विचार/लेख
-अश्विन बटावीया
जब भी गरमी समाप्ति की ओर होती है, और थोड़ा पानी गिर कर रूकता है, उमस अपनी चरम सीमा पर होती है, तभी ईश्वर मेरी सुनता है और मेरी पीठ पर घमोरियां होती हैं। ईश्वर हर वर्ष मुझे आशीर्वाद देता है-घमोरियों के रूप में। मेरा मुंह मांगा ईनाम। घमोरियों के बहुत से फायदे हैं।
आप अपनी धर्मपत्नी को नहाते समय बुलाकर कह सकते हो। आओ, तो थोड़ी पीठ देख लो। घमोरियों के बीच साफ-सफाई कर दो। पर थोड़ा उलाहना भी मिलेगा, अनुभव से कह रहा हूं।
आते ही पत्नी बोलेगी गर्दन कितनी काली है-अच्छे से रोज रगड़ते क्यों नहीं?
आप कह देना, पसीने से थोड़ा कालापन आ जाता है। पहले जैसे साबुन भी अब कहां रहे, और अब मेरी तरफ देखता भी कौन है? पसीने से थोड़ा कालापन आ जाता है।
पत्नी दया दिखाती हुई तुरंत गर्दन रगड़ देगी। फिर यह आप पर है कि उसके अनचाहे मन से बाक़ी बदन साफ करवा सको तो करवा लो।
वैसे एक बात बता दूं-मैं और मेरी घमोरियां आपस में बात करते हैं। वो कहती है यदि मैं पाँव के तलवे में होती, तो मैं कहता चल नहीं पाता, वो कहती हथेली पर होती तो? मैं कहता दाईं पर होना, सुना है दाईं हथेली पर खाज आने से धन मिलता है। मैं यह भी कहता हूं उदर पर होने से लोग मुझको दामोदर तो कहेंगे नहीं, घमोरी उदर जरूर कहेंगे, पर घमोरियां तुम वहां भी न होना और मेरी 56 इंच चौड़ी छाती पर हरगिज नहीं क्योंकि लड़कियां जेम्सबांड और रणजीत खलनायक के बाद मेरी ही छाती पसंद करती हैं, तुम्हारी जगह पीठ पर ही ठीक है।
पत्नी रोज 10-15 वर्षों से पीठ दिखाती है, आमने-सामने खुशी-खुशी तो हो नहीं पाते हैं, तुम्हारे बहाने पीठ मैं भी दिखा देता हूं।
वैसे घमोरियों वाली पीठ, पीठ नहीं होतीं, होती हैं-पूरा तारामंडल।
इन्हीं घमोरियों की तुलना आसमान के तारों से कर सकते हैं। ध्यान से देखेंगे तो इसी में सप्तऋषी तारे दिखेंगे और सप्तऋषी तारे के आखिरी दो तारों के बीच से सीधा ऊपर की ओर देखेंगे, तो ध्रुव तारों जैसी-एक बड़ी घमोरी दिखाई देगी।
इसमें सूरज (जो कि एक तारा है) पक गई एक घमोरी में नजर आयेगा। जो बड़ी और लाल हो गई होगी। सूरज के लावे की तरह इसमें मवाद जैसा भी भरा नजर आएगा।
एक तारा क्षमा करें, एक-दो घमोरी पक कर फूट भी जाएगी और उसमें से निकलने वाला पस पुच्छल तारे के जैसा दिखेगा। अंत में यही कहूंगा यह सब मेरी पीठ पर है और आपकी पीठ पर?
-दिलनवाज पाशा
जम्मू-कश्मीर विधानसभा के नतीजे स्पष्ट होते ही जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्लाह ने कहा कि उमर अब्दुल्लाह ही जम्मू-कश्मीर के नए मुख्यमंत्री होंगे।
जम्मू-कश्मीर के प्रमुख राजनीतिक परिवार से आने वाले 54 साल के उमर अब्दुल्लाह दूसरी बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। पहली बार वे साल 2009 में मुख्यमंत्री बने थे। जम्मू-कश्मीर में दस साल के अंतराल के बाद चुनाव हुए हैं और इसके विशेष राज्य का दर्जा समाप्त हुए भी पांच साल हो चुके हैं।
जीत के बाद पत्रकारों से बात करते हुए उमर अब्दुल्लाह ने कहा, ‘2018 के बाद एक लोकतांत्रिक सेट-अप जम्मू-कश्मीर का चार्ज लेगा। बीजेपी ने कश्मीर की पार्टियों को निशाने पर लिया, ख़ासतौर पर नेशनल
कॉन्फ्रेंस को। हमें कमज़ोर करने की कोशिश की गई। हमारे ख़िलाफ़ पार्टियों को खड़ा करने का भी प्रयास हुआ लेकिन इन चुनावों ने उन सब कोशिशों को मिटा दिया है।’
उमर अब्दुल्लाह इस साल हुए लोकसभा चुनावों में बारामुला से उम्मीदवार थे लेकिन वो उस समय तिहाड़ जेल से चुनाव लड़ रहे इंजीनियर रशीद से चुनाव हार गए थे।
राज्य को संविधान के तहत विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को भारतीय जनता पार्टी सरकार ने पांच अगस्त 2019 को समाप्त कर दिया था। जम्मू-कश्मीर अब पूर्ण राज्य नहीं है बल्कि केंद्र शासित प्रदेश है और लद्दाख इस क्षेत्र से अलग हो चुका है।
जम्मू-कश्मीर की सरकार भी अब बहुत हद तक उपराज्यपाल के ज़रिए केंद्र सरकार के नियंत्रण में होगी और मुख्यमंत्री के रूप में उमर अब्दुल्लाह के पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं होगा।
हालांकि विश्लेषक ये मान रहे हैं कि उमर अब्दुल्लाह ये संदेश देने में कामयाब रहे हैं कि कश्मीर के लोग अब भी उन पर विश्वास कर रहे हैं।
लेकिन इस साल जुलाई तक अब्दुल्लाह कह रहे थे कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे क्योंकि जम्मू-कश्मीर अब एक केंद्र शासित प्रदेश है। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से कहा था, ‘मैं एक पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री रहा हूं। मैं खुद को ऐसी स्थिति में नहीं देख सकता जहां मुझे उपराज्यपाल से चपरासी चुनने के लिए कहना पड़े या बाहर बैठकर फाइल पर उनके हस्ताक्षर करने का इंतजार करना पड़े।’
क्या कह रहे हैं विश्लेषक?
शोधकर्ता और लेखक मोहम्मद यूसुफ टेंग मानते हैं कि ये कश्मीर के लिए अहम पड़ाव है और इन चुनावों ने ये संदेश दिया है कि कश्मीर की पहचान से समझौता नहीं किया जा सकता है और यही कश्मीर के लोगों के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा है।
टेंग कहते हैं, ‘उमर अब्दुल्लाह ने नेशनल कांफ्रेंस के चुनाव अभियान का नेतृत्व किया और वो अपनी ये बात समझाने में कामयाब रहे कि दिल्ली ने किस तरह से कश्मीरियत का नुकसान किया और कश्मीर के लोगों की उम्मीदों को किस तरह से कुचला।’
उनके मुताबिक उमर उब्दुल्लाह लोगों को अपने साथ जोडऩे में कामयाब रहे और कश्मीर के लोगों ने उन्हें अपना नेता मान लिया है।
टेंग कहते हैं कि कश्मीर के लोगों ने ये बताया है कि उनके पास जो मताधिकार है, वो उसका अपनी मर्जी से इस्तेमाल करेंगे।
हालांकि कश्मीर के बदले राजनीतिक हालात में,अब जो मुख्यमंत्री होगा उसके पास बहुत सीमित राजनीतिक ताकत ही होगी।
उमर अब्दुल्लाह की जीत अहम क्यों?
विश्लेषक मान रहे हैं कि राजनीतिक रूप से भले ही उमर अब्दुल्ला बहुत ताक़तवर न रहें लेकिन फिर भी प्रतीकात्मक रूप से उनकी पार्टी की ये जीत बहुत अहम है।
अब केंद्र शासित प्रदेश के रूप में जम्मू-कश्मीर में उप-राज्यपाल का पद बहुत ताकतवर है, मुख्यमंत्री को उसके मातहत ही काम करना होगा, लेकिन बावजूद इसके, उमर अब्दुल्ला ये संदेश देने में तो कामयाब ही रहे हैं कि कश्मीर की जनता की पसंद वो ही हैं।
टेंग कहते हैं, ‘उमर अब्दुल्ला के अपने हाथ में क्या होगा, वो एक क्षेत्रीय नेता हैं, लेकिन कश्मीर में सरकार दिल्ली से चल रही है। अगर जम्मू-कश्मीर में एक मामूली ट्रांसफर भी करना होगा,उमर अब्दुल्लाह नहीं कर पाएंगे। बावजूद इसके, वो कश्मीर के लोगों के नेता हैं और यहां की जनता की उम्मीदों का बोझ उन पर ही होगा।’
चुनाव अभियान के दौरान जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कई वादे किए थे। इनमें सबसे अहम वादा कश्मीर के लोगों के अधिकारों के लिए लडऩा और रोजगार के बेहतर मौक़े पैदा करना है।
पिछले पांच साल से उपराज्यपाल के दफ्तर से कश्मीर में प्रशासन चल रहा है। आम लोगों ने अपने आप को सत्ता से दूर महसूस किया।
टेंग कहते हैं, ‘ के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी कि वो लोगों को ये अहसास करा पाएं कि अब सत्ता और शासन उनके करीब है।’
नेशनल कॉन्फ्रेंस ने लोगों के अधिकारों की रक्षा करने और कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दोबारा दिलाने के लिए जद्दोजहद करने का वादा भी किया है। इन वादों को पूरा करने का बोझ भी उमर अब्दुल्लाह के कंधों पर ही होगा।
कैसा रहा है उमर अब्दुल्लाह का सियासी सफर
उमर अब्दुल्लाह का जन्म 10 मार्च 1970 को न्यूयॉर्क के रोचेस्टर में हुआ था। उनके परिवार के पास जम्मू-कश्मीर में लंबी राजनीतिक विरासत है।
उमर के दादा शेख अब्दुल्लाह प्रमुख कश्मीरी नेता और राज्य के पहले प्रधानमंत्री थे।
उमर अब्दुल्लाह ने श्रीनगर के बर्न हॉल स्कूल से शुरुआती शिक्षा ली और फिर मुंबई की सिडेनहैम कॉलेज से कॉमर्स में स्नातक की डिग्री हासिल की।
परिवार के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए राजनीति में उमर का आना स्वभाविक ही था।
उमर अब्दुल्लाह ने साल 1998 में श्रीनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और 28 साल की उम्र में संसद पहुंच गए। उमर अब्दुल्लाह देश के सबसे युवा सांसदों में से एक थे। वो अटल बिहारी वाजयेपी की सरकार में राज्यमंत्री भी रहे।
इसके अगले साल ही वो नेशनल कॉन्फ्रेंस की यूथ विंग के अध्यक्ष बन गए और उन्हें सिर्फ अपनी पार्टी के भीतर ही नहीं बल्कि देश में भी पहचान मिली।
इसके ठीक दस साल बाद, साल 2009 में जब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार आई तब युवा उमर अब्दुल्लाह मुख्यमंत्री बने।
अपने पहले मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान उमर अब्दुल्लाह ने शिक्षा, ढांचागत विकास और स्वास्थ्य सेवाएं विकसित करने पर जोर दिया। उन्होंने कश्मीर में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी कदम उठाए।
लेकिन आसान नहीं थी राह
लेकिन उमर अब्दुल्लाह के लिए सबकुछ आसान नहीं था। भारतीय संसद पर हमल के अभियुक्त अफजल गुरु को फांसी दिए जाने और साल 2010 में जम्मू-कश्मीर में पैदा हुए तनावपूर्ण हालात ने उनके सामने मुश्किल चुनौतियां पेश की।
2010 में कश्मीर में फिर से उठे अलगाववाद से निपटने में भी वो बहुत कामयाब नहीं रहे और इसका खमियाजा उन्हें अगले चुनावों में भुगतने को मिला।
2014 विधानसभा चुनावों में पार्टी की बुरी हार के बावजूद वो नेशनल कांफ्ऱेंस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहे।
2019 में जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त किया और अनुच्छेद 370 को हटा दिया तो वो सरकार के इस फैसले के खिलाफ एक मजबूत राजनीतिक आवाज बनकर उभरे।
उमर अब्दुल्लाह लंबे समय तक नजरबंद भी रहे। बावजूद इसके, वो ये संदेश देते रहे कि कश्मीर के लोग विशेष राज्य का दर्जा समाप्त किए जाने के केंद्र सरकार के फ़ैसले को कभी स्वीकार नहीं करेंगे और इसका विरोध जारी रखेंगे।
अब एक बार फिर सत्ता की कमान उनके हाथ में होगी, लेकिन इस बार उनके सामने सिर्फ हालात ही अलग नहीं होंगे बल्कि चुनौतियां भी नई होंगीं। (bbc.com/hindi)
-अंशुल सिंह
इंडिया टुडे-सी वोटर: कांग्रेस को 50 से 58 सीटें और बीजेपी को 20 से 28 सीटें।
एक्सिस माई-इंडिया: कांग्रेस को 53 से 65 सीटें और बीजेपी को 18 से 28 सीटें।
भास्कर रिपोर्टर्स पोल: कांग्रेस को 44 से 54 और बीजेपी को 19 से 29 सीटें।
रिपब्लिक मैट्रिज: कांग्रेस को 55 से 62 और बीजेपी को 18 से 24 सीटें।
ये कुछ एग्जि़ट पोल हैं जिनमें हरियाणा में कांग्रेस की स्पष्ट बहुमत से सरकार बनने की बात कही गई थी। लेकिन जब नतीजे आए तो इसके ठीक उलट हुआ।
हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी ने अपने दम पर स्पष्ट बहुमत हासिल किया और राज्य में जीत की हैट्रिक लगाई। नतीजों में बीजेपी को 48 और कांग्रेस को 37 सीटें मिली हैं। 90 सीटों वाली हरियाणा विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 46 है।
इन चुनावी नतीजों ने एक बार फिर एग्जि़ट पोल और उनको करने वाली एजेंसियों की विश्वसनीयता को सवालों के घेरे में ला दिया है।
हालांकि जम्मू-कश्मीर के नतीजे एग्जि़ट पोल के इर्द-गिर्द रहे। यहां नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन को बहुमत मिला है।
एग्जिट पोल पर उठे सवाल
ऐसा पहली बार नहीं है जब नतीजों के बाद एग्जिट पोल करने वालीं सर्वे एजेंसियों को आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है।
कुछ महीने पहले लोकसभा चुनाव के नतीजे आए थे तब भी एग्जि़ट पोल्स को लेकर कमोबेश ऐसी ही स्थिति थी क्योंकि नतीजे एग्जि़ट पोल से अलग थे।
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्लाह एग्जिट पोल्स की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते रहे हैं।
मतगणना वाले दिन भी उमर अब्दुल्लाह ने इस विषय को लेकर एक्स पर एक पोस्ट लिखा है।
उमर ने लिखा, ‘यदि आप एग्जि़ट पोल्स के लिए भुगतान करते हैं या उन पर चर्चा करने में समय बर्बाद करते हैं तो आप सभी चुटकुलों/मीम्स/उपहास के पात्र हैं। कुछ दिन पहले मैंने उन्हें समय की बर्बादी कहने का एक कारण बताया था।’
5 अक्टूबर को उमर अब्दुल्ला ने एग्जिट पोल्स को टाइम पास बताते हुए इग्नोर करने की बात कही थी।
नतीजे के दिन पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने सवाल पूछते हुए लिखा, ‘एग्जि़ट पोल्स से एग्जिट तक?’
पत्रकार निधि राजदान ने भी एग्जि़ट पोल्स को लेकर अपनी राय साझा की है।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर निधि ने लिखा, ‘अगर अब भी कोई एग्जिट पोल को गंभीरता से लेता है, तो वो मजाक का पात्र है।’
क्यों गलत साबित हुए एग्जिट पोल?
पिछले साल के अंत में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव हुए थे। यहां भी नतीजे एग्जिट पोल के मुताबिक नहीं आए थे।
आखिर हरियाणा समेत दूसरे राज्यों में ऐसे अहम मौक़ों पर सर्वे करने वाली एजेंसियों से कहां चूक हुई?
इस सवाल के जवाब में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग स्टडीज (सीएसडीएस)-लोकनीति के सह निदेशक प्रोफेसर संजय कुमार एग्जिट पोल्स की कार्य पद्धति को कठघरे में खड़ा करते हैं।
संजय कुमार कहते हैं, ‘जिस तरह से धड़ल्ले से पोल्स सामने आ रहे हैं उनमें मेथोडोलॉजी को फॉलो नहीं किया जा रहा है। कोई भी पोल करने से पहले वोटरों के पास जाना होता और कुछ सवाल पूछने होते हैं। तो कम से कम सभी एजेंसियों को ये सवाल, वोट शेयर और अन्य जानकारियां सामने रखनी चाहिए क्योंकि इसके बाद ही हम सही आकलन कर सकते हैं।’
संजय कुमार का कहना है कि मेथोडोलॉजी (कार्य पद्धति) में ज़रूर कुछ न कुछ गड़बड़ी है तभी ये सारे एग्जि़ट पोल्स ग़लत साबित हो रहे हैं।
यशवंत देशमुख सेंटर फॉर वोटिंग ओपिनियन एंड ट्रेंड्स इन इलेक्शन रिसर्च यानी सी वोटर के निदेशक और संस्थापक संपादक हैं।
सी वोटर भारत में चुनाव संबंधी सर्वे के लिए एक जानी-मानी एजेंसी है और दो राज्यों के विधानसभा चुनाव में सीवोटर ने इंडिया टुडे मीडिया समूह के साथ एग्जि़ट पोल सर्वे किया था।
यशवंत देशमुख का कहना है एग्जिट पोल से सीटों की अपेक्षा सही नहीं है क्योंकि कई बार यह सीधा न होकर टेढ़ी खीर होता है।
यशवंत कहते हैं, ‘फस्र्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम में सबसे पहली ज़रूरत होती है कि आप वोट शेयर को सही से पकड़ें। फिर वोट शेयर को सीट में बदलने की क़वायद तिरछी है और वो सर्वे के विज्ञान का हिस्सा नहीं है। इसलिए ब्रिटेन में भी सिर्फ वोट शेयर बताया जाता है, सीटों की संख्या नहीं। एजेंसियों का काम वोट को सीट में बदलने का नहीं है यह काम सांख्यिकीविद करते हैं।’
यशवंत आगे बताते हैं, ‘सीवोटर ने हरियाणा में 10 साल सत्ता रहने के बाद बीजेपी के वोट शेयर बढऩे की बात कही है। कांग्रेस का भी वोट शेयर बढऩे की बात कही है क्योंकि वो अन्य क्षेत्रीय दलों के वोटरों को अपने पाले में खींच रही है। आम धारणा यह कहती है कि जिसे वोट ज़्यादा उसकी सीटें ज्यादा लेकिन फस्र्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम में ऐसा नहीं होता है।’
वो कहते हैं, ‘आज हरियाणा में कांग्रेस को बीजेपी के बराबर वोट मिला लेकिन सीटें नहीं मिलीं। कर्नाटक में बीजेपी जब-जब सत्ता में आई तब-तब कांग्रेस का वोट शेयर ज़्यादा रहा। ये उलटबांसियां सिस्टम में होती हैं और इन उलटबांसियों के चलते सीट शेयर का आकलन मुश्किल हो जाता है।’
एग्जि़ट पोल की ‘कमियां’ कैसे दूर होंगी?
बीबीसी से बातचीत में यशवंत देशमुख सर्वे एजेंसियों की सर्वे की पद्धति को दर्शक के सामने रखने पर ज़ोर देते हैं।
यशवंत बताते हैं, ‘सर्वे एजेंसियों को अपनी क्षमताओं को ध्यान में रखकर बहुत साफ बोलना चाहिए कि वोट शेयर, मुद्दे और लोकप्रियता के मानकों पर ये आंकड़े सही हैं लेकिन यह जरूरी नहीं वोट शेयर जब सीट के आंकड़ों में बदलेगा तब उतना ही सटीक हो। दुर्भाग्य यह है कि वोट शेयर कोई बताए न बताए लेकिन हर कोई सीट शेयर बताने पर आमादा होता है। सारे एग्जिट पोल्स में दो या तीन ही ऐसे होंगे जिन्होंने वोट शेयर बताया हो अन्यथा किसी ने भी यह जहमत नहीं उठाई है। साथ ही वोट को सीट में बदलने वाले अवैज्ञानिक हिस्से को भी खुलकर दर्शकों या पाठकों को बताना चाहिए।’
यशवंत का मानना है कि मीडिया को चुनावी सर्वे के संबंध में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की गाइडलाइन्स को फॉलो करना चाहिए और दर्शकों को बताना चाहिए कि एग्जिट पोल से क्या अपेक्षाएं रखनी हैं और क्या नहीं।
अक्सर जब एग्जि़ट पोल ग़लत साबित होते हैं तो एक बहस शुरू हो जाती है कि क्या इस तरह के पोल या सर्वे को बंद कर देना चाहिए?
इस सवाल के जवाब में यशवंत जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं।
वो कहते हैं, ‘अगर आप जम्मू-कश्मीर के मतदाताओं से एग्जिट पोल को बंद करने की बात कहेंगे तो शायद उनका जवाब ना होगा क्योंकि वहां एग्जिट पोल्स सही हुए हैं। इसलिए बंद का तो सवाल ही नहीं उठता है।’
एग्जिट पोल क्या है और कैसे किया जाता है?
अंग्रेजी भाषा के शब्द एग्जिट का मतलब होता है बाहर निकलना। इसलिए एग्जिट शब्द ही बताता है कि यह पोल क्या है।
जब मतदाता चुनाव में वोट देकर बूथ से बाहर निकलता है तो उससे पूछा जाता है कि क्या आप बताना चाहेंगे कि आपने किस पार्टी या किस उम्मीदवार को वोट दिया है।
एग्जिट पोल कराने वाली एजेंसियां अपने लोगों को पोलिंग बूथ के बाहर खड़ा कर देती हैं। जैसे-जैसे मतदाता वोट देकर बाहर आते हैं, उनसे पूछा जाता है कि उन्होंने किसे वोट दिया।
कुछ और सवाल भी पूछे जा सकते हैं, जैसे प्रधानमंत्री पद के लिए आपका पसंदीदा उम्मीदवार कौन है वगैरह।
आम तौर पर एक पोलिंग बूथ पर हर दसवें मतदाता या अगर पोलिंग स्टेशन बड़ा है तो हर बीसवें मतदाता से सवाल पूछा जाता है।
मतदाताओं से मिली जानकारी का विश्लेषण करके यह अनुमान लगाने की कोशिश की जाती है कि चुनावी नतीजे क्या होंगे।
सी-वोटर, एक्सिस माई इंडिया, सीएनएक्स भारत की कुछ प्रमुख एजेंसिया हैं जो एग्जिट पोल करती हैं।
एग्जिट पोल से जुड़े नियम-कानून क्या हैं?
