संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बड़े कानून तोडऩे की शुरूआत होती है ट्रैफिक नियम तोडऩे से
17-Oct-2024 5:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  बड़े कानून तोडऩे की  शुरूआत होती है  ट्रैफिक नियम तोडऩे से

हिंसा की बहुत बड़ी-बड़ी घटनाओं से घिरे हुए छत्तीसगढ़ में चारों तरफ बड़े मुजरिमों की सहूलियत की अराजकता तो छाई हुई है, ढेर सारी ऐसी अलग-अलग घटनाएं हो रही हैं जो बताती हैं कि गैरमुजरिम, आम जनता के मन में भी नियम-कायदों के लिए, और दूसरों के हक के लिए एक हिकारत बैठ गई है। जो लोग पेशेवर मुजरिम नहीं हैं, वे लोग भी सडक़ों पर एक-दूसरे से इस तरह हिंसा के साथ निपट रहे हैं, कि मानो प्रदेश में कोई कानून लागू नहीं है। कहीं लोग खून-खराबा कर रहे हैं, कहीं गाडिय़ां तोड़ रहे हैं, और अंधाधुंध रफ्तार से गाडिय़ां चलाते हुए इंसानों और जानवरों को कुचलना तो आए दिन की बात हो गई है। अभी घर के बाहर खेल रहे एक बच्चे को कुचलती हुई अंधाधुंध कार ने उसकी जिंदगी ही छीन ली। लोगों के मन में अपने गैरकानूनी अधिकारों को लेकर एक अहंकार भर गया है, और दूसरों की जिम्मेदारियां लोग तय करने लगे हैं। सरकार और समाज दोनों को यह सोचना चाहिए कि अपराधियों से परे जब आम जनता की सोच इतनी अराजक हो जाए, तो उसके कैसे खतरनाक नतीजे हो सकते हैं।

हम अपने लंबे तजुर्बे से यह देखते हैं कि भारत जैसे देश में लोग अपनी जिंदगी में पहली बार सडक़ पर ट्रैफिक के नियम तोड़ते हुए ही लोग कानून के खिलाफ कुछ करते हैं। और जिन प्रदेशों में ट्रैफिक के नियम कड़ाई से लागू नहीं होते, वहां पर कानून तोडऩे का सिलसिला अगले स्टेज तक पहुंच जाता है। जहां पर सडक़ों पर कड़ाई बरती जाती है, वहां पर लोगों को अधिक बड़े जुर्म करने में वक्त लगता है। हम बार-बार सडक़ों पर ट्रैफिक सुधारने की बात इसीलिए करते हैं कि कमउम्र से ही लोगों के मन में यह न बैठ जाए कि कानून तोडऩे से कुछ नहीं बिगड़ता है। आज हम देखते हैं कि जो लोग मोटरसाइकिल का साइलेंसर फाडक़र चलते हैं, वे अंधाधुंध रफ्तार से भी गाडिय़ां दौड़ाते हैं, सडक़ों पर स्टंट दिखाते हैं, और फिर नियम तोडऩे का यह सिलसिला बढ़ते चले जाता है। यह बात हैरान करती है कि देश में ट्रैफिक के जो कड़े नियम बनाए गए हैं, उन पर अमल करने से छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश की सरकार मुंह चुराती है। कई जिलों से यह पता लगा है कि जैसे ही बिना हेलमेट वालों का चालान शुरू होता है, या बिना नंबर प्लेट गाडिय़ां, तेज आवाज करने वाले साइलेंसर पर रोकथाम शुरू होती है, सत्ता की तरफ से कुछ घंटों में ही दखल शुरू हो जाती है कि लोगों को नाराज क्यों किया जा रहा है? नतीजा यह होता है कि जब लोग पहले कुछ नियम तोड़ चुके रहते हैं, तो फिर मारपीट और हिंसा न करने के नियम तोडऩे की बारी आ जाती है।

