राजपथ - जनपथ
एक और बार जोगी परिवार की कोशिश
दिवंगत पूर्व सीएम अजीत जोगी के परिवार ने एक बार फिर कांग्रेस में प्रवेश के लिए जोर लगाया है। जोगी पार्टी की मुखिया श्रीमती डॉ. रेणु जोगी, और उनके बेटे अमित जोगी दिल्ली में हैं। वैसे तो वे एक विवाह समारोह में शामिल होने गए हैं, लेकिन कांग्रेस हाईकमान से संपर्क कर वापसी की कोशिश में लगे हैं। कहा जा रहा है कि डॉ. रेणु जोगी, और अमित जोगी की राज्यसभा सदस्य दिग्विजय सिंह, और कुछ अन्य प्रमुख नेताओं से चर्चा भी हुई है।
बताते हैं कि रेणु जोगी, और अमित, कांग्रेस की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी से मुलाकात के लिए प्रयासरत हैं। इससे परे जोगी पार्टी ने कांग्रेस में विलय का प्रस्ताव दे दिया था, लेकिन कांग्रेस ने इसे अब तक स्वीकार नहीं किया है। पूर्व सीएम भूपेश बघेल, जोगी परिवार को कांग्रेस में शामिल करने के पक्ष में नहीं है। प्रदेश कांग्रेस के कुछ और प्रमुख नेताओं की राय भी भूपेश बघेल से मिलती जुलती है। ऐसे में जोगी परिवार का कांग्रेस प्रवेश का मामला अधर में लटका हुआ है।
नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में जोगी पार्टी ने कांग्रेस का समर्थन किया था। फिर भी बात आगे नहीं बढ़ पाई है। कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं का मानना है कि जोगी पार्टी के ज्यादातर नेता कांग्रेस में पहले ही आ चुके हैं। अमित जोगी के आने से पार्टी में गुटबाजी बढ़ सकती है। ऐसे में उनके कांग्रेस प्रवेश का विरोध किया जा रहा है। फिर भी कुछ नेताओं का मानना है कि अहमदाबाद में कांग्रेस अधिवेशन के बाद दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को लेकर कोई फैसला हो सकता है। देखना है आगे क्या होता है।
वन मैन लैटर बॉम्ब आर्मी
पूर्व गृहमंत्री ननकीराम कंवर के ‘लेटर बम’ से सरकार में हलचल है। कंवर एक के बाद एक सरकार के अलग-अलग विभागों के भ्रष्टाचार के मामले को सामने ला रहे हैं, और केन्द्र सरकार को पत्र भी लिख रहे हैं। कंवर के पत्र पर कार्रवाई भी हुई है। एक-दो पत्रों पर तो राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने सरकार को जवाब तलब भी किया है।
कंवर के पत्रों को लेकर सरकार असहज है, लेकिन वो ज्यादा कुछ करने की स्थिति में नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि कंवर पार्टी के सबसे पुराने नेता हैं। वो अविभाजित मध्यप्रदेश की जनता पार्टी सरकार में उपमंत्री रहे हैं तब यहां प्रदेश भाजपा के बड़े नेताओं की राजनीति भी शुरू नहीं की थी। कंवर, पटवा सरकार के अलावा छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद रमन सरकार में करीब 8 साल मंत्री रहे हैं। 80 बरस पार कर चुके कंवर को पार्टी ने वर्ष-2023 के विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी बनाया था, लेकिन वो चुनाव हार गए।
हारने के बाद भी कंवर खामोश नहीं हैं, और वो पत्र लिख कर अपनी सक्रियता दिखा रहे हैं। पूर्व गृहमंत्री के पत्रों का ‘न्यूज वैल्यू’ भी है। इसलिए अलग-अलग विभागों के पीडि़त-प्रभावित लोग उनसे मिलते जुलते रहते हैं, और उन्हें तमाम गतिविधियों से अवगत कराते रहते हैं। जिस पर कंवर पत्र भी लिख देते हैं। एक पुराने राजनीतिक विश्लेषक का मानना है कि कंवर राजनीति के वानप्रस्थ से संन्यास की ओर जा रहे हैं। उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। और उम्र के इस पड़ाव में पाने की संभावना भी कुछ भी नहीं है।
लालबत्ती गई, लालसा नहीं गई

अप्रैल 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट ने फैसला लिया कि 1 मई 2017 से आपात सेवाओं को छोडक़र सभी सरकारी वाहनों से लालबत्ती हटा दी जाएगी। इसका उद्देश्य वीवीआईपी कल्चर को समाप्त करना था। छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री, मंत्रियों और अफसरों की गाडिय़ों से लालबत्ती हटा दी गई। इस फैसले का स्वागत हुआ, लेकिन तब भी सवाल उठा कि क्या केवल लालबत्ती हटाने से वीआईपी कल्चर खत्म हो जाएगा? यदि राजनीति को स्वच्छ बनाना है, तो सुरक्षा दस्ते, एस्कॉर्ट गाडिय़ां, सरकारी बंगलों में विशेष सुविधाएं क्यों नहीं समाप्त की जातीं?
