विचार/लेख
-डॉ. आर.के. पालीवाल
देश की जनता ने महाराष्ट्र में पिछले पांच साल में राजनीति को कई गड्ढों में गिरते हुए देखा है। यूं तो राजनीति को इन गड्ढों में गिराने में कमोबेश सभी राजनीतिक दल शामिल रहे हैं लेकिन निश्चित रूप से भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना की इसमें सबसे बड़ी भूमिका थी।शिव सेना ने कम सीट जीतने के बाद भी मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी विचारधारा वाली भाजपा को छोडक़र कांग्रेस और एन सी पी के साथ सरकार बनाई थी। लगता है इस चुनाव में तमाम भविष्यवाणियों को धता बताते हुए महाराष्ट्र के मतदाता ने इन तीनों दलों का पत्ता साफ कर दिया। राजनीति में चाल चरित्र और चेहरे का अपना पुराना चोगा बदल चुकी मोदी और शाह के नेतृत्व की बी जे पी ने भी शिवसेना की प्रतिक्रियावश न केवल शिवसेना के दो टुकड़े कर दिए साथ ही उसका साथ देने वाले शरद पवार की एन सी पी को भी दो फाड़ कर दिया। उम्मीद तो यह की जा रही थी कि शिव सैनिक और पवार समर्थक बी जे पी से इसका बदला लेंगे। लेकिन मतदाताओं ने उद्धव ठाकरे और शरद पवार की शिवसेना और एन सी पी को अवसरवादी गठबंधन करने की सजा दी है।
उद्धव ठाकरे परिवार और शरद पवार परिवार के लिए यहां से वापसी करना वैसा ही मुश्किल होगा जैसा पंजाब में अकाली दल के लिए साबित हो रहा है।भारतीय जनता पार्टी अब महाराष्ट्र में दबंगई के साथ बड़े भाई जैसा व्यवहार कर सकेगी। केंद्र सरकार की छत्रछाया में चलने वाले उसके शासन में अजित पवार और एकनाथ शिंदे की बैशाखियां आने वाले समय में ज्यादा अड़चन नहीं डाल सकेंगी। इस चुनाव में जनता ने यह भी जनादेश दिया है कि कांग्रेस और उद्धव ठाकरे की शिवसेना का गठबंधन बेमेल है। दोनों दलों की विचारधारा में धरती आसमान का फर्क है शायद इसीलिए इन दोनों पुराने दलों को महाराष्ट्र की जागरूक जनता ने सिरे से नकार दिया।
महाराष्ट्र का महत्व अन्य राज्यों की तुलना में काफी अधिक है। देश की आर्थिक राजधानी होने से इस राज्य में हर राजनीतिक दल सत्ता चाहता है। यही कारण था कि महाराष्ट्र चुनाव में शामिल प्रत्येक प्रमुख दल ने एड़ी चोटी का जोर लगाया था। चुनाव परिणाम भी सभी को चौंकाने वाले हैं। शरद पवार को यह उम्मीद नहीं थी कि अपने अंतिम समय में इतने बुरे दिन देखने को मिलेंगे। साफ जाहिर है कि तमाम एग्जिट पोल के विपरीत महाराष्ट्र की जनता ने शरद पवार से भावनात्मक रिश्ता भी खत्म कर दिया। जिस तरह बालासाहब ठाकरे ने भतीजे राज ठाकरे को दरकिनार कर अपने राजनीतिक रूप से अपरिपक्व बेटे उद्धव ठाकरे को गद्दी सौंपकर अपने दल के पैर पर कुल्हाड़ी मारी थी वैसा ही शरद पवार ने अपने भतीजे अजित पवार को दरकिनार कर बेटी सुप्रिया सुले को कमान सौंपकर एन सी पी का नुकसान किया है। इस चुनाव में उद्धव ठाकरे की शिव सैनिक विरासत और शरद पवार का चाणक्य का खिताब धूल में मिल गया। इंडिया गठबंधन और विशेष रूप से कांग्रेस इस चुनाव में उसी तरह पस्त हुई है जैसे हरियाणा में हुई थी। लगता है कि कांग्रेस को जनता से ज्यादा विश्वास एग्जिट पोल पर होने लगा है। उसे एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को भुनाने की कला अच्छे से सीखने की आवश्यकता है अन्यथा मध्य प्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र की तरह वह अन्य राज्यों में भी पिछड़ती चली जाएगी।
भारतीय जनता पार्टी और देवेंद्र फडणवीस के लिए महाराष्ट्र की जीत बेहद खास है। यहां भाजपा को इतनी सीट राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुख्यालय होने के बावजूद पहले कभी नहीं मिली थी। भाजपा अकेले बहुमत के आंकड़े से थोड़ा कम तक पहुंच गई इसलिए वह गठबंधन में मुख्यमंत्री पद के लिए सशक्त दावेदार है। पिछली बार भाजपा और देवेंद्र फडणवीस की काफी छीछालेदार हुई थी जब पहले उन्हें अजित पवार ने गच्चा दिया था और बाद में मुख्यमंत्री से उपमुख्यमंत्री बनना पड़ा था। अब भाजपा अच्छे से ड्राइविंग सीट पर काबिज हो गई।
-नितिन श्रीवास्तव
शनिवार को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के आए नतीजों में ‘महायुति’ गठबंधन ने ज़बर्दस्त जीत हासिल की है, जिसमें सबसे अहम किरदार बीजेपी का रहा।
149 सीटों पर चुनाव लडऩे वाली भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार 132 सीटें जीतने में कामयाब हुए, यानि बीजेपी के कऱीब 90 फ़ीसदी उम्मीदवारों ने जीत हासिल की है।
इस जीत के पीछे मौजूदा ‘महायुति’ सरकार की मुख्यमंत्री ‘लाडकी बहिन’ योजना और प्रदेश में किसानों के लिए सब्सिडी के अलावा विकास के कार्यों पर तो विस्तार से बात भी हो रही है और विश्लेषण भी।
लेकिन इस जीत के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका को समझने की भी ज़रूरत है।
1. नारों को मतदाताओं तक पहुँचाना
करीब एक महीने पहले महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव प्रचार अपने शबाब पर था।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने स्टार प्रचारकों में से एक यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी मैदान में उतार रखा था और उन्होंने ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ वाला एक विवादित नारा भी दे दिया था।
मुंबई और कुछ दूसरे शहरों में ये नारे वाले पोस्टर रातोंरात लग गए थे और राज्य में कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियों ने इसे ‘सांप्रदायिक और भडक़ाऊ’ करार दे दिया था।
नारे पर छिड़े विवाद के महज तीन दिन बाद नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हेडक्वार्टर में इस पर चर्चा चल रही थी। निष्कर्ष साफ था। बीजेपी को किसी भी कीमत पर महाराष्ट्र में सत्ता से बाहर नहीं होने देना है।
आरएसएस महासचिव दत्तात्रेय होसबले ने अगले दिन कहा, ‘कुछ राजनीतिक ताकतें हिंदुओं को जाति और विचारधारा के नाम पर तोड़ेंगी और हमें न सिर्फ इससे सावधान रहना है बल्कि इसका मुकाबला करना है। किसी भी कीमत पर बंटना नहीं है।’
संदेश शायद बीजेपी तक भी पहुंच चुका था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नया नारा दिया, ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे योगी आदित्यनाथ के नारे से जोड़ते हुए मगर ज़्यादा ‘असरदार’ बताया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अन्तर्गत काम करने वाले तमाम संगठनों में से दो ‘लोक जागरण मंच’ और ‘प्रबोधन मंच’ को इस बात की जिम्मेदारी दी गई कि वे घर-घर जाकर ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’ वाले नारे का न सिर्फ मतलब समझाएं बल्कि ‘हिंदुओं को आगाह करें कि अगर वे संगठित नहीं रहे तो उनका अस्तित्व ख़तरे में पड़ सकता है।’
‘बिजऩेस वल्र्ड’ पत्रिका और ‘द हिंदू’ अख़बार के लिए लिखने वाले राजनीतिक विश्लेषक निनाद शेठ का मानना है, ‘एक नारा अगर धार्मिक तजऱ् पर था तो दूसरा अन्य पिछले वर्गों को एकजुट करने की मंशा वाला। नारों के मतलब सभी ने अलग-अलग निकाले लेकिन वो आम वोटर जो टीवी और सोशल मीडिया से दूर हैं उस तक संदेश पहुंच गया, ऐसा लगता है’।
2. कोर टीम
इसी साल लोक सभा चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व वाली ‘महायुति’ महाराष्ट्र की 48 लोक सभा सीटों में से महज 17 जीत सकी थी।
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी के मुताबिक, ‘लोक सभा चुनाव में न सिर्फ महाराष्ट्र बल्कि दूसरे बड़े राज्यों में भी आरएसएस काडर कम नजऱ आ रहा था।’
बीजेपी को इसका एहसास बखूबी रहा क्योंकि इस चुनाव में पार्टी ने न सिर्फ आरएसएस पर अपनी निर्भरता की बात दोहराई बल्कि चुनाव से जुड़े शीर्ष नेतृत्व को भी ध्यान से चुना गया।
महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री और प्रदेश बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस ने चुनावों से पहले ही कह दिया था, ‘हमने वोट जिहादियों और अराजकतावादियों से लडऩे के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद ली है।’
देवेंद्र फडणवीस नागपुर के रहने वाले हैं जो आरएसएस का गढ़ है और उनके पिता गंगाधर फडणवीस स्वयंसेवक होने के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी के एमएलसी भी थे, जिन्हें बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और मौजूदा केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी अपना ‘राजनीतिक गुरु’ भी मानते हैं।
बीजेपी ने महाराष्ट्र चुनाव में कुछ वैसा ही किया जो उसने हरियाणा में किया था। हरियाणा में चुनाव इंचार्ज अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से होकर उभरे धर्मेंद्र प्रधान को सौंपी गई थी।
महाराष्ट्र में कमान भूपेन्द्र यादव और अश्विनी वैष्णव को दी गई। बीजेपी के वरिष्ठ नेता ने नाम न लिए जाने की शर्त पर बताया, ‘वैष्णव ब्यूरोक्रैट रहे हैं और महाराष्ट्र जैसे धनी और फैले हुए राज्य में कैंपेन को ऑर्गनाइज करना ऐसे लोगों को बखूबी आता है। लेकिन भूपेन्द्र यादव का वहां चुनाव इंचार्ज बनना एक बड़ा फैसला था जिसमें आरएसएस से पक्का बात की गई होगी।’
उन्होंने आगे बताया, ‘पेशे से वकील भूपेन्द्र, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के महासचिव रह चुके हैं जिसे ‘आरएसएस लॉयर्स विंग’ के नाम से जाता है। कम लोगों को पता होगा कि बीजेपी के संगठन में उन्हें पहली बार जगह देने वाले ख़ुद नितिन गडकरी हैं जिन्होंने साल 2010 में अपने अध्यक्ष-पद पर कार्यकाल के दौरान भूपेन्द्र यादव को पहली बार महासचिव बनाया था।’
इसके अलावा आरएसएस ने अपने पश्चिमी प्रांत के प्रमुख रहे अतुल लिमये को बीजेपी नेताओं बीएल संतोष और बीजेपी और आरएसएस के बीच कोऑर्डिनेटर अरुण कुमार के साथ मिलकर काम करने के लिए भी कहा।
नतीजों में जीत हासिल होने के बाद आप में से बहुतों ने देवेंद्र फडणवीस को पार्टी के वरिष्ठ नेता और आरएसएस के सबसे करीब बताए जाने वाले नितिन गडकरी के घर जाकर उन्हें मुबारक़बाद देते हुए भी देखा ही होगा।
लेकिन इस बात पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है कि साल 2014, 2019 और 2024 के लोक सभा चुनावों में जहां नितिन गडकरी पर कैंपेन का दायित्व कम दिया गया। वहीं इस बार महाराष्ट्र में उनकी डिमांड बहुत ज्यादा थी। प्रचार खत्म होने के आखिरी 20 दिनों में ही उन्होंने 70 से ज़्यादा चुनावी रैलियाँ कीं।
‘द हितवाद’ अख़बार के राजनीतिक संवाददाता विकास वैद्य बताते हैं, ‘ये एक संदेश भी था उस पुराने आरएसएस-बीजेपी वोटर के लिए कि सब साथ आओ, मिलकर दोबारा सरकार बनाओ जिसमें बीजेपी का सबसे अहम रोल रहे।’
3. शहरी मतदाताओं पर फोकस
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो प्रांत प्रचारकों से बात करने पर एक ‘टीस’ साफ दिखती है।
2024 लोक सभा चुनावों में बीजेपी का ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा ‘अपने तमाम मतदाताओं को एक ऐसे कम्फर्ट जोन में ले गया कि वे घरों से वोट करने ही नहीं निकले’।
इस बात को ध्यान में रखते हुए प्रदेश के छोटे-बड़े शहरों में आरएसएस ने अपनी शाखाओं के जरिए पिछले चार महीने से ‘डोर-टू-डोर कैंपेन’ चलाकर लोगों को बीजेपी सरकार के ‘स्थायी विकास’ वाली बात को पहुँचाने में मदद की।
महायुति के गठन में अजित पवार के आने से संघ बहुत खुश नहीं था लेकिन इस चुनाव में आरएसएस के लोग भी इस बात को भूल कर मुद्दों को लोगों तक पहुंचा रहे थे।
पिछले लोक सभा चुनाव में हुए ‘औसत प्रदर्शन’ को इससे जोड़ कर देखने वाले संघ ने इस चुनाव में उसे दूर करने के लिए पार्टी को बधाई देते हुए अपनी पत्रिका ऑर्गेनाइजर में लिखा है, ‘लाडकी बहन’ योजना, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में माओवाद से निपटना और किसानों के हित की बात करना इस बार कारगर साबित हुआ।’
शहरी मतदाताओं और मध्यम वर्गीय वोटरों पर फोकस दोबारा लाने का ही नतीजा था कि इस चुनाव ने साल 1995 के बाद से 66.05 फीसदी यानी सबसे ज़्यादा मतदान दर्ज किया।
‘द इकनॉमिक टाइम्स’ अखबार के लिए बीजेपी और आरएसएस कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार राकेश मोहन चतुर्वेदी के मुताबिक़, ‘अर्बन या शहरी वोटरों पर आरएसएस का फ़ोकस ठीक वैसा ही था जैसा साल 2014 के आम चुनावों में देखने को मिला था।’
‘इस तरह की वन-टू-वन कैंपेन में आपको कभी कोई भी किसी झंडे और बैनर या लाउडस्पीकर के साथ नहीं दिखेगा। बस आपके मोहल्ले या बूथ के आसपास का कोई व्यक्ति आपसे अक्सर मिलेगा और अपनी बात को बहुत आहिस्ता से बता देगा, जैसे रोज़मर्रा की मुलाक़ात होती है, बस।’
उन्होंने आगे बताया, ‘लेकिन खास बात ये होती है कि इस तरह की कैंपेन जाति, धर्म या वर्ग से परे होती है। और जिस तरह बीजेपी ने सीटें जीती हैं वो इस बात को साफ दर्शा रही है।’
4.संघ प्रबंधन का रोल
इस लोक सभा चुनाव में प्रदेश में बीजेपी के प्रदर्शन से निराश आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व ने इस बार पहले से ही ‘अपना होमवर्क कर रखा था।’
नागपुर में ‘द हितवाद’ अखबार के राजनीतिक संवाददाता विकास वैद्य के अनुसार, ‘बहुत जमाने बाद मैंने संघ के स्तर पर इस तरह की माइक्रो-प्लानिंग देखी, जिसके तहत प्रदेश के बाहर से करीब 30 हजार लोगों को चुनाव में मदद के लिए अलग-अलग समय पर बुलाया गया।’
दरअसल पिछले लोक सभा चुनाव के औसत प्रदर्शन के बाद आरएसएस ने राज्य के हर जि़ले में एक कमेटी बनाई थी जिसने लोगों से मिलकर ये टोह लिया कि प्रदेश की महायुति सरकार में और क्या बेहतरी की जा सकती है। इस काम के लिए देश के कई राज्यों से संघ में काम करने के लिए लोग बुलाए गए, जिसमें पुरुष और महिलाएँ दोनों शामिल थे।
खास बात ये थी कि इसमें उत्तर में बीजेपी शासित राज्य जैसे; यूपी और मध्य प्रदेश के अलावा गैर बीजेपी-शासित राज्यों के लोगों को भी बुलाया गया जो तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश जैस राज्यों से भी आए।
विकास वैद्य के मुताबिक, ‘इन लोगों ने छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में दौरे किए और मतदाताओं को बताया कि दूसरे राज्यों में जहां कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी की भी सरकार है, वे कैसे अपने चुनावी वादों को भूल जाते हैं, जबकि बीजेपी महाराष्ट्र में महिलाओं को सशक्त करने के लिए कटिबद्ध है और इसका उदाहरण है 'लाडकी बहन योजना' से आने वाले पैसा।’
नागपुर में वरिष्ठ पत्रकार भाग्यश्री राउत के अनुसार, ‘प्रचार के इस प्रोग्राम के तहत वोटरों को तीन श्रेणी में बांटा गया- कैटेगरी ‘ए’ में पारंपरिक बीजेपी वोटरों को रखा गया, मगर कैटेगरी ‘बी’ और ‘सी’ में निशाना उन वोटरों को बनाया गया जो बीजेपी के पक्के वोटर नहीं रहे थे।’
उन्होंने आगे बताया, ‘धीमे स्वर में ही सही लेकिन प्रचार ऐसे मुद्दों पर हुआ कि आखिर ‘देश के लिए राम मंदिर किसने बनवाया या बाबा साहेब आंबेडकर को भारत रत्न किस सरकार ने दिया था।’ (bbc.com/hindi)
-प्रियंका जगताप
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व वाले ‘महायुति’ गठबंधन ने बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया है।
राज्य की 230 विधानसभा सीटें जीतते हुए ‘महायुति’ ने कांग्रेस, एनसीपी (शरद पवार गुट) और शिवसेना (उद्धव ठाकरे) गुट के महाविकास अघाड़ी गठबंधन को महज 50 सीटों पर रोक दिया है।
कुल 288 विधानसभा सीटों में से भारतीय जनता पार्टी ने 132, एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने 57 और अजीत पवार की एनसीपी ने 41 सीटें जीती हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि इस ‘अप्रत्याशित जीत’ के पीछे सबसे बड़ी वजह महाराष्ट्र में ‘मुख्यमंत्री- मेरी लाडली बहन’ योजना रही है।
महाराष्ट्र की महायुति सरकार ने इस साल जून महीने में यह योजना शुरू की थी।
इस योजना के तहत पात्र महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये दिए जा रहे हैं।
राज्य में करीब दो करोड़ लाभार्थी महिलाएं हैं। विश्लेषकों के मुताबिक इस वर्ग ने ‘महायुति’ सरकार को सत्ता में लाने का काम किया है।
मध्य प्रदेश के बाद महाराष्ट्र में प्रयोग
महायुति सरकार ने अपने बजट में मुख्यमंत्री लाडली बहन योजना की घोषणा की थी।
योजना की घोषणा के बाद महायुति सरकार की तरफ से बार-बार कहा गया कि यह विधानसभा चुनावों में बहुत महत्वपूर्ण साबित होगी।
क्योंकि इससे पहले बीजेपी ने साल 2023 में मध्य प्रदेश में ‘लाडली बहन योजना’ की शुरुआत की थी।
तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तब महिला वोटरों को गोलबंद करने के लिए एक करोड़ से ज्यादा महिलाओं के खाते खोले थे।
मध्य प्रदेश सरकार ने 23 से लेकर 60 साल तक की उम्र वाली महिलाओं के खाते में प्रति माह 1000 रुपये की रकम ट्रांसफर करना शुरू किया था। हालांकि अब ये राशि राज्य सरकार ने बढ़ा दी है।
मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के बाद बीजेपी ने इसे महाराष्ट्र में भी लागू किया।
क्या कहते हैं विश्लेषक
वरिष्ठ पत्रकार सुधीर सूर्यवंशी का मानना है कि 'मुख्यमंत्री- मेरी लाडली बहन' योजना ने आम लोगों के बीच सरकार के खिलाफ गुस्से को कम करने का काम किया है।
वे कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव के बाद महंगाई को लेकर किसानों के साथ-साथ आम लोगों में बहुत गुस्सा था, लेकिन जब मां या बहन के खाते में पैसा आता है, तो वह सीधा घर में दिखाई देता है। ऐसे में गुस्सा अपने आप कम हो जाता है।’
सुधीर कहते हैं कि विधानसभा चुनाव में जीत के बाद एनसीपी के अजित पवार भी लाडली बहन योजना को गेम चेंजर बता चुके हैं।
इस योजना के असर पर बात करते हुए वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता प्रतिमा परदेशी कहती हैं कि इसका निश्चित रूप से प्रभाव पड़ा है।
वे कहती हैं, ‘इस चुनाव में महिलाओं का मतदान प्रतिशत बढ़ा है, इसलिए हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि इसके पीछे लाडली बहन योजना का असर हो सकता है।’
परदेशी कहती हैं, ‘अगर इस योजना की सिर्फ एक किस्त ही मिली होती तो ऐसा नहीं कहा जा सकता था, लेकिन चुनाव से पहले महिलाओं के खाते में तीन किस्त जमा की गईं, जिसका परिणाम यह हुआ कि मतदान में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी।’
वे कहती हैं, ‘ऐसा लगता है कि इस योजना से ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों की महिलाएं प्रभावित हुई हैं। शहर के मध्यम वर्ग और गरीब तबके की महिलाओं को भी पैसा मिला है, क्योंकि महायुति सरकार ने अब तक इस योजना के लिए कोई खास मानदंड निर्धारित नहीं किए हैं।’
‘इस योजना का असर यह हुआ कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं यह भी भूल गईं कि उन्हें उनकी सोयाबीन की फसल की कीमत नहीं मिली थी।’
महिला वोटरों की संख्या में बढ़ोतरी
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक महाराष्ट्र में पहली बार महिला मतदाता इतनी बड़ी संख्या में मतदान करने के लिए निकलीं।
चुनाव प्रचार के दौरान महायुति सरकार की तरफ से बार-बार कहा गया कि अगर वे सत्ता में दोबारा से चुनकर आते हैं तो लाडली बहन योजना की राशि को बढ़ाया जाएगा।
अजित पवार की एनसीपी ने भी बीजेपी और एकनाथ शिंदे की शिवसेना के साथ मिलकर इस योजना का खूब प्रचार किया।
इसका असर यह हुआ है कि कई महिलाओं को पहली बार पैसा मिला और लाखों की संख्या में महिलाओं ने पहली बार बैंक खाते खोले।
प्रतिमा परदेशी कहती हैं कि इस योजना से खासकर ग्रामीण इलाकों की महिलाओं के हाथ में पैसा आया जिससे उनमें सशक्तिकरण की भावना पैदा हुई और मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई।
जानकारों का कहना है कि दिवाली से एक दिन पहले महिलाओं के खाते में पैसा डाला गया जिससे इस योजना का काफी चर्चा हुई। (bbc.com/hindi)
गौतम अदानी पर अमेरिका में लगे आरोपों का असर भारत से लेकर कीनिया तक में स्पष्ट दिखा।
कीनिया ने गुरुवार को अचानक अदानी समूह से नैरोबी एयरपोर्ट के विस्तार और ऊर्जा सेक्टर के कऱार को रद्द करने का फैसला किया।
अदानी समूह के प्रोजेक्ट को लेकर नैरोबी में काफी विवाद था।
अगर कीनिया में अदानी समूह को एयरपोर्ट विस्तार की डील मिल जाती तो उन्हें 30 साल के लिए नैरोबी एयरपोर्ट के संचालन की जि़म्मेदारी मिलती।
नैरोबी एयरपोर्ट के वर्कर अदानी के साथ इस डील का विरोध कर रहे थे। इन्हें डर था कि एयरपोर्ट के संचालन का काम अदानी को मिलेगा तो उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है।
कीनिया के राष्ट्रपति विलियम रुटो ने गुरुवार को अदानी से कऱार रद्द करने की घोषणा की तो कई तरह के सवाल उठने लगे।
कीनिया में एयरपोर्ट के वर्कर के साथ वहाँ का विपक्ष भी अदानी से कऱार को लेकर राष्ट्रपति विलियम रुटो को निशाने पर ले रहा था।
कीनिया के एक्टिविस्ट नेता मोरारो केबासो ने इसी साल 31 अगस्त को अपने एक्स अकाउंट पर लिखा था, ‘भ्रष्ट भारतीय आखिरकार यहाँ आ ही गए। मुझे भरोसा नहीं हो रहा है कि ये सब हो रहा है। हमारे राष्ट्रपति जो कीनिया से बहुत मोहब्बत करते हैं, उन्होंने 30 साल के लिए एयरपोर्ट अदानी को दे दिया है। अदानी सुन लीजिए अगर 2027 में हम राष्ट्रपति चुने गए तो आपको यहाँ से भागना होगा। हम भ्रष्टाचार से नफरत करते हैं, इसलिए आपसे भी नफऱत करते हैं।’
करार रद्द होने के बाद भी सवाल
कीनिया के राष्ट्रपति ने भले अदानी से कऱार रद्द करने की घोषणा की है लेकिन वहाँ के मीडिया में कई और सवाल पूछे जा रहे हैं।
कीनिया के मशहूर अंग्रेज़ी अख़बार नेशन ने लिखा है कि अदानी के साथ कीनिया के स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी 79 करोड़ डॉलर की डील की है लेकिन राष्ट्रपति ने इस पर चुप्पी साध रखी है।
गुरुवार को कीनिया के कुछ नेताओं ने वहाँ के स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ अदानी की डील को लेकर सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाया। कीनिया के सीम से सांसद डॉ जेम्स नैकल जो कि वहाँ की संसद में हेल्थ कमेटी के सदस्य भी हैं, उन्होंने कहा कि सरकार अदानी के साथ स्वास्थ्य मंत्रालय से हुई डील पर चुप है।
हालांकि कीनिया के मीडिया में अदानी से करार रद्द करने को राष्ट्रपति विलियम रुटो का मजबूरी में लिया गया साहसिक फैसला बताया जा रहा है।
अदानी एनर्जी सॉल्युशन ने अक्तूबर में लगभग 74 करोड़ डॉलर की डील कीनिया इलेक्ट्रिसिटी ट्रांसमिशन कंपनी से की थी।
इसके तहत अदानी समूह को चार ट्रांसमिशन लाइन और दो सबस्टेशन बनाने थे। इसके एवज में अदानी समूह को 30 साल के संचालन की जिम्मेदारी मिलती।
इसके अलावा अदानी समूह एक और डील फाइनल करने के करीब था। यह डील कीनिया एयरपोर्ट अथॉरिटी के साथ एक अरब 82 करोड़ डॉलर की थी।
इसके तहत अदानी समूह को जोमो केन्याटा इंटरनेशनल एयरपोर्ट का विस्तार करना था। कहा जा रहा है कि कीनिया ने भले कऱार रद्द करने की घोषणा की है लेकिन उसे इसकी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है क्योंकि यह डील फाइनल थी और इसे तोडऩे का मतलब कानूनी अनुबंधों का पालन नहीं करना होगा।
भारत के लिए झटका
कीनिया के इस फैसले को कई लोग भारत के लिए झटके के रूप में देख रहे हैं। कहा जा रहा है कि अदानी का विदेशों में पाँव जमाना भारत के वैश्विक उभार से सीधा जुड़ा है।
दक्षिण एशिया में भारत को चीन से कड़ी प्रतिस्पर्धा मिल रही है। चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड में भूटान को छोडक़र भारत के सारे पड़ोसी देश शामिल हैं।
अंतरराष्ट्रीय मामलों का जानकार कांति बाजपेयी भी तर्क देते रहे हैं कि चीन का सामना करने के लिए भारत को अदानी जैसे प्राइवेट फर्म की जरूरत है। अदानी के वैश्विक उभार को भारत के वैश्विक आर्थिक प्रभाव से जोड़ा जाता रहा है।
कीनिया के करार रद्द करने पर भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने लिखा है, ''बांग्लादेश की तरह अमेरिका ने कीनिया में भारत के हितों को झटका दिया है। कीनिया ने अदानी से करार रद्द कर चौंकाया है। यह चीन के लिए है।’
कंवल सिब्बल कहना चाह रहे हैं कि बांग्लादेश में भारत की पसंद वाली शेख़ हसीना की सरकार थी और अमेरिका को यह रास नहीं आ रहा था। अमेरिका शेख हसीना को लगातार मानवाधिकार और लोकतंत्र को लेकर घेर रहा था।
अमेरिका पर शक
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूस को बाइडन प्रशासन का पसंदीदा बताया जाता है लेकिन उनके आने से भारत की असहजता बढ़ी है।
सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने एक्स पर पोस्ट किया, ‘अदानी और अन्य पर कथित रिश्वत का मामला भारत में हुआ है लेकिन इन पर आरोप अमेरिका में तय हो रहा है। अमेरिका चाहता है कि वो अपने क़ानून के हिसाब से कार्रवाई करे क्योंकि अदानी ने अमेरिकी निवेशकों से पैसे जुटाए थे। निज्जर और पन्नू केस की तरह मोदी सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है।’
कंवल सिब्बल ने पूरे मामले को लेकर लिखा है, ‘अदानी पर आरोप है कि वह कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियों की सरकारों वाले राज्यों में रिश्वत के मामले में शामिल थे। रिश्वत का आरोप भारतीयों पर है न कि अमेरिकी नागरिकों पर। कथित भ्रष्टाचार भारत में हुआ है।’
‘किसी भी तरह की जांच भारत में होना चाहिए। जो अमेरिका में प्रभावित हुए हैं, उन्हें भारत की न्यायिक व्यवस्था में आना चाहिए। यह मामला अमेरिका के न्यायिक अधिकार क्षेत्र का नहीं है। जब तक अमेरिका में कोई भारतीय अपराध नहीं करता है, तब तक उसे अमेरिकी न्यायिक व्यवस्था के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है। अमेरिकी न्यायिक व्यवस्था का बहुत ही राजनीतिकरण हो चुका है।’
अदानी के प्रोजेक्ट को लेकर कीनिया के अलावा श्रीलंका, ऑस्ट्रेलिया और बांग्लादेश में भी विवाद हो चुका है।
जून 2022 में श्रीलंका के सीलोन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (सीईबी) के अध्यक्ष ने संसदीय समिति के सामने ये बयान दिया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पड़ोसी देश में एक बिजली परियोजना अदानी समूह को दिलवाने के लिए राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे पर 'दबाव' बनाया था।
सीईबी चेयरमैन एम.एम.सी फर्डिनांडो ने साल 2022 में 10 जून को सार्वजनिक उद्यमों पर संसद की समिति को बताया था कि मन्नार जि़ले में एक विंड पावर प्लांट का टेंडर भारत के अदानी समूह को दिया गया। उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से श्रीलंकाई राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे पर ये सौदा अदानी समूह को देने के लिए दबाव बनाया गया था।
फर्डिनांडो ने संसदीय समिति को बताया था कि राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने उन्हें कहा था कि ये टेंडर अदानी समूह को दिया गया है क्योंकि ऐसा करने के लिए भारत सरकार की ओर से दबाव है।
संसदीय समिति के सामने फ़र्डिनांडो ने कहा था, ‘राजपक्षे ने मुझे बताया था कि वो मोदी के दबाव में हैं।’ हालांकि अदानी समूह ने इन आरोपों को भी सिरे से खारिज कर दिया था। (bbc.com/hindi)
-ओक्साना तोरोप
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वादा किया था कि यूक्रेन में जारी जंग वो ‘एक दिन में’ खत्म कर देंगे।
चूंकि यूक्रेन को एटीएसीएमएस टैक्टिकल मिसाइलों और एंटी-पर्सनल माइन्स के इस्तेमाल की अनुमति मिलने के बाद सीमावर्ती के बिगड़े हालात को और बढ़ा दिया है, तुरंत शांति समझौते के लिए क्या संभावनाएं हैं?
