विचार/लेख
-अंशुल सिंह
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की एक तस्वीर पूरे ब्रिक्स समिट के दौरान चर्चा में रही।
तस्वीर में पुतिन बीच में हैं और उनके अगल-बगल पीएम मोदी और शी जिनपिंग हैं। इस दौरान पुतिन कैमरे की तरफ़ मुस्कुराते हुए ‘थम्स अप’ का इशारा कर रहे हैं।
पांच साल बाद ब्रिक्स समिट में मोदी-जिनपिंग की मुलाकात हुई। दोनों नेता आखिरी बार साल 2019 में मिले थे तब शी जिनपिंग भारत के दौरे पर आए थे।
ब्रिक्स जैसे मंच पर दो सबसे बड़े आबादी वाले देशों के नेताओं की मुलाकात हुई और रूस ने इसे दुनिया भर में अपनी रणनीतिक सफलता के रूप में दिखाने की कोशिश की।
कजान में ब्रिक्स सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा था जब एक तरफ तो यूक्रेन में युद्ध हो रहा है और दूसरी तरफ व्यापार के क्षेत्र में रूस पश्चिमी देशों के दबदबे को चुनौती देने में लगा हुआ है।
स्तंभकार सुधींद्र कुलकर्णी ने रूस के कजान में हुई इस ब्रिक्स समिट को इतिहास की सबसे सफल ब्रिक्स समिट बताया है और पुतिन को इसका हीरो।
लेकिन कज़ान में 20 से अधिक नेताओं की मेजबानी करने वाले पुतिन क्या सच में ऐसे साबित हुए हैं?
ब्रिक्स की स्थापना 2006 में ब्राजील, रूस, इंडिया और चीन ने की थी। साल 2011 में इस गुट में दक्षिण अफ्रीका शामिल हुआ था।
यह संगठन दुनिया की 44 फीसदी जनसंख्या और एक तिहाई से अधिक अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।
पश्चिम को चुनौती देने में कितने सफल पुतिन?
अमेरिका समेत बाकी पश्चिमी देशों ने रूस के खिलाफ कड़े से कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं और इन देशों के साथ रूस के संबंध भी नाजुक दौर में हैं।
बात इतनी आगे बढ़ चुकी है कि पिछले साल इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट यानी आईसीसी ने यूक्रेन में कथित युद्धापराधों के मामले में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर दिया था।
लेकिन इस गिरफ्तारी वारंट के बावजूद पुतिन इसी साल सितंबर में इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के सदस्य देश मंगोलिया पहुंचे थे। वारंट जारी होने के बाद किसी भी सदस्य देश की उनकी यह पहली यात्रा थी।
अगर गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है तो आईसीसी सदस्यों से संदिग्धों को हिरासत में लेने की उम्मीद की जाती है लेकिन इसके लिए तय नियम नहीं हैं।
ब्रिक्स में जो घोषणापत्र जारी किया गया है उसमें भी अप्रत्यक्ष तौर पर पश्चिम द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का जि़क्र है।
घोषणापत्र के मुताबिक़, ‘हम विश्व अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति पर अवैध प्रतिबंधों सहित गैर-कानूनी एकतरफा उपायों के बांटने वाले प्रभाव के बारे में गहराई से चिंतित हैं। ये संयुक्त राष्ट्र चार्टर, बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली, सतत विकास और पर्यावरण समझौतों को कमजोर करते हैं। वे आर्थिक विकास, ऊर्जा, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा पर भी नकारात्मक प्रभाव डालते हैं जिससे गरीबी और पर्यावरणीय चुनौतियाँ बढ़ती हैं।’
अजय पटनायक जेएनयू में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में प्रोफेसर और रूस मामलों के जानकार हैं।
अजय पटनायक कहते हैं, ‘पश्चिम ने जो प्रतिबंध लगाए थे उन्हें कई देश पहले से ही नहीं मानते थे। हां, ब्रिक्स एक आधिकारिक मंच हैं जहां पर सभी देश इस मुद्दे पर रूस के साथ खड़े दिखे। मुझे लगता है कि पहले भी अलग-अलग तरीकों से कई देश रूस का समर्थन कर रहे थे।’
ब्रिक्स में पुतिन ने डॉलर के बजाय स्थानीय करेंसी में लेन-देन पर ज़ोर दिया है और इसका जिक्र ब्रिक्स के घोषणापत्र में भी किया गया है।
घोषणापत्र में लिखा गया, ‘हम लोकल करेंसी में वित्तीय लेनदेन के निरंतर विस्तार में न्यू डेवेलपमेंट बैंक (पूर्व में ब्रिक्स बैंक) की इस पहल का समर्थन करते हैं। हम ब्रिक्स देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक गवर्नरों को यह काम सौंपते हैं कि लोकल करेंसी में भुगतान संबंधी मामलों को महत्व दें और अगले साल वापस हमें रिपोर्ट करें।’
2014 में ब्रिक्स ने न्यू डेवलपमेंट बैंक को शुरू किया था जिसे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का एक विकल्प बताया जाता रहा है।
डॉलर को लेकर पुतिन ने कहा, ‘वैश्विक अर्थव्यवस्था में डॉलर अभी भी एक महत्वपूर्ण टूल है और इसको राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से मुद्रा में विश्वास कम हो जाता है। हम डॉलर को अस्वीकार नहीं कर रहे हैं या उससे लड़ नहीं रहे हैं, लेकिन अगर वे हमें डॉलर के साथ काम नहीं करने देंगे तो हम अन्य विकल्प तलाशेंगे और हम बिल्कुल यही कर रहे हैं।’
उन्होंने कहा कि रूस और चीन के बीच लगभग 95 फीसदी व्यापार अब रूबल और युआन में होता है।
लेकिन क्या इस रणनीति से पश्चिमी देशों का मुकाबला किया जा सकता है?
स्वस्ति राव, अंतरराष्ट्रीय संबंधों की विशेषज्ञ हैं और मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज से जुड़ी हैं।
स्वस्ति कहती हैं, ‘दुनिया में बड़े देशों का एक समूह है जो रूस के पश्चिम के नहीं बल्कि अपने नजरिए से देखता है। जब वो इस नजरिए से देखता है तो उसे समझ में आता है कि एक ऐसी जगह भी है जहां न्यू डेवलपमेंट बैंक जैसी जगह है। कंटिंजेंट रिजर्व अरेंजमेंट जैसी व्यवस्था है जिसके तहत विकासशील देशों को वित्तीय मदद देता है। ज़ाहिर हैं ऐसी चीजें अपील करती हैं लोगों को। अगर आप इस लिहाज से देखेंगे तो पाएंगे कि रूस अकेला नहीं है।’
हालांकि लेन-देन और लोकल करेंसी से जुड़ी योजनाओं के बारे में विस्तार से कोई जानकारी नहीं दी गई है।
स्वस्ति कहती हैं, ‘लोकल करेंसी में व्यापार की जो बात है वो स्वागत योग्य है क्योंकि ये आपके आर्थिक संबंधों को सुरक्षित और स्थाई बनाती हैं। लेकिन भारत कभी ब्रिक्स करेंसी जैसी चीज़ का समर्थन नहीं करेगा क्योंकि असल में ये चीन के प्रभुत्व वाली करेंसी होगी।’
पश्चिमी देशों ने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि रूस अलग-थलग पड़ गया है और रूस ने ब्रिक्स के बहाने यह बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि पश्चिम को छोडक़र कई देश उनके साथ हैं।
तुर्की को ब्रिक्स में लाना
कजान में हिस्सा लेने के लिए तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन भी पहुंचे थे। अर्दोआन अपने पश्चिम के पारंपिक सहयोगियों से आगे बढक़र ब्रिक्स देशों से नज़दीकी बनाने में जुटे हैं।
पिछले कुछ समय से वो लगातार ब्रिक्स रूस, चीन और भारत वाले ब्लॉक ब्रिक्स में शामिल होने के लिए दिलचस्पी दिखा चुके हैं। ब्रिक्स ने तुर्की को पार्टनर देश का दर्जा दिया है।
इस साल अगस्त के महीने अर्दोआन के कहा था कि तुर्की सिर्फ पश्चिम के भरोसे नहीं रह सकता है।
उनका कहना था, ‘तुर्की सिर्फ पश्चिमी देशों के सहारे अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकता है। तुर्की तभी एक मज़बूत, समृद्ध और प्रभावशाली देश बन सकता है जब वो पश्चिम और पूर्व के साथ अपने संबंधों को एक साथ आगे बढ़ाए।’
पुतिन ने इस साल तुर्की को ब्रिक्स सम्मेलन के लिए न्योता भेजा और न्योते को स्वीकार करने से पहले सितंबर में अर्दोआन ने आधिकारिक रूप से ब्रिक्स में शामिल होने के लिए आवेदन किया था।
तुर्की नेटो का सदस्य देश है। नेटो यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन। पुतिन नेटो का विरोध करते आए हैं और यही नेटो रूस-यूक्रेन युद्ध की प्रमुख वजहों में से एक है।तुर्की पहला ऐसा नेटो देश है, जो ब्रिक्स में शामिल होना चाहता है। तुर्की के इस कदम के पश्चिम के साथ टकराव के रूप में देखा जा रहा है।
अजय पटनायक इस बारे में कहते हैं, ‘नेटो के सदस्यों पर काफी दबाव है कि रूस के साथ कोई डील न करें और न ही नज़दीकी बढ़ाएं। ऐसे में नेटो सदस्य तुर्की को ब्रिक्स के मंच तक लाना पुतिन के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है। हालांकि इससे पहले भी तुर्की और रूस के संबंध बेहतर हो रहे थे। अभी तुर्की को यूरोप के अंदर उस तरह की स्वीकार्यता भी नहीं मिल रही है। तुर्की नाराज है क्योंकि यूरोपीय संघ के मेंबर कई साल से उसकी सदस्यता को टाल रहे हैं और उसने देखा कि भूराजनीति की दृष्टि से भी रूस के नजदीक रहना उसके लिए फायदेमंद है।’
जनवरी 2024 में मिस्र, ईरान, इथियोपिया और यूएई को ब्रिक्स का सदस्य बनाया गया। हालांकि सऊदी अरब को भी शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था, लेकिन अभी हो नहीं पाया है।
सऊदी को भी अगर ब्रिक्स देशों में शामिल कर लिया जाए तो यह संगठन दुनिया भर में कच्चे तेल का कुल 44 फीसदी उत्पादन करता है।
तुर्की को लेकर स्वस्ति राव कहती हैं, ‘तुर्की ब्रिक्स के करीब आ रहा है लेकिन अर्दोआन कभी भी नेटो को नहीं छोड़ेंगे। लेकिन तुर्की के पास यूरोपीय संघ की सदस्यता नहीं है इसलिए वो ब्रिक्स में शामिल होने की कोशिश कर रहा है। तुर्की के अलावा कई और मध्य पूर्व के देश हैं जो ब्रिक्स के साथ जुडऩा चाहते हैं क्योंकि ब्रिक्स बार-बार कहता है कि तेल व्यापार में हम एक अलग की व्यवस्था शुरू कर रहे हैं। ब्रिक्स की ये बातें इन देशों के हित में हैं।’
मोदी-शी की मुलाकात पुतिन की कामयाबी?
आधे दशक बाद पीएम मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच कोई द्विपक्षीय बातचीत हुई। भारत की इस मुलाकात की घोषणा ब्रिक्स समिट से ठीक पहले की थी और पट्रोलिंग को लेकर जारी विवाद पर समझौते की बात कही थी। इसके अगले ही दिन चीन ने भी मुलाकात की पुष्टि की थी।
इस मुलाकात को पुतिन की कामयाबी बताया जा रहा है और इसे पुतिन के लिए एक बड़े मौके के रूप में देखा गया। कहा गया कि पुतिन पश्चिम को दिखाना चाहते हैं कि जो पश्चिमी देश पांच सालों में नहीं कर पाए वो उन्होंने कर दिखाया।
बातचीत में दोनों ही नेताओं ने ‘सीमा पर शांति’ बनाए रखने की प्राथमिकता को रेखांकित किया और ‘आपसी विश्वास, ‘आपसी सम्मान’ और ‘आपसी संवेदनशीलता’ को रिश्तों की बुनियाद बताया।’
शी जिनपिंग ने और अधिक ‘आपसी संवाद और सहयोग’ पर जोर देते हुए कहा, ‘दोनों देशों के लोग और अंतरराष्ट्रीय जगत हमारी मुलाकात को बहुत ग़ौर से देख रहा है।’
क्या मोदी और शी जिनपिंग के बीच हुई इस मुलाकात को पुतिन की कामयाबी माना जाना चाहिए?
स्वस्ति राव के मुताबिक मोदी और शी की मुलाकात के कई पहलू हैं।
वह कहती हैं कि स्वाभाविक तौर पर पुतिन इस मुलाकात का क्रेडिट लेंगे क्योंकि वह ग्लोबल साउथ को पश्चिमी देशों के बरअक्श रखना चाहते हैं। लेकिन भारत की शी जिनपिंग से मुलाकात और ब्रिक्स में रहने की अपनी वजहें हैं क्योंकि भारत अपने विकल्प खुले रखना चाहता है।
अजय पटनायक कहते हैं कि मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं कि रूस बतौर माध्यम और ब्रिक्स वो जगह हैं जहां से भारत-चीन के संबंध सुधर सकते हैं।
पटनायक कहते हैं, ‘रूस जैसी शक्ति की जरूरत थी जो दोनों को एक साथ फोरम पर लाए और बातचीत के जरिए हल निकालने को कहे। इसमें रूस की भूमिका है और वो पृष्ठभूमि में रहा है। खुलकर तो कोई नहीं कहेगा कि रूस की भूमिका है लेकिन निश्चित रूप से इसमें रूस की भूमिका है।’
यूक्रेन के मुद्दे पर क्या कहा गया?
जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने ब्रिक्स के निमंत्रण को स्वीकार किया था तब यूक्रेन के विदेश मंत्रालय ने उनकी कड़ी आलोचना करते हुए इसे उनका ‘गलत चुनाव’ बताया था। हालांकि गुटेरेस की तरफ से इस पर अब तक कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है।
ब्रिक्स के 43 पन्नों वाले घोषणापत्र में सिफऱ् एक बार ‘यूक्रेन’ शब्द लिखा गया है।
घोषणापत्र में 134 प्वाइंट हैं और इसके 36वें प्वाइंट में लिखा है, ‘हम यूक्रेन और उसके आस-पास की स्थिति को लेकर अलग-अलग देशों के रुख़ को याद करते हैं जिसे यूएनएसी और यूएनजीए सहित उपयुक्त मंचों पर बताया गया है। हम इस बात पर जोर देते हैं कि सभी देशों को संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्यों पर लगातार कार्य करना चाहिए। हम बातचीत और कूटनीति के जरिए इस संघर्ष के शांति समाधान के लिए मध्यस्थता और अच्छे प्रयासों की सराहना करते हैं।’
स्वस्ति राव ब्रिक्स की इस घोषणा को रूस के लिए एक बड़ा सैटबेक मानती हैं। वो कहती हैं, ‘पूरा पश्चिम यूएन चार्टर के तहत रूस-यूक्रेन युद्ध को अवैध बताता है और ऐसे में अगर घोषणापत्र में यूएन चार्टर की बात की जा रही है तो आप इसे क्या कहेंगे? अगर ब्रिक्स भी यूएन चार्टर को मानने की बात कह रहा है तो यह रूस के लिए सोचने वाली बात है कि फिर युद्ध किया ही क्यों?। पश्चिमी देश तो इस बात से ख़ुश होंगे कि भारत ने उनकी बातचीत वाली भाषा का इस्तेमाल करवाया है।’
बुधवार को कीएव में यूक्रेन के विदेश मंत्रालय ने कहा कि रूस ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में यूक्रेन पर अपने आक्रमण के लिए समर्थन हासिल करने में विफल रहा है।
यूक्रेन के विदेश मंत्रालय ने कहा अपने बयान में कहा -
*यह घोषणापत्र दिखाता है कि ब्रिक्स का एक संगठन के तौर पर यूक्रेन के खिलाफ रूस के आक्रामक अभियान पर कोई एक रुख़ नहीं है।
*हमारा मानना है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि इन देशों में से अधिकतर यूएन चार्टर के उद्देश्यों और सिद्धांतों का समर्थन करते हैं, जिसका जिक्र घोषणापत्र में भी किया गया है।
*ब्रिक्स सम्मेलन, जिसके जरिये रूस की योजना दुनिया को बांटने की थी, उस सम्मेलन से फिर दिखाया है कि दुनिया का अधिकतर हिस्सा यूक्रेन के उस इरादे के साथ खड़ा है, जिसके तहत वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों और यूएन चार्टर के तहत न्याय और स्थायी शांति चाहता है।
* इसमें अंतरराष्ट्रीय मान्यता पात्र सीमाओं के अधीन अपनी क्षेत्रीय अखंडता बनाए रखने का सिद्धांत भी शामिल है।
दिलचस्प यह है कि एक ओर ब्रिक्स चल रहा था तो ठीक उसी समय अमेरिका ने यूक्रेन को वित्तीय मदद देने का एलान किया। (bbc.com/hindi)
-उमंग पोद्दार
अगर आप ये लेख पढ़ रहे हैं, तो बहुत संभव है कि आप विकिपीडिया से वाकिफ होंगे। मामूली से लेकर गंभीर विषयों के बारे में जानने के लिए कई लोगों का पहला ठिकाना विकिपीडिया होता है। पर हाल के कुछ दिनों से विकिपीडिया दिल्ली हाई कोर्ट में दायर एक केस के कारण सुर्खियों में है। समाचार एजेंसी एशियन न्यूज़ इंटरनेशनल यानी एएनआई ने विकिपीडिया के खिलाफ मानहानि का एक केस दायर किया है।
एएनआई के विकिपीडिया पेज पर ये लिखा है कि ये समाचार एजेंसी गलत सूचना रिपोर्ट करती है। लेकिन एएनआई ने इसका खंडन किया है। इस बीच एक सवाल जो कई बार उठ रहा है कि आखिर विकिपीडिया काम कैसे करता है? इनके लिए कौन लोग लेख लिखते हैं? इसे चलाता कौन है?
विकिपीडिया क्या है?
विकिपीडिया 2001 से दुनिया भर में एक मुफ़्त ओपन सोर्स के तौर पर जाना जाता है, जिसे आप ऑनलाइन विश्वकोश कह सकते हैं।
इसे गैर लाभकारी संस्था विकिमीडिया फाउंडेशन चलाती है। एएनआई ने विकिमीडिया फाउंडेशन के खिलाफ केस दर्ज कराया है।
ये दुनिया की सबसे प्रसिद्ध वेबसाइट्स में से एक है। इस पर मौजूदा समय में छह करोड़ से ज़्यादा लेख हैं और हर महीने इसे करीब 10 खऱब से ज़्यादा पेज व्यू मिलते हैं।
सवाल है कि क्या कोई भी विकिपीडिया में लिख सकता है?
इसका जवाब है हां। विकिपीडिया में कोई नई एंट्री डालने या पहले से मौजूद एंट्री में कुछ जोडऩे या बदलने की इजाज़त सबको है। इसलिए यह ऐसा प्लेटफॉर्म है, जिसका नियंत्रण किसी एक या कुछ ही लोगों के हाथों में नहीं है।
मौजूदा समय में कऱीब तीन लाख वॉलंटियर हैं जो विकिपीडिया के लिए लेख लिखते हैं और उस पर मौजूद कंटेंट की प्रामाणिकता को परखते हैं। कोई भी ऐसा कर सकता है और वेबसाइट पर काम के मुताबिक़ उन्हें अलग-अलग भूमिकाएँ दी जाती है।
विकिमीडिया फाउंडेशन का कहना है कि ये लोग अपनी मर्जी से काम करते हैं और इसके लिए उन्हें कोई भुगतान नहीं होता है।
ये वॉलंटियर अपनी पहचान गोपनीय रख सकते हैं। विकिमीडिया फाउंडेशन का ये कहना कि किस पेज पर क्या लिखा जा रहा, इस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता है। हालांकि उनका ये भी कहना है कि इसका ये मतलब नहीं कि कोई इस पर कुछ भी लिख सकता है।
वेबसाइट पर क्या छप सकता है, इसको लेकर कई पॉलिसी और गाइडलाइन हैं।
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वह कहती हैं कि हो सकता है कि कोई कम चर्चित विकिपीडिया लेख बिल्कुल विश्वसनीय ना हो, लेकिन एक चर्चित टॉपिक पर विकिपीडिया लेख ‘सबसे विश्वसनीय जानकारी’ का रूप हो सकता है।
वो कहती हैं कि किसी जर्नल में प्रकाशित लेख को कुछ ही विशेषज्ञ देखते हैं और उसके बाद उसमें कोई बदलाव नहीं होता है।
उन्होंने बताया, ‘लेकिन एक लोकप्रिय विकिपीडिया लेख की समीक्षा हजारों लोगों द्वारा की जा सकती है।’
विकिपीडिया पर पक्षपात के भी आरोप लगाए गए हैं। विकिपीडिया की एक आलोचना ये रही है कि इस पर ज़्यादा पुरुष लेख लिखते हैं और इसके कारण वेबसाइट पर पुरुषों पर बहुत अधिक लेख हैं।
एक कंजर्वेटिव थिंक टैंक ‘मैनहट्टन इंस्टीट्यूट’ ने अपनी रिसर्च में पाया है कि अमेरिका में दक्षिणपंथी सार्वजनिक हस्तियों को विकिपीडिया पर अधिक नकारात्मक तौर पर दिखाने की प्रवृति रही है। हालांकि उन्होंने यह माना है कि विकिपीडिया एक अहम सार्वजनिक संसाधन है।
इसे चलाने के लिए पैसे कहां से आते हैं?
अगर आपने विकिपीडिया पर कुछ पढ़ा है तो ये देखा होगा उनकी वेबसाइट की शुरुआत में ही चंदा देने की अपील होती है। विकिपीडिया का ख़र्च चंदे से ही चलता है। 2022-23 में विकिमीडिया फाउंडेशन को 18 करोड़ डॉलर से ज़्यादा चंदा मिला था, ये भारतीय रुपये के हिसाब से कऱीब 1,513 करोड़ रुपये था।
विकिपीडिया विज्ञापन नहीं छापता और उनका कहना है कि वो यूजर डेटा के इस्तेमाल से पैसे भी नहीं कमाते। इस तरह की कमाई कई वेबसाइट्स करती हैं। वैसे विकिपीडिया कई देशों में विवाद में घिरा रहा है। कम से कम 13 देशों में विकिपीडिया पर अलग-अलग तरह के प्रतिबंध लगाए जा चुके हैं।
चीन, म्यांमार और उत्तर कोरिया ने विकिपीडिया पर पूरा प्रतिबंध लगाया हुआ है। वहीं, रूस और ईरान ने विकिपीडिया के कुछ लेखों पर प्रतिबंध लगाया है।
पाकिस्तान ने 2023 में विकिपीडिया पर तीन दिनों की रोक लगा दी थी, ये कहते हुए कि विकिपीडिया पर कुछ लेखों से देश के मुसलमानों को ठेस पहुँची है।
एएनआई के केस में दिल्ली हाई कोर्ट के एक जज ने विकिपीडिया को कहा था कि उन्हें भारत में क़ानून का पालन करना होगा, वरना वह भारत में विकिपीडिया पर पाबंदी लगाने का आदेश देंगे।
भारत में भी विकिपीडिया विवाद में रहा है। ्रहृढ्ढ द्वारा दर्ज मानहानि केस के बारे में भी एक विकिपीडिया पेज था।
हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट की 2 जजों की पीठ का मानना था कि ये कोर्ट की प्रक्रिया में दखल डाल रहा था, और उन्होंने इसे हटाने का आदेश दिया।
21 अक्टूबर को ये पेज विकिपीडिया ने हटा दिया। कुछ जानकारों का मानना है कि ये पहली बार हुआ कि अंग्रेजी विकिपीडिया पर कोई कोर्ट के आदेश के बाद एक पूरा पेज हटाया गया है। (bbc.com/hindi)
-दिनेश श्रीनेत
लेखक होना अलग है, लिक्खाड़ होना अलग। हर कोई इसलिए लेखक नहीं हो जाता कि उसने कुछ किताबें लिख दी हैं। हम किसी को इसलिए नहीं पढ़ते कि उसने बहुत सारा लिख दिया है। खराब लेखक ही संख्या का आतंक पैदा करते हैं। मसलन हमारी अब तक 20 किताबें आ चुकी हैं। अवार्ड का आतंक दिखाते हैं, हमें फलां-फलां-फलां स्मृति सम्मान मिल चुका है। वे मंचों पर माइक पकडक़र बैठ जाते हैं। वे किताबें पकडक़र तस्वीर खिंचवाते हैं। ऐसी मुद्रा अपनाते हैं, ऐसी पोशाक पहनते हैं कि उन्हें देखते लगे कि वे रचनाकार हैं। विचारधारा की लाठी कंधे पर लेकर विजय मुद्रा में तनकर चलते हैं।
यानी बेहतर रचना लिखने के अतिरिक्त हर वह प्रयास करते हैं, जिससे उनको रचनाकार मान लिया जाए।
जबकि हम किसी को इसलिए नहीं पढ़ते कि वह बहुत सारे विषयों पर कलम चला सकता है। किस्सागोई तो एक हुनर है। लेखनी सिर्फ एक माध्यम है, अपने विचारों को दूसरों तक ले जाने का। उन तक ले जाने का जिन्हें हम जानते भी नहीं। अपनी भौतिक सीमाओं के परे, अपने शहर से परे, अपने देश से परे ले जाने का एक जरिया है लेखन।
लिखना इसलिए जरूरी है क्योंकि अभी कही गई बात नष्ट हो जाएगी।
लिखी बात समय की सीमाओं को तोड़ते-फोड़ते समय की रेल के साथ भागेगी। खुद के एकांत में जो लिखा-रचा गया है, वह अचानक किसी और के एकांत का हिस्सा बन जाएगा। खुद के सपने किसी और की आँखों में उसके सपनों की शक्ल में उतर आएंगे। लिखना इसीलिए जरूरी है क्योंकि हमारे पास कहने के लिए कोई बात है। और उतना ही सच यह भी है कि हमारे पास एक जीवन में कहने के लिए बहुत सारी बातें नहीं हैं।
अच्छे लेखन में विस्तार नहीं गहराई होती है। जैसे पत्ते पर टिकी पानी की एक बूंद में इंद्रधनुष समा जाता है। हम किसी का लिखा इसीलिए पढ़ते हैं कि उसके पास कहने के लिए कोई अलग बात होती है। यह अलग बात ही उसे 'लेखक' बनाती है। नहीं तो लिखते तो बहुत से लोग हैं। एक खबरनवीस रोज हजारों शब्द लिखता है, लेकिन वो तात्कालिक होता है और भुला दिया जाता है।
जो बात भूलने के विरुद्ध खड़ी हो, वही लेखनी है।
एक लेखक की अपनी विकास यात्रा होती है। उसके पास दुनिया भर के विषय नहीं होते हैं। वह बिना पेंदी के लोटे की तरह इधर से उधर लुढक़ता नहीं रहता है। यदि वह स्वयं को ख़ारिज भी करता है तो उसकी भी तार्किक कडिय़ां होती हैं। एक अच्छा लेखक अंतत: चुक भी जाता है। बेहतर लेखक-मनुष्य ज्यादा होता है, लेखक कम। जबकि खराब लेखक-ज्यादा लेखक होता है, मनुष्य कम। ज्यादा गंभीरता ओढ़े हुए लोगों की विश्वसनीयता भी संदिग्ध होती है।
अपने ही महिमामंडन और अहंकार के बोझ से दबे हुए लोगों के पास दूसरों को कुछ देने के लिए नहीं होता। उनके भीतर कोई बेचैनी या तलाश नहीं होती। लेखक अपने अकेलेपन में खुद पर हँस सकता है और आपके साथ भी। उसके पास अपने सत्य पर यकीन करने और उसके पीछे-पीछे चलने के सिवा कोई चारा नहीं होता। वह कोई एक राह पकडक़र इसी उम्मीद में चलता जाता है कि उसे अपनी मंजि़ल एक दिन मिल ही जाएगी।
उसका यह भोला मगर अटूट विश्वास ही दरअसल उसे एक पाठक के लिए खास बनाता है। उनसे जोड़ता है। यदि उसे अपनी मंजिल मिल ही जाए तो वह लेखक कहां रह जाएगा, दार्शनिक, समाजसुधारक राजनेता बन जाएगा। हर लेखक अपने कुछ स्वप्नों का पीछा करने में सारी जि़ंदगी गुजार देता है। हम हर बार जब किताब उठाते हैं तो हम भी धुंध में लेखक की परछाईं के पीछे-पीछे भागते हैं। उसकी धडक़न हमारी धडक़न बन जाती है। उसकी उम्मीद हमारी उम्मीद।
इसलिए लेखक होना अलग है, बहुत अलग। (फेसबुक)
-सीटू तिवारी
केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने बिहार में 18-22 अक्तूबर के बीच ‘हिंदू स्वाभिमान यात्रा’ की।
इस यात्रा से जहां बीजेपी की प्रदेश इकाई ने किनारा कर लिया, वहीं राज्य में बीजेपी के साथ सत्ता में शामिल पार्टी जेडीयू भी इससे असहज दिखी।
गिरिराज सिंह ने ये यात्रा राज्य के भागलपुर, किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया और अररिया में की। इन जि़लों को सीमांचल का इलाका कहा जाता है।
केंद्रीय मंत्री ने अपनी इस यात्रा के दौरान 19 अक्तूबर को कटिहार में ‘लव, थूक और लैंड जिहाद’ की बात कहने के साथ ही सीमांचल में ‘रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठ’ का मुद्दा उठाया।
बिहार में पिछले कुछ समय से कई राजनीतिक यात्राएं चर्चा में रही हैं। चाहे वो नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की संवाद यात्रा हो, या हाल ही में अपनी पार्टी लॉन्च करने वाले प्रशांत किशोर की पदयात्रा हो।
फिलहाल वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी की निषाद संकल्प यात्रा, भाकपा माले की न्याय यात्रा चल ही रही है। लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा गिरिराज सिंह की हिंदू स्वाभिमान यात्रा और इस दौरान आए बयानों की है।
गिरिराज सिंह की इस यात्रा पर राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी आरजेडी से लेकर सत्ताधारी पार्टी और बीजेपी की सहयोगी जेडीयू ने भी सवाल उठाए हैं।
जेडीयू ने जहां इस यात्रा को ‘गैऱ जरूरी’ बताया, वहीं तेजस्वी यादव ने यात्रा ने पहले चेतावनी दी थी, ‘अगर इस यात्रा से नफरत फैली तो आरजेडी चुप नही बैठेगी।’
आलम ये रहा कि इस सियासी उबाल में बीजेपी ने भी गिरिराज सिंह की इस यात्रा से किनारा कर लिया। आखिर ये यात्रा महत्वपूर्ण क्यों बन गई थी, इस सवाल का जवाब यात्रा के रूट चार्ट में है।
यात्रा वाले इलाके की डेमोग्राफी
दरअसल गिरिराज सिंह की यात्रा जिन जिलों से गुजरी, वो मुस्लिम आबादी के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं।
किशनगंज में 68 फीसदी, कटिहार में 45, अररिया में 43, पूर्णिया में 38 और भागलपुर में 18 फीसदी मुस्लिम आबादी है।
बिहार की सियासत पर नजऱ रखने वाले गिरिराज सिंह की इस यात्रा को राज्य में एक नए ट्रेंड के तौर पर देखते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार अरुण अशेष कहते है, ‘राज्य में हिंदू, मुसलमान या धर्म के नाम पर किसी पॉलिटिकल पार्टी या केन्द्रीय मंत्री के यात्रा निकालने का हाल के दशकों में कोई इतिहास नहीं मिलता।’
सीमांचल के चार जि़लों में 24 विधानसभा क्षेत्र हैं। अगर इसमें भागलपुर के 7 विधानसभा क्षेत्रों को भी जोड़ दें तो गिरिराज सिंह ने अपनी यात्रा के जरिए 31 विधानसभा क्षेत्रों को प्रभावित करने की कोशिश की है।
मुस्लिम आबादी के लिहाज से महत्वपूर्ण सीमांचल के अलावा भागलपुर भी गिरिराज सिंह की इस यात्रा का हिस्सा है। भागलपुर में साल 1989 में सांप्रदायिक दंगा हुआ था।
बीजेपी ने कर लिया था यात्रा से किनारा
बिहार बीजेपी ने पहले ही इस यात्रा से खुद को किनारे कर लिया था।
प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने इस संबंध में सवाल पूछे जाने पर कहा, ‘ना नफरत के नाम पर, ना सियासत के नाम पर, एनडीए चुनाव लड़ेगी मोहब्बत के नाम पर।’
दिलीप जायसवाल ने कहा कि पार्टी के बैनर के तहत ये यात्रा नहीं हो रही है, इसलिए वो इस पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे।
लेकिन क्या ये संभव है कि कोई केन्द्रीय मंत्री बिना केन्द्रीय नेतृत्व की सहमति से यात्रा निकाले?
