विचार/लेख
किसान भाइयों और बहनों,
सुना है आप सभी ने 25 सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया है। विरोध करना और विरोध के शांतिपूर्ण तरीके का चुनाव करना आपका लोकतांत्रिक अधिकार है। मेरा काम सरकार के अलावा आपकी गलतियां भी बताना है। आपने 25 सितंबर को भारत बंद का दिन गलत चुना है। 25 सितंबर के दिन फिल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण बुलाई गई हैं। उनसे नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो नशा-सेवन के एक अतिगंभीर मामले में लंबी पूछताछ करेगा। जिन न्यूज चैनलों से आपने 2014 के बाद राष्ट्रवाद की सांप्रदायिक घुट्टी पी है, वही चैनल अब आपको छोडक़र दीपिका के आने-जाने से लेकर खाने-पीने का कवरेज करेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा आप उन चैनलों से आग्रह कर सकते हैं कि दीपिका से ही पूछ लें कि क्या वह भारत के किसानों का उगाया हुआ अनाज खाती हैं या यूरोप के किसानों का उगाया हुआ अनाज खाती हैं। बस यही एक सवाल है जिसके बहाने 25 सितंबर को किसानों के कवरेज की गुजाइश बनती है। 25 सितंबर को किसानों से जुड़ी खबर ब्रेकिंग न्यूज बन सकती है। वर्ना तो नहीं।
आप भारत बंद कर रहे हैं। आपके भारत बंद से पहले ही आपको न्यूज चैनलों ने भारत में बंद कर दिया है। चैनलों के बनाए भारत में बेरोजगार बंद हैं। जिनकी नौकरी गई वो बंद हैं। इसी तरह से आप किसान भी बंद हैं। आपकी थोड़ी सी जगह अख़बारों के जिला संस्करणों में बची है जहां आपसे जुड़ी अनाप-शनाप ख़बरें भरी होंगी मगर उन खबरों का कोई मतलब नहींं होगा। उन ख़बरों में गांव का नाम होगा, आपमें से दो-चार का नाम होगा, ट्रैक्टर की फोटो होगी, एक बूढ़ी महिला पर सिंगल कॉलम खबर होगी। जि़ला संस्करण का जिक्र इसलिए किया क्योंकि आप किसान अब राष्ट्रीय संस्करण के लायक नहीं बचे हैं। न्यूज चैनलों में आप सभी के भारत बंद को स्पीड न्यूज में जगह मिल जाए तो आप इस खुशी में अपने गांव में भी एक छोटा सा गांव-बंद कर लेना।
25 सितंबर के दिन राष्ट्रीय संस्करण की मल्लिका दीपिका जी होंगी।उस दिन जब वे घर से निकलेंगी तो रास्ते में ट्रैफिक पुलिस की जगह रिपोर्टर खड़े होंगे। अगर जहाज से उडक़र मुंबई पहुंचेंगी तो जहाज में उनके अलावा जितनी भी सीट खाली होगी सब पर रिपोर्टर होंगे। उनकी गाड़ी से लेकर साड़ी की चर्चा होगी। न्यूज चैनलों पर उनकी फिल्मों के गाने चलेंगे। उनके संवाद चलेंगे। दीपिका ने किसी फिल्म में शराब या नशे का सीन किया होगा तो वही दिन भर चलेगा। किसान नहीं चलेगा।
2017 का साल याद कीजिए। संजय लीला भंसाली की फिल्म पद़्मावत आने वाली थी। उसे लेकर एक जाति विशेष के लोगों ने बवाल कर दिया। कई हफ्ते तक उस फिल्म को लेकर टीवी में डिबेट होती थी। तब आप भी इन कवरेज में खोए थे। हरियाणा, मध्यप्रदेश, गुजरात सहित कई राज्यों में इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए हिंसा हुई थी। दीपिका के सर काट लाने वालों के लिए 5 करोड़ के इनाम की राशि का एलान हुआ। वही दीपिका अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो जाएंगी तो चैनलों के कैमरे उनके कदमों को चूम रहे होंगे। उनकी रेटिंग आसमान चूम रही होगी। किसानों से चैनलों को कुछ नहीं मिलता है। बहुत से एंकर तो खाना भी कम खाते हैं। उनकी फिटनेस बताती है उन्हें आपके अनाज की मु_ी भर ही जरूरत है। खेतों में टिड्डी दलों का हमला हो तो इन एंकरों को बुला लेना। एक एंकर तो इतना चिल्लाता है कि उसकी आवाज से ही सारी टिड्डियां पाकिस्तान लौट जाएंगी। आपको थाली बजाने और डीजे बुलाने की जरूरत नहीं होगी।
2014 से आप किसान भाई भी तो यही सब न्यूज चैनलों पर देखते आ रहे थे। जब एंकर गौ-रक्षा को लेकर लगातार भडक़ाऊ कवरेज़ करते थे तब आपका भी तो खून गरम होता था। आपको लगा कि आप कब तक खेती-किसानी करेंगे, कुछ धर्म की रक्षा-वक्षा भी की जाए। धर्म के नाम पर नफरत की अफीम आपको थमा दी गई। विचार की जगह तलवार भांजने का जोश भरा गया। आप रोज न्यूज चैनलों के सामने बैठकर वीडियो गेम खेल रहे थे। आपको लगा कि आपकी ताकत बढ़ गई है। आपके ही बीच के नौजवान व्हाट्स एप से जोड़ कर भीड़ में बदल दिए गए। जैसे ही गौ-रक्षा का मुद्दा उतरा आपके खेतों में सांडों का हमला हो गया। आप सांडों से फसल को बचाने के लिए रात भर जागने लगे।
मैं गिनकर तो नहीं बता सकता कि आपमें से कितने सांप्रदायिक हुए थे मगर जितने भी हुए थे उसकी कीमत सबको चुकानी पड़ेगी। यह पत्र इसलिए लिख रहा हूं ताकि 25 सितंबर को कवरेज होने पर आप शिकायत न करें। आपने इस गोदी मीडिया में कब जनता को देखा है। 17 सितंबर को बेरोजगारों ने आंदोलन किया, वे भी तो आपके ही बच्चे थे। क्या उनका कवरेज हुआ, क्या उनके सवालों को लेकर बहस आपने देखी?
याद कीजिए जब मुजफ्फरनगर में दंगे हुए थे। एक घटना को लेकर आपके भीतर किस तरह से कुप्रचारों से नफरत भरी गई। आपके खेतों में दरार पड़ गई। जब आप सांप्रदायिक बनाए जाते हैं तभी आप गुलाम बनाए जाते हैं। जिस किसी से यह गलती हुई है, उसे अब अकेलेपन की सज़ा भुगतनी होगी। आज भी दो-चार अफवाहों से आपको भीड़ में बदला जा सकता है। व्हाट्स एप के नंबरों को जोड़ कर एक समूह बनाया गया। फिर आपके फोन में आने लगे तरह तरह के झूठे मैसेज। आपके फोन में कितने मैसेज आए होंगे कि नेहरू मुसलमान थे। जो लोग ऐसा कर रहे थे उन्हें पता है कि आपको सांप्रदायिक बनाने का काम पूरा हो चुका है। आप जितने आंदोलन कर लो, सांप्रदायिकता का एक बटन दबेगा और गांव का गांव भीड़ में बदल जाएगा। गांव में पूछ लेना कि रवीश कुमार ने बात सही कही है या नहीं।
भारत वाकई प्यारा देश है। इसके अंदर बहुत कमियां हैं। इसके लोकतंत्र में भी बहुत कमियां हैं मगर इसके लोकतंत्र के माहौल में कोई कमी नहीं थी। मीडिया के चक्कर में आकर इसे जिन तबकों ने खत्म किया है उनमें से आप किसान भाई भी हैं। आप एक को वोट देते थे तो दूसरे को भी बगल में बिठाते थे। अब आप ऐसा नहीं करते हैं। आपके दिमाग से विकल्प मिटा दिया गया है। आप एक को वोट देते हैं और दूसरे को लाठी मार कर भगा देते हैं। आप ही नहीं, ऐसा बहुत से लोग करने लगे हैं। जैसे ही आपकी बातों से विकल्प की जगह खत्म हो जाती है, विपक्ष खत्म होने लगता है। विपक्ष के ख़त्म होते ही जनता खत्म होने लगती है। विपक्ष जनता खड़ा करती है। विपक्ष को मार कर जनता कभी खड़ी नहीं हो सकती है। जैसे ही विपक्ष खत्म होता है, जनता खत्म हो जाती है। मेरी इस बात को गाढ़े रंग से अपने गांवों की दीवारों पर लिख देना और बच्चों से कहना कि आपसे गलती हो गई, वो गलती न करें।
किसानों के पास कभी भी कोई ताकत नहीं थी। एक ही ताकत थी कि वे किसान हैं। किसान का मतलब जनता हैं। किसान सडक़ों पर उतरेगा, ये एक दौर की सख्त चेतावनी हुआ करती थी। हेडलाइन होती थी। अखबार से लेकर न्यूज चैनल कांप जाते थे। अब आप जनता नहीं हैं। जैसे ही जनता बनने की कोशिश करेंगे चैनलों पर दीपिका का कवरेज बढ़ जाएगा और आपकी पीठ पर पुलिस की लाठियां चलने लगेंगी। मुकदमे दर्ज होने लगेंगे। भारत बंद के दौरान आपको कैमरे वाले खूब दिखेंगे मगर कवरेज दिखाई नहीं देगा। लोकल चैनलों पर बहुत कुछ दिख जाएगा मगर राष्ट्रीय चैनलों पर कुछ से ज्यादा नहीं दिखेगा। अपने भारत बंद के आंदोलन का वीडियो बना लीजिएगा ताकि गांव में वायरल हो सके।
आपको इन चैनलों ने एक सस्ती भीड़ में बदल दिया है। आप आसानी से इस भीड़ से बाहर नहीं आ सकते। मेरी बात पर यकीन न हो कोशिश कर लें। मोदी जी कहते हैं कि खेती के तीन कानून आपकी आजादी के लिए लाए गए हैं। इस पर पक्ष-विपक्ष में बहस हो सकती है। बड़े-बड़े पत्रकार जिन्होंने आपके खेत से फ्री का गन्ना तोड़ कर खाते हुए फोटो खींचाई थी वे भी सरकार की तारीफ़ कर रहे हैं। मैं तो कहता हूं कि क्यों भारत बंद करते हैं, आप इन्हीं एंकरों से खेती सीख लीजिए। उन्हीं से समझ लीजिए।
शास्त्री जी के एक आह्वान पर आपने जान लगा दी। उन्होंने एक नारा दिया जय जवान-जय किसान। उनके बाद से जब भी यह नारा लगता है कि किसान की जेब कट जाती है। नेताओं को पता चल गया कि हमारा किसान भोला है। भावुकता में आ जाता है। देश के लिए बेटा और अनाज सब दे देगा। आपका यह भोलापन वाकई बहुत सुंदर है। आप ऐसे ही भोले बने रहिए। सब न्यूज चैनलों के बनाए प्यादों की तरह हो जाएंगे तो कैसे काम चलेगा। बस जब भी कोई नेता जय जवान-जय किसान का नारा लगाए, अपने हाथों से जेब को भींच लीजिए।
आप तो कई दिनों से प्रदर्शन कर रहे हैं। न्यूज चैनल चाहते तो तभी बहस कर सकते थे। बाकी किसानों को पता होता कि क्या कानून आ रहा है, क्या होगा या क्या नहीं होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने तो कहा था कि न्यूज चैनल और अखबार खरीदना बंद कर दें। वो पैसा आप प्रधानमंत्री राहत कोष में दे दें। आप माने नहीं। जो गुलाम मीडिया का खऱीदार होता है वह भी गुलाम ही समझा जाता है। वैसे मई 2015 में प्रधानमंत्रीजी ने आपके लिए किसान चैनल लांच किया है। उम्मीद है आप वहां दिख रहे होंगे।
पत्र लंबा है। आपके बारे में कुछ छपेगा-दिखेगा तो नहीं इसलिए भी लंबा लिख दिया ताकि 25 तारीख को आप यही पढ़ते रहें। मेरा यह पत्र खेती के कानूनों के बारे में नहीं है। मेरा पत्र उस मीडिया संस्कृति के बारे में हैं जहां एक फिल्म अभिनेता की मौत के बहाने बालीवुड को निशाने बनाने का तीन महीने से कार्यक्रम चल रहा है। आप सब भी वही देख रहे हैं। आप सिर्फ यह नहीं देख रहे हैं कि निशाने पर आप हैं।
-रवीश कुमार
राज्यसभा में विपक्ष की अनुपस्थिति में तीन श्रम विधेयकों को मंजूरी दे दी गई
- DTE Staff
राज्यसभा में 23 सितंबर 2020 को श्रम कानून से जुड़े तीन अहम विधेयक भी पास हो गए। लोकसभा में इन्हें 22 सितंबर को पास किया गया था। ये तीनों श्रम कानून उन चार कोड का हिस्सा हैं, जिन्हें श्रम मंत्रालय ने 29 केंद्रीय श्रम कानूनों को समेकित करने के लिए तैयार किया था। संसद ने 2019 में मजदूरी पर इस कोड को पारित किया था, जिसे बाद में सरकार ने अधिसूचित किया था।
23 सितंबर को राज्यसभा ने जिन तीन विधेयक को पास किया, उनमें सामाजिक सुरक्षा बिल 2020, आजीविका सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता बिल 2020 और औद्योगिक संबंध (इंडस्ट्रियल रिलेशंस) संहिता बिल 2020 शामिल हैं। हालांकि विपक्षी दलों ने इनका विरोध किया और उनकी गैर-मौजूदगी में इन विधेयक को मंजूरी दे दी गई।
इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड के तहत कंपनियों को भर्ती और छंटनी को लेकर ज्यादा अधिकार दिए गए हैं। अभी के श्रम कानून के मुताबिक 100 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों को छंटनी या यूनिट बंद करने से पहले सरकार की मंजूरी नहीं लेनी पड़ती है, लेकिन अब नए विधेयक में यह सीमा बढ़ाकर 300 कर्मचारी कर दी है। इसका आशय यह है कि जिन कंपनियों में 300 तक कर्मचारी हैं, उन्हें कर्मचारियों की भर्ती या छंटनी के लिए श्रम विभाग की इजाजत लेने की जरूरत नहीं होगी। इसका फायदा बड़ी कंपनियों को मिलेगा, वे कर्मचारियों की छंटनी करने के अलावा कंपनी बंद करना भी आसान होगा। इसके अलावा नए विधेयक में राज्य सरकारों को अपनी जरूरत के अनुसार इस संख्या को बढ़ाने की शक्तियां भी प्रदान की गई हैं।
राज्यसभा में विधेयक के बारे में जानकारी देते हुए केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने कहा कि इससे बड़ी फैक्ट्रियों को निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा। साथ ही, कंपनी ज्यादा कर्मचारी रखेंगी, क्योंकि इस कानून से बचने के लिए कई कंपनियां 100 से अधिक कर्मचारियों की भर्ती नहीं करती थी। इसके अलावा विधेयक में फिक्स्ड-टर्म इम्प्लॉयमेंट को कानूनी वैद्यता देने की बात कही गई है। साथ ही, कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स के छंटनी के नियमों को भी आसान किया गया है।
श्रम मंत्री ने कहा कि सभी वर्कर्स को किसी न किसी प्रकार से सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने के लिए सामाजिक सुरक्षा संहिता बिल पारित किया गया है। इसमें असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले वर्कर्स को सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई है।
इसके अलावा आजीविका सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता बिल के तहत सरकार ने स्टाफिंग कंपनियों के लिए एकल लाइसेंस की अनुमति दी जाएगी। अनुबंध (कांट्रेक्ट) पर श्रमिकों को काम पर रखने के लिए इसकी जरूरत पड़ती है। पहले इसके लिए कई लाइसेंस लेने पड़ते थे, लेकिन अब इसमें बदलाव किया गया है। इसके अलावा अनुबंध पर काम करने वाले कर्मचारियों की सीमा 20 से बढ़ाकर 50 कर दी गई है। इससे सभी क्षेत्रों में ठेके पर काम पर रखने में नियोक्ताओं को आसानी होगी।(downtoearth)
विलुप्ति की टाइमिंग बताती है कि उनका गायब होना एक नई प्रजाति के उदय का नतीजा हो सकती है। यह प्रजाति थी होमो सेपियंस
निक लॉन्गरिच
तीन लाख साल पहले धरती पर मनुष्यों की 9 प्रजातियों का प्रादुर्भाव हुआ। वर्तमान में केवल एक प्रजाति ही बची है। इनकी एक प्रजाति थी होमो निअंडरथलेंसिस जिसे निअंडरथल्स के नाम से जाना जाता था। ये नाटे शिकारी थे और यूरोप के ठंडे मैदानों में रहने के अभ्यस्थ थे। इसी तरह डेनिसोवंस प्रजाति एशिया में रहती थी जबकि आदिम प्रजाति होमो इरेक्टस इंडोनेशिया और होमो रोडेसिएंसिस मध्य अफ्रीका में पाई जाती थी। इनके समानांतर कम ऊंचाई और छोटे मस्तिष्क वाली मनुष्यों की अन्य प्रजातियां भी थीं। दक्षिण अफ्रीका में होमो नलेदी, फिलीपींस में होमो लूजोनेंसिस, इंडोनेशिया में होमो फ्लोरेसिएंसिस (होबिट्स) और चीन में रहस्यमय रेड डियर केव प्रजाति के मानव होते थे। जिस तरह से हमें बहुत जल्दी नई-नई प्रजातियों का पता चल रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि अभी और प्रजातियों की जानकारी सामने आएगी।
उपरोक्त प्रजातियां करीब 10 हजार साल पहले खत्म हो गईं। इन प्रजातियों की विलुप्ति को मास एक्सटिंग्शन यानी व्यापक विलुप्ति के रूप में देखा जा रहा है। क्या ये विलुप्ति प्राकृतिक कारकों जैसे ज्वालामुखी फटने, जलवायु परिवर्तन या एस्टोरॉइड प्रभाव का नतीजा थी? यह कहना मुश्किल है क्योंकि अब तक इसके प्रमाण नहीं मिले हैं। मनुष्यों की विलुप्ति की टाइमिंग बताती है कि उनका गायब होना एक नई प्रजाति के उदय का नतीजा हो सकती है। यह प्रजाति 2,60,000-3,50,000 साल पहले दक्षिणी अफ्रीका में पनपी और इसका नाम था होमो सेपियंस। आधुनिक मानव इसी प्रजाति से ताल्लुक रखता है। ये मानव अफ्रीका से निकलकर दुनियाभर में फैल गए और छठी विलुप्ति का कारण बने। करीब 40 हजार साल पहले हिमयुग के स्तनधारियों की समाप्ति से वर्षा वनों के नष्ट होने के बाद इसकी शुरुआत हुई थी। ऐसे में क्या कहा जा सकता है कि छठी विलुप्ति के पहले शिकार मनुष्य बने?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम बेहद खतरनाक प्रजाति हैं। हमने विशालकाय ऊनी हाथी मैमथ, ग्राउंड स्लोथ और विशाल पक्षी मोआ का इतना शिकार किया कि वे खत्म हो गए। हमने जंगलों और वनों को खेती के लिए बर्बाद कर दिया। हमने आधी से अधिक धरती की तस्वीर बदलकर रख दी। हमने धरती की जलवायु में तब्दीली कर दी। हम मनुष्यों की दूसरी प्रजातियों के लिए सबसे खतरनाक साबित हुए क्योंकि हम संसाधनों और जमीन के भूखे हैं। इतिहास इसका गवाह है। हमने युद्धों से असंख्य लोगों को विस्थापित किया और उनका नामोनिशान तक मिटा दिया। चाहे प्राचीन कार्थेज शहर में रोम द्वारा किया गया विनाश हो या पश्चिम में अमेरिकी जीत अथवा ऑस्ट्रेलिया पर ब्रिटेन का कब्जा। हाल की बात करें तो बोस्निया, रवांडा, ईराक, दरफूर और म्यानमार का संदर्भ लिया जा सकता है जहां अलग मतावलंबियों का बड़े पैमाने पर नरसंहार हुआ। नरसंहार में शामिल होना मानव की प्रवृत्ति रही है। इसलिए यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि शुरुआती होमो सेपियंस कम प्रादेशिक, कम हिंसक और कम असहनशील थे। दूसरे शब्दों में कहें तो उनमें मानवीय गुण कम थे।
बहुत से आशावादियों ने शुरुआती शिकारियों और संग्रहकर्ताओं को शांति चाहने वाले व सभ्य समाज के रूप में चित्रित किया है। उनकी दलील है कि प्रकृति के बजाय हमारी संस्कृति हिंसा के लिए जिम्मेदार है। लेकिन फील्ड अध्ययन, ऐतिहासिक घटनाक्रम और पुरातत्व विज्ञान बताता है कि शुरुआती सभ्यताओं में होने वाले युद्ध भीषण, व्यापक और खतरनाक होते थे। गुरिल्ला युद्ध में नवपाषाण (न्यूलिथिक) के औजार जैसे डंडे, बरछी, कुल्हाड़ी, धनुष आदि बड़े विनाशक साबित होते थे। इन समाजों में पुरुषों की मौत का मुख्य कारण ऐसे हिंसक संघर्ष थे। ऐसी हिंसाओं में प्रथम और दूसरे विश्वयुद्ध से अधिक मौतें हुई हैं। प्राचीन हड्डियां और कलाकृतियां बताती हैं कि ऐसी हिंसा प्राचीन काल से हो रही है।
“केनेविक मैन” नामक किताब में उत्तरी अमेरिका के केनेविक शहर में मिले एक ऐसे कंकाल का अध्ययन किया गया है जिसके कूल्हे में भाले का अगला हिस्सा टूटा मिला है। यह कंकाल करीब 9,000 साल पुराना है। केन्या का 10,000 साल पुराना एक ऐतिहासिक स्थल नटारुक कम से कम 27 महिलाओं, पुरुषों और बच्चों की निर्मम हत्या की गवाही देता है। अत: यह मानना संभव नहीं है कि मनुष्यों की दूसरी प्रजातियां शांतिप्रिय थीं। पुरुषों की संयुक्त रूप से होने वाली हिंसा बताती है कि युद्ध के साथ मनुष्यों का विकास हुआ है। निअंडरथल के कंकाल युद्ध कौशल दर्शाते हैं यानी उनके शरीर की बनावट युद्ध में शामिल होने की प्रवृति को इंगित करती है। बाद में परिष्कृत हथियारों ने होमो सेपियंस को सैन्य लाभ दिया। शुरुआती होमो सेपियंस के हथियारों में जावलिन, भाले, तीर व डंडे शामिल थे। उन्नत हथियारों ने बड़ी संख्या में जानवरों का शिकार करने और पौधों को काटने में मदद पहुंचाई। इससे बड़ी संख्या में लोगों को भोजन उपलब्ध हो सका और हमारी प्रजाति को अपनी संख्या बढ़ाने में रणनीतिक मदद मिली।
