदार्थों के साथ स्ट्राग के उपयोग पर 2015 में प्रतिबंध लगाया था। विश्व में 28 हजार आउटलेट चलाने वाली कम्पनी ‘स्टार ज्वाथइंट स्टार बाक्स’ ने जुलाई 18 से स्ट्रा के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया है। कनाड़ा की एक फास्ट फूड बेचने वाली कम्पनी ‘ए एंड डब्ल्यू’ ने भी अपने होटल में स्ट्रा का उपयोग प्रतिबंधित किया है। हमारे देश में प्रधानमंत्री ने एकल उपयोगी प्लास्टिक वस्तुओं का उपयोग नहीं करने का आव्हान किया है। इसके सकारात्मक प्रभाव भी देखने में आ रहे है। कई पर्यावरणविदों ने सुझाव दिया है कि सीधे ग्लास या कप से पेय पदार्थ पीये जाएं। गणना करके यह भी बताया गया है कि एक व्यक्ति यदि पेय पदार्थ पीने के लिए ग्लास या कप का उपयोग करे तो एक वर्ष में 500 स्ट्रा समुद्र में पहुंचने से रूक सकते हैं। वैश्विक स्तर पर ‘टेक द लास्ट स्ट्रा चेलेंज’ नामक एक अभियान भी चलाया जा रहा है जो स्ट्रा के उपयोग को हतोत्साहित करता है।
प्लास्टिक स्ट्रा के विकल्प लाने हेतु भी प्रयास किये जा रहे हैं। हमारे देश के तमिलनाडु में नारियल पानी पिलाने हेतु पपीते की पत्तियों के डंठलों को सुखाकर एवं साफ कर स्ट्रा की भांति उपयोग किया जा रहा है। ‘फेडरशन आफ इंडियन एक्सपोर्ट आर्गेनाइजेशन’ के सलाहकार वायएस गर्ग मुरादाबाद में एक कारखाने में गेहू की खोखली बाल से स्ट्रा बना रहे हैं जो काटने के बाद बची रहती है। बैगलुरू स्थित ‘क्राइस्ट विश्वविद्यालय’ के प्रोफेसर साजी वर्गीज ने नारियल की सूखी पत्तियों से स्ट्रा बनाकर मई में पेटेंट भी ले लिया है। इस नवाचार हेतु उन्हें कई सम्मान भी मिले हैं। ऐसे प्रयास प्लास्टिक स्ट्रा की समस्या कम करके रोजगार भी प्रदान करेंगे। (सप्रेस)
डॉ. ओ.पी. जोशी स्वतंत्र लेखक हैं तथा पर्यावरण के मुद्दें पर लिखते रहते हैं।
-भारत डोगरा
भारत के अनेक किसान संगठनों ने कृषि के बढ़ते ‘कारपोरेटीकरण’ के विरोध की राह अपनाई है। यह एक सही निर्णय है। यदि वे इसके साथ महात्मा गांधी के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों को भी अपने आंदोलन में जोड़ लें तो उन्हें आगे की राह तलाशने व टिकाऊ, सार्थक बदलाव की ओर बढऩे में मदद मिलेगी।
महात्मा गांधी के अहिंसक संघर्ष के मार्ग से प्राय: किसान सहमत हैं। महात्मा गांधी ने गांवों को राष्ट्रीय विकास के केन्द्र में रखा था। यही किसान संगठन भी चाहते हैं। महात्मा गांधी ने विकास के केन्द्र में भी सबसे निर्धन व्यक्ति को ही रखा था। प्राय: गांवों के सबसे निर्धन व्यक्ति वे होते हैं जो भूमिहीन होते हैं। विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण और अन्य गांधीवादियों ने इस सोच को ‘भूदान आंदोलन’ के माध्यम से आगे बढ़ाया। ‘एकता परिषद’ जैसे अनेक गांधीवादी संगठनों ने भी इस सोच व इससे जुड़े कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया। भारत सरकार ने इसके लिए भूमि सुधार आरंभ भी किया, पर अब उसी ने इस कार्यक्रम को लगभग त्याग दिया है जिससे भूमिहीन ग्रामीणों का संकट बढ़ गया है। आज स्थिति यह है कि कारपोरेट क्षेत्र के लिए जमीन धड़ल्ले से मिल जाती है, पर जो गांवों के मूल निवासी भूमिहीन हैं उनके लिए कोई भूमि उपलब्ध नहीं करवाई जाती।
गांधी, विनोबा और जयप्रकाश के नजरिए से देखें तो भूमिहीनों को कुछ भूमि अवश्य मिलनी चाहिए। वे कोई बहुत बड़े खेत नहीं मांग रहे हैं, वे तो केवल थोड़ी सी भूमि चाहते है जिसमें वे गुजारे लायक खाद्य उगा सकें। यदि किसान संगठन उनको भी अपना भाई समझकर, उन्हें अपने संगठन से जोड़ लें और उनको थोड़ी सी भूमि यथासंभव उपलब्ध करवाने को अपना समर्थन दें तो इससे भूमिहीनों को राहत मिलेगी, गांव में गरीबी कम होगी व किसान संगठनों का आधार बहुत व्यापक हो जाएगा, क्योंकि लगभग सभी ग्रामीण परिवार इन संगठनों से जुड़ जाएंगे। इसके साथ ही छुआछूत को भी गांव से पूरी तरह समाप्त करना चाहिए।
महात्मा गांधी ने गांवों की निर्धनता का एक बुनियादी कारण यह खोजा था कि केवल कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पर्याप्त रोजगार पूरे वर्ष के लिए नहीं मिलता है और गांवों में प्रदूषण-रहित, श्रम-सघन कुटीर-उद्योग अवश्य होने चाहिए। अत: खादी के रूप में उन्होंने कताई, बुनाई की परंपरागत आजीविका को बनाए रखने पर बहुत जोर दिया था। गांधी की खादी को उत्साहवर्धक समर्थन पूरे देश से मिला था, पर हाल में परंपरागत दस्तकारों को बहुत क्षति पंहुची है। परंपरागत दस्तकारियों की रक्षा के साथ ऐसे अनेक प्रदूषण-रहित कुटीर व लघु उद्योगों को भी किसान संगठनों का समर्थन मिलना चाहिए जो गांवों को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाते हैं और किसान परिवारों को गांव व कस्बे के स्तर पर ही विविधता भरे रोजगार उपलब्ध करवाते हैं।
गांधीजी ने गांवों की आत्म-निर्भरता पर बहुत जोर दिया था। यह तभी संभव है जब बड़ी कंपनियों के बीजों, रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं, अत्यधिक मशीनीकरण की महंगी निर्भरता से किसान मुक्त हों। विश्व में अनेक स्थानों पर किसानों ने उत्पादन कम किए बिना महंगी निर्भरता को दूर करने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। इसके लिए उन्होंने उचित फसल-चक्र, मिश्रित खेती, प्रकृति की बेहतर समझ से की गई खेती को अपनाया है। इस खेती में किसी जहरीले रसायन को नहीं अपनाया जाता है, अपितु खेती के सब मित्र जीवों, केंचुओं, तितलियों, भंवरों, पक्षियों की रक्षा की चिंता की जाती है। यह खेती अहिंसक व रचनात्मक खेती है। इसमें निरंतर प्रकृति की प्रक्रियाओं को समझा जाता है कि कैसे प्रकृति स्वयं हरियाली बढ़ाती है और फिर इस समझ के अनुसार आसपास गांवों में ही उपलब्ध संसाधनों से खेती की जाती है। गांधी जी और उनकी राह पर चलने वाले वैज्ञानिकों ने इसी सोच को बढ़ाया है।
यदि किसान संगठन इस सोच को अपनाएंगे तो उनके खर्च तेजी से कम होंगे व व्यापक स्तर पर पर्यावरण सुधार से कृषि सुधार, वनीकरण, जल-संरक्षण आदि की संभावनाएं भी तेजी से बढ़ेंगी। गांधी जी का आत्मनिर्भर गांवों का सपना पूरा करने में किसान संगठन मदद करेंगे।
महात्मा गांधी ने महिलाओं के आगे आने पर जोर दिया है। अधिकांश छोटे किसान परिवारों में महिलाएं खेती में महत्वापूर्ण योगदान देती हैं पर उनकी भूमिका को उचित मान्यता नहीं मिलती। गांधीजी की सोच के अनुकूल होगा कि किसान संगठन महिलाओं की कृषि में देन को मान्यता प्रदान करें व उन्हें अपने संगठन में भी महत्वपूर्ण स्थान दें।
गांधीजी ने शराब व हर तरह के नशे को समाप्त करने पर बहुत जोर दिया था, पर आज तो दूर-दराज के गांवों में भी शराब के ठेके खोले जा रहे हैं। किसान संगठनों की स्थाई नशा विरोधी समितियों का गठन महिलाओं के नेतृत्व में करना चाहिए जो स्थाई तौर पर गांवों में शराब व अन्य सब तरह के नशे को समाप्त करने की जिम्मेदारी संभालें तथा अन्य समाज-सुधार कार्यक्रमों (जैसे छुआछूत व दहेज प्रथा समाप्त करने) को भी आगे बढ़ाएं। इस तरह किसान संगठनों व गांव समुदायों का नैतिक व आर्थिक आधार भी मजबूत होगा। गांधी की राह को अपनाने से किसान संगठनों की सार्थक भूमिका बहुत व्यापक और सशक्त हो सकेगी। (सप्रेस)
श्री भारत डोगरा प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं।
-ऋतिका गौर
दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में भारत का सबसे बड़ा होना एक बहुत अहम बात है। गौरतलब है कि भारत में 70 से भी ज़्यादा वर्षो से लोकतंत्र है और हम सब इस लोकतंत्र का एक ज़रूरी हिस्सा हैं। लेकिन इसके बाद भी क्या हम इस लोकतांत्रिक देश में अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से निभा पा रहे हैं? क्या लोकतांत्रिक देश में सरकार को चुनने के अलावा हमारी और कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या सरकार जब गलत रास्ते पर जाने लगे तो उसे सही रास्ते पर लाना हमारी भूमिका का हिस्सा नहीं है?
पिछले कुछ समय से हम देख रहे हैं कि हमारे देश में क्या हो रहा है। अमूमन हम सब जानते हैं कि चीजें जैसी होनी चाहिए, वैसी नहीं हो रही हैं। कोरोना महामारी के चलते हमारे देश की व्यवस्था बिगडऩे लगी है। जब हम व्यवस्था के बिगडऩे की बात करते हैं तो हमें इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि इस पूरे देश की जिम्मेदारी सरकार पर है, लेकिन क्या सरकार अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से निभा पा रही है? चारों ओर से अलग-अलग समस्याएं हमारे देश को घेर रही हैं और इन परिस्थितियों के बीच सरकार खुद भी कुछ समस्याएं खड़ी कर रही है। हम देख सकते हैं जिस तरह संसद में निर्णय लिए जा रहे हैं वो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है। किसानी और किसानों के लिए जो बिल हाल ही में पारित किए गए हैं वे हमारी अपनी चुनी हुई सरकार के बारे में बहुत कुछ कहते हैं।
जब देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले इतने किसान महामारी के बावजूद अपनी जान की परवाह न करते हुए इन बिलों के विरोध में सडक़ पर आए तो उनके ऊपर अत्याचार हुए और उनकी आवाजों को दबाने की कोशिशें की गईं। कुछ महीने पहले नागरिकता कानून (सीएए) में संशोधन के विरोध में उठे लाखों लोगों, जिनमें से अधिकांश विद्यार्थी थे, के ऊपर भी अत्याचार करके उनकी आवाजें दबाई गई थीं। पिछले एक साल में हजारों-लाखों भारतीयों की आवाजों को दबाया गया है। उन्हें सवाल पूछने से रोका जा रहा है। सरकार का अपने ही देश के लोगों के साथ यह सब करना देश के लोकतंत्र पर एक बड़ा सवाल बनकर खड़ा हुआ है।
खासतौर पर उल्लेखनीय यह भी है कि इस बीच हमारे मीडिया का एक बहुत जरूरी भाग अपनी भूमिका निभा रहा है। दिक्कत सिर्फ इतनी है कि मीडिया सिक्के के दूसरी तरफ वहां खड़ा है जहाँ उसे खड़ा नहीं होना चाहिए था। हम जानते हैं कि मीडिया का जनता पर बहुत असर होता है। मीडिया जो भी दिखाता है, बताता है, समझाता है, यह सारी चीजें लोगों के मानस पर एक गहरा असर छोड़ जाती हैं। मीडिया के समाज को झकझोरने से जुड़े कई उदाहरण आप जानते ही होंगे। इसका एक ऐतिहासिक उदाहरण है जब सन् 1890 में दो पत्रकारों, जोसेफ पुलित्जर और रैंडोल्फ हस्र्ट के बीच अक्सर एक मुक़ाबला चलता रहता था। ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है कि इस मुक़ाबले के चलते ही पुलित्जऱ और हस्र्ट ने खबरों को इतना बड़ा-चढ़ाकर जनता के सामने पेश किया कि उसकी वजह से स्पेनिश-अमेरिकन युद्ध की शुरुआत हो गई।
समाज में मीडिया की ताकत का यह इकलौता उदाहरण नहीं है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हिटलर ने जितने भी बुरे काम किये, उन सबको रोका जा सकता था, अगर मीडिया ने हिटलर के हिंसक व्यवहार की प्रशंसा न की होती और उसे इतने गौरवान्वित तरीके से जनता के सामने प्रस्तुत न किया होता। हमारे सामने ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जिन्हें देखकर हमें समझ आता है कि मीडिया हमारे लोकतंत्र का वो हिस्सा है जो लोगों के अंदर धीरे-धीरे असर करता है और उन्हें बदल देता है।
इतने बड़े बदलाव लाने की ताकत एक जिम्मेदारी के साथ आती है, लेकिन सवाल ये खड़ा होता है कि क्या मीडिया अपनी जि़म्मेदारी निभाता है? कौन देखता और नजऱ रखता है इस बात पर की मीडिया अपनी जि़म्मेदारी ठीक तरीके से निभा रहा है या नहीं? क्या हमारे देश का मीडिया अपनी जिम्मेदारी पर ध्यान दे रहा है? इन सवालों के जवाब शायद किसी के पास न हों या सबके जवाब अलग-अलग हों। शायद कहीं-न-कहीं हम सब अपने देश के मीडिया का बदलता स्वरूप देख सकते हैं। मुख्यधारा का मीडिया अभी बहुत से जरूरी मुद्दों पर से जनता का ध्यान हटाने की कोशिश में लगा हुआ है। वे जरूरी मुद्दे जो हमारे देश के भविष्य को आकार देंगे। ऐसे समय में हमें तय करना है कि आने वाले भविष्य में हम कहाँ खड़ें होंगे? लोकतंत्र शब्द हमें बहुत गौरवान्वित महसूस करने का मौका देता है, लेकिन जब यह केवल एक शब्द भर बनकर रह जाए और इस शब्द के पीछे की अवधारणा को हमारी जिम्मेदार सरकार और मीडिया नकार दे तो फिर हमें अपने लोकतांत्रिक देश पर कैसे गर्व करें? फिर भी एक उम्मीद की जा सकती है कि लोकतांत्रिक देश के नागरिक इस बारे में विचार करेंगे और इस देश को वास्त विक रूप से लोकतांत्रिक देश का दर्जा दिला पाएँगे। (सप्रेस)
-सुश्री ऋतिका गौर महाविद्यालय की छात्रा हैं।
-कृष्णकांत
हमने गांधी को अपनी आंखों से कभी नहीं देखा। लेकिन गांधी को पढ़ते हुए मन की आंखों से गांधी को घंटों निहारता रहा हूं। मैं किताबों की आंख से उन दिनों की कल्पना करता हूं। मैं 400 साल से अंग्रेजों के गुलाम भारत को सोचता हूं। मैं टीपू सुल्तान से लेकर बूढ़े बहादुर शाह जफर को लड़ते देखता हूं। मंगल पांडे से लेकर भगत सिंह और अशफाक तक को बलिदान होते देखता हूं। सोचता हूं मैं असंख्य महापुरुषों के खून का कर्जदार हूं।
मैंने आजादी के लिए देश को संघर्ष करते अपनी आंखों से नहीं देखा। लेकिन यह देख पाता हूं कि एक दिन एक घर की दो स्त्रियों को एक धोती बांटते देख एक बैरिस्टर ने ताउम्र नंगे रहने का फैसला किया था और उसे निभाया, क्योंकि उसका देश नंगा था। उसने उपवास को अपना हथियार बनाया क्योंकि उसका देश भूखा था। उसने आत्मबल को ताकत बनाया क्योंकि उसके देश में ईश्वर था, आस्था थी, धन, हथियार और एका नहीं था।
उसने अपने देश की जनता को आजादी, स्वराज और आंदोलन का मतलब समझाया, क्योंकि देश अपनी गुलामी में ही लंबी नींद सोया हुआ था। उसने एक हॉल में होने वाले वार्षिक सम्मेलन में देश की जनता को उतार दिया। वह सम्मेलन जन आंदोलन बन गया। भूखी, नंगी और निहत्थी जनता सडक़ पर निकल गई।
उसने दुनिया के उस सबसे ताकतवर शासक को घुटने पर ला दिया जिसने उसे ‘भूखा नंगा फकीर’ कहकर उपहास किया था।
हर आदमी का जीवन पाखंड से भरा है। उस आदमी में भी कमियां कमजोरियां रही होंगी। लेकिन मैं उस अकेले महात्मा को जानता हूं जिसने अपनी कमजोरियां कलमबद्ध कीं।
इस बात के लिए कौन पश्चाताप करता है कि जब मेरे पिता का देहांत हुआ, तब मैं अपनी पत्नी के पास था? देश की जनता से कौन यह बांटना चाहता है कि कल जो मैं सोचता था आज वह प्रासंगिक नहीं रह गया है।
हम यह कह सकते हैं कि आजादी का नायक वह अकेला नहीं है। तमाम नायक हैं। उन्हीं नायकों में से एक बाबू सुभाषचन्द्र बोस ने, तमाम घोर विरोध के बावजूद, उस ‘भूखे नंगे फकीर’ को राष्ट्रपिता कहा था और उसके कुशल नेतृत्व को प्रणाम किया था। हमें गांधी के लिए नहीं, तो सुभाष के लिए उन्हें उस रूप में स्वीकार करना चाहिए, जिस रूप में उन्हें सुभाष ने स्वीकार किया था। हमें उन बलिदानों और उन सपनों का सम्मान करना चाहिए। हमें अपनी महान विरासत पर गर्व करना चाहिए।
कोई सिरफिरा जब गांधी को उल्टा पुल्टा कुछ कहता है तो हमें लगता है कि किसी ने मेरे वालिद को बुरा कहा है। हम जवाब में तल्खी अख्तियार करते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। गांधी के बचाव में कभी-कभी तल्ख होने के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूं।
मैंने महसूस किया है कि आज दुनिया मे झूठ का अंतरराष्ट्रीय साम्राज्य कायम हो चुका है। इस झूठ के निशाने पर हमारे गांधी बापू, उनके विनम्र विरोधी भगत सिंह, उनके शिष्य नेहरू और पटेल समेत आज़ादी आंदोलन की पूरी विरासत इस झूठ के निशाने पर है।
मैंने तय किया है कि अपनी सीमाओं में ही सही, मैं महात्मा गांधी समेत इस देश की महान विरासत के खिलाफ किसी भी दुष्प्रचार का विनम्र प्रतिकार करूंगा। क्या आप मेरा साथ देंगे?
