विचार/लेख
रवि अरोरा
साल 2011 की जनगणना के अनुरूप देश में मात्र 4 लाख 88 हजार किन्नर थे। उनमें से भी 28 फीसदी केवल उत्तर प्रदेश के निवासी हैं। एक सर्वे के अनुसार एक छोटे से ऑपरेशन के बाद इनमे से आधे किन्नरों को स्त्री अथवा पुरुष बनाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ के समाज कल्याण विभाग ने एसा प्रयोग शुरू भी किया है।
पाकिस्तान की मशहूर फिल्म है- बोल। इस फि़ल्म में एक हकीम के यहाँ पाँच बेटियों के बाद एक और बच्चा पैदा होता है मगर दुर्भाग्य से वह हिजड़ा यानि किन्नर है। यह बात हिजड़ों के गुरु को पता चलती है और वह उस बच्चे को लेने हकीम के पास आता है और बेहद ख़ूबसूरती से कहता है कि जनाब गलती से हमारी एक चि_ी आपके पते पर आ गई है, बराए मेहरबानी आप हमें वह लौटा दें।
हकीम बच्चा गुरु को नहीं देता और डाँट कर भगा देता है। हकीम उस बच्चे को बेटे की तरह पालता है मगर कुदरत अपना काम करती है। बच्चा बड़ा होता है और उसकी शारीरिक संरचना और हाव भाव से जाहिर होने लगता है कि वह पुरुष नहीं ट्रांसजेंडर है। इस पर लोक लाज के चलते हकीम अपने उस बेटे का कत्ल कर देता है और बाद में हकीम की ही बड़ी बेटी उसकी भी हत्या कर देती है।
हालाँकि यह फिल्म किन्नरों पर न होकर समाज में महिलाओं की विषम परिस्थितियों पर है मगर किन्नर वाला विषय भी इस फिल्म में बेहद संजीदगी से चला आता है। मेरा दावा है कि इस फिल्म को देखने के बाद आपको किन्नरों से प्यार हो जाएगा और यदि नहीं भी हुआ तब भी किन्नरों को लेकर आपके मन में जमी बर्फ जरूर कुछ पिघलेगा। आज अखबार में एक अच्छी पढ़ी कि प्रदेश की योगी सरकार ने राजस्व संहिता विधेयक के जरिये ट्रांसजेंडर को भी परिवार का सदस्य माना है और पारिवारिक सम्पत्ति में भी उनको अधिकार दे दिया है। इस खबर को पढऩे के बाद आज बोल फिल्म बहुत याद आई ।
यह बात समझ में नहीं आती कि जिन तीसरे लिंग वाले लोगों का जिक्र रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में बड़े सम्मान से किया गया हो, बाद में उनका यह हश्र कैसे हो गया कि सदियों तक उनकी खैर-खबर भी किसी ने नहीं ली? ऐसा कैसे हुआ कि राजा-महाराजा, बादशाह और नवाबों के हरम की रखवाली जैसा महत्वपूर्ण काम जिन्हें मिला हुआ था उन्हें अब नाच-गाकर अथवा सडक़ों पर भीख माँग कर गुजारा करना पड़ता है? शायद यह कुरीति भी अंग्रेजों की देन हो। वही तो इन्हें अपराधी, समलैंगिक, भिखारी और अप्राकृतिक वेश्याओं के रूप में चिन्हित करते थे। पुलिस के मन में किन्नरों के प्रति नफरत का बीज भी शायद अंग्रेज ही बो गए थे। शुक्र है कि अब पिछले कुछ दशकों में तमाम सरकारें और अदालतें किन्नरों के प्रति संवेदनशील हो गई हैं और एक के बाद एक किन्नरों के हित में आदेश पारित हो रहे हैं। अवसर मिलना शुरू हुआ है तो किन्नरों ने भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके दिखाया है।
आज किन्नर जज, राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, शास्त्रीय गायक और लेखक भी बन रहे हैं। कई किन्नर उच्च पदों तक भी पहुँच गए हैं। अन्य सरकारी नौकरियों के साथ साथ बीएसएफ, सीआरपीएफ और आईटीबीटी जैसे सुरक्षा बलों में भी अब केंद्र सरकार इनकी भर्ती शुरू करने जा रही है। जाहिर है कि समाज का थोड़ा बहुत नजरिया बदलने भर से ही यह संभव हुआ है ।
कहते हैं कि भारतीय समाज में सुधारों की गति सदा से ही बेहद धीमी रही है। अब देखिये न कि सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ही किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देते हुए उनके लिये देश भर में अलग से वॉश रूप बनाने के आदेश दिए थे मगर आज तक केवल एक एसा पेशाब घर मैसूर में ही बन सका है। किन्नरों को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने का आदेश बेशक अब पारित हो गया है मगर भारतीय समाज में जब आज तक महिलाओं को ही बराबर की हिस्सेदारी नहीं मिली तो एसे में किन्नरों को उनका हक मिलेगा, यह उम्मीद कैसे की जा सकती है।
साल 2011 की जनगणना के अनुरूप देश में मात्र 4 लाख 88 हजार किन्नर थे। उनमें से भी 28 फीसदी केवल उत्तर प्रदेश के निवासी हैं। एक सर्वे के अनुसार एक छोटे से ऑपरेशन के बाद इनमे से आधे किन्नरों को स्त्री अथवा पुरुष बनाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ के समाज कल्याण विभाग ने एसा प्रयोग शुरू भी किया है। यह काम अन्य राज्य भी करें तो न जाने कितने परिवार बोल फिल्म की तरह बिखरने से बच जायें । कैसी विडम्बना है कि दूसरों को जम कर दुआएँ देने वालों को ख़ुद दुआ देने वालों का बेहद टोटा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रक्षा मंत्री राजनाथसिंह ने लोकसभा में आज एक ऐसे विषय पर भाषण दिया, जो 1962 के बाद का सबसे गंभीर मुद्दा था। गलवान घाटी में हुई हमारे जवानों की शहादत से पूरा देश गरमाया हुआ है। करोड़ों लोग बड़ी उत्सुकता से जानना चाहते थे कि गलवान घाटी में चीन के साथ मुठभेड़ क्यों हुई ? जब प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि चीनियों ने हमारी जमीन पर कोई कब्जा नहीं किया और वे हमारी सीमा में घुसे नहीं तो रक्षा मंत्री को यह बताना चाहिए था कि उस मुठभेड़ का असली कारण क्या था ?
आश्चर्य की बात है कि जिस मुद्दे पर सारे देश का ध्यान टिका हुआ है, उसकी चर्चा के वक्त सदन में प्रधानमंत्री मौजूद नहीं थे। रक्षा मंत्री ने वे सब बातें दोहराईं, जो प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और वे स्वयं कहते रहे हैं। उन्होंने भारतीय फौज की वीरता और बलिदान को बहुत प्रभावशाली और भावुक ढंग से रेखांकित किया। उनके भाषण का सार यही है कि दोनों देश सीमा-विवाद को शांति से निपटाना चाहते हैं। दोनों युद्ध नहीं चाहते। रक्षा मंत्री ने अपने भाषण में जरा भी आक्रामक-मुद्रा अख्तियार नहीं की।
उन्होंने बहुत ही संयत शब्दों में बताया कि दोनों पक्षों ने माना कि 3500 किमी की भारत-चीन के बीच जो वास्तविक नियंत्रण रेखा है, वह कितनी अनिश्चित है, अनिर्धारित है और कितनी अस्पष्ट है। वे यह भी बता देते तो ठीक रहता कि साल में कई सौ बार उनके और हमारे सैनिक और नागरिक उस रेखा का अनजाने ही उल्लंघन करते रहते हैं।
रक्षा मंत्री ने यह भी बताया कि दोनों पक्ष सीमा पर यथास्थिति बनाए रखने पर राजी हो गए हैं। साथ ही उन्होंने माना है कि जो भी आपस में बैठकर तय किया जाएगा, उसका पालन दोनों पक्ष अवश्य करेंगे। मुझे खुशी होती अगर राजनाथजी इशारे में भी यह कहते कि उस नियंत्रण-रेखा को, जो झगड़े की रेखा है, उसे वास्तविक बनाने पर भी दोनों देश विचार कर रहे हैं ताकि हमेशा के लिए इस तरह के विवादों का खात्मा हो जाए। ऐसा स्थायी इंतजाम करते वक्त बहुत-कुछ ले-दे तो करना ही पड़ती है। रक्षा मंत्री ने अपने बहादुर फौजी जवानों का जबर्दस्त उत्साहवर्द्धन किया लेकिन अपने आत्मीय मित्र राजनाथजी से पूछता हूं कि उनका ‘हिंगलिश’ भाषा में दिया गया भाषण कितने जवानों को समझ में आया होगा। किसी अधपढ़ अफसर का लिखा हुआ भाषण लोकसभा में पढऩे की बजाय वे अपनी धाराप्रवाह, सरल और सुसंयत शैली में हिंदी-भाषण देते तो उसका प्रभाव कई गुना ज्यादा होता। हिंदी-दिवस के दूसरे दिन उनके इस ‘हिंगलिश-भाषण’ ने उनके प्रशंसकों को आश्चर्यचकित कर दिया। भारत-चीन को मिलाते-मिलाते उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी का घाल-मेल कर दिया।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
दिल्ली में रेलवे की जमीन पर काबिज 48000 झुग्गियों को हटाए जाने विषयक सर्वोच्च न्यायालय का आदेश अनेक कारणों से असंगत है और इसलिए इसकी पुनर्समीक्षा की जानी चाहिए। यूएन स्पेशल रेपोर्टर ऑन द राइट टू एडिक्वेट हाउसिंग (28 अप्रैल 2020) के अनुसार ‘इस महामारी के समय में अपने घर से बेदखल किया जाना मृत्युदंड तुल्य है।’ अत: देशों से आग्रह है कि नियम विरुद्ध बने आवासों से जबरन बेदखली या विस्थापन न किया जाए। अनेक देशों के न्यायालयों द्वारा आदेश पारित कर यह सुनिश्चित किया गया है कि वैश्विक महामारी के इस दौर में अवैध आवासों से बेदखली की प्रक्रिया पर रोक लगे। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय का आदेश उस वैश्विक सहमति के विरुद्ध है जो कोविड काल में आवास के अधिकार की रक्षा के संबंध में बनी है।
सर्वोच्च न्यायालय का वर्तमान आदेश मूलभूत नागरिक अधिकारों और बेदखली से संबंधित वर्तमान वैधानिक प्रावधानों एवं स्थापित प्रक्रियाओं से भी संगति नहीं दर्शाता। यह आदेश इन लाखों झुग्गीवासियों के राइट टू हाउसिंग के विषय में मौन है। ओल्गा टेलिस एवं अन्य विरुद्ध बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन मामले में 1985 में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की एक बेंच ने यह माना था कि संविधान का अनुच्छेद 21 हमें आजीविका और आवास का अधिकार प्रदान करता है। पीठ के अनुसार राइट टू हाउसिंग द्वारा नागरिक को अतिक्रमण हटाने से पूर्व नोटिस दिए जाने और उसके पक्ष की सुनवाई की पात्रता तथा विस्थापन के बाद उस समय प्रचलित सरकारी योजनाओं के तहत पुनर्वास की पात्रता प्राप्त होती है।
ओल्गा टेलिस मामले में पीठ के निर्णय में बेदखल किए गए लोगों के पक्ष में किए प्रावधानों को विधि विशेषज्ञ कमजोर मानते हैं और इसलिए इस फैसले की आलोचना होती रही है। व्यवहार में नागरिक को मिलने वाले एंटाइटलमेंट अप्रभावी ही सिद्ध होते हैं। नोटिस और सुनवाई का स्वरूप इस प्रकार निर्धारित किया गया होता है कि बेदखली से प्रभावित के पक्ष में निर्णय होने की संभावना नगण्य होती है। इसी प्रकार पुनर्वास के लिए तत्समय प्रचलित योजनाओं के अधीन पात्रता हासिल करना एक दुरूह कार्य होता है क्योंकि उक्त स्थान पर बसने के विषय में जो कट ऑफ डेट निर्धारित की जाती है वह कुछ ऐसी होती है कि अधिकांश प्रभावित उसके बाद से ही उस स्थान पर निवास कर रहे होते हैं और इस प्रकार पुनर्वास का लाभ प्राप्त नहीं कर पाते। कई बार प्रभावितों के लिए दस्तावेजों के अभाव में यह सिद्ध करना कठिन होता है कि वे कब से उक्त स्थान पर निवास कर रहे हैं। अनेक बार पुनर्वास योजनाओं की अनुपलब्धता, उनका स्वरूप और क्रियान्वयन तिथि आदि भी तकनीकी जटिलता उत्पन्न करते हैं। प्राय: बेदखल होने वाले लोग निर्धन,अशिक्षित एवं असंगठित होते हैं और इनके लिए कानूनी लड़ाई लडऩा कठिन होता है।
उषा रामनाथन जैसे जानकार यह मानते हैं कि ओल्गा टेलिस मामले में पीठ का निर्णय आजीविका और आवास के अधिकार को नोटिस और हियरिंग की न्यूनतम प्रक्रिया में सीमित कर कमजोर कर देता है जबकि अनिंदिता मुखर्जी कहती हैं कि जीवन के अधिकार के तहत आवास की आवश्यकता को न्यायालय स्वीकारते तो हैं किंतु उनकी यह स्वीकृति शाब्दिक अधिक है क्योंकि वे इसके लिए ठोस प्रावधान नहीं करते।
किंतु सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान निर्णय में तो ओल्गा टेलिस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट की अधिक बड़ी बेंच द्वारा बेदखली से प्रभावित लोगों को दी गई मामूली राहत का भी ध्यान नहीं रखा गया है। रिषिका सहगल जैसे विधि विशेषज्ञ यह ध्यान दिलाते हैं कि ओल्गा टेलिस मामले का फैसला सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच द्वारा दिया गया था इसलिए इसे 31 अगस्त 2020 को 48000 झुग्गियों को हटाने का आदेश पारित करने वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच को ध्यान में रखना था और यदि वे ऐसा कर पाने में असफल रहे हैं तो यह आदेश विधि विरुद्ध माना जाएगा। इन विशेषज्ञों के अनुसार वर्ष 2010 में सुदामा सिंह मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि यह राज्य सरकार का कर्तव्य है कि वह बेदखली से पहले बेदखली से प्रभावित होने वाले लोगों का सर्वेक्षण कर यह ज्ञात करे कि वे वर्तमान पुनर्वास योजनाओं के अंतर्गत लाभ प्राप्त करने की पात्रता रखते हैं अथवा नहीं और तदुपरांत प्रत्येक बेदखली प्रभावित से चर्चा करते हुए पुनर्वास की प्रक्रिया का सार्थक क्रियान्वयन करे। दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सुदामा सिंह प्रकरण में दिए गए इस फैसले के निष्कर्षों को सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2012 एवं 2017 में सही ठहराया है। दिल्ली हाई कोर्ट ने 18 मार्च 2019 को अजय माकन एवं अन्य विरुद्ध यूनियन ऑफ इंडिया एवं अन्य मामले में सुदामा सिंह प्रकरण में दिए निर्णय की ही फिर से पुष्टि की।
उक्त मामले में रेल मंत्रालय ने बिना नोटिस दिए और बिना तत्कालीन पुनर्वास योजनाओं के अंतर्गत बेदखली प्रभावित लोगों की पात्रता संबंधी सर्वे कराए रेलवे की जमीन पर बनी शकूर बस्ती को ढहा दिया था जिससे 5000 लोग बेघर हो गए थे। दिल्ली हाईकोर्ट ने इसे गलत ठहराया और सुदामा सिंह मामले में अपनाई गई प्रक्रिया का पालन करने हेतु कहा। सुदामा सिंह और अजय माकन प्रकरणों से यह स्पष्ट होता है कि दिल्ली में दिल्ली स्लम एंड झुग्गी झोपड़ी रिहैबिलिटेशन एंड रिलोकेशन पॉलिसी 2015 अब प्रभावी है, यह पॉलिसी दिल्ली अर्बन शेल्टर इम्प्रूवमेंट बोर्ड एक्ट 2010 के प्रावधानों के अनुसार तैयार की गई है। यह नीति झुग्गी बस्तियों के उसी स्थल पर उन्नयन और सुधार पर बल देती है जहाँ वे अवस्थित हैं। इस नीति में यह स्पष्ट उल्लेख है कि 2006 से पूर्व निर्मित बस्तियों को असाधारण कारणों से ही हटाया जाए। सुप्रीम कोर्ट का 31 अगस्त 2020 का आदेश इस वैधानिक ढांचे की अनदेखी करता है।
जिस असंवेदनशील, अदूरदर्शी और अविचारित विकास प्रक्रिया के कारण झुग्गी बस्तियां अस्तित्व में आती हैं उसकी छाप इन झुग्गी बस्तियों से संबंधित शासकीय आदेशों और नियमों में भी स्पष्ट दिखाई देती है। जब हम भारत में झुग्गी बस्तियों या गंदी बस्तियों में निवास करने वाले लोगों की विशाल संख्या पर नजर डालते हैं तब प्रशासन तंत्र की यह बेरहमी और डरावनी लगने लगती है। देश की 2011 की जनगणना और यूनाइटेड नेशंस के मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स डाटाबेस, स्लम पापुलेशन इन अर्बन एरियाज ऑफ इंडिया 2014 के अनुसार शहरी झुग्गी वासियों की संख्या 5 करोड़ 20 लाख से 9 करोड़ 80 लाख के बीच है। यह दुर्भाग्य का विषय है कि झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों की संख्या और उनकी जीवन दशाओं के संबंध में मानक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में बारंबार यह उल्लेख मिलता है कि इन अर्बन स्लम्स में रहने वाली आबादी हर स्वास्थ्य मानक में अन्य देशवासियों से कहीं पीछे है।
देश की 59 प्रतिशत झुग्गी बस्तियां अधिसूचित नहीं हैं। अधिसूचित न होने के कारण जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के संदर्भ में उन्हें विभिन्न शासकीय योजनाओं का वैसा लाभ प्राप्त नहीं हो पाता जैसा अन्य लोगों को मिलता है। बिजली, पानी, स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में झुग्गी वासी भेदभाव का शिकार होते हैं। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन के 2013 के आंकड़े यह बताते हैं कि 37 प्रतिशत झुग्गियां इस कारण नोटिफाई नहीं हो पाई हैं क्योंकि जिन झुग्गी बस्तियों में ये अवस्थित हैं उनकी जनसंख्या निर्धारित मानकों से कम है। लारा बी नोलान, डेविड ई ब्लूम और रामनाथ सुब्बारमन ने एक शोधपत्र में यह बताया है कि अधिसूचित होने के बाद इन झुग्गी वासियों को मिलने वाले कानूनी अधिकारों में भी भिन्नता है। कई राज्य अधिसूचित झुग्गी बस्तियों को एक निश्चित अवधि तक न उजाड़े जाने का आश्वासन देते हैं और विकास योजनाओं के कारण बेदखल किए जाने पर पुनर्वास का भरोसा भी। अधिसूचित करने के मापदंडों में भी विविधता है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और तमिलनाडु में झुग्गी बस्तियों को अधिसूचित करने के नियम अत्यंत कठोर हैं। दिल्ली में 1973 और तमिलनाडु में 1985 के बाद से किसी स्लम को नोटिफाई नहीं किया गया है। जबकि आंध्रप्रदेश में अधिसूचित करने के नियम सरल और उदार हैं और वहाँ 2012 की स्थिति में 89 प्रतिशत झुग्गी बस्तियाँ अधिसूचित थीं।
यूएनडीपी की एक रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली की कुल भूमि के 18.9 प्रतिशत भाग पर स्लम्स हैं जबकि कोलकाता के 11.72, चेन्नई के 25.6 और मुम्बई के 6 प्रतिशत भूभाग पर झुग्गी बस्तियां स्थित हैं।
दिल्ली की आधी आबादी झुग्गियों और अनाधिकृत बसाहटों में रहती है। 69 वें नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार दिल्ली की 6343 झुग्गी बस्तियों में से 28 प्रतिशत रेलवे की भूमि पर हैं। दिल्ली की पुल मिठाई जैसी तीन दशक पुरानी बस्तियों को रेल विभाग 1990 के दशक से ही उजाड़ता रहा है। पिछले 15 वर्षों में भी 2006, 2008, 2009 और 2010 में इस बस्ती को उजाड़ा गया है। यहाँ के निवासियों के पुनर्वास के कोई प्रबंध नहीं किए गए बल्कि इन्हें उन भू माफियाओं की शरण में जाने के लिए छोड़ दिया गया है जो इन्हें उसी स्थान पर या नए स्थान पर अतिक्रमण करने को उकसाते रहे हैं और संरक्षण के बदले में इनसे रकम की वसूली करते रहे हैं।
इंडियन रेलवेज हमारे देश का एक ऐसा महकमा है जिसके पास सर्वाधिक जमीन है। एक आरटीआई के जवाब में रेल विभाग ने यह जानकारी दी थी कि इंडियन रेलवेज के पास पूरे देश भर में विभिन्न राज्यों में फैली 4 लाख 32 हजार हेक्टेयर जमीन है। इसमें से 31 मार्च 2007 की स्थिति में 1905 हेक्टेयर जमीन पर अतिक्रमण था जो इंडियन रेलवेज की कुल भूमि का केवल .44 प्रतिशत है। आरटीआई के जवाब में यह भी कहा गया था कि रेल विभाग राज्यवार डाटा नहीं रखता।
वर्ष 2006 से ही रेल विभाग अपने अधिकार की ऐसी भूमि को जो उसकी आवश्यकताओं के अतिरिक्त है, व्यावसायिक प्रयोजन हेतु प्रयुक्त कर लाभ कमाने के विषय में सोचता रहा है और इसी वर्ष 2006 में रेलवे लैंड डेवलपमेंट अथॉरिटी की स्थापना की गई थी जिसका उद्देश्य रेलवे की भूमि को अतिक्रमण मुक्त कर व्यावसायिक प्रयोजन हेतु उपयोग में लाना था। रेलवे दो कानूनों के माध्यम से अपनी भूमि को अतिक्रमण मुक्त करता है- पब्लिक प्रीमाईसेस (एविक्शन ऑफ अनऑथोराइज़्ड ऑक्यूपैंट) एक्ट,1971 तथा द रेलवेज एक्ट, 1989। जैसा कि हर शहर में रेलवे की जमीन के साथ है, दिल्ली में भी रेलवे की अतिक्रमित भूमि प्राइम लोकेशन में है और देश के नामी धनकुबेरों के लिए इससे बड़ी खुशकिस्मती और क्या हो सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से सारे अवरोध हटा दिए जाएं एवं रेलवे इस भूमि को आननफानन में अतिक्रमण मुक्त कर उन्हें औने पौने दामों पर बेच दे। हालांकि रेलवे बोर्ड की गाईड लाईन में यह प्रावधान भी है कि यदि अतिक्रमण की गई भूमि रेलवे के लिए अनुपयोगी है तो यह राज्य सरकार को मार्केट वैल्यू के 99 प्रतिशत के भुगतान के बाद 35 साल की लीज पर भी दी जा सकती है।
जो झुग्गी बस्तियां रेलवे की भूमि पर स्थित हैं वे अधिकांशतया अधिसूचित नहीं हैं। लोग यहाँ मूलभूत सुविधाओं के अभाव में अमानवीय दशाओं में वर्षों से रह रहे हैं। दिल्ली की कुछ झुग्गी बस्तियां तो तीस से भी अधिक वर्षों से मौजूद हैं फिर भी यहाँ सार्वजनिक शौचालय तक नहीं बनाए गए हैं और लोग पटरियों के किनारे शौच के लिए विवश हैं। भारतीय रेलवेज के पास कोई रिहैबिलिटेशन एंड रीसेटलमेंट पॉलिसी नहीं है। भारतीय रेलवेज के अनुसार हाउसिंग राज्य का विषय है और रेलवे की जमीन से बेदखल किए गए झुग्गीवासियों के पुनर्वास की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर है। यद्यपि दिल्ली और महाराष्ट्र सरकार की आर एंड आर पॉलिसी में ऐसे प्रावधान हैं जिनके अनुसार रेलवे की जमीन से बेदखल किए गए लोगों के पुनर्वास पर आने वाला खर्च पूर्ण या आंशिक रूप से रेलवे द्वारा वहन किया जाएगा-किंतु जैसा बेदखली और विस्थापन के हर प्रकरण में होता है कि यह केवल घर पर बुलडोजर चलाने की प्रक्रिया नहीं होती बल्कि आजीविका छीनने और सपनों को कुचलने का क्रूर प्रक्रम होता है- इन सारे प्रावधानों के लाभ कदाचित ही प्रभावितों को मिल पाते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के 31 अगस्त 2020 के आदेश के समर्थन में अनेक वेब पोर्टल्स में और सोशल मीडिया पर कुछ टिप्पणियां एवं आलेख पढऩे को मिले। इन आलेखों से गुजरना एक डरावना अनुभव है। इनमें बताया गया है कि यह झुग्गी बस्तियां देश की राजधानी के चेहरे पर एक बदनुमा दाग की भांति हैं। यह राजधानी में गंदगी, बीमारी और अपराध फैलाने के केंद्र हैं। यहाँ के लोगों की आजीविका अवैध शराब, ड्रग्स, देह व्यापार, हथियारों की खरीद बिक्री आदि के माध्यम से चलती है। कुछ एक सोशल मीडिया पोस्टों में यह भी कहा गया था कि इन झुग्गी बस्तियों में रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं जो देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। यह कल्पना करना भी कठिन है कि नफरत, संदेह और अविश्वास के नैरेटिव का विस्तार नव उदारवादी आर्थिक विकास के दुष्परिणामों के शिकार इन निरीह झुग्गी वासियों तक हो सकता है। किंतु ऐसा हो रहा है और ऐसी पोस्टों को हजारों लाइक्स और शेयर भी मिल रहे हैं।
पहले औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण और अब नव उदारवाद ने नगरीकरण को बढ़ावा दिया है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि की उपेक्षा कर यह हालात पैदा किए गए हैं कि लोग आजीविका की तलाश में शहरों की ओर पलायन करें और शहरी कारखानों को सस्ते मजदूर मिल सकें। शहरी सभ्यता को इन मजदूरों की मेहनत की आवश्यकता तो है किंतु इन्हें सम्मानजनक आवास और जीवन सुविधाएं देने को कोई तैयार नहीं है। सस्ते आवास की तलाश इन झुग्गी बस्तियों के निर्माण और विस्तार का कारण बनती है। पुख्ता वोट बैंक तलाशते राजनेता, भ्रष्ट पुलिस महकमा और नगरीय प्रशासन तथा इनसे जुड़े अपराधी तत्व लोगों को इन झुग्गी बस्तियों में बसने के लिए प्रेरित करते हैं। धीरे धीरे नगरों का विस्तार होता है और यह गंदी बस्तियां नगर के मध्य में आ जाती हैं। फिर इन्हें शहर के सौंदर्यीकरण के नाम पर हटाया जाता है। बेदखली के बाद पुनर्वास के अभाव में इनके निवासी फिर शहरों से बाहर दूसरी जगह तलाशने लगते हैं और फिर नेताओं,स्थानीय प्रशासन और पुलिस का भ्रष्ट और स्वार्थी गठबंधन इनके मददगार के रूप में खड़ा मिलता है। इन सुविधाहीन, जनसंकुल और सघन बस्तियों में कुछ अपराधी तत्व भी शरण ले लेते हैं और इनके कारण इन झुग्गी बस्तियों में निवास करने वाले हजारों मजदूरों पर अपराधी का ठप्पा लग जाता है यद्यपि ये रोज हाड़तोड़ मेहनत कर अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने यह कहा कि कोरोना काल में लगाए गए लॉकडाउन के कारण अपना रोजगार गंवाकर पलायन करने और अपनी जान गंवाने वाले प्रवासी मजदूरों के आंकड़े उसके पास उपलब्ध नहीं हैं इसलिए उन्हें मुआवजा देने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह प्रवासी मजदूर ही इन गंदी बस्तियों में सर्वाधिक संख्या में निवास करते हैं। यह सरकारी आंकड़ों से बाहर और सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित लोग हैं जिन्हें जब चाहा बसाया और जब चाहा उजाड़ा जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला उस दृष्टिकोण को बढ़ावा दे सकता है जिसके अनुसार यह झुग्गी बस्तियाँ अपराध, आतंकवाद, गंदगी और रोग फैलाने के लिए उत्तरदायी हैं और इनके निवासियों के साथ वैसा ही बर्ताव होना चाहिए जैसा किसी अपराधी के साथ होता है। ऐसा ही एक निर्णय वर्ष 2000 में अलमित्रा एच पटेल वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया मामले में दिया गया था। इस निर्णय से भी ऐसा संकेत गया था कि झुग्गियां और झुग्गी वासी गंदगी फैलाते हैं और इस गंदगी की सफाई जरूरी है। यह फैसला भी इन झुग्गीवासियों के मूल मानवीय अधिकारों के विषय में मौन था। इसी प्रकार का फैसला एनजीटी ने 2015 में एक पीआईएल पर दिया था जब उसने रेल ट्रैक के किनारे के प्लास्टिक और अन्य कचरे के लिए रेलवे के स्थान पर इन झुग्गियों को जिम्मेदार ठहराया था और इन्हें हटाने हेतु दिल्ली सरकार को निर्देशित किया था।
