संपादकीय
जिस बांग्लादेश को लेकर आज हिंसा और उपद्रव की खबरें चारों तरफ छाई हुई हैं, अभी कुछ अरसा पहले तक ही वही बांग्लादेश जीडीपी में भी भारत से भी आगे हो गया था क्योंकि वहां पर अब हट चुकी हसीना सरकार ने अपने बेहतर दिनों में लोगों के लिए अंतरराष्ट्रीय रोजगार जुटाए थे। दुनिया भर की चारों तरफ की कंपनियां अपने महंगे कपड़े बांग्लादेश में सिलवाती थीं, जूते और खेल के सामान वहां बनते थे, और बिना किसी अधिक पढ़ाई-लिखाई के लोगों को मामूली ट्रेनिंग देकर बांग्लादेश ने आम लोगों के लिए अभूतपूर्व रोजगार जुटा दिए थे। भारत में भी कई जगह इस तरह की कहानियां सामने आती हैं। और जरूरी नहीं कि कामयाबी की कहानियां सिर्फ अच्छी बात की हों, झारखंड के जामताड़ा नाम के गांव-कस्बे में हजारों या दसियों हजार लोग टेलीफोन पर जालसाजी के धंधे में ऐसे लगे कि बात की बात में गांव से बेरोजगारी खत्म हो गई, और हर कोई साइबर-मुजरिम बन गए। अब हरियाणा के मेवात इलाके के कुछ गांवों का नाम आ रहा है कि उन्होंने जामताड़ा को भी पीछे छोड़ दिया है। अभी पिछले पखवाड़े ही पश्चिम भारत के एक किसी कस्बे की रिपोर्ट आई थी कि किस तरह वहां एक पूरा का पूरा कस्बा शादी के उद्योग में तब्दील हो गया है, और देश भर से लोग वहां शादी के लिए पहुंचते हैं, वहां विवाह मंदिर पंडित से लेकर वकील तक, फोटोग्राफर से लेकर वीडियोग्राफर तक सबका इंतजाम रखते हैं, और कानूनी रूप से जांच के बाद शादी के सुबूत देने वाले संस्कार करवाए जाते हैं, और कम खर्च में शादी के सभी विधि-विधान वैधानिक जरूरतों के साथ-साथ पूरे हो जाते हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि किस तरह वह कस्बा एक-एक दिन में सैकड़ों शादियां करवाता है। अभी मध्यप्रदेश के चंबल इलाके की एक रिपोर्ट एक अखबार भास्कर में आई है कि किस तरह डकैतों के आतंक वाले इस इलाके में अब बड़ी-बड़ी कंपनियों ने इतनी फैक्ट्रियां लगा ली हैं कि रात की शिफ्ट में भी अब वहां महिलाएं पूरी हिफाजत के साथ काम करती हैं, और सबकी अच्छी खासी कमाई हो रही है। कई फैक्ट्रियों में पुरूषों से ज्यादा महिला कर्मचारी हो गई हैं। यह मामला करीब-करीब बांग्लादेश जैसा दिख रहा है, और इस इलाके में अगर मामूली टेक्नॉलॉजी ट्रेनिंग के साथ काम करने की संस्कृति इसी तरह बढ़ गई तो कोई हैरानी की बात नहीं है कि यहां के कारखानों को सिलाई या दूसरे कामों के अंतरराष्ट्रीय ऑर्डर भी मिलने लगें। भारत में मजदूरी अभी भी दुनिया के कई देशों के मुकाबले सस्ती है, बिजली भी भरपूर है, और सौर ऊर्जा का भविष्य दुनिया में सबसे अच्छा यहीं पर रहने वाला है।
देश के अलग-अलग प्रदेशों को जगह-जगह बिखरे ऐसे गांवों की कामयाबी का अध्ययन करना चाहिए। देश के प्रमुख शैक्षणिक संस्थान, आईआईएम, और आईआईटी भी इनका अध्ययन कर सकते हैं कि इन गांव-कस्बों में ऐसा क्या था कि कोई कारोबार यहां उस ऊंचाई पर पहुंच गया जहां देश की बाकी जगहों को वैसी कामयाबी नहीं मिली। हमें याद है कि जब छत्तीसगढ़ नया राज्य बना तब एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाते हुए इस संपादक ने राजधानी रायपुर के जिले के ही कुछ गांवों में जाकर शूटिंग की थी, और उनमें से एक गांव ऐसा था जिसमें करीब साढ़े चार सौ घरों में हाथकरघे लगे थे, उन्हें ओडिशा के व्यापारी आकर धागा, रंग, और डिजाइनें दे जाते थे, और विश्वविख्यात संबलपुरी साडिय़ां छत्तीसगढ़ के इस गांव में भी बनती थीं। राज्य बन ही रहा था, और उस वक्त यहां बिजली की भारी कमी थी, और छोटे-छोटे घरों में लगे हुए हाथकरघे पर काम करने के लिए एक ट्यूबलाईट की भी बिजली नहीं मिलती थी। उस गांव के जितने लोगों से बात हुई थी, उन्हें छत्तीसगढ़ सरकार से या यहां के किसी बैंक से कोई भी मदद नहीं मिली थी, लेकिन गांव इतना आत्मनिर्भर था कि कैसा भी अकाल पड़े, वहां के लोग काम करने बाहर नहीं जाते थे।
किसी गांव या इलाके की तस्वीर बदलने के लिए जादू की कोई छड़ी नहीं लगती। एक अकेले वर्गीज कुरियन ने गुजरात के आनंद में देश की सबसे बड़ी सहकारी डेयरी खड़ी कर दी, और इसके साथ-साथ उन्होंने दुग्ध उत्पादनों का सबसे ब्रांड, अमूल भी खड़ा कर दिया। उन्हें देश में श्वेत क्रांति का जनक कहा जाता है, और 1949 में डेयरी टेक्नॉलॉजी के इंजीनियर कुरियन को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गुजरात में दुग्ध उत्पादकों के सहकारी आंदोलन का प्रयोग करने के लिए भेजा था। उसके बाद से इस एक अकेले आदमी ने भारत सरकार से मिले अधिकारों की बदौलत हिन्दुस्तान में दूध के कारोबार का नक्शा ही बदल दिया। केरल का यह आदमी गुजरात के रास्ते देश के हर घर में पहुंच गया। आज देश का शायद ही कोई ऐसा घर हो जो अमूल दूध से लेकर चॉकलेट और आइस्क्रीम तक किसी न किसी चीज का इस्तेमाल न करता हो। दूध उत्पादकों के सहकारी आंदोलन की अंतरराष्ट्रीय मिसाल कायम करने वाले कुरियन को मैग्सेसे पुरस्कार, पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण सहित खाद्यान्न और किसानी के जाने कितने ही अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले।
हमारा मानना है कि अगर कोई सचमुच के कल्पनाशील व्यक्ति हों, तो वे सरकार या समाज से मिले सहयोग और प्रोत्साहन से किसी इलाके की संभावनाओं को आंककर वहां के लोगों को बढ़ावा देकर उसे आसमान तक पहुंचा सकते हैं। हर प्रदेश में ऐसी संभावनाएं रहती हैं, और यह जरूरी नहीं है कि ये कल्पनाशील लोग सरकार के भीतर के ही हों। आज अमरीका अगर दुनिया का सबसे कामयाब और ताकतवर देश बना हुआ है, तो वह इसलिए नहीं है कि वहां की सरकार खुद तमाम काम करने में भरोसा रखती है। अमरीकी सरकार ने दुनिया भर से वहां पहुंचे हुए लोगों का हौसला जितना बढ़ाया है, उन्हें काम करने का मौका बिना सरकारी दखल और बिना सरकारी उगाही के जिस हद तक दिया है, उससे ऐसे तमाम लोग खुद भी आगे बढ़े, और उनकी कामयाबी में टैक्स के रास्ते सरकार का अपना हिस्सा तो रहता ही है। इसलिए अमरीकी सरकार ने खुद अधिक काम करने के एकाधिकार के बजाय लोगों को खुली छूट दी कि वे अपनी कल्पनाओं को आसमान तक पहुंचाएं। और इसके लिए अमरीका ने दुनिया भर से वहां पहुंचे हुए तमाम लोगों को बराबरी से बढ़ावा दिया, तब जाकर ऐसी बेमिसाल कामयाबी हासिल हो सकी।
भारत के अलग-अलग प्रदेश भी यह सोच सकते हैं कि क्या उनके यहां राजस्थान के कोटा जैसा कोई ट्रेनिंग कारोबार खड़ा हो सकता है, या हस्तशिल्प और हाथकरघा का कोई नया केन्द्र बन सकता है, या अंतरराष्ट्रीय रोजगार के लायक लोगों के शिक्षण-प्रशिक्षण का केन्द्र खड़ा किया जा सकता है? सरकार का अपना ढांचा अगर इतना कल्पनाशील न भी हो पा रहा है, तो भी उसे चाहिए कि वह निजी क्षेत्र को, सहकारी क्षेत्र को, या देश-विदेश के पूंजीनिवेशकों को लाकर अपने प्रदेश में कुछ ऐसा अनोखा काम करवाए कि जिससे इलाके की तस्वीर बदल जाए। अब अगर कोई कस्बा सिर्फ शादी उद्योग चलाकर अरबों रूपए सालाना कमा सकता है, तो फिर ऐसी कई दूसरी कल्पनाएं भी शक्ल ले सकती हैं।
कोलकाता के एक सरकारी मेडिकल कॉलेज में 9 अगस्त को एक जूनियर डॉक्टर से रेप और उसकी हत्या का मामला न सिर्फ वहां के हाईकोर्ट में गूंज रहा है, बल्कि सीबीआई जांच से लेकर मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के सडक़ पर निकाले जुलूस तक दिखाई दे रहा है। पूरे देश में पिछले चौबीस घंटों में तमाम अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में, डॉक्टरों के क्लीनिकों में इसकी छाया दिखाई पड़ी, और शायद ही कभी इसके पहले सारा का सारा भारतीय चिकित्सा जगत इतना विचलित हुआ हो। ड्यूटी पर काम कर रही महिला डॉक्टर से बलात्कार और हत्या से सभी हिले हुए हैं। ऊपर से ऐसे विचलित देश में जनभावनाओं के खिलाफ जाकर जब किसी राज्य की मुख्यमंत्री खुद ही विरोध-प्रदर्शन में जुट जाती है, तो इस रेप-हत्या पर राजनीति कुछ अधिक गरमाना स्वाभाविक हो जाता है। हालत यह है कि ममता के गिने-चुने हमदर्द लोगों से परे हर कोई पश्चिम बंगाल सरकार के खिलाफ कड़े तेवर लिए खड़े हैं, और अब यह मामला महज बलात्कार-हत्या का नहीं रह गया है, बल्कि सीबीआई जांच में नशे के कारोबार, और मानव अंगों के धंधे जैसी कई और चीजें भी सामने आ रही हैं। अलग-अलग प्रदेशों में राजनीतिक दल इसे लेकर ममता सरकार पर हमले कर रहे हैं, और एकाएक ऐसा लगने लगा है कि मानो देश के किसी और राज्य में बलात्कार हो ही नहीं रहे हैं।
हम आज की ही खबरों को देख रहे हैं, तो भाजपा शासन वाले उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में पंजाब की एक नाबालिग लडक़ी से उत्तराखंड सरकार की बस में गैंगरेप का मामला सामने आया है, और इस मामले में बस ड्राइवर सहित छह लोगों को गिरफ्तार किया गया है, दूसरी तरफ बलात्कार की शिकार इस नाबालिग लडक़ी की हालत, और उसकी मानसिक हालत दोनों खराब बताई जा रही है। देश में कोई भी प्रदेश हो, किसी भी पार्टी की सरकार हो, बलात्कार होते ही रहते हैं। अधिक बड़ा मुद्दा तब बनता है जब सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ कोई दूसरी पार्टी बहुत अधिक सक्रिय रहती है, और सत्तारूढ़ नेता कोई बयान देने में लापरवाही बरतकर आग में घी झोंकते हैं। ममता बैनर्जी के राज में जुबानी घी के अलावा पुलिस की कमजोर पकड़, सार्वजनिक हिंसा से भी मामला इतना बिगड़ा है कि हाईकोर्ट को एक के बाद एक मामला सीबीआई को देना पड़ रहा है। दो दिन पहले ही हमारे अखबार के यू-ट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल पर यही सवाल उठाया गया था कि क्या बंगाल पुलिस की जगह किसी केन्द्रीय फोर्स को काम दे देना चाहिए, और उसी शाम वहां के हाईकोर्ट ने ममता सरकार की कटु आलोचना करते हुए अस्पताल में हिंसक प्रदर्शन की जांच भी सीबीआई को दे दी।
अब हम बलात्कारों पर होने वाली राजनीति को कुछ देर के लिए अलग रखें, और देश की लड़कियों और महिलाओं के हित की बात करें, तो यह बात साफ है कि देश में हजारों बलात्कार ऐसे हो रहे हैं जिनमें मुजरिमों के पिछले जुर्म पर पुलिस ने कोई गंभीर कार्रवाई नहीं की, और उनका हौसला बढ़ा हुआ रहा। लोगों को पुलिस के भ्रष्टाचार, अदालत की कमजोरी, इन बातों पर इतना अधिक भरोसा रहता है, बलात्कार की शिकार को डराने-धमकाने की उनकी इतनी ताकत रहती है कि बलात्कार करते हुए उनके दिमाग में पल भर को भी बरसों की कैद नहीं आती है। अगर लोगों को पुलिस की ईमानदार, कड़ी, और तत्काल कार्रवाई का खतरा दिखे, अदालतों में तेजी से ईमानदार फैसला दिखे, तो बलात्कार तो दूर उनके बदन में उत्तेजना भी नहीं आ पाएगी। कानून व्यवस्था पर बहुत कमजोर अमल सेक्स-मुजरिमों को हौसला देता है, और इसी के चलते बहुत से बलात्कार होते हैं। अगर कोई यह सोचे कि पुलिस और अदालत के ऐसे ही ढीले-ढाले रवैये के चलते सेक्स-अपराध घट जाएंगे, तो उन्हें हकीकत का कोई अंदाज नहीं है। फिर जहां तक संसद और विधानसभाओं पर काबिज सरकारों और सत्तारूढ़ पार्टियों का सवाल है, वे कानून को और कड़ा करने, बलात्कार पर मौत की सजा जोडऩे जैसे दिखावे करके जनता की वाहवाही पाने की कोशिश करती हैं। लेकिन जब सिर्फ कानून कड़ा होते चलता है, और उस पर अमल ढीली होती चलती है, तो फिर जनता को लुभाने के लिए लिए गए ऐसे फैसलों का कोई असर नहीं होता। कुछ किस्म के बलात्कार पर मौत की सजा के प्रावधान से एक ही चीज होती है कि बलात्कार की शिकार को मार डालने के मामले बढ़ते चलते हैं। जब बलात्कार पर भी फांसी है, और बलात्कार-हत्या पर भी फांसी है, तो फिर सुबूत और गवाह छोड़े ही क्यों जाएं?
अभी देश भर में ममता विरोधी ताकतें आसमान को सिर पर उठाकर चल रही थीं, और उत्तराखंड का यह सामूहिक बलात्कार सामने आ गया, और बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में इसी बीच 14 बरस की दलित लडक़ी को सामूहिक बलात्कार के बाद मार डाला गया। हम बलात्कार को किसी पार्टी से जोडक़र तब तक नहीं चलते जब तक बलात्कारी सत्तारूढ़ पार्टी के न हों, या सत्तारूढ़ पार्टी बलात्कारियों को बचाने में न लग जाए। बिहार के इस मामले में तो इस लडक़ी की लाश मिलने के पांच दिन बाद भी पुलिस उन लोगों पर हाथ भी नहीं धर पाई है जिनके नाम लेकर इस मृत लडक़ी के परिवार वालों ने आरोप लगाया है। मुख्य आरोपी और उसके पांच साथियों में से पुलिस किसी को नहीं पकड़ पाई है। दलित परिवार का कहना है कि संजय राय नाम का एक आदमी अपने साथियों के साथ बलपूर्वक उनके घर में घुसा, और उनकी नाबालिग लडक़ी को बलपूर्वक अपने हवाले करने पर अड़ गया। दलित परिवार का कहना है कि इस इलाके में यादवों का दबदबा है, और लंबे समय से उन्हें मिल रही धमकियों पर भी वे कुछ नहीं कर सके, और न ही पंचायत ने उनकी शिकायत पर कुछ किया।
बंगाल में ममता बैनर्जी एक संवेदनाशून्य मुख्यमंत्री बन चुकी हैं, और उन्हें बलात्कार की हर घटना में राजनीतिक साजिश दिखने लगती है। उनकी पुलिस परले दर्जे की नालायक हो चुकी है। और हाईकोर्ट ने यह ठीक ही किया जो कि बलात्कार और उसके बाद के प्रदर्शन मामलों को जांच के लिए सीबीआई को दे दिया। लेकिन उसी राजनीतिक दल को बंगाल के बलात्कार को राजनीतिक मुद्दा बनाने का हक है, जिनके अपने राज में कहीं बलात्कार नहीं हो रहे हों। कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की पुलिस लाईन में एक किसी संस्था ने राखी का कार्यक्रम रखा था, और उसमें कोलकाता की मृतक मेडिकल छात्रा को श्रद्धांजलि देते हुए वर्दी में खड़े तमाम पुलिसवालों की तस्वीर आज छपी है। बंगाल के बलात्कार पर छत्तीसगढ़ पुलिस की सामूहिक श्रद्धांजलि यह सोचने पर मजबूर करती है कि भाजपा के राज वाले उत्तराखंड और बिहार के सामूहिक बलात्कारों को इस श्रद्धांजलि में क्यों शामिल नहीं किया गया, और क्या छत्तीसगढ़ में हर महीने होने वाले कई बलात्कारों को भी यहां की पुलिस इसी तरह श्रद्धांजलि देगी? या यह खास महत्व का दर्जा सिर्फ ममता-राज के लिए आरक्षित रखा गया है?
कुछ खबरें अपने आपमें मामूली लग सकती हैं, लेकिन जब उनकी बौछार सी होने लगे, तो वे एकदम से खटकती हैं। आसमान से गिरी एक बूंद बदन पर महसूस नहीं होती, लेकिन जब ये बूंदें हजारों की संख्या में हो जाती हैं, तो लोगों को बारिश का अहसास होता है। पिछले कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ की स्कूलों का जो हाल सुनाई पड़ रहा है, वह एक भयानक नौबत बताता है। और ऐसा भी नहीं है कि बृजमोहन अग्रवाल के अब शिक्षामंत्री से सांसद बन जाने की वजह से कुछ हफ्तों के भीतर इस विभाग में अब शिक्षक, हेडमास्टर, और प्रिंसिपल गैंगरेप करने लगे हैं, छात्राओं का देह-शोषण करने लगे हैं, छात्राओं को अश्लील संदेश भेजने लगे हैं, शराब पीकर स्कूल पहुंचने लगे हैं। यह हाल पहले से चले आ रहा था, न सिर्फ इस सरकार की शुरूआत से, बल्कि पिछली कांग्रेस सरकार के वक्त से भी स्कूल शिक्षा विभाग चलाने में मंत्री और अफसर की दिलचस्पी स्कूल-खरीदी में ही दिखती थी। लोगों को याद होगा कि कांग्रेस की भूपेश सरकार में स्कूल शिक्षा मंत्री को आखिर में हटाया भी गया था, जो कि 20 बरस पहले भी मंत्री रह चुके थे, और अनुभवी थे।
पता नहीं स्कूल शिक्षा की यह बदहाली कभी सुधर क्यों नहीं पाई। विभाग में हर समय बड़ा संगठित भ्रष्टाचार चलते रहा, और उसके चलते इस विभाग को सुधारने में किसी की दिलचस्पी नहीं रही, हर किसी की दिलचस्पी खरीदी में रही, कभी फर्नीचर खरीदी, कभी साइकिल और यूनिफॉर्म खरीदी, और कभी स्कूल लाइब्रेरी के लिए सबसे घटिया किताबों की खरीदी। हमें सिंचाई और पीडब्ल्यूडी जैसे विभागों के भ्रष्टाचार कुछ कम खटकते हैं, लेकिन स्वास्थ्य, और स्कूल शिक्षा का भ्रष्टाचार देखकर खून जलता है क्योंकि दुनिया के किसी भी सभ्य लोकतंत्र में सबसे अधिक महत्व इन्हीं दोनों विभागों को दिया जाता है। आज हालत यह है कि देश में स्कूल शिक्षा के स्तर के मामले में छत्तीसगढ़ बहुत नीचे है, और इसमें कई सरकारों का, कई कार्यकालों का योगदान रहा है, यह नौबत रातों-रात तो आ नहीं सकती थी।
पिछली भूपेश सरकार के समय जो आत्मानंद अंग्रेजी-हिन्दी स्कूल खोले गए, उन्हें सरकार ने अपनी प्रतिष्ठा का झंडा बना लिया था, और बाहर से आने वाले, या लाए गए पत्रकारों को दिखाने के लिए ये स्कूल नुमाइश की तरह इस्तेमाल किए जाते थे। हमारा ख्याल है कि पांच बरस में भी भूपेश सरकार स्कूली छात्र-छात्राओं के पांच फीसदी के लिए भी ये महंगे और खास दर्जा प्राप्त स्कूल नहीं बना पाई थी। बल्कि सरकार और म्युनिसिपल के जो सबसे अच्छे स्कूल थे, जिनकी इमारतें अच्छी थीं, जिनका ढांचा अच्छा था, उनको आत्मानंद स्कूल बना दिया गया, नतीजा यह निकला कि हिन्दी स्कूलों के पास गिनी-चुनी जगहों पर जो ढांचा उपलब्ध था, वह भी अंग्रेजी के लिए छिन गया। इसके अलावा जिला कलेक्टरों की जेब में रखी गई जिला खनिज निधि की रकम को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की प्रतिष्ठा के इन झंडों पर अनुपातहीन तरीके से खर्च किया गया। हमने उस समय भी कई बार इस मुद्दे पर लिखा था कि अंग्रेजी भाषा के ऐसे आतंक में आने की जरूरत नहीं है कि महंगी इमारत, महंगे फर्नीचर, खास पोशाक के बिना मानो अंग्रेजी सीखना मुमकिन न हो। भाषा तो एक औजार रहती है, और जब प्रदेश में स्कूली शिक्षा की ऐसी बदहाली हो, तो उसी में से पैसे निचोडक़र ऐसे चुनिंदा महंगे टापू बनाना अलोकतांत्रिक काम था। हिन्दी भाषा में पढऩे वालों ने ऐसा कौन सा जुर्म किया था कि उनकी स्कूल की इमारत जर्जर रहे, पोशाक साधारण दिखे, फर्नीचर टूटा-फूटा रहे। आत्मानंद के नाम पर मुख्यमंत्री को खुश करने का सिलसिला ऐसा चला कि तमाम कलेक्टरों ने अपनी पूरी ताकत इन स्कूलों को और बेहतर, और शानदार बनाने में लगा दी, और दूसरी तरफ तब से अब तक आम सरकारी स्कूलों का हाल ऐसा खराब है कि छत का मोटा प्लास्टर गिरकर बच्चों को जख्मी कर रहा है, कहीं चारों तरफ पानी भरा है, कहीं रात को स्कूली कमरों में जानवर घुस जाते हैं। इतने किस्म की बदहाली के बीच जब स्कूलों के शिक्षक और हेडमास्टर नशे में स्कूल पहुंचते हैं, स्कूल में बैठकर दारू पीते हैं, छात्राओं का यौन-शोषण करते हैं, तो यह सरकार के लिए और अधिक शर्मिंदगी की बात है। आज की शिक्षकों की गिरफ्तारी और निलंबन की दूसरी खबरों के बीच यह खबर और डराती है कि राजधानी रायपुर की सबसे घनी कॉलोनी में 12वीं की छात्रा को वहीं के एक शिक्षक ने अश्लील मैसेज भेजे, और थाने में बड़े प्रदर्शन के बाद शिक्षक के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई और उसे बिठाया गया। अब अगर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का चाल-चलन ऐसा है, तो वे बच्चों के सामने किस तरह का आदर्श पेश करते होंगे? ऐसे में नैतिकता की किताबें और पाठ पढ़ाना किस काम का रहेगा जब कहीं स्कूली छात्रा गर्भवती हो रही है, कहीं आश्रम शाला में छात्राओं का सिलसिलेवार यौन-शोषण हो रहा है, और सैकड़ों शिक्षक ऐसे हैं जो स्कूल जाते ही नहीं हैं।
