विचार/लेख
-दिनेश उप्रेती
साल 2024 में आखिरी के दो-तीन महीनों में भारतीय शेयर बाजारों में उठापटक शुरू हो गई थी।
26 सितंबर 2024 को सेंसेक्स 85,836 की ऊँचाई पर था और अब हाल ये है कि टूटते-टूटते ये ऊँचाई 75 हजार के आंकड़े के आस-पास पहुँच गया है।
नए साल में दलाल स्ट्रीट पर मंदडिय़ों का कब्ज़ा सा हो गया लगता है। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक यानी एफपीआई का शेयर बेचकर निकलने का सिलसिला जारी है।
जनवरी में अभी तक एफपीआई ने 69 हज़ार करोड़ रुपये की बिकवाली की, हालाँकि घरेलू संस्थागत निवेशकों (म्यूचुअल फंड्स) ने इसी दौरान 67 हजार करोड़ रुपये की खरीदारी कर बाजार को काफी सहारा दिया।
किन शेयरों में है बिकवाली
हालाँकि बाजार में चौतरफा बिकवाली है, लेकिन सबसे ज़्यादा गिरावट छोटे और मझौले शेयरों (मिडकैप और स्मॉलकैप) में है।
सोमवार को कारोबारी सत्र के दौरान बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का मिडकैप इंडेक्स 3 फीसदी टूट गया, जबकि स्मॉलकैप इंडेक्स में 4 फीसदी की गिरावट आ गई।
बाजार अभी दो अहम घटनाओं पर टिकटिकी लगाए हुए है। पहला, 29 जनवरी को अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिज़र्व की बैठक में ब्याज दरों को लेकर क्या फ़ैसला होता है, और दूसरा भारत का केंद्रीय बजट जो एक फऱवरी को संसद में पेश होगा।
अमेरिका में फेडरल रिज़र्व ने अगर ब्याज दरों में बढ़ोतरी की तो दुनियाभर के बाज़ारों की मुश्किलें बढऩी तय हैं, वैसे भी विदेशी निवेशकों ने भारत समेत कई उभरते बाज़ारों से कन्नी काट ली है और इस सूरत में वो अधिक और सुरक्षित रिटर्न की चाह में अमेरिका का रुख़ करने में देरी नहीं करेंगे।
हालाँकि डीआर चोकसी फिनसर्व के मैनेजिंग डायरेक्टर देवेन चोकसी का मानना है कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद ये संभावना बहुत कम है कि फेड रिज़र्व ब्याज दरों में इजाफ़ा करेगा। देवेन ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘राष्ट्रपति ट्रंप का जो रुख़ रहा है उसके हिसाब से वो नहीं चाहेंगे कि फेडरल रिज़र्व ब्याज दरें बढ़ाए।’
क्यों टूट रहे बाजार
बाजार विश्लेषक अंबरीश बालिगा बाजार के मौजूदा हालात की कई वजह बताते हैं।
अंबरीश कहते हैं, ‘पिछले कुछ समय से भारत में आर्थिक स्थितियां बदली हैं। निजी एजेंसियों ने ही नहीं, भारत सरकार और रिजर्व बैंक ने जीडीपी ग्रोथ अनुमान घटाए हैं। खाद्य महंगाई दर अब भी काफी अधिक है। कंपनियों के जो तिमाही नतीजे आ रहे हैं, वो भी अधिकतर निराश करने वाले हैं।’
देवेन चोकसी बाज़ार के इस निगेटिव सेंटिमेंट के लिए बाजार नियामक संस्था सेबी के वायदा बाज़ार से जुड़े नए दिशा निर्देश को भी जि़म्मेदार बताते हैं। देवेन ने कहा, ‘सेबी ने हाल ही में फ्यूचर एंड ऑप्शन ट्रेडिंग के लिए न्यूनतम कॉन्ट्रैक्ट साइज़ को काफ़ी बढ़ा दिया है और इसे 15 लाख रुपये कर दिया है।’
देवेन कहते हैं, ‘इसके पीछे सेबी की मंशा रिटेल निवेशकों की एफएंडओ में बेतहाशा गतिविधि पर लगाम लगाना है। कॉन्ट्रैक्ट साइज बढ़ाकर सेबी बाजार में स्थायित्व लाने की कोशिश कर रहा है।’
सेबी ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें दावा किया गया था कि वित्तीय वर्ष 2022 से वित्तीय वर्ष 2024 तक तीन साल में एक करोड़ से अधिक ट्रेडर्स ने एफ़एंडओ में नुकसान उठाया। अगर प्रति ट्रेडर्स नुकसान की बात करें तो ये औसतन दो लाख रुपये रहा।
बजट से उम्मीदें और बाजार की चाल
तो क्या एक फरवरी को पेश होने वाले बजट को लेकर भी क्या बाजार अपनी दिशा बदल रहा है? अंबरीश बालिगा इससे सहमत नहीं दिखते।
उनका कहना है, ‘वैसे भी पिछले 8-10 साल से बजट नॉन इवेंट बन गया है। इसमें हुई घोषणाओं का असर एक-दो दिनों तक ही रहता है। पॉलिसी से जुड़ी कई घोषणाएं सरकार समय-समय पर करती रहती है और उसके लिए बजट का इंतजार नहीं करती। इसके अलावा जीएसटी दरों का फैसला भी समय-समय पर होता ही रहता है।’
अंबरीश कहते हैं कि कैपिटल गेन्स टैक्स के मामले में सरकार पिछले बजट में ही अहम फ़ैसला कर चुकी है, ऐसे में इसमें और बदलाव होने की गुंजाइश नहीं है।
अंबरीश ने कहा, ‘रेलवे और इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में बजट 8 से 10 फीसदी तक बढ़ सकता है, लेकिन समस्या है इन योजनाओं को लागू करने की। क्रियान्वयन तेज़ हो इसके प्रयास होने चाहिए।’
देवेन चोकसी कहते हैं, ‘बजट में बाजार के लिए कुछ निगेटिव होगा, ऐसा लगता नहीं है।"
क्या निवेशकों में डर है?
पिछले साल यानी 2024 भारतीय शेयर बाजारों के लिए इसलिए भी खास रहा कि रिटेल निवेशकों ने अपनी भागीदारी बढ़ाई। सिस्टेमेटिक इनवेस्टमेंट प्लान यानी सिप के जरिये बाजार में जमकर पैसा आया और शेयरों के भाव खूब बढ़े।
अंबरीश बालिगा कहते हैं, ‘जब फंड मैनेजर्स के पास इतनी बड़ी रकम आई तो वो कैश तो अपने पास रख नहीं सकते थे, लिहाजा उन्होंने शेयर खरीदे और कह सकते हैं कि शेयरों की वैल्यू बहुत महंगी हो गई।’
तो क्या इस गिरावट से रिटेल निवेशक घबरा जाएंगे या बाज़ार से हट जाएंगे? इस सवाल पर अंबरीश बालिगा कहते हैं, ‘बाजार में विदेशी संस्थागत निवेशक बेचकर निकल रहे हैं। रिटेल निवेशकों की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन असलियत ये है कि पिछले चार सालों में इनमें से अधिकतर निवेशक पहली बार बाजार का ये रूप (लगातार गिरावट) देख रहे हैं।’
अंबरीश का कहना है कि छोटे निवेशक घबरा गए हैं या अपना निवेश रोक रहे हैं, ये तो आधिकारिक तौर पर जनवरी महीने के आंकड़ों से पता चल पाएगा, लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ समय से नए निवेशक बाज़ार में आए हैं, उनमें घबराहट होना स्वाभाविक है। (bbc.com/hindi)
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार का लिखा-
हाल के सालों में खासतौर पर विज्ञान जगत में यह चिंता बढ़ी है कि आम जनता में वैज्ञानिकों पर और वैज्ञानिक शोधों पर भरोसा घट रहा है। एक ताजा अध्ययन से पता चला है कि यह पूरी तरह से सही नहीं है और अब भी आमतौर पर वैज्ञानिकों पर लोगों को ठीक-ठाक भरोसा है। हालांकि अलग-अलग देशों में यह कम या ज्यादा है।
नेचर पत्रिका में एक शोध रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जो 68 देशों में किए गए एक वैश्विक सर्वेक्षण पर आधारित है। यह शोध ईटीएच ज्यूरिख की विक्टोरिया कोलोग्ना और ज्यूरिख यूनिवर्सिटी के नील्स जी मेडे के नेतृत्व में 241 शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने किया है।
इस सर्वेक्षण में 71,922 लोगों से बात की गई है। इस सर्वेक्षण से यह पता चला कि अधिकांश देशों में ज्यादातर लोग वैज्ञानिकों पर विश्वास करते हैं। लोग यह भी मानते हैं कि वैज्ञानिकों को समाज और नीति निर्माण में ज्यादा हिस्सेदारी निभानी चाहिए।
अध्ययन के अनुसार, सार्वजनिक तौर पर लोगों का वैज्ञानिकों पर विश्वास अब भी ज्यादा है। यह अध्ययन विज्ञान, समाज की अपेक्षाओं और सार्वजनिक शोध प्राथमिकताओं पर विश्वास को लेकर महामारी के बाद सबसे बड़ा अध्ययन है।
सर्वे में औसतन लोगों ने 5 में से 3।62 अंक दिए। कोई भी देश ऐसा नहीं था जहां वैज्ञानिकों पर भरोसा बहुत कम हो। लोग वैज्ञानिकों की काबिलियत पर सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं। 78 फीसदी लोगों का मानना है कि वैज्ञानिक महत्वपूर्ण रिसर्च करने में सक्षम हैं। 57 फीसदी लोग मानते हैं कि वैज्ञानिक ईमानदार हैं, जबकि 56 फीसदी ने कहा कि वैज्ञानिक समाज की भलाई के बारे में सोचते हैं। हालांकि, सिर्फ 42 फीसदी लोगों को लगता है कि वैज्ञानिक दूसरों की बातों पर ध्यान देते हैं।
अलग-अलग देशों में क्या स्थिति है?
सर्वे में यह भी देखा गया कि अलग-अलग देशों में वैज्ञानिकों पर भरोसा अलग-अलग है। पहले हुए अध्ययन कहते थे कि लैटिन अमेरिका और अफ्रीकी देशों में वैज्ञानिकों पर भरोसा कम है। लेकिन इस बार ऐसा कोई पैटर्न नहीं दिखा। हालांकि, रूस और कई पूर्व सोवियत देशों जैसे कजाकिस्तान में वैज्ञानिकों पर भरोसा अपेक्षाकृत कम पाया गया।
एक-दूसरे का चक्कर काटते दिखे दो सितारे
डेनमार्क वैज्ञानिक ईमानदारी और क्षमता में मजबूत विश्वास रखता है। फिनलैंड में विज्ञान में पारदर्शिता के कारण विश्वास बहुत ज्यादा है। स्वीडन में प्रमाण-आधारित नीति निर्माण की सराहना की जाती है, जबकि जर्मनी में लोगों का भरोसा इनोवेशन से जुड़ा है। कनाडा में वैज्ञानिकों को दयालु माना जाता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया में वैज्ञानिक शोध में विश्वास सबसे ऊपर है।
इसके उलट, रूस में संस्थागत विज्ञान पर व्यापक अविश्वास है। कजाखस्तान में सोवियत काल के बाद का ऐतिहासिक संदेह विश्वास को प्रभावित करता है, जबकि बेलारूस में पारदर्शिता की कमी के कारण विश्वास कम होता है। मिस्र में गलत सूचना विज्ञान में विश्वास को बाधित करती है, और पाकिस्तान में कम साक्षरता स्तर वैज्ञानिक संस्थाओं पर विश्वास को प्रभावित करते हैं।
भारत इस अध्ययन के अनुसार ‘मध्यम रूप से उच्च भरोसे’ की श्रेणी में आता है। हालांकि यह वैज्ञानिकों पर सबसे ज्यादा भरोसा करने वाले टॉप 10 देशों में शामिल नहीं है, लेकिन भारतीय आमतौर पर वैज्ञानिकों को सकारात्मक रूप से देखते हैं, खासकर उनकी काबिलियत और समाज कल्याण में योगदान के लिए। हालांकि, भारत में भरोसे का स्तर शिक्षा, आय, और शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों जैसे कारकों के आधार पर भिन्न हो सकता है। गलत जानकारी और क्षेत्रीय भाषाओं में वैज्ञानिक संवाद की सीमित पहुंच जैसी चुनौतियां कुछ जनसमूहों के भरोसे को प्रभावित कर सकती हैं।
लोग क्या चाहते हैं?
सर्वे में यह भी देखा गया कि किस तरह के लोगों को वैज्ञानिकों पर ज्यादा भरोसा है। मसलन, महिलाओं और बुजुर्गों के बीच वैज्ञानिकों पर भरोसा पुरुषों और युवाओं से ज्यादा था। इसी तरह शहर में रहने वाले, साक्षर और अमीर लोगों ने वैज्ञानिकों पर ज्यादा भरोसा जताया।
ब्रिटेन में मिले डायनासोर के 16 करोड़ साल पुराने पदचिन्ह
सर्वे में पूछा गया कि लोग वैज्ञानिकों से क्या उम्मीद करते हैं। अधिकतर लोगों का मानना था कि वैज्ञानिकों को नीतियां बनाने में हिस्सा लेना चाहिए। हालांकि अगर लोगों को लगता है कि वैज्ञानिक उनकी समस्याओं और प्राथमिकताओं पर ध्यान नहीं दे रहे हैं, तो उनका भरोसा कम हो जाता है।
वैज्ञानिकों पर भरोसा कुल मिलाकर अच्छा है, लेकिन हर जगह ऐसा नहीं है। भरोसे में कमी के कई कारण हो सकते हैं। पहले कुछ मामलों में वैज्ञानिकों ने अनैतिक तरीके से काम किया, जिससे कुछ समुदायों में विश्वास कम हुआ। इसके अलावा, गलत जानकारी, झूठी जानकारी, और ‘साइंस पॉपुलिज्म’ भी बड़ी चुनौतियां हैं। साइंस पॉपुलिज्म का मतलब है कि कुछ लोग वैज्ञानिकों को ‘जनता’ के विरोध में देखते हैं। वे मानते हैं कि वैज्ञानिक आम लोगों की तुलना में कम समझदार हैं। ये विचार वैज्ञानिकों की साख को नुकसान पहुंचा सकते हैं। (डॉयचेवैले)
-ध्रुव गुप्त
आज हमारी शादी की सालगिरह है। बच्चे कल शाम तैयारी में लगे ही थे कि अर्द्धांगिनी के शाश्वत कटु वचन सुनकर मेरे मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। अगले ही दिन घर से भागकर सीधे हिमालय की किसी गुफा में अज्ञातवास का निश्चय करके सोया ही था कि सपने में एक तपस्वी प्रकट हुए। अधरों पर मुस्कान और आशीर्वाद में उठे हाथ। उन्हें देखकर मेरे हाथ स्वत: जुड़ गए।
अपनी व्यथा सुनाने के बाद मैंने कहा- संन्यास लेने का निश्चय किया है। मुझे शरण में ले लो, प्रभु ! दांपत्य की पीड़ा अब सही नहीं जाती।’
तपस्वी ने मुस्कुराकर मेरे माथे पर हाथ रखकर कहा -‘तुम्हारी व्यथा मैं समझ सकता हूं, वत्स ! इस नश्वर संसार में वैवाहिक जीवन वस्तुत: एक महासमर ही है। न सिर्फ तुम पुरुषों के लिए, बल्कि स्त्रियों के लिए भी। ऐसा महासमर जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों को अपनी स्वतंत्रता और उडऩे की अनंत इच्छाओं की आहुति देनी होती है। तुम्हारे इस बलिदान की पटकथा समाज ने पहले से लिख रखी है। तुम इस नाटक में अभिनेता मात्र हो। डरो नहीं। वैवाहिक जीवन में जो कुछ नष्ट होता है, वह असत्य, अनित्य, क्षणभंगुर है। शाश्वत केवल आत्मा है जो बार-बार वस्त्र बदलकर दांपत्य का सुख और दुख झेलने को इस धरा धाम पर अवतरित होती रहेगी। कभी स्त्री रूप में और कभी पुरुष रूप में। तुम्हारे वश में मात्र इतना है कि सुख और दुख, कलह और प्यार, शांति और अशांति, तानों और शब्दवाणों के बीच स्थितप्रज्ञ बनो। कठिन है, परंतु धीरे-धीरे स्वयं को नष्ट करने की प्रक्रिया में तुम्हें रस आने लगेगा।’
कुछ देर के लिए तपस्वी जी ने आंखें मूंद ली। संभवत: उन्हें अपने विगत दांपत्य की याद आई होगी। फिर उन्होंने बुझे स्वर में कहा- ‘संशय त्यागो और घर लौट जाओ ! जीवन में सुख, शांति, प्रेम और स्वतंत्रता ही सब कुछ नहीं है। इसी जीवन में हमें दुख, तनाव, अशांति, दासता, अवसाद, विडंबनाओं और मूर्खताओं के बारे में भी जान लेना चाहिए ! दुर्भाग्य से दांपत्य में किसी भी विधि से सामंजस्य नहीं बन सका तो मेरे पास आ जाना। साम्राज्य, ज्ञान, सत्ता या शांति के लिए पत्नियों का त्याग करने वाले असंख्य देवताओं, ऋषियों और राजपुरुषों के उदाहरण सामने है। मैं स्वयं भी उनमें से एक हूं।’
अभी नींद खुली तो देखा कि लंबी प्रतीक्षा के बाद बाहर मौसम की पहली बारिश हो रही है और मेरे भीतर पहली बार भय का नामोनिशान तक नहीं है। मेरे ज्ञानचक्षु खुल चुके हैं। मैंने सपने वाले तपस्वी को याद कर पहली बार बेगम को पुलिसिया स्टाइल में जोरदार सलाम ठोका और शादी की सालगिरह की बधाई दे डाली।
उनके होंठों पर मुस्कान देखकर मेरा यह निश्चय मजबूत हुआ है कि पत्नी रूपी संकट से अब और नहीं लडऩा। डरकर भागना भी नहीं। उसके आगे चुपचाप आत्मसमर्पण कर देने में ही दांपत्य का सुख है।
-गणेश कर
(शिकागो, अमेरिका)
(मूल शहर-दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़)
भारत सरकार ने गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले पद्म पुरस्कारों का एलान किया था।
पद्म पुरस्कार 2025 की इस सूची में 7 पद्म विभूषण, 19 पद्म भूषण और 113 पद्म श्री पुरस्कार शामिल हैं।
पुरस्कार पाने वालों में एक नाम साध्वी ऋतंभरा का भी है। उन्हें सामाजिक कार्य के लिए पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
उन्हें सम्मान मिलने के बाद सोशल मीडिया पर इसे लेकर एक बहस शुरू हो गई है।
एक तरफ सरकार पर पद्म पुरस्कारों का राजनीतिकरण करने का आरोप लग रहा है। वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग इस फैसले का स्वागत भी कर रहे हैं।
इस बीच साध्वी ऋतंभरा ने पद्म भूषण दिए जाने पर कहा है, ‘मुझे सबसे बड़ा पुरस्कार तभी मिल गया था जब 22 जनवरी को रामलला राम मंदिर में विराजे थे।’
किसने क्या कहा?
केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी ने कहा, ‘साध्वी ऋतंभरा जी को पद्म भूषण पुरस्कार घोषित होना हर्ष की बात है। राम जन्मभूमि आंदोलन से जुडक़र उन्होंने इस आंदोलन के माध्यम से देश में जागृति का कार्य किया।’
वहीं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने साध्वी ऋतंभरा को पद्म पुरस्कार दिए जाने पर सवाल उठाए हैं।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘मोदी सरकार के कार्यकाल में पद्म पुरस्कार राजनीतिक तमाशा बन गए हैं।’
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक दयाशंकर मिश्रा ने एक्स पर लिखा, ‘बीजेपी प्रचारक साध्वी ऋतंभरा को पद्म भूषण संविधान के प्रति सरकार की सोच-समझ का स्पष्ट उदाहरण है।’
वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने लिखा, ‘साध्वी ऋतंभरा को पद्म भूषण दिया गया है। उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस में सक्रिय रूप से भाग लिया था और सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक ‘आपराधिक कृत्य’ बताया है। इस घटना से पहले उन्होंने नफऱत से भरे भाषण दिए थे।’
पत्रकार विजैता सिंह ने लिखा, ‘साध्वी ऋतंभरा को ‘सामाजिक कार्य’ श्रेणी में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया है। उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस में भाग लिया था और उन पर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने एक आपराधिक मामले में आरोप भी लगाया था।’
कौन हैं साध्वी ऋतंभरा
ऋतंभरा पंजाब के गऱीब मंडी दौराहा गांव के एक परिवार में पैदा हुई जिन्हें निचली जाति का समझा जाता है।
मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ अपनी किताब ‘द कलर्स ऑफ़ वायलेंस’ में बताते हैं, ‘16 साल की उम्र में ऋतंभरा को हिंदू पुनरुत्थान के लिए काम कर रहे कई ‘संतों’ में से प्रमुख स्वामी परमानंद के प्रवचन सुनकर एक आत्मिक अनुभव हुआ।’
इसके बाद ही वो हरिद्वार के उनके आश्रम चली गईं और वहीं पर भाषण देने की कला विकसित की।
वो इतनी पारंगत हो गईं कि विश्व हिंदू परिषद ने उन्हें राम मंदिर आंदोलन के दौरान अपना प्रवक्ता बनाया।
सितंबर 1990 में गुजरात के सोमनाथ से राम मंदिर के लिए रथ यात्रा शुरू हुई। इसे एक महीने में 10,000 किलोमीटर का रास्ता तय कर अयोध्या पहुंचना था।
बीजेपी के अपने अनुमान के मुताबिक दस करोड़ से ज़्यादा लोगों ने रथ यात्रा के अलग-अलग हिस्सों में भाग लिया। इसी दौरान ऋतंभरा ने अपने नाम के साथ ‘साध्वी’ जोड़ लिया।
वृंदावन में साध्वी ऋतंभरा का वात्सल्यग्राम नाम का आश्रम है।
राम जन्मभूमि आंदोलन का प्रमुख चेहरा
1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन में हिंदू औरतों ने बढ़ के हिस्सा लिया। इस आंदोलन का एक प्रमुख चेहरा साध्वी ऋतंभरा भी थीं।
आंदोलन के भडक़ाऊ संदेश को उकेरते उनके भाषणों के ऑडियो टेप बनाकर एक-एक रुपए में बेचे जाते थे और बीजेपी-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ताओं के घरों में बांटे जाते थे।
इनकी लोकप्रियता हिंदुओं में इतनी थी कि इतिहासकार तनिका सरकार अपनी किताब 'हिंदू वाइफ़, हिंदू नेशन' में लिखती हैं, ‘अयोध्या के पंडितों ने मंदिरों में अपने रोज़ाना तय पूजा-पाठ को स्थगित कर इनके ऑडियो कैसेट के भाषणों को बजाना शुरू कर दिया।’
बाबरी मस्जिद विध्वंस से एक साल पहले, 1991 में दिल्ली में लाखों लोगों की रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘राम जन्मभूमि पर मंदिर के निर्माण को विश्व की कोई ताकत नहीं रोक सकती।’
छह दिसंबर 1992 को जब कारसेवक बाबरी मस्जिद पर चढ़ गए थे, तब साध्वी ऋतंभरा, बीजेपी के शीर्ष नेताओं और कई साधु-संतों के साथ मंच पर थीं।
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी किताब ‘युद्ध में अयोध्या’ में उस दिन की आंखों देखी लिखी है।
उनके मुताबिक साध्वी ऋतंभरा कारसेवकों को संबोधित करते हुए कह रही थीं कि वो इस शुभ और पवित्र काम में पूरी तरह लगें।
उन पर विध्वंस के आपराधिक षड्यंत्र रचने और दंगा भडक़ाने का मुकदमा भी चला।
30 सितंबर 2020 को बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया था।
पद्म पुरस्कार किसे दिया जाता है?