अपने चुनाव प्रचार के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने ये नहीं बताया कि वो इस युद्ध को कैसे खत्म करेंगे। कई विश्लेषकों का ये मानना है कि इस संघर्ष को खत्म करने के लिए अभी भी योजना बनाई जा रही है।
कीएव को उम्मीद है कि अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अपने कार्यकाल के शुरुआत होते ही यूक्रेन और रूस से समझौते की बात करेंगे।
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने 'राजनयिक तरीकों से' 2025 में युद्ध खत्म करने का इरादा जताया है।
लेकिन यह वक्त का क्या मतलब है, ऐसी बातचीत से क्या नतीजों की संभावना है और 1,000 किलोमीटर की सीमा रेखा पर क्या हो रहा है, जिससे कोई संभावित समझौते को प्रभावित कर रहा है?
आगे बढ़तीं रूसी सेनाएं
सीमा रेखा के साथ-साथ लड़ाई के मैदान में हालात रूस के पक्ष में झुकती रही है।
रूसी सेनाएँ पूर्वी डोनबास क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, साथ ही उत्तर-पूर्व में खार्किव क्षेत्र के कुप्यंस्क शहर और दक्षिण-पूर्व में एक बड़े क्षेत्रीय केंद्र ज़ापोरिजि़्जय़ा शहर की दिशा में आगे बढ़ रही हैं।
अक्टूबर में रूस ने यूक्रेनी क्षेत्र के अतिरिक्त 500 वर्ग किलोमीटर पर कब्ज़ा कर लिया था, मार्च 2022 के बाद से ये सबसे ज़्यादा बढ़त थी।
राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की के मुताबिक़, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त यूक्रेनी क्षेत्र का 27 फ़ीसदी हिस्सा अब रूस के कब्ज़े में है। इसमें क्रीमिया और 2014 में कब्जा किए गए देश के पूर्वी का हिस्सा शामिल है।
मॉस्को कथित तौर पर उत्तर कोरिया के सैनिकों को रूस के कुर्स्क क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जवाबी हमले की तैयारी कर रहा है।
अगस्त में यूक्रेन ने सीमा पार से अचानक हमला करके इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था और तब से इसको शांति समझौते के लिए अपने पास रखा है।
कई विश्लेषकों और सैन्य प्रतिनिधियों ने बीबीसी से कहा कि क्रेमलिन युद्धविराम वार्ता के लिए समय पर अधिक यूक्रेनी ज़मीन पर कब्ज़ा करने की जल्दी में है, क्या उन्हें जनवरी 2025 में डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल के शुरुआत के तुरंत बाद शुरू करना चाहिए ।
वो मानते हैं कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन डोनेट्स्क और लुहान्स्क क्षेत्रों की सीमाओं तक जल्द से जल्द पहुंचना चाहते हैं, या साथ ही ज़ापोरिजि़्जय़ा जैसी और भी क्षेत्रीय राजधानी पर कब्ज़ा करना चाहते हैं।
क्या एटीएसीएमएस और बारूदी
सुरंग हालात को बदल देंगे?
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के यूक्रेन को युद्ध में लंबी दूरी की मिसाइलों का इस्तेमाल करने की अनुमति युद्ध में एक नया मोड़ ला दिया है।
यूक्रेन को एटीएसीएमएस सिस्टम युद्ध के शुरुआत में दिए गए था और उसने इसका इस्तेमाल क्रीमिया और यूक्रेन के पूर्वी हिस्सों पर हमला करने के लिए कर रहा है।
दोनों ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त यूक्रेनी क्षेत्र हैं, जो फि़लहाल रूस के कब्ज़े में है।
इस हफ़्ते के शुरुआत में राष्ट्रपति बाइडेन ने कीव को रूसी सीमाओं के अंदर हमला करने के लिए अमेरिकी मिसाइलों के इस्तेमाल की अनुमति दी, जिसे मॉस्को ने वृद्धि और ‘आग में तेल फेंकना’ बताया।
विश्लेषकों का मानना है कि एटीएसीएमएस मिसाइल अपने 300 कीमी अधिकतम रेंज के साथ यूक्रेन को राहत देगा लेकिन बड़े पैमाने पर इस स्थिति को यूकेन की ओर नहीं झुका सकता है।
उनके मुताबिक़ यूक्रेन को टेक्टिकल मिसाइल का इस्तेमाल के अनुमति के बाद रूस सभी संभावित स्थिति के लिए तैयारी कर रहा है और ज़्यादा संभावना है कि अपनी कुछ सुविधाओं को सीमा से कहीं दूर फिर से स्थापित करने का समय है।
माना जाता है कि पहली बार यूक्रेन की ओर से एटीएसीएमएस मिसाइल से जब हमला किया गया। तब वो रूस के 100 कीमी अंदर हुआ, जिसमें एक हथियार भंडारण सुविधा को निशाना बनाया गया था।
अमेरिका ने ये भी घोषणा की कि वो यूक्रेन को बारूदी सुरंग की सप्लाई करने का फैसला लिया है। लेकिन साथ ही अमेरिका ने इसके लिए शर्त रखी है कि इसका इस्तेमाल वो यूक्रेनी इलाके में ही करेंगे और नागरिक आबादी वाली जगहों से दूर किया जाएगा।
इस पूरे युद्ध में रूस खुद के बनाए बारूदी सुरंग का इस्तेमाल करते आया है। लेकिन ये यूक्रेन को अमेरिका से मिले माइन्स से अलग है जो सिर्फ कुछ ही हफ्तों के लिए कारगार बनाया गया है, जबकि रूसी बारूदी सुरंग में एक खतरा है जब तक की इसको डिफ्यूज ना किया जाए। पिछले ढाई सालों में बारूदी सुरंग दुर्घटनाओं में करीब 300 यूक्रेनी नागरिकों के मारे जाने की खबर है।
रेड क्रॉस सहित कई अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी संगठन बारूदी सुरंग के खिलाफ़ अभियान चलाते आए हैं।
उनका कहना है कि बारूदी सुरंग अपने पीछे ‘मौत, चोट और पीड़ा की एक लंबे समय तक चलने वाली विरासत छोड़ जाते हैं।’
अब तक यूक्रेन को बारूदी सुरंग देने से अमेरिका झिझकते आया था, लेकिन टैंकों को ध्वस्त करने वाले बारूदी सुरंगों की आपूर्ति करते आया है।
एटीएसीएमएस की तरह, इन हथियारों से यूक्रेनी सैनिकों को आक्रामक होने के बजाय अपनी रक्षा बनाए रखने में मदद मिलने की संभावना है।
लोगों की बदली राय
जबकि सीमा पर युक्रेन के लिए अभी भी चुनौतीपूर्ण जैसे ही हालात हैं, इससे समाज में भी बदलाव आया है। करीब तीन सालों तक उन्हें रोज बम विस्फोट, बिजली कटौती और रातों की नींद हराम होने के कारण यूक्रेन के लोग इस युद्ध से पूरी तरह थक गए हैं और अब उन्हें सर्दियों की चिंता है।
कई सर्वे दिखाते हैं कि रूस से शांति समझौते का विचार लोगों में हावी होने लगा है, चाहे उनको लंबे समय तक अपनी जमीन खोनी पड़े और अनिश्चितता का सामना करना पड़े।
अक्टूबर में थिंक टैंक राजुमकोभ सेंटर ने एक ओपिनियन पोल जारी किया, जो दिखाता है कि तीन में से एक यूक्रेनी बातचीत के पक्ष में है, जो पिछले एक साल पहले पांच में से एक थे।
अक्टूबर में एक और सर्वे के मुताबिक यूक्रेनियों को पक्का विश्वास नहीं है कि उनका देश इस युद्ध के अंत में जीत जाएगा जो हमेशा वो हुआ करते थे, हालांकि अधिकांश लोगों का अभी भी मानना है कि यूक्रेन रूस को इस युद्ध में हरा देगा।
‘ट्रंप प्लान’ का इंतजार
अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद कई पर्यवेक्षक उनके शांति योजना का विवरण सुनने का इंतजार कर रहे हैं।
चुनाव में जीत के बाद दिए गए उनके पहले बयानों से कुछ भी साफ़ नहीं था, जैसे- ‘हम रूस और यूक्रेन के साथ बहुत कड़ी मेहनत करेंगे। इसे रोकना होगा। रूस और यूक्रेन को रुकना होगा।’
अमेरिकी मीडिया ने मुताबिक़ डोनाल्ड ट्रंप ने कथित तौर पर व्लादिमीर पुतिन के साथ फोन पर बात चीत की, रूसी राष्ट्रपति को चेतावनी दी कि वह युद्ध को नहीं बढ़ाए, लेकिन क्रेमलिन ने इस बात का खंडन किया।
यूक्रेनी विशेषज्ञों का मानना है कि डोनाल्ड ट्रंप की योजनी अभी तक पूरी तरह से नहीं तैयार हुई है लेकिन उनकी टीम इसके लिए पहले से ही योजना लेकर आई होगी।
यूक्रेनी विदेश नीति थिंक टैंक ‘न्यू यूरोप’ की निदेशक एलोना हेतमानचुक का मानना है कि इनमें से कई मौजूदा विचार, किसी न किसी तरह से, संघर्ष को ठंडा करने की संभावना है।
हेतमानचुक बताते हैं, ‘युद्ध में सीमा रेखा को स्थिर करना। नाटो में सदस्यता के प्रश्न को रोकना। वित्तीय सहायता को रोकना, कम से कम। बस सब कुछ रोक देना।’
वह इस दृष्टिकोण को बिडेन प्रशासन से बहुत अलग नहीं मानती हैं। अंतर यह है कि डेमोक्रेट्स ने सोचा कि वार्ता की शुरुआत अमेरिका को नहीं बल्कि यूक्रेन को करनी चाहिए, हालांकि उन्होंने यूक्रेन को लंबे समय तक वित्तीय सहायता का भी वादा किया।
लेकिन डेमोक्रेट के विपरीत, ट्रंप ने वार्ता का नेतृत्व करने के लिए एक विशेष यूक्रेन दूत नियुक्त करने का इरादा जाहिर किया है, जिसे कीव एक आशाजनक सकारात्मक के रूप में देखता है। अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप के पास अमेरिका के दिग्गज राजनयिक कर्ट वोल्कर जैसे प्रतिनिधि थे।
एलोना हेटमनचुक कहती हैं, ‘हमें एक प्रभावशाली ‘मिस्टर यूक्रेन’ की ज़रूरत है जिसकी ट्रंप के कानों तक लगातार पहुंच हो।’
चूंकि यूक्रेन और रूस चल रहे युद्ध के संबंध में नए अमेरिकी प्रशासन के पहले कदम का इंतजार कर रहे हैं, एक बात निश्चित है कि कोई भी संभावित शांति वार्ता जटिल और लंबी होने की संभावना है।
इस संघर्ष के समाधान में दोनों देशों और उनके नेताओं, राष्ट्रपति जेलेंस्की और पुतिन का बहुत बड़ा हित है और उनका भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वे किसी भी वार्ता से कितनी अच्छी तरह बाहर निकलते हैं। (bbc.com/hindi)
बाइडेन के यूक्रेन को अमेरिकी मिसाइलों के इस्तेमाल की इजाजत देने के बाद रूस ने परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की अपनी सीमा बदल दी है.
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने मंगलवार को अपनी परमाणु नीति में बड़ा बदलाव किया. अब रूस कम खतरों पर भी परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है. यह फैसला तब आया जब अमेरिका ने यूक्रेन को लंबी दूरी की मिसाइलों से रूस पर हमला करने की अनुमति दी.
नई नीति के अनुसार अगर रूस पर किसी भी तरह का पारंपरिक हमला होता है और कोई परमाणु शक्ति संपन्न देश उससे जुड़ा हो तो रूस उसका जवाब परमाणु हथियारों से दे सकता है.
ब्रियांस्क पर हमला और बढ़ते खतरे
रूसी रक्षा मंत्रालय ने बताया कि यूक्रेन ने मंगलवार को अमेरिका में बनी एटीएसीएमएस मिसाइलों से रूस के ब्रियांस्क इलाके में एक सैन्य ठिकाने पर हमला किया. इसमें छह मिसाइलें दागी गईं. रूस ने पांच मिसाइलों को रोक दिया, लेकिन एक मिसाइल जमीन पर पहुंचने में कामयाब रही और उससे नुकसान हुआ. यूक्रेन का कहना है कि उसने रूसी गोला-बारूद के भंडार पर हमला किया.
रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने इस हमले को बड़ा कदम बताया. ब्राजील में जी20 बैठक के दौरान उन्होंने कहा, "अगर यूक्रेन से लंबी दूरी की मिसाइलें रूस पर दागी जाती हैं, तो इसका मतलब होगा कि उन्हें अमेरिकी सैन्य विशेषज्ञों का समर्थन है. हम इसे पश्चिम द्वारा युद्ध का नया चरण मानेंगे और उसका जवाब देंगे.”
परमाणु हथियारों के उपयोग की नई शर्तें
रूस की नई नीति में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के लिए शर्तें बढ़ाई गई हैं. इसमें कहा गया है कि अगर कोई साधारण हमला भी किसी परमाणु देश के समर्थन से होता है, तो इसे रूस पर "साझा हमला" माना जाएगा.
नीति में यह भी कहा गया है कि अगर रूस पर बड़े पैमाने पर हवाई हमला होता है, तो वह परमाणु हथियार इस्तेमाल कर सकता है. इसमें बैलिस्टिक मिसाइल, क्रूज मिसाइल और ड्रोन जैसे हथियार शामिल हैं.
क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने कहा कि यह बदलाव मौजूदा हालात को ध्यान में रखकर किए गए हैं. उन्होंने कहा, "पुतिन ने इस साल की शुरुआत में नीति को मौजूदा स्थिति के मुताबिक बदलने का आदेश दिया था.”
पश्चिमी देशों की प्रतिक्रिया
अमेरिका ने रूस की नई नीति की आलोचना की है. अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने कहा कि रूस परमाणु हथियारों की धमकी देकर यूक्रेन और दुनिया को डराने की कोशिश कर रहा है. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर ने भी रूस की आलोचना की. उन्होंने कहा, "यह युद्ध का 1,000वां दिन है. 1,000 दिन से रूस की आक्रामकता जारी है. यूक्रेन के साथ हमारा समर्थन हमेशा रहेगा.”
जर्मनी की विदेश मंत्री अनालेना बेयरबॉक ने भी कहा कि उनका देश रूस से डरने वाला नहीं है. उन्होंने कहा कि यह बदलाव दिखाता है कि रूस के पारंपरिक सैन्य बल नाटो के मुकाबले कमजोर हैं.
चीन से मदद की अपील
जी20 बैठक में फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से रूस पर दबाव बनाने की अपील की. माक्रों ने कहा कि उत्तर कोरिया के सैनिकों का रूस में जाना स्थिति को और खतरनाक बना रहा है. उन्होंने कहा, "परमाणु संकट रोकने में चीन की बड़ी भूमिका हो सकती है. मैंने शी जिनपिंग से कहा कि वह पुतिन से युद्ध रोकने की अपील करें.”
रूस की नई नीति से परमाणु युद्ध का खतरा बढ़ गया है. नई नीति में यह स्पष्ट नहीं है कि रूस कब और कैसे परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा. लेकिन यह पश्चिमी देशों को डराने और यूक्रेन को मिलने वाली मदद रोकने की कोशिश है.
फरवरी 2022 से जारी रूस-युक्रेन युद्ध को अब 1,000 दिन से ज्यादा हो गए है. नाटो देश सीधे युद्ध में नहीं उतर रहे, लेकिन वे यूक्रेन को हथियार और समर्थन दे रहे हैं. नई नीति ने वैश्विक स्तर पर चिंता बढ़ा दी है कि अगर कोई गलत कदम उठा लिया गया, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं.
वीके/एए (एपी, रॉयटर्स)
भारत ने जेलों की भीड़ कम करने के लिए एक बड़े कदम का एलान किया है. सरकार ने ऐसे कैदियों को रिहा करने की घोषणा की है, जो अपनी संभावित सजा का एक तिहाई हिस्सा काट चुके हैं.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार का लिखा-
गृह मंत्री अमित शाह ने भारत की धीमी न्याय प्रक्रिया से निपटने के लिए नई पहल की घोषणा की है। उन्होंने कहा कि छोटे अपराधों के आरोप में जेल में बंद ऐसे कैदियों को जमानत दी जाएगी, जिन्होंने अपनी संभावित सजा का एक-तिहाई हिस्सा काट लिया है।
भारत की अदालतों में लाखों मामले लंबित हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2024 की शुरुआत तक 1,34,799 लोग सुनवाई के इंतजार में जेल में बंद थे, जिनमें से 11,448 पांच साल से अधिक समय से बिना सजा के जेल में हैं।
गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि उनका लक्ष्य एक ‘वैज्ञानिक और तेज’ आपराधिक न्याय प्रणाली स्थापित करना है। उन्होंने पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक में कहा, ‘हमारी कोशिश है कि संविधान दिवस (26 नवंबर) से पहले देश की जेलों में ऐसा कोई कैदी न रहे, जिसने अपनी सजा का एक-तिहाई हिस्सा काट लिया हो और उसे अभी तक न्याय न मिला हो।’
हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि यह योजना केवल गैर-गंभीर अपराधों के लिए होगी। गंभीर अपराधों या कठोर कानून, जैसे ‘अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार लोगों को इसका लाभ नहीं मिलेगा।
संविधान दिवस और न्याय का मुद्दा
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पिछले वर्ष संविधान दिवस पर अपने भाषण में जेलों में बढ़ती भीड़ की ओर ध्यान दिलाया था। उन्होंने कहा था, ‘जेलों में बंद ये लोग कौन हैं? ये वे लोग हैं, जो मौलिक अधिकारों, संविधान की प्रस्तावना और मौलिक कर्तव्यों के बारे में कुछ नहीं जानते।’ उन्होंने न्याय की ऊंची लागत को समस्या बताया और तीनों शाखाओं – कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका – से सुलझा हुआ समाधान खोजने की अपील की थी।
विशेषज्ञों का मानना है कि पुलिस और जेल सुधारों के बिना यह समस्या हल नहीं हो सकती। न्यायपालिका में जजों की भारी कमी, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण को मजबूत करने और जमानत के मौजूदा धन-आधारित मॉडल का विकल्प लाने की सख्त जरूरत है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में जेलों में भीड़ पिछले 10 वर्षों में सबसे अधिक थी। 2021 की जेल सांख्यिकी रिपोर्ट बताती है कि 2016 से 2021 के बीच कैदियों की संख्या 9।5 फीसदी घटी, लेकिन विचाराधीन कैदियों की संख्या 45।8 प्रतिशत बढ़ गई।
टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर विजय राघवन ने हाल ही में फ्रंटलाइन पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि आंकड़े साबित करते हैं कि हर कैदी को जेल में रखने की जरूरत नहीं होती और अगर प्रभावी कानूनी मदद और जमानत की पहुंच हो, तो जेलों में भीड़ घट सकती है। उन्होंने बताया कि 85-90 फीसदी कैदी अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम समुदाय से हैं। इनमें से अधिकांश की पारिवारिक आय 10,000 रुपये प्रति माह से कम है।
आदिवासी और अन्य कमजोर वर्ग
आदिवासी प्रथाओं को अक्सर बिना समझे अपराध घोषित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु के नीलगिरि जिले में आदिवासी युवकों को अक्सर पॉक्सो एक्ट के तहत गिरफ्तार किया जाता है, जबकि वे अपनी परंपराओं के अनुसार 18 साल से कम उम्र की लड़कियों के साथ सहमति से रहते हैं। इसी तरह, पारधी जैसे विमुक्त जनजातियों के लोगों को छोटे अपराधों के लिए हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 1,382 जेलों की अमानवीय स्थिति पर दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिनमें क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (सीआरपीसी) की धारा 436 और 436ए का प्रभावी उपयोग शामिल है। राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण ने यूटीआरसी (अंडरट्रायल रिव्यू कमेटी) की तिमाही बैठकें आयोजित करने के लिए ढांचा बनाया है। इसके तहत 2023 में 48 फीसदी विचाराधीन कैदियों को रिहा किया गया, जबकि 16 फीसदी दोषियों को रिहाई मिली।
आगे की राह
हालांकि न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने यूटीआरसी की सिफारिशों के बावजूद रिहाई की दर में कमी पर चिंता जताई। इसी महीने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी एक रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि कई बार एक से अधिक एफआईआर, गंभीर अपराध, या विदेशी नागरिकता जैसे कारणों से कैदियों को रिहाई नहीं मिलती।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस डी। वाई। चंद्रचूड़ ने इस रिपोर्ट की भूमिका में कहा था, ‘कैदियों के साथ हमारा व्यवहार हमारे मानवाधिकारों और सामाजिक मूल्यों को दर्शाता है। सम्मानजनक जेलें सिर्फ आकांक्षा नहीं, बल्कि संवैधानिक दायित्व हैं।’ उन्होंने पुनर्वास के लिए बेहतर माहौल बनाने पर जोर दिया।
गृह मंत्री अमित शाह की यह पहल जेलों और अदालतों के बीच की खाई को पाटने का एक कदम है। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह न्याय व्यवस्था में स्थायी बदलाव लाने का मौका हो सकता है। (dw.com/hi)
दुनिया के सबसे अमीर शख्सियतों में से एक गौतम अदानी के लिए गुरुवार का दिन बहुत भारी रहा।
अमेरिका में उनके खिलाफ रिश्वत और और धोखाधड़ी का मामला दर्ज किया गया है। अदानी पर अपनी एक कंपनी को कॉन्ट्रैक्ट दिलाने के लिए 25 करोड़ डॉलर की रिश्वत देने और इस मामले को छिपाने का आरोप लगा है।
गुरुवार तडक़े जैसे ही यह ख़बर आई तो दुनिया भर के मीडिया में छा गई। भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने तो गौतम अदानी की गिरफ्तारी की मांग की है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सांठगांठ का आरोप लगाया। जैसे ही शेयर बाजार खुला अदानी समूह से जुड़ी कंपनियों के शेयर 20 प्रतिशत तक गिर गए।
अमेरिकी मीडिया आउटलेट्स ब्लूमबर्ग के अनुसार, गौतम अदानी के ख़िलाफ़ धोखाधड़ी के आरोप तय होने के बाद गुरुवार को उनकी कुल संपत्ति में 15 अरब डॉलर की चपत लग गई।
बाज़ार बंद होने तक उनकी कुल संपत्ति कऱीब 72 अरब डॉलर थी जो साल 2023 के अंत में 84 अरब डॉलर थी। पिछले साल तीन जून तक तो उनकी कुल संपत्ति 122 अरब डॉलर तक पहुँच गई थी।
हालाँकि अदानी समूह ने गुरुवार दोपहर एक बयान जारी कर इन आरोपों का खंडन किया है और कहा है कि सभी आरोप बेबुनियाद हैं।
अपने ऊपर लगे आरोपों का खंडन करते हुए अदानी ग्रुप ने गुरुवार को जारी बयान में कहा, ‘अमेरिका के जस्टिस डिपार्टमेंट और एक्सचेंज कमीशन द्वारा अदानी ग्रीन के निदेशकों के खिलाफ लगाए गए आरोप बेबुनियाद हैं और हम उनका खंडन करते हैं।’
आरोप अमेरिका में और असर चौतरफा
अमेरिका में लगे आरोपों का असर शेयर मार्केट में उनकी कंपनियों की बदहाली तक ही सीमित नहीं रहा। गुरुवार शाम में अचानक से कीनिया के राष्ट्रपति ने कहा कि उन्होंने भारतीय अरबपति गौतम अदानी से एयरपोर्ट के विस्तार और ऊर्जा डील को लेकर जो अरबों डॉलर का करार किया था, उसे रद्द करने का फैसला किया है।
कीनिया के राष्ट्रपति विलियम रुटो ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा कि यह फैसला उन्होंने अपनी जांच एजेंसियों और साझेदार देशों की जाँच के बाद मिली सूचना के आधार पर लिया है।
उन्होंने अमेरिका का नाम नहीं लिया। अदानी ग्रुप कीनिया के साथ कऱार पर हस्ताक्षर करने की प्रक्रिया में था। इसके तहत कीनिया की राजधानी नैरोबी के मुख्य एयरपोर्ट का विस्तार करना था, जिसमें नए रनवे और टर्मिनल बनाने थे। अदानी को इसके बदले में 30 साल के लिए नैरोबी एयरपोर्ट के संचालन की जि़म्मेदारी मिलती।
कीनिया में अदानी से होने वाली इस डील की भी बहुत आलोचना हो रही थी और एयरपोर्ट वर्कर आंदोलन कर रहे थे। एयरपोर्ट वर्करों का कहना था कि अदानी को एयरपोर्ट के संचालन की जि़म्मेदारी मिलने से नौकरी की शर्तें बदल जाएंगी और उनकी नौकरी भी जा सकती है।
ब्लूमबर्ग से अदानी के एक कऱीबी सहयोगी ने बताया, ‘बुधवार शाम तक सब कुछ अच्छा था। अदानी के ग्रीन एनर्जी बिजऩेस ने बॉन्ड सेल के जरिए 60 करोड़ डॉलर जुटाए थे।अहमदाबाद में बिस्तर पर जाने से पहले उन्होंने अपनी पत्नी के साथ कार्ड गेम खेला था। गुरुवार तडक़े तीन बजे एक सहकर्मी ने उन तक परेशान करने वाली ख़बर पहुँचाई। उस सहकर्मी ने बताया कि अमेरिका में उनके और कुछ सहयोगियों के खिलाफ धोखाधड़ी का आरोप तय हुआ है।’
15 अरब डॉलर की चपत
ब्लूमबर्ग के मुताबिक, ‘चंद मिनटों में अदानी ग्रुप के सीनियर एग्जेक्युटिव्स कॉन्फ्रेंस कॉल पर आए। न्यूयॉर्क में फेडरल प्रॉसिक्युटर्स ने आरोप लगाया है कि अदानी और उनके सहकर्मियों ने अमेरिकी निवेशकों से रिश्वत विरोधी नियमों को लेकर झूठ बोला क्योंकि उन्होंने भारतीय अधिकारियों को 25 करोड़ डॉलर से अधिक की रक़म की रिश्वत देने का वादा किया था।’
‘जब बाकी का भारत सुबह जगा तब तक अदानी पूरे विवाद पर प्रतिक्रिया देने को लेकर ऊहापोह में थे। जब मुंबई में शेयर बाजार खुला तो अदानी समूह की कंपनियों के शेयर औंधे मुंह गिरने लगे। दोपहर होते-होते अदानी समूह ने एक बयान जारी किया और सभी आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया। अदानी समूह ने पूरे मामले पर कानूनी कार्रवाई की धमकी दी।’
ब्लूमबर्ग ने लिखा है, ‘अदानी को लेकर आने वाले महीनों में राजनीतिक विवाद और बढ़ सकता है। प्रत्यर्पण को लेकर तनातनी होगी। डोनाल्ड ट्रंप के हाथ में जल्द ही अमेरिका की कमान आने वाली है और अगर वह चाहेंगे तो भारत के साथ डील कर सकते हैं।’
‘ट्रंप की नजऱ में भारत और अदानी चीन के एकाधिकार के खिलाफ अहम साझेदार हैं। अदानी से जुड़े मामलों की जानकारी रखने वालों ने नाम सार्वजनिक नहीं करने की शर्त पर बताया है कि ट्रंप के परिवार के सदस्य अदानी के अहमदाबाद स्थित आवास पर भी गए हैं। ऐसे मामले में अभियोजन में वर्षों तो नहीं लेकिन महीनों लगेंगे और यह ट्रंप के जस्टिस डिपार्टमेंट पर निर्भर करेगा कि उसका रुख क्या होता है।’
ब्लूमबर्ग ने लिखा है, ‘अदानी को लेकर अमेरिका में जो कुछ भी हो रहा है, उसका असर इस ग्रुप तक ही सीमित नहीं रहेगा। इसका असर वैश्विक बैंकों पर भी पड़ेगा, जो कर्ज मुहैया कराते हैं। इसके अलावा भारत से जुड़ी जो कंपनियां विदेशों में पाँव जमाना चाहती हैं, उनकी साख पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा।’
ब्लूमबर्ग से थिंक टैंक सेंटर फोर स्ट्रैटिजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज में इंडिया एंड इमर्जिंग एशिया इकनॉमिक्स के प्रमुख रिक रोसोव ने कहा, ‘मुझे डर है कि इसका असर अदानी के वैश्विक विस्तार पर पड़ेगा। यह मामला भारत में यह चिंता बढ़ा सकता है कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश उभरते भारत की गति धीमी करना चाहते हैं।’
भारत पर क्या पड़ेगा असर?
