राजपथ - जनपथ
पुनिया निरूत्तर
प्रदेश कांग्रेस प्रतिनिधियों की नियुक्तियों पर विवाद बरकरार है। इस विवाद को एक तरह से हवा देना प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया को भारी पड़ गया। उन्हें प्रदेश कांग्रेस के सचिव विकास बजाज ने सबके सामने खूब सुना दिया।
हुआ यूं कि बजाज भी प्रदेश प्रतिनिधि बनाए गए हैं,और वो अपनी नियुक्ति के लिए प्रदेश प्रभारी पुनिया से मिलकर आभार प्रकट कर रहे थे कि पुनियाजी बोल पड़े कि आप लोगों के कारण ही कई विधायक प्रदेश प्रतिनिधि बनने से वंचित रह गए हैं। पुनिया का इतना कहना था कि बजाज फट पड़े, और कहा कि सब कुछ विधायकों को दे दोगे तो कार्यकर्ता क्या करेंगे?
विकास यही नहीं रूके, उन्होंने कहा कि मंत्री-संसदीय सचिव तो विधायक ही होते हैं। निगम-मंडलों को पद भी विधायकों को दिए जा रहे हैं। और अब संगठन में भी उन्हें रखा जाएगा तो 25-30 साल से पार्टी का काम कर रहे कार्यकर्ता कहां जाएंगे? वहां कई और नेताओं ने विकास के सुर में सुर मिलाया। इस पर पुनिया निरूत्तर रह गए।
मुलाकात छिपाकर रखी
छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रभारी ओम माथुर का प्रदेश दौरा लंबा टल सकता है। उनके घुटने की सर्जरी होने वाली है। इसी बीच पार्टी के कई नेता उनसे मिल भी आए हैं।
बताते हैं कि पिछले दिनों माथुर से दिल्ली में पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल और अमर अग्रवाल की मुलाकात भी हुई है। दोनों माथुर से अलग-अलग मिलने पहुंचे थे। अमर ने तो अपनी तरफ से कई सुझाव दिए हैं।
इधर, कुछ नेताओं ने दोनों अग्र नेताओं की ओम माथुर से मुलाकात की जानकारी रमन सिंह को दी, तो वो भी थोड़े सोच में पड़ गए। क्योंकि अमर तो दिल्ली दरबार में मेल मुलाकात की बातें उनसे शेयर करते रहे हैं, लेकिन ओम माथुर से मुलाकात की बात छिपाकर रखी।
ओम माथुर को भाजपा के भीतर अलग टाइप को नेता माना जाता है। वो शिकवा शिकायतों को पूरी गंभीरता से लेते हैं। अब तक पार्टी संगठन में रमन सिंह की सिफारिशों को खास महत्व दिया जाता रहा है। ओम माथुर के आने के बाद भी क्या उनका वही दबदबा रहेगा, यह देखना है।
अपने खुद के बदन पर एक कपड़ा नहीं है, लेकिन इस नन्हे बच्चे को जन्मदिन पर उपहार में एक बिल्ली मिल गई। इसके फोटोग्राफर संकोच कटारे ने लिखकर भेजा है इसे कहते हैं रोटी बिल्ली और मकान...
निलम्बन कैसे खत्म हुआ?
आखिरकार चर्चित आईपीएस मुकेश गुप्ता को केन्द्र सरकार ने बहाल करने के आदेश दिए हैं। गुप्ता की बहाली के आदेश की राजनीतिक, और प्रशासनिक हल्कों में दबे स्वर में काफी प्रतिक्रिया हो रही है। जोगी सरकार हुए लाठीचार्ज की घटना के बाद से भाजपा के बड़े आदिवासी नेता नंदकुमार साय, ननकीराम कंवर आदि नेता गुप्ता के खिलाफ मुखर रहे हैं। बावजूद इसके भाजपा सरकार में गुप्ता सबसे ताकतवर पुलिस अफसर रहे।
सरकार बदली तो अवैध फोन टैपिंग सहित अन्य मामलों को लेकर पूर्व गृहमंत्री कंवर ने सीएम भूपेश बघेल को गुप्ता के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा सौंपा था। इसके बाद ही सरकार ने गुप्ता के खिलाफ जांच की, और रिवर्ट कर निलंबन की कार्रवाई की। लेकिन 43 महीने बाद केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने गुप्ता का निलंबन खत्म कर उन्हें बड़ी राहत दी है। गुप्ता 13 दिन बाद रिटायर होने वाले हैं।
सुनते हैं कि गुप्ता की बहाली में प्रदेश भाजपा के शीर्ष नेता ने अहम भूमिका निभाई है। अमित शाह रायपुर आए थे तब नेताजी ने गुप्ता के निलंबन पर बात की, और इसके बाद ही गुप्ता की बहाली का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसमें सच्चाई भले ही न हो, लेकिन गुप्ता के विरोधी भाजपा नेता, निजी चर्चाओं में शीर्ष नेता को काफी भला बुरा कह रहे हैं।
गेंद राज्य सरकार के पाले में
छत्तीसगढ़ के सबसे चर्चित और सबसे विवादास्पद आईपीएस अफसर, मुकेश गुप्ता, का मामला फिर खबरों में हैं। भूपेश सरकार ने मुकेश गुप्ता को निलंबित किया था, और उनके खिलाफ कई एफआईआर भी की थीं जो जारी हैं। सुप्रीम कोर्ट से स्टे मिलने की वजह से इन एफआईआर पर कार्रवाई तो रूकी हुई है, लेकिन मुकेश गुप्ता निलंबित ही चल रहे हैं। अब 16 सितंबर को भारत सरकार के गृहमंत्रालय ने राज्य सरकार को एक आदेश भेजा है, और मुकेश गुप्ता के सारे मामलों को देखते हुए उनका निलंबन खत्म करने की सूचना दी है। आईपीएस अफसर भारत सरकार के ही होते हैं, और यह आदेश एक किस्म से अंतिम है। इसी महीने रिटायर हो रहे मुकेश गुप्ता को इस आदेश से यह उम्मीद हो सकती है कि वे निलंबित रहते हुए रिटायर नहीं होंगे, लेकिन सवाल यह है कि छत्तीसगढ़ सरकार भारत सरकार के इस आदेश को ज्यों का त्यों मान लेगी, या इसे किसी अदालत में चुनौती देगी? अगर चुनौती देगी तो यह बात तय मानी जा सकती है कि रिटायरमेंट की तारीख तक उस अपील पर निपटारा नहीं हो सकेगा। यह केन्द्र और राज्य के अधिकार क्षेत्रों के बीच का एक जटिल मामला है, और कल रात से इस आदेश के आने के बाद छत्तीसगढ़ में बड़े सरकारी अफसर, और कानून के जानकार यही अटकल लगाने में लगे हैं कि अब गेंद छत्तीसगढ़ सरकार के पाले में है, और वह क्या करती है?
कोर ग्रुप में भी बदलाव संभव
शहर जिला भाजपा अध्यक्ष श्रीचंद सुंदरानी भी बदले जा सकते हैं। चर्चा है कि प्रदेश प्रभारी पुरंदेश्वरी ने हटने से पहले कुछ जिला अध्यक्षों को हटाने की वकालत की थी, उनमें सुंदरानी का भी नाम है।
सुनते हैं कि पुरंदेश्वरी की सिफारिश पर ही नांदगांव जिलाध्यक्ष मधुसूदन यादव को हटाने पर सहमति बनी है। उन्हें प्रदेश का उपाध्यक्ष बनाया गया है। यद्यपि पूर्व सीएम रमन सिंह, बदलाव के पक्ष में नहीं है, लेकिन स्थानीय तमाम प्रमुख नेता यादव को बदलने पर जोर दे रहे हैं।
उनकी नियुक्ति के पहले भी विरोध हुआ था, लेकिन रमन सिंह के दबाव के चलते यादव को बनाने का फैसला लिया गया। मगर इस बार हाईकमान ने परफार्मेंस को ही आधार बनाकर बदलाव करने का सुझाव दिया है। यही वजह है कि सिफारिशें दरकिनार कर दी गई है, और बड़े बदलाव हो रहे हैं। कोर ग्रुप में भी बदलाव संभव है। स्थानीय बड़े नेताओं की सिफारिशों को कितना महत्व मिलता है, यह देखना है।
बिना खरीददार-पाठकों वाली किताबें
साहित्य से जुड़े बहुत से आयोजन सरकारी और गैरसरकारी खर्च से होते रहते हैं। लेकिन साहित्य में मामूली दिलचस्पी रखने वाले लोग भी किसी औपचारिक मंच पर यह चर्चा नहीं करते कि किताबें लोगों की पहुंच के बाहर क्यों हैं? पचास रूपये में जो किताब छप सकती है उसे रंग-रोगन करके कुछ महंगी बनाना, और चार सौ रूपये में बेचना एक किस्म से पाठक खत्म करना ही है। जासूसी उपन्यास रद्दी कागज की लुग्दी से दुबारा बने कागज पर लाखों की संख्या में छपते हैं, सस्ते पड़ते हैं, और साहित्य की किताब के मुकाबले एक चौथाई दाम पर मिलते हैं। लेकिन साहित्य की किताबें ऐसे सस्ते कागज पर छपवाने के बारे में शायद न लेखक सोचते, और न ही प्रकाशक। जानकार लोग बतलाते हैं कि प्रकाशकों ने सरकारों के साथ खरीदी-बिक्री की एक ऐसी गिरोहबंदी बना रखी है कि उन्हें किताब महंगी दिखाकर, मोटी रिश्वत देकर सरकारों को किताब बेचने में तेज और आसान मुनाफा दिखता है। इसलिए आम खरीददार-पाठक किताबों की प्राथमिकता में कहीं भी नहीं है। नतीजा यह हुआ है कि पहुंच के बाहर दाम की किताबें खरीदने का चलन ही खत्म हो गया है। अब खुद लेखक ही मोटेतौर पर खरीददार रह गए हैं, और सारा मामला कुछ सौ कॉपियों के भीतर का रह जाता है। किताबों को आम जनता की पहुंच तक ले जाने का कोई जनआंदोलन अगर शुरू हो, तो ही कोई बात है, वरना किताबें अब सरकारी खरीद से परे कुछ लोगों के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक रह जाएंगी। देश की बहुत सी अच्छी साहित्यिक प्रतिकाएं बड़े सस्ते कागज पर छपती हैं, लेकिन इनसे भी साहित्यिक किताबों को कुछ सीखने नहीं मिलता। प्रेमचंद को आर्ट पेपर पर छापें, या री-साइकिल्ड कागज पर, उनका महत्व एक बराबर रहेगा। महान लेखक को महंगे कागज की दरकार नहीं रहती है। अगर कुछ सौ किताबों के खरीददारों को कोई किताबों की ग्राहकी मान ले, तो उनसे हमें कुछ नहीं कहना है।
जीना हराम करने वाली फैशन
अभी कुछ दिन पहले जब रणबीर सिंह ने बिना कपड़ों के कई तस्वीरें खिंचवाईं, और वे सोशल मीडिया पर तैरीं, तो बड़ा बवाल हुआ। उनके खिलाफ कई जगहों पर पुलिस में रिपोर्ट भी की गई, और लोगों ने सोशल मीडिया पर उन्हें बहुत भला-बुरा कहा। लोगों को याद होगा कि रणबीर सिंह पहले कई बार लड़कियों के घाघरे, और वैसे ही दूसरे जनाना कपड़े पहने हुए तस्वीरों में दिखते रहे हैं, और खुद के मर्दाना कपड़ों की उनकी कमी बढ़ते-बढ़ते जब इतनी बढ़ गई कि वे बिना कपड़ों के ही दिखने लगे, तो कई शहरों में लोगों ने उनके लिए कपड़े इक_े किए। इन लोगों ने अपने शहर के फटेहाल गरीब लोगों के लिए कपड़े इक_े नहीं किए होंगे क्योंकि वे गरीब बीमार और कमजोर रहते हैं, और उन्हें देखकर महिलाएं शायद ही उत्तेजित होती हों। लेकिन रणबीर सिंह का मामला अलग था, और उनकी तस्वीरों से हीनभावना में पहुंच जाने वाले लोगों ने तुरंत ही कपड़े इक_े करने शुरू कर दिए, क्योंकि कईयों को घर में यह ताना सुनने मिला होगा कि अपनी तोंद देखो, और रणबीर सिंह का बदन देखो।
अब फैशन एक और जनाना-मर्दाना रूप धरकर आई है, और साड़ी से बनी मर्दाना धोती पहनकर यह नया अवतार एक बार फिर अधिकतर हिन्दुस्तानी मर्दों को चुनौती दे रहा है। अब हो सकता है कि इस मॉडल को भेजने के लिए लोग बनियान जुटाने लगें, और पजामा भेजने लगें ताकि ऐसी तस्वीरें बाकी हिन्दुस्तानी मर्दों का जीना हराम न करे।
आशंका से बढ़ती धडक़न
देश के कई दूसरे प्रदेशों की तरह छत्तीसगढ़ में भी लगातार ईडी और आईटी के नाम की दहशत चलती रहती है। जो लोग निशाने पर आ सकते हैं, वे भी फिक्र में रहते हैं, और उनके आसपास के लोग भी। नतीजा यह हुआ है कि जिन लोगों को किसी बड़े व्यक्ति से कुछ लेना रहता है, वे अगली सुबह तक बात टालने के बजाय शाम-रात को ही उसे निपटा लेना चाहते हैं। पिछले दिनों छापे के शिकार छत्तीसगढ़ के एक बड़े कारोबारी से कुछ रकम आगे भिजवाने के लिए किसी दोस्त ने वहां नगदी छोड़ी, और अगली सुबह तक छापा पड़ गया। नतीजा यह हुआ कि अगले कई हफ्तों के लिए वह रकम फंस गई, और बाद में भी वह निकल जाए तो बहुत है। ऐसे छापों की अनिश्चितता ने लोगों को हड़बडिय़ा कर दिया है कि काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में ईडी पहुंचेगी, हिसाब करेगा कब? ऐसे छापों की आशंका से बड़े नगद लेन-देन में धडक़न बढऩे लगी है।
कमरे तो महीनों से नहीं खुले
सरकार के अधिकांश मंत्री-अफसरों ने मंत्रालय जाना तकरीबन छोड़ दिया है। ज्यादा फाइलें घर पर ही निपटा रहे हैं। ज्यादातर अफसर लंच के बाद लौट आ रहे हैं। कोरोना की वजह से काफी कुछ छूट दी गई थी। अब जब स्थिति सामान्य हो गई है, तो भी कामकाज का ढर्रा नहीं बदला है। दोपहर बाद 3 से 4 बजे दफ्तर आने वाले आला अफसरों से मातहत कर्मचारियों को दिक्कत हो रही है। साहब के बैठने तक वो जा नहीं सकते, और स्टाफ बस छूट जाती है। ऐसे में उनका घर लौटना किसी पहाड़ चढऩे से कम पीड़ादायक नहीं होता। यह पिछले दो वर्षों से रूटीन जैसा हो गया है। मंत्रालय के प्रवेश द्वार का रजिस्टर देखें तो कई सचिव और मंत्रियों के कमरे तो महीनों से नहीं खुले हैं। ऐसे में काम की रफ्तार को समझा जा सकता है। सीएम ने दो दिन के अवकाश के साथ 10 बजे का दफ्तर शुरू करवा दिया है, लेकिन आला अफसरों उसे ठेंगा दिखा रहे हैं।
सुरक्षा बीमा पॉलिसी
चर्चा है कि ईडी-आईटी के झमेले से बचने के लिए सरकार के लोग भाजपा नेताओं से कारोबारी संबंध बना रहे हैं। इसके कई उदाहरण देखने, और सुनने को मिल रहा है।
पड़ोसी राज्य की सीमा से सटे एक विधानसभा क्षेत्र में स्थानीय कांग्रेस विधायक ने माइनिंग-मिनरल, और सडक़ निर्माण के ठेके में भाजपा के युवा नेता को साथ ले लिया है। विधायक महोदय वर्किंग पार्टनर बन गए हैं। युवा नेता को प्रदेश भाजपा के शीर्ष नेता का करीबी समझा जाता है।
सरकारी अड़चनों को विधायक महोदय दूर करने में सक्षम हैं। और वो यह भी मानकर चल रहे हैं कि भाजपा नेता का साथ होने से केंद्रीय एजेंसियों की नजर नहीं पड़ेगी। इसी तरह सीमावर्ती जिले में एक अत्याधुनिक राइस मिल की खूब चर्चा हो रही है। यह मिल एक अफसर के भाई की है। अफसर ने दूरदृष्टि दिखाते हुए मिल में भाई के साथ राइस मिल एसोसिएशन के पदाधिकारी को पार्टनर बनाया है। पदाधिकारी की भाजपा में अच्छी पकड़ है। यहां जांच पड़ताल की ज्यादा गुंजाइश अब नहीं दिख रही है।
सूची पितृपक्ष के बाद
भाजपा में जिलाध्यक्षों, और कोर ग्रुप की सूची जल्द जारी होने वाली है। इसके अलावा कार्यकारिणी की भी सूची जारी होगी। पद पाने के इच्छुक नेताओं की भीड़ कुशाभाऊ ठाकरे परिसर में लग रही है।
सरगुजा, और दूसरे जिलों के नेता रायपुर पहुंच रहे हैं, और वरिष्ठ नेताओं से मिलकर पद पाने के लिए मेहनत कर रहे हैं। दर्जनभर से अधिक जिलाध्यक्ष बदले जाएंगे। संकेत साफ है कि इस बार नए नेताओं को मौका मिल सकता है। कुछ लोगों का अंदाजा है कि सूची पितृपक्ष के बाद जारी हो सकती है। [email protected]
मंत्रीजी ने तुरंत आदेश दिए
भेंट मुलाकात का कार्यक्रम चल रहा है। मेल मुलाकात से समस्या का समाधान भी होता है। ऐसे ही मुलाकातों से एक ऑल इंडिया सर्विस के अफसर को बड़ी राहत मिली है। हुआ यूं कि अफसर के खिलाफ पुराने प्रकरण में विभागीय जांच प्रस्तावित की गई थी। जांच अफसर ने प्रकरण को निपटाने के लिए संबंधित को विभागीय मंत्री से भेंट-मुलाकात की सलाह दी। अफसर की पोस्टिंग भी रायपुर में हो गई थी इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई।
रोज ऑफिस काम निपटने के बाद अफसर सीधे मंत्री बंगले पहुंच जाते थे, और मंत्री से दुआ-सलाम के बाद चुपचाप कोने की कुर्सी में बैठ जाते थे। चार-पांच दिन तक ऐसा चलता रहा। मंत्रीजी कुछ काम को लेकर पूछते थे, तो अफसर जवाब न में दे देते थे।
आखिरकार एक दिन मंत्रीजी ने सीनियर अफसर से उनके बारे में पूछ लिया। सीनियर ने बताया कि अफसर के खिलाफ विभागीय जांच प्रस्तावित की गई है। भेंट-मुलाकात का असर यह हुआ कि मंत्रीजी ने तुरंत प्रकरण को नस्तीबद्ध करने के आदेश दिए। प्रकरण नस्तीबद्ध होने के मंत्री बंगला जाने की जरूरत नहीं पड़ी।
सबका योगदान
मात्रात्मक त्रुटियों के कारण आदिवासी समाज के अलग-अलग फिरकों के दर्जनभर समुदायों को सुविधाओं का लाभ नहीं मिल रहा था। काफी प्रयासों के बाद केन्द्र सरकार ने इन गड़बडिय़ों को सुधार किया, और अब सुधार हुआ तो श्रेय लेने की होड़ मच गई।
भूपेश सरकार, और भाजपा के आदिवासी नेताओं ने अलग-अलग स्तर पर इसके लिए प्रयास किए थे। ऐसे में अपनी पीठ थपथपाने का हक तो बनता ही है। मगर इन सबसे परे राज्यपाल अनुसुईया उइके की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
राज्यपाल जब भी प्रधानमंत्री, और केंद्रीय मंत्री अमित शाह से मिली हैं, उन्होंने इस विषय को प्रमुखता से रखा। विभिन्न राज्यों में हुए सम्मेलनों, और गवर्नर कॉन्फ्रेंस में राज्यपाल ने त्रुटियों को ठीक करने पर जोर दिया था। इसका प्रतिफल यह रहा कि न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि अन्य राज्यों में हुई इस तरह की त्रुटियां को ठीक किया गया। ऐसे में राज्यपाल को धन्यवाद देना चाहिए।
बस्तर में रिहाई संघ की जरूरत आ पड़ी
जेलों में बगैर सुनवाई के वर्षों से बंद हजारों आदिवासियों को रिहाई का इंतजार है। ज्यादातर मामले 15 साल के भीतर भाजपा के शासनकाल में दर्ज किए गए हैं। कांग्रेस ने सन् 2018 के चुनाव में इन्हें रिहा करने का वादा किया था। इसके बाद जस्टिस ए के पटनायक की एक कमेटी भी सन् 2019 में बनाई गई थी। कमेटी के पास जो जानकारी आई उसके मुताबिक तब 16 हजार 475 आदिवासी बंद थे, जिनमें से 5239 नक्सली मामले थे। इनमें ऐसे भी आदिवासी थे जो गिरफ्तारी और निचली अदालत से मिली सजा के खिलाफ अपील नहीं कर पाए। कमेटी के पहली बैठक में पाया गया कि 4007 मामलों में तो रिहाई की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है। इनमें से अनेक 10 से 17 साल तक जेल में काट चुके हैं। पर हुआ क्या? कुल 627 केस वापस लेने की सिफारिश की गई। हालांकि बाद में राज्य पुलिस ने 718 और मामलों को वापस लेने की अनुशंसा की। इनमें कितने रिहा हो पाए, स्थिति साफ नहीं है।
हाल ही में बुरकापाल हमले के मामले में कोर्ट का फैसला आया था, जिसमें 121 आदिवासियों को अदालत ने निर्दोष पाया। उन्होंने विचाराधीन बंदी के रूप में 5 साल जेल में काटे। तब एक बार फिर आदिवासियों की रिहाई का मुद्दा उभरा। कांग्रेस के प्रवक्ताओं ने दावा किया कि सरकार की पहल से यह रिहाई हुई। आदिवासियों की ओर से उनके प्रतिनिधियों ने साफ किया कि उन्होंने अपने खर्च पर खुद मुकदमा लड़ा और अपने आपको कोर्ट से निर्दोष मुक्त कराया। जिनको सरकार ने छोड़ा है वे शराब, मारपीट, गाली-गलौच जैसे मामूली धाराओं में लंबे समय से बंद थे। अब भी हजारों आदिवासी बस्तर और राज्य के दूसरे जेलों में कैद हैं, जिसे लेकर राज्य सरकार पर वादाखिलाफी के आरोप लग रहे हैं।
बस्तर के दक्षिण-पश्चिम जिले बस्तर में आदिवासियों ने कल एक बड़ी बैठक की। उन्होंने जेल रिहाई संघ का गठन किया है। वे राजनीतिक सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर रिहाई के लिए आंदोलन भी छेड़ेंगे और बंदियों की रिहाई के लिए कानूनी सहायता भी देंगे। इनका कहना है कि अनेक ऐसे आदिवासी हैं जिन्हें कोर्ट ने बरी कर दिया है, तब भी जेल में हैं, क्योंकि पुलिस ने रिहाई आदेश आने से पहले ही उसे दूसरे किसी मामले में फंसा दिया।
इस संगठन का बनना बताता है कि रिहाई के लिए गठित आयोग और सरकार के प्रयासों में गंभीर किस्म की कमी रह गई है।
सोशल मीडिया पर अडानी राग..