रेलवे की परियोजनाएं वैसे ही पर्यावरणीय उत्तरदायित्वों से मुक्त रहती हैं और एनजीटी के इस प्रकार के निर्णय अंतत: निर्धनों की परेशानियों में इजाफा करेंगे। पूंजीवादी पर्यावरणवाद अपने फायदे के लिए पहले भी आदिवासियों को वनों और दुर्लभ वन्य पशुओं के विनाश के लिए उत्तरदायी ठहराने की कोशिश करता रहा है ताकि उनका विस्थापन किया जा सके।
बहरहाल नए भारत में मनुष्य होना और उस पर भी निर्धन होना यदि अपराध की श्रेणी में आने वाला है तो इन झुग्गी वासियों के लिए आने वाला समय बहुत कठिन होगा।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
एक दशक के दौरान आई महामारी के मुकाबले कोविड-19 महामारी 6 गुणा अधिक घातक साबित हो रही है
- Richard Mahapatra
15 सितंबर 2020 की रात 10 बजे भारत में कोविड-19 के मामलों ने 50 लाख का आंकड़ा पार कर लिया। हालांकि यह आंकड़ा महामारी के लिए कोई मील का पत्थर नहीं है, लेकिन इस पड़ाव में यह जानना जरूरी है कि एक देश में कैसे इस आंकड़े तक पहुंचा और इस महामारी के लिए सरकार की रणनीति और तैयारियां कैसे ध्वस्त हो गई।
कोविड-19 इंडिया डॉट ओआरजी के रात 10 बजे तक के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में कोरोना संक्रमण के मामले 50 लाख 4 हजार हो चुके हैं। भारत अमेरिका के बाद दुनिया का दूसरा बड़ा देश है, जिसे कोविड-19 महामारी ने बुरी तरह प्रभावित किया है। दुनिया भर में कुल 2.90 करोड़ लोग कोरोनावायरस से संक्रमित हो चुके हैं और इनमें से लगभग 17 फीसदी भारत में हैं। कोरोना से दुनिया भर में 922,252 लोगों की मौत हो चुकी हैं, इनमें से 82 हजार से अधिक लोग भारत से हैं।
30 जुलाई 2020 के बाद कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा, जब भारत में रोजाना 50 हजार से अधिक नए मामले न आए हों। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मामले कितने तेजी से बढ़ रहे थे, लेकिन 6 सितंबर 2020 के बाद भारत में रोजाना 80 हजार से अधिक मामले आने लगे और चार दिन से लगातार 90 हजार से अधिक मामले सामने आ रहे हैं।
जनवरी के अंत तक भारत में कोविड-19 के केवल पांच मामले थे, तब तक कोविड-19 को महामारी भी घोषित नहीं किया गया था और भारत ने केवल चीन से आने वाले हवाई यात्रियों के आगमन पर पाबंदी लगाने की बात की थी। लेकिन इसके 227 दिन भारत में कोविड-19 मरीजों की संख्या 50 लाख से अधिक पहुंच गई और अमेरिका की तरह भारत भी तेजी से संक्रमण फैलने वाले देश बन गया।
इसी तरह 8 जून से शुरू हुए सप्ताह के बाद भारत में हर सप्ताह 1 लाख से अधिक केस आने लगे और अगस्त के मध्य में देश में पांच लाख से अधिक मामले पहुंच गए।
इस तरह 21वीं सदी के लिए कोविड-19 सबसे घातक महामारी साबित होने वाली है। इससे पहले 2009 में दुनिया में स्वाइन फ्लू महामारी फैली थी। मौसमी फ्लू बनने से पहले स्वाइन फ्लू की वजह से 2,85,000 से अधिक लोगों की मौत हुई थी। इसका मतलब यह है कि इसके बाद बेशक दुनिया ने इस बीमारी के बारे में बात नहीं की, लेकिन इसकी वजह से मौतों का सिलसिला जारी है।
पिछली महामारी की वजह से भारत में 2009-10 में 36,240 लोग प्रभावित हुए थे, जबकि 1,833 लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद भी स्वाइन फ्लू का संक्रमण और मौतों का सिलसिला जारी है। 2012 से लेकर 2019 के बीच स्वाइन फ्लू से 1,38,394 लोग प्रभावित हुए और 9,150 लोगों की मौत हुई। राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) के तहत चल रहे इंटिग्रेटेड डिजीज सर्वलांस प्रोग्राम के ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2020 के पहले दो माह के दौरान 1,100 लोग संक्रमित हुए और 18 लोग मौत हुई। हालांकि बीमारी के केंद्र अलग-अलग रहे। 2009 में दिल्ली, महाराष्ट्र और राजस्थान, जबकि 2017 में गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश और 2019 में फिर से दिल्ली, राजस्थान और गुजरात में सबसे अधिक मामले सामने आए।
कुल मिलाकर, स्वाइन फ्लू महामारी का प्रकोप 2009 में शुरू हुआ और 10 साल के दौरान लगभग 11,600 लोगों की मौत हो चुकी है। जबकि कोविड-19 केवल 9 माह में पिछली महामारी से लगभग 600 फीसदी अधिक मौतों का कारण बन चुकी है।
यहां तक कि सामान्य बीमारियों या संक्रमण से तुलना की जाए तो कोविड-19 इस मामले में भी रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। इतना ही नहीं, कोरोना संक्रमण के कुल मामलों की संख्या पिछले छह साल के मलेरिया मामलों से भी अधिक हो चुकी है।(downtoearth)
इम्यूनिटी किसी एक वस्तु को खाकर या न खाकर नहीं बढ़ायी जा सकती और न कोई एक अच्छा-बुरा आचार उसके लिए जिम्मेदार ही है
- Skand Shukla
इम्यूनिटी यानी प्रतिरक्षा शब्द जितना विज्ञान में इस्तेमाल होता है , उससे कहीं अधिक आम बोलचाल में। वैज्ञानिकों और डॉक्टरों से अलग आम सामान्य जन इन शब्दों को ढीले-ढाले ढंग से प्रयोग करते हैं। आपको बार-बार ज़ुकाम होता है ? लगता है आपकी प्रतिरोधक क्षमता कम है! आप को कमजोरी महसूस होती है? डॉक्टर से अपनी इम्यूनिटी की जाँच कराइए और पूछिए कि इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए क्या खाएं, कैसे रहें , कैसा जीवन जिएं!
इम्यूनिटी को समझने के लिए शरीर के एक मूल व्यवहार को समझना जरूरी है। सभी जीवों के शरीर निज और पर का भेद समझते हैं। वे जानते हैं कि क्या उनका अपना है और क्या पराया। शरीरों के लिए अपने-पराये की यह पहचान रखनी बेहद जरूरी होती है। अपनों की रक्षा करनी है, परायों से सावधान रहना है। जो पराये आक्रमण करने आये हैं --- उनसे लड़ना है , उन्हें नष्ट करना है।
शरीर का प्रतिरक्षक तन्त्र यानी इम्यून सिस्टम इसे अपनत्व-परत्व के भेद को बहुत भली-भांति जानता है। उदाहरण के लिए, मनुष्य के शरीर की प्रतिरक्षक कोशिकाओं को पता चल जाता है कि अमुक कोशिका अपने रक्त की है और अमुक बाहर से आई जीवाणु-कोशिका है।
फिर वह अपने परिवार की रक्त-कोशिका से अलग बर्ताव करता है और बाहर से आयी जीवाणु-कोशिका से अलग। यह भिन्न-भिन्न बर्ताव प्रतिरक्षा-तन्त्र के लिए बेहद जरूरी है। जब तक पहचान न हो सकेगी , रक्षा भला कैसे होगी !
प्रतिरक्षा-तन्त्र को लोग जितना सरल समझ लेते हैं, उससे यह कहीं बहुत-ही ज्यादा जटिल है। इम्यूनिटी किसी एक वस्तु को खाकर या न खाकर नहीं बढ़ायी जा सकती और न कोई एक अच्छा-बुरा आचार उसके लिए जिम्मेदार ही है।
प्रतिरक्षा-तन्त्र में अनेक रसायन हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार की कोशिकाएं हैं। इन सब का कार्य-कलाप भी अलग-अलग है। यह एक ऐसे हजार-हजार तारों वाले संगीत-यन्त्र की तरह जिसके एक तार को समझकर या बजाकर उत्तम संगीत न समझा जा सकता है और न बजाया ही।
जटिलता के अलावा प्रतिरक्षा-तन्त्र का दूसरा गुण सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होना है। प्रतिरक्षक कोशिकाएं हर जगह गश्त लगाती हैं या पायी जाती हैं: रक्त में, त्वचा के नीचे , फेफड़ों व आंतों में, मस्तिष्क व यकृत में भी। इस जटिल सर्वव्याप्त तन्त्र के दो मोटे हिस्से हैं: पहला अंतस्थ प्रतिरक्षा-तन्त्र और दूसरा अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र। इम्यून सिस्टम के इन दोनों हिस्सों को समझकर ही हम इसके कार्यकलाप का कुछ आकलन कर सकते हैं।
अन्तःस्थ का अर्थ है जो पहले से हमारे भीतर मौजूद हो। अंग्रेजी में इसे इनेट कहते हैं। प्रतिरक्षा-तन्त्र के इस हिस्से में वह संरचनाएं, वह रसायन और वह कोशिकाएं आती हैं , जो प्राचीन समय से जीवों के पास रहती रही हैं। यानी वह केवल मनुष्यों में ही हों, ऐसा नहीं है; अन्य जीव-जन्तुओं में भी उन-जैसी संरचनाएं-रसायन-कोशिकाएं पाई जाती हैं, जो संक्रमणों से शरीर की रक्षा करती हैं।
उदाहरण के तौर पर हमारी त्वचा की दीवार और आमाशय में पाए जाने वाले हायड्रोक्लोरिक अम्ल को ले लीजिए। ये संरचना और रसायन अनेक जीवों में पाये जाते हैं और इनका काम उन जीवों को बाहरी कीटाणुओं से बचाना होता है। इसी तरह से हमारे शरीर के मौजूद अनेक न्यूट्रोफिल व मोनोसाइट जैसी प्रतिरक्षक कोशिकाएँ हैं। ये सभी अन्तस्थ तौर पर हम-सभी मनुष्यों के भीतर मौजूद हैं।
अन्तःस्थ प्रतिरक्षा-तन्त्र सबसे पहले किसी कीटाणु के शरीर में दाखिल होने पर उससे मुठभेड़ करता है। पर यह बहुत उन्नत और विशिष्ट नहीं होता। इस तन्त्र की कोशिकाओं की अलग-अलग शत्रुओं की पहचान करने की ट्रेनिंग नहीं होती।
शत्रु को मुठभेड़ में नष्ट कर देने के बाद ये कोशिकाएं इस युद्ध की कोई स्मृति यानी मेमोरी भी नहीं रखतीं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए अब तनिक प्रतिरक्षा-तन्त्र के दूसरे हिस्से अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र को समझिए।
अर्जित का अर्थ होता है अक्वायर्ड। वह जो हमारे पास है नहीं , हमें पाना है। वह जो विरासत में नहीं मिला , बनाना पड़ेगा। प्रतिरक्षा-तन्त्र का यह अधिक उन्नति भाग है। इसके रसायन और कोशिकाएँ विशिष्ट होते हैं , यानी ख़ास रसायन और कोशिकाएं खास शत्रु-कीटाणुओं से लड़ते हैं। प्रत्येक किस्म के कीटाणुओं के शरीर में प्रवेश करने पर खास किस्म की प्रतिरक्षक कोशिकाओं का विकास किया जाता है, जो कीटाणुओं से लड़कर उन्हें नष्ट करती हैं। लड़ाई में इन कीटाणुओं को हारने के बाद ये कोशिकाएं अपने भीतर इन हराये गये कीटाणुओं की स्मृति रखती हैं, ताकि भविष्य में दुबारा आक्रमण होने पर और अधिक आसानी से इन्हें हरा सकें। लिम्फोसाइट-कोशिकाएँ अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र की प्रमुख कोशिकाओं का प्रकार हैं।
अन्तःस्थ और अर्जित , प्रतिरक्षा-तन्त्र के दोनों हिस्से मिलकर के शत्रु-कीटाणुओं से लड़ते हैं। किसी संक्रमण में अन्तःस्थ प्रतिरक्षा अधिक काम आती है , किसी में अर्जित प्रतिरक्षा , तो किसी में दोनों। इतना ही नहीं कैंसर-जैसे रोगों में भी प्रतिरक्षा तन्त्र की कोशिकाएं लड़कर उससे शरीर को बचाने का प्रयास करती हैं। कैंसर-कोशिकाएं यद्यपि शरीर के भीतर ही पैदा होती हैं , किन्तु उनके सामने पड़ने पर प्रतिरक्षा-तन्त्र यह जान जाता है कि ये कोशिकाएं वास्तव में अपनी नहीं हैं , बल्कि परायी व हानिकारक हैं। ऐसे में प्रतिरक्षा-तन्त्र कैंसर-कोशिकाओं को तरह-तरह से नष्ट करने का प्रयास करता है।
वहीं, अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र का विकास संक्रमण से हो सकता है और वैक्सीन लगा कर भी। संक्रमण से होने वाला विकास प्राकृतिक है और टीके ( वैक्सीन ) द्वारा होने वाला विकास मानव-निर्मित होता है।
वर्तमान कोविड-19 पैंडेमिक ( वैश्विक महामारी ) एक विषाणु सार्स-सीओवी 2 के कारण हो रही है। इस विषाणु के शरीर में प्रवेश करने के बाद प्रतिरक्षा-तन्त्र के दोनों हिस्से अन्तःस्थ व अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र सक्रिय हो जाते हैं। वे विषाणुओं से भरी कोशिकाओं को तरह-तरह से नष्ट करने की कोशिश करते हैं। चूंकि यह विषाणु नया है , इसलिए ज़ाहिर है कि अन्तःस्थ प्रतिरक्षा-तन्त्र इससे सुरक्षा में बहुत योगदान नहीं दे पाता। ऐसे में अर्जित प्रतिरक्षा तन्त्र पर ही यह ज़िम्मा आ पड़ता है कि वह उचित कोशिकाओं व रसायनों का विकास करके इस विषाणु से शरीर की रक्षा करे।
मनुष्य के प्रतिरक्षा-तन्त्र के लिए यह संक्रमण नया है , वह उसे समझने और फिर लड़ने में लगा हुआ है। ऐसे में उचित टीके ( वैक्सीन ) के निर्माण से हम प्रतिरक्षा-तन्त्र की उचित ट्रेनिंग कराकर अर्जित प्रतिरक्षा को मजबूत कर सकते हैं। उचित प्रशिक्षण पायी योद्धा-कोशिकाओं के पहले से मौजूद होने पर शरीर के भीतर जब सार्स-सीओवी 2 दाखिल होगा , तब ये कोशिकाएँ उसे आसानी से नष्ट कर सकेंगी। किन्तु सफल वैक्सीन के निर्माण व प्रयोग में अभी साल-डेढ़ साल से अधिक का समय लग सकता है , ऐसा विशेषज्ञों का मानना है।
अपने व पराये रसायनों व कीटाणुओं में भेद , जटिलता और शरीर-भर में उपस्थिति और अन्तःस्थ व अर्जित के रूप में दो प्रकार होना प्रतिरक्षा-तन्त्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ हैं। इस प्रतिरक्षा तन्त्र को न आसानी से समझा जा सकता है और न केवल प्रयासों से हमेशा स्वस्थ रखा जा सकता है। प्रतिरक्षा-तन्त्र काफ़ी हद तक हमारी आनुवंशिकी यानी जेनेटिक्स पर भी निर्भर रहता है। कोशिकाओं के भीतर स्वस्थ जीन ही आएँ , इसके लिए हम बहुत-कुछ कर नहीं सकते। नीचे बताये गये चार विषयों पर किन्तु हम ज़रूर ध्यान दे सकते हैं ; साथ ही आसपास के पर्यावरण से प्रदूषण को घटाकर प्रतिरक्षा-तन्त्र को स्वस्थ रखने का साझा प्रयास भी कर सकते हैं।
1 ) सही और सन्तुलित भोजन का सेवन।
2 ) निरन्तर शारीरिक व मानसिक व्यायाम।
3 ) उचित निद्रा व तनाव से मुक्ति।
4 ) नशे से दूरी।
यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस तरह से कोई केवल पढ़ने से पास नहीं हो सकता , उसी तरह केवल कोशिश करने से इम्यून सिस्टम को मज़बूत नहीं किया जा सकता है। क्योंकि पढ़ना पास होने की कोशिश है , पास होने की गारंटी नहीं। उसी तरह प्रतिरक्षा-तन्त्र को सही खा कर , ठीक से सो कर , नशा न करके, तनाव से दूर रहकर व व्यायाम द्वारा स्वस्थ रहने की केवल कोशिश की जा सकती है।
व्यक्तिगत और सार्वजनिक पर्यावरण को यथासम्भव स्वस्थ रखना ही प्रतिरक्षा-तन्त्र के सुचारु कामकाज के लिए हमारा योगदान हो सकता है। आनुवंशिकी तो फिर जैसी है , वैसी है ही।
(लेखक डॉ.स्कन्द शुक्ल चिकित्सा विज्ञान और प्रतिरक्षा विषय के विशेषज्ञ हैं।)(downtoearth)
भारत अपनी जीडीपी का 1.28 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है, जबकि चीन 3 प्रतिशत। ऐसे में अब हमें अपना एजेंडा बदलने की जरूरत है
- Sunita Narain
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जोर देकर कहा है कि अमेरिका में कोविड-19 के कारण होनेवाली मौतों की संख्या इतनी अधिक नहीं हैं। ऐसा उन्होंने उस दिन कहा जिस दिन इस वायरस के कारण अमेरिका में हुई मौतों की संख्या 1,60,000 को पार कर गई। हालांकि ट्रम्प कितने भी गलत क्यों न प्रतीत हों, उनकी बात में सच्चाई अवश्य है। यदि उनकी ही तरह आप भी अमेरिका में हो रही मौतों को कुल मामलों की तुलना में देखें, यानि केवल मृत्यु दर पर ध्यान दें, तो यह सच है कि अमरीका की हालत कई अन्य देशों से बेहतर है। अमेरिका में, मृत्यु दर 3.3 प्रतिशत के आसपास है, यह यूके और इटली में 14 प्रतिशत और जर्मनी में लगभग 4 प्रतिशत है। अतः वह सही भी है और पूरी तरह से गलत भी। अमेरिका में संक्रमण नियंत्रण से बाहर है। दुनिया की 4 प्रतिशत आबादी वाला देश 22 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार है। लेकिन अंततः बात इस पर आकर टिकती है कि आप किन बिंदुओं को चुनते हैं और किन आंकड़ों को प्रमुखता देते हैं।
यही कारण है कि भारत सरकार कहती आ रही है कि हमारी हालत भी अधिक बुरी नहीं है। भारत में मृत्यु दर कम (2.1 प्रतिशत) तो है ही, साथ ही यह अमेिरका की मृत्यु दर से भी कम है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे यहां संक्रमण की दर भले ही अधिक है लेकिन लोगों की उस हिसाब से मृत्यु नहीं हो रही है । लेकिन फिर सरकार यह भी कहती है कि भारत एक बड़ा देश है और इसलिए हमारे यहां होने वाले संक्रमण एवं मौतों की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक होगी। यही कारण है कि भारत में रोजाना औसतन 60,000 नए मामले (6 अगस्त तक, 2020 के पहले हफ्ते तक) आने के बावजूद, दस लाख आबादी पर कुल 140 मामले ही हैं और हम यह कह सकते हैं कि दुनिया के अन्य देशों के बनिस्पत हमारे यहां हालात नियंत्रण में हैं। अमेरिका में दस लाख पर 14,500 मामले हैं, ब्रिटेन में 4,500 और सिंगापुर में भी दस लाख पर 9,200 मामले हैं।
लेकिन हमारे यहां मामलों की संख्या इसलिए भी कम हो सकती है क्योंकि भारत में टेस्टिंग की दर बढ़ी अवश्य है लेकिन यह अब भी हमारी कुल आबादी की तुलना में नगण्य है। 6 अगस्त तक भारत ने प्रति हजार लोगों पर 16 परीक्षण किए जबकि अमेरिका ने 178 किए। यह स्पष्ट है कि हमारे देश के आकार और हमारी आर्थिक क्षमताओं को देखते हुए, अमेरिकी परीक्षण दर की बराबरी करना असंभव होगा। लेकिन फिर अपनी स्थिति को बेहतर दिखाने के लिए अमेिरका के साथ तुलना करने की क्या आवश्यकता है।
ऐसे में सवाल यह है कि हमसे क्या गलतियां हुई हैं और आगे क्या करना चाहिए। मेरा मानना है कि यही वह क्षेत्र है जिसमें भारत ने अमेरिका से बेहतर काम किया है। हमारी सरकार ने शुरू से ही मास्क पहनने की आवश्यकता पर जोर दिया और कभी इस वायरस को कमतर करके नहीं आंका है। हमने दुनिया के अन्य हिस्सों में सफल रहे सुरक्षा नुस्खों का पालन करने की पुरजोर कोशिश की है।
भारत ने मार्च के अंतिम सप्ताह में एक सख्त लॉकडाउन लगाया जिसकी हमें बड़ी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ी है। इस लॉकडाउन की वजह से हमारे देश के सबसे गरीब तबके को जान माल की भारी हानि उठानी पड़ी है। जो भी संभव था हमने किया। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि वायरस हमसे जीत चुका है या कम से कम फिलहाल तो जीत रहा है। हमें हालात को समझने की आवश्यकता है और इस बार विषय बदलने और लीपापोती से काम नहीं चलेगा।
इसका मतलब है कि हमें अपनी रणनीति का विश्लेषण करके अर्थव्यवस्था को फिर से चालू करने और करोड़ों गरीब जनता तक नगद मदद पहुंचाने की आवश्यकता है। देश में व्यापक संकट है, भूख है, बेरोजगारी है, चारों ओर अभाव का आलम है। इसकी भी लीपापोती नहीं की जा सकती।
हमारे समक्ष शीर्ष पर जो एजेंडा है वह है सार्वजनिक बुनियादी ढांचे और उससे भी महत्वपूर्ण, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के मुद्दे का समाधान। हमारे सबसे सर्वोत्तम शहरों में भी गरीब लोग रहते हैं। ऐसा न होता तो हमारे गृह मंत्री सहित हमारे सभी उच्च अधिकारी जरूरत पड़ने पर निजी स्वास्थ्य सेवाओं की मदद क्यों लेते। संदेश स्पष्ट है, भले ही हम इन प्रणालियों को चलाते हों, लेकिन जब अपने खुद के स्वास्थ्य की बात आती है तो हम उन सरकारी प्रणालियों पर भरोसा नहीं करते। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि उन राज्यों, जिलों और गांवों में, जहां संक्रमण में इजाफा हो रहा है, वहां स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा न के बराबर है।
यह भी एक तथ्य है कि सरकारी प्रणालियां अपनी क्षमता से कहीं अधिक बोझ उठाते-उठाते थक चुकी हैं। वायरस के जीतने के पीछे की असली वजह यही है। डॉक्टर, नर्स, क्लीनर, नगरपालिका के अधिकारी, प्रयोगशाला तकनीशियन, पुलिस आदि सभी दिन-रात काम कर रहे हैं और ऐसा कई महीनों से चला आ रहा है। सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में शीघ्र निवेश किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि अब समय आ चुका है जब सरकार को इन एजेंसियों और संस्थानों के महत्व को स्वीकार करना चाहिए। हम सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी भी करें और समय आने पर वे निजी सेवाओं से बेहतर प्रदर्शन करें, यह संभव नहीं है।
अतः हमारी आगे की रणनीति ऐसी ही होनी चाहिए। हमें सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों और नगरपालिका शासन में भारी निवेश करने की आवश्यकता है। हमें इस मामले में न केवल आवाज उठानी है बल्कि इसे पूरा भी करना है। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करने की हमारी वर्तमान दर न के बराबर है। जीडीपी का लगभग 1.28 प्रतिशत।
हमारी तुलना में, चीन अपनी कहीं विशाल जीडीपी का लगभग 3 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है और पिछले कई वर्षों से ऐसा करता आया है। हम इस एजेंडे को अब और नजरअंदाज नहीं कर सकते। कोविड-19 का मतलब है स्वास्थ्य को पहले नंबर पर रखना। इसका मतलब यह भी है कि हमें अपना पैसा वहां लगाना चाहिए जहां इसकी सर्वाधिक आवश्यकता हो। यह स्पष्ट है कि हमें बीमारियों को रोकने के लिए बहुत कुछ करना होगा। दूषित हवा, खराब भोजन एवं पानी और स्वच्छता की कमी के कारण होने वाली बीमारियों पर लगाम लगाना हमारा उद्देश्य होना चाहिए। अब बात हमारे देश, हमारे स्वास्थ्य की है।(downtoearth)
वैक्सीन पर लोग कितना भरोसा करते हैं, इस बारे में लांसेट ने 149 देशों के 284,381 व्यक्तियों लोगों के बीच एक सर्वेक्षण किया
- DTE Staff
2015 और 2019 के बीच कई देशों में वैक्सीन के प्रति झिझक की प्रवृत्ति बढ़ी है। 10 सितंबर 2020 को द लांसेट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में यह जानकारी दी गई है। अध्ययन के शोधकर्ताओं ने यह समझने की कोशिश की है कि दुनिया भर के लोग टीकों के प्रभाव, सुरक्षा और महत्व के बारे में कैसा महसूस करते हैं।
यह सर्वेक्षण 149 देशों के 284,381 व्यक्तियों के बीच किया गया। सर्वेक्षण के मुताबिक, दूसरे देशों के मुकाबले भारत में सबसे अधिक लोगों ने माना कि वैक्सीन के टीके प्रभावी रहते हैं। 2019 में भारत में 84.26 प्रतिशत माना कि टीका प्रभावी रहते हैं। अल्बानिया इस संबंध में सबसे निचले स्थान पर है, जिसमें 14.2 प्रतिशत लोग मानते हैं कि टीके प्रभावी रहते हैं।
