रायपुर, 24 अगस्त। ‘‘ संसार में अनासक्ति और शांति से जीने का पहला मंत्र है- जीवन के प्रत्येक कार्य को सजगता पूर्वक करें। हर गलती के प्रति हमेशा सावधान रहें। जिंदगी बड़ी गजब की है कि व्यक्ति शरीर रूपी काली मिट्टी को स्वर्ण रूपी चमकीली मिट्टी से सजाता है अर्थात् मिट्टी को मिट्टी से सजाता है और मुस्कुराता है।
भगवान महावीर कहते हैं इसी का नाम मिथ्यात्व है। जड़ से जड़ को, पुद्गल से पुद्गल को सजाया जाता है और चेतना मुस्कुराती है। महावीर प्रभु कहते हैं- इसी का नाम मिथ्यात्व है। संसार में जीना हमारा धर्म है पर संसार में फंसना और भीतर संसार को उतार लेना ये हमारा धर्म नहीं है। संसार में रहें पर बहुत सजगतापूर्वक रहें, प्रत्येक कार्य को सजगता और शांतिपूर्वक कीजिए।
और इस बोध को बनाए रखिए कि ये अलग है और मैं अलग हूं। मैं अलग हूं-शरीर अलग है, नाव अलग है-नाविक अलग है इसका बोध हो जाना, इसी का नाम भेद विज्ञान है। संसार में जीने का दूसरा मंत्र है- जो भी परिणाम आ जाए उसे हमेशा सहजता से स्वीकार कर लो। ठीक है ऐसा होना था, हो गया, कोई बात नहीं। जीवन में जितनी जरूरी सजगता है उतनी ही जरूरी सहजता भी है। संसार में अनाक्ति और शांति से जीने का तीसरा मंत्र है- जीवन को बहुत शांति से जियो। जो मिला है-भाग्य से ज्यादा मिला है।
क्योंकि इच्छाएं तो आकाश की तरह अनंत हैं। जो व्यक्ति इन मंत्रों को अपनाकर जीवन जीता है वह जीवन में कभी दुखी नहीं होता है।’’
ये प्रेरक उद्गार राष्ट्रसंत श्रीललितप्रभ सागरजी महाराज ने आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में जारी दिव्य सत्संग जीने की कला के अंतर्गत अध्यात्म सप्ताह के आठवें दिन सोमवार को व्यक्त किए। ‘कैसे पाएं अनासक्ति और मुक्ति’ विषय पर व्यक्त किए। प्रेरक भावगीत ‘जीवन है पानी की बूंद, कब मिट जाए रे, होनी-अनहोनी कब क्या घट जाए रे...।।’
के मधुर गायन से धर्मसभा का शुभारंभ करते हुए संतप्रवर ने कहा कि आसक्ति- जो आ सकती है पर जा नहीं सकती, इसका नाम है आसक्ति। जिंदगी में एक बार आदमी मोह-माया के मकडज़ाल में अगर उलझ जाए तो फिर उससे निकल नहीं पाता। ये आ तो सकती है पर जिंदगी में वापस जाने का नाम नहीं लेती।
मरते दम तक आदमी वही दुनियादारी, व्यवस्था-व्यवहार इन्ही सबमें लगा रहता है। और परिणाम जिंदगी का अंत समय आ जाता है। कहने के नाम पर तो हम उदाहरण देते हैं मकड़ी के जाले का, अरे मकड़ी के जाले की क्या जिंदगी है, उससे ज्यादा जाले तो हम बुनते हैं। और हमारी जिंदगी भी वैसी ही बनती है जैसे मकड़ी की बनती है।
मकड़ी जाल बुनती है दूसरों को फंसाने के लिए, दूसरे फंसे या ना फंसे पर वह खुद ही उसमें फंसी रह जाती है। हमारी जिंदगी भी ऐसी ही चलती है।
संतप्रवर ने आगे कहा कि मृत्यु और मुक्ति में फर्क यही है कि जहां पर शरीर तो खत्म हो जाए पर इच्छाएं जीवित रह जाएं उसका नाम मृत्यु है और जहां पर इच्छाएं मर जाएं और शरीर भले ही जिंदा रहे इसका नाम मुक्ति है। हर आदमी को मरने से पहले अपनी जिंदगी में मुक्ति की व्यवस्था जरूर कर लेनी चाहिए। जैसे सागर अनेक नदियों से बनता है, वैसे ही हमारा जीवन है जो अनंत-अनंत रहस्यों से भरा हुआ है। भगवान हमें जीवन का पाठ पढ़ाते हुए अनासक्त योगी बनने की पावन प्रेरणा देते हैं। भगवान कहते हैं- हे श्रावक, हे साधक, हे मुनि तू पूरे महासागर को पार कर गया है लेकिन किनारे पर आकर अटक गया है। तू सोच अगर इस तरह बार-बार सागर पार करता रहेगा और किनारे पर आकर अटकता रहेगा तो तू भवसागर को कैसे पार करेगा। तू किनारे पर आकर अपने मन को क्यूं भटका रहा है, अपनी मुक्ति, शांति और आत्म आराधना की व्यवस्था कर।
काया, धन और परिजन यहीं रह जाते हैं साथ जाती है केवल आत्मा
एक राजा और उसकी चार रानियों की कहानी से मनुष्य के सांसारिक जीवन की व्यथा का चित्र खींचते हुए संतश्री ने कहा कि व्यक्ति जीवनभर अपनी काया, धन और परिवार के पीछे भागता-दौड़ता रहता है और उसकी स्वयं की आत्मा को वह देखना-पूछता और उसका हाल जानना भी नहीं चाहता। अंत समय जब आता है तो काया, धन, परिवार सब यहीं के यहीं रह जाते हैं और साथ जाती है तो केवल उसकी आत्मा। आदमी की जिंदगी भी बड़ी गजब की है, बचपन में वह खिलौना खेलता रहा, जवानी में दुनिया से खेलता रहा, बुढ़ापे में पोता-पोतियों के साथ खेलता रहा और अंत में जब मौत आई तो अकेला ही चला गया। जिंदगीभर आदमी के खेल चलते रहे, कभी वह संसार से खेलता रहा और कभी संसार में खेलता रहा।