लालबत्ती हटाने के कुछ ही दिन बाद, मई 2017 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में 11 संसदीय सचिवों की नियुक्ति कर दी। यह पद उन विधायकों को दिया गया, जिन्हें मंत्रिपरिषद् में जगह नहीं मिली थी, लेकिन राजनीतिक संतुलन बनाए रखने के लिए मंत्री जैसी कुछ सुविधाएं देना जरूरी समझा गया। इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने असम में संसदीय सचिवों की नियुक्ति को असंवैधानिक करार दिया और पश्चिम बंगाल में इस संबंध में पारित विधेयक को अवैध घोषित किया। इस आदेश के आधार पर तत्कालीन विधायक मो. अकबर ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में याचिका दायर की, लेकिन सरकार ने तर्क दिया कि ये मंत्री नहीं हैं, कैबिनेट बैठकों में शामिल नहीं होते और इन्हें राज्यपाल की शपथ नहीं दिलाई गई है। हाईकोर्ट ने यह तर्क स्वीकार कर याचिका खारिज कर दी।
विडंबना यह रही कि कांग्रेस ने विपक्ष में रहते संसदीय सचिवों की नियुक्ति का विरोध किया, लेकिन सत्ता में आते ही खुद 15 संसदीय सचिव नियुक्त कर दिए। संवैधानिक दर्जा न होते हुए भी इन्हें अन्य विधायकों से ऊंचा स्थान मिल गया।
लालबत्ती खत्म हुई, लेकिन नेताओं और अफसरों के लिए हूटर नया प्रतीक बन गया। मोटर वाहन अधिनियम के अनुसार, हूटर की अनुमति केवल आपात सेवाओं, जैसे एंबुलेंस, फायर ब्रिगेड और पुलिस को मिलती है। लेकिन मंत्रियों के काफिलों में यह धड़ल्ले से बजते हैं। पुलिस की पायलटिंग गाड़ी पर हूटर समझ में आता है, लेकिन काफिले की अधिकतर गाडिय़ां कानफोड़ू आवाज में सडक़ों पर रफ्तार से दौड़ती हैं, जिससे आम जनता सहमकर किनारे हो जाती है।
सिर्फ निर्वाचित प्रतिनिधि ही नहीं, बल्कि देखा-देखी उनके कार्यकर्ता, अफसर और उनके परिवार भी वीआईपी संस्कृति का लाभ उठाने में पीछे नहीं रहते। सभा-समारोहों में वीआईपी पास के लिए होड़ मचती है। आयोजक इतने पास बांट देते हैं कि व्यवस्था चरमरा जाती है।
कबीरधाम जिले के भोरमदेव महोत्सव में यही देखने को मिला। भाजपा के पूर्व सांसद और प्रख्यात गायक हंसराज हंस का कार्यक्रम था। डिप्टी सीएम और गृह मंत्री की मौजूदगी में वहां वीआईपी सीटें इतनी अधिक हो गईं कि आम दर्शकों के लिए जगह ही नहीं बची। खबरों के मुताबिक, नाराज भीड़ ने दो हजार से अधिक कुर्सियां तोड़ दीं और कार्यक्रम बाधित हो गया। वीआईपी कल्चर केवल लालबत्ती हटाने से खत्म नहीं होगा, जब तक कि नेता और अफसर खुद इसे जड़ से खत्म करने की इच्छाशक्ति न रखें। जब तक विशिष्टता दिखाने के नए-नए तरीके अपनाए जाते रहेंगे, जनता की नाराजगी फूटती रहेगी।


