विचार/लेख
भारतीय मूल की सीनेटर कमला हैरिस को अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडेन ने उपराष्ट्रपति पद के लिए चुना है. उन्हें लेकर यह दावा किया जा रहा कि वे पहली अश्वेत महिला हैं, जो उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनी हैं. हालांकि ऐतिहासिक तौर पर यह सही नहीं है. कमला हैरिस से पहले भी अमेरिका में एक अश्वेत महिला उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बन चुकी हैं, जिनका नाम था चार्लोटा बास.
दरअसल साल 1952 में प्रोग्रेसिव पार्टी के टिकट पर उपराष्ट्रपति पद के लिए पहली अश्वेत महिला उम्मीदवार के रूप में चार्लोटा बास के नाम की घोषणा हुई थी. तब उस समय शिकागो के वेस्ट साइड में एक ऑडिटोरियम में करीब दो हजार डेलीगेट्स के सामने बास के नाम पर मुहर लगी, जिसके बाद अपने संबोधन में चार्लोटा बास ने कहा, “अमेरिका की राजनीति में यह एक ऐतिहासिक क्षण है.”
उन्होंने आगे कहा, “यह क्षण मेरे लिए, मेरे अपने लोगों के लिए और सभी महिलाओं के लिए ऐतिहासिक है. इस राष्ट्र के इतिहास में पहली बार किसी राजनीतिक दल ने एक नीग्रो महिला को दूसरे सर्वोच्च पद के लिए चुना है.”
हारने के बावजूद बास के कैंपन स्लोगन की चर्चा
न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक, उस वक्त चुनावों में रिपब्लिकन उम्मीदवार ड्वाइट डी आइजनहावर ने राष्ट्रपति पद पर और रिचर्ड एम निक्सन ने उप-राष्ट्रपति पद पर जीत हासिल की, लेकिन फिर भी उनके कैंपेन में वो बात नहीं थी, जो बास के कैंपेन में थीं. उनका स्लोगन था, “जीतें या हारें, हम मुद्दे उठाकर जीतते हैं.” (Win or Lose, We Win by Raising the Issues).
चार्लोटा बास को टिकट मिलने के एक दशक से भी ज़्यादा समय के बाद अमेरिका में मतदान अधिकार कानून पर हस्ताक्षर किए गए, लेकिन न सिर्फ एक राजनेता के रूप में, बल्कि उससे पहले वेस्ट कोस्ट के सबसे पुराने अश्वेत अखबार, द कैलिफोर्निया ईगल की संपादक और पब्लिशर रहते हुए भी बास ने इस तरह के मुद्दे हमेशा उठाए.
अश्वेत लोगों की आवाज था द कैलिफोर्निया ईगल अखबार
एक समय था, जब द कैलिफोर्निया ईगल अखबार लॉस एंजिल्स में अश्वेत लोगों की आवाज था, उसने वहां पुलिस की बर्बरता और फिल्म इंडस्ट्री में नस्लवाद के खिलाफ अभियान का नेतृत्व किया था. ईगल का दफ्तर, जो कभी सेंट्रल एवेन्यू पर लॉस एंजिल्स में अश्वेत समुदाय के लोगों का दिल था, अब वहां एक स्टोर है.
बास ने एक पत्रकार और एक्टिविस्ट के रूप में अपने जीवन में एक अलग पहचान बनाई और शायद यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आज एक भारतीय मूल की महिला को एक प्रमुख पार्टी के टिकट पर उपराष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाने के पीछे, जो बुनियाद है वो चार्लोटा बास की मदद से ही रखी गई है.
“चुनाव जीतने पर नहीं मुद्दों पर था बास का ध्यान”
इतिहासकार और लेखक मार्था एस जोंस का कहना है कि हमारा ध्यान हमेशा जीतने या हारने वाले पर होता है, जबकि बास के लिए चुनाव में जीतना तो कभी कोई प्वाइंट रहा ही नहीं. वो तो राजनीतिक एजेंडे को ज़्यादा बड़ा रूप देने की कोशिश कर रही थीं.
बास का पूरा नाम चार्लोटा अमांडा स्पीयर्स था, माना जाता है कि उनका जन्म साउथ कैरोलिना के सम्टर में 1880 के आसपास हुआ. उनके माता-पिता केट और हीराम स्पीयर्स, गुलाम लोगों के वंशज थे, उनके पिता एक राजमिस्त्री थे.
हाई स्कूल के बाद चार्लोटा अपने भाई एलिस के साथ रहने के लिए रोड आइलैंड चली गईं, जहां उनके भाई के अपने दो रेस्टोरेंट थे. माना जाता था कि साउथ कैरोलिना का सम्टर महिलाओं के लिए एक खतरनाक जगह थी.
ईगल अखबार में ऑफिस गर्ल से संपादक तक का सफर
इसके बाद बास ने पेम्ब्रोक वूमेन कॉलेज में दाखिला लिया, जो अब ब्राउन यूनिवर्सिटी का एक हिस्सा है. पढ़ाई के साथ-साथ चार्लोटा एक स्थानीय ब्लैक न्यूज पेपर में नौकरी भी करने लगीं. साल 1910 में बास ने ईगल न्यूज पेपर में “ऑफिस गर्ल” की नौकरी शुरू की, जहां उन्हें वेतन के रूप में पांच डॉलर मिला करते थे. पेपर का ऑफिस सेंट्रल एवेन्यू पर था, जिसे “शहर का ब्लैक बेल्ट” भी कहा जाता था.
धीरे-धीरे बास ने भी ईगल अखबार में अश्वेत लोगों से जुड़े मुद्दों को उठाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते ईगल अखबार की कमान उन्होंने अपने हाथ में ले ली. बास ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- “पूरे शहर में इसी बात की चर्चा थी, क्योंकि इससे पहले कभी किसी ने किसी महिला को अखबार चलाते हुए नहीं देखा था.”
ईगल अखबार की स्थापना तो एक अश्वेत व्यक्ति ने की थी, लेकिन आगे चल कर इसका मालिक एक श्वेत व्यक्ति हो गया, जिसने बास के सामने शर्त रखी की वो अखबार चलाने के लिए अपना समर्थन तभी देगा, जब बास उनसे शादी करेंगी. बास ने इस प्रस्ताव के बाद उस मालिक को काफी बुरी तरह से फटकार लगाई और डीड खरीदने के लिए एक स्थानीय स्टोर के मालिक से 50 डॉलर उधार लिए.
इसके बाद से बास का जीवन पूरी तरह से बदल गया और उन्होंने अगले 40 साल के लिए खुद को ईगल अखबार और सामाजिक मुद्दों को उठाने के लिए समर्पित कर दिया. बास ने द टोपेका प्लेनडेलर से एक अनुभवी संपादक जेबी. बास को नौकरी पर रखा और जो आगे चलकर वो उनके पति बने, लेकिन शादी के बाद भी दोनों पति-पत्नि के पास एक दूसरे के साथ वक्त बिताने का समय नहीं था.
ज्वाइंट पब्लिशर्स के रूप में उन्होंने ईगल को वेस्ट कोस्ट में सबसे ज्यादा सर्कुलेशन वाले अश्वेत अखबार के रूप में विकसित किया. साल 1934 में अपने पति की मृत्यु के बाद लगभग दो दशकों तक चार्लोटा ने अपने दम पर वो न्यूज पेपर चलाया.
रिपब्लिकन पार्टी में रहते हुए भी दिया डेमोक्रेट उम्मीदवार को वोट
1940 के दशक में चार्लोटा बास ने पूरी तरह से राजनीति में प्रवेश किया. बास की सबसे खास बात यह रही कि वे लंबे समय से रिपब्लिकन पार्टी में थीं, लेकिन 1936 के चुनाव में उन्होंने डेमोक्रेट के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट को वोट दिया और बाद में अश्वेत समुदाय और महिलाओं के अधिकारों की उपेक्षा करने के लिए उन्होंने दोनों दलों की निंदा भी की.
उन्होंने 1947 में कैलिफोर्निया की इंडिपेंडेंट प्रोग्रेसिव पार्टी की स्थापना में मदद की और 1950 में कांग्रेस के लिए चुनाव लड़ा, लेकिन हार गईं. ऐनी रैप, एक इतिहासकार जिन्होंने बास पर अपने डॉक्टरेट शोध प्रबंध को लिखा था, उन्होंने बताया कि आगे चल कर चार्लोटा बास पर सरकार ने अपनी निगरानी बढ़ा दी और उनकी मौत तक उन पर सरकारी एजेंसियों की तरफ से काफी सख्त निगरानी रखी गई.
यहां तक उनकी विदेशी यात्राओं पर रोक लगा दी गई और सीआईए के एजेंट्स ने विदेशों में उनके सम्मेलनों की भी जांच की. बास ने 1951 में अश्वेत महिलाओं के ग्रुप को ईगल अखबार को बेच दिया. इसके बाद 12 अप्रैल 1969 को सेरेब्रल हेमरेज से उनकी मृत्यु हो गई.(tv9bhartvarsh)
भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि राहत उपायों के बिना अर्थव्यवस्था में वृद्धि की क्षमता बहुत गंभीर रूप से प्रभावित होगी. यदि अर्थव्यवस्था को इस भयावह स्थिति से निकालना है तो सरकार को अधिक से अधिक ख़र्च करना होगा.
नई दिल्ली: मौजूदा वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में भारत की जीडीपी में रिकॉर्ड 23.9 फीसदी की गिरावट पर भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राम ने कहा है ये आंकड़े ‘हम सभी को चौंकाने चाहिए’ और सरकार एवं नौकरशाहों को इससे डरने की जरूरत है.
अपने लिंक्डइन पोस्ट में राजन ने तर्क दिया कि सरकार भविष्य में प्रोत्साहन पैकेज देने के लिए आज संसाधनों को बचाने की रणनीति पर चल रही है जो कि ‘आत्मघाती’ साबित हुई है. सरकार द्वारा राहत प्रदान करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि कोविड-19 महामारी के रुकने तक विवेकाधीन खर्च कम ही रहेगा.
पूर्व आरबीआई गवर्नर ने कहा, ‘वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही के लिए हाल ही में जारी जीडीपी वृद्धि के आंकड़े हम सभी को चिंतित करने चाहिए. भारत में 23.9 फीसदी संकुचन (और शायद यह तब और भी बुरा होगा जब हम इसमें अनौपचारिक क्षेत्र (इन्फॉर्मल सेक्टर) में क्षति का जोड़ देंगे) कोरोना से प्रभावित उन्नत अर्थव्यवस्थाओं इटली में 12.4% और अमेरिका में 9.5% की गिरावट की तुलना में काफी अधिक है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘भारत में अभी भी महामारी बढ़ ही रही है. इसलिए वायरस पर काबू पाए जाने तक विवेकाधीन खर्च या मनमुताबिक खर्च कम ही रहेगा.’
राजन ने कहा कि राहत उपायों के बिना अर्थव्यवस्था में वृद्धि की क्षमता बहुत गंभीर रूप से प्रभावित होगी. उन्होंने कहा कि सरकार को चालाकी के साथ अधिक से अधिक खर्च करने की जरूरत है.
उन्होंने कहा, ‘यदि आप मानते हैं कि अर्थव्यवस्था बीमार है तो उसे बीमारी से लड़ने के लिए राहत उपायों की जरूरत है. बिना राहत राशि के लोग भोजन में कमी लाएंगे, अपने बच्चों को स्कूल से निकाल कर उन्हें काम करने या भीख मांगने भेज देंगे, उधार लेने के लिए अपना सोना गिरवी रख देंगे और उनकी कर्ज की किस्त और किराया बढ़ता ही जाएगा.’
अर्थशास्त्री ने आगे कहा, ‘इसी तरह बिना राहत के छोटे उद्योग, दुकानें, रेस्टोरेंट मजदूरों को वेतन देना बंद कर देंगे, उनके कर्ज बढ़ते जाएंगे या हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे. इस तरह जब तक कोविड-19 वायरस काबू में आएगा, तब तक अर्थव्यवस्था बर्बाद हो जाएगी.’
रघुराम राजन ने कहा कि अधिकारियों की ये मानसिकता बहुत निराशाजनक है कि महामारी से पहले आर्थिक सुस्ती और सरकार की खराब वित्तीय हालत के कारण वे राहत और प्रोत्साहन दोनों पर खर्च नहीं कर सकते हैं.