श्रेष्ठ हथियार
गुफाओं में बनी चित्रकारी, नक्काशियां और संगीत के यंत्र एक बेहद खतरनाक संकेत देते हैं। वह संकेत है अपने विचारों को व्यक्त करने और संचार की बेहतर क्षमता। सहयोग करना, योजना बनाना या रणनीति बनाना, चालाकी और धोखा देना हमारे उत्तम हथियार बन गए। जीवाश्म रिकॉर्ड अधूरे होने की वजह से इन विचारों को ठीक से नहीं परखा जा सका है। लेकिन यूरोप एक ऐसा स्थान है, जहां तुलनात्मक रूप से पूर्ण पुरातात्विक रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। यहां के जीवाश्म रिकॉर्ड बताते हैं कि हमारे आने के कुछ हजार सालों में ही निअंडरथल्स विलुप्त हो गए। यूरेशियन लोगों में निअंडरथल्स के डीएनए के कुछ अंश मिले हैं जो बताते हैं कि उनकी विलुप्ति के बाद हमने केवल उनका स्थान ही नहीं लिया बल्कि हम मिले और हमारा मिलन होता गया। यानी हम अपनी संख्या दिन दूनी, रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ाते गए।
अन्य कुछ डीएनए भी आदिम प्रजातियों से हुए हमारे संपर्क पर रोशनी डालते हैं। पूर्वी एशियाई, पोलिनेशियन और ऑस्ट्रेलियाई समूहों के डीएनए डेनिसोवंस के मेल खाते हैं। बहुत से एशियाई लोगों में होमो इरेक्टस प्रजाति के डीएनए मिले हैं। अफ्रीकी जीनोम अन्य आदिम प्रजातियों के डीएनए पर रोशनी डालते हैं। ये तथ्य साबित करते हैं कि दूसरी प्रजातियां हमसे संपर्क में आने के बाद ही खत्म हुईं। ऐसे में सवाल उठता है कि हमारे पूर्वजों ने अपने रिश्तेदारों को खत्म क्यों किया और मास एक्सटिंग्शन का कारण क्यों बने? क्या यह व्यापक नरसंहार था? इस प्रश्न का उत्तर जनसंख्या की वृद्धि में निहित है। मनुष्य बहुत तेजी से अपनी संख्या बढ़ाते हैं। अगर हम प्रजनन पर लगाम न लगाएं तो हर 25 साल में अपनी संख्या दोगुनी कर लेते हैं। ऐसे में अगर हम सामूहिक शिकार करने लग जाएं तो हमसे हिंसक और खतरनाक कोई नहीं हो सकता। अपनी संख्या पर लगाम नहीं लगाने और परिवार नियोजन पर ध्यान नहीं देने पर आबादी उपलब्ध संसाधनों का दोहन करने की दिशा में अग्रसर होती है। आगे का विकास, सूखे के कारण पैदा हुआ खाद्य संकट, भीषण ठंड और संसाधनों के अत्यधिक दोहन जनजातियों के बीच संघर्ष पैदा करता है। यह संघर्ष मुख्य रूप से भोजन पर अधिकार को लेकर होता है। इस तरह युद्ध जनसंख्या में हो रही वृद्धि को नियंत्रित करता है।
ऐसा भी नहीं है कि हमने योजनाबद्ध तरीके से दूसरी प्रजातियों को विलुप्त कर दिया। न ही यह हमारी सभ्यता द्वारा संयुक्त प्रयास का नतीजा था, लेकिन यह युद्ध का नतीजा जरूर था। आधुनिक मनुष्य ने हमले दर हमले कर अपने दुश्मनों को परास्त किया और उनकी जमीन हथिया ली। इसके बावजूद निअंडरथल्स को विलुप्त होने में हजारों साल लग गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शुरुआती होमो सेपियंस बाद की विजेता सभ्यताओं जितने सक्षम नहीं थे। ये विजेता सभ्यताएं बड़ी संख्या में थीं और कृषि पर आधारित थीं। चेचक, फ्लू, खसरा जैसी महामारियां भी इनके दुश्मनों पर बहुत भारी पड़ीं। भले ही निअंडरथल्स युद्ध हार गए हों लेकिन उन्होंने लंबा युद्ध लड़ा और कई युद्ध जीते भी। इससे पता चलता है कि उनकी बौद्धिकता भी हमारी बौद्धिकता के करीब थी।
(लेखक बाथ विश्वविद्यालय के इवोल्यूशनरी बायोलॉजी एंड जीवाश्म विज्ञान में सीनियर लेक्चरर हैं)(downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसानों के बारे में लाए गए विधेयकों पर राज्यसभा में जिस तरह का हंगामा हुआ है, क्या इससे हमारी संसद की इज्जत बढ़ी है ? दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा देश भारत है। पड़ौसी देशों के सांसद हमसे क्या सीखेंगे ? विपक्षी सांसदों ने इन विधेयकों पर सार्थक बहस चलाने के बजाय राज्यसभा के उप-सभापति हरिवंश पर सीधा हमला बोल दिया। उनका माइक तोड़ दिया। नियम-पुस्तिका फाड़ दी। धक्का-मुक्की की। सदन में अफरा-तफरी मचा दी। उच्च सदन को निम्न कोटि का बाजार बना दिया। यही विधेयक लोकसभा में भी पारित हुआ है लेकिन वहां तो ऐसा हुड़दंग नहीं हुआ। जिसे वरिष्ठ नेताओं का उच्च सदन कहा जाता है, उसके आठ सदस्यों को निलंबित करना पड़ जाए तो उसे आप सदन कहेंगे या अखाड़ा ? विपक्षी नेता आरोप लगा रहे हैं कि उपसभापति ने ध्वनिमत से इन किसान-कानूनों को पारित करके ‘लोकतंत्र की हत्या’ कर दी है और सत्तारुढ़ दल के नेता इसे विपक्षियों की ‘शुद्ध गुंडागर्दी’ बता रहे हैं। यह ठीक है कि ध्वनि मत से प्राय: वे ही विधेयक पारित किए जाते हैं, जिन पर लगभग सर्वसम्मति-सी होती है।
यदि एक भी सांसद किसी विधेयक पर बाकायदा मतदान की मांग करे तो पीठासीन अध्यक्ष को मजबूरन मतदान करवाना पड़ता है। इस संसदीय नियम का पालन नहीं हो पाया, क्योंकि विपक्षी सांसदों ने इतना जबर्दस्त हंगामा मचाया कि सदन में अराजकता फैल गई। विपक्ष का सोच है कि यदि बाकायदा मतदान होता तो ये विधेयक कानून नहीं बन पाते। विपक्ष को पिछले 6 साल में यही मुद्दा हाथ लगा है, जिसके दम पर देश में गलतफहमी फैलाकर कोई आंदोलन खड़ा कर सकता है। प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री ने साफ-साफ कहा है कि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्यों, मंडियों और आड़तियों की व्यवस्था ज्यों की त्यों रहेगी लेकिन अब किसानों के लिए खुले बाजार के नए विकल्प भी खोले जा रहे हैं ताकि उनकी आमदनी बढ़े। इस नए प्रयोग के लागू होने के पहले ही उसे बदनाम करने की कोशिश को घटिया राजनीति नहीं कहें तो क्या कहेंगे ? सरकार ने छह रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में 50 से 300 रु. प्रति क्विंटल की वृद्धि कर दी है। प्रसिद्ध किसान नेता स्व. शरद जोशी के लाखों अनुयायियों ने इस कानून के पक्ष में आंदोलन छेड़ दिया है। मेरी राय में ये दोनों आंदोलन इस समय अनावश्यक हैं। जऱा सोचें कि कोई राजनीतिक दल देश के 50 करोड़ किसानों को लुटवाकर अपने पांव पर क्या कुल्हाड़ी मारना चाहेगा ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विकास बहुगुणा
अर्थशास्त्र का एक नियम कहता है कि किसी चीज की कीमत उसकी मांग और आपूर्ति के समीकरण पर निर्भर करती है. यानी मांग ज्यादा है और आपूर्ति कम तो कीमत ज्यादा हो जाएगी और इसकी उल्टी स्थिति में कम. लेकिन जैसा कि हर नियम के साथ होता है, इस नियम के भी कुछ अपवाद हैं. पूरी दुनिया को हिला चुके कोरोना वायरस के टेस्ट की कीमत को भी इन अपवादों में शामिल किया जा सकता है. इस कीमत में पहले से काफी कमी होने के बावजूद.
उत्तर प्रदेश सरकार ने बीते दिनों कोविड-19 की पुष्टि के लिए होने वाले आरटी-पीसीआर टेस्ट के दाम पर लगी सीमा को और कम कर दिया है. पहले यह 2500 रु थी जो अब 1600 रु हो गई है. सरकार का कहना है कि कोरोना टेस्टिंग के लिए इससे ज्यादा पैसा वसूलने वाली लैब्स के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. पहले यह सीमा 4500 रु थी जिसे जून में 2500 रु कर दिया गया था. महाराष्ट्र और झारखंड सहित दूसरी राज्य सरकारों ने भी हाल में ऐसे कदम उठाए हैं. इस तरह देखें तो अब देश में हर जगह कोरोना वायरस की टेस्टिंग की कीमत 2000 रु या इससे नीचे आ गई है. मार्च 2020 तक इसके लिए पांच हजार रु तक वसूले जा रहे थे. लेकिन कइयों को यह कीमत अब भी ज्यादा लग रही है.
कोरोना वायरस का टेस्ट तीन तरह से किया जा सकता है. पहला तरीका जेनेटिक है जिसमें मरीज के गले या नाक से लिए गए किसी सैंपल में कोरोना वायरस के डीएनए का पता लगाया जाता है. इसे ‘रिवर्स ट्रांस पॉलीमेरेज चेन रिएक्शन’ यानी आरटी-पीसीआर टेस्ट कहते हैं. दूसरा तरीका एंटीजन टेस्ट है जिसमें सैंपल में वे खास प्रोटीन तलाशे जाते हैं जो कोरोना वायरस की सतह पर पाए जाते हैं और इस तरह शरीर में संक्रमण की पहचान की जाती है. इसकी विशेषता यह है कि यह करीब आधा घंटे में निपट जाता है. हालांकि यह पूरी तरह विश्वसनीय नहीं है क्योंकि इसमें 60 फीसदी तक गलत नतीजे मिलने की बात कही जा रही है.
तीसरा तरीका एंटीबॉडी टेस्ट है. इसमें खून का सैंपल लेकर यह देखा जाता है कि उसमें कोरोना वायरस से लड़ने वाली रक्त कोशिकाएं यानी एंटीबॉडीज मौजूद हैं या नहीं. अगर हैं तो पुष्टि हो जाती है कि संबंधित व्यक्ति को कोरोना वायरस का संक्रमण हो चुका है. हालांकि यह तरीका सक्रिय संक्रमण की पहचान के लिए इस्तेमाल नहीं होता. बाकी दोनों तरीकों में से पीसीआर टेस्ट को ही विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कोरोना वायरस टेस्टिंग का ‘गोल्ड स्टैंडर्ड’ माना जाता है. यही वजह है कि यह सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है और इसको लेकर ही सबसे ज्यादा बहस भी हो रही है.
पहले यह समझते हैं कि आरटी-पीसीआर टेस्ट कैसे होता है. इसके लिए वायरसों से जुड़ी कुछ मोटी-मोटी जानकारियां समझनी होंगी. वायरस असल में कोशिकाओं में पाए जाने वाले अम्ल (न्यूक्लेइक एसिड) और प्रोटीन से बने सूक्ष्मजीव होते हैं. इन्हें एक जेनेटिक मटीरियल (आनुवांशिक सामग्री) भी कहा जा सकता है क्योंकि ये आरएनए और डीनए जैसी जेनेटिक सूचनाओं का एक सेट (जीनोम) होते हैं. जब कोई वायरस किसी जीवित कोशिका में पहुंचता है तो कोशिका के मूल आरएनए और डीएनए की जेनेटिक संरचना में अपनी जेनेटिक सूचनाएं डाल देता है. इससे वह कोशिका संक्रमित हो जाती है और अपने जैसी ही संक्रमित कोशिकाएं बनाने लगती है. यह ठीक वैसा ही है जैसा कोई सॉफ्टवेयर वायरस करता है. वह किसी सॉफ्टवेयर में प्रवेश करता है, उसे करप्ट करता है और उससे अपने मनचाहे काम करवाता है.
किसी व्यक्ति के शरीर में कोरोना वायरस के संक्रमण की पुष्टि के लिए उसके नाक या गले से स्वाब लेकर उसे लैब में भेजा जाता है क्योंकि कोरोना वायरस यहीं पैठ जमाए होता है. यह स्वाब मानव कोशिकाओं, वायरस और जीवाणुओं का मिश्रण होता है. इसके बाद कई तरह के केमिकल्स के जरिये इस सैंपल से प्रोटीन और दूसरी अवांछित चीजें हटाई जाती हैं. इसके बाद जो बचता है वह संबंधित व्यक्ति और वायरस (अगर वह संक्रमित है तो) दोनों के जेनेटिक मटीरियल का मिश्रण होता है. यानी सैंपल में दोनों का आरएनए होता है.
अब प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए इस आरएनए को डीएनए में बदलने की जरूरत पड़ती है. ऐसा रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस नाम के एक एंजाइम की मदद से किया जाता है. लेकिन इसके नतीजे में मिले डीएनए की मात्रा इतनी नहीं होती कि इसका ठीक से और सटीक विश्लेषण किया जा सके इसलिए इस डीएनए की असंख्य प्रतिलिपियां यानी कॉपीज बनाई जाती हैं. इस चरण को पॉलीमेरेस चेन रिएक्शन या पीसीआर कहते हैं. इसके लिए सैंपल में एक विशेष एंजाइम मिलाकर और उसे एक मशीन में रखकर इस मिश्रण को कई बार गर्म और ठंडा किया जाता है.
गर्म और ठंडा करने का हर चक्र कुछ ऐसी रासायनिक अभिक्रियाओं को जन्म देता है जिससे डीएनए की कॉपीज बनने लगती हैं. हर चक्र में यह संख्या दोगुनी हो जाती है. यानी पहले चक्र में दो कॉपीज बनती हैं तो दूसरे में चार और तीसरे में आठ. सटीक नतीजे के लिए औसतन ऐसे 35 चक्र दोहराये जाते हैं. इसका मतलब यह है कि यह चरण खत्म होने तक डीएनए की अरबों कॉपीज बन चुकी होती हैं. इसी दौरान सैंपल में एक फ्लूरोसेंट यानी चमकने वाली डाइ मिलाई जाती है और अगर इस प्रक्रिया के दौरान उसकी चमक एक खास स्तर को पार कर जाती है तो सैंपल में कोरोना वायरस के जेनेटिक मटीरियल की पुष्टि हो जाती है. यानी साफ हो जाता है कि मरीज कोरोना पॉजिटिव है. इस पूरी प्रक्रिया में कम से कम 24 घंटे का समय लगता है. लेकिन अच्छी बात यह है कि मशीन में एक साथ कई सैंपल्स का परीक्षण किया जा सकता है.
इसी आरटी-पीसीआर टेस्ट की कीमत को लेकर कुछ समय से बहस गर्म है जिस पर अलग-अलग पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं. नोएडा में लॉजिस्टिक्स के कारोबार से जुड़े विभांशु द्विवेदी कहते हैं, ‘कुछ दिनों पहले हमारे पास दक्षिण अफ्रीका से एक रिक्वायरमेंट आई जिसमें क्लाइंट को कोरोना टेस्टिंग किट चाहिए थी. तो हमने इसकी कॉस्टिंग वगैरह पर काम किया. किट में एक कॉटन स्वाब स्टिक और कंटेनर होते हैं जिनकी मदद से मरीज के नाक या गले से सैंपल लिया जाता है और लैब तक पहुंचने तक सुरक्षित रखा जाता है. हमने कुछ मैन्युफैक्चरर्स से पता किया तो इन दोनों चीजों की लागत 12 रु के करीब आ रही थी. सात रु की स्वाब स्टिक और पांच रु का कंटेनर.’ सवाल है कि इसके बाद लैब संबंधी प्रक्रियाओं से जुड़े दूसरे तमाम खर्चों का भी हिसाब लगा लें तो क्या टेस्ट के लिए डेढ़ से लेकर दो हजार रु या कुछ समय पहले की साढ़े चार हजार रुपये की कीमत को सही ठहराया जा सकता है?
इस साल मार्च में कोरोना वायरस संक्रमण से निपटने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान हुआ था. उस समय चुनिंदा सरकारी लैब्स को ही कोरोना टेस्ट की अनुमति थी. धीरे-धीरे प्राइवेट लैब्स को भी इस कवायद में शामिल किया गया और अब सरकार के ही मुताबिक देश भर में 1700 से भी ज्यादा लैब्स कोरोना वायरस की टेस्टिंग कर रही हैं. लेकिन इस टेस्टिंग की कीमत तय किए जाने को लेकर मापदंड क्या हैं, इसे लेकर अब भी ज्यादा जानकारी नहीं है. कई लोग मौजूदा कीमत के बारे में मानते हैं कि इसे काफी बढ़ा-चढ़ाकर तय किया गया है. उनके मुताबिक इससे सबसे ज्यादा परेशानी उन्हें हो रही है जिन्हें अपना इलाज निजी अस्पतालों में कराना पड़ रहा है क्योंकि पीड़ितों को यह टेस्ट कई बार कराना पड़ता है.
स्वास्थ्य क्षेत्र पर नजर रखने वाली संस्था ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क से जुड़ीं मालिनी आइसोला का कुछ समय पहले हमारी सहयोगी वेबसाइट स्क्रोल.इन से बात करते हुए कहना था, ‘ये टेस्ट उतना महंगा है ही नहीं जितना इसे बना दिया गया है.’ उनकी मांग थी कि सरकार को यह जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए कि वह जो कीमत तय कर रही है उसका आधार क्या है.
कोरोना वायरस संक्रमण के शुरुआती महीनों में पूरी दुनिया में उथल-पुथल मची हुई थी. सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) से लेकर टेस्टिंग किट तक कोरोना वायरस की पहचान, इससे सुरक्षा और इसके इलाज से जुड़ी हर चीज की एकाएक भारी मांग पैदा हो गई थी जबकि आपूर्ति कम थी. हालांकि जानकारों के मुताबिक उस समय भी कोरोना टेस्टिंग के दाम पांच या साढ़े चार हजार रखने को जायज नहीं ठहराया जा सकता था. अब तो न पीपीई की कमी है, न किट की और न ही एंजाइम या दूसरे केमिकल्स की. इसके बावजूद टेस्ट के दाम 1600 या 2000 रु क्यों हैं, कइयों के मुताबिक यह एक बड़ा सवाल है.
जैसा कि एक सरकारी संस्था में काम करने वाले बायोटेक्नॉलॉजिस्ट एन रघुराम कहते हैं, ‘हम शोध संबंधी काम के लिए अपनी लैब में आरटी-पीसीआर टेस्ट करते रहते हैं और इसकी लागत प्रति टेस्ट 500 रु से भी काफी कम आती है.’ हालांकि वे पौधों को संक्रमित करने वाले वायरसों का आरटी-पीसीआर टेस्ट करते हैं, लेकिन उनका दावा है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि टेस्ट की प्रक्रिया और उसमें काम आने वाली चीजें लगभग वही होती हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक प्रतिष्ठित संस्थान में पढ़ाने वाले एक अन्य बायोटेक्नॉलॉजिस्ट कहते हैं, ‘सब कुछ मिलाकर आरटी-पीसीआर टेस्ट की कीमत 450-500 रु तक निपट जानी चाहिए.’
तो सवाल उठता है कि यह टेस्ट अब भी डेढ़ से दो हजार रु के बीच क्यों हो रहा है. कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट में अपने एक हलफनामे में इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने कहा था कि टेस्ट का दाम उस विशेष किट की कीमत के आधार पर तय किया गया है जो इस टेस्ट के लिए इस्तेमाल हो रहा है. जानकारों के मुताबिक पहला फर्क इसी से पैदा हो रहा है. एन रघुराम कहते हैं कि निजी और सरकारी लैब्स को किट्स सप्लाई कर रहे उत्पादक इन्हें बहुत ज्यादा कीमत पर बेच रहे हैं और इसलिए टेस्ट की कीमत भी बहुत बढ़ जा रही है. मसलन सैंपल निकालने और कलेक्ट करने के लिए 12 रु की लागत वाला किट अभी भी कम से कम 500 रु में बेचा जा रहा है.
उधर, टेस्टिंग के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों की दलील है कि सिर्फ किट की लागत का हिसाब लगाकर इस टेस्ट की कीमत तय नहीं की जा सकती. उनका कहना है कि आरटी-पीसीआर टेस्ट की प्रक्रिया में कई तरह के दूसरे संसाधन भी लगते हैं और आलोचकों को इस पहलू पर भी ध्यान देना चाहिए. थायरोकेयर टेक्नॉलॉजीज के एमडी ए वेलुमनी के मुताबिक पूरे टेस्ट की कीमत में किट के दाम की हिस्सेदारी सिर्फ 25 फीसदी होता है. स्क्रोल.इन से बातचीत में वे कहते हैं, ‘जब आप एक फ्लाइट का टिकट खरीदते हैं तो उसकी लागत में सिर्फ ईंधन की कीमत शामिल नहीं होती. वह कुल रकम का एक हिस्सा भर होती है.’ इंदौर की एक निजी कंपनी सेंट्रल लैब का भी कहना है कि टेस्टिंग की कीमत तय करने में मुख्य भूमिका किट की नहीं होती.
