विचार/लेख
-ज़फ़र आग़ा
“ओह माय फ्रेंड, कहां थे तुम...” जब मैं उनसे भव्य साउथ ब्लॉक के उनके दफ्तर में मिलने गया था, तो उन्होंने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया था। वह मनमोहन सिंह सरकार में नए-नए रक्षा मंत्री बने थे। वह बहुत अच्छे मूड में थे और उन्हें अपने काम में मजा भी आ रहा था। और इस सबकी चमक उनके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी।
मैं प्रणब दा (आमतौर पर लोग उन्हें इसी नाम से पुकारा करते थे) से तब भी मिला था जब 1989 में करीब 5 साल के लगभग राजनीतिक संन्यास के बाद उनकी कांग्रेस में वापसी बुई थी। 1985 में वे राजीव गांधी की नजरों से उतर गए थे और इसीलिए उन्हें अपने मंत्रिंडल का हिस्सा भी नहीं बनाया था। अगर राजनीतिक सरगोशियों की बात करें तो कहा जाता था कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनने की खव्हिश जताते हुए पद पर दावा किया था और उनके इस दावे से कई कांग्रेसी नेता नाराज हो गए थे।
प्रणब बाबू 1982 में देश के वित्त मंत्री और राज्यसभा में सदन के नेता थे। इंदिरा गांधी की हत्या के समय वे इन पदों पर थे। ऐसे में जब राजीव गांधी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया तो वे इस अनदेखी को बरदाश्त नहीं कर पाए और कांग्रेस छोड़कर अपन अलग पार्टी बना ली, लेकिन यह पार्टी कभी खड़ी ही नहीं हो पाई। अंतत: 1989 में उनकी कांग्रेस में वापसी हुई और उसके बाद उन्होंने कभी पीछे पलटकर नहीं देखा।
उनकी राजनीतिक समझ को सबसे पहले 70 के दशक में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने पहचाना। रे ने प्रणब मुखर्जी को राज्यसभा भेजा। राज्यसभा का सदस्य बनने के बाद प्रणब मुखर्जी की नजदीकियां इंदिरा गांधी से बढ़ती गईं और 1976 में इंदिरा गांधी ने उन्हें अपनी सरकार में राज्यमंत्री बनाया।
1980 में जब इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई तो वे फिर से सरकार का हिस्सा बने और इस बार उन्हें वित्त मंत्रालय की बड़ी जिम्मेदारी दी गई। यही वह समय था जब प्रणब दा ने सत्ता प्रबंधन, कार्पोरेट और राजनीतिक रिश्तों को बनाने-समझने का हुनर न सिर्फ सीखा बल्कि इसमें पारंगत भी हो गए। धीरूभाई अंबानी समेत बंबई (आज की मुंबई) के बड़े कार्पोरेट नाम उनके मित्रों की सूची में शामिल हुए और अंत तक रहे। चर्चा तो यह आम रही कि प्रणब दा को दिल्ली में कार्पोरेट की नुमाइंदा ही माना जाने लगा था।
कांग्रेस पार्टी में प्रणब दा को संकटमोचक के रूप में भी पहचान मिली। 90 के दशक की शुरुआत में नरसिम्हा राव को जब राजनीतिक साथियों अर्जुन सिंह और शरद पवार से चुनौती मिली तो प्रणब दा ने संकट का समाधान निकाला। प्रधानमंत्री बनने की अपनी ख्वाहिश का प्रदर्शन कर हाथ जला चुके प्रणब दा ने सत्ताक्रम में खुद को नंबर दो पर मजबूती से स्थापित कर लिया। और इस काम को उन्होंने इतनी कामयाबी से निभाया कि कांग्रेस का हर प्रधानमंत्री उनका कायल रहा। 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने हर मुश्किल घड़ी और राजनीतिक फैसलों के लिए हमेशा प्रणब दा कि तरफ देखा। मनमोहन सिंह सरकार के दोनों कार्यकाल में खासतौर से 2004 से 2012 तक प्रणब मुखर्जी हमेशा संकट मोचक के रूप में सामने आते रहे। और रोचक बात यह रही कि कांग्रेस अध्यक्ष और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी भी पार्टी और राजनीतिक मसलों पर उनके साथ सलाह-मश्विरा करती रहीं।
कई बार कुछ शरारती रिपोर्टर प्रणब दा को छेड़ते थे कि आपके वित्त मंत्री रहते तो मनमोहन सिंह आरबीआई गवर्नर थे। लेकिन प्रणब दा हमेशा इन पत्रकारीय गुगलियों को अच्छे से खेलते और कहते...मेरी हिंदी अच्छी नहीं हैं न. इसीलिए मैं प्रधानमंत्री नहीं बन सका। लेकिन क्या वह जो कहते थे उसका वही अर्थ होता था, कहना मुश्किल है।
प्रणब मुखर्जी को करीब आने वाले बहुत से लोग जानते हैं कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो वे खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। मैंने खुद एक बार सीधे उनसे पूछा था, “दादा, मुझे उम्मीद थी कि 2004 में आप प्रधानमंत्री बनेंगे, आखिर कहां गड़बड़ हो गई।” उन्होंने मुस्कुराते हुए देखा, कंधो को झटका और सिर्फ एक शब्द बोला, “किस्मत...”
लेकिन किस्मत उन पर खूब मुस्कुराई। वे देश के सबसे बड़े पद राष्ट्रपति के पद पर 2012 में आसीन हुए। उन्होंने इस पद को गरिमापूर्ण तरीके से निभाया। क्या कोई कल्पना कर सकता था कि जो शख्स 5 दशक तक कांग्रेसी रहा, उसे नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने 2019 में भारत रत्न से नवाजा।
नरेंद्र मोदी अकसर प्रणब दा से प्रभावित होने का दावा करते हैं और सार्वजनिक तौर पर मानते रहे हैं कि उन्हें प्रणब मुखर्जी की सलाह से हमेशा फायदा हुआ। सभी चतुर राजनीतिज्ञों की तरह प्रणब मुखर्जी भी रिझाने वाले नेता रहे। प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति पद से रिटायर होने के बाद जब आरएसएस के दफ्तर जाना मंजूर किया तो कई लोगों ने भवें तरेरी, लेकिन नरेंद्र मोदी ने उनकी खुलकर तारीफ की। उन्होंने आरएसएस के मुख्यालय में भाषण दिया, जिससे कई कांग्रेसी और उनके उदारवादी मित्रों के झटका भी लगा था।
प्रणब दा ने करीब पांच दशक तक देश की सेवा की, और सरकार के लगभग हर महत्वपूर्ण महकमे में उनका कभी मंत्री के तौर पर तो कभी राष्ट्रपति के तौर पर दखल रहा। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने केंद्रीय विश्वविद्यालयों को लेकर काफी सक्रियता दिखाई। उन्होंने यूनिवर्सिटीज के कुलपतियों के साथ बात करने में मजा आता था। वे कई बार लंबी वर्कशॉप के लिए देश भर के कुलपतियों को राष्ट्रपति भवन बुलाते रहे। उन्होंने राष्ट्पति भवन के एक म्यूजियम में बदला और उसे आम लोगों के लिए खोला।
हालांकि वे एक सिद्धांतों पर चलने वाले राष्ट्रपति बनने की कोशिश करते रहे, लेकिन वे मोदी सरकार को विवादित फैसले लेने से नहीं रोक पाए। इनमें रफाल विमानों का सौदा भी शामिल है।
आखिर ऐसा क्यों था, इसका जवाब शायद उनकी बायोग्राफी की तीसरी किस्त में पढ़ने को मिलेगा जिसकी उन्होंने वसीयत की थी कि उनके जाने के बाद ही प्रकाशित की जाए। हो सकता है कि इस तीसरी किस्त में यूपी सरकार और उनके राष्ट्रपति भवन प्रवास के अनुभवों के बारे में जानने को मिले। बायोग्राफी की पहली दो किस्तें तो बहुत ही राजनीतिक तोलमोल कर लिखी गई हैं। देखना होगा कि तीसरी किस्त में प्रणब दा ने अपनी यादों में क्या लिखा है।
अलविदा प्रणब दा....ऊं शांति...हम सब आपको मिस करेंगे (navjivan)
91 वर्षीय नोम चोम्स्की जाने-माने अमेरिकी भाषाविद और राजनीतिक विश्लेषक हैं। पिछले दिनों उन्होंने डीआईईएम25 टीवी के लिए स्रेको होर्वाट से बात कीं। प्रस्तुत हैं अंश :
यह चौंकाने वाला है कि कोरोनावायरस के इस महत्वपूर्ण क्षण में डोनाल्ड ट्रम्प नेतृत्व कर रहे हैं। कोरोनोवायरस काफी गंभीर है। लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि दो और बहुत बड़े खतरे हैं, जो मानव इतिहास में घटित होने वाली किसी भी घटनाओं से कहीं ज्यादा बदतर हैं। एक परमाणु युद्ध का बढ़ता खतरा और दूसरा ग्लोबल वार्मिंग जैसा वैश्विक खतरा। ये दोनों खतरे बढ़ते जा रहे हैं। कोरोनावायरस भयानक है और इसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं, लेकिन हम इससे उबर जाएंगे। जबकि अन्य दो खतरों से उबर पाना नामुमकिन होगा। इनसे सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा।
अमेरिका के पास असीम ताकत है। यह एकमात्र ऐसा देश है, जो ईरान और क्यूबा जैसे अन्य देशों पर प्रतिबंध लगाता है, तब बाकी के देश उसका अनुसरण करते हैं। यूरोप भी अमेरिका का अनुसरण करता है। ये देश अमेरिकी प्रतिबंधों से पीडि़त हैं, लेकिन आज के वायरस संकट की सबसे बड़ी विडंबना देखिए कि क्यूबा, यूरोप की मदद कर रहा है। जर्मनी ग्रीस की मदद नहीं कर सकता, लेकिन क्यूबा यूरोपीय देशों की मदद कर सकता है। भूमध्यसागर क्षेत्र में हजारों प्रवासियों और शरणार्थियों की मौतों के मद्देनजर इस समय पश्चिम की सभ्यता का संकट विनाशकारी है।
युद्ध के वक्त की जाने वाली बयानबाजी का आज कुछ महत्व है। अगर हम इस संकट से निपटना चाहते हैं, तो हमें युद्ध के समय की जाने वाली लामबंदी की तरफ देखना होगा, उदाहरण के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के लिए अमेरिका की वित्तीय लामबंदी (वित्त जुटाने की विभिन्न योजनाएं)। द्वितीय विश्व युद्ध ने देश को कर्ज में डाल दिया था और अमेरिकी विनिर्माण को चौपट कर दिया था। लेकिन, वित्तीय लामबन्दी ने आगे विकास को आगे बढ़ाया। इस अल्पकालिक संकट को दूर करने के लिए हमें उसी मानसिकता की आवश्यकता है और अमीर देश ऐसा कर सकते हैं। एक सभ्य दुनिया में, अमीर देश, दूसरे देशों का गला घोंटने के बजाय सहायता देते हैं। कोरोनावायरस संकट लोगों को यह सोचने के लिए मजबूर कर सकता है कि हम किस तरह की दुनिया चाहते हैं।
इस संकट की उत्पत्ति बाजार की विफलता और नव-आर्थिक नीतियों का भी नतीजा है, जिसने गहरी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को जन्म दिया है और तीव्र किया है। यह लंबे समय से पता था कि सार्स महामारी कुछ बदलाव के साथ कोरोनावायरस के रूप में आ सकती है। अमीर देश संभावित कोरोनावायरस के लिए टीका बनाने का काम कर सकते थे और कुछ संशोधनों के साथ आज ये हमारे पास उपलब्ध होता। बड़ी दवा कंपनियों की निरंकुशता जगजाहिर है। उन पर लगाम लगा पाना पाना सरकार के लिए कठिन है। ऐसे में लोगों को विनाश से बचाने के लिए एक वैक्सीन (टीका) खोजने की तुलना में नई बॉडी क्रीम बनाना अधिक लाभदायक है।
पोलियो का खतरा सरकारी संस्थान द्वारा बनाए गए साल्क टीके से खत्म हो गया। इसका कोई पेटेंट नहीं था। यह काम इस समय किया जा सकता था, लेकिन नवउदारवादी आफत ने इस काम को होने नहीं दिया।
हमने ध्यान नहीं दिया
अक्टूबर 2019 में ही अमेरिका को कोरोना जैसी संभावित महामारी की आशंका थी। हमने इस पर ध्यान नहीं दिया। 31 दिसंबर को चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को निमोनिया के बारे में सूचित किया और एक हफ्ते बाद चीनी वैज्ञानिकों ने इसे कोरोनावायरस के रूप में पहचाना। फिर इसकी जानकारी दुनिया को दी गई। इस इलाके के देशों जैसे, चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान ने कुछ-कुछ काम करना शुरू कर दिया और ऐसा लगता है कि संकट को बहुत अधिक बढऩे से रोक लिया। यूरोप में भी कुछ हद तक यही हुआ। जर्मनी के पास एक विश्वसनीय अस्पताल प्रणाली है और वह दूसरों की मदद किए बिना अपने हित में काम करने में सक्षम था। अन्य देशों ने इसे अनदेखा कर दिया। सबसे खराब रवैया रहा ब्रिटेन और अमेरिका का।
दुनिया के आगे दो बड़े खतरे हैं। एक है परमाणु युद्ध का बढ़ता खतरा और दूसरा ग्लोबल वार्मिंग जैसा वैश्विक खतरा। ये दोनों खतरे बढ़ते जा रहे हैं। जब हम किसी तरह इस संकट से उबर जाएंगे, तब हमारे पास जो विकल्प मौजूद होगा वह अधिक अधिनायकवादी व क्रूर राज्यों की स्थापना के रूप में देखा जा सकता है या फिर पहले के मुकाबले अधिक मानवीय समाज का पुनर्निर्माण भी संभव है। एक ऐसा समाज जो निजी लाभ के बजाय मानवीय आवश्यकताओं को वरीयता दे। इस बात की संभावना है कि लोग संगठित होंगे, एक बहुत बेहतर दुनिया बनाने के लिए काम करेंगे। लेकिन वे भारी-भरकम समस्याओं का सामना तब भी करेंगे, जैसे हम आज परमाणु युद्ध की आशंका का सामना कर रहे हैं। पर्यावरणीय तबाही की समस्याएं भी होंगी, जिसकी अंतिम सीमा छूने के बाद शायद ही हम कभी उबर पाएं। इसलिए, जरूरी है कि इन समस्याओं को लेकर हम निर्णायक रूप से कार्य करें। इसलिए यह मानव इतिहास का एक महत्वपूर्ण क्षण है। न केवल कोरोनावायरस की वजह से, जो दुनिया की खामियों के बारे में जागरुकता ला रहा है, बल्कि पूरे सामाजिक-आर्थिक प्रणाली की गहरी त्रुटियों के बारे में भी हमें इस वक्त पता चल रहा है। अगर हमें जीवन जीने लायक भविष्य चाहिए तो मौजूदा हालात को बदलना ही होगा। कोरोना संकट चेतावनी संकेत हो सकता है और आज इससे निपटने या इसके विस्फोट को रोकने के लिए एक सबक हो सकता है। लेकिन हमें इसकी जड़ों के बारे में भी सोचना है, जो हमें आगे और अधिक बदतर हाल में ले जा सकते हैं।
आज 2 बिलियन से अधिक लोग क्वारंटाइन (संगरोध) में है। सामाजिक अलगाव का एक रूप वर्षों से मौजूद है और बहुत ही हानिकारक है। आज हम वास्तविक सामाजिक अलगाव की स्थिति में हैं। किसी भी तरह, फिर से सामाजिक बंधनों के निर्माण के जरिए इससे बाहर निकलना होगा, जो जरूरतमंदों की मदद कर सके। इसके लिए उनसे संपर्क करना, संगठन का विकास, विस्तारित विश्लेषण जैसे कार्य करने होंगे। उन लोगों को कार्यशील और सक्रिय बनाने से पहले, भविष्य के लिए योजनाएं बनाना, लोगों को इंटरनेट युग में एक साथ लाना, उनके साथ शामिल होना, परामर्श करना, उन समस्याओं के जवाब जानने के लिए विचार-विमर्श करना, जिसका वे सामना करते हैं, और उन पर काम करना आवश्यक है। यह आमने-सामने का संचार नहीं है, जो मनुष्य के लिए आवश्यक है। लेकिन इसे कुछ समय के लिए आप रोक सकते हैं। अंत में कहा जा सकता है कि अन्य तरीकों की तलाश करें और उसके साथ आगे बढ़ें। उन गतिविधियों का विस्तार और उन्हें गहरा करें। ये संभव है। यह आसान नहीं है। इंसानों ने अतीत में भी कई समस्याओं का सामना किया है। (सौजन्य-प्रेसेंजा)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अब फिर देश को बासी कढ़ी परोस दी। मां ने बेटे को भी मात कर दिया। छत्तीसगढ़ विधानसभा के नए भवन के भूमिपूजन समारोह में बोलते हुए वे कह गईं कि देश में ‘गरीब-विरोधी’ और ‘देश-विरोधी’ शक्तियों का बोलबाला बढ़ गया है। ये शक्तियां देश में तानाशाही और नफरत फैला रही हैं। देश में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है।
ये सब बातें वे और उनका सुपुत्र कई बार दोहरा चुके हैं लेकिन इन पर कोई भी ध्यान नहीं देता। यहां तक कि कांग्रेसी लोग भी इनकी मज़ाक उड़ाते हैं। वे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के उत्तम कामों तक अपना भाषण सीमित रखतीं तो बेहतर होता। जहां तक तानाशाही की बात है, वह तो आपात्काल के दौरान इंदिरा गांधी भी स्थापित नहीं कर पाई थीं। उन्हें और उनके बेटे संजय गांधी को भारतीय जनता ने 1977 के चुनाव में फूंक मारकर सूखे पत्ते की तरह उड़ा दिया था। उन्हें आज नाम लेने में डर लगता है लेकिन वह कहना यह चाहती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तानाशाह है और भाजपा अब भारतीय तानाशाही पार्टी (भातपा) बन गई है।
उनका यह आशय क्या तथ्यात्मक है ? इस पर हम जरा विचार करें। आज भी देश में अखबार और टीवी चैनल पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। जो जान-बूझकर खुशामद और चापलूसी करना चाहें, सरकार उनका स्वागत जरुर करेगी (सभी सरकारें करती हैं) लेकिन देश में मेरे-जैसे दर्जनों बुद्धिजीवी और पत्रकार हैं, जो जरुरत होने पर मोदी और सरकार की दो-टूक आलोचना करने से नहीं चूकते लेकिन किसी की हिम्मत नहीं है कि उन्हें कोई जरा टोक भी सके।
जहां तक तानाशाही का सवाल है, वह देश में नहीं है, पार्टियों में है। एकाध पार्टी को छोडक़र सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का अंत हो चुका है लेकिन सोनियाजी जऱा पीछे मुडक़र देखें तो उन्हें पता चलेगा कि उसकी शुरुआत उनकी सासू मां इंदिराजी ही ने की थी। कांग्रेस का यह ‘वाइरस’ भारत की सभी पार्टियों को निगल चुका है।
कांग्रेस की देखादेखी हर प्रांत में पार्टियों के नाम पर कई ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां’ खड़ी हो गई हैं। यदि सोनिया गांधी कुछ हिम्मत करें और कांग्रेस-पार्टी में लोकतंत्र ले आएं तो भारत के लोकतंत्र के हाथ बहुत मजबूत हो जाएंगे और उनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। सोनियाजी की हिंदी मुझे खुश करती है। यह अच्छा हुआ कि उनके भाषण-लेखक ने सरकार के लिए ‘गरीबद्रोही’ और ‘देशद्रोही’ शब्द का प्रयोग नहीं किया।
(नया इंडिया की अनुमति से)
हवाई उड़ानें तो मई से ही शुरु हो चुकी हैं, और अब उन्हें तीन महीने होने को आ रहे हैं। फ्लाइट्स को पूरी भरकर उड़ने की इजाजत है, जिसमें बीच की सीट पर भी यात्री बैठ सकते हैं। लेकिन रेलवे को लॉकडाउन की शुरुआत से ही बंद करके रखा गया है। आखिर क्यों?
मंगलवार यानी पहली सितंबर से देश में अनलॉक 4.0 लागू हो जाएगा। मैंने अब इसका हिसाब ही लगाना छोड़ दिया है कि इसका क्या अर्थ है, और मुझे लगता है कि कोई भी इसका सही मायनों में अर्थ समझ भी नहीं पा रहा है। भारत सरकार दरअसल कई चीजों को बंद रखकर कोरोना का संक्रमण काबू में रखने की कोशिश कर रही है। अगर सरकार लोगों को एक दूसरे से दूर रखे और सेवाओं से वंचित रखे तो कोरोना के संक्रमण की रफ्तार धीमी जाएगी।
इससे कुछ ऐसे नियम बन गए हैं, जो मुझे समझ नहीं आते। मसलन, हवाई उड़ानें तो मई से ही शुरु हो चुकी हैं, और अब उन्हें तीन महीने होने को आ रहे हैं। फ्लाइट्स को पूरी भरकर उड़ने की इजाजत है, जिसमें बीच की सीट पर भी यात्री बैठ सकते हैं। लेकिन रेलवे को लॉकडाउन की शुरुआत से ही बंद करके रखा गया है। रेलवे अपनी नियमित करीब 17,000 प्रतिदिन ट्रेन की जगह सिर्फ 230 स्पेशल ट्रेन ही चला रहा है। ऐसे में क्या तर्क है कि जहाज तो पूरा भरकर उड़ सकता है लेकिन ट्रेन नहीं चल सकती? हवाई यात्री तो दो गज की दूरी बनाए ही नहीं रख सकते, तो ट्रेनें न चलाना तो तर्कहीन लगता है।
कोरोना संक्रमण फैलने से रोकने के फायदे अभी नहीं पता हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था को इससे भयंकर नुकसान हुआ है जो साफ नजर आ रहा है। सूरत से ही पिछले महीने आई एक रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि सामान्य दिनों की अपेक्षा उत्पादन में 25 फीसदी गिरावट आई है और इसका सबसे बड़ा कारण मजदूरों-कामगारों का न होना है।
सूरत और आसपास के औद्योगिक इलाकों से अप्रैल-मई में करीब 30 लाख लोग चले गए। यह बात 31 जुलाई को प्रकाशित हिंदू फ्रंटलाइन पत्रिका की एक रिपोर्ट में कही गई है। इन लोगों को काम पर वापस लाने का कोई रास्ता नही नहीं दिख रहा। ये लोग काम पर वापस आना भी चाहें तो भी कोई रास्ता नहीं है। ऐसी रिपोर्ट्स आई हैं कि मिल मालिकों और दूसरे कारोबारियों ने मजदूरों-कामगारों को हवाई जहाज से वापस बुलाना शुरु कर दिया है। लेकिन, सवाल है कि रेलवे क्यों नहीं ट्रेनें चला रहा? इस बारे में कोई कुछ बताने वाला है नहीं।
सूचना दी गई है कि दिल्ली मेट्रो इस सप्ताह शुरु हो जाएगी और अपनी क्षमता से 50 फीसदी पर काम करेगी। (सवाल वही है कि विमान सेवाओं में यह नियम क्यों नहीं), जबकि मुंबई की जीवनरेखा मानी जाने वाली मुंबई लोकल बंद पड़ी। मेरी नजर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को लिखे गैर मान्यता प्राप्त पत्रकारों की उस मार्मिक चिट्ठी पर पड़ी जिन्हें लोकल के बजाए टैक्सी से चलना बहुत महंगा पड़ता है।
स्कूल-कॉलेज बंद हैं, लेकिन परीक्षाएं लेने का सिलसिला जारी है। इसका आखिर तर्क क्या है। अगर हम स्कूल-कॉलेज को ऑनलाइन कक्षाएं लेने को कह रहे हैं तो फिर हम छात्रों को परीक्षा देने के लिए भीड़ के रूप में परीक्षा केंद्र क्यों बुला रहे हैं?
सिनेमाहॉल भी बंद रखे गए हैं क्योंकि शारीरिक दूरी बनाए रखने के लिए इन्हें सिर्फ 25 फीसदी क्षमता पर चलाना नुकसान का सौदा है। लेकिन किसी फिल्म की अवधि भी तो लगभग उतनी ही होती है जितनी किसी घरेलू हवाई यात्रा की, और सिनेमाघर और विमानों की सीटें भी लगभग एक जैसी दूरी पर ही होती हैं। तो फिर सिनेमाघरों को क्यों बंद रखा गया है जिससे बहुत बड़ी तादाद में मनोरंजन उद्योग के लोग जुड़े हुए हैं।
मुझे इसमें कुछ हद तक एक विचित्रता नजर आती है, और मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी को हम जिस तरह देखते हैं उसमें कुछ नैतिकतावाद भी शामिल है। मिसाल के तौर पर, रेस्त्रां खोलने की इजाजत है, लेकिन बार बंद रखे गए हैं।. आखिर क्यों? रेस्त्रा में बैठने कोई मानक तय नहीं होता है। तो फिर बार में भी तो ऐसा ही है। लगता सरकार मदिरा सेवन करने वालों को पसंद नहीं करती है।
इसके अलावा केंद्र और राज्यों को बीच कुछ गलतफहमियां भी सामने आई हैं। मसलन केंद्र ने तो जिम खोलने की इजाजत देदी है लेकिन राज्य ऐसी इजाजत नहीं दे रहे हैं। आखिर क्यों?
