संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आदतन बदमाश की भीड़त्या से उपजे कुछ सवाल...
08-Oct-2024 4:45 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : आदतन बदमाश की भीड़त्या से उपजे कुछ सवाल...

अभी छत्तीसगढ़ के एक कस्बे में एक आदतन बदमाश ने शराब के नशे में हंगामा शुरू किया तो बर्दाश्त खो बैठे गांव के लोगों ने उसे पीट-पीटकर मार डाला। इस बदमाश के खिलाफ 15-20 मामले पुलिस में पहले से दर्ज थे, और वह अभी-अभी जेल से छूटकर बाहर आया था। आने के बाद अपनी बस्ती में वह लोगों को मारपीट कर शराब के लिए पैसे वसूल रहा था, इसी पर बात बढ़ी, और लोगों ने एकजुट होकर उसे मार डाला। मारने वालों में कुछ महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने पतियों के साथ मिलकर यह हत्या की। अब यह घटना तो एक कत्ल की तरह दर्ज है, लेकिन इससे कई किस्म के सवाल खड़े होते हैं।

अगर किसी आदतन बदमाश मुजरिम का आतंक किसी जगह बरसों से चले आ रहा है, और लगातार उसके जुर्म चल ही रहे हैं, सरकार की जिलाबदर करने जैसे कानूनी प्रावधान का भी इस्तेमाल इस आदमी पर होते नहीं दिखा है, और जेल से छूटकर आते ही वह फिर आतंक फैलाने लगा है, तो ऐसे में बस्ती के लोगों ने कानून अपने हाथ में लिया, और सामूहिक हमला करके इस बदमाश को मार डाला। पिछले बरसों के इसके छोटे-बड़े जुर्म अगर वक्त रहते इसे सजा दिला पाते, तो शायद यह नौबत नहीं आई होती। राह चलते लोगों को रोक-रोककर शराब के लिए पैसे मांगना, और न मिलने पर उन पर हमले करना लोग कब तक बर्दाश्त करते? और जब महिलाओं ने भी इस आदमी को खत्म करने के लिए हमले में बराबरी की हिस्सेदारी निभाई, तो बस्ती के लोग कितने थके हुए थे, यह जाहिर होता है। एक दूसरा मामला अभी कुछ हफ्ते पहले छत्तीसगढ़ के ही कवर्धा जिले में हुआ था जहां एक खुदकुशी के बाद उसकी हत्या होने के शक में गांव की भीड़ ने वहां के एक भूतपूर्व उपसरपंच के घर को घेरा, और मकान तो जला ही दिया, अपने ही समाज के इस नेता को पकडक़र मकान के भीतर जिंदा जलाया। इस गांव में भी इस उपसरपंच को दबंग माना जाता था, और लोगों ने एक शक के आधार पर ही उसकी ऐसी जान ले ली, परिवार के बाकी लोग किसी तरह बचे।

हम देश भर से अधिकतर प्रदेशों की ऐसी खबरें पढ़ते हैं कि कहां बलात्कार या छेडख़ानी के आरोपी जमानत पर छूटकर आते ही एक बार फिर शिकायतकर्ता लडक़ी या महिला के परिवार को प्रताडि़त करना शुरू करते हैं। पुलिस की कार्रवाई समय रहते नहीं होती, और गुंडों की दहशत में शिकायतकर्ता लडक़ी या महिला ही खुदकुशी को मजबूर हो जाती हैं। बहुत से मामलों में बलात्कारी या मवाली शिकायतकर्ता परिवार का जीना इस हद तक हराम कर देते हैं कि उनकी दुर्गति देखकर आगे लोग ऐसे मुजरिमों के खिलाफ रिपोर्ट भी लिखाने की हिम्मत नहीं करते। समाज में जब आदतन या पेशेवर हो चुके गुंडे-मवाली इस हद तक दबदबा कायम कर लेते हैं, तो फिर किसी दिन भीड़ हिसाब चुकता करते हुए भीड़त्या कर देती है।

ऐसी नौबत इसलिए भी आती है कि जिसका पुलिस थानों में रोज आना-जाना होता है, वे पुलिस के साथ कई तरह के गठजोड़ कर लेते हैं। पुलिस को भी इनसे एक संगठित फायदा होने लगता है, और पहली बार शिकायत करने आने वाले लोगों से पुलिस को उतना बंधा-बंधाया फायदा नहीं होता। इसलिए पुलिस की एक स्वाभाविक हमदर्दी पेशेवर मुजरिमों के लिए रहती है, जो कि परस्पर लाभ और परस्पर सद्भावना तक विकसित हो जाती है। अदालतों में मामलों की सुनवाई का हाल यह रहता है कि वे किसी किनारे पहुंचने का नाम नहीं लेते, और हर अदालती पेशी पर शरीफ शर्मसार होते हैं, और मवालियों से अदालती व्यवस्था मालामाल होती है। यह बात बहुत साफ है कि जब तक कानूनों पर ईमानदारी से असरदार अमल नहीं होगा, तब तक लोगों के मन में न्याय प्रक्रिया के लिए सम्मान नहीं रहेगा, फिर चाहे लोग किसी मुजरिम के कत्ल की सामूहिक हिम्मत जुटा पाएं, या नहीं। पुलिस और अदालत को अपनी इस जिम्मेदारी को समझना चाहिए जिसके पूरे न होने से भीड़ कानून अपने हाथ में लेती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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