युगांडा के सबसे अधिक लोगों (87.24 प्रतिशत ) ने माना कि वैक्सीन के टीके सुरक्षित रहते हैं, जबकि जापान में सबसे कम 17.13 प्रतिशत लोगों ने टीका की सुरक्षा पर विश्वास जताया।
जापानियों में वेक्सीन के प्रति असुरक्षा की भावना के बारे में लेखकों ने कहा कि ऐसा हयूमन पैपिलोमावायरस (एचपीवी) वैक्सीन की वजह से हो सकता है। यह वैक्सीन 2013 में शुरू हुआ था, जो सर्वाइकल कैंसर को रोकने के लिए था, लेकिन तब जापान के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय ने एचपीवी वैक्सीन की सिफारिशों को निलंबित कर दिया था।
लंदन के इम्पीरियल कॉलेज की क्लैरिसा सिमास और लंदन स्कूल ऑफ हेल्थ एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के अलेक्जेंड्रे डी फिगुएरेडो इस पेपर के प्रथम संयुक्त लेखक हैं।
2019 में इराक में सबसे अधिक (95.17 प्रतिशत) लोगों ने माना कि वैक्सीन बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन अल्बानिया में सबसे कम 26.06 प्रतिशत लोगों ने वैक्सीन की महत्ता को माना।
अध्ययन के लेखकों ने कहा कि कुल मिलाकर कई देशों में टीकों पर विश्वास की प्रवृत्ति घट रही है। नवंबर 2015 से दिसंबर 2019 के बीच अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और दक्षिण कोरिया में तीनों मापदंडों पर भरोसा सबसे ज्यादा गिर गया।
फिलीपींस एक बड़ा उदाहरण है, जहां टीके के प्रति विश्वास में सबसे ज्यादा कमी देखी गई है। यह देश 2015 के अंत में इस श्रेणी में 10वें स्थान पर था, लेकिन 2019 में वह 70वें स्थान से पार पहुंच गया।
इस अध्ययन के अनुसार, सनोफी एसए द्वारा निर्मित डेंगू वैक्सीन (डेंगवाक्सिया) के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह वहां (फिलीपींस) 2017 में पेश किया गया था, लेकिन यह वैक्सीन सेहत के लिए नुकसान पहुंचाने से लगभग 850,000 बच्चों को दिया जा चुका था।
अध्ययन के लेखकों के अनुसार, इंडोनेशिया में 2015 और 2019 के बीच टीके प्रति विश्वास में एक बड़ी गिरावट देखी, जो आंशिक रूप से खसरा, कण्ठमाला, और रूबेला (एमएमआर) वैक्सीन की सुरक्षा पर सवाल उठा रहे थे। उन्होंने कहा कि धार्मिक नेताओं ने एक फतवा जारी किया, जिसमें कहा गया कि वैक्सीन में सूअरों का मांस पाया गया, इसलिए लोगों ने वैक्सीन को नकारना शुरू कर दिया।
हालांकि, केवल धर्म को ही वैक्सीन के प्रति अविश्वास का कारण नहीं माना गया, बल्कि गलत प्रचार और वैज्ञानिक साक्ष्य उपलब्ध न करा पाने के कारण भी लोगों ने वैक्सीन पर विश्वास नहीं किया।
दक्षिण कोरिया और मलेशिया में, वैक्सीन के खिलाफ ऑनलाइन अभियान चलाए गए। दक्षिण कोरिया में, एक ऑनलाइन एंटी-वैक्सीनेशन ग्रुप जिसका नाम ANAKI है ने बचपन के टीकाकरण के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया।
हालांकि, फ्रांस, भारत, मैक्सिको, पोलैंड, रोमानिया और थाईलैंड ने वैक्सीन के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया है। इन देशों में टीकों के प्रति विश्वास के साथ-साथ कई निर्धारक भी पाए गए। जैसे
- वैक्सीन पर उच्च विश्वास (66 देश)
- परिवार, दोस्तों या अन्य गैर-चिकित्सा स्रोतों से अधिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर भरोसा करना (43 देशों)
- विज्ञान शिक्षा का उच्च स्तर (35 देश)
- लिंग, महिलाओं के साथ पुरुषों की तुलना में किसी भी बच्चे की रिपोर्ट करने की अधिक संभावना
- आयु (युवा आयु वर्ग में आगे बढ़ने की संभावना बेहतर थी
नोवल कोरोनावायरस रोग (कोविड-19) महामारी ने दुनिया की सबसे तेज वैक्सीन बनाने की प्रक्रियाओं की शुरुआत की है, जिसके चलते लोगों में भी वैक्सीन के प्रति उम्मीद बंधी है। (downtoearth)
ऐसा पहली बार है कि भारत में कोई महत्वपूर्ण चुनाव न होने पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक लंबे समय से देश में ही हैं
- अभय शर्मा
दुनिया भर में कोरोना वायरस का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है. भारत सहित पूरी दुनिया में सवा लाख से ज्यादा लोग इसके चलते अपनी जान गवां चुके हैं. इस महामारी के चलते आम लोग ही नहीं दुनिया भर के बड़े नेताओं का भी दूसरे देशों में आना-जाना बेहद कम या फिर बंद हो गया है. भारत की तरफ से देखें तो सबसे बड़े नेताओं में विदेश मंत्री एस जयशंकर और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कोरोना काल में विदेश यात्राएं की हैं. ये दोनों हाल ही में रूस और फिर ईरान की यात्रा पर गए थे. राजनाथ सिंह ने बीते जून में भी रूस की यात्रा की थी.
लेकिन, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना काल के दौरान विदेश का रुख नहीं किया. अगर आंकड़ों को देखें तो आज विदेश से लौटे हुए उन्हें पूरे दस महीने हो गए हैं. बीते साल 15 नवंबर को वे दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील की दो दिवसीय यात्रा से लौटे थे. इसके बाद से वे किसी भी विदेश यात्रा पर नहीं जा पाए हैं.
आइए जानते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी ने हर साल नवंबर से लेकर सितंबर तक कितने देशों की यात्राएं कीं. यह भी कि वे इससे पहले कब-कब लंबे समय तक देश में ही रुके रहे और रुकने की वजह क्या थी?
नवंबर 2014 से सितंबर 2015
नरेंद्र मोदी मई 2014 में भारत के प्रधानमंत्री बने थे. इसके बाद अगले चार महीनों यानी सितंबर तक उन्होंने अमेरिका सहित पांच देशों की यात्रा कर ली थी. इसके बाद उन्होंने नवंबर 2014 से लेकर सितंबर 2015 तक यानी 11 महीनों में कुल 24 देशों की यात्राएं की. नवंबर में वे म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया, फिजी और नेपाल की यात्रा पर गए. इसके बाद मार्च 2015 में उन्होंने सेशेल्स, मॉरीशस, श्रीलंका और सिंगापुर की यात्रा की. इसी साल अप्रैल में पहली बार बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने यूरोप का रुख किया और फ्रांस एवं जर्मनी की यात्रा की.
2015 की फ्रांस की यात्रा बीते दिनों काफी चर्चा में रही थी और इसे लेकर भारत में काफी सियासी घमासान हुआ था. इसकी वजह थी कि इसी यात्रा में भारत और फ्रांस के बीच रफाल लड़ाकू विमान खरीदने पर सहमति बनी थी. 2018 में फ्रांसीसी खबरिया वेबसाइट ‘मीडियापार्ट’ ने फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का एक बयान छापा था. इसमें उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री की फ्रांस यात्रा के दौरान भारत सरकार ने रफाल सौदे में अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस को शामिल करने का प्रस्ताव रखा था. हालांकि, इन विवादों का इस डील पर कोई असर नहीं पड़ा और सरकार ने इन आरोपों को गलत बताते हुए कहा कि 36 विमानों की डील फाइनल हो चुकी है. इस डील के तहत ही बीते जुलाई में फ़्रांस ने पांच रफाल लड़ाकू विमानों की पहली खेप भारत को सौंप दी.
बहरहाल, 2015 के अप्रैल महीने से लेकर सितंबर तक प्रधानमंत्री ने 14 देशों की यात्राएं की. इनमें कनाडा, चीन, मंगोलिया, दक्षिण कोरिया, बांग्लादेश, उज्बेकिस्तान, कजाख्स्तान, रूस, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, आयरलैंड और अमेरिका शामिल हैं. अगस्त 2015 में नरेंद्र मोदी संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) भी गए थे. उनके रूप में कोई भारतीय प्रधानमंत्री 34 साल बाद यूएई पहुंचा था.
नवंबर 2015 से सितंबर 2016
नवंबर 2015 से लेकर सितंबर 2016 तक पीएम नरेंद्र मोदी ने कुल 26 मुल्कों की यात्रा की. 2015 नवंबर में वे पहली यात्रा पर ब्रिटेन गए. इसके बाद वे इसी महीने तुर्की, मलेशिया और सिंगापुर गए. दिसंबर में उन्होंने फ्रांस, रूस और अफगानिस्तान की आधिकारिक यात्राएं की. अफगानिस्तान की इसी यात्रा के बाद प्रधानमंत्री ने एक ऐसा निर्णय लिया जिसने भारत सहित पूरी दुनिया को चौंका दिया था. 25 दिसंबर को काबुल से निकलने के बाद अचानक नरेंद्र मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ से मिलने लाहौर पहुंच गए. लाहौर हवाई अड्डे पर शरीफ़ ने खुद मोदी की अगवानी की. इसके बाद वे हेलीकॉप्टर से नवाज़ शरीफ़ के घर रायविंद पैलेस पहुंचे और उनकी नातिन की शादी में शरीक हुए. इसके बाद मार्च 2016 में पीएम मोदी बेल्जियम और अप्रैल में सऊदी अरब के दौरे पर गए. मार्च 2016 में वे अमेरिका में हुए परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मलेन में भी हिस्सा लेने गए थे. यह यात्रा एक दिन की थी.
इसी साल मई से लेकर सितंबर तक प्रधानमंत्री ने 15 देशों की यात्राएं कीं, इनमें अफगानिस्तान और अमेरिका दो ऐसे देश हैं जिनकी यात्रा पर प्रधानमंत्री एक साल में दूसरी बार गए. इसके अलावा वे जिन देशों की यात्रा पर गए थे, उनमें ईरान, क़तर स्विट्जरलैंड, मैक्सिको, उज्बेकिस्तान, अफ्रीका के दक्षिण में स्थित छोटे देश मोजाम्बिक, दक्षिण अफ्रीका, तंजानिया, केन्या, वियतनाम और चीन शामिल हैं. सितंबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में शामिल होने लाओस गए थे.
नवंबर 2016 से सितंबर 2017
नरेंद्र मोदी के अब तक के पूरे कार्यकाल में नवंबर 2016 से लेकर सितंबर 2017 तक की समयावधि ऐसी है जब उन्होंने सबसे कम (13) देशों यात्राएं कीं. इस दौरान उन्होंने शुरूआती छह महीनों में यानी नवंबर 2016 से अप्रैल 2017 की समयावधि में केवल तीन दिन ही विदेश में गुजारे. इस दौरान उन्होंने केवल थाईलैंड और जापान का दौरा ही किया. इन छह महीनों के दौरान नरेंद्र मोदी के कम यात्रायें करने की वजह उत्तर प्रदेश के चुनाव को माना जाता है. फरवरी और मार्च 2017 में हुए इस चुनाव के लिये प्रधानमंत्री ने जनवरी से ही प्रचार करना शुरू कर दिया था.
उत्तर प्रदेश के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बड़ी जीत दिलवाने के एक महीने बाद प्रधानमंत्री ने फिर विदेश का रुख किया और अगले पांच महीनों में 11 देशों की यात्रायें की. मई में वे सबसे पहले एक दिन के लिए श्रीलंका पहुंचे फिर इसी महीने के अंत में उन्होंने जर्मनी, स्पेन और रूस की यात्रा की. 2 जून को रूस से सीधे फ्रांस का रुख किया. जून 2017 में पीएम मोदी ने कजाखस्तान, पुर्तगाल, अमेरिका और नीदरलैंड का दौरा भी किया. इस साल जुलाई में वे इजरायल और सितंबर में चीन और म्यांमार के दौरे पर गए. जुलाई 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी20 शिखर सम्मेलन में शामिल होने एक दिन के लिए जर्मनी भी गए थे.
नवंबर 2017 से सितंबर 2018
नवंबर 2017 से सितंबर 2018 तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई ऐसे देशों का दौरा किया जहां कई दशकों से कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था. नवंबर में फिलीपींस और जनवरी में स्विटजरलैंड जाने के बाद उन्होंने फरवरी में एक के बाद एक चार मुस्लिम देशों - जॉर्डन, यूएई, फिलस्तीन और ओमान का दौरा किया. नरेंद्र मोदी के रूप में कोई भारतीय प्रधानमंत्री 58 साल बाद फिलस्तीन, 30 साल बाद जॉर्डन और 10 साल बाद ओमान पहुंचा था. इसके बाद अप्रैल में प्रधानमंत्री ने स्वीडन, ब्रिटेन, जर्मनी और चीन की यात्रा की. इस साल अगले पांच महीनों के दौरान नरेंद्र मोदी ने 10 देशों की यात्राएं की, इनमें उन्होंने नेपाल का दो बार दौरा किया.
नवंबर 2018 से सितंबर 2019
नवंबर 2018 से सितंबर 2019 के बीच पीएम मोदी 15 देशों की यात्राओं पर गये. इस दौरान कुछ देशों की यात्राओं पर वे दो बार भी गए. नवंबर 2018 में उन्होंने सिंगापुर, मालदीव और अर्जेंटीना का दौरा किया. इसके बाद फरवरी 2019 में उन्होंने दक्षिण कोरिया की दो दिवसीय यात्रा की. इसके बाद लोकसभा चुनाव के चलते अगले तीन महीने वे देश में ही रहे. लोकसभा का चुनाव निपटने के बाद जून 2019 से प्रधानमंत्री ने फिर विदेश यात्रा शुरू की और 11 देशों की यात्रायें कीं. इस दौरान उनकी जो विदेश यात्रा सुर्ख़ियों में रही थी, वह बहरीन की थी. दरअसल, नरेंद्र मोदी के रूप में पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने मध्यपूर्व के इस छोटे मुस्लिम देश की सरजमीं पर अपने कदम रखे थे.
नवंबर 2019 से सितंबर 2020
बीते सालों में अगर देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय तक विदेश यात्रा पर तब नहीं गए, जब देश में कोई महत्वपूर्ण चुनाव था. ऐसा पहली बार ही हुआ है कि देश में कोई बड़ा चुनाव नहीं है और प्रधानमंत्री इतने लंबे समय से देश में हैं. कोरोना वायरस संकट के चलते बीते मार्च में उनका बांग्लादेश का दौरा रद्द हो गया था. इसके बाद मार्च में ही इसी कारण से उन्हें अपना यूरोप का दौरा भी रद्द करना पड़ा.
हालांकि, मार्च से पहले प्रधानमंत्री के विदेश न जाने की वजह जानकार कोरोना वायरस के संकट को नहीं मानते. इनके मुताबिक 15 नवंबर 2019 से लेकर फरवरी 2020 तक प्रधानमंत्री नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के चलते विदेश नहीं गए. दुनिया भर में भारत सरकार के इस कदम का विरोध हो रहा था. यही नहीं, यूरोप से लेकर अमेरिका और मध्यपूर्व से लेकर चीन तक में सत्ताधारी नेता इस कानून को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना कर रहे थे. विश्लेषकों की मानें तो ऐसे समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी असहज स्थिति से बचने के लिए घर में बैठना ही बेहतर समझा.(satyagrah)
रमेश शर्मा
दसरू आदिवासी 80 साल के हैं। उनका जन्म किसमरधा गांव में हुआ था। आजा पुरखा से उसने कहानी सुनी कि उनकी 11 पीढिय़ां किसमरधा गांव में ही रहती आई है। दसरू बताते हैं कि तब गोंड और बैगा समाज के सब लोग खुशहाल थे। अन्नदा खेत खलिहान और फल-फूल से भरपूर जंगल था और तब हम सब अपने आपको सुखवासी कहते थे।
यह महज संयोग नहीं है कि 1 नवम्बर 2000 को जिस आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के महान नारों के साथ छत्तीसगढ़ का नए राज्य के रूप में गठन किया गया और उसमें जो सबसे पहली नीति घोषित हुई, वह बहुसंख्यक आदिवासी समाज की अपनी ‘आदिवासी नीति’ नहीं, बल्कि बल्कि आदिवासियों के विकास के लिए प्रतिबद्ध सरकार की ‘औद्योगिक नीति-2000’ थी। उस समय का सबसे प्रमुख राजनैतिक दर्शन मानता था कि छत्तीसगढ़ की अमीर धरती में रहने वाले आखिर गरीब क्यों होने चाहिए? छत्तीसगढ़ की अमीर धरती के गरीबों के लिए सामाजिक न्याय, आर्थिक सम्पन्नता, संसाधनों के अधिकार जैसे नए पैमानों के सुलझे-उलझे तर्कों और तथ्यों के साथ विकास की अंधाधुंध योजनाएं बननी शुरू हुई। और किसमरधा जैसे अमीर धरती वाले गांवों से तथाकथित विकास की महानदी बह निकली।
भारतीय संदर्भों में विकास की एक कीमत होती है, जिसे राजनेताओं, उद्योगपतियों, प्रशासकों और निवेशकों का गठजोड़ निर्धारित करता है और उसका भुगतान-अमीर धरती के गरीबों को ही गिरवी रखकर किया जाता रहा है। छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बाहुल्य राज्य के बीस बरसों का संक्षिप्त इतिहास और वर्तमान उनके अपने विकास की कही-अनकही कहानी है। छत्तीसगढ़ जैसे नए और प्राकृतिक संपदा से भरपूर राज्य में विकास की तमाम योजनाएं बनी, योजनाओं को लागू करने समर्पित लोगों का पूरा महकमा खड़ा किया गया, महकमे को बनाए रखने के लिए नए कायदे-कानून निर्धारित किए गए और फिर अमीर धरती के गरीब लोगों को यह बताया गया कि विकास की ‘कुछ कीमत’ चुकानी होगी। नए संदर्भों मे विकास, स्थापित लोकतंत्र की नैतिक-राजनैतिक आवश्यकता है, लेकिन हरेक विकास लोकतांत्रिक ही होना चाहिए या नहीं, यह चुनाव उनके हाथ में तो कतई नहीं है, जिन्हें विकास के लाभार्थी के रूप में अक्सर स्थापित अथवा विस्थापित किया जाता रहा है।
किसमरधा, छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के आदिवासी बहुल दलदली बोदाई क्षेत्र का एक बेहद खूबसूरत गांव हुआ करता था। मैकाल की पहाडिय़ों के शिखर पर बसे किसमरधा, रपदा, सेमसाता, मुंडादादर आदि गावों में वर्ष 2003 से वेदांता - बालको कंपनी के द्वारा बॉक्साइट उत्खनन शुरू किया गया। इन गांवों के निहत्थे नागरिक दसरू, लेमरू, उजियारो बाई और परमा बाई जैसे वो बुज़ुर्ग जिन्होंने इस विकास के दंश को अपने दिलो-दिमाग से महसूस किया। वो बताते हैं कि - छत्तीसगढ़ के विकास और आदिवासी अधिकारों के नाम पर निर्वाचित सरकारों द्वारा, किस बेहियाई के साथ उनकी अमीर धरती का सौदा कर दिया गया।
लेमरू बैगा कहते हैं कि धीरे-धीरे हमें विश्वास होता गया कि अपनी चुनी हुई सरकार और सरकार की चुनी हुई कंपनी में कोई भी अब अपना नहीं है। किसमरधा, रपदा, सेमसाता और मुंडादादर के लोगों को विकास के चौसर में दांव पर लगा दिया गया। दसरू, लेमरू, उजियारो बाई और परमा बाई एकस्वर मे कहते हैं कि हमारे जंगल जमीन के सौदे की असलियत मालूम होते-होते कंपनी के बड़े-बड़े मशीन, धरती के सीने को छलनी करने लगे। और फिर डायनामाइट की गंध और गर्द से हमारे आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा।
‘छत्तीसगढ़ में अंजोर’ (उजाला) शीर्षक से विकास की रिपोर्टें छपी और बरस दर बरस छपती चली गयी। विकास की इन रिपोर्टों में दसरू, लेमरू और उजियारो के अस्तित्व, अब संज्ञाहीन आंकड़ों में बदल चुके थे। हरे भरे आंकड़ों के रंगबिरंगे रिपोर्टों में किसमरधा, रपदा, सेमसाता और मुंडादादर-विकास के गर्दिश में गुमनाम होते चले गये। बेबस गांवों के मु_ीभर लोगों ने मिलकर घोषणा कर दी कि वो अपनी जमीनों से कभी भी और किसी भी कीमत पर नहीं हटेंगे। तब तक कंपनी के रिकॉर्ड में लगभग 261 परिवारों की जमीन, तथाकथित ‘सहमति’ के शर्तों पर खरीदी गई और लगभग 182 लोगों का कागजी पुनर्वास भी पूरा कर दिया गया। लेमरू सहित अधिकांश बैगा आदिवासी परिवार खदेड़ दिए गए, क्योंकि उनके पास अपनी जमीनों का पट्टा ही नहीं था। उनके अपने आजा-पुरखा के जंगल, विकास के लिए कुर्बान कर दिए गए। बेजमीन हो चुके लोगों ने यह मान लिया कि अब खुला आकाश ही उनका नया आशियाना है।
दुनिया को बताया गया कि ‘छत्तीसगढ़ की पुनर्वास नीति’ सबसे बेहतर और प्रभावशाली है। उजियारो और परमा बाई ने कभी इस पुनर्वास नीति की कोई कथा नहीं सुनी। दुर्भाग्यवश उनकी व्यथा, कभी पुनर्वास नीति का हिस्सा ही नहीं हो सकी। इसीलिए उन जैसे बेजमीन कर दिए गए लोगों के लिए विकास के सपने और पुनर्वास के यथार्थ दोनों ही अर्थहीन रह गए।
मगनू जैसा नौजवान उन चंद किस्मत वालों में शामिल रहा जिसे हाड़तोड़ मजदूरी के लिए खदान के ठेकेदारों ने अपेक्षाकृत उपयुक्त व्यक्ति माना। मगनू बताते हैं कि धरती के चीथड़ों से बॉक्साइट के पत्थर ढोते-ढोते हाथ- रक्तिम लाल हो जाते थे, कभी-कभी ऐसा महसूस होता था कि मैं बॉक्साइट के टुकड़े नहीं, मानो अपने ही हाथों से धरती के रक्त से सना कतरा निकाल रहा हूँ। बहरहाल, विकास के सतरंगी शब्दकोष, अर्थतंत्र के अकड़ते हुए आंकड़ों और पुनर्वास के भरे-पूरे आश्वासनों में बेजमीन हो चुके लोग, शनै: शनै: समाप्त होते चले गए। छत्तीसगढ़ के विकास की कथायें रायगढ़, रायपुर और राजनाँदगाँव जैसे विकास में जगमगाते शहरों के लैम्पपोस्टों पर लटकते इश्तेहारों मे पूरा देश देखता और आश्वस्त होता रहा। लेकिन- दसरू, लेमरू और उजियारों के गांव-बरस दर बरस-रायपुर से और दूर होते गए।
उत्खनन के लगभग 15 बरस बाद बेजमीन हो चुका लेमरू बैगा, आज अपनी ही जन्मभूमि में किसी अपराधी की तरह रहने को अभिशप्त है। उसे अब भी विश्वास है कि एक दिन वो और उस जैसे तमाम बेज़मीन लोग, अपने आजा-पुरखा के उस पवित्र भूमी पर लौट सकेंगे जहाँ उनका इतिहास और भूगोल दफऩ है। बैगा आदिवासियों के अपने जीवनदर्शन में भविष्य की कोई परिकल्पना नहीं है। दरअसल उनका इतिहास ही है जो संपन्न विरासत की जीवित दंतकथा है। वो मानते हैं कि प्रकृति के प्रति उनका प्रेम ही आने वाले अपने भविष्य की एकमात्र आवश्यकता है। विचित्र विरोधाभास है कि इतिहास में जीने वाला एक आदिवासी समाज तो ऐसा मानता है लेकिन भविष्य के सपनों पर अपना एकाधिकार मानने वाला तथाकथित आधुनिक समाज, अब तक छद्म विकास के मुग़ालते में जी रहा है।
आज का नया छत्तीसगढ़ गढऩे वालों के समक्ष चुनौती केवल यह नहीं है कि वह आंकड़ों के बाजीगरी से परे आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के भूले-बिसरे सवालों का नया जवाब तराशे, बल्कि अवसर इस बात के भी हैं कि विकास के लिए नए जवाब अब उन हजारों भूले-बिसरे लोगों से भी/ही पूछे। छत्तीसगढ़ के लगभग आधे भू-भाग से उठते आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के सवालों का समाधान स्थापित करने का अर्थ होगा कि विकास की आपाधापी में बहुत पीछे छूट चुके सर्वहारा समाज को उनके अपने छत्तीसगढ़ के पुनर्निर्माण के अवसर और अधिकार दोनों देना। नये छत्तीसगढ़ की नई यात्रा यहीं से शुरू होगी। कल - आज और कल के बीच खड़ा आदिवासी समाज इस नई यात्रा के ख़ातिर अब किसी सार्थक उत्तर की प्रतीक्षा में है। (downtoearth.org.in/hindistory)
(लेखक एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार को हिंदी दिवस मनाते-मनाते 70 साल हो गए लेकिन कोई हमें बताए कि सरकारी काम-काज या जन-जीवन में हिंदी क्या एक कदम भी आगे बढ़ी? इसका मूल कारण यह है कि हमारे नेता नौकरशाहों के नौकर हैं। वे दावा करते हैं कि वे जनता के नौकर हैं। चुनावों के दौरान जनता के आगे वे नौकरों से भी ज्यादा दुम हिलाते हैं लेकिन वे ज्यों ही चुनाव जीतकर कुर्सी में बैठते हैं, नौकरशाहों की नौकरी बजाने लगते हैं। भारत के नौकरशाह हमारे स्थायी शासक हैं। उनकी भाषा अंग्रेजी है।
देश के कानून अंग्रेजी में बनते हैं, अदालतें अपने फैसले अंग्रेजी में देती हैं, ऊंची पढ़ाई और शोध अंग्रेजी में होते हैं, अंग्रेजी के बिना आपको कोई ऊंची नौकरी नहीं मिल सकती। क्या हम हमारे नेताओं और सरकार से आशा करें कि हिंदी-दिवस पर उन्हें कुछ शर्म आएगी और अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर वे प्रतिबंध लगाएंगे? यह सराहनीय है कि नई शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषाओं के माध्यम को लागू किया जाएगा लेकिन उच्चतम स्तरों से जब तक अंग्रेजी को विदा नहीं किया जाएगा, हिंदी की हैसियत नौकरानी की ही बनी रहेगी।
हिंदी-दिवस को सार्थक बनाने के लिए अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर प्रतिबंध की जरुरत क्यों है? इसलिए नहीं कि हमें अंग्रेजी से नफरत है। कोई मूर्ख ही होगा जो किसी विदेशी भाषा या अंग्रेजी से नफरत करेगा। कोई स्वेच्छा से जितनी भी विदेशी भाषाएं पढ़ें, उतना ही अच्छा! मैंने अंग्रेजी के अलावा रुसी, जर्मन और फारसी पढ़ी लेकिन अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा। 55 साल पहले देश में हंगामा हो गया। संसद ठप्प हो गई, क्योंकि दिमागी गुलामी का माहौल फैला हुआ था। आज भी वही हाल है। इस हाल को बदलें कैसे?