रिप्रेजेंन्टेशन ऑफ द पीपल्स एक्ट, 1951 के सेक्शन 126ए के तहत एग्जिट पोल को नियंत्रित किया जाता है।
भारत में, चुनाव आयोग ने एग्जि़ट पोल को लेकर कुछ नियम बनाए हैं। इन नियमों का मकसद यह होता है कि किसी भी तरह से चुनाव को प्रभावित नहीं होने दिया जाए।
चुनाव आयोग समय-समय पर एग्जि़ट पोल को लेकर दिशा-निर्देश जारी करता है। इसमें यह बताया जाता है कि एग्जिट पोल करने का क्या तरीका होना चाहिए।
एक आम नियम यह है कि एग्जिट पोल के नतीजों को मतदान के दिन प्रसारित नहीं किया जा सकता है।
चुनावी प्रक्रिया शुरू होने से लेकर आखिरी चरण के मतदान खत्म होने के आधे घंटे बाद तक एग्जिट पोल को प्रसारित नहीं किया जा सकता है।
इसके अलावा एग्जिट पोल के परिणामों को मतदान के बाद प्रसारित करने के लिए, सर्वेक्षण-एजेंसी को चुनाव आयोग से अनुमति लेनी होती है। (bbc.com/hindi)
-आर.के.विज
सेवानिवृत पुलिस महानिदेशक
‘बाल यौन शोषण और दुव्र्यवहार सामग्री’
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट के एक निर्णय को पलटते हुए स्पष्ट निर्णय दिया है कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी को डाउनलोड करना सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (आई.टी. एक्ट) और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम के तहत एक गंभीर अपराध है। सुप्रीम कोर्ट ने पोक्सो की धारा 15की व्याख्या करते हुए कहा कि इसके तीनों खंड पृथक-पृथक स्वतंत्र तीन अपराध है। यदि कोई व्यक्ति चाइल्ड पोर्नोग्राफी डाउनलोड करता है और उसे तत्काल नष्ट नहीं करता और न ही पुलिस को उसकी रिपोर्ट करता है तो उसे धारा 15(1)के तहत अपराध माना जाएगा। इसी प्रकार, यदि ऐसी आपत्तिजनक सामग्री डाउनलोड करने के बाद व्यक्ति उसे दूसरों के साथ साझा करने के लिए या ट्रांसमिट करने के लिए कुछ कदम उठाता है तो वह धारा 15(2)के तहत तुलनात्मक रूप से पहले से गंभीर अपराध के लिए जिम्मेदार होगा। इसी प्रकार, यदि आपत्तिजनक सामग्री डाउनलोड करने के बाद वह उसे मुनाफे के लिए लोगों से साझा करने के लिए कोई कदम उठाता है वह धारा 15(3)के तहत एक पृथक एवं स्वतंत्र अपराध का भागी होगा।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 15की तीनों उप-धाराओं में चाइल्ड पोर्नोग्राफी को दूसरों से साझा करना जरूरी नहीं है। यदि व्यक्ति द्वारा डाउनलोडेड सामग्री नष्ट नहीं की जाती है तो अपराध के लिए आवश्यक मंशा की अवधारणा की जा सकती है। पोक्सो की धारा 30के तहत इस अवधारणा का आरोपी द्वारा विरोध किया जा सकता है, परंतु उसे यह संदेह से परे सिद्ध करना होगा कि उसकी मंशा धारा 15के तहत अपराध करने की नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 15के अपराधों को इनकोहैट अर्थात अपूर्ण या अपरिपक्क अपराध, अर्थात गंभीर अपराध घटित करने से पहले की तैयारी वाले अपराध की संज्ञा दी। परंतु इन अपराधों में पुलिस और अभियोजन को आपत्तिजनक सामग्री पर आरोपी का भौतिक या रचनात्मक (कंस्ट्रक्टिव) कब्जा सिद्ध करना जरूरी होगा। ऐसा कब्जा सिद्ध करने पर ही अपराध के लिए आवश्यक मंशा की अवधारणा की जा सकेगी।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि आई.टी. एक्ट की धारा 67(बी) चाइल्ड पॉर्नोग्राफी अपराध संबंधी एक पूर्ण कोड है जिसकी उप-धारा (बी) के अंतर्गत चाइल्ड पोर्नोग्राफी को ढूंढना, ब्राउजिंग करना, या डाउनलोड करना एक दंडनीय अपराध है। कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट को केवल प्राथमिक सूचना प्रतिवेदन के आधार पर नहीं बल्कि आरोप-पत्र सहित विवेचना में जुटाई गई समस्त सामग्री का संज्ञान लेने के बाद ही कोई आदेश जारी करना चाहिए था। जब पुलिस द्वारा आरोप-पत्र पोक्सो की धारा 15के तहत दर्ज किया गया था तो कोर्ट केवल प्राथमिक सूचना प्रतिवेदन के समय लगाई गई धारा 14के तहत अंतर्गत निर्णय नहीं कर सकती। फलस्वरुप, सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के आदेश को गलत ठहराते हुए कहा कि ट्रायल कोर्ट मुकदमे की सुनवाई कर मेरिट पर उसका निराकरण करें।
सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स/ मध्यवर्ती संस्थाएं (इंटरमेडयरीज) की भूमिका पर भी सवाल उठाए। वर्तमान में गृह मंत्रालय के तहत एन.सी.आर.बी. द्वारा अमेरिका की एक संस्था ‘नेशनल सेंटर फॉर मिसिंग एवं एक्सप्लोइटेड चिल्ड्रन’ से एक अनुबंध के तहत इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स द्वारा चाइल्ड पोर्नोग्राफी संबंधी सामग्री उपरोक्त संस्था से साझा की जाती है, परंतु पोक्सो के तहत ऐसी आपत्तिजनक सामग्री के संबंध में स्थानीय पुलिस को इसकी सूचना नहीं दी जाती। पोक्सो नियम का नियम 11, इंटरमेडयरीज पर बंधनकारी है जो यह प्रावधान करता है कि पोक्सो के तहत अपराधों की सूचना अनिवार्य रूप से पुलिस को देना एवं आपत्तिजनक सामग्री को एविडेंस हेतू सुरक्षित रखना जरूरी है। यदि इंटरनेट संस्थाएं ड्यू डिलिजेंस के तहत ऐसा करने में विफल रहती हैं तो उन्हें आई.टी. एक्ट की धारा 79के तहत ‘सेफ हार्बर’ की छूट नहीं दी जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने कानून में उपयोग की जाने वाली शब्दावली ‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी’ के उपयोग पर भी आपत्ति जताई। चाइल्ड पोर्नोग्राफी शब्द बच्चों के शोषण के सही रूप एवं अर्थ को नहीं दर्शाता, बल्कि कहीं न कहीं सहमति की ओर इंगित करता है। इसलिए कोर्ट ने केंद्र सरकार को पोक्सो में एक संशोधन लाकर चाइल्ड पोर्नोग्राफी के स्थान पर ‘बाल यौन शोषण और दुव्र्यवहार सामग्री’ (चाइल्ड सेक्सुअल एक्सप्लोइटेटिव एंड एब्यूज मटेरियल /सी.एस.इ.ए.एम.) को प्रतिस्थापित करने के लिए भी निर्देश दिए। कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत्ते भविष्य में चाइल्ड पोर्नोग्राफी शब्द का उपयोग नहीं करेंगी
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बच्चों को यौन शोषण से सुरक्षित करने के उद्देश्य से लोगों को जागरूक करने बाबत पोक्सो में सरकार और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को महती जिम्मेदारी दी गई है। इसलिए वे पोक्सो कानून के प्रावधानों की जानकारी लोगों तक पहुंचाएं। सुप्रीम कोर्ट ने महिला एवं बाल विकास विभाग को यह निर्देश दिए कि बालकों को उनकी उम्र के अनुसार यौन शिक्षा देने और पीडि़त बच्चों के लिए सपोर्ट सर्विस एवं पुनर्वास की दिशा में आवश्यक कदम उठाने के भी निर्देश दिए।
समग्र रूप से देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट का उक्त आदेश बच्चों को यौन शोषण से सुरक्षित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण फैसला है जिसका पालन समाज, इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर, एवं पुलिस सहित संबंधित सरकारी विभागों को ईमानदारी से करना होगा।
सोमवार को इलेक्ट्रिक स्कूटर निर्माता कंपनी ओला इलेक्ट्रिक के शेयर में कऱीब 9त्न प्रतिशत की भारी गिरावट दर्ज की गई।
हालांकि भारतीय शेयर बाज़ार में पिछले हफ़्ते से ही गिरावट जारी है लेकिन ओला इलेक्ट्रिक के शेयर इसके पहले से ही गिर रहे थे। ओला इलेक्ट्रिक स्कूटर के ग्राहकों की शिकायतों के अंबार के बाद इसके शेयर में गिरावट का सिलसिला शुरू हुआ था, जो अब भी नहीं थमा है।
ग्राहकों की शिकायत लेकर ही चर्चित कॉमेडियन कुणाल कामरा सोशल मीडिया एक्स पर आए तो ओला इलेक्ट्रिक के सीईओ भाविश अग्रवाल को यह रास नहीं आया।
सोशल मीडिया पर दोनों के बीच हुई तीखी बहस में आम लोग भी शामिल हुए।
कुणाल कामरा की एक टिप्पणी पर भाविश अग्रवाल बुरी तरह से भडक़ गए। अग्रवाल के इस रुख़ की एक्स पर कई लोगों ने आलोचना की और उन्हें अहंकारी कहा।
रविवार को कुणाल कामरा ने एक्स पर एक तस्वीर डाली थी, जिसमें एक शोरूम के बाहर खड़ी ओला इलेक्ट्रिक स्कूटरों पर धूल की परतें दिखाई दे रही हैं।
इस पोस्ट में कुणाल कामरा ने लिखा, ‘क्या भारतीय ग्राहकों की कोई आवाज़ है? क्या वे इसके हक़दार हैं? दोपहिया वाहन दिहाड़ी वर्करों की जि़ंदगी है। नितिन गडकरी, क्या इसी तरह भारतीय इलेक्ट्रिक वाहन इस्तेमाल करेंगे? जिस किसी को भी ओला इलेक्ट्रिक के साथ दिक्क़त आ रही है, वो सबको टैग करते हुए अपनी कहानी यहां पोस्ट करें।’
इस पोस्ट में उन्होंने जागो ग्राहक जागो को भी टैग करते हुए, इस पर कुछ बोलने को कहा।
इस पोस्ट के बाद सोशल मीडिया पर ओला के असंतुष्ट ग्राहकों की शिकायतों का अंबार लग गया।
ओला के मालिक भाविश अग्रवाल ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए ट्विटर पर लिखा, ‘चूंकि आप इतने चिंतित हैं कुणाल कामरा, तो आइए हमारी मदद करिए! आपको मैं इस पेड ट्वीट या फ्लॉप कॉमेडी करियर से अधिक पैसे दूंगा। या चुप बैठिये और हमें ग्राहकों के असली मुद्दों को हल करने पर ध्यान केंद्रित करने दीजिए। हम अपने सर्विस नेटवर्क का तेज़ी से विस्तार कर रहे हैं और बचे हुए कामों को जल्द पूरा कर लिया जाएगा।’
हालांकि ओला इलेक्ट्रिक ग्राहकों ने अपनी जो कहानियां बयां कीं और शिकायतों की जो झड़ी लगी, उससे कंपनी की छवि पर असर पड़ा है।
कामरा और अग्रवाल के बीच कहासुनी
ट्विटर पर यह विवाद एक के बाद एक ट्वीट से और गहरा हो गया। कुणाल कामरा और भाविश अग्रवाल के बीच विवाद तीखा हो गया।
कुणाल कामरा ने अग्रवाल को अहंकारी और घटिया व्यक्ति कहा तो अग्रवाल ने लिखा, ‘चोट लगी? दर्द हुआ? सर्विस सेंटर पर आ जाइए। बहुत काम है। मैं आपके फ़्लॉप शो से अधिक पैसे दूंगा। अपने स्रोताओं को दिखाइए कि आप कितनी चिंता करते हैं।।।या फिर ये आपकी हवाबाज़ी मात्र है।’
कामरा ने उन्हें चुनौती दी कि वो ये साबित करें कि शुरुआती शिकायतें ‘पेड’ थीं।
उन्होंने लिखा, ‘अगर आप साबित कर दें कि इस ट्वीट या मैंने किसी प्राइवेट कंपनी के ख़िलाफ़ जो कहा होगा, उसके लिए मुझे भुगतान किया जाता है तो मैं अपने सभी सोशल मीडिया को डिलीट कर दूंगा और हमेशा के लिए शांत बैठ जाऊंगा।’
इसके बाद उन्होंने शिकायतों को निपटारा करने के लिए ओला की मदद करने का प्रस्ताव किया।
पिछले महीने 18 सितंबर को मिंट में छपी ख़बर के अनुसार, ओला इलेक्ट्रिक वाहन से जुड़ी शिकायतें एक महीने में 80,000 तक पहुंच गईं।
रिपोर्ट के अनुसार, कभी-कभी तो एक दिन में ही 6,000 से 7,000 शिकायतें आ जाती हैं और सर्विस सेंटर मांग पूरी करने में ख़ुद को अक्षम पाते हैं।
ग्राहकों का पैसा वापस करने की मांग
लेकिन दोनों यहीं नहीं रुके। कामरा ने ओला की रिफ़ंड पॉलिसी को लेकर सवाल किया, ‘पिछले चार महीने में जिसने ओला इलेक्ट्रिक स्कूटर खऱीदी है और इसे वापस करना चाहता है, उन्हें कुल रिफ़ंड किए गए भुगतान को बता सकते हैं? मुझे आपके पैसे की ज़रूरत नहीं, लोग अपने काम पर नहीं जा पा रहे हैं और आपकी जवाबदेही बनती है। अपने ग्राहकों को दिखाइए कि आपको उनकी चिंता है।’
इस पर भाविश अग्रवाल ने लिखा, ‘हमारे ग्राहकों को सेवाओं में देरी का सामना करना पड़ता है तो हमारे पास पर्याप्त योजनाएं हैं। अगर आप सच हैं तो आपको पता होगा। फिर से, आप कोशिश मत करिए और पीछे मत हटिए। आराम से कुर्सी पर बैठ आलोचना करने की बजाय आइए और कुछ असली काम करिए।’
इसके जवाब में कामरा ने ओला को रिफ़ंड पॉलिसी लागू करने के सुझाव दिए।
कामरा ने लिखा, ‘तो पिछले चार महीनों में जिन लोगों ने ओला वाहन खऱीदा, जो कि असली ग्राहक हैं, उन्हें 100 प्रतिशत रिफ़ंड नहीं कर सकते।।।लेकिन आप मुझे भुगतान करना चाहते हैं, जो आपका ग्राहक नहीं है। मैं आपको कुछ और विकल्प देता हूं। क्या आप एक या दो महीने के लिए 85त्न रीफ़ंड दे सकते हैं?’
‘भागिए मत, मैं असली ग्राहकों की सूची तैयार करने में और उन्हें रिफ़ंड सुनिश्चित करने में आपकी मदद करूंगा। उनकी ख़ुशी ही मेरे लिए काफ़ी होगी। मुझे नौकरी पर रखने की जब आप कोशिश छोड़ देंगे और अपने असली ग्राहकों पर ध्यान देंगे, मैं अगले ट्वीट में एक इमेल आईडी दूंगा।’
लेकिन अग्रवाल ने कामरा पर फिर तंज़ किया, ‘कॉमेडियन बन ना सके, चौधरी बनने चले। अगली बार अपनी खोजबीन पक्की करके बोलें और हमारे सर्विस सेंटर पर आकर मदद करने की पेशकश अब भी खुली है। चुनौती स्वीकार करिए। हो सकता है कि एक बदलाव के लिए ही सही आप कुछ असली हुनर सीख पाएंगे।’
लोग भी इस बहस में हुए शामिल
कुणाल कामरा और भाविश अग्रवाल के बीच हुई कहासुनी में सोशल मीडिया यूज़र्स मूकदर्शक नहीं रहे और उन्होंने भी अपने प्रतिक्रिया ज़ाहिर की।
इनमें से अधिकांश ओला के ग्राहक थे और कई लोगों ने कामरा के पक्ष में अपनी राय ज़ाहिर की।
कई यूज़र्स ने शिकायतों को लेकर रुख़ी प्रतिक्रिया देने के लिए अग्रवाल को आड़े हाथों लिया।
एक यूजऱ ने कहा, ‘खाना बनाना मैं नहीं जानता लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि स्वाद अच्छा या बुरा है, इसके बारे में नहीं बता सकता। वो कितने अच्छे कॉमेडियन हैं, इसका आपकी ओला सर्विस कितनी बुरी है, से कोई संबंध नहीं है।’
एक और यूजऱ ने कहा, ‘सबसे खऱाब अहंकार है, नजऱअंदाज़ करने की आदत से पैदा हुआ अहंकार। जागिए और दीवार पर लिखी इबारत को पढि़ए।’
एक अन्य यूजऱ ने लिखा, ‘निश्चित तौर पर, यह आदमी अपने अहंकार से नाकाम होगा।’
एक अन्य यूजऱ ने लिखा, ‘देश भक्ति का ढोंग करके, एलन मस्क बनने चले। स्कैम की अगली कड़ी ओला होगी। ख़ुद रिसर्च करके प्रोडक्ट लॉन्च करते तो इतनी शिकायतें नहीं आतीं। चुनौती आप लीजिए और ग्राहकों की मेहनत की कमाई वापस कीजिए।’
एक यूजऱ ने लिखा, ‘उस कार्य संस्कृति के बारे में कल्पना कीजिए, जो इस शख़्स की कंपनी में लागू है। अब, जो प्रोडक्ट बाहर आ रहा है, उसकी कल्पना करिए। सब कुछ समझ में आ जाएगा।’
एक और यूजऱ ने कामरा का समर्थन करते हुए कहा, ‘आपको अपनी पोस्ट पर आए कॉमेंट्स को पढऩा चाहिए, सारे जवाब मिल जाएंगे।’
एक अन्य यूजऱ ने कहा, ‘कामरा ने आपके ग्राहकों के पैसे नहीं लिए और घटिया सर्विस दी। ये आपने किया है। ट्विटर पर सेलिब्रिटी से बेशर्मी से लडऩे की बजाय, इसके लिए कुछ तो जि़म्मेदारी लीजिए।’
कई सारे ऐसे कॉमेंट्स हैं, जो ओला ग्राहकों के हैं। ऐसे ही एक ग्राहक ने पोस्ट किया, "सर, मैं ओला एस1 प्रो का पुराना ग्राहक हूँ और ये सच है कि आपके सर्विस सेंटर के लोग ग्राहकों से अच्छा बर्ताव नहीं करते। सच कहूं तो सॉफ़्टवेयर सबसे बड़ी समस्या है। इन टिप्पणियों की बजाय आप इस मुद्दे को हल करें और सॉफ़्टवेयर की समस्याओं को सुधारें।’
एक अन्य यूजऱ ने लिखा, ‘इस तरह के आप अहंकारी व्यक्ति हैं। अपनी दौलत का प्रदर्शन करना बंद करें। ऐसे बहुत से अहंकारी सीईओ के उदाहरण हैं जो आसमान से सडक़ पर आ गए। अपने असफल प्रोडक्ट और सर्विस मॉडल को ठीक करने पर ध्यान दें।’
जयप्रकाश मिश्रा नामके यूजऱ ने लिखा, ‘छह महीने से मेरी ओला गाड़ी खड़ी थी, थक हारकर मैंने जुगाड़ से उसे ठीक किया है।’
भारतीय ई स्कूटर बाज़ार में ओला की 27त्न हिस्सेदारी है, बावजूद बीते अगस्त महीने में ताज़ा आईपीओ लाने के बाद से उसके शेयरों में 43त्न की गिरावट आ चुकी है। अपनी सर्विस की गुणवत्ता को लेकर कंपनी को सोशल मीडिया पर काफ़ी आक्रोश का सामना करना पड़ता है।
जानकारों ने भी कंपनी की गिरती बाज़ार हिस्सेदारी को लेकर चिंता ज़ाहिर की है, जो कि बीते लगातार पाँच महीनों से घट रहा है क्योंकि बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ गई है और कंपनी सर्विस से संबंधित समस्याओं में उलझ गई है। (bbc.com/hindi)
बाट्शेवा को यह नहीं पता कि उनके पति जि़ंदा हैं या उनकी मौत हो गई, अब्दुल्ला किशोरावस्था में अनाथ हो गए, क्रिस्टीना और अब्दुलरहमान को उम्मीद है कि वो फिर से चल पाएंगे।
बीबीसी को इसराइल, गज़़ा, लेबनान और वेस्ट बैंक में रह रहे इन लोगों ने बताया कि पिछले साल सात अक्टूबर को हुए हमले के बाद उनकी जि़ंदगी कैसे बदल गई।
एक साल हो गया जब हमास ने इसराइल पर हमला कर 1200 लोगों की हत्या कर दी थी और 251 लोगों को बंधक बना लिया था।
इसराइल ने इसके जवाब में गाजा में बड़े पैमाने पर हवाई और जमीनी हमले किए। हमास द्वारा संचालित स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक इसमें 41,000 से अधिक लोगों की मौत हुई है।
‘सबसे मुश्किल है नहीं पता होना’
सात अक्टूबर से एक दिन पहले ओहद याहलोमी और उनकी 10 साल की बेटी याऐल पास के ग्राउंड में जानवरों की तलाश में गए। याऐल के बड़े भाई ऐथान (12) अपने दोस्तों के साथ फुटबॉल खेल रहे थे। ओहद की पत्नी बाट्शेवा अपनी सबसे छोटी बेटी के साथ घर पर थीं जो कि अभी दो साल की भी नहीं थी।
गाजा की सीमा से लगभग एक मील दूर दक्षिण इसराइल में 400 से कम लोगों का समुदाय नीर ओज किबुत्ज़ में रह रहा है। यहां का जीवन काफी अलग है।
45 वर्षीय बाट्शेवा ने कहा, ‘हमें वहां का जीवन बहुंत पसंद था और हम काफी सीधे हैं। यह हमारे लिए स्वर्ग जैसा था।’
अगले दिन की सुबह परिवार रॉकेट हमले को लेकर बजाए जाने वाले अलर्ट सायरन के बजने से जगा।
लेकिन कुछ ही मिनटों के बाद ऐसे संकेत मिले कि ये सिर्फ कोई रॉकेट हमला नहीं था। बाहर से लोगों के ‘अल्लाहु अकबर’ कहने और गोलियों की आवाज़ सुनाई दी।
कई घंटों तक परिवार भयभीत होकर अपने ‘सेफ रूम’ में इंतज़ार करता रहा, लेकिन हमलावर घर में घुसने की कोशिश करने लगे। इसके बाद अपने परिवार के लोगों को बचाने के लिए ओहद ने ‘सेफ रूम’ छोड़ दिया और हमलावरों को रोकने का प्रयास करने लगे।
बाट्शेवा ने बताया, ‘वह हर कुछ मिनटों में हमसे कहते थे कि वो हमसे प्यार करते हैं।’
कलाश्निकोव राइफल और ग्रेनेड जैकेट पहने हमलावर घर में घुसे और ‘सेफ रूम’ में प्रवेश करने से पहले ओहद को गोली मार दी।
बाट्शेवा ने बताया, ‘हमलावरों ने हम पर राइफल तानते हुए अंग्रेजी में कहा कि गाजा चलो। मैं इसके बाद तुरंत समझ गईं कि वो क्या चाहते हैं।’
बाट्शेवा और उनकी बेटियों को एक मोटरसाइकिल पर गाजा ले जाने के लिए बिठाया गया। वहीं ऐथान को विदेशी वर्कर के साथ दूसरी मोटरसाइकिल पर भेजा गया। मोटरसाइकिल के फंसने से बाट्शेवा और उनकी बेटियां भागने में सफल रहीं, लेकिन ऐथान और पिता को ले जाया गया।
ऐथान को हमास ने गज़़ा में 52 दिनों तक बंधक बनाकर रखा। बाट्शेवा ने बताया कि ऐथान को ज़बरदस्ती सात अक्टूबर को बनाए गए वीडियो दिखाए गए।
‘उसने (बेटे) देखा कि कैसे उन्होंने लोगों, बच्चों और महिलाओं की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी।’
बाट्शेवा ने बताया कि ऐथान को नवंबर में बंधकों की रिहाई के लिए हुए समझौते के बाद बाद छोड़ा गया। हमास और इसराइल के बीच चल रहे संघर्ष के बाद से यानी पिछले एक साल में सिर्फ एक बार ये समझौता हुआ है।
हथियारबंद फ़लस्तीनी गुट ने जनवरी में ओहद का वीडियो जारी किया और इसमें वो घायल दिख रहे हैं, लेकिन जि़ंदा हैं। इसके बाद से गुट कह रहा है कि इसराइली हमले में वो मारे गए।
वहीं इसराइली सेना ने बाट्शेवा को बताया कि वो ओहद को लेकर किए जा रहे दावे की पुष्टि नहीं कर सकते या उनकी स्थिति को लेकर कोई अपडेट नहीं दे सकते।
पिछले साल सात अक्टूबर को हुए हमले में नीर ओज सबसे अधिक प्रभावित हुए समुदाय में से एक है। कई दर्जन नागरिकों को मार दिया गया या फिर अपहरण कर लिया गया। जले हुए घर इस बात की याद दिलाते हैं कि क्या हुआ था।
बाट्शेवा ने कहा कि उनके बच्चों को बुरे सपने आते हैं और लगभग एक साल से मेरे साथ उसी बिस्तर पर सो रहे हैं जिस पर कि मैं सोती हूं। मेरे बच्चे बार-बार पूछते हैं कि पापा कब लौटेंगे। ऐथान के तो बाल झड़ रहे हैं।
‘सबसे मुश्किल है ये नहीं पता होना कि उनके (ओहद) साथ क्या हो रहा है। वो जि़ंदा हैं या नहीं। हम ऐसे अपना जीवन नहीं बिता सकते।’
‘बेहतर होता अगर मैं शहीद हो जाता’
हमास ने जब सात अक्टूबर को इसराइल पर हमला किया था तो अब्दुल्ला करीब 13 साल के थे। इससे पहले उनका जीवन उत्तरी गाजा के पास स्थित अल-तावान में स्कूल, दोस्तों के साथ फुटबॉल खेलने, समुद्र बीच पर घूमने, माता-पिता, भाई और दो बहनों के साथ मस्ती करते हुए बीतता था।
अब्दुल्ला के जन्मदिन से एक दिन पहले लोगों को दक्षिण की ओर जाने को कहा गया। इसके तुरंत बाद अब्दुल्ला के परिवार ने जल्दी-जल्दी में ज़रूरत का सामान बांधा और उस सलाह अल-दीन रोड की ओर निकल पड़े जिसे कि इसराइली सेना ने कहा था कि यहां से लोग निकल सकते हैं।
लेकिन जब वो सलाह अल-दीन रोड की तरफ़ बढ़े तो वाहन पर इसराइली हवाई हमला हुआ।
अब्दुल्ला ने कहा, ‘मैं और मेरा भाई अहमद इस हमले से हवा में उछलते हुए कार से बाहर आ गए।’
जब हवाई हमला हुआ था तो अहमद 16 साल के थे और उसके एक पैर को काटना पड़ा। दूसरे पैर में मेटल प्लेट्स लगी हुई है।
अब्दुल्ला के हाथ, सिर, कमर और मुँह में चोट लगी और उसके पेट पर दो लंबे निशान दिखाई देते हैं।
अब्दुल्ला, उसके परिवार और कई चश्मदीदों ने बीबीसी से कहा कि ड्रोन के माध्यम से मिसाइल हमला किया गया था।
वहीं इस दावे को इसराइली सेना ने खारिज करते हुए कहा कि उसने उस दिन नागरिकों के काफिले पर हमला नहीं किया था और इसे झूठे आरोप करार दिया।
बीबीसी से प्रवक्ता ने कहा, ‘जांच में ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जो ये साबित करता हो कि आईडीएफ ने हमला किया था।’
अब्दुल्ला ने बताया कि उन्हें याद है कि कैसे अस्पताल के कर्मी उनके माता-पिता को लेकर पूछे जा रहे सवालों को टाल रहे थे। ‘मेरे कजिन और दादी ने मुझे जो बताया उसके बारे में मुझे पहले से ही लग रहा था।’
‘मुझे इसके बारे में हमेशा से पता था।’
वो आगे कहते हैं, ‘मैं अगर शहीद हो गया होता तो यह उससे अच्छा होता जो अब मेरे साथ हो रहा है।’
अब्दुल्ला हाथ में लगी चोट के निशान की तरफ देखते हुए कहते हैं, ‘मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरा हाथ पहले ही काट दिया गया है। उन्होंने इसे ठीक करने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार रहा।’
अब्दुल्ला और उनकी दो बहनें मिन्ना (18) और हाला (11) अपनी दादी के साथ दक्षिण गाजा के इलाके खान यूनिस में रह रहे हैं।
जिस दिन माता-पिता की हमले में मौत हुई तो उस दिन अब्दुल्ला की दोनों बहनें उत्तरी गज़़ा में ही थीं क्योंकि वाहन में उनके लिए जगह नहीं थी। वहीं अहमद इलाज के लिए क़तर में रह रहे हैं।
अब्दुल्ला ने कहा, ‘हँसी और अच्छा समय चला गया। हमने अपने मां, पिता और चाचा को खो दिया।’
‘ये लोग पूरे परिवार के लिए खुशी का जरिया थे।’
‘हम उनके बिना सही से नहीं जी रहे हैं।’
‘हम स्कूल जाते थे, खेलते और हँसते थे। गज़़ा ख़ूबसूरत हुआ करता था, लेकिन अब सब ख़त्म हो गया।’
अब्दुल्ला ने बताया कि उसका अपने दोस्तों से संपर्क नहीं हो पाता और कई युद्ध में मारे जा चुके हैं।
‘इसराइल को मेरा ये मैसेज है। आपने हमारे साथ ये किया। आपने मेरे माता-पिता की जान ले ली। मेरी शिक्षा छीन ली। आपने मुझसे मेरा सब कुछ ले लिया।’
‘मुझे राहत मिली कि मैंने केवल एक पैर खोया है’
क्रिस्टीना असी ने कहा, ‘मैं अपनी पहचान फोटो जर्नलिस्ट के तौर पर बताती थी, लेकिन आज मैं अपनी पहचान वॉर क्राइम सर्वाइवर बताती हूं।’
क्रिस्टीना न्यूज़ एजेंसी एएफपी के लिए फोटो जर्नलिस्ट के तौर पर अपने देश लेबनान में दक्षिणी सीमा पर हो रही लड़ाई को कवर करने गई थीं।
सात अक्टूबर को किए गए हमले को देखते हुए हथियारबंद गुट हिज्बुल्लाह ने इसराइल पर रॉकेट हमला शुरू कर दिया था। इसने बाद में बड़े संघर्ष का रूप ले लिया।
पिछले साल 13 अक्टूबर को क्रिस्टीना और पत्रकारों का एक समूह लेबनान के दक्षिण में उस गांव में गया था जो कि इसराइल की सीमा से करीब एक किलोमीटर दूर था। यह वो गांव था जहां झड़प हो रही थी।
29 वर्षीय क्रिस्टीना ने कहा कि हमने प्रेस लिखी हुई जैकेट और हेलमेट पहना हुआ था। वहीं कार के बोनट पर पीले रंग की टेप से टीवी लिखा हुआ था। लगा था कि हम सुरक्षित हैं।
उन्होंने बताया कि ‘अचानक से गोलीबारी होने लगी। मुझे याद है कि बगल वाली कार में आग लगी हुई थी और मैं भागने की कोशिश करने लगी। बुलेट प्रूफ जैकेट के भारी होने और कैमरे के कारण हिलने में परेशानी हो रही थी।’
‘मैं देख सकती थी कि मेरे पैर से खून निकल रहा है। मैं खड़ी नहीं हो पर रही थी।’
12 दिनों के बाद क्रिस्टीना की ऑंख अस्पताल में खुली और उन्होंने कहा, ‘मुझे राहत मिली कि मैंने सिर्फ एक पैर खोया।’
हमले में 37 वर्षीय रॉयटर्स के पत्रकार इसाम अब्दुल्ला की मौत हो गई और छह घायल हो गए। इसको लेकर क्रिस्टीना ने कहा, ‘मुझसे नर्स ने पूछा कि किसकी जान गई तो मैंने ऑनलाइन उनका नाम देखा। मैं हेडलाइन पर विश्वास नहीं कर पाई।’
यूनाइटेड नेशंस इंटरिम फोर्स इन लेबनान ने जांच करने के बाद बताया कि अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हुए इसराइल ने 120 एमएम के गोले ‘साफ तौर से पहचाने जाने वाले पत्रकारों’ के ग्रुप पर दागे थे।
कई मानवाधिकार समूहों ने कहा कि इस मामले की जांच संभावित युद्ध अपराध के रूप में की जानी चाहिए।
आईडीएफ ने बीबीसी से कहा कि उसके सैनिकों को इसराइली क्षेत्र में ‘आतंकवादियों की घुसपैठ’ का शक हुआ था। इसे रोकने के लिए टैंक और आर्टिलरी फायर का इस्तेमाल किया गया। मामले को देखा जा रहा है।
क्रिस्टीना ने कहा कि उन्हें गुस्सा आता है और जो उनके साथ हुआ उसको लेकर चिढ़ होती है।
‘आप हर चीज़ पर भरोसा खो देते हैं। अंतरराष्ट्रीय क़ानून और अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर मुझे पहले पत्रकार होने के तौर पर विश्वास था।’
दुनिया भर में घायल और मारे गए पत्रकारों के सम्मान में जुलाई में एएफपी के अपने सहकर्मियों के साथ क्रिस्टीना व्हीलचेयर पर ओलंपिक की मशाल लेकर चलीं।
उन्हें उम्मीद है कि वो एक बार फिर से ग्राउंड पर पत्रकार के तौर पर उतर सकेंगी।
‘जिस दिन मैं खड़ी हो सकूंगी, चल सकूंगी, कैमरा लेकर अपने काम पर लौटूंगी और वो चीज फिर से कर सकूंगी जिससे मुझे प्यार है तो तब मेरी जीत होगी।’
‘मैंने चिल्लाना शुरू किया लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया’
अब्दुलरहमान अल अश्कर ने बताया कि शाम का समय था। वो भुट्टा बेचने के बाद सिगरेट पीते हुए अपने दोस्त लैथ शावनेह के साथ घूम रहे थे।
18 वर्षीय अब्दुलरहमान 1 सितंबर की रात को याद करते हुए कहते हैं, ‘अचानक बमबारी हो जाती है।’
दोनों इसराइल के कब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में स्थित सिलाट अल हरिथिया गांव में हुए इसराइली एयरक्राफ्ट की ज़द में आ जाते हैं।
अब्दुलरहमान ने बताया कि उन्हें रॉकेट की आवाज़ सुनाई देती है, लेकिन बचने का समय नहीं होता। उन्होंने कहा, ‘मैं सिर्फ एक क़दम पीछे ले सका।’
‘मैंने चिल्लाना शुरू किया लेकिन लैथ ने कोई जवाब नहीं दिया।’
16 वर्षीय लैथ की मौत हो जाती है और अब्दुलरहमान गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं। उनके दोनों पैरे के घुटने से नीचे का हिस्सा अलग करना पड़ता है।
अब्दुलरहमान ने कहा कि वो 10 दिन बाद होश में आते हैं और उन्हें बताया जाता है कि दिल का धडक़ना तीन बार अब तक रुक चुका है
अब्दुल रहमान अभी भी अस्पताल में हैं। मेटल प्लेट्स एक हाथ में लगी हुई है, दो उंगलियां खराब हो चुकी हैं। साथ ही पेट की कई सर्जरी हो चुकी है। उन्होंने कहा कि दर्द लगातार होता है।
वेस्ट बैंक में 7 अक्टूबर के बाद से हिंसा बढ़ गई है। इसराइल का कहना है कि हमारा मकसद हमारे देश में जानलेवा हमलों को रोकना है। हमले में सैकड़ों फिलस्तीनी मारे गए हैं।
अब्दुलरहमान हमले से पहले दूसरे लोगों की तरह सामान्य जीवन जी रहे थे। उनका जीवन सुबह की प्रार्थना, दोस्तों के साथ नाश्ता, काम में पिता की मदद और भुट्टा बेचते हुए बीतता था।
लेकिन अब वो हर रोज के कामों के लिए जैसे कि बाथरूम जाने के लिए अपने भाई पर निर्भर हो गए हैं। उन्हें उनकी मां खाना खिलाती हैं।
बीबीसी ने हमले के बाद आईडीएफ से संपर्क साधा था। इस दौरान आईडीएफ ने कहा था, ‘जेनिन क्षेत्र में तैनात मेनाशे ब्रिगेड के बलों पर विस्फोटक फेंके देखे जाने के तुरंत बाद एक आतंकवादी सेल पर एयरक्राफ्ट से हमला किया।’
जब उनसे पूछा गया कि क्या वो हथियार लिए हुए थे तो उसने कहा, ‘कैसे हथियार? मैं घर से तुरंत निकला था। मैं सफेद कपड़े पहने हुए सडक़ पर चल रहा था।।मैं बस बाहर जा रहा था।’
वो बताते हैं कि मैं सिर्फ ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने और एक कार खरीदने का सपना देखता था।
‘आज मैं किसी बात की चाहत रखता हूं तो वो चलना है।’ (bbc.com/hindi)
-विनायक होगाडे
पुणे के येरवडा की झुग्गी-झोपड़ी से लेकर अमेरिका में प्रोफेसर बनने तक का बेहतरीन सफर तय करने वाली शैलजा पाइक अब प्रतिष्ठित ‘मैकआर्थर’ फैलोशिप पाने वाली पहली दलित महिला बन गई हैं।
इस फैलोशिप के तहत चयनित उम्मीदवारों को पांच साल के लिए कई चरणों में 8 लाख डॉलर (भारतीय मुद्रा में 6 करोड़ 71 लाख रुपये) की राशि मिलती है।
शैलजा पाइक ने अपने शोध अध्ययन के माध्यम से दलित महिलाओं के जीवन को गहराई से प्रस्तुत किया है। उन्हें एक ऐसी इतिहासकार के रूप में जाना जाता है जिन्होंने दलित महिलाओं के योगदान और उनकी आत्मचेतना की जागृति का इतिहास लिखा है।
जॉन डी. और कैथरीन टी. मैकआर्थर फाउंडेशन की ओर से ‘मैकआर्थर फैलो प्रोग्राम’ की ‘जीनियस ग्रांट’ फैलोशिप अमेरिका में अलग-अलग क्षेत्रों के 20 से 30 शोधकर्ताओं और विद्वानों को हर साल दी जाती है।
इस साल भी लेखकों, कलाकारों, समाजशास्त्रियों, शिक्षकों, मीडियाकर्मियों, आईटी, उद्योग, अनुसंधान जैसे विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित लोगों के लिए इस फ़ैलोशिप की घोषणा की गई है और इसमें इतिहासकार के तौर पर शैलजा पाइक भी शामिल हैं।
बीबीसी मराठी से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं इस फैलोशिप को पाकर बहुत खुश हूं। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं बादलों पर चल रही हूं।’
येरवडा से अमरीका का दौरा
शैलजा पाइक पुणे के येरवडा की रहने वाली हैं। वह अपनी तीन बहनों के साथ येरवडा की झुग्गियों में बीस बाई बीस फीट के छोटे से घर में पली बढ़ीं।
अपने बचपन के बारे में बीबीसी मराठी से वो बताती हैं, ‘हमारे पास न तो पीने के पानी की सुविधा थी, न ही शौचालय। यह सच है कि मैं कचरे और यहां तक कि गंदगी से घिरे इलाके, जहां सूअर घूमते रहते थे, वहां बड़ी हुई, सार्वजनिक शौचलायों की वो यादें, मुझे आज भी परेशान करती हैं।’
बस्ती में सार्वजनिक नल का पानी ही घर में खाना पकाने या सफाई जैसे कामों का आधार था।
उन्हें यह भी याद है कि इस पानी के लिए उन्हें लंबी कतार में लगना पड़ता था। शैलजा का कहना है कि इसके बावजूद उनके पिता देवराम और मां सरिता ने उनके भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में शिक्षा दिलाई।
शैलजा कहती हैं, ‘सामाजिक, शैक्षिक, भावनात्मक और मानसिक सभी स्तरों पर, इन सबका निश्चित रूप से गहरा प्रभाव पड़ता है। इतना मुश्किल जीवन जीने और येरवडा जैसे इलाके़ में रहने के बाद भी इन हालात से बाहर निकलने में शिक्षा के महत्व को मेरे माता-पिता ने पहचाना और मुझे इसके लिए प्रोत्साहित किया। यही कारण है कि मैं ख़ुद को पढ़ाई के लिए समर्पित कर पायी।’
उस समय की अपनी यादों को साझा करते हुए वो बताती हैं, ‘वास्तव में ऐसे माहौल में पढ़ाई करना एक बड़ी चुनौती थी। मैं शाम को 7.30 बजे सो जाती थी और आधी रात को 2-3 बजे उठकर सुबह के छह सात बजे तक पढ़ती थी, फिर स्कूल जाती थी।’
अपने संघर्ष के बारे में बात करते हुए उन्होंने यह भी कहा, ‘एक दलित होने के नाते निश्चित रूप से कई बार मुझे भेदभाव का सामना करना पड़ा।’
‘उदाहरण के लिए, जब मुझे ‘फोर्ड फाउंडेशन फैलोशिप’ मिली, तो मेरे आस-पास के कुछ लोगों को इस पर विश्वास नहीं हुआ। वे अक्सर मुझसे पूछते थे, तुम्हें यह कैसे मिला? मुझे जो फैलोशिप मिली वह मेरे काम के लिए थी, लेकिन एक दलित महिला को मिली फैलोशिप से वे बहुत आश्चर्यचकित थे।’
इस फैलोशिप का क्या महत्व है?