लाल पैथ लैब्स के सीईओ ओपी मनचंदा भी इन दोनों की बातों से इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं, ‘कई ऐसे खर्च हैं जो करने पड़ रहे हैं, लेकिन उनकी बात नहीं होती. उदाहरण के लिए कर्मचारियों का बीमा.’ तर्क यह भी है कि संक्रमण की आशंका के चलते लैब कर्मचारियों पर परिवार की ओर से काम न करने का दबाव है इसलिए लैब्स को उन्हें ज्यादा पैसा भी देना पड़ रहा है. ए वेलुमनी कहते हैं, ‘इसके अलावा सैंपल लाने वालों को पीपीई किट देने पड़ते हैं. ऑफिस स्पेस और इसकी मेंटेनेंस का खर्च होता है. एचआर कॉस्ट है. सैंपल को लैब तक लाने में भी खर्च होता है.’ उदाहण के लिए यह व्यवस्था भी करनी पड़ती है कि लैब तक पहुंचने के समय सैंपल का तापमान दो से आठ डिग्री के बीच रहे. ऐसा न होने पर सैंपल खराब होने और नतीजा गलत आने का जोखिम रहता है.
इसके अलावा स्वास्थ्य क्षेत्र के जानकार कहते हैं कि अगर काम का दबाव ज्यादा हो तो लैब्स को शिफ्टें और कर्मचारियों की संख्या बढ़ानी पड़ सकती है. साथ ही पीसीआर और दूसरी मशीनों की संख्या में भी बढ़ोतरी करनी पड़ सकती है. पीसीआर मशीन में जितने ज्यादा सैंपल एक साथ जांचे जा सकें, एंजाइमों और नतीजनत लागत में उतनी ही अधिक बचत हो सकती है. लेकिन जब नतीजे जल्द से जल्द देने का दबाव हो तो मशीनों की कुल क्षमता से कम सैंपल्स के साथ भी टेस्ट शुरू करना पड़ता है.
हालांकि दूसरे वर्ग का दावा है कि इन सब कारकों को ध्यान में रखते हुए भी टेस्ट की कीमत में अभी कमी की गुंजाइश है. उसके मुताबिक मार्च की तरह अब पीसीआर मशीनों के क्षमता से कम सैंपल्स के साथ चलने जैसी स्थिति बिल्कुल नहीं है क्योंकि अब रोज ही 10 लाख से ज्यादा टेस्ट हो रहे हैं. यानी 1700 लैब्स के हिसाब से देखें तो एक लैब रोज औसतन करीब 600 टेस्ट कर रही है. विभांशु कहते हैं, ‘इसी तरह मार्च में जो स्टैंडर्डाइज पीपीई किट 1100 रु का मिल रहा था वो अब करीब 250 रु का आ रहा है.’ जानकारों के मुताबिक इसी तरह और भी खर्च काफी कम हुए हैं. जहां तक मशीनों की बात है तो करीब 100 सैंपलों की क्षमता वाला एक थर्मोसाइक्लर (जिसमें कूलिंग और हीटिंग को अंजाम दिया जाता है) डेढ़ से दो लाख रु में उपलब्ध है. कुछ जानकारों के मुताबिक टेस्टिंग के आंकड़े देखें तो लैब्स को इस तरह की मशीनों में एक या दो की ही बढ़ोतरी करनी पड़ी होगी जो कि कोई बहुत भारी निवेश नहीं है.
यानी दोनों तरफ से अपनी-अपनी दलीलें हैं. यही वजह है कि कई जानकार इस मामले में सरकार का भी दोष मानते हैं. उनके मुताबिक जब वह इस टेस्ट की कीमत तय कर रही है तो उसे यह जानकारी भी सार्वजनिक कर देनी चाहिए कि इसका आधार क्या है. इन लोगों के मुताबिक अगर ऐसा हो जाता तो कीमत को लेकर उठ रहे सवाल अपने आप ही खत्म हो जाते. वहीं, कुछ लोगों का यह मानना है कि यह जानकारी इसीलिए सार्वजनिक नहीं हो रही है क्योंकि इससे आरटी-पीसीआर टेस्ट के नाम पर हो रही मुनाफाखोरी को लेकर नए सवाल खड़े हो सकते हैं. (satyagrah)
-कनक तिवारी
दुर्लभ व्यक्तित्व के धनी प्रोफेसर पीडी खेरा से हम लोगों का बरसों का परिचयरहा है। कभी पता चला था कि ग्राम लमनी में बैगा आदिवासियों के बीच कोई एक व्यक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापकी से सेवानिवृत्त होने के बाद उनमें रच बस गया है। उनसे बार बार मिलना हुआ। लंबी बातें भी हुईं।
एक बार अपने सात्विक अहंकार में हम कुछ मित्रों ने कुछ पुराने कपड़े इक_े किए अन्य सामानों के अतिरिक्त। उन्हें जा कर बैगा बच्चों और पुरुषों महिलाओं आदि के लिए देने की पेशकश की। दवाइयां खाद्य सामग्री आदि उन्होंने स्वीकार कर लीं। लेकिन अपनी अत्यंत संजीदगी और विनम्रता में बोले पुराने कपड़े इन्हें नहीं देना चाहिए। उनके आत्मसम्मान को चोट पहुंचती है। उन्हें लगता है कि वे समाज की अतिरिक्ताए हैं। हम शर्मसार हो गए और तत्काल हमने बिलासपुर लौट कर अपने आप को संशोधित किया और बच्चों के लिए नए कपड़े और खाद्य सामग्री वगैरह फिर से उन्हें भिजवाई।
रायपुर में समाजशास्त्रियों के एक सम्मेलन में व्याख्यान देने बुलाया था। तब बहुत कम लोगों को समझ में आया था इस व्यक्ति को यहां बुलाए जाने का क्या अर्थ हो सकता है। उनकी कोई कुटिया जाकर देखे या उसे पोस्ट कर दे वह तस्वीर यदि किसी के पास है। तो मैं कह सकता हूं जिम्मेदारी के साथ कि गांधी की कुटिया भी इतनी अकिंचन नहीं थी नहीं थी। एक बार ही अपना भोजन पकाते और वही भोजन करते। इतनी सादगी बल्कि गरीबी ऐसा लगता था कि झोपड़ी में गांधी के अनुसार समाज का अंतिम व्यक्ति रहता है। आज हमारे समाज के हमारे छत्तीसगढ़ के मनुष्यता के सिरमौर हैं।
प्रोफेसर खेरा चले गए। आखिरी कुछ वर्षों में भी बहुत बीमार रहे हैं। उनके इलाज का प्रबंध तो हो सा गया था छत्तीसगढ़ में बिलासपुर में किया गया। लेकिन उम्र और स्वास्थ्य कभी किसी का साथ बहुत दिन तक नहीं देते। उन्होंने अपना पूरा जीवन छत्तीसगढ़ के बैगा आदिवासियों की सेवा में लगा दिया। सरकार ने बहुत देर से उनकी प्रतिभा को उनके महत्व को उनकी सेवा को पहचाना और कुछ उनके लिए करने की कोशिश की। तब तक देर हो चुकी थी। लेकिन केवल श्रद्धांजलि देने से काम नहीं बनेगा। जो काम उन्होंने अपने हाथ में लिया था। वह काम सरकार को अपनी कल्याणकारी योजनाओं में शामिल करना चाहिए।
अभी तो बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता। एक एकाकी जीवन जीने वाला महारथी हमारे बीच में से चला गया। उनकी झोपड़ी तो गांधीजी की झोपड़ी से ज्यादा मामूली थी। एक बार अपने हाथ से भोजन बनाना दिन भर उसी को खाना एक ही झोपड़ी में सब कुछ करना वही निवास वहीं सोना वहीं अध्ययन वही सेवा करने का जतन करना। ऐसे ऐसे लोग तो पैदा ही नहीं होंगे लगता है। वे प्राचीन भारतीय ऋषि परंपरा के प्रतीक थे।
- Eesha
सती प्रथा भारतीय समाज के इतिहास में सबसे शर्मनाक कुरीतियों में से एक है। जैसा कि हम सब जानते हैं, इस प्रथा के तहत विवाहित महिलाओं और लड़कियों को अपने मृत पति की चिता पर ज़िंदा जला दिया जाता था। छोटी-छोटी बच्चियों को भी इस नृशंस प्रथा का शिकार होना पड़ता था। ऐसा माना जाता था कि एक नारी का अस्तित्व उसके पति की मृत्यु के साथ खत्म हो जाता है और एक पत्नी को पति की मृत्यु होने पर भी उसका साथ नहीं छोड़ना चाहिए। सती प्रथा का उल्लेख कई विदेशी लेखकों की कृतियों में मिलता है, जो पर्यटक, वाणिज्यिक या औपनिवेशिक शासक के रूप में मध्यकालीन भारत में आए थे। जिन्होंने अपनी आंखों से इस कुप्रथा का पालन होते हुए देखा था। सुनने में अचरज होता है कि यह मध्ययुगीन प्रथा 20वीं सदी के आधुनिक, आज़ाद भारत में भी चलती आ रही थी, जबकि हमें पढ़ाया यही गया है कि सामाजिक आंदोलन इस पर पूरी तरह से रोक लगाने में सफल हुए थे, पर सच यही है। भारत में सती प्रथा की आखिरी घटना हुई थी 1980 के दशक में। सती प्रथा की आखिरी पीड़ित थी 1987 में राजस्थान की रहनेवाली एक 18 साल की लड़की ‘रूप कंवर।’
19वीं सदी में सती प्रथा भारत में कानूनी तौर पर रद्द हुई। कई भारतीय समाज सुधारकों के प्रयासों के चलते ब्रिटिश सरकार ने साल 1829 में देशभर में सती पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून जारी किया पर कानूनी प्रतिबंध लगने के बावजूद पूरे देश में इस प्रथा पर रोक नहीं लगाई जा सकी। नतीजन साल 1987 में सती प्रथा के कारण रूप कंवर को अपनी जान गंवानी पड़ी। रूप कंवर राजस्थान के सीकर ज़िले के एक राजपूत परिवार की लड़की थी। जनवरी 1987 में उसकी शादी देवराला गांव के रहनेवाले, 24 साल के माल सिंह शेखावत से करवा दी गई। माल सिंह कॉलेज में बी.एस.सी का छात्र था और शादी के कुछ ही महीनों बाद वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया, जिसकी वजह से उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। लंबे समय तक अपनी ज़िंदगी के लिए लड़ने के बाद, 3 सितंबर 1987 को माल सिंह शेखावत का देहांत हो गया।
रूप कंवर की हत्या का मामला एकबार फिर यही दिखाता है कि कानून में चाहे कितने भी बदलाव आए, समाज और लोगों की मानसिकता को बदलना इससे कहीं ज़्यादा मुश्किल है।
4 सितंबर 1987 को माल सिंह का अंतिम संस्कार किया गया। उसकी चिता पर उसकी पत्नी रूप कंवर को भी ज़िंदा जला दिया गया। मरने के बाद रूप कंवर ‘सती माता’ बन गई। जिस जगह पर उसे जलाया गया था, आज वहां एक बड़ा तीर्थस्थल है जहां देवी के रूप में उसकी पूजा होती है। आज भी पूरे राजस्थान से सैकड़ों श्रद्धालु यहां ‘सती माता’ के दर्शन करने आते हैं।
महिला संगठनों ने इस घटना पर खूब आपत्ति जताई थी। यह घटना एक महिला की नृशंस हत्या तो थी ही, ऊपर से इस हत्या को पीड़िता का ‘त्याग’ और ‘बलिदान’ बताकर इस अपराध का महिमामंडन किया जा रहा था। नारीवादी कार्यकर्ताओं और आंदोलनों के चलते साल 1987 में ही ‘सती निवारण कानून’ पारित किया गया। यह कानून सती प्रथा को परिभाषित करता है और इसका पालन करने या बढ़ावा देने वालों को एक साल से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा सुनाता है। यह सज़ा सिर्फ़ औरत की हत्या करने के लिए ही नहीं बल्कि किसी भी तरह से सती प्रथा का समर्थन करने के लिए है। जैसे, पीड़िता को ‘देवी’ या ‘माता’ बनाकर पूजना, उसके नाम पर तीर्थस्थल या मंदिर बनाना, चंदा इकट्ठा करना वगैरह। इसी कानून के तहत देवराला गांव के 45 निवासियों को रूप कंवर की हत्या के लिए गिरफ़्तार किया गया था। हालांकि कोई ठोस सबूत न मिलने की वजह से आज वे सब बरी हो गए हैं।
देवराला का राजपूत समाज यह मानता है कि सती होना प्रेम और बलिदान का प्रतीक है। पति के प्रेम में जो औरत अपने प्राण त्याग देती है उसे साधारण औरत नहीं, देवी माना जाता है। उनका विश्वास है कि अदालत इन औरतों के प्रेम की भावना नहीं समझ पाती और सती प्रथा की घटनाओं को बेवजह हत्या और अपराध घोषित कर दिया जाता है। रूप कंवर के भाई गोपाल सिंह राठौर आज 61 साल के हैं। वे कहते हैं कि उन्हें अपनी बहन पर गर्व है कि उसने सती होने का निर्णय लिया था। गांव के कई लोग मानते हैं कि रूप कंवर सचमुच देवी थी। उनके अनुसार माल सिंह के मरने के बाद वह ज़रा भी नहीं रोई, बल्कि अपनी शादी के जोड़े और सोलह श्रृंगार में सजकर अपने पति की चिता पर बैठ गई। माल सिंह के सिर को अपनी गोद में रखा और भगवान का नाम लेने लगी। गांव वालों का कहना है कि चिता पर भी किसी इंसान ने आग नहीं लगाई, बल्कि चिता अपने आप जल उठी थी। जलती चिता पर बैठकर रूप कंवर मुस्कराती रही और उसने अपना दाहिना हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में रखा था।
कुछ लोग, जो इस घटना के समय वहां मौजूद थे, इस कहानी पर विश्वास नहीं करते। उनका कहना है कि रूप कंवर बुरी तरह रो रही थी और उसने खुद को कमरे में बंद कर दिया था। बाद में जब उसे बाहर निकाला गया, वह नशे की हालत में थी और ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। उसके ससुराल वालों ने उसे चिता पर लिटाया और उसकी छाती पर लकड़ियां रख दीं ताकि वह भाग न पाए, और इसी हालत में उसे जला दिया गया था। देवराला के निवासी मानते हैं कि आज सती प्रथा कानूनी रूप से प्रतिबंधित है, पर इसके बावजूद रूप कंवर के प्रति उनकी भक्ति ज़रा भी कम नहीं होती। वे मानते हैं कि रूप कंवर के पास दिव्य शक्ति थी जिसके रहते वह सती हो पाई, और जो हर औरत के पास नहीं रहती।
रूप कंवर की हत्या का मामला यही दिखाता है कि कानून में चाहे कितने भी बदलाव आएं, समाज और लोगों की मानसिकता को बदलना ज़्यादा मुश्किल है। सती प्रथा जैसे जघन्य कानूनन अपराध के लिए एक प्रगतिशील समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए, फिर भी इसके शिकार हुई महिलाओं का महिमामंडन करके इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। रूप कंवर की मृत्यु को 33 साल पूरे होने को आए हैं, फिर भी समाज आज भी वैसा का वैसा ही है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- Vandana
‘अच्छी लड़कियां हमेशा अपने पति की बात मानती हैं।’
‘अच्छी लड़कियों को घूंघट में रहना चाहिए।’
ये बातें गांव में किशोरियों के साथ बातचीत करते हुए कुछ छोटी बच्चियों ने अच्छी औरत और बुरी औरत पर अपने विचार रखते हुए कहा। मात्र नौ-दस साल की बच्चियों के मुंह से ऐसी बातें सुनना बेहद अजीब था, क्योंकि ये बच्चियां जिस परिवेश से आती है वह आर्थिक रूप से बेहद कमजोर है। यहां ज़्यादातर आदमी-औरत दोनों ही मज़दूरी का काम करते हैं। शायद इसलिए महिलाएं अन्य संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की अपेक्षा में ज़्यादा स्वतंत्र है। वे घूंघट नहीं लेती है और न ही अपने पति की हर बात मानती है। कम ही सही लेकिन खुद पैसे कमाती हैं, इसलिए सभी नहीं लेकिन कुछ फ़ैसले ज़रूर खुद लेती हैं। अब ऐसे परिवार की बच्चियों का अच्छी औरत के नाम पर घूंघट करने और पति की बात मानने की बात करना अजीब था। जब मैंने उनसे पूछा कि ये सब तुम्हें किसने बोला? तो ज़वाब में बच्चियों ने कहा टीवी पर आता है। बौन्दिता ऐसे ही करती है।
ये बौन्दिता टीवी पर आने वाले सीरियल बैरिस्टर बाबू की नायिका है। सीरियल में बौन्दिता का किरदार एक आठ-नौ साल की बच्ची ने निभाया है। बैरिस्टर बाबू की कहानी आज से सौ साल पहले की है। कहने को तो सीरियल से जुड़े लोग इंटरव्यू में कहते हैं कि ‘ये सीरियल उस समय के समाजिक ढांचे की तरफ ध्यान दिलाता है। सामाजिक समस्याओं का समाधान सिर्फ तर्क से है इसीलिए शो की टैगलाइन भी ‘तर्क से फर्क’ रखी गई है और बौन्दिता जो कि एक बच्ची है, अपने तर्कों, सवालों और जिज्ञासा से सामाजिक खामियों को तार-तार करती है। बैरिस्टर बाबू की लड़ाई सामाजिक सोच से है।’ साथ ही यह भी कहा गया कि सीरियल रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़ने की कहानी है।
बौन्दिता का किरदार बच्चियों को किताबों से दूर समाज के बनाए जेंडर के साँचे में ढलने और उसमें रहने को प्रेरित करता है।
लेकिन अब सोचने वाली बात ये है कि इस सीरियल को दिखाने का विचार आमलोगों तक ख़ासकर बच्चियों तक कैसे पहुंच रहा है? क्योंकि बच्चों को तो समाज क्या है इसका मतलब भी नहीं पता। समाज में बचपन से ही लड़की को लड़की की तरह रहने का पाठ पढ़ाया जाता है। हर पल डांट-मार और उपदेश देकर उनके लड़की के खांचे में ढालने की कोशिश की जाती है। ऐसे में बैरिस्टर बाबू सीरियल में बौन्दिता जैसे किरदार बच्चियों को घुट्टी की तरह दी जाने वाली सीख को और मज़बूत कर देते है। लैंगिक भेदभाव की जड़ें मज़बूती से बच्चियों के मन में पैठ जमा लेती हैं और उन्हें लगता है सारी डांट-मार और बंदिशें उन्हें अच्छा बनाने के लिए है। बौन्दिता क्या कह रही है, क्या कर रही है, ये सब समझना गांव की छोटी बच्चियों के लिए बेहद मुश्किल है, क्योंकि उन्हें शहरी बच्चों की तरह अच्छे क्या स्कूल भी नसीब नहीं है और न वैचारिक स्तर पर घर में भी कोई मज़बूत है। ऐसे में बौन्दिता के कपड़े, उसके माथे की बिंदी, चूड़ी, सिर का पल्लू और पति के नाम पर प्यार-सम्मान दिखाने का तरीक़ा उन्हें अलग ही दुनिया में ले जाता है।
कोरोना के दौर में स्कूल बंद है। गांव में बच्चों की पढ़ाई और दस साल पीछे जा रही है। छोटे बच्चे जिन्हें संज्ञा-सर्वनाम पढ़ना था वो क-ख भी नहीं पढ़ पा रहे है। पर घर में टीवी देखकर वो अब टीवी कलाकारों की कहानियों को जीने ज़रूर लगे हैं।
हो सकता है कि बहुत लोग मेरी बात से सहमत न हो और इसके लिए वे ऐसे टीवी सीरियल की खूबी बताएं। पर ऐसे लोगों से मैं यही कहूंगी कि सीरियल में कही जाने वाली बातें हम और आप समझ सकते है लेकिन छोटी बच्चियों को ये समझाना मुश्किल है। वे जो अपने सामने घटित होता देखती हैं वही समझती हैं, उसे ही सच्चाई मान लेती हैं। इसलिए ऐसे सीरियल और किरदारों पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि आज के ज़माने में यह दिखाना कि हर बौन्दिता को बैरिस्टर बाबू मिले इसकी संभावना न के बराबर है। सभी बच्चियां बौन्दिता जैसी समझदार हो ये ज़्यादा ही अपेक्षा है। पर ये तय है कि बौन्दिता का किरदार बच्चियों को किताबों से दूर समाज के बनाए जेंडर के सांचे में ढलने और उसमें रहने को प्रेरित करता है। इसलिए हमें और आपको भी इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी कि घर में बच्चे ऐसे सीरियल से बचे, क्योंकि इनसे बचना ही बच्चों के बचपन को बचाएगा।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
पहली पुण्यतिथि : ‘छत्तीसगढ़’ विशेष
-मो. उस्मान कुरैशी
आज से ठीक एक वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर पी.डी. खेरा का 93 वर्ष की आयु में अपोलो हॉस्पिटल में देहावसान हो गया था। वे 36 साल पहले अचानकमार टाइगर रिजर्व घूमने के लिये आये थे और महानगर की आरामदेह जीवन शैली को त्यागकर यहीं के होकर रह गये। मिट्टी की एक झोपड़ी पर उन्होंने अपना बसेरा बना लिया। उन्होंने गरीब और वंचित बैगाओं की दशा सुधारने के लिये अपना शेष सारा जीवन लगा दिया। उनके स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा और आर्थिक दशा ठीक करने के लिये वे निष्काम भाव से काम करते रहे। इस खास रिपोर्ट में उनसे लिया गया 7 वर्ष पुराने एक साक्षात्कार का अंश भी है जो बैगाओं की सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर गहरे चिंतन की अभिव्यक्ति है। प्रो. खेड़ा को चाहने वाले उनकी समझ को केन्द्र में रखते हुए जन-जातियों को बचाने का काम कर सकते हैं। सरकार नीतियां बना सकती है। उनकी पहली पुण्यतिथि पर पढ़ें स्वतंत्र पत्रकार मो. उस्मान कुरैशी की यह विशेष रिपोर्ट-
छत्तीसगढ के मुंगेली जिले में बाघ और जंगली जानवरों से समृद्ध अचानकमार टाइगर रिजर्व के भीतर लमनी गांव है। ठीक एक साल पहले 23 सितंबर 2019 की सुबह अनजान शहरी लोगों की बढ़ती भीड़ का जमा होते जाना, इस गांव में बसे बैगा आदिवासियों के लिए कौतूहल था। ऐसा नहीं था कि ऐसी गाडियों और शहरी लोगों को वे पहली बार देख रहें हो। देखते थे, इन गाड़ियों को तेज रफ्तार के साथ अपने गांव की सडक से गुजरते हुए या फिर सीधे विश्राम-गृह में घुसते हुए। आज सड़क पर गाडियां और शहरी लोग तेज रफ्तार से भाग नहीं रहे थे, उनकी तेज रफ्तार गाड़ियों के पहिए गांव में सड़क किनारे बनी मिट्टी की झोपडी पर आकर थम जा रहे थे। इस भीड़ की वजह थी जंगल में तीन दशक से रह रहा शहरी आदमी और आदिवासियों के हमदर्द ‘दिल्ली वाले साब’। यानी प्रो. पीडी खेरा। जो बरसों पहले उनके बीच उनके पोशाकों से इतर कुर्ते पाजामे में उनकी ही तरह मिट्टी की झोपड़ी में ठहर कर उनके बीच रच-बस गए थे।

गांव के लोग सालों देखते रहे कि कभी-कभी कुछ लोग उनसे आकर मिलते है, लंबी बातचीत भी होते देखते रहे पर कभी इनका उनके साथ सरोकार हो, ऐसा महसूस नहीं किया। जंगल में बसे बैगा आदिवासियों को बीती शाम ही खबर हो गई थी उनके सिर पर अब आसमान नहीं रहा। दावानल की तरह ही तो ये खबर पूरे जंगल में फैल गई थी। समझ नहीं पा रहे थे कि ये क्या हो गया। पूरा जंगल उदास था। जंगल से निकल कर अल-सुबह ये सड़क के किनारे अपने मसीहा के पार्थिव देह को विदा करने उमड़ पड़े थे।
कम नहीं होता 35 साल का लम्हा, युवाओं की दो पीढ़ियों को अपने ज्ञान और सेवा से सींच कर बड़ा किया था, ज्ञान की रोशनी से रास्ता दिखा रहे थे। आज वे कृतज्ञ दृष्टि से अपने मसीहा को विदा होते देख रहे थे। और वे देख रहे थे उन अनजान चेहरों को जो उनके काफिले का हिस्सा बने हुए थे। न जाने क्या सोचकर ही तो वे कोई 35 साल पहले सैकडों मील दूर बड़े शहर के अभिजात्य जीवन और अपने लोगों की भीड़ को छोड़कर इस जंगल में अनजान लोगों के बीच आ बसे। इनके बीच ऐसे रचे-बसे की उनको लगा कि ये उनके ही हिस्से है। फिर ये कौन सी भीड़ थी जो उनका पीछा करते जंगल के बीच बने मिट्टी की झोपड़ी तक आ पहुंची थी। ऐसी जगह, जहां उनके बैठने तक की जगह नहीं। जहां रखी चारपाई के आधे हिस्से में किताबें पसरी हुई थी। इस जनसैलाब में उनका कोई रिश्तेदार, नातेदार नहीं था। जो थे उनमें नेता, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, आला दर्जे के प्रशासनिक अफसर शामिल रहे. जिनको प्रोफसर डॉ, पीडी खेरा के त्याग, सेवा और समपर्ण ने मुरीद बना दिया था।

दिसम्बर 2013 में उनसे इस रिपोर्टर की लम्बी बात हुई थी। तब प्रो. खेरा ने बताया कि जब सन् 1984 में पहली बार जब यहां आए तो यहां के बैगाओं को देखकर लगा कि जीवन की सार्थकता यहीं है। सच्ची मानव सेवा यहीं हो सकती है। जब वे यहां आए आदिवासी बहुत पिछड़े थे। मन को शांति मिली पर रुकने में बड़ी कठिनाईयां आती रही। समझ गया कि यहां बसेरा बनाना आसान काम नहीं है। शुरू में यहां कुछ भी नहीं था। राशन दुकानें भी नहीं थीं। ये सब चीजें यहां का सौर उर्जा का स्टेशन हमारी दौड़-धूप से बना। टाटा की एक टीम आई थी हम अचानकमार में थे। हमने मिलकर ये स्टेशन शिफ्ट करवाया। पता ही नहीं लगता था कि इस जंगल का मालिक कौन है, क्योंकि सरकारी सेवायें इन तक पहुंचती ही नहीं थीं। बसों की यात्रा कर कलेक्टर दफ्तर के (तब बिलासपुर जिला) दर्जनों बार चक्कर लगाये तब एक चलित खाद्यान्न सेवा शुरू हुई।

बैगाओं की सेहत को लेकर उनकी चिंता
बैगाओं के स्वास्थ्य पर चिंता जताते प्रोफेसर खेरा कहते कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। खाना नही मिलता, क्योंकि शिकार पर रोक है। पहले गोश्त शिकार करके खाते थे अब खरीदना पड़ता है जो बहुत महंगा है। यहां इनको कम से कम सूअर रखने की इजाजत दी जाए। ज्यादातर लोग दारू पीते हैं। दारू पीयें और खाना ठीक नहीं मिले तो टीबी हो जाता है। और भी बहुत सी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।ये निरक्षर लोग हैं। गलती से अपना खुराक ठीक करने कभी सूअर को पकड़ कर खा भी लें तो वन विभाग वाले नहीं छोड़ते। वे जंगली सूअर न खाएं तो क्या खाएं। एक गिलहरी को खा लिया तो जेल भेज दिया। सरकार इस खत्म होती जाति बचाने की बात करती है पर उनके जीने के तौर-तरीके पर भारी दखल है। ये उनके लिये अच्छा नहीं है। बैगाओं के लिये खादी के थैले में उनके पास हमेशा मलेरिया, बुखार की दवायें रहती थीं। बच्चों को नहलाना-धुलाना, साफ धुले कपड़े पहनाना, उनके रोज का काम था।

झूम खेती पर रोक ने पहुंचाया नुकसान
बैगाओं की संख्या लगातार घट रही है । पहले ये बहुतायत में थे अब वे जंगल में भी अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। बाहरी लोग बहुत आ गए हैं। उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं। बेटी की शादी होती है तो दामाद को भी यहां बसा लेते हैं। गोड़ हैं, अहीर हैं, सारी जातियां यहां आ गई। मूल तो असल में ये बैगा ही थे। वे झूम खेती (शिफ्टिंग कल्टिवेशन या बेवर खेती) करते थे। 20-25 लोगों का परिवार होता था, जितनी जरूरत होती थी उतना किसी भी जगह फसल उगा लेते थे। अब इस पर रोक लग गई है। जंगल के फल-फूल, पौधे पत्ते, धूप छांव सब उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। यह प्रथा बंद क्या हुई बैगा मारे गये, कुचल दिये गये। शहरों से डिग्री लेकर आये जंगल के अफसर इन बातों को क्या समझेंगे? वर्दी में आते हैं, सहमे हुए बैगा दुबक जाते हैं। जंगल में जो उपजता है, उसी पर बैगाओं का जीवन निर्भर है पर सब जंगल के अफसरों ने धीरे-धीरे अपने कब्जे में ले लिया। अब ये खायें तो क्या, जीवन बचायें तो कैसे?