हिंदी-दिवस को सारा देश अंग्रेजी-हटाओ दिवस के तौर पर मनाए! अंग्रेजी मिटाओ नहीं, सिर्फ हटाओ! अंग्रेजी की अनिवार्यता हर जगह से हटाएं। उन सब स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की मान्यता खत्म की जाए, जो अंग्रेजी माध्यम से कोई भी विषय पढ़ाते हैं। संसद और विधानसभाओं में जो भी अंग्रेजी बोले, उसे कम से कम छह माह के लिए मुअत्तिल किया जाए। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह महात्मा गांधी ने कहा था।
सारे कानून हिंदी और लोकभाषाओं में बनें और अदालती बहस और फैसले भी उन्हीं भाषाओं में हों। अंग्रेजी के टीवी चैनल और दैनिक अखबारों पर प्रतिबंध हो। विदेशियों के लिए केवल एक चैनल और एक अखबार विदेशी भाषा में हो सकता है। किसी भी नौकरी के लिए अंग्रेजी अनिवार्य न हो। हर विश्वविद्यालय में दुनिया की प्रमुख विदेशी भाषाओं को सिखाने का प्रबंध हो ताकि हमारे लोग कूटनीति, विदेश व्यापार और शोध के मामले में पारंगत हों। देश का हर नागरिक प्रतिज्ञा करे कि वह अपने हस्ताक्षर स्वभाषा या हिंदी में करेगा तथा एक अन्य भारतीय भाषा जरुर सीखेगा। हम अपना रोजमर्रा का काम—काज हिंदी या स्वभाषाओं में करें। भारत में जब तक अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा याने अंग्रेजी महारानी बनी रहेगी तब तक आपकी हिंदी नौकरानी ही बनी रहेगी। (लेखक, भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनुप्रिया
संसद में प्रश्नकाल को खत्म करने के कारण हमें समझ आते हैं, कि यह सरकार विपक्ष को कमजोर किए रखना चाहती है, कि इस सरकार को सवालों से डर लगता है और यह उनका सामना करने में पूरी तरह असमर्थ है, कि सरकार देश के जरूरी मसलों को नजरंदाज करके अपनी कॉरपोरेट नत मस्तक पॉलिसी और जनता को लगातार विभाजित करते हुए फूट डालो और शासन करो पॉलिसी पर फोकस बनाए रखना चाहती है और नहीं चाहती कि इससे इतर सवाल इससे पूछे जाएँ या देश के असल मुद्दों पर ध्यान देने के लिये इस पर दबाव बनाया जाए।
प्रधानमंत्री ख़ुद अपने मामले में इस एजेंडे में बहुत अधिक सफल भी हुए हैं, उनका प्रेस से बात न करने, एकतरफा मन की बात करने, किसी भी सवाल का जवाब न देने यहाँ तक प्रधानमंत्री केयर फंड को आरटीआई से अलग रखने और उस बाबत भी कोई जवाब न देने जैसे प्रयोग सफल रहे हैं। उनके विरोधी भले ही बतौर प्रधानमंत्री उनके हद दर्जे से ज्यादा गैर लोकतांत्रिक तरीके पर सवाल उठाते रहें मगर अबतक कोई भी ऐसा संवैधानिक तरीका नजर नहीं आया है जिससे उनके इस तरीके को गैर संवैधानिक ठहराकर उन्हें प्रेस, विपक्ष और जनता के सवालों का जवाब देने के लिए मजबूर किया जा सके।
उनका यह सफल प्रयोग अब संसद में भी लागू किया जा रहा है, जहाँ विपक्ष उनसे प्रश्नकाल में कोई सवाल नहीं पूछ सकता, और इसका कारण महज कोरोना नहीं है, बड़ी हास्यास्पद दलील यह दी गई है कि पिछले सत्रों में पाया गया है कि संसद में प्रश्नकाल का 50 फीसदी समय व्यर्थ गया है, यानि उसकी कोई उपयोगिता नही रही है, संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी का कहना है कि 60 फीसदी राज्यसभा और 40 फीसदी राज्यसभा के समय व्यर्थ गया है।
आप इस दलील पर महज हैरान हो सकते हैं कि लोकतंत्र के एक जरूरी स्तंभ को इसलिए ढहाया जा रहा है कि वह 100 फीसदी उपयोगी नहीं रहा? बजाय उसे और उपयोगी बनाए जाने की कोशिश किए जाने के उसे खत्म करना ही सरकार को ठीक लग रहा है?
तब तो गृहमंत्री के पद की भी कोई उपयोगिता हमे नजर नहीं आती, देश के सबसे महत्वपूर्ण और आपात स्थिति में वो हर तरह से असमर्थ होकर लगातार अस्पतालों में बने हुए हैं और देश उनके बिना भी चल रहा है, कहीं कुछ रूक नहीं रहा।
जरूरत और उपयोगिता तो सरकार की भी कम नजर आती है जिसे देश में कितने प्रवासी मजदूरों की मृत्यु हुई इस आँकड़े का पता ही नहीं है, जो अर्थव्यवस्था के गिरने को महज भगवान का कार्य कहती है, जिसके पास कोरोना से निबटने के लिए कोई योजनबद्ध कदमों की जगह ताली, थाली, घण्टे जैसे झाड़-फूंक तरीके थे, और जो लगभग सभी सरकारी निकायों को संभालने में पूरी तरह विफल रही, इसलिए उन्हें लगातार बेच रही है।
उपगोगिता तो चौथे खम्बे कहलाए जाने वाले न्यूज मीडिया की भी न के बराबर है जो देश के सभी जरूरी मुद्दों को नजरंदाज करके एक बड़े महत्वपूर्ण काल में महज सिने कलाकारों पर फोकस रखती है।
प्रधानमंत्री ने फिर से सीमा पर सैनिक का वास्ता देकर संसद से एकजुटता का संदेश जाना चाहिए ऐसी गुहार लगाई है, साफ है कि वो बचना चाहते हैं हर उस सवाल से जो उनके लिये असुविधाजनक है, जिन सैनिकों की शहादत के सम्मान में वो सीमा पार के दुश्मन का नाम तक न ले सके आज फिर उनकी दुहाई दे रहे हैं।
यूँ भी अब दुनिया मे हमला करने के तरीके बदल गए हैं, अब हमले बमों से नहीं, सर्वरों से किये जाते हैं, निजता और गोपनीयता को खत्म करने से किए जाते हैं, आपको प्रोफाइल प्रोटेक्शन देने वाला फेसबुक आपके मोबाइल की एक एक गतिविधि का सुराग रखता है, और बेहद राष्ट्रवादी तौर तरीकों के बावजूद ट्रम्प शांति के नोबल के लिये नामित हो जाते हैं। इसलिए आज के युग में इंदिरा गाँधी के ढाई साल के आपातकाल की लगातार दुहाई देने वाली सरकार को अब उन तरीकों की जरूरत नहीं रही, लोकतंत्र पर साफ हमले की जगह घुन ही काफी है, इससे स्पष्ट जिम्मेदारी भी नहीं आती।
जिस तरह लोकतांत्रिक स्तंभों को लगातार कमजोर किया जा रहा है, साफ है इस सरकार का लोकतंत्र में भरोसा इनकी नीयत की ही तरह खोखला है।
अभी का जमाना सोशल मीडिया और उस पर शुरू घमासान का है। उस पर किसी प्रकार का न अंकुश है, न ही मर्यादा। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायमूर्ति रमण ने इस मुद्दे पर बोलते हुए न्यायाधीशों के मन की पीड़ा कही है। दिल्ली में एक पुस्तक विमोचन समारोह में न्यायमूर्ति रमण ने कहा, ‘देश के न्यायाधीश सोशल साइट्स की जननिंदा और तथ्यहीन गॉसिप के शिकार हो रहे हैं।’ कानून ने ही न्यायाधीशों के मुंह को बांध रखा है और ऐसे हालात बने हैं। न्यायाधीश रमण के उद्गार में यह भाव सामने आया। न्यायाधीश रमण ने जो कुछ कहा, वह सही ही है और थोड़े-बहुत फर्क के साथ आज हर क्षेत्र में यही स्थिति है। इसके पहले भी ‘गॉसिप’ होता ही था। पुरातन काल में भी यह अपवाद नहीं रहा। महाभारत के युद्ध में ‘अश्वत्थामा’ नामक हाथी मारा गया या द्रोणपुत्र? इस बारे में धर्मराज युधिष्ठिर ने जो ‘नरोवा कुंजरोवा’ के रूप में अपना पक्ष रखा, वह एक प्रकार से ‘गॉसिप’ जैसा ही था। इसलिए यह सब पहले से ही शुरू है। सिर्फ उसका फैलाव मर्यादित था। जो भी ‘मीडिया’ था, वह आज के जैसा ‘सोशल’ नहीं था इसलिए गॉसिप या खुसुर-फुसुर मर्यादित थी। फिर दूरदर्शन, उसके बाद न्यूज चैनल और मनोरंजन के चैनल शुरू होते गए और सीमित गॉसिप के भी पर निकल आए। अगले पांच-छह वर्षों में तो इन चैनलों के साथ ‘सोशल मीडिया’ भी आ गया और गॉसिपिंग के नाम पर निंदा के घोड़े दौडऩे लगे। उस पर किसी भी प्रकार का अंकुश नहीं रहा। कोई भी मामला हो, सोशल साइट्स और सोशल मीडिया क्रिया-प्रतिक्रियाओं से भरा होना चाहिए, मानो ऐसा नियम ही बन चुका है। इसमें जिम्मेदारी की बजाय अधिकार की बात होने के कारण यहां का हर काम बेकाबू और बेलगाम होता है। गत कुछ दिनों से महाराष्ट्र और मराठी माणुस इसका अनुभव ले रहा है। मुंबई और महाराष्ट्र को सुनियोजित तरीके से बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया का बाकायदा उपयोग किया जा रहा है। इस गॉसिपिंग का और इस तरीके पर आक्षेप लेने पर तुम्हारी वह अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता की काली बिल्ली आड़े आ जाती है। आवाज दबाने का शोर मचाया जाता है।
न्यायाधीश रमण का इशारा सोशल मीडिया पर निरंकुश टीका-टिप्पणी की ओर है। कानूनन हाथ बंधे होने के कारण उसका प्रतिवाद करने में न्याय-व्यवस्था के हाथ बंधे हुए हैं। उन्होंने इस बंधन की भी बात कही है। सोशल साइट्स और मीडिया की खबरों में न्यायाधीशों को झूठे अपराधों का सामना करना होता है। हम बड़े पदों पर हैं इसलिए ‘त्यागमूर्ति’ बनकर झूठी जननिंदा सहन करनी पड़ती है। इसमें कानूनी बंधन होने के कारण खुद का पक्ष भी नहीं रखा जा सकता, ऐसी टीस जब न्यायाधीश रमण जैसे वरिष्ठ न्यायाधीश व्यक्त करते हैं, तब उसके पीछे की बात को समझना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश शरद बोबडे ने भी न्यायाधीश रमण के सुर में सुर मिलाया है और कहा है कि इस त्याग का ध्यान रखते हुए सबको न्याय-व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश की आशा सही ही है।
सरकारी बंधनों के कारण झूठी टीका-टिप्पणी को सहन करना कुछ यंत्रणाओं के लिए अपरिहार्य भले हो, फिर भी सोशल मीडिया पर उधम मचानेवालों को इस अंकुश का गलत फायदा नहीं उठाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायमूर्ति रमण को यही बताना रहा होगा। हालांकि, रमण ने जो टीस व्यक्त की है, वह न्यायाधीशों तक के लिए सीमित भले हो लेकिन आजकल गॉसिपिंग से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। ना क्षेत्र का बंधन है, ना टीका-टिप्पणी की मर्यादा। सोशल मीडिया पर सक्रिय होने वाले सभी लोग सचेत रहते हैं, ऐसा नहीं है बल्कि अधिकतर लोग किसी भी तरह सचेत नहीं रहते। न्यायाधीश रमण द्वारा व्यक्त की गई पीड़ा महत्वपूर्ण साबित होती है। सवाल यह है कि उसे समझते हुए सोशल मीडिया के बेलगाम लोग कुछ समझदारी दिखाएंगे क्या?