मालूम हो कि कोरोना महामारी के शुरुआत से ही रघुराम राजन आर्थिक गतिविधियों को सावधानीपूर्वक संभालने के लिए सरकार को सतर्क करते रहे हैं.
इससे पहले राजन ने कहा था कि भारत एक बहुत बड़ी आर्थिक तबाही का सामना कर रहा है और इसके समाधान के लिए सरकार को विपक्ष के विशेषज्ञों को शामिल करना चाहिए, क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय अकेले ये काम नहीं कर सकता है.
भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार और आईएमएफ के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री के रूप में काम कर चुके रघुराम राजन ने कहा था कि यह चुनौती सिर्फ कोरोना वायरस और लॉकडाउन से हुए नुकसान को ठीक करने के लिए नहीं है, बल्कि पिछले 3-4 साल में उत्पन्न हुईं आर्थिक समस्याओं को ठीक करना होगा.
इसके अलावा उन्होंने जाने-माने अर्थशास्त्रियों और नोबेल विजेताओं अभिजीत बनर्जी और अमर्त्य सेन के साथ लिखे एक लेख में महामारी से उबरने के लिए गरीबों के हाथ में तत्काल पैसे देने की बात की थी.
इस संबंध में उन्होंने कहा था, ‘लोन को प्रभावी होने में समय लगता है. दूसरी तरफ भूख एक तत्काल समस्या है.’
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ एक संवाद में राजन ने कहा था कि कोविड-19 संकट के दौरान देश में गरीबों की मदद के लिए 65,000 करोड़ रुपये की जरूरत होगी. उन्होंने कहा था, ‘यदि गरीबों की जान बचाने के लिए हमें इतना खर्च करने की जरूरत है तो हमें करना चाहिए.’
अधिकारी अब आत्मसंतोष की स्थिति से बाहर निकलेंगे
उन्होंने कहा कि इतने खराब जीडीपी आंकड़ों की एक अच्छी बात यह हो सकती है कि अधिकारी तंत्र अब आत्मसंतोष की स्थिति से बाहर निकलेगा और कुछ अर्थपूर्ण गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करेगा. राजन फिलाहल शिकॉगो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. उन्होंने कहा कि भारत में कोविड-19 के मामले अब भी बढ़ रहे हैं. ऐसे में रेस्तरां जैसी सेवाओं पर विवेकाधीन खर्च और उससे जुड़ा रोजगार उस समय तक निचले स्तर पर रहेगा, जब तक कि वायरस को नियंत्रित नहीं कर लिया जाता.
राजन ने कहा कि सरकार संभवत: इस समय अधिक कुछ करने से इसलिए बच रही है, ताकि भविष्य के संभावित प्रोत्साहन के लिए संसाधन बचाए जा सकें. उन्होंने राय जताई कि यह आत्मघाती रणनीति है.
अर्थव्यवस्था के लिए दिया उदाहरण
एक उदाहरण देते हुए राजन ने कहा कि यदि हम अर्थव्यवस्था को मरीज के रूप में लें, तो मरीज को उस समय सबसे अधिक राहत की जरूरत होती है जबकि वह बिस्तर पर है और बीमारी से लड़ रहा है. उन्होंने कहा, ‘‘बिना राहत या सहायता के परिवार भोजन नहीं कर पाएंगे, अपने बच्चों को स्कूल से निकल लेंगे और उन्हें काम करने या भीख मांगने भेज देंगे. अपना सोना गिरवी रखेंगे. ईएमआई और किराये का भुगतान नहीं करेंगे. ऐसे में जब तक बीमारी को नियंत्रित किया जाएगा, मरीज खुद ढांचा बन जाएगा.’’
वी शेप रिकवरी की संभावना नहीं
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ने कहा कि अब आर्थिक प्रोत्साहन को ‘टॉनिक’ के रूप में देखें. ‘‘जब बीमारी समाप्त हो जाएगी, तो मरीज तेजी से अपने बिस्तर से निकल सकेगा. लेकिन यदि मरीज की हालत बहुत ज्यादा खराब हो जाएगी, तो प्रोत्साहन से उसे कोई लाभ नहीं होगा. राजन ने कहा कि वाहन जैसे क्षेत्रों में हालिया सुधार वी-आकार के सुधार (जितनी तेजी से गिरावट आई, उतनी ही तेजी से उबरना) का प्रमाण नहीं है. उन्होंने कहा, ‘‘यह दबी मांग है. क्षतिग्रस्त, आंशिक रूप से काम कर रही अर्थव्यवस्था में जब हम वास्तविक मांग के स्तर पर पहुंचेंगे, यह समाप्त हो जाएगी.’’
महामारी से पहले ही अर्थव्यवस्था में सुस्ती थी-राजन
राजन ने कहा कि महामारी से पहले ही अर्थव्यवस्था में सुस्ती थी और सरकार की वित्तीय स्थिति पर भी दबाव था. ऐसे में अधिकारियों का मानना है कि वे राहत और प्रोत्साहन दोनों पर खर्च नहीं कर सकते. उन्होंने कहा, ‘‘यह सोच निराशावादी है. सरकार को हरसंभव तरीके से अपने संसाधनों को बढ़ाना होगा और उसे जितना संभव हो, समझदारी से खर्च करना होगा.’’(thewire)
शर्मनाक आपाधापी और लाल बुझक्कड़ी सलाहों से घिरे इस देश की अर्थव्यवस्था विकसित तो क्या ही होती, जितनी थी, उतनी भी नहीं रह पाई। आंकड़ों के अनुसार, उसमें 23.9 फीसदी की सिकुड़न आ गई है। सबसे ज्यादा सिकुड़न निर्माण क्षेत्र में है, फिर खदान, सेवा क्षेत्रों में।
- मृणाल पाण्डे
भारत सचमुच एक अजूबा है। 2020 के पहले छः महीनों में हजारों की तादाद में कोविड महामारी से लोग मर गए। कोविड संक्रमण के सबसे अधिक मामले आज भारत में दर्ज हो रहे हैं और हमारे स्वास्थ्य मंत्री कह रहे हैं कि उनको उम्मीद है, अक्टूबर तक बीमारी थमने लगेगी। मार्च, 2020 में देश पर अचानक बिना सलाह-मशविरे के लाद दी गई इकतरफा तालाबंदी ने अगस्त के अंत तक कल-कारखाने ठप्प कर सकल राष्ट्रीय उत्पाद दर का कचूमर निकाल दिया। रातों रात बेरोजगार हुए लाखों प्रवासी शहरी कामगारों को घर लौटते सब देखते रहे, पर कोई दंगा या बड़ा जनांदोलन नहीं उठा। अब जब तालाबंदी पूरी तरह उठ जाएगी तो मध्यवर्ग का सुविधा भोगी हिस्सा भी बेरोजगारी की आंच अपनी देह पर महसूस करेगा क्योंकि हर कहीं से आंकड़े आ रहे हैं कि कॉरपोरेट और सेवा क्षेत्र से लेकर मीडिया तक बेरोजगारी दर चौकड़ीभर रही है। फिर भी कम-से-कम गोदी मीडिया कह रहा है कि उनको मोदी जी सर्वमान्य नेता नजर आते हैं, दूसरा न कोई।
अचंभा यह कि कथित सर्वमान्य शिखर से मास्क लगाकर युवाओं को किसी नए पैकेज की बजाय सलाह दी जा रही है कि वे व्यायाम करें, पारंपरिक खिलौने बेचें, महामारी के बीच भी प्रतियोगी परीक्षा में मास्क लगाकर एग्जाम वॉरियर बन जेईई/नीट परीक्षा दें, परिसर खुलें और बच्चे तथा शिक्षक पढ़ाई-लिखाई में लगें। उत्तर प्रदेश को देखिए जहां हत्याएं या कोरोना के मामले तेजी से बढ़ते दिख रहे हैं और जातीय आधार पर सूबे में हथियारों की मालिकी की तालिकाएं बनवाए जाने की भी खबरें बार-बार आ रही हैं। भव्य राम मंदिर बनवाया जा रहा है। कहा जा रहा है रामजी भला करेंगे।
इन तमाम चुनौतियों की बजाय युवा क्षेत्रीय स्तर पर किन बातों पर उत्तेजित बताए जा रहे हैं? कि मंत्रालयीन गोष्ठियों में लिंक भाषा अंग्रेजी की जगह हिंदी को काहे लादा जा रहा है। कि गिने-चुने लोगों की नौकरशाही सिविल सेवा में इतनी बड़ी तादाद में अल्पसंख्यक लोग क्यों आ रहे हैं? कि रिया ने क्या भोले बिहारी मित्र पर बंगाल का जादू चलाया था?
शर्मनाक आपाधापी और लाल बुझक्कड़ी सलाहों से घिरे इस देश की अर्थव्यवस्था विकसित तो क्या ही होती, वह जितनी थी, उतनी भी नहीं रह पाई। ताजा सरकारी आंकड़ों के अनुसार, उसमें 23.9 फीसदी की सिकुड़न आ गई है। सबसे ज्यादा सिकुड़न निर्माण क्षेत्र में है, फिर खदान और सेवा क्षेत्रों में। गौरतलब है कि यही वे क्षेत्र हैं जिनमें सबसे अधिक रोजगार उपजते रहे हैं। कृषि क्षेत्र ने तनिक नाक रख ली है, पर 3 फीसदी से कुछ अधिक वृद्धि दर कोई बहुत उत्साहजनक नहीं कही जा सकती। मीडिया से उम्मीद थी। लेकिन वहां जो झागदार झगड़े या आक्रोश है, वह ठोस मुद्दों पर नहीं टुटपूंजिये प्रतीकों पर है। सूचनाधिकार को तो ताक पर धर दिया गया है और जरूरत हो तो भी सरकार से बेरोजगारी के सरकारी आंकड़े या प्रधानमंत्री केयर्स फंड के आंकड़े नहीं पाए जा सकते। अलबत्ता देश का सबसे लोकप्रिय नेता कौन? शिखर नेता की मोर को दाना खिलाती छवियां आज जनता का मनोबल बढ़ाएंगी कि कम करेंगी कि वैसा ही रखेंगी, इस पर राय शुमारियां हो रही हैं। उड़ता बॉलीवुड कितनी ड्रग्स लेता है? एक रुपये का दंडभर कर प्रशांत भूषण जीते हैं कि न्याय व्यवस्था? अगर प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री बन गए होते तो क्या होता? गोदी मीडिया हर चारेक सप्ताह में इसको पुष्ट करने वाले शोध-आंकड़े आपको बरबस थमाता है। पखवाड़े पहले हमने देश की आजादी की सालगिरह मनाई थी या उसकी अनौपचारिक समाप्तिका सोग?