भारतीय अर्थव्यवस्था को 5-6% की वृद्धि दर पर लौटने में 3 से 5 साल का वक़्त लगेगा. ये कहना है भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डॉ. डी. सुब्बाराव का. उन्होंने बीबीसी को ईमेल के ज़रिए दिए एक इंटरव्यू में ये कहा. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ये वृद्धि दर भी तब ही मुमकिन है जब सही तैयारी के साथ सही तरीक़े से सब कुछ किया जाएगा.
भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में क्या-क्या चुनौतियां होंगी और उनके क्या समाधान हो सकते हैं, उन्होंने विस्तार से बताया.
बड़ी चुनौतियां कौन सी हैं?
डॉ सुब्बाराव कहते हैं कि सबसे बड़ी चुनौती है लोगों की नौकरियां जाने से बचाना और फिर से विकास शुरू करना.
वो कहते हैं, "महामारी अब भी बढ़ रही है, ऐसे में अभी भी कई ख़तरे हैं. कहा नहीं जा सकता कि महामारी के प्रकोप में कब और कैसे कमी आ सकती है. इसलिए अर्थव्यवस्था की चुनौतियों के पैमाने और जटिलताओं का बहुत ज़्यादा अंदाज़ा लगाना संभव नहीं है."
डॉक्टर सुब्बाराव ने कहा कि निस्संदेह मनरेगा अभी लाइफ़लाइन बना है लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता.
वे कहते हैं, "अस्थायी राहत के तौर पर विस्तारित महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार अधिनियम (मनरेगा) एक जीवन रेखा बन गया, लेकिन यह एक स्थायी समाधान नहीं हो सकता है."
डॉ. सुब्बाराव ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि महामारी से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती की स्थिति में थी. विकास दर एक दशक में सबसे कम - लगभग 4.1% पर थी, राजकोषीय घाटा (सरकार की कुल आय और व्यय के बीच का अंतर) अधिक था और वित्तीय क्षेत्र ख़राब ऋण की समस्या से जूझ रहा था.
वो कहते हैं कि महामारी का प्रभाव कम होने के बाद ये समस्याएं और बड़ी हो जाएंगी. "वापसी की हमारी संभावनाएं इस बात पर निर्भर करेंगी कि हम इन चुनौतियों का कितने प्रभावी तरीक़े से समाधान निकालते हैं."
जब उनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था महामारी के प्रभाव से कब तक बाहर आएगी और कब वापसी करेगी? तो डॉ सुब्बाराव ने कहा, "अगर आपका मतलब है कि अर्थव्यवस्था में सकारात्मक वृद्धि कब से होने लगेगी तो ये अगले साल से संभव है, लेकिन इस साल के नकारात्मक आंकड़े को देखते हुए यह भी कह सकते हैं कि ये सकारात्मक वृद्धि बहुत ज़्यादा नहीं होगी."
इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़ों में लगभग एक चौथाई की गिरावट आई और कई अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि पूरे साल की ग्रोथ निगेटिव डबल डिजिट में रह सकती है.
"अगर आपका मतलब है कि वृद्धि दर में लंबे वक्त तक टिकने वाला 5-6% तक का सुधार कब आएगा, तो इसमें 3-5 साल लगेंगे और वो भी तब होगा जब सही तैयारी के साथ सही तरीक़े से सब कुछ किया जाएगा."

समाधानः अर्थव्यवस्था बेहतरी की ओर कैसे बढ़े?
वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ सुब्बाराव का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के पक्ष में कुछ सकारात्मक चीज़ें हैं और उस पर ही और काम किए जाने की ज़रूरत है.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने शहरी अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले बेहतर तरीक़े से रिकवर किया है. वो कहते हैं, "जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी तो मनरेगा के विस्तार की योजना ने एक लाइफलाइन दी, और महिलाओं, पेंशनभोगियों और किसानों के खातों में तुरंत पैसे डाले गए जिससे उनके हाथ में पैसे आए और फिर से मांग पैदा करने में मदद मिली."
"हाल में कृषि क्षेत्र में किए गए कई सुधार हालात बेहतर करने की दिशा में अच्छी शुरुआत है."
भारत का कंजम्पशन बेस भी देश के लिए एक बड़ी सकारात्मक चीज़ है. देश के 1.35 अरब लोग प्रोडक्शन को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं.
डॉ. सुब्बाराव कहते हैं कि अगर उन लोगों के हाथ में पैसा दिया जाता है तो वो खर्च करेंगे जिससे आख़िरकार खपत ही बढ़ेगी. लेकिन ये लक्ष्य हासिल करने के लिए "मज़बूत नीतियों और उनको दृढ़ निश्चय के साथ लागू करने की ज़रूरत होगी."
भारतीय केंद्रीय बैंक में पद संभालने से पहले वित्तीय सचिव रह चुके डी सुब्बाराव इस आम राय से सहमति जताते हैं कि मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार को पैसा खर्च करना शुरू करना चाहिए. निजी खपत, निवेश और शुद्ध निर्यात ग्रोथ के अन्य फैक्टर हैं, लेकिन फिलहाल ये सभी मुश्किल दौर में हैं.
साथ ही वो कहते हैं, "अगर सरकार इस वक़्त ज़्यादा खर्च करना शुरू नहीं करती है, तो ख़राब ऋण (बैड लोन) जैसी तमाम समस्याओं से निपटना और मुश्किल हो जाएगा और अर्थव्यवस्था की हालत और खस्ता होती जाएगी."
हालांकि वो चेतावनी देते हैं कि "सरकारी उधार की सीमा निर्धारित करना बहुत ज़रूरी होगा, ऐसा नहीं हो सकता कि इसकी कोई सीमा ही ना हो."
सरकार के लिए चार सूत्रीय कार्ययोजना
उन्होंने उन प्रमुख क्षेत्रों का ज़िक्र किया जिन पर उनके मुताबिक़ सरकार को फोकस करना चाहिए.
उनके मुताबिक़ सबसे पहले, आजीविका की रक्षा करनी होगी और ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीक़ा मनरेगा का विस्तार करना है जो सेल्फ-टार्गेटिंग है.
दूसरा है, सरकार को रोज़गार बचाने और बैड लोन को बढ़ने से रोकने के लिए संकटग्रस्त उत्पादन इकाइयों की मदद करनी चाहिए.
तीसरा, सरकार को बुनियादी ढांचे के निर्माण पर खर्च करना चाहिए जो संपत्ति के साथ-साथ नौकरियों का निर्माण करेगा.
अंत में, सरकार को बैंकों में अतिरिक्त पूंजी डालनी होगी ताकि क्रेडिट फ़्लो को बढ़ाया जा सके.
इस पहेली का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है नौकरियां पैदा करना. महामारी शुरू होने से पहले भी नौकरियों का सृजन एक बड़ी चुनौती थी.
रिसर्च फर्म, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के मुताबिक़, अगस्त में भारत की बेरोज़गारी दर नौ सप्ताह के उच्चतम स्तर यानी लगभग 9.1% पर थी.
"ज़रूरत है कि अर्थव्यवस्था एक महीने में 10 लाख नौकरियां पैदा करे; हम इसकी आधी भी पैदा नहीं कर रहे. बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 में पहली बार इसी वादे के साथ जीतकर आए थे कि वो "20 की उम्र वाले उन लोगों की ज़िंदगी बदल देंगे जो नए रोज़गार की तलाश कर रहे हैं. इस वादे का पूरा नहीं होना उनकी एक नाकामी मानी जानी चाहिए."
महामारी और फिर इसकी वजह से लगे लॉकडाउन ने नौकरियों के सृजन को कई गुनी बड़ी चुनौती दी है.
ये पूछे जाने पर कि नौकरियां आएंगी कहां से? डॉक्टर सुब्बाराव कहते हैं, "नौकरियों के सृजन के लिए भारत को मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर (विनिर्माण क्षेत्र) पर निर्भर होना पड़ेगा. इसीलिए, मेक इन इंडिया, मेक फॉर इंडिया और मेक फॉर द वर्ल्ड ये सभी महत्वपूर्ण नीतिगत उद्देश्य हैं."(BBCNEWS)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान में पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो ने लगभग सभी प्रमुख विरोधी दलों की बैठक बुलाई, जिसमें पाकिस्तानी फौज की कड़ी आलोचना की गई। पाकिस्तानी फौज की ऐसी खुले-आम आलोचना करना तो पाकिस्तान में देशद्रोह-जैसा अपराध माना जाता है। नवाज शरीफ ने अब इस फौज को नया नाम दे दिया है। उसे नई उपाधि दे दी है। फौज को अब तक पाकिस्तान में और उसके बाहर भी ‘सरकार के भीतर सरकार’ कहा जाता था लेकिन मियां नवाज ने कहा है कि वह ‘सरकार के ऊपर सरकार’ है। यह सत्य है।
पाकिस्तान में अयूब खान, याह्या खान, जिया-उल-हक और मुशर्रफ ने अपना फौजी शासन कई वर्षों तक चलाया ही लेकिन जब गैर-फौजी नेता लोग सत्तारुढ़ रहे, तब भी असली ताकत फौज के पास ही रहती चली आई है। अब तो यह माना जाता है कि इमरान खान को भी जबर्दस्ती जिताकर फौज ने ही पाकिस्तान पर लादा है। फौज ही के इशारे पर अदालतें जुल्फिकार अली भुट्टो, नवाज शरीफ और गिलानी जैसे नेताओं के पीछे पड़ती रही हैं। ये ही अदालतें क्या कभी पाकिस्तान के बड़े फौजियों पर हाथ डालने की हिम्मत करती हैं ? पाकिस्तान के सेनापति कमर जावेद बाजवा की अकूत संपत्तियों के ब्यौरे रोज उजागर हो रहे हैं लेकिन उन्हें कोई छू भी नहीं सकता। मियां नवाज ने कहा है कि विपक्ष की लड़ाई इमरान खान से नहीं है, बल्कि उस फौज से है, जिसने इमरान को गद्दी पर थोप रखा है।
यहां असली सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान के नेता लोग फौज से लड़ पाएंगे ? ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि फौज थोड़ी पीछे खिसक जाए। सामने दिखना बंद कर दे, जैसा कि 1971 के बाद हुआ था या जैसा कि कुछ हद तक आजकल चल रहा है लेकिन फौज का शिकंजा पाकिस्तानियों के मन और धन पर इतना मजबूत है कि उसे कमजोर करना इन नेताओं के बस में नहीं है। पाकिस्तान का चरित्र कुछ ऐसा ढल गया है कि फौजी वर्चस्व के बिना वह जिंदा भी नहीं रह सकता। यदि पंजाबी प्रभुत्ववाली फौज कमजोर हो जाए तो पख्तूनिस्तान और बलूचिस्तान टूटकर अलग हो जाएंगे। सिंध का भी कुछ भरोसा नहीं। 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद पाकिस्तानी जनता के मन में भारत-भय इतना गहरा पैठ गया है कि उसका एकमात्र मरहम फौज ही है। फौज है तो कश्मीर है। फौज के बिना कश्मीर मुद्दा ही नहीं रह जाएगा। इसके अलावा फौज ने करोड़ों-अरबों रु. के आर्थिक व्यापारिक संस्थान खड़े कर रखे हैं। जब तक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का मूल चरित्र नहीं बदलेगा, वहां फौज का वर्चस्व बना रहेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
माननीय मुख्य न्यायाधीशजी
यह पत्र एक डेजिग्नेटेड सीनियर एडवोकेट की तरफ से लिखा जा रहा है, जो 50 वर्ष की प्रैक्टिस हो जाने की जिंदगी के साथ है। कुछ वर्षों से कई संवैधानिक संस्थाओं की दुर्गति बहुत तेजी से वे खुद भी कर रही हैं। मुख्यत: कार्यपालिका अर्थात केंद्रीय मंत्रिपरिषद की खलनायकी इतिहास में दर्ज हो रही है। उसने चुन चुनकर संवैधानिक संस्थाओं की रीढ़ की हड्डी तोडऩे में सफलता प्राप्त की है।
सुप्रीम कोई की जो छवि बन गई है, उससे मुझ जैसे व्यक्ति का चिंतित होना जरूरी है। विशेषकर मौजूदा सरकार के पिछले 5, 6 वर्षों में जनहित के सभी बड़े मामले इस तरह उलझा दिए गए हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी उससे उम्मीद के अनुसार कोई सार्थक फैसला नहीं कर पाया है। आप तो बस कुछ महीनों में चले जाएंगे। बाकी जज भी एक के बाद एक चले जाएंगे। वकील कुछ ज्यादा समय तक टिकते हैं। वे भी चले जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट रहेगा। जनता रहेगी। देश रहेगा। इतिहास रहेगा।
संवैधानिक महत्व के कई प्रकरण जबरिया सुप्रीम कोर्ट में अटके हैं। कोर्ट की परंपरा के अनुसार इन पर फैसला हो जाना चाहिए था। कई जज ऐसे भी रहे हैं जिन्हें पूंजीपतियों और कॉरपोरेट हितों के मामले आनन फानन में निपटाने की बहुत जल्दी रही है। जनहित के पक्ष में बोलने वाले वकीलों को दंडित करने में कुछ जजों ने महारत हासिल कर ली थी। आपको यह पत्र कोई अनाड़ी नहीं लिख रहा है। उसने ईमानदारी से संविधान के मर्म को समझने की कोशिश की है।
मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि सभी महत्वपूर्ण संवैधानिक मामले दो में से एक विकल्प के अनुसार निपटाने की अगर आप आज्ञा दें, तो आपका कार्यकाल जो 23 अप्रेल 2021 को खत्म हो रहा है, अर्थात मात्र छह महीने में, एक ऊंचाई हासिल कर सकता है। जज तो रिटायर होने के बाद ही इतिहास में जीवित रहता है। इसका इल्म तो आप जैसे वरिष्ठ जज को होगा ही।
एक विकल्प यह है कि सबसे वरिष्ठ जज एन. वी. रमन्ना की अध्यक्षता में संविधान पीठ बने जिसमें क्रम से जजों रोहिंटन फली नरीमन, उदय यू. ललित, ए. एम. खानविलकर और धनंजय चंद्रचूड़ को रखा जाए। दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के जो वरिष्ठ वकील सीधे जज बनाए गए हैं। वे संवैधानिक मामलों को लेकर अन्य जजों के मुकाबले होते हुए वकील के रूप में बेहतर बहस भी करते रहे हैं। ऐसी हालत में आर.एफ. नरीमन, यू.यू. ललित, एल. नागेश्वर राव और इंदु मल्होत्रा जैसे जजों को बेंच में आपकी अध्यक्षता में रखा जाए तो बहस बेहद उत्तेजक, उर्वर और अर्थमयी हो सकती है। महत्वपूर्ण मामलों में मास्टर ऑफ रोस्टर वाली थ्योरी अपनाकर कनिष्ठ जजों को महत्वपूर्ण मामलों में रख दिया जाता है। इसी कारण चार वरिष्ठ जजों को प्रेस कान्फरेन्स करनी पड़ी थी। आशय अवमानना करना या तुलना करना नहीं है। वरिष्ठता का ध्यान रखना अनुभव के प्रति सम्मान भी होता है। इसी आधार पर आप भी चीफ जस्टिस बने हैं। आगे भी यही होगा।
एक विकल्प और है। यदि जस्टिस रमन्ना जस्टिस ललित जस्टिस चंद्रचूड़ के अतिरिक्त जस्टिस खन्ना जस्टिस गवई और जस्टिस सूर्यकांत में से शामिल करके कोई बेंच बने तो फायदा यह होगा कि ये सब के सब चीफ जस्टिस बनेंगे कम से कम 2026 तक। एक के बाद एक। तो सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक मामलों में विचारों में एकरूपता रहने की ज्यादा संभावना है।
कम से कम 15-20 महत्वपूर्ण मामले संविधान पीठ के लायक लंबित पड़े हैं। उनसे भारत के 137 करोड़ लोगों को अपने मूल अधिकारों के संदर्भ में लेना देना है। मेरा अनुरोध हवा हवाई नहीं है। मैं 80 वर्ष के ऊपर हूं। इस उम्र में लालच और लागलपेट से परे उठकर देश और युवा पीढ़ी का भविष्य देखना और चिंता करना मेरा कर्तव्य है।
आप यदि कर सकें तो चीफ जस्टिस के रूप में आपका कार्यकाल देश को कई नए साहसिक, जरूरी और परिणामधर्मी आयाम दे सकेगा। इस बात के लिए माफ करेंगे कि मैंने पत्र आपको हिन्दी में लिखा। अंग्रेजी में बहस करने से भी देश का बहुत भला नहीं हुआ है। इसीलिए हम सबके आराध्य गांधी ने अंत में कहा था जाओ दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है। कोरोना हट जाए। आप रिटायर हो जाएं। फिर आपसे मिलूंगा जरूर जिससे आपको आश्वस्त कर सकूं कि मैं इस पत्र के कथ्य को लेकर गंभीर रहा हूं।
-लक्ष्मण सिंहदेव
जैन धर्म, बौद्ध धर्म के समान ही एक अनीश्वरवादी दर्शन है। विश्व की उतपत्ति का जैन सिद्धांत वैज्ञानिक मान्यताओं के सबसे जयादा नजदीक है ऐसा मेरा मानना है। 1893 में शिकागो हुई विश्व धर्म संसद में वीरचंद गाँधी ने विश्व पटल पर जैन धर्म से परिचित करवाया।
इस कॉन्फ्रेंस के लिए आचार्य विजयचन्द सूरी को जाना था चूँकि जैन मुनि केवल पैदल चलते हैं इसलिए वीरचंद को चुना गया। वीरचंद का जन्म 1864 में महुआ। गुजरात में हुआ। वीर चंद ने बंबई के एल्फिंस्टीन कॉलेज से बेचलर डिग्री ली और 21 साल की उम्र में वीर चंद गाँधी को भारतीय जैन संगठन का सचिव चुन लिया गया।
शिकागो की धर्म संसद में वीरचंद, जैन धर्म के आधिकारिक प्रतिनिधि के तौर पर गए। वीरचंद गाँधी ने अपनी विद्धता से बहुत श्रोताओ को प्रभावित किया और धर्म दर्शन के अलावा अनेक विषयों पर 535 लेक्चर दिए। समुद्र पार यात्रा करने के कारण बहुत से जैनियों ने वीर चंद की आलोचना की। स्वामी विवेकानंद ने वीर चंद के समर्थन में आलेख लिखा। विवेकानंद, वीरचंद के ज्ञान से प्रभावित थे। 1895 में वीरचंद दोबारा अमेरिका की यात्रा पर गए और वहां जैन धर्म का प्रचार किया। उसी समय भारत में दुर्भिक्ष की स्थिति हो गई। वीर चंद ने अमेरिका से एक अनाज का भरा जहाज और हजारो रूपये भिजवाएं। वीरचंद की मृत्यु मात्र 37 वर्ष की अवस्था में बंबई में 1901 में हो गई।
- Ritika
ये शब्द हैं असोसिएशन ऑफ पैंरट्स ऑफ डिसअपीर्यड पर्सन्स की अध्यक्ष परवीना एंगर के। वह परवीना एंगर जिन्हें कश्मीर की आयरन लेडी के नाम से भी जाना जाता है। पांच बच्चों की मां परवीना एंगर 1990 तक कश्मीर की एक आम महिला ही थी लेकिन 1990 के एक घटनाक्रम ने उनके जीवन के उद्देश्य को ही बदल दिया। 18 अगस्त 1990 को नैशनल सेक्योरिटी गार्ड्स परवीना एंगर के बेटे को उठाकर ले गई। तब उनका बेटा जावेद अहमद एहंगर सिर्फ ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था। अपने बेटे की खोज में परवीना एंगर जो साक्षर भी नहीं थी, जम्मू-कश्मीर की एक जेल से दूसरी जेल, पुलिस स्टेशन, अस्पतालों और मुर्दाघरों में भटकती रही लेकिन कुछ पता न चला। अपने बेटे की खोज में जुटी परवीना एंगर को यह एहसास हुआ कि यह कहानी सिर्फ उनकी नहीं थी। उनकी तरह ही न जाने कितने लोग कश्मीर में अपने गुमशुदा परिजनों की तलाश में दर-ब-दर भटक रहे थे।
अपने बेटे की खोज के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रही परवीना एंगर इस दौरान कई ऐसे लोगों से मिली जो अपने बेटों, पति और पिता की तलाश में भटक रहे थे। उन्हें इन सबका दुख अपने दुख जैसा मालूम हुआ। अपने गुमशुदा परिजनों की तलाश में भटक रहे इन परिवारों ने आपस में मिलना-जुलना शुरू किया। इन पीड़ित परिवारों की अनऔपचारिक मुलाकात ही एपीडीपी की ओर बढ़ाया गया पहला कदम था। ये लोग अपने गायब हुए परिवारजनों के नाम की लिस्ट हाईकोर्ट और ज़िला न्यायालयों की दीवारों पर चिपका दिया करते थे। पुलिस इन लोगों को मारती थी, महिलाएं भी चोटिल होती थी फिर इन लोगों ने परवीना एंगर के घर पर मिलना शुरू किया। इस शुरुआत में परवीना को पहले उनके परिवार का साथ नहीं मिला लेकिन इससे उनकी हिम्मत नहीं टूटी। परवीना एंगर बताती हैं कि जबसे उन्होंने ये कदम उठाया तब से परिवार वालों का व्यवहार उनके प्रति काफी बदल गया। अपने बेटे को खोजने और दूसरे लोगों को हिम्मत देने में जुटी परवीना तब अपने परिवार और अपने बाकी बच्चों पर पूरी तरह ध्यान ही नहीं दे पा रही थी।
तमाम मुश्किलों के बाद कश्मीर के इन गुमशुदा लोगों और अपने बेटे की तलाश ने ही असोसिएशन ऑफ पैंरट्स ऑफ डिसअपीर्यड पर्सन्स की नींव रखी। परवीना एंगर ने साल 1994 कश्मीर के मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील परवेज़ इमरोज़ और अन्य लोगों के साथ मिलकर एपीडीपी की शुरुआत की। एपीडीपी का मुख्य उद्देश्य गुमशुदा लोगों के परिवारों को हर तरह की मदद मुहैया करवाना है। कई मामलों में घर के मर्द जो इकलौते कमाने वाले होते हैं उनके गुमशुदा होने के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो जाती है। इसलिए एपीडीपी गुमशुदा लोगों के परिवारों को न सिर्फ कानूनी बल्कि आर्थिक और मेडिकल मदद भी मुहैया करवाता है। गुमशुदा लोगों की तलाश के लिए परवीना एंगर हर महीने की 10 तारीख को श्रीनगर के प्रताप पार्क में एक विरोध-प्रदर्शन आयोजित करती हैं ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके। उनके इस प्रदर्शन का मकसद खोए हुए परिजनों के दर्द को ज़िंदा रखना भी है।