दूसरे देशों क बात करें तो वहां ज्यादातर जगह लॉकडाउन स्वैच्छिक था। भारत में इसे कर्फ्यू जैसा बना दिया गया। आज भी मुंबई पुलिस आपकी गाड़ी को जब्त कर लेगी अगर आप वाजिब वजह बाहर आने की नहीं बता पाए। सवाल है कि वाजिब वजह क्या हो, जवाब है जो पुलिस को पसंद आ जाए।
हम एक देश एक टैक्स वाले राष्ट्र हैं, लेकिन लोग स्वतंत्र रूप से इधर-उधर जाने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। एक राज्य से दूसरे राज्य जाने पर एक आवेदन देना पड़ रहा है और अनुमति मांगनी पड़ रही है। अब अनुमति मिलेगा या नहीं यह राज्य पर निर्भर है।
जैसा कि मैंने शुरु मे कहा कि भारत ने कोरोना के संक्रमण को रोकने की कोशिश में नागरिकों को जरूरी सेवाओं से वंचित किया। क्या इसका फायदा हुआ? मुझे नहीं लगता। अर्जेंटीन के साथ भारत अकेला ऐसा देश है जहां कोरोना संक्रमितों की संख्या मार्च के बाद से लगातार बढ़ रही है। कोरोना संक्रमण रोकने का एकमात्र तरीका बड़े पैमाने पर जन व्यवहार पर निर्भर है। लेकिन भरी बैठकों में केंद्रीय मंत्री तक अपने मास्क ठोड़ी पर खिसकाए बैठे दिख रहे हैं। ऐसे में आम नागरिकों से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? और ये लोग नागरिकों से अच्छे व्यवहार के लिए कैसे कह सकते हैं। नहीं कह सकते। यही कारण है कि हम लगातार नियमों में बदलाव कर रहे हैं, लेकिन हर नियम नाकाम ही साबित हो रहा है और कोरोना संक्रमितों की बढ़ती संख्या इसका प्रमाण है। (navjivan)
हिंदूवाद, भाषागत गाली-गलौज, संप्रदायवाद और सवर्णवादी वर्चस्व की जाहिल फूटों का सिलसिला खत्म करवा के कांग्रेस अगर अपनी पार्टी के मूल वैचारिक आधारों को युवा सपनों के लायक तराशे और सभी क्षेत्रीय दलों से युवा नेताओं को एक प्लेटफॉर्म पर लाकर लामबंद होने का सफल आग्रह कर सके, तो यह कोई बुरी बात नहीं होगी।
- मृणाल पाण्डे
कुछ भविष्यवाणियां कांग्रेस की बाबत बरसों से की जाती रही हैं जो बीसवीं सदी तक हर बार असफल साबित हुईं। नेहरू के समय से राजीव गांधी के जीवनकाल तक यह कहने वाले कम नहीं थे कि अब पार्टी दक्षिण और वाम के दो साफ वैचारिक ध्रुवों में बंट कर दो फाड़ हो जाएगी। जब यह होगा तो कांग्रेस का फैलाया भरम मिट जाएगा कि समय के साथ रसोइये भले आते-जाते रहें, कांग्रेस की विशाल पतीली में हर तरह की सब्जी और दाल-चावल मिलाकर एक सुस्वादु, स्वास्थ्यवर्धक खिचड़ी हमेशा बनाई जा सकती है। इंदिरा जी के बाद फिर कांग्रेस की आसन्न मौत की भविष्यवाणियां हुईं: कि उनके पुत्र राजनीति में नए हैं। जल्द ही क्षेत्रीय नेता उन पर हावी होंगे और तब केंद्र का दर्जा बहुत करके एक होल्डिंग कंपनी का बन जाएगा। हर सूबा अब संविधान की दी हुई स्वायत्तता के बूते शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्माण और जल बंटवारे तक के सवालों पर अपने हित स्वार्थ खुद तय करके केंद्र या पड़ोसी राज्य से भाव-ताव करेगा। यानी देश का दूसरा विभाजन भले न हो लेकिन सूबाई क्षत्रप ताकतवर होंगे और दिल्ली शासन की अखंड केंद्रीयता काफी हद तक मिट कर एक जबर्दस्त संघीय लोकतंत्र का युग शुरू हो जाएगा जिसमें हर राज्य बराबर की ताकत और सुनवाई का हक रखेगा।
अर्थ समझें तो पहली भविष्यवाणी का मतलब यह था कि आगे जाकर देश अलग-अलग: वाम, दक्षिण, समाजवादी सरीखी विचारधाराओं के आधार पर खांचों में बंटेगा। दूसरी का आशय था कि बंटवारा तो होगा, पर दल की विचारधारा की खड़ी लकीरों के आधार पर नहीं। नेहरू काल से भाषावार बने प्रांत अपनी भौगोलिक और भाषायी अस्मिता मजबूत कर चुके हैं। लिहाजा अब वे अपने हित-स्वार्थों के तहत देश को कई-कई सतहों, परतों में भीतर से बांट देंगे। इससे दिल्ली चालित रह कर भी देश भीतर से परतों में बंटा देश बन जाएगा जिसकी सतहें हर राज्य की अलग-अलग क्षेत्रीय भाषा और सांस्कृतिक आधारों पर बनेंगी। ये दोनों ही भविष्यवाणियां सदी की शुरुआत तक सही निकलती नहीं दिखीं। पर इनके भीतर का छुपा आंशिक सच 2014 के बाद दक्षिणपंथी वैचारिकता की फतह के बाद धीरे- धीरे उजागर हुआ है।
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में जब बीजेपी गठजोड़ की निर्द्वंद्व नेता साबित हो गई, तो दक्षिणपंथी विचार के नेतृत्व को मौका मिला कि देश को हिंदुत्ववादी विचारधारा और उसके सही-गलत जैसे हों, अपने ऐतिहासिक निष्कर्षों के आधार पर एक दिशा विशेष में मोड़ा जाए। अगर संविधान आड़े आता दिखे तो उसमें भी अपनी मन्याताओं के हिसाब से तरमीम की जाए। यूं कांग्रेस के तले देश का जो लोकतंत्र बना था, उसमें भी सवर्ण हिंदू और पुरुष अधिक हावी थे। फिर भी वह अनेकता में एकता, विरोधों के बीच सर्वानुमति, सर्वदलीय संयुक्त मोर्चे के आधार पर काम करने वाला था जिसे लोकतांत्रिकता से हटने पर संसद या अदालत में सफल चुनौती का रास्ता खुला था।
2014 में पूरे बहुमत से सत्ता में आई एनडीए सरकार ने देश के उस सांचे को लगातार संघ द्वारा परिभाषित बहुसंख्यक हिंदूनीत, एक चालकानुवर्ती और केंद्र संचालित बनाया है। संसद या अदालत में इससे असहमत लोगों का प्रतिवाद असफल रहना दिखाता है कि देश में खड़ी वैचारिक लकीरों वाला स्पष्ट विभाजन संभव नहीं रह गया। दलगत के मैनीफेस्टो चाहे जो कहें लेकिन दलों के भीतरी लोकतंत्र, चुनावी चंदा एकत्रित करने, उसके वितरण या चुनावी रैलियों के नजरिये से कोई भी पार्टी आज दूसरी से भिन्न नहीं दिखती है। यानी जैसा राजेंद्र माथुर कहते थे- राजकाज के अर्थ में कांग्रेस कोई पार्टी नहीं, राज करने की निखालिस भारतीय शैली है। जो भी दल लंबे समय तक राज करने का इच्छुक है, उसको झक मार कर यही तरीका पकड़ना होगा। पर इसका मतलब यह नहीं कि केंद्र-राज्य टकराव नहीं होंगे।
किसी भी देश का मूल चरित्र उसमें ऐतिहासिक तौर से बार-बार होते रहे मुद्दों से जाना जा सकता है। भारत में ये मुद्दे राजनीतिक विचारधारा के उतने नहीं, जितने जाति, धर्म और भाषाई अस्मिता के हैं। उदाहरण के लिए दक्षिण के खिलाफ बीजेपी की प्रिय हिंदी के जब्बर उपनिवेशवादी मंसूबों को लेकर अभी द्रमुक की कनिमोझी ने जो पुराने भाषाई जिन्नात बोतल से निकाल दिए, जातिगत आरक्षण पर पुनर्विचार की बात उठते ही जैसे तलवारें मियान से निकल आईं, कश्मीर के सर्वदलीय नेताओं के मोर्चे ने अनुच्छेद 370 के हटने से हुए कश्मीरियत के विघटन पर जैसी भड़ास निकाली, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की अपने सूबे के धरतीपुत्रों के लिए नौकरियां आरक्षित करने पर शेष राज्यों की जो प्रतिक्रिया हुई, वे उनके पूर्ववर्ती क्षेत्रीय क्षत्रपों की तल्ख झड़पों से भिन्न नहीं हैं। ये टकराहटें जिनको सूबे की जनता का भारी समर्थन है, दिखाती हैं कि यह देश भले ही संविधान की रक्षा अथवा महिलाओं के साथ शारीरिक बदसलूकी या पुलिसिया भ्रष्टाचार-जैसे मुद्दों पर लामबंद न हो लेकिन क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान और जातिगत आधारों पर जम कर गदर काटा जा सकता है।
बीजेपी को मालूम है कि उसकी कोई बड़ी चुनौती है तो वह गांधी परिवारनीत कांग्रेस ही है। इसीलिए उसने उसके नेतृत्व को अभिमन्यु की तरह घेर कर, मीडिया चर्चाएं खास तरह से मोड़कर राहुल गांधी को बचकाना और सोनिया से कमतर बताने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन किसी की आप खिल्ली बड़ीआसानी से उड़ा सकते हैं। लेकिन राजा नंगा है कहने का साहस तो किसी को दिखाना था ही। यह भी गलत नहीं कि आज बाढ़, सुखाड़, बेरोजगारी, पर्यावरण क्षरण के बीच खदानों को लीज पर देना, सीमा असुरक्षा पर लीपापोती और महामारी से सफलतापूर्वक निबटने की अक्षमता- जैसे मुद्दों पर जब दलों को ईंट से ईंट बजा देनी थी, तब यह बात हमारे राष्ट्रीय पाखंड का ज्वलंत नमूना है कि संसद से सड़क तक हर विपक्षी दल के अधिकतर बुजुर्ग नेता मुंह चुराए पड़े रहे। अल्पसंख्यक समुदाय, खासकर महिलाओं तथा छात्रों ने संशोधित नागरिकता कानून पर जम कर मोर्चा लिया। फिर कोविड उमड पड़ा तो सड़क पर उतरना भी मुहाल हो गया। लेकिन अधबीच सरकारें गिराने, विधायकों की खरीद-फरोख्त जारी रही।
अब ऐसी दशा में जब जरूरत अगले विधानसभा चुनावों के लिए बड़ा दिल लेकर अहंकार त्याग कर एकजुट होने की हो, तो उस समय पहले निष्क्रिय रहे कुछ लोग अपनी उपेक्षा की दुहाई देते हुए कहें कि कुछ कीजै, तब कोई क्या करे? कांग्रेस ने यह बात उठने पर अपने तरीके से कार्यकारी समिति की बैठक की और (गोदी मीडिया की हर कोशिश के बावजूद) घर की इज्जत का घड़ा एक बार फिर चौराहे पर फोड़े जाने से बचा लिया। यह गंभीरता से विचार करने की बात है कि आज जरूरत मुंह फुलाने या पैर पटकने की नहीं। आपको देश और लोकतंत्र की परवाह हो तो इस देश में अब सच्चा वैचारिक संघर्ष एकजुट होकर छेड़ा जाएगा। ऐसा संघर्ष ही आज के लस्त पंख खोये बरसाती कीड़ों की तरह निस्तेज नजर आते विपक्ष को सबल और सम्मानित बनाएगा। अमेरिका, इंग्लैंड, चीन- ये सब देश आपातकाल आने पर पक्ष-विपक्ष के बीच खुल कर छेड़ेगए गृह युद्धों के बावजूद सही लोकतांत्रिक पटरियों से नहीं उतरे। उस समय की गर्मागर्म जिरहों और चुनौतियों ने उनको भविष्य के लिए गहरी एकजुटता दी। भारत भी अपवाद नहीं होगा।
ईमान से सोचें, क्या अब तक हमारे हालिया टकराव टुच्ची बातों पर नहीं होते रहे? (अमुक स्टेशन का नाम हिंदी में क्यों लिखा गया? या तमुक मुगलकालीन सड़क का नाम बदलकर दल विशेष के दिवंगत नेता के नाम पर काहे रखा गया? भूमि पूजन कोविड के बावजूद क्यों न हो? कोविड के बढ़ते संक्रमण के खतरे के बावजूद अमुक बड़ा पर्यटन स्थल या नामी मंदिर लाखों पर्यटकों-दर्शनार्थियों के लिए क्यों न खोल दिया जाए?) क्षुद्र शिकायतों और ओछे हथकंडों ने तो हमको जनता और दुनिया की नजरों में बद से बदतर ही बनाया। दुनिया की हर रेटिंग एजेंसी के आर्थिक, सामाजिक, मीडिया से जुड़े पैमानों पर हम लगातार नीचे धकेले जा रहे हैं। सौ बात की एक बात यह कि अन्याय किसी के साथ हो लेकिन झगड़े से दोनों ही पक्ष दुनिया के मंच पर बदनाम होते हैं। खासकर वह पक्ष जो अधिक सबल और आक्रामक दिखता हो।
यह एक तरह से स्वस्थ बात है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के अपने आंतरिक प्लेटफॉर्म पर मशविरे और समन्वय के हर पुराने फॉर्मूले और ढांचे को ईमानदार चुनौती दी गई है। हिंदूवाद, भाषागत गाली-गलौज, संप्रदायवाद और सवर्णवादी वर्चस्व की जाहिल फूटों का सिलसिला खत्म करवा के कांग्रेस अगर समय की कसौटी पर परखे गए अपनी पार्टी के मूल समन्वयवादी वैचारिक आधारों को युवा सपनों के लायक तराशे और सभी क्षेत्रीय दलों से उभर रहे युवा नेताओं को क्षुद्र बातों पर अटकी विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ एक प्लेटफॉर्म पर लाकर लामबंद होने का सफल आग्रह कर सके, तो यह कोई बुरी बात नहीं होगी। कोविड की महामारी ने साफ कर दिया है कि हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए। यह भी कि सीमाओं से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों तक आज की दुनिया के केंद्रीय झगड़े का उत्स अमेरिका और चीन के बीच है। उस कोलाहलमय नक्कारखाने में भारत कभी बांग्लादेश तो कभी नेपाल और कभी ईरान-तूरान राजदूत भेजकर एशियाई एकता की तूती बजाए तो सुनने वाला कौन है? दुनिया में हमारी इज्जत कितनी होगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि खुद हमारी नजरों में हमारे लोकतंत्र की इज्जत कितनी रह गई है।(navjivan)
- तारेंद्र किशोर
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में बयान दिया है कि अर्थव्यवस्था कोविड-19 के रूप में एक दैवीय घटना (एक्ट ऑफ गॉड) की वजह से प्रभावित हुई है. इससे चालू वित्त वर्ष में इसमें संकुचन आएगा.
जीएसटी काउंसिल की बैठक के बाद मीडिया से मुख़ातिब होते हुए वित्त मंत्री ने ये बात कही थी.
सोमवार को सरकार अप्रैल से जून 2020 तिमाही के लिए जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े जारी करने वाली है.
इसके ठीक पहले वित्त मंत्री का यह बयान संकेत देता है कि इस तिमाही में जीडीपी ग्रोथ शायद कम रहने वाली है.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के इस बयान पर अब पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने निशाना साधते हुए ट्वीट किया है.
उन्होंने ट्वीट में लिखा है, "अगर ये महामारी ईश्वर की क़रतूत है तो हम महामारी के पहले 2017-18, 2018-19 और 2019-2020 के दौरान हुए अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन का वर्णन कैसे करेंगे? क्या ईश्वर के दूत के रूप में वित्त मंत्री जवाब देंगी."
नहीं संभल पा रही है अर्थव्यवस्था
कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन से आर्थिक गतिविधियाँ पूरी तरह से ठप पड़ गई थीं जिसकी वजह से भारत समेत दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हुई है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के एक पोल के मुताबिक़, भारत की अब तक दर्ज सबसे गहरी आर्थिक मंदी इस पूरे साल बरक़रार रहने वाली है.
इस पोल के मुताबिक़ कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों की वजह से अब भी खपत में बढ़ोतरी नहीं दिख रही है और आर्थिक गतिविधियों पर लगाम लगी हुई है.
इस पोल के मुताबिक़ चालू तिमाही में अर्थव्यवस्था के 8.1 प्रतिशत और अगली तिमाही में 1.0 प्रतिशत सिकुड़ने का अनुमान है. यह स्थिति 29 जुलाई को किए गए पिछले पोल से भी ख़राब है.
उसमें चालू तिमाही में अर्थव्यवस्था में 6.0 फ़ीसदी और अगली तिमाही में 0.3 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान था.
भारत सरकार ने लॉकडाउन से प्रभावित अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए मई में 20 लाख करोड़ के आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की थी. इस पैकेज के तहत 5.94 लाख करोड़ रुपये की रकम मुख्य तौर पर छोटे व्यवसायों को क़र्ज़ देने और ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और बिजली वितरण कंपनियों की मदद के नाम पर आवंटित करने की घोषणा की गई थी.
इसके अलावा 3.10 लाख करोड़ रुपये प्रवासी मज़दूरों को दो महीने तक मुफ़्त में अनाज देने और किसानों को क़र्ज़ देने में इस्तेमाल करने के लिए देने की घोषणा की गई. 1.5 लाख करोड़ रुपये खेती के बुनियादी ढाँचे को ठीक करने और कृषि से जुड़े संबंधित क्षेत्रों पर ख़र्च करने के लिए आवंटित करने की घोषणा की गई.
इस पैकेज के ऐलान को भी अब तीन महीने बीत चुके हैं. बाज़ार भी अधिकांश जगहों पर खुल चुके हैं. भारतीय रिज़र्व बैंक भी मार्च से ब्याज़ दरों में 115 बेसिस पॉइंट्स की कमी कर चुका है. लॉकडाउन के दौरान लोगों को बैंक से लिए कर्ज़ पर राहत देने की भी बात कही गई.
सरकार की कोशिशें नाकामयाब क्यों?
लेकिन इन तमाम प्रयासों के बावजूद अर्थव्यवस्था संभलती नहीं दिख रही है तो क्यों. केंद्र सरकार ने चालू वित्त वर्ष में जीएसटी राजस्व प्राप्ति में 2.35 लाख करोड़ रुपये की कमी का अनुमान लगाया है.
जानकार मानते हैं कि बाज़ार खुलने के बाद भी चूंकि डिमांड में कमी है इसलिए अभी बाज़ार के हालत सुधरते नहीं दिख रहे हैं. सरकार की ओर से उठाए गए क़दमों का बाज़ार पर कोई असर क्यों नहीं दिख रहा है?
योजना आयोग के पूर्व सदस्य अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा का मानना है कि सबसे बड़ी ग़लती सरकार ने ये की है कि उसने लॉकडाउन के क़रीब पौने दो महीने बाद आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की.
इसके अलावा वो आर्थिक पैकेज के नाकाफ़ी होने और उसकी कमियों की भी बात करते हैं. वो कहते हैं, "आर्थिक पैकेज में कहा गया है कि सूक्ष्म, लुघ और मध्यम उद्योगों का जो बकाया पैसा है वो वापस करेंगे. ये तो उन्हीं का पैसा है तो यह तो करना ही था. इसे आर्थिक पैकेज में शामिल करने का क्या मतलब है. इसके अलावा इनकम टैक्स के अंतर्गत जो अतिरिक्त पैसा चला जाता है, उसे भी आर्थिक पैकेज में शामिल करने की बात कही गई. ये तो जनता का पैसा ही जनता को लौटाना हुआ. ये किस तरह का अर्थिक पैकेज था."
बाज़ार में मांग की कमी क्यों?
बाज़ार में डिमांड की कमी पर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि डिमांड तब होगी जब लोगों के पास पैसा होगा और ये पैसा आज की तारीख़ में कॉरपोरेट्स को छोड़कर किसी के पास नहीं है. सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स घटाकर 30 प्रतिशत से 25 प्रतिशत कर दिया. इससे सीधे एक लाख करोड़ का नुक़सान तो सबसे पहले सरकार के राजस्व का हुआ और दूसरा इसके एवज़ में ना कॉरपोरेट ने अपना खर्च बढ़ाया और ना ही अपना निवेश. तो सरकार ने इस कदम से अपनी बदतर होती राजस्व की स्थिति को और नुक़सान में डाल दिया.
जब जीडीपी के आंकड़े कमज़ोर होते हैं तो हर कोई अपने पैसे बचाने में लग जाता है. लोग कम पैसा खर्च करते हैं और कम निवेश करते हैं इससे आर्थिक ग्रोथ और सुस्त हो जाती है.
ऐसे में सरकार से ज़्यादा पैसे खर्च करने की उम्मीद की जाती है. सरकार कारोबार और लोगों को अलग-अलग स्कीमों के ज़रिए ज़्यादा पैसे देती है ताकि वे इसके बदले में पैसे खर्च करें और इस तरह से आर्थिक ग्रोथ को बढ़ावा मिल सके. सरकार की ओर से इस तरह की मदद अक्सर आर्थिक पैकेज के तौर पर की जाती है.
संतोष मेहरोत्रा बताते हैं कि आर्थिक प्रोत्साहन का मतलब होता है टैक्स काटना और खर्च बढ़ाना. सरकार ने पर्सनल इनकम टैक्स और कॉरपोरेट टैक्स दोनों ही घटा दिया. पर्सनल इनकम टैक्स 2019 के चुनाव से पहले ही सरकार ने ढाई लाख से पांच लाख कर दिया था. इससे हुआ यह कि इनकम टैक्स देने वालों की संख्या छह करोड़ से घटकर डेढ़ करोड़ रह गई.
बाज़ार मांग की चुनौती से कैसे उबर पाएगा?
अर्थव्यवस्था अभी जिस दुश्चक्र में फंस गई है उससे कैस उबर पाएगी?
अर्थशास्त्री मानते हैं कि लोग बाज़ार में खरीदारी करने को प्रोत्साहित हो और बाज़ार में डिमांड में बढ़े, इन्हीं तरीक़ों से बाज़ार को फिर से पटरी पर लाया जा सकता है.
इसके लिए संतोष मेहरोत्रा सरकार को और कर्ज़ लेने और उसे सीधे लोगों के हाथ में पुहँचाने की सलाह देते हैं. वो कहते हैं, "सरकार को अर्बन मनरेगा इन हालात से निपटने के लिए शुरू करना पड़ेगा. इससे कुछ कामगार शहर वापस लौटे आएंगे. दूसरी ओर इससे मनरेगा पर पड़ने वाला भार कुछ कम होगा. इसके अलावा सरकार पीएम किसान योजना जैसी कोई न्यूनतम आय गारंटी योजना ला सकती है. इसमें मेरे सुझाव में 70 प्रतिशत ग्रामीण और 40 प्रतिशत शहरी इलाक़ों के परिवार को शामिल किया जा सकता है. इन्हें एक न्यूनतम राशि सीधे कैश ट्रांसफर के तौर पर दिया जाए ताकि लोगों को खर्च करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. उनकी जेब में पैसे आएंगे तो वो खर्च करेंगे और फिर बाज़ार में डिमांड बढ़ेगी."
इसके अलावा वो स्वास्थ्य सेवाओं को और सुदृढ़ बनाए जाने पर ज़ोर देने की बात करते हैं क्योंकि आने वाले वक़्त में लगता है कि कोरोना की चुनौती बढ़ने वाली है. इसलिए उस मोर्च पर भी मजबूत रहना ज़रूरी है, नहीं तो अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान को रोका नहीं जा सकेगा.
संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि इन उपायों पर उतना ज़्यादा खर्च भी नहीं आने वाला है और दूसरी बात यह कि सरकार को कर्ज़ तो लेना ही होगा. इसमें हिचकने की ज़रूरत नहीं है.
