विचार / लेख
देश में खेला जा रहा है यह नाटक
देश में आज जिस तरह किसी भी विवाद में महिलाओं को घेरकर उनकी मीडिया-लिचिंग हो रही है, उस पर बहुत कुछ लिखा भी जा रहा है। आज ही इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ में इस पर संपादक सुनील कुमार का कॉलम ‘आजकल’ लिखा गया है। विख्यात फिल्मकार अशोक मिश्र से इस पर बातचीत भी आज के अखबार में जा रही है। ऐसे मौके पर सुशांत राजपूत केस में रिया चक्रवर्ती को जिस तरह घेरा जा रहा है, उससे विख्यात नाटककार विजय तेंदुलकर के एक नाटक की याद आती है। शांतता कोर्ट चालू आहे नाम का यह नाटक खामोश, अदालत जारी है, नाम से हिन्दी में भी हजारों बार खेला गया है। आज के देश के मीडिया ट्रायल के बीच इस नाटक के बारे में पढऩा जरूरी है जो कि समाज की पुरूषवादी सोच की एक तेजाबी मिसाल हैं। यहां का यह अंश हिन्दी की एक प्रमुख वेबसाईट दलल्लनटॉपडॉटकॉम के एक लेख से लिया गया है।
1968 में पहली बार इस नाटक का मंचन हुआ। और तबसे आज तक ये ये नाटक दर्शकों को विचलित करने के अपने सामर्थ्य के साथ प्रासंगिक बना हुआ है। दरअसल ये नाटक महज नाटक नहीं है। एक अकेली स्त्री की जिंदगी में समाज की किस हद तक घुसपैठ होती है और यही समाज कैसे क्रूरता की हद तक असंवेदनशील हो सकता है, इसका दस्तावेज़ है। मज़ाक में शुरू हुई एक कोर्ट की कार्यवाही कैसे एक महिला के लिए मानसिक प्रताडऩा वाला खेल बन जाती है, इसका परत दर परत खुलासा है।
नाटक में मुख्य कैरेक्टर्स के नाम हैं मिस लीला बेणारे, सामंत, सुखात्मे, पोंक्षे, काशीकर। ये सब लोग एक नाटक मंडली के सदस्य हैं। मुंबई से एक छोटे से कस्बे में नाटक करने आ पहुंचे हैं। नाटक के मंचन में अभी समय है। तब तक वक्तगुज़ारी के लिए एक झूठ-मूठ का मुकदमा खेलने का प्लान बनता है। सब राजी हो जाते हैं। मिस बेणारे को आरोपी की भूमिका मिलती है। बाकी पात्रों का चुनाव भी फ़ौरन हो जाता है। सुखात्मे वकील का काला कोट चढ़ा लेते हैं, तो काशीकर जज की कुर्सी पर काबिज़ हो जाते हैं। बाकी सब लोग गवाह वगैरह की भूमिका में घुस जाते हैं। और शुरू होता है नाटक भीतर नाटक।
लीला बेणारे पर आरोप तय होता है। भ्रूण-हत्या का आरोप। लीला बेणारे निश्चिंत है कि ये सब मज़ाक चल रहा है। उसे नहीं पता कि ये सब प्लान कर के हो रहा है। वो सब मजाक में लेती है। केस आगे बढ़ता है। गवाहियां होती है। बेणारे सारी प्रक्रिया को हंसी में उड़ाती हुई चलती है। बाकियों से ये बर्दाश्त नहीं होता। उनका ईगो हर्ट हो जाता है। वो पूरे जोश-ओ-खरोश से मिस बेणारे की व्यक्तिगत जिंदगी के परखच्चे उड़ाने में जुट जाते हैं। उसकी जिंदगी में आ चुके और नहीं आए हुए तमाम मर्दों की चर्चा खुले कोर्ट में होने लगती है। मिस बेणारे को लहूलुहान करने में हर एक शख्स बढ़-चढ़ के हिस्सा लेता है। अपनी जलन, पूर्वाग्रह को हथियार बना कर सब टूट पड़ते है उस पर। एक महिला की पर्सनल लाइफ के चौराहे पर चीथड़े उडाए जाते हैं। खुद को पाक-साफ़ ज़ाहिर करते हुए मिस बेणारे पर जो मन में आए वो इल्ज़ाम लगाए जाते हैं।
जी भर के ‘मज़े लेने के बाद’ अपनी साइड रखने के लिए मिस बेणारे को 10 सेकंड का वक़्त दिया जाता है। पूरी तरह टूट चुकी मिस बेणारे बेजान सी पड़ी रहती है। न्यायाधीश अपना जजमेंट सुनाते हैं। विवाह-संस्था की तारीफ़ करते हुए और मातृत्व के पवित्र होने की ज़रूरत पर जोर देते हुए जज साहब उसका गर्भ नष्ट करने की सज़ा सुनाते हैं।
हिला के रख देने वाले संवाद और दिमाग की नसें झिंझोड़ के रख देने वाला अभिनय इस नाटक को वहां ले गए, जहां भारतीय नाट्य जगत में इसे एवरेस्ट जैसा स्थान हासिल हो गया। अपनी कुंठा में मुब्तिला समाज किस तरह से क्रूर, झूठा, डरपोक और हिंसक होता है, इसका सबूत है ये नाटक। किसी को ध्वस्त करके विकृत सुख प्राप्त करने में ये समाज जिस हद तक सहज है, वो देख कर सिहरन होती है। विजय तेंडुलकर के लिखे और पहले सुलभा देशपांडे और बाद में रेणुका शहाणे की जुबानी सुने गए इन संवादों की बानगी देखिए।
‘मीलॉर्ड, जिंदगी एक महाभयंकर चीज है। इसे फांसी दे देनी चाहिए। जिंदगी से पूछताछ करके उसे नौकरी से निकाल देना चाहिए। इस जि़ंदगी में सिर्फ एक ही चीज़ है जो सर्वमान्य है। शरीर! ये देखिए बीसवीं सदी के सुसंस्कृत मनुष्य के अवशेष! देखिए कैसे हर एक चेहरा जंगली नजर आ रहा है। इनके होठों पर घिसे हुए सुंदर-सुंदर लफ्ज हैं। और अंदर अतृप्त वासना।’
-मुबारक