पद्म पुरस्कार की शुरुआत साल 1954 में हुई थी। साल 1978, 1979 और 1993 से 1997 को छोडक़र ये पुरस्कार हर साल गणतंत्र दिवस पर घोषित किए जाते हैं।
ये पुरस्कार तीन श्रेणियों में दिए जाते हैं। असाधारण एवं विशिष्ट सेवा के लिए पद्म विभूषण दिया जाता है।
उच्च कोटि की विशिष्ट सेवा के लिए पद्म भूषण और विशिष्ट सेवा के लिए पद्मश्री पुरस्कार मिलता है।
भारत सरकार के मुताबिक इन पुरस्कारों को दिए जाने का मकसद किसी खास काम को मान्यता प्रदान करना है। ये पुरस्कार कला, साहित्य, शिक्षा, खेल-कूद, चिकित्सा, समाज सेवा, विज्ञान, सिविल सेवा, व्यापार समेत कई क्षेत्रों में विशिष्ट काम करने के लिए दिया जाता है।
सरकार के मुताबिक चयनित किए जाने वाले व्यक्ति की उपलब्धियों में लोक सेवा का तत्व होना चाहिए।
पद्म पुरस्कार समिति का गठन हर साल प्रधानमंत्री करते हैं। पद्म पुरस्कार समिति जिन लोगों को पुरस्कार देने की सिफारिश करती है उन्हें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के सामने रखा जाता है।
नाम का एलान होने के दो से तीन महीने के अंदर राष्ट्रपति भवन में पुरस्कार समारोह आयोजित किया जाता है। पुरस्कार में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर और मुहर से जारी किया गया एक प्रमाण पत्र और एक मेडल शामिल होता है। हर पुरस्कार विजेता के संबंध में संक्षिप्त ब्यौरे वाली एक स्मारिका भी समारोह के दिन जारी की जाती है।
पुरस्कार पाने वाले व्यक्ति को मेडल का एक रेप्लिका भी दिया जाता है, जिसे वे अपनी इच्छानुसार किसी भी कार्यक्रम में पहन सकते हैं। (bbc.com/hindi)
भारत सरकार के मुताबिक पद्म पुरस्कार कोई पदवी नहीं हैं और इसे निमंत्रण पत्रों, पोस्टरों, किताबों पर पुरस्कार विजेता के नाम के आगे या पीछे नहीं लिखा जा सकता है।
पुरस्कार विजेताओं को कोई नकद भत्ता और रेल या हवाई यात्रा में रियायत नहीं मिलती है। (बीबीसी)
न्यू जर्सी में रहने वालीं प्रीति बहुत डरी हुई हैं। उन्होंने सुना है कि पुलिस और इमिग्रेशन विभाग के अधिकारी घर-घर जाकर विदेशियों की पूछताछ कर रहे हैं। डीडब्ल्यू हिंदी से बातचीत में उन्होंने बताया, ‘डर लगा रहता है कि कोई अभी आकर बोल देगा कि अब हमें अमेरिका से जाना होगा।’
(पढ़ें डॉयचे वैले पर रितिका की रिपोर्ट-)
प्रीति जैसे डर में इस वक्त अमेरिका के लाखों लोग जी रहे हैं। यह डर तभी से शुरू हो गया था जब नवंबर में डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता था। भारतीय विदेश मंत्री एस। जयशंकर और अमेरिकी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मार्को रूबियो की द्विपक्षीय बैठक के दौरान भी रूबियो ने आप्रवासन का मुद्दा उठाया है।
20 जनवरी को अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति पद की शपथ लेते ही डॉनल्ड ट्रंप ने कई आदेश जारी किए। इनमें से ज्यादातर आदेश वही हैं, जिन्हें पूरा करने के वादे ट्रंप ने किए थे। उनके कार्यकारी आदेशों में सबसे ऊपर है, आप्रवासन से जुड़े आदेश। इसमें आप्रवासन के लिए बनाए गए ऐप सीबीपी को बंद करना, जन्म के आधार पर मिलने वाली नागरिकता को रद्द करना, सीमा पर आपातकाल लगाना, जरूरत पडऩे पर सेना को सीमा पर भेजना जैसे फैसले शामिल हैं।
शपथग्रहण समारोह के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप ने अवैध आप्रवासियों के लिए क्रिमिनल एलियन शब्द का इस्तेमाल किया था। उनके चुनावी प्रचार के वादों में ही यह साफ झलक गया था कि उनका आने वाला कार्यकाल आप्रवासियों के लिए बेहद कठिन होने वाला है। खासकर उनके लिए जो अमेरिका आना चाहते हैं।
ट्रंप के शपथ लेते ही आप्रवासियों के लिए बना ऐप बंद
सैन डिएगो से सटी सीमा पर मेक्सिको की मारिया मारकाडो अपना फोन देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं। आखिरकार उन्होंने फोन चेक किया तो उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। चार घंटे बाद मारिया की अपॉइंटमेंट, अमेरिका में कानूनी तौर पर प्रवेश करने की थी, लेकिन सीबीपी ऐप का नोटिफिकेशन बता रहा है कि आप्रवासियों की सारी अपॉइंटमेंट रद्द कर दी गई हैं।
मारिया के आस पास मौजूद दूसरे आप्रवासी भी एक दूसरे को गले लगाकर रो रहे थे या निराश थे। इनमें से ज्यादातर लोगों को नहीं पता कि अब उनके पास क्या विकल्प बचे हैं। इस ऐप के बंद होते ही अमेरिका जाने की उनकी सारी उम्मीदें फिलहाल खत्म होती दिख रही हैं।
दरअसल, ट्रंप के शपथ लेने के कुछ घंटों के अंदर ही आप्रवासियों के लिए बनाए गए ‘कस्टम एंड बॉर्डर प्रोटेक्शन ऐप’ ने काम करना बंद कर दिया। इस ऐप का मकसद था अमेरिकी सीमाओं पर अवैध आप्रवासियों के प्रवेश को रोकना। ऐप के जरिए आप्रवासी अमेरिकी प्रशासन के साथ अपॉइंटमेंट लेते थे ताकि वे वैध तरीके से अमेरिका आ सकें। इसके तहत उन्हें दो साल तक का वर्क परमिट मिलता था। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक महज 1,450 स्लॉट्स के लिए करीब 2,80,000 लोग लॉग इन करते थे। महीनों के लंबे इंतजार के बाद ही अपॉइंटमेंट मिलती थी।
ट्रंप के दूसरे कार्यकाल को लेकर जर्मनी में चिंताएं
ट्रंप के नए आदेश के मुताबिक अब ना सिर्फ इस ऐप के जरिए अपॉइंमेंट मिलनी बंद हो गई है बल्कि जिन्हें पहले से अपॉइंटमेंट मिली हुई थी उन्हें भी रद्द कर दिया गया। ऐप पर यह नोटिफिकेशन आते ही अमेरिकी सीमाओं पर हताश आप्रवासियों की भीड़ दिखी।
यह ऐप मेक्सिको, वेनेजुएला, क्यूबा, कोलंबिया जैसे देशों के लोग ज्यादा इस्तेमाल करते थे। पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन के कार्यकाल में दिए गए आंकड़ों के मुताबिक करीब 10 लाख आप्रवासियों ने इस ऐप के जरिये दो सालों में अपॉइंटमेंट ली। साथ ही इस ऐप की मदद से अवैध तरीके से अमेरिका आने वाले आप्रवासियों की संख्या में भी कमी देखी गई।
अमेरिकी बॉर्डर पेट्रोल के डिप्टी चीफ मैथ्यू हूडाक के मुताबिक अब जब यह ऐप बंद हो गया है तो शायद सीमाओं पर अब लोग अवैध तरीके से घुसने की ज्यादा कोशिश करेंगे। इस ऐप का बंद होना आप्रवासन पर ट्रंप के सबसे कठोर फैसलों में से एक है।
जन्म के आधार पर नहीं मिलेगी नागरिकता
ट्रंप प्रशासन के नए आदेश के मुताबिक अब अमेरिका में अवैध तरीकों से रह रहे आप्रवासियों और अस्थायी तौर पर रह रहे आप्रवासियों के जो बच्चे अब वहां पैदा होंगे, उन्हें जन्म के आधार पर नागरिकता नहीं मिलेगी। आदेश जारी करने से पहले ट्रंप ने कहा था कि पूरी दुनिया में अमेरिका ही इकलौता देश है जहां ऐसा प्रावधान है और ये बिलकुल बेतुका है।
अमेरिकी कानून के मुताबिक वहां पैदा होने वाले बच्चों को अपने आप ही अमेरिकी नागरिकता मिल जाती है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनके माता पिता अमेरिका के नागरिक हैं या नहीं। अमेरिकी संविधान के चौदहवें संशोधन के तहत यह अधिकार दिया गया है। इसलिए ट्रंप के इस आदेश को कानूनी बाधाओं से भी गुजरना पड़ सकता है।
ट्रंप के इस आदेश के बाद लगभग 24 डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रभाव वाले राज्यों और शहरों ने उनके खिलाफ संविधान की अवहेलना का मामला दर्ज करवाया है।मानवाधिकार और आप्रवासियों के लिए बने संगठन उनके इस आदेश को चुनौती देने की तैयारी भी करने लगे हैं।
ट्रंप के आदेश के तुरंत बाद ही ‘अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन’ ने इस फैसले के खिलाफ केस भी दर्ज कर दिया है। फैसले को असंवैधानिक बताते हुए यूनियन के वकील एंथनी रोमेरो ने कहा कि ये ना सिर्फ संविधान के खिलाफ है बल्कि यह अमेरिकी मूल्यों को लापरवाही और निर्ममता के साथ नकारना है।
फिर से चर्चा में ट्रंप वॉल
अपने पहले कार्यकाल के दौरान डॉनल्ड ट्रंप ने अवैध आप्रवासन पर रोक लगाने के लिए अमेरिका और मेक्सिको की सीमा पर दीवार बनाने का आदेश जारी किया था। तब यह ट्रंप वॉल के नाम से जाना गया। ट्रंप के नए कार्यकारी आदेशों की फेहरिस्त में अमेरिकी सीमा पर दीवार बनाने को पूरा समर्थन देना भी शामिल है। खासकर मेक्सिको और अमेरिकी की सीमा से आने वाले आप्रवासियों पर ट्रंप प्रशासन की खास नजर होगी।
पहले कार्यकाल में ही ट्रंप ने ‘रिमेन इन मेक्सिको’ नाम की नीति शुरू की थी जिसके तहत अमेरिका में आने वाले शरणार्थियों को मेक्सिको में ही इंतजार करना पड़ता था। हजारों की तादाद में लोग कैंपों में अपनी बारी का इंतजार करते। मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्ट के मुताबिक इन कैंपों में लोगों के साथ बलात्कार, अपहरण और लूटपाट जैसी घटनाएं भी हुईं। बाइडेन प्रशासन ने इस नीति को अमानवीय बताते हुए हटा दिया था। अब ट्रंप का दावा है कि वह फिर से इस नीति को लागू करेंगे।
अवैध आप्रवासियों को वापस भेजने की तैयारी
मौजूदा अमेरिकी सरकार के वादों में वहां पहले से ही रह रहे अवैध आप्रवासियों को वापस भेजने की योजना भी शामिल है। अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2022 तक अमेरिका में एक करोड़ से अधिक लोग अवैध तरीके से रह रहे थे।
रिपब्लिकन पार्टी के मुताबिक इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने अवैध तरीके से अमेरिकी सीमा में प्रवेश किया है इसलिए बड़ी संख्या में उन लोगों को वापस भेजना भी जरूरी है।
हालांकि, ट्रंप के आलोचकों का कहना है कि ऐसा करना अमेरिका के लिए नुकसानदायक होगा। इससे कारोबार, परिवार प्रभावित होंगे। साथ ही इसका बोझ टैक्स भरने वालों पर पड़ेगा। हालांकि प्रशासन डिपोर्टेशन की तैयारी शुरू कर चुका है। भारत के भी लगभग 18 हजार अवैध आप्रवासी वापस भेजे जाएंगे। प्रीति, जो अपना पूरा नाम नहीं बताना चाहतीं, अवैध रूप से ही अमेरिका में दाखिल हुई थीं। उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, ‘पहले मेरे पति आए थे और उसके बाद मैं अपने दो बच्चों के साथ मेक्सिको के रास्ते दाखिल हुई थी। हम अपराधी नहीं हैं, बस एक बेहतर जिंदगी चाहते हैं।’
नया साल आने से पहले ही मिशेल बेरियोस ने हमेशा के लिए अमेरिका छोड़ दिया। निकारगुआ की मिशेल, बाइडेन के कार्यकाल के दौरान वैध रूप से अमेरिका आई थीं। इसके बावजूद उन्होंने अमेरिका से वापस जाना ही बेहतर समझा। खुद से ही वापस जाने वाले लोगों को लेकर कोई आधारिकारिक डेटा नहीं है। हालांकि, यह एक तरीके से अमेरिकी सरकार के लिए फायदे का ही सौदा है क्योंकि उनके बिना कुछ किए ही बहुत सारे लोग खुद ही वापस जा रहे हैं।
क्या सच में दुनिया का नक्शा बदल देंगे ट्रंप
ट्रंप प्रशासन ने पूर्व आप्रवासन अधिकारी टॉम होमन को बॉर्डर जार के पद पर नियुक्त किया है। शपथग्रहण से पहले ही उन्होंने कहा था कि जिन्हें खुद अमेरिका से वापस जाना है वे चले जाएं वरना वे खुद अवैध रूप से रह रहे लोगों को खोजकर वापस भेजेंगे।
मिशेल कहती हैं कि उन्होंने सिर्फ अनिश्चितताओं के डर में अमेरिका नहीं छोड़ा बल्कि वहां का माहौल भी आप्रवासियों के प्रति बदलता नजर आया। वह कहती हैं कि अमेरिका ऐसा देश है जहां लोगों के अंदर मानवता की कमी दिखती है।
हालांकि, अवैध आप्रवासियों को खोजकर वापस भेजना प्रशासन के लिए इतना आसान नहीं है, जैसे दावे वे करते आए हैं। अमेरिकी इमिग्रेशन और कस्टम इनफोर्समेंट के पास पहले से ही अवैध आप्रवासियों के ऐसे 6,60,000 केस लंबित पड़े हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। साथी ही उनके पास आप्रवासियों के 70 लाख से भी अधिक केस मौजूद हैं।
फिर भी प्रीति अब दरवाजे पर होने वाली हर आहट पर घबरा जाती हैं। उनके वीजा का मामला अदालत में लंबित है लेकिन अब उन्हें उसका भी भरोसा नहीं रहा है। भरी हुई आंखों के साथ प्रीति कहती हैं, ‘सपना टूटने का अहसास हो रहा है।’ (डॉयचेवैले)
- वंदना
जि़ंदगी और जि़ल्लत के दिए घावों को समेटकर एक भाई अपराधी बन जाता है और एक बिल्ला हर बार उसकी हिफ़ाज़त करता है। उसकी बाजू पर एक टैटू है जिस पर बचपन में लिख दिया गया था- गद्दार का बेटा।
अगर आपके ज़हन में जनवरी 1975 में 50 साल पहले रिलीज़ हुई फि़ल्म दीवार की तस्वीर सामने आ रही है तो आप पूरी तरह ग़लत नहीं है पर सही भी नहीं है।
ये सीन हॉन्ग कॉन्ग में कैंटनीज़ (चीन की एक भाषा) में बनी फि़ल्म टू ब्रदर्स का है जो दीवार का रीमेक थी।
चीनी संस्कृति के हिसाब से 1979 में आई टू ब्रदर्स में कुछ बदलाव किए गए थे। मसलन अमिताभ बच्चन के बिल्ला नंबर 786 के बजाय टू ब्रदर्स में वो 838 नबंर का बिल्ला पहनता है जो चाइनीज़ ईयर ऑफ़ द हॉर्स का प्रतीक है।
मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता और मेरा बाप चोर है जैसे सीन भी इस चीनी फि़ल्म में मौजूद थे।
1975 में आई फि़ल्म दीवार ने न सिफऱ् अमिताभ बच्चन की एंग्री यंग मैन की इमेज को पूरी तरह स्थापित किया, बल्कि ये फि़ल्म आने वाले कई दशकों तक एक टेंपेलट बन गई।
तमिल, तेलुगू, मलयालम में बनी दीवार
दीवार को भारत में तमिल (रजनीकांत), तेलुगू( एनटी रामाराव) और मलयालम ( मामूटी) में बनाया गया।
दीवार की सफलता के बाद 80 के दशक में तुर्की में भी फि़ल्म बनी जो दीवार में दो भाइयों की कहानी से प्रेरित थी। हालांकि हर भाषा की फिल्मों में कहानी में अपने-अपने हिसाब से बदलाव किए गए।
दीवार को रिलीज़ हुए 50 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी इसकी मौजूदगी फि़ल्मों में, आम जि़ंदगी में कहीं न कहीं दिख ही जाती है। 2009 में जब भारत के संगीत निर्देशक एआर रहमान ने ऑस्कर जीता था तो स्टेज पर जाकर उन्होंने कहा था- मेरे पास माँ है।
चार शब्दों का छोटा सा वाक्य।।। कहने को तो ये 1975 में आई फि़ल्म दीवार का एक डायलॉग है लेकिन सिनेमा और समाज में इसकी अहमियत इससे कहीं ज़्यादा है।
इस पर विनय लाल ने अपने लेख दीवार- द फ़ुटपाथ, द सिटी एंड द एंग्री यंग मैन में लिखा था, ‘आप शायद ये सोच सकते हैं कि दीवार पुरानी हो चुकी है। लेकिन ये साफ़ है कि बदले सांस्कृतिक परिवेश, बदलती सिनेमाई भाषा और बदल चुके राजनीतिक माहौल के बावजूद दीवार की अपनी पहचान रत्ती भर भी कम नहीं हुई है।’
आखिरी बार मां को कफन में देखा था-जावेद अख्तर
दीवार की कहानी को कई परतों में पढ़ा जा सकता है। ये एक बच्चे को बचपन में मिली जि़ल्लत की कहानी है जिसकी बाजू पर लिख दिया जाता है- मेरा बाप चोर है।
ये उस माँ (निरूपा रॉय) और बच्चे ( अमिताभ बच्चन ) के बीच के रिश्ते की भी कहानी है। उस बच्चे की कहानी जिसके लिए माँ ही सब कुछ है।
दीवार की कहानी बॉलीवुड की विख्यात लेखक जोड़ी सलीम-जावेद की कलम से निकली थी। इनकी फि़ल्मों में अक्सर माँ को लेकर ताना-बाना रहता है- फिर चाहे वो त्रिशूल हो या दीवार।
एंग्री यंग मेन नाम की सिरीज़ में जावेद अख़्तर इसकी वजह बताते हैं, ‘मैं आठ साल का था जब मेरी माँ गुजऱ गई। आखऱि बार मैंने उन्हें कफऩ में देखा था। मैं महीनों तक सपनों में वही कफऩ देखता था। आज मेरी उम्र 76 साल से ज़्यादा हो चुकी है। मैं आज भी उस औरत की कमी महसूस करता हूँ जिसे मैंने तब खो दिया था जब वो 36 साल की थी।’
वहीं सलीम ख़ान एमेजॉन की सिरीज़ एंग्री यंग मेन में कहते हैं, ‘पाँच से नौ साल की उम्र तक मैं अपनी माँ से कभी नहीं मिला। उन्हें टीबी था। एक बार मैं खेल रहा था तो मेरी माँ ने मेरी ओर इशारा करते हुए दूर से पूछा कि ये बच्चा कौन है। जब उन्हें पता चला कि मैं उनका बेटा हूँ तो वो बहुत रोई। मैं आज भी जब उनको याद करता हूँ तो मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं।’
तू इतना अमीर नहीं हुआ कि अपनी माँ को खऱीद सके।।
दीवार की एक ख़ास बात है कि बहुत सारी दूसरी फि़ल्मों की तरह इस फि़ल्म की माँ भी भले ही शारीरिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर है , पर वो मानसिक तौर पर लाचार नहीं। वो दोनों बेटों को बहुत प्यार करती है लेकिन उसका प्यार उसूलों से बड़ा नहीं।
दीवार के एक मशहूर सीन में निरूपा रॉय अपने स्मगलर बेटे विजय का घर छोड़, अपने पुलिस अफ़सर बेटे रवि ( शशि कपूर) के पास आकर रहने लगती हैं। वो शशि कपूर से कहती है, ‘मैंने हमेशा विजय (अमिताभ बच्चन) से ज़्यादा प्यार किया है लेकिन मेरा प्यार अंधा नहीं है।’
अमीर विजय माँ को रोकने की कोशिश करता है तो वो कहने से नहीं चूकती, ‘तू इतना अमीर नहीं हुआ कि अपनी माँ को खऱीद सके। तूने अपनी माँ के माथे पर कैसे लिख दिया कि उसका बेटो चोर है।’
तब शशि कपूर कहते हैं, ये सच्चाई तुम्हारे मेरे बीच एक दीवार है भाई
दीवार बनाने वाले यश चोपड़ा को आज भले ही किंग ऑफ़ रोमांस कहा जाता हो लेकिन तब के यश चोपड़ा ने सलीम जावेद की लिखी एक ऐसी कहानी चुनी थी जिसमें रोमांस नहीं जि़ंदगी के कड़वी सच थे।
फि़ल्म में जब दोंनों भाईयों का आमना सामना होता है तो शशि कपूर कहते हैं, ‘ये सच्चाई तुम्हारे और मेरे बीच एक दीवार है भाई, और जब तक ये दीवार है हम एक छत के नीचे नहीं रह सकते।’
‘मेरा बाप चोर है’
एक पुलिस अफ़सर और एक स्मगलर यानी दोनों भाई जब आखऱिी बार मिलते हैं तो उनके बीच कुछ बचा है तो बचपन की यादें।
घर से दूर एक पुल के नीचे जब दोनों मिलते हैं तो शशि कपूर कहते हैं, ‘आज जब हम दोनों के बीच सारे पुल टूट चुके हैं तो बस यही एक पुल बचा था। ये पुल जिसके नीचे हमने अपना बचपन गुज़ारा।’
दीवार को देखते हुए हिंदी फि़ल्मों के कई हिंसक दृश्य याद आते हैं जिनमें ज़बरदस्त ख़ून खऱाबा है, मार धाड़ है।
लेकिन दीवार का एक सीन ऐसा है जिसमें बाहरी तौर पर कोई हिंसा नहीं फिर भी वो सबसे हिंसक, दिल को हिला देने वाला सीन है क्योंकि उसमें हुई हिंसा जिस्मानी नहीं, भावनात्मक है।
यहाँ उसी दृश्य की बात हो रही जब एक छोटे बच्चे को लोग उसके बाप के भाग जाने के बाद घेर लेते हैं और उसकी बाजू पर लिख देते हैं -मेरा बाप चोर है।
दीवार जनवरी 1975 में रिलीज़ हुई थी और उसके कुछ महीनों बाद ही भारत में आपातकाल की घोषणा हो गई थी। दीवार में बेरोजग़ारी, सिस्टम के खिलाफ़ गुस्सा और बग़ावत के जो तेवर दिखाए गए थे, इत्तेफ़ाकन वो सब आने वाले दिनों में पर्दे के बाहर असल जि़ंदगी में सडक़ों पर भी दिखाई देने लगे थे।
दीवार का निर्माण गुलशन राय ने किया था। गुलशन राय इस फि़ल्म के लिए राजेश खन्ना को साइन कर चुके थे लेकिन सलीम जावेद अमिताभ बच्चन को ही अपनी इस कहानी में लेना चाहते थे।
दीवार का एक सीन है जहाँ विजय अपने पिता की मौत के बाद उनके अंतिम संस्कार में पहुँचते हैं।
उस सीन में दाएँ हाथ के बजाय विजय बाँय हाथ से दाह-संस्कार करते हैं। ऐसा दौरान जैसे ही वो अपना हाथ आगे बढ़ाता है, उसके बाजू पर लिखी 'मेरा बाप चोर है' वाली लाइन दिखती है। ये सीन दरअसल अमिताभ बच्चन ने ख़ुद ही सुझाया था।
फि़ल्म की लोकप्रियता इतनी थी कि रिलीज़ होने के बाद बिल्ला नंबर 786 के तर्ज पर लोगों में गाड़ी का नंबर 786 लेने की होड़ लग गई थी।
दीवार को सात पर अमिताभ को नहीं मिला था अवॉर्ड
फि़ल्म में परवीन बॉबी और नीतू सिंह ने भी काम किया था। जिस अंदाज़ में परवीन बॉबी को दिखाया गया, वो उस दौर की फि़ल्मों से काफ़ी अलग था। इसमें परवीन बॉबी एक सेक्स वर्कर के रोल में थी, जो सिगरेट भी पीती है, शराब भी।
दीवार की ख़ूबी ये थी कि परवीन बॉबी के रोल को न तो नैतिकता के चश्मे से किसी नीची नजऱ से दिखाया गया और न ही आधुनिकता के किसी पैमाने पर बढ़ा चढ़ा कर।
फि़ल्म में अगर मुल्क राज दावर ( इफ़्तेख़ार) और सामंत ( मदन पुरी) की बात न की जाए तो बात अधूरी होगी।
वैसे फि़ल्म शोले और दीवार की शूटिंग एक साथ हुई थी।
अमिताभ बच्च्चन ने ट्वीटर पर लिखा था कि मुंबई में पूरी रात और सुबह छह बजे तक दीवार के क्लाइमेक्स सीन की शूटिंग चलती थी और वहीं से फ्लाइट लेकर वो बंगलौर शोले के लिए जाते थे।
दीवार को सात फि़ल्मफ़ेयर पुरस्कार दिए गए लेकिन उस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार अमिताभ बच्चन को नहीं मिला था। संजीव कुमार आँधी और शोले के लिए नामांकित हुए थे और ये अवॉर्ड उन्हें आंधी के लिए मिला था।
दीवार में दो भाइयों की तकरार में अमिताभ बच्चन शशि कपूर पूछते हैं , ‘मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, कार है। तुम्हारे पास क्या है।’
सब कुछ होते हुए भी कुछ न होना ही शायद दीवार के हीरो की त्रासदी है। (bbc.com/hindi)
बीती गर्मियों में शेख हसीना की विदाई ने बांग्लादेश में एक नये दौर की शुरूआत की है। ऐसा लग रहा है कि शेख हसीना और पूर्व प्रधानमत्री खालिदा जिया की दशकों चली प्रतिद्वंद्विता के पन्ने फिर से पलटे जा रहे हैं।
77 साल की हसीना फिलहाल स्वनिर्वासित होकर भारत में रह रही हैं। उधर 79 साल की जिया इलाज के लिए ब्रिटेन की यात्रा पर हैं। बांग्लादेश में कयास लग रहे हैं कि उस विवादित सिद्धांत को क्या फिर से जिंदा किया जाएगा, जिसका मकसद कभी इन दोनों नेताओं को किनारे करना था।
2007 में सेना ने बांग्लादेश की राजनीति में दखल दे कर एक कार्यवाहक सरकार बनाया जिसे ‘1/11 चेंजओवर’ के नाम से जाना गया। नये शासन पर कथित ‘माइनस टू’ फॉर्मूला अपनाने का आरोप लगा जिसमें दोनों प्रतिद्वंद्वियों की गिरफ्तारी के बाद पता चला कि टू का मतलब हसीना और जिया था। दोनों को 2008 के चुनाव से पहले रिहा कर दिया गया, हालांकि हसीना ने फिर सत्ता हासिल कर ली और 2024 के छात्र आंदोलन तक देश पर राज करती रहीं।
यूनुस चुनाव से पहले सुधार चाहते हैं
एक बार फिर अंतरिम सरकार देश को चला रही है। नोबेल विजेता मुहम्मद यूनुस मुख्य सलाहकार की भूमिका में हैं। यूनुस और उनकी कैबिनेट संविधान और चुनावी तंत्र में सुधारों की उम्मीद कर रही है। यूनुस के मुताबिक सुधारों के बाद ही आम चुनाव होंगे।
जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के नेताओं के लिए मौजूदा गतिरोध भले ही असहज हो लेकिन जाना पहचाना है। बीएनपी के महासचिव फखरुल इस्लाम आलमगीर ने अगस्त में हसीना की विदाई के तुरंत बाद कहा, ‘हमें वो लोग याद हैं जिन्होंने 1/11 सरकार के दौरान हमें राजनीति से बाहर करने और हमारी पार्टी को खत्म करने की कोशिश की थी।’
आलमगीर ने यह भी कहा, ‘हमारे लोकतंत्र और देश की भलाई के लिए हमें ये मुद्दे याद रखने चाहिए।’
चुनाव स्थगित रहने से परेशान बीएनपी
जिया की गिरती सेहत पार्टी की असुरक्षा का अकेला कारण नहीं है। उनके बेटे और पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले तारिक रहमान दशक भर से ज्यादा समय से ब्रिटेन में हैं। बांग्लादेश में उनके खिलाफ कुछ कानूनी मामले चल रहे हैं।
इस बीच आंदोलन के नेता एक नया राजनीतिक दल बनाने की तैयारी कर रहे हैं और इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि हसीना की अवामी लीग शायद भविष्य की राजनीति में किनारे कर दी जाएगी। बीएनपी को डर है कि अगर चुनाव जल्दी ना हुए तो उसका भी यही हश्र होगा।
खालिदा जिया के बेटे तारिक रहमानखालिदा जिया के बेटे तारिक रहमान
बीएनपी के संयुक्त महासचिव सैयद इमरान सालेह ने अंतरिम सरकार पर समय बर्बाद करने और ‘मामूली बातों’ पर ज्यादा ध्यान दे कर चुनाव में देरी का आरोप लगाया है।
सालेह ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘चुनाव में देरी करने की कोशिश की जा रही है। आंदोलन गैरमुद्दों को मुद्दा बनाकर जटिलता और अव्यवस्था पैदा करना चाहता है।’
उधर यूनुस के प्रेस सचिव शफीकुल आलम ने ‘माइनस टू’ फॉर्मूला को ‘बेतुका’ बता कर उससे जुड़ी चिंताओं को खारिज किया है। उनका दावा है कि बांग्लादेश का चुनावी तंत्र ‘टूट गया है और उसे मरम्मत की जरूरत है।’
आलम ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘बहुत सी संस्थाएं देश को शेख हसीना जैसी फासीवादी ताकतों से बचाने और लोगों को मताधिकार की रक्षा करने में नाकाम रहीं। इसलिए दूसरी चीजों के साथ ही संविधान, चुनाव और पुलिस में सुधार करना जरूरी है।’
हसीना और उनकी अवामी लीग पार्टी इन आरोपों से इनकार करती है कि उनका शासन निरंकुश था।
सरकार और बीएनपी के बीच बढ़ती दरार
आलम ने हसीना के खिलाफ आंदोलन में बीएनपी की प्रमुख भूमिका को माना है और कहा है कि नई सरकार ने ‘उनके साथ तमाम मुद्दों पर हमेशा चर्चा की है।’ हालांकि ऐसा लग रहा है कि बीएनपी को यूनुस सरकार में अपने नेतृत्व को लेकर भरोसा नहीं है।
डीडब्ल्यू से बातचीत में सालेह ने कहा कि उनकी पार्टी, ‘विचारों के लेन देन से करीबी रिश्ता बनाना चाहती है।’ सालेह का कहना है, ‘दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ, और हमारे बीच दूरी बन गई।’बिना किसी पार्टी या नेता का नाम लिए सालेह ने कहा, ‘जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं, बीएनपी के खिलाफ साजिशें बढ़ती जा रही हैं।’ उन्होंने यह भी कहा कि अंतरिम सरकार की चुनावी योजनाएं बीएनपी के नजरिए से ‘उचित’ नहीं हैं।
क्या सरकार छात्रों की नई पार्टी के लिए रास्ता बना रही है?
हाल के महीनों में हसीना विरोधी प्रदर्शन करने वाले छात्र नेता एक नई राजनीतिक पार्टी स्थापित करने की कोशिशों के बारे में बात करते रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि पार्टी बनाने की प्रक्रिया अब पूरी होने वाली है।
कुछ प्रमुख प्रदर्शनकारियों ने पहले ही एक ‘निरंकुशता विरोधी प्लेटफॉर्म’ तैयार कर लिया है जिसे नेशनल सिटिजंस कमेटी (एनसीसी) नाम दिया गया है। इसमें युवा पेशेवरों के अलावा नागरिक समाज के सदस्य शामिल हैं। इस कमेटी का लक्ष्य सुधारों को समर्थन देना और देश को पिछले शासन से दूर ले जाना है।
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में तीन सलाहकार हैं जो छात्र प्रदर्शनकारियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अवामी लीग और बीएनपी को किनारे करने की अफवाहों के बीच ही कुछ पर्यवेक्षकों को इस बात की भी चिंता है कि कैबिनेट चुनावों में देरी छात्रों की पार्टी को तैयारी के लिए पर्याप्त समय और उन्हें मुकाबले में मदद के लिए सुधारों को लागू करने के मकसद से कर रही है।
‘ऐसा कुछ नहीं हो रहा है’
एनसीसी के संस्थापक नसीरुद्दीन पटवारी ने इन दावों को खारिज किया है कि यूनुस कैबिनेट के संरक्षण में एक नई राजनीतिक पार्टी का गठन हो रहा है। उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, ‘ना तो डॉ। यूनुस ना ही किसी सलाहकार ने ऐसी कोई पार्टी बनाने की इच्छा जाहिर की है। जो लोग ऐसे बयान दे रहे हैं वो संकट पैदा करने के लिए ऐसा कर रहे हैं।’
उधर यूनुस के प्रेस सचिव आलम का कहना है कि सरकार हर कीमत पर तटस्थता बनाए रखेगी। उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, ‘उन्हें (प्रदर्शनकारियों को) राजनीतिक पार्टी बनाने दीजिए, उसके बाद हमारे व्यवहार और काम को देखिए। उसके बाद ही आप हम पर सवाल उठा सकते हैं या शिकायत कर सकते हैं। जब तक ऐसा नहीं होता ये बयान महज कयास हैं।’ (डॉयचेवैले)
-आलोक पुतुल
क्या छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों की लड़ाई किसी निर्णायक दौर में है?