‘जीनियस ग्रांट’ के नाम से मशहूर यह फ़ैलोशिप इस साल 22 लोगों को दी गई है।
‘रचनात्मकता’ मैकआर्थर फैलोशिप का एक मूलभूत मानदंड है। इस फ़ैलोशिप का उद्देश्य नवीन विचारों वाले उभरते इनोवेटर्स के काम में निवेश करना, उसे प्रोत्साहित करना और उसका समर्थन करना है।
इस फ़ैलोशिप को देने के पीछे मूल विचार उन लोगों को सामने लाना है जो जोखिम उठाते हुए समाज की जटिल समस्याओं का सामना करते हैं और जो लोग लीक से हटकर सोचते हैं और सुंदर, रचनात्मक और प्रेरणादायक चीजें बनाते हैं।
फैलोशिप के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, ‘मुझे उम्मीद है कि यह फैलोशिप दक्षिण एशिया और उसके बाहर दलितों और गैर-दलितों दोनों के लिए जातिवाद के खिलाफ लड़ाई को मजबूत करेगी।’
इस फैलोशिप के महत्व पर प्रकाश डालते हुए, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग की प्रमुख श्रद्धा कुम्बोजकर ने बीबीसी मराठी को बताया, ‘इस फ़ैलोशिप की राशि भारतीय मुद्रा में भी बहुत बड़ी है। मैकआर्थर फाउंडेशन प्रतिभाशाली लोगों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से यह फ़ैलोशिप प्रदान करता है। यह फैलोशिप इन लोगों की प्रतिभा में यकीन करती है।’
इस फैलोशिप के लिए कोई आवेदन या साक्षात्कार प्रक्रिया नहीं है। फैलोशिप के लिए विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा नामांकित विद्वान और होनहार उम्मीदवारों पर विचार किया जाता है।
‘दलितों में दलित यानी दलित महिलाएं’
शैलजा पाइक का अध्ययन दलित महिलाओं के जीवन के नजरिए से आधुनिक भारत में जाति, लिंग और सेक्सुअलिटी की पड़ताल करता है।
अपने समग्र अध्ययन के बारे में उन्होंने कहा, ‘भारत की कुल आबादी में दलित 17 प्रतिशत हैं। मैंने देखा कि दलित महिलाओं की शिक्षा पर बहुत काम नहीं किया गया है। आंकड़े तो हैं लेकिन सटीक स्थिति के बारे में कोई गुणात्मक शोध नहीं है। इन दलित महिलाओं का इतिहास किसी ने ठीक से नहीं लिखा इसलिए मैंने तय किया कि मुझे ये काम करना है।’
‘ऐतिहासिक रूप से इतनी बड़ी आबादी को किसी भी प्रकार की शिक्षा, सार्वजनिक बुनियादी ढांचे, सार्वजनिक जल निकायों या कुओं के इस्तेमाल की अनुमति नहीं थी, चप्पल या नए कपड़े पहनने की तो बात ही छोड़ दें, भले ही कोई उनका ख़र्च उठाने की स्थिति में ही क्यों न हो।’
‘दलित महिलाएं निस्संदेह सबसे अधिक वंचित और उत्पीडि़त हैं। दलितों में उनकी स्थिति ‘दलित’जैसी है। यही वह समाज है जहां से मैं आती हूं। यही कारण है कि पिछले 25 वर्षों से मेरे अध्ययन, शोध और लेखन का विषय यही रहा है।’
दलित महिलाओं के जीवन का अध्ययन
शैलजा पाइक एक आधुनिक इतिहासकार हैं जो जाति, लिंग और सेक्सुअलिटी के चश्मे से दलित महिलाओं के जीवन का अध्ययन करती हैं।
पाइक ने अपने अध्ययन के माध्यम से जाति प्रभुत्व के इतिहास पर एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया है। इसके साथ ही, उन्होंने अपने लेखन के ज़रिए बताया है कि लिंग और सेक्सुअलिटी ने दलित महिलाओं के आत्मसम्मान और उनके व्यक्तित्व के शोषण को कैसे प्रभावित किया है।
उनके संपूर्ण लेखन के केंद्र में दलित और दलित महिलाएं हैं। अंग्रेजी, मराठी और हिंदी भाषाओं के साहित्य के अलावा उन्होंने समकालीन दलित महिलाओं के साक्षात्कार और उनके अनुभवों को जोडक़र आज के संदर्भ में एक नया दृष्टिकोण तैयार किया है।
उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘आधुनिक भारत में दलित महिला शिक्षा: दोहरा भेदभाव’ (2014) और ‘जाति की अश्लीलता: दलित, सेक्सुअलिटी और आधुनिक भारत में मानवता’। पहली किताब में उन्होंने महाराष्ट्र के शहरी इलाकों में शिक्षा के लिए दलित महिलाओं के संघर्ष की तुलना ब्रिटिश कालीन हालात से की है।
पढ़ाई लिखाई कहां से हुई?
शैलजा पाइक 2010 से ‘सिनसिनाटी विश्वविद्यालय’ से जुड़ी हुई हैं जहां वह ‘महिला, लिंग और सेक्सुअलिटी अध्ययन और एशियाई अध्ययन’ की शोध प्रोफेसर हैं।
निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आने वालीं शैलजा ने एमए की पढ़ाई 1994-96 के दौरान सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से पूरी की है।
2000 में, उन्हें एमफिल के लिए विदेश जाने के लिए भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएसएसआर) से फैलोशिप मिली। फिर वह इंग्लैंड चली गईं।
इसके बाद उन्हें आगे की शिक्षा के लिए अमेरिका जाने का मौका मिला। आज तक उनके शोध लेखन को अमेरिकन काउंसिल ऑफ लर्नड सोसाइटीज, स्टैनफर्ड ह्यूमैनिटीज़ सेंटर, नेशनल एंडोमेंट फॉर द ह्यूमैनिटीज़, अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज, येल यूनिवर्सिटी, एमोरी यूनिवर्सिटी, फोर्ड फाउंडेशन और चाल्र्स फेल्प्स टैफ्ट रिसर्च सेंटर से फंडिंग मिली है।
उन्होंने 2007 में इंग्लैंड के वारविक विश्वविद्यालय से पीएचडी प्राप्त की। उन्होंने 2008-2010 के दौरान यूनियन कॉलेज में इतिहास के विजि़टिंग सहायक प्रोफेसर और येल विश्वविद्यालय में 2012-2013 के दौरान दक्षिण एशियाई इतिहास के पोस्ट डॉक्टरल एसोसिएट और सहायक प्रोफेसर के रूप में भी काम किया है। (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति के साथ इतनी महीनता से रची गुंथी है कि वह नागरिकों के डी एन ए और खून में भी रच बस गई है। दुर्भाग्य से हम भारतीय इसी वजह से आए दिन नए नए बाबाओं और धर्मगुरुओं के मायाजाल में इस तरह फंस जाते हैं कि इससे बाहर निकलना टेढ़ी खीर हो गया। यही कारण है कि हर दौर में जब किसी पुराने बाबा की गद्दी हिलती है या जब उसकी पोल पट्टी खुलती है तो खाली स्थान भरने के लिए कोई नया बाबा या धर्मगुरु प्रकट हो जाता है। इन तमाम धर्मगुरुओं की नजर दो तीन तरह के लोगों पर सबसे ज्यादा टिकती है, कोई बड़ा नेता, जो इनके फाइव स्टार सुविधाओं से युक्त लंबे चौड़े आश्रम के लिए कोई भूखंड सस्ते में दिलाने या सरकारी जमीन पर कब्जा कराने में मदद कर सके, कुछ अमीर उद्योगपति और व्यापारी जो अपने धंधे की नेटवर्किंग के बदले इन्हें भव्य आश्रम निर्माण के लिए करोड़ों का चंदा दे सके और कोई फिल्मी सितारा जो इनके आकर्षण में चार चांद लगाने में मदद कर सके।
इसी प्रक्रिया को अपनाकर आजाद भारत में धीरेन्द्र ब्रह्मचारी, ओशो, चंद्रा स्वामी, आशाराम बापू और राम रहीम आदि ने बहुत सालों तक आध्यात्मिक चोला ओढक़र राज किया है और जैसे ही विवादों में उलझकर इनका सूर्यास्त हुआ खाली जगह भरने के लिए कोई नया बाबा आ जाता है। यह स्थिति तो राष्ट्रीय स्तर के बाबाओं और धर्मगुरुओं की है, स्थानीय स्तर पर भी विभिन्न इलाकों में धीरेन्द्र शास्त्री और प्रदीप मिश्रा जैसे न जाने कितने बाबा, कथावाचक और धर्मगुरु होते रहे हैं जिनकी पहुंच भाषाई अवरोध और क्षमता की सीमा के चलते राष्ट्रीय स्तर पर नहीं पहुंच पाती।
इधर नए बाबाओं की एक ऐसी खेप भी तैयार हुई है जो संस्कृत और हिंदी जैसी पुरानी और क्षेत्र विशेष तक सीमित भाषाओं के साथ अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पूरे देश के पढ़े लिखे नौजवानों और विदेशियों को भी आकर्षित कर सकते हैं। ऐसे दो सबसे चर्चित धर्मगुरु जिन्होंने दक्षिण भारत से अपनी शुरूआत की श्री श्री रवि शंकर और जग्गी वासुदेव हैं। इन्होंने क्रमश: बैंगलौर और कोयंबतूर को अपना मुख्यालय बनाकर देश और देश के बाहर अपने प्रशंसकों की बड़ी फौज तैयार की है। रवि शंकर के परिचितों में अक्सर कई देशों के राष्ट्रध्यक्ष की फोटो प्रचारित की जाती है। उसी तरह से जग्गी वासुदेव अपने साथ प्रधानमंत्री मोदी का नाम जोड़ते हैं। इन संतों को सीकरी (दिल्ली) की गद्दी से बड़ा प्रेम है।रवि शंकर अपने आध्यात्मिक साम्राज्य का उत्साही अंतरराष्ट्रीय विस्तार करने में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के शिकंजे में फंस गए थे जब उन्होंने दिल्ली की दम तोड़ती यमुना के पर्यावरण की दृष्टि से अतिसंवेदनशील क्षेत्र को नुकसान पहुंचाया था।
आजकल जग्गी वासुदेव मद्रास उच्च न्यायालय में एक मामले में घिरे हैं। अखबार की रिपोर्ट्स के अनुसार उनके कोयंबतूर स्थिति आश्रम पर पुलिस ने छापा मारा है हालांकि उनके आश्रम के सूत्र कहते हैं कि पुलिस वहां समान्य जानकारी के लिए आई थी। ताजा विवाद का कारण एक बुजुर्ग व्यक्ति का यह आरोप है कि जग्गी वासुदेव ने अपनी बेटी की तो शादी कर दी लेकिन वे अन्य युवाओं और युवतियों को सन्यासी बनाने के लिए उनका ब्रेनवाश करते हैं। उन्होंने उनकी दो बेटियों का इसी तरह ब्रेनवाश कर आश्रम में रखा है। संभवत: उन्हीं युवतियों की खोज में पुलिस आश्रम में आई थी। वर्तमान समय में जग्गी वासुदेव केवल दक्षिण भारत में ही नहीं बल्कि पूरे देश में चर्चित हैं और विदेशों में भी उनके काफी अनुयाई हैं। वे फर्राटे से अंग्रेजी, हिंदी और दक्षिण भारत की कुछ भाषाएं बोलते हैं। उनके शिष्यों में काफी उच्च शिक्षा प्राप्त युवक और युवतियां भी हैं। प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के लिए भी उनके प्रयास का प्रचार होता है। वे पुराने जमाने की सादगी वाली आध्यात्मिकता के बजाय तामझाम वाले गुरु हैं जिनकी वेशभूषा और आश्रम से किसी प्राकृतिक महंगे रिसॉर्ट जैसा अहसास होता है। अब इस मामले को मद्रास उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पास ले लिया, देखते हैं उसमें क्या निर्णय आता है!
-मोहम्मद हनीफ
वैसे कहने को तो पाकिस्तान में बहुत सारी समस्याएं हैं। बहुत सारे घाटे हैं। हमारा खज़़ाना अक्सर ख़ाली रहता है।
हमें अपने ख़र्चों को पूरा करने के लिए कभी आईएमएफ तो कभी चीन और सऊदी अरब जैसे देशों के पास जाना पड़ता है। हमारे कोई दो-ढाई करोड़ बच्चे ऐसे हैं, जिन्होंने कभी स्कूल की शक्ल भी नहीं देखी है।
अगर कोई काम करने वाला मज़दूर बीमार पड़ जाए तो उसे अपना इलाज कराने के लिए उसे अपनी मोटरसाइकिल बेचनी पड़ती है।
वैसे तो हम एक समृद्ध देश हैं लेकिन कभी गेहूं की कमी हो जाती है तो कभी चीनी बाहर से मंगवानी पड़ती है।
ये सारे घाटे हमारे अंदर हैं लेकिन एक मामले में अल्लाह की बड़ी मेहरबानी है कि पाकिस्तान में मुफ़्तियों और मौलवियों की कमी नहीं है।
यहां आपको हर मिज़ाज, हर हुलिये का आलिम-ए-दीन मिलेगा। यहां आपको मधुर और सुरीले मौलवी मिलेंगे साथ ही बक-बक करने वाले और अपशब्द बोलने वाले मौलवी भी यहां मिल जाएंगे ।
मुफ़्तियों, मौलवियों का ‘ओलंपिक’ और पाकिस्तान
यहां आपको ऐसे मौलवी भी मिलेंगे जो आपका गला काटने का फ़तवा देंगे। उस फ़तवा देने वाले का भी फ़तवा देने वाले मौलवी मिल जाएंगे। कुछ ऐसे भी हैं जो ख़ुद से गला काटने की बात करते हैं।
अब गऱीब का बच्चा अगर स्कूल नहीं जाएगा तो शायद मदरसे में चला जाए। उस बेचारे ने तो फिर वहां से मौलवी बनकर ही बाहर निकलना है। लेकिन यहां संपन्न मध्यम वर्ग के लोग भी अपने बेटे को कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी भेजते हैं।
और दो साल बाद वह मुफ़्ती बन जाता है और घर आकर अपनी मां और बहन को इस्लाम में पर्दा करने के मुद्दे पर लेक्चर देता है।
अगर दुनिया में कहीं मुफ़्तियों या मौलवियों का ओलंपिक होता तो मुझे यक़ीन है कि सारे मेडल पाकिस्तान ने जीत लेने थे और हमारी हर गली में एक अरशद नदीम घूम रहा होता।
अब इस माहौल में पता नहीं हमारी सरकार को ऐसा क्यों लगा कि हम लोगों को रोटी, शिक्षा और बिजली तो नहीं दे सकते, लेकिन हमें उन्हें एक अंतरराष्ट्रीय मौलवी तो देना ही चाहिए।
हुकूमत ने जनाब ज़ाकिर नाइक साहब को एक महीने के लिए पाकिस्तान आने का निमंत्रण दिया है।
वे हमारे मेहमान हैं। वेलकम। उनकी प्रसिद्धि यह है कि एक तो वे कोट-पैंट पहनते हैं और दूसरी यह कि वे ‘काफिऱों’ को मुसलमान बनाते जा रहे हैं।
‘ज़ाकिर साहब पाकिस्तान में किसे मुसलमान बनाना चाहते हैं’
सुना है कि उन्होंने लाखों काफिऱों को मुसलमान बनाया है। आते ही उन्होंने इस बात की पुष्टि भी कर दी कि मुझे भारत से इसलिए निकल दिया गया है क्योंकि हिंदू मेरी बातें सुन-सुन कर मुसलमान बनने लगे थे।
अब पता नहीं कि वे पाकिस्तान में किसे मुसलमान बनाना चाहते हैं। हमारे पास तो काफिऱ बचे ही बहुत कम थे।
इसीलिए हमने ख़ुद ही प्रोडक्शन शुरू कर दी है कि अच्छे भले कलमा पढऩे वाले मुसलमानों को हम कभी काफिऱ बनाकर मार देते हैं और कभी उन पर फ़तवा थोप देते हैं।
शायद सरकार सोचती है कि हमारे ही पगड़ी वाले मौलवियों ने हमारा धर्म थोड़ा खऱाब कर दिया है।
इसलिए यह सूटेड-बूटेड आलिम हमें आकर सीधा कर देगा। इसलिए हमारी स्थापना का यह पुराना तरीक़ा रहा है कि जब चीज़ें हाथ से बाहर हो जाती हैं तो मौलवियों को सडक़ों पर उतार देते हैं और उनसे फ़तवा जारी करवाते हैं ।
अब शायद उन्होंने यह सोचा होगा कि देशी मर्दों को जऱकाने के लिए इस कोट-पैंट वाले मौलवी को इम्पोर्ट किया जाए।
ज़ाकिर नाइक साहब हमारे बड़े -बड़े नेताओं और मुफ़्ितयों से मिल रहे हैं। वे मीठी-मीठी बातें करते हैं ।
पिछले दिनों एक अनाथालय में मेहमान-ए-ख़ुसूसी थे। वहां सिर से पैर तक पर्दा किए हुए अनाथ लड़कियों से टकराव हुआ और वे यह कहते हुए मंच से भाग गए कि यह तो अशोभनीय है।
अब पाकिस्तान में लगभग 12-13 करोड़ मुस्लिम लड़कियाँ और महिलाएँ हैं। उनका ईमान पता नहीं कौन ठीक करेगा।
वैसे भी जो मुसलमान पर्दानशीन अनाथ लड़कियों को देखकर अपने आप पर काबू नहीं रख पाता, वे पता नहीं हमारे आदमियों और ख़ासकर हमारे मौलवियों के ईमान को कैसे कायम रखेगा।
आपने देखा होगा कि बसों में या कभी-कभी लॉरी स्टेशन पर एक बोर्ड लगा होता है कि यात्री को अपने सामान की सुरक्षा ख़ुद करनी चाहिए।
और ज़ाकिर नाइक साहब हमारे मेहमान हैं इसलिए फिर से वेलकम लेकिन डर है कि कहीं हमारा कोई देशी मौलवी उनके कोट-पैंट पर ही फ़तवा न दे दे।
इसलिए ज़ाकिर नाइक साहब वेलकम, लेकिन अपने ईमान की पाकिस्तान में रक्षा ख़ुद करें । हम अपना ख़ुद ही देख लेंगे । रब राखा!
एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि उष्णकटिबंधीय तूफानों से लंबी अवधि में होने वाली मौतों की संख्या आधिकारिक आंकड़ों से लगभग 300 गुना अधिक हो सकती है.