दैनिक अख़बार राजस्थान पत्रिका में बिहार के ब्यूरो चीफ रहे प्रियरंजन भारती कहते हैं, ‘पार्टी बेशक आधिकारिक तौर पर घोषणा नहीं कर रही लेकिन ये एजेंडा तो बीजेपी और आरएसएस का ही है।’
उन्होंने कहा, ‘यात्रा का टार्गेट हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करना है, लेकिन ये बहुत मुश्किल है क्योंकि हिंदू समाज जातियों में बंटा है और उसका वोटिंग पैटर्न भी इससे प्रभावित होता है।’
वरिष्ठ पत्रकार अरुण अशेष भी गिरिराज सिंह की हिंदू स्वाभिमान यात्रा को बीजेपी का ‘प्लान बी’ बताते हैं।
वो कहते हैं, ‘बिना केन्द्रीय नेतृत्व की मंजूरी के ऐसी यात्राएं नहीं की जा सकती। ये बीजेपी का प्लान बी है, जिस पर पार्टी काम कर रही है।’
हालांकि। वरिष्ठ पत्रकार फ़ैज़ान अहमद इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखते हैं। वो कहते हैं, ‘मुझको नहीं लगता कि वो पार्टी के लिए यात्रा निकाल रहे हैं। सीमांचल में पार्टी अच्छी स्थिति में है। गिरिराज जो कर रहे है, वो अपने लिए कर रहे हैं।’
‘हिंदूवादी छवि को मजबूत करने की कवायद’
पत्रकार फैजान अहमद के मुताबिक, गिरिराज सिंह का यात्रा के पीछे ‘व्यक्तिगत मकसद’ है।
फ़ैज़ान अहमद कहते हैं, ‘बिहार में बीजेपी के पास कोई चेहरा नहीं है, ऐसे में गिरिराज सिंह खुद को लीडर के तौर पर प्रोजेक्ट करना चाहते हैं। आप देखिए कि सुशील मोदी के बाद पार्टी ने जो डिप्टी सीएम दिए भी, उनकी कोई पॉलिटिकल स्टैंडिंग नहीं है।’
वो कहते हैं, ‘गिरिराज सिंह की अपनी छवि हिंदू फायर ब्रांड नेता की रही है। लेकिन पार्टी में हिमंत बिस्वा सरमा जैसे नेताओं के उभार के बाद गिरिराज को अपनी उस छवि को बनाए रखने का संघर्ष पार्टी के भीतर ही करना पड़ रहा है। यानी उनके अपने लिहाज़ से भी ये यात्रा महत्वपूर्ण है।’
पत्रकार प्रियरंजन भारती भी कहते हैं, ‘हाल के दिनों में गिरिराज सिंह बाकी के फायरब्रांड नेताओं के मुकाबले खुद को बैकफुट पर महसूस कर रहे है। इस यात्रा के ज़रिए वो खुद को आक्रामक तरीके से प्रोजेक्ट करना चाहते हैं।’
इस बीच गिरिराज सिंह कई मौकों पर अपने साथ त्रिशूल लिए दिखे हैं।
अररिया में गिरिराज सिंह ने कहा भी, ‘त्रिशूल की पूजा महादेव (शिव) के तौर पर करें और ज़रूरत पडऩे पर इसका इस्तेमाल भी करें।’
गैर जरूरी यात्रा-जेडीयू
गिरिराज सिंह के हिंदू स्वाभिमान यात्रा की घोषणा के बाद से ही जेडीयू इसके प्रति असहज है।
ये जेडीयू के नेतृत्व में चल रही सरकार के एजेंडें ‘सबका साथ– सबका विकास’ के नारे में फिट बैठती नहीं दिखती।
जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव रंजन बीबीसी से कहते हैं, ‘हमारी पार्टी के मुताबिक ये ग़ैर ज़रूरी यात्रा है और बीजेपी भी इसे निजी और व्यक्तिगत यात्रा बता चुकी है।’
उन्होंने कहा, ‘वैसी स्थिति में आप कोई भी कार्यक्रम करते हैं तो ये आपका निजी कार्यक्रम है। बिहार में हिंदू हो या मुसलमान, नीतीश कुमार की अगुआई में सभी सुरक्षित हैं।’
हालांकि, इस यात्रा के दौरान कई विवादित बयान सामने आए हैं।
इस यात्रा के दौरान अररिया के बीजेपी सांसद प्रदीप सिंह ने कहा, ‘अररिया में रहना है तो हिंदू बनना पड़ेगा।’
इस पर जेडीयू एमएलसी नीरज कुमार सांसद प्रदीप सिंह के बयान को तो आड़े हाथों लेते हैं, लेकिन बिहार बीजेपी का बचाव करते हैं।
वो कहते है, ‘हिंदुस्तान के लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत संसद है। जहां सांसद जाति, धर्म से ऊपर उठकर काम करने की शपथ लेते हैं। अच्छा होता कि प्रदीप सिंह कहते कि लोगों को डॉ। आंबेडकर के दिए संविधान को मानना होगा।’
उन्होंने कहा, ‘इसी तरह के बयानों के कारण ही बीजेपी प्रदेश ईकाई ने इस यात्रा से खुद को अलग कर लिया है।’
क्या चुनावी राजनीति पर होगा असर?
इस यात्रा में कई जगह गिरिराज सिंह इलाके के मुस्लिम विधायकों पर निशाना साधते दिखे।
जैसे उन्होंने पूर्णिया में अपनी सभा को संबोधित करते हुए कहा,‘ बायसी और अमौर में हिंदू अल्पसंख्यक हो गए। अब कसबा की बारी है।’
पूर्णिया में 7 विधानसभा सीट हैं, जिनमें से तीन सीट यानी बायसी, अमौर और कसबा के विधायक मुस्लिम हैं। अमौर में अख्तरूल ईमान, बायसी से सैयद रूकनुद्दीन और कसबा से आफक़े आलम।
एआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष और अमौर से विधायक अख्तरूल ईमान, गिरिराज सिंह के हिंदुओं के अल्पसंख्यक हो जाने के दावे को ‘उन्मादी जुमला’ बताते हैं।
वो कहते हैं, ‘कोचाधामन और अमौर दो ऐसी सीट हैं, जहां 74 फीसदी मुसलमान और 24 फ़ीसदी हिंदू आबादी है। एक दो बार ही ऐसा मौका आया कि जब यहां से हिंदू विधायक रहे।’
उन्होंने कहा, ‘गिरिराज सिंह उन्माद फैलाने की कोशिश कर रहे हैं जबकि एक संवैधानिक पद पर बैठे आदमी धर्म विशेष और जाति की राजनीति कैसे कर सकता है। भागलपुर सिल्क सिटी है, उसके लिए कपड़ा मंत्री रहते उन्होंने क्या किया?’
प्रियरंजन भारती कहते है, ‘चुनावों पर क्या असर पड़ेगा, इसके लिए तो इंतज़ार करना होगा। लेकिन जेडीयू बीजेपी के रिश्तों में इससे तल्खी आएगी, ऐसा लगता नहीं है।’
बिहार में विधानसभा चुनाव साल 2025 में होने है।
देखना दिलचस्प होगा कि पक्ष और विपक्ष में बहुमत हासिल करने को लेकर और सत्ता पक्ष यानी जेडीयू और बीजेपी के भीतर भी खुद के ‘पॉलिटिकल स्पेस’ बढ़ाने को लेकर कौन कौन से राजनीतिक करतब भविष्य के गर्भ में है। ((bbc.com/hindi)
- द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
किसी व्यक्ति के विषय में उसकी गैरहाजिरी में आलोचना करना हम सबको बहुत पसंद है। इसका आनंद अवर्णनीय है। घंटों बीत जाएं, बातों से बातें खुलती जाएँगी और हम सब मिलकर ऐसे रसमय संसार की रचना कर लेते हैं जिसकी कल्पना रसों के उद्घाटक आचार्य भरत मुनि ने भी नहीं की थी। इसे निंदा रस कहते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अपने विवेक के अनुसार अपना व्यवहार निश्चित करता है। यह जरूरी नहीं कि उसका तरीका सबको पसंद आए। फिर, उस पर टीका-टिप्पणी शुरू होती है। उचित-अनुचित पर तर्क दिए जाते हैं और बहस आरम्भ हो जाती है। वार्तालाप का एक ऐसा निरर्थक सिलसिला शुरू हो जाता है जिससे किसी को कुछ भी हासिल नहीं होता।
यदि किसी के सामने उसकी आलोचना करने का साहस न हो, या रिश्तों के बिगडऩे की बाधा न हो तो अपने मन का गुबार निकालने का यह एक मात्र तरीका है। वैसे, निंदा करने से दो फायदे होते हैं, प्रथम, इस प्रकार कुछ कह-सुन लेने से मन हल्का हो जाता है और द्वितीय, यह अत्यंत रोचक ‘टाइम पास’ खेल है इसलिए जिनके पास फुर्सत है, वे इसके निपुण खिलाड़ी होते हैं और जो व्यस्त हैं, वे कम शब्दों में कुछ कहकर या धीरे से मुस्कुरा कर इसका सुख प्राप्त कर लेते हैं।
हम सब निंदा करने में बहुत आगे रहते हैं लेकिन हम खुद इसे सहन नहीं कर पाते। किसी ‘भेदिये’ से अपने विषय में हो रही निंदा की जानकारी मिलते ही हमारे चेहरे की रंगत बदलने लगती है, कान गर्म होने लगते हैं और हमारे दिमाग में दूषित बातें जन्म लेने लगती हैं। कई बार हम अपने संबंधों पर पुनर्विचार करने लगते हैं। हमारी यह सोच न्यायोचित नहीं है।
कड़वाहट की तजऱ् पर आमने-सामने की आलोचना किसी का भी ह्रदय भेदती है और उसे जिद्दी बनाती है। यदि किसी समूह में किसी व्यक्ति की निंदा हो रही हो तो उसे रोकें और लोगों को प्रेरित करें कि भूलों की चर्चा केवल भूल करने वाले के सामने की जाएं। किसी के पीठ-पीछे उसकी आलोचना करने से होने वाली हानियाँ अत्यंत घातक होती हैं। किसी की गलतियां आमने-सामने भी बताई जा सकती हैं। सबसे पहले उसके अच्छे कार्यों की प्रशंसा करें, फिर धीरे से ‘शुगर कोटेड’ कैप्सूल की तरह उसकी भूलों की ओर इशारा करें। ध्यान रहे, किसी को भी दोषी ठहराने का हक आपको नहीं है। इस प्रकार उसकी गलतियों को सुधार का अवसर देकर हम उसके कार्यों तथा व्यवहार को सही दिशा दे सकते हैं। इससे हमारे सम्बन्ध और अधिक मधुर एवं प्रगाढ़ होते हैं।
निंदा रस में रस लेने वालों के लिए यह सुझाव है कि निंदा में रस लेना मानव व्यवहार के अनुरूप नहीं है। काना-फूसी और चरित्रहरण का काम घटिया लोग करते हैं इसलिए इससे बचें और आलोचना करने के लिए सकारात्मक तरीका अपनाएं।
-अंशुल सिंह
हरियाणा में बीजेपी की सरकार ने अनुसूचित जाति के आरक्षण में उप-वर्गीकरण वाले फैसले को लागू करने का निर्णय लिया है। ऐसा करने वाला हरियाणा देश का पहला राज्य बन गया है।
17 अक्टूबर को नायब सिंह सैनी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और शपथ ग्रहण के अगले दिन 18 अक्टूबर को सीएम सैनी ने कैबिनेट की बैठक में यह फ़ैसला लिया।
कैबिनेट के इस फैसले के बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने प्रेस कॉन्फ्ऱेंस की और कहा कि हमारी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सम्मान किया है।
बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने हरियाणा सरकार के इस फैसले को दलितों को आपस में लड़ाने का षडय़ंत्र करार देते हुए इसे दलित विरोधी बताया है।
फैसले से किन जातियों को लाभ मिलेगा?
इसी साल अगस्त के महीने में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद चुनाव से पहले अनुसूचित जाति में उप-वर्गीकरण की बात उठी थी।
तब नायब सिंह सैनी के कहा था कि राज्य मंत्रिमंडल ने हरियाणा अनुसूचित आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया है।
उन्होंने कहा था, ‘राज्य में अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी नौकियों में 20 फीसदी कोटा आरक्षित किया जाएगा। आयोग की सिफारिश के हिसाब से इस कोटे का आधा (50 फीसदी) और कुल कोटे में 10 फ़ीसदी वंचित अनुसूचित जातियों को दिया जाएगा।’
हरियाणा में आधिकारिक रूप से कुल 36 जातियां ‘वंचित अनुसूचित जातियों’ की लिस्ट में शामिल हैं।
ये जातियां हैं: अद धर्मी, वाल्मीकि, बंगाली, बरार, बटवाल, बोरिया, बाजीगर, बंजारा, चनल, दागी, दरेन, देहा, धानक, धोगरी, डुमना, गगरा, गंधीला, जुलाहा, खटीक, कोरी, मरीजा, मजहबी, मेघ, नट, ओड, पासी, पेरना, फरेरा, संहाई, संहाल, सांसी, संसोई, सपेला, सरेरा, सिक्लीगर और सिरकीबंद।
हरियाणा में वंचित अनुसूचित जातियों की स्थिति
राज्य में वंचित अनुसूचित जातियों के लिए अनुसूचित जातियों के आरक्षण के भीतर आरक्षण देना लंबे समय से एक मुद्दा रहा है।
बीजेपी ने 2014 और 2019 के विधानसभा चुनाव के दौरान अपने घोषणा पत्र में भी इन जातियों को आरक्षण देने का वादा किया था।
2011 की जनगणना के मुताबक़ि, राज्य की कुल आबादी 2.5 करोड़ से ऊपर है और इसमें करीब 27.5 लाख की हिस्सेदारी वंचित अनुसूचित जातियों की है।
राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, ग्रुप-ए, ग्रुप-बी और क्रुप-सी में इन जातियों से आने वाले लोगों की हिस्सेदारी क्रमश: 4.5 फीसदी, 4.14 फीसदी और 6.27 फीसदी है।
वहीं राज्य में दूसरी अनुसूचित जातियों की जनसंख्या भी 27.5 लाख के आसपास है लेकिन इनकी हिस्सेदारी ग्रुप-ए, ग्रुप बी और ग्रुप सी में क्रमश: 11 फीसदी, 11.31 फीसदी और 11.8 फीसदी है।
2011 की जनगणना के डेटा से पता चलता है कि वंचित अनुसूचित जातियों में सिफऱ् 3.53 फ़ीसदी आबादी ग्रेजुएट, 3.75 फ़ीसदी आबादी बारहवीं, 6.63 फीसदी आबादी हाईस्कूल और 46.75 फीसदी लोग निरक्षर हैं।
घोर आरक्षण विरोधी फैसला-मायावती
बीएसपी प्रमुख मायावती ने इस फैसले को ‘फूट डालो-राज करो’ से जोडक़र बताया है।
मायावती ने एक्स पर लिखा, ‘हरियाणा सरकार को ऐसा करने से रोकने के लिए भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के आगे नहीं आने से भी यह साबित है कि कांग्रेस की तरह बीजेपी भी आरक्षण को पहले निष्क्रिय व निष्प्रभावी बनाने और अन्तत: इसे समाप्त करने के षडय़ंत्र में लगी है, जो घोर अनुचित है। बीएसपी इसकी घोर विरोधी है।’
उन्होंने आगे लिखा, ‘वास्तव में जातिवादी पार्टियों द्वारा एससी-एसटी व ओबीसी समाज में ‘फूट डालो-राज करो’ व इनके आरक्षण विरोधी षड्यंत्र आदि के विरुद्ध संघर्ष का ही नाम बीएसपी है। इन वर्गों को संगठित व एकजुट करके उन्हें शासक वर्ग बनाने का हमारा संघर्ष लगातार जारी रहेगा।’
उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने व्यक्तिगत तौर से हरियाणा सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है।
केशव प्रसाद मौर्य ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘सुप्रीम कोर्ट के 1 अगस्त 2024 के फैसले के तहत, मैं व्यक्तिगत तौर से हरियाणा सरकार द्वारा एससी/एसटी में उप-वर्गीकरण लागू करने का स्वागत करता हूँ। आरक्षण का लाभ उन वंचितों तक पहुँचना जरूरी है, जो 75 साल बाद भी हमारे ही समाज का एक बड़ा हिस्सा है और जो बहुत पीछे रह गया था। उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सभी दलों की है। इसका विरोध अस्वीकार्य है।’
उन्होंने लिखा, ‘हरियाणा सहित भाजपा सरकारें,सबका साथ, सबका विकास, के मार्ग पर मोदी जी के नेतृत्व में समाज के हर वर्ग के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध हैं।’
‘ओबीसी के बाद बीजेपी का दलित कार्ड’
चुनाव से ठीक पहले बीजेपी ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लागू करने की बात कही थी। ऐसे में एक चीज़ स्पष्ट थी कि बीजेपी इस मुद्दे के साथ चुनाव में उतरने जा रही है।
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री इस फ़ैसले का विश्लेषण सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू बताते हुए करते हैं।
हेमंत अत्री कहते हैं, ‘फैसले का सकारात्मक पहलू यह है कि जो वंचित अनुसूचित जातियां हैं उन्हें आरक्षण का लाभ मिलेगा। नकारात्मक पहलू यह है कि इससे दलितों के बीच ही गुट बन जाएंगे। भाजपा पहले भी कई राज्यों में ऐसा कर चुकी है जब उन्होंने प्रभावशाली जाति वर्ग के खिलाफ उन्हीं के वर्ग से दूसरी जातियों को खड़ा कर दिया हो। हरियाणा में जाट प्रभावशाली हैं तो मनोहर लाल खट्टर और नायब सैनी को सीएम बनाया।ये दोनों गैर जाट हैं।’
हेमंत अत्री इसे दलित कार्ड से भी जोडक़र देखते हैं। वो कहते हैं, ‘हरियाणा में तब सत्ता विरोधी लहर देखी जा रही थी और लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने पांच सीटें गंवाई थीं। इस चुनाव से पहले आचार संहिता के बावजूद इन्होंने यह फैसला लिया था। इसलिए यह एक औपचारिकता है क्योंकि पहले लागू नहीं हो पाया था। इसमें इन्होंने दलित कार्ड खेला है और पहले खट्टर को हटाकर नायब सैनी को सीएम बनाकर ओबीसी कार्ड खेला था।’
मायावती को बीजेपी का जवाब
बीजेपी के हरियाणा प्रदेश के प्रवक्ता प्रोफेसर विधु रावल इसे वंचित अनुसूचित जातियों के लिए एक ज़रूरी फैसला बताते हैं।
विधु रावल कहते हैं, ‘जो असली वंचित हैं उन तक सरकारी लाभ और सुविधाएं पहुंचे इसके लिए यह मील का पत्थर साबित होने वाला निर्णय है। आरक्षण की मूल आत्मा भी यही है कि जो भी समाज की मुख्य धारा से पिछड़ गए या सालों तक शोषित रहे हैं उनके लिए आरक्षण है।’
मायवती ने इस फैसले को विभाजनकारी बताया है और कांग्रेस भी इसे बांटने वाला बता रही है।
कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव और हरियाणा प्रभारी रहे एडवोकेट जितेन्द्र बघेल कहते हैं, ‘भाजपा का काम ही बांटने वाली राजनीति करना है और यह फ़ैसला भी दलितों के भीतर बांटने वाला और आपस में ही एक-दूसरे के खिलाफ करने जैसा है।’
इन आरोपों पर प्रो। विधु रावल कहते हैं, ‘मायावती जी अगर दलितों का वास्तव में हित चाहतीं तो कभी भी इस फ़ैसले का विरोध न करतीं। असल में कुछ लोगों तक ही आरक्षण का लाभ सीमित न रहे इसके लिए भी बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर जी ने भी प्रयास किए थे। जिन लोगों तक आज तक आरक्षण का लाभ नहीं पहुंचा है तो मुझे लगता है कि उन तक भी आरक्षण पहुंचे। असल में यह एक साहसिक निर्णय है और सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का ही पालन करना है।’
क्या बीजेपी दूसरे राज्यों में भी अनुसूचित जाति में ऐसा वर्गीकरण कर सकती है?
इस सवाल के जवाब में रावल कहते हैं, ‘राज्य दर राज्य स्थितियां अलग होती हैं। जैसे कर्नाटक में दलितों में कुछ दलितों के प्रति छुआछूत है कुछ के प्रति नहीं। यह अलग-अलग राज्य की परिस्थितियों पर ज़्यादा निर्भर करता है।’
प्रोफेसर विधु रावल कहते हैं कि राज्य सरकारें इसका अवलोकन करेंगी और असल प्रयास बाबासाहेब आंबेडकर के संविधान को आत्मा सहित लागू करने का है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या था?
सुप्रीम कोर्ट ने इस साल एक अगस्त को अपने फ़ैसले में कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में उप-वर्गीकरण या सब-क्लासिफिकेशन किया जा सकता है।
अभी अनुसूचित जाति को 15 फ़ीसदी आरक्षण मिलता है और अनुसूचित जनजाति को 7.5 फ़ीसदी। इनकी सूची राष्ट्रपति बनाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के छह जजों ने कहा था कि इस लिस्ट में राज्य सरकार सिर्फ उप-वर्गीकरण कर सकती है, और कुछ सीटों को एक अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए अंकित कर सकती है।
कोर्ट का ये मानना था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति एक समान नहीं हैं। अदालत का कहना था कि कुछ जातियां बाकी से ज़्यादा पिछड़ी हुई हैं।
इस फैसले के समर्थकों में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन, आंध्र प्रदेश के एन चंद्रबाबू नायडू, बिहार के नीतीश कुमार और भारतीय जनता पार्टी के कई नेता शामिल हैं।
वहीं, बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती और आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के सांसद चंद्रशेखर आज़ाद ने फैसले का विरोध किया था। ((bbc.com/hindi)
-शेरिलान मोलान
शापुरजी सकलतवाला का नाम शायद इतिहास की किताबों से निकलकर लोगों के सामने नहीं आए। लेकिन अतीत की किसी भी अच्छी कहानी की तरह एक कपास व्यापारी के बेटे, सकलतवाला की कहानी काफी दिलचस्प है।
सकलतवाला भारत के सबसे अमीर परिवार, टाटा के सदस्य थे। लेकिन वो कभी भी कारोबार को चलाने के लिए सामने नहीं आए।
शापुरजी की कहानी के हर मोड़ पर ऐसा लगता है कि उनका जीवन निरंतर संघर्ष, चुनौती और जिद से भरा हुआ था। न तो उनका सरनेम उनके अपने अमीर चचेरे भाइयों जैसा था और न ही उनका नसीब उनके जैसा था।
अपने भाईयों के विपरीत वो कभी टाटा समूह को चलाने के लिए आगे नहीं आए। टाटा समूह आज दुनिया के सबसे बड़े करोबारी विरासतों में से एक है और जगुआर, लैंड रोवर और टेटली टी जैसे प्रतिष्ठित ब्रिटिश कंपनियों का मालिक है।
कारोबार संभालने की बजाय शापुरजी एक मुखर और प्रभावशाली राजनेता बने। उन्होंने भारत पर शासन करने वाली उपनिवेशवादी ताकत के केंद्र, यानी ब्रिटिश संसद में स्वतंत्रता के लिए पैरवी की और यहां तक कि महात्मा गांधी के साथ भी टकराव मोल लिया।
लेकिन सवाल यह है कि सकलतवाला एक व्यवसायी परिवार में पैदा हुए थे, इसके बावजूद उन्होंने अपने परिजनों से इतर अपने लिए अलग रास्ता क्यों और कैसे चुना?