अगर एक के बाद एक संदिग्ध माओवादियों के खिलाफ चलने वाले ऑपरेशन और उसके आंकड़ों को देखें तो इसका जवाब देना मुश्किल नहीं होगा।
हालांकि, माओवादियों की लंबे समय से चली आने वाली गुरिल्ला लड़ाई को जानने वाले शायद इन आंकड़ों के बाद भी संशय में हो सकते हैं।
लेकिन मौजूदा आंकड़े बताते हैं कि माओवादी आंदोलन 1970 के बाद अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। इस साल एक जनवरी से अब तक, छत्तीसगढ़ के अलग-अलग हिस्सों में पुलिस ने 45 संदिग्ध माओवादियों को मारने का दावा किया है।
हालांकि, इस दौरान सुरक्षाबल के 9 जवानों समेत 10 लोग भी मारे गए। माओवादियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन का सिलसिला लगभग हर दिन जारी रहा।
3 जनवरी को हुई साल की पहली मुठभेड़
माओवादियों के साथ साल की पहली मुठभेड़ की घटना तीन जनवरी को राज्य के गरियाबंद जिले में हुई, जहां ओडिशा और छत्तीसगढ़ के सुरक्षाबलों के संयुक्त ऑपरेशन में एक माओवादी के मारे जाने का पुलिस ने दावा किया था।
अब उसी गरियाबंद जि़ले में ओडिशा और छत्तीसगढ़ के सुरक्षाबलों के साथ रविवार से मंगलवार तक चले मुठभेड़ के बाद पुलिस ने 14 माओवादियों के शव बरामद करने की बात कही है।
इससे पहले 16 जनवरी को बीजापुर जि़ले के पुजारी कांकेर इलाके में 18 माओवादी मारे गए थे।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मंगलवार को 14 माओवादियों के शव बरामद किए जाने के बाद सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, ‘नक्सलवाद को एक और झटका। हमारे सुरक्षा बलों ने नक्सल मुक्त भारत बनाने की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है।’
उनके मुताबिक़, ‘सीआरपीएफ, ओडिशा पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप और छत्तीसगढ़ पुलिस ने एक संयुक्त ऑपरेशन में ओडिशा-छत्तीसगढ़ सीमा पर 14 नक्सलियों को मारा है।’
उन्होंने लिखा, ‘नक्सल मुक्त भारत के हमारे संकल्प और सुरक्षाबलों की संयुक्त कार्रवाई के साथ ही नक्सलवाद अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।’
इधर राज्य के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ताज़ा मुठभेड़ की सफलता से बेहद उत्साहित हैं।
उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार अब माओवाद में अंतिम कील ठोंकने का काम कर रही है।''
विष्णुदेव साय ने कहा, ‘एक सप्ताह के भीतर माओवादियों के साथ दो बड़ी मुठभेड़ की घटनाएं हुई हैं। हमें लगातार सफलता मिल रही है। 31 मार्च 2026 तक देश से माओवाद को खत्म करने का संकल्प पूरा हो कर रहेगा।’
2024 में हुई मुठभेड़ों में 223 माओवादी मारे गए
दिसंबर 2023 में जब छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार आई तो राज्य के गृहमंत्री विजय शर्मा ने माओवादियों के साथ शांति वार्ता की पेशकश की।
वे अपने अधिकांश सार्वजनिक संबोधनों में शांति वार्ता की बात दुहराते रहे लेकिन दूसरी तरफ़ राज्य में सुरक्षाबलों ने माओवादियों के खिलाफ अपना ऑपरेशन भी धीरे-धीरे तेज़ कर दिया।
आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में 2020 से 2023 के चार सालों में 141 माओवादी मारे गये थे। लेकिन राज्य में भाजपा की सत्ता आने के बाद अकेले 2024 में सुरक्षाबलों ने 223 माओवादियों को मुठभेड़ में मारने का दावा किया। इसके अलावा बस्तर के इलाके में सुरक्षाबलों के 28 कैंप भी खोले गये।
इस दौरान राज्य में अलग-अलग जन संगठनों के लोगों की भारी संख्या में गिरफ़्तारी भी हुई। निर्दोष आदिवासियों की प्रताडऩा की ख़बरें भी सामने आई, कई मुठभेड़ों पर सवाल भी उठे।
मानवाधिकार संगठनों ने कहा कि बस्तर में ऑपरेशन इसलिए नहीं चलाया जा रहा है कि सरकार माओवाद को ख़त्म करना चाहती है, बल्कि इसलिए चलाया जा रहा है कि औद्योगिक घरानों के लिए खनन का रास्ता साफ़ हो। लेकिन इससे सरकारी कार्रवाई पर कोई फर्क़ नहीं पड़ा।
16 अप्रैल, 2024 को कांकेर के छोटेबेठिया में माओवादियों को बड़ा झटका उस समय लगा, जब सुरक्षाबलों ने एक मुठभेड़ में 29 संदिग्ध माओवादियों को मारने का दावा किया।
छत्तीसगढ़ में यह माओवादियों के ख़िलाफ़ सबसे बड़ी कार्रवाई थी। लेकिन इस घटना के 6 महीने बाद 4 अक्टूबर को दंतेवाड़ा के थुलथुली में 38 संदिग्ध माओवादियों के मारे जाने की घटना ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए।
इस दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के छत्तीसगढ़ में दौरे होते रहे। अगस्त और दिसंबर में तो अमित शाह ने तीन-तीन दिन लगातार छत्तीसगढ़ में गुजारे, बस्तर में सुरक्षाबलों के साथ रात गुजारी। माओवाद को लेकर समीक्षा बैठकें की गई और अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक छत्तीसगढ़ समेत पूरे देश से माओवाद, पूरी तरह से ख़त्म करने की समय सीमा भी तय कर दी।
उन्होंने इस बात को कई बार दोहराया कि नक्सलवाद समाप्त होगा तो कश्मीर से ज्यादा पर्यटक बस्तर में आएंगे। नक्सलियों से अपील करता हूं, पीएम को समझिए, समर्पण करिए, हिंसा करेंगे तो हमारे जवान निपटेंगे।
अमित शाह जिस आत्मविश्वास से यह बात कह रहे हैं, असल में उसके पीछे भी माओवादी मोर्चे पर सुरक्षाबलों की सफलता के आंकड़े ही हैं।
माओवाद प्रभावित राज्य और
जिलों को जानने वाले क्या कहते हैं?
देश भर में माओवाद प्रभावित जि़लों की संख्या 126 से घट कर अप्रैल 2018 में 90 रह गई। जुलाई 2021 में ऐसे जि़लों की संख्या 70 हो गई और अप्रैल 2024 में माओवाद प्रभावित जिलों की संख्या महज 38 रह गई। इनमें भी 40 फीसदी जिले छत्तीसगढ़ के हैं।
छत्तीसगढ़ के 15 जिले- बीजापुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, धमतरी, गरियाबंद, कांकेर, कोंडागांव, महासमुंद, नारायणपुर, राजनांदगांव, मोहला- मानपुर-अबांगढ़ चौकी, खैरागढ़-छुईखदान-गंडई, मुंगेली, कबीरधाम और सुकमा माओवाद से प्रभावित हैं।
अब इनमें से अधिकांश जिलों में माओवादी हिंसा की घटनाएं नहीं के बराबर हो रही हैं।
हालांकि माओवादी मामलों के जानकार एक पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘सुरक्षाबलों को जब मौका मिलता है, वो हमले करते हैं। जब माओवादियों को मौका मिलता है, वो हमले करते हैं। मामला केवल अवसर का है। जहां हज़ारों की फोर्स तैनात हैं, वहीं तो पिछले सप्ताह सुरक्षाबलों के 8 जवान समेत 9 लोग शहीद हुए। यह ठीक है कि माओवादी बैकफुट पर हैं लेकिन माओवादियों की ताक़त को कम करके आंकना ठीक नहीं होगा।’
लेकिन सर्व आदिवासी समाज के नेता अरविंद नेताम के पास अपनी चिंताएं हैं।
कई बार के सांसद और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके अरविंद नेताम का कहना है कि बस्तर में लंबे समय से गृहयुद्ध जैसी स्थितियां हैं। लेकिन इसका सबसे अधिक नुकसान आदिवासियों को हो रहा है।
वे कहते हैं, ‘मरने वाला भी आदिवासी है और मारने वाला भी। आदिवासी को दोनों तरफ़ से हथियार थमा दिया गया है। आखिरकार मारा तो आदिवासी ही जा रहा है।’
अरविंद नेताम की बात अपनी जगह सही भी है।
छत्तीसगढ़ के एक पुलिस अधिकारी का बयान
बस्तर के इलाके में अधिकांश माओवादी आदिवासी हैं। वहीं डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड और बस्तर फाइटर जैसे सुरक्षा संगठनों में भी आदिवासी ही हैं। ऐसे में अधिकांश अवसरों पर आदिवासी ही मारे जाते हैं।
यहां तक कि माओवादी संगठन छोड़ कर आत्मसमर्पण करने वाले आदिवासी भी सुरक्षित नहीं हैं। आत्मसमर्पण के बाद सरकार उन्हें फिर से हथियार थमा देती है।
इसी महीने की 6 तारीख को बीजापुर जिले के कुटरु में संदिग्ध माओवादियों द्वारा पहले से सडक़ में लगाए गए आईईडी यानी इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस की चपेट में आ कर 8 सुरक्षाकर्मियों समेत 9 लोग मारे गए। इनमें से डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड के हेड कांस्टेबल बुधराम कोरसा, सिपाही दुम्मा मरकाम, पंडारू राम, बामन सोढ़ी और बस्तर फाइटर्स के सिपाही सोमडू वेट्टी ऐसे आदिवासी थे।
इन लोगों ने कई सालों तक माओवादी आंदोलन का हिस्सा रहने के बाद आत्मसमर्पण किया था। यानी मारे जाने वाले 8 जवानों में से 5 ऐसे थे, जो पहले माओवादी रह चुके थे और अब सुरक्षाबलों का हिस्सा थे। (bbc.com/hindi)
-आलोक पुतुल
क्या छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों की लड़ाई किसी निर्णायक दौर में है?
अगर एक के बाद एक संदिग्ध माओवादियों के खिलाफ चलने वाले ऑपरेशन और उसके आंकड़ों को देखें तो इसका जवाब देना मुश्किल नहीं होगा।
हालांकि, माओवादियों की लंबे समय से चली आने वाली गुरिल्ला लड़ाई को जानने वाले शायद इन आंकड़ों के बाद भी संशय में हो सकते हैं।
लेकिन मौजूदा आंकड़े बताते हैं कि माओवादी आंदोलन 1970 के बाद अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। इस साल एक जनवरी से अब तक, छत्तीसगढ़ के अलग-अलग हिस्सों में पुलिस ने 45 संदिग्ध माओवादियों को मारने का दावा किया है।
हालांकि, इस दौरान सुरक्षाबल के 9 जवानों समेत 10 लोग भी मारे गए। माओवादियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन का सिलसिला लगभग हर दिन जारी रहा।
3 जनवरी को हुई साल की पहली मुठभेड़
माओवादियों के साथ साल की पहली मुठभेड़ की घटना तीन जनवरी को राज्य के गरियाबंद जिले में हुई, जहां ओडिशा और छत्तीसगढ़ के सुरक्षाबलों के संयुक्त ऑपरेशन में एक माओवादी के मारे जाने का पुलिस ने दावा किया था।
अब उसी गरियाबंद जि़ले में ओडिशा और छत्तीसगढ़ के सुरक्षाबलों के साथ रविवार से मंगलवार तक चले मुठभेड़ के बाद पुलिस ने 14 माओवादियों के शव बरामद करने की बात कही है।
इससे पहले 16 जनवरी को बीजापुर जि़ले के पुजारी कांकेर इलाके में 18 माओवादी मारे गए थे।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मंगलवार को 14 माओवादियों के शव बरामद किए जाने के बाद सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, ‘नक्सलवाद को एक और झटका। हमारे सुरक्षा बलों ने नक्सल मुक्त भारत बनाने की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है।’
उनके मुताबिक़, ‘सीआरपीएफ, ओडिशा पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप और छत्तीसगढ़ पुलिस ने एक संयुक्त ऑपरेशन में ओडिशा-छत्तीसगढ़ सीमा पर 14 नक्सलियों को मारा है।’
उन्होंने लिखा, ‘नक्सल मुक्त भारत के हमारे संकल्प और सुरक्षाबलों की संयुक्त कार्रवाई के साथ ही नक्सलवाद अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।’
इधर राज्य के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ताज़ा मुठभेड़ की सफलता से बेहद उत्साहित हैं।
उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार अब माओवाद में अंतिम कील ठोंकने का काम कर रही है।''
विष्णुदेव साय ने कहा, ‘एक सप्ताह के भीतर माओवादियों के साथ दो बड़ी मुठभेड़ की घटनाएं हुई हैं। हमें लगातार सफलता मिल रही है। 31 मार्च 2026 तक देश से माओवाद को खत्म करने का संकल्प पूरा हो कर रहेगा।’
2024 में हुई मुठभेड़ों में 223 माओवादी मारे गए
दिसंबर 2023 में जब छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार आई तो राज्य के गृहमंत्री विजय शर्मा ने माओवादियों के साथ शांति वार्ता की पेशकश की।
वे अपने अधिकांश सार्वजनिक संबोधनों में शांति वार्ता की बात दुहराते रहे लेकिन दूसरी तरफ़ राज्य में सुरक्षाबलों ने माओवादियों के खिलाफ अपना ऑपरेशन भी धीरे-धीरे तेज़ कर दिया।
आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में 2020 से 2023 के चार सालों में 141 माओवादी मारे गये थे। लेकिन राज्य में भाजपा की सत्ता आने के बाद अकेले 2024 में सुरक्षाबलों ने 223 माओवादियों को मुठभेड़ में मारने का दावा किया। इसके अलावा बस्तर के इलाके में सुरक्षाबलों के 28 कैंप भी खोले गये।
इस दौरान राज्य में अलग-अलग जन संगठनों के लोगों की भारी संख्या में गिरफ़्तारी भी हुई। निर्दोष आदिवासियों की प्रताडऩा की ख़बरें भी सामने आई, कई मुठभेड़ों पर सवाल भी उठे।
मानवाधिकार संगठनों ने कहा कि बस्तर में ऑपरेशन इसलिए नहीं चलाया जा रहा है कि सरकार माओवाद को ख़त्म करना चाहती है, बल्कि इसलिए चलाया जा रहा है कि औद्योगिक घरानों के लिए खनन का रास्ता साफ़ हो। लेकिन इससे सरकारी कार्रवाई पर कोई फर्क़ नहीं पड़ा।
16 अप्रैल, 2024 को कांकेर के छोटेबेठिया में माओवादियों को बड़ा झटका उस समय लगा, जब सुरक्षाबलों ने एक मुठभेड़ में 29 संदिग्ध माओवादियों को मारने का दावा किया।
छत्तीसगढ़ में यह माओवादियों के ख़िलाफ़ सबसे बड़ी कार्रवाई थी। लेकिन इस घटना के 6 महीने बाद 4 अक्टूबर को दंतेवाड़ा के थुलथुली में 38 संदिग्ध माओवादियों के मारे जाने की घटना ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए।
इस दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के छत्तीसगढ़ में दौरे होते रहे। अगस्त और दिसंबर में तो अमित शाह ने तीन-तीन दिन लगातार छत्तीसगढ़ में गुजारे, बस्तर में सुरक्षाबलों के साथ रात गुजारी। माओवाद को लेकर समीक्षा बैठकें की गई और अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक छत्तीसगढ़ समेत पूरे देश से माओवाद, पूरी तरह से ख़त्म करने की समय सीमा भी तय कर दी।
उन्होंने इस बात को कई बार दोहराया कि नक्सलवाद समाप्त होगा तो कश्मीर से ज्यादा पर्यटक बस्तर में आएंगे। नक्सलियों से अपील करता हूं, पीएम को समझिए, समर्पण करिए, हिंसा करेंगे तो हमारे जवान निपटेंगे।
अमित शाह जिस आत्मविश्वास से यह बात कह रहे हैं, असल में उसके पीछे भी माओवादी मोर्चे पर सुरक्षाबलों की सफलता के आंकड़े ही हैं।
माओवाद प्रभावित राज्य और
जिलों को जानने वाले क्या कहते हैं?
देश भर में माओवाद प्रभावित जि़लों की संख्या 126 से घट कर अप्रैल 2018 में 90 रह गई। जुलाई 2021 में ऐसे जि़लों की संख्या 70 हो गई और अप्रैल 2024 में माओवाद प्रभावित जिलों की संख्या महज 38 रह गई। इनमें भी 40 फीसदी जिले छत्तीसगढ़ के हैं।
छत्तीसगढ़ के 15 जिले- बीजापुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, धमतरी, गरियाबंद, कांकेर, कोंडागांव, महासमुंद, नारायणपुर, राजनांदगांव, मोहला- मानपुर-अबांगढ़ चौकी, खैरागढ़-छुईखदान-गंडई, मुंगेली, कबीरधाम और सुकमा माओवाद से प्रभावित हैं।
अब इनमें से अधिकांश जिलों में माओवादी हिंसा की घटनाएं नहीं के बराबर हो रही हैं।
हालांकि माओवादी मामलों के जानकार एक पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘सुरक्षाबलों को जब मौका मिलता है, वो हमले करते हैं। जब माओवादियों को मौका मिलता है, वो हमले करते हैं। मामला केवल अवसर का है। जहां हज़ारों की फोर्स तैनात हैं, वहीं तो पिछले सप्ताह सुरक्षाबलों के 8 जवान समेत 9 लोग शहीद हुए। यह ठीक है कि माओवादी बैकफुट पर हैं लेकिन माओवादियों की ताक़त को कम करके आंकना ठीक नहीं होगा।’
लेकिन सर्व आदिवासी समाज के नेता अरविंद नेताम के पास अपनी चिंताएं हैं।
कई बार के सांसद और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके अरविंद नेताम का कहना है कि बस्तर में लंबे समय से गृहयुद्ध जैसी स्थितियां हैं। लेकिन इसका सबसे अधिक नुकसान आदिवासियों को हो रहा है।
वे कहते हैं, ‘मरने वाला भी आदिवासी है और मारने वाला भी। आदिवासी को दोनों तरफ़ से हथियार थमा दिया गया है। आखिरकार मारा तो आदिवासी ही जा रहा है।’
अरविंद नेताम की बात अपनी जगह सही भी है।
छत्तीसगढ़ के एक पुलिस अधिकारी का बयान
बस्तर के इलाके में अधिकांश माओवादी आदिवासी हैं। वहीं डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड और बस्तर फाइटर जैसे सुरक्षा संगठनों में भी आदिवासी ही हैं। ऐसे में अधिकांश अवसरों पर आदिवासी ही मारे जाते हैं।
यहां तक कि माओवादी संगठन छोड़ कर आत्मसमर्पण करने वाले आदिवासी भी सुरक्षित नहीं हैं। आत्मसमर्पण के बाद सरकार उन्हें फिर से हथियार थमा देती है।
इसी महीने की 6 तारीख को बीजापुर जिले के कुटरु में संदिग्ध माओवादियों द्वारा पहले से सडक़ में लगाए गए आईईडी यानी इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस की चपेट में आ कर 8 सुरक्षाकर्मियों समेत 9 लोग मारे गए। इनमें से डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड के हेड कांस्टेबल बुधराम कोरसा, सिपाही दुम्मा मरकाम, पंडारू राम, बामन सोढ़ी और बस्तर फाइटर्स के सिपाही सोमडू वेट्टी ऐसे आदिवासी थे।
इन लोगों ने कई सालों तक माओवादी आंदोलन का हिस्सा रहने के बाद आत्मसमर्पण किया था। यानी मारे जाने वाले 8 जवानों में से 5 ऐसे थे, जो पहले माओवादी रह चुके थे और अब सुरक्षाबलों का हिस्सा थे। (bbc.com/hindi)
डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत एक के बाद एक कई कार्यकारी आदेशों को जारी करते हुए की।
इन आदेशों में से एक गैर-अमेरिकी माता-पिता के बच्चों को जन्म के साथ अपने आप मिलने वाली अमेरिकी नागरिकता के प्रावधान को खत्म करना भी शामिल था।
ट्रंप समय-समय पर अमेरिका आने वाले आप्रवासियों के लिए कड़े विचार ज़ाहिर करते रहे हैं। ऐसे में जन्म से मिलने वाली नागरिकता की परिभाषा बदलने का वहां रह रहे भारतीयों समेत अन्य देशों के लोगों पर प्रभाव पड़ सकता है।
आदेश में क्या है?
व्हाइट हाउस की वेबसाइट पर मौजूद इस कार्यकारी आदेश का शीर्षक ‘प्रोटेक्टिंग द मीनिंग एंड वैल्यू ऑफ़ अमेरिकन सिटिजनशिप’ है।
आदेश की शुरुआत में ही कहा गया है कि अमेरिकी नागरिकता अमूल्य उपहार की तरह है। फ़ैसले के 30 दिन बाद यानी 20 फरवरी से पैदा होने वाले हर बच्चे पर ये नया नियम लागू होगा।
ये आदेश कहता है इन परिस्थितियों में अमेरिकी नागरिकता नहीं मिलेगी।
- अमेरिका में पैदा हुए बच्चे की मां यदि अवैध रूप से वहां रह रही हो।
- पिता अगर बच्चे के जन्म के समय अमेरिका का नागरिक या वैध स्थायी निवासी न हो।
- बच्चे के जन्म के समय मां अमेरिका की वैध, लेकिन अस्थायी निवासी हो।
-पिता, बच्चे के जन्म के समय अमेरिका के नागरिक या वैध स्थायी निवासी न हो।
हालांकि, ये आदेश जारी होने के अगले दिन डोनाल्ड ट्रंप से व्हाइट हाउस में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जब एच-1 बी वीज़ाधारकों के भविष्य से जुड़ा सवाल किया गया तो उन्होंने कहा, ‘मुझे ये पसंद है कि हमारे देश में प्रतिस्पर्धी लोग आएं। जहां तक एच-1बी वीज़ा की बात है, तो मैं इसको अच्छे से समझता हूं। मैंने इस प्रोग्राम का इस्तेमाल किया है। हमें चाहिए कि यहां अच्छा काम करने वाले लोग आएं। हमें जरूरत है कि हमारे देश में अच्छे लोग आएं और हम ये एच-1 बी प्रोग्राम के ज़रिए करते हैं।’
अमेरिकी संविधान का 14वां संशोधन जन्मसिद्ध नागरिकता का प्रावधान करता है। इसके ज़रिए अमेरिका में रहने वाले आप्रवासियों के बच्चों को भी जन्मसिद्ध नागरिकता दी जाती है।
हालांकि, इसके विरोधियों का तर्क है कि ये प्रावधान अवैध प्रवासियों के लिए बड़ा आकर्षण है और इससे गर्भवती महिलाओं को अवैध तरीके से सीमा पार कर बच्चों को जन्म देने के लिए बढ़ावा मिलता है।
क्या ट्रंप इस अधिकार को खत्म कर सकते हैं?
अधिकांश कानूनी जानकारों का मानना है कि राष्ट्रपति ट्रंप जन्म से मिलने वाली नागरिकता के अधिकार को एक कार्यकारी आदेश के ज़रिए ख़त्म नहीं कर सकते हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया लॉ स्कूल के प्रोफ़ेसर साईकृष्ण प्रकाश कहते हैं, ‘वह (ट्रंप) कुछ ऐसा कर रहे हैं जिससे बहुत से लोग परेशान होंगे, लेकिन आखिरकार इस पर फ़ैसला तो अदालतें ही लेंगी। ये कोई ऐसा मामला नहीं है, जिसपर वह खुद निर्णय ले सकते हों।’
प्रोफेसर प्रकाश का कहना है कि सिर्फ संविधान में संशोधन के जरिए ही इस अधिकार को खत्म किया जा सकता है, लेकिन इससे जुड़े प्रस्ताव को पारित कराने के लिए अमेरिकी प्रतिनिधि सभा और सीनेट में दो तिहाई वोटों की जरूरत होगी और राज्यों का भी समर्थन चाहिए।
भारतीयों पर क्या होगा असर?
अमेरिका में अलग-अलग वीज़ा पर कानूनी रूप से रहने वाले लोगों के बच्चों को भी जन्म के समय नागरिकता मिलती है। लेकिन ट्रंप के फैसले से उनके अधिकार भी प्रभावित होने की आशंका है।
अगर ट्रंप के आदेश के अनुसार परिवर्तन प्रभावी हो जाते हैं, तो संयुक्त राज्य अमेरिका में ग्रीन कार्ड या एच1-बी वीजा पर रह रहे लोगों के बच्चों की नागरिकता भी सवालों में होगी।
उन्हें जन्म के समय खुद ही नागरिकता प्रदान नहीं की जाएगी।
यूएस सेंसस ब्यूरो के 2024 तक के आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका में करीब 54 लाख भारतीय रहते हैं, जो अमेरिका की आबादी का 1।47 फ़ीसदी हैं। इनमे से दो तिहाई लोग फर्स्ट जेनरेशन इमिग्रेंट्स हैं यानी परिवार में सबसे पहले वही अमेरिका गए। लेकिन बाकी अमेरिका में जन्में नागरिक हैं।
हाल के आंकड़ों के मुताबिक 72 फीसदी वीजा भारतीय नागरिकों को दिए गए। इसके बाद 12 फीसदी वीजा चीनी नागरिकों को दिए गए। फिलीपींस, कनाडा और दक्षिण कोरिया के नागरिकों को एक-एक फीसदी वीज़ा मिले।
कैनेडियन इमिग्रेशन लॉ के मैनेजिंग डायरेक्टर शमशेर सिंह संधू बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, ‘ट्रंप ने कार्यकारी आदेश किसी योजना के तहत ही जारी किया होगा लेकिन इसका वहाँ रहने वाले भारतीयों पर कोई असर होगा, ऐसा नहीं लगता।’
उन्होंने कहा, ‘नागरिकता बच्चे को मिलती है, माँ बाप को नहीं। अगर कोई एच-1 बी वीजा पर वहाँ है, तो काम करने के लिए है। जब ये लोग लौटते हैं, तो बच्चे को थोड़ी वहाँ छोडक़र आ जायेंगे। और ना ही लोग अमेरिका में बच्चे को जन्म देने के लिए ही जाते हैं। वो काम करने जाते हैं, पढऩे जाते हैं।’
जब आप सपने देखते हैं, तब क्या आपको पता होता है कि आप सपना देख रहे हैं? अमेरिकी वैज्ञानिकों ने एक ऐप बनाया है, जिसके जरिए सपनों में जागरूक हुआ जा सकता है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमारका लिखा-
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लूसिड ड्रीमिंग यानी सपने में यह जानना कि आप सपना देख रहे हैं। दशकों से यह विज्ञान और सपनों के शौकीनों के लिए दिलचस्पी का विषय रहा है। अब एक नए मोबाइल ऐप ने इसे आम लोगों के लिए आसान बना दिया है। यह ऐप लूसिड ड्रीमिंग की संभावना बढ़ाने के लिए खास तकनीक का इस्तेमाल करता है। इससे सपने देखने और चेतना की वैज्ञानिक रिसर्च में बड़ा बदलाव आ सकता है।
लूसिड ड्रीमिंग रेपिड आई मूवमेंट स्लीप (आरईएम) के दौरान होता है। यह वह नींद का चरण है जब हमारे सपने सबसे ज्यादा जीवंत होते हैं और दिमाग सक्रिय रहता है। कुछ लोग इस दौरान समझ पाते हैं कि वे सपना देख रहे हैं और कभी-कभी अपने सपने पर काबू भी कर सकते हैं।
पहले, इरादा करना और गैलेंटामाइन जैसे सप्लीमेंट्स से लूसिड ड्रीमिंग को बढ़ाने की कोशिश की गई। लेकिन ये तरीके मेहनत और तैयारी मांगते थे और हर बार सफल भी नहीं होते थे। इसके अलावा, प्रयोगशाला के माहौल में साउंड और लाइट क्यूज का इस्तेमाल किया जाता था, जो हर किसी के लिए व्यावहारिक नहीं था।
ऐप कैसे काम करता है?
अमेरिका के इलिनोय में इवानस्टोन की नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के न्यूरोसाइंटिस्टों की नई स्टडी ने यह पहली बार साबित किया है कि ‘टार्गेटेड लूसिडिटी रिएक्टिवेशन’ (टीएलआर) नाम की एक तकनीक बेहद कम तकनीकी संसाधनों के साथ भी सफल हो सकती है।
टीएलआर पद्धति को नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के केन पॉलर की स्लीप लैब में पहले इस्तेमाल किया गया था। अब इस पद्धति को एक स्मार्टफोन ऐप के जरिए टेस्ट किया गया, जो सेंसरी स्टिमुलेशन को जागरूक सपनों या लूसिड ड्रीमिंग के साथ जोड़ता है।
इस रिसर्च ने यह साबित किया कि टीएलआर पद्धति काम करती है। जिन लोगों ने इस ऐप का इस्तेमाल किया, उन्होंने औसतन 2.11 जागरूक सपने हर हफ्ते देखे। यह आंकड़ा पहले हफ्ते के औसत 0.74 सपनों से काफी ज्यादा था।
नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी की पोस्ट-डॉक्टोरल साइकोलॉजी फेलो, कैरेन कॉन्कोली ने एक बयान में बताया, ‘यह एक बड़ा बदलाव है, क्योंकि ज्यादातर लोगों के लिए एक हफ्ते में सिर्फ एक जागरूक सपना देखना भी बड़ी बात होती है।’
कैरेन ने कहा, ‘हमारा लक्ष्य यह जानना था कि सिर्फ एक स्मार्टफोन से कितने जागरूक सपने देखे जा सकते हैं। साथ ही, हम यह देखना चाहते थे कि यह पद्धति कितनी आसान और सुलभ है।’
रात में देर तक जागने वालों का दिमाग होता है ज्यादा तेज
ऐप ध्वनि के संकेतों का इस्तेमाल करता है। सोने से पहले, यूजर ऐप पर कुछ खास आवाजें (जैसे बीप्स) सुनते हैं और माइंडफुलनेस का अभ्यास करते हैं। फिर, लगभग छह घंटे बाद जब आरईएम स्लीप की संभावना ज्यादा होती है, ऐप वही आवाजें करता है। यह दिमाग को सपने के दौरान खुद को पहचानने में मदद करता है।
एक हफ्ते के प्रयोग में, 19 लोगों ने इस ऐप का इस्तेमाल किया। उनके लूसिड ड्रीम्स 0.74 प्रति हफ्ते से बढक़र 2.11 प्रति हफ्ते हो गए। उसके बाद 112 लोगों पर हुए परीक्षण में भी ऐप ने अच्छे नतीजे दिए।
ऐप की खासियत
यह ऐप लूसिड ड्रीमिंग के पारंपरिक तरीकों को सरल और ऑटोमैटिक बनाता है। पहले जो चीजें सिर्फ लैब में संभव थीं, अब वह एक मोबाइल ऐप के जरिए आम लोगों के लिए भी मुमकिन हो गई हैं।
लूसिड ड्रीमिंग से लोग अपने सपनों को बेहतर समझ सकते हैं और काबू कर सकते हैं। यह रचनात्मकता और समस्या सुलझाने की क्षमता को बढ़ा सकता है।
कृत्रिम हृदय का सपना: हम कितने करीब हैं?