हसदेव अरण्य में कोयला खनन के समर्थन में अमूमन सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पेज बने हुए हैं। इसमें दावा किया जा रहा है कि आंदोलन की अगुवाई करने वाले संगठन के नेताओं, पत्रकारों को विदेशी फंडिंग हो रही है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने भी हसदेव को बचाने के आंदोलन को समर्थन दिया था, अत: उनको भी लपेट लिया गया है। हर दूसरे पोस्ट में विदेशी फंडिंग की बात की जा रही है। कमाल की बात यह है कि यदि इस आंदोलन को विदेशों से चंदा मिल रहा है तो ताकतवर अडानी केंद्र से कहकर कोई जांच शुरू कराने आगे क्यों नहीं आ रहे हैं। वैसे भी देशभर में ईडी, सीबीआई घूम रही है। छत्तीसगढ़ में भी आना-जाना लगा ही रहता है। [email protected]
डोंट अंडरस्टैंड छत्तीसगढ़ी...
हिंदी की सेवा छत्तीसगढ़ के लोग बहुत अच्छी तरह कर रहे हैं। ऐसा उन राज्यों के लोग भी कर रहे हैं जहां हिंदी का विकास हुआ- जैसे बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि। यहां दो लोग आपस में अपनी स्थानीय बोली या लोक भाषा को जानते हुए हिंदी में बात करते हैं। बोली को बचाये रखने की जिम्मेदारी उठाने वाली पीढ़ी या तो प्रौढ़ हो रही है या फिर गुजरने वाली है। साधारण आमदनी वालों के लिए भी पब्लिक स्कूल मोहल्ले-मोहल्ले में खुले हैं। बच्चों को ऐसे अभिभावक अंग्रेजी सीखने की उम्मीद में दाखिला दिलाते हैं। अंग्रेजी तो सीख नहीं पाते, छत्तीसगढ़ी छूट जाती है, हिंदी पकडक़र तसल्ली कर लेते हैं। बाजार और व्यवहार में उल्टा भी हो रहा है। अब जड़ से जुड़ चुके व्यवसायी जो कभी दूसरे राज्यों से आए थे, वे घर और अपने व्यापारिक सहयोगियों से तो अभी भी अपने देस की बोली में बात करते हैं, पर छत्तीसगढ़ के स्थानीय मजदूरों, कर्मचारियों से बात करने के लिए छत्तीसगढ़ी सीख चुके हैं। रोड, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन चल रहा हो वहां श्रमिक और ठेकेदारों के बीच की बातचीत कभी सुनकर देखिये।
हिंदी दिवस पर छत्तीसगढ़ी की चर्चा रायगढ़ जिले के एक वाकये के कारण हो रही है। यहां मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भेंट-मुलाकात कार्यक्रम में आत्मानंद स्कूल की छात्रा वंशिका पॉल के सवाल का जवाब छत्तीसगढ़ी में देना शुरू किया तो उसने सीएम से कहा- आई डोंट अंडरस्टैंड छ्त्तीसगढ़ी सर। फिर सीएम ने हिंदी में बात शुरू की और कहा कि नई पीढ़ी को छत्तीसगढ़ी जानना चाहिए। इसीलिए हमने शाला में सप्ताह में एक दिन छत्तीसगढ़ी में पढ़ाने और बात करने का निर्देश दिया है। अपनी बोली को सहेजकर रखना जरूरी है। इससे विरासत, परिवेश और संस्कृति जुड़ी है। प्रत्येक स्थानीय भाषा की तरह छत्तीसगढ़ी में भी पीढिय़ों का ज्ञान समाया हुआ है, उसे जानें। इसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
रेलवे किसे दुखी नहीं कर रहा?
रायगढ़ से नागपुर के बीच सफर करने वाले यात्री ट्रेनों की लेट-लतीफी से भारी त्रस्त हैं। पर, रेलवे में काम करने वाले टीटीई, पायलट, गार्ड भी बहुत दुखी चल रहे हैं। उन्हें भी घंटों ग्रीन सिग्नल नहीं मिलने से ऊब आती है। उनको भी घर जाना होता है। बीच के दर्जन भर छोटे स्थानों पर वैध-अवैध वेंडर चाय, बिस्किट, चना, समोसा लेकर ट्रेनों में घूमते हैं, उनके रोजगार पर असर पड़ रहा है। स्टेशन के बाहर सवारियों के इंतजार में खड़े ऑटो रिक्शा चलाने वाले मासूस हैं।
राजधानी पहुंचने वाले यात्री प्रदेश स्तर के दफ्तरों में काम के लिए पहुंचें, एम्स या किसी बड़े अस्पताल में डॉक्टरों से मिली मुश्किल अप्वाइंटमेंट लेकर चलें या फ्लाइट पकडऩे आएं, उन्हें रेलवे भरोसेमंद सेवा नहीं दे पा रहा है। कोयले के नाम पर ट्रेनों को देर करने को लेकर लगातार आलोचना होने के बाद से अब रेलवे सुधार कार्य, विद्युतीकरण जैसे कामों को वजह बताने लगी है। पर लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर महीनों से रोजाना इतना काम होने के बाद भी ट्रेनों की स्पीड क्यों नहीं बढ़ रही, कितना काम बाकी रह गया।
कांग्रेस सांसदों को छोडिय़े, भाजपा की बात भी रेलवे नहीं सुन रहा। मजबूरी में हमारे जन-प्रतिनिधि उसी के सुर में दोहराने लगे हैं कि कोयला संकट के चलते ऐसा करना पड़ रहा है। जोनल और मंडल स्तर पर उपभोक्ता सलाहकार समितियां बनी हैं। उनकी नाम पट्टिका स्टेशनों पर लगाई गई है, पर साल छह महीने में एक बार की बैठक के अलावा उनका कोई हस्तक्षेप नहीं रहता। हाल में कई मौके आए जब लोगों ने आंदोलन किया, अधिकारियों से मुलाकात की कोशिश की तो वे अपने चेंबर से भी बाहर नहीं निकले और आरपीएफ को सामने कर दिया।
खुद रेलवे का रनिंग स्टाफ कहने लगा है कि इतने लंबे समय तक यात्री ट्रेनों की ऐसी दुर्दशा उन्होंने पहले कभी नहीं देखी। कहते हैं बीमारी दूर नहीं हो तो उसके साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए। क्या रेलवे यही चाहता है?
ये वो पदयात्रा नहीं...
अखिल भारतीय आदिवासी महासभा ने 19 से 26 सितंबर के बीच सिलगेर से सुकमा तक पदयात्रा निकालने की घोषणा की लेकिन कलेक्टर ने इसकी मंजूरी नहीं दी। उन्होंने यह जरूर किया है कि सुकमा में सभा करने की अनुमति दे दी। पर इसमें भी शर्त यह जोड़ी गई है कि इसमें सिर्फ सुकमा के लोग शामिल हो सकेंगे। आयोजकों को इसका मतलब ही समझ में नहीं आ रहा है। पदयात्रा की मंजूरी सिलगेर के लोगों ने मांगी है, उनको ही सभा में शामिल होने से रोका जा रहा है। संयोजक पूर्व विधायक मनीष कुंजाम का कहना है कि यह मंत्री कवासी लखमा के इशारे हो रहा है, ऐसा नहीं चलेगा। वे उदाहरण दे रहे हैं कि राहुल गांधी खुद देश की पैदल यात्रा पर निकले हैं, फिर हमें क्यों रोका जा रहा? फिलहाल कलेक्टर के आदेश पर पुनर्विचार के लिए उन्होंने कमिश्नर से अपील की है। [email protected]
फेरबदल एक साथ, बड़ा जोखिम...
प्रदेश की सत्ता दोबारा हासिल करने के लिए भाजपा ने संगठन के स्तर पर जिस तेजी से बदलाव किया है उसे लेकर पार्टी के अंदरखाने में सवाल खड़े हो गए हैं। कई लोग पूछ रहे हैं, आखिर यह हो क्या रहा है? प्रदेश अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष, प्रदेश प्रभारी सब बदल दिए गए। प्रदेश कार्यकारिणी की पहली सूची में कई बड़े चेहरे या उनके करीबी नाम बाहर कर दिए गए।
यह जरूर है कि 2018 के चुनाव में जिन स्थापित नेताओं को जिम्मेदारी मिली, उन्होंने 65 सीट निकाल लेने की गलत फीडबैक दी थी। इसके बावजूद पार्टी चलाने का उनका अनुभव लंबा है और जमीनी स्तर पर पकड़ बनी हुई है। जितनी कम सीटें सन् 2018 में मिली वह हैरान करने वाली तो थी पर तीन कार्यकाल पूरा होने के बाद की एक स्वाभाविक एंटी इंकमबेसी भी थी। जनता ने सबक सिखाया है पर हमेशा के लिए उन्हें खारिज कर दिया यह मान लिया गया है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि हो सकता है कि शीर्ष संगठन ने गुजरात और दूसरे अन्य राज्यों के अनुभव के आधार पर ऊपर से नीचे तक एक सिरे से बदलाव का फैसला लिया हो, पर छत्तीसगढ़ में भी यह तरीका कामयाब ही होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। चेहरा बदलकर हम ने ओबीसी फैक्टर का तोड़ निकालने की कोशिश तो की है पर ज्यादातर इसी वर्ग से आने वाले किसान और मजदूर तबके में असंतोष की पहचान किए बिना बात नहीं बनेगी।
लंबी फेंक तो नहीं आए मरकाम...
50 किलोमीटर चलते हैं एक दिन में। हम लोग दंतेवाड़ा जाते हैं माई के दर्शन के लिए तो 170 किलोमीटर तीन दिन में पूरा कर लेते हैं। अभी आजादी गौरव यात्रा में भी हम 100-100 किलोमीटर चले हैं। अभी दो अक्टूबर को हम लोग भी छत्तीसगढ़ में भारत जोड़ो यात्रा शुरू करेंगे...। चाय की चुस्की लेते राहुल गांधी इत्मीनान से छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम की बात सुन रहे हैं, फिर सिर हिलाते हुए कहते हैं- 50 तो बहुत होता है। भारत जोड़ो यात्रा में दो दिन पहले मरकाम शामिल हुए और उन्होंने राहुल गांधी और अन्य पदयात्रियों के साथ चाय पी। इसका वीडियो खुद मरकाम ने सोशल मीडिया पर डाला है।
वैसे जानकार बताते हैं कि अभ्यस्त हो तो एक सामान्य व्यक्ति एक घंटे में 5 से 6 किलोमीटर चल सकता है। यानि यदि मरकाम 170 किलोमीटर की यात्रा तीन दिन में पूरी कर लेते हैं तो रोजाना 8 से 10 घंटे चले। एक दिन में 50 से 60 किलोमीटर चला जा सकता है, पर लगातार, बिना विश्राम किए। पर ऐसी पदयात्रा जिसमें जगह-जगह स्वागत हो, यह मुश्किल है। फिर कई लोग यात्रा में ऐसे भी होते हैं जो पैदल चलने के आदी नहीं होते। शायद इसीलिए सोमवार की रिपोर्ट है कि राहुल गांधी 6 दिन में 100 किलोमीटर का सफर पूरा कर पाए।
देश में जब अचानक लॉकडाउन लगा तो लोग हजारों की संख्या में सडक़ों पर पैदल निकल पड़े थे। उन्होंने एक दिन में 50-60 किलोमीटर यात्रा की, वह भी बच्चों को गोद में लिए और पीठ पर सामान लादकर।
दो अक्टूबर से प्रदेश कांग्रेस भी भारत जोड़ो यात्रा निकाल रही है, उनके साथ चलने वालों को अभी से इतना अभ्यास कर लेना चाहिए ताकि मरकाम के साथ कदम मिलाते हुए हर दिन 50-60 किलोमीटर चल सकें।
नो मोर हमदर्दी प्लीज..
कोई हाथ में प्लास्टर बांधे इस तरह दफ्तर, बाजार पहुंचे तो जो कभी हाय, हैलो नहीं करता, वह भी सहानुभूति जताने के लिए ठहर जाता है। उसे लगता है, दुर्घटना के बारे में पूछताछ नहीं करने से वह बुरा मान जाएगा, देखो उसे मेरी फिक्र भी नहीं। दिलचस्पी यह भी रहती है कि कहीं ये मारपीट, लड़ाई-झगड़े में तो नहीं उलझ गए थे। पर सामने वाला सबको जवाब देते-देते परेशान हो जाता है। कुछ ऐसी ही हालत इनकी हो गई। इसीलिए उन्होंने फै्रक्चर की पट्टी पर एक पर्ची चटका दी...और कोई सवाल कृपया मत करें। गिर गया था, टूट गया है..। चेहरा क्रॉप करने की वजह यह है कि शायद आप इन्हें तुरंत पहचान जाएं, और फिर उनसे सवाल पूछे बिना मानेंगे नहीं।
कमरो की इसलिये हुई तारीफ...
वैसे तो जनसभाओं में क्षेत्रीय विधायक की तारीफ मुख्यमंत्री प्राय: करते हैं। इससे विधायक का जन-समर्थन बढ़ता है और आने वाले चुनावों में भी फायदा मिलता है। पर, भरतपुर-सोनहत विधायक व सरगुजा विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष गुलाब कमरो को जो दाद मिली वह बहुत कम लोगों को मिल पाती है। मनेंद्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर जिले के उद्घाटन कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ने उन्हें ‘इतिहास पुरुष’ का खिताब दिया। सीएम ने यह भी कहा कि कुमरो लगातार जिला बनाने की मांग लेकर उनके पीछे लगे रहे। नक्शा दिखाकर बताते रहे कि जिला बनाना क्यों जरूरी है।
नक्शा या भौगोलिक स्थिति को देखा जाए तो इस जिले का औचित्य समझ में आ जाता है। भरतपुर पहले जिला मुख्यालय बैकुंठपुर से करीब 140 किलोमीटर दूर था। यह अब घटकर 100 किलोमीटर रह गया है। इस क्षेत्र में मनेंद्रगढ़ सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पहले से ही इसे जिला मुख्यालय बनाने की मांग हो रही थी। जब कोरिया जिले का गठन कर बैकुंठपुर को मुख्यालय बनाया गया, तब भी यहां असंतोष रहा। मनेंद्रगढ़ में नाराजगी थी। अब राज्य बनने के 21 साल बाद उनकी मांग पूरी हो गई है। कमरो शायद पीछे नहीं पड़े होते तो मनेंद्रगढ़ को मुख्यालय का दर्जा नहीं मिल पाता, क्योंकि चिरमिरी इसके लिए बड़ा दावेदार था। चिरमिरी में जिला चिकित्सालय खोलने की घोषणा हुई है, जिससे लोग संतुष्ट नहीं हैं। इसी तरह भरतपुर तो नए जिले के कुछ पास आ गया पर 100 किलोमीटर की दूरी अब भी बहुत ज्यादा है। यहां जिला पंचायत या जिला न्यायालय बनाने की मांग हो रही है। यदि ऐसी कोई मांग मान ली गई तो पंचायत या अदालत के कामकाज के लिए 100 किलोमीटर दौडऩा क्या चिरमिरी और मनेंद्रगढ़ को रास आएगा, यह सवाल उत्पन्न हो जाता है। बैंकुठपुर की अपनी अलग पीड़ा है। यह अब दो ब्लॉक बैकुंठपुर और सोनहत में सिमट गया है। खडग़वां को इस बात से परेशानी है कि उनके लिए पहले जिला मुख्यालय 30 किलोमीटर था, अब बढक़र 70 हो गया है। भरतपुर इलाके के ही बड़ी आबादी वाले कोटाडोल को भी अब पहले से ज्यादा दूर 140 किलोमीटर का सफर कर नए जिला मुख्यालय में जाना होगा। कुल मिलाकर जीत मनेंद्रगढ़ की हुई है। कमरो ने ही इसके लिए जोर लगाया और अपनी मांग पूरी करा ली।
किस काम की हाईवे पेट्रोलिंग...