सवाल यह भी है कि उन्होंने ब्रिटेन के पहले एशियाई सांसदों में से एक बनने के लिए रास्ता कैसे बनाया? इसका जवाब उतना ही जटिल है जितना कि सकलतवाला का अपने परिवार के साथ रिश्ता।
मामा जमशेदजी के साये में गुजरा बचपन
सकलतवाला, कपास व्यापारी दोराबजी और जेरबाई के बेटे थे। उनकी मां जेरबाई, टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी नुसरवानजी टाटा की सबसे छोटी बेटी थीं।
जब सकलतवाला चौदह साल के हुए तो उनका परिवार मुंबई के एस्प्लेनेड हाउस (टाटा परिवार का घर) में शिफ्ट हो गया और जेरबाई के भाई और उनके परिवार के साथ ही रहने लगा। जेरबाई के भाई का नाम भी जमशेदजी था।
सकलतवाला के माता-पिता उनके बचपन में ही अलग हो गए थे, जिसके बाद उनके मामा जमशेदजी उनके लिए पिता समान बन गए।
सकलतवाला की बेटी सेहरी ने अपने पिता की जीवनी ‘द फिफ़्थ कमांडमेंट’ में लिखा है, ‘जमशेदजी हमेशा शापुरजी के लिए बहुत प्रिय रहे और वो बहुत कम उम्र से शापुरजी के अंदर क्षमता और संभावनाएं देखा करते थे। उन्होंने शापुरजी पर बहुत ध्यान दिया। उन्हें उनके बचपन और जवानी के दौरान उनकी क्षमताओं पर बहुत विश्वास था।’
लेकिन सकलतवाला के लिए जमशेदजी के प्यार और लगाव के कारण, जमशेदजी के बड़े बेटे दोराब को सकलतवाला से नाराजगी हो गई।
सेहरी लिखती हैं, ‘बचपन और युवावस्था के दौरान दोनों एक-दूसरे के प्रति मनमुटाव के साथ रहे। दोनों के बीच ये दरार कभी नहीं मिट सकी।’
इसकी वजह से दोराब को पारिवारिक व्यवसाय में सकलतवाला की भूमिका कम कर दी और अंत में सकलतवाला को अलग रास्ता अपनाना पड़ा।
वेट्रेस से शादी और गरीबों के प्रति संवेदनशीलता
1890 के दशक के अंत में बम्बई (आज के वक्त की मुंबई) में ब्यूबोनिक प्लेग से हुई तबाही से सकलतवाला बहुत प्रभावित थे। उन्होंने देखा कि महामारी की वजह से गऱीब और मज़दूर वर्ग काफी प्रभावित हुए, जबकि समाज के उच्च वर्ग के लोग, जिनमें उनका परिवार भी शामिल है, इससे अधिक प्रभावित नहीं हुआ।
सकलतवाला उन दिनों कॉलेज स्टूडेंट हुआ करते थे। उन्होंने एक रूसी वैज्ञानिक वाल्देमर हाफकिन के साथ मिलकर काम किया। हाफकिन को अपनी क्रांतिकारी और रूसी शासन प्रणाली विरोधी राजनीति के कारण अपना देश छोडक़र भागना पड़ा था।
हाफ़किन ने प्लेग से निपटने के लिए एक वैक्सीन बनाई और सकलतवाला ने घर-घर जाकर वैक्सीन लेने के लिए लोगों को मनाया।
सेहरी अपनी किताब में लिखती हैं, ‘दोनों के नज़रिए में बहुत समानता थी और इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक आदर्शवादी बुज़ुर्ग वैज्ञानिक और युवा और दयालु छात्र के बीच इस घनिष्ठ संबंध ने शापुरजी के विश्वास को बनाने में और उन्हें मूर्त रूप देने में मदद की होगी।’
इसके अलावा सैली मार्श नाम की एक महिला के साथ शापूरजी के रिश्ते ने भी उनपर काफी प्रभाव छोड़ा। सैली एक वेट्रेस थीं, जिनसे शापूरजी ने साल 1907 में शादी की थी।
सैली मार्श अपने माता-पिता की 12 संतानों में से चौथी थीं। उन्होंने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया था।
मार्श के परिवार के लिए गुजारा करना मुश्किल था, जिसकी वजह से परिवार में सभी को कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी।
लेकिन धनी परिवार से आने वाले सकलतवाला, मार्श की ओर आकर्षित हुए। दोनों के प्रेम-संबंध के दौरान मार्श के जीवन के ज़रिए सकलतवाला को ब्रिटेन के मज़दूर वर्ग की कठिनाइयों के बारे में पता चला।
‘कट्टर’ कम्युनिस्ट के तौर पर बनी पहचान
सेहरी लिखती हैं कि मार्श के पिता भी जेसुइट पादरियों और ननों के निस्वार्थ जीवन से प्रभावित थे। इन्हीं लोगों की मदद से उन्होंने स्कूल और कॉलेज में पढ़ाई की थी।
इस कारण 1905 में अपनी ब्रिटेन यात्रा के बाद सकलतवाला ने ख़ुद को राजनीति से जोड़ लिया। राजनीति में जाने का उनका उद्देश्य था कि वे गऱीब और हाशिए पर रहने वाले वंचित वर्ग के लोगों की मदद कर सकें।
उन्होंने 1909 में लेबर पार्टी ज्वाइन की और 12 साल बाद कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली। वो भारत और ब्रिटेन में मज़दूर वर्ग के अधिकारों को लेकर गहरी चिंता करते थे।
सकलतवाला का मानना था कि किसी साम्राज्यवादी शासन के बजाय केवल समाजवाद ही गऱीबी को मिटा सकता है और लोगों को शासन में अपनी बात कहने का अधिकार दे सकता है।
सकलतवाला के भाषणों की खूब सराहना होती थी। ब्रिटेन में वो जल्द ही एक लोकप्रिय चेहरा बन गए। साल 1922 में उन्हें पहली बार संसद के लिए चुना गया और बतौर सांसद उन्होंने कऱीब सात साल तक काम किया।
इस दौरान उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए जमकर वकालत की। उनके विचार इतने दृढ़ थे कि कंज़र्वेटिव पार्टी के एक ब्रिटिश-भारतीय सांसद ने उन्हें एक ख़तरनाक ‘कट्टरपंथी कम्युनिस्ट’ माना था।
महात्मा गांधी से वैचारिक लड़ाई
सांसद के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान सकलतवाला ने कई बार भारत की भी यात्रा की। भारत में दिए अपने भाषणों में उन्होंने मज़दूर वर्ग और युवा राष्ट्रवादियों से ख़ुद को मुखर करने और स्वतंत्रता आंदोलन को अपना समर्थन देने की अपील की।
इस दौरान सकलतवाला ने जिन क्षेत्रों का दौरा किया, वहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को संगठित करने और बनाने में भी मदद की।
अपने साझा दुश्मन यानी ब्रिटिश शासन को हराने के लिए साम्यवाद पर सकलतवाला के विचारों का टकराव अक्सर महात्मा गांधी के अहिंसा के प्रति दृष्टिकोण से होता था।
सकलतवाला ने महात्मा गांधी को लिखे अपने एक पत्र में कहा था, ‘प्रिय कॉमरेड गांधी, हम दोनों ही इतने अनिश्चित हैं कि अपनी बात को स्वतंत्र रूप से और सही ढंग से रखने के लिए एक-दूसरे के साथ रूख़ा व्यवहार करने की अनुमति देते हैं।’
इसके साथ ही उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के प्रति अपनी बेचैनी और लोगों को उन्हें ‘महात्मा’ (एक पूजनीय व्यक्ति या साधु) कहने की अनुमति देने के बारे में भी खुलकर बात की।’
इसी वजह से इन दोनों के बीच कभी समझौता नहीं हो सका। फिर भी वे एक-दूसरे के साथ सौहार्द्रपूर्ण बने रहे और ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के अपने साझा लक्ष्य के लिए एकजुट रहे।
भारत में सकलतवाला के जोशीले भाषणों से ब्रिटिश अधिकारी परेशान हो गए और साल 1927 में उनपर भारत की यात्रा करने को लेकर प्रतिबंध लगा दिया गया।
1929 में उन्होंने ब्रिटिश संसद में अपनी सीट खो दी, लेकिन उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए लड़ाई जारी रखी।
1936 में उनके निधन तक सकलतवाला ब्रिटिश राजनीति और भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बने रहे।
उनके अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियों को लंदन के एक कब्रिस्तान में उनके माता-पिता और जमशेदजी टाटा के बगल में दफऩा दिया गया, जिससे वो एक बार फिर टाटा परिवार और उनकी विरासत के साथ जुड़ गए। (bbc.com/hindi)
-मिर्जा एबी बेग
‘ये दो ऐसे लोग हैं जिन्हें सारी दुनिया सलाम करती है लेकिन उन्होंने अपनी सारी जि़ंदगी कॉपी के अलावा कुछ नहीं किया। सलीम-जावेद कॉपी राइटर हैं, वह असली लेखक नहीं।’
ये शब्द लेखक अमित आर्यन के हैं, जिन्होंने बॉलीवुड के दो मशहूर स्क्रिप्ट राइटर सलीम ख़ान और जावेद अख्तर के बारे में हाल ही में ये बातें कही हैं।
सलीम खान और जावेद अख्तर ने भारतीय सिनेमा को ‘ज़ंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’, ‘त्रिशूल’, ‘डॉन’, ‘क्रांति’, ‘शक्ति’ और ‘मिस्टर इंडिया’ समेत दर्जनों सुपरहिट फिल्में दी हैं।
यह आरोप लगाने वाले अमित आर्यन ने ‘एफ़आईआर’, ‘एबीसीडी’, ‘यह उन दिनों की बात है’, ‘लापतागंज’ और ‘डू नॉट डिस्टर्ब’ जैसी फि़ल्में लिखीं हैं।
अमित आर्यन ने दावा किया कि सलीम-जावेद की लिखी फिल्म ‘शोले’ राज खोसला की फिल्म ‘मेरा गांव, मेरा देश’ की नकल है।
इससे पहले भी फि़ल्म ‘शोले’ पर आरोप लग चुके हैं कि यह सर्जीव लियोन की फिल्म ‘वंस अपॉन अ टाइम इन द वेस्ट’ की नकल है।
बॉलीवुड से संबंध रखने वाले कई लोग 1975 में रिलीज़ होने वाली ब्लॉकबस्टर फि़ल्म ‘शोले’ में जय यानी अमिताभ बच्चन और मौसी (लीला मिश्रा) के बीच होने वाली बातचीत को नामी उर्दू फिक्शन राइटर इब्ने सफी के नॉवेल ‘खौफनाक इमारत’ से लिया गया डायलॉग बताते हैं।
इस फि़ल्म के गीत ‘महबूबा महबूबा’ को किसी ने अरबी गाने की नकल कहा है तो किसी ने इसे अंग्रेज़ी फि़ल्म ‘से यू लव मी’ की नकल बताया है।
आरोपों पर क्या बोले जावेद अख्तर?
बीबीसी ने हाल के आरोपों पर जावेद अख़्तर से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उनका जवाब नहीं मिल पाया।
हालांकि, उन्होंने कुछ समय पहले नसरीन मुन्नी के साथ बातचीत पर आधारित किताब ‘टॉकिंग लाइफ़’ में इस तरह के आरोपों को बेबुनियाद बताया था।
लेकिन, उन्होंने सर्जीव लियोन से प्रभावित होने की बात मानी थी। एक मीडिया हाउस से बात करते हुए जावेद अख़्तर यह भी कह चुके हैं कि वह इब्ने सफी के उपन्यासों को शौक से पढ़ा करते थे।
उन्होंने कहा था कि कुछ वर्गों की ओर से उनकी फिल्म ‘जंजीर’ को फि़ल्म ‘डर्टी हैरी’ की नक़ल कहा गया, जो ‘बकवास’ है।
उनका कहना था कि ‘ज़ंजीर’ सलीम ख़ान की सोच थी जिस पर ‘हम दोनों ने एक साथ काम किया।’
उनके अनुसार ‘डर्टी हैरी’ पर एक फि़ल्म ‘ख़ून ख़ून’ जरूर बनी, लेकिन वह किसी और का काम था।
उन्होंने इस तरह के सभी आरोपों को ‘रबिश’ कहकर रद्द कर दिया और कहा कि उनकी लिखी कोई भी फिल्म किसी दूसरे फिल्म की नकल या कॉपी नहीं है।
बहरहाल, भारतीय सिनेमा विशेष तौर पर बॉलीवुड या हिंदी सिनेमा में नक़ल के आरोप नए नहीं है। बहुत सी मशहूर फिल्मों की स्क्रिप्ट से लेकर सीन, डायलॉग, संगीत और गीत सभी पर ऐसे आरोप लगे हैं।
जानकार क्या सोचते हैं?
जब बीबीसी ने पुणे स्थित डीवाई पाटिल इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ़ मीडिया एंड जर्नलिज़्म के डायरेक्टर प्रोफ़ेसर अरविंद दास से सवाल किया कि बॉलीवुड में नक़ल किस हद तक जगह बना चुकी है तो उनका जवाब था, ‘बकौल गालिब, आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी, अब किसी बात पर नहीं आती।’
उन्होंने कहा कि भारतीय फि़ल्म इंडस्ट्री में नकल बेशर्मी की हद तक घर कर चुकी है और हद तो यह है कि इस पर कोई कार्रवाई नहीं होती। वो बोले, ‘ऐसी बातों को ‘इंस्पायर्ड’ कहकर कबूल कर लिया जाता है।’
प्रोफेसर दास ने कहा अगर आप पश्चिम में देखें तो नकल की वजह से लोगों का ओहदा और उनकी नौकरियां चली गई हैं और उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा है।
वह कहते हैं, ‘आप फरीद जक़रिया की मिसाल ले सकते हैं, जिन्हें न्यूज़ वीक के एडिटोरियल बोर्ड से हटना पड़ा था।’
प्रोफेसर दास ने दावा किया की फि़ल्म ‘शोले’ में जो सिक्का उछालने का मशहूर सीन है, वह भी ‘गार्डन ऑफ इविल’ की कॉपी थी।
उनके अनुसार यह बड़ी समस्या है, लेकिन अब इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। (बाकी पेज 8 पर)
उनके अनुसार शाहरुख खान की ‘बाज़ीगर’ या ‘अग्नि साक्षी’ जैसी फिल्मों पर भी ‘स्लीपिंग विद दि एनिमी’ की नक़ल होने के आरोप लगे हैं। इसी तरह ‘बरेली की बर्फी’ फिल्म भी ‘फ्रेंच किस’ पर आधारित है।
उन्होंने कहा, ‘अब तो इंटरनेट का जमाना है। आप सर्च करें तो आपको नक़ल पर बनी फिल्म और उसकी असल दोनों के लिंक मिल जाएंगे और आप ख़ुद ही फ़ैसला कर सकते हैं कि भारतीय सिनेमा में ‘चोरी’ किस हद तक जगह बना चुकी है।’
दिल्ली स्थित ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़’ (सीएसडीएस) में इंडियन लैंग्वेजेज प्रोग्राम में एसोसिएट प्रोफेसर रविकांत का कहना है, ‘नकल मानव स्वभाव में है और यह किसी भी चीज़ की तरक्की और उसे बढ़ावा देने के लिए जरूरी है।’
उन्होंने कहा, ‘पॉपुलर कल्चर को बढ़ावा देने के लिए नकल जरूरी है।’
उन्होंने सवाल किया कि जो लोग सलीम-जावेद पर नक़ल या चोरी का इल्ज़ाम लगाते हैं, क्या वह उन जैसी कोई चीज़ पेश कर सकते हैं या वह चीज़ लिख सकते हैं?
लेकिन, जब किसी का सृजनात्मक काम कोई दूसरा अपने नाम कर ले तो उसे चोरी कहते हैं और यह भी एक जमाने से दुनिया भर में चल रही है।
नक़ल किसे कहेंगे?
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की डिक्शनरी ने ‘प्लेगेरिज़्म’ या नकल की परिभाषा लिखते हुए बताया है कि किसी दूसरे के काम या विचार को अपने काम या विचार के तौर पर पेश करना नकल है।
फिर चाहे ऐसा मूल लेखक की रजामंदी के साथ या इसके बिना किया गया हो।
वैसे नकल करना अपने आप में कोई जुर्म नहीं है, लेकिन जालसाज़ी की तरह कॉपीराइट और नैतिक अधिकारों के उल्लंघन की वजह से इस तरह की धोखाधड़ी के लिए अदालत में सज़ा दी जा सकती है।
यह अकादमियों और उद्योगों में एक गंभीर नैतिक अपराध माना जाता है।
दिल्ली की अंबेडकर यूनिवर्सिटी में क़ानून के प्रोफ़ेसर और कॉपीराइट्स के माहिर प्रोफ़ेसर लॉरेंस लियांग कहते हैं, ‘सिनेमा का अपना एक लंबा इतिहास है, जिसमें काम व्यक्तिगत तौर पर भी होता है और सामूहिक तौर पर भी।’
वे कहते हैं, ‘यानी किसी फिल्म की प्रोडक्शन में किसी ने क्या काम किया और क्या इनपुट दिया, इसे बहुत स्पष्टता के साथ आप अलग-अलग नहीं कर सकते। इसलिए यह क्षेत्र बहुत ही विशिष्ट भी है और बहुत ही अजीब भी है।’
उन्होंने कहा, ‘इसलिए कॉपीराइट के क़ानून का इसमें बहुत दखल नहीं होता है और फिल्म में ऑरिजनलिटी की बहुत जरूरत भी नहीं है।’
प्रोफ़ेसर लियांग ने कहा, ‘भारत में शायद ही कोई फि़ल्म हो जो बाउंड स्क्रिप्ट के साथ बनती है। हालांकि शायद पहली बार आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ एक बाउंड स्क्रिप्ट के साथ बनी फिल्म थी।’
उन्होंने कहा, ‘वर्ना आमतौर पर एक विचार होता है जिस पर काम किया जाता है और शूटिंग के दौरान बहुत से प्रयोग किए जाते हैं। ऐसे में जो चीज सामने आती है, वह एक नई चीज़ ही होती है।’
प्रोफेसर लियांग ने कहा, ‘कुछ ऐसी फि़ल्में बनी हैं जिसके कई संस्करण सामने आए हैं और सब की सब अपने आप में अलग हैसियत रखती हैं।’
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, ‘अकीरा कुरोसावा की 1954 की फिल्म ‘सेवन समुराई’ से प्रभावित होकर भारत में फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ बनी जिसे ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखा है।’
उन्होंने बताया, ‘इसी पर हॉलीवुड ने ‘दी मैग्नीफिशेंट सेवन’ बनाई है, जबकि हॉलीवुड फिल्म ‘बीटल बियोंड स्टार्स’ ने कहा है कि उन्होंने अपनी साइंस फिक्शन फिल्म की प्रेरणा ‘सेवन सामुराई’ से ली है।’
प्रोफ़ेसर लॉरेंस लियांग के अनुसार, ‘कॉपीराइट का मामला उस समय सामने आया था, जब फि़ल्मों की सीडी और डीवीडी बनाई जाती थी और उन्हें ग़ैर क़ानूनी तौर पर बेचा जाता था।’
उन्होंने कहा, ‘आज इसमें भी छूट है कि किसी फि़ल्म को अगर आप थिएटर में नहीं देख सकते तो आप उसे पैसे देकर ऑनलाइन देख सकते हैं यानी बहुत से आउटलेट्स मौजूद हैं।’
उन्होंने एक प्रसिद्ध बात की नकल करते हुए कहा, ‘फिल्मों के मामले में यह बहुत अहम नहीं है कि आप कोई विचार कहां से उठाते हैं बल्कि अहम यह है कि आप उसे कहां पहुंचाते हैं।’
एक कहानी पर बनी तीन अलग फि़ल्में
प्रोफेसर लियांग ने कहा कि साल1936 में आई फिल्म ‘इट हैपेंड वन नाइट’ को ही आप ले लें तो आपको मालूम होता है कि राज कपूर ने इस पर एक फिल्म ‘चोरी चोरी’ बनाई और फिर महेश भट्ट ने इस पर ‘दिल है कि मानता नहीं’ बनाई और आप देखें तो पाएंगे कि तीनों फिल्में अपने आप में अलग-अलग हैं।
सीएसडीएस के प्रोफ़ेसर रविकांत का भी कहना है कि भारत में कहानी कहने का अपना अंदाज रहा है और इसे आप ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ में देख सकते हैं।
उन्होंने कहा, ‘आपको ‘रामायण’ के भी इतने ही संस्करण मिलेंगे जितने ‘महाभारत’ के मिलेंगे और आप उन्हें चोरी या नकल नहीं कह सकते।’
प्रोफेसर लियांग का कहना है कि अनुराग कश्यप और सलीम-जावेद जैसे ‘ए’ लिस्टर स्क्रिप्ट राइटर को छोड़ दें तो स्क्रिप्ट राइटर का शोषण होता है।
उन्हें उनके काम का मेहनताना नहीं मिलता है और इस पॉलिटिकल इकॉनमी में जो शोषण है, वह कॉपीराइट का उल्लंघन है।
उन्होंने कहा कि फि़ल्मों की कहानी से ज़्यादा फिल्मों के गीत और संगीत में नकल बहुत ही आम है और संगीतकार बप्पी लाहिड़ी और अनु मलिक इस मामले में बहुत हद तक ‘बदनाम’ हैं।
उन्होंने कहा, ‘यह बहुत आम है। रीमिक्स में तो और भी ज़्यादा आम है।’
प्रोफेसर लियांग ने बताया, ‘फिल्म ‘मधुमती’ का गीत ‘दिल तड़प तड़प कर कह रहा’ पोलैंड के लोकगीत से लिया गया है और यह कल्चरल ट्रांसलेशन है।’
उन्होंने कहा, ‘अब इंटरनेट की वजह से सारी दुनिया के गीत आपके सामने हैं तो आपको अंदाजा होता है कि सलिल चौधरी से लेकर आरडी बर्मन तक बहुत सारे संगीतकारों पर गीत की धुन नकल करने के आरोप देखे जा सकते हैं।’
नकल पर लिखा गया लेख
पत्रकार मोनोजीत लाहिड़ी ने बॉलीवुड में नकल के विषय पर एक लेख लिखा है जिसका शीर्षक है ‘चोरी मेरा काम’ जिसमें ‘चोरी चोरी’ से लेकर फिल्म ‘फरेब’ तक का जिक्र किया गया है, जिसके बारे में दावा किया जाता है कि यह ‘ऐन अनलॉफुल एंट्री’ की नकल है।
अगर फिल्मों की साइट ‘आईएमडीबी’ पर जाएं तो आपको दर्जनों हिंदी फिल्मों का जिक्र मिलेगा जो हॉलीवुड की फिल्म की रीमेक हैं या फिर उन पर आधारित हैं।
प्रोफेसर रविकांत कहते हैं कि दरअसल नकल उसी चीज़ की होती है जो कामयाब होती है या फिर उस पर नकल का आरोप लगाया जाता है जो कामयाब होती है।
उन्होंने एक फिल्म की चर्चा की जिसमें फिराक गोरखपुरी के शेर का इस्तेमाल किया गया था तो फिराक गोरखपुरी ने किसी से कहा था कि उन्हें इसका पैसा मिलना चाहिए।
इस पर फिल्म मैगजीन ‘शमा’ में लोगों ने उन्हें कहा कि इससे यह तो साबित होता है कि आपका शेर लोकप्रिय है, लेकिन आपके शेर की वजह से फिल्म हिट हुई है, यह पता नहीं चलता। इसलिए पैसे मांगना कुछ ज़्यादा तो नहीं हो गया।
रविकांत के अनुसार न जाने कितने ही गायक मोहम्मद रफी की नकल करके अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं।
इसी तरह, प्रोफेसर लियांग ने कुमार शानू की एक बात बताई कि जब किसी ने उनसे पूछा कि वह किशोर कुमार के ही गीत क्यों गाते हैं तो उन्होंने संगीत को अपना धर्म और किशोर कुमार को अपना भगवान कहा था। ((bbc.com/hindi)
-राघवेन्द्र राव
अमेरिका के न्याय मंत्रालय ने 17 अक्तूबर को भारतीय नागरिक विकास यादव के खिलाफ भाड़े पर हत्या और मनी लॉन्ड्रिंग का मामला दर्ज करने की घोषणा की।
ये मामला साल 2023 में न्यूयॉर्क शहर में अमेरिकी नागरिक और सिख अलगाववादी नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू के क़त्ल की नाकाम साजिश से जुड़ा है। अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि ‘पन्नू की हत्या की साजिश’ में विकास यादव की अहम भूमिका थी। जहां अमेरिकी न्याय मंत्रालय ने यादव को भारत सरकार का कर्मचारी बताया है, वहीं भारत ये कह चुका है कि विकास यादव अब भारत सरकार के कर्मचारी नहीं हैं।
इस मामले में एक और भारतीय नागरिक निखिल गुप्ता पहले से ही अमेरिकी हिरासत में हैं।
अमेरिका ने क्या कहा?
अमेरिका ने विकास यादव और निखिल गुप्ता पर भाड़े पर हत्या की कोशिश का आरोप लगाया गया है जिसके लिए वहां के कानून के मुताबिक अधिकतम 10 साल की जेल की सजा का प्रावधान है। साथ ही दोनों अभियुक्तों पर भाड़े पर हत्या करने की साजि़श रचने का भी आरोप लगाया गया है जिसके लिए भी अधिकतम 10 वर्ष की जेल की सजा का प्रावधान है।
दोनों पर मनी लॉन्ड्रिंग की साजिश रचने का आरोप भी लगाया गया है जिसके लिए अधिकतम 20 वर्ष की जेल की सजा का प्रावधान है।
आरोपों की घोषणा करते हुए अमेरिकी अटॉर्नी जनरल मेरिक बी गारलैंड ने कहा कि कोई भी व्यक्ति जो अमेरिकी नागरिकों को नुकसान पहुँचाने और चुप कराने की कोशिश करेगा, फिर चाहे वो किसी भी पद पर हो या सत्ता से कितनी भी निकटता रखता हो, उसे न्याय मंत्रालय जवाबदेह ठहराने की पूरी कोशिश करेगा।
अमेरिकी अटॉर्नी डेमियन विलियम्स ने कहा, ‘पिछले साल इस कार्यालय ने निखिल गुप्ता पर अमेरिकी धरती पर भारतीय मूल के एक अमेरिकी नागरिक की हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया था।’
उन्होंने कहा, ‘लेकिन, जैसा कि आरोप लगाया गया है, गुप्ता ने अकेले काम नहीं किया। आज हम एक भारतीय सरकारी कर्मचारी विकास यादव के खिलाफ आरोपों की घोषणा करते हैं, जिन्होंने भारत से साजिश रची और गुप्ता को पीडि़त की हत्या के लिए एक हत्यारे को नियुक्त करने का निर्देश दिया।’
विलियम्स ने यह भी कहा कि अमेरिकी नागरिकों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करने वाले सभी लोगों के लिए ये मामला चेतवानी की तरह है।
विकास यादव के बारे में क्या-क्या पता है?
अमेरिका ने जो आरोप दर्ज किए हैं उनके मुताबिक़, विकास यादव उफऱ् अमानत भारत सरकार के कैबिनेट सचिवालय में कार्यरत थे जो भारतीय प्रधानमंत्री कार्यालय का एक हिस्सा है।
अमेरिका के मुताबिक़, यादव भारत की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के लिए काम करते थे जो कैबिनेट सचिवालय का हिस्सा है।
अमेरिकी न्याय मंत्रालय ने कहा है कि विकास यादव ने अपने पद को ‘वरिष्ठ फील्ड ऑफिसर’ के रूप में बताया है जहां उनकी जिम्मेदारियाँ ‘सुरक्षा प्रबंधन’ और ‘खुफिया प्रबंधन’ हैं।
अमेरिकी अधिकारियों के मुताबिक, विकास यादव ने अपने नियोक्ता का पता नई दिल्ली में सीजीओ कॉम्प्लेक्स के रूप में सूचीबद्ध किया है, जहाँ रॉ का मुख्यालय है। साथ ही अमेरिकी न्याय मंत्रालय का कहना है कि यादव ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल में भी काम किया है जो भारत का सबसे बड़ा अर्धसैनिक बल है।
यादव ने वहां अपना पद ‘सहायक कमांडेंट’ के रूप में बताया है जिसके पास 135 लोगों की कंपनी की कमान थी।
अमेरिका ने कहा है कि यादव के बारे में मिली जानकारी के मुताबिक उन्होंने काउंटर इंटेलिजेंस, बैटल-क्रॉफ्ट (युद्ध कला), हथियार और पैराट्रूपर प्रशिक्षण हासिल किया है।
कौन हैं निखिल गुप्ता?
अमेरिका का कहना है कि 53 वर्षीय निखिल गुप्ता उर्फ निक एक भारतीय नागरिक हैं और विकास यादव के सहयोगी रहे हैं।
अमेरिकी न्याय मंत्रालय के मुताबिक़, निखिल गुप्ता ने विकास यादव और अन्य लोगों के साथ बातचीत में इस बात का जि़क्र किया है कि वो मादक पदार्थों और हथियारों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही तस्करी में शामिल हैं।
पिछले साल अमेरिकी न्याय मंत्रालय ने निखिल गुप्ता के खिलाफ गुरपतवंत सिंह पन्नू मामले में भाड़े पर हत्या की कोशिश का आरोप लगाया था।
30 जून, 2023 को निखिल गुप्ता को चेक गणराज्य के अधिकारियों ने गिरफ्तार कर लिया और इसके बाद अमेरिका और चेक गणराज्य के बीच द्विपक्षीय प्रत्यर्पण संधि के तहत अमेरिका को सौंप दिया था।
विकास यादव और निखिल गुप्ता के बीच क्या ‘कनेक्शन’?
अमेरिकी न्याय मंत्रालय का कहना है कि मई 2023 में विकास यादव ने अमेरिका में गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश रचने के लिए निखिल गुप्ता को भर्ती किया।
अमेरिका का कहना है, ‘विकास यादव के निर्देश पर निखिल गुप्ता ने पन्नू की हत्या करने के लिए एक हिटमैन को भर्ती करने करने के लिए एक ऐसे व्यक्ति से संपर्क किया, जिसके बारे में गुप्ता को लगता था कि वह एक आपराधिक सहयोगी है, लेकिन असलियत में वो अमेरिका के ड्रग एनफोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन (डीईए) के साथ काम करने वाला एक ख़ुफिय़ा एजेंट था।’
‘इस खुफिया एजेंट ने गुप्ता को एक कथित हिटमैन से मिलवाया, जो असलियत में डीईए का अंडरकवर अधिकारी था। निखिल गुप्ता ने जो डील की, उसके मुताबिक़ विकास यादव ने पन्नू की हत्या के लिए हिटमैन को एक लाख अमेरिकी डॉलर का भुगतान करने पर हामी भरी।’
आरोपों के मुताबिक, ‘9 जून 2023 को विकास यादव और निखिल गुप्ता ने एक सहयोगी से हत्या के लिए अग्रिम भुगतान के रूप में हिटमैन को पंद्रह हज़ार अमेरिकी डॉलर नकद देने की व्यवस्था की और ये पैसा यादव के सहयोगी ने फिर मैनहट्टन में हिटमैन को दिया।’
‘कैसे रची गई साजिश’?
अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि जून 2023 में हत्या की साजिश को आगे बढ़ाने के लिए विकास यादव ने निखिल गुप्ता को पन्नू के बारे में व्यक्तिगत जानकारी दी।
इसमें न्यूयॉर्क शहर में पन्नू के घर का पता, उससे जुड़े फोन नंबर और उसके दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों के बारे में विवरण शामिल था। निखिल गुप्ता ने ये जानकारियां हिटमैन को दे दीं।
अमेरिकी न्याय मंत्रालय के मुताबिक़, ‘विकास यादव ने निखिल गुप्ता को हत्या की साजि़श कैसे बढ़ रही है, उस पर नियमित अपडेट देने को कहा। निखिल गुप्ता ने ये अपडेट और पन्नू की निगरानी के दौरान ली गई तस्वीरों को विकास यादव को भेज दिया।’
अमेरिका का दावा है कि निखिल गुप्ता ने हिटमैन को जल्द से जल्द हत्या को अंजाम देने के लिए कहा, लेकिन साथ ही ये भी कहा कि ये हत्या भारत के प्रधानमंत्री की अमेरिका की आधिकारिक राजकीय यात्रा के आसपास न की जाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा 20 जून, 2023 के आसपास शुरू होने वाली थी।
‘अब ये प्राथमिकता है’
18 जून, 2023 को भारतीय प्रधानमंत्री की अमेरिका की राजकीय यात्रा से लगभग दो दिन पहले नकाबपोश बंदूकधारियों ने कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में एक सिख मंदिर के बाहर हरदीप सिंह निज्जर की हत्या कर दी।
निज्जर को गुरपतवंत सिंह पन्नू का सहयोगी बताया जाता है और पन्नू की तरह ही सिख अलगाववादी आंदोलन का नेता और भारत सरकार का मुखर आलोचक थे।
अमेरिकी अदालत में दर्ज किए गए आरोपों में कहा गया है कि 19 जून 2023 को निज्जर की हत्या के अगले दिन निखिल गुप्ता ने हिटमैन से कहा कि निज्जर भी ‘लक्ष्य था’ और ‘हमारे पास बहुत सारे लक्ष्य हैं’।
आरोपों के मुताबिक़, निखिल गुप्ता ने कहा कि निज्जर की हत्या के मद्देनजर पन्नू को मारने के लिए ‘अब इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं है’।
अमेरिकी न्याय मंत्रालय का कहना है कि 20 जून, 2023 को विकास यादव ने निखिल गुप्ता को पन्नू के बारे में एक समाचार लेख भेजा और एक संदेश दिया- ‘अब यह प्राथमिकता है।’
क्या भारत विकास यादव को
अमेरिका को सौंप देगा?