पिछले हफ्ते दक्षिण-पूर्वी अमेरिका में आए चक्रवातीय तूफान हेलेन ने कम से कम 155 लोगों की जान ले ली। उससे पहले ‘जॉन’ नाम के तूफान ने पिछले सप्ताह मेक्सिको में कम से कम 16 लोगों की जान ली। ताइवान में क्राथोन नाम के तूफान का कहर अब तक दो लोगों की जान ले चुका है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इन उष्णकटिबंधीय तूफानों के दौरान दर्ज की गई तात्कालिक मौतें उनके असली प्रभाव का केवल एक छोटा सा हिस्सा दिखाती हैं। नए शोध के अनुसार, तूफान के गुजरने के कई वर्षों बाद तक इनका असली असर जीवन पर पड़ता है।
साथ ही, मानव-निर्मित जलवायु परिवर्तन से इन उष्णकटिबंधीय तूफानों के और भी तीव्र होने की संभावना है। अमेरिकी शोधकर्ताओं ने कहा कि इन प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को अधिक सहायता की जरूरत है। कई शोध बता चुके हैं कि समुद्री तूफान और ज्यादा प्रचंड हो रहे हैं।
501 तूफानों का अध्ययन
यह शोध ‘नेचर’ जर्नल में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन की प्रमुख लेखिका रेचल यंग ने एएफपी को बताया कि यह पहली बार है जब सांख्यिकी मॉडलिंग तकनीक का उपयोग करके यह अनुमान लगाया गया है कि लंबे समय तक तूफानों का मौतों पर क्या प्रभाव पड़ता है।
शोधकर्ताओं ने 1930 से 2015 के बीच अमेरिकी मुख्य भूमि पर आए 501 उष्णकटिबंधीय तूफानों की जांच की और उन क्षेत्रों में तूफान के 15 साल बाद तक सभी कारणों से हुई अतिरिक्त मौतों की संख्या का विश्लेषण किया।
हर तूफान के दौरान औसतन 24 मौतें आधिकारिक तौर पर दर्ज की गईं। लेकिन अध्ययन के अनुसार अगर तूफान के बाद के वर्षों में अप्रत्यक्ष मौतों की गिनती की जाए, तो प्रति तूफान औसतन 7,000 से 11,000 मौतें हो सकती हैं, जो सरकारी आंकड़ों से लगभग 300 गुना अधिक है।
इसका मतलब यह होगा कि 85 वर्षों में अमेरिकी अटलांटिक तट के प्रभावित क्षेत्रों में हुई कुल मौतों में से तीन से पांच प्रतिशत मौतें उष्णकटिबंधीय तूफानों से संबंधित हो सकती हैं और कुल मौतों की संख्या 50 लाख तक हो सकती है। शोध के मुताबिक इसका मतलब है कि उष्णकटिबंधीय तूफानों ने कार दुर्घटनाओं, संक्रामक बीमारियों या युद्ध में हुई मौतों से भी अधिक लोगों की जान ली है।
क्यों हुआ ऐसा, स्पष्ट नहीं
यंग कहती हैं कि जब शोधकर्ताओं ने देखा कि तूफानों का विनाशकारी प्रभाव कितने लंबे समय तक समुदायों पर बना रहता है, जो इतनी बड़ी संख्या का कारण था, तो वे ‘बहुत हैरान और बहुत सशंकित’ थे।
बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की शोधकर्ता यंग ने कहा कि ‘किसी को भी यह नहीं पता था कि ऐसा हो रहा है।’
यंग और स्टैन्फर्ड विश्वविद्यालय के सोलोमन हसियांग ने इन आंकड़ों के अन्य संभावित कारणों को समझने के लिए कई साल बिताए, लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए। अध्ययन यह नहीं दिखा पाया कि कोई विशेष तूफान किसी भी अतिरिक्त मौत का सीधा कारण कैसे बना।
यंग ने इन परिणामों की तुलना इस बात से की कि कैसे महामारी के दौरान दुनिया में प्रत्यक्ष कोविड-19 से होने वाली मौतों की तुलना में कहीं अधिक अतिरिक्त मौतें दर्ज की गईं। लेकिन शोधकर्ताओं ने इस बात के कुछ सिद्धांत पेश किए कि कैसे तूफानों ने वर्षों में इतनी ज्यादा मौतों में भूमिका निभाई हो सकती है। इनमें आर्थिक संकट, बुनियादी ढांचे की क्षति, बढ़ता प्रदूषण और तनाव, और कामकाजी उम्र के लोगों का पलायन शामिल हैं।
यंग ने एक उदाहरण दिया कि कोई व्यक्ति जो रिटायरमेंट की बचत का इस्तेमाल अपने घर की मरम्मत के लिए करता है, वह जीवन के बाद के वर्षों में स्वास्थ्य देखभाल के लिए पैसे की कमी से जूझ सकता है।
यंग ने कहा कि पिछले शोधों ने यह भी दिखाया है कि तूफान प्रभावित क्षेत्रों में स्थानीय और राज्य सरकारों का बजट कम होता है, जिससे इन समुदायों को और अधिक वंचित कर दिया जाता है।
कई लोग इस बात से अनजान हैं कि तूफान के बाद उनके स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा है। यह बात भी कुछ शोधों में सामने आई है कि आपदाओं में जान बच भी जाए तो संपत्ति का नुकसान बहुत ज्यादा होता है।
तूफानों से जुड़े अतिरिक्त खतरे
अध्ययन में पाया गया कि तूफान प्रभावित क्षेत्रों में पांच से दस साल बाद पैदा हुए बच्चों में जल्दी मरने का जोखिम काफी अधिक था। अश्वेत लोगों में भी जल्दी मरने का जोखिम बहुत अधिक था। अध्ययन ने अनुमान लगाया कि अन्य कारकों को जोडऩे के बाद भी, 1930 से 2015 के बीच अश्वेत लोगों की सभी मौतों में से 15.6 प्रतिशत तूफान प्रभावित क्षेत्रों में रहने के कारण हुईं।
इन प्राकृति आपदाओं के कारण राज्यवार मृत्यु दर अलग-अलग थी। फ्लोरिडा में 13 फीसदी, उत्तरी कैरोलाइना में 11 फीसदी, दक्षिणी कैरोलाइना में 9 फीसदी और लुइजियाना में 8 फीसदी मौतों को तूफानों से जोड़ा जा सकता है।
यंग ने चेतावनी दी कि जिन राज्यों में अधिक तूफान आते हैं, जैसे फ्लोरिडा, वहां लोग समय के साथ अधिक लचीले हो गए हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन अगर नए क्षेत्रों की ओर तूफानों को धकेलता है, तो इन क्षेत्रों में मौतों की संख्या कहीं ज्यादा हो सकती है।
कैंब्रिज विश्वविद्यालय के महामारी विशेषज्ञ स्टीफन बर्जेस, जो इस शोध में शामिल नहीं थे, ने एएफपी को बताया कि इस शोध की कार्यप्रणाली सही थी लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि दुनिया हमेशा से उष्णकटिबंधीय तूफानों का सामना करती आई है।
उन्होंने कहा, ‘लेखक यह सवाल पूछ रहे हैं: अगर उष्णकटिबंधीय तूफान नहीं होते तो क्या होता? लेकिन यह एक ऐसा कारक नहीं है जिसे हम बदल सकते हैं।’
विवादित इस्लामी उपदेशक ज़ाकिर नाइक को पाकिस्तान में बुधवार को एक अनाथालय में सम्मान देने के लिए अतिथि के तौर पर बुलाया गया था। लेकिन उन्होंने अनाथ लड़कियों को सम्मान देने से इनकार कर दिया।
जैसे ही लड़कियां मंच पर आईं, जाकिर नाइक पीछे हट गए। नाइक ने इन लड़कियों को ‘ना-महरम’ बताते हुए ख़ुद को अलग कर लिया।
ज़ाकिर नाइक के इस रुख़ की पाकिस्तान में काफ़ी आलोचना हो रही है।
इस्लाम में ‘ना-महरम’ का इस्तेमाल अविवाहित लड़कियों के लिए किया जाता है, जिनसे कोई सीधा ख़ून का रिश्ता नहीं होता है।
इस वाकय़े से जुड़ा ज़ाकिर नाइक का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।
वायरल वीडियो में देखा जा सकता है कि नाइक के पास जैसे ही लड़कियां आती हैं, वे मंच से दूर हो जाते हैं।
क्या होता है ‘ना-महरम’
इस कार्यक्रम का आयोजन पाकिस्तान स्वीट होम फाउंडेशन ने किया था, जो अनाथ लड़कियों की मदद करता है।
जब कार्यक्रम में अनाउंसर ने इन लड़कियों को बेटी कह संबोधित किया, तो नाइक का मानना था कि इन्हें आप बेटी नहीं कह सकते हैं और ना ही इन्हें टच कर सकते हैं।
उन्होंने कहा कि ये लड़कियां ‘ना-महरम’ हैं। पाकिस्तान में कई लोग ज़ाकिर नाइक के इस व्यवहार को घृणित, पाखंड से भरा और औरतों को नीचा दिखाने वाला कह रहे हैं।
पाकिस्तानी पत्रकार उस्मान चौधरी ने इसका वीडियो क्लिप शेयर करते हुए लिखा है, ‘पाकिस्तान के पूर्व सांसद जमरूद खान ने अनाथ बच्चियों को मंच पर सम्मानित करने के लिए बुलाया, लेकिन जाकिर नाइक मंच से बिना सम्मान दिए चले गए। जाकिर नाइक ने कहा कि ये लड़कियां ‘ना-महरम’ हैं।’
इस्लाम में ‘ना-महरम’ का मतलब होता है, जिनसे खून का रिश्ता ना हो और ‘महरम’ वो होते हैं, जिनसे खून का रिश्ता हो।
सऊदी अरब में कुछ साल पहले तक महिलाओं को अपने ‘महरम’ वाले रिश्तों के पुरुषों के साथ ही घर से बाहर निकलना होता था।
ये रिश्ते भाई, पति, बेटा, भतीजा, मामा या चाचा हो सकते हैं।
लेकिन 2019 में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने यह नियम बदल दिया और अब लड़कियां अकेले भी घर से बाहर निकल सकती हैं।
पाकिस्तान की वकील सरीहा बेनजीर ने जाकिर नाइक के वीडियो को रीट्वीट करते हुए लिखा है, ‘डॉ. जाकिर नाइक एक धार्मिक स्कॉलर हैं और पाकिस्तान के अतिथि हैं। लेकिन महिलाओं के प्रति उनका यह रुख घृणित, पाखंड से भरा और औरतों को नीचा दिखाने वाला है। इन छोटी बच्चियों के लिए कितना शर्मनाक और परेशान करने वाला रहा होगा। मेरा इस्लाम ऐसा नहीं है।’
पाकिस्तान में चौतरफा घिरे जाकिर नाइक
पाकिस्तान के माक्र्सवादी प्रोफेसर डॉ. तैमूर रहमान ने भी ज़ाकिर नाइक के व्यवहार के लिए आड़े हाथों लिया है।
उन्होंने एक वीडियो पोस्ट कर कहा, ‘ये यतीम बच्चियां थीं। जाकिर नाइक सोचते हैं कि इन बच्चियों से हाथ मिलाना और उनके सिर पर हाथ रखना तो दूर की बात है, बल्कि उन्हें सम्मान देना भी इस्लाम के खिलाफ है।’
‘ना-महरम तो वयस्क महिलाओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है न कि बच्चियों के लिए। और यहां तो तो कोई फिजिकल कॉन्टैक्ट की बात भी नहीं थी। क्या इस्लाम यतीम बच्चियों को सम्मानित करने के खिलाफ है?’
पाकिस्तानी पत्रकार अब्बास नासिर ने जाकिर नाइक के रुख़ पर आपत्ति जताते हुए लिखा है, ‘मैं इस बात से हैरान हूँ कि जाकिर नाइक को पाकिस्तान क्यों बुलाया गया है। अव्वल तो यह कि ज़ाकिर नाइक को पीएमएलएन सरकार ने आमंत्रित किया है और उनकी अगवानी राना मशूद ने की। नाइक चार हफ़्ते तक दिमाग को प्रदूषित करेंगे।’
वहीं आर्थिक मुद्दों पर लिखने वाले पाकिस्तानी पत्रकार यूसुफ नजर ने जाकिर नाइक का वो वीडियो क्लिप रीपोस्ट करते हुए लिखा है, ‘पाकिस्तान में पहले से ही ज़ाकिर नाइक की तरह के कई लोग हैं। अब और की जरूरत नहीं है।’
दिल्ली की जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी में इस्लामिक स्टडी सेंटर के प्रमुख रहे अख्तरुल वासे से पूछा कि पाकिस्तान में अनाथ बच्चियों के कार्यक्रम में जाकिर नाइक के रुख़ को वह कैसे देखते हैं?
अख्तरुल वासे कहते हैं, ‘पहली बात तो यह कि पाकिस्तान ने हिन्दुस्तान को चिढ़ाने के लिए जाकिर नाइक को बुलाया है। जब दोनों देशों के संबंध पहले से ही खराब हैं तो पाकिस्तान ने जाकिर नाइक को बुला लिया। पाकिस्तान एक इस्लामिक देश है और जाकिर नाइक वहाँ इस्लाम को जिस रूप में पेश कर रहे हैं, उसी से पता चलता है कि कैसा इस्लामिक देश है।’
ज़ाकिर नाइक को पाकिस्तान ने क्यों बुलाया?
भारत की पुलिस के लिए ज़ाकिर नाइक वॉन्टेड हैं। वह भारत में मनी लॉन्ड्रिंग और हेट स्पीच के मामले में अभियुक्त हैं।
भारत में ज़ाकिर नाइक पर दो समुदायों के बीच नफऱत और दुश्मनी बढ़ाने का आरोप है।
लेकिन नाइक दावा करते हैं कि उन्होंने भारत के क़ानून के ख़िलाफ़ कोई काम नहीं किया है। कट्टर धार्मिक विचार के कारण जाकिर नाइक पर बांग्लादेश, श्रीलंका और ब्रिटेन में भी पाबंदी है।
जर्मनी के सरकारी प्रसारक डीडब्ल्यू से पाकिस्तान के जाने-माने बुद्धिजीवी परवेज़ हुदभाई ने कहा, ‘पाकिस्तान में जाकिर नाइक को राजकीय अतिथि के तौर पर बुलाने से मैं दुखी हूँ लेकिन हैरान नहीं हूँ। सरकार आग में घी डालने का काम कर रही है।’
‘सऊदी अरब रूढि़वादी इस्लाम से दूर हट रहा है लेकिन पाकिस्तान इसका सक्रिय संरक्षक बन रहा है। जाकिर नाइक को राजकीय अतिथि के तौर पर बुलाना यही बताता है।’
जाकिर नाइक अभी मलेशिया में रहते हैं और वहाँ भी उन्हें नस्ली रूप से संवेदनशील टिप्पणी के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी थी।
अगस्त 2019 में मलेशियाई पुलिस ने जाकिर नाइक पर सार्वजनिक सभाओं में उपदेश देने पर पाबंदी लगा दी थी। उनकी टिप्पणियों के लिए मलेशिया में पुलिस ने घंटों पूछताछ भी की थी।
जाकिर नाइक की भारत में भले कई आपराधिक मामलों में तलाश है लेकिन पाकिस्तान में उनके स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है।
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने जाकिर
नाइक से क्या कहा?
जाकिर नाइक 30 सितंबर को पाकिस्तान पहुँचे थे और इस महीने के आखिरी हफ्ते तक उनका यहाँ के कई शहरों में प्रोग्राम है। बुधवार को जाकिर नाइक से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने मुलाकात की।
शहबाज शरीफ ने जाकिर नाइक से मिलते ही कहा कि मुसलमानों को उन पर गर्व है क्योंकि वह पूरी दुनिया में इस्लाम का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।
शहबाज शरीफ ने जाकिर नाइक की जमकर प्रशंसा करते हुए कहा, ‘आप पूरी दुनिया में अप्रत्याशित रूप से पवित्र क़ुरान के मूल्यों का प्रसार कर रहे हैं। इसके अलावा दुनिया भर में इस्लाम का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।’
‘पूरी मुस्लिम दुनिया पर आपको गर्व है क्योंकि आप इस्लाम की असली छवि से लोगों को परिचित करवा रहे हैं। आपके उपदेश का युवाओं में काफ़ी क्रेज है।’
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कहा, ‘मुझे निजी तौर पर आपके उपदेशों से फायदा हुआ है। आपसे इस्लाम की बहुमूल्य सीख मिलती है। पाकिस्तान के लोग आपसे बहुत प्यार करते हैं और आपके यहाँ आने से काफी खुश हैं। मुझे ख़ुशी है कि आपकी सेहत अच्छी है और आपके बेटे भी इस्लाम की सेवा में लग गए हैं।’
शहबाज शरीफ ने जाकिर नाइक से 2006 में हुई मुलाकात को भी याद किया।
शहबाज शरीफ से मुलाकात के बाद जाकिर नाइक ने कहा, ‘पूरी दुनिया में पाकिस्तान एकलौता देश है जो इस्लामिक सिद्धांतों के आधार पर बना। मैं उम्मीद करता हूँ कि पाकिस्तान और इस्लामी मूल्यों को लागू करे।’
‘जहाँ तक मुझे मालूम है कि कुरान ही उनका संविधान है। मैं चाहता हूँ कि पाकिस्तान में कुरान और हदीश को पूरी तरह से लागू किया जाए। मेरा वर्षों का ख़्वाब पूरा हुआ। मैं पाकिस्तान की सरजमीं पर हूँ। अल्लाह ने मेरी वर्षों की ख़्वाहिश पूरी की।’
ज़ाकिर नाइक ने कहा, ‘इसके पहले मैं 1991 में 33 साल पहले पाकिस्तान आया था लेकिन वह निजी दौरा था। उस वक़्त मैं तकऱीरें नहीं करता था। इस बार मुझे पाकिस्तान की सरकार ने बुलाया था।’
‘पाकिस्तानी मुझसे बहुत ही गर्मजोशी से मिलते हैं। मुझे सबसे ज़्यादा न्यौता पाकिस्तान आने के लिए मिले थे। पाकिस्तानियों से कहना चाहता हूँ कि दुनिया की सबसे बेहतरीन किताब क़ुरान है।’ (bbc.com/hindi)
सीटू तिवारी
रंजन देवी नौ माह की गर्भवती हैं. वो 'काली पन्नी' की खेप से लदी पिकअप वैन के पीछे दौड़ रही हैं. बाढ़ की वजह से बेघर हो चुके लोगों के लिए प्रशासन अस्थायी छत मुहैया कराने के लिए काली पन्नी (काली प्लास्टिक की सीट) बांटता है.
रंजन देवी बोल नहीं पातीं. थक कर वो सड़क के किनारे खड़ी हो जाती हैं.
काली पन्नी से लदी पिकअप वैन के पीछे नंगे पांव दौड़ते लोग प्रशासन से बेहद ख़फ़ा हैं. निराशा और ग़ुस्से के मिले-जुले भाव से चिल्ला रहे हैं.
रंजन देवी भी ग़ुस्से में अपना मुंह खोलकर चीखना चाहती हैं, लेकिन शब्द उनके गले से नहीं निकलते. रंजन देवी के पति उन्हें छोड़कर कहीं जा चुके हैं.
उन पर अपनी पांच साल की बच्ची और पेट में पल रहे बच्चे की ज़िम्मेदारी है.
उनके पास खड़ी उसकी बच्ची कहती है,''खाने को कुछ नहीं मिल रहा है.''
बिहार के दरभंगा ज़िले के जमालपुर थाने के पास, जहाँ ये काली पन्नियां बँट रही है, उससे तकरीबन दो किलोमीटर की दूरी पर बाढ़ प्रभावित पुनाच गांव की सुनीला देवी की गोद में उनकी 15 दिन की बच्ची का रो-रोकर बुरा हाल है.
सुनीला का घर बाढ़ में डूब गया है. वो बेघर हैं और पन्नी तानकर सड़क किनारे रह रही हैं. नवजात बच्ची कड़ी धूप में परेशान है.
उसके पूरे शरीर में दाने निकल आए हैं. सुनीला कहती हैं, ''भूखी है. हमें खाना ही नहीं मिल रहा है तो बच्ची के लिए छाती में दूध कैसे उतरेगा."
सरकारी मदद नाकाफ़ी
दरभंगा के जमालपुर थाने के पास जहाँ मुझे रंजन देवी मिली थीं, वहाँ प्रशासन की तरफ़ से काली पन्नी और सूखा चूड़ा (खाने के लिए) बँट रहा है.
चूड़ा और पन्नी पिकअप वैन में लदा हुआ है और लोग इस पर टूट पड़े हैं.
इस सरकारी सहायता को लेने में बच्चे, बुज़ुर्ग, महिलाएं सब एक तरह की होड़ में है. जो जितना ज़्यादा ताक़तवर, वो अपने हिस्से उतनी ही मदद सामग्री लेना चाहता है.
चचरी देवी अपने बच्चों के साथ पन्नी लेने की कोशिश में सफल रही हैं. अपने माथे पर पन्नी उठाए वो आठ साल के लड़के के साथ हैं. उनके बेटे के माथे पर चोट लगी है. चचरी देवी कहती है, ''पुलिस वाले ने इसको धक्का दिया है. उसी में चोट लग गई है.''
चचरी देवी जहाँ पन्नी लेने में सफल रहीं, वहीं कादो देवी पन्नी तक नहीं पहुँच पाईं.
वो कहती हैं, ''सब कुछ मर्द ले ले रहे हैं. लूट ले रहा है सब. औरतों को कुछ नहीं मिल रहा.''
पन्नी और चूड़ा (पोहा) से लदे पिक अप वैन के पीछे दौड़ते लोगों का दृश्य भयावह है.
लोग सड़कों पर परिवार सहित राहत सामग्री के लिए हाथापाई करते दिख जाते हैं. ये लोग बाढ़ से पहले पड़ोसी थे लेकिन अब आपस में ही संघर्ष कर रहे हैं.
राहत सामग्री बाँटने वाला पुलिस का एक जवान बीबीसी से कहता है, ''ये लोग मानते ही नहीं हैं. एक आदमी कई-कई बार ले जाता है. ऐसे में कुछ लोगों को मिलता ही नहीं है.''
इस बीच वहाँ मौजूद नौजवान आशीष कुमार बार-बार चिल्ला रहे हैं, ''इस तरह राहत सामग्री बँटने से रुकवा दें, वरना ख़ून ख़राबा होगा.''
जमालपुर थाने के पास मौजूद बाढ़ से प्रभावित किरतपुर ब्लॉक (दरभंगा) के सर्किल ऑफिसर आशुतोष बीबीसी से बातचीत में दावा करते है, ''ज़्यादातर लोगों को राहत सामग्री मिल गई है और लोगों को रेस्क्यू कर लिया गया है. अभी और भी राहत आ रही है.''
लेकिन बीबीसी से मिले जमालपुर गांव के लोग कहते हैं कि वहाँ अभी हज़ारोंं लोग फँसे हैं.
गाँव के महमूद आलम और विकास कुमार कहते हैं, ''बांध टूटने के बाद तुरंत पानी भर गया. हमारे घर के लोग अब भी छत पर हैं. सरकार की सारी राहत बाहर रहने वाले लोग ही ले ले रहे हैं. यहाँ नाव की अच्छी व्यवस्था भी नहीं कि हम लोग आ जा सकें.''
इसी तरह भूबौल गाँव जहाँ कोसी का पश्चिमी तटबंध टूटा, वहाँ काम कर रहे समाजसेवी रोशन बीबीसी से फोन पर कहते हैं, ''लोगों को यहाँ कुछ नहीं मिल रहा है. यहाँ लोगों का घर का घर डूब गया. पक्के मकान तक डूब गए हैं. हम लोग ख़ुद यहां चूड़ा बाँट रहे हैं.”
सरकार से राहत के तौर पर स्टेट हाईवे 17 के गंडौल चौक के पास डॉक्टरों की एक टीम एक पंडाल के नीचे बैठी है.
इसी पंडाल के नीचे सामुदायिक रसोई भी है, जिसमें आलू और प्याज काटा जा रहा है. सामुदायिक रसोई में खाने की व्यवस्था देख रहे रवीन्द्र सिंह बताते हैं, ''रोज़ाना दो बार खाना मिलता है. दिन में एक और रात में नौ बजे. दोनों टाइम दाल, चावल और सब्जी मिलती है. छोटे बच्चों के लिए अभी तक हमारे यहां कोई व्यवस्था नहीं है.''
वहीं मौजूद बाढ़ पीड़ित गोविंद साव कहते है, ''चावल दाल सब्जी ही मिलती है. चार बोरी चावल बनता है उससे इतना आदमी कैसे खाएगा.''
बाढ़ से बदहाल बिहार
बिहार बाढ़ से बेहाल है. राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक़ बिहार के दरभंगा, सुपौल, सहरसा, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, मधुबनी, सारण, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, गोपालगंज, सीतामढ़ी, शिवहर, सिवान,मधेपुरा और मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले बाढ़ प्रभावित है.
इन 16 ज़िलों की लगभग 10 लाख आबादी बाढ़ प्रभावित है.
भारत के पड़ोसी देश नेपाल में भारी बारिश के बीच 29 सितंबर को वीरपुर कोसी बैराज पर 6,61,295 क्यूसेक और वाल्मीकिनगर गंडक बैराज पर 5,62,500 क्यूसेक पानी छोड़ा गया था.
राज्य के जल संसाधन विभाग की वेबसाइट के मुताबिक़, ये अक्टूबर 1968 के बाद से वीरपुर कोसी बैराज पर हुआ सबसे ज्यादा डिस्चार्ज है.
पानी के इस डिस्चार्ज के बाद राज्य के सीतामढ़ी, दरभंगा, पश्चिमी चंपारण और शिवहर ज़िले में कुल सात जगह तटबंध टूटे.
दरभंगा ज़िले के किरतपुर ब्लॉक के भूबौल गांव में कोसी पश्चिमी तटबंध 29 सितंबर की रात दो बजे टूट गया, जिससे लाखों की आबादी प्रभावित हुई है.
तटबंध, किसी नदी की सीमा को बांधने के लिए बनाई गई एक संरचना होती है.
सरकारी अधिकारियों पर फूट रहा ग़ुस्सा
सामुदायिक रसोई वाले पंडाल में ही लोग दवाई लेने के लिए बड़ी तादाद में आए हैं.
लोगों और डॉक्टरों की टीम के बीच में बाँस लगाए गए है. लेकिन ऐसा लगता है कि लोगों के दबाव से बांस जल्द ही टूट जाएगा. बांस बांधने वाले बार-बार लोगों को डाँटकर पीछे कर रहे हैं.
डॉक्टरों की इस टीम को लीड कर रहीं डॉक्टर अंकिता कुमारी कहती हैं, ''हम लोग सुबह 8.40 से ही बैठे हुए हैं. लोग खुजली, सर्दी, खांसी, बुखार की समस्या लेकर आ रहे है. हमारे पास दवाई का अच्छा स्टॉक उपलब्ध है.''
दरभंगा ज़िले के ऐसे ही एक गांव में बाढ़ से प्रभावित लोगों ने स्थानीय सर्किल ऑफिसर अभिषेक आनंद की गाड़ी को घेर रखा है.
हिंसक होते लोगों को समझाने की विफल कोशिश के बाद सर्किल ऑफिसर को वहाँ से वापस निकलना पड़ा.
सर्किल ऑफिसर अभिषेक आनंद कहते हैं, ''बाहरी लोग आकर हंगामा कर रहे थे. हम लोग तो राहत कार्य की व्यवस्था के लिए ही वहाँ पहुँचे थे. लेकिन लोग कुछ सुनने को तैयार नहीं थे.''
महिलाओं को हो रही है ज़्यादा परेशानी
इस पूरे इलाक़े में कोई भी ऐसा स्कूल नहीं दिखता, जिसे सरकार ने राहत केंद्र के तौर पर तब्दील ना कर दिया हो. बाढ़ प्रभावित इलाक़े में पानी के लिए हाहाकार मचा है.
पीने का साफ़ पानी, शौचालय, लाइट और माहवारी के वक़्त के लिए कोई व्यवस्था नहीं दिखती.
रात के वक़्त अगर आप स्टेट हाईवे 17 से गुजरेंगे तो लोग मोमबत्ती या मोबाइल की लाइट जलाकर घुप्प अंधेरे में बैठे लोग दिख जाएंगे.
महिलाओं के लिए शौच करना तक मुश्किल हो गया है.
अगर किसी महिला/बच्ची के माहवारी या पीरियड शुरू हो जाए तो उसका कोई इंतज़ाम नहीं दिखता.
चिकित्सीय कैंप में भी सैनिटरी पैड जैसी कोई व्यवस्था नहीं दिखती.
ऐसे समय में जब महिलाएं अपने साथ बहुत कम कपड़े ला पाईं हो तो माहवारी का संकट और बड़ा हो गया है. उनके पास पुराने कपड़े इस्तेमाल करने का विकल्प भी नहीं है.
20 साल की गुंजन (बदला हुआ नाम) बीबीसी से कहती हैं, ''किसी तरह एडजस्ट करना पड़ता है. कोई उपाय नहीं है, हम लोगों के पास.''
पीने का पानी भी यहाँ एक मुख्य समस्या है. बीबीसी ने इस पूरी रिपोर्ट के दौरान एक ही पानी टैंकर देखा जो राज्य के लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण मंत्री नीरज कुमार बबलू के आने से कुछ देर पहले ही लगा था.
बाढ़ राहत कार्य में अव्यवस्था के मसले पर नीरज कुमार बबलू लोगों को धैर्य रखने की सलाह देते हैं.
वो बीबीसी से कहते है, ''एकाएक बांध टूटा है. इंतज़ाम करने में वक़्त लगेगा. लोगों को शौचालय, पीने का पानी, खाना, दवाई जैसी हर ज़रूरी चीज जल्द उपलब्ध हो जाएगी. लोग छीना-झपटी और अफ़रा-तफ़री नहीं करें.''
बिहार में बाढ़ की त्रासदी
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कोसी, गंगा और गंडक नदियों से बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का एरियल सर्वे एक अक्टूबर को किया था.
उन्होंने बाढ़ प्रभावित क्षेत्र, जहाँ राहत सामग्री पहुँचाने में मुश्किल हो रही है, वहाँ वायु सेना की मदद से फूड पैकेट्स और राहत सामग्री एयर ड्रॉप करवाने का निर्देश दिया है.
हाल के सालों में गाद एक बड़ी समस्या बनकर उभरी है.
बाढ़ के वक़्त नदियां बालू और रेत लेकर आती हैं, उन्हें ही गाद कहा जाता है.
नीतीश सरकार भी राष्ट्रीय गाद आयोग बनाने की मांग लंबे समय से करती रही है.
इस साल केंद्रीय बजट में बाढ़ से निपटने और सिंचाई सुविधाओं के लिए 11,500 करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान किया गया है.
दिलचस्प है कि इस प्रावधान में बिहार सरकार की लंबे समय से गाद आयोग बनाने की मांग शामिल नहीं है.
राजधानी पटना में बीती 28 सितंबर को ‘बिहार नदी संवाद’ का आयोजन हुआ था, जिसमें नर्मदा आंदोलन की नेत्री मेधा पाटेकर भी शामिल हुई थीं.
इस नदी संवाद के घोषणापत्र में बिहार में प्रस्तावित सात बैराज परियोजनाओं को वापस लेने और कोसी मेची लिंक परियोजना पर श्वेत पत्र जारी करने की मांग की गई थी. (bbc.com)
-सिद्धार्थ ताबिश
एक बात ध्यान से समझ लीजिये कि आपको सिर्फ लगता है कि तमाम सांसारिक सुख आपको अपने किसी ईष्ट, ख़ुदा या देवता की पूजा या इबादत करने से मिल जाते हैं तो ये उतना ही झूठ है जितना सूरज का बर्फ जितना ठंडा होना।
कभी किसी को इस दुनिया में कोई भी सांसारिक सुख किसी की पूजा-अर्चना और इबादत से नहीं मिले हैं और न मिलेंगे। बिल गेट्स आपके किसी देवता और अल्लाह की इबादत नहीं करता है और उसे सब मिल। आपसे कहीं ज्यादा मिला। जुकरबर्ग से लेकर एलोन मस्क तक, किसी ने सांसारिक सुख के लिए किसी की आराधना नहीं की। और वो सब हम और आपसे कहीं ज्यादा पाए, कहीं ज्यादा रचनात्मक बने और कहीं ज्यादा इस पृथ्वी पर योगदान दिया। दुनिया के तमाम नास्तिक, कांवड़ ले जाने वालों और दरगाह में लोट लगाने वालों से कहीं ज्यादा सुखी और संपन्न हंै।
इस दौर में आप मिस्र वासियों की तरह हर मौसम और हर तरह की आपदा के लिए देवताओं और ख़ुदाओं से डरते रहेंगे और उनसे मदद मांगते रहेंगे तो फिर इस दौर में आपके पैदा होने का क्या औचित्य है?
