भारत के सेवन सिस्टर्स राज्यों को अलग करने की धमकी के बाद बुधवार को बांग्लादेश की नेशनल सिटिजन पार्टी (एनसीपी) के सदर्न चीफ़ ऑर्गेनाइजर हसनत अब्दुल्लाह ने कहा कि भारत के उच्चायुक्त को देश से बाहर निकाल देना चाहिए था.
बांग्लादेश में अगले साल फ़रवरी में आम चुनाव हैं और एनसीपी ने हसनत अब्दुल्लाह को कुमिल्ला-4 से उम्मीदवार बनाया है.
बुधवार को कुमिल्ला के देबीद्वार में एक जनसभा को संबोधित करते हुए हसनत अब्दुल्लाह ने भारत में बांग्लादेश के उच्चायुक्त को तलब करने पर आपत्ति जताते हुए कहा, '' हमें भारत के इस रुख़ पर कठोर प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी. भारत के उच्चायुक्त को देश से बाहर निकाल देना चाहिए था क्योंकि वह शेख़ हसीना को शरण दे रहा है.''
बुधवार को भारत ने दिल्ली में बांग्लादेश के उच्चायुक्त रियाज़ हमिदुल्लाह को तलब कर ढाका में भारतीय उच्चायोग की सुरक्षा को लेकर अपनी चिंता जताई थी.
हसनत ने कहा कि भारत के साथ द्विपक्षीय संबंध पारस्परिक सम्मान पर आधारित होने चाहिए.
उन्होंने कहा, ''बांग्लादेश भारत की संप्रभुता और सीमाओं का सम्मान तभी करेगा जब भारत भी बांग्लादेश के प्रति वही सम्मान दिखाए. अगर आप 'देखते ही गोली मारने' की नीति में विश्वास रखते हैं, तो हम देखते ही सलाम करने की नीति पर क्यों चलें?''
हाल के महीनों में बांग्लादेश के नेता भारत के ख़िलाफ़ आए दिन इस तरह के आरोप लगाते रहे हैं.
बुधवार को इन आरोपों को ख़ारिज करते हुए भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा, ''बांग्लादेश में हाल की कुछ घटनाओं को लेकर कट्टरपंथी तत्वों के झूठे विमर्श को हम पूरी तरह से ख़ारिज करते हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंतरिम सरकार ने न तो इन घटनाओं की गहन जांच की है और न ही इनके संबंध में भारत के साथ कोई ठोस सबूत साझा किए हैं.''
भारत के ख़िलाफ़ हसनत अब्दुल्लाह की आक्रामकता को लेकर बांग्लादेश ओपन यूनिवर्सिटी की असोसिएट प्रोफ़ेसर आरिफ़ा रहमान रूमा कहती हैं कि मोहम्मद यूनुस कट्टरपंथियों को बढ़ावा दे रहे हैं.
उन्होंने हसनत के उस वीडियो क्लिप को एक्स पर पोस्ट किया है, जिसमें वह भारतीय उच्चायुक्त को निकालने की बात कर रहे हैं.
आरिफ़ा रहमान रूमा ने एक्स पर लिखा है, ''बांग्लादेश ख़तरनाक तरीक़े से बेकाबू होता जा रहा है. हसनत अब्दुल्लाह ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि भारतीय उच्चायुक्त को देश से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए. ऐसा बयान कोई भी ज़िम्मेदार नेता कभी नहीं दे सकता. हसनत जैसे चरमपंथी और हिंसक विचारधारा वाले लोग और उनके समर्थक अब मोहम्मद यूनुस को समर्थन देने वाली एकमात्र वास्तविक शक्ति बन गए हैं.''
''जिस देश में यूनुस के नेता सार्वजनिक रैलियों में खुलेआम यह कह सकते हैं कि वे एक पड़ोसी देश के उच्चायुक्त को बाहर निकाल देंगे, वहाँ यह स्पष्ट है कि आम लोग दिन-रात ख़ुद को कितना असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. ऐसे बांग्लादेश में आम नागरिक अब न तो अपने जीवन को लेकर सुरक्षित महसूस करते हैं और न ही अपनी संपत्ति को लेकर. यह कठोर वास्तविकता देश में क़ानून-व्यवस्था और राजनीतिक संयम के पूरी तरह ढह जाने को उजागर करती है.''
शेख़ हसीना के बेटे ने क्या कहा?
बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के बेटे सजीब वाज़ीद जॉय ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए ईमेल इंटरव्यू में कहा है कि मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार एक इस्लामी शासन स्थापित करने की कोशिश कर रही है.
उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि बांग्लादेश में जो अभी स्थिति है, वह भारत के लिए ख़तरा बढ़ा रही है. 54 साल के वाज़ीद अमेरिका में रहते हैं.
वाज़ीद ने बांग्लादेश की अंतरिम सरकार से पाकिस्तान की बढ़ती कथित क़रीबी को लेकर इंडियन एक्सप्रेस से कहा, ''यह भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए. हमारी अवामी लीग सरकार ने भारत की पूर्वी सीमाओं को सभी आतंकवादी गतिविधियों से सुरक्षित रखा था. उससे पहले, बांग्लादेश का व्यापक रूप से भारत में विद्रोह फैलाने के लिए एक बेस के रूप में इस्तेमाल किया जाता था.''
''अब वही स्थिति फिर से लौटेगी. यूनुस सरकार ने देश में जमात-ए-इस्लामी और अन्य इस्लामी दलों को खुली छूट दे दी है. बांग्लादेश में इस्लामी दलों को कभी भी पाँच प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिले हैं. सभी प्रगतिशील और उदारवादी दलों पर प्रतिबंध लगाकर एक धांधलीपूर्ण चुनाव कराकर, यूनुस इस्लामी कट्टरपंथियों को सत्ता में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.''
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार भी भारत को लेकर बहुत नरमी नहीं दिखा रही है.
बांग्लादेश के विदेश मंत्रालय के सलाहकार मोहम्मद तौहीद हुसैन ने बुधवार को भारत पर 1971 के मुक्ति संग्राम में बांग्लादेश के योगदान को लगातार कम करके आंकने का आरोप लगाया.
तौहीद हुसैन ने ज़ोर देकर कहा कि बांग्लादेश के स्वतंत्रता सेनानियों के बिना यह जीत संभव नहीं थी.
विदेश मंत्रालय में पत्रकारों से विजय दिवस पर भेजे गए बधाई संदेश के संबंध में प्रतिक्रिया देते हुए तौहीद ने कहा कि कोलकाता में इस दिन को अलग से "ईस्टर्न कमांड डे" के रूप में मनाया जाता है, जो इस बात को दर्शाता है कि भारत इसे अपनी सशस्त्र सेनाओं की जीत के रूप में देखता है.
तौहीद हुसैन कहा, "यह सच है कि भारत ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ जीत हासिल की थी. लेकिन बांग्लादेश में मिली जीत के संदर्भ में ख़ुद भारतीय विशेषज्ञ, जिनका मैंने अपनी किताब में उल्लेख किया है, यह स्वीकार करते हैं कि अगर स्थानीय प्रतिरोध से पाकिस्तानी सेना को कमज़ोर न किया गया होता तो भारत को जीत में कहीं अधिक समय लगता. नुक़सान और हताहतों की संख्या भी कहीं अधिक होती."
मुक्ति युद्ध में भारत की भूमिका पर सवाल
पिछले साल अगस्त महीने में शेख़ हसीना के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद बांग्लादेश बनाने में भारत की भूमिका पर काफ़ी बहस हो रही है. बांग्लादेश के कई नेता भारत की भूमिका पर सवाल उठा रहे हैं.
पिछले साल दिसंबर महीने में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की स्टैंडिंग कमिटी के सदस्य मिर्ज़ा अब्बास ने कहा था, ''भारत ने बांग्लादेश नहीं बनाया. हमने बांग्लादेश मुक्त कराया. भारत ने तो पाकिस्तान को बाँटा और ये अपने स्वार्थ में किया न कि हमारे स्वार्थ के लिए.''
जब शेख़ हसीना प्रधानमंत्री थीं तब भी वहाँ इस बात पर बहस होती थी कि 1971 का युद्ध मुक्ति युद्ध था या भारत पाकिस्तान की जंग.
पाकिस्तान इसे भारत के साथ जंग कहता है. वो इसे बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम नहीं कहता है. भारत की किताबों में भी इसे भारत-पाकिस्तान जंग के रूप में ही देखा जाता है लेकिन भारत को बांग्लादेश का मुक्ति युद्ध कहने में भी कोई आपत्ति नहीं है.
2021 में छह दिसंबर को बांग्लादेश के तत्कालीन विदेश मंत्री डॉ अब्दुल एके मोमेन ने बांग्लादेश के राष्ट्रीय प्रेस क्लब में भारत के साथ राजनयिक रिश्ता कायम होने के 50 साल पूरे होने पर आयोजित एक कार्यक्रम में अपनी पार्टी का रुख़ रखा था.