वो कहते हैं कि मैक्रो इकॉनॉमिक्स का एक चक्र होता है. अगर अर्थव्यवस्था चल पड़ी तो आपका कर राजस्व फिर से पटरी पर आ जाएगा.(bbc)
प्रकाश दुबे
सरिताओं का सभ्यता तथा सियासत से पुराना रिश्ता है। विडम्बना है कि साधु-संत भी नदियों को साफ-सुथरा नहीं करा पा रहे हैं। राजनीति में सक्रिय साध्वी उमा भारती गंगा शुद्धिकरण अभियान और संसद की धारा से दूर हैं। मंत्री रहते हुए उमा भारती ने दक्षिण गंगा कहलाने वाली गोदावरी तथा सप्तनदी में शामिल कावेरी पर ध्यान दिया। आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई। दोनों नदियों के जल बंटवारे का विवाद हल करना चाहा। आम राय नहीं बनी। ठीक चार वर्ष बाद जल संसाधन मंत्रालय की नींद खुली। 25 अगस्त को बैठक बुलाई। राजस्थान के विधायकों को समझाते-बुझाते केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत कोरोना संक्रमित हुए। शेखावत गर्व से कह सकते हैं कि हमने बैठक रद्द नहीं की। चंद्रशेखर राव ने बैठक आगे टालने का आग्रह किया था। श्रम शक्ति भवन में तेलंगाना के मुख्यमंत्री की चिट्ठी मौजूद है।
संसद में हाथापाई, हंगामा? गया जमाना
संसद में सभापति के आसन तक पहुँचना, विरोध करने वाले सदस्य के पास जा पहुँचना अच्छी आदत नहीं है। जो ऐसा करते हैं, वे भी इस बात को जानते हैं। अब ऐसा करना मुश्किल है। अजी, बाहुबल दिखाने वाले सदस्यों ने हंगामा न करने की शपथ नहीं ली। कसम लेते, तब भी टूटते देर नहीं लगती। कोरोना कोविड-19 ने करिश्मा कर दिखाया। वरिष्ठों के सदन राज्यसभा के करीब पचास सदस्य दर्शक दीर्घाओं में बिठाए जाएंगे। सिर्फ पत्रकार दीर्घा में बैठने की इजाज़त नहीं होगी। वहां पत्रकार विराजमान रहेंगे। राज्यसभा सचिवालय ने लोकसभा सचिवालय से बात की है। सौ से अधिक राज्यसभा सदस्य बिना चुनाव लड़े लोकसभा में बैठने का अधिकार पाएंगे। नाटक के पूर्वाभ्यास की तरह राज्यसभा के सभपति और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने मुआयना किया। लोकसभा और राज्यसभा की बैठकें अलग-अलग समय पर होंगी ताकि दोनों सदनों के सदस्य सुरक्षित दूरी पर बैठ सकें। शक्ल और अक्ल प्रदर्शित करने के लिए तकनीकी सुविधा पहले से मौजूद है।
गलवान का पहलवान
जमीन हड़प करने वाले चीन ने जून में सैनिकों की हत्या की। सयानों की सीख है कि बिना हड्डी की जीभ हड्डियां तुड़वाने की ताकत रखती है। जीभ को बकबक से रोकने के लिए अजय देवगन मुंह में सिगरेट दबाते हैं। चहेते फिल्म पत्रकार का इस्तेमाल कर खबर चिपकवा दी कि गलवान घाटी पर फिल्म बनाएंगे। भरोसा था भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या पर चीन माफी मांगेगा। भारत की जमीन खाली कर देगा। ढिशुम ढिशुम सिंगम अवतार अजय फिल्म से लक्ष्मी कमाने का सपना देख रहे थे। गलवान घाटी का पेंच नहीं सुलझा। देवगन ने चुप्पी साधी। उत्साही लाल चुप नहीं बैठते। मौका हाथ लगते ही अमीर खान को अजदहे चीन का प्यारा कहा। इसी जोश में डंका पीट रहे हैं कि हमारा देवगन गलवान घाटी की शहादत के खिलाफ फिल्मी पांचजन्य फूंक रहा है। पत्नी काजोल को प्रसार भारती का सदस्य बनाने की कीमत फिल्म बनवा कर वसूलेंगे? यह बात और है कि काजोल बैठकों में गैरहाजिर रहती थीं। अजय गुनगुनाते होंगे- हर फिक्र धुएं में उड़ाता चला गया।
ये घर बहुत हसीन है
इधर कोरोना ने दस्तक दी। केन्द्र सरकार ने उसी वक्त मार्च के पहले सप्ताह में परिसीमन आयोग गठित किया। उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजना देसाई अध्यक्ष हैं। आयोग ने संबंधित राज्यों से आंकड़े जुटा लिए। हम चकित हैं। कोरोना निर्भया रंजना ने चार बैठकें कब, कैसे, कहां की होंगी?आयोग को दफ्तर अब जाकर नसीब हुआ है। देश के चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन करने वाले आयोग का पता-ठिकाना भाड़े का है। होटल अशोक, जिसे अगरेजीदां अशोका कहकर पुकारते हैं, उसकी तीसरी मंजिल पर। बेघर आयोग का ऐसे में काम कोई कुशल गृहिणी ही चला सकती है। रंजना देसाई ने कर दिखाया। कोरोना कहर के कारण होटल का घाटा बढ़ रहा है। पर्यटन निगम के कई होटल बिके, कुछ चतुर कारोबारियों को चलाने मिले। संस्कृति और पर्यटन मंत्री प्रहलाद पटेल फिर भी खुश होंगे। किराया मिलेगा। पर्यटन-निगम की कुछ तो कमाई होगी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
राज ढाल
आरएसएस का मुखपत्र पाञ्चजन्य कहता है कि मुस्लिम उम्मा का खलीफा बनने को बेताब तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एरदुगान की पत्नी के साथ आमिर खान की फोटो प्रचारित हो रही है. चीन में आमिर खान की फिल्में क्यों शानदार कारोबार करती हैं जबकि अन्य सितारे और निर्माता असफल हो जाते हैं।
ये माइंड सेट क्या है..?
हीनभावना..
गहरी हीन भावना
जो मुस्लिम विरोध से पनपी है..
उस इतिहास से पनपी है जहां इन्हें अपना अपमान लगता रहा है कि हम कैसे हज़ार साल गुलाम बने रहे..
जरूर कोई साजि़श रही होगी..
ज़रूर कोई गद्दारी रही होगी..
वरना हम किसी से कम ना थे..
कोई जाति व्यवस्था में खराबी नही थी
हमारे इतिहास को विकृत करके हमे बदनाम किया गया वगैरह वगरैह..
ये हीनभावना इनके अंदर डर जन्माती है और फिर ये डर अपने समर्थकों को ट्रांसफर कर देते है। जैसे एटीएम कार्ड डालते ही पैसा बाहर आता है वैसे डर डालते ही सत्ता हाथ में आ जाती है।
चीन के फिल्मी इतिहास में विदेशी फिल्मों की कैटिगिरी में सबसे ज्यादा सफल फिल्म आमिर खान की दंगल हुई। जिसने एवेंजर सीरीज को भी मात दे दी।
ऐसा क्या था दंगल में जो चीनियों को इतनी भायी कि अमेरिका के हॉलीवुड की इस सफल फिल्म को भी पीछे छोड़ दिया..?
चीन दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क है उसके बाद भारत। लेकिन दोनों में जमीन आसमान का फर्क है। जहां चीन ओलंपिक में सबसे ज्यादा मैडल लेकर आता है वहीं भारत के हाथ इक्का-दुक्का हो मैडल हाथ लगते है वो भी कभी कभार।
अक्सर चीनी हंसते है हम पर कि आप क्या मुकाबला करोगे हमारा.. देखो हम खेलों में कहां है.. और आप कहाँ..?
वो हमारे मुल्क के खेलों के भ्रष्ट सिस्टम पर हंसते है.. मखोल उड़ाते है। लेकिन दंगल देखने के बाद उनकी हमारे प्रति राय बदली।
उन्होंने देखा इस फिल्म में कि कैसे जन्म देने से पहले ही कन्याओं को मार देने वाले इस देश में एक ऐसा बाप भी हुआ जिसने अपनी लड़कियों को खेलों की दुनिया में भारत को मैडल दिलाने का ख्वाब देखा।
चीन ने इस फिल्म को बार-बार देखा। उसके इमोशंस को दिल से महसूस किया कि कैसे एक बाप ने मुसीबतें उठाई।
आमतौर पर चीनी एक्शन या कुंगफू जैसी फिल्मे ही बनाते है जो सफल भी होती है।
लेकिन दंगल ने उनके अंतर्मन को छुआ
आपको ये जानकर हैरानगी होगी कि चीन के सिनेमा व्यापार को तरक्की दी इसी फिल्म दंगल ने। चीन में ये फिल्म इतनी पापुलर हुई कि चीन ने कई शहरों में ज्यादा मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर खोले ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे देख सके
एक अनुमान के मुताबिक चीन में आमिर खान की दंगल और सुपरस्टार फिल्म के डेढ़ साल के भीतर 12त्नअधिक सिनेमाघर नए खुले। जो दर्शाता है कि भारत ने किसी और मामले में चीन को प्रभावित किया हो या ना हो पर आमिर खान ने भारत के रियल ब्रांड के रूप में अपनी धाक जरूर जमाई है। और संघ का पाञ्चजन्य पूछ रहा है कि आमिर की फिल्में वहां सफल क्यों हो जाती है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कमला हैरिस की वजह से अमेरिका में तो भारत का डंका बज ही रहा है, साथ-साथ यह भी खुश खबर है कि चीन में डॉ. द्वारकानाथ कोटनिस और लंदन में नुरुन्निसा इनायत खान को भी उनके बलिदान के लिए बड़े प्रेम के साथ याद किया जा रहा है। डॉ. कोटनिस की याद में एक कांस्य की प्रतिमा चीन में खड़ी की जा रही है और नुरुन्निसा (नूर) के सम्मान में लंदन में एक नीली तख्ती लगाई जा रही है। इन भारतीय पुरुष और महिला के योगदान से भारत की नई पीढिय़ों को अवगत होना चाहिए। जिन भारतीयों को विदेशी लोग इतनी श्रद्धा से याद करते हैं, उनका यथायोग्य सम्मान भारत में भी होना चाहिए।
डॉ. कोटनिस तथा अन्य चार भारतीय डॉक्टर 1938 में चीन गए थे। उन दिनों चीन पर जापान ने हमला कर दिया था। नेहरुजी और सुभाष बाबू ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अनुरोध पर इन डॉक्टरों को चीन भेजा था। डॉ. कोटनिस 28 साल के थे। वे सबसे पहले वुहान शहर पहुंचे थे, जो आजकल कोरोना के लिए बहुचर्चित है। वहां उन्होंने सैकड़ों चीनी मरीजों की जी-जान से सेवा की और एक चीनी नर्स गुओ क्विगलान के साथ शादी भी कर ली। उनके एक बेटा हुआ, जिसका नाम उन्होंने रखा-यिन हुआ-अर्थात भारत-चीन। दिसंबर 1942 में उनका वहीं निधन हो गया। उनके आकस्मिक निधन पर माओत्से तुंग और मदाम सन यात सेन ने उन्हें अत्यंत भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी।
उनकी पत्नी का निधन 2012 में 96 साल की आयु में हुआ। वे एक बार भारत भी आई थीं। चीन का जो भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री भारत आता है, वह पुणें-निवासी डॉ. कोटनिस के परिजनों से जरुर मिलता है। हो सकता है कि चीन इन दिनों उनके नाम की माला इसलिए भी जप रहा है कि गलवान के हत्याकांड का असर वह घटाना चाहता है।
जहां तक सुश्री नूर का सवाल है, उनके माता-पिता भारत के प्रतिष्ठित मुस्लिम थे। उनकी मां तो टीपू सुल्तान की रिश्तेदार थी। उनकी दादी ओरा बेकर अमेरिकी थीं। ओरा के भाई अमेरिकी योगी थे। नूर का जन्म मास्को में 1, जनवरी 1914 को हुआ। सितंबर 1919 से उनका परिवार लंदन में रहने लगा। ये लोग सूफी थे। 1920 में ये लोग फ्रांस में जा बसे।
1939 में नूर ने बुद्ध की जातक कथाओं पर एक पुस्तक लिखी। जब द्वितीय विश्वयुद्ध शुरु हुआ तो नूर का परिवार वापस लंदन चला गया। लंदन जाकर नूर ने ब्रिटिश सेना में वायरलेस आपरेटर का पद ले लिया।
1943 में नूर को ब्रिटेन ने अपने गुप्तचर विभाग में नियुक्ति दे दी ताकि वह फ्रांस जाकर जर्मन नाजी सेना के विरुद्ध गुप्तचरी करे। नूर ने जबर्दस्त काम किया लेकिन नाजिय़ों ने उसे गिरफ्तार करके 1944 में उसकी हत्या कर दी। नूर के अहसान को अंग्रेज लोग आज तक नहीं भूले हैं। भारत को भी अपनी बेटी पर गर्व है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुनीता नरैन
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जोर देकर कहा है कि अमेरिका में कोविड-19 के कारण होनेवाली मौतों की संख्या इतनी अधिक नहीं हैं। ऐसा उन्होंने उस दिन कहा जिस दिन इस वायरस के कारण अमेरिका में हुई मौतों की संख्या 1,60,000 को पार कर गई। हालांकि ट्रम्प कितने भी गलत क्यों न प्रतीत हों, उनकी बात में सच्चाई अवश्य है। यदि उनकी ही तरह आप भी अमेरिका में हो रही मौतों को कुल मामलों की तुलना में देखें, यानि केवल मृत्यु दर पर ध्यान दें, तो यह सच है कि अमरीका की हालत कई अन्य देशों से बेहतर है। अमेरिका में, मृत्यु दर 3.3 प्रतिशत के आसपास है, यह यूके और इटली में 14 प्रतिशत और जर्मनी में लगभग 4 प्रतिशत है। अतः वह सही भी है और पूरी तरह से गलत भी। अमेरिका में संक्रमण नियंत्रण से बाहर है। दुनिया की 4 प्रतिशत आबादी वाला देश 22 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार है। लेकिन अंततः बात इस पर आकर टिकती है कि आप किन बिंदुओं को चुनते हैं और किन आंकड़ों को प्रमुखता देते हैं।
यही कारण है कि भारत सरकार कहती आ रही है कि हमारी हालत भी अधिक बुरी नहीं है। भारत में मृत्यु दर कम (2.1 प्रतिशत) तो है ही, साथ ही यह अमेिरका की मृत्यु दर से भी कम है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे यहां संक्रमण की दर भले ही अधिक है लेकिन लोगों की उस हिसाब से मृत्यु नहीं हो रही है । लेकिन फिर सरकार यह भी कहती है कि भारत एक बड़ा देश है और इसलिए हमारे यहां होने वाले संक्रमण एवं मौतों की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक होगी। यही कारण है कि भारत में रोजाना औसतन 60,000 नए मामले (6 अगस्त तक, 2020 के पहले हफ्ते तक) आने के बावजूद, दस लाख आबादी पर कुल 140 मामले ही हैं और हम यह कह सकते हैं कि दुनिया के अन्य देशों के बनिस्पत हमारे यहां हालात नियंत्रण में हैं। अमेरिका में दस लाख पर 14,500 मामले हैं, ब्रिटेन में 4,500 और सिंगापुर में भी दस लाख पर 9,200 मामले हैं।
लेकिन हमारे यहां मामलों की संख्या इसलिए भी कम हो सकती है क्योंकि भारत में टेस्टिंग की दर बढ़ी अवश्य है लेकिन यह अब भी हमारी कुल आबादी की तुलना में नगण्य है। 6 अगस्त तक भारत ने प्रति हजार लोगों पर 16 परीक्षण किए जबकि अमेरिका ने 178 किए। यह स्पष्ट है कि हमारे देश के आकार और हमारी आर्थिक क्षमताओं को देखते हुए, अमेरिकी परीक्षण दर की बराबरी करना असंभव होगा। लेकिन फिर अपनी स्थिति को बेहतर दिखाने के लिए अमेिरका के साथ तुलना करने की क्या आवश्यकता है।
ऐसे में सवाल यह है कि हमसे क्या गलतियां हुई हैं और आगे क्या करना चाहिए। मेरा मानना है कि यही वह क्षेत्र है जिसमें भारत ने अमेरिका से बेहतर काम किया है। हमारी सरकार ने शुरू से ही मास्क पहनने की आवश्यकता पर जोर दिया और कभी इस वायरस को कमतर करके नहीं आंका है। हमने दुनिया के अन्य हिस्सों में सफल रहे सुरक्षा नुस्खों का पालन करने की पुरजोर कोशिश की है।
भारत ने मार्च के अंतिम सप्ताह में एक सख्त लॉकडाउन लगाया जिसकी हमें बड़ी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ी है। इस लॉकडाउन की वजह से हमारे देश के सबसे गरीब तबके को जान माल की भारी हानि उठानी पड़ी है। जो भी संभव था हमने किया। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि वायरस हमसे जीत चुका है या कम से कम फिलहाल तो जीत रहा है। हमें हालात को समझने की आवश्यकता है और इस बार विषय बदलने और लीपापोती से काम नहीं चलेगा।
इसका मतलब है कि हमें अपनी रणनीति का विश्लेषण करके अर्थव्यवस्था को फिर से चालू करने और करोड़ों गरीब जनता तक नगद मदद पहुंचाने की आवश्यकता है। देश में व्यापक संकट है, भूख है, बेरोजगारी है, चारों ओर अभाव का आलम है। इसकी भी लीपापोती नहीं की जा सकती।
हमारे समक्ष शीर्ष पर जो एजेंडा है वह है सार्वजनिक बुनियादी ढांचे और उससे भी महत्वपूर्ण, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के मुद्दे का समाधान। हमारे सबसे सर्वोत्तम शहरों में भी गरीब लोग रहते हैं। ऐसा न होता तो हमारे गृह मंत्री सहित हमारे सभी उच्च अधिकारी जरूरत पड़ने पर निजी स्वास्थ्य सेवाओं की मदद क्यों लेते। संदेश स्पष्ट है, भले ही हम इन प्रणालियों को चलाते हों, लेकिन जब अपने खुद के स्वास्थ्य की बात आती है तो हम उन सरकारी प्रणालियों पर भरोसा नहीं करते। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि उन राज्यों, जिलों और गांवों में, जहां संक्रमण में इजाफा हो रहा है, वहां स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा न के बराबर है।
यह भी एक तथ्य है कि सरकारी प्रणालियां अपनी क्षमता से कहीं अधिक बोझ उठाते-उठाते थक चुकी हैं। वायरस के जीतने के पीछे की असली वजह यही है। डॉक्टर, नर्स, क्लीनर, नगरपालिका के अधिकारी, प्रयोगशाला तकनीशियन, पुलिस आदि सभी दिन-रात काम कर रहे हैं और ऐसा कई महीनों से चला आ रहा है। सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में शीघ्र निवेश किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि अब समय आ चुका है जब सरकार को इन एजेंसियों और संस्थानों के महत्व को स्वीकार करना चाहिए। हम सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी भी करें और समय आने पर वे निजी सेवाओं से बेहतर प्रदर्शन करें, यह संभव नहीं है।
अतः हमारी आगे की रणनीति ऐसी ही होनी चाहिए। हमें सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों और नगरपालिका शासन में भारी निवेश करने की आवश्यकता है। हमें इस मामले में न केवल आवाज उठानी है बल्कि इसे पूरा भी करना है। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करने की हमारी वर्तमान दर न के बराबर है। जीडीपी का लगभग 1.28 प्रतिशत।
हमारी तुलना में, चीन अपनी कहीं विशाल जीडीपी का लगभग 3 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है और पिछले कई वर्षों से ऐसा करता आया है। हम इस एजेंडे को अब और नजरअंदाज नहीं कर सकते। कोविड-19 का मतलब है स्वास्थ्य को पहले नंबर पर रखना। इसका मतलब यह भी है कि हमें अपना पैसा वहां लगाना चाहिए जहां इसकी सर्वाधिक आवश्यकता हो। यह स्पष्ट है कि हमें बीमारियों को रोकने के लिए बहुत कुछ करना होगा। दूषित हवा, खराब भोजन एवं पानी और स्वच्छता की कमी के कारण होने वाली बीमारियों पर लगाम लगाना हमारा उद्देश्य होना चाहिए। अब बात हमारे देश, हमारे स्वास्थ्य की है।(DOWNTOEARTH)
भारत से सरहद पर तनाव के बीच चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक ‘नए आधुनिक समाजवादी तिब्बत’ के निर्माण की कोशिश करने का आह्वान किया है। इससे पहले चीन के विदेश मंत्री ने वांग यी ने तिब्बत का दौरा किया था और भारत से लगी सीमा पर निर्माण कार्यों की जायज़ा लिया था। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और चीन के सेंट्रल मिलिटरी कमिशन के चेयरमैन शी जिनपिंग ने बीजिंग में तिब्बत को लेकर हुई एक उच्च स्तरीय बैठक में यह टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि चीन को तिब्बत में स्थिरता बनाए रखने और राष्ट्रीय एकता की रक्षा करने के लिए और कोशिशें करने की जरूरत है। चीन ने 1950 में तिब्बत पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था।
निर्वासित आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के साथ खड़े होने वाले आलोचकों का कहना है कि ‘चीन ने तिब्बत के लोगों और वहाँ की संस्कृति के साथ बुरा किया।’ तिब्बत के भविष्य के शासन पर कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों की इस बैठक में शी जिनपिंग ने उपलब्धियों की प्रशंसा की और फ्रंटलाइन पर काम कर रहे अधिकारियों की भी तारीफ़ की, लेकिन उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में एकता को बढ़ाने, उसे फिर से जीवंत और मज़बूत करने के लिए और प्रयासों की आवश्यकता थी।
सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ के अनुसार, शी जिनपिंग ने बैठक में कहा कि ‘तिब्बत के स्कूलों में राजनीतिक और वैचारिक शिक्षा पर और ज़ोर दिए जाने की ज़रूरत है ताकि वहाँ हर युवा दिल में चीन के लिए प्यार का बीज बोया जा सके।’ शी जिनपिंग ने कहा कि तिब्बत में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका को मजबूत करने और जातीय समूहों को बेहतर ढंग से एकीकृत करने की आवश्यकता है।
इसी संदर्भ में उन्होंने कहा कि ‘हमें एकजुट, समृद्ध, सभ्य, सामंजस्यपूर्ण और सुंदर, आधुनिक, समाजवादी तिब्बत बनाने का संकल्प लेना होगा।’ उन्होंने कहा कि ‘तिब्बती बौद्ध धर्म को भी समाजवाद और चीनी परिस्थितियों के अनुकूल बनाए जाने की जरूरत थी।’ लेकिन आलोचकों का कहना है कि ‘अगर चीन से तिब्बत को वाकई इतना फायदा हुआ होता, जितना शी जिनपिंग ने बैठक में दावा किया, तो चीन को अलगाववाद का डर नहीं होता और ना ही चीन तिब्बत के लोगों में शिक्षा के जरिए ‘नई राजनीतिक चेतना’ भरने की बात करता।’
अमरीका और चीन तनाव के बीच भी तिब्बत को लेकर बात उठी थी। जुलाई में, अमरीकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ ने कहा था कि अमरीका तिब्बत में ‘राजनयिक पहुँच को रोकने और मानवाधिकारों के हनन में लिप्त’ कुछ चीनी अधिकारियों के वीजा को प्रतिबंधित करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि अमरीका तिब्बत की ‘सार्थक स्वायत्तता’ का समर्थन करता है।

चीन के कब्ज़े में तिब्बत कब और कैसे आया?
मुख्यत: बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों के इस सुदूर इलाक़े को ‘संसार की छत’ के नाम से भी जाना जाता है। चीन में तिब्बत का दर्जा एक स्वायत्तशासी क्षेत्र के तौर पर है। चीन का कहना है कि इस इलाके पर सदियों से उसकी संप्रभुता रही है, जबकि बहुत से तिब्बती लोग अपनी वफ़ादारी अपने निर्वासित आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के प्रति रखते हैं।
दलाई लामा को उनके अनुयायी एक जीवित ईश्वर के तौर पर देखते हैं तो चीन उन्हें एक अलगाववादी ख़तरा मानता है। तिब्बत का इतिहास बेहद उथल-पुथल भरा रहा है। कभी वो एक खुदमुख़्तार इलाक़े के तौर पर रहा, तो कभी मंगोलिया और चीन के ताक़तवर राजवंशों ने उस पर हुकूमत की। लेकिन साल 1950 में चीन ने इस इलाके पर अपना झंडा लहराने के लिए हजारों की संख्या में सैनिक भेज दिए। तिब्बत के कुछ इलाकों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाकी इलाकों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया। लेकिन साल 1959 में चीन के खिलाफ हुए एक नाकाम विद्रोह के बाद 14वें दलाई लामा को तिब्बत छोडक़र भारत में शरण लेनी पड़ी, जहाँ उन्होंने निर्वासित सरकार का गठन किया।
साठ और सत्तर के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान तिब्बत के ज़्यादातर बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया। माना जाता है कि दमन और सैनिक शासन के दौरान हज़ारों तिब्बतियों की जाने गई थीं।
भारत ने रिश्तों को गंभीर नुकसान पहुँचाया- चीन
चीन तिब्बत विवाद कब शुरू हुआ? चीन और तिब्बत के बीच विवाद, तिब्बत की कानूनी स्थिति को लेकर है। चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा रहा है लेकिन तिब्बतियों का कहना है कि तिब्बत कई शताब्दियों तक एक स्वतन्त्र राज्य था और चीन का उस पर निरंतर अधिकार नहीं रहा।
मंगोल राजा कुबलई खान ने युआन राजवंश की स्थापना की थी और तिब्बत ही नहीं बल्कि चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का विस्तार किया था। फिर सत्रहवीं शताब्दी में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ संबंध बने।
260 साल के रिश्तों के बाद चिंग सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया, लेकिन तीन साल के भीतर ही उसे तिब्बतियों ने खदेड़ दिया और 1912 में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतन्त्रता की घोषणा की। फिर 1951 में चीनी सेना ने एक बार फिर तिब्बत पर नियन्त्रण कर लिया और तिब्बत के एक शिष्टमंडल से एक संधि पर हस्ताक्षर करा लिए जिसके अधीन तिब्बत की प्रभुसत्ता चीन को सौंप दी गई।

दलाई लामा भारत भाग आये और तभी से वे तिब्बत की स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो उसे बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट दिया। इसके बाद तिब्बत के चीनीकरण का काम शुरू हुआ और तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा - सबको निशाना बनाया गया।
क्या तिब्बत चीन का हिस्सा है?
