विचार/लेख
- डॉ. आर.के. पालीवाल
नशे का व्यापार पूरी दुनिया में संगीन अपराध माना जाता है इसलिए उससे जुडऩे में किसी भी देश के सामान्य नागरिक हिचकिचाते हैं। स्थानीय स्तर पर छोटे छोटे अपराधी और नशे की लत के शिकार लोग अपनी दैनिक जरूरतें पूरी करने के लिए नशीली वस्तुओं के स्थानीय स्तर पर वितरण में तो शामिल हो जाते हैं लेकिन नशे की सामग्री के उत्पादन और उसे बड़े पैमाने पर प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के काम में संगठित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय गिरोह सक्रिय होते हैं। विगत कुछ दशकों में विभिन्न आतंकवादी संगठनों का नशे के व्यापार में लिप्त होना वर्तमान दौर की गंभीर वैश्विक समस्या बन चुकी है। बहुत से देशों की सरकार और खुफिया एजेंसी भी एक तीर से कई निशाने साधने के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नशे के कारोबार को बढ़ावा देती हैं। दुश्मन देश के नागरिकों को नशे की लत डालकर कमजोर करने के साथ साथ इस धंधे से मिलने वाली मोटी रकम से भारी मात्रा में खतरनाक हथियार खरीदे जा सकते हैं और बड़ी संख्या में आतंकियों को भाड़े पर नियुक्त किया जा सकता है। हमारे देश में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, पुलिस, सीमा सुरक्षा बल और कस्टम आदि विभागों के अधिकारी और कर्मचारी अपने अपने स्तर पर नशे से जुड़े लोगों की धरपकड़ भी करते हैं लेकिन संगठित अपराधी इन एजेंसियों को चकमा देने के लिए नए नए तरीके ईजाद करते रहते हैं। यही कारण है कि नशे का कारोबार निरंतर बढ़ रहा है और यह बीमारी अब महानगरों से लेकर गांवों तक पैर पसार चुकी है।
कुछ समय पहले मध्य प्रदेश में राजधानी भोपाल के पास नशीली सामग्री बनाने की एक फैक्ट्री से सोलह सौ करोड़ कीमत की ड्रग्स की जब्ती से यह संकेत मिलता है कि नशे के व्यापारी अब नए नए अड्डे तलाश रहे हैं क्योंकि इसके पहले भोपाल के आसपास कभी भारी मात्रा में ऐसी सामग्री की खेप नहीं पकड़ी गई। इसके बाद मध्य प्रदेश के आदिवासी अंचल से भी ऐसी सामग्री की धरपकड़ ने मध्य प्रदेश को भी पंजाब जैसे राज्यों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया जहां नशे का संगठित कारोबार होता है। इस मामले मे पकड़े गए अपराधी का नाम भाजपा और कांग्रेस के नेताओं के साथ भी जोड़ा गया है। प्रदेश के उप मुख्यमंत्री के साथ उसके फोटो से यह साबित होता है कि इन अपराधियों की पहुंच उच्च पदों पर आसीन लोगों तक है जिसका उपयोग ये स्थानीय स्तर पर अपना रुतबा जमाने के लिए करते हैं।
गांधी ने अपने विविध रचनात्मक कार्यों में नशामुक्ति को भी प्राथमिकता दी थी और इस काम में महिलाओं को आगे किया था। उन दिनों नशे के खतरनाक रसायनों का ऐसा संगठित कारोबार नहीं था जैसा वर्तमान दौर में है। इधर नशे की व्यापकता में भी खासी वृद्धि हुई है। स्कूल कॉलेज के छात्र-छात्राओं की पार्टियां हों या बॉलीवुड और कॉरपोरेट जगत के उच्च आय वाले एग्जीक्यूटिव नशे के बगैर कम ही पार्टी संपन्न होती हैं।महिलाओं के खिलाफ हुए अधिकतर जघन्य यौन अपराधों में नशे में लिप्त युवाओं की संलिप्तता के प्रमाण से नशे और संगीन अपराधों का चोली दामन का संबंध साफ दिखता है। कुछ समाजसेवी संस्थाएं नशा मुक्ति केंद्र चला रही हैं लेकिन एक तो उनकी संख्या बहुत कम है दूसरे बहुत से लोग इन केंद्रों तक नहीं पहुंच पाते। लोकलाज के कारण बहुत से लोग अपने परिजनों की नशे की लत पर पर्दा भी डालते हैं ताकि उनकी बदनामी न हो। बहुत से घर में अधिकांश लोग कोई न कोई नशा करते हैं, ऐसे घरों में नशे को तब तक बुरा नहीं माना जाता जब तक कोई नशेड़ी बड़ा कांड नहीं करता।नशा मुक्ति केंद्र चलाने वाले समाजसेवियों के लिए ऐसे परिवारों का इलाज करना टेढ़ी खीर है। नशे से विशेष रूप से युवा पीढ़ी को बचाना सबसे जरूरी है। बचपन और युवापन में लगी नशे की लत ताउम्र परेशान करती है। व्यापक जन अभियान ही युवा पीढ़ी को नशे से बचा सकता है।
-उमंग पोद्दार
जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ 10 नवंबर को भारत के मुख्य न्यायाधीश पद से रिटायर होने जा रहे हैं। हाल के वर्षों में देश के सबसे प्रभावशाली मुख्य न्यायाधीशों में से एक रहे जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल की कई वजहों से आलोचना हो रही है।
लोगों को उनसे उम्मीदें थीं कि वो सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज का तरीक़ा बदलेंगे, आम नागरिकों के लिए इंसाफ़ हासिल करना आसान बनाएंगे और ‘बहुसंख्यकवादी सरकार’ पर संवैधानिक नियंत्रण रखेंगे।
शायद उनसे उम्मीदें ही इतनी ज़्यादा थीं कि न्यायपालिका पर नजऱ रखने वाले बहुत से लोग चीफ़ जस्टिस के तौर पर उनके कार्यकाल को निराशा के साथ देख रहे हैं।
उनके न्यायिक फ़ैसलों के साथ-साथ उनके निजी बर्ताव पर भी चर्चा हो रही है। जस्टिस चंद्रचूड़, अपने भाषणों और इंटरव्यू से मीडिया की सुर्खय़िों में बने रहे, ऐसा इतिहास में उनसे पहले शायद ही देखा गया हो।
क्यों हो रही आलोचना?
हाल की दो बातों की वजह से एक न्यायाधीश के तौर पर उनके व्यवहार की आलोचना की गई।
पहला तो उन्होंने कहा कि जब अयोध्या मामले की सुनवाई चल रही थी, तो उन्होंने ‘भगवान के सामने बैठकर मदद की गुहार’ लगाई थी।
दूसरा विवाद उस समय पैदा हुआ, जब जस्टिस चंद्रचूड़ के घर पर गणेश पूजा करते हुए प्रधानमंत्री मोदी का एक वीडियो वायरल हुआ।
ये दोनों ही बातें ऐसी थीं जिनकी न्यायाधीशों से उम्मीद नहीं की जाती है। पहला, अपने फ़ैसलों का जनता के बीच बचाव करना, दूसरा, किसी धार्मिक आयोजन में राजनीतिक नेतृत्व से जुड़े लोगों से मिलना।
अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में जस्टिस चंद्रचूड़ गणेश पूजा को एक च्निजी आयोजनज् बताया और कहा कि इसमें च्कुछ भी ग़लत नहींज् था।
इन कुछ घटनाओं के अलावा, जस्टिस चंद्रचूड़ अपने पीछे एक पेचीदा विरासत छोडक़र जा रहे हैं। ऐसे में उनके कार्यकाल को स्पष्ट रूप से किसी खांचे में रख पाना मुश्किल है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ऐसे कई मक़सद हासिल करने में असफल रहे, जो ख़ुद उन्होंने अपने लिए तय किए थे।
लेकिन उन्होंने ऐसे भी कई फ़ैसले सुनाए, जो सरकार के दबदबे के ख़िलाफ़ थे और जिनसे जनता के अधिकारों का दायरा बढ़ा,
मगर साथ ही चंद्रचूड़ ने ऐसे भी कई निर्णय दिए, जिनसे नागरिकों के अधिकारों पर ऐसा असर पड़ा जिसे कई लोग प्रतिकूल मानते हैं।
जस्टिस चंद्रचूड़ के कुछ फ़ैसलों ने भविष्य के लिए एक आदर्शवादी बुनियाद रखी, लेकिन उनमें से कई मामलों में वो फ़ौरी तौर पर कोई राहत नहीं दे सके।
इसके अलावा, सरकार पहले की तरह लगातार न्यायपालिका में नियुक्तियों के लिए दबाव डालती रही और राजनीतिक रूप से संवेदनशील कई मामलों की लिस्टिंग को लेकर भी उनकी आलोचनाएं हुईं।
‘मास्टर ऑफ दि रोस्टर’ के तौर पर जस्टिस चंद्रचूड़ का व्यवहार
एक जज के तौर पर जस्टिस चंद्रचूड़ शांत रहकर हर वकील को पूरे धैर्य से अपनी बात कहने का मौक़ा देने के लिए जाने जाते थे। भले ही वकील सीनियर हों या नहीं।
भारत में न्यायपालिका के शिखर पर बैठने वाले चीफ़ जस्टिस के पास बहुत व्यापक अधिकार होते हैं।
वो ‘मास्टर ऑफ दि रोस्टर’ होते हैं। उनके पास ये तय करने का पूरा अख़्तियार होता है कि किसी केस की किस बेंच के सामने सुनवाई हो। कौन से जज किस मामले को सुनें।
अक्सर किसी केस के फ़ैसले पर इस बात का असर होता है कि उसकी सुनवाई कौन से जज कर रहे हैं।
कुछ जज रूढि़वादी होते हैं, वहीं कुछ उदारवादी होते हैं और अक्सर न्यायाधीशों के इन वैचारिक झुकावों के बारे में सुप्रीम कोर्ट के गलियारों में घूमने वालों को पता होता है।
ऐसे में मुख्य न्यायाधीश ‘मास्टर ऑफ दि रोस्टर’ की ताक़त का इस्तेमाल करके, कुछ मामलों के अंतिम निर्णय को भी प्रभावित कर सकते हैं।
2017 में जब जस्टिस दीपक मिश्रा मुख्य न्यायाधीश थे, तो सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की एक बेंच ने एक ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस की, और ये शिकायत की थी कि मुख्य न्यायाधीश राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों को कुछ चुनिंदा बेंचों को ही आवंटित कर रहे हैं।
तब से ही ये एक संवेदनशील विषय माना जाता रहा है कि किस मामले की सुनवाई किस बेंच में होगी।
जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल में भी कुछ अहम मामलों की किसी ख़ास बेंच के सामने लिस्टिंग की आलोचना हुई।
जब वो चीफ़ जस्टिस बने थे, तो उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि वो अदालतों को और पारदर्शी बनाना चाहते हैं।
हालांकि, जब अहम मुक़दमों की लिस्टिंग का सवाल आया, तो उनकी ये बात व्यावहारिक तौर पर पूरी तरह लागू होती नहीं दिखी।
कार्यकाल की एक अहम बात
उनके कार्यकाल की एक अहम बात ये रही कि संविधान पीठ से जुड़े 33 मामलों का निपटारा हुआ।
ये वो मामले हैं, जो क़ानून के व्यापक प्रश्नों से जुड़े थे, और उनके लिए पांच या फिर उससे भी ज़्यादा जजों की बेंच की ज़रूरत थी।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने अनुच्छेद 370 ख़त्म करने जैसे कई अहम मामलों की सुनवाई के लिए 5, 7 और 9 जजों की बेंच का गठन किया।
संविधान पीठ के गठन के मामले में कुछ मुक़दमों को दूसरों के ऊपर तरजीह देने पर भी सवाल उठे। मसलन, समलैंगिक जोड़ों की शादी से जुड़े मामले।
चंद्रचूड़ उन बेंचों में शामिल रहे थे, जिसने निजता के अधिकार को मूल अधिकार घोषित किया था और समलैंगिकता को अपराध मानना ख़त्म किया था।
इसी वजह से उनसे बड़ी उम्मीदें थीं कि अब वो समलैंगिकों के शादी करने के अधिकार के मसले पर भी ध्यान देंगे। ये मामला लिस्ट हुआ और रिकॉर्ड तेज़ी के साथ इसे पांच जजों की बेंच के हवाले कर दिया गया।
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में चल रहे ऐसे सारे मामले अपने पास मंगा लिए, हालांकि समलैंगिक समुदाय के लिए इस मामले का आखऱिी नतीजा वैसा नहीं निकला, जिसकी उन्हें उम्मीद थी।
सभी पांच जजों ने आम राय से ये फ़ैसला दिया कि विवाह करना कोई बुनियादी अधिकार नहीं है।
वैसे तो कुछ मामलों की सुनवाई बड़ी तेज़ी से हुई पर दूसरे कई अहम माने जाने वाले मामले अदालत में लटके रहे।
मिसाल के तौर पर नागरिकता संशोधन क़ानून से जुड़े मामले और शादीशुदा जि़ंदगी में रेप का सवाल।
जमानत के मामले
नागरिकों की स्वतंत्रता के कुछ मामलों में जस्टिस चंद्रचूड़ ने बड़ी तेज़ी दिखाई।
मिसाल के तौर पर जब सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को गुजरात हाई कोर्ट ने ज़मानत देने से इनकार कर दिया, तो सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार के दिन विशेष सुनवाई करके ज़मानत दी थी।
लेकिन, जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल में ही भीमा कोरेगांव मामले के अभियुक्त महेश राउत पिछले पांच साल से भी ज़्यादा वक़्त से जेल में बंद हैं।
इस मामले में 16 कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी जाति पर आधारित हिंसा को बढ़ावा देने और प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) से रिश्तों के आरोप में जेल में बंद हैं।
2023 में महेश राउत को बॉम्बे हाई कोर्ट से ज़मानत मिल गई थी, फिर भी उनकी ज़मानत पर रोक लगा दी गई और मामला अब तक सुप्रीम कोर्ट में अटका हुआ है।
आमतौर पर हाई कोर्ट से ज़मानत मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट उस पर रोक नहीं लगाता है, लेकिन ये मामला जस्टिस बेला त्रिवेदी की बेंच में अब तक अटका हुआ है।
आलोचक तो यहां तक कहते हैं कि ये मामला दो जजों की एक बेंच के सामने सुनवाई के लिए लिस्ट हुआ था, जिसमें जूनियर जज के तौर पर जस्टिस बेला त्रिवेदी भी शामिल थीं।
लेकिन, लिस्टिंग के नियमों के उलट ये मामला उस बेंच में चला गया जहां बेला त्रिवेदी सीनियर जज थीं।
ज़मानत से जुड़ा एक और मामला उमर ख़ालिद का है, जो दिल्ली दंगों में अभियुक्त हैं। वो पिछले चार साल से ज़्यादा वक़्त से जेल में बंद हैं।
जस्टिस बेला त्रिवेदी की बेंच में सुनवाई से पहले उनका केस पहले दूसरी बेंचों में भी लिस्ट हुआ था।
एक और मामला ऋतु छाबडिय़ा का है। ऋतु छाबडिय़ा के मामले में दो जजों की एक बेंच ने कहा था कि अधूरी चार्जशीट दायर करना, अपने आप ही ज़मानत का आधार बन जाता है।
सिफऱ् मौखिक रूप से उल्लेख किए जाने पर दो जजों की बेंच में बैठे जस्टिस चंद्रचूड़ ने इस मामले को अपनी बेंच में ट्रांसफर कर लिया और आखऱि में इस आदेश पर स्टे लगा दिया।
न्यायिक नियमों के ख़िलाफ़ बताते हुए उनके इस फ़ैसले की आलोचना की गई थी। ये मामला अब तक सर्वोच्च अदालत में लंबित है।
सीनियर वकील दुष्यंत दवे ने चीफ़ जस्टिस के तौर पर चंद्रचूड़ के कार्यकाल के बारे में लिखा, ‘बेंचों के गठन और मामलों के आवंटन के मामले में बहुत कमियां देखने को मिलीं।’
ऐसे कई और उदाहरण हैं जिनमें मुक़दमों की लिस्टिंग नहीं होने से नागरिकों की स्वतंत्रता और सुप्रीम कोर्ट की जवाबदेही को लेकर सवाल उठे।
प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट (पीएमएलए) की समीक्षा के लिए दायर की गई याचिका भी चंद्रचूड़ के कार्यकाल में अटकी रही जबकि सरकार के आलोचकों और विपक्ष के ख़िलाफ़ इस क़ानून के दुरुपयोग का इल्ज़ाम लगातार लगता रहा है।
2022 के एक फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ़्तारी, जांच और ज़मानत के विषय में प्रवर्तन निदेशालय को खुली छूट दे दी थी। यहां तक कि ये फ़ैसला होने के बाद इसकी समीक्षा की याचिका दायर की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश अपना नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर कहते हैं, ‘पीएमएलए के मामलों की जिस तरह से सुनवाई हुई, उससे लगा कि अदालत इस मामले में सरकार के रुख़ को स्वीकार करती है।’
उन्होंने ये भी कहा कि जिस तरह से ज़मानत के कुछ मामलों की सुनवाई की गई, वो भी ‘चिंताजनक’ है।
एक और मामला जो जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल में पेंडिंग रहा, वो चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह के रवैए को लेकर था।
जस्टिस चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने कहा था अनिल मसीह ने बीजेपी उम्मीदवार को जिताने के लिए चुनाव में धांधली की थी। इस साल उनके ख़िलाफ़ अदालत में झूठा बयान देने का मामला शुरू किया गया था।
जब मामले की सुनवाई शुरू हुई, तो जस्टिस चंद्रचूड़ ने अनिल मसीह को फटकारा, इससे लगा कि वो अनिल मसीह को दंडित करेंगे, लेकिन उसके बाद वो मामला कभी सुनवाई के लिए लिस्ट नहीं हुआ।
वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े के मुताबिक़, ‘अगर हम स्वतंत्रता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के मामले में जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल को एक वाक्य में बयां करना चाहें, तो आप ये कह सकते हैं कि उमर ख़ालिद जेल में हैं और अनिल मसीह आज़ाद घूम रहे हैं।’
वैसे तो जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल में संविधान पीठ में पहले से कहीं ज़्यादा मामलों के निपटारे हुए। लेकिन, उनके दौर में लंबित मामलों की संख्या में भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई।
जब चंद्रचूड़ ने काम संभाला था, तब 69 हज़ार केस सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग थे और अब जबकि वो रिटायर हो रहे हैं, तो लंबित मुक़दमों की तादाद 82 हज़ार तक जा पहुंची है।
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मदन बी लोकुर कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रशासनिक क्षमता ऐसी होनी चाहिए कि वो लंबित मामलों में कमी लाएं। मौजूदा चीफ जस्टिस ने संविधान पीठ की चुनौती को तो स्वीकार किया लेकिन, वो लंबित मामलों की तादाद पर क़ाबू कर पाने में नाकाम रहे।’
कॉलेजियम के मुखिया के तौर पर
बहुत से लोग ये कहते हैं कि न्यायिक नियुक्तियों के मामले में जस्टिस चंद्रचूड़ का कार्यकाल नाकामी वाला रहा है।
व्यवस्था ये है कि न्यायपालिका की नियुक्तियों में उच्च न्यायपालिका के वरिष्ठ जजों वाले कॉलेजियम की राय अंतिम होती है।
अगर सरकार को कॉलेजियम की ओर से सुझाए गए नामों से दिक़्क़त भी है, तो वो केवल एक बार ही उनको समीक्षा के लिए वापस कॉलेजियम के पास भेज सकती है।
लेकिन अगर कॉलेजियम उस नाम की सिफ़ारिश दोबारा भेजे, तो सरकार को मानना ही पड़ेगा।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान सरकारों ने इसका कड़ा विरोध किया है और जजों की नियुक्ति में अपनी बात मनवाने की कोशिश की है।
इसकी वजह से अक्सर न्यायाधीशों की नियुक्ति अटक जाती है, या फिर सरकार की पसंद वाले जज नियुक्त हो जाते हैं।
जब जस्टिस चंद्रचूड़ मुख्य न्यायाधीश बने, तो उन्होंने ख़ुद एक इंटरव्यू में कहा था कि उनका एक लक्ष्य न्यायापालिका के ख़ाली पदों में अलग अलग तबक़ों के जजों की नियुक्ति करना है।
क़ानून के बहुत से जानकारों के बीच इस बात पर मोटे तौर पर सहमति है कि जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल में जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार के दबदबे पर लगाम नहीं लगाई जा सकी।
जस्टिस चंद्रचूड़ के साथ काम कर चुके सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज ने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर कहा, ‘वो सरकार पर पर्याप्त दबाव बना पाने में नाकाम रहे हैं। नियुक्ति प्रक्रिया के मामले में ये एक बड़ी समस्या है। सरकार के आगे झुकते रहे।’
सुप्रीम कोर्ट के इन पूर्व जज ने कहा कि चंद्रचूड़ का कार्यकाल काफ़ी लंबा था और उसके पास पर्याप्त समय था कि वो न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका का प्रभुत्व दोबारा क़ायम कर सकते थे।
वे कहते हैं, ‘छोटे कार्यकाल वाले चीफ जस्टिस से आप सरकार के दबाव का विरोध करने की उम्मीद कैसे लगा सकते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘हाई कोर्ट बहुत मुश्किल स्थिति में हैं।’
न्यायालयों में 351 पद खाली
जब जस्टिस चंद्रचूड़, मुख्य न्यायाधीश बने, तो उच्च न्यायालयों में जजों के 323 पद ख़ाली थे, आज दो साल बाद ख़ाली पदों की संख्या बढक़र 351 पहुंच चुकी है।
उनके कार्यकाल का एक मामला ख़ासा दिलचस्प है, सुप्रीम कोर्ट अदालत की अवमानना के एक क़ानूनी पहलू की सुनवाई कर रहा था कि सरकार जजों की नियुक्तियों के मामले में क़ानून का पालन नहीं कर रही है। इस मामले की सुनवाई जस्टिस संजय किशन कौल कर रहे थे।
सुनवाई के दौरान उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर सरकार ने क़ानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया, तो वो सरकारी अधिकारियों को अदालत की अवमानना का दोषी मानेंगे।
जस्टिस कौल के कार्यकाल के आखऱिी दिनों में ये मामला लिस्ट होने के बावजूद सूची से ग़ायब हो गया।
ख़ुद जस्टिस संजय किशन कौल इस बात से हैरान रह गए थे। उन्होंने उस वक़्त कहा था, ‘मैंने इस केस को नहीं हटाया है, कुछ बातों पर मुंह बंद ही रखा जाए, तो बेहतर है। मुझे यक़ीन है कि चीफ़ जस्टिस को इस बात की जानकारी है।’
ये एक विचित्र स्थिति थी क्योंकि जस्टिस संजय किशन कौल ने इस मामले को अपनी बेंच में 5 दिसंबर को लिस्ट करने के लिए कहा था। उसके बाद से इस केस की सुनवाई का अब तक नंबर नहीं आया है।
जब इस मामले की सुनवाई हो रही थी, तब न्यायपालिका ने केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ सख़्त टिप्पणियां की थीं। जिसके बाद जजों की नियुक्ति के मामले में कुछ प्रगति हुई थी।
यहां तक कि जो नियुक्तियां हुई भी हैं, उनमें से कई जजों को नियुक्त करने और कुछ को हाई कोर्ट का जज नहीं बनाने को लेकर चिंताएं व्यक्त की गईं।
इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि हाई कोर्ट में जज के तौर पर नियुक्ति के लिए ‘कॉलेजियम ने 164 जजों के नाम का प्रस्ताव रखा था, जिनमें से 137 नियुक्तियाँ हो चुकी हैं, जबकि 27 नामों पर सरकार ने कोई फ़ैसला नहीं लिया है’।
ये मामले चर्चा में रहे
एक मामला मद्रास हाई कोर्ट की एक जज विक्टोरिया गौरी का था। उनके शपथ ग्रहण समारोह से पहले ये आरोप लगाया गया था कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफऱत भरे बयान दिए थे।
सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में एक याचिका भी दायर की गई थी। सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि ये बात कॉलेजियम के ध्यान में नहीं लाई गई थी। उन्होंने इस मामले की सुनवाई अगले दिन के लिए तय की।
जब सुनवाई हुई, तो एक और बेंच ने कहा कि कॉलेजियम ने जस्टिस विक्टोरिया गौरी की नियुक्ति सभी बातों को ध्यान में रखते हुए की थी और इस याचिका को ख़ारिज कर दिया गया।
कुछ जजों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सरकार विरोधी फ़ैसलों की वजह से सुप्रीम कोर्ट में नहीं नियुक्त किया गया।
जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल में ऐसा ही एक मामला जस्टिस मुरलीधर का था। दिल्ली हाई कोर्ट के सबसे सीनियर जजों में से एक जस्टिस मुरलीधर को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त करने के बजाय उनका तबादला ओडिशा कर दिया गया।
यहां तक कि अहम उच्च न्यायालय माने जाने वाले मद्रास हाई कोर्ट में उनके तबादले पर भी बताया जाता है कि केंद्र सरकार को एतराज़ था, इसके बाद कॉलेजियम ने उनके नाम की सिफ़ारिश दोबारा नहीं की।
उनको सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनाने पर क़ानून के तीन बड़े जानकारों ने लेख लिखकर सवाल उठाया कि ‘जस्टिस मुरलीधर को सुप्रीम कोर्ट में जज क्यों नहीं बनाया गया? ख़ासतौर से तब जब सुप्रीम कोर्ट में दो पद ख़ाली थे।’
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रिटायर्ड जस्टिस मदन लोकुर के मुताबिक़, कॉलेजियम व्यवस्था न्यायपालिका की स्वतंत्रता की प्रतीक है।
उन्होंने कहा, ‘आज ऐसा लगता है कि संभावित जजों की कि़स्मत का फ़ैसला सरकार कर रही है।’
एक क्षेत्र जहां जस्टिस चंद्रचूड़ कुछ हद तक कामयाब रहे, वो सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति का है।
उनके कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में 18 न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई। हालांकि, ऐसा करते वक़्त उन्होंने विविधता का पैमाना लागू करने का अपना वादा नहीं निभाया। उनके दौर में सुप्रीम कोर्ट में एक भी महिला जज की नियुक्ति नहीं की गई।
जस्टिस चंद्रचूड़ की मीडिया में चर्चा
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष दुष्यंत दवे कहते हैं कि ‘मीडिया में उनका ज़बरदस्त प्रभाव रहा है।’
उनकी लोकप्रियता की वजह से ऑनलाइन ट्रोल्स ने भी जस्टिस चंद्रचूड़ को ख़ूब निशाना बनाया। उन्हें ‘हिंदू विरोधी’ और च्नक़ली महिलावादी’ कऱार दिया गया।
हालांकि, बहुत से लोग ये सवाल उठा रहे हैं कि क्या किसी जज को इतना ज़्यादा सुर्खय़िों में रहना चाहिए?
क्योंकि जज को तो समाज से अलग-थलग रहते हुए, मौजूदा बहाव से दूर रहकर केवल न्यायसंगत फ़ैसला करना चाहिए।
दुष्यंत दवे सवाल उठाते हैं, ‘आप मीडिया से इतना घुल-मिल रहे हैं तो आप ऐसे काम करना चाहेंगे जिससे लोग आपको पसंद करें फिर आप सख़्त फ़ैसले नहीं कर पाएँगे।’
मीडिया से बातचीत में जस्टिस चंद्रचूड़ ने हिंदू पहचान को खुलकर सामने रखा।
जनवरी में जब वो गुजरात के द्वारका मंदिर गए थे, तब जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि ‘मंदिर का ध्वज हम सबको एकजुट रखता है। उन्होंने मंदिर के ध्वज की तुलना संविधान से भी की थी।’
इसी साल गणेश चतुर्थी के पर्व के दौरान प्रधानमंत्री मोदी, गणपति की पूजा के लिए उनके घर गए थे। इस बात की तीखी आलोचना की गई थी।
अक्टूबर महीने में लोगों को संबोधित करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि अयोध्या मामले की सुनवाई के दौरान समाधान निकालने के लिए उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की थी।
इन सबकी आलोचना की गई और ये भी चंद्रचूड़ की विरासत का हिस्सा होगा।
सत्ता के शीर्ष और न्यायपालिका के प्रमुख के बीच निकटता दिखना एक जटिल बात है, अदालतों में सरकार ही सबसे ज़्यादा मामलों में पक्षकार होती है।
ऐसे में चीफ जस्टिस के रवैये से निचली अदालतों के लिए और जनता के बीच एक ख़ास तरह का संदेश जाता है।
अपना नाम ज़ाहिर न करने वाले सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश पूछते हैं, ‘आपको अपने घर में प्रधानमंत्री के साथ आरती करने की क्या ज़रूरत है? और अगर आप करते भी हैं, तो इसकी तस्वीरें जारी करने की क्या आवश्यकता थी?’