लोकतंत्र में स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग को अगर ठीक से सुधारा नहीं गया, तो उससे बाकी सरकार के हाल का अंदाज आसानी से लग जाता। यह चावल की हंडी से निकाले गए दो दानों की तरह रहते हैं जिनसे बाकी चावलों के पकने, या अब तक कच्चे रहने का अंदाज लगता है। स्कूल शिक्षा विभाग को एक तरफ तो अपने अमले की अराजकता पर कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, दूसरी तरफ खरीदी के भ्रष्टाचार पर काबू करना चाहिए, और तीसरी बात यह कि केन्द्र सरकार के सर्वे में स्कूलों में पढ़ाई के स्तर की जो बदहाली दिखी है, उसे दूर करने के लिए राज्य सरकार को आईआईएम जैसे किसी प्रतिष्ठित मैनेजमेंट संस्थान से सहयोग लेना चाहिए जो कि स्कूलों को सुधारने के लिए सरकार को एक बाहरी नजरिया दे सके। आमतौर पर जब सरकार को ऐसी सलाह दी जाती है, तो उसके लोग किसी बाहरी निजी एजेंसी के साथ सांठगांठ करके उसे ही मूल्यांकन और सुधार सुझाने का काम दे देते हैं, जिसमें सब लोग खूब पैसा बना लेते हैं। हमारी सलाह दुनिया भर में प्रतिष्ठित, और देश के सबसे अच्छे मैनेजमेंट संस्थानों से सलाह लेने की है, जिनमें रायपुर का आईआईएम शामिल हो सकता है। यह आईआईएम के लिए भी एक प्रतिष्ठा और चुनौती की बात हो सकती है कि वह अपने इस प्रदेश की एक बड़ी चुनौती का सामना कर सके, और असल जिंदगी में कागजी कार्रवाई से परे कुछ ठोस सुझा सके जिसका असर भी आने वाले बरसों में देखने मिले। फिलहाल तब तक के लिए भी हमारी यह सलाह है कि प्रदेश में बेरोजगारी कम नहीं है, और ऐसे में नशेड़ी या यौन-शोषक शिक्षकों को पल भर में बर्खास्त करना चाहिए, और उनकी जगह नए लोगों को नियुक्त करना चाहिए। साथ-साथ पढ़ाई के स्तर का मूल्यांकन बहुत जरूरी है, और उसे सरकार के भीतर के लोग नहीं कर सकते, उसके लिए बाहरी विशेषज्ञ-सलाहकार, आईआईएम जैसी संस्था से सलाह लेनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अलग-अलग देशों में लोकतंत्र के कई किस्म के संस्करण काम करते हैं। थाईलैंड में अभी वहां की संवैधानिक अदालत ने मौजूदा प्रधानमंत्री को इस आधार पर हटा दिया कि उन्होंने अपनी पसंद के एक नेता को उसके पुराने सजा भुगत चुके जुर्म को जानते हुए भी उसे मंत्री बनाया था, जो कि नैतिकता के पैमानों के खिलाफ था। संवैधानिक पीठ के इस फैसले के बाद प्रधानमंत्री को तुरंत ही हट जाना पड़ा, और वहां के एक भूतपूर्व नेता और अरबपति की 37 बरस की बेटी थाईलैंड के इतिहास की सबसे कम उम्र की प्रधानमंत्री बन गई है। इस्तीफा देने वाले पीएम श्रीथा टाविसिन की ही पार्टी से यह नई प्रधानमंत्री पाएटोंगटार्न चिनावाट पीएम बनी है, और उसके परिवार के चार सदस्य पहले भी थाईलैंड के पीएम रह चुके हैं। थाईलैंड में तख्तापलट या संवैधानिक फैसलों की वजह से प्रधानमंत्री को पद छोडऩे का पुराना सिलसिला रहा है। ऐसा माना जाता है कि वहां की अदालतें, खासकर संवैधानिक अदालत, नाममात्र के लिए स्वतंत्र जांच एजेंसियां, और चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं देश के शाही परिवार के असर में रहती हैं, और उनका इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों को खत्म करने के लिए किया जाता है। इसलिए थाईलैंड की इस फैसले को सीधे-सीधे नैतिकता की जीत करार देना ठीक नहीं होगा। इस घटना के पीछे जिस मंत्री के नाम का विवाद है, उसे एक जज को एक मोटी रकम सब्जी के झोले में डालकर उस वक्त के प्रधानमंत्री को एक मामले से बचाने के लिए देने का दर्ज जुर्म था, और वह छह महीने की सजा भी काट चुका था। इस पृष्ठभूमि को जानते हुए भी प्रधानमंत्री ने उसे मंत्री बनाय था। यह एक अलग बात है कि बवाल ज्यादा बढऩे पर उसे मंत्री पद से इस्तीफा दे देना पड़ा था, लेकिन अभी का अदालती फैसला इस आधार पर है कि पीएम ने ऐसे व्यक्ति को मंत्री बनाकर एक अनैतिक काम किया था।
हम थाईलैंड के लोकतंत्र की बारीकियों में गए बिना सिर्फ इतने हिस्से पर सोचना चाहते हैं कि एक बुरे व्यक्ति को मंत्री बनाकर नैतिकता के पैमानों के खिलाफ काम करना किस तरह किसी मुखिया, अमरीका जैसे देश में राष्ट्रपति, या ब्रिटेन और भारत सरीखे देश में प्रधानमंत्री के खिलाफ अपात्रता का मामला बन सकता है! यह घटना नैतिकता के पैमानों से ही समझी जा सकती है कि लोकतंत्र में किसी निर्वाचित मुखिया को मामूली मुजरिम की तरह कानूनी कार्रवाई से बचने की हरकत नहीं सुहाती। नैतिकता के पैमाने भी कानून की जटिलताओं के बीच जिंदा रहने चाहिए। हिन्दुस्तान में ही एक वक्त एक रेल हादसे के बाद रेलमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफे की पेशकश की थी, जिसे नेहरू ने नामंजूर कर दिया था। लेकिन तीन महीने बाद एक और ट्रेन एक्सीडेंट हुआ, शास्त्रीजी ने फिर इस्तीफा दिया, और नेहरू ने उसे मंजूर कर लिया था। इसके बाद एक वक्त नीतीश कुमार ने भी दो ट्रेनों की टक्कर में 285 मौतों के बाद नैतिक आधार पर इस्तीफा दिया था। दो रेल दुर्घटनाओं के बाद ममता बैनर्जी ने भी रेलमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। लेकिन धीरे-धीरे नैतिकता की बात खत्म होती चली गई। अब तो हालत यह है कि मणिपुर ने अपने इतिहास की सबसे खराब हिंसा देखी, पूरी दुनिया में इसे लेकर लोकतांत्रिक फिक्र जताई गई, लेकिन न मणिपुर के भाजपा सीएम ने इस्तीफा दिया, न देश के भाजपा पीएम ने उनका इस्तीफा लिया। गुजरात दंगों के बाद सीएम नरेन्द्र मोदी से इस्तीफा लेने की बात तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सोची थी, लेकिन वह बात आई-गई हो गई, लेकिन बाद में तो मोदी लगातार वहां जितने चुनाव जीतते गए, तो फिर इस्तीफे की बात ही खत्म भी हो गई, और अप्रासंगिक भी हो गई।
लेकिन दुनिया के लोकतंत्रों में अभी भी कई जगहों पर नैतिकता के आधार पर इस्तीफों की बात की जाती है। यह एक अलग बात है कि जेल में महीनों से रहते हुए भी मुख्यमंत्री पद न छोडऩे वाले अरविंद केजरीवाल ने दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में एक असाधारण, और असामान्य स्थिति पैदा कर दी है। अब तक तो नेता ही जेल से चुनाव लडक़र सांसद और विधायक निर्वाचित होते थे, लेकिन अब तो मुख्यमंत्री महीनों तक जेल में मुख्यमंत्री बने हुए हैं। उधर हेमंत सोरेन गिरफ्तारी के वक्त इस्तीफा देते हैं, और जमानत होते ही फिर मुख्यमंत्री बन जाते हैं। अब नैतिकता के पुराने पैमाने पेनिसिलीन के इंजेक्शन के साथ इतिहास में जिक्र का सामान बन चुके हैं। अब आखिरी अदालत तक लड़ाई लड़ी जाती है, और लोग सरकारी या राजनीतिक ओहदों पर बने रहते हैं, बहुत से मामलों में तो संवैधानिक ओहदों पर बने रहते हैं। मातहत कर्मचारी के सेक्स शोषण की तोहमत के बाद भी भारत के मुख्य न्यायाधीश से लेकर राज्यपालों तक को अपनी कुर्सी पर बने रहना जायज लगता है, और वे अपने को मिली तमाम संवैधानिक ताकत और हिफाजत के साथ किसी पेशेवर मुजरिम के अंदाज में बचाव पक्ष के वकील की मदद से बचे रहते हैं। अब नैतिकता कहीं आड़े नहीं आती। अब मंत्री हों, या सांसद-विधायक, चाहे बलात्कार के आरोप में फंसे हों, चाहे ऐसे ही किसी और जुर्म में, आखिरी अदालत तक अपने आपको बचाते हुए वे लगे रहते हैं कि नैतिकता जाए तो जाए, ओहदा न जाए।
सार्वजनिक जीवन में जो आम गिरावट आई है, उसके मुकाबले भी भारत सरीखे देश में राजनीति में गिरावट खासी अधिक है। जिस तरह किसी अदालत से कोई पेशेवर मुजरिम सुबूतों के अभाव में, गवाहों के पलट जाने से, या जांच एजेंसी की कमजोर जांच की वजह से छूटकर भी खुशी मनाते हैं, कुछ उसी तरह भारत के नेता भी हो गए हैं जो कि नैतिकता की स्केल को उठाकर बाहर फेंक चुके हैं, और किसी पेशेवर और खानदानी माफिया के अंदाज में जुर्म में लगे रहते हैं। सैकड़ों और हजारों करोड़ के भ्रष्टाचार का फंदा जब गले में कुछ अधिक टाईट फंसने लगता है, तो ऐसे नेता अपने सीने पर टंगा पार्टी का बिल्ला बदल देते हैं, और नया बिल्ला लगते ही फंदा तार-तार होकर खुद ही हट जाता है। चलते-चलते जापान की एक मिसाल और सामने दिख रही है जिसमें वहां के प्रधानमंत्री फुमिओ किशिदा ने घोषणा की है कि वे सितंबर में पद छोड़ देंगे, और अपनी पार्टी के मुखिया का चुनाव नहीं लड़ेंगे। उनकी पार्टी पर लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों से उनकी लोकप्रियता गिर गई थी, और अब उन्होंने इस्तीफे की घोषणा की है। हम अभी जापान की इस मिसाल की बारीकियों और जटिलताओं पर नहीं जाते, लेकिन भ्रष्टाचार और कालेधन के पकड़े जाने पर लोकतंत्र में खुद होकर किस तरह का बर्ताव करना चाहिए, यह उसकी एक मिसाल है। हम हिन्दुस्तान के पेशेवर नेताओं को कोई सलाह देने की हालत में नहीं हैं। क्योंकि एक किसी पानठेले पर यह नोटिस देखा हुआ याद पड़ता है- यहां ज्ञान न बघारें, यहां सभी ज्ञानी हैं।
गांधी के इस देश में सभी को नैतिक पैमाने पता है, अब हम स्केल लेकर किस-किसकी नैतिकता का कद नापते रहें? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कुछ दिन पहले यूपी के बागपत में एक स्कूली बच्चा घर से देसी तमंचा लेकर स्कूल पहुंच गया था, और उसे देखकर शिक्षिका के होश उड़ गए थे। आठवीं का यह छात्र दूसरे बच्चों को बैग से निकालकर तमंचा दिखा रहा था। पुलिस के सामने इस लडक़े ने बताया कि तमंचा काफी समय से उसके घर पर रखा था। लेकिन इसके कुछ हफ्ते पहले बिहार के सुपौल जिले में नर्सरी का छात्र घर से पिस्तौल लेकर स्कूल पहुंच गया था, और उसकी चलाई गोली से एक दूसरा छात्र घायल हो गया था। इस बच्चे के पिता को बुलाने पर स्कूल में जब उसे पता लगा तो वह पिस्तौल और बच्चे को लेकर वहां से फरार हो गया था। अब छत्तीसगढ़ से खबर आई है कि जांजगीर जिले में आठवीं का एक छात्र पिस्तौल लेकर स्कूल गया ताकि वह दूसरे बच्चों पर धौंस जमा सके। शिक्षकों को पता लगते ही उसे पकड़ा गया, पुलिस को खबर की गई, बच्चे से पता लगा कि यह पिस्तौल घर की आलमारी में रखी थी, पुलिस ने उसके पिता से पूछताछ की और घर से एक तलवार भी बरामद की। पता लगा कि इस बच्चे का चाचा सावन में जल चढ़ाने झारखंड के बासुकीनाथ गया था, और वहां से वह अवैध पिस्टल और तलवार खरीदकर लाया था, और भाई को रखने दी थीं। आलमारी में पड़ी इस पिस्टल पर बेटे की नजर पड़ी, और वह इसे लेकर स्कूल चले गया। गनीमत कि किसी हादसे या हमले के पहले वह पकड़ा गया।
इन दोनों-तीनों मामलों में एक बात साफ है कि देश में अवैध हथियार बड़े धड़ल्ले से उपलब्ध हैं। दूसरी बात यह कि इन्हें खरीदकर दूर-दूर तक ले जाया जा सकता है, और रास्ते में ट्रेन-बस में पकड़े जाने का खतरा उतना बड़ा नहीं है। तीसरी बात यह कि लोग अवैध हथियार खरीदकर भी उसे खुली आलमारी में रख देते हैं, जहां तक बच्चों और दूसरों की पहुंच है, और ऐसे भयानक खतरे की नौबत आती है। अब तक हम अमरीका का ही पढ़ते थे कि वहां के स्कूल में कोई नौजवान बंदूक या ऑटोमेटिक हथियार लेकर घुस जाता है, और वहां कई बच्चों और बड़ों को एक साथ मार डालता है। भारत की पिछले दो महीने की ये तीन घटनाएं इस देश में एक खतरनाक नौबत बताती है कि अवैध हथियारों पर पुलिस की पकड़ उतनी मजबूत नहीं है जितनी कि समाज की सुरक्षा के हिसाब से होनी चाहिए। ये हथियार अड़ोस-पड़ोस के देशों से आए हुए आयातित हथियार भी नहीं है, ये यूपी-बिहार, या एमपी जैसी जगहों पर कुटीर उद्योग की तरह बनते हैं, और मामूली सी पूछताछ से भी ये दबे-छुपे मिल जाते हैं। बहुत से मामलों में पुलिस पकड़ाए अपराधियों या निगरानीशुदा बदमाशों से ऐसे हथियार बरामद करती है, लेकिन इन्हें बनाने वाले घरों तक शायद पुलिस नहीं पहुंच पाती, क्योंकि ऐसे कुटीर उद्योग पकड़ाने की खबरें तो नहीं आती हैं।
अब पुलिस से परे अगर देखें तो घरों के भीतर जिस तरह का माहौल दिखता है, वह एक निहायत लापरवाही का है। जो मां-बाप ऐसी लापरवाही से घर पर अवैध हथियार रखते हैं कि उनके बच्चे ही उठाकर स्कूल ले जाएं, तो उन परिवारों का वातावरण कुल मिलाकर बहुत खराब रहता होगा। वहां पर हिंसा और अपराध की चर्चा आम बात रहती होगी, परिवार के लोगों का चाल-चलन गड़बड़ रहता होगा, और ऐसे में बच्चों पर कैसा असर पड़ता है, यह इन तीन घटनाओं से जाहिर है। इसलिए इन घटनाओं में कोई मौत न होना राहत की बात नहीं है, बल्कि ये खतरे के संकेत हैं कि समाज में एक पीढ़ी किस तरह की तैयार हो रही है। हमारा यह मानना है कि शराब, जुए, जुर्म, या सिगरेट-तम्बाखू के माहौल वाले घरों के बच्चे बालिग होने के पहले ही इन आदतों को पकड़ लेते हैं, और वक्त के पहले ही पटरी से उतर जाते हैं। इसलिए ऐसे मां-बाप को भी यह समझने, या आसपास के लोगों को उन्हें समझाने की जरूरत है कि ऐसा माहौल न सिर्फ उनके अपने बच्चों के लिए खतरनाक रहता है, बल्कि उनके बच्चों से दूसरे बच्चों तक भी ऐसा नकारात्मक वातावरण पहुंचता है, और धीरे-धीरे समाज का अधिक हिस्सा इस बुरे असर का शिकार होता है। अब कल जांजगीर में मिडिल स्कूल का जो लडक़ा पकड़ाया है, वह बाल सुधारगृह भेज दिया गया है, और उसके पिता-चाचा को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया है, और इन जगहों के माहौल के बारे में जो खबरें आती रहती हैं, उनके मुताबिक ये सब उन जगहों से अधिक बुरे मुजरिम बनकर निकल सकते हैं क्योंकि इन सरकारी जगहों पर मुजरिमों या जुर्म का राज चलता है।
यूपी-बिहार में तो बंदूकों की संस्कृति कुछ अधिक हावी है, इसलिए वहां की ये दो घटनाएँ तो समझ पड़ती थीं। लेकिन छत्तीसगढ़ में तो लाइसेंसी बंदूकों की भी संस्कृति वैसी नहीं है, और अवैध हथियारों की भी बड़ी मौजूदगी की चर्चा नहीं है। ऐसे में यहां के लोग सावन में तीर्थयात्रा पर जाकर लौटते से झारखंड से गैरकानूनी तमंचा खरीद लाएं, और ऐसी लापरवाही से रखें कि उनका बच्चा उसे स्कूल ले जाकर नुमाइश करता रहे, तो इससे सरकार और समाज के संभलने की जरूरत जरूर है। ऐसा लगता है कि मारपीट या चाकूबाजी, गैंग बनाकर रहने वालों पर पुलिस को छापे कुछ अधिक डालने चाहिए ताकि अवैध हथियार बरामद हो सकें, और वे जहां पैदा हो रहे हैं, वहां तक भी पुलिस पहुंच सके। पुलिस को आदतन अपराधियों से भी यह पता लग सकता है कि और कौन-कौन से मुजरिम कैसे-कैसे हथियार रखे हुए हैं। हम अपने आसपास रोजाना चाकूबाजी देख रहे हैं, जो लोग चाकू से हमला करते हैं, उन्हें तो पास आकर वार करना पड़ता है, जो लोग वैध-अवैध तमंचों से हमला करते हैं, वे तो कुछ दूरी से भी मार सकते हैं। इसलिए ऐसे हथियारों की मौजूदगी पर तेज और असरदार कार्रवाई होनी चाहिए, वरना कब किसकी जिंदगी खतरे में पड़ जाए, इसका ठिकाना नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर उनके मीडिया एडवाइजर रहे, और उसके पहले पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक रहे, संजय बारू ने एक किताब लिखी थी, द एक्सिडेंटल प्राइममिनिस्टर। जैसा कि इसके नाम से जाहिर है, मनमोहन सिंह बड़े अनायास तरीके से पीएम बने थे, न तो उनका कोई राजनीतिक दबाव समूह था, और न ही उनमें देश की अगुवाई करने की ऐसी कोई खूबी मानी जाती थी। अधिक से अधिक वे एक अर्थशास्त्री थे, और आर्थिक मामलों के काबिल और ईमानदार प्रशासक थे। लेकिन जब कांग्रेस संसदीय दल ने सोनिया गांधी को अपना नेता चुन लिया था, और उनके और पीएम की कुर्सी के बीच कोई फासला नहीं बचा था, तब उन्होंने खुद पीएम बनने से मना करके मनमोहन सिंह को पीएम बनाया था। उस वक्त खुद कांग्रेस पार्टी में एक से बढक़र एक दिग्गज नेता थे जिन्हें मंत्री बनकर मन मसोसकर रह जाना पड़ा था। इनमें प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, शिवराज पाटिल, पी.चिदम्बरम, गुलाम नबी आजाद, नटवर सिंह, सुशील कुमार शिंदे, मीरा कुमार जैसे बहुत से कांग्रेस नेता थे जिनकी बारी अगर मनमोहन सिंह पहले आती, तो भी किसी को हैरानी नहीं होती। लेकिन बारी मनमोहन सिंह की आई, और वे अनायास ही प्रधानमंत्री बन गए जिन्हें उन्हीं के मीडिया सलाहकार ने एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर लिखा। इसलिए सार्वजनिक जीवन में कब क्या हो जाता है इसका कोई ठिकाना तो नहीं रहता। इंदिरा गांधी की पार्टी और उनकी सरकार को हांकने वाले उनके छोटे बेटे, और इमरजेंसी के खलनायक संजय गांधी के रहते भला कोई सोच भी सकते थे कि एक अदना से पायलट, और राजनीति से परहेज करने वाले राजीव गांधी की कोई बारी आ सकती है। लेकिन संजय की सारी राजनीति मौत ले गई, और राजीव राजनीति में आए, और मनमोहन सिंह के पहले ही वे एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर बने। राजनीति में कुछ और भी मजेदार चीजें हुईं, इन्द्रकुमार गुजराल और एच.डी.देवेगौड़ा के पीएम बनने का ख्वाब तो उनके हमबिस्तरों ने भी नहीं देखा होगा, लेकिन भारतीय राजनीति में यह भी हुआ।
आज यहां पर भारत की पिछली आधी सदी की राजनीति पर लिखने का कोई इरादा नहीं है। अमरीका की एक खबर देखकर यह लगा कि कल तक जो डोनल्ड ट्रंप अपने को जो बाइडन को हराने वाला योद्धा मानकर चल रहा था, आज उसके हाथ से रस्सी तेजी से सरकती हुई दिख रही है। जो बाइडन ने चुनाव न लडऩा तय किया, और अपनी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को उम्मीदवार बनाया, तो अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव की पूरी तस्वीर ही बदल गई। अब वहां हालत यह है कि कमला हैरिस लगातार अधिक लोकप्रियता पाकर जीत की संभावना की तरफ बढ़ रही हैं, और ट्रंप की बढ़ती हुई बौखलाहट उनकी स्थाई बकवास में खासा इजाफा कर चुकी है, जो कि उनकी कमजोर होती हालत का एक संकेत है। अमरीकी राजनीतिक विश्लेषक बहुत तटस्थ तो नहीं रहते, और वे खुलकर अपने पूर्वाग्रह या अपनी पसंद को उजागर भी करते हैं, लेकिन ऐसे लोगों का अंदाज भी यही है कि हार का खतरा देखकर ट्रंप बौखलाए जा रहे हैं, और तमाम किस्म की घटिया बातों के साथ-साथ उनका झूठ का आम अनुपात भी बढ़ते चल रहा है। कल तक जिस अतिसक्रिय ट्रंप के मुकाबले जो बाइडन बूढ़े और कमजोर लग रहे थे, आज वहां कमला हैरिस के मुकाबले ट्रंप बूढ़े लग रहे हैं, और पूरा चुनावी माहौल बदल गया है। कहीं किसी समझदार ने लिखा था- सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं...
अधिकतर जगहों पर राजनीति में जो लोग सत्ता पर आते हैं, उनमेें से बहुतों की बददिमागी आसमान पर पहुंच जाती है और उन्हें यह लगने लगता है कि यह तख्त उनके लिए, और वे इस ताज के लिए बने हैं। इसे लेकर भी एक शायर हबीब जालिब ने लिखा था- तुमसे पहले वो जो इक शख्स यहां तख्त-नशीं था, उसको भी अपने खुदा होने पे इतना ही यकीं था। सत्ता की ताकत भारत जैसे देश में औसतन पांच-पांच बरस की किस्तों में आती है, लेकिन लोग उसे बाबूजी की छोड़ी हुई जागीर मान लेते हैं। और वक्त का कोई ठिकाना तो रहता नहीं, जिनके पेशाब से बरसों चिराग जले रहते हैं, वे अब जेलों में चक्की पीसा करते हैं। लोगों को याद रहना चाहिए कि सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह का आखिर में क्या हाल हुआ था। हम उनके अंत को जायज या नाजायज ठहराने की जहमत यहां नहीं उठा रहे, लेकिन दुनिया की जमीनी तस्वीर और लोगों का वर्तमान किस तेजी से बदलता है! आपातकाल में जिस संजय गांधी की चप्पलें उठाने में मुख्यमंत्रियों को, और उनकी कुर्सी अपने दुपट्टे से साफ करने में राज्यपालों को गर्व होता था, वह संजय गांधी विमान उड़ाते हुए कैसी बुरी मौत मारा गया था? एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा का सांसद पोता किस बुरे हाल में महिलाओं से बलात्कार, सेक्स-शोषण, ब्लैकमेलिंग जैसी तोहमतों में जेल में पड़ा है!
इसलिए ट्रंप हो, या कि कोई हिन्दुस्तानी नेता, हर किसी को यह बात याद रखनी चाहिए कि जिंदगी में कई किस्म की बातें एक्सीडेंटल होती हैं। लोग राजा से रंक बन जाते हैं, और रंक से राजा। किसने कल्पना की होगी कि राजस्थान में पहली बार का एमएलए मुख्यमंत्री बन जाएगा, और छत्तीसगढ़ का सबसे वरिष्ठ विधायक-मंत्री बृजमोहन अग्रवाल महज सांसद बनाकर बिठा दिया जाएगा! यह तो बात हुई नेताओं की। उनके इर्द-गिर्द के जो चक्कर लगाने वाले छोटे-छोटे ग्रह रहते हैं, वे अपने आपको सूर्य की तरह मानकर चलने लगते हैं। जबकि उनके चेहरों की चमक उनके नेता के चेहरे पर चमक रहने तक के लिए ही रहती है। कई लोगों के नेता किसी ओहदे पर एक्सीडेंटल पहुंच जाते हैं, और उनके आभा मंडल से रौशन छोटे-छोटे लोग अपने को सूरज मानकर आग उगलने लगते हैं। ऐसे ही तमाम लोगों के लिए ट्रंप से लेकर मनमोहन सिंह तक के सिलसिले याद पड़ते हैं, और यह भी याद पड़ता है कि ब्रिटेन में किस तरह पिछले चौदह बरस में एक ही पार्टी के पांच-पांच प्रधानमंत्री आए और गए। हर किसी को अपने पांव जमीन पर टिकाकर रखना चाहिए वरना तेज हवा का एक झोंका आ सकता है, और ट्रंप की तरह पांव उखड़ सकते हैं। या दूसरी मिसाल देखें तो दुनिया के सबसे बड़े और धाकड़ गुंडे, सबसे बड़ी फौजी ताकत, अमरीका को तालिबानों से अपनी जान बचाकर अफगानिस्तान छोडक़र भागना पड़ा था, और सुरक्षित रवानगी के लिए उन्हीं तालिबानों से मोहलत खरीदनी पड़ी थी। लोगों को बददिमाग होने के पहले यह सब ताजा इतिहास याद रखना चाहिए।
एक अजीब सी खबर सामने आई है जिसमें एक शादीशुदा महिला पति को छोडक़र अलग रह रही थी, फिर उसका किसी और से प्रेमसंबंध हो गया, और वह प्रेमी के साथ रहने लगी। इस बीच उसने अपने तीन बच्चों को मां-बाप के घर छोड़ दिया, और जिला अदालत में बच्चों के गुजारे के लिए उसने पति पर मुकदमा करके मासिक खर्च हासिल करना भी शुरू कर दिया था। त्रिकोण के ये तीनों कोने एक ही जाति के भी हैं। और संबंधों का बनना-बिगडऩा परिवारों की जानकारी में भी था। इस मामले में दिलचस्प मोड़ तब आया जब पति और प्रेमी दोनों इस महिला से थक गए थे, और उन्होंने मिलकर कोई एक हिन्दी फिल्म देखी, उससे कत्ल करने का तरीका समझा, और फिर पति और प्रेमी ने मिलकर इस महिला का कत्ल कर दिया। मामला कुछ अजीब सा है, और यह इंसानी रिश्तों की जटिलता को बताता है। इस तरह के मामलों को महज पुलिस और अदालत का सामान मानना ठीक नहीं होगा, और समाज को, लोगों को इससे कुछ सीखना चाहिए। इस तरह के कई दूसरे मामले भी सामने आए हैं जिनमें अधिकतर मामलों में पति ही पत्नी की हत्या करते हैं, लेकिन कुछ मामले ऐसे भी हुए हैं कि नशे में धुत्त पति को पत्नी ने ही मार डाला। कुछ मामले ऐसे भी हुए कि पत्नी ने प्रेमी के साथ मिलकर पति का कत्ल कर दिया। ऐसी तमाम किस्म की विविधता पारिवारिक हिंसा में देखने में मिलती है। और इस बारे में सोचने की जरूरत है कि इसके पीछे की कौन सी सामाजिक वजहें हैं?