चीन-तिब्बत संबंधों से जुड़े कई सवाल हैं जो लोगों के मन में अक्सर आते हैं।
जैसे कि क्या तिब्बत चीन का हिस्सा है? चीन के नियंत्रण में आने से पहले तिब्बत कैसा था? और इसके बाद क्या बदल गया? तिब्बत की निर्वासित सरकार का कहना है, इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि इतिहास के अलग-अलग कालखंडों में तिब्बत विभिन्न विदेशी शक्तियों के प्रभाव में रहा। मंगोलों, नेपाल के गोरखाओं, चीन के मंचू राजवंश और भारत पर राज करने वाले ब्रितानी शासक, सभी की तिब्बत के इतिहास में कुछ भूमिकाएं रही हैं। लेकिन इतिहास के दूसरे कालखंडों में वो तिब्बत था जिसने अपने पड़ोसियों पर ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल किया और इन पड़ोसियों में चीन भी शामिल था।
दुनिया में आज कोई ऐसा देश खोजना मुश्किल है, जिस पर इतिहास के किसी दौर में किसी विदेशी ताक़त का प्रभाव या अधिपत्य ना रहा हो। तिब्बत के मामले में विदेशी प्रभाव या दखलंदाज़ी तुलनात्मक रूप से बहुत ही सीमित समय के लिए रही थी। लेकिन चीन का कहना है कि सात सौ साल से भी ज़्यादा समय से तिब्बत पर चीन की संप्रभुता रही है और तिब्बत कभी भी एक स्वतंत्र देश नहीं रहा। दुनिया के किसी भी देश ने कभी भी तिब्बत को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं दी।
जब भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना
साल 2003 के जून महीने में भारत ने ये आधिकारिक रूप से मान लिया था कि तिब्बत चीन का हिस्सा है। चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मुलाकात के बाद भारत ने पहली बार तिब्बत को चीन का अंग माना। हालांकि तब ये कहा गया था कि ये मान्यता परोक्ष ही है, लेकिन दोनों देशों के बीच रिश्तों में इसे एक महत्वपूर्ण कदम के तौर पर देखा गया था।
वाजपेयी-जियांग जेमिन की वार्ता के बाद चीन ने भी भारत के साथ सिक्किम के रास्ते व्यापार करने की शर्त मान ली थी। तब इस कदम को यूँ देखा गया कि चीन ने भी सिक्किम को भारत के हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया है।
भारतीय अधिकारियों ने उस वक्त ये कहा था कि भारत ने पूरे तिब्बत को मान्यता नहीं दी है जो कि चीन का एक बड़ा हिस्सा है, बल्कि भारत ने उस हिस्से को ही मान्यता दी है जिसे स्वायत्त तिब्बत क्षेत्र माना जाता है। (bbc.com/hindi)
-राकेश दीवान
कई लोगों को यह थोड़ा विचित्र लग सकता है कि करीब 15 हजार की आबादी का मामूली, अनजान, उनींदा-सा एक कस्बा अपने से लगभग सात गुने, एक लाख से ज्यादा लोगों को ढाई-तीन दिन अपने साथ रहने, खाने-पीने और प्रदर्शन करने में शामिल कर सकता है। कस्बे की आबादी और जरूरत-भर संसाधन इतने कम थे कि जमावड़े के लिए मामूली आटा-दाल, साग-भाजी तक के लिए भी करीब साठ किलोमीटर दूर, खंडवा शहर तक जाना-आना पडता था। कार्यक्रम में आने वाले मेहमानों के लिए कस्बेभर के अधिकांश घर खोल दिए गए थे, लेकिन आमंत्रित इतने अधिक थे कि उनके ठहराने के लिए कृषि उपज मंडी, हर दर्जे के स्कूल और तरह-तरह के सरकारी भवनों का उपयोग किया गया था। पीने और निस्तार के पानी के लिए हरसूद के नागरिकों के कुओं, नलकूपों के अलावा सरकारी नलकूप, जरूरत की जगहों पर लगाने के लिए रखी गई झक नई टंकियां तक उपयोग में लाई गई थीं। आबादी से रेलवे-स्टेशन दूर था इसलिए सभी रिक्शोंं-तांगेवालों ने अपनी सेवाएं मुफ्त कर दी थीं। कार्यक्रम के दो दिन पहले पता चला कि कुछ गफलत के चलते बम्बई से आने वाला चंदा नहीं पहुंच सका है और पैसा बिलकुल नहीं है। ऐसे में इसी कस्बे ने आनन-फानन तीन-चार घंटे की मेहनत से 65-70 हजार रुपए इक_ा किए थे। इसके अलावा लघु व्यापारी संघ ने खाने के दस हजार मुफ्त-कूपन देने का वायदा किया था। कार्यक्रम के पहले लगभग रोज निकाली जाने वाली रैलियों, मशाल-जुलूसों के भागीदारों के लिए घरों के सामने पानी से भरा घडा और कहीं-कहीं चाय का इंतजाम किया जाता था।
आज के समय में अजूबा लगने वाली ये बातें खंडवा जिले के जीते-जागते, भरे-पूरे और 2004 में ‘इंदिरा सागर परियोजना’ की राक्षसी डूब में समा चुके सात सौ साल पुराने कस्बे हरसूद में इकतीस साल पहले हुईं थीं। मौका था, 28 सितम्बर 1989 को पर्यावरण-प्रदूषण, खासकर बडे बांधों के विरोध में हुए ‘संकल्प मेले’ के विशाल जमावडे का। दुनियाभर में अस्सी के दशक की दस में से एक बड़ी घटना माने जाने वाले इस मेले की कहानी 1985-86 की उन चार में से एक राष्ट्रीय बैठक से शुरु हुई थी जो हरसूद में ही बड़े बांधों की डूब और लाभ-हानि पर विस्तार से विचार करने की खातिर आयोजित की गई थी। इस श्रंृखला की बाकी बैठकें बडवानी के पड़ौसी कस्बे अंजड, कुक्षी के पास नर्मदा किनारे के कोटेश्वर और इलाके के महानगर इंदौर में हुई थीं। उन दिनों काशीनाथ त्रिवेदी की अगुआई में कुछ वरिष्ठ गांधीवादियों ने निमाड-मालवा में बड़े बांधों के खिलाफ अलख जगाई थी और उनके आग्रह पर इन चार बैठकों का आयोजन किया गया था। तब तक अंतरराज्यीय ‘सरदार सरोवर परियोजना’ के विरोध में आज का ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ जमीन पकडऩे लगा था और वहां भी ऐसे किसी विशाल जमावड़े की जरूरत महसूस होने लगी थी। नतीजे में तय हुआ था कि समूची नर्मदा घाटी में खड़े किए जाने वाले 30 बडे बांधों के प्रभावितों, देशभर में पर्यावरण और वैकल्पिक राजनीति के मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों और सरोकार रखने वाले साहित्यकारों, लेखकों, पत्रकारों, नाटककारों, फिल्म-कलाकारों, राजनेताओं और नागरिकों को एक जगह इक_ा करके पर्यावरण, खासकर बड़े बांधों पर बातचीत की जाए।
नर्मदा घाटी के सरकारी विकास के मंसूबों में सबसे बड़े ‘इंदिरा सागर’ बांध को लेकर हरसूद में पहले ही सुगबुगाहट शुरु हो चुकी थी। लोग बांध की आशंका से इतने डर गए थे कि घरों की आम-फहम टूट-फूट भी नहीं सुधरवाते थे। बेंकों ने यहां भी कर्ज देने में आनाकानी शुरु कर दी थी। इसी समय होशंगाबाद जिले में स्कूली शिक्षा के काम में लगी संस्था ‘किशोर भारती’ ने इतिहासकार और पुरातत्वविद् रमेश बिल्लौरे से आग्रह किया था कि वे नर्मदा पर बनने वाले बांधों, खासकर ‘इंदिरा सागर’ पर शोध करें। नतीजे में बिल्लौरे के साथ पत्रकार क्लॉड अल्वारिस ने मिलकर 1988 में नर्मदा बांधों पर पहली किताब ‘डेमिंग दि नर्मदा : इंडियाज ग्रेटेस्ट प्लॉन्ड इनवायरनमेंटल डिजास्टर’ लिखी थी जिसे मलेशिया स्थित मीडिया समूह ‘थर्ड वल्र्ड नेटवर्क’ ने प्रकाशित किया था। रमेश बिल्लौरे कोई शोधार्थी, लेखक भर नहीं थे, उन्हें लगता था कि सीधे मैदान में जाकर बांध का विरोध किया जाना चाहिए। उस समय, यानि 1986-87 तक हरसूद और आसपास के लक्ष्मीनारायण खण्डेेलवाल, गयाप्रसाद दीवान, शब्बीरभाई पटैल, कमल बाबा, दगडूलाल सांड जैसे भिन्न-भिन्न कामकाजों में लगे लोगों ने ‘नर्मदा सागर संघर्ष समिति’ का गठन कर लिया था और खण्डेलवालजी के घर में दफ्तर खोलकर रमेश बिल्लौरे, सतीनाथ षड्ंगी, नीति आनंद जैसे कई कार्यकर्ताओं ने विस्थापितों और डूब प्रभावितों से सम्पर्क करना शुरु कर दिया था।
पहले से तैयार इस पृष्ठभूमि में ‘संकल्प मेले’ के लिए लामबंदी शुरु की गई। देशभर को जोडने वाले इटारसी जंक्शन की गोठी-धर्मशाला में हुई तैयारी बैठक के बाद हरसूद कार्यक्रम का स्वरूप उभरने लगा। उन दिनों ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के समर्थकों का गढ़ माना जाने वाला होशंगाबाद हरसूद के लिए भी कमर कसकर तैयार हो गया। वहां के न सिर्फ ढेरों कार्यकर्ता दो-ढाई महीने पहले से हरसूद में डेरा डालकर बैठ गए, बल्कि चंदा, अनाज, नुक्कड़-नाटक, गीत-संगीत और दूसरी तरह की सहायताएंं भी वहां से मिलने लगीं। तैयारी की इस प्रक्रिया में इंदौर, भोपाल तथा महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे दूर-दराज के राज्यों के लोग भी महीनों पहले से शामिल हुए। आखिरकार ‘संकल्प मेले’ का दिन भी आ ही गया, लेकिन इसके भी पहले कुछ बेहद अहम बातें हो रही थीं। एक तो, देश के प्रसिद्ध कलाकार विष्णु चिंचालकर ‘गुरुजी’ की देख-रेख में हरसूद के एन बीच में एक ‘संकल्प स्तंभ’ का निर्माण किया जा रहा था। इस ‘संकल्प स्तंभ’ की नींव में देशभर से आने वाले लोगों ने एकजुटता के प्रतीक स्वरूप अपने-अपने इलाकों से लाई मु_ीभर मिट्टी डाली थी। जमावडे में बीबीसी, ‘टाइम मैगजीन,’ न्यूयार्क टाईम्स , ल’मांद, वाशिंगटन पोस्ट, ऑब्जर्वर, इंडियन एक्सप्रेस, टाईम्स ऑफ इंडिया, द हिन्दू, फ्रंटलाइन, हिन्दुस्तान टाईम्स, जनसत्ता, नई दुनिया, भास्कर, नवभारत आदि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया के करीब डेढ़ सौ पत्रकारों के आने की संभावना थी, इसलिए उनके ठहरने, खाने-पीने और समाचार देने की व्यवस्था की गई थी। कस्बे के कुछ फोन-धारी परिवारों ने अपने-अपने फोन पत्रकारों के उपयोग के लिए समर्पित कर दिए थे और कुछ संसाधन-धारी पत्रकारों ने अपने लिए बीएसएनएल की ओबी वैन लगवा ली थी।

वैसे तो 26 और 27 सितम्बर से ही लोगों का आना शुरु हो गया था, लेकिन 28 को असली जमावडा हुआ। कार्यक्रम बाबा आमटे की अगुआई में होना था, उन्हें ही ‘संकल्प मेले’ में मौजूद लोगों को संकल्प दिलवाना था इसलिए पहले वे ही मंचासीन हुए। अनिल त्रिवेदी के संचालन में हुए कार्यक्रम में शबाना आजमी, शिवराम कारंत, एसआर हीरेमठ, बबलू गांगुली, स्वामी अग्निवेश, सुन्दरलाल बहु्गुणा, मेधा पाटकर, स्मितु कोठारी, ओमप्रकाश रावल, महेन्द्र कुमार, विनोद रैना के साथ देशभर के पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता और वैकल्पिक राजनीति में लगे अनेक लोग शामिल थे। सभा में मेेनका गांधी और विद्याचरण शुक्ल भी पहुंचे थेे, लेकिन सत्ता की राजनीति से परहेज रखने की मान्यता के चलते उन्हें विनम्रता-पूर्वक मंच से उतरने का आग्रह किया गया। दिनभर गणमान्यों और बांध-प्रभावितों ने पर्यावरण और बडे बांधों से होने वाली आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हानियों के बारे में विस्तार से बताया। इस तरह के कार्यक्रमों का यह शुरुआती दौर था और इसीलिए सभी की बातें नई और भारी उत्सुकता जगाने वाली थीं।
‘संकल्प मेले’ की इस प्रक्रिया में एक जो सर्वाधिक महत्व?पूर्ण बात हुई, वह थी- ‘जन विकास आंदोलन’ का गठन। असल में बाबा आमटे और ओमप्रकाश रावल का आग्रह था कि हमें भी अब राष्ट्रीय स्तर पर ‘ग्रीन पार्टी’ की घोषणा कर देना चाहिए और उसके लिए ‘संकल्प मेले’ से बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता था। लेकिन बाबा और रावलजी की इस बात से कई लोगों की असहमति थी। उनका कहना था कि पार्टी गठित करने के पहले हमें आपस में एक-दूसरे की वैचारिक समझ, व्यापक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय माहौल का ज्ञान और राजनीति में उतरने की इच्छा पर बात कर लेनी चाहिए। अंत में तय हुआ कि इस मौके का लाभ लेते हुए कम-से-कम एक गठबंधन तो बनाना ही चाहिए और नतीजे में ‘जन विकास आंदोलन’ का जन्म हुआ। ‘संकल्प मेले’ के बाद कुछ साल ‘जन विकास आंदोलन’ सक्रिय भी रहा, लेकिन फिर उसके सहभागी संगठनों-व्यक्तियों ने अपनी-अपनी जरूरतों, समझ और व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं के चलते इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया से किनारा कर लिया। इस तरह इतिहास में दशक की एक महत्वपूर्ण घटना की तरह दर्ज हरसूद का ‘संकल्प मेला’ समाप्त हो गया और उसी के साथ नए हरसूद या छनेरा में तब्दील हो गया वह हरसूद, जो अपनी जीवन्तता, संघर्ष और आपसी भाई-चारे के लिए जाना-पहचाना जाता था। अंत में रह गया वह मासूम बच्चा जिसने डूब क्षेत्र का दौरा करने आईं लेखिका अरुन्धति राय के यह पूछने पर कि तुम जंगल के फूल क्यों इकट्ठा कर रहे हो, जबकि यहां दूर-दूर तक कोई देवी-देवता नहीं हैं, कहा था कि फूल ‘कित्ते खबसूरत हैं न?!’ उम्मीद है कि अपने समय और समाज को डुबोने वालों को भी इस बच्चे जैसी समझ आ सके !!
- Lalit Maurya
अब तक महाराष्ट्र में 747,995 मामलों की पुष्टि हो चुकी है। इनमें से 543,170 ठीक हो चुके हैं। ऊपर ग्राफ में देखिए कि किस राज्य में कब कितने मामले सामने आए। दूसरे नंबर पर तमिलनाडु है जहाँ अब तक 409,238 मामले सामने आ चुके हैं। तीसरे नंबर पर आंध्रप्रदेश है, जहां अब तक 403,616 मामले सामने आ चुके हैं। कर्नाटक में 318,752, उत्तरप्रदेश में 213,824, दिल्ली 169,412, पश्चिम बंगाल में 153,754, बिहार में 131,057, तेलंगाना में 120,166, असम में 101,367, ओडिशा में 94,668 जबकि गुजरात में भी अब तक संक्रमण के करीब 92,457 मामले सामने आ चुके हैं। जबकि उनमें से 74,525 मरीज ठीक हो चुके हैं। गौरतलब है कि गुजरात में पहला मामला 20 मार्च को सामने आया था।
पिछले 24 घंटों में सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र में 14,427 सामने आये हैं। जबकि आंध्रप्रदेश में (10,526), तमिलनाडु (5,996), कर्नाटक(8,960), उत्तरप्रदेश (5,405), दिल्ली (1,808), जम्मू कश्मीर (696), गुजरात (1,273), पश्चिम बंगाल (2,982), राजस्थान (1,355), मध्यप्रदेश में 1252 मामले सामने आये हैं।
जबकि राजस्थान में अब तक 77,370 मामले सामने आ चुके हैं। इसके बाद केरल (69,304) का नंबर आता है। देश भर में 26,48,998 लोग इस बीमारी से ठीक हो चुके हैं।
स्रोत: स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार
भारत दुनिया का तीसरा ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं, जबकि प्रति दस लाख आबादी पर सिर्फ 29,234 टेस्ट किये गए हैं
भारत में अब तक कोरोना के 34,63,972 मामले सामने आ चुके हैं। जिसके साथ वो दुनिया का तीसरा सबसे संक्रमित देश बन गया है। यदि गंभीर मामलों को देखें तो अमेरिका के बाद भारत का दूसरा स्थान है। जहां 8,944 मरीज गंभीर रूप से बीमार हैं।
कब सामने आए कितने मामले
स्रोत: स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, अंतिम आंकड़ें दिनांक 29 अगस्त 2020, सुबह 8:00 बजे
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा 29 अगस्त 2020, सुबह 8:00 बजे तक जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में मामलों की संख्या बढ़कर 34,63,972 पर पहुंच चुकी है। जिनमें 111 विदेशी नागरिक भी शामिल हैं। इस संक्रमण से अब तक 62,550 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। पिछले 24 घंटों में 76,472 नए मामले सामने आये हैं और 1,021 लोगों की मौत हुई। जबकि देश भर में 26,48,998 मरीज ठीक हो चुके हैं। (downtoearth)
- Dayanidhi
कोविड-19 महामारी में सार्वजनिक रूप से बाहर निकलने से पहले मास्क पहनना जरूरी हो गया है। हालांकि, अभी भी कई लोग मास्क पहनने से संक्रमण फैलेगा या नहीं, इसकी प्रभावशीलता पर सवाल उठाते हैं।
इन शंकाओं को दूर करने के लिए, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन से पद्मनाभ प्रसन्ना सिम्हा, और श्री जयदेव इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोवस्कुलर साइंसेज एंड रिसर्च से प्रसन्ना सिम्हा मोहन राव ने विभिन्न मास्कों के साथ, अलग-अलग परिदृश्यों में खांसी के प्रवाह को लेकर एक प्रयोग किया है।
सिम्हा ने कहा कि कोई भी व्यक्ति संक्रमण के प्रसार को कम करके वातावरण में संक्रमण फैलने से रोक सकता है, यह अन्य स्वस्थ व्यक्तियों के लिए बेहतर स्थिति है।
घनत्व और तापमान की तीव्रता एक दूसरे से जुड़े होते हैं। खांसी उनके आसपास के क्षेत्र की तुलना में गर्म होती है। इस संबंध को देखते हुए, सिम्हा और राव ने एक तकनीक का उपयोग किया जिसका नाम स्कॉलरिन इमेजिंग है। यह घनत्व में परिवर्तन की कल्पना करता है, जिसमें किसी व्यक्ति पर परीक्षण किए जा रहे पांच तरह के खांसी की तस्वीरें कैप्चर की जाती हैं। क्रमिक छवियों पर खांसी की गति पर नजर रखने से, टीम ने अनुमानित बूंदों की गति और प्रसार का अनुमान लगाया।
अप्रत्याशित रूप से, उन्होंने खांसी के क्षैतिज प्रसार को कम करने में एन 95 मास्क को सबसे प्रभावी पाया। एन 95 मास्क ने खांसी के शुरुआती गति को 10 तक कम कर दिया और इसके प्रसार को 0.1 से 0.25 मीटर के बीच सीमित कर दिया। अध्ययन के निष्कर्ष एआईपी प्रकाशन के जर्नल ऑफ फ़्लूइड्स में प्रकाशित हुए हैं।
बिना मास्क की खांसी की बूंदें (ड्रॉपलेट) 3 मीटर तक फैल सकती है, लेकिन यहां तक कि एक साधारण डिस्पोजेबल मास्क भी इनके फैलने की दूरी को 0.5 मीटर तक नीचे ला सकता है।
सिम्हा ने कहा, भले ही एक मास्क सभी कणों को फ़िल्टर नहीं करता है, अगर हम ऐसे बूंदों, कणों को बहुत दूर तक फैलने से रोक सकते हैं, तो कुछ न करने से तो बेहतर है कुछ करना अर्थात मास्क जरूर पहनना चाहिए, ताकि बूंदें वातावरण में फैल न पाएं। उन स्थितियों में जहां परिष्कृत मास्क उपलब्ध नहीं हो, संक्रमण के प्रसार को धीमा करने में किसी भी मास्क को पहना जा सकता है।
हालांकि कुछ अन्य तुलनाओं में हमें इन पर भी विचार करना चाहिए
उदाहरण के लिए, खांसी को कवर करने के लिए कोहनी का उपयोग करना आमतौर पर एक जल्दबाजी में लिया गया एक अच्छा विकल्प माना जाता है, जो कि अध्ययनकर्ताओं को गलत लगता है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है जब तक आस्तीन को कवर नहीं किया गया हो, एक नंगा हाथ एयरफ्लो को रोकने के लिए नाक के खिलाफ उचित सील नहीं बना सकता है। खांसी में मौजूद बूंदें तो किसी भी खुले भाग से रिस (लीक) सकती हैं और कई दिशाओं में फैल सकती हैं।
सिम्हा और राव को उम्मीद है कि उनके निष्कर्ष इस तर्क को गलत साबित कर देंगे, जिसमें कहा गया है कि नियमित कपड़े के मास्क अप्रभावी होते हैं। लेकिन वे इस बात पर जोर देते हैं कि मास्क को सामाजिक दूरी के साथ इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
सिम्हा ने कहा एक तय दूरी, एक ऐसी चीज है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि मास्क अपने आप में सम्पूर्ण हल (फूलप्रूफ) नहीं हैं। (downtoearth)
- Angela Saini
हम कई दशकों से जानते आ रहे हैं कि नस्ल कोई जैविक सच्चाई नहीं है। आज हम विभिन्न नस्लों के वर्गीकरण का जो तरीका इस्तेमाल करते हैं, उन तरीकों का इजाद कई शताब्दियों पहले काफी मनमाने ढंग से किया गया था। ये तरीके मानवीय भिन्नताओं को बहुत गलत रूप से व्याख्या करते हैं। असल में कोई “काला” या “गोरा” जीन नहीं होता! लगभग सभी तरह की आनुवंशिक भिन्नताएं, जो हम मनुष्यों के बीच देखते हैं, वह व्यक्तिगत स्तर पर मौजूद है। व्यक्ति से व्यक्ति के बीच अलग-अलग। यह जनसंख्या के स्तर पर भिन्न नहीं होता है। वास्तव में, विभिन्न समुदायों (जनसंख्या) के बीच की तुलना में किसी एक समुदाय (जनसंख्या) के बीच कहीं अधिक आनुवांशिक विविधता है।
लेकिन कई शताब्दियों तक पश्चिमी विज्ञान पर संभ्रांत गोरे लोगों का कब्जा रहा है। 18वीं शताब्दी में भी, जब ज्ञान का प्रचार-प्रसार हुआ, लोगों के बीच एक आम धारणा थी कि महिलाएं और अन्य “नस्ल” बौद्धिक रूप से असमर्थ होते हैं। नस्लवाद को शुरू से ही विज्ञान में उलझा दिया गया था और इसी आधार पर पश्चिमी वैज्ञानिकों ने सदियों से मानव भिन्नताओं का अध्ययन किया। उन्होंने “रेस साइंस” (नस्ल विज्ञान) का आविष्कार किया। इस झूठे वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल औपनिवेशिक व्यवस्था, दासता, नरसंहार और लाखों लोगों के साथ दुर्व्यवहार को सही ठहराने के लिए किया गया, जैसाकि आज हम अमेरिका में अश्वेत लोगों के साथ हो रहे व्यवहार के रूप में देख रहे हैं। यह हमारी सोच में इतना गहरा समा चुका है कि हम अब भी हर दिन इसके विनाशकारी प्रभावों के साथ जी रहे हैं। हालांकि पिछले 70 वर्षों के दौरान, अधिकांश वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि केवल एक ही मानव जाति है और हम प्रजाति के रूप में एक है।
लेकिन, अब भी कुछ ऐसे हैं जो पुरानी सोच पर कायम हैं और मानते हैं कि हमारी नस्लीय श्रेणियों के कुछ अर्थ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वैज्ञानिकों को अक्सर महान वैज्ञानिकों की विरासत से संघर्ष करना पड़ता है। ये ऐसे महान वैज्ञानिक हैं, जिनके वैज्ञानिक, राजनीतिक और नैतिक विचार आपत्तिजनक थे। यूरोप में 19वीं शताब्दी में यह मानना काफी आम था कि मनुष्य को उप-प्रजाति में विभाजित किया जा सकता है और कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक आधुनिक मानकों के अनुसार नस्लवादी थे। भयावह बात यह है कि 21वीं सदी में भी नस्लवादियों को बर्दाश्त किया गया है। कई सम्मानित वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार विजेता और अमेरिकी जीवविज्ञानी जेम्स वास्टन (जो खुले तौर पर नस्लवादी थे) को नकारने में दशकों का समय लगा। कोई भी महान काम कर सकता है। लेकिन, हमें नस्लवादियों को वैज्ञानिक क्षेत्र में सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए कि उन्होंने महान काम किया है।
भूल सुधारने का वक्त?