इस बीच संसद में इस बार उठने जा रहे महत्व के मुद्दों की ज्ञानवर्धक चर्चा या कि विदेश नीति तथा सीमा सुरक्षा पर कमरे में खड़ा हाथी जिनको नहीं दिखता, वे सब कांग्रेस में तनिक भी भीतरी कलह की भनक होने पर शेष सब खबरें नेपथ्य में भेज कर उनपर ब्रेकिंग न्यूज चलवाने लगते हैं। विपक्ष, खासकर कांग्रेस, उसमें भी गांधी परिवार को लेकर योजनाबद्ध तरीके से पापशंकी बना दिए गए मीडिया में राहुल गांधी का उतरना उनके पूछे सही सवालों पर ध्यान देने की बजाय उनकी कथनशैली के पुर्जे-पुर्जे करने बैठ रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर मोदी जी की तुलना में उनकी छाप सुदूर और अपरिचित है तो एक हद तक यह स्वाभाविक है। अपनी सक्षम मां और मनमोहन सिंह जी के जमाने में वह काफी हद तक नेपथ्य में ही थे। और मीडिया ने जो अतिनाटकीयता ओढ़ ली है, उसमें उनकी गंभीर मुखमुद्रा और लगभग मास्टरी तर्ज-ए-बयां कांग्रेस के प्रतिस्पर्धी और भाषा की उस जादूगरी से फर्क है जो बरबस दर्शकों से वंस मोर निकलवाती रहती है।
फिर भी मीडिया पर सफल होने और आमजन तक अपनी खरी बात पहुंचाने के लिए शायद आज हर नेता को कुछ जरूरी बदलाव करने होंगे। पहली यह कि मातृभक्ति और बुजुर्गी का अतिरिक्त आदर उनकी जनता से खरी बात में आड़े न आए। हां, हां, बड़ों का आशीर्वाद अच्छी बात है, यह तो हम हर बरस टीवी पर प्रचारित किया जाता देखते ही रहे हैं। लेकिन सचाई यह भी है कि एक युवा नेता एक हद तक अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से जूझ कर ही राजनीति में इस्पात बनता है। नेहरू न केवल मोतीलाल जी से लड़े बल्कि उन्होंने उनको भी बदल दिया। दूसरी बात, कोई बड़ा नेता किसी दूसरे के पगचिह्नों पर पग रख कर बहुत आगे नहीं जा सकता। उसे अपनी राह खुद बनानी होती है और चट्टानें काटनी पड़ें तो वह भी करना होता है। जनमानस में नेता की शक्ल उस युवा की ही नहीं बनी रहनी चाहिए जिसने तूफानों को करीब से देखा-झेला है लेकिन हर बवंडर की हुमक कर सड़क से संसद तक सवारी नहीं की।
नेतृत्व में क्या गुण हों, न हों, यह समझने के लिए हालिया अखबारों में मरणोपरांत प्रणव मुखर्जी पर कई लेखों को पढ़ना रोचक था। कई जगह चर्चा दिखी कि यदि मनमोहन सिंह की जगह वह प्रधानमंत्री बनाए जाते तो भारत कैसा होता? मनमोहन सिंह का बतौर एक प्रधानमंत्री तथा वित्त मंत्री उजला साफ रिकॉर्ड सामने है। उनकी तुलना में प्रणव बाबू का सारा दृष्टिकोण एक काबिल ब्यूरोक्रैट का था जो विकास पर कम और सही नियम-कायदों (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स) पर अधिक ध्यान देता है। मूल बात यह है कि उनमें आधुनिक विश्व अर्थव्यवस्था की वह गहरी पकड़ नहीं थी जिसके बल पर मनमोहन सिंह देश की विकास दर 10 फीसदी बढ़ाले गए। प्रणव बाबू बहुश्रत बहुपाठी थे, पर मनमोहन सिंह उनकी तुलना में शांत, अमर्ष भाव से रहित नजर आते हैं। और भारत की परंपरा में उसके जो सबसे जनता के प्रिय और बेहतरीन शासक- कनिष्क, अशोक, अकबर और नेहरू, शास्त्रीजी या मनमोहन सिंह हैं, वे उदार हृदय, सहिष्णु और ईर्ष्यावश बदला लेने की भावना से लगभग रहित रहे।
2020 में आजाद भारत की सबसे पुरानी पार्टी में पीढ़ियों के बीच के फर्क को सामने उभरते देख भविष्य का अनुमान लगाना दिलचस्प है। लोग मानते हैं कि हमारे यहां सत्ता के लीवरों पर बूढ़े ही बहुतायत में काबिज रहे। पर यह सच नहीं है। नेहरू जी के बाद शास्त्रीजी प्रधानमंत्री बने जो 1947 तक कांग्रेस के संसदीय सचिव थे। उनके बाद (मोरारजी को निराशकर) इंदिरा जी आईं जो उनसे कहीं कम उम्र थीं। जगजीवन बाबू जब मंत्री बने कुल 38 बरस के थे, प्रणव बाबू 33 बरस के। इसलिए कांग्रेस नेतृत्व के लिए अब जरूरी काम यह है कि वह अगले बीस सालों के लिए एक ताजा नई पीढ़ी को संवारे और तैयार होने पर उसे जिम्मेदारी देने में कंजूसी न करे। बुजुर्ग नेता जो आज कांग्रेस में हैं, इसलिए कि कांग्रेसियत की उनको आदत है। पर नई पीढ़ी, नया खून तभी पार्टी की तरफ खिंचेंगे जब उनको अपने समवयसी या लगभग समवयसी वहां बहुतायत से दिखाई दें।(nvjivan)
मौसम विभाग का कहना है कि मानसून 2020 की वापसी कब होगी, यह कह पाना अभी मुश्किल है, बल्कि सितंबर के तीसरे सप्ताह में अत्याधिक बारिश हो सकती है
- DTE Staff
भारत में सितंबर में सामान्य से अधिक बारिश होने की संभावना है, हालांकि सितंबर के दूसरे सप्ताह में उत्तर पश्चिम और मध्य भारत सहित देश के अधिकांश हिस्सों में मानसून की बारिश में कमी होने की संभावना है। लेकिन 17 सितंबर के बाद इसके फिर से शुरू होने की संभावना है। मानसून की वापसी की सामान्य तिथि 17 सितंबर है।
यह जानकारी भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के महानिदेशक डॉ. एम. महापात्रा ने दी। इससे पहले केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव डॉ. एम राजीवन ने कहा, 'इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून की व्यापकता और प्रसार ने किसानों की मदद की और उत्पादन बहुत अच्छा होना चाहिए। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को भी मदद करेगा, हालांकि इस समय सटीक मात्रा का आंकलन नहीं किया जा सकता है। हम यह मूल्यांकन नहीं कर सकते कि यह अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित करेगा। डॉ. एम. राजीवन और डॉ. महापात्र यहां एक वर्चुअल संवाददाता सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे।
राजस्थान से हो सकती है वापसी
डॉ. महापात्रा ने बताया कि आईएमडी ने अपने साप्ताहिक मौसम अपडेट में उल्लेख किया है कि राजस्थान के पश्चिमी भागों से मानसून की वापसी 18 सितंबर को समाप्त होने वाले सप्ताह से शुरू हो सकती है, लेकिन हम उम्मीद कर रहे हैं कि उसी समय बंगाल के पश्चिम मध्य में कम दबाव वाला क्षेत्र विकसित हो सकता है। उन्होंने कहा कि मानसून की वापसी के समय यह शुरू हो सकता है, लेकिन हम अभी भी अध्ययन कर रहे हैं कि यह पूरी तरह कब तक वापस लौट सकता है। हम केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में 17 सितंबर और उसके बाद सामान्य बारिश की उम्मीद कर रहे हैं। हालांकि उन्होंने आगे कहा कि अगस्त की तुलना में सितंबर में बारिश की गतिविधि में गिरावट आई है और अब सामान्य से कम बारिश हुई है, अगले कुछ दिनों में फिर से बारिश होने की संभावना है क्योंकि ताजा मौसम प्रणाली विकसित हो रही है।
डॉ. महापात्रा ने विस्तार से बताया कि इस सीजन में मानसून की बारिश की विविधता इस वर्ष अधिक थी, जून में अधिक बारिश, जुलाई में कमी और अगस्त में फिर से अत्यधिक बारिश हुई। उन्होंने कहा कि सक्रिय मैडेन-जूलियन दोलन (एमजेओ), उष्णकटिबंधीय वायुमंडल में इंट्रासेन्सनल (30- से 90-दिवसीय) परिवर्तनशीलता का सबसे बड़ा कारण है।
उन्होंने कहा कि भारी बारिश की भविष्यवाणी करने में आईएमडी की सटीकता 80 प्रतिशत से अधिक हो गई है। डॉ. राजीव और डॉ. महापात्रा दोनों ने यह भी बताया कि आईएमडी ने सुपर साइक्लोन अम्फान को लेकर पहले ही बहुत सटीक भविष्यवाणी की थी और मानव जीवन तथा जानमाल के नुकसान को बचाने में मदद की। हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि पूर्वी और पश्चिमी तट चक्रवात अलग-अलग मौसम के पैटर्न हैं और कभी-कभी इन्हें पूर्वानुमान से अलग ट्रैक करना होता है। हालांकि चक्रवात निसार्ग को भी अच्छी तरह से ट्रैक किया गया था और कम दबाव वाले क्षेत्र से उसके शिखर तक पहुंचने की भविष्यवाणी की गई थी, लेकिन इसके जमीन पर टकराने के बारे में कुछ अंतर था।
भारतीय मानसून के व्यवहार पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को लेकर डॉ. राजीवन ने कहा कि इसका प्रभाव पड़ता है और आईएमडी ने इस पर बहुत काम किया है। उन्होंने कहा कि ये प्रभाव समय-समय पर अलग-अलग होते हैं और इसके बारे में कोई एकरूपता नहीं होती है।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव ने अधिक डेटा एकत्र करने और निकट भविष्य में विभिन्न मौसम की घटनाओं को लेकर पूर्वानुमान लगाने में सक्षम होने के लिए देश भर में नए और अधिक रडार स्थापित करने के प्रयासों के बारे में भी विस्तार से जानकारी दी।(downtoearth)
-एक आर्थिक समीक्षा
नरेंद्र मोदी को उनका भूत डरा रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के अपने दो ट्वीटस ने अगस्त के अंतिम दिनों से ही उन्हें परेशान कर रखा है।
मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर जून, 2012 में ट्वीट किया थाः ‘यूपीए सरकार ने पहली तिहाई में 9 साल का सबसे कम दर वाला जीडीपी विकास दर दिया है। अब तक मानसून कमजोर है। हम एक देश के तौर पर किधर जा रहे हैं?’ 2020 में तो मानसून अच्छा रहा है, फिर भी जीडीपी पिछली नौ तिमाहियों से गिर रहा है और 2020-21 की पहली तिमाही में आजादी के बाद यह दबाव सबसे अधिक है।
गुजरात के मुख्यमंत्री ने नवंबर, 2013 में फिर ट्वीट किया थाः ‘अर्थव्यवस्था संकट में है, युवा रोजगार चाहते हैं। क्षुद्र राजनीति नहीं, अर्थव्यवस्था को अधिक समय दें। चिदंबरम जी, कृपया रोजगार पर ध्यान दें।’ यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इस वक्त विपक्ष में रहते हुए पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने उस ट्वीट की याद दिलाई है और चुटकी ली है,’ मुझे माननीय प्रधानमंत्री से कुछ कहना है।
31 अगस्त को की गई इस घोषणा ने अर्थशास्त्रियों और उसी तरह उद्योगों को डरा दिया है कि भारत की जीडीपी 23.9 प्रतिशत तक सिकुड़ गई है। कई लोगों को लगता है कि यह तो किसी हॉरर फिल्म का ट्रेलर भर है और अभी तो और बुरे दिन आने वाले हैं। आखिर, केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कह ही रही हैं कि सरकार ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकती थी क्योंकि यह मंदी ‘भगवान का किया-धरा’ (एक्टऑफ गॉड) है।