यह ऐप पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर के मरीजों को बुरे सपनों से राहत दिलाने में मदद कर सकती है। मरीज अपने सपनों की पहचान कर उन्हें बदल सकते हैं।
यह ऐप बड़ी संख्या में लूसिड ड्रीमर्स से डेटा इक_ा करने में मदद कर सकता है। इससे चेतना और दिमाग के काम करने के तरीके को समझा जा सकता है।
चुनौतियां भी हैं
लूसिड ड्रीमिंग हर किसी के लिए आसान नहीं है। इसे करते वक्त नींद और जागने के बीच संतुलन बनाए रखना मुश्किल हो सकता है। साथ ही, ऐप का असर हर किसी पर एक जैसा नहीं होता।
नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के रिसर्चर कहते हैं कि ऐप के साथ कुछ पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। जैसे दिनभर में खुद से पूछें, ‘क्या मैं सपना देख रहा हूं?’ या फिर, अपने सपनों को लिखें। इससे सपनों की पहचान करना आसान होगा। जल्दी उठकर थोड़ी देर बाद वापस सोने से लूसिड ड्रीमिंग की संभावना बढ़ती है। सोने से पहले खुद से कहें कि आपको सपना पहचानना है।
यह ऐप लूसिड ड्रीमिंग को आम लोगों के लिए सुलभ बना रहा है। चाहे मनोरंजन हो, थेरेपी हो या रिसर्च, यह तकनीक सपनों की दुनिया को बेहतर तरीके से समझने और उसे प्रभावित करने की दिशा में बड़ा कदम हो सकती है। (dw.comhi)
-एंजेल बरमूडेज
डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ ले चुके हैं। उन्होंने बड़े बदलावों के एजेंडा के साथ व्हाइट हाउस में वापसी की है।
पिछले साल पांच नवंबर 2023 को ट्रंप ने अपने पहले राष्ट्रपति चुनावी भाषण में कहा था, ‘मैं इस सिद्धांत (मोटो) के तहत शासन करूंगा कि वादे किए गए और वादे निभाए गए।’ उसी रात डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि वह अमेरिका को दुनिया का सबसे महान देश बनाएंगे।
उनके प्रस्तावों या वादों में देश की सीमाओं को सील करने के लिए मेक्सिको के साथ सीमा पर दीवार का निर्माण जारी रखना और बिना दस्तावेज़ वाले लाखों विदेशियों को देश से बाहर निकालना है। इसके बारे में उनका दावा है कि यह अमेरिकी इतिहास का सबसे बड़ा ‘देश निकाला’ होगा।
उन्होंने सरकार की नौकरशाही यानी लालफ़ीताशाही को कम करने, टैक्स घटाने और विदेशी आयातों पर 10 से 20 फ़ीसदी तक का टैक्स लगाने का वादा भी किया है। यह टैक्स चीन के साथ आयात के मामले में 60 फीसदी तक पहुंच जाएगा। अपने इन वादों को पूरा करने के लिए ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी पर भरोसा कर रहे हैं, जो कि उनके समर्थन में एकजुट है।
पार्टी के पास संसद के दोनों सदनों प्रतिनिधि सभा (निचला सदन) और सीनेट (उच्च सदन) दोनों में बहुमत है। इसे अमेरिका में ‘ट्राईफ़ैक्टा’ या एकजुट सरकार कहते हैं।
अमेरिकी व्यवस्था में ‘ट्राईफैक्टा’ या एकजुट सरकार वह स्थिति है जब सत्ताधारी पार्टी का प्रतिनिधि सभा और सीनेट दोनों में ही बहुमत हो।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
प्रोफेसर मार्क पीटरसन बीबीसी मुंडों से कहते हैं, ‘एकजुट सरकार होने का मतलब है कि व्यवस्था एकसदनीय संसदीय प्रणाली की तरह काम करना शुरू कर देती है।’
‘जहां सरकार और संसद दोनों पर ही बहुमत हासिल करने वाली पार्टी का नियंत्रण होता है। यह एकजुट सरकार के तौर पर काम करता है और व्यवहारिक तौर पर जो चाहे कर सकता है।’
प्रोफेसर मार्क पीटरसन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय लॉस एंजिल्स (यूसीएलए) में पब्लिक पॉलिसी, राजनीतिक विज्ञान और कानून के प्रोफेसर हैं।
इसके अलावा अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट देश की तीसरी स्वतंत्र इकाई है। इसमें भी मौजूदा समय में छह कंजर्वेटिव जज हैं। जिनमें से तीन को डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में नियुक्त किया था।
वहीं सुप्रीम कोर्ट में तीन लिबरल जज हैं। इसका मतलब यह है कि सरकार के फैसलों को असानी से सुप्रीम कोर्ट से हरी झंडी मिल सकती है।
तो क्या इसका मतलब यह है कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में बिना किसी चेक-बैलेंस यानी बेलगाम होकर अपनी सरकार चलाएंगे?
ऐसा नहीं है। क्योंकि अमेरिकी व्यवस्था के अनुसार छह ऐसे बिंदु हैं जो डोनाल्ड ट्रंप को बेलग़ाम होने से रोकेंगे।
1.दोनों सदनों में बहुमत तो है पर...
भले ही रिपब्लिकन पार्टी के पास संसद के दोनों सदनो में बहुमत है। मगर ऐसी गारंटी नहीं है कि पार्टी आराम से अपने सभी प्रस्तावों को मंजूर करा सकेगी।
नवंबर में आए राष्ट्रपति चुनावी नतीजों में रिपब्लिकन पार्टी को 220 सीटें मिली हैं। वहीं डेमोक्रेटिक पार्टी को 215 सीटों पर ही जीत मिली है।
हालांकि, इसके बाद एक रिपब्लिकन कांग्रेस सदस्य ने अपना पद छोड़ दिया है। साथ ही दो और रिपब्लिकन कांग्रेस सदस्य जल्द ही सरकारी पदों पर जाने के लिए इस्तीफ़ा देने वाले हैं।
इसका मतलब है कि कम से कम प्रतिनिधि सभा में दो महीनों तक रूढि़वादी रिपब्लिकन पार्टी के पास बहुमत से केवल दो वोट ही ज़्यादा होगा। जो पार्टी के लिए आसान स्थिति नहीं होगी।
प्रोफेसर मार्क पीटरसन के मुताबिक, ‘आधुनिक समय में यह सबसे कमजोर बहुमत है। भले ही रिपब्लिकन पार्टी मजबूती से एकजुट है। लेकिन सदन में अपने नाममात्र के बहुमत के बलबूते सदन को नियंत्रित करने के लिए उन सभी को बहुत कठिन स्थिति में भी एकजुट रहना होगा। जो बहुत मुश्किल है।’
डोनाल्ड ट्रंप का बयान
सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के 43 सदस्यों के मुक़ाबले रिपब्लिकन पार्टी के 53 सदस्य हैं। इसका मतलब है कि रिपब्लिकन पार्टी के पास बड़े प्रस्तावों को पास कराने के लिए पूर्ण बहुमत से अभी भी सात वोट कम हैं।
प्रोफेसर मार्क पीटरसन के मुताबिक़, रिपब्लिकन जो कुछ भी करना चाहते हैं, उसके लिए उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ बातचीत करनी होगी। क्योंकि डेमोक्रेटिक पार्टी लगभग किसी भी प्रस्ताव को वीटो के जरिए रोक सकती है।
बातचीत वह प्रक्रिया है जो सीनेट सदस्यों को बजट के प्रावधानों को साधारण बहुमत से (60 सदस्यों के बजाय 51 सदस्य) से मंज़ूर करने की अनुमति देती है।
पिछले कुछ दशकों में अमेरिकी कांग्रेस में ध्रुवीकरण की वजह से यह प्रक्रिया अपनाई गई थी। लेकिन सभी मामलों में ऐसा नहीं हो सकता।
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘जिन भी राष्ट्रपतियों के पास बड़े बदलाव करने के अवसर थे, वह बड़े बहुमत जैसे कि दोनों सदनों में 60 फीसदी के बहुमत के साथ सत्ता में आए थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। लेकिन यह सच में चौंकाने वाला होगा कि ट्रंप अपने रिपब्लिकन सहयोगियों के साथ वास्तव में अपने चुनावी वादों पर काम कर पाएं।’
एक्सपर्ट्स कहते हैं कि अपने पहले कार्यकाल के शुरुआती दो सालों के दौरान भी डोनाल्ड ट्रंप के पास दोनों ही सदनों में मजबूत बहुमत था। लेकिन उस दौरान वह कर मैं कटौती का केवल एक अहम कानून ही पास करवा पाए थे।
2. एक स्वतंत्र न्यायपालिका
भले ही अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में कंजर्वेटिव जजों का बहुमत है, जिनमें से तीन ट्रंप के पहले शासन काल में नियुक्त हुए थे। लेकिन फिर भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सभी प्रशासनिक पहलों की मंज़ूरी मिल ही जाएगी।
यह सच है कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने साल 1970 से ही मौजूद गर्भपात के अधिकार के संघीय संरक्षण को वापस ले लिया था। जैसा कि डोनाल्ड ट्रंप ने साल 2016 के दौरान अपने चुनावी अभियान में वादा किया था। इस फ़ैसले का नए नियुक्त किए गए जजों ने भी समर्थन दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़, ‘अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति को किसी भी आपराधिक अभियोजन से पूरी तरह से छूट का अधिकार है।’ इस वजह से ट्रंप ख़ुद के खिलाफ चल रहे कई मुकदमों से बरी भी हो गए।
हालांकि उस फ़ैसले में यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि निजी मामलों में राष्ट्रपति को यह छूट नहीं मिलेगी।
इसके अलावा कोर्ट ने डोनाल्ड ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी की उन शिकायतों को भी खारिज कर दिया था जिसमें, 2022 के राष्ट्रपति चुनावों के नतीजों को पलटने की कोशिश के आरोप लगाए गए थे।
कोर्ट ने ट्रंप प्रशासन के डीएसीए प्रोग्राम को ख़त्म करने की कोशिशों के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया गया था। डीएसीए प्रोग्राम उन सैकड़ों या हजारों लोगों की रक्षा करता है जिन्होंने बिना कागजात के नाबालिग अवस्था में प्रवेश किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने अफोर्डेबल केयर एक्ट (जिसे आमतौर पर ओबामाकेयर कहा जाता है) से कुछ सुरक्षा उपायों को बरकरार रखा था।
इसके साथ ही कार्यस्थल पर एलजीबीटीई+ लोगों को भेदभाव से बचाने वाले दूसरे प्रावधानों को भी सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा था। ये दोनों ही प्रावधान रिपब्लिकन पार्टी की योजनाओं के खिलाफ थे।
प्यू स्टडी सेंटर के अनुसार, ‘सुप्रीम कोर्ट के अलावा अमेरिका की जिला अदालतों के 60 फ़ीसदी जजों की नियुक्ति डेमोक्रेटिक जो बाइडन के कार्यकाल में हुई थी। जबकि जिला अदालतों के 40 फीसदी जजों की नियुक्ति ही रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में हुई थी।’
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘न्यायपालिका आज़ादी के साथ अमेरिकी व्यवस्था का तीसरा अहम स्तंभ है। जिसके ज़्यादातर सदस्यों को ट्रंप या रिपब्लिकन पार्टी ने नियुक्त नहीं किया है।’ पीटरसन का मानना है कि जजों को अपने फैसले कानून या सुप्रीम कोर्ट के स्थापित निर्देशों के अनुसार देने चाहिए।
3.अमेरिका के अलग-अलग राज्यों की सरकारें
अमेरिका एक संघीय व्यवस्था वाला देश है। संघीय व्यवस्था व्हाइट हाउस से लागू किए गए बदलावों पर ज़रूरी सीमाएं लागू करती है।
अमेरिकी संविधान का 10वां संशोधन राज्य या प्रदेश की सरकारों को बड़े स्तरों पर शक्ति देता है। परंपरागत रूप से राज्यों के पास सुरक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक लाभ, शिक्षा, चुनावी प्रक्रिया, आपराधिक कानून, श्रम नियम और संपत्ति से जुड़े अधिकार रहे हैं।
इसी तरह काउंटी और शहरी प्रशासन के पास सार्वजनिक सुरक्षा, शहरी नियोजन, जमीनों का इस्तेमाल और इस तरह की दूसरी जि़म्मेदारियां हैं।
राज्यों, काउंटी और शहरी प्रशासन के पास ट्रंप सरकार की कुछ पहलों का विरोध करने की शक्ति है।
प्रोफेसर पीटरसन अनुमान लगाते हैं, ‘डेमोक्रेटिक पार्टी जरूर इन शक्तियों का इस्तेमाल ट्रंप प्रशासन के खिलाफ करेगी।’
उन्होंने कहा, ‘मैं कैलिफ़ोर्निया में रहता हूं जो कि अमेरिका का सबसे बड़ा राज्य है और विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। यह पूरी तरह से ना तो डोमोक्रेटिक है, ना ही लिबरल है और ना ही प्रोग्रेसिव है। लेकिन यह उस दिशा में मज़बूती से आगे बढ़ रहा है।’
प्रोफेसर पीटरसन के अनुसार, ‘कैलिफोर्निया ट्रंप प्रशासन की परवाह किए बिना या विरोध करते हुए ही काम करेगा। जैसे पिछले कुछ समय के दौरान टेक्सास और दूसरे राज्यों ने ओबामा और बाइडन प्रशासन की परवाह नहीं की थी।’
मौजूदा समय में अमेरिका के 50 में से 23 राज्यों में डेमोक्रेटिक पार्टी के गवर्नर हैं। इन राज्यों का सहयोग या विरोध ट्रंप प्रशासन की बड़ी संख्या में प्रवासियों को देश से बाहर निकालने जैसी योजनाओं के लिए अहम हो सकता है।
क्योंकि इस तरह के जटिल और कठिन कामों के लिए स्थानीय सरकारों के समर्थन की जरूरत पड़ती है।
कई शहरों और राज्यों ने ख़ुद को प्रवासियों के लिए ‘संरक्षित’ स्थान घोषित कर दिया है। जिस वजह से प्रवासियों के मुद्दे पर उनका सहयोग संघीय सरकार के साथ सीमित हो गया है।
4. एक पेशेवर नौकरशाही
डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान, रिपब्लिकन पार्टी के भीतर ही यह शिकायतें उठने लगी थीं कि वह अपनी राजनीतिक योजनाओं को पूरी तरह से लागू नहीं कर पा रहे थे। इसकी वजह राज्य और नौकरशाही के कामकाज को समझने में कमी और सार्वजनिक अधिकारियों या सिविल सर्विसेज का विरोध भी था।
नौकरशाहों ने ट्रंप प्रशासन के आदेशों को गैरकानूनी या गलत मानते हुए उन्हें लागू करने में देरी की थी।
अपने पहले कार्यकाल के अंत में डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश की मंज़ूरी दी थी। जिसके जरिए वह हजारों सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल कर उनकी जगह अपने समर्थकों को नियुक्त कर सकते थे।
लेकिन इस आदेश को बाइडन प्रशासन ने निरस्त कर दिया था। पर ट्रंप ने अपने अभियान के दौरान दोबारा से उनको हटाने वाले कार्यकारी आदेश पर विचार करने को कहा था।
वास्तव में इस दूसरे शासन के लिए डोनाल्ड ट्रंप के करीबी कंजरवेटिव ग्रुप ने ऐसे हज़ारों पेशवरों का डेटा बेस तैयार किया है, जो कि ट्रंप की राजनीतिक विचारधारा से ताल्लुक़ रखते हैं। ताकि उनको सरकारी अधिकारियों की जगह नियुक्त किया जा सके।
इस पहल को संस्थागत, कानूनी, राजनीतिक और मजदूर संगठनों के स्तर पर विरोध का सामना करना पड़ सकता है।
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि अदालतें ट्रंप की इस पहल के खिलाफ प्रतिक्रिया देंगी। सार्वजनिक सेवाएं किसी वजह से बनाई गई हैं और एक कानून है जो इनकी रक्षा करता है। इसीलिए नई सरकार के गठन तक बड़े पैमाने पर संघीय कर्मचारियों के खिलाफ कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जा सकेगा।’
हालांकि सीमित स्तर पर कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जिनसे असर पड़ेगा। जैसे कि जब सरकार किसी ऑफिस को वॉशिंगटन डीसी से बाहर किसी और जगह पर भेजने का फैसला करती है, तब कुछ अधिकारियों को इस्तीफा देना पड़ सकता है। क्योंकि वह अधिकारी अपने परिवारों को वहां लेकर नहीं जा सकते।
5. मीडिया और सिविल सोसाइटी
जब डोनाल्ड ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने थे तब मीडिया ने उनके प्रशासन की आलोचना की थी। इसके अलावा अलग-अलग यूनियन और सिविल सोसाइटीज भी दबाव डालकर और अदालतों के जरिए ट्रंप के कई फैसलों को रोकने के लिए लामबंद हुए थे।
हालांकि मीडिया के मामले में स्थितियां थोड़ी सी बदली हैं। जैसे कि वॉशिंगटन पोस्ट ने ट्रंप के पहले कार्यकाल में इस बात का रिकॉर्ड रखा था कि उन्होंने कितनी बार झूठ बोला है या गलत जानकारी दी है। (चार साल में 30 हजार से भी ज़्यादा)।
हालांकि इसके ठीक उलट इस बार वॉशिंगटन पोस्ट ने अपने रोजाना छपने वाले संपादकीय लेख को ना छापने का फैसला किया। इस संपादकीय लेख में वॉशिंगटन पोस्ट चुनावों पर अपना नजरिया रखता था।
इसकी बजाय अखबार ने डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस को बढ़ावा देने की योजना बनाई थी।
पारंपरिक रूप से एक और लिबरल विचारधारा वाले अखबार ‘द लॉस एंजेलिस टाइम्स’ ने भी ठीक ऐसा ही किया था।
दरअसल एमेजॉन के संस्थापक और द वॉशिंगटन पोस्ट के मालिक जेफ बेजोस ने फ्लोरिडा स्थित ट्रंप के मार-ए-लागो निवास पर उनसे मुलाकात की थी। लेकिन कई दूसरे मीडिया संस्थानों ने ट्रंप सरकार के लिए अपना आलोचनात्मक रुख बरकरार रखा है।
इसके अलावा सिविल लिबर्टीज यूनियन (एसीएलयू) जैसे कई नागरिक समाज संगठनों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। इस संगठन के 17 लाख सदस्य हैं और यह पहले से ही नए राष्ट्रपति के कुछ प्रस्तावों को रोकने की कोशिश करने के इरादे स्पष्ट कर चुका है।
एक बयान में संगठन ने कहा है, ‘जब ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति पद पर थे तब हमने उनके प्रशासन के ख़िलाफ़ 430 बार कानूनी कदम उठाए थे। हमारे पास उनसे लडऩे और जीतने की रणनीति है।’
संगठन ने अपने एक और बयान में कहा, ‘इस बार अमेरिकी चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप की जीत का यह मतलब भी है कि वह उन नीतियों को फिर से लागू करेंगे, जिसके बारे में उन्होंने साल 2020 में पद छोड़ते वकत कहा था। इसका मतलब है कि ज़्यादा से ज़्यादा प्रवासी अपने परिवार से अलग हो जाएंगे। ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रजनन संबंधी प्रतिबंधों की वजह से सेहत का गंभीर नुकसान झेलना होगा। ट्रंप संघीय सरकार का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ एक खतरनाक हथियार के तौर पर करेंगे।’
6. नागरिकों की प्राथमिकताएं
डोनाल्ड ट्रंप अपने सरकारी एजेंडे को कितना पूरा कर पातें हैं, यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि उनका एजेंडा नागरिकों की असल चिंताओं के साथ कितना फिट बैठ पाता है? और ट्रंप उन चिंताओं को कितना समझ पाते हैं?
यह खासतौर पर इसलिए भी अहम है क्योंकि ट्रंप पॉपुलर वोट में तो जीते हैं, लेकिन उन्हें नागरिकों से वास्तव में बहुत ज़्यादा समर्थन नहीं मिला है।
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव जीता है। यह सच्चाई है। लेकिन उनको केवल 49.9 फीसदी ही पॉपुलर वोट मिले हैं जो कि कुल मतदाताओं का आधा हिस्सा भी नहीं है। वह कमला हैरिस से केवल 1.5 फीसदी वोटों के अंतर से जीते हैं। यह राष्ट्रपति चुनावों की सबसे करीबी जीतों में से एक है।’
एक्सपर्ट्स का यह भी कहना है कि चुनाव में जिन भी मतदाताओं ने ट्रंप का समर्थन किया, वह भी उनके कट्टर विचारों या प्रस्तावों का समर्थन नहीं करते हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार, ‘इनमें भी एक बड़ा हिस्सा ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के समर्थकों का है। ट्रंप जो भी करना चाहते हैं वह उसका समर्थन करेंगे। वहीं दूसरा हिस्सा रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों का है, जो ट्रंप को ख़ासा पसंद नहीं करते हैं। वह बस ट्रंप को इसलिए चाहते हैं क्योंकि वह रूढि़वादी हैं। वह टैक्स में कटौती और कम रेगुलेशन चाहते हैं।’
जानकार कहते हैं, ‘इसके बाद ऐसे लोगों का समूह है जिन्होंने बढ़ती महंगाई की वजह से ट्रंप को वोट दिया था। वह बदलाव चाहते थे और उनके पास ट्रंप ही एक विकल्प थे।’
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘उनमें से भी कई लोग ओबामाकेयर को ख़त्म करने, सिविल सर्विसेज को खत्म करने या क्लाइमेट चेंज से जुड़ी पॉलिसी को ख़त्म करने जैसे फैसलों पर ट्रंप का समर्थन नहीं करेंगे।’
यह एक ऐसी स्थिति है जिससे सरकार पर संयम बरतने का दबाव होगा। इससे ना केवल ट्रंप की लोकप्रियता पर असर पड़ेगा, बल्कि साल 2026 में होने वाले मध्यावधि चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी को नुकसान भी उठाना पड़ा सकता है।
लेकिन अगर ट्रंप को अपने किसी प्रस्ताव पर इस तरह के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा तो वह क्या करेंगे?
