‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
कोण्डागांव, 8 मार्च। जिले के बहुप्रतिष्ठित वार्षिक मड़ई (मेला) का मंगलवार को देव परिक्रमा के साथ शुभारंभ किया गया। पारंपरिक वार्षिक मड़ई के चलते सोमवार की शाम से ही क्षेत्र के देवी-देवता अपने प्रतीक देवलाठ, आंगा, कुर्सीदेव, डोलीदेव, छतरदेव और अन्य प्रतीकों के साथ मड़ई परिसर में पहुंचने लगे थे। यहां पहुंचे देवी देवताओं को बाजार परिसर में स्थित दंतेश्वरी मंदिर में रात भर स्वागत सत्कार के साथ पूजा-अर्चना किया गया। इन सबके बाद 8 मार्च की दोपहर लगभग 3 बजे देवी-देवताओं की परिक्रमा से मड़ई शुभारंभ किया गया।
मड़ई में देव भ्रमण के दौरान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व कोण्डागांव विधायक मोहन मरकाम, जिला पंचायत अध्यक्ष देवचंद मातलाम, नगर पालिका अध्यक्ष हेम कुमार पटेल, उपाध्यक्ष जसकेतु उसेण्डी, पूर्व मंत्री लता उसेण्डी, पूर्व मंत्री शंकर सोढ़ी, पूर्व कमिश्नर दिलीप वासनीकर, कांग्रेस जिलाध्यक्ष झुमुक लाल दीवान, भाजपा जिलाध्यक्ष दीपेश अरोरा, जिला पंचायत सीईओ प्रेम प्रकाश शर्मा, पुलिस अधीक्षक दिव्यांग पटेल, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक राहुल देव शर्मा, पार्षद, जिला पंचायत सदस्य, जनपद सदस्य व अन्य जनप्रतिनिधि, अधिकारी इत्यादि मौजूद रहे।
देव परिक्रमा देखने अंचल से श्रद्धालु भारी संख्या में कोण्डागांव पहुंचे थे। मंदिर समिति की माने तो यहां का मड़ई लगभग 700 वर्षों से भी अधिक समय से आयोजित हो रहा है। इस मेले को स्थानीय मावली दंतेश्वरी माता मड़ई के नाम से भी जानते हैं। वर्षों पुराने पारम्परिक मेले की छटा विदेशी सैलानियों को यहां बस्तर के संस्कृति व पारंपरिक परिपूर्ण मड़ई तक खींच लाती है।
मड़ई शुभारंभ अवसर पर मड़ई समिति के उजियार देवांगन, एसपी तिवारी, नरपति पटेल, दिनबंधू देवांगन, माता पुजारी, ग्राम पटेल गोपाल पटेल, कोटवार सुकालू राम कोर्राम आदि भी नजर आए।
अतिथियों का स्वागत
मड़ई शुभारंभ के पूर्व नगर के पुराना विश्रामगृह से अतिथियों का स्वागत कर मड़ई ले जाया गया। मड़ई जाने से पहले विधायक, अन्य जनप्रतिनिधि, अधिकारी सभी सर्किट हाउस में जमा हुए। यहां से मड़ई समिति ने नगाड़ो के धुन के साथ स्वागत करते हुए मड़ई स्थल तक ले गए। देवी परिक्रमा के दौरान अतिथि भी मड़ई परिक्रमा करते नजर आए।
सोमवार को हुआ निशा जतरा
कोण्डागांव का पारम्परिक मेला वर्ष भर में एक बार मनाए जाने वाला एक सामूहिक उत्सव का स्वरूप है। जिसे प्रत्येक गांव के अपने-अपने ईष्ट देवी-देवताओं का समागम का वृहत सम्मेलन कहा जा सकता है। इस मेले का इतिहास बड़े बुर्जुगों के अनुसार तकरीबन 700 साल पुराना है।
मेला समिति के अनुसार, कोण्डागांव का साप्ताहिक बाजार पूर्व में मंगलवार को ही लगता था, जिसे ग्राम देवी माता की सेवा मंगलवार दिन होने के कारण बाजार लगाया जाता था, उसी रात्रि में निशा जतरा भी होता था। सप्ताह की शुरूआत और शासन का कामकाज चूंकि सोमवार से शुरू होकर शनिवार तक लगातार चलता था और रविवार के दिन शासन द्वारा अवकाश घोषित करने की स्थिति में साप्ताहिक बाजार को रविवार के दिन रखने का निर्णय ग्राम प्रमुख द्वारा निर्णय लेकर मंगलवार दिन को निरस्त किया गया। लेकिन मेला आयोजन हिन्दू पंचाग और चंद्र स्थिति के कारण माघ शुक्ल पक्ष में ही प्रथम मंगलवार से ही प्रारंभ होता आया है। इसमें आज तक कोई बदलाव नहीं हुआ।
पूर्व में मेला 24 परगना के देवी देवताओं का आगमन से होता था, अभी तहसील, विकासखण्ड, जिला आदि विभाजन के पश्चात् कुछेक परगनाओं से देवी देवता मेला में सम्मिलित होते हैं। स्वरूप वही है, किन्तु परम्परा आज भी यथावत् बना हुआ है। परगना में सबसे प्रमुख परगना का नाम सोनाबाल के नाम से जाना जाता है।
मेला के दिन मंगलवार के एक दिन पूर्व अर्थात् सोमवार को रात्रि में बाजार स्थल पर चौरासी समिया देव लाठ द्वारा परिक्रमा किया जाता है। रात में ही मेला परिसर में स्थित दंतेश्वरी मावली मंदिर में पूजा अर्चना किया जाता है, जिसे निशा जतरा कहते हैं। विभिन्न गांव से आये ग्रामवासी, सिरहा, गायता, पुजारी, मांझी, मुखिया आदि एकत्रित होकर मंदिर के पुजारी से विशेष अनुमति लेकर जतरा सम्पन्न किया जाता है।
पूर्व में यह तीन परिक्रमा के द्वारा पूर्ण होती थी, अब इसका स्वरूप में थोड़ा सा बदलाव दिखता है। मेला के दिन सर्वप्रथम ग्राम पलारी की पुरला देवी माता के द्वारा कोण्डागांव पहुंचने पर यहां के मंदिर समिति के पदाधिकारियों द्वारा स्वागत कर उन्हें फूल डोबला (फूल दोना) का आदान-प्रदान कर विधिवत् भेंट कर स्वागत करते हुए मेला परिसर तक आने का आग्रह किया जाता है। इस देवी के आगमन के बाद ही मेला परिक्रमा का कार्यक्रम प्रारंभ होता है। मुख्य देवी-देवताओं का समागम होने के कारण इसे मेला का रूप दिया गया है, जो एक सामाजिक, सांस्कृतिक के साथ-साथ ऐतिहासिक महत्व भी है।
इस अंचल में और भी अनेकों प्रकार के उत्सव होते हैं, जिसमें इन सभी देवी देवताओं के आव्हान के पश्चात् ही कार्यक्रम को सम्पन्न करने की एक परम्परा चली आ रही है। यह पूर्ण रूप से पारम्परिक उत्सव है, जिसे हम मेला का नाम देते हैं।