इस पूरे घटनाक्रम के चलते बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत को विकास यादव को अमेरिका को सौंपना पड़ेगा?
भारत और अमेरिका के बीच प्रत्यर्पण संधि साल 1997 में हुई थी। इस संधि के तहत ऐसा हो सकता है कि अमेरिका भारत से विकास यादव का प्रत्यर्पण करना चाहेगा।
प्रोफेसर हर्ष वी पंत नई दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के अध्ययन और विदेश नीति विभाग के उपाध्यक्ष हैं। हमने उनसे पूछा कि क्या भारत और अमेरिका के बीच प्रत्यर्पण संधि के तहत भारत को विकास यादव को अमेरिका को सौंपना पड़ सकता है?
उन्होंने कहा, ‘मेरी अपनी समझ यह है कि दोनों देशों को अदालतों से परे कुछ समझौता करना होगा क्योंकि इससे मुश्किलों के हल होने की बजाय और ज़्यादा मुश्किलें पैदा होंगी।’
उन्होंने कहा, ‘निश्चित रूप से कोई भी सरकार नहीं चाहेगी कि वो किसी पूर्व ख़ुफिय़ा अधिकारी का प्रत्यर्पण होने दें। मुझे लगता है कि भारत और अमेरिका को यह पता लगाने के लिए कोई और तरीका निकालना होगा कि इस मसले को कैसे सुलझाया जाए।’
प्रोफ़ेसर पंत के मुताबिक़ ‘आखिरकार ये सभी राजनीतिक निर्णय हैं’।
वे कहते हैं, ‘एक बार जब स्पॉटलाइट चली जाती है तो आप कई चीज़ें कर सकते हैं लेकिन जब तक स्पॉटलाइट है तब तक यह मुश्किल भी है।’
वो कहते हैं, ‘इस मामले में अमेरिकी प्रणाली की क़ानूनी बारीकिय़ाँ भी शामिल हैं और इन सीमाओं के बीच रहते हुए किस बात पर सहमति हो सकती है यह अनिवार्य रूप से एक राजनीतिक सवाल होगा।’
दोनों देशों के बीच प्रत्यर्पण संधि होने के बावजूद अमेरिका ने अतीत में 26/11 मुंबई हमले के दोषी डेविड कोलमैन हेडली को भारत को प्रत्यर्पित करने से इनकार कर दिया था।
क्या विकास यादव के मामले में भारत भी ऐसा कर सकता है?
प्रोफेसर हर्ष पंत कहते हैं, ‘खुफिया अधिकारियों से जुड़े ज़्यादातर मामलों में आपके पास सिस्टम के भीतर तंत्र उपलब्ध हैं और मुझे लगता है कि संरचना आपको ऐसा करने की अनुमति देती है।’
उन्होंने कहा, ‘आप जटिलताएं पैदा कर सकते हैं, आप देरी कर सकते हैं और ध्यान भटका सकते हैं, संदर्भ बदल सकते हैं और आप कानूनी व्याख्या को इस तरह से आगे बढ़ा सकते हैं कि उसे अमेरिका में प्रत्यर्पित होने से रोका जा सके।’
लेकिन साथ ही प्रोफेसर पंत ये भी कहते हैं कि चूंकि इस मामले में भारत ने बहुत जल्दी कहा कि वो जांच में मदद और सहयोग कर रहा है इसलिए इस मामले में दोनों देशों के बीच कोई खटास नहीं है।
प्रोफेसर पंत कहते हैं, ‘अमेरिकियों ने इसे स्वीकार किया है और कहा है कि वे संतुष्ट हैं। कनाडा के साथ चल रहे मामले के विपरीत, यहां स्थिति काफ़ी अलग है।’
इस मामले पर भारत सरकार का क्या कहना है?
भारत ने कहा है कि वो इस मामले की जांच में अमेरिका का सहयोग कर रहा है और अमेरिका ने कहा है कि वो अब तक मिले सहयोग से संतुष्ट है।
गुरुवार को भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने विकास यादव का नाम लिए बिना कहा था कि अमेरिकी जस्टिस डिपार्टमेंट के अभियोग में जिस व्यक्ति का नाम है, वह अब भारत सरकार का कर्मचारी नहीं है।
एक सवाल के जवाब में जायसवाल ने कहा, ‘मैंने अभी पुष्टि की है कि हाँ, यह विशेष सज्जन, वह भारत सरकार के ढांचे का हिस्सा नहीं हैं। वह कोई कर्मचारी नहीं हैं। इसके अलावा मेरे पास आपके साथ साझा करने के लिए कुछ भी नहीं है।’
जायसवाल ने ये भी बताया कि इस मामले से जुड़ी एक उच्च स्तरीय जांच समिति के सदस्य अमेरिका गए हैं।
उन्होंने कहा कि इस जांच समिति का गठन नवंबर 2023 में उन इनपुट्स की जांच करने के लिए किया गया था जो अमेरिका ने भारत के साथ साझा किए थे।
जायसवाल ने कहा, ‘हमने इन इनपुट्स को बहुत गंभीरता से लिया है और हम इस मामले पर अमेरिकी पक्ष के साथ जुड़े हुए हैं। उच्च स्तरीय समिति के दो सदस्य, वे वहां गए हैं और उन्होंने अमेरिकी पक्ष के साथ बैठकें की हैं।’ इसी साल सितंबर में गुरपतवंत सिंह पन्नू ने अमेरिका की एक अदालत में भारत सरकार, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और रॉ चीफ सामंत गोयल और अन्य लोगों के खिलाफ मुकदमा दायर किया था।
इस मुकदमे में पन्नू ने भारत सरकार पर उनकी हत्या की कथित कोशिश का आरोप लगाया था और क्षतिपूर्ति की मांग की थी। अमेरिकी अदालत ने मामले में नामजद लोगों को समन किया था।
भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने इसे ‘पूरी तरह से अनुचित मामला’ बताया था और कहा था कि पन्नू के बारे में ये बात साफ है कि वो एक गैर-कानूनी संगठन से जुड़े हैं। (bbc.com/hindi)
- डॉ. आर.के. पालीवाल
पिछले दशक में केंद्र सरकार ने कई ऐसे नियम कानून बनाए हैं जिनसे लोगों को डिजिटल दुनिया में प्रवेश करना जरूरी हो गया। नकद लेन देन को जांच एजेंसियों द्वारा शक की नजर से देखना, डिजिटल इकोनॉमी प्रयुक्त करने पर टोल नाकों पर लाभ और ऑन लाइन आवेदन और ऑन लाइन शिकायत निवारण आदि भी ऐसी कई वजहें हैं जिससे लोगों को मज़बूरी में मोबाइल के सहारे डिजिटल लेन देन करना पड़ता है।
दूसरी तरफ इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के तेजी से प्रचार प्रसार के कारण ऐसे बेरोजगार पढ़े लिखे युवाओं की एक बड़ी फौज तैयार हो गई है जिसने उचित नौकरी के अभाव या घर बैठे ठगी की आसान कमाई को अपने पेशे के रूप में अपना लिया है। अखबारों और सोशल मीडिया की खबरों में आए दिन देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसे समाचार मिलते हैं जिनसे विशेष रूप से बुजुर्गों और पेंशन आदि की सीमित आय वालों की ऑनलाइन ठगी के दुखद समाचार मिलते हैं। इस ठगी के नित नए विविध रूप सामने आ रहे हैं जिनमें कहीं फर्जी फेसबुक अकाउंट बनाकर मैसेंजर के माध्यम से लोगों से तरह तरह से ठगी की जा रही है। इसी तरह व्हाट्सएप पर किसी का फोटो लगाकर उनके मित्रों और परिजनों को व्हाट्स ऐप कॉल पर झूठी सूचना देकर पैसे वसूले जा रहे हैं।
इन सबमें सबसे ख़तरनाक वीडियो काल के माध्यम से महिलाओं से दोस्ती के नाम पर ब्लैकमेलिंग कर और ई डी, सी बी आई और इनकम टैक्स आदि जांच एजेंसियों का डर दिखाकर लोगों को डिजिटल अरेस्ट तक कर तगड़ी रकम वसूली है। हाल ही में पंजाब के औद्योगिक समूह वर्धमान इंडस्ट्री के वरिष्ठ मैनेजिंग डायरेक्टर ओसवाल को सुप्रीम कोर्ट की फर्जी बैंच का डर दिखाकर छह करोड़ की पेनल्टी किसी अज्ञात अकाउंट में जमा कराने का सनसनीखेज मामला सामने आया है। यही नहीं फेसबुक पर मुकेश अंबानी के फोटो और नाम से भी कुछ फर्जी अकाउंट बने हैं जिनसे मुझे भी मित्रता का अनुरोध आया है। जब मुकेश अंबानी और ओसवाल के नाम से ठगी का कारोबार हो सकता है ऐसे में आम आदमी के साथ कुछ भी संभव है।
फेसबुक और व्हाट्स एप आदि के सर्वर देश के बाहर हैं। इन कंपनियों की नीतियां ऐसी हैं कि फर्जी अकाउंट की रिपोर्ट करने पर भी रेडीमेड उत्तर आता है कि हमें इस अकाउंट में कुछ गलत नहीं लगता। केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय ही इस मामले को फेसबुक और व्हाट्स एप आदि के साथ सख्ती से उठा सकते हैं क्योंकि पुलिस के लिए भी इन अंतरराष्ट्रीय गिरोहों को नियंत्रित करना तब तक संभव नहीं है जब तक फेसबुक और व्हाट्स एप चलाने वाली मल्टी नेशनल कंपनियां अपनी तरफ से आगे बढ़ कर डिजिटल ठगी को अंजाम देने वाले गिरोहों को पकड़वाने की पहल नहीं करेंगी। अभी उनका रवैया इन्हें संरक्षण देने का है।
डिजिटल ठगी के जो विविध रूप इन दिनों चल रहे हैं उनमें कुछ लोग छोटी छोटी रकम की ठगी करते हैं, जैसे वे आपको कहते हैं कि यदि आपने अमुक अकाउंट में तीन हजार रुपए का बिल तुरंत नहीं भरा तो आपकी बिजली रात दस बजे कट जाएगी । ऐसे ठग दिन में सौ डेढ़ सौ लोगों को निशाना बनाते हैं। ठगी की रकम कम होने से ठगे जाने वाले लोग पुलिस के झमेले में भी नहीं पड़ते।
दूसरे डिजिटल ठग वे हैं जो महिलाओं की कामुक अदाओं की वीडियो काल में थोड़ी चंचल तबियत के लोगों को फंसाकर ब्लैकमेल करते हैं।इज्जत नीलाम होने के डर से ठगे गए लोग कोर्ट कचहरी नहीं जाते। तीसरे सबसे शातिर ठग अमीरों को जांच एजेंसी द्वारा गिरफ्तार करने का डर दिखाकर लाखों करोड़ों की वसूली करने वाले हैं ,जिनका शिकार वर्धमान समूह के मालिक हुए हैं। सबसे ज्यादा बरबाद वे होते हैं जिनका बैंक अकाउंट हैक कर जीवन भर की जमा पूंजी लुट जाती है। कहने के लिए साइबर फ्रॉड सेल बनी हैं लेकिन वहां ऑन लाइन शिकायत करने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है जो बुजुर्गों के बस की नहीं है। यदि साइबर पुलिस किसी व्हाट्स ऐप नंबर पर सादा शिकायत करने की सुविधा दे तभी लुटे पिटे लोग अपनी शिकायत आसानी से दर्ज करा सकते हैं अन्यथा लोग चुपचाप लुटते रहेंगे।
पाकिस्तान में आयोजित एससीओ (शंघाई कोऑपरेशन कॉर्पोरेशन) की बैठक खत्म हो गई है लेकिन इसमें शामिल होने गए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर की चर्चा अब भी जारी है।
पिछले साल पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री बिलावल जरदारी भुट्टो जब एससीओ की बैठक में गोवा आए थे तो काफी तनातनी थी, लेकिन इस बार इस्लामाबाद में बिल्कुल अलग माहौल था।
एस जयशंकर ने अपनी बात कही लेकिन पाकिस्तान पर सीधी उंगली उठाने वाली कोई बात नहीं कही। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने भी एससीओ को संबोधित किया लेकिन उन्होंने भी भारत पर कोई निशाना नहीं साधा और न ही कश्मीर का मुद्दा उठाया।
एस जयशंकर जब बुधवार को इस्लामाबाद से दिल्ली वापस लौटे तो ट्वीट कर शहबाज शरीफ और पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक डार को खातिरदारी के लिए शुक्रिया कहा। इसहाक डार ने भी एस जयशंकर को पाकिस्तान आने के लिए शुक्रिया कहा।
एससीओ समिट में भारत से पाकिस्तान एक दर्जन पत्रकार गए थे। इन पत्रकारों का भी कहना है कि इस बार माहौल बिल्कुल अलग था। एस जयशंकर के आने को लेकर काफी हलचल थी।
पाकिस्तान में एससीओ समिट कवर करने एनडीटीवी इंडिया के पत्रकार उमाशंकर सिंह भी गए थे। उमाशंकर कहते हैं, ‘इस बार माहौल अच्छा था। गोवा से बिल्कुल अलग। दोनों देशों ने अपनी बातें कहीं लेकिन बिना किसी को निशाने पर लिए। कऱीब दस साल बाद भारत का कोई विदेश मंत्री पाकिस्तान गया था। इसे लेकर भारत में भी लोगों की काफ़ी दिलचस्पी थी और पाकिस्तान में तो थी ही। दोनों देशों के संबंधों के लिए यह अच्छा दौरा था।’
माहौल बिल्कुल अलग
उमाशंकर सिंह कहते हैं, ‘मैं भी नौ साल बाद पाकिस्तान गया था। इसके पहले मैं कई बार चा चुका हूँ। पाकिस्तान जाना हमेशा से अच्छा अनुभव रहा है।’
इंडिया टुडे ग्लोबल की हेड गीता मोहन भी एससीओ समिट कवर करने इस्लामाबाद गई थीं। गीता मोहन से पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार हामिद मीर ने जियो न्यूज के लिए बातचीत की।
हामिद मीर ने पूछा कि जयशंकर साहब ने यहाँ से जाने के बाद बहुत अच्छा ट्वीट किया। उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को शुक्रिया कहा है। आपका इस ट्वीट पर क्या कहना है?
इसके जवाब में गीता मोहन ने कहा, ‘मैंने हाल-फि़लहाल में जितने भी इवेंट देखे हैं, जिनमें एक रूम में पाकिस्तान और भारत दोनों होते हैं, वहाँ का माहौल बहुत सद्भावनापूर्ण तो होता नहीं है। ये पहली बार है, जब जयशंकर के आने से लेकर जाने तक माहौल ख़ुशनुमा था। कुछ साइडलाइन मीटिंग्स भी हुईं।’
गीता मोहन कहती हैं, ‘आप शहबाज शरीफ और एस जयशंकर के बयान को देखिए तो साफ पता चलता है कि दोनों के तेवर नरम जरूर पड़े हैं। फिर मुझे पता चला कि लंच के दौरान वेटिंग रूम में भी शहबाज शरीफ के साथ एस जयशंकर की बात हुई। लंच के दौरान का विजुअल भी है कि इसहाक़ डार और एस जयशंकर साथ बैठे हुए हैं और बात कर रहे हैं। ये केवल अनौपचारिक गपशप नहीं है बल्कि इससे ज़्यादा है। शायद बेहतर रिश्ते का आग़ाज़ है। जयशंकर ने भारत की नीति पर ही अपनी बात कही है।’
उम्मीदें बढ़ीं
गीता मोहन ने कहा, ‘जयशंकर ने सीमा पार आतंकवाद की बात की और चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर की भी बात की। ये ज़रूर है कि उन्होंने चीन और पाकिस्तान का नाम नहीं लिया। लेवल ऑफ इंगेजमेंट तो बदला है। इमरान खान की सरकार के दौरान रिश्ते बहुत खराब थे।’
‘जब आपके यहाँ गठबंधन की सरकार थी और बिलावल पाकिस्तान के विदेश मंत्री के रूप में गोवा आए थे तो एक्सचेंज ऑफ वर्ड बहुत ही खराब थे। बिलावल को तो गोवा में शुक्रिया कहने का भी मौका नहीं मिला। शरीफ़ परिवार सरकार में होता है तो भारत के साथ संबंध अच्छे रहते हैं।’
गीता मोहन ने कहा, ‘जियोपॉलिटिक्स बदल रही है। इसराइल हमास युद्ध हो या यूक्रेन-रूस युद्ध हो दोनों में एससीओ की अहम भूमिका होगी। 2017 में भारत और पाकिस्तान जब एससीओ के सदस्य बन रहे थे तो दोनों देशों के सामने शर्त थी कि वे अपने द्विपक्षीय मुद्दों को नहीं उठाएंगे।’
वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त भी इस्लामाबाद एससीओ कवर करने गई थीं। बरखा दत्त ने इस्लामाबाद में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनकी बेटी मरियम नवाज से मुलाकात की थी। बरखा दत्त ने इस मुलाक़ात की तस्वीर भी पोस्ट की थी।
पाकिस्तान के न्यूज चैनल आज टीवी ने बरखा से इस मुलाक़ात को लेकर बात की। बरखा ने कहा, ‘नवाज शरीफ ने मुझसे ऑन द रिकॉर्ड बात की। वे ऑन कैमरा नहीं आए लेकिन उन्होंने कहा कि जो भी कह रहे हैं, वो ऑन रिकॉर्ड है। उन्होंने कहा कि आप मुझे बेशक कोट कर सकती हैं। नवाज़ शरीफ़ ने बहुत ही दिलचस्प बात कही। शरीफ ने कहा कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहाँ आए होते तो बहुत अच्छा होता। शरीफ़ ने कहा कि एक और मौका आएगा जब पीएम मोदी से बात होगी।’
यूएनजीए से बिल्कुल अलग माहौल
बरखा दत्त ने कहा, ‘नवाज शरीफ ने पाकिस्तान की गलतियां भी मानीं। मैं अटारी-बाघा से आई। एक समय था जब यहाँ से सैकड़ों ट्रक दोनों देशों के बीच चलते थे। हालात बहुत सामान्य नहीं थे तब भी जयशंकर पाकिस्तान आए। जब मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने तो नवाज शरीफ ने गर्मजोशी से स्वागत किया था और पीएम मोदी ने भी उदारता से स्वीकार किया था।''
‘सबसे बड़ा सवाल है कि नवाज़ शरीफ़ रिश्ते सुधारने के लिए कोई क़दम उठाएंगे तो उन्हें फौज से कितना समर्थन मिलेगा। नवाज़ शरीफ़ बहुत बार अच्छे संबंध की बात कर चुके हैं लेकिन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यही होती है।’
पाकिस्तान के एआरवाई न्यूज चैनल के पत्रकार काशिफ अब्बासी ने अपने शो में बरखा दत्त और नवाज शरीफ की मुलाकात पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘यही मुलाकात अगर 2016-17 में हुई होती तो लोग कहते कि मियां नवाज शरीफ मुल्क के दुश्मन हैं क्योंकि हिन्दुस्तानी पत्रकारों के साथ मिलकर पाकिस्तान के खिलाफ साजिश कर रहे थे। देखिए अब वक्त बदल गया और इस मुलाकात को दोस्ती मुकम्मल करने के रूप में देखा जा रहा है।’
काशिफ अब्बासी ने कहा, ‘मियां साहब पाकिस्तानी पत्रकारों से मुलाकात नहीं करते हैं। मैं तो कहूंगा कि मियां साहब हमें भी इंटरव्यू का मौका दीजिए आप निराश नहीं होंगे।’
भारत के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू की डिप्लोमैटिक अफेयर्स एडिटर सुहासिनी हैदर भी पाकिस्तान गई थीं।
उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘सबसे दिलचस्प है कि कुछ हफ्ते पहले ही न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए शहबाज शरीफ और एस जयशंकर ने एक-दूसरे पर तीखा हमला किया था।’
‘लेकिन एससीओ में माहौल बिल्कुल अलग था। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या पाकिस्तान ने अनुच्छेद 370 हटाने के बाद जो कड़ा रुख अपनाया था, वो अब नरम पड़ेगा? क्या पाकिस्तान भारत से ट्रेड और डिप्लोमैटिक संबंध बहाल करेगा? अब तो जम्मू-कश्मीर में चुनाव भी हो गया है और पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बात हो रही है।’
सुहासिनी हैदर ने आज टीवी से बातचीत में कहा, ‘जयशंकर ने पहले ही कहा था कि पाकिस्तान से सकारात्मक चीज़ें आएंगी तो भारत भी सकारात्मक रहेगा। ऐसे में ट्रेड तो पाकिस्तान ने कैंसल किया था तो बहाल भी उसे ही करना है। भारत को नेताओं के लिए ये दुविधा होती है कि हम रिश्ते सुधारने की बात शुरू करें और फिर से आतंकवादी हमला हो जाए तो फिर क्या जवाब देंगे।’
न्यूज़ 18 के पत्रकार अभिषेक झा भी इस्लामाबाद पहुँचे थे। उन्होंने पाकिस्तानी न्यूज चैनल जियो न्यूज़ से बात करते हुए कहा, ‘पिछले कुछ हफ्तों से भारत और पाकिस्तान में जयशंकर के दौरे को लेकर कई तरह की बातें कही जा रही थीं लेकिन यहाँ माहौल बिल्कुल अलग था।’
‘ये तभी मुमकिन हो पाता है, जब दोनों मुल्कों के बीच आगे बढऩे को लेकर सहमति होती है। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के मीडिया में नैरेटिव बिल्कुल अलग होता है। मैं यहाँ इस्लामाबाद आया था तो तक्षशिला जाने का बहुत मन था। यह साझा इतिहास है। लेकिन मैं वहाँ नहीं जा सकता। रिश्ते लोगों के आपसी संपर्क से ही बेहतर होंगे। ’(bbc.com/hindi)
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर सुबह-सुबह पाकिस्तान में भारतीय उच्चायोग के कैंपस में मॉर्निंग वॉक कर रहे थे। उन्होंने इसकी तस्वीर अपने एक्स अकाउंट से पोस्ट की।
पाकिस्तान के राजनीतिक टिप्पणीकार क़मर चीमा ने इस तस्वीर पर कहा, ‘जयशंकर साहब को रात में अच्छी नींद आई तभी इतनी सुबह-सुबह जगकर मॉर्निंग वॉक कर रहे हैं। उन्होंने पूरे उच्चायोग को भी सुबह-सुबह जगा दिया।’
‘जयशंकर और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के हाथ मिलाने की तस्वीर में भी भरोसा दिख रहा है। जयशंकर ने सप्लाई चेन की बात की जो बहुत ही अहम है। उन्होंने बिल्कुल सीधी बात कही है। जयशंकर ने कहा कि ईमानदार बातचीत होनी चाहिए। जयंशकर ने पाकिस्तान को मुबारकबाद भी दी।’
एससीओ यानी शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन का 23वां सम्मेलन पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में आज यानी 16 अक्तूबर को संपन्न हो गया।
एससीओ के सदस्य चीन, भारत, रूस, पाकिस्तान, ईरान, कज़ाख़स्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और बेलारूस हैं। इसके अलावा 16 अन्य देशों को ऑब्ज़र्वर या डायलॉग पार्टनर का दर्जा मिला हुआ है।
एससीओ समिट के लिए इन सभी देशों के प्रतिनिधि पाकिस्तान आए हैं और भारत से विदेश मंत्री एस जयशंकर गए थे। भारत से किसी भी विदेश मंत्री का यह पाकिस्तान दौरा कऱीब 10 साल बाद हुआ। जयशंकर पाकिस्तान में चर्चा के केंद्र में हैं।
पाकिस्तान के मीडिया में जयंशकर को लेकर काफ़ी कुछ कहा जा रहा है।
वहाँ के पत्रकार और पूर्व डिप्लोमैट भी जयशंकर को ख़ासा तवज्जो दे रहे हैं।
कई लोग हैरानी जता रहे हैं कि जयशंकर जिस अंदाज़ के लिए जाने जाते हैं, वैसा कुछ भी उन्होंने पाकिस्तान में नहीं कहा।
जयशंकर के भाषण से राहत?
कई लोग तारीफ कर रहे हैं कि जयशंकर ने पाकिस्तान को एससीओ के अच्छे आयोजन के लिए क्रेडिट दिया और मुबारकबाद दी।
एससीओ को संबोधित करते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड की जमकर तारीफ की।
शहबाज शरीफ ने कहा, ‘चाइना-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर अब दूसरे चरण में है। मुझे लगता है कि इस प्रोजेक्ट को संकीर्ण सियासी नज़रिए से नहीं देखना चाहिए। हमें न केवल क्षेत्रीय कारोबार को बढ़ाने की जरूरत है बल्कि यूरेशिया को जोडऩे की ज़रूरत है।’
एससीओ को एस जयशंकर ने संबोधित करते हुए कहा, ‘सहयोग पारस्परिक आदर और संप्रभु समानता के आधार पर होना चाहिए। क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के सम्मान से ही सच्ची साझेदारी मजबूत हो सकती है न कि किसी के एकतरफ़ा एजेंडा से। एससीओ का विकास और विस्तार अपने फ़ायदे वाली नीतियों से नहीं हो सकता, खासकर ट्रेड और ट्रांजिट के मामले में।’
जयशंकर ने भले किसी भी देश का नाम नहीं लिया, लेकिन भारत बेल्ट एंड रोड का विरोध करता रहा है। बेल्ट एंड रोड के तहत ही चाइना-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर परियोजना चल रही है और भारत इस पर आपत्ति जताता रहा है।
यह परियोजना पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से होकर गुजरती है और भारत इसे अपनी संप्रभुता का उल्लंघन बताता है।
जयशंकर के संबोधन पर पाकिस्तानी पत्रकार इफ़्ितख़ार फिऱदौस ने लिखा है, ‘एससीओ में दिए गए भाषण पर विचार करते हुए लगता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच जिस आक्रामकता की उम्मीद थी, उसके कोई संकेत नहीं मिले। यहाँ तक कि उम्मीद के कऱीब भी नहीं। ऐसा तब है, जब भारत 13 लोगों के सबसे छोटे प्रतिनिधिमंडल के साथ आया है। लेकिन दोनों देशों के संबंधों में अतीत का इतना बोझ है कि आमूलचूल परिवर्तन की उम्मीद पालना असंभव के करीब लगता है।’
पाकिस्तान का नहीं लिया नाम
इफ्तिखार फिरदौस की इस पोस्ट के जवाब में संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की स्थायी प्रतिनिधि रहीं मलीहा लोधी लिखती हैं, ‘एससीओ फोरम पर द्विपक्षीय मुद्दों को नहीं उठाया जा सकता है। यह सामान्य नियम है। जब पाकिस्तान और भारत को सदस्य के तौर पर इसमें शामिल किया गया था तब भी दोनों देशों ने इस नियम पर सहमति जताई थी।’
पाकिस्तान के एक और पत्रकार ए वहीद मुराद ने जयशंकर के संबोधन की तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा है, ‘पाकिस्तान के सरकारी टीवी ने एससीओ में भारत के विदेश मंत्री के संबोधन को म्यूट कर दिया। ‘म्यूट करने की शिकायत कई पाकिस्तानी कर रहे हैं।’
मलीहा लोधी ने समा टीवी से बातचीत में एस जयशंकर के भाषण पर कहा, ‘भारत के विदेश मंत्री ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा है, जो नया है। वो पहले भी ऐसी बातें करते रहे हैं। उन्होंने कुछ भी विवादित बात नहीं कही है। उन्होंने आतंकवाद का मुद्दा उठाया लेकिन पाकिस्तान का नाम नहीं लिया। पाकिस्तान का नाम वो ले भी नहीं सकते थे।’
‘ऐसे फोरम में किसी भी मुल्क के नाम लेने की इजाज़त नहीं होती है। लेकिन भारतीय मीडिया में कहा जा रहा है कि जयशंकर ने चीन और पाकिस्तान को घेरा। जयशंकर ने एससीओ के संबोधन में वैश्विक संस्थाओं में सुधार की बात कही। जाहिर है भारत यूएनएससी में सदस्यता चाहता है।’
मलीहा लोधी से पाकिस्तान के जियो न्यूज ने पूछा कि जयशंकर के भाषण को वह कैसे देखती हैं?
क्या कह रहे हैं पाकिस्तानी एक्सपर्ट?
इसके जवाब में लोधी ने कहा, ‘जयशंकर ने उन्हीं मुद्दों को उठाया, जो भारत की नीति रही है। भारत ने आतंकवाद का मुद्दा उठाया लेकिन व्यापक रूप में उठाया न कि पाकिस्तान को टारगेट करते हुए। हालांकि भारतीय मीडिया में इसे पाकिस्तान पर निशाने के रूप में देखा गया। जयशंकर ने इस फोरम को बहुपक्षीय ही रखा।’
पाकिस्तान के न्यूज़ चैनल 24 न्यूज़ से वहाँ के पूर्व राजनयिक मसूद ख़ालिद ने कहा, ‘जयशंकर का पाकिस्तान आना अच्छा है और हमने वेलकम भी किया। भारत और पाकिस्तान दोनों एससीओ के सदस्य 2017 में बने थे। भारत एससीओ का बहिष्कार नहीं कर सकता था।’
‘लेकिन जयशंकर के दौरे को पाकिस्तान में कुछ ज़्यादा ही हाइप किया गया। कहा जाने लगा कि दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलेगी। ऐसा तब है, जब जयशंकर ने स्पष्ट कर दिया था कि वह द्विपक्षीय दौरे पर नहीं जा रहे हैं।’
पाकिस्तान की सांसद और पूर्व राजनयिक शेरी रहमान ने जयशंकर के भाषण पर जियो न्यूज से कहा, ‘जयशंकर ने बहुत ही सतर्क होकर बात की। उन्होंने आतंकवाद पर बात की लेकिन पाकिस्तान पर उंगली नहीं उठाई। वो अपने दायरे सोचकर आए थे और उसी के हिसाब से भाषण दिया। जयशंकर जिस अंदाज के लिए जाने जाते हैं, वैसा कुछ नहीं था। हमें भी इसका वेलकम करना चाहिए। जयशंकर ने शांति से चल रहे समिट का माहौल खऱाब नहीं किया बल्कि पाकिस्तान को मुबारकबाद दी।’
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे अब्दुल बासित को लगता है कि जयशंकर के इस्लामाबाद आने पर पाकिस्तान में कुछ ज़्यादा है शोर मचा।
अब्दुल बासित ने लिखा है, ‘पाकिस्तान में हमलोग की आदत है कि अनावश्यक का शोर मचाते हैं। ख़ास कर भारत से संबंधों के मामले में। जयशंकर ने पाकिस्तान आने से पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वह बहुपक्षीय समिट में शामिल होने जा रहे हैं न कि द्विपक्षीय।’
‘जयशंकर का पाकिस्तान आना ऐसा कुछ भी नहीं था, जिससे लगे कि भारत का रुख बदल रहा है। अगर भारत इस्लामाबाद में आयोजित एससीओ समिट से ख़ुद को दूर रखता तो एक संदेश जाता कि भारत एससीओ के साथ वही कर रहा है जो सार्क के साथ करता रहा है। भारत के पास इस्लामाबाद समिट में शामिल होने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।’
अब्दुल बासित ने लिखा है, ‘इसी तरह पाकिस्तान ने भी इस समिट में शामिल होने के लिए पीएम मोदी को आमंत्रित कर भारत पर अहसान नहीं किया था। पाकिस्तान पीएम मोदी को ही आमंत्रित करता और यह भारत पर था कि वह अपना प्रतिनिधि बनाकर किसे भेजता है। जाहिर है कि पीएम मोदी के लिए जयशंकर से अच्छा विकल्प नहीं था।’(bbc.com/hindi)
-शंभूनाथ
1) हिंदू परिवारों में लक्ष्मी एक बड़ा प्रिय शब्द है, क्योंकि धन-संपत्ति आज के जमाने में किसे प्रिय नहीं है! आज लक्ष्मी पूजा है। जहां आज नहीं है, वहां दीपावली के दिन लक्ष्मी-गणेश की पूजा होगी। लाखों लोग लक्ष्मी को याद करेंगे। पर क्या कभी सोचा है कि लक्ष्मी की सवारी उल्लू क्यों है?