एक और पूर्व जज ने कहा कि ये कहना कि मैंने ईश्वर से प्रार्थना की, ये बात आपको ‘अतार्किकता’ के मैदान में पहुंचा देती है और न्यायाधीशों को इससे बचना चाहिए।
यही नहीं, रिटायर्ड जस्टिस मदन लोकुर ने कहा, ‘जज, सरकारी पदाधिकारियों से मिलते हैं लेकिन वो अक्सर सरकारी कार्यक्रमों में मिलते हैं। साथ में पूजा करने के लिए कभी नहीं मिलते।’
एक पूर्व न्यायाधीश कहते हैं, ‘वो बहुत मीठे हो सकते हैं। वो बहुत विनम्र हो सकते हैं, इसके बावजूद वो इतने आत्ममुग्ध रह सकते हैं कि दूसरों को नुक़सान पहुंचे।’
उन्होंने ये भी कहा कि ‘हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक नई इमारत के निर्माण की आधारशिला रखने का कार्यक्रम हुआ था लेकिन जब उसकी योजना भी नहीं तैयार है, तो फिर इसको करने की क्या ज़रूरत थी।’
चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट के लोगो में भी बदलाव किया और न्याय की एक नई देवी की मूर्ति लगाई, जहां आंखों पर पड़ी पट्टी हटा दी गई है और न्याय की देवी के हाथ में संविधान है।
चीफ जस्टिस के तौर पर चंद्रचूड़ के कामकाज को लेकर वकीलों के संगठन ने भी कई शिकायतें कीं।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने चीफ जस्टिस को चि_ी लिखकर शिकायत की कि उन्होंने ‘बार एसोसिएशन से सलाह-मशविरा किए बग़ैर ही सुप्रीम कोर्ट का प्रतीक चिह्न बदलने, न्याय की देवी का स्वरूप बदलने का फैसला ले लिया।’
ऑल इंडिया बार एसोसिएशन ने भी चीफ जस्टिस को चि_ी लिखी और आरोप लगाया कि वो वकीलों के सम्मान की हिफ़ाज़त कर पाने में नाकाम रहे हैं।
इसके साथ साथ उस चि_ी में ये भी कहा गया था कि चंद्रचूड़ का ‘बेशक़ीमती वक़्त कार्यक्रमों में जाने में बीत रहा है और अगर वो अपना व्यवहार नहीं बदलते हैं तो बार एसोसिएशन ये कहेगी कि चीफ जस्टिस अपने ओहदे की जि़म्मेदारियां निभाने से ज़्यादा ‘पब्लिसिटी’ पाने पर ज़ोर दे रहे हैं।’
फ़ैसले जो चर्चा में रहे
एक जज और मुख्य न्यायाधीश के तौर पर भी जस्टिस चंद्रचूड़ ऐसे कई अहम फ़ैसलों का हिस्सा थे, जिसने उन बुनियादी सिद्धांतों की नींव रखी, जो आने वाले समय में काफ़ी अहम साबित होने वाले हैं।
सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े ने कहा, ‘आने वाले लंबे समय तक लोग उनके फ़ैसलों का असर महसूस करते रहेंगे।’ भारत में निजता के अधिकार को लेकर, उन्होंने 9 जजों की बेंच का बहुमत वाला फ़ैसला लिखा था।
इसका देश के सार्वजनिक जीवन के कई पहलुओं पर गहरा असर पडऩे वाला है। वो उन संविधान पीठों के सदस्य थे, जिसने समलैंगिकता और विवाहेत्तर संबंधों को अपराध बनाने के प्रावधान ख़त्म किए।
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का वो फ़ैसला भी लिखा था, जिसने अविवाहित महिलाओं को गर्भपात कराने का अधिकार दिया और सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की इजाज़त दी।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने 9 जजों की बेंच वाली एक और संवैधानिक बेंच के बहुमत वाले फ़ैसले को लिखा था, जिसमें कहा गया है कि सरकार के पास इस बात का अधिकार नहीं है कि वो किसी भी निजी संपत्ति को सामुदायिक संसाधन मान ले और उसका पुनर्वितरण करे।
ऐसा करते हुए अदालत ने पिछले कई दशकों से चले आ रहे न्यायिक रुख़ से आगे बढऩे वाला क़दम उठाया, जिसमें कहा गया था कि सभी निजी संपत्तियां सामुदायिक संसाधन हैं।
अपने फ़ैसलों से जस्टिस चंद्रचूड़ ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण में उप-वर्ग बनाने की इजाज़त दी। जेलों में जाति पर आधारित भेदभाव को असंवैधानिक कऱार दिया। असम समझौतों की संवैधानिकता पर मुहर लगाई।
उत्तर प्रदेश में मदरसे चलाना जारी रखने की इजाज़त दी और 57 साल पुराने सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे का दावा नहीं कर सकती है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ऐसे कई मुक़दमों की सुनवाई में शामिल थे, जो टैक्स लगाने और आर्बिट्रेशन से विवादों के निपटारे से जुड़े थे।
उनके कई फ़ैसलों में मीडिया और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ज़ोर देने की कोशिश दिखी। उन्होंने मलयालम के समाचार चैनल मीडिया वन के प्रसारण पर लगी पाबंदी को हटा दिया।
केंद्र सरकार की फ़ैक्ट चेक इकाई पर रोक लगा दी। वहीं, उन्होंने अर्नब गोस्वामी और ज़ुबैर अहमद को ज़मानत भी दी।
हालांकि, जस्टिस चंद्रचूड़ के बहुत से फ़ैसलों में ऐसा भी हुआ कि जो बुनियादी सिद्धांत तय किए गए, वो आने वाली पीढिय़ों के तो काम आएंगे।
लेकिन क़ानून के बहुत से जानकार ये सवाल उठाते हैं कि आखऱि वो कौन से फ़ायदे हैं, जो उनके इन फ़ैसलों से निकलेंगे।
सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज ने कहा, ‘उनके बहुत से फ़ैसलों की ये ख़ूबी रही है। उनके अंदर इस बात की क़ाबिलियत है कि वो ऐसे सिद्धांतों को तलाश करके उनको आधार बना दें, जो आने वाली पीढिय़ों के काम आएं। ये सब तो ठीक है। लेकिन, ये सवाल भी उठता है कि आखऱि में अदालत ने किया क्या?’
इन पूर्व न्यायाधीश ने ये भी कहा, ‘मुझे लगता है कि वो चोट करने के लिए तो तैयार थे, मगर किसी को घायल करने से डरते थे, जो एक परेशान करने वाली बात है।’
मिसाल के तौर पर उनका एक फ़ैसला इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर था, जिसकी सराहना की गई थी।
उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना को रद्द कर दिया और सरकार पर इसके आंकड़े जारी करने का दबाव बनाया, ताकि दान देने वालों के नाम राजनीतिक दलों को मिले चंदे से मिलाए जा सकें।
हालांकि, इसके बाद अदालत ने कोई कार्रवाई करने से परहेज़ किया। लेन-देन के कई मामले सामने आए, जांच एजेंसियों की छापेमारी के बाद इलेक्टोरल बॉण्ड से चंदे दिए गए,
या फिर बॉण्ड से चंदा दिए जाने के बाद सरकारी ठेके मिले। लेकिन अदालत ने ऐसे मामलों पर कोई कार्रवाई करने से साफ़ इनकार कर दिया।
इस मामले में अदालत की निगरानी में जांच की मांग करने वाली याचिका दायर करने वाले संगठन के वकील प्रशांत भूषण थे। इस मामले की सुनवाई चार महीने बाद के लिए निर्धारित की गई और एक ही सुनवाई के बाद याचिका को ख़ारिज कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज ने कहा, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड को रद्द करने के बाद जो कार्रवाई की जानी चाहिए थी, उसमें बहुत कमियां रह गईं।’
दुष्यंत दवे कहते हैं, ‘ये मामला ऐसा था कि ऑपरेशन कामयाब रहा पर मरीज़ मर गया।’
ऐसे कई मामले रहे जब जस्टिस चंद्रचूड़ ने उनको अहम समझते हुए उनका ख़ुद से संज्ञान लिया और अदालत की निगरानी में जांच का आदेश दिया।
उन्होंने कोलकाता के आरजी कर अस्पताल में रेप और हत्या और मणिपुर के यौन हिंसा मामले की सुनवाई ख़ुद संज्ञान लेकर की। उन्होंने मणिपुर हिंसा मामले की विशेष जांच टीम से तफ़्तीश का आदेश भी दिया।
लेकिन इस बारे में कोई साफ़ पैटर्न नहीं दिखा कि वो किस तरह के मामलों का ख़ुद से संज्ञान लेंगे या फिर अदालत की निगरानी में किस तरह के मामलों की जांच का आदेश देंगे।
मसलन, उन्होंने शॉर्ट सेलिंग करने वाली कंपनी हिंडनबर्ग रिसर्च की ओर से अडानी समूह की कंपनियों पर लगाए गए आरोपों की अदालत की निगरानी में जांच का आदेश देने से मना कर दिया।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फ़ैसले में कहा कि सेबी की जांच पर ‘भरोसा पैदा होता है’ और ऐसे मामलों की जांच सेबी से लेकर किसी और को देने की ज़रूरत नहीं है।
हालांकि, इसकी आलोचना की गई क्योंकि सेबी की निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे थे।
इसी तरह का मामला, उद्धव ठाकरे की शिवसेना के 39 विधायकों का टूटकर एकनाथ शिंदे गुट में जाने का था जिसकी वजह से जून 2022 में उद्धव ठाकरे की सरकार गिर गई थी।
वैसे तो अदालत ने इस मामले की सुनवाई उस वक़्त शुरू की, जब चंद्रचूड़ चीफ जस्टिस नहीं बने थे। लेकिन मामले का फ़ैसला चंद्रचूड़ के चीफ जस्टिस बनने के छह महीने के भीतर हो गया था।
वैसे तो फ़ैसला आखऱि में उद्धव ठाकरे के पक्ष में गया लेकिन इसमें अदालत ने कहा कि चूंकि उद्धव ठाकरे ने पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया है, इसलिए अदालत कुछ नहीं कर सकती।
सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश कहते हैं, ‘महाराष्ट्र में इस बात की जीती-जागती मिसाल थी कि सरकार काम कर रही थी। ऐसे में वो (उद्धव ठाकरे को दोबारा मुख्यमंत्री पद पर बहाल करके) इतिहास क़ायम कर सकते थे लेकिन ऐसा नहीं किया।’
चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव के मामले में इसके ठीक उलट हुआ, जहां अदालत ने मामले की तेज़ी से सुनवाई की और चुनाव के नतीजों को पलट दिया।
इसी तरह जस्टिस चंद्रचूड़ ने ये फ़ैसला भी दिया कि दिल्ली की सिविल सेवाओं पर उप-राज्यपाल का नहीं, दिल्ली की चुनी हुई सरकार का नियंत्रण होगा।
हालांकि उनके इस फ़ैसले को पलटने के लिए सरकार दस दिनों बाद ही एक अध्यादेश ले आई, जिसे बाद में क़ानून में तब्दील किया गया। इस क़ानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई मगर चंद्रचूड़ के पूरे कार्यकाल में ये मामला लंबित ही रहा।
जब जस्टिस चंद्रचूड़ जज थे, तो उन्हें आमतौर पर गर्भपात के समर्थक के तौर पर देखा जाता था क्योंकि 2022 में उन्होंने फ़ैसला दिया था कि अविवाहित महिलाओं को भी गर्भपात का अधिकार होना चाहिए।
अपने फ़ैसले में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था, ‘केवल महिला को ही अपने शरीर पर अख़्तियार है, और गर्भपात की तमाम वजहें हो सकती हैं, इनमें मानसिक सेहत भी शामिल है।’
हालांकि 2023 में उन्होंने एक और बहुचर्चित फ़ैसला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने पहले एक शादीशुदा महिला को गर्भपात कराने की इजाज़त दी, जो 26 हफ़्ते की गर्भवती थी।
लेकिन आखऱि में जस्टिस चंद्रचूड़ की बेंच ने गर्भपात की इजाज़त देने से इ3कार कर दिया।
महिला ने कहा कि वो भयंकर मानसिक और शारीरिक चुनौतियों से जूझ रही है और उसको अपने गर्भवती होने की ख़बर बहुत देर से हुई, और इसी वजह से वो पहले अदालत नहीं आ सकी थी।
फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने ये कहते हुए उस महिला को गर्भपात की इजाज़त नहीं दी कि इससे ‘गर्भ में पल रहे बच्चे के जीने के अधिकार का हनन’ होगा।
आलोचकों ने इस मामले को भारत में गर्भपात के अधिकारों के संदर्भ में उल्टी दिशा में जाने वाला फ़ैसला करार दिया था, जिसने अपने शरीर पर महिला के अधिकार को कमज़ोर बना दिया।
जब बात फेडरलिज्म की आई तो जस्टिस चंद्रचूड़ ने खनिजों के उत्खनन और औद्योगिक एल्कोहल पर टैक्स लगाने के राज्यों के अधिकार पर मुहर लगाई।
मगर अनुच्छेद 370 के मामले में उन्होंने इसे हटाने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने को जायज़ ठहराया।
ऐसा फ़ैसला देते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने इस सवाल से किनारा कर लिया कि क्या केंद्र किसी राज्य को बांट सकता है और वो भी राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत, जब राज्य की अपनी विधानसभा काम न कर रही हो।
उनके इस फ़ैसले की आलोचना हुई थी और इसे संघवाद को कमज़ोर करने वाले फ़ैसले के तौर पर देखा गया था।
अयोध्या मामले में भी जस्टिस चंद्रचूड़ की भूमिका के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। चंद्रचूड़ उस बेंच में शामिल थे, जिसने वो फ़ैसला सुनाया था, जिस पर कई सवाल उठाए गए थे।
अपने फ़ैसले में अदालत ने मस्जिद ढहाने को ग़ैरक़ानूनी माना था और ये भी स्वीकार किया था कि पुरातात्विक सर्वेक्षण में ये साबित नहीं हुआ है कि बाबरी मस्जिद को किसी मंदिर को तोडक़र बनाया गया था, फिर भी अदालत ने विवादित ज़मीन हिंदुओं को दे दी और मुसलमानों को एक और मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ ज़मीन दूसरी जगह आवंटित करने का आदेश दे दिया।
इस फ़ैसले का हैरान करने वाला एक पहलू ये भी था कि फ़ैसला लिखने वाले जज के नाम का जि़क्र नहीं था, जो एक अजीब बात है।
बाद में पीटीआई के साथ एक इंटरव्यू में चंद्रचूड़ ने कहा कि ये ऐसा फ़ैसला था, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच ने तय किया था कि इसको लिखने वाले जज का नाम नहीं होना चाहिए। पर चूंकि, सुप्रीम कोर्ट जो भी फ़ैसला देता है, वो कोई भी बेंच दे, उसे सर्वोच्च न्यायालय का ही फ़ैसला कहा जाता है।
हालाँकि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद वाले फ़ैसले में 1991 के प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट के प्रावधानों पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है।
ये क़ानून अयोध्या विवाद के बाद बनाया गया था ताकि आज़ादी के वक़्त किसी धार्मिक स्थल की जो स्थिति रही थी, उसे ही बरकऱार रखा जाए।
इस क़ानून में किसी धार्मिक स्थल के स्वरूप को बदलने पर भी पाबंदी लगाई गई है। बहुत से लोगों को लगा था कि इससे भविष्य में मंदिर-मस्जिद का कोई और विवाद खड़ा होने से रोका जा सकेगा।
हालांकि जब ज्ञानवापी मंदिर का विवाद जस्टिस चंद्रचूड़ के सामने सुनवाई के लिए आया, तो उन्होंने इससे जुड़े मामलों को चलने दिया।
उन्होंने ये कहा कि प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट इस बात की जांच के लिए सर्वे कराने पर रोक नहीं लगाता कि आज़ादी के वक़्त किसी धार्मिक स्थल का स्वरूप क्या था।
आज भी ज्ञानवापी का विवाद और ऐसे ही कई मामले अदालतों में विचाराधीन हैं।
वैसे तो जस्टिस चंद्रचूड़ ने निजता के अधिकार से जुड़ा फ़ैसला भी लिखा और आधार के मामले में बहुमत से अलग वो फ़ैसला भी लिखा था, जिसकी कुछ लोग बहुत तारीफ़ करते हैं।
उस फ़ैसले में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि 12 अंकों वाले जिस पहचान पत्र को सरकार ले आई है, वो ‘असंवैधानिक’ है और इसे ख़त्म कर दिया जाना चाहिए।
लेकिन इसके बरअक्स सरकार के आलोचकों की जासूसी के लिए पेगासस सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल के मामले भी उनके कार्यकाल में लंबित रहे। इसकी एक बार भी सुनवाई नहीं हुई।
आधार के अलावा, जस्टिस चंद्रचूड़ को कई और मामलों में भी बहुमत से अलग फ़ैसला देने के लिए याद किया जाता है।
जैसे कि भीमा कोरेगांव का मामला, इसमें बहुमत से अलग फ़ैसला सुनाते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि इस मामले में महाराष्ट्र पुलिस का रवैया उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाता है और भीमा कोरेगांव के मामले की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में फिर से जांच होनी चाहिए।
हालांकि चंद्रचूड़ का कार्यकाल ख़त्म होने तक भी भीमा कोरेगांव से जुड़े मामलों में ट्रायल शुरू नहीं हो सका है। जबकि, उनके चीफ जस्टिस रहते हुए (दूसरी बेंचों ने) इस मामले में गिरफ़्तार कम से कम तीन लोगों को ज़मानत ज़रूर दे दी है।
लेकिन, इसकी तुलना में एक जि़ला जज बीएच लोया की मौत के केस में जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसकी स्वतंत्र रूप से जांच की मांग करने वाली तमाम याचिकाओं को ख़ारिज करने वाला फ़ैसला सुनाया था।
मौत के वक़्त जज लोया, सोहराबुद्दीन के एनकाउंटर से जुड़े मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें गृह मंत्री अमित शाह मुख्य आरोपी थे।
इस मामले की सुनवाई जिस तरह हुई और उसके बाद चंद्रचूड़ के इस फ़ैसले की व्यापक रूप से आलोचना हुई थी। इसकी लिस्टिंग और अदालतों में सुनवाई के दौरान दिए गए तर्कों पर सवाल उठाए गए थे।
क़ानूनी मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार मनु सैबेस्टियन ने फ़ैसले की तुलना करते हुए इसे आज के दौर का ‘एडीएम जबलपुर केस’ बताया था।
एडीएम जबलपुर केस की बहुत आलोचना की जाती है। आपातकाल के दौरान आम लोगों के अधिकारों को निलंबित करने वाले इस बहुचर्चित मामले की सुनवाई करने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच में जस्टिस चंद्रचूड़ के पिता भी शामिल रहे थे जिसने अधिकारों के निलंबन को सही ठहराया था।
तकनीकी सुधार
एक पहलू जिसमें जस्टिस चंद्रचूड़ ने कई बदलाव लाए वो अदालतों के आधुनिकीकरण का है। सुप्रीम कोर्ट की ई-समिति के अध्यक्ष के तौर पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कई क़दम उठाए।
अब संविधान पीठ की सुनवाई की ट्रांसक्रिप्ट उपलब्ध हैं। आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस की मदद से फ़ैसलों का सभी भाषाओं में अनुवाद किया जाता है और सुप्रीम कोर्ट सभी अदालतों की सुनवाई के लाइव प्रसारण की तैयारी कर रहा है।
सीनियर वकील संजय हेगड़े ने कहा, ‘अदालत के आधुनिकीकरण में उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। वीडियो कांफ्रेंस की व्यवस्था को बेहतर बनाया। ई-फाइलिंग की स्वीकार्यता बढ़ाई। वो सुप्रीम कोर्ट को आधुनिक बनाने और सरकार से फंडिंग हासिल करने की एक अच्छी विरासत छोडक़र जा रहे हैं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की बारीक़ी से सार्वजनिक पड़ताल करने के दरवाज़े भी खोले हैं।’
जस्टिस चंद्रचूड़ की विरासत
वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे कहते हैं, ‘उनका कार्यकाल तबाही लाने वाला रहा है और वो अपने पीछे बहुत से लोगों को नाख़ुश करने वाली खऱाब विरासत छोडक़र जा रहे हैं।’
वैसे बहुत से लोग ये भी मानते हैं कि चंद्रचूड़ का कार्यकाल मिला-जुला रहा है।
संजय हेगड़े कहते हैं, ‘जहां तक तकनीकी सुधार और जनता की सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच की बात है, तो उन्होंने ज़ाहिर तौर पर इसे बेहतर बनाया है। लेकिन, जब बात नैतिकता वाले प्रभुत्व की आती है, तो ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट बहुत आगे नहीं बढ़ सका है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के प्रभाव में कितनी गिरावट आई है और इसकी छवि को कितना नुक़सान पहुंचा है, ये तो आने वाले समय में ही पता चल सकेगा।’
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मदन लोकुर कहते हैं, ‘कुछ संदेहास्पद फ़ैसलों के बावजूद न्यायिक पहलू के मामले में उनका कार्यकाल अच्छा रहा है। और जहां तक प्रशासनिक पहलू की बात है, तो ये और बेहतर हो सकता था।’
जाने-माने वकील प्रशांत भूषण को लगता है, ‘चंद्रचूड़ को ये अदालत जिन हालात में मिली थी, वो इसे और बेहतर स्थिति में छोडक़र नहीं जा रहे हैं। हम सबको जस्टिस चंद्रचूड़ से बहुत उम्मीदें थीं। (bbc.com/hindi)
-अशोक पांडे
पैंसठ पार की हीरा देवी विनोद कापड़ी की नई फिल्म ‘पायर’ की हीरोइन हैं। उत्तराखण्ड के सुदूर कस्बे बेरीनाग से कोई दस किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव गढ़तिर की रहने वाली हीरा देवी ने फिल्म के लिए चुने जाने से पहले अपना ज़्यादातर जीवन पहाड़ की अधिकतर निर्धन महिलाओं की तरह अपने परिवार और मवेशियों की देखरेख करते हुए बिताया था। सिनेमा और कैमरा छोडिय़े, बड़ी स्क्रीन वाले फोन जैसी चीजें भी उनके लिए किसी दूसरे संसार की चीजें थीं।
दो बेटों और एक बेटी की शादी-परिवार वगैरह निबटा चुकीं हीरा देवी कुछ वर्ष पहले पति के न रहने के बाद से एकाकी जीवन बिता रही थीं जब नजदीक के ही गाँव उखड़ से वास्ता रखने वाले पत्रकार-फिल्म निर्देशक विनोद कापड़ी ने उनके जीवन में दस्तक दी और अपनी फिल्म में काम करने का प्रस्ताव दिया।
घर में अकेली हीरा देवी का साथ देने को एक पालतू भैंस थी जो इत्तफाक से उन्हीं दिनों ब्याई थी। सो सारी दिनचर्या भैंस और उसके नवजात के लिए घास वगैरह का इंतजाम करने के इर्द-गिर्द घूमा करती। जब फिल्म में काम करने की बात चली तो पहला सरोकार भी वही था। दूसरी चिंता यह हुई कि अड़ोसी-पड़ोसी क्या कहेंगे। कुछ परिचितों ने उन्हें चेताया भी कि पिक्चर वालों का कोई भरोसा नहीं होता, कब कौन सी चीज की फिल्म खींच लें!
बहरहाल सारी परेशानियों का तोड़ निकाला गया और शूटिंग शुरू हो गई। हीरादेवी का घर मुख्य लोकेशन से कोई 6 किलोमीटर दूर था। शूटिंग सुबह साढ़े छ: पर शुरू होती और अक्सर रात के आठ बजे तक चलती। प्रोडक्शन वाले हीरादेवी को वैसी ही इज्जत बख्शते जैसी बॉलीवुड की किसी ऐक्ट्रेस को मिलती होगी। उन्हें अभिनय सिखाने के लिए बाकायदा एक प्रशिक्षक तैनात थे। हर रोज लाने-छोडऩे जाने को एक गाड़ी हमेशा खड़ी रहती। वे तडक़े उठकर ही जंगल जाकर गाड़ी के आने से पहले भैंस के लिए दिन भर की घास की व्यवस्था कर लेतीं।
शूटिंग का एक बेहद दिलचस्प वाकया है।
एक सीन में उन्हें घास का गठ्ठर उठाए नायक के साथ कहीं जाते हुए दिखाया जाना था। सुबह का सीन था। हीरा देवी के आने से पहले ही प्रोडक्शन की टीम ने कहीं से एक गठ्ठर घास का इंतजाम किया हुआ था। सेट पर पहुँचते ही हीरा देवी की निगाह सबसे पहले उसी पर पड़ी। उनकी आँखों में चमक आई।
सीन शुरू हुआ लेकिन उस दिन हीरादेवी के अभिनय में कोई जान नहीं आ रही थी। उनकी निगाह बार-बार उसी गठ्ठर की तरफ चली जाती। डायरेक्टर झुंझलाने लगता उसके पहले ही सीन रुकवा कर उन्होंने विनोद से पूछा-
‘इस घास का क्या करोगे?’ ‘यहीं फेंक देंगे। और क्या!’
उनके मन में टीस जैसी उठी। उन्होंने देर तक विनोद से बात की और यह बात सुनिश्चित करवाई कि शूटिंग खत्म होने पर फेंकने के बजाय घास उन्हें घर ले जाने को दे दी जाएगी। इस निश्छलता से अन्दर तक भीग गए विनोद ने प्रोडक्शन टीम को एक और गठ्ठर की व्यवस्था कर लाने को कहा। उसके बाद सब कुछ अच्छी तरह हुआ। उस शाम घर जाते हुए उनकी जीप में दो गठ्ठर घास भी भरी हुई थी। हीरादेवी के चेहरे पर उस दिन कैसा संतोष रहा होगा इसकी कल्पना वही कर सकता है जिसने हर सुबह जान की बाजी लगाकर चारे-लकड़ी की खोज में पहाड़ की महिलाओं को बाघों से भरे जंगलों में जाते हुए देखा है।
-रजनीश कुमार
जब अमेरिका को छींक आती है तो दुनिया ज़ुकाम से ग्रसित हो जाती है।
दुनिया भर में अमेरिका के प्रभाव को रेखांकित करने के लिए अक्सर ये लाइन कही जाती है। ऐसे में अमेरिका में जब चुनाव होता है तो पूरी दुनिया की नजऱ होती है कि सबसे शक्तिशाली देश की कमान किस व्यक्ति के पास आएगी और उसका रुख़ क्या होगा।
डोनाल्ड ट्रंप दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं और दुनिया भर में उनकी जीत को संभावनाओं और आशंकाओं के आईने में देखा जा रहा है।
अमेरिकी मीडिया आउटलेट ब्लूमबर्ग ने एक स्टोरी की है, जिसमें बताया गया है कि ट्रंप के आने से दुनिया के कई नेता विजेता की तरह महसूस कर रहे होंगे।
ब्लूमबर्ग ने ट्रंप के आने से जिन्हें विजेता की श्रेणी में रखा है, वे हैं- इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी, तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन, उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग उन, हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बान और अर्जेंटीना के राष्ट्रपति जेवियर मिलेई।
रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने गुरुवार को डोनाल्ड ट्रंप को बधाई दी। अमेरिकी चुनाव पर पुतिन की यह पहली टिप्पणी थी। पुतिन ने ट्रंप के साहस की प्रशंसा की क्योंकि जुलाई महीने में चुनावी कैंपेन के दौरान उन पर जानलेवा हमला हुआ था।
पुतिन ने ट्रंप के लिए क्या कहा?
पुतिन ने ब्लैक सी रिजॉर्ट ऑफ सोची में आयोजित एक इंटरनेशनल फोरम में गुरुवार को कहा, ‘ट्रंप पर जब जानलेवा हमला हुआ तब उनके व्यवहार से मैं काफ़ी प्रभावित था। ट्रंप एक साहसिक व्यक्ति के रूप में उभरे। ट्रंप ने हमले के बाद ख़ुद को बिल्कुल सही रास्ते पर रखा। ट्रंप अगर रूस के साथ संबंध बहाल करने और यूक्रेन संकट को ख़त्म करने में मदद करने की बात कर रहे हैं तो मेरे विचार से यह ध्यान देने लायक है।’
कहा जा रहा है कि ट्रंप का फिर से आना पुतिन के लिए मौक़े की तरह है। पश्चिम के विभाजन का पुतिन दोहन करेंगे और यूक्रेन के मामले में वह फायदा उठाएंगे।
ट्रंप नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन यानी नेटो को लेकर हमलावर रहे हैं। ट्रंप को लगता है कि नेटो अमेरिका के लिए आर्थिक बोझ की तरह है।
दूसरी तरफ़ पुतिन भी नेटो से चिढ़े रहते हैं। यूक्रेन पर रूस के एक हमले की वजह ये भी थी कि यूक्रेन नेटो में शामिल होने की तैयारी कर रहा था। पुतिन बिल्कुल नहीं चाहते हैं कि नेटो रूस के पड़ोसी देशों में अपना विस्तार करे।
ट्रंप अमेरिका फस्र्ट पॉलिसी की वकालत करते हैं और ऐसे में यूक्रेन को रूस से जंग के लिए फंड देंगे या नहीं इस पर संदेह बना हुआ है।
हालांकि कई लोग ट्रंप की अस्थिर सोच को लेकर भी चिंतित रहते हैं।
ब्लूमबर्ग ने लिखा है, ‘रूस में कई लोग इस बात से चिंतित हैं कि ट्रंप छोटी अवधि के लिए युद्ध को बढ़ा सकते हैं ताकि पुतिन को समझौते के लिए झुकाया जा सके। लेकिन इसके विनाशकारी नतीजे हो सकते हैं क्योंकि परमाणु टकराव की आशंका बढ़ जाएगी।’
ट्रंप भारत को रूस के मामले में छूट देंगे?
अगर ट्रंप और पुतिन के बीच संबंध बेहतर होते हैं तो यह भारत के लिए भी अच्छा होगा। भारत और रूस की दोस्ती से अमेरिका चिढ़ा रहता है। बाइडन प्रशासन का दबाव था कि भारत रूस से तेल आयात न बढ़ाए और रूस के खिलाफ पश्चिम के प्रतिबंधों में शामिल हो जाए। अमेरिका ये भी चाहता है कि भारत का रूस से रक्षा संबंध सीमित हो।
लेकिन ट्रंप के आने के बाद इस तरह के दबाव ख़त्म होने की बात कही जा रही है। रूस में भारत के राजदूत रहे और भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल मानते हैं कि पुतिन को लेकर बाइडन जैसा सोचते हैं, ट्रंप वैसा नहीं सोचते हैं लेकिन बात केवल राष्ट्रपति की सोच की नहीं है।
कंवल सिब्बल ने बीबीसी हिन्दी से कहा, ‘मैं भी मानता हूँ कि रूस से संबंध में भारत पर बाइडन प्रशासन की तरह ट्रंप का दबाव नहीं होगा। लेकिन ट्रंप के आने बाद भी रूस पर पश्चिम का प्रतिबंध आसानी से नहीं हटेगा। ऐसे में भारत के लिए पेमेंट की मुश्किलें बनी रहेंगी।’
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में रूसी और मध्य एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफ़ेसर संजय कुमार पांडे भी मानते हैं कि ट्रंप के आने को रूस और भारत के संबंधों के लिहाज से सकारात्मक रूप में देख सकते हैं।
प्रोफेसर पांडे कहते हैं, ‘लेकिन इसे थोड़ा उल्टा करके सोचिए कि अगर पुतिन को लेकर ट्रंप भी सख़्त हो जाते हैं और तय करते हैं कि प्रतिबंध भारत को भी मानना होगा तब क्या होगा? मुझे लगता है कि ऐसी स्थिति में भारत के लिए थोड़ी असहज स्थिति होगी। ट्रंप सोच के स्तर पर अस्थिर और अप्रत्याशित हैं। ऐसे में संभावनाएं और आशंकाएं दोनों हैं।’
भारत पर रूस से संबंधों को सीमित करने का दबाव यूक्रेन में युद्ध के बाद से बढ़ा है। ट्रंप युद्ध खत्म कराने की बात कर रहे हैं। अगर ऐसा होता है कि भारत पर रूस को लेकर अमेरिका का दबाव कम होगा।
ट्रंप वाकई जंग खत्म करा पाएंगे?
