विचार / लेख

सेंट फ्रांसिस जेवियर का 18 वां एक्सपोजिशन
08-Dec-2024 9:53 PM
सेंट फ्रांसिस जेवियर का 18 वां एक्सपोजिशन

-सच्चिदानंद जोशी

गोवा की अपनी संक्षिप्त यात्रा के दौरान पणजी से साकोलिम जाना था। पहले दो तीन बार उस जगह जाना हुआ था इसलिए यात्रा में लगने वाले समय और मार्ग का अंदाज था। लेकिन जब अपेक्षा से अधिक समय लगने लगा और मार्ग भी बदला नजर आया तो वाहन चालक से इसकी वजह पूछ ली। ‘बेसिलिका बोम जीसस’ से लंबा राउंड लेना पड़ता है न सर। वहां एक्सपोजिशन चल रहा है। ‘मेरे लिए ये शब्द नया था इसलिए पूछा’ एग्जिबिशन! कौन सा ?‘वाहन चालक मुस्कुराया और बोला ‘एग्जिबिशन नहीं सर एक्सपोजिशन, सेंट फ्रांसिस जेवियर का।’ फिर उसने चेहरे पर एक ऐसा एक्सप्रेशन दिया मानो कह रहा हो ‘इतनी सी बात भी नहीं मालूम।’

मुझे भी अपनी अज्ञानता पर शर्म आई और मैने गूगल बाबा की शरण ली। फिर याद आयी वो कहानी जो आज से कुछ वर्ष पूर्व गोवा के विश्व प्रसिद्ध बेसिलिका बोम जीसस को देखते समय सुनी थी। इस चर्च में सेंट फ्रांसिस जेवियर का शरीर विगत चार सौ से अधिक साल से रखा है। इसे ट्रीटमेंट करके एक शीशे के ताबूत में रखा है जिसका पूरा कैसकेड (आवरण) चांदी का है। जब आप ये चर्च देखने जाते है तो आप इस कैसकेड के दर्शन भी कर पाते हैं। उसी समय ये बात भी सुनी थी कि हर दस साल में इसे कुछ दिनों के लिए बाहर दर्शनार्थ निकला जाता है।

एशिया में ईसाइयत का प्रचार प्रसार करने में सेंट फ्रांसिस जेवियर की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।उनका जन्म 7 अप्रैल 1506 को स्पेन में हुआ था। वे 1537 में इटली में दीक्षित हुए और पादरी बने।1 542 से उन्होंने एशिया में ईसाइयत का प्रचार शुरू किया जिसकी शुरुआत उन्होंने भारत से की। उन्हें गोयनीज भाषा में ‘गोवा का साइब’ कहा जाता था। सन् 1600 के आसपास उन्होंने यहां आकर धर्म का प्रचार किया और स्कूलों और चर्चों की स्थापना की। वे अपनी करुणा और लोगों की सहायता करने के स्वभाव के लिए जाने जाते थे। वे धर्म का प्रचार करने जापान और चीन गए। 3 दिसंबर 1552 को चीन में उनका निधन हुआ। उसके बाद उन्हें पहले शिंहुआ में दफनाया गया और बाद में उनका शरीर मलाका लाया गया। बाद में इसे गोवा लाया गया जो उनकी कर्मभूमि थी। उन्हें कालांतर में संत का दर्जा प्राप्त हुआ।उनके देहावसान के बाद उनका शव सुरक्षित रखा गया 2 दिसंबर 1637 को। इनका शरीर एक दैवी चमत्कार के रूप में देखा गया जिसमें निधन के इतने वर्षों बाद भी नाममात्र क्षय के निशान हैं। बाद में 1710 के आसपास ये अफवाह उड़ी कि उनका शव यहां से यूरोप के जाया गया है। तब लोगों को विश्वास दिलाने के लिए सेंट फ्रांसिस यही हैं पहली बार एक्सपोजिशन किया गया यानि कुछ समय के लिए इसे बाहर निकाल कर रखा गया। उसके बाद यह परंपरा बन गई और अलग अंतरालों में इसे बाहर निकाला गया दर्शनार्थ।