-दिनेश श्रीनेत
वो सितंबर के महीने की कोई तारीख थी और साल था 1972, जब मैं बेसब्री से उस रंग-बिरंगी पत्रिका का इंतजार कर रहा था। एक चित्रकथा जो पहली बार सुपरमैन और बैटमैन की कहानी हिंदी में लेकर आई थी। चंदामामा प्रकाशन की उस कॉमिक्स के पहले अंक में सुपरमैन और बैटमैन के ओरिजिन की कथा कही गई थी। लेकिन 10 वर्ष की उस उम्र में मेरा मन बैटमैन की एक कहानी में अटक गया।
कहानी एक खूबसरत शाम से शुरू होती है। कॉमिक्स का पहला पेज। एक आलीशान होटल के ओपन एयर रेस्टोरेंट में जहां पीछे स्वीमिंग पूल दिख रहा है, बैटमैन जमीन पर झुक गया है। उसके सिर पर बोतल से चोट लगी है और पीछे एक घबराई हुई सुंदर लडक़ी खड़ी है, जिसके हाथ में टूटी हुई शराब की बोतल है। यह कहानी पुराने रशियन नावेल या बाल्जाक के किसी उपन्यास की याद दिलाने वाले इन शब्दों से आरंभ होती है, ‘अमीर, मशहूर, तडक़-भडक़ वाले, अख़बारों की सुर्खियां बनाने वाले... चालाक और मक्कार व्यापारी और अधिकारी वर्ग के लोग उष्णकटिबंधीय सूरज और चाँद के तले अपना साप्ताहांत मनाने के लिए इस आलीशान होटल में इकट्ठा हुए हैं... लेकिन इन शानो-शौकत वालों की भीड़ में एक हत्यारा किसी को कत्ल करने के इरादे से घूम रहा है। और... बैटमैन उसे कुछ ही घंटों या मिनटों में बेनकाब कर सकता है।’
नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था, कहानी- डैनी ओ नील। यह नाम अनायास ही मेरी स्मृति में नहीं दर्ज हुआ था। आगे जब यह नाम बैटमैन की कॉमिक्स से जुड़ता तो उसकी कहानियां अविस्मरणीय ही जातीं। तमाम अच्छी-बुरी खबरों के बीच इसी 11 जून को डैनी ओ नील के निधन की खबर भी आई और उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लग गया। ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ से लेकर ब्लागर्स और यूट्यूबर्स ने जाने कहां से खोज-खोजकर उनकी कहानियों की चर्चा छेड़ी और उनके कभी न भूलने वाले योगदान को याद किया।
यह तय है कि अगर डैनी न होते तो टिम बर्टन और क्रिस्टोफर नोलन का बैटमैन भी न होता। यह डैनी थे जिन्होंने 60 के दशक में टीवी सीरियल से बनी बैटमैन की हल्की-फुल्की छवि को दोबारा से एक डार्क, गॉथिक और नॉयर शैली में प्रस्तुत किया। जैसा कि बैटमैन को होना चाहिए था। एक इंटरव्यू में वे कहते हैं, ‘सुपमैन से अलग इस किरदार के केंद्र में एक ट्रैजेडी है। वह एक मनुष्य है, और यही बात मुझे बतौर लेखक सबसे ज्यादा आकर्षित करती है।’
नोलन की ‘बैटमैन बिगिन्स’ में ब्रूस वेन के बचपन का वो दृश्य जब वह चमगादड़ों से भरे तहखाने में जाकर गिरता है, डैनी ओ नील की कॉमिक्स ‘द मैन हू फॉल्स’ पर आधारित है। जो चाँदनी रात में किसी बेहद ऊंची इमारत पर छलांग लगाने को तैयार बैटमैन से आरंभ होती है। डैनी कहते हैं, उसने यह पहले भी किया है, ‘कितनी बार? एक हजार बार? एक हजार बार अकेले जागते हुए, एक हजार तनाव से भरे क्षणों में, एक हजार बार यह खयाल नकारते हुए कि उससे चूक हो सकती है...’ और कहानी हमें अतीत में ले जाती है, जब बच्चा ब्रूस वेन एक छेद से जमीन के भीतर तहखाने में जा गिरता है जहां सैकड़ों चमगादड़ फडफ़ड़ाने लगते हैं। इस कहानी का अंत होता है बैटमैन की छलांग से। खुद पर यकीन रखते हुए मौत को छूते हुए गुजर जाने वाली इस छलांग के बीच में ही कहानी खत्म हो जाती है।
अंगरेजी साहित्य और दर्शनशास्त्र की शिक्षा हासिल करने वाले डैनी अपनी हर कहानी में असाधारण नाटकीय और मनोवैज्ञानिक तनाव रचते थे। न्यूयार्क टाईम्स बताता है कि ये वे शख्स था जिसने कॉमिक्स को एक गंभीर कला का दर्जा दिलाने में मदद की। उनकी ज्यादातर कहानियों में ‘यूनिटी ऑफ टाइम’ का निर्वहन अद्भुत ढंग से होता था। कई बार वास्तविक घटनाक्रम एक रात या महज कुछ घंटों के बीच सिमटा हुआ होता था, मगर उसके समानांतर एक कहानी पूरे जीवन का विस्तार लिये होती थी। इसका सबसे खूबसूरत उदाहरण उनकी कहानी ‘देयर इज नो होप इन क्राइम ऐली’ है।
यह कहानी शुरू होती है एक सडक़ से, जहां बीस साल पहले रौनक और चहल-पहल रहती थी, अब लेखक के शब्दों में, ‘हँसी और ठहाके खत्म हो गए और रोशनी मंद हो गई, और वे खूबसूरत औरतें और पुरुष सुख हासिल करने कहीं और चले गए... अब, केवल और केवल निराश और हताश इन सडक़ों पर चलते हैं।’ इसी के बीच एक बूढ़ी औरत रात को अकेली फुटपाथ पर चली जा रही है। उस औरत पर दो उचक्के हमला करते हैं। बैटमैन जो थका है और कई रातों से से सोया नहीं उसी बदनाम सडक़ की निगरानी कर रहा है। यह बूढ़ी औरत है लेस्ली थॉम्पकिंस, बैटमैन उसे बचाने पहुंचता है और एक शख्स उस पर बंदूक तानकर कहता है, ‘पास मत आओ... वरना गोली मार दूंगा।’
बैटमैन आक्रोश में कहता है, ‘तुम्हारी यह हिम्मत, तुम यहां मुझ पर गोली चलाओगे...’ कहानी हमें अतीत में ले जाती है और पता चलता है कि यही वो सडक़ थी जहां 20 साल पहले कभी रौनक हुआ करती थी और ब्रूस वेन अपने माता-पिता के साथ थिएटर देखकर लौट रहा था, जब वे उसकी आंखों के सामने किसी उचक्के की गोली के शिकार हो जाते हैं। उस वक्त पुलिस, तमाशबीन भीड़ और जमीन पर पड़े माता-पिता के शव के बीच उस सिसकते हुए लडक़े के पास एक औरत घुटनों के बल बैठ जाती है और बोलती है, ‘मैं लेसली थॉम्पकिंस हूँ, मेरे साथ आओ, मुझसे जो बन पड़ेगा वो सब तुम्हारे लिए करूंगी।’ डैनी ओ नील लिखते हैं ‘और सारी दुनिया में उसके लिए कुछ नहीं बचा था... सिवाय उसकी ममता भरी बांहों की तसल्ली और सांतवना भरे शब्दों का सुकून।’
करीब 20 साल बाद, वह बच्चा अब बैटमैन बन चुका है और वह स्त्री ही वह अकेली बुढ़ी औरत है। जब बैटमैन उसे बचाकर ले जाता है तो वो कहती है, ‘सालों पहले मैंने एक बहुत ही डरावना दृश्य देखा था, मेरी आँखों के सामने एक बच्चे के माता-पिता की हत्या हो जाती है। मैं उस बालक को कभी भूल नहीं पाई और ऐसी त्रासदी रोकने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।’ कहानी का शीर्षक है, ‘देयर इज नो होप इन क्राइम ऐली’ मगर अंत में बैटमैन के शब्द हैं, ‘आप... और आप जैसे लोग ही आशा की किरण हैं, गुनाहों की गली में। शायद एक अकेली आशा... जो हमारी बिगड़ी संस्कृति में बाकी रह गई है।’ यह बैटमैन की एक क्लासिक कॉमिक्स मानी जाती है और यह ओ हेनरी की किसी कहानी से कम खूबसूरत नहीं है।
डैनी ओ नील की मृत्यु की खबर सुनकर मुझे अफसोस हुआ। इस शख्स ने सिखाया था कि कहानी कैसे कही जाती है। बाकी उनके शब्द तो जैसे अंधेरे में चमकते जुगनू थे। उनकी एक और क्लासिक मानी जाने वाली कथा ‘द सीक्रेट ऑफ वेटिंग ग्रेवयार्ड्स’ से लिए गए दो उदाहरणों के साथ अपनी बात खत्म करता हूँ।
‘ये शुरुआत है एक भयानक और खतरनाक सैर की। खामोश रहो और सुनो, हवा की चीख मानों आत्माओं की तड़प हो... देखो... राख के रंग में चाँद को ऊपर उठते हुए, गहरी सांस लो और सूंघो, मौत की खुश्बू को... जब तुम जानना चाहो... इंतजार करती कब्रों के राज को (शीर्षक- ‘द सीक्रेट ऑफ वेटिंग ग्रेवयार्ड्स’)।’
कहानी के एक हिस्से में एक खूबसूरत युवती डोलोरेस कहती है, ‘बैटमैन हमें पकडऩा चाहता है... लेकिन यह उसकी भूल होगी...’
‘उसकी शोखी की धीमी गूंज़, उन पुरानी दीवारों के बीच गूंजती रही। और फिर एक कंपकंपी छूटी बैटमैन की पीठ में... क्योंकि डोलोरेस की आवाज में सच्चाई छिपी थी।’ (फेसबुक से)
1942 में जब लुई फिशर ने महात्मा गांधी से कई दिनों तक चला लम्बा इंटरव्यू लिया तब उन्होंने इतना ही कहा कि चम्पारण में रहने और वहां के लोगों के कष्ट देखने के बाद मुझे पहली बार लगा कि अंग्रेजों को भारत से निकाले बगैर काम नहीं चलेगा।
- अरविंद मोहन
गांधी के चम्पारण सत्याग्रह को याद करना क्यों जरूरी है? यह एक बड़ा सवाल है। और इसे ठीक से समझा गया हो या मैंने समझ लिया हो, यह दावा करना मुश्किल है। पर इसे समझना जरूरी है, उसके बगैर हमारा नुकसान हो रहा है और हम जितनी जल्दी इसे समझेंगे, नुकसान कम करेंगे और खुद को तथा दुनिया को सही पटरी पर लाने में सफल होंगे। चम्पारण सत्याग्रह को ऊपर से देखने पर पर ऐसा लगता है कि यह किसान समस्या के समाधान के लिए था। कई बार ज्यादा बारीकी से गौर करने पर यह सांस्कृतिक और राजनैतिक सवाल भी लगता है, बल्कि सांस्कृतिक अपमान, औरतों की बदहाली, दलितों समेत कमजोर लोगों की दुर्गति के सवाल पर तो अभी तक ज्यादा लिखा-पढा भी नहीं गया है। फिर यह राजनैतिक आन्दोलन तो था ही - कई लोग राष्ट्रीय आन्दोलन और गांधी के राजनैतिक जीवन में चम्पारण सत्याग्रह की भूमिका को महत्वपूर्ण मानकर ही इसको आज इतना महत्व दे रहे हैं। एक तर्क पूरे उपनिवेशवाद विरोधी वैश्विक आन्दोलन में हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन की शुरुआत चम्पारण से होने की बात भी रेखांकित करता है। और शुद्ध गांधीवादी बिरादरी बुनियादी तालीम, खादी ग्रामोद्योग और युरोपीय मॉडल से इतर वैकल्पिक विकास के प्रयोग की शुरुआत के चलते चम्पारण सत्याग्रह को महत्वपूर्ण मानती है।
1917 के गांधी के कथनों और लेखन को देखने के बाद ये बातें टुकड़ों में तो सही लगती हैं, पर गांधी ने इसे परिभाषित करने की कोशिश नहीं की। कुछ समय बाद दक्षिण अफ्रीका के अपने जीवन के बारे में और फिर अपनी आत्मकथा लिखते हुए वे चम्पारण को बहुत स्नेह से याद करते हैं, पर आन्दोलन क्या था या किन बडे़ लक्ष्यों को लेकर चला, उस तरह की व्याख्या या समीक्षा की कोशिश उन्होंने नहीं की है। 1942 में जब लुई फिशर ने उनसे कई दिनों तक चला लम्बा इंटरव्यू लिया तब उन्होंने इतना ही कहा कि चम्पारण में रहने और वहां के लोगों के कष्ट देखने के बाद मुझे पहली बार लगा कि अंग्रेजों को भारत से निकाले बगैर काम नहीं चलेगा। चम्पारण के दस्तावेज और ब्यौरे देखने पर तो आपको गांधी किसानों से यही कहते दिखेंगे कि मुझसे कुछ भी मिलने वाला नहीं है। जो कुछ मिलेगा वह गोरे अधिकारियों और निलहों से ही मिलेगा, इसलिये उनके खिलाफ हिंसक होने की जरूरत तो नहीं ही है, दुर्भावना भी न रखें। गांधी के पहले चम्पारण के किसानों ने लड़ाई लड़ी थी, निलहों को जान से भी मारा था। पर गांधी ने जरा भी हिंसा नहीं होने दी और जहां कहीं हिंसक टकराव की आशंका लगी, निलहों या किसानों की तरफ की कोई भी गतिविधि हिंसा की तरफ बढ़ती लगी तो बहुत तत्परता से शीतल फाहा सा रखकर हिंसा को टाल दिया।
चम्पारण में जब गांधी आए थे तो निपट अकेले थे और चम्पारण के राजकुमार शुक्ल को छोड़कर उन्होने बिहार के किसी भी व्यक्ति को अपने आने की सूचना देने की भी जरूरत नहीं महसूस की। गांधी इससे पहले चम्पारण तो क्या बिहार भी नहीं आए थे और चम्पारण के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। उन्हें चम्पारण की बोली भोजपुरी तो नहीं ही, ठीक से हिन्दी भी नहीं आती थी। और उस कैथी लिपि को वे नहीं पढ़ सकते थे जिसमें भूमि के दस्तावेज थे। उन्हें न नील का पता था, न उन्होंने कभी नील का पौधा भी देखा था। मजहरुल हक साहब जैसे एकाध लोगों को छोड़कर वे किसी बिहारी को जानते भी न थे। उनको हक साहब के अलावा बिहार में दादा कृपलानी को तार देने की सूझी, वह भी राजकुमार शुक्ल की क्षमता पर शुरुआती शक के बाद।
पर गांधी के अन्दर भी वह चीज आ चुकी थी जिसने न सिर्फ चम्पारण आन्दोलन को खड़ा किया, बल्कि मुल्क और दुनिया की राजनीति और जीवन को नई दिशा दी। उन्होने यह बदलाव दक्षिण अफ्रीका में कर लिया था - यह जरूर है कि वहां ज्यादातर प्रयोग फीनीक्स और टालस्टॉय आश्रमों में हुये थे या सिर्फ वहां रह रहे हिन्दुस्तानी समाज के बीच। वैचारिक स्तर पर गांधी की राय इतनी साफ हो चुकी थी कि उन्होंने हिन्द स्वराज की रचना भी कर ली थी। पर सारे प्रयोगों, सारी वैचारिक तैयारियों को भारतीय समाज पर, जमीन पर उतारने की शुरुआत चम्पारण से हुई। और चम्पारण बदला, बिहार बदला, मुल्क की राजनीति में नए दौर की शुरुआत हुई, विश्वव्यापी उपनिवेशवाद की विदाई का दौर शुरू हुआ। जबरदस्त बदलाव गांधी में भी हुआ, इससे भी ज्यादा उन बिहारी और सहयोगी नेताओं में हुआ जो गांधी के आन्दोलन की रीढ़ बने और उन्होंने चम्पारण तथा गांधी को जितना दिया, गांधी और चम्पारण ने उससे कई गुना ज्यादा उन्हें दिया।
पर यह बात रेखांकित करनी जरूरी है कि यह काम उन्होंने अहिंसा से किया जो इसके पहले चम्पारण ही नहीं, इतिहास में भी नहीं मिलता। इसीलिये अगर हम अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ दुनिया की सबसे बड़ी बगावत 1857 को देखें तो उसका सबसे क्रूर अंत हुआ। और चम्पारण तक आने में 60 साल लगे जिसमें बार-बार छोटी हिंसक बगावतों और कांग्रेस जैसे संगठन के बनने जैसे कई स्तर के काम हुये। पर 1917 के चम्पारण के बाद मुल्क के अजाद होने और दुनिया से उपनिवेशवाद की विदाई का दौर शुरू होने में 30 साल ही लगे।
लेकिन इस नए अस्त्र का प्रयोग वही कर सकता है जो निर्भय हो, निस्वार्थ हो। गांधी ने चम्पारण में अपने उदाहरण से ये दोनों बातें स्थापित कीं। और फिर तो देर न लगी।
गांधी के इस आन्दोलन में न कहीं लाठी चली न बन्दूक, न किसी को लम्बा जेल भुगतना पड़ा, न जानलेवा अनशन करना हुआ, न चन्दा हुआ, न दिखावे का खर्च करना पड़ा। गांधी ने चम्पारण से एक भी पैसा चन्दा नहीं जुटाने दिया। और कहना न होगा कि आज स्थितियां चम्पारण से कई गुना ज्यादा खराब हैं और हमें ठीक एहसास भी नहीं है। चम्पारण के किसानों का बहुत शोषण होता था, बहुत जुर्म होते थे, पर यह नहीं हुआ कि अपनी पीड़ा के चलते लोगों ने खेती छोड़ी हो, आत्महत्या कर ली हो।
गांधी का चम्पारण प्रयोग कई मायनों में विशिष्ट है - सिर्फ हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन और ब्रिटिश उपनिवेशवाद की समाप्ति के पहले प्रयोग के रूप में ही नहीं। इसके इस रूप की चर्चा तो होती है, लेकिन पूरी तफसील और गम्भीरता का अभाव भी रहता हो। इसी आन्दोलन के दौरान गांधी ने रचनात्मक ही नही, सभ्यतागत विकल्प के अपने प्रयोग की विधिवत शुरुआत की।(navjivan)
निर्वाचित तानाशाही और लोकतंत्र में अहम संतुलन बनाए रखने वाली संस्थाओं को बेकार बना देने के कारण उपजी चुनौतियों से निपटने के लिए आज के समय में महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर नए सिरे से गौर करने की जरूरत है।
- सलमान खुर्शीद
महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग और बराक ओबामा-जैसी विभूतियों की पहचान है धैर्ययुक्त प्रतिरोध या अवज्ञा। यह एक स्थापित सत्य है कि शांतिपूर्ण और अहिंसक प्रतिरोध नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का बुनियादी तत्व है। नागरिक अवज्ञा की स्थितियों पर बहस-मुबाहिसा हो सकता है लेकिन एक सिद्धांत के तौर पर यह इतना स्पष्ट है कि इस पर सवाल खड़े करने की कोई गुंजाइश नहीं। लेकिन अफसोस की बात है कि यह सरकार ऐसा ही कर रही है। सरकार ने जामिया में छात्रों के प्रदर्शन को लेकर जो दलीलें दीं और अब फरवरी, 2020 में उत्तर पूर्व दिल्ली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा के पीछे की कथित साजिश को लेकर एफआईआर संख्या 59/2020 के सिलसिले में जो चार्जशीट दाखिल की गई है, उसमें जो कुछ भी कहा गया है, उससे यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है।
बहस में हितों के टकराव का खुलासा करना महत्वपूर्ण होता है, यह खासतौर पर तब अहम हो जाता है जब सरकारी पक्ष ऐसा करने में बुरी तरह विफल रहा हो। चार्जशीट में आरोपियों के खुलासे वाले बयानों में मेरे नाम का भी जिक्र है। ऐसे में मुझे सरकार के कदमों के खिलाफ तर्क रखने का वैध अधिकार है। मैंने जामिया, शाहीन बाग और खुरेजी सहित कई स्थानों पर विरोध सभाओं को संबोधित किया। ये सभी सभाएं शांतिपूर्ण थीं और मेरे जाने से पहले तथा मेरे लौट जाने के बाद भी इन जगहों पर शांति बनी रही। यह पूछे जाने पर कि क्या पुलिस का यह दावा सही था कि मेरे भाषण ‘भड़काऊ और लामबंद करने वाले’ थे, मैंने बड़ी साफगोई के साथ कहा कि मैं कोई वहां जमा लोगों को लोरियां सुनाने या उन्हें प्रदर्शन नहीं करने के लिए समझाने-बुझाने तो गया नहीं था। अगर महात्मा गांधी होते तो कहते कि विरोध प्रदर्शनों का समर्थन करना और प्रदर्शनकारियों को प्रोत्साहित करना मेरा अधिकार है और कर्तव्य भी। महात्मा गांधी का मानना था कि अगर अहिंसा के सिद्धांतों से विमुख हुए तो प्रायश्चित और आत्ममंथन भी करना होगा जैसा कि चौरी चौरा कांड पर उनकी प्रतिक्रिया से स्पष्ट था। सत्याग्रह की पूरी इमारत नैतिकता की बुनियाद पर टिकी थी और सत्याग्रह की राह से भटकाव का मतलब यही था कि कहीं-न-कहीं नैतिक आदर्शों के ऊंचे मानदंड ध्वस्त हुए। सीएए-एनआरसी का विरोध भी नैतिक प्रकृति का था और उसका समर्थन नहीं करना नैतिक कायरता होती।
सरकार विरोध प्रदर्शन करने के लोगों के नैतिक हक को स्वीकार नहीं करने पर अड़ी है, भले प्रदर्शनकारियों का आकलन खुद भी उन्हें वैध विरोध तथा अनुचित व निंदनीय हिंसा के बीच एक रेखा खींचने के लिए प्रेरित करता हो। चार्जशीट में विरोध प्रदर्शन और दंगों में कोई अंतर नहीं किया गया है और अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान शहर में चक्का जाम करके अपनी बात को जोरदार तरीके से सामने रखने की प्रदर्शनकारियों की योजना के साथ इन्हें उद्देश्यपूर्ण तरीके से जोड़ दिया गया। यूपीए सरकार के दौरान पुतिन की यात्रा के समय को याद करना चाहिए। उस समय निर्भया मामले में आंदोलन हो रहा था और तत्कालीन यूपीए सरकार के लिए हैदराबाद हाउस में राष्ट्रपति पुतिन का स्वागत करना मुश्किल हो गया था, तो सरकार ने बिना कोई शोर-शराबा किए आयोजन प्रधानमंत्री निवास में स्थानांतरित कर दिया। उस समय न तो कर्फ्यू लगाया गया, न ही प्रदर्शनकारियों पर जोर-जबर्दस्ती की गई और न ही वर्दी वालों से घिरे किसी कांग्रेसी समर्थक ने कोई भड़काऊ भाषण ही दिया।
कई बार जिम्मेदार सरकारों को जनता के विरोध को झेलना पड़ता है, यही लोकतंत्र है। लोगों पर शहरी नक्सल और राष्ट्र-विरोधी जैसे तमगे चस्पा करना नागरिकों की अपेक्षा सत्ता में बैठे लोगों को अपनी गिरेबान में झांकने की ज्यादा वजह बनते हैं। जिस सरकार में अपनी आलोचना सुनने की क्षमता न हो, उसके लिए यही कहा जा सकता है कि उसे अपने ही लोगों से डर लगता है। विरोध प्रदर्शन या नागरिक अशांति को आतंकवाद या अपराधों की तर्ज पर पेश करना लोकतंत्र में असंतोष और असहमति के उचित प्रबंधन में पूरी-पूरी विफलता का सबूत है।
शुक्र मनाइए कि इस सरकार ने जवाहरलाल नेहरू की तरह महात्मा गांधी को हाशिये पर नहीं डाला। दरअसल, ये लोग जिसे हाशिये पर नहीं डाल सकते, उसे अपनाने की कोशिश करते हैं लेकिन महात्मा गांधी के मामले में इनमें उलझाव और अस्पष्टता है। लोगों को भी इस बात का अहसास है कि शाहीन बाग और जामिया के प्रदर्शन गांधीवादी सिद्धांतों और तरीकों से हो रहे थे। सौ दिनों तक चलने वाले इस विरोध से प्रदर्शन से किसी को कोई शिकायत नहीं थी। केवल उस सड़क से आने-जाने वालों को असुविधा हो रही थी और वह भी इस कारण कि पुलिस ने वैकल्पिक रास्तों को बंद कर दिया था। यहां तक कि उन दो दिनों के दौरान जब जामिया के छात्रों की पुलिस से भिड़ंत हो गई थी, तब भी वे अपना विरोध दर्ज कराने के लिए केंद्रीय दिल्ली तक मार्च कर रहे थे। उन्होंने पुलिस से मिली इजाजत के मुताबिक ही मार्च किया होगा। चार्जशीट में कई ऐसे लोगों के नाम हैं जिन्होंने सभा को संबोधित किया और पुलिस शिकायत में इनकी बातों को भड़काऊ बताया गया है और छात्रों की सभा को गैरकानूनी। लेकिन इससे कहीं ज्यादा भड़काऊ तो छात्रों की सभा को गैरकानूनी घोषित करना और उन पर टूट पड़ना था। इसलिए पुलिस को तो छात्रों को गलत बताते हुए बिना विश्वविद्यालय अधिकारियों की अनुमति परिसर में प्रवेश को सही ठहराना ही था।