कश्मीर लाइफ को दिए गए एक इंटरव्यू में परवीना एंगर बताती हैं कि उनका यह सफर इतना आसान नहीं था। लोग अपने गुमशुदा परिजनों के बारे में बात करने से डरते थे। जब वह गुमशुदा लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने जाती तो लोग उनके मुंह पर दरवाज़ा बंद कर देते, उन्हें गालियां सुनने को मिलती लेकिन उन्होंने अपना मिशन जारी रखा। गुमशुदा लोगों के मामले में उनका पहला काम होता था एफआईआर दर्ज करवाना, अगर पुलिस ने गुमशुदगी के मामले में पहले से एफआईआर दर्ज न की हो तो। परवीना एंगर के बेटे को गायब हुए लगभग 30 साल बीत चुके हैं लेकिन वह आज भी उतनी ही शिद्दत से उसे ढूंढने में लगी हुई हैं। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में परवीना कहती हैं, मैं एक बेहद शर्मीली इंसान थी, मैंने कभी घर के बाहर अकेले कदम तक नहीं रखा था लेकिन 1990 में जब मेरा बेटा गायब हुआ, इस घटना ने मेरे जीवन को बदलकर रख दिया। परवीना आज भी मानती हैं कि उनका बेटा ज़िंदा है और कभी न कभी वह उसे ज़रूर ढूंढ निकालेंगी।
कश्मीर लाइफ को दिए गए एक इंटरव्यू में परवीना एंगर बताती हैं कि उनका यह सफर इतना आसान नहीं था। लोग अपने गुमशुदा परिजनों के बारे में बात करने से डरते थे। जब वह गुमशुदा लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने जाती तो लोग उनके मुंह पर दरवाज़ा बंद कर देते, उन्हें गालियां सुनने को मिलती
परवीना एंगर साल 2005 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भी नामित की जा चुकी हैं। उन्हें सीएनएन-आईबीएन के एक पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था लेकिन उन्होंने यह पुरस्कार मेनस्ट्रीम मीडिया में कश्मीर को लेकर होने वाली कवरेज के आधार पर ठुकरा दिया था। साल 2008 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र की तरफ से अपना केस पेश करना का न्योता भी दिया गया था।
उन्हें साल 2017 में परवेज़ इमरोज़ के साथ नॉर्वे के प्रतिष्ठित राफ्टो पुरस्कार से भी नवाज़ा जा चुका है। पुरस्कार के दौरान उनके द्वारा दिए गए भाषण को एक बेहद भावुक और सशक्त भाषण के रूप में देखा जाता है। अपने भाषण के दौरान उन्होंने कहा था, ‘शुरुआत में मैंने अपने बेटे को हर जगह खोजा, मैं दुख में लगभग पागल हो चुकी थी। लेकिन तब मैंने देखा कि मेरे जैसे कई और लोग थे जो अपने बेटे, अपने पति, अपने भाई को खोज रहे थे इसलिए मैंने और परवेज़ इमरोज़ ने मिलकर एपीडीपी की स्थापना की।’ वह फिलिपिंस, थाईलैंड, इंडोनेशिया, लंदन, कंबोडिया जैसे कई देशों में भी मानवाधिकार के मुद्दे पर बोलने जा चुकी हैं। इतना ही नहीं उन्होंने ऑक्सफर्ड और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में कश्मीर में गायब हुए लोगों के संबंध में लेक्चर भी दिया है।
एपीडीपी के मुताबिक जम्मू-कश्मीर के लगभग 8000 लोग ऐसे हैं जो लापता हैं। कश्मीर में आफ्सपा लागू होने के बाद साल 1990 से लोगों के गुमशुदा होने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक नहीं थमा। यूनाइटेड नेशन डिक्लरेशन ऑन द प्रोटेक्शन ऑफ ऑल पर्सन फ्रॉम इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस (18 दिसबंर, 1992) के मुताबिक इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस मानवाधिकार उल्लंघन की श्रेणी में आता है। यूनाइटेड नेशन के अनुसार इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस का मतलब है किसी शख्स को उसकी मर्ज़ी के बगैर गिरफ्तार करना, हिरासत में लेना या अगवा करना और राज्य द्वारा उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर देना। साल 2007 में भारत ने इंटरनैशनल कंवेशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ ऑल पर्सन फ्रॉम इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस पर हस्ताक्षर तो किया था लेकिन इसे पूरी तरह लागू करने में असफल रहा है। इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस के बस कुछ ही मामलों की अब तक जांच हुई है।
परवीना एंगर को कश्मीर की आयरन लेडी के रूप में भी जाना जाता है पर वह कहती हैं कि कश्मीर की हर वो औरत आयरन लेडी है जो अपनों को खोज रही है। उनके मुताबिक यह उनकी अकेले की लड़ाई नहीं है क्योंकि उनकी तरह ही न जाने कितनी ही मांए अपने बेटों का इंतज़ार कर रही हैं। वह हर मामले से खुद को इतना जुड़ा हुआ इसलिए पाती हैं क्योंकि वह गुमशुदा लोगों के अधिकारों के लिए लड़ रही सिर्फ एक एक्टिविस्ट नहीं बल्कि खुद भी एक पीड़ित हैं।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
शोधकर्ताओं के अनुसार जंगलों के 5 किलोमीटर के दायरे में रहने वाली 71.3 फीसदी आबादी निम्न या मध्यम आय वाले देशों से सम्बन्ध रखती है
- Lalit Maurya
वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किए गए नए वैश्विक मानचित्र से पता चला है कि दुनिया भर में जंगलों के आस-पास 5 किलोमीटर के दायरे में करीब 160 करोड़ लोग बसे हुए हैं| यह विश्लेषण 2007 से 2012 के बीच एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित है| वन अर्थ नामक जर्नल में प्रकाशित इस शोध के अनुसार इस आबादी का करीब 64.5 फीसदी हिस्सा ट्रॉपिकल देशों में रहता है| वहीं विश्व बैंक द्वारा निम्न या मध्यम आय के रूप में वर्गीकृत देशों में इसकी 71.3 फीसदी आबादी बसती है|
इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और कोलोराडो बोल्डर विश्वविद्यालय से सम्बन्ध रखने वाले पीटर न्यूटन के अनुसार वैश्विक स्तर पर जंगलों के आसपास कितने लोग रहते हैं इस बारे में सही-सही कोई आंकड़े मौजूद नहीं हैं| यह शोध इस बारे में किया गया पहला प्रयास है जिसकी मदद से जंगलों के आसपास रहने वाले लोगों के लिए आजीविका का प्रबंध करने वाली परियोजनाओं में मदद मिल सकती है|
शोधकर्ताओं के अनुसार जो लोग अपनी आय के लिए जंगलों और उसके संसाधनों पर निर्भर रहते हैं उन्हें वन-निर्भर लोगों के रूप में जाना जाता है। हालांकि विश्व बैंक द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार संयोग से जंगलों के पास रहने वाले लोगों की संख्या वनों पर आश्रित लोगों की आबादी से मेल खाती है, जोकि करीब 160 करोड़ है| लेकिन जंगलों के पास रहने का यह मतलब नहीं है कि वो लोग अपनी जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं| न्यूटन के अनुसार वनों पर आश्रित लोगों से मतलब उनसे हैं जो वनों और उसके संसाधनों पर निर्भर हैं या फिर उनसे कुछ लाभ प्राप्त करते हैं| जबकि वनों के पास रहने वाले लोगों का तात्पर्य केवल जंगलों और उसके पास रहने वाले लोगों के स्थानिक सम्बन्ध से है|
जंगलों के आसपास रहने वाले लोगों की उनके संरक्षण में होती है महत्वपूर्ण भूमिका
न्यूटन के अनुसार जंगलों में और उसके आसपास बड़ी संख्या में लोग रहते हैं| जिनकी जंगलों के सतत विकास और संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है| ऐसे में जंगलों को प्रभावित करने वाले कार्यक्रम, परियोजनाएं और नीतियां इन लोगों को भी प्रभावित करती हैं|
जंगलों और उसके आसपास रहने वाले लोगों के बीच के स्थानिक संबंध को जानने के लिए न्यूटन और उनके सहयोगियों ने वर्ष 2000 से 2012 के बीच फारेस्ट कवर और जनसंख्या के घनत्व सम्बन्धी आंकड़ों का विश्लेषण किया है| इसके लिए जंगलों की सीमा के 5 किमी के दायरे में रहने वाले लोगों को शामिल किया गया है| साथ ही जिन क्षेत्रों में 5 एकड़ जमीन पर यदि 50 फीसदी से ज्यादा क्षेत्र पर यदि वृक्ष हैं तो उसे जंगल माना है| इसके साथ ही उन्होंने जिन क्षेत्रों में प्रति वर्ग किलोमीटर में 1,500 या उससे अधिक आबादी रहती है उसे वन क्षेत्र से बाहर रखा है|
शोधकर्ताओं का मानना है कि यह शोध अन्य शोधकर्ताओं और नीतिनिर्माताओं के लिए मददगार हो सकता है| जिसकी मदद से वो इन क्षेत्रों के विषय में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विश्लेषण कर सकते हैं| साथ ही इसकी मदद से जिन क्षेत्रों से जुड़े स्थानिक आंकड़े उपलब्ध हैं, उन स्थानों पर विश्लेषण किया जा सकता है| साथ ही इससे जंगलों के आसपास और उसपर निर्भर लोगों की स्थिति का जायजा लिया जा सकता है और उससे जुड़ी नीतियां बनाई जा सकती हैं|(downtoearth)
इस नई विकसित कोविड-19 त्वरित परीक्षण किट को अब ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से व्यावसायिक उपयोग के लिए विनियामक मंजूरी मिल गई है
कोरोना वायरस (एसएआरएस-सीओवी-2) के प्रकोप को नियंत्रित करने से जुड़े प्रयासों में एक महत्वपूर्ण कड़ी होती है कोविड-19 से संक्रमित रोगियों की पहचान। इस दिशा में लगातार काम कर रहे वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के शोधकर्ताओं द्वारा विकसित की गई कोविड-19 परीक्षण किट अब उपयोग के लिए तैयार है। इस नई विकसित कोविड-19 त्वरित परीक्षण किट को अब ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) से व्यावसायिक उपयोग के लिए विनियामक मंजूरी मिल गई है।
सीएसआईआर से संबद्ध नई दिल्ली स्थित जिनोमिकी और समवेत जीव विज्ञान संस्थान (आईजीआईबी) के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित यह एक पेपर-स्ट्रिप आधारित परीक्षण किट है, जिसकी मदद से कम समय में कोविड-19 के संक्रमण का पता लगाया जा सकता है। यह किट प्रेग्नेंसी का पता लगाने वाली किट की तरह है, जिसका उपयोग बेहद आसान है। इस पेपर स्ट्रिप किट में उभरी लकीरों से पता चल सकेगा कि कोई व्यक्ति कोरोना वायरस से संक्रमित है या नहीं। किट में ऐसे परीक्षण प्रोटोकॉल का उपयोग किया गया है, जिससे अन्य परीक्षण प्रोटोकॉल्स की तुलना में अपेक्षाकृत कम समय में परिणाम चिकित्सकों को मिल सकता है।
इस किट का विकास वैज्ञानिक समुदाय और उद्योग जगत के बीच एक प्रभावी साझेदारी का परिणाम है। भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विकसित इस परीक्षण को टाटा समूह द्वारा लॉन्च किया जाएगा। इसे सीएसआईआर-आईजीआईबी, आईसीएमआर और टाटा समूह ने साथ मिलकर विकसित किया है। उल्लेखनीय है कि इस किट के विकास और व्यावसायीकरण के लिए सीएसआईआर-आईजीआईबी और टाटा संस के बीच इस वर्ष मई के आरंभ में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे।
इस परीक्षण किट के नाम के साथ भी एक दिलचस्प बात जुड़ी है। बांग्ला फिल्मों के जासूसी किरदार के नाम पर इसको ‘फेलूदा’ नाम दिया गया है, शायद यह सोचकर कि किसी जासूस की तरह यह किट कोविड-19 संक्रमण का पता लगा सकती है। ‘फेलूदा’ किट वैज्ञानिकों की अपेक्षाओं पर खरी उतरी है। भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (आईसीएमआर) के दिशा-निर्देशों के अनुसार नये कोरोना वायरस का पता लगाने के लिए ‘फेलूदा’ किट को 96 प्रतिशत संवेदशनीलता और 98 प्रतिशत विशिष्टता के मापदंडों के अनुरूप पाया गया है।
यह पेपर स्ट्रिप-आधारित परीक्षण किट आईजीआईबी के वैज्ञानिक डॉ. सौविक मैती और डॉ. देबज्योति चक्रवर्ती की अगुवाई वाली शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा विकसित की गई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि फेलूदा परीक्षण किट, पारंपरिक आरटी-पीसीआर परीक्षणों की सटीकता के स्तर को प्राप्त कर सकता है। परीक्षण को विकसित करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि यह किट एक घंटे से भी कम समय में नये कोरोना वायरस (एसएआरएस-सीओवी-2) के वायरल आरएनए का पता लगा सकती है। आमतौर पर प्रचलित परीक्षण विधियों के मुकाबले यह किट काफी सस्ती है।
संक्रमण के संदिग्ध व्यक्तियों में कोरोना वायरस के जीनोमिक अनुक्रम की पहचान करने के लिए इस परीक्षण किट में स्वदेशी रूप से विकसित जीन-संपादन की अत्याधुनिक तकनीक क्रिस्पर (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats)-कैस-9 का उपयोग किया गया है। किट की प्रमुख विशेषता यह है कि इसका उपयोग तेजी से फैल रही कोविड-19 महामारी का पता लगाने के लिए व्यापक स्तर पर किया जा सकेगा। यह नैदानिक परीक्षण विशेष रूप से अनुकूलित कैस-9 प्रोटीन के उपयोग से विकसित किया गया है। वैज्ञानिक क्रिस्पर को भविष्य की तकनीक बताते हैं। उनका कहना है कि क्रिस्पर तकनीक का उपयोग आने वाले समय में कई अन्य रोगजनकों का पता लगाने के लिए भी किया जा सकता है।
सीएसआईआर के महानिदेशक डॉ शेखर सी. मांडे ने सीएसआईआर-आईजीआईबी के वैज्ञानिकों व शोध छात्रों, टाटा संस और डीसीजीआई को उनके अनुकरणीय कार्य और परस्पर सहयोग के लिए बधाई दी है। उन्होंने कहा है कि वर्तमान महामारी के दौरान इस नई नैदानिक किट को मंजूरी मिलना भारत के आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में बढ़ते कदमों को दर्शाता है। सीएसआईआर द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि यह भारतीय वैज्ञानिक समुदाय के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिसमें 100 दिनों से भी कम समय के भीतर शोध एवं विकास के क्रम से शुरू होकर उच्च सटीकता के साथ एक विश्वसनीय परीक्षण विकसित किया गया है।
सीएसआईआर-आईजीआईबी के निदेशक डॉ अनुराग अग्रवाल ने खुशी व्यक्त करते हुए कहा है कि इस प्रौद्योगिकी के विकास की परिकल्पना जीनोम डायग्नॉस्टिक्स और थैरेप्यूटिक्स के लिए सीएसआईआर के ‘सिकल सेल मिशन’ के तहत की गई थी। ‘सिकल सेल मिशन’ के तहत शुरू किए गए काम से एक नवीन ज्ञान का जन्म हुआ, जिसका उपयोग एसएआरएस-सीओवी-2 के नये नैदानिक परीक्षण को विकसित करने में किया गया है। उन्होंने कहा कि इस नई किट का विकास वैज्ञानिक ज्ञान व प्रौद्योगिकी के बीच परस्पर संबंधों एवं अनुसंधान टीम के नवाचार को दर्शाता है।
आईजीआईबी के वैज्ञानिकों ने बताया कि वे इस उपकरण को विकसित करने के लिए लगभग दो साल से काम कर रहे हैं। लेकिन, जनवरी के अंत में, जब चीन में कोरोना का प्रकोप चरम पर था, तो वैज्ञानिकों ने यह पता लगाने के लिए परीक्षण शुरू किया कि यह किट कोविड-19 का पता लगाने में कितनी कारगर हो सकती है। इस कवायद में किसी प्रभावी नतीजे पर पहुँचने के लिए वैज्ञानिक पिछले कई महीनों से दिन-रात जुटे हुए थे। अप्रैल में ही यह किट लगभग विकसित हो चुकी थी। पर, विश्वसनीयता और वैधता से जुड़े मानक परीक्षणों के बाद अब इस किट के व्यावसायिक उपयोग की मंजूरी मिली है।
टाटा मेडिकल ऐंड डायग्नोस्टिक्स लिमिटेड के सीईओ गिरीश कृष्णमूर्ति ने कहा है कि “कोविड-19 के लिए टाटा-क्रिस्पर परीक्षण की मंजूरी से वैश्विक महामारी से लड़ने के देश के प्रयासों को बढ़ावा मिलेगा। टाटा-क्रिस्पर परीक्षण का व्यावसायीकरण देश में शोध एवं विकास के लिए भारतीय प्रतिभा के संकल्प एवं समर्पण का द्योतक है। यह भारतीय प्रतिभा वैश्विक स्वास्थ्य सेवा और वैज्ञानिक अनुसंधान में दुनिया को अपना योगदान दे सकती है।”
(इंडिया साइंस वायर)(downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नौ आतंकियों और तीन जासूसों की गिरफ्तारी की खबर देश के लिए चिंताजनक है। आतंकी अल-कायदा और पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं और जासूस चीन से! जासूसी के आरेाप में राजीव शर्मा नामक एक पत्रकार को भी गिरफ्तार किया गया है। जिन नौ आतंकियों को गिरफ्तार किया गया है, वे सब केरल के हैं। वे मलयाली मुसलमान हैं। इनमें से कुछ प. बंगाल से भी पकड़े गए हैं। इन दोनों राज्यों में गैर-भाजपाई सरकारें हैं।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने इन लोगों को कुख्यात अल-कायदा और पाकिस्तान की जासूसी एजेंसी से संपर्क रखते हुए पकड़ा है। इन पर आरोप है कि इनके घरों से कई हथियार, विस्फोटक सामग्री, जिहादी पुस्तिकाएं और बम बनाने की विधियां और उपकरण पकड़े गए हैं। ये आतंकी दिल्ली, मुंबई और कोची में हमला बोलनेवाले थे। ये कश्मीर पहुंचकर पाकिस्तानी अल-कायदा द्वारा भेजे गए हथियार लेनेवाले थे। ये लोग केरल और बंगाल के भोले मुसलमानों को फुसलाकर उनसे पैसे भी उगा रहे थे।
भारत में लोकतंत्र है और कानून का राज है, इसलिए इन लोगों पर मुकदमा चलेगा। ये लोग अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने के लिए तथ्य और तर्क भी पेश करेंगे। उन्हें सजा तभी मिलेगी, जबकि वे दोषी पाए जाएंगे। लेकिन ये लोग यदि हिटलर के जर्मनी में या स्तालिन के सोवियत रुस में या माओ के चीन में या किम के उ. कोरिया में पकड़े जाते तो आप ही बताइए इनका हाल क्या होता? इन्हें गोलियों से भून दिया जाता। अन्य संभावित आतंकियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाती। ये आतंकी यह क्यों नहीं समझते कि इनके इन घृणित कारनामों की वजह से इस्लाम और मुसलमानों की फिजूल बदनामी होती है।
जहां तक चीन के लिए जासूसी करने का सवाल है, यह मामला तो और भी भयंकर है। जहां तक आतंकियों का सवाल है, वे लोग या तो मजहबी जुनून या जिहादी उन्माद में फंसे होते हैं। उनमें गहन भावुकता होती है लेकिन शीर्षासन की मुद्रा में। किन्तु जासूसी तो सिर्फ पैसे के लिए की जाती है। लालच के खातिर ये लोग देशद्रोह पर उतारु हो जाते हैं। पत्रकार राजीव शर्मा और उसके दो चीनी साथियों पर जो आरोप लगे हैं, वे यदि सत्य हैं तो उनकी सजा कठोरतम होनी चाहिए। राजीव पर पुलिस का आरोप है कि उसने एक चीनी औरत और एक नेपाली आदमी के जरिए चीन-सरकार को दोकलाम, गलवान घाटी तथा हमारी सैन्य तैयारी के बारे में कई गोपनीय और नाजुक जानकारियां भी दीं।
इन तीनों के मोबाइल, लेपटॉप और कागजात से ये तथ्य उजागर हुए। राजीव के बैंक खातों की जांच से पता चला है कि साल भर में उसे विभिन्न चीनी स्त्रोतों से लगभग 75 लाख रु. मिले हैं। भारत के विरुद्ध जहर उगलनेवाले अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ में राजीव ने लेख भी लिखे हैं। देखना यह है कि उन लेखों में उसने क्या लिखा है ? दिल्ली प्रेस क्लब के अध्यक्ष आनंद सहाय ने बयान दिया है कि राजीव शर्मा स्वतंत्र और अनुभवी पत्रकार है और उसकी गिरफ्तारी पुलिस का मनमाना कारनामा है। वैसे तो किसी पत्रकार पर उक्त तरह के आरोप यदि सत्य हैं तो यह पत्रकारिता का कलंक है और यदि यह असत्य है तो इसे सरकार और पुलिस का बेहद गैर-जिम्मेदाराना काम माना जाएगा।
दिल्ली पुलिस को पहले भी पत्रकारों के दो-तीन मामलों में मुंह की खानी पड़ी है। उसे हर कदम फूंक—फूंककर रखना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अव्यक्त
लगभग आठ साल पहले की बात है। दो जीव पंजाब सूबे के भारतीय हिस्सों में अपनी कुछ जिज्ञासाओं के साथ घूम रहे थे।
सबसे बड़ी जिज्ञासा थी कि पंजाब का किसान अपनी किसानी के बारे में क्या सोचता है? खासकर सरकार और आढ़तियों के साथ अपने संबंधों को कैसे देखता है?