उल्लू एक अनोखा जीव है जिसे दिन में दिखता नहीं है। फिर जिसने भी लक्ष्मी के साथ उल्लू की कल्पना की, उसका अभिप्राय इसके अलावा क्या होगा कि धन-संपत्ति पाकर अंधा न हो जाओ, बुद्धि के देवता गणेश को थोड़ा याद कर लो! इन दिनों जिनके पास लक्ष्मी ज्यादा है, वे कितने अंधे हो चुके हैं और सामान्य संवेदना भी खो चुके हैं, यह अब आम अनुभव है!
2) किसी परिवार में लडक़ी पैदा होने पर कभी सांत्वना पाने के लिए और कभी उसके गोरे सौंदर्य पर खुश होकर कहा जाता है कि लक्ष्मी पैदा हुई है। हिंदू कल्पना में सरस्वती, लक्ष्मी, सीता, राधा, दुर्गा, अधिकांश देवियां गोरी हैं। सभी देवता सांवले या काले हैं। यह इस देश में एक वर्ण-पूर्वग्रह है कि लडक़े भले काले हों, पर लडक़ी गोरी होनी चाहिए! अक्सर कहा जाता है, रूप में लक्ष्मी और गुण में सरस्वती! लडक़ों के बारे में कहा जाता है कि लडक़ों का रूप क्या देखना, उनका गुण देखो! लडक़ी सुंदर चाहिए, बीए पास और गृह कार्य में निपुण!!
लक्ष्मी की एक लोकप्रिय छवि विष्णु के चरणों के पास बैठकर उनकी सेवा करने की है। ऐसी धार्मिक छवियों ने भी स्त्रियों का क्या कर्तव्य है, यह निर्धारित करने में एक बड़ी भूमिका निभाई है और उनके अधिकारों को हजारों साल से प्रभावित किया है। (बाकी पेज 5 पर)
3) यदि नई बहू के आने के बाद कोई दुर्घटना हो गई तो उसे सुनना पड़ता है, ‘इसका पैर खराब है’, ‘तू अलक्ष्मी है, तेरी वजह से नुकसान हुआ।’ फिर शिकायतों से लेकर मारने-जलाने तक का कर्मकांड चलता है!
स्त्री को अपने रूप-रंग, शकुन-अपशकुन, सुनिर्धारित कर्तव्य-अकर्तव्य आदि के कारण जो दुख-कष्ट झेलने पड़ते हैं, उसके मूल में पुरानी हिंदू धार्मिक कल्पनाओं की एक बड़ी भूमिका है। वे स्त्रियों पर थोपी गई हैं। अत: रूप और कर्तव्य को लेकर उन धार्मिक कल्पनाओं की सीमा को समझना चाहिए। लोगों को अपनी आस्थाओं को समय-समय पर बुद्धि की वाशिंग मशीन में स्वच्छ करते रहना चाहिए, ताकि जीवन में न्याय और स्वतंत्रता को जगह मिले!
तस्वीर: लक्ष्मी की एक हजार साल एक पुरानी मूर्ति, वाहन है उल्लू! इसी तरह गज लक्ष्मी हैं जो गुप्त काल में लोकप्रिय थीं!
-इमरान कुरैशी
कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि मस्जिद में भगवान राम की प्रशंसा में नारे लगाने में कुछ गलत नहीं है। कुछ बड़े वकीलों ने अदालत के इस फैसले की आलोचना की है।
जस्टिस एम नागप्रसन्ना ने कहा, ‘ये समझ से परे की बात है कि अगर कोई जय श्रीराम के नारे लगाता है तो यह कैसे किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है।’
दक्षिण कन्नड़ जिले के कदाबा तालुक के गांव बिनेल्ली में सितम्बर 2023 में दो लोगों के खिलाफ दर्ज एफआईआर को उन्होंने रद्द कर दिया।
दोनों याचिकाकर्ता उन लोगों में शामिल थे जिनकी तस्वीर सीसीटीवी में तब क़ैद हुई थी जब वो रात में मस्जिद में दाखिल हुए थे और नारे लगा रहे थे।
कर्नाटक के पूर्व महाधिवक्ता बीवी आचार्या ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘मेरे विचार से, ये वे मामले हैं जिनमें अहम मुद्दा मंशा की है, जिसके साथ ये नारे लगाए जा रहे थे या किसी प्रार्थना स्थल में लोग प्रवेश कर रहे थे।’
‘मान लीजिए एक मुस्लिम या ईसाई किसी पर्व के दिन मंदिर में प्रवेश करता है और कुरान या बाइबिल का पाठ करता है, क्या आप इसे निर्दोष कह सकते हैं? प्रथम दृष्टया यह फैसला ग़लत है।’
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े इस मुद्दे को थोड़ा अलग नज़रिए से देखते हैं।
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘धारा 295 के तहत किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक मान्यताओं का अपमान करना या अपमान की कोशिश करना दंडनीय अपराध है। एकेश्वरवादी वैष्णव मंदिर में, अगर शिव भगावन के नारे लगाए जाएँ, तो क्या यह इस धारा के उल्लंघन के दायरे में नहीं आता है?’
पूर्व सरकारी वकील बीटी वेंकटेश ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘फैसले में उस संदर्भ और हालात का ध्यान नहीं रखा गया जिसे शिकायत में तफसील से बताया गया है।’
शिकायत में क्या है?
यह घटना 24 सितम्बर 2023 की रात 10।50 बजे की है, जब कुछ अज्ञात लोग उस रात कदाबा-मारदाला स्थित मस्जिद में घुस जाते हैं और ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाते हैं और कथित तौर पर उन्होंने धमकी दी कि वे संबंधित समुदाय के लोगों को नहीं बख़्शेंगे।
हैदर अली की ओर से दायर शिकायत में सीसीटीवी के फुटेज को आधार बनाया गया है जिसमें दिखता है कि कुछ नौजवान दोपहिया वाहनों पर मस्जिद के चक्कर लगाते हैं और नारे लगाते हैं।
शिकायत में ये कहा गया है कि हिंदू और मुस्लिम ‘बड़ी शांति’ के साथ रह रहे थे और ये लोग इन समुदायों के बीच दरार डालने की कोशिश कर रहे थे।
इसके बाद कीरथन कुमार और एनएम सचिन कुमार के खिलाफ आईपीसी की धारा 447 (आपराधिक प्रवेश), 295ए (किसी वर्ग की धार्मिक मान्यताओं या धर्म के अपमान की मंशा से किया गया कार्य) 505 (ऐसे बयान जो सार्वजनिक अशांति भडक़ा सकते हैं), 503 (आपराधिक धमकी), 506 (आपराधिक धमकी के लिए सज़ा) और 34 (एक जैसी मंशा) के तहत दंडनीय अपराध के लिए एफआईआर दर्ज हुई।
फैसले में क्या कहा गया है?
जस्टिस नागाप्रसन्ना ने कहा, ‘धारा 295ए किसी भी वर्ग के धर्म या धार्मिक मान्यताओं का अपमान करके धार्मिक भावनाएं भडक़ाने के मकसद से जानबूझ कर और दुर्भावना पूर्ण कृत्यों से संबंधित है। यह समझ से परे है कि अगर कोई जय श्री राम के नारे लगाते है तो कैसे यह किसी वर्ग की भावनाओं को आहत करता है। जबकि शिकायतकर्ता ने खुद ही कहा है कि इलाक़े में हिंदू और मुस्लिम सद्भावना के साथ रह रहे हैं तो इस घटना को किसी भी तौर से द्वेष पैदा करने वाला नहीं कहा जा सकता।’
फैसले में महेंद्र सिंह धोनी बनाम यारागुंतले श्यामसुंदर (2017) के मुकदमे का जि़क्र किया गया है और कहा गया कि ‘सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आईपीसी की धारा 295ए के तहत कोई भी ऐसा कृत्य अपराध नहीं होगा जिसका शांति या सामाजिक व्यवस्था पर असर न पड़ता हो।’ धारा 505 के संदर्भ में हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसा कोई आरोप नहीं था कि कथित घटना ने कोई सार्वजनिक शरारत या दरार पैदा की हो।
‘धारा 506 पर हाईकोर्ट ने कहा कि शिकायत में खुद लिखा है कि शिकायतकर्ता ने उन लोगों को नहीं देखा, जिन्होंने कथित तौर पर आपराधिक धमकी का अपराध किया था।’
जस्टिस नागप्रसन्ना ने कहा, ‘शिकायत दूर-दूर तक आईपीसी की धारा 503 या धारा 447 के मूल तत्वों को नहीं छूती। कथित अपराध का कोई तत्व मिलना और इन याचिकाकर्ताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई की इजाज़त देना क़ानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग बन जाएगा और नतीजतन न्याय की भ्रूणहत्या होगी।’
फैसले की आलोचना क्यों?
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने कहा कि कोर्ट को सिफऱ् एक तर्क मिला कि जब हिंदू और मुस्लिम सद्भावना के साथ रह रहे थे, इस तरह की घटना कैसे अशांति फैला सकती है।
हेगड़े ने कहा, ‘इसके बाद अदालत ने धोनी के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया जहां तथ्य पूरी तरह से अलग थे।’ लेकिन वरिष्ठ वकील बीवी आचार्या कई अन्य सवाल उठाते हैं।उनके मुताबिक, ‘यहां तक कि अनधिकृत प्रवेश में, सिर्फ इसलिए कि यह एक सार्वजनिक स्थल है, इसका ये मतलब नहीं कि कोई भी किसी भी समय उस जगह घुस जाए। इसके पीछे की मंशा को देखना होगा। इसी तरह, जो नारे वे लगा रहे थे, तो क्या वे दूसरे धर्म की भावना को आहत कर रहे थे, यह उनकी मंशा और उन हालात पर निर्भर करता है, जिसके तहत उन्होंने वे शब्द बोले।’
आचार्या ने कहा, ‘इसलिए जब आप मस्जिद जैसी धार्मिक जगह में प्रवेश करते हैं और फिर वहां आप जय श्रीराम बोलते हैं तो निश्चित तौर पर प्रथम दृष्टया परिस्थितियां दूसरे समुदाय की भावनाओं को आहत करने की मंशा को दिखाती हैं। सैद्धांतिक रूप से, अगर इस फैसले को सही माना गया तो इसके खतरनाक परिणाम होंगे।’
संजय हेगड़े की तरह ही उन्होंने कहा कि हर मामले में फैसला अलग अलग होता है।
उन्होंने कहा, ‘इन सबसे अधिक, यह एक ऐसा मुकदमा है जिसमें जब अदालत के सामने पूरे तथ्य न हों तो पूरी जांच की जरूरत है। सिर्फ एफआईआर के आधार पर आप इसे खारिज नहीं कर सकते। कल ही, सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया जिसमें कहा गया है कि आगे की जांच से कई तथ्यों का पता चलेगा। प्रथम दृष्टया इस मुकदमे में दिखता ग़लत नीयत दिखती है। अदालत को इसमें आगे की जांच कराने की इजाजत देनी चाहिए थी।’
आगे जांच की मंज़ूरी क्यों नहीं मिली?
पूर्व सरकारी वकील बीटी वेंकटेश आचार्या के साथ सहमत हैं कि इस मामले में विस्तृत जांच की मांग की गई थी क्योंकि शिकायतकर्ता ने जय श्रीराम के नारे लगाने के अलावा भी विशेष तौर पर कई बिंदुओं का जिक्र किया है।
वेंकटेश ने कहा कि शिकायत, विशेष तौर पर कदाबा पुलिस स्टेशन में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच सद्भाव का उल्लेख करती है, जहां ये घटना घटी।
उन्होंने कहा, ‘शिकायत में उन परिस्थियों के बारे में विशेष तौर से जिक्र किया गया है जिसके तहत हिंदू और मुस्लम सद्भावना के साथ रहते हैं। इसमें कहा गया है कि एक डस्टर कार और दो दो-पहिया वाहनों पर सवार होकर लोग संदिग्ध रूप से मस्जिद के चक्कर लगा रहे थे। इसके बाद नारेबाजी होती है और फिर नारों के ज़रिए बेरी समुदाय के खिलाफ धमकी दी जाती है।’
वेंकटेश ने कहा, ‘बेरी समुदाय मुस्लिम समाज का एक वर्ग है जो आम तौर पर कर्नाटक के तटीय इलाकों में रहता है। उनके खिलाफ धमकी दी गई कि उन्हें बख़्शा नहीं जाएगा। जबरन घुसने और नारेबाज़ी करने के अलावा यह साफ़ तौर पर आपराधिक धमकी है और ये सभी भारतीय दंड संहिता की संबंधित धाराओं के अंतर्गत दंडनीय है। यह कोई शरारत नहीं है। यह जानबूझ कर किया गया कार्य है। जज ने संदर्भ को नहीं देखा और इसलिए गंभीर ग़लती कर दी।’
सुप्रीम कोर्ट के एक य वकील ब्रिजेश कलप्पा ने सोशल मीडिया पर राय ज़ाहिर करते हुए लिखा, ‘तो किसी मस्जिद में जाना और जय श्रीराम के नारे लगाने में कुछ भी ग़लत नहीं है। क्या एक मुस्लिम मंदिर में घुस सकता है और अल्लाह हू अकबर चिल्ला सकता है? यह वही देश है जहां ब्रिटिश ने समुदायों के बीच नफऱत के बीज बोए थे? क्या अदालत ने तर्क की सारी शक्ति खो दी है?’
अभिजीत मजुमदार ने एक्स पर लिखा, ‘धार्मिक भावनाओं को आहत करने के बारे में नहीं जानता, लेकिन दुनिया में कहीं भी अल्ला-हू-अकबर चिल्लाने से जगह तुरंत खाली हो जाती है।’ ((bbc.com/hindi)
-दीपाली जगताप
पिछले पांच वर्षों में महाराष्ट्र की राजनीति में अप्रत्याशित उथल-पुथल हुई है। राज्य की जनता ने एक के बाद एक कई सियासी झटके देखे।
लेकिन क्या जनता इन झटकों को पचा पाई, यह आने वाले हफ़्तों में साफ हो जाएगा। मंगलवार को चुनावों की घोषणा के साथ राज्य में छह प्रमुख राजनीतिक दलों की परीक्षा 16 अक्तूबर से शुरू होगी।
महाराष्ट्र में 288 सीटों पर विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। 2019 से 2024 तक पांच साल का कार्यकाल महाराष्ट्र की राजनीति में अप्रत्याशित घटनाओं का दौर रहा है।
सवाल ये है कि आखऱि बीते पांच वर्षों में महाराष्ट्र में सियासी तस्वीर कैसे बदल गई है? आने वाले चुनाव राजनीति और मतदाताओं के लिए मुख्य रूप से क्या बदलाव लेकर आए हैं?
इस लेख में इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।
अब किस पार्टी के कितने विधायक?
सबसे पहले तो इस बार चुनावों में दो नई पार्टियां नजर आएंगीं। दरअसल, ये दोनों नई पार्टियां पिछली बार चुनाव लड़ चुकी दो पार्टियों से अलग होकर बनी हैं। पिछले पांच वर्षों की राजनीतिक घटनाओं की वजह से इन पार्टियों का गठन हुआ है।
महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना शिंदे गुट के पास 40 विधायक हैं। बीजेपी के पास 103 विधायक और एनसीपी के अजित पवार गुट के पास 40 विधायक हैं।
दूसरी ओर, महाविकास अघाड़ी में एनसीपी के शरद पवार गुट के पास 13 विधायक, शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट के साथ 15 विधायक और कांग्रेस के 43 विधायक हैं।
इसके अलावा राज्य में बहुजन विकास अघाड़ी के तीन 3, समाजवादी पार्टी के 2, ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिम के 2, प्रहार जनशक्ति 2, एमएनएस के 1, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) - 1, शेकांप 1, स्वाभिमानी पार्टी 1, राष्ट्रीय समाज पार्टी 1, महाराष्ट्र जनसुराज्य शक्ति पार्टी के 1, क्रांतिकारी शेतकारी पार्टी के 1 और निर्दलीय 13 विधायक हैं।
बदलते मुख्यमंत्री और अनोखे राजनीतिक प्रयोग
2019 का विधानसभा चुनाव शिवसेना और बीजेपी के गठबंधन ने मिलकर लड़ा था। दूसरी ओर कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन ने भी साथ मिलकर चुनाव लड़ा था।
बीजेपी और शिवसेना के गठबंधन को बहुमत तो मिल गया, लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर गठबंधन टूट गया।
इसके बाद लगातार कुछ दिनों तक महाराष्ट्र में राजनीतिक प्रयोग शुरू हो गए। इन्हीं दिनों में से एक है 23 नवंबर 2019।
उस दिन सुबह-सुबह बीजेपी ने अजित पवार के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश की।
23 नवंबर 2019 की सुबह देवेंद्र फडणवीस और अजीत पवार राजभवन पहुंचे। उन्होंने क्रमश: मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
हालाँकि अगले कुछ घंटों में ही यह स्पष्ट हो गया कि प्रयोग विफल हो गया है क्योंकि एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार और पार्टी विधायकों ने बाद में स्पष्ट किया कि वे बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे।
इसके बाद शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी साथ आए और महाविकास अघाड़ी का गठन किया।
इन दलों ने एक ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ बनाया। 28 नवंबर, 2019 को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके बाद करीब ढाई साल तक राज्य में महाविकास अघाड़ी की सरकार रही।
इस बीच मार्च 2020 से 2022 तक पूरी दुनिया में कोरोना संकट रहा। उस समय तत्कालीन ठाकरे सरकार के प्रशासनिक कौशल की परीक्षा हुई थी।
कोविड की लहर कम हुई और एक बार फिर महाराष्ट्र में तीसरा राजनीतिक प्रयोग किया गया।
20 जून 2022 को, एकनाथ शिंदे, जो महाविकास अघाड़ी में शहरी विकास मंत्री थे, कुछ शिवसेना विधायकों के साथ ग़ायब हो गए और सीधे सूरत के लिए रवाना हो गए।
जाहिर तौर पर शिवसेना के 40 विधायकों और लगभग 10 निर्दलीय विधायकों ने एकनाथ शिंदे का समर्थन किया था।
इसी बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
30 जून 2022 को राज्य में फिर से शिवसेना और बीजेपी की गठबंधन सरकार बनी और एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
इस तारीख तक राज्य में तीन सरकारें बन चुकी थी। लेकिन सियासी 'सर्कस' यहीं नहीं रुका, बल्कि इसके बाद शिवसेना में बागी गुट ने पार्टी के चुनाव चिह्न पर दावा ठोक दिया। चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे की शिवसेना को पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह दे दिया।
दूसरी ओर, विधायकों की अयोग्यता का मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट, विधानसभा अध्यक्ष और फिर सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
लेकिन ये सियासी खेल यहीं नहीं रुका।
2 जुलाई 2023 को एनसीपी नेता और शरद पवार के भतीजे अजित पवार पार्टी के नौ सदस्यों के साथ राजभवन पहुंचे और गठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
इसके बाद अजित पवार ने भी एकनाथ शिंदे के नक्शेकदम पर चलते हुए एनसीपी पार्टी पर दावा किया और घोषणा की कि वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। चुनाव आयोग ने शिवसेना की तरह अजित पवार को भी पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न दे दिया।
किन वजहों से अहम है ये चुनाव?
महाराष्ट्र में अब तक दो प्रमुख विचारधाराओं या गठबंधनों, के बीच वोटिंग होती रही है। इसमें जातीय गणित हमेशा महत्वपूर्ण रहा।
इस बारे में बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अभय देशपांडे कहते हैं, ‘2019 में चार प्रमुख पार्टियाँ थीं। अब छह पार्टियां हैं। अब तक धर्मनिरपेक्षता और दक्षिणपंथी विचारधारा के बीच चुनाव होता रहा है लेकिन अब ये लड़ाई बीजेपी के साथ या बीजेपी के विरोध में बंट गई है। इसकी वजह से विचारधारा का ध्रुवीकरण अब पहले जैसा नहीं रहा।’’
अभय देशपांडे ने कहा, ‘दो पार्टियों को सिंबल पार्टी से अलग हुए एक समूह को विरासत में मिले हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने असली पार्टी कौन है ये तो बता दिया लेकिन जनता उनके बारे में क्या सोचती है ये इस चुनाव में साफ हो जाएगा। हमें यह भी पता चल जाएगा कि विचारधारा से समझौता कर सरकार स्थापित करने और उसके लिए पार्टी तोडक़र विधायकों की ताकत हासिल करने के राजनीतिक प्रयोग पर जनता की क्या प्रतिक्रिया है।’’
उन्होंने कहा, ‘आरक्षण का मुद्दा तेज़ हो गया है। मराठा बनाम ओबीसी, आदिवासी बनाम धनगड़ विवाद उठ खड़े हुए हैं। इसके चलते सभी राजनीतिक दलों को इसमें संतुलन बनाए रखना होगा। क्योंकि डर है कि किसी एक समुदाय का पक्ष लेने से दूसरा समुदाय नाराज हो सकता है। ’
देशपांडे कहते हैं कि ये भी देखना बाकी है क्या हरियाणा की तरह अन्य छोटे दल और तीसरा गठबंधन भी कितनी ताकत से चुनाव लड़ सकते हैं।
महाराष्ट्र में राजनीतिक दलों के पास अब तक अपना पारंपरिक वोट बैंक रहा। ये वोटर लगातार उनसे जुड़े रहे थे।
लेकिन राजनीतिक बदलाव के बाद पार्टी में फूट की तरह ही विचारों में भी फूट देखने को मिल रही है। इसका असर चुनाव सर्वे पर भी दिख सकता है।
वरिष्ठ पत्रकार दीपक भातुसे कहते हैं, ‘राज्य में 2024 का लोकसभा चुनाव भी अलग था। अब तक चुनावों में लड़ाई प्रगतिशील धड़े और हिंदुत्व के बीच थी। विकास, भ्रष्टाचार और अन्य मुद्दों के अलावा मतदाता इस विचारधारा पर भी बंटे हुए थे। 2019 के चुनाव तक, शिवसेना-भाजपा गठबंधन बनाम कांग्रेस-राष्ट्रवादी गठबंधन ने वैचारिक आधार पर मतदाताओं का विभाजन देखा।’’
उन्होंने कहा, ‘2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में प्रगतिशील मतदाताओं ने भी इसके भ्रष्टाचार और नरेंद्र मोदी के करिश्मे जैसे मुद्दे पर वोट दिए। लेकिन महाविकास अघाड़ी के गठन और शिवसेना और एनसीपी के बीच विभाजन के बाद बने महागठबंधन के कारण अब अगले चुनावों में मतदाताओं के लिए वोटिंग इतना सुलझी हुई नहीं होगी।’’
भातुसे कहते हैं कि अब वोटों का विभाजन सीधे-सीधे नहीं होगा क्योंकि पार्टियों में विभाजन की वजह का असर वोटरों पर जरूर पड़ेगा।
उनके मुताबिक एनसीपी को वोट देेने वाले प्रगतिशील वोटर अब महाविकास अघाड़ी को वोट दे सकते हैं। वहीं एकनाथ शिंदे की वजह से शिवसेना के कुछ वोटर उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना को वोट दे सकते हैं। जाहिर है मतदाताओं को सामने भ्रम की स्थिति हो सकती है। क्योंकि उन्हें विचारधारा और नए गठबंधन दोनों को देखना है।
वरिष्ठ पत्रकार सुधीर सूर्यवंशी कहते हैं कि अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियां अब गठबंधन में एक साथ हैं इसकी वजह से इन पार्टियों के सामने लोगों से अपनी विचारधारा मनवाने की चुनौती है।
उन्होंने बताया, ‘उदाहरण के तौर पर अजित पवार के लिए चुनौती यह है कि बीजेपी में शामिल होने के बावजूद वह धर्मनिरपेक्ष विचारधारा पर कायम रहेंगे कि नहीं। दूसरी ओर, उद्धव ठाकरे और कांग्रेस के लिए लोगों को वैचारिक समझौते के लिए मनाना चुनौतीपूर्ण है। वोट कैसे ट्रांसफर होंगे ये इस बात पर निर्भर करेगा कि कौन वोटरों को अपने पारंपरिक रुख में बदलाव के लिए किस हद तक मना पाता है।’
हालांकि महाविकास अघाड़ी को लोकसभा चुनावों में अच्छी सफलता मिली थी लेकिन विधानसभा में उसके लिए इस प्रदर्शन को बरकरार रखना चुनौतीपूर्ण होगा।
इसके लिए उनके पास रणनीति बनाने की जरूरत है। खासकर तब जब महायुति (शिवसेना-शिंदे गुट, बीजेपी और एनसीपी (अजित पवार) सरकार इतनी बड़ी योजनाएं लेकर आ रही हैं।
राज्य में फिलहाल गठबंधन सरकार है। लेकिन राजनीतिक गठबंधनों और पार्टियों में फूट के चलते राज्य में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी तेज हो गए हैं।
साफ है कि इस विधानसभा चुनाव में अब सीधा मुकाबला महा विकास अघाड़ी और महायुति के बीच होगा।
आरक्षण का कोहरा और योजनाओं की बारिश
पिछले दो सालों में जहां तमाम राजनीतिक हलचलें चल रही थीं वहीं महाराष्ट्र में आरक्षण की बहस भी तेज हो गई है।
मराठवाड़ा से शुरू हुआ मराठा आरक्षण आंदोलन एक साल के भीतर ही राज्यव्यापी हो गया और इतना ही नहीं इससे राजनीति में भी भूचाल आ गया।
मराठों के लिए ओबीसी के तहत आरक्षण देेने की मांग ओबीसी समुदायों को नाराज कर रही है। सरकार ने मराठा समुदाय के लिए दस फीसदी आरक्षण का ऐलान किया है लेकिन कुनबी प्रमाणपत्र के लिए विवाद बना हुआ है।
ओबीसी नेताओं और समाज ने इस मांग का विरोध किया है। लक्ष्मण हाके, मंत्री छगन भुजबल समेत कई ओबीसी नेताओं के आक्रामक रुख को देखते हुए मराठा समुदाय के लोगों को अलग से आरक्षण का ऐलान किया गया।
ओबीसी समुदाय को लग रहा था कि कहीं सरकार उनके आरक्षण में मराठों को हिस्सेदारी न दे दे। लेकिन सरकार ने मराठों के लिए अलग से आरक्षण का ऐलान किया।
इसका असर हाल ही में हुए लोकसभा के नतीजों में भी देखने को मिला।
मराठा और ओबीसी समुदायों के साथ-साथ धनगर समुदाय को आदिवासी दर्जा देकर आरक्षण देने की मांग एक बार फिर उठी है। दूसरी ओर आदिवासी समुदाय ने धनगर समुदाय को एसटी वर्ग से आरक्षण देने का विरोध किया। इस मुद्दे पर डिप्टी स्पीकर नरहरि जिरवाल समेत 13 विधायकों ने मंत्रालय की तीसरी मंजिल से छलांग लगा दी थी।
दूसरी ओर मराठा आरक्षण आंदोलन को नेतृत्व देेने वाले मनोज जरांगे पाटिल ने भी अपना राजनीतिक रुख़ साफ किया है। इसका असर कई विधानसभा क्षेत्रों में दिख सकता है।
लोकसभा चुनाव में महायुति को जितनी सफलता की उम्मीद थी उतनी नहीं मिली। इसके बाद विधानसभा में महायुति आक्रामक नजर आई। पिछले कुछ दिनों में सरकार की ओर से कई बड़े ऐलान किए गए।
चाहे वह लडक़ी बहिन योजना हो या युवाओं को भत्ता देने की योजना। कई माध्यमों से लोगों के बैंक खातों में पैसा आएगा। इससे महाविकास अघाड़ी के सामने चुनौती भी बढ़ गई है।
लेकिन अब देखना यह है कि लोग पांच साल के राजनीतिक भूचाल, विचारधारा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सूखा और राजनीति में नैतिकता के आधार पर वोट देंगे या फिर आरक्षण, जातीय समीकरण और नये गठबंधन को स्वीकार करेंगे। (bbc.com/hindi)
-आनंद के.सहाय
बीते साल जून में कनाडाई नागरिक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद जस्टिन ट्रूडो ने भारत की ओर उंगली उठाई थी। भारत ने उन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया था। और उसके बाद दोनों देशों ने एक दूसरे के डिप्लोमैट्स को देश छोडऩे को कहा था। इसके बाद दोनों देशों के बीच तल्ख़ भाषा में बयानबाजी हुई थी। मौजूदा वक़्त में दोनों देशों के बीच संबंध अपने सबसे खऱाब दौर से गुजऱ रहे हैं। दोनों के बीच रिश्तों के सामान्य होने की संभावना कम दिख रही है।
भारत का मानना है कि कुछ कनाडाई सिख भारत के भीतर एक अलग सिख देश बनाने के उद्देश्य से हिंसक ख़ालिस्तानी आंदोलन को बढ़ावा दे रहे हैं। यही तकरार का अहम बिंदु है।
करीब 40 साल पहले पंजाब में हिंसा के सबसे भयंकर दौर में भारतीय सेना ने अमृतसर में स्वर्ण मंदिर पर विवादास्पद हमला किया था और फिर अक्टूबर 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की दो सिख अंगरक्षकों ने हत्या कर दी थी।
इस पृष्ठभूमि में भारत कनाडा से ऐसे कुछ लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग करता रहा जिन पर भारत ख़ालिस्तानी समर्थक होने का आरोप लगाता रहा है। कनाडा ने भारत के ऐसे निवेदनों को अब तक अनसुना किया है।
भारत हरदीप सिंह निज्जर को ‘ख़ालिस्तानी आतंकवादी’ करार देता रहा है। लेकिन कनाडा का कहना है कि वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतता और व्यक्तिगत आज़ादी का हिमायती है और कनाडा किसी को अपनी राय रखने से नहीं रोक सकता।
भारत ने सार्वजनिक तौर पर ये कहा है कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो वहां के ‘सिख वोट बैंक’ को रिझा रहे हैं और इसी कारण उनकी सरकार ख़ालिस्तानी समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई की भारत की मांग की नजरअंदाज करती रही है।
अपने-अपने देश की आबादी के अनुपात में, कनाडा में भारत की तुलना में अधिक सिख हैं।
किसी भी पश्चिमी देश के साथ इतने खऱाब रिश्ते नहीं
भारत-कनाडा में लगातार खराब होते जा रहे रिश्तों में खटास हैरान करने वाली है।
सोवियत यूनियन के विघटन के बाद किसी भी पश्चिमी देश के साथ भारत के संबंध इतने खऱाब नहीं रहे हैं।
भारत ने कोल्ड वॉर के बाद अमेरिका की अगुवाई वाले पश्चिमी देशों के साथ रिश्ते सुधारे हैं और धीरे-धीरे एक मुकम्मल मार्केट इकोनमी बनने की दिशा में आगे बढ़ता रहा है।
भारत ने जी7 और नेटो देशों के साथ आर्थिक, व्यापार और राजनीतिक रिश्ते सुधारने की कोशिश की है।
कनाडा इन दोनों समूहों का हिस्सा है और अमेरिका के साथ उसके बेहद कऱीबी सैन्य संबंध हैं जो नॉर्थ अमेरिकन एयरोस्पेस डिफ़ेंस कमांड यानी नोराड के ज़रिए प्रतिबिंबित होते हैं। दोनों के देशों की अर्थव्यवस्था भी एक दूसरे से करीबी रूप से जुड़ी हुई है।
ये दिलचस्प है कि अमेरिका के किसी नज़दीकी सहयोगी के साथ भारत के रिश्तों में इतनी खटास आ गई हो। भारत बीते तीन दशकों से ख़ुद अमेरिका के साथ आर्थिक और सामरिक दिशा में बेहतर संबंध बनाने में प्रयासरत रहा है।
दोनों देशों के बीच बिगड़ते रिश्तों के बीच सोमवार को भारत ने कहा कि वो कनाडा में अपने हाई कमिश्नर संजय कुमार वर्मा और कुछ अन्य राजनयिकों को वापस बुला रहा है।
लेकिन कनाडा ने कहा कि दरअसल उसने संजय कुमार वर्मा समेत छह भारतीय राजनयिकों और कंसुलर अधिकारियों को निष्कासित कर दिया है क्योंकि भारत ने इन्हें मिली डिप्लोमेटिक और कंसुलर इम्युनिटी हटाने और कनाडा के साथ जांच में सहयोग करने से मना कर दिया था।
भारतीय राजनयिकों और अधिकारियों को निकालने के बाद नई दिल्ली ने छह कनाडाई राजनयिकों को निकालने की घोषणा की। इनमें कार्यकारी उच्चायुक्त स्टुअर्ट रॉस व्हीलर भी शामिल थे।
क्या है ‘पर्सन्स ऑफ़ इंटरेस्ट’
एक-दूसरे के राजनयिकों को निकालने का फ़ैसला तब सामने आया है जब निज्जर हत्या मामले में कनाडा ने भारतीय राजनयिकों और उच्चायोग के दूसरे अधिकारियों को ‘पर्सन्स ऑफ इंटरेस्ट’ बताया है।
कनाडा में ‘पर्सन्स ऑफ इंटरेस्ट’ उसे कहा जाता है जिसको लेकर जांचकर्ता मानते हैं कि उस शख्स को किसी अपराध की महत्वपूर्ण जानकारी है।
सितंबर 2023 में निज्जर की हत्या के बाद प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने देश की संसद में बयान दिया था कि कनाडा के पास इस अपराध में भारतीय अधिकारियों के शामिल होने के ‘ठोस सबूत’ हैं।
भारत ने इस दावे को सिरे से ख़ारिज करते हुए कनाडा से सबूत की मांग की थी।
सोमवार को कनाडा के उच्चायुक्त को देश से निकालने की घोषणा के बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में कहा था कि ट्रूडो सरकार ने भारतीय अधिकारियों के खिलाफ अपने आरोपों के समर्थन में भारत को ‘सबूत का एक टुकड़ा’ तक नहीं दिखाया था।
विदेश मंत्रालय ने कनाडा को लेकर ये भी कहा था कि वो ‘राजनीतिक लाभ के लिए भारत को बदनाम कर रहा है।’
दिलचस्प रूप से कनाडा के कार्यकारी उच्चायुक्त जिन्हें अब निकाल दिया गया है, उन्होंने इसका जवाब दिया था।
उन्होंने कहा था कि कनाडा ने भारत सरकार की सभी मांगों को पूरा किया और भारत सरकार को भारतीय एजेंटों और उनके निज्जर हत्या मामले से जुड़े होने के सबूत दिए गए थे। उन्होंने आगे कहा था कि अब ये भारत के ऊपर था कि वो अगला कदम उठाता।
कैसे सबूत भारत को दिए गए?