मनरेगा में मजदूरी करने के बाद भी आधार या बैंक खाते की जानकारी सही न होने के कारण भुगतान रद्द हो जाता है
- Raju Sajwan
कोरोना आपदा के दौरान महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा पर सरकार ही नहीं, बल्कि ग्रामीणों का भरोसा बढ़ा। अपना पेट भरने के लिए गांवों में पहुंचें प्रवासियों और ग्रामीणों ने मनरेगा का काम भी किया, लेकिन काम करने के बाद भी मजदूरी न मिले तो क्या होगा? आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 2020-21 यानी कोरोना काल में मनरेगा का 123 करोड़ रुपया (लगभग 73 लाख ट्रांजेक्शन) का भुगतान रद्द कर दिया गया है। स्वयंसेवी संगठन पीपुल्स एक्शन फॉर इम्प्लायमेंट जनरेशन गारंटी (पीएइजी) की एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले पांच साल के दौरान मजदूरों का लगभग 1,200 करोड़ रुपया फंसा हुआ है। जिसके बारे में किसी की जवाबदेही नहीं है।
दरअसल, मनरेगा के तहत प्रावधान किया गया है कि मजदूरों को भुगतान मिलने में 15 दिन से अधिक समय नहीं लगना चाहिए। इसलिए व्यवस्था की गई है कि ग्रामीण विकास विभाग के स्थानीय अधिकारी हर सप्ताह जितना काम होता है, उसका एक फंड ट्रांसफर ऑर्डर (एफटीओ) जनरेट करते हैं। यह एक तरह का डिजीटल चेक या पेऑर्डर होता है। यह एफटीओ ऑनलाइन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय से सीधे पब्लिक फंड मेनजमेंट सिस्टम (पीएफएमएस) तक पहुंच जाता है। लेकिन यदि भुगतान की प्रक्रिया “आधार” पर आधारित होती है (जो कि अब लगभग सभी राज्यों में है) तो मजदूरी का भुगतान नेशनल पेमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के माध्यम से मजदूर के बैंक खाते में पहुंच जाता है।
पीएइजी से जुड़े राजेंद्रन बताते हैं कि इस प्रक्रिया के बावजूद मजदूर तक उसकी मजदूरी नहीं पहुंच रही है। जैसे ही, स्थानीय अधिकारी एफटीओ जनरेट किया जाता है, उससे यह मान लिया जाता है कि मजदूर को भुगतान मिलने में देरी नहीं हुई है, लेकिन हकीमत में मजदूर के खाते तक पैसे नहीं पहुंचते हैं। इसकी चार प्रमुख वजह सामने आई हैं। एक, मजदूर के बैंक खाते का नंबर सही नहीं है तो उस भुगतान का एफटीओ जनरेट होने के बावजूद रिजेक्ट कर दिया जाता है। दूसरा, किन्ही कारणों से बैंक खाता फ्रीज कर दिया गया है तो पेमेंट रिजेक्ट कर दी जाती है। तीसरा, बैंक ने खाता बंद कर दिया है तो भी पेमेंट रिजेक्ट कर दी जाती है, लेकिन चौथा सबसे बड़ा कारण यह है कि मजदूर ने जो खाता अपने जॉब कार्ड में दर्शाया है और उस खाते को अपने आधार नंबर से लिंक नहीं किया है तो भी मजदूरों का भुगतान रद्द कर दिया जाता है।
मनरेगा की वेबसाइट पर अपलोड एमआईएस रिपोर्ट बताती है कि वित्त वर्ष 2020-21 में 14 सितंबर 2020 तक 3.04 करोड़ ट्रांजेक्शन जनरेट हुए। इसमें से 73,04,712 ट्रांजेक्शन रिजेक्ट हुए हैं। जो लगभग 123 करोड़ रुपया बनता है।
राजेंद्रन बताते हैं कि उनकी संस्था ने पिछले पांच साल और इस साल के जुलाई माह तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया तो पाया कि हर 23 वें भुगतान (ट्रांजेक्शन) में से एक भुगतान रिजेक्ट हो रहा है और इस अवधि के दौरान लगभग 5 करोड़ ट्रांजेक्शन रिजेक्ट किए गए, जो लगभग 4,800 करोड़ रुपए बनता है। इन ट्रांजेक्शन को रिजनरेट तो किया गया, लेकिन अभी भी लगभग 1,200 करोड़ रुपया मजदूरों का नहीं मिला है। वह कहते हैं कि हालांकि यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं है कि ट्रांजेक्शन रिजनरेट होने के बावजूद मजदूरों को पैसा मिल ही गया होगा। क्योंकि मनरेगा की वेबसाइट पर जो जानकारी दी गई है, उसमें यह तो बताया गया है कि ट्रांजेक्शन रिजेक्ट होने के बाद रिजनरेट कर दी गई है, लेकिन पेमेंट प्रोसेस्ड हो गई है, यह जानकारी उपलब्ध नहीं है।
डाउन टू अर्थ ने भी मनरेगा की एमआईएस रिपोर्ट की जांच की तो पाया कि बार-बार रिजनरेट होने के बाद भी पेमेंट प्रोसेस नहीं हो रही है। हरियाणा के फरीदाबाद जिले के गांव बिजोपुर में गुलिस्ता नामक एक मजदूर ने तालाब खोदने का काम किया। 16 जुलाई 2020 को पहली बार पेमेंट रिजेक्ट हो गई। कारण बताया गया कि जो बैंक खाता दर्शाया गया है, वह खाता है ही नहीं। लेकिन इस खाते का सही कराने की बजाय एक बार फिर से 24 जुलाई 2020 को ट्रांजेक्शन रिजनरेट कर दी गई। जो फिर रिजेक्ट हो गई। एक बार फिर से नौ सितंबर 2020 को ट्रांजेक्शन प्रोसेस की गई और फिर रिजेक्ट कर दी गई। इस बार कारण साफ-साफ लिखा गया कि जो बैंक खाता बताया जा रहा है, वह मैच नहीं कर रहा है। इस तरह 14 सितंबर 2020 तक गुलिस्ता को पैसा नहीं मिला है। जबकि मनरेगा एक्ट के तहत उसे 15 दिन के भीतर मजदूरी मिल जानी चाहिए। (देखें, मनरेगा वेबसाइट का स्क्रीन शॉट)
राजेंद्रन बताते हैं कि ऐसे बहुत से केस हैं। मजदूरों को उनकी मजदूरी का पैसा कई-कई साल से नहीं मिला। दिलचस्प बात यह है कि यह पैसा क्यों नहीं मिल रहा है, इसकी जिम्मेवारी लेने वाला भी कोई नहीं है। मजदूर जब अपनी मजदूरी के लिए सरपंच या स्थानीय अधिकारी के पास जाता है तो उसे बताया जाता है कि उन्होंने तो उसी सप्ताह एफटीओ जनरेट कर दिया था। बैंक में जाता है तो बताया जाता है कि बैंक के पास पैसा आया ही नहीं है। एनपीसीआई, जिसके पास पूरे देश के आधार लिंक्ड बैंक खातों की जानकारी है, उससे कोई सवाल कर नहीं सकता। यानी कि मजदूरों को उनकी मजदूरी मिलेगी या नहीं, इसकी जिम्मेवारी भी तय नहीं है।
24 से 28 अगस्त 2020 के बीच केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा आयोजित परफॉरमेंस रिव्यू कमेटी की वर्चुअल मीटिंग में भी यह मुद्दा उठ चुका है। बैठक में वर्ष 2020-21 में 17 अगस्त 2020 तक रिजेक्ट हुई ट्रांजेक्शन के बारे में बताया गया कि सात राज्यों में 60 फीसदी से अधिक बकाया भुगतान रिजनरेट नहीं हुआ है। इनमें सबसे अधिक मणिपुर में 92 फीसदी, बिहार में 72 फीसदी, ओडिशा में 70 फीसदी, झारखंड में 69 फीसदी और मिजोरम में 66 फीसदी मजदूरी का भुगतान रद्द होने के बाद रिजनरेशन के लिए भेजा गया है।
राजेंद्रन कहते हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान जब कहीं रोजगार नहीं मिल रहा था तो मनरेगा अकेली ऐसी योजना थी, जिसमें लोगों ने यह सोच कर काम किया कि कुछ तो पैसा हाथ में आएगा, लेकिन ऐसे बुरे वक्त में जब पूरा काम करने के बाद भी मजदूरी न मिले तो इन मजदूरों पर क्या बीती होगी? कई बार ऐसा भी होता है कि बैंक खाते का नंबर गलत लिखने के कारण एक सप्ताह की मजदूरी का भुगतान रिजेक्ट कर दिया जाता है, लेकिन अगले सप्ताह फिर उसी गलत खाते का एफटीओ जनरेट कर दिया जाता है, इस तरह अगर वह मजदूर 100 दिन भी काम कर ले तो उसे पूरा पैसा नहीं मिलता। इतना ही नहीं, अगर 15 दिन में भुगतान न मिले तो मनरेगा के तहत मुआवजा देने का प्रावधान है, लेकिन ऐसे मजदूरों को कोई मुआवजा नहीं दिया जाता। वह कहते है कि सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से ले और मजदूरों को उनकी मजदूरी हर हाल में 15 दिन के भीतर मिले, यह व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए।(downtoearth)
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में माना कि संक्रमण तेजी से फैला। हालांकि उन्होंने सामुदयिक प्रसार शब्द के इस्तेमाल से परहेज किया
- DTE Staff
केंद्र सरकार भविष्य में महामारियों से निपटने के लिए 65,560.98 करोड़ रुपए के विशेष व्यय वित्त मेमोरेंडम पर विचार कर रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री हर्षवर्धन ने 14 सितंबर 2020 को लोकसभा में कहा कि प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर स्वस्थ भारत योजना के तहत होने वाले आवंटन से शोध, स्वास्थ्य सेवाओं और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर निवेश सुनिश्चित होगा। खासकर महामारी के प्रबंधन पर जोर दिया जाएगा।
मंत्री ने बताया कि देश अब यात्रा संबंधी मामलों को प्रबंधित करने में कामयाब हो गया है। अब मामले क्लस्टर स्तर पर आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि बड़े पैमाने पर सामने आ रहे मामले स्थानीय ट्रांसमिशन के कारण हैं। उन्होंने बड़े पैमाने पर ट्रांसमिशन की बात स्वीकार की लेकिन कम्युनिटी ट्रांसमिशन शब्द से परहेज किया।
उन्होंने कहा कि संक्रमण शहरों से ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत तेजी से फैला है। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बिहार, तेलंगाना, ओडिशा, असम, केरल और गुजरात में सबसे अधिक मामले और मृत्यु दर्ज की गई है। मंत्री ने बताया कि इन सभी राज्यों ने 1,00,000 से अधिक सामने आए हैं।
मंत्री ने बताया कि भारत में सामने आए मामलों में कम से कम 92 प्रतिशत हल्के लक्षण वाले हैं। उन्होंने कहा कि केवल 5.8 प्रतिशत मामलों में ऑक्सीजन थेरेपी की जरूरत होती है। यह बीमारी मात्र 1.7 प्रतिशत मामलों में गंभीर हो सकती है जिन्हें गहन देखभाल की आवश्यकता होती है।
वैश्विक स्तर पर किए गए दो दर्जन से अधिक अध्ययनों से पता चला है कि मलेरिया रोधी दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का कोविड-19 रोगियों पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है, लेकिन भारत सरकार ने दवा के उपयोग को जारी रखा है।
स्वास्थ्य मंत्री ने कहा, “फार्मास्यूटिकल्स विभाग ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के उत्पादन को कई गुणा बढ़ा दिया। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 11 सितंबर, 2020 तक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की 10.84 करोड़ गोलियां जारी की थीं।”
केंद्रीय आयुष मंत्रालय कोविड-19 की रोकथाम और पोस्ट कोविड रिकवरी प्रोटोकॉल के लिए कई आयुर्वेदिक दवाओं को शामिल कर चुका है। विशेषज्ञों ने कई बार पूछा कि क्या इसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है।
वर्धन के अनुसार, आयुष मंत्रालय ने आयुष-संजीवनी ऐप शुरू किया है। इसके माध्यम से कोविड-19 की रोकथाम में दवाओं की प्रभावशीलता, स्वीकार्यता और उसके उपयोग का मूल्यांकन किया जा रहा है। हालांकि उन्होंने इसके परिणामों पर कुछ नहीं कहा। मंत्री ने मंत्री ने स्वास्थ्य कर्मियों की प्रशंसा की है लेकिन उनके संबंध में कोई घोषणा नहीं की।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने मंत्री को दो बार टोका और उनसे अपना वक्तव्य टेबल करने को कहा क्योंकि पूरा वक्तव्य पढ़ने पर बहुत समय लगेगा। उन्होंने वर्धन को पहली बार तब टोका जब उन्होंने मुश्किल से चार मिनट बोला था। करीब 13 मिनट बाद अध्यक्ष ने फिर उन्हें टोका और अपना भाषण टेबल करने को कहा। हर्षवर्धन के बाद केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को अपनी बात रखने को कहा गया।(downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इसी वर्ष के मार्च और मई में मैंने लिखा था कि कतर की राजधानी दोहा में तालिबान और अफगान-सरकार के बीच जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत की भी कुछ न कुछ भूमिका जरुरी है। मुझे खुशी है कि अब जबकि दोहा में इस बातचीत के अंतिम दौर का उदघाटन हुआ है तो उसमें भारत के विदेश मंत्री ने भी वीडियो पर भाग लिया। उस बातचीत के दौरान हमारे विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे.पी. सिंग दोहा में उपस्थित रहेंगे।
जे.पी. सिंग अफगानिस्तान और पाकिस्तान, इन दोनों देशों के भारतीय दूतावास में काम कर चुके हैं। वे जब जूनियर डिप्लोमेट थे, वे दोनों देशों के कई नेताओं से मेरे साथ मिल चुके हैं। इस वार्तालाप के शुरु में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ ने भी काफी समझदारी का भाषण दिया। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भी जो कुछ कहा, उससे यही अंदाज लगता है कि तालिबान और काबुल सरकार इस बार कोई न कोई ठोस समझौता जरुर करेंगे। इस समझौते का श्रेय जलमई खलीलजाद को मिलेगा। जलमई नूरजई पठान हैं और हेरात में उनका जन्म हुआ था। वे मुझे 30-32 साल पहले कोलंबिया यूनिवर्सिटी में मिले थे। वे काबुल में अमेरिकी राजदूत रहे और भारत भी आते रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि अमेरिकी नागरिक के तौर पर वे अमेरिकी हितों की रक्षा अवश्य करेंगे। लेकिन वे यह नहीं भूलेंगे कि वे पठान हैं और उनकी मातृभूमि तो अफगानिस्तान ही है।
दोहा-वार्ता में अफगान-प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला कर रहे हैं, जो कि अफगानिस्तान के विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उनका परिवार वर्षों से दिल्ली में ही रहता है। वे भारतप्रेमी और मेरे मित्र हैं। इस दोहा-वार्ता में भारत का रवैया बिल्कुल सही और निष्पक्ष है। बजाय इसके कि वह किसी एक पक्ष के साथ रहता, उसने कहा कि अफगानिस्तान में भारत ऐसा समाधान चाहता है, जो अफगानों को पूर्णरुपेण स्वीकार हो और उन पर थोपा न जाए। लगभग यही बात माइक पोंपियों और शाह महमूद कुरैशी ने भी कही है। अब देखना यह है कि यह समझौता कैसे होता है? क्या कुछ समय के लिए तालिबान और अशरफ गनी की काबुल सरकार मिलकर कोई संयुक्त मंत्रिमंडल बनाएंगे ? या नए सिरे से चुनाव होंगे ? या तालिबान सीधे ही सत्तारुढ़ होना चाहेंगे याने वे गनी सरकार की जगह लेना चाहेंगे ?
इसमें शक नहीं कि तालिबान का रवैया इधर काफी बदला है। उन्होंने काबुल सरकार के प्रतिनिधि मंडल में चार महिला प्रतिनिधियों को आने दिया है और कश्मीर के मसले को उन्होंने इधर भारत का आंतरिक मामला भी बताया है। यदि तालिबान थोड़ा तर्कसंगत और व्यावहारिक रुख अपनाएं तो पिछले लगभग पचास साल से उखड़ा हुआ अफगानिस्तान फिर से पटरी पर आ सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
(लेखक, अफगान-मामलों के विशेषज्ञ हैं)
विवेक त्रिपाठी
लखनऊ, 14 सितम्बर (आईएएनएस)| बदलते समय के साथ हिंदी में भी बदलाव हो रहा है। वह नए जमाने के हिसाब से कदमताल करती नजर आ रही है। हिंदी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली तीसरी भाषा है, लेकिन बीते कुछ वर्षों में जिस कदर अंग्रेजी का प्रचार प्रसार हुआ, उसका नुकसान हिंदी को ही हुआ। किताबों में कठिन शब्दों के प्रयोग ने भाषा को जटिल बना दिया है। हालांकि बीते कुछ वर्षों में स्थितियां बदली हैं और युवा लेखकों ने हिंदी कहानियों को सरल हिंदी भाषा में लिखना शुरू किया जिससे हिंदी के पाठक वर्ग का व्यापक विस्तार हुआ है।
प्रकाशकों ने भी युवा लेखकों को तरजीह दी तो एक नई तस्वीर उभर कर आयी है। कुछ ही महीनों में ही इन लेखको की किताबें सर्वश्रेष्ठ विक्रेता बनीं। इतना ही नहीं पाठकों के बीच में उनकी अच्छी छवि भी बनी। जैसे अंग्रेजी के लेखकों से पाठक मिलने और उनके साथ तस्वीर खिंचाने को आतुर रहते हैं ठीक वैसे ही हिंदी के इन नए चेहरों के प्रति दीवानगी देखी जाती है। ये नए चेहरे आज हर साहित्य उत्सव की शान होते हैं।
लेखकों के साथ साथ प्रकाशकों ने भी हिंदी को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाने का काम किया है। राजकमल प्रकाशन, राजपाल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, हिंद पॉकेट बुक्स, हिंद युग्म और रेडग्रैब बुक्स जैसे प्रकाशनों ने युवाओं को जिस तरह तरजीह दी, वह वाकई मील का पत्थर साबित हुई। इन प्रकाशकों ने किताबों का प्रकाशन उसी गुणवत्ता के साथ किया जैसे अंग्रेजी की किताबों का होता है।
हिंदी एक नई राह पर चल निकली है। अभी यह शुरूआत ही है, लंबी दौड़ बाकी है। यह लेखक लिखने के साथ दिखने और बिकने पर भी ध्यान देते हैं और यह अपनी किताबों की भरपूर प्रचार भी करते हैं। हिंदी दिवस के अवसर पर ऐसी ही कुछ लेखकों और उनकी कृतियों के बारे में आपको बता रहे है।
युवा लेखक कुलदीप राघव हिंदी कहानियों में रोमांस और इश्क का तड़का लगा रहे हैं। 'आईलवयू' और 'इश्क मुबारक' जैसी पुस्तकों से उन्होंने युवाओं के दिल में जगह बनाई है। उनकी किताबों को युवाओं ने हाथों हाथ लिया और अमेजन पर नंबर 1 बेस्ट सेलर बनाया। कुलदीप को उनकी कृति के लिए यूपी सरकार की ओर से हिंदुस्तानी अकादमी युवा लेखन पुरस्कार भी मिलने जा रहा है।
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के 'बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' पुरस्कार 2017 से सम्मानित हो चुके लेखक भगवंत अनमोल भी अपने जुदा अंदाज के लिए जाने जाते हैं। उनकी किताब 'जिंदगी 50-50' और 'बाली उमर' खूब चर्चित हैं। बेस्ट सेलर लेखक भगवंत ने 'बाली उमर' में बचपन की यादों को पिरोया तो यह कहानी पाठकों के दिल में उतर गई।
लेखक नवीन चौधरी का उपन्यास 'जनता स्टोरी' खूब चर्चा में रहा है। इस उपन्यास में बीती सदी के अंतिम दशक की छात्र-राजनीति के दांव-पेंच और उन्हीं के बीच पलते और दम तोड़ते मोहब्बत के किस्सों को बहुत जीवंत ढंग से दिखाया गया है।
दर्जन भर ऐसे लेखक है जो हिंदी साहित्य को स्वर्णिम युग की तरफ ले जाने का काम कर रहे हैं। नई वाली हिंदी के लेखक सत्य व्यास की किताब '1984' काफी चर्चित है। यह उपन्यास सन 1984 के सिख दंगों से प्रभावित एक प्रेम कहानी है। यह कथा नायक ऋषि के एक सिख परिवार को दंगों से बचाते हुए स्वयं दंगाई हो जाने की कहानी है।
दिव्य प्रकाश दुबे की 'मुसाफिर कैफ' और 'अक्टूबर जंक्शन' जैसे उपन्यासों को देशभर में सराहा गया। हाल ही में आई उनकी नई किताब 'इब्नेबतूती' को भी पाठकों का प्यार मिल रहा है। सरल भाषा में क्राइम आधारित किताब 'नैना' ने भी खूब चर्चा बटोरी है। लेखक संजीव पालीवाल ने आम बोलचाल की भाषा में कहानी लिखते हुए रोचकता का नया उदाहरण पेश किया।
इसी तरह नीलोत्पल मृणाल की 'डार्क हॉर्स' और 'औघड़', अंकिता जैन की 'ऐसी वैसी औरत' और 'बहेलिए', निशान्त जैन की 'रुक जाना नहीं', अनु सिंह चौधरी की 'नीला स्कार्फ', अणुशक्ति सिंह की 'शर्मिष्ठा', विजय श्री तनवीर की 'अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार', जैसी कहानियों को पाठक पसंद कर रहे हैं।
- नीरज प्रियदर्शी
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घोषणा की है कि अनुसूचित जाति या फिर अनुसूचित जनजाति समुदाय में अगर किसी की हत्या हो जाती है तो उनके परिवार में से किसी एक सदस्य को नौकरी दी जाएगी.
लेकिन विपक्ष का कहना है कि नीतीश सरकार की घोषणाएं दलितों की हत्या को बढ़ावा देने वाली हैं.
इसी घोषणा के आधार पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ मुज़फ़्फ़रपुर के सिविल कोर्ट में मुक़दमा भी दर्ज कराया गया है. जिसमें याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री ने ऐसा कहकर प्रदेश में जातीय उन्माद फ़ैलाने की कोशिश की है. उन्होंने दलितों का अपमान भी किया है.
राज्य में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, दलितों के ख़िलाफ़ अपराधों के मामले में बिहार देशभर में दूसरे नंबर पर है.
नेशनल क्राइम ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार, साल 2018 में बिहार में अनुसूचित जातियों के ख़िलाफ़ अत्याचार के 7061 मामले दर्ज हुए. ये सारे देश में हुए ऐसे मामलों का 16.5 फ़ीसदी है.
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया के मुताबिक़, "बिहार में दलितों पर हो रहे अत्याचार के मामले देश के औसत से काफ़ी अधिक हैं. देश में इनका औसत 21 प्रतिशत है जबकि बिहार में ये आंकड़ा 42 प्रतिशत पर है. यहां ऐसे मामलों में सिर्फ़ चार प्रतिशत लोगों को ही सज़ा हुई है, जो राष्ट्रीय औसत से काफ़ी कम है."
महादलितों की राजनीति
वैसे तो बिहार में अब कोई दलित नहीं है क्योंकि नीतीश कुमार की सरकार ने अपने शासन काल में अनुसूचित जाति के सभी 23 वर्गों को महादलित की श्रेणी में रखकर उनकी 16 फ़ीसदी आबादी को साधने की भरसक कोशिश की है.
जहां तक बात बिहार विधानसभा में दलितों के प्रतिनिधित्व की है तो फ़िलहाल उनके लिए आरक्षित सीटों की संख्या 38 है. इस वक़्त बिहार के दलित नेताओं में रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी का नाम प्रमुख है.
रामविलास पासवान की मजबूती पांच फ़ीसदी दुसाध मतदाता हैं. पिछले कुछ चुनावों के आंकड़े देखें तो दुसाध समुदाय के क़रीब 80 फ़ीसदी वोट रामविलास की पार्टी को ही मिले हैं.
जीतन राम मांझी मुसहर समुदाय से आते हैं जिनकी संख्या दलितों में तीसरे नंबर पर हैं. चुनाव से पहले जीतन राम मांझी को अपने साथ लाने का नीतीश कुमार का फ़ैसला इसकी गवाही देता है. लोजपा से लड़ाई में भी वे दलितों की बड़ी आबादी को साधे रखना चाहते हैं.
दूसरे अन्य समुदायों के भी नेता हैं, जो अभी राजनीति कर रहे हैं. इनमें रविदास समाज के रमई राम, रजक यानी धोबी समुदाय के श्याम रजक, पासी समाज उदय नारायण चौधरी हैं और निषाद अथवा मल्लाह समाज के मुकेश सहनी हैं.
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर बिहार में इस समय के सबसे बड़े दलित चेहरे को लेकर कहते हैं, "इनका कोई सर्वमान्य नेता नहीं है. सबका सिर्फ़ अपने समुदाय पर दावा है. हो सकता है कि वे अपने समुदाय के नेता हों, मगर सबका नेता वही है जो इन नेताओं में से अधिक से अधिक को अपने साथ ले ले. यही हो भी रहा है."
राज्य के सबसे पिछड़े समुदाय का हाल
बिहार के सामाजिक ताने बाने में सबसे पिछड़ी माने जाने वाली जाति है मुसहर या मांझी.
पहाड़ काटकर रास्ता बनाने वाले दशरथ मांझी और राज्य के मुख्यमंत्री बनने वाले जीतनराम मांझी इस समुदाय की सबसे मशहूर हस्तियां हैं.
लेकिन बाक़ी समुदाय सदियों से संघर्ष की ज़िंदगी बसर कर रहा है.
शशिकांत मांझी कोई साल भर पहले जयपुर की एक चूड़ी बनाने की फ़ैक्ट्री में मज़दूरी करने गए थे.
उनकी काम करने की उम्र नहीं थी.
लॉकडाउन में फ़ैक्ट्री बंद हुई तो मालिक ने घर के कामकाज के लिए रख लिया. 12 जुलाई की सुबह काम करते-करते अचानक गिर गए, वहीं उनकी मौत हो गई.
पुलिस ने लावारिस हाल में शव का दाह-संस्कार कर दिया. सूचना मिलने के बावजूद, पिता को बहुत पहले खो चुके शशिकांत की मां उनके शव को आख़िरी बार देखने भी नहीं जा सकीं.
कुछ लोगों ने दान में पैसे दिए तो मां ने प्रतीक के तौर पर पुतला बनाकर जलाया.
मुसहर और बाल श्रम
बिहार में बाल श्रम उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रही संस्था सेंटर डायरेक्ट के सुरेश कुमार कहते हैं, "पूरे बिहार में जितने बाल श्रमिकों को रेस्क्यू करवाकर लाया जाता है उसमें 30 फ़ीसदी के क़रीब मामले गया के होते हैं. इनमें भी 95 फ़ीसदी बच्चे मुसहर समाज के हैं."
गया के बेलागंज प्रखंड के मेन गांव के 13 साल राकेश कुमार को जयपुर की एक चूड़ी फैक्ट्री से इसी लॉकडाउन के दौरान मई में रेस्क्यू करवा कर लाया गया था.
राकेश ने बाल श्रमिक बनकर क़रीब एक साल तक काम किया.
राकेश के पिता बताते हैं, "पिछले साल आई बाढ़ में हमारा घर ढह गया था. हम अपनी पत्नी के साथ हरियाणा में एक ईंट भट्ठे में काम करने चले गए थे. राकेश अपने मामा के घर था. वहीं का एक आदमी कुछ पैसे का लालच देकर उसे बहलाकर ले गया."
ऐसे बच्चों के बीच काम करने वाले विजय केवट कहते हैं कि पड़ोसी ही दो-ढाई हज़ार रुपये एडवांस और हर महीने पैसे भेजने का वादा कर, बच्चों को साथ ले जाते हैं.
तो क्या ऐसे परिवार को प्रधानमंत्री आवास, फ़्री राशन, नल का जल, शौचालय इत्यादि सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता?
राकेश के पिता कहते हैं, "फ़्री राशन के अलावा कुछ नहीं मिला. राशन भी इसलिए मिल गया क्योंकि कोरोना था. उससे पहले कभी नहीं मिला. हम लोग पढ़े लिखे नहीं हैं इसलिए कुछ कर भी नहीं सकते कि मिल जाए और कहने से हमारी बात सुनता कौन है, लोग फटकार कर भगा देते हैं."
उन्हें नहीं मालूम कि सरकार दलित की हत्या होने पर उसके एक परिजन को नौकरी की योजना बना रही है.
इस बारे में बताने पर वो कहते हैं, "सरकार हमको घर और रोज़गार दे दे. मेरे बेटे को पढ़ा-लिखा दे. नौकरी तो मिल ही जाएगी. क्या नौकरी के लिए यह साबित करना पड़ेगा कि मेरे परिवार के आदमी की हत्या हुई है?"
घोषणा पर विपक्ष ने उठाए सवाल
ऐसा नहीं है कि दलित की हत्या होने पर परिवार के सदस्य को नौकरी देने की नीतीश कुमार की घोषणा पर किसी को एतराज़ है.
विपक्ष इस क़दम को समस्या का हल नहीं मान रहा और इसे सीधा आने वाले दिनों में होने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़ रहा है.
बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव सवाल करते हैं, "हत्या होने पर परिजन को नौकरी देने की घोषणा सिर्फ़ एक वर्ग को क्यों? सवर्णों, पिछड़ों और अति पिछड़ों की हत्या पर उनके परिजन को नौकरी क्यों नहीं दी जा सकती है?"
कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल इसे राजनीतिक जुमलेबाज़ी क़रार देते हैं. वो कहते हैं कि ये फ़ैसला कल्याणकारी कम और उकसाने वाला ज़्यादा लगता है.
नीतीश कुमार की सहयोगी लोजपा के अध्यक्ष चिराग पासवान ने नीतीश कुमार को एक पत्र लिखकर राज्य में एससी-एसटी के कल्याण से संबंधित योजनाओं पर शीघ्र अमल करने की मांग की.
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती ने भी ट्वीट के ज़रिए इस फ़ैसले की आलोचना की है.
अपने ट्वीट में उन्होंने लिखा है, "अपने पूरे शासन काल में इस वर्ग की उपेक्षा की गई और अब चुनाव के ठीक पहले एससी-एसटी वर्ग के लोगों को लुभाने की कोशिश की जा रही है. अगर इतनी ही चिंता थी तो अब तक सरकार क्यों सोती रही."
क्या नौकरी का वादा काफ़ी?
विपक्ष की इस आलोचना के बारे में दलितों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ता क्या सोचते हैं?
गैर सरकारी संस्था सेंटर डायरेक्ट के सुरेश कुमार कहते हैं, "इसे हत्या के लिए उकसाना कहना ठीक नहीं. अपनी नौकरी के लिए, किसी अपने की हत्या कर देना अपवाद होता है. इस नियम का मक़सद तो पॉजिटिव है मगर इतना बहुत कम है."
सुरेश कुमार कहते हैं, "ग़रीबी का उल्टा धन नहीं हो सकता. यह समुदाय मानव विकास के सभी सूचकांकों में सबसे पीछे है. सबसे प्रमुख है इस समुदाय की 75 से 80 फ़ीसदी आबादी का निरक्षर होना. सबसे पहले इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए."
शिक्षा की अहमियत को दलित परिवार भी समझ रहे हैं.
कोरोनाकाल में भारत में बढ़ते बाल विवाह
जयपुर की चूड़ी फैक्ट्री से मुक्त करवा कर लाए गए राकेश मांझी जाने से पहले गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे. राकेश ने वापस आकर फिर से पढ़ाई शुरू कर दी है.
हालांकि कोरोना की वजह से स्कूल इन दिनों बंद पड़ा है.
राकेश को विज्ञान में गहरी रूचि है. वे कॉपी निकालकर अपने नोट्स दिखाते हैं, परावर्तन और अपवर्तन के नियम सुनाते हुए कहते हैं, "इसमें जितना लिखा है सब जानता हूं, लेकिन इससे ज़्यादा नहीं क्योंकि मेरे पास किताब नहीं है."