आप हाथ में जो मोबाइल लेकर टहलते हैं, उसमें बिना तार के आप किसी से भी कहीं भी बैठकर बात कर सकते हैं, उसे देख सकते हैं और उसकी आवाज सुन सकते हैं। प्राचीन मिस्र के लोगों को आप बस मोबाइल ही दिखा देंगे तो वो उसे किसी देवता का चमत्कार मानेंगे और मोबाइल के आगे नतमस्तक हो जायेंगे। मगर आप आज मोबाइल हाथ में लेकर घूमते हैं इसलिए आपको ये कोई अजूबा नहीं लगता है। उस दौर के किसी भी पैगंबर और देवदूत को अगर आप आज मोबाइल, कार, हवाई जहाज दिखा दें तो वो डर के भाग जाएगा। यकीन मानिए वो ऐसा भागेगा और डर जाएगा कि आप हँसेंगे उसे देखकर।
कोई भी पशु-पक्षी किसी भी देवता और ख़ुदा की आराधना नहीं करता है। उसका जीवन बिना किसी भक्ति के प्रकृति के साथ एकरूप होकर चलता है। वो किसी से कुछ भी नहीं माँगता है और लाखों करोड़ों साल से उसका अस्तित्व इस पृथ्वी पर है।
कोई धर्म जो तुम्हें मंगता और भिखारी बनाता है, अपने ईष्ट के सामने गिड़गिड़ाने को बोलता है तो वो धर्म नहीं, किसी दूसरे व्यक्ति का बनाया जाल है जिसमें वो आपको फंसाकर अपनी नस्लों के लिए एक स्थायी व्यापार बना कर चला गया है।। गिड़गिड़ाना और मांगना धर्म का हिस्सा कभी नहीं रहा है।। ये व्यापार का हिस्सा है और आप चतुर व्यापारियों के बनाए नियम को धर्म समझते हैं।
-अपूर्व गर्ग
टीवी रेडियो के इस हिंसक दौर में कभी दूरदर्शन का सुरीला संगीत याद आता है कभी विविध भारती के मिश्री से मीठे गीत। अमीन सायानी साहब तो आज भी सबके दिल में बसे हुए हैं।
आकाशवाणी का एक दौर या कहिये नेहरू से इंदिरा युग ऐसा भी था जब रेडियो के वायुमंडल में हिंदी साहित्य की भीनी-भीनी महक सर्वत्र थी।
हिंदी साहित्य जिन साहित्यकारों से रोशन था उनकी उपस्थिति और स्वर्णिम प्रकाश से आकाशवाणी दमकती थी।
आकाशवाणी के आभामंडल में पंतजी चाँद की तरह चमकते रहे तो ढेर सारे साहित्यकारों ने अपनी गरिमामय उपस्थिति से आकाशवाणी को खूबसूरत और समृद्ध किया। इनमें भगवतीचरण वर्मा, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय, नरेंद्र शर्मा, अमृतलाल नागर, उदय शंकर भट्ट ,बच्चन, रामचंद्र टंडन, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, लक्ष्मी नारायण लाल, विश्वम्भर मानव कैलाश चंद्र वर्मा, रमा नाथ अवस्थी, शांति मेहरोत्रा, विमला रैना, कमलेश्वर, नर्मदा सवार उपाध्याय, प्रफुल्ल चंद्र राजहंस। इन लोगों ने रेडियो की नौकरी की।
उसके अलावा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ,नन्द दुलारे बाजपेयी, मैथलीशरण गुप्त, दिनकर, महादेवी वर्मा और अज्ञेय जी का सहयोग आकाशवाणी लेती रही, मिलता रहा।
रेडियो के सांस्कृतिक कार्यक्रमों को उन्नत करने, गरिमापूर्ण बनाने के उद्देश्य से सूचना प्रसारण मंत्रालय ने सुमित्रा नंदन पंत से आग्रह किया, उन्हें मनाया । वो इलाहाबाद थे दिल्ली जाना नहीं चाहते थे। आकाशवाणी ने पंत जी को दिल्ली से सम्बद्ध कर इलाहाबाद केंद्र से ही उनकी सेवाएं ली।
पंत जी के लेखन में व्यवधान न हो इस बात का भी आकाशवाणी ने ध्यान रखकर उन्हें सिर्फ तीन दिन वो भी शाम को आकाशवाणी केंद्र दफ्तर में जाने की स्वतंत्रता दी। अप्रैल 1957 तक करीब सात वर्षों तक पंत जी ने चीफ प्रोडूसर के पद पर नौकरी की।
इस बीच वे लगातार आकाशवाणी से स्वतंत्र होना चाहते पर आकाशवाणी जानता था उनके साथ पंत के होने का मतलब ।आकशवाणी ने बराबर आग्रह कर मनाकर उन्हें सम्मान के साथ अपने साथ रखा।
बाद में पंतजी नौकरी से मुक्त होकर ऑनररी एडवाइजर के तौर पर आकाशवाणी से जुलाई 1967 तक जुड़े रहे।
आकाशवाणी में हिंदी कार्यक्रमों के सांस्कृतिक उत्थान, उनके प्रसारण और विकास में पंतजी की ऐतिहासिक भूमिका है।
आकाशवाणी के डायरेक्टर जनरल रहे और सुप्रसिद्ध नाटककार जगदीश चंद्र माथुर ने लिखा है ‘पंतजी ने आकाशवाणी को जो कुछ दिया उसका आकाशवाणी ही नहीं भारतवर्ष के वर्तमान सांस्कृतिक इतिहास में विशेष महत्व है।’
सुप्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर आकशवाणी में लेखक प्रोड्यूसर के तौर पर काम कर चुके हैं । अपने ही अंदाज और अपनी ही शर्तों के साथ उन्होंने नौकरी की और आकशवाणी ने उनके सम्मान और गरिमा में कोई कमी न आने दी।
भाखड़ा नांगल बाँध सम्बन्धी पहले राष्ट्रीय प्रोग्राम की डॉक्यूमेंट्री, पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी की परेड की लाइव कमेंट्री कर कभी नागर जी अपने साहित्यिक रंग बरसा कर छा गए थे ।
नागरजी ने लिखा है ‘जब अफसर ‘सृजनशीलता’ को अपनी समझदार भरा सहयोग देता है तो रेडियो प्रोग्रामों के प्रस्तुतीकरण की सफलता में चार चाँद लग जाते हैं।’
क्या दौर था ,क्या दिन थे जब सत्ता साहित्यकारों का महत्व समझती, सम्मान करती थी।
चलते-चलते एक बार फिर दूरदर्शन के इंदिरा- कमलेश्वर वाकये की याद दिला दूँ !
इंदिरा गाँधी जानती थीं कि कमलेश्वर उनके आलोचक हैं इसके बावजूद 1980 में इंदिराजी ने कमलेश्वर को ‘दूरदर्शन ’ में एडिशनल डायरेक्टर जनरल के रूप में बड़ी जिम्मेदारी दी। इस सिलसिले में जब कमलेश्वर इंदिरा के सामने पहुंचे तो उन्होंने पूछा- ‘क्या आपको मालूम है कि मैंने ही 'आंधी' लिखी थी?’ इंदिरा का जवाब था- ‘हां, पता है।’ तुरंत ही इंदिरा गाँधी ने यह भी कहा- ‘इसीलिए आपको ये जिम्मेदारी (दूरदर्शन निदेशक) दे रही हूं।’ इंदिरा ने कहा- ‘ऐसा इसलिए ताकि दूरदर्शन देश का एक निष्पक्ष सूचना माध्यम बन सके।’
ईरान ने एक अक्तूबर की रात इसराइल पर करीब 200 मिसाइलों से हमला किया है। इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच जारी संघर्ष का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है।
इन हमलों के बाद अमेरिका ने स्पष्ट तौर पर इसराइल का समर्थन किया है। आशंका जताई जा रही है कि आने वाले दिनों में इस क्षेत्र में हालात बिगड़ सकते हैं।
बीते करीब एक साल से इसराइल हमास के बीच जंग चल रही है। इस कारण गाजा और वेस्ट बैंक में 40 हजार से ज़्यादा लोगों की जान जा चुकी है।
हाल के दिनों में इसराइल ने हिज़्बुल्लाह को निशाना बनाना शुरू किया है। इसराइल लेबनान में जमीन के रास्ते भी आक्रमण कर रहा है।
इस बढ़ते संघर्ष पर अरब मुल्क के साथ ही दुनियाभर के कई देश स्पष्ट तौर पर बँटे हुए नजऱ आ रहे हैं। कऱीब दो महीने पहले हमास नेता इस्माइल हनिया की ईरान की राजधानी तेहरान में हत्या हुई थी। हनिया 1980 के दशक से ही इस समूह के नेता रहे हैं।
बीती 28 सितंबर को हिज़्बुल्लाह ने इसराइली हमले में अपने नेता हसन नसरल्लाह की मौत की पुष्टि की थी, उसके बाद से मध्य-पूर्व में संघर्ष और गंभीर होता जा रहा है।
इसराइल हिज़्बुल्लाह के ठिकानों पर लेबनान में हमले जारी रखे हुए है और अब उसने हिज़्बुल्लाह के ठिकानों पर ज़मीन से सैन्य कार्रवाई भी शुरू कर दी है।
हनिया की मौत के बाद ईरान ने फौरन कोई सैन्य प्रतिक्रिया नहीं दी थी, लेकिन एक अक्तूबर के ईरान के मिसाइल हमलों ने मध्य-पूर्व के इस संघर्ष को बढ़ा दिया है।
इसराइल के ख़िलाफ़ इस्लामिक देशों को एकजुट करने के लिए ईरान ने पहले ही इन मुल्कों से इसराइल से व्यापार खत्म करने की अपील की थी।
दूसरी तरफ अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देश इसराइल के साथ खड़े हैं और इस युद्ध में उसकी मदद कर रहे हैं।
ईरान के ताजा हमलों के बाद नीदरलैंड्स के राजनेता और सांसद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली खामेनेई से भिड़ते हुए दिखे।
किसके साथ हैं अरब देश
अरब जगत के सुन्नी मुस्लिम बहुल देशों ने भले ही हिज़्बुल्लाह नेता हसन नसरल्लाह के इसराइली हमले में मारे जाने की खुलकर निंदा न की हो लेकिन वो लेबनान की संप्रभुता की बात ज़रूर करते हैं।
करीब 4 महीने पहले रफाह के शरणार्थी कैंप पर इसराइल के जानलेवा हमले के बाद सऊदी अरब ने कहा था कि इसराइल को फिलस्तीन का अस्तित्व स्वीकार करना होगा। सऊदी अरब के इस बयान को उस समय काफी अहम माना जा रहा था।
सुन्नी नेतृत्व वाले सऊदी अरब ने हसन नसरल्ला की मौत के बाद पिछले हफ़्ते कहा था कि लेबनान में जो कुछ भी हो रहा है, वह गंभीर चिंता का विषय है। सऊदी ने लेबनान की संप्रभुता और उसकी सुरक्षा की बात कही। लेकिन सऊदी अरब ने नसरल्लाह का जिक्र नहीं किया।
जानकारों का मानना है कि सऊदी नेतृत्व को इसका अहसास है कि अगर उसने फिलस्तीनियों के संघर्ष से मुँह मोड़ा तो इससे इलाके में और वैश्विक स्तर पर उसकी छवि पर असर पड़ेगा।
मक्का, मदीना के कारण सऊदी अरब मुसलमानों के लिए एक पवित्र जगह रही है। हर साल लाखों मुसलमान हज करने सऊदी अरब जाते हैं।
मुस्लिम देशों के संगठन ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कॉर्पोरेशन यानी ओआईसी का मुख्यालय सऊदी अरब में है और इसे सऊदी की अगुवाई वाला संगठन माना जाता है।
ऐसे में सऊदी अरब की नरमी से उसकी छवि को नुकसान पहुंच सकता है।
संयुक्त अरब अमीरात (यूएई)
सुन्नी नेतृत्व वाला देश संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) हसन नसरल्लाह की मौत और उसके बाद पैदा हुए हालात पर अब तक पूरी तरह ख़ामोश नजर आ रहा है।
यूएई के अलावा कतर और बहरीन भी इस मुद्दे पर चुप हैं। हालांकि बहरीन, ओमान, कतर, सऊदी अरब, यूएई और कुवैत के खाड़ी के छह देशों वाले संगठन गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) ने बयान जारी कर लेबनान की संप्रभुता, सुरक्षा और स्थिरता का समर्थन किया है।
जीसीसी ने लेबनान-इसराइल सीमा पर तुरंत संघर्ष-विराम पर ज़ोर दिया है। साथ ही बयान में ये भी कहा गया है कि कोई भी हथियार लेबनान की सरकार की अनुमति के बिना मौजूद न हो और वहां दूसरे किसी देश का प्रशासन भी न हो।
इसराइल-फ़लस्तीन मुद्दे पर कौन किसके साथ कतर
मध्य-पूर्व में संघर्ष के मुद्दे पर क़तर सभी पक्षों से बातचीत कर संघर्ष को रोकने के पक्ष में रहा है। हालाँकि उसका इसराइल के साथ कोई औपचारिक संबंध नहीं है।
मिस्र
नसरल्लाह की मौत के बाद मिस्र के राष्ट्रपति अब्दल फतेह अल-सीसी ने लेबनान के प्रधानमंत्री नाजिब मिकाती से फोन पर बात की और उन्होंने नसरल्लाह का नाम लिए बिना कहा कि मिस्र लेबनान की संप्रभुता के उल्लंघन को नामंज़ूर करता है।
ईरान की प्रॉक्सीज और उसकी नीतियों को लेकर मिस्र उसके खिलाफ रहा है। हालांकि ईरान की सरकार से मिस्र की अनौपचारिक बातचीत होती रही है।
मिस्र के राष्ट्रपति ने नसरल्लाह के मारे जाने के बाद कहा था कि पूरा इलाका मुश्किल हालात में है। उन्होंने कहा कि मिस्र चाहता है कि इस इलाके की स्थिरता और सुरक्षा हर हाल में सुनिश्चित हो।
जॉर्डन
अरब मुल्क जॉर्डन की सीमा वेस्ट बैंक से मिलती है और यहां फ़लस्तीनी शरणार्थियों की बड़ी संख्या रहती है।
इसराइल जब बना तो इस क्षेत्र की एक बड़ी आबादी भागकर जॉर्डन आ गई थी। इस युद्ध में जॉर्डन फिलस्तीनियों के साथ खड़ा है और वह ‘दो देशों’ के सिद्धांत की बात करता है।
तुर्की
तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं। इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश तुर्की ही था।
हालांकि, तुर्की और इसराइल के बीच रिश्ते में साल 2002 के बाद से उतार-चढ़ाव रहे हैं। फ़लस्तीन के मुद्दे पर तुर्की हमेशा इसराइल पर हमलावर रहा है।
भारत किसके साथ
इसराइल-ईरान संघर्ष के बीच भारत ने इन दोनों देशों में रह रहे अपने नागरिकों के लिए एडवाइजऱी जारी की है। भारत इस मुद्दे पर शांतिपूर्ण समझौते के पक्ष में रहा है।
हालांकि भारत साल 1988 में फलस्तीनी राष्ट्र को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक था। लेकिन हाल के वर्षों में मध्य-पूर्व के हालात पर भारत किसी एक पक्ष की तरफ स्पष्ट तौर पर झुका नजर नहीं आता है।
पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसराइल के खिलाफ लाए गए एक प्रस्ताव में एक साल के अंदर गाजा और वेस्ट बैंक में इसराइली कब्जे को खत्म करने की बात कही गई थी।
ये प्रस्ताव इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस यानी आईसीजे की एडवाइजरी के बाद लाया गया था। 193 सदस्यों की संयुक्त राष्ट्र महासभा में 124 सदस्य देशों ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया।
14 देशों ने इस प्रस्ताव के खिलाफ वोटिंग की और भारत समेत 43 देश इस वोटिंग से दूर रहे। ब्रिक्स गुट में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ्रीका शामिल हैं। ब्रिक्स गुट में भारत एकमात्र देश है, जो वोटिंग से बाहर रहा था।
पाकिस्तान किसके साथ
संयुक्त राष्ट्र में इस प्रस्ताव के खिलाफ वोटिंग करने वालों में अमेरिका, फिजी, हंगरी, अर्जेंटीना जैसे 14 देश शामिल रहे।
इस प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग करने वालों में पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, मलेशिया और रूस जैसे 124 देश शामिल रहे।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में हुई वोटिंग को संयुक्त राष्ट्र में फ़लस्तीनी राजदूत रियाद मंसूर ने ‘आज़ादी और इंसाफ़ की लड़ाई’ में अहम मोड़ बताया था।
इसराइल के राजदूत डैनी डेनन ने इस वोटिंग को शर्मनाक फैसला बताया था।
भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान की बात करें तो हसन नसरल्लाह की मौत के बाद पाकिस्तान में लोगों ने इसराइल के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए थे। ऐसे प्रदर्शन कश्मीर और लखनऊ में भी देखने को मिले थे।
7 अक्तूबर 2023 को हमास ने इसराइल पर बड़े पैमाने पर एक सुनियोजित हमला किया था।
हमले में कऱीब 1200 इसराइली मारे गए थे।
इसके बाद इसराइल ने गज़़ा में सैन्य कार्रवाई शुरू की थी। इसराइली कार्रवाई में अब तक गज़़ा और वेस्ट बैंक में हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं। ((bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
निहित स्वार्थी और कट्टरपंथी तत्व गांधी के समय भी उनके उदार और समावेशी विचारों और उनकी लोकप्रियता से परेशान होकर जब तब उन पर तरह तरह के आरोप लगाते रहते थे जिनमें कई संस्थाओं, यथा मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा एवं आर एस एस से जुड़े कुछ लोग, वामपंथी और डॉ अम्बेडकर आदि प्रमुख थे। ऐसा करने वाले काफी लोग अंग्रेज सरकार से विविध लाभ के पद आदि भी लेते थे। उन दिनों भी गांधी के चरित्र और व्यक्तित्व पर फूहड़ता की हद छूते उस तरह के लांछन नहीं लगते थे जिस तरह की कीचड़ इधर पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर एक नियोजित षडय़ंत्र की तरह फैलाई जा रही है। यह विडंबना देखिए कि जैसे-जैसे गांधी की छवि वैश्विक पटल पर दिन ब दिन मजबूत होकर और ज्यादा निखरती जा रही है जिसकी एक झलक संयुक्त राष्ट्र संघ ने उनके जन्मदिन को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा कर और अपने परिसर में उनकी मूर्ति स्थापित कर विश्व को दिखाई है, ऐसे समय में हमारे अपने देश में उस महामानव को बौना साबित करने के कुत्सित प्रयास किए जा रहे हैं।
गांधी के ऊंचे कद से परेशान चंद लोगों के समूह तीन तरह से गांधी के व्यक्तित्व को कमतर करने की कोशिश करते हैं। 1. कुछ उन्हें सीधे सीधे पाकिस्तान बनवाकर देश को खंडित कराने का मुख्य आरोपी बताकर उन्हें राष्ट्रदोही तक बताने की मूर्खता और धूर्तता करते हैं। 2. गांधी की छवि धूमिल करने वाले लोगों की दूसरी जमात गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त बताकर गांधी को अप्रत्यक्ष रूप से अपराधी साबित करने का दुष्प्रचार करती है। 3. तीसरी श्रेणी उन लोगों की है जो गांधी को एक तरफ कर उनकी जगह उनके किसी अनुयाई यथा सरदार वल्लभ भाई पटेल, नेताजी सुभाषचंद्र बोस या सरदार भगत सिंह और डॉ अम्बेडकर आदि को गांधी के स्थान पर प्रतिष्ठित करने की कोशिश करते हैं। दुर्भाग्य से ऐसे लोगों में कुछ सांसद/पूर्व सांसद, मंत्री और पूर्व नौकरशाह एवं खुद को प्रबुद्ध कहने वाले लोग भी शामिल हैं। ऐसे तमाम लोगों में एक छोटा लेकिन बड़ा शातिर वर्ग उन लोगों का है जो गांधी के खिलाफ इधर-उधर से छिटपुट कोई ऐसी अधकचरी जानकारी निकालकर उसका तिल का ताड़ बनाकर अतिशयोक्ति और आधा सच आधा झूठ मिश्रित कर विभिन्न संचार माध्यमों से प्रचारित प्रसारित करते हैं, जिन्हें आजकल व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के हास्यास्पद नाम से जाना जाता है। देश का एक अर्धशिक्षित वर्ग इधर-उधर से उठाकर लगातार व्हाट्स ऐप, फेसबुक और ट्विटर आदि पर परोसी गई सूचनाओं को सही मानकर अज्ञानता के चलते इन पर विश्वास करने लगता है। अमेरिका और यूरोप के देश अपने देश की विभूतियों और लेखकों आदि का बेहद सम्मान करते हैं लेकिन हम गुलाम मानसिकता के एशियाई नागरिक अपनी विभूतियों को भी अपमानित करने की धृष्टता से बाज नहीं आते। अभी हाल ही में जिस तरह से बंगलादेश में अपने राष्ट्रपिता शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्तियों को तोड़ा फोड़ा गया है वह भी ऐसा ही दुर्भाग्यजनक है जैसे हमारे यहां कुछ लोग अपने राष्ट्रपिता के खिलाफ उलजुलूल बयानबाजी से करते हैं। ज़्यादा दुख तो तब होता है जब कुछ डॉक्टर्स , इंजीनियर्स और अध्यापकों के व्हाट्सएप समूह में इस तरह की घटिया सामग्री फॉरवर्ड की जाती है। सबसे ज्यादा खतरनाक वे लोग हैं जो इस प्रकार की अफवाहें कच्चे घड़े जैसे कोमल मन के युवाओं के समूह में प्रचारित प्रसारित करते हैं। आतंकवादी और संगठित अपराधी भी अपने नकारात्मक उद्देश्यों से घृणा और नफरत फैलाने के लिए इसी तरह के साधनों का दुरुपयोग करते हैं।
जब गांधी जीवित थे तब वे अपने ऊपर लगने वाले हर आरोप का तर्क सहित उत्तर देकर उसे अपनी प्रार्थना सभाओं और अखबारों में लिखे लेखों के माध्यम से जनता तक पहुंचाने का हर संभव प्रयास करते थे। अब जब गांधी हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं तब उनकी अनुपस्थिति में सरकार और गांधी को अपना आदर्श मानने वाले असंख्य नागरिकों का कर्तव्य बन जाता है कि ऐसे दुर्भावनाग्रस्त आरोप लगाने वाले नकारात्मक तत्वों पर लगाम लगाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाए। एक तरफ कानून बनाकर भी इस समस्या को काफी हद तक रोका जा सकता है, इसलिए हम सबको केंद्र सरकार से यह मांग करनी चाहिए कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में गलत आरोप लगाने वाले तत्वों और ऐसी सूचनाओं को अन्य लोगों में किसी भी माध्यम से प्रचारित प्रसारित करने को अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। साथ ही गांधी वांग्मय का अध्ययन किए प्रबुद्ध जनों और गांधी विचार में आस्था रखने वाले नागरिकों को अपने अपने कार्य क्षेत्र के दायरे में गांधी के व्यक्तित्व और विचारों को सरल भाषा में ले जाना चाहिए ताकि लोग गलत आरोप लगाने वालों से गुमराह न हों।
दसेक साल पहले जब गांधी के व्यक्तित्व पर कीचड़ उछालने के अभियान ने जोर पकड़ा था तब मैं सोचता था कि किस तरह गांधी पर हो रहे निर्मम हमलों का जवाब दिया जाए। मेरे कुछ गांधीवादी अग्रज भी मुझसे कहते थे कि लेखक होने के नाते आपको इन हमलों के जवाब के लिए कुछ लिखना चाहिए। इसी पृष्ठभूमि में मेरा नाटक ‘गांधी की चार्जशीट’ लिखा गया था जिसमें गांधी पर लगाए जा रहे उन तमाम आरोपों का जवाब देश की सर्वोच्च अदालत में खुद गांधी द्वारा दिलवाया गया है। इस नाटक के माध्यम से जनता में गांधी के बारे मे फैलाई गई भ्रांतियों को दूर करने का साहित्यिक प्रयास किया गया है जिसमें गांधी बाइज्जत बरी होते हैं। गांधी को अपने जीवन में भी कई मुकदमों का सामना करना पड़ा था और हर मुकदमे के बाद गांधी और ज्यादा मजबूत होकर बाहर आए थे। इस नाटक को कई संस्था जगह-जगह मंचित कर रही हैं। उनका कहना है कि नाटक देखने के बाद दर्शक गांधी के व्यक्तित्व से और गहरे से जुड़ते हैं क्योंकि नाटक में उन्हें उन आरोपों के झूठ होने की तथ्यात्मक जानकारी मिलती है। गांधी के जीवन और विचारों को इसी तरह विभिन्न माध्यमों से जनता और उसमें भी विशेष रूप से स्कूल कॉलेज के विद्यार्थियों तक पहुंचाने के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए।
गांधी भारतीय सभ्यता और संस्कृति के ऐसे महानायक हैं जिनके व्यक्तित्व और रचनात्मक कार्यों पर हर भारतीय नागरिक को गौरव की अनुभूति होनी चाहिए। यह तभी संभव है जब गांधी विचार स्कूली शिक्षा में शामिल कर बच्चों को रुचिकर तरीके से पढ़ाया जाए, मीडिया गांधी को उनकी जन्म तिथि और पुण्यतिथि तक सीमित न रखे और गांधी से जुड़ी देश-विदेश की तमाम घटनाओं, यथा दांडी मार्च, गोलमेज सम्मेलन, पुणे समझौता, सत्याग्रह आंदोलन और अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसे आंदोलनों को समय समय पर प्रमुखता से याद करता रहे ताकि गांधी विचारों से आम अवाम का तारतम्य बना रहे। गांधी हमारी ऐसी विरासत हैं जिसे सहेजकर रखना हमारे लिए बेहद जरूरी है।
-आरिफ शमीम
(एक अक्तूबर 2024 की रात ईरान ने इसराइल पर मिसाइल हमला किया। इस हमले के बाद एक बार फिर दोनों देशों की सैन्य ताकत पर चर्चा हो रही है। ये कहानी पहली बार इस साल अप्रैल में प्रकाशित हुई थी, जब ईरान ने इसराइल पर हमला किया था। ताजा घटनाक्रम के बाद ये कहानी अब हम दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं)
इसराइल पर 13 अप्रैल की रात को ईरान के मिसाइल हमलों के बाद मध्य पूर्व में तनाव का खतरा और बढ़ गया है।
ईरान के हमलों से इसराइल में कोई बड़ा नुकसान तो नहीं हुआ है लेकिन ईरान की ओर से दागी गईं 300 से अधिक मिसाइलों ने सुदूर ठिकानों से हमला करने की उसकी क्षमता को सामने ला दिया है।
इसराइल गाजा में पहले से ही युद्ध लड़ रहा है। वो सीमा पार लेबनान से हिजबुल्लाह के हमले का भी सामना कर रहा है। इसलिए इस हमले से हालात और गंभीर हो गए हैं।
इसराइली सेना के प्रमुख लेफ्टिनेंट कर्नल हरजेई ने कहा है कि उनका देश शनिवार के हमले के जवाब देगा लेकिन उन्होंने इसका ब्योरा नहीं दिया
इस बीच, ईरान के उप विदेश मंत्री अली बघेरी कानी ने कहा है कि हमलों का जवाब घंटों में नहीं सेकेंडों में दिया जाएगा।
ईरान या इसराइल: सैन्य ताकत में कौन आगे
बीबीसी ने कई स्रोतों से इसकी पड़ताल करने की कोशिश की है कि ईरान और इसराइल में से किसकी सैन्य क्षमता ज्यादा मजबूत है। हालांकि इन देशों ने अपनी कुछ सैन्य क्षमताओं को गुप्त भी रखा होगा।