इस वक्त दुनियाभर में नस्लवाद के खिलाफ विरोध जारी है। क्या ये वक्त अपनी भूल सुधारने और परिवर्तन का है? क्योंकि हम अब भी वहां है, जहां हमने समाज के लिए जरूरी सुधारों को नहीं अपनाया है। लेकिन मौजूदा समय निश्चित रूप से अलग दिख रहा है। संस्थान और कॉरपोरेशंस साफ तौर पर जवाब दे रहे हैं। बेशक, सरकारें उलझन में दिख रही हैं, लेकिन उम्मीद है कि हम आने वाले चुनावों में प्रभावी बदलाव देखें। ऐसा इसलिए है क्योंकि दुनिया के कुछ हिस्सों में, जहां नस्लवाद की वजह से सत्ता असंतुलन है, कुछ-कुछ वैसा ही दुनिया के अन्य हिस्सों में भी देखा जा रहा है। नस्लवाद की तर्ज पर ही सत्ता कई जगहों पर जातिवाद, वर्गवाद, लिंगवाद आदि का इस्तेमाल कर रही हैं। मैंने अपनी किताब, “सुपीरियर” में जाति का जिक्र किया है। नस्ल की तरह ही जाति को लेकर भी समाज में पूर्वाग्रह की जड़ें गहरी हैं। मुझे कोई संदेह नहीं है कि यह पूर्वाग्रह भारत में भी नस्लवाद की तरह ही भूमिका निभाता है, जिसे हम भारतीय समाज में लोगों के साथ हर दिन होने वाले व्यवहार के रूप में देखते हैं।
उदाहरण के लिए, अश्वेत अमेरिकियों की जीवन प्रत्याशा श्वेत अमेरिकियों की तुलना में कम है, क्योंकि उनके उत्पीड़न का एक लंबा इतिहास है, जो उनके स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालता हैं। मैं ब्रिटेन में रहती हूं। यहां भारतीय मूल के डॉक्टर अन्य ब्रिटिश डॉक्टरों की तुलना में बड़ी संख्या में मर रहे हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि वे आनुवांशिक रूप से भिन्न हैं, बल्कि वे कई तरह के नस्लीय भेदभाव को झेलते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। हम पैदाइशी अलग नहीं होते हैं, हमें समाज अलग बना देता है।
कुछ लोगों का जीवन दूसरों की तुलना में तुच्छ माना जाता है। यहां, घोर-दक्षिणपंथी हमें यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि समाज में जो नस्लीय असमानताएं हैं, वे ऐतिहासिक कारकों से नहीं, बल्कि प्राकृतिक रूप से मौजूद हैं। यही कारण है कि वे 19वीं शताब्दी की पुरानी लाइन को आगे बढ़ाते रहे हैं, जो कहती है कि नस्ल जैविक वास्तविकता है। मुख्यधारा का विज्ञान उनके पक्ष में नहीं है। लेकिन घोर-दक्षिणपंथी अविश्वसनीय रूप से चालाक और धूर्त हैं और साथ ही ऑनलाइन मीडिया पर काफी सक्रिय भी हैं। सोशल मीडिया पर इन लोगों से अगर आमना-सामना हो जाए, तो मेरी सलाह है कि उनकी उपेक्षा करें। ये उनकी रणनीति है कि ऑनलाइन मीडिया पर इस पर बहस हो और ये भ्रम पैदा हो कि इन मुद्दों पर वैज्ञानिक बहस जारी है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है।
सच्चाई यह है कि विज्ञान हर दिन इस मूल तथ्य की पुष्टि कर रहा है कि हम एक ही मानव प्रजाति हैं। हम किसी भी अन्य प्रजाति की तुलना में अधिक समरूप हैं। यहां तक कि कुछ समुदायों को, जिन्हें कभी भौगोलिक और सांस्कृतिक अलगाव के कारण, आनुवांशिक रूप से अलग माना जाता था, उन्हें भी अब अलग नहीं माना जाता है। लेकिन इन तथ्यों का तब तक कोई अर्थ नहीं है, जब तक हम अपने दिमाग में भरे पूर्वाग्रहों से आगे नहीं बढ़ जाते हैं। नस्ल और जाति सामाजिक आविष्कार थे। हम एक-दूसरे के बारे में क्या और कैसे सोचते हैं, इस पर इन सामाजिक मान्यताओं का गहरा प्रभाव है। लेकिन, यह वक्त सत्य को जानने-समझने और मानने का है। ये ऐसा सच है, जिसके जरिए हम अपनी उस सोच को ठीक कर सकते हैं, जो हमें अन्य को देखने-समझने का रास्ता बता सकती है और हमारी पूर्व-निर्धारित धारणाओं को दुरुस्त कर सकती है।
(लेखक ब्रिटिश साइंस जर्नलिस्ट और “सुपीरियर: द रिटर्न ऑफ रेस साइंस” की लेखक हैं)(downtoearth)
- Bhagirath Srivas
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रहने वाले 39 साल के जुगल किशोर शर्मा 27 अप्रैल 2020 को जब कोरोनावायरस (कोविड-19) से जंग जीतकर अस्पताल से निकले, तब उनके हाथ में गुलाब का फूल और चेहरे पर विजयी मुस्कान थी। उनकी खुशी लाजिमी थी क्योंकि वह भोपाल के उन पांच शुरुआती लोगों में से एक थे जो जानलेवा वायरस के संक्रमण से सबसे पहले उबरे थे। 3 अप्रैल को वह कोरोना संक्रमित पाए गए थे। तब उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया था, “यह वायरस उतना डरावना नहीं है, जितना हम इसे समझते हैं। जरूरत पड़ने पर मुझे 18 घंटे तक ऑक्सीजन दी गई। मैंने खूब पानी किया और डॉक्टरों ने लक्षणों के आधार पर मेरा इलाज किया जिससे मैं रिकवर हो गया।”
तब से अब तक करीब चार महीने का वक्त गुजर चुका है। डाउन टू अर्थ ने अगस्त में जब उनकी स्थिति जानने के लिए दोबारा संपर्क साधा तब पता चला कि उनकी परेशानियां खत्म नहीं हुई हैं। रिकवरी के बाद उन्हें थकान और कमजोरी की शिकायत थी जो अब तक बरकरार है। अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद उन्हें लगा था कि कुछ दिनों बाद ये परेशानियां खत्म हो जाएंगी लेकिन वह गलत निकले। अब उन्हें लगता है कि इनके साथ ही जीना पड़ेगा। अपना अनुभव साझा करते हुए वह बताते हैं, “कोरोनावायरस ने मेरे फेफड़ों पर गहरा असर डाला है। वायरस ने फेफड़ों को इतना नुकसान पहुंचा दिया कि थोड़ा ज्यादा चलने पर हांफने लगता हूं।” उन्हें आशंका है कि वह भविष्य में अस्थमा का शिकार हो सकते हैं। जुगल ने रिकवरी के बाद चार बार फेफड़ों का एक्सरे कराया है। हर एक्सरे में फेफड़ों को हुआ नुकसान साफ दिख रहा है।
दिल्ली के पांडव नगर में रहने वाले 34 साल के चंदन कुमार भी जुगल किशोर शर्मा की तरह कोरोनावायरस से संक्रमित होने के बाद चिकित्सीय भाषा में रिकवर तो हो गए लेकिन पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं। चंदन कुमार को जीवन में कभी सिरदर्द नहीं हुआ था लेकिन संक्रमण के बाद असामान्य ढंग से उन्हें कभी-कभी अचानक तेज सिरदर्द होने लगता है। यह दर्द भी एक जगह नहीं बल्कि सिर के अलग-अलग हिस्सों में होता है। संक्रमण से पहले चंदन चार से पांच मंजिल तक आसानी से सीढ़ियां चढ़ लेते थे लेकिन अब दूसरी मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते उनकी सांस फूलने लगती है। रात को सोने के दौरान भी सांसों के अचानक उतार-चढ़ाव से वह परेशान हो उठते हैं। चंदन बताते हैं,“कभी-कभी चलते वक्त लगता है कि चक्कर खाकर गिर पडूंगा। हमेशा कमजोरी और थकान महसूस होती है।” चंदन के सास, ससुर और साले भी संक्रमण के बाद रिकवर हुए हैं। वह बताते हैं कि सास और ससुर की सूंघने की क्षमता अब भी नहीं लौटी है। चंदन 28 जून को बुखार, सूखी खांसी और सिरदर्द के लक्षणों साथ बीमार हुए थे। 8 जुलाई को उन्होंने टेस्ट कराया और एक दिन बाद आई रिपोर्ट में वह संक्रमित पाए गए। चंदन बताते हैं कि उन्हें हल्के लक्षण थे, लिहाजा डॉक्टर ने घर पर ही आइसोलेशन में रहने की सलाह दी। इस दौरान बुखार और मल्टीविटामिंस की दवा खाते रहे। 25 जुलाई को फिर जांच कराई तो रिपोर्ट नेगेटिव आई। चंदन को कोरोनावायरस के संक्रमण के दौरान इतनी परेशानी नहीं हुई, जितनी रिकवरी के बाद हो रही है। उन्हें उम्मीद है कि एक-दो महीने का वक्त गुजरने के साथ उनकी समस्याएं खत्म हो जाएंगी।
लेकिन क्या चंदन दो महीने बाद परेशानियों से उबर जाएंगे? यह दावा के साथ नहीं कहा जा सकता क्योंकि बहुत से लोग तीन से चार महीने बाद भी पूरी तरह ठीक नहीं हो पाए हैं। उदाहरण के लिए एक समाचार चैनल में काम करने वाले अवनीश चौधरी को ही लीजिए। शुरुआत में उन्हें भी चंदन की तरह लगता था कि कोरोनावायरस के कारण उनके शरीर में आई कमजोरी और थकान की समस्या कुछ दिनों के लिए है। अवनीश को कोरोनावायरस से उबरे तीन महीने से ज्यादा हो गए हैं लेकिन समस्याएं जस की तस हैं। अवनीश को भी चलते या सीढ़ियां चढ़ते वक्त सांस फूलने की समस्या हो रही है। वह डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि रात को सोते समय पीठ के बल लेटने पर सांस लेने में अचानक तकलीफ होने लगती है। सांसों का टूटना और जल्दी-जल्दी चलना अब सामान्य होता जा रहा है। वह अब यह मानकर चल रहे हैं कि यह समस्या लंबे समय तक बनी रहेगी। अवनीश ने भी चंदन की तरह रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर खुद को घर में आइसोलेट कर लिया था। रिपोर्ट नेगेटिव आने के बाद दोनों का डॉक्टर से संपर्क टूट गया।
चंदन और अवनीश से उलट कोरोनावायरस से उबरे ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने एक बार कोविड-19 पॉजिटिव आने के बाद दोबारा जांच नहीं कराई और लक्षण खत्म होने पर खुद को रिकवर मान लिया। इनमें से बहुत से लोगों ने डॉक्टरों की सलाह पर ही दोबारा जांच नहीं कराई। उदाहरण के लिए, दिल्ली के उत्तम नगर इलाके में रहने वाली 38 वर्षीय शिक्षिका सुशीला ने 7 जून को टेस्ट कराया था। तीन दिन बाद उनकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई। इसके बाद डॉक्टर ने उन्हें जांच कराने से मना कर दिया और उन्होंने 15 दिन बाद मान लिया कि वह संक्रमण से मुक्त हो गई हैं। उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य की भी जांच नहीं हुई। डॉक्टर ने उन्हें भले ही कोरोना से रिकवर बता दिया लेकिन अब वह एक अजीब किस्म की समस्या से जूझ रही हैं। उन्हें अचानक घबराहट होने लगती है और दिल की धड़कन अप्रत्याशित रूप से तेज हो जाती है। कई बार यह धड़कन इतनी तेज होती है कि उन्हें लगता है कलेजा सीने से बाहर न निकल जाए। सुशीला बताती हैं कि कोरोनावायरस से संक्रमित होने से पहले दिल का इतना तेज धड़कना दुर्लभ था लेकिन संक्रमण के बाद हफ्ते में एक-दो बार ऐसा नियमित हो जाता है। उन्हें हैरानी तब होती है जब चेक करने पर धड़कन सामान्य आती है।
सुशीला की तरह दिल्ली के मयूर विहार, फेज-3 में रहने वाली 35 वर्षीय पूनम बिष्ट के परिवार के सभी छह सदस्य कोरोनावायरस के संक्रमण से दो महीने पहले मुक्त हुए हैं। पूनम के ससुर के अलावा घर के किसी भी सदस्य की जांच नहीं हुई। परिवार के सभी सदस्यों में लक्षण आने पर डॉक्टर ने उन्हें संक्रमित मान लिया और जून के आखिर में लक्षण समाप्त होने पर उन्होंने परिवार को कोरोना मुक्त समझ लिया। अन्य लोगों की तरह पूनम और उनके परिवार के सदस्यों को अब भी कोई न कोई समस्या बनी हुई है। पूनम अस्थमा की मरीज हैं। लक्षण समाप्त होने के बाद उन्हें लगा था कि सब ठीक हो गया है। लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने महसूस किया कि उनकी सूंघने की क्षमता अब भी पूरी तरह से नहीं लौटी है। उन्हें अक्सर थकान महसूस होती है और एसी में रहने पर सांस लेने में तकलीफ होने लगती है। उनके 63 वर्षीय ससुर को अब भी हल्की खांसी है। सास-ससुर दोनों कमजोरी महसूस करते हैं।
उपरोक्त मामले बताते हैं कि कोरोना से होने वाली रिकवरी को भले ही हम उपलब्धि समझकर खुश हो लें लेकिन सभी रिकवर मरीजों को स्वस्थ मान लेना बड़ी भूल है। भारत में 19 अगस्त 2020 तक 21 लाख से अधिक लोग रिकवर हो चुके थे और रिकवरी की दर करीब 72 प्रतिशत पहुंच चुकी थी। राजधानी दिल्ली में जहां मई-जून को कोरोना संक्रमितों के मामले तेजी से बढ़ रहे थे, वहां जुलाई और अगस्त में सुधरी रिकवरी के बूते ही हालात नियंत्रण में बताए जा रहे हैं। राजधानी में रिकवरी दर करीब 90 प्रतिशत पर पहुंच गई है। इसका अर्थ है कि राज्य में 19 अगस्त तक आए 1,56,139 मामलों में करीब 1,40,767 संक्रमित रिकवर हो चुके हैं। वैश्विक स्तर पर सामने आए करीब सवा दो करोड़ मामलों में डेढ़ करोड़ संक्रमित रिकवर हो चुके हैं (देखें, रिकवरी बनाम संक्रमण, पेज 14)। ये आंकड़े बताते हैं कि रिकवर होने वाले लोगों की संख्या मामूली नहीं है। अगर इनमें से 10-15 प्रतिशत लोगों की तकलीफों में भी इजाफा होता है तो इनकी कुल संख्या लाखों में होगी, इसलिए ऐसे लोगों को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है।
केंद्र सरकार भी इस तथ्य को स्वीकार करती है। यही वजह है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी राजेश भूषण ने दिल्ली में मीडिया के सामने माना “कुछ रिकवर मरीजों को सांस, हृदय, लिवर और आंखों से संबंधित समस्याएं हो सकती हैं। हमारे विशेषज्ञ लोगों के मार्गदर्शन के लिए काम कर रहे हैं। वे पता लगा रहे हैं कि दीर्घकाल में लोगों की किस तरह की देखभाल की जरूरत है और वे भविष्य में किस प्रकार की समस्याओं का सामना कर सकते हैं।” नीति आयोग के सदस्य वीके पॉल ने भी 18 अगस्त को बताया, “बीमारी का एक नया पहलू सामने आ रहा है। वैज्ञानिक और चिकित्सा समुदाय की इस पर नजर है। हम सभी को सचेत रहना होगा कि बाद में भी इसका प्रभाव पड़ सकता है। जैसे-जैसे हम इसे अधिक समझेंगे, वैसे-वैसे हम इसके बारे में अधिक बता पाएंगे।”
स्त्रोत: साइंस ऑफ द टोटल एनवायरमेंट जर्नल में प्रकाशित “फॉलोअप स्टडीज इन कोविड-19 रिकवर्ड पेशेंट्स - इज इट मेंडेटरी” अध्ययन
चिंता में डालते अध्ययन
दुनियाभर में इस वक्त ज्यादातर देशों का ध्यान संक्रमण रोकने और मरीजों की जान बचाने पर केंद्रित है। रिकवर मरीजों को प्राथमिकता के आधार पर देखना अभी संभव नहीं हो रहा है। इस संबंध में हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि रिकवर हुए मरीजों पर ध्यान नहीं दिया गया तो आगे चलकर स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। दरअसल, बहुत से लोगों की रिकवरी के बाद हृदय, फेफड़ों, मस्तिष्क, लीवर आदि में विभिन्न तरह की समस्याएं सामने आ रही हैं (देखें, अंगों पर असर,)।
जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जामा) कार्डियोलॉजी में 27 जुलाई, 2020 को प्रकाशित यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल फ्रैंकफर्ट के अध्ययन में रिकवरी के बाद होने वाली हृदय की परेशानियों पर रोशनी डाली गई है। जर्मनी में कोरोनावायरस से रिकवर हुए लोगों पर किया गया यह अध्ययन बताता है कि सीएमआर (कार्डियक मैग्नेटिक रेजोनेंस) जांच में कोविड-19 से रिकवर हुए 100 में से 78 लोगों के हृदय में संरचनात्मक परिवर्तन और 60 प्रतिशत लोगों में मायोकार्डियल यानी हृदयघात के लक्षण पाए गए। अध्ययन बताता है कि कोविड-19 हृदय तंत्र पर गहरा असर डालता है। यह वायरस पहले से हृदय की समस्याओं से जूझ रहे लोगों में हार्ट फेल की समस्या को काफी गंभीर कर सकता है। अध्ययन में शामिल 100 लोगों में 67 असिंप्टोमैटिक और हल्के लक्षण वाले थे और घर में ही रिकवर हुए थे। शेष 23 लोगों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। जामा का अध्ययन बताता है कि कोविड-19 के कारण लंबे समय तक रक्त प्रवाह को सुचारू रखने की हृदय की क्षमता घट सकती है।
ब्रिटेन स्थित एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के डॉक्टरों का विश्लेषण भी इसी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचता है। डॉक्टरों ने 69 देशों के 1,200 मरीजों की अल्ट्रासाउंड (एकोकार्डियोग्राम) जांच की और पाया कि 55 प्रतिशत लोगों के हृदय में गंभीर गड़बड़ियां हैं। जांच में एक तिहाई से अधिक लोगों के हृदय के दो मुख्य चैंबरों (वेंट्रिकल्स) में क्षति पाई गई। इसके अलावा तीन प्रतिशत लोगों ने हृदयाघात और अन्य तीन प्रतिशत लोगों ने हृदय की कोशिकाओं में जलन की शिकायत की। इसी दौरान एक अन्य अध्ययन भी हुआ है जिसमें कोविड-19 से मारे गए 39 लोगों की ऑटोप्सी जांच की गई। इन लोगों की औसत आयु 85 साल थी। जांच में पाया गया कि 24 मृतकों के हृदय में बड़ी मात्रा में वायरस मौजूद हैं।
नेचर रिव्यू कार्डियोलॉजी में मार्च 2020 को प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, सार्स सीओवी-2 (कोविड-19) और एमईआरएस सीओवी (मिडिल ईस्ट रेस्पिटेरटी सिंड्रोम कोरोनावायरस) में काफी समानता है। अध्ययन बताता है कि इन वायरस के संक्रमण से नि:संदेह मायोकार्डियल को क्षति पहुंचती है और मरीज को उबरने में दिक्कत होती है। इसके अनुसार, वुहान में कोविड-19 से संक्रमित पाए गए शुरुआती 41 में से 5 लोगों के हृदय को गंभीर नुकसान पहुंचा। हृदय के अलावा कोविड-19 फेफड़ों को भी स्थायी क्षति पहुंचा सकता है। अमेरिकन लंग असोसिएशन के एमडी व मुख्य चिकित्सा अधिकारी अलबर्ट लिज्जो के अनुसार, हलके लक्षण वाले मरीजों के फेफड़े तो संक्रमण से पूरी तरह मुक्त हो सकते हैं लेकिन जिन मरीजों को अस्पताल में भर्ती किया गया है अथवा जिनके वेंटीलेटर पर पहुंचने की नौबत आई है, उनके फेफड़ों को पहुंचा नुकसान स्थायी हो सकता है। इसकी प्रबल आशंका है कि ऐसे लोगों के फेफड़ों पहले की तरह काम न कर पाएं। फेफड़ों को पहुंचा स्थायी नुकसान फाइब्रोसिस कहलाता है। उनका मानना है कि वायरस से दीर्घकाल में स्वास्थ्य को होने वाली परेशानियां जीवन की गुणवत्ता पर असर डाल सकती हैं।
कोविड-19 केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सीएनएस) को भी बुरी तरह प्रभावित कर सकता है। यह वायरस नाक के रास्ते दाखिल होकर दिमाग में मौजूद आल्फैक्टरी बल्ब में पहुंचकर संक्रमण फैला सकता है। यही वजह है कि संक्रमण के बाद संूघने और स्वाद की क्षमता प्रभावित हो जाती है। साथ ही सिरदर्द जैसी समस्याएं भी सामने आती हैं। इसके अलावा सीएनएस में इस वायरस की मौजूदगी का असर मानसिक विकार के रूप में देखा जा सकता है। अमेरिका में कोविड-19 से संक्रमित पाई गई एक 50 वर्षीय महिला के सीटी स्कैन से पता चला कि उसके मस्तिष्क की नसों में रिसाव आ गया है। एक 74 वर्षीय संक्रमित पुरुष में भी मानसिक विकार देखे गए। पार्किंसन और फेफड़ों की बीमारियों से पीड़ित यह शख्य कोविड-19 से संक्रमित होने के बाद बोलने की क्षमता खो बैठा। यह भी देखा गया है कि कोविड-19 से रिकवर होने वाले अधिकांश मरीज कुछ हफ्तों तक तनाव महसूस करते हैं। आमतौर पर कुछ समय पर बाद यह तनाव खत्म हो जाता है लेकिन अवसाद, डर और घबराहट जैसे मनोवैज्ञानिक लक्षण लंबे समय तक बने रहते हैं।
न्यूरोसाइकोफार्माकोलाॅजी जर्नल में 13 अगस्त 2020 को प्रकाशित डेनिज वेतेनसेवर, शोयन वॉन्ग और बार्बरा जैकलीन सहाकियन का शोधपत्र बताता है कि कोिवड-19 महामारी में अवसाद से संबंधित विकारों में सुनामी लाने की क्षमता है। अपनों को खोने की चिंता, असहायता और वायरस के संपर्क मंे आने के डर से बड़ी संख्या मंे लोग अवसाद, बेचैनी से घिर सकते हैं और उनके मन में खुदखुशी के विचार आ सकते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, महामारी से आए अकेलेपन और चिंताओं के कारण ब्रेन केमिस्ट्री में बदलाव आ सकता है जो मूड डिसऑर्डर का कारण बन सकता है। दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेस (इहबास) में मनोचिकित्सक व सहायक प्रोफेसर ओमप्रकाश ने डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “हमारी नजर में ऐसे मामले आ रहे हैं जिनमें कोविड-19 का दिमाग पर असर देखा जा रहा है। अधिकांश लोगों को एंजाइटी प्रॉब्लम है। उनके दिमाग मंे एक अलग तरह की बेचैनी है।”
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) से संबद्ध चेन्नई स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी (एनआईई) के वैज्ञानिक तरुण भटनागर ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में स्वीकार किया कि कोविड-19 से रिकवरी के बाद लोगों की कई तरह की परेशानियां आ रही हैं। वह मानते हैं कि रिकवरी के बाद थकान, सिरदर्द और सांसों का फूलना बहुत आम है। गंभीर संक्रमण की स्थिति में फेफड़ों में बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं। वह कहते हैं कि अभी यह कह पाना मुश्किल है कि कोविड-19 से संक्रमितों की पूर्ण रिकवरी कब तक होगी।
भटनागर के अनुसार, “कई तरह की परेशानियों के चलते बहुत से लोग रिकवरी के बाद पहले जितनी सक्रियता से काम नहीं कर पा रहे हैं। रिकवर हुए लोगों के आंकड़ों को जुटाकर उनका व्यापक विश्लेषण जरूरी है। विदेशों में कुछ अध्ययन जरूर हुए हैं लेकिन अभी भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस संबंध में कोई अध्ययन नहीं हुआ है। लोगों की परेशानियों को देखते हुए इसकी शीघ्र जरूरत है।” भटनागर मानते हैं कि गंभीर संक्रमण के मामलों में फाइब्रोसिस का खतरा है। डब्ल्यूएचओ की प्रमुख वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने 12 अगस्त को एक समाचार चैनल में स्वीकार किया कि रिकवर लोगों को स्वास्थ्य से संबंधित तरह-तरह की परेशानियां आ रही हैं। उन्हांेने ऐसे लोगों पर ध्यान देने की जरूरत पर जोर िदया।
खत्म होती एंटीबॉडी, नया खतरा