ब्लूमबर्ग ने लिखा है, ‘पिछले कई सालों में वैश्विक निवेशकों और बैंकों ने अदानी समूह में अरबों डॉलर लगाए हैं। आज की तारीख़ में अदानी का कारोबार पोट्स, पावर, रोड से लेकर एयरपोर्ट तक फैला है। अदानी के प्रोजेक्ट वियतनाम से लेकर इसराइल तक में फैले हैं। अदानी ग्रुप की वैश्विक महत्वाकांक्षा को चीन के बेल्ट एंड रोड के समानांतर भारत की प्रॉक्सी के रूप में देखा जाता है।’
वहीं मशहूर अमेरिकी न्यूज़पेपर न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा है, ‘अदानी कोई सामान्य भारतीय अरबपति नहीं हैं। अदानी को भारत की सरकार के विस्तार के रूप में देखा जाता है। अदानी समूह पोर्ट बनाता है और खऱीदता भी है। ऐसा अक्सर भारत सरकार के अनुबंधों या लाइसेंस के जरिए होता है।’
‘अदानी के पावर प्लांट्स हैं और एयरपोर्ट के संचालन की जि़म्मेदारी भी है। अब तो अदानी के पास टीवी न्यूज़ चैनल का भी स्वामित्व है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अदानी का कारोबार भारत के केंद्र में आ गया। जिस तरह से पीएम मोदी ने भारत को विश्व मंच पर केंद्र में लाया उसी तरह अदानी भी केंद्र में आए।’
न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा है, ‘भारत में अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी इसी गर्मी में अदानी के सोलर ऊर्जा प्रोजेक्ट देखने गए थे। गार्सेटी ने देखने के बाद अदानी को प्रेरक व्यक्ति बताया था।
अमेरिकी अख़बार वॉशिंगटन पोस्ट ने लिखा है, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ विदेशी दौरे में गौतम अदानी भी जाते रहे हैं। दोनों के दौरों में अदानी ग्रुप के कारोबारी समझौते भी हुए हैं। ये समझौते श्रीलंका से लेकर इसराइल तक में हुए हैं। अदानी भारत में पीएम मोदी की ऊर्जा और मैन्युफैक्चरिंग नीतियों का पालन करते हैं और इससे उन्हें राजनीति से डील करने में मदद मिलती है। अदानी की कारोबारी कामयाबी को भारत के उभार के रूप में देखा जाता है।’
वॉशिंगटन पोस्ट ने लिखा है, ‘अदानी पर अमेरिका में लगे आरोपों से भारत और अमेरिका के संबंध जटिल हो सकते हैं। हाल के वर्षों में अदानी को भारत के भीतर काफ़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है। ख़ास करके पीएम मोदी से संबंधों को लेकर। जब भी अदानी मुश्किल में घिरते हैं तो बीजेपी उनके साथ हो जाती है और अदानी की आलोचना करने वालों को भारत का दुश्मन बताती है।’
वॉशिंगटन पोस्ट से ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन में साउथ एशिया प्रोग्राम के डायरेक्टर मिलन वैष्णव ने कहा, ‘बाइडन प्रशासन उम्मीद कर रहा था कि वह भारत के साथ संबंधों को ऊंचाई पर ले जाकर छोड़े। जाहिर है कि इस वाकये से मोदी का मूड खराब हुआ होगा।’ (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
दिल्ली की मुख्यमंत्री के बयान से पराली जलाने पर भी ओछी राजनीति शुरू हो गई है। आम आदमी पार्टी और दिल्ली निवासी पहले दिल्ली के प्रदूषण को पंजाब की पराली के मत्थे मढ़ा करते थे। अब पंजाब में आप सरकार बनने के बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री ने मध्य प्रदेश के किसानों को पराली जलाने का दोषी ठहराया है।पंजाब और हरियाणा सिंचाई की अच्छी व्यवस्था और ठीक-ठाक बारिश की बदौलत खरीफ सीजऩ में खूब धान उगाते हैं और धान की पराली ठिकाने लगाने के लिए उसे जलाना सबसे आसान मानते हैं। पशुपालन कम होने और मजदूरों के अभाव में पराली जलाना ही उन्हें सबसे उचित समाधान नजऱ आता है।
हमारी सरकारों को समस्याओं के सही और सकारात्मक समाधानों के लिए न समय है और न इस मामले में वे अनुभवी विशेषज्ञों से कोई समाधान मांगते हैं। उन्हें कानून बनाकर और कड़ी पेनल्टी लगाकर इंस्पेक्टर राज को बढ़ावा देने और दूसरे दलों को दोषी बताने के विकल्प सबसे आसान और उत्तम लगते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कई बार आदेश दिए हैं लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए सरकारों के अपने एजेंडे हैं। वे हर मुद्दे को वोट बैंक की दृष्टि से देखते हैं और समस्या को जड़ से खत्म करने के बजाय बचकाने आरोप प्रत्यारोप लगाकर विपक्षी दलों की सरकारों को समस्या की जड़ बता जनता को भटकाने की कोशिश करते हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री का बयान इसी की एक कड़ी है।
दिल्ली में केंद्र सरकार का मुख्यालय है। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि लेफ्टिनेंट गवर्नर दिल्ली की आप सरकार के साथ आए रोज सींग लड़ाते रहते हैं। दिल्ली के बड़े अधिकारियों पर भी केंद्र सरकार का ही शिकंजा है जिसके लिए केंद्र सरकार कभी अध्यादेश जारी करती है और कभी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ती है लेकिन दिल्ली के प्रदूषण से निबटने के लिए उसने भी कोई ऐसी पहल नहीं की जिससे अन्य महानगरों के लिए कोई आदर्श स्थापित हो सके। दिल्ली के प्रदूषण पर सरकारी विफलता का दाग केंद्र और राज्य सरकार पर संयुक्त रूप से लगा है। जब तक दोनों सरकार कंधे से कंधा मिलाकर इस राक्षसी समस्या का समुचित समाधान नहीं खोजेंगी दिल्ली वासी प्रदूषण से हलाकान होते रहेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की अपनी सीमाएं हैं। वह सरकारों को निर्देश जारी कर सकता है, डांट फटकार सकता है लेकिन सडक़ पर उतरकर समस्या का समाधान नहीं कर सकता।
दिल्ली के निवासियों को भी अपनी जीवनशैली बदलने की जरूरत है। लोकतंत्र और सभ्य एवं सजग समाज में जनता ही सर्वोपरि है। दिल्लीवासियों को अपने अपने स्तर पर कुछ सकारात्मक प्रयास करने चाहिए। दिल्ली की कालोनियों, बंगलों और सडक़ों पर इतनी कारें रेंगती और पार्क होती हैं कि निकलने की जगह नहीं बचती। इन कारों और स्कूटरों के धुएँ से भी अच्छा खासा प्रदूषण होता है। कंक्रीट की ऊंची ऊंची इमारतें बड़े बड़े पेड़ काटने के बाद खड़ी हुई हैं जो छोटे मोटे पेड़ों की धूप रोककर प्रदूषण कम करने वाले पौधों की क्षमता कम कर रही हैं। सारा दोष गरीब किसानों की पराली पर मढक़र दिल्ली के नागरिक और नेता अपने गुनाहों और अकर्मण्यता पर पर्दा नहीं डाल सकते। प्रकृति को नष्ट भ्रष्ट करने में कमोबेश हम सब नागरिकों का हाथ है। चंद पर्यावरणविद लेख लिखकर, भाषण, सेमिनार कर कुंभकर्णी नींद से सोए लोगों को जगाने की कोशिश तो करते हैं लेकिन सुविधा भोगी स्वार्थी समाज चेतने की कोई कोशिश ही नहीं करता। राजनीतिक दलों में प्रकृति और पर्यावरण के प्रति हद दर्जे की संवेदनहीनता है। यही कारण है कि किसी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र या चुनावी भाषण में प्रकृति और पर्यावरण का जिक्र नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यदि बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन हो सकती है, प्राइवेट कंपनियों का काम ऑन लाइन हो सकता है तब सरकारी कामकाज भी ऑन लाइन किया जा सकता है। यहां तक कि न्यायालयों के कार्य भी काफी हद तक ऑन लाइन हो सकते हैं। दिल्ली वाले कुछ दिन कार और स्कूटर की जगह पैदल या साइकिल का इस्तेमाल करने की ठान लें तो इससे भी प्रदूषण काफी कम हो सकता है।
-शकील अख्तर
भारत और पाकिस्तान दोनों ही अपने शस्त्रागार में सैन्य ड्रोन का इजाफा कर रहे हैं।
दोनों की ओर से न केवल कई विदेशी ड्रोन खऱीदे गए हैं, बल्कि ख़ुद भी इस टेक्नोलॉजी को तैयार किया गया है जो बिना पायलट के दुश्मन पर निगरानी रखने, जासूसी करने या लक्ष्यों को निशाना बनाने की क्षमता रखती है।
एशिया की तीन पड़ोसी परमाणु शक्तियों भारत, पाकिस्तान और चीन की ओर से अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने के लिए बिना पायलट उड़ान भरने वाले ड्रोन के इस्तेमाल में तेज़ी देखी गई है।
विशेषज्ञों का मानना है कि सेना में व्यापक पैमाने पर ड्रोन के शामिल होने से युद्ध का तरीका बदल गया है और किसी भी विवाद या झड़प की स्थिति में ड्रोन का इस्तेमाल बहुत अधिक होगा।
विशेषज्ञों के अनुसार इन तीनों देशों में बड़े पैमाने पर ड्रोन की मौजूदगी और एक दूसरे के खि़लाफ़ जासूसी और निगरानी में उनका बढ़ता हुआ इस्तेमाल निकट भविष्य में टकराव और तनाव का कारण बन सकता है।
इस रिपोर्ट में हमने यह जानने की कोशिश की है कि परंपरागत प्रतिद्वंद्वी समझे जाने वाले पड़ोसी देश भारत और पाकिस्तान के पास ड्रोन क्षमता कैसी है और हाल के समय में दोनों ने किस तरह की अनमैन्ड एरियल व्हीकल्स (यूएवी) में इज़ाफ़ा किया है।
भारत के पास पाकिस्तान से अधिक ड्रोन
सैन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल होने वाले ड्रोन्स काफ़ी ऊंचाई पर देर तक उड़ान भरने और रडार में आए बिना ज़मीन पर सेना की गतिविधियों, उनकी तैनातियों, महत्वपूर्ण संयंत्रों, नए निर्माण और सैनिक ठिकानों आदि की प्रभावी निगरानी और विशेष लक्ष्य को भेदने में ज़बर्दस्त महारत रखते हैं।
रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार एक सैन्य ड्रोन तीन बुनियादी काम कर सकता है:
निगरानी करना और प्रतिद्वंद्वी की गतिविधियों पर नजऱ रखना
जासूसी करना यानी यह देखना कि दूसरी तरफ़ हथियार या सेना कहां तैनात हैं
लक्ष्य को निशाना बनाना और उसे तबाह करना
कई ड्रोन्स यह तीनों काम करते हैं लेकिन कुछ की क्षमता सीमित होती है।
अगर हम ड्रोन्स के लिहाज़ से भारत और पाकिस्तान की सैन्य क्षमता की तुलना करें तो यह पता चलता है कि दोनों प्रतिद्वंद्वी देशों ने हाल के दौरान इसमें वृद्धि की है।
रक्षा मामलों के विश्लेषक राहुल बेदी ने बीबीसी को बताया कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही ड्रोन्स की संख्या बढ़ा रहे हैं।
उनका अंदाज़ा है कि भारत के पास अगले दो-चार सालों में लगभग पांच हजार ड्रोन्स होंगे।
उनके अनुसार वैसे तो पाकिस्तान के पास ‘भारत से कम ड्रोन्स’ हैं लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान के पास मौजूद ड्रोन्स में विभिन्न क्षमताएं हैं और यह 10 से 11 अलग-अलग बनावट के हैं।
भारत के ड्रोन्स
अगर हम भारत की मिसाल लें तो उसने इस साल अक्टूबर के दौरान अमेरिका से साढ़े तीन अरब डॉलर मूल्य के 31 प्रीडेटर ड्रोन्स खऱीदने का समझौता किया है।
उनके साथ 50 करोड़ डॉलर के उन ड्रोन्स के ज़रिए लक्ष्य को तबाह करने में इस्तेमाल होने वाले बम और लेजऱ गाइडेड मिसाइलें भी खऱीदी जाएंगी।
अमेरिका के प्रीडेटर ड्रोन्स बहुत महंगे हैं। भारतीय मुद्रा में एक ड्रोन की क़ीमत लगभग 950 करोड़ रुपए है।
इन 31 में से 15 ड्रोन्स भारतीय नौसेना में शामिल किए जाएंगे और बाक़ी 16 थल सेना और वायुसेना में बराबर बराबर दिए जाएंगे।
प्रीडेटर ड्रोन्स दुनिया के सबसे कामयाब और ख़तरनाक ड्रोन माने जाते हैं। इनका इस्तेमाल अफग़़ानिस्तान, इराक, सीरिया, सोमालिया और कई दूसरे देशों के ठिकानों और लक्ष्यों को तबाह करने में किया गया था।
भारत इससे पहले इसराइल के ‘हीरोन’ खऱीद चुका है और इसराइल एयरोस्पेस एजेंसी से लाइसेंस के तहत वह अब यह ड्रोन ख़ुद भारत ने बना रहा है।
मई 2020 में लद्दाख क्षेत्र में चीन के साथ सीमा पर तनाव के बाद ड्रोन और ‘यूएवी’ का महत्व भारत में बहुत बढ़ गया है।
इस समय भारत में नौसेना पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि हिंद महासागर में चीनी नौसेना और भारतीय नौसेना के जहाज़ सक्रिय हैं और भारत का ध्यान इस क्षेत्र पर बहुत अधिक है।
टीकाकारों की राय में अमेरिका भी भारत से यही चाहता है कि वह इस क्षेत्र में चीनी नौसेना की गतिविधियों पर नजऱ रखे।
‘साउथ एशियन वॉयसेज़’ नाम की वेबसाइट पर अक्टूबर की शुरुआत में प्रकाशित एक लेख में रक्षा विश्लेषक ज़ोहैब अल्ताफ़ और निमरा जावेद ने भारत और पाकिस्तान की सेना में ड्रोन को शामिल करने और उसके प्रभाव का विश्लेषण किया है।
उस लेख के मुताबिक, ‘भारत के ड्रोन प्रोग्राम का एक अहम पहलू ‘स्वार्म ड्रोन्स’ को शामिल करना है। यह अनआर्म्ड एरियल व्हीकल है और यह बड़ी संख्या में इक_े उड़ते हैं।’
‘यह पेचीदा मिशन पर काम करने के लिए बनाए गए हैं। उन्हें भारत की रक्षा रणनीति, विशेष कर पाकिस्तान की ओर से किसी ख़तरे को नाकाम बनाने का अहम हिस्सा माना जाता है।’
रिपोर्ट में लिखा है कि इसे भारत की फ़र्म 'न्यू स्पेस रिसर्च ऐंड टेक्नोलॉजीज़' ने तैयार किया है।
उनका मानना है, ‘यह ड्रोन्स दुश्मन की रक्षा प्रणाली को निष्क्रिय कर परमाणु बम लॉन्च करने वाले प्लेटफ़ॉर्मों को तबाह करने समेत बहुत सारे ड्रोन्स से एक साथ हमला करके कई लक्ष्यों को बर्बाद करने की क्षमता रखते हैं।’
पाकिस्तान की ‘ड्रोन पावर’
रक्षा मामलों के विश्लेषक राहुल बेदी ने बीबीसी को बताया कि पाकिस्तान तुर्की और चीन से ड्रोन्स आयात करता है। हालांकि उसने जर्मनी और इटली से भी ड्रोन्स खऱीदे हैं।
पाकिस्तान ने बर्राक़ और शहपर जैसे ड्रोन्स ख़ुद भी बनाए हैं।
पाकिस्तान के पास तुर्की के आधुनिक ‘बैराक्तर’ ड्रोन्स टीबी टू और एकेंजी हैं जबकि उसने चीन से ‘वैंग लोंग टू’ और ‘सीएच 4’ जैसे ड्रोन्स भी हासिल किए हैं।
साल 2022 के दौरान पाकिस्तान ने फ़्लैगशिप ड्रोन ‘शहपर टू’ बनाया। इस ड्रोन के बारे में बताया गया कि यह एक हज़ार किलोमीटर तक उड़ान भरकर लक्ष्य को निशाना बना सकता है।
यह अपने लक्ष्य को लेजऱ बीम से लॉक करके उसे मिसाइल की मदद से तबाह कर सकता है।
पाकिस्तान ऑर्डनेंस फ़ैक्ट्री की ओर से पहले ‘अबाबील’ के नाम से सर्विलेंस ड्रोन्स बनाए गए थे जिन्हें युद्ध के लिए हथियारों से लैस किया गया था।
ज़ोहैब और निमरा अपने लेख में विश्लेषण करते हुए लिखते हैं, ‘पाकिस्तान की वायु सेना ड्रोन और परंपरागत साधनों से भारत के एस- 400 और पृथ्वी की आधुनिक वायु रक्षा प्रणाली को प्रभावी ढंग से टारगेट करके भारत की वायु रक्षा प्रणाली को पंगु कर सकता है।’
इधर राहुल बेदी कहते हैं कि कई रक्षा विश्लेषणों के अनुसार पाकिस्तान दुनिया में चौथा या पांचवा ड्रोन पावर माना जाता है। ‘उनके पास बहुत से आधुनिक प्रकार के ड्रोन्स हैं और उनके ड्रोन वायुसेना, थल सेना और कुछ हद तक नौसेना में भी शामिल किए गए हैं। पाकिस्तान की ड्रोन क्षमता बढ़ रही है और इसका फ़ोकस इस क्षमता में लगातार वृद्धि करने पर है।’
उनका कहना है, ‘इन ड्रोन्स की उड़ान भरने की क्षमता लगभग 50 घंटे तक की है। लड़ाकू विमान उन्हें तबाह नहीं कर सकते क्योंकि यह उनकी उड़ान की ऊंचाई की हद से बहुत ऊपर उड़ते हैं।’
वह कहते हैं कि इन आधुनिक ड्रोन्स के कारण पाकिस्तान को काफ़ी हद तक स्ट्रैटेजिक और टैक्टिकल बढ़त मिलती है।
बालाकोट हमले और अनुच्छेद 370
के हटने से स्थिति कैसे बदली है?
इसी तरह ज़ोहैब और निमरा की रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में आधुनिक ड्रोन्स का बड़ी संख्या में शामिल होना, क्षेत्र की सैन्य स्थिरता के लिए ख़तरा पैदा कर रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक, ‘जैसे-जैसे ड्रोन सेना की रणनीति का अहम हिस्सा बनता जा रहा है वैसे-वैसे सैन्य टकराव से बचाने और सैन्य संतुलन की परंपरागत व्यवस्था के बिखरने का ख़तरा बढ़ता जा रहा है।’
‘परमाणु हथियार संपन्न दक्षिण एशिया में परमाणु ठिकानों और संपत्तियों समेत लक्ष्यों पर हमला करने की ड्रोन की प्रभावी क्षमता ने किसी युद्ध की स्थिति में तबाही की आशंकाओं को व्यापक कर दिया है।’
सैन्य मामलों की पत्रिका फ़ोर्स के संपादक प्रवीण साहनी कहते हैं, ‘अभी जो ड्रोन्स है वह या तो ज़मीन से गाइड किए जाते हैं या फिर वह हवा यानी सैटेलाइट से गाइड किए जाते हैं। अगर दुश्मन के पास संचार व्यवस्था को जाम करने की क्षमता हो तो वह ड्रोन्स को निष्प्रभावी कर सकता है।’
वह कहते हैं, ‘यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे भारत ने जब बालाकोट स्ट्राइक की थी तो पाकिस्तान के पास वायु संचार प्रणाली को जाम करने की क्षमता थी। उन्होंने भारतीय पायलट की संचार व्यवस्था को जाम कर दिया था। यही वजह थी कि वह पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की तरफ़ उतरा।’
प्रवीण साहनी का कहना है, ‘चीन मिलिट्री टेक्नोलॉजी में बहुत आगे निकल चुका है। पाकिस्तान को चीन से ड्रोन बनाने की टेक्नोलॉजी मिल रही है। पाकिस्तान के पास आज बहुत अधिक क्षमता है।’
‘पाकिस्तान की वायुसेना बहुत मज़बूत हो गई है और इसमें बहुत बड़ी भूमिका चीन की है। चीन 10-15 वर्षों से मिलिट्री टेक्नोलॉजी पर काम कर रहा है। 5 अगस्त 2019 के बाद चीन और पाकिस्तान के बीच सैन्य साझेदारी बहुत मज़बूत हुई है।’
वह कहते हैं, ‘अब जो वॉरफ़ेयर है उसमें फि़जिक़ल फ़ील्ड में यानी जहां-जहां लड़ाई में इंसान काम करते थे वह अब इंसान से मशीन की तरफ शिफ़्ट हो रही है। फि़जिक़ल का मतलब ज़मीन, समंदर, आसमान, समंदर के नीचे और अंतरिक्ष- इन सब में ड्रोन का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर होने जा रहा है।’
‘यह विभिन्न देशों में उनकी टेक्नोलॉजी के हिसाब से अलग-अलग चरणों में हो रहा है। अभी ड्रोन पूरी तरह संचार व्यवस्था से कंट्रोल किए जा रहे हैं।’
लेकिन साहनी ये नहीं मानते ड्रोन के लिए कोई रेस लगी हुई है। उनका कहना है, ‘यह वॉरफ़ेयर में होने वाले तकनीकी बदलाव का संकेत है। दुनिया अब ड्रोन वॉरफेयर के चरण में है और ड्रोन वॉरफेयर मौजूदा समय और भविष्य का वॉरफ़ेयर है।’
क्या ड्रोन का बढ़ता इस्तेमाल इन देशों के लिए खतरा है?
यूक्रेन और गजा की जंगों में ड्रोन्स का बहुत इस्तेमाल हुआ है। विश्लेषक अजय शुक्ला ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘ड्रोन्स उन जगहों पर अधिक कारगर साबित होते हैं जहां जिस पक्ष पर हमला हो रहा है उसके पास वायु रक्षा प्रणाली बहुत कमजोर हो।’
‘ड्रोन्स का जो इस्तेमाल आप गजा और कई दूसरी जगहों पर देख रहे हैं। वहां जिन पर हमला हो रहा है उनके पास एयर डिफ़ेंस सिस्टम या आर्म्ड एयर फ़ोर्स जोकि ड्रोन से अधिक क्षमतावान हो, मौजूद नहीं।’
‘लेकिन अगर आप भारत और चीन का उदाहरण लें, तो चीन के शस्त्रागार में मौजूद आधुनिक ड्रोन्स भारत के उन्हीं इलाकों में कारगर साबित होंगे जहां कोई एयर फ़ोर्स या लड़ाकू विमान न हों। बाकी जगहों पर वह कामयाब नहीं होंगे।’
उनका कहना है, ‘पाकिस्तान, चीन या भारत में वायु रक्षा प्रणाली जैसे रडार, कंट्रोल ऐंड कमांड सिस्टम (जो कि एयर स्पेस को कंट्रोल करते हैं) और वायुसेना बहुत मज़बूत हैं। यहां तक कि ड्रोन्स भी दुश्मन के ड्रोन को रोक सकते हैं।’
‘यहां उनका रोल मूल रूप से हवा में बहुत ऊंचाई पर उड़ान भर कर दुश्मन के विशेष क्षेत्रों पर नजऱ रखने और विशेष लक्ष्यों की जासूसी करने और अहम तस्वीरें लेने तक सीमित रहेगा।’
पिछले 8-10 वर्षों में युद्ध की प्रकृति बदल गई है और ड्रोन अब उनका एक अहम हिस्सा है। ड्रोन अब पारंपरिक युद्ध के बड़े प्लेटफॉर्मों जैसे टैंक व आर्टिलरी आदि को बहुत हद तक नुक़सान पहुंचा सकता है। इस पर दोनों देश काफ़ी ध्यान दे रहे हैं।
लेकिन राहुल बेदी मानते है कि भारत और पाकिस्तान के बीच ड्रोन्स को लेकर रेस चल रही है।
उनके मुताबिक भविष्य में ‘रिमोट कंट्रोल वॉरफ़ेयर बढ़ेगा क्योंकि आने वाले दिनों में टेक्नोलॉजी के साथ मशीन इंसान की जगह ले लेगी।’
वह कहते हैं कि दोनों परमाणु हथियार संपन्न देश हैं और अगर ग़लती से भी कोई ड्रोन किसी परमाणु संयंत्र के ऊपर आ गया तो गंभीर समस्या पैदा करेगा और इससे तनाव बढ़ जाएगा। (bbc.com/hindi)
-डॉ. संजय शुक्ला
पाकिस्तान के लाहौर से एक खबर आई कि वायु प्रदूषण के चलते एक ही दिन में 75 हजार बीमार अस्पताल पहुंचे। इस खबर में यह भी बताया गया है कि पाकिस्तान के लगभग 1.4 करोड़ लोग सांस की संकट से जूझ रहे हैं।गौरतलब है कि स्वीटजरलैंड की संस्था आईक्यू एयर की ‘वल्र्ड एयर क्वालिटी-2024’ रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में बांग्लादेश, पाकिस्तान के बाद भारत तीसरा सर्वाधिक प्रदूषित देश है।
रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर पाकिस्तान का लाहौर है तथा प्रदूषित शहरों में से 83 शहर भारत के हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित राजधानियों में नई दिल्ली दूसरे पायदान पर रहा। आंकड़ों को देखें तो देश के 60 फीसदी शहरों में प्रदूषण का स्तर डब्ल्यूएचओ के मानक से सात गुना ज्यादा है। ‘विंटर सीजन’ यानि सर्दियों के मौसम को ‘हेल्दी सीजन’ कहा जाता है लेकिन दिल्ली-एनसीआर सहित देश के विभिन्न शहरों में यह मौसम लोगों के सेहत के लिए मुसीबत लेकर आता है। दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण एक बार फिर से कहर बरपाने लगा है तथा सरकार और प्रशासन हांफने लगी है। दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित दूसरे राजधानी दिल्ली की बात करें तो हालिया आफत कोई पहली बार नहीं आई है अपितु अमूमन हर साल अक्टूबर से लेकर पूरे सर्दियों के मौसम में दिल्ली वासियों पर वायु प्रदूषण का कहर बरपता है। इस दौरान समूचा दिल्ली -एनसीआर का इलाका धुंध यानि स्मॉग से लिपटी हुई है तथा यह महानगर ‘गैस चैंबर’के रूप में तब्दील हो चुका है।
आलम यह है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से उड़ान भरने वाले घरेलू और अंतरराष्ट्रीय विमानों को निम्न दृश्यता की वजह से विलंबित करना पड़ रहा है अथवा उनका रूट बदलना पड़ रहा है। संभवतया आने वाले समय में दिल्ली के ट्रैफिक पर दबाव कम करने के लिए ऑड-इवन व्यवस्था लागू करना पड़ सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने जहरीली होती हवा के मद्देनजर दिल्ली-एनसीआर के स्कूलों को बंद करने का आदेश दिया है। अलबत्ता यह पहली मर्तबा नहीं है जब दिल्ली की दमघोंटू हवा पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई हो लेकिन केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और प्रशासन पर इसका कोई असर दृष्टिगोचर नहीं होता।
सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च ‘सफर-इंडिया’ के ताजा आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में द्वारका, मुंडका तथा नजफगढ़ जैसे इलाकों में वायु गुणवत्ता सूचकांक यानि एक्यूआई 500 दर्ज किया गया। पिछले साल भी इसी सीजन में दिल्ली में एक्यूआ?ई का स्तर 500 तक पहुंच गया था जो विश्व स्वास्थ्य संगठन ‘ड्ब्ल्यूएचओ’ के तय मानक से 100 गुना ज्यादा है। मानकों के मुताबिक 0-50 अच्छा,51-100 संतोषजनक, 101-200 मध्यम, 201-300 खराब,301-400 बहुत खराब और 401 से 500 एक्यूआई को गंभीर श्रेणी में माना जाता है।
बहरहाल सिर्फ भारत की राजधानी दिल्ली की हवा ही दमघोंटू नहीं है बल्कि दिल्ली से सटे हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश सहित देश के अनेक बड़े शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर खराब से बहुत खराब स्तर पर है। दिल्ली सरकार जहाँ प्रदूषण की वजह दिल्ली से सटे राज्यों के किसानों द्वारा पराली जलाने को बताती है लेकिन सुप्रीम कोर्ट सरकार के इस दलील पर नाइत्तेफाकी जाहिर करते हुए दिल्ली के नौकरशाही को उसकी निष्क्रियता पर फटकार लगाया था। दिल्ली सहित उत्तर भारतीय राज्यों में हर साल अक्टूबर-नवंबर में होने वाले भयावह प्रदूषण के लिए पराली जलाने की वजह को नकारा नहीं जा सकता लेकिन इसके लिए उद्योगों व वाहनों के धुआं उत्सर्जन और सडक़ों तथा निर्माण स्थलों से उडऩे वाला धूल भी काफी हद तक जवाबदेह है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ‘डब्ल्यूएचओ’ द्वारा दुनिया के 1650 शहरों वायु प्रदूषण पर में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक भारत की राजधानी दिल्ली में हवा की गुणवत्ता अन्य शहरों की तुलना में बहुत खराब है। बहरहाल भारत जैसे विकासशील देश में वायु प्रदूषण बहुत ही गंभीर चुनौती है जिसका असर जनस्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण पूरी दुनिया में हर साल तकरीबन 70 लाख असामयिक मौतें होती हैं,जिसमें अकेले भारत में 20 लाख लोगों की मौत होती है। एक अन्य शोध के मुताबिक भारत में प्रदूषण के कारण लोगों की जिंदगी पांच साल कम हो रही है। प्रदूषण के कहर से लाखों लोग फेफड़ों और दिल के गंभीर बीमारियों का शिकार भी होते हैं।
आलम यह कि देश के सैकड़ों शहरों की वायु गुणवत्ता बेहद खराब श्रेणी में हैं फलस्वरूप बच्चों और बुजुर्गों में श्वसन तंत्र से संबंधित रोगों में लगातार इजाफा हो रहा है। इसके अलावा कैंसर, मधुमेह, स्ट्रोक, फेफड़ों के कैंसर और क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज ‘सीओपीडी’ जैसे रोगों का एक मुख्य वजह वायु प्रदूषण है। पर्यावरण प्रदूषण से केवल जनस्वास्थ्य पर ही बुरा असर नहीं पड़ रहा है बल्कि इसका अर्थव्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ रहा है जिससे देश की आर्थिक और सामाजिक विकास बाधित हो रही है।
वायु प्रदूषण के कहर से छत्तीसगढ़ राज्य भी अछूता नहीं है, इस राज्य के औद्योगिक शहर जहाँ कोयला आधारित उद्योग और निर्माण कार्य संचालित हो रहे हैं वहां वायु प्रदूषण ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। राज्य के राजधानी रायपुर सहित सभी प्रमुख शहरों में वायु की गुणवत्ता को संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता वहीं घरों के छतों और फर्श पर काली धूल की परत वायु प्रदूषण की चुगली कर रहा है।
औद्योगिक नगरी कोरबा के रहवासी अब सफेद राखड़ और काली धूल के आदी हो चुके हैं वहीं रायगढ़, भिलाई सहित अन्य शहर कोयला आधारित उद्योगों से निकलने वाले धुआं और धूल की वजह से हलाकान हैं। छत्तीसगढ़ के विभिन्न हिस्सों में भी किसान अब अगली फसल के लिए खेतों में पराली जलाने लगे हैं जो भविष्य के लिए गंभीर चिंता का विषय बन सकता है।
राज्य में औद्योगिक प्रदूषण के कारण आसपास के गांवों के खेत बंजर में तब्दील हो चुके हैं फलस्वरूप कृषि उत्पादन प्रभावित हुआ है। वायु प्रदूषण सिर्फ आम जनजीवन को ही प्रभावित नहीं कर रहा है बल्कि यह पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं सहित परिस्थिकीय तंत्र पर भी बुरा असर डाल रहा है।
देश में प्रदूषण के लिए मुख्यतौर से बढ़ती आबादी, पराली जलाने, कारखानों और वाहनों के धुएं, पटाखों और निर्माण स्थलों से उडऩे वाले धूल, खाना पकाने के लिए चारकोल और लकड़ी का उपयोग, जंगलों की अंधाधुंध कटाई और खनिज खनन सहित एयरकंडीशनर का बढ़ता उपयोग इत्यादि कारण जिम्मेदार हैं। भारत एक उत्सवधर्मी देश है जहां दीपावली सहित विभिन्न उत्सवों में खूब पटाखे छोड़े जाते हैं। बिलाशक पटाखों से वायु और ध्वनि प्रदूषण दोनों होता है लेकिन सरकारी बंदिश को धता बताकर खूब पटाखे जलाए और छोड़े जाते हैं।
पटाखों में तांबा, कैडमियम, सल्फर, एल्यूमिनियम, बेरियम, आर्सेनिक, लीथियम के घातक रासायनिक कंपाउंड होते हैं जिसके जलने से जहरीला धुआं निकलता है। इस धुआं की वजह से सांस संबंधी रोग, त्वचा और नेत्ररोग सहित फेफड़ों के कैंसर हो सकता है।
पटाखों के तेज आवाज की वजह से श्रवण शक्ति कमजोर हो सकती है इसके अलावा हृदय से संबंधित विभिन्न रोग, हृदयाघात, उच्च रक्तचाप और अनिद्रा जैसे रोग भी हो सकते हैं। पटाखों से निकलने वाली धुआं और तेज आवाज पर्यावरण और परिस्थितिकी तंत्र पर भी विपरीत प्रभाव डालता है। घातक धुआं और आवाज पेड़-पौधों और पालतू पशुओं पर भी बुरा असर डालते हैं। आसन्न दीपावली के मद्देनजर यह भी तय है कि तमाम पाबंदियों और खतरों के बावजूद पटाखे तो चलेंगे लेकिन इस दिशा में आम नागरिकों की भी जवाबदेही है कि वे सेहत और पर्यावरण के लिहाज से ग्रीन पटाखों का उपयोग करें।