कटघोरा अंबिकापुर हाईवे पर फिर दिल दहलाने वाला हादसा हुआ है, जिसमें एक खड़े ट्रेलर से यात्री बस टकरा गई। रायपुर के तीन कार सवार कुछ समय पहले दुर्घटना के शिकार हुए थे, जो मैनपाट के लिए निकले थे। इसके अलावा भी आए दिन दुर्घटनाएं हो रही हैं। सुबह जो दुर्घटना हुई वह ट्रेलर ब्रेक डाउन के कारण बीच सडक़ पर खड़ा था। जैसी जानकारी आई है कि रोड पर ट्रेलर के खड़े होने का कोई संकेत, रेडियम लाइट या पार्किंग लाइट काम नहीं कर रहा था।
राजमार्गों में होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए प्रदेशभर में 45 हाईवे पेट्रोलिंग गाडिय़ां लगातार भ्रमण करती हैं। पहले इनकी संख्या 30 थी पर मई में 15 और गाडिय़ां बढ़ा दी गई थी। ये गाडिय़ां हाईटेक हैं। इनमें स्पीड राडार भी लगे हुए हैं। इसके बावजूद देखा गया है कि रात में सडक़ पर बिना इंडिकेशन खड़ी गाडिय़ों को टीम नजरअंदाज करती है। यात्री बसों की रफ्तार प्राय: बेकाबू होती है। खासकर रात के वक्त। पेट्रोलिंग टीमों ने शायद ही कभी ऐसी बसों पर राडार का इस्तेमाल किया हो। दो दिन पहले ही रतनपुर के पास एक तेज रफ्तार बस और ट्रेलर में टक्कर हुई थी, जिसमें ट्रेलर पलट गया और ड्राइवर की मौत हो गई। कई बस यात्री घायल हो गए। एक पहलू यह भी है कि हाईवे पेट्रोलिंग टीम को सिर्फ 25 किलोमीटर राउण्ड करने का काम सौंपा गया है। क्या 45 गाडिय़ों से राजमार्ग की पूरी सडक़ें कवर हो पाती हैं? बीते साल छत्तीसगढ़ में 14 हजार से अधिक सडक़ दुर्घटनाएं हुईं, 1000 से ज्यादा लोग मारे गए। हाईवे पेट्रोलिंग, हाईटेक निगरानी, हेल्पलाइन नंबर, क्विक रिस्पांस जैसे दावों की सडक़ों पर धज्जियां उड़ रही हैं।
असल नाम कुछ और है...
गरियाबंद से मैनपुर जाते हुए रास्ते में इस बोर्ड को देखकर लोग चौंकते हैं, ठिठकते हैं, फिर मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाते हैं। अंदाजा लगाते होंगे कि गांव वालों ने क्या सोचकर जुगाड़ नाम रखा होगा। पर, इसका असली नाम जुगड़ है। यह तो लोक निर्माण विभाग की मेहरबानी है, जिसने समझ में आने वाला नामकरण कर दिया है।
शर्ट महंगी या टोपी...
राहुल गांधी की 40 हजार की टी शर्ट पर मचे बवाल को देखकर 2014 के एक दुखी वोटर ने कहा- क्यों इसे मुद्दा बना रहे हैं, समझ नहीं आता। हम तो 15-15 लाख की टोपी पहनकर आज भी नाच रहे हैं। (सोशल मीडिया से)
राजस्थान पर हसदेव की कालिख...
हसदेव अरण्य से कोयला खनन की तैयारी को लेकर छत्तीसगढ़वासियों को राजस्थान प्रदेश के लोगों से कोई शिकायत नहीं है। वे इसे कार्पोरेट और वहां की सरकार की ही जुगलबंदी मानते हैं। कुछ दिनों पहले राजस्थान के एक पर्यावरण प्रेमी विकास जैन हसदेव अरण्य के प्रवास पर आए। घूमकर लौटने के बाद उन्होंने लिखा- राजस्थानवासियों के नाम पर एक समृद्ध वन को तहस-नहस किया जा रहा है। साल वृक्षों का जंगल पूरी तरह प्राकृतिक होता है, इसकी अपनी जैव-विविधता होती है, इसे आसानी से नहीं उगाया जा सकता है। इसे कोयले के लिए खत्म किया जा रहा है। यह हम राजस्थानियों के ऊपर एक कालिख है। विकास जैन ने राजस्थान के लोगों से अपील भी की है कि वे हसदेव में कोयला खनन का विरोध कर जागरूकता दिखाएं। राजस्थान में सोलर एनर्जी, विंड पॉवर की असीमित संभावनाएं हैं।
कर्तव्य पथ नहीं, जचकी मार्ग..
रोजी रोटी की जिम्मेदारी उठाने के लिए जिन सडक़ों पर चलना पड़े, वे सभी कर्तव्य पथ ही तो हैं। पर इस सडक़ को जचकी मार्ग कहते हैं। गड्ढों में रास्ते के गुम हो जाने की वजह से यह नाम चल पड़ा है। कबीरधाम-पंडरिया मुख्यमार्ग से कुम्ही के लिए जाने वाली इस सडक़ का बारिश से और बुरा हाल हो चुका है।
तीन और जिले रह गए..
प्रदेश की मौजूदा कांग्रेस सरकार ने जिन चुनावी वायदों पर सबसे तेज काम किया है, उनमें नए जिलों के गठन को सबसे ऊपर रखा जा सकता है। मनेंद्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर तथा सक्ती के गठन के साथ ही प्रदेश में अब इनकी संख्या 33 हो गई है। भाजपा ने 15 साल के कार्यकाल में कुल 11 जिले बनाए। नारायणपुर, बीजापुर, सुकमा, कोंडागांव, बालोद, बेमेतरा, बलौदा-बाजार-भाटापारा, गरियाबंद, मुंगेली, सूरजपुर और बलरामपुर-रामानुजगंज। इधर कांग्रेस में सन् 2020 में गौरेला-पेंड्रा-मरवाही का निर्माण किया। इसके बाद मोहला-मानपुर, सारंगढ़-बिलाईगढ़ तथा खैरागढ़ नए जिले बने। आज दो नए जिले और जुड़ गए।
इसके बाद यह अनुमान लेना ठीक नहीं होगा कि अब नए जिलो की मांग खत्म हो जाएगी। बल्कि सरकार की उदारता को देखते हुए बाकी जगहों से मांगें तेज हो सकती हैं। संबंधित क्षेत्रों के कांग्रेस विधायक भी दबाव बना सकते हैं। बस्तर के भानुप्रतापपुर को जिला बनाने की लंबे समय से की जा रही है। यह दलील दी जा रही है कि बस्तर की पुरानी तहसीलों में कांकेर, कोंडागांव, नारायणपुर, जगदलपुर, दंतेवाड़ा, भानुप्रतापपुर और बीजापुर थे। इनमें केवल भानुप्रतापपुर ही जिले का दर्जा नहीं पा सका है, बाकी सब बन गए। जबकि यह लौह-अयस्क और वन-संपदा दोनों से ही भरा-पूरा है। इधर कटघोरा में पिछले कई सालों से सर्वदलीय संघर्ष समिति बनी हुई है। इसमें अधिवक्ता, व्यवसायी, पत्रकार आदि सभी वर्गों के लोग शामिल हैं। इनका कहना है कि पहले जब बिलासपुर जिले से यह क्षेत्र अलग किया गया, तब कटघोरा को ही मुख्यालय बनाने का प्रस्ताव था, लेकिन राजनीतिक कारणों से कोरबा को मौका मिल गया।
इसके अलावा भाटापारा को बलौदाबाजार से अलग कर नया जिला बनाने की मांग उठ रही है। पत्थलगांव, प्रतापपुर, वाड्रफनगर, पंडरिया और सरायपाली में भी जिला बनाने की मांग पर किसी न किसी रूप में आंदोलन चल ही रहा है। कुछ जिलों की मांग शुद्ध राजनीतिक हो सकती है लेकिन ज्यादातर लोग चाहते हैं कि प्रशासन उनके ज्यादा नजदीक पहुंचे। बीते वर्ष विधानसभा अध्यक्ष डॉ चरणदास महंत ने पत्रकारों से कहा था कि राज्य के नाम के अनुरूप प्रदेश में 36 जिलों की संभावना है। अब जब सरकार का कार्यकाल 4 साल पूरा होने वाला है, नए जिले आकार ले रहे हैं, तब बाकी क्षेत्रों से भी आंदोलन और मांग तेज हो सकती है। लोग अनुमान लगा रहे हैं कि 36 होने में सिर्फ तीन और बच गए। चुनाव से पहले इनकी घोषणा हो सकती है, भले ही वे आकार बाद में लें।
बिना वारदात के नक्सल मौजूदगी...
इन दिनों विशाखापट्टनम से किरंदुल जाने वाली ट्रेन दंतेवाड़ा से ही लौटाई जा रही है। रेलवे को पता चला है कि छत्तीसगढ़ और पड़ोसी राज्य में कहीं-कहीं नक्सलियों की सभा हो रही है। किरंदुल से दंतेवाड़ा के बीच बासनपुर-झिरका एक घना जंगल है, जहां नक्सली कई बार पटरियों को उखाड़ चुके हैं। वैसे भी इस बीच की दूरी बहुत धीमी गति से तय की जाती है। इस वजह से कोई जनहानि तो नहीं हुई है लेकिन रेलवे को हर बार लाखों का नुकसान होता है। इस साल जनवरी में साम्राज्यवाद विरोधी अभियान के चलते 7 दिन तक ट्रेन नहीं चली। फरवरी में एक दिन तो मार्च में 13 दिन बंद रहा। दंडकारण्य बंद के आह्वान के कारण 23 से 26 अप्रैल तक की ट्रेन में नहीं चली। फिर नक्सलियों ने अग्निपथ योजना का विरोध किया। मई में 2 दिन ट्रेन नहीं चली। 26 जून से 2 जुलाई तक माओवादियों ने आर्थिक नाकेबंदी सप्ताह मनाया, जिसके चलते ट्रेनों को रोकना पड़ा। नक्सली शहीदी सप्ताह के चलते 28 जुलाई से 3 अगस्त तक किरंदुल तक नहीं चली। 15 अगस्त को भी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर उनके संभावित उत्पात को देखते हुए ट्रेनों को बंद रखा गया था। इस बीच मेंटेनेंस के नाम पर भी आठ-दस दिन ट्रेनों को रेलवे ने परिचालन रोका। यात्रियों की सुरक्षा के लिए ट्रेनों को तकरीबन हर महीने कई-कई दिन बंद रखना होता है। इसका असर हजारों यात्रियों पर पड़ता है। उन्हें यात्रा के लिए दूसरे साधनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। ऐसा करके कोई हमला, मुठभेड़ किए बिना ही नक्सली अपनी मौजूदगी का एहसास करा देते हैं।
गलत सरकारी संदेश का क्या करें?
वैसे तो जब दसियों करोड़ लोग किसी योजना से जुड़ते हैं, तो उसमें कुछ लोगों के फोन नंबर गलत आ सकते हैं, और योजनाओं की सूचना, उनके पासवर्ड, गलत जगहों पर जा सकते हैं। लेकिन अभी आयुष्मान भारत स्वास्थ्य योजना के तीन अलग-अलग लोगों को भेजी गई जानकारी इस अखबार के एक ही फोन नंबर पर पहुंचीं हैं, और इन तीन लोगों को यह जानकारी नहीं मिल पाई होगी। सरकारी योजनाओं को ऐसे संदेशों के साथ यह विकल्प भी भेजना चाहिए कि अगर यह संदेश किसी गलत नंबर पर जा रहा है, तो वे किसी नंबर पर जवाब भेजकर बता सकें कि यह उनसे संबंधित नहीं है ताकि सरकार अपनी गलती सुधार सके।
पर सीट बेल्ट तो चार ही हैं...
टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की सडक़ दुर्घटना में मौत के बाद सीट बेल्ट की अहमियत पर देशभर में वाहन चालकों का ध्यान गया है। परिवहन मंत्रालय भी सख्ती करने जा रहा है। राजधानी रायपुर की पुलिस ने भी कल ताबड़तोड़ कार्रवाई करते हुए 200 से ज्यादा लोगों पर एक लाख 14 हजार का जुर्माना लगाया। पर वर्षों से कार कंपनियां सेफ्टी की जुड़ी एक बड़ी गलती कर रहे हैं, जिसकी तरफ अब ध्यान जा रहा है। एक दिलचस्प सवाल उठ रहा है कि ज्यादातर छोटी कारों में जिनका चलन सबसे अधिक है, पीछे सीट तो तीन बताई जाती है, पर सीट बेल्ट केवल दो ही दी जाती है। क्या कार में बैठने वाले पांचवे व्यक्ति के लिए बेल्ट जरूरी नहीं है? जिस कार में 5 लोग सफर कर रहे हो, उनमें से एक तो बिना बेल्ट के ही मिलेगा। क्या उसकी जान कीमती नहीं है? उम्मीद है मंत्री नितिन गडकरी तक यह बात पहुंचेगी और वे कोई इस बारे में भी कुछ बयान देंगे।
कलेक्टर का आदेश भी फेल
सरकारी बैंकों में करोड़ों के घोटाले हो रहे हैं, पर लगता है कि इसके जवाबदारों को बड़े स्तर पर संरक्षण मिल रहा है। बलौदा बाजार जिले के वटगन और बलौदा बाजार शाखाओं में करीब 3.50 करोड़ रुपए के गबन की बात सामने आई है। बैंकों से पैसे निकले पर किसानों के खाते में नहीं पहुंचे। प्रारंभिक जांच में पता चला कि इसमें कर्मचारी ही नहीं बल्कि संबंधित शाखाओं के प्रबंधक भी लिप्त हैं, तब कलेक्टर ने इनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने का आदेश दिया। वटगन के मामले में पलारी पुलिस ने बैंक अधिकारियों की शिकायत पर अपराध दर्ज कर लिया है लेकिन बलौदा बाजार को लेकर अब तक कलेक्टर के आदेश का पालन नहीं हुआ है। पता चला है कि वरिष्ठ अधिकारियों से इसकी मंजूरी नहीं मिल रही है। अब देखना यह है कि कलेक्टर अपने आदेश की अवहेलना पर कोई कड़ा कदम उठाते हैं या सहकारी बैंक के उच्चाधिकारी आरोपियों को बचाने में कामयाब होते हैं।
जशपुर के पेड़ों पर कुल्हाड़ी...
जशपुर जिले का मैनपाट अपनी अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता के लिए मशहूर है, जो यहां के जंगलों के बिना मुमकिन ही नहीं। पर इसे नुकसान पहुंचाने का खेल चल रहा है। जिले में टमाटर की खूब खेती होती है। इसमें बड़े-बड़े व्यवसायी लगे हुए हैं। वे किसानों, मजदूरों से काम लेते हैं। इन खेतों में टमाटर को जानवरों से बचाने के लिए पेड़ों को काटकर बाड़ लगाई जा रही है। दूसरी तरफ पेड़ों को काटकर खेत बनाए जा रहे हैं। टमाटर की बाड़ लगाने के मामले में तो वन विभाग ने कहीं-कहीं कार्रवाई की है और उन्हें वन विभाग से बांस लेने के लिए कहा गया है, पर अतिक्रमण पर विभाग ने कोई कदम नहीं उठाया है।
अलग-अलग दलों की एक नीति
छत्तीसगढ़ के पेसा कानून अभी-अभी लागू कर दिया गया है, जो वनों पर आदिवासियों के अधिकार को बढ़ाता है। पर वे कुछ प्रावधानों का विरोध कर रहे हैं। जैसे जमीन अधिग्रहण में ग्राम सभा की सहमति जरूरी नहीं, उनसे केवल परामर्श लिया जाएगा। लघु वनोपजों की बिक्री की प्रक्रिया तय करने का अधिकार उन्हें है लेकिन सर्वाधिक आय देने वाले तेंदूपत्ता पर अभी भी वन विभाग अधिकार होगा। इसे राष्ट्रीय उपज की श्रेणी में रख दिया गया है। पिछले दिनों मानपुर इलाके से खबर आई थी कि ग्रामीणों ने अपना तेंदूपत्ता वनोपज संघ को देने से इंकार कर दिया। उन्होंने महाराष्ट्र की तर्ज पर खुद व्यापारियों से सौदा किया, पर वन विभाग ने पत्ता जंगल से बाहर ले जाने से रोक दिया। खबर यह भी है कि इसके बावजूद करीब 15 गांवों ने तेंदूपत्ता संघ को नहीं बेचा है, संभाल रखा है और शासन से नीति बदलने की मांग कर रहे हैं।
मध्यप्रदेश में भी छत्तीसगढ़ के साथ-साथ ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। वहां भी पेसा कानून लागू करने का दबाव सरकार पर है। अभी इसका एक मसौदा बनाया गया है। सरकारी विभागों और आम लोगों से इस पर सुझाव देने के लिए कहा गया है। वे दोनों प्रावधान जिनका छत्तीसगढ़ में विरोध हो रहा है, मध्यप्रदेश में भी शामिल करने का प्रस्ताव है। जैसे, जमीन अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की मंजूरी जरूरी नहीं, सिर्फ परामर्श देंगे। तेंदूपत्ता की बिक्री वन विभाग के अधीन संचालित होने वाले लघु वनोपज संघ के माध्यम से ही होगी।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की और मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है। एक जैसी नीति बनाने की सिफारिशों का मतलब यही है कि पेसा कानून किसी मजबूरी में लागू किया जा रहा है। वनों के संसाधनों को सरकारें और ब्यूरोक्रेट्स अपने राजस्व का जरिया बनाकर रखना चाहती हैं।
डीएमएफ फंड के खर्च पर सवाल..
छत्तीसगढ़ में जिला खनिज न्यास के फंड से आने वाली रकम 1300 करोड़ रुपये के आसपास है। रायगढ़, बस्तर, कोरिया, रायगढ़ जैसे जिलों में भरपूर राशि आती है। मंशा हो, तो इससे खदान प्रभावित लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव आ सकता है। भाजपा शासनकाल में कलेक्टर जिला न्यास के अध्यक्ष होते थे। कांग्रेस की सरकार आने के बाद जिले के प्रभारी मंत्रियों को यह जिम्मेदारी दी गई। पर बाद में केंद्र सरकार की आपत्ति पर फिर कलेक्टर इसके प्रभारी बनाए गये। दोनों ही स्थितियों में इस मद से कराये जाने वाले काम में प्राथमिकता और पारदर्शिता का अभाव है। कोरबा जिले में तो मंत्री तक को मांगने से जानकारी नहीं मिली कि फंड में कितनी रकम बची है उससे क्या-क्या काम हो रहे हैं। लाखों रुपये की खेल सामग्री तब खरीद दी गई जब कोरोना के कारण स्कूल-कॉलेज बंद थे। सदस्यों को बैठक से पहले एजेंडे की जानकारी भी नहीं दी जाती। प्रभावित ग्रामों के सदस्य भी प्रशासकीय निकाय में सदस्य होते हैं, पर वे मुंह नहीं खोल पाते। पंचायतों के लिए भी दो-चार लाख रुपये स्वीकृत कर उन्हें खामोश रखा जाता है। उनको अपने खिलाफ जांच शुरू होने, कार्रवाई होने का डर तो रहता ही है। अब इसी कोरबा के प्रभावित गांवों के सरपंच और कई एक्टिविस्ट मांग कर रहे हैं कि डीएमएफ फंड की सोशल ऑडिट कराई जाए। जब पंचायतों के फंड से होने वाले काम का ग्राम सभा में अनुमोदन कराया जाना जरूरी है तो डीएमएफ जैसे बड़े फंड से किए जाने वाले कार्यों को छुपाया क्यों जाना चाहिए? इसे लेकर एक बैठक दो दिन हुई है। उम्मीद करनी चाहिए कि जन-प्रतिनिधि उनकी बात सुन रहे होंगे।
पीछा करती घोषणाएं...