राजनीतिक, धार्मिक, या सामाजिक, किसी भी तरह की भीड़ की गुंडागर्दी को जब सत्ता बर्दाश्त करती है, और बढ़ावा देती है, तो ऐसी भीड़ के तमाम लोग भीड़ में न रहने पर भी अकेले-अकेले भी कानून के खिलाफ काम करने को अपना हक मान लेते हैं। पुलिस के रोजमर्रा के कामकाज में राजनीतिक दखल छत्तीसगढ़ को एक ऐसी कगार पर पहुंचा चुकी है कि अब जनता का मिजाज अधिक, और अधिक अराजक होते चल रहा है। एक नतीजा यह भी निकल रहा है कि नाबालिग मुजरिम बढ़ते चल रहे हैं। इसे सीधे-सीधे गाडिय़ां दौड़ाने वाले नाबालिगों की सोच से जोडक़र देखा जाना चाहिए कि नियम-कायदे से हिकारत कभी थमती नहीं है, वह और अधिक बड़ा जुर्म करवाती है। सरकार और समाज दोनों के लिए सबसे आसान और सहूलियत का काम सडक़ और ट्रैफिक के नियम लागू करना है जिससे लोगों की सोच भी नियमों के सम्मान की होती चलेगी। लेकिन हम सरकार में यह सबसे मामूली इच्छाशक्ति भी नहीं देख रहे हैं। हमने बीते बरसों में कुछ ऐसे पुलिस अफसरों को देखा है जिन्होंने अपने जिलों में पूरी कामयाबी के साथ हेलमेट जैसे नियम लागू करवा दिए थे। उनको न अधिक पुलिस की जरूरत पड़ी, और न ही पुलिस का दूसरा काम रूका, सिर्फ राजनीतिक दखल से जिले की पुलिस को आजादी मिली, तो बड़ी आसानी से सब कुछ सुधर गया। सरकार को तो यह भी चाहिए कि नमूने के तौर पर कुछ चुनिंदा जिलों में ट्रैफिक के नियम सौ फीसदी लागू करवाकर देखे कि उसके बाद इन जिलों में गुंडागर्दी जैसे जुर्म अपने-आप घट जाते हैं या नहीं। इसे पायलट प्रोजेक्ट की तरह चलाया जा सकता है, या जानकार मनोवैज्ञानिकों से भी समझा जा सकता है कि सार्वजनिक जीवन के सबसे बुनियादी नियम-कानून लागू करने, और न करने का क्या फर्क पड़ता है।

जब सत्तारूढ़ पार्टी या नेताओं की तरफ से पुलिस को ट्रैफिक नियम तोडऩे पर भी कार्रवाई न करने को कहा जाता है, तो पुलिस को इससे कोई निजी नुकसान नहीं होता। वह कारोबारी ट्रांसपोर्टरों से चालान न करने की गारंटी बेचकर और पैसा कमाने लगती है, लेकिन इससे एक्सीडेंट बहुत बुरी तरह बढ़ते हैं, मौतें बढ़ती हैं, और कुल मिलाकर सरकार और समाज का बड़ा नुकसान होता है। सत्ता को चाहिए कि अपने हाथ नियम-कायदे लागू करने वाली पुलिस से दूर रखे। ऐसा न करने पर इसका नुकसान भी हम देखते हैं। इसी प्रदेश में किसी कोने में एक पार्टी, और किसी दूसरे कोने में किसी दूसरी पार्टी के मुजरिम बड़े-बड़े जुर्म करते हुए अब पुलिस परिवारों के कत्ल तक पहुंच गए हैं, और इससे बड़ा जुर्म और क्या हो सकता है? सत्ता और जनता को यह समझना होगा कि छोटे नियम तोडऩे की छूट उसी जगह नहीं थमती है, वह बढ़ते-बढ़ते सबसे वीभत्स और भयानक जुर्मों तक पहुंच जाती है। यह बात लोगों को कुछ जरूरत से ज्यादा आसान विश्लेषण लग सकती है, लेकिन हम आज की इस बात के एक-एक शब्द पर पूरी गंभीरता से कायम हैं कि जिंदगी में सबसे कमउम्र से ट्रैफिक के नियमों पर अमल करने का मिजाज अगर बनने लगता है, तो लोग आगे चलकर बाकी नियम-कानून का भी सम्मान कुछ अधिक हद तक कर सकते हैं, वरना तो हम हर दिन सडक़ों पर लोगों को चाकू चलाते देख ही रहे हैं।

नमूने के तौर पर हम राज्य के गृहमंत्री के अपने जिले और अपने विधानसभा क्षेत्र कवर्धा की बात करना चाहेंगे जहां के खूनी मंजर की शुरूआत जिस मौत से हुई थी, उसके बारे में कल मध्यप्रदेश की पुलिस ने खुलासा किया है। इस जिले से लगे हुए मध्यप्रदेश में कवर्धा के एक आदमी की लाश मिली थी जिसे खुदकुशी की शक्ल दी गई थी। लेकिन गांव के लोगों का शक था कि गांव के एक उपसरपंच ने यह कत्ल करवाया है। भीड़ ने जाकर इस उपसरपंच को उसके घर के भीतर ही मकान सहित जलाकर मार डाला था। इसके बाद हमलावर गिरफ्तार लोगों में से एक नौजवान को पुलिस ने पीट-पीटकर मार डाला था। अब पता लग रहा है कि उपसरपंच के परिवार ने ही वह पहला कत्ल करके खुदकुशी दिखाने की कोशिश की थी। लोगों के बीच कत्ल करने का ऐसा हौसला रातों-रात पैदा नहीं हो जाता है, और छत्तीसगढ़ जैसे शांत रहने वाले प्रदेश में यह हौसला एक बहुत खतरनाक नौबत है। इसे सुधारने की कोशिश सडक़ और ट्रैफिक से हो सकती है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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