गांधीजी ने एक गैर-निर्वाचित विदेशी सरकार के खिलाफ सत्याग्रह का प्रयोग शुरू किया था और एक निर्वाचित सरकार के खिलाफ ऐसी गतिविधियों के खिलाफ तर्क गढ़े जा सकते हैं। लेकिन मुद्दे की बात तो यह है कि जब कोई निर्वाचित सरकार संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है और राजनीतिक ताकत का दुरुपयोग करती है तो गांधीवादी सिद्धांत अपने आप मौजूं हो जाते हैं। निर्वाचित तानाशाही और लोकतंत्र में अहम संतुलन बनाए रखने वाली संस्थाओं को बेकार बना देने के कारण उपजी चुनौतियों से निपटने के लिए आज के समय में महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर नए सिरे से गौर करने की जरूरत है। इसलिए इस मुश्किल वक्त में गांधीवादी दर्शन पर नए सिरे से गौर करने के साथ- साथ लोकतांत्रिक लामबंदी भी जरूरी है।
अवज्ञाऔर गांधीवादी दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पहलू कानून के प्रतिरोध का खामियाजा सहने को तैयार रहना है। लेकिन यह स्थिति तब आती है जब कोई नागरिक अनैतिक कानून पर अमल से इनकार करता है। जब कानून को तोड़-मरोड़ दिया जाता है और इसका इस्तेमाल संवैधानिक अधिकारों को नाजायज तरीके से कुचलने के लिए किया जाता है, तब इंसाफ मांगने के लिए अदालतों में गुहार लगाना ज्यादा जरूरी है। उम्मीद करनी चाहिए कि अदालतें भी ऐसे मामलों पर गौर करते वक्त ‘गांधी’ फिल्म के उस दृश्य को याद रखेंगी जिसमें कैदी के सम्मान में मजिस्ट्रेट अपनी कुर्सी से उठता है और फिर उसे सजा देने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए टिप्पणी करता है कि अगर सरकार इस सजा को माफ करने का विकल्प चुनती है तो उसे सबसे ज्यादा खुशी होगी। निश्चित रूप से आज देश उस समय के जैसा विभाजित नहीं है। गांधी सिर्फ नागरिक के लिए नहीं बल्कि सरकार, अदालतों और पुलिस के लिए भी हैं। उस कानून के बारे में सरकार का जो भी मानना हो, एक बड़े आंदोलन के जरिये तमाम लोगों ने इस पर सवाल खड़े किए हैं, अपने खिलाफ हुई हिंसा को लेकर लोगों में बड़ा ही वाजिब गुस्साहै। ऐसे में क्या वह वक्त का तकाजा नहीं कि समाज को हुए नुकसान की भरपाई के लिए हम महात्मा गांधी में अपने भरोसे को फिर से उसकी वाजिब जगह दें।
(लेखक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व विदेश मंत्री हैं)(navjivan)
हाल में ‘प्रॉसिक्यूशन रिलीफ’ नामक संस्था ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि ईसाईयों के विरूद्ध घृणा फैलाकर भड़काई जाने वाली हिंसक घटनाओं में 40.87 प्रतिशत की वृद्धि हुई। और यह राष्ट्रव्यापी बढ़ोlरी, कोविड-19 के कारण लगाए गए राष्ट्रव्यापी लाकडाउन के बावजूद हुई।
- राम पुनियानी
लोकसभा में एफसीआरए में प्रस्तावित संशोधनों पर बोलते हुए बीजेपी सांसद सत्यपाल सिंह ने विदेशों से आने वाली सहायता पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन किया। इस सिलसिले में उन्होंने पास्टर ग्राहम स्टेन्स का उल्लेख करते हुए उनके खिलाफ विषवमन किया। उन्होंने दावा किया कि पास्टर ने 30 आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किया था और वे विदेशों से आने वाले धन से आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करवाते थे।
इस सफेद झूठ का संसद में विरोध होना लाजिमी था। पास्टर स्टेन्स की जघन्य हत्या का उल्लेख करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ केआर नारायणन ने कहा था कि “वह घटना विश्व की सर्वाधिक भर्त्सना-योग्य घटनाओं में से एक थी”। वर्षों पूर्व पास्टर आस्ट्रेलिया से भारत आए थे। भारत में वे ओडिशा के कुष्ठ रोगियों की सेवा करते थे। उनका कार्यक्षेत्र क्योंनझार और मनोहरपुर था। साल 1999 में 22-23 जनवरी की दरम्यानी रात वे एक गांव में अपनी खुली जीप में सो रहे थे। उस काली रात उन्हें और उनके दो अवयस्क पुत्रों, टिमोथी और फिलिप को जिंदा जला दिया गया था।
इस जघन्य अपराध से सारे देश में शोक की लहर दौड़ गई थी। इस घृणित घटना को बजरंग दल के स्वयंसेवक राजेन्द्र सिंह पाल उर्फ दारा सिंह ने अंजाम दिया था। लालकृष्ण आडवाणी उस समय केन्द्रीय गृहमंत्री थे। उन्होंने कहा था, “मैं बजरंग दल को बहुत गहराई से जानता हूं और दावे के साथ कह सकता हूं कि इस घटना से उसका दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है।”
दबाव बढ़ने पर घटना की वास्तविकता का पता लगाने के लिए आडवाणी ने तीन केन्द्रीय मंत्रियों का एक दल भेजा। इस दल में मुरली मनोहर जोशी, जार्ज फर्नाडीस और नवीन पटनायक शामिल थे। एक दिन में की गई अपनी जांच के आधार पर यह दल इस नतीजे पर पहुंचा कि यह घटना एनडीए सरकार को कमजोर करने के अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का हिस्सा थी।
बाद में इस घटना की जांच के लिए वाधवा आयोग का गठन किया गया। आयोग ने जांच के बाद बताया कि वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद आदि संगठनों के सहयोग से काम करने वाले दारा सिंह ने यह प्रचार किया था कि पास्टर धर्म परिवर्तन का काम करते हैं और हिन्दू धर्म के लिए खतरा हैं। दारा सिंह ने लोगों के बीच यह प्रचार लगातार किया। उस रात उसने कुछ लोगों को इकठ्ठा कर उस वाहन पर केरोसीन डालकर आग लगा दी, जिसमें पास्टर और उनके पुत्र सो रहे थे।
वाधवा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि पास्टर धर्म परिवर्तन का काम नहीं कर रहे थे, बल्कि कुष्ठ रोगियों की सेवा करते थे। बाद में दारा सिंह को मृत्युदंड दिया गया, जो अंततः आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया गया। दारा सिंह इस समय जेल में है।
खास बात ये है कि रिपोर्ट में एक चौंकाने वाला यह तथ्य सामने आया कि इस दरम्यान वहां ईसाईयों की जनसंख्या में कोई खास इजाफा नहीं हुआ था। रिपोर्ट के अनुसार “क्योंनझार जिले की आबादी 15.3 लाख थी। इनमें से 14.93 लाख हिन्दू और 4,707 ईसाई (मुख्यतः आदिवासी) थे। साल 1991 की जनगणना के अनुसार, इस जिले में ईसाईयों की संख्या 4,112 थी। इस तरह जिले में ईसाईयों की संख्या में केवल 595 की बढ़ोत्तरी हुई थी”। अतः यह कहा जा सकता है कि यह बढ़ोत्तरी धर्म परिवर्तन के कारण नहीं बल्कि सामान्य रूप से हुई थी।
इसलिए साफ है कि दारा सिंह द्वारा किया गया दुष्प्रचार पूरी तरह से आधारहीन था और राजनैतिक इरादों से किया गया था। यह भी साफ है कि यह प्रचार कि ईसाई मिशनरी धर्म परिवर्तन कराते हैं, ईसाईयों के विरूद्ध घृणा फैलाने के लिए किया जाता है। इस दूषित प्रचार के कारण ही पिछले अनेक वर्षों से ईसाईयों को हिंसा का सामना करना पड़ रहा है।
इसी के कारण पिछले वर्षों में आदिवासी-बहुल डांग (गुजरात), झाबुआ (मध्य प्रदेश) और ओडिशा के एक बड़े क्षेत्र में रहने वाले ईसाईयों पर बार-बार कातिलाना हमले हुए। पास्टर और उनके बच्चों की जघन्य हत्या के बाद ओडिशा के कंधमाल में इस तरह के हमले (अगस्त 2008) पराकाष्ठा पर पहुंच गए। इन हमलों में सैकड़ों ईसाईयों की जघन्य हत्या हुई, चार सौ ईसाई महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और अनेक गिरजाघरों को ध्वस्त कर दिया गया।
इस घटनाक्रम का अंत यहीं नहीं हुआ। आज भी ईसाईयों पर हमले हो रहे हैं। इस तरह के हमले दूरदराज के क्षेत्रों में होते हैं और इस कारण उनकी ओर लोगों ध्यान कम जाता है। ईसाईयों की प्रार्थना सभाओं पर हमले होते हैं और जो मिशनरी धार्मिक साहित्य का वितरण करते हैं, उन्हें भी नहीं बख्शा जाता है।
हाल में “प्रॉसिक्यूशन रिलीफ” नामक संस्था ने अभी हाल में जारी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि ईसाईयों के विरूद्ध घृणा फैलाकर भड़काई जाने वाली हिंसक घटनाओं में 40.87 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह राष्ट्रव्यापी बढ़ोत्तरी, कोविड-19 के कारण लगाए गए राष्ट्रव्यापी लाकडाउन के बावजूद हुई। जहां मुसलमानों पर हुए इस तरह के हमलों का प्रचार बड़े पैमाने पर होता है, वहीं ईसाईयों पर ऐसे हमले छिटपुट होते हैं और चर्चा का विषय नहीं बनते हैं।
इसके बावजूद पास्टर स्टेन्स और कंधमाल की घटनाओं ने सबका ध्यान आकर्षित किया। इस तरह की हिंसक घटनाओं के पीछे प्रमुख रूप से यह धारणा रहती है कि इस्लाम और ईसाई धर्म ‘विदेशी’ हैं और हिन्दू धर्म के लिए खतरा हैं। इसके ठीक विपरीत, नेहरू और गांधी जैसे भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं की मान्यता थी कि धर्म, राष्ट्रीयता का आधार नहीं हो सकता और ईसाई धर्म भी उतना ही भारतीय है जितने अन्य धर्म हैं।
सच पूछा जाए तो ईसाई धर्म ने ईस्वी 52 में भारत में प्रवेश किया था और थामस नामक व्यक्ति ने मालाबार में चर्च की स्थापना की। पिछले कई सदियों से ईसाई मिशनरी लगातार भारत आ रहे हैं और दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इसी तरह वे शहरी क्षेत्रों में स्कूलों, कॉलेजों और अस्पतालों की स्थापना कर रहे हैं। इन संस्थाओं द्वारा गुणवत्तापूर्ण सेवाएं प्रदान की जाती हैं और आम लोग इन सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं।
अंतिम जनगणना (2011) के अनुसार देश में ईसाईयों का प्रतिशत 2.30 है। यह प्रतिशत में पिछले साठ वर्षों से लगातार गिर रहा है। 1971 की जनगणना के अनुसार ईसाई देश की कुल आबादी का 2.60 प्रतिशत थे, जो 1981 में 2.44 प्रतिशत 1991 में 2.34 प्रतिशत और 2001 में 2.30 और 2011 में भी 2.30 प्रतिशत थे।
इसके बावजूद वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल दूरदराज के क्षेत्रों में धर्म परिवर्तन को लेकर लगातार दुष्प्रचार करते रहते हैं। सच पूछा जाए तो यह धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला है और इसी कारण राज्यों में एक के बाद एक इस स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाले कानून बन रहे हैं। जहां एक ओर हमारा संविधान नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने और प्रचार करने का अधिकार देता है वहीं ईसाई-विरोधी हिंसा में लगातार जबरदस्त बढ़ोत्तरी हो रही है।
पिछले महीने 25 अगस्त को कंधमाल हिंसा के, जिसने पूरे देश को हिला दिया था, 12 वर्ष पूरे हो गए। आज जरुरत है शांति, समरसता और एकता की। आधारहीन आरोप लगाकर सत्यपाल सिंह ने ईसाई विरोधी प्रचार को हवा दी है और हमारे देश के भाईचारे के मूल्यों को चोट पहुंचाई है।
(लेख का हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया)(navjivan)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हाथरस की दलित कन्या के साथ चार नर-पशुओं ने जो कुकर्म किया है, उसने निर्भया कांड के घावों को हरा कर दिया है। यह बलात्कार और हत्या दोनों है। 14 सितंबर को अपने गांव की दलित कन्या के साथ उच्च जाति के चार नरपशुओं ने बलात्कार किया, उसकी जुबान काटी और उसके दुपट्टे से उसको घसीटा। हाथरस के अस्पताल में उसका ठीक से इलाज नहीं हुआ। आखिरकार 29 सितंबर को उसने दिल्ली के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया। हाथरस की पुलिस ने लगभग एक हफ्ते तक इस जघन्य अपराध की रपट तक नहीं लिखी। और अब पुलिस ने आधी रात को उस कन्या का शव आग के हवाले कर दिया। उसके परिजन ने इसकी कोई अनुमति नहीं दी थी और उनमें से वहां कोई उपस्थित नहीं था। पुलिस ने यह क्यों किया ? जाहिर है कि पुलिस को अपनी करनी का जरा भी डर नहीं है। दूसरे शब्दों में पुलिस विभाग के उच्चाधिकारियों ने इस जघन्य अपराध की अनदेखी की।
अब यदि हाथरस के स्थानीय पुलिस थाने के थानेदार का तबादला कर दिया गया है तो यह मामूली कदम है। उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अपेक्षा है कि वे इन पुलिसवालों पर इतनी कठोर कार्रवाई करेंगे कि वह सारे देश के पुलिसवालों के लिए एक मिसाल बन जाए। जहां तक उन चारों बलात्कारियों का प्रश्न है, उन्हें पीडि़ता ने पहचान लिया था और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है। अब उन पर मुकदमा चलेगा और उसमें, हमेशा की तरह, बरसों लगेंगे। जब तक उन्हें सजा होगी, सारे मामले को लोग भूल जाएंगे, जैसा कि निर्भया के मामले में हुआ था। उन अपराधियों को मौत की सजा जरूर हुई लेकिन वह लगभग निरर्थक रही, क्योंकि जैसे अन्य मामलों में सजा-ए-मौत होती है, वैसे ही वह भी हो गई। लोगों को प्रेरणा क्या मिली ? क्या भावी बलात्कारियों के दिलों में डर पैदा हुआ ? क्या उस सजा के बाद बलात्कार की घटनाएं देश में कम हुई ? क्या हमारी मां-बहनें अब पहले से अधिक सुरक्षित महसूस करने लगीं ? नहीं, बिल्कुल नहीं। निर्भया के हत्यारों को जेल में चुपचाप लटका दिया गया। जंगल में ढोर नाचा, किसने देखा ? इन हत्यारों, इन नर-पशुओं, इन ढोरों को ऐसी सजा दी जानी चाहिए, जो भावी अपराधियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ा सके। अब इस दलित कन्या के बलात्कारियों और हत्यारों को मौत की सजा अगले एक सप्ताह में ही क्यों नहीं दी जाती? उन्हें जेल के अंदर नहीं, हाथरस के सबसे व्यस्त चौराहे पर लटकाया जाना चाहिए। उनकी लाशों को कुत्तों से घसिटवाकर जंगल में फिंकवा दिया जाना चाहिए। इस सारे दृश्य का भारत के सारे टीवी चैनलों पर जीवंत प्रसारण किया जाना चाहिए, तभी उस दलित कन्या की हत्या का प्रतिकार होगा। उसे सच्चा न्याय मिलेगा और भावी बलात्कारियों की रुह कांपने लगेगी।(नया इंडिया की अनुमति से)
सलमान रावी
आयोग ने कुल 100 गवाहों के बयान दर्ज किए और अपनी रिपोर्ट में लाल कृष्णआडवाणी, कलराज मिश्रा, मुरली मनोहर जोशी सहित 68 लोगों की दंगा फैलाने और बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने में अहम भूमिका की बात कही।
छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने को लेकर आपराधिक मामले में फैसले का इंतज़ार किया जा रहा था। सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आया भी, लेकिन इस मामले में पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी समेत सभी 32 अभियुक्तों को बरी कर दिया गया।
इस फैसले को लेकर कई सवाल भी उठ रहे हैं, खासकर उस स्थिति में जब पिछले साल अयोध्या में विवादित जमीन मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था। सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ ने अपने फ़ैसले में कहा था कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना एक ‘गैर कानूनी’ कृत्य था। लेकिन भारतीय जनता पार्टी इन आरोपों को खारिज कर रही है। भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता जफर इस्लाम ने सीबीआई की स्वायत्ता पर उठ रहे सवालों को गलत बताया है। बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि बीजेपी ने जाँच में कोई दखल नहीं दिया है।
उन्होंने कहा-सीबीआई एक स्वतंत्र जाँच एजेंसी है और उसने साक्ष्य के आधार पर काम किया, जो कांग्रेस की सरकारों के दौर में इक_ा किए गए थे। लेकिन हैदराबाद स्थित नालसार लॉ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फैजान मुस्तफा ने बीबीसी संवाददाता दीप्ति बाथिनी से बातचीत में सीबीआई की विशेष अदालत के फ़ैसले को निराशाजनक बताया और कहा कि ये भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए एक धक्का है।
फैजान मुस्तफा ने कहा, ‘इस फैसले में सबसे बड़ा गैप ये है कि इस मामले में मुख्य आरोप 153ए और 153बी के तहत थे, जो जाति और धर्म के आधार पर नफरत भडक़ाना है। जिस तरह के भाषण दिए गए, उन्हें 153ए और 153बी के अंतर्गत लाया गया था। आप किसी की मंशा का अंदाजा कैसे लगा सकते हैं, ये तो भाषण से पता चलता है। आपराधिक साजिश खुले में नहीं की जाती, बल्कि वो गुप्त रूप में होती हैं। सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों में ये कहा गया है कि आपराधिक साजिश के मामलों में परिस्थिजन्य सबूतों को लेना चाहिए। कल्याण सिंह, आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी के बयानों को देखिए। साजिश के लिए हमें परिस्थिजन्य सबूतों की जरूरत होती है और वो थी। जिस तरह के हथियार वहाँ मौजूद थे, वो साजि़श दिखाती है। लोगों को दोषी साबित करने के लिए सभी सबूत थे। ये बहुत निराशाजनक है कि इस तरह के अपराध में सभी को बरी कर दिया जाता है। ये तो ‘किसी ने जेसिका को नहीं मारा’ जैसा ही हो गया- किसी ने बाबरी मस्जिद नहीं गिराई।
लेकिन भारतीय जनता पार्टी को इसमें कोई समस्या नहीं दिखती। पार्टी के प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि ये लोग किसी भी साजिश में शामिल नहीं थे और न ही वहाँ जो कुछ हुआ वो पूर्व नियोजित नहीं था। उन्होंने कहा कि कोर्ट ने ये भी स्पष्ट कर दिया है कि वो लोग वहाँ नफरत फैलाने नहीं गए थे। कोर्ट ने तो ये कहा है कि वे उन्होंने शांति क़ायम करने की कोशिश की।
अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि 28 वर्षों से ये मामला चल रहा है, कई बार गवाहों के बयान लिए गए। उन्होंने कहा, ‘सीबीआई को तो पहले भी क्लोजऱ रिपोर्ट दे चुकी थी। क़ानूनी रूप से सीबीआई चाहे तो इसे चुनौती दे सकती है। लेकिन सीबीआई के अधिकारियों को अपनी एनर्जी सही काम में लगानी चाहिए, उन्हें दोबारा अपनी एनर्जी इस केस में नहीं लगानी चाहिए। उनके पास हज़ारों केस पड़े हैं, मुझे लगता है कि उन्हें अपनी एनर्जी उसमें लगानी चाहिए।’
850 गवाहों के बयान, फिर भी कुछ साबित नहीं हुआ
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में सीबीआई की विशेष अदालत में कुल 850 गवाहों के बयान दर्ज हुए थे।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी का कहना है कि अदालत ने फैसला सुनाने से पहले न तो 6 दिसंबर 1992 की घटना से संबंधित अखबारों और पत्रिकाओं में छपी रिपोर्टों का ही संज्ञान में लिया, न तस्वीरों को और न ही वीडियो का, जबकि ये सब कुछ अब ‘पब्लिक डोमेन’ यानी सार्वजनिक है।
लेकिन बीजेपी प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि फोटो और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की फुटेज देखी गई और विदेशों से बुलाकर भी लोगों की गवाहियाँ ली गई, अब इस मामले में कुछ बचा नहीं है।
लेकिन जिलानी कहते हैं, ‘वो वीडियो इंटरनेट पर अब भी मौजूद हैं, जिनमें भारतीय जाता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद् और दूसरे हिंदू संगठन के नेता कारसेवकों को मस्जिद तोडऩे के लिए उकसाते हुए साफ दिख रहे हैं। उसमें कुछ नेताओं को माइक से घोषणा करते हुए साफ देखा जा सकता है जिनमें वो कह रहे हैं-एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो।’
जिलानी ने इस पर भी आश्चर्य व्यक्त किया कि सार्वजनिक तौर पर मौजूद सबूतों को कोई अदालत कैसे अनदेखा कर सकती है?
