राजपथ - जनपथ
पटवारियों की लंबी हड़ताल
एक तरफ लंबित राजस्व मामले जल्दी निपटे इसके लिए मंत्री और अफसर जिलों में बैठकें लेते, फटकारते हैं, दूसरी तरफ पटवारियों की एक माह से भी लंबी (16 दिसंबर से) चल रही हड़ताल खत्म कराने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो रही है। सरकार ने अभी हाल ही में संघ के प्रदेश पदाधिकारियों का तबादला कर दिया, जिसने आंदोलनरत पटवारियों को और नाराज कर दिया है। राजस्व का काम ठप होने से अनुमान है कि अकेले रायपुर में 12000 से अधिक आवेदन लंबित हो चुके हैं। पूरे प्रदेश में रुके मामलों की संख्या 1.5 लाख से अधिक हो सकती है। इसमें केवल नामांतरण, फौती के मामले नहीं हैं बल्कि आय प्रमाण पत्र, ओबीसी प्रमाण पत्र, एसटीएससी जाति प्रमाण पत्र बनवाने के लिए भी लोग भटक रहे हैं। पटवारियों से बात करने से पता चलता है कि दस्तावेज तैयार करने की ऑनलाइन प्रक्रिया में काम तो करना चाहते हैं, पर सरकार ने उन्हें सुविधाएं नहीं दी। वे इंटरनेट और मोबाइल फोन पर आने वाले खर्च का भत्ता मांग रहे हैं। एक पटवारी के पीछे 2 या 3 हजार रुपये का अतिरिक्त भार सरकार को उठाना है। इन पटवारियों की संख्या प्रदेश में करीब 6 हजार है। (जो लोग समझते हैं कि पटवारियों को 2-4 हजार रुपये की क्या जरूरत, इस मांग पर उनको गौर करना चाहिए।)
वैसे पटवारियों के सारे अधिकार तहसीलदार और राजस्व निरीक्षक के पास भी होते हैं। लंबित काम वे भी निपटा सकते हैं। सरकार की ओर से निर्देश भी जारी किया गया है कि अर्जेंट काम वे निपटाते चलें, मगर यह स्थायी समाधान नहीं है। आम आदमी को पटवारी से ही मुलाकात करने और कराने के लिए कितने ही पापड़ बेलने पड़ते हैं, तहसीलदार और आरआई से वे किस तरह जूझ पाएंगे?
अब जब स्थानीय चुनावों के लिए आचार संहिता लागू हो चुकी है, सरकार हड़ताल खत्म कराने के लिए केवल आश्वासन दे सकती है। पार्षद और पंच पदों के दावेदारों को भी पटवारियों से कई तरह के सर्टिफिकेट की जरूरत पडऩे वाली है। आम आदमी की नहीं सही, इनकी परेशानी की तरफ तो अफसरों का ध्यान जाएगा ही।
साप्ताहिक सुपर मार्केट

ऐसे बाजार में क्या-क्या खूबियां होती हैं? एक तो ज्यादातर सामान आदिवासी, ग्रामीण अपने हाथों से बनाकर बेचते हैं। बिकने वाली ज्यादातर चीजें पर्यावरण के अनुकूल होती हैं। थोड़ा मोल-भाव जरूर होता है, पर हर चीज किफायती। मुनाफे और लागत के बीच ज्यादा अंतर नहीं होता। मॉल या सुपर मार्केट में जब यही सामान खरीदने जाएं तो अलग महंगे दर पर मिलेगी। गांवों के साप्ताहिक बाजार में सामुदायिक भावना होती है। ग्राहक और दुकानदार के बीच जो अपनापा और रिश्ता होता है, वह सुपर मार्केट में नहीं मिलेगा। ग्रामीण साप्ताहिक बाजार में केवल जबान के भरोसे पर उधार मिल जाएगा, सुपर बाजार में क्रेडिट कार्ड से मिलेगा, मोबाइल नंबर बताना होगा। कला, संस्कृति और परंपरा के संरक्षण के मिसाल होते हैं ये बाजार, जिन पर धीरे-धीरे शहरीकरण का असर दिखने लगा है। यह तस्वीर धमतरी जिले के गट्टासिल्ली गांव की है, जो नगरी तहसील में पड़ता है। छायाकार पुरुषोत्तम सिंह ठाकुर ने ली है।


