राजपथ - जनपथ
सीधा राहुल-कनेक्शन
युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मंगलवार की देर रात घोषणा की गई। पहली बार छत्तीसगढ़ से पांच पदाधिकारी बनाए गए हैं। खास बात ये है कि नवनियुक्त पदाधिकारी में से चार तो किसी भी खेमे से नहीं जुड़े नहीं हैं, ये सीधे राहुल गांधी की टीम का हिस्सा रहे हैं।
नव नियुक्त पदाधिकारियों में से तीन तो पहले से ही युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं। इनमें दुर्ग के मोहम्मद शाहिद, राजनांदगांव के निखिल द्विवेदी, और सरगुजा की शशि सिंह हैं। शाहिद को युवक कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है। वो पहले राष्ट्रीय सचिव थे। इसी तरह निखिल, और शशि सिंह भी राष्ट्रीय सचिव थे। दोनों को फिर सचिव बनाया गया है। खास बात ये है कि मोहम्मद शाहिद, और शशि सिंह युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की दौड़ में भी थे। दोनों का इंटरव्यू भी हुआ था।
दिवंगत पूर्व मंत्री तुलेश्वर सिंह की पुत्री शशि सिंह को तो पार्टी ने सरगुजा लोकसभा सीट से प्रत्याशी भी बनाया था। प्रदेश से दो नए चेहरे अवंतिका तिवारी, और प्रीति मांझी को भी युवक कांग्रेस की नई टीम में जगह मिली है। अवंतिका तिवारी राष्ट्रीय सचिव, तो जीपीएम जिले की रहवासी प्रीति मांझी को संयुक्त सचिव का दायित्व सौंपा गया है। निखिल द्विवेदी को तो पूर्व सीएम भूपेश बघेल कैंप का माना जाता है, लेकिन बाकी चारों किसी खेमे से नहीं हैं। कुछ लोग मानते हैं कि युवक कांग्रेस के नवनियुक्त पदाधिकारियों के मार्फत पार्टी हाईकमान की प्रदेश में पार्टी की गतिविधियों पर सीधी नजर रहेगी। देखना है कि नए पदाधिकारी क्या कुछ करते हैं।
चर्च संपत्ति पर मंडराते गिद्ध
राजधानी रायपुर के मसीही समाज की बाबर बंगले, और ग्रास मेमोरियल ग्राउंड के लीज की अवधि खत्म होने के बाद जिला प्रशासन ने अपने आधिपत्य में ले लिया है। इससे मसीही समाज में हडक़ंप मचा हुआ है, और लीज की अवधि नहीं बढ़ाए जाने पर हाईकोर्ट में याचिका दायर भी की गई है।
दोनों संपत्तियों की कीमत करीब 4 सौ करोड़ की बताई जा रही है। लीज निरस्त करने के लिए हिन्दू संगठन लगातार दबाव भी बना रहे थे। हालांकि इन संपत्तियों पर मसीही समाज के भीतर पहले भी काफी विवाद होता रहा है। दोनों संपत्ति मसीही समाज के प्रोटेस्टेंट चर्च के आधिपत्य में रही है।
बताते हैं कि बाबर बंगले, और ग्रास मेमोरियल ग्राउंड के सौदे की खबर पहले सुर्खियों में रही है। मसीही समाज के एक पदाधिकारी के मुताबिक 80 के दशक में जबलपुर डायसिस के पदाधिकारियों ने बाबर बंगले का सौदा भी कर दिया था। तब मसीही समाज के युवकों ने कानूनी लड़ाई लड़ी, और प्रदर्शन किया। इसके बाद सरकार के हस्तक्षेप के बाद बंगला बिकने से रह गया।
बाद में 1995-96 में ग्रास मेमोरियल ग्राऊंड को भी रायपुर के एक सीए परिवार को बेच दिया गया था। तब मसीही समाज की यूथ विंग के जॉन राजेश पॉल की अगुवाई में धरना हुआ, और उस समय खेल संगठन भी समाज के पक्ष में खुलकर सामने आ गए। इसके प्रतिफल यह रहा कि सौदा निरस्त हो गया। समाज से जुड़े कुछ लोग मानते हैं कि चर्च की एक कमेटी है जो कि संपत्तियों की देखरेख करती है। लीज की अवधि खत्म होने के बाद कमेटी ने लीज की अवधि बढ़ाने की दिशा में कोई कार्रवाई नहीं की।