लेकिन क्या ट्रंप यूक्रेन और रूस की जंग खत्म करा सकते हैं?
कंवल सिब्बल कहते हैं, ‘ट्रंप ने कहा था कि अगर वो राष्ट्रपति होते तो जंग शुरू ही नहीं होती। संभव है कि ट्रंप इसे शुरू नहीं होने देते। लेकिन अब पुतिन को ट्रंप युद्ध बंद करने के लिए कैसे मनाएंगे? ट्रंप ने कोई आधार बताया नहीं है। पुतिन अब चाहेंगे कि फरवरी 2022 के बाद उन्होंने यूक्रेन के जितने हिस्से को अपने नियंत्रण में ले लिया है, उसे यूक्रेन का ना दें।’
सिब्बल कहते हैं, ‘इसके अलावा पुतिन चाहते हैं कि यूक्रेन के संविधान में इस बात का जिक्र हो वो कभी नेटो में शामिल नहीं होगा। यूक्रेन की सेना को सीमित किया जाए और नेटो का विस्तार उसके पड़ोस में ना हो। मुझे नहीं लगता है कि ट्रंप इन मांगों को मान लेंगे।’
‘बात केवल ट्रंप के मानने की नहीं है। नेटो का संविधान कहता है कि नए सदस्यों के लिए उसके दरवाज़े खुले हैं। केवल ट्रंप के चाहने से नेटो का नियम नहीं बदल जाएगा। यूक्रेन के संविधान में क्या लिखा जाए इसे ट्रंप नहीं तय कर सकते हैं। रिपब्लिकन पार्टी के लोग ही इसके लिए तैयार नहीं होंगे। अमेरिका ने कांग्रेस के ज़रिए यूक्रेन को अरबों डॉलर का फंड दिया है और इसका समर्थन रिपब्लिकन पार्टी ने भी किया था।’
प्रोफेसर संजय पांडे भी मानते हैं कि अब चीज़ें ज़्यादा जटिल हो गई हैं।
प्रोफेसर पांडे कहते हैं, ‘फरवरी 2022 में हमले से पहले रूस इतने पर तैयार था कि यूक्रेन को नेटो से दूर रखा जाए और उसका विस्तार रूस के पड़ोस में ना हो। अब रूस ने फरवरी 2022 के बाद यूक्रेन की जितनी जमीन पर कब्जा कर लिया है, उसे शायद ही छोड़े।’
ट्रंप ने अपने चुनावी अभियान के दौरान स्पष्ट कर दिया था कि नेटो सदस्य देश जब तक अपनी जीडीपी का दो प्रतिशत डिफेंस पर खर्च नहीं करेंगे तक ट्रीटी की बाध्यताओं के बावजूद सदस्य देशों की रक्षा नहीं करेंगे। लेकिन इस साल नेटो के केवल दो तिहाई सदस्य ही इस दो प्रतिशत की सीमा तक पहुँच पाएंगे।
यूरोप को लेकर ट्रंप और पुतिन की सोच
जुलाई 2018 में ट्रंप ने सीएनबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि अगर रूसी राष्ट्रपति पुतिन से समझौते की उनकी कोशिश नाकाम रहती है तो वह पुतिन से सबसे बड़े दुश्मन होंगे।
ट्रंप ने कहा था, ‘मैं उनके लिए सबसे बड़ी मुश्किल बन जाऊंगा लेकिन मुझे नहीं लगता है कि इसकी ज़रूरत पड़ेगी। असल में मैं सोचता हूँ कि दोनों देशों के बीच अच्छे संबंध हों। रूस को लेकर मैं जितना सख्त रहा हूँ, उतना अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति नहीं रहा है। लेकिन मेरा मानना है कि राष्ट्रपति पुतिन और रूस के साथ होना सकारात्मक है न कि नकारात्मक।’
ट्रंप के पहले कार्यकाल (2017-2021) में यूरोप के बड़े देश फ्ऱांस, जर्मनी और ब्रिटेन असहज दिखे थे। यहां तक कि पड़ोसी देश कनाडा को लेकर भी ट्रंप का रुख काफी कड़ा रहा था। ट्रंप नहीं चाहते हैं कि अमेरिका किसी भी ऐसे समझौते में रहे जिससे उसका नुकसान हो रहा है। पुतिन भी यूरोप को लेकर काफ़ी सख्त रवैया रखते हैं।
गुरुवार को ही पुतिन ने सोची में यूरोप को लेकर कहा, ‘मैंने अपने सहकर्मियों और विशेषज्ञों से पूछा कि यूरोप में अभी क्या कमी है? उनका जवाब था कि दिमाग की कमी है।’
जॉर्ज रॉबर्टसन ब्रिटेन के पूर्व रक्षा मंत्री हैं और वह 1999 से 2003 के बीच नेटो के महासचिव थे। उन्होंने पिछले साल नवंबर महीने में कहा था कि पुतिन रूस को शुरुआत में नेटो में शामिल करना चाहते थे लेकिन वह इसमें शामिल होने की सामान्य प्रक्रिया को नहीं अपनाना चाहते थे।
जॉर्ज रॉबर्टसन ने कहा था, ‘पुतिन समृद्ध, स्थिर और संपन्न पश्चिम का हिस्सा बनना चाहते थे।’
पुतिन 2000 में रूस के राष्ट्रपति बने थे। जॉर्ज रॉबर्टसन ने पुतिन से शुरुआती मुलाकात को याद करते हुए बताया है, ‘पुतिन ने कहा- आप हमें नेटो में शामिल होने के लिए कब आमंत्रित करने जा रहे हैं? मैंने जवाब में कहा- हम नेटो में शामिल होने के लिए लोगों को बुलाते नहीं हैं। जो इसमें शामिल होना चाहते हैं, वे आवेदन करते हैं। इसके जवाब में पुतिन ने कहा- मैं उन देशों में नहीं हूँ कि इसमें शामिल होने के लिए आवेदन करूं।’
इसके बाद नेटो के विस्तार को लेकर पुतिन का ग़ुस्सा बढ़ता गया। मध्य और पूर्वी यूरोप में रोमानिया, बुल्गारिया, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, लातविया, एस्टोनिया और लिथुआनिया भी 2004 में नेटो में शामिल हो गए थे। क्रोएशिया और अल्बानिया भी 2009 में शामिल हो गए। जॉर्जिया और यूक्रेन को भी 2008 में सदस्यता मिलने वाली थी लेकिन दोनों अब भी बाहर हैं। (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों पर दुनिया भर की नजर रहती है क्योंकि भौतिकता के युग में चीन, रूस, जापान, नाटो से जुड़े यूरोपीय देशों और भारत की उभरती हुई क्षेत्रीय हस्तियों के बावजूद द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका अभी भी विश्व गुरु का ताज पहने है। अमेरिका के इस चुनाव में कई महत्वपूर्ण बातें रही। एक तरफ विजयी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पिछले चुनाव की हार भुलाने के लिए पूरे जोर शोर से मैदान में उतरे थे।
दूसरी तरफ डेमोक्रेट्स ने अपने बुजुर्ग राष्ट्रपति को उम्र की शिथिलताओं के कारण दरकिनार कर युवा और गैर श्वेत महिला उप राष्ट्रपति पर दांव लगाकर दुबारा सत्ता हासिल करने की पुरजोर कोशिश की थी। तीसरे रूस यूक्रेन और इजराइल अरब युद्ध के चलते अमेरिकी राष्ट्रपति के इस चुनाव में रूस, चीन, इजराइल और ईरान आदि देशों ने भी चुनाव को अपने अपने हिसाब से प्रभावित करने की कोशिश की थी। जहां तक अमेरिका और भारत के संबंधों का प्रश्न है उसमें इस चुनाव में भारत की स्थिति हमेशा की तरह तटस्थ भाव सरीखी ही रही। जो बाइडेन के कार्यकाल में भारत अमेरिका संबंध वैसी गर्मजोशी वाले नहीं रहे जैसे क्लिंटन, बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप के समय थे। वैसे जहां तक अमेरिकी नीतियों का प्रश्न है उनके लिए अमेरिका फस्र्ट ही नीतियों का मूलमंत्र है। अपनी जरूरत के हिसाब से अमेरिकी लोकतंत्र पाकिस्तान में सैनिक शासन से जबरदस्त गठबंधन कर लेता है और बांग्लादेश में चुनी हुई सरकार के तख्तापलट में शामिल हो सकता है। अपने आतंकवादी बिन लादेन को पाकिस्तान में घुसकर मार सकता है और हमारे आतंकवादियों की हत्या के प्रयास के आरोप में हमारे कैबिनेट रैंक के मंत्री का नाम घसीट सकता है। इस लिहाज से अमेरिका में चाहे डेमोक्रेट सत्ता में आएं या रिपब्लिकन दूसरे देशों के साथ उनका व्यवहार इस तथ्य पर निर्भर करता है कि उस देश से अमेरिका को क्या आर्थिक और सामरिक लाभ हो सकता है।
हम भारतीय अमरीकियों की तुलना में बहुत ’यादा भावुक हैं। खोखली भावनाओं के आधार पर सपने देखते हैं, मसलन कमला हैरिस को भारत के लिए इसलिए महत्वपूर्ण मानने लगे कि वे भारतीय मूल की हैं जबकि उन्होंने अपने कार्यकाल में कभी खुलकर भारत के समर्थन की कोई घोषणा नहीं की। इसी तरह जब सुनक ब्रिटिश प्रधानमंत्री बने थे तो इंफोसिस के चेयरमैन नारायण मूर्ति के दामाद होने के नाते उनसे हमने बहुत सी उम्मीद पाल ली थी और जब मुशर्रफ पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष बने थे तो उनसे शांति की उम्मीद करने लगे थे। हकीकत यह है कि दूसरे देश की नागरिकता लेने वाले अधिकांश लोगों की स्थिति नए मुल्ला ’यादा प्याज खाते हैं कहावत जैसी हो जाती है। वे नए देश के प्रति वहां के मूल निवासियों से अधिक राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में कमला हैरिस की हार से भारत और अमेरिका संबंध पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। उल्टे डोनाल्ड ट्रंप की पिछली पारी और चुनाव के दौरान दिए गए भाषणों से ऐसा लगता है कि उनका प्रशासन रूस और भारत जैसे देशों के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाएगा। इन देशों के शेयर बाजार में उछाल भी यही प्रारंभिक संकेत दे रहे हैं।
जहां तक डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन का संदर्भ है उनकी ऐसी छवि है कि वे अपने समर्थकों के लिए पलक पांवड़े बिछाने वाले हैं और विरोधियों के प्रति कट्टर रवैया अपनाते हैं। पिछले कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके अ‘छे संबंध थे। यह उम्मीद की जा सकती है कि अमेरिका भारत की क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरने में मदद करेगा। इस लिहाज से डोनाल्ड ट्रंप के अप्रत्याशित फैसले लेने और जिद्दी छवि के बावजूद हम भारतीयों को उनके जीतने पर दुखी होने का कोई कारण नहीं है। खुश होने के लिए यह भी एक भावनात्मक कारण है कि उनके उप राष्ट्रपति जे डी वेंस की पत्नी उषा वेंस भारतीय मूल की हैं।
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और ऑस्ट्रेलिया की विदेश मंत्री पेनी वॉन्ग की संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस को दिखाने वाले मीडिया संस्थान ‘द ऑस्ट्रेलिया टुडे’ ने अपने सोशल हैंडल और वेबसाइट को कनाडा में बैन किए जाने पर प्रतिक्रिया दी है।
‘द ऑस्ट्रेलिया टुडे’ ने इस मामले पर मिल रहे ‘समर्थन’ पर आभार जताते हुए कहा है कि वो बाधाओं की परवाह किए गए बगैर अहम कहानियां और आवाज़ लोगों तक पहुंचाता रहेगा।
‘द ऑस्ट्रेलिया टुडे’ ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा है, ‘कनाडा सरकार के आदेश पर भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ हमारे इंटरव्यू और ऑस्ट्रेलिया के साथ उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस को सोशल मीडिया पर दिखाने पर रोक लगा दी गई है। ये फैसला हमारी टीम के लिए काफी मुश्किल भरा साबित हुआ जो आज़ाद पत्रकारिता को काफी अहमियत देती है।’
इस मीडिया प्लेटफॉर्म ने कहा है, ‘इन प्रतिबंधों के बावजूद आपका लगातार समर्थन हमें ताकत देता रहेगा। चाहे हमारे कवरेज को अन्य प्लेटफार्मों पर साझा करना हो या प्रेस की आजादी के प्रति हमारी चिंताओं को सामने लाना हो या हमारी कोशिशों को प्रोत्साहन जैसा कदम हो, हर कोशिश का फर्क पड़ता है। इस मामले को लेकर पत्रकार बिरादरी की एकजुटता और प्रेस की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्धता जताने की हम सराहना करते हैं।’
इससे पहले भारत के विदेश मंत्रालय ने कनाडा के कदम को गैर ज़रूरी बताया था।
भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने गुरुवार को कनाडा के इस कदम पर पूछे गए सवाल पर कहा था, ‘जी हाँ आपने सही सुना है। हम भी यही समझते हैं कि इस ख़ास मीडिया का सोशल हैंडल और वेबसाइट ब्लॉक कर दिया गया है, जो कि प्रवासियों का महत्वपूर्ण मीडिया प्लेटफॉर्म है और अब यह कनाडा में लोगों के लिए उपलब्ध नहीं है।’
उन्होंने कहा, ‘हमें इस बात पर अचरज है। हमें ये अजीब लगता है। फिर भी ये ऐसे काम हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंंत्रता के प्रति कनाडा के पाखंड का पर्दाफाश करती हैं। मीडिया में बातचीत के दौरान विदेश मंत्री ने तीन चीज़ों के बारे में बात की थी। बगैर सुबूत के आरोप लगाने के कनाडा के पैटर्न, भारतीय राजनयिकों की निगरानी जो अस्वीकार्य है और कनाडा में भारत विरोधी तत्वों को मिल रहा राजनीतिक स्पेस। इससे आप निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ‘द ऑस्ट्रेलिया टुडे’ को क्यों ब्लॉक किया गया।’
भारत के विदेश मंत्रालय ने कनाडा में आयोजित होने वाले अपने उ‘चायोग के कुछ कैंपों को भी रद्द करने का ऐलान किया है। विदेश मंत्रालय के मुताबिक़ कनाडा के अधिकारियों ने कहा था कि वो इन्हें सुरक्षा नहीं दे सकते।
‘द ऑस्ट्रेलिया टुडे’ के सोशल मीडिया हैंडल और वेबसाइट को कनाडा की ओर से बैन करने के इस कदम को चौंकाने वाला बताया जा रहा है क्योंकि ऑस्ट्रेलियाई और कनाडा फाइव आइज़ अलायंस के सदस्य हैं।
फाइव आइज अलायंस आपस में खुफिया जानकारी साझा करने वाले पांच देशों का गठबंधन है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, कनाडा और न्यूज़ीलैंड इस गठबंधन के सदस्य हैं।
जयशंकर ने ऑस्ट्रेलिया में कनाडा को लेकर क्या कहा था
भारत के विदेश मंत्री एस। जयशंकर ने अपने ऑस्ट्रेलिया दौरे में वहां की विदेश मंत्री पेनी वॉन्ग के साथ एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी।
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनसे कनाडा और भारत के रिश्तों में मौजूदा तनाव के बारे में सवाल किए गए थे।
विदेश मंत्री एस। जयशंकर से खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह नि’जर की हत्या को लेकर भारत पर लगाए जा रहे कनाडा के आरोप के बारे में पूछा गया था।
कनाडा का कहना है कि नि’जर की हत्या में भारत के एजेंटों का हाथ है।
इस सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा था कि 'कनाडा ने ये आरोप बगैर किसी सुबूत मुहैया कराए ही लगाए हैं, जो भारत के लिए अस्वीकार्य है। भारत को ये भी नामंज़ूर है कि कनाडा उसके राजनयिकों को निगरानी में रखे।’
कनाडा की ओर से लगाए जा रहे आरोपों के बारे में पूछे गए सवाल पर विदेश मंत्री ने कहा, ‘हम तीन टिप्पणियां करेंगे। पहली ये कि कनाडा ने एक ख़ास पैटर्न विकसित कर लिया है और वो है बगैर किसी पक्के सुबूत के आरोप लगाना।’
‘दूसरी, वो हमारे राजनयिकों पर निगरानी रख रहा है, जो भारत को नामंज़ूर है। तीसरी, वो घटनाएं (कनाडा में मंदिर पर होने वाले हमलों) जो वीडियो में दिख रही हैं। मुझे लगता है कि आपको इससे पता चलेगा कि कैसे कनाडा में अतिवादी ताकतों को राजनीतिक स्पेस दिया जा रहा है।’
जयशंकर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में ये भी कहा था कि भारत आजादी में विश्वास करता है लेकिन इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। ऑस्ट्रेलिया ने इस सवाल पर ऑस्ट्रेलिया से भी बात की है।
भारत-कनाडा के बिगड़ते रिश्ते
साल 202& के जून महीने में 45 साल के हरदीप सिंह नि’जर की वैंकूवर के नज़दीक बंदूकधारियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। कनाडा के प्रधानमंत्री ने इस हत्या के पीछे भारत का हाथ होने का आरोप लगाया था।
इसके बाद ही भारत और कनाडा के रिश्तों में तनाव दिख रहा है। हाल के दिनों में भारत और कनाडा के बीच तनाव तब और चरम पर पहुंच गया जब अमेरिकी अख़बार ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ ने सूत्रों के हवाले से लिखा था कि भारत के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कनाडा में सिख अलगाववादियों के खिलाफ अभियान के ऑर्डर दिए थे। इस साल 29 अक्टूबर को इस मामले ने फिर तूल पकड़ा जब कनाडा सरकार के उप विदेश मंत्री डेविड मॉरिसन ने देश की नागरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा कमेटी को बताया कि भारत सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री ने कनाडाई नागरिकों को धमकी देने या उनकी हत्या के अभियान को मंजूरी दी थी। और उन्होंने ये जानकारी ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ को मुहैया कराई थी।
कनाडा में ख़ालिस्तान समर्थकों की ओर से भारत विरोधी प्रदर्शनों और खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह नि’जर की हत्या के बाद दोनों देशों के रिश्तों में तनाव लगातार बढ़ा है।
कनाडा का आरोप है कि खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह नि’जर की हत्या में भारत का हाथ है, जबकि भारत इससे इनकार करता रहा है।
इस मामले में दोनों देशों के बीच तल्खी इतनी बढ़ी कि पिछले दिनों दोनों देशों ने एक दूसरे के कई राजनयिकों को निकाल दिया।
एक-दूसरे के राजनयिकों को निकालने का फ़ैसला तब सामने आया है जब नि’जर हत्या मामले में कनाडा ने भारतीय राजनयिकों और उ‘चायोग के दूसरे अधिकारियों को ‘पर्सन्स ऑफ़ इंटरेस्ट’ बताया। इनमें कनाडा में भारत के उ‘चायुक्त रहे संजय कुमार वर्मा प्रमुख रूप से शामिल थे।
कनाडा में ‘पर्सन्स ऑफ़ इंटरेस्ट’ उसे कहा जाता है जिसको लेकर जांचकर्ता मानते हैं कि उस शख़्स को किसी अपराध की महत्वपूर्ण जानकारी है।
सितंबर 202& में नि’जर की हत्या के बाद प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने देश की संसद में बयान दिया था कि कनाडा के पास इस अपराध में भारतीय अधिकारियों के शामिल होने के ‘ठोस सबूत’ हैं। हालांकि उस समय भी कनाडा सरकार ने कोई ठोस पेश नहीं किया था।
भारत ने इस दावे को सिरे से खारिज करते हुए कनाडा से सबूत की मांग की थी।
इस बार भी कनाडा के उ‘चायुक्त को देश से निकालने की घोषणा के बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में कहा था कि ट्रूडो सरकार ने भारतीय अधिकारियों के खिलाफ अपने आरोपों के समर्थन में भारत को ‘सबूत का एक टुकड़ा’ तक नहीं दिखाया था।
विदेश मंत्रालय ने कनाडा को लेकर ये भी कहा था कि वो ‘राजनीतिक लाभ के लिए भारत को बदनाम कर रहा है।’
भारत को सबूत नहीं भेजे लेकिन कनाडा अपने रुख पर कायम
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो अब भी इस बात पर कायम हैं कि हरदीप सिंह नि’जर की हत्या में भारतीय एजेंटों का हाथ है।
लेकिन पिछले पखवाड़े राजनयिकों को निकाले जाने के मामले के तूल पकडऩे के बाद ट्रूडो ने कहा था वो अपने आरोपों पर कायम है।
लेकिन उनके पास ‘साक्ष्यपूर्ण सबूत’ नहीं हैं। पहली बार जब उन्होंने इस मामले पर सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाए थे उस समय तक उनके पास सिर्फ खुफिया जनाकारी थी।
विदेशी हस्तक्षेप आयोग के समक्ष गवाही देते हुए उन्होंने स्वीकार किया था कि कनाडा ने भारत के साथ कोई सबूत साझा नहीं किया है, बल्कि केवल साथ काम करना चाहता है और भारत सबूत मांगता रहा।
उन्होंने कहा था, ‘हमारा जवाब था, ठीक है, यह (सबूत) आपकी सुरक्षा एजेंसियों के पास है।’ (bbc.com/hindi)
ट्रंप की बाजीगरी कामयाब रही. 2020 की हार को पीछे छोड़कर उन्होंने बड़े अंतर से जीत दर्ज की है. भले कई लोग इससे हैरान हों, लेकिन जमीनी हवा पहले से ही ट्रंप की जीत का संकेत दे रही थी. किन मुद्दों ने लिखी जीत की स्क्रिप्ट?
पढ़ें डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी रिपोर्ट
अमेरिका में इस साल पूर्व राष्ट्रपति की हत्या के दो प्रयासों, प्रचार के बीच एक राष्ट्रपति उम्मीदवार के अपने कदम वापस खींच लेने, 10 अरब अमेरिकी डॉलर से ज्यादा के खर्च और बेहद विवादित प्रचार अभियान के बाद आखिरकार डॉनल्ड ट्रंप अमेरिकी चुनाव 2024 जीतकर राष्ट्रपति बन ही गए। यह जीत ऐतिहासिक है। करीब 230 साल के अमेरिकी लोकतंत्र के इतिहास में डॉनल्ड ट्रंप से पहले सिर्फ एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने चुनाव हारने के बाद फिर जीत हासिल की है। वो भी 131 साल पहले।
डेमोक्रेटिक पार्टी के ग्रोवर क्लीवलैंड 1885 से 1889 तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहने के बाद रिपब्लिकन पार्टी के बेंजामिन हैरिसन से चुनाव हार गए थे। चार साल बाद वह फिर से हैरिसन के खिलाफ ही चुनाव लड़े और उन्हें भारी अंतर से मात दी। अब ट्रंप इस लीग में शामिल होने वाले दूसरे राष्ट्रपति बन गए हैं।
महंगाई सबसे बड़ी वजह
करीब 10 दिनों से अमेरिकी चुनावों से जुड़े मुद्दों और इसके भविष्य की चर्चा करते हुए ट्रंप की जीत बहुत मुश्किल नहीं लगती थी। हां, बातचीत सिर्फ अमेरिका के पूर्वी छोर तक सीमित थी तो ऐसा लगता था कि शायद बाकी अमेरिका में कुछ अलग माहौल हो। नतीजे ये दिखाते हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं था। बल्कि कई पोल का इस्तेमाल सिर्फ ये दिखाने के लिए किया गया कि कमला हैरिस रेस में हैं। अमेरिकी सडक़ों पर आपको वही माहौल मिलता था, जो रिजल्ट में दिख रहा है।
ट्रंप की इस जीत का श्रेय सिर्फ श्वेत समुदाय को ही नहीं, बल्कि अमेरिका के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले आप्रवासियों, अरब-मुस्लिम समुदाय (जिन्होंने ‘कमला को छोड़ो’ अभियान चलाया) और कुछ हद तक दक्षिण एशियाई-भारतीय समुदाय के लोगों को भी जाता है। अलग-अलग मौकों पर जब आप्रवासियों से बात हुई, तब उन्होंने यही कहा कि जिस तरह से महंगाई बढ़ी है, इसे संभालने के लिए वो ट्रंप पर भरोसा करते हैं। ज्यादातर लोग ट्रंप के समय अलग-अलग उत्पादों की कीमतों की चर्चा करते और अब उनके दामों में आ चुके अंतर का जिक्र करते।
ग्लोबल सप्लाई चेन की समस्या
अमेरिका ने चीन से कटते हुए ज्यादातर आयात को कनाडा और मेक्सिको पर केंद्रित कर लिया है। यह बदलाव इतनी तेजी से हुआ कि कई लोग आश्चर्य में थे। हालांकि, कोरोना महामारी के बाद वैश्विक सप्लाई चेन में आए बदलावों को तेजी से समझ पाने में बाइडेन प्रशासन नाकाम रहा था। ऐसे में ज्यादातर सामानों के दाम तेजी से बढ़े। इसके चलते राष्ट्रपति जो बाइडेन के ज्यादातर कार्यकाल में लोग चीजों की ऊंची कीमतों से जूझते रहे।
इसी दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मैक्रो तस्वीर बेहतर हो रही थी। अर्थव्यवस्था बेहतर विकास दर से बढ़ रही थी और शेयर मार्केट भी अच्छा कर रहा था, लेकिन आम लोगों का मानना था कि उन्हें इसका कोई फायदा नहीं हो रहा।
वर्जीनिया में रहने वाले इमरान इन समस्याओं के बीच बाइडेन से ठीक पहले के ट्रंप के कार्यकाल को याद करते हैं। वह अमेरिका में दूसरी पीढ़ी के पाकिस्तानी हैं। डीडब्ल्यू हिन्दी से बातचीत में इमरान ने बताया कि उनकी नौकरी चली गई थी, लेकिन ट्रंप की ओर से मिलने वाली आर्थिक राहत के चलते उनका घर चलता रहा। चुनाव से पहले हुई बातचीत में उन्होंने ट्रंप को ही बेहतर राष्ट्रपति बताया।
छोटे कारोबारियों को आशा
कई छोटे कारोबारी आशा लगाए हुए थे कि ट्रंप आएंगे, तो वो अपने कारोबार में विस्तार करेंगे। उन्हें उम्मीद है कि चीन से मिलने वाली प्रतिद्वंद्विता से ट्रंप उनकी बेहतर रक्षा करेंगे। हालांकि, अमेरिका में कच्चे माल का उपलब्ध होना बहुत महंगा है लेकिन वो मेक्सिको या अमेरिकी महाद्वीप के ही अन्य देशों से कच्चा माल हासिल कर अमेरिका में अपने उत्पादन को बढ़ाना चाह रहे हैं। इन कारोबारियों का मानना है कि ट्रंप इसमें पूरी तरह से मददगार होंगे।
भारतीय मूल के कारोबारी भूपिंदर सिंह न्यू जर्सी में अपना टीशर्ट प्रिटिंग का कारोबार करते हैं। उन्होंने बताया कि उनके बिजनेस के लिए जरूरी रंगों के दाम पिछले वर्षों में कई गुना बढ़ते चले गए। बाइडेन-हैरिस प्रशासन ने कीमतों पर लगाम लगाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। ट्रंप के कार्यकाल में ही अमेरिका की मुक्त व्यापार की नीति खत्म हो गई थी। बाइडेन ने उसे आगे बढ़ाने का ही काम किया था, लेकिन छोटे व्यापारी फिर से ट्रंप को चाह रहे थे। उन्हें लगता है कि डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका के छोटे कारोबारों को बेहतर संरक्षण दिलाएंगे।
शरणार्थियों की समस्या
डोमिनिकन रिपब्लिक से आए आप्रवासी मिगेल, न्यू यॉर्क में टैक्सी चलाते हैं। उन्होंने बताया कि उनकी बच्ची के स्कूल में इंक्लूसिविटी प्रोग्राम का खर्च उठाने के लिए बास्केटबॉल के खेल को बंद कर दिया गया। मिगेल बताते हैं कि न्यू यॉर्क की सडक़ों पर कचरा पेटियों से खाना बीनकर खा रहे लोग, कभी शरणार्थियों की तरह ही अमेरिका में दाखिल हुए थे।
ज्यादातर अमेरिकी मानते हैं कि बड़ी संख्या में अमेरिका आ रहे शरणार्थी घरों की उपलब्धता, कानून व्यवस्था, सरकारी खर्च और संसाधनों के बंटवारे में बाधा खड़ी करते हैं। अमेरिका में पिछले वित्तीय वर्ष में एक लाख से ज्यादा शरणार्थियों को बसाया गया। यह 1995 के बाद से अब तक की सबसे बड़ी संख्या थी। अमेरिकी वित्तीय वर्ष 1 अक्टूबर से 30 सितंबर तक होता है।
डॉनल्ड ट्रंप का प्रभावी व्यक्तित्व
डॉनल्ड ट्रंप और कमला हैरिस की कहानी में बड़ा अंतर रहा। डॉनल्ड ट्रंप, मीडिया मैग्नेट थे, हैं और लगता है रहेंगे। उनके बारे में कही बात अच्छी हो या बुरी, लेकिन उनपर लगातार कुछ बात होती रहती है। ट्रंप चर्चा में बने रहना पसंद करते हैं, जबकि कमला हैरिस की छवि एक गंभीर वकील की रही है। हालांकि, उनकी मुक्त हंसी यह छवि तोड़ती रही है।
चुनाव प्रचार के दौरान कमला हैरिस से प्रेसिडेंशियल डिबेट के बाद ट्रंप काफी पीछे हो गए थे। यानी कोई दो राय नहीं कि कमला हैरिस की बातें ट्रंप से ज्यादा तर्कशील थीं, पर ट्रंप मंझे हुए कारोबारी हैं और लोगों को सपने बेचना जानते हैं। तभी तो तमाम असफल कारोबार कर चुके ट्रंप अब भी सफल कारोबारी ही माने जाते हैं। ऐसे में वो लोगों को अपनी करिश्माई छवि एक बार फिर से बेच पाने में सफल रहे।
रूढि़वादी अमेरिका
चुनाव प्रचार के दौरान डॉनल्ड ट्रंप ने जिन मुद्दों को आगे रखा, सारे आम जनमानस को प्रभावित करने (कई बार उकसाने वाले भी) वाले मुद्दे रहे। मसलन अर्थव्यवस्था, महंगाई, कारोबार और शरणार्थी। जबकि कमला हैरिस ने अबॉर्शन, एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अधिकारों, पर्यावरण जैसे मुद्दों को भी चुनाव प्रचार में शामिल किया। नतीजे दिखाते हैं कि ट्रंप जिन मुद्दों पर बात कर रहे थे, वो लोगों के रोजमर्रा के मुद्दे थे। इन मुद्दों ने लोगों को ज्यादा प्रभावित किया।
जिस तरह का चुनाव प्रचार हुआ, उसमें कमला हैरिस के मुद्दों का इस्तेमाल ट्रंप और उनके समर्थकों ने उपराष्ट्रपति को निशाना बनाने के लिए ही किया। डोमिनिकन रिपब्लिक के मिगेल कमला हैरिस को इसलिए भी पसंद नहीं करते कि वो एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का समर्थन करती हैं। मिगेल को डर है कि बास्केट बॉल खेलने वाली उनकी 12 साल की बेटी एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का हिस्सा ना बन जाए।
अमेरिका में प्रवासी और शरणार्थी पृष्ठभूमि के लोग भारी संख्या में हैं। इनमें से ज्यादातर बेहद पारंपरिक और कई बार रूढि़वादी सोच भी रखते हैं। ट्रंप के प्रचार अभियान ने ऐसे लोगों और इनमें भी खासकर पुरुषों को प्रभावित करने का हर संभव प्रयास किया। जाहिर है, वो इसमें सफल भी रहे।
हालांकि, इस पूरे चुनाव में जिस मुद्दे की सबसे बड़ी हार हुई, वह है जलवायु परिवर्तन का मुद्दा। ऐसा मानना है यूनिवर्सिटी ऑफ मैरी वॉशिंगटन में असोसिएट प्रोफेसर सुरूपा गुप्ता का। उन्होंने डीडब्ल्यू हिन्दी से बातचीत में कहा कि रिपब्लिकन और खुद ट्रंप इसे मुद्दा ही नहीं मानते। ऐसे में अमेरिका इस मुद्दे पर अब कई साल पिछड़ जाएगा। पेरिस जलवायु सम्मेलन में तय हुए लक्ष्यों को हासिल करने से लगातार दूर हो रही दुनिया के लिए यह एक और बड़ी चोट होगी। (dw.comhi)
-सुदीप ठाकुर
अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेट कमला हैरिस के मुकाबले रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप की जीत आठ साल पहले हुए राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप को मिली जीत से एकदम अलग है। इसके अमेरिका के आंतरिक कारण भी हैं और वैश्विक कारण भी।
वास्तव में 2016 में डोनाल्ड ट्रंप की जीत को अमेरिका के बड़े अखबार डिजास्टर की तरह देख रहे थे। उनका चार साल का कार्यकाल विवादों में रहा। चार साल बाद 2020 में वह चुनाव हार गए। लेकिन इन आठ सालों में अमेरिका में बहुत कुछ बदल चुका है।
नवंबर, 2016 में डोनाल्ड ट्रंप ने पहली बार राष्ट्रपति का चुनाव जीता था, लेकिन जीत के बावजूद उन्हें विरोध का सामना करना पड़ रहा था। इस विरोध को देखने का मुझे भी मौका मिला था। दिसंबर, 2016 में अमेरिका के फॉरेन मीडिया विभाग ने कुछ भारत के हिंदी और अंग्रेजी के चुनिंदा अखबारों और टीवी चैनलों के पत्रकारों को आमंत्रित किया था, जिसमें अमर उजाला के पत्रकार के रूप में मैं भी शामिल था।
चार दिसंबर 2016 को जब हम लोग न्यूयॉर्क पहुंचे थे, तब राष्ट्रपति चुनाव को मुश्किल से एक महीना हुआ था और चूंकि अमेरिकी परंपरा के मुताबिक नए राष्ट्रपति जनवरी में कार्यभार संभालते हैं, तो डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति के रूप में काम शुरू नहीं किया था। भारतीय पत्रकारों के दल को यों तो अमेरिकी के स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत आमंत्रित किया गया था, लेकिन हमें न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में पावर सेंटर को क़रीब से देखने का मौका भी मिला। बढ़ती सिहरन के बीच दिसंबर की एक दोपहर हम लोग न्यूयॉर्क स्थित ट्रंप टावर के सामने थे।
हमारी स्वाभाविक उत्सुकता अमेरिका के नए राष्ट्रपति के इस संस्थान को देखने में थी। न्यूयॉर्क स्थित 58 मंजिला ट्रंप टावर एक व्यावसायिक परिसर है, और यह बताने की जरूरत नहीं कि ट्रंप राजनेता से पहले एक कारोबारी हैं।
इस टावर में किसिम किसिम के शो रूम के साथ ही पब भी है, जहां हमारे कुछ साथियों ने बियर की चुस्कियों के बीच नए राष्ट्रपति की मौज ली। हमें यह भी पता चला कि उस वक्त ट्रंप इस परिसर में स्थित एक आवासीय फ्लैट में मौजूद हैं, हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हो सकी।
लेकिन ट्रंप टावर के बाहर का नजारा एकदम अलग था। अमेरिका के नए राष्ट्रपति के निजी परिसर से मुश्किल से सौ मीटर की दूरी पर डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने के विरोध में प्रदर्शन चल रहा था। लोग ट्रंप के खिलाफ नारे लगा रहे थे। अनेक लोग तख्तियां थामे खड़े थे जिनमें लिखा था, टूरिस्ट ट्रंप टावर इज नॉट अमेरिका....।
यह अमेरिकी लोकतंत्र का वह चेहरा था, जिसका जिक्र अक्सर हम सुनते आए हैं। लोकतंत्र का यह चेहरा वाकई आकर्षित करने वाला था, क्योंकि हम अपने यहां प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति तो छोड़ दें, किसी मंत्री के घर के इतने नजदीक इस तरह के प्रदर्शन की उम्मीद नहीं कर सकते।
इस पर भी हैरत हो सकती है कि सुरक्षा बल इन प्रदर्शनकारियों को वहां से खदेड़ नहीं रहे थे। निस्संदेह यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन था। इसके बावजूद अमेरिकी लोकतंत्र में सब कुछ ठीक ठाक नहीं है।
दरअसल अमेरिकी लोकतंत्र "अमेरिका फर्स्ट" तक ही सीमित है। वरना तो क्या डेमोक्रेट और क्या रिपब्लिकन राष्ट्रपति...अंततः वह वही करते हैं, जो अमेरिका के हित में सर्वोपरि हो चाहे पूरी दुनिया को उसकी कुछ भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। इन आठ सालों में अमेरिका और संकुचित हुआ है, अमेरिका और ज्यादा अमेरिका हो गया है, इतना कि शायद अब ट्रंप टॉवर के बाहर कोई खड़ा होकर चिल्लाने लगे कि ट्रंप टावर इज अमेरिका!