मोमेन ने कहा था, ''पाकिस्तान, बांग्लादेश मुक्ति युद्ध को भारत-पाकिस्तान के बीच का युद्ध दिखाने की कोशिश करता है. लेकिन यह बांग्लादेश का मुक्ति युद्ध था, जिसमें भारत ने केवल मदद की थी. छह दिसंबर को भारत ने बांग्लादेश को एक संप्रभु राष्ट्र के तौर पर मान्यता भी दे दी थी.''
1971 की जंग युद्ध की शुरुआत पाकिस्तान ने वेस्टर्न फ्रंट से की थी. बाद में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने युद्ध में जाने का फ़ैसला किया था.
जुलाई 2024 में शेख़ हसीना के ख़िलाफ़ शुरू हुआ आंदोलन बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध के ख़िलाफ़ भी जाता दिखा.
आंदोलनकारियों ने मुक्ति युद्ध के कई प्रतीकों पर हमला किया. यहाँ तक कि बांग्लादेश के संस्थापक मुजीब-उर रहमान के घर पर भी हमला किया गया. दूसरी तरफ़ पाकिस्तान से रिश्तों में गर्मजोशी बढ़ती दिखी.
जिस जमात-ए-इस्लामी पर बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध के ख़िलाफ़ और पाकिस्तान के साथ होने का आरोप लगता है, वो अब प्रमुख सियासी ताक़त के रूप में उभरता दिख रहा है. जमात-ए-इस्लामी भी बांग्लादेश में भारत की भूमिका पर सवाल उठाता रहा है.
इसी साल फ़रवरी महीने में बांग्लादेश की न्यूज़ वेबसाइट प्रथम आलो को दिए इंटरव्यू में बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख शफ़ीक़ुर रहमान ने कहा था, ''1971 में हमारा रुख़ सिद्धांत से जुड़ा था. हम भारत के फ़ायदे के लिए स्वतंत्र देश नहीं चाहते थे.''
''अगर हमें किसी के ज़रिए या किसी के पक्ष में आज़ादी मिलती तो यह एक बोझ हटाकर दूसरे बोझ के तले दबने की तरह होता. पिछले 53 सालों से बांग्लादेश के लिए क्या यह सच नहीं हुआ है? हमें यह क्यों सुनने के लिए मिलना चाहिए कि कोई ख़ास देश किसी ख़ास पार्टी को पसंद नहीं करता है. कोई ख़ास देश अगर नहीं चाहता है तो कोई ख़ास पार्टी सत्ता में नहीं आ पाती है. क्या स्वतंत्र देश का यही तेवर होता है? बांग्लादेश के युवा अब ये सब सुनना नहीं पसंद करते हैं.''
बांग्लादेश की अंग्रेज़ी न्यूज़ वेबसाइट प्रथम आलो ने वहाँ के जाने-माने बुद्धिजीवी और सेंटर फोर पॉलिसी डायलॉग के संस्थापक रहमान सोभान से यही सवाल पूछा तो उन्होंने जवाब में कहा, ''जुलाई का आंदोलन लोकतांत्रिक नाकामी और अन्यायपूर्ण शासन से प्रेरित था.''
''मुक्ति युद्ध के विरोधियों ने इस आंदोलन का फ़ायदा उठाया है. मुक्ति युद्ध के विरोधी लंबे समय से हमारी राजनीति में शामिल रहे हैं. इन्होंने इस आंदोलन में घुसपैठ की और संभवतः इसकी दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई. ऐसा अक्सर निरंकुश शासन के ख़िलाफ़ जन-उभारों में देखने को मिलता है.''
रहमान सोभान ने कहा, ''बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में इनका उभार स्पष्ट रूप से दिख रहा है. चुनाव में इनकी संभावनाएं मज़बूत हैं. वे इस अवसर का उपयोग 1971 में पाकिस्तानी सेना के साथ अपनी ऐतिहासिक सहयोगी भूमिका की नई व्याख्या करने के लिए करना चाहते हैं. राजनीतिक रूप से चतुर नेताओं के नेतृत्व में मुक्ति युद्ध पर उनका रुख़ कुछ सावधानी के साथ प्रस्तुत किया जाएगा. हालांकि 1971 में अपनी भूमिका को सफ़ेद करने की कोशिश उनकी रणनीति का एक अभिन्न हिस्सा बना रहेगा.'' (bbc.com/hindi)