बड़े कारोबारियों-बिल्डरों की नजर पॉश इलाके की प्रापर्टी पर पहले से रही है। अब जब लीज निरस्त हो गया है, और प्रॉपर्टी को प्रशासन ने अधिग्रहित कर दिया है, तो इसको लेकर मसीही समाज के प्रोटेस्टेंट बिरादरी में हडक़ंप मचा हुआ है। समाज के लोग लगातार बैठकें कर रहे हैं, और प्रापर्टी पर हक छोडऩे के लिए तैयार नहीं हैं। विवाद आने वाले दिनों में बढ़ सकता है। मसीही समाज नन की गिरफ्तारी को लेकर भी आंदोलित है। देखना है आगे क्या होता है।
केंद्र में डीजी के लिए यहां से कोई नहीं

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 1993-94 बैच के देश भर से 35 आईपीएस अफसरों को डीजी पद के लिए केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए अपनी सूची में शामिल किया है। इसे इंपैनलमेंट कहा जाता है। और भविष्य में पद रिक्त होने पर इन्हीं अफसरों में से नियुक्ति की जाती है।
ये नियुक्तियां केंद्रीय सुरक्षा बलों, सुरक्षा एजेंसियों और गृह विभाग के अन्य विभागों में होती हैं। नियुक्ति चाहे हो न हो कई अफसर अपने इंपैनलमेंट को ही तवज्जो देने से नहीं से चूकते। क्योंकि मोदी 1.0 से अब तक कोई आसानी से इंपैनल नहीं किया जा रहा। हर अफसर के पूरे सर्विस रिकार्ड की पुख्ता जांच मेरिट बेस पर ही किया जा रहा है।
वर्षों बाद इस बार छत्तीसगढ़ से एक भी अफसर को इंपैनल नहीं किया गया है। जबकि इन दोनों बैच से छत्तीसगढ़ में तीन आईपीएस अफसर उपलब्ध हैं। तीनों ही यहां डीजीपी के भी दावेदार हैं। सबसे उल्लेखनीय है कि तीनों अफसरों को इससे पहले एसपी, डीआईजी आईजी के रूप में भी प्रतिनियुक्ति पर जाने का अवसर नहीं मिला।
एक को बुलाया गया था लेकिन वे नहीं गए। एक नियम यह भी कहता है कि उपरोक्त जूनियर पद पर एक बार नियुक्त होने पर डीजी जैसे शीर्ष पद पर नियुक्ति आसान होती है। बहरहाल अब ये तीनों अफसर छत्तीसगढ़ में ही रहकर सेवानिवृत्त होंगे।
संवेदनशील मुद्दे पर टकराव
पहले उत्तर छत्तीसगढ़ के जशपुर, पत्थलगांव और सरगुजा से आदिवासी लड़कियों को रोजगार के नाम पर रांची के रास्ते देश के कोने-कोने में भेज दिया जाता था। मगर, पिछले कुछ वर्षों से बस्तर से युवाओं को, खासकर लड़कियों को ले जाया जा रहा है। दुर्ग में दो ननों को नारायणपुर की तीन आदिवासी लड़कियों को ले जाते पकड़े जाने की घटना ने राष्ट्रीय बहस छेड़ दी है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, सांसद प्रियंका गांधी, माकपा की वृंदा करात सहित कई नेताओं ने ननों को बिना सबूत गिरफ्तार करने पर आपत्ति जताई है। मोटे तौर पर इनका कहना है कि अपने वोट बैंक को ठोस करने के लिए जबरन धर्मांतरण, मतांतरण का आरोप लगाया गया और अल्पसंख्यकों को गिरफ्तार किया गया है, जबकि ये लड़कियां अपने माता-पिता से मंजूरी लेकर नर्सिंग जैसे काम के लिए बाहर जा रही थीं।