उनका तर्क है कि जिनकी गवाही अदालत के रिकॉर्ड में दर्ज हैं, वो उस वक्त अयोध्या में तैनात वरिष्ठ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं। इसके अलावा जो उस वक्त ये पूरा माजरा रिपोर्ट कर रहे थे वो पत्रकार भी गवाह हैं। वो कहते हैं, ‘इन गवाहों ने जो बयान दिए, उन पर अदालत ने भरोसा नहीं किया। फैसला बताता है कि अदालत ने गवाहों की बात को तरजीह नहीं दी। तो क्या ये सभी गवाह झूठ बोल रहे थे? अगर ऐसा है तो फिर अदालत न इन सब पर कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की?’
फैजान मुस्तफा कहते हैं, ‘बीजेपी और शिवसेना के नेताओं के उस वक्त के भाषण उपलब्ध हैं। तब जो धर्म संसद आयोजित हो रही थीं, उनमें दिए नारे देखे जा सकते हैं।
जो कारसेवक उस दिन आए थे, वो कुल्हाड़ी, फावड़ों और रस्सियों से लैस थे। इससे साफ जाहिर होता है कि ये षडय़ंत्र था।’
भडक़ाऊ नारे, हथियारों से लैस कारसेवक
प्रोफेसर मुस्तफा कहते हैं कि इतने बड़े अपराध के लिए किसी को दोषी न पाया जाना देश की कानून व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘इससे यही लगता है कि सीबीआई अपना काम ठीक से नहीं कर पाई क्योंकि इतने ऑडियो, वीडियो साक्ष्य और 350 से ज़्यादा प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों के बावजूद ठोस सबूत ना मिल पाने की बात समझ नहीं आती।’
प्रोफेसर मुस्तफा के मुताबिक जांच एजेंसी और अभियोजन पक्ष का अलग-अलग और स्वायत्त होना जरूरी है। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय ने 6 दिसंबर 1992 की घटना और उस दौरान पैदा हुए माहौल पर किताब भी लिखी है।
बीबीसी के साथ एक खास बातचीत में उनका कहना था कि वर्ष 1989 में ही विश्व हिंदू परिषद ने अदालत के समक्ष स्पष्ट कर दिया था कि वो वहाँ मौजूद मस्जिद के ढांचे को तोडक़र मंदिर का निर्माण करना चाहता है। विश्व हिंदू परिषद का इरादा साफ था।
मुखोपाध्याय कहते हैं कि ये सिर्फ एक दिन की बात या सिर्फ एक घटना नहीं थी जो अचानक 6 दिसंबर 1992 को घटित हुई।
वो कहते हैं, ‘इसकी तैयारी काफी लंबे समय से चल रही थी और ये पूरी तरह से नियोजित थी। इसके सत्यापन के लिए बहुत सारे सबूत अख़बारों की करतनों और पत्रिकाओं की रिपोर्टों में मौजूद हैं। सब कुछ ‘डॉक्यूमेंटेड’ है और सार्वजनिक भी है। इतने बरसों तक जो हिंदू संगठनों ने अभियान चलाया था उसका असली मकसद ही था कि बाबरी मस्जिद के मौजूदा ढाँचे को तोडक़र वहाँ मंदिर बनाया जाए।
उनका कहना था कि लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा का भी यही मकसद था।
लेकिन बीजेपी प्रवक्ता जफर इस्लाम के मुताबिक अदालत में सबूतों के आधार पर ही सच सामने आया और इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की सरकार के दौरान बीजेपी नेताओं को फँसाने के लिए विध्वंस के बारे में एक भ्रम पैदा किया था।
सीबीआई की विशेष अदालत ने अपने फैसले में साफ किया कि जो आरोपपत्र अभियोजन पक्ष की तरफ से दायर किया गया उसमें कहीं से भी ये बात साबित नहीं होती है कि नामजद अभियुक्तों ने लोगों को उकसाया या दंगे जैसे हालात पैदा किए।
विशेष अदालत ने ये भी पाया कि 6 दिसंबर 1992 को दोपहर में कारसेवक अचानक बेकाबू हो गए और वो नाकेबंदी तो तोड़ते हुए बाबरी मस्जिद पर चढ़ गए थे, जबकि विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल उन्हें ऐसा करने से मना कर रहे थे।
अदालत का ये भी मानना है कि कारसेवकों के बीच कुछ आपराधिक तत्व थे जिन्होंने इस कार्य को अंज़ाम दिया क्योंकि अगर वो राम भक्त होते तो अशोक सिंघल की बात सुनते जो बार-बार कह रहे थे कि उस विवादित जगह पर मूर्तियाँ भी हैं।
वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ‘कानून में षडय़ंत्र एक ऐसी चीज होती है जिसे साबित करना आसान नहीं होता है। इसमें सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि यह परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर होता है। वहाँ अंजू गुप्ता जो आईपीएस हैं, उनकी और कई अन्य लोगों की गवाही थी जिनकी सत्यनिष्ठा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।’
‘दूसरा, अगर कहीं भीड़ इक_ी होती है और कोई गैर-कानूनी काम करती है तो आईपीसी के सेक्शन 149 के मुताबिक, भीड़ के लोग एक-दूसरे के कार्यों के लिए जिम्मेदार होते हैं। यह तो स्थापित तथ्य है कि बाबरी मस्जिद थी और गिराई गई। ऐसे में कानून के हिसाब से उन लोगों की जिम्मेदारी बनती है।’
विरोधाभास
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सेवानिवृत जस्टिस एमएस लिब्राहन के नेतृत्व में एक जांच आयोग का गठन किया था जिसने 17 वर्षों के बाद साल 2009 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी।
आयोग ने कुल 100 गवाहों के बयान दर्ज किए और अपनी रिपोर्ट में लाल कृष्णआडवाणी, कलराज मिश्रा, मुरली मनोहर जोशी सहित 68 लोगों की दंगा फैलाने और बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने में अहम भूमिका की बात कही।
जस्टिस एमएस लिब्राहन ने बीबीसी संवाददाता अरविंद छाबड़ा से कहा कि आयोग की जांच में आपराधिक षड्यंत्र और बाबरी मस्जिद के ढांचे को तोड़े जाने में जिन लोगों की अहम भूमिका थी उनके ख़िलाफ़ सुबूत भी रखे गए थे।
जस्टिस लिब्राहन कहना है कि आयोग की रिपोर्ट और सीबीआई की विशेष अदालत के फैसले में भी काफ़ी विरोधाभास है। (bbc.com/hind)
अनिल अश्विनी शर्मा व विक्रांत भट्ट
आम उपभोक्ता अपनी जरूरत के हिसाब से प्याज खरीदता है, लेकिन उत्पादन एक साथ टनों में होता है, जिसे व्यापारी किसान से खरीद लेते हैं और फिर अपनी कीमतों पर आगे बेचते हैं।
सरकार द्वारा प्याज के निर्यात प्रतिबंध पर देशभर के किसानों की कड़ी प्रतिक्रिया हुई है। विशेष रूप से इस साल (2020) जब किसान पहले से ही लॉकडाउन के कारण पीडि़त थे, लेकिन निर्यात से उनके पास कुछ वापस आ रहा था तभी सरकार के इस कदम ने उन्हें भारी नुकसान उठाने पर मजबूर कर दिया। यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि बीते अगस्त माह में मौसम की चरम घटनाओं ने फसलों को नुकसान पहुंचाया है। इसका मतलब है कि भविष्य में किसानों को और नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना होगा। इन सभी मुद्दों पर डाउन टू अर्थ ने मध्य प्रदेश के कृषि विशेषज्ञ शिव कुमार शर्मा जो कि ‘कक्का जी’ के नाम से अधिक जाने जाते हैं, बातचीत की
प्रश्न-मध्य प्रदेश में प्याज की खेती करने वाले किसान किस प्रकार से प्रभावित हो रहे हैं?
कक्का जी- मध्य प्रदेश में प्याज की थोड़ी-थोड़ी खेती तो लगभग हर जिले में होती है। परंतु राज्य के मालवा और निमाड़ के कुछ जिलों में यह बहुत बड़ी मात्रा में होता है। प्याज की खेती यदि रेट सही रहे तो मुनाफे की होती है। प्याज की खेती में लागत बहुत ज्यादा है। मौसम का बहुत ज्यादा इस पर प्रभाव होता नहीं है। परंतु जब प्याज पर फूल आ रहे हो और ओले गिर जाए तो फसल नष्ट हो जाती है।
प्रश्न- प्याज उत्पादक किसानों की सबसे बड़ी समस्या कब होती है?
कक्का जी- प्याज उत्पादक किसानों की सबसे बड़ी समस्या तब होती है जब प्याज पैदा होकर उनके घर आता है। उसका स्टोरेज कैसे हो ये विडंबना है कि जितने बजट में प्रदेश में 400 से 500 स्टोरेज डेवलप हो जाते उतनी राशि का प्याज तो सडक़र बर्बाद हो चुका होता है। जब दबाव बनता है तो सरकार प्याज खरीद लेती है लेकिन वह पर्याप्त स्टोरेज के अभाव में नष्ट हो जाता है। उसकी सफाई में बहुत खर्च होता है और यह क्रम जारी है जो शिवराज सिंह चैहान के कार्यकाल में सबसे ज्यादा हुआ है।
प्याज के बड़े व्यापारी किस प्रकार प्याज का रेट बढ़ाते हैं?
कक्का जी- आम तौर पर घरों में प्याज की खपत थोड़ी-थोड़ी मात्रा में हर रोज होती है और उसके उपभोक्ता जरूरत के अनुसार कम मात्रा में ही उसे क्रय करते हैं। जबकि प्याज का उत्पादन टनों में होता है। तब बड़े-बड़े व्यापारी उसको खरीद लेते हैं और वो प्याज को अपने दाम पर खरीदते हैं। तो रेट को कम कर देते हैं। दो रूपए किलो तक की प्याज बिकी है मप्र में। सीजन में पूरे देश में प्याज एक साथ आता है। बहुत मात्रा में उत्पादन आता है तो फिर व्यापारी उसका भाव गिरा देता हैं, इस कम कीमत का एक बड़ा कारण है और फिर बीच मौसम में वे आढ़तियों को छोटे व्यापारियों को अपने दाम पर देते रहते हैं तो किसान को तो उसका भाव नहीं मिल पाता है और बढ़ा हुआ भाव मिलता है प्याज का स्टोर करने वालों को।
प्रश्न-हाल ही में केंद्र सरकार ने प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है, इसका क्या प्रभाव होगा?
कक्का जी- निर्यात पर जो प्रतिबंध लगाया गया है, उससे कीमतें गिर जाएंगी और किसानों को उनका सही दाम नहीं मिल पाएगा। आयात- निर्यात पर इनका सही नियंत्रण है ही नहीं। इसके पूर्व भी पिछले कार्यकाल में कपास के निर्यात पर 18 बार प्रतिबंध लगाया था, जिससे उसकी कीमते 25 प्रतिषत रह गई थी। खाड़ी देशों में मसूर की दाल की बहुत डिमांड रहती है, उस पर प्रतिबंध लगाया जिससे उसकी कीमतें गिर गईं थी। ऐसा ही आयात के मामलों में भी हो रहा है। जो पैदावार हमारे यहां हो रही है उसे आयात किया जाएगा तो भी किसानों को उससे हानि ही होगी। आयात- निर्यात सही अनुपात में सामंजस्या होना चाहिए।
प्रश्न- प्याज को लाभ की खेती बनाने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?
कक्का जी-प्याज को मुनाफे की खेती बनाने के लिए सरकार को पर्याप्त स्टोरेज की व्यवस्था करनी होगी। जितने बजट में सैकड़ों स्टोरेज की व्यवस्था हो जाती है।(downtoearth.org.in/hindistor)
-राम यादव
आज विश्व शाकाहार दिवस है. अब तक दुनिया कम से कम इस बात के लिए भारतीयों को विस्मयभरे सम्मान की दृष्टि से देखती थी कि वे शाकाहारी होते हैं, ज़िंदा रहने के लिए किसी जीव की जान नहीं लेते. किंतु अब, विशेषकर पश्चिमी जगत को, इस बात से हैरानी हो रही है कि भारतीय भी मांसाहार के मोहजाल में फंसते जा रहे हैं. मांस खाने को वे आधुनिकता, संपन्नता और अपना आहार चुनने की स्वतंत्रता से जोड़ने लगे हैं. यहां तक कि वे अपनी ‘गऊमाता’ के मांसभक्षण में भी अब कोई दोष नहीं देखना चाहते!
पिछले कुछ वर्षों में हुए सर्वे यही बताते हैं कि भारत का एक शाकाहारी देश होना मिथक बनता जा रहा है. ‘राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ऑफ़िस’ (एनएसएसओ) के 2011-12 के आंकड़े दिखाते हैं कि उस समय भारत में करीब आठ करोड़ लोग, यानि औसतन हर 13 में से एक भारतीय, गोमांस या भैंस का मांस भी खा रहा था. इन आठ करोड़ लोगों में सात प्रतिशत सवर्णों सहित सवा करोड़ हिंदू थे. लेकिन बाद के वर्षो में हुए तीन बड़े सरकारी सर्वे कहते हैं कि भारत में शाकाहारियों का अनुपात अब केवल 23 से 37 प्रतिशत के बीच रह गया है. यानी, देश में मांसाहारियों का अब भारी बहुमत हो गया है.
हिंदू अब सबसे बड़ा मांसाहारी समुदाय
अमेरिका में रहने वाले मानवशास्त्री बालमुरली नटराजन और भारत में उनके अर्थशास्त्री सहयोगी सूरज जैकब का एक अध्ययन कहता है कि 23 से 37 प्रतिशत वाला अनुपात भी ‘सांस्कृतिक-राजनैतिक दबाव’ के कारण बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है. अप्रैल 2018 में प्रकाशित इस अधअययन के मुताबिक सच्चाई यह है कि केवल 20 प्रतिशत भारतीय अब शाकाहारी हैं. हिंदू अब सबसे बड़ा मांसाहारी वर्ग बन गये हैं. यही नहीं, 18 करोड़, यानी क़रीब 15 प्रतिशत भारतीय गोमांसभक्षी हैं – सरकारी दावे की अपेक्षा 96 प्रतिशत अधिक! भारतीय लोगों के स्वास्थ्य के बारे में अपने एक विश्लेषण में ‘इंडिया-स्पेन्ड’ का कहना है कि 80 प्रतिशत भारतीय पुरुषों और 70 प्रतिशत महिलाओं को यदि हर सप्ताह नहीं, तब भी बार-बार किसी न किसी मांसाहार का चस्का लगने लगा है.
पिछले कुछ ही वर्षों में भारत में शाकाहार की अपेक्षा कहीं महंगे मांसाहार के प्रति तेज़ी से बढ़ रहे इस मोह से संकेत मिलता है कि आलोचक कुछ भी कहें, भाजपा के शासनकाल में जनसाधारण की आय निश्चित रूप से बढ़ी है. आय के साथ संपन्नता में वृद्धि सराहनीय तो है, पर साथ ही शाकाहार पर मांसाहार के बढ़ते हुए वर्चस्व को लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा के लिए तेज़ी से बढ़ते हुए ख़तरे के रूप में भी देखने की आवश्यकता है. इसे समझने के लिए हमें विज्ञान में हुई नई खोजों और उन पश्चिमी देशों के अनुभवों पर नज़र डालनी होगी, जहां के लोग अपने स्वास्थ्य और पर्यावरण के प्रति चिंता के कारण मांसाहार से दूर हटने लगे हैं.
जर्मनी में 10 प्रतिशत लोग शाकाहारी बन गये
सवा आठ करोड़ की आबादी वाला जर्मनी जनसंख्या की दृष्टि से यूरोप का सबसे बड़ा और संपन्नता की दृष्टि से भी एक सबसे अग्रणी देश है. यूरोप में सर्वोच्च जीवनस्तर वाले देशों के एक सर्वे में वह 2016 में तीसरे नंबर पर था. पूरी तरह मांसाहारी संस्कृति और परंपरा वाले जर्मनी में अब कम से कम 10 प्रतिशत लोग पूरी तरह शाकाहारी बन गये हैं. कुछ तो इतने विशुद्ध या कट्टर शाकाहारी बन गये हैं कि वे दूध-दही-मक्खन जैसी उस हर चीज़ से परहेज़ करते हैं, जो पशुओं या मधुमक्खियों जैसे जीव-जंतुओं से मिलती है.
ऐसे कठोर निरामिषों के लिए 1944 में अंग्रेज़ी में ‘वीगन’ नाम का एक नया शब्द गढ़ा गया था. इस बीच जर्मनी ही नहीं, अनेक पश्चिमी देशों में भी फैल रहे ‘वीगन-वाद’ को, जनसाधारण के खान-पान की आदतों में परिवर्तन लाने की एक ऐसी नयी विचारधारा भी कहा जा सकता है, जो शाकाहार को भी पूर्णतः अहिंसक बनाने के आंदोलन का रूप लेने लगी है. सुपर बाज़ारों में ‘वीगन-वादियों’ के लिए अलग से स्टैंड बनने लगे हैं और उनके लिए विशेष रेस्त्रां भी खुलने लगे हैं.
मांसाहार के पक्ष में तर्क
मांसाहार के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि हमारा शरीर पशु-पक्षियों के मांस के रूप में वह सब लगभग बना-बनाया पाता है, जो उसे अपनी ऊर्जा और शारीरिक विकास के लिए चाहिये. यह मांस उस जैविक संरचना से बहुत मिलता-जुलता है, जो हमारे शरीर की अपनी जैविक संरचना भी है, जबकि पेड़-पौधों की जैविक संरचना बहुत भिन्न प्रकार की होती है. मांस में अनेक प्रकार के अमीनो ऐसिड (अमीनो अम्ल), अनसैचुरेटेड फ़ैटी ऐसिड (असंतृप्त वसा अम्ल) ), विटामिन बी वर्ग के कई विटामिन और लौह (आयरन), जस्ते (ज़िंक) जैसे अनेक खनिज तत्व भी होते हैं जो हमारे शरीर के लिए बहुत आवश्यक हैं. हमारा 20 प्रतिशत शरीर प्रोटीन से बना होता है और प्रोटीन अमीनो ऐसिड से बनता है.
मांस और मानव शरीर में जैविक समानता
यह भी कहा जाता है कि मांस में इन सभी चीज़ों का घनत्व वनस्पतियों की अपेक्षा कहीं अधिक होता है. हमारा शरीर जैविक संरचना में काफ़ी समानता के कारण जिस सीमा तक मांसाहार को पचा कर सोख लेता है, उसी सीमा तक वह शाकाहार को पचा कर सोख नहीं कर पाता. इस संदर्भ में एक आम उदाहरण यह दिया जाता है कि 100 ग्राम गोमांस में आधा मिलीग्राम लोहा होता है, जबकि लोहे की इसी सूक्ष्म मात्रा को पाने के लिए हमें 700 ग्राम पालक खाना होगा. हमारे शरीर का 70 प्रतिशत लोहा लाल रक्तकणों और हीमोग्लोबिन तथा मांसपेशियों की मायोग्लोबीन कोशिकाओं में रहता है.
यब बात सच है कि हमारी आंतें किसी मांस में निहित 20 प्रतिशत तक लोहा सोख लेती हैं, जबकि दालों और अनाज़ों में निहित लोहे की वे केवल तीन से आठ प्रतिशत मात्रा ही सोख पाती हैं. लेकिन इस मात्रा को भोजन के साथ ऐसे फल आदि खाने से बढ़ाया जा सकता है, जिनमें विटामिन सी की अधिकता हो. यानी, लोहे के लिए मांस खाना ज़रूरत कम, बहाना अधिक है.