इन सबको शिक्षा के बराबर अवसर मिलें तो नौकरी मिलने की उम्मीद बढ़ ही जाएगी.(bbc)
- Shweta Chauhan
कोरोना महामारी के कारण दुनियाभर की अर्थव्यवस्था बिलकुल ठप्प पड़ चुकी है। लोगों के रोजगार छिन चुके हैं, व्यापार मंदी की मार झेल रहा है, लोगों के हाथों में पैसा नहीं है तो बाज़ारों में मांग भी कम है। लॉकडाउन के बाद धीरे-धीरे खुलने वाले व्यापारों को कारीगर और मज़दूर नहीं मिल रहे क्योंकि लोग अपने-अपने घर को लौट चुके हैं। जो प्रवासी मज़दूर शहरों की ओर दोबारा लौट रहे हैं उन्हें काम नहीं मिल रहा। कई रिपोर्ट में ये दावा किया जा चुका है कि कोरोना के कारण दुनिया की एक बड़ी आबादी गरीबी के मुंह में समा रही है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की माने तो यह महामारी अभी अपने अंतिम चरण में नहीं पहुंची है। कई देशों में कोरोना वायरस की दूसरी लहर भी शुरू हो गई है। इसी संबंध में यूएन वीमेन और सयुंक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के साझा अध्ययन में एक बात सामने आई है जिसके मुताबिक दुनिया के सामाजिक और आर्थिक हालात काफी दयनीय स्थिति में पहुंच सकते हैं।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना महामारी महिलाओं को बहुत ज़्यादा प्रभावित करेगी। कोविड-19 के आने से पहले साल 2019 से 2021 के बीच महिलाओं में गरीबी दर 2.7 फीसद तक घटने का अनुमान लगाया गया था। लेकिन अब महामारी के इस दौर में आई नई रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं की गरीबी में 9.1 फीसद की वृद्धि हुई है। वैश्विक महामारी 2021 तक करीब 9.6 करोड़ लोगों को अत्यधिक गरीबी की ओर धकेल देगी जिनमें से 4.7 करोड़ महिलाएं और लड़कियां होंगी। रिपोर्ट में बताया गया है कि महामारी से दुनिया भर में गरीबी की दर काफी बढ़ी है, लेकिन इसका सबसे अधिक असर महिलाओं और खासकर प्रजनन आयु वर्ग की महिलाओं पर हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक साल 2021 तक, 25 से 34 साल आयु वर्ग में शामिल अत्यधिक गरीबी का सामना करने वाले हर 100 पुरुषों की तुलना में 118 महिलाएं गरीबी का शिकार होंगी। यह अंतर साल 2030 तक प्रति 100 पुरुष पर 121 महिलाओं का हो जाएगा। इसी वजह से दुनिया की एक बड़ी आबादी को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के लिए दशकों में हुई प्रगति फिर से उसी अवस्था में आ पहुंची है।
‘फॉर्म इनसाइट्स टू एक्शन : जेंडर इक्वॉलिटी इन दी वेक ऑफ कोविड-19’ शीर्षक वाली इस रिपोर्ट में दिए गए आंकड़े बताते हैं कि कोविड-19 के कारण 9.6 करोड़ से ज्यादा लोग साल 2021 तक गरीबी रेखा के बिलकुल नीचे चले जाएंगे। इस तरह से कोविड-19 और उसके बाद के सामाजिक-आर्थिक हालातों के कारण दुनिया में गरीब लोगों की संख्या 43.50 करोड़ हो जाएगी।
वैश्विक महामारी 2021 तक करीब 9.6 करोड़ लोगों को अत्यधिक गरीबी की ओर धकेल देगी जिनमें से 4.7 करोड़ महिलाएं और लड़कियां होंगी।
बात अगर हम भारत की करें तो इस कठिन दौर में भारत में रोजगार खोने वालों की संख्या भी काफी अधिक है। ‘एशिया और प्रशांत क्षेत्र में कोविड-19 युवा रोजगार संकट से निपटना’ शीर्षक से आईएलओ-एडीबी द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 41 लाख युवाओं के रोज़गार जाने का अनुमान है। इनमें 7 प्रमुख क्षेत्रों में से निर्माण और कृषि क्षेत्र में लगे लोगों के रोज़गार गए हैं।” इसमें यह भी कहा गया है कि कोविड-19 महामारी के कारण युवाओं के लिए रोज़गार की संभावनाओं को भी बड़ा झटका लगा है। रिपोर्ट के मुताबिक महामारी के कारण 15 से 24 साल के युवा ज्यादा प्रभावित होंगे। इतना ही नहीं आर्थिक और सामाजिक लागत के हिसाब से यह जोखिम दीर्घकालिक और गंभीर है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में महामारी के दौरान कंपनी के स्तर पर दो तिहाई प्रशिक्षण पर असर पड़ा। वहीं तीन चौथाई ‘इंटर्नशिप’ पूरी तरह से बाधित हुई हैं।
रिपोर्ट में सरकारों से युवाओं के लिए रोज़गार पैदा करने, शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रमों को फिर से पटरी पर लाने और 66 करोड़ युवा आबादी के भविष्य को लेकर तुरंत बड़े पैमाने पर कदम उठाने के लिए कहा गया है। कोविड-19 से पहले भी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में युवाओं के सामने रोज़गार को लेकर बड़ी चुनौतियां मौजूद थी। इसी कारण बेरोज़गारी दर भी ऊंची थी और बड़ी संख्या में युवा स्कूल और काम दोनों से बाहर थे। साल 2019 में क्षेत्रीय युवा बेरोजगारी दर 13.8 प्रतिशत थी। वहीं 25 साल और उससे अधिक उम्र के वयस्कों में यह 3 प्रतिशत थी। वहीं, बिजसनस स्टैंडर्ड में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान यानी अप्रैल से लेकर अब तक 2 करोड़ से अधिक वेतनभोगी लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं।
इस बार अर्थव्यवस्था पर संकट 2008 के संकट से कहीं ज्यादा घातक है। अगर इन्हें बचाने के लिए बड़े स्तर पर प्रयास नहीं किये गए तो अमीर और गरीब के बीच का फासला अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाएगा। रिपोर्ट के हिसाब से तो वायरस से लड़ने का एक ही तरीका है, गरीब और अमीर देश मिलकर महामारी का सामना करें। गरीबी के संबंध में आई इस रिपोर्ट में महिलाओं की संख्या इसलिए ज्यादा है क्योंकि महिलाएं अक्सर असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं। खासकर कि विकाशसील देशों में काम कर रही महिलाओं का कार्यक्षेत्र असंगठित है, भारत के संदर्भ में बात करें तो नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमी रिसर्च’ के अनुसार भारत में 97 फीसद महिला मज़दूर असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं। इन महिलाओं के लिए ट्रेड यूनियन एक्ट (1926), न्यूनतम मज़दूरी क़ानून (1948), मातृत्व लाभ क़ानून (1961) और ऐसे कई क़ानून हैं, जो कहीं भी लागू नहीं होते क्योंकि मालिक मजदूरी का कहीं भी सबूत नहीं छोड़ते। वहीं, संगठित क्षेत्र में भी महिलाओं का प्रतिशत अभी काफी कम है और अब इस महामारी ने इन्हें भी ठप्प कर दिया है इसलिए ज़रूरी है कि रोज़गार के लिए सरकार द्वारा कड़े कदम उठाए जाएं।
लॉकडाउन में रह रही यह पीढ़ी आय के स्त्रोत ढूंढ रही है ऐसा कोई क्षेत्र अछूता नहीं जहां इस बीमारी ने अपना प्रकोप न दिखाया हो। वहीं, दुनियाभर में महिलाएं सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए संघर्ष कर ही रहीं थी लेकिन इस महामारी और लॉकडाउन ने उनके इस संघर्ष को दोगुना कर दिया है। फिलहाल अब देखना ये होगा कि सभी देशों की सरकारें इस समस्या से निपटने के लिए किस तरह के समाधान निकालती है।
...जिसे खुद भी सामान्य अर्थों में धर्म नहीं कहा जा सकता
- अशोक वाजपेयी
साधन और सच्चाई
इसमें कोई सन्देह नहीं कि सच्चाई को जानने, दर्ज़ करने और समझने के साधन बहुत बढ़ गये हैं. गतिशीलता भी बहुत बढ़ गयी है. हम चाहें तो बहुत तेज़ी से जान सकते हैं. लेकिन इसके साथ-साथ हमें सच्चाई से विरत करने वाले, हमें भटकाने वाले, हमें सच्चाई के बजाय झूठ बताने वाले साधन भी बहुत बढ़ गये हैं. जो साधन सच्चाई तेज़ी से बताते हैं वही साधन हमें उतनी ही तेजी से झूठ भी दिखा-समझा सकते हैं, रहे हैं. सच और झूठ के बीच जो पारम्परिक स्पर्धा रही है वह हमारे समय में बहुत तीख़ी, तेज़ और कई बार निर्णायक हो गयी है. कई बार तो सच्चाई हम तक पहुंच ही नहीं पाती क्योंकि उसी साधन से अधिक तेज़ी और आक्रान्ति से झूठ पहले आकर बैठ और पैठ जाता है.
यह अद्भुत समय है जब ज़्यादातर झूठ सच्चाई की शक्ल में पेश हो रहा है और उसे मान लेने वाले किसी बेचारगी से नहीं, बहुत उत्साह से ऐसा कर रहे हैं. कई बार लगता है कि सच्चाई जानने-फैलाने के सभी साधन झूठ और फ़रेब ने हथिया लिये हैं और उनसे सच्चाई लगातार अपदस्थ हो रही है. अगर संयोग से एकाध सच्चाई सामने आ भी जाये तो फ़ौरन ही उस पर इतनी तेज़ी से, पूरी अभद्रता और अश्लीलता से, हमले होते हैं कि एक सुनियोजित और बेहद फैला दिया झूठ सच्चाई को ओझल कर देता है. यह नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि अब जितनी तेज़ी से भक्ति फैलती है उतनी तेज़ी से घृणा भी. हम इस समय भक्ति और घृणा के अनोखे गणतन्त्र बन रहे हैं.
सच्चाई से ध्यान हटाने का एक और बेहद कारगर उपाय इन दिनों इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपना रहा है. वह असली मुद्दों को दरकिनार करने के लिए हास्यास्पद ढंग से ग़ैरज़रूरी मुद्दों पर इस क़दर बहस करता, चीखता-चिल्लाता है कि करोड़ों दर्शकों को यह याद भी नही रहता कि हमारे जीवन, समाज और देश के असली विचारणीय और परेशान करने वाले मुद्दे क्या हैं? हमारी आर्थिक व्यवस्था लगभग पूरी तरह से बर्बाद हो गयी है. हमारी शिक्षा व्यवस्था गम्भीर संकट में हैं. हमारी सीमाओं पर चौकसी में कुछ कमी रही है कि चीन ने इतनी घुसपैठ कर दी है और वहां से हटने को तैयार नहीं हो रहा है. कोरोना महामारी के चलते भारत में, दुनिया में सबसे ज़्यादा दैनिक नये मामले सामने आ रहे हैं और उनकी संख्या 45 लाख के करीब पहुंच रही है. निजी अस्पताल इस दौरान पूरी निर्ममता से अनाप-शनाप वसूली कर रहे हैं. हवाई अड्डे और रेलवे के कुछ हिस्से निजी हाथों में सौंपे जा रहे हैं. मंहगाई आसमान छू रही है. पुलिस, संवैधानिक संस्थाओं का राजनैतिक दुरुपयोग चरम पर है. पर इनमें से एक भी मुद्दा हमारे सार्वजनिक माध्यमों पर ज़ेरे-बहस नहीं है. यह आकस्मिक नहीं हो सकता. निश्चय ही इसके पीछे बहुत चतुर-सक्षम दुर्विनियोजन है. यह सवाल उठता है कि क्या सच्चाई इस समय निरुपाय है या कि अन्तःसलिल?
धर्म नहीं विचारधारा
हिन्दुत्व ने भले हिन्दू धर्म के कुछ प्रतीकों, अनुष्ठानों, देवताओं आदि को हथिया लिया है, उसका धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है. वह एक विचारधारा है. लगभग हर विचारधारा की तरह उसे लड़ने के लिए, घृणा करने के लिए, हिंसा करने और नष्ट करने के लिए ‘अन्य’ चाहिये जबकि हिन्दू धर्म के समूचे इतिहास में ऐसे ‘अन्य’ की कोई ज़रूरत या अनिवार्यता नहीं रही है. इस धर्म ने जो वर्णव्यवस्था विकसित की उसमें ऊंच-नीच, अपने-पराये के भाव तो बद्धमूल थे पर अन्ततः शूद्र भी हिन्दू रहे हैं. उनके साथ सामाजिक हिंसा का बेहद बेशर्म इतिहास तो रहा फिर भी वे अगर ‘अन्य’ थे तो धर्म के अन्तर्गत ही थे. इससे बिलकुल उलट हिन्दुत्व को ‘अन्य’ बाहर चाहिये और मुसलमान, ईसाई उसका ‘अन्य’ हैं. हिन्दू धर्म ने, व्यवहार और चिन्तन दोनों में, सदियों अन्य धर्मों के साथ, इस्लाम और ईसाइयत के साथ, गहरा संवाद किया है और उसका लक्ष्य समरसता रहा है, हिन्दुत्व की तरह सत्ता नहीं. फिर हिन्दू धर्मचिन्तन एकतान नहीं रहा है - उसमें लगभग स्वाभाविक रूप से बहुलता रही है, इसका सहज स्वीकार भी. हिन्दुत्व इस बहुलता के अस्वीकार, उसे ध्वस्त करने को अपना धर्म मानता है.
हिन्दुत्व में, विचारधारा होने के कारण और धर्म से कोई गहरा संबंध न होने के कारण, उन तीन धर्मों - बौद्ध, जैन और सिख - की कोई पहचान नहीं है जो हिन्दू धर्म से असहमत होकर स्वतंत्र धर्मों के रूप में पैदा और विकसित हुए. इस तरह से, ऐतिहासिक रूप से, कई सदियों तक ये धर्म हिन्दू धर्म का ‘अन्य’ थे. हिन्दू धर्म की संवादप्रियता के कारण ही भारतीय इस्लाम और भारतीय ईसाइयत काफ़ी बदले, उन्होंने हिन्दू धर्म को प्रभावित किया और स्वयं उससे प्रभावित हुए. भारत में इस्लाम और ईसाइयत अपने मौलिक, अरबी और पश्चिमी संस्करणों से ख़ासे अलग हैं. वे उन धर्मों के भारतीय संस्करण हैं जो इस बहुधार्मिक संवाद का प्रतिफल है. ऐसी कोई समझ हिन्दुत्व में नहीं है. उसकी जो भी समझ है, वह हिन्दू धर्म के इतिहास के विरोध या नकार की समझ है. इसका एक आशय यह भी है कि हिन्दुत्व धर्म नहीं, हिन्दू धर्म का एक कट्टर हिंसक संस्करण नहीं बल्कि उसके नाम का दुरुपयोग कर विकसित हुई विचारधारा है.
इस विचारधारा का भारतीय संस्कृति और परम्परा से भी कोई सम्बन्ध नहीं है, भले वह उनकी दुहाई देती है. भारतीय संस्कृति के कुछ मूल आधार हैं जिनमें बहुलता, परस्पर आदान-प्रदान, संवाद आदि हैं. जिन धर्मों को हिन्दुत्व अपना अन्य मानता है उनके सर्जनात्मक और बौद्धिक अवदान की कोई स्मृति और समझ उसमें नहीं है. भारत में साहित्य, संगीत, ललित कलाएं, भाषा, नृत्य, रंगमंच, स्थापत्य आदि अनेक क्षेत्रों में बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम, ईसाइयत आदि धर्मों का बहुत मूल्यवान और कई अर्थों में रूपान्तरकारी योगदान रहा है.
फिर हिन्दू धर्म पर लौटें जो सामान्य अर्थ में धर्म है ही नहीं. वह एक पैगन व्यवस्था रही है जिसमें बहुदेववाद, एकेश्वरवाद, निराकार ब्रह्म, अनीश्वरवाद आदि सब समाये हुए हैं. हिन्दुत्व इस पैगन संरचना को एक मन्दिर, एक देवता आदि में घटाकर इस धर्म की दरअसल अवमानना कर रहा है. एक और पक्ष विचारणीय है. हिन्दू धर्म में प्रकृति के साथ तादात्म्य और उसे दिव्यता का एक रूप मानने का आग्रह रहा है. इसके लिए ठीक उलट हिन्दुत्व जिस आर्थिक नीति का समर्थक है वह प्रकृति के शोषण और पर्यावरण की क्षति को विकास के लिए ज़रूरी मानती है. प्रकृति की पवित्रता को लगातार क्षत-विक्षत करने वाली इस वृत्ति को हिन्दू धर्म से बेमेल बल्कि उससे गम्भीर विचलन ही कहा जा सकता है.
सभ्यता-बोध
एक ग़ैर सिविल सेवक बन्धु ने मुझसे यह जिज्ञासा की कि भारतीय सिविल सेवाओं में किस तरह का सभ्यता-बोध सक्रिय है. उन्होंने यह जोड़ा कि आधुनिक प्रशासन-व्यवस्था का मूल चीनी राज्य व्यवस्था में विकसित मैंडेरिन रहे हैं जिनके लिए कलाओं में केलिग्राफ़ी, कविता आदि में दक्ष होना तक अनिवार्य माना जाता था. मैं थोड़ा सोच में पड़ गया. 35 वर्ष स्वयं सिविल सेवा में रहने और उसके बाद भी उसके कई सदस्यों से सम्पर्क रहने के कारण मेरा यह अनुभव है कि अधिकांश सिविल सेवकों में कोई अच्छा-बुरा, गहरा-सतही सभ्यता-बोध होता ही नहीं है. उन्हें यह लगता ही नहीं है कि वे जिस सभ्यता के हैं उसके प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी भी है. यह आकस्मिक नहीं है कि उनमें से अधिकांश पश्चिमी सभ्यता के कुछ बेहद सतही अभिप्रायों से प्रेरित रहते हैं और उसी के अनुसार अपनी सफलता का लक्ष्य निर्धारित करते हैं.
भारत जैसे निहायत बहुलतामूलक समाज में, उसके हज़ारों सम्प्रदायों, सैकड़ों भाषाओं और बोलियों, स्थानीय प्रथाओं और स्मृतियों में न तो सिविल सेवकों की दिलचस्पी होती है, न कोई समझ या संवाद. एक कामचलाऊ संस्कृति के लोकप्रिय तत्व जैसे बम्बइया फिल्में, फिल्म संगीत, पॉप संगीत, कैलेण्डर कला, ग़ज़ल गायकी, चालू टेलीविजन आदि से मिलकर उनका सभ्यता बोध बनता है. सिविल सेवा के प्रशिक्षण में इतिहास आदि पढ़ाया तो जाता है पर वह कोई बोध नहीं उपजाता या उकसाता. अलबत्ता जब-तब ऐसे सिविल सेवक मिलते हैं जिनमें, अपवाद स्वरूप, ऐसा बोध होता है. पर उनकी संख्या ख़ासी कम रही है और लगातार कम हो रही है.
इसका एक और पक्ष है. बहुत सारे सिविल सेवक किसी सभ्यता-बोध के अभाव में हिन्दुत्व जैसी घातक विचारधारा को बहुत आसानी से अपना लेते हैं. चूंकि इस विचारधारा ने कुछ पारंपरिक अभिप्राय-अनुष्ठान-प्रतीक आदि हथिया लिये हैं, इस अबोध सिविल सेवा को वह आसानी से आकर्षित कर लेती है. चीनियों से आजकल बड़ी स्पर्धा का माहौल है. उनसे हमने यह सीखा होता कि कैसे सभ्यता-बोध सिविल सेवा के लिए एक अनिवार्य तत्व है तो हम यह स्पर्धा बेहतर ढंग से कर सकते थे.
