राजपथ - जनपथ
बयानों की जंग बंदरों के मुंह से!
एआई की मेहरबानी से अब किसी भी असली या नकली इंसान को किरदार बनाकर उसके प्रवचन और भाषण करवाए जा सकते हैं, और उसके वीडियो भी किसी-किसी आवाज में सुनाए जा सकते हैं। इन दिनों ऐसे ही एक बंदर का किरदार बड़ा चल रहा है जो भारत के राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक मुद्दों को लेकर बड़ी तल्ख जुबान में भाषण देता है। किसी-किसी वीडियो में वह किसी प्रवचनकर्ता की तरह भगवा कपड़ों में धर्म और आध्यात्म की भाषा में भी लोगों को जगाते दिखता है।
इंसानों की कही हुई बातों में लोगों की दिलचस्पी कुछ कम होती चल रही है, और दुनिया की कार्टून फिल्मों का इतिहास बताता है कि जानवरों के किरदार लोगों को बांध लेते हैं। हो सकता है कि अब इस बंदर की सोच के खिलाफ इसकी विपरीत सोच वाले कई बंदर भी गढ़ लिए जाएं, और सोशल मीडिया पर बयानों की जंग बंदरों को सामने रखकर लड़ी जाए!
वकील साहब का हमला जारी

छत्तीसगढ़ प्रदेश भाजपा के ऑफिस प्रभारी और उसके जाने-पहचाने वकील चेहरे एडवोकेट नरेशचन्द्र गुप्ता की बेचैनी सोशल मीडिया पर तरह-तरह के तंज कसकर निकल रही है। हर कुछ घंटों में वे पार्टी, या पार्टी की सरकार पर कोई न कोई तीर चलाते रहते हैं। कुछ हफ्ते पहले उन्होंने शराब घोटाले की जांच को लेकर बड़ा साफ-साफ आरोप लगाया था कि राज्य की जांच एजेंसियां आरोपियों पर पर्याप्त कार्रवाई नहीं कर रही हैं, और वे इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक जाएंगे। अब वे एक्स पर लिख रहे हैं-
- चाकू, खंजर, तीर, और तलवार लड़ रहे थे कि कौन ज्यादा गहरा घाव देता है, शब्द पीछे बैठे मुस्कुरा रहे थे।
- गलत को गलत कहने की क्षमता नहीं है, तो प्रतिभा व्यर्थ है।
- यह कभी मत मानो कि जिसके पक्ष में बहुत से लोग हैं, वही सच्चा मनुष्य है, क्येंकि दुर्योधन के पक्ष में 90 फीसदी लोग थे।
- मैं जैसा भी हूं, पर झूठा नहीं हूं, फिक्र तो वो करे जो बोलते कुछ हैं, करते कुछ हैं, और होते कुछ हैं।
- धूर्तता तो निर्बलों का अधिकार है, बलवान कभी नीच नहीं होता।
- जिनका नजरिया ही गलत हो, उनके सामने सफाई देना समय बर्बाद करने जैसा है।
- बदनाम तो बहुत हूं इस जमाने में, तू बता तेरे सुनने में कौन सा किस्सा आया है?