-उमंग पोद्दार
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक अहम फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि सभी निजी संपत्ति को सरकार नहीं ले सकती है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने 1978 में दिए गए अपने ही फ़ैसले को पलट दिया। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली 9 जजों की बेंच ने 7-2 के बहुमत से यह फ़ैसला दिया है।
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस हृषिकेश रॉय, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस एससी शर्मा और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह इस फ़ैसले पर एकमत थे।
वहीं जस्टिस बी।वी नागरत्ना फैसले से आंशिक रूप से सहमत थे जबकि जस्टिस सुधांशु धूलिया ने सभी पहलुओं पर असहमति जताई।
अपने फ़ैसले में बेंच ने कहा, ‘हर निजी संपत्ति को सामुदायिक संपत्ति नहीं मान सकते हैं। कुछ ख़ास संपत्तियों को ही सरकार सामुदायिक संसाधन मानकर इसका इस्तेमाल आम लोगों के लिए कर सकती है।’
बेंच ने साल 1978 में दिए जस्टिस कृष्ण अय्यर के उस फ़ैसले को खारिज़ कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को राज्य सरकारें अधिग्रहण कर सकती हैं।
चीफ जस्टिस ने कहा कि पुराना फ़ैसला ख़ास आर्थिक और समाजवादी विचारधारा से प्रेरित था। हालांकि राज्य सरकारें उन संसाधनों पर दावा कर सकती हैं, जिन्हें समुदाय, सार्वजनिक भलाई के लिए रख रहा है।
आमतौर पर 9 जजों की बेंच बहुत कम ही देखने को मिलती है। आज तक महज़ 17 मामलों में ही ऐसा देखा गया है।
ऐसी बेंच आमतौर पर संवैधानिक महत्व से जुड़े सवालों पर फ़ैसला लेने के लिए बनाई जाती है। आज़ादी के बाद से ही निजी संपत्ति और उसके अधिग्रहण पर विवाद होता आया है।
हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान यह मुद्दा काफ़ी गरमा गया था। जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी संपत्ति का अधिग्रहण कर बाँटना चाहती है।
हालांकि कांग्रेस के घोषणापत्र में ऐसा कोई दावा नहीं किया गया था।
संविधान का अनुच्छेद 39बी
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39(बी) के मुताबिक़, सरकार की नीतियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ‘समाज के संसाधनों’ को इस तरह से बाँटा जाए कि वे सभी के भलाई के काम आएं। इस सिद्धांत के आधार पर ही सरकार को अपनी नीति बनानी चाहिए। जिसका इस्तेमाल करते हुए सरकार ने संपत्ति पर नियंत्रण रखने के लिए कई क़ानून बनाए हैं।
इस मामले से जुड़े सीनियर वकील अंध्यारुजिना ने कहा, ‘इस फै़सले का असर केवल संपत्ति क़ानूनों पर नहीं बल्कि दूसरे क़ानूनों पर भी पड़ेगा।’
इसी मामले से जुड़े दूसरे वकील निपुण सक्सेना ने कहा, ‘संविधान के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए पहले भी कई तरह के क़ानून बनाए गए हैं, जैसे कोयले का राष्ट्रीयकरण, ज़रूरी चीज़ों के लिए क़ीमतों को तय करना। इसलिए इस फ़ैसले का बहुत ज़्यादा असर होगा।’
संपत्ति का अधिकार
आइए इस जटिल मुद्दे को समझने के लिए इतिहास में वापस जाते हैं।
संपत्ति के अधिकार को भारतीय संविधान में एक मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया था।
अनुच्छेद 19(1)(एफ), सभी नागरिकों को संपत्ति को इक_ा करने, उसे रखने और बेचने का अधिकार देता था। लेकिन अनुच्छेद 31 ने सरकार को ‘सार्वजनिक उद्देश्यों’ के लिए संपत्ति पर कब्ज़ा करने का अधिकार दिया।
एक तरफ़, समय के साथ सरकार ने संपत्ति अर्जित करने के उसके अधिकार को बचाने के लिए संविधान में कई संशोधन किए। वहीं दूसरी तरफ, न्यायपालिका ने नागरिकों की संपत्ति के अधिकार की रक्षा के लिए कई ऐतिहासिक फ़ैसले सुनाए।
साल 1978 में, जनता पार्टी की सरकार ने संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटाकर संवैधानिक अधिकार में बदल दिया।
संवैधानिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों की तुलना में कम सुरक्षा मिलती है।
मौजूदा समय में संपत्ति का अधिकार महज़ अनुच्छेद 300 ए के तहत एक संवैधानिक अधिकार है। वहीं कई तरह के क़ानून हैं, जैसे कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, जो अलग-अलग हालात में सरकार को संपत्ति पर कब्जा करने की शक्ति देते हैं।
संपत्ति अधिग्रहण करने का मामला हमेशा विवादों से भरा रहा है। जब 2013 में कांग्रेस की यूपीए सरकार ने एक नया भूमि अधिग्रहण क़ानून लाना चाहा, तो उन्हें कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। इसी तरह, बीजेपी की एनडीए सरकार इस क़ानून में बदलाव लाना चाहती थी लेकिन वे ऐसा करने में नाकाम रही।
क्या मामला है?
मौजूदा मामला, महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास अधिनियम (एमएचएडीए) में 1986 में किए गए संशोधन से जुड़ा है।
इस संशोधन में, राज्य सरकार के नियंत्रण वाली मुंबई बिल्डिंग रिपेयर एंड रिकंस्ट्रक्शन बोर्ड को कुछ पुरानी संपत्तियों को अधिग्रहित करने की अनुमति दी गई थी।
यह अनुमति इसलिए दी गई थी क्योंकि संपत्तियों के मालिक उनकी मरम्मत नहीं कर रहे थे और वे ढहने के कगार पर थी।
इस संशोधन से बोर्ड को उन पुरानी इमारतों की मरम्मत और उनके दोबारा निर्माण करने की शक्ति मिली। जिसे करने के बाद बोर्ड उन संपत्तियों को वहां रहने वाले किरायेदारों की सहकारी समिति को सौंप सकता था।
यह स्कीम उन इमारतों पर लागू होती है, जो कम से कम 60 साल पुरानी हो और सरकार को टैक्स देती हो। 1997 तक, महाराष्ट्र में ऐसी 15,000 से ज़्यादा इमारतें थीं।
मुंबई में 28,000 मकान मालिकों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था, प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन (पीओए) ने 1991 में बॉम्बे हाई कोर्ट में इस क़ानून को चुनौती दी। लेकिन कोर्ट ने उनकी याचिका को ख़ारिज कर दिया।
जिसके बाद संस्था ने 1992 में सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया।
दोनों पक्षों ने क्या दलील दी?
मकान मालिकों ने दलील दी कि ये निजी संपत्तियां समाज के संसाधन नहीं है और न तो इन संपत्तियों का अधिग्रहण लोगों की भलाई के लिए किया जा रहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा दिया जाने वाला मुआवजा भी बहुत कम है।
हालांकि, महाराष्ट्र सरकार और हाउसिंग अथॉरिटी ने कहा कि यह क़दम लोगों के हितों को बचाने के लिए लिया गया था।
वैसे तो यह क़ानून कांग्रेस सरकार लाई थी लेकिन शिव सेना (शिंदे) और बीजेपी सरकार ने भी इसका बचाव किया है।
सरकार ने कहा कि मुंबई में आवास की बहुत समस्या है। मकान मालिक इन इमारतों की मरम्मत नहीं कर रहे थे क्योंकि मालिकों के पास दूसरी जगह जाने का कोई रास्ता नहीं था। इसलिए इस क़ानून को लाना ज़रूरी था।
आखिरकार, इस मामले को साल 2002 में नौ जजों की बेंच के पास भेज दिया गया।
यह फैसला जरूरी क्यों है?
यह फ़ैसला महज़ महाराष्ट्र के इस कानून पर ही नहीं असर डालेगा। बल्कि यह इस बात पर भी प्रभाव डालेगा कि देश में कोई भी सरकारी संस्था कब और किस हद तक निजी संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती है।
हालांकि अब भी सरकार भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 जैसे क़ानूनों के तहत संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती है।
इंदिरा गांधी द्वारा लाया गया संविधान का अनुच्छेद 31 सी कहता है कि अगर संपत्ति को लोगों की भलाई के लिए अधिग्रहित किया जाता है, तो वह समानता जैसे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं करता है।
यह अनुच्छेद 1969 में लाया गया था, जब अदालत ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फ़ैसले को रद्द कर दिया था। जिसके बाद 1976 में इंदिरा गांधी सरकार ने अनुच्छेद 31 सी का दायरा बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे ख़ारिज कर दिया। (bbc.com/hindi)
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के बाद मतगणना पूरा हो चुका है, और डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं।
ट्रंप 2017 से 2021 तक अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति रह चुके हैं। उनकी नीतियां पूरी दुनिया जानती है और भारत की नरेंद्र मोदी सरकार के पास ट्रंप से कई मोर्चों पर डील करने का अनुभव है।
इस बार फिर ट्रंप जीतते हैं तो भारत पर क्या असर होगा?
नरेंद्र मोदी को ट्रंप कई बार अपना दोस्त बता चुके हैं लेकिन इसके साथ ही भारत की नीतियों पर हमला भी बोलते रहे हैं। इस चुनाव में ट्रंप कई बार पीएम मोदी का नाम ले चुके हैं।
क्या ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत को लेकर राष्ट्रपति बाइडन की जो नीतियां थीं, वो बदल जाएंगी?
आर्थिक और कारोबारी रिश्ते
माना जा रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप जीते तो उनकी आर्थिक नीतियां ‘अमेरिका फस्र्ट’ पर केंद्रित होगी।
ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में अमेरिकी उद्योगों को संरक्षण देने की नीति अपनाई थी। उन्होंने चीन और भारत समेत कई देशों के आयात पर भारी टैरिफ़ लगाया था।
मिसाल के तौर पर भारत से अमेरिकी हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिलों पर टैरिफ हटाने या घटाने को कहा था।
ट्रंप ने अमेरिका फस्र्ट का नारा दिया है और वो अमेरिकी वस्तुओं और सेवाओं के आयात पर ज़्यादा टैरिफ लगाने वाले देशों के खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं। भारत भी इसके घेरे में आ सकता है।
अंतरराष्ट्रीय मामलों पर नजऱ रखने वाले पत्रकार शशांक मट्टू ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा है, ‘ट्रंप की नजर में भारत कारोबारी नियमों का बहुत ज्यादा उल्लंघन करता है। वो अमेरिकी चीज़ों पर भारत का बहुत ज़्यादा टैरिफ लगाना पसंद नहीं करते। ट्रंप चाहते हैं कि उनके देश से आयात होने वाली चीजों पर 20 फीसदी तक ही टैरिफ लगे।’
वो लिखते हैं, ‘कुछ अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि अगर ट्रंप के टैरिफ नियम लागू हुए तो 2028 तक भारत की जीडीपी में 0.1 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। भारत और अमेरिका के बीच 200 अरब डॉलर का कारोबार होता है। अगर ट्रंप ने टैरिफ की दरें ज्यादा बढ़ाईं तो भारत को काफी नुकसान हो सकता है।’
ट्रंप की कारोबारी नीतियों से भारत का आयात महंगा हो सकता है। ये महंगाई दर को बढ़ाएगा और इसे ब्याज दरों में ज्यादा कटौती नहीं हो पाएगी। इससे उपभोक्ताओं ख़ास कर मध्य वर्ग की मुश्किलें बढ़ सकती हैं क्योंकि उनकी ईएमआई बढ़ सकती हैं।
रक्षा संबंध
डोनाल्ड ट्रंप चीन के कट्टर विरोधी माने जाते हैं। उनके पहले कार्यकाल में अमेरिका और चीन के रिश्ते काफी खराब हो गए थे।
ये स्थिति भारत और अमेरिका के बीच रक्षा संबंधों को और मज़बूत करेगी। अपने पहले कार्यकाल के दौरान वो क्वाड को मज़बूती देने के लिए काफ़ी सक्रिय दिखे थे। क्वाड एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, भारत और जापान का गठजोड़ है।
ट्रंप राष्ट्रपति बनते हैं तो भारत के साथ हथियारों के निर्यात, संयुक्त सैन्य अभ्यास और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर में दोनों देशों के बीच ज़्यादा अच्छा तालमेल दिख सकता है। ये चीन और पाकिस्तान के खिलाफ भारत की स्थिति ज्यादा मजबूत कर सकता है।
अमेरिकी थिंक टैंक रैंड कॉर्पोरेशन में इंडो पैसिफिक के एनालिस्ट डेरेक ग्रॉसमैन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘अगर ट्रंप जीते तो भारत और अमेरिका की मौजूदा रणनीति जारी रहेगी। इसमें ज्यादा मूल्यों को बात नहीं होगी। कुल मिलाकर ट्रंप राष्ट्रपति बनते हैं तो इस मामले में भारत फायदे में रहेगा।’
शशांक मट्टू लिखते हैं,‘ट्रंप ने राष्ट्रपति रहते हुए भारत के साथ बड़े रक्षा समझौते किए थे। उन्होंंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अच्छे संबंध बनाए और चीन के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार किया।’
ट्रंप की वीजा नीति
ट्रंप की नीतियां प्रवासियों के लिए काफी मुश्किलें पैदा कर सकती हैं। ट्रंप इस मामले में काफी मुखर हैं और यह अमेरिकी चुनाव का अहम मुद्दा है।
ट्रंप ने अवैध प्रवासियों को वापस उनके देश भेजने का वादा किया है। उनका कहना है कि अवैध प्रवासी अमेरिका के लोगों के रोजग़ार खा रहे हैं।
बड़ी संख्या में भारतीय अमेरिका के टेक्नोलॉजी सेक्टर में काम करते हैं और वो वहाँ एच-1 बी वीजा पर जाते हैं। ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल एच-1बी वीजा नियमों पर सख्ती दिखाई थी।
इसका भारतीय पेशेवरों और टेक्नोलॉजी कंपनियों पर असर दिखा था।
अगर ये नीति जारी रही भारतीयों के लिए अमेरिका में नौकरियों के अवसर कम होंगे।
कड़ी प्रवास नीति भारतीय टेक्नोलॉजी कंपनियों को अमेरिका को छोडक़र दूसरे देशों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है।
मानवाधिकार का मुद्दा
ट्रंप ने भारत में मानवाधिकार के रिकॉर्ड पर अब तक कुछ नहीं कहा है। ये भारत की मोदी सरकार के लिए अनुकूल स्थिति है।
कश्मीर में पुलवामा अटैक के दौरान भी ट्रंप ने भारत के ‘आत्मरक्षा के अधिकार’ का समर्थन किया था।
हालांकि बाइडन प्रशासन मानवाधिकार और लोकतंत्र के सवाल पर भारत के खिलाफ ज्यादा मुखर रहा है।
कमला हैरिस ने 2021 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा था, ‘अपने-अपने देशों में हम लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संस्थानों की रक्षा करें ये जरूरी है।’
डेमोक्रेटिक पार्टी के शासन में लोकतंत्र और मानवाधिकार के मुद्दे पर ज्यादा जोर रहा है। ट्रंप की तुलना में डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों के लिए ये ज्यादा प्राथमिकता वाले मुद्दे रहे हैं।
चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश पर क्या करेंगे ट्रंप
कमला हैरिस और ट्रंप दोनों चीन को रोकना चाहेंगे और इसके लिए एशिया में उसका सबसे मुफीद पार्टनर भारत है।
ट्रंप जीतते हैं तो चीन के खिलाफ भारत के साथ उनका रणनीतिक सहयोग और मजबूत होगा। लेकिन ट्रंप अमेरिका के सहयोगी देशों के खिलाफ भी झगड़ते दिखे हैं।
शशांक मट्टू इस मामले में ट्रंप के शासन में जापान और दक्षिण कोरिया के साथ रिश्तों में तनाव की याद दिलाते हैं।
वो लिखते हैं, ‘ये भी साफ नहीं है कि वो चीन की खिलाफ ताइवान का बचाव करेंगे कि नहीं। इस तरह के रुख से एशिया में अमेरिका का गठबंधन कमजोर होगा। इससे चीन की स्थिति मजबूत होगी, जो भारत के पक्ष में नहीं है।’
‘उन्होंने कश्मीर के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता का भी प्रस्ताव दिया था,जो भारत को पसंद नहीं आया था। उन्होंने तालिबान से समझौता कर अफग़ानिस्तान से अमेरिकी फौजों को बुला लिया। अमेरिका का ये दांव दक्षिण एशिया में भारत के हितों के खिलाफ पड़ा।’
बांग्लादेश के सवाल पर ट्रंप ने खुलकर भारत का साथ दिया है। ट्रंप ने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर सवाल उठाया था।
हाल ही में उन्होंने बांग्लादेश में हिंदुओं, ईसाइयों और दूसरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लिखा था, ‘मैं बांग्लादेश में हिंदू, ईसाई और दूसरे अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा और भीड़ की लूट की कड़ी निंदा करता हूं। इस समय बांग्लादेश में पूरी तरह अराजकता की स्थिति है।’
उन्होंने लिखा, ‘अगर मैं राष्ट्रपति रहता तो ऐसा कतई नहीं होता। कमला और जो बाइडन ने पूरी दुनिया और अमेरिका में हिंदुओं की अनदेखी की है। इसराइल से लेकर यूक्रेन तक उनकी नीति भयावह रही है। लेकिन हम अमेरिका को एक बार फिर मजबूत बनाएंगे और शांति लाएंगे।’
उन्होंने आगे लिखा, ‘हम रेडिकल लेफ्ट के धर्म विरोधी एजेंडे से हिंदू अमेरिकी को बचाएंगे। अपने शासन में मैं भारत और दोस्त नरेंद्र मोदी के साथ संबंधों को और मज़बूत करूंगा।’
जहाँ तक पाकिस्तान का सवाल है तो विशेषज्ञों की नजर में अमेरिका इंडो-पैसिफिक नीति में इसे लेकर वो असमंजस की स्थिति में नजर आता है।
थिंक टैंक ‘द विल्सन सेंटर’ के दक्षिण एशियाई निदेशक माइकल कुगलमैन ने लिखा है, ‘अमेरिकी अधिकारी इस बात को लेकर भ्रम की स्थिति में हैं। अमेरिका की इंडो-पैसिफिक नीति में पाकिस्तान की जगह कहाँ है? पाकिस्तान चीन का दोस्त है और अमेरिका अब अफग़ानिस्तान को अपनी रणनीति का हिस्सा नहीं मानता है, क्योंकि वहाँ तालिबान है।’
माइकल कुगलमैन से जब भारत और रूस के रिश्तों पर अमेरिकी नज़रिये के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ट्रंप रूस और भारत के रिश्तों के प्रति ज़्यादा उदार हो सकते हैं। लेकिन भारत के साथ कारोबार और टैरिफ के मुद्दे पर वो कड़ा रुख अपना सकते हैं।
सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा है,
‘बाइडन प्रशासन के साथ भारत के नए तनावों ने उस पुरानी थिअरी को फिर से जिंदा कर दिया है कि रिपब्लिकन पार्टी के शासन में भारत अमेरिकी संबंध ज़्यादा अच्छे रहते हैं। लेकिन अमेरिका का चुनाव कोई भी जीते इसमें भारत कनेक्शन तो रहेगा। कमला हैरिस पहली भारतीय मूल की अमेरिकी राष्ट्रपति होंगी तो रिपब्लिकन पार्टी के उपराष्ट्रपति उम्मीदवार जेडी वेन्स की पत्नी उषा वेन्स भारतीय अमेरिकी महिला हैं।’
ट्रंप का कश्मीर पर रुख
ट्रंप का रुख पाकिस्तान को लेकर क्या होगा, इससे भी भारत के हित जुड़े हैं। 2019 के जुलाई महीने में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान अमेरिका के दौरे पर थे।
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप व्हाइट हाउस में इमरान खान की अगवानी कर रहे थे।
उसी दौरान ट्रंप ने कश्मीर पर मध्यस्थता की बात कही थी। ट्रंप ने यहाँ तक दावा कर दिया था कि पीएम मोदी भी चाहते हैं कि वो कश्मीर पर मध्यस्थता करें।
भारत ने ट्रंप के दावे को ख़ारिज कर दिया था और कहा था कि पीएम मोदी ने ट्रंप से ऐसा कुछ भी नहीं कहा था।
ऐसा दशकों बाद हुआ था, जब कोई अमेरिकी राष्ट्रपति ने कश्मीर पर मध्यस्थता की बात कही थी। पाकिस्तान ने ट्रंप के इस बयान का स्वागत किया था जबकि भारत के लिए यह असहज करने वाला था।भारत की आधिकारिक लाइन है कि कश्मीर पर किसी की मध्यस्थता को स्वीकार नहीं करेगा।
पाकिस्तान के सीनेटर मुशाहिद हुसैन सैयद मानते हैं कि ट्रंप का आना पाकिस्तान के हक में होगा। उन्होंने द इंडिपेंडेंट उर्दू से कहा, ‘मेरे हिसाब से ट्रंप पाकिस्तान के लिए बेहतर होंगे। इसराइल के मामले में कोई फर्क नहीं होगा। ट्रंप नई जंग शुरू नहीं करेंगे। अफग़़ानिस्तान से उन्होंने अपने सैनिकों को बुला लिया। ये काम न ओबामा कर सकते थे और न ही बाइडन। यूक्रेन की जंग भी ट्रंप ख़त्म करेंगे। ट्रंप पिछले 25 सालों में पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने कश्मीर पर मध्यस्थता की बात कही। इसके पहले विल क्लिंटन ने कश्मीर का जिक्र किया था।’
हुसैन ने कहा, ‘अतीत में भी रिपब्लिकन पार्टी पाकिस्तान के कऱीब रही है। अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी की सरकार पाकिस्तान के साथ हमेशा से रही है। इंदिरा गांधी बांग्लादेश अलग करने के बाद पाकिस्तान पर भी हमला करना चाहती थीं लेकिन राष्ट्रपति निक्सन ने ऐसा नहीं होने दिया था। हम अमेरिका से अपने फायदे के लिए सही से तोलमोल नहीं कर पा रहे हैं। अमेरिका ने इस इलाके में दो अहम फैसले किए हैं। एक यह कि उनका बेहतरीन साथी और रणनीतिक साझेदार भारत है और दूसरा ये कि उनका दुश्मन चीन है। ऐसे में हमें फैसला करना है कि क्या करना है। चीन हमारे साथ चट्टान के साथ खड़ा है लेकिन अमेरिका को जब हमारी जरूरत पड़ती है तो सशर्त साथ आता है।’ (bbc.com/hindi)
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने घर पर गणेश चतुर्थी के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पूजा में शामिल होने पर प्रतिक्रिया दी है।
अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के एक कार्यक्रम में इस संबंध में पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री उनके घर पर एक निजी इवेंट में आए थे। ये कोई सार्वजनिक कार्यक्रम नहीं था।
उन्होंने कहा, ‘मेरा मानना है कि इस मुलाक़ात में कुछ भी ग़लत नहीं है क्योंकि ये न्यायपालिका और कार्यपालिका बीच सामान्य मुलाक़ात है, भले ही ये सामाजिक स्तर पर क्यों न हो।’
चीफ जस्टिस डीवीआई चंद्रचूड़ 10 नवंबर को रिटायर होंगे। वो भारत के 50वें मुख्य न्यायाधीश हैं। जस्टिस संजीव खन्ना भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश होंगे।
इस साल 11 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीफ़ जस्टिस डीवीआई चंद्रचूड़ के घर गणेश चतुर्थी की पूजा में शामिल हुए थे।
लेकिन कई जाने-माने वकीलों, राजनीतिक दलों और उसके नेताओं ने इसकी आलोचना की थी। हालांकि जाने-माने वकीलों के एक वर्ग ने कहा था कि इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है।
‘हम वहाँ कोई सौदा करने के लिए नहीं थे’
प्रधानमंत्री से अपने घर में मुलाक़ात के सवाल पर चंद्रचूड़ ने कहा, ‘अदालत के कामों के लिए न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच बातचीत एक सामान्य अनिवार्यता है।’
उन्होंने कहा, ‘लोगों को ये समझना चाहिए सौदे (समझौते) इस तरह नहीं होते। इसलिए प्लीज, हमारा भरोसा कीजिए। हम वहाँ सौदा करने लिए नहीं थे।’
जस्टिस चंद्रचूड़ से पूछा गया कि प्रधानमंत्री के साथ उनकी जो तस्वीरें आईं उसमें वो क्या दूसरे जजों या विपक्ष के नेताओं को शामिल करना पसंद करते। इस पर उन्होंने कहा, ‘तब ये एक सेलेक्शन कमिटी की तरह लगता।’
उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज़ में इसका जबाव देते हुए कहा, ‘मैं विपक्ष के नेता को शामिल नहीं करता क्योंकि ये कोई केंद्रीय सतर्कता आयुक्त या सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति के लिए सेलेक्शन कमिटी की बैठक नहीं थी।’
हमने ‘ए’ से ‘जेड’ तक सबको बेल दी
कई मामलों में अदालत की ओर से बेल न दिए जाने के सवाल पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘ये गंभीर चिंता का विषय है। बेल नियम है और इसे अपवाद की तरह नहीं देखा जाना चाहिए लेकिन ये संदेश निचली अदालतों तक नहीं पहुँचा है। ऐसे में ये अदालतें ज़मानत देने में हिचकिचाती हैं।’
उन्होंने कहा, ‘जहाँ तक मेरा सवाल है तो मैंने सबको बेल दिया है- ए से जेड तक यानी अर्नब से लेकर ज़ुबैर तक। यही मेरा फलसफ़ा है।’
उन्होंने कहा कि मुख्य न्यायाधीश के उनके दो साल के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में ज़मानत के 21 हज़ार केस दर्ज हुए जबकि ज़मानत के 21358 केस निपटाए गए।
उनसे पूछा गया कि इससे पहले उन्होंने कहा था कि जनता की अदालतों पर विपक्ष की भूमिका अपनाने का दबाव है। इसका क्या मतलब है।
इस पर उन्होंने कहा, ‘अपना हित चाहने वाले समूहों, प्रेशर ग्रुप और कुछ समूहों की ओर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस्तेमाल करके कुछ ख़ास नतीजों पर पहुंचने के लिए अदालत पर दबाव डालने की कोशिश की जा रही है।’
‘स्वतंत्र न्यायपालिका का मतलब हमेशा सरकार के खिलाफ फैसला देना नहीं’
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि स्वतंत्र न्यायपालिका का मतलब ये नहीं होता कि अदालत हमेशा सरकार के खिलाफ फैसला दे।
उन्होंने कहा, ‘आम तौर पर न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कार्यपालिका से आज़ादी के तौर पर पारिभाषित किया जाता है। अब न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब ये भी लगाया जाता है कि ये सरकार के प्रभाव से आज़ाद रहे। लेकिन सिफऱ् इन्हीं चीज़ों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पारिभाषित नहीं होती।’
उन्होंने कहा, ‘देखिए, आप लगातार ये देख रहे होंगे कि ऐसे समूहों के कई हिस्से कहते हैं कि अगर आप हमारे पक्ष में फ़ैसला देते हैं तो आप स्वतंत्र हैं। अगर आप हमारे पक्ष में फ़ैसला नहीं देते हैं तो आप स्वतंत्र नहीं हैं। मुझे इस पर आपत्ति है।’
जजों की नियुक्ति और कॉलेजियम-सरकार टकराव पर क्या बोले
न्यायपालिका में नियुक्तियों (जजों की नियुक्ति) के सवाल पर सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि कॉलेजियम ने अपने हिस्से का काम कर दिया है। अब सरकार को कॉलेजियम की सिफारिशों को मंज़ूरी देनी है।