हिन्दुस्तान के एक बड़े हिस्से में आज भी परिवार ही शादियां तय करते हैं। युवक-युवतियों को बस हाँ कहना होता है, क्योंकि बहुत से मामलों में लड़कियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होतीं, और लडक़े भी बेरोजगार रहते हुए मां-बाप के पैसों पर पलते रहते हैं। ऐसी शादियां परिवार करवा तो देते हैं, लेकिन रिश्ता तय करने के मां-बाप के पैमाने अलग रहते हैं, और खुद लडक़े-लडक़ी की हसरतें एक पीढ़ी बाद वाली रहती हैं, और हो सकता है कि बेमेल की शादी में ये हसरतें पूरी न होती हों। इसलिए मां-बाप की करवाई शादी में निभने की अलग वजहें रहती हैं, और कई वजहें न निभने की भी रहती हैं। दुनिया के जिन देशों में नौजवान अपनी मर्जी से शादी करते हैं, वहां शादियां अधिक सुखी रहती हैं, रिश्ते टूटने पर तलाक कम हिंसक रहते हैं, और दोनों ही जोड़ीदारों की नई जिंदगी शुरू होने की गुंजाइश अधिक रहती है। दुनिया के बहुत से विकसित देशों में लोग इस बात की परवाह भी नहीं करते कि किसी महिला के बच्चे का पिता कौन है, और वह महिला उसके साथ शादीशुदा है या नहीं? लोग किसी से यह भी नहीं पूछते कि वे तलाकशुदा हैं, या दूसरी या तीसरी बार शादी करने वाले। लेकिन प्रेमसंबंधों और शादियों में हिंसा वहां कम होती है, वह जुर्म तक नहीं पहुंचती, और लोग समय रहते अलग हो जाते हैं, और आगे अपनी-अपनी जिंदगी की तरफ देखते हैं। हिन्दुस्तान में बहुत से मामलों में भूतपूर्व प्रेमी या भूतपूर्व पति महिला को अपनी खानदानी जमीन मानते हुए उस पर काबिज रहना चाहते हैं, और अलग होने पर भी वे अगले रिश्ते से रश्क करते हुए उसके खिलाफ हिंसा पर उतारू रहते हैं। हिन्दुस्तान में जहां पर हिन्दू समाज में मृत पुरखों का पिंडदान करके उनसे स्थाई मुक्ति पा लेने का धार्मिक रिवाज है, वहां पर लोग भूतकाल के अपने संबंधों की फिक्र करते हुए अपने वर्तमान और भविष्य दोनों को तबाह करने पर आमादा दिखते हैं। बहुत से लोग फेसबुक पर अपनी पूर्व पत्नी या पूर्व प्रेमिका की पोस्ट को पसंद करने वाले, या उस पर टिप्पणी करने वाले लोगों को देखकर फिर यह देखने की कोशिश भी करते हैं कि वे लोग कौन हैं। लोगों को जब अपने भूत से पीछा छुड़ा लेना चाहिए, और वर्तमान में कहीं और सुख जुटाना चाहिए, तब लोग बैक व्यू मिरर में देखते हुए गाड़ी आगे चलाते हैं, और टक्कर की नौबत में पहुंच जाते हैं। यही सिलसिला हिन्दुस्तान में टूटे हुए, या टूटते हुए रिश्तों को हिंसा और जुर्म तक पहुंचा देता है। कानूनी रूप से अलग होकर, या प्रेमसंबंध तोडक़र लोग बाकी जिंदगी सुख-चैन से जिएं, उतनी समझदारी कम लोग दिखाते हैं, और बहुत से लोग किसी वर्तमान देह से लिपटने के बजाय भूत से लिपटे हुए अपना जीना हराम करते रहते हैं।
चूंकि भारत की तकरीबन तमाम आबादी आस्थावान और धर्मालु है, नास्तिक बिल्कुल उंगलियों पर गिने जाने लायक हैं, इसलिए यह माना जाना चाहिए कि प्रेम और पारिवारिक संबंधों में हिंसा करने वाले सारे ही लोग आस्तिक हैं, किसी न किसी धर्म को मानते हैं, और उनका धर्म उन्हें ऐसी हिंसा करने से नहीं रोकता। यह सवाल कम वजनदार नहीं है कि हिन्दुस्तानी जिंदगी में एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू बना हुआ धर्म लोगों को हिंसक बनने से क्यों नहीं रोक पाता? इस बारे में लोगों को इसलिए भी सूचना चाहिए कि अधिकतर परिवारों का ढांचा एक जाति, या कम से कम एक धर्म के भीतर रहता है, चारों तरफ प्रवचन चलते रहते हैं, टीवी पर दर्जनों धार्मिक और आध्यात्मिक चैनल रात-दिन नसीहतें उगलते रहते हैं, घर-घर में धार्मिक किताबें भरी रहती हैं, और इसके बाद भी लोग इतने हिंसक बने रहते हैं। यहां पर यह बात भी याद आती है कि योरप में जो देश सबसे अधिक नास्तिक हो चुके हैं, वे ग्लोबल हैप्पीनेस इंडेक्स पर सबसे ऊपर हैं। वे देश धर्म से परे हैं, धार्मिक कट्टरता, साम्प्रदायिकता वहां की जिंदगी सी हट चुकी है, जाति व्यवस्था वहां है नहीं, समाज इतना उदार है कि किसी की निजी जिंदगी के बारे में लोगों की उत्सुकता नहीं है, और वैसे लोग दुनिया में सबसे अधिक खुश भी हैं। इधर हिन्दुस्तान में सात जनम तक साथ निभाने की कसमों के साथ, सात फेरों के साथ लोगों की शादियां होती हैं, और बहुत से जोड़ों में बिना प्रेम शादी करवा दी जाती है, और उनकी जिंदगी में किसी प्रेम का मौका आ भी नहीं पाता। कुछ जोड़े प्रेम के साथ, प्रेम के बाद शादीशुदा जिंदगी शुरू करते हैं, और रोज की दिक्कतों के चलते वह प्रेम भी जल्द ही काफूर हो जाता है।
अभी जिस ताजा घटना को लेकर हमने इस मुद्दे पर लिखना जरूरी समझा, उसमें तो एक महिला पति को छोडक़र निकली, और कोई प्रेमी तलाशा। बाद में पति और प्रेमी दोनों उससे इतने थक गए, कि दोनों ने मिलकर एक फिल्म बार-बार देखकर, उसी फिल्मी अंदाज में उस महिला का कत्ल कर दिया। अब भला कोई बेवफा भी हो, तो किसके भरोसे हो? जिसे छोड़ा वह, और जिसे पकड़ा वह, दोनों कत्ल में भागीदार हो गए! गजब की कहानी है, समाज के लोगों को इससे सबक लेना चाहिए।
अखबारों में हर सुबह किसी न किसी नाबालिग लडक़ी की ऐसी खबर रहती है कि उसके किसी दोस्त ने प्रेम के नाम पर उसके अंतरंग वीडियो बनाए, तस्वीरें खींचीं, और फिर रिश्ते खराब होने पर, या ब्लैकमेलिंग की नीयत पूरी न होने पर उन्हें सोशल मीडिया पर, पोर्नवेबसाइट पर, या किसी वॉट्सऐप समूह में पोस्ट कर दिया। नाबालिगों के सामने पहाड़ सी लंबी जिंदगी खड़ी रहती है। एक बार हिन्दुस्तानी समाज में उसकी साख इस तरह बर्बाद की जाए, उसे कमजोर चाल-चलन का साबित किया जाए, तो फिर कदम-कदम पर लोग उससे वैसा ही शोषण बर्दाश्त करने की उम्मीद करते हैं। नतीजा यह होता है कि एक सामान्य जिंदगी जीने का उसका हक बुरी तरह चौपट हो जाता है। इससे परे भी बिना निजी संबंधों के भी बलात्कार के वीडियो बनाना एक आम बात हो गई है, और ऐसा करके बालिग या नाबालिग बलात्कारी के मर्दाना अहंकार को तसल्ली मिलती है, और उन्हें लगता है कि बलात्कार का वीडियो दिखाकर उसकी शिकार लडक़ी को शिकायत करने से भी रोका जा सकता है। एक तरह से जो मोबाइल फोन अपने कैमरे की वजह से जुर्म के खिलाफ सुबूत जुटाने में भी मदद करता है, वहीं जुर्म के शिकार को ब्लैकमेल करने के नाम पर इस मोबाइल कैमरे को हथियार की तरह भी इस्तेमाल करना रोजाना की बात हो गई है। ऐसे मामलों में पुलिस जुर्म होने से पहले किसी को नहीं बचा सकती, यह जरूर है कि ऐसे जुर्म की पहली शिकायत या पहली खबर मिलते ही पुलिस को जिस रफ्तार से कार्रवाई करनी चाहिए, पुलिस उतनी दिलचस्पी से कार्रवाई नहीं करती, और मुजरिम दिखने वाले लोगों के साथ इस नरमी की वजहें भी उतनी रहस्यमय नहीं रहतीं, वे सबको समझ पड़ती हैं।
ऐसे में लोगों को अपने नाबालिग बच्चों को पूरे घर के साथ बिठाकर, परिवार के किसी जिम्मेदार और संवेदनशील दोस्त-परिचित को भी बिठाकर जुर्म और उसके खतरों के बारे में खुलासे से समझाना चाहिए। आमतौर पर सेक्स-शोषण से लेकर वीडियो बनाने और ब्लैकमेल करने तक का जुर्म करने वाले अधिकतर बालिग-नाबालिग लडक़े ही रहते हैं। लड़कियां अधिकतर मामलों में ऐसे जुर्म का शिकार रहती हैं। परिवारों को अपने लडक़ों और लड़कियों को किशोरावस्था में पहुंचने के पहले भी अपने साथ बिठाकर ऐसे तमाम खतरों से आगाह करना चाहिए। लड़कियों को बचने के हिसाब से समझाना चाहिए, और लडक़ों को मुजरिम बनने से बचने के लिए। फिर एक बात यह भी है कि नाबालिग लड़कियों को तमाम खतरे सिर्फ लडक़ों से नहीं रहते, कहीं खेल प्रशिक्षक, कहीं स्कूल-कॉलेज के शिक्षक, तो कहीं दोस्त, पड़ोसी, और रिश्तेदार, देहशोषण करने वाले हर शक्ल में मौजूद रहते हैं। इसलिए परिवारों को अपने बच्चों को यह भी सिखाना चाहिए कि किसी भी तरह के रिश्ते में, किसी भी तरह के हालात में कैसी सावधानी बरती जाए। इसके साथ-साथ लडक़ों को यह भी सिखाना चाहिए कि किसी लडक़ी के साथ जुल्म और जुर्म करने पर अगर उसकी तरफ से एक शिकायत हुई, तो कानून कितनी कड़ी कार्रवाई कर सकता है। और उसका नतीजा फिर यह होगा कि ऐसे लडक़ों की बाकी जिंदगी सुधारगृह या जेल से होते हुए आगे बर्बादी की तरफ ही बढ़ेगी, न उन्हें अच्छी पढ़ाई नसीब होगी, न ही कहीं उनकी बुरी शोहरत की वजह से उन्हें कोई काम ही मिलेगा। आज मीडिया और सोशल मीडिया की मेहरबानी से जुर्म साबित होने के पहले ही तस्वीर, नाम-पते, हुलिए सहित हर बालिग पर लगे आरोपों का इतना ढिंढोरा पिट चुका रहता है कि वे भी कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहते।
निजी स्तर पर होने वाले ऐसे जुर्म का पुलिस की तरफ से कोई बचाव नहीं हो सकता। बंद कमरे में दो बालिग-नाबालिग क्या करते हैं, इस पर भला परिवारों से परे और कौन निगरानी रख सकते हैं? फिर ऐसे संबंधों के साथ ब्लैकमेलिंग से परे सेक्स से जुड़ी बीमारियों, और गर्भ का खतरा भी रहता है, और ऐसे ढेरों मामले पुलिस और अदालतों तक पहुंच रहे हैं, और नाबालिग के साथ सेक्स के मामले में बहुत से लोगों को लंबी-लंबी सजाएं हो रही हैं। अभी कुछ दिन पहले ही हमारे आसपास के 60-70 बरस के आदमी को एक नाबालिग से सेक्स में उम्रकैद हुई है।
भारतीय समाज में बलात्कार के अधिकतर मामले महिलाओं की कमजोर और मर्दों की दबंग स्थिति की वजह से होते हैं। लड़कियों और महिलाओं को जबर्दस्ती करने का सामान मान लिया जाता है, और मर्द यह मानकर चलते हैं कि वे किसी भी लडक़ी या महिला पर हाथ डाल सकते हैं। परिवारों से लेकर समुदाय, समाज, और पूरे देश-प्रदेश तक अगर लडक़े-लडक़ी, और औरत-मर्द की बराबरी की सोच विकसित नहीं होगी, तो फिर देश का धार्मिक-सामाजिक माहौल तो महिलाओं के खिलाफ है ही। नतीजा यह होता है कि कुछ लोग लडक़ी और महिला को सेक्स-शोषण का सामान ही मानकर चलते हैं। जिस दिन समाज में महिला के बराबरी के हक की सोच विकसित हो जाएगी, बलात्कार अपने-आप कम हो जाएंगे। बलात्कार सिर्फ सेक्स-सुख के लिए नहीं होते, बल्कि बलात्कार तो जितनी हिंसा के साथ होते हैं, उसमें सुख की गुंजाइश कम रहती है। बलात्कार मोटेतौर पर मर्दानगी हिंसा के साथ होते हैं, और उसी का प्रदर्शन करने के लिए भी होते हैं। न सिर्फ सेक्स-गुनाह के मामलों में, बल्कि रोजाना के जिंदगी के आम बर्ताव को लेकर भी महिला के प्रति बराबरी की भावना और सम्मान का व्यवहार लाना जरूरी है, और इसमें कानून, पुलिस, अदालत, या सरकार बहुत मदद नहीं कर सकते। यह सिलसिला परिवार के भीतर से शुरू हो सकता है, समुदाय, और समाज इसे आगे बढ़ा सकते हैं, और देश-प्रदेश में ऐसी जागरूकता का माहौल बन सकता है। फिलहाल जब तक ऐसी आदर्श स्थिति की तरफ चार कदम आगे नहीं बढ़ते हैं, तब तक मां-बाप को अपने बेटे-बेटियों को सावधानी सिखानी चाहिए, दोनों के ऊपर खतरे अलग-अलग किस्म के हैं, लेकिन सावधानी का मिजाज तो हर तरह के खतरों से बचने में मदद करता है।
बांग्लादेश के ताजा हालात पर न सिर्फ हिन्दुस्तान की बल्कि बाकी दुनिया की भी नजरें लगी हुई हैं। हिन्द महासागर के इस क्षेत्र में दो बड़ी ताकतों, भारत और चीन के बीच तो भारत के हर सरहदी देश के साथ संबंधों का मुकाबला चलते रहता है। सिर्फ पाकिस्तान ऐसा है जिससे भारत के रिश्ते सुधरने का माहौल नहीं है, लेकिन उससे परे बाकी तमाम देशों में, म्यांमार, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, और श्रीलंका के साथ ये दोनों देश सतह के ऊपर और सतह के नीचे मुकाबले में लगे रहते हैं। अपनी राजनीतिक अस्थिरता, और ऐतिहासिक सत्तापलट के चलते आज बांग्लादेश इन दो बड़ी आर्थिक ताकतों के बीच ताजा अखाड़ा बन सकता है। ऐसे में यह बात भी बहुत मायने रखेगी कि बांग्लादेश की नई सरकार भारत के बारे में क्या रूख रखती है। शेख हसीना की अवामी लीग की जिस सरकार को हटाया गया है, उसके साथ भारत के रिश्तों को लेकर, हसीना विरोधियों के बीच खुली नाराजगी है कि भारत ने ढाका की इतनी भ्रष्ट और तानाशाह हुकूमत का जरूरत से आगे बढक़र समर्थन किया था, और आज भी शेख हसीना को भारत ने फिलहाल तो जगह दी हुई है। लेकिन बांग्लादेश से भारत को लेकर दो किस्म के अलग-अलग बयान सामने आ रहे हैं, इन्हें बारीकी से समझने की जरूरत है।
बांग्लादेश में एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री रहीं खालिदा जिया को शेख हसीना ने जेल में डाल रखा था, और हसीना के देश छोडक़र भाग जाने के बाद वहां खालिदा जिया को जेल से रिहा कर दिया गया है। उन्होंने बांग्लादेश को एक लोकतांत्रिक और सभी धर्मों के सम्मान वाला देश बनाने का आव्हान किया है, और उन्होंने धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमलों के खिलाफ चेतावनी दी है। करीब 80 बरस की हो चलीं खालिदा जिया को हसीना सरकार में 2018 में भ्रष्टाचार के आरोप में 17 साल कैद सुनाई गई थी। अब हसीना की विदाई के बाद राष्ट्रपति ने अपने हुक्म से ही खालिदा जिया को रिहा कर दिया है, और उनका बेटा भी देश के नए हालात में सत्ता के करीब रहने की कोशिश कर रहा है। लेकिन खालिदा जिया के इस बयान को समझने की जरूरत है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमले नहीं होने चाहिए। अगर यह एक ईमानदार बयान है, और सिर्फ जुबानी जमाखर्च नहीं है, तो इससे बांग्लादेश में आज हिन्दुओं और हिन्दुस्तानियों पर हो रहे हमलों के घटने की उम्मीद की जा सकती है। इसके अलावा बांग्लादेश के नोबल शांति पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मुहम्मद यूनुस ने योरप से लौटकर नई सरकार के मुखिया की हैसियत से सलाहकार का एक अभूतपूर्व पद मंजूर तो किया है, लेकिन उन्होंने देश में चल रही सभी तरह की हिंसा को तुरंत रोकने की अपील की है जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हो रहे सांप्रदायिक हमले शामिल है। एक वीडियो में यूनुस बोलते दिख रहे हैं कि अगर अल्पसंख्यकों पर हमले नहीं थमेंगे, तो वे इस्तीफा दे देंगे। यह बात अधिक मायने इसलिए रखती है कि आज बांग्लादेश में सत्ता को संभालने, और हालात को सुधारने के लिए वे अकेले काबिल व्यक्ति माने जा रहे हैं, और जिन छात्रों के आंदोलन की वजह से हसीना की रवानगी हुुई है, उन छात्रों की एक मांग यह भी थी कि मुहम्मद यूनुस सरकार के मुखिया बने। और ऐसे में अगर वे अल्पसंख्यकों पर हमले रोकने के लिए इस्तीफे तक की धमकी दे रहे हैं, तो फिर इसे उनकी एक गंभीर कोशिश ही मानना चाहिए। उन्होंने साफ-साफ कहा है कि इन हमलों को रोके बिना मेरी कोशिशें बेकार जाएंगी, और अधिक अच्छा तो यह होगा कि ऐसे में मैं सामने से हट ही जाऊं। अभी यूनुस ने छात्र नेताओं, फौज, और राष्ट्रपति, इन सबकी अपील पर सलाहकार की शक्ल में सरकार का मुखिया बनना मंजूर किया है, और साथ-साथ यह भी कहा है कि अगर अल्पसंख्यकों पर हमले जारी रहते हैं, तो यह ताजा क्रांति बेकार हो जाएगी। उन्होंने इसे 1971 के बांग्लादेश निर्माण के बाद की दूसरी क्रांति कहा है। उन्होंने देश की तरक्की के लिए हिंसा से दूर रहने की जरूरत भी करार दी है।
अब खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के एक वरिष्ठ नेता और देश के मंत्री रह चुके खांडकर मुशर्रफ का बयान भी गौर करने लायक है। उन्होंने कहा है कि शेख हसीना के ढाका से चले जाने के बाद भारत ने जिस तरह से उनकी मेजबानी की गई वो चिंता को बढ़ाने वाला है। उन्होंने पार्टी की तरफ से कहा कि भारत फिर से हसीना की सत्ता में वापिसी चाहता है। और इसके लिए उनका समर्थन कर रहा है, और यह बात ठीक नहीं है। उन्होंने उम्मीद जताई कि भारत सरकार अब शेख हसीना और उनकी अवामी लीग पार्टी को समर्थन देना जारी नहीं रखेगी। इस पार्टी के उपाध्यक्ष ने भी कहा कि अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक भारत की मर्जी है कि वह जिसे चाहे शरण दे, लेकिन बांग्लादेश के लोग उम्मीद करते हैं कि भारत सरकार अवामी लीग जैसे भ्रष्ट और तानाशाहीभरे शासन का हमेशा समर्थन नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में यह बात सभी को पता है कि अवामी लीग की सरकार जनता की गहरी नाराजगी के बावजूद इतने समय तक इस बड़े पड़ोसी के समर्थन की वजह से ही टिकी रही। हालांकि उन्होंने बांग्लादेश में चल रहे, इंडिया आऊट अभियान, के बारे में कहा कि यह छुटपुट और अस्थाई घटनाएं हैं, और न तो बांग्लादेश के लोग, और न ही बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ऐसे अभियान का समर्थन करती है।
भारत के लिए यह मौका बड़ी कूटनीतिक समझदारी को दिखाने का इसलिए है कि यह न सिर्फ उन हजारों भारतीयों की हिफाजत का मुद्दा है जो कि बांग्लादेश में काम कर रहे हैं, या बसे हुए हैं, उससे अधिक बढक़र यह मामला भारत में बसे हुए करोड़ों बांग्लादेशियों का है जो कि 1947 में भी शरणार्थी होकर भारत आए, 1971 में भी आए, और जिनका वहां से आना-जाना, भारत में कमाना-खाना लगातार चलते ही रहता है। बांग्लादेश में अगर हिन्दुओं और हिन्दुस्तानियों के साथ जुल्म अधिक होंगे, तो भारत में भी बांग्लादेश से आए और कानूनी दर्जा प्राप्त, या गैरकानूनी बसे लोगों के खिलाफ उसकी हिंसक प्रतिक्रिया हो सकती है जो कि देश की कानून व्यवस्था के लिए बहुत बड़ा खतरा रहेगी। इसलिए न सिर्फ बांग्लादेश की जमीन पर अभी मौजूद हिन्दुओं और हिन्दुस्तानियों की फिक्र करते हुए, बल्कि हिन्दुस्तान में अराजक नौबत आने से रोकने के लिए भी भारत सरकार को बांग्लादेश की नई सरकार के साथ अपने रिश्तों में बड़ी सावधानी बरतनी पड़ेगी। और किसी भी पड़ोसी देश के साथ भारत के ऐसे गहरे ताल्लुकात नहीं हैं, और भारत की जमीन पर अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा दशकों से एक राजनीतिक मुद्दा चले आ रहा है, जो अभी सुलझने के आसपास भी नहीं है, और इन्हीं से निपटने के लिए भारत में एक नया कानून भी बनाया गया है जिस पर अमल अभी पूरी कड़ाई से नहीं की गई है।
चीन की सीधी दखल के लिए बांग्लादेश में आज जो माहौल बना हुआ है, उसे पूरी तरह अनदेखा करना भी भारत के सरहदी हितों के लिए सही नहीं होगा। हमें पूरी उम्मीद है कि भारत सरकार इन जटिलताओं को समझ रही होगी, और हो सकता है कि भारत में नागरिकों का जो रजिस्टर बनाया जा रहा है, खासकर असम में जो एनआरसी डिटेंशन सेंटर बनाए गए हैं, वैसे अतिउत्साही काम भी शायद कुछ अरसे के लिए धीमे करने पड़े। फिलहाल न सिर्फ बांग्लादेश, बल्कि भारत के नागरिकों में सजग तबका भी गौर से यह देख रहा है कि भारत सरकार पड़ोस की इस बदली हुई हकीकत के साथ किस तरह रिश्ता कायम कर पाती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका की एक जिम्नास्ट सिमोन बाइल्स ने अभी पेरिस ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीतकर ऑलराउंडर क्वीन का खिताब पाया है। लोगों को याद होगा कि पिछले, 2021 के टोक्यो ओलंपिक में सिमोन ने मानसिक एकाग्रता नहीं रहने का तर्क देकर मुकाबला छोड़ दिया था। इससे अमरीकी जिम्नास्ट टीम को बड़ी निराशा हुई थी क्योंकि वह 2016 में रियो ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीतने वाली सिमोन से टोक्यो में भी यही उम्मीद कर रही थी। लेकिन चार बरस बाद अब पेरिस में छोटे से कद की इस युवती ने एक बार फिर गजब का करिश्मा कर दिखाया। उस पर लिखते हुए जब हम उसके खेल जीवन में कामयाबी की फेहरिस्त देख रहे हैं, तो लैपटॉप पर मुकाबलों और मैडलों का नाम खत्म ही नहीं हो रहा है। ऐसा लगता है कि उसके जीते हुए तमाम मैडलों को एक के ऊपर एक रख दिया जाए, तो शायद वे उसके चार फीट आठ इंच के कद को पार कर जाएंगे। आज उस पर लिखने का दिल इसलिए कर रहा है कि वह कहां से बढक़र कहां तक पहुंची है, यह दुनिया भर के लोगों के लिए एक बड़ी प्रेरणा हो सकती है।
सिमोन और उनके तीन और भाई-बहनों की देखभाल करने में उनकी मां असमर्थ थीं, इसलिए अमरीकी इंतजाम के मुताबिक इन चारों को एक पालक की देखरेख में रखा, और बाद में रिश्तेदारों ने इन बच्चों को अलग-अलग गोद लिया। ऐसे बचपन से बढ़ते हुए उन्होंने छह साल की उम्र से जिम्नास्टिक की कोशिश की, और धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहीं। चौदह बरस की उम्र से मुकाबलों में हिस्सा लेना शुरू किया, और फिर वह सिलसिला कभी खत्म हुआ ही नहीं। अब वे 27 बरस की उम्र में ओलंपिक में जिस तरह लोगों का दिल जीत रही हैं, वह भी देखने लायक है। हम आंकड़ों में अधिक जाना नहीं चाहते, लेकिन सिमोन ने जिम्नास्टिक्स की विश्व चैंपियनशिप में सबसे अधिक मैडल जीतने का रिकॉर्ड भी आज से पांच बरस पहले तोड़ दिया, और उसके बाद वे लगातार कोई न कोई रिकॉर्ड तोड़ती जा रही हैं।