नेचर मेडिसिन में 18 जून 2020 को प्रकाशित एक शोधपत्र बताता है कि कोविड-19 से संक्रमित मरीजों की एंटीबॉडी दो से तीन महीने में क्षीण हो रही है। चीन में हुए इस शोध में 37 सिंप्टोमैटिक और 37 असिंप्टोमैटिक मरीजों का अध्ययन किया गया। अध्ययन के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे कि 90 प्रतिशत मरीजों की इम्युनोग्लोबुलिन जी (आईजीजी) एंटीबॉडी 2-3 महीने में तेजी से कम हो गई। इसका सीधा सा मतलब है कि एक बार एंटीबॉडी विकसित होने का यह कतई मतलब नहीं है कि फिर से संक्रमण नहीं हो सकता। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं जिनमें लोग रिकवरी के बाद भी दोबारा संक्रमित हुए हैं। उत्तर प्रदेश में कोरोना का हॉटस्पॉट बन चुके कानपुर में 45 साल का व्यक्ति एक महीने में दूसरी बार कोरोना संक्रमित पाया गया। 17 जुलाई को उसकी रिपोर्ट नेगेटिव आने पर उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी लेकिन 3 अगस्त को फिर से तबीयत खराब होने पर जांच हुई तो रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई।
सफदरजंग अस्पताल में यूरोलॉजी, रोबोटिक्ट एवं रेनल ट्रांसप्लांट विभाग के प्रमुख (एचओडी) अनूप कुमार डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “मेरी जानकारी में कोविड-19 के कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं जिनकी रिपोर्ट कुछ समय बाद फिर से पॉजिटिव आई है। कुछ लोगों को फिर से पुराने और नए लक्षण उभर रहे हैं। इसकी दो वजह हो सकती हैं। पहला कमजोर इम्युनिटी और दूसरी रिपोर्ट में विसंगति।”
इम्युनिटी के संबंध में तो डब्ल्यूएचओ ने अप्रैल 2020 में ही कह दिया था कि संक्रमण न तो इम्युनिटी का पासपोर्ट है और न ही चिंताओं के खत्म होने की वजह। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि एंटीबॉडी से दोबारा संक्रमण नहीं होगा। देश के अलग-अलग हिस्सों में फिर से रहे संक्रमण के मामले डब्ल्यूएचओ की बातों को पुष्ट करते हैं। कोविड-19 पर शोध करने वाले यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया के भौतिक वैज्ञानिक विलियम पेट्री कहते हैं, “एक अनुत्तरित प्रश्न यह है कि रिकवर हुए लोगों में कितने समय तक वायरस छुपा रह सकता है।
अगर यह वायरस व्यक्ति के अंदर मौजूद रहा तो देर सवेर रिकवरी के बाद भी लक्षण दिख सकते हैं और वह दूसरों को भी संक्रमित कर सकता है।” छोटे स्तर पर हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि कोरोनावायरस ऐसे अंगों में भी पाया गया है जो पहले इम्यून हो गए थे।
फॉलोअप जरूरी
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, कोविड-19 से मृत्युदर 3-5 प्रतिशत के बीच है। इसका अर्थ है कि शेष 95 से 97 प्रतिशत लोगों को देर सवेर रिकवर हो जाएंगे। रिसर्चर मानते हैं कि हलके लक्षणों से रिकवर हुए आधे लोग अपने तंत्र में वायरस को कैरी कर सकते हैं। ऐसे में अगर इन लोगों पर ध्यान नहीं दिया गया तो वायरस को नियंत्रित करना बेहद मुश्किल हो जाएगा। यही वजह है कि विशेषज्ञ रिकवरी के बाद भी लगातार फॉलोअप और जांच की सलाह देते हैं (देखें, समाज की भलाई के लिए जरूरी है कोविड-19 से रिकवर मरीजों का लंबा निरीक्षण, पेज 15)। अनूप कुमार बताते हैं कि संक्रमितों को डिस्चार्ज करने के बाद हम एक महीने तक तो उनका फॉलोअप करते हैं। घर में रिकवर होने वाले मरीजों के साथ भी ऐसा होता है लेकिन एक महीने बाद उनकी निगरानी नहीं हो पाती। वह मानते हैं कि रिकवरी के बाद लंबे समय तक फॉलोअप जरूरी है। विशेषकर किडनी, लिवर, हृदय और मधुमेह से पीड़ित अधिक जोखिम वाले मरीजों की कम से कम तीन महीने तक गहन निगरानी आवश्यक है। बहुत से लोग रिकवरी के बाद परेशानियों के बाद भी डॉक्टर से संपर्क नहीं करते। ऐसे लोगों को समझाने की जरूरत है कि वे तुरंत डॉक्टर से संपर्क नहीं करेंगे तो आगे चलकर उनकी तकलीफें काफी बढ़ सकती हैं।
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) के अध्यक्ष श्रीनाथ रेड्डी बताते हैं कि वायरस शरीर के इम्युनोलॉजी रिएक्शन पर असर डालता है, लेकिन यह शरीर के अंगों को कितना नुकसान पहुंचा सकता है, यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। यह संक्रमित की उम्र के हिसाब से अलग-अलग हो सकता है। इस पर अधिक स्पष्टता के लिए जरूरी है कि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद व्यापक अध्ययन कराए। रेड्डी संक्रमण से रिकवर होने वाले मरीजों की गहन निगरानी पर जोर देते हैं। इससे मरीज से सामाजिक रूप से जुड़े लोगों को भी पता चल जाएगा कि उनका दोस्त या परिवार का सदस्य खतरे में नहीं है।
साइंस ऑफ द टोटल एनवायरमेंट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन “फॉलोअप स्टडीज इन कोविड-19 रिकवर्ड पेशेंट्स- इज इट मेंडेटरी” बताता है, “अगर कुछ समय बाद कोविड-19 से रिकवर हुए मरीजों की बीमारियों में उछाल आता है तो स्वास्थ्य तंत्र पर अचानक बोझ बढ़ेगा जिससे वह चरमरा सकता है। इसलिए नियमित अंतराल पर रिकवर मरीजों की देखभाल जरूरी है। इससे भविष्य में होने वाले बहुत से खतरों से भी बचा जा सकता है। साथ ही यह बेहतर टीके का मार्ग भी प्रशस्त करेगा।”
श्रीनाथ रेड्डी चेताते हैं कि हमें रिकवर हुए मरीजों पर सावधानी से ध्यान देने की जरूरत है। उनका कहना है, “हम यह पूरी तरह से नहीं समझ पाए हैं कि रिकवर हुए मरीज कैसा व्यवहार करते हैं। जामा में प्रकाशित हुआ जर्मन शोध बताता है कि युवा लोगों में भी रिकवरी के बाद हृदय में संक्रमण की समस्या आ रही है। यह हमारी समझ को विकसित करने के लिए महज शुरुआत भर है। इसलिए यह कहना गलत होगा कि असिंप्टोमैटिक सहित सभी रिकवर हुए मरीज पूरी तरह रिकवर हो चुके हैं।”(downtoearth)
यह चौंकाने वाला है कि कोरोनावायरस के इस महत्वपूर्ण क्षण में डोनाल्ड ट्रम्प नेतृत्व कर रहे हैं। कोरोनोवायरस काफी गंभीर है। लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि दो और बहुत बड़े खतरे हैं, जो मानव इतिहास में घटित होने वाली किसी भी घटनाओं से कहीं ज्यादा बदतर हैं। एक परमाणु युद्ध का बढ़ता खतरा और दूसरा ग्लोबल वार्मिंग जैसा वैश्विक खतरा। ये दोनों खतरे बढ़ते जा रहे हैं। कोरोनावायरस भयानक है और इसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं, लेकिन हम इससे उबर जाएंगे। जबकि अन्य दो खतरों से उबर पाना नामुमकिन होगा। इनसे सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा।
अमेरिका के पास असीम ताकत है। यह एकमात्र ऐसा देश है, जो ईरान और क्यूबा जैसे अन्य देशों पर प्रतिबंध लगाता है, तब बाकी के देश उसका अनुसरण करते हैं। यूरोप भी अमेरिका का अनुसरण करता है। ये देश अमेरिकी प्रतिबंधों से पीड़ित हैं, लेकिन आज के वायरस संकट की सबसे बड़ी विडंबना देखिए कि क्यूबा, यूरोप की मदद कर रहा है। जर्मनी ग्रीस की मदद नहीं कर सकता, लेकिन क्यूबा यूरोपीय देशों की मदद कर सकता है। भूमध्यसागर क्षेत्र में हजारों प्रवासियों और शरणार्थियों की मौतों के मद्देनजर इस समय पश्चिम की सभ्यता का संकट विनाशकारी है।
युद्ध के वक्त की जाने वाली बयानबाजी का आज कुछ महत्व है। अगर हम इस संकट से निपटना चाहते हैं, तो हमें युद्ध के समय की जाने वाली लामबंदी की तरफ देखना होगा, उदाहरण के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के लिए अमेरिका की वित्तीय लामबंदी (वित्त जुटाने की विभिन्न योजनाएं)। द्वितीय विश्व युद्ध ने देश को कर्ज में डाल दिया था और अमेरिकी विनिर्माण को चौपट कर दिया था। लेकिन, वित्तीय लामबन्दी ने आगे विकास को आगे बढ़ाया। इस अल्पकालिक संकट को दूर करने के लिए हमें उसी मानसिकता की आवश्यकता है और अमीर देश ऐसा कर सकते हैं। एक सभ्य दुनिया में, अमीर देश, दूसरे देशों का गला घोंटने के बजाय सहायता देते हैं। कोरोनावायरस संकट लोगों को यह सोचने के लिए मजबूर कर सकता है कि हम किस तरह की दुनिया चाहते हैं।
इस संकट की उत्पत्ति बाजार की विफलता और नव-आर्थिक नीतियों का भी नतीजा है, जिसने गहरी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को जन्म दिया है और तीव्र किया है। यह लंबे समय से पता था कि सार्स महामारी कुछ बदलाव के साथ कोरोनावायरस के रूप में आ सकती है। अमीर देश संभावित कोरोनावायरस के लिए टीका बनाने का काम कर सकते थे और कुछ संशोधनों के साथ आज ये हमारे पास उपलब्ध होता। बड़ी दवा कंपनियों की निरंकुशता जगजाहिर है। उन पर लगाम लगा पाना पाना सरकार के लिए कठिन है। ऐसे में लोगों को विनाश से बचाने के लिए एक वैक्सीन (टीका) खोजने की तुलना में नई बॉडी क्रीम बनाना अधिक लाभदायक है। पोलियो का खतरा सरकारी संस्थान द्वारा बनाए गए साल्क टीके से खत्म हो गया। इसका कोई पेटेंट नहीं था। यह काम इस समय किया जा सकता था, लेकिन नवउदारवादी आफत ने इस काम को होने नहीं दिया।
हमने ध्यान नहीं दिया
अक्टूबर 2019 में ही अमेरिका को कोरोना जैसी संभावित महामारी की आशंका थी। हमने इस पर ध्यान नहीं दिया। 31 दिसंबर को चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को निमोनिया के बारे में सूचित किया और एक हफ्ते बाद चीनी वैज्ञानिकों ने इसे कोरोनावायरस के रूप में पहचाना। फिर इसकी जानकारी दुनिया को दी गई। इस इलाके के देशों जैसे, चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान ने कुछ-कुछ काम करना शुरू कर दिया और ऐसा लगता है कि संकट को बहुत अधिक बढ़ने से रोक लिया। यूरोप में भी कुछ हद तक यही हुआ। जर्मनी के पास एक विश्वसनीय अस्पताल प्रणाली है और वह दूसरों की मदद किए बिना अपने हित में काम करने में सक्षम था। अन्य देशों ने इसे अनदेखा कर दिया। सबसे खराब रवैया रहा ब्रिटेन और अमेरिका का।
दुनिया के आगे दो बड़े खतरे हैं। एक है परमाणु युद्ध का बढ़ता खतरा और दूसरा ग्लोबल वार्मिंग जैसा वैश्विक खतरा। ये दोनों खतरे बढ़ते जा रहे हैं
जब हम किसी तरह इस संकट से उबर जाएंगे, तब हमारे पास जो विकल्प मौजूद होगा वह अधिक अधिनायकवादी व क्रूर राज्यों की स्थापना के रूप में देखा जा सकता है या फिर पहले के मुकाबले अधिक मानवीय समाज का पुनर्निर्माण भी संभव है। एक ऐसा समाज जो निजी लाभ के बजाय मानवीय आवश्यकताओं को वरीयता दे। इस बात की संभावना है कि लोग संगठित होंगे, एक बहुत बेहतर दुनिया बनाने के लिए काम करेंगे। लेकिन वे भारी-भरकम समस्याओं का सामना तब भी करेंगे, जैसे हम आज परमाणु युद्ध की आशंका का सामना कर रहे हैं। पर्यावरणीय तबाही की समस्याएं भी होंगी, जिसकी अंतिम सीमा छूने के बाद शायद ही हम कभी उबर पाएं। इसलिए, जरूरी है कि इन समस्याओं को लेकर हम निर्णायक रूप से कार्य करें। इसलिए यह मानव इतिहास का एक महत्वपूर्ण क्षण है। न केवल कोरोनावायरस की वजह से, जो दुनिया की खामियों के बारे में जागरुकता ला रहा है, बल्कि पूरे सामाजिक-आर्थिक प्रणाली की गहरी त्रुटियों के बारे में भी हमें इस वक्त पता चल रहा है। अगर हमें जीवन जीने लायक भविष्य चाहिए तो मौजूदा हालात को बदलना ही होगा। कोरोना संकट चेतावनी संकेत हो सकता है और आज इससे निपटने या इसके विस्फोट को रोकने के लिए एक सबक हो सकता है। लेकिन हमें इसकी जड़ों के बारे में भी सोचना है, जो हमें आगे और अधिक बदतर हाल में ले जा सकते हैं।
आज 2 बिलियन से अधिक लोग क्वारंटाइन (संगरोध) में है। सामाजिक अलगाव का एक रूप वर्षों से मौजूद है और बहुत ही हानिकारक है। आज हम वास्तविक सामाजिक अलगाव की स्थिति में हैं। किसी भी तरह, फिर से सामाजिक बंधनों के निर्माण के जरिए इससे बाहर निकलना होगा, जो जरूरतमंदों की मदद कर सके। इसके लिए उनसे संपर्क करना, संगठन का विकास, विस्तारित विश्लेषण जैसे कार्य करने होंगे। उन लोगों को कार्यशील और सक्रिय बनाने से पहले, भविष्य के लिए योजनाएं बनाना, लोगों को इंटरनेट युग में एक साथ लाना, उनके साथ शामिल होना, परामर्श करना, उन समस्याओं के जवाब जानने के लिए विचार-विमर्श करना, जिसका वे सामना करते हैं, और उन पर काम करना आवश्यक है। यह आमने-सामने का संचार नहीं है, जो मनुष्य के लिए आवश्यक है। लेकिन इसे कुछ समय के लिए आप रोक सकते हैं। अंत में कहा जा सकता है कि अन्य तरीकों की तलाश करें और उसके साथ आगे बढ़ें। उन गतिविधियों का विस्तार और उन्हें गहरा करें। ये संभव है। यह आसान नहीं है। इंसानों ने अतीत में भी कई समस्याओं का सामना किया है।
(सौजन्य: प्रेसेंजा)
- महेन्द्र पांडे
1980 के दशक से पर्यावरण सुरक्षा और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन लगातार अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय रहा है। हरेक वर्ष बड़े तामझाम के साथ दो-तीन अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है, बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं। पर, धरातल पर देखें तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन लगातार बढ़ता जा रहा है। कोई भी संसाधन असीमित नहीं है, हरेक संसाधन की हरेक वर्ष नवीनीकरण की क्षमता सीमित है। आदर्श स्थिति यह है जब प्राकृतिक संसाधन का जितना वर्ष भर में नवीनीकरण होता है, विश्व की जनसँख्या केवल उतने का ही उपभोग करे, जिससे संसाधनों का विनाश नहीं हो। पर, अब हालत यह हो गयी है कि इस वर्ष यानि 2020 के अंत तक जितने संसाधनों का उपयोग हमें करना था, उतने का उपयोग विश्व की आबादी 22 अगस्त तक ही कर चुकी है।
पूरे वर्ष के संसाधनों का उपभोग मानव जाति जिस दिन कर लेती है, उस दिन को ‘अर्थ ओवरशूट डे’ कहा जाता है, यानि सालभर का कोटा हमने ख़त्म कर दिया और इसके आगे जो उपभोग किया जाएगा उसकी भरपाई प्रकृति कभी नहीं कर पायेगी। पर्यावरण संरक्षण के तमाम दावों के बाद भी साल दर साल ओवरशूट डे पिछले वर्ष तक पहले से जल्दी आ रहा था, पर इस वर्ष कोविड 19 के प्रभाव से जब पूरी दुनिया लगभग बंद हो गई थी, तब यह दिन पिछले वर्ष की तुलना में तीन सप्ताह बाद आया है। इस वर्ष यह दिन 22 अगस्त को आया, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। पिछले वर्ष ओवरशूट डे 29 जुलाई को था। इसका सीधा सा मतलब है कि वर्ष 2020 के पूरे वर्ष में जितने संसाधनों का उपयोग करना था, उतना कोविड 19 की महामारी के बाद भी हम 22 अगस्त तक कर चुके हैं। हमारे पास एक ही पृथ्वी है, पर हमारे संसाधनों के उपभोग की दर के अनुसार हमें 1.6 पृथ्वी की जरूरत है।
ओवरशूट डे का निर्धारण ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क नामक एक अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान संस्था करता है। यह संस्था 1970 से लगातार इसका निर्धारण कर रही है। साल दर साल प्राकृतिक संसाधनों के बढ़ते दोहन का यह सही प्रमाण है। वर्ष 1970 में ओवरशूट डे 29 दिसम्बर को था, जबकि 1988 में 15 अक्टूबर को, 1998 में 30 सितम्बर को, 2000 में 23 सितम्बर को, और 2008 में यह दिन 15 अगस्त को, 2010 में 7 अगस्त को और 2019 में 29 जुलाई को आया था। वर्ष 2019 में यह पहली बार जुलाई के महीने में आया था, और अनुमान था कि यदि कोविड 19 का कहर नहीं होता तो इस वर्ष यह तारीख 29 जुलाई से पहले आती।
बढ़ती आबादी के साथ साथ खाद्यान्न उत्पादन, धातुओं का खनन, जंगलों का कटना और जीवाश्म इंधनों का उपभोग तेजी से बढ़ रहा है। इससे कुछ हद तक अल्पकालिक जीवन स्तर में सुधार तो आता है, पर दीर्घकालिक परिणाम भयानक हैं। विश्व की कुल भूमि में से एक-तिहाई से अधिक बंजर हो चुकी है, पानी की लगभग हरेक देश में कमी हो रही है, तापमान बढ़ता जा रहा है, जलवायु का मिजाज हरेक जगह बदल रहा है, जैव-विविधता तेजी से कम हो रही है और जंगल नष्ट होते जा रहे हैं। हम प्रकृति से उधार लेकर अर्थव्यवस्था में सुधार ला रहे है। वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं, हम यह उधार कभी नहीं चुका पायेंगे, पर सभी देश इसे नजरअंदाज करते जा रहे हैं। पूंजीवादी व्यवस्था पूरी तरह प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करने पर तुली है, पर यह सब बहुत दिनों तक चलेगा ऐसा लगता नहीं है।
पूंजीवादी व्यवस्था में समय समय पर झटके लगते रहते हैं और आर्थिक मंदी का दौर आता रहता है। आर्थिक मंदी के दौर में औद्योगिक गतिविधियाँ कम होने लगती हैं और तेल तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन में कमी आ जाती है। इस वर्ष कोविड 19 की आपदा ने यह असर दिखाया है। ऐसे वर्षों में यह प्रभाव ओवरशूट डे पर भी पड़ता है। वर्ष 2004-2005 की आर्थिक मंदी के समय ओवरशूट डे 5 दिन आगे खिसक गया था। इसी तरह का असर 1980 और 1990 के दशक की मंदी के समय और 1970 के पेट्रोलियम पदार्थों की कमी के समय देखा गया था। इस वर्ष यह तीन सप्ताह आगे कोविड 19 के असर के कारण चला गया।
ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क के अनुसार आज भी प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित उपभोग को नियंत्रित कर स्थिति कुछ हद तक बेहतर बनायी जा सकती है। वर्तमान में मांस की जितनी खपत है, यदि उसे आधी कर दी जाए तो ओवरशूट डे को पांच दिन आगे किया जा सकता है। भवनों और उद्योगों की दक्षता में सुधार लाकर इसे तीन सप्ताह आगे किया जा सकता है और यदि कुल कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को आधा कर दिया जाए तब ओवरशूट डे तीन महीने आगे चला जाएगा। इस वर्ष भी सबसे अधिक असर ग्रीनहाउस गैसों के कम उत्सर्जन के कारण ही पड़ा है। इस वर्ष अब तक दुनिया में पिछले वर्ष की तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 14.5 प्रतिशत कम रहा है।
ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क के अध्यक्ष मथिस वाच्केर्नागेल के अनुसार वर्ष 2020 में पहली बार पिछले वर्ष की तुलना में तीन सप्ताह का अंतर आया है, और इस वर्ष यह स्तर वर्ष 2006 के पहले के स्तर पर पहुँच गया है। यह अच्छी बात है, पर जाहिर है इस वर्ष यह अंतर कोविड 19 महामारी के कारण है। हम एक ऐसे विश्व की कल्पना कर रहे हैं, जहां प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर कोई आपदा लगाम नहीं लगाए बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था स्वयं सामान्य प्रक्रिया में इन संसाधनों का कम दोहन करे, कम अपशिष्ट उत्पन्न करे और ग्रीनहाउस गैसों का कम उत्सर्जन करे। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो वर्तमान के लिए अपने भविष्य को दांव पर लगा रहे हैं।(navjivan)
-हृदयेश जोशी
राज्य वन विभाग की ताजा रिपोर्ट कहती है कि पूरे उत्तराखंड में पिछले 5 साल में 62% से अधिक बार किंग कोबरा-साइटिंग केवल नैनीताल जिले में ही हुई है.
किंग कोबरा भारत का नेशनल रेप्टाइल है और यह दुनिया का सबसे बड़ा ज़हरीला सांप है.
भारत का नेशनल रेप्टाइल किंग कोबरा देश के कई हिस्सों में पाया जाता है. इनमें रेन-फॉरेस्ट एरिया जैसे भारत के पूर्वी और पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्वी राज्य, सुंदरबन और अंडमान के कुछ इलाके आते हैं. इसके अलावा पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के कुछ जिलों में भी किंग कोबरा यदा-कदा देखा जाता है लेकिन पिछले कुछ सालों में राज्य के एक खास हिस्से में इसकी मौजूदगी अधिक रिकॉर्ड हुई है.
उत्तराखंड के वन विभाग की रिसर्च विंग ने एक रिपोर्ट तैयार की है जिससे ये संकेत मिलते हैं कि उत्तराखंड का नैनीताल जिला किंग कोबरा का गढ़ बन रहा है. रिपोर्ट दावा करती है कि उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से रेन फॉरेस्ट वाले परंपरागत हैबीटाट के बाहर "नैनीताल में संभवत: किंग कोबरा की सबसे अधिक संख्या है.”
जर्मनी की दवा कंपनियों के लोगो और विश्व स्वास्थ्य संगठन के झंडे पर बना सांप का यह निशान दुनिया में सबसे प्रसिद्ध है. यह असल में एस्कुलाप्नाटेर सांप है, जो जहरीला नहीं होता. फिर भी इनका आवास सिकुड़ने और गैर कानूनी व्यापार बढ़ने के कारण इनके अस्तित्व पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है.
नैनीताल में बढ़ती मौजूदगी के प्रमाण!
उत्तराखंड के पांच जिलों में किंग कोबरा के होने के सुबूत मिले हैं. इनमें हर जिले में किंग कोबरा की साइटिंग के आंकड़ों को इस रिपोर्ट में इकट्ठा किया गया है. रिपोर्ट के अनुसार साल 2015 से जुलाई 2020 के बीच पूरे राज्य में किंग कोबरा कुल 132 बार देखा गया. इनमें से 83 बार किंग कोबरा की मौजूदगी नैनीताल जिले में ही रिकॉर्ड की गई जबकि देहरादून में किंग कोबरा को 32 बार देखा गया. इसके अलावा पौड़ी जिले में 12 बार किंग कोबरा दिखा जबकि उत्तरकाशी में सिर्फ 3 और हरिद्वार में तो 2 बार ही इसकी साइटिंग रिकॉर्ड हुई.