इस सवाल पर उन्होंने कहा, ‘कॉलेजियम की ओर भेजे गए कुछ नामों को अभी तक अनुमति नहीं मिली है। आपने उनमें से कुछ नाम लिए हैं। उम्मीद है कि सरकार उन्हें मंज़ूरी दे देगी। सुप्रीम कोर्ट के अधिकार के दायरे में जो आता है वो हमने कर दिया है। हमने ये सुनिश्चित किया है कि संवैधानिक प्रक्रिया (जजों की नियुक्ति के संबंध में) का अपना हिस्सा पूरा कर दें। हम नामों का मूल्यांकन करते हैं। उन पर विचार करते हैं और फिर उन्हें सरकार को भेज देते हैं।’
उनसे पूछा गया कि क्या जजों की नियुक्ति में देरी करने का मतलब ये है कि सरकार को वीटो की ताक़त मिली हुई है। इस पर उन्होंने कहा कि कॉलेजियम भी वीटो का इस्तेमाल करता है।
उन्होंने कहा, ‘सिफऱ् सरकार ही वीटो का इस्तेमाल नहीं करती। वीटो एक ऐसी चीज़ है, जिसका कॉलेजियम भी इस्तेमाल करता है। जब तक हम मंज़ूरी ना दे दें तब तक कोई नियुक्ति नहीं हो सकती।’
कॉलेजियम को नाम भेजने में राज्य सरकार की क्या भूमिका है? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘जब हम देखते हैं के कोई ख़ास उम्मीदवार नियुक्ति के लायक नहीं है तो हम वीटो लगाते हैं। भारत सरकार उस उम्मीदवार की नियुक्ति नहीं कर सकती। हमारा मानना है कि जो व्यक्ति योग्य नहीं है, उसे जज के तौर पर नियुक्त नहीं किया जा सकता।’
एक प्रमुख के तौर पर कॉलेजियम के अब तक के रिकॉर्ड पर पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 18 लोगों की सिफ़ारिश की थी। उनकी नियुक्ति हो चुकी है।
चीफ़ जस्टिस के पद के लिए जिन 42 नामों की सिफ़ारिश की गई थी। उनमें से 40 नियुक्त हो चुके हैं। हाई कोर्ट के जजों के लिए 164 नामों की सिफ़ारिश की गई थी, उनमें से 137 की नियुक्ति हो चुकी है। 27 नाम अब भी सरकार के पास लंबित हैं।
सीनियर वकीलों ने चंद्रचूड़ को लेकर क्या कहा
11 सितंबर को प्रधानमंत्री मोदी के मुख्य न्यायाधीश के घर जाना ख़ासा विवाद का विषय बन गया था।
वकीलों, राजनीतिक नेताओं और जानी-मानी हस्तियों ने भारत के संविधान में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अलग-अलग होने और उनकी स्वतंत्रता को लेकर राय ज़ाहिर की थी।
उस समय सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व प्रमुख दुष्यंत दवे प्रधानमंत्री और जस्टिस चंद्रचूड़ दोनों को ग़लत ठहराया था।
दवे ने एक बार फिर इसके लिए दोनों को दोषी ठहराया है। डिजिटल प्लेटफॉर्म ‘द वायर’ को दिए एक इंटरव्यू में दवे ने कहा कि प्रधानमंत्री को अपने घर पर साथ आरती करने के लिए बुलाकर और ये अयोध्या जजमेंट लिखने के दैवीय प्रेरणा मिलने की बात कर सीजेआई चंद्रचूड़ ने ख़ुद को ‘एक्सपोज’ कर दिया। इस तरह से उन्होंने अपने न्यायिक नज़रिये का ऐसा उदाहरण पेश किया है, जो व्याख्या से परे है।
जाने-माने पत्रकार करण थापर ने दुष्यंत दवे से पूछा कि इतिहास में जस्टिस चंद्रचूड़ को कैसे देखा जाएगा? इस सवाल के जवाब में दवे ने कहा, ‘मैं आशा करता हूँ कि जस्टिस चंद्रचूड़ को इतिहास याद नहीं रखेगा। मुझे उम्मीद है कि जस्टिस चंद्रचूड़ की विरासत को लोग जल्द ही भूल जाएंगे। मैं ये बात बहुत जि़म्मेदारी से कह रहा हूँ।’
दवे ने कहा कि डीवाई चंद्रचूड़ ने राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मामलों पर कोई फैसला नहीं दिया। वो नागरिकता संशोधन क़ानून को दी गई क़ानूनी चुनौती, ‘लव जिहाद’ और हिजाब बैन जैसे जुड़े संवेदनशील मामलों पर बैठे रहे।
चीफ़ जस्टिस चंद्रचूड़ और उनके अब तक के अहम फ़ैसले
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ के भारत के 50वें मुख्य न्यायाधीश हैं। इस साल 10 नवंबर को वो रिटायर हो जाएंगे। जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपना अदालती करियर बॉम्बे हाई कोर्ट में वकालत से शुरू किया था।
1998 से 2000 तक वो भारत के एडिशनल सॉलिसीटर जनरल भी रहे। 29 मार्च 2000 से 30 अक्टूबर 2013 तक वह बॉम्बे हाई कोर्ट के जज रहे।
31 अक्टूबर को वो इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस बने। 13 मई 2016 से सात नवंबर 2022 तक वो सुप्रीम कोर्ट जज रहे और फिर 9 नवंबर 2022 से अभी तक वो भारत के चीफ जस्टिस बने हुए हैं।
उनके कुछ प्रमुख फैसले इस तरह हैं-
राइट टु प्रिवेसी
माइनिंग टैक्स रिकवरी का मामला
अनुच्छेद 370 हटाने का केस
जीएसटी काउंसिल की सिफारिश का केस
गर्भपात के अधिकार का केस
आधार एक्ट
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूजरूम की ओर से प्रकाशित) (bbc.com/hindi)
-बेन बेविंगटन
आज अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव है। जो भी सर्वे सामने आए हैं, उनके मुताबिक़ ये चुनाव इतना कऱीबी है कि एक चूक से डोनाल्ड ट्रंप या कमला हैरिस में से किसी को भी दो या तीन पॉइंट का फ़ायदा हो सकता है।
ये ट्रंप या हैरिस के आराम से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए काफ़ी है।
अगर डोनाल्ड ट्रंप फिर से राष्ट्रपति चुनाव जीत जाते हैं तो अमेरिका के 130 साल के इतिहास में पहली बार होगा कि पिछली बार चुनाव में हारने वाला तत्कालीन राष्ट्रपति फिर से राष्ट्रपति बनेगा।
1. डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में नहीं हैं
अर्थव्यवस्था अमेरिका के वोटरों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है। अमेरिका के लोगों का कहना है कि उन्हें हर रोज़ महंगाई का सामना करना पड़ रहा है।
1970 के दशक के बाद महंगाई इस स्तर पर पहुंच गई है कि ट्रंप को यह कहने का मौक़ा देती है, ‘क्या आप चार साल पहले की तुलना में अब बेहतर स्थिति में हैं?’
साल 2024 में दुनियाभर में वोटरों ने कई सत्ताधारी दल को सत्ता से बाहर किया है।
मतदाताओं ने ऐसा कोरोना काल के बाद रहने के लिए ख़र्च बढऩे जैसे कारणों से किया है। ऐसा लग रहा है कि अमेरिकी मतदाता भी बदलाव चाहते हैं।
सिफऱ् 26 प्रतिशत अमेरिकी ही देश जिस तरीके से आगे बढ़ रहा है, उससे संतुष्ट हैं।
हैरिस ने अपने आपको बदलाव के एक चेहरे के तौर पर पेश किया है लेकिन उन्हें उपराष्ट्रपति होने के कारण ऐसा करने में मुश्किल हो रही है।
2. डोनाल्ड ट्रंप पर कोई असर नहीं हुआ
तीन साल पहले यानी छह जनवरी 2021 को वॉशिंगटन के कैपिटल हिल में दंगा होना और आपराधिक मामलों में कटघरे में होने के बाद भी डोनाल्ड ट्रंप का समर्थन इन सभी सालों में 40 प्रतिशत या इससे अधिक बना हुआ है।
डेमोक्रेट्स कहते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बनने के लिए सही नहीं हैं। वहीं अधिकतर रिपब्लिकन ट्रंप की इस बात से सहमत हैं कि वो राजनीतिक बदले की भावना का शिकार हुए हैं।
ट्रंप को बस उन मतदाताओं के एक छोटे से हिस्से के वोट हासिल करने हैं जो कि अभी तक तय नहीं कर पाए हैं कि वो किसके साथ हैं।
3. डोनाल्ड ट्रंप की अवैध प्रवासियों पर सख्ती
अर्थव्यवस्था की स्थिति से परे चुनाव में जीत अक्सर भावनात्मक मुद्दे भी तय करते हैं।
जहाँ एक तरफ डेमोक्रेट्स को उम्मीद है कि ये भावनात्मक मुद्दा उसके लिए गर्भपात होगा तो वहीं ट्रंप ने इमिग्रेशन के मामले पर दांव लगाया है।
जो बाइडन के शासन में सीमा क्षेत्रों पर मुठभेड़ रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचने के बाद सर्वेक्षणों में सामने आया है कि इमिग्रेशन के मुद्दे पर लोग अधिक विश्वास ट्रंप पर करते हैं।
4. डोनाल्ड ट्रंप की अपील
डोनाल्ड ट्रंप ने उन वोटरों से अपील की है जो कि भूला दिए गए हैं या अपने आप को पीछे छूटा हुआ महसूस कर रहे हैं।
ट्रंप ‘स्विंग स्टेट्स’ के ग्रामीण और सबअर्बन हिस्से में मत हासिल करते हैं तो ये कॉलेज से पढ़े हुए लोगों के वोट नहीं मिलने के नुकसान की संभावना की वो भरपाई कर सकते हैं।
अमेरिका में ‘स्विंग स्टेट्स’ वे राज्य हैं, जहाँ मतदाताओं की प्राथमिकता स्पष्ट नहीं होती और ये चुनाव के परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं।
5. डोनाल्ड ट्रंप का मज़बूत पक्ष क्या है?
डोनाल्ड ट्रंप कब क्या कर देंगे किसी को नहीं पता। ट्रंप इसे अपना मज़बूत पक्ष मानते हैं। वो कहते हैं कि मेरे राष्ट्रपति रहते हुए दुनिया में कोई बड़ा युद्ध शुरू नहीं हुआ।
कई अमेरिकी अलग-अलग कारणों से ग़ुस्से में हैं। इसका कारण यूक्रेन और इसराइल को अरबों की मदद भेजना है। कई अमेरिकी सोचते हैं कि देश बाइडन की सरकार में कमज़ोर हुआ है।
अधिकतर मतदाता ख़ासकर पुरुष वोटर कमला हैरिस की तुलना में ट्रंप को मज़बूत नेता मानते हैं।
1. कमला हैरिस डोनाल्ड ट्रंप नहीं हैं
डोनाल्ड ट्रंप के पास कई तरह की बढ़त होने के बाद भी उन्हें ध्रुवीकरण करने वाले शख्स के तौर पर जाना जाता है।
साल 2020 में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर ट्रंप को रिकॉर्ड संख्या में वोट मिले थे लेकिन वो हार गए। ऐसा इसलिए क्योंकि 70 लाख से अधिक अमेरिकी बाइडन के साथ गए।
इस बार हैरिस ने अपने लिए वोट मांगते हुए ट्रंप को फासीवादी बताया और कहा कि वो लोकतंत्र के लिए ख़तरा हैं।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के जुलाई में किए सर्वे में सामने आया था कि पांच में से चार अमेरिकी लोगों को लगता है कि स्थिति काबू से बाहर है।
वहीं हैरिस को उम्मीद है कि मतदाता उन्हें देश को स्थिर रखने वाले उम्मीदवार के तौर पर देखेंगे।
2. कमला हैरिस जो बाइडन भी नहीं हैं
जो बाइडन के चुनावी रेस से बाहर होने पर माना जाने लगा कि डेमोक्रेट्स की हार निश्चित है लेकिन ट्रंप को हराने की चाहत ने डेमोक्रेट्स के लोगों को हैरिस के इर्द-गिर्द ला दिया है।
सर्वे में लगातार सामने आ रहा है कि मतदाता इस बात को लेकर चिंतित थे कि क्या बाइडन राष्ट्रपति बनने के लिए स्वस्थ हैं।
लेकिन अब पासा पलट गया है और ट्रंप राष्ट्रपति बनने की दौड़ में सबसे ज्यादा उम्र के शख्स बन गए हैं।
3. महिला अधिकारों की वकालत करती हैं कमला हैरिस
सुप्रीम कोर्ट के रो बनाम वेड फ़ैसले और गर्भपात को लेकर संवैधानिक अधिकार के निर्णय को पलटने के बाद ये अमेरिका में पहला राष्ट्रपति चुनाव है।
गर्भपात के मुद्दे को लेकर चिंतित मतदाता हैरिस का समर्थन करते हैं। साल 2022 में हुए मध्यावधि चुनाव से पता लगता है कि ये मुद्दा चुनावी परिणाम को प्रभावित कर सकता है।
हैरिस के पहली महिला राष्ट्रपति बनने की संभावना के कारण भी महिला वोटरों के बीच उनको बढ़त मिल सकती है।
4. हैरिस किसकी पसंद
कॉलेज से पढ़े हुए लोग और वृद्ध लोगों के वोट डालने की अधिक संभावना है। ऐसा होता है तो हैरिस को बढ़त मिल सकती है।
वहीं ट्रंप को युवा पुरुष और बिना कॉलेज की डिग्री वाले लोगों से लाभ होता है जो कि बड़ी संख्या में वोट नहीं डालते।
न्यूयॉर्क टाइम्स /सिएना पोल के मुताबिक़ उदाहरण के तौर पर देखें तो साल 2020 में ट्रंप को उन लोगों के बीच में बढ़त मिली जो कि वोट करने के योग्य हैं लेकिन किया नहीं।
ऐसे में सवाल है कि क्या इस बार ये लोग वोट डालने के लिए आएंगे या नहीं।
5. कमला हैरिस अधिक खर्च कर रहीं
ये कोई छिपी हुई बात नहीं है कि अमेरिकी चुनाव महंगा होता है। 2024 का चुनाव अब तक का सबसे महंगा चुनाव हो सकता है।
फाइनेंशियल टाइम्स के हाल के विश्लेषण के अनुसार, हैरिस चुनाव में खर्च करने में शीर्ष पर हैं। हैरिस के चुनावी प्रचार में ट्रंप के चुनावी प्रचार से दोगुना ख़र्च हुआ है।
ये करीबी चुनावी मुकाबले में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। स्विंग स्टेट्स के वोटर चुनाव के परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं। स्विंग स्टेट्स में राजनीतिक विज्ञापन की भरमार है।
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूजरूम की ओर से प्रकाशित) (bbc.com/hindi)
- आनंद दत्त
झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए मतदान आगामी 13 और 20 नवंबर को होने जा रहे हैं। चुनाव आयोग के मुताबिक दोनों फेज की स्क्रूटनी के बाद कुल 1211 उम्मीदवार मैदान में हैं।
झारखंड की मुख्य राजनीतिक पार्टियां झारखंड मुक्ति मोर्चा, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, आजसू, आरजेडी, वाम दल के अलावा भी बड़ी संख्या में लोग हैं, जो विधायक बनने की चाहत रखते हैं।
मसलन, मुकुल नायक रंगाई-पुताई का काम करते हैं। पुरुषोत्तम पांडेय पूजा पाठ कराते हैं। रविंद्र सिंह पान बेचते हैं। बद्री यादव मैकेनिक हैं। सावित्री देवी मजदूर हैं।
जहाँ मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवार चुनाव जीतने के लिए करोड़ रुपए से ज़्यादा खर्च करते हैं, वहीं ये उम्मीदवार महंगे चुनाव में क्या कर पाएंगे?
ऐसे ही कुछ लोगों से मिलिए और उनसे समझिए कि आखिर ये चुनाव क्यों लडऩा चाहते हैं?
मुकुल नायक, कांके विधानसभा क्षेत्र
सातवीं पास 47 साल के मुकुल नायक, रंगाई-पुताई का काम करते हैं। उन्हें लोकहित अधिकार पार्टी ने रांची से सटे कांके विधानसभा क्षेत्र से अपना प्रत्याशी बनाया है। वो सुकुरहुटू गांव के रहने वाले हैं।
बीते 24 अक्टूबर को जब वो नामांकन करने रांची जिलाधिकारी के कार्यालय जा रहे थे तो उनके घर में चावल नहीं था और खाना नहीं बना था क्योंकि उन्हें अभी तक अक्टूबर माह का राशन नहीं मिला है।
मुकुल बताते हैं, ‘नामांकन के लिए जा रहे थे तो गांव वालों ने चंदा दिया। उसमें कुछ पैसा बच गया तो वापस घर आते वक्त चावल खऱीद लिए थे।’
पैसों के अभाव में दोनों बेटे ज्वाला नायक ने दसवीं के बाद और रामवतार नायक ने आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी है। दोनों रंगाई-पुताई का काम करते हैं। वहीं बेटी ज्योती ने लॉकडाउन के वक्त पढ़ाई छोड़ी थी। अब दोबारा से इंटर में दाखिला लिया है। पत्नी सुग्गी देवी भी पति के साथ मजदूरी करती हैं।
ऐसी परिस्थिति में चुनाव क्यों लडऩा चाहते हैं?
मुकुल कहते हैं, ‘’मैंने गाँव के ही अपने पड़ोस की लडक़ी से साल 2002 में प्रेम विवाह किया था। समाज के लोगों ने गांव से निकाल दिया तो रांची शहर में आकर रहने लगे। यहीं मजदूरी करने लगे।’
‘ठीक 12 साल बाद, जब 2014 में गांव वापस आया तो गांव की हालत बहुत खऱाब थी। मैंने पंचायत चुनाव लडऩे का सोचा और वार्ड सदस्य के तौर पर चुना गया। तब से अपने और अपने जैसों के हक़ और अधिकार के लिए लड़ता रहा हूँ।’
वो कहते हैं, ‘चुनाव प्रचार के लिए छह दिन प्रचार गाड़ी चलाएंगे, जिसका खर्चा 24,000 रुपया है। खुद बाइक से गांव-गांव जाकर प्रचार करेंगे। अधिकतम 30,000 खर्च करेंगे। वो भी तब, जब इतना पैसा चंदा में आ जाएगा।’
आखिर में वो कहते हैं, ‘समाज के लिए दर्द बहुत है। तब भी हिम्मत टूटी नहीं है। अगर किसी तरह से जीत गए तो गरीबों को लूटने वाले को छोड़ेंगे नहीं।’’
मनोज करुआ, जुगसलाई विधानसभा क्षेत्र
जमशेदपुर से सटे जुगसलाई विधानसभा क्षेत्र से 27 साल के मनोज करुआ निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं।
वो चेकमेट सिक्योरिटी सर्विस में काम काम करते हैं। फिलहाल टाटा स्टील में बतौर सिक्योरिटी गार्ड पार्किंग एरिया में तैनात हैं। यहां उन्हें प्रतिदिन 430 रुपए दिहाड़ी मिलती है।
मनोज दलित हैं। पॉलिटिकल साइंस से ग्रैजुएट होने के बाद फिलहाल लॉ की पढ़ाई भी कर रहे हैं।
मनोज कहते हैं, ‘मेरे पास 30 हजार रुपए चंदा के तौर पर आ गए हैं। अधिकतम 50,000 रुपया तक खर्च करेंगे। प्रचार के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेंगे। मुझे उम्मीद है कि 3000 से अधिक वोट मैं ले आऊंगा। फि़लहाल कंपनी में दस दिन की छुट्टी का आवेदन दे दिया है। नो वर्क, नो पे के आधार पर छुट्टी मिल जाएगी।’
मनोज चुनाव हारने के लिए क्यों चुनाव लड़ रहे हैं?
मनोज कहते हैं, ‘कहीं से तो शुरू करना होगा। मेरे इलाके में युवा नशे के शिकार हो रहे हैं। लोगों के पास काम नहीं हैं। स्थानीय विधायक मंगल कालिंदी के पास समस्या लेकर जाते हैं तो वो मिलते तक नहीं हैं। नौकरी और ढंग का रोजग़ार न होने की वजह से मेरे दो भाइयों की शादी नहीं हो पा रही है।’
पुरुषोत्तम पांडे, बरही विधानसभा क्षेत्र
पुरुषोत्तम कुमार पांडे 27 साल के हैं और पेशे से पुजारी हैं।
पांडे बरही विधानसभा सीट से निर्दलीय मैदान में हैं। उन्हें अखिल भारत हिन्दू महासभा ने उन्हें अपना समर्थन दिया है।
हजारीबाग जि़ले के पद्मा प्रखंड के नवाडीह गांव के रहनेवाले पुरुषोत्तम पांडेय बताते हैं, ‘मैंने चर्च से होने वाले धर्मांतरण को रुकवाया है।’
‘रामनवमी में सरकार ने डीजे बजाने पर प्रतिबंध लगा दिया था, इसके विरोध में हजारीबाग से रांची तक पैदल मार्च किया है। यही नहीं, हिन्दू राष्ट्र और जनसंख्या नियंत्रण के लिए हजारीबाग से नई दिल्ली तक पैदल मार्च भी किया है।’
पुरुषोत्तम को उम्मीद है कि वो 20,000 से अधिक वोट लाएंगे।
बदरी यादव, बरही विधानसभा क्षेत्र
बदरी यादव 46 साल के हैं। वो बरही विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। यादव पेशे से पोकलेन मकैनिक हैं।
वो कहते हैं, ‘मैं साल भर में 300 से 400 मशीन ठीक करता हूँ। ये जो मेरे ग्राहक हैं, वही मेरे मतदाता हैं। अगर मैं जीत कर आता हूँ तो सबसे पहला काम होगा लोगों का सहारा इंडिया में फंसा पैसा वापस दिलाना।’’
बदरी के मुताबिक़ उनके इलाक़े में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनका 'सहारा इंडिया' में पैसा फंसा हुआ है। ऐसे परिवारों के 150 से अधिक लोग उनके चुनावी कैंपेन में सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं।’
बदरी कहते हैं, ‘इससे पहले मेरी पत्नी भी जिला परिषद का चुनाव लड़ चुकी हैं। पिता मुखिया का चुनाव लड़ चुके हैं। हालांकि दोनों ही सफल नहीं हो पाए थे। इन दोनों का सपना पूरा करना है और चुनाव जीतना है।’’
रविंद्र सिंह, जमशेदपुर पूर्वी विधानसभा क्षेत्र
जिस सीट से ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास की बहू पूर्णिमा दास चुनाव लड़ रही हैं, उसी जमशेदपुर पूर्वी से 52 साल के रविंद्र सिंह भी अपना भाग्य आजमा रहे हैं।
रविंद्र सिंह जमशेदपुर बस स्टैंड के पास पान की दुकान चलाते हैं। दो बेटे और दो बेटियां हैं। सबकी शादी हो चुकी है। रविंद्र का कहना है कि बेटों ने उन्हें छोड़ दिया है। फि़लहाल वह अपनी पत्नी और मां के साथ रहते हैं।
रविंद्र सिंह को लोग उनके इलाके में प्रभु जी के नाम से जानते हैं। वो कहते हैं, ‘मेरे पास पैसा तो बिल्कुल भी नहीं है। हमको अगर पाँच वोट भी मिल जाएगा तो हम अपने को सफल समझेंगे। अभी तो पैदल घूमकर प्रचार कर रहे हैं। आखिरी समय में साइकिल से प्रचार करेंगे।’’
वो कहते हैं, ‘कुछ लोग चंदा दे रहे हैं। इसी से काम निकल जाएगा। हम जीत-हार के बारे में नहीं सोच रहे हैं।’
सावित्री देवी, तोरपा विधानसभा क्षेत्र
35 साल की सावित्री देवी पेशे से किसान और खेतिहर मज़दूर हैं।
वो खूंटी जि़ला के तोरपा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रही हैं। उन्हें बहुजन समाज पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया है।
वो इससे पहले खूंटी लोकसभा क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुकी हैं। जहां उन्हें 12300 वोट मिले थे।
जिस वक्त उनसे बात हुई, वो बच्चों के कपड़े धो रही थीं।
उन्होंने कहा, ‘मैं अपने क्षेत्र में होनेवाली ग्राम सभाओं में लगातार जाती रही हूं। इसी वजह से लोगों के बीच मेरी पहचान और पकड़ है।’
वो कहती हैं, ‘अभी तो मैंने सही से चुनाव प्रचार भी शुरू नहीं किया है। लेकिन लोग आकर चंदा देने लगे हैं। कुल 10 हजार जमा हो चुके हैं। एक लाख तक आने की उम्मीद है। लोकसभा के समय भी और अब विधानसभा के समय भी मैं पति के साथ बाइक से ही चुनाव प्रचार करने जाती हूं।’
पति सुरेंद्र सिंह अपने दोनों बेटे कृष्ण सिंह और अर्जन सिंह के साथ चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं। पति का दावा है कि उनकी पत्नी 45,000 वोट ले आएंगी और चुनाव हर हाल में जीतेंगी।
दिवाशंकर पासवान, हटिया विधानसभा क्षेत्र
37 साल के दिवाशंकर पासवान पेशे से एम्बुलेंस ड्राइवर हैं। उन्हें पीपल्स पार्टी ऑफ इंडिया ने रांची से सटे हटिया विधानसभा क्षेत्र से अपना प्रत्याशी बनाया है। वो पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं।
दिवाशंकर बताते हैं, ‘मैं अधिकतम 20 हज़ार रुपए चुनाव प्रचार में खर्च करने जा रहा हूँ। बावजूद इसके, मैं जीत सकता हूं। हटिया इलाक़े के कई गांव के लोगों का मैंने फ्री में इलाज करवाया है। एम्बुलेंस की सेवा दी है।’
इसके अलावा हटिया से बीजेपी के नवीन जायसवाल और कांग्रेस के अजयनाथ शाहदेव करोड़पति हैं। राज परिवार के वंशज हैं।
चुनावी मुद्दों के बारे में वो कहते हैं, ‘रांची में जितनी भी निजी कंपनिया काम कर रही हैं, वहां लोगों से ओवरटाइम कराया जाता है। लेकिन उसके बदले एसआई, पीएफ, इंश्योरेंस तक नहीं मिलते हैं। यहां तक कि उन्हें वीक ऑफ भी नहीं मिलता है। संविधान में मजदूरों को जो अधिकार मिला है, वो हम जैसों को मिलना चाहिए।’
दिवाशंकर को उम्मीद है कि वो अपने वोटरों के बीच इन मुद्दों को अगर सही से पहुंचा दिए, तो जीत जाएंगे। (bbc.com/hindi)
तेहरान की आज़ाद यूनिवर्सिटी की शोध शाखा में रविवार को एक छात्रा के कपड़े उतारने के वीडियो को लेकर सोशल मीडिया पर ज़बर्दस्त प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।
इस छात्रा ने ऐसा क्यों किया- इसका कारण जो भी हो, लेकिन विपक्ष का कहना है कि उसने ऐसा 'ज़बर्दस्ती हिजाब पहनने के नियमों के विरोध' में किया है।
वहीं आज़ाद यूनिवर्सिटी के अधिकारियों ने छात्रा को हिरासत में लेकर मानसिक स्वास्थ्य अस्पताल भेज दिया है।
शनिवार यानी नवंबर को तेहरान की आज़ाद यूनिवर्सिटी के साइंस एंड रिसर्च के परिसर में अंडरवियर में एक लडक़ी के दिखने और फिर उसकी गिरफ़्तारी के वीडियो को कई लोगों ने सोशल मीडिया पर साझा किया था।
कई लोग ये भी मान रहे हैं कि ये प्रदर्शनकारी महिलाओं से निबटने के लिए ईरानी शासन जो सख़्त रवैया अपना रहा है, ये उसी से जुड़ा एक और मामला है।
बीबीसी फ़ारसी को ईरान के भीतर काम करने की अनुमति नहीं है और अब तक ईरान में काम करने वाले स्वतंत्र पत्रकार इस महिला तक नहीं पहुंच सके हैं।
समर्थन और चिंताएं: ‘विद्रोह की प्रतीक’
इस छात्रा के समर्थन में सोशल मीडिया पर रिसर्च साइंस गर्ल हैशटैग ट्रेंड कर रहा है। कई लोग इस छात्रा की पहचान ज़ाहिर करने और इसे रिहा करने की मांग कर रहे हैं।
इस छात्रा का समर्थन करने वाले लोगों का मानना है कि उसने कपड़े उतारकर और सिफऱ् अंडरवियर पहनकर चहलकदमी करके ‘ज़बरदस्ती हिजाब थोपे जाने का विरोध किया है।’
ईरानी छात्रा के इस क़दम को क्रांतिकारी तक बताया जा रहा है।
ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर छात्रा का समर्थन कर रहे लोग एक चश्मदीद के हवाले से बता रहे हैं कि इस छात्रा ने कपड़े उतारते वक़्त अन्य छात्रों से कहा था, ‘मैं तुम सबको बचाने आई हूँ।’
शांति का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले नर्गिस मोहम्मदी, जो अभी इविन जेल में बंद हैं, के इंस्टाग्राम अकाउंट से लिखा गया, ‘महिलाओं को आदेश न मानने की क़ीमत चुकानी पड़ती है लेकिन वो ताक़त के आगे झुकती नहीं हैं।’ इस अकाउंट से लिखा गया है, ‘यूनिवर्सिटी में प्रदर्शन कर रही छात्रा का शरीर विद्रोह का प्रतीक है। ये ग़ुस्से और विद्रोह की तीव्रता का भी प्रतीक है।’
वहीं, अभिनेत्री कातायून रियाही और पेंटिया बहराम ने भी अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर इस छात्रा का समर्थन किया है।
साल 2022 में ईरान में अनिवार्य हिजाब के ख़िलाफ़ व्यापक प्रदर्शन हुए थे। तब भी इन दोनों अभिनेत्रियों ने प्रदर्शनकारियों का समर्थन किया था।
अमेरिका के राजनीतिक टिप्पणीकार जैक्सन हिंकले ने कपड़े उतारने वाली लडक़ी का तस्वीर शेयर करते हुए लिखा है, ''ये लडक़ी बहादुर नहीं बल्कि इसकी मानसिक सेहत ठीक नहीं है।’
हिंकले की इस पोस्ट को आड़े हाथों लेते हुए ईरान की मानवाधिकार कार्यकर्ता अज़ाम जानगरवी ने लिखा है, ‘मैंने जब हिजाब अनिवार्य किए जाने के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन किया था तो सुरक्षा बलों ने मुझे गिरफ़्तार कर लिया था और मेरे परिवार वालों पर दबाव डाला गया कि वे मुझे मानसिक रूप से बीमार बताएं। ईरानी सुरक्षा बल मुझे फॉरेसिंक डॉक्टर के पास भी ले गए थे। मेरा एक रिश्तेदार मुझसे जेल में मिलने आया था और उसने मुझसे पूरी बात बताई थी।’
‘मेरा वो रिश्तेदार बहुत दबाव में था। उसने रोते हुए कहा था, ''तुम इस तरह जेल नहीं जा सकती हो।'' मैंने उसे ग़ुस्से से देखा और कहा, ‘तुम कह रहे हो कि मैं पागल हूँ? मैं साइको हूँ? तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हो?’