सिमोन के बहाने हम अमरीका पर एक नजर डालना चाहते हैं जहां पर काले लोगों के साथ समाज में भेदभाव पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया है। इसके खिलाफ कानून बहुत कड़ा है, लेकिन सामाजिक माहौल पूरी तरह कानून का सम्मान कहीं भी नहीं करता है। ऐसे में सिमोन ने जिस तरह जिम्नास्टिक्स में कामयाबी का सफर जारी रखा, उसके लिए अमरीका का समान अवसरों वाला माहौल भी तारीफ का हकदार है जहां संवैधानिक सुरक्षा की वजह से काले या दूसरे रंगों के लोग भी बहुत हद तक बराबरी का मौका पाते हैं। सिमोन बाइल्स की कहानी यह बताती है कि कोई देश अपने सबसे वंचित तबके को भी आगे बढ़ाकर किस तरह अपनी संभावनाओं को हासिल कर सकता है। वैसे तो अपने आपको एक सबसे विकसित लोकतंत्र कहने वाला अमरीका सामाजिक विरोधाभासों का उसी तरह शिकार है जिस तरह हिन्दुस्तान है। अमरीका में भी जाति की तरह इस्तेमाल होने वाला रंगभेद वैसा ही जारी है जैसा भारत में दलितों के खिलाफ इस्तेमाल होता है। वहां भी भारत के सवर्ण तबकों की तरह के एक गोरे तबके में काले लोगों, और कुछ दूसरे गैर गोरे तबकों के खिलाफ हिकारत वैसी ही रहती है, जैसी कि भारत में कुछ दलितों, आदिवासियों, और अल्पसंख्यकों के खिलाफ रहती है। लेकिन फिर भी विसंगतियों और विरोधाभासों के बीच जब अमरीका की तरह खिलाडिय़ों को बराबरी का मौका मिलता है, तो वे शानदार प्रदर्शन करके दिखाते हैं।
हिन्दुस्तान में हाल के बरसों में यह बात भी उठी है कि भारत की क्रिकेट टीम में किन जातियों के कितने लोगों को मौका मिलता है, और किन जातियों के लोग सबसे शानदार प्रदर्शन करके दिखाते हैं। हम उन बारीकियों में तो नहीं जा रहे, लेकिन देश में दलितों, और आदिवासियों, या अतिपिछड़ी जातियों के बच्चों को देखना चाहिए जिन्हें अपने इलाकों की वजह से, या अभाव की वजह से खेल या पढ़ाई मेें आगे बढऩे का मौका नहीं मिल पाता। 140 करोड़ की आबादी का यह देश अगर ओलंपिक से गिने-चुने पदक लेकर आता है जिन्हें कि एक मुट्ठी में थामा जा सकता है, तो इसके पीछे की एक बड़ी वजह यह लगती है कि वंचित समुदाय के बच्चों को आगे बढऩे के बराबरी के मौके नहीं मिलते हैं। अपने देश की एक बड़ी आबादी को गैरबराबरी का शिकार बनाकर, उन्हें सहूलियतें न देकर कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता। और जब कोई देश सबसे कमजोर तबकों को भी आगे बढ़ाता है, तो वह सहूलियत हासिल तबकों के लिए भी एक घरेलू चुनौती खड़ी करता है, और सबकी तरक्की होती है। यहां हम एक अमरीकी तैराक माइकल फेल्प्स की बात करना चाहेंगे जो तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक तकलीफों का शिकार है, लेकिन सामान्य वर्ग से ही ओलंपिक में आता है। उसने अकेले 28 ओलंपिक मैडल जीते हैं जिनमें 23 गोल्ड मैडल हैं, 3 सिल्वर मैडल हैं, और 2 ब्रांज मैडल हैं। आंकड़ों के एक विश्लेषण के मुताबिक माइकल के 23 गोल्ड मैडल दुनिया के एक 162 देशों को अलग-अलग हासिल गोल्ड मैडलों से भी अधिक हैं। मिसाल के तौर पर हिन्दुस्तान को अब तक कुल 10 स्वर्ण पदक मिले हैं, और माइकल फेल्प्स के अकेले ही 23 स्वर्ण पदक हैं। इस तरह किसी खिलाड़ी का विकास तभी हो पाता है, जब बाकी सहूलियतों के साथ-साथ उसे घरेलू मोर्चे पर दूसरे खिलाडिय़ों का भी अच्छा-खासा सामना करना पड़ता है। अमरीका में सिमोन बाइल्स जैसी खिलाड़ी के आगे बढऩे के पीछे भी यही कुछ वजहें हैं, बराबरी के अवसर, खेल की सहूलियतें, और घरेलू मोर्चे पर कड़ा मुकाबला।
हिन्दुस्तान जैसे देशों को अपनी खेल नीतियों के बारे में सोचना चाहिए जहां देश एक अकेले अतिसंपन्न खेल, क्रिकेट के आभामंडल से चकाचौंध होकर बहुत कम सोच पाता है। गिने-चुने खिलाडिय़ों पर दो ओलंपिकों के बीच चार बरस मेहनत होती है, लेकिन ऐसे खिलाडिय़ों की गिनती बढ़ाने का माहौल कम दिखता है। ओलंपिक की खबरों और उसके माहौल के बीच न सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि तमाम देशों को अपने-अपने बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि नौजवान पीढ़ी के लिए खेल एक ऐसा काम है जो कि उसे निराशा से लेकर नशे तक, बहुत सी नकारात्मक बातों से परे रखता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ईडी ने अभी सुप्रीम कोर्ट में छत्तीसगढ़ के एक मामले में सुबूत पेश करते हुए कहा कि इस प्रदेश के भ्रष्टाचार से घिरे अफसरों को बचाने में सरकार जुट गई थी, और उस वक्त के मुख्य सचिव के भाई प्रदेश के हाईकोर्ट में जज थे जिनसे आरोपियों का संपर्क था, और वहां से उन्हें जमानत मिली, और इसके साथ ही इस मुख्य सचिव को राज्य का मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनाया गया, इसके अलावा जज के बेटी-दामाद के मामले भी किसी मेहरबानी के लिए आरोपी अफसरों तक पहुंचाने का काम एडवोकेट जनरल मुखिया, जो कि आरोपियों और जज के बीच मध्यस्थ का काम कर रहे थे। इस मुद्दे पर हमने दो दिन पहले एक लंबा संपादकीय लिखा है इसलिए हम उस पर दुबारा नहीं लिख रहे हैं। लेकिन आज एक दूसरा मुद्दा उठता है कि किसी राज्य में हाईकोर्ट के जज उस राज्य के हाईकोर्ट में काम करते हुए वकीलों में से छांटकर बनाए जाते हैं। इसकी मंजूरी सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम देता है, फिर आखिरी मंजूरी केन्द्र सरकार से मिलती है। हम ऐसे बहुत से मामलों को देखते हैं जिनमें हाईकोर्ट के मामले किसी जज की अदालत में सुनवाई के दिन जब पेश होते हैं, तो जज अपने आपको सुनवाई से अलग कर लेते हैं क्योंकि उन्होंने मामले से जुड़े हुए किसी पहलू की तरफ से पहले मामला वकील की हैसियत से लड़ा हुआ था। दूसरी तरफ ऐसे ही जजों के वकालत के दिनों के मातहत, जूनियर वकील भी मामले लेकर अदालतों में पहुंचते हैं, और यह सामान्य जानकारी है कि किसी जज से किसी मामले की सुनवाई न चाहने वाले लोग उस जज के किसी रिश्तेदार, या जूनियर रहे वकील को खड़ा करते हैं, और जज सुनवाई करने से मना कर देते हैं। जिस जगह लोगों ने लंबी वकालत की है वहां पर बहुत से लोगों से संबंध रहना स्वाभाविक बात है, और जज भी वकील रहने के वक्त रिश्तेदारों, दोस्तों, और मुवक्किलों से संबंध रखे हुए रहते हैं।
इससे एक बात साफ होती है कि पूर्वाग्रह या पक्षपात, दोस्ती या दुश्मनी की अधिक वजह वकील के उसी हाईकोर्ट में जज बनाए जाने से खड़ी हो सकती है, और दूसरे प्रदेश से आए हुए जजों के साथ ऐसा धर्मसंकट नहीं रहता होगा। अभी जब हमने मुख्य सचिव और उनके जज भाई के बारे में लिखा, तो कुछ जानकार लोगों ने इस पर संदेश भेजा कि वकीलों को उन्हीं के राज्यों में जज बनाना बंद होना चाहिए। जज के लंबे कार्यकाल में वैसे भी हर एक को कई राज्यों के हाईकोर्ट में काम करना पड़ता है। उसमें अगर उनके अपने गृहप्रवेश में काम करने पर रोक लगा दी जाए, तो इससे उनके पूरे कार्यकाल पर कोई फर्क नहीं पड़ता। जजों को पक्षपात की नौबत से बचाने के लिए अनिवार्य रूप से दूसरे राज्यों में ही तैनात करना चाहिए।
लेकिन हम बात सिर्फ जजों तक सीमित रखना नहीं चाहते। राज्य सरकार से रिटायर होने वाले दर्जनों ऐसे अफसर रहते हैं जो कि आखिरी बरसों में उन संवैधानिक कुर्सियों पर नजरें टिकाए रहते हैं जिन पर आमतौर पर भूतपूर्व नौकरशाहों को रखा जाता है। अफसर वृद्धावस्था पुनर्वास के लिए कुर्सी पर रहते हुए नेताओं की मर्जी से कई किस्म के गलत काम करते हैं, ताकि रिटायर होते ही उन्हें लाखों रूपए महीने मेहनताने, और बड़े ऊंचे दर्जे की सहूलियतों वाले ओहदे मिल जाएं। देश में अब राष्ट्रीय स्तर पर और प्रदेशों में संवैधानिक आयोगों में ओहदे बढ़ते-बढ़ते अब हर प्रदेश में दर्जनभर पार कर चुके हैं, शायद दर्जनों तक पहुंच चुके हैं, और इन्हें हासिल करने के लिए अफसर अपने आखिरी बरसों में हर किस्म के गलत काम करने को तैयार रहते हैं। हम बार-बार इस बात को लिखते हैं कि अगर किसी ओहदे के लिए रिटायर्ड अफसर की ही जरूरत है, तो इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक पैनल बनना चाहिए जिसमें ऐसी कुर्सियों पर काम करने की हसरत रखने वाले रिटायर्ड अफसर अर्जी भेजें, और फिर उन्हें उस पैनल में से उनके गृहराज्य छोडक़र बाकी राज्य छांट सकें, और ले जा सकें। अभी कल तक जो अफसर अपने राज्य में पुलिस महकमा चला रहे थे, वे रातों-रात मानवाधिकार आयोग में बैठ जाते हैं। वहां बहुत सारे मामले तो उनके पुलिसिया कार्यकाल के खिलाफ ही रहते हैं, और वे क्या खाकर उसकी सुनवाई कर सकते हैं? इसी तरह महिला आयोग, बाल कल्याण परिषद, अनुसूचित जाति या जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, में सत्तारूढ़ पार्टी अपने पसंदीदा लोगों, और आमतौर पर पार्टी के नेताओं को मनोनीत करती है। यह सिलसिला भी बंद होना चाहिए, और इसके लिए दूसरे राज्यों के, राजनीति से परे के लोगों को छांटना चाहिए, और इसी के लिए हम एक राष्ट्रीय पैनल सुझा रहे हैं ताकि उसमें से सबसे अच्छे लोगों को दूसरे राज्यों में ले जाया जा सके। जब संवैधानिक संस्थाएं सत्ता से उपकृत लोगों के लिए वृद्धाश्रम बन जाती हैं, तो वे कभी भी अपना मकसद पूरा नहीं कर पातीं। हमने पिछले बहुत बरसों से लगातार इस बात को उठाया है कि राज्य के लोगों को इन जगहों पर छांटने से हितों के टकराव का एक बड़ा मामला खड़ा होता है, और ऐसा टकराव लोकतंत्र के खिलाफ है।
जब जनता के पैसों से, जनता के हितों के लिए संवैधानिक व्यवस्था के तहत वकील जज बनते हैं, या रिटायर्ड अफसर और नेता किसी संवैधानिक कुर्सी पर आते हैं, तो यह सिलसिला बहुत पारदर्शी होना चाहिए, और उसमें किसी भी तरह से हितों का टकराव नहीं होना चाहिए। जिस तरह आज देश में वकीलों को जज बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम है, उसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर संवैधानिक पदों पर चयन के लिए एक कमेटी या आयोग बनाना बेहतर होगा जो कि हर राज्य की जरूरत के मुताबिक वहां के पदों पर लोगों को भेज सके, और ऐसे लोग किसी नेता या सरकार का उपकार माने बिना अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी ईमानदारी से पूरी करें। राज्य के भीतर जब तक लोगों का चयन होता रहेगा, तब तक संवैधानिक भूमिका में ईमानदारी नहीं आ सकेगी। इसके साथ-साथ एक दूसरी बात और होनी चाहिए, जजों के रिटायर होने के बाद उनके राजनीति में आने, राज्यसभा जाने, या राज्यपाल बनने पर कुछ सालों की रोक रहनी चाहिए। रिटायर होते ही मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई जिस तरह राज्यसभा चले गए, उससे सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता पर गहरी चोट पड़ी है। इस पर हम पहले कई बार लिख चुके हैं, और आज एक अखबार के इंटरव्यू में देश के मुख्य न्यायाधीश ने भी कुछ इसी तरह की राय जाहिर की है।
लोकतंत्र नैतिकता के ऊंचे पैमानों की एक पारदर्शी व्यवस्था रहनी चाहिए। जो लोग पूरी जिंदगी प्रमुख पदों पर रहते आए हैं, उन्हें कुछ और बरस की सहूलियतों के लिए लार टपकाते हुए सत्ता के तलुए नहीं सहलाना चाहिए। संसद को एक राष्ट्रीय चयन आयोग बनाना चाहिए, ठीक उस तरह जैसे कि राज्यों की आईएएस, आईपीएस, आईएफएस अफसरों की जरूरत ही केन्द्र को पहुंचती है, और फिर यूपीएससी उतनी संख्या में लोगों को छांटकर, राज्य की मर्जी के बिना के लोगों को वहां भेज देती है। ठीक इसी तरह प्रदेश के संवैधानिक आयोगों में भी देश भर के सबसे अच्छे, काबिल, और बेदाग रिकॉर्ड वाले लोगों को भेजा जाना चाहिए, जिसमें राज्य का कोई दखल नहीं होना चाहिए।
बांग्लादेश से प्रधानमंत्री शेख हसीना के हटने के साथ ही वहां उनके खिलाफ चल रहा आंदोलन अब कुछ दूसरे निशानों की तरफ मुड़ गया है। इसमें उनकी अवामी लीग पार्टी के नेता और पदाधिकारी तो हैं ही जिन्हें सरकार भी गिरफ्तार कर रही है, और हसीना विरोधी प्रदर्शनकारी भी उन्हें मार रहे हैं। कुछ भरोसेमंद समाचार माध्यमों की खबरों को देखें तो पता लगता है कि अवामी लीग के 20 नेताओं की लाशें मिली हैं, बांग्लादेश के 64 जिलों में से करीब आधे जिलों में हिन्दुओं पर हमले हो रहे हैं। इसके पहले भी हमेशा ही बांग्लादेश में हिन्दू मंदिरों पर कभी-कभार हमले होते रहते थे, लेकिन अब हिन्दुओं के घर जलाए जा रहे हैं, उन्हें लूटा जा रहा है, और बांग्लादेश के एक मशहूर गायक राहुल आनंद का 140 साल पुराना घर भी लूटपाट के बाद जला दिया गया है। शेख हसीना के मंत्री और पार्टी के दूसरे नेता देश छोडक़र भाग रहे हैं, भारत से वहां पढऩे गए हुए छात्र कई दिनों से भारत लौटते आ रहे थे, और हिन्दुओं या भारतीय नागरिकों को वहां से निकालने का एक दबाव भारत सरकार पर बना हुआ है, लेकिन भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने कल संसद में कहा है कि भारत सरकार बांग्लादेश के हालात पर नजर रखे हुए है। उन्होंने बताया कि बांग्लादेश में 19 हजार भारतीय नागरिक हैं, जिनमें से करीब 9 हजार छात्रों में से अधिकतर भारत लौट चुके हैं। उन्होंने बांग्लादेश को महत्वपूर्ण पड़ोसी देश बताते हुए कहा है कि बांग्लादेश के बारे में भारत में एक मजबूत राष्ट्रीय सहमति हमेशा से रही है। कल तक जयशंकर ने बांग्लादेश से हिन्दुओं या भारतीय नागरिकों को निकालने के किसी फैसले के बारे में कुछ नहीं कहा है। लेकिन कल से अब तक वहां लगातार जो वारदातें हो रही हैं, वे वहां भारतीयों और हिन्दुओं के खतरे में होने का संकेत है। वहां हिन्दुओं और हिन्दुस्तानियों को शेख हसीना का समर्थक माना जाता था, इसलिए वहां हसीना-विरोधियों की सोच इनके खिलाफ हमेशा से रहते आई है। 1992 में हिन्दुस्तान में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद बांग्लादेश में अलग-अलग वक्त पर हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा होती रही है, और हिन्दू धर्मस्थलों को भी कई बार निशाना बनाया गया है।
आज की दुनिया तमाम धर्मों, देशों, नस्लों और नागरिकताओं के बीच जटिल अंतरसंबंधों की जगह बन चुकी है। विश्व राजनीति के एक सबसे बड़े भारतीय जानकार बाबा कहे जाने वाले रामदेव ने बांग्लादेश की आज की हालत पर एक बहुत ही अनोखी और मौलिक सोच सामने रखी है, और उन्होंने देश के पड़ोस में इस्लामिक कट्टरवाद के पहुंचने की चेतावनी देते हुए यह कहा है कि अगर भारत बांग्लादेश बना सकता है, तो हिन्दू भाईयों की रक्षा के लिए वहां दखल भी दे सकता है। आरएसएस ने भी उम्मीद जाहिर की है कि भारत सरकार बांग्लादेश में रह रहे हिन्दुओं की हिफाजत के लिए उचित कदम उठाएगी। दूसरी तरफ बांग्लादेश से जो खबरें आ रही हैं, और वहां की जो तस्वीरें दिख रही हैं, उनके मुताबिक जगह-जगह मुस्लिम समुदाय के लोग लाठियां लिए हुए हिन्दू मंदिरों और हिन्दुओं के घरों की हिफाजत में जुटे हुए हैं। वे रात-दिन वहां पर गश्त दे रहे हैं। इस बीच बांग्लादेश की बड़ी खबर यह है कि वहां के नोबल शांति पुरस्कार विजेता मो.युनूस को वहां फौज द्वारा बनाई गई अंतरिम सरकार का मुख्य सलाहकार बनाया गया है, और वहां आंदोलन कर रहे छात्रों की यह एक प्रमुख मांग थी, जिस पर युनूस ने यह कहा है कि वे इस मांग को भला कैसे ठुकरा सकते हैं। एक नोबल शांति पुरस्कार विजेता की सरकार देश में कैसे शांति स्थापित करती है, यह एक बड़ी चुनौती रहेगी। वे बांग्लादेश में सबसे कामयाबी से गरीब व्यापारियों के लिए माइक्रो फाइनेंसिंग शुरू करने वाली अर्थशास्त्री रहे हैं, और इसी योगदान के लिए उन्हें नोबल शांति पुरस्कार मिला था। लेकिन आज वहां चल रही हिंसा के बीच नोबल के पीछे का शांति का उनका योगदान पता नहीं कितना काम आ सकेगा।
जब किसी देश में लोकतंत्र कमजोर होता है, और कट्टरवादी ताकतें, या धर्मान्ध ताकतें सत्ता या कानून अपने हाथ में लेती हैं, तो वहां दूसरे धर्म के लोगों, दूसरी नागरिकता के लोगों की जिंदगियां खतरे में पड़ती हैं। हम अभी दुनिया में मुस्लिम आबादी वाले देशों को देख रहे थे तो इस्लामिक सहयोग संगठन के तहत आने वाले 57 मुस्लिम देश हैं जिनमें से 49 ऐसे हैं जहां पर मुस्लिम-बहुल आबादी है। हमने अलग-अलग तो इन देशों में हिन्दुस्तानियों की आबादी को, लेकिन हम सिर्फ मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों को देखें तो वहां कई देशों में 5 से 15 फीसदी तक हिन्दू आबादी है। और शायद ही कोई ऐसा मुस्लिम देश हो जहां पर हिन्दुस्तानी और हिन्दू न हों। इन देशों में बसे ये तमाम लोग अपने खुद के देश, हिन्दुस्तान की घटनाओं से वहां पर प्रभावित होते रहते हैं। और भारत में मुस्लिमविरोध की जो घटनाएं होती हैं, उनका असर जिस तरह आज बांग्लादेश में देखने मिल रहा है, उसी तरह और जगहों पर भी मुस्लिम-बहुल आबादी में, या सभ्य और विकसित लोकतंत्रों में उनका अलग-अलग असर देखने मिलता है। दूसरे देशों में बसे हुए हिन्दुस्तानियों को भारत की घरेलू घटनाओं का भुगतान करना पड़ता है। दुनिया में देशों की सरकारों के बीच कुछ घटनाओं को लेकर तनातनी सरकारी स्तर पर काबू में लाना आसान रहता है, लेकिन जब जनता के मन में नफरत या नाराजगी रहती है, तो उसे उतनी आसानी से मिटाया नहीं जा सकता। इसलिए सिर्फ आज बांग्लादेश की घटनाओं को देखकर नहीं, पूरी दुनिया के इतिहास को देखकर यह आसानी से कहा जा सकता है कि अपने घरों में सुरक्षित बैठे लोग अपने इलाकों में दूसरे धर्म, दूसरी जाति, या दूसरी राष्ट्रीयता, क्षेत्रीयता के लोगों पर जब हमले करते हैं, तो दूसरे बहुत से इलाकों में बसे हुए अपने बेकसूर लोगों पर हमलों का खतरा भी खड़ा करते हैं। आंख के बदले आंख निकाल लेने का सिलसिला पूरी दुनिया को अंधेरा करके छोड़ता है। बांग्लादेश की आज की हालत का कोई हिंसक जवाब देने के बजाय उसका एक सभ्य और लोकतांत्रिक, मानवीय और न्यायपूर्ण समाधान सोचना चाहिए, क्योंकि जवाबी हिंसा का सिलसिला सबको राख करके छोड़ता है।
बांग्लादेश भारत के लिए एक सबसे महत्वपूर्ण पड़ोसी है, और इस बात को चीन से बेहतर भला और कौन जान सकते हैं। भारत में यह चर्चा भी चल रही है कि क्या बांग्लादेश की ताजा बेचैनी के पीछे कुछ पश्चिमी ताकतों का भी हाथ है? ऐसी तमाम अंतरराष्ट्रीय दिलचस्पी वाले बांग्लादेश को भारत निश्चित ही बड़ी सावधानी से देख रहा होगा, और अपने देश की सरकार की सोच के खिलाफ जाकर हिन्दुस्तान के कुछ उत्साही नागरिकों को कुछ करना भी नहीं चाहिए।
जिस बांग्लादेश को भारत ने ही पाकिस्तान से अलग करके 1971 में बनाया था, उस बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस्तीफा देने के बाद अगर सबसे पहले पड़ोसी हिन्दुस्तान में ही शरण ली है, तो यह भारत पर उनके भरोसे का एक संकेत है। लेकिन इस छोटी सी और लगभग महत्वहीन बात को छोड़ दें तो हालत यह है कि बांग्लादेश की निर्वाचित सरकार अपने ही तानाशाही मिजाज के चलते गिर गई है, और प्रधानमंत्री को देश को सेना के हवाले करके चले जाना पड़ा है। भारत के साथ बांग्लादेश के रिश्ते इतने लंबे और इतने गहरे हैं कि बांग्लादेश की जिंदगी में उससे इतने करीबी संबंध किसी और देश के नहीं रहे। इसकी कुछ ऐतिहासिक वजहें भी रहीं, 1947 के पहले तक ये दोनों मुल्क आज के पाकिस्तान के साथ मिलकर एक देश, भारत ही थे। बाद में चूंकि बांग्लादेश का निर्माण भारत ने ही करवाया था, और इस निर्माण के दौर में करीब एक करोड़ शरणार्थी भारत में आए थे, और दो पड़ोसी देशों के बीच इससे बड़ा और कुछ नहीं हो सकता था। भारत ने उन तमाम लोगों को भी अपने दिल में जगह दी थी, और अपनी थाली की एक रोटी भी। इसलिए वे ऐतिहासिक रिश्ते आज बांग्लादेश में सरकार गिर जाने के वक्त भी खड़े हुए हैं, और इस वक्त शायद शेख हसीना भारत में ही हैं।
खैर, इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परे हकीकत यह है कि बांग्लादेश के पहले प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना को भी एक फौजी हुकूमत के बाद प्रधानमंत्री चुने जाने का मौका मिला था, लेकिन उन्होंने अपने पिता की विरासत को सत्ता तक तो ठीक से संभाल लिया, लेकिन हाल के बरसों में उनके तानाशाही अंदाज और मिजाज ने उन्हें बहुत अलोकप्रिय बना दिया था, और वहां 1971 के आजादी के योद्धाओं के परिवारों को सरकारी नौकरियों में मिल रहा बड़ा आरक्षण खत्म करने का आंदोलन हसीना के इस्तीफे पर जाकर खत्म हुआ। बांग्लादेश के छात्र और बेरोजगार इस आंदोलन को नाजायज मानते रहे, लेकिन शेख हसीना अपनी बददिमागी के चलते ऐसे लोगों को देश का गद्दार करार देती रहीं। उनकी बदजुबानी ही थी जिसके चलते बातचीत की जमीन खत्म हो गई, और कोटा खत्म करने का छात्र-बेरोजगार आंदोलन, हसीना के इस्तीफे पर अड़े जनआंदोलन में बदल गया। आंदोलन के शुरूआत में ही हसीना ने आंदोलनकारियों को रजाकार करार दिया जो कि बांग्लादेश के स्वाधीनता संग्राम में पाकिस्तान की मदद करने वाले लोगों को कहा जाता था। इसी से वहां चिंगारी लपटों में बदली, और बड़ी तेज रफ्तार से हसीना को देश छोडक़र चले जाना पड़ा, और अब वहां फौज नई सरकार बना रही है। नौबत इतनी खराब हुई कि हसीना भी आरक्षण खत्म करने के लिए काम कर रही थीं, सुप्रीम कोर्ट भी गई थीं, लेकिन उनके ऊपर जनता का भरोसा नहीं रह गया।