सन् 2018 के चुनावों में कांग्रेस सरकार ने जो घोषणाएं की थीं, उनमें से अनेक पूरी नहीं हो पाई हैं। ऐसा ही विद्या मितान या गेस्ट टीचर का है। घोषणा पत्र समिति के प्रमुख टीएस सिंहदेव का एक पत्र सोशल मीडिया पर साझा किया गया है, जिसमें उन्होंने आश्वस्त किया था कि सरकार बनते ही यथाशीघ्र उनकी नियमित नियुक्ति की कार्रवाई की जाएगी। पर अब तक उनका आश्वासन पूरा नहीं हुआ। भर्तियों में उन्हें दो प्रतिशत बोनस अंक देने का आदेश निकाला गया है। इसे गेस्ट टीचर वादाखिलाफी बता रहे हैं। [email protected]
पूर्व सीएम रमन सिंह के करीबी एक पूर्व सांसद को पार्टी के आदिवासी सांसद पर कटाक्ष करना भारी पड़ गया। पूर्व सांसद को एक विधानसभा क्षेत्र का प्रभारी बनाया गया है। सुनते हैं कि पूर्व सांसद ने पिछले दिनों अपने प्रभार वाले विधानसभा क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की बैठक बुलाई। बैठक में स्थानीय आदिवासी सांसद की सक्रियता पर सवाल उठा दिए, और क्षेत्र विशेष में ज्यादा ध्यान देने पर मजाक उड़ा दिया।
पार्टी के भीतर यह चर्चा है कि सांसद महोदय अपने किसी प्रिय कार्यकर्ता की वजह से क्षेत्र विशेष का ज्यादा दौरा करते हैं, लेकिन यही बात पूर्व सांसद ने खुले तौर पर बैठक में की, तो सांसद महोदय भडक़ गए। उन्होंने पार्टी के भीतर आदिवासी नेतृत्व को खत्म करने की साजिश तक करार दिया। सांसद महोदय ने इसकी शिकायत प्रदेश प्रभारी पुरंदेश्वरी तक पहुंच गई है। पूर्व सांसद फोन पर सांसद को सफाई दे रहे हैं, लेकिन सांसद महोदय का गुस्सा कम नहीं हो रहा है।
इस ऑनलाइन क्राइम पर भी रोक लगेगी?
छुरा में 35 साल के एक युवक को पुलिस ने आईटी एक्ट में गिरफ्तार किया है। चाइल्ड पोर्न वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल करने का आरोप है। आईटी एक्ट की धारा 67 बी एक गंभीर धारा है जिसमें पांच साल की सजा और, या दस लाख रुपये का अर्थदंड लगाने का प्रावधान है। इसमें पुलिस ने आईटी एक्ट के अलावा आईपीसी की धारा 294 भी जोड़ी है, जो अश्लील गाने, दृश्य आदि के सार्वजनिक प्रदर्शन के चलते दर्ज होता है। इसमें अलग तीन माह की सजा है।
कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें भारत में इंटरनेट पर अश्लील सामग्री की प्रचुरता को देखते हुए इस पर पाबंदी लगाने की मांग की गई थी। केंद्र सरकार ने अपने जवाब में बताया था कि अलग-अलग 1500 से ज्यादा बेबसाइट्स भारत में ब्लॉक की गई है लेकिन इसके बाद भी शिकायतें आने लगी। दरअसल वे पोर्न साइट्स कार्रवाई होने के बाद नए यूआरएल से प्लेटफॉर्म में दाखिल हो जाते हैं। सरकार ने यह जरूर किया कि चाइल्ड पोर्न पर रोक लगाने के लिए गूगल और दूसरे सर्च इंजन को बैन करने कहा। दुनिया भर में ऐसा किया जाता है। इसके बावजूद चाइल्ड पोर्न के वेबसाइट्स पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं। लोग इन्हें डाउनलोड कर रहे हैं और शेयर भी कर रहे हैं। विदेशों से होते-होते छोटे-छोटे गांवों में मोबाइल पर पहुंच रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की एक बड़ी तकनीकी टीम काम करती है जो पोर्न वीडियो डाउनलोड और शेयर करने वालों की देशभर में पहचान इन पर कार्रवाई के लिए राज्य पुलिस को सूचना भेजती है। राज्य पुलिस को की गई कार्रवाई की जानकारी भी ब्यूरो को भेजनी होती है।
दो साल पहले ब्यूरो ने छत्तीसगढ़ पुलिस को 40 मोबाइल नंबर एक साथ भेजे थे। राजधानी पुलिस ने तब चाइल्ड पोर्नोग्रॉफी में तीन लोगों को गिरफ्तार किया था। इसके बाद कुछ और गिरफ्तारियां दूसरे जिलों से हुईं। अब इसका सिलसिला चल पड़ा है। ताजा मामले में आरोपी की उम्र 35 साल है। पर ज्यादातर ऐसी घटनाओं में स्कूल कॉलेज के छात्र हैं, जिनके पास इंटरनेट है, इसके इस्तेमाल की अनियंत्रित आजादी तो है पर कानून की जानकारी नहीं। जिस तरह से साइबर से जुड़े ठगी व दूसरे किस्म के अपराधों की रोकथाम के लिए पुलिस जागरूकता अभियान चलाती है, इस गंभीर मुद्दे उसकी चिंता कम दिखती है।
जूता पॉलिश करने की हैसियत...
रेलवे ने प्लेटफॉर्म को साफ-सुथरा रखने के अभियान में जिन छोटे-मोटे रोजगार वालों को प्लेटफॉर्म से बाहर किया है, उनमें किसी कोने में बैठे जूता पॉलिश करने वाले लोग भी हैं। कमाई बढ़ाने के लिए कई तरह के रिसर्च कर रही रेलवे ने अब तय किया है कि इस आम धंधे को भी खास बनाया जाएगा। अब जूता पॉलिश के लिए टेंडर निकाला जाएगा। रायपुर में टेंडर लेने के लिए 51 हजार रुपये जमा करने होंगे। इसके अलावा तीन साल में रेलवे को करीब ढाई लाख रुपये की फीस जमा करनी होगी। यह जरूरी नहीं कि जिसके नाम पर टेंडर निकल रहा है वही जूता चमकाने बैठ जाए। वह किसी और को इस काम में लगा सकता है। मतलब यह है कि अब जूता पॉलिश करने वाला रकम अपने पास नहीं रखेगा। उसे ठेकेदार की नौकरी करनी पड़ेगी। इसका असल हिस्सा रेलवे और ठेकेदार में ही बंटेगा। टिकट, साइकिल स्टैंड, पानी बॉटल जैसी चीजों के लिए जेब टटोलने वाले यात्रियों को अब जूता पॉलिश कराने के पहले भी ऐसा करना पड़ सकता है।
यह निश्चल हंसी...
पैरा खुखड़ी इन दिनों बाजार में खूब बिकने आ रहे हैं। यह पुटु या मशरूम का देसी रूप है, जो पैरावट में अपने आप उगता है। व्यावसायिक तरीके से उगाये जाने वाले मशरूम से इसे ज्यादा स्वादिष्ट कहा जाता है। यह तस्वीर सरगुजा के हाट से ली गई है। [email protected]
ट्रेन नहीं, यात्री नहीं फिर वसूली कैसे?
यात्री ट्रेन नियमित और समय पर चलें, उनमें भीड़ हों तो रेलवे से जुड़ा हर व्यवसाय फलता-फूलता है। पर इस वक्त तो इन्हें लगातार कैंसिल करने का ही सिलसिला चल रहा है। 62 ट्रेनों को पिछले माह के आखिरी सप्ताह में रद्द किया गया था, जिनमें से ज्यादातर अभी पटरी पर आई नहीं हैं। इधर एक आदेश रविवार को फिर निकाला गया, जिसमें 10 तो रद्द रहेंगी, कई बदले रास्ते से चलेंगी, आधे मार्ग से लौटेंगी, देर से छूटेंगीं। यात्री ट्रेनों की भारी लेटलतीफी से परेशान लोग यात्रा कैंसिल भी करने लगे हैं। ऐसे विपरीत समय में टिकट चेकिंग स्टाफ अलग तरह की परेशानी से जूझ रहा है। बिना टिकट, गलत टिकट, ज्यादा लगेज आदि से वे वसूली करते हैं। यह तो तब होता है जब ट्रेन और यात्रियों की रफ्तार बनी रहे। पर उन्हें अभी भी वसूली का टारगेट मिला हुआ है। एक टीटीई के मुताबिक रायपुर, बिलासपुर जैसे स्टेशनों के लिए प्लेटफॉर्म पर ड्यूटी करने वाले टीटीई को दो हजार रुपये प्रतिदिन और ट्रेनों में चलने वाले टीटीई को 5 हजार रुपये प्रतिदिन वसूली का टारगेट है। सामान्य दिनों में तो यह हो जाता था। कुछ अपना भी निकल आता था। पर अब तो नौबत अपने जेब से भरने की आ रही है। अधिकारी कोई रियायत नहीं बरत रहे हैं। वे कहते हैं अच्छे दिनों में तो खूब मजे किए, अब ये दौर आया है तो कुछ दिन इसे भी बर्दाश्त करो।
धर्म-कर्म से जुड़ता हसदेव आंदोलन
कुछ दिन पहले बेमेतरा के एक पर्यावरण प्रेमी ने अपनी शादी के निमंत्रण कार्ड पर हसदेव बचाने की अपील छपवाई थी। तखतपुर के एक जोड़े ने भी वरमाला के स्टेज से प्ले कार्ड प्रदर्शित किया था। इसमें लोगों से हसदेव अरण्य को बचाने की अपील गई थी।
हसदेव बचाने का अभियान अब धरना, प्रदर्शन, पदयात्रा से आगे जा चुका है। लोग सामाजिक, धार्मिक समारोहों में एकत्र होने वालों के बीच इस पर जागरूकता ला रहे हैं। इन दिनों डंगनिया रायपुर के बाजार चौक में गणपति पंडाल पर रखी गई मूर्ति वन उत्पादों की है। इसमें कौड़ी, मयूरपंख, बांस, हर्रा, महुआ, इमली बीज आदि का प्रयोग किया गया है। एक बड़ा सा पोस्टर भी बगल में रखा है, जिसमें बताया जा रहा है कि हसदेव अभयारण्य में अगर पेड़ों की कटाई हुई तो क्या हानि होने वाली है।
नाराजगी अभी खत्म नहीं हुई...
राजस्व मंत्री जयसिंह अग्रवाल का वर्तमान कलेक्टर से अभी तालमेल बैठा हुआ है। सुखद है, दो माह हो गए कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ है। इसलिये कि पिछले कलेक्टरों के साथ उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा। इस बीच लगातार दो महिला अधिकारी यहां पदस्थ हुए। एक ने ढाई साल का लंबा कार्यकाल बिताया पर दूसरे के खिलाफ जब मंत्री ने खुलकर मोर्चा खोल दिया तो 11 माह बाद ही उनका जिला बदल दिया गया। पर इन मामलों को मंत्री जी ने रात गई, बात गई की तरह नहीं लिया है। पिछले दिनों प्रेस क्लब में पत्रकारों से चर्चा के दौरान उन्होंने दोनों कलेक्टरों के बारे में वही बातें दोहराई जो सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं। यानि, भ्रष्ट, अनियमितता, विकास के काम में बाधा डालना.. करोड़ों रुपये वसूल कर चली गई। आदि, आदि। साथ में पत्रकारों के सामने उनकी ही बिरादरी को लपेट लिया। कहा- कुछ पत्रकारों को वह कलेक्टर (पहली या दूसरी पता नहीं) अपने चेंबर में बिठाकर रखती थी और उनसे मनचाही खबर तैयार कराती थीं। शायद मौजूदा कलेक्टर ने इन बातों पर खास तौर से गौर किया होगा। पुराने कलेक्टर की ओर से कराई गई जांच की फाइल न उलटें-पलटें- बस आगे क्या करना है, ध्यान लगाए रखें।
भाजपा में असल बदलाव बाकी...
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की 9 सितंबर को रायपुर में होने वाली सभा हाशिये पर रखे गए कार्यकर्ताओं के लिए ही नहीं बल्कि वर्षों से स्थापित, जमे नेताओं के लिए भी खास है। वह इसलिए कि इसके तुरंत बाद पार्टी के संगठनात्मक ढाचे में प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव बदलाव करेंगे। कहा जा रहा है कि इसमें कुछ पुराने चेहरे तो होंगे पर ज्यादातर ऐसे लोग होंगे जिनकी उम्र 50-55 से अधिक न हो। ऐसा इसलिए ताकि साव की टीम ऐसे लोगों की बने जिनके साथ काम करने में वे सहज महसूस करें। नड्डा की सभा में 50 हजार लोगों को लाने की तैयारी है। वैसे तो शक्ति प्रदर्शन कांग्रेस में होता रहा है, पर जिस बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं को जुटाने का लक्ष्य रखा गया है उसे देखते हुए टिकट के कई दावेदार अपने-अपने क्षेत्र से ज्यादा से ज्यादा लोगों को रायपुर लेकर आने के लिए मेहनत कर रहे हैं। जानकारी मिली है कि नड्डा के दौरे के ठीक बाद साव प्रदेश के दौरे पर निकलेंगे और इसी दौरान संगठन के लिए नाम भी लिखते चलेंगे। इसमें अनुमोदन की प्रक्रिया भी होगी। दरअसल, छत्तीसगढ़ यही टीम विधानसभा चुनाव में फ्रंट पर काम करेगी।
सभी नए जिले दूसरे राज्यों से सटे...
पिछले दो दिनों के भीतर प्रदेश में जिन तीन जिलों का उद्घाटन हुआ है वे सभी किसी न किसी पड़ोसी राज्य की सीमा से जुड़ी हैं। खैरागढ़-छुईखदान-गंडई जिले के लांजी इलाके से मध्यप्रदेश का बालाघाट जिला शुरू हो जाता है।
सारंगढ़-बिलाईगढ़ जिले की सीमा समाप्त होते ही ओडिशा का बरगढ़ जिला शुरू होता है। मोहला-मानपुर-अंबागढ़ चौकी जिला महाराष्ट्र की सीमा पर समाप्त होता है। इन तीनों जिलों के कई ब्लॉक जिला मुख्यालय से 150 किलोमीटर तक की दूरी पर हैं। चाहे इन जिलों का निर्माण राजनीतिक नफे-नुकसान को देखकर किया गया हो लेकिन यह एक जरूरी मांग थी, जो बहुत देर बाद पूरी हुई।
मौत के बाद गौमाता की दयनीय दशा...
छत्तीसगढ़ के राजमार्गों में लगातार भारी वाहनों की चपेट में आकर गायों की मौत हो रही है। शायद ही प्रदेश का कोई महत्वपूर्ण हाईवे हो, जहां ऐसी दुर्घटना नहीं हो रही हैं। जगह-जगह बनाए गए गौठानों में इनके लिए जगह नहीं है क्योंकि ज्यादातर में तो गांव के मवेशियों के लिए ही पर्याप्त चारा-पानी नहीं है। भाजपा के कार्यकाल में भी गौशाला और सडक़ों पर गायों ने लगातार जान गंवाई है। अब कांग्रेस सरकार को भाजपा इसी मुद्दे पर घेर रही है। भाजपा नेता राम विचार नेताम ने एक ट्वीट कर कहा है कि किसी भारी वाहन से कुचलकर रतनपुर-बिलासपुर हाईवे में 15 गायों की जान चली गई। छत्तीसगढ़ सरकार उच्चस्तरीय जांच करे। सुरक्षित गोदाम का दम भरने वाली भूपेश सरकार की घोर संवेदनशीलता, क्रूरता को यह दर्शाता है।
वैसे रतनपुर मार्ग पर ऐसी कोई एफआईआर पुलिस में दर्ज नहीं है। अलग से मालूम किया गया। नेताम कह रहे हैं तो भाजपा कार्यकर्ताओं को सामने आकर रिपोर्ट लिखानी थी। 15 गायों को ट्वीट करने से तो न्याय नहीं मिल सकता। यह जरूर है कि इस मार्ग पर आये दिन ट्रकों, ट्रेलर, हाईवा की चपेट में आकर गायों की मौत हो रही है। पहले से भी बुरा हाल यह है कि मृत गायों के मामले में संवेदनशीलता खत्म हो रही है। पुलिस ऐसे मामलों में रिपोर्ट दर्ज करने से कतराती है। घायल गायों को सडक़ों पर ही तड़पते हुए छोड़ दिया जाता है, मरने के बाद लाश वहीं सड़ती रहती है। पुलिस इसलिये बचती है क्योंकि उसे घायल गाय को ढोकर पशु चिकित्सालय पहुंचाना होगा। मौत हो गई तो उसका पोस्टमार्टम कराना होगा। फिर उस अज्ञात भारी वाहन चालक को तलाश करने की खानापूर्ति करनी होगी। एफआईआर ज्यादा दर्ज हुई तो सरकार घिरेगी। पहले गायों के शव से चमड़ा निकालकर इस व्यवसाय में लगे लोग बेचा करते थे, लेकिन अब दंगा-फसाद, मारपीट के डर से यह काम बंद कर दिया गया है। वे चमड़ा, हड्डी निकालकर ले जाते दिखें तो क्या पता उनकी ही जान आफत में पड़ जाए।
अब हर जेब में तीसरी आंख...