हम पंजाब के लगभग सभी हिस्सों में गए, गाँवों में गए, मंडियों में गए, जिलों और तहसीलों में गए, खेतों और बागानों में भी गए।
दरबार साहिब के अमृत सरोवर में केसरिया रंग की मछलियों को अठखेलियाँ करते हुए भी देखा, मत्था ठेका, परसाद खाया, सबद-कीरतन भी सुने। गुरु अर्जुनदेवजी की बानी चल रही थी- ‘मिठ बोलणा जी.. हर सजण स्वामी मोरा...’ गुरु का, कुदरत का उपदेश था कि हम मीठी वाणी बोलें।
तो मीठी वाणी में ही किसानों से दिल खोलकर बातें हुईं। आढ़तियों से भी बिना किसी पूर्वाग्रह के मिले। सबसे प्रेम और करुणा से मिले। ऐसे मिले जैसे कोई अपने ही परिजनों से मिलता है।
किसान यूनियन के समृद्ध नेताओं में एक प्रकार का अत्युत्साह होता है। वे भी सज्जन लोग ही होते हैं, लेकिन उनकी किसानी में व्यापार और राजनीति घुली-मिली होती है।
आढ़तिया एसोसिएशन के नेताओं से भी उनकी ‘व्यावहारिक समस्याओं’ के बारे में खुलकर बातें हुईं। 2 परसेंट मार्जिन का माया-मोह किस तरह बाकी 98 परसेंट पर भारी पड़ता है, यह समझ में आया।
अपेक्षाकृत छोटे किसानों की ऋणग्रस्तता की कहानियाँ बड़ी कारुणिक थीं। घर की महिलाओं और 40 पार कर चुकीं अविवाहित बेटियों से बात करके कई बार हमारी आँखें सजल हो जातीं। फोटो खींचते हुए कई बार हाथ काँपने लगते और आखिरकार नहीं ही खींच पाते।
किसान और आढ़तिये के बीच का संबंध इतना शुष्क नहीं है। वे लंबे समय से एक साथ गर्भनाल की तरह जुड़े रहे हैं। महाजनी निर्भरता से शुरू होकर ये अब ये एक प्रकार के संरक्षक (पेट्रन) और यजमान (क्लाइंट) के सहोपकारी संबंधों में बदल चुका है। लेकिन पेट्रनेज चाहे कैसी भी हो, होती वह लगभग गुलामी ही है।
लेकिन इतना होते हुए भी सामाजिक रूप से यह संबंध केवल सौदेबाजी वाला या ट्रांजैक्शनल नहीं है। प्रचलित नज़रिए से एक को पीडि़त और दूसरे को पीडक़ के खाँचे में रखकर देखना आसान तो है, लेकिन यह दृष्टिकोण पूर्ण और पर्याप्त नहीं है।
राजनीतिशास्त्र की किताबों में पढ़ाते हैं कि राज्य या शासन एक ‘आवश्यक बुराई’ है। वह एक ‘नेससेरी ईविल’ है। ऐसे ही कभी-कभी आढ़तियों का चित्रण ‘डेविल’ के रूप में करते हैं। तो एक ‘ईविल’ हो गया और दूसरा ‘डेविल’ हो गया।
अब कॉरपोरेट के रूप में एक ‘सुपर-डेविल’ का भी भय व्याप्त है। वह गॉडजिला की तरह विचित्र शक्तियों से लैस बताया जाता है। वह पौराणिक कथाओं का ‘मय दानव’ बताया जाता है। यानी वह दिखता तो ‘रचनात्मक’ है, लेकिन वह छलिया भी (या छलिया ही) हो सकता है।
इधर शासन रूपी ‘ईविल’ किसी भी नाम, रूप या रंग को हो, वह ‘विकास’ नाम के चमकदार चेतक पर सवार होकर दायें-बायें देखे बिना ही दौड़ता रहता है। लेकिन उस चमकदार तुरंग के खुर में लगा कठोर नाल कब, किसे और कहाँ-कहाँ घायल कर सकता है, इसका उसे होश नहीं रहता।
किसान तो स्वभाव से ही राजा होता है। उसे राजा ही होना चाहिए। बल्कि उसी में असल शहंशाह होने की संभावना पाई जाती है। लेकिन आज वह भिखारी है। क्योंकि वह अपनी ताकत भूल गया है। वह भी इस पतनकारी और दिखावटी जीवन की अंधी दौड़ में पड़ गया है।
वह नशे में पड़ा। ऋण लेकर घी खाने के चक्कर में पड़ा। वह लाखों के दहेज के लेन-देन में पड़ा। खर्चीली और दिखावाबाज शादियों की अंधी खाई में गिरा। वह कनैडा और कैनबरा के अपने भाई-बंधुओं से प्रतियोगिता के कुचक्र में फँसा। वह धरती का श्रमनिष्ठ सेवक होने की जगह जमींदार बनने की चाह में स्वधर्म से च्युत हुआ।
वह खिलौनों या सामग्रियों की तरह सजी कुडिय़ों और हर बार एक नए मर्सीडीज़ से उतरकर उंगलियाँ लहराते मुंडों के वीडियोज़ के भुलावे में खो गया। गाँव-गाँव में महंगे रेस्तराँ और बार खुल चुके हैं। मौसमी तरकारी नहीं मिलेगी, लेकिन फ्राइज़, बर्गर, जिंगर और चिज्जा जरूर मिल जाएंगे।
बैंकों और केसीसी का मायाजाल फैला है। बीज से लेकर बोरी तक के लिए वह शासन और महाजन की दया पर निर्भर हो चुका है। अब वह तरह-तरह की बीमारियाँ लेकर बैठा है। इलाज के पैसे आढ़तिया देता है। जमीनें तक बंधक हो चुकी हैं।
वह अपना ही उगाया जहरीला गेहूँ और चावल नहीं खाना चाहता। सब्जियों पर जहरीली दवाइयाँ छिडक़ते-छिडक़ते वह खुद कैंसर के मुँह में जा गिरा है। मिट्टी उसकी कबकी मर चुकी है। मिट्टी के सूक्ष्म मनुष्योपकारी जीवों की चीख उसे समय रहते सुनाई नहीं पड़ी।
इसलिए आज वह शासन और महाजन के बीच थाली के बैगन की तरह इधर-उधर लुढक़ रहा है। वह अपनी ही शक्ति भूल चुका है। यह बात केवल पंजाब ही नहीं, कमोबेश देश के लगभग सभी हिस्सों के किसानों पर लागू होती है।
गुरु नानक देवजी स्वयं किसानी करते थे। स्वयं हल चलाते और फसल काटते हुए उनकी सौम्य छवियाँ आज के किसानों को आईना दिखा सकती हैं। उन्हें उनके स्वधर्म की याद दिला सकती हैं। पंथवादी कट्टरता की जगह उन्हें सच्ची रूहानियत की ओर ले जा सकती है।
‘जपुजी साहिब’ में गुरु नानक देव जी ने अपने अंतिम श्लोक (सलोकु) में कहा है—
‘पवणु गुरु, पाणी पिता, माता धरती महतु।
दिवसु राति दुइ दाइआ खैले सगल जगतु।
चंगिआईआ बुरिआईआ वाचै थरमु हदूरि।
करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि।’
यानी धरती माता है, पानी पिता है और हवा गुरु है। इनपर किसी की मालिकी नहीं हो सकती। रात और दिन काल के प्रतिनिधि हैं जो पूरे संसार को बच्चे की तरह खेल खेला रहे हैं। अच्छे और बुरे सभी कामों का हिसाब-किताब उसके दरबार में रखा जाता है। कोई उससे नजदीक रहे या दूर उसे अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है।
शासन और महाजन तो भटके हैं ही। धरती, पानी और हवा का वे सौदा कर चुके हैं। अहंकार और पतन के पंथ पर वे अपना मूल ही गँवा चुके हैं। दिखाई भले न देता हो, लेकिन भुगत तो रहे ही हैं। लेकिन किसान आज भी चाह ले तो अपनी रूहानियत से इन भूलों को राह दिखा सकता है।
फिर वो हाथ फैलाकर नहीं, बल्कि सिर उठाकर कविगुरु रवि ठाकुर की तरह मुक्तकंठ से उद्घोष करेगा—
(आमरा सबाइ राजा)
आमादेर एइ राजार राजत्वे—
नइले मोदेर राजार सने मिलब की स्वत्वे!
सबका मंगल हो, सबका भला हो!
-डॉ राजू पाण्डेय
सरकार कोविड-19 के कारण उत्पन्न स्वास्थ्य आपातकाल जैसी दशाओं के मध्य - जबकि संसद से बाहर और संसद में भी चर्चा, विमर्श, प्रतिरोध एवं जनांदोलन के लिए स्थान लगभग नगण्य है- कृषि सुधारों को अध्यादेशों के रूप में चोर दरवाजे से जून माह में लागू करती है, फिर संसद के मानसून सत्र में इन्हें विधेयकों के रूप में पेश किया जाता है और संसद के अंदर एवं बाहर जबरदस्त विरोध के बावजूद यह बिल पास कराए जाते हैं। राज्यसभा में विपक्ष द्वारा मत विभाजन की माँग अस्वीकार कर दी जाती है और बिल को ध्वनि मत से पास करा दिया जाता है जबकि विपक्ष यह दावा कर रहा है कि यदि मत विभाजन होता तो सरकार की हार तय थी।
बहरहाल जैसी इस सरकार की रणनीति रही है राज्यसभा में विपक्षी सदस्यों के हंगामे को आधार बनाकर राजनाथ सिंह के नेतृत्व में 6 मंत्रियों की प्रेस कांफ्रेंस होती है और रक्षात्मक होने के स्थान पर हमलावर तेवर दिखाए जाते हैं। सरकार की हड़बड़ी और हठधर्मिता संदेह उत्पन्न करने वाले हैं।
सरकार के यह कृषि सुधार किसानों के सहस्राधिक छोटे बड़े संगठनों द्वारा वांछित नहीं थे। किसी भी किसान संगठन ने इन सुधारों की न तो माँग की थी न ही इनके लिए कोई आंदोलन ही हुआ था। कृषि और किसी राज्य के भीतर होने वाला व्यापार राज्य सूची के विषय हैं। केंद्र सरकार इनके विषय में बिना राज्यों से चर्चा किए और बिना उन्हें विश्वास में लिए कोई कानून कैसे बना सकती है? सरकार ने पहले इन सुधारों को कोविड-19 विषयक राहत पैकेज से जोड़ा और इन्हें कोविड-19 व लॉक डाउन के कारण बर्बाद हो गए किसानों की दशा सुधारने के आपात उपायों के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की। किंतु यह सभी को पता था कि इन कृषि सुधारों का कोविड-19 और लॉक डाउन की मार झेल रहे बदहाल किसानों से कुछ भी लेना देना नहीं है, इसलिए सरकार का यह झूठ चल नहीं पाया और अब सरकार खोखली आक्रामकता के साथ यह कह रही है कि पिछले दो दशकों से जिन कृषि सुधारों की मांग की जा रही थी उन्हें हमने क्रियान्वित किया है। हमारे इरादे मजबूत हैं। हम निर्णय लेने वाली सरकार हैं जिसका नेतृत्व श्री नरेन्द्र मोदी जी के हाथों में है जिनका आविर्भाव ही भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए हुआ है। इसके बाद सरकार के प्रवक्ता और मंत्रीगण अपनी स्मरण शक्ति और कल्पना शक्ति की सीमाओं के अनुसार मोदीजी के अलौकिक और दैवीय गुणों का बखान करने लगते हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इन कृषि सुधारों को लागू करने के पीछे सबसे बड़ा तर्क यही है कि मोदी जी ने इनके लिए इच्छा की है।
कुल मिलाकर यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार किसी भी कीमत पर इन कृषि सुधारों को लागू करना चाहती है और इसके लिए वह अतिशय सतर्कता और चातुर्य का सहारा ले रही है। किंतु अनेक बार ऐसा लगता है कि सरकार अनावश्यक रूप से इतनी सावधानी बरत रही है। देश में किसान आंदोलन की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ताकतवर कहे जाने वाले किसान नेताओं में एक बड़ी संख्या छोटे पूंजीपतियों की है जिनके लिए कृषि एक व्यापार रही है और खेत में हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले असली किसान से जिनका रिश्ता स्वार्थी मालिक और मजबूर मजदूर का ही रहा है। जिस प्रकार ट्रेड यूनियन आंदोलन को राजनीतिक दलों के प्रवेश ने छिन्न-भिन्न कर दिया है उसी प्रकार किसान आंदोलन भी राजनीतिक दलों के प्रवेश के बाद एक लक्ष्य के लिए एकरैखिक संघर्ष कर पाने में असमर्थ सा हो गया है। आज किसान राजनीति करने वाले अनेक नेता किसानों के हित के लिए राजनीति नहीं करते बल्कि किसानों के बल पर अपना हित साधने की राजनीति करते हैं। आंदोलन को मूल लक्ष्य से भटकाने वाले समझौतापरस्त नेताओं की संख्या बढ़ी है जिनके लिए किसान हित के स्थान पर दलीय स्वार्थ और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं अधिक महत्वपूर्ण हैं।
सरकार अंतत: कॉरपोरेट घरानों के लिए कार्य कर रही है और सरकार का विरोध कर रहे किसानों की असली लड़ाई इन्हीं से होनी है। इस बात की पूरी आशंका है कि कृषि के कॉरपोरेटीकरण के विरोध में होने वाले किसान आंदोलन छोटे-बड़े स्थानीय पूंजीपतियों और दानवाकार कॉरपोरेट्स के मध्य हितों के टकराव में न बदल जाएं। यह दोनों ही समान आदर्शों द्वारा संचालित हैं, किसी भी कीमत पर अपने मुनाफे को बरकरार रखना और बढ़ाना इनका एकमात्र ध्येय है। अत: इनके बीच सौदे, समझौते और गठजोड़ की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी। बाजारवादी वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था उस आदिम सिद्धांत द्वारा संचालित होती रही है जिसके अनुसार छोटी मछली की नियति ही यह है कि बड़ी मछली द्वारा उसे खा लिया जाए किंतु यह तभी संभव हो सकता है जब छोटी मछलियों में एकता न हो, वे असंगठित हों और उनमें बड़ी मछली को मदद देने वाली छोटी मछलियां हों। दुनिया के विकासशील देशों में बाजारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था ने छोटे व मझोले उद्योग धंधों और कृषि को तबाह किया है।
बाजारवाद अपने मंसूबों में कामयाब हुआ है, इसके पीछे एक बड़ा कारण यह रहा है कि छोटे पूंजीपतियों, संपन्न और ताकतवर किसानों तथा उच्च मध्यम वर्ग ने इसे प्रारंभ में समृद्धि के एक अवसर के रूप में समझने की गलती की है और इसकी बड़ी कीमत भी चुकाई है। यह देश का दुर्भाग्य होगा यदि यह किसान प्रतिरोध दो शोषकों की नूरा कुश्ती में बदल जाए जहाँ कॉर्पोरेट घराने तथा नए तेवर और कलेवर वाले जमींदारनुमा किसान नेता आम किसान का खून चूसने के अपने अपने हक के लिए दावे करते नजर आएं और कोई ऐसी दुरभि संधि हो जाए जिसमें आम किसान को मैनेज करने का ठेका इन आधुनिक जमींदारों को मिल जाए।
अभी तक किसानों ने अपने आंदोलन का स्वरूप अराजनीतिक बनाए रखा है किंतु जब उनके भाग्य का फैसला राजनीतिज्ञों को ही करना है तब यह अराजनीतिक स्वरूप लंबे समय तक बरकरार रह पाएगा ऐसा नहीं लगता। आंदोलन को महत्वहीन बनाने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। इन कृषि सुधारों के समर्थन में आंदोलनरत किसानों के समाचार टीवी चैनलों पर आने लगे हैं। अब प्रायोजित समर्थन और प्रायोजित विरोध जैसे आरोपों और प्रत्यारोपों का विमर्श प्रारंभ हो जाएगा। किसानों के प्रतिरोध को हरियाणा और पंजाब के किसानों तक सीमित बताने और बनाने की कोशिश भी हो रही है जिससे इसे राष्ट्रव्यापी विस्तार न मिल सके।
सत्तारूढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस सिद्धांतत: इन कृषि सुधारों के समर्थक हैं। भाजपा जब विपक्ष में थी तब वही संवाद बोलती थी जो आज कांग्रेस बोल रही है और जब कांग्रेस सत्ता में थी तब वही संवाद अदा करती थी जो आज भाजपा द्वारा अदा किए जा रहे हैं। अभी तक इन दोनों अदाकारों के ये संवाद जनता को पसंद आते रहे हैं और इसीलिए किसी तीसरे विकल्प को अवसर नहीं मिलता।
यह दु:खद संयोग है कि अब भी जब इन कृषि सुधारों पर संसद में चर्चा हो रही थी तो कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व चर्चा में सम्मिलित नहीं हो सका। संभवत: पुत्र राहुल अपनी रुग्ण माता सोनिया की चिकित्सा के लिए देश से बाहर हैं। राहुल उन जवाहरलाल नेहरू के वंशज हैं जिनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा जेलों में गुजरा। अपनी अर्द्धांगिनी की गंभीर अस्वस्थता के दौरान भी नेहरू अंग्रेजों की कैद में थे। राहुल उस कांग्रेस के सदस्य हैं जिसके हजारों कार्यकर्ता स्वतंत्रता संग्राम में बहादुरी से लड़े और अपने परिवार की कीमत पर उन्होंने देश को आजादी दिलाई। राहुल उस कांग्रेस से जुड़े हैं जिसने गांधी जी के नेतृत्व में किसानों के हक की लड़ाई को देश की आजादी के महाभियान में बदल दिया था। इसीलिए उनसे यह अपेक्षा हमेशा रहती है कि वे प्राथमिकताओं का बेहतर चयन करेंगे और असाधारण साहस एवं समर्पण का परिचय देंगे।
देश के लघु और सीमांत किसानों तथा कृषि मजदूरों को हमने 2018-19 के महाराष्ट्र के लांग मार्च के दौरान सडक़ों पर अपने हक के लिए प्रदर्शन करते देखा था। यह असंतोष देश के अनेक प्रदेशों में व्याप्त था, उग्र धरने-प्रदर्शन आयोजित किए जा रहे थे। 2019 के लोकसभा चुनाव निकट थे और हम सब प्रसन्न एवं आश्वस्त थे कि पहली बार किसान कम से कम कुछ प्रदेशों में एक किसान के रूप में मतदान करेंगे। किंतु किसानों का यह असंतोष वोटों में बदल नहीं पाया। बहुतेरे किसानों ने जाति, धर्म और उग्र राष्ट्रवाद के आधार पर मतदान किया। अनेक किसान स्थानीय मुद्दों और प्रांतवाद के फेर में पड़ गए और भाजपा को फिर जीत मिली।