कनाडा ने भारत को किस गुणवत्ता का सबूत देने का दावा किया है उसे आज नहीं तो कल ज़रूर तौला जाएगा लेकिन ये साफ़ नहीं है कि कनाडा ने ये सबूत कब दिए थे। इस स्तर पर किसी भी हालत में संबंधों को सुधारने की प्रक्रिया की शुरुआत होने की संभावना नहीं है। नकारात्मक दिशा में बहुत कुछ बहुत तेजी से हुआ है।
प्रधानमंत्री ट्रूडो और प्रधानमंत्री मोदी के बीच इस साल जून में इटली में जी-7 से इतर द्विपक्षीय मुलाक़ात हुई थी। वहीं आसियान सम्मेलन से बीते शुक्रवार को भी दोनों नेता मिल चुके थे लेकिन इससे ये जरा भी संकेत नहीं मिल सकता था कि संबंध इस स्तर पर पहुंच जाएंगे।
समाचार एजेंसी एएनआई ने भारतीय अधिकारियों के हवाले से बताया था कि लाओस की बैठक छोटी और अनाधिकारिक थी, इससे ‘कुछ भी ठोस बाहर नहीं आया था।’
सूत्रों के हवाले से कहा गया, ‘भारत विरोधी तत्वों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की गारंटी के बगैर संबंधों में सुधार मुश्किल होगा।’ ये कोई आधिकारिक बयान नहीं था लेकिन इससे इस मामले पर भारत की सोच का पता चलता है।
ये एक टेढ़ी खीर लगता है। सीबीसी न्यूज ने ट्रूडो के हवाले से कहा था, ‘मैंने जोर देकर कहा था कि हमें काम करने की जरूरत है।।।इसमें मेरा फोकस कनाडा के लोगों की सुरक्षा और कानून-व्यवस्था का पालन है।’
विएंटाइन में दोनों देशों के नेताओं के बीच मुलाकात से पहले हिंदुस्तान टाइम्स ने कनाडा की विदेश मंत्री मेलानी जोली के हवाले से कहा था कि भारत के साथ संबंध तनावपूर्ण और बहुत मुश्किल हैं। उन्होंने डर जताया था कि कनाडा की जमीन पर ‘निज्जर जैसे कत्ल’ आगे भी हो सकते हैं।
क्या सुधरेंगे दोनों देशों के रिश्ते?
ये साफ है कि कनाडा फि़लहाल इस मसले को गर्म रखना चाहता है। और जैसे कि देखा जा रहा है भारत भी इस समस्या के हल के लिए किसी किस्म की गंभीर डिप्लोमेसी का रास्ता अपनाने के प्रति इच्छुक नहीं दिख रहा है।
भारत में एक विचार ये है कि अक्तूबर 2025 में कनाडा में होने वाले आम चुनावों में ट्रूडो हार जाएंगे और जब दोनों देशों के बीच संबंधों में नई शुरूआत का अवसर मिलेगा। लेकिन कनाडा की संसद के भीतर भारत के खिलाफ लगाए गए आरोपों से पार पाना आसान नहीं होगा।
दिलचस्प ये है कि इस सारे बखेड़े में एक अमेरिकी एंगल भी है। सितंबर 2023 में कनाडा के प्रधानमंत्री ने भारत पर आरोप लगाए थे। इसके कुछ हफ्ते बाद अमेरिकी संघीय अदालत ने निखिल गुप्ता नाम के भारतीय नागरिक को अमेरिकी नागरिक गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश में नामित किया था। पन्नू खालिस्तान की हिमायत करने वाले अमेरिकी वकील हैं।
सवाल ये है कि क्या अमेरिका ने कनाडा के साथ मिलकर निखिल गुप्ता वाले केस की टाइमिंग तय की थी?
भारत के लिए आगे का क्या है रास्ता?
हाल ही में पन्नू ने कुछ भारतीय अधिकारियों के खिलाफ दीवानी मुकदमें दर्ज किए हैं। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल का नाम भी शामिल है। यही कारण था कि संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक सम्मेलन में परंपरा के खिलाफ जाते हुए भारतीय प्रधानमंत्री के साथ भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नहीं गए थे।
इससे भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में एक दिलचस्प आयाम पर भी विचार सामने आता है। अमेरिका ने निस्संदेह भारत के साथ अपने संबंधों को सावधानीपूर्वक विकसित किया है, लेकिन यह उसके अंतरराष्ट्रीय आचरण की प्रकृति में है कि जब भी मौका मिले एक अच्छे दोस्तों को भी थोड़ा दूर रखा जाए-ताकि बाद में किसी समय अच्छा सौदा किया जा सके।
इसमें एक एंगल और है। जहां तक भारत के वैश्विक मुद्दों पर आचरण का सवाल है, पीएम मोदी के नेतृत्व में कुछ बड़ा करने का हामी है।
निज्जर के मामले में भारत के आक्रामक रुख को समझने के लिए इस बात का ध्यान रखना जरूरी है। और इससे निज्जर मामले पर कनाडा से निपटने में भारत के आक्रामक रुख़ को समझने में मदद मिल सकती है। इस आक्रामकता में किसी अन्य देश की धरती पर हत्या को अंजाम देने का संदेह भी शामिल है।
जब अमेरिका ने भारतीय अधिकारियों को कानूनी कार्रवाई की धमकियां दी थीं तो भारत ने कुछ समीकरण बिठाने की कोशिश की थी लेकिन कनाडा के मुद्दे पर वो टोन ही गायब रही है। चीन इसे ‘वुल्फ़ वॉरियर डिप्लोमेसी’ की संज्ञा देता है। लेकिन भारत और चीन के दुनिया पर प्रभाव में आर्थिक और सैन्य हिसाब से बहुत बड़ा अंतर है।
लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि कनाडा के मुद्दे से बचा नहीं जा सकता। कम टकराव वाली कूटनीति में कोई प्रतिष्ठा नहीं खोती है। इसी पुराने भारतीय तरीके से एक ज़माने में उसे अंतरराष्ट्रीय सम्मान हासिल करने में मदद मिली थी। (bbc.com/hindi)
एवरेस्ट पर पहली बार कौन चढ़ा? क्या हिलरी और तेनजिंग एवरेस्ट समिट करने वाले पहले नहीं थे? नैशनल जियोग्राफिक की एक टीम ने एवरेस्ट पर कुछ ऐसा खोज निकालने का दावा किया है, जो एक सदी पुराने इस रहस्य को सुलझा सकता है.
डॉयचे वैले पर स्वाति मिश्रा का लिखा
ठीक एक सदी पहले की बात है। साल 1924, जून का महीना। दुनिया की सबसे ऊंची चोटी 'माउंट एवरेस्ट' पर सबसे पहले पांव धरने की ब्रिटिश महत्वाकांक्षा का बोझ उठाए एक एक्सपीडिशन टीम मिशन पर थी। इस टीम को समुद्र तल से 29,032 फीट ऊपर माउंट एवरेस्ट पर पहुंचना था।
पहले के दो नाकाम अभियानों के बाद यह पर्वतारोहियों का तीसरा दल था। नौ लोगों के इस दल में थे जॉर्ज मेलोरी (टीम लीडर), एडवर्ड नॉर्टन, नोएल ओडेल, जॉन मैकडॉनल्ड, एडवर्ड ओ। शेबेअर, जेफरी ब्रूस, टी। हॉवर्ड सॉमरवेल, बेंटले बीथम और एंड्रू 'सैंडी' इरविन।
1924 के एवरेस्ट एक्सपीडिशन टीम की एक फोटो। पीछे की कतार में (बाएं से दाएं) पहले नंबर पर इरविन और उनके बगल में मैलोरी हैं। पीछे की ही कतार में (दाहिने से बाएं) दूसरे नंबर पर ओडेल हैं। 1924 के एवरेस्ट एक्सपीडिशन टीम की एक फोटो। पीछे की कतार में (बाएं से दाएं) पहले नंबर पर इरविन और उनके बगल में मैलोरी हैं। पीछे की ही कतार में (दाहिने से बाएं) दूसरे नंबर पर ओडेल हैं।
8 जून 1924 की उस दोपहर को क्या हुआ था?
एवरेस्ट चोटी के रास्ते में एक तंग घाटी है, ग्रेट (नॉर्टन) कूलुआ। यह एवरेस्ट के नॉर्थ फेस की ओर है। 8 जून 1924 को दोपहर बाद एक्सपीडिशन टीम के दो सदस्य, मैलरी और इरविन, इसे पार कर चुके थे कि जब मौसम अचानक से खिल गया। बादल छंट गए और पहाड़ के ऊपर का हिस्सा साफ दिखने लगा।
यहां तक कि नॉर्थईस्ट रिज के 'थ्री स्टेप्स' की पहली सीढ़ी भी नजर आ रही थी। ये जगह लगभग 28,097 फीट की ऊंचाई पर है। फिर कुछ ही मिनटों में मौसम एकदम से बदला और घने बादल लौट आए।
टीम के सदस्य नोएल ओडेल इस वक्त मैलरी और इरविन से करीब 1,000 फीट नीचे थे। वो एक चक्करदार रास्ते से कैंप छह से होते हुए ऊपर चढऩे की कोशिश कर रहे थे। वहां एक खड़ी चढ़ाई वाली चट्टान थी, जिसपर चढ़े ओडेल ने मौसम को एकाएक फिर साफ होते देखा।
अब ओडेल को चोटी तक का पूरा रास्ता नजर आ रहा था। वह फर्स्ट और सेकेंड स्टेप दोनों को देख पा रहे थे।।। और फिर ओडेल ने जो देखा, वो लम्हा ना केवल उन्हें उम्रभर याद रहने वाला था, बल्कि एवरेस्ट के इतिहास में सबसे बड़ा रहस्य भी बनने वाला था। इस लम्हे पर अनगिनत किताबें, असंख्य बहसें होने वाली थीं।
क्या देखा था ओडेल ने?
96 साल की भरपूर उम्र में फरवरी 1987 को ओडेल दुनिया से विदा हुए। अपनी तमाम जिंदगी वह 8 जून 1924 को दिन के तीसरे पहर में दिमाग में खिंची वही तस्वीर दोहराते रहे कि उन्होंने 28,250 फीट की ऊंचाई पर 'सेकेंड स्टेप' के ऊपर दो गतिशील आकृतियां देखी थीं।
ओडेल को इस बात में रत्तीभर भी शंका नहीं थी कि उन्होंने दो पर्वतारोहियों को उस ऊंचाई पर आगे बढ़ते हुए देखा था! ओडेल के शब्दों में, वो दोनों फुर्ती से चलते नजर आए थे।
अगर ऐसा था, तो वो दोनों पर्वतारोही मैलरी और इरविन के सिवाय कोई और नहीं हो सकते थे। वही दोनों थे, जो टीम के बाकी लोगों से आगे थे। ओडेल की देखी इस झलक के तकरीबन पांच मिनट बाद ही बादलों ने वापसी की। फिर उस दिन तीसरा पहर खत्म होने से पहले ओडेल को एवरेस्ट नजर नहीं आया।
और, जब आया तो वहां मेलरी और इरविन का नामो-निशान नहीं था! मेलरी और इरविन फिर कभी किसी को नजर नहीं आए। वो एवरेस्ट के मुसाफिरों के उस क्लब का हिस्सा बन गए, जिनकी जिंदगी पहाड़ पर ही खत्म हो गई।
एक कैमरा, जिससे बंधी है उम्मीद
मेलरी और इरविन की मौत तो हुई, लेकिन कब और किस पड़ाव पर? क्या वो कभी एवरेस्ट पर चढ़ पाए? अगर ओडेल ने उन्हें सेकेंड स्टेप पर देखा, तो वो चोटी से बहुत दूर नहीं थे।
क्या 29 मई 1953 को एडमंड हिलरी और तेंजिंग नॉर्गे की पहली बार एवरेस्ट फतह करने की उपलब्धि से भी तीन दशक पहले मेलरी और इरविन, या केवल मेलरी, या केवल इरविन ने एवरेस्ट की चोटी पर पांव धरा था?
क्या वो दोनों, या उनमें से एक वापस उतरते हुए गिरकर मर गए? लेकिन उनके जूते तो आधुनिक पर्वतारोहियों जैसे थे नहीं, तो क्या हिमालय की उस कठिन ऊंचाई पर उन जूतों के साथ वो ऊपर चढ़ पाए होंगे?
यकीन कीजिए, ये सारे अगर-मगर बहुत कम हैं। पिछली एक सदी से यह हाइपोथिसिस माउंटेनियरिंग कम्युनिटी की सबसे गर्म बहसों में से एक बनी हुई है। तो क्या यह रहस्य सुलझाने का कोई तरीका नहीं? उम्मीद लगाने वालों ने सारी आशा एक कैमरे से बांधी हुई है: कोडेक वेस्ट पॉकेट कैमरा।
यह कैमरा एक्सपीडिशन टीम के एक सदस्य सॉमरवेल ने मिशन के दौरान मैलरी को दिया था। अगर वो चोटी पर पहुंचे होंगे, तो यकीनन उन्होंने कैमरे में तस्वीर खींची होगी और कैमरा जैकेट की पॉकेट में रखा होगा। उसकी वो फिल्म, जो कभी डिवेलप नहीं हुई, शायद अब भी बची हो। कोडेक कंपनी ने कहा था कि दशकों तक बर्फ में जमी होने के बावजूद वो कोशिश करेंगे, तस्वीर रीकवर करने की। शायद कामयाबी मिल भी जाए।
लाश मिली, कैमरा नहीं मिला
मैलरी और इरविन के शवों की तलाश, और उस कोडेक कैमरे की खोज में दशकों से लोग हलकान होते आ रहे हैं। 1933 में एवरेस्ट गई एक्सपीडिशन टीम को एक छोटी कामयाबी हाथ लगी, जब उन्हें इरविन की एक बर्फ वाली कुल्हाड़ी मिली।
फिर लंबा सन्नाटा रहा और दशकों की मेहनत के बाद 1999 में गए एक एक्सपीडिशन ने करीब 27,000 फीट की ऊंचाई पर मेलरी का शव खोज निकाला।
शव का सिर जमीन की ओर औंधा पड़ा मिला। एक पैर और शायद एक हाथ भी टूटा हुआ था, यानी गिरने से उनकी मौत हुई। बर्फ ने मेलरी का शव बहुत सहेजकर रखा था। जेब में रखी चि_ी भी सलामत थी।
बहुत कुछ मिला, बस वो कोडेक कैमरा ही नहीं मिला। फिर उम्मीद जगी कि वो कैमरा इरविन के पास रहा होगा। इरविन का शव खोजने कई लोग एवरेस्ट गए। कई विशेष अभियान चलाए गए।
एक सदी बाद भी पहेली का अहम हिस्सा गायब
आखिरकार अब ठीक एक सदी बाद इरविन का अवशेष मिल गया है। नैशनल जिओग्रैफिक ने बताया है कि उनकी एक टीम को नॉर्थ फेस के नीचे एक शव का अवशेष मिला और उन्हें यकीन है कि यह इरविन ही हैं।
बर्फ की आधी पिघली परत से बाहर झांकता एक जूता और उसमें घुसे पांव के अवशेष पर चढ़ा एक मोजा भी मिला, जिसपर एम्ब्रॉइडी से लिखा है: ए। सी। इरविन।
नैशनल जियोग्राफिक की इस टीम ने सितंबर में यह खोज की है। नैशनल जियोग्राफिक की रिपोर्ट में टीम के सदस्य जिमी चिन इस बहुप्रतीक्षित खोज का लम्हा यूं बताते हैं, ‘मैंने मोजा उठाया और वहां एक लाल चिप्पी दिखी, जिसपर सिला हुआ था: ए। सी। इरविन!"
इतिहास बदल सकता है माउंट एवरेस्ट में खोया एक कैमरा
टीम को उम्मीद है कि शायद इस ऐतिहासिक खोज से यह जानने में मदद मिले कि 1924 की जून में उस दिन एवरेस्ट पर क्या हुआ था। फिलहाल पहेली का एक अहम पीस गायब है, वो कोडेक कैमरा। हालांकि, खोजी टीम को यकीन है कि कैमरा भी आसपास ही कहीं होगा।
इतने सालों तक खोजने के लिए इतना अथाह इलाका था। कम-से-कम अब खोज का दायरा तो काफी छोटा हो गया है। चिन और उनकी टीम ने वो लोकेशन नहीं बताई है, जहां उन्हें इरविन के अवशेष मिले। इस डर में कि फिर ‘ट्रॉफी हंटरों’ की बाढ़ आ जाएगी। आखिरकार, इतने बड़े रहस्य को सुलझाने का चाव आकर्षक भी तो बहुत है! (डॉयचेवैले)
-मधु पाल
महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री और एनसीपी के दिग्गज नेता बाबा सिद्दीकी की मुंबई में गोली मारकर हत्या कर दी गई है।
मुंबई के बांद्रा इलाक़े में शनिवार शाम को उन पर हमला हुआ जिसके बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता को अस्पताल में भर्ती कराया गया।
लीलावती अस्पताल में इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई। इस घटना के बाद से ही महाराष्ट्र की सियासत और मुंबई की फि़ल्मी नगरी बॉलीवुड में हडक़ंप मच गया है।
बाबा सिद्दीकी का बॉलीवुड फि़ल्मी कलाकारों के साथ बहुत गहरा रिश्ता था। उनके निधन पर बॉलीवुड के कई कलाकारों ने अपना दुख जताया है।
अभिनेता सलमान ख़ान बिग बॉस सीजऩ 18 की शूटिंग कर रहे थे जैसे ही उन्हें ये ख़बर मिली वो शूटिंग बीच में ही रोक कर लीलावती अस्पताल में सिद्दीकी परिवार से मुलाक़ात करने पहुंचे।
वहीं अभिनेता संजय दत्त और शिल्पा शेट्टी भी परिवार से मिलने अस्पताल में पहुंचे।
बॉलीवुड में थी गहरी पहचान
बाबा सिद्दीकी का नाम राजनीतिक गलियारों में तो था ही लेकिन बॉलीवुड में भी उनकी पहचान बहुत गहरी थी।
बाबा सिद्दीकी मुंबई के पहले ऐसे नेता थे जिन्होंने बहुत बड़े जश्न के तौर पर इफ़्तार पार्टी का आयोजन शुरू किया।
वैसे इफ़्तार पार्टियां तो बहुत हुआ करती थीं लेकिन बाबा सिद्दीकी की इफ़्तार पार्टी बहुत बड़ी हुआ करती थी।
हमेशा से जिस तरह से बॉलीवुड के लिए फि़ल्मफ़ेयर अवॉर्ड महत्वपूर्ण रहा करता है वैसे ही हमेशा से बाबा सिद्दीकी की इफ़्तार पार्टी हुआ करती थी।
इस इफ़्तार पार्टी का हिस्सा बनना कलाकारों के रसूख को दर्शाता था। इस पार्टी में हर बड़े से बड़े कलाकार शामिल हुआ करते थे। सिर्फ फि़ल्मी कलाकार ही नहीं, हर बड़ा व्यापारी, मंत्री सब इस इफ़्तार पार्टी का हिस्सा हुआ करते थे।
बॉलीवुड से बाबा सिद्दीकी का रिश्ता
बाबा सिद्दीकी के बारे में पूरे साल में कोई ख़बर सुनाई दे या न दे लेकिन जब रमज़ान का महीना आता था तो वो चर्चा में ज़रूर रहते था।
बाबा सिद्दीकी का रिश्ता बॉलीवुड से कैसे जुड़ा?
इस पर बीबीसी हिंदी से बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर रामचंद्रन श्रीनिवासन कहते हैं, ‘शुरुआती दौर में बाबा की राजनीतिक कर्मभूमि बांद्रा थी। ये वही जगह है जहां अधिकतर फि़ल्मी हस्तियों के घर हैं। तब वो पॉलिटिकल करियर बना रहे थे। उसी समय उनकी मुलाक़ात सुनील दत्त से हुई।’
‘बाबा सिद्दीकी और सुनील दत्त साहब के बीच बहुत अपनापन था। यही अपनापन सुनील दत्त साहब के बेटे संजय दत्त के साथ भी था। संजय दत्त अक्सर बॉलीवुड की पार्टियों से ग़ायब रहते हैं लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने बाबा सिद्दीकी की इफ़्तार पार्टी में जाना कभी छोड़ा हो।’
वो कहते हैं, ‘जेल से जब भी संजय दत्त बाहर आये तो उन्होंने उसके बाद कोई पहली पार्टी अटेंड की तो वो बाबा सिद्दीकी की इफ़्तार पार्टी ही थी।’
सलमान ख़ान और बाबा सिद्दीकी की दोस्ती
सलमान और बाबा की दोस्ती बेहद पुरानी है। और यही वजह है कि ये दोनों कई सामाजिक सरोकार के मुद्दों के दौरान साथ आए।
साल 2020 और 2021 में हुए कोरोना लॉकडाउन के दौरान भी सलमान की टीम ने बाबा के बेटे ज़ीशान सिद्दीकी के साथ मिलकर ज़रूरतमंद लोगों की मदद का इंतज़ाम किया था।
इतना ही नहीं उस दौरान उन्होंने साथ मिलकर ऑक्सीजन से जूझते लोगों तक भी मदद पहुंचाई थी। (बाकी पेज 8 पर)
सलमान के बुरे वक़्त में भी बाबा ने उनका साथ दिया। सलमान जब हिट एंड रन केस और काला हिरण मामले को लेकर परेशानी में पड़े, बाबा सिद्दीकी उनके साथ खड़े थे।
जब भी सलमान ख़ान के केस की सुनवाई होती तो उस दौरान बाबा सिद्दीकी या तो कोर्ट रूम में उनके पास होते थे या फिर परिवार के साथ खड़े रहते थे।
अभी जब सलमान ख़ान को लॉरेंस बिश्नोई गैंग ने जान से मारने की धमकी दी थी तब भी बाबा ने इस पर अपना अफ़सोस जताया था।
उन्होंने सलमान को जान से मारने की धमकी देने वालों को पकडऩे की मांग की थी।
सलमान और शाहरुख़ की करवाई थी दोस्ती
बाबा सिद्दीकी ने साल 2013 में हुई इफ़्तार पार्टी में सलमान और शाहरुख़ दोनों को बुलाया था।
आज सलमान और शाहरुख़ एक साथ दिखते हैं तो इसमें कोई चौंकने वाली बात नहीं रहती लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब ये दोनों एक दूसरे से मिलना भी पसंद नहीं करते थे।
तकऱीबन पांच साल से उनकी आपसी बातचीत बंद रही और ना ही कोई काम साथ में किया था।
लेकिन सलमान और शाहरुख़ की पांच साल पुरानी दुश्मनी को बाबा सिद्दीकी ने 2013 की इफ़्तार पार्टी में दोनों को गले लगवाकर खत्म करया था।
वरिष्ठ पत्रकार निशांत भूसे ने बताया, ‘बाबा सिद्दीकी ही थे जिन्होंने हिट एंड रन के मामले में सलमान ख़ान की पूरी मदद की। सलमान को जब भी कोई ख़तरा हुआ तो उनकी सिक्युरिटी का भी बंदोबस्त किया।’
‘सलमान ख़ान ने जब हॉस्पिटल जाकर बाबा की बॉडी देखी तो वो फूट फूट कर रोने लगे। बाबा की बेटी और पत्नी को संभाला।’
निशांत भूसे आगे कहते हैं, ‘बाबा के साथ जो हुआ उसके बाद सलमान ख़ान की सिक्योरिटी और बढ़ा दी जाएगी।’ (bbc.com/hindi)
-अनिल जैन
तमाम मीडिया संस्थानों और सर्वे एजेंसियों के एग्जिट पोल एक बार फिर फर्जी साबित हुए. दोनों ही राज्यों-जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के चुनाव नतीजे एग्जिट पोल्स के ठीक उलट रहे। एग्जिट पोल्स में मुताबिक हरियाणा में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलना बताया गया था, जबकि जम्मू कश्मीर में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना जताई गई थी. लेकिन हरियाणा में बहुमत मिला भाजपा को और जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस व कांग्रेस के गठबंधन को।
दरअसल भारत में एग्जिट पोल के अनुमान कभी-कभार ही सही निकलते हैं, ज्यादातर चुनावों में तो उनके औंधे मुंह गिरने का ही रिकॉर्ड है, जो इस बार भी कायम रहा।
दोनों राज्यों के नतीजों में एग्जिट पोल के अनुमान फेल होने के बावजूद एग्जिट पोल करने वाली किसी भी सर्वे एजेंसी, टीवी चैनल या अखबार ने इस बात पर खेद नहीं जताया है कि उसके द्वारा किया गया अथवा दिखाया गया एग्जिट पोल गलत साबित हुआ है। जाहिर है कि सारे मीडिया संस्थान शर्मनिरपेक्ष यानी निर्लज्ज हो चुके हैं।
दरअसल हर चुनाव में तमाम एग्जिट पोल की दुर्गति होने की अहम वजह यह है कि हमारे यहां एग्जिट पोल करने का कोई वैज्ञानिक तरीका विकसित ही नहीं हुआ है और भारत जैसे विविधता से भरे देश में हो भी नहीं सकता।
फिर हमारे यहां चुनाव को लेकर जिस बड़े पैमाने पर सट्टा होता है और टेलीविजन मीडिया का जिस तरह का लालची चरित्र विकसित हो चुका है, उसके चलते भी एग्जिट पोल की पूरी कवायद सट्टा बाजार के नियामकों और टीवी मीडिया इंडस्ट्री के एक संयुक्त कारोबारी उपक्रम से ज्यादा कुछ नहीं है। अक्सर सत्तारुढ़ दल भी इस उपक्रम में भागीदार बन जाता है।
इसलिए एग्जिट पोल्स दिखाने की कवायद को सिर्फ क्रिकेट के आईपीएल जैसे अश्लील और सस्ते मनोरंजक इवेंट के तौर पर ही लिया जा सकता, इसके अलावा कुछ नहीं।
-इमरान कुरैशी
पत्रकार और एक्टिविस्ट गौरी लंकेश की हत्या के दो अभियुक्तों के ज़मानत पर रिहा होने के बाद विजयपुरा के एक मंदिर में माला पहनाकर दोनों को सम्मानित किया गया।
दोनों अभियुक्तों परशुराम वागमोरे और मनोहर यादवे को विजयपुरा जि़ले से गिरफ्तार किया गया था। अदालत ने दोनों अभियुक्तों और छह अन्य अभियुक्तों को शुक्रवार को ज़मानत दी थी।
पांच सितंबर 2017 को गौरी लंकेश की हत्या उनके घर के बाहर गोली मारकर की गई थी, जिसके बाद बेंगलुरु पुलिस के विशेष जांच दल (एसआईटी) ने मामले की जांच की थी।
एसआईटी की जांच में सामने आया कि गौरी लंकेश की हत्या का संबंध तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर, सीपीआई नेता गोविंद पानसरे और स्कॉलर एमएम कलबुर्गी की हत्या से भी है।
श्रीराम सेना के जि़ला अध्यक्ष नीलकांत कंडगल ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘वो हिंदू कार्यकर्ता हैं। ज़मानत पर रिहा हुए थे, इसलिए हमने उनका स्वागत फूल और मालाओं से किया। हमने कालिका मंदिर में पूजा की और प्रार्थना की कि वे अदालत से बरी हो जाएं।’
मंदिर पहुंचने से पहले परशुराम वागमोरे और मनोहर यादवे ने विजयपुरा शहर के शिवाजी सर्किल पर शिवाजी महाराज की प्रतिमा पर माला चढ़ाई। दोनों को मंदिर के अंदर समर्थकों की मौजूदगी में नीलकांत कंडगल और अन्य लोगों ने सम्मानित किया। इस मौके पर मीडिया को आने की अनुमति नहीं दी गई और न ही कोई जानकारी दी गई।
‘बलात्कारियों को माला पहनाई जा रही है’
गौरी लंकेश की बहन और इस मामले की शिकायतकर्ता कविता लंकेश ने बीबीसी हिंदी से कहा, "बलात्कारियों को माला पहनाई जा रही है और इन लोगों को बधाई दी जा रही है। हमारा समाज कहां पहुंच गया है?’