पीटरसन कहते हैं, ‘डोनाल्ड ट्रंप जरूरत के हिसाब से ख़ुद को ढालेंगे और अपने लक्ष्यों को हासिल ना कर पाने के लिए दूसरों को दोषी ठहराएंगे।’
वह कहते हैं, ‘डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल की शुरुआत में ही जब ओबामाकेयर की लोकप्रियता बढ़ी थी, तब सरकार ने उसे ख़त्म करने का फैसला किया था। लेकिन आखिर में व्हाइट हाउस को कुछ बदलावों के साथ अपने फैसले से पीछे हटना पड़ा।’ (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
कनाडा और उसकी सरकार पिछले एक साल से गंभीर विवादों में उलझा है। यहां के कुछ इलाकों को मिनी पंजाब कहते हैं जहां भारत से गए सिख समुदाय के रिहायशी इलाके और गुरुद्वारे आदि के कारण पंजाब के किसी कस्बे या शहर में घूमने का अहसास होता है। सिख समुदाय अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और कर्मठता के लिए मशहूर है। उसने कड़ी मेहनत कर कनाडा में भी अच्छा खासा दबदबा बनाया है जो आर्थिक संपन्नता के साथ राजनीतिक शक्ति के रूप में भी सामने आया है। प्रधानमंत्री पद से हटे जस्टिन ट्रुडो के वोट बैंक में भी सिख समुदाय की अच्छी खासी भागीदारी बताई जाती है। यहीं से भारत और कनाडा के अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में खटास की शुरुआत हुई थी। यह खटास बढ़ते बढ़ते उस स्तर पर पहुंच गई जहां से उसे सही पटरी पर लाने में बहुत ज्यादा मेहनत की आवश्यकता होगी।
भारत और कनाडा ने अपने देश से एक दूसरे के राजनयिकों को निष्कासित कर यह संदेश दिया था कि दोनों देश यह मामला अपने हिसाब से काफी गंभीरता से ले रहे हैं। भारत और कनाडा के संबंध केवल पंजाब से कनाडा गए भारतीयों के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं हैं बल्कि कनाडा में बसे अन्य प्रांतों के एन आर आई भी इससे प्रभावित हो रहे हैं। दूसरी तरफ कनाडा अमेरिका का पड़ोसी है इसलिए अमेरिका का बाइडेन प्रशासन अक्सर कनाडा की हां में हां मिलाने की कोशिश करता रहा है ताकि पड़ोसी से सौहार्दपूर्ण संबंध बने रहें। जिस तरह से कनाडा ने वहां रहने वाले खालिस्तान समर्थकों की हत्या करने के लिए भारत सरकार पर उंगली उठाई है वैसा ही कदम अमेरिका ने भी उठाया है।
2023 में जब कनाडा में खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की गोली मारकर हत्या हुई थी तब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने उसमें भारत सरकार से जुड़े लोगों के इस हत्या में शामिल होने की बात की थी। भारत सरकार शुरू से इस मामले से पल्ला झाड़ती रही है। हद तो तब हुई जब कनाडा ने अलगाववादी हरदीप निज्जर की हत्या के मामले में सीधे भारतीय उच्चायोग के सर्वोच्च अधिकारी उच्चायुक्त संजय कुमार वर्मा को ‘पर्सन ऑफ इंटरेस्ट’ यानी संदिग्ध बता दिया। अपने देश के सर्वोच्च राजनयिक अधिकारियों के खिलाफ बगैर पुख्ता सबूतों के इतना गंभीर आरोप किसी भी सरकार को कड़े कदम उठाने पर मजबूर करेगा। इसलिए केंद्र सरकार ने भी सख्त कदम उठाकर न केवल अपने उच्चायुक्त सहित दूसरे राजनयिकों को वापस बुलाने का फैसला लिया था , साथ ही कनाडा के राजनयिकों को भी वापसी के लिए कहा था।
हाल ही में कनाडा में कनाडा फर्स्ट अभियान के अंतर्गत यह निर्णय किया गया कि कनाडा में वहां के नागरिकों को ही प्राथमिकता के आधार पर नौकरी दी जाएगी। माना जा रहा है कि कनाडा सरकार के इस फैसले से वहां रह रहे भारतीय समुदाय के काफी लोगों को नौकरी से वंचित होना पड़ सकता है। वैसे भी कनाडा में ऐसी स्थिति में भारतीय समुदाय के लोगों का रहना मुश्किल होगा जब दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते निम्नतम स्तर पर पहुंच गए हैं। कनाडा और भारत के संबंध उस निम्नतम स्तर पर पहुंच गए जहां और नीचे जाने की गुंजाइश नहीं रहती। कनाडा सरकार जिस तरह से अपने नागरिक संरक्षण के नाम पर खालिस्तान समर्थकों को शै दे रही है उसे नजरअंदाज करना भारत सरकार के लिए असंभव है।
कनाडा में जिस तरह से हिंदू और सिख एक दूसरे के धर्मस्थलों तक को निशाना बना रहे हैं यह दोनों के लिए खतरनाक संकेत है। कनाडा में काफी संख्या में हिंदू और सिख युवा पढ़ाई और कमाई के लिए बसे हैं। यदि वे अपने संसाधन और ऊर्जा एक दूसरे को नीचा दिखाने में बर्बाद करेंगे तो यह उनके खुद के लिए, कनाडा में रहने वाले अप्रवासी भारतीय समुदाय और हमारे देश के लिए कष्टप्रद और शर्मनाक है। अभी तक अमेरिका कनाडा के सुर में सुर मिलाता रहा है। आशा की धुंधली किरण यही है कि आतंकवाद के खिलाफ जोरदार चुनावी भाषण देने वाले नव निर्वाचित अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस मुद्दे पर कनाडा को समझाएंगे। जस्टिन ट्रुडो का प्रधानमंत्री पद से हटना भी भारत के लिए शुभ समाचार बन सकता है।
दुनिया भर के स्वास्थ्य विशेषज्ञों के एक समूह ने मोटापे की परिभाषा और इसका इलाज करने का एक नया तरीका सुझाया है। अब तक मोटापे की परिभाषा तय करने के लिए बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) पर ज्यादा जोर रहता है, लेकिन इस तरीके को लेकर वैज्ञानिकों के बीच काफी मतभेद हैं। नए तरीके में बीएमआई पर कम जोर दिया गया है और ऐसे लोगों की पहचान पर ध्यान दिया गया है जिन्हें मोटापे के कारण इलाज की जरूरत है।
इसी हफ्ते जारी सिफारिशों के मुताबिक, अब मोटापे को केवल बीएमआई के आधार पर परिभाषित नहीं किया जाएगा। इसके साथ-साथ कमर के माप और अतिरिक्त वजन से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं के आधार पर भी मोटापे की पहचान की जाएगी।
मोटापा दुनियाभर में एक अरब से ज्यादा लोगों को प्रभावित करता है। अमेरिकी सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के मुताबिक देश में, करीब 40 फीसदी वयस्क मोटापे से पीडि़त हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल 50 लाख से ज्यादा लोगों की मौत मोटापे के कारण होती है।
डॉ. डेविड कमिंग्स वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के मोटापा विशेषज्ञ हैं और इस रिसर्च रिपोर्ट के 58 लेखकों में से एक हैं। वह कहते हैं, ‘इसका मुख्य उद्देश्य मोटापे की सटीक परिभाषा देना है ताकि उनकी मदद की जा सके जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है।’ यह रिपोर्ट ‘द लांसेट डायबिटीज एंड एंडोक्रिनोलॉजी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई है।
मोटापे के दो नए वर्ग
रिपोर्ट में मोटापे के दो नए वर्ग दिए गए हैं। पहला है क्लीनिकल मोटापा, जिसमें बीएमआई और मोटापे के दूसरे संकेत शामिल हैं। इसके साथ ही दिल की बीमारी, हाई ब्लड प्रेशर, लिवर या किडनी की समस्या, या घुटने और कूल्हे के गंभीर दर्द जैसी समस्याएं होती हैं। ऐसे लोगों को डाइट, एक्सरसाइज और मोटापे की दवाओं जैसे इलाज के लिए पात्र माना जाएगा। दूसरे वर्ग को प्री-क्लीनिकल मोटापा कहा गया है। इसमें ऐसे लोग शामिल हैं जिन्हें इन बीमारियों का खतरा है, लेकिन फिलहाल कोई समस्या नहीं है।
बीएमआई का मतलब है बॉडी मास इंडेक्स। यह एक सरल मापदंड है जो किसी व्यक्ति के वजन और लंबाई के अनुपात के आधार पर यह बताता है कि उसका वजन उसके स्वास्थ्य के लिए सही है या नहीं। इसकी गणना के लिए वजन को ऊंचाई से भाग किया जाता है।
बीएमआई को हमेशा से एक अधूरा माप माना गया है। यह कई बार मोटापे का गलत या अधूरा आकलन करता है। अभी तक 30 या उससे ज्यादा बीएमआई वाले लोगों को मोटा माना जाता था। लेकिन रिपोर्ट बताती है कि हर बार बीएमआई 30 से ऊपर होने पर मोटापा नहीं होता। कभी-कभी ज्यादा मांसपेशियों वाले लोगों का बीएमआई ज्यादा हो सकता है, जैसे फुटबॉल खिलाड़ी।
नई परिभाषा के अनुसार, करीब 20 फीसदी ऐसे लोग जो पहले मोटापे की श्रेणी में आते थे, अब नहीं आएंगे। वहीं, 20 फीसदी ऐसे लोग जो गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं, उन्हें अब क्लीनिकल मोटापा के वर्ग में माना जाएगा।
इस नई परिभाषा को दुनियाभर के 75 से ज्यादा मेडिकल संगठनों ने मंजूरी दी है। हालांकि इसे अपनाने में समय और पैसा लगेगा। स्वास्थ्य बीमा संगठनों के प्रतिनिधियों ने कहा कि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि इन मानकों को कब और कैसे अपनाया जाएगा।
नई परिभाषा की चुनौतियां
मोटापा विशेषज्ञ डॉ। कैथरीन सॉन्डर्स कहती हैं कि कमर की माप लेना आसान नहीं है। अलग-अलग प्रोटोकॉल, डॉक्टरों की कमी और बड़े मेडिकल टेप मेजर का अभाव इस प्रक्रिया को जटिल बनाता है। इसके अलावा, क्लीनिकल और प्री-क्लीनिकल मोटापा तय करने के लिए हेल्थ असेसमेंट और लैब टेस्ट की जरूरत होगी।
रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ। रॉबर्ट कुशनर कहते हैं, ‘यह प्रक्रिया का पहला कदम है। चर्चा शुरू होगी और समय के साथ बदलाव आएगा।’
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह बदलाव जनता के लिए जटिल हो सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की न्यूट्रिशन एक्सपर्ट केट बाउर कहती हैं, ‘लोग आसान संदेश पसंद करते हैं, यह जटिल परिभाषा शायद ज्यादा असर नहीं डालेगी।’
फिर भी, विशेषज्ञों का मानना है कि इस बदलाव को अपनाने में वक्त लगेगा, लेकिन यह मोटापे की परिभाषा को सुधारने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
दुनिया में सबसे प्रभावशाली माने जाने वाले देश के राष्ट्रपति का कार्यकाल न केवल उस देश की नीतियों को प्रभावित करता है, बल्कि इसका वैश्विक स्तर पर भी दूरगामी असर होता है।
ये प्रभाव आर्थिक नीतियों से लेकर कूटनीतिक फ़ैसलों तक होते हैं।
20 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत करेंगे। इस बार उनके साथ उप-राष्ट्रपति के रूप में जेडी वांस कार्यभार संभालेंगे।
ट्रंप को अक्सर ‘अनप्रिडिक्टेबल’ कहा जाता है, यानी किसी भी मुद्दे पर उनका रुख़ क्या होगा, इसका अंदाज़ा पहले से नहीं लगा सकते। कुछ लोग इसे उनकी ताकत मानते हैं, तो कुछ इसे उनकी कमजोरी मानते हैं।
अब जबकि ट्रंप दूसरा कार्यकाल शुरू करेंगे, पहले कार्यकाल के मुक़ाबले दुनिया काफ़ी बदल चुकी है और नई चुनौतियां सामने आ चुकी हैं।
ऐसे में ट्रंप के इस कार्यकाल में क्या संभावनाएं हो सकती हैं?
क्या भारत को अमेरिका के लिए सामान निर्यात करने पर ज़्यादा टैक्स देना पड़ेगा? अमेरिका और चीन के रिश्ते में क्या बदलाव आएगा? इसराइल और हमास के बीच जो संघर्ष विराम का समझौता हुआ है, वह मध्य पूर्व में कितनी स्थायी शांति लाएगा?
रूस-यूक्रेन युद्ध का अंत होने की क्या संभावना है? जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका का रुख़ क्या होगा? और दक्षिण एशिया में भारत को अमेरिका से किस तरह की अपेक्षाएं रखनी चाहिए?
बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, ‘द लेंस’ में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा ने इन सभी सवालों पर चर्चा की।
इस चर्चा में कूटनीतिक मामलों की वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची, कूटनीतिक विश्लेषक राजीव नयन और यरूशलम से वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर मिश्रा शामिल हुए।
इसराइल के लिए कैसा होगा ट्रंप का दूसरा कार्यकाल?
इसराइली कैबिनेट ने गज़़ा में युद्धविराम और बंधकों की रिहाई के लिए हमास के साथ हुए समझौते को मंज़ूरी दे दी है। ये समझौता रविवार से लागू होगा।
अमेरिकी चुनाव अभियान के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने यूक्रेन-रूस और मध्य पूर्व में संघर्षों को लेकर कहा था कि अगर वो सत्ता में आए तो ये युद्ध जल्द से जल्द समाप्त हो जाएंगे।
उनके कार्यभार संभालने से पहले ही इसराइल और हमास के बीच गज़़ा युद्धविराम समझौते को मंज़ूरी मिल गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि इस युद्धविराम में ट्रंप ने क्या भूमिका निभाई है।
इस पर यरूशलम से वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर मिश्रा कहते हैं, ‘संघर्ष विराम की दिशा में ट्रंप की भूमिका को लेकर यहां एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसे ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी साझा किया।’
उनके मुताबिक़, ‘इस लेख में कहा गया है कि जो काम जो बाइडन अपने कार्यकाल के दौरान नहीं कर पाए, वही ट्रंप के एक विशेष दूत ने केवल एक मुलाक़ात में इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के साथ पूरा कर दिखाया।’
‘इस मुलाक़ात को लेकर कहा जा रहा है कि यह बहुत तनावपूर्ण थी और इसमें नेतन्याहू पर दबाव डाला गया कि किसी भी हालत में संघर्ष विराम हो और बंधकों की रिहाई होनी चाहिए।’
हरिंदर मिश्रा के अनुसार, ‘ऐसा माना जा रहा है कि ट्रंप के नए प्रशासन में वह उन देशों पर अधिक दबाव डालेंगे जो इसराइल के विरोधी हैं या जिनके इसराइल के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध हैं।’
ट्रंप के पहले कार्यकाल में इसराइल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बहुत स्पष्ट थी और उन्होंने इसराइल की सुरक्षा को प्राथमिकता दी थी। अब उनके दूसरे कार्यकाल में भी यही उम्मीद की जा रही है कि उनका रुख़ पहले जैसा ही रहेगा।
हालांकि हरिंदर मिश्रा का ये भी कहना है कि, ‘ट्रंप के संभावित फ़ैसलों का अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल बना रहेगा। यह हर किसी को सतर्क रखेगा कि उनके रुख़ के बारे में अभी कोई स्पष्टता नहीं है और यह अनिश्चितता बनी रहेगी।’
उन्होंने बताया, ‘नेतन्याहू और ट्रंप के रिश्ते पहले बहुत अच्छे थे, लेकिन ट्रंप का पहला कार्यकाल समाप्त होने और चुनाव हारने के बाद उनके बीच संबंध नहीं थे। अब नेतन्याहू की कोशिश है कि वह ट्रंप से अपने रिश्तों को फिर से सुधारें, लेकिन ट्रंप ने अभी तक इस पर कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिए हैं। लेकिन यह ज़रूर है कि इसराइल की सुरक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बरकरार रहेगी।’
कूटनीतिक मामलों की वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची ने ट्रंप की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘ट्रंप के पहले कार्यकाल में इसराइल के साथ उनके रिश्ते गहरे थे। उन्होंने अमेरिकी दूतावास को यरूशलम स्थानांतरित किया और 'अब्राहम अकॉर्ड' समझौते की प्रक्रिया शुरू की। मुझे लगता है कि अब्राहम समझौते का प्रभाव इस संघर्ष के बावजूद भी बना है, जो एक सकारात्मक संकेत है।’
इंद्राणी ने आगे कहा, ‘यह देखना होगा कि यह युद्धविराम समझौता कितनी देर तक क़ायम रहता है और क्या यह अंतत: एक स्थायी शांति समझौते में बदल सकता है या नहीं।’
उन्होंने यह भी कहा, ‘यह संघर्ष विराम समझौता 30 मई को हुआ था, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका था। अब देखना यह होगा कि यह नया प्रयास कितनी दूर तक जाता है।’
सऊदी अरब से क्या चाहते हैं ट्रंप?
अब्राहम समझौते के तहत इसराइल को संयुक्त अरब अमीरात, मोरक्को, सूडान और बहरीन से मान्यता मिली और इसके लिए अमेरिका ने इन देशों को कई प्रस्ताव दिए।
अमेरिका का लक्ष्य यह है कि सऊदी अरब, जो इस क्षेत्र का सबसे प्रमुख देश है, वह भी इस समझौते में शामिल हो जाए, क्योंकि इससे स्थिति में बड़ा बदलाव आ सकता है।
अब तक, सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान इस समझौते से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि पहले फ़लस्तीन को एक स्वतंत्र देश का दर्जा मिलना चाहिए और उन्हें उनकी ज़मीन दी जानी चाहिए, तभी दूसरी चीज़ें हो सकती हैं।
सवाल यह है कि क्या ट्रंप प्रशासन इस अब्राहम समझौते को इतना आगे बढ़ा सकता है कि इसराइल फ़लस्तीन को पहचान दे?
इस पर कूटनीतिक विश्लेषक राजीव नयन ने ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के संदर्भ में सऊदी अरब और अन्य अरब देशों के भविष्य के रुख़ पर चर्चा करते हुए कहा, ‘हमारा मानना है कि इस क्षेत्र में फ़लस्तीन और अरब देशों के पक्ष में बहुत बड़ा परिवर्तन होने की संभावना नहीं है। जहां अमेरिका का वर्चस्व है, वहीं इसराइल का भी वर्चस्व रहेगा।’
उन्होंने आगे कहा, ‘सऊदी अरब और यूएई जैसे देश, जो पहले ‘ओपेक प्लस' की राजनीति में सक्रिय थे और रूस और चीन की ओर भी जा रहे थे, अमेरिका के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने की कोशिश कर रहे थे। ऐसे में, अमेरिका यह नहीं चाहेगा कि ये देश लाभ का सौदा करें।’
राजीव नयन ने रूस की स्थिति पर भी टिप्पणी करते हुए कहा, ‘रूस, जो सीरिया में प्रभावी रूप से कुछ नहीं कर पाया क्योंकि वह खुद यूक्रेन संकट में फंसा हुआ है, उसकी क्षमता फिलहाल सीमित है। इस समय रूस की स्थिति इतनी मज़बूत नहीं है कि वह सीरिया में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप कर सके।’
उन्होंने कहा, ‘अगर ट्रंप और पुतिन के बीच अच्छे संबंध बनते हैं, तो निश्चित रूप से सऊदी अरब, यूएई और अन्य अरब देशों पर दबाव बढ़ेगा।’
राजीव नयन ने कहा, ‘इन देशों के लिए यह चुनौती है कि वे अपने वैकल्पिक राजनीतिक दृष्टिकोण को लेकर इसराइल पर ज़्यादा दबाव नहीं बना पाएंगे, क्योंकि इन देशों की शक्ति और उनके पीछे कौन खड़ा है, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा।’
रूस-यूक्रेन संघर्ष पर कैसा होगा ट्रंप का रुख़?
मध्य पूर्व के संघर्ष के बाद, रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध भी एक महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दा बन गया है। यह चर्चा हो रही है कि जब ट्रंप राष्ट्रपति बनेंगे, तो वह रूस पर दबाव डालकर एक समझौते की स्थिति में पहुंचा सकते हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि ट्रंप रूस-यूक्रेन के बीच जारी संघर्ष को कैसे रोक सकते हैं?
वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची ने ट्रंप की भूमिका पर चर्चा करते हुए कहा, ‘यह आशंका इस कारण व्यक्त की जा रही है क्योंकि ट्रंप और पुतिन के बीच एक पुराने रिश्ते की चर्चा है।’
उन्होंने स्पष्ट किया, ‘मुझे नहीं लगता है कि ट्रंप यूक्रेन को कहेंगे कि आप ऐसे ही रहिए, क्योंकि जिस शांति समझौते की उम्मीद होगी, वह यूरोपीय दृष्टिकोण से होगा। ऐसा नहीं होगा कि रूस को यह कहा जाए कि आपने जो क्षेत्र कब्ज़ा किया है, वह सही है। क्योंकि, जिस भी नज़रिए से देखा जाए रूस ने जो किया है वह अंतरराष्ट्रीय क़ानून के हिसाब से ग़लत है।’
इंद्राणी बागची ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि ट्रंप इस तरह के समझौते के लिए आ रहे हैं।’
इस पर राजीव नयन ने कहा, ‘बाइडन और ट्रंप के नेतृत्व में फर्क़ है। बाइडन ने पूरी तरह से यूक्रेन का समर्थन किया है, जबकि ट्रंप की स्थिति इससे अलग हो सकती है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘वर्तमान में अमेरिकी जनमानस यूक्रेन के साथ खड़ा है और अगर ट्रंप इसे बदलने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अमेरिकी जनमानस को तैयार करना होगा।’
राजीव नयन ने आगे कहा, ‘ट्रंप में क्षमता है कि बातचीत के ज़रिए कोई रास्ता निकाल सकते हैं। हो सकता है कि एक-दो दिन में रास्ता न निकले, लेकिन 5-6 महीने के अंदर आप आमूल परिवर्तन देखेंगे।’
क्या भारत को टैरिफ वॉर में उलझा देंगे ट्रंप?
भारत और अमेरिका के व्यापार संबंधों में एक नई दिशा देखने को मिल सकती है, क्योंकि ट्रंप प्रशासन ‘अमेरिका फस्र्ट’ नीति पर ज़ोर देता है, जिसका भारत को सामना करना पड़ सकता है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि भारत इस स्थिति को डिप्लोमैटिक तरीके से कैसे संभालेगा।
इस पर इंद्राणी बागची ने कहा, ‘पिछली बार भी ट्रंप ने भारत के स्टील और एल्युमिनियम पर टैरिफ लगाए थे। और कुछ हफ्ते पहले भी उन्होंने टैरिफ़ को लेकर बात कही थी।’
उन्होंने कहा, ‘देखना होगा कि मोदी सरकार इस बार अपने तीसरे कार्यकाल में अमेरिका के साथ समझौते को लेकर क्या रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाती है और यह न केवल भारत के लिए बल्कि अमेरिका के लिए भी लाभकारी हो।’
उन्होंने आगे कहा, ‘अगर हम कहते हैं कि भारत विश्व में चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तो कोई हमारे साथ उस तरह से समझौता नहीं करेगा। हमें देखने की ज़रूरत है कि कहां पर हम अपने आप को मज़बूत कर सकते हैं।’
भारत, पाकिस्तान और अफग़ानिस्तान के बीच संतुलन बनाना अमेरिकी रणनीति के लिए महत्वपूर्ण है। इन तीन देशों का अपने-अपने संदर्भ में अमेरिका के साथ गहरा संबंध है और दक्षिण एशिया की अमेरिकी रणनीति में इन देशों की भूमिका बहुत अहम रहेगी।
दक्षिण एशिया में भारत, पाकिस्तान, अफग़़ानिस्तान, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और मालदीव आते हैं। विश्व बैंक का अनुमान है कि इस इलाक़े में 1।94 अरब लोग रहते हैं। दक्षिण एशिया में भारत एक तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है।
इन देशों में भारत ने कुछ सालों में अपनी स्थिति मज़बूत बनाई है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत की स्थिति वैसे ही रहेगी?
इस पर इंद्राणी बागची ने कहा, ‘अमेरिका के साथ पाकिस्तान और अफग़ानिस्तान के बीच के रिश्ते में काफ़ी बदलाव आ चुका है।’
उन्होंने कहा, ‘पिछले कई हफ्तों में अमेरिका ने पाकिस्तान की मिसाइल संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाए हैं। अमेरिका का कहना है कि पाकिस्तान एक लंबी दूरी वाली मिसाइल बना रहा है। अमेरिका ने सोचा कि ये मिसाइल उनके खिलाफ जा सकती है।’ (bbc.com/hindi)
अमेरिका, मिस्र और कतर के वार्ताकारों ने हमास और इस्राएल के बीच ताजा संघर्षविराम और बंधकों की रिहाई के लिए समझौता कराया है. संसाधन से भरपूर खाड़ी का छोटा सा देश कतर कूटनीति में इतना कामयाब कैसे हो रहा है?
कई हफ्तों तक दोहा में बातचीत करने के बाद आखिरकार गुरुवार को इस्राएल और हमास के बीच एक समझौते का एलान हुआ। अमेरिका, कतर और मिस्र ने इस समझौते के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाई।
इस समझौते ने दोनों पक्षों के बीच जारी संघर्ष को फिलहाल रोक दिया है। यह 7 अक्टूबर 2023 को इस्राएल पर हमास के हमले के बाद से ही चला आ रहा था। इस हमले में 1,200 लोगों की मौत हुई और 250 से ज्यादा बंधक बनाए गए। इसके बाद इस्राएली सेना के गजा पर जवाबी हमलों में 46,000 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। इनमें 18,000 से ज्यादा बच्चे थे। बुधवार की शाम एक प्रेस कांफ्रेंस में कतर के प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन अब्दुलरहमान अल थानी ने कहा कि संघर्षविराम का पहला चरण रविवार को शुरू होगा और 42 दिनों तक चलेगा। हमास बाकी बचे 98 बंधकों में से 33 लोगों को रिहा करेगा। इसके बदले में इस्राएल के कब्जे में मौजूद सैकड़ों फलीस्तीनी कैदी रिहा होंगे। अल थानी ने बताया कि समझौते के बाद गजा के लिए मानवीय सहायता भी काफी ज्यादा बढ़ जाएगी।
इस्राएल हमास के युद्ध के बीच बंधकों को निकालने की कोशिश
यह पहली बार नहीं है कि कतर ने वैश्विक संकट के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका निभाई हो। कतर ने ईरान, अफगानिस्तान और वेनेज्वेला में पकड़े गए अमेरिकी नागरिकों की रिहाई के लिए भी समझौते कराए हैं। रूस ले जाए गए यूक्रेनी बच्चों को वापस लाने के समझौते में भी कतर ने भूमिका निभाई थी।
कतर ने सूडान और चाड के अलावा इरिट्रिया और जिबूती के बीच राजनयिक समझौतों के लिए ही बातचीत की भी अध्यक्षता की। इतना ही नहीं 2011 में दारफुर शांति समझौता कराने में भी उसकी भूमिका थी।
2020 में कतर ने अमेरिका के अफगानिस्तान से निकलने के लिए तालिबान के साथ समझौता कराया। इसके बाद नवंबर 2023 में इस्राएल-हमास के बीच अस्थाई संघर्ष विराम में भी वह शामिल था।
‘शांति के लिए सहयोगी’
ब्रिटेन के थिंक टैंक रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टिट्यूट के सीनियर रिसर्च फेलो बुर्कु ओजेलिक ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘कतर के प्रमुख मध्यस्थ के रूप में उभार ने उसकी कूटनीतिक स्थिति को मजबूत कर दिया है। उसे क्षेत्रीय रूप से पराया करने की बजाये दुनिया के मंच पर एक मजबूत खिलाड़ी में बदल दिया है।’
ओजेलिक ने यह भी कहा, ‘इस नई भूमिका ने दोहा का प्रभाव बढ़ा दिया है और वैश्विक समुदाय में उसे 'शांति के लिए सहयोगी' के रूप में अपरिहार्य बना दिया है।’
कतर क्यों खुद को दुनिया में मध्यस्थ के रूप में तैयार कर रहा है, इसका भी लेखा जोखा मौजूद है। कूटनीतिक मामलों में अपनी हद से बाहर जा कर कतर अस्थिर इलाके में स्वतंत्र रूप से अपने लिए सुरक्षा कायम करना चाहता है।
अपनी विदेश नीति को ढालने के लिए उदाहरण के तौर पर वह असंतुष्टों, विद्रोहियों के साथ ही क्रांतिकारी और चरमपंथी गुटों को मदद दे कर उनके साथ खड़ा हो रहा है। अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी संयुक्त अरब अमीरात से मुकाबले का यह उसका एक तरीका है। रिसर्चर अली अबो रेजेग ने एकेडमिक जर्नल इनसाइट तुर्की में 2021 में लिखे एक पेपर में कहा कि कतर अपने पड़ोसी सऊदी अरब से भी आदेश लेने से इनकार कर रहा है।
मध्यस्थता में इतना अच्छा क्यों है कतर?
रिश्तेदारियां अहम हैं और कतर को अपने व्यापक और विस्तृत संपर्कों के नेटवर्क के लिए जाना जाता है। उसने कई गुटों को बेस, हथियार या फिर धन दे कर उनका समर्थन किया है। इसमें तालिबान से लेकर, मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड, लीबिया की मिलिशिया और सीरिया, ट्यूनीशिया, यमन में सरकार विरोधी क्रांतिकारी भी शामिल हैं, जो कथित अरब वसंत के दौरान उठ खड़े हुए थे। 2012 में बराक ओबामा के नेतृत्व वाली अमेरिकी सरकार ने हमास की राजनीतिक शाखा को सीरिया से ईरान ले जाने के बजाय कतर में पनाह देने को कहा। ईरान में अमेरिका के लिए उन तक पहुंचना मुश्किल होता।
कतर ने ईरान के बजाय उसके पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक रिश्ते और अच्छे संबंध बना कर रखे हैं। उनमें से कई ईरान को अपना दुश्मन मानते हैं। इतना ही नहीं, कतर ने 2001 से ही अमेरिका के एयरबेस को भी अपने देश में जगह दे रखी है। 10,000 से ज्यादा सैनिकों वाला यह अमेरिका का मध्यपूर्व में अब सबसे बड़ा सैनिक अड्डा है।
यूरोपियन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस में खाड़ी देशों की विशेषज्ञ सिंजिया बियांको का कहना है, ‘कतर को निश्चित रूप से इन सब का फायदा मिला है क्योंकि पश्चिमी देशों की सरकारें और कुछ हद तक पूर्वी देश भी उसे एक उपयोगी दोस्त के रूप में देखते हैं।’
उदाहरण के लिए 2022 की शुरुआत में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कतर को प्रमुख गैर नाटो सहयोगी घोषित किया। इसकी एक वजह यह थी कि कतर ने अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान से निकलने के लिए समझौता कराने में मदद दी। सभी पक्षों के साथ सहानुभूति रखना भी कतर के लिए मददगार है। विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिकी अधिकारियों के साथ करीब से काम करने के बावजूद कतर इलाके के इस्लामी संगठनों के लिए भी व्यावहारिक है। वह उन्हें ऐसी लोकप्रिय राजनीतिक क्रांतियों के रूप में देखता है जिन्हें अनदेखा या खत्म नहीं किया जा सकता। कुछ मामलों में उसे इनसे भी मदद मिली है। तालिबान के सदस्यों का कहना है कि वे कतर में ज्यादा सहज महसूस करते हैं। उनका मानना है कि वह सभी पक्षों को समझता है।
तटस्थता प्राथमिकता है
बियांको का कहना है कि कतर के वार्ताकारों के पास, जरूरी नहीं कि कोई खास हुनर हो। वे इस काम के लिए खुद को तैयार करते हैं। बियांकों के मुताबिक, ‘मैं यह नहीं कहूंगी कि यूरोप समेत दूसरी सरकारों के लिए काम करने वाले राजनयिकों की तुलना में यह कोई ज्यादा है। मुझे लगता है कि यह आपकी प्रवृत्ति के बारे में ज्यादा है, जहां आप जितना संभव है तटस्थ रहने की कोशिश करते हैं। उनके लिए यह बुनियादी रूप से मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए जरूरी है।
इसका मतलब है कि वे इसे सब चीजों से ऊपर रखते हैं, जिसमें घरेलू और क्षेत्रीय राजनीति भी शामिल है’
बियांको के मुताबिक कतर की संपत्ति की भी इसमें भूमिका है। कतर के संसाधन उसकी सरकार को प्रतिभागियों की मेजबानी और कई समस्याओं पर एक साथ काम करने में सक्षम बनाते हैं।
इसका संबंध सीमित लाल फीताशाही से भी है। कतर के हमाद बिन खलीफा यूनिवर्सिटी में पब्लिक पॉलिसी के प्रोफेसर सुल्तान बरकत ने अकॉर्ड पत्रिका में फरवरी में लिखा था, ‘(कतर के) विदेश मंत्रालय के पास यह क्षमता है कि वह बिना लोगों की पूछ परख किए फैसले ले सकता है। इसका मतलब है कि वह निर्णायक रूप से काम कर सकता है।’ यह पत्रिका नियमित रूप से अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए उठाए कदमों की समीक्षा करती है।
संतुलन की खतरनाक कवायद
इस्राएली राजनेताओं ने कतर पर ‘भेड़ की खाल में भेडिय़ा’ होने और आतंकवाद को धन देने का आरोप लगाया। अमेरिकी राजनेता भी कह रहे हैं कि अगर उसने हमास पर दबाव नहीं डाला तो वे कतर के साथ अपने रिश्तों की समीक्षा करेंगे। अप्रैल में रिपब्लिकन सीनेटरों ने कतर का गैर नाटो सहयोगी देश का दर्जा खत्म करने के लिए एक बिल पेश किया।
कतर बार बार यह कहता रहा है कि हमास पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। बियांको कहती हैं, ‘जब आप गैर सरकारी हथियारबंद मिलिशिया के संपर्क में आते हैं तो जाहिर है कि खतरा आप पर मंडराता रहता है और लोग कहते हैं कि किसी ना किसी रूप में आप इन गुटों को मान्यता दिला रहे हैं, उन्हें ज्यादा वैधता या संसाधनों तक पहुंच हासिल हो रही है।’
उनके मुताबिक कतर की दलील है, ‘हां, हमारे उनसे संबंध हैं, लेकिन हम उसका इस्तेमाल अच्छे के लिए कर रहे हैं।’ देश भले ही शानदार ना हो लेकिन विशेषज्ञों की दलील है कि इस वक्त वह एक जरूरी भूमिका निभा रहा है।
स्विट्जरलैंड में यूएन इंस्टिट्यूट फॉर ट्रेनिंग एंड रिसर्च के कूटनीति विभाग के निदेशक राबिह अल हदाद का कहना है, ‘दो विश्व युद्धों से पहले आमने-सामने ना बैठने और बात ना करने की इंसानियत ने बड़ी कीमत चुकाई है। आज हमें ऐसे पक्षों की जरूरत है जो संघर्ष में जुटे लोगों की आपस में बात करा सकें और समझौतों, कूटनीति व अंतरराष्ट्रीय कानून के जरिए उनके मतभेद को दूर कर सकें।’
-चंदन कुमार जजवाड़े
देश की राजधानी दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए सियासी दल पूरी ताकत के साथ चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। इन चुनावों में आप, बीजेपी और कांग्रेस तीनों ही ‘मुफ्त’ की कई योजनाओं के ज़रिए मतदाताओं को लुभाने की कोशिश में लगी है।
दिल्ली में 5 फऱवरी को विधानसभा चुनावों के लिए वोटिंग होनी है। इन चुनावों में दिल्ली की सत्ता को बचाए रखना आम आदमी पार्टी के लिए बेहद अहम है। वहीं तीन दशकों से राज्य की सत्ता पर काबिज़ होने के लिए बीजेपी भी संघर्ष कर रही है। जबकि कांग्रेस पार्टी भी दिल्ली में अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन को दोबारा हासिल करने की कोशिश में है और इन तीनों ही प्रमुख दलों के लिए लोकलुभावन वादे चुनाव प्रचार का अहम हिस्सा बनते दिख रहे हैं।
हम जानने की कोशिश करेंगे कि दिल्ली के वोटरों के सामने किए जा रहे इन बड़े-बड़े वादों को पूरा करने के लिए राज्य के पास कितना बजट है और क्या ऐसे ‘मुफ़्त की सुविधाओं’ से जुड़े वादे पूरे किए जा सकते हैं?
