विचार / लेख
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महेन्द्र सिंह
एक समय था जब दलबदल कभी-कभी होता था। अब लगातार ऐसे समाचार आते हैं। किसी न किसी राज्य में यह मामला चलता रहता है। लगता है राज्यों में किसी दल को बहुमत मिलने का कोई अर्थ ही नहीं रहा। तुरंत कयास लगने लगते हैं कि कितनी देर सरकार चलेगी। विधायक अपनी नाराजगी के संदेश आसपास छोड़ते रहते हैं। अब यह मान लेना चाहिए कि दलबदल राज्यों की राजनीति का स्थायी पहलू हो गया है। क्या यह मतदाता के चुनने के अधिकार को कमजोर करना नहीं है।
दलबदल कानून जब बना था तब सोचा गया था कि इससे राजनीतिक पार्टियों में विधायक चुने जाने के बाद एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल होने के सिलसिले पर रोक लगेगी। राजनीतिक दृष्टि से अस्थिरता का माहौल निर्मित होने से रोकने के लिए यह कानून बना था। कानून में व्यवस्था दी गई कि पार्टी के विधायकों में से एक तिहाई विधायक, सांसद होने पर ही पार्टी बदली जा सकती है। बाद में इसे दो-तिहाई कर दिया गया।
लोभी लालची विधायक, सांसदों ने मंत्री पद, राज्यसभा सांसद एवं मोटी रकम के लोभ में दल बदल के नए-नए तरीके निकाल लिए। जिस पार्टी के टिकट पर उन्होंने विधायक सांसद पद पर जीत हासिल की, उसी पार्टी के विरूद्ध मनमाफिक आरोप भी लगा दिए। नारा दिया, जनता की भलाई का और क्षेत्र के विकास की तरफ ध्यान न देने का। वास्तव में देखा जाए तो अधिकांश विधायक सांसद जीत के बाद अपने क्षेत्र के किसी गांव कस्बे में जनता की समस्या जानने के लिए जाते ही नहीं हैं।
वैसे तो जब तक जनता ही ऐसे नेताओं और लोभी, लालची फरेबी नेताओं को चुनाव में नहीं हराएगी, तब तक इनका भ्रामक खेल चलता रहेगा। मगर वर्तमान हालात को देखते हुए दल बदल कानून में बदलाव भी जरूरी लगता है। कुछ सुधार विचारार्थ प्रस्तुत हैं। यदि किसी पार्टी के टिकट पर जीतने वाला विधायक सांसद इस्तीफा देता है अथवा दल बदलता है तो 6 वर्ष के लिए चुनाव लडऩे से वंचित किया जाए। क्योंकि पिछले सात-आठ सालों में राजनीति में इतनी धनशक्ति का प्रवेश हो गया है कि दलबदलूविधायकी से इस्तीफा देने और फिर चुनाव लडक़र वापस आने के लिए तैयार रहते हैं। प्रलोभन इतना है कि उन्हें अपनी विधानसभा सदस्यता गंवाने का थोड़ा सा भी डर नहीं होता।
साथ ही इस बारे में भी विचार किया जाना चाहिए कि दलबदलू विधायक टिकट देने वाली पार्टी को पाँच करोड़ रुपए दे। उसे कुछ न कुछ दिन की सजा देने पर भी विचार किया जा सकता है। साथ ही इस प्रस्ताव पर भी कि दलबदल करने वाला या कार्यकाल के बीच इस्तीफा देने वाले विधायक को मंत्री या किसी भी अन्य पद के लिए छह साल तक अयोग्य करारदिया जाए। ऐसा सुधार होने से ही लोभी नेता सौ बार सोचेने को विवश होंगे और दल बदलके प्रति हतोत्साहित होंगें।
मगर कानून के अलावा जनता के बीच भी इस बारे में बात होनी चाहिए। पद लोलुपता और लालच का एक उदाहरण विचारार्थप्रस्तुत है, जिसके कारण देश अंग्रेजों का गुलाम बना और तरह-तरह के जुल्मों सितम सहता रहा। अंग्रेजों का देश में आगमन ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा हुआ। ब्रिटेन की इस ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के नवाब से व्यापार की इजाजत मांगी। इजाजत मिलने पर कंपनी ने अपना व्यापार शुरू कर दिया। धीरे, धीरे अंग्रेज गुप्त रूप से अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने के साथ कद्दावर, लोभी व्यक्तियों से संपर्क बढ़ाने लगे आखिरकार, उन्हें बंगालव नवाब की सेना का सेनापति मीर जाफर मिल गया। एक फर्जी नकली लड़ाई लड़ लो, कुछ सैनिक मरेंगे, और हार मान लेना। हमारा शासन पर कब्जा होते ही तुम्हें नवाब बना देंगे। ऐसा ही हुआ और बंगाल पर अंग्रेजों का शासन हो गया। गद्दारी के आरोप में मीर जाफर को भी मरवा दिया। लगातार अंग्रेजों की ताकत बढ़ती गई और पूरे देश में उनका शासन हो गया।
मीर जाफर जैसी सोच वाले अनेकोंकद्दावर नेता देश की राजनीतिक पार्टियों में भी हैं। वे अवसर की तलाश में रहते हैं और लाभ का मौका मिलने पर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाते हैं। दल बदलने कानून में छेद के लिए नए-नए तरीके निकल रहे हैं। मध्य प्रदेश में 22 विधायकों, जिनमें 6 मंत्री भी थे, ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा देकर कांग्रेस पार्टी की सरकार गिरा दी और भाजपा की सरकार बनवा दी। इसके बाद यह प्रवृत्ति राजस्थान की तरफ चली गई। वहां यथास्थिति है, मगर अस्थिरता भी बनी हुई है।
मीर जाफर को इस बात से कोई मतलब न था कि ईस्ट इंडिया कंपनी देश के साथ क्या करेगी। इसी तरह आज के मीर जाफरों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उनके ऐसे कदम से लोकतंत्र का क्या होगा। इसी तरह चलता रहा तो लोकतंत्र के एक मजाक में परिवर्तित होने में देर नहीं लगेगी। किसी राज्य में ऐसा लगातार दो बार हो गया तो लोगों में मतदान के प्रति वास्तविक रुचि भी घट जाएगी। ऐसे विधायकों को इस बात से कोई मतलब नहीं कि जिस नई पार्टी या सरकार में वे शामिल होने जा रहे हैं, उसकी अर्थतंत्र या समाज को लेकर क्या नीति है।
(लेखक सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं / लेखक शिक्षा विभाग के सेवानिवृत अधिकारी हैं।)