जब 1961 में गोवा स्वतंत्र हुआ और भारत के राज्य के रूप में शामिल हुआ तब 1964 में एक्सपोजिशन हुआ। उसके बाद नियम से हर दस वर्ष बाद यह विशाल आयोजन होता है। इसमें सेंट फ्रांसिस के शरीर को कैसकैड से बाहर निकाला जाता है और वह शीशे का केस बेसिलिका से निकाल कर सामने सी कैथेड्रल चर्च में रखा जाता है। इस चर्च में आर्कियोलॉजिकल सर्वे का म्यूजियम भी है। इस वर्ष यह आयोजन 21 नवंबर से 5 जनवरी तक 45 दिन तक चलने वाला है। इस दौरान भारत और भारत के बाहर से बड़ी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं। इसमें सिर्फ ईसाई धर्मावलंबी ही नहीं हैं, अलग-अलग धर्म और मत के मानने वाले लोग दूर-दूर से बड़ी श्रद्धा से आते हैं। गोवा के लिए तो यह एक सार्वजनिक उत्सव ही है। इस वर्ष अनुमान है कि एक करोड़ से ज्यादा दर्शनार्थी इस दौरान आयेंगे। जितने लोग भारत से आएंगे लगभग उतने ही दूसरे देशों से भी आएंगे। इनमें बड़ी संख्या में ज्यादा उमर के लोग हैं जो अपने जीवनकाल में इस अत्यंत महत्वपूर्ण अवसर के साक्षी होना चाहते हैं। यहां दिनभर धार्मिक प्रवचन और संगीत का आयोजन होता है। मास और फीस्ट के दिनों में श्रद्धालुओं की भीड़ बहुत अधिक रहती है।

इतनी जानकारी मिलने के बाद एक बार जाकर दर्शन करने की उत्कंठा स्वाभाविक थी। अगले दिन एयरपोर्ट जाते समय दर्शन का योग बना। स्थानीय प्रशासन की मदद से लाइन से मुक्ति मिल गई अन्यथा लगभग डेढ़ से दो घंटे लाइन में लगना होता है। लेकिन इस बहाने गोवा सरकार के इस आयोजन के लिए इंतेजाम देखने का भी अवसर मिला। प्रशासन ने दर्शनार्थियों की सुविधा के बहुत बड़े पैमाने पर इंतेजाम किए है। कार पार्किंग दूर है इसलिए निशुल्क कार्ट का इंतेज़ाम किया है, जगह जगह यात्री सुविधा केंद्र और वॉलेंटियर खड़े किए है। वृद्धजन और शिशुओं के लिए विशेष व्यवस्था है।

पूरा वातावरण शांत और अनुशासित था। इतने लोग होने के बावजूद कोई शोर शराबा नहीं धक्का मुक्की नहीं। सब शांत भाव से शीशे के केस में रखे सेंट फ्रांसिस के शरीर के दर्शन कर दूसरे दरवाजे से निकल रहे थे। उस पूरे वातावरण को अपने अंदर समा कर उसकी अनुभूति लेना अलग स्पंदन पैदा कर रहा था। ऐसा अनुभव दस वर्ष में एक बार ही लिया जा सकता है। बहुत योजना बना कर भी कई बार संभव नहीं हो पाता। और बिना किसी पूर्व योजना के और बिना किसी अपेक्षा के अगर आपके साथ संभव हो जाए तो आप इसे पुण्य आशीर्वाद ही मानेंगे। जो अधिकारी मेरे साथ थे उन्होंने कहा सी यहां लोग मान्यता मांगते हैं और ऐसा कहा जाता कि वो पूरी भी होती है।’ मैं क्या मांगता मेरे लिए तो इस अवसर पर उपस्थित होना ही बड़ा आशीर्वाद था।


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