चुनावी वादे कितना बड़ा आर्थिक बोझ
भारत में कल्याणकारी योजनाएं पुराने समय से चलाई जा रही हैं। देश के कई इलाक़ों में फैली गऱीबी और लोगों की ज़रूरत के लिए इसे काफ़ी ज़रूरी भी माना गया है।
ऐसी योजनाओं में गऱीबों के लिए राशन, पीने का स्वच्छ पानी, बेसहारा, विधवा और बुज़ुर्गों के लिए पेंशन, गऱीबों के लिए चिकित्सा सुविधा जैसी कई योजनाएं शामिल हैं।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के पूर्व प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कुमार कहते हैं, ‘अगर मुफ़्त की कही जानी वाली इन रेवडिय़ों से वोट मिलता है तो इसका सीधा मतलब है कि देश में वो ‘गऱीबी’मौजूद है जो लोगों को दु:ख देती है।’
उनका कहना है, ‘आजकल छोटे शहरों और कस्बों में भी आपको चमकते बाज़ार दिख जाते हैं और उसके पीछे यह गऱीबी दब जाती है। सरकार इस गऱीबी को स्वीकार करने से इनकार करती है, लेकिन उसे पता है कि इसपर ध्यान नहीं दिया तो लोगों का ग़ुस्सा फूट सकता है, इसलिए लोगों के खातों में पैसे ट्रांसफर किए जा रहे हैं।’
‘चाहे वो किसान सम्मान योजना हो, महिलाओं को पैसे देने हों या लाडली बहन जैसी योजना हो। इसका नुक़सान यह हो रहा है कि सरकार रोजग़ार और दूरगामी योजनाओं जैसी चीज़ों में निवेश नहीं कर रही है।’
हालांकि 1970 के दशक में भारत के दक्षिणी राज्यों में ऐसी कई योजनाएं शुरू की गईं और लोगों को सीधा सरकारी लाभ पहुंचाया गया। इनमें से कई योजनाएं काफी सफल भी रही हैं।
ऐसी योजनाएं धीरे-धीरे देश के अन्य राज्यों में भी लागू की गईं, जिनमें बिहार में महिलाओं के लिए साइकिल योजना और दिल्ली में 200 यूनिट तक फ्री बिजली की योजना भी शामिल है।
इसके अलावा केंद्र सरकार भी कई ऐसी योजनाएं चलाती हैं, जिसके तहत लोगों को मुफ़्त में राशन या किसानों को किसान सम्मान निधि देना शामिल है।
आर्थिक मामलों के जानकार शरद कोहली कहते हैं, ‘मुफ़्त की इन योजनाओं का सबसे बड़ा नुक़सान यह है कि लोग आज के छोटे फायदे के लिए कल का बड़ा नुक़सान कर रहे हैं। पहले आने वाली दो-तीन पीढिय़ों को ध्यान में रखकर योजना बनती थी, अब ऐसा नहीं हो रहा है।’
‘अगर दिल्ली की बात करें तो मुफ़्त की योजनाओं की वजह से पहली बार दिल्ली का बजट नुक़सान में जा सकता है, जो हमेशा सरप्लस रहता था। हमारा अनुमान है कि इस वित्त वर्ष के अंत तक दिल्ली का बजट 6 हज़ार करोड़ रुपये के नुक़सान का होगा।’
लोगों को सुविधाएं देने के मामले में राजनीतिक दलों में ऐसी होड़ देखी जा रही है कि अगर आम आदमी पार्टी ने महिलाओं के लिए 2100 रुपये देने का वादा किया तो बीजेपी ने 2500 रुपये देने का वादा कर दिया है।
वहीं, दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार 200 यूनिट बिजली फ्री देती है तो कांग्रेस ने इसे 300 यूनिट करने का वादा किया है।
शरद कोहली कहते हैं, ‘कई बार राजनीतिक दल ऐसे वादे कर देते हैं जिसे पूरा नहीं किया जा सकता है। जैसा पंजाब में हुआ है, जहां आम आदमी पार्टी की सरकार महिलाओं को पैसे नहीं दे पाई है।’
जाहिर है ऐसी योजनाओं को पूरा करने के लिए राज्य सरकार के पास संसाधन और बजट मौजूद होना चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार संजीव पाण्डेय कहते हैं, ‘पंजाब में आप सरकार को कई समस्याएं विरासत में मिली हैं। उसके पास दिल्ली की तरह टैक्स से मिलने वाला अपना राजस्व नहीं है। हिमाचल प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा मिलने के बाद लुधियाना, जालंधर और कई इलाक़ों से कारखाने पंजाब से हिमाचल चली गईं। इसके अलावा वाघा बॉर्डर बंद होने की वजह से पंजाब का पाकिस्तान से बिजऩेस बुरी तरह प्रभावित हुआ।’
वो कहते हैं, ‘पंजाब में किसानों को पहले से ही मुफ़्त बिजली मिल रही है। आप सरकार ने महिलाओं को मुफ़्त बस सेवा, कुछ तबकों को 300 यूनिट बिजली फ्री बिजली दी है। जो वादा पंजाब में आप सरकार पूरा नहीं कर पाई है, वो है ओल्ड पेंशन स्कीम और इसके पीछे केंद्र सरकार की भी बड़ी भूमिका है।’
बीजेपी के रुख़ में बदलाव
दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने लगातार दो चुनावों में बड़ी जीत हासिल की है, जिसमें उसकी मुफ़्त की योजनाओं का बड़ा योगदान माना जाता है।
साल 2013 में पहली बार अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस के समर्थन से 49 दिनों तक दिल्ली में सरकार चलाई थी।
इस दौरान अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आप सरकार ने दिल्ली के लोगों के लिए मुफ़्त बिजली, पानी और अन्य सुविधाओं की कई घोषणा की और इन चुनावों में वो इसे और आगे ले जाने का वादा कर रही है।
साल 1993 से दिल्ली की सत्ता में वापसी का इंतज़ार कर रही बीजेपी भी अब ऐसी ही 'मुफ़्त की योजनाओं' के रास्ते पर है और कांग्रेस पार्टी भी इसे ही आधार बनाकर दिल्ली में अपनी पुरानी ताक़त वापस हासिल करने के प्रयास में लगी है।
आम आदमी पार्टी ने अपने चुनावी वादों के दम पर साल 2015 के चुनावों में दिल्ली से कांग्रेस को पूरी तरह साफ कर दिया। 70 सीटों की विधानसभा में बीजेपी भी महज़ 3 सीटों पर सिमट गई। साल 2020 में भी आम आदमी पार्टी सरकार की योजनाओं का दिल्ली में उसे बड़ा लाभ मिला और उसने बड़ी जीत दर्ज की। मुफ़्त की योजनाओं का वोटरों पर हो रहे इस असर को अब बीजेपी और कांग्रेस भी समझ रही है और दोनों ही दलों ने ऐसे कई वादे वोटरों से किए हैं।
जबकि साल 2022 में प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान कहा था, ‘आजकल हमारे देश में मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की भरसक कोशिश हो रही है। ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। देश के लोगों को और खासकर मेरे युवाओं को बहुत सावधान रहने की जरूरत है।’
उस वक्त आम आदमी पार्टी भी गुजरात विधानसभा चुनावों में अपनी ताक़त आज़मा रही थी और चुनाव प्रचार में उसका दिल्ली में चल रही योजनाओं को जनता के सामने पेश करने पर काफ़ी जोर था। जबकि बीजेपी ने मौजूदा दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए अपने संकल्प पत्र में लिखा है, ‘दिल्ली में भाजपा की सरकार बनने पर न केवल मौजूदा कल्याणकारी योजनाएं जारी रहेंगी, बल्कि उन्हें और अधिक प्रभावी और भ्रष्टाचार मुक्त बनाएंगे।’
लोकलुभावन वादे
बीजेपी ने अपने संकल्प पत्र में हर गऱीब महिला को हर महीने 2500 रुपये देने का वादा किया है। इसमें वरिष्ठ नागरिकों के मिलने वाला पेंशन 2 हजार से बढ़ाकर 2500 करने का वादा किया गया है।
बीजेपी ने अन्य वादों के अलावा हर गर्भवती महिला को 21 हज़ार रुपये की आर्थिक मदद और 6 पोषण किट देने का वादा भी किया है। उसने हर गऱीब परिवार की महिला को 500 रुपये में एलपीजी गैस सिलेंडर और होली-दिवाली पर एक-एक सिलेंडर मुफ़्त देने का संकल्प भी लिया है।
दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी के संकल्प पत्र पर प्रतिक्रिया दी है और कहा है, ‘बीजेपी ने सरेआम खुले में स्वीकार किया कि दिल्ली में केजरीवाल की ढेरों कल्याणकारी योजनाएं चल रहीं हैं जिसका लाभ बीजेपी वालों के परिवारों को भी मिल रहा है। हमें राजनीति करनी नहीं आती, काम करना आता है और काम ऐसा करते हैं कि हमारे विरोधी भी उसकी तारीफ़ करते हैं।’
आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में मुफ़्त बिजली, पानी, इलाज, शिक्षा, महिलाओं को मुफ़्त बस यात्रा, बुज़ुर्गों की मुफ़्त तीर्थ यात्रा की योजना चला रही है।
उसने अब इसे और बढ़ाने का वादा किया है, जिसमें हर महिला को हर महीने 2100 रुपये, बुज़ुर्गों इलाज का पूरा खर्च, पुजारियों-ग्रंथियों को हर महीने 18 हज़ार रुपये का सम्मान और छात्रों को भी बसों में मुफ़्त यात्रा जेसे कई वादे किए हैं।
आप ने दिल्ली मेट्रो में छात्रों को 50 फ़ीसदी छूट देने का वादा भी किया है।
वहीं कांग्रेस पार्टी ने अपने लोकलुभावन वादों में आम सरकार की 200 यूनिट फ्री बिजली की योजना को बढ़ाकर 300 यूनिट करने का वादा किया है।
कांग्रेस ने महिलाओं के लिए ‘प्यारी दीदी योजना’, स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए ‘जीवन रक्षा योजना’, युवाओं के लिए ‘युवा उड़ान योजना’ और इसके अलावा ‘महंगाई मुक्ति योजना’ जैसे कई वादे किए हैं।
सुप्रीम कोर्ट में मामला
ऐसी सरकारी योजनाओं को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी गई है और यह मामला अब भी चल रहा है। इससे जुड़ी दो याचिकाएं वकील अश्विनी उपाध्याय ने भी सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की है।
उनका कहना है, ‘मैंने साल 2022 में याचिका डाली थी, जिसपर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। मैनें मांग की है कि जनकल्याणकारी योजनाओं और मुफ़्त को योजनाओं को परिभाषित किया जाए। मेरा कहना है कि रोटी, कपड़ा और मकान से जुड़ी योजनाओं को ‘कल्याणकारी योजना’ और बाक़ी को मुफ्तखोरी माना जाए।’
अश्विनी उपाध्याय ने मांग की है कि चुनावी घोषणापत्र के लिए एक ‘फॉरमेट’ हो और हर दल उसके मुताबिक़ अपनी घोषणा करे, जिसमें राज्य पर मौजूदा कजऱ्, चुनावी वादों के बाद बढऩे वाला कर्ज और सरकार बनने पर इसकी भरपाई की योजना का जि़क्र हो।
अश्विनी उपाध्याय के मुताबिक़, ‘जब मैंने जनहित याचिका डाली थी तब भारत सरकार पर 150 लाख़ करोड़ रुपये का कजऱ् था, जो अब बढक़र 225 लाख़ करोड़ हो गया है। जबकि दिल्ली सरकार का कर्ज 55 हजार से बढक़र एक लाख़ करोड़ हो गया है।’
अश्विनी उपाध्याय ने मांग की है कि जो पार्टी 5 साल सरकार चलाने के बाद कजऱ् को कम नहीं कर सके, उसपर चुनाव लडऩे पर पाबंदी लगा दी जाए।
बीते साल बीजेपी नेता और विधायक जीतेन्द्र महाजन की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस जस्टिस मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा था कि आम आदमी पार्टी शहर में आधारभूत ढांचों को बेहतर करने में नाकाम रही है।
बीते साल नवंबर में इस मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि सरकार ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर की मरम्मत करने की बजाय फ्रीबीज़ देने को प्राथमिकता दे रही है।
ये एक फ्लाईओवर की मरम्मत कर उसे लोगों के लिए खोलने से जुड़ा मामला था। सुनवाई के दौरान ये सामने आया था कि पीडब्ल्यूडी विभाग फ्लाइओवर बनाने वाले कॉन्ट्रेक्टर को 8 करोड़ रुपये का भुगतान नहीं कर सकी थी।
आंकड़ों में क्या है?
साल 2024-25 के दिल्ली के बजट के मुताबिक़ दिल्ली सरकार ने 78, 800 करोड़ का बजट पेश किया था।
इसके अनुसार दिल्ली में साल 2022-23 में 40 से ज्यादा करोड़ फ्री टिकट (दिल्ली की सरकारी बसों में महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा के लिए पिंक टिकट जारी किए जाते हैं) किए गए।
साल 2019 से पिछले साल तक 87 हजार बुजुर्गों को मुफ्त तीर्थ यात्रा कराई गई।
दिल्ली में करीब 59 लाख घरेलू उपभोक्ता बिजली के थे पिछले साल के बजट के मुताबिक एक साल में 3।41 करोड़ बिजली का बिल जीरो यानी शून्य रहा।
दिल्ली जल बोर्ड का बजट 7 हज़ार करोड़ से ज्यादा का है। सरकार हर परिवार को दो हजार लीटर मुफ्त पानी देती है।
पिछले साल के बजट में दिल्ली में हर महिला को 1000 रुपये हर महीने देने का वादा किया गया था, जिसका बजट 2000 करोड़ रखा गया था। अब आम आदमी पार्टी इसे 2100 करने का वादा कर रही है, यानी यह बजट 4000 करोड़ से ज्यादा का होगा।
वहीं मनीकंट्रोल ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि अगर आम आदमी पार्टी दिल्ली में हर महिला को 2,100 रुपये प्रतिमाह देने के वादे को चुनाव जीतने के बाद पूरा करती है तो उसे 2026 के बजट में 10 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त चाहिए होंगे, जो उसके सब्सिडी बिल का दोगुना होगा।
इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में हर साल 3600 करोड़ बिजली सब्सिडी, 200 करोड़ पानी सब्सिडी और बस ट्रेवल पर 70 करोड़ की सब्सिडी दी जा रही है।
बीते साल अक्तूबर में इस तरह की ख़बरें आई थीं कि दिल्ली सरकार का बजट 31 सालों में पहली बार घाटे में जा सकता है।
वित्त विभाग के हवाले से मीडिया में रिपोर्ट आई कि वित्त वर्ष 2024-2025 के ख़त्म होने से पहले दिल्ली का बजट घाटे में जा सकता है। अनुमानों के अनुसार जहां इस वर्ष राजस्व से आय 62,415 करोड़ है, वहीं खर्च 63,911 करोड़ हो सकता है।
इन बयानों के बीच 16वें वित्त आयोग आयोग के चैयरमैन अरविंद पनगढिय़ा का एक बयान बीते दिनों चर्चा में रहा था।
कुछ दिन पहले उन्होंने फ्रीबीज़ (रेवडिय़ों) के सवाल पर कहा था कि जो पैसा परियोजनाओं के लिए दिया जाता है उसे केवल परियोजनाओं के कार्यान्वयन में ही लगाया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा था, ‘ये पैसा मुफ्त रेवडिय़ों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। फ्रीबीज के लिए आम बजट में प्रावधान किया जाना चाहिए, जिसमें राज्यों से भी कर आता है।’
‘इस पर आयोग का न तो नियंत्रण है और न ही ऐसा कुछ उसे करना चाहिए, यानी राज्य सरकारें कैसे अपना पैसा खर्च करती हैं ये उनका फैसला है।’
‘आखिर में नागरिकों को ही फैसला लेना है। अगर नागरिक मुफ्त की रेवडिय़ों को देखते हुए अपनी सरकार चुनते हैं, तो वो रेवड़ी मांग रहे हैं। आखिर में नागरिकों को चुनना है उन्हें बेहतर सुविधाएं, बेहतर सडक़ें, पानी तक पहुंच चाहिए या फिर फिर कैश ट्रांसफर यानी...रेवड़ी चाहिए।’ (bbc.com/hindi)
गुरुवार को दिल्ली में बीबीसी इंडियन स्पोर्ट्सवुमन ऑफ द ईयर के पाँचवें संस्करण के लिए नामांकन की घोषणा हुई है। इसके लिए गोल्फऱ अदिति अशोक, निशानेबाज़ मनु भाकर और अवनि लेखरा को नामांकन मिला है। उनके अलावा क्रिकेटर स्मृति मंधाना और पहलवान विनेश फोगाट को भी इस नामांकन में जगह मिली है। यह पुरस्कार साल 2024 में भारतीय खिलाडिय़ों के अहम योगदान के लिए दिया जाएगा।
इस दौरान खेल पत्रकारों ने वहां मौजूद द्रोणाचार्य अवॉर्ड से सम्मानित कोच प्रीतम सिवाच और पेरिस पैरालंपिक में ब्रॉन्ज़ जीतने वाली पैरा एथलीट सिमरन शर्मा से सवाल भी पूछे।
प्रीतम सिवाच ने अपने ही देश की महिला कोच पर भरोसे की कमी की बात कही और इसपर नाख़ुशी जताई। उन्होंने कहा कि अभी भी बहुत से लोग भारतीय महिला कोच की क्षमताओं पर संदेह रखते हैं।
बीबीसी इंडियन स्पोर्ट्सवुमन ऑफ द ईयर के लिए नॉमिनेशन हासिल करने वालीं खिलाडिय़ों को अब वोटिंग की प्रक्रिया से होकर गुजऱना होगा। इसके लिए लोग भारतीय समय के मुताबिक़ शुक्रवार 31 जनवरी रात 11.30 बजे तक वोटिंग कर सकते हैं।
विजेता की घोषणा नई दिल्ली में एक ख़ास समारोह में सोमवार, 17 फरवरी को की जाएगी।
बीबीसी इंडियन स्पोर्ट्सवुमन ऑफ द ईयर के पाँचवें संस्करण को लेकर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस भी हुई।
महिला कोच की कमी पर क्या बोलीं प्रीतम सिवाच?
खेल पत्रकार शारदा उगरा ने प्रीतम सिवाच से पूछा कि वह इकलौती महिला द्रोणाचार्य अवॉर्ड विजेता हैं, उन्हें क्या लगता है कि महिला कोच की कितनी जरूरत है खेल में और कमी क्यों है? क्या महिला कोच को लेकर स्थिति बदली है?
इस पर प्रीतम सिवाच ने कहा, ‘अच्छा सवाल है, पुरुषों को बुरा नहीं लगना चाहिए। हमारे समाज और हिंदुस्तान में, मैं जो देखती हूं। कि यहां पर पुरुषों की प्रधानता है।’उन्होंने कहा, ‘कहते हैं कि महिलाएं बहुत आगे चली गई हैं लेकिन मैंने अपने क्षेत्र में देखा है बहुत सारे पत्रकार हैं जिन्होंने मुझे खेलते हुए देखा है, मेरा सारा करियर देखा है।’
‘मैंने अपनी जिंदगी खेल में लगाई है। पहले 20 साल खेलने में लगाए और आगे के 20 साल कोचिंग में लगाए।’
‘आज भी मुझे द्रोणाचार्य अवॉर्ड मिलने के बाद भी ये नहीं सोचते कि क्या एक महिला भारतीय टीम की कोच हो सकती है। उनका इतना कॉन्फिड़ेंस आजतक नहीं बना है। बाहर वाली गोरी को लेकर आ जाएंगे कि ये कोचिंग कर सकती हैं लेकिन हिंदुस्तान में ऐसा नहीं हुआ है।
ये बहुत बड़ी सच्चाई है। ऐसा सोचते हैं, ख़ासकर कोचिंग में, हमारे प्लेयर्स बैठे हैं वो बता सकते हैं। जबकि हमें भरोसा करना चाहिए। जब हम नीचे से खिलाड़ी बनाकर हिंदुस्तान के लिए तैयार कर के दे रहे हैं, तो क्या हम ऊपर काम नहीं कर सकते।
तो फिर हमें भरोसा बनाना होगा। जब ये अवॉर्ड मिलते थे तो मैंने दो साल अपना नाम भेजा, तो पूछा जाने लगा कि महिला को ये अवॉर्ड मिल सकता है क्या?
तभी मेरे मन ये सवाल आया कि महिला को क्यों नहीं मिल सकता? मैं लेकर दिखाऊंगी। मैंने चुनौती स्वीकार की। मैं चाहती हूं हर महिला को काम करना चाहिए।
बहुत सारी महिलाएं तो ये सोचकर पीछे हट जाती हैं कि छोड़ो ये तो आगे ही नहीं बढऩे देते। जब तक हम आगे नहीं आएंगे और लड़ाई नहीं करेंगे अपने लिए, तो हमें नहीं मिल पाएगा।
तो मैंने बहुत लड़ाई लड़ी है और सबको लडऩी चाहिए और महिलाओं को आगे आना चाहिए कोचिंग में आना चाहिए और हर चीज़ में आना चाहिए।’
रिपोर्टर्स ने पूछे कौन से सवाल
पति की सफ़लता के पीछे पत्नी का हाथ होता है, लेकिन पत्नी की सफलता के पीछे भी पति का हाथ होता है। आपके पति जो आर्मी में हैं, उन्होंने भी आपको ट्रेन किया है। ये जो प्रक्रिया रही है साथ में ट्रेनिंग करने की, ये प्रक्रिया कैसे और कब शुरू हुई?- कृति शर्मा, वेबदुनिया
सिमरन: साल 2017 में जब हमारी शादी हुई थी तब उन्होंने (मेरे पति ने) सवाल पूछा था कि जि़ंदगी में क्या करना है। तो मैंने कहा था कि मैं अपनी टीशर्ट पर इंडिया लिखा हुआ देखना चाहती हूं। मैंने तो हवाबाज़ी में कहा था। उन्होंने कहा कि इसके लिए बहुत मेहनत करनी होगी।
मुझे नहीं पता था कि लडक़े इतने सीरियस होते हैं। मेरे आसपास कोई था नहीं इतना सीरियस। शादी के अगले दिन कहा कि तैयार हो जाओ जिम जाना है।
पैरा एथलीट सिमरन शर्मा का बयान
मेरे हाथों में मेहंदी लगी हुई थी और मैं ट्रैक सूट में वापस आई और जब वापस आई तो मुंह दिखाई के लिए आए लोगों ने पूछा कि बहू कहां हैं? मैंने कहा कि मैं ही हूं जी। तो संघर्ष वहीं से शुरू हुआ था।
मेरी सास के ऊपर लोग टूट पड़े कि, कैसे कपड़े पहनती है? पता नहीं चलता कि बेटी कौन है बहू कौन है? तेरी बहू न्यारी है क्या जो घूंघट नहीं करेगी?
तो इन्होंने कहा कि मेरी तो पत्नी न्यारी ही है और जब ये ओलंपिक में जाएगी और शॉर्ट्स पहनकर दौड़ेगी तो क्या तुम देखोगी नहीं?
मैं हंसने लगी तो पूछा कि क्यों हंस रही हो? तो मैंने कहा कि तुम बात ही ओलंपिक की कर रहे हो मुझे तो पसीने आते हैं टीवी पर देखकर। तो इन्होंने कहा कि तुम नहीं कर सकती लेकिन मैं तुमसे करवा दूंगा।
मैं उस वक्त इतनी ताक़तवर नहीं थी लेकिन वो (मेरे पति) उस वक्त तैयार थे ये करवाने के लिए।
शादी के बाद दो-तीन साल बहुत मुश्किल निकले। उनके पास एक प्लॉट था जो उन्होंने बेच दिया क्योंकि प्रोफ़ेशनल स्पोर्ट्स में खर्च आता है।
कोच प्रीतम सिवाच ने अपनी स्पोर्ट्स जर्नी पर क्या बताया
प्रीतम जब आप खेली थीं कॉमनवेल्थ में तब आपका बेटा 7 महीने का था, तो अभी वो खेल रहा है या आपने कहा कि बैठ जा सिफऱ् मैं ही खेलूंगी?- नॉरेस प्रीतम, खेल पत्रकार
प्रीतम सिवाच: मेरे दोनों बच्चे हॉकी इंडिया लीग में खेल रहे हैं और सोनीपत में, मैं जहां कोचिंग देती हूं वहां के 11 बच्चे भी खेल रहे हैं।
जैसा इन्होंने (सिमरन ने) भी बताया, हमारी बहुत मिलती-जुलती कहानी है।
सिमरन तो आज की हैं मेरी कहानी तो 20-25 साल पहले की है। बहुत मुश्किलें आई थीं। ये सब चीज़ें आती हैं, लेकिन हमें इससे लडऩा है।
लोगों को जागरूक करना है समाज में। ऐसे ही मैंने सोचा था कि टीम बनाऊं। जितना संघर्ष मैंने किया, उम्मीद करती हूँ लड़कियां न करें। मेरे अंदर भी जुनून था। अच्छी बात है कि अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित हो गई और द्रोणाचार्य भी मिल गया।
सोचा कि इतने साल खेले समाज को वापस देना चाहिए। तो मैं 20 साल से कोचिंग दे रही हूं। मैं इकलौती महिला हूं हॉकी में जिसे द्रोणाचार्य अवॉर्ड मिला है। (bbc.com/hindi)
एक समझौते के अनुसार भारत और बांग्लादेश अपनी सीमा के 150 गज के इर्द गिर्द कोई भी रक्षा ढांचा नहीं बना सकते. यह फैसला कौन करेगा कि रक्षा ढांचा आखिर है क्या?