सिविल सेवा में प्रवेश कड़ी स्पर्धा से मिलता है और उसे कुशाग्रता की सर्वोच्च उपलब्धि माना जाता है. यह विचित्र है कि भारत जैसी संसार की गिनी-चुनी सभ्यताओं में से एक के सबसे कुशाग्र लोग सार्वजनिक सेवा में बिना सभ्यता-बोध के सक्रिय रहते हैं और इसके लिए उनके मन में कोई जिज्ञासा तक नहीं होती.(satyagrah)
हम चाहें या नहीं, कोविड के कारण आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का ढहना तय है और ये अप्रचलित होते जा रहे पुराने बाजार की तरह ही लुप्त हो जाएंगे। आपके पास तमाम ऐसे लोग हैं जो नई तकनीक से वाकिफ नहीं और इसलिए वे हाशिये पर डाल दिए जाएंगे।
- मृणाल पाण्डे
भारत में इतिहास की पहली विश्व प्रसिद्ध महिला विद्वानों में से एक- इरावती कर्वे ने महाभारत युद्ध के अपने अध्ययन, युगांत (1967 में प्रकाशित) में भारत के इतिहास के एक युग के अंत को चित्रित किया है। इस पतली-सी पुस्तक के लेख मूल संस्कृत ग्रंथों पर आधारित हैं और ये एक समाज वैज्ञानिक और मानवविज्ञानी की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि को समेटे हुए हैं। आखिरी निबंध ‘द एंड ऑफ ए युग’ में वह लिखती हैं, “सब बदल गया। सत्य, पराक्रम, कर्तव्यपराणता, भक्तिके आदर्शसब चरम सीमा पर थे। उस समय के लेखकों ने बड़ेही स्पष्टतरीके से जो कुछ भी लिखा, वह आज भी मौजूद है। बेशक पुराना कुछ भी नहीं रहता, लेकिनभाषा तो पुराने को भी सुरक्षित रखती है।”
भीषण युद्ध और महामारी ने अक्सर विद्वानों को अतीत के साहित्य पर गौर करने को प्रेरित किया है जब दुनिया व्यापक बदलाव के दौर से गुजरी। इसलिए मानव इतिहास में चहुं ओर एक काल खंड के अंत का उद्घोष करने वाला कोविड लेखकों को पीछे जाकर राष्ट्रों के रूप में हमारे अतीत की पुन: जांच-परख करने को बाध्यकर रहा है। मार्च, 2020 से अधिकांश भारत लॉकडाउन में है। भीड़भाड़ वाले हमारे कई महानगर वायरस प्रसार के केंद्र बन गए हैं क्योंकि वे मूल रूप से मध्ययुगीन काल के दौरान विकसित हुए। धीमी रफ्तार से खिसकती जिंदगी के उस दौर में दिल्ली, पुणे, लखनऊ, इलाहाबाद और अहमदाबाद कारों और दो-पहिया वाहनों के लिए नहीं बल्कि इंसानों के लिए बसाए गए थे। वास्तुकला के लिहाज से ये शहर आज भी मध्ययुगी नही हैं जो वर्ग, जाति और धर्म के प्रति पुराने दृष्टिकोण को अपनाए हुए हैं।
आज फर्क सिर्फ इतना है कि सड़कें ही बीमार या मरने वालों से पटी नहीं हैं बल्कि रोग और काल के पंजों ने भारतीय समाज और सत्ता के सभी स्तंभों को जकड़ लिया है। 14वीं शताब्दीकी शुरुआत के इटली की तरह हम भी समृद्ध से लेकर निपट गरीब रियासतों-रजवाड़ों का एक समूह थे जो सामंती और औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की बेड़ियों से मुक्त हुआ था। महामारी के प्रकोप से पहले तक मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद और कोलकाता-जैसे शहरों का इस्तेमाल नए वैश्विक पूंजीवाद के बीज को पुष्पित-पल्लवित करने वाले केंद्रके तौर पर, तो गोवा, उत्तराखंड और पांडिचेरी जैसी अन्य जगहों का इस्तेमाल केंद्र थके-मांदे व्यापारियों, सामंती घरानों के वंशजों और नेताओं के परिजनों के लिए पर्यटनस्थल के तौर पर होता था।
लेकिन इन्हीं सकारात्मकता का सायास इस्तेमाल दवा के बारे में भारत के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के खांटी मध्ययुगीन सोच को छिपाने के लिए किया जाता है। ये नेता बीमार और भयभीत लोगों को धड़ल्ले से आयुर्वेदिक उपचारों को आजमाने, गोमूत्र का सेवन करने, कोरोनिल की गोलियां (जिसका किसी भी आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में परीक्षणनहीं हुआ) खाने या फिर बस प्रार्थना करने और अपनी बालकनी में बर्तन पीटने की सलाह देते हैं। लेकिन धीरे-धीरे जिस तरह पूरे देश में कोरोना की यह भयंकर बीमारी फैल चुकी है, होशियार लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई है कि नेताओं और झाड़-फूंक करने वाले लोगों की ज्यादातर सलाह बेकार ही हैं। यहां तक कि प्रशिक्षित डॉक्टर और उनकी एंटी वायरल दवाओं के अक्षय पात्र की महिमा भी पूरी तरह बेकार ही साबित हुई है।
बोकाचियो ने 14वीं सदी में प्लेग की विभीषिका झेल रहे इटली का जिक्र किया है जहां कुछ लोगों ने जीवन के बचे-खुचे सुख को भोग लेने का फैसला किया, अलग-अलग समूहों का गठन किया और खुद को अतिरंजित हास्य और कहानियों (अर्नब याद है? ) के साथ एक दूसरे से अलगकर लिया। दिलचस्प है कि बोकाचियो की विश्वविख्यात हास्य कृति ‘डेकामौरॉन’ की कहानियों की तरह जो अलग- थलग पड़े भयातुर समूहों द्वारा सुनाई जाती हैं, हमारे ज्यादातर सामाजिक समाचार मीडिया ने समाज और कलुष, धर्मपरायणता अथवा अभिभावकीय अनुमति के बारे में पूर्व सोच को जैसे भुला ही दिया है। पंडित-पुजारी से लेकर राजनेता, बॉलीवुड अभिनेता- सबको खुलेआम अनैतिक और पाखंडी बताया जाता है। बाबाओं और झाड़-फूंक करने वाले आम तौर पर मूर्ख, कामुक और लालची होते हैं और उनके मठ-आश्रम नरक के द्वार हैं, जिन्हें लंबे समय तक नहीं खोला जाना चाहिए।
मानकर चलना चाहिए कि कोविड बाद के भारत में वही सब होने वाला है जो मध्ययुगीन यूरोप के उस विनाशकारी कालखंड के बाद हुआ। इटली में राजनीतिक-रूढ़ीवादी-चिकित्सीय प्रतिष्ठानों को उखाड़ फेंकने के बाद अंततः बदलाव की ताजा हवा का प्रवेश हुआ जिसने पुनर्जागरण का आधार रखा और विज्ञान, कला और राजनीतिक विचार के एक शानदार युग की शुरुआत हुई। जब दुनिया कोविड- 19 के लौह-पाश से मुक्त हो जाएगी तब ऐसी ही नाटकीयता देखने को मिल सकती है। हो सकता है कि दवा के क्षेत्र में ऐसा न हो जहां सभी इस वायरस के खिलाफ किसी चमत्कारिक टीके के इजाद की दुआ कर रहे हैं, लेकिन अर्थव्यवस्थाऔर संस्कृति में तो शर्तिया बड़ा बदलाव आने जा रहा है।
ब्लैक डेथ यानी प्लेग-काल का वर्णन करने वाले इतिहास लेखकों ने दर्ज किया है कि कैसे उस समय परिवार व्यवस्था धराशायी हो गई थी। आज भी वैसा ही दिखता है जब तमाम मुश्किलों का सामना करके घर गए प्रवासी अब इस एहसास के साथ वापस हो रहे हैं कि परिवार तो अब वैसा रहा ही नहीं। शहरों में छोटे-सी जगह में लंबे समय से कैद परिवार के सदस्यों की आपस में तीखी झड़प और चरम मनोभावों के तमाम मामले मनोचिकित्सकों के पास आ रहे हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति बीमार और बुजुर्गों की घर से दूर संस्थागत देखभाल की अवधारणा को लेकर भी है। वर्ष 1918 में जब फ्लू ने महामारी का रूप धरा, अंग्रेजों ने अपने परिवारों को पहाड़ों पर भेज दिया। लेकिन तब उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने पहाड़ों में जो दोहरी व्यवस्था बना रखी थी- हिल स्टेशनों में अपने रहने के लिए तो साफ-सुथरे सिविल लाइंस लेकिन गंदगी में जीवन गुजारती स्थानीय आबादी- वह उनके अपने ही स्वास्थ्य के लिए कितनी खतरनाक थी। इसलिए पहले हेल्थ बोर्ड और महामारी कानून तैयार किए गए और ‘साहब’ और उनके खान सामा, धोबियों और नौकरानियों तथा उनके परिवारों के लिए अस्पताल बनाए गए क्योंकि इन लोगों के बिना अंग्रेजों का काम नहीं चलने वाला था।
वापस वर्तमान में आते हैं। अंततः कर्फ्यूहटा लिए गए हैं और सबसे ज्यादा विस्फोटक स्थिति रोजगार क्षेत्र में आने वाली है। हमारे देखते-देखते पूरे सेवा क्षेत्र की जगह ऑनलाइन डिलीवरी सिस्टम ले रहा है। वैसे ही शिक्षा और मनोरंजन भी तेजी से डिजिटल हो रहे हैं। इसलिए पुराने स्टाइल के क्लास, सिनेमा हॉल और रेस्तरां को अलविदा कहने का समय है। पत्रकारों की तरह ही तमाम लोग जब काम पर लौटकर आते हैं तो पता चलता है कि उनके लिए तो काम ही नहीं रहा। प्रिंट मीडिया तेजी से अप्रचलित होता जा रहा है और फिल्मों की धूम-धड़ाके के साथ लॉन्च की जगह ओटीटी (ओवर दिटॉप) लॉन्च ले रहे हैं।
इसलिए हम चाहें या नहीं, कोविड के कारण आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का ढहना तय है और ये अप्रचलित होते जा रहे पुराने बाजार की तरह ही लुप्त हो जाएंगे। आपके पास तमाम ऐसे लोग हैं जो नई तकनीक से वाकिफ नहीं और इसलिए वे हाशिये पर डाल दिए जाएंगे लेकिन मुट्ठीभर नए प्रशिक्षित लोगों को मोटी तनख्वाह मिलेगी। पूंजी और श्रम की वर्तमान स्थिति उस कार की तरह है जो दुर्घटना के बाद अभी पलटियां मारती हुई घिसटती जा रही है। उसमें बैठे किसी को पता नहीं है कि अंततः कौन और कैसे जीवित बचेगा।
अब जरा देखते हैं कि इन स्थितियों से किस तरह के फायदे की संभावना है। उदाहरण के लिए, कॉरपोरेट जीवन का वह पुराना तरीका बदल जाने वाला है जिसमें लोगों को लगातार विभिन्न समय क्षेत्रों की बेतहाशा हवाई यात्रा करनी पड़ती थी। अब आलस के कारण तीसरी दुनिया के देशों को काम आउटसोर्स नहीं होंगे, संदिग्ध हेज फंडों की अल्पावधि जमा नहीं होगी और ‘राजनीतिक कनेक्शन’ के आधार पर दीर्घकालिक बैंक ऋण नहीं दिए जाएंगे। हमारे राष्ट्रीय कृत बैंक ऋण बोझ से दबे हुए हैं। नतो ईश्वरीय प्रारब्ध मानकर इन्हें बंद किया जा सकता है और नही उद्यमशीलता को कला, शिल्पया हाथ से तैयार खिलौनों के आधार पर आत्मनिर्भरता के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है।
जैसा कि जॉनमेनार्ड कींस ने कहा था कि जब आप संकट में होते हैं तो स्वस्थ अर्थव्यवस्था और दृढ़ राजनीति आधारित पहले की नैतिकता की परवाह नहीं करते और इससे संकट और गहरा जाता है। अगर आप नवाब आसफुद्दौला को पसंद करते हैं, तो आप इमामबाड़ा जैसा निर्माण करेंगे। आप बेशक कुछ भी बनाएं लेकिन रोजगार पैदा करें। भारत के शासक वर्ग को वास्तव में पुनर्विचार करना होगा। उन्हें महामारी को नए सोच का प्रेरक बनाना चाहिए। महामारी के पहले से ही अर्थव्यवस्था खस्ताहाल थी और हमारी रेटिंग हर माह गिर रही थी। 1918 में स्पैनिश फ्लू और विश्वयुद्ध में लाखों लोगों की मौत ने सत्याग्रह की रूपरेखा तैयार की, वैसे ही यूरोप में महिलाओं को मताधिकार के आंदोलन ने जन्म लिया। यह संयोग नहीं है कि उन महिलाओं ने गांधी का समर्थन किया, उनकी प्रशंसा की। इन घटनाओं को बदलाव की उन्हीं ताजा हवाओं ने आकार दिया था। दूसरे विश्व युद्ध ने महिलाओं के आंदोलन और गांधीवादी सत्याग्रह- दोनों को तेज किया था। हमें कोविड के इस काल का भी इस्तेमाल सामंती मध्ययुगीन मानसिकता से बाहर निकलने और अभूतपूर्व तरीके से दम तोड़ रही अपनी अर्थव्यवस्था, राज व्यवस्था और समाज-व्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए करना चाहिए। जब तक हम अपनी मरणासन्न अवस्था को स्वीकार नहीं करेंगे, कुछ भी ठीक नहीं होगा।(navjivan)
पूर्व में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम जो कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इन्हें दुरुस्त करने से कौन रोक रहा है।
- आकार पटेल
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर एक ऐसे परिवार से आते हैं जिसमें कई विद्धान हुए। उनके पिता के सुब्रह्मण्यम प्रसिद्ध थिंक टैंक आईडीएसए के संस्थापक और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सलाहकार थे। देश के न्यूक्लियर कार्यक्रम को हथियारबंद करने और बांग्लादेश में सैन्य दखल देने के मामलों में सुब्रह्मण्यम का भी दखल था।
सुब्रह्मण्यम के दूसरे पुत्र और एस जयशंकर के भाई संजय प्राचीन भारतीय इतिहास पर दुनिया के मशहूर विद्धानों में से एक हैं। उन्होंने सूरत (मेरे गृहनगर) के कारोबार और दक्षिण भारत के साथ ही वास्को डा गामा पर भी किताबें लिखी हैं।
मेरे कहने का अर्थ यह है कि डॉक्टर एस जयशंकर (वह पीएचडी हैं) की पृष्ठभूमि वैसी नहीं है जैसी कि मोदी सरकार के और मंत्रियों की है। एस जयशंकर की हाल ही में एक किताब आई है जिसमें उन्होंने कहा है कि तीन ऐसी बातें हैं जिन्होंने देश की विदेश नीति पर बुरा प्रभाव डाला है। पहला है विभाजन, जिससे देश का आकार छोटा हो गया और इससे चीन को हमारे मुकाबले ज्यादा अहमियत मिलने लगी। दूसरा है आर्थिक सुधारों को लागू करने में 1991 तक की देरी, क्योंकि अगर यह सुधार पहले आ गए होते तो हम बहुत पहले एक धनी राष्ट्र बन गए होते। और तीसरा है परमाणु हथियार चुनने में देरी करना। उन्होंने इन तीनों को एक बड़ा बोझ बताया है।
एस जयशंकर जो बाते कह रहे हैं इसके क्या अर्थ निकाले जाएं?
हमें दो अलग-अलग बातों को अलग तरीके से देखना होगा। सबसे पहले देखना होगा कि जो कुछ वे कह रहे हैं, सत्य है या नहीं। भारत के विभाजन से इसके आकार में निश्तित रूप से कमी आई और अगर ऐसा नहीं होता तो भौगोलिक तौर पर हम बहुत बड़े देश होते, जिसका विस्तान बर्मा से लेकर इरान तक होता और हमारी आबादी 1.7 अरब के आसपास होती। इससे आर्थिक तौर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, न ही प्रति व्यक्ति आय या उत्पादकता या किसी अन्य तरह से कोई फर्क पड़ता। पूरा दक्षिण एशिया एक साथ ही विकसित हुआ है। ब्रिटिश काल में भारत का हिस्सा रहे ये तीनों ही देश न तो विकसित देश बन पाए और न ही बाकी दूसरे देश विकासशील बन सके। पाकिस्तान और बांग्लादेश का दौरा करने पर हकीकत सामने आ जाएगी और हालात भारत के ज्यादातर जगहों की तरह ही नजर आएंगे।
दूसरी बात है आर्थिक सुधारों को लागू करने में देरी। एस जयशंकर अर्थशास्त्री तो हैं नहीं, तो यह उनका विषय नहीं है। ऐसे में उनकी बात को सत्य मानने में थोड़ी एहतियात बरतनी होगी। नेहरू के समय की भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता बहुत ज्यादा नहीं थी। हर जगह, खासतौर से भारी उद्योगों के क्षेत्र में सरकारी पूंजी की जरूरत थी। और अगर इसमें सरकारी पूंजी, जिसे हम यूं ही अपना मान लेते हैं. मसलन उच्च शिक्षा आदि के क्षेत्र, का निवेश नहीं हुआ होता तो जाने क्या होता।
हम निजीकरण के कितने ही भजन गा लें, लेकिन आईआईटी और आईआईएम का कोई निजी विकल्प हो ही नहीं सकता। लेकिन यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि इंदिरा गांधी के दौर का लाइसेंस राज सही था। इसलिए एक तरह से आर्थिक सुधारों में देरी के जयशंकर के तर्क को हम हां कह सकते हैं।
तीसरी बात है परमाणु हथियारों का विकल्प, जिसका पहली बार मई 1974 में परीक्षण किया गया। भारत ने परमाणु बम बनाकर धमाका कर दिया था। वैसे यह कोई ऐसी बड़ी बात नहीं थी क्योंकि दक्षिण अमेरिका, यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कई देशों के पास ऐसी क्षमता थी, लेकिन उन्होंने परीक्षण नहीं किया। इससे जुड़ी एक बात यह भी है कि भारत ने परमामणु बम बनाकर अपने अंतरराष्ट्रीय वादों का उल्लंघन किया था। परमाणु बम बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाला जरूरी मटीरियल कनाडा से आया था, जिससे हमने वादा किया था कि इसका इस्तेमाल हम सिर्फ शांतिपूर्ण उद्देश्यों में इस्तेमाल होने वाली परमाणु तकनीक में करेंगे। इंदिरा गांधी ने कहा था कि 1974 का परमाणु परीक्षण शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए था।
हमारे पास अब बीते 45 साल से ये हथियार हैं। इससे हमें क्या फायदा मिला? हम इसका पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल नहीं कर सकते, भले ही हम बीते तीन दशक से कह रहे हैं कि वह आतंकवाद फैलाता है। हम इसका चीन के खिलाफ भी इस्तेमाल नहं कर सकते, जो कि हमारी सीमा में घुस आया है। इस पर बहस हो सकती है कि आखिर इन हथियारों को विकसित करके हमें क्या मिला।
जयशंकर ने इन तीनों को एक बोझ बताते हुए इसका जिम्मेदार कांग्रेस को ठहरा दिया है। आइए देखते हैं कि उनकी अपनी पार्टी ने इन तीनों पर क्या किया और क्या कर रह है। भारत का विभाजन भले ही हो गया, लेकिन पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही हमारे पड़ोसी हैं। वे किसी अफ्रीकी देश में नहीं चले गए हैं। आखिर पूरे उपमहाद्वीप को व्यापार और ट्रैवल के जरिए एकजुट करने से भारत को कौन रोक रहा है। यह हमारा राष्ट्रवाद है। नेपाल के साथ तो बिना वीजा के आना-जाना हम कर सकते हैं लेकिन बांग्लादेश के साथ नहीं। क्यों? अगर हम तय कर लें तो हम वीजा मुक्त यात्रा शुरु कर दक्षिण एशिया को एकजुट कर सकते हैं। लेकिन बीजेपी ऐसा नहीं चाहती।
आर्थिक उदारवाद को लेकर जयशंकर की राय एकदम गलत है। बीजेपी के शासन में भारती का आर्थिक विकास जनवरी 2018 से लगातार नीचे जा रहा है। ऐसा सरकार के आंकड़ों से ही सामने आया है। यानी बीते 6 वर्षों में से ढाई वर्ष तक देश के विकास की रफ्तार में कमी आई है। ऐसा तो समाजवाद या लाइसेंस राज में भी नहीं हुआ था। और इस साल तो अर्थव्यवस्था में ऐसी सिकुड़न होने वाली है जो ऐतिहासिक है। सिर्फ उदारवाद का अर्थ ही आर्थिक विकास नहीं होता है।
जयशंकर तीनों मुद्दों पर जो भी कह रहे हैं वह मुद्दों का बेहद सरलीकरण है। पूर्व में या बीते दशकों में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर हम ऐसा मानते हैं कि इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम आज जो कुछ कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इस सरकार को कौन रोक रहा है इन्हें दुरुस्त करने से। उनकी किताब में इसका कोई जिक्र नहीं है। हो सकता है कि आने वाले वक्त में किसी और किताब में वे ऐसा लिखें।(navjivan)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
स्वामी अग्निवेश अब से 53-54 साल पहले जब कलकत्ता से दिल्ली आए तो रेल से उतरते ही वे मेरे पास दिल्ली के बाराखंबा रोड पर सप्रू हाउस में आ गए। मैं छात्रावास संघ का अध्यक्ष भी था। उन दिनों मेरे पीएच.डी. को लेकर संसद बार-बार ठप्प हो रही थी और सारे अखबारों में उसकी चर्चा मुखपृष्ठों पर छपती रहती थी। उस समय अग्निवेशजी का नाम वेपा श्यामराव था और वे सफेद झक लुंगी और कुर्ता पहने हुए ब्रह्मचारी वेश में थे। उस दिन से कल तक उनसे मेरी घनिष्टता सतत बनी रही। उनका कहना था कि मैं महर्षि दयानंद का भक्त हूं और आप भी हैं तो हम दोनों मिलकर इस भारत देश का नक्शा ही क्यों नहीं बदल दें ? कलकत्ता में वे पं. रमाकांत उपाध्याय के संपर्क में आए और आर्यसमाजी बन गए लेकिन वे इतने स्वायत्त और स्वतंत्रचेता थे कि देश के ज्यादातर आर्यसमाजी लोग उन्हें आर्यसमाजी ही नहीं मानते। असलियत तो यह है कि वे अपने जीवन में आर्यसमाज की सीमाएं भी लांघ गए थे। आर्यसमाज की परंपरागत विधि के पार जाकर वे मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों को भी दयानंद से जोडऩा चाहते थे। उनके कई विचारों और कार्यों से मेरी घोर असहमति बनी रहती थी लेकिन फिर भी उन्होंने मुझसे कभी संपर्क नहीं तोड़ा। उन्होंने अभी सात-आठ महीने पहले एक विश्व आर्यसमाज स्थापित करने का संकल्प किया था, जिसमें वे सभी धर्मों के लोगों को जोडऩा चाहते थे।
वह सम्मेलन दिल्ली में मेरी अध्यक्षता में बुलाया गया था। मैंने इस धारणा को सर्वथा अव्यवहारिक बताया। इसी प्रकार 1970 में शक्तिनगर आर्यसमाज में आर्यसभा (राजनीतिक दल) बनाने का जब प्रस्ताव आया तो मेरी राय थी कि संन्यासियों को राजनीति की कीचड़ में बिल्कुल नहीं धंसना चाहिए। मैं उन्हीं दिनों न्यूयार्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में शोध-कार्य कर रहा था। अग्निवेशजी ने तार भेजकर मुझे जल्दी वापिस भारत आने का आग्रह किया और कहा कि आप, मैं और इंद्रवेशजी साथ-साथ संन्यास लेंगे। संन्यास लेते ही ये दोनों मित्र हरियाणा की राजनीति में कूद पड़े। अग्निवेशजी 1977 में विधायक चुने गए। मैंने राजनारायणी और चौधरी चरणसिंहजी से अनुरोध करके चौधरी देवीलालजी के साथ उन्हें हरयाणा में मंत्री बनवाया। मंत्रिपद से उन्होंने जल्दी ही इस्तीफा दे दिया लेकिन उसके बाद वे सामाजिक आंदोलनों में पूरी तरह से जुट गए। उन्होंने सती-प्रथा, बाल-मजदूरी, अंग्रेजी के वर्चस्व, मूर्ति-पूजा, पाखंड और भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किए। उनके- जैसे सतत आंदोलनकारी संन्यासी भारत में बहुत कम हुए हैं। वे महर्षि दयानंद, स्वामी सहजानंद, सोहम स्वामी, बाबा रामचंद्र और संन्यासी भवानी दयाल की परंपरा के संन्यासी थे। आजकल के राजनीतिक दलों के संन्यासियों से वे अलग थे। झारखंड के पाकुर में उन पर जानलेवा हमला नहीं होता तो वे शायद शतायु हो जाते, क्योंकि वे सर्वथा सदाचारी, शाकाहारी, यम-नियम का पालन करने वाले साहसिक व्यक्ति थे। इसीलिए 81 वर्ष की आयु में भी उनके निधन को मैं असामयिक कहता हूं। उनका महाप्रयाण देश की क्षति तो है ही, मेरी गहरी व्यक्तिगत क्षति भी है। अग्निवेशजी की माताजी कहा करती थीं कि ‘श्याम आपसे उम्र में कुछ बड़ा है लेकिन यह सिर्फ आपकी बात सुनता है।’’ अब उसे कौन सुनेगा ? मेरे अभिन्न मित्र को हार्दिक श्रद्धांजलि!
(नया इंडिया की अनुमति से)
-समरेन्द्र सिंह
दो दिन पहले रघुवंश बाबू के एक पत्रकार मित्र से बात हो रही थी। उनके पत्रकार मित्र मेरे भी मित्र हैं। मैंने ऐसे ही कहा कि राजद ने उनके साथ भी बुरा किया। ऐसा नहीं होना चाहिए था। उन्होंने कहा ये फालतू की बात है। वो चिट्ठी उन्होंने अपनी इच्छा से नहीं लिखी है। वह चिट्ठी लिखवाई गई है। मैंने पूछा कि क्या वो नाराज नहीं थे? उन्होंने कहा कि थोड़ा नाराज तो थे। उनकी उपेक्षा तो हो ही रही थी। पार्टी के फैसलों में उनकी कोई पूछ नहीं थी। राज्यसभा भी किसी और को भेज दिया। लेकिन फिर भी वो चिट्ठी लिखने के पक्ष में नहीं थे। दरअसल, वो गंभीर रूप से बीमार हैं और उनके बचने की उम्मीद बहुत थोड़ी है। मृत्यु के करीब खड़े एक व्यक्ति को भावनात्मक तरीके से ब्लैकमेल करके चिट्ठी लिखवाई गई है। राजनीति के ऐसे अनेक चेहरे हमने देखे हैं। यहां सिर्फ जिंदगी की ही नहीं, मौत का भी सौदा होता है। रघुवंश बाबू ने अपनी जिंदगी लालू यादव के नाम की थी, समाजवादी सिद्धांतों के नाम की थी और अपनी मृत्यु परिवार के नाम कर गए।
रघुवंश प्रसाद सिंह और लालू प्रसाद यादव दोस्त थे। दोस्ती का सीधा संबंध ईमान से होता है। जिस रिश्ते में ईमान नहीं हो, निश्छलता नहीं हो वह और कुछ भी हो सकता है मगर दोस्ती नहीं हो सकती। दोस्त से झगड़ा भी हो जाए तो भी अहित करने का ख्याल नहीं आता है। इसलिए रघुवंश बाबू ने वह चिट्ठी लिखी होगी तब वह कितने बेबस होंगे, कितने मजबूर होंगे, यह सोचा और समझा जा सकता है।
आप उस खत की भाषा देखिए। वह कितनी मर्यादित है। न कोई लांछन है। ना ही कोई शिकायत। बस इतना कि अब साथ नहीं चल सकते और उन लोगों से माफी है जो उनकी दोस्ती और सफर के साक्षी थे।
वो संबंध कितना खूबसूरत होगा कि उसे तोड़ते वक्त भी मर्यादाओं की सीमा याद रह जाए और दोनों तरफ से कोई... वो सीमा पार न कर सके। प्रेम, बंधुत्व और वैचारिक आधार पर बने संबंध ऐसे ही होते हैं। उनमें आह और आंसू के साथ एक मुस्कान भी छिपी होती है। बीते हुए लम्हों की खुशनुमां यादें गुदगुदाती रहती हैं। टूटते वक्त भी बहुत कुछ जोड़े रखती हैं।
ऐसे मर्यादित व्यक्ति की मजबूरी का लाभ उठाने वाले कितने लोभी और मौकापरस्त इंसान होंगे ये अंदाजा भी लगाया जा सकता है। वैसे सियासत में लोभी और मौकापरस्त लोगों की भरमार है। नैतिक और सामाजिक मूल्य कोई अहमियत नहीं रखते। इन मूल्यों को कचरे की पेटी में डाल दिया गया है।
आजाद हिंदुस्तान में गरीबों के लिए दो योजनाएं सबसे चर्चित रही हैं। मनरेगा और मिड डे मील। यह बहस हो सकती है और होनी भी चाहिए कि अतीत में हमने ऐसी क्या तरक्की की, जब हमें मनरेगा जैसी स्कीम लागू करनी पड़े। 2.5-3 रुपये वाली वाली मिड डे मील जैसी योजना चलानी पड़े। लेकिन यह बहस नहीं हो सकती है कि इन योजनाओं से लाभ हुआ है या नहीं हुआ है। यकीनन लाभ हुआ है। करोड़ों परिवारों और करोड़ों बच्चों की सेहत में सुधार भी हुआ है। इनमें से मनरेगा को लागू करने का श्रेय रघुवंश बाबू को जाता है। ऐसी सोच उनके जैसे ही किसी शख्स की हो सकती है, जिसका दिल करुणा और ममत्व से भरा हुआ हो। रघुवंश बाबू अपने दौर के सबसे ईमानदार और प्रतिबद्ध नेताओं में शामिल रहे। नेताओं की यह नस्ल अब समाप्त होने को है।
लालू यादव जी ने अपने दोस्त को अलविदा कहते हुए कहा है कि वो बहुत याद आएंगे। दोस्तों को तो याद रहेंगे इसमें कोई शक नहीं। लेकिन यह जमाना उन्हें बहुत दिन याद रखेगा, इसमें संदेह है। जहां महात्मा गांधी जैसे लोगों को खलनायक बनाकर पेश किया जाता हो, वहां रघुवंश बाबू को भला कौन और कितने दिन याद रखेगा!
लेकिन जिसने जिंदगी अपनी शर्तों पर जी हो, जो सियासत में रहते हुए भद्दे, ओछे और क्रूर सियासी रीति-रिवाजों से बेपरवाह रहा हो ... कोई याद रखे या नहीं रखे उसे इससे फर्क ही कहां पड़ेगा! वो मस्त हवा का एक झोंका था, जो करोड़ों लोगों की जिंदगी में बहार बन कर आया, कुछ पल ठहरा, मुस्कान बिखेरी और चला गया।
अलविदा रघुवंश बाबू! अलविदा! आपको मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!!
-थॉम पूले
शायद ही कोई ऐसा दिन गुज़रता है जब ट्रंप का कोई पुराना सहयोगी ट्रंप पर एक किताब लेकर नहीं आता. ये सब मिलकर ट्रंप के बारे में क्या बताना चाहते हैं?
ट्रंप पर लिखी एक किताब के लेखक से किसी ने पूछा कि क्या इससे पहले ऐसा कोई राष्ट्रपति रहा है?
जवाब था, “मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.”
एक रिएलिटी स्टार और बिज़नेसमैन से राष्ट्रपति बनने का सफ़र किताबों के लिए एक अच्छी कहानी है. यह लेखकों को आकर्षित करती है और ऐसी किताबें आती रहती हैं.
पिछले हफ़्ते वरिष्ठ पत्रकार बॉब वुडवर्ड और ट्रंप के पुराने वकील माइकल कोहन की एक किताब ने सुर्खियां बटोरी.
पत्रकार, परिवार को जानने वाले लोग और ट्रंप के समर्थक लेखकों ने इस दौरान शानदार काम किया है.