शेख हसीना की सत्ता के चलते बांग्लादेश में जो चुनाव हुए उस पर भी लोगों का अधिक भरोसा नहीं था, और उन्होंने देश के साथ-साथ अपनी पार्टी के भीतर भी जिस आला दर्जे की तानाशाही कायम की थी, उसने भी उन्हें धीरे-धीरे करके बड़ा अलोकप्रिय बना दिया था। उन्होंने अपने आलोचकों के साथ किसी आत्ममुग्ध तानाशाह सरीखा ही सुलूक किया, और हर दिन उन्हें अधिक अलोकप्रिय बनाते चले गया। एक वक्त तो ऐसा आया जब उन्होंने फुटकर कारोबारियों को माईक्रोलोन देकर देश की अर्थव्यवस्था सुधारने वाले, नोबल पुरस्कार विजेता प्रो.मोहम्मद युनूस को उन्होंने जेल में डाल दिया था, और अब आज बांग्लादेश में युनूस से अंतरिम प्रधानमंत्री बनने की अपील की जा रही है। कुछ अरसा पहले तक एक वक्त ऐसा था कि बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय भारत की प्रति व्यक्ति आय से अधिक थी। बांग्लादेश रणनीतिक रूप से भारत और चीन दोनों के बीच संतुलन बनाकर चल रहा देश था, और उसका भविष्य इतना खराब होगा यह किसी ने सोचा नहीं था। आरक्षण की व्यवस्था कोई नई नहीं थी, और आंदोलनकारी नौजवान और हसीना एक ही तर्कों वाले थे, लेकिन हसीना की लोकतांत्रिक साख खत्म हो चुकी थी। बहुत पहले से हिन्दुस्तान में बड़े बुजुर्ग एक बात कहते हैं, बद अच्छा, बदनाम बुरा। हसीना जितनी अलोकतांत्रिक थीं, उनका बर्दाश्त जितना कम था, उनकी साख उसके मुकाबले कहीं अधिक बुरी थी, इसलिए अपने ही देश के आंदोलनकारियों को गद्दार कहने से लोग जो भडक़े, तो फिर उन्होंने प्रधानमंत्री निवास के सोफा-पलंग पर कब्जा करने के बाद ही चैन की सांस ली। किसी नेता के लिए यह कैसी बुरी नौबत रहती है कि उसे एक आखिरी बार अपने देश को संबोधित करने भी न मिले, क्योंकि सेनाप्रमुख ने हसीना को रूबरू यह कह दिया कि इससे तनाव और भडक़ सकता है। ऐसे में चुपचाप कुछ सामान लेकर बहन के साथ मुजीब की बेटी, और मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना इस्तीफा सेनाप्रमुख को देकर फौजी हेलीकॉप्टर से भारत पहुंचीं, और शायद योरप में कहीं शरण लेकर वहां बसेंगी।
भारत के लिए यह आसान नौबत नहीं है। बरसों से जिस बांग्लादेशी नेता से भारत दुतरफा रिश्तों का संतुलन बनाकर चल रहा था, वे रिश्ते अब किसी नए नेता के साथ नए सिरे से बनाने पड़ेंगे, और यहां पर यह बात याद रखनी चाहिए कि इसी पखवाड़े हसीना चीन के दौरे से बड़ी निराश होकर, दौरा अधूरा छोडक़र लौटी थीं, और उन्होंने भारत को प्राथमिकता घोषित की थी। अब नई सरकार रिश्तों के इस त्रिकोण में किस तरफ झुकती है, यह भी देखना होगा। फिर भारत के साथ बांग्लादेश के रिश्तों में तनातनी की एक वजह भारत में बसे हुए करोड़ों बांग्लादेशी भी हैं जो कि वैध और अवैध दोनों तरीकों से आए हुए हैं। भारत को ये बदले हुए हालात इसलिए भी फिक्रमंद कर सकते हैं कि उसके इर्द-गिर्द चीनी मोतियों की एक माला सी बन गई है। पाकिस्तान वैसे भी चीन की जेब में है, म्यांमार की सरकार चीन-समर्थक, और भारतविरोधी है, नेपाल में नई वामपंथी सरकार का रूझान चीन की तरफ दिख रहा है, श्रीलंका को अपनी आर्थिक आपदा से उबरने में चीन बड़ी मदद कर रहा है, और बांग्लादेश इस घेरे को पूरा करता है। इस तरह भारत को बांग्लादेश के साथ अपने रिश्ते तय करते हुए हमेशा ही इसी चीनी चक्रव्यूह को ध्यान में रखना पड़ेगा।
फिलहाल आखिर में हम यही सोचना चाहते हैं कि जब कोई लोकतांत्रिक नेता तानाशाह होने लगते हैं, तो अच्छा-भला चलता हुआ देश, लोगों की अच्छी अर्थव्यवस्था किस तरह कुछ महीनों के भीतर गड्ढे में चली जाती है, आंदोलनकारी सडक़ से हटकर संसद भवन के भीतर और प्रधानमंत्री निवास के सोफा-पलंगों पर पहुंच जाते हैं। शायद बांग्लादेश की यह नौबत बाकी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के लिए एक सबक, नसीहत, और चेतावनी सब कुछ हो सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुनील कुमार
छत्तीसगढ़ का नान घोटाला भाजपा के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के वक्त पकड़ में आया, और उसमें दो आईएएस अफसरों के बहुत बड़े भ्रष्टाचार के सुबूत मिले। मामला अदालत तक पहुंचा, और इसके पहले कि इन अफसरों की गिरफ्तारी हो पाती, भाजपा की सरकार चली गई, और कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने आते ही इन दो अफसरों को बचाने के लिए जो कुछ किया, वह शायद भारत के इतिहास का एक अनोखा मामला रहा। जिन लोगों को सीधे जेल में रहना था, वे सरकार हांक रहे थे, और जिन लोगों ने भ्रष्टाचार को पकड़ा था, उन पर चाबुक चला रहे थे। अपने ओहदे से ऊपर जाकर ये लोग पूरे राज्य का शासन-प्रशासन चला रहे थे, और पूरी सरकार इन्हें रिपोर्ट कर रही थी। जो जांच एजेंसी करोड़ों के नान घोटाले के सुबूत लेकर अदालत में खड़ी थी, उसके नए अफसर अपनी ही जांच की बुलेट ट्रेन को पटरी से उतारने में लग गए थे, और जांच एजेंसी के गवाहों को डरा-धमकाकर उनके बयान बदलवाए गए थे। जो दो अफसर इस भ्रष्टाचार के मुख्य आरोपी थे, वे ही अब अपने खिलाफ चल रही अदालती कार्रवाई में जांच एजेंसी के वकील के साथ मिलकर सुबूत और गवाह बर्बाद कर रहे थे, और केस को खोखला बना रहे थे। हालत यह थी कि इनकमटैक्स और ईडी ने जो सुबूत जब्त किए और अदालत के सामने रखे, उनके मुताबिक जांच एजेंसी के मुखिया अदालत में एजेंसी के खिलाफ और आरोपियों के पक्ष में आदेश होने पर खुशियां मना रहे थे। ये तमाम जानकारियां पिछले बरसों में किस्तों में अदालतों में पेश होती रहीं, लेकिन भूपेश बघेल की सरकार को आखिरी दिन तक यही अफसर हांकते रहे। कांग्रेस पार्टी और भूपेश सरकार ने यह सार्वजनिक रूख अख्तियार कर लिया था कि ईडी गैरभाजपाई सरकार के पीछे लगी है, और फिर मानो इस तर्क के बाद किसी सार्वजनिक सफाई की भी कोई जरूरत नहीं रह गई थी।
कई और सुबूत लोकतंत्र को खत्म करने वाले सामने आते रहे, लेकिन सरकार ने अपने राजनीतिक रूख को अपनी ढाल बना लिया था, और ईडी की कार्रवाई चलते हुए भी नान आरोपी ही भूपेश सरकार के हजारों करोड़ के नए घोटालों और जुर्म के सरगना बने रहे, और भूपेश बघेल तो सरकार के मुखिया थे ही। अभी सुप्रीम कोर्ट में ईडी ने ये पुख्ता सुबूत पेश किए हैं कि रमन सिंह के वक्त पकड़ाए नान घोटाले के दो सबसे बड़े आरोपी आईएएस, आलोक शुक्ला और अनिल टुटेजा भूपेश सरकार आने के बाद अपनी जमानत के पहले उस वक्त के राज्य के सरकारी महाधिवक्ता के मार्फत हाईकोर्ट के एक जज के संपर्क में थे, जिससे कि बाद में इन्हें जमानत मिली। भूपेश सरकार के समय मुख्य सचिव रहे अजय सिंह नाम के अफसर के सगे भाई अरविंद कुमार चंदेल राज्य के हाईकोर्ट के जज थे, और इनके मार्फत महाधिवक्ता ने जमानत के लिए संपर्क किया, और बाद में जमानत मिल भी गई। मुख्य सचिव अजय सिंह को राज्य का अगला योजना मंडल उपाध्यक्ष बनाया गया जिससे कि उन्हें एक नया कार्यकाल मिला। ईडी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने यह भी पेश किया है कि किस तरह इस जज अरविन्द कुमार चंदेल के बेटी-दामाद का बायोडाटा एजी के मार्फत अनिल टुटेजा को अनुकूल कार्रवाई के लिए भेजा गया था। इन सबकी वॉट्सऐप चैट अभी सुप्रीम कोर्ट के सामने खुलासे से पेश की गई है। लोगों को याद होना चाहिए कि ये बातें बरसों पहले भी सामने आई थीं जब भूपेश सरकार को हांकने का काम अकेले अनिल टुटेजा कर रहे थे, और आज ईडी के कुछ दूसरे मामलों को देखें तो पता चलता है कि वे हजारों करोड़ रुपये के शराब घोटाले के सरगना भी थे। इस बात को भी कुछ बरस हो गए हैं कि ईडी ने सुप्रीम कोर्ट को जज अरविन्द चंदेल से संबंधित सारी चैट के सुबूत बंद लिफाफे में दे दिए थे कि वे अदालत से जुड़े हुए व्यक्ति के बारे में इतनी संवेदनशील बातचीत खुली अदालत में पेश करना नहीं चाहते। अब जब तारीखों के साथ सारे सुबूत इस तरह खुलकर सामने आए हैं कि 16 अक्टूबर को जज अरविन्द कुमार चंदेल ने टुटेजा-शुक्ला को जमानत दी, और एक पखवाड़े बाद एक नवंबर को उनके भाई अजय सिंह को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया, जिसका कार्यकाल लंबा रहने वाला था।
इस मामले पर हमारे विचार लिखने के पहले इसकी खुलासे से चर्चा होना इसलिए जरूरी है कि लोग यह समझ सकें कि लोकतंत्र में ताकतवर तबके किस तरह गिरोहबंदी करके संविधान को पैरों तले कुचल सकते हैं। जब निर्वाचित मुख्यमंत्री, यूपीएससी के चुनिंदा आईएएस अफसर, राज्य के महाधिवक्ता, हाईकोर्ट के जज, राज्य की सबसे बड़ी जांच एजेंसी के मुखिया मुजरिमों को बचाने के लिए एक रजिस्टर्ड गिरोह बना लेते हैं, तो फिर लोकतंत्र सहमकर किसी नाली की पुलिया के नीचे जा दुबकता है। छत्तीसगढ़ में छोटे-छोटे से अटवारी-पटवारी रिश्वत लेने में गिरफ्तार किए जा रहे हैं, और सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे गब्बर, सांभा, और कालिया उसी तरह हंस रहे हैं जिस तरह फिल्म शोले में ये तीनों हंसते थे। फर्क यही है कि नीचे नाचने का जिम्मा इस बार लोकतंत्र को दिया गया था, जिसे ऐसे गिरोह ने बेबस बसंती बना छोड़ा है। हम नहीं जानते कि अभी सुप्रीम कोर्ट इन तमाम लोगों के खिलाफ कब और कैसे कोई कार्रवाई करेगा, फिलहाल भूपेश बघेल विधायक हैं, अजय सिंह को नई भाजपा सरकार ने मुख्य चुनाव अधिकारी बनाकर एक लंबा कार्यकाल और दे दिया है, जज चंदेल किसी और राज्य में हाईकोर्ट में फैसले सुना रहे हैं, संविधान के खिलाफ और संवैधानिक जिम्मेदारी के खिलाफ काम करने वाले सतीश वर्मा अदालत में वकालत कर रहे हैं, अनिल टुटेजा कुछ दूसरे मामलों में जेल में पड़े हैं, और आलोक शुक्ला भूपेश सरकार के पूरे कार्यकाल भ्रष्टाचार के नए-नए मामलों से घिरे हुए अब तक आजाद घूम रहे हैं। यह पूरा माहौल देखकर नाली की पुलिया के नीचे दुबके लोकतंत्र की बाहर निकलने की हिम्मत भी भला कैसे हो सकती है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट पुख्ता सुबूतों के बंद लिफाफे पर सोते बरसों गुजार चुका है, नाली के पानी में भीगा लोकतंत्र बाहर निकले भी तो कैसे निकले? प्रदेश की नई भाजपा सरकार ने तो इसी जज के इसी भाई को नया संवैधानिक ओहदा दे दिया है।
अदालतों में जमानत के इंतजार में महीनों और बरसों खड़े हुए ऐसे लोग रहते हैं जो अपने मामलों में फैसलों, या सुनवाई शुरू होने के इंतजार में जेलों में बंद रहते हैं। हिन्दुस्तान में कुछ कानून तो ऐसे कड़े बनाए गए हैं कि उनके तहत सरकार लोगों को बरसों से जेल में बंद रखे हुए है, लेकिन जमानत नहीं हो पा रही है, और न ही सुनवाई शुरू हुई है। सुप्रीम कोर्ट जमानत को लेकर जिला अदालतों, और हाईकोर्ट को भी पिछले कुछ हफ्तों में बहुत कुछ कह चुका है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने अलग-अलग मामलों में कई तरह की नसीहतें दी हैं। एक मामले में उसने यह कहा कि बेल हक होता है, और जेल अपवाद होना चाहिए। कुछ दूसरे मामलों में उसने यह कहा कि निचली अदालत ने अगर किसी को जमानत दी है, तो उसे रद्द करने के पहले हाईकोर्ट को बहुत सी बातें सोचना चाहिए। अब कल उसने पटना हाईकोर्ट के एक जमानत आदेश को खारिज किया जिसमें अदालत ने अंधाधुंध कड़ी शर्तें लगा दी थीं। हाईकोर्ट ने पति को जमानत देते हुए यह कहा था कि वह पत्नी की सभी शारीरिक और वित्तीय जरूरतों को पूरा करेगा। इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि यह देखकर दुख हो रहा है कि जमानत के लिए कठोर शर्तें रखने की प्रथा को निंदा करने वाले सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के बावजूद हाईकोर्ट इस तरह के आदेश दे रहे हैं जिन पर कोई अमल भी नहीं हो सकता। जाहिर है कि हाईकोर्ट की इस जमानत में रखी गई शर्त कि पत्नी की हर शारीरिक जरूरत को पति पूरा करेगा, सुप्रीम कोर्ट ने असंभव माना। और ऐसे शर्तों वाला जमानत आदेश खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अमल होने लायक शर्तें ही लगाई जानी चाहिए। आदेश में यह भी याद दिलाया कि जमानत की शर्तें जांच में आरोपी की मौजूदगी की गारंटी के लिए ही लगती हैं ताकि सुनवाई ठीक से हो सके।
अब अगर हम हिन्दुस्तान की आबादी को देखें, तो तीन चौथाई लोग तो जिले में भी अदालती मामले का खर्च नहीं उठा सकते। शायद पांच-दस फीसदी आबादी हाईकोर्ट तक जाने का हौसला कर सकती है। और हमें नहीं लगता कि एक फीसदी से अधिक आबादी किसी भी हालत में सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पांव धरने का दुस्साहस कर सकती है। ऐसे में अगर सुप्रीम कोर्ट को देश की बाकी अदालतों को दिए गए अपने मार्गदर्शन को इस तरह बार-बार दुहराना पड़ रहा है, तो उसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के खिलाफ जाकर नीचे की अदालतें जनता के साथ बेइंसाफी कर रही हैं, और भला ऐसे कितने लोग होंगे जो कि हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा सकेंगे? यह नौबत तकलीफदेह इसलिए है कि अदालतों में सरकारों और बड़े कारोबारियों, दो नंबरियों, और दस नंबरियों के अलावा और किसी की तो ताकत रहती नहीं है कि नीचे से ऊपर तक अदालती लड़ाई लड़ सकें, और ऐसे में यह नौबत आना ठीक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों के खिलाफ निचली अदालतों के फैसलों को सुधारने में वक्त जाया करे।
यहां पर हमें एक छोटी सी राह दिखती है। इन दिनों भारत में भी बहुत से वकील आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल करके अदालत के लिए ड्राफ्ट तैयार करते हैं क्योंकि एआई से कम्प्यूटर-इंटरनेट पर दर्ज पुराने सभी फैसले और आदेश का विश्लेषण करके उसके मुताबिक किसी नए केस में ड्राफ्ट तैयार किया जा सकता है। जिस काम में बहुत से वकील लगेंगे, या उनके बहुत से दिन लगेंगे, उस काम को एआई बड़ी तेजी से कुछ मिनटों में सामने रख सकता है, और फिर उसकी जांच-परख वकील अपनी मानवीय समझ से कर सकते हैं। जब ऐसा इस्तेमाल आज हो ही रहा है, तो भारतीय न्याय व्यवस्था को ऐसे एआई औजार बनाने चाहिए जो कि हर अदालत को किसी फैसले को लिखते वक्त पहले की तमाम नजीरों को भी सामने रख सकें। ये औजार हर अदालत को यह भी सुझा सकते हैं कि ऐसे मामलों में उनसे बड़ी किन अदालतों के क्या फैसले रहे हैं। ये एआई टूल्स सुप्रीम कोर्ट जजों को भी बता सकते हैं कि उनकी और अधिक जजों की बेंच ने इस तरह के किसी मामले में पहले क्या फैसले दिए हैं। एआई के ऐसे इस्तेमाल से हो सकता है कि वकीलों में कुछ बेरोजगारी आए, लेकिन इससे यह फायदा भी हो सकता है कि बड़ी अदालतों के पिछले फैसलों को अनदेखा करते हुए अभी अगर कोई जज उनके खिलाफ नए फैसले लिखते हैं, तो वे ऐसी गलती से बचेंगे, और उनके इन ताजा फैसलों के खिलाफ अपील से अदालतों पर बोझ बढऩे से बचेगा। आज भी हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट में जज या जजों को जब लगता है कि उन्हें किसी मदद की जरूरत है, तो वे किसी काबिल वकील को न्यायमित्र नियुक्त करते हैं। जजों और वकीलों को कानूनी सहायकों की सहूलियतें भी हासिल रहती है जो बड़ी अदालतों के पुराने फैसलों की मिसालें निकालकर सामने रखते हैं। ऐसे में एआई को एक औजार की तरह इस्तेमाल करना अदालत का वक्त भी बचाएगा, और गलतियों को भी घटाएगा। आज हालत यह है कि किसी जज के गलत फैसले से अगर लोगों की जिंदगी के कई बरस जेल में गुजर जाते हैं, तो उसके लिए किसी भरपाई का इंतजाम नहीं है। इसलिए अदालतों को अधिक से अधिक सावधानी बरतने के लिए बिना किसी खर्च वाले ऐसे एआई औजार मुहैया कराए जाने चाहिए।
दूसरी एक बात यह कि देश की सरकार को यह सोचना चाहिए कि जिन गरीब लोगों के कई-कई बरस जेल में गैरजरूरी तरीके से बर्बाद हो जाते हैं, सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंचकर यह पाया जाता है कि किसी व्यक्ति के जेल में बंद पिछले 11 बरस गलत फैसले की वजह से थे, तो ऐसे मामलों में उन्हें मुआवजा देने के लिए सरकार की कोई योजना आनी चाहिए। या तो सरकार न्यायिक मुआवजा फंड जैसी कोई तरकीब निकाले जिससे कि कम से कम गरीब लोगों की भरपाई हो सके, या फिर वह फसल बीमा, स्वास्थ्य बीमा की तरह अदालती न्याय बीमा जैसा कुछ शुरू करे, और किसी व्यक्ति के जेलों में गुजारे गए गैरजरूरी या नाजायज दिनों का मुआवजा उसे मिल सके। जनकल्याणकारी सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए क्योंकि जो व्यक्ति खुद अपनी मेहनत से कमाते हैं, उनके जेलों में रहने पर उनका कोई विकल्प तो परिवार के पास नहीं रहता। किसी कारोबारी के जेल में रहने पर परिवार के दूसरे लोग शायद कारोबार को कम या अधिक हद तक चला पाएं।
यहां पर यह आखिरी सलाह देने का मकसद यह है कि मौजूदा चीफ जस्टिस थोड़ी सी मानवीय संवेदना के साथ सोचने-समझने वाले इंसान दिखते हैं, और उन्हें खुद ही एक जनहित याचिका की तरह इस मामले को दर्ज करके केन्द्र और राज्य सरकारों को नोटिस जारी करना चाहिए, और उनकी राय लेनी चाहिए।
छत्तीसगढ़ के सारंगढ़-बिलाईगढ़ जिले के एक गांव में रहने वाली मानसिक विक्षिप्त युवती की पैरों में पिता ने बेड़ी बांधी दी थी ताकि वह दूर न चली जाए। ऐसे में वह आम दिनों की तरह नदी के किनारे गई, और फिर लौटी नहीं। इसके बाद वह 20 किलोमीटर दूर इसी नदी में बहते हुए ओडिशा में मिली, और उसे वहां लोगों ने बचाया, और वापिस उसके गांव लाया गया। इससे कई तरह के सवाल उठते हैं। मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा सबसे बड़ा है कि दिमागी परेशानी होने से किस तरह उसके पैरों में जंजीर बांध दी गई थी। ऐसा कई जगहों पर होता है, और गरीब परिवार जब किसी विचलित सदस्य का मानसिक इलाज नहीं करा पाते, तो उसे बांधकर रख दिया जाता है, ताकि वह खुद को, या किसी और को खतरे में न डाल दे। यह नौबत छत्तीसगढ़ में खासकर इसलिए अधिक फिक्र की बात है कि यहां हर गांव का हर परिवार ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ता, मितानिन की निगरानी में रहता है जो कि छोटी-छोटी बीमारियों का भी ध्यान रखती है, उसे मिली कुछ दर्जन किस्म की दवाईयों का इस्तेमाल करके मामूली और मौसमी बीमारियों का इलाज भी करती है, और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र या स्वास्थ्य विभाग के लगातार संपर्क में भी रहती है। अब अगर पैरों में बेडिय़ों वाली कोई विक्षिप्त महिला मितानिन के रिकॉर्ड से परे है, तो यह एक किस्म की चूक भी है। अगर उसकी जानकारी में यह बात थी, तो इस महिला को मानसिक इलाज हासिल होना चाहिए था। इस किस्म के सैम्पल केस सरकार को अपने इंतजाम को दुरूस्त करने मेें मददगार हो सकते हैं, और इसे एक अकेला केस मानने के बजाय राज्य सरकार को पूरे प्रदेश में मानसिक बीमार लोगों की शिनाख्त का अभियान चलाना चाहिए, और उनकी संख्या देखकर इलाज का इंतजाम करना चाहिए।
इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है। कई अखबारों ने इस खबर के साथ यह लिखा है कि जाको राखे सांईयां, मार सकै न कोय। मतलब यह कि जिसे ईश्वर बचाना चाहते हैं, उसे कोई मार नहीं सकते। वरना यह बात स्वाभाविक तो है नहीं कि बाढ़ में उफनती नदी में पैरों में जंजीर बंधी एक विक्षिप्त महिला बहते हुए 20 किलोमीटर दूर जिंदा पहुंच जाए, और उसे बचा भी लिया जाए। यह बात सही है कि यह एक जिंदगी किसी चमत्कार की तरह बची है, लेकिन इसे किसी धार्मिक आस्था से जोडक़र इसका विश्लेषण करना इसलिए ठीक नहीं है कि उससे धर्म और ईश्वर की धारणा को एक नाजायज महत्व और मान्यता मिलते हैं। अब जैसी कि आस्थावानों की धारणा है, ईश्वर सर्वत्र मौजूद रहते हैं, सर्वशक्तिमान रहते हैं, वे सर्वज्ञ भी रहते हैं, और कल्याणकारी तो हैं ही, कण-कण में उनका वास है। तो ऐसे में यह ईश्वर एक महिला को इस तरह, शायद बरसों तक, जंजीरों से बांधकर रखने की हद तक विक्षिप्त बनाकर क्यों रखता है? हमारे जैसे नास्तिक के मन में यह साधारण सवाल उठता है, लेकिन आस्थावानों के पास इसका जवाब पाप और पुण्य की शक्ल में रहता है कि यह पिछले जन्मों के पापों का नतीजा होगा। अगर ईश्वर एक जन्म के बाद दूसरे जन्म तक भी पाप-पुण्य को बहीखातों के हिसाब की तरह कैरीफॉरवर्ड करता है, तो फिर छोटी-छोटी बच्चियों से बलात्कार किस जन्म के हिसाब के तहत होता है? अगर उन्हें किसी पिछले जन्म के पाप की सजा भुगतनी है, तो उन्हें पैदा होने देने से बेहतर, जन्म से ही रोक देना था। कोई कल्याणकारी ईश्वर किस तरह छोटी-छोटी बच्चियों से बलात्कार को देखते हुए भी सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वत्र विद्यमान कहा जा सकता है?