अलबत्ता देश की सरकारें और आम जनता पर्यावरण प्रदूषण के प्रति कितना गंभीर है? इसका अंदाजा सिंगल यूज प्लास्टिक के निर्माण, विक्रय और उपयोग संबंधी प्रतिबंधात्मक कानून से पता चलता है।गौरतलब है कि भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने 1 जुलाई 2022 से देश में एक बार उपयोग लायक ‘सिंगल यूज प्लास्टिक’ के आयात, निर्माण, भंडारण, विक्रय और उपयोग को प्रतिबंधित करने का अधिसूचना जारी किया था। राज्य सरकार ने भी इस दिशा में फौरी सख्ती दिखाई थी लेकिन आज भी इन चीजों का निर्माण, बिक्री और उपयोग धड़ल्ले से जारी है। दरअसल सिंगल यूज प्लास्टिक नॉन-बायोडिग्रेडेबल होते हैं जो सैकड़ों सालों तक नष्ट नहीं होते। कचरों के साथ प्लास्टिक के जलने से कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और डाई-ऑक्सीन जैसी जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है जो मनुष्य के श्वसन और तंत्रिका तंत्र को बहुत नुकसान पहुंचाता है साथ ही यह गर्भवती माता और गर्भ में पल रहे बच्चे के लिए भी घातक होता है। एक वैज्ञानिक शोध के मुताबिक सिंगल यूज प्लास्टिक के जलने से पैदा होने वाले धुएं से फेफड़े से संबंधित दमा, टीबी और कैंसर सहित आंखों से संबंधित रोग हो सकते हैं।
गौरतलब है कि साल दर साल बढ़ते जानलेवा प्रदूषण का असर भारत जैसे गरीब देशों के लोगों के सेहत के साथ-साथ घरेलू बजट और आजीविका पर भी पडऩा अवश्यंभावी है इसलिए इस समस्या के प्रभावी समाधान के प्रति सचेत होना जरूरी है।देश में पर्यावरण संरक्षण की बात करें तो सरकारों के कथनी और करनी में काफी विरोधाभास है तो आम नागरिक भी इस दिशा में काफी लापरवाह हैं। सरकार और समाज ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के नाम पर हर साल 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ अवसर पर रस्मी आयोजनों में शाब्दिक जुगाली कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है। एक शोध के मुताबिक अगर इसी तरह वायु प्रदूषण बढ़ता रहा तो सन 2050 तक पृथ्वी 4 से 5 डिग्री तक गर्म हो जाएगी।
दूसरी ओर विभिन्न रिपोर्ट यह बताते हैं कि भारत प्रदूषण को लेकर तनिक भी गंभीर नहीं है बल्कि इस विकराल समस्या पर हम सिर्फ जुबानी जमा खर्च ही कर रहे हैं। दुखदाई यह कि यदि हम अब भी नहीं चेते तो आने वाले समय में इसकी कीमत भावी पीढ़ी को चुकानी पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि देश में प्रदूषण रोकने के लिए प्रभावी कानून नहीं है लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के आभाव और विभागीय अमले की उदासीनता के कारण तमाम कानून किताबों में ही कैद हैं।यह कटु सत्य है कि देश में बढ़ रहे विभिन्न प्रदूषणों के लिए जहां सरकार की पर्यावरण विरोधी नीतियां जिम्मेदार हैं वहीं इस समस्या के लिए आम नागरिक भी पूरी तरह से जवाबदेह हैं।
विचारणीय है कि भारत में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन इस देश में पर्यावरण कभी भी राजनीतिक या चुनावी मुद्दा नहीं बना।दिल्ली में जहरीली हवा पर हर साल मचने वाले सियासी बवाल को परे रख दें पर्यावरण प्रदूषण कभी भी संसद में गंभीर बहस का मुद्दा नहीं बना।अलबत्ता जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए प्रदूषण पर प्रभावी रोकथाम जरूरी है, इसके लिए जंगलों की कटाई, कोयला खनन, पहाड़ों की कटाई व खुदाई को रोकते हुए औद्योगिक व अधोसंरचनात्मक प्रदूषण पर सख्ती से रोकथाम लगाना होगा लेकिन सरकारों के औद्योगिक और चकाचौंध विकास की भूख इसमें बाधक हैं। परंपरागत ऊर्जा संसाधनों के उपयोग को सीमित करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों और बॉयोगैस के प्रचलन को प्रोत्साहित करना होगा वहीं अपरंपरागत ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश को बढ़ाना होगा। आम नागरिकों की भी जवाबदेही है कि वे पर्यावरण संरक्षण के लिए लागू प्रतिबंधों और कानूनों के प्रति स्व-अनुशासित और जागरूक हों।
बांग्लादेश की सत्ता से शेख हसीना के बेदख़ल होने के बाद से पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच बहुत कुछ हो रहा है।
जैसे 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद पिछले हफ़्ते पहली बार पाकिस्तान से समुद्री संपर्क शुरू हुआ। पाकिस्तान का एक मालवाहक पोत कराची से चलकर बांग्लादेश के दक्षिणपूर्वी तट पर स्थित चटगांव बंदरगाह पहुँचा था। इससे पहले दोनों देशों के बीच समुद्री व्यापार सिंगापुर या कोलंबो के जरिए होता था।
अब बांग्लादेश ने ढाका यूनिवर्सिटी में पाकिस्तान के स्टूडेंट्स को भी आने की अनुमति दे दी है। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने भी बांग्लादेश के नागरिकों के लिए वीजा हासिल करने की प्रक्रिया को काफी आसान बना दिया है।
ढाका यूनिवर्सिटी बांग्लादेश का सबसे बड़ा शैक्षणिक संस्थान है। ढाका यूनिवर्सिटी की प्रो-वाइस चांसलर प्रोफेसर सायमा हक बिदिशा ने कहा है कि 13 नवंबर को वाइस चांसलर प्रोफेसर नियाज़ अहमद खान की अध्यक्षता में एक सिंडिकेट मीटिंग में यह फैसला लिया गया था।
इस फैसले के बाद कहा जा रहा है कि शेख हसीना के बेदखल होने के बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश की कऱीबी लगातार कई स्तरों पर बढ़ रही है।
संशोधित नीति के अनुसार, पाकिस्तानी स्टूडेंट्स ढाका यूनिवर्सिटी में एडमिशन ले सकेंगे और बांग्लादेश के स्टूडेंट्स पाकिस्तान में पढ़ाई कर सकेंगे।
बांग्लादेश के अंग्रेज़ी अख़बार ढाका ट्रिब्यून से प्रोफेसर सायमा हक बिदिशा ने कहा, ‘पाकिस्तान के साथ संबंध कई स्तरों पर नहीं हैं लेकिन ढाका यूनिवर्सिटी एक शैक्षणिक संस्थान है। हमारे कई छात्र स्कॉलरशिप पर पाकिस्तान जाना चाहते हैं। कई लोग अकादमिक कॉन्फ्रेंस में जाना चाहते हैं। हमने इस मुद्दे को सुलझा लिया है। बातचीत के जरिए इस मामले में पाकिस्तान से सामान्य संबंध बहाल कर दिया गया है।’
बांग्लादेश के इतिहास में ढाका यूनिवर्सिटी की अहम भूमिका रही है। बांग्लादेश में सरकारों के खिलाफ विरोध की आवाज भी इसी यूनिवर्सिटी से बुलंद होती रही है।
इसी साल जुलाई-अगस्त महीने में शेख़ हसीना के खिलाफ ढाका यूनिवर्सिटी से ही आंदोलन की शुरुआत हुई थी। 1971 के मुक्ति युद्ध में भी इस यूनिवर्सिटी की भूमिका थी। पाकिस्तान के सैन्य ऑपरेशन सर्चलाइट में ढाका यूनिवर्सिटी के छात्रों और प्रोफेसरों को भी निशाने पर लिया था।
ढाका यूनिवर्सिटी पाकिस्तान विरोधी आंदोलन का जन्म स्थान रहा है। शेख हसीना की सरकार के दौरान यूनिवर्सिटी में यह मांग उठी थी कि पाकिस्तान 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में जनसंहार के लिए माफी मांगे।
साल 2015 में इसी मांग के दौरान शेख हसीना की सरकार ने ढाका यूनिवर्सिटी में पाकिस्तानी स्टूडेंट्स के एडमिशन पर पाबंदी लगा दी थी।
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार पर यह भी आरोप लग रहा है कि वो अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हमले होने दे रही है और इस्लामिक कट्टरपंथियों को बढ़ावा दे रही है। इसे लेकर अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी चिंता जताई थी। तब ट्रंप का चुनावी अभियान चल रहा था।
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूस ने 18 नवंबर को भारत अंग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ को दिए इंटरव्यू में हिन्दुओं पर हमले से जुड़े सवालों को प्रॉपेगैंडा बताया है।
मोहम्मद युनूस ने कहा, ‘ट्रंप को बांग्लादेश और यहाँ के अल्पसंख्यकों के बारे में दुरुस्त जानकारी नहीं है। पूरी दुनिया में इसे लेकर प्रॉपेगैंडा चलाया जा रहा है। लेकिन जब ट्रंप को सच्चाई पता चलेगी तो वो भी हैरान रह जाएंगे। मैं नहीं मानता हूँ कि अमेरिका में नए राष्ट्रपति के आने से सारी चीज़ें बदल जाएंगीं।अगर अमेरिका में सत्ता परिवर्तन हुआ है तो बांग्लादेश में भी हुआ है। ऐसे में आप थोड़ा इंतजार कीजिए। हमारी अर्थव्यवस्था पटरी पर है और अमेरिका की इसमें काफी दिलचस्पी होगी।’
द हिन्दू ने उनसे सवाल किया कि बात केवल ट्रंप की नहीं है। भारत ने भी कई बार प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हमले की बात उठाई है।
इसके जवाब में मोहम्मद युनूस ने कहा, ‘16 अगस्त को पीएम मोदी से फोन पर मेरी पहली बातचीत हुई थी। पीएम मोदी ने भी बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के साथ खऱाब व्यवहार की बात कही थी। मैंने उनसे स्पष्ट कहा था कि यह प्रॉपेगैंडा है। यहाँ कई पत्रकार आए और कई लोगों ने तनाव की बात कही लेकिन ऐसा नहीं है, जैसा कि मीडिया में कहा जा रहा है। मुझे नहीं पता है कि इस प्रॉपेगैंडा के पीछे कौन है लेकिन इसका सच्चाई से कोई संबंध नहीं है।’
द हिन्दू की डिप्लोमैटिक अफेयर्स एडिटर सुहासिनी हैदर ने मोहम्मद यूनुस से पूछा, ‘मैंने बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों से बात की। वे डरे हुए हैं। इन्हें लगता है कि सरकार निशाना बना रही है।सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो हैं, जिनमें कहा जा रहा है कि बांग्लादेश एक इस्लामिक देश है। जो अभी सत्ता में हैं, उनके मुँह से यह कहते सुना गया है कि संविधान बदलना है और धर्मनिरपेक्षता की बात हटानी है। ऐसे में एक संदेश गया है कि आपकी सरकार इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर बढ़ रही है।’
इसके जवाब में मोहम्मद युनूस ने कहा, ‘जो आप कह रही हैं, उसमें मैं फिट बैठता हूँ? कैबिनेट का हर सदस्य मानवाधिकार कार्यकर्ता है या पर्यावरण कार्यकर्ता जो ख़ुद ही पीडि़त रहा है। बांग्लादेश की कैबिनेट एक्टिविस्टों की जमात है। जो बात आप मेरे सामने कह रही हैं, वही बात अगर इनके सामने आप कहेंगी तो आपसे तीखा विरोध जताएंगे। कैबिनेट के सारे सदस्य बहुत समर्पित लोग हैं। यहाँ कई महिलावादी एक्टिविस्ट हैं।’
मोहम्मद यूनुस ने ये भी कहा है कि वह शेख़ हसीना का भारत से प्रत्यर्पण कराने की कोशिश जारी रखेंगे।
17 नवंबर को बांग्लादेश में भारत के उच्चायुक्त प्रणय वर्मा ने ‘बे ऑफ बंगाल कन्वर्सेशन’ में बोलते हुए कहा था, ‘बांग्लादेश में हिंसक सत्ता परिवर्तन के बावजूद भारत से आर्थिक, ट्रांसपोर्ट, ऊर्जा और लोगों के आपसी संबंध सकारात्मक हैं। हमलोग के संबंध बहुआयामी हैं और किसी एक एजेंडे पर निर्भर नहीं है।’
हालांकि पाकिस्तान में बांग्लादेश की नई सरकार के रुख को लेकर सकारात्मक रूप में लिया जा रहा है। भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे अब्दुल बासित मानते हैं कि शेख़ हसीना का सत्ता से बाहर होना पाकिस्तान के लिए एक अच्छा मौका है।
अब्दुल बासित ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो जारी कर कहा, ‘भारत को शेख़ हसीना सत्ता का बाहर होना रास नहीं आ रहा है। बांग्लादेश के खिलाफ भारत की लॉबी अमेरिका में सक्रिय हो गई है। इसी लॉबी की कोशिश है कि ट्रंप प्रशासन बांग्लादेश के खिलाफ प्रतिबंध लगाए। बांग्लादेश से कपड़ों का सबसे ज़्यादा निर्यात अमेरिका में ही होता है। ट्रंप टैरिफ लगाने की वकालत करते रहे हैं। अगर ट्रंप टैरिफ लगाते हैं तो बांग्लादेश को काफी नुकसान होगा।’
अब्दुल बासित ने बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच समुद्री संपर्क शुरू होने पर कहा, ‘पहली बार ऐसा हुआ है कि पाकिस्तानी मालवाहक पोत सीधे चटगांव पहुंचा है। इससे पहले दोनों देशों के बीच जो भी व्यापार होता था, वो सिंगापुर और श्रीलंका के रास्ते होता था।’
‘इससे भारत में कोहराम मच गया है। बांग्लादेश में जो नेतृत्व है, वो अब बहुत खुले विचारों का है। ऐसा नहीं कि वो भारत से रिश्ते बढ़ाने के खिलाफ है लेकिन उन्होंने अपने विकल्प खुले रखे हैं और पाकिस्तान के साथ ताल्लुकात क्यों न बढ़ाएं। अब अगला क़दम ये होगा कि व्यापार और उद्योग जगत के संगठन भी एक दूसरे के यहां जाएंगे और हो सकता है कि अगले साल तक विदेश सचिवों के स्तर पर दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू हो।’
बांग्लादेश पाकिस्तान संबंध
बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीब-उर रहमान पाकिस्तान को लेकर बहुत सख़्त थे।
यहाँ तक कि शेख मुजीब-उर रहमान ने बांग्लादेश को मान्यता दिए बिना पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फीकार अली भुट्टो (बाद में प्रधानमंत्री) से बात करने से इंकार कर दिया था। पाकिस्तान भी शुरू में बांग्लादेश की आजादी को खारिज करता रहा।
लेकिन पाकिस्तान के तेवर में अचानक परिवर्तन आया। फऱवरी 1974 में ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन का सम्मेलन लाहौर में आयोजित हुआ।
तब भुट्टो प्रधानमंत्री थे और उन्होंने मुजीब-उर रहमान को भी औपचारिक आमंत्रण भेजा। पहले मुजीब ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया लेकिन बाद में इसे स्वीकार कर लिया।
इस समिट के बाद भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच एक त्रिकोणीय समझौता हुआ।
1971 की जंग के बाद बाकी अड़चनों को सुलझाने के लिए तीनों देशों ने नौ अप्रैल, 1974 को समझौते पर हस्ताक्षर किए। पाकिस्तान 28 अगस्त, 1973 के भारत-पाकिस्तान समझौते में निर्दिष्ट गैर-बंगालियों की सभी चार श्रेणियों को स्वीकार करने के लिए सहमत हुआ।’
पाकिस्तानी विदेश और रक्षा मंत्रालय की ओर से एक बयान जारी किया गया। इस बयान में कहा गया कि पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेश में किसी भी तरह का अपराध किया है तो यह खेदजनक है।
जून 1974 में भुट्टो ढाका गए। इस दौरे में बांग्लादेश ने संपत्तियों के बँटवारे का मुद्दा उठाया। इस दौरे से दोनों देशों के संबंध में जमी बफऱ् पिघली।
22 फऱवरी 1974 को पाकिस्तान ने बांग्लादेश को मान्यता दे दी थी। भुट्टो ने यह मान्यता ओआईसी समिट में ही देने की घोषणा की थी।
ज़ुल्फ़ीकार अली भुट्टो ने मान्यता की घोषणा करते हुए कहा था, ‘अल्लाह के लिए और इस देश के नागिरकों की ओर से हम बांग्लादेश को मान्यता देने की घोषणा करते हैं। कल एक प्रतिनिधिमंडल आएगा और हम सात करोड़ मुसलमानों की तरफ़ से उन्हें गले लगाएंगे।’
मान्यता देने के एक दिन बाद बांग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीब-उर रहमान लाहौर पहुँचे और एयरपोर्ट पर उनके स्वागत में भुट्टो खड़े थे।
इससे पहले शेख मुजीब और भुट्टो की मुलाक़ात जनवरी, 1972 में हुई थी। तब भुट्टो राष्ट्रपति थे और उन्होंने 10 महीने से जेल में बंद मुजीब को मुक्त किया और उन्हें बांग्लादेश जाने की अनुमति दी थी। (bbc.com/hindi)
-मयूरेश कोण्णूर
बीते एक दशक में भारतीय राजनीति में हिंदुत्व और उसके इर्द-गिर्द के मुद्दे की राजनीति को प्रमुखता मिली है। ऐसे में पिछले एक दशक के दौरान भारतीय मुसलमानों की राजनीतिक हिस्सेदारी कहां है, इस सवाल पर चर्चा होती रही है।
महाराष्ट्र चुनाव को देखते हुए वहां की राजनीति में कहां हैं मुसलमान? इस सवाल पर भी खूब चर्चा हो रही हैं। देश के कुछ अन्य हिस्सों की तरह महाराष्ट्र में भी धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिशों के उदाहरण मिले हैं।
तल्ख़ बयानबाजिय़ां हो रही हैं और भडक़ाऊ भाषण दिए जा रहे हैं, मार्च निकाले जा रहे हैं। कुछ शहरों में तनाव और सांप्रदायिक दंगे जैसी स्थिति भी दिखी है।
महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ ‘कटेंगे तो बंटेंगे’ के नारे के साथ चुनाव प्रचार करते नजर आए। हालांकि, महाराष्ट्र में बीजेपी और खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इस नारे की जगह दूसरे नारे ‘एक हैं तो सेफ हैं’ को भुनाने की कोशिश की है।
क्या मुसलमानों को मिला राजनीतिक प्रतिनिधित्व?
भारतीय राजनीति में ध्रुवीकरण के प्रयास करने की रणनीति नई बात नहीं है।
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़ महाराष्ट्र में मुसलमानों की आबादी 11.5 फीसदी थी। इस हिसाब से राज्य में मुसलमानों की आबादी करीब 1.30 करोड़ होगी। लेकिन आबादी की तुलना में मुसलमानों को जन प्रतिनिधित्व मिलता नहीं दिखता है।
साल 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान महायुति और महाविकास अघाड़ी, दोनों गठबंधन ने किसी भी एक सीट से मुस्लिम उम्मीदवार को नहीं उतारा।
जबकि, राज्य विधानसभा में 288 में से 10 मुस्लिम विधायक हैं। यानी 3.47 फीसदी।
इतिहास में यह पहली बार हुआ कि महाराष्ट्र की विधानपरिषद में एक भी मुस्लिम नहीं था।
लेकिन राज्य में चुनाव की घोषणा से कुछ घंटे पहले इदरीस नायकवाड़ी को राज्यपाल द्वारा नामांकित विधान परिषद सदस्यों के बीच जगह मिल गई।
आर्थिक स्थिति भी एक पहलू
मुस्लिम जन प्रतिनिधियों के कम होने से क्या असर हो सकता है, इसकी एक झलक ‘संपर्क’ संस्था के एक सर्वे में देखा जा सकती है।
इस सर्वे के मुताबिक़, पिछले पांच साल में विधानसभा में 5921 सवाल पूछे गए। केवल 9 प्रश्न अल्पसंख्यकों और उनके मुद्दों के बारे में थे। छत्रपति संभाजीनगर के ठीक मध्य में मुस्लिम बहुल बस्ती किराडपुरा है। इस बस्ती से गुजरते समय वहां रहने वाले लोगों की आर्थिक हैसियत का अंदाज़ा होता है।
एक मैदान में कुछ स्कूली बच्चे खुली जगह पर पतंग उड़ा रहे थे। इसी मैदान के पास शेख फहीमुद्दीन की झोपड़ी है। वे सारा दिन वहीं बैठकर पतंगें बनाते हैं।
वे बताते हैं, ‘पहले हमारे दादा ने किया, फिर अब्बा ने किया। अब हम कर रहे हैं। हमारी तीसरी चौथी पीढ़ी है। खानदानी काम है हमारा।’
‘एक छोटे से घर में पूरा परिवार पतंग बनाता है। पिछली पीढिय़ों ने जो किया, वही अगली पीढिय़ाँ करेंगी।’
आमदनी का है सवाल
लेकिन सवाल ये है कि इस काम से उनकी आमदनी क्या है? क्या गुजारे लायक आमदनी हो जाती है?
वह कहते हैं, ‘ये पतंग हम थोक में दे देते हैं। हज़ार पतंग के पीछे पांच सौ रुपये बच जाते हैं। एक हजार पतंग बनाने में कम से कम दो दिन लगते हैं।’
यानी ढाई सौ रुपये प्रतिदिन और ये आमदनी भी साल के केवल दो महीनों के दौरान होती हैं। संक्रांति के महीने में वे व्यस्त रहते हैं। उनकी बनाई पतंगें महाराष्ट्र के साथ साथ गुजरात तक जाती हैं।
फहीमुद्दीन को लगता है कि उनके दोनों बेटों को कुछ अलग करना चाहिए। एक बेटा स्कूल में है और दूसरे ने अभी दसवीं कक्षा पास की है।
फहीमुद्दीन कहते हैं, ‘हम दूसरा काम करने को कहते हैं। पर अभी वे कुछ करना नहीं चाहते। नहीं तो फिर यही काम उनको सिखाएंगे।’
फहीमुद्दीन की कहानी अधिकांश मुस्लिमों की कहानी है। पारंपरिक व्यवसायों में फंसे इन लोगों के पास नए अवसर नहीं पहुंच रहे हैं। शिक्षा की कमी के चलते वे नए तरह का काम भी नहीं कर पा रहे हैं।
मनमोहन सिंह सरकार के दौरान गठित सच्चर समिति की रिपोर्ट से भी मुस्लिम समुदाय की यही मुश्किलें सामने आयी थीं। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने डॉ. महमदुर्रहमान समिति का गठन किया था।
महमदुर्रहमान समिति की रिपोर्ट
किराडपुरा की डॉ. फिऱदौस फ़ातिमा से हमने बात की। वे पहले कांग्रेस में थीं और अब ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम में हैं।
यहां से पार्षद भी रहीं। उन्होंने ही सबसे पहले अपनी बस्ती में एक स्कूल की मांग की और अब यह शुरू हो गया है। उन्होंने ख़ुद इसी साल उर्दू साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है।
वह बताती हैं, ‘मुसलमानों में बहुत कम छात्र स्नातक या स्नातकोत्तर स्तर तक पहुंच पाते हैं। अब तो जो सरकारी फ़ेलोशिप या छात्रवृत्तियां मिलती थीं, वे भी बंद हो गई हैं। ऐसा लगने लगा है कि अगर उन्हें पढऩे का मौका मिल गया तो वे और सवाल पूछेंगे।’
किराडपुरा के एजाज अहमद 30 साल के हैं। उन्होंने मास्टर्स की डिग्री ली है,पहले उन्होंने कॉल सेंटर में भी काम किया है। लेकिन काम बंद होने के बाद वह परिवार के कपड़े की दुकान पर काम करने लगे हैं।
साल 2014 में, रहमान समिति की सिफारिश के अनुसार, महाराष्ट्र में मुसलमानों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में पांच प्रतिशत आरक्षण मिला था, लेकिन मुंबई उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगा दी।
बाद में पढ़ाई के लिए कोटा की अनुमति दे दी। हालाँकि, वह कोटा लागू नहीं किया गया था। लेकिन सवाल यही है कि इन मुद्दों को किनारे रखते हुए महाराष्ट्र की राजनीति धार्मिक क्यों हो गई है?
धार्मिक उत्पीडऩ की घटनाएँ
धार्मिक उत्पीडऩ की घटनाएं और उस पर राजनीति पिछले एक दशक से हर जगह चर्चा का विषय बनी हुई है। ऐसा देश के विभिन्न हिस्सों में हुआ है और महाराष्ट्र इसका कोई अपवाद नहीं है।
इसका ताजा उदाहरण भाजपा विधायक नितेश राणे के भाषण और उसके बाद होने वाली प्रतिक्रिया है। नितेश राणे पहले शिवसेना में थे, फिर वह कांग्रेस में गए और अब बीजेपी में शामिल हैं।
आक्रामक हिंदुत्व की भाषा का इस्तेमाल के साथ मुस्लिम समुदाय को धमकाने वाला उनका एक बयान मीडिया की सुर्खियों में रहा था।
पिछले कुछ समय से महाराष्ट्र में कई ऐसी घटनाएँ या घटनाएँ हुईं जिन्होंने तनाव पैदा किया।
पिछले कुछ सालों में राज्य के कई जिलों में ‘हिंदू जनाक्रोश मोर्चे’ हुए हैं। इसमें खुलेआम कथित ‘लव जिहाद’, ‘लैंड जिहाद’ के आरोप लगाए गए।
औरंगजेब के पोस्टर लगाने और सोशल मीडिया पर स्टेटस डालने के कारण कई जगहों पर दंगे हुए। कोल्हापुर में शुरू हुआ दंगा पूरे राज्य में फैला।
इन तनावपूर्ण धार्मिक संबंधों का असर गाँवों में भी देखा गया। सतारा के ग्रामीण इलाके में हुए दंगे में एक व्यक्ति की मौत हो गई।
कोल्हापुर के पास विशालगढ़ इलाके में कथित अतिक्रमण को लेकर विवाद के कारण गजापुर में आवासीय घरों पर हमले हुए।
गोमांस के संदेह में जलगांव से कल्याण जाने वाली ट्रेन में एक बूढ़े मुस्लिम की पिटाई की गई। उस वीडियो के वायरल होते ही देशभर से प्रतिक्रियाएं आने लगीं।
दरअसल पिछले कुछ साल में महाराष्ट्र में तनाव बढ़ाने वाली ऐसी कई घटनाएं लगातार हो रही हैं।
अकोला, अहिल्यानगर, संगमनेर, छत्रपति संभाजीनगर और मुंबई में तनाव की घटनाएं समय समय पर आती रही हैं।
पुणे की सामाजिक कार्यकर्ता तमन्ना इनामदार ने बताती हैं, ‘मुस्लिम घर की महिलाएं घर के काम करने के बाद परिवार के बच्चों और छोटे बच्चों के वापस लौटने का बेसब्री से इंतजार करती हैं कि बाहर निकलने के बाद उनके साथ पता नहीं क्या कुछ हो जाए।’
मुस्लिम समुदाय के घरों में फैले डर के बारे में तमन्ना इनामदार ने कहा, ‘युवाओं का खून गर्म है। वे उत्साह की स्थिति में हैं। क्या हमारे बच्चों के साथ कुछ गलत होगा? बड़ी चिंता यह है कि क्या बच्चे सुरक्षित घर लौटेंगे। राजनीति इस तरह का डर फैलाने में सफल है।’
क्या आज की मुस्लिम राजनीति इसी डर की मानसिकता के इर्द-गिर्द घूमती है और क्या इसका असर इस समुदाय के मतदान पर भी पड़ता है?
लोकसभा चुनाव के रुझान और उससे पहले हुए कुछ अन्य राज्यों के मतदान को देखकर तो यही लगता है कि ऐसा हो रहा है।
बालासाहेब ठाकरे के समय से ही मुस्लिम विरोध, शिवसेना द्वारा अपनाए गए हिंदुत्ववादी रुख का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। वह विरोध सिर्फ भाषणों के जरिए नहीं बल्कि सडक़ों पर भी था।
लेकिन उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली शिवसेना ने जब उदारवादी रवैया अपनाया तो उसे मुस्लिमों के वोट भी मिले। यह नगर निगम चुनावों में भी साफ़ दिखा।
क्या इस बदलाव के पीछे भी मुस्लिम मतदाताओं में डर का होना था?
मुंबई के माहिम में पेशे से वकील अकील अहमद कहते हैं, ‘अगर एक बिल्ली पर 10 अन्य बिल्लियां हमला कर दें तो उसका भाग जाना सिफऱ् डर नहीं है। वह खुद को अकेले बचा रही है। यह ज़्यादा महत्वपूर्ण है।’
विधानसभा चुनाव से पहले शिवसेना भवन में मुस्लिम समुदाय की उद्धव ठाकरे के साथ बैठक हुई, जिसमें उन्होंने 'इतिहास भूलकर आगे बढऩे' की अपील की, उस बैठक में अकील खुद भी मौजूद थे।
माहिम में अपने कार्यालय में अपने सहयोगियों के साथ अकील कहते हैं, ‘इतिहास में कई चीजें हुई हैं। वे सुखद नहीं हैं। लेकिन अगर हम केवल इतिहास पर ध्यान देंगे, तो भविष्य सुरक्षित नहीं होगा। निशाना पर मुसलमान हैं। अज़ान, सडक़ पर नमाज़, मदरसा और मस्जिद अब विवाद के विषय हो चुके हैं। इसलिए समुदाय असुरक्षित महसूस कर रहा है और एकजुट है।’
कथित ‘वोट जिहाद’ विवाद
ऐसे में जो ध्रुवीकरण हुआ है, क्या उसमें मुस्लिम वोट बीजेपी के ख़िलाफ़ एकजुट होता दिख रहा है?
विधानसभा के गणित में यह सवाल भी निर्णायक साबित होने वाला है।
लोकसभा में ये वोट महा विकास अघाड़ी के उम्मीदवारों को मिले थे। इसलिए बीजेपी नेताओं ने इसे 'वोट जिहाद' करार दिया था और इसको लेकर विवाद देखने को मिला था।
वहीं मुस्लिम समुदाय के नेता और विपक्षी राजनीतिक दल इस शब्द को स्वीकार नहीं करते।
कांग्रेस ने चुनाव आयोग से इसको लेकर शिकायत भी की है। लेकिन फिर भी बीजेपी अपने चुनावी कैंपेन में इसका जिक्र लगातार करती रही।
महाराष्ट्र बीजेपी के शीर्ष नेता और गृह मंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने भी कोल्हापुर में एक कार्यक्रम में मुस्लिमों के बीच जारी वोटिंग को ‘वोट जिहाद’ कहा।
बीजेपी का आकलन है कि उनके ख़िलाफ़ गए इन वोटों की वजह से ही लोकसभा में कुछ सीटें बीजेपी के हाथ से निकल गईं।
फडणवीस ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा था, ‘इस चुनाव में, हमने देखा कि वोट जिहाद कैसे हो रहा है। हमारे उम्मीदवार जो धुले में पांच विधानसभा क्षेत्रों में 1 लाख 90 हज़ार वोटों से आगे थे लेकिन केवल मालेगांव निर्वाचन क्षेत्र में 1 लाख 94 हजार वोटों से पीछे हो गए और चार हजार वोटों से चुनाव हार गए।’
लेकिन बीजेपी के इन दावों को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं।
हाल ही में ‘लोकसत्ता’ में प्रकाशित एक ख़बर के मुताबिक ‘लोकसभा चुनाव और पिछले चुनावों के आंकड़ों की तुलना करें तो मुस्लिम बहुल सीटों पर बीजेपी के नेतृत्व वाली ‘महायुति’ का वोट प्रतिशत बढ़ा है।’
लेकिन भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े इससे सहमत नहीं दिखते।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संस्था राष्ट्रीय मुस्लिम मंच मुस्लिम समुदाय के साथ काम करता है।
इसके राष्ट्रीय समन्वयक इरफ़ान अली पीरज़ादा कहते हैं, ‘मुसलमान बीजेपी को हराना चाहते हैं और इस चक्कर में वे भूल गए हैं कि उनका प्रतिद्वंद्वी कौन है। वे भूल गए हैं कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस में, मुंबई दंगों में शिव सेना का कितना हाथ था।’
उन्होंने कहा, ‘हमने देखा है कि कैसे उनके नेता जरूरत पडऩे पर फडणवीस और अमित शाह के पास जाते हैं। लेकिन जब चुनाव का समय आता है, तो वे विरोध करते हैं। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि भाजपा उनकी प्रगति और विकास के लिए क्या कर रही है। उनके दिलों में विरोध भरा हुआ है।’
मुस्लिम समाज के स्कॉलर मुस्तफा फारूकी कहते हैं, ‘इस समय भारतीय मुसलमान हर तरफ़ से हमलों का सामना कर रहा है। इसलिए सामाजिक न्याय की उम्मीदों को किनारे रखकर स्पष्ट राजनीतिक रुख अपनाना और ख़ुद को सुरक्षित रखना उनकी पहली जरूरत बन गई है। इसका नतीजा चुनावों में दिख रहा है।’
यही वजह है कि मुसलमानों का शिवसेना के साथ जाना उन्हें अनुचित नहीं लगता। वे कहते हैं, ‘शिवसेना बाबरी विध्वंस या मुंबई दंगों में शामिल थी।
यह इतिहास है और कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता है। लेकिन इससे परे, अगर हम इसे भविष्य में या एक नीति के रूप में देखें, तो फिलहाल, उनकी प्राथमिक जरूरत सुरक्षा और शांति है।’
मुसलमानों का राजनीतिक नेतृत्व कहाँ है?
महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में मुस्लिम मतदाताओं, नेताओं, लेखकों-विचारकों से बात करने पर ऐसा लगता है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सत्ता में हिस्सेदारी का मुद्दा मुस्लिम समुदाय के लिए ज़रूरी हो गया है।
वैसे महाराष्ट्र के गठन के बाद से केवल एक ही मुस्लिम मुख्यमंत्री रहे हैं, अब्दुल रहमान अंतुले। समय के साथ मुसलमानों की राज्य की सत्ता में हिस्सेदारी और भी कम होती गई।
सोलापुर स्थित मुस्लिम लेखक और पत्रकार सरफराज अहमद स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, ‘यही सवाल है। मुसलमानों के लिए कौन बोल रहा है? नवाब मलिक थोड़ा बोलते थे, लेकिन उनका क्या हुआ?’
‘हुसैन दलवई मुख्यधारा से बहुत दूर चले गए हैं। हसन मुश्रीफ़ मुस्लिम राजनीति नहीं करना चाहते हैं। अब्दुल सत्तार बहुसंख्यक निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए हैं, इम्तियाज जलील चुनाव हार चुके हैं।?’
‘इनमें से कोई भी नेता बोलना नहीं चाहता। क्योंकि अगर वे बोलेंगे तो उन्हें अबू आज़मी की तरह हटना पड़ेगा। असदुद्दीन ओवैसी बोलते हैं, लेकिन अगर कोई मुसलमान उनके पक्ष में जाता है, तो उसे कट्टरपंथी कहा जाता है। ऐसे समय में पहल कौन करेगा।’
यह सच है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में भी मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या घटी है। यह बहुलवादी राजनीति का परिणाम था।
मुस्लिम नेताओं को लगता है कि ‘ध्रुवीकरण की राजनीति का एक परिणाम यह है कि जिन पार्टियों को मुस्लिम वोट मिल रहे हैं, वे भी मुसलमानों को मैदान में नहीं उतारती हैं क्योंकि अगर वे मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारेंगे तो उन्हें हिंदू वोट नहीं मिलेंगे।’
एआईएमआईएम के पूर्व सांसद और वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष इम्तियाज जलील कहते हैं, ‘मुसलमानों ने कभी भी अपनी पार्टी या एक व्यक्ति के रूप में वोट नहीं दिया।’
‘उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया, उन्होंने एनसीपी को वोट दिया और अब ठाकरे की शिवसेना को वोट दिया। क्या आज यह संभव है कि अगर शिवसेना एक मुस्लिम उम्मीदवार देती है, तो क्या अन्य जाति के लोग उसे वोट देंगे?’
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद हुसैन दलवई की शिकायत है कि मुस्लिम वोट पाने वाली पार्टियां और गठबंधन मुसलमानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं दे रहे हैं।
उन्होंने कहा, ‘महाराष्ट्र में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या को देखते हुए, कम से कम 32 विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम उम्मीदवार दिए जाने चाहिए। लेकिन क्या ऐसा हुआ है?’
‘लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी को मिले कुल वोटों में से 40 फीसदी वोट मिले थे। मुस्लिमों का मतदान प्रतिशत भी काफी बढ़ा है, लेकिन महाराष्ट्र में मुस्लिम नेताओं के साथ सही व्यवहार नहीं हो रहा है।’
समकालीन राजनीति पर धर्म का प्रभाव और उसकी वजह से हिजाब, तलाक, अजान, मस्जिद और वक्फ को लेकर होने वाले राजनीतिक विवादों के चक्र में लगातार उलझे रहना, मौजूदा दौर में मुस्लिम समाज का बड़ा संकट दिखता है।
जबकि सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए मुसलमानों के संघर्ष के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
क्या आने वाले चुनाव मुसलमानों की इस दुविधा को तोड़ देंगे? क्या इनका उपयोग केवल वोट के लिए किया जाएगा, यह बड़ा सवाल है।(bbc.com/hindi)
- चंदन कुमार जजवाड़े
भारत का उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर एक बार फिर हिंसा की चपेट में है। शनिवार को हुई इस हिंसा में इम्फाल घाटी में कई विधायकों और मंत्रियों के घरों पर भी हमला किया गया और कई वाहनों में आग लगा दी गई।
मणिपुर पुलिस ने सोशल मीडिया एक्स पर बताया है, ‘इम्फाल में गुस्साई भीड़ ने राज्य के मंत्रियों और विधायकों समेत कई जन प्रतिनिधियों के घरों और संपत्ति को निशाना बनाया है। पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले दागे।’
पुलिस की इस कार्रवाई में आठ लोगों को चोटें आई हैं। स्थानीय प्रशासन ने हालात को देखते हुए राजधानी इम्फाल समेत कई इलाकों में कफ्र्यू लगा दिया है। इसके अलावा कई जगहों पर इंटरनेट सेवा भी बंद कर दी गई है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक शनिवार को मणिपुर सरकार ने केंद्र सरकार से राज्य के छह पुलिस थाना क्षेत्रों से एएफएसपीए (आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट या आफस्पा) हटाने का आग्रह किया है।
आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट एक विशेष कानून है जिसके तहत अशांत क्षेत्रों में सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए सशस्त्र बलों को ख़ास शक्तियां दी गई हैं। इस क़ानून का इस्तेमाल करके सशस्त्र बल किसी भी इलाक़े में पांच या पांच से अधिक लोगों के इक_ा होने पर रोक लगा सकते हैं।
अगर सशस्त्र बलों को लगे की कोई व्यक्ति कानून तोड़ रहा है तो उसे उचित चेतावनी देने के बाद बल का प्रयोग किया जा सकता है और उस पर गोली भी चलाई जा सकती है। आफस्पा सशस्त्र बलों को उचित संदेह होने पर बिना वारंट किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और किसी भी परिसर में प्रवेश कर तलाशी लेने का अधिकार देता है।
मंत्रियों, विधायकों के घर पर हमला
मणिपुर विधानसभा में नेशनल पीपल्स पार्टी के विधायक शेख नूरुल हसन ने बीबीसी से कहा, ‘करीब सौ-डेढ़ सौ लोगों की भीड़ शाम कऱीब चार बजे मेरे घर पर आई थी। मैं अभी दिल्ली आया हुआ हूं, इसलिए मैंने फोन पर ही भीड़ में आए कुछ लोगों से बात की।’
‘उन लोगों का कहना था कि मौजूदा विधायक-मंत्री मणिपुर की स्थिति को संभाल नहीं पा रहे हैं, इसलिए लोग उनसे इस्तीफा देने की मांग कर रहे थे। मैंने उन लोगों की सभी मांगें मान लीं। लिहाजा वो मेरे घर पर हमला किए बिना वापस लौट गए। मैंने उन लोगों से कहा है कि जो जनता कहेगी, मैं वैसा करने को तैयार हूं।’
उधर, निर्दलीय विधायक सपाम निशिकांत सिंह के घर पर लोगों के एक समूह ने हमला किया और उनके मकान के गेट के सामने बनी सुरक्षा चौकी को नष्ट कर दिया।
इसी भीड़ ने इंफ़ाल वेस्ट जिले के सागोलबंद क्षेत्र से विधायक आरके इमो के घर पर भी धावा बोला और वहां फर्नीचर समेत कई चीजों को जला दिया।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक रविवार सुबह राजधानी इम्फाल में लागू कफ्र्यू का असर देखने को मिला। यहाँ सडक़ें पूरी तरह वीरान हैं।
मणिपुर राज्य की इम्फाल घाटी में मैतेई समुदाय की बहुलता है।
राजधानी इम्फाल में शहरी इलाके में सुरक्षा के मद्देनजर सेना और असम राइफल्स को तैनात कर दिया गया है।
शनिवार को हुई हिंसा के बाद पुलिस ने 23 लोगों को गिरफ्तार किया है। पुलिस ने कुछ हथियार भी बरामद किए हैं।
मणिपुर पुलिस ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर बताया है कि इम्फाल शहर में अगले आदेश तक के लिए कफ्र्यू लगा दिया गया है और दो दिनों के लिए इंटरनेट सेवाएं भी बंद कर दी गई हैं।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक मणिपुर में हिंसा होने के बाद पड़ोसी राज्य मिजोरम में भी लोगों से खास सावधानी बरतने को कहा गया है ताकि किसी भी तरह की सांप्रदायिक हिंसा को भडक़ने से रोका जा सके।
बीते दिनोंं ऐसा क्या हुआ, जिससे भडक़ उठी हिंसा?
राज्य के रीबाम में 7 नवंबर को हथियारबंद चरमपंथियों ने कुकी कबीले की एक महिला को गोली मारने के बाद उनको कथित तौर पर मकान समेत जला दिया था। इस घटना के बाद से जिरीबाम में लगातार हिंसा हो रही है।
बीते 11 नवंबर को जिरीबाम जि़ले में चरमपंथियों के साथ सीआरपीएफ़ की एक कथित मुठभेड़ हुई थी। सोशल मीडिया एक्स पर मणिपुर पुलिस ने बताया ‘हथियारबंद चरमपंथियों ने जिरीबाम जिले के जकुराडोर इलाके में स्थित सीआरपीएफ के एक पोस्ट पर हमला कर दिया। जिसके बाद बचाव में सुरक्षाबलों ने तुरंत जवाबी कार्रवाई की।’
40 मिनट तक चली इस मुठभेड़ के तुरंत बाद पुलिस ने 10 हथियारबंद चरमपंथियों के शव बरामद करने की पुष्टि की थी। मुठभेड़ में मारे गए सभी लोग आदिवासी युवक थे।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़ घटना के बाद जिरीबाम जि़ले में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए अनिश्चितकाल के लिए कफ्र्यू लगा दिया गया।
इस मुठभेड़ के बाद बोराबेकरा थाने के पास मौजूद एक राहत शिविर से मैतेई समुदाय के एक ही परिवार के छह सदस्य लापता हो गए थे।
इनमें तीन बच्चे भी शामिल थे और मैतेई लोगों का आरोप था कि हथियारबंद चरमपंथियों ने इन लोगों का अपहरण किया है।
लोगों में इस घटना को लेकर भारी आक्रोश दिख रहा था और इम्फाल में जगह-जगह महिलाएं विरोध प्रदर्शन कर रही थीं।
इस बीच पांच दिन बाद यानी शुक्रवार को जिरीमुक गांव के पास राहत शिविर से कऱीब 20 किलोमीटर दूर नदी में तीन शव मिले थे, जिनमें एक महिला और दो बच्चों के शव थे। इसी के बाद इम्फाल में ताजा हिंसा देखने को मिली है।
शव मिलने के बाद पुलिस ने कहा कि जब तक शवों का पोस्टमार्टम नहीं हो जाता तब तक इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता कि ये लापता लोगों के ही शव हैं या नहीं।
हालाँकि स्थानीय मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया है कि ये शव लापता लोगों के ही हैं।
मणिपुर की घटना पर किसने क्या कहा?
इस बीच मणिपुर की ताज़ा घटना पर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने एक्स पर एक पोस्ट किया।
उन्होंने लिखा, ‘हाल ही में मणिपुर में हुई हिंसक झड़पों और लगातार हो रहे खून-खऱाबे ने गहरी चिंताएं पैदा कर दी हैं। एक साल से अधिक समय तक विभाजन और पीड़ा के बाद, हर भारतीय की यह आशा थी कि केंद्र और राज्य सरकारें सुलह के लिए हर संभव प्रयास करेंगी और कोई समाधान निकालेंगी।’
राहुल गांधी ने कहा, ‘मैं प्रधानमंत्री से एक बार फिर मणिपुर आने और क्षेत्र में शांति और सुधार की दिशा में काम करने का आग्रह करता हूं।’
राष्ट्रीय जनता दल ने भी मणिपुर की घटना पर बयान दिया है।
आरजेडी प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने कहा है, ‘मणिपुर सुलग रहा है और ऐसा लग रहा है कि वहाँ हो रही घटना की प्रधानमंत्री को कोई परवाह नहीं है। पीएम मोदी मणिपुर के अलावा हर मुद्दे पर बात करते हैं।’
मणिपुर में मैतेई समुदाय के प्रमुख संगठन कोऑर्डिनेटिंग कमेटी ऑन मणिपुर इंटीग्रिटी ने राज्य सरकार के समक्ष अगले 24 घंटों के भीतर कुकी चरमपंथी संगठनों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने की मांग रखी है।
इस संगठन ने रविवार से इम्फाल घाटी में व्यापक आंदोलन शुरू करने का ऐलान किया है।
राज्य में पैदा हुए मौजूदा हालात को देखते हुए प्रशासन ने इम्फाल वेस्ट, इम्फाल ईस्ट, बिष्णुपुर, थौबल, काकचिंग, कांगपोकपी और चूराचांदपुर जिलों में दो दिनों के लिए इंटरनेट बंद कर दिया है।
भारत सरकार के प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो यानि पीआईबी की प्रेस रिलीज़ के मुताबिक, गृह मंत्रालय ने सुरक्षा बलों को मणिपुर में शांति व्यवस्था बहाल करने के लिए आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिए हैं।
इसमें ये भी कहा गया है कि पिछले कुछ दिनों से मणिपुर में हिंसा तेज हो गई है। संघर्ष में दोनों समुदायों के सशस्त्र उपद्रवी हिंसा में लिप्त रहे हैं, जिससे दुर्भाग्य से लोगों की जान चली गई और सार्वजनिक व्यवस्था में बाधा उत्पन्न हुई।
प्रेस रिलीज के मुताबिक प्रभावी जांच के लिए महत्वपूर्ण मामले एनआईए को सौंप दिए गए हैं और आम जन से शांति बनाए रखने, अफवाहों पर विश्वास न करने और सुरक्षा बलों का सहयोग करने की अपील की गई है।
मणिपुर क्यों है हिंसा की चपेट में?
जिरीबाम में मारे गए कथित चरमपंथियों के शवों को पोस्टमार्टम के लिए असम लाया गया था और इन शवों को अपने साथ ले जाने के लिए वहाँ बड़ी संख्या में लोग इक_ा हो गए।
असम के कछार जिले के पुलिस अधीक्षक नुमल महता के मुताबिक, ‘जिरीबाम पुलिस 12 शवों को पोस्टमार्टम के लिए सिलचर मेडिकल कॉलेज लेकर आई थी, जैसा कि हम जानते हैं मणिपुर में पुलिस के साथ मुठभेड़ में 12 लोग मारे गए थे। उसके बाद पाँच दिन से यहाँ पोस्टमार्टम चल रहा था और काफी कूकी लोग यहाँ इक_ा हुए थे।’
‘उन लोगों ने पहले गड़बड़ करने की कोशिश की, कुछ लोगों ने यहां पथराव भी किया। यहाँ मणिपुर पुलिस भी मौजूद थी। ये पड़ोसी राज्य का मामला है और इसकी वजह से हम असम में कानून व्यवस्था की समस्या नहीं होने देंगे। हम इसके ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करेंगे। आज (16 नवंबर को) उनके शव को प्लेन से चूराचांदपुर भेजा गया।’
पिछले साल मई महीने की शुरुआत से ही मणिपुर के मैतेई और कुकी समुदाय के बीच हिंसा का दौर शुरू हुआ था।
राज्य के प्रभावशाली मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की माँग को इस हिंसा की मुख्य वजह माना जाता है।
इसका विरोध मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में रहने वाली जनजातियों के लोगों ने किया, जिनमें मुख्यत: कूकी जनजाति के लोग हैं।
इस हिंसा में कई लोगों की जान जा चुकी है और बड़ी संख्या में लोगों को राहत शिविरों में शरण भी लेनी पड़ी। हिंसा की वजह से राज्य में सार्वजनिक और निजी संपत्ति का भी बड़ा नुकसान हुआ है।
मणिपुर में रहने वाले देशभर के कई राज्यों के छात्रों की पढ़ाई पर इसका असर पड़ा और हिंसा के बाद सैंकड़ों की संख्या में छात्रों को मणिपुर छोडक़र आना पड़ा था। (bbc.com/hindi)
-पुरन्दर मिश्रा
विधायक, रायपुर उत्तर
जनजातीय गौरव दिवस, स्वतंत्रता सेनानी भगवान बिरसा मुंडा की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस दिन को मनाने के पीछे मकसद, आने वाली पीढिय़ों को देश के लिए उनके बलिदानों के बारे में जागरूक करना है. आदिवासी समुदाय, बिरसा मुंडा को भगवान के रूप में पूजता है।
धरती आबा’ बिरसा मुंडा की अपने माटी के प्रति संघर्ष की ही पृष्ठभूमि थी कि अंग्रेजों को छोटा नागपुर काश्तकारी-सीएनटी अधिनियम बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा। जिसके अधीन परंपरागत वन अधिकार भुईंहरी खूँट के नाम से निहित है। भुईंहरी खूँट, जो जल, जंगल, जमीन पर पूर्ण स्वामित्व का अधिकार देता है।
जनजातीय लोगों ने अपनी सभ्यता और संस्कृति की धरोहरों को युगों से संजोया हुआ है, जनजातीय गौरव दिवस एक अवसर है आदिवासियों की जीवन परंपरा, रीति-रिवाज व सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था को समझने का जो कि अत्यधिक समृद्ध है।
सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और राष्ट्रीय गौरव, वीरता तथा आतिथ्य के भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने में आदिवासियों के प्रयासों को मान्यता देने हेतु प्रतिवर्ष ‘जनजातीय गौरव दिवस’ का आयोजन किया जाता है। उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कई आदिवासी आंदोलन किये। इन आदिवासी समुदायों में तामार, संथाल, खासी, भील, मिज़ो और कोल शामिल हैं।
स्वतंत्रता हासिल करने तक जनजातीय समुदाय अंग्रेजों से लड़ते रहे. चाहे पूर्वी क्षेत्र में संताल, कोल, हो, पहाडिय़ा, मुंडा, उरांव, चेरो, लेपचा, भूटिया, भुइयां जनजाति के लोग हों या पूर्वोत्तर क्षेत्र में खासी, नागा, अहोम, मेमारिया, अबोर, न्याशी, जयंतिया, गारो, मिजो, सिंघपो, कुकी और लुशाई आदि जनजाति के लोग हों या दक्षिण में पद्यगार, कुरिच्य, बेड़ा, गोंड और महान अंडमानी जनजाति के लोग हों या मध्य भारत में हलबा, कोल, मुरिया, कोई जनजाति के लोग हों या पश्चिम में डांग भील, मैर, नाइका, कोली, मीना, दुबला जनजाति के लोग हों, इन सबने अपने दुस्साहसी हमलों और निर्भीक लड़ाइयों से ब्रिटिश राज को असमंजस में डाले रखा।
समग्र राष्ट्रीय विकास और जनजातीय समुदाय का विकास एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए, ऐसे अनेक प्रयास किए जा रहे हैं जिनसे जनजातीय समुदायों की अस्मिता बनी रहे, उनमें आत्म-गौरव का भाव बढ़े और साथ ही वे आधुनिक विकास से लाभान्वित भी हों। समरसता के साथ जनजातीय विकास की यही मूल भावना सबके लिए लाभदायक है।
भारत के संविधान ने, अनुसूचित जनजातियों की सुरक्षा के प्रावधानों के साथ, उनके अधिकारों की रक्षा करने और समावेशिता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वन अधिकार अधिनियम, पेसा और अन्य कानूनों ने आदिवासी समुदायों के अधिकारों को और मजबूत किया है और उन्हें अपने जीवन के तरीके की रक्षा करने के लिए सशक्त बनाया है। ट्राइफेड और एनएसटीएफडीसी जैसे संस्थानों ने आदिवासी समुदायों को आर्थिक रूप से आगे बढऩे और उनकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए सहायता और अवसर प्रदान किए हैं।
न्याय के हित में सर्वस्व बलिदान करने की भावना, जनजातीय समाज की विशेषता रही है।
भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चेतना की पहचान भगवान राम हैँ। प्रभु श्री राम के राजा राम से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने की यात्रा में जनजातीय समाज अपनत्व का सेतु है। भगवान राम को वनवास के दौरान जनजातीय समाज के साथ न सिर्फ साहचर्य मिला बल्कि दोनों ने एक दूसरे पर आस्था व्यक्त की। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अनेक चौपाई में इस बात का उल्लेख किया है।
छत्तीसगढ़ के वनांचल में रहने वाले रमातीन माडिया, झाड़ा सिरहा, चमेली देवी नाग, हिड़मा मांझी, गुण्डाधूर, सुखदेव पातर हल्बा जैसे अनेक वीर सपूत सिर्फ जनजातीय समाज के नहीं अपितु भारत मां के वीर सपूत व वीरांगना हैं।
जनजातीय गौरव दिवस हमें बिरसा मुंडा, टंट्या मामा, भीमा नायक, खज्या नायक, शंकर शाह, रघुनाथ शाह, रानी दुर्गावती, बादल भोई, गंजन सिंह कोरकू, मंशु ओझा, रघुनाथ शाह और कई अन्य, जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गए हैं, जैसे जनजातीय नायकों के जीवन को जानने का अवसर देगा।
यह दिन श्री बिरसा मुंडा की जयंती है, जिन्हें देश भर के आदिवासी समुदाय भगवान के रूप में पूजते हैं। बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था की शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ देश के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी और ‘उलगुलान’ (क्रांति) का आह्वान करते हुए ब्रिटिश उत्पीडऩ के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया।
-स्टेफनी हेगार्डी
दुनिया भर में सभी अनुमानों से भी ज़्यादा तेज़ी से जन्म दर में कमी आ रही है। चीन में जन्म दर में रिकॉर्ड कमी देखी गई है।
जबकि, लातिन अमेरिका से भी ऐसे ही हैरान कर देने वाले आंकड़े सामने आए हैं। एक के बाद एक कई देशों में जन्म दर से संबंधित सरकारी अनुमान गलत साबित हो रहे हैं।
दुनिया भर के अलग-अलग देशों में आंकड़े जमा करने के तरीके अलग हैं। और ऐसे में तुलना करना मुश्किल है। लेकिन, पूर्वी एशिया में बे-औलादी की दर कहीं ज़्यादा है।
वहां ये दर करीब 30 फीसदी है। ब्रिटेन में ये दर 18 प्रतिशत है। मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्ऱीका में भी जन्म दर अंदाजे से कहीं ज़्यादा नाटकीय तौर पर गिर रही है।
जन्म दर में कमी की एक वजह जहां लोगों में बच्चे पैदा करने का कम होता रुझान है, तो वहीं दूसरी वजह दुनिया के लगभग हर देश में ही बच्चे न होने की दर में इजाफा है।
कोलंबिया की इसाबेल का ब्रेकअप हुआ, तो उन्होंने ‘नेवर मदर्स’ के नाम का एक संगठन बनाया। इसके बाद उन्हें इस बात का एहसास भी हुआ कि वह मां बनना ही नहीं चाहती थीं।
लेकिन, उन्हें हर दिन अपनी इस पसंद की वजह से आलोचना का शिकार होना पड़ता था।
वह कहती हैं, ‘जो चीज मैं सबसे ज़्यादा सुनती हूं, वह यह है कि आपको इस पर पछतावा होगा। आप स्वार्थी हैं। जब आप बूढ़ी हो जाएंगी, तो आपकी देखभाल कौन करेगा?’
इसाबेल अपनी मर्जी से बे-औलाद हैं। लेकिन, कई लोगों के लिए इसकी वजह इन्फर्टिलिटी (बायोलॉजिकल परेशानी के चलते गर्भ धारण न कर पाना) है।
ऐसे लोग बच्चे तो पैदा करना चाहते हैं, लेकिन इस इच्छा में कामयाब नहीं होते। इसके लिए विशेषज्ञ ‘सोशल इन्फर्टिलिटी’ की शब्दावली इस्तेमाल करते हैं।
क्या कहती है रिसर्च?
हाल के एक शोध के अनुसार, इस बात की संभावना अधिक है कि कुछ कम आमदनी वाले मर्द बच्चा चाहते हुए भी नि:संतान रहते हैं।
नॉर्वे में सन 2021 में होने वाले एक शोध में यह बात सामने आई कि कम आमदनी वाले मर्दों में संतानहीनता की दर 78 फीसदी थी।
लेकिन, दूसरी और अधिक आमदनी वाले मर्दों में यह दर केवल 11 फीसदी थी।
जब रॉबिन हेडली 30 की उम्र में थे, तो वह बाप बनने के लिए बेचैन थे। उन्होंने यूनिवर्सिटी में शिक्षा तो नहीं ली, लेकिन उत्तरी इंग्लैंड की एक यूनिवर्सिटी में फोटोग्राफर की नौकरी की है।
बीस साल की उम्र में उनकी शादी हो चुकी थी, जिसके बाद उन्होंने और उनकी पत्नी ने यह कोशिश की कि उनके यहां बच्चे हों, मगर इससे पहले की उनकी यह कोशिश कामयाब होती वह अलग हो गए।
रॉबिन पर बैंक के कज़ऱ् का बोझ था, जिससे वह अपनी जान छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे।
वह आर्थिक तौर पर इतने मज़बूत नहीं थे कि वह अपने दोस्तों के साथ बाहर निकलते और नया संबंध बनाते।
आर्थिक परेशानियों की वजह से वह अपने उन दोस्तों से भी दूर होते चले गए, जो मां बाप बन रहे थे। ऐसे में रॉबिन हीन भावना का शिकार हो गए।
वह कहते हैं, ‘बच्चों के लिए सालगिरह के कार्ड या नए बच्चों की नई चीज लेना, यह सब आपको इस बात का एहसास दिलाती हैं कि आपकी जिंदगी में, आपमें किसी चीज की कमी है और आपसे क्या उम्मीद की जाती है। इसके साथ एक न खत्म होने वाली तकलीफ और दर्द भी जुड़ा हुआ है।’
उनके अपने अनुभवों ने उन्हें पुरुष इन्फ़र्टिलिटी के बारे में एक किताब लिखने को प्रेरित किया। उन्हें एहसास हुआ कि वह उन सभी चीज़ों से प्रभावित हुए हैं।
और इन सब के पीछे आर्थिक स्थिति, किस वक़्त क्या हुआ और क्या होना चाहिए था और सबसे बढक़र रिश्तों की सही समय पर पहचान, यह सब बातें काम कर रही थीं।
उन्होंने महसूस किया कि बढ़ती उम्र और बच्चे पैदा करने के बारे में उन्होंने जितनी भी पढ़ाई की, उसमें अधिकतर में नि:संतान मर्दों के लिए कहीं भी कोई जगह नहीं थी।
ऐसे लोग सरकारी आंकड़ों में पूरी तरह ग़ायब थे। या यह कह लीजिए कि सरकारी कागजात में उनका कहीं कोई नामोनिशान तक न था।
‘सोशल इन्फर्टिलिटी’
‘सोशल इन्फ़र्टिलिटी’ की कई वजहें हैं, जिनमें बच्चा पैदा करने के लिए आर्थिक संसाधनों की कमी या सही समय पर सही पार्टनर से मिलने में नाकामी की बात शामिल हैं।
फिनलैंड के पॉपुलेशन रिसर्च इंस्टीट्यूट की सामाजिक विशेषज्ञ और डेमोग्राफर एना रोटकिर्च ने यूरोप और फिऩलैंड में बीस साल से ज़्यादा समय तक इस बारे में जानकारी इक_ा की है।
वह कहती हैं कि इसकी बुनियादी वजह कुछ और है। एशिया से बाहर फिऩलैंड की गिनती दुनिया के उन देशों में होती है, जहां बे-औलादी की दर सबसे ज़्यादा है।
लेकिन, सन 1990 और सन 2000 के दशक की शुरुआत से ही यह दुनिया भर में बच्चे पैदा करने के लिए अनुकूल नीतियों के ज़रिए नि:संतान होने की समस्या से निपटने की कोशिशों के लिए विशेष स्थान रखता है।
वहां मां-बाप बनने पर मिलने वाली छुट्टी, बच्चों की देखभाल के लिए अनुकूल माहौल और घर चलाने के लिए मर्द और औरत बराबरी से अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं।
लेकिन, ऐसे अनुकूल माहौल के बावजूद सन 2010 के बाद से देश में जन्म दर में लगभग एक तिहाई की कमी आई है।
प्रोफेसर रोटकिर्च का कहना है कि शादी की तरह बच्चे पैदा करने को भी एक अहम पड़ाव के तौर पर देखा जाता था, जैसे कि बालिग़ होते ही एक नई जि़ंदगी की शुरुआत करना।
‘मगर अब हालात इसके उलट होते जा रहे हैं यानी कि अब शादी और बच्चे पैदा करना अहम काम नहीं रहा। हां, जब लोगों की जिंदगी के सभी काम हो जाएं तो वह देखेंगे कि यह भी कोई करने वाला काम था।’
प्रोफ़ेसर रोटकिर्च बताती हैं कि हर वर्ग के लोग यह सोचते हैं कि बच्चा पैदा करना उनकी जिंदगी में अनिश्चितता बढ़ा रहा है।
फिनलैंड में उन्होंने यह देखा कि सबसे अमीर महिलाएं बिना इरादा बे-औलाद रहने को महत्व देती हैं। लेकिन दूसरी और कम आमदनी वाले मर्दों में बे-औलाद रहने का रुझान अधिक पाया जाता है।
यह पहले की तुलना में हैरान कर देने वाला बदलाव है क्योंकि पहले गरीब परिवारों में बालिग होने की बात पर बहुत जोर दिया जाता था।
यहां तक कि पढ़ाई छोड़ दी जाती थी और नौकरी ढूंढकर अपने पांव पर खड़े होने और कम उम्र में ही शादी करके अपना परिवार बसाने को ज़्यादा पसंद किया जाता था।
मर्दों की आर्थिक समस्या
मर्दों की आर्थिक समस्याएं और इससे पैदा होने वाली अनिश्चितता उन्हें बे-औलादी की तरफ़ ले जाती है।
इसे सामाजिक विशेषज्ञ ‘सेलेक्शन इफ़ेक्ट’ का नाम देते हैं। इसमें महिलाएं जीवन साथी का चुनाव करती हैं तो उसी सामाजिक वर्ग या उससे ऊपर के किसी शख़्स का चुनाव करती हैं।
रॉबिन हेडली की बीवी ने उन्हें यूनिवर्सिटी जाने और पीएचडी करने में मदद की।
वह कहते हैं, ‘अगर वह ना होती तो मैं इस मुक़ाम पर नहीं होता जहां मैं हूं।’
हां, लेकिन अब जब उन्होंने बच्चे पैदा करने के बारे में सोचा, तो वह 40 की उम्र को पार कर चुके थे और बहुत देर हो चुकी थी।
दुनिया भर के 70 फ़ीसद देशों में औरतें शिक्षा के मैदान में मर्दों से आगे निकल रही हैं, जिसकी वजह से सामाजिक विशेषज्ञ मार्शिया अनहोरन ने इसे ‘दी मेटिंग गैप’ यानी मिलन का अंतर नाम दिया है।
प्रजनन स्वास्थ्य और आंकड़े की कमी
अधिकतर देशों में पुरुषों के प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में आंकड़े नहीं हैं, क्योंकि जन्म का रिकॉर्ड दर्ज करते समय केवल मां के प्रजननीय स्वास्थ्य को देखा जाता है।
इसका मतलब यह है कि संतानहीन में पुरुषों की गिनती नहीं की जाती।
लेकिन, कुछ नॉर्डिक (उत्तर यूरोपीय) देशों में बच्चा पैदा होने पर स्त्री और पुरुष दोनों के बारे में जानकारी रखी जाती है।
नॉर्वे में होने वाले एक शोध में अमीर और गऱीब मर्दों के बीच बच्चे पैदा करने में बड़े पैमाने पर अंतर बताते हुए कहा गया है कि अनगिनत मर्द पीछे रह गए हैं।
ब्रिटेन की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में पुरुषों के स्वास्थ्य और प्रजनन स्वास्थ्य का अध्ययन करने वाले विंसेंट स्ट्रॉब कहते हैं कि जन्म दर में कमी में मर्दों की भूमिका की अक्सर अनदेखी की जाती है।
वह जन्म दर में कमी के मामले में पौरुष संकट पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं।
उनके अनुसार यह नौजवान मर्दों में उलझाव से जुड़ा है, जिसकी वजह समाज में महिलाओं का सशक्त होना और ‘मर्दानगी से जुड़ी सामाजिक उम्मीदों’ में बदलाव है।
इस मामले को ‘मर्दानगी का संकट’ का नाम भी दिया गया है और अति दक्षिणपंथी एंड्रयू टेट जैसे लोगों की, जो महिला अधिकार के विरोधी हैं, शोहरत इस बात का सबूत है।
स्ट्रॉब का कहना है कि कम शिक्षित मर्द पहले की तुलना में बहुत बुरी स्थिति का सामना कर रहे हैं।
इसकी एक वजह यह भी है कि तकनीकी प्रगति ने हाथ से काम करने वालों के लिए मौकों को कम कर दिया है, जिससे यूनिवर्सिटी से डिग्री लेने वालों और उन लोगों में अंतर बढ़ गया है, जो उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर सकते।
इससे ‘मेटिंग गैप’ भी बढ़ा है और इसका मर्दों की सेहत पर काफी असर पड़ता है।
ड्रग्स का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रहा है और बालिग़ मर्दों में इसका इस्तेमाल सबसे अधिक है, चाहे वह अफ्ऱीका में हो या दक्षिणी और मध्य अमेरिका में।
स्ट्रॉब कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि प्रजननीय स्वास्थ्य और इस तरह के सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के बीच कोई संबंध है, जो हमारी नजऱों से ओझल है।’
यह बात मर्दों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल सकती है। स्ट्रॉब का कहना है कि अकेले रहने वाले मर्दों की सेहत आमतौर पर अपने पार्टनर के साथ रहने वाले मर्दों की तुलना में खऱाब होती है।
हल क्या है?