‘इसके बाद हम दोनों रोने लगे। मैंने कहा कि मुझे इस तरह से जेल से बाहर नहीं आना है और तुम भी इस दबाव में मत आओ। मेरे परिवार वालों ने ऐसा नहीं किया लेकिन बहुत सारे परिवार दबाव में आकर अपने बच्चों को साइको बता देते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से वे अपने बच्चों को जेल से बचा लेंगे। ईरान इसी तरह मानसिक रूप से बीमार बताकर महिलाओं को डिसक्रेडिट करता है।’
अजाम जानगरवी ने कहा, ''जैक्सन हिंकले आप गलत सूचना मत फैलाइए। चुप रहिए और उस महिला के बार में कुछ भी मत बोलिए जिसकी जान ईरान में खतरे में है।’
चीन के तियानमेन स्क्वायर के ‘टैंक मैन’ से तुलना
ईरान रिफॉर्म फ्रंट के प्रमुख अजर मंसूरी ने लिखा, ‘हमारी एक बेटी ने हैरान कर दिया है। मुझे इस बात में कोई शक नहीं है कि पुलिस के ज़रिए सख्ती और नकारात्मकता के सभी प्रयास नाकाम हो गए हैं।’
साल 2023 में हिजाब ना पहनने की वजह से हिरासत में ली गईं और फिर दंडित की गईं रोया हशमती ने हैशटैग ‘डॉटर ऑफ़ साइंस एंड रिसर्च’ के साथ लिखा है, ‘हमारी प्यारी बहन, रसातल के इस अंधेरे दौर में गर्व और विद्रोह की ये मशाल जलती रहे, जिसका मुंह तुमने खोल दिया है।’
विद्रोह के गायक और पूर्व कैदी महदी यारराही ने हिजाब के खिलाफ लिखे गए अपने विद्रोही गीत ‘जीवन का गीत' को ट्वीट करते हुए इसी हैशटैग के साथ लिखा है, ‘महिलाओं की आवाज में दम है।’
जर्मनी में रह रहे विद्रोही लेखक फराज सारकोही ने कहा, ‘रिसर्च और साइंस की इस लडक़ी ने जो किया है वो भीषण दमन के खिलाफ एक क्रांतिकारी कदम है। इस दमन से बचने के लिए क्रांति के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।’
यूक्रेन के महिलावादी समूह फेमेन की नेता इना शेवशेंको ने भी इस ईरानी छात्रा का समर्थन किया है।
एक्स पर पोस्ट करते हुए शेवशेंको ने इस छात्रा के नग्न प्रदर्शन की तुलना चीन के थियानमन चौक पर हुए नरसंहार के दौरान एक टैंक के सामने अकेले खड़े रहे व्यक्ति से की है।
साल 1989 में राजनीतिक स्वतंत्रता का दायरा बढ़ाए जाने की मांग के साथ चीन में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए थे। इसी दौरान चीन के एक शीर्ष चीनी नेता हू याओबैंग की मौत के बाद उनकी अंत्येष्टि में लाखों लोग शामिल हुए थे।
इसके कुछ हफ्तों बाद चीन की राजधानी बीजिंग के तियानमेन स्क्वायर में चीनी लोग जुटना शुरू हुए।
इस प्रदर्शन को रोकने के लिए चीनी सेना और सुरक्षाबलों को बुलाया गया था और इस दौरान ‘टैंक मैन’ की एक तस्वीर दुनियाभर में चर्चा का विषय बनी थी, जो चीनी टैंक के सामने डटा हुआ था।
तेहरान की ताज़ा घटना पर फोरो फर्रूखजाद की एक कविता का हवाला देते हुए तुर्की के लेखक एलिफ शफाक ने लिखा, ‘ईरानी महिलाओं की खबूसरूत, प्रतिरोधी, विद्रोही आत्माज् दुनिया दिल टूटने और टूट जाने की जगह है, ख़ासकर महिलाओं के लिए।’
मनोवैज्ञानिक शाकिब नसरल्लाह ने छात्रा को अस्पताल ले जाए जाने के बारे में लिखा, ‘इस छात्रा का मानसिक स्वास्थ्य कैसा भी हो, लेकिन इसे मानसिक रोगी बताने के किसी भी कारण को किसी भी तरह न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।’
‘जब एक व्यक्ति पर हमला किया जाता है, तब उस घटना की जांच हमले की पृष्ठभूमि में ही की जानी चाहिए और ऐसा हुआ है, इसलिए अगर इस छात्रा के मानसिक रूप से बीमार होने का इतिहास है भी, तो वो यहां अप्रसांगिक है।’
ख़बर ऑनलाइन को भेजे एक नोट में यूनवर्सिटी प्रोफ़ेसर हामिद सूरी ने लिखा है, ‘जो लोग वहां मौजूद थे, वो मूकदर्शक क्यों बनें रहे।’
निंदा और घृणा: ‘यूनिवर्सिटी की हत्या का प्रयास’
वहीं ईरान के रिवोल्यूश्नरी गार्ड और ईरान में इस्लामी शासन का समर्थन करने वाले मीडिया समूहों के कवरेज से पता चलता है कि अधिकतर रिपोर्टों में इस घटना को ‘नग्नता और कपड़े उतारने’ से जोडक़र देखा गया है।
ऐसे मीडिया समूहों में इसे अनैतिक कृत्य बताया गया है या फिर इसे ‘अचानक मानसिक स्वास्थ्य बिगडऩे’ के कारण हुई घटना बताया गया है।
इस्लामिक आज़ाद यूनिवर्सिटी से जुड़े एक अख़बार फरहीख़्तेगान ने उस रिपोर्ट को खारिज किया है, जिसमें दावा किया गया था कि सुरक्षाकर्मियों और महिला छात्रा के बीच झड़प हुई थी।
अख़बार ने लिखा है कि छात्रा यूनिवर्सिटी के सुरक्षा गार्डों ने छात्रा को पुलिस को सौंप दिया था, जहां से उसे मानसिक स्वास्थ्य अस्पताल भेज दिया गया है।
‘यूनिवर्सिटी की हत्या’ शीर्षक से प्रकाशित एक लेख में ईरान के स्वयंसेवक अर्धसैनिक बल बासिज से जुड़ी ‘दानेशजू’ न्यूज एजेंसी ने इस घटना की तुलना आतंकवादी कार्रवाई से की है।
इस्लामिक रिपब्लिक का विरोध करने वाले कुछ समूहों और देश में राजशाही की वापसी का समर्थन करने वाले कुछ लोगों ने भी छात्रा के इस कृत्य का विरोध किया है और इसे ‘ईरानी महिलाओं की मर्यादा से कहीं दूर’ बताया है।
वहीं कुछ लोग इस घटना को यूनिवर्सिटी को बदनाम करने की कोशिश के रूप में भी देख रहे हैं।
छात्रा के ‘पूर्व पति’ ने क्या कहा
रूढि़वादी नजरिया रखने वाली एक न्यूज़ वेबसाइट सीरत न्यूज इस कृत्य को ‘महिला, जि़ंदगी और आजादी प्रदर्शनों के बाद का अगला चरण बताया है और ईरान में अंदालूयिसा के प्रोजेक्ट का चौथा चरण कहा है।’
ईरान में इस्लामी शासन के सुरक्षा संस्थानों से जुड़े लोग ये मानते हैं कि प्रोजेक्ट अंदालूसिया ईरान के इस्लामी चरित्र को समाप्त करने की साजिश है।
वहीं आजाद यूनिवर्सिटी के एक इस्लामी छात्र संगठन (स्टूडेंट बासिज) ने बयान में कहा है, ‘यूनिवर्सिटी के कैंपस में ये बर्ताव एक छात्र की मर्यादा और नियमों के खिलाफ है। यूनिवर्सिटी ऐसे शर्मनाक कृत्यों की जगह नहीं है।’
ईरान के मीडिया में एक पुरुष का वीडियो भी प्रसारित हो रहा है। इस धुंधले चेहरे वाले वीडियो में ये पुरुष नफरत भरी भाषा में लोगों से इस महिला के वीडियो को प्रसारित और प्रकाशित ना करने की अपील कर रहा है।
इस छात्रा का ये पूर्व पति कह रहा है, ‘उसके बच्चों के भविष्य की खातिर, कृपया इस वीडियो को प्रसारित ना करें, उसके सम्मान से ना खेलें।’
2022 के विरोध प्रदर्शनों के दौरान गाने से प्रतिबंधित किए गए एक स्तुतिकार हामिद्रेजा अलीमी ने अपने इंस्टाग्राम पर लिखा, ‘इस देश की लड़कियों और महिलाओं की तस्वीरों और वीडियो का प्रकाशन (किसी भी कारण से) कई परिवारों को नष्ट कर देगा। (bbc.com/hindi)
चिंताओं से मुक्ति, आजीविका, घर के कार्यों और परिवार को मिला ज्यादा समय
-कमलेश साहू
घर के आंगन में नल से गिर रही पानी की धार ने महिलाओं का जीवन ही बदल दिया है। जल जीवन मिशन महज हर घर तक पेयजल पहुंचाने की योजना नहीं है। यह दूरस्थ अंचलों और गांवों में महिलाओं की दिनचर्या और जीवन में बड़ा बदलाव ला रहा है। गांवों में परंपरागत रूप से घर में पेयजल और अन्य जरूरतों के लिए पानी के इंतजाम का जिम्मा महिलाओं पर ही है। घर तक पानी की पहुंच न होने के कारण उन्हें हैंडपंपो, सार्वजनिक नलों, कुंओं या अन्य स्रोतों से रोज पूरे परिवार के लिए जल संकलन करना पड़ता है। रोजाना का यह श्रमसाध्य और समयसाध्य काम बारिश तथा भीषण गर्मी के दिनों में दुष्कर हो जाता है। कई इलाकों में गर्मियों में जलस्रोतों के सूख जाने के कारण दूर-दूर से पानी लाने की मजबूरी रहती है। परिवार के लिए पानी की व्यवस्था हर दिन का संघर्ष बन जाता है। महिलाओं के दिन के कई घंटे इसी काम में निकल जाते हैं।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के हर घर तक नल से जल पहुंचाने के सपने को पूरा करने का जल जीवन मिशन पेयजल के साथ ही महिलाओं को कई समस्याओं से निजात दिला रहा है। घर तक स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल पहुंचने से वे कई चिंताओं से मुक्त हो गई हैं। अब रोज-रोज पानी के लिए बहुत सारा श्रम और समय नहीं लगाना पड़ता। इससे उन्हें घर के दूसरे कामों, बच्चों की परवरिश, खेती-बाड़ी एवं आजीविका के अन्य कार्यों के लिए अधिक समय मिल रहा है और वे इन कार्यों पर अपना ज्यादा ध्यान व समय दे पा रही हैं। बारहों महीने घर पर ही जलापूर्ति से लगातार बारिश तथा गर्मी के दिनों में पेयजल का संकट जल जीवन मिशन ने दूर कर दिया है। गर्मियों में जलस्तर के नीचे चले जाने से तथा बरसात में लगातार बारिश से जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। गुणवत्ताहीन पेयजल से पेट तथा निस्तारी के लिए खराब जल के उपयोग से त्वचा संबंधी रोगों का खतरा रहता है। जल जीवन मिशन ने सेहत के इन खतरों को भी दूर कर दिया है।
जल जीवन मिशन के माध्यम से हर घर में रोज प्रति व्यक्ति 55 लीटर जल की आपूर्ति की जा रही है। घर तक जल की सुलभ और पर्याप्त पहुंच से महिलाओं के ‘किचन गार्डन’ (बाड़ी) के लिए भी पानी मिल रहा है। इसके लिए उन्हें अब अतिरिक्त समय और श्रम नहीं लगाना पड़ रहा। इस्तेमाल किए हुए जल का सदुपयोग करते हुए इससे वे अपनी बाड़ी में लगाए सब्जी-भाजी की सिंचाई कर रही हैं। उनका यह काम परिवार के सुपोषण का द्वार भी खोल रहा है।
छत्तीसगढ़ में हर घर में नल से जल पहुंचाने के जल जीवन मिशन का 79 प्रतिशत से अधिक काम पूरा हो गया है। राज्य के 39 लाख 63 हजार 700 घरों में पाइपलाइन से पेयजल पहुंच रहा है। मिशन की शुरूआत के बाद से अब तक करीब 36 लाख 44 हजार नए घरों में नल कनेक्शन दिए गए हैं। प्रदेश में 4142 ऐसे गांव हैं जहां के शत-प्रतिशत घरों में नल से पानी पहुंच रहा है। जल जीवन मिशन के अंतर्गत 19 जिलों में 77 प्रतिशत से अधिक काम पूरे कर लिए गए हैं। हर घर तक नल से जल पहुंचाने के लिए धमतरी जिले में मिशन का 98 प्रतिशत, रायपुर में 94 प्रतिशत, राजनांदगांव में 89 प्रतिशत, जांजगीर-चांपा में 88 प्रतिशत, दुर्ग और मुंगेली में 87 प्रतिशत, बालोद में 86 प्रतिशत तथा गरियाबंद और सक्ती में 85 प्रतिशत काम पूर्ण कर लिया गया है।
मिशन के तहत बेमेतरा में 84 प्रतिशत, खैरागढ़-छुईखदान-गंडई और बस्तर में 83 प्रतिशत, कबीरधाम और महासमुंद में 82 प्रतिशत, रायगढ़ में 81 प्रतिशत, कोंडागांव में 79 प्रतिशत, गौरेला-पेंड्रा-मरवाही में 78 प्रतिशत तथा दंतेवाड़ा और बलौदाबाजार-भाटापारा जिले में 77 प्रतिशत से अधिक काम पूर्ण हो चुके हैं। खारे पानी, भू-जल में भारी तत्वों की मौजूदगी या जल स्तर के ज्यादा नीचे चले जाने की समस्या से जूझ रहे गांवों में स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति के लिए 71 मल्टी-विलेज योजनाओं का काम प्रगति पर है। इनके माध्यम से 3234 गांवों के दस लाख से अधिक घरों में पेयजल के लिए सतही (नदी) जल पहुंचाया जाएगा। जल जीवन मिशन के कार्यों के लिए राज्य शासन द्वारा चालू वित्तीय वर्ष के बजट में राज्यांश के रूप में 4500 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
फिदेल कास्त्रो के बारे में यह सब जानते हैं कि वे क्रांतिकारी थे,माक्र्सवादी थे, लेकिन यह बहुत कम लोग जानते हैं कि फिदेल बेहतरीन धार्मिक समझ वाले व्यक्ति भी थे। फिदेल ने धर्म को लेकर जिस नजरिए को व्यक्त किया उससे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। यह सच है धर्म का जो रूप हम आज देखते हैं वह बहुत कुछ मूल रूप से भिन्न है। एक बेहतरीन माक्र्सवादी वह है जो धर्म को उसके सही रूप में समझे और धर्म की सही सामाजिक भूमिका पर जोर दे।
हमारे यहां राजसत्ता और उसके संचालक धर्म के प्रचलित रूपों के सामने समर्पण करके रहते हैं, धर्म की विकृतियों के खिलाफ कभी जनता को सचेत नहीं करते, धर्म की गलत मान्यताओं को कभी चुनौती नहीं देते हैं, धर्म का अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए दुरुपयोग करते हैं और इसके लिए सर्वधर्म समभाव की संवैधानिक समझ की आड़ लेते हैं। संविधान की आड़ लेकर धर्म की ह्रासशील प्रवृत्तियों को संरक्षण देने के कारण ही आज हमारे समाज में धर्म, संत-महंत, पंडे, पुजारी, तांत्रिक, ढोंगी आदि का समाज में तेजी से जनाधार बढ़ा है, इन लोगों के पास अकूत संपत्ति जमा हो गई है। इसके कारण समाज में अ-सामाजिकता बढ़ी है, लोकतंत्र विरोधी ताकतें मजबूत हुई हैं।
यह सच है हम पैदा होते हैं धर्म की छाया में और सारी जिंदगी उसकी छाया में ही पड़े रहते हैं। धर्म की छाया में रहने की बजाय उसके बाहर निकलकर समाज की छाया में रहना ज्यादा सार्थक होता है। धर्म की छाया यानी झूठ की छाया। हम सारी जिंदगी झूठ के साथ शादी करके रहते हैं, झूठ में जीवन जीते हैं, झूठ से इस कदर घिरे रहते हैं कि सत्य की आवाज हमको बहुत मुश्किल से सुनाई देती है। झूठ के साथ रहते-रहते झूठ के अभ्यस्त हो जाते हैं और फिर झूठ को ही सच मानने लगते हैं। इसका परिणाम यह निकलता है कि सत्य से हम कोसों दूर चले जाते हैं।
धर्म पर बातें करते समय उसके मूल स्वरूप पर हमेशा बातें करने की जरूरत है। धर्म को झूठ से मुक्त करने की जरूरत है। धर्म को झूठ से मुक्त करने का अर्थ है धर्म को धार्मिक प्रपंचों से बाहर ले जाकर गरीब के मुक्ति प्रयासों से जोडऩा। इन दिनों धर्म को संतों-पंडितों ने अपहृत कर लिया है।अब हम धर्म के मूल स्वरूप और मूल भूमिका के बारे में एकदम नहीं जानते लेकिन उन तमाम किस्म की भूमिकाओं को जरूर जानते हैं जिनको कालांतर में धर्म के धंधेबाजों ने पैदा किया है। सवाल यह है धर्म यदि गरीब का संबल है तो राजनीति में धर्म को गरीबों की राजनीति से रणनीतिक तौर पर जुडऩा चाहिए। लेकिन होता उल्टा है गरीबों की राजनीति करने वालों की बजाय धर्म और धार्मिक संस्थानों का अमीरों की राजनीति करने वालों की राजनीति से गहरा संबंध नजर आता है।
धर्म गरीब के दुखों की अभिव्यक्ति है।मार्क्सवाद भी गरीबों के दुखों की अभिव्यक्ति है।इसलिए धर्म और माक्र्सवाद में गहरा संबंध बनता है।लेकिन धर्म और माक्र्सवाद के मानने वालों में इसे लेकर विभ्रम सहज ही देख सकते हैं। फिदेल कास्त्रो इस प्रसंग में खासतौर पर उल्लेखनीय हैं। वे धर्म की व्याख्या करते हुए गरीब को मूलाधार बनाते हैं और कहते हैं कि ईसाईयत और माक्र्सवाद दोनों के मूल में है गरीब की हिमायत करना, गरीब की रक्षा करना,गरीब को गरीबी से मुक्त करना। इसलिए ईसाइयत और माक्र्सवाद में स्थायी रणनीतिक संबंध है। इसी आधार पर वे पुख्ता नैतिक, राजनीतिक और सामाजिक आधार का निर्माण करते हैं।
फिदेल के धर्म संबंधी नजरिए को अभिव्यंजित करने वाली शानदार किताब है ंफिदेल एंड रिलीजनं,यह किताब FREI BETTO ने लिखी है। इसमें फिदेल से उनकी 23 घंटे तक चली बातचीत का विस्तृत लेखा जोखा है। यह किताब मूलत: क्यूबा और लैटिन अमेरिका में धर्म और माक्र्सवाद,धर्म और क्रांतिकारियों के अंतर्संबंधों पर विस्तार से रोशनी डालती है। इस बातचीत में फिदेल से 9 घंटे तक सिर्फ धर्म संबंधी सवालों को पूछा गया। धर्म और माक्र्सवाद के अंत संबंध को समझने के लिए यह पुस्तक मददगार साबित हो सकती है। इस किताब को भारत में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने 1987 में अंग्रेजी में छापा था। इस किताब में लिए गए इंटरव्यू कई बैठकों में संपन्न हुए। ये इंटरव्यू 1985 में लिए गए थे। ये किसी समाजवादी राष्ट्र राष्ट्राध्यक्ष के द्वारा धर्म पर दिए गए पहले विस्तृत साक्षात्कार हैं। आमतौर पर माक्र्सवादी शासकों ने धर्म पर इस तरह के इंटरव्यू नहीं दिए हैं।
-कृष्ण कांत
रात को तीन बजने को हैं। अब पटाखों की आवाज थम गई है। कुछ देर पहले तक कान पर कहर बरपा है। अब चारों तरफ सिर्फ धुआं है। घर से बाहर आते ही पटाखे जलने की गंध नाक में भर रही है। ्रक्तढ्ढ नापने से पहले अंदाजा लग रहा है कि कल क्या रिपोर्ट आने वाली है।
परिवार का ही एक बच्चा दिवाली से पहले बाहर ले जाया गया है क्योंकि उसके नाजुक फेफड़े यह जहर नहीं झेल सकते। कुछ साल पहले उसे सांस की तकलीफ हुई। डॉक्टर ने कहा कि दिल्ली की हवा का स्तर ये नहीं झेल सकता। इसके हिसाब से ्रक्तढ्ढ खतरनाक है। बाहर ले जाओ। पिछले कुछ सालों से वह हर साल अक्टूबर से दिसंबर के बीच बाहर जाता है। माता पिता को अपने काम के साथ समझौता करना पड़ता है।
ऐसे हजारों बच्चे होंगे जिनके लिए दिल्ली हृष्टक्र की हवा जहर हो चुकी है। तमाम सांस के मरीज, तमाम बीमार, तमाम कमजोर लोग, इसे झेलते हैं।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ पटाखों से ही प्रदूषण हो रहा है। करोड़ों वाहन, हजारों हजार निर्माण कार्य, हजारों फैक्ट्रियां रोजमर्रा के प्रदूषक हैं। इस सीजन में पराली और पटाखे इसे अति खतरनाक बना देते हैं।
भारत में 2019 में वायु प्रदूषण से 24 लाख मौतें हुई थीं। यानी रोजाना 6500 मौतें। 2021 में भारत में वायु प्रदूषण से 21 लाख मौतें हुईं। इनमें 169000 पांच साल से कम उम्र के बच्चे थे। अकेले दिल्ली में प्रतिवर्ष 12000 से ज्यादा मौतें वायु प्रदूषण से होती हैं।
दिवाली बहुत सुन्दर त्यौहार है। बचपन में मुझे भी पटाखों का शौक लगता था। बच्चे खास आकर्षित होते हैं। लेकिन क्या पटाखों के बगैर दिवाली कम सुंदर होगी? जैसे ही कोई कहता है कि पटाखे नुकसान पहुंचाते हैं, उसकी बात को हिन्दू विरोध के रूप में देखा जाता है।
फर्ज कीजिए कि आप भी पटाखों पर किसी भी सलाह को हिन्दू विरोधी कह देते हैं। किसी दिन आपके बच्चे की सांस अटकने लगे और डॉक्टर कहे कि इसे यहां से बाहर ले जाओ तो आप बच्चे की जान बचाएंगे या ‘पटाखा छुड़ाकर हिन्दू बचाने वाली सनक’ का प्रदर्शन करेंगे?
क्या हम सामूहिक रूप से ऐसा सनक गए हैं कि अपने ही बच्चों के बारे में सोचने लायक नहीं बचे?
यकीन मानिए, इस समय मैं अपने दरवाजे के बाहर की हवा में घुला जहर महसूस कर रहा हूं और हमारे आपके बच्चों, बुजुर्गों और बीमारों के बारे में सोच रहा हूं।
अगर सामूहिक रूप से हमें जहर पसंद है, अगर बहुमत इस जहरीली हवा का ही समर्थक है, तो इसी हवा में दो चार सांसें और एक मौत अपनी भी है। मेरा किसी से कोई विरोध नहीं, बस चाहता हूं कि आप भी सोचना शुरू करें।
ईश्वर आपको अंधेरे से प्रकाश को ओर, और मौत से जीवन की ओर ले जाएं। दिवाली फिर से मुबारक!