यह लेख उन लोगों के बारे में है जो या तो ट्रंप के कैंपेन के दौरान या फिर व्हाइट हाउस में उनके साथ काम कर चुके हैं.

लिस्ट काफ़ी लंबी है
जॉन बॉलटन: ट्रंप के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जिन्हें या तो निकाल दिया गया था या फिर उन्होंने इस्तीफ़ा दिया था– ये इस बात पर निर्भर करती है कि आपने कौन सा वर्ज़न सुना है, ट्रंप के मुताबिक, “वो सरकार के सबसे मूर्ख लोगों” में से एक थे.
जेम्स कॉमी: एफबीआई के पूर्व डायरेक्टर जिन्हें ट्रंप ने निकाल दिया था. ट्रंप ने उन्हें “स्लीज़ बैग”(घटिया) कहकर बुलाया था.
एंड्रयू मैकेब: कॉमी को बाहर का रास्ता दिखाने के कुछ ही दिनों के बाद ट्रंप ने एफबीआई के डिप्टी डायरेक्टर मैक्कैबे को निकाल दिया. ट्रंप ने उन्हें “मेजर स्लीज़बैग” बुलाया था.
एंथनी स्कारामुच: साल 2017 में ट्रंप के बहुत कम वक़्त के लिए कम्युनिकेशन डायरेक्टर थे. अपनी किताब में ट्रंप की तारीफ़ करते हैं, लेकिन बाद में उनके आलोचक बन गए थे.
शॉन स्पाइसर : स्कारामुची के कम्युनिकेशन डायरेक्टर बनाए जाने के बाद स्पाइसर ने इस्तीफ़ा दे दिया था. अपनी किताब में उन्होंने ट्रंप की आलोचना नहीं की है.
सारा सैंडर्स: स्पाइसर के बाद सारा ने पद संभाला और पिछले साल जुलाई तक पद पर बनी रहीं. वो ट्रंप की वफ़ादार थीं और ट्रंप उन्हें ‘योद्धा’ कहते थे.
क्रिस क्रिस्टी: साल 2016 में सबसे पहले ट्रंप की पैरवी करने वाले पहले गवर्नर. वो ट्रंप की ट्रांज़िशन टीम के प्रमुख थे, रिपोर्ट्स के मुताबिक़ ट्रंप के दामाद जैरेड कशनर के कहने पर उन्हें हटा दिया गया. ऐसा माना जाना है कि ट्रंप के चुनावी भाषणों के पीछे उनका बड़ा योगदान था.
ओमारोसा मैनीगॉल्ट न्यूमैन: ट्रंप के टीवी शो द अप्रेंटिस में भाग लेने बाद उनके कैंपेन का हिस्सा बनीं. ट्रंप उन्हें “सभी के द्वारा तिरस्कृत” कहते थे.
अज्ञात: लेखक जो खुद को ट्रंप सरकार के वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं. उन्होंने अपनी पहचान उजागर नहीं की है, ये ज़रूर कहा है कि वो आने वाले समय में सामने आएंगे. हालांकि ट्रंप का कहना हैं वो उनका नाम जानते हैं और उनके मुताबिक़ वो “धोखेबाज़” हैं.
कोरी ल्यूवनडाउस्की: राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ट्रंप के पहले कैंपेन मैनेजर और डिप्टी कैंपेन मैनेजर डेविड बॉसी से साथ मिलकर लिखी किताब में कई सकारात्मक पहलू पेश किए हैं.
क्लिफ़ सिम्स: एक कंज़रवेटिव पत्रकार जिन्होंने कम्युनिकेशन एड की तरह काम किया. इस किताब को जल्दबाज़ी या तारीफ़ में लिखी किताब की तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता. ट्रंप ने उन्हें एक ‘बिख़रा हुआ’ और ‘निचले दर्जे’ का स्टाफ़ कहा था.
ये सभी किताबें पक्षपाती हैं. ज़्यादातर जानकारियां निजी संवादों पर आधारित हैं इसलिए आपके पास लेखक पर भरोसा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. सहानुभूति जताने वालों को माफ़ी मांगने वालों की तरह पेश किया गया है और आलोचकों को बदला लेने वालों की तरह.
लेकिन इन सब को मिलाकर देखें तो हमें क्या मिलता है?
ट्रंप के बारे में लेखकों का मत जो भी हो, एक मुख्य थीम है जो बार-बार नज़र आती है.
स्पाइसर लिखते हैं, “डोनाल्ड ट्रंप से वफ़ादारी को लेकर सख़्त नियम हैं. कोई उन्हें धोखा दे, इससे बुरा उनके लिए कुछ नहीं है.” ल्यूवनडाउस्की और बॉसी के मुताबिक, “वफ़ादारी उनके लिए एक अहम फ़ैक्टर है.”
कोहन की किताब ‘डिस्लॉयल’ और कॉमी की किताब ‘अ हायर लॉयलटी’ का मूल कॉन्सेप्ट यही है. कॉमी की किताब जो उनके अनुभवों से जुड़ी है, थोड़ी लीडरशिप से और थोड़ी चीज़ों को बेनकाब करने से, उसमें वो लिखते हैं कि जब वो एफ़बीआई डायरेक्टर थे तब ट्रंप ने कहा था, “मुझे वफ़ादारी चाहिए, मुझे वफ़ादारी की उम्मीद है.”
कॉमी के मुताबिक़ उन्होंने इनकार कर दिया और वो बहुत दिन उस पद पर कायम नहीं रह सके.
ट्रंप कि अपनी दुनिया में उनके प्रति निष्ठा ही है जिस पर यह फ़ैसला किया जाता है कि कौन रहेगा और राष्ट्रपति किसकी बातें सुनेंगे. कभी-कभी यह पॉलिसी बनाने में भी मददगार साबित होता है.
बॉलटन अपनी किताब में लिखते हैं कि वेनेज़ुएला मामले में ट्रंप ने वहां के विपक्षी नेता जुआन गुऐडो को लेकर कहा था, “मैं चाहता हूं कि वो कहें कि वो अमरीका के प्रति बहुत वफ़ादार हैं, और किसी के प्रति नहीं.”
लेकिन निष्ठावान रहना ट्रंप की दुनिया में एकतरफ़ा है. सिम्स अपनी किताब के आख़िरी चैप्टर में लिखते हैं, “सच यही है कि उनके रिश्तेदारों के अलाना कोई भी कभी भी हटाया जा सकता है.”

ट्रंप एक ‘यूनीकॉर्न’!
अपने प्रति निष्ठा रखने की मांग करने के कारण ही ट्रंप को कई लेखकों ने मॉब बॉस यानी भीड़ का नेता कहा है. जब कई साल क़ानून लागू करने वाली संस्थाओं को देने वाले कॉमी और मैकेब ऐसा कहते हैं तो बात वाजिब लगती है.
अज्ञात लेखक के मुताबिक, ट्रंप एक “12 साल के बच्चे हैं जिन्हें एयर ट्रैफिक कंट्रोल टावर में बैठा दिया गया है.”
कॉमी कहते हैं कि उनका नेतृत्व “जंगल में फैली आग” की तरह है.
ओमारोसा की किताब में तो उन्हें नस्लवादी, कट्टर और महिला विरोधी बताया गया है.
स्पाइसर के मुताबिक ट्रंप एक “यूनिकॉर्न हैं, इंद्रधनुष पर चलने वाले यूनिकॉर्न.”
राष्ट्रपति के साथ रहना...क्या अच्छा था?
ट्रंप के आलोचकों और समर्थकों की किताबों में ट्रंप को लेकर कही गई बातों में बहुत कम समानताएं हैं. लेकिन एक बात है कि वो एक करिश्माई इंसान हैं, तेज़ तर्रार और कुशल राजनीतिक स्किल के साथ. उनके बोलने की अलग स्टाइल, कई बार उनके लिए बड़बोलापन एक तोहफ़ा है.
ल्यूवनडाउस्की और बॉसी के मुताबिक़, “उन्हें पता है कि लोगों से कैसे बात करनी है.”
स्पाइसर के मुताबिक़ उनके पिता कहते हैं, “कई उम्मीदवार कहते हैं कि हम पॉलिसी और बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए लड़ेंगे लेकिन ट्रंप कहते हैं कि हम आपको वापस नौकरियां दिलाएंगे.”
सिम्स कहते हैं कि ट्रंप अपनी जिन ख़ूबियों के बारे में सबसे ज़्यादा बात करते हैं, उनकी ‘एनर्जी’ और ‘स्टैमिना’, वो दरअसल सच हैं. बाक़ी लेखक भी ये बात मानते हैं और शायद इसलिए ही ट्रंप विपक्ष के लोगों को उनके आलस को लेकर हमला करते हैं.
इन लेखकों में से कोई भी नहीं कहता है कि कैमरों के बंद होने के बाद ट्रंप के व्यवहार में कोई बदलाव आता है. सिम्स कहते हैं, “उनका कोई प्राइवेट वर्ज़न नहीं है.”
लेकिन कुछ कहानियां हैं जो बताती हैं कि उनका भी एक दूसरा पहलू है, जैसे कि चुनाव कि रात जब उनके जीतने की ख़बर आई तो वह शांत हो गए थे. कुछ लेखकों ने उनके उन फ़ोन कॉल्स का ज़िक्र किया है, जब वो किसी क़रीबी की मौत के बाद संवेदना प्रकट करते थे, अपने परिवार और सेना के लोगों से लगाव की बातें भी सामने आई हैं.
सैंडर्स बताती हैं कि ट्रंप क्रिसमस के दौरान इराक़ में एक सेना के जवान से मिले तब “सेना के अधिकारी ने बताया कि उसने ट्रंप के कारण फिर से सेना ज्वाइन की.”
उसके जवाब में ट्रंप ने कहा, “और मैं यहां आपकी वजह से हूं.”

…जो बुरा था
इसको इस तरीक़े से कहा जाना चाहिए कि सिर्फ़ स्पाइसर ही ट्रंप को यूनिक़ॉर्न की तरह बताते हैं. ओमारोसा के मुताबिक़, “ट्रंप में संवेदना बिल्कुल नहीं है, इसके पीछे उनकी आत्ममुगधता है. मैकेब उन्हें “सबसे अच्छा झूठ बोलने” वाला बताते हैं.
बॉलटन की किताब को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है क्योंकि ट्रंप सरकार पर लिखने वालों में उनकी सरकार के वो सबसे वरिष्ठ अधिकारी हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर उन्हें कई महत्वपूर्ण मामलों पर अपनी बात रखने का मौक़ा मिला.
अपनी किताब में वो लिखते हैं कि ट्रंप ने दोबारा चुनाव जीतने के लिए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को मदद के लिए कहा. उन्होंने चीन से कहा कि वो अमरीका के मुख्य राज्यों से कृषि उत्पाद ख़रीदें.
बॉलटन अपनी किताब में ये भी लिखते हैं कि ट्रंप, “देश के हित और अपने हित के बीच फ़र्क नहीं कर पा रहे थे.”
कई ऐसे उदाहरण हैं जब ट्रंप किसी चुने हुए नेता नहीं बल्कि तानाशाह से मिलती जुलती हरकतें करने के क़रीब आ गए.
बॉलटन कहते हैं कि “अपनी पसंद के तानाशाहों को निजी फ़ायदा” पहुंचाने की उनकी आदत है और वो उनसे बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं.
उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन की लिखी एक चिट्ठी का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं, “ऐसा लग रहा था कि उसे किसी ऐसे व्यक्ति ने लिखा है जिसे पता है कि कैसे ट्रंप के आत्मविश्वास बढ़ाने वाली नब्ज़ पकड़नी है.” एक समिट में ट्रंप रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ अकेले रहना नहीं चाहते थे.
सिम्स के मुताबिक़, “ट्रंप के लिए हर चीज़ उनके निजी महत्व की है. "वैश्विक मुद्दों पर उन्हें लगता है कि दूसरे देशों के नेताओं के साथ उनके निजी संबंध साझा हितों और भूराजनीतिक मसलों से ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं.” सिम्स कहते हैं कि ट्रंप “अभूतपूर्व योग्यता और आश्चर्यजनक कमियों” वाले व्यक्ति हैं.
‘कोई नहीं चाहता मैं यह बटन दबाऊं’
ट्रंप पर लिखी हर किताब में उनसे जुड़े कुछ किस्से हैं, जैसे कि ओमारोसा लिखती हैं कि ट्रंप ने पूछा था क्या वो उनकी किताब द आर्ट ऑफ़ डील पर शपथ लें – “वो चाहते थे कि मैं विश्वास करूं कि वो मज़ाक कर रहे हैं.”
सैंडर्स लिखती हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति ने उत्तर कोरिया के किम जोंग उन को अपने मुंह को स्वस्थ रखने के नुस्ख़े बताए.
“जब लंच शुरू होने वाला था तो राष्ट्रपति ने किम को मिंट ऑफ़र किया. ‘टिक टैक?’ किम हैरान थे और शायद चिंतित भी कि कहीं यह उन्हें ज़हर देने की कोशिश तो नहीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दें. राष्ट्रपति ने फिर हवा में सांस छोड़ते हुए उन्हें दिलासा दिया कि वो सिर्फ़ एक मिंट था”
लेकिन एक क़िस्सा इन सबसे अच्छा है, जो सिम्स ने लिखा है. उनका कहना है कि राष्ट्रपति के ओवल ऑफ़िस में एक छोटा लकड़ी का बॉक्स रखा होता है जिस पर एक लाल बटन है. ट्रंप अगर किसी को उसे देखते हुए देख लेते हैं तो उसे उठा कर अपने से दूर रखते हुए कहते, “इसकी चिंता मत करो, कोई नहीं चाहता कि मैं इस बटन को दबाऊं.”
“गेस्ट नर्वस हुए हंसते और बातचीत आगे बढ़ती. कुछ मिनटों के बाद ट्रंप अचानक उस बॉक्स को अपने पास लाते हैं और बातचीत के बीच वो बटन दबा देते हैं. वहां मौजूद लोगों को कुछ समझ नहीं आता, वो एक दूसरे को देखने लगते हैं. कुछ ही देर के बाद रुम में एक व्यक्ति एक ग्लास में डाइट कोक लेकर आता है. ट्रंप ज़ोर से हँसने लगते हैं.”
फैशन और कल्चर
ट्रंप ज़्यादातर तस्वीरों में एक लंबी टाई के साथ नज़र आते हैं जो कि उनकी कमर तक होती है. क्रिस्टी के मुताबिक ट्रंप को लगता है कि इससे वो पतले दिखते हैं.
जहां तक उनके अजीब बालों की बात है तो सिम्स कहते हैं कि वो हमेशा अपने पॉकिट में एक हेयर स्प्रे रखते हैं.
ओमारोसा के मुताबिक़ राष्ट्रपति के घर में एक टैनिंग बेड भी है.
दूसरी किताबों के मुताबिक़ ‘गन्स एंड रोज़ेज’ उन्हें “अब तक का सबसे अच्छा म्यूज़िक वीडियो” लगता है और वो एल्टन जॉन की रॉकेट मैन की सीडी उत्तर कोरिया के नेता किम को भेजना चाहते थे.
दस्तावेज़ों और अख़बारों के अलावा उनके किताबें पढ़ने के बारे में ज़्यादा ज़िक्र नहीं है. स्कारामुच ने हालांकि ‘ऑल क्वायट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट' को उनकी पसंदीदा किताब बताया है. ल्यूवनडाउस्की और बॉसी के मुताबिक़ स्विस साइकोलॉजिस्ट कार्ल जंग की आत्मकथा उन्हें बहुत पसंद है.
हमने क्यों काम किया?
वो लोग जो ट्रंप के साथ काम करते थे लेकिन बाद में उनके ख़िलाफ़ हो गए, वो उनके साथ क्यों थे?
ओमारोसा कहती हैं कि ये उनके लिए वफ़ादारी की बात थी. कई तरह की आलोचनाओं के बावजूद एक कम विविधता वाली सरकार में वह एक काली महिला होते हुए काम कर रही थीं.
कुछ लोगों के लिए वफ़ादारी रिपब्लिकन पार्टी के लिए है और एक एजेंडा के लिए है, न कि सिर्फ़ राष्ट्रपति के लिए. सैंडर्स लिखती हैं कि ये कैंपेन से जुड़ने के बारे में था. सारा लिखती हैं, “ये ट्रंप और हिलेरी के बीच चुनने के बारे में थे- या तो देश को बचाएं या नर्क में जाने दें”
बॉलटन कहते हैं कि उन्हें “ख़तरे के बारे में” पता था लेकिन उन्हें लगा कि वो संभाल लेंगे.
ग़लतियां हुई हैं
ट्रंप के स्टाफ के सदस्यों की लिखी गई किताबों में दूसरे स्टाफ़ के सदस्यों पर कई तरह के हमले किए गए हैं. कुछ लोगों का कहना है कि ग़लतियां ग़लत लोगों के ग़लत ज़ॉब में होने का कारण हुईं.
बॉलटन जब व्हाइट हाउस में पहुंचे तब जॉन केली ने उन्हें कहा था कि, “काम करने के लिए यह एक ख़राब जगह है, आपको जल्द ही पता चल जाएगा.”
स्पाइसर और सैंडर्स प्रेस को ज़िम्मेदार मानते हैं. ट्रंप को “मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा कभी उनके अच्छे कामों की तारीफ़ और क्रेडिट नहीं मिला.”
इसके अलावा ट्रंप के कई अधिकारी खुलकर सामने नहीं आए. बॉलटन ने कई बार इस्तीफ़ा देने के बारे में सोचा लेकिन तब तक बने रहे जब तक "तालिबान के साथ बातचीत नहीं बिगड़ी”
कॉमी और मैकेब कहते हैं कि उन्हें इस बात का अफ़सोस है कि वो ट्रंप के सामने कभी खड़े नहीं हुए.
इस साल की वोटिंग
ये किताबें इस साल नवंबर में होने वाले चुनावों के बारे में बहुत कुछ नहीं बतातीं. इनमें से कई इस्तीफ़े की कहानी से शुरू होती हैं. इसलिए ये कहना कि ये व्हाइट हाउस के बारे में बहुत कुछ बताती हैं, सही नहीं होगा. लेकिन हां, कुछ इशारे ज़रूर करती हैं.
ट्रंप अपनी जीत को दोहराना चाहते हैं और ल्यूवनडाउस्की और बोसी की किताब ‘लेट ट्रंप बी ट्रंप’ बताती हैं कि ट्रंप बदलने वालों में से नहीं हैं और पिछली सफलताओं के देखें तो उन्हें बदलना भी नहीं चाहिए.(bbc)
मुंबई पाक अधिकृत कश्मीर है कि नहीं, यह विवाद जिसने पैदा किया, उसी को मुबारक। मुंबई के हिस्से में अक्सर यह विवाद आता रहता है। लेकिन इन विवाद माफियाओं की फिक्र न करते हुए मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित है। सवाल सिर्फ इतना है कि कौरव जब दरबार में द्रौपदी का चीरहरण कर रहे थे, उस समय सारे पांडव अपना सिर झुकाए बैठे थे। उसी तरह का दृश्य इस बार तब देखने को मिला जब मुंबई का वस्त्रहरण हो रहा था। शिवसेना प्रमुख हमेशा घोषित तौर पर कहते थे कि देश एक है और अखंड है। राष्ट्रीय एकता तो है ही लेकिन राष्ट्रीय एकता का ये तुनतुना हमेशा मुंबई-महाराष्ट्र के बारे में ही क्यों बजाया जाता है? राष्ट्रीय एकता की ये बात अन्य राज्यों के बारे में क्यों लागू नहीं होती? जो आता है, वही महाराष्ट्र को राष्ट्रीय एकता सिखाता है। जिस शाहू-फुले-आंबेडकर ने महाराष्ट्र में जन्म लिया, विषमता के खिलाफ लड़े, उन डॉ. आंबेडकर के साथ महाराष्ट्र का बहुजन समाज पूरी ताकत के साथ हमेशा खड़ा रहा, वो क्या एकता की कब्र खोदने के लिए? हमें कोई एकता न सिखाए। महाराष्ट्र में ही राष्ट्र है और महाराष्ट्र मरा तो राष्ट्र मरेगा। ऐसा हमारे सेनापति बापट ने कहा है। लेकिन विवाद खड़ा किया जाता है सिर्फ मुंबई को लेकर। इसमें एक प्रकार का राजनीतिक पेटदर्द है ही। मुंबई महाराष्ट्र की है और रहेगी। संविधान के जनक डॉ. आंबेडकर ने डंके की चोट पर ऐसा कहा है। मुंबई सहित संयुक्त महाराष्ट्र की लड़ाई में वे प्रबोधनकार ठाकरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लडऩे के लिए उतरे। लेकिन जिनका डॉ. आंबेडकर के विचारों से कौड़ी का भी लेना-देना नहीं है, ऐसे दिखावटी अनुयायी हवाई अड्डे पर महाराष्ट्र द्वेषियों का स्वागत करने के लिए नीले रंग का झंडा लेकर हंगामा करते हैं। यह तो आंबेडकर का सबसे बड़ा अपमान है। डॉ. आंबेडकर का अपमान हुआ तो भी चलेगा लेकिन महाराष्ट्र द्वेषियों के साथ कुर्सी गर्म करने को मिल जाए, बस। जब हमारे बीच ही ऐसे नमूने होते हैं तो 106 शहीदों का अपमान करने वाली विकृत शक्ति को बल मिलता है। संयुक्त महाराष्ट्र की लड़ाई में जैसे अन्नाभाऊ साठे और शाहिर अमर शेख जैसे वीर थे तो कुछ आस्तीन के सांप भी थे। लेकिन इससे मुंबई महाराष्ट्र को मिलने से रह गई क्या? लड़ाई की अग्निपरीक्षा में तपकर और निखरकर मुंबई महाराष्ट्र के हिस्से में आई। महाराष्ट्र के दुश्मनों की जय जयकार करनेवालों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए। बॉलीवुड नामक हिंदी सिनेमा जगत का ‘तंबू’ मुंबई में गड़ा और एक उद्योग के रूप में फैला।। इस सिने जगत की नींव दादासाहेब फालके नामक एक मराठी माणुस ने ही रखी थी। मुंबई के हर भाषा के कलाकार आज उस वृक्ष के मीठे फल खा रहे हैं। मुंबई के सिने जगत में और संगीत में नसीब आजमाने के लिए आनेवाले लोग पहले फुटपाथ पर रहते हैं। किसी का नसीब चमक जाने पर इसी मुंबई के जुहू, मलबार हिल और पाली हिल जैसे क्षेत्रों में महल खड़ा करते हैं। इतना तो है कि ये लोग हमेशा मुंबई-महाराष्ट्र के प्रति कृतज्ञ ही रहे। मुंबई की माटी से उन्होंने कभी बेईमानी नहीं की। दादासाहेब फालके को कभी ‘भारत रत्न’ के खिताब से सम्मानित नहीं किया गया। लेकिन उनके द्वारा बनाई गई माया नगरी के कई लोगों को ‘भारत रत्न’ ही नहीं, बल्कि ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ तक का खिताब मिला। मुंबई में कोई भी आए और अपनी प्रतिभा आजमाए। मुंबई का फिल्म उद्योग आज लाखों लोगों को रोजी-रोटी दे रहा है। फिलहाल यहां ‘जलपान गृह’ है, ऐसी टीका-टिप्पणी होती है। वैसे कभी मराठी और कभी पंजाबी लोगों की चलती ही थी। लेकिन मधुबाला, मीना कुमारी, दिलीप कुमार और संजय खान जैसे दिग्गज मुसलमान कलाकारों ने पर्दे पर अपना ‘हिंदू’ नाम ही रखा क्योंकि उस समय यहां धर्म नहीं घुसा था। कला और अभिनय के सिक्के बजाए जा रहे थे। परिवारवाद का आज वर्चस्व है ही। ऐसा उस समय भी था। कपूर, रोशन, दत्त, शांताराम जैसे खानदान से अगली पीढ़ी आगे आई है लेकिन जिन लोगों ने अच्छा काम किया, वे टिके। मुंबई ने हमेशा केवल गुणवत्ता का गौरव किया। राजेश खन्ना किसी घराने के नहीं थे। जीतेंद्र और धर्मेंद्र भी नहीं थे। लेकिन उनके बेटे-नातियों का वही घराना होगा तो उनकी उंगलियां क्यों मरोड़ें? घराना संगीत में होता है। निर्देशन में भी है। इनमें से हर किसी ने मुंबई को अपनी कर्मभूमि माना। मुंबई को बनाने और संवारने में योगदान दिया। पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया या खुद कांच के घर में रहकर दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंका। जिन्होंने फेंका उन्हें मुंबई और महाराष्ट्र का श्राप लगा। मुंबई को कम आंकना मतलब खुद-ही-खुद के लिए गड्ढा खोदने जैसा है। महाराष्ट्र संतों-महात्माओं और क्रांतिकारों की भूमि है। हिंदवी स्वराज्य के लिए, स्वतंत्रता के लिए और महाराष्ट्र के निर्माण के लिए मुंबई की भूमि यहां के भूमिपुत्रों के खून और पसीने से नहाई है। स्वाभिमान और त्याग मुंबई के तेजस्वी अलंकार हैं। औरंगजेब की कब्र संभाजीनगर में और प्रतापगढ़ में अफजल खान की कब्र सम्मानपूर्वक बनानेवाला यह विशाल हृदय वाला महाराष्ट्र है। इस विशाल हृदयवाले महाराष्ट्र के हाथ में छत्रपति शिवाजी महाराज ने भवानी तलवार दी। बालासाहेब ठाकरे ने दूसरे हाथ में स्वाभिमान की चिंगारी रखी। अगर किसी को ऐसा लग रहा होगा कि उस चिंगारी पर राख जम गई है तो वह एक बार फूंक मार कर देख ले!