वन विभाग के शोधकर्ता हैरान हैं कि आखिर नैनीताल जिले में ही किंग कोबरा की इतनी मौजूदगी कैसे बढ़ रही है. खासतौर से तब जबकि किंग कोबरा एक "कोल्ड ब्लडेड” प्राणी है जिसके लिए वातावरण का बदलता तापमान दुश्वारी पैदा करता है.
इस शोध में कहा गया है कि किंग कोबरा का घोंसला - यह दुनिया का एकमात्र सर्प है जो अंडे देने के लिए घोंसला बनाता है - उत्तराखंड में पहली बार साल 2006 में नैनीताल जिले की भवाली फॉरेस्ट रेंज में दिखा. फिर साल 2012 में मुक्तेश्वर में 2303 मीटर की ऊंचाई में इसका घोंसला मिला. इतनी ऊंचाई पर किंग कोबरा का होना दुनिया भर में एक रिकॉर्ड है.
पूरे उत्तराखंड राज्य में नैनीताल जिले में किंग कोबरा की मौजूदगी के सबसे अधिक सुबूत मिले हैं

इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले रिसर्च फेलो ज्योति प्रकाश कहते हैं, "पिछले 5 साल में देहरादून और हरिद्वार जैसे बड़े जिलों में किंग कोबरा की रिकॉर्डेड साइट को जोड़ भी दें, तो नैनीताल में इससे ढाई गुना अधिक बार किंग कोबरा देखा गया है. यहां हमने इसके कई घोंसले भी लोकेट किए हैं.”
नैनीताल के मनोरा, भवाली और नैना फॉरेस्ट रेंज में किंग कोबरा आसानी से दिख रहा है. रिपोर्ट कहती है, "मनोरा और भवाली रेंज, जहां किंग कोबरा सबसे अधिक बार देखा गया, वहां तापमान 1.5 डिग्री से 24 डिग्री के बीच बदलता है. कोल्ड ब्लडेड किंग कोबरा का इतने बदलते तापमान पर जीवित रहना और इतनी ऊंचाई (2303 मीटर) पर उसका घोंसला पाया जाना एक गहन शोध का विषय है.”
ज्योति प्रकाश ने डीडब्ल्यू को बताया, "मुक्तेश्वर में करीब 2200 मीटर की ऊंचाई है, जबकि जिम कॉर्बेट पॉर्क का तराई वाला इलाका 300 से 400 मीटर पर है. एक ही जिले में इतनी अलग अलग ऊंचाई पर किंग कोबरा की अच्छी साइटिंग होना हमें हैरान करता है. यह किंग कोबरा की अनुकूलन क्षमता का सुबूत तो है लेकिन इस पर और गंभीर रिसर्च करने की जरूरत है.”
किंग कोबरा: एक शीर्ष परभक्षी
भोजन श्रंखला में किंग कोबरा एपेक्स प्रीडेटर यानी सबसे ऊपर है. प्रकृति में जहां अन्य सांप चूहों को खाकर उनकी संख्या नियंत्रित करते हैं, वहीं किंग कोबरा का भोजन सिर्फ सांप हैं. यानी वह प्रकृति में सांपों की संख्या को नियंत्रित करता है. विरले मौकों पर ही किंग कोबरा सांप के अलावा छिपकली या गिरगिट जैसे अन्य जीवों को खाता है. इस तरह से यह धरती पर सांपों की संख्या नियंत्रित करने में एक रोल अदा करता है.
किंग कोबरा भारत में वन्य जीव कानून के तहत संरक्षित प्राणियों में है और इसकी कई खासियत हैं, जो इसे विश्व भर के बाकी सर्पों से अलग करती हैं. आकार के हिसाब से यह दुनिया का सबसे बड़ा विषैला सांप है, जिसकी लंबाई 18 फुट तक हो सकती है. यह दुनिया में सांपों की अकेली प्रजाति है जिसमें मादा अंडे देने से पहले अपना घोंसला बनाती है.
अंडों से बच्चे निकलने में 80 से 100 दिन लगते हैं और तब तक मादा किंग कोबरा अपने अंडों की तत्परता से रक्षा रहती है. जानकार कहते हैं कि इस दौरान वह तकरीबन 2 महीने तक भूखी ही रहती है. यह दिलचस्प है कि अंडों से बच्चे निकलने से ठीक पहले मादा किंग कोबरा हमेशा वह जगह छोड़कर चली जाती है.
जानकार कहते हैं कि इस विषय पर गहन शोध की ज़रूरत है कि किंग कोबरा की नैनीताल में इतनी साइटिंग कैसे हो रही है
विराट और शांतिप्रिय प्राणी
किंग कोबरा एक बेहद शांतिप्रिय या जानकारों की भाषा में नॉन-कॉम्बेटिव (आक्रमण न करने वाला) सांप है. भारत में सांपों की कई जहरीली प्रजातियां हैं लेकिन चार ही सांप हैं, जिनके काटने से अधिकांश मौतें होती हैं. ये हैं रसेल्स वाइपर, सॉ स्केल वाइपर, क्रेट और इंडियन कोबरा. इन चारों को "बिग-फोर” कहा जाता है. अपने शांतिप्रिय स्वभाव के कारण ही बहुत विषैला होने के बावजूद किंग कोबरा "बिग-फोर” में नहीं गिना जाता.
जहां सांपों की ज्यादातर प्रजातियां इंसानी बसावट के आसपास रहती हैं और कई बार लोगों के घरों में भी घुस जाती हैं, वहीं किंग कोबरा जंगल में रहना ही पसंद करता है और इंसान से उसका सामना कम ही होता है. इसके काटने की घटनाएं पूरे देश में बहुत कम हैं. उत्तराखंड वन विभाग की यह रिपोर्ट किंग कोबरा के स्वभाव का प्रमाण है. इसके मुताबिक राज्य में अब तक किंग कोबरा के काटने की एक भी घटना दर्ज नहीं हुई है.
किंग कोबरा पर जानकारों की राय
भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के पीएचडी स्कॉलर जिज्ञासु डोलिया, जो पिछले 10 साल से किंग कोबरा पर इसी क्षेत्र में रिसर्च कर रहे हैं, कहते हैं कि नैनीताल जिला राज्य के सबसे अधिक वनाच्छादित जिलों में है. इसलिए यह इलाका किंग कोबरा के लिए एक बेहतर पनाहगार बनाता है. लेकिन डोलिया इस रिपोर्ट के आधार पर किंग कोबरा की संख्या को लेकर किसी निष्कर्ष पर नहीं जाना चाहते.
किंग कोबरा अकेला सांप है जहां मादा अंडे देने से पहले अपना घोंसला बनाती है और अंडों की करीब 3 महीने तक रखवाली करती है.
उनके मुताबिक, "एक बात हमें समझनी होगी कि हमारे पास किंग कोबरा की गिनती का बहुत सटीक तरीका नहीं है, जैसे कि टाइगर की गिनती होती है, जहां हम काफी हद तक सही संख्या पता कर सकते हैं. इसलिए नंबर को लेकर स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता." नैनीताल जिला ऐसा क्षेत्र है, जहां किंग कोबरा बार-बार देखा जाता है और उसका घोंसला भी यहां जंगल में हर साल बना मिलता है.
यह भी सच है कि राज्य की बाकी जगहों की तुलना में नैनीताल क्षेत्र में लोगों में अधिक जागरूकता है, इसलिए वह किंग कोबरा की साइटिंग की रिपोर्टिंग भी करते हैं. जिज्ञासु डोलिया कहते हैं, "असल में नैनीताल का फॉरेस्ट कवर, यहां होने वाली बारिश और भौगोलिक स्थिति से किंग कोबरा के लिए एक अनुकूल मिश्रण तैयार होता है.”
नैनीताल जिले में किंग कोबरा के जो भी घोंसले मिले, वे चीड़ की नुकीली पत्तियों से बने हैं जबकि अन्य जगहों में इसके घोंसले बांस द्वारा बने मिले हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि चूंकि चीड़ की पत्तियां आसानी से नष्ट नहीं होती, इसलिए यह मादा द्वारा घोंसले के लिए इन पत्तियों के चुनाव की वजह हो सकती है लेकिन जिज्ञासु नहीं मानते की मादा चीड़ को विशेष रूप से ढूंढकर ही उसकी पत्तियों से घोंसला बनाती है, "हमारा अनुभव है कि जो भी उपयुक्त चीज मिलेगी, मादा उससे अपना घोंसला बनाएगी. इस क्षेत्र में चीड़ और बांज अच्छी खासी संख्या में है और वह अंडो के लिए तापमान नियंत्रित करने में काफी मददगार है, इसलिए मादा किंग कोबरा घोंसला बनाने में उसका प्रयोग करती है.”(dw)
दुनिया भर के 188 से भी ज़्यादा देशों में कोरोना वायरस से संक्रमण के मामले सामने आए हैं.
इसकी चपेट में आए लोगों की संख्या दो करोड़ 47 लाख से ज़्यादा हो चुकी है जबकि अब तक इस महामारी से अब तक आठ लाख 38 हज़ार लोगों की मौत हो चुकी है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे एक महामारी घोषित किया है.
1. कोरोना के संक्रमण और उसके लक्षण सामने आने में कितना समय लगता है?
वैज्ञानिकों का कहना है कि कोरोना वायरस से संक्रमण के बाद इसके लक्षण सामने आने में पांच दिनों का समय लगता है लेकिन कुछ लोगों में इसके लक्षण दिखने में इससे ज़्यादा वक़्त भी लग सकता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ कोरोना से संक्रमित व्यक्ति के लक्षण 14 दिनों तक रहते हैं. लेकिन कुछ शोधकर्ताओं की राय में इसके लक्षण 24 दिनों तक रह सकते हैं.
इनक्यूबेशन पीरियड या बीमारी के सामने आने में लगने वाले समय को जानना और समझना ज़रूरी है.
इससे डॉक्टरों और स्वास्थ्य विभाग को ज़्यादा बेहतर और प्रभावी तरीके से कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए कारगर कदम उठाने में मदद मिलती है.

2. कोरोना से संक्रमण के बाद ठीक होने वाले लोग दोबारा संक्रमित नहीं होंगे?
फिलहाल ये कहना जल्दबाज़ी होगी. इस वायरस के बारे में अभी दिसंबर में ही पता चला है.
वायरस संक्रमण के दूसरे मामलों से जुड़े अतीत के अनुभव बताते हैं कि रोग रोग प्रतिरोधकों के ज़रिये इससे बचाव किया जा सकता है.
सार्स और कोरोना परिवार के अन्य विषाणुओं को लेकर हमारी राय ये है कि दोबारा संक्रमित होने के आसार कम हैं.
लेकिन चीन से मिलने वाली कुछ रिपोर्टों में ये कहा गया है कि हॉस्पिटल से छुट्टी मिलने के बाद भी कुछ लोगों के टेस्ट पॉज़िटिव पाए गए हैं पर हम उन टेस्ट को लेकर पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकते.
हालांकि गौर करने वाली बात ये है कि ऐसे लोगों से अब संक्रमण का कोई ख़तरा नहीं था.
3. फ़्लू और कोरोना वायरस में क्या अंतर है?
कोरोना वायरस और फ़्लू (बुखार और संक्रामक जुकाम) के कई लक्षण एक जैसे हैं. बिना मेडिकल टेस्ट के इसके अंतर को समझना मुश्किल है.
कोरोना वायरस के प्रमुख लक्षण बुखार और सर्दी ही है. फ्लू में अक्सर दूसरे लक्षण भी दिखाई देते हैं जैसे गले में दर्द.
जबकि कोरोना वायरस से संक्रमित व्यक्ति को सांस की तकलीफ़ की शिकायत रहती है.

4. खुद को एकांत में कैसे रखें?
सेल्फ़ आइसोलेशन यानी खुद को एकांत में रखने का मतलब 14 दिनों तक घर में रहना, काम पर नहीं जाना, स्कूल या किसी अन्य सार्वजनिक जगह पर नहीं जाना और सार्वजनिक परिवहन और टैक्सी से दूर रहना.
आपको घर के भीतर भी खुद को परिवार के दूसरे लोगों से अलग रखना चाहिए.
अगर आपको घरेलू सामानों की ज़रूरत हैं या कोई दवा चाहिए या फिर कोई शॉपिंग करनी है तो मदद लें, दरवाज़े पर डिलेवरी हो सकती है लेकिन आप किसी को घर आने के लिए न कहें.
आप को अपने पालतू पशुओं से भी दूर रहना चाहिए लेकिन अगर ये मुमकिन न हो तो उन्हें छूने से पहले और बाद ठीक से हाथ ज़रूर साफ़ करें.
5. अस्थमा के मरीज़ों के लिए कोरोना वायरस कितना ख़तरनाक़?
हमारे श्वसन तंत्र या हमारी सांस लेने की प्रणाली में किसी भी तरह का संक्रमण, वो चाहे कोरोना वायरस ही क्यों न हो, अस्थमा की तकलीफ़ बढ़ा सकता है.
कोरोना वायरस को लेकर चिंतित अस्थमा के मरीज़ कुछ एहतियाती कदम उठा सकते हैं. इसमें डॉक्टर द्वारा सुझाए गए इनहेलर का इस्तेमाल भी शामिल है.
इससे कोरोना सहित किसी वायरस किसी वजह से पड़ने वाले अस्थमा के दौरे का ख़तरा कम होता है.
6. क्या कोरोना का संक्रमण फ़ोन से भी हो सकता है?
माना जाता है कि कोरोना वायरस का संक्रमण छींकने या खांसने से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में हो सकता है. लेकिन जानकारों का कहना है कि ये वायरस किसी सतह पर भी अस्तित्व में रह सकता है और वो भी संभवतः कई दिनों तक.
इसलिए ये अहम है कि आपका फ़ोन चाहे घर पर हो या दफ़्तर में पूरी तरह से बार-बार साफ़ हो. सभी प्रमुख फ़ोन बनाने वाली कंपनियां मोबाइल फ़ोन को एल्कोहॉल से, हैंड सैनिटाइज़र से या स्टरलाइजिंग वाइप्स से साफ़ करने को लेकर आगाह करती हैं क्योंकि इससे फोन की कोटिंग को नुक़सान होने का ख़तरा रहता है.
इस कोटिंग लेयर को नुक़सान पहुंचने से कीटाणुओं के लिए मोबाइल फोन में फंसे रहना आसान हो जाता है. आजकल जो मोबाइल फ़ोन आते हैं, उनके बारे में कहा जाता है कि वे वाटर रेजिस्टेंस होते हैं यानी पानी से उनको कम ख़तरा रहता है.
अगर ऐसा है तो आप फ़ोन को साबुन और पानी या फिर पेपर टॉवल से साफ़ कर सकते हैं लेकिन ऐसा करने से पहले ये ज़रूर जांच लें कि आपका फोन वाटर रेजिस्टेंस है या नहीं.
7.क्या कोरोना दरवाज़े के हैंडल से भी फैल सकता है?
अगर कोई संक्रमित व्यक्ति छींकते वक़्त मुंह पर हाथ रखता है और फिर उसी हाथ से वो किसी चीज़ को छूता है तो वो सतह विषाणु युक्त हो जाती है.
दरवाज़े के हैंडल ऐसी सतहों के अच्छे उदाहरण हैं जिससे दूसरे लोगों को संक्रमण का ख़तरा हो सकता है.
विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना वायरस किसी सतह पर भी अस्तित्व में रह सकता है और वो भी कई दिनों तक.
इसलिए सबसे अच्छा यही है कि आप हाथ नियमित रूप से धोते रहें ताकि संक्रमण का ख़तरा कम हो और कोरोना वायरस को फैलने से रोका जा सके.

8. स्वीमिंग पूल में तैरना कितना सुरक्षित?
ज़्यादातर स्वीमिंग पूल्स में क्लोरीन मिलाया जाता है. ये एक ऐसा रसायन है जिससे विषाणु ख़त्म जाते हैं.
इसलिए अगर किसी स्वीमिंग पूल में क्लोरीन का इस्तेमाल किया जा रहा है तो उसमें तैरना सुरक्षित है.
लेकिन इसके बावजूद आप चेंजिंग रूम या फिर किसी संक्रमित सतह जैसे दरवाज़े के हैंडल के संपर्क में आने के बाद संक्रमित हो सकते हैं.
और अगर वहां कोई संक्रमित व्यक्ति आपके नजदीक छींकता या खांसता है तो आपके भी संक्रमित होने का ख़तरा बना रहेगा.
9. मास्क पहनना कितना ज़रूरी?
हालांकि डॉक्टर लोग हमेशा ही मास्क पहने हुए दिखते हैं लेकिन इस बात के प्रमाण कम ही मिलते हैं कि आम लोगों के मास्क पहनने से चीज़ें बदल जाती हैं.
ब्रिटेन के स्वास्थ्य विभाग ने कहा है कि कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाव के लिए वो मास्क पहनने की सिफ़ारिश नहीं करता है.
पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड का कहना है कि हॉस्पिटल के माहौल के बाहर मास्क पहनने से किसी व्यापक फायदे के प्रमाण ज़्यादा नहीं मिलते हैं.
विशेषज्ञों की राय में साफ़-सफ़ाई जैसे कि नियमित रूप से हाथ धोना ज़्यादा असरदार है.
10. बच्चों के लिए कितना ख़तरा?
चीन से मिल रहे आंकड़ों के अनुसार बच्चे तुलनात्मक रूप से कोरोना संक्रमण से बचे हुए हैं.
हालांकि जिन बच्चों को फेफड़े की बीमारी है या फिर अस्थमा है, उन्हें ज़्यादा सावधान रहने की ज़रूरत है क्योंकि ऐसे मामलों में कोरोना वायरस हमला कर सकता है.
ज़्यादातर बच्चों के लिए ये श्वसन संबंधी सामान्य संक्रमण की तरह है इसके बावजूद यह माना जा रहा है कि बच्चों की इम्यूनिटी कम होने से वे कोरोना की चपेट में आसानी से आ सकते हैं.
यही वजह है कि भारत सरकार ने कोरोना संबंधी अपने निर्देशों में दस साल से कम उम्र के बच्चों को घर में रखने का निर्देश जारी किया है.
इसके अलावा सभी स्कूल बंद हैं, हालांकि कई स्कूल इस दौरान ऑनलाइन क्लासों को संचालित कर रहे हैं.
11. संक्रमित व्यक्ति के हाथ का बना खाना कितना नुक़सानदेह?
संक्रमित व्यक्ति ने खाना बनाते वक़्त अगर साफ़-सफ़ाई का ठीक से ख़्याल न रखा हो तो इससे कोरोना वायरस के फैलने का ख़तरा रहता है.
छींकने या खांसने से हाथ पर लगी कफ़ के छोटे से हिस्से से भी कोरोना वायरस एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैल सकता है. कीटाणुओं को फैलने से रोकने के लिए खाना खाने और छूने से पहले हाथ तरीके से धोये जाएं, इसकी सलाह हमेशा दी जाती है.(bbc)
-विकास बहुगुणा
‘इस चिट्ठी पर दस्तखत करने वाले नेताओं का कांग्रेस के लिए समर्पण राहुल गांधी की तुलना में निश्चित रूप से कहीं ज्यादा है.’
कांग्रेस के 23 बड़े नेताओं की एक चिट्ठी के बाद पार्टी के भीतर उठे तूफान और इसके अंजाम पर यह बात बीते दिनों भाजपा नेका वडक्कन ने कही. सोनिया गांधी को लिखी गई इस चिट्ठी में पार्टी के पुर्नगठन सहित एक ऐसा नेतृत्व लाने की मांग की गई थी जो दिखे भी और सक्रिय भी रहे. लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में इन बातों और इन्हें कहने वालों को किनारे कर दिया गया.
इस तरह यह तय हो गया है कि अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर अभी सोनिया गांधी ही पार्टी की कमान थामे रहेंगी. दो दशक से भी ज्यादा समय कांग्रेस में बिताने वाले टॉम वडक्कन का इस पूरे घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए यह भी कहना था, ‘आईना टूट चुका है. आईना जब टूट जाता है तो इसे जोड़ा नहीं जा सकता. आपको इसे फेंकना पड़ता है.’
आईना टूटने वाली बात मौजूदा हालात में कांग्रेस के लिए एक सटीक रूपक लगती है. कांग्रेस कभी वास्तव में भारत का आईना हुआ करती थी. पार्टी देश के संघर्षों और उसकी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती थी. देश की एक बड़ी आबादी उसके साथ खुद को जोड़कर देखती थी. यही वजह रही कि आजादी के बाद एक लंबे समय तक देश में उसका वर्चस्व रहा.
लेकिन अब स्थिति पलट चुकी है. आईना वास्तव में टूट चुका नजर आता है. कांग्रेस लगातार दो आम चुनाव हार चुकी है. राज्यों में भी उसकी स्थिति खस्ताहाल है. पार्टी के 23 नेताओं ने सोनिया गांधी को जो चिट्ठी लिखी है उसमें भी कहा गया है कि देश के लोग खास कर युवा, भाजपा और नरेंद्र मोदी पर ज्यादा भरोसा करते हैं. कांग्रेस के पतन की इस प्रक्रिया को गौर से देखें तो पता चलता है कि पार्टी ने अपनी वे लगभग सारी ही विशेषताएं गंवा दी हैं जो कभी उसकी सबसे बड़ी ताकत हुआ करती थीं.
पूरे भारत की पार्टी
जो खासियतें कांग्रेस को दूसरे दलों से अलग करती थीं उनमें से एक यह भी थी कि उसकी मौजूदगी भारत के हर इलाके में थी. यानी वह देशव्यापी पार्टी थी. लेकिन आज बाजी पलट चुकी है. अब उसके बजाय भारतीय जनता पार्टी पूरे भारत की पार्टी दिखती है.
इसका अंदाजा इस दिलचस्प तथ्य से भी लगाया जा सकता है. 1952 में जब देश में पहला आम चुनाव हुआ तो कांग्रेस को 45 फीसदी वोट हासिल हुए थे. 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में ठीक यही आंकड़ा भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए के पास आ गया. यानी उसे 45 फीसदी मतदाताओं ने अपना समर्थन दिया. 2014 के 44 सीटों के आंकड़े में सिर्फ आठ फीसदी की बढ़ोतरी कर सकी कांग्रेस का वोट शेयर महज 19.5 फीसदी रहा. राज्यों में भी उसका दायरा सिमटता गया है. आज देश में महज छह राज्य या केंद्र शासित प्रदेश हैं जहां उसकी सरकार है. इनमें भी दो ऐसे हैं जहां वह जूनियर पार्टनर है.
सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ. इसका एक जवाब यह है कि बीते कुछ समय के दौरान कांग्रेस संगठन से लेकर मुद्दे खड़े करने तक हर मोर्चे पर भाजपा से पिछड़ती गई. अपने वर्चस्व वाले दिनों में उसके पास जम्मू-कश्मीर से केरल और गुजरात से असम तक एक प्रभावशाली संगठन हुआ करता था. उत्तर प्रदेश में गोविंद वल्लभ पंत से लेकर तमिलनाडु में सी राजगोपालाचारी तक हर इलाके में पार्टी के पास कद्दावर और जमीनी नेता थे. आज कमोबेश यही बात भाजपा के बारे में कही जा सकती है. संगठनात्मक ढांचे और मजबूत कैडर के मोर्चे पर कांग्रेस उसके सामने कहीं नहीं ठहरती. जैसा कि अमेरिका की मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर मोहम्मद अय्यूब अपने एक लेख में कहते हैं, ‘अपने पितृ संगठन आरएसएस की बदौलत भाजपा एक कैडर आधारित पार्टी है जिसके सदस्यों के भीतर संगठन के अनुशासन की भावना भरी हुई है.’ कांग्रेस के साथ स्थिति उलट है जिसका अंदाजा हाल के सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रकरणों से भी लगता है.
इसके अलावा कांग्रेस बीते कुछ समय से ऐसे विमर्श यानी नैरेटिव और नारे खड़े करने में भी असफल रही है जो मतदाताओं को आकर्षित कर सकें. एक समय था जब जवाहर लाल नेहरू के ‘आराम हराम है’ या लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ जैसे नारे जनता की जुबान पर होते थे. उसके दिग्गजों की कल्पनाएं देश का भविष्य तय किया करती थीं. जैसा कि अपने एक लेख में प्रख्यात इतिहासकार इरफान हबीब कहते हैं, ‘नेहरू का मानना था कि आर्थिक विकास को बाजार की ताकतों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, बल्कि योजना के जरिए इसे राज्य-निर्देशित होना चाहिए.’ ऐसा ही हुआ भी.
लेकिन वे दिन बीते जमाने हो गए. बीते कुछ समय से रफाल मुद्दे पर भाजपा को घेरने की कोशिश हो या ‘चौकीदार चोर’ है का नारा या फिर सॉफ्ट हिंदुत्व, पार्टी को हर मोर्चे पर असफलता मिली है. वह भविष्य में कैसा भारत चाहती है, इसे लेकर भी वह कोई स्पष्ट नजरिया लोगों के सामने रखने में नाकामयाब दिखती है. उधर, उसकी प्रतिद्वंदी भाजपा राष्ट्रवाद से लेकर ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ तक लगातार नये विमर्श और नारे खड़े करने में सफल रही है. इसका फल उसे लगातार दो लोकसभा चुनावों और उत्तर प्रदेश जैसे कई अहम राज्यों की सत्ता के रूप में मिला है.