शाकाहार में भी सभी विकल्प उपलब्ध
मांसाहार के कुछ फायदों के बावजूद जर्मनी के आहार-विशेषज्ञों की संस्था ‘डीजीई’ की सलाह है कि वयस्कों को एक सप्ताह में 600 ग्राम से अधिक मांस नहीं खाना चाहिये. इस संस्था के आहार वैज्ञानिक मार्कुस केलर कहते हैं, ‘वास्तव में समझबूझ के साथ जुटाये गये शाकाहार से भी सभी आवश्यक पोषक तत्व मिल सकते हैं. उदाहरण के लिए उनमें उच्च रक्तचाप और रक्तवसा (कोलेस्ट्रोल) को घटाने वाले और पाचनक्रिया पर अनुकूल प्रभाव डालने वाले ऐसे माध्यमिक (सेकेंडरी) पदार्थ भी हो सकते हैं, जो केवल शाकाहार में ही संभव हैं.’
‘डीजीई’ के विशेषज्ञों का कहना है कि शाकाहार में भी उन विटामिनों और सूक्ष्म मात्रा वाले खनिज तत्वों के विकल्प उपलब्ध हैं, जिन्हें मांसाहार की विशेषता बताया जाता है. उदाहरण के लिए पालक में लोहा ही नहीं कैल्शियम भी होता है. यही कैल्शियम करमसाग (अंग्रेज़ी में केल) और बथुआ (अरूगुला) में भी होता है. दालों से भी लोहे की सारी कमी पूरी की जा सकती है. आयोडीन के लिए आयोडीन वाला नमक लिया जा सकता है. जस्ता (ज़िंक) मिलेगा गेहूं और जौ के चोकरदार आटे तथा कुम्हड़े (कद्दू) के बीज में. विटामिन बी2 और विटामिन डी मशरूम (खुमी, कुकुरमुत्ता) में मिलता है.
अमेरिका और यूरोप में हुए अध्ययन
अमेरिका में हारवर्ड विश्वविद्यालय के महामारी विशेषज्ञों ने 12 लाख लोगों पर हुए 20 अध्ययनों का विश्लेषण किया. 2012 में उन्होंने बताया कि गाय, भैंस, भेड़, बकरी और सूअर जैसे जानवरों के लाल रंग के मांस (रेड मीट) को य़दि औद्योगिक ढंग से प्रसंस्कृत (प्रॉसेस) किया गया है, तो ऐसे मांस की प्रतिदिन केवल 50 ग्राम मात्रा भी हृदयरोगों की संभावना 42 प्रतिशत और मधुमेह (डायबिटीज) की संभावना 19 प्रतिशत बढ़ा देती है. अनुमान है कि ऐसा संभवतः नमक, नाइट्रेट और उन अन्य पदार्थों के कारण होता है, जो प्रसंस्करण के दौरान मांस में मिलाये जाते हैं.
यूरोप में पांच लाख से अधिक लोगों के बीच एक दीर्घकालिक अध्ययन में पाया गया कि जो लोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी इत्यादि वाले ‘प्रोसेस्ड रेड मीट’ के बजाय घर में पकाये गये सादे ‘रेड मीट’ के रसिया हैं, वे भी अपने आप को सुरक्षित नहीं मान सकते. उन्हें आंत का कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है. ‘ यूरोपियन पर्स्पेक्टिव इनवेस्टिगेशन इनटू कैंसर’ (यूरोपीय कैंसर संभावना जांच/ ईपीआईसी) नाम के इस अध्ययन में पाया गया कि जो लोग प्रतिदिन 100 ग्राम ‘रेड मीट’ खाते हैं, उनके लिए आंत का कैंसर होने का ख़तरा 49 प्रतिशत तक बढ़ जाता है.
शाकाहारी प्रायः दीर्घजीवी होते हैं
जर्मनी के गीसन विश्वविद्यालय, हाइडेलबेर्ग के परमाणु शोध संस्थान और जर्मन स्वास्थ्य कार्यालय ने 1980 वाले दशक में शाकाहार के लाभ-हानि के बारे में एक-दूसरे से अलग तीन बड़े अध्ययन किये. वे यह देख कर चकित रह गये कि शाकाहारियों का रक्तचाप और शारीरिक वज़न बहुत अनुकूल पाया गया. उन्हें कैंसर और हृदयरोग होने की संभवना बहुत कम थी और उनके दीर्घजीवी होने की संभावना उतनी ही अधिक.
लंदन के ‘स्कूल ऑफ़ हाइजिन ऐन्ड ट्रॉपिकल मेडिसिन’ ने भी 11 हज़ार शाकाहारियों के साथ 12 वर्षों तक चला एक ऐसा ही अध्ययन किया. इन शाकाहारियों की तुलना एक ऐसे ग्रुप के लोगों से की गयी, जो मांसाहारी थे, पर उनका रहन-सहन और सामाजिक दर्जा शाकाहारियों जैसा ही था. इस अध्ययन के परिणाम भी, 1980 वाले दशक में जर्मनी में हुए, ऊपर वर्णित परिणामों जैसे ही निकले.
शाकाहारियों की मृत्यु दर मांसाहारियों से कम
लंदन के शोधकर्ताओं ने पाया कि शाकाहारियों में रक्तचाप, रक्तवसा (कोलेस्ट्रोल) और यूरिक ऐसिड (मूत्राम्ल) का स्तर मांसाहारियों से बेहतर निकला. उनके हृदय और गुर्दे मांसाहारियों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ थे. शाकाहारियों के बीच मृत्यु दर मांसाहारियों की तुलना मे 20 प्रतिशत कम और कैंसर होने के मामले 40 प्रतिशत कम देखे गये. अध्ययनकर्ताओं ने यह भी कहा कि अध्ययन में शामिल शाकाहरियों में विटामिन, प्रोटीन या खनिज तत्वों जैसी किसी भी महत्वपूर्ण चीज़ का अभाव नहीं था. उनका स्वास्थ्य औसत से कहीं बेहतर था.
अमेरिका का राष्ट्रीय कैंसर संस्थान (एनसीआई) हाल ही में इस नतीजे पर पहुंचा है कि मांसाहार कैंसर, हृदयरोगों, सांस की बीमारियों, लकवे (ब्रेनस्ट्रोक), मधुमेह (डायबेटीस) , अल्त्सहाइमर (विस्मृति रोग), यकृत (लीवर) और गुर्दे (किडनी) की बीमारियों जैसी कम से कम नौ प्रकार की बीमारियों का कारण बन सकता है.
पाचनतंत्र के बैक्टीरियाओं में अंतर
अमेरिका की ही ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क’ के शोधकर्ताओं को सामान्य शाकाहारियों और ‘वीगन’ कहलाने वाले परम शाकाहारियों के पाचनतंत्र की आंतों में, मांसाहारियों की आंतों की अपेक्षा, ऐसे बैक्टीरिया अधिक मात्रा में मिले, जो आंतों को सुरक्षा प्रदान करते हैं. हमारे शरीर के पाचनतंत्र में एक किलो से कुछ अधिक ही विभिन्न प्रकार के ऐसे सूक्षम जीवाणु भी होते हैं, जो भोजन को पचाने में सहायक बनते हैं. उनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जो प्रकिण्वन क्रिया (फ़र्मन्टेशन) लायक फलों या अन्य खाद्यपदार्थों को गला कर विटामिन बी12 भी बना सकते हैं. यह एक ऐसा विटामिन है, जो अन्यथा केवल मांस में ही मिलता है.
कई दूसरे अध्ययनों से यह बात बार-बार सिद्ध हो चुकी है कि मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारियों को उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत होने तथा गुर्दे (किडनी) या पित्ताशय (गालब्लैडर) में पथरी बनने की संभावना कम होती है.
एक ऐसी भी खोज है, जो विचित्र और अविश्वसनीय भले ही लगे, पर सच हैः चेक गणराज्य में प्राग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने जानना चाहा कि शाकाहारी और मांसाहारी महिलाओं तथा पुरुषों के शरीर की गंध में भी क्या कोई अंतर होता है. उन्होने पाया कि अंतर होता है. शाकाहारी पुरुषों- महिलाओं के शरीर की ही नहीं, उनके पसीने की गंध भी मांसाहारी पुरुषों- महिलाओं की अपेक्षा सुखद होती है! मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में देखा गया कि शाकाहरियों का हृदय अपेक्षाकृत जल्दी द्रवित होता है और मांसाहारियों में हिंसाभाव कुछ ज़्यादा ही होता है.
संतुलित शाकाहारी भोजन
सवाल उठता है कि क्या अच्छे स्वास्थ्य और लंबे जीवनकाल के लिए शाकाहारी होना ही पर्याप्त है? पश्चिमी देशों के डॉक्टरों और आहार विशेषज्ञों का कहना है कि मात्र शाकाहारी भोजन ही सब कुछ नहीं है. अच्छे स्वास्थ्य के लिए संतुलित शाकाहारी भोजन होना चाहिये.
संतुलित शाकाहारी भोजन का अर्थ है, भोजन में दाल-चावल, साग-सब्ज़ी और रोटी ही नहीं, अदल-बदल कर दूध-दही, फल-फूल, कंदमूल इत्यादि का भी स्थान होना चाहिये. इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि किस खाद्यपदार्थ में कौन-सा विटामिन है, कितना प्रोटीन है और कौन-सा खनिज तत्व किस चीज़ से मिलेगा. उदाहरण के लिए दालों से सबसे अधिक प्रोटीन, फलों और सब्ज़ियों से सबसे अधिक विटामिन और सूखे मेवों से सैचुरेटेड फैट मिलते है. प्रोटीन की औसत दैनिक आवश्यकता 50 ग्राम के बराबर बतायी जाती है, जो दालों से आसानी से पूरी की जा सकती है.
यह भी देखना चाहिये कि किस चीज़ को किस तरह पकाया जाये कि उसके विटामिन, प्रोटीन इत्यादि बने रहें, नष्ट न हों. काली चाय, कॉफ़ी और चॉकलेट से बचना तथा प्याज़ और लहसुन का अधिक उपयोग नहीं करना चाहिये, क्योंकि ये चीज़ें लोहे के अवशोषण में बाधा डालती हैं. शाकाहारी होने के साथ-साथ सिगरेट और शराब जैसी चीज़ों से दूर रहना, खुली हवा में चलना-फिरना और थोड़ा-बहुत व्यायाम करना भी अच्छे स्वास्थ्य और लंबी आयु के लिए ज़रूरी है.
मांसाहार संसाधनों की बर्बादी है
मांसाहारियों की भूख मिटाने के लिए जुगाली करने वाले जिन पशुओं को पाला जाता है, वास्तव में वे सब घास-पात खाने वाले शाकाहारी पशु हैं. वे अपने शरीर में अधिकांशतः उन्हीं शाकाहारी चीज़ों को मांस में बदलते हैं, जिन्हें अंशतः हम भी खाते हैं. यानी हम और अधिक ऊर्जा, श्रम, संसाधन और समय लगा कर मांस के रूप में मिल-मिलाकर वही चीज़ें खा रहे होते हैं, जिन्हें इस सारे झमेले के बिना, शाकाहार के रूप में, सीधे-सीधे भी खा सकते थे. यह ऊर्जा और संसाधनों की बर्बादी नहीं तो और क्या है?
मांस देने वाले पशुओं को कम से कम समय में अधिक से अधिक बड़ा और मोटा-तगड़ा करने के लिए तरह-तरह के हॉर्मोन और एन्टीबायॉटिक दवाएं भी दी जाती हैं. उनके मांस के साथ इन दवाओं का कुछ न कुछ अंश मांस खाने वाले के शरीर में भी पहुंचता है और कई बार वह भी किसी बीमारी या शारीरिक विकृति का कारण बनता है.
मांस में हॉर्मोन और दवाएं
जर्मनी के अधिकारियों का मानना है कि जर्मन पशुपालक अपने सूअरों को प्रतिवर्ष औसतन छह बार तथा गायों-बछड़ों व अन्य दुधारु पशुओं को दो बार एन्टीबायॉटिक दवाएं देते हैं. हर मुर्गे-मुर्गी को भी काटने का दिन आने तक औसतन दो बार यही दवाएं दी जाती हैं. ‘जर्मन पर्यावरण और प्रकृतिरक्षा संघ’ का मानना है कि जर्मनी के पशुपालक, देश के अस्पतालों की अपेक्षा, 40 गुना अधिक एन्टीबायॉटिक दवाएं खपाते हैं. इन दवाओं का एक बड़ा अंश घूमफिर कर मांसाहारियों के पेट में ही पहुंचता होगा! यही स्थिति अन्य पश्चिमी देशों में भी है.
हो सकता है कि भारत की गायों-भैंसों को ऐसी दवाएं न दी जाती हों. पर, चारे के नाम पर जो गाय-बकरियां कूड़ा-करकट खाती दिखती हैं, क्या उस कूड़े के हानिकारक पदार्थ मांस के साथ मांसभक्षियों के पेट में नहीं पहुंचते होंगे? वे कैंसर जैसी बीमारियों का कारण नहीं बनते होंगे? कूड़ा-करकट खाने वाले पशुओं को स्वयं भी तो कैंसर जैसी बीमारियां हो सकती हैं, जिनका बाहर से देखने पर पता नहीं चले, पर जो उनका मांस खाने वालों को भी बीमार कर सकती हैं. अफ्रीकी देशों में अत्यंत प्रणघातक ‘इबोला’ ओर ‘हांटा’ वायरस वाले रोग तथा अन्य देशों में आतंक फैला चुकी ‘बर्ड फ्लू’ और ‘श्वाइन फ्लू’ जैसी महामारियां पशुओं को होने वाली या उनके शरीर में छिपी बीमारियों के ऐसे ही भयावह उदाहरण हैं.
जलवायु और पर्यावरण को क्षति
मांसाहार की मांग बढ़ने से न केवल बीमारियां बढ़ती हैं, जलवायु और पर्यावरण को पहले से ही पहुंच रही क्षति में भी भारी बढ़ोतरी होती है. विशेषकर गोमांस-भक्षियों को सोचना चाहिये कि गायें-भैंसें केवल घास-फूस खाकर ही नहीं जीतीं. उन्हें चारे के रूप में गेहूं, मकई, जौ इत्यादि उन अनाजों के दाने भी खिलाने पड़ते हैं, जो शाकाहारी भोजन का भी हिस्सा हैं.
पर्यावरणरक्षक संस्था ‘वर्ल्ड वाइल्डलाइफ़ फ़न्ड’ (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ़) ने, उदाहरण के लिए, यूरोपीय गायों के बारे में हिसाब लगाया है कि उनमें एक किलो मांस बनने में कई-कई किलो चारा और 15,455 लीटर पानी लग जाता है. ‘वर्चुअल वॉटर’ (परोक्ष पानी) या ‘वॉटर फुटप्रिन्ट’ (जल-पदचिन्ह) कहलाने वाला यह पानी चारे को उगाने, गायों को पिलाने, उनकी और गौशाला की साफ़-सफ़ाई करने जैसे उन अनेक कामों के रूप में ख़र्च होता है, जो मांस में दिखाई नहीं पड़ता. वधशाला में कटने तक हर गाय औसतन 1,300 किलो अनाज और 7,200 किलो भूसा इत्यादि खा चुकी होती है. कटने तक हर गाय ने औसतन 24 घनमीटर पानी पीया होता है और सात घनमीटर पानी गौशाला में उसे बांधने की जगह को साफ़ करने पर ख़र्च हो चुका होता है.
भूगर्भीय पेयजल प्रदूषित होता है
गायों पर ख़र्च हुए पानी का अधिकांश भाग ग़ंदा पानी बन कर ज़मीन में रिसता और भूगर्भीय पेयजल को प्रदूषित करता है. गायों को दी गयी दवाओं का एक बड़ा हिस्सा भी उनके मल-मूत्र के साथ भूगर्भीय पानी में मिश्रित होता है. यूरोप के अधिकांश शहरों में पेयजल की आपूर्ति का मुख्य स्रोत भूगर्भीय जल ही है. जो कुछ गायों के बारे में सच है, भारत के संदर्भ में वह भैंसों के बारे में भी सच होना चाहिये. पश्चिमी देशों में भैंसें नहीं पाली जातीं.
गायों को इतना अधिक चारा चाहिये कि यूरोप में उस चारे का एक बड़ा हिस्सा अफ्रीका ओर लैटिन अमेरिका के देशों से आयात किया जाता है. इन देशों में और स्वयं यूरोप में भी चारे को उगाने के लिए वनों की कटाई होती है. इससे न केवल कार्बन डाईऑक्साइड को बांधने वाले पेड़ घट रहे हैं, वनों की ह्युमस मिट्टी में बंधा कार्बन डाईऑक्साइड भी हवा में मुक्त हो कर वैश्विक तापमान बढ़ा रहा है. यह सारी बातें यूरोप-अमेरिका जितनी न सही, तब भी संसार का सबसे बड़ा पशुपालक देश होने के नाते भारत में भी तो हो रही होंगी!
गायें मीथेन गैस उत्सर्जित करती हैं
‘वर्ल्ड वाइल्डलाइफ़ फ़न्ड’ का यह भी कहना है कि हर गाय हर दिन 200 लीटर मीथेन गैस उत्सर्जित करती है. मीथेन की तापमान बढ़ाने की क्षमता कार्बन डाईऑक्साइड की अपेक्षा 25 गुना ज्यादा होती है. दूसरे शब्दों में, हर गाय हर दिन अपनी मीथेन गैस द्वारा जलवायु को जो नुकसान पहुंचा रही है, वह किसी छोटी कार द्वारा पूरे साल में 18,000 किलोमीटर चलने से निकले धुएं से हुए नुकसान के बराबर है.
जर्मनी के संघीय पर्यावरणरक्षा कार्यालय ने 2016 की अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि मांस के लिए पशुपालन ही जर्मनी में मीथेन गैस और डाईनाइट्रस-मोनो ऑक्साइड के उत्सर्जन का मुख्य स्रोत है. रिपोर्ट के अनुसार, एक किलो गोमांस बनने की प्रक्रिया में 7 से 28 किलो तक तापमानवर्धक गैसें उत्सर्जित होती हैं, जबकि एक किलो फल या साग-सब्ज़ियां पैदा करने से एक किलो से भी कम ऐसी गैसें बनती हैं. तब भी, बिक्रीकर में रियायत के रूप में मांस को जर्मनी में जो मूल्यसमर्थन मिल रहा है, वह 57 अरब यूरो है. ध्यान देने की बात यह है कि यह रियायत जर्मनी के रक्षाबजट से भी 20 अरब यूरो अधिक है!
इसी प्रकार की एक दूसरी तुलना यह है कि पृथ्वी पर हम अपने भोजन के द्वारा जो तापमानवर्धक गैसें पैदा करते हैं, उनकी 70 प्रतिशत मात्रा के लिए मांसाहारी और केवल 30 प्रतिशत के लिए शाकाहारी खाद्यपदार्थ ज़िम्मेदार हैं. अकेले इसी अनुपात को उलट देने से न केवल अनेक बीमारियों से मुक्ति मिल सकती है, तापमान बढ़ाने वाली गैसों के उत्सर्जन में प्रतिवर्ष अरबों टन की कमी भी लायी जा सकती है.
सभी लोग शाकाहारी बन जायें, तब क्या होगा?
ब्रिटेन में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के डॉ. मार्को स्प्रिंगमैन वैश्विक आहार रूझानों के सबसे जाने-माने शोधकों में से एक हैं. उनका कहना है कि लोगों की आय बढ़ने, शहरीकरण और वैश्वीकरण के कारण विकासशील देशों के लोगों का खान-पान मांसाहारी पश्चिमी देशों जैसा ही बनता जायेगा. इससे विश्व के आहारतंत्र को भविष्य में भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. लेकिन दुनिया के सभी लोग यदि मांसाहार त्याग दें, तो परिणाम चमत्कारिक होंगे!
मार्को स्प्रिंगमैन की टीम ने पाया कि तब 2050 आने तक हर वर्ष 73 लाख मौतें कम हो जायेंगी. वैश्विक मृत्युदर सात प्रतिशत घट जायेगी. ऐसा इसलिए, क्योंकि जो लोग मांस के बदले फल-फूल और सब्ज़ियां खा कर जीते हैं, उन्हें मोटापे की शिकायत और हृदयरोग काफ़ी कम होते हैं. खाद्य पदार्थों के उत्पादन के कारण इस समय जितनी तापमानवर्धक गैसें वायुमंडल में पहुच रही हैं, सब के शाकहारी बन जाने से उनकी मात्रा भी दो-तिहाई कम हो जायेगी. 70 प्रतिशत पानी की भी बचत होगी. पृथ्वी पर रहना-जीना आज की अपेक्षा काफ़ी सुखद बन जायेगा.
मांसाहार के अंत से पैसे की भारी बचत
मार्को स्प्रिंगमैन की टीम ने हिसाब लगाया कि मांसाहार का अंत हो जाने से स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले ख़र्च और जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसानों में 2050 तक इतनी कमी आ जायेगी कि पूरे विश्व में हर साल कुल मिला कर डेढ़ खरब डॉलर की बचत हो सकती है. अकेले स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले ख़र्च में ही जो कमी आयेगी, वह 2050 के लिए अनुमानित सभी देशों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को जोड़ देने से प्राप्त धनराशि के तीन प्रतिशत के बराबर होगी.