कुछ ऐसी बातें भी कही जा रही हैं जिन्हें सुनना सामान्य दिनों में तो मजेदार होता लेकिन इस वक्त चुभने वाली हैं। मुख्य आर्थिक सलाहकार के.वी. सुब्रह्मण्यम ने कहा कि दूसरी और तीसरी तिमाही में विभिन्न सेक्टरों में हम अंग्रेजी के ‘वी’ अक्षर की तरह रिकवरी देखने जा रहे हैं। अर्थशास्त्र में इसका मतलब होता है- तेजी से गिरावट के बाद उतनी ही तेजी से बढ़त।
पिछले साल तक प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रहे और अब लंदन में ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट में रिसर्च और पॉलिसी के डायरेक्टर रथिन रॉय ने सुब्रह्मण्यम के बयान के बारे में पूछे जाने पर कहा कि ‘क्या उन्होंने ऐसा कहा? मुझे नहीं पता। मैं अर्थशास्त्र जानता हूं, वर्णमाला नहीं। अगर अर्थशास्त्र का मेरा ज्ञान किसी अक्षर के समान होता है, तो पहले मैं उसे समझता हूं और तब समानता के तर्क तक पहुंचता हूं। मैं इसे उलटा करने में सक्षम नहीं हूं।’
रॉय ने पिछले साल मई में ही एक टीवी इंटरव्यू में कहा था, ‘हम संरचनात्मक मंदी की ओर बढ़ रहे हैं। यह पूर्व चेतावनी है। 1991 से अर्थव्यवस्था निर्यात के आधार पर नहीं बढ़ रही है... बल्कि यह भारतीय आबादी के ऊपर के 10 करोड़ लोग क्या उपभोग कर रहे हैं, उस आधार पर बढ़ रही है।’ उन्होंने कहा कि भारत के विकास की कहानी को ‘शक्ति देने वाले’ ये 10 करोड़ उपभोक्ता स्थिर होना शुरू हो गए हैं। उनका कहना था, ‘संक्षेप में इसका मतलब है कि हम दक्षिण कोरिया नहीं होंगे। हम चीन नहीं होंगे। हम ब्राजील हो जाएंगे। हम दक्षिण अफ्रीका बन जाएंगे। हम मध्य आय वर्ग के देश हो जाएंगे जहां गरीबी में जी रहे लोगों की बड़ी संख्या होगी और हम अपराध बढ़ते देखेंगे।’ उन्होंने इससे भी अधिक अनिष्ट सूचक बात यह कही थी, ‘दुनिया के इतिहास में देशों ने मध्य आय के जाल में फंसना किसी भी तरह टाला है लेकिन एक बार इसमें फंस जाने के बाद इससे बाहर निकलने में कोई देश कभी सक्षम नहीं हुआ।’
मार्च, 2020 में अचानक लगाए गए कठोर लॉकडाउन ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर उसी किस्म का ब्रेक लगाया जिस तरह नवंबर, 2016 में नोटबंदी के बाद लगा था। एक अर्थशास्त्री ने इसे इस तरह बताया थाः यह उसी तरह है जैसी खूब तेज गति की स्पोर्ट्स कार के चक्के पर गोली दाग दी जाए। जीएसटी की अपेक्षाएं वैसे ही धूल-धुसरित हो चुकी हैं। उस पर से यह सब।
जो आंकड़े सामने आए हैं, वे और भी बुरे होते अगर कृषि क्षेत्र 3.4 प्रतिशत और सरकार का अपना उपभोग खर्च 16.4 प्रतिशत की दर से न बढ़ा होता। आखिर, खनन में 23.8 प्रतिशत, मैन्युफैक्चरिंग में 39.3, निर्माण में 50.3 और ट्रांसपोर्ट तथा कम्युनिकेशन में 47 प्रतिशत की कमी हो गई। इसी तरह वित्तीय सेवा सेक्टर में 5.3, निजी अंतिम उपभोग खर्च में दिखाए गए निजी उपभोग में 26.7 और निवेश में 47.1 प्रतिशत की कमी रही।
वैसे, जितनी कमी दिखाई जा रही है, स्थिति उससे अधिक बदतर होने की आशंका है। कई लोगों ने सवाल उठाए हैं कि ‘जब लॉकडाउन पूरी तरह था, तब अप्रैल में होटल और हॉस्पिटैलिटी की कमी सिर्फ 47 प्रतिशत किस तरह हो सकती है।’ उनका अंदेशा है कि इस सेक्टर में 80 फीसदी तक की कमी हो गई होगी। भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन का कहना है कि तिमाही आकलन लिस्टेड कॉरपोरेट के कॉरपोरेट डेटा पर आधारित होते हैं। उन्होंने कहा, ‘हमें आशंका है कि बड़ी कंपनियों की तुलना में छोटी कंपनियों ने बदतर किया होगा इसलिए हमें उस दृष्टि से एक अन्य दौर के पुनरीक्षण की अपेक्षा करनी चाहिए। दूसरा पुनरीक्षण तब होगा जब अनौपचारिक सेक्टर का डेटा आएगा और तब वृहत्तर पुनरीक्षण हो सकेगा।’
लेकिन सरकार अपने को मजबूत दिखाने की कोशिश कर रही है। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यम ने ‘भगवान के किए-धरे’ को आगे बढ़ाते हुए कहा कि महामारी ‘डेढ़ सौ साल में एक दफा आती है’ और भारत तथा दुनिया इससे गुजर रही है। उन्होंने दावा किया कि अर्थव्यवस्था की मजबूती का अच्छा संकेतक- रेलवे से माल ढुलाई, पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 95 प्रतिशत तक है। ऊर्जा खपत पिछले साल की तुलना में सिर्फ 1.9 प्रतिशत कम है और ई-वे बिल के जरिये कलेक्शन बढ़ी है। इसका मतलब, ट्रांसपोर्ट का मूवमेंट बढ़ा है। वित्त मंत्रालय में प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल ने भी आशापूर्वक कहा कि भारत एकमात्र देश है जो ब्याज दर में कटौती की हालत में है। उन्होंने संकेत दिए कि और कटौती करने पर मांग और निवेश में गति आएगी।
देशहित के खयाल से, यह उम्मीद करनी चाहिए कि उनकी बातें सही हों। वैसे तो फिलहाल अंधकार ही दिख रहा।(NAVJIVAN)
देश में खेला जा रहा है यह नाटक
देश में आज जिस तरह किसी भी विवाद में महिलाओं को घेरकर उनकी मीडिया-लिचिंग हो रही है, उस पर बहुत कुछ लिखा भी जा रहा है। आज ही इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ में इस पर संपादक सुनील कुमार का कॉलम ‘आजकल’ लिखा गया है। विख्यात फिल्मकार अशोक मिश्र से इस पर बातचीत भी आज के अखबार में जा रही है। ऐसे मौके पर सुशांत राजपूत केस में रिया चक्रवर्ती को जिस तरह घेरा जा रहा है, उससे विख्यात नाटककार विजय तेंदुलकर के एक नाटक की याद आती है। शांतता कोर्ट चालू आहे नाम का यह नाटक खामोश, अदालत जारी है, नाम से हिन्दी में भी हजारों बार खेला गया है। आज के देश के मीडिया ट्रायल के बीच इस नाटक के बारे में पढऩा जरूरी है जो कि समाज की पुरूषवादी सोच की एक तेजाबी मिसाल हैं। यहां का यह अंश हिन्दी की एक प्रमुख वेबसाईट दलल्लनटॉपडॉटकॉम के एक लेख से लिया गया है।
1968 में पहली बार इस नाटक का मंचन हुआ। और तबसे आज तक ये ये नाटक दर्शकों को विचलित करने के अपने सामर्थ्य के साथ प्रासंगिक बना हुआ है। दरअसल ये नाटक महज नाटक नहीं है। एक अकेली स्त्री की जिंदगी में समाज की किस हद तक घुसपैठ होती है और यही समाज कैसे क्रूरता की हद तक असंवेदनशील हो सकता है, इसका दस्तावेज़ है। मज़ाक में शुरू हुई एक कोर्ट की कार्यवाही कैसे एक महिला के लिए मानसिक प्रताडऩा वाला खेल बन जाती है, इसका परत दर परत खुलासा है।
नाटक में मुख्य कैरेक्टर्स के नाम हैं मिस लीला बेणारे, सामंत, सुखात्मे, पोंक्षे, काशीकर। ये सब लोग एक नाटक मंडली के सदस्य हैं। मुंबई से एक छोटे से कस्बे में नाटक करने आ पहुंचे हैं। नाटक के मंचन में अभी समय है। तब तक वक्तगुज़ारी के लिए एक झूठ-मूठ का मुकदमा खेलने का प्लान बनता है। सब राजी हो जाते हैं। मिस बेणारे को आरोपी की भूमिका मिलती है। बाकी पात्रों का चुनाव भी फ़ौरन हो जाता है। सुखात्मे वकील का काला कोट चढ़ा लेते हैं, तो काशीकर जज की कुर्सी पर काबिज़ हो जाते हैं। बाकी सब लोग गवाह वगैरह की भूमिका में घुस जाते हैं। और शुरू होता है नाटक भीतर नाटक।
लीला बेणारे पर आरोप तय होता है। भ्रूण-हत्या का आरोप। लीला बेणारे निश्चिंत है कि ये सब मज़ाक चल रहा है। उसे नहीं पता कि ये सब प्लान कर के हो रहा है। वो सब मजाक में लेती है। केस आगे बढ़ता है। गवाहियां होती है। बेणारे सारी प्रक्रिया को हंसी में उड़ाती हुई चलती है। बाकियों से ये बर्दाश्त नहीं होता। उनका ईगो हर्ट हो जाता है। वो पूरे जोश-ओ-खरोश से मिस बेणारे की व्यक्तिगत जिंदगी के परखच्चे उड़ाने में जुट जाते हैं। उसकी जिंदगी में आ चुके और नहीं आए हुए तमाम मर्दों की चर्चा खुले कोर्ट में होने लगती है। मिस बेणारे को लहूलुहान करने में हर एक शख्स बढ़-चढ़ के हिस्सा लेता है। अपनी जलन, पूर्वाग्रह को हथियार बना कर सब टूट पड़ते है उस पर। एक महिला की पर्सनल लाइफ के चौराहे पर चीथड़े उडाए जाते हैं। खुद को पाक-साफ़ ज़ाहिर करते हुए मिस बेणारे पर जो मन में आए वो इल्ज़ाम लगाए जाते हैं।
जी भर के ‘मज़े लेने के बाद’ अपनी साइड रखने के लिए मिस बेणारे को 10 सेकंड का वक़्त दिया जाता है। पूरी तरह टूट चुकी मिस बेणारे बेजान सी पड़ी रहती है। न्यायाधीश अपना जजमेंट सुनाते हैं। विवाह-संस्था की तारीफ़ करते हुए और मातृत्व के पवित्र होने की ज़रूरत पर जोर देते हुए जज साहब उसका गर्भ नष्ट करने की सज़ा सुनाते हैं।
हिला के रख देने वाले संवाद और दिमाग की नसें झिंझोड़ के रख देने वाला अभिनय इस नाटक को वहां ले गए, जहां भारतीय नाट्य जगत में इसे एवरेस्ट जैसा स्थान हासिल हो गया। अपनी कुंठा में मुब्तिला समाज किस तरह से क्रूर, झूठा, डरपोक और हिंसक होता है, इसका सबूत है ये नाटक। किसी को ध्वस्त करके विकृत सुख प्राप्त करने में ये समाज जिस हद तक सहज है, वो देख कर सिहरन होती है। विजय तेंडुलकर के लिखे और पहले सुलभा देशपांडे और बाद में रेणुका शहाणे की जुबानी सुने गए इन संवादों की बानगी देखिए।
‘मीलॉर्ड, जिंदगी एक महाभयंकर चीज है। इसे फांसी दे देनी चाहिए। जिंदगी से पूछताछ करके उसे नौकरी से निकाल देना चाहिए। इस जि़ंदगी में सिर्फ एक ही चीज़ है जो सर्वमान्य है। शरीर! ये देखिए बीसवीं सदी के सुसंस्कृत मनुष्य के अवशेष! देखिए कैसे हर एक चेहरा जंगली नजर आ रहा है। इनके होठों पर घिसे हुए सुंदर-सुंदर लफ्ज हैं। और अंदर अतृप्त वासना।’
-मुबारक
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के रक्षामंत्री राजनाथसिंह और चीन के रक्षामंत्री वेई फेंगहे की मास्को में दो घंटे बात हुई लेकिन उसका नतीजा क्या निकला ? दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े रहे। फेंगहे कहते रहे कि वे चीन की एक इंच जमीन नहीं छोड़ेंगे और यही बात भारत की जमीन के बारे में राजनाथ भी कहते रहे। दोनों एक-दूसरे पर उत्तेजना फैलाने का आरोप लगाते रहे, फिर भी दोनों सारे मामले को बातचीत से हल करने की इच्छा दोहराते रहे। क्या आपने कभी सोचा कि दोनों देशों के नेता इस मुद्दे पर खोए-खोए-से क्यों लगते हैं ? जहां तक भारत का सवाल है, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में चीन का नाम एक बार भी नहीं लिया।