डॉयचे वैले पर साहिबा खान का लिखा-
काफी समय से सीमा पर ‘रक्षा ढांचे’ पर विवाद के चलते बीते सोमवार नई दिल्ली में भारत में बांग्लादेश के उच्चायुक्त मोहम्मद नूरुल इस्लाम को तलब किया गया। बांग्लादेश और भारत की सीमा पर भारत बाड़ लगा रहा है, जिस पर अभी काम जारी है। इस बाड़ पर बांग्लादेश ने आपत्ति जताई है। औपचारिक तौर पर इस बात का जिक्र करते हुए विदेश मंत्रालय ने कहा है कि भारत ने ‘फेंसिंग' के मुद्दे पर दोनों देशों की शर्तों और प्रोटोकॉल को उल्लंघन नहीं किया है।
विवाद यहां तक कैसे बढ़ा
सीमापार मसलों की विशेषज्ञ और ओ।पी जिंदल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ। श्रीधरा दत्ता ने डीडब्ल्यू से बातचीत में बताया कि अंतरराष्ट्रीय सीमा पर फेंसिंग लगाने की बीएसएफ की कोशिशें भारत और बांग्लादेश के बीच लंबे समय से विवाद का विषय रही हैं, हालांकि अभी इसे ज्यादा गंभीरता से लिया जा रहा है। डॉ दत्ता ने कहा, ‘ये परेशानियां और आपत्तियां पहले भी मौजूद थीं। दोनों देश लम्बे समय से इस पर बात करते आ रहे हैं। आम लोगों ने भी इसके साथ जीना सीख लिया है। लेकिन फिलहाल दोनों देशों के रिश्तों में खटास के चलते यह मसला तूल पकड़ रहा है।’
असल में बांग्लादेश ने भारत की ‘बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स की गतिविधियों' पर ‘गहरी चिंता' जताते हुए ढाका में भारत के उच्चायुक्त प्रणय वर्मा को पहले तलब किया था। उन्होंने कहा कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय सीमा से संबंधित द्विपक्षीय समझौते का उल्लंघन किया है। फिर नई दिल्ली ने नूरुल इस्लाम को इस बात पर बुलावा भेजा। हाल ही में बॉर्डर गार्ड्स बांग्लादेश (बीजीबी) ने पश्चिम बंगाल के मालदा में अंतरराष्ट्रीय सीमा पर कांटेदार तार की बाड़ के निर्माण में बाधा डालने की कोशिश की थी। घटना का वीडियो फुटेज सोशल मीडिया पर भी वायरल हुआ। बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के गिरने के कुछ दिनों बाद अगस्त 2024 में ऐसी ही एक घटना पश्चिम बंगाल के कूच बिहार में हुई थी।
बांग्लादेश के साथ भारत की सबसे लम्बी सीमा
भारत और बांग्लादेश के बीच 4,096।7 किलोमीटर की सीमा है। यह सीमा भारत की किसी दूसरे मुल्क की तुलना में सबसे ज्यादा लम्बी सीमा है। मालदा में भी कुछ समय पहले इसी प्रकार की परेशानी आई थी। फिर पिछले हफ्ते बांग्लादेश ने एक बार फिर पश्चिम बंगाल के कूच बिहार जिले के मेखलीगंज में बाड़ लगाने पर आपत्ति जताई।
10 जनवरी को, मेखलीगंज के गांव वालों ने दहाग्राम-अंगरपोटा के बांग्लादेशी एन्क्लेव की सीमा के कुछ हिस्सों में बाड़ लगाना शुरू कर दी। इसे बनाने में लोगों ने बीएसएफ की मदद भी ली। तब बांग्लादेश के बॉर्डर गार्ड ने उन्हें चार फुट ऊंची कांटेदार तार की बाड़ लगाने से रोकने का प्रयास किया। भारत की तरफ गांव वालों का कहना था कि बांग्लादेश के मवेशी वहां भटकते हुए आ जाते हैं और उनकी फसल बर्बाद कर देते हैं, इसलिए बाड़ लगाई गई।
पूरा विवाद है सीमा पर ‘रक्षा ढांचों के निर्माण’ को लेकर
1975 में भारत और बांग्लादेश के बीच हुए एक समझौते के अनुसार सीमा के 150 गज के भीतर दोनों देशों में से कोई भी डिफेन्स इंफ्रास्ट्रक्चर यानी कि रक्षा ढांचा नहीं बना सकता।
हालांकि भारत की तरफ से अलग अलग इलाकों में बाड़ लगाने का काम जारी है। डॉ दत्ता बताती हैं, ‘भारत इन्हें रक्षा ढांचा नहीं मानता। भारत कहता है कि बाड़ सीमा पार अपराधों से बचने के लिए है और मवेशी, जो भटकते हुए चरने आ जाते हैं, उन्हें भी यह बाड़ काबू में रखती है।’
श्रीधरा आगे बताती हैं कि भारत और बांग्लादेश की सीमा 1971 में हुए विभाजन के कारण काफी पेचीदा रही है। ‘कई गांव सीमा से होकर गुजरते हैं। कहीं कहीं तो घरों के किचन सीमा पर हैं। कहीं फुटबॉल कोर्ट का एक गोल पोस्ट भारत में तो एक बांग्लादेश में है।’
उन्होंने आगे बताया कि बांग्लादेश में आबादी बहुत घनी है और वह एक कृषि आधारित देश है। इस वजह से गांव वालों और मवेशियों का आना-जाना लगा रहता है। लगभग 2200 किलोमीटर की सीमा में बाड़ के अंदर ही बांग्लादेश के कई गांव बसे हैं।
सीमा पर बसे गांव को ऐसे संभाल रहे दोनों देश
अगर कोई गांव सीमा पर ही है तो फेंसिंग लाइन में कुछ दरवाजे बना दिए गए हैं ताकि लोग आराम से आ-जा सकें। इन दरवाजों के खुलने और बंद होने का अपना समय है। हालांकि आपातकालीन स्थिति में बीएसएफ को सभी दरवाजों को एक साथ और जल्द खोलने के आदेश हैं। अब बांग्लादेश को आपत्ति ये है कि जब 1975 के समझौते में साफ तौर पर किसी भी तरह का रक्षा निर्माण करना प्रतिबंधित है तो फिर भारत इसका उल्लंघन क्यों कर रहा है। दूसरा तर्क है कि इससे गांव वालों को रोजमर्रा के कामों और आने जाने में दिक्कत होती है।
भारत की स्मार्ट फेंसिंग से भी है परेशानी
बांग्लादेश को केवल बाड़ से ही नहीं बल्कि स्मार्ट फेंसिंग से भी दिक्कत है, जो लाजमी है। स्मार्ट फेंसिंग में बाड़ बनती है और निगरानी के लिए उस पर लगते हैं आधुनिक कैमरे और बाकी आधुनिक उपकरण। बांग्लादेश का मानना है कि इन कैमरों के जरिए भारत उनके गांव पर भी नजर रख सकता है।
श्रीधरा ने बताया, ‘बांग्लादेश में कुछ गांव वालों ने कहा है कि भारत ने सीमा पर पहले ही फ्लैश लाइट लगा दी हैं जिससे बांग्लादेश वाले हिस्से में आगे तक का हिस्सा नजर आता है।’ जबकि भारत के अनुसार यह फेंसिंग सीमा पार अपराधों पर नजर रखने के लिए बनाई गई है और इस पर अभी भी बातचीत जारी है। दोनों पक्ष स्मार्ट फेंसिंग के निर्माण पर 5 सालों से चर्चा कर रहे हैं।
भारत ने अब तक इतनी बाड़ लगा दी है
भारत के गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत-बांग्लादेश सीमा पर, पश्चिम बंगाल के साथ साथ सभी पूर्वी राज्यों को कवर करते हुए, कुल 4,156 किलोमीटर में से 3,141 किलोमीटर पर बाड़ लगा दी गई है।
2023 में असम में अवैध प्रवासियों को भारतीय नागरिकता देने से संबंधित नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के दौरान केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि भारत सीमा पर बाड़ नहीं लगा पा रहा है क्योंकि पश्चिम बंगाल सरकार उसका साथ नहीं दे रही है।
पश्चिम बंगाल की बांग्लादेश के साथ 2,216।7 किलोमीटर लंबी सीमा है, जिसके 81.5 प्रतिशत हिस्से पर 2023 तक बाड़ लगाई जा चुकी थी। दत्ता कहती हैं, ‘ये सब काफी पहले से होता आ रहा है, इसलिए सीमा पर इतनी बाड़ पहले ही बन चुकी है।’ (dw.comhi)
-जेरेमी बोवेन
इसराइल और हमास के बीच सीजफायर पर बात बनना एक बड़ी उपलब्धि है। इसे बहुत पहले हो जाना चाहिए था।
पिछले साल मई से ही इस समझौते की अलग-अलग रूप चर्चा रही है। समझौते में हुई देरी के लिए हमास और इसराइल ने एक-दूसरे पर दोष मढ़ा है।
सात अक्तूबर 2023 को हमास के हमलों के बाद इसराइल की जवाबी कार्रवाई ने गज़़ा को बर्बाद कर दिया है।
हमास के हमले में करीब 1200 लोग मारे गए थे, जिनमें से अधिकांश इसराइली नागरिक थे। वहीं, अब तक गज़़ा में 20 लाख से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं।
हमास संचालित स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, इसराइली हमलों में लगभग 50 हज़ार लोग मारे गए हैं। इनमें हमास के लड़ाके और आम लोग दोनों ही शामिल हैं।
लैंसेट मेडिकल जर्नल में हाल ही में छपे एक अध्ययन में कहा गया है कि ये संख्या असल में इससे कहीं अधिक हो सकती है।
समझौते की चुनौतियां
लेकिन समझौते के बाद पहली बड़ी चुनौती ये सुनिश्चित करना है कि युद्धविराम कायम रहे।
पश्चिमी देशों के कई सीनियर राजनयिकों को डर है कि 42 दिनों का पहला चरण खत्म होते ही जंग फिर शुरू हो सकती है।
गाजा में छिड़े युद्ध के पूरे मध्य-पूर्व में बहुत गहरे परिणाम देखने को मिले।
हालांकि, कई लोगों ने आशंका जताई थी कि ये युद्ध पूरे क्षेत्र में फैल जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के प्रशासन ने लिया। लेकिन गजा की जंग ने पूरे क्षेत्र में एक उथल-पुथल भरा माहौल तो पैदा कर दिया।
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू और उनके पूर्व रक्षा मंत्री पर अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय ने युद्ध अपराध का आरोप लगाया है। इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस भी दक्षिण अफ्रीका की ओर से इसराइल पर जनसंहार का आरोप लगाने से जुड़े मामले की जांच कर रहा है।
लेबनान में हिज़्बुल्लाह ने जैसे ही इस युद्ध में दखल दिया, उसे इसराइली हमले के ज़रिए कुचल दिया गया। यही वो वजह थी जिससे सीरिया में बशर अल-असद के शासन का पतन हुआ।
ईरान और इसराइल ने एक-दूसरे पर सीधे हमले किए, जिससे ईरान कमज़ोर हुआ। इसके सहयोगियों और प्रॉक्सी का नेटवर्क जिसे ईरान 'एक्सिस ऑफ़ रेजि़स्टेंस' कहता है वो भी पंगु हो गया है।
यमन में हूतियों ने यूरोप और एशिया के बीच लाल सागर से गुजऱने वाले अधिकांश मालवाहक जहाजों को रोक दिया है। ये देखना बाकी है कि क्या गाजा में युद्धविराम होने के बाद हूती विद्रोही हमलों को रोकने के अपने वादे को पूरा करेंगे।
जहां तक इसराइल और फिलस्तीनियों के बीच लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष की बात है- ये स्थिति पहले से ज़्यादा कड़वाहट भरी है।
अगर किस्मत साथ दे तो इस युद्धविराम से हत्याएं रुक सकती हैं और इसराइली बंधकों, फ़लस्तीनी कैदियों और बंदियों को उनके परिवारों के पास वापस भेजा जा सकता है।
लेकिन इस सीजफायर से एक सदी से भी अधिक पुराना संघर्ष खत्म नहीं होगा।
नेतन्याहू ने बाइडन से पहले ट्रंप को कहा शुक्रिया
इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के कार्यालय ने कहा है कि पीएम की ओर से इस समझौते के बारे में औपचारिक घोषणा की जाएगी। हालांकि, ये घोषणा समझौते को अंतिम रूप देने के बाद की जाएगी, जिसपर अभी काम हो रहा है।
हालांकि, इसराइली पीएम की ओर से आए इस बयान से पहले ही नेतन्याहू ने अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और राष्ट्रपति जो बाइडन दोनों को फ़ोन पर समझौता करवाने के लिए शुक्रिया कहा।
दिलचस्प ये है कि नेतन्याहू ने अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति से पहले डोनाल्ड ट्रंप को फ़ोन किया, जो 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद संभालेंगे।
नेतन्याहू के कार्यालय की ओर से आए बयान के अनुसार, ‘पीएम ने ट्रंप और को बंधकों की रिहाई के लिए जोर देने में मदद के लिए शुक्रिया कहा।’
नेतन्याहू ने ट्रंप को उनके इस बयान के लिए भी धन्यवाद दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘गज़़ा कभी आतंकवाद का सुरक्षित ठिकाना न बने, ये सुनिश्चित करने के लिए अमेरिका इसराइल के साथ मिलकर काम करेगा।’
बयान के अनुसार, ‘ट्रंप और नेतन्याहू ने जल्द ही अमेरिका में मुलाकात पर सहमति जताई।’
बयान की आखऱिी लाइन में लिखा है, ‘प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से बात की और बंधकों की रिहाई के लिए समझौते के लिए उनका भी धन्यवाद कहा।’
ये सीजफायर डील आने वाले रविवार से लागू होगी, जो राष्ट्रपति पद पर बाइडन का आखऱिी दिन होगा। इसके अगले दिन डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे।
वहीं, व्हाइट हाउस की ओर से एक ब्रीफि़ंग में ये बताया गया है कि हमास पर सैन्य दबाव था, जिसकी वजह से वह बातचीत को तैयार हुआ।
अमेरिकी प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार इस समझौते में डोनाल्ड ट्रंप के मिडिल ईस्ट राजदूत स्टीव विटकॉफ की भी भूमिका रही।
उन्होंने बताया कि विटकॉफ बातचीत के दौरान सक्रिय थे और वह मध्य पूर्व में जो बाइडन के शीर्ष सलाहकार ब्रेट मैकगर्क के साथ मिलकर काम कर रहे थे। (bbc.com/hindi)
प्रयागराज में महाकुंभ मेले के पहले स्नान पर्व मकर संक्रांति पर 3.5 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के संगम पर स्नान करने का दावा है. मुख्य पर्व 29 जनवरी को है, उस दिन इससे कई गुना ज्यादा श्रद्धालुओं के आने की संभावना है.
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
14 जनवरी को प्रयागराज में चल रहे महाकुंभ का पहला शाही स्नान (अमृत स्नान) था और प्रशासन का दावा है कि इस दिन 3.5 करोड़ से ज्यादा लोगों ने पवित्र संगम में डुबकी लगाई। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद अपने एक्स हैंडल पर ये जानकारी दी। देर शाम उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘प्रथम अमृत स्नान पर्व पर आज 3.50 करोड़ से अधिक पूज्य संतों/ श्र?द्धालुओं ने अविरल-निर्मल त्रिवेणी में स्नान का पुण्य लाभ अर्जित किया।’
45 करोड़ श्रद्धालुओं के पहुंचने का अनुमान
मकर संक्रांति से एक दिन पहले पौष पूर्णिमा पर भी करीब डेढ़ करोड़ लोगों ने स्नान किया था। यानी सिर्फ दो दिनों में पांच करोड़ से ज्यादा लोगों के स्नान का दावा प्रशासन की ओर से किया जा रहा है। प्रयागराज में कुंभ मेला 13 जनवरी से शुरू हुआ है और 26 फरवरी तक चलेगा और इस दौरान तीन प्रमुख शाही स्नान होंगे। अगला शाही स्नान (अमृत स्नान) 29 जनवरी को अमावस्या को होगा और फिर 3 फरवरी को बसंत पंचमी के मौके पर होगा। इसके अलावा माघी पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के दिन भी कुंभ स्नान किया जाएगा।
सबसे ज्यादा भीड़ अमावस्या पर होती है और अनुमान है कि उस दिन स्नान करने वालों का आंकड़ा दस करोड़ के आस-पास होगा। माना जा रहा है कि इस बार के महाकुंभ में करीब 45 करोड़ श्रद्धालु स्नान करेंगे।
हालांकि श्रद्धालुओं की इतनी बड़ी संख्या को लेकर कई तरह के सवाल भी उठते हैं लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि इस धार्मिकआयोजन में स्नान करने वालों यानी भीड़ के आंकड़े जुटाए कैसे जाते हैं? प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि इसके लिए अब अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन भीड़ के आंकड़े पहले भी आया करते थे और स्नान पर्वों पर भीड़ के तमाम रिकॉर्ड बनते और टूटते थे। आंकड़ों पर सवाल भी हमेशा उठते रहे हैं।
गिनती के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग
प्रयागराज के मंडलायुक्त विजय विश्वास पंत के मुताबिक, इस बार कुंभ मेले में आए श्रद्धालुओं की गिनती के लिए एआई तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्होंने बताया, ‘महाकुंभ में श्रद्धालुओं की सटीक गिनती के लिए इस बार एआई से लैस कैमरे लगाए गए हैं। यह पहली बार है जब एआई के जरिए श्रद्धालुओं की सटीक संख्या जानने की कोशिश की जा रही है। इसके अलावा श्रद्धालुओं को ट्रैक करने के लिए कुछ और भी इंतजाम किए गए हैं। मेला क्षेत्र में दो सौ जगहें ऐसी हैं जहां पर बड़ी संख्या में अस्थाई सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं। इसके अलावा प्रयागराज शहर के अंदर भी 268 जगहों पर 1107 अस्थाई सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं। इसके अलावा सौ से ज्यादा पार्किंग स्थलों पर भी सात सौ से ज्यादा सीसीटीवी कैमरे लगाए हैं जिनसे बाहर से आने वाले यात्रियों का अनुमान लगाया जाता है।’
श्रद्धालुओं की गिनती के लिए एआई लैस कैमरे हर मिनट में डेटा अपडेट करते हैं। ये सिस्टम सुबह तीन बजे से शाम 7 बजे तक पूरी तरह से सक्रिय रहेंगे। चूंकि मुख्य पर्वों पर स्नान काफी सुबह ही शुरू हो जाता है इसलिए इन्हें उससे पहले ही एक्टिव कर दिया जाता है।
मंडलायुक्त के मुताबिक, एआई का उपयोग करते हुए क्राउड डेंसिटी अलगोरिदम से लोगों की गिनती का भी प्रयास किया जा रहा है। एआई आधारित क्राउड मैनेजमेंट रियल टाइम अलर्ट जेनरेट करेगा, जिसके जरिए संबंधित अधिकारियों को श्रद्धालुओं की गिनती करना और उनकी ट्रैकिंग करना आसान होगा।
एक आदमी की एक बार से ज्यादा गिनती
इसके अलावा मेले में आने वाले श्रद्धालुओं की गिनती नावों और ट्रेनों, बसों और निजी वाहनों से आने वाले लोगों की संख्या से भी की जाती है। इसके अलावा मेले में साधु-संतों और उनके कैंप में आने वाले लोगों की संख्या को भी भी श्रद्धालुओं की कुल संख्या में जोड़ा जाता है और मेले से जुड़ी सडक़ों पर गुजरने वाली भीड़ को भी ध्यान में रखा जाता है।
हालांकि वास्तविक संख्या बता पाना अभी भी बहुत मुश्किल है क्योंकि तमाम यात्री अलग-अलग जगहों पर जाते हैं और यहां तक कि अलग-अलग घाटों पर भी जाते हैं। ऐसे में उनकी गिनती एक बार से ज्यादा ना हो, ऐसा कहना बहुत मुश्किल है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग के अध्यक्ष रह चुके प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी ने कुंभ की ऐतिहासिकता पर चर्चित पुस्तक ‘कुंभ: ऐतिहासिक वांगमय' लिखी है। प्रोफेसर चतुर्वेदी साल 2013 के कुंभ मेले में कुंभ मेला कमेटी के सदस्य भी रह चुके हैं।
डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं, ‘2013 से पहले श्रद्धालुओं की गिनती के लिए मेला के डीएम और एसएसपी की रिपोर्ट को ही सच माना जाता था और उनकी रिपोर्ट इसी आधार पर तैयार होती थी कि कितनी बसें आईं, कितनी ट्रेनें आईं और उनसे कितने लोग उतरे। निजी वाहनों पर भी नजर रखी जाती थी। इसके अलावा अखाड़ों से भी उनके यहां आने वाले श्रद्धालुओं की जानकारी ली जाती थी।’
चतुर्वेदी का यह भी कहना है, ‘पहले बिल्कुल संगम के किनारे तक जाने देते थे, तब यह जानना बहुत आसान था कि कितने लोग निकले होंगे। लेकिन अब तो ज्यादातर लोगों को शहर के भीतर ही रोक दिया जाता है। 2013 में आईआईटी की मदद से जब डिजिटाइजेशन शुरू हुआ तब से कुछ वास्तविक आंकड़े आने लगे। हालांकि डिजिटाइजेशन के दौर में फजिंग भी बहुत होती है।’
भीड़ की गिनती का सांख्यिकीय तरीका
साल 2013 के कुंभ में पहली बार सांख्यिकीय विधि से भीड़ का अनुमान लगाया गया था। इस विधि के अनुसार, एक व्यक्ति को स्नान करने के लिए करीब 0.25 मीटर की जगह चाहिए और उसे नहाने में करीब 15 मिनट का समय लगेगा। इस गणना के मुताबिक एक घंटे में एक घाट पर अधिकतम साढ़े बारह हजार लोग स्नान कर सकते हैं। इस बार कुल 44 घाट बनाए गए हैं जिनमें 35 घाट पुराने हैं और नौ नए हैं। यदि सभी 44 घाटों पर लगातार18 घंटे स्नान कर रहे लोगों की संख्या जोड़ी जाए तो यह संख्या प्रशासन के दावे से काफी कम बैठती है, मुश्किल से एक तिहाई।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मीडिया स्टडीज विभाग में सीनियर फैकल्टी एसके यादव वरिष्ठ फोटोग्राफर हैं और साल 1989 से लगातार हर कुंभ और अर्ध कुंभ को कवर कर रहे हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं कि भीड़ को नापने का कोई मैकेनिज्म नहीं है, आज भी सिर्फ अनुमान ही लगाया जा रहा है भले ही हर जगह सीसीटीवी कैमरे लगे हों।
एसके यादव बताते हैं, ‘मकर संक्रांति के दिन मैं तो उसी जगह यानी संगम नोज पर ही था। सडक़ें इस बार काफी चौड़ी की गई हैं, फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि मकर संक्रांति के मौके पर साल 2013 और 2019 के कुंभ में जितनी भीड़ थी, इस बार उतनी नहीं थी।’
प्रशासन दे रहा है संख्या की जानकारी
एसके यादव बताते हैं कि यह प्रशासनिक अधिकारियों की ओर से ही तय कर दिया जाता है कि संख्या कितनी बता दी जाए और यही किया जा रहा है। वो कहते हैं, ‘जितनी संख्या प्रशासन बताता है, मीडिया वही छाप देता है। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। पहले अखबार और मीडिया हाउस अपनी तरफ से, अपने रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों से जानकारी लेते थे और फिर अपने आधार पर भी आंकड़ों का अनुमान लगाते थे।’
यादव का कहना है कि पूरे प्रयागराज जिले की आबादी चालीस-पचास लाख है। और ये सारे लोग यदि संगम की तरफ चल पड़ें तो वहां जगह ही नहीं बचेगी। उन्होंने यह भी कहा, ‘मान लीजिए कि हर घंटे में एक लाख लोग ट्रेनों से बाहर भेजे जा रहे हैं तो 24 घंटे में 24 लाख लोग ही तो जाएंगे। अन्य साधनों से आने वालों को भी इतना मान लीजिए और प्रयागराज के स्थानीय लोगों को भी जोड़ लीजिए। यानी बहुत ज्यादा हुआ तो एक करोड़। इससे ज्यादा संख्या तो कहीं से भी तर्कसंगत नहीं लगती। कुल मिलाकर यह सब भारी-भरकम बजट को जस्टीफाइ करने की कोशिश है।’
जानकारों के मुताबिक, कुंभ में आने वाले यात्रियों की गणना का काम 19वीं सदी से ही शुरू हुआ था और अलग-अलग समय पर श्रद्धालुओं की गिनती के विभिन्न तरीके अपनाए गए। साल 1882 के कुंभ में अंग्रेजों ने संगम आने वाले सभी प्रमुख रास्तों पर बैरियर लगाकर गिनती की थी। इसके अलावा रेलवे टिकट की बिक्री के आंकड़ों को भी आधार बनाकर कुल स्नान करने वालों की संख्या का आकलन किया गया था और उस वक्त करीब दस लाख लोग मेले में पहुंचे थे। (dw.comhi)
- डॉ. परिवेश मिश्रा
मेरी पीढ़ी के बचपन में बम्बई के साथ जुड़े ग्लैमर में फिल्मी दुनिया के साथ साथ ब्रेबर्न स्टेडियम और उसमें होने वाले टेस्ट मैचों का भी बड़ा हिस्सा था। ब्रेबर्न स्टेडियम भारत में क्रिकेट के लिए बनने वाला पहला स्टेडियम था और इसे जो दर्जा हासिल था, उससे भारत के दूसरे स्टेडियम कोसों दूर थे।
इसलिए जब पहली बार मुझे वानखेड़े स्टेडियम देखने का मौक़ा मिला तो शुरुआत में वैसा रोमांच नहीं था जो ब्रेबर्न के लिए हुआ होता। पर वहाँ जाने के बाद स्थिति बदल गयी। मुझे लगा मैं ताजमहल देखने आया हूँ और शाहजहाँ मेरे गाईड हैं। दरअसल मुझे वानखेड़े स्टेडियम और पिच तक जाने का मौक़ा श्री वानखेड़े के साथ मिला था। यह सन 1978 की बात है और स्टेडियम का निर्माण पूरा हुए तीन साल हो चुके थे।
सारंगढ़ के राजा नरेशचंद्र सिंह का मुम्बई जाना हुआ था और उनकी पुत्री डॉ. मेनका देवी सिंह और मैं उनके साथ थे। राजा साहब के मित्र श्री वानखेड़े और श्री राजसिंह डूंगरपुर ने उनके सम्मान में वानखेड़े स्टेडियम में भोज का आयोजन किया था। एक अन्य मित्र श्री तिरपुड़े भी आमंत्रित थे। आज़ादी के तत्काल बाद राजा साहब को छत्तीसगढ़ की नव-विलीन रियासतों के प्रतिनिधि के रूप में मध्यप्रदेश विधानसभा में मनोनीत कर मंत्री बनाया गया था। राजधानी नागपुर में थी और श्री वानखेड़े वहाँ वकालत कर रहे थे। दो साल के बाद हुए पहले आम चुनाव में वानखेड़े चुनाव जीत कर विधानसभा में आ गये। एक और नये बने विधायक थे नासिक राव तिरपुड़े। उन्हें उप मंत्री बना कर राजा साहब के साथ संलग्न किया गया था। नया राज्य बनने पर राजा साहब मध्यप्रदेश की और बाक़ी दोनों महाराष्ट्र की राजनीति में सक्रिय रहे किन्तु मित्रता बरकरार रही। आगे चलकर वानखेड़े विधानसभा के उपाध्यक्ष और महाराष्ट्र के वित्त मंत्री बने। तिरपुड़े उपमुख्यमंत्री बने। राजसिंह डूंगरपुर पारिवारिक मित्र थे। लेकिन आगे बढऩे से पहले इन कारणों और परिस्थितियों की बात कर लें जिनके चलते अच्छे ख़ासे ब्रेबर्न स्टेडियम के रहते मात्र 700 मीटर की दूरी पर एक नया स्टेडियम अस्तित्व में आ गया।
1930 के दशक में बम्बई में बीसीसीआई और क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया (सीसीआई) की स्थापना हो चुकी थी। पर तब तक भारत में क्रिकेट मैच आयोजित करने के लिए कोई क़ायदे का स्थान उपलब्ध नहीं था। जमशेद जी टाटा के भांजे और टाटा समूह के अध्यक्ष सर नौरोजी सकलातवाला सीसीआई के अध्यक्ष थे। एंथनी डी-मेलो बीसीसीआई के सचिव थे। दोनों ने मिलकर भारत का पहला क्रिकेट स्टेडियम बम्बई में बनाने की योजना बनाई।
द्वीपों में बँटे बम्बई को एक महानगर का रूप देने की क़वायद अठारहवीं सदी में शुरू हो गयी थी। जहाँ जहाँ समुद्र के पानी ने प्रवेश कर बारीक दरारें बना ली थीं वहाँ ज़मीन को पाटा गया। मोटी किलेनुमा दीवार बना कर पानी को अंदर आने से रोका गया। 1930 के दशक तक समुद्र के किनारे काफ़ी नयी ज़मीन तैयार कर ली गयी थी। क्रिकेट क्लब वालों की नजऱ इसी ज़मीन की एक बड़े टुकड़े पर थी। स्टेडियम बनाने का सपना महँगा सौदा था। सकलातवाला ने निर्माण में होने वाले खर्च का बड़ा हिस्सा अपनी जेब से वहन करने का जि़म्मा लिया। लेकिन ज़मीन की क़ीमत फिर भी एक बड़ी समस्या थी।
बम्बई के अंग्रेज़ गवर्नर थे लॉर्ड ब्रेबर्न। सकलातवाला और डी-मेलो गवर्नर से मुलाक़ात करने पहुँचे। जो कहानी प्रचलित है उसके अनुसार मीटिंग से बाहर आने के पहले डि-मेलो ने गवर्नर से पूछा - आप ज़मीन की क़ीमत के रूप में सरकार के लिए धन चाहेंगे या अपने लिए अमरत्व? गवर्नर ने दूसरा विकल्प चुना। साढ़े तेरह रुपये प्रति गज़ की दर पर बैक-बे-रिक्लेमेशन स्कीम से हासिल ज़मीन में से नब्बे हज़ार वर्ग गज़ पर ब्रेबोर्न स्टेडियम के निर्माण का काम प्रशस्त हुआ।