हर हाथ में स्मार्ट फोन होने का नतीजा यह है कि सार्वजनिक स्थान पर होने वाली गतिविधि रिकॉर्ड हो रही है। ऑडियो भी लेकिन ज्यादातर वीडियो। कुछ शिक्षक शराब के नशे में, कुछ अधिकारी, कर्मचारी रिश्वत लेते ऐसे वायरल वीडियो में दिखे और नप गए। इधर कुछ समय से लोग मारपीट, हत्या की कोशिश करते वीडियो बनाकर खुद ही वायरल करने लगे हैं। इसका मकसद प्राय: दहशत फैलाना होता है, पर पुलिस को भी जांच में इससे सहूलियत मिल जाती है। महिलाओं, युवतियों से ब्लैकमेलिंग आम बात हो गई है। कुछ माह पहले जशपुर में एक वीडियो वायरल हो गया था जिसमें एक नाबालिग को चार-पांच लोग मिलकर पीट-पीट कर जबरदस्ती संबंध बनाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इनमें से ही एक वीडियो भी बना रहा है। यहीं पर दो साल पहले एक युवती ने भी जब ब्लैकमेलिंग करने वाले की डिमांड नहीं मानी तो उसका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया गया था।
बीते जून माह में जांजगीर के स्वामी आत्मानंद हाईस्कूल मैदान में दो गुटों के बीच जमकर मारपीट हुई। चूंकि इसकी शिकायत नहीं हुई, कोई अस्पताल में भर्ती नहीं हुआ- इसलिये पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। अभी बीते अगस्त महीने में हावड़ा से बिलासपुर आ रहे आम आदमी पार्टी के एक कार्यकर्ता के साथ पांच छह लडक़ों ने ट्रेन में ही मारपीट की और वीडियो बना लिया। वीडियो आरपीएफ के पास ट्रेन पहुंचने से पहले ही पहुंच गई। पुलिस ने सभी को उतार लिया। संभवत: बाद में दोनों पक्षों के बीच समझौता हो गया। बीते मई माह में रायपुर के भनपुरी में फल दुकानदार और ग्राहक के बीच हुआ विवाद खूनी संघर्ष में बदल गया था। वीडियो वायरल होने के बाद पुलिस ने आरोपियों को पहचाना और कार्रवाई की। बीते साल एक स्कूली छात्र के साथ रायपुर में ही चार-पांच बदमाशों ने पिटाई की थी। घटना की रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई गई थी पर वीडियो की मदद से पुलिस ने दो आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया और पीडि़त से शिकायत दर्ज कराई। इस साल मई में रायपुर के सुभाष स्टेडियम में लड़कियों के बीच हुई मारपीट तो खूब शेयर की गई थी।
हाल की घटनाओं को देखें तो कल कसडोल में दो नाबालिग बच्चों को रस्सी से बांधकर बेरहमी से पीटने का वीडियो सामने आया है। बच्चों की नानी की रिपोर्ट पर पुलिस ने तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया। पीटने वालों की पहचान आसानी से इस वीडियो के जरिये हो गई। बीते माह बिलासपुर से भी इसी तरह का वीडियो आया था, जिसमें बिलासपुर के सीपत थाना इलाके में दो युवकों को कई लोगों ने खंबे से बांधकर लाठी और घूसों से पीटकर घायल कर दिया। बिलासपुर से ही दो दिनों के भीतर दो और वीडियो सामने आए हैं। इनमें से एक मार्च महीने का बताया जा रहा है। एक में तो बड़ा सा पत्थर सिर पर पटका जा रहा है। उसे बचाने के लिए एक लडक़ी सामने आ रही है, उसे भी धक्का दिया जा रहा है। इनमें भी गिरफ्तारी हुई।
दूरस्थ इलाकों के विकास कार्यों की पोल भी ये वायरल वीडियो खोल रहे हैं। इस साल मई माह में सामने आया था कि अंबिकापुर में एक व्यक्ति एंबुलेंस नहीं मिली तो कंधे पर बेटी के शव को उठाकर ले जा रहा था। जशपुर जिले के बगीचा में एक बीमार को एंबुलेंस तक पहुंचाने के लिए तीन लोग मिलकर नदी पार करा रहे हैं, क्योंकि पुल नहीं है।
दूर क्यों जाएं, बीते दिनों राजधानी में हुए भारतीय जनता युवा मोर्चा के आंदोलन में कितने ही वायरल वीडियो पुलिस के लिए सबूत बने। हांलाकि वीडियोग्रॉफी के लिए उनकी अपनी टीम भी तैनात थी। स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के वीडियो ने भी तो तूल पकड़ लिया था।
लब्बोलुआब यह है कि अब हर सार्वजनिक स्थान पर हर किसी की जेब में स्मार्ट फोन के रूप में ऐसा डिवाइस है जो आपकी असावधानी, गलती और अपराध का सबूत जुटा सकता है।
पोषण के लिए रंगोली...
छत्तीसगढ़ में एक सितंबर से पोषण माह शुरू किया गया है। इस दौरान महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के अलावा उनकी शिक्षा और जल प्रबंधन पर प्रचार किया जाना है। इस बार आंगनबाड़ी केंद्रों में रंगोली, चित्रकला, स्लोगन की गतिविधियां चल रही हैं। रायपुर जिले के एक आंगनबाड़ी केंद्र की यह तस्वीर है जिसमें महिलाओं ने एक आकर्षक रंगोली बनाई है और उसके बीच पौष्टिक आहार, सब्जियां रखी गई हैं।
पीने की फिर तरफदारी...
स्कूल शिक्षा मंत्री डॉ. प्रेम साय सिंह टेकाम ने बीते दिनों शराब पीने का तरीका बताया था। अब उससे चार कदम आगे बढक़र पहलवान सिंह मरावी तर्क दे रहे हैं कि शराब तो आदिकाल से चला आ रहा है। लोग सनातन युग में भी सोमरस के नाम पर पीते थे। देवराज इंद्र पीते थे तो हमारी क्या बिसात। मरावी मरावी के पूर्व विधायक हैं। इस समय वे कांग्रेस में हैं। प्रेमसाय के बयान का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि चाहे कोई भी सरकार आए, वह चाहे शराबबंदी का वायदा करे लेकिन इसे कोई बंद नहीं करा सकता।
यह बात समझ में आ रही है कि कांग्रेस के अनेक नेताओं को शराब की बड़ी फिक्र है। बीच-बीच में ऐसे बयानों का राजनीतिक अर्थ भी है। शराब की बिक्री पर सहमति बनाई जाए और शराबबंदी करने के चुनावी वायदे को अप्रासंगिक बता दिया जाए।
दिल्ली जू में सफेद शावक
2 दिन पहले भिलाई के मैत्री बाग में सफेद बाघ किशन की मौत हो गई। इसी दिन दिल्ली के चिडिय़ा घर में एक सफेद बाघिन ने 3 सफेद शावकों को जन्म दिया। मैत्री बाग जू प्रबंधन ने सफेद बाघों के संरक्षण के लिए काफी काम किया है और यह पर्यटकों के आकर्षण का कारण भी रहा है। क्या इनमे से किसी एक सफेद शावक को मैत्री बाग लाया जा सकता है? किशन की मौत से पैदा हुई कमी इससे पूरी हो जाएगी।
कुछ प्रतिक्रियाएं वन्य जीव प्रेमियों की ओर से भी आई है। उनका कहना है कि एक साथ इतने शावकों को चिडिय़ाघर में कैद करके नहीं रखा जाना चाहिए। जंगल में छोड़ कर उन्हें उन्मुक्त वातावरण महसूस करने का मौका देना चाहिए, जिसके लिए भी पैदा हुए हैं।
वैसे प्रतिक्रियाओं का क्या है। आजादी है, कुछ भी बोल सकते हैं। एक का तो यह भी कहना है कि मोदीजी नहीं होते तो यह संभव नहीं था।
इस बार बंपर धान, बंपर बोनस
युगोव नाम की एक ग्लोबल मार्केट रिसर्च करने वाली कंपनी है। 5 जिलों को छोडक़र छत्तीसगढ़ के बाकी हिस्से में इस बार अच्छी बारिश होने के कारण पैदावार बढऩे का अनुमान लगाते हुए इसने दावा किया है कि लोग ज्यादा खरीदारी करेंगे। बाजार में 36 फीसदी उछाल आने की उम्मीद है। छत्तीसगढ़ की मुख्य उपज धान है। पिछले साल करीब 20 हजार करोड़ रुपए किसानों के खाते में धान की बिक्री से आए थे। इस बार 23 हजार करोड़ आने की उम्मीद है।
लेकिन यह भी देखने की बात है कि छत्तीसगढ़ के 80 फ़ीसदी किसान लघु और सीमांत श्रेणी के हैं। यही लोग शहरों में या प्रदेश के बाहर काम करने के लिए निकल जाते हैं,क्योंकि इनकी खेती कम है। प्रोत्साहन राशि कम मिलती है। अंतागढ़ के जनपद पंचायत सीईओ पीआर साहू ने इसी मुद्दे पर अपने भाषण में फेडरेशन की हड़ताल के दौरान टिप्पणी की थी। कहा था कि बोनस और अधिक समर्थन मूल्य का फायदा बड़े किसानों को मिल रहा है। सीईओ के बयान को इसलिए अनुचित माना जा सकता है कि सरकारी सेवक होने के बावजूद उसने सरकार की नीति पर सवाल किया और वह भी अशोभनीय तरीके से। पर जो बात रखी गई, वह बहुत लोगों के दिमाग में तैरता रहता है।
गणेश उत्सव की दिशा
सन 1893 में जब स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में गणेशजी की सार्वजनिक स्थापना की शुरुआत की, तब इस मौके का उपयोग अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई को मजबूत करने के लिए किया जाता था। शायद इसी से प्रेरणा लेकर आर एस एस और नरेंद्र मोदी को मजबूत करने के लिए देश में कई स्थानों पर गणेश प्रतिमाओं को उनके रंगों में रंग दिया गया है।
यहां तो पूरा समय रहेगा...
रायपुर समेत चार संभागों के कमिश्नर रहे गोविंद राम चुरेंद्र की पुलिस प्राधिकार समिति के सचिव के पद पर पोस्टिंग कई लोगों को अटपटी लग सकती है। वजह यह है कि चुरेन्द्र से पहले समिति मेें रिटायर्ड एडिशनल कलेक्टर ओपी सिंह सचिव रहे हैं, और अब इस पद को सचिव स्तर के अफसर चुरेन्द्र के लिए अपग्रेड किया गया है।
समिति पुलिस कर्मियों से जुड़ी शिकायतों की पड़ताल करती है। समिति में चेयरमैन जस्टिस आईएस उपवेजा का कार्यकाल खत्म होने के बाद नई नियुक्ति नहीं हुई है। दुर्ग की अधिवक्ता रामकली यादव समिति की सदस्य हैं।
कहा जा रहा है कि चुरेन्द्र को सिर्फ इसलिए हटाया गया कि वो राजनीतिक गतिविधियों में विशेष रुचि ले रहे थे। चर्चा है कि वो बालोद जिले की विधानसभा सीट से चुनाव लडऩा चाहते हैं, और हल्ला है कि वो दबे-छिपे इसकी तैयारी भी कर रहे हैं। जहां तक उनकी नई नियुक्ति का सवाल है, तो प्राधिकार में ज्यादा कुछ काम नहीं है। सालभर में अधिकतम 4-5 फाइलें ही आती हैं। ऐसे में चुरेन्द्र के पास अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए रणनीति बनाने का पूरा समय रहेगा।
अब माहौल कुछ बेहतर
स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव को अफसरों को लेकर शायद ही कोई शिकायत रहेगी। वजह यह है कि प्रसन्ना आर को स्वास्थ्य सचिव बनाया गया है। भीम सिंह की संचालक के पद पर पोस्टिंग हुई है। खास बात यह है कि ये दोनों सरगुजा कलेक्टर रह चुके हैं, और सिंहदेव से दोनों के अच्छे संबंध हैं।
इससे पहले के विभाग प्रमुखों से सिंहदेव ज्यादा सहूलियत में नहीं रहे। डॉ. आलोक शुक्ला के साथ उनकी अनबन किसी से छिपी नहीं थी। यही वजह है कि डॉ. आलोक शुक्ला खुद रिक्वेस्ट कर विभाग से अलग हुए थे। उनके बाद रेणु पिल्ले से विवाद तो किसी तरह का नहीं था, मगर वो नियम पसंद वाली अफसर मानी जाती हैं, ऐसे में उनके साथ पूरी तरह सहज नहीं थे। यही हाल डॉ. मनिंदर कौर द्विवेदी के साथ भी था। अब डॉ. मनिंदर कौर केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर गई हैं, तो सीमित विकल्पों में प्रसन्ना, और भीम सिंह का चुनाव किया गया। जो कि सिंहदेव के मनमाफिक रहा।
चंद्राकर के गजब के तेवर!
भाजपा ने पिछले दिनों मुख्यमंत्री निवास के घेराव का जो आंदोलन किया तब से पार्टी के तेवर बदल गए हैं। अब वह अचानक इलेक्शन मोड में आ गई पार्टी बन गई है, और इसके सबसे तेज तेवरों वाले विधायक, अजय चंद्राकर पार्टी के प्रदेश के मुख्य प्रवक्ता होकर आग उगल रहे हैं। जिन तेवरों के साथ उन्होंने प्रदेश के एक बड़े अखबार को घेरा है, उससे प्रदेश के बाकी मीडिया का भी सम्हलकर बैठना हो गया है। आमतौर पर राजनीति के लोग मीडिया से कड़वाहट नहीं पालते, क्योंकि यह माना जाता है कि नदी में रहकर मगरमच्छ से बैर क्यों किया जाए। लेकिन अजय चंद्राकर ने अपने ताजा हमले से यह साबित कर दिया है कि वे बचपन से ही मगरमच्छों को पकडऩे वाले नरेन्द्र मोदी की पार्टी के हैं। वैसे चंद्राकर का यह मिजाज एकदम नया भी नहीं है। लोगों को याद होगा कि दो चुनाव पहले जब वे विधानसभा नहीं पहुंच पाए थे, तब भी उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान एक दूसरे प्रमुख अखबार का नाम ले-लेकर भाषण दिए थे कि वे अखबारों के चुनावी-पैकेज खरीदने वाले नहीं हैं, वे उनके खिलाफ जो चाहे छापते रहें।
ऐसा भी नहीं कि मीडिया के पास अजय चंद्राकर के खिलाफ छापने को कोई मुद्दा ही न रहा हो, वे हर वक्त विवादों से घिरे भी रहते हैं, लेकिन आमने-सामने की लड़ाई लडऩे का हौसला भी उनका बने रहता है। अब भाजपा के देखने की बात सिर्फ यही है, कि पार्टी के मुख्य प्रवक्ता के रूप में वे भूपेश बघेल से लड़ते हैं, कांग्रेस पार्टी से लड़ते हैं, या साथ-साथ मीडिया से भी लड़ते हैं। पार्टी प्रवक्ता की मीडिया से ऐसी तीखी लड़ाई बहुत आम बात नहीं है, लेकिन हो सकता है कि यह मीडिया के भी सम्हलने का एक मौका हो कि अब वे अधिक लापरवाह होकर महफूज नहीं रह पाएंगे।
मंत्री के दार्शनिक विचार (1)
छत्तीसगढ़ के मंत्री और सरगुजा के प्रतापपुर से विधायक डॉक्टर प्रेमसाय सिंह टेकाम के पास स्कूल शिक्षा ही नहीं, आदिम जाति अनुसूचित जाति और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग भी है। नंदकुमार साय, ननकीराम कंवर और स्वर्गीय अजीत जोगी जैसे अनेक नेता मानते रहे हैं कि आदिवासियों में शराब परंपरा जरूर है, शराब घर में बनाने की छूट भी है लेकिन यह उनकी तरक्की में बहुत बड़ी बाधा है।
डॉक्टर प्रेमसाय को नशा मुक्ति अभियान के समापन समारोह में मुख्य अतिथि के रुप में वाड्रफनगर बुलाया गया था। शराब छोडऩे की नसीहत देने के बजाय वे पीने का सलीका बताने लगे। कहा कि हम भी उपयोग करते हैं। चुनाव वगैरह में भी काम आता है। शराब में पर्याप्त पानी मिलाकर पीना चाहिए, धीरे-धीरे पीना चाहिए। एक ही बार में नहीं गटक जाना चाहिए।
ऐसी नसीहत देने वाले डॉक्टर प्रेमसाय अकेले मंत्री नहीं है। आबकारी मंत्री कवासी लखमा भी समय-समय पर शराब के पक्ष में दलील देते रहते हैं। महिला बाल विकास मंत्री अनिला भेडिय़ा ने भी एक समारोह में सलाह दी थी कि पुरुषों को घर में पीकर सो जाना चाहिए इधर-उधर, लड़ाई-झगड़े करना ठीक नहीं है। यह उस सरकार के मंत्रियों का हाल है, जो चुनाव में लोगों से शराबबंदी का वादा करके मुकर रही है।
मंत्री के दर्शनिक विचार (2)
वाड्रफनगर के नशा मुक्ति अभियान के समापन में पहुंचे मंत्री डॉक्टर प्रेमसाय सिंह टेकाम से सवाल किया गया कि अंबिकापुर-बनारस सडक़ और दूसरी कई सडक़ें जर्जर हालत में हैं, इन्हें सरकार ठीक क्यों नहीं करवा रही है। मंत्री का अनूठा और बेतुका जवाब यह था कि सडक़ें खराब हैं, इसीलिए तो दुर्घटनाओं में कमी आ रही है। सडक़ें अच्छी बन जाएं तो दुर्घटनाएं बढ़ जाती है। हकीकत यह है कि जिस बनारस सडक़ की बात हो रही है, वह ओवरलोड भारी गाडिय़ों के कारण बर्बाद हुई हैं।
पीडब्ल्यूडी मंत्री ताम्रध्वज साहू शायद मंत्री के इस बयान को बुरा मानेंगे। खराब सडक़ों को किसी भी लिहाज से अच्छा बता देना ठीक नहीं है। इससे तो विभाग का बजट ही जीरो हो जाएगा। साहू कई बार कहते हैं कि राज्य सरकार की कोई सडक़ खराब नहीं है, जो हैं, सब राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण की हैं।
यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि हाईकोर्ट में प्रदेशभर की खराब सडक़ों को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई चल रही है। न्याय-मित्रों ने इसमें प्रदेश की 3 दर्जन से ज्यादा राज्य और नगर निगम के लंबी-लंबी सडक़ों की जर्जर हालत पर अदालत को रिपोर्ट सौंपी है।
आधी आबादी की दोहरी जिम्मेदारी
कामकाजी महिलाओं की बड़ी मुसीबत होती है। वित्तीय आत्मनिर्भरता के बावजूद लोग उनसे यह उम्मीद करते हैं कि पीढिय़ों से बनी-चली आ रही रूढिय़ों को अपने साथ चिपका कर चले। पति अपनी पत्नी को जींस और टॉप पहनाकर घुमाना चाहता है और सास चाहती है कि उसके माथे पर सिंदूर हो, मंदिर भी जाए, पूजा पाठ भी करें, उपवास भी रखे। वह पति का मन रखने के लिए पहनावा ओढ़ लेती है और उसी पहनावे में सिंदूर-टीका लगाकर, मंगलसूत्र पहनकर मंदिर भी चली जाती है। कितना मुश्किल होता है, दोनों भूमिकाओं में अपने आपको साबित करना।
इन दिनों सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों की हड़ताल चल रही है। तीजा में 24 घंटे तक निर्जला उपवास पर रहने का बंधन महिलाओं पर था। फिर हड़ताल पर भी जाना है। महिलाओं को तीजा पर मेहंदी लगाने का भी प्रश्न है। वे हड़ताल में शामिल हुईं, मेहंदी भी लगाई। मेहंदी में लिखा- तीजा न मायके में, न ससुराल में, अब मनेगी बस हड़ताल में। हड़ताल की नहीं, पर मायके या ससुराल नहीं जाने के उनके विद्रोह की तो दाद दी जा सकती है।
दलबदल और तनाव
खबर है कि दो विधायकों की अपने पार्टी के मुखिया से तनातनी चल रही है। दोनों विधायकों ने पार्टी छोडऩे का फैसला ले लिया है, और दूसरी पार्टी के बड़े नेताओं से बातचीत भी चल रही है। विधायकों की दूसरी पार्टी के संगठन प्रभारी के साथ एक बैठक भी हो चुकी है। इस बात की जानकारी विधायकों ने अपने पार्टी के मुखिया को नहीं दी। इससे पार्टी मुखिया, विधायकों से खफा चल रहे हैं। चर्चा है कि एक विधायक के साथ तो गाली-गुफ्तार की भी नौबत आ गई थी। देर सवेर विवाद सडक़ पर आने की आशंका जताई जा रही है। देखना है आगे क्या होता है।
पतलून पर निशान की तस्वीर
भाजपा में नए-नए पद पाए एक नेता की तस्वीर वायरल हो रही है। वायरल तस्वीर में नेताजी की पैंट के ऊपरी भाग में दाग साफ-साफ दिख रहा है। हुआ यूं कि नेताजी के पद पाने की खुशी में एक नेता ने पार्टी रखी थी। पार्टी में सुरा, और चिकन-मटन समेत शाकाहारी-मांसाहारी व्यंजन थे। नेताजी और साथियों ने पार्टी का खूब लुत्फ उठाया। किसी तरह लडखड़़ाते हुए नेताजी उठे, तो चिकन की तरी पैंट में निशान छोड़ गई। नेताजी ने मेजबान को निराश नहीं किया, और उसी हालत में फोटो खिंचवा ली। फोटो वायरल हुआ, तो विरोधी इसका उपहास उड़ाने लगे। नेताजी समर्थक सफाई दे रहे हैं कि पैंट पहले से ही मैली थी। खैर, पार्टी के भीतर नेताजी के इस फोटो की खूब चर्चा हो रही है।
ग्यारह बरस की उम्र में...