उन्होंने गलवान घाटी में शहीद हुए सैनिकों को भावभीनी श्रद्धांजलि दी, उन पर हुए हमले की भर्त्सना की लेकिन साथ में यह भी कह दिया कि चीन ने हमारी सीमा में कोई घुसपैठ नहीं की और हमारी किसी चौकी पर कब्जा भी नहीं किया। तो फिर उनसे अब संसद में पूछा जाएगा कि आखिर झगड़ा किस बात का है ? उनसे प्रश्न होगा कि क्या उन्होंने अपने सैनिकों को चीन की सीमा में घुसने का आदेश दिया था ? उन्हें जो मारा गया वह तो चीनी तंबुओं में घुसने पर मारा गया था।
संसद में सरकार को स्पष्ट बताना होगा कि गलवान में हुई मुठभेड़ का सच क्या है ? क्या चीन ने गलवान घाटी में उसी तरह कब्जा कर लिया था, जैसे हमने चुशूल की टेकरियों पर कर लिया है ? चीन कह सकता है कि जैसे आप मानते हैं कि आपके कब्जे से आपने वास्तविक नियंत्रण रेखा का कोई उल्लंघन नहीं किया है, वैसे ही हमने भी गलवान घाटी में कोई सीमा नहीं लांघी है। जाहिर है कि चीन ने अप्रैल माह तक ऐसी कई जगहों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। संसद में विरोधी पूछेंगे कि चीनी जब ऐसी हरकतें कर रहे थे, तब क्या हमारी सरकार सो रही थी ? उसने तत्काल जवाबी कार्रवाई क्यों नहीं की ? हो सकता है कि कब्जे की ये कार्रवाइयां वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथवाले उन इलाकों में हुई हों, जो दोनों तरफ खाली रखे जाते हैं।
दूसरे शब्दों में दोनों देशों के बीच जो झंझट चल रहा है, वह नकली है, तात्कालिक है, आकस्मिक है और स्थानीय है। उसे अब दोनों देश बैठकर सुलझा सकते हैं। जब बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के साथ सीमा-विवादों को कुछ ले-देकर सुलझाया जा सकता है तो चीन के साथ क्यों नहीं सुलझाया जा सकता है ? यदि चीनी रक्षा मंत्री हमारे रक्षामंत्री से बार-बार मिलने का अनुरोध कर सकता है और उनसे मिलने के लिए उनके होटल में आ सकता है तो सारे विवाद को आसानी से हल भी किया जा सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विमलेंदु झा
स्थानीय लोगों की अनभिज्ञता या शासन की शिथिलता का खामियाजा भुगत रहे तथाकथित कंटेनमेंट जोन में रह रहे लोग, आज यह जानना चाहते हैं कि कंटेनमेंट जोन कितने दिनों के लिए लागू किया जाता है। स्थानीय जनप्रतिनिधि (पार्षद, सरपंच, पंच और विधायक) भी इन स्थानों से दूरी बनाकर चल रहे है, वहीं दूसरी ओर कंटेनमैंट जोन के करीब रहने वाले स्थानीय लोग भी उन स्थानों और खास कर लोगों से कन्नी काटते दिखते है। सरकारी प्रावधान के तहत अगर किसी परिवार में कोई कोरोना पॉजिटिव मरीज सामने आता है तो जिस स्थान में वह रहता है उस स्थान की सडक़ को बंद किया जाता है। वहां आवागमन की मनाही होती है, ऐसे में केवल जनप्रतिनिधि और प्रशासनिक अमला ही उस स्थान में अन्न, सब्ज़ी और आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति करने के लिए अधिकृत होते है। लेकिन अलग-अलग स्थानों से शिकायत आ रही है कि उस स्थान को कंटेनमेंट ज़ोन तो बनाया गया है, किन्तु उन्हें आवश्यक वस्तुएं मुहैया कराने के नाम पर केवल खानापूर्ति की जा रही है।
अब सवाल ये उठता है कि यह जो सील करने वाली प्रक्रिया है यह कितने दिन की होगी क्योंकि इस कंटेनमेंट जोन यानी क्षेत्र को सील करने वाली प्रक्रिया के कारण संक्रमित एवं आस पड़ोस के अन्य परिवारों का हर व्यक्ति लगभग अपने घर में कैद हो जाता है। क्षेत्र को सील कर दिए जाने के कारण वहां के रहवासियों को काफी दिन तक अपने क्षेत्र के अंतर्गत रहना पड़ता है और वे लोग काम रोजगार में भी कहीं जा नहीं पाते।
खैर! यहां हम प्रधानमंत्री जी की बात मान लेते है ‘जान है तो जहान है’ मगर सवाल ये उठता है कि लोग आर्थिक रूप से भले ही पिछड़ जाएं, लेकिन उन्हें मूलभूत आवश्यकताओं (भोजन, पानी, साफ-सफाई ‘सेनिटाइजेशन’) की पूर्ति ही अगर ना की गई तो वे किसकी शरण में जाएंगे? प्रशासनिक अधिकारी से शिकायत करने पर वे त्वरित कार्यवाही करने के नाम पर, उन कर्मचारियों को बदलने की कार्यवाही अवश्य करते है, मगर व्यवस्था तो बद से बदतर होती जाती है। ऐसी स्थिति में लोगों की जीवनशैली में काफी प्रतिकूल प्रभाव पडऩा लाजमी है, क्योंकि इस क्षेत्र के लोग अपने घर के अंदर ही खुद को कैद करके रखते हैं जो बहुत जरूरी भी है।
‘एक तो खुजली ऊपर से फोड़ा’ एक व्यंगात्मक वाक्य है, जो इन ज़ोन में लागू होता साफ दिखाई देता है, एक ओर प्रशासन की अनदेखी और दूसरी ओर पड़ोसियों की लानतों का दर्द है, जिसकी छाप शायद लंबे समय तक हमारे समाज में जरूर नजऱ आएगा। हॉलीवुड की फिल्मों में जैसे एक प्रकार के भूत दिखाए जाते है जिन्हें जोंबी कहा जाता है। ये आपके और हमारे जैसे आम लोग होते है जिनकी संक्रमण की वजह से मौत हो जाती है, लेकिन उनका मृत शरीर फिर भी चलता रहता है, और सामने आने वाले हर जिंदा आदमी का खून पीता है और उन्हें भी जोंबी बना देता है। कुछ ऐसा ही कंटेनमेंट जोन के लोगों को समझा जा रहा है।
बस्तर के बेलर गांव के कंटेनमेंट जोन में रह रहे एक निवासी से हमारी बात हुई, उन्होंने बताया कि ‘यदि इस महामारी से बचना है तो कुछ तो त्याग करना ही होगा, लेकिन सवाल यह उठता है कि यह कंटेनमेंट जोन कब से कब तक रहेगा एवं इसके परिपालन में लोगों को किस ढंग से रहना है और क्या क्या सावधानी बरतना है इस पर पूरी जानकारी नहीं दी जा रही है।’ अन्य संक्रमित मरीज ने कहा कि ‘गांव के कुछ लोग कोविड-19 के जो मरीज हैं उनसे काफी दूरी बनाकर चल रहे हैं जो कि बहुत जरूरी भी है लेकिन कुछ लोग अज्ञानता वश इस बीमारी को इतना अछूत बना दिए हैं की वह लोग उनके परछाई से तक दूरी बनाकर चल रहे हैं, मेरा अनुरोध है कि बीमारी को खत्म करे, बीमार को भूखे प्यासे खत्म ना करें।’
हम सभी जानते ही हैं कि कोरोना मरीज मानसिक रूप से काफी परेशान रहता है उसके ऊपर उसके साथ इस तरह का गलत व्यवहार यानी यह कह सकते हैं कि पूरे परिवार को मानसिक प्रताडऩा देता है। संक्रमित को बहुत ही छूत बीमारी मानकर उस मरीज का काफी अपमान भी किया जाता है जिससे उस मरीज को मानसिक ठेस पहुंचती है एवं उसे गांव के जो अच्छे लोग भी होते हैं जो कुछ लोगों के बहकावे में आकर ऐसे मरीजों का अपमान करने से भी बाज नहीं आते। ऐसी सोच रखने वालों के लिए शासन प्रशासन को चाहिए की यह स्थिति किसी के भी साथ घट सकती है इसलिए हर व्यक्ति को सभी के साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाना चाहिए, क्योंकि यह जो कोरोना महामारी है जिस तरीके से अपना पैर पसार रही है इससे लगभग सभी लोग ग्रसित होंगे ही और जो इन लोगों से गलती हो रही है जो संक्रमित लोगों के साथ बुरा व्यवहार कर रहे हैं वही स्थिति इनके साथ भी घट सकती है उस समय इन लोगों के मन में जो दर्द होगा उसका एहसास उन्हें तभी होगा जब वे खुद संक्रमित होंगे इसलिए लोगों को अपनी इस विचारधारा को बदल कर सहयोगात्मक रवैया अपनाना चाहिए।
अधिकांश लोगों को मालूम ही है की विकास खंड लोहंडीगुड़ा से दो पिता-पुत्र कोरोना पॉजिटिव पाए गए इस हेडिंग से अखबारों में एवं सोशल मीडिया में समाचार चला था मैं खुद मीडिया से जुड़ा हुआ व्यक्ति हूं और मेरे साथ मेरा लडक़ा वेदांत झा मेरा कैमरामैन लक्ष्मीधर बघेल भी मेरे ही साथ रहते हैं और हम लोग फील्ड में जाकर लोगों की समस्याओं को सामने लाकर निराकरण करने की पूरी कोशिश करते हैं एवं शासन-प्रशासन तक लोगों की समस्याओं को लेकर जाना अपना कर्तव्य समझते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश हम भी लोहंडीगुड़ा में पॉजिटिव पाए गए और हमारा इलाज जगदलपुर में किया गया मेरा यानी विमलेंदु शेखर झा का इलाज मेडिकल कॉलेज जगदलपुर में किया गया जहां से वर्तमान में मैं पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर अपने गांव बेलर में आ चुका हूं मैं दिनांक 10.08.2020 को जगदलपुर के मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुआ और उसी दिन मेरा लडक़ा वेदांत झा धरमपुरा के पीजी कॉलेज छात्रावास में अपने उपचार हेतु भर्ती हुआ। हम लोगों को पूर्ण स्वस्थ होने के बाद वहां से छुट्टी दे दी गई, जिसके बाद हमें 25 तारीख तक होम क्वारंटाइन में रहने को कहा गया था, जिसे भी हमने पूरे अनुशासन से पालन किया।
बता दें कि 10 अगस्त के बाद बेलर ग्राम पंचायत विकासखंड लोहंडीगुड़ा के खालेपारा को सील कर दिया गया सील करने की तारीख 11.08.2020 थी जो आज दिनांक 06.09.2020 तक कंटेंटमेंट ज़ोन के नाम से सील कर दिया गया है और इस क्षेत्र के लोगों को कहीं भी आने-जाने से रोक दिया गया है। आज दिनांक तक बेलर खालेपारा के लोग खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं एवं कहीं भी काम में नहीं जा पा रहे हैं। यहां तक की अपने खेत को भी देखने नहीं जा पा रहे हैं जिससे भविष्य में उनकी माली हालत पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩा स्वाभाविक है। बेलर से गुदामपारा की ओर जाने वाली सडक़ पूरी तरह सील कर दी गई है और यह बताना भी जरूरी है कि इसी मार्ग पर गांव का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, राशन की दुकान एवं पोस्ट ऑफिस भी है और यह बताना भी जरूरी है कि यह सडक़ लोहंडीगुड़ा विकासखंड और तोकापाल विकासखंड को जोडऩे वाला सबसे निकटतम सडक़ है जिसका भी खामियाजा गांव वालों को एवं दोनों विकासखंड के लोगों को भुगतना पड़ रहा है अब लोग यह चाहते हैं कि जो भी संक्रमित होगा उसके घर को ही सील किया जाए ना कि मुख्य सडक़ों को सील करके लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया जाए।
- अरुण शर्मा
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संपर्क विभाग, गुरुग्राम की तरफ से आयोजित अखंड भारत संकल्प दिवस (इसका चाहे जो भी मतलब होता हो) के उपलक्ष्य में 14 अगस्त को आयोजित वेबिनार में केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग राज्यमंत्री जनरल (रिटायर्ड) वीके सिंह ने आरोप लगाया कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी अहिंसावादी छवि को चमकाने के चक्कर में चीन को तिब्बत सौंप दिया। इससे तिब्बत से सदियों पुराने हमारे रिश्ते बिगड़ गए। इस बारे में हिंदी अखबार दैनिक जागरण की खबर के मुताबिक, अन्य बातों के अलावा उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान केंद्र सरकार चीन के सामने मजबूती के साथ अपना पक्ष रख रही है।