- अगर अंधे को दिखने लग जाए, तो सबसे पहले वह उस छड़ी को फेंकता है जिसने उसका हमेशा साथ दिया।
- खुद के आंसू पोंछने वाला इंसान जीवन के हर तूफान का सामना करने में सक्षम होता है।
- फन कुचलने का हुनर सीखिए जनाब, सांपों के डर से जंगल नहीं छोड़े जाते।
सोशल मीडिया पर उनके हमले की शुरूआत के बाद उसी सिलसिले की कड़ी के रूप में लिखी हुई इस तरह की और भी बहुत सी बातें उन्होंने पोस्ट की हैं, देखना होगा कि भाजपा में अभी सरकार की बची हुई कुर्सियां तय करने वाले लोग इन बातों को पढ़ पाते हैं या नहीं।
अब बैंक निशाने पर
प्रदेश के जिला सहकारी केन्द्रीय बैंक में अध्यक्षों की नियुक्ति जल्द हो सकती है। सरकार बदलने के बाद ज्यादातर जगहों पर कलेक्टर ही अध्यक्ष के प्रभार पर हैं। चर्चा है कि भाजपा के सहकारिता नेताओं ने सरकारी बैंकों में नियुक्ति के लिए दबाव बनाया है। कुछ सांसदों ने भी सीएम, और पार्टी संगठन प्रमुख नेताओं से चर्चा कर बैंकों में नियुक्ति के लिए अनुशंसा की है।
बताते हैं कि रायपुर जिला सहकारी केन्द्रीय बैंक के लिए वरिष्ठ नेता अशोक बजाज का नाम उभरा है। चर्चा है कि सांसद बृजमोहन अग्रवाल भी बजाज के नाम पर जोर दे रहे हैं। बजाज पहले भी बैंक के डायरेक्टर रहे हैं। इससे परे राजनांदगांव में सचिन बघेल कोर्ट के आदेश पर अध्यक्ष पद पर काबिज हैं। उनका भी कार्यकाल खत्म हो रहा है। यहां से सहकारिता नेता शशिकांत द्विवेदी के नाम की भी चर्चा है। दुर्ग, बिलासपुर, और अंबिकापुर में भी सहकारिता नेता बैंक अध्यक्ष पद के लिए जोर आजमाइश कर रहे हैं।
हालांकि नियुक्तियों के मसले पर पार्टी के भीतर विचार मंथन चल रहा है। कुछ नेता जल्द से जल्द सहकारिता चुनाव कराने पर जोर दे रहे हैं। भूपेश सरकार में सहकारिता चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई थी, लेकिन बाद में अटक गई। भूपेश सरकार ने बैंक अध्यक्ष पद पर पार्टी नेताओं की नियुक्ति कर दी गई थी।
सरकार बदलने के बाद अब चुनाव की प्रक्रिया शुरू करने के लिए दबाव है। हालांकि प्राथमिक सहकारी समितियों से बैंकों के अध्यक्ष पद के चुनाव तक की प्रक्रिया में छह महीने का समय लगता है। ऐसे में चुनाव की लंबी प्रक्रिया में जाने के बजाय सीधे पार्टी नेताओं को बैंक की कमान सौंपने पर विचार हो रहा है। देखना है आगे क्या होता है।
खेल के लिए कोशिशें
सीएम विष्णुदेव साय के ओलंपिक संघ अध्यक्ष बनने के बाद प्रदेश में खेल गतिविधियों बढ़ावा देने के लिए कोशिशें हो रही है। संघ के महासचिव विक्रम सिसोदिया ने पिछले दिनों कार्यकारिणी की बैठक में आधा दर्जन सुझाव दिए थे, जिस पर सीएम ने सहमति दे दी है।
ओलंपिक संघ में सांसद बृजमोहन अग्रवाल, और वन मंत्री केदार कश्यप समेत दस उपाध्यक्ष हंै। बृजमोहन अग्रवाल को छह महीने पहले कार्यकारी अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव भी पारित किया गया था। मगर आदेश अब तक नहीं निकल पाया है। बृजमोहन की गैरमौजूदगी में पिछले दिनों खेल गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए संघ की बैठक में प्रस्ताव पारित किया गया था। उस पर अमल भी हो रहा है।
छत्तीसगढ़ में साई का रीजनल सेंटर स्थापित करने का प्रस्ताव है। संघ के महासचिव विक्रम सिसोदिया ने इस सिलसिले में केन्द्रीय खेल मंत्री डॉ. मनसुख भाई मांडविया से चर्चा की है। उन्होंने संघ के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी है। साई का रिजनल सेंटर, जो अभी भोपाल में है, वह रायपुर में खुल सकता है। यही नहीं, उत्कृष्ट खिलाडिय़ों की घोषणा भी जल्द हो सकती है। देखना है आगे क्या कुछ होता है।
मवेशियों के मालिक आखिर हैं कहां?