कविता का इशारा गोधरा कांड के बाद भडक़ी सांप्रदायिक हिंसा की शिकार बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार के दोषियों को दी गई रिहाई और बधाई की ओर था।
सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों की रिहाई को रद्द करते हुए उन्हें सज़ा काटने के लिए वापस जेल भेज दिया था।
हालांकि, नीलकांत कंडगल ने कहा, ‘हमारा मानना है कि वे इस मामले में शामिल नहीं हैं। वे निर्दोष हैं।’
इस मामले के 18 अभियुक्तों में से 16 को ज़मानत मिलने का मुख्य कारण ट्रायल में देरी थी। चार्जशीट में दर्ज 527 गवाहों में से अब तक लगभग 140 से पूछताछ की जा चुकी है और निकट भविष्य में मुक़दमे के पूरा होने की कोई संभावना नहीं है।
कर्नाटक हाई कोर्ट ने मोहन नाइक उर्फ संपांजे को ज़मानत दे दी थी, लेकिन अभियोजन पक्ष ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था।
इसके बाद केटी नवीन कुमार, अमित दिगवेकर और सुरेश एचएल को भी जुलाई 2024 में हाई कोर्ट से ज़मानत मिली। इसके बाद भरत कुमार, श्रीकांत पंगारकर, सुजीत कुमार और सुधाना गोंधकर को सितंबर, 2024 में ज़मानत मिली।
पिछले हफ़्ते सेशन कोर्ट ने वागमोरे और यादवे सहित आठ अभियुक्तों को ज़मानत दी थी। ज़मानत पाने वाले अन्य लोगों में अमित काले, राजेश डी बंगेरा, वासुदेव सूर्यवंशी, रुशिकेश देवदार, गणेश मिस्किन और अमृत रामचंद्र बद्दी शामिल हैं।
विकास पटेल उर्फ दादा उर्फ निहाल अभी भी फरार है। दो अन्य लोगों ने अभी तक अदालत का रुख नहीं किया है।
अभियुक्तों पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), भारतीय शस्त्र अधिनियम और कर्नाटक संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों के तहत आरोप लगाए गए हैं।
अभियुक्तों के सम्मान पर ये प्रतिक्रिया आई
हरमिंदर कौर के ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर सम्मान समारोह का वीडियो संलग्न करते हुए लिखा ‘गौरी लंकेश के हत्यारों को ज़मानत मिल गई। हत्यारों का खुलेआम हिंदू संगठनों ने स्वागत किया। यह बेहद घटिया है।’
अभिनेता प्रकाश राज ने एक्स पर एक अन्य पोस्ट में कहा, ‘इस देश में केवल हत्यारों और बलात्कारियों के लिए ज़मानत नियम है।।। शर्मनाक।’ लेकिन कार्यकर्ता और स्तंभकार शिव सुंदर पूरे मामले को अलग तरह से देखते हैं।
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘सिद्धांत के तौर पर यह कहना सही है कि ट्रायल पूरा होने तक किसी भी आरोपी को जेल में नहीं रखा जाना चाहिए। समस्या यह है कि यह सिद्धांत बहुत भेदभावपूर्ण है।’
उन्होंने कहा, ‘हालांकि यह उन लोगों पर लागू नहीं होता जो सरकार का विरोध कर रहे हैं, लेकिन यह दक्षिणपंथियों पर लागू होता है। किसी आरोपी को पूरी सुनवाई अवधि के लिए जेल में रखना मानवाधिकार सिद्धांत नहीं है। इसे दक्षिणपंथियों या वामपंथियों पर लागू नहीं किया जाना चाहिए।’
शिव सुंदर ने कहा, ‘हम तेज़ी से सुनवाई के लिए विशेष अदालत की मांग कर रहे हैं। अभियोजन पक्ष ने भी ट्रायल को जल्द पूरा करने के प्रयास में करीब 150 गवाहों को छोडऩे पर सहमति जताई है।’
‘लेकिन बिलकिस बानो के मामले में जो हुआ, जिसमें आरोपियों का स्वागत किया गया और उन्हें माला पहनाई गई, वह भयानक है।’
वो कहते हैं, ‘गौरी के मामले में यह उनकी हत्या का जश्न मनाने जैसा है। यह 5 सितंबर 2017 को, जिस दिन उनकी हत्या हुई थी, उसे फिर से अनुभव करने जैसा है। यह भयानक है। समाज को यह संदेश देना खतरनाक है।’ (bbc.com/hindi)
- प्रवीण सिंधु
दशहरे (विजयादशमी) के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय में संघ प्रमुख मोहन भागवत का दिया भाषण इस समय राजनीतिक गलियारों में चर्चा में है।
ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने बांग्लादेश की राजनीतिक अस्थिरता की तुलना भारत से की है। इसके साथ ही उन्होंने अन्य मुद्दों पर भी टिप्पणी की।
इस भाषण में मोहन भागवत ने ‘बांग्लादेश में हिंसा जैसी स्थिति भारत में पैदा करने की कोशिश’, ‘बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार’ और ‘आरजी कर मेडिकल कॉलेज में महिला डॉक्टर पर अत्याचार’ के मुद्दे पर टिप्पणी की।
मोहन भागवत के बयानों के मायने जानने के लिए बीबीसी मराठी ने राजनीतिक विश्लेषकों से बात की।
भारत में बांग्लादेश जैसे हालात पैदा करने की कोशिश
मोहन भागवत ने अपने भाषण में बांग्लादेश में डेढ़ महीने पहले पैदा हुई राजनीतिक अस्थिरता का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि भारत में बांग्लादेश जैसे हालात पैदा करने की कोशिश हो रही है।
मोहन भागवत ने कहा कि 'डीप स्टेट', 'वोकिज्म', 'कल्चरल मार्कि्सस्ट' शब्द इस समय चर्चा में हैं और ये सभी सांस्कृतिक परंपराओं के घोषित दुश्मन हैं।
उन्होंने कहा कि ‘सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं और जहां जहां जो कुछ भी भद्र, मंगल माना जाता है, उसका समूल उच्छेद (पूरी तरह से ख़त्म करना) इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है।‘
मोहन भागवत ने आगे कहा, ‘समाज में अन्याय की भावना पैदा होती है। असंतोष को हवा देकर उस तत्व को समाज के अन्य तत्वों से अलग और व्यवस्था के प्रति आक्रामक बना दिया जाता है।’
उन्होंने कहा, ‘व्यवस्था, कानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अविश्वास और घृणा को बढ़ावा देकर अराजकता और भय का माहौल बनाया जाता है। इससे उस देश पर हावी होना आसान हो जाता है।’
‘तथाकथित ‘अरब स्प्रिंग’ से लेकर पड़ोसी बांग्लादेश में हाल की घटनाओं तक, एक ही पैटर्न देखा गया। हम पूरे भारत में इसी तरह के नापाक प्रयास देख रहे हैं।’
बीबीसी मराठी ने वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र साठे से पूछा कि आखऱि मोहन भागवत के बयान के क्या मायने हैं?
राजेंद्र साठे ने कहा, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की माक्र्सवादियों की आलोचना हमेशा ‘सांस्कृतिक माक्र्सवाद’ पर आधारित होती है। चूंकि भारत की संस्कृति ‘हिंदू संस्कृति’ है, इसलिए संघ ने हमेशा आरोप लगाया है कि भारत की संस्कृति ‘हिंदू संस्कृति’ है उसे ‘सांस्कृतिक माक्र्सवाद’ के माध्यम से नष्ट करने की कोशिश की जा रही है।’
वो कहते हैं, ‘भागवत के ऐसे बयान को 'डॉग व्हिसल’ कहा जाता है, जो संघ के अनुयायियों के लिए हमले का संकेत है।’
वरिष्ठ पत्रकार विवेक देशपांडे ने मोहन भागवत के ‘बाहरी ताक़तों’ वाले बयान की व्याख्या करते हुए एनजीओ के खिलाफ मोदी सरकार की कार्रवाई का जिक्र किया।
विवेक देशपांडे ने कहा, ‘विदेशी ताक़तें भारत में लोगों की भावनाओं को भडक़ा रही हैं, इस बयान का संबंध भारत में कई गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के खिलाफ मोदी सरकार द्वारा की गई हालिया कार्रवाई से है।’
वो कहते हैं, ‘सेंटर फॉर रिसर्च पॉलिसी जैसे कई एनजीओ के ख़िलाफ़ यह कार्रवाई की गई। क्योंकि संघ और मोदी सरकार का दावा है कि इन संगठनों को बाहरी लोग फंडिंग करते हैं और इनसे भारत विरोधी गतिविधियां करते हैं। मोहन भागवत यही सुझाव दे रहे हैं।’
देशपांडे कहते हैं, ‘संघ का दावा है कि दुनिया भर के कई अंतरराष्ट्रीय संगठन भारत में विभिन्न संगठनों को वित्तीय सहायता देते हैं, यह सहायता भारत में विकास में बाधा डालने के लिए है।’
उन्होंने कहा, ‘इससे पता चलता है कि भारत में कई गैर सरकारी संगठनों पर मोदी सरकार की कार्रवाई संघ के व्यापक एजेंडे का हिस्सा है। संघ के कारण ही यह कार्रवाई की गई है।’
भागवत के भाषण में अरब स्प्रिंग और बांग्लादेश के आंदोलन के जिक्र को लेकर देशपांडे कहते हैं, ‘मोहन भागवत ने अरब स्प्रिंग और बांग्लादेश की घटनाओं का जि़क्र किया। हालाँकि, इन दोनों घटनाओं का दुनिया भर में स्वागत किया गया है। अरब स्प्रिंग अधिनायकवाद और धार्मिक अतिवाद के विरोध के रूप में हुआ।’
वो कहते हैं, ‘अरब स्प्रिंग का उद्देश्य काफी हद तक लोकतांत्रिक था। इसी तरह बांग्लादेश में हुआ विद्रोह भी लोकतांत्रिक था।’
विवेक देशपांडे कहते हैं, ‘यह सच नहीं है कि यह चरमपंथियों और अमेरिका की साजि़श थी। यह केवल एक साजि़श सिद्धांत (कॉन्सपिरेसी थ्योरी) है। संघ की पूरी विचारधारा साजि़श सिद्धांत पर निर्भर करती है।’
‘इसलिए वे हर चीज़ को एक ही नज़रिए से देखते हैं कि हिंदू धर्म को मुसलमानों, ईसाइयों और मार्क्सवादियों से ख़तरा है, जो उनकी सोच का मूल है।’
देशपांडे ने कहा, ‘ये बात खुद गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में लिखी है। यह भी उस सिद्धांत का हिस्सा है।’
‘बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले’
मोहन भागवत ने अपने भाषण के दौरान बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यक के मुद्दे पर भी टिप्पणी की।
उन्होंने कहा, ‘बांग्लादेश में हाल ही में हिंसक तरीके से सत्ता परिवर्तन हुआ। हिंदू समुदाय पर क्रूर अत्याचारों की परंपरा एक बार फिर देखने को मिली। इस बार उन अत्याचारों के विरोध में हिंदू समुदाय कुछ हद तक घर से बाहर निकला।’
‘लेकिन जब तक यह दमनकारी जिहादी प्रकृति है, तब तक वहां के हिंदुओं सहित सभी अल्पसंख्यक समुदायों के सिर पर ख़तरे की तलवार लटकती रहेगी।’
भागवत ने यह भी कहा, ‘अब बांग्लादेश में पाकिस्तान को साथ लेने की चर्चा हो रही है। कौन से देश ऐसी चर्चा करके भारत पर दबाव बनाना चाहते हैं, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। इसका समाधान सरकार का विषय है।’
भागवत के इस बयान पर राजेंद्र साठे ने कहा, ‘बांग्लादेश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री मोहम्मद यूनुस और बांग्लादेश के अन्य महत्वपूर्ण नेताओं ने एक स्टैंड लिया है और स्पष्ट कर दिया है कि वे बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की रक्षा करेंगे। साथ ही, उन्होंने अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों का दौरा किया।’
वो कहते हैं, ‘संघ का असली दर्द यह है कि बांग्लादेश की राजनीति और समाज धर्मनिरपेक्ष है। अगर बांग्लादेश की व्यवस्था इस्लामी होती तो वे इसकी आलोचना कर सकते थे। अगर बांग्लादेश के हिंदू भारत आते तो संघ बता पाता कि वहां के हिंदू किस तरह संकट में हैं। हकीकत में ऐसा नहीं हुआ।’
साठे आगे कहते हैं, ‘एक ही समय में कई विरोधाभासी रुख़ अपनाना संघ और बीजेपी की विशेषता है। इसीलिए वे कहते हैं कि बांग्लादेश की सरकार को वहां के अल्पसंख्यकों का ख्याल रखना चाहिए, अल्पसंख्यकों के मंदिरों की रक्षा करनी चाहिए। भारत को इस बारे में बात करनी चाहिए।’
वो कहते हैं, ‘बांग्लादेश के दृष्टिकोण से भारत एक बाहरी शक्ति है। हिंदू होने के नाते हस्तक्षेप की मांग करना उनके लिए ग़लती होगी। जब भारत में गोहत्या के मुद्दे पर मदरसों पर हमले किए जाते हैं, मुसलमानों को मारा जाता है, बांग्लादेश या मुस्लिम देश चिंता व्यक्त करते हैं, तो क्या संघ काम करेगा?’
दशहरा के मौके पर दिए गए इस भाषण में मोहन भागवत ने हालांकि बांग्लादेश के राजनीतिक हालात पर ज़्यादा ज़ोर दिया है, लेकिन उन्होंने भारत के मुद्दों पर भी टिप्पणी की है। इन्हीं में से एक है पश्चिम बंगाल की घटना।
‘पश्चिम बंगाल में महिला डॉक्टरों पर अत्याचार’
मोहन भागवत ने पश्चिम बंगाल के आरजी कर अस्पताल में महिला डॉक्टर के साथ हुए रेप-मर्डर मामले पर टिप्पणी की।
उन्होंने कहा कि कोलकाता के आरजी कर अस्पताल की घटना उन घटनाओं में से एक है जो पूरे समाज को कलंकित करती है।
मोहन भागवत ने कहा, ‘इतने गंभीर अपराध के बाद भी कुछ लोगों ने अपराधियों को बचाने के घृणित प्रयास किए। इससे पता चलता है कि अपराध, राजनीति और बुराई का संयोजन हमें कैसे भ्रष्ट कर रहा है।’
भागवत के बयान पर विवेक देशपांडे ने प्रताडऩा की अन्य घटनाओं का जि़क्र किया। साथ ही, अन्य मामलों पर भागवत की चुप्पी का मुद्दा भी उठाया और समग्र रुख़ पर सवाल उठाया।
विवेक देशपांडे कहते हैं, ‘मोहन भागवत आरजी कर अस्पताल की घटना के बारे में बात करते हैं, लेकिन जब उत्तर प्रदेश में हाथरस में अत्याचार हुआ, तो उन्होंने इसके बारे में एक भी शब्द नहीं कहा। इसके विपरीत उन्होंने अपने भाषण में कहा कि सिर्फ इसलिए कि इतने बड़े देश में ऐसी घटनाएं होती हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि देश में बहुत खराब माहौल है।’
वो कहते हैं, ‘मोहन भागवत ने देश में महिला पहलवानों के यौन उत्पीडऩ के मामले में एक भी शब्द नहीं बोला है। पश्चिम बंगाल के आरजी कर में हुई घटना स्पष्ट रूप से आपराधिक प्रकृति की है। उस मूल घटना में कोई राजनीति नहीं है, घटना के बाद राजनीति आ गई।’
‘हालांकि, महिला पहलवानों के यौन उत्पीडऩ मामले में आरोपी एक राजनेता हैं। बृजभूषण सिंह बीजेपी के संघवादी नेता हैं। वो यह नहीं कह सकते कि उनका संघ या बीजेपी से कोई संबंध नहीं है।’
देशपांडे ने भागवत से सवाल करते हुए कहा कि, ‘मोहन भागवत आरजी कर अस्पताल की घटना का जि़क्र करते हैं और बृजभूषण का जि़क्र नहीं करते, जिन्होंने देश का गौरव महिला पहलवानों के साथ दुर्व्यवहार किया। यह किस तरह की भारतीय संस्कृति है।’ (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
कलियुग के बारे में कहा गया है कि ऐसे दुष्ट समय में जब भाई भाई का दुश्मन होगा, पति पत्नी में झगड़े होंगे और युवा बुजुर्गों को घर बदर करेंगे तब ईश्वर की कठोर साधना करने की किसी को फुर्सत नहीं होगी, ऐसे में केवल राम नाम के जप से ही ईश्वर प्रसन्न हो जाएंगे। ऐसा समय हमारे जीवन में आजकल हर तरफ घर घर की कहानी बनकर दिख रहा है जब महान विभूतियों का मिलना हर क्षेत्र में मुश्किल होता जा रहा है। राजनीति और उद्योग जगत में तो अच्छे लोगों की खोज और भी मुश्किल हो गई है जहां अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे निकलने के लिए अपने गुरु समान वरिष्ठों को मार्गदर्शक का ठप्पा लगा कर अंधेरे कोनों में धकेल दिया जाता है और साम दाम दंड भेद से येन केन प्रकारेण शीर्ष पर पहुंचने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए जाते हैं। यही कारण है कि अमीरी और प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचने के बाद भी उन्हें वैसा सम्मान नहीं मिलता जैसा हाल ही में दिवंगत रतन टाटा को मिला है। देश के हर हिस्से और हर वर्ग से रतन टाटा के देहावसान से दुखी होने के समाचार हैं।
ऐसा नहीं कि रतन टाटा किसी झोंपड़ी में रहते थे और फकीरों जैसा जीवन जी रहे थे। उनके पास रहने के लिए अच्छा खासा घर था, पहनने के लिए बढिय़ा सूट बूट और टाई थी,सेवा के लिए नौकर चाकर थे। खेलने और मन बहलाने के लिए अच्छी नस्ल के कुत्ते थे लेकिन इतना सब होने के बावजूद उनके देहांत पर देश के काफी नागरिक दुखी हो रहे हैं, उसके सबसे बड़े निम्न तीन कारण हैं जो उन्हें अपने अन्य समकालीन उद्योगपतियों से बेहतर बनाते हैं,1.वे अपनी अमीरी का फूहड़ प्रदर्शन नहीं करते थे, 2. उनकी कंपनियों में कर्मचारियों से गुलामों की तरह बेतहाशा काम नहीं कराया जाता और उन्हें अच्छी वर्किंग कंडीशन मिलती हैं और 3.उन्होंने कैंसर अस्पताल जैसी सुविधाएं आम जनता को उपलब्ध कराकर करुणा और सेवा के काफी काम किए हैं। इन्हीं कारणों से उनका सकल व्यक्तित्व आज के अधिकांश चर्चित संतों, राजनीतिज्ञों और उद्योगपतियों को शर्मिंदा करने में सक्षम है।
ईसा मसीह ने बहुत पहले कहा था कि सीधी राह चलकर कोई बहुत अमीर नहीं बन सकता और अमीरों के लिए स्वर्ग के दरवाजे कभी नहीं खुलते।सच यह भी है कि हम सब तुलनात्मक रूप से अच्छे या बुरे हैं और कोई भी अपने आप में पूर्ण नहीं है। इसीलिए उन्हें बेहतर माना जाता है जो अपने दूसरे प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में अधिक उदार और शालीन हैं। रतन टाटा के लंबे करियर में नीरा राडिया टेप ने जरूर उनकी छवि दागदार दी। असम के उल्फा आतंकवादियों की मदद और काम के बदले करुणानिधि के परिवार की ट्रस्ट को कई करोड़ की मदद के आरोप उन पर भी लगे। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण और पश्चिम बंगाल में नैनो प्रकरण के छींटे भी उनके नेतृत्व पर पड़े थे। इन सबके बावजूद वे कोयले की खदान में छोटे हीरे की तरह तो हैं ही।
वर्तमान दौर में जब संतों में संतोष नहीं रहा और आधुनिक संत, गुरु और मठाधीश तक आलीशान पांच सितारा आश्रम बनाने लगे, आलीशान कारों और प्राइवेट जेट में घूमने लगे तब अति महत्वाकांक्षी नेताओं और उद्योगपतियों में नदारद संवेदनशीलता, सहृदयता और सेवा की भावना रतन टाटा में काफी हद तक अक्षुण्ण रही । यही कारण है कि राजनीति और उद्योग जगत की विभूतियों में हमे कोई दूसरा अब्दुल कलाम और रतन टाटा जैसा उत्कृष्ट व्यक्ति नहीं दिखता जिसकी सादगी, कर्मठता और शालीनता दुर्लभ हो गई है।लोक जीवन में रहने वाली किसी भी विभूति के लिए आम अवाम का सम्मान सबसे बड़ा पुरस्कार है।कलियुग के भ्रष्ट से भ्रष्टतर होते दौर में रतन टाटा निश्चित रूप से कुछ अलग सोच के उद्योगपति रहे।
ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें और देश के अन्य उद्योगपतियों को उनकी तरह आगे बढऩे की शक्ति प्रदान करें।
-पुष्य मित्र
एक तारीख सूर्योदय से शुरू होती है और अगले सूर्योदय को खत्म हो जाती है। एक तारीख रात बारह बजे शुरू होती है और 24 घंटे बाद फिर रात बारह बजे खत्म हो जाती है।
इसके बाद आती है हमारे पंडितों की तारीख, जो कहती है आज दोपहर बारह बजकर 35 मिनट पर अष्टमी शुरू होगी जो अगले दिन सुबह ग्यारह बजे खत्म होगी, मगर अष्टमी आज नहीं कल होगी और कल ही दोपहर बाद नवमी भी होगी।
हमारे ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड विद्वानों द्वारा तैयार इस स्पेशल कैलेंडर को जिसे हम पंचांग कहते हैं, नासा में काम करने वाला भारतीय वैज्ञानिक भी आंख मूंद कर मान लेता है।
कोई नहीं कहता, पंडित जी जरा अपना कैलेंडर सुधार लीजिए। ऐसा क्या कैलेंडर बना लिए हैं, जिसे आप ही समझ पाते हैं, आप ही उसकी व्याख्या कर पाते हैं।
महाराज आप ही कहते हैं कि दिन सूर्योदय के हिसाब से होता है, फिर आपकी तिथि क्यों गड़बड़ा रही है। सिर्फ इसलिए कि आपके साल के हिसाब किताब में ही लोचा है। इसलिए आपको बारह साल बाद एक मलमास जोडऩा पड़ता है। ये न जोड़ें तो हम हिंदू भी मुसलमानों की तरह हर मौसम में होली और दुर्गापूजा मनाएं, जैसे वे हर मौसम में ईद और बकरीद मनाया करते हैं।
जब विज्ञान उन्नत नहीं था तो हम चांद की कलाओं को देखकर तारीख तय करते थे। मगर जब हमने सूर्य की स्थितियों को समझना शुरू किया तो सौर कैलेंडर बने। भारत में भी बने। मगर ज्यादातर हिंदू और मुसलमान आज भी चंद्र कैलेंडर से चिपके हैं। क्योंकि उनका धर्म उन्हें अपनी पौराणिक मूर्खताओं को छोडऩे की इजाजत नहीं देता।
कई दफा मुझे लगता है कि अपने पूर्वजों की मूर्खताओं और पूर्वाग्रहों या संयमित शब्द में कहें तो उनके ज्ञान की सीमाओं से चिपके रहने का ही नाम धर्म है। हम भी चिपके हैं। इसलिए बीच दोपहर में 12 बजकर 40 मिनट पर हमारा नया दिन शुरू होता है और हम कोई बहस नहीं करते। चुपचाप मान लेते हैं।
ये भी नहीं पूछते कि पंडित जी घंटा मिनट तो आपके पास नहीं था, ये तो पश्चिम ने दिया है। ये आप कैसे घुसा लेते हैं अपने पंचांग में।
मगर नहीं, धर्म के मामले में जो पंडित जी कह दें वही सही। इसलिए आज अष्टमी भी है और नवमी भी। अष्टमी कल भी थी। कल सप्तमी भी थी। पंडित जी जानते हैं, यह कन्फ्यूजन है तभी उनकी पूछ है। इसलिए भारतीय कैलेंडर का कंफ्यूजन बना रहे।
-अभिनव गोयल
हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों ने ज्यादातर चुनावी विश्लेषकों को गलत साबित कर दिया है।
दस साल सत्ता में रहने के बाद लगातार तीसरी बार भारतीय जनता पार्टी राज्य में सरकार बनाने जा रही है।
बीजेपी ने राज्य की कुल 90 विधानसभा सीटों में 48 पर जीत दर्ज की है।
हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में 10 में से 5 सीटें हाथ से खोने वाली सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए कहा जा रहा था कि ये चुनाव आसान नहीं होंगे।
यहां तक की चुनाव के बाद हुए हर एग्जिट पोल में भी पूर्ण बहुमत से कांग्रेस की सरकार बनने का दावा किया गया था।
नतीजों से पहले सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनलों तक पर किसान, जवान और पहलवान के मुद्दे को बीजेपी की हार के लिए जि़म्मेदार ठहराया जा रहा था। लेकिन जब मतदान की पेटियां खुलीं तो नतीजों को एक बड़े उलटफेर की तरह देखा गया।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि बीजेपी ने हरियाणा में दस साल की कथित एंटी इंकम्बेंसी के बावजूद सत्ता कैसे हासिल की?
वो कौन से समीकरण थे, जिसने न सिर्फ कांग्रेस बल्कि राज्य की पूरी राजनीति को बदलकर रख दिया?