कुछ ही साल पहले उन्होंने जिस राजनीतिक दल में प्रवेश पायाहै, उसके कर्तव्यनिष्ठ सदस्य के तौर पर दिए गए उनके बयान पर मुझे कुछ नहीं कहना है। नेहरू की छवि को बिगाड़ने की भाजपा-आरएसएस की सत्तर साल की विफल कोशिश में वह अपनी भागीदारी कर रहे थे। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि सिंह पूर्व जनरल और भारतीय सेना के प्रमुख रहे हैं, इसलिए मुझे लगा कि वह तिब्बत के सवाल को बेहतर समझते होंगे। लेकिन सिंह के भाषण में तथ्यात्मक गलतियां थीं।
सबसे पहले, जैसा कि सिंह ने दावा किया, तिब्बत कोई आजाद देश नहीं था। इसका किसी देश के साथ राजनयिक संबंध नहीं था, वह विशेषाधिकार जिसका सभी स्वायत्त और स्वतंत्र देश उपयोग करते हैं। तिब्बत का कोई अंतरराष्ट्रीय अस्तित्व नहीं था। 1911 में चीनी सत्ता के पराभव के बाद इसने छोटा-सा वस्तुतः स्वतंत्र दर्जा हासिल कर लिया था। उस वक्त भारत में ब्रिटिश शासन था और उसने ‘औपचारिक चीनी आधित्य के अंतर्गत’ तिब्बत की वस्तुतः स्वतंत्रता की पुष्टि करने की कोशिश की। 1943 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव रखा कि दूसरे देशों के साथ राजनयिक प्रतिनिधित्व के आदान-प्रदान के तिब्बत के अधिकार की अनुशंसा की जानी चाहिए। लेकिन अमेरिकियों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दियाः ’अमेरिकी सरकार इस मत की है कि चीन सरकार ने लंबे समय से तिब्बत पर आधिपत्य का दावा किया है और चीनी संविधान चीनी गणतंत्र के क्षेत्र के घटक वाले क्षेत्रों में तिब्बत को शामिल करता है। इस सरकार ने किसी भी वक्त इन दावों को लेकर कभी भी सवाल नहीं उठाए।’ (इंडियाज चाइना वॉर में नेविले मैक्सवेल द्वारा उद्धृत, 1963)
नेहरू इस स्थिति से अवगत थे जिसे उन्होंने देश के सामने और संसद के बाहर भी बार-बार रखा। उन्होंने कहा थाः ’यह साफ था कि चीन तिब्बत पर अपनी सत्ता स्थापित करेगा। यह सैकड़ों वर्षों से चीन की नीति रही थी और अब जबकि मजबूत चीनी सरकार बन गई है, इस नीति को निस्संदेह अमल में ला दिया गया है। हम इसे किसी भी तरह नहीं रोक सकते थे और निस्संदेह हमारे पास ऐसा प्रयास करने का कोई वैधानिक औचित्य भी नहीं था। हम सिर्फ यह आशा कर सकते थे कि चीनी आधिपत्य के अंतर्गत तिब्बत को स्वायत्तता-जैसी चीज मिल जाए। (1 जुलाई, 1954 को नेहरू का मुख्यमंत्रियों को लिखा पत्र)
सिंह का यह बयान भी असत्य और भ्रामक है कि भारत ने तिब्बत में सेना की तीन कंपनियां रखी हुई थीं और जवाहरलाल नेहरू के कमजोर राजनीतिक संकल्प के कारण हम चीन के सामने खड़े नहीं हो सके। भारतीय सैन्य टुकड़ी निश्चित तौर पर तिब्बत में चीनियों के खिलाफ अपनी सुरक्षा के लिए तैनात नहीं थी। यहां यह स्पष्ट किया जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार को यातुंग और गायन्टेज में अपने व्यापार अधिकारियों को छोटे सैन्य सुरक्षा रखने का अधिकार हासिल था। उन लोगों ने अपने व्यापारिक केंद्रों में संपर्क बनाए रखने के लिए टेलीग्राफ और फोन सेवाओं की भी व्यवस्था की थी। लेकिन ये अधिकार और सुविधाएं ब्रिटेन के चीन के साथ संबंधों के तहत हासिल थे। अपने स्वभाव के अनुरूप नेहरू ने इस बारे में भी बता दिया था। उन्होंने कहा थाः यह जरूर याद किया जाना चाहिए कि ’हमने तिब्बत में कुछ खास विशेषाधिकार हासिल किए थे जिसे ब्रिटेन ने वहां हासिल किया था। इस तरह, प्रभावी तौर पर, हम पुरानी ब्रिटिश सरकार की कुछ विस्तारवादी नीतियों के उत्तराधिकारी थे। हमारे लिए इन सभी विशेषाधिकारों को बनाए रखना संभव नहीं था क्योंकि कोई स्वतंत्र राष्ट्र इस स्थिति को स्वीकार नहीं करता। इसलिए, अपने व्यापार मार्गों की सुरक्षा के लिए तिब्बत के कुछ शहरों में हमारी सेना की छोटी टुकड़ियां थीं। हम वहां इन टुकड़ियों को बनाए रखने में संभवतः सफल नहीं हो सके। हमारा अन्य विशेषाधिकार व्यापार मामलों और संचार को लेकर था।’
जनरल सिंह की एक और टिप्पणी नेहरू को लेकर कृपणता वाली है और यह चीनियों के गुस्से की कीमत पर दलाई लामा को शरण देने के भारत के नेक भाव की अनदेखी भी करती है। जनरल सिंह का कहना है कि तिब्बती क्षेत्र में चीनियों की बढ़त के दौरान तिब्बत की सुरक्षा करने में नेहरू की अनिच्छा ने उनके साथ अपने संबंधों को कमजोर किया। यह कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर सिंह की अज्ञानता ही दिखाता है। जहां तक क्षेत्रीय अधिकारों की बात है, तिब्बती भारत के मित्र कतई नहीं थे। अक्टूबर, 1947 में उन लोगों ने लद्दाख से असम तक बहुत बड़े हिस्से को वापस करने के लिए भारत को औपचारिक तौर से कहा। वैसे, चीन से बड़े खतरे को देखते हुए उन लोगों ने इस मसले पर आगे जोर नहीं दिया। फरवरी, 1951 में ल्हासा में तिब्बती प्रशासन ने यह आरोप लगाते हुए तवांग में भारत की उपस्थिति का विरोध किया कि भारत सरकार इसे ’अपने आप कब्जा कर रही है जबकि यह उसका नहीं है।’ उन्होंने कहा कि इसका उन्हें ’गहरा पछतावा है और वे इसे कतई स्वीकार नहीं कर सकते।’ इससे भी आगे बढ़कर तिब्बतियों ने तवांग से अपनी सेना तत्काल वापस बुलाने की मांग की। नेहरू की सरकार ने तिब्बत के प्रतिरोध की अनदेखी की। भारत तवांग में बना रहा और वहां से तिब्बती प्रशासन को निकाल बाहर किया। इसके साथ ही, ब्रिटिश सरकार को गहरे तक चिंतित किए रहे कथित तिब्बत क्षेत्र के ‘खतरनाक खूंटे’ को अंततः हटा दिया गया और भारत की पूर्वोत्तर सीमा के तौर पर नक्शे की जगह जमीन पर मैकमोहन रेखा को बदल दिया गया। (नेविल मैक्सवेल, इंडियाज चाइनावार, पेज 69, 73)
जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा धक्का पहुंचाया है, वह यह है कि जनरल ने गलत ढंग से दावा किया है कि 7 नवंबर, 1950 को नेहरू को लिखे पत्र में सरदार पटेल ने उन्हें चेतावनी दी थी कि चीन दस से बारह साल के अंदर भारत पर हमला करेगा, जैसा उसने अक्टूबर, 1962 में किया भी और इस तरह पटेल सही साबित हुए। शुरू से आखिर तक सरदार के इस पत्र को पढ़ने पर मैंने पाया कि इस पत्र में कहीं भी लौह पुरुष ने वैसी भविष्यवाणी नहीं की है जैसा कि जनरल सिंह उन्हें कहते हुए बताते हैं। इस चिट्ठी में अपने उत्तरी से लेकर पूर्वोत्तर क्षेत्र तक खतरे के बारे में पटेल ने नेहरू के सामने आम संशय प्रकट किया था जिसके बारे में नेहरू भी जानते थे और इस पर पूरी तवज्जो दी गई। पटेल ने कहीं भी नहीं कहा कि भारत को तिब्बत के मुद्दे पर चीन से युद्ध करना चाहिए जैसा कि कई बार अर्थ निकाला जाता है।
नेहरू सही ही समझते थे कि तिब्बत के मसले पर चीन के साथ युद्ध वैधानिक तौर पर अनौचित्यपूर्ण तो होगा ही, साथ ही यह देश के लिए आर्थिक तौर पर विनाशकारी होगा। इसीलिए उन्होंने अमेरिकी राजदूत लॉय हेंडरसन के इस अस्पष्ट संकेत की अनदेखी कि अगर वह चाहें, तो विदेश मंत्रालय उनकी मदद कर प्रसन्नता अनुभव करेगा। (नेहरू का 1 नवंबर, 1950 को विजयालक्ष्मी को लिखा पत्र) एक लेखक के अनुसार, राष्ट्रपति ट्रूमैन ने तिब्बत की रक्षा के लिए भारत को एयरक्राफ्ट भेजने का प्रस्ताव किया। कोरियाई युद्ध के दौरान चीन को भारत की तरफ से घेरना वाशिंगटन को पसंद हो सकता था; लेकिन अगर यह प्रस्ताव किया गया था, तो भारत ने इस तरह की चढ़ाई के खतरे और निष्फलता को जरूर ही देखा होगा और मनाकर दिया होगा। (नेविल मैक्सवेल, इडियाज चाइनावार, इस टिप्पणी पर पाद टिप्पणी कि क्या भारत ने तिब्बत मसले पर चीन के साथ युद्ध करने पर विचार किया था, पेज 71, 72) तिब्बत मसले पर चीन के साथ 1950 में युद्ध टालना नेहरू के सबसे चतुर निर्णयों में से एक था।
जनरल सिंह ने वेबिनार में यह भी टिप्पणी की कि वर्तमान सरकार चीनियों के खिलाफ दृढ़ता से खड़ी है और हमारे मसले को मजबूती से रख रही है। अगर वर्तमान प्रधानमंत्री 5 मई, 2020 से चीन शब्द जुबान पर लाने में भी अक्षम हैं, तो चीनियों के खिलाफ खड़े होने का क्या मतलब निकाला जा सकता है, तब पूर्व जनरल शायद सही हैं!(navjivan)
गिरीश मालवीय
आप अपने आसपास देखे तो जो दुकानें आपको प्रमुख रूप से नजर आती है उन रिटेल शॉप का धंधा अब मंदा होने वाला है। मंदी के दौर में ई कॉमर्स बहुत तेजी से पाँव पसार रहा है कल जो कैट ने अपनी रिपोर्ट में 5 महीनों में 20 प्रतिशत दुकानें बंद होने की वजह बताई है उसकी एक वजह ई कॉमर्स को भी बताया है कुछ ही दिनों में इसका सबसे बड़ा असर असर दवा की दुकानों पर पड़ेगा।
रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं ने अब सरकार की ई फार्मेसी पॉलिसी में संभावित बदलाव को देखते हुए लाखों लोगों का रोजगार छीनने को लेकर चिंता जताई है। पहले उन्होंने अमेजन को पत्र लिखा था अब वह रिलायन्स को पत्र लिख रहे हैं।
ऑल इंडिया ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन ने रिलायंस के मुकेश अंबानी को पत्र लिखकर उनके ई फार्मेसी संस्थान नेटमेड्स में निवेश को लेकर आपत्ति जताई है।
ई-फार्मेसी प्लेटफॉम्र्स के वर्किंग मॉडल से लाखों रिटेलर्स और फार्मासिस्ट की नौकरियां जा सकती हैं। उनका कारोबार बंद पड़ सकता है। इंडियन फार्मासिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष अभय कुमार कहते हैं कि ई-फार्मा प्लेटफॉर्म का जो वर्किंग मॉडल है वो फार्मासिस्ट की नौकरियों को धीरे-धीरे खत्म कर देगा।
अभय कुमार कहते हैं, ‘ई-फार्मा प्लेटफॉर्म्स अपने स्टोर, वेयरहाउस या इनवेंट्री बनाएंगे, जहां वो सीधे कंपनियों या वितरक से दवाएं लेकर स्टोर करेंगे और फिर ख़ुद वहां से दवाइयां सप्लाई करेंगे। ऐसे में जो स्थानीय केमिस्ट की दुकान है उसकी भूमिका ख़त्म हो जाएगी।’
बड़े छोटे केमिस्ट समझ गए हैं कि अब उनके धंधे पर गहरी चोट अमेजन ओर रिलायन्स दोनों ही डालने वाले है ई-फार्मा कंपनियां जिस तरह ज़्यादा डिस्काउंट देती हैं एक छोटा रिटेलर उनसे मुकाबला नहीं कर पाएगा।
जैसे इलेक्ट्रॉनिक मार्केट मोबाइल आदि को ई कामर्स वालों ने अपने कब्जे में लिया गया वैसे ही फार्मेसी भी उनके हाथ मे चला जाएगा