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज ने दोनों देशों के हथियारों, मिसाइलों और हमला करने की ताकतों की तुलना की है।
इसके लिए कई तरह के आधिकारिक और सार्वजनिक स्रोतों का इस्तेमाल किया गया है।
कुछ अन्य संगठन जैसे स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट भी देशों की सैन्य क्षमताओं का आकलन करते हैं। लेकिन जो देश अपनी सैन्य क्षमताओं के आंकड़े जाहिर नहीं करते उनका सटीक आकलन मुश्किल है।
हालांकि पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट ओस्लो के निकोलस मार्स कहते हैं कि सैन्य क्षमता के आकलन के मामले में आईआईएसएस को बेंचमार्क माना जाता है।
आईआईएसएस के मुताबिक ईरान की तुलना में इसराइल का रक्षा बजट सात गुना बड़ा है। इससे किसी भी संभावित संघर्ष में उसका पलड़ा मजबूत दिखाई पड़ता है।
आईआईएससएस के मुताबिक़ 2022 और 2023 में ईरान का रक्षा बजट 7।4 अरब डॉलर का था। जबकि इसराइल का रक्षा बजट 19 अरब डॉलर के आसपास है।
जीडीपी की तुलना में इसराइल का रक्षा बजट ईरान से दोगुना है।
टेक्नोलॉजी में कौन आगे
आईआईएसएस के आंकड़ों के मुताबिक, इसराइल के पास हमले के लिए तैयार 340 लड़ाकू विमान हैं। इससे इसराइल सटीक हमले करने में मजबूत स्थिति में है। इसराइल के पास एफ-15 विमान हैं जो लंबी दूरी तक मार कर सकते हैं।
इसराइल के पास छिपकर वार करने वाले एफ-35 लड़ाकू विमान भी हैं जो रडार को चकमा दे सकते हैं। उसके पास तेज हमले करने वाले हेलीकॉप्टर भी हैं।
आईआईएसएस का आकलन है कि ईरान के पास 320 लड़ाकू विमान हैं। उसके पास 1960 के दशक के लड़ाकू विमान भी हैं, जिनमें एफ-4एस, एफ-5एस और एफ-14एस जैसे विमान शामिल हैं (1986 की फिल्म टॉप गन से ये विमान मशहूर हुए थे)
लेकिन पीआरआईओ के निकोलस मार्श का कहना है कि ये साफ़ नहीं है कि इन पुराने विमानों से कितने उड़ान भरने की स्थिति में हैं। क्योंकि इनके रिपेयरिंग पार्ट्स मंगाना बहुत मुश्किल होगा।
आयरन डोम और ऐरो सिस्टम
इसराइल की सेना की रीढ़ की हड्डी है इसका आयरन डोम (लोहे का गुंबद) और ऐरो सिस्टम।
मिसाइल इंजीनियर उजी रहमान देश के रक्षा मंत्रालय के तहत आने वाले इसराइल मिसाइल डिफेंस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक हैं।
अब यरूशलम इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजी एंड सिक्योरिटी में सीनियर रिसर्चर रहमान ने बीबीसी को बताया कि पिछले शनिवार को जब आयरन डोम और इसराइल के सहयोगी देशों ने मिल कर ईरान की ओर से दागी गईं मिसाइलों और ड्रोन को नाकाम कर दिया था तो उन्होंने कितना सुरक्षित महसूस किया था।
उन्होंने कहा, ‘मैं बहुत खुश और संतुष्ट था। लक्ष्य को भेदने में ये काफी सटीक है। इसमें छोटी दूरी का मिसाइल डिफेंस है। ऐसे किसी दूसरे सिस्टम में ये नहीं है।’
ईरान इसराइल से कितनी दूर है
इसराइल ईरान से 2100 किलोमीटर की दूरी पर है।
डिफेंस आई के संपादक टिम रिप्ले ने बीबीसी को बताया कि अगर इसराइल को ईरान पर हमला करना होगा तो उसे मिसाइलों का सहारा लेना होगा।
ईरान का मिसाइल प्रोग्राम मध्य पूर्व का सबसे बड़ा और सबसे अधिक विविधता वाली मिसाइल परियोजना माना जाता है।
अमेरिकी सेंट्रल कमान के जनरल केनेथ मैकेंजी ने 2022 में कहा था कि ईरान के पास 3000 से अधिक बैलिस्टिक मिसाइलें हैं।
सीएसआईएस मिसाइल डिफेंस प्रोजेक्ट के मुताबिक, इसराइल कई देशों को मिसाइलें निर्यात भी करता है।
ईरान की मिसाइलें और ड्रोन
ईरान ने अपने मिसाइल सिस्टम और ड्रोन पर काफी काम किया है। खास कर 1980 से 1988 में पड़ोसी देश इराक के साथ युद्ध के दौरान उसने इस पर काम शुरू किया था। इसने छोटी रेंज की मिसाइलें और ड्रोन विकसित किए हैं। इसराइल पर हाल के हमलों में ऐसी ही मिसाइलों और ड्रोन का इस्तेमाल किया गया था।
सऊदी अरब पर हूती विद्रोहियों की ओर से दागी गई मिसाइलों का अध्ययन करने वाले विश्लेषकों का कहना है कि ये ईरान में ही बने थे।
लॉन्ग रेंज अटैक का तरीका
डिफेंस आईज के टिम रिप्ले का कहना है कि इस बात की संभावना काफी कम है कि इसराइल ईरान से जमीनी लड़ाई लड़ेगा। इसराइल की ताक़त उसकी वायुसेना की क्षमता और गाइडेड हथियार हैं। इसलिए उसके पास ईरान के अहम ठिकानों पर हवाई हमले करने की पूरी क्षमता है।
रिप्ले का कहना है कि इसराइल की ओर से ऐसे हमलों के जरिये ईरान के प्रमुख अधिकारियों और तेल प्रतिष्ठानों को निशाना बनाने की अधिक संभावना है।
वो कहते हैं, ‘चोट वहां करो, जहां सबसे ज्यादा दर्द हो। इसराइली सेना के अधिकारी और नेता हर वक़्त इसका इस्तेमाल करते हैं। वो उनके युद्ध सिद्धांत का हिस्सा है। यानी वो अपने विरोधियों को इतना दर्द पहुंचाना चाहते हैं कि वो इसराइल पर हमला करने से पहले कम से कम दो बार जरूर सोचे।’
इसके पहले भी इसराइल के हमले में कई सेना के हाई प्रोफाइल अधिकारी और राजनीतिक नेता मारे जा चुके हैं। इन हमलों में सीरिया की राजधानी दमिश्क में पहली अप्रैल को ईरानी वाणिज्य दूतावास पर किया गया हमला भी शामिल है। इसी हमले के बाद ईरान ने इसराइल पर हमला शुरू किया है। हालांकि इसराइल ने प्रमुख ईरानी नागरिकों और सैन्य अधिकारियों पर हमले की जिम्मेदारी कभी नहीं ली। लेकिन उसने इससे इंकार भी नहीं किया।
नौसेना की ताक़त
आईआईएसएस की रिपोर्ट के मुताबिक़, ईरानी नौसेना का आधुनिकीकरण नहीं हुआ है हालांकि उसके पास 220 जहाज हैं, वहीं इसराइल के पास इनकी संख्या 60 है।
साइबर हमले
अगर साइबर हमले हुए तो इसराइल को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है क्यों ईरान का डिफेंस सिस्टम टेक्नोलॉजी के लिहाज से ज्यादा विकसित नहीं है।
इसलिए इसराइल की सेना पर साइबर अटैक हुआ तो ईरान को ज्यादा बढ़त मिल सकती है।
इसराइली सरकार के राष्ट्रीय साइबर निदेशालय का कहना है कि पहले की तुलना में साइबर हमले की तीव्रता ज्यादा हो सकती है। ये तीन गुना तेज़ हो सकता है और हर इसराइली सेक्टर पर हमला हो सकता है। क्योंकि युद्ध के दौरान ईरान और हिज़बुल्लाह में सहयोग और मजबूत हो गया है।
इसकी रिपोर्ट के मुताबिक़, सात अक्टूबर से लेकर 2023 के आखऱि तक 3380 साइबर अटैक हुए हैं।
ईरान के सिविल डिफेंस ऑर्गेनाइजेशन के ब्रिगेडियर जनरल गुलामरज़ा जलाली ने कहा कि ईरान ने हाल के संसदीय चुनाव से पहले 200 साइबर अटैक नाकाम किेए हैं।
दिसंबर में ईरान के पेट्रोल मंत्री जवाद ओजी ने कहा था कि साइबर अटैक की वजह से पूरे देश में पेट्रोल स्टेशनों में दिक्कतें आई थीं।
परमाणु ख़तरा
माना जाता है कि इसराइल के पास परमाणु हथियार हैं लेकिन वो इस बारे में कोई स्पष्ट जानकारी देने से बचता है।
ईरान के पास परमाणु हथियार होने की संभावना कम है।
उस पर ऐसे हथियार बनाने की कोशिश करने के आरोप हैं।
लेकिन वो इससे इनकार करता है।
भूगोल और जनसांख्यिकी
क्षेत्रफल के लिहाज से ईरान इसराइल की तुलना में कहीं बड़ा देश हैं।
ईरान की आबादी 89 मिलियन है जो इसराइल की आबादी (10 मिलियन) से लगभग दस गुनी अधिक है।
इसराइली सैनिकों की तुलना में ईरानी सैनिकों की संख्या भी छह गुनी अधिक है।
आईआईएसएस के मुताबिक़, ईरान की सेना में छह लाख सक्रिय सैनिक हैं तो इसराइल के पास एक लाख 70 हज़ार सक्रिय सैनिक।
इसराइल कैसे जवाबी हमला कर सकता है
तेल अवीव यूनिवर्सिटी से जुड़े मिडिल ईस्ट रिसर्चर डॉक्टर रोंडस्की का कहना है कि ईरान के हमले के दौरान हाई अलर्ट जारी कर इसराइल ने अपनी सुरक्षा नाकामी को स्वीकार किया है।
पड़ोसी देशों के ईरान समर्थित चरमपंथी इसराइली प्रतिष्ठानों लगातार हमले करते रहे हैं। इसराइली ठिकानों पर ऐसे और हमले होने की आशंका है।
जेन्स डिफेंस में मिडिल ईस्ट डिफेंस एक्सपर्ट जेरेमी बिनी कहते हैं इस बात की संभावना कम ही है कि इसराइल तुरंत जवाबी कार्रवाई करेगा।
वो कहते हैं कि त्वरित कार्रवाई न करने की स्थिति में अपने पास कुछ विकल्प रख सकता है। जैसे लेबनान या सीरिया के कुछ ठिकानों पर हमले।
ईरान कार्ड
मध्य पूर्व मामलों के विशेषज्ञ तारिक़ सुलेमान ने बीबीसी उर्दू को बताया कि इस युद्ध के और बढऩे के आसार कम हैं।
लेकिन वो ये भी कहते हैं कि इसराइली संसद और कैबिनेट में ऐसे लोग हैं जो युद्ध चाहते हैं। वो इसके लिए इसराइली प्रधानमंत्री पर दबाव डाल सकते हैं।
वो कहते हैं जब भी बिन्यामिन नेतन्याहू खुद को राजनीतिक तौर पर कमजोर पाते हैं वो तुरंत ईरान कार्ड का इस्तेमाल करते हैं।
हिब्रू यूनिवर्सिटी की ओर से कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सहयोगी देशों के साथ इसराइल की सुरक्षा गठजोड़ को नुकसान पहुंचने की स्थिति में 75 फीसदी इसराइली ईरान पर जवाबी कार्रवाई के खिलाफ है।
इसराइल और ईरान के बीच छाया युद्ध
हालांकि ईरान और इसराइल के बीच अब तक आमने-सामने लड़ाई नहीं हुई है। इसराइल ने ईरान के कई प्रमुख सैन्य और राजनीतिक नेताओं को दूसरे देशों में निशाना बनाया है। ईरान में भी ऐसे हमले हुए हैं।
इसराइल पर इन हमलों के आरोप लगे हैं। जबकि ईरान इसराइल पर परोक्ष युद्ध के जरिये निशाना साधता रहा है।
चरमपंथी संगठन हिजबुल्लाह ईरान की ओर से इसराइल और लेबनान से छाया युद्ध लड़ रहा है। ईरान ने हिजबुल्लाह को समर्थन देने से इनकार नहीं किया है। वो गज़़़ा में हमास का भी समर्थन करता है।
इसराइल और पश्चिमी देशों का मानना है कि ईरान हमास को हथियार, गोला-बारूद और ट्रेनिंग देता है।
कैसे देगा इसराइल ईरान को जवाब?
यमन के हूती विद्रोही ईरान की ओर से ही छाया युद्ध लडऩे के लिए जाने जाते हैं, सऊदी अरब का कहना है कि उस पर जिन मिसाइलों से हमला हुआ तो वो ईरान में बने थे।
ईरान समर्थक संगठनों का इराक और सीरिया में काफी प्रभाव है।
ईरान सीरिया सरकार का समर्थन करता है। ये भी कहा जाता है कि इसराइल पर हमले के लिए सीरियाई जमीन का इस्तेमाल किया गया। ((bbc.com/hindi)
-ध्रुव गुप्त
वैसे तो बुढ़ापा। खुद समस्याओं और शिकायतों का घर ही होता है लेकिन आमतौर पर बुजुर्गों की बड़ी समस्या और शिकायत यह होती है कि बच्चे बड़े या शादीशुदा हो जाने के बाद उनका सम्मान नहीं करते। उनकी बात कुछ हद तक वाजिब है। देश की सडक़ों, वृद्धाश्रमों, तीर्थस्थलों में बेसहारा वृद्धों की भारी भीड़ देखकर आज परिवार में उनकी हैसियत और स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। लेकिन इस समस्या का एक और पहलू भी है।
एक बात बुजुर्गों को अपने आप से भी पूछना चाहिए कि बूढ़े होने के बाद वे खुद अपने बेटों और बहुओं, उनकी निजी जि़ंदगी, उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और उनके नए विचारों का कितना सम्मान करते हैं? हर पीढ़ी के साथ जीवन की परिस्थितियां और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अवधारणायें बदलती हैं। हर आने वाला समय अपने पिछले समय से ज्यादा जटिल और उनसे निबटने के तरीके अलग होते हैं। पढ़े-लिखे, संवेदनशील, समझदार बुज़ुर्ग बदलते वक्त के साथ तालमेल बिठाकर अपनी संतानों के साथ सहज और दोस्ताना रिश्ता बना लेते हैं।
कठिनाई उन अशिक्षित अथवा अर्धशिक्षित, रूढि़वादी लोगों के साथ होती है जो अपने पुराने विचारों और रूढिय़ों के प्रति कट्टर ही नहीं होते, अपनी संतानों पर अपने दौर के अप्रासंगिक हो चले जीवन मूल्य थोपने की कोशिश भी करते हैं। उन्हें लगता है कि उनका वक्त सही था और आज जो हो रहा है, वह सब गलत है। ऐसे बुज़ुर्ग अपनी संतानों के लिए आर्थिक नहीं, मानसिक और भावनात्मक बोझ बन जाते हैं। परिवारों के विघटन की यह सबसे बड़ी वजह है।
परिवार में बुजुर्गों का सम्मान बना रहे, यह सिर्फ युवाओं की जिम्मेदारी नहीं है। जरूरी है कि बुजुर्ग भी समय के साथ चलना सीखें। वे अपने हिस्से का जीवन जी चुके, अब अपनी संतानों को उनके हिस्से का जीवन जीने दें। उनकी चुनौतियां, सोच, संघर्ष आपसे अलग हैं।
मां-बाप देवी-देवता हैं और उनकी हर बात बच्चों को शिरोधार्य होनी चाहिए-ये किताबी, अव्यवहारिक बातें हैं। वास्तविक जीवन में आपके व्यवहार ही परिवार में आपकी हैसियत और आपका सम्मान तय होगा। अगर आपको लगता है कि आपकी संतानों का रास्ता गलत है तो जऱा याद कर लें कि आपके दौर में आपके बुजुर्गों की नजर में आपका रास्ता भी गलत ही हुआ करता था।
बुज़ुर्ग मित्रों को अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस की शुभकामनाएं !
-पुस्तक समीक्षा
wv lessons for the wvth century..
Auth. Yuval noah harari.
कम्युनिस्ट देशों के बारे में सुना है कि वहां एक प्रोपगैंडा मंत्री होता है जो सरकारी एजेंडे का प्रचार करता है। हरारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसी टेक्नोलॉजी टायकून का प्रोपगैंडा मास्टर है। हरारी बदलती टेक्नोलॉजी और उसका मानव सभ्यता पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसी मुद्दे पर इस किताब में बात कर रहा है। वह सुपर ह्यूमन की संकल्पना भी बता रहा है। अतिमानव के बारे में महर्षि अरविंद ने भी बताया था जो दूसरों से श्रेष्ठ होंगे। बायोलॉजिकल तरक्की के कारण कुछ लोग डिजाइनर बेबी चाहेंगे। दुनिया में 2 क्लास बन जाएंगी एक श्रेष्ठ और एक निम्न। और यह क्लास पूरी दुनिया पर शासन करेगी। हरारी की खास बात है कि वह संभावित आलोचना को पहले ही उधृत कर देता है। मिसाल के तौर पर वह इजरायली नागरिक है और कट्टरवाद की आलोचना करते हुए स्वयं धर्म के आधार पर यहूदियों के इजरायल निर्माण को नहीं बख्श रहा है। हरारी बार-बार बता रहा है कि टेक्नोलॉजी नौकरियां खत्म कर देगी और आने वाला समय कैसा होगा। यह संभवत: आने वाले समय के लिए आपका माइंड मेकअप करने की प्रक्रिया है। हरारी ने यह भी कहा कि फेसबुक एक गजब आविष्कार है, अच्छा कॉन्सेप्ट है। हरारी जुकरबर्ग का प्रशंसक है। लेकिन उसकी सारी बातों से यही लगता है कि वह आने वाले टेक्नोलॉजी, के खतरों से आगाह नही कर रहा है बल्कि मनुष्यों को कह रहा है कि ये तो होगा ही, तुम अब क्या कर लोगे। हरारी की पहली कितना मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास भी वही है।
किसी भी कम पढ़े-लिखे या विवेचन करने की क्षमता में कम व्यक्ति को उसकी पुस्तके अभिभूत कर सकती हैं क्योंकि उसके तथ्य एवम विश्लेषण रोचक है लेकिन वस्तुत: वह आपको तैयार कर रहा है टेक्नोलॉजी की दासता के लिए.अब संभावित शक्तिशाली लोग अपनी आलोचना भी अपने हिसाब से करवाते हैं। यह किताब उसी का नमूना है।
-सारदा वी
सीडीएससीओ यानी सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन ने दवाओं पर एक मासिक रिपोर्ट जारी की है। इसमें 48 दवाएं शामिल हैं।
इस सूची में पेरासिटामोल, पेन-डी, और ग्लेसिमेट एसआर 500 जैसी दवाएं भी हैं, जो सामान्य तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं। ये दवाएं आवश्यक गुणवत्ता पैमाने पर खरी नहीं उतरी हैं।
सीडीएससीओ हर महीने तय मानकों से नीचे मिलने वाली दवाओं की एक सूची जारी करता है। अगस्त महीने की सूची में 48 दवाएं शामिल हैं, जिनमें वो दवाएं भी हैं, जो आमलोग ज़्यादातर इस्तेमाल करते हैं।
पेरासिटामोल आईपी 500 एमजी का उत्पादन कर्नाटक एंटीबायोटिक्स और फॉर्मास्यूटिकल्स और पेन-डी का उत्पादन अलकेम हेल्थ साइंस करती है।
वहीं, मॉन्टेयर एलसी किड का उत्पादन प्योर एंड क्योर हेल्थकेयर प्रायवेट लिमिटेड और ग्लेसिमेट एसआर 500 का उत्पादन स्कॉट-एडिल फार्मेसिया करती है।
इनको सूची में उन दवाओं में रखा गया है, जो गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतर पाई हैं।
दो बड़ी फार्मा कंपनी सन फार्मा और टोरंट ने कहा है कि रिपोर्ट में जिन दवाओं का नाम है वो उन्होंने नहीं बनाई हैं।
‘स्टैंडर्ड क्वालिटी’ ना होने का क्या अर्थ?
दवाओं को कई कारणों से तय मानकों की गुणवत्ता में कमी वाली कैटेगरी में रख दिया जाता है, जैसे वजऩ तय सीमा से कम होना, दिखने में अंतर या उसकी घुलनशीलता में फर्क होना।
उत्पाद की असली पहचान छिपाकर उसे दूसरी दवा बताकर बेचना किसी भी दवा को ‘जाली या नकली दवा’ बनाता है।
हाल ही में आई सूची में एमॉक्सिलिन और पौटेशियम क्लेवोनेट आईपी (क्लेवम 625), एमॉक्सिलिन एंड पौटेशियम क्लेवोनेट टैबलेट्स (मैक्सक्लेव 625), पेन्टोप्राजोल गैस्ट्रो-रसिस्टेंड एंड डोमपेरिडोन प्रोलॉन्ग्ड- रिलीज कैप्सूल्स आईपी (पैन-डी) को नकली यानी जाली दवा बताया गया।
नकली दवा बनाने वालों के खिलाफ ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट एमेंडमेंट 2008 के तहत कार्रवाई की जा सकती है। इस क़ानून में 10 साल से लेकर उम्र क़ैद तक की सज़ा का प्रावधान है।
इसके अलावा कम से कम दस लाख रुपये या जब्त की गई दवा की तीन गुनी कीमत (इन दोनों में से जो भी राशि अधिक हो) बतौर जुर्माना वसूल किए जाने का प्रावधान भी है।
इस सूची में शामिल बाक़ी दवाओं को तय मानकों से नीचे मानने की वजह उनके तत्व, घुलने और शरीर में मिलने जैसे ब्योरे या दवा की बनावट में पाई गई दिक्कतें हैं। सभी दवाएं एक खास खेप का हिस्सा हैं, जो गुणवत्ता परीक्षण में फेल हो गईं और इनको बाजार से वापस मंगवाया गया है।
असली और नकली दवा में फर्क कैसे करें?
दवाओं के नकली होने की खबर से कुछ लोग चिंतित हैं।
चेन्नई में रहने वाले 58 वर्षीय संकरन कहते हैं, ‘मैं 10 साल से डायबिटीज की दवा ले रहा हूं। मुझे इन दवाओं को नियमित तौर पर लेना होता है। मुझे इसके विकल्प के लिए और कहां जाना चाहिए? हमें यह कैसे पता लगेगा कि कौन सी दवा गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतरी है? कोई जनता को इस बारे में कुछ क्यों नहीं बताता है? हमें अधूरी जानकारी और रिपोर्ट्स के साथ अंधेरे में रखा जाता है।’’
चेन्नई के अरुमबक्कम में रहने वाली 43 वर्षीय उषारानी पूछती हैं कि अगर डॉक्टरों की लिखी जा रही दवाएं भी सुरक्षित नहीं हैं, तो उन जैसे लोग क्या करें?
डॉक्टरों का कहना है कि तय मानकों पर खरी न उतर पाने वाली दवाओं का नियमित सेवन सेहत पर बुरा असर कर सकता है।
चेन्नई के डॉक्टर चंद्रशेखर ने सही दवा की पहचान के लिए ये बातें बताईं -
अगर दवाओं में उपयुक्त मात्रा में इनग्रेडिएंट यानी अंश ना हों तो दवा का असर मनचाहा नहीं होता।
तय मानकों पर खऱा न उतर पाने वाली दवाओं का सेवन लंबे समय तक करने से शरीर के अंगों को नुक़सान हो सकता है।
अगर कोई डायबिटिज या हाई ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों के लिए दवा ले रहा है तो यह ज़रूरी है कि वो डॉक्टर से समय-समय पर जाँच करवाए।
मेडिकल स्टोर से दवा खरीदते वक्त आईएसओ (इंटरनेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर स्टैंडर्डाइज़ेशन) या डब्ल्यूएचओ-जीएमपी (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस) का सर्टिफिकेट जरूर देखें।
जिन दवाओं की एक्सपाइरी डेट नजदीक आ चुकी है, उन्हें खरीदने से बचें। अगर दवाओं को सही ढंग से स्टोर नहीं किया गया हो तो वो बेअसर हो सकती हैं।
इंजेक्शन और इंसुलिन जैसी दवाएं खरीदने से पहले ये पता कर लें कि जहां से खरीद रहे हैं वहाँ रेफ्रिजरेशन की सुविधा है कि नहीं।
सावधान रहने की ज़रूरत
ड्रग कंट्रोल निदेशालय के अधिकारी और दवाओं के डीलरों का कहना है कि घबराने की ज़रूरत नहीं है। ऐसी जाँच नियमित तौर पर होती रहती है और इनसे ‘जि़ंदगी को खतरे’ जैसी कोई बात नहीं है।
तमिलनाडु केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष एस.एस.रमेश कहते हैं कि छोटे-मोटी खामियों के कारण भी दवाओं को सब-स्टैंडर्ड करार दिया जाता है और ऐसे कड़े नियमों के कारण दवाओं की क्वालिटी सुधारने में मदद मिलती है।
उन्होंने बताया, ‘‘अगर किसी दवा को आपके मुंह में पांच सेकेंड में घुल जाना चाहिए लेकिन उस छह सेकेंड लगते हैं तो इसे सब-स्टैंडर्ड मान लिया जाता है।’
चेन्नई के डॉक्टर अश्विन कहते हैं, ‘कुछ कैमिस्ट 80 फीसदी तक का डिस्काउंट देते हैं। लेकिन कोई 100 रुपए का उत्पाद 20 रुपए में कैसे बेच सकता है? कई जगहों पर दवाएं बड़ी मात्रा में खरीद ली जाती हैं, और जब उनकी एक्सपाइरी डेट में तीन महीने बचते हैं तो उनको भारी डिस्काउंट पर बेचा जाता है।’
डॉक्टर अश्विन कहते हैं कि अगर दवाओं की पैकेजिंग ठीक से नहीं की गई हो या उन्हें ठीक तरह से स्टोर नहीं किया गया हो तो एक्सपाइरी डेट के नज़दीक आते ही उनका असर घट जाता है।
डॉक्टर अश्विन कहते हैं, ‘कुछ मौकों पर आईवी दवाओं (सीधे ब्लडस्ट्रीम में इंजेक्ट की जाने वाली दवाएं) में बैक्टीरिया भी पनप जाते हैं। इंसुलिन को 6 डिग्री सेल्सियस तापमान में रखना होता है, मगर जब इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाता है, तो कई बार इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता है। इसलिए इंसुलिन ऑनलाइन नहीं खरीदनी चाहिए क्योंकि सही तापमान के बिना ये सिफऱ् पानी है।’
इंडियन ड्रग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन तमिलनाडु, केरल, पॉन्डिचेरी चैप्टर्स के चेयरमैन जे जयसीलन का कहना है कि नकली दवाओं और तय मानकों पर खरा न उतर पाने वाली दवाओं में भेद करने की जरूरत है।
उनके मुताबिक- तय मानकों पर खरा न उतरने वाली दवा का पता लगाना भी इंडस्ट्री प्रैक्टिस का हिस्सा है, और वहीं अवैध दवाओं पर तत्काल कार्रवाई की जाती है।
उन्होंने कहा, ‘सामान्य तौर पर 3 से 5 फ़ीसदी सैंपल ऐसे होते हैं, जो तय मानकों पर खऱा नहीं उतर पाते हैं, जबकि 0।01 फीसदी सैंपल ऐसे होते हैं, जो नकली निकलते हैं। तय मानकों पर खरा नहीं उतरने वाली दवाओं की खेप को तुरंत बाजार हटा लिया जाता है। अमेरिका जैसे देशों में भी ये होता है। ये ऐसा मुद्दा नहीं है जिससे सेहत को कोई गंभीर ख़तरा हो।’
जयसीलन कहते हैं, ‘कई बार कैमिस्ट दवाओं को निर्धारित तापमान में स्टोर नहीं करते हैं। ऐसे में जब 12 महीने बाद दवा को टेस्ट किया जाता है तो उसकी गुणवत्ता तय मानक से कम मिल सकती है। केंद्र सरकार दवाओं के वितरण की अच्छी व्यवस्था लागू करने जा रही है जिसमें वितरण प्रक्रिया में शामिल हर व्यक्ति की जिम्मेदारी तय होगी। मुझे उम्मीद है कि इससे निगरानी में सुधार होगा।’
जयसीलन कहते हैं कि भारत को फॉर्मेसी ऑफ़ द वल्र्ड कहा जाता है। अमेरिका की 40 फीसदी और यूरोप की 25 फीसदी दवाएं भारत में बनती हैं। कई गरीब देश भी दवाओं के लिए भारत पर निर्भर हैं।
जे जयसीलन ने इस बात पर जोर दिया कि लोगों को उस मेडिकल स्टोर से दवा लेनी चाहिए, जिसने इसकी पढ़ाई की हो।
फ़ार्मा कंपनियां क्या कह रही हैं?