स्ट्रॉब और हेडली का कहना है कि प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में बातचीत लगभग पूरी तरह महिलाओं पर केंद्रित है। और ऐसे में जन्म दर से निपटने के लिए बनाई गई कोई भी नीति अधूरी रह गई।
स्ट्रॉब का मानना है कि प्रजनन स्वास्थ्य के साथ-साथ पुरुष स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना होगा और बाप बनने वाले मर्दों का ध्यान रखने के फ़ायदे पर बातचीत करनी होगी।
वह कहते हैं कि यूरोपीय यूनियन में 100 में से केवल एक मर्द अपना करियर छोडक़र बच्चे का ध्यान रखता है जबकि महिलाओं में यह अनुपात हर तीन में एक का होता है।
ऐसे सबूत मौजूद हैं कि बच्चे की देखभाल मर्दाना सेहत के लिए अच्छी होती है।
इधर इसाबेल अपने संगठन के ज़रिए एक अंतरराष्ट्रीय बैंक के प्रतिनिधियों से मिलीं तो उन्हें बताया गया कि बाप बनने वालों को छह हफ़्तों की छुट्टी की पेशकश की गई लेकिन किसी ने भी यह पेशकश कबूल नहीं की।
इसाबेल का कहना है कि मर्दों को लगता है कि बच्चे संभालना औरतों का काम है। दूसरी और रॉबिन हेडली के अनुसार बेहतर आंकड़े की ज़रूरत है।
उनके अनुसार जब तक पुरुषों के प्रजनन स्वास्थ्य का रिकॉर्ड नहीं होगा, इसे समझना मुश्किल होगा और यह भी जानना होगा कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर उसका क्या असर होता है।
दूसरी तरफ संतानहीनता की समस्या पर बातचीत से भी मर्द गायब हैं। महिलाओं को अपनी सेहत का कैसे ख़्याल रखना चाहिए, इस पर तो बहुत बात होती है और जागरूकता भी है, लेकिन मर्दों में यह बात नहीं होती।
रॉबिन का कहना है कि मर्दों में एक जीवन चक्र भी होता है और शोध से साबित होता है कि 35 साल की उम्र के बाद मर्दों के स्पर्म की उपयोगिता कम हो जाती है।
ऐसे में यह ज़रूरी है कि मां-बाप की सामाजिक परिभाषा को भी व्यापक बनाया जाए।
शोधकर्ता इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि संतानहीन लोग भी बच्चों की परवरिश में अहम भूमिका निभा सकते हैं। एना रोटक्रिच के अनुसार इसे ‘एलो पेरेंटिंग’ कहते हैं।
वह कहती हैं कि मानव इतिहास में एक बच्चे का ध्यान रखने वाले एक दर्जन से अधिक लोग हुआ करते थे।
डॉक्टर हेडली ने जब अपने शोध के दौरान एक बे-औलाद मर्द से बात की, तो उसने एक ऐसे परिवार के बारे में बताया जिससे वह स्थानीय फ़ुटबॉल क्लब में मिलता था।
एक स्कूल प्रोजेक्ट के लिए परिवार के दो बच्चों को दादा-दादी की ज़रूरत थी, लेकिन उनके दादा-दादी नहीं थे।
उस आदमी ने उन बच्चों के दादा का रूप लिया और फिर कई साल तक वह बच्चे जब भी क्लब में उनको देखते तो उन्हें दादा ही कहते। उनके अनुसार बच्चों का ऐसा कहना उनको बहुत अच्छा लगता था।
प्रोफ़ेसर रोटक्रिच का कहना है, ‘मेरी राय में अधिकतर बे-औलाद लोग इस तरह बच्चों का ध्यान रखते हैं लेकिन यह नजऱ नहीं आता। जन्म के रजिस्टर में तो नहीं होता है, लेकिन यह बहुत अहम होता है।’ (bbc.com/hindi)
-अभिनव गोयल
बुलडोजऱ से विध्वंस की कार्रवाइयों पर बुधवार को देश की सर्वोच्च अदालत ने रोक लगा दी है।
सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने कहा कि अगर कोई अपराधी है या फिर उस पर किसी अपराध के आरोप हैं तब भी सरकार गैर कानूनी तरीके से उसका घर नहीं तोड़ सकती है।
कोर्ट ने कहा कि सरकारी अधिकारी जज नहीं बन सकते और अभियुक्तों की संपत्तियों को नहीं ढहा सकते।
ये फैसला ऐसे समय पर आया है जब कई राज्यों की सरकारों ने अभियुक्तों से जुड़ी संपत्तियों पर बुलडोजऱ की कार्रवाई की है।
भारत की राजनीति में बुलडोजऱ को चर्चा में लाने का काम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया है।
यही वजह है कि उनके समर्थक उन्हें ‘बुलडोजऱ बाबा’ कहते हैं और उनकी रैलियों में बुलडोजऱ से उनका स्वागत करते हैं।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का देश में चल रही ‘बुलडोजऱ की राजनीति’ पर क्या असर होगा?
खासकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन में क्या ‘बुलडोजर एक्शन’ पर रोक लग पाएगी?
उत्तर प्रदेश में ‘बुलडोजर जस्टिस’
अवैध निर्माण को गिराने के लिए बुलडोजऱ का इस्तेमाल सालों से सिविक एजेंसियां करती आई हैं, लेकिन राजनीति में इसके इस्तेमाल को लेकर शुरू से लोग सवाल उठाते रहे हैं।
दो साल पहले उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के जावेद मोहम्मद का दो मंजि़ला घर बुलडोजर से ढहा दिया गया था।
जावेद पर आरोप था कि उन्होंने साल 2022 में बीजेपी नेता नूपुर शर्मा के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन का आयोजन किया था। तब नूपुर ने पैग़ंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी।
उन पर आरोप था कि प्रदर्शन के दौरान हिंसा और पथराव की घटना हुई और इसके बाद उनके घर पर स्थानीय प्रशासन ने बुलडोजऱ चला दिया।
प्रयागराज विकास प्राधिकरण का कहना था कि उनका घर अवैध तरीके़ से बनाया गया था। ऐसा ही एक मामला फ़तेहपुर में समाजवादी पार्टी के नेता हाजी रज़ा से जुड़ा है।
अगस्त 2024 में उनके चार मंजि़ला शॉपिंग कॉम्प्लेक्स पर बुलडोजऱ चला दिया गया था। हाजी रज़ा पर आरोप था कि उन्होंने लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी के खिलाफ कथित तौर पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी।
वहीं साल 2020 में जब विकास दुबे का घर गिराया गया तब भी बुलडोजऱ एक्शन को लेकर राज्य सरकार की आलोचनाएं हुईं। दुबे के खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज थे।
उत्तर प्रदेश में बुलडोजऱ एक्शन के ऐसे कई मामले हैं जो समय समय पर लगातार कई दिनों तक खबरों में बने रहे।
फरवरी 2024 में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने एक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में अप्रैल और जून 2022 के बीच सांप्रदायिक हिंसा और विरोध प्रदर्शनों के बाद असम, दिल्ली, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में 128 संपत्तियों के विध्वंस का विश्लेषण किया गया था।
एमनेस्टी ने इसे बदले की कार्रवाई बताया था और कहा था कि यह वरिष्ठ राजनीतिक नेताओं और सरकारी अधिकारियों की वजह से हुई। उनके मुताबिक इसमें कम से कम 617 लोग प्रभावित हुए।
योगी आदित्यनाथ और ‘बुलडोजऱ’
उत्तर प्रदेश में 37 साल बाद 2017 में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने।
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं कि शुरुआती सालों में योगी आदित्यनाथ लव जिहाद और गौरक्षा जैसे मुद्दों पर फोकस कर रहे थे, लेकिन धीरे-धीरे वे बुलडोजऱ पर आ गए।
वे कहते हैं, ‘बुलडोजऱ निर्माण की बजाय ध्वस्त करने का चिन्ह है। शुरू में अपराध को कम करने के लिए बुलडोजऱ का इस्तेमाल किया गया, लेकिन जब किसी चीज को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं तो उसे रोकना मुश्किल हो जाता है।’
योगी आदित्यनाथ जब दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो उनके स्वागत में बुलडोजऱ रैलियां निकाली गईं। वे ख़ुद राज्य में कानून के राज के लिए बुलडोजर को क्रेडिट दे रहे थे।
विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से शुरू होकर यह बुलडोजर मुस्लिम समाज पर चलने लगा और इससे हिंदू समाज को आनंद मिलने लगा। लोगों के बीच ये बात होने लगी कि यह बुलडोजर मुसलमानों के खिलाफ है, जिसने योगी आदित्यनाथ की हिंदुत्व वाली छवि को और मज़बूत करने का काम किया।’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में मुसलमानों के खिलाफ नए-नए प्रतीक गढ़े गए हैं जो हिंदुओं के एक तबके को पसंद आ रहे हैं।
वे कहते हैं, ‘इन प्रतीकों में योगी आदित्यनाथ ने बुलडोजऱ को एक प्रतीक के तौर पर स्थापित किया, जो शक्तिशाली शासन व्यवस्था का पर्याय बन गया। ऐसा दिखाया गया कि अब सत्ता हमारे पास है और इस ताकत के सामने कानून का कोई वजूद नहीं है।’
गुप्ता कहते हैं, ‘देश में अजमल कसाब तक को फेयर ट्रायल दिया गया, वहीं बुलडोजऱ के मामले में अभियुक्तों के परिवार की एक नहीं सुनी गई। चंद मिनटों में देखते ही देखते कई जगहों पर घर ढहा दिए गए, जिसकी कानून में कोई जगह नहीं थी।’
हालांकि उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी कहते हैं कि राज्य में बुलडोजऱ योगी आदित्यनाथ के पहले से चल रहा है।
वे कहते हैं, ‘2007 से 2012 तक मायावती मुख्यमंत्री रहीं। उनके राज में कई माफियाओं की संपत्ति पर बुलडोजऱ चला। इसमें अतीक अहमद का नाम भी शामिल है। उसके पीछे भी राजनीति ही थी।’
हेमंत तिवारी कहते हैं, ‘2017 में योगी आदित्यनाथ के आने के बाद बड़े पैमाने पर बुलडोजऱ एक्शन हुआ। इसके पीछे एक कारण यह था कि बीजेपी ने चुनावों में ये वादा किया था कि अखिलेश सरकार में जो गुंडे माफिया हैं, जो दादागिरी करते हैं उनकी कमर तोड़ी जाएगी।’
क्या कुछ बदलेगा?
उत्तर प्रदेश से शुरू हुई बुलडोजर कार्रवाई देखते ही देखते मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, दिल्ली और हरियाणा समेत कई राज्यों तक पहुंच गई।
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं कि दूसरे राज्यों ने जब यह देखा कि बुलडोजर चलाने का लाभ मिल रहा है तो उन्होंने अपने यहां भी यह शुरू कर दिया।
वे कहते हैं, ‘बुलडोजऱ मॉडल को बीजेपी ने देशभर में लागू कर दिया। यहां तक की मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान भी बुलडोजऱ मामा बन गए जबकि इन कामों में वे बेहद नर्म माने जाते थे।’
वहीं दूसरी तरफ शरद गुप्ता कहते हैं कि हिंदुओं को एकजुट करने और उन्हें खुश करने के लिए बुलडोजऱ का इस्तेमाल किया गया, जिसमें बीजेपी और योगी आदित्यनाथ को कामयाबी मिली।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘बुलडोजर के पीछे की सोच बहुसंख्यकवाद है। अभी बहुसंख्यक जातियों में बंटे हुए हैं। उन्हें किस तरह एक साथ लाया जाए, इसी का एक हल बुलडोजऱ है। बुलडोजऱ के जरिए मुसलमानों में डर बिठाने का काम किया गया।’
वे कहते हैं, ‘राजनीति में इस डर का फायदा उठाया गया, क्योंकि ऐसा माना गया कि बुलडोजऱ की ज़्यादातर कार्रवाइयां मुसलमानों के खिलाफ ही हो रही हैं। बार-बार ये बताने की कोशिश की गई कि जिन पिछली सरकारों ने अल्पसंख्यकों को सिर पर बिठाया अब उनके खिलाफ बुलडोजर चलाया जाएगा।’
शरद गुप्ता कहते हैं कि बुलडोजर कार्रवाई को लेकर हाल ही में जो सुप्रीम कोर्ट ने दिशानिर्देश दिए हैं उससे उत्तर प्रदेश समेत देश भर में बुलडोजऱ कार्रवाइयों में कमी आएगी लेकिन इसे लेकर राजनीति होती रहेगी।
ऐसी ही बात विजय त्रिवेदी भी करते हैं। वे कहते हैं कि इससे योगी आदित्यनाथ की जो छवि है उस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
वे कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने में बहुत देर हो गई है। योगी आदित्यनाथ ने बुलडोजऱ के ज़रिए अपनी एक छवि बना ली है। भले अब कार्रवाइयां कम हों, लेकिन सरकार कोई दूसरा रास्ता निकाल लेगी और इसका फायदा उन्हें लगातार मिलता रहेगा।’
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन ने ‘बुलडोजऱ एक्शन’ पर अहम फैसला सुनाया।
पीठ ने कहा, ‘एक आम नागरिक के लिए घर बनाना कई सालों की मेहनत, सपनों और महत्वाकांक्षाओं का नतीजा होता है।’
कोर्ट ने कहा, ‘हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अगर कार्यपालिका मनमाने ढंग से किसी नागरिक के घर को केवल इस आधार पर तोड़ देती है कि किसी अपराध का अभियुक्त है तो कार्यपालिका कानून के शासन के सिद्धांतों के खिलाफ कार्य करती है।’
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में ये भी कहा है कि ऐसे मामलों में जो अधिकारी कानून अपने हाथ में लेते हुए इस तरह की मनमानी कार्रवाई करते हैं, उन्हें भी जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस तरह की मनमानी, एकतरफा और भेदभावपूर्ण कार्रवाइयों को रोकने के लिए कुछ दिशा-निर्देश जरूरी है।
अदालत ने ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए कई दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं।
- किसी भी ढांचे को ढहाने से 15 दिन पहले नोटिस जरूरी
- संबंधित संपत्ति पर नोटिस चिपकाना अनिवार्य
- शिकायत मिलने के बाद जि़ला कलेक्टर को सूचित करें
- तीन महीने के अंदर डिजिटल पोर्टल बनाएं
- पोर्टल पर उपलब्ध करवाएं हर जानकारी
- अधिकारी संबंधित व्यक्ति की शिकायतें सुनें, रिकॉर्ड रखें
- संपत्ति के मालिक को अदालत जाने का मौका मिले
- संपत्ति ढहाने से जुड़ी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी हो
- दिशा-निर्देश नहीं माने गए तो अधिकारी जिम्मेदार और उन्हें निजी खर्च से ढांचा दोबारा बनवाना होगा। (bbc.com/hindi)
-विष्णु देव साय
मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़
देश के क्रांतिकारी जनजातीय नायक धरती आबा भगवान बिरसा मुण्डा जी की 150 वीं जयंती को प्रदेश और केन्द्र सरकार ने ‘‘जनजातीय गौरव दिवस’’ के रूप में मनाने की शुरूआत की है तथा जनजातीय संस्कृति, परंपरा और अधिकारों का संरक्षण करने का संदेश दिया है। 14-15 नवंबर 2024 को आयोजित कार्यक्रमों में छत्तीसगढ़, अपने जनजातीय गौरव शहीद वीर नारायण सिंह, गुण्डाधूर, शहीद डेबरीधुर, शहीद धुर्वाराव माड़िया, शहीद हिड़मा मांझी और शहीद गेंदसिंह जैसे अनेक नायकों के योगदान और बलिदान को याद कर रहा है। इन जननायकों ने आजादी के लिए ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ संघर्ष में अपने प्राणों की आहुति दी। उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर करते हुए जल, जंगल, जमीन तथा जनजातीय- अस्मिता की रक्षा की। युवा पीढ़ी इनसे सदैव प्रेरणा लेती रहेगी।
भारतीय संस्कृति पांच हजार सालों से अधिक समय से प्रवाहमान है जो आरण्यक, ग्राम्य, नगरीय जीवन-शैलियों को एक सूत्र में पिरोती रही है। जनजातीय समाज का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। उनकी समृद्ध परंपराएं रही हैं। वे गहरी आध्यात्मिक चेतना के वाहक रहे हैं। शुक्ल यजुर्वेद में कहा गया है: नमो वन्याय च कक्ष्याय च नमः-अर्थात उन एक को नमस्कार है, जो वनों में वनों और झाड़ियों के रूप में हैं। हम सब कभी न कभी वन्य समाज का ही हिस्सा थे। हम सबका आधार जनजातीय समाज ही रहा है।
भारत के गौरवशाली इतिहास में आदिवासी समाज का अग्रणी योगदान रहा है। अंग्रेजी राज में भी अंग्रेजों को सबसे ज्यादा चुनौती वन क्षेत्रों से ही मिली। जनजातीय नेता तिलका मांझी जी ने अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष करते हुए सन् 1785 में बलिदान दिया। तिलका मांझी जी ने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया था।
स्वतंत्रता के 78 सालों में देश ने जो विकास किया है, उसमें जनजातीय समुदायों के योगदान का सबसे पहले स्मरण करने और उन्हें प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इसकी सर्वश्रेष्ठ पहल प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मु को देश का राष्ट्रपति बनाकर की है। श्रीमती मुर्मु हाल ही में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के प्रवास पर थी। इस दौरान युवाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ विकसित होगा तो भारत भी विकसित होगा। स्पष्ट है कि विकसित छत्तीसगढ़ में जनजातीय समाज का योगदान अविस्मरणीय है। सबको विदित ही है कि छत्तीसगढ़ में गोंड, अबुझमाड़िया, मुरिया, हलबा, धुर्वा, उरांव, कोल, कोरवा, कमार, बैगा सहित अनेक जनजातियां निवास करती हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार ने जनजातियों के कल्याण के लिए गरीबी उन्मूलन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार, भूमि सुधार, संस्कृति के संरक्षण, महिलाओं के सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर विशेष ध्यान केंद्रित करते हुए कई अभिनव कल्याणकारी योजनाएं प्रारंभ की हैं। इनका लाभ उठाकर जनजातीय समुदाय उत्तरोउत्तर विकास कर रहा है। प्रधानमंत्री जनमन योजना के तहत जनजातीय समुदायों को कई सुविधाएं दी जा रही हैं, इनमें पक्के घर, पक्की सड़क, नल से पानी, आंगनबाड़ी केंद्र, मोबाइल मेडिकल यूनिट, वनधन केंद्र, इंटरनेट और मोबाइल कनेक्टिविटी जैसी सुविधाएं शामिल हैं। जनजातीय समुदाय के बच्चों को बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए 75 एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय संचालित किए जा रहे हैं।
बस्तर के जनजातीय समुदाय सालों से माओवादी हिंसा का दर्द झेल रहे हैं। गुजरे माह जब नक्सल पीड़ित आदिवासी नई दिल्ली में पहली बार राष्ट्रपति से मिले तो पूरे देश ने इस पीड़ा को महसूस किया। इनके बच्चों के लिए हमारी सरकार द्वारा 15 प्रयास आवासीय विद्यालय संचालित किए जा रहे हैं।
सुखद दृश्य यह भी है कि जो युवा नक्सली बंदूक थाम रहे थे, अब वे डॉक्टर, इंजीनियर, आईआईटीयन बनकर देश की सेवा में लगे हैं। हमारी सरकार ने भी एक नया नारा देते हुए नक्सलियों को चेता दिया है कि गोली का जवाब गोली: बोली का जवाब बोली। जनजातीय क्षेत्रों में वामपंथी उग्रवाद को रोकने के लिए सरकार ने सुरक्षा और विकास को मूल मंत्र बनाया तथा नियद नेल्ला नार जैसी योजना शुरू की है। एक साल के अंदर इसके उत्साहजनक परिणाम मिले हैं।
हमारी सरकार आदिवासी मातृशक्ति के कल्याण को तत्पर है। महतारी वंदन योजना के तहत जनजातीय समुदाय की महिलाओं को एक हजार रूपये प्रति माह की आर्थिक सहायता दी जा रही है। जनजातियों को वन अधिकार पत्र, बकरी पालन, मुर्गी पालन, सुकर पालन और गाय पालन के लिए शासकीय योजनाओं का लाभ दिया जा रहा है। एक नयी पहल के तहत जनजातीय बहुल इलाकों में जिमीकंद, हल्दी, तिखुर जैसी फसलों के उत्पादन का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष अभियान से जनजातीय समुदायों के लाखों लोग लाभान्वित हो रहे हैं। आदिवासियों को राज्य और केन्द्र शासन द्वारा संचालित लगभग 52 योजनाओं का लाभ दिलाया जा रहा है। हमारे जनजातीय क्षेत्रों के युवा अब अखिल भारतीय परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर अन्य क्षेत्र के युवाओं के लिये भी प्रेरणा का स्त्रोत बन रहे हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी की सरकार ने छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण जिन उददेश्यों के लिए किया था, उसकी बड़ी सार्थकता देखिए कि आज यहां के जनजातीय समाज को मुख्यमंत्री पद का दायित्व मिला है। आज बड़ी संख्या में जनजातीय समुदाय विकास की मुख्यधारा से जुड़कर और योजनाओं का लाभ उठाकर अपना जीवन बेहतर बना रहे हैं। हमारी सरकार ने विजन 2047 का लक्ष्य सामने रखते हुए राज्य के सभी जनजातीय समुदायों का निरंतर कल्याण करने का संकल्प लिया है। इसी तारतम्य में हमने जनजातीय समुदायों के विकास के लिए गठित विकास प्राधिकरणों में जनप्रतिनिधित्व को और सशक्त किया है। उन्हें और अधिक उत्तरदायी बनाया है। हाल ही में सरगुजा क्षेत्र आदिवासी विकास प्राधिकरण के बजट को बढ़ाकर 75 करोड़ कर दिया है, साथ ही मयाली नेचर कैम्प को नया पर्यटन केन्द्र बनाने के लिए 10 करोड़ रूपये स्वीकृत किए हैं। 18 नवम्बर को बस्तर विकास प्राधिकरण की बैठक होनी है, मुझे ऐसा विश्वास है कि इस बैठक में भी बस्तर के चहुंमुखी विकास के लिए प्राधिकरण द्वारा प्रभावी निर्णय लिया जाएगा। आज छत्तीसगढ़ में डबल इंजन की सरकार है। यह सरकार जनजातीय समाज को उसके इतिहास, उसकी विरासत और उसकी संस्कृति के नजरिए से देखने वाली सरकार है। इसी के आधार पर हमने जनजातीय क्षेत्रों के विकास की रणनीति तय की है।
जय जोहार!
अल्बर्ट आइंस्टीन की पत्नी अक्सर उन्हें सलाह देती थीं कि वह काम पर जाते समय अधिक प्रोफेशनल तरीके से कपड़े पहनें। आइंस्टीन हमेशा कहते, ‘क्यों पहनूं? वहाँ सब मुझे जानते हैं।’ लेकिन जब उन्हें पहली बार एक बड़े सम्मेलन में जाना था, तो उनकी पत्नी ने उनसे थोड़ा सज-धजकर जाने का अनुरोध किया। इस पर आइंस्टीन बोले, ‘क्यों पहनूं? वहाँ तो मुझे कोई नहीं जानता!’
आइंस्टीन से अक्सर सापेक्षता के सिद्धांत को समझाने के लिए कहा जाता था। एक बार उन्होंने समझाया, ‘अपना हाथ एक गर्म चूल्हे पर एक मिनट के लिए रखो, तो वह एक घंटे जैसा महसूस होगा। एक खूबसूरत लडक़ी के साथ एक घंटे बैठो, तो वह एक मिनट जैसा लगेगा। यही है सापेक्षता!’ जब अल्बर्ट आइंस्टीन प्रिंसटन विश्वविद्यालय में काम कर रहे थे, तो एक दिन घर जाते समय उन्हें अपना घर का पता भूल गया। टैक्सी ड्राइवर ने उन्हें पहचाना नहीं। आइंस्टीन ने ड्राइवर से पूछा कि क्या वह आइंस्टीन का घर जानता है। ड्राइवर ने कहा, ‘आइंस्टीन का पता कौन नहीं जानता? प्रिंसटन में हर कोई जानता है। क्या आप उनसे मिलना चाहते हैं?’ आइंस्टीन ने उत्तर दिया, ‘मैं ही आइंस्टीन हूं। मैं अपना घर का पता भूल गया हूँ, क्या आप मुझे वहाँ पहुँचा सकते हैं?’ ड्राइवर ने उन्हें उनके घर पहुँचा दिया और उनसे किराया भी नहीं लिया।
एक बार आइंस्टीन प्रिंसटन से ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। जब टिकट चेक करने वाला कंडक्टर उनके पास आया, तो आइंस्टीन ने अपनी जैकेट की जेब में हाथ डाला, लेकिन टिकट नहीं मिला। फिर उन्होंने अपनी पैंट की जेबें देखीं, लेकिन वहाँ भी नहीं था। इसके बाद उन्होंने अपने ब्रीफकेस में देखा, लेकिन टिकट नहीं मिला। फिर उन्होंने अपनी सीट के पास देखा, लेकिन फिर भी टिकट नहीं मिला।
कंडक्टर ने कहा, ‘डॉ. आइंस्टीन, हम जानते हैं कि आप कौन हैं। मुझे यकीन है कि आपने टिकट खरीदा है। चिंता मत कीजिए।’ आइंस्टीन ने प्रशंसा में सिर हिला दिया। कंडक्टर आगे बढ़ गया। जब उसने दूसरी तरफ देखा, तो उसने देखा कि महान वैज्ञानिक नीचे झुककर सीट के नीचे टिकट खोज रहे थे।
कंडक्टर तुरंत लौट आया और कहा, ‘डॉ. आइंस्टीन, चिंता मत कीजिए। मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं। आपको टिकट की आवश्यकता नहीं है। मुझे यकीन है कि आपने टिकट खरीदा है।’ आइंस्टीन ने जवाब दिया, ‘युवा आदमी, मैं भी जानता हूँ कि मैं कौन हूँ। पर मैं ये नहीं जानता कि मैं कहाँ जा रहा हूँ।’
जब आइंस्टीन की मुलाकात चार्ली चैपलिन से हुई, आइंस्टीन ने कहा, ‘आपकी कला में जो मुझे सबसे अधिक प्रभावित करता है, वह उसकी सार्वभौमिकता है। आप एक शब्द नहीं कहते, फिर भी दुनिया आपको समझती है।’
इस पर चार्ली चैपलिन ने उत्तर दिया, ‘यह सच है, लेकिन आपकी प्रसिद्धि तो इससे भी बड़ी है। दुनिया आपकी प्रशंसा करती है, जबकि कोई आपको समझता नहीं।’ (सोशल मीडिया)
-एंथनी जर्चर
अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नई टीम अब अपना आकार लेने लगी है।
ट्रंप ने चुनाव जीतने के एक हफ़्ते बाद कऱीब एक दर्जन चेहरों का ऐलान कर दिया है, जो उनकी सरकार में शामिल होने वाले हैं।
ये लोग उनके स्टाफ और अहम सरकारी विभागों की जि़म्मेदारी संभालेंगे।
ट्रंप पत्रकार वार्ता में और सोशल मीडिया पर बता चुके हैं कि जनवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति का पदभार संभालने के बाद उनकी ख़ास नजऱ आप्रवासन और विदेश नीति पर होगी। अपने पहले कार्यकाल के विपरीत ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल के लिए ज़मीनी स्तर पर पहले से तैयारी कर रहे हैं।
इसके लिए वो ज़्यादा स्पष्ट योजना और एक तैयार टीम के साथ अपनी नीतियों पर काम करने की तैयारी में हैं।
नजऱ डालते हैं कि ट्रंप की टीम के बारे में हमें अब तक क्या-क्या पता है?