मोदी सरकार का रुख स्पष्ट है वह इन मेगा कंपनियों के साथ खड़ी हुई है अब जो कोरोना काल मे जो टेलीमेडिसिन को सपोर्ट देने के लिए नीतियां बनाई जा रही है वह ई फार्मेसी को मार्केट में स्टेबलिश कर देगी।
मनीष सिंह
जब चीन के फौजी अपने बूटों से भारत का सर कुचल रहे हंै, भारत की सरकार, जनता और मिडिया ने आंखें मूंद ली है। राष्ट्र की सुरक्षा पर बड़ी-बड़ी हांकने वाले रेजीम का यह सन्निपात आश्चर्यजनक है। मगर इससे ज्यादा आश्चर्यजनक, 130 करोड़ के देश की अपनी सीमाओं के अतिक्रमण से बेरुखी है।
शायद चीन ने भी न सोचा होगा, कि सब कुछ इतना आसान होगा। पिछले चालीस सालों में सीमा पर उसके एडवेंचर्स को माकूल जवाब मिलता रहा है। चीन की पहलकदमी की पहली खबर आते ही हर नागरिक का मनोमस्तिष्क उसकी ओर घूम जाता था। आज वह किलोमीटर फांदते हुए घुसा चला आ रहा है, और हम उसे चरागाह में घुस आए बैल से ज्यादा महत्व नही दे रहे।
हां अगर कभी कोई बहस है, तो वो यह कि 1962 में हमने कितनी जमीन खोई, 1947 में क्या खोया, या उसके पहले क्या-क्या खोया। सच्चे-झूठे किस्से सुनाए जा रहे हैं, गोया चीन जैसे आक्रांता का आना, और हिंदुस्तान की जमीन का जाना, हर दौर की एक सामान्य परिघटना है। जाहिर है कि हर सरकार, हर नेता तो चीन को जमीन खोता ही रहा है। मायने ये, कि यह सरकार, यह नेता भी अपने हिस्से की जमीन खो रहा है, तो इसमे कौन सी अचरज की बात है।
गाहे-बगाहे, चीनी फौजियों को मार डालने और उनकी नकली कब्रों की फोटो जरूर फ्लैश होते हंै। कुल जमा पांच रफेल की तस्वीरों और बमो धमाकों के पुराने फुटेज का रिपीट टेलीकास्ट भी है। मगर व्यापक रूप से देश की सुरक्षा के मुद्दे पर इतनी अरुचि सत्तर साल में नहीं देखी गई।
चीन की नीति, विस्तारवादी रही है। पर इस बार वह एक लोकलाइज्ड बखेड़ा नहीं कर रहा, वह कश्मीर से अरुणाचल और भूटान तक नए दावे कर रहा है। 1962 के बाद का सबसे बड़ा सैनिक जमावड़ा किया है। युद्ध की ताल ठोक रहा है, नए इलाकों में घुस चुका है।
तो क्यों दुनिया के पांचवें सबसे बड़े परमाणु जखीरे पर बैठे देश की सीमाओं के साथ सीमा विवाद ताकत के बूते निपटाने के लिए में, यह वक्त मुकर्रर किया। क्या सोचा होगा, क्या आकलन किया होगा? दरअसल उसे मालूम है, यह वक्त पिछले 40 साल में सबसे ज्यादा माकूल है।
बुरी तरह विभाजित, बेपरवाह यह देश अपने आंतरिक, मानसिक युद्दों में रत है। यह निरंतर छायायुद्धों में उलझा है। कहीं गलियों में, कहीं खाने की मेज पर। कहीं भाषणों में, कहीं टीवी पर। अपने आसपास, घरों, मित्रों सहपाठियों, सहकर्मियों के बीच गद्दारों और देशद्रोहियों की खोज करना।
किसी शहर का नाम बदलकर, कहीं इतिहास की किताबों में विजेताओं के नाम बदलकर। कहीं पड़ोस के मोहल्ले में धार्मिक नारेबाजी कर, कहीं युवाओं के हाथों में आदिम हथियार टिकाकर, कहीं किसी को गाली देकर। यह देश सात सालों से लगातार युद्ध लड़ रहा है। यह युद्धों से थका हुआ देश है।
हर शाम उसे पता चलता है कि वह आज की लड़ाई जीत चुका है। हां, मगर कल एक नई लड़ाई है, एक नया मुद्दा है। किसी को न्याय दिलाना, किसी को डिसलाइक करना, कुछ ट्रेंड करना, एक झूठ का फैलाव करना, फिर झूठ का बचाव करना और फिर इस नई लड़ाई को भी जीत जाना। यह जीतों से थका हुआ देश है।
नीम-नशे में दीवार से पीठ चिपकाए भारत, बंद आंखों से अपने मस्तिष्क की कंदराओं में लड़ाई-जीत-लड़ाई-जीत-लड़ाई-जीत की छवियों में डूबा है। उसे वो लपटें महसूस नहीं होती, जो उसके घर में लगी आग से निकल रहे हैं। वह मस्त है, अपने नशे, हैलुसिनेशन में.. गहरे नशे में डूबा, परछाइयों से लड़ता यह नया भारत है। यह भारत होश में नहीं है।
इसलिए चीन के लिए यह माकूल वक्त है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल मास्को में रक्षामंत्री की बातचीत चीन के रक्षा मंत्री वी फंगहे के साथ हुई। अगले हफ्ते दोनों देशों के विदेश मंत्री मिलकर बात करनेवाले हैं। पहले भी फोन पर उनकी बात हुई है। पिछले पांच दिनों से दोनों देशों के फौजी अफसर भी चुशूल में बैठकर बात कर रहे हैं। बातचीत के लिए चीन की तरफ से पहल हुई है, इससे क्या साबित होता है ? एक, तो यह कि भारत ने पेंगांग झील के दक्षिण में पहाडिय़ों पर जो कब्जा किया है, उससे चीन को पता चल गया है कि उसी की तरह भारत भी जवाबी कार्रवाई कर सकता है। दूसरा, आजकल अमेरिका चीन से इतना गुस्साया हुआ है कि उसके विदेश और रक्षा मंत्री लगभग रोज़ ही उसके खिलाफ बयान दे रहे हैं। इन बयानों में वे लद्दाख में हुई चीनी विस्तारवाद की हरकत का जिक्र जरुर करते हैं। तीसरा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान और भारत का जो चौगुटा बना है, वह अब सामरिक दृष्टि से भी सक्रिय हो रहा है।
चीन के लिए यह कई दृष्टियों से नुकसानदेह है। चौथा, भारत ने गलवान-घाटी हत्याकांड की वजह से चीनी माल, एप्स और कई समझौतों का बहिष्कार कर दिया है। भारत की देखादेखी अमेरिका और यूरोप के भी कुछ राष्ट्र इसी तरह का कदम उठाने जा रहे हैं। वे चीन में लगी अपनी पूंजी भी वापस खींच रहे हैं। दूसरे शब्दों में कोरोना और गलवान, ये दोनों मिलकर चीन की खाल उतरवा सकते हैं। इसीलिए चीन अब अपनी अकड़ छोडक़र बातचीत की मुद्रा धारण कर रहा है, हालांकि भारतीय सेना-प्रमुख ने लद्दाख का दौरा करने के बाद कहा है कि सीमांत की स्थिति बहुत नाजुक और गंभीर है। इस मामले में मेरी राय यह है कि दोनों तरफ से अब प्रयत्न यह होना चाहिए कि वे किसी भी नए क्षेत्र पर कब्जा करने की कोशिश न करें और वे बात सिर्फ गलवान घाटी के आस-पास की ही न करें बल्कि 3500 किमी की संपूर्ण वास्तविक नियंत्रण रेखा को स्पष्ट रुप से चिन्हित और निर्धारित करने की बात करें। यह बात तभी हो सकती है जबकि नरेंद्र मोदी और शी चिन फिंग, दोनों इसे हरी झंडी दे दें। ऐसी क्या बात है कि दोनों में बात नहीं हो रही ? यह नियंत्रण रेखा इतनी अवास्तविक है कि हर साल इसे हमारे और चीनी सैनिक 300 या 400 बार लांघ जाते हैं। पिछले कई दशकों से इस अपरिभाषित सीमा पर जैसी शांति बनी हुई थी, उसका उदाहरण मैं अपनी मुलाकातों में हमेशा पाकिस्तानी राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और सेनापतियों को देता रहा हूं। हमें किसी भी महाशक्ति के उकसावे में आकर कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए, जिससे परमाणुसंपन्न पड़ौसी आपस में भिड़ जाएं।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-बादल सरोज
लड़कियां हमेशा लड़कियां ही रहती हैं।
वे कभी बड़ी नहीं होती। उनकी उम्र बच्ची से किशोर, युवती से माँ, पत्नी से नानी और दादी होते हुए अंकों का जोड़ भर बढ़ाती रहती है-वे हमेशा लडक़ी ही बनी रहती हैं ।
-‘घोड़ी की घोड़ी हो गई है दुष्ट, जाने कब बड़ी होगी’ की फटकार सुनते ही
-किशोरी हुई लडक़ी चुपके से अपनी चुन्नी के धागों में छुपा लेती है अपने अंदर की लडक़ी-
-स्वेटर के फंदों में बुन लेती है कभी तो नीम के पत्तों के साथ बक्से में रख दी गई रजाई की रूई के बीच धर देती है सम्हाल कर।
-रसोई में, बिस्तर में, कॉलेज में दफ्तर में, खेतों में, सडक़ों पर; रोते में हँसते में, सोते में जगते में; चौबीसों घंटे अपने साथ रखती है।
-तपाक से इमली के पेड़ पर चढक़र, छाँटकर, सिर्फ काम लायक इमली तोड़, माली के आने से पहले फटाक से नीचे उतरकर हाथ पीछे कर मुंह पर ब्रह्मांड के सबसे भोले प्राणी के भाव सजा लेने वाली नटखट लडक़ी-विदा होते समय अपनी आंखों के जब्त किए आंसुओं में सहेज कर ले जाती है वह उसे, नहलाती-सुलाती है हमेशा अपने साथ-खेलती है उसके साथ, रस्सी कूदती है; रास्ते से गुजरते हुए आंखों ही आंखों में नापती है सडक़ किनारे खड़े इमली और कैरी के पेड़ की ऊंचाई-एक विजयी आश्वस्त मुस्कान के साथ।
-कुल्फी और आइसक्रीम खाने पर अक्सर डांटने वाली माँ-नानी-दादी के भीतर की नटखट लडक़ी मौका मिलते ही बाहर आ जाती है और पूरी उमंग के साथ जीती है अपना बचपन! चुस्की लगाते, आवाज करके आइसक्रीम खाते हुए।
-लड़कियां हमेशा लड़कियां रहती हैं। वे कभी बड़ी नहीं होती, उस तरह तो कतई नहीं जिस तरह लडक़े बड़े होते हैं।
- ज़फ़र आग़ा
‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम’! उर्दू भाषा की इस मिसाल का अर्थ कुछ यूं है कि न तो ईश्वर ही मिला और न ही इस दुनिया का आनंद प्राप्त हुआ। इन दिनों देश की स्थिति कुछ ऐसी ही है। क्योंकि इस लेख को लिखते समय मेरे सामने जो समाचारपत्र हैं, उनमें दो मोटी-मोटी सुर्खियां हैं। पहली सुर्खी के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में भारतीय अर्थव्यवस्था 23.9 प्रतिशत घट गई।
ऐसा भारत के सांख्यिकीय (स्टैस्टिकल) इतिहास में पहली बार हुआ है। नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उनके अनुसार, इमारतों का काम 50.3 प्रतिशत घटा है। कारखानों के कामकाज में 39.3 प्रतिशत की गिरावट आई है। खरीद-फरोख्त, होटल इंडस्ट्री- जैसे अन्य सेवा क्षेत्रों में 47.9 प्रतिशत की गिरावट है। केवल एक खेती-बाड़ी का काम ऐसा है, जिसमें 3.4 प्रतिशत की उन्नति है।
ये तो मोटे-मोटे आंकड़े हैं जिन्हें अर्थशास्त्री ही भली-भांति समझ सकते हैं। परंतु हम और आप जैसा आम व्यक्ति सरकारी आंकड़ों के आधार पर मोटा-मोटी यह कह सकता है कि पिछले तीन माह में शहर आर्थिक तौर पर डूब गए। केवल गांव-देहात में खेती-बाड़ी के कुछ काम से जीवन चल रहा है। अब सवाल यह है कि यह हुआ क्यों! सीधा उत्तर यह है कि मार्च से अब तक कोरोना महामारी को रोकने के लिए सरकार ने लगभग जून तक जैसा कठोर लॉकडाउन लगाया कि उसने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी।
अब दूसरा प्रश्न यह है कि कोरोना महामारी का हाल क्या है? तो उसकी स्थिति, समाचारपत्रों की दूसरी सुर्खी के अनुसार, यह है कि केवल अगस्त के महीने में लगभग बीस लाख भारतीय इस बीमारी की चपेट में आए जो दुनिया भर में एक रिकॉर्ड है। बात अब समझ में आई- ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम!’