मसला केवल कानूनी या धार्मिक बहस का नहीं है, बल्कि अपने सामने यह सवाल भी खड़ा करती है कि आखिर क्यों आदिवासी इलाकों की लड़कियां परदेस में काम की तलाश में जाती हैं? क्या यह सच नहीं है कि इनके पास रोजगार, शिक्षा और बेहतर जिंदगी के अवसर बेहद सीमित हैं। इन्हें कौशल प्रशिक्षण देने का काम भी कम है। प्रशिक्षण मिल भी जाए तो प्लेसमेंट नहीं है। फिर ये बाहर जाकर कौन सा काम आखिर करेंगीं? नर्सिंग या घरेलू साफ-सफाई की नौकरी। मगर, लोभ यह है कि इसमें पैसे इतने तो मिलेंगे कि तंग हाल मां-बाप को कुछ रुपये भेज पाएंगे। बहुत पढ़े लिखे लोगों में ही नहीं, कम पढे युवाओं में भी रोजगार की स्थिति विस्फोटक होती जा रही है।
स्थिति से निपटने के लिए जरूरी है कि आदिवासी इलाकों में स्थानीय स्तर पर रोजगार के मौके बढ़ाए जाएं। कुछ संगठन तब सामने आते हैं जब कथित रूप से तस्करी होने की बात सामने आती है। तब नहीं आते जब पीडि़त लडक़े-लड़कियों को रोजगार की जरूरत होती है। पुलिस पर दबाव बनाकर एफआईआर तो करा दी जाती है, जेल में डाल दिया जाता है, पर सरकार को इस बात के लिए बाध्य नहीं किया जाता कि उन्हें काम का मौका उनके अपने घर-गांव में मिल जाए।
रायपुर के दिल में बसा एक चौराहा

रायपुर की गलियों में घूमते हुए अगर आपने शास्त्री चौक पार किया हो, तो शायद ये सवाल कभी न कभी जरूर मन में उठा होगा कि ये जगह पहले कैसी रही होगी? क्या हमेशा से इसका यही नाम था? नहीं। शहर के बुज़ुर्गों से बात करने पर पता चलता है कि आज के शास्त्री चौक को कभी सिल्वर जुबली चौक कहा जाता था। ये बात 1940 के आस-पास की है, जब यहां पास ही सिल्वर जुबली अस्पताल हुआ करता था। इस अस्पताल के अंग्रेज डॉक्टर डॉ. कैली अपने सेवा-भाव के लिए जाने जाते थे। जैसे-जैसे समय बदला, अस्पताल की जगह डी.के. अस्पताल ने ली—जो दाऊ कल्याण सिंह जी द्वारा दान में दी गई जमीन पर बना। उसी के साथ चौक का नाम भी बदलकर डीके चौक पड़ गया।फिर 11 जनवरी 1966 को देश को एक गहरा झटका लगा। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी का निधन हुआ। उनकी याद में चौक के बीचों-बीच एक आदमकद प्रतिमा लगाई गई और तब से इस जगह को मिला नाम शास्त्री चौक। इस प्रतिमा के पास एक सुंदर फव्वारा भी बनाया गया, जो शाम के समय रंग-बिरंगी रोशनी में चमकता था। मजे की बात ये कि गर्मियों में सिर्फ लोग ही नहीं, पास की भैंसें भी इस फव्वारे में डुबकी लगाने आ जाती थीं। फिर नगर निगम वालों की भैंस निकालने की मशक्कत देखने लायक होती थी।शास्त्री चौक सिर्फ इतिहास नहीं, संघर्षों का भी गवाह रहा है। यहां धरने हुए, आंदोलन हुए। कभी अंबेडकर अस्पताल को शुरू करवाने की मांग पर जूनियर डॉक्टर्स ने मोर्चा संभाला, तो कभी सिंधी महिला कॉलेज के शिक्षक-शिक्षिकाओं ने 40 दिन की भूख हड़ताल की, दीवाली के दिन भी।समय के साथ शास्त्री जी की प्रतिमा तीन बार हटी और बदली जगहों पर लगाई गई। मगर, वजह आज तक किसी को नहीं मालूम। शास्त्री चौक, आज भी हर गुजरने वाले से एक बात कहता है- मैं सिर्फ चौराहा नहीं, रायपुर की यादों का मुकाम हूं। ( तस्वीर और विवरण-गोकुल सोनी)