25 वें वर्ष में राज्य आंदोलन की यात्रा
-राहुल कुमार सिंह
लोग सिर्फ छत्तीसगढ़ का सपना ही नहीं देखते रहे, उस पर गंभीर विचार, सक्रिय पहल, गतिविधियां भी संचालित करते रहे। ऐसे लोगों में से कुछेक ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, माधवराव सप्रे, पं. सुंदरलाल शर्मा, पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय, ठाकुर प्यारेलाल सिंह हैं। और भी जननायक है जिनकी चर्चा और सूची सहज उपलब्ध हो जाती है। किंतु कुछ ऐसे भी नाम हैं जो अल्पज्ञात बल्कि इस संदर्भ में लगभग अनजाने रह गए हैं। इन्हीं में से एक है डॉ. इंद्रजीत सिंह। मुस्लिम इतिहासकारों ने जिस क्षेत्र का आमतौर पर गोंडवाना नाम दे रखा था यही गोंडवाना आज के छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि है। गोंडवाना की सांस्कृतिक सामाजिक पहचान को रेखांकित करने के उद्देश्य से डॉ. इंद्रजीत सिंह ने लगभग 90 साल पहले पूरे गोंडवाना का व्यापक भ्रमण-सर्वेक्षण कर अंचल के भौगोलिक परिवेश और आदिम संस्कृति की विशिष्ट महानता को समझने के लिए गहन शोध किया और मध्य-भारत में सामाजिक मानवशास्त्र के क्षेत्र में किसी स्थानीय द्वारा किया गया यह पहला शोध सन् 1944 में 'द गोंडवाना एंड द गोंड्स' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ जिसकी पृष्ठभूमि पर नागपुर विधानसभा में ठाकुर रामकृष्णसिंह व अन्य विधायकों ने गोंडवाना राज्य के गठन की गुहार की थी।
21 नवंबर 1955 को ठा. रामकृष्ण सिंह ने विधानसभा में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए कहा था-हमारा छत्तीसगढ़ जो देश का बहुत पिछड़ा हुआ भाग है, इस बड़े प्रदेश (सीपी-बरार) में कभी नहीं पनप सकता। बृजलाल वर्मा, लाल श्याम शाह और वी. वाई. तामस्कर ने भी प्रस्ताव का समर्थन किया। लाल श्याम शाह ने कहा-जब कमीशन यहां आया था तब आदिवासी विभाग के मंत्री व उपमंत्री ने गोंडवाना (छत्तीसगढ़) राज्य बनाने मेमोरेंडम दिया था, लेकिन उस पर क्यों ध्यान नहीं दिया गया? यह रहस्य की बात है। तामस्कर ने कहा कि गोंडवाना का मेमोरेंडम भी म. प्र. के मेमोरेंडम के साथ ही प्रस्तुत हुआ था। मगर सदन में प्रस्ताव को समर्थन नहीं मिला। यह प्रस्ताव राज्य पुनर्गठन आयोग के प्रस्तावों पर चर्चा के दौरान रखा गया था। चर्चा का जवाब देते हुए मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने कहा-सिवाय प्रस्ताव महादेय और एकाध माननीय सदस्यों को छोड़ इस संशोधन की चर्चा किसी दूसरे ने भी नहीं की। इसका अर्थ यही है कि इसको समर्थन देने के लिए कोई तैयार नहीं है। इसलिए में समझता हूं कि इस पर कुछ ज्यादा कहने की आवश्यकता नहीं है।
अंतत: 1 नवंबर 1956 को मध्यप्रदेश का गठन हो गया। छत्तीसगढ़ को भी उसमें मिला दिया गया। इन क्षेत्रों में न भाषाई समानता थी और न ही सांस्कृतिक साम्य था। म. प्र. के गठन के संदर्भ में राजेंद्र माथुर की टिप्पणी गौर करने योग्य है-'म.प्र. के पास एक मंत्रिमंडल है, एक सचिवालय है, एक प्रशासकीय ढांचा है और राज्य के लिए जरूरी सारा तामझाम है। लेकिन उसके पास एक राज्य की आत्मा नहीं है।'
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के इतिहास और पृष्ठभूमि की तलाश में जितनी सामग्री मेरे देखने में आई उनमें लगभग सभी संस्मरण, श्रेय और दावों के अधिक करीब हैं। स्रोतों-दस्तावेजों के आधार पर तैयार इतिहास की अपनी कमियां हो सकती हैं, लेकिन जड़ और जमीन के लिए यह आवश्यक है। इस दृष्टि से अग्रदूत समाचार पत्र के 30 नवम्बर 1955 अंक में अंतिम पृष्ठ-8 का मसौदा, जिसमें गोंडवाना प्रान्त की मांग क्यों? शीर्षक के साथ परिचय है कि एस.आर.सी. की रिपोर्ट पर हमारी विधान सभा ने पिछले सप्ताह विचार-विमर्श किया। कुछ सदस्य एक गोंडवाना प्रान्त की मांग कर रहे हैं। ठाकुर रामकृष्ण सिंह एम.एल.ए. ने इस मांग के समर्थन में विधान सभा में जो विचार व्यक्त किए हैं, वे पठनीय है। उक्त का अंश इस प्रकार है-
अध्यक्ष महोदय, इस सदन में आज चार-पांच रोज से जो भाषावार प्रान्त के हिमायती हैं उन्होंने भाषण दिए। उससे यह स्पष्ट हो गया कि एक ही भाषा के बोलने वाले एक ही भाषा के बड़े प्रान्त में नहीं रहना चाहते। आयोग ने या हाई कमान्ड ने जो इस बात की कोशिश की कि एक भाषा के लोग एक ही प्रान्त में रहें तो इसका भी विरोध इसी सदन में आज 5 दिनों से हम देख रहे हैं। मराठी भाषा बोलने वाले लोग ही संयुक्त महाराष्ट्र में रहना नहीं चाहते। वे अपना अलग प्रान्त बनाना चाहते हैं। उनके भाषण में एक दूसरे के प्रति कटु भाव थे। इससे मुझे भास होता है कि जब एक भाषा के बोलने वाले आपस में एक दूसरे के प्रति इतनी कटु भावना रख सकते हैं तो वे दूसरी भाषा बोलने वाले के प्रति कैसी भावना रखेंगे। इन सब कारणों के अध्यक्ष महोदय, मैं एक भाषा के एक प्रान्त बनाने की योजना का विरोध करता हूं।
दूसरी बात जो श्री जोहन ने हमारे मुख्यमंत्री जी के प्रस्ताव में संशोधन रखा है उसका मैं समर्थन करता हूं। इस संबंध में अभी पहले हमारे एक उपमंत्री जी ने बहुत सुन्दर ढंग से ऐतिहासिक भूमिका दी है और वह इतनी यथेष्ठ है कि उसको मैं दोहराना नहीं चाहता। हम लोग जो गोंडवाना के समर्थक हैं वे यह चाहते हैं कि हमारा एक ऐसा कम्पोजिट प्रदेश बने जिनमें वे मराठी भाषी जो आज 95 वर्ष से हमारे साथ रहते आये हैं वे भी साथ रहें और अभी तक जिस प्रकार प्रेमपूर्वक रहते आये हैं उसी प्रकार रहें।
अध्यक्ष महोदय, मैं प्रस्तावित मध्यप्रदेश का इसलिये विरोध करता हूं कि वह इतना अन-बोल्डी है कि उसमें एडमिनिस्ट्रटिव कनविनिअन्स बिलकुल नहीं रहेगा। अध्यक्ष महोदय, मध्यभारत, भोपाल और विन्ध्य-प्रदेश का महाकोशल प्रदेश से कभी भी शासकीय संबंध नहीं रहा है। पर्वत, जंगल तथा अन्य कठिनाइयों के कारण आपस में आवागमन के लिए जो रेल और सड़क बनाने की सुविधा होनी चाहिए या इनको एक स्टेट के एडमिनिस्ट्रेशन में लाने के लिए जो सुविधा होनी चाहिये वह सुविधा बिलकुल नहीं है। आपने, अध्यक्ष महोदय, इस बात पर भी गौर किया होगा कि हमारे बस्तर से मध्यभारत की कितनी दूरी है। 800 से एक हजार मील की दूरी होती है। ऐसे प्रदेश में बस्तर जैसे पिछड़े प्रदेश में रहने वाला व्यक्ति कैसे सुखी रह सकता है यह सोचने की बात है।
दूसरी बात यह है कि हमारा छत्तीसगढ़, जो कि देश को बहुत ही पिछड़ा हुआ भाग है, इस बड़े प्रदेश में कभी पनप नहीं सकता। इसकी जो तरक्की होनी चाहिये इसकी तरफ से जो ध्यान देना चाहिये वह कभी भी प्रस्तावित मध्यप्रदेश के शासन में नहीं हो सकता। अध्यक्ष महोदय, आपने देखा होगा कि राजधानी के प्रश्न पर भोपाल, सागर, इटारसी और सबसे मुख्य जबलपुर की चर्चा होती रही पर किसी ने भी यह गौर नहीं किया कि हमारे बस्तर से या छत्तीसगढ़ से ये स्थान कितनी दूरी पर हैं। मैंने इस संबंध में इतने भाषण सुने पर किसी ने भी छत्तीसगढ़ का जिक्र नहीं किया। यह नहीं सोचा गया कि इन स्थानों से छत्तीसगढ़ कितनी दूर हो जावेगा।
हालांकि अध्यक्ष महोदय, मैंने अभी प्रस्तावित मध्यप्रदेश का विरोध किया है मगर जो होना है वह तो होकर रहेगा इसलिये इस सिलसिले में मैं यहां एक बात रिकार्ड करा देना चाहता हूं कि चाहे राजधानी भोपाल हो या सागर हो या जबलपुर हो पर उसमें हमारे छत्तीसगढ़ के हित का ध्यान रखा जाना चाहिये और वह यह है कि इसमें रायपुर शहर को उप-राजधानी बनाया जावे। रायपुर शहर छत्तीसगढ़ का हृदय है और छत्तीसगढ़ के सभी स्थानों से बराबर दूरी पर है। आज के हमारे मध्यप्रदेश की राजधानी नागपुर थी फिर गवर्नमेंट बराबर जबलपुर को उप-राजधानी मानती चली आ रही है इसलिये हम चाहते हैं कि सिर्फ सिर और चेहरे को ही न देखा जावे। इन्दौर, भोपाल और जबलपुर तो बड़े बड़े शहर हैं वे आकर्षण के केन्द्र हो सकते हैं। पर केवल चेहरे को ही न देखा जावे। हम दूर में जो गरीब लोग इस छत्तीसगढ़ में रहेंगे उनके ऊपर भी यथोचित ध्यान दिया जाना चाहिये इसलिए मेरा निवेदन है कि नवीन मध्यप्रदेश में रायपुर को उप-राजधानी बनाया जावे। यहां जो गरीब लोग रहे हैं उनमें पोलिटिकल जाग्रति नहीं है इसका प्रमाण है कि 82 सदस्यों में से किसी ने भी राजधानी के प्रश्न पर यह नहीं कहा कि रायपुर को उप-राजधानी बनाया जावे। इससे पता चलता है कि ये लोग कितने बैकवर्ड हैं। इसलिये मैं चाहता हूं कि प्रस्तावित मध्यप्रदेश का यदि निर्माण होता है तो रायपुर को उप-राजधानी बनाने के अलावा हाईकोर्ट बेंच, रेवन्यू बोर्ड बेंच और दीगर फेसिलिटीज जो होती हैं वे दी जावें। अध्यक्ष महोदय, मैं इन शब्दों के साथ गोंडवाना प्रान्त की मांग का समर्थन करता हूं।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ठाकुर रामकृष्ण सिंह पहले विधायक थे जिन्होंने विधानसभा में छत्तीसगढ़ राज्य की मांग उठाई थी। इससे पहले उन्होंने रायपुर के गिरधर भवन में 30 अक्टूबर 1955 को एक बैठक बुलाई थी, जिसमें छत्तीसगढ़ राज्य की मांग सदन में उठाने के विषय पर विचार विमर्श किया गया था। बैठक में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी क्रांतिकुमार भारतीय, दशरथ लाल चौबे और कमलनारायण शर्मा ने जोरदार शब्दों में छत्तीसगढ़ राज्य की आवश्यकता प्रतिपादित की थी।
(पूर्व संयुक्त संचालक, संस्कृति एवं पुरातत्व छत्तीसगढ़)
-केशव कृपाल पांडेय
कोई भी धर्म हो उसके अनुयाई उस धर्म के ठीक-ठीक पालन से और अनुरूप आचरण से जाने जाते हैं। लेकिन हिन्दूधर्म धर्माचरण की मर्यादा से निश्चिन्त तथा निष्क्रिय केवल पंडाल, शोभायात्रा, उत्सव, मेले और दिव्य दरबार में सहभागिता पर निर्भर हो गया है। पहले तो हमारा धर्म 'हिन्दू' धर्म है नहीं, पर जो है, मैं उसी की बात कर रहा हूं।
वर्णव्यवस्था, चारों आश्रम, संध्या, तर्पण, पूजन, भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक, रोटी-बेटी के रिश्ते आदि अब कहां को बचे हैं? इनकी पूर्णतया वापसी संभव है भी नहीं। लेकिन सत्य, दया, धर्म, त्याग, तप आदि आध्यात्मिक मूल्यों की हिफाजत करना तो संभव है।
इनका बचे रहना उचित है या अनुचित, इससे परे प्रश्न यह है कि इस प्रकार हमारे स्वयं के धर्म से क्रमशः च्युत होने में क्या विधर्मी और मुसलमान कारण हैं? अगर नहीं तो फिर हमारे धर्म को इनसे से खतरा क्यों बताया जाता है? धर्मसम्राट पूज्य करपात्रीजी महाराज कहा करते थे कि अपने धर्म में दृढ़ निष्ठा रखने वाला मुसलमान उस हिन्दू से अच्छा है जो अपना धर्माचरण छोड़कर केवल हिन्दू होने की बात करता है।
वर्तमान समय में हिन्दू अपने धर्म का जितना विरोध कर रहे हैं, मुसलमान उसका एक अंश भी करता दिखाई नहीं देता। हमने कभी नहीं सुना कि हमारे देवताओं, प्रतीकों, ब्राह्मणों और महापुरुषों को मुसलमान ने अपमानित किया है।
वर्तमान में धर्माचरण और आध्यात्मिक मूल्यों से सर्वथा विहीन जो हिन्दू समाज दृश्यमान है, वह फल के छिलके की तरह स्वरस-विहीन है। उसे देखकर केवल फल की याद आ सकती है कि छिलका भी कभी फल था।
आज का हिन्दू एक समुदाय या बहु संख्यक जनसमूह का वाचक हो गया है, धर्माश्रयी नहीं। जैसे मराठी, बंगाली, पहाड़ी और पंजाबी आदि शब्दों का व्यवहार होता है। यह विशेष हिन्दू अपने तथाकथित उत्कर्ष के अमृतकाल में किसी धार्मिक अनुशासन का मोहताज न होकर एक गैर पंजीकृत राजनीतिक संगठन का प्रारूप बन चुका है।
हमारी गौ माता जिनके लिए भगवान के विविध अवतार हुआ करते हैं, बूचड़खानों में तड़प रही हैं और हम हिरण के पीछे पागल हो रहे हैं। मतवाला हिन्दू सड़क पर छटांक भर मांस पिंड के पीछे बवाल काट कर गौ माता से उऋण होना चाहता है और मस्जिदों पर ध्वजारोहण को परम धर्म समझ रहा है। हमारे खास मन्दिर आत्मशांति और आत्मोद्धार की पवित्र भावना से दूर पर्यटन, पैसा और जनमत के विस्तार की प्रयोगशाला बन रहे हैं। अब विचार कीजिए कि हिन्दू या हिन्दुत्व को खतरा हिन्दू से है या किसी पराये से?
-श्याम मीरा सिंह
दिल्ली में मेरे किराए के घर के पास अमीरों की रिहाइश है। उनके बच्चे पिछले दो हफ़्ते से पार्क में इक_ा होते हैं और घंटों-घंटों तक पटाखे फोड़ते हैं। उनके ग्रुप बने हुए हैं। आपस में कन्पटीशन होते हैं। मेरे कई पत्रकार मित्र जो मेरे घर आए उन्होंने ख़ुद आँखों से ये सब देखा है। मेरे कई दोस्तों ने फ़ोन पर भी पटाखें की आवाज़ें नोटिस की हैं और टोका है कि ये किसकी अवाज आ रही है बार बार। जब मैं कहता हूँ कि पटाखों की तो वे कहते हैं अभी तो दीवाली भी नहीं आई। इसी हफ़्ते मेरे तीन दोस्त घर आए, जिन्हें मैंने छत की बालकनी में बिठाया। पटाखों की आवाज़ से वे इतने परेशान हुए कि खुले में बैठ ही नहीं पाए, उन्हें कमरे के अंदर जाना पड़ा। ये दीवाली से एक हफ़्ते पहले की बात है, इसका हमारे पवित्र त्यौहार से कोई संबंध भी नहीं है।
रिच किड्स पर पैसे की कमी नहीं होती, इन्हें पॉकेट मनी भी हमारे बच्चों की स्कूल फ़ीस से ज़्यादा मिलती है। जहां आम हिन्दी त्यौहार मनाने के लिए एक दो पटाखे फोड़ लेता है वहीं अमीरों के ये बच्चे अपने मनोरंजन के लिए दो हफ़्ते पहले से ही घंटों तक पटाखे फोड़ते हैं। बच्चों में आपस में ग्रुप हैं और घंटों तक कनपटीशन चलते हैं। पूरा आसमान पटाखे के ज़हरीले धुएँ से भरके, आराम से घर जाकर अपने बड़े बड़े घरों में सोते हैं जहां इनके घरों में एयर प्योरिफ़ायर होते हैं। लेकिन धुआँ घंटों आसमान में रहता है। इधर उधर जाता है। उन लोगों तक पहुँचता है जो इसके लिए जि़म्मेदार भी नहीं। इस धुएँ को दिल्ली में आम हिंदू झेलते हैं। जबकि गरीब हिंदू और उनके बच्चों का इस ज़हरीले धुएँ में लगभग जीरो योगदान है। अधिक से अधिक वे दीवाली वाले दिन एकाध पटाखें जला लें तो जला लें। नहीं तो गरीब हिंदुओं के बच्चे आपको पटाखे फोड़ते नहीं मिलेंगे। (बाकी पेज 5 पर)
अमीरों के बच्चे ही नहीं बल्कि अमीर लोग ख़ुद भी दीवाली वाले दिन सबसे अधिक पटाखे फोड़ते हैं। अपने मनोरंजन के लिए बीस-तीस हज़ार के पटाखे फोड़ देना इनके लिए कान पर जू रेंगने जितना भी नहीं है। आपने कभी नहीं देखा होगा कि किसी गाँव में रंगारंग आतिशबाजी घंटों तक हो रही हो। ये शहरों में ही होती हैं, वो भी अमीर लोगों के द्वारा।
हमारे घरों को खिड़कियाँ भी ऐसी होती हैं कि बाहर की आवाज़ें और धुआँ घरों में घुस जाएँ, जबकि इनके मकानों में लगे ग्लास से बाहर की आवाज़ तक इनके कमरों में नहीं घुस सकती। शहर और शहर का पर्यावरण हमारी साझा जि़म्मेदारी हैं। लेकिन हमारे यहाँ सिटिजऩ सेंस जीरो है, बच्चों की रेस्पोंसिबल पेरेंटिंग जीरो है। इस कारण पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाने वाला कोई और होता है और झेलने वाले कोई और।
-ध्रुव गुप्त
दीवाली में देवी लक्ष्मी की हर तरफ चर्चा है लेकिन उनके वाहन उल्लुओं की बात कोई नहीं करता। यह शायद इसलिए कि उन्हें हमने मूर्खता का पर्याय मान रखा है। सच इसके विपरीत ही है। पक्षियों की यह प्रजाति दुनिया के कुछ सबसे अद्भुत और बुद्धिमान जीवों में एक है। रातों में बेहतर देखने वाला एकमात्र जीव जिसकी दृष्टि इतनी पैनी होती है कि वह वस्तु को 3-डी एंगल यानी उसकी लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई तीनों में देख सकता है। वह अपने सिर को दोनों दिशाओं में 270 डिग्री तक घुमा सकने में सक्षम है। उल्लू हम इंसानों की श्रवण-सीमा से दस गुनी धीमी आवाज सुन सकता है। पृथ्वी के वातावरण में मौजूद कई-कई तरह के हानिकारक कीड़ों का शिकार करने के कारण उसे प्रकृति का सफाईकर्मी कहा जाता है। दुनिया के कई देशों में उल्लुओं को ज्ञान का प्रतीक कहा गया है। यूनान की पौराणिक कथाओं के अनुसार बुद्धि की देवी एथेन उल्लू का रूप धरकर पृथ्वी पर आती हैं और लोगों को बुद्धि का वरदान देती है। चीनी फेंगशुई में उल्लू सौभाग्य और सुरक्षा का प्रतीक है। जापानियों की नजर में उल्लू मुसीबत में उनकी रक्षा करता है। हमारा ज्योतिषशास्त्र मानता है कि उल्लू की मुद्राओं, बोली और उड़ान भरने की स्थिति से भूत, भविष्य और वर्तमान की घटनाओं का पता लगाया जा सकता है।
तात्पर्य यह कि उल्लुओं का सम्मान करिए। धन की देवी लक्ष्मी और ज्ञान की देवी सरस्वती दोनों प्रसन्न होंगी। कोई आपको उल्लू कहे तो अपमानित नहीं,बल्कि सम्मानित महसूस करिए। उल्लुओं के बारे में इतना कुछ जान लेने के बाद मेरी हार्दिक इच्छा रहती है कि लोग मुझे उल्लू कहकर बुलाएं। और किसी ने तो अबतक नहीं कहा लेकिन मेरी घरवाली दिन में जितनी बार मुझे उल्लू कहती है उतनी बार में आत्मगौरव की भावना से भर जाता हूं।
बीते दो दिनों में प्यूर्टो रिको अचानक अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में बहस का केंद्र बन गया है।
कैरेबियाई सागर में क्यूबा के नज़दीक इस छोटे से टापू में इस बार कोई प्राकृतिक आपदा नहीं आई है और ना ही उसकी हिचकोले खाती अर्थव्यवस्था अमेरिकियों का ध्यान खींच रही है।
प्यूर्टो रिको में दिलचस्पी का सबब है एक चुटकुला।
बीते रविवार को टोनी हिंचक्लिफ़ नाम के एक अमेरिकी कॉमेडियन ने न्यूयॉर्क में हुई ट्रंप की रैली में एक ऐसा जोक सुना दिया, जो अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों पर असर डाल सकता है।
टोनी हिंचक्लिफ़ ने रविवार को न्यूयॉर्क में हुई रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की रैली के दौरान प्यूर्टो रिको को ‘समुद्र में तैरता कूड़े का एक टापू’ बताया था।
जबसे उनका ये जोक इंटरनेट पर वायरल हुआ, तबसे सोशल मीडिया पर नाराजग़ी देखने को मिल रही है।
डेमोक्रेट ही नहीं बल्कि रिपब्लिकन पार्टी के राजनेता भी इस चुटकुले से पल्ला झाड़ रहे हैं और कॉमडेयिन की आलोचना कर रहे हैं।
जब विवाद बढ़ा तो हिंचक्लिफ़ ने अपना बचाव करते हुए एक्स पर लिखा, ‘इनको जऱा भी सेंस ऑफ़ ह्यूमर नहीं है। मैं प्यूर्टो रिको से प्यार करता हूँ, मैंने सबका मज़ाक उड़ाया, आप पूरा भाषण सुनें।’
प्यूर्टो रिको से आने वाले जेनिफऱ लोपेज़ और रिकी मार्टिन जैसे सुपरस्टार भी इन लोगों में शामिल हैं।
ट्रंप और हैरिस के बीच मुकाबला कांटे का है। ताज़ा सर्वेक्षणों से संकेत मिल रहे हैं कि एक प्रतिशत वोट इधर से उधर होने पर खेल बन या बिगड़ सकता है।
प्यूर्टो रिको क्यों है खास
प्यूर्टो रिको, अमेरिका का एक स्वशासित राज्य है। ये साल 1898 से अमेरिका का हिस्सा रहा है।
इस कैरेबियाई द्वीप पर जन्मा हर व्यक्ति अमेरिकी नागरिक होता है और उसके पास अमेरिकी पासपोर्ट होता है।
हालाँकि वहां के लोग तब तक अमेरिकी चुनावों में वोट नहीं डाल सकते, जब तक वे 50 अमेरिकी राज्यों में से किसी एक में मतदान करने के लिए पंजीकृत न हों।
प्यूर्टो रिको की संस्कृति पर स्पैनिश और अफ्रीकी प्रभावों का मिश्रण है। इस द्वीप पर अधिकतर लोग स्पैनिश बोलते हैं।
हर साल इस द्वीप पर लाखों टूरिस्ट आते हैं लेकिन हाल के वर्षों में बढ़ते कजऱ्े, गरीबी और बेरोजगारी के कारण बड़ी संख्या में लोग अमेरिका जाते रहते हैं।
टोनी हिंचक्लिफ़ कौन हैं
टोनी हिंचक्लिफ टेक्सास के एक स्टैंड-अप कॉमेडियन हैं, जो अपने पॉडकास्ट ‘किल टोनी’ के लिए मशहूर हैं।
उनके यूट्यूब पर पॉडकास्ट के कऱीब 11 लाख सब्सक्राइबर हैं।
उन्होंने कॉमेडी जगत में अपनी शुरुआत जो रोगन के साथ काम करते हुए की और कॉमेडी सेंट्रल रोस्ट पर मशहूर हस्तियों के लिए चुटकुले लिखे।
वे पहली बार अपनी टिप्पणियाँ और आक्रामक स्वभाव के कारण सुर्खय़िों में नहीं आए हैं।
साल 2021 में, उन्होंने एक कॉमेडी सेट के दौरान अमेरिकी-चीनी कॉमेडियन पेंग डेंग का जिक्र करते हुए नस्लीय टिप्पणी की थी और बाद में माफी मांगने से इनकार कर दिया था।
अमेरिकी मैगज़ीन वैरायटी ने जब उस विवाद के बारे में पूछा था तो हिंचक्लिफ ने कहा था, ‘मैं जानता था कि मैंने जो किया वह गलत नहीं था।’
बाइडन के चुनाव से हटने के बाद कमाल हैरिस मैदान में आई थीं तो मुकाबला कांटे का हो गया था। नीचे दिए गए ग्राफ़ में देखिए सर्वे में कैसे हैरिस और ट्रंप के बीच नज़दीकी मुकाबला देखने को मिल रहा है।
ट्रंप का डैमेज कंट्रोल
आलोचनाओं के बाद ट्रंप ने ख़ुद को हिंचक्लिफ़ के बयान से किनारा कर लिया है।
ट्रंप की वरिष्ठ सलाहकार डेनिएल अल्वारेज़ ने कहा, ‘ये एक जोक था और ये ट्रंप के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करता।’
गौरतलब है कि ट्रंप और हैरिस दोनों ही लैटिन अमेरिकी लोगों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते रहे हैं। ये मतदाता 5 नवंबर को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में निर्णायक साबित हो सकते हैं।
पेनसिल्वेनिया जैसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य में प्यूर्टो रिको से आए लोग बड़ी संख्या में रहते हैं।
बीबीसी संवाददाता एंथनी जर्चर कहते हैं कि संडे की ट्रंप की रैली उनकी ताक़त दिखाने के लिए थी लेकिन अब उन्हें डेमेज कंट्रोल करना पड़ रहा है।
कुछ जानकार कह रहे हैं कि हिंचक्लिफ़ का जोक ट्रंप के दोबारा व्हाइट हाउस जाने के सपने को धूमिल कर सकता है।
कितने असरदार हैं प्यूर्टो रिको के मतदाता
बीते एक दशक में प्यूर्टो रिको से हज़ारों लोग अमेरिका पहुँचे हैं। अपने यहाँ भयानक समुद्री तूफ़ानों के बाद आए आर्थिक संकट से भागे लोग कई राज्यों में बसे हैं।
प्यूर्टो रिको से जो भी अमेरिका पहुँचा है, उसे चुनाव में मतदान देने का अधिकार है, बशर्ते वो किसी अमेरिका राज्य में बतौर वोटर पंजीकृत हो।
एक अनुमान के अनुसार ऐसे 58 लाख मतदाता हैं। इससे भी अहम ये है कि इनमें कई नॉर्थ कैरोलिना, जॉर्जिया, फ्लोरिडा और पेनसिल्वेनिया जैसे अहम राज्यों में केंद्रित हैं।
फ्लोरिडा में 11 लाख ऐसे मतदाता हैं। ये ज़रूर ट्रंप का गढ़ है लेकिन प्यूरटो रिको के लोगों की नाराजगी यहाँ महंगी पड़ सकती है।
फ्लोरिडा के पूर्व गवर्नर रिक स्कॉट ने चुटकुले के बारे में कहा, ‘ये बिल्कुल फनी नहीं था और सच तो कतई नहीं। प्यूर्टो रिको के लोग ज़बरदस्त हैं और वे बढिय़ा अमेरिकन भी हैं।’
रिपब्लिकन पार्टी की मारिया एलविरा सालाज़ार ने एक्स पर ‘नस्लभेदी’ चुटकुले को भद्दा बताते हुए कहा कि ये उनकी पार्टी के मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करता।
न्यूयॉर्क में प्यूर्टो रिको से आने वाले कऱीब 10 लाख लोग रहते हैं। इन लोगों को भी हिंचक्लिफ़ का जोक बिल्कुल फऩी नहीं लगा होगा।
दांव पर व्हाइट हाउस की गद्दी
लेकिन सबसे अहम हैं पेनसिल्वेनिया में रहने वाले 4,50,000 प्यूर्टो रिको के मतदाता। ये लोग रिपब्लिकन पार्टी के सपनों को नुक़सान पहुँचा सकते हैं।
सर्वे के मुताबिक़ डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस में से कौन जीतेगा इसका फ़ैसला शायद पेनसिल्वेनिया करने वाला है।
इसकी वजह है।
पिछले चुनावों में यहाँ जो बाइडन को जीत मिली थी। वे महज़ 82,000 मतों से जीते थे। साल 2016 में यहाँ ट्रंप जीते थे पर सिफऱ् 44,000 वोटों से।
टोनी हिंचक्लिफ़ के चुटकुले से पहले कमला हैरिस पेनसिल्वेनिया के एक प्यूर्टो रिकोन रेस्तरां में थी।
वे द्वीप की अर्थव्यवस्था और सात साल पहले आए तूफ़ान मारिया के बाद पुनर्निमाण की बारे में बात कर रही थीं।
इसके बाद उन्होंने एक वीडियो भी रिलीज़ किया जिसमें यही संदेश दोहराया और कहा कि तूफ़ान मारिया के वक़्त ट्रंप ने प्यूर्टो रिको की पर्याप्त मदद नहीं की थी। इस तूफ़ान के कारण वहां 4,000 लोग मरे थे।
फायदा उठाने की फिराक में डेमोक्रेट्स
ट्रंप की न्यूयॉर्क रैली में जो कुछ हुआ डेमोक्रेटिक पार्टी उस भरपूर फ़ायदा उठाने की फिराक में है।
कमला हैरिस ने सोशल मीडिया पर प्यूर्टो रिको के बारे में अपने वीडिया हिंचक्लिफ के चुटकुले के साथ शेयर किया है ताकि लोगों को दोनों पार्टियों के विचारों का पता चल सके।
इसके अलावा डेमोक्रेटिक पार्टी के उप राष्ट्रपति उम्मीदवार टिम वाल्ज़ ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विच पर कॉमेडियन की कड़ी आलोचना की है।
नॉटिंघम यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर टॉड लैंडमेन ने द कनवर्सेसन में छपे एक लेख में कहा है कि ‘इस बार के चुनाव काफी छोटे मार्जिन से जीते या हारे जाएंगे। यही वजह है कि प्यूर्टो रिको के लोगों का रुख किसी भी उम्मीदवार का खेल बिगाड़ सकता है।’
लैंडमेन कहते हैं कि यही वजह है कि दोनों ही पक्ष अब उनके वोट लेने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं।
उन्होंने लिखा, ‘अगर हिंचक्लिफ़ की टिप्पणियों से लोग क्रोधित हुए तो इसका चुनाव के परिणामों पर अहम असर पड़ेगा।’
यूनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग के समाजशास्त्री फर्ऩेंडो टोरमोस-अपोंटे ने टाइम मैगज़़ीन को बताया, ‘चुनाव बहुत नज़दीक हैं और इतनी जल्दी उस जोक को नहीं भुलाया जाएगा।’
उनका मानना है कि अन्य अल्पसंख्यक समूह भी प्यूर्टो रिको के लोगों का समर्थन कर सकते हैं और अगर ऐसा हुआ तो पांच नवंबर को डेमोक्रेट्स का पलड़ा भारी पड़ सकता है। (bbc.com/hindi)
-शिल्पा शर्मा
ये जो लोग राग अलाप रहे हैं कि पटाखे फोड़ेंगे, पटाखे फोडऩा तभी बंद करेंगे जब अलां ये बंद करे और फलां वो बंद करे। ईश्वर इन्हें सद्बुद्धि दे!