इन वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि अगर दुनिया मांसाहार छोड़ कर 2050 तक शाकाहारी बन सके, तो 20 अरब मुर्गे-मुर्गियों, डेढ़ अरब गायों, एक-एक अरब भेड़ों और सुअरों की न तो जान लेनी पड़ेगी और न इन सब को रखने-पालने की ज़रूरत रह जायेगी. इस समय इन सभी जानवरों को रखने-पालने से तीन करोड़ 30 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के बराबर ज़़मीन फंसी हुई है. अकेले यह ज़मीन ही, जिस पर फिर पेड़ लगाकर तापमानवर्धक गैसों की मात्रा को और अधिक घटाया जा कता है, पूरे अफ्रीका महाद्वीप के क्षेत्रफल के बराबर है, चरागाहों की ज़मीन इसमें शामिल नहीं है.
जलवायु को बचाना है, तो मांसाहार का संहार हो
संयुक्त राष्ट्र कृषि संगठन ‘एफ़एओ’ का भी यही मानना है कि यदि शाकारहार के बदले मांसाहार का वर्चस्व बना रहा, तो विश्व की बढ़ रही जनसंख्या की आहार समस्या 2050 तक और भी विकराल हो जायेगी. जिन के पास पैसा होगा, वे मांस खा-खा कर मोटे और बीमार होंगे, और जिनके पास पैसा नहीं होगा वे कुपोषण के शिकार होंगे.
हमारा खान-पान ही जलवायु बदलने वाले उस उत्सर्जन के आधे हिस्से के लिए ज़िम्मेदार होगा, जो वैश्विक तापमान को दो डिग्री से अधिक बढ़ने से रोकने की सीमारेखा है. यानी, जलवायु को बचाना है, तो मांसाहार का संहार करना होगा. मांसाहार का विकल्प शाकाहार है, पर जलवायु का कोई विकल्प नहीं है. जलवायु साथ नहीं देगी, तो मांस हेतु पशुपालन के लिए चारा-पानी जुटाना भी दूभर हो जायेगा.
हर साल 30 करोड़ टन मांस की डकार
इस समय संसार भर के मांसाहारी हर साल 30 करोड़ टन मांस डकार जाते हैं. आशंका यही है कि यह अकल्पनीय मात्रा घटने की जगह बढ़ते हुए, 2050 तक, 50 करोड़ टन हो जायेगी. इसके लिए जिन पशुओं को पहले पाला और फिर काटा जायेगा, उनके चारे के लिए अकेले सोयाबीन की विश्वव्यापी उपज को दोगुना कर देना पड़ेगा. अकेले सोयाबीन की खेती के लिए और अधिक भूमि, और अधिक पानी तथा और अधिक खादों की ज़रूरत पड़ेगी. यह साब खा कर मांस देने वाले पशु और अधिक तापमानवर्धक गैसें हवा में फैलायेंगे.
जब भीषण गर्मी से लोग कराहेंगे, आंधी-पानी के साथ बाढ़ आयेगी या भीषण सूखा पड़ेगा, तब कोई मांसाहारी याद नहीं करेगा कि इसमें उसके अपने पेट में गये चिकन, मटन या गोमांस का कितना अनावश्यक योगदान है! वह बड़े गर्व के साथ और संभवतः मुंहफट हो कर बॉलीवुड अभिनेता ऋषि कपूर की तरह यही कहेगा कि ‘मैं क्या खाता हूं, यह मेरा निजी मामला है. दूसरों को इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिये.’ दूसरों को, यानी शाकाहारियों को, इससे बेशक कोई मतलब नहीं होता, यदि उन पर भी बढ़े हुए तापमान और उन्मत्त मौसम की मार नहीं पड़ती. कार चलाने वाले भी यही सोचते हैं कि कार चलाना उनका स्वतंत्र निर्णय व निजी अधिकार है. पर उनकी कार से निकले धुंए की मार उन सब लोगों के फेफड़ों पर भी पड़ती है, जिन्हें बिना-कार स्वच्छ हवा में जीने का जन्मसिद्ध अधिकार है. (satyagrah)
-संदीप दुबे
हम सबने पढ़ा है कि स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए भारत आने से पहले मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका में वकील थे। लाला लाजपत राय से लेकर जवाहरलाल नेहरू जैसे कई स्वतंत्रता सेनानियों का यही पेशा था। ये पेशा उस शख्स के लिए अनफिट लगता था, लेकिन तमाम विरोधाभासों के बावजूद गांधी एक वकील थे, जिन्होंने अपनी जिंदगी के 20 साल कोर्ट में बिताए थे और फिर निराश होकर सबकुछ छोड़ दिया था।
उदाहरण के लिए उस लीजेंड की बात करते हैं, जो भारतीय वकीलों के आदर्श थे- फिरोजशाह मेहता। ‘बंबई का शेर’ नाम से मशहूर ये शख्स भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में एक था। एक प्रभावशाली वक्ता होने के अलावा एविडेंस एक्ट का गहरा जानकार था। उन्हें पुराने केस जुबानी याद रहते थे। खुद गांधी ने उनकी प्रतिभा के बारे में कहा था, कि इतनी बुद्धिमत्ता उनमें नहीं है।
भारतीय कानून व्यवस्था की विरोधात्मक, भौतिक (सिविल मामलों में), भावनाओं या आध्यात्मिकता रहित प्रकृति उनकी उस सोच के विपरीत थी, जो अक्सर आज़ादी की लड़ाई में उनकी भूमिका और उनके लेखन में झलकती थी।
बॉम्बे में कम समय के लिए बैरिस्टर
आप कितनी भी तहकीकात कर लें, लेकिन लंदन के इन्नर टेम्पर के बैरिस्टर एमके गांधी को यहां जजों के सामने दलीलें पेश करने के उदाहरण नहीं पाएंगे। इसका मतलब ये नहीं कि वो कोर्ट में नजर नहीं आते थे।
आत्मकथा में गांधी ने खुद लिखा था- ‘बॉम्बे में मैं रोजाना हाई कोर्ट जाता था। लेकिन मैं ये दावा नहीं कर सकता कि वहां मुझे कुछ सीखने को मिला। वहां का माहौल मेरी समझ से परे था। अक्सर मैं केस के प्रति उदासीन रहकर झपकियां लेता था। चूंकि कई दूसरे लोग भी झपकियां लेते थे, लिहाजा मुझे झपकी लेने में शर्म कम आती थी। कुछ समय बाद शर्म आनी बिलकुल बंद हो गई। मैं सोचने लगा कि हाई कोर्ट में झपकी लेना फैशन का हिस्सा है।’
वो लंदन में एक बैरिस्टर के रूप में विकसित की गई अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करने के लिए बॉम्बे आए थे। लेकिन जब तक बॉम्बे में रहे, हाईकोर्ट में एक भी मुकदमे की पैरवी करने में नाकाम रहे (अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि उन्होंने छह महीने तक प्रैक्टिस की। रामचंद्र गुहा के मुताबिक वो नवम्बर 1891 से सितम्बर 1892 तक वहां थे)। एक मामूली केस में अपीयर होने पर उन्हें शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी, जब वो विरोधी पार्टी को क्रॉस एग्जामिन नहीं कर पाए थे।
आत्मकथा में उनके कुछेक संस्मरणों से साफ है कि बॉम्बे कोर्ट में एक बैरिस्टर के रूप में वो पूरी तरह नाकाम थे। खुद को भारतीय कानून के अनुरूप ढालने के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया लेकिन जिस आध्यात्मिक झुकाव के कारण उन्हें लंदन में बैरिस्टर की पढ़ाई करते हुए एक लेखक के रूप में कुछ कामयाबी मिली थी, वो यहां किसी काम न आई।
फिर भी बॉम्बे में गांधी का बिताया समय उस शख्सियत के निर्माण में अहम भूमिका निभाता रहा, जिस शख्सियत ने पूरी दुनिया को हैरत में डाल दिया। अगर आपके सामने गांधी शब्द बोला जाए, तो मुमकिन है कि एकबारगी आपके जेहन में हाथ में डंडा लिये लोगों की अगुवाई करते दांडी यात्रा करने वाले शख्स की तस्वीर उभरे।
बॉम्बे में अपनी आर्थिक हालत को देखते हुए उन्होंने पैदल चलने की आदत विकसित कर ली। ये संघर्ष कर रहे एक बैरिस्टर के लिए भी जरूरी था और उनके मुताबिक स्वस्थ रहने और बढ़ती उम्र और कमजोरी के बावजूद दांडी यात्रा जैसे आंदोलन करने के लिए भी।
राजकोट में टर्निंग प्वाइंट
बॉम्बे में नाकाम रहने के बाद गांधी को राजकोट वापस लौटना पड़ा। यहां अपने भाई (वकील) की मदद से उन्हें कुछ सफलता हासिल हुई। यहां वो सिविल मामलों में याचिकाकर्ताओं के लिए मैटर ड्राफ्ट करते थे, हालांकि अदालतों में बहस करना अब भी उनके लिए दूर की कौड़ी थी।
अपनी आत्मकथा में वो राजकोट में सामने आई एक परेशानी का जिक्र करते हैं। उनके भाई लक्ष्मीदास पोरबंदर के शासक के सत्तासीन होने से पहले उनके सचिव और सलाहकार थे। उसी दौरान उनपर गलत सलाह देने का आरोप लगा।
गांधी ने लिखा कि रियासत का ये मामला ब्रिटिश ‘पॉलिटिकल एजेंट’ के पास गया। जब वो एजेंट लंदन में था, तभी वहां एमके गांधी का उससे परिचय हो चुका था। लिहाजा लक्ष्मीदास ने गांधी को उनके पास अपनी पैरवी के लिए भेजा।
एजेंट गांधी से मुलाकात के लिए तो तैयार हो गया, लेकिन पूर्व परिचित होने का उन्हें फायदा नहीं मिला और एजेंट ने गांधी को जाने के लिए कह दिया। इसके बावजूद जब उन्होंने अपने भाई की पैरवी जारी रखी, तो एजेंट ने अपने चपरासी को बुलाकर उन्हें अपने कमरे से बाहर निकलवा दिया। गांधी ने अपमानित महसूस किया और नाराज होकर उस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करने की धमकी दी।
खुद फिरोजशाह मेहता ने उन्हें ऐसा करने से रोका। उन्होंने चेतावनी दी कि उनकी नाराजगी से उन्हें कोई फायदा नहीं मिलेगा, अलबत्ता वो खुद बर्बाद हो जाएंगे। ‘उससे कहो कि उसे अब भी जिंदगी की समझ विकसित करना बाकी है।’ ये मेहता की सलाह थी।
इससे गांधी की जिंदगी में दो बदलाव आए। दोनों बदलावों का असर आजादी की लड़ाई में दिखा। इनमें पहला था दार्शनिक अहसास- ‘वो सलाह मेरे लिए जहर के समान तीखी थी, लेकिन मुझे उसे स्वीकार करना पड़ा। मैं अपमान का वो घूंट पी गया, लेकिन इससे मुझे फायदा भी हुआ। मैंने स्वयं से कहा, ‘मैं कभी खुद को ऐसी गलत स्थिति में नहीं डालूंगा। कभी इस प्रकार अपनी दोस्ती का फायदा उठाने की कोशिश नहीं करूंगा।’ और तब से मैंने इस सोच का पालन किया। उस झटके ने मेरा जीवन बदल दिया।’
कड़वी सच्चाई और उससे पनपी सोच ने गांधी को असहज बना दिया। उन्हें लगा कि काठियावाड़ जैसी साजिश और भेदभाव वाली जगह में वकालत करना मुश्किल है। ऐसी हालत में इंसाफ मिलना नामुमकिन है। उन्होंने सोचा, बेहतर है कि भारत छोड़ा जाए और दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में नया अनुभव प्राप्त किया जाए।
ट्रान्सवाल (दक्षिण अफ्रीका) में सच्चाई और एकता
बॉम्बे और राजकोट में हुई घटनाओं का समय जो भी रहा हो, सच्चाई ये थी कि गांधी का मन भारत से ऊब चुका था और वो एक मौके की तलाश में थे। इसकी वजह रामचन्द्र गुहा अपनी किताब ‘भारत से पहले गांधी’ में लिखते हैं, जिसका मतलब है, ‘राजनीतिक साजिशों से दूर रहकर कुछ धन कमाना मकसद था।’
बॉम्बे और राजकोट में हुई घटनाओं का समय जो भी रहा हो, सच्चाई ये थी कि गांधी का मन भारत से ऊब चुका था और वो एक मौके की तलाश में थे। इसकी वजह रामचन्द्र गुहा अपनी किताब ‘भारत से पहले गांधी? में लिखते हैं, जिसका मतलब है, ‘राजनीतिक साजिशों से दूर रहकर कुछ धन कमाना मकसद था।’
वहां क्या हुआ, इसकी काफी कुछ जानकारी हमें है। लेकिन कम ही लोगों को मालूम है कि जिस कानूनी मामले के कारण उन्हें दक्षिण अफ्रीका का रुख करना पड़ा, उस मामले का उनके वकालत के तौर-तरीकों को प्रभावित करने और आजादी की लड़ाई की भूमिका तैयार करने में अहम योगदान था।
गांधी के पैतृक घर पोरबंदर में एक मुस्लिम कारोबारी समुदाय में आपसी मतभेद हो गया। इनकी शाखाएं नाताल और ट्रांसवाल में भी थीं। दादा अब्दुल्ला ने अपने चचेरे भाई तय्यब हाजी खान मोहम्मद पर 40,000 पाउंड का दावा ठोका था, जो उनके चचेरे भाई ने कर्ज लिये थे।
गांधी को इस मामले में हाथ डालने का मौका मिलने की वजह थी कि अब्दुल्ला के रिकॉर्ड गुजराती में लिखे थे। गांधी को गुजराती भाषा मालूम थी और उन्होंने लंदन से बैरिस्ट्री की पढ़ाई की थी। लिहाजा वो कोर्ट में अब्दुल्ला का केस लडऩे वाले अंग्रेज वकीलों की भाषा की परेशानी दूर कर सकते थे। 24 मई 1893 को वो डरबन पहुंचे और वहां से प्रिटोरिया गए, जहां इस मामले की सुनवाई चल रही थी।
इसी यात्रा के दौरान उन्हें नस्लीय भेदभाव करते हुए दो बार ट्रेन से निकाल बाहर किया गया। तीसरी बार भी टिकट होने के बावजूद उन्हें फस्र्ट क्लास कम्पार्टमेंट में नहीं बैठने दिया गया। ये घटनाएं अब मशहूर हैं।
गांधी के मुताबिक इस केस के लिए प्रिटोरिया में बिताया गया समय ‘उनकी जिंदगी का सबसे कीमती अनुभव था।’ इस दौरान उन्होंने सार्वजनिक काम, अपना आध्यात्मिक विकास और मन मुताबिक काम करने का आत्मविश्वास विकसित करना सीखा। ये बातें भविष्य में उनकी जिंदगी में काफी महत्त्वपूर्ण साबित हुईं।
इस केस से उन्हें तथ्यों की कीमत और सच को समझने का अहसास हुआ। ‘तथ्यों का अर्थ है सच्चाई। और जब हम सच का रास्ता अपनाते हैं तो कानून खुद हमारी मदद करता है।’ ये उन्होंने लिखा था। वकालत के पेशे के लिए उन्होंने इसी सोच को आधार बनाया। वो सच के पुजारी के रूप में मशहूर हुए। यहां तक कि वो बीच में ही मुकदमा छोड़ देते थे, अगर उन्हें महसूस होता था कि उनका मुवक्किल झूठ बोल रहा है।
ये बताने की जरूरत नहीं कि सच के प्रति यही प्रेम भविष्य में उनका विचार दर्शन और आजादी की लड़ाई में ‘सत्याग्रह’ नामक हथियार बना।
गांधी ने सच का अनुभव करने के लिए दादा अब्दुल्ला केस के अलावा आम जिंदगी में भी विवादों को हल करने के तरीकों में बदलाव किया। कोर्ट में केस लडऩे में ज्यादा समय और खर्च लगता था। लिहाजा गांधी ने सोचा कि मध्यस्थता के जरिये मामले को हल करना ज्यादा बेहतर है। अब्दुल्ला को लगा कि तय्यब इसके लिए तैयार नहीं होंगे।
लेकिन गांधी ने तय्यब से मुलाकात की और उनकी आत्मकथा के मुताबिक उन्हें मध्यस्थता के लिए तैयार कर लिया। ये पहली बार था, जब उन्होंने बातचीत और समझौता का रास्ता अपनाया था। उनके तमाम आंदोलनों में यही सोच हावी रही। बाद में जब अब्दुल्ला केस जीत गए तो गांधी ने उन्हें इस बात के लिए भी तैयार कर लिया कि उनके चचेरे भाई आसान किस्तों में उन्हें कर्ज अदा करेंगे।
मेरी खुशी का ठिकाना न था। मैंने वास्तव में वकालत करना सीख लिया था। मैंने इंसानी फितरत के बेहतर पहलू को समझा था और लोगों के दिलों में पैठना सीख लिया था। मुझे अहसास हुआ कि वकील का असली काम अलग-अलग पक्षों को तोडऩा नहीं, जोडऩा है। ये सबक मेरे दिल में इतना गहरा पैठ गया कि बीस सालों तक वकालत का ज्यादातर समय मैंने सैकड़ों मामलों को आपसी बातचीत और समझौतों के जरिये सुलझाने में बिताए। इस काम में मुझे बिलकुल हानि नहीं हुई। न धन की और न आत्मा की।
बाकी इतिहास है...