इस मामले को लेकर राज्य सरकार की जिम्मेदारी पर कुछ बुनियादी सवाल उठते हैं। मानसिक विक्षिप्त लोग इलाज के हकदार तो रहते ही हैं, अगर वे गरीब परिवारों के हैं, तो शायद समाज कल्याण की किसी योजना के तहत उनके परिवारों को कुछ दूसरी मदद भी मिलनी चाहिए। क्योंकि गरीब परिवारों में ऐसे मानसिक मरीज की देखभाल आसान नहीं रहती, और जब घर के बाकी लोग मजदूरी के लिए, पढ़ाई के लिए, बाहर जाते हैं, तो ऐसे मानसिक मरीज सदस्य की खुद की हिफाजत के लिए उन्हें कभी-कभी बांधकर या बंद कर भी जाना पड़ता होगा। ऐसी नौबत वाले परिवारों को सरकारों की तरफ से कुछ अतिरिक्त मदद मिलनी चाहिए। आज जिस तरह छत्तीसगढ़ सहित बहुत सी राज्य सरकारें महिला वोटरों के खातों में सीधे रकम डालती हैं, या जिस तरह वृद्धावस्था पेंशन का प्रावधान है, उसी तरह मानसिक विक्षिप्त के परिवार के लिए भी कुछ मदद होनी चाहिए, फिर चाहे ऐसे विक्षिप्त लोग मतदाता न भी हों, वे वोट डालने की हालत में न भी हों।
हम परिवारों के भीतर ही नहीं, सडक़ों और सार्वजनिक जगहों पर भी इस तरह के लोगों को देखते हैं, जो कि सामान्य दिमागी हालत के नहीं रहते, और बिना किसी आसरे के मानो मौत के इंतजार में किसी तरह जीते रहते हैं। हमारा मानना है कि किसी भी जनकल्याणकारी सरकार को सबसे पहले ऐसे लोगों के इलाज और रखरखाव का इंतजाम करना चाहिए जो शारीरिक या मानसिक रूप से अपना खुद का ख्याल नहीं रख सकते। ऐसे लोगों के लिए शुरूआत में कम से कम जिला मुख्यालयों में ऐसे केन्द्र बनाने चाहिए जहां डॉक्टरी निगरानी में सरकार इन लोगों को जिंदा रहने की बुनियादी सहूलियतें मुहैया कराए, और अपने राज को संवेदनशील साबित करे। ऐसे लोग न तो गिनती में किसी नेता या पार्टी को हरा या जिता सकते, न ही इनमें से अधिकतर वोट डालने जा भी सकते, लेकिन किसी भी सभ्य समाज की यह पहली पहचान है कि वे अपने सबसे कमजोर, और असहाय लोगों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं। पिछले दशकों में हमने लगातार यह बात लिखी है कि किसी जनकल्याणकारी राज्य में किसी सार्वजनिक जगह पर शारीरिक या मानसिक विकलांग असहाय और बेघर लोग नहीं रहने चाहिए। उन्हें सिर्फ नजरों से दूर कर देने के लिए हटाने की बात हम नहीं कर रहे, बल्कि उन्हें इंसान की तरह रखने की बात कर रहे हैं, और जब राज्य में पशुओं को रखने के लिए भी सरकारी योजनाएं बनी हैं, बन रही हैं, तो इंसानों के लिए तो ऐसे इंतजाम होने ही चाहिए। सरकार को ऐसे समर्पित समाजसेवी, और सामाजिक संस्थाओं को भी तलाशना चाहिए जो कि सरकार से मिली बुनियादी मदद के बाद मानवीय आधार पर ऐसे तकलीफ भुगतते इंसानों का ख्याल रख सकें। आज गाय या गोवंश के लिए भी काम करने वाले लोग पशुओं के प्रति हमदर्दी की किसी भावना से यह काम नहीं करते, उनमें से तकरीबन तमाम लोगों की सोच धार्मिक आधार पर गाय से जुड़ी हुई है, और ऐसा कोई जुड़ाव शारीरिक या मानसिक मरीजों के साथ नहीं हो सकता। इसलिए किसी राज्य सरकार को धार्मिक भावना से परे की सेवाभावना को भी देखना होगा। सरकार के लिए यह कोई बहुत बड़ा बोझ नहीं होगा, लेकिन इससे सत्ता और मानवीयता का एक रिश्ता बन सकता है, और यह आने वाली सरकारों और पीढिय़ों के लिए एक अच्छी नजीर रहेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया है। और सात जजों की संविधान-पीठ का एसटी-एससी आरक्षित तबकों के भीतर उपजातियों के आधार पर आरक्षण के भीतर आरक्षण को सही ठहराने वाला यह फैसला देश की व्यवस्था में सामाजिक न्याय का एक नया नजारा पेश कर सकता है। सात में छह जज इस बात के हिमायती थे कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में सब कैटेगरी के लिए आरक्षण का एक हिस्सा अलग से आरक्षित किया जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली इस बेंच के फैसले में सिर्फ एक जज, जस्टिस बेला त्रिवेदी असहमत थीं। इस मामले की नौबत इसलिए आई थी कि पंजाब, और आन्ध्र सरीखे कुछ राज्यों ने आरक्षित तबकों के भीतर चुनिंदा-पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण का एक हिस्सा अलग से आरक्षित करने का काम किया था, और उनके खिलाफ आए मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर फैसले दिए थे। 2004 और 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के भीतर आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया था, इसलिए अब इस पर एक व्यापक फैसले के लिए अदालत ने इसे सात जजों की संविधान-पीठ को सौंपा था।
इस फैसले में यह कहा गया है कि आरक्षित वर्ग के भीतर भी हर जाति की हालत एक सरीखी नहीं है। अनुसूचित जाति के भीतर बुनकर भी आते हैं, और सफाई कर्मचारी भी। यह बात जाहिर है कि सफाई कर्मचारी दूसरी अनुसूचित जातियों के मुकाबले अधिक खराब हालत में हैं, इसलिए राज्य चाहें तो उपजातियों के आधार पर आरक्षण का कुछ फीसदी हिस्सा उसके भीतर की जातियों के लिए सुरक्षित रख सकते हैं, लेकिन कोई सरकार किसी एक आरक्षित जाति या जनजाति को उसके लिए आरक्षित सीटों को पूरा का पूरा नहीं दे सकेगी। अदालत ने यह भी कहा कि इस तरह का उपजातीय आरक्षण अदालत के विश्लेषण के लिए भी लाया जा सकेगा। यहां पर दो मुद्दे और उठे जो कि इस मामले की बुनियाद नहीं थे, लेकिन उन पर संविधानपीठ के जजों ने अपनी राय रखी है, और उन पर देश में आगे विचार-विमर्श होना चाहिए। इस बेंच में दलित तबके के जज जस्टिस बी.आर.गवई ने यह कहा कि ओबीसी की तरह एसटी-एससी में भी क्रीमीलेयर आना चाहिए, लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि क्रीमीलेयर के पैमाने ओबीसी की तरह रहें या अलग रहें। चार और जजों ने भी एसटी-एससी में क्रीमीलेयर पर टिप्पणी की हैं। क्रीमीलेयर से परे एक दूसरे मुद्दे पर भी कम से कम एक जज की टिप्पणी सामने आई है। जस्टिस पंकज मिथल ने यह राय भी रखी कि अगर एक पीढ़ी को आरक्षण का फायदा मिल चुका है, तो उसकी अगली पीढ़ी को यह फायदा नहीं मिलना चाहिए।
देश में आज जातीय जनगणना, और आरक्षण एक बहुत बड़ा सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देश के हर राज्य के सामने एक नई चुनौती पेश कर रहा है कि वहां के राजनीतिक दल अपने प्रदेश की एसटी-एससी जातियों के भीतर किस तरह अधिक कमजोर उपजातियों के लिए आरक्षण का एक हिस्सा आरक्षित कर सकते हैं। यहां पर एक बहुत बड़ी राजनीतिक समस्या और चुनौती यह भी रहेगी कि जो जातियां अपने आरक्षित वर्ग के भीतर सचमुच ही बहुत अधिक कमजोर और गरीब हैं, लेकिन उसके वोटर गिनती में कम हैं, तो वहां की सत्तारूढ़ पार्टी या दूसरे दल आरक्षण में आरक्षण के उसके न्यायोचित अधिकार को किस तरह दे पाएंगे? यह सामाजिक न्याय के पक्ष में तो होगा, लेकिन चुनावी घाटे का भी हो सकता है। और चुनावी घाटा झेलने की कीमत पर शायद ही कोई राजनीतिक दल आज देश में सामाजिक न्याय के हिमायती बनना चाहेंगे। यह तो अलग-अलग प्रदेशों में आने वाले बरसों में सामने आएगा कि सुप्रीम कोर्ट से मिले इस ताजा अधिकार का इस्तेमाल कौन किस तरह करते हैं। कुछ लोगों को यह आशंका भी है कि आरक्षित वर्ग के भीतर इससे एक फूट डाली जा सकेगी, और उसका सामाजिक नुकसान उस वर्ग को होगा। महाराष्ट्र के दलित नेता प्रकाश आंबेडकर सहित कुछ और लोगों ने भी इसका विरोध किया है, लेकिन जब कभी सामाजिक बुनियाद में थोड़ा सा भी बदलाव होता है, तो कई तबकों में बेचैनी होती है, और कई तबके बिना असली बेचैनी के भी एक बेचैन आंदोलन खड़ा करके इस बदलाव में अधिक हिस्सा पाने की कोशिश करते हैं।
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के इस बहुत ही ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण फैसले में लिखी गई बातों का असर तो राज्यों में दिखेगा, लेकिन उससे परे भी जो दो बातें जुबानी कही गई हैं, उन पर भी देश में एक बहस शुरू हो सकती है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बरसों से लगातार एसटी-एससी तबकों के भीतर क्रीमीलेयर लागू करने की वकालत करते आए हैं, क्योंकि हमारा यह देखा हुआ है कि इन तबकों का आरक्षित हिस्सा कुछ चुनिंदा अधिक ताकतवर परिवार ही बार-बार उठाते हैं, और इनके भीतर के कमजोर हिस्से खाली हाथ रह जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट जजों ने हमारे इस तर्क को इस मामले की सुनवाई में जुबानी ही सही ठहराया है, और हम उम्मीद करते हैं कि देश में इस पर एक बहस शुरू होगी, और इसके लिए जो भी संविधान संशोधन लगेगा, संसद और देश की विधानसभाएं उसके लिए तैयार होंगी क्योंकि आरक्षण जिस न्याय की सोच के साथ लागू किया गया है, वह सोच बिना क्रीमीलेयर के एसटी-एससी आरक्षण में मार खा रही है। दूसरी बात यह भी महत्वपूर्ण है कि आरक्षण का फायदा मोटेतौर पर एक पीढ़ी को ही मिलना चाहिए, और कुछ पैमाने बनाकर इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी लागू करने से रोकना चाहिए। आज हालत यह है कि एसटी-एससी तबके के लोग सांसद या विधायक बन जाएं, आईएएस या आईपीएस बन जाएं, उनके बच्चे आरक्षण का फायदा पीढ़ी-दर-पीढ़ी पा सकते हैं। इसे क्रीमीलेयर के तहत भी खत्म करना चाहिए, और एक पीढ़ी के बाद उसी व्यक्ति की संतानों के लिए भी खत्म करना चाहिए।
इस फैसले से देश में आरक्षण की असली नीयत को लागू करने की एक संभावना पैदा हो रही है, और मौजूदा आरक्षण-कानून के शब्दों से परे उसकी भावनाओं की बात भी करने का समय अब आ गया है। हमारा ख्याल है कि एसटी-एससी तबकों के भीतर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले की रौशनी में उपजातीय आरक्षण की तरफ तो राजनीतिक दल बढ़ सकते हैं, लेकिन इसके साथ-साथ क्रीमीलेयर, और एक पीढ़ी की सीमा पर भी बहस चालू होनी चाहिए, जिस तरह कोई फैसला देने का मौका इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने नहीं था, और यह फैसला संसद और विधानसभाओं को ही लेना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बिहार की एक हैरान-परेशान करने वाली खबर है। पांच बरस के एलकेजी के छात्र ने स्कूल में अपने पिता की पिस्तौल ले जाकर दस बरस के एक दूसरे छात्र को गोली मार दी। गनीमत कि गोली चलने के झटके से पिस्तौल झुक गई थी, और गोली इस छात्र को हथेली पर लगी। पांच बरस के इस बच्चे का पिता स्कूल में गार्ड रह चुका है, और यह बच्चा अपने स्कूल बैग में पिस्तौल लेकर आया था। कहां तो हम अमरीका में बंदूकों की संस्कृति को कोसते हुए नहीं थकते हैं, और अब हिन्दुस्तान में सात बरस का बच्चा घर से पिस्तौल लाकर दूसरे छात्र को गोली मार रहा है! यह सिलसिला महज इस घटना तक सीमित नहीं है, बल्कि हथियारों के प्रति बच्चों के मोह को पैदा करने, और बढ़ाने की बाजार की कोशिश और साजिश का एक मामूली सा सुबूत भी है। दुनिया के अमरीका सरीखे देशों में जहां बच्चे घर में बचपन से बंदूकें देखते बड़े होते हैं, वहां तो ऐसी बात समझ आ सकती थी, लेकिन हिन्दुस्तान में इसकी कल्पना बड़ी मुश्किल थी।
आज अधिकतर परिवारों में बच्चों को खिलौना-पिस्तौल दिलवा दी जाती है, और उसके खतरों से लोग अनजान रहते हैं। और तो और होली की पिचकारियां भी अब बंदूकों की शक्ल में आने लगी हैं, और दूसरों पर रंग फेंकना भी गोली चलाने के अंदाज में होने लगा है। इन दिनों भारत में बहुत सी धार्मिक और पौराणिक कहानियां हवा में तैर रही हैं, कई जगहों पर तो स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं, और उनमें त्रिशूल से लेकर गदा तक का जिक्र रहता है कि उस वक्त कैसे हथियारों का इस्तेमाल होता था। और बाजार को देखें तो प्लास्टिक के अलग-अलग तरह के त्रिशूल और गदा भरे पड़े हैं। अभी कुछ अरसा पहले एक खेल मैदान पर छोटे-छोटे स्कूली बच्चों को लाकर कुछ खेल करवाए जा रहे थे, और शिक्षिकाएं ही बड़े-बड़े बक्सों में प्लास्टिक की बड़ी-बड़ी गदा भरकर लाई थीं, और दर्जनों बच्चों के बीच शायद युद्ध जैसा कुछ करवाया गया होगा। अब सवाल यह उठता है कि आज के लोकतंत्र में गदा और त्रिशूल का इस्तेमाल क्या हो सकता है? आज तो आत्मरक्षा के लिए भी इस तरह के हथियार काम नहीं लाए जा सकते क्योंकि ये रक्षा के लिए नहीं, हमले के लिए बने दिखते हैं। असल जिंदगी में तो इनका उपयोग आज नहीं रह गया है, क्योंकि आज पुलिस और अदालत का रास्ता है, लेकिन बच्चों के मन में हिंसा भरने का काम इससे जरूर हो सकता है, और तथाकथित ऐतिहासिक कहानियों को पढ़ाते या सुनाते हुए ऐसी हिंसा किनके खिलाफ सिखाई जा सकती है, इसके लिए अधिक कल्पना की भी जरूरत नहीं है।
छोटे बच्चों पर परिवार के माहौल का, उन्हें सुनाई जाने वाली कहानियों का, उनके देखे हुए टीवी कार्यक्रमों का बड़ा असर पड़ता है। बहुत छोटी उम्र के बच्चे भी कहीं किसी के फोन पर पोर्नो देखकर वैसा प्रयोग करने में लग जाते हैं। जिन घरों में मारपीट करने, गालियां देने, और गोली मार देने जैसी बातें होती होंगी, वहां पर बच्चे तेजी से इन चीजों को सीखते होंगे। पांच बरस का बच्चा किस तरह अपने घर पर पिस्तौल तक पहुंच पाया, किस तरह उसे बैग में स्कूल ले आया, और किस तरह उसने अपने से पांच बरस बड़े बच्चे को गोली मार दी, यह बहुत बारीक विश्लेषण का मामला भी है। पहली नजर में हमारा मानना है कि उसने परिवार से ही पिस्तौल के इस्तेमाल की बात सीखी होगी।
परिवार और समाज को बच्चों के सामने किसी भी तरह की मिसाल पेश करते हुए बड़ा सावधान रहना चाहिए। जिन घरों में गालियां देकर बात करने की संस्कृति है, वहां के बच्चे आनन-फानन गालियां सीख जाते हैं। हम अपने यूट्यूब चैनल पर लगातार यह नसीहत देते हैं कि लोगों को तम्बाकू से दूर रहना चाहिए क्योंकि छोटे बच्चे तुरंत ही बड़ों को देखकर ऐसी लत पकड़ लेते हैं। अगर वे बड़ों को शराब पीते या जुआ खेलते देखते हैं, तो बड़े होकर उनके भी ऐसे ही हो जाने का खतरा बहुत बड़ा रहता है। जिन परिवारों में लडक़ों के सामने परिवार की लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव होता है, उनके खिलाफ हिंसक माहौल रहता है, उन परिवारों में लडक़े बड़े होकर ऐसे ही हिंसक मर्द बनते हैं, और हिंसा की यह पारिवारिक परंपरा आगे बढ़ती रहती है। यही वजह है कि स्कूलों में भी शिक्षकों को सिगरेट-तम्बाकू से दूर रखने का नियम बनाया गया है, यह एक और बात है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में हर कुछ दिनों में कोई शराबी शिक्षक या हेडमास्टर का वीडियो सामने आता है, और उनकी नौकरी जाने से भी बाकी शराबी शिक्षकों पर कोई असर नहीं होता।
यह देश बच्चों के सामने मिसाल के मामले में बहुत ही लापरवाह है। सडक़ों पर धर्म का नाम लेकर निकले हुए दीवाने लोग जिस तरह की हिंसा करते हैं, तोडफ़ोड़ करते हैं, पुलिस गाडिय़ों तक को चकनाचूर करते हैं, उसे देखकर बच्चे भी बड़े होने पर ऐसा करने को अपना एक धार्मिक अधिकार मान लेते हैं। हिंसा की परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती जाती है। हिन्दुस्तान में जब धार्मिक कपड़े पहने हुए लोग, साध्वी और साधू कहे जाने वाले लोग गांधी की तस्वीरों पर गोलियां दागते हैं, और नाथूराम गोडसे की प्रतिमा पर माला पहनाते हैं, तो वे बच्चों के मन में हत्या के प्रति हमदर्दी पैदा करते हैं, और हत्यारे के प्रति तारीफ की भावना। जब परिवारों में लोग किसी धर्म या जाति के खिलाफ हिंसक और अपमानजनक बातें करते हैं, तो फिर वहां के बच्चे बड़े होने के पहले ही उन धर्मों, और उन जातियों के खिलाफ नफरत का पूर्वाग्रह पाल चुके रहते हैं।
भारतीय समाज को अपनी खुद की नजर में अपने आपको विश्व गुरू करार देने में बड़ा मजा आता है। अपने मुंह अपनी तारीफ करने, और अपनी पीठ थपथपाने के लिए किसी सच्चाई की जरूरत नहीं रहती। इसके लिए बस एक बेशर्मी काफी होती है। आज हिन्दुस्तान में गरीबों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, और महिलाओं के खिलाफ जिस परले दर्जे की हिंसा दिखाई पड़ती है, उससे भी बच्चों के मन में बड़ा बुरा असर पड़ता है। बिहार की जिस घटना को लेकर हम यह लिख रहे हैं, उसमें गोली मारने वाले पांच बरस के बच्चे के मन में क्या जाति और धर्म का कोई पूर्वाग्रह भी था। घायल बच्चे ने अस्पताल में यह बताया है कि बैग से पिस्तौल निकालकर गोली मारने वाले लडक़े से उसकी कोई दुश्मनी नहीं थी। जो बच्चा स्कूल में ऐसा कर सकता है उसे अगर घर पर इस तरह पिस्तौल हासिल हो, तो वह घर पर भी किसी को गोली मार सकता है। तमाम परिवारों को ऐसी असुविधाजनक कल्पनाओं की जरूरत है, और इन्हें कैसे-कैसे रोका जा सकता है, उसकी भी। फिलहाल जो लोग इसे पढ़ रहे हैं, उन्हें पिस्तौल से परे भी दूसरी नकारात्मक बातों के बारे में सोचना चाहिए कि वे अपने बच्चों के सामने बेहतर मिसालें कैसे रख सकते हैं।
अभी हमें व्यापार किस्म का एक ऐसा खेल देखने मिला जिसमें बच्चे अलग-अलग देशों को खरीद सकते हैं, और उन देशों के अलग-अलग दाम हैं। अंग्रेजी में व्यापार नाम के खेल को मोनोपोली भी कहा जाता है, और अगर बच्चों की सोच देशों को खरीदने की बना दी जाएगी, तो किसी देश के लोकतंत्र के लिए उनके मन में कोई सम्मान भी नहीं रह जाएगा।
अभी दस बरस पहले तक हिन्दुस्तान के शहर-कस्बों में लूटपाट के बहुत से मामले होते थे। लोग दुकान बंद करके घर जाते रहते थे, और उन पर निगरानी रखने वाले लोग रास्ते में उन्हें घेरकर गोली मारकर नगदी या दूसरा कीमती सामान लेकर चले जाते थे। सराफे की किसी दुकान में हथियारबंद लोग घुसकर गहने-नगदी लूट लेते थे, और फिर पुलिस रपट से पता चलता था कि कितने का माल गया। ऐसी तमाम घटनाओं में कहीं लोगों की मौत होती थी, तो कहीं लोग जख्मी होते थे। हाल के बरसों में हथियारबंद और हिंसक-ठगी के मामले जिस तरह से कम सुनाई पड़ते हैं, और साइबर-ठगी, फ्रॉड, ब्लैकमेल के मामले जितनी रफ्तार से बढ़े हैं, उनसे समझ पड़ता है कि खूनी जुर्म किस तरह से बिना खून बहाए जुर्मों में बदलते जा रहे हैं।
हम अपने आसपास के अखबारों को देखते हैं, तो हथियारबंद लूट या डकैती में हफ्ते भर में जितनी रकम जाते दिखती है, उससे अधिक रकम हर दिन लोगों से मोबाइल पर ठगी, जालसाजी, धोखाधड़ी में हर दिन जा रही है। इंटरनेट और मोबाइल बैंकिंग से अब लोगों के हाथ किसी भी तरह का भुगतान करना एकदम आसान काम हो गया है, और डिजिटल लेन-देन से, इंस्टेंट मैसेजिंग एप्लीकेशनों के इस्तेमाल से लोगों का मिजाज हर काम को आनन-फानन करने का इस हद तक हो गया है कि लोग धोखेबाजों के किसी संदेश के जवाब में लाखों का भुगतान पहले करते हैं, उसकी जांच शायद बाद में भी नहीं करते हैं। अभी मोबाइल पर किसी लडक़ी के साथ वीडियो कॉल पर कपड़े उतारने के लिए मर्द मानो बेसब्र रहते हैं, और एक बार ऐसी रिकॉर्डिंग ब्लैकमेलरों के हाथ लग जाती है, तो फिर वे जोंक की तरह खून की आखिरी बूंद भी निचोड़ लेते हैं। ऐसे एक-एक मामले में एक-एक आदमी 25-50 लाख रूपए गंवा रहे हैं, और इतनी रकम लूटने के लिए लुटेरों को खासी मेहनत लगती, गोलियां चलानी पड़ती, कत्ल भी करना पड़ता, और तब कहीं जाकर फरार होकर पुलिस से बचते हुए ऐसी रकम मिल पाती। अब लोग अपने घरों में सुरक्षित बैठे हुए सिर्फ मोबाइल और इंटरनेट पर लोगों को लूट रहे हैं, और कमअक्ल अधेड़ और बूढ़े सभी लोग जिंदगी भर की कमाई और बचत गंवा रहे हैं। इससे परे क्रिप्टोकरेंसी और शेयर बाजार में मोटी कमाई का झांसा देकर लोगों को लूटा जा रहा है, और हर दिन अखबार ऐसी खबरों से पटे हुए हैं, लेकिन बहुत पढ़े-लिखे लोग भी लुटेरों का इंतजार करते हुए मानो आरती की थाली सजाए बैठते हैं। इस तरह अब साफ दिखता है कि खूनी जुर्मों में से खून अब हटते जा रहा है। जब दुनिया में मासूम, नासमझ, और मूर्ख भरे पड़े हैं, तो फिर हाथ क्यों गंदे किए जाएं? बात की बात में बैंक खातों में सभी किस्म के साइबर-जुर्म का पैसा आ जाता है, वहां से दूसरे खातों में चले जाता है, और उसे नगद निकालकर लोग गायब भी हो जाते हैं। एक किस्म से यह नौबत अच्छी इसलिए है कि इसमें खून नहीं बहता, लेकिन दूसरी तरफ खतरनाक इसलिए है कि जो लोग ब्लैकमेलिंग का शिकार होते हैं, वे खुदकुशी भी कर बैठते हैं, और उनमें कोई अधिक दुस्साहसी रहते हैं, तो वे ब्लैकमेलर का कत्ल भी कर बैठते हैं। लेकिन ये दोनों ही नौबतें ठगी-ब्लैकमेलिंग हो जाने के बाद की हैं, जहां तक पैसे लूटना या ठगना है, तो वह मामला अब तकरीबन पूरी तरह अहिंसक हो चुका है।