राजमार्गों पर मवेशियों की मौतें थम नहीं रहीं है। प्रशासन की पकड़ कमजोर है, समाधान अधूरा। बिलासपुर में बीते पंद्रह दिनों में ही करीब 70 मवेशियों की हाईवे पर दुर्घटनाओं में मौत हो चुकी है। बड़ी गाडिय़ों की चपेट में आकर मवेशियों की ऐसी दर्दनाक मौतों को लेकर हाईकोर्ट की फटकार ने अब प्रशासन को कुछ सख्ती बरतने के लिए मजबूर किया है।
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट इस मुद्दे को लेकर पहले ही कई बार चिंता जता चुका है। पिछले साल कोर्ट ने निर्देश दिया था कि राज्य स्तर से लेकर पंचायतों तक मवेशियों के प्रबंधन के लिए समितियों का गठन किया जाए, ताकि सडक़ों पर मवेशियों की आवाजाही और इससे होने वाली दुर्घटनाओं को रोका जा सके। अब जब कोर्ट ने प्रगति पर सवाल उठाया, तो प्रदेशभर में ताबड़तोड़ कार्रवाइयां शुरू हो गईं।
बिलासपुर में दो पशुपालकों को गिरफ्तार किया गया, दुर्ग जिले में 36 के खिलाफ कार्रवाई हुई, और कुछ अन्य जिलों में भी इसी तरह के सीमित उदाहरण हैं। लेकिन हकीकत यह है कि किसी भी हाईवे से गुजर जाइए, हजार से ज्यादा मवेशी यूं ही सडक़ किनारे बैठे मिल जाएंगे। तो बाकी मवेशियों के मालिक कहां हैं। मौत के बाद भी कहां पता चलता है कि इनके मालिक कौन हैं?
बिलासपुर नगर निगम ने अभियान चलाकर कुछ ही दिनों में 1500 से ज्यादा मवेशियों को पकड़ा। मवेशी के मालिकों का पता नहीं चला तो उनको अलग-अलग बाड़ों में ले जाकर बंद कर दिया। मगर बाड़े भी अब कम पड़ रहे हैं।
गांवों में कोटवार, पंच-सरपंच और राजस्व अमला मवेशियों के मालिकों की पहचान कर सकते हैं। मगर सवाल यह है कि क्या वे सचमुच ऐसा करना चाहते हैं? कई के मालिक तो उनमें से भी निकलेंगे।
समस्या की जड़ कहीं गहरी है। इन मवेशियों में अधिकतर गायें और बछड़े हैं, जिन्हें किसान या पशुपालक अब उपयोगी नहीं मानते। उनकी हालत ज्यादा खराब है जो बूढ़े हो चुके हैं, बीमार हैं या दूध देना बंद कर चुके हैं। जब तक ये आय का जरिया थे, तब तक इनसे श्रद्धा और ममता थी। मगर अनुपयोगी होते ही ये बोझ बन गए। पशुपालक इन्हें खुला छोड़ देते हैं और जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेते हैं।
एक बड़ी सामाजिक-राजनीतिक जटिलता भी है। गौरक्षा के नाम पर बने डर के चलते कोई पशुपालक इन पशुओं को बेच भी नहीं पाता। जो गौठान योजना मवेशियों की देखरेख के लिए बनी थी, वह बीते शासन में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई। नई सरकार ने सत्ता में आते ही गौठानों को दी जा रही सहायता बंद कर दी। नतीजा यह हुआ कि अधिकांश गौठान बंद हो गए। नई सरकार ने वन अभयारण्य बनाने की घोषणा जरूर की थी, पर योजना अब तक धरातल पर नहीं उतर पाई है। राज्य की गौशालाएं भी सीमित क्षमता, दाना-पानी और इलाज की कमी से जूझ रही हैं। कई बार गौशालाओं में सामूहिक पशु मृत्यु के मामले भी सामने आ चुके हैं, जिनमें पशुपालकों द्वारा सरकारी अनुदान के दुरुपयोग की बात उजागर हुई। स्थायी समाधान फिलहाल नजर नहीं आता। हाईकोर्ट सख्त है, प्रशासन कार्रवाई कर रहा है, पर जब तक पशुपालकों की इच्छाशक्ति, सामाजिक भागीदारी और आर्थिक व्यवहार के पहिए नहीं जुड़ते, ये मवेशी ऐसे ही सडक़ों पर मरते रहेंगे।