सन फॉर्मा और टोरंट ने कहा, ‘सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन ने जो दवाएँ नकली बताई हैं, वो हमने नहीं बनाई हैं।’
न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक- सन फार्मा के प्रवक्ता ने कहा, ‘हमारी कंपनी ने इस मामले की जाँच की है। इसमें पाया गया कि पल्मोसिल (सिल्डेनेफिल इंजेक्शन), बैच नंबर केएफए0300, पेन्टोसिट (पेन्टोप्राजोल टैबलेट आईपी), बैच नंबर एसआईडी2041ए और यूरोस्कोल 300 (उर्सोडियोक्सिकोलिक एसिट टैबलेट आईपी), बैच नंबर जीटीई1350ए नकली हैं।’
सन फार्मा ने यह भी कहा कि वो मरीजों की सुरक्षा को लेकर कदम उठा रहे हैं।
कंपनी ने कहा, ‘‘हम अपने कुछ ब्रैंड्स पर क्यूआर कोड भी प्रिंट करवा रहे हैं। मरीज़ आसानी से इस पर लिखे कोड के जरिए दवा की प्रमाणिकता की जाँच कर सकता है।’’
द हिंदू ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि टोरंट फार्मा ने भी उसी खेप (शेलकाल 500) की जाँच की, जिसका सैंपल सीडीएससीओ ने लिया था। इस कंपनी ने भी अपनी जाँच में पाया कि ये दवाएं नकली थीं। टोरंट फ़ार्मा का कहना है कि शेलकाल पर क्यू आर कोड थे लेकिन सीडीएससीओ ने जो सैंपल जब्त किए उन पर ये क्यूआर कोड नहीं थे।
लेकिन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर जयलाल ने कहा, ‘दवाओं के गुणवत्ता पर खरा न उतर पाना गंभीर चिंता का विषय है। इस मामले में ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है। दवा के वितरण से जुड़े हर पहलू पर नजऱ रखने की जरूरत है। यानी दवा बनाने वाली कंपनी से उपभोक्ता तक पहुंचने के दौरान दवा पर नजर रखने की जरूरत है। कई पश्चिमी देशों में ऐसा होता भी है।’
उन्होंने कहा, ‘पश्चिमी देशों की तर्ज पर दवाओं के फैक्ट्री से ग्राहक तक पहुंचने को ट्र्रैक किए जाने की जरूरत है। सरकारी एजेंसियां सबसे कम बोली लगाने वाली कंपनी को दवा का ठेका देती हैं। ऐसे में शायद तय मानकों पर खरा न उतर पाने वाली दवाएं भी सरकारी क्षेत्र में वितरण प्रणाली में शामिल हो जाती है।’
सरकार क्या कदम उठा रही है?
डॉक्टर श्रीधर तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल के जॉइंट डायरेक्टर हैं। उन्होंने बताया कि जब कोई दवा तय मानकों पर खरा नहीं उतरती , तो तुरंत उसकी जाँच शुरू कर दी जाती है।
इसके तहत दवा बनाने वाले और इसे बाजार में बेचने वाले का पता लगाया जाता है।
उन्होंने कहा, ‘‘सबसे पहले इन दवाओं को दुकानों से हटाने का आदेश दिया जाता है। दवा सभी दुकानों से हटा ली जाती है। दवा बनाने वाले का पता लगने के बाद हम यह पता लगाते हैं कि गलती कहां की गई?’’
उन्होंने कहा, ‘‘इसके बाद दवा बनाने वाले को नोटिस जारी किया जाता है और उससे जवाब मांगा जाता है। अगर कंपनी लगातार ऐसी गलती करती है, तो उनके खिलाफ ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट की सेक्शन 18 के तहत कानूनी कार्रवाई की जाती है।’’
तमिलनाडु ड्रग सेलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष नटराज ने बताया कि दवाओं के ऑनलाइन बिकने के कारण बाज़ार में तय मानकों पर खरा न उतर पाने वाली दवाओं की संख्या में इजाफ़ा हो रहा है।
उन्होंने कहा, ‘ऑनलाइन दवा की बिक्री में कश्मीर से भी कोई व्यक्ति तमिलनाडु में दवा बेच सकता है। कोई इसकी जाँच नहीं करता है कि दवा कहां से आई है।’
तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल डायरेक्टोरेट ने दवाओं की निगरानी तेज कर दी है। उन्होंने हर महीने लिए जाने वाले दवाओं के सैंपल भी बढ़ाने का निर्देश दिया है।
तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल के जॉइंट डायरेक्टर डॉक्टर श्रीधर कहते हैं, ‘राज्य में 146 दवा निरीक्षक हैं। एक निरीक्षक हर महीने खुदरा व्यापारी, होलसेलर्स और सरकारी अस्पतालों से 8 सैंपल इक_ा करता है। अब उसे हर महीने दस सैंपल लेने के लिए कहा गया है।’((bbc.com/hindi)
गज़़ा के बाद लेबनान और अब यमन। इसराइली हमले के दायरे का विस्तार हो रहा है।
लेबनान में ईरान समर्थित शिया चरमपंथी संगठन के प्रमुख सैय्यद हसन नसरल्लाह को मारने के बाद इसराइल ने अब यमन में हूती चरमपंथी संगठन के ठिकानों पर हमला शुरू कर दिया है।
हूती विद्रोहियों के गुट को भी ईरान समर्थित चरमपंथी संगठन ही कहा जाता है।
नसरल्लाह के मारे जाने पर अरब के ज़्यादातर सुन्नी मुसलमानों के नेतृत्व वाले देश चुप रहे हैं या बहुत ही सधी हुई प्रतिक्रिया आई है।
सुन्नी नेतृत्व वाले अरब के देशों के समक्ष दुविधा रही है कि वे इसराइल से संबंध सामान्य करें या हिज्बुल्लाह को प्रश्रय देने वाले ईरान का विरोध करें।
नसरल्लाह पिछले 32 सालों से हिज़्बुल्लाह की अगुवाई कर रहे थे और उनके ‘दुश्मन’ इसराइल और पश्चिम के अलावा आसपास के भी देश थे।
2016 में खाड़ी के देशों के अलावा अरब लीग ने हिज्बुल्लाह को आतंकवादी समूह घोषित किया था। हालांकि इस साल अरब लीग ने आतंकवादी घोषित करने का फैसला वापस ले लिया था।
सऊदी अरब और जीसीसी ने दिया बयान
सुन्नी नेतृत्व वाले सऊदी अरब ने रविवार की शाम कहा कि लेबनान में जो कुछ भी हो रहा है, वह गंभीर चिंता का विषय है। सऊदी ने लेबनान की संप्रभुता और उसकी सुरक्षा की बात कही। लेकिन सऊदी अरब ने नसरल्लाह का जिक्र नहीं किया।
वहीं सुन्नी नेतृत्व वाले देश कतर, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और बहरीन नसरल्लाह के मारे जाने पर पूरी तरह से चुप हैं।
यूएई और बहरीन ने तो 2020 में इसराइल से संबंध सामान्य कर लिए थे। 2011 में बहरीन ने शिया समुदाय के लोकतंत्र के समर्थन में शुरू हुए आंदोलन को दबा दिया था। बहरीन शिया बहुल देश है लेकिन शासक सुन्नी हैं। जैसे कि सीरिया के शासक शिया हैं और ज़्यादा आबादी सुन्नियों की है।
खाड़ी के छह देशों (बहरीन, ओमान, कतर, सऊदी अरब, यूएई और कुवैत) के संगठन गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) ने बयान जारी कर लेबनान की संप्रभुता, सुरक्षा और स्थिरता का समर्थन किया है।
जीसीसी ने लेबनान-इसराइल सीमा पर तुरंत संघर्ष विराम पर जोर दिया है। साथ ही बयान में ये भी कहा गया है कि कोई भी हथियार लेबनान की सरकार की अनुमति के बिना मौजूद न हो और उसके प्रशासन के अलावा कोई प्रशासन मौजूद न हो।
यानी जीसीसी का कहना है कि लेबनान की सरकार के अलावा वहाँ कोई और प्रभाव में ना रहे। ज़ाहिर है कि हिज़्बुल्लाह का लेबनान में काफी दखल रहा है।
बहरीन में प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लेने की खबर
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, बहरीन में ईरान समर्थित लुआलुआ टीवी ने एक वीडियो का प्रसारण किया, जिसमें नसरल्लाह के प्रति सहानुभूति दिखाई गई। इस चैनल ने कहा कि बहरीन की सरकार ने नसरल्लाह के समर्थन में आए लोगों पर हमला किया और उन्हें हिरासत में ले लिया।
बहरीन के विपक्ष की वेबसाइट बहरीन मिरर का कहना है कि प्रशासन ने शिया धर्मगुरु को हिरासत में ले लिया क्योंकि वह नसरल्लाह को श्रद्धांजलि दे रहे थे। रॉयटर्स का कहना है कि उसने बहरीन की मीडिया रिपोर्ट्स की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं की है।
मिस्र के राष्ट्रपति अब्दल फ़तेह अल-सीसी ने लेबनान के प्रधानमंत्री नाजिब मिकाती से फ़ोन पर बात की और उन्होंने नसरल्लाह का नाम लिए बिना कहा कि मिस्र लेबनान की संप्रभुता के उल्लंघन को नकारता है।
ईरान के छद्म संगठनों और उसकी नीतियों को लेकर मिस्र उसके खिलाफ रहा है। हालांकि ईरान की सरकार से मिस्र की अनौपचारिक बातचीत होती रही है।
मिस्र के राष्ट्रपति ने नसरल्लाह के मारे जाने के बाद कहा था कि पूरा इलाक़ा मुश्किल हालात में है। उन्होंने कहा कि मिस्र चाहता है कि इस इलाके की स्थिरता और सुरक्षा हर हाल में सुनिश्चित हो।
अल-सीसी ने टीवी पर प्रसारित अपने भाषण में नसरल्लाह का नाम तक नहीं लिया। वहीं शिया शासकों वाले देश सीरिया और इराक में तीन दिनों के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की गई है।
शनिवार तक कई अरब देशों में हसन नसरल्लाह का नाम सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा था, जिसमें कई लोग उनकी मौत पर दुख जता रहे थे।
ओमान के शाही इमाम शेख़ अहमद बिन हमाद अल-ख़लीली ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा कि उनका देश ‘हिज़्बुल्लाह के महासचिव के गुजऱने पर दुख जता रहा है, वो बीते तीन दशकों से यहूदी परियोजना के गले की फांस बने हुए थे।’
पाकिस्तान में विरोध-प्रदर्शन
तुर्की के इसराइल के साथ राजनयिक संबंध हैं, लेकिन तुर्की ने गजा में इसके आक्रमण की तीखी आलोचना की है।
तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने एक्स पर कहा कि लेबनान में ‘जनसंहार’ किया जा रहा है। हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर नसरल्लाह का जिक्र नहीं किया है।
हसन नसरल्लाह की मौत पर पाकिस्तान ने भी बयान जारी किया था। हालांकि उसने भी सीधे नसरल्लाह का नाम नहीं लिया था।
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा था कि ‘पाकिस्तान मध्य-पूर्व में बढ़ती इसराइली दुस्साहस की निंदा करता है। लेबनान की संप्रभुता के उल्लंघन को स्वीकार नहीं करेंगे।’
पाकिस्तान ने साथ ही कहा कि उसकी लेबनान की जनता और इसराइली हमले के पीडि़त परिवारों के साथ सहानुभूति है।
नसरल्लाह के मारे जाने के बाद पाकिस्तान में इसराइल के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं। रविवार को लाहौर, कराची के अलावा इस्लामाबाद, पेशावर में भी प्रदर्शन हुए हैं। कराची में प्रदर्शन के दौरान झड़पें भी हुई हैं।
संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की स्थायी प्रतिनिधि रहीं मलीहा लोधी ने एक टीवी चैनल के साथ बातचीत में कहा कि ‘इस शहादत के बाद इसराइल का ये सोचना कि हिज़्बुल्लाह का आंदोलन रुक जाएगा, फलस्तीनी हक़ के लिए आवाज़ नहीं उठाएगा तो ये उसकी गलतफ़हमी है।’
उन्होंने कहा, ‘हिज़्बुल्लाह के लिए ये झटका है कि उसका टॉप लीडर इस तरह से शहीद हुआ है। इनसे पहले हिज़्बुल्लाह के नेता को भी इसराइल ने शहीद किया था। क्या इसके बाद हिज़्बुल्लाह ख़त्म हो गया? उसके बाद भी इसका आंदोलन चलता रहा जो और मजबूत हुआ। ये हिज़्बुल्लाह के लिए झटका जरूर है लेकिन वो फिर से उठेगा।’
पाकिस्तान के मीडिया में नसरल्लाह की मौत को शहादत कहा जा रहा है।
अरब के कई इलाकों में जश्न क्यों?
एक तरफ हसन नसरल्लाह की मौत पर कुछ लोगों ने दुख जताया वहीं कुछ लोग इसका जश्न भी मना रहे थे। इनमें अधिकतर सीरिया में विद्रोही गुटों के कब्ज़े वाले इलाक़े थे।
सीरिया में बशर अल असद की सेना को रूस और ईरान के अलावा हिज़्बुल्लाह ने भी समर्थन दिया था और सरकार विरोधी लड़ाकों से वापस कई इलाकों पर पकड़ बनाने में असद सरकार की मदद की थी।
एक्स पर इराक़ स्थित पत्रकार उमर अल-जमाल ने लिखा, ‘सीरिया में नसरल्लाह की वजह से लाखों पीडि़त हैं। क्या वो मुसलमानों से रहम की उम्मीद रखते हैं?’
यूएई स्थित पत्रकार सैफ़ अल दरई ने सीरिया में लोगों के जश्न मनाते वीडियो को पोस्ट किया। उन्होंने लिखा, ‘हिज़्बुल्लाह ने सीरिया में हमारे भाइयों के ख़िलाफ़ वो कर दिखाया जो यहूदी नहीं कर पाए।’
न्यूज़वीक पत्रिका में जॉर्डन सीनेट के पूर्व सदस्य मुहम्मद अलाज़ेह ने लिखा कि साल 2006 में इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच हुई जंग में पूरे अरब जगत और मुस्लिम देशों में हिज़्बुल्लाह के समर्थन में रैलियां निकलती थीं लेकिन आज तस्वीर बदल चुकी है।
वो लिखते हैं कि हिज़्बुल्लाह ने सीरिया, इराक़ और यमन में दख़ल देना शुरू किया इसके अलावा बहरीन के प्रदर्शनों में भी उसकी भूमिका रही जिससे वो इसराइल के साथ-साथ इन देशों में मुस्लिमों के ख़िलाफ़ भी हो गया।
प्रदर्शन करते लोग
वो लिखते हैं, ‘हिज़्बुल्लाह का यमन, सीरिया, इराक़ और ईरान के भ्रष्ट शासन को समर्थन का बड़ा असर इसराइल पर हमले की तुलना में अरब और इस्लामी मुल्कों के लोगों पर ज़्यादा पड़ा है। इसी वजह से हसन नसरल्लाह की मौत पर इनके बीच आंसू नहीं बहाए गए हैं।’
हिज़्बुल्लाह न केवल लेबनान का सबसे शक्तिशाली खिलाड़ी है बल्कि उसका दक्षिण एशिया को लेकर एक क्रांतिकारी नज़रिया रहा है। इस नज़रिए का सऊदी अरब और दूसरे खाड़ी के मुल्कों के साथ मतभेद रहा है।
साल 2016 में गल्फ़ कॉओपरेशन काउंसिल (जीसीसी) ने हिज़्बुल्लाह को ‘आतंकवादी संगठन' घोषित कर दिया था।
उसी समय हिज़्बुल्लाह के नेतृत्व ने इस्लामिक स्टेट (आईएस) के उदय के लिए सऊदी अरब को जि़म्मेदार ठहराया था। वो सऊदी अरब पर क्षेत्र में सांप्रदायिक संघर्ष को बढ़ावा देने का भी आरोप लगाता रहा है।
अरब जगत में बदलते समीकरणों के बीच ये सवाल अब भी बरकऱार है कि हिज़्बुल्लाह और सऊदी अरब समेत सुन्नी बहुल देशों के संबंध अब किस तरह प्रभावित होंगे।
इस्लामिक देशों का विरोधाभास
यूएई और बहरीन ने इसराइल से राजनयिक रिश्ते कायम कर लिए थे। इनके बाद सूडान और मोरक्को ने भी इसराइल से राजनयिक संबंध कायम करने का फैसला किया था। सूडान और मोरक्को भी मु्स्लिम बहुल देश हैं।
ऐसा ही दबाव सऊदी अरब पर भी था। लेकिन सऊदी अरब ने ऐसा नहीं किया और कहा कि जब तक फलस्तीन 1967 की सीमा के तहत एक स्वतंत्र मुल्क नहीं बन जाता है तब तक इसराइल से औपचारिक रिश्ता कायम नहीं करेगा। सऊदी अरब पूर्वी यरुशलम को फ़लस्तीन की राजधानी बनाने की भी मांग करता है।
तुर्की यूएई और बहरीन की आलोचना कर रहा था कि इन्होंने इसराइल से राजनयिक संबंध क्यों कायम किए। ऐसा तब है जब तुर्की के राजनयिक संबंध इसराइल से हैं। तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं। तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था।
यहाँ तक कि 2005 में अर्दोआन कारोबारियों के एक बड़े समूह के साथ दो दिवसीय दौरे पर इसराइल गए थे। इस दौरे में उन्होंने तत्कालीन इसराइली पीएम एरिएल शरोन से मुलाकात की थी और कहा था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से न केवल इसराइल को ख़तरा है बल्कि पूरी दुनिया को है।
सऊदी अरब और हमास के रिश्ते भी उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। 1980 के दशक में हमास के बनने के बाद से सऊदी अरब के साथ उसके सालों तक अच्छे संबंध रहे। 2019 में सऊदी अरब में हमास के कई समर्थकों को गिरफ़्तार किया गया था। इसे लेकर हमास ने बयान जारी कर सऊदी अरब की निंदा की थी। हमास ने अपने समर्थकों को सऊदी में प्रताडि़त करने का भी आरोप लगाया था। 2000 के दशक में हमास की करीबी ईरान से बढ़ी। (bbc.com/hindi)
-चन्द्रशेखर गंगराड़े
जब-जब केंद्र एवं राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रहती हैं तब-तब अक्सर राज्यपाल एवं राज्य सरकार के बीच टकराव के समाचार सुनने में आते रहते हैं। राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्य में राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त पद धारित करते हैं। जब केंद्र एवं राज्यों में एक ही दल की सरकारें होती थीं तब ऐसा कोई टकराव नहीं होता था लेकिन वर्ष 1967 के बाद जब से राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें बनने लगीं तब से राज्यपाल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई और केंद्र सरकार राज्यपाल के माध्यम से राज्य सरकारों पर नियंत्रण का प्रयास करती रही हैं। इसी कारण अनुच्छेद 356 का उपयोग करते हुए कई राज्य सरकारों को बर्खास्त किया गया लेकिन जब धारा 356 का उपयोग बहुत ज्यादा होने लगा तब इस प्रवृत्ति का विरोध होने लगा और राज्यपालों की भूमिका का निर्धारण करने के लिए सरकारिया आयोग का गठन वर्ष 1983 में किया गया और उसने अपना प्रतिवेदन वर्ष 1987 में प्रस्तुत किया। जिसमें राज्यपालों की भूमिका, कर्त्तव्य और दायित्व आदि के संबंध में मार्गदर्शी सिद्धांत निर्धारित किए गए और सरकारिया आयोग की सिफारिशों के बाद ही राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के मामले कम होने लगे। उत्तरप्रदेश में तो फरवरी 1998 में तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी द्वारा उस समय के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को बर्खास्त कर दिया था और जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया था तब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दखल देते हुए दो दिन के भीतर विधानसभा में कैमरे की निगरानी में मत विभाजन का निर्देश दिया और कहा कि दोनों में से जो जीतेगा उसे मुख्यमंत्री माना जाएगा तब तक के लिए दोनों मुख्यमंत्री बने रहेंगे। अंतत: श्री कल्याण सिंह को अधिक वोट मिले और वे मुख्यमंत्री पद पर काबिज बने रहे।
हाल ही में तमिलनाडु, केरल, पंजाब, पश्चिम बंगाल,कर्नाटक तथा दिल्ली में राज्यपालों और वहां की सरकारों के बीच लगातार टकराव की काफी खबरें आ रही हैं। जहां राज्यपाल, राज्य सरकार द्वारा पारित विधेयकों को अनुमति नहीं दे रहे हैं. इस कारण राज्य सरकारों को माननीय सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ रही है।
पंजाब के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 23 नवंबर 2023 को अपने फैसले में कहा कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक पर सहमति रोक रहे हैं तो उन्हें विधेयक को विधान सभा को वापस करना होगा और वे विधेयक को अनिश्चित काल के लिए अपने पास रोककर नहीं रख सकते. यहां तक कि पंजाब में और पश्चिम बंगाल में तो राज्य विधान सभा का सत्र आहूत करने में भी अवरोध की स्थिति उत्पन्न हुई, जिससे संवैधानिक संकट की स्थिति भी निर्मित हो रही है।
पश्चिम बंगाल में तो राज्यपाल और सरकार के बीच टकराव पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी भी की कि कई विषयों को राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच सुलझाने की आवश्?यकता है और उन्होंने यह सलाह भी दी कि राज्यपाल मुख्यमंत्री के साथ बैठकर उन चीजों को हल करें जिनमें कोई परेशानी है।
पश्चिम बंगाल विधान सभा का सत्र तो बिना राज्यपाल की अनुमति के आहूत किया गया जबकि विधान सभा का सत्र संविधान के अनुच्छेद 174 के तहत राज्यपाल ही विधान सभा सत्र को आहूत करने का आदेश देते हैं।
विगत दिनों पश्चिम बंगाल में एक और संवैधानिक संकट खड़ा हुआ। उपचुनाव में निर्वाचित दो विधायकों को शपथ दिलाई जानी थी जिन्हें राज्यपाल ने राजभवन में शपथ दिलाने का निर्णय किया लेकिन उन सदस्यों ने राजभवन में शपथ लेने से इंकार कर दिया और विधान सभा में ही शपथ लेने पर अड़े रहे। संविधान के अनुच्छेद 188 में यह प्रावधान है कि राज्यपाल किसी व्यक्ति विशेष को शपथ दिलाने के लिए अधिकृत कर सकते हैं और उन्होंने विधान सभा उपाध्यक्ष को अधिकृत भी किया लेकिन विधान सभा उपाध्यक्ष ने विधान सभा अध्यक्ष के रहते शपथ दिलाने में असमर्थता व्यक्त की और विधान सभा अध्यक्ष ने 5 जुलाई, 2024 को विधान सभा में शपथ दिला दी. जिस पर राज्यपाल ने आपत्ति दर्ज करवाई और इस संबंध में राष्ट्रपति को रिपोर्ट भी प्रेषित की है। हालांकि इस घटनाक्रम के संबंध में विधान सभा अध्यक्ष ने राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करने के लिए पत्र भी लिखा।
पश्चिम बंगाल में तो राज्यपाल एवं राज्य सरकार के बीच जंग जैसी स्थिति निर्मित हो गई है। जहां राज्यपाल ने राज्य सरकार की मुख्यमंत्री के विरूद्ध मानहानि का वाद दायर किया, वहीं राज्यपाल ने राज्य सरकार की पुलिस का राज भवन में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया.