केस खत्म होने के बाद गांधी को स्वदेश लौटना था। उनके सम्मान में दादा अब्दुल्ला ने डिनर का आयोजन किया था। इसी दौरान नाताल विधानसभा में पेश हुए विधेयक की बात चली, जिसमें भारतीयों को चुनावों में वोट डालने पर रोक लगाने की पेशकश की गई थी। गांधी से रुककर इस भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में सहयोग देने को कहा गया। इस मामले ने उनके भीतर सार्वजनिक हितों के प्रति दिलचस्पी और रुझान पैदा किया और उन्होंने सहयोग देना स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार ईश्वर ने दक्षिण अफ्रीका में मेरी जिंदगी की बुनियाद रखी और मेरे भीतर राष्ट्रीय आत्मसम्मान के लिए लडऩे के बीज बोए।
बॉम्बे, राजकोट और प्रिटोरिया में सीखे गए सबक को गांधी ने जिंदगीभर अपनाया।
जोहानिसबर्ग के एम्पायर थियेटर में एमके गांधी (बीच में) और भारतीय समुदाय के दूसरे सदस्यों ने भेदभाव के नियमों का विरोध प्रदर्शन
जोहानिसबर्ग के एम्पायर थियेटर में एमके गांधी और भारतीय समुदाय के दूसरे सदस्यों ने भेदभाव के नियमों का विरोध किया। उन्होंने शिक्षकों, छात्रों, मजदूरों पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा चाहने वाले परिवारों का प्रतिनिधित्व किया। इसके अलावा व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के लिए भी केस लड़े। उदहरण के लिए जब मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आने पर अपनी टोपी उतारने को कहा गया, तो उन्होंने ये कहते हुए इसका विरोध किया कि हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है। जबकि वो खुद मजिस्ट्रेट के आने पर अपनी टोपी सिर से उतारते थे।
एक महान वक्ता या मशहूर वकील के रूप में कभी उनकी पहचान नहीं बनी। लेकिन नाताल बार के एक प्रमुख वकील के रूप में उन्होंने अपनी साख बना ली थी। हालांकि बॉम्बे में दूसरी बार खुद को स्थापित करने की उनकी कोशिश फिर नाकाम रही। वो फिर दक्षिण अफ्रीका लौटे जहां उनकी जोरदार वापसी हुई। रामचंद्र गुहा लिखते हैं, ‘वो सभी भारतीयों के वकील थे, चाहे वो किसी भी जाति, वर्ग, धर्म या पेशे से जुड़ा हो।’
ये उस शख्स के लिए बिलकुल सही प्रशिक्षण था, जिसने भविष्य में सभी भारतीयों के लिए लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
(लेखक-हाईकोर्ट अधिवक्ता एवं अध्यक्ष प्रदेश कांग्रेस कमिटी विधि विभाग)
अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मास इंडेक्स निर्धारित मानक से ज्यादा होता है तो वो शरीर के लिए सही नहीं माना जाता है।
- DTE Staff
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की संस्था आईसीएमआर-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन ने देश में महिला और पुरुष के लिए आदर्श वजन और आदर्श लंबाई में बदलाव किया है। यानी कि देश का बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) बदल गया है।
बीएमआई से यह पता लगाया जाता है कि किसी व्यक्ति के शरीर के हिसाब से उसका वजन और लंबाई कितनी होनी चाहिए। अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मास इंडेक्स निर्धारित मानक से ज्यादा होता है तो वो शरीर के लिए सही नहीं माना जाता है।
नए नियमों के मुताबिक, अब तक पुरुष का आदर्श वजन 60 किलोग्राम था, जिसे अब बढ़ा कर 65 किलोग्राम कर दिया गया है। जबकि महिलाओं का आदर्श वजन अब 50 की बजाय 55 किलोग्राम माना जाएगा।
वहीं, पुरुषों की आदर्श लंबाई 5 फुट 6 इंच से बढ़ाकर 5 फुट 8 इंच कर दी गई है, जबकि महिलाओं की आदर्श लंबाई 5 फुट की बजाय अब 5 फुट 3 इंच मानी जाएगी।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन (एनआईएन) ने "न्यूट्रिएंट रिक्वायरमेंट फॉर इंडियंस, रिकमंडेड डायटरी अलाउंसेस" रिपोर्ट जारी की है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 1989 की विशेषज्ञ कमेटी ने शरीर के आदर्श वजन और लंबाई के बारे में कमेटी ने सिफारिश वक्त केवल बच्चों और किशोरों का ही वजन और लंबाई को शामिल किया गया था और जब 2010 में दूसरी कमेटी देश के केवल 10 राज्यों को ही शामिल किया था।
एनआईएन ने महिलाओं और पुरुषों की रेफरेंस एज में भी बदलाव किया है। यह अब तक 20-39 थी, इसे अब 19-39 कर दिया गया है।
बीएमआई में बदलाव का कारण बताया गया है, क्योंकि भारतीयों के पोषक खाद्य तत्वों के सेवन में वृद्धि हुई है। इस बार जो सर्वे किया गया है, उसमें ग्रामीणों को भी शामिल किया गया है। 2010 में किए गए सर्वे में केवल शहरी क्षेत्रों को ही शामिल किया गया था।
इस नए सर्वे में वैज्ञानिकों के पैनल ने पूरे देश का डाटा शामिल किया है। साथ ही, फाइबर आधारित एनर्जी पोषक तत्वों का भी ध्यान रखा गया है।
शहरी वयस्कों में वसा की मात्रा अधिक
एक दूसरी रिपोर्ट में एनआईएन ने कहा है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में रह रहे वयस्क लोग गांवों की तुलना में अधिक वसा (फेट) का सेवन कर रहे हैं।
"व्हाट इंडिया इट्स" यानी कि भारत क्या खाता है नाम के इस सर्वेक्षण में पाया गया कि शहरी भारत का एक वयस्क औसतन एक दिन में 51.6 ग्राम वसा का सेवन करता है। जबकि ग्रामीण क्षेत्र में रह रहा एक वयस्क औसतन केवल 36 ग्राम वसा का सेवन करता है।
इस रिपोर्ट में वसा को दो समूहों में वर्गीकृत किया गया है। एक, दृश्यमान (दिखाई देने वाले) या इसे अतिरिक्त वसा भी है। इसमें श्रेणी में ऐसा तेल और वसा होता है, जो भोजन तैयार करने के लिए उपयोग किया जाता है या तले हुए भोजन में उपयोग किया जाता है और मांस और मुर्गी से प्राप्त वसा भी शामिल होती है। दूसरी श्रेणी अदृश्य वसा है, जिसमें चावल, दाल, नट और तिलहन से वसा या तेल शामिल हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, शहरी वयस्कों के खाने में दृश्यमान वसा की मात्रा 29.5 ग्राम है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे वयस्कों के खाने में दृश्यमान वसा की मात्रा 16.5 ग्राम है। सरकारी सिफारिश के अनुसार, कुल वसा या तेल में दृश्यमान वसा की मात्रा 50 फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए, जबकि बाकी वसा की मात्रा बादाम, तिलहन और दालों से मिलनी चाहिए, जिसे अदृश्य वसा की श्रेणी में रखा जाता है।(downtoearth)
आम उपभोक्ता अपनी जरूरत के हिसाब से प्याज खरीदता है, लेकिन उत्पादन एक साथ टनों में होता है, जिसे व्यापारी किसान से खरीद लेते हैं और फिर अपनी कीमतों पर आगे बेचते हैं
अनिल अश्विनी शर्मा व विक्रांत भट्ट
सरकार द्वारा प्याज के निर्यात प्रतिबंध पर देशभर के किसानों की कड़ी प्रतिक्रिया हुई है। विशेष रूप से इस साल (2020) जब किसान पहले से ही लॉकडाउन के कारण पीड़ित थे, लेकिन निर्यात से उनके पास कुछ वापस आ रहा था तभी सरकार के इस कदम ने उन्हें भारी नुकसान उठाने पर मजबूर कर दिया। यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि बीते अगस्त माह में मौसम की चरम घटनाओं ने फसलों को नुकसान पहुंचाया है। इसका मतलब है कि भविष्य में किसानों को और नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना होगा। इन सभी मुद्दों पर डाउन टू अर्थ ने मध्य प्रदेश के कृषि विशेषज्ञ शिव कुमार शर्मा जो कि “कक्का जी” के नाम से अधिक जाने जाते हैं, बातचीत की
प्रश्न-मध्य प्रदेश में प्याज की खेती करने वाले किसान किस प्रकार से प्रभावित हो रहे हैं?
कक्का जी- मध्य प्रदेश में प्याज की थोड़ी-थोड़ी खेती तो लगभग हर जिले में होती है। परंतु राज्य के मालवा और निमाड़ के कुछ जिलों में यह बहुत बड़ी मात्रा में होता है। प्याज की खेती यदि रेट सही रहे तो मुनाफे की होती है। प्याज की खेती में लागत बहुत ज्यादा है। मौसम का बहुत ज्यादा इस पर प्रभाव होता नहीं है। परंतु जब प्याज पर फूल आ रहे हो और ओले गिर जाए तो फसल नष्ट हो जाती है।
प्रश्न- प्याज उत्पादक किसानों की सबसे बड़ी समस्या कब होती है?
कक्का जी- प्याज उत्पादक किसानों की सबसे बड़ी समस्या तब होती है जब प्याज पैदा होकर उनके घर आता है। उसका स्टोरेज कैसे हो ये विडंबना है कि जितने बजट में प्रदेश में 400 से 500 स्टोरेज डेवलप हो जाते उतनी राशि का प्याज तो सड़कर बर्बाद हो चुका होता है। जब दबाव बनता है तो सरकार प्याज खरीद लेती है लेकिन वह पर्याप्त स्टोरेज के अभाव में नष्ट हो जाता है। उसकी सफाई में बहुत खर्च होता है और यह क्रम जारी है जो शिवराज सिंह चैहान के कार्यकाल में सबसे ज्यादा हुआ है।
प्याज के बड़े व्यापारी किस प्रकार प्याज का रेट बढ़ाते हैं?
कक्का जी- आम तौर पर घरों में प्याज की खपत थोड़ी-थोड़ी मात्रा में हर रोज होती है और उसके उपभोक्ता जरूरत के अनुसार कम मात्रा में ही उसे क्रय करते हैं। जबकि प्याज का उत्पादन टनों में होता है। तब बड़े-बड़े व्यापारी उसको खरीद लेते हैं और वो प्याज को अपने दाम पर खरीदते हैं। तो रेट को कम कर देते हैं। दो रूपए किलो तक की प्याज बिकी है मप्र में। सीजन में पूरे देश में प्याज एक साथ आता है। बहुत मात्रा में उत्पादन आता है तो फिर व्यापारी उसका भाव गिरा देता हैं, इस कम कीमत का एक बड़ा कारण है और फिर बीच मौसम में वे आढ़तियों को छोटे व्यापारियों को अपने दाम पर देते रहते हैं तो किसान को तो उसका भाव नहीं मिल पाता है और बढ़ा हुआ भाव मिलता है प्याज का स्टोर करने वालों को।
प्रश्न-हाल ही में केंद्र सरकार ने प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है, इसका क्या प्रभाव होगा?
कक्का जी- निर्यात पर जो प्रतिबंध लगाया गया है, उससे कीमतें गिर जाएंगी और किसानों को उनका सही दाम नहीं मिल पाएगा। आयात- निर्यात पर इनका सही नियंत्रण है ही नहीं। इसके पूर्व भी पिछले कार्यकाल में कपास के निर्यात पर 18 बार प्रतिबंध लगाया था, जिससे उसकी कीमते 25 प्रतिषत रह गई थी। खाड़ी देशों में मसूर की दाल की बहुत डिमांड रहती है, उस पर प्रतिबंध लगाया जिससे उसकी कीमतें गिर गईं थी। ऐसा ही आयात के मामलों में भी हो रहा है। जो पैदावार हमारे यहां हो रही है उसे आयात किया जाएगा तो भी किसानों को उससे हानि ही होगी। आयात- निर्यात सही अनुपात में सामंजस्या होना चाहिए।
प्रश्न- प्याज को लाभ की खेती बनाने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?
कक्का जी-प्याज को मुनाफे की खेती बनाने के लिए सरकार को पर्याप्त स्टोरेज की व्यवस्था करनी होगी। जितने बजट में सैकड़ों स्टोरेज की व्यवस्था हो जाती है।(downtoearth)
एक स्वाभाविक रूप से बनने वाला एंजाइम, कोविड-19 का उपचार करने में सक्षम है।
- Dayanidhi
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, लॉस एंजेलिस (यूसीएलए) और चीन के शोधकर्ताओं ने पाया है कि उत्प्रेरित, एक स्वाभाविक रूप से बनने वाला एंजाइम, कोविड-19 का उपचार करने में सक्षम है। यह इसके लक्षणों के इलाज के लिए और शरीर के अंदर कोरोनोवायरस को बढ़ने से रोकता है। शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि यह सबसे कम लागत वाली चिकित्सीय दवा के रूप में सामने आया है।
एंटीऑक्सीडेंट एंजाइम क्या है
एंटीऑक्सीडेंट एंजाइम हमारे शरीर की कोशिका पर हमला करने वाले मुक्त कणों को स्थिर करने या निष्क्रिय करने का कार्य करते हैं। वे मुक्त कणों की ऊर्जा को कम करके या इसके उपयोग के लिए अपने कुछ इलेक्ट्रॉनों को छोड़ कर कार्य करते हैं, जिससे यह स्थिर हो जाता है। इसके अलावा, वे मुक्त कणों से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए ऑक्सीकरण श्रृंखला प्रतिक्रिया को रोक सकते हैं। मुक्त कण वे पदार्थ हैं जो हमारे शरीर में स्वाभाविक रूप से पाए जाते हैं। लेकिन ये हमारी कोशिकाओं में वसा, प्रोटीन और डीएनए पर हमला करते हैं, जिसके कारण विभिन्न प्रकार की बीमारियां हो सकती हैं।
कैटलसे नाम का एंजाइम प्राकृतिक रूप से निर्मित होता है और इसका उपयोग मनुष्यों, जानवरों और पौधों द्वारा किया जाता है। कोशिकाओं के अंदर, एंटीऑक्सिडेंट एंजाइम हाइड्रोजन पेरोक्साइड का टूटना शुरू करता है, जो पानी और ऑक्सीजन में मिलने पर जहरीला हो सकता है। इस एंजाइम का उपयोग दुनिया भर में आमतौर पर खाद्य उत्पादन और आहार सप्लीमेंट के रूप में किया जाता है।
यूसीएलए सैम्युअली स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग, केमिकल एंड बायोमोलेक्युलर इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और अध्ययनकर्ता यूंफ़ेंग लू ने कहा आजकल टीके और एंटीवायरल ड्रग्स पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है। हमारे शोध से पता चलता है कि यह एंजाइम हाइपरइन्फ्लेमेशन के इलाज के लिए एक बहुत प्रभावी चिकित्सीय समाधान पेश कर सकता है जो कि सार्स-सीओवी-2 वायरस के कारण होता है।
लू के समूह ने प्रयोगों में प्रयुक्त दवा-वितरण तकनीक विकसित की है। इसमें तीन प्रकार के परीक्षण किए गए, प्रत्येक में कोविड-19 के एक अलग लक्षण को लिया गया। यह अध्ययन एडवांस्ड मैटेरियल्स नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
सबसे पहले उन्होंने एंजाइम के उत्तेजक प्रभाव और साइटोकिन्स के उत्पादन को नियमित करने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया, यह एक प्रोटीन है जो सफेद रक्त कोशिकाओं में उत्पन्न होता है। साइटोकिन्स मानव प्रतिरक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, लेकिन वे शरीर की स्वयं की कोशिकाओं पर हमला करने के लिए प्रतिरक्षा प्रणाली को भी संकेत दे सकते हैं, उस स्थिति में जब ये बहुत सारे बन जाते हैं - एक तथाकथित 'साइटोकिन स्टॉर्म' जिसका कुछ रोगियों में कोविड-19 की जांच के समय पता चला है।
दूसरा, टीम ने दिखाया कि उत्प्रेरित वायुकोशीय कोशिकाओं की रक्षा कर सकती है, जो ऑक्सीकरण के कारण क्षति से मानव फेफड़ों की सुरक्षा करती है। अंत में प्रयोगों से पता चला कि सार्स-सीओवी-2 वायरस को दोहराने ओर बढ़ाने वाले को रोक देता है।
यूसीएलए के डेविड गेफेन स्कूल ऑफ मेडिसिन में रोगविज्ञानी और अध्ययनकर्ता डॉ ग्रेगरी फिशबीन ने कहा इस काम के कोविड-19 के उपचार से परे दूरगामी प्रभाव हैं। साइटोकिन स्टॉर्म एक घातक स्थिति है जो अन्य संक्रमणों को प्रभावित कर सकती है, जैसे कि इन्फ्लूएंजा, साथ ही गैर-संक्रामक परिस्थितियां, जैसे ऑटोइम्यून रोग आदि।(downtoearth)
दुनिया भर में करीब 140,000 पौधों की प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, जिसमें से 723 प्रजातियां दवाओं के निर्माण में बहुत माय
- Lalit Maurya
हाल ही में छपी रिपोर्ट 'स्टेट ऑफ द वर्ल्ड प्लांट्स एंड फंगी 2020' के अनुसार हर पांच में से 2 पौधों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। दुनिया भर में अब तक पौधों की करीब 3,50,000 प्रजातियों को खोजा जा चुका है। जिसमें से 3,25,000 फूल वाले पौधे हैं। इस हिसाब से दुनिया की करीब 140,000 पौधों की प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा है, जबकि 2016 में छपी रिपोर्ट के अनुसार 21 फीसदी पौधों पर ही विलुप्ति का खतरा था।
यह रिपोर्ट 42 देशों के 210 शोधकर्ताओं द्वारा किए गए शोध का नतीजा है। अनुमान है कि धरती पर फंगी की करीब 22 से 38 लाख प्रजातियां हैं। जिनमें से अब तक करीब 148,000 प्रजातियों का पता चल चुका है, जबकि इसके बावजूद अभी भी इसकी 90 फीसदी प्रजातियों को खोजा जाना बाकी है।
रॉयल बॉटैनिकल गार्डन, केव से जुड़े अलेक्जेंड्रे एन्टोनेली के अनुसार एक ओर जहां हर साल नए पौधों और कवकों की खोज हो रही है, वहीं दूसरी ओर इन पौधों पर विलुप्ति का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं जिन्हें समझना बहुत जरुरी है क्योंकि इस पर ही इन प्रजातियों का भविष्य निर्भर है।
उनके अनुसार जिस तरह से इन प्रजातियों पर खतरा बढ़ता जा रहा है, उसे देखते हुए त्वरंत कार्रवाई करने की जरुरत है। उनके अनुसार जिस तेजी से नई प्रजातियों को खोजा जा रहा है उससे कहीं अधिक तेजी से प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। इनमें से कई प्रजातियां तो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण हैं, जो वर्तमान और भविष्य में सामने आने वाली महामारियों की रोकथाम में अहम् भूमिका निभा सकती हैं।
7,000 से ज्यादा प्रजातियों को खाद्य पदार्थ के रूप में किया जा सकता है इस्तेमाल
रिपोर्ट से पता चला है कि मौजूदा पौधों की प्रजातियों का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही खाद्य पदार्थों और ईंधन के रूप में उपयोग किया जा रहा है। जबकि 7,000 से अधिक पौधे ऐसे हैं जिन्हें खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इसके बावजूद कुछ गिने-चुने पौधों का उपयोग बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए किया जा रहा है।
आज केवल छह फसलों - मक्का, गन्ना, सोयाबीन, ताड़, सफेद सरसों और गेहूं का प्रयोग ही जैव ईंधन बनाने के लिए किया जा रहा है। गौरतलब है कि इन पौधों से दुनिया के करीब 80 फीसदी बायोफ्यूल का निर्माण किया जाता है। जबकि करीब 2,500 पौधे ऐसे हैं, जिनका उपयोग ऊर्जा के क्षेत्र में किया जा सकता है।
दुनिया भर में लकड़ी का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है। अनुमान है कि उससे वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड का करीब 1.9 से 2.3 फीसदी हिस्सा उत्सर्जित हो रहा है। नेपाल और युगांडा जैसे देशों तो 90 फीसदी तक ऊर्जा की जरुरत के लिए इन जंगलों और उसकी लकड़ी पर ही निर्भर हैं। ऐसे में इन पौधों से उत्पन्न होने वाला बायोफ्यूल ऊर्जा सुरक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।
दुनिया भर में पौधों की करीब 25,791 प्रजातियों को दवा के उपयोग लायक माना गया है। जिसमें से 5,411 को आईयूसीएन ने संकटग्रस्त प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया है, जबकि रिपोर्ट के अनुसार उसमें से 13 फीसदी करीब 723 प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडराने लगा है। दवा के रूप में इन पौधों की कितनी उपयोगिता है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि 1981 से 2019 के बीच कैंसर के लिए स्वीकृत 185 दवाओं में से 65 फीसदी को प्राकृतिक उत्पादों से प्राप्त किया जाता है।
ऐसा नहीं है कि दुनिया भर में इन पौधों को बचाने की कवायद नहीं की जा रही है। आज दुनिया के 74 देशों के 350 बोटेनिक गार्डन्स में पौधों की करीब 57,051 प्रजातियों को संरक्षित करने के लिए सीड बैंक बनाए गए हैं, जोकि बीजों वाले पौधों का करीब 17 फीसदी हैं।
इसके बावजूद जिस तेजी से बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए कृषि क्षेत्रों का प्रसार किया जा रहा है उससे इन प्रजातियों पर खतरा बढ़ता जा रहा है। आईयूसीएन ने कृषि और मछली पालन को पौधों के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में वर्गीकृत किया है जबकि मनुष्यों द्वारा किए जा रहे निर्माण और विकास कार्यों को फंगी के लिए सबसे बड़ा खतरा माना है। ऐसे में इन प्रजातियों के संरक्षण के लिए हमारी जिम्मेवारी और बढ़ जाती है, क्योंकि इनके विनाश के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। इन पर न केवल मनुष्यों बल्कि सारी धरती का भविष्य टिका है। (downtoearth)
अंग्रेज 20वीं शताब्दी के आरंभिक दौर में विलायती कीकर को दिल्ली लाए और यह जंगल की आग की तरह फैल गया
- Rakesh Kalshian
जैसे-जैसे राष्ट्र अपनी सीमाओं पर सख्ती (कुछ मामलों में ठोस किलेबंदी) बरत रहे हैं, वैसे-वैसे अप्रवासियों के लिए मुश्किलें बढ़ रही हैं। हमारा यही जीनोफोबिया यानी विदेशियों को पसंद न करने का आचरण आक्रामक विदेशी प्रजातियों पर भी लागू होता है। इसी नजरिए का एक प्रतीकात्मक उदाहरण है हाल ही में दिल्ली सरकार द्वारा लिया गया एक निर्णय। दरअसल दिल्ली सरकार ने शहर के जंगलों से एक मजबूत पकड़ वाली दबंग प्रजाति विलायती कीकर (विदेशी बबूल) की पूरी तरह सफाई का निर्णय लिया है। पारिस्थितिकीविदों का कहना है कि यहां की देसी वनस्पतियों, खासकर अपनी ही देसी बिरादरी को दबाते हुए इसने राजधानी के लगातार घट रहे जंगलों के 80 प्रतिशत भाग पर एकाधिकार जमा लिया है।
