संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संगठित भ्रष्टाचार के अड्डे सरकारी दफ्तर
16-Oct-2024 5:14 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : संगठित भ्रष्टाचार के  अड्डे सरकारी दफ्तर

किसी सरकारी दफ्तर में अगर भ्रष्टाचार नहीं है, तो वहां काम करने वाले लोग किसी की धमकी से कितना डरेंगे? अगर कोई धमकाकर उगाही करना चाहे, तो किसी भी मोटेतौर पर ईमानदार दफ्तर के लोग ऐसे व्यक्ति को पुलिस के हवाले करेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में केन्द्र सरकार के एक प्रमुख दफ्तर, पासपोर्ट ऑफिस में अभी जो हुआ है उससे एक मुजरिम तो उजागर हुआ है, खुद पासपोर्ट ऑफिस का भांडा फूट गया है कि उसके पास छुपाने को इतना कुछ है कि राह चलता कोई ब्लैकमेलर आकर उसे धमका सकता है, और पांच लाख रूपए नगद ऐंठकर ले जा सकता है। भला कौन सा सरकारी दफ्तर होगा जो पहली बार आए किसी परले दर्जे के धोखेबाज के झांसे में आकर, डर-सहमकर उसे पांच लाख नगद दे दे? लेकिन इस पासपोर्ट ऑफिस में ठीक वही हुआ। एक बड़ा सा आम सा दिखने वाला आदमी अपने आपको नागपुर से आया हुआ एंटी करप्शन ब्यूरो का अफसर बताते हुए पासपोर्ट ऑफिस में भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए गिरफ्तारी की धमकी देने लगा, और छोडऩे के लिए दस लाख रूपए मांगने लगा। पासपोर्ट ऑफिस ने पांच लाख देकर छुटकारा पाया, फिर जब पता लगा कि वे ठगे जा चुके हैं, तो पुलिस में शिकायत की, और पुलिस ने उस आदमी को पड़ोस के एक शहर से गिरफ्तार किया। 

हिन्दुस्तान से बाहर जाने वाले हर व्यक्ति को पासपोर्ट की जरूरत पड़ती है, और विदेश मंत्रालय के तहत आने वाला पासपोर्ट ऑफिस अखिल भारतीय सेवा के किसी अफसर के तहत काम करता है। पासपोर्ट जारी करते हुए यह ऑफिस सौ किस्म की जांच करता है, पुलिस से रिपोर्ट मंगवाता है, तब पासपोर्ट देता है। पूरा दफ्तर एक बड़ी हिफाजत के घेरे में काम करता है, और यहां पहुंचने वाले आम लोग नियमों के जाल में आतंकित रहते हैं। पासपोर्ट ऑफिस में अपनी बारी पहले लाने के लिए, कुछ नियमों की अनदेखी के लिए लोगों को बड़ी-बड़ी पहुंच लगानी पड़ती है, और हो सकता है कि इन्हीं सबमें भ्रष्टाचार इतना पनपता हो कि राह चलता धमकीबाज भी यहां से पांच लाख लेकर निकलता है। इस बार तो यह धोखेबाज पकड़ा गया, लेकिन बहुत से लोगों को इस दफ्तर की कमजोरी समझ आ गई है।

हम छत्तीसगढ़ राज्य सरकार के अलग-अलग दफ्तरों का हाल देखते हैं, तो हक्का-बक्का रह जाते हैं। सरकार का सबसे निचले स्तर का पटवारी ऑफिस किराए के भवन में चलता है, पटवारी कई लोगों को निजी तनख्वाह पर वहां रखता है, और मानो इसकी भरपाई के लिए लोगों से वसूली की जाती है, और एक-एक पटवारी करोड़पति हो जाते हैं। ऐसा ही हाल तहसील में भी रहता है जहां पर तहसीलदार के तहत बहुत से निजी कर्मचारी काम करते हैं, जिनका पैसा सरकार से नहीं आता, बल्कि उसी दफ्तर के भ्रष्टाचार से निकलता है, मजे की बात यह है कि पटवारी, तहसीलदार, आरटीओ जैसे बहुत से कमाऊ अमले हैं जहां पर गैरसरकारी लोग, अघोषित-निजी कर्मचारी कागज तैयार करते हैं, फाईलें बनाते हैं, और वे ही उन सरकारों को चलाते हैं। किसी भी प्रदेश के सरहद पर आरटीओ के लोग बाहर से आने वाली गाडिय़ों से वसूली के लिए लाठियां लिए हुए गिरोह की तरह खड़े रहते हैं, और ये सरकारी कर्मचारी नहीं रहते, बल्कि तनख्वाह या ठेके पर रखे गए गुंडे रहते हैं। ऐसा ही हाल जमीन-भवन की खरीदी-बिक्री वाले रजिस्ट्री ऑफिस का रहता है जहां पर एजेंट ही पूरा काम करवाते हैं, और इन एजेंटों के बिना कोई काम करवाना चाहे, तो उसका कभी काम ही न हो।