देशभक्ति
भारतीय स्वाधीनता संग्राम कांग्रेस के नेतृत्व में ही चला था. महात्मा गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक पार्टी के कई नेता सालों जेल में रहे. असहयोग आंदोलन से लेकर सविनय अवज्ञा और नमक सत्याग्रह जैसे उसके आंदोलनों ने न सिर्फ ब्रिटिश सत्ता की चूलें हिला दीं बल्कि कांग्रेस को देशभक्ति का पर्याय भी बना दिया. आजादी के आंदोलन से मिली इस पुण्याई का पार्टी को आजादी के बाद भी काफी समय तक फायदा मिलता रहा. इसकी वजह यह थी कि इस आंदोलन का नेतृत्व करने वालों ने अब देश के नेतृत्व की बागडोर संभाल ली थी. एक जमाने का यह पोस्टर भी इसका उदाहरण है जिसमें लिखा गया है कि कांग्रेस उम्मीदवार को वोट देकर लोग अपने राष्ट्र प्रेम का परिचय दें.’
आज भी पार्टी खुद को देशभक्त बताने के लिए स्वाधीनता संग्राम का हवाला देती है. लेकिन अब लोगों की एक बड़ी संख्या देशभक्ति को कांग्रेस से जोड़कर नहीं देखती. उल्टे सोशल मीडिया पर एक तबका तो कांग्रेस को देशद्रोही या फिर देशद्रोहियों का साथ देने वाला कहता है. भाजपा पर निशाना साधते हुए पार्टी के नेता भले ही कहें कि जिनका देश की आजादी में कोई योगदान नहीं वे देशभक्ति की बात कर रहे हैं, लेकिन सच यही है कि आज देशभक्ति एक ऐसा ब्रांड हो चुकी है जिस पर भाजपा का ही कब्जा दिखता है. भाजपा ने हिंदुत्व, धर्म, राष्ट्र, देश, नारेबाजी, देशभक्ति औऱ कांग्रेस विरोध का ऐसा एक मिश्रण बनाया है जिससे पार पाना फिलहाल कांग्रेस के बस की बात नहीं लगती है. ऐसे में कांग्रेस अगर संतुलित बात करती है तो अक्सर देशद्रोही करार दे दी जाती है. और अगर वह इससे दायें कुछ करती है तो अपनी विरासत से दूर जाती और भाजपा की भौंड़ी नकल करती दिखती है.
दिग्गजों की विरासत
महात्मा गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और इंदिरा गांधी तक कांग्रेस के पास चमकदार नामों का एक लंबा सिलसिला रहा है. लेकिन इस मजबूत विरासत का कुछ हिस्सा उससे छिन गया तो कुछ उसके लिए बोझ बन गया. और कांग्रेस इसे रोकने में असफल रही.
सरदार वल्लभ भाई पटेल का ही उदाहरण लें. कांग्रेस के दिग्गज और देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक (आरएसएस) पर प्रतिबंध लगा दिया था. उनका कहना था कि इस संगठन की गतिविधियां देश के लिए खतरा हैं. लेकिन आज ऐसा लगता है जैसे भाजपा उन्हीं सरदार पटेल को कांग्रेस से छीन चुकी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कह चुके हैं कि देश के पहले उप-प्रधानमंत्री को कांग्रेस ने वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे. दो साल पहले वे गुजरात में सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ का भी अनावरण कर चुके हैं. यह दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा है. यही नहीं, पिछले साल भी वे सरदार पटेल के जन्मदिन यानी 31 अक्टूबर को उन्हें श्रद्धांजलि देने ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ गए और कहा कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी करने का उनका फैसला देश के पहले गृहमंत्री को समर्पित है.
कुछ ऐसा ही सुभाष चंद्र बोस या फिर महात्मा गांधी जैसे नेताओं के मामले में होता दिखता है. इस पर कांग्रेस सिर्फ यह तर्क देती दिखती है कि भाजपा के पास अपना कोई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं है इसलिए वह ऐसा करती है. लेकिन इससे कोई फर्क पड़ता नहीं दिखता. मसलन एक बड़ा तबका अब यह मानता दिखता है कि सरदार वल्लभ पटेल या सुभाष चंद्र बोस को भाजपा ने ही वह सम्मान दिया है जिसके वे हकदार थे.
इसी तरह कभी जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे नाम कांग्रेस की ताकत हुआ करते थे. लेकिन कांग्रेस की वंशवाद की राजनीति और भाजपा की प्रचार मशीनरी ने इस स्थिति को उल्टा कर दिया है. वर्तमान कांग्रेस ने इनकी विरासत का फायदा उठाया तो उस विरासत को वर्तमान कांग्रेस की गलतियों और गिरावट का खामियाज़ा भुगतना पड़ा. इसके चलते बहुत से लोग कश्मीर सहित देश की ज्यादातर समस्याओं के लिए इन नेताओं को ही जिम्मेदार मानते हैं. और अब कांग्रेस इनका फायदा उस तरह से उठाने की स्थिति में नहीं है जैसे पहले उठाया करती थी.
धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्षता को कभी कांग्रेस ने अपनी ताकत बनाया था. दरअसल 1947 में जब देश आजाद हुआ और इसके बाद संविधान सभा बनी तो इस पर काफी मंथन हुआ कि धर्म और राज्य व्यवस्था के बीच क्या संबंध हो. इस मुद्दे को लेकर संविधान सभा में कई विचारधाराएं आपस में टकरा रही थीं. एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की धारा थी जिसका मत था कि राज्य सभी धर्मों का बराबर सम्मान करे. दूसरी धारा में हिंदू परंपरावादी थे जिनका मानना था कि राज्य व्यवस्था को आयुर्वेद से लेकर हिंदी तक उन सारी पहचानों का संरक्षण करना चाहिए जो बहुसंख्यक धर्म से जुड़ती हैं. इसके अलावा एक धारा हिंदू राष्ट्रवादियों की भी थी जो भारत की पहचान हिंदू धर्म में देखती थी, हालांकि संविधान सभा में इसका प्रतिनिधित्व नगण्य था.
काफी दबाव के बाद भी जवाहरलाल नेहरू और संविधान सभा के अध्यक्ष बीआर अंबेडकर पूरी बहस को इस नतीजे तक ले जाने में सफल रहे कि भारत की पहचान मिली-जुली होनी चाहिए जिसमें सब नागरिक बराबर हों. इसे सेक्युलर राज्य व्यवस्था कहा गया. इसकी व्याख्या करते हुए एक बार नेहरू ने कहा था, ‘सेक्युलर के लिए कोई सटीक हिंदी शब्द खोजना मुश्किल है. कुछ लोग सोचते हैं कि इसका मतलब धर्म के खिलाफ है. लेकिन यह सही नहीं है. इसका मतलब है कि राज्य व्यवस्था सभी धर्मों का बराबर सम्मान करती है और उन्हें समान अवसर देती है.’
जानकारों के मुताबिक नेहरू धर्मनिरपेक्षता को भारत के लिए बेहद अहम मानते थे क्योंकि उन्होंने देखा था कि किस तरह मुस्लिम सांप्रदायिकता ने देश के टुकड़े करवाए. इसलिए आजादी के बाद हिंदू समेत हर धर्म की सांप्रदायिकता को काबू में रखना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो गया था.
1950 से लेकर 1970 तक भारत का यह सेक्युलर मॉडल काफी हद तक ठीक से चला. मुस्लिमों सहित सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को विधायिकाओं में उचित प्रतिनिधित्व मिला. धार्मिक दंगे भी काफी कम हो गए. बहुत सीमा तक इसका श्रेय जवाहरलाल नेहरू को दिया जाता है जिन्होंने भरसक कोशिश की कि कोई भी नेता धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए न करे.
लेकिन 1970 के दशक में जब पहली बार केंद्र में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई तो यह स्थिति बदलने लगी. 1980 में सत्ता में लौटीं इंदिरा गांधी ने धार्मिक तुष्टीकरण शुरू किया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देना, पंजाब में अकालियों की टक्कर में भिंडरावाले को खड़ा करना और हरिद्वार में विश्व हिंदू परिषद के समर्थन से बने भारत माता मंदिर का उद्घाटन इसके उदाहरणों में गिने जाते हैं. उनके बेटे राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटा और इससे खुद पर लगने वाले मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों की काट राम जन्मभूमि के ताले खुलवाकर करने की कोशिश की. माना जाता है कि इससे उस हिंदू सांप्रदायिकता का रास्ता खुल गया जिसे जवाहरलाल नेहरू किसी भी हाल में उभरने नहीं देना चाहते थे. इसके बाद भाजपा बहुसंख्यक तुष्टीकरण की राह पर चली और बाकी इतिहास है.
अब आलम यह है कि सार्वजनिक विमर्श में धर्मनिरपेक्षता शब्द को एक बड़ा वर्ग गाली की तरह इस्तेमाल करता है. कई जानकारों के मुताबिक इसकी वजह कांग्रेस ही है जिसने हमेशा इस मामले में दोहरा बर्ताव किया है. इनके मुताबिक पार्टी सब धर्मों के साथ बराबरी के बर्ताव की बात तो करती रही, लेकिन व्यवहार में वह ऐसा करती नहीं दिखी. उदाहरण के लिए हिंदू धर्म की रूढ़ियों को दूर करने के लिए हिंदू कोड बिल तो लाया गया, लेकिन भारत के मुसलमानों के मामले में ऐसा नहीं किया गया. इससे धीरे-धीरे यह धारणा बनने लगी कि धर्मनिरेपक्षता की बात करने वाली कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण करती है. शाहबानो प्रकरण जैसे उदाहरणों ने इस धारणा को पुष्ट किया. लेकिन कांग्रेस ने इसका जवाब हमेशा यह कहकर दिया कि यह हिंदुत्ववादी संगठनों का प्रचार है. आखिरकार 2014 में हुए आम चुनाव में बुरी गत के बाद इसकी समीक्षा करने के लिए बनी पार्टी की एक समिति ने माना कि मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पार्टी को ले डूबी.
इसके बाद कांग्रेस ने अपने रुख में बदलाव किया. भाजपा का मुकाबला करने के लिए वह सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चलने की कोशिश करने लगी. मसलन राहुल गांधी मंदिरों के दौरे करने लगे और खुद को शिवभक्त बताने लगे. लेकिन भाजपा की पिच पर खेलने की कांग्रेस की यह कोशिश भी उसके काम नहीं आई. जानकारों के मुताबिक इससे यह संदेश गया कि पार्टी ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम समुदाय के तुष्टिकरण की गलती मान ली है और अब वह भूल सुधार कर रही है. इससे हिंदू वोटर तो उससे नहीं जुड़ा, उल्टे मुस्लिम वोटर भी उससे छिटकने लगा.
इस सबका नतीजा यह है कि कांग्रेस न सिर्फ अपने सबसे बुरे दौर में है बल्कि मौजूदा हालात को देखते हुए उसकी हालत बिन पतवार की कश्ती जैसी ही दिखती है. सोनिया गांधी एक साल से पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष हैं. लेकिन बहुत से लोग मानते हैं कि वे अपने स्वास्थ्य के चलते इस भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पा रहीं. आम चुनाव की हार के बाद अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके राहुल गांधी अब भी खुद को केंद्रीय भूमिका में रखे हुए हैं, लेकिन कई कांग्रेस नेताओं की मानें तो उनकी शिकायतों पर वे यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि वे अब अध्यक्ष नहीं हैं.
अपने एक लेख में पूर्व नौकरशाह और चर्चित लेखक पवन के वर्मा लिखते हैं, ‘सच ये है कि पार्टी एक ऐसे परिवार की बंधक बनी हुई है जो दो आम चुनावों में इसका खाता 44 से सिर्फ 52 तक पहुंचा सका.’ उनके मुताबिक कांग्रेस को नेतृत्व से लेकर संगठन तक बुनियादी बदलाव की जरूरत है और तभी वह एक ऐसा विश्वसनीय विपक्ष बन सकती है जिसकी लोकतंत्र को जरूरत होती है, सत्ता पक्ष बनने की बात तो अभी दूर है.(satyagrah)
विनोद वर्मा
बस्तर के नगरनार स्टील संयंत्र को शुरु होने से पहले ही नरेंद्र मोदी सरकार ने विनिवेश सूची में डाल रखा है। यानी इस संयंत्र को किसी निजी कंपनी को बेचने की तैयारी कर ली गई है। लेकिन अब एक नया मोड़ आ गया है। इसे स्थापित करने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एनएमडीसी ने डी-मर्जर करने का फैसला किया है। आसान शब्दों में यह कि एनएमडीसी पहले इस संयंत्र से अपने आपको अलग कर रहा है। इसके बाद इसका निजीकरण किया जाएगा।
शेयर मार्केट में उछाल बता रहा है कि बाज़ार इस फैसले से ख़ुश है। इन दिनों शेयर बाज़ार और जनता की ख़ुशी में तालमेल वैसे भी बचा नहीं है।
यानी नरेंद्र मोदी सरकार बस्तरवासियों की उम्मीद नगरनार को किसी अंबानी या अडानी या जिंदल को बेचने की दिशा में एक ठोस कदम उठा लिया है।
इस बीच यह भी फैसला हुआ है कि इस संयंत्र को अगले साल शुरु किया जाए। हज़ारों करोड़ के निवेश के बाद उत्पादन शुरु न करने के पीछे भी एक सुनियोजित षडय़ंत्र है।
छत्तीसगढ़ सरकार ने एनएमडीसी को ज़मीन और दूसरी सुविधाएं उपलब्ध करवाईं थीं क्योंकि यह सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है और इससे बस्तर के आदिवासियों का भला होगा। लेकिन जब यह संयंत्र शुरू होने से पहले ही निजी हाथों में चला जाएगा तो बस्तर के सपनों का क्या होगा?
‘देश नहीं बिकने दूंगा’ वाले जुमले का क्या हुआ यह तो पूछना लोगों ने बहुत पहले ही बंद कर दिया है। अब तो तय हो गया है कि यह जुमला अब ‘देश नहीं बचने दूंगा’ हो चुका है।
(विनोद छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार हैं। यह टिप्पणी उन्होंने अपने निजी फेसबुक पेज पर की है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर जातीय आरक्षण के औचित्य पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है। पांच जजों की इस पीठ ने अपनी ही अदालत द्वारा 2004 में दिए गए उस फैसले पर पुनर्विचार की मांग की है, जिसमें कहा गया था कि आरक्षण के अंदर (किसी खास समूह को) आरक्षण देना अनुचित है याने आरक्षण सबको एकसार दिया जाए। उसमें किसी भी जाति को कम या किसी को ज्यादा न दिया जाए। सभी आरक्षित समान हैं, यह सिद्धांत अभी तक चला आ रहा है।
ताजा फैसले में भी वह अभी तक रद्द नहीं हुआ है, क्योंकि उसका समर्थन पांच जजों की बेंच ने किया था। अब यदि सात जजों की बेंच उसे रद्द करेगी तो ही आरक्षण की नई व्यवस्था को सरकार लागू करेगी। यदि यह व्यवस्था लागू हो गई तो पिछड़ों और अनुसूचितों में जो जातियां अधिक वंचित, अधिक उपेक्षित, अधिक गरीब हैं, उन्हें आरक्षण में प्राथमिकता मिलेगी। लेकिन मेरा मानना है कि सरकारी नौकरियों में से जातीय आरक्षण पूरी तरह से खत्म किया जाना चाहिए। अब से 60-65 साल पहले और विश्वनाथप्रताप सिंह के जमाने तक मेरे-जैसे लोग आरक्षण के कट्टर समर्थक थे।
डॉ. लोहिया के साथ मिलकर हम अपने छात्र-जीवन में नारे लगाते थे कि ‘पिछड़े पाएं सौ में साठ’ लेकिन जातीय आरक्षण के फलस्वरुप मुट्टीभर लोगों ने सरकारी ओहदों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने अपनी नई जाति खड़ी कर ली। उसे अदालत ने ‘क्रीमी लेयर’ जरुर कहा लेकिन उस पर रोक नहीं लगाई। ये आरक्षण जन्म के आधार पर दिए जा रहे हैं, जरुरत के आधार पर नहीं। इसकी वजह से सरकार में अयोग्यता और पक्षपात को प्रश्रय मिलता है और करोड़ों वंचित लोग अपने नारकीय जीवन से उबर नहीं पाते हैं। यदि हम देश के 60-70 करोड़ लोगों को समाज में बराबरी के मौके और दर्जे देना चाहते हों तो हमें शिक्षा में 60-70 प्रतिशत आरक्षण बिना जातीय भेदभाव के कर देना चाहिए। जो भी गरीब, वंचित, उपेक्षित परिवारों के बच्चे हों, उन्हें मुफ्त शिक्षा, मुफ्त भोजन, मुफ्त वस्त्र और मुफ्त निवास की सुविधाएं दी जानी चाहिए। देखिए, ये बच्चे हमारी तथाकथित ऊंची जातियों के बच्चों से भी आगे निकलते हैं या नहीं?(नया इंडिया की अनुमति से)
-लक्ष्मण सिंह देव
शाजी जमा की लिखी किताब अकबर आज पढ़ी। इतिहास का रोचक वर्णन है और ईमानदारी से लिखी है। अकबर का धर्मांध एवं सेकुलर दोनों पक्षों का वर्णन है। सबसे रोचक बात है उस समय के बादशाहों का ज्योतिषियों में विश्वास। किताब में लिखा है कि तैमूर की भी कुंडली थी और उसे साहिब किरान कहा जाता था क्योंकि जब वो पैदा हुआ तो उसकी कुंडली में उस समय बृहस्पति और शुक्र का योग था। इब्राहिम लोदी के दरबार में हिन्दू मुसलमान दोनों ही ज्योतिषी थे। अकबर की कुंडली इस किताब में पूरी डिटेल में बताई गई है।
पूरे 4 पेज कुंडली और उसके योगों पर ही है। इससे पता चलता है कि मुसलमान भी उस समय ज्योतिष में यकीन करते थे। जहां तक मेरी जानकारी है इस्लाम धर्म मे भविष्यवाणी करना हराम है? एक रोचक वर्णन में अधम खान से अकबर पूछता है-तूने हमारे अटका को क्यों मारा। पेज के एंड नोट में लिखा है कि अकबर ने यही लाइन कही यह रेकॉर्डेड बात है। बुधवार के दिन अकबर हजरत अली के नाम का रोजा रखता था। एक बार अकबर कहीं से वापस आ रहा था तो आमेर में रुकने पर उसे एक पुच्छल तारा दिखाई दिया। उसने ज्योतिषी से पूछा तो बताया गया कि जिस ओर तारा दिखा है उस दिशा में किसी राजा की मृत्यु होगी। अकबर इस बात से बहुत डर गया और उसने बहुत दान दिया। बाद में ईरान का राजा शाह तस्मासप मर गया। लोग खुश हुए कि अब तबर्रा नहीं होगा। शाह कट्टर शिया था, सम्भवत: इसलिए तबर्रा= प्रथम 3 इस्लामिक खलीफाओं को गाली देना। शाह तस्मासप ने हुमायूं को शरण भी दी थी। शाह तस्मासप ने हुमायूं को शिया बनाने की कोशिश की। शाह ने हुमायूं से कहा कि ईरानी स्टाइल में बाल कटवा लो और सफवी ताज पहन लो (सफवी ताज वस्तुत: एक पगड़ी होती थी। जिसे 12 बार लपेट के पहना जाता था। 12 बार इसलिए क्योंकि इशना असरी शियाओं के इमामों का प्रतीक है, शाह तस्मासप के दादा हैदर को हजरत अली सपने में दिखाई दिए कहा कि एक ताज बनवाओ तो इस पगड़ी को ईजाद किया गया। अकबर ने चितौड़ को जीतने के बाद वहां कत्लेआम भी करवाया।
अकबर के बारे में 2 ऐसे प्रसंग लिखे हैं जहां उसे विवाहित औरतें पसन्द आयी तो उसने उनके पतियों से उनके तलाक करवा के उनसे विवाह कर लिया। उन्माद में वह बकता था कि हिन्दू खाये गाय, मुसलमान खाए सुअर, तो कुछ चमत्कार हो वह अक्सर यह बात बड़बड़ाता था। मान सिंह की प्रशंसा में लिखे ग्रंथ मान सिंह रासो के अनुसार अकबर पिछले जन्म में ब्राह्मण था और इस जन्म में वह सनातन की रक्षा करने पैदा हुआ। एक अन्य अफवाह भी उस समय कुछ ब्राह्मणों ने ऐसी ही उड़ाई। अकबर जब अभियान पर जाता था तो 2 तलों वाले तंबू में रहता था। इब्राहिम लोदी की बूढ़ी माँ द्वारा बाबर को जहर दिए जाने की घटना का भी वर्णन है। शेरशाह सूरी की 4 इच्छाओं का जिक्र है जिसमें एक इच्छा है कि वह पानीपत में इब्राहिम लोदी का मकबरा बनवाये और उसके सामने की मुगलों की याद में एक स्मारक। दुश्मनों की याद में एक स्मारक बनवाये जिससे वो इतिहास में अमर हो जाये। इसी सिद्धान्त पर चलते हुए सम्भवत: अकबर ने चितौड़ के किले में मुगल सेना का डटकर मुकाबला करने वाले जयमल एवं पत्ता की हाथी पर बैठी संगमरमर की मूर्तियां आगरा के किले के द्वार पर स्थापित करवाई।
-कृष्ण कांत
सुशांत सिंह राजपूत केस भारत के इतिहास में शायद सबसे खौफनाक केस के तौर पर दर्ज होगा। जांच प्रक्रिया का ये नमूना बेहद अद्भुत है जहां बाढ़ और महामारी में फंसे पूरे भारत को छोडक़र, मीडिया के लोग गिद्धों के झुंड की तरह एक आरोपी पर टूट पड़े हैं।
सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के केस ने उस खौफनाक मॉब लिंचिंग का विस्तार कर डाला जो अब तक कुछ लफंगे समूहों तक सीमित थी। अब सभ्य समाज भी इसमें शामिल है। सभ्य समाज कभी डंडा और चापड़ लेकर नहीं निकलता। उसके अंदर का जहर भी सभ्य रास्ते अख्तियार करता है। वह कभी लिंच मॉब को माला पहनाता है तो कभी संगसारी का समर्थन करता है, कभी दंगे को ‘राष्ट्र की सेवा’ कह डालता है।
आपको उस चैनल से डरना चाहिए जो स्पष्ट तौर पर आरोपी युवती को ‘हत्यारिन’ लिख सकता है।
आरोप क्या है, अभी ये भी तय नहीं है। आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप बनेगा या हत्या का, ये अभी जांच एजेंसी भी नहीं जानती। आरोपी दोषी है या निर्दोष, ट्रायल से पहले ये अदालत भी नहीं जानती। लेकिन शक के आधार रिया चक्रवर्ती से घृणा करने वाले उन्हें ये सलाह दे रहे हैं कि
‘तुम मर क्यों नहीं जातीं’, ‘तुम भी आत्महत्या कर लो’, ‘तुम्हें मरने से कौन रोक रहा है’, ‘हमें तो इंतजार है’, ‘सुसाइड लेटर छोडऩा मत भूलना’ वगैरह-वगैरह। ये जुमले इन्हें लिखने वाले के बारे में क्या कहते हैं? क्या ये सच में न्याय चाहने वाले लोग हैं?
अगर आप लोकतंत्र की न्यायिक प्रक्रिया की सामान्य समझ रखते हैं तो भारतीय मीडिया को देखकर आप डर जाएंगे। अगर नहीं डर रहे हैं तो आपको डरना चाहिए।
रिया चक्रवर्ती के बचाव का कोई कारण मौजूद नहीं है, ठीक उसी तरह उसे निर्दोष मानने का कोई कारण मौजूद नहीं है। फिर भी, मीडिया औ कथित सिविल समाज का एक हिस्सा मिलकर किसी को दोषी ठहरा रहा है और उसके ‘मर जाने’ या ‘आत्महत्या कर लेने’ की कामना कर रहा है।
क्या सच में हमारा समाज अब किसी पर आरोप लगते ही उसे दोषी मान लेगा और आरोपी के मरने की कामना करेगा? क्या हम खून के इतने प्यासे हो रहे हैं कि हमसे जांच प्रक्रिया और अदालती कार्यवाही तक का इंतजार नहीं हो रहा है? क्या हम आंख के बदले आंख मांगने निकले हैं, जहां कोई भी आंख वाला न बचे?
एक चैनल पर आरोपी रिया ने अपनी बात कही तो एंकर और आरोपी दोनों ट्रोल हो रहे हैं। हमारा सभ्य समाज न्याय नहीं चाहता। हमारे लोग साफ सुथरी न्यायिक प्रक्रिया नहीं चाहते। उन्हें देखकर लगता है कि यह गिद्धों का झुंड है जो सिर्फ खून का प्यासा है।
भारत की अदालतों में लटके केस का अब ऐसा ही ट्रायल होगा? एजेंसी के आगे आगे चैनल ट्रायल चलाएंगे और एजेंसियां उन्हें फॉलो करेंगी?
हम ऐसे समाज में तब्दील हो गए हैं जहां लोग महामारी में या अपराध में भी नफरत पैदा कर सकते हैं!