आप्रवासन पर कठोर रुख़ रखने वाली टीम
डोनाल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान अवैध प्रवासियों को लेकर जो वादे किए थे, उनकी नई टीम में कुछ नियुक्तियों देखकर लगता है कि वो वादे केवल चुनावी जुमले नहीं थे।
स्टीफऩ मिलर साल 2015 से ट्रंप के कऱीबी सलाहकार हैं और उनके भाषण लिखते रहे हैं। वो व्हाइट हाउस के लिए नीतियाँ बनाने वाले डिप्टी चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ पद के लिए ट्रंप की पसंद हैं।
स्टीफऩ मिलर संभवत: ऐसे लोगों के सामूहिक निर्वासन के लिए कोई योजना बनाएंगे और अमेरिका में अवैध या वैध दोनों तरह के आप्रवासन को कम करेंगे।
ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान मिलर प्रशासन की कुछ सबसे सख़्त अप्रवास नीतियाँ बनाने में शामिल थे।
थॉमस होमन ट्रंप के पहले कार्यकाल में इमिग्रेशन और कस्टम्स इंफोर्समेंट एजेंसी के कार्यवाहक निदेशक थे। उन्होंने अमेरिका-मेक्सिको सीमा पर हिरासत में लिए गए अवैध परिवारों को अलग करने की राष्ट्रपति की नीति का समर्थन किया था। अब वो सीमा से जुड़े अहम प्रभार के साथ वापस आ गए हैं।
होमन ने जुलाई में एक सम्मेलन में कहा, ‘मैं इस देश में अब तक का सबसे बड़ा निर्वासन अभियान चलाऊंगा।’
आलोचकों ने चेतावनी दी है कि ट्रंप की सामूहिक निर्वासन योजना पर 300 बिलियन डॉलर से ज़्यादा ख़र्च हो सकता है।
हालांकि पिछले हफ़्ते एनबीसी न्यूज़ को दिए एक इंटरव्यू में नव-निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि इस मामले में ख़र्च कोई मुद्दा नहीं है।
चीन से मिल रही चुनौती
कई रूढि़वादी मानते हैं कि चीन आर्थिक और सैन्य मामलों में अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व को जारी रखने में सबसे बड़ा ख़तरा है।
जबकि ट्रंप इस मामले में अधिक सतर्क रहे हैं। उन्होंने चीन की अपनी अधिकांश आलोचना को व्यापार के क्षेत्र तक सीमित रखा है। वो विदेश नीति से जुड़ी अपनी टीम में चीन के मुखर आलोचकों को भर रहे हैं।
ट्रंप ने सेवानिवृत्त सेना कर्नल और फ्लोरिडा के कांग्रेस सदस्य माइक वाल्ट्ज को अपना राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार चुना है। यह व्हाइट हाउस में विदेश नीति से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पद है।
वाल्ट्ज ने कहा है कि अमेरिका चीन के साथ ‘शीत युद्ध’ में है। वो कांग्रेस के पहले सदस्यों में से एक थे जिन्होंने साल 2022 बीजिंग शीतकालीन ओलंपिक खेलों से अमेरिका के बहिष्कार की अपील की थी।
ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत के लिए एलिस स्टेफनिक को चुना है।
अक्तूबर महीने में ऐसी रिपोर्ट के बीच कि चीन समर्थित हैकरों ने पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के फोन से जानकारी इक_ा करने की कोशिश की थी, एलिस स्टेफनिक ने चीन पर ‘चुनाव में स्पष्ट और दुर्भावनापूर्ण हस्तक्षेप’ का आरोप लगाया था।
हालांकि ट्रंप ने अभी तक आधिकारिक तौर पर विदेश मंत्री के लिए अपनी पसंद का नाम नहीं बताया है, लेकिन चीन पर नजऱ रखने वाले एक अन्य सीनेटर मार्को रुबियो इस शीर्ष राजनयिक पद के लिए प्रमुख दावेदार के तौर पर देखे जा रहे हैं।
साल 2020 में रुबियो को चीन सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया गया था, जब उन्होंने हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई के लिए चीन को दंडित करने के उपायों की बात की थी।
व्यापार विवादों और कोविड महामारी के बीच ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान अमेरिका-चीन संबंध अक्सर उतार-चढ़ाव भरे रहे थे।
बाइडन प्रशासन ने ट्रंप की पिछली सरकार के दौरान चीन पर लगाए गए कई टैरिफ को बरकऱार रखा और कुछ नए टैरिफ भी लागू किए। इससे हालात कुछ हद तक शांत हुए थे। अब ऐसा लग रहा है कि ट्रंप प्रशासन अपने दूसरे कार्यकाल में वहीं से आगे बढ़ेगा, जहां पिछली बार छोड़ा था।
मस्क की नई भूमिका
हालाँकि ट्रंप ने जिन राजनीतिक लोगों की नियुक्ति की है वह सूची बढ़ती जा रही है। लेकिन उनके पास एक ऐसा समूह भी है जो छोटा है, लेकिन काफ़ी प्रभावशाली है।
दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति और ट्रंप के समर्थक एलन मस्क ट्रंप के मार-ए-लागो में मौजूद ट्रांजिशन मुख्यालय में लगातार मौजूद रहे हैं।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार वो मंत्रिमंडल के उम्मीदवारों के बारे में डोनाल्ड ट्रंप को सलाह दे रहे हैं और पिछले हफ़्ते ट्रंप और यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की के बीच बातचीत में भी शामिल थे।
मंगलवार की रात को ट्रंप ने घोषणा की कि वह मस्क और रिपब्लिकन पार्टी के लिए राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार की दौड़ में शामिल रहे विवेक रामास्वामी को ‘सरकारी दक्षता विभाग’ का काम सौंप रहे हैं, जिसका काम सरकारी खर्च में कटौती के उपाय बताना है।
मस्क नियमित रूप से अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर अपने राजनीतिक विचार प्रस्तुत करते रहे हैं।
मस्क की पॉलिटिकल एक्शन कमेटी ने ट्रंप के राष्ट्रपति अभियान में मदद के लिए लगभग 200 मिलियन डॉलर खर्च किए।
इस बीच, यह देखना बाकी है कि एक अन्य प्रमुख व्यक्ति रॉबर्ट एफ़ कैनेडी जूनियर को क्या जि़म्मेदारी दी जा सकती है।
ट्रंप ने कहा है कि वो डेमोक्रेटिक पार्टी के पूर्व सदस्य और रिपब्लिकन पार्टी का समर्थन करने वाले कैनेडी को ‘अमेरिका को फिर से सेहतमंद’ बनाने में भूमिका देने की योजना बना रहे हैं।
ट्रंप ने चुनाव जीतने के बाद अपने भाषण में कहा, ‘वह कुछ चीजें करना चाहते हैं, और हम उन्हें ऐसा करने देंगे।’
संसद की तुलना में राष्ट्रपति को ताक़त पर ज़ोर
ट्रंप के पदभार ग्रहण करने के साथ ही रिपब्लिकन पार्टी के पास सीनेट का नियंत्रण होगा, और वो बहुत कम अंतर से ही सही सदन पर भी नियंत्रण कर सकते हैं।
हालांकि ट्रंप के शुरुआती फ़ैसलों से पता चलता है कि वे विधायी शाखा के साथ काम करने की तुलना में राष्ट्रपति की अपनी ताक़त के इस्तेमाल को लेकर ज़्यादा फि़क्रमंद हैं।
उन्होंने पिछले हफ़्ते सोशल मीडिया पर पोस्ट किया कि सीनेट के रिपब्लिकन नेतृत्व को राष्ट्रपति के द्वारा होने वाली ‘सुस्त नियुक्तियों’ के लिए रास्ता आसान करना चाहिए।
इसका मक़सद उन्हें संसद के सत्र में न होने पर सीनेट की मंज़ूरी के बिना शीर्ष प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति का अधिकार मिल सके।
यह कदम राजनीतिक नियुक्तियों पर ‘सलाह और सहमति’ देने के लिए चैंबर की संवैधानिक भूमिका को कम करके राष्ट्रपति को ज़्यादा ताक़त देगा।
इस बीच नव निर्वाचित राष्ट्रपति कांग्रेस के छोटे बहुमत को कम करने की कोशिश करते रहते हैं।
सीनेटर प्रशासनिक भूमिकाओं में चले जाते हैं, उन्हें उनके गृह राज्य के गवर्नर की नियुक्ति के ज़रिए तुरंत बदला जा सकता है।
लेकिन सदन में किसी भी खाली पद, जैसे कि स्टेफ़निक और वाल्ट्ज के जाने से पैदा पदों के लिए विशेष चुनावों की ज़रूरत होती है, जिसका कार्यक्रम बनाने में महीनों लग सकते हैं।
मस्क सहित ट्रंप के कुछ सलाहकारों ने चेतावनी दी है कि यदि नव-निर्वाचित राष्ट्रपति सदन से बहुत ज़्यादा रिपब्लिकन सांसदों को बाहर निकालते हैं, तो इससे उनका विधायी एजेंडा खतरे में पड़ सकता है।
यहां तक कि सबसे अच्छे हालात में भी कांग्रेस को कानून बनाने में समय और कोशिश के अलावा समझौता भी करना पड़ता है।
ट्रंप के काम से संकेत मिलता है कि कम से कम इस समय तो उनका ध्यान दूसरे जगह ही अधिक केन्द्रित है।
वफादारों को ईनाम देना
डोनाल्ड ट्रंप ने अभी-अभी हजारों नौकरियों के लिए नियुक्तियाँ निकाली हैं जो नए प्रशासन के साथ शुरू होंगी।
इनमें वरिष्ठ स्तर के नौकरशाह शामिल नहीं हैं जिनके बारे में उन्होंने कहा था कि वे उन्हें बदलेंगे।
राजनीति के नए चेहरे के तौर पर साल 2016 में ट्रंप को प्रमुख भूमिकाओं के लिए ज़्यादा पुराने रिपब्लिकन नेताओं पर निर्भर रहना पड़ा था।
लेकिन इस बार उनके पास संभावित उम्मीदवारों की भरमार है, जो ट्रंप का समर्थन करते हैं और अब आठ साल बाद रिपब्लिकन पार्टी में ट्रंप के वफादार भरे हुए हैं।
मंगलवार को ट्रंप ने साउथ डकोटा की गवर्नर क्रिस्टी नोएम को गृह सुरक्षा विभाग और फॉक्स न्यूज़ के होस्ट और रूढि़वादी लेखक पीट हेगसेथ को रक्षा विभाग की जि़म्मेदारी दे रहे हैं।
ये दोनों ही शुरू से ही ट्रंप के कट्टर समर्थक रहे हैं।
रुबियो और स्टेफनिक जैसे अन्य लोग राष्ट्रपति पद की दौड़ के पहले प्रयास की शुरुआत में ट्रंप के आलोचक थे। लेकिन वो कई साल से जता रहे हैं कि उनके कठोर शब्द अब पुरानी बात है।
रुबियो ने साल 2016 में ट्रंप के खिलाफ़ राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए चुनाव लड़ा था, हालांकि व्हाइट हाउस की उनकी महत्वाकांक्षा अब भी बनी हुई है।
ट्रंप अक्सर उन नियुक्तियों से नाराज़ रहते थे जो उनके पहले कार्यकाल के दौरान सुर्खियों में होते थे।
ट्रंप अपने टीम की शुरुआती घोषणाओं में वफादारी पर जोर दे रहे हैं। लेकिन अंत में शासन करने का दबाव ही यह बताएगा कि उनके कार्यकाल के दूसरे चार साल, उनके पहले चार साल से अलग होंगे या नहीं। (bbc.com/hindi)
-आशय येडगे
23 नवंबर को महाराष्ट्र की सत्ता में कौन आएगा? ये सवाल महाराष्ट्र और राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले हर शख्स ने जरूर जानना चाहा होगा। इस समय पूरे प्रदेश में विधानसभा चुनाव की चर्चा चल रही है।
इस चुनाव में कौन सा फैक्टर काम करेगा? किन जातीय समीकरणों का गणित चलेगा? मराठवाड़ा में क्या होगा? विदर्भ में कौन आगे होगा? कौन जीतेगा मुंबई की जंग? अखबार और मीडिया में अब ऐसे कई सवालों के जवाब दिए जा रहे हैं।
कुछ ही महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में महाविकास अघाड़ी को मिली सफलता के बाद कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना था कि यही जीत लोकसभा के बाद विधानसभा चुनाव में भी दोहराई जा सकती है। लेकिन मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली महायुति सरकार ने राज्य भर में विभिन्न योजनाओं को लागू करके चुनाव में वापसी करने की कोशिश की है।
इन वजहों से नतीजा किसके पक्ष में जाएगा, यह देखना महत्वपूर्ण होगा। बीबीसी मराठी ने यही जानने के लिए महाराष्ट्र के प्रमुख राजनीतिक विश्लेषकों और संपादकों से बात की कि चुनावी हवा वास्तव में किसके पक्ष में है। इनमें वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉ.सुहास पलशिकर, प्रकाश पवार, लोकसत्ता के संपादक गिरीश कुबेर, वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले और राही भिडे शामिल हैं।
ये विशेषज्ञ विधानसभा चुनाव को लेकर क्या सोचते हैं? नतीजे किसके पक्ष में हो सकते हैं? अभी चुनावी अभियान का नेतृत्व कौन कर रहा है? ऐसे कई सवालों के जवाब हमने इस रिपोर्ट में जानने की कोशिश की है।
क्या किसी को बहुमत मिलेगा?
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉ। सुहास पलशिकर कहते हैं, ‘बीजेपी 2014 के बाद महाराष्ट्र में एक प्रमुख पार्टी बनकर उभरी। इसलिए, भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में भी प्रमुख पार्टी के रूप में उभरने की कोशिश करेगी। एक और संभावना यह है कि जिस तरह से गठबंधन और गठबंधन की राजनीति अब की जा रही है यह राजनीति अगले पांच से दस साल तक जारी रह सकती है।’
‘तीसरी संभावना यह है कि राज्य में कई छोटी पार्टियां उभरी हैं, इसलिए नतीजों के बाद एक बड़ी पार्टी और ऐसी छोटी पार्टियां एक साथ आकर एक नया समीकरण बना सकती हैं।’
इस चुनाव में कौन से मुद्दे निर्णायक हो सकते हैं? इस सवाल पर पलशिकर ने कहा, ‘अगर हम अर्थव्यवस्था को देखें तो हमें महंगाई, बेरोजगारी नजर आती है। महाराष्ट्र में कृषि क्षेत्र की दुर्दशा यह न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, बल्कि इसका असर शहरी क्षेत्रों पर भी पड़ता है।’
पलशिकर कहते हैं, ‘ये शहर उन लोगों की वजह से बढ़ रहे हैं जो कृषि में आजीविका की कमी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों से आए थे। महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा प्रवासन होता है जिसे इन-माइग्रेशन कहा जाता है। इसलिए, कृषि का मुद्दा शहर में भी महसूस किया जाएगा।’
पलशिकर ने कहा, ‘तीसरा प्रमुख मुद्दा है कि मराठा समाज क्या करने जा रहा है। फिर चौथा मुद्दा है कि ये चार, पांच, छह दलों का गठबंधन कैसा होगा। उनका समीकरण और उनके वोटों का ट्रांसफर किसी उम्मीदवार को किस तरह से होगा। किसी एक पार्टी के वोटर गठबंधन की दूसरी पार्टी के लोग को वोट देंगे?’
डॉ. सुहास पलशिकर ने कहा, ‘मुझे लगता है कि लोग जब बात करते हैं तो अलग-अलग चीज़ों के बारे में बात करते हैं, लेकिन दिन के अंत में आजीविका का मुद्दा महत्वपूर्ण होता है। लोगों के मन में यह बात कहीं न कहीं रहेगी कि वर्तमान समय में लोगों का जीवन खुशहाल नहीं है। हालाँकि यह सच है कि कोई भी राजनीतिक दल हमें यह नहीं दे रहा है।’
पलशिकर ने कहा, ‘इसलिए मुझे लगता है कि भारतीय जनता पार्टी, शिंदे की शिवसेना और अजीत पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस इस नाराजग़ी को महसूस कर सकती हैं। अगर आप विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं की घोषणाओं को देखेंगे, तो आपको एहसास होगा कि यही कारण है। क्योंकि वे भी जानते हैं कि लोग नाराज़ हैं और इससे उन्हें नुकसान हो सकता है।’
इन सभी मुद्दों के आधार पर चुनाव में किसके लिए मुश्किल नजऱ आ रही है? इस सवाल का जवाब देते हुए डॉ. पलशिकर ने कहा, ‘अभी ऐसा नहीं लगता कि लोग किसी पार्टी के पक्ष में झुक रहे हैं। लोकसभा चुनाव में इन दोनों पार्टियों को मिले वोटों के बीच एक फीसदी का अंतर था। दूसरे शब्दों में कहें तो दोनों की ताक़त एक जैसी थी। इसलिए संभावना है कि अधिकांश मुकाबले करीबी होंगे।’
‘परिणाम क्या होगा यह कोई नहीं बता सकता’
विधानसभा चुनाव के बारे में बात करते हुए लोकसत्ता के संपादक गिरीश कुबेर ने कहा कि उन्हें लगता है कि यह चुनाव ऐतिहासिक रूप से बहुत जटिल हो गया है।
हर चुनाव क्षेत्र में कम से कम 6-7 प्रभावी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं इसलिए कुबेर को लगता है कि इस चुनाव की भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता।
महायुति और महाविकास अघाड़ी के बीच आंतरिक प्रतिस्पर्धा के बारे में बात करते हुए कुबेर कहते हैं, ‘महाराष्ट्र की राजनीति में पहली बार हर राजनीतिक दल को लगने लगा है कि उसकी अपनी पार्टी के उम्मीदवारों की सफलता से ज़्यादा उसकी साथी पार्टी के उम्मीदवारों की विफलता महत्वपूर्ण है।’
‘मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को लगता है कि बीजेपी को ज़्यादा सीटें नहीं मिलनी चाहिए जबकि यही हाल बीजेपी और अजित पवार का भी है। इसलिए अपनी ही पार्टी के उम्मीदवारों को चुनने के बजाय सहयोगी पार्टी के उम्मीदवारों को हराने के लिए अधिक प्रयास किए जा रहे हैं।’
चुनाव में अहम मुद्दों के बारे में बात करते हुए कुबेर ने कहा, ‘इस चुनाव में सोयाबीन, गन्ना, कपास और प्याज के मुद्दे अहम हो सकते हैं। इन फसलों को उगाने वाले किसानों की समस्याएं इस चुनाव के नतीजे पर असर डाल सकती हैं।’
‘इसके साथ ही पूरे राज्य में भडक़े मराठा बनाम ओबीसी विवाद का भी असर पड़ सकता है।’
गिरीश कुबेर ने कहा, ‘एक और महत्वपूर्ण मुद्दा जिसे नजरअंदाज किया जा रहा है, वो है बढ़ते शहरीकरण की वजह से पैदा होने वाले रोजगार के अपर्याप्त अवसर। महाराष्ट्र में पिछले कुछ दशकों में कोई नई फैक्ट्री शुरू नहीं हुई है। महाराष्ट्र का जोर सेवा क्षेत्र पर है और इसमें लगे व्यक्तियों का रोजग़ार स्थायी नहीं है और इसकी कोई सम्मानजनक स्थिति भी नहीं है। इस वजह से जिन मतदाताओं को ऐसा रोजग़ार नहीं मिला वो इस बार के चुनाव में क्या करेंगे, बहुत कुछ उस पर निर्भर करेगा।’
महिला मतदाताओं और ‘लाडक़ी बहिण’ योजना के बारे में बात करते हुए गिरीश कुबेर ने कहा, ‘दुर्भाग्य से, महाराष्ट्र और देश की पुरुष-प्रधान राजनीतिक व्यवस्था में महिलाओं की राजनीतिक राय को ज़्यादा महत्व नहीं दिया जाता है। इसलिए, ऐसा नहीं लगता है कि इस योजना का फि़लहाल इतना बड़ा असर होगा। इस वजह से यह 1500 रुपये महिलाओं को उनकी राजनीतिक राय बनाने में सक्षम होगा, फि़लहाल ऐसा लगता नहीं है।’
गिरीश कुबेर ने कहा, ‘यह एक तरह से अच्छी बात होगी अगर महिलाएं यह पैसा लेने के बाद भी महायुति को अस्वीकार कर देती हैं। क्योंकि इससे वोट पाने के लिए ऐसी घोषणाओं की परंपरा टूट सकती है। और ऐसी योजनाएं कमज़ोर हो सकती हैं।’
इस चुनाव में कौन सा मुद्दा सबसे अहम होगा, इस पर कुबेर ने कहा, ‘फिलहाल महाराष्ट्र की राजनीति में सफलता शरद पवार, महायुति और महाविकास अघाड़ी में से किसी एक के गणित पर निर्भर करेगी। अगर महाविकास अघाड़ी सत्ता में आती है तो यह कहा जा सकता है कि लोगों ने शरद पवार फैक्टर को स्वीकार कर लिया है। अगर महायुति जीतता है तो यह कहा जा सकता है कि मतदाताओं ने शरद पवार फैक्टर को खारिज कर दिया है। दरअसल अभी किसी भी राजनीतिक दल या नेता का क्या होगा इसकी कोई गारंटी नहीं है।’
यह चुनाव एक ‘अभूतपूर्व लड़ाई’ है-निखिल वागले
वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले ने कहा, ‘मैं आगामी महाराष्ट्र चुनाव के लिए दो शब्दों का इस्तेमाल करूंगा और वह है ‘अभूतपूर्व अराजकता।’ महाराष्ट्र की राजनीति के पतन का प्रतिबिंब हम इस चुनाव में देख सकते हैं। अगर आप चुनाव में उम्मीदवारों की सूची देखेंगे तो आपको यह बात नजऱ आएगी।’
‘महाराष्ट्र में बगावत कोई नई बात नहीं है, 1995 के चुनाव में पैंतालीस निर्दलीय उम्मीदवार चुने गए थे और मनोहर जोशी की सरकार बनी थी। लेकिन इस बार बागी ज़्यादा होंगे, जो ख़ुद तो खड़े होंगे लेकिन दूसरे उम्मीदवार को जिताने के लिए।’
चुनाव में हुई धनबल के बारे में वागले ने कहा, ‘अभी अरबों रुपये मिले हैं। अगर चुनाव आयोग की जांच में सौ करोड़ रुपये पाए गए, तो कम से कम पांच सौ करोड़ या उससे अधिक बाहर गए हैं। महाराष्ट्र चुनाव में तमाम गड़बडिय़ां हुई हैं। महाराष्ट्र में चुनावी कदाचार की परंपरा रही है, यहां तक कि यशवंतराव चव्हाण पर भी आरोप लगे थे कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में मतपेटियां उनके ही कार्यकर्ताओं ने लूट ली थीं, लेकिन अब कदाचार का स्तर कम हो गया है। मुझे लगता है कि इस साल के चुनाव में अभूतपूर्व गुंडागर्दी होगी।’
वागले ने दावा किया, ‘इस चुनाव में सडक़ के गुंडों का इस्तेमाल किया जाएगा। इस चुनाव में पैसे और अपराधियों का बड़ा प्रभाव हो सकता है। अगर आप उम्मीदवारों की सूची देखें तो इसे सिर्फ भाई-भतीजावाद कहा जा सकता है। इस तरह से उम्मीदवार खड़ा कर ये नेता यही संदेश दे रहे हैं कि साधारण कार्यकर्ताओं को जीवन भर साथ ही लेकर चलना चाहिए। अब देखिए शरद पवार के घर में कितने सांसद और विधायक हैं। मेरा मानना है कि नेताओं को उदाहरण स्थापित करना चाहिए। आपके पास युवा कार्यकर्ता हैं, आपको परंपरा तोडऩी होगी और उन्हें मौका देना होगा, लेकिन इसके बजाय परिवारों का प्रभाव बढ़ गया है।’
क्या लोकसभा चुनाव का नतीजा दोहराया जा सकता है? इस सवाल का जवाब देते हुए निखिल वागले ने कहा, ‘लोकसभा चुनाव में महाविकास अघाड़ी की सफलता जैसा एकतरफा नतीजा विधानसभा में नहीं होगा। इसका कारण यह है कि लोकसभा चुनाव के दौरान महाराष्ट्र में यात्रा के दौरान मैंने जो माहौल देखा था वो विधानसभा चुनाव में अब दिखाई नहीं दे रहा है। महाविकास अघाड़ी के प्रति जो माहौल था, वह मुझे नहीं दिखता।’
निखिल वागले कहते हैं, ‘महाविकास अघाड़ी ने पांच महीनों में अपनी गति खो दी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद महाविकास अघाड़ी के नेता आलसी हो गए। पांच महीनों में उन्होंने उस माहौल को बनाए रखने के लिए कुछ नहीं किया। ये नेता वहां बैठकर अपने अहंकार का बखान कर रहे थे। उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ीं। इसलिए लोकसभा के समय महाविकास अघाड़ी में जो एकता थी, वह अब नहीं रही।’
क्या महायुति गठबंधन में मतभेद नहीं हैं? इस सवाल पर निखिल वागले ने कहा, ‘महायुति गठबंधन में भी मतभेद हैं लेकिन अमित शाह वहां डंडा लेकर बैठे हैं। उनके अंदर एक डर है, उनके अंदर एक आतंक है, इसलिए कोई बोलने की हिम्मत नहीं करता। महाविकास अघाड़ी में कोई किसी को नहीं पूछता। शरद पवार का अलग कैंप है, उद्धव ठाकरे का अलग कैंप है। उद्धव ठाकरे बनाम नाना पटोले चल रहा है।’
‘आपको (महाविकास अघाड़ी) मुसलमानों, दलितों ने वोट दिया था। आपने उनके लिए क्या किया? मुसलमानों ने जीवन में पहली बार उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी को इतने वोट दिए। मुस्लिम और साठ फीसदी मराठी वोटों के कारण मुंबई में उद्धव ठाकरे की ताकत बढ़ी। आपने मुसलमानों के लिए क्या किया है? जब विशालगढ़ में घर जलाये गये थे तब भी आप वहाँ नहीं गये थे।’
निखिल वागले ने कहा, ‘महाविकास अघाड़ी के पास यह साबित करने का मौका था कि वह महायुति से कैसे अलग हैं। उन्होंने यह मौका गंवा दिया। दूसरी तरफ महायुति ने लोकसभा चुनाव में हार से उबरने की कोशिश की। उनकी कल्याण योजना ही उनका सबसे बड़ा हथियार है। जिनमें लाडक़ी बहिण, एचपी पंप, किसानों के लिए बिजली माफी जैसी योजनाएं शामिल हैं। जब सरकार के खजाने में पैसे नहीं थे तब उन्होंने लाडक़ी बहिण योजना के लिए 46,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने इस योजना का खूब प्रचार-प्रसार किया।’
आखिर में निखिल वागले ने कहा, ‘इस योजना के प्रचार-प्रसार के कारण लोगों को लगा कि महायुति कुछ दे रही है। इसके जवाब में महाविकास अघाड़ी ने कुछ नहीं किया। मुझे लगता है कि इस बार शिंदे को लोकसभा से ज्यादा सफलता मिलेगी क्योंकि उनके प्रति थोड़ी सहानुभूति है।’
महायुति को होगा बड़ा नुकसान- राही भिडे
वरिष्ठ पत्रकार राही भिडे ने कहा, ‘पहली बात तो यह है कि महायुति और महाविकास अघाड़ी के बीच सत्ता संघर्ष के बारे में किसी को कुछ पता नहीं है। हर कोई बड़ा होने का दावा कर रहा है। महायुति को लगता है कि लाडक़ी बहिण योजना से महिलाओं के बहुत सारे वोट मिलेंगे। लेकिन मामला ऐसा नहीं है। मेरे संपर्क में रहने वाली महिलाओं का कहना है कि वो उद्धव ठाकरे के बदले हुए संकेत को समझती हैं।’
राही भिडे ने कहा, ‘लोग जागरूक हो गए हैं। वे निश्चित रूप से जानते हैं कि किसे वोट देना है। महायुति को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि जो मध्य प्रदेश में हुआ वह महाराष्ट्र में किया जा सकता है। महाराष्ट्र अन्य राज्यों से अलग है। महाराष्ट्र की अपनी स्थिति है इस राज्य को एक प्रगतिशील राज्य कहा जाता है। लेकिन इस राज्य में कई बड़े झगड़े और दंगे हुए हैं, लेकिन आखऱिकार महाराष्ट्र की मुख्य संरचना नहीं बदली है।’
राही भिडे ने कहा, ‘देवेंद्र फडणवीस को सत्ता बरकरार रखने के लिए क्या-क्या कारनामे करने पड़े। सभी लोग गुवाहाटी चले गए। पहले भी बगावत हुई थी। 1999 में शरद पवार ने बगावत की थी।’
शरद पवार के बारे में बात करते हुए राही भिडे ने कहा, ‘महायुति सरकार पहले भी एक कार्यकाल से ज़्यादा नहीं चली है। उन्हें सिफऱ् एक टर्म मिला। मुझे लगता है कि बीजेपी को बड़ा नुक़सान होने वाला है।’
जाति फैक्टर रहेगा अहम- डॉ. प्रकाश पवार
राजनीतिक विश्लेषक डॉ। प्रकाश पवार ने कहा, ‘महाराष्ट्र चुनाव में जाति सबसे बड़ा फैक्टर बनने जा रही है। महाराष्ट्र में जातिवाद का कोई रूप नहीं है लेकिन आरक्षण और क्षेत्र के कारण जाति बहुत महत्वपूर्ण हो गई है। इसलिए अगर आप मराठवाड़ा के बारे में सोचें, तो आरक्षण के लिए जारांगे पाटिल का आंदोलन, उनके ख़िलाफ़ ओबीसी का आंदोलन, मुद्दा बना था। राजनीतिक दलों का पहला लक्ष्य जातिगत गणित को सुलझाना प्रतीत होता है।’
प्रकाश पवार ने कहा, ‘बीजेपी और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी दो ऐसी पार्टियां हैं जो महाराष्ट्र की राजनीति में नेतृत्व के मामले में बराबर हैं। इन दोनों पार्टियों ने ओबीसी और मराठों को एक साथ लाने की योजना बनाई है। इसमें हर जि़ले में एक ओबीसी और एक मराठा को टिकट बांटा गया है।’
मराठा आरक्षण के बारे में बात करते हुए डॉ। प्रकाश पवार ने कहा, ‘बीजेपी ने मराठा आरक्षण की मांग के कारण होने वाले नुकसान से बचने के लिए मराठा उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की योजना बनाई है। ताकि ये उम्मीदवार अपने मराठा वोट लेकर आएं और बीजेपी ओबीसी वोटों को अपने खेमे में कर ले और वह उम्मीदवार जीत जाए।’
ओबीसी के बारे में बात करते हुए प्रकाश पवार ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि महाराष्ट्र में ओबीसी बीजेपी के पीछे एकजुट होंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि पिछले पांच वर्षों में देवेंद्र फडणवीस ने मराठा एकीकरण के पैटर्न को लागू किया है। उदाहरण के लिए, उदयनराजे, राधाकृष्ण विखे पाटिल जैसे नेताओं के भाजपा में आने से स्थानीय ओबीसी आहत हुए थे और तब से शरद पवार और कांग्रेस ने इन असंतुष्ट ओबीसी को अपने पक्ष में करने की कोशिश की है।’
शरद पवार के बारे में बात करते हुए प्रकाश पवार ने कहा, ‘पहले से ही शरद पवार की छवि सिर्फ मराठा नहीं बल्कि ओबीसी और मराठा की है, इसलिए जो हरियाणा में हुआ वह महाराष्ट्र में होता नहीं दिख रहा है।’
आखऱि में प्रकाश पवार ने कहा, ‘लोकसभा चुनाव के बाद महाविकास अघाड़ी बहुत आगे थी। लेकिन अब दोनों पक्ष बराबरी पर चल रहे हैं। पिछले डेढ़ महीने में महायुति ने अंतर पाट दिया है। आज कोई भी मोर्चा जीत का दावा नहीं कर सकता। महाराष्ट्र का चुनाव हरियाणा की तजऱ् पर नहीं, बल्कि महाराष्ट्र को आकार देने वाला चुनाव है। अगर इसमें बीजेपी जीतती है तो कहा जा सकता है कि बीजेपी ने राजनीति का पूरा चेहरा ही बदल दिया है। और अगर महाविकास अघाड़ी सत्ता में आई तो राष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ भी हो सकता है।’ ( (bbc.com/hindi)
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
असगर वजाहत (जनवादी लेखक संघ )और नरेश सक्सेना (प्रगति लेखक संघ)ने अपने अपने कारणों से इन संगठनों के पद त्याग दिए। इस पर फेसबुक पर काफी प्रतिक्रियाएं आई हैं।
सवाल यह है इन इस्तीफों को कैसे देखें? इस्तीफा देना व्यक्तिगत फैसला है और उसका सम्मान करना चाहिए।इन दोनों संगठनों में लेखकों की कोई वैचारिक घेरेबंदी नहीं है। लेखक अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र हैं। यही वजह है कि लेखकों का इन संगठनों में आना जाना बना रहता है।
अधिकांश विवाद लेखकों के व्यक्तिगत वैचारिक और भावुक टकरावों से पैदा हुए हैं। इन टकराव या पंगों के कारण संगठन के चरित्र का निर्धारण नहीं करना चाहिए। इन दोनों ही संगठनों की बुनियाद है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लेखक की स्वतंत्रता। जब कोई लेखक सदस्य बनता है तो वह अपनी स्वतंत्रता को गिरवी नहीं रखता बल्कि उसे समृद्ध करने या संरक्षित करने के लिए संगठन में आता है। ये दोनों संगठन उसकी वैचारिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।
अनेक बार एक ही संगठन के सदस्यों में किसी मसले पर वैचारिक टकराव भी होता है। यह स्वाभाविक चीज है। ये संगठन वैचारिक वैविध्य को मानते हैं। इस वैविध्य और लेखक के व्यक्तिगत नजरिए का सम्मान किया जाना चाहिए। उसकी वैचारिक प्राइवेसी का सम्मान करना चाहिए। संगठन जब किसी विषय पर वैचारिक आदेश देने लगे या लेखक को उसे मानने को मजबूर करे तो यह बात समझनी चाहिए कि लेखक और संगठन के पदाधिकारियों में वैचारिक अंतराल है, इस अंतराल को जबरदस्ती राजनीतिक आदेश के जरिए भरना संभव नहीं है। इसके अलावा लेखक की स्वतंत्र पहलकदमी और चयन की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए।
ये दोनों संगठन लेखकों को एक ही वैचारिक दिशा में सोचने को बाध्य नहीं करते। यह करना संभव भी नहीं है। लेखक किसके कार्यक्रम में जाए और किस नजरिए से लिखे, यह फैसला संगठन की राजनीति के अनुसार करना संभव नहीं है। मसलन, असगर वजाहत ने गोडसे पर उसके पक्ष में लिखा, यह सब मीडिया की मांग पूर्ति के नियम के आधार पर लिखा। इससे उनके सर्जनात्मक लेखन और लेखकीय व्यक्तित्व को खारिज नहीं कर सकते। सैंकड़ों लेखक -कलाकार हैं जो बाजार या मीडिया की मांग पूर्ति के नियम के आधार पर लिखते हैं। इनमें अधिकांश बुर्जुआ नजरिए को व्यक्त करते हैं। यह परंपरा बहुत बड़ी है। इसमें सत्यजित राय से लेकर ऋत्विक घटक, सलिल चौधरी से लेकर कैफी आजमी तक सब आते हैं। सवाल यह है क्या लेखक मांग पूर्ति के नियमों से परे है ? क्या लेखक-कलाकार से हर समय किसी विशिष्ट विचारधारा में बंधकर लेखन करने की उम्मीद करना सही है?