सरकार के पूरे ढांचे को ऐसे अदृश्य और अघोषित कर्मचारियों की जानकारी रहती है, लेकिन कोई भी सरकार इस व्यवस्था में छेड़छाड़ नहीं करती। संगठित भ्रष्टाचार चलाने वाले लोग आने वाली सरकार को यह बात अच्छी तरह समझा देते हैं कि व्यवस्था इसी तरह चलती है, और अगर कमाई जारी रखनी है, तो उनकी अघोषित सेवाएं जारी रखना ही सबसे अच्छा तरीका होगा। जेल से जिनका जरा सा भी वास्ता पड़ता है, उन्हें मालूम है कि वहां हर कैदी को हर किस्म की सहूलियतें खरीदने की पूरी आजादी रहती है। पीने-खाने से लेकर बदन दबवाने, और मालिश करवाने तक, अस्पताल में भर्ती होने तक, मर्जी से अदालत जाने या न जाने के लिए, अदालत आते-जाते किसी होटल में अपने परिवार के साथ घंटों रहने के लिए, रात अपने घर सोने चले जाने के लिए, अपने खास मुलाकातियों से अकेले में मिलने के लिए, और अपने परिवार-कारोबार की फाईलों पर दस्तखत के लिए अलग-अलग किस्म से भुगतान करना पड़ता है, और जानकार बताते हैं कि किस तरह जेलों के भीतर हर सहूलियत, हर काम का ठेका दिया जाता है, और अफसरों की कमाई का एक मोटा इंतजाम वहां रहता है। कैदियों से ओवरफ्लो होतीं जेलों के लिए हर किस्म के सामान की खरीदी एक बहुत बड़ा भ्रष्टाचार रहता है, और इसके बारे में विभाग को जानने वाले सभी लोगों को पूरी खबर रहती है।

प्रदेशों में पार्टियों सरकारों में आती-जाती रहती हैं। जब लोग विपक्ष में रहते हैं, तो वे सरकार के भ्रष्टाचार का भांडाफोड़ करते हुए आरोप लगाते हैं, और कभी-कभी सुबूत भी सामने रखते हैं। दूसरी तरफ जब विपक्ष के ऐसे लोग सत्ता पर आते हैं, तो विभागों के संगठित भ्रष्टाचार की अपनी जानकारी का इस्तेमाल खुद भी वैसा ही भ्रष्टाचार करने में करने लगते हैं। यह सिलसिला उन अफसरों की मेहरबानी से और बढऩे लगता है, जो कि हर सत्तारूढ़ पार्टी के लिए जरूरी रहते हैं। हमने रमन सिंह सरकार के कुछ सबसे भ्रष्ट अफसरों को देखा था जो कि उस वक्त के विपक्षी भूपेश बघेल की तोप के निशाने पर थे। लेकिन जैसे ही भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने, बड़े पैमाने का संगठित भ्रष्टाचार करने वाले ये अफसर उनके इतने चहेते बन गए, कि उनके रथ के सारथी बन गए, और अपने से कई दर्जा ऊपर के अफसरों को चाबुक मारकर चलाने लगे थे। अभी सुप्रीम कोर्ट इसी दौर पर गौर कर रहा है कि किस तरह रमन सिंह के कार्यकाल के सबसे भ्रष्ट अफसरों को बचाने के लिए अगले कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हाईकोर्ट के जज से भी बात-मुलाकात की, और अपने नियुक्त किए गए महाधिवक्ता को भी कानून के इस कत्ल में जोत दिया था।

हमने बात शुरू तो की थी पासपोर्ट ऑफिस से, जिसने एक धमकी से हड़बड़ाकर सडक़ छाप दिख रहे एक धोखेबाज को पांच लाख रूपए दे दिए। लेकिन सरकारें अगर गौर करें, तो उनके बहुत से दफ्तर संगठित अपराध और भ्रष्टाचार का अड्डा बने रहते हैं, जिनके बारे में ऐसे दफ्तरों के बाहर के चायठेले और पानठेले वालों को भी सब पता रहता है, और अगर किसी को पता नहीं रहता है, तो वह बस सरकारों में बैठे बड़े-बड़े लोगों को पता नहीं रहता है। दरअसल भ्रष्टाचार की कमाई पलकों को बोझिल कर देती है, और अपने कमाऊ-कपूतों के कुकर्म दिखना बंद हो जाते हैं।      (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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