शहरी और संपन्न परिवारों में अगर किसी की 11 बरस की बेटी हो, तो उसके लिए कपड़े लाने, उसके शौक पूरे करने, और उसकी तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट करने से ही लोग खुश होते रहते हैं। लेकिन सरगुजा के एक देहाती परिवार में एक बाप ने लाठी से पीट-पीटकर 11 बरस की बेटी को मार डाला क्योंकि वह कुछ दिनों से खाना नहीं बना रही थी। घर पर सौतेली मां थी, न उसने बचाया, और न बच्ची के मर जाने के बाद किसी को खबर की। बाप ने लाश ले जाकर जंगल में पेड़ से टांग दी, और खुद ही जाकर पुलिस में रिपोर्ट कर दी। हफ्तों बाद जब यह लाश बरामद हुई तो पुलिस ने शक के आधार पर मां-बाप से सख्ती से पूछा, तो उन्होंने जुर्म कुबूल किया। बेटियां अपने पिता को सबसे अधिक प्यारी मानी जाती हैं, लेकिन हर बेटी की ऐसी किस्मत नहीं होती। ग्यारह बरस की उम्र में किसी वजह से घरेलू काम न करने पर, मां-बाप के लिए खाना न पकाने पर, बैलों को चारा न देने पर जिस बच्ची को पिट-पिटकर मरना पड़ता हो, उस देश-प्रदेश में सामाजिक इंसाफ की भला क्या बात हो सकती है।
साव के लिए अदद सीट की तलाश...
भाजपा ने ऐसे जिला अध्यक्षों और प्रदेश पदाधिकारियों को संगठन का पद छोडऩे के लिए कहा है जो विधानसभा चुनाव लडऩे के इच्छुक हैं। पर नव-नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव को लेकर कहा जा रहा है कि वे संगठन में रहते हुए भी लड़ाए जा सकते हैं। कम लंबी राजनीतिक यात्रा होने के बावजूद साव को भी अब पार्टी के भीतर अगले मुख्यमंत्री पद का एक दावेदार माना जाने लगा है। खासकर साहू समाज जिससे साव आते हैं, ने बड़ी उम्मीद कर रखी है। कांग्रेस से ताम्रध्वज साहू का नाम बीते विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए चला था, लेकिन बन नहीं पाए। समाज के कुछ लोगों का मानना है कि इसकी भरपाई भाजपा करेगी। चर्चा में है कि प्रदेशाध्यक्ष रहते हुए साव का ऐसी सीट से खड़ा किया जाएगा, जहां जीतने के लिए अधिक भाग-दौड़ करने की जरूरत न पड़े और संगठन का काम चलता रहे। ऐसा बिलासपुर और मुंगेली जिले की सीटों में ही मुमकिन है। एक उनका गृह जिला है, दूसरे से वे सांसद हैं। मुंगेली जिले की लोरमी सीट पर धर्मजीत सिंह ठाकुर हैं। उन्होंने पिछला चुनाव 25 हजार वोटों से जीता था। इस समय उनकी भाजपा में जाने की चर्चा जोर पकड़ी हुई है। साव जहां से निकले हैं, वह लोरमी इलाके में ही आता है पर धर्मजीत सिंह यदि भाजपा में शामिल होते हैं तो भी इस सीट से लडऩे की शर्त रखेंगे। तखतपुर सीट पर भाजपा प्रत्याशी हर्षिता पांडेय की कम अंतर से हार हुई थी। अगली बार फिर टिकट मिलने की उम्मीद में वे क्षेत्र में लगातार सक्रिय हैं। वे भाजपा के कद्दावर नेता व मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री रहे स्व. मनहरण लाल पांडेय की पुत्री हैं। यह उनकी पारंपरिक सीट रही। एक सीट बिल्हा है, जहां एक बार भाजपा तो दूसरी बार कांग्रेस को जीतने का मौका मिलता है। यहां से पूर्व नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने भारी अंतर से पिछला चुनाव जीता। वरिष्ठ हो चुके मौजूदा नेताओं को अगली बार खड़ा नहीं करने की नीति पर भाजपा ने काम किया तो उनकी दावेदारी पर संकट आ सकता है। यही स्थिति बिलासपुर की है। यहां अमर अग्रवाल करीब 10 हजार मतों से हार गए थे। पर इन दोनों की टिकट कटने से उनके समर्थकों की प्रतिक्रिया से पार्टी को नुकसान भी हो सकता है। कोटा सीट से भाजपा कभी जीत नहीं पाई, पर कई बार बहुत कम अंतर से हारी। जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ की डॉ. रेणु जोगी इस समय यहां से विधायक हैं। चर्चा यह भी है कि कुछ दावेदारों की पारंपरिक सीट बदलने का प्रयोग कर साव के लिए कोई सुविधाजनक जगह बनाई जाएगी।
इससे तो बेहतर रद्द ही कर दें ट्रेन...
गौर से देखिये...पूरी बोगी खाली नहीं है। एक यात्री इसमें बैठा हुआ है। यह रायगढ़ से गोंदिया जा रही जनशताब्दी एक्सप्रेस की तस्वीर है। ऐसी कुछ और बोगियों में भी गिनती के यात्री हैं। न तो कर्फ्यू है न कोरोना, फिर यह स्थिति क्यों? दरअसल यात्री ट्रेनों को घंटों देर से चलाया जा रहा है। कम दूरी की ट्रेनों की तो हालत और बुरी है। चार घंटे का सफर आठ घंटे में तय हो रहा है। कोई माई-बाप नहीं। किसी भी जगह रोक दी जा रही है। ऐसी ट्रेनों का रद्द होना या नहीं होना एक बराबर है। लोग या तो अपनी यात्रा टाल रहे हैं या फिर दूसरे विश्वसनीय साधनों को पकड़ रहे हैं। ट्रेनों को रद्द करने के खिलाफ प्रदर्शन हो रहा है, रेल मंत्री का पुतला भी फूंका जा रहा है। मगर, स्थिति इतनी गंभीर है कि अब ट्रेनों को समय से चलाने के लिए भी आंदोलन की जरूरत महसूस की जा रही है।
पढ़ाने का तरीका समझते शिक्षक..
स्वामी आत्मानंद स्कूलों में जिन शिक्षकों की भर्ती हो रही है, उनका शैक्षणिक रिकॉर्ड अच्छा है। मेरिट लिस्ट के आधार पर ही लिया गया है, पर पढ़ाने का ट्रैक कैसा है? शायद उन्हें शून्य से शुरू करना होगा। खुद पढऩे में निपुण होना और दूसरों को ठीक तरह से पढ़ा पाना- दोनों में फर्क है। यदि शिक्षक ठीक तरह से नहीं पढ़ा पाए तो उत्कृष्ट विद्यालयों का रिजल्ट तो उत्कृष्ट आने से रहा। इस समस्या का समाधान बलरामपुर जिले में वहां के कलेक्टर विजय दयाराम ने निकाला है। इन स्कूलों में नियुक्त किए गए शिक्षकों की क्लास ली जा रही है। क्लास लेने वाले लोग हैं कॉलेजों के लेक्चरर, प्रोफेसर। आत्मानंद स्कूलों के शिक्षकों को लग रहा है कि यह ठीक भी है। अनुभवी प्रोफेसर, लेक्चरर पढ़ाने का जो गुर उन्हें सिखा रहे हैं, उसका प्रयोग वे अपने बच्चों के साथ करेंगे।
और कितना अधिकार चाहिए?
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अभी उन विधानसभा क्षेत्रों के पार्टी कार्यकर्ताओं को बुलाकर चर्चा करना शुरू किया है जहां से कांग्रेस हारी थी। ऐसी सीटें बहुत अधिक नहीं हैं, लेकिन दर्जन भर से अधिक तो हैं हीं। अभी दो दिन पहले इनमें से बलौदाबाजार और भाटापारा विधानसभा क्षेत्रों की बारी थी। दोनों जगहों से कांग्रेस के पदाधिकारी और कार्यकर्ता आए हुए थे। मौका पाकर इनमें से एक ब्लॉक पदाधिकारी ने अपना दुखड़ा सामने रखा कि ब्लॉक पदाधिकारियों को अधिक अधिकार मिलने चाहिए। उसकी बात समझकर भूपेश बघेल ने कुछ बोलने की कोशिश की, तो उसने तुरंत मुख्यमंत्री को रोकते हुए अपनी बात जारी रखी। बात को आगे सुनने के बाद फिर भूपेश बघेल ने दखल देने की कोशिश की, तो उसने फिर मुख्यमंत्री को रोकते हुए अपनी बात जारी रखी। जब तीन बार ऐसा हो गया तो मुख्यमंत्री ने मुस्कुराते हुए कहा कि और कितने अधिकार चाहिए, इतनी बार तो मुख्यमंत्री को बोलने से रोक रहे हो, इससे भी और ज्यादा अधिकार चाहिए क्या?
कुछ ऐसा ही नजारा कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्रों के दौरों के दौरान देखने मिलता था। कई जगहों पर भेंट-मुलाकात कार्यक्रम में जब आम जनता बोलने खड़ी होती थी, तो कुछ उत्साही लोग बात पूरी कर लेने के बाद भी बोलते ही रहते थे, और मुख्यमंत्री जब कुछ बोलना चाहते थे तो ‘सुन न कका’ जैसी बात बोलते हुए वे अपनी बात जारी रखते थे। कुछ लोग तो इतने हौसलामंद थे कि तीन-तीन, चार-चार बार मुख्यमंत्री को चुप कर देते थे, और माइक पर अपनी ही बात बोलते रहते थे।
आरटीआई की ताकत समझें
सरकार और सत्ता की राजनीति के लोगों के साथ उठे-बैठें, तो आरटीआई को ब्लैकमेलिंग के अलावा और कुछ नहीं माना जाता। सत्ता में किसी से भी थोड़ी सी मेहरबानी की उम्मीद की जाए तो बहुत से लोग हाथ उठा देते हैं कि आरटीआई का जमाना है, हर कागज की कॉपी लोग सूचना के अधिकार में निकलवा लेते हैं, हर नोटशीट की कॉपी मांग लेते हैं, इसलिए कोई रियायत करना मुमकिन नहीं है। यह एक अलग बात है कि सत्ता हांकने वाले लोगों को जहां खुद का फायदा दिखता है, वहां आरटीआई का डर जाते भी रहता है।
आरटीआई के काम में लगे लोगों के लिए हौसला बढ़ाने वाली एक बात है कि झारखंड में अभी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की विधानसभा सदस्यता खत्म होने का चुनाव आयोग का जो आदेश चर्चा में है, वह सिलसिला झारखंड के एक आरटीआई एक्टिविस्ट का शुरू किया हुआ है। उसने सूचना के अधिकार में जानकारियां निकलवाई थीं, और फिर उन्हें राज्यपाल और दूसरी जगह भेजा। यही शिकायत आगे बढ़ते-बढ़ते चुनाव आयोग तक पहुंची, और वहां से सदस्यता खत्म होने के आदेश की चर्चा है। अभी राजभवन में राज्यपाल रमेश बैस चुनाव आयोग के इस लिफाफे पर बैठे हुए हैं। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ से झारखंड जाकर पूरे शराब कारोबार पर एकाधिकार का कब्जा करने वाले कारोबारी वहां के पुराने शराब कारोबारियों को खटक रहे हैं, और आईटी, ईडी, सीबीआई, और अदालत सभी जगह छत्तीसगढ़ के इस कब्जे को लेकर पहल की जा रही है। अब पता नहीं छत्तीसगढ़ से गए राज्यपाल तक यह बात पहुंची है या नहीं।
किसकी क्या-क्या जिम्मेदारी
बलौदाबाजार एसडीएम ने बिलाईगढ़ के जनपद सीईओ को निर्देश दिया है कि सचिवों के माध्यम से 5-5 गाडिय़ां लगाएं। सरसींवा क्षेत्र से 10-10 गाडिय़ां। यहां से 500 लोगों की बाइक रैली भी लेकर आएं। सरपंचों से पानी पाउच की व्यवस्था कराएं। सचिवों से स्टिकर बनवाएं, जिसमें लिखा हो- स्वागत, आभार, अभिनंदन। सरपंच, पंचों की शत-प्रतिशत मौजूदगी हो। बिलाईगढ़ के रेंजर, सीएमओ, भटगांव के सीएमओ दर्जन भर और अधिकारियों को भी इसी तरह से निर्देश दिए गए हैं। सभी को लगातार नारेबाजी कराने कहा गया है। सभी पर 5-5 हजार लोगों को समारोह में लाने की जिम्मेदारी है। यह सब 3 सितंबर को सारंगढ़-बिलाईगढ़ नए जिले के उद्घाटन समारोह की तैयारी के तहत है। अफसरों को 15 साल के भाजपा शासनकाल का भी अनुभव है। भीड़ कैसे जुटाई जाती है, वे जानते हैं। पर, इस काम के लिए नारेबाजी और भीड़ लाने के लिए सरकारी आदेश जारी करने का मामला पहले नहीं सुना गया। पहले तो यह मौखिक आदेश पर ही हो जाया करता था।
रुझान प्राइवेट एग्जाम की तरफ?
राज्य के विश्वविद्यालय कॉलेजों में कटऑफ मार्क्स की अब कोई पूछ-परख नहीं रह गई है। चार-पांच बार प्रवेश के लिए आवेदन मांगे जाने और एडमिशन की सूची जारी करने के बाद भी कॉलेजों में सीट नहीं भर पा रही है। बिलासपुर और रायगढ़ जिले का तो हाल यह है कि इनमें उपलब्ध सीटों के मुकाबले 50 प्रतिशत सीटें भी नहीं भरी हैं। इस बारे में कुछ प्रोफेसरों का कहना है कि कोविड काल में स्कूल-कॉलेजों के लंबे समय तक बंद रहने का असर अब तक दिखाई दे रहा है। छात्र घर पर पढ़ाई करना और प्राइवेट एग्जाम दिलाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि कॉलेजों का सत्र लंबा नहीं होता है। सितंबर तक तो एडमिशन ही चलता रहता है और जनवरी के बाद प्रिप्रेशन लीव शुरू हो जाता है। कोविड काल के दौरान घर पर रहकर पढ़ाई करने की वजह से इतना भरोसा तो हो गया है कि सेल्फ स्टडी और क्लास की स्टडी में ज्यादा फर्क नहीं है। बड़ी बात यह है कि प्राइवेट एग्जाम की परीक्षा फीस भी रेगुलर के मुकाबले काफी कम है।
वैसे मारामारी सिर्फ प्रदेश के एकमात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय बिलासपुर में है। यहां पहली बार देशभर से आवेदन मांगे गए हैं। प्रवेश परीक्षा भी ऑनलाइन होगी। यहां सीटें करीब 3300 हैं, पर आवेदन 2 लाख से ज्यादा मिले हैं।
खुशी कहीं भी ढूंढ लीजिए...
कोई अपने सिर पर चांद निकल आने से दुखी हो सकता है तो कोई गिने-चुने बालों में भी खुश रह सकता है। राह चलते इस सज्जन ने स्कूटर का आईना देखा, एंगल ठीक करके जेब से कंघी निकाली और लगे बाल संवारने...। तस्वीर रायपुर की ही है।
एनआईए मुखिया छत्तीसगढ़ के ही
एनआईए दफ्तर नवा रायपुर के नए भवन में शिफ्ट हो गया है। एनआईए के एसपी वेदप्रकाश सूर्या का छत्तीसगढ़ से पुराना नाता रहा है। वो मध्यप्रदेश के रहवासी है, और उनकी स्कूली शिक्षा दुर्ग जिले में हुई है। सूर्या वर्ष-2009 बैच के आईपीएस हैं। इसी बैच के छत्तीसगढ़ कैडर के अमित कांबले भी हैं। जो कि माना बटालियन में कमांडेंट हैं। दोनों का दफ्तर कुछ किलोमीटर की दूरी पर है।
तीन साल में क्या कुछ किया
सुनील सोनी, मेयर एजाज ढेबर से खफा हैं। सुनील की नाराजगी की वजह यह है कि एजाज ने देशभर के मेयर सम्मेलन में उनकी तारीफ की, लेकिन बाहर निकलते ही मीडिया से चर्चा में कह गए कि शहर विकास के लिए सांसद सुनील सोनी से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा है।
ऐसे में सुनील सोनी का भडकऩा स्वाभाविक है। उन्होंने प्रतिक्रिया में बूढ़ातालाब योजना को लेकर एजाज पर तीखा हमला बोला। अब सोनीजी की बात को कौन गंभीरता से लेगा। जब बूढ़ातालाब योजना का क्रियान्वयन हो रहा था, तो सोनीजी समेत पूरी भाजपा खामोश थी। योजना के खिलाफ एक-दो सामाजिक कार्यकर्ताओं ने ही लड़ाई लड़ी, और कोर्ट भी गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ।
विधानसभा चुनाव में 14 महीने बाकी रह गए हैं। एजाज भी रायपुर की चारों सीटों में से किसी एक पर दावेदारी ठोक सकते हैं। उन्हें अपनी उपलब्धियां बतानी ही है। अब सुनील सोनी और बाकी भाजपा के लोगों को यह बताना चाहिए कि शहर विकास के लिए तीन साल में क्या कुछ किया है।
पूर्व मंत्री कुछ समय से खफा
भाजपा के एक पूर्व मंत्री पिछले कुछ समय से काफी खफा हैं, और पार्टी के रणनीतिकारों के तौर तरीकों से दुखी भी हैं। सुनते हैं कि पूर्व मंत्री ने कांग्रेस के छत्तीसगढिय़ावाद, और सरकार की किसान हितैषी छवि की काट ढूंढने के लिए आपस में विस्तार से चर्चा करने पर जोर दे रहे हैं। मगर पार्टी के बड़े नेता इस पर कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं है। पूर्व मंत्री ने चेताया है कि यदि इन विषयों का जल्द ही कोई काट नहीं ढूंढा गया, तो विधानसभा चुनाव में नुकसान उठाना पड़ सकता है।
खुद को माननीय समझने लगे?
कामकाज में सहकारी बैंक अफसर कितने पारंगत हैं, इसकी खबर रिस-रिस कर आती रहती है। पांच साल पहले फरवरी 2018 में विधानसभा में मुद्दा उठा था कि अकेले रायपुर और बिलासपुर के सहकारी बैंकों में 1200 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ है। राज्य के दूसरे बैंकों को मिलाकर यह 1500 करोड़ रुपये तक पहुंचता है। यह उजागर हुआ था कि किसानों के नाम पर मिलने वाली सब्सिडी व कम ब्याज पर दिए जाने वाले ऋण का फायदा व्यापारियों को पहुंचाया गया। धान मिलिंग और परिवहन में गड़बड़ी की गई। उस समय कांग्रेस और भाजपा ने दोनों ने घोटाले की उच्चस्तरीय जांच कराने की मांग की थी। पर फाइलें दब गईं, कौन-कौन नपे आज तक पता नहीं चला। वक्त के साथ लोग भूल गए। बिलासपुर में देवेंद्र पांडेय के जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष रहने के दौरान करीब 100 करोड़ रुपये का घोटाला सामने आया था। पुलिस ने पांच-सात अधिकारी, कर्मचारियों के नाम चालान पेश किया और अध्यक्ष को बचा दिया। तब कोर्ट ने पांडेय के खिलाफ भी जांच का आदेश दिया था। यहां पर बिना प्रक्रिया के 36 लोगों की भर्ती की गई थी। इनमें से ज्यादातर लोग बाद में बर्खास्त कर दिए गए, पर अफसरों पर कार्रवाई नहीं हुई। बीते साल दुर्ग जिला केंद्रीय सहकारी बैंक के 2015 से 2020 तक अध्यक्ष रहे प्रीतपाल बेलचंदन और अन्य के खिलाफ करीब 14 करोड़ रुपये के गबन की एफआईआर बैंक सीईओ ने दर्ज कराई थी। बिलासपुर में एक और घोटाला हुआ। मैनेजर और अकाउंट सेक्शन के अधिकारी कर्मचारियों ने किसानों के क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड का इस्तेमाल कर खाते से पैसे साफ कर दिए। धमतरी में भी परिवहन, खरीदी, मिलिंग और ऋण वितरण में बड़ी गड़बड़ी खुली।
इधर मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों अपेक्स व जिला सहकारी बैंकों की बैठक की समीक्षा के दौरान पाया कि अफसरों ने अपना वेतन मनमाने तरीके से बढ़ा लिया है। दस साल में दो गुना। बैंक कैडर के सीनियर ऑफिसर को तो 2.97 लाख रुपये मिलते हैं। बैंकों के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में मंजूरी लिए बिना भी अधिकारियों के वेतन बढ़ाए गए। वित्त विभाग या सामान्य प्रशासन विभाग के नियंत्रण में तो ये हैं ही नहीं। वेतन-भत्तों को मनमाने तरीके से बढ़ाने का मामला भी एक घोटाला ही है। रिकव्हरी हो तो रकम करोड़ों में पहुंच जाएगी। यानि सहकारिता के नाम पर बैंक की तिजोरी में चारों ओर से सेंधमारी हो रही है। अभी अपनी मर्जी से मनचाहा वेतन खुद तय करने का अधिकार अभी सिर्फ सांसदों, विधायकों को ही है।
अपनों पर भी भरोसा न रहा...