वैज्ञानिक मानते हैं और निराशाजनक ढंग से उम्मीद करते हैं कि जंगलों से आक्रामक प्रजातियों की सफाई कर देने और विलुप्त हो गई मूल प्रजातियों को फिर से यहां लगा देने से जंगलों की व्यवस्था को नए सिरे से पुनर्जीवित किया जा सकेगा। जैसा कि विलायती कीकर या विलायती बबूल नाम से ही पता चलता है, यह मैक्सिको से आयातित पादप प्रजाति है, जहां इसे मेसकीट नाम से जाना जाता है। विज्ञानी इसे प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा के नाम से जानते हैं। यह प्रोसोपिस कुल की 44 ज्ञात प्रजातियों में से एक है। हजारों अन्य प्रजातियों की तरह यह भी ब्रिटिश साम्राज्य के सहारे दुनियाभर की विदेशी भूमि पर पसर गई। अंग्रेज 20वीं शताब्दी के आरंभिक दौर में ही इसे दिल्ली ले आए थे और यह जंगल की आग की तरह फैलती चली गई, क्योंकि यह सूखा जैसी त्रासद परिस्थितियों में भी अपना अस्तित्व बचा सकती थी। विडंबना यह कि इसके इसी गुण ने भूजलस्तर घटा दिया और यह कई देसी प्रजातियों के लिए जानलेवा साबित हुआ।
अब कोई विश्वासपूर्वक यह नहीं कह सकता कि इसको (विलायती कीकर) नायक माना जाए या खलनायक। 1970 के दशक में संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने इसे करिश्माई पेड़ कहा था, जो बड़ी तेजी से बढ़ रहे उप-सहाराई अफ्रीका के रेगिस्तान को पूरी मजबूती से रोक सकता था। शुरू में इसकी तारीफों को देखते हुए इसके आकर्षण से खुद को बचाया नहीं जा सकता था। मसलन, कई और चीजों के अलावा लोग इसका उपयोग जलावन लकड़ी के तौर पर कर सकते थे, यह नाइट्रोजन का स्तर स्थिर बनाए रखकर मिट्टी की गुणवत्ता को सुधार सकता था और पक्षी इसमें अपने बसेरे बना सकते थे। इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यह दो दशकों के भीतर ही भारत समेत दुनिया के कई सूखाग्रस्त क्षेत्रों के दृश्य पटल पर छा गया।
कई समुदायों के लिए यह व्यापार के साथ-साथ आजीविका का भी महत्वपूर्ण स्रोत बन गया। उदाहरण के लिए, भारत के राजस्थान और कच्छ जैसे सूखे क्षेत्रों में ग्रामीणों की जलावन लकड़ी का 75 प्रतिशत हिस्सा विलायती कीकर से आता है। भारत के तमिलनाडु और केन्या के कुछ भागों में कुछ उद्यमियों ने स्थानीय उद्योगों को कीकर की लकड़ी का चारकोल बेचकर एक नया लाभकारी व्यापार खड़ा कर लिया है। दक्षिण अफ्रीका में एक निजी कंपनी तो बबूल के बीजों को दवा के रूप में बेचकर मोटा मुनाफा कमा रही है। यह दवा रक्तशर्करा (ब्लड शुगर) के स्तर को स्थिर रखने के काम आने वाली बताई जाती है।
वैसे इसका यह अच्छा समय बहुत कम दिनों तक ही रहा। 2013 में अफ्रीका की विदेशी आक्रामक प्रजातियों पर आई पुस्तक में एक यूएनईपी (युनाइटेड नेशन एनवायरमेंट प्रोग्राम) के परामर्शदाता ने लिखा, “प्रोसोपिस की बहुप्रचारित प्रजातियां बहुत निर्मम रूप से आक्रामक आक्रांता में बदल चुकी हैं।” उसमें यह भी कहा गया कि यह प्रजाति जलस्तर को घटाकर और देसी प्रजातियों को नष्ट करके “नए हरे रेगिस्तान” तैयार कर रही हैं। असल में 2005 में एक केन्याई समुदाय ने खाद्य एवं कृषि संगठन तथा केन्या सरकार पर केन्या में बबूल लाने पर अभियोग चलाया था।
इसका नतीजा यह हुआ कि अभी तक जिसे “करिश्माई पेड़” कहा जा रहा था, वही अब “शैतानी वृक्ष” में बदल चुका था। अब दुनियाभर में इसे नष्ट करने का पागलपन छाया हुआ है। ऊहापोह भरे इस उलट-पुलट से कुछ बड़े तीखे सवाल उठते हैं। जैसे आखिर विदेशी आक्रामक प्रजातियों को हम कितना समझते हैं? पारिस्थितिकी तंत्र का जो नुकसान हो चुका है, क्या उसकी भरपाई हम अब किसी तरह से कर सकते हैं? विदेशी प्रजातियों के खतरनाक होने की धारणा अपेक्षाकृत नई है। 20वीं शताब्दी के आरंभ तक ज्यादातर संस्कृतियों के लिए ये विदेशी थे, लेकिन जब वैज्ञानिकों ने पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में ऐसी मशीन की तरह सोचना शुरू किया, जिसमें हर देसी प्रजाति एक अनूठे पुर्जे की तरह फिट थी, तब ये प्रजातियां शिकार, शिकारी, परजीवी या मुर्दाखोर की तरह पहचानी जाने लगी।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इसे इस तरह से बांध दिया गया कि कोई बाहरी प्रजाति आसानी से जगह नहीं बना सकती। इस तरह अगर एक विदेशी प्रजाति किसी अज्ञात पारिस्थितिकी तंत्र में अपना बसेरा बनाने का प्रयास करता है तो यह एक देसी प्रजाति को हमेशा के लिए बाहर कर देने जैसा है। इस परिप्रेक्ष्य से देखने पर सभी विदेशी प्रजातियां, जैसा कि विज्ञान लेखक फ्रेड पियर्स अपनी विचारोत्तेजक कृति “द न्यू वाइल्ड” में कहते हैं, “तब तक दोषी ही हैं, जब तक निर्दोष न सिद्ध हो जाएं”। पियर्स का यह सिद्धांत इस बात के लिए प्रेरित करता है कि परंपरागत रहवासों को विदेशी प्रजातियों से मुक्त कराया जाए और उन्हें फिर से पहले जैसा बना दिया जाए। इनमें से जिन कुछ प्रजातियों को नामजद किया जा सकता है वे हैं, गैलापगोस द्वीपों पर बकरियां, न्यूजीलैंड पर सभी शिकारी प्रजातियां और दक्षिण अफ्रीका में आक्रामक वृक्ष।
लेकिन विदेशियों को बुरी और देसी प्रजातियों को अच्छी बताने वाली इस रूढ़ि को खारिज भी किया जाने लगा है। मिथक यह है कि प्रकृति तब तक स्थिर और संतुलित ही रहती है जब तक कि मनुष्य उससे छेड़छाड़ न करे। प्रकृति की इस योजना में विदेशी अपने आप ही अवांछित तत्व में बदल जाते हैं। जबकि अलग मत रखने वाले लोग मानते हैं कि प्रकृति में संतुलन जैसी कोई चीज है ही नहीं और इसीलिए विदेशी प्रजातियों से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। वास्तव में वे प्रकृति के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
एक और पुराना मिथक यह भी है कि प्रकृति अपरिवर्तनीय है। लेकिन सच यह है कि जैसा कि ब्रिटिश लैंडस्केप इतिहासकार ऑलिवर रैकहम लिखते हैं, “लंबे समय से चल रही इंसानी गतिविधियों और प्राकृतिक हलचलों के कारण दुनिया के भूतल में बदलाव दिख रहा है। “एंथ्रोपोसीन युग में प्रकृति को इंसान से अलग करने वाली परंपरागत रेखा हमेशा के लिए धुंधली पड़ गई।
पोर्टो रीको में जिस तरह जंगल फिर से हरे भरे हो रहे हैं, वह एक बेहतरीन उदाहरण है। यहां कुछ कॉलोनी बनाने वालों ने स्थानीय लोगों की मदद से एक नया पारिस्थितिकी तंत्र विकसित किया है, जिसे आज की भाषा में लैंडस्केप्स कहा जाता है। हालांकि कई पाखंडी पारिस्थितिकी विज्ञानियों का मानना है कि ये नए पारिस्थितिकी तंत्र ही भविष्य के एंथ्रोपोसीन हैं।
विदेशी प्रजातियों पर नई सोच को देखते हुए विलायती कीकर को नष्ट करके दिल्ली के पारिस्थितिकी तंत्र के पुराने वैभव को लौटाने का सपना थोड़ा भ्रांति में डालता है। हालांकि हमें प्रकृति को अपनी आवश्यकताओं या सौंदर्यबोध या राजनीति के अनुकूल तैयार करना बिलकुल सही है, लेकिन हमें यह बात भी साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि जैसा कि पियर्स ने अपनी एक कृति में हमें चेताया था, “जब हम ऐसा करते हैं तो यह हमारे लिए होता है, न कि प्रकृति के लिए, जबकि प्रकृति की जरूरतें हमसे बहुत अलग हैं।”(downtoearth)
दिव्या आर्य
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के भूमि विवाद मामले में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील रहे जफरयाब जिलानी ने बीबीसी संवाददाता सलमान रावी से बातचीत में इस फैसले को गलत और क़ानून के विरुद्ध बताते हुए कहा कि उसके खिलाफ तय समय सीमा में हाई कोर्ट में अपील दाखिल की जाएगी।
सीबीआई की विशेष अदालत ने बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया है। जज सुरेंद्र कुमार यादव ने बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष उमा भारती, विश्व हिंदू परिषद की साध्वी ऋतंभरा समेत कुल 32 अभियुक्तों की भूमिका पर फैसला सुनाते हुए कहा कि, ‘ये घटना पूर्व नियोजित नहीं थी।’
28 साल लंबी अदालती कार्रवाई के दौरान 17 अभियुक्तों की मौत हो गई।
हैदराबाद स्थित नैलसार लॉ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फैजान मुस्तफा ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि ये फैसला निराशाजनक है और भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए एक धक्का है।
उन्होंने कहा, ‘बीजेपी, शिव सेना के नेताओं के उस वक्त के भाषण उप्लब्ध हैं, तब जो धर्म संसद आयोजित हो रही थीं, उनमें दिए नारे देखे जा सकते हैं, जो कारसेवक उस दिन आए थे वो कुल्हाड़ी, फावड़े और रस्सियों से लैस थे, जिससे साफ जाहिर होता है कि षडय़ंत्र था।’ राम जन्मभूमि आंदोलन के चरम पर 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद को एक भीड़ द्वारा ढहा दिया गया जिसके बाद उसके पीछे के आपराधिक षडयंत्र की जांच के लिए मामला दर्ज किया गया। उसके बाद देश भर में भडक़े दंगों में 2,000 लोगों की मौत हुई, हज़ारों घायल हुए।
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के भूमि विवाद मामले में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील रहे जफरयाब जिलानी ने बीबीसी संवाददाता सलमान रावी से बातचीत में इस फैसले को गलत और क़ानून के विरुद्ध बताते हुए कहा कि उसके खिलाफ तय समय सीमा में हाई कोर्ट में अपील दाखिल की जाएगी।
जिलानी ने कहा, ‘आईपीएस अफसर, सरकारी अधिकारी और वरिष्ठ पत्रकारों ने अदालत में गवाही दी है, क्या उनके बयान झूठे हैं, और अगर ऐसा है तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।’
सीबीआई पर सवाल
प्रोफेसर मुस्तफा ने कहा कि एक लोकतंत्र में एक धार्मिक स्थल के इस तरह से गिराए जाने के इतने बड़े अपराध के लिए किसी का दोषी ना पाया जाना देश की कानून व्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘इससे यही लगता है कि सीबीआई अपना काम ठीक से नहीं कर पाई क्योंकि हमने सरेआम टेलीविजन पर सब होते देखा, इतने ऑडियो, वीडियो साक्ष्य और 350 से ज़्यादा प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों के बावजूद ठोस सबूत ना मिल पाने की बात समझ नहीं आती।’
देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी, सीबीआई गृह मंत्रालय, भारत सरकार के तहत आती है। फैसला आने के बाद सीबीआई ने अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता जफ़र इस्लाम ने सीबीआई की स्वायत्ता पर उठ रहे सवालों को गलत बताया है। बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘हमने जांच में कोई हस्तक्षेप नहीं किया है, साबीआई एक स्वतंत्र एजंसी है और उसने साक्ष्य के आधार पर काम किया जो की कांग्रेस की सरकारों के दौर में इक_ा किए गए थे।’
प्रोफेसर मुस्तफा के मुताबिक जांच एजेंसी और अभियोजन पक्ष का अलग-अलग और स्वायत्त होना जरूरी है। उन्होंने कहा कि, ‘षडय़ंत्र का अपराध, भारतीय दंड संहिता 120बी के तहत, दो लोगों के आपस में बात करने सिद्ध हो सकता है, ऐसे में 32 में से 32 लोगों के खिलाफ षडय़ंत्र का सबूत ना मिल पाना आश्चर्यचकित करता है।’
बीजेपी प्रवक्ता जफर इस्लाम के मुताबिक अदालत में सबूतों के आधार पर ही सच सामने आया और इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की सरकार के दौरान बीजेपी नेताओं को फंसाने के लिए विध्वंस के बारे में एक भ्रम पैदा किया था।
गौरतलब है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के फौरन बाद, दिसंबर 1992 में ही केंद्र सरकार ने रिटायर्ड हाईकोर्ट जस्टिस लिबरहान को इसकी तहकीकात का काम सौंपा।
17 साल बाद लिबरहान कमिशन ने अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा और विजयाराजे सिंधिया समेत 68 लोगों को साम्प्रदायिक भावनाएं भडक़ाने का दोषी पाया।
पूर्व केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने इसे ग़लत बताते हुए तब ये कहा था कि वो मस्जिद ढहाए जाने की सिर्फ ‘नैतिक जिम्मेदारी’ लेंगी और उन्हें ‘राम जन्मभूमि आंदोलन का हिस्सा होने पर गर्व है।’
उमा भारती कोरोना पॉजि़टिव होने की वजह से इस वक्त ऋषिकेश के एम्स अस्पताल में भर्ती हैं।
मुस्लिम समुदाय पर असर
वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि, ‘इस फैसले से यही माना जाएगा कि न्यापालिका में न्याय नहीं होता है बस एक भ्रम रहता है कि न्याय किया जाएगा।’
उन्होंने कहा कि यही होना संभावित था क्योंकि विध्वंस के केस में फैसला आने से पहले ही जमीन के मालिकाना हक पर फैसला सुना दिया गया, वो भी उस पक्ष के हक में जो मस्जिद ढहाए जाने का आरोपी था।
बीजेपी प्रवक्ता जफर इस्लाम इस सोच से इत्तफाक नहीं रखते और उनका कहना है कि उनकी पार्टी कभी मस्जिद तोडऩा नहीं चाहती थी, सिर्फ मंदिर बनाना चाहती थी, जो अदालत में सिद्ध हुआ है। नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जमीन के मालिकाना हक का फैसला हिंदू पक्ष के हित में दिया था और मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए एक अलग जगह पर पांच एकड़ जमीन दी थी।
उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘बाबरी मस्जिद का विध्वंस सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विरुद्ध था और कानून के खिलाफ हुआ था।’
फैसले में ये भी कहा गया था कि ‘मुसलमान समुदाय को उनकी इबादत की जगह के गैरकानूनी विध्वंस के लिए क्षतिपूर्ति जरूरी है।’
प्रशांत भूषण के मुताबिक विध्वंस पर आए फैसले से मुसलमान समुदाय में द्वेष बढ़ेगा क्योंकि जमीन के मालिकाना हक और मस्जिद गिराए जाने, दोनों मामलों के फैसले उन्हें अपने हक में नहीं लगेंगे।
उन्होंने ये भी कहा, ‘मुसलमान समुदाय को दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जा रहा है, उनके सामने इस वक्त और बड़ी चुनौतियां हैं, जैसे जैसे हिंदू राष्ट्र के निर्माण की कोशिशें हो रही हैं।’
जफर इस्लाम के मुताबिक मुसलमान समुदाय के लिए ये अब मुद्दा नहीं है, ‘वो इसे पीछे छोड़ कर आगे बढऩा चाहते हैं, पर ये तो कुछ मुस्लिम नेता हैं जो इसका राजनीतिकरण करने में लगे हैं।’
उन्होंने आश्वासन दिया कि अयोध्या के इस मामले के बाद, अब आनेवाले समय में बीजेपी किसी और धार्मिक स्थल के विवादास्पद होने की बात नहीं उठाएगी। (bbc.com/hindi)
प्रकाश दुबे
कानून की परीक्षा में अव्वल आने वाले राजेन्द्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बने। भारत के ग्यारहवें मुख्य न्यायाधीश के पद से निवृत्त होने के 9 वर्ष बाद मोहम्मद हिदायतुल्ला उपराष्ट्रपति बने। वे किसी पक्ष के उम्मीदवार नहीं थे। चालीसवें मुख्य न्यायाधीश पलनीसामी गौडर सदाशिवम निवृत्ति के 5 महीने के अंदर राज्यपाल बनने के लिए राजी हुए। हालत यह हो चुकी है कि सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगाई राज्यसभा की सदस्यता पर मान गए। यह अमेरिका की भौंडी नकल है। वहां भी सत्ता बचाने के लिए जूझ रहे डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति चुनाव से पहले उच्चतम न्यायालय में बहुमत पक्का करना चाहते हैं।
नगरीय प्रशासन की सत्ता की ललक तथा प्रशासकों को सत्ता का आयुध बनाने की राजनीति में न्यायपालिकासे आगे निकलने की होड़ लगी है। कुछ दशक पहले सेना या पुलिस के अफसर को शिक्षा संस्था की बागडोर सौंपने पर हाय-तौबा मचता था। मुंबई के पुलिस आयुक्त सत्यपाल सिंह ने त्यागपत्र देकर बागपत से लोकसभा चुनाव लड़ा। केन्द्र में राज्यमंत्री बने। परम विशिष्ट सेवा मेडल अलंकृत सेवानिवृत्त थलसेनाध्यक्ष विजय कुमार सिंह जमीनी कार्यकर्ता नितीन गडकरी के अधीनस्थ राज्यमंत्री हैं।
रक्षक को पद और अलंकरण देना सम्मान प्रकट करने का तरीका है। नागरिक सेवाओं, सेना या न्यायपालिका के अनुभवी व्यक्तियों के राजनीति में कदम रखने तथा सत्ता के बताए मार्ग पर चलने की चाहत के उदाहरण कई राज्यों से मिल रहे हैं। कोरोना कोविड से सन्न् राष्ट्र और महाराष्ट्र में आम आदमी अपने घर में नजऱकैद रहने के साथ ही कुटुंब तक से तन दूरी बनाए रखने की कड़ी हिदायत का पालन कर रहा था। चिकित्सक और पुलिसकर्मी तक अदृश्य वायरस की चपेट में आए। ऐसे मौके पर अतिरिक्त गृह सचिव स्तर के अधिकारी ने करोड़ों के घोटाले के आरोपी को मुंबई के बाहर पर्यटन् केन्द्र में ऐश करने की विशेष अनुमति दी। हो हल्ला मचा। जांच हुई। चंद दिन दायित्व से अलग करने के बाद निर्दोष घोषित कर उसी पद पर बिठा दिया। नैतिकता की बात करने वालों को सबक मिला- हमारा क्या बिगाड़ लिया? उसी अधिकारी को हाल में मुंबई के बाद सबसे महत्वपूर्ण पुणे शहर का आयुक्त बनाकर अभयदान के प्रमाणपत्र के साथ सेवा मेडल दिया गया।
चतुर पुलिस मंत्री की मुंह खोलने की हिमाकत नहीं की। इस किस्म की दादागीरी से पुलिस महकमे को साफ सबक मिला। संकेत समझो-कार्यकर्ता मानसिकता वाला पुलिस ईनाम का दावेदार हो सकता है। डा के वेंकटेशन जैसे सक्षम अधिकारी के स्थान पर पदस्थापना से कर्तव्यनिष्ठा के दो परस्पर विरोधी छोर उजागर हुए। सुशासन बाबू का तमगा लगाए बिहार के मुख्यमंत्री नई संस्कृति में ढलते जा रहे हैं। नहीं चाहते कि उनकी कमीज औरों से अधिक चकाचक, सफेद फक्क नजर आए। पुलिस महानिदेशक डुगडुगी पीटकर कह रहा है-मेरा ओहदा विधानसभा के सदस्य से कम आंकना।
दिल्ली के दंगों के दौरान पुलिस की भूमिका से सामान्य जन के असंतोष की चर्चा होती है। उत्तरप्रदेश के पुलिस महानिदेशक तथा केन्द्रीय सशस्त्र बलों की बागडोर संभालने वाले प्रकाश सिंह ने मुट्ठी भर पुलिस प्रशासकों के कामकाज के तरीके पर अप्रसन्नता जताई। पंजाब में उग्रवाद और उससे पहले मुंबई में अपराधी गिरोहों का जाल तोडऩे वाले जूलियो रिबेरो ने पुलिस का पारदर्शिता अभियान तेज कर दिया। तीन दिन पूर्व उन्होंने सभी पुलिस कर्मियों से आत्म-मंथन करने की अपील की।अधिकारी पद की गरिमा का विचार करें। एक तरफ काम के बोझ से परेशान पुलिस है।
कोरोना-कहर में उन पर भारी शारीरिक और मानसिक दबाव है। दूसरी तरफ गिनती के मामलों में उनकी साख पर आंच आ रही है। महाराष्ट्र के गृह मंत्री के कुशल संकेत को समझें। हम मान लेते हैं कि उन्होंने इतना ही कहा-किसी पुलिस अधिकारी की दलीय आसक्ति या व्यक्तिगत वफादारी के बारे में खुल्लमखुल्ला कुछ कहना अनुचित होगा। वरिष्ठ पदों पर विराजमान कई पुलिस अधिकारियों को महीनों तक तैनाती न मिलने का मतलब साफ है। इनमें कुछ अधिकारी विशिष्ट व्यक्ति या विचार को कर्तव्यनिष्ठा की अपेक्षा अधिक महत्व दे रहे थे। चलो, मान लें कि प्रशासनिक कारणों से उन्हें नई नियुक्ति देने में विलंब हुआ। सूरज उगने की राह देखे बगैर नई सरकारों के गठन की हलचल से खुफिया पुलिस का अनजान होना योग्यता पर दाग है। चुप्पी या योजना में शामिल होना योग्यता से समझौता ही माना जाएगा।
महाराष्ट्र से पहले गोवा में मध्य रात्रि के बाद शपथ ग्रहण हुआ। विभिन्न राजनीतिक दल अपनी राय रखने और राह चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। कड़ाई के लिए शोहरत पाने वालीं किरण बेदी दिल्ली विधानसभा का चुनाव हारने के बाद पुदुचेरी की उपराज्यपाल नियुक्त हुईं। भारतीय पुलिस सेवा में शामिल की गई पहली महिला अधिकारी पर पार्टी कार्यकर्ता की तरह काम करने का आरोप लगा। कानून और व्यवस्था का बिगाड़ नई बात नहीं है। दिल्ली में महिलाओं पर अपराध, अनेक राज्यों में हत्याओं और डकैतियों की वारदातों ने लोगों को दहलाया है। पुलिस के निष्पक्षता से डिगने का दुष्परिणाम है कि कई जगह कार्यकर्ता पुलिस तक को धौंस देने लगे हैं। उन्हें हिंसा और हत्या करते समय पकड़े जाने का डर नहीं रहा। इस तरह की घटनाएं बढ़ीं हैं। यह खतरा बहुत बड़ा है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)