संविधान के अनुच्छेद 154 में यह प्रावधान है कि राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह उसका प्रयोग संविधान के अनुरूप स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा वहीं अनुच्छेद 163 के तहत उसे अपने स्वविवेक से भी कार्य करने का अधिकार प्राप्त है और इसी स्वविवेक का अधिकार और मुख्यमंत्री की सलाह पर कार्य करने के प्रावधान, ये दोनों ही इनके बीच टकराव का महत्वपूर्ण कारण हैं।
एक अन्य मामले में जब तमिलनाडु के एक मंत्री एम.आर. पोनमुडी को सजा होने पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाने के बावजूद राज्यपाल उन्हें मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं कर रहे थे तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 21 मार्च, 2024 को राज्यपाल के इस कृत्य पर उन्हें फटकार लगाई।
तमिलनाडु में ही जब राज्य विधान सभा द्वारा वर्ष 2020 से 2023 के मध्य पारित विधेयकों को राज्यपाल की अनुमति के लिए भेजा और राज्यपाल ने दिनांक 13 नवंबर, 2023 को उसे पुनर्विचार के लिए विधान सभा को वापस किया और विधान सभा ने पुन: दिनांक 18 नवंबर, 2023 को उन विधेयकों को यथावत पारित कर राज्यपाल को अनुमति के लिए भेजा और राज्यपाल ने उन्हें अपने पास लंबित रखने का उल्लेख दिनांक 28 नवंबर, 2023 को किया और उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया तो राज्य सरकार ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की जिस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि राज्यपाल को विधान सभा द्वारा पुन: पारित 10 विधेयकों को रोकने का कोई विवेकाधिकार नहीं है. यहां तक कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 1 दिसंबर, 2023 को सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी भी की कि विधान सभा द्वारा पुन: पारित विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित नहीं रखा जा सकता।
चूँकि राज्यपाल का पद एक संवैधानिक पद है और राज्यपाल राज्य की कार्यपालिका का प्रमुख भी होता है तो यह प्रयास होना चाहिए की विवादित मुद्दों पर आपस में विचारविमर्श कर लिया जाये ताकि विवाद की स्थिति न बने। (पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
जब से मोबाइल और इन्टरनेट सबके हाथ में आया है तब से अन्य नई तकनीकों की तुलना में इस तकनीक का दुरुपयोग बहुत तेजी से हुआ है। संगठित गिरोह और आतंकवादी संगठनों के नेटवर्क और चाइल्ड पोर्नोग्राफी सहित अश्लीलता के विविध गोरख धंधों से जुड़े लोगों के लिए तो इंटरनेट ने मानो कमाई का सिमसिम खोल दिया है। ज्यादातर यूरोपीय देशों और अमेरिका में उन चीज़ों को अश्लील मानकर प्रतिबंधित नहीं किया जाता जिन्हें भारतीय सभ्यता और संस्कृति फूहड़ और अश्लील मानती है। यही कारण है कि इन्टरनेट के अधिकांश सर्वर विदेशों में होने के कारण इस पर उपलब्ध सामग्री को प्रतिबंधित करना आसान नहीं है। इधर केंद्र सरकार और प्रदेश सरकारों की तमाम घोषणाओं और कड़े कानूनों के बावजूद बच्चों और उनमें भी विशेष रूप से बच्चियों के साथ यौन शौषण और यौन अपराधों में बाढ़ सी आई है जो सभ्य समाज के लिए अत्यंत शर्मनाक और चिंतनीय है।
देश के अन्य क्षेत्रों की तरह मध्य प्रदेश में भी बच्चियों और महिलाओं के साथ जघन्य यौन अपराधों की कई घटनाओं ने महिलाओं और उनसे भी अधिक अबोध बच्चियों की सुरक्षा पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। इन घटनाओं का और भी दुखद और शर्मनाक पहलू यह है कि इनमें यौन बर्बरता के बाद हत्याओं को अंजाम दिया गया है और ये घटनाएं प्रतिष्ठित स्कूलों और राजधानी भोपाल की कालोनियों तक में घटित हुई हैं। बच्चों के साथ घटने वाली इन घटनाओं में संबंधित संस्थान के कर्मचारियों और कॉलोनीवासियों की संलिप्तता हमारे पूरे परिवेश को संदिग्ध बना देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बच्चियों और महिलाओं के लिए कालोनी से लेकर सफर और स्कूल, कॉलेज , और कोचिंग संस्थान आदि कुछ भी सुरक्षित नहीं है। सुबह के अखबार में इन घटनाओं के जो विवरण प्रकाशित होते हैं उनसे ऐसा लगता है जैसे हमारे समाज में वहशीपन तमाम हदें पार कर चुका है। इन परिस्थितियों से निबटने के लिए निश्चित रूप से पुलिस और कानून का अहम रोल है लेकिन समाज की इस सडऩ को रोकने के लिए केवल पुलिस, कानून और न्याय व्यवस्था सक्षम नहीं है। इसके लिए शिक्षा से लेकर घर परिवार और सभी प्रतिष्ठानों को निरंतर व्यापक सुधार और जन जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है।
समाज में घट रहे इन जघन्य अपराधों को कम करने में चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर आए सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय का भी सकारात्मक प्रभाव होगा। मद्रास न्यायालय ने चाइल्ड पोर्नोग्राफी की फोटो और वीडियो मोबाइल और कंप्यूटर आदि में रखने को अपराध नहीं माना था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को पलटते हुए कहा है कि अपने पास ऐसे क्लिप रखना भी अपराध की श्रेणी में आता है।
यदि किसी को अज्ञात स्रोत से इस तरह की कोई क्लिप मिलती है तो उन्हें उसे तुरंत हटाना चाहिए और उसके स्रोत की सूचना पुलिस को भी देनी चाहिए ताकि इन्हें प्रचारित प्रसारित करने वालों पर कड़ी कार्यवाही हो सके। बहुत से मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि बच्चों से जुडे यौन शौषण के अपराध इसलिए होते हैं क्योंकि बच्चों को आसानी से बहकाया जा सकता है। वे ज्यादा प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं होते इसीलिए उन्हें निशाना बनाना सरल है। इन अपराधों की बढ़ती संख्याओं ने बच्चों के अभिभावकों की चिंता इतनी बढ़ा दी है कि जब तक बच्चे स्कूल कोचिंग से वापस नहीं आ जाते उनके प्राण किसी अनहोनी की आशंका में अटके रहते हैं। लोग बच्चों को खेलने के लिए आसपास के पार्क में भेजने से भी डरते हैं जिसका प्रतिकूल प्रभाव बच्चों के विकास पर भी पड़ रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर जरूर अंकुश लगेगा।
भाषा और स्थानीयता के नाम पर बिहार से नौकरी के लिए परीक्षा देने या मजदूरी करने दूसरे राज्यों में गए छात्र या कामगार अक्सर उन राज्यों के लोगों के दुर्व्यवहार का शिकार होते हैं.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट
ताजा मामला पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी का है, जहां बिहार के छात्रों के साथ मारपीट तथा उनके डॉक्यूमेंट को फाडऩे की कोशिश की गई। इस घटना का वीडियो वायरल होने के बाद मामला तूल पकडऩे पर पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार किया है। दरअसल, एसएससी-जीडी (स्टॉफ सेलेक्शन कमीशन- जनरल ड्यूटी) की परीक्षा देने पटना निवासी अंकित यादव समेत कई अभ्यर्थी मंगलवार को सिलीगुड़ी पहुंचे थे। बुधवार को बांग्ला पक्खो (बंगाल पक्ष) नामक संगठन के लोग खुफिया विभाग के अधिकारी बनकर उनके कमरे में घुस गए जहां वे सो रहे थे। उनलोगों ने सवाल किया कि वे लोग परीक्षा देने बिहार से बंगाल क्यों आए हैं? उसके बाद वे डॉक्यूमेंट मांगने लगे। मना करने पर वे मारपीट करने लगे तथा जेल भेजने की धमकी देने लगे। कहने लगे, बंगाल के डोमिसाइल नहीं हो तो क्यों अप्लाई किया। इस बीच वे सभी खुद को आईबी व पुलिस का अधिकारी बताते रहे। कान पकड़ कर उन्हें उठक-बैठक भी कराया गया तथा उनके डॉक्यूमेंट फाडऩे की कोशिश की गई। उनसे माफी मांगने को कहा गया। माफी मांगने के बाद उन्हें छोड़ा गया।
भाषा तथा प्रांत के नाम पर बिहार के युवकों से दुर्व्यवहार और उन्हें धमकाने का मामला प्रकाश में आते ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश के निर्देश पर राज्य के चीफ सेक्रेटरी (मुख्य सचिव) अमृत लाल मीणा और डीजीपी (पुलिस महानिदेशक) आलोक राज ने गुरुवार को पश्चिम बंगाल के समकक्ष अफसरों से बात की। बिहार पुलिस ने वायरल हो रहे वीडियो पर संज्ञान लेते हुए उसे एक्स हैंडल पर पोस्ट भी किया। इसके बाद सिलीगुड़ी पुलिस हरकत में आई और वीडियो में चेहरा पहचानकर रजत भट्टाचार्य नामक एक कट्टरपंथी को गिरफ्तार किया। उसके साथ गिरिधारी रॉय नामक व्यक्ति को भी पकड़ा गया है। दोनों ही सिलीगुड़ी के रहने वाले हैं। समाचार एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार सिलीगुड़ी के पुलिस कमिश्नर सी। सुधाकर ने बताया कि पूछताछ में रजत ने कहा कि बिहार-उत्तर प्रदेश के लोग फर्जी डिग्री लेकर आते हैं और बंगाल के युवकों की नौकरियां छीन लेते हैं। वह उन छात्रों के फर्जी प्रमाणपत्र की जांच करने गया था। किंतु, जब उससे जब यह पूछा गया कि फर्जीवाड़े की सूचना मिली तो पुलिस को क्यों नहीं बताया तो उसने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
इस घटना के बाद से एक बार फिर बिहार से पलायन का मुद्दा भी सुर्खियों में आ गया है। केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अनुसार ई-श्रम पोर्टल पर निबंधन कराने वाले दो करोड़ नब्बे लाख से अधिक लोग बिहार से नौकरी के लिए दूसरे राज्यों में जा चुके हैं। आंकड़ों के अनुसार दूसरे राज्यों में नौकरी की तलाश में जाने वालों की संख्या में करीब आधे बिहार व उत्तर प्रदेश से हैं। पलायन में आधी हिस्सेदारी इन्हीं दो राज्यों की है। इन दोनों राज्यों से सबसे अधिक युवा पंजाब, गुजरात, बेंगलुरू, दिल्ली, तेलंगाना खासकर हैदराबाद तथा महाराष्ट्र, विशेष तौर पर मुंबई जाते हैं। जहां मुख्य रूप से विभिन्न क्षेत्रों में मजदूर का काम करते हैं।
तेज हुई सियासत, निशाने पर आई ममता
बांग्ला पक्खो नामक यह संगठन बंगाल में पिछले दिनों हिंदी और अंग्रेजी में लिखे साइन बोर्ड पर कालिख पोतने तथा विवादित बयानों के बाद चर्चा में आया था। पिछले वर्ष भी संगठन के सदस्यों ने गैर बंगालियों, खासतौर पर हिंदी भाषियों के खिलाफ पोस्टरबाजी की थी तथा 'बंगाल बंगालियों का है', जैसे नारे लगाए थे। उधर, सिलीगुड़ी के सामाजिक संगठन बिहारी सेवा समिति ने स्थानीयता, प्रांतवाद एवं भाषा के नाम पर भेदभाव को गलत बताते हुए इस घटना की भर्त्सना की है। समिति ने सडक़ पर उतरकर बांग्ला पक्खो के खिलाफ आंदोलन करने की घोषणा भी की है। बिहार से जुड़े अन्य स्थानीय संगठनों ने भी बांग्ला पक्खो द्वारा प्रांत के नाम पर इस तरह के कृत्य की कड़ी निंदा की है।
बिहार के युवाओं से दुर्व्यवहार और मारपीट की घटना का घटना का वीडियो शेयर करते हुए बेगूसराय के बीजेपी सांसद व केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने पूछा कि क्या ममता सरकार के राज में बच्चों का बंगाल में परीक्षा देने जाना भी गुनाह है? वहीं एलजेपी (रामविलास) के प्रमुख तथा केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता व लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव से पूछा कि वह किस हक से तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का समर्थन करेंगे।
वहीं, बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) के बंगाल प्रभारी व बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय का कहना था, ‘यह घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या अब राहुल गांधी या इंडी गठबंधन के नेता ममता बनर्जी से दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग करेंगे? यह सरासर गुंडागर्दी है।’ हालांकि, इन आरोपों पर टीएमसी नेता कुणाल घोष कहते हैं, ऐसा कुछ भी नहीं है। स्थानीय समस्या हो सकती है। हमारी सरकार सबका स्वागत करती है। हमारा राज्य लोकतांत्रिक है। वहीं, आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) के मुख्य प्रवक्ता शक्ति सिंह यादव के अनुसार, ‘आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने इस मामले पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बात की। ममता दीदी ने उन्हें घटना का हवाला देकर बताया कि इस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है।’
हर बार किसी न किसी बहाने निशाने पर बिहारी
स्थानीयता के नाम पर कभी महाराष्ट्र तो कभी तमिलनाडु में बिहार के लोगों से दुर्व्यवहार की घटनाएं हुईं। हाल में ही पंजाब के कई गांवों में बिहार के कामगारों को रातों-रात इलाका छोड़ कर जाने को कहा गया। जबकि, किसी भी हिंदी भाषी राज्य में गैर हिंदी भाषियों के खिलाफ या फिर किसी अन्य राज्य में हिंदी भाषियों को छोड़ कर किसी दूसरे प्रदेशों के लोगों के साथ ऐसी घटना शायद ही कभी होती हैं। राजनीतिक समीक्षक अरुण कुमार चौधरी कहते हैं, दरअसल इन घटनाओं का विरोध भी राजनीतिक लाभ-हानि देखकर किया जाता है। सिलीगुड़ी की घटना को देखिए। पीडि़त छात्र यादव जाति से भी है, किंतु क्या समाजवादी पार्टी (एसपी) के नेता अखिलेश यादव या बिहार के आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने इस घटना के विरोध में आवाज बुलंद की। जवाब है, नहीं। अगर टीएमसी की जगह बंगाल में बीजेपी की सरकार होती तो यह कहने में गुरेज नहीं कि पूरी यादव जाति ही इन्हें खतरे में नजर आती।’
साफ है जब तक हिंदी भाषी प्रदेशों के नेता एकजुट होकर इसका कड़ा प्रतिकार नहीं करेंगे, तब तक ऐसे ही चलता रहेगा। दरअसल, बिहार के लोगों के प्रति नफरत की बुनियाद महाराष्ट्र में पड़ी और धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गई। पत्रकार शिवानी सिंह कहती हैं, ‘दरअसल, बिहार सरकार भले ही बहुत कुछ करने का दावा करती हो, लेकिन राज्य में नौकरियों का संकट बना हुआ है। इसकी भयावहता कोरोना काल में पूरी दुनिया को दिख गई थी, जब लाखों की संख्या में बिहार के लोग अपने घर लौटने के लिए बदहवास होकर सडक़ों पर उतर गए थे। आज भी अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोग दूसरे राज्यों में निर्माण व पशुपालन क्षेत्र या खेतों में मजदूरी करने, रिक्शा, ऑटो या टैक्सी चलाने जैसे छोटे-मोटे काम करने को मजबूर हैं। भरोसा न हो रहा हो तो बिहार से बाहर जाने वाली ट्रेनों का नजारा देख लीजिए।’
कभी रोजगार हड़पने तो कभी अपराध बढ़ाने तो कभी गंदगी फैलाने का आरोप लगाकर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी बिहारी को अपमानित किया जाता है। ये हाल तब है जब पंजाब के किसानों के अनाज की कोठी बिहार-उत्तर प्रदेश के मजदूर न मिले तो शायद खाली ही रह जाए या फिर राजस्थान के कोटा शहर की आर्थिकी बिहार के छात्र न मिले तो चरमरा जाए। (dw.com)
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में लगातार तीन बार उम्मीदवार बनने से पहले डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के सबसे चमक दमक वाले अरबपति थे।
साल 2015-16 में राष्ट्रपति चुनावों से पहले के दशकों में न्यूयॉर्क के ‘रियल एस्टेट मुग़ल’ डोनाल्ड ट्रंप के जीवन के बारे में टैबलॉयड्स और टेलीविजन में ख़ूब कहानिया छपा करती थीं।
उनके मशहूर नाम और चुनाव अभियान की शैली की वजह से उन्हें अनुभवी राजनेताओं को हराने में मदद मिली। लेकिन विवादों की वजह से उन्हें एक ही कार्यकाल के बाद राष्ट्रपति चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।
रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार 78 साल के डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर मुश्किलों को चुनौती देते हुए एक जोरदार राजनीतिक वापसी करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसकी वजह से वो एक बार फिर राष्ट्रपति के पद पर पहुंच सकते हैं।
परिवार के उत्तराधिकारी
डोनाल्ड ट्रंप न्यूयॉर्क के रियल एस्टेट टायकून फ्रेड ट्रंप की चौथी संतान हैं।
पारिवारिक संपत्ति के बावजूद ट्रंप अपने पिता की कंपनी में सबसे छोटी नौकरी करना चाहते थे। 13 साल की उम्र में वो जब स्कूल में दुव्र्यवहार करने लगे थे, तब उन्हें मिलिट्री स्कूल भेज दिया गया था।
पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के वार्टन स्कूल से डिग्री लेने के बाद वो अपने पिता के उत्तराधिकारी बनने के दावेदार बन गए, क्योंकि उनके बड़े भाई फ्रेड ने पायलट बनने का फैसला कर लिया था।
ज्यादा शराब पीने की वजह से 43 साल की उम्र में फ्रेड ट्रंप की मौत हो गई।
ट्रंप का कहना है कि उन्होंने इसी वजह से पूरी जिंदगी शराब और सिगरेट से परहेज़ किया।
ट्रंप का कहना है कि उन्होंने कंपनी में शामिल होने से पहले अपने पिता से रियल एस्टेट बिजनेस के लिए 10 लाख अमेरिकी डॉलर का एक ‘छोटा’ कर्ज लिया था।
उन्होंने अपने पिता के न्यूयॉर्क शहर में रिहाइशी परियोजनाओं के व्यापक पोर्टफ़ोलियो को संभालने में उनकी मदद की और कंपनी का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। ट्रंप ने साल 1971 में कंपनी का नाम बदल कर ‘ट्रंप ऑर्गनाइजेशन’ कर दिया।
डोनाल्ड ट्रंप अपने पिता को ‘अपनी प्रेरणा’ मानते हैं। साल 1999 में उनके पिता की मौत हो गई थी।
एक ब्रांड
ट्रंप के नेतृत्व में उनका फेमिली बिजऩेस ब्रुकलिन और क्वींस में आवासीय फ्लैटों से बढक़र तडक़ भडक़ वाली मैनहट्टन परियोजनाओं तक पहुंच गया।
जाना माना ‘फिफ़़्थ एवेन्यू’ ट्रंप का घर बन गया, जो कई सालों तक उनका घर रहा। यह ट्रंप की सबसे मशहूर संपत्ति भी रही। वहीं जर्जर हो चुका कमोडोर होटल को ग्रैंड हयात के रूप में फिर से स्थापित किया गया।
कैसिनो, साझेदारियां, गोल्फ कोर्स और होटल समेत डोनाल्ड ट्रंप की कई संपत्तियां हैं, जो अटलांटिक शहर, शिकागो और लास वैगास से भारत, तुर्की और फिलीपींस तक फैली हैं।
उनका स्टारडम मनोरंजन के क्षेत्र में भी बढ़ता रहा। पहले वो मिस यूनिवर्स, मिस यूएसए और मिस टीन यूएसए ब्यूटी प्रतियोगिताओं के कर्ताधर्ता रहे, फिर एनबीसी रियालटी शो के क्रिएटर-होस्ट बने।
14 सीजऩ से भी ज्यादा समय तक जब अप्रेंटिस प्रतिभागियों ने उनके बिजऩेस साम्राज्य में एक प्रबंधन अनुबंध के लिए प्रतिस्पर्धा की, तब उनके ट्रेडमार्क ‘यू आर फायर्ड’ ने ‘द डोनाल्ड’ को एक मशहूर नाम बना दिया।
ट्रंप ने कई किताबें लिखी हैं, कई फिल्मों में अभिनय किया है और प्रो रेसलिंग जैसे कई टीवी कार्यक्रमों में दिखे हैं। इसके अलावा उन्होंने सोडा ड्रिंक से लेकर गले में बांधी जानी वाली टाई जैसी लगभग हर चीज बेची है।
हालांकि, हाल के सालों में उनकी कुल माली हैसियत में गिरावट हुई है। फ़ोर्ब्स के मुताबिक वर्तमान में उनकी संपत्ति 4 अरब डॉलर के कऱीब है।
ट्रंप को छह अलग-अलग मौकों पर व्यापारिक दिवालियापन का भी सामना करना पड़ा है। उनके कई व्यवसाय जैसे- ट्रंप स्टीक्स और ट्रंप यूनिवर्सिटी जैसे प्रोजेक्ट डूब गए हैं।
उन्होंने जांच से बचने के लिए टैक्स से जुड़ी अपनी जानकारी भी छुपाई, जिस पर साल 2020 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने विस्तार से प्रकाशित किया था।
इस रिपोर्ट में कई साल की आयकर चोरी और दीर्घकालिक वित्तीय घाटे का खुलासा हुआ।
ट्रंप का परिवार
डोनाल्ड ट्रंप के निजी जीवन को व्यापक सुर्खियां मिली हैं। उनकी पहली और सबसे ज़्यादा चर्चित पत्नी इवाना जेलनिकोवा एक चेक एथलीट और मॉडल थीं। साल 1990 में तलाक से पहले इन दोनों के तीन बच्चे हुए- डोनाल्ड जूनियर, इवांका और एरिक।
दोनों की कानूनी लड़ाई गॉशिप कॉलम्स के पहले पन्ने पर छपीं और दिवंगत मिसेज ट्रंप की ओर से घरेलू हिंसा के आरोपों को ट्रंप पर बनी एक नई फिल्म में दिखाया गया था।
हालांकि इवाना ने घरेलू उत्पीडऩ के आरोपों पर बहुत कम बात की।
इसके बाद ट्रंप ने अभिनेत्री मार्ला मेपल्स से साल1993 में शादी की। शादी के दो महीने बाद उन्होंने अपने इकलौते बच्चे टिफऩी को जन्म दिया। साल 1999 में दोनों में तलाक हो गया।
ट्रंप की वर्तमान पत्नी पूर्व स्लोवेनियाई मॉडल मेलानिया नॉस हैं। दोनों ने साल 2005 में शादी की और उनका एक बेटा है, जिनका नाम बैरन विलियम ट्रंप है, वो हाल ही में 18 साल के हुए हैं।
ट्रंप पर यौन दुव्र्यवहार और अवैध संबंधों के भी आरोप लगे हैं।
इस साल की शुरुआत में दो अलग-अलग जूरी ने फैसला सुनाया कि ट्रंप ने यौन उत्पीडऩ के आरोपों से इनकार कर लेखिका ई जीन कैरोल को बदनाम किया है।
उनसे लेखिका को 8।8 करोड़ अमेरिकी डॉलर का भुगतान करने को कहा गया। लेकिन ट्रंप ने इस फैसले के खिलाफ आगे अपील की। इसके अलावा ट्रंप को पोर्न स्टार स्टॉर्मी डेनियल्स के साथ ‘हश मनी’ को छुपाने के लिए बिजऩेस रिकॉर्ड में हेराफेरी करने के 34 मामलों में दोषी ठहराया गया है। यह साल 2006 में विवाहेतर संबंध से जुड़ा मामला है।
राष्ट्रपति उम्मीदवार
साल 1980 में ट्रंप 34 साल के थे। उन्होंने उस वक्त एक इंटरव्यू में राजनीति को ‘बहुत ही बदतर जीवन’बताया था और कहा था,‘सबसे सक्षम लोग राजनीति की बजाय बिजनेस को चुनें।’
हालांकि, साल 1987 के आते-आते उन्होंने राष्ट्रपति पद की दावेदारी पेश करनी शुरू कर दी। ट्रंप ने साल 2000 के राष्ट्रपति चुनाव में रिफ़ॉर्म पार्टी के उम्मीदवार बनने की संभावना को तलाशा था।
इसके बाद उन्होंने साल 2012 में भी रिपब्लिकन उम्मीदवार बनने की कोशिश की।
ट्रंप ‘बर्थरिज़्म’ यानी ‘जन्म लेने के सिद्धांत’ के सबसे मुखर समर्थकों में शामिल रहे हैं।
इसे एक षडय़ंत्रकारी सिद्धांत बताया जाता है जिसके मुताबिक़ बराक ओबामा के अमेरिका में पैदा होने पर संदेह जताया जाता है।
साल 2016 तक ट्रंप ने इस सिद्धांत को झूठ करार नहीं दिया था और ऐसा न कर पाने लिए कभी माफी भी नहीं मांगी।
ट्रंप ने साल 2016 तक यह स्वीकार नहीं किया कि यह ‘झूठ’ था और उन्होंने कभी इसके लिए माफी भी नहीं मांगी।
साल 2015 के जून महीने के अंत तक ट्रंप के व्हाइट हाउस की दौड़ में शामिल होने के लिए आधिकारिक तौर पर घोषणा नहीं हुई थी। तब उन्होंने अमेरिकी सपनों को मृत बताया था और इसे ‘बड़ा और बेहतर बनाने’ का वादा किया था।
ट्रंप के भाषणों में उन्हें अपनी संपत्ति और व्यावसायिक सफलता का दिखावा करते देखा गया। साथ ही उन्होंने मेक्सिको पर आरोप लगाया कि उसने ड्रग्स, अपराध और बलात्कारियों को अमेरिका भेजा है। उन्होंने देश से सीमा पर दीवार बनाने का वादा किया।
उन्होंने बहस के मंच पर अपने प्रभावी प्रदर्शन और विवादों से भरी नीति के जरिए से प्रशंसकों और आलोचकों को अपनी ओर आकर्षित किया।
इसके साथ ही उन्होंने मीडिया को भी अपनी ओर आकर्षित किया।
‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ अभियान के नारे के ज़रिए उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन का सामना करने के लिए रिपब्लिकन पार्टी में प्रतिद्वंद्वियों को आसानी से हरा दिया।
इस अभियान को लेकर कई विवाद हुए, जिसमें यौन शोषण के बारे में लीक हुआ ऑडियो टेप भी शामिल था। इसकी वजह से वो आम चुनाव से पहले हुए जनमत सर्वेक्षणों में पिछड़ते दिखे।
लेकिन, ट्रंप ने अनुभवी हिलेरी क्लिंटन को हराकर राजनीतिक पंडितों और सर्वेक्षणकर्ताओं को चौंका दिया। उन्होंने 20 जनवरी 2017 को अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली।
राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप
अपने कार्यकाल के पहले घंटे से ही डोनाल्ड ट्रंप ने बड़े नाटकीय ढंग से काम किया। वो अक्सर ट्विटर (अब एक्स) पर घोषणाएं करते दिखे और खुले तौर पर विदेशी नेताओं से भिड़ते दिखे।
उन्होंने प्रमुख जलवायु और व्यापार समझौतों से अमेरिका को अलग कर लिया। इसके अलावा सात मुस्लिम बहुल देशों से होकर गुजरने वाली यात्रा पर प्रतिबंध लगाया, अप्रवासन को लेकर सख्त प्रतिबंध लगाए।
ट्रंप ने चीन के साथ ट्रेड वॉर शुरू किया, रिकॉर्ड टैक्स कटौती लागू की और मध्य-पूर्व क्षेत्र के साथ संबंधों को नया रूप दिया।
साल 2016 के ट्रंप के अभियान और रूस की मिलीभगत के आरोपों को लेकर करीब दो सालों तक एक विशेष अभियोजनकर्ता ने जांच की। इस दौरान कंप्यूटर हैकिंग और वित्तीय अपराधों जैसे आरोप में 34 लोगों पर आपराधिक मामले दर्ज हुए।
लेकिन ट्रंप पर कोई मामला दर्ज नहीं हुआ। जांच में आपराधिक मिलीभगत की पुष्टि नहीं हो सकी।
इसके तुरंत बाद अमेरिका के इतिहास में महाभियोग का सामना करने वाले ट्रंप तीसरे राष्ट्रपति बने। उन पर आरोप लगाए गए थे कि उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडन के बारे में जानकारी जुटाने के लिए एक विदेशी सरकार पर दबाव डाला।
डेमोक्रेटिक पार्टी के नेतृत्व वाले हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स ने उन पर महाभियोग चलाया, लेकिन रिपब्लिकन के दबदबे वाली सीनेट में उन्हें बरी कर दिया गया।
साल 2020 में उनके चुनावी साल में कोविड-19 महामारी हावी रही।
इस संकट से निपटने के उनके तरीकों के लिए उन्हें कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा क्योंकि अमेरिका संक्रमण और मौतों के मामले में दुनिया भर में सबसे आगे था।
इसके अलावा उनकी विवादास्पद टिप्पणियों की वजह से भी उनकी कड़ी आलोचना हुई, जिसमें शरीर में कीटाणुनाशक डालकर वायरस का इलाज करने को लेकर शोध करने का सुझाव देना शामिल है।
अक्तूबर 2020 में कोविड-19 से संक्रमित पाए जाने के बाद उन्हें कुछ दिनों के लिए चुनाव प्रचार अभियान रोकना पड़ा था।
राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप को करीब 7।4 करोड़ वोट मिले थे, जो कि किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति से ज़्यादा थे। फिर भी वो बाइडन से 70 लाख से अधिक वोटों से चुनाव हार गए थे।
नवंबर 2020 से जनवरी 2021 तक उन्होंने व्यापक चुनावी धोखाधड़ी और वोटों की चोरी का आरोप लगाते हुए कानूनी लड़ाई लड़ी, जिसे 60 से अधिक अदालती मामलों में खारिज किया गया।
चुनाव परिणामों को नकारते हुए ट्रंप ने अपने समर्थकों के साथ छह जनवरी को वाशिंगटन में रैली की और उनसे एकजुट होने की अपील की। उसी दिन बाइडन की जीत को औपचारिक रूप से कांग्रेस द्वारा प्रमाणित किया जाना था।
ट्रंप की यह रैली दंगों में बदल गई, जिसकी वजह से सांसदों और उनके खुद के उप राष्ट्रपति ख़तरे में पड़ गए थे। यह ऐतिहासिक और दूसरे महाभियोग का कारण बना। हालांकि ट्रंप को फिर से सीनेट ने बरी कर दिया।
उस दिन ट्रंप की कथित हरकतों की वजह से उनपर दो आपराधिक मामले चल रहे हैं।
ट्रंप की वापसी
कैपिटल हिल पर हमले के बाद डोनाल्ड ट्रंप का राजनीतिक करियर खत्म सा हो गया था। उनके डोनर और समर्थकों का कहना था कि वो उनका अब कभी समर्थन नहीं करेंगे।
यहां तक कि उनके सबसे करीबी सहयोगियों ने भी सार्वजनिक रूप से उनका बहिष्कार किया।
बाइडन के उद्घाटन समारोह में वो शामिल नहीं हुए और अपने परिवार के साथ फ्लोरिडा चले गए। लेकिन अपने प्रशंसकों के एक भरोसेमंद दल के साथ उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी की लगाम थामे रखी।
ट्रंप के राष्ट्रपति पद की सबसे बड़ी विरासत तब सामने आई जब सुप्रीम कोर्ट के तीन दक्षिणपंथी न्यायाधीशों ने 50 साल पुराने राष्ट्रीय गर्भपात अधिकारों को खत्म करने में उनकी मदद की।
इन न्यायाधीशों को ट्रंप ने नामित किया था, जिन्होंने रूढि़वादी बहुमत को मजबूत किया और लगभग 50 साल पुराने राष्ट्रीय गर्भपात अधिकारों को ख़त्म करने में मदद की।
साल 2022 के बीच में हुए चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी की कमज़ोर वापसी के लिए दोषी ठहराए जाने के बावजूद ट्रंप ने राष्ट्रपति पद के लिए एक और चुनाव लडऩे की घोषणा की और जल्द ही अपनी पार्टी के राष्ट्रपति उम्मीदवार बन गए।
पूर्व उपराष्ट्रपति सहित एक दर्जन से अधिक विरोधियों ने उन्हें चुनौती दी। लेकिन ट्रंप ने बहस से परहेज किया और बाइडन पर निशाना साधा।
ट्रंप ने आम चुनाव की शुरुआत चार आपराधिक मामलों में 91 आरोपों का सामना करते हुए की थी। लेकिन, कानूनी मामलों को टालने की उनकी रणनीति काफ़ी हद तक कारगर रही।
चुनाव से पहले तीन मामले में सुनवाई अभी नहीं होगी और न्यूयॉर्क में उनकी सज़ा नवंबर के अंत तक टाल दी गई है।
बीते 13 जुलाई को पेंसिल्वेनिया के बटलर में एक 20 साल के बंदूकधारी ने एक चुनावी रैली के दौरान ट्रंप की पर जानलेवा हमला किया था।
थॉमस मैथ्यू क्रूक्स ने पास की छत से एआर-स्टाइल राइफ़ल से आठ राउंड फ़ायर किए थे। इससे पहले कि हमला करने वाला मारा जाता, ट्रंप के दाहिने कान को छूती हुई गोली चली थी।
इसके कुछ दिनों बाद रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन में पार्टी ने उनकी प्रशंसा की और आधिकारिक तौर पर उन्हें लगातार तीसरी बार रिपब्लिकन पार्टी का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया।
उसके बाद राष्ट्रपति बाइडन के साथ उनका दोबारा मुकाबला होना तय हो गया था।
महामारी के बाद बाइडन का कार्यकाल आर्थिक और बुनियादी ढांचे मं मजबूती के साथ अधिक महंगाई, अवैध अप्रवासन में बढ़ोत्तरी और विदेश नीति में अराजकता से घिरा रहा है।
जब से बाइडन ने राष्ट्रपति पद के लिए अपनी उम्मीदवारी छोड़ी है और अपनी डिप्टी कमला हैरिस का समर्थन किया है, तब से ट्रंप ने कमला हैरिस को प्रशासन की विफलताओं के साथ जोडऩे की कोशिश की है।
राष्ट्रीय सर्वेक्षणों से यह संकेत मिल रहा है कि कमला हैरिस ने लिबरल वोटरों को प्रेरित किया है और लाखों डॉलर जुटाए हैं। जिससे नवंबर में होने वाला अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव दिलचस्प हो गया है।
ट्रंप ने अपने समर्थकों से कहा है कि ‘पांच नवंबर 2024 की तारीख़ अमेरिका के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण तारीख़ होगी।’ (www.bbc.com/hindi)