स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के वायरल वीडियो में ‘सरकार की औकात’ वाली बात को भाजपा ने हाथों-हाथ लिया। तुरंत ट्वीट कर हमला भी किया गया। सिंहदेव की सफाई भी आ गई कि शब्दों के चयन में गड़बड़ी हो गई। यानि गलत कुछ कहा नहीं, बात सही थी-दूसरे तरीके से कहना था। कर्मचारी नेताओं का प्रतिनिधिमंडल अंबिकापुर में सिंहदेव से उनके निवास पर ही मिला था। सिंहदेव को उम्मीद रही होगी कि यहां वे अपनों के बीच हैं, कुछ खुलकर बोल सकते हैं। पर उनको भनक नहीं लगी और किसी ने चुपचाप वीडियो शूट कर चर्चा को वायरल कर दिया। ऐसा करने वाले ने इतनी ईमानदारी जरूर दिखाई कि वीडियो एडिट नहीं की। इस दौरान सिंहदेव ने केंद्र सरकार से मदद और टैक्स का निर्धारित हिस्सा नहीं मिलने की बात की है। यह बात छिपी नहीं है। राज्य सरकार ने केंद्र के सामने लगातार यह बात उठाई है। जीएसटी काउंसिल की बैठक में राज्य की क्षतिपूर्ति राशि पांच साल और बढ़ाने की मांग की गई थी। इसी माह नीति आयोग की बैठक में दिल्ली गए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से राज्य का टैक्स शेयर बढ़ाने की मांग की थी। सिंहदेव के वायरल वीडियो से ही आम लोग जान पाए हैं कि राज्य के कर्मचारियों पर सरकार 40 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रही है। अब यह देखना होगा कि सिंहदेव के इस वार्तालाप को भुला दिया जाएगा, या आगे उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा।
तिजहारिन बस के इंतजार में...
भाई लेने आया है, मायके में पत्नी अपने पति के लिए उपवास पर होंगी, पानी भी नहीं पीना है। तीज का आनंद तो तब है जब विवाहिता अपने मायके में पूरे हक से जाए और भाई भी ख्याल रखे कि कुछ उपहार और वस्त्र देकर ही विदा नहीं करना है। पिता की संपत्ति पर उसका भी बराबर हिस्सा होता है।
छत्तीसगढ़ के दो विधायक भाजपा की ओर
चर्चा है कि जोगी पार्टी के दो विधायक धर्मजीत सिंह, और प्रमोद शर्मा भाजपा का दामन थाम सकते हैं। दोनों विधायक पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह के संपर्क में हैं। सुनते हैं कि दोनों विधायकों की अमित शाह से मुलाकात कराने की भी योजना थी। धर्मजीत सिंह और प्रमोद शर्मा, शनिवार को रायपुर में भी थे। मगर उनकी मुलाकात नहीं हो पाई।
कहा जा रहा है कि अमित शाह पूर्व निर्धारित कार्यक्रम से तीन घंटे विलंब से पहुंचे थे। इस वजह से पार्टी पदाधिकारियों के साथ अलग से बैठक का कार्यक्रम को भी स्थगित करना पड़ा। चर्चा है कि धर्मजीत और प्रमोद की अमित शाह से दिल्ली में मुलाकात करायी जा सकती है।
हटाए गए हाशिए पर...
पूर्व नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक अब पार्टी के भीतर अलग-थलग पड़ते दिख रहे हैं। कौशिक को पहले नेता प्रतिपक्ष का पद छोडऩा पड़ा, और अमित शाह के दीनदयाल उपाध्याय ऑडिटोरियम में कार्यक्रम में मंच पर जगह नहीं मिली।
कौशिक को अन्य नेताओं के साथ आम लोगों के साथ बैठना पड़ा। सुनते हैं कि मंच पर शाह के साथ रमन सिंह, प्रदेश अध्यक्ष अरूण साव व नेता प्रतिपक्ष नारायण चंदेल के लिए ही कुर्सियां लगाई गई थी। बाद में रमन सिंह की पहल पर बृजमोहन अग्रवाल, और सुनील सोनी के बैठने की भी व्यवस्था की गई।
कौशिक पद से हट चुके हैं इसलिए वो आम कार्यकर्ताओं के साथ ही बैठे। इससे परे कुछ दिन पहले प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए गए विष्णुदेव साय की गैर मौजूदगी भी चर्चा में रही। साय न तो अमित शाह के स्वागत के लिए एयरपोर्ट पहुंचे, और न ही ऑडिटोरियम के कार्यक्रम में दिखे।
कलेक्टर के नीचे नहीं रहना...
661 शिक्षकों की तबादला सूची जारी हुई और निरस्त कर दी गई। ये सभी अंग्रेजी माध्यम उत्कृष्ट स्कूल के तबादले थे। स्वामी आत्मानंद स्कूल बड़े कस्बों या शहरों में ही अभी संचालित हैं। इसलिए इन शिक्षकों के साथ सुविधा यह थी कि दूर-दराज के गांवों में उन्हें ड्यूटी नहीं करनी है। इसके अलावा उनको वेतन के अलावा 1500 रुपये का अधिक भुगतान किया जाता है। इस हिसाब से तो उनको तो यहां सुकून होना चाहिए था। पर दूसरा पहलू भी है। उत्कृष्ट विद्यालय में पदस्थ रिजल्ट भी उत्कृष्ट लाने का दबाव होगा। यानि जिस तरह से भवनों की साज सज्जा की गई, संसाधन दिए गए हैं- पढ़ाई का स्तर भी ऊंचा रखना पड़ेगा। तय कर दिया गया है कि इन स्कूलों पर सीधा नियंत्रण कलेक्टर करेंगे। अनेक शिक्षकों को इसी बात की चिंता है। अपने विभाग के अधिकारी बीईओ, डीईओ से तो वे किसी तरह निभा लेंगे, मगर यहां मुश्किल हो जाएगी। दूसरी बात यह भी हुई कि बड़ी संख्या में तबादले की वजह से उत्कृष्ट विद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी हो जाती। ऐसे में जब शिक्षक ही पर्याप्त नहीं होंगे तो शाला को उत्कृष्ट किस मापदंड में माना जाएगा। इस तबादला आदेश के बाद कुछ जिलों में प्राचार्यों ने कलेक्टर से शिकायत की, फिर बात ऊपर पहुंची। कुछ ने तो कह दिया कि जब तक दूसरी पदस्थापना नहीं होगी, स्थानांतरित शिक्षकों को रिलीव नहीं करेंगे। इसके चलते परिस्थिति ऐसी बनी कि पूरी सूची रद्द करनी पड़ी, हालांकि वजह लिपिकीय त्रुटि को बताया जा रहा है। त्रुटि सिर्फ तारीख लिखने में हुई है, जिसे आसानी से संशोधित किया जा सकता था।
माओवादी हिंसा का इतना आसान हल
जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तो बस्तर और सरगुजा मिलाकर कुल 6 जिले माओवादी हिंसा से प्रभावित थे। भाजपा सरकार की विदाई के कुछ महीने पहले जुलाई 2018 में तब के गृह मंत्री रामसेवक पैकरा ने विधानसभा में बताया था कि 14 जिले माओवाद हिंसा से प्रभावित हैं। यानि 8 और जिलों में उनकी पैठ बढ़ी। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कबीरधाम, कवर्धा को इसी साल नक्सल प्रभावित जिलों में शामिल किया था, पर तब सरगुजा, जशपुर को इस सूची से हटाया भी गया था। नक्सल प्रभावित जिलों का निर्धारण सशस्त्र माओवादियों की मौजूदगी, उनकी गतिविधियां, हमला करने की क्षमता, संगठन का विस्तार और सक्रियता के आधार पर किया जाता है। इस साल 2022 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मुंगेली जिले को भी माओवादी हिंसा प्रभावित बताया है। माओवादी हिंसा को खत्म करने राजनीतिक, गैर-राजनीतिक तमाम तरीकों से प्रयास होते रहे हैं। प्रभाव कहीं कहीं कम जरूर हुआ है पर इसके खात्मे में सफलता नहीं मिल पाई है। अब भी जन अदालतें लग रही हैं, अपहरण हो रहे हैं, गश्त में लगे जवानों पर हमला हो रहा है और सडक़ भवन बनाने में बाधा खड़ी की जा रही है। ऐसे में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने रायपुर में कहा कि केंद्र सरकार नक्सल समस्या को चुटकी में हल कर सकती है, बशर्तें अगली बार भाजपा की सरकार बने। यदि शाह ने कोई समाधान सोच रखा है तो उसे अमल में लाने के लिए सरकार बदलने का इंतजार क्यों? इसका मायने तो यह निकल रहा है कि कांग्रेस सरकार नक्सल उन्मूलन में बाधा खड़ी कर रही है? लोग जानना चाहेंगे कि आखिर केंद्र ने क्या कोई सुझाव दिया है, जिस पर छत्तीसगढ़ सरकार ने अमल नहीं किया? केंद्र ने कई नक्सल प्रभावित जिलों में एसआरई ( सुरक्षा संबंधी व्यय) से भी हटा दिया है। शाह के इस बयान को पिछले विधानसभा में क्लीन स्वीप हो चुकी भाजपा को फिर जमीन देने की कोशिश के रूप में देखा जाना ठीक होगा।
विधायक और पति के मिज़ाज
नई नवेली महिला विधायक को सरकार के मंत्री पर तेवर दिखाना भारी पड़ गया। मंत्रीजी ने विधायक को फटकार लगाई, और भविष्य के लिए नसीहत भी दी। यही नहीं, मंत्री ने विधायक का काम करने से मना कर दिया।
हुआ यूं कि पिछले दिनों महिला विधायक अपने पति के साथ मंत्रीजी से मिलने पहुंची थी। महिला विधायक, और उनके पति अपने इलाके में एक ट्रांसफर को लेकर काफी खफा थे। उन्होंने आते ही मंत्रीजी पर गुस्सा दिखाते हुए कह दिया कि उनके क्षेत्र में बिना उनसे पूछे कैसे तबादले कर दिए।
महिला विधायक, और उनके पति के व्यवहार पर मंत्रीजी को गुस्सा आ गया, और उन्होंने विधायक पति को सलीके से बात करने कहा। उनका काम किए बिना चलता कर दिया। महिला विधायक और उनके पति की कई और शिकायतें सीएम तक पहुंची है।
विधायक छत्तीसगढ़ कूच की ओर?
कांग्रेस विधायकों को खरीद-फरोख्त से बचाने के लिए दो ही राज्य राजस्थान और छत्तीसगढ़ रह गए हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की सरकार पर आए संकट के मद्देनजर अब वहां के कांग्रेस विधायकों को भी एकजुट रखने पार्टी के लोग चिंतित हैं। सोरेन सरकार के साथ समर्थन का मामला ऐसा है कि पांच सात विधायक भी इधर से उधर हुए तो सरकार पलट जाएगी। अभी भाजपा मध्यावधि चुनाव की मांग भी उठाने लगी है। 25 अगस्त को कांग्रेस विधायक दल की बैठक में विधायकों को रांची नहीं छोडऩे का निर्देश दिया गया था। इसके बावजूद कुछ विधायकों को लगता है कि क्या पता किस क्षण उन्हें अज्ञात ठिकाने पर शिफ्ट कर दिया जाए। सोशल मीडिया पर एक तस्वीर यह बताते हुए पोस्ट की गई है कि यह मोहगमा की विधायक दीपिका पांडेय सिंह की गाड़ी है। उसमें एक बड़ा सूटकेस और पानी की बोतलें हैं। इसे छत्तीसगढ़ जाने की तैयारी में किया गया इंतजाम कहा जा रहा है।
उत्तर-पुस्तिकाओं की खोज...
सरगुजा जिले के कई कॉलेजों में इन दिनों उन उत्तर पुस्तिकाओं की खोज हो रही है, जो छात्रों ने जमा कराए थे। कोविड के चलते परीक्षा पर ही देनी थी। इत्मीनान से दी गई इन परीक्षाओं में पास होने की लगभग गारंटी थी, पर मार्क शीट आने पर कई छात्र हैरान रह गए क्योंकि उन्हें गैरहाजिर बता कर फेल कर दिया गया है। अब छात्र विश्वविद्यालय और कॉलेजों में दौड़ लगाकर शिकायत कर रहे हैं। ऐसा एक नहीं करीब आधा दर्जन कॉलेजों में है। और प्रभावित छात्रों की संख्या भी 500 या उससे अधिक हो सकती है। कॉलेज प्रबंधन भी मान रहा है कि छात्रों ने उत्तर पुस्तिका लाकर जमा तो की, पर विश्वविद्यालय में पहुंचाने के बाद कहीं गायब हो गईं। खोजबीन के बाद भी जो उत्तर पुस्तिका नहीं मिल पायेंगीं, क्या यूनिवर्सिटी ऐसे छात्रों को दोबारा परीक्षा देने के लिए कहेगी? छात्र शायद ही इस बात को मानेंगे, क्योंकि तब उन्होंने उत्तर-पुस्तिका घर से लिखकर लाई थी, अब तो सेंटर में जाकर देना होगा। वैसे देखना यह भी होगा कि इस तरह की लापरवाही के लिए नैक और यूजीसी, यूनिवर्सिटी और संबंधित कॉलेजों को माइनस मार्किंग देगा या नहीं।
फ्लाईओवर का डिवाइडर...
सडक़ निर्माण के जानकार आर्किटेक्ट और इंजीनियर बताते हैं कि फ्लाईओवर के ऊपर आमतौर पर डिवाइडर फोरलेन या उसी की तरह चौड़ी सडक़ पर बनाई जाती है। महानगरों में ऐसा अक्सर होता है, पर डिवाइडर फ्लाईओवर के बीच से शुरू नहीं किया जाता। वह तो एक छोर से दूसरे छोर तक बनाया जाता है। ऐसा नहीं होता कि फ्लाईओवर के बीच से अचानक डिवाइडर शुरू कर दिया जाए। बीते फरवरी माह में बिलासपुर शहर को रायपुर की ओर जोडऩे वाले इस टू लेन फ्लाईओवर का उद्घाटन हुआ। तब, डिवाइडर को कई लोगों ने खतरनाक बताया था। उन्होंने नक्शा देखकर निर्माण के पहले भी आगाह किया था। कलेक्टर, नगर-निगम और पीडब्ल्यूडी के अधिकारियों के साथ पत्राचार भी किया। डिवाइडर के भीतर घुसी यह कार तो एक दुर्घटना का दृश्य है। आए दिन दो-पहिया चार पहिया वाहन इसमें टकराते रहते हैं। जो नहीं टकराते वे अचानक डिवाइडर देखकर स्टेयरिंग से संतुलन खो बैठते हैं।
हड़तालियों के पगार की चिंता
फेडरेशन की हड़ताल वैसे असरदार दिखाई दे रही है। कर्मचारी नेता मशाल और न्याय रैली निकालकर हड़तालियों में जोश भर रहे हैं। रजिस्ट्री ऑफिस में जमीन का लेन-देन ठप है। कुछ श्रेणियों के शिक्षक स्कूल नहीं जा रहे हैं। कई अदालतों में काम नहीं हो पा रहा है। राजस्व मामलों को निपटाने शिविर लगाने की इसी बीच योजना बनी थी, वह भी स्थगित है। पर, जैसे-जैसे यह आंदोलन लंबा खिंचता जा रहा है, कर्मचारियों के माथे पर चिंता की लकीरें दिखाई देने लगी हैं। खिंचते-खिंचते माह की आखिरी तारीख का नजदीक आ गई। पांच दिन बाद भी सरकार की तरफ से ऐसा कोई संकेत नहीं है। इधर, लोगों की पगार, वेतन पत्रक तैयार करने का काम रुक गया है। ट्रेजरी में आखिरी हफ्ते में बिल जमा होना शुरू हो जाता है पर अधिकांश जिलों में हड़ताल के कारण ये जमा नहीं हो पाए हैं। कुछ एक विभाग ऐसे होंगे जिनके अधिकारी कर्मचारियों को पहली तारीख हो , न हो फर्क नहीं पड़ता। पर आंदोलन में शामिल अनेक कर्मचारी सोच रहे हैं कि हड़ताल जल्द खत्म होने की उम्मीद क्यों नहीं बन रही है। कम से कम वेतन तो समय पर निकल जाता।
उद्योगों का चौतरफा विरोध
औद्योगिक विकास किसी राज्य की तरक्की के लिए बहुत जरूरी है। इधर, एमओयू होने से लेकर उद्योगों की स्थापना और उत्पादन शुरू करने की प्रक्रिया के बीच लंबी दूरी होती है। सन् 2012 में एक बड़ा ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट छत्तीसगढ़ में रखा गया था। इसमें 275 एमओयू किए गए थे, जिनमें 3 लाख करोड़ रुपये के निवेश का समझौता हुआ था। इनमें से 103 एमओयू 2020 में निरस्त कर दिए, क्योंकि इनमें कोई काम ही नहीं हुआ। जो उद्योग लगे उनमें 78 हजार करोड़ रुपये का ही वास्तविक निवेश का अनुमान है। दिसंबर 2020 में रायपुर में हुए सीआईआई के कार्यक्रम में बताया गया था कि नई सरकार ने 153 एमओयू किए। सरकार का जोर रूरल इंडस्ट्री की तरफ ज्यादा रहा। गौठानों को माइक्रो इंडस्ट्रियल पार्क के रूप में विकसित करने का लक्ष्य भी है। वनोपज और मैदानी इलाकों में ली जाने वाली फसलों से जुड़े उद्योगों को बढ़ावा देने की है। इसमें कितनी सफलता मिली है, इस पर कोई ताजा आंकड़ा नहीं आया है। पर निवेशकों की ज्यादा रूचि स्टील और दूसरे खनिज उत्पादों की ओर है। इसकी क्या स्थिति है, बस्तर से मिल रही रिपोर्ट से अनुमान लगाया जा सकता है। बस्तर में निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने विशेष रियायतें और अनुदान तय किए हैं। पर यहां 16 उद्योगों की नींव एमओयू के दो साल बाद भी नहीं रखी जा सकी। जगदलपुर के समीप स्थित लोकापाल से खबर है कि पिछले दिनों दो उद्योगों के लिए जमीन का सीमांकन करने राजस्व अमला पहुंचा, पर ग्रामीणों के विरोध के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा। बस्तर में सरकारी प्रोत्साहन तो है पर अधिकांश भूमि वन है। स्थानीय ग्रामीण इसमें हस्तक्षेप के लिए तैयार नहीं हैं। राजस्व भूमि प्रशासन को ढूंढे नहीं मिल रही है। कल ही रावघाट से लौह अयस्क के खनन के लिए जा रही मशीनों को ग्रामीणों ने लौटा दिया। सरगुजा, जशपुर और रायगढ़ में उद्योगों के खिलाफ हो रहे आंदोलन तो सुर्खियों में है हीं। कोविड काल को लेकर सरकार ने बताया था कि लगातार लॉकडाउन के बाद भी उद्योगों में उत्पादन जारी रखने के लिए किए गए उसके प्रयासों के चलते जीएसटी कलेक्शन प्रदेश में बहुत अच्छा रहा। राज्य की आर्थिक सेहत अच्छी करने के लिए उद्योग तो जरूरी हैं, पर अब लोग जमीन छोडऩे के लिए राजी नहीं हैं। दरअसल, पर्यावरण, वायु प्रदूषण, जंगल और जल-स्त्रोत का दोहन, रोजगार, उद्योग में हिस्सेदारी से जुड़ी चिंताओं को दूर करने में सरकारें विफल रहती हैं, उद्योग जगत वायदाखिलाफी करता है।
संयम और समझदारी...