आज भी हिंसक जुर्म एकदम घटे नहीं हैं, लेकिन अधिकतर हिंसा परिवारों के भीतर, आपसी संबंधों में, या प्रेम और सेक्स के संबंध टूट जाने पर बदला निकालने के लिए होते दिखती है। यह हिंसा बड़ी रफ्तार से बढ़ रही है। इसके पीछे शहरीकरण जैसी एक स्थिति भी जिम्मेदार है, लेकिन एक दूसरी दिलचस्प बात यह है कि अब लड़कियां और महिलाएं पहले के मुकाबले अधिक आत्मनिर्भर हैं, वे अधिक हिम्मती भी हैं, और हर किस्म के निजी संबंध बनाने में वे अब कुछ या अधिक हद तक आदमियों की बराबरी भी करने लगी हैं। अब औरत-मर्द के रिश्तों में भी महिलाएं पहले की तरह बेबस नहीं रह गई हैं कि वे हर किस्म के जुल्म को सहती रहें। जब कोई एक पक्ष जुल्म सहने को तैयार हो, तो फिर ऐसे रिश्ते में हिंसा की नौबत और जरूरत कम आती है। दूसरी तरफ जब महिला किसी विवाद में रीढ़ सीधी करके सामने खड़ी होने लगे, तो फिर टकराव की नौबत बढ़ती है। हाल के बरसों में लगातार ऐसे भी बहुत से मामले सामने आए हैं जिनमें किसी लडक़ी या महिला ने प्रेमी या पति के कत्ल की योजना बनाई, भाड़े के हत्यारे लिए, या पति या प्रेमी को साथ में जोड़ा, और कत्ल कर दिया, या करवा दिया। महिलाओं की इस नई ताकत के चलते भी अब कई तरह की हिंसा बढ़ रही हैं।
इस मुद्दे पर आज लिखने का एक मकसद यही था कि भारत में जो परंपरागत लूट-डकैती जैसे जुर्म थे, जिनमें कत्ल की नौबत आती थी, वह धंधा अब सफेदपोश साइबर-मुजरिम बिना हिंसा करने लगे हैं। दूसरी तरफ आपसी संबंधों और परिवार के भीतर परले दर्जे की हिंसा होने लगी है। समाज को इस किस्म के विश्लेषण खुद भी करने चाहिए, और इनके निष्कर्षों पर लोगों को बैठकर बात भी करना चाहिए कि असल जिंदगी के हिंसा और साइबर जिंदगी की लूट या ब्लैकमेलिंग पर काबू कैसे पाया जाए। आज इन दोनों में पुलिस का दाखिला तभी होता है, जब जुर्म हो चुका रहता है। इसलिए लोगों को ही अपनी जिंदगी को जुर्म से बचाने के लिए मेहनत करनी पड़ेगी। पुलिस तो किसी भी तरह के जुर्म में जब बाद में पहुंचती है, तो वह अधिक से अधिक मुजरिमों पर कार्रवाई कर पाती है। पूरे देश का आंकड़ा अगर देखें, तो साइबर-जुर्म में होने वाली ठगी-ब्लैकमेलिंग का एक फीसदी पैसा भी पुलिस पकड़ नहीं पाती। इसलिए जनता के बीच ही हर किस्म के जुर्म से बचने पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पुणे की एक तकलीफदेह खबर है कि किसी ऑनलाईन गेम की आदत के शिकार, 10वीं के एक छात्र ने उस गेम के एक टॉस्क को पूरा करने के लिए 14वीं मंजिल से छलांग लगा दी, और उसकी मौत हो गई। उसके लिखे हुए कागज मिले हैं जिनमें इस तरह से छलांग लगाने की बात लिखी गई है, और स्कैच बनाया गया है। परिवार का कहना है कि वह 6 महीने से ऑनलाईन गेम की लत में पड़ा हुआ था, और कहीं आना-जाना भी छोडक़र दिन-रात कमरे में बंद रहता था, और खेलते रहता था। लोगों को याद होगा कि ऐसे कुछ और भी खेल कुछ अरसा पहले भारत सहित दुनिया के कुछ दूसरे देशों में भी प्रतिबंधित किए गए थे, जिन्हें खेलते हुए लोग जान खतरे में डालते थे, या सीधे-सीधे खुदकुशी कर लेते थे। यह ताजा घटना कई हिसाब से फिक्र की है कि 14 बरस का लडक़ा असल जिंदगी से इस हद तक कट जाए, और एक ऑनलाईन खेल को ही अपनी जिंदगी मान बैठे।
लेकिन हम अपने अगल-बगल के शहरों को देख रहे हैं, तो नाबालिग लडक़े-लड़कियां इतने किस्म के भयानक जुर्म कर रहे हैं कि उन्हें देखकर लोगें को लगता है कि कत्ल और बलात्कार जैसे जुर्म पर नाबालिगों की सुनवाई भी बालिग की तरह होनी चाहिए। ऐसी एक मांग देश में लगातार उठ रही है। हम छत्तीसगढ़ के भीतर ही यह देख रहे हैं कि हर दिन नाबालिग औसतन एक कत्ल या एक बलात्कार कर रहे हैं, कई मामलों में नाबालिग लडक़े किसी लडक़ी से अंतरंग संबंधों के दौरान बनाए गए वीडियो पोस्ट करके ब्लैकमेल कर रहे हैं, और नशा करके गुंडागर्दी करना तो बहुत आम बात हो गई है। ऐसा लगता है कि हिंसा या सामूहिक हिंसा करने में नाबालिगों और बालिगों के बीच कोई फर्क ही नहीं रह गया है। और कानून है कि नाबालिग को छूने नहीं देता, उसकी गिरफ्तारी नहीं हो पाती, उसके लिए अलग अदालत या बोर्ड का इंतजाम है, उसे जेल नहीं भेजा जा सकता, उसे सिर्फ सुधारगृह में रखा जा सकता है, उसकी शिनाख्त उजागर नहीं की जा सकती। कानून ने उसे तोडऩे वाले नाबालिगों को भी खूब सारी रियायतें दी हैं, लेकिन अब बहुत से लोग यह सोचने लगे हैं कि भयानक किस्म के अपराधों ने नाबालिगों को उम्र की रियायत नहीं मिलनी चाहिए।
हम अभी इस बारे में कोई साफ-साफ राय नहीं बना पाए हैं, और ऐसा लगता है कि देश में किशोरावस्था की बेहतर समझ रखने वाले मनोचिकित्सकों, परामर्शदाताओं, और कानून के जानकार तमाम तबकों के बीच अधिक विचार-विमर्श की जरूरत है। कायदे से तो यह विचार-विमर्श देश की संसद, और विधानसभाओं में खुलकर होना चाहिए, लेकिन हिन्दुस्तान में संसदीय चर्चा की कोई संभावना रह नहीं गई है। इसकी दो वजहें हैं। एक वजह तो यह है कि पार्टियों के बीच कटुता इतनी अधिक बढ़ गई है, कि सांसद या विधायक गिरोह जैसे खेमों में बंट गए हैं। और जैसा कि किसी भीड़ में होता है, गिरोह में दिमाग सिर्फ एक सरगना का होता है, बाकी के पास सिर्फ हामी में हिलाने को सिर होते हैं। सदनों में पिछले काफी बरस से पार्टियों के अनुशासन में बंधे सांसदों की निजी सोच की संभावना खत्म हो चुकी है, और महज पार्टी लाईन पर बोलने के लिए उन्हें कुछ-कुछ मिनट मिलते हैं जिनमें वे अपने नेता की स्तुति करते अधिक दिखते हैं। इसलिए सदनों में जो विचारों का उन्मुक्त प्रवाह होना चाहिए, वह गुंजाइश खत्म हो चुकी है। इसलिए भारतीय लोकतंत्र में अब एक दूसरी जरूरत आ खड़ी हुई है कि वैकल्पिक संसद या वैकल्पिक सदन नाम की एक नई परंपरा शुरू हो, और समाज के अलग-अलग तबकों के लोग इन मंचों पर अपनी राय रख सकें। आज तो टेक्नॉलॉजी मुफ्त में हासिल है, और ऐसे विचार-विमर्श, या बहस को ऑनलाईन भी किया जा सकता है, या किसी स्टेज के प्रोग्राम का प्रसारण भी किया जा सकता है। आज जरूरत संसद से परे एक छाया संसद, यानी शैडो पार्लियामेंट बनाने की है, ताकि लोकतांत्रिक विमर्श जारी रह सके। देश में जो प्रमुख, और जागरूक विश्वविद्यालय हैं, वे भी लोकतांत्रिक चेतना बढ़ाने के लिए इस तरह की पहल कर सकते हैं। यह एक अलग बात है कि कई जगहों पर सत्ता असहमति, या विचारों की विविधता को बर्दाश्त नहीं कर पाएगी, लेकिन जनता को तो लोकतंत्र में रास्ता सत्ता की नापसंदगी के बाद भी निकालना होता है।
हम जुवेनाइल क्राइम कहे जाने वाले अपराध के इस दर्जे पर यह भी बात करना चाहते हैं कि क्या समाज की भी फिक्र इसमें होना चाहिए, और समाज को सामुदायिक स्तर पर भी इससे निपटने की कोशिश करनी चाहिए? सरकार और संसद का मुंह देखने के बजाय समाज के लोगों को खुद ही समाधान तलाशना चाहिए। लोगों को याद रखना चाहिए कि दुनिया में कहीं पहाड़ को चीरकर रास्ता बनाने वाले एक अकेले समर्पित व्यक्ति की कहानी भी अच्छी तरह दर्ज है, तो कहीं उजड़ चुके पहाड़-जंगल को हरियाली में तब्दील कर देने वाले अकेले इंसान भी दुनिया के कई देशों में हैं। इसलिए हम किसी एक व्यक्ति की शुरू की हुई छोटी पहल की संभावनाओं को भी कम नहीं आंकते। हो सकता है कि कोई व्यक्ति ऐसे रहें, जो कि अकेले ही किशोर-मुजरिमों को सुधारने के लिए कुछ कर सकें। कोई एक छोटा सा संगठन भी ऐसी शुरूआत कर सकता है, और आगे चलकर या तो उसका काम आगे बढ़ सकता है, या कोई दूसरे बड़े संगठन उस किस्म का काम आगे बढ़ा सकते हैं।
नाबालिग या किशोर मुजरिमों को सुधारे बिना समाज सुरक्षित नहीं रह पाएगा, क्योंकि इनमें से हर किसी के सामने जेल के बाहर भी एक लंबी जिंदगी रहेगी, और न सुधर पाने की हालत में जुर्म करते ही रहेंगे। इसलिए समाज के लिए इन्हें सुधारने की कोशिश एक अधिक आसान और सस्ता काम हो सकता है, बजाय इन्हें इनके हाल पर छोड़ देने के, और इनके अधिक खतरनाक मुजरिम बन जाने का खतरा उठाने के। कुल मिलाकर किशोर-अपराध के मुद्दे पर समाज में खुलकर चर्चा की जरूरत है, और ऐसी चर्चा से ही किसी किस्म की पहल शुरू हो सकेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कुछ बुनियादी सवाल खड़े कर रहा है। ट्रंप ने अभी लोगों को हैरान करने वाला एक बयान दिया है। एक चुनावी रैली में उसने मंच और माईक से कहा- ‘ईसाईयों बाहर निकलो, और सिर्फ इस बार वोट कर दो। फिर आपको वोट डालने की जरूरत ही नहीं होगी। चार साल में सब सही कर दिया जाएगा। मेरे प्यारे ईसाईयों, आपको फिर वोट डालने की जरूरत नहीं होगी, मैं आपसे प्यार करता हूं।’ बीबीसी की एक रिपोर्ट बताती है कि पहले भी कई बार ट्रंप ने दुनिया के तानाशाहों और बेकाबू शासकों की तारीफ की है। इनमें रूस के पुतिन, हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन, और उत्तर कोरिया के तानाशाह किंग जोन ऊन के नाम शामिल हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि ट्रंप ने किसी वक्त हिटलर की कुछ बातों की भी तारीफ की थी। लोगों को याद होगा कि पिछला राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद जब ट्रंप के समर्थकों ने ट्रंप के उकसावे पर अमरीकी संसद पर हमला बोला था, तो वहां भी ईसाई धर्म से जुड़े झंडे लिए हुए लोग थे, बहुत से लोग हमले के वक्त प्रार्थना भी कर रहे थे, कुछ लोगों ने लकड़ी का सलीब उठाया हुआ था, और कई ट्रंप समर्थकों ने उसे ईसाई धर्म बचाने वाला बताया था। 2020 के चुनाव में भी ट्रंप अपने चुनाव प्रचार में धर्म का मुद्दा बार-बार उठाते थे, और अपने प्रतिद्वंद्वी बाइडन को ईश्वर विरोधी बताते थे। अब 2024 के चुनाव में उन्होंने एक बार फिर ईसाई धर्म का फतवा दुहराना शुरू किया है। अमरीका की एक शोध संस्था का अंदाज है कि वहां की करीब 70 फीसदी आबादी ईसाई है।
अब यह देखें कि ट्रंप जो लोकतंत्र विरोधी फतवा दे रहे हैं कि इस बार के वोट के बाद वोट की जरूरत ही नहीं रहेगी, इसे लेकर यह याद पड़ता है कि किस तरह डेमोक्रेटिक पार्टी ट्रंप को लोकतंत्र के लिए खतरा बताते आई है। और अभी ट्रंप के इस बयान पर जब अलग-अलग लोगों से पूछा गया, तो वहां के एक प्रमुख वकील ने सोशल मीडिया पर लिखा- ये ईसाई राष्ट्रवाद नहीं है, ट्रंप लोकतंत्र को खत्म करने, और ईसाई देश बनाने की बात कर रहे हैं। एक अभिनेता ने, ट्रंप के बयान कि इस बार के बाद वोट डालने की जरूरत ही नहीं होगी, सोशल मीडिया पर पूछा- लेकिन अगर मैं फिर से वोट डालना चाहूं तो? एक बड़े टीवी चैनल एनबीसी की कानूनी टिप्पणीकार ने कहा- दूसरे शब्दों में कहें तो ट्रंप राष्ट्रपति चुने गए, तो वो व्हाईट हाऊस कभी नहीं छोड़ेंगे। एक राजनीतिक टिप्पणीकार ने कहा- वो, ट्रंप ने 2028 के चुनाव को रद्द कर दिया। एक डेमोक्रेटिक प्रवक्ता ने कहा- जब हम ये कहते हैं कि ट्रंप लोकतंत्र के लिए खतरा है, तो हम यही बताने की कोशिश कर रहे होते हैं, जो ट्रंप ने अब कहा है। एक प्रमुख पॉडकॉस्टर ने कहा- ये ड्रील नहीं है, लोकतंत्र खतरे में है।
सच बात यही है कि ट्रंप की लोकतंत्र पर कोई आस्था नहीं है, और वे धार्मिक मामलों में बहुत ही कट्टर हैं। ऐसे में अब अचानक उन्हें ईसाई धर्म की जरूरत इस हद तक क्यों पड़ रही है, यह समझने की जरूरत है। मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन के मुकाबले ट्रंप वहां के रिपब्लिकन वोटरों, और अपने दीवानों के बीच शोहरत के सैलाब पर तैर रहे थे। लेकिन जैसे ही बाइडन ने चुनाव न लडऩे की घोषणा की, खुलकर कमला हैरिस को प्रत्याशी बनाने की वकालत की, दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों की शोहरत के आंकड़े एकदम से बदल गए। ताजा सर्वे में पता लग रहा है कि उम्मीदवारी की संभावना के कुछ ही दिनों में कमला हैरिस ट्रंप को कड़ी टक्कर देने की हालत में आ गई हैं। अब जब ट्रंप को पहले जीती हुई दिख रही बाजी, आज हाथों से फिसलते हुए दिख रही है, तो उन्हें धर्म और राष्ट्रवाद ये दो हथियार सूझ रहे हैं। उन्होंने तुरंत ही इन दो बंदूकों को बैसाखियों की तरह एक-एक कांखतले टिका लिया है, और इनके सहारे से वे जीत की मंजिल तक पहुंचने की उम्मीद कर रहे हैं। अमरीका के शिक्षित या विकसित होने से वहां धर्मान्धता कम होने की कोई उम्मीद नहीं करना चाहिए। ऐसे में ईसाई धर्म का फतवा देकर अगर ट्रंप खुलकर यह मुनादी कर रहे हैं कि इस बार वोट देने के बाद आगे कभी वोट देने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी, तो वे संसद पर हमले के दर्जे की किसी तानाशाही की तरफ इशारा भी कर रहे हैं। जिन नेताओं का मिजाज अमर होने और तानाशाही का रहता है, वे कभी उग्र राष्ट्रवाद का फतवा देकर अपने देश के झंडे के पीछे छुप जाते हैं, या फिर धर्म का फतवा देकर लोगों के बीच एक धार्मिक उन्माद पैदा करते हैं। ट्रंप यह कोई अनोखी तरकीब इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, दुनिया में कई नेता ऐसा कर चुके हैं।
अब सवाल यह उठता है कि जो अमरीका अपने घरेलू लोकतंत्र पर गर्व करता है, उस अमरीका में लोकतंत्र के खिलाफ, और धार्मिक उन्माद वाले, ऐसे फतवों को लोग बर्दाश्त कैसे कर सकते हैं? क्या वहां पर ईसाई धर्म की कट्टरता वाले लोग, बंदूकों की संस्कृति के हिमायती लोग, महिलाविरोधी मर्दानगी वाले लोग, और ट्रंप की तरह के बदचलन को बुरा न मानने वाले लोग, धर्म और राष्ट्रवाद के फतवों पर अगला अमरीकी राष्ट्रपति चुनेंगे? यह देखना दिलचस्प है कि विपक्षी उम्मीदवार की जरा सी शोहरत दिखते ही रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार, और पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने लोकतंत्र और सभ्यता दोनों के कपड़े उतार फेंके हैं, और अपने जन्म के कपड़ों पर उतर आए हैं। ऐसे नंगे को भी अगर अमरीकी जनता चुनती है, तो दुनिया में अमरीकी लोकतंत्र को मुंह छिपाने की जगह भी नहीं मिलेगी। दुनिया में लोकतंत्र का सरदार बना देश क्या एक ऐसा राष्ट्रपति चुनेगा जो कि अपने चुनाव को देश के भविष्य का आखिरी चुनाव कह रहा है, और जो संसद पर हमला करवाने के जुर्म में अदालती कटघरे में भी खड़ा है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हर दिन देश भर में पुलिस हजारों मामलों में लोगों की गिरफ्तारी करती है, और अगर जुर्म करने वाले लोग नाबालिग होते हैं, तो उन्हें महज हिरासत में लेकर सुधारगृह भेजा जाता है। बाकी तमाम लोगों के नाम-पते सहित उनकी तस्वीरें पुलिस समाचार में जारी करती है। इनमें नाबालिग को बहला-फुसलाकर ले जाने, और बलात्कार करने से लेकर मारपीट या बकरी चोरी तक की खबरें रहती हैं। इनमें जो लोग पकड़ाते हैं, उनके चेहरे दिखाते हुए पूरी जानकारी पुलिस प्रेसनोट से शुरू होकर पुलिस के ही सोशल मीडिया पेज, या अखबार-टीवी तक छपती और दिखती है। अब तो पुलिस प्रेसनोट के साथ छोटे-छोटे वीडियो बनाकर भी भेजने लगी है ताकि टीवी चैनलों और यूट्यूब पर उसका इस्तेमाल हो सके। यहां एक बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि भारत की जांच और न्याय व्यवस्था में बड़ी संख्या में लोग अदालत से छूट जाते हैं। बहुत से लोगों को अदालतें संदेह का लाभ देकर बरी करती हैं क्योंकि जांच एजेंसियां कमजोर जांच, या कमजोर गवाह और सुबूत के चलते अदालत ने आरोप साबित नहीं कर पातीं। दूसरी तरफ कई ऐसे मामले रहते हैं जिनमें अदालतें गिरफ्तार और कटघरे में खड़े किए गए लोगों को पूरी तरह बेकसूर पाती हैं, और उन्हें बाइज्जत बरी करती है। कुछ मामले तो ऐसे भी होते हैं जिनमें अदालतें पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों के खिलाफ कड़ी टिप्पणी लिखती हैं कि उन्होंने साजिशन किसी को गिरफ्तार करके जेल में डाला, और मुकदमा चलाया, जबकि पुलिस को अच्छे से मालूम था कि वे बेकसूर हैं।
अब इनमें से जिस किसी किस्म का जो भी मामला हो, अदालत ने तो अभियुक्त बनाकर खड़े किए गए लोगों की इज्जत जितनी मटियामेट होनी रहती है, वह तो होती ही है, लेकिन जब तक मामला अदालत में चलते रहता है, और साबित कुछ भी नहीं हुआ रहता, तब तक उनकी गिरफ्तारी की तस्वीरें जारी करना क्या ठीक है? इसे एक दूसरे तरीके से देखें कि जिन नेताओं पर ऐसे मुकदमे चलते हैं जिसमें उन्हें एक सीमा से अधिक सजा हो सकती है, और उनके आगे चुनाव लडऩे की अपात्रता हो सकती है, ऐसे मामलों में जब तक उन्हें सजा नहीं हो जाती, तब तक चुनाव घोषणापत्र में उन पर चल रहे मुकदमों का जिक्र होने के बाद भी उनके चुनाव लडऩे पर रोक नहीं रहती। दूसरी तरफ जिन लोगों को साइकिल चोरी से लेकर छेडख़ानी तक के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है, उनके चेहरे पुलिस पहले दिन से जारी कर देती है, और उनके जमानत पर छूटने के बाद भी, उनका चेहरा लोगों के दिमाग में बैठे रहता है, और शायद ही उन्हें कोई नौकरी पर रखे। ऐसे में सवाल यह उठता है कि किसी के जुर्म के लिए किस तरह की सजा का प्रावधान होना चाहिए? क्या सजा अदालत दे, हिरासत में पिटाई करके पुलिस दे, सडक़ों पर पीटकर जनता दे, या रोजगार पाने का हक छीनकर समाज दे? किसी एक व्यक्ति के किसी एक जुर्म पर उसे कब, कब तक, और कितनी, कितने किस्म की सजाएं दी जानी चाहिए? जब देश के सांसद उन पर चल रहे मुकदमों के बावजूद अपनी रोजी-रोटी पाते रहते हैं, सांसद बने रहते हैं, वहां से वेतन-भत्ते पाते रहते हैं, शायद रियायती खाना भी पाते हैं, विशेषाधिकार भी कायम रहते हैं, तो फिर छोटे-छोटे आम जुर्म में फंसे हुए लोगों की बदनामी करके उनके जिंदा रहने की संभावनाओं को खत्म करना क्या इंसाफ कहलाएगा?
हमारी यह बात कई लोगों को बहुत खटक सकती है कि हम मुजरिमों को बचाने की बात कह रहे हैं। सवाल यह है कि क्या किसी जुर्म के शक में गिरफ्तार लोग समाज में जिंदा रहने का अपना हक खो बैठते हैं? पुलिस के प्रेसनोट से संदिग्ध लोगों, और आरोपियों की बदनामी गिरफ्तारी के साथ ही इतनी हो जाती है कि समाज एक किस्म से उनका बहिष्कार कर देता है। जब कोई काम पर न रखे, कोई काम न दे, तो लोग जिंदा रहने का हक खो बैठते हैं। इसलिए सवाल यह उठता है कि क्या एक आरोपी और अभियुक्त को अदालती सजा के साथ-साथ ऐसी सामाजिक सजा देना भी जायज है जिससे उन्हें आगे मुजरिम बनने की एक मजबूरी ही हो जाए? ऐसी बात हमने पुलिस और प्रशासन द्वारा जिलाबदर किए जाने वाले लोगों के बारे में भी लिखी थी। जिन लोगों पर बहुत से जुर्म दर्ज होते हैं, और जिनके बारे में पुलिस का मानना रहता है कि उनके सुधरने के आसार नहीं दिख रहे, और जिन्हें उनके इलाके से हटा देना ही अकेला इलाज है, उन्हें पुलिस की सिफारिश पर कलेक्टर जिलाबदर करते हैं। हमें इसमें दो बातें नाजायज लगती हैं। कोई व्यक्ति अपने इलाके में कितने ही बड़े गुंडे या मुजरिम क्यों न हों, वे पुलिस की नजर में रहते हैं, और समाज में भी उन्हें काफी लोग पहचानते हैं, इसलिए लोग उनके संभावित जुर्म से बचकर भी रह सकते हैं, और पुलिस भी उन्हें किसी भी शक की नौबत में तुरंत उठा सकती है। दूसरी तरफ जब वे अपने जिले के बाहर भेज दिए जाते हैं, और अड़ोस-पड़ोस के लगे हुए जिलों से भी परे जाने उन्हें कह दिया जाता है, तब उनके सामने नई जगह पर किसी भी तरह का रोजगार पाना मुश्किल हो जाता है, उन्हें रहने के लिए अलग से घर बसाना पड़ता है, जिसका खर्च रहता है, और उनके सामने सिवाय मुजरिम बनने के और कोई आसान रास्ता नहीं रहता। दूसरी तरफ जिस जिले में जाकर वे बसते हैं, वहां की पुलिस और जनता उन्हें पहचानती नहीं है, और उनसे सावधान रहना किसी के लिए मुमकिन नहीं रहता, वे समाज के लिए वहां अधिक बड़ा खतरा हो सकते हैं।
खैर, जिलाबदर पर कार्रवाई का वर्तमान कानून एक अलग किस्म की बेइंसाफी है, और समाज के लिए कहीं अधिक बड़ा खतरा है, दूसरी तरफ हर तरह के छोटे-छोटे आरोपों में गिरफ्तार लोगों की तस्वीरें रोज जारी करके पुलिस रोजाना ही कई लोगों के बुनियादी हक कुचलती है। हो सकता है आज सरकार के नियमों में इस पर कोई रोक न हो, और यह भी हो सकता है कि आज के नियम ऐसे प्रचार का समर्थन भी करते हों, ताकि बाकी समाज सावधान रह सके, लेकिन किसी संदिग्ध आरोपी के भी कुछ बुनियादी हक होने चाहिए, यह सोच भारत में लोकप्रिय नहीं है। यहां पर लोगों को यही सुहाता है कि शराबी, या किसी संदिग्ध के कोई बुनियादी हक नहीं होने चाहिए। यही वजह है कि जब पुलिस कुछ आरोपियों की बेरहमी से, अमानवीय तरीके से पिटाई करती है, तो लोग उसकी भी तारीफ करते हैं। कुछ पुराने लोगों को याद होगा कि 1980 में बिहार के भागलपुर में यह मामला सामने आया था जब पुलिस ने सजायाफ्ता या अभियुक्त लोगों की आंखों में तेजाब डालकर 31 लोगों को अंधा कर दिया था, क्योंकि पुलिस का यह मानना था कि ये लोग ऐसे आदतन मुजरिम हो गए थे कि इनके लिए और कोई सजा असरदार नहीं थी।
हमारा मानना है कि भारत की न्याय व्यवस्था में अदालती सजा ही अकेली सजा है, और पुलिस को अभियुक्तों के फोटो जारी करते हुए यह सोचना चाहिए कि क्या वे जुर्म के आरोप में फंसे लोगों को किसी रोजगार की संभावना से दूर करके महज मुजरिम बनने का विकल्प तो नहीं दे रहे हैं?