बीजेपी के लिए कितना मुश्किल था चुनाव
विधानसभा चुनावों से करीब छह महीने पहले बीजेपी ने हरियाणा में मनोहर लाल की जगह नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया।
उनके जरिए पार्टी ने राज्य के ओबीसी समाज को लामबंद करने की कोशिश की। हालांकि उस वक्त अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों का दावा था कि यह प्रयोग सफल नहीं होगा।
भले बीजेपी ने राज्य में जीत का आंकड़ा पार कर लिया है लेकिन मुख्यमंत्री नायब सैनी कैबिनेट के कुल 12 में से 9 मंत्री अपना चुनाव हार गए हैं।
यहां तक की नायब सैनी और अनिल विज जैसे बड़े नेताओं की जीत का अंतर भी कुछ खास बड़ा नहीं है।
इतना ही नहीं राज्य में 10 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां बीजेपी की जीत का अंतर 5 हजार से भी कम है।
इन सीटों में उचाना कलां, दादरी, पूंडरी, असंध, होडल, महेंद्रगढ़, अटेली, सफीदों, घरौंडा और राई विधानसभा शामिल है।
अटेली और पूंडरी विधानसभा को छोडक़र बाकि की आठ सीटों पर हारने वाले उम्मीदवार कांग्रेस पार्टी के हैं। यही वजह है कि मतगणना के दिन देर शाम तक भी कांग्रेस अपनी जीत को लेकर उम्मीद लगाए बैठी थी।
गैर जाटों की लामबंदी
साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने हरियाणा में पहली बार सरकार बनाई। पार्टी ने गैर जाट यानी पंजाबी खत्री समुदाय से आने वाले मनोहर लाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया।
इसी के साथ पार्टी ने राज्य में गैर जाट समाज को लामबंद करना शुरू कर दिया। बीजेपी ने 2019 का विधानसभा चुनाव भी उनके ही चेहरे पर लड़ा।
2024 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने ओबीसी समाज से आने वाले नायब सैनी को चुना।
वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस की बागडोर जाट समुदाय से आने वाले भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने संभाली। हालांकि कांग्रेस ने उन्हें आधिकारिक तौर पर मुख्यमंत्री का चेहरा चुनाव में घोषित नहीं किया था।
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘चुनावों में जाटों को लेकर एक नैरेटिव बन गया था कि अगर कांग्रेस सरकार आई तो भूपेंद्र सिंह हुड्डा मुख्यमंत्री होंगे। इसके खिलाफ बीजेपी ने गैर जाट समाज को एकजुट करने की कोशिश की और इस कोशिश में ओबीसी के साथ-साथ दलित वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा भी पार्टी के खाते में गया।’
कांग्रेस के 10 उम्मीदवार ऐसे हैं जिनकी हार का अंतर पांच हजार वोटों से भी कम का है।
राजनीति के जानकारों का ऐसा मानना है कि हरियाणा में जाटों की आबादी करीब 25 प्रतिशत और ओबीसी आबादी करीब 40 प्रतिशत है।
वरिष्ठ पत्रकार आदेश रावल भी जाट बनाम गैर जाट के नाम पर चुनाव के पोलराइज्ड होने की बात करते हैं।
वे कहते हैं, ‘हाल के लोकसभा चुनावों में संविधान के मुद्दे पर कांग्रेस को दलितों का वोट मिला, लेकिन इस बार राज्य में दलितों के एक हिस्से ने खुद को गैर जाटों के साथ शामिल कर लिया। लोगों को डर हो गया कि कांग्रेस आई तो जाट मुख्यमंत्री बन जाएगा।’
दलितों में इसी डर का जिक्र करते हुए बुधवार को इंडियन एक्सप्रेस में वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने एक लेख लिखा। उन्होंने लिखा कि हरियाणा में ‘जाटशाही’ के डर ने दलितों को कांग्रेस से दूर करने का काम किया।
सिरसा से कांग्रेस सांसद कुमारी शैलजा की नाराजग़ी ने भी इस डर को बढ़ाने का काम किया। विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘समय रहते कुमारी शैलजी की नाराजगी को दूर नहीं किया गया और उनके साथ जो बर्ताव हुआ उससे राज्य में दलित वोट बैंक पर उसका सीधा प्रभाव पड़ा।’
वहीं दूसरी तरफ भिवानी के वरिष्ठ पत्रकार इन्द्रवेश दुहन कहते हैं कि कांग्रेस का मतदाता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पीछे लामबंद होने को तैयार नहीं था।
वे कहते हैं, ‘बीजेपी ने 3 अक्टूबर को अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन दिया था, जिसकी खूब चर्चा हुई। उसका शीर्षक था-भूलना मत इन्हें। इसमें काले रंग में भूपेंद्र सिंह हुड्डा का चेहरा और दलितों के साथ उत्पीडऩ की खबरों को लगाया गया था।’
इन्द्रवेश कहते हैं, ‘इस विज्ञापन का एक ही मतलब था कि पार्टी बार-बार गैर जाट और दलितों को यह याद दिलाना चाह रही थी कि अगर कांग्रेस आई तो फिर से जाट सत्ता में होंगे और उत्पीडऩ का दौर शुरू हो जाएगा।’
एंटी इंकम्बेंसी से मुकाबला
विधानसभा चुनावों से ठीक पहले मनोहर लाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाकर बीजेपी ने एंटी इंकम्बेंसी को कम करने की कोशिश की।
साढ़े नौ साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे मनोहर लाल को चुनावी रैलियों से भी दूर रखा गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में चार रैलियां कीं, जिसमें सिर्फ एक रैली में मनोहर लाल दिखाई दिए। उनका चेहरा चुनावी पोस्टरों पर भी दिखाई नहीं दिया।
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘मनोहर लाल से नाराजग़ी न सिर्फ सरकार बल्कि संगठन को भी थी। वे कार्यकर्ताओं की सुनवाई नहीं करते थे। हरियाणा में नेता को एक ऐसे सामाजिक व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है जो बैठकी करते हैं, लोगों से मिलते हैं, लेकिन वो ऐसा नहीं करते थे। उनकी जगह नायब सैनी विनम्र व्यक्ति हैं, जो प्यार से बात करना जानते हैं।’
दूसरी तरफ बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र के ज़रिए जनता की नाराजग़ी को दूर करने की कोशिश की।
पार्टी ने जनता से अपने संकल्प पत्र में 20 वादे किए, जिसमें बिना ‘खर्ची पर्ची’ के 2 लाख नौकरियां और 24 फसलों को एमएसपी पर खरीदना शामिल था।
एंटी इंकम्बेंसी को कम करने की कोशिश में बीजेपी ने करीब 35 फीसदी मौजूदा विधायकों के टिकट काट दिए, जिसमें कई मंत्री भी शामिल थे।
यहां तक की मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी और डिप्टी स्पीकर रणबीर सिंह गंगवा की सीटों को भी बदल दिया गया।
नौकरी के सवाल पर कांग्रेस को घेरा
कांग्रेस ने अपने मेनिफेस्टो में 500 रुपये में गैस सिलेंडर, बुज़ुर्गों को 6 हज़ार रुपये पेंशन के साथ-साथ 2 लाख सरकारी नौकरियों का वादा किया।
जानकारों के मुताबिक युवाओं को नौकरी देने के वादे ने कांग्रेस की मुश्किलें हल करने की बजाय और बढ़ा दी।
वरिष्ठ पत्रकार आदेश रावल कहते हैं, ‘चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के कई नेताओं ने बयान दिए कि वो 2 लाख नौकरियों में से अपने क्षेत्र में पांच से दस हज़ार नौकरियां लगाएंगे। इससे हरियाणा के गैर जाट समाज से आने वाले युवाओं में नाराजग़ी बढ़ी।’
वे कहते हैं, ‘गैर जाट समाज को लगा कि अब उनके बच्चों को मेरिट पर नौकरी नहीं मिलेगी, बल्कि कोटा सिस्टम लागू हो जाएगा और एक खास समुदाय के युवाओं को तवज्जो मिलेगी।’
कांग्रेस ने अग्निवीर योजना के ज़रिए भी युवाओं से जुडऩे की कोशिश की और चुनावी सभाओं में ज़ोर-शोर से इसे लेकर बीजेपी की आलोचना की।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कहा कि राज्य में बेरोजग़ारी को अग्निवीर योजना ने बढ़ाने का काम किया है। उन्होंने कहा, ‘प्रदेश से पहले हर साल पांच हजार युवा फौज में भर्ती होते थे, लेकिन अब केवल 250 ही भर्ती होते हैं।
अग्निवीर मुद्दे पर पार्टी को मुश्किल में देख अमित शाह ने भिवानी में हुई एक रैली में यहां तक एलान कर दिया कि, ‘हरियाणा के एक भी अग्निवीर को वहां (सेना) से अगर वापस आना पड़ता है तो वह नौकरी के बिना नहीं रहेगा और इसकी जि़म्मेदारी भारतीय जनता पार्टी की है।’
उनके अलावा मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने भी अग्निवीर जैसे मुद्दे से निपटने के लिए कई बड़ी घोषणाएं कीं, जिसमें सिपाही, माइनिंग गार्ड, फॉरेस्ट गार्ड जैसी भर्तियों में दस प्रतिशत आरक्षण देना शामिल है।
आरएसएस की भूमिका
विधानसभा चुनाव में बीजेपी के दो और कांग्रेस के एक बागी नेता ने निर्दलीय लडक़र चुनाव जीता।
हिसार से सावित्री जिंदल और गन्नौर सीट से बीजेपी के बागी देवेंद्र कादियान ने जीत दर्ज की, वहीं कांग्रेस के बागी राजेश जून ने बहादुरगढ़ से विजय हासिल की।
कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी ने चुनाव में अपने उम्मीदवारों का एलान करने में कम समय लिया।
विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘बागी उम्मीदवारों के अलावा ऐसे भी बहुत लोग होते हैं जो चुनाव में खड़े तो नहीं होते लेकिन उनकी नाराजग़ी बहुत नुकसान कर सकती है। ये मुश्किल काम हरियाणा में संघ ने किया। उसने लोगों को मनाने में बड़ी भूमिका निभाई।’
वे कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में बीजेपी के खराब प्रदर्शन के बाद संघ को यह पता था कि विधानसभा चुनाव आसान नहीं होने वाला है। उनका ग्राउंड पर बड़ा नेटवर्क है, घर-घर तक पहुंच है। बीजेपी के कामों को लोगों तक पहुंचाने का काम उन्होंने बहुत अच्छे से किया है।’
त्रिवेदी कहते हैं, ‘संघ नाराज से नाराज व्यक्ति को भी मना लेता है, वहीं कांग्रेस में ऐसा दिखाई नहीं देता। राहुल गांधी ने अशोक गहलोत को हरियाणा कोऑर्डिनेटर बनाया था। उन्हें भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के बीच की नाराजग़ी को दूर करना चाहिए था, जो इतना मुश्किल काम नहीं था, लेकिन वे नहीं कर पाए।’
एक तरफ संघ का ग्राउंड पर मज़बूत नेटवर्क दिखाई देता है तो दूसरी तरफ कांग्रेस इससे जूझती हुई नजऱ आती है।
आदेश रावल कहते हैं, ‘हरियाणा में कांग्रेस पार्टी के पास 12 साल से ब्लॉक और जि़ला अध्यक्ष नहीं हैं। आपस की राजनीति इसका एक बड़ा कारण है। संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल की ये बड़ी विफलता है कि वे कुछ कर नहीं पाए।’
वे कहते हैं, ‘अगर ब्लॉक और जिला अध्यक्ष और प्रदेश कमेटी ही नहीं होगी तो बूथ पर वोटर को कौन लेकर जाएगा? कौन होगा जो लोगों को कांग्रेस की नीतियां समझाएगा? इसकी कमी एक बड़ा कारण है कि कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ रहा है।’ (bbc.com/hindi)
-रेहान फजल
सन् 1992 में इंडियन एयरलाइंस के कर्मचारियों के बीच एक अद्भुत सर्वेक्षण करवाया गया। उनसे पूछा गया कि दिल्ली से मुंबई की उड़ान के दौरान ऐसा कौन सा यात्री है जिसने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है? सबसे अधिक वोट रतन टाटा को मिले।
जब इसका कारण ढूंढने की कोशिश की गई तो पता चला कि वो अकेले वीआईपी थे जो अकेले चलते थे। उनके साथ उनका बैग और फाइलें उठाने के लिए कोई असिस्टेंट नहीं होता था।
जहाज के उड़ान भरते ही वो चुपचाप अपना काम शुरू कर देते थे। उनकी आदत थी कि वो बहुत कम चीनी के साथ एक ब्लैक कॉफी माँगते थे।
उन्होंने कभी भी अपनी पसंद की कॉफी न मिलने पर फ्लाइट अटेंडेंट को डाँटा नहीं था। रतन टाटा की सादगी के अनेक किस्से मशहूर हैं।
गिरीश कुबेर टाटा समूह पर चर्चित किताब ‘द टाटाज़ हाउ अ फ़ैमिली बिल्ट अ बिजऩेज़ एंड अ नेशन’ में लिखते हैं, ‘जब वो टाटा संस के प्रमुख बने तो वो जेआरडी के कमरे में नहीं बैठे। उन्होंने अपने बैठने के लिए एक साधारण सा छोटा कमरा बनवाया। जब वो किसी जूनियर अफसर से बात कर रहे होते थे और उस दौरान कोई वरिष्ठ अधिकारी आ जाए तो वो उसे इंतजार करने के लिए कहते थे। उनके पास दो जर्मन शैफर्ड कुत्ते होते थे ‘टीटो’ और ‘टैंगो’ जिन्हें वो बेइंतहा प्यार करते थे।’
‘कुत्तों से उनका प्यार इस हद तक था कि जब भी वो अपने दफ़्तर बॉम्बे हाउस पहुंचते थे, सडक़ के आवारा कुत्ते उन्हें घेर लेते थे और उनके साथ लिफ़्ट तक जाते थे। इन कुत्त्तों को अक्सर बॉम्बे हाउस की लॉबी में टहलते देखा जाता था जबकि मनुष्यों को वहाँ प्रवेश की अनुमति तभी दी जाती थी, जब वो स्टाफ के सदस्य हों या उनके पास मिलने की पूर्व अनुमति हो।’
कुत्ते की बीमारी
जब रतन के पूर्व सहायक आर वैंकटरमणन से उनके बॉस से उनकी निकटता के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था, ‘मिस्टर टाटा को बहुत कम लोग करीब से जानते हैं। हाँ दो लोग हैं जो उनके बहुत करीब हैं, ‘टीटो’ और ‘टैंगो’, उनके जर्मन शैफर्ड़ कुत्ते। इनके अलावा कोई उनके आसपास भी नहीं आ सकता।’
मशहूर व्यवसायी और लेखक सुहेल सेठ भी एक किस्सा सुनाते हैं, ‘6 फरवरी, 2018 को ब्रिटेन के राजकुमार चाल्र्स को बकिंघम पैलेस में रतन टाटा को परोपकारिता के लिए ‘रौकफेलर फ़ाउंडेशन लाइफटाइम अचीवमेंट’ पुरस्कार देना था। लेकिन समारोह से कुछ घंटे पहले रतन टाटा ने आयोजकों को सूचित किया कि वो वहाँ नहीं आ सकते क्योंकि उनका कुत्ता टीटो अचानक बीमार हो गया है। जब चार्ल्स को ये कहानी बताई गई तो उन्होंने कहा ये असली मर्द की पहचान है।’
एकाकी और दिखावे से कहीं दूर थे रतन टाटा
जेआरडी की तरह रतन टाटा को भी उनकी वक्त की पाबंदी के लिए जाना जाता था। वो ठीक साढ़े छह बजे अपना दफ्तर छोड़ देते थे।
वो अक्सर चिढ़ जाते थे अगर कोई दफ़्तर से संबंधित काम के लिए उनसे घर पर संपर्क करता था। वो घर के एकाँत में फाइलें और दूसरे कागज़़ पढ़ा करते थे।
अगर वो मुंबई में होते थे तो वो अपना सप्ताहाँत अलीबाग के अपने फार्म हाउस में बिताते थे। उस दौरान उनके साथ कोई नहीं होता था सिवाए उनके कुत्तों के। उनको न तो घूमने का शौक था और न ही भाषण देने का। उनको दिखावे से चिढ़ थी।
बचपन में जब परिवार की रोल्स-रॉयस कार उन्हें स्कूल छोड़ती थी तो वो असहज हो जाते थे। रतन टाटा को नजदीक से जानने वालों का कहना है कि जि़द्दी स्वभाव रतन की खानदानी विशेषता थी जो उन्हें जेआरडी और अपने पिता नवल टाटा से मिली थी।
सुहेल सेठ कहते हैं, ‘अगर आप उनके सिर पर बंदूक भी रख दें, तब भी वो कहेंगे, मुझे गोली मार दो लेकिन मैं रास्ते से नहीं हटूँगा।’
अपने पुराने दोस्त के बारे में बॉम्बे डाइंग के प्रमुख नुस्ली वाडिया ने बताया, ‘रतन एक बहुत ही जटिल चरित्र हैं। मुझे नहीं लगता कि कभी किसी ने उन्हें पूर्ण रूप से जाना है। वो बहुत गहराइयों वाले शख़्स हैं। निकटता होने के बावजूद मेरे और रतन के बीच कभी भी व्यक्तिगत संबंध नहीं रहे। वो बिल्कुल एकाकी हैं।’
कूमी कपूर अपनी किताब ‘एन इंटिमेट हिस्ट्री ऑफ पारसीज’ में लिखती हैं, ‘रतन ने मुझसे खुद स्वीकार किया था कि वो अपनी निजता को बहुत महत्व देते हैं। वो कहते थे शायद मैं बहुत मिलनसार नहीं हूँ, लेकिन असामाजिक भी नहीं हूँ।’
रतन की दादी नवाजबाई टाटा ने उन्हें पाला
टाटा की जवानी के उनके एक दोस्त याद करते हैं कि टाटा समूह के अपने शुरुआती दिनों में रतन को अपना सरनेम एक बोझ लगता था।
अमेरिका में पढ़ाई के दौरान ज़रूर वो बेफिक्र रहते थे क्योंकि उनके सहपाठियों को उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पता नहीं होता था।
रतन टाटा ने कूमी कपूर को दिए इंटरव्यू में स्वीकार किया था, ‘उन दिनों विदेश में पढऩे के लिए रिजर्व बैंक बहुत कम विदेशी मुद्रा इस्तेमाल करने की अनुमति देता था। मेरे पिता कानून तोडऩे के हक में नहीं थे इसलिए वो मेरे लिए ब्लैक में डॉलर नहीं खऱीदते थे। इसलिए अक्सर होता था कि महीना खत्म होने से पहले मेरे सारे पैसे खत्म हो जाते थे। कभी कभी मुझे अपने दोस्तों से पैसे उधार लेने पड़ते थे। कई बार तो कुछ अतिरिक्त पैसे कमाने के लिए मैंने बर्तन तक धोए।’
रतन सिर्फ 10 साल के थे जब उनके माता-पिता के बीच तलाक हो गया। जब रतन 18 वर्ष के हुए तो उनके पिता ने एक स्विस महिला सिमोन दुनोयर से शादी कर ली। उधर उनकी माता ने तलाक के बाद सर जमसेतजी जीजीभॉय से विवाह कर लिया। रतन को उनकी दादी लेडी नवाज़बाई टाटा ने पाला।
रतन अमेरिका में सात साल रहे। वहाँ कॉर्नेल विश्वविद्यालय से उन्होंने स्थापत्य कला और इंजीनियरिंग की डिग्री ली। लॉस एंजिलिस में उनके पास एक अच्छी नौकरी और शानदार घर था। लेकिन उन्हें अपनी दादी और जेआरडी के कहने पर भारत लौटना पड़ा।
इस वजह से उनकी अमेरिकी गर्लफ्रेंड के साथ उनका रिश्ता आगे नहीं बढ़ सका। रतन टाटा ताउम्र अविवाहित रहे।
साधारण मजदूर की तरह नीला ओवरऑल पहनकर करियर की शुरुआत
सन् 1962 में रतन टाटा ने जमशेदपुर में टाटा स्टील में काम करना शुरू किया।
गिरीश कुबेर लिखते हैं, ‘रतन जमशेदपुर में छह साल तक रहे जहाँ शुरू में उन्होंने एक शॉपफ्लोर मज़दूर की तरह नीला ओवरऑल पहनकर अप्रेंटिसशिप की। इसके बाद उन्हें प्रोजेक्ट मैनेजर बना दिया गया। इसके बाद वो प्रबंध निदेशक एसके नानावटी के विशेष सहायक हो गए। उनकी कड़ी मेहनत की ख्याति बंबई तक पहुंची और जेआरडी टाटा ने उन्हें बंबई बुला लिया।’
इसके बाद उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में एक साल तक काम किया। जेआरडी ने उन्हें बीमार कंपनियों सेंट्रल इंडिया मिल और नेल्को को सुधारने की जि़म्मेदारी सौंपी।
रतन के नेतृत्व में तीन सालों के अंदर नेल्को (नेशनल रेडियो एंड इलेक्ट्रॉनिक्स) की काया पलट हो गई और उसने लाभ कमाना शुरू कर दिया। सन 1981 में जेआरडी ने रतन को टाटा इंडस्ट्रीज का प्रमुख बना दिया।
हालांकि इस कंपनी का टर्नओवर मात्र 60 लाख था लेकिन इस जिम्मेदारी का महत्व इसलिए था क्योंकि इससे पहले टाटा खुद सीधे तौर पर इस कंपनी का कामकाज देखते थे।
सादगी भरी जीवनशैली
उस ज़माने के बिजनेस पत्रकार और रतन के दोस्त उन्हें एक मिलनसार, बिना नखऱे वाले सभ्य और दिलचस्प शख़्स के तौर पर याद करते हैं। कोई भी उनसे मिल सकता था और वो अपना फोन खुद उठाया करते थे।
कूमी कपूर लिखती हैं, ‘अधिकाँश भारतीय अरबपतियों की तुलना में रतन की जीवनशैली बहुत नियंत्रित और सादगी भरी थी। उनके एक बिजऩेस सलाहकार ने मुझे बताया था कि वो हैरान थे कि उनके यहाँ सचिवों की भीड़ नहीं थी।’
‘एक बार मैंने उनके घर की घंटी बजाई तो एक छोटे लडक़े ने दरवाज़ा खोला। वहाँ कोई वर्दी पहने नौकर और आडंबर नहीं था। कुंबला हिल्स पर मुकेश अंबानी की 27 मंजिला एंटिलिया की चकाचौंध के ठीक विपरीत कोलाबा में समुद्र की तरफ देखता हुआ उनका घर उनके अभिजात्यपन और रुचि को दर्शाता है।’
जेआरडी ने चुना अपना उत्तराधिकारी
जब जेआरडी 75 साल के हुए तो इस बात की बहुत अटकलें लगाई जाने लगीं कि उनका उत्तराधिकारी कौन होगा। टाटा के जीवनीकार केएम लाला लिखते हैं कि ‘जेआरडी। नानी पालखीवाला, रूसी मोदी, शाहरुख़ साबवाला और एचएन सेठना में से किसी एक को अपना उत्तराधिकारी बनाने के बारे में सोच रहे थे। खुद रतन टाटा का मानना था कि इस पद के दो प्रमुख दावेदार पालखीवाला और रूसी मोदी होंगे।’
सन् 1991 में जेआरडी ने 86 वर्ष की आयु में अध्यक्ष पद छोड़ दिया। इस बिंदु पर उन्होंने रतन का रुख किया।
जेआरडी का मानना था रतन के पक्ष में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ थी उनका ‘टाटा’ सरनेम होना। टाटा के दोस्त नुसली वाडिया और उनके सहायक शाहरुख़ साबवाला ने भी रतन के नाम की वकालत की थी।
25 मार्च, 1991 को जब रतन टाटा समूह के अध्यक्ष बने तो उनके सामने सबसे पहली चुनौती थी कि समूह के तीन क्षत्रपों दरबारी सेठ, रूसी मोदी और अजीत केरकर को किस तरह कमजोर किया जाए।
ये लोग अब तक टाटा की कंपनियों में प्रधान कार्यालय के हस्तक्षेप के बिना काम करते आए थे।
टेटली, कोरस और जेगुआर का अधिग्रहण
शुरू में रतन टाटा की व्यावसायिक समझ पर लोगों ने कई सवाल उठाए।
लेकिन सन 2000 में उन्होंने अपने से दोगुने बड़े ब्रिटिश ‘टेटली’ समूह का अधिग्रहण कर लोगों को चकित कर दिया।
आज टाटा की ग्लोबल बेवेरेजेस दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी चाय कंपनी है। इसके बाद उन्होंने यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी इस्पात निर्माता कंपनी ‘कोरस’ को खरीदा।
आलोचकों ने इस सौदे की समझदारी पर सवाल उठाए लेकिन टाटा समूह ने इस कंपनी को लेकर एक तरह से अपनी क्षमता का प्रमाण दिया।
सन् 2009 के दिल्ली ऑटो एक्सपो में उन्होंने पीपुल्स कार ‘नैनो’ का अनावरण किया जो एक लाख रुपए की कीमत पर उपलब्ध थी।
नैनो से पहले 1998 में टाटा मोटर्स ने ‘इंडिका’ कार बाजार में उतारी थी जो भारत में डिजाइन की गई पहली कार थी।
शुरू में ये कार असफल रही और रतन ने इसे फोर्ड मोटर कंपनी को बेचने का फैसला किया। जब रतन डिट्रॉएट गए तो बिल फोर्ड ने उनसे पूछा कि उन्होंने इस व्यवसाय के बारे में पर्याप्त जानकारी के बिना इस क्षेत्र में क्यों प्रवेश किया?
उन्होंने टाटा पर ताना मारा कि अगर वो ‘इंडिका’ को खरीदते हैं तो वो भारतीय कंपनी पर बड़ा उपकार करेंगे। इस व्यवहार से रतन टाटा की टीम नाराज हो गई और बातचीत पूरी किए बिना वहाँ से चली आई।
एक दशक बाद हालात बदल गए और 2008 में फ़ोर्ड कंपनी गहरे वित्तीय संकट में फंस गई और उसने ब्रिटिश विलासिता की ‘जैगुआर’ और ‘लैंडरोवर’ को बेचने का फैसला किया।
कूमी कपूर लिखती हैं, ‘तब बिल फोर्ड ने स्वीकार किया कि भारतीय कंपनी फ़ोर्ड की लक्जऱी कार कंपनी खरीदकर उस पर बड़ा उपकार करेगी। रतन टाटा ने 2.3 अरब अमेरिकी डॉलर में इन दोनों नामचीन ब्रांड्स का अधिग्रहण किया।’
जेगुआर को खऱीदने पर हुई टाटा की आलोचना
लेकिन कुछ व्यापार विश्लेषकों ने रतन टाटा की इन बड़ी खरीदारियों पर सवाल भी उठाए।
उनका तर्क था कि रतन के कई महंगे विदेशी अधिग्रहण उनके लिए महंगे सौदे साबित हुए। ‘टाटा स्टील यूरोप’ एक सफेद हाथी साबित हुआ और उसने समूह को भारी कजऱ् में डुबोया।
टीएन नैनन ने लिखा, रतन के वैश्विक दाँव अक्खड़पन और खराब समय का मिश्रण थे।
एक वित्तीय विश्लेषक ने कहा, ‘पिछले दो दशकों में भारतीय व्यापार में सबसे बड़े अवसर दूरसंचार में था, लेकिन रतन ने कम से कम शुरुआत में इसे गँवा दिया।’
मशहूर पत्रकार सुचेता दलाल ने कहा, ‘रतन से गलती पर गलती हुई। उनका समूह ‘जैगुआर’ को खरीदकर वित्तीय बोझ तले दब गया।’ लेकिन ‘टाटा कंसलटेंसी सर्विस’ यानि ‘टीसीएस’ ने हमेशा टाटा समूह को अग्रणी रखा।
इस कंपनी ने वर्ष 2015 में टाटा समूह के शुद्ध लाभ में 60 फीसदी से अधिक का योगदान दिया। सन 2016 में अंबानी की ‘रिलायंस’ से भी आगे किसी भी भारतीय फ़र्म का सबसे बड़ा बाज़ार पूँजीकरण इसी कंपनी का था।
नीरा राडिया, तनिष्क और साइरस मिस्त्री से जुड़े विवाद
सन् 2010 में रतन टाटा एक बड़े विवाद में फंसे जब लॉबिस्ट नीरा राडिया के साथ उनकी टेलिफोन बातचीत लीक हो गई।
अक्तूबर, 2020 में टाटा समूह के अपने ज्वेलरी ब्राँड ‘तनिष्क’ द्वारा एक विज्ञापन को जल्दबाजी में वापस लिए जाने से भी रतन टाटा की काफी किरकिरी हुई। इस विज्ञापन में सभी धर्मों को बराबर मानने वाले एक समन्वित भारत का मार्मिक चित्रण किया गया था। इस विज्ञापन को मुखर दक्षिणपंथी ट्रोल्स का सामना करना पड़ा।
आखिर ‘तनिष्क’ को दबाव के चलते वो विज्ञापन वापस लेना पड़ा। कुछ लोगों का मानना था कि अगर जेआरडी जीवित रहते तो वो इस तरह के दबाव में नहीं आते।
रतन उस समय भी सवालों के घेरे में आए जब उन्होंने 24 अक्तूबर, 2016 को टाटा समूह के अध्यक्ष साइरस मिस्त्री को एक घंटे से भी कम समय के नोटिस पर बर्ख़ास्त कर दिया।
टाटा को बनाया भरोसेमंद ब्राँड
लेकिन इस सब के बावजूद रतन टाटा की गिनती हमेशा भारत के सबसे भरोसेमंद उद्योगपतियों में रही।
जब भारत में कोविड महामारी फैली तो रतन टाटा ने तत्काल 500 करोड़ रुपए टाटा न्यास से और 1000 करोड़ रुपए टाटा कंपनियों के माध्यम से महामारी और लॉकडाउन के आर्थिक परिणामों से निपटने के लिए दिए।
ख़ुद को गंभीर जोखिम में डालने वालों डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के रहने हेतु अपने लक्जरी होटलों के इस्तेमाल की पेशकश करने वाले पहले शख्स भी रतन टाटा ही थे।
आज भी भारतीय ट्रक चालक अपने वाहनों के पिछले हिस्से पर ‘ओके टाटा’ लिखवाते हैं ताकि ये पता चल सके कि ये ट्रक टाटा का है, इसलिए भरोसेमंद है।
टाटा के पास एक विशाल वैश्विक फुटप्रिंट भी है। ये ‘जैगुआर’ और ‘लैंडरोवर’ कारों का निर्माण करता है और ‘टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज़’ दुनिया की नामी सॉफ्टवेयर कंपनियों में से एक है।
इन सबको बनाने में रतन टाटा की भूमिका को हमेशा याद रखा जाएगा। (bbc.com/hindi)