राजधानी में बेरोजगारी के मुद्दे पर भाजपा ने जबरदस्त भीड़ जुटा ली। इंटेलिजेंस को इसका अंदाजा लग गया था। इसीलिए कई बड़े बेरिकेड्स तो ऐसे थे, जो पहली बार देखे गए। जगह-जगह इन्हें लांघते हुए प्रदर्शनकारी सीएम हाउस की ओर बढ़ते गए। अंत में वे करीब 100 मीटर की दूरी तक भी पहुंच चुके थे। इसी बीच भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष तेजस्वी सूर्या और दूसरे प्रमुख नेताओं ने आंदोलन समाप्त करने का ऐलान कर दिया। प्रदर्शनकारी आगे नहीं बढ़े। यदि और आगे कार्यकर्ता बढ़ते तब जो स्थिति बनती वह किसी न किसी अप्रिय घटना की वजह बन जाती।
दूसरी तरफ जिस तरह से जिस तरह से अवरोधकों को पार करने के लिए बड़ी संख्या में एक साथ युवा मोर्चा कार्यकर्ता जोर लगा रहे थे वह पुलिस जवानों का संयम खोने के लिए काफी था। फिर भी पुलिस ने एक भी बार बल प्रयोग नहीं किया। ऊपर से ऐसा निर्देश भी था कि किसी भी स्थिति में लाठी न भांजे। नौबत आएगी तो आला अफसर मौके पर ऑर्डर देंगे। बल प्रयोग करने से स्थिति और बिगड़ जाती।
इस प्रदर्शन को लेकर लोग 2003 की उस घटना को भी याद कर रहे हैं जब भाजपा ने प्रदर्शन किया था और प्रशासन ने तब खूब सख्ती दिखाई थी। नंदकुमार साय, छगन मूंदड़ा, योगेश अग्रवाल जैसे कई नेता-कार्यकर्ताओं पर लाठियां चलाई गई और वे बुरी तरह घायल हो गए थे। यह चुनाव के कुछ महीने पहले की ही बात थी। तब कांग्रेस के हाथ से सरकार फिसल गई थी।
कुल मिलाकर बड़ा प्रदर्शन होने के बाद भी भाजपा नेताओं ने संयम दिखाया, सही समय पर कार्यकर्ताओं को आगे जाने से रोका और सरकार ने बल प्रयोग नहीं करने का दूरदर्शी फैसला लिया। पुलिस ने इस आदेश का पालन करके भी हालात को काबू में रखा।
हड़ताली सीएम को बधाई देने भी गए थे
डीए बढ़ाने की मांग पर अड़े कर्मचारी हड़ताल पर हैं। हड़ताल की वजह से विशेषकर जिलों में कामकाज ठप-सा है। कुछ संगठन हड़ताल से अलग हैं। बावजूद इसके कामकाज सामान्य नहीं हो पा रहा है।
संस्कृति संचालनालय का हाल यह है कि कुल 5 कर्मचारी काम कर रहे हैं। इनमें से चार परवीक्षाधीन हैं। एक कर्मचारी हड़ताल से अलग गुट से जुड़ा है। यही हाल बाकी दफ्तरों का भी है। सरकारी स्कूलों में भी पढ़ाई बंद हैं।
कुछ कर्मचारियों को उम्मीद थी कि सीएम के जन्मदिन के मौके पर कुछ बात बनेगी। हड़ताली फेडरेशन के पदाधिकारी सीएम को बधाई देने भी गए थे। सीएम ने बधाई स्वीकारी भी लेकिन माहौल ऐसा था कि कर्मचारी अपनी बात रख पाए, और न ही सीएम ने कुछ कहा। फिर भी बीच का रास्ता निकालने की कोशिश हो रही है।
भीड़ नहीं जुटी, लेकिन सफल
भाजयुमो के प्रदर्शन में अपेक्षाकृत भीड़ नहीं जुटी, लेकिन कार्यक्रम को सफल माना जा रहा है। वैसे तो एक लाख युवाओं के आने का दावा किया गया था, लेकिन 15 हजार लोग ही जुट पाए। कार्यक्रम को सफल बनाने में क्षेत्रीय महामंत्री अजय जामवाल की भूमिका अहम रही।
सुनते हैं कि जामवाल ने कुशाभाऊ ठाकरे परिसर में भीड़ को लेकर चिंतन मनन कर रहे नेताओं को झाड़ दिया, और उन्हें फील्ड जाकर भीड़ जुटाने के लिए कहा। सबसे ज्यादा भीड़ रायपुर से ही लाने का लक्ष्य रखा गया था। जामवाल ने हर वार्ड से सौ-सौ लोगों को लाने का टारगेट दिया था। उनकी कोशिशों का प्रतिफल यह रहा कि पार्टी के अंदरखाने में जितनी भीड़ आने की उम्मीद थी, तकरीबन उतनी जुट भी गई। कार्यक्रम की कमान बृजमोहन अग्रवाल ने संभाल रखी थी। उन्होंने साधन-संसाधन में कहीं कोई कमी बाकी नहीं रखी। पिछले कुछ समय से युवा मोर्चा अध्यक्ष अमित साहू को बदलने की अटकलें भी चल रही थी, मगर कार्यक्रम की सफलता के बाद कोई बदलाव होगा ऐसा दिखता नहीं है।
सियासत ही सत्य है..
सही है, भाजपा का यह कहना कि छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने बेरोजगार युवाओं को नौकरी देने का वायदा नहीं निभाया। युवा मोर्चा ने जबरदस्त प्रदर्शन किया। दिसंबर तक अल्टीमेटम देकर भी अच्छा किया। सरकार को रोजगार देना ही चाहिए आखिर चुनाव में वायदा किया था। भरोसा करके वोट दिया, तोडऩा ठीक नहीं।
इधर कांग्रेसी भी गलत नहीं कह रहे। भाजपा ने 2003 से लेकर 2013 तक के चुनावों में कई वायदे युवाओं के लिए किए। 500 रुपये भत्ता, स्थानीय उद्योगों में अनिवार्य कैंपस सलेक्शन, स्थानीय लोगों को 90 प्रतिशत नौकरियां..। केंद्र सरकार तो 2 करोड़ रोजगार हर साल देने के वायदे से ही मुकर गई। ठीक ही कर रही है युवक कांग्रेस आंदोलन करके।
मतलब यह है कि दोनों ही पार्टियां अपनी-अपनी जगह सही हैं। दोनों एक दूसरे की बराबर खिंचाई कर रही है। एक के आरोप के जवाब में दूसरे का प्रत्यारोप। हिसाब बराबर..। सियासत ही सत्य है..। असल समस्या जो पढ़ लिखकर काम तलाश रहे युवाओं से जुड़ी है, उनकी बात फिर कभी..।
बघ नक्खा की ऑनलाइन शॉपिंग
छत्तीसगढ़ के खेतों में मेड़ पर बघ नक्खा ऐसे ही उग आते हैं। इसकी खेती करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। इसका अंग्रेजी नाम डेविल क्लॉ है। ग्रामीण इसका इस्तेमाल सदियों से दर्द, लीवर और गुर्दे की समस्याओं से छुटकारा पाने अपने हिसाब से करते आ रहे हैं। वैज्ञानिकों ने पता किया है कि मलेरिया और बुखार में भी यह लाभदायक है। अब जब दुनियाभर में लोगों का रुझान प्राकृतिक चिकित्सा की ओर बढ़ रहा है, इसकी मांग शहरों, महानगरों में भी होने लगी है। यही वजह है कि ऑनलाइन शॉपिंग ऐप अमेजॉन पर यह उपलब्ध कराया गया है। 25 पीस के सिर्फ 299 रुपये..। जब पहले से ही गोबर और उससे बने कंडे की बिक्री ऑनलाइन हो रही हो, तो बघ नक्खा की क्यों नहीं हो सकती?
यूरोप की सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा
अमृत महोत्सव पर लोगों ने अपने घरों, संस्थानों में ध्वज फहराया, पर कवर्धा की रहने वाली महिला सिपाही अंकिता गुप्ता ने 15 अगस्त को यूरोप की 18 हजार 500 फीट, सबसे ऊंची पर्वत चोटी एलब्रुस पर तिरंगा लहराया। पर्वतारोहण में छत्तीसगढ़ का नाम फिर ऊंचा हुआ। खास बात यह है कि जिस तिरंगा को उन्होंने इस चोटी पर फहराया, उसे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उन्हें 3 अगस्त को रवानगी के पहले भेंट किया था।
और इधर खदान शुरू करने की मांग
हसदेव अरण्य में पीईकेबी के दूसरे चरण के लिए पेड़ों की कटाई रोकने के बाद भी आंदोलन जारी है। प्रभावित आदिवासियों को लगता है कि जिस दिन वे धरना रोक देंगे, खदान का काम तेजी से चल निकलेगा। अभी भी वहां फारेस्ट क्लीयरेंस यथावत है। केंद्र की लीज भी कायम है। पेड़ों की कटाई बंद है पर मशीनें वहां लग रही हैं। इसलिए आशंका जायज है। राजस्थान बिजली बोर्ड (आरआरवीयूएनएल) और एमओडी धारक अडानी समूह की ओर से अब तक सरकार और प्रशासन पर कई दबाव डाले जा चुके हैं। स्वयं राजस्थान के मुख्यमंत्री सामने आए। अधिकारियों का दल मंत्रालयों में तो पहुंचता ही रहा। उन्होंने सरगुजा, सूरजपुर के अफसरों को यह समझाने का प्रयास किया कि 30 जून तक खदान का काम शुरू नहीं हुआ तो अंधेर हो जाएगा, तब पेड़ काटने के लिए पुलिस फोर्स की सुरक्षा भी दे दी गई। अडानी समूह ने सोशल मीडिया, प्रेस नोट और आउटडोर विज्ञापनों को भी हथियार बनाया। कुछ स्थानीय लोगों को बैनर पोस्टर लेकर खदान के समर्थन में तस्वीर छापी गईं। अब सरगुजा में स्थानीय ग्रामीणों की एक रैली निकली है। वे अगले चरण की परियोजना को आगे बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। बिलासपुर मार्ग पर साल्ही ग्राम में वे बीते एक सप्ताह से धरने पर भी हैं। उनका कहना है कि मौजूदा खदान जल्दी बंद होने वाला है। पेटी ठेकेदार के अंदर वे काम करते हैं, जो उनकी ड्यूटी में कटौती करने लगे हैं। खदान की बदौलत चल रहा व्यापार खत्म हो जाएगा। अच्छी शिक्षा और अस्पताल से वंचित हो जाएंगे। रैली में करीब 100-150 लोग शामिल थे। हालांकि दावा है कि 5000 लोगों का रोजगार छिन जाएगा।
एक पक्ष यह भी है कि पहली खदान बंद होने की आज नौबत आई है तो दूसरी खदान जो खुलेगी वह भी दोहन के बाद कुछ सालों में बंद हो जाएगी। फिर रोजगार, अस्पताल और स्कूल भी कौन सी कंपनी चलाना चाहेगी? जंगल और उससे मिलने वाली आमदनी तो खत्म हो ही चुकी रहेगी। ऐसा चिरमिरी, कोरबा, बैलाडीला, अमरकंटक जैसे बंद हो चुकी खदानों के कई उदाहरण सामने हैं। ऐसी स्थिति में तो हसदेव को बचाने लिए किए जा रहे अपने आंदोलन को वहां के आदिवासी सही भी ठहरा सकते हैं।
गुम मोबाइल पुलिस के कब्जे में...
पुलिस ने चोरी किए गए ये फोन बरामद किए हैं। इनकी संख्या 120 है, जो चुरा लिए या गुम हो गए थे। बिलासपुर पुलिस ने एक समारोह रखा। सभी मोबाइल फोन धारकों को बुलाया और तस्वीरें खिंचवाकर उन्हें फोन वापस किए गए। जो तस्वीरें आईं उनसे लगा कि मोबाइलधारक इनाम पा रहे हैं। पर बात यह है कि ये फोन एक दिन में तो जब्त किए नहीं गए। जब्त मोबाइल को पुलिस बरामद होने के तुरंत बाद नहीं लौटाती। महीनों तक थानों में जमा करके रखा जाता है। बहुत से लोगों को इस बीच पता ही नहीं चलता कि उनका फोन मिल चुका है। उम्मीद छोड़ दी और नया खरीद लिया। एक अफसर का कहना है कि ऐसा तो हर जिले में होता है। मोबाइल जब्त होते ही लौटाने लगें तो पुलिस को शाबाशी कैसे मिलेगी? दिलचस्प यह भी है कि इनमें से कई फोन ऐसे हैं जिसमें चुराने वाले ने ही मालिक का नाम बताया, फिर उसे थाने बुलाया गया और एफआईआर दर्ज करने की औपचारिकता पूरी की गई।
सरपंचों को पेंशन क्यों नहीं?
सरपंचों के एक संगठन ने प्रदेशव्यापी हड़ताल शुरू की है। कर्मचारियों, अधिकारियों की हड़ताल की शोर में यह घटना दब गई है। वैसे भी सरपंचों को रोजाना दफ्तर जाने जैसा काम करना नहीं पड़ता। इसलिए भी असर दिखाई नहीं दे रहा है। इन्होंने 11 मांगें रखी हैं, जिनमें जोर इस बात पर भी दिया है कि कार्यकाल खत्म होने के बाद उन्हें भी विधायकों-सांसदों की तरह आजीवन पेंशन दें। ज्यादा बड़ी रकम नहीं, केवल 10 हजार रुपये महीने की मांग कर रहे हैं। विधायक भी पांच साल के बाद पेंशन पाने लगते हैं, फिर उन्हें क्यों नहीं मिले? अभी जरूर ग्राम पंचायतों में इतना फंड, खासकर केंद्रीय मदों से आने लगा है कि सरपंच चुनाव भी विधायक-सांसद चुनाव की तरह लड़ा जाने लगा है। खूब पैसा खर्च किया जाता है। पर यह सब पांच साल के लिए ही होता है। उसके बाद क्या? सरकार ने यह मांग अगर मांग ली तो सरपंची में करियर बनाने के लिए ज्यादा होड़ मच जाएगी।
पढ़ाई से दूर हजारों बच्चे...
सरसरी नजर से हाल का यह आंकड़ा अच्छा दिखता है कि शाला छोडऩे वाले 94 प्रतिशत बच्चों को वापस पढ़ाई की ओर खींच लाया गया है। पर दूसरा पहलू यह भी है कि 6 प्रतिशत बच्चे अब पढ़ाई से दूर हो चुके। उनका बचपन किसी और काम में गुजर रहा है। कोविड संक्रमण के दौर में स्कूलों के बंद होने के कारण बहुत से बच्चों को पढ़ाई बंद करनी पड़ी। पूरे प्रदेश में छोटे बजट पर चलने वाले दर्जनों निजी स्कूल भी बंद हो गए जो दोबारा नहीं खुले। माओवाद प्रभावित बस्तर की रिपोर्ट है कि पिछले 3 साल में 40 हजार बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी। इनमें 9वीं, 10वीं की पढ़ाई अधूरी छोडऩे वाले भी हैं। ये आने वाले दिनों के युवा बेरोजगार होंगे। माओ हिंसा से बस्तर को मुक्त कराने के अभियान पर इसका क्या असर होने वाला है, सुरक्षा कमान संभाल रहे अधिकारियों को इसकी फिक्र जरूर होगी। यूनिफाइड ड्रिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम ऑफ एजुकेशन (यूडीआईएसई) की सन् 2020-21 की रिपोर्ट है कि पूरे देश में अनुसूचित जाति के 15.3 और जनजाति वर्ग के 29,9 प्रतिशत बच्चे कोरोना के दिनों में पढ़ाई बंद होने के बाद वापस स्कूल नहीं लौटे। छत्तीसगढ़ में इन दोनों ही वर्गों की बड़ी संख्या है। इधर, सन् 2020 में समग्र शिक्षा नीति के तहत छत्तीसगढ़ ने संकल्प लिया है कि आने वाले दस साल में यानि 2030 तक ड्रॉप आउट प्रतिशत को शून्य किया जाएगा। पर, इन आंकड़ों से ऐसा तो लगता नहीं है कि उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कोई बड़ी कोशिश हो रही है।
जनसुनवाई रुकने का श्रेय किसे?
जशपुर के बगीचा ब्लॉक में बॉक्साइट खनन के लिए सितंबर में तय पर्यावरणीय जनसुनवाई स्थगित कर दी गई। इसका श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? संसदीय सचिव यूडी मिंज ने मुख्यमंत्री से बात की और अधिकारियों को उन्होंने इसके बारे में निर्देश जारी कर दिया।
जशपुर प्रदेश के दूसरे आदिवासी बाहुल्य जिलों से इस मामले में भिन्न है कि यहां पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों और विकास कार्यों का चौतरफा विरोध हो जाता है। सहमति नहीं बनने के कारण यहां रेल लाइन भी नहीं आ सकी, जबकि रांची ज्यादा दूर नहीं है। पहले आम लोगों का विरोध शुरू होता है फिर मंच, राजनीतिक दल सुर मिलाते हैं। भाजपा ने जब इस बॉक्साइट के विरोध में बीते दिनों प्रेस कांफ्रेंस ली तो कांग्रेस विधायकों की तरफ से भी बयान आ गया कि स्थानीय लोगों के हित के खिलाफ कोई काम सरकार नहीं करेगी। स्थानीय आदिवासियों का संगठन व पूर्व मंत्री गणेश राम भगत का जनजाति सुरक्षा मंच भी विरोध में उठ गया। ऐसे में भाजपा सांसद गोमती साय का यह कहना काफी हद तक सही है कि जन-सुनवाई टलने का श्रेय कांग्रेस को नहीं, जनता को जाता है। पर मिंज की ओर से सामने लाया गया यह तथ्य भी गौर करने के लायक है कि बॉक्साइट खनन की लीज देने की प्रक्रिया भाजपा के शासनकाल में सन् 2006 में शुरू की गई थी। ऐसे में यह साफ नहीं हो रहा है कि जनसुनवाई लीज आवंटन के 15-16 साल बाद सुनवाई कैसे शुरू होने जा रही थी।
बारिश से बचने की जुगत..
इन दिनों छत्तीसगढ़ के ज्यादातर जिले बारिश से सराबोर हैं। रेनकोट पहनने, उतारने, सुखाने के अपने झंझट हैं। इसलिये जशपुर में एक शख्स ने अपनी स्कूटर में यह खास छतरी लगाई है। वैसे पीछे बैठने में पुरुषों को कुछ दिक्कत हो सकती है कि दूसरी टांग किधर से डालें।