हरित क्रांति के जमाने से हमारे देश में अपनाई गई नीतियाँ कुछ ऐसी रही हैं कि कृषि की उन्नति और किसानों की समृद्धि में व्युत्क्रमानुपाती संबंध रहा है। कृषि जितनी ज्यादा उन्नत होती है, कृषि उत्पादन जितना ही अधिक बढ़ता है किसान उतना ही निर्धन और पराधीन होता जाता है। वर्तमान कृषि सुधार कोई अपवाद नहीं हैं। इन कृषि सुधारों से कृषि क्षेत्र का घाटा कम हो जाएगा। उन्नत तकनीक और यंत्रीकरण के कारण लागत में कमी आएगी। कृषि उत्पादन में वृद्धि होगी। कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण और परिरक्षण की सुविधाएं बढ़ेंगी। कृषि में अधोसंरचना का विकास होगा। किंतु इन सारे क्रांतिकारी परिवर्तनों का लाभ छोटे, मझोले और सीमांत किसानों तथा कृषि मजदूरों को कभी नहीं मिल पाएगा। यह कृषि सुधार देश की मिट्टी से सने असली किसान के लिए नहीं हैं बल्कि इन लाखों मेहनतकशों को जो थोड़ी बहुत आर्थिक आजादी या जमीन की मालकियत का जो खोखला सा अहसास मयस्सर था उसे भी उनसे छीना जा रहा है। इन कृषि सुधारों को लागू करने के पीछे जो तर्क दिया जा रहा है वह भी नया नहीं है। मंडी व्यवस्था में जबरन प्रविष्ट कराई गई असंख्य बुराइयों और इस व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से हम सभी परिचित हैं। कहीं राजनीतिकरण तो कहीं लालफीताशाही किसानों को उनके हक से वंचित करती रही है। समर्थन मूल्य की अपर्याप्तता और उस अपर्याप्त समर्थन मूल्य पर भी खरीद न हो पाने तथा किसानों को खरीदी गई फसल का दाम न मिलने की शिकायतें आम रही हैं। किंतु इन बुराइयों को दूर करने के स्थान पर अप्रत्यक्ष रूप से मंडी व्यवस्था को ही समाप्त करने का निर्णय लिया गया है। कृषि के निजीकरण के लिए प्रयुक्त तरकीब पुरानी है और कारगर भी। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को भी पहले कुव्यवस्था, कुप्रबंधन, संसाधनों की कमी और भ्रष्टाचार का शिकार बनाया जाता है। इन बुराइयों को प्रश्रय देने वाली सरकार से इन्हें दूर करने की आशा तो कतई नहीं की जा सकती हाँ सरकार निजी क्षेत्र को जादुई चिराग के रूप में प्रस्तुत करने की बाजीगरी अवश्य दिखाती है।
प्रधानमंत्री जी ने कहा कि इन कृषि सुधारों का विरोध करने वाले दरअसल किसानों का हक मारने वाले बिचौलियों के लिए काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री जी को इन बिचौलियों को परिभाषित करना चाहिए था। ये कोई परग्रही प्राणी नहीं हैं बल्कि व्यापार और राजनीति के अवसरवादी गठजोड़ की पैदाइश हैं, यह हर राजनीतिक दल की पसंद हैं और इनमें एक बड़ी संख्या भाजपा के पारंपरिक मतदाताओं की है। यह इसी देश के छोटे-मझोले व्यापारी और आढ़तिये हैं जो ग्रामीण राजनीति में दखल रखते हैं। ग्रामीण शोषण तंत्र का हिस्सा होने के बावजूद अंतत: ये स्थानीय ही होते हैं और कागजों में सिमटी सरकारी योजनाओं के निकम्मेपन के बावजूद ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चलायमान रखते हैं। स्थानीय ग्रामीणों से इनकी लव-हेट रिलेशनशिप होती है, यह ग्रामीणों का शोषण भी करते हैं किंतु जरूरत के वक्त यह उनके काम भी आते हैं।
लापता सरकारी तंत्र के अदृश्य कल्याणकारी कार्यक्रम और ग्रामीणों की पहुंच से बाहर रहने वाली बैंकिंग व्यवस्था के कारण इनकी आवश्यकता और प्रासंगिकता हमेशा बनी रहती है। इनकी संख्या बहुत बड़ी है। इनकी व्यापारिक गतिविधियां ग्रामीण रोजगार का एक महत्वपूर्ण जरिया हैं। यह उतने ही भ्रष्ट या ईमानदार होते हैं जितने हम सब हैं। कम से कम यह कॉरपोरेट कंपनी की तरह अपराजेय तो कतई नहीं होते। इन्हें बदला जा सकता है, सुधारा जा सकता है, अनुशासित, नियमित, नियंत्रित और दंडित किया जा सकता है। अपनी तमाम अराजकता के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था को बचाने वाला असंगठित क्षेत्र गाँवों में कुछ ऐसे ही विद्यमान है।
कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट जगत की एंट्री और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के बाद क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए बहुत अनुसंधान की जरूरत नहीं है। भारत से पहले अनेक विकसित और विकासशील देशों में यह प्रयोग किया गया है और अनिवार्यत: किसानों के लिए विनाशकारी रहा है। किंतु हमारी अर्थनीति के कारण हमें सारे समाधान निजीकरण में नजर आते हैं। हम जीडीपी में कृषि की घटती हिस्सेदारी को एक शुभ संकेत मानते हैं तथा यह विश्वास करते हैं कि यह अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार और सेवा एवं उद्योग आदि क्षेत्रों के विस्तार का परिणाम है। इसी प्रकार हमारी कुल वर्कफोर्स के 50 प्रतिशत को रोजगार देने वाली खेती के बारे में हमारी मान्यता है कि इससे जरूरत से ज्यादा लोग जुड़े हुए हैं और बहुत कम लागत में बहुत कम मानव संसाधन के साथ हम विपुल कृषि उत्पादन कर सकते हैं। गांवों से लोग पलायन करेंगे तो शहरी कारखानों को सस्ते मजदूर मिलेंगे। जब मनुष्य के स्थान पर आंकड़े महत्वपूर्ण बन जाएं, मानव जीवन की गुणवत्ता के स्थान पर उत्पादन की मात्रा हमारी प्राथमिकता हो, संपन्नता के आकलन में हम वितरण की असमानता को नजरअंदाज करने लगें तथा मनुष्य को विकास के केंद्र में रखने के बजाए संसाधन का दर्जा देने लगें तो इन कृषि सुधारों के विरोध का कोई कारण शेष नहीं बचता।
कृषि सुधार तब सार्थक होते जब बटाई पर जमीन लेने वाले भूमिहीन किसानों और भूमि स्वामियों के बीच कोई न्यायोचित अनुबंध होता जिसमें अब तक दमन और शोषण के शिकार भूमिहीन किसानों के हितों को संरक्षण दिया जाता। कृषि सुधार तब ऐतिहासिक होते जब भूमि सुधारों को पूरी ईमानदारी से लागू करने के लिए कोई रणनीति बनती जिसके माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी खेतों में अपना खून-पसीना लगाने वाले इन असली किसानों को उन खेतों का मालिकाना हक मिलता।
आजादी के बाद भी बंधुआ मजदूरी जारी है और खेती से जुड़े बंधुआ मजदूरों की एक विशाल संख्या है जो नारकीय जीवन जीने को बाध्य हैं। कृषि सुधार तब महत्वपूर्ण होते जब इन बंधुआ कृषि मजदूरों की आजादी के लिए प्रावधान किया जाता। कृषि सुधार तब किसान हितैषी होते जब सीमांत, छोटे और मझोले किसानों के सार्थक सहकारिता समूह बनाने की पहल होती जो चकबंदी, जैविक खेती, प्रसंस्करण और परिरक्षण से संबंधित कार्यों को संपादित करती। फिलहाल तो खेती के निजीकरण के बाद देश के निर्धन लोगों को मिलने वाली खाद्य सुरक्षा तक खतरे में नजर आ रही है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
यूपी एसटीएफ को प्राप्त बिना वारंट और मजिस्ट्रेट की अनुमति के गिरफ्तारी के अधिकार के दुरुपयोग को लेकर रोज सवाल उठते हैं। फिर भी, यूपी सरकार ने नए फोर्स को लेकर कहा है कि बिना सरकार की इजाजत के इसके अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ कोर्ट भी संज्ञान नहीं लेगा।
- के संतोष
जौनपुर जिले के अलीखानपुर गांव के रहने वाले दिनेश को बोलेरो सवार कुछ लोगों ने बीते 13 सितंबर को घर से ही जबरिया उठा लिया। हैरान-परेशान परिवार वाले लाइन बाजार थाने पहुंचे और अपहरण का मुकदमा लिखने की मांग करने लगे। पुलिस वालों ने आपराधिक इतिहास की जानकारी खंगाली और बाद में यह कहते हुए परिवार वालों को लौटा दिया कि ‘एक-दो दिन इंतजार कर लो। नहीं लौटा, तो मुकदमा लिख देंगे।’
14 सितंबर को दिनेश सकुशल घर लौटा तो परिवार वालों ने राहत की सांस ली। युवक ने बताया कि उसे स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) ने संदेह होने पर उठाया था। दरअसल, एसटीएफ ने दिनेश को इसलिए उठा लिया था कि उसे बिना किसी वारंट और मजिस्ट्रेट की अनुमति के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार है। इस अधिकार के दुरुपयोग को लेकर एसटीएफ की कार्यशैली पर सवाल रोज उठते हैं।
फिर भी, यूपी सरकार ने बीते 13 सितंबर को एसटीएफ की ही तर्ज पर स्पेशल सिक्योरिटी फोर्स (एसएसएफ) के गठन का निर्णय लिया है। इसे बहुत सारी शक्तियां दी गई हैं। इस फोर्स को भी बिना वारंट और मजिस्ट्रेट की इजाजत के लोगों को गिरफ्तार करने का अधिकार होगा। बिना सरकार की इजाजत के यूपी एसएसएफ के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कोर्ट भी संज्ञान नहीं लेगा।
सरकार का कहना है कि केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) की तर्ज पर इसे मेट्रो, ऐतिहासिक धरोहरों, एयरपोर्ट, धार्मिक स्थलों आदि की सुरक्षा में लगाया जाएगा। पुलिस के आला अधिकारियों की दलील है कि ‘एसएसएफ मेट्रो, ताजमहल, अयोध्या, काशी या फिर गोरखनाथ- जैसे स्थानों पर तैनात होगी। यहां संदिग्ध अवस्था में कोई मिले तो मजिस्ट्रेट या वारंट का इंतजार नहीं किया जा सकता।’
एसटीएफ की तरह ही एसएसएफ को भी संदेह की नजर से देखने की वजह है। एसटीएफ की बीते कुछ वर्षों में हुई कार्रवाई को देखकर विरोधी इसे योगी आदित्यनाथ की ‘स्पेशल ठाकुर फोर्स’ कहकर पुकारने लगे हैं। कानपुर के माफिया विकास दूबे के कथित एनकाउंटर के बाद इन आरोपों को अधिक बल मिला है। गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन कांड के बाद चर्चा में आए डॉ. कफील खान को यूपी एसटीएफ ने जिस प्रकार मुंबई में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था, तब भी सवाल उठे थे। अब जब हाईकोर्ट की तल्ख टिप्पणी के साथ दिए गए आदेश के बाद डॉ. कफील को जेल से रिहा किया गया, उसके बाद एसटीएफ के सियासी इस्तेमाल को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं।
वैसे, मुख्यमंत्री योगी अदित्यनाथ ने बीते 26 जून को ही एसएसएफ के गठन की घोषणा की थी। एसएसएफ पर एक साल में 1,747 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इसके लिए 1,913 पदों का सृजन किया जाएगा। जो खाका खींचा गया है, उसके मुताबिक इसमें 9,919 जवान होंगे। इसकी पांच बटालियन होंगी। लखनऊ में मुख्यालय होगा जो डीजीपी के अधीन होगा। एडीजी स्तर का अधिकारी यूपी एसएसएफ का मुखिया होगा। यूपी एसएसएफ को भी तलाशी लेने, गिरफ्तार करने, हिरासत में लेकर पूछताछ करने- जैसे अधिकार होंगे।
सरकार की नजर में इस तरह का फोर्स बनाना सबसे जरूरी काम है। वह भी तब जब सरकारी सेवाओं में स्थायी नियुक्ति से पहले पांच साल संविदा पर रखने से लेकर कोरोना किट में करोड़ों के गोलमाल के आरोपों में फंसी यूपी सरकार जबर्जस्त आर्थिक तंगहाली में है। तब ही तो इसके औचित्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं।
इसीलिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू आरोप लगाते हैं कि ‘केंद्र से लेकर प्रदेश तक की सरकारों ने जांच एजेंसियों को सियासी मोहरा बना दिया है। एसटीएफ का गठन संगठित अपराध पर अंकुश के लिए हुआ था। लेकिन ये अब डॉ. कफील खान जैसे चिकित्सक को गिरफ्तार करने के काम आ रही है। कुल मिलाकर, यह नया फोर्स भी आम लोगों के उत्पीड़न के लिए ही तैयार किया जा रहा है।’
उन्होंने पूछा कि अदालत को भी कमतर साबित करके आम जनता के अधिकारों की सुरक्षा कैसे हो पाएगी? समाजवादी पार्टी ने भी कुछ इसी किस्म की आशंकाएं जताई हैं। पूर्व पुलिस अफसर भी कह रहे हैं कि सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह फोर्स अपने अधिकारों का दुरुपयोग न करे। यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह की सलाह है कि दुरुपयोग रोकने के लिए सरकार को उत्तरदायित्व निर्धारित करने चाहिए और वरिष्ठ अफसरों को भी एक मैकेनिज्म बनाना होगा।(navjivan)
-पुष्य मित्र
1. पहला बिल- जिस पर सबसे अधिक बात हो रही है कि अब किसानों की उपज सिर्फ सरकारी मंडियों में ही नहीं बिकेगी, उसे बड़े व्यापारी भी खरीद सकेंगे।
यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि आखिर ऐसा कब था कि किसानों की फसल को व्यापारी नहीं खरीद सकते थे। बिहार में तो अभी भी बमुश्किल 9 से 10 फीसदी फसल ही सरकारी मंडियों में बिकती है। बाकी व्यापारी ही खरीदते हैं।
क्या फसल की खुली खरीद से किसानों को उचित कीमत मिलेगी? यह भ्रम है। क्योंकि बिहार में मक्का जैसी फसल सरकारी मंडियों में नहीं बिकती, इस साल किसानों को अपना मक्का 9 सौ से 11 सौ रुपये क्विंटल की दर से बेचना पड़ा। जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल था।
चलिये, ठीक है। हर कोई किसान की फसल खरीद सकता है, राज्य के बाहर ले जा सकता है। आप ऐसा किसानों के हित में कर रहे हैं। कर लीजिये। मगर एक शर्त जोड़ दीजिये, कोई भी व्यापारी किसानों की फसल सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत में नहीं खरीद सकेगा। क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर हां, तभी माना जायेगा कि वह सचमुच किसानों की हित चिंतक है।
2. दूसरा बिल- कांट्रेक्ट फार्मिंग। जिस पर उतनी चर्चा नहीं हो रही है। इसमें कोई भी कार्पोरेट किसानों से कांट्रेक्ट करके खेती कर पायेगा। यह वैसा ही होगा जैसा आजादी से पहले यूरोपियन प्लांटर बिहार और बंगाल के इलाके में करते थे।
मतलब यह कि कोई कार्पोरेट आयेगा और मेरी जमीन लीज पर लेकर खेती करने लगेगा। इससे मेरा थोड़ा फायदा हो सकता है। मगर मेरे गाँव के उन गरीब किसानों का सीधा नुकसान होगा जो आज छोटी पूंजी लगाकर मेरे जैसे नॉन रेसिडेन्सियल किसानों की जमीन लीज पर लेते हैं और खेती करते हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर भूमिहीन होते हैं और दलित, अति पिछड़ी जाति के होते हैं। वे एक झटके में बेगार हो जायेंगे।
कार्पोरेट के खेती में उतरने से खेती बड़ी पूंजी, बड़ी मशीन के धन्धे में बदल जायेगी। मजदूरों की जरूरत कम हो जायेगी। गाँव में जो भूमिहीन होगा या सीमान्त किसान होगा, वह बदहाल हो जायेगा। उसके पास पलायन करने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा।
3. तीसरा बिल- एसेंशियल कमोडिटी बिल।
इसमें सरकार अब यह बदलाव लाने जा रही है कि किसी भी अनाज को आवश्यक उत्पाद नहीं माना जायेगा। जमाखोरी अब गैर कानूनी नहीं रहेगी। मतलब कारोबारी अपने हिसाब से खाद्यान्न और दूसरे उत्पादों का भंडार कर सकेंगे और दाम अधिक होने पर उसे बेच सकेंगे। हमने देखा है कि हर साल इसी वजह से दाल, आलू और प्याज की कीमतें अनियंत्रित होती हैं। अब यह सामान्य बात हो जायेगी। झेलने के लिए तैयार रहिये।
कुल मिलाकर ये तीनों बिल बड़े कारोबरियों के हित में हैं और खेती के वर्जित क्षेत्र में उन्होने उतरने के लिए मददगार साबित होंगे। अब किसानों को इस क्षेत्र से खदेड़ने की तैयारी है। क्योंकि इस डूबती अर्थव्यवस्था में खेती ही एकमात्र ऐसा सेक्टर है जो लाभ में है। अगर यह बिल पास हो जाता है तो किसानी के पेशे से छोटे और मझोले किसानों और खेतिहर मजदूरों की विदाई तय मानिये। मगर ये लोग फिर करेंगे क्या? क्या हमारे पास इतने लोगों के वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था है?
-गिरीश मालवीय
इस बार आईपीएल के साथ जमकर ऑनलाइन जूए से सम्बंधित गेम्स को प्रमोट किया जा रहा है. कल पेटीएम पर जो गूगल ने प्रतिबंध लगाया था वह इसी से जुड़ा हुआ था लेकिन 4 घण्टे में ही पेटीएम ने गूगल से समझौता कर लिया. लेकिन इस घटना ने भारत मे बढ़ती ऑनलाइन स्पोर्ट्स गैंबलिंग की तरफ हमारा ध्यान खींच लिया है.
‘ऑनलाइन गेमिंग इन इंडिया 2021’ रिपोर्ट में बताया गया कि भारत का ऑनलाइन गेमिंग उद्योग जो 2016 में 29 करोड़ डॉलर का था वह 2021 तक 1 अरब डालर तक पहुंच जाएगा और इसमें 19 करोड़ गेमर्स शामिल हो जाएंगे. लेकिन अब गेमिंग के नाम पर जुआ खिलाया जा रहा है यदि आप टीवी पर ध्यान दे तो पाएंगे कि सबसे ज्यादा ऑनलाइन गेम से जुड़े विज्ञापन फैंटेसी क्रिकेट जैसे ड्रीम 11, एमपीएल ओर ऑनलाइन रमी खिलाने वाली कंपनियों के हैं.
उत्तर भारत मे इसका जोर अपेक्षाकृत कम है लेकिन दक्षिण भारत मे लोग युवाओं में इस ऑनलाइन जुए की प्रवृत्ति से परेशान हो गए हैं. आंध्र प्रदेश सरकार ने तो रमी और पोकर जैसे ऑनलाइन गेम्स पर प्रतिबंध तक लागू कर दिया है.
कुछ दिन पहले ही मुख्यमंत्री वाईएस जगन रेड्डी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में ऑनलाइन रमी और पोकर गेम को बैन करने का फैसला लिया गया. आंध्रप्रदेश में अब अगर कोई व्यक्ति ऑनलाइन जुआ आयोजित करते हुआ पाया जाता है तो पहली दफा पकड़े जाने पर जुर्माना लगाया जाएगा. अगर वही शख्स दोबारा ऐसे करता हुआ पकड़ा जाता है तो उसे दो साल तक की जेल भी हो सकती है. वहीं ऑनलाइन जुआ खेलने वालों को छह महीने तक की सजा हो सकती है.