विधानसभा में यह बड़ी अजीब सी परंपरा रहती है कि सीएजी की रिपोर्ट सत्र के आखिरी दिन पेश होती है, इस तरह रिपोर्ट के बाद उस पर किसी तरह की चर्चा की गुंजाइश नहीं रह जाती। अब छत्तीसगढ़ विधानसभा में 31 मार्च 2022 के पहले तक की स्वास्थ्य विभाग के ढांचे, और सेवाओं पर नियंत्रक एवं महालेखक परीक्षक की रिपोर्ट पेश हुई, तो इसमें 2016 से 2022 तक का हिसाब-किताब पेश हुआ। इसमें पिछली दो सरकारों के कार्यकाल का लेखा-जोखा था, और उस पर भी अभी चर्चा न होना कुछ हैरानी की बात है। सरकारें चली जाती हैं, मंत्री चुनाव हार जाते हैं, सचिव रिटायर हो जाते हैं, या केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर चले जाते हैं, और जवाबदेही की संभावना खत्म हो जाती है। आठ महीने पहले आई विष्णु देव की सरकार से अब रमन सिंह और भूपेश बघेल की सरकारों की नाकामयाबी पर क्या जवाब मांगा जा सकता है। यह एक अलग बात है कि विधानसभा की लोकलेखा समिति सीएजी रिपोर्ट पर विभाग के अधिकारियों को बुलाकर जवाब-तलब कर सकती है, लेकिन उससे किसी सुधार की संभावना नहीं रहती।
अभी प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं पर 2016 से 2022 के बीच का प्रदेश का हाल अगर देखें, तो भारत सरकार के ऑडिटर जनरल के छत्तीसगढ़ दफ्तर ने ऑडिट या जांच में यह पाया है कि स्वास्थ्य विभाग के खरीदी निगम ने पौने चार हजार करोड़ के दवा, उपकरण, और बाकी सामानों की खरीदी में भारी अनियमितता बरती है। जो सैकड़ों टेंडर निकाले गए, उनमें से आधे से अधिक टेंडर दो-दो साल तक फाइनल नहीं किए। पचास करोड़ के उपकरण बिना इस्तेमाल पड़े रहे, शायद उन्हें बिना जरूरत खरीद भी लिया गया था, या उन्हें चलाने के लिए प्रशिक्षित लोग नहीं थे। इसी से जुड़ा हुआ जो निष्कर्ष सीएजी ने इस रिपोर्ट में निकाला है कि वह यह कि प्रदेश के तीन चौथाई जिलों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के एक तिहाई पद खाली पड़े हैं। सीएचसी में स्पेशल डॉक्टरों के तीन चौथाई पद खाली पड़े हैं। इससे भी भयानक बात इस रिपोर्ट में यह है कि राजधानी रायपुर के सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल में नियमित कर्मचारियों के 280 पदों में से कुल 9 पद भरे गए हैं, और 208 पद संविदा कर्मचारियों से भरे गए हैं। आईसीयू में हर बिस्तर पर एक नर्स नियुक्त होने का अनुपात रहना चाहिए लेकिन वहां 20-20 बिस्तरों पर एक नर्स काम करते पाई गई, और गैरआईसीयू वार्डों में तीन बिस्तरों पर एक नर्स होनी चाहिए थी, जो कि 39 बिस्तरों पर एक नर्स मिली है। आयुर्वेद महाविद्यालयों में भी कुर्सियां इसी तरह खाली पड़ी हैं, डॉक्टर 30 फीसदी कम हैं, नर्सें 60 फीसदी कम हैं, और बाकी पदों पर भी ऐसा ही हाल है। जिलों में 538 आयुर्वेद औषधालयों में से 130 में कोई चिकित्सक नहीं पाए गए। सीएजी ने अस्पतालों में हर किस्म की सहूलियतों की क्षमता और वहां उसके इस्तेमाल का बारीकी से विश्लेषण किया है, उसके आंकड़े बहुत निराश करने वाले हैं। कायदे से तो इस रिपोर्ट को ही अगर आज की तारीख पर आंका जाए, तो भी यह समझ में आ सकता है कि छत्तीसगढ़ के मरीजों के इलाज का हाल कितना बदहाल है।
अभी हम सीएजी रिपोर्ट में पौने चार हजार करोड़ की खरीदी की अनियमितता की बारीकियों पर नहीं जा रहे हैं क्योंकि लोकलेखा समिति उस पर देखेगी, लेकिन आए दिन खबरें छपती रहती हैं कि किस तरह कालातीत दवाइयां खरीदी जा रही हैं, या खरीदी गई दवाओं का वक्त खत्म हो जाने से उन्हें नष्ट किया जा रहा है। ये खबरें भी छपती हैं कि बाजार भाव से कितने अधिक गुना दाम पर स्वास्थ्य विभाग दवाइयां और उपकरण खरीदता है। हमें रमन सिंह के कार्यकाल की याद है जब बाबूलाल अग्रवाल नाम के आईएएस अफसर की खुली गड़बड़ी से नकली सोनोग्राफी मशीनें खरीदी गई थीं, और बाद में इस अफसर के खिलाफ जाने क्या-क्या कार्रवाई नहीं हुईं। इंकम टैक्स के कुछ मामलों में यह अफसर बहुत रहस्यमय और संदिग्ध तरीके से निकल आया था, लेकिन सीबीआई ने गिरफ्तारी की थी, और इसे जेल में रहना पड़ा था। लेकिन आमतौर पर हिन्दुस्तानी अदालतों में मामले जितने लंबे चलते हैं, उनमें आज उस वक्त के इस विभाग के खरीदी घोटाले के मामले, और इस अफसर की संपत्ति के मामले कहां पहुंचे, किसी को याद नहीं है। इस एक विभाग के भ्रष्टाचार में छत्तीसगढ़ के मूल निवासी इस अफसर का कॅरियर ऐसा बर्बाद किया कि सबसे कम उम्र में आईएएस बनने के बाद भी यह चीफ सेक्रेटरी तक पहुंचना तो दूर रहा, बीच में ही बर्खास्त हो गया, और जेल चले गया। यह सिलसिला स्वास्थ्य विभाग में इसके पहले से चले आ रहा था, और इसके बाद से जारी भी है, इसमें कोई रोक-टोक नहीं हुई।
स्वास्थ्य विभाग का भ्रष्टाचार प्रदेश के सबसे गरीब मरीजों की जिंदगी को प्रभावित करता है जो कि इलाज के लिए सरकारी सहूलियतों के ही मोहताज रहते हैं। ये एक अलग बात है कि अब भारत की उदारवादी अर्थव्यवस्था में गरीबों को स्वास्थ्य बीमा के जो कार्ड मिलते हैं, उनकी वजह से बहुत से मरीज निजी अस्पतालों में इलाज करा पाते हैं, और बाद में ऐसे अस्पतालों का सरकार से जो हिसाब-किताब होता है, उसमें फर्जीवाड़े की चर्चाएं कभी खत्म ही नहीं होतीं। पता नहीं राज्य सरकार के कुछ विभागों में भ्रष्टाचार की ऐसी असीमित संभावनाएं क्यों बनी रहती हैं, और वहां पहुंचने वाले कभी अफसर, तो कभी मंत्री, और अक्सर ही दोनों विभाग से हर किस्म की कमाई और उगाही में जुटे रहते हैं। हमारा ख्याल है कि छत्तीसगढ़ में आईआईएम जैसी राष्ट्रीय स्तर की एक बेहतर मैनेजमेंट-शिक्षण संस्थान काम कर रही है। और केन्द्र सरकार की ऑडिट एजेंसी सीएजी ने यह रिपोर्ट तैयार की है। विधानसभा की लोकलेखा समिति में जानकार और अनुभवी विधायक अपने हिसाब से सीएजी रिपोर्ट के आधार पर सरकारी अफसरों से जवाब मांगेंगे। लेकिन क्या सरकार के लिए यह बेहतर नहीं होगा कि वह स्वास्थ्य विभाग के कुल कामकाज को सुधारने के लिए आईआईएम के विशेषज्ञों से एक योजना बनवाए। जो आईआईएम-ग्रेजुएट अमरीका जाकर दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों को चलाते हैं, उसके छात्र, और प्राध्यापक अपनी इस जमीन के लिए कोई योजना क्यों नहीं बना सकते? जिस आईआईएम की विशेषज्ञता से दुनिया के सबसे बड़े कारोबार चलते हैं, उसकी टीम को यहां के हाल सुधारने का काम क्यों नहीं दिया जा सकता? एक सवाल जरूर उठ सकता है कि क्या पूरी तरह ईमानदारी से काम चलाने की योजना को भारत के देश-प्रदेश की सरकारें पूरी तरह पचा सकती हैं? जो भी हो, हमारा तो जिम्मा यही है कि गरीब देश-प्रदेश के मरीजों के हक के पैसों का कैसे बेहतर इस्तेमाल हो सके। वैसे अभी हमें यह बात नहीं मालूम है कि स्वास्थ्य विभाग के ढांचे में तीन चौथाई या उससे अधिक कुर्सियां खाली पड़ी हैं, या सरकार अपना खर्च बचाने के लिए इन पर नियुक्तियां ही नहीं करती हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने अभी कई अलग-अलग मामलों में लोगों के जमानत पाने के हक की वकालत की है। कुछ मामलों में जब निचली अदालत से मिली जमानत को खारिज करने में ऊपर की अदालत ने उत्साह दिखाया, तो सुप्रीम कोर्ट ने उसके भी खिलाफ टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने दिल्ली हाईकोर्ट के एक आदेश को खारिज कर दिया जिसमें मनी लॉंड्रिंग के मामले में एक व्यक्ति को दी गई जमानत पर दिल्ली हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। अदालत ने कहा कि जजों के पास जमानत पर रोक लगाने का अधिकार तो है, लेकिन ऐसी कार्रवाई हल्के में या बिना किसी ठोस आधार के नहीं की जानी चाहिए। जजों ने कहा कि ऐसा सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। भारत में हाल के बरसों में बहुत से ऐसे मामले हुए हैं जिनमें अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के लोगों को आतंक के किसी कानून के तहत जेल में डाल दिया गया, और मामले की सुनवाई भी शुरू नहीं हो पाई, और चार-पांच बरस से ऐसे लोग जेल में बंद हैं क्योंकि जांच एजेंसियां उनकी जमानत का विरोध कर रही हैं।
हम धर्म के आधार पर, या किसी कानून के तहत होने वाली गिरफ्तारियां की बात नहीं कर रहे। हम सभी तरह के मामलों की बात कर रहे हैं कि बिना सुनवाई किसी भी व्यक्ति को लंबे समय तक जेल में बंद रखने की बड़ी ठोस वजहें होनी चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए कि कुछ आतंकरोधी, मनीलॉंड्रिंग के कानून की मदद लेकर एजेंसियां जरूरत से ज्यादा बेरहमी से लोगों को जेल में बंद रख सकें। खासकर इन दो किस्म के मामलों में देश का तजुर्बा यह है कि इनमें सजा दिलवाना बड़ा मुश्किल रहता है, और जमानत को रोकते चले जाना आसान। इसलिए इन कानूनों के तहत गिरफ्तारी और बिना जमानत जेल में बंद रहना ही सजा है। ऐसे अधिकतर मामलों में यह माना जाता है कि विचाराधीन कैदी के रूप में जितना समय जेल में रखा जाता है, बस वही सजा है, और एक बार जमानत होने पर वह तकरीबन रिहाई है।
खुद भारतीय न्यायपालिका की भावना यह है कि बेल एक स्वाभाविक अधिकार होना चाहिए, और जेल अपवाद की तरह। लेकिन बहुत से मामलों में आर्थिक रूप से कमजोर, किसी अल्पसंख्यक समुदाय के, दलित या आदिवासी आरोपी ऐसे रहते हैं जो बिना जमानत जेलों में पड़े रहते हैं। कुछ मामलों में तो लोग सुनवाई शुरू हुए बिना जेल में मर गए हैं, और जांच एजेंसियां जमानत का विरोध करती रहीं। भीमा-कोरेगांव मामले में फादर स्टेन स्वामी जो कि एक मानवाधिकार आंदोलनकारी थे, और 84 बरस की उम्र में वे माओवादियों के हमदर्द होने के आरोप में जेल में डाले गए थे, और गंभीर बीमारी की हालत में वे कैद में रहते-रहते ही मर गए। जांच एजेंसियों का हाल यह था कि बहुत बूढ़े और बीमार स्टेन स्वामी ने अदालत में अर्जी दी थी कि वे पार्किसन बीमारी के कारण गिलास नहीं पकड़ पाते हैं, इसलिए उन्हें स्ट्रॉ (पानी पीने की नली) की इजाजत दी जाए, लेकिन एनआईए ने इसका भी घनघोर विरोध किया, और वे कांपते हाथों से गिलास छलकाते हुए ही मर गए। उन्हें कोई सजा नहीं हो पाई, और न ही घर जाने के लिए जमानत दी गई, बिना सुनवाई भारतीय न्याय व्यवस्था ने उन्हें हर तरह की तकलीफ से मुक्ति दिला दी।
भारतीय न्याय व्यवस्था का यह बड़ा ही भयानक और हिंसक पहलू है कि कुछ एजेंसियां बिना जमानत लोगों को जेल में अंतहीन रखकर ही उन्हें सजा दे रही हैं, मामलों की सुनवाई भी नहीं हो रही है, एजेंसियां आगे कोई पूछताछ भी बाकी नहीं रख रही हैं, लेकिन जमानत का विरोध कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में सोचना चाहिए कि अगर प्रक्रिया ही सजा है, तो फिर अदालत की जरूरत क्यों होना चाहिए? कल के दिन कोई ऐसा कानून भी बन सकता है कि जांच एजेंसियां कुछ बरस तक बिना अदालत में पेश किए किसी को गिरफ्तार रख सके। अभी देश में जो नया कानून लागू हुआ है, उसके तहत भी कुछ लोगों की आशंका है कि पुलिस को 15 दिनों की हिरासत का अधिकार बढ़ाकर 90 दिन कर दिया गया है, और उसका भी ऐसा ही बेजा इस्तेमाल हो सकता है। हम न्यायपालिका के कुछ लोगों की इस सोच का समर्थन करते हैं कि बेल स्वाभाविक हक होना चाहिए, और जेल एक अपवाद होना चाहिए। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट को कुछ ठोस मिसालें पेश करनी चाहिए, ताकि नीचे की अदालतें उससे सबक ले सकें। आज तो हमारा तजुर्बा यह है कि जिला स्तर की अदालतें जमानत की तमाम अर्जियों को खारिज कर देती हैं, और बहुत से मामलों में लोगों को सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ता है। आबादी का शायद एक फीसदी हिस्सा ही सुप्रीम कोर्ट की चौखट चढ़ सकता है। सुनाई यही पड़ता है कि वहां के वकील एक-एक पेशी का लाख-लाख रूपए तक ले लेते हैं, कितने लोग ऐसे होंगे जो जमानत के लिए इतनी बड़ी अदालत तक जा सकें। हमारा मानना है कि गरीबों को अदालती प्रक्रिया में भी एक रियायत मिलनी चाहिए, क्योंकि वे पूरी प्रक्रिया का फायदा पाने की हालत में नहीं रहते हैं। इस बारे में मानवाधिकार आंदोलनकारी लंबे समय से भारतीय न्यायपालिका के गरीबविरोधी रूख को गिनाते आए हैं, सुप्रीम कोर्ट जजों को देश की गरीबी के आंकड़े देखना चाहिए, और फिर अपने महंगे कोट में सज जाने के बाद आईने में अपना चेहरा भी देखना चाहिए, हो सकता है इससे जमानत पर अदालती रूख बदल जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
2020 में भारत की राजधानी दिल्ली में दंगे हुए जिनमें 40 मुसलमान और 13 हिन्दू मारे गए थे। इनमें से फैजान नाम का एक नौजवान उन 5 लडक़ों में था जिन्हें दिल्ली पुलिस मार-मारकर राष्ट्रगान गाने को कह रही थी। बाद में पुलिस हिरासत से निकलते ही दो दिन में बहुत ही संदिग्ध हालात में फैजान की मौत हो गई थी। हिरासत-मौत की वैसे भी कड़ी जांच का इंतजाम है, लेकिन दिल्ली पुलिस ने अपने ही साथियों पर आ रही तोहमत के इस मामले में अदालत के बार-बार झिडक़ने पर भी इस तरह से जांच की थी कि अभी दिल्ली हाईकोर्ट ने यह जांच सीबीआई को दे दी है। हाईकोर्ट ने पाया कि वीडियो पर जो पुलिसवाले मुस्लिम लडक़ों को मार-मारकर राष्ट्रगान गाने पर दबाव डाल रहे हैं, उनकी चार साल में भी न शिनाख्त हुई है, न ही कोई चार्जशीट पेश हुई है। हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए यह कहा है कि अब तक की जांच लापरवाह और ढीली रही है, और ऐसा लगता है कि पुलिस अभियुक्तों को बचा रही है। फैजान की मां ने अदालत को बताया था कि जब वे उससे मिलने थाने पहुंची थी, तो उन्हें मिलने नहीं दिया गया, और एक रात पुलिस ने उन्हें फैजान को ले जाने दिया, तो उसकी हालत बहुत खरीब थी, उसके कपड़े खून से लथपथ थे। रहस्यमय और संदिग्ध बात यह है कि जिस रात फैजान को थाने में इस तरह के जख्म आए, उस रात थाने का सीसीटीवी कैमरा काम नहीं कर रहा था। अब हाईकोर्ट के जस्टिस अनूप भंभानी ने दिल्ली पुलिस के रवैये की कड़ी निंदा की है, और कहा है कि पुलिसवालों का पांच मुस्लिम लडक़ों को पीटना धार्मिक कट्टरता से प्रेरित था, और इसलिए ये एक हेट-क्राईम माना जाएगा, जिस पर कार्रवाई और तेजी से होनी चाहिए। जज ने पुलिस के इस बयान पर भी सवाल उठाया कि फैजान उस रात खुद थाने में रूकना चाहता था। जज ने कहा कि जब उसका परिवार उसे ढूंढ रहा था, तो उसके खुद थाने में रूकने की बात गले नहीं उतरती है, और यह एक असामान्य बात है। अदालत ने यह भी पूछा कि पुलिस फैजान का इलाज करवाने के बजाय उसे थाने क्यों ले गई? जज ने कहा कि ऐसे नाजुक मौके पर पुलिस थाने के सारे सीसीटीवी कैमरों का खराब हो जाना भी भरोसे के लायक नहीं है। इन सब तर्कों के आधार पर हाईकोर्ट ने इस मामले को दिल्ली पुलिस से लेकर सीबीआई को दे दिया है। यह एक अलग बात है कि आज की तारीख में दिल्ली पुलिस और सीबीआई दोनों ही केन्द्र सरकार के मातहत काम करती हैं, यह एक अलग बात हो सकती है कि सीबीआई में चूंकि अलग-अलग सभी प्रदेशों से आए हुए लोग प्रतिनियुक्ति पर काम करते हैं, इसलिए हो सकता है कि उसकी जांच कुछ ईमानदार हो सके। जहां तक दिल्ली पुलिस का सवाल है तो उसका सूरजमुखी के फूल की तरह सूरज की तरफ घूम जाना सत्ता के प्रति उसका समर्पण दिखाता है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2020 के दंगों की जांच को लेकर अदालतों ने दिल्ली पुलिस को पहले भी फटकार लगाई हुई है। सितंबर 2021 में दिल्ली कडक़डड़ूमा अदालत के जज विनोद यादव ने तीन लोगों को बरी करते हुए लिखा था कि आजादी के बाद हुए दिल्ली के सबसे भीषण साम्प्रदायिक दंगे को इतिहास देखेगा तो इसमें जांच एजेंसियों की नाकामी पर लोकतंत्र समर्थकों का ध्यान जाएगा कि किस तरह से जांच एजेंसियां वैज्ञानिक तौर-तरीके का इस्तेमाल नहीं कर पाईं। इसी अदालत के एक दूसरे जज पुलस्त्य प्रमचाला ने 2023 में दंगा फैलाने के मामले में तीन लोगों को बरी करते हुए लिखा था कि उन्हें शक है कि पुलिस ने सुबूतों के साथ छेड़छाड़ की है, और केस की ठीक तरह से जांच नहीं की।
हम दिल्ली पुलिस के खिलाफ पूर्वाग्रह, भेदभाव, और पक्षपात के मामलों की पूरी लिस्ट यहां पर गिनाना नहीं चाहते, वरना लोगों को यह तो याद है ही कि किस तरह अभी हाल ही में पहलवान लड़कियों की अनगिनत शिकायतों पर भी दिल्ली पुलिस ने भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ जुर्म दर्ज नहीं किया था, और सुप्रीम कोर्ट की दखल, और बहुत कड़े रूख के बाद बहुत मजबूरी में दिल्ली पुलिस ने अनमने ढंग से केस दर्ज किया था, लेकिन बृजभूषण शरण सिंह पर कार्रवाई तो कभी की भी नहीं। देश की राजधानी में पुलिस को बाकी राज्यों के मुकाबले भी कुछ बेहतर होना चाहिए क्योंकि वहां हर राज्य की सरकारों का आना-जाना लगे रहता है, वहां पर दुनिया के हर देश के डिप्लोमेटिक दफ्तर हैं, संयुक्त राष्ट्र की हर संस्था के दफ्तर हैं। लेकिन दिल्ली पुलिस केन्द्र सरकार के निजी सेवक की तरह उसके हुक्म पर काम करते दिखती है, और जब दिल्ली में पुलिस का यह हाल है, तो अधिकतर राज्यों में मानो इसी से सीखकर पुलिस सत्ता की चाटुकार एजेंसी बन गई दिखती है। आज कहीं पुलिस से किसी इलाके में लाउडस्पीकर बहुत तेज बजने की शिकायत की जाए तो पुलिस सबसे पहले यह पूछती है कि कोई राजनीतिक कार्यक्रम तो नहीं है, किस पार्टी का है, या धार्मिक कार्यक्रम है, तो किस धर्म का है? जब पुलिस को यह भरोसा हो जाता है कि उसकी किसी कार्रवाई से सत्ता पर काबिज लोग नाराज नहीं होंगे, तभी वह थाने से हिलने को तैयार होती है। अब सवाल यह है कि देश में राज्य की पुलिस से कौन-कौन सा काम छीन लिया जाए?
जिन मामलों की जांच में आम पुलिस काबिल मानी जा सकती है, उन मामलों को भी पुलिस की धर्म या राजनीति के साथ गिरोहबंदी की वजह से अगर सीबीआई को देने की नौबत आ रही है, तो पहली बात तो यह कि सीबीआई पर भी सत्ता के दबाव की तोहमतें कम नहीं है, और दूसरी बात यह कि देश की बुनियादी जांच एजेंसी पुलिस को जड़ों से पत्तों तक सुधारने के बजाय कुछ मामले उससे लेकर सीबीआई को दे देने से पुलिस में तो कोई सुधार आ नहीं सकता। मुद्दा कुछ चुनिंदा मामलों की जांच का नहीं है, मुद्दा तो पुलिस में जड़ों तक फैल चुकी बीमारी का है, जिसमें भ्रष्टाचार से लेकर साम्प्रदायिकता तक की बीमारी है, और जो राजनीति में खुशी-खुशी शामिल होने वाली एजेंसी हो गई है। हम अभी देश में पुलिस सुधार के लिए बने हुए आयोगों और उनकी रिपोर्टों की चर्चा करना नहीं चाहते, क्योंकि अभी इस कॉलम की बाकी जगह में उसे लिखा नहीं जा सकता। लेकिन अब यह समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट को केन्द्र और राज्य सरकारों से पुलिस की इस आम बर्बादी को सुधारने के बारे में राय मांगनी चाहिए, और दखल देना चाहिए। पुलिस राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र की बात रहती है, और हाल के बरसों में उसे राजनीतिक पसंद-नापसंद के आधार पर काम करने वाले घरेलू कामगार की तरह इस्तेमाल करना बढ़ते चले गया है। देश में जहां-जहां पुलिस का धार्मिक इस्तेमाल हो रहा है, वहां-वहां वह साम्प्रदायिक तो खुद होते चल रही है। धर्म और साम्प्रदायिकता के बीच अहाते की कोई दीवार नहीं खड़ी है, बल्कि इनके बीच एक खुला मैदान है, और पुलिस अपनी पसंद उस पर कहीं भी जाकर खड़ी हो सकती है। यह देश के लिए बहुत फिक्र की बात है, क्योंकि राज्यों में पुलिस का एकाधिकार है, और उसका कोई विकल्प भी नहीं है। दिल्ली में हुए साम्प्रदायिक दंगों को लेकर वहां की अदालतों के जजों को अगर बार-बार पुलिस के खिलाफ टिप्पणी करनी पड़ रही है, तो यह केन्द्र सरकार के खिलाफ भी कड़ी टिप्पणी है, और देश की बाकी संवैधानिक संस्थाओं को भी इस बारे में सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