निर्माण का ठेका मिला शापूरजी पालोनजी की कंपनी को। ये वही शापूरजी मिस्री थे जिन्होंने आगे चलकर मुग़ल-ए-आज़म फि़ल्म का निर्माण किया था। हालांकि शापूरजी का फि़ल्मों से दूर दूर का नाता नहीं था। वे रियल-एस्टेट के बहुत बड़े कारोबारी थे। बम्बई की रिज़र्व बैंक जैसी अनेक इमारतें उन्हीं की बनाई हुई हैं। साथ ही वे पैसा उधार देने का काम भी बड़े पैमाने पर करते थे। लेखक पत्रकार कूमी कपूर की पारसियों पर लिखी पुस्तक के अनुसार जो सज्जन मुग़ल-ए-आज़म की स्क्रिप्ट लिख कर बहुत समय से निर्माताओं से सौदा करते घूम रहे थे वे भी सेठ शापूरजी के कज़ऱ्दार थे। विभाजन के समय जब इन्होंने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो उधारी चुकाने की स्थिति में नहीं थे। सो उसके एवज़ में अपनी लिखी स्क्रिप्ट को सौंप कर चले गये। जब एक के बाद एक अनेक लोगों ने आकर इस स्क्रिप्ट के बारे में सौदे की पेशकश की तो शापूरजी को इसकी व्यावसायिक संभावनाओं का अहसास हुआ। और शापूरजी ने पच्चीस हज़ार का निवेश कर स्वयं फि़ल्म बनाने का फ़ैसला कर लिया। बाद में खर्च बजट से अनाप-शनाप बढ़ा यह अलग कि़स्सा है। इन्हीं शापूरजी के पोते सायरस मिस्री को रतन टाटा के बाद टाटा समूह का अध्यक्ष बनने का मौक़ा मिला था।
ब्रेबोर्न स्टेडियम का निर्माण पूरा हुआ और भारत में टेस्ट मैच का सबसे प्रमुख सेंटर बना। यहाँ अनेक रिकॉर्ड बने। इनमें एक रिकॉर्ड 1960 में बना जब भारतीय बल्लेबाज़ अब्बास अली बेग के पचास रन बनते ही खचाखच भरे स्टेडियम के मैदान में दौड़ती हुई एक युवती ने पिच पर पहुँच कर बेग के गाल पर चुम्बन दर्ज कर दिया। इस घटना से प्रेरणा लेकर कैडबरी कम्पनी ने अपनी चॉकलेट के लिए विज्ञापन तैयार करवाया था - कुछ ख़ास हैज्,टैगलाईन थी - असली स्वाद जि़न्दगी का।
1964 में इंग्लैंड की टीम दौरे पर आयी थी। पता नहीं उन्होंने भारत में मिर्च मसाला खाने से परहेज किया था या नहीं पर बम्बई पहुँचते तक टीम के इतने सदस्य अनफिट हो गये थे कि फ़ील्डिंग के लिए भारत के दो खिलाड़ी - हनुमंत सिंह और ए.जी.कृपाल सिंह इंग्लैंड की ओर से खेले।
ब्रेबोर्न स्टेडियम की मिल्कियत तो सीसीआई के पास रही पर बम्बई में टेस्ट मैच समेत क्रिकेट के सारे मैच कराने का अधिकार बॉम्बे (बाद में मुम्बई) क्रिकेट एसोसिएशन (बीसीए) के पास था। किरायेदार के रूप में बीसीए का कार्यालय भी ब्रेबोर्न स्टेडियम में था। बीसीए की एक शिकायत दोनों के बीच शुरू से विवाद का कारण रही। जहां एक ओर सीसीआई के सारे मेंबर और उनके मित्र फ्री पास की बदौलत मैच देखा करते थे वहीं बीसीए को फ्री-पास के लाले पड़े रहते थे। ढेरों फ्री पास का सीधा असर बीसीए की आमदनी पर भी पड़ता था। 1970 का दशक आते तक यह विवाद अपने चरम पर पहुँच गया। सीसीआई के अध्यक्ष विजय मर्चेंट झुकने के लिए राज़ी नहीं थे। जब बात मूंछों पर बन आयी तो बीसीए के मुखिया शेषराव कृष्णराव वानखेड़े ने घोषणा कर दी कि बीसीए का अपना अलग स्टेडियम वे स्वयं बनाएँगे। और मात्र 13 महीने की छोटी अवधि में उन्होंने नया स्टेडियम खड़ा कर 1975 में उसमें टेस्ट मैच आयोजित कर दिखा दिया।
इस पृष्ठभूमि में अपने मित्र राजा नरेशचंद्र सिंह जी को अपनी इस बड़ी उपलब्धि को दिखाना श्री वानखेड़े के लिए ख़ुशी के साथ स्वाभाविक गर्व का मौक़ा था। वे हमें मैदान के बीचों-बीच भी ले कर गये। इसके पीछे का कारण पिच तक पहुँचने के बाद पता चला।
नया स्टेडियम बनाने की घोषणा ने बम्बई, और विशेष कर खेल की दुनिया में, भूचाल ला दिया था। ब्रेबोर्न स्टेडियम के पक्ष में एक बहुत मज़बूत लॉबी खड़ी हो गयी जो हर दिन एक नया तर्क सामने ला कर नये स्टेडियम के विचार का विरोध करती थी। इस लॉबी के मुख्य चेहरा थे के.एन. प्रभु। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के खेल संपादक प्रभु भारत में खेल और क्रिकेट की दुनिया में बहुत बड़ा नाम थे। उन दिनों फि़ल्मी दुनिया में राजेश खन्ना और क्रिकेट की दुनिया में सुनील गावस्कर अचानक उभरने और रातों रात छा जाने वाले ऐसे सितारे थे जिनके व्यक्तिगत जीवन और पृष्ठभूमि के बारे में जानने की लोगों को बड़ी उत्कंठा थी। ‘आराधना’ फि़ल्म आने के कुछ ही समय के बाद सर्वाधिक बिकने वाली पत्रिका धर्मयुग ने बढ़ी हुई मुद्रित संख्या में लगातार तीन अंक राजेश खन्ना को समर्पित किए। ये अंक हाथों हाथ बिके थे।
यही हाल क्रिकेट खिलाडिय़ों का था। 1971 में वेस्ट इंडीज़ और उसके बाद इंग्लैंड के दौरों में धमाकेदार और ऐतिहासिक जीत से देश में भारतीय खिलाडिय़ों का क्रेज़ रातों-रात बढ़ा था। के. एन. प्रभु इन दौरों में भारतीय टीम के साथ थे और उन्होंने भारतीय खिलाडिय़ों को न केवल लिखने के लिये प्रोत्साहित किया
बल्कि उनकी सक्रिय मदद भी की। भारत लौटने के फ़ौरन बाद दो आत्मकथात्मक पुस्तकें बाज़ार में आयीं और बेस्ट-सेलर बन गयीं। सुनील गावस्कर की ‘सनी डेज़’ और कप्तान अजीत वाडेकर की ‘माय क्रिकेटिंग इयर्स’। माना जाता था कि इन पुस्तकों का लेखन प्रभु ने ही किया था। वाडेकर ने तो पुस्तक के कवर पर घोषणा भी की - ‘ऐज़ टोल्ड टू के.एन.प्रभु’।
नये स्टेडियम के विरोध में कहा गया कि यह समुद्र के बहुत पास है, इसे बनाना धन की बर्बादी है, विशेषकर सीमेंट की जिसकी उन दिनों बहुत कि़ल्लत थी, आदि। किंतु लोगों के लिए सबसे रोचक समाचार वह बना जिसमें के.एन. प्रभु ने चेतावनी भरा दावा किया था कि नया स्टेडियम चर्चगेट स्टेशन से जाने वाली रेल लाइन के इतने कऱीब बन रहा था कि खिलाडिय़ों के छक्कों से रेल यात्रियों को चोट लगने की संभावना थी।
पिच पर ले जाकर श्री वानखेड़े ने राजा साहब और साथ में मौजूद हम सब को स्टेडियम की ऊंचाई दिखाते हुए बताया कि प्रभु के जवाब के रूप में उन्होंने घोषणा की है कि जो बल्लेबाज अपने छक्के से गेंद को स्टेडियम के बाहर पहुँचाएगा उसे वे पचास हज़ार रुपये ईनाम में देंगे। मुझे नहीं लगता उन्हें यह राशि किसी को देने की नौबत आयी।
देखते देखते 2025 आ गया और वानखेड़े स्टेडियम की उम्र का अर्धशतक पूरा हो गया।
-दिलनवाज पाशा
कभी दिल्ली की राजनीति में एक मजबूत ताकत रही कांग्रेस पार्टी पिछले दो विधानसभा चुनावों में अपना खाता तक नहीं खोल पाई।
2013 में नवगठित आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से पहले कांग्रेस ने लगातार पंद्रह साल दिल्ली पर शासन किया।
जब कांग्रेस दिल्ली में अपने शीर्ष पर थी तब उसके पास 40 फीसदी तक का वोट शेयर था। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सिर्फ 4.26 प्रतिशत ही वोट हासिल कर सकी।
इससे पहले साल 2015 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 9.7 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। कांग्रेस 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं जीत पाई थी।
भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से वजूद में आई आम आदमी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक ताक़त ‘खत्म’ कर सत्ता तक पहुंची।
आम आदमी पार्टी की फ्री बिजली, फ्री पानी, शिक्षा में सुधार और स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर करने की योजनाओं ने गऱीब और मध्यमवर्ग के मतदाताओं को आकर्षित किया।
इस वोटर वर्ग के छिटकने से कांग्रेस दिल्ली की राजनीति में और भी अलग-थलग पड़ गई।
हालांकि, इस दौरान, बीजेपी का कोर वोट बैंक उसके साथ ही रहा। बीजेपी ने साल 1993 में 42.82 प्रतिशत वोट हासिल करके सरकार बनाई थी।
इसके बाद के चुनावों में बीजेपी के वोट प्रतिशत में उतार चढ़ाव तो हुआ लेकिन पार्टी का समर्थक वर्ग उसके साथ ही रहा।
पार्टी ने 2015 में 32.2 प्रतिशत और 2020 में 38.51 प्रतिशत वोट हासिल किए।
ऊपर दिए आंकड़ों से ये स्पष्ट है कि दिल्ली में कांग्रेस के वोट बैंक में आम आदमी पार्टी ने सेंध लगाई।
पुराने वोट बैंक को हासिल करने की चुनौती
अब एक बार फिर दिल्ली में चुनाव हैं। इंडिया गठबंधन के तहत एक साथ लोकसभा चुनाव लडऩे वाली आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी अब अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं और एक दूसरे पर आक्रामक हैं।
कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि वो अपने पुराने मतदाता वर्ग को वापस अपनी तरफ आकर्षित करे।
विश्लेषक मानते हैं कि अगर ऐसा हुआ तो इसकी सीधी कीमत आम आदमी पार्टी को चुकानी पड़ सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास दिल्ली में खोने के लिए कुछ नहीं हैं। अब अगर कांग्रेस मज़बूती से लड़ती है और अपने वोट प्रतिशत में सुधार करती है तो इसका सीधा असर आम आदमी पार्टी पर पड़ सकता है।’
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के मध्यम वर्गीय और गऱीब परिवारों को अपनी तरफ़ आकर्षित किया है। ये वर्ग कभी पारंपरिक रूप से कांग्रेस का वोटर हुआ करता था।
दिल्ली के शाहदरा इलाक़े में धूप सेंक रहे प्रकाश पासवान अपनी झुग्गी की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘कांग्रेस ने हमें यहां बसाया था। हम जैसे ना जाने कितने लोगों को कांग्रेस शासन के दौरान रहने की जगह मिली। लेकिन अब कोई कांग्रेस के काम को याद नहीं रखता है।’
प्रकाश पासवान कहते हैं, ‘आप इस झुग्गी में ही देख लीजिए, लोग फ्री बिजली, फ्री पानी की तरफ ज्यादा आकर्षित हैं। बहुत से लोगों को याद भी नहीं होगा कि कांग्रेस ने ये झुग्गी बसाई थी, सडक़ पर सो रहे लोगों को रहने की जगह दी थी।’
विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वो अपने पारंपरिक वोट बैंक को फिर से अपनी तरफ आकर्षित करे।
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘फ्री बिजली और पानी के दौर में मतदाताओं को फिर से अपनी तरफ खींचना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा।’
हालांकि कांग्रेस के उम्मीदवारों को लगता है कि वो दिल्ली में पार्टी की विरासत और भविष्य के लिए योजनाओं के ज़रिए एक बार फिर मतदाताओं को अपनी तरफ खींच सकते हैं।
विरासत के दम पर मिलेगा वोट?
चांदनी चौक से कांग्रेस के उम्मीदवार मुदित अग्रवाल अपने परिवार की राजनीतिक विरासत और अपने मिलनसार व्यवहार के दम पर मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।
मुदित अग्रवाल कहते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस की राजनीतिक विरासत रही है। हमने जो दिल्ली में किया है उसे लोगों को याद दिलाने की जरूरत है।’
हालांकि वो इस बात पर भी जोर देते हैं कि आम आदमी पार्टी के कार्यकाल की कमियों को सामने लाकर भी कांग्रेस पार्टी अपनी स्थिति को मजबूत कर सकती है।
मुदित अग्रवाल कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी की नाकामियों को उजागर करके ही हम अपने मतदाताओं को फिर से अपनी तरफ जोड़ सकते हैं। हमें लोगों को नया विजऩ देना है। अपने चुनाव अभियान में हम यही कर रहे हैं।’
दिल्ली में मुसलमान मतदाता पारंपरिक रूप से कांग्रेस के साथ रहे थे लेकिन पिछले चुनावों में ये वोटर वर्ग भी आम आदमी पार्टी की तरफ चला गया।
एक ऊर्दू चैनल के लिए दिल्ली में रिपोर्टिंग कर रहे एक पत्रकार अपना नाम ना ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, ‘मुसलमान मतदाता असमंजस में नजऱ आते हैं। ये यदि कांग्रेस की तरफ गए तो कई सीटों के नतीजे बदल सकते हैं।’
आतिशी ने उठाया दिल्ली में धार्मिक स्थलों को गिराने का मुद्दा, एलजी ने दिया ये जवाब
‘आप’ पर कांग्रेस का आक्रामक रुख
कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी पर निशाना साधने की रणनीति बनाई है।
पार्टी के सीमापुरी से उम्मीदवार और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस समिति के सदस्य राजेश लिलोठिया कहते हैं, ‘कांग्रेस ने लगातार दिल्ली में पंद्रह साल शासन किया। इस शहर के विकास की नींव रखी। इसे मॉडर्न बनाया। चौबीस घंटे बिजली दी, लेकिन बावजूद इसके पार्टी 2013 में सत्ता से बाहर हो गई क्योंकि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता को झांसा दिया।’
लिलोठिया कहते हैं, ‘दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने जनता के साथ जो धोखा किया है उसे उजागर करना ही पार्टी की रणनीति है।’
दिल्ली में चुनाव अभियान के तेज होते ही कांग्रेस पार्टी अचानक आम आदमी पार्टी पर हमलावर हुई है। पार्टी के ज़मीनी नेताओं से लेकर बड़े नेता तक, सीधे आम आदमी पार्टी पर निशाना साध रहे हैं।
वहीं, दूसरी तरफ, आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस दिल्ली में बीजेपी के इशारे पर काम कर रही है।
हालांकि विश्लेषक इन आरोपों से इत्तेफाक़ नहीं रखते। वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी के आरोप अपनी जगह हैं लेकिन कोई भी राजनीतिक दल किसी दूसरे राजनीतिक दल के इशारे पर अपनी रणनीति नहीं बनाता है।’
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘भले ही कांग्रेस दिल्ली में बहुत कुछ ना कर पाए, लेकिन कांग्रेस जहां खड़ी है यहां से जितना भी आगे बढ़ेगी उससे नुक़सान आप को ही होगा।’
कांग्रेस ने पिछले दो चुनावों में दिल्ली में कोई सीट नहीं जीती है। ऐसे में विश्लेषक ये मानते हैं कि पार्टी अगर दो-चार सीटें भी जीत पाई तो ये भी कांग्रेस के लिए सुधार ही होगा।
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘यदि कांग्रेस तीन-चार सीटें भी जीतती है, तब भी पार्टी अपनी स्थिति को पहले से बेहतर ही करेगी। और अगर कांग्रेस किसी तरह दस सीटों तक पहुंच गई, तो दिल्ली में पार्टी के लिए हौसला बढ़ाने वाली बात होगी।’
दिल्ली में आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन से निकलकर सत्ता तक पहुंची थी। केजरीवाल ने भ्रष्टाचार खत्म करने का वादा किया था। लेकिन केजरीवाल और उनके उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया समेत कई बड़े नेता कथित भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जा चुके हैं। पार्टी दस साल से सत्ता में है। इतने लंबे शासन के बाद आमतौर पर एक सरकार विरोधी भावना भी होती है।
विश्लेषक मानते हैं कि दिल्ली की मौजूदा राजनीतिक स्थिति में कांग्रेस के सामने सिर्फ एक ही विकल्प है- ख़ुद को जमीनी स्तर पर मजबूत करना और कांग्रेस ऐसा सिर्फ आम आदमी पार्टी के मतों में सेंध लगाकर ही कर सकती है।
वोट प्रतिशत में सुधार की उम्मीद
वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, ‘दिल्ली और यूपी-बिहार जैसे कई राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल भी नहीं हैं। कांग्रेस को अब ये समझ आ रहा है कि वह स्वयं को जमीनी स्तर पर मजबूत करके ही आगे बढ़ सकती है।’
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस को यदि मज़बूत होना है तो उसे आम आदमी पार्टी से अपनी राजनीतिक जमीन छीननी होगी।’
विश्लेषक ये मान रहे हैं कि आम आदमी पार्टी के दस साल के शासन और उसके बड़े नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद कांग्रेस के पास ये मौका है कि वो फिर से अपने मतदाता वर्ग से जुड़े।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘कांग्रेस वोट प्रतिशत में जितना भी आगे बढ़ेगी, वह आम आदमी पार्टी की ही कटौती करेगी, ऐसे में बहुत से लोग ये कह सकते हैं कि इससे बीजेपी को फायदा होगा। भले ही कांग्रेस सीधे तौर पर बीजेपी को फायदा ना पहुंचाना चाहती हो, लेकिन बीजेपी भी जरूर ये सोच रही होगी कि कांग्रेस के वोट कुछ बढ़ें।’
कांग्रेस अगर दिल्ली में दो-चार सीटें भी जीतती हैं और वोट प्रतिशत में थोड़ा सुधार भी करती है तो पहले से बेहतर स्थिति में ही होगी।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘मौजूदा माहौल को देखकर ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस इस बार अपने वोट प्रतिशत में कुछ सुधार करेगी।’
पार्टी नेता राजेश लिलोठिया कहते हैं, ‘कांग्रेस पूरी मज़बूती से चुनाव लडऩे का प्रयास कर रही है। ये आपको नतीजों में दिखेगा।’
राहुल ने शुरू किया चुनाव अभियान
सोमवार को कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दिल्ली के सीमापुरी इलाके में अपनी पहली जनसभा की।
लिलोठिया कहते हैं, ‘जल्द ही कांग्रेस के बड़े नेता मैदान में होंगे। दूसरे दल झांसों और दावों के दम पर चुनाव लड़ रहे हैं, हम अपनी नीतियां लोगों तक लेकर जाएंगे।’
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी का समर्थन किया है। ये दोनों ही दल अब लगभग बिखर चुके इंडिया गठबंधन में है जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही है।
विश्लेषक ये मान रहे हैं कि दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस यदि सिर्फ अपने हित को आगे रखकर रणनीति बनाती है तो उसे जरूर कुछ फायदा पहुंच सकता है।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘सिर्फ कांग्रेस के प्रदेश स्तर के नेताओं को ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय नेताओं को दिल्ली में चुनाव अभियान में उतरना होगा। जो मतदाता सरकार से असंतुष्ट हैं, उन तक पहुंचने की रणनीति बनानी होगी।’
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस के पास अब खोने के लिए कुछ नहीं हैं। पार्टी पहले से ही जीरो पर है, ऐसे में अगर कांग्रेस के पास एक ही विकल्प है- पूरी मजबूती से चुनाव लडऩा। यदि कांग्रेस जमीन पर जोर लगाएगी तो उसे कुछ सकारात्मक नतीजे मिल सकते हैं।’
कांग्रेस दिल्ली में भले ही सत्ता तक ना पहुंच पाए। लेकिन पार्टी यदि कुछ सीटें भी जीत लेती है तो इससे उसमें नई जान जरूर पड़ेगी। (bbc.com/hindi)
इलॉन मस्क का धुर दक्षिणपंथी पार्टियों को समर्थन देना जर्मनी और यूरोप को रास नहीं आ रहा है. जर्मनी और यूरोपीय संघ की एजेंसियां यह पता लगाना चाहती हैं कि एएफडी को मस्क के समर्थनों से किन नियमों की अवहेलना हो रही है.
(DW.com/hi)
इलॉन मस्क ने गुरुवार को जर्मनी की धुर दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) की नेता एलिस वाइडेल के साथ एक्स पर ऑनलाइन चर्चा की थी। इसके पहले ही वो पार्टी को जर्मनी के भविष्य की ‘अकेली उम्मीद’बताते हुए अपना समर्थन दे चुके हैं। इतना ही नहीं उन्होंने जर्मनी के मौजूदा नेतृत्व को भी बुरा भला कहा है। एफएफडी को छोड़
जर्मनी की लगभग सभी पार्टियों ने मस्क के बयानों को जर्मन राजनीति में सीधा दखल बता कर उसकी आलोचना की है।
‘अवैध चंदे’ पर जर्मन एजेंसियों की नजर
इलॉन मस्क की एक्स पर वाइडेल के साथ हुई ऑनलाइन बातचीत एएफडी को ‘अवैध पार्टी चंदा’ भी माना जा सकता है। ये बात लॉबी कंट्रोल के विशेषज्ञ ऑरेल एशमान ने डीडब्ल्यू की राजनीतिक संवाददाता गिलिया साउडेली से बातचीत में कही। उनका कहना है, ‘यहां अहम बात यह है कि बातचीत अपने आप में चंदा नहीं है, बल्कि एक्स प्लेटफॉर्म पर रीच बढ़ाना पार्टी के लिए चंदा बनेगा।’
इलॉन मस्क और एलिस वाइडेलइलॉन मस्क और एलिस वाइडेल
प्लेटफॉर्म पर कंटेंट की रीच बढ़ाना एक सर्विस है जिसके लिए आम तौर पर लोगों से पैसे लिए जाते हैं। इससे पहले इलॉन मस्क के कंटेंट की रीच अकसर बढ़ाई जाती है और उनकी सामग्री की रीच, ‘उतने ही फॉलोअर वाले अकाउंट की तुलना में बहुत ज्यादा होती है जो एक्स के मालिक नहीं हैं।’
विशेषज्ञों की दलील है कि यह सेवा इस बातचीत के जरिए एएफडी पार्टी को मुफ्त में दी गई है। एशमान ने कहा, ‘यह पार्टी के लिए चंदा होगा और जर्मनी में यूरोपीय संघ के बाहर की कंपनी से चंदा लेना गैरकानूनी है।’
एक्स से हट सकती है जर्मन सरकार
शुक्रवार को जर्मन सरकार के प्रवक्ता ने बताया कि सरकार एक्स प्लेटफॉर्म पर अपना अकाउंट बंद करने पर चर्चा कर रही है। सरकार को एक्स के अल्गोरिदम से चिंता है। वाइडेल और इलॉन मस्क की एक्स पर बातचीत के एक दिन बाद ही सरकार के प्रवक्ता ने यह जानकारी दी है।
प्रवक्ता ने कहा कि एक्स और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में अल्गोरिदम है जो "एक शांत, निष्पक्ष और संतुलित संवाद को बढ़ावा नहीं देते हैं बल्कि उग्र और ध्रुवीकरण की तरफ जाते हैं।’
जर्मनी की 60 यूनिवर्सिटियां एक्स से दूर हुईं
शुक्रवार को जर्मनी की दर्जनों यूनिवर्सिटियों ने कहा कि अब वे सोशल नेटवर्क एक्स का इस्तेमाल नहीं करेंगी। यूनिवर्सिटियों ने इसके लिए नैतिक कारणों का हवाला दिया है।
60 से ज्यादा यूनिवर्सिटियों और शिक्षा संस्थानों ने संयुक्त बयान जारी कर कहा है कि एक्स उनके सिद्धांतों के हिसाब से अब उपयुक्त नहीं है।
इलॉन मस्क और एलिस वाइडेल की ऑनलाइन बातचीत मोबाइल में देखता शख्सइलॉन मस्क और एलिस वाइडेल की ऑनलाइन बातचीत मोबाइल में देखता शख्स
उनका कहना है, ‘प्लेटफॉर्म की मौजूदा दिशा संस्थान से जुड़े बुनियादी मूल्यों के हिसाब से उपयुक्त नहीं है, जिनमें दुनिया के लिए खुलापन, वैज्ञानिक एकीकरण, पारदर्शिता और लोकतांत्रिक संवाद शामिल हैं।’ रिसर्चरों का कहना है कि यह साइट अब गलत जानकारी देने वालों का स्वर्ग बन गई है।
यूरोपीय संघ की छानबीन
जर्मनी में अगले महीने 23 तारीख को संघीय चुनाव होने हैं। अब यूरोपीय आयोग इस बात की जांच कर रहा है कि क्या चुनाव से पहले किसी तरह की कोई गलत जानकारी प्रसारित करने की कोशिश हुई है। इसके लिए आयोग एक्स प्लेटफॉर्म पर वाइडेल और मस्क की चर्चा की भी छानबीन कर रहा है। यूरोपीय संघ का डिजिटल सर्विस एक्ट (डीएसए) चुनावों को प्रभावित करने के लिए नफरती भाषण या जान बूझ कर खबरों से छेड़छाड़ करने जैसी अवैध सामग्री से निपटता है।
सोशल मीडिया साइट एक्स 2023 से ही डीएसए के तहत जांच के दायरे में है। इस पर अवैध सामग्रियों को फैलाने का संदेह तो है ही इसके साथ ही सूचनाओं के साथ छेड़छाड़ को रोकने में यह कितना कारगर है यह भी देखा जा रहा है।
यूरोप की राजनीति में कितनी दखल दे रहे हैं मस्क
अमेरिका में पिछले साल डॉनल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति बनने में खुले तौर पर समर्थन देने के बाद मस्क ने अब ब्रिटेन में दक्षिणपंथी रिफॉर्म पार्टी और जर्मनी की एएफडी को एक्स पर समर्थन देना शुरू कर दिया है।
पिछले महीने मस्क ने एक्स पर लिखा, "जर्मनी में पारंपरिक राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह से नाकाम रही हैं। एएफडी जर्मनी के लिए अकेली उम्मीद है।’ आप्रवासी और इस्लाम विरोधी एएफडी को जर्मन सुरक्षा सेवाओं ने दक्षिणपंथी चरमपंथी घोषित किया है। इस पार्टी ने जर्मनी में एक डर पैदा किया है और देश की कोई पार्टी उसके साथ काम करने को तैयार नहीं है। जर्मनी के राजनीतिक दल एएफडी को खतरनाक और अलोकतांत्रिक मानते हैं।
पिछले दिनों माग्देबुर्ग की क्रिसमस मार्केट में जब एक सऊदी डॉक्टर ने पांच लोगों की हत्या कर दी तो मस्क ने जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स को एक्स पर, ‘अक्षम बेवकूफ’ कहा और उनसे इस्तीफा देने को कहा।
यूरोपीय संघ का डिजिटल सर्विस एक्ट (डिजिटल सर्विस एक्ट)
एक्स और मेटा जैसे बड़े ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के लिए डीएसए नियम बनाता है। इनमें वो प्लेटफॉर्म शामिल हैं जिनके यूरोपीय संघ में प्रतिमाह 4।5 करोड़ से ज्यादा यूजर हैं। इनमें ऐप स्टोर कंपनियां जैसे एप्पल और अल्फाबेट भी शामिल हैं। इसका प्रमुख मकसद अवैध और नुकसानदेह ऑनलाइन गतिविधियों और गलत सूचनाओं को फैलने से रोकना है। इलॉन मस्क की एक्स पहली कंपनी थी जिसकी अवैध सामग्रियों के लिए डीएसए के तहत दिसंबर, 2023 में जांच शुरू की गई। इसके तहत डीएसए के उल्लंघन पर किसी कंपनी पर उसके वैश्विक सालाना टर्नओवर का 6 फीसदी तक जुर्माना लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं इसके लिए बताए उपायों को लागू करने में देरी करने पर प्रतिदिन के टर्नओवर का 5 फीसदी हिस्सा भी जुर्माने के तौर पर वसूला जा सकता है।
अगर उल्लंघन जारी रहता है और यूजरों को नुकसान पहुंचता है तो आयोग कंपनी को अपनी सेवाएं निलंबित करने के लिए भी कह सकता है। आयोग ने मेटा और चीन के अलीएक्सप्रेस, टेमू और टिकटॉक के खिलाफ भी मामले दर्ज किए हैं। इनमें से सभी मामले अभी खुले हुए हैं, सिवाए टिकटॉक के खिलाफ दर्ज हुआ एक मामला बंद हुआ है। इसमें कंपनी ने यूरोपीय संघ की चिंता दूर करने के लिए जरूरी उपाय कर दिए थे।
गुरुवार को आयोग ने क्या किया
यूरोपीय संघ के 15 कर्मचारी डीएसए को लागू करने की जिम्मेदारी उठाते हैं। ये सभी आयोग के ब्रसेल्स और स्पेन के दफ्तरों में काम करते हैं। यूरोपीय संघ के उद्योग आयुक्त थियरे ब्रेटन ने पहले ही वाइडेल को ध्यान दिला दिया था कि एक्स के बारे में डीएस के नियमों का मकसद चुनाव के इर्द गिर्द लोकतंत्र की रक्षा है। वरिष्ठ अधिकारियों ने भी मस्क से मिल रही चुनौती को स्वीकार किया है और इस बात पर जोर दिया है कि डीएसए अपना काम करेगा।
यूरोपीय आयोग के लोकतंत्र, न्याय और कानून का शासन और उपभोक्ता सुरक्षा आयुक्त मिषाएल मैक्ग्राथ का कहना है, ‘मिस्टर मस्क अपनी राय यूरोपीय संघ में ऑनलाइन और ऑफलाइन देने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन कानूनी सीमा के अंदर।’ (dw.com/hindi)