ऑनलाइन रमी का प्रचलन समाज में बढ़ता ही जा रहा है. माना जाता है कि देश में ऑनलाइन रमी उद्योग के मौजूदा समय में करीब साढ़े पांच करोड़ खिलाड़ी हैं. लॉकडाउन के दौरान घर बैठे लोगो में तेजी से इसका प्रचलन बढ़ा है. फरवरी से मार्च 2020 के बीच ऑनलाइन गेमिंग साइट और ऐप इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या 24 फीसद बढ़ गई. जिस तरह से ऑनलाइन गेमिंग का प्रचलन बढ़ रहा है एक दिन गेमिंग इंडस्ट्री म्यूजिक और मूवीज को भी पीछे छोड़ देगी. अब ऑनलाइन गेमिंग को रेगुलेट करने की बात भी उठने लगी है........
लेकिन जिस तरह से समाज मे ऑनलाइन गैंबलिंग का जोर बढ़ रहा है यह अच्छे संकेत नहीं हैं. आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में स्थित पंजाब नेशनल बैंक का एक मामला सुर्खियों में बहुत आया. उस शाखा के कैशियर रवि तेजा ने ऑनलाइन गेमिंग के चक्कर में पहले अपना पैसा बर्बाद किया, फिर कर्ज लेकर गेम खेलने लगा. जब कर्ज का बोझ बढ़ गया और कर्ज देने वाले तकादा करने लगे, जब कर्ज का बोझ बढ़ने लगा तो उसने बैंक में जमा लोगों के पैसे को अपने अकाउंट में ट्रांसफर करना शुरू कर दिया. ऑडिट में जब 1 करोड़ 56 लाख 56 हजार 897 रुपये की कमी पाई गई. जांच में पता चला कि पैसा कैशियर के अकाउंट में ट्रांसफर हुआ है और वहां से ऑनलाइन गेमिंग साइट्स पर ट्रांसफर किया गया.
साफ दिख रहा है कि ऑनलाइन गैंबलिंग का जहर युवाओं में अपनी पुहंच बनाता जा रहा है और मोदी सरकार सब कुछ देखते हुए भी चुप होकर बैठी हुई है...(sabrangindia)
- chetnak
हमारे समाज में बदलाव के अलावा कुछ भी स्थायी नहीं होता। इसी बदलाव के चलते आज एक औरत को पुरुषों की ही भांति शिक्षा लेते, नौकरी पर जाते और व्यापार जगत में अपनी जगह बनाते हुए देखते हैं। हालांकि समानता पाने के इस सफर में बहुत सी जगह महिलाओं को आज भी बहुत ख़ास सफलता नहीं मिली है, पर धीरे-धीरे लोग अब स्त्रियों से जुड़े मुद्दो पर मुखर हो रहें हैं। इन्हीं मुद्दों में एक प्रमुख विषय है – महिलाओं का अपमानजनक निरूपण या उन्हें किसी वस्तु की तरह चित्रित करना।
हमारे इस विकासशील जगत में, जहां महिला सशक्तिकरण की बातें होतीं हैं, वहीं जमीनी हकीकत अक्सर यह देखने के लिए मिलती है कि विश्व का एक बहुत बड़ा भाग आज भी एक औरत को किसी निर्जीव वस्तु, मूक प्राणी या विलास के साधन से ज्यादा नहीं समझता। हम इसबात को उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। अक्सर कहा जाता है कि ‘लड़कियां घर की तिजोरी की तरह होती हैं।’ अगर कभी अकेली हों तो खुली तिजोरी बन जाती हैं, इसलिए उनकी निगरानी करते रहनी चाहिए। इसके अलावा, हमनें अनेकों बार लोगो को यह कहते हुए सुना होगा कि ‘औरत तो गऊ होती है, एकदम भोली, जिसे जैसा कहो वैसा ही करती है।’ पर क्या सच में इन बातों का कोई आधार है? क्या औरत को एक खुली या बन्द तिज़ोरी जैसी वस्तु बनाकर हम उसकी स्वतंत्रता पर सवाल तो नहीं खड़े कर देते? या गाय से जोड़कर उसे भोला, सहनशील या मूक बनने के लिए तो नहीं कहा जाता होगा? इन सब बातो का प्रभाव हमारे समाज पर बहुत गहरा पड़ता है। लोग नारी को सच में किसी वस्तु की तरह लेते हैं। जिसपर वो अपना निरंकुश अधिकार स्थापित कर सके, जो अपनी बात या विचारों को लेकर मूक रहे या जो किसी को खुश रखने और मोहित करने का साधन बने।
जियानी वर्सेस की कहानी
जियानी वर्सेस एक फैशन डिजाइनर थें। जिन्होंने नब्बे के दशक में ऐसी पोशाक बनाने का सोचा जिसमें एक औरत सशक्त, हीरो और पुरुषों से प्रबल लगे। उन्होंने यह पोशाक चमड़े से तैयार की और वोग के 100 साल पूरे होने पर उनकी बहन डोनातेला वर्सेस ने उस पोशाक को पहना। सबने उस पोशाक की तारीफ की, क्रिटिक्स से उसे अच्छी रेटिंग भी मिली पर वो पोशाक बाज़ार में अपना जादू नहीं बिखेर पाई। लोगो ने कहा कि ऐसे वस्त्र महिलाओ पर फबते नहीं हैं। इस घटना के बाद कुछ ऐसे प्रश्न सामने आए, कि जब फिल्मों के अंदर अभिनेत्रियों ने छोटे कपड़े पहनें तब उनकी फिल्म हिट हुई। पर जहां बात वैसे वस्त्रों को असल ज़िन्दगी में अपनाने की आयी, वहीं लोग पीछे हट गए। क्या लोग उन वस्त्रों में नारी के मोहक स्वरूप को ही अपनाना चाहते थे और जब वैसे ही वस्त्रों में उसका प्रबल रूप सामने आया, तब लोगो ने उसे स्वीकार नहीं किया? क्योंकि शायद उसके प्रबल अस्तित्व से लोगों को अपनी रूढ़िवादी सत्ता के गिरने का भय था। शायद वो आगे बढ़कर खुद को वस्तु की तरह इस्तेमाल किए जाने की प्रथा पर विराम लगा देती।
ये कोई नई बात नही है
महिलाओं का अपमानजनक निरूपण या वस्तु के समान चित्रण करना कोई नई बात नहीं है। इसका एक अच्छा खासा इतिहास है, जो हमें फिल्म जगत की ओर ले जाता है। क्या आपको नब्बे के दशक की फिल्मों में अभिनेत्री की ड्रेस याद हैं? वो कपड़े शरीर से इतने चिपके हुए होते थे कि सामान्य दिनचर्या में उन्हें पहनने पर सांस लेना भी मुश्किल हो सकता है। पर उस समय से ही फिल्मों में एक अभिनेत्री की शारीरिक बनावट को ज्यादा से ज्यादा दर्शाने की कोशिश होती थी, ताकि लोगो को फिल्म में मसाला मिल सके। जितना उन फिल्मों में अभिनेत्री मटक कर चलती थीं, क्या असलियत में भी कोई लड़की इतना मटक कर चलती हैं?
मदर इंडिया जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो हमें पता चलता है कि नारी का स्वरूप या तो साड़ियों में लिपटी आज्ञाकारी पत्नी या कोई फटी पुरानी साड़ी पहने बेबस मां या शरीर से चिपके हुए कपड़ों में बार डांसर, जैसे पात्रो में सिमटा हुआ था। क्या आपको सत्यम शिवम् सुंदरम फिल्म याद है? उस फिल्म के अंदर ज़ीनत अमान को जिस तरह की पोशाकें मंदिर के सीन में पहनने के लिए दी गई, क्या असल में भी गांव की औरतें वैसे वस्त्र पहनकर बाहर निकलती हैं? इन फिल्मों में वो दिखता था, जो बाज़ार में बिकता था।
बाज़ार में बेचने के लिए औरत को वस्तु की तरह चित्रित किया गया। एक ओर लोग अपने घर की स्त्रियों को घूंघट में रहना सिखाते थे और दूसरी ओर महिलाओं का अपमानजनक निरूपण करने वाली फिल्में हिट हो रहीं थीं। यह बात बहुत विचित्र सच्चाई है पर इन फिल्मों को हिट करने वाले वही आदर्शवादी लोग थे, जो अपने घर की बहू, बेटियों के सामने अभिनेत्रियों के कम कपड़े पहनने की बुराई करते थे और फिर हॉल में जाकर उन अभिनेत्रियों की फ़िल्मों को हिट बना देते थे। इसके अलावा भी अनेको उदाहरण हैं, जिनको यदि सोचा और समझा जाए तो पता चलता है कि महिलाओं की काबिल-ए-ऐतराज़ तशकील की जड़े इतनी गहरी क्यों हैं।
बाज़ार ने औरत को वस्तु की तरह चित्रित किया गया, जिसमें महिलाओं को ‘इंसान’ की बजाय एक ‘वस्तु’ की तरह दिखाया जाता है।
आज की बात करें तो हम देश में क्वारांटाइन लगने से कुछ समय पहले की घटना को लेते हैं। राजधानी दिल्ली के राजौरी गार्डन में स्थित एक बार ने एक औरत के शरीर के आकार की, बिकनी पहने हुई बोतल बनाई, जिसमें वो अपने ग्राहको को अल्कोहल देते थे। जब उन्होंने अपनी नई बोतल के चित्र इंस्टाग्राम पर साझा किए तब बहुत सी महिलाओं ने उसका विरोध किया। उनमें से कुछ महिलाओ का कहना था कि उस बार को अपनी नाराज़गी जताने पर भी उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसके बाद बार की तरफ से एक मैसेज आया कि, ‘हम पुरुषों के शरीर के आकर वाली बोतले भी बनातें हैं। और किसी भी महिला को ठेस पहुंचाने का हमारा कोई इरादा नहीं था।’ जबकि ग्राहक महिला का यह भी दावा रहा कि बार ने अपनी गलती की कोई माफ़ी नहीं मांगी और न ही वो पुरुषों के आकार की कोई बोतल बनातें हैं। तीन से चार दिन के बाद बार ने इंस्टाग्राम से अपनी उस पोस्ट को हटा दिया था। पर बोतल का उत्पादन बन्द हुआ या नहीं, इस विषय में अभी कोई सूचना नहीं है।
अब बात करतें हैं, टीवी पर आने वाले विज्ञापनों की जहां लड़के के डियो लगाते ही लड़कियां उसकी तरफ खींची चलीं जाती है। या स्लाइस के उस एड की जिसमें कटरीना कैफ बड़े कामुक तरीके से आम का रस बोतल से पीती हैं। बॉलीवुड ने अपने इतिहास को कायम रखने में कोई कमी नहीं की है। आज भी फिल्मों के अंदर औरत को अधिकांश खूबसूरती बिखेरने के लिए लिया जाता है। एक तरफ जहां आमिर खान जैसे अभिनेता अपने अभिनय में निपुणता लाने के लिए खुद को महीनों तैयार करतें हैं, अपने पात्र में ढलने के लिए भाषाएं सीखते है।
लोगों के मन में अब नारी की ऐसी छवि बन चुकी है, जहां उसे अपनी पहचान को नए आयाम देने के लिए किसी भी पुरुष से ज्यादा मेहनत करनी ही पड़ती है। औरत के सशक्त रूप को अपनाना, जहां उसकी अपनी सोच है, लोगो के लिए आसान नहीं है। और ऐसा अनपढ़ या ग्रामीण स्तर पर ही नहीं, अपितु पढ़े लिखे लोगो के स्तर पर भी है।
आपके अनुसार क्या उचित है? क्या स्त्री को एक वस्तु बनाकर उसके गुणों को अनदेखा करना चाहिए? क्यों हमारी इंडस्ट्री में तापसी पन्नू जैसी और अभिनेत्रियां नहीं है? नारी की पहचान सिर्फ उसके शरीर से है? या क्या उसके शरीर को मार्केटिंग पॉलिसी बनाना सही है? ऐसे बहुत सारे सवाल इस मुद्दे के साथ आते हैं, जिनका जवाब सिर्फ तभी मिलेगा जब लोग अपनी सोच पर काम करना पसंद करेंगे। जब वो समाज में स्थापित पूर्व आयामों से आगे बढ़कर सोचने का प्रयास करेंगे, तब जाकर शायद इस समस्या का हल हो पाएगा।
-कनुप्रिया
एक बात के लिए बीजेपी की शुक्रगुज़ार हूँ. एक बड़ा वर्ग जो राजनीति को गन्दा समझता था, उससे दूर रहता था, वो वर्ग जिसके लिये सीरियल्स थे और उनके आदमियों के लिये ख़बरें, वो वर्ग जिनकी दुनिया शॉपिंग, गृहशोभा, घर और बच्चों तक सीमित थी, वह वर्ग जिसके लिये वोट का मतलब घरवाले जहाँ कहें वहाँ निशान लगा देना था, राजनीति से उदासीन इस political reservoir को बीजेपी ने tap किया और अपने political motives का carrier बनाया.
BJP IT Cell ने जब अपने ऐतिहासिक झूठ, अश्वत्थामा मर गया जैसे अर्धसत्य और देशभक्ति मतलब हिंदू होने की विचारधारा व्हाट्सएप के जरिये प्रचारित करनी शुरू की तो यह वर्ग उसे फॉरवर्ड करने लगा और "कोई नृप होए हमें क्या हानि" की जगह मोदीजी आने चाहिये जैसा राजनीतिक चुनाव करने लगा. इन नवभक्तिनों को भक्तों का ख़ूब समर्थन मिला, अब महिलाओं के लिये " तुम्हें राजनीति का क्या " पता जैसे जुमले ग़ायब होने लगे क्योंकि यह राजनीति झुकाव सत्ता के लिये लाभकारी था, इस तरह अनजाने ही किनारे बैठा यह वर्ग राजनीति की मुख्यधारा का किंचित सजग हिस्सेदार बन गया.
कँगना को जिस तरह बीजेपी ने हाथों-हाथ लिया वह भी बहुत सकारात्मक है, कँगना एक उन्मुक्त अभिनेत्री रही हैं, उन्होंने अपने रोल्स के चुनाव में किसी संस्कृति को आड़े न आने दिया, न ही अपने जीवन में. मणिकर्णिका का रोल भले ही उन्हें देशभक्ति से जोड़ता हो मगर देशभक्ति को हिन्दूभक्ति की पर्याय मानने वाली विचारधारा के जो स्त्रियों को देखने के cultural resvervations हैं, वो उसके अनुरूप कभी नहीं रहीं. इसका सीधा सा मतलब है कि कंगना का समर्थन और उन्हें राजनीति अगुआई देना कहीं न कहीं उस जीवन शैली का भी स्वीकार है जिसे वो आजतक जीती आई हैं. इस तरह की जीवन शैली जीने वाली अन्य स्त्रियों के लिये कुत्सित शब्द बोलना और महिलाओं को तंग नज़रिए से देखने वाली मानसिकता का प्रदर्शन इतना आसान भी नहीं. स्त्रीद्वेषी दक्षिणपंथियों द्वारा इस खुलेपन के स्वीकार का स्वागत है.
महिलाओं को जिस तरह विरोधियों पर हमले के लिये राजनीतिक टूल के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है, यह भी स्त्रीवाद के लिये नकारात्मक कहाँ हैं. पायल घोष का आरोप अनुराग कश्यप पर सच है कि झूठ वो अलग बात है, मगर ये घोर दक्षिणपंथी जो कहा करते थे कि महिलाएँ झूठे आरोप गढ़ती हैं, 100 में से 90 बलात्कार के केस झूठे होते हैं, $%@ ख़ुद तो जगह जगह मुँह मारती हैं और फँसा आदमियों को देती हैं, अगर वो इसपर चुप रहते हैं या पायल घोष का समर्थन करते हैं तो भी यह महिलाओं के पक्ष की बात है. आप कीजिये समर्थन, उदाहरण सैट कीजिये, अगली बार किसी मामले में उपरोक्त बातें बोलना आसान नहीं होगा.
बाक़ी निर्मला सीतारमन तो हैं ही, कारगुज़ारी किसी की गालियाँ वो खा रही हैं, मगर कौन कहता है कि महिलाएँ वित्त नहीं सम्भाल सकतीं, मोदीजी ने उन्हें विभाग दिया है तो सोच समझकर ही दिया होगा.
मैं बीजेपी की शुक्रगुज़ार हूँ, वो इसी तरह महिलाओं को हर मामले में अपने बचाव के लिये आगे लाती रही, उन्हें अपनी रक्षा की अग्रिम पंक्ति में जगह देती रही, माने के front fighters, भले अपने स्वार्थ के लिये ही सही, इस तरह वो महिलाओं के जाने अनजाने सशक्तिकरण में बड़ा योगदान देती रहेगी.
प्रकाश दुबे
कुपित घर वालों ने घर में घेरा। नौबत यहां तक आ पहुंची कि बड़े घर के उप कप्तान ने महकमे के मैनेजर से शिकायत कर डाली। केन्द्रीय रसायन और उर्वरक राज्य मंत्री मनसुख मांडविया उर्वरक और रसायन कारखाने का मुआयना करने रामगुंडम पहुंचे। प्रदर्शनकारियों ने रास्ता छेंक लिया। साइकल सवारी के शौकीन मनसुख भाई अकेले होते तो पैडल मारकर निकल लेते। केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी साथ थे। पूरे देश में पुलिस महकमे पर हक्म चलाने के हकदार राज्य मंत्री को लगा- तौहीन हुई। केन्द्रीय गृह सचिव अशोक कुमार भल्ला संसद अधिवेशन के दौरान तैयारियों मे व्यस्त हैं। रेड्डी ने तेलंगाना पुलिस की शिकायत की। कहा- हम बीच सडक़ में अटके रहे। पुलिस ने रास्ता खुलवाने में घंटा भर लगा दिया। गृह सचिव जानते थे कि क्षेत्रीय लोकसभा सदस्य वेंकटेश नतकानी विधायक और समर्थकों के साथ धरने पर डटे थे। वेंकटेश की मांग घरेलू किस्म की थी-स्थानीय लोगों को रोजग़ार दो।
अच्छे दिन का खाता
अच्छे कारोबार का मतलब है -पैसा जा रहा है तो दूसरी तरफ से आता रहे। देश की वित्त मंत्री से बेहतर इस बात को कौन समझ सकता है? जवाहर लाल नेहरू विवि की छात्रा रहीं सुघड़ गृहिणी निर्मला सीतारामन के हाथ 14 हजार कर्मचारियों को नौकरी देने का नुस्खा हाथ लग गया है। देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक में इनकी नियुक्ति की जाएगी। संसद ा अधिवेशन समाप्त होने के बाद विज्ञापन ध्यान से देखते रहें। कुछ लोगों के मन में सिर्फ सवाल और संदेह उठते हैं। वे पूछेंगे कि इनकी जरूरत क्यों पड़ी? देश के गांव-देहात तक बैंकिंग सेवा पहुंचने तक का कारण सरकार बता देगी। छोटा सा एक कारण और है। कोई बताए न बताए, आप अभी जान लें।
स्टेट बैंक ने करीब 30 हजार कर्मचारियों की पक्की सूची बना ली हैं, जिन्हें दीपावली के आसपास स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दी जाने वाली है। गेट से आने वाले पढ़ते हैं-प्रवेश।
दूसरे दरवाज़े पर लिखा प्रस्थान पढ़ लिया करो।
जनता हवलदार की चुटकी
मुंबई महानगरी हो या पंजाब, जूलियो एफ रिबेरो ने पुलिस के नाम कामयाबी के कई मेडल जोड़े। उच्च्तम न्यायालय ने पुलिस सुधार केलिए रिबेरो समिति बनाई थी। रिबेरो ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को चिट्ठी लिखकर दंगों की जांच मेंं एकतरफ़ा कार्रवाई पर सवाल किया। पुलिस महकमे तथा कानून के शासन की पैरवी करने वालों में हलचल मची। दिल्ली के पुलिस आयुक्त ने लटपटाते हुए रिबेरो की चिट्ठी का जवाब दिया। रिबेरो ने दूसरा प्रेम पत्र ठोंका। दिल्ली के पुलिस आयुक्त से सवाल किया कि हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री के सुपुत्र अनुराग ठाकुर, रामेश्वर पंकज के लाडले कपिल मिश्र और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री के सपूत प्रवेश साहब सिंह वर्मा ने भडक़ाऊ भाषण दिए। उनके खिलाफ कार्रवाई में चुप्पी क्यों साधी? पुलिस आयुक्त जिन्हें दंगाई कह रहे थे, रिबेरो ने उन्हें गाँधीवादी माना। आईएएस से त्यागपत्र देकर सामाजिक सरोकार से जुड़े हर्षमंदर, शिक्षाविद प्रो अपूर्वानंद और तीसरे रिबेरो स्वयं। शब्दकोष में न सही, रिबेरो का अर्थ है-निडर। रिबेरो ने चिट्?ठी में चुटकी ली- लगता है यह निज़ाम गांधीवादियों को अच्छी निगाह से नहीं देखता। दिल्ली पुलिस ने गांधी जी के तीन बंदरों की शक्ल अख्तियार कर ली।
घर की खेती
शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल भारतीय जनता पार्टी के सबसे पुराने साथी हैं। शिवसेना के छिटकने के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल से हरसिमरत कौर ने त्यागपत्र दिया। विषय सूची में जिक्र न होने के बावजूद मंत्रिमंडल की बैठक में आए तीनों कृषि विधेयकों का हरसिमरत ने विरोध किया था। मंत्रिमंडल में हरसिमरत और लोकसभा में सुखबीर सिंह बादल के विरोध को सरकार ने तवज्जो नहीं दी। हरसिमरत की मां सघन चिकित्सा कक्ष में भर्ती है। इधर मां, उधर करतार। संसद में हाजिऱ रहकर विरोध में मतदान किया। मतदान करने का मतलब संसद में ना कहा। तीनों विधेयक लोकसभा में ध्वनि मत से पारित हुए हुए। लोकसभा में शिरोमणि अकाली दल के कुल जमा दो ही सदस्य हैं। यानी पति-पत्नी। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने कहा- मैं, बेटा, पोता और 90 प्रतिशत पार्टी सदस्य किसान हैं। छह साल तक मंत्रिमंडल में बादल की बहूरानी विराजी रहीं। अब किसान याद आ रहा है। पूछना मत उनसे।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)