लोकतंत्र की धुरी है व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। हर लेखक या व्यक्ति इसका पालन करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन ज्यों ही वह स्वतंत्रता की दिशा में कदम बढाता है टकराव पैदा होते हैं। हम इनका स्वागत करें, लेखक या संगठन पर हमले न करें। इन टकरावों में सब्जेक्टिव या राजनीतिक लाइन के आधार पर फैसला करने से बचना चाहिए। नरेश सक्सेना कहां और किसके आयोजन में जाएंगे यह उनका निजी मसला है इस पर प्रलेसं के लोगों को अपनी राय व्यक्त नहीं करनी थी। उसी तरह असगर वजाहत ने जलेसं छोडा तो यह उनका निजी फैसला है उसका सम्मान किया जाए, असगर और जलेसं का मूल्य निर्णय न किया जाय।
लोकतंत्र आचरण की चीज है वह मात्र कागजी विचार नहीं है। प्रलेसं और जलेसं में सैकड़ों लेखक हैं उनके बीच में सृजन के स्तर पर वैचारिक वैविध्य है।
-डॉ.राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
आज की पीढ़ी तेजी से न्यूरोप्लास्टिसिटी यानी कि पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम के मकड़ जाल में उलझती जा रही है। मजे की बात यह है कि इसमें हम केवल और केवल बच्चों या युवाओं को ही दोष नहीं दे सकते बल्कि देखा जाए तो इंटरनेट और सोशियल मीडिया के अत्यधिक उपयोग के प्रभाव से ग्रसित लोग इन हालातों से दो चार होते जा रहे हैं। चिंतनीय यह है कि फोकस नाम की चीज खोती जा रही है और उसके स्थान पर मानसिक भटकाव लेता जा रहा है।
होता यह है कि एक काम करने की सोचते हैं उतनी देर में दूसरे काम पर ध्यान चला जाता है तो कुछ ही देर में तीसरे काम को पहले करने की सोचने लगते हैं। इस सबका बड़ा कारण खासतौर से इलेक्ट्रोनिक गजेट्स और लेपटॉप के माध्यम से इंटरनेट की दुनिया को अत्यधिक समय देने का यह साइड इफेक्ट होने लगा है। टीवी पर बार बार चैनल बदलना, एक गाने को पूरा होने से पहले ही दूसरे गाने को लगा देना, मस्तिष्क में एक ही समय कई चीजों का चलना आदि पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम की निशानी है। चिकित्सकीय भाषा में कहा जाए तो यह एडीएचडी यानी कि अटेंशन डेफिसिट हाईपरएक्टिविटी डिस आर्डर की स्थिति होती है। बिना सोचे समझे रिएक्शन, तनाव, काम में फोकस नहीं कर पाना, डिप्रेशन में रहना आदि का कारण मोटे रुप से पॉपकॉर्न ब्रेन के रुप में देखा जा सकता है।
दरअसल पॉपकॉर्न ब्रेन शब्द का उपयोग 2011 में वांशिगटन विश्वविद्यालय में उस समय शोध कर रहे डेविड लेवी ने उपयोग किया था। यह एक तरह से इस तरह की मानसिकता को दर्शाते हुए किया गया था कि मन का स्थिर नहीं रहना। एक तरह से भ्रमित मानसिकता भी इसे कहा जा सकता है। मजे की बात यह है कि जिस तरह से पॉपकॉर्न ब्रेन का विस्तार होता जा रहा है यानी कि जिस तरह से अधिक से अधिक लोग इसके मकडज़ाल में उलझते जा रहे हैं वह अपने आप में गंभीर होने के साथ ही अत्यधिक चिंतनीय भी है। एक दो नहीं इन हालातों का पूरे समाज पर असर पड़ रहा है। आज दूध पीते बच्चे को भी मोबाईल थमाकर शांत रखने की प्रवृति आम होती जा रही है उसके दुष्परिणाम सामने आने में देर नहीं लगेगी। बच्चें हाईपर होते जा रहे हैं। जब बच्चों में ही यह होने लगा है तो रातदिन जिस तरह से सोशियल मीडिया के प्लेटफार्म में लगे रहते हैं उनकी क्या मनोदशा हो जाएगी यह किसी से छुपी हुई नहीं होनी चाहिए। मनोविश्लेषकों के अनुसार यह एक तरह की न्यूरोप्लास्टिसिटी है।
देखा जाए तो एक दूसरे से तत्काल संवाद कायम करने का माध्यम स्मार्टफोन, सोशियल मीडिया और इंटरनेट पर परोसी जाने वाली सामग्री का सर्वाधिक दुष्प्रभाव सीधे हमारी मनोदशा को प्रभावित कर रहा है। तकनीक का इस तरह का दुष्प्रभाव संभवत: इतिहास में भी पहले कभी नहीं रहा है। आज हम हर समस्या का समाधान स्मार्टफोन और इंटरनेट को मानने लगे हैं। बच्चा रो रहा है या किसी बात के लिए जिद कर रहा है या चिड़चिड़ा हो रहा है तो माताएं या परिवार के कोई भी सदस्य बच्चें को चुप कराने या मनबहलाव और खास यह कि बच्चे को व्यस्त रखने के लिए मोबाइल संभला देते हैं। जबकि मोबाइल के दुष्प्रभाव हमारे सामने आने लगे हैं। अमेरिका में पिछले दिनों हुए एक सर्वे में सामने आया कि मोबाइल फोन, टेबलेट, वीडियो गेम या अन्य इस तरह के साधन के उपयोग से गुस्सेल होते जा रहे हैं। मारधाड़, हमेशा गुस्से में रहने, तनाव में रहने और जिद्दी होना आज आम होता जा रहा है। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में हुए एक अध्ययन में भी साफ हो गया है कि आज गेमिंग, सोशियल मीडिया और ओटीटी प्लेटफार्म के आदी होते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह होता जा रहा है कि समाज संवेदनहीन होता जा रहा है। हमेशा तनाव, डिप्रेशन, आक्रामकता, गुस्सेल, बदले की भावना आदि आम है। ऐसे में मनोविज्ञानियों के सामने नई चुनौती आ जाती है। यह असर कमोबेस समान रूप से देखा जा रहा है। यह कोई हमारे देश की समस्या हो, ऐसा भी नहीं हैं अपितु दुनिया के लगभग सभी देशों में यही हो रहा है। अमेरिका में किए गए एक अध्ययन में भी यही उभर कर आया है।
कोई दो राय नहीं कि विकास समाज की आवश्यकता है। स्मार्टफोन व इंटरनेट की दुनिया का अपना महत्व है। पर इनके सामने आ रहे दुष्प्रभावों को समझना होगा। पॉपकॉर्न ब्रेन को लेकर मनोविज्ञानी और चिकित्सक दोनों ही समान रुप से चिंतित है। सुझाया जा रहा है कि दिन चर्या को नियमित करके समय प्रबंधन को बेहतर बनाकर कुछ हद तक इस समस्या को कम किया जा सकता है। इसके साथ ही सोशियल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक गजेट्स पर आवश्यकता से अधिक समय नहीं दिया जाना जरूरी हो जाता है। जितना कम तकनीक का उपयोग होगा और अनावश्यक रुप से इन पर समय नहीं दिया जाएगा तो एक तरह से ब्रेन डिसआर्डर की इस समस्या से या यों कहे कि पॉपकॉर्न ब्रेन की समस्या से छुटकारा मिल सकेगा। उलझनों के भ्रम जाल से बचा जा सकेगा। योग प्रक्रियाएं और नियमित दिनचर्या भी इस समस्या को एक हद तक दूर कर सकती है। इसलिए पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोंम की गंभीरता और उसके दुष्परिणामों को समय रहते समाधान करना होगा।
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पूर्व विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो और संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत रहीं निकी हेली को अपनी नई सरकार में शामिल नहीं करने की घोषणा की है।
निकी हेली के माता-पिता अजित सिंह रंधावा और राज कौर रंधावा भारतीय मूल के थे। निकी हेली के माता-पिता अमृतसर के थे।
निकी हेली खुलकर भारत का समर्थन करती रही हैं। वहीं माइक पॉम्पियो भी चीन के ख़िलाफ़ मुखर होकर बोलते रहे हैं। लेकिन ट्रंप ने दोनों को अपनी सरकार में नहीं रखने का फैसला किया है।
डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी पिछली सरकार के दौरान भी सोशल मीडिया पर पोस्ट के जरिए कुछ अहम घोषाणाएं की थीं।
ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ‘ट्रूथ’ पर लिखा है, मैं पूर्व राजदूत निकी हेली या पूर्व विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो को अगली सरकार में शामलि होने के लिए आमंत्रित नहीं करूंगा।
ट्रंप का कहना है , ‘मुझे पहले उनके साथ काम करने का मौक़ा मिला है और मैंने उनके कामकाज़ की प्रशंसा की है। देश की सेवा के लिए मैं उनका शुक्रिया अदा करता हूँ।’
निकी हेली ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर डोनाल्ड ट्रंप को जवाब देते हुए लिखा है, ‘मुझे राष्ट्रपति ट्रंप के साथ संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका का पक्ष रखने पर गर्व है। मैं उन्हें और उनके साथ काम करने वाले सभी लोगों को अगले चार साल में अमेरिका को एक मजबूत और सुरक्षित देश बनाने में सफलता की कामना करती हूँ।’
भारत के समर्थन में निकी हेली
ने क्या कहा था?
डोनल्ड ट्रंप ने निकी हेली को संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत बनाया था।
निकी हेली ने अक्टूबर 2021 में अमेरिकी पत्रिका ‘फॉरन पॉलिसी’ में रिपब्लिकन सांसद माइक वॉल्ट्ज़ के साथ एक लेख लिखा था। इस लेख में निकी हेली ने कहा था कि चीन मध्य और दक्षिण एशिया में और पाँव पसारे, उससे पहले भारत-अमेरिका को साथ मिलकर उसे रोक देना चाहिए।
इस लेख में निकी हेली ने कहा था, ‘अफग़़ानिस्तान से विनाशकारी वापसी के बाद हमने देखा कि ब्रिटिश संसद में वहाँ के मंत्रियों ने बाइडन की खुलकर आलोचना की। फ्रांस ने असाधारण कदम उठाते हुए अपने राजदूतों को बुला लिया। हमने रूस के नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन निर्माण के मामले में जर्मनी के सामने घुटने टेक अपने पूर्वी यूरोपीय सहयोगियों को अलग कर दिया।’
हेली ने कहा था, ‘अपने दोस्तों को अपमानित करने और दुश्मनों को नजरअंदाज करने के बजाय अमेरिका को उन रिश्तों को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिनसे दुनिया भर में हमारी स्थिति मजबूत हो।’
निकी हेली कहती हैं, ‘इसकी शुरुआत भारत से होनी चाहिए। अब समय आ गया है कि हम एक गठबंधन बनाया जाए। 10 लाख सैनिक, परमाणु शक्ति संपन्न, नौ सेना की बढ़ती ताकत, अंतरिक्ष कार्यक्रम में अव्वल और अमेरिका के साथ आर्थिक और सैन्य संबंधों के आजमाए हुए अतीत के साथ भारत एक मजबूत सहयोगी बन सकता है। भारत के साथ सहयोग से दोनों देशों को वैश्विक ताक़त बढ़ाने में मदद मिलेगी। इसके अलावा जापान और ऑस्ट्रेलिया को साथ लाकर अमेरिका अफगानिस्तान में आतंकी खतरा और चीन का काउंटर कर सकता है।’
न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार के मुताबिक यह नव निर्वाचित राष्ट्रपति के फ़ैसले लेने की प्रक्रिया का एक शुरुआती संकेत है क्योंकि वो रिपब्लिकन पार्टी के अंदर वैचारिक मतभेदों को दूर कर रहे हैं।
उपराष्ट्रपति कमला हैरिस पर अपनी चुनावी जीत के कुछ ही दिन बाद डोनाल्ड ट्रंप की टीम ने बदलाव के लिए अपनी पहली औपचारिक बैठकें शुरू कर दी हैं और नया मंत्रिमंडल बनाने की प्रक्रिया तेज कर दी है।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक़ आने वाली 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद की दोबारा शपथ लेने से पहले ट्रंप अपने प्रशासन में काम करने वाले संभावित उम्मीदवारों से मिल रहे हैं।
ट्रंप ने क्या बताया है?
शुक्रवार को ट्रंप ने अमेरिका के बड़े निवेशक स्कॉट बेसेंट से मुलाक़ात की है, जिन्हें अमेरिका का संभावित ट्ऱेजरी सेक्रेटरी माना जा रहा है।
माइक पॉम्पियो और निकी हेली को ट्रंप के नए प्रशासन में जगह नहीं मिलना काफ़ी चर्चा में है। माइक पॉम्पियो जो ट्रंप प्रशासन में पिछली बार खुफिया एजेंसी सीआईए के निदेशक के तौर पर भी काम कर चुके हैं। उन्हें कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में संभावित रक्षा मंत्री बताया जा रहा था।
उन्हें रिपब्लिकन पार्टी में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर भी देखा गया था। हालाँकि अप्रैल 2023 में ही उन्होंने घोषणा की थी कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे।
रॉयटर्स ने लिखा है कि इस मुद्दे पर माइक पॉम्पियो की प्रतिक्रिया जानने के लिए फि़लहाल उनसे संपर्क नहीं हो सका है। जबकि निकी हेली अमेरिकी राज्य साउथ कैरोलाइना की पूर्व गवर्नर हैं और वो संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत के तौर पर काम कर चुकी हैं।
ट्रंप ने ‘मूर्खतापूर्ण विचारों वाली’ कहा था
हेली ने साल 2024 के राष्ट्रपति चुनावों के लिए रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से ख़ुद की उम्मीदवारी की दावेदारी शुरू की थी। जब वो मार्च में इस दौड़ से बाहर हो गईं, तब तक ट्रंप को चुनौती देने वाली वो आखिरी दावेदार थीं।
न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक़ हेली ने अक्बूतर में मैडिसन स्क्वायर गार्डन में आयोजित ट्रंप की रैली में भाषण देने वालों की नस्लवादी और महिला विरोधी टिप्पणियों का हवाला देते हुए कहा था कि ट्रंप के अभियान की बयानबाजी महिलाओं और अल्पसंख्यकों को दूर कर रही है।
हेली ने कहा था कि यह पुरुषवादी व्यवहार इस हद तक उग्र है कि महिलाओं को असहज करता है।
हेली ने ट्रंप के अभियान को सलाह देने की बार-बार पेशकश की थी लेकिन ट्रंप ने अपने राष्ट्रपति पद की दौड़ के दौरान उनसे दूरी बनाए रखी।
हालाँकि ऐतिहासिक रूप से महिलाओं की तुलना में कम मतदान करने के बाद भी पुरुषों को एकजुट करने का ट्रंप का जुआ अंत में फलदायी साबित हुआ है।
इस अभियान के दौरान दोनों के बीच कुछ खटास भी देखी गई थी, जिसमें ट्रंप ने उन्हें ‘मूर्खतापूर्ण विचारों वाली’ कहा था। हालाँकि अंत में निकी हेली ने रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन में राष्ट्रपति पद के लिए ट्रंप का समर्थन किया था।
फॉक्स न्यूज के मुताबिक, हालाँकि इसी साल चुनावों के दो महीने पहले उन्होंने ट्रंप का समर्थन भी किया था। एक लेख में अपनी राय व्यक्त करते हुए उन्होंने ट्रंप के बारें मे लिखा था, ‘वो परफेक्ट नहीं हैं, लेकिन एक बेहतर विकल्प’ हैं।
हेली के मुताबिक, ‘मैं हर बार ट्रंप से सौ फीसदी सहमत नहीं होती। लेकिन मैं ज़्यादातर मौकों पर उनसे सहमत होती हूँ। मैं कमला हैरिस से लगभग हर बात पर असहमत हूँ। इसलिए मेरे लिए यह एक आसान फैसला है।’
निकी हेली और पॉम्पियो को
ट्रंप ने क्यों बाहर किया?
ट्रंप चाहते हैं कि रूस के साथ शत्रुता कम हो और यूक्रेन जंग खत्म हो। ट्रंप के इस एजेंडे के साथ पॉम्पियो फिट नहीं बैठ रहे थे। वहीं चीन अमेरिका का सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर है और निकी हेली खुलकर चीन का विरोध करती रही हैं।
निकी हेली ने 2021 में कहा था, ‘अमेरिका-भारत के साथ आने से हमें चीन के मामले में भी बढ़त मिलेगी। अमेरिका की तरह भारत भी मानता है कि चीनी खतरा तेज़ी से बढ़ रहा है। न केवल अफगानिस्तान से हमारी वापसी का फ़ायदा उठाने में चीन लगा है बल्कि भारत से लगी सीमा पर भी दबाव बढ़ा रहा है।’
हेली ने कहा था, ‘यह भारत और अमेरिका दोनों के हित में नहीं है। पिछले साल लद्दाख में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प भी हुई थी, जिसमें 20 भारतीय सैनिक और चीन के सरकार के मुताबिक उसके चार सैनिकों की मौत हुई थी। चीन से लगी सीमा पर भारत ने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी है और कुल दो लाख सैनिकों का जमावड़ा है। हाल के दिनों में चीन ने भारत से लगी सीमा पर सैनिकों की मौजूदगी 100 लॉन्ग रेंज के रॉकेट लॉन्चर के साथ बढ़ा दी है।’
निकी हेली ने कहा था, ‘अमेरिका और भारत साथ मिलकर चीन को मध्य और दक्षिण एशिया में और पैर पसारने से पहले रोक सकते हैं। हम एक ठोस स्थिति बना सकते हैं। इसी महीने अमेरिकी सेना ने सैकड़ों भारतीय सैनिकों के साथ अलास्का में सैन्य अभ्यास किया। यहाँ का मौसम चीन-भारत सीमा पर की तरह ही है।’
हेली के विपरीत माइक पॉम्पियो ट्रंप की पहली सरकार में अपना कार्यकाल छोडऩे के बाद से काफी हद तक सुर्खियों से बाहर रह रहे हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक माइक पॉम्पियो और हेली को अलग कर डोनाल्ड ट्रंप ने उन दो रिपब्लिकन को ख़ारिज कर दिया है, जो यूक्रेन के लिए अमेरिका के समर्थन के साथ थे।
वहीं ट्रंप और उनके कई सहयोगियों ने यूक्रेन के लिए अमेरिकी सहायता और विदेशों में अमेरिकी सैन्य भागीदारी को कम करने पर जोर दिया था।
ट्रंप के करीबी कई लोग, जिनमें उनके एक प्रमुख चंदा देने वाले डेविड सैक्स भी शामिल हैं, वो पॉम्पियो को विदेशों में अमेरिकी सेना भेजने के लिए बहुत उत्सुक मानते थे।
ट्रंप शायद यह भी नहीं भूले हैं कि साल 2023 में कंजर्वेटिव पॉलिटिकल एक्शन कॉन्फ्रेंस के दौरान पॉम्पियो ने चेतावनी दी थी कि रिपब्लिकन पार्टी को ‘अपने ब्रैंड की पहचान की राजनीति वाले सेलिब्रिटी नेताओं, नाज़ुक अहंकार वाले लोगों का क़दमों पर नहीं चलना चाहिए जो सच्चाई को स्वीकार करने से इनकार करते हैं।’
न्यूयॉर्क टाईम्स ने लिखा है कि इसके कुछ दिनों बाद फॉक्स न्यूज के साथ एक साक्षात्कार में माइक पॉम्पियो ने दावा किया था कि वो ट्रंप के बारे में बात नहीं कर रहे थे, साथ ही उन्होंने अपने पूर्व बॉस यानी ट्रंप की वित्तीय नीति की भी आलोचना भी की थी।
माइक पॉम्पियो ने साल 2022 में अहम दस्तावेजों को संभालकर रखने के तरीकों को लेकर भी ट्रंप की आलोचना की थी। यह आलोचना मार-ए-लागो में ट्रंप के घर पर एफबीआई के छापों के बाद की गई थी।
उन्होंने कहा था, ‘कोई भी अहम जानकारी उस जगह से बाहर नहीं रखी जा सकती, जहां उसे होना चाहिए। यह निश्चित रूप से सच है।’
पॉम्पियो ने इस मामले से निपटने के तरीके के लिए न्याय विभाग की भी निंदा की थी।
हालाँकि उन्होंने रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन में एक भाषण में ट्रंप का समर्थन भी किया था।
उन्होंने वहाँ मौजूद जनता से कहा था कि ट्रंप प्रशासन ‘हर रोज ‘अमेरिका फस्र्ट’ के सिद्धांत पर काम करता है।’
फिलहाल डोनाल्ड ट्रंप ने अपने ताज़ा फ़ैसले में कोई अतिरिक्त जानकारी नहीं दी है।
लेकिन सोशल मीडिया पर ट्रंप की पोस्ट उनके पूर्व सलाहकार रोजर स्टोन के उस आग्रह के बाद आया है जिसमें ट्रंप को पॉम्पियो को फिर से न चुनने को कहा गया था। स्टोन ने कहा था कि ट्रंप अपने ‘पूर्व विदेश मंत्री पर भरोसा नहीं कर सकते’’
स्टोन ने पॉम्पियो से जुड़ा एक मुद्दा भी उठाया है, जिसमें पॉम्पियो ने अहम दस्तावेजों को सौंपने से ट्रंप के इंकार की आलोचना की थी। (बीबीसी)
-दिनेश श्रीनेत
इन दिनों मैं स्वाभाविक रूप से सादगी की तरफ आकर्षित होता जा रहा हूँ। इसकी एक वजह तो शायद सूचनाओं का अतिरेक है। साथ ही बाजार से लेकर राजनीति और साहित्य से लेकर सोशल मीडिया में हो रहे मैनिपुलेशन से आक्रांत मन भी है। ऐसा लगता है कि कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह गया है।
किंतु इसके बीज कम उम्र से मन में पड़ चुके थे।
बाल्यकाल में रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण पहली बार घर में आया। पत्रिका का मूल्य अन्य के मुकाबले काफी ज्यादा था। जब बाकी पत्रिकाएं दो रुपये या डेढ़ की मिलाकर थीं उसकी कीमत शायद 10 रुपये थी। जब आई तो मैंने उसे खूब पढ़ा। यानी बार-बार पढ़ा। उसी अंक में एलेक्स हेली के उपन्यास ‘गुलाम’ का पहला हिस्सा भी प्रकाशित हुआ था। उसी पत्रिका में एक निबंध सादगी पर था। उसका आशय यह था कि सादगी का अर्थ बहुत थोड़े से संसाधनों के साथ जीवन-यापन करना नहीं बल्कि जीवन की जटिलताओं का स्वीकार और उनके प्रति सहजता भी है।
बहरहाल यह तो पता नहीं कि वह बात मेरी समझ में कितनी आई मगर जब मैं किशोरवय में आया तो तमाम विरोधाभासों के साथ अपने भीतर एक और विरोधाभास पाया कि मुझे सादगी और उपभोक्तावाद दोनों ही समान रूप से आकर्षित करता था। मैंने उन दिनों अपनी डायरी में इस प्रश्न का सामना करते हुए लिखा था कि शायद इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि दोनों जीवनशैली वस्तुओं के मोह से हमें मुक्त रखती हैं।
पर उस बात को तो बरसों बीत गए। मैंने जीवन उसी तरह जिया जैसे कि सभी जीते हैं। बीते कुछ बरसों में यह लगने लगा कि जरूरतें कम होनी चाहिए और जीवन सरल। एक बड़ा असर तो लॉकडाउन के दौरान लारा ब्लैंकली के व्लॉग देखकर भी हुआ। उसने मिनिमलिस्टिक लाइफ अपनाने और उसे छोड़ऩे पर भी वीडियो बनाए है। स्टॉकहोम में उसका एकांत जीवन आकर्षित करता है।
सरलता के प्रति इस आग्रह से मेरा रुझान ज़़ेन दर्शन के प्रति भी बढ़ा। बुनियादी अध्ययन से लगा कि यहां सिर्फ बातों की बजाय जीवन में छोटे परिवर्तन पर जोर है। यह बात मुझे पसंद आई। अभी हम विचारों और ओपनियन से आक्रांत हैं। हमें जीवन में परिवर्तन की जरूरत है।
तीसरी जो बात अक्सर मुझे प्रेरित करती है, सन् 1950 से पहले का सिनेमा देखना। उसमें मैं देखता हूँ कि एक भारतीय मध्यवर्गीय जीवन अस्सी के दशक तक कितना सरल और सादा था। इसमें मेरी सत्तर के दशक वाली बचपन की स्मृतियां भी जुड़ी हुई हैं। जब पिता के पास साइकिल होती थी और परिवार के पास रेडियो। हमारे पास जीवन को संचालित करने की अपनी अंत:प्रेरणाएं थीं।
अंतिम बात, जिसने मुझे प्रेरित किया, वह है नई पीढ़ी। बिल्कुल अभी की जनरेशन। हमारे आपके मध्यवर्गीय जीवन से निकले हुए युवा जिनकी उम्र इन दिनों 15 से 25 के बीच है। वे जीवन के प्रति, रिश्तों के प्रति बहुत सहज हैं और दिखावे से उनको चिढ़ है। वे ब्रांडेड वस्तुओं के चक्कर में नहीं पड़ते। उनको बेहतर पता है कि कैसे बाजार एक मायाजाल रचता है और किस तरह उससे दूर रहा जा सकता है।
जब मैं यह बात कह रहा हूँ तो इसका अर्थ यह नहीं कि सारे युवा ऐसे होंगे। सौभाग्य से मुझे बीते कुछ सालों में लगातार ऐसे युवा ही मिले जो यूं तो मन के उलझे हुए हैं, मगर उनका ध्यान बहुत सारे फालतू डिस्ट्रैक्शन से हटा हुआ है। वे जीवन की बुनियादी बातों पर फोकस कर रहे हैं। यह उनकी जीवन शैली में भी झलकता है। मसलन कपड़ों के चयन में एक किस्म की सॉफिस्टिकेटेड कैजुअलनेस, सिनेमा, संगीत और किताबों का बेहतरीन चयन, जीवन में क्या हासिल करना है, उससे ज्यादा क्या छोडऩा है, उसका विवेक।
यह तो हो गई उन तमाम इंस्पिरेशन की बात। मैं जब यह लिख रहा हूँ तो सोचता हूँ कि मैं अपने से क्या चाहता हूँ। सादगी का मेरे लिए भला क्या अर्थ है? बेशक, जरूरतें कम करना उनमें से एक है। इससे बड़ी बात है, जीवन में सहजता लाना। हम सबको पता है कि यह आसान नहीं है। हम सब एक जटिल दुनिया में जी रहे हैं। यहां सहजता के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा, और यदि संघर्ष करना होगा तो सहजता कहां। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमें कुछ चुनने से पहले छोडऩा सीखना होगा।
आज की दुनिया में आपका चयन भी एक क्रांति हो सकती है। क्योंकि सारा सिस्टम आपको अपने हिसाब से चलने के लिए कह रहा है, यहां तक कि वह आपकी सोच पर भी नियंत्रण कर रहा है, ऐसे में यदि आप अपने तरीके से सोच पा रहे हैं और अपने तरीके से चुनाव कर पा रहे हैं तो यह बहुत बड़ी बात है और बहुत बड़ी सफलता ‘त्याग’ गांधी ने चुनने से पहले त्याग करना आरंभ किया। एक ऐसे समय में जिसकी सत्ता बहुत ही शक्तिशाली हाथों में थी। गांधी छोड़ते गए।
मुझे ‘गांधी’ फि़ल्म का एक प्रसंग बहुत मार्मिक लगता है। जब वे पाते हैं कि एक स्त्री के पास उसकी स्वाभाविक लज्जा के लिए भी वस्त्र नहीं हैं और वे अपनी धोती जिसे वे धुल रहे होते हैं पानी में बहने के लिए छोड़ देते हैं ताकि वह उस तक पहुँच जाए। यह पूरा दृश्य अत्यंत मार्मिक और साथ में प्रतीकात्मक भी। छोडऩा ही परिवर्तन है।
याद रखना होगा कि हमारी सादगी कभी दिखावा न बने। अच्छा तो हो उसके बारे में कोई न जाने। किसी को पूछने कूी जरूरत न पड़े। हमारे निर्णय चौंकाने वाले न हों, इतने सहज हों जैसे पेड़ों पर पत्तियां आ जाती हैं। सादगी का सफर आसान नहीं है। हमने इतना कुछ ओढ़ रखा है कि उसे उतारते-उतारते साल बीत जाएंगे।
सब लोग मेरे जैसा सोचें, ऐसा मेरा कोई जजमेंट नहीं है। सर्दियां आ रही हैं। इसकी लंबी रातें अपने ज्यादा करीब रहने का मौका देती हैं। चेखव की कहानी 'दुल्हन' में एक युवती जब सब कुछ छोडऩे का निश्चय करती है तो वह प्रसंग दु:ख की तासीर नहीं मुक्ति की ठंडी हवाएं लेकर आता है। इतनी खूबसूरत कहानी मैंने अपने जीवन में कम ही पढ़ी हैं। हर बार उतनी ही सुंदर। क्योंकि वह त्याग की कहानी है, तोलस्तोय की 'पुनरुत्थान' भी त्याग की कहानी है मगर उसका नायक ऐश्वर्य से निकलकर एक धार्मिक आडंबर ओढ़ लेता है। किंतु ‘दुल्हन’ की नायिका स्वयं में मुक्त है। मुक्त होना एक सफर है, उसके भी कितने पड़ाव हैं, जाहिर है उस नायिका का भी एक अनिश्चित भविष्य है, और अनिश्चय के स्वीकार में ही जीवन का सौंदर्य है। (फ़ेसबुक से)