और इन्हें सचमुच हिन्दू बनाने की ताकत दे, क्योंकि इन्हें कतई पता नहीं है कि आतिशबाजी की आमद नवीं शताब्दी में चीन से हुई। वही चीन, जिसकी झालरों का बहिष्कार आप अपना राष्ट्र धर्म निभाते हुए कर रहे हैं।
फिर सन् 1400 के आसपास (जब भारत पर मुगलों का राज था) पटाखे बजाना या आतिशबाजी का खेल गली नुक्कड़ों में किया जाने लगा तो इससे एक बात तो तय हो गई कि जो परंपरा सन 1400 के आसपास शुरू हुई और मुगल काल में शुरू हुई वो हिंदुओं की परंपरा तो कतई नहीं थी।
बहरहाल, मेरी छोटी समझ कहती है कि जब पटाखे गली-नुक्कड़ों पर फोडऩा शुरू किया गया होगा, तब इससे होने वाले वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण की जानकारी नहीं रही होगी और न ही भारत विश्व का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश रहा होगा।
अब जहां तक सवाल इस तर्क का है कि दुनियाभर में पटाखे फोड़े जाते हैं तो प्रदूषण नहीं होता और हम हिंदू दिवाली पर पटाखे फोड़ते हैं तो प्रदूषण होता है। तो ध्यान दें कि दुनियाभर जब में पटाखे जब फोड़े जाते हैं तो किसी एक निर्धारित स्थान पर जाकर फोड़े जाते हैं, हर गली नुक्कड़ में नहीं!
अब आपके परिवार में किसी को या आपको न हो तो कोई बात नहीं, पर लोगों को सांस से जुड़ी समस्याएं, अस्थमा या फिर धुएं से एलर्जी होती है, गला चोक होने लगता है, सांस नहीं आती, उनका क्या?
हमारी जनसंख्या सबसे अधिक है और हर गली में पटाखे फूटने से कितना प्रदूषण होगा? बच्चों, बूढों और बीमार लोगों के बारे में कुछ सोचने की मानवता रखिएगा या उसका भी पटाखा बना के फूंक दें सब?
करवाइए assign एक जगह हर शहर में, जाइए वहां और फोडि़ए पटाखे, इतना डिसिप्लिन पैदा कर/करवा पाएंगे सब में?
वैसे कुछ अच्छे कामों की पहल ख़ुद भी तो की जा सकती है, कुछ जानलेवा परंपराओं को हम स्वयं भी तो ख़त्म करने का साहस दिखा सकते हैं कि नहीं? हमारी परवरिश और शिक्षा यदि हमें मानवता नहीं सिखाती तो व्यर्थ ही हुई समझिए।
-कैटी केय
अमेरिका में पाँच नवंबर को राष्ट्रपति चुनावों के लिए वोटिंग होनी है। इन चुनावों में मौजूदा उपराष्ट्रपति कमला हैरिस डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हैं, जबकि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हैं।
बीबीसी ने जानने की कोशिश की है कि अमेरिका के दो प्रमुख दलों के उम्मीदवारों में एक का महिला होना और एक का पुरुष होना कितना बड़ा चुनावी मुद्दा है।
चुनावी सर्वेक्षण करने वालों के मुताबिक़ अगले महीने होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप को पुरुषों के बीच बहुत ज़्यादा बढ़त हासिल है, जबकि महिलाओं ने बताया है कि वे कमला हैरिस को ट्रंप के मुकाबले बड़े पैमाने पर पसंद करती हैं।
अमेरिका में यह राजनीतिक ‘जेंडर’ अंतर एक दशक के सामाजिक उथल-पुथल को दिखाता है और अमेरिकी चुनाव के नतीजों को तय करने में मदद कर सकता है।
कमला हैरिस अमेरिका में राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने वाली पहली काली महिला हैं।
वो इस रेस के लिए जगह बनाने वाली वाली दूसरी महिला हैं। हालांकि कमला हैरिस अपनी पहचान के बारे में बात न करने की पूरी कोशिश करती हैं।
पिछले महीने सीएनएन को दिए इंटरव्यू में हैरिस ने कहा था, ‘मैं इसलिए चुनाव लड़ रही हूं क्योंकि मैं मानती हूँ कि इस समय सभी अमेरिकियों के लिए राष्ट्रपति के तौर पर काम करने के लिए मैं सबसे उपयुक्त हूं, चाहे उनकी जाति या लिंग कुछ भी हो।’
अमरिका में लैंगिक भेद कितना बड़ा मुद्दा
इस मुद्दे को ख़त्म करने की उनकी सभी कोशिशों के बावजूद, ‘जेंडर’ यानी लैंगिक आधार इस बार के राष्ट्रपति चुनाव अभियान का निर्णायक मुद्दा बनता जा रहा है।
‘मैडम प्रेसिडेंट’ का संबोधन यानी एक महिला का राष्ट्रपति बनना अमेरिका के लिए एक नई बात होगी और यह मानना सही है कि जहां कई मतदाताओं को यह पसंद आएगा, वहीं कुछ को यह नयापन थोड़ा परेशान करने वाला लगेगा।
हैरिस का चुनाव प्रचार अभियान इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन एक अधिकारी ने हाल ही में मेरे सामने स्वीकार किया कि उनका मानना है कि यहाँ एक ‘छिपा हुआ लिंगभेद’ है, जो कुछ लोगों को राष्ट्रपति पद के लिए किसी महिला को वोट देने से रोकेगा।
यह साल 2024 है और बहुत कम लोग इस तरह से बेवकूफ बनना चाहेंगे, जो पोलस्टर (चुनावी सर्वेक्षण करने वालों) को सीधे-सीधे बता दें कि उन्हें नहीं लगता कि कोई महिला अमेरिकी राष्ट्रपति कार्यालय के लिए उपयुक्त है।
हालांकि अमेरिका में बहुत से लोग सोशल मीडिया पर महिला विरोधी मीम्स शेयर करने के लिए तैयार हैं।
डेमोक्रेटिक पार्टी के एक रणनीतिकार का कहना है कि यह एक कोड है, जब मतदाता पोलस्टर्स को बताते हैं कि ‘हैरिस तैयार’ नहीं हैं या वोटरों के पास सही विकल्प या उन्हें जो चाहिए वो नहीं है, तो उनका वास्तव में मतलब है कि समस्या यह है कि हैरिस एक महिला हैं।
अमेरिका में ‘ताकतवर महिला’ को कहाँ तक स्वीकर करते हैं लोग
ट्रंप के चुनाव प्रचार अभियान का कहना है कि जेंडर का इससे कोई लेना-देना नहीं है।
उन्होंने कहा है, ‘कमला कमजोर, बेईमान और खतरे की हद तक उदारवादी हैं और यही वजह है कि अमेरिकी लोग 5 नवंबर को उन्हें अस्वीकार कर देंगे।’
हालाँकि उनके चुनाव प्रचार अभियान के एक वरिष्ठ सलाहकार ब्रायन लैंज़ा ने मुझे संदेश भेजकर कहा है कि उन्हें पूरा भरोसा है कि ट्रंप चुनाव जीतेंगे क्योंकि ‘पुरुषों’ का बड़ा अंतर हमें बढ़त दे रहा है।
पिछली बार जब कोई महिला राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ रही थी तो उनका लिंग के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से एक मुद्दा था।
आठ साल पहले हिलेरी क्लिंटन ने खुद को अमेरिका के किसी प्रमुख पार्टी की पहली महिला उम्मीदवार बताया था। उनके प्रचार अभियान का नारा ‘मैं उनके साथ हूँ’ था। जो इसमें बढ़-चढक़र उनकी भूमिका की एक ख़ास याद है।
पेंसिल्वेनिया की कांग्रेस सदस्य (सांसद) मैडेलीन डीन को याद है कि उन्होंने मतदाताओं के साथ क्लिंटन की उम्मीदवारी पर चर्चा की थी।
मैंने डीन के साथ एक दोपहर बिताई, जब वह अपने जिले में प्रचार कर रही थीं और उन्होंने मुझे बताया कि साल 2016 में लोग उनसे कहते थे, ‘उनमें कुछ ख़ास बात है।’
डीन के मुताबिक़ उन्हें जल्द ही एहसास हो गया कि ‘यह 'उनके' बारे में था। ये वो बात थी कि हिलेरी एक महिला थीं।’
हालांकि डीन का मानना है कि आज यह भावना कमज़ोर हुई है। लेकिन वो स्वीकार करती हैं कि आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो ‘एक शक्तिशाली महिला के अस्तित्व पर सवाल खड़े करते हैं और उनके लिए यह बहुत दूर की बात है।’
हालाँकि साल 2016 के बाद से महिलाओं के लिए बहुत कुछ बदल गया है। साल 2017 में ‘मी ट’ आंदोलन ने काम करने वाली जगह पर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव के बारे में जागरूकता बढ़ाई है।
अमेरिका में महिलाएं कितनी आगे
‘मी टू’ ने पेशेवर के तौर पर महिलाओं के बारे में हमारी बातचीत के तरीके को बदल दिया है और इसने हैरिस जैसे उम्मीदवार के लिए नामांकन हासिल करना आसान बना दिया है।
लेकिन विविधता, समानता और समावेश के मुद्दों पर उठाए गए बड़े कदमों को कुछ लोगों ने एक कदम पीछे की ओर भी माना है।
खासतौर पर उन युवा पुरुषों के लिए जिन्हें लगा कि उन्हें पीछे छोड़ दिया गया है।
ये बदलाव रूढि़वादी अमेरिकियों के लिए बहुत दूर के भी थे जो पारंपरिक तौर पर महिला या पुरुष की अलग-अलग भूमिकाओं को पसंद करते हैं।
रविवार को जारी सीबीएस न्यूज के सर्वेक्षण के नतीजों से पता चलता है कि इस दौड़ में लैंगिक अंतर पैदा हो गया है, जो सामाजिक भूमिकाओं के बारे में अमेरिका में व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है।
बीबीसी के अमेरिकी समाचार सहयोगी सीबीएस के मुताबिक़ जिन पुरुषों के यह कहने की संभावना ज़्यादा है कि अमेरिका में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने की कोशिश बहुत ज़्यादा बढ़ गई है; उनके ट्रंप समर्थक होने की संभावना ज़्यादा है।
जबकि महिलाओं का यह कहना ज़्यादा सही है कि ये प्रयास पर्याप्त नहीं हैं और वे हैरिस का समर्थन करती हैं।
सीबीएस की रिपोर्ट के मुताबिक़ पुरुषों के बीच हैरिस को एक मजबूत नेता मानने की संभावना, महिलाओं की तुलना में कम है और ज़्यादातर पुरुषों का कहना है कि वो ट्रंप को एक मजबूत नेता मानते हैं।
इसलिए कुछ मतदाताओं के लिए यह चुनाव लैंगिक मानदंडों और हाल के बरसों की सामाजिक उथल-पुथल पर जनमत संग्रह बन गया है।
युवा पुरुषों के सामने बदलता समाज
यह बात ख़ास तौर पर उन मतदाताओं के लिए सही दिखती है, जिन तक कमला हैरिस को पहुँचने में मुश्किल हो रही है।
ऐसे युवा जो इस तरह की दुनिया में रहते हैं जो युवा पुरुषों के लिए तेजी से बदल रही है।
हार्वर्ड इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिक्स में डायरेक्टर ऑफ पोलिंग जॉन डेला वोल्पे कहते हैं, ‘युवा पुरुषों को अक्सर ऐसा लगता है कि अगर वो सवाल पूछते हैं तो उन्हें महिला विरोधी, समलैंगिकों का विरोधी या नस्लवादी करार दिया जाता है।’
उनका कहना है, ‘खुद के न समझे जाने से निराश होकर, कई लोग डोनाल्ड ट्रंप या एलन मस्क की भाईचारे वाली संस्कृति में फंस जाते हैं। वो देखते हैं कि डेमोक्रेटिक पार्टी किसे प्राथमिकता देती है। जैसे; महिलाएँ, गर्भपात के अधिकार, एलजीटीबीक्यू संस्कृति और फिर अपने बारे में सवाल पूछते हैं कि वो इसमें कहाँ हैं।’
डेला वोल्पे युवा मतदाताओं के सर्वेक्षण में विशेषज्ञ हैं। उनका कहना है कि जिन युवा पुरुषों का वो जिक्र कर रहे हैं, वो किसी कट्टरपंथी दक्षिणपंथी, इनसेल गुट का हिस्सा नहीं हैं।
वो आपके या आपके पड़ोसी के बेटे हैं। वास्तव में वो कहते हैं कि कई लोग महिलाओं के लिए समानता का समर्थन करते हैं, लेकिन उन्हें यह भी लगता है कि उनकी अपनी चिंताओं को अनदेखा कर दिया जाता है।
डेला वोल्पे ने आंकड़ों की एक सूची पेश की है, जिसमें दिखाया गया है कि आजकल युवा पुरुष अपनी महिला समकक्षों की तुलना में किस तरह खराब हालात में हैं।
इसके मुताबिक उनके रिश्तों में पडऩे की संभावना कम है, उनके कॉलेज में दाखिला लेने की संभावना पहले की तुलना में कम है और उनकी आत्महत्या की दर महिला समकक्षों की तुलना में ज़्यादा है।
इस बीच युवा अमेरिकी महिलाएँ तेजी से आगे बढ़ रही हैं। उन्हें पुरुषों की तुलना में बेहतर शिक्षा हासिल है। वो सर्विस सेक्टर में काम करती हैं, जो तेजी से बढ़ रहा है और वे पुरुषों की तुलना में ज़्यादा पैसे कमा रही हैं।
‘गैलअप पोलिंग ग्रुप’ के मुताबिक डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद से युवा महिलाएँ भी युवा पुरुषों की तुलना में काफी ज़्यादा उदार हो गई हैं।
यह सब अमेरिका में लैंगिक भेदभाव को और भी बढ़ा रहा है। ‘अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट’ के मुताबिक पिछले सात साल में ऐसे युवा पुरुषों की संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई है जो कहते हैं कि अमेरिका लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में बहुत आगे निकल गया है।
ट्रंप का पुरुष वोटरों को साधने पर जोर
लोगों के असंतोष को सहज रूप से समझने की क्षमता की वजह से ट्रंप ने पुरुषों की इस निराशा का फायदा उठाया है और अपने प्रचार अभियान के अंतिम दौर में उन्होंने ‘मर्दानगी’ पर दोगुना जोर दिया है।
उन्होंने अमेरिकी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘ट्रुथ सोशल’ पर एक चेतावनी को फिर से पोस्ट किया जिसमें दावा किया गया कि ‘मर्दानगी पर हमला हो रहा है।’
हाल ही में उन्होंने एक प्रसिद्ध गोल्फर के जननांग के बारे में मजाक किया था।
ट्रम्प ने लॉकर रूम की चर्चा को लॉकर रूम से बाहर निकाल दिया है और उनके दर्शकों को यह बहुत पसंद आया।
अपनी रैलियों में और प्रसारण के दौरान असंतुष्ट पुरुषों के प्रति डेमोक्रेट्स की प्रतिक्रिया कठोर प्रेम की खुराक जैसी दिखती है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने फटकार भी लगाई कि कुछ पुरुष ‘महिला को राष्ट्रपति बनाने के विचार को पसंद नहीं कर रहे हैं और आप इसके लिए अन्य विकल्प और अन्य वजह लेकर आ रहे हैं।’
एक नए टीवी विज्ञापन में अभिनेता एड ओ‘नील थोड़े तीखे लेकिन अधिक सीधे थे। उनका कहना था, ‘एक पुरुष बनें और एक महिला को वोट दें।’
इस चुनाव प्रचार अभियान के अंतिम दिनों में जेंडर हर जगह है-अन्य किसी जगह नहीं।
डोनाल्ड ट्रम्प इस दौड़ में मर्दानगी को सबसे आगे और केंद्र में रखना चाहते हैं। कमला हैरिस शायद ही स्वीकार करती हैं कि वह एक महिला हैं जो राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ रही हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के सर्वेक्षण में ट्रम्प पुरुष मतदाताओं के साथ 14 फीसदी आगे हैं, जबकि महिलाओं के बीच हैरिस 12 फीसदी वोट से आगे हैं।
अमेरिका में पुरुष और महिलाएं, लडक़े और लड़कियाँ शायद इस चुनाव के नतीजों को तय तक सकते हैं। (bbc.com/hindi)
-चंदन कुमार जजवाड़े
मौसम बदलने के साथ ही उत्तर भारत में वायु प्रदूषण का असर बढऩे लगा है। इस प्रदूषण का सबसे ज्यादा असर राजधानी दिल्ली और इसके आसपास रहने वाले करीब 3 करोड़ लोगों पर पड़ता है।
सर्दियों की दस्तक के साथ ही दिल्ली और इसके आसपास के लोग करीब तीन महीने तक एक तरह के गैस चैंबर में जहरीली हवा के बीच सांस लेने को मजबूर होते हैं।
इसका असर बच्चों, बुजुर्गों, गर्भवती महिलाओं और बीमार लोगों पर सबसे ज्यादा होता है। हालाँकि इन दिनों दिल्ली में प्रदूषण का असर इतना ज़्यादा होता है कि यह स्वस्थ इंसान को भी गंभीर बीमारियाँ दे सकता है।
दिल्ली के प्रदूषण पर सुप्रीम कोर्ट कई बार नाराजग़ी जता चुका है। केंद्र सरकार से लेकर दिल्ली और आसपास की राज्य सरकारें अलग-अलग दावे करती रही हैं, लेकिन इससे प्रदूषण के स्तर में कोई बड़ी राहत नजऱ नहीं आती है।
क्या हैं दिल्ली में प्रदूषण के हालात
दिल्ली में वायु प्रदूषण के मुद्दे पर काम करने वाले सीएक्यूएम यानी ‘द कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट’ ने बीबीसी को बताया है कि दिल्ली में पूरे साल प्रदूषण होता है, लेकिन यह सर्दियों में ज्यादा नजर आता है।
सर्दियों में कम तापमान, हवा नहीं चलने और बारिश नहीं होने से प्रदूषण करने वाले कण ़मीन की सतह के करीब काफी कम इलाके में जमा हो जाते हैं।
पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्था ग्रीनपीस की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत की राजधानी दिल्ली दुनियाभर में सभी देशों की राजधानी में सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर है।
इस रिपोर्ट में पीएम 2.5 के आधार पर बताया गया है कि दुनिया के सबसे ज़्यादा प्रदूषित 15 शहरों में 12 शहर भारत के हैं।
विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 30 सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहर भारत में हैं जहां पीएम 2.5 की सालाना सघनता सबसे ज़्यादा है।
मेडिकल जर्नल बीएमजे की स्टडी में पाया गया है कि प्रदूषण की वजह से भारत में हर साल 20 लाख से ज़्यादा लोगों की मौत होती है।
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया के निदेशक संजय वशिष्ठ कहते हैं, ‘दिल्ली में प्रदूषण पूरे साल रहता है लेकिन यह सर्दियों में सतह के काफी करीब आ जाता है, जिसकी वजह से यह ज़्यादा दिखता है और ज्यादा नुकसान भी पहुँचाता है।’
उनका कहना है कि प्रदूषण की कई वजहें हैं जिनमें निजी वाहनों की बड़ी तादाद, दिल्ली में निर्माण कार्य की बड़ी भूमिका है, इसमें पराली (खेतों में फसलों के अवशेष) जलाना भी शामिल है।
सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी
देश की राजधानी दिल्ली और इसके आसपास के इलाकों में दिवाली के पहले ही एक्यूआई ‘बहुत खराब’ स्तर पर पहुँच गई है और इससे लोगों को सांस लेने में परेशानी शुरू हो गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए बने कानूनों को लेकर केंद्र सरकार, पंजाब और हरियाणा की राज्य सरकारों पर तीखी टिप्पणी की है और कहा है कि ये किसी काम के नहीं हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहना सभी नागरिकों का मौलिक अधिकार है और नागरिकों के अधिकार की रक्षा करना केंद्र और राज्य सरकारों का कर्तव्य है।
कोर्ट ने कहा कि पराली जलाने पर जुर्माने से संबंधित प्रावधानों को लागू नहीं किया गया है।
हालाँकि दिल्ली की इस हालत और प्रदूषण के मामलों पर सुप्रीम कोर्ट पहले भी कई बार तीखी टिप्पणी कर चुका है।
साल 2019 में दिल्ली सरकार के ऑड-इवन स्कीम पर भी सुप्रीम कोर्ट ने सवाल खड़े किए थे।
सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान वायु प्रदूषण को ‘जीने के मूलभूत अधिकार का गंभीर उल्लंघन’ बताते हुए कहा था कि राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय अपनी ‘ड्यूटी निभाने में नाकाम’ रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- ‘हमारी नाक के नीचे हर साल ऐसा हो रहा है। इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे, आप लोगों को मरते हुए नहीं छोड़ सकते।’ दिल्ली में उस साल हेल्थ इमरजेंसी भी लागू करनी पड़ी थी।
साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में दिवाली में पटाखों पर पाबंदी लगा दी थी।
कृषि विशेषज्ञ और वकील विजय सरदाना इस मुद्दे पर लंबे समय से नजऱ रख रहे हैं। उनका मानना है कि पराली जलाना भारत में एक राजनीतिक समस्या है, इसलिए सरकारें इसके खिलाफ कदम नहीं उठा सकती हैं।
विजय सरदाना कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट को पराली जलाने की सैटेलाइट तस्वीरें मंगाकर पराली जलाने वालों के खिलाफ एक्शन लेना होगा। कोर्ट ने प्रदूषण को संविधान के अनुच्छेद 21 यानी जीने के अधिकार के खिलाफ माना है, तो ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ एक्शन जरूरी है।’
उनका मानना है पराली जलाने से प्रदूषण की समस्या में अचानक बढ़ोतरी होती है और ऐसा करना अपराध है तो इस तरह के अपराध करने वालों को कोई सरकारी लाभ नहीं मिलना चाहिए।
क्या कर रही है दिल्ली सरकार
दिल्ली सरकार के पर्यावरण विभाग के मुताबिक साल 2016 से अक्तूबर से फरवरी के बीच करीब 150 दिनों में दिल्ली में हवा की गुणवत्ता की स्थिति चिंताजनक रही है।
इस दौरान जहाँ साल 2016 में 143 दिनों तक एक्यूआई खऱाब से लेकर खतरनाक (सिवियर) की श्रेणी में रहा, वहीं पिछली सर्दियों 150 में 124 दिन हवा की गुणवत्ता इसी श्रेणी में पाई गई।
डीपीसीसी यानी दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी की वेबसाइट के मुताबिक़ दिल्ली में सर्दियों के दौरान पीएम-2.5 को बढ़ाने में बायोमास को जलाने का सबसे बड़ा योगदान रहा जो 25 फीसदी के बराबर है। इसमें पराली जलाना भी शामिल है।
सीएक्यूएम के मुताबिक सरकार ने दिल्ली में प्रदूषण को कम करने के लिए जो कदम उठाए हैं उसका असर हुआ है और प्रदूषण का औसत स्तर 2016 के मुकाबले कम हुआ है। हालाँकि अक्तूबर महीने के आसपास दिवाली और पराली की वजह से कुछ दिनों के लिए यह जरूर बढ़ जाता है।
डीपीसीसी के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में प्रदूषण के पीछे दूसरे नंबर पर वाहनों का योगदान होता है और यह करीब 25 फीसदी है।
दिल्ली के वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक ने अपना नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बीबीसी से प्रदूषण की समस्या पर बात की है। उनका कहना है कि बीते कुछ साल में खेती में मशीनों के इस्तेमाल की वजह से यह समस्या बढ़ी है।
वो कहते हैं, ‘मशीनों से खेती की लागत कम होती है और मजदूरों की जरूरत भी कम हो जाती है। इससे खेती में पशुओं की जरूरत खत्म हो गई और अब उन्हें खिलाने के लिए पराली की जरूरत नहीं पड़ती है।’
उनका कहना है कि बीजों की नई नस्ल, ज़्यादा गर्मी में सिंचाई के लिए पानी की ज़्यादा जरूरत से बचने के लिए भी एक फसल के बाद दूसरी फसल के लिए खेतों को जल्दी तैयार करना पड़ता है, इसलिए पराली को जला दिया जाता है।
विजय सरदाना भी इस बात से सहमत दिखते हैं। उनका कहना है कि ज़्यादा मज़दूरी देने से बचने के लिए पराली को जला दिया जाता है और यह समस्या कऱीब 10 साल पहले ज़्यादा बड़े स्तर पर शुरू हुई है।
विजय सरदाना कहते हैं, ‘जब से पंजाब सरकार ने जून के महीने में अंडर ग्राउंड वॉटर से सिंचाई पर पाबंदी लगाई है, तब से किसान धान की कटाई के बाद अक्तूबर महीने के आसपास धान की कटाई के बाद पराली को जला देते हैं ताकि अगली फसल के लिए खेत जल्दी तैयार हो जाए।’
उनका मानना है कि यह प्रदूषण के पीछे एक बड़ी वजह है चाहे इसे कोई स्वीकार करे या न करे।
दिल्ली में वायु प्रदूषण को कम करने के लिए 200 मोबाइल एंटी स्मॉग गन भी लगाए गए हैं जो पानी का छिडक़ाव कर धूल को नियंत्रित करता है। इनमें से करीब 100 एएसजी ऊंची इमारतों पर लगाए गए हैं। इसके अलावा सडक़ों पर 100 से ज्यादा एएसजी लगाए गए हैं।
दिल्ली सरकार इस प्रदूषण को रोकने के लिए ग्रेडेड एक्शन प्लान भी लागू करती है। इसके तहत प्रदूषण के स्तर के हिसाब से निर्माण के काम पर रोक, होटलों और अन्य खान-पान की दुकानों पर कोयला जलाने पर पाबंदी लगाई जाती है।
इसले अलावा इसमें आपातकालीन सेवाओं को छोडक़र डीजल जेनरेटर के इस्तेमाल पर रोक जैसे कदम शामिल हैं।
दिल्ली सरकार में मंत्री गोपाल राय ने आरोप लगाया है कि उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में आने वाली डीज़ल बसों की वजह से दिल्ली में प्रदूषण पर असर पड़ता है।
उनका कहना है, ‘दिल्ली में अब सीएनजी और इलेक्ट्रिक बसें चल रही हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में डीजल बसें अभी भी आनंद विहार और कौशांबी डिपो पर चल रही हैं।’
सरकारों के बीच खींचतान और राजनीति
खबरों के मुताबिक इस साल फिर से दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण पर दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने मुख्यमंत्री आतिशी को चि_ी लिखी है।
जबकि बीजेपी प्रवक्ता शहजाद पूनावाला ने आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल को जि़म्मेदार ठहराया है, जो बीते 10 साल में ज़्यादातर समय के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री थे।
लाइव लॉ के मुताबिक साल 2021 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनाम दाखिल किया था उसके मुताबिक सर्दियों में दिल्ली में पीएम-2.5 की मात्रा बढ़ाने में सबसे बड़ी भूमिका उद्योगों की है जो कि 30त्न है। जबकि इसमें दिल्ली की सडक़ों पर चल रहे वाहनों का योगदान करीब 28 फीसदी है।
दिल्ली सरकार पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने की घटना को एक बड़ी वजह बताती रही है, जबकि केंद्र सरकार इसके पीछे दूसरी वजहों को ज्यादा जिम्मेदार मानती है।
इसके अलावा डीपीसीसी की वेबसाइट पर दी गई जानाकारी के मुताबिक़ भारत में 10 जनवरी 2019 को नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम की शुरुआत की गई। हालाँकि दिल्ली सरकार का आरोप है कि दिल्ली को साल 2019-20 और साल 2020-21 के दौरान एनसीएपी के तहत कोई फंड नहीं मिला।
दिल्ली सरकार का कहना है कि उसे साल 2021-22 में करीब 11 करोड़ और साल 2022-23 में इसके तहत करीब 23 करोड़ रुपये का फंड मिला।
क्या है समाधान?
पीएम यानी पार्टिकुलेट मैटर प्रदूषण की एक किस्म है। इसके कण बेहद सूक्ष्म होते हैं जो हवा में बहते हैं। पीएम 2.5 या पीएम 10 हवा में कण के साइज को बताता है।
हवा में मौजूद यही कण हवा के साथ हमारे शरीर में प्रवेश कर ख़ून में घुल जाते है। इससे शरीर में कई तरह की बीमारी जैसे अस्थमा और साँसों की दिक्कत हो सकती है।
संजय वशिष्ठ कहते हैं, ‘प्रदूषण की वजहों और इसके असर की सारी जानकारी हर सरकार को है, उनके पास हमसे ज़्यादा जानकार लोग बैठे हैं। लेकिन प्रदूषण को कम करने के लिए अगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट को ठीक किया जाता है तो इसका असर कार और बाकी वाहनों के बिजनेस पर पड़ेगा।’
संजय वशिष्ठ इस मामले में ट्रांसपोर्ट सेक्टर के हितों और उसमें आई गिरावट का रोजगार पर असर तो मानते ही हैं, साथ ही पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर करने के लिए बड़े निवेश की ज़रूरत को भी सरकारों के लिए एक बड़ी समस्या मानते हैं।
इसके अलावा निर्माण कार्य के खिलाफ सख्त कदम उठाने से इस सेक्टर पर भी असर पड़ सकता है।
हालांकि वो मानते हैं कि निर्माण कार्य में धूल कम निकले इसके लिए नई तकनीक की जरूरत भी है।
सीएक्यूएम भी इस बात को मानती है कि दिल्ली के प्रदूषण को कम करने के दूरगामी उपायों में ज्यादा से ज्य़ादा इलेक्ट्रिक वाहन, निर्माण के कार्य में उडऩे वाली धूल को रोकना और जीवनशैली को बदलना शामिल है।
सीएक्यूएम के मुताबिक अक्सर लोग रोज़मर्रा की जिंदगी से प्रदूषण में योगदान को भूल जाते हैं जिसमें वाहनों के इस्तेमाल से लेकर कई कार्यों में लकड़ी को जलाना शामिल है, जैसे सर्दियों के दौरान ठंड से बचने के लिए अलाव जलाना। (bbc.com/hindi)