राजपथ - जनपथ
केन्द्रीय प्रतिनियुक्तियों में राज्यों की हिस्सेदारी
केंद्र सरकार हर वर्ष राज्यों में पदस्थ अखिल भारतीय कैडर के अफसरों को केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर आने की अवसर देती है। इसके बकायदा राज्यों के सेटअप में सेंट्रल डेपुटेशन का कोटा भी निर्धारित कर रखा जाता है। लेकिन कुछ तो अफसर जाना नहीं चाहते तो कुछ राज्य की सरकारें अनुमति नहीं देती। इस वजह से यह कोटा पूरा नहीं होता। फिर कुछ राज्य अपने कोटे का पूरा इस्तेमाल कर लेते हैं।डीओपीटी की एक जानकारी के मुताबिक केंद्र में 27 एआईएस अधिकारियों के साथ, एजीएमयूटी कैडर टॉप पर बना हुआ है। यह कैडर अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मिजोरम और केंद्र शासित प्रदेशों का संयुक्त कैडर है। जिसका केंद्र में सबसे अधिक प्रतिनिधित्व है।
पिछले साल अक्टूबर तक एजीएमयूटी के बाद बिहार और एमपी में क्रमश: 19 और 18 अधिकारी इन पदों पर थे। अधिकृत कैडर की ताकत के मामले में, बिहार में 675 स्वीकृत पद हैं, जबकि एमपी 1,074 स्वीकृत पदों के साथ तीसरा सबसे बड़ा है। इसमें छत्तीसगढ़ भी बहुत ज्यादा पीछे नहीं है। यहां के 16 आईएएस,14 आईपीएस और 8 आईएफएस अफसर कई केंद्रीय कार्यालयों में पदस्थ है ।
इस ढोल की कीमत आपने चुकाई

दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे ने बिलासपुर-नागपुर वंदे भारत एक्सप्रेस को आईएसओ 9001:2015 प्रमाण पत्र मिलने को उपलब्धि के रूप में पेश किया है। ये वही रेलवे है जो यात्री ट्रेनों के घाटे का रोना रोते हुए थकता नहीं, फिर भी वंदे भारत जैसी खाली दौड़ती ट्रेनों पर जनता का पैसा पानी की तरह बहा रहा है, वह भी सामान्य ट्रेनों से दो-तीन गुना अधिक खर्च उठाकर। छत्तीसगढ़ से चलने वाली नागपुर-बिलासपुर हो या रायपुर-विशाखापट्टनम, दोनों वंदे भारत के डिब्बे आधे कर दिए गए, क्योंकि यह महंगी सवारी लेने लोग तैयार ही नहीं। जब जनरल और स्लीपर कोच में जगह के लिए मारामारी हो रही हो, यात्रियों को गंदगी में सफर करने को मजबूर होना पड़ रहा हो तो, वंदे भारत को पहनाई गई माला किस काम की?
वैसे वंदे भारत का तामझाम शुरू से ही आंखों में धूल झोंकने वाला रहा है। सेमी-हाई-स्पीड, चमचमाते कोच और प्रीमियम सुविधाओं का लालच देकर इसे रेलवे का भविष्य बताया गया। लेकिन सच क्या है? नागपुर-बिलासपुर वंदे भारत का प्रति किलोमीटर खर्च 2000-2500 रुपये है, जबकि बिलासपुर-इतवारी पैसेंजर या समता एक्सप्रेस जैसी ट्रेनें 800-1200 रुपये में ही चल जाती हैं। नतीजा? दो साल में 40 करोड़ खर्च, 25 करोड़ आय और 15 करोड़ का घाटा। रायपुर-विशाखापट्टनम का हाल तो और बुरा है। 30-35 फीसदी सीटें भरती हैं। दोनों से कुल मिलाकर सालाना चूना 50 करोड़ से ज्यादा लगने का अनुमान है। ये ट्रेनें आरामदेह हैं, इनकी टाइमिंग मेंटेन करने के लिए मालगाड़ी तक रोक दी जाती है लेकिन किराया इतना अधिक है कि आम आदमी मुंह फेर लेता है। वंदे भारत ट्रेन के लिए आईएसओ तमगा आम यात्रियों की सहूलियत काटकर हासिल किया गया है। अगर गुणवत्ता ही दिखानी थी, तो झारसुगुड़ा-गोंदिया या किसी दूसरी पैसेंजर ट्रेन को क्यों नहीं चुना गया, जो रोज सैकड़ों मजदूरों और छोटे कारोबारियों को ढोती है? ([email protected])