अर्थात न तो महामारी का प्रकोप कम हुआ और न ही अर्थव्यवस्था संभल सकी, यानी दीन से भी गए और दुनिया से भी गए। लब्बोलुआब यह है कि एक आम भारतीय के लिए अब केवल एक रास्ता बचा है। वह केवल मौत का रास्ता है, क्योंकि एक आदमी या तो कोरोना की चपेट से मर सकता है या फिर अर्थव्यवस्था के जंजाल में फंसकर भूख से मर सकता है। अगर बच गया तो भगवान की कृपा से!
आखिर, इस भारतवर्ष को यह हो क्या रहा है! छह वर्ष पहले मोदी जी के सत्ता में पधारने से पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था संसार की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। भारत दुनिया का एक विशालतम मार्केट था, जिस पर संसार की निगाह थी। अब भारत का 12 करोड़ युवा सरकारी आंकड़ों के हिसाब से पिछले तीन माह में बेरोजगार हो चुका है। वह परेशानी से घबराकर नाउम्मीद होता जा रहा है और रोज आत्महत्या की खबरें आ रही हैं।
क्या यही मोदी जी का ‘न्यू इंडिया’ है जिसमें देशवासी या तो महामारी का शिकार हो अथवा बेरोजगारी और भूख का शिकार होकर आत्महत्या कर ले। खरी बात तो यह है कि मोदी के ‘न्यू इंडिया’ का यही अंजाम होना था, क्योंकि इसकी नींव घृणा पर आधारित है। इसमें अंग्रेजों की बांटो और राज करो की रणनीति के अनुसार, जनता को हर रोज हिंदू-मुस्लिम घृणा की अफीम तो पिलाई जा रही है, परंतु उनको रोजगार देना तो दूर, उलटा उनसे रोजगार छीना जा रहा है। एक ओर देश में भुखमरी फैल रही है, दूसरी ओर देश में लूट मची है।
अभी पिछले सप्ताह जीएसटी काउंसिल की बैठक हुई। इस बैठक में यह राज खुला कि केंद्र सरकार को राज्य सरकारों का जीएसटी का पैसा देना था, लेकिन केंद्र ने वह पैसा दिया ही नहीं। कई राज्य सरकारें ऐसी हैं जो अपने कर्मचारियों को वेतन देने तक में असमर्थ हैं। स्थिति यह है कि केंद्र सरकार पीढ़ियों की दौलत, यानी सरकारी कंपनियों को बेच-बेच कर खर्चा चला रही है। सरकार जो चाहे बेचे, जहां का माल चाहे लूटे, बैंकों में जमा जनता की गाढ़ी कमाई को पूंजीपतियों को लोन देकर डुबो दे। और जनता! उसके लिए कुछ भी नहीं। तब ही तो अर्थव्यवस्था का यह हाल है कि तीन माह में लगभग 24 प्रतिशत की घटोतरी।
परंतु दूसरी ओर एक अजीब स्थिति है जो हर किसी की समझ से बाहर है। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के खिलाफ घोर आक्रोश होना चाहिए था। परंतु भारत की सड़कों पर शांति है। कहीं कोई धरना-प्रदर्शन ही नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि टीवी मीडिया के माध्यम से लोगों को ऐसी अफीम पिलाई जा रही है कि आम आदमी अपनी समस्याएं भूलकर टीवी पर चलने वाले एक घंटे के ‘सोप ओपेरा’ के जंजाल में फंसकर सब कुछ भूला हआ है।
साहब, इन दिनों सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को एक ‘सोप ओपेरा’ बना दिया गया है। ‘रिपब्लिक टीवी’ और ‘इंडिया टुडे टीवी’ पर हर रोज एक ‘एपिसोड’ आता है जिसके जंजाल में रोज हर व्यक्ति फंसा रहता है। फिल्म जगत आम आदमी के लिए सदा से रहस्मय दुनिया रही है। बॉलीवुड की चमक-दमक, दौलत एवं शोहरत से हर व्यक्ति प्रभावित रहता है। हर किसी को यह जल्दी समझ में नहीं आता कि वह जगत जहां दौलत और हुस्न- दो सबसे बड़ी मानव कमजोरियों की बारिश होती है, आखिर वह जगत चलता कैसे है।
हर किसी को यह जानने की जिज्ञासा होती है कि बॉलीवुड में क्या हो रहा है? क्योंकि एक आम व्यक्ति को न ही वह दौलत, न ही वह शोहरत, न ही वह हुस्न नसीब होता है जो बॉलीवुड में हर समय दिखाई पड़ता है। ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक है कि साधारण व्यक्ति के मन में इस फिल्म जगत के प्रति केवल जिज्ञासा ही नहीं अपित ईर्ष्या का भी दबा-दबा-सा भाव होता ही है।
भारतीय टीवी ने सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को बॉलीवुड एपिसोड बना दिया है। संपूर्ण बॉलीवुड को अब सेक्स, ड्रग्स, षडयंत्र और हर गंदी प्रवृत्ति का भंडार बना दिया गया है। इस समय इस जगत का हीरो सुशांत सिंह राजपूत है और रिया चक्रवर्ती उसकी विलेन है। रोज टीवी पर इस कथा को एपिसोड-दर-एपिसोड ऐसे पेश किया जा रहा है कि सारे भारत की रुचि उसी में लगी है। जनता को यह होश ही नहीं है कि वह कोरोना महामारी और तबाह होती अर्थव्यवस्था के विकट जंजाल में फंसी है।
अर्नब गोस्वामी-जैसा माहिर एंकर जनता के मन में भरे आक्रोश को उसकी चरम सीमा पर ले जाता है। फिर, अपनी डांट-फटकार से रोज किसी विलेन का वध कर जनता के आक्रोश की तृप्ति जिसको अंग्रेजी में ‘कैर्थासिस’ कहते हैं, वह करवा देता है। और इस प्रकार टीवी के माध्यम से जनता का मन रोज हल्का कर दिया जाता है।
अर्थात आप टीवी पर जो पागलपन और चिल्लाना-फटकारना देखते हैं, वह कोई पागलपन नहीं, अपितु एक सोची-समझी रणनीति है, जिसका उद्दे्श्य रोज एक झूठे शत्रु का वध कर जनता में वास्तविक समस्याओं के प्रति होने वाले आक्रोश को उबाल तक पहुंचने से रोकना होता है। एक वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका फोन पर मुझसे पूछती हैं कि यह क्या पागलपन है? आखिर, हम कैसी दुनिया में जी रहे हैं।
निःसंदेह यह एक समझदार व्यक्ति के लिए पागलपन ही होना चाहिए। परंतु नरेंद्र मोदी जिस ‘न्यू इंडिया’ का निर्माण कर रहे हैं, उसमें घृणा ही घृणा है, रोज किसी शत्रु की हत्या है। वह ‘मॉब लिंचिंग’ भी हो सकती है अथवा ‘टीवी लिंचिंग’ भी हो सकती है, ताकि एक साधारण भारतीय अपनी आर्थिक और सामाजिक दुर्दशा को भूलकर अपने झूठे-मूठे शत्रु के वध का आनंद लेता रहे और सरकार मजे से देश का खजाना लूटती रहे। निःसंदेह यह पागलपन है परंतु यह सफल है जिसके शिकार हम और आप सब हैं। परंतु जब तक मोदी हैं, तब तक यही पागलपन रहेगा। और सफल भी रहेगा।(navjivan)
- रेहान फ़ज़ल
बात 19 नवंबर, 1962 की है. अचानक दोपहर में शिलॉन्ग के डॉन बॉस्को स्कूल में भारतीय सैनिकों का एक दस्ता पहुंचा और उसने वहाँ पढ़ रहे चीनी मूल के छात्रों को एक जगह जमा करना शुरू कर दिया. उनमें से एक थे- सोलह साल के यिंग शैंग वॉन्ग.
अगले दिन शाम को साढ़े चार बजे भारतीय सिपाहियों के एक दस्ते ने शिंग के घर के दरवाज़े पर दस्तक दी. उन्होंने परिवार को अपने साथ चलने को कहा. सिपाहियों ने शिंग के पिता से कहा कि आप अपने साथ कुछ सामान और पैसे रख लीजिए.
उस दिन यिंग शैंग वॉन्ग के पूरे परिवार को, जिसमें उनके माता-पिता, चार भाई और जुड़वां बहनें थीं, हिरासत में ले लिया गया. उन्हें शिलॉन्ग जेल ले जाया गया.
इतिहास की इस घटना पर 'द देवली वालाज़' नाम के किताब के लेखक दिलीप डिसूज़ा बताते हैं, "1962 में भारत और चीन के बीच लड़ाई हुई थी. तब भारत में रह रहे चीनी मूल के लोगों को शक़ की निगाह से देखा जाने लगा था. इनमें से अधिकतर वो लोग थे जो भारत में पीढ़ियों से रहे थे और सिर्फ़ भारतीय भाषा बोलते थे."
"भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 'डिफ़ेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट' पर हस्ताक्षर किए थे जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को दुश्मन देश के मूल का होने के संदेह पर गिरफ़्तार किया जा सकता था."
"इससे पहले 1942 में अमरीका ने भी पर्ल हार्बर हमले के बाद वहाँ रह रहे क़रीब एक लाख जापानियों को इसी तरह हिरासत में ले लिया गया था."

दिलीप डिसूज़ा
गिरफ़्तार लोगों को एक विशेष ट्रेन में चढ़ाया गया
वॉन्ग परिवार को चार दिन शिलॉन्ग जेल में रखने के बाद गुवाहाटी जेल भेज दिया गया था. वहाँ पाँच दिन बिताने के बाद उन्हें रेलवे स्टेशन ले जाया गया.
वहाँ एक ट्रेन उनका इंतज़ार कर रही थी. ये ट्रेन माकुम स्टेशन से शुरू हुई थी. उस ट्रेन में हिरासत में लिए गए सैकड़ों चीनी मूल के लोगों में 'द देवली वाला' पुस्तक की सह-लेखिका जॉय मा की माँ एफ़ा मा भी थीं.
एफ़ा मा बताती हैं, "इस यात्रा के दौरान हर यात्री को ढाई रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के हिसाब से भत्ता दिया गया था. बच्चों को सवा रुपए प्रतिदिन के हिसाब से पैसे मिलते थे. दोपहर के आसपास ट्रेन रवाना हुई थी और तीन दिनों का सफ़र तय करती हुई राजस्थान में कोटा ज़िले के पास देवली पहुंची थी."
"हमारे साथ सिलिगुड़ी पुलिस के आठ जवान भी चल रहे थे. उन्होंने हमें आगाह किया कि हम न तो डिब्बे के दरवाज़े के पास जाएं और न ही प्लेटफ़ॉर्म पर उतरें. कुछ ही समय में हमें इसका कारण समझ में आ गया. कुछ स्टेशनों पर जैसे ही ट्रेन रुकती, हमारे ऊपर गोबर फेंका जाता."

जॉय मा
ट्रेन पर लिखा गया एनिमी ट्रेन
यिंग शैंग वॉन्ग बताते हैं, "एक स्टेशन पर करीब डेढ़ सौ से दो सौ ग्रामीण जमा हो गए. उनके हाथों में चप्पलें थीं और वो 'चीनी वापस जाओ' के नारे लगा रहे थे. उन्होंने हमारी ट्रेन पर चप्पलों के साथ पत्थर फेंकने शुरू कर दिए."
"हमने दौड़कर अपने डिब्बों की खिड़कियाँ बंद कीं. हम सोच रहे थे कि भीड़ को कैसे पता चला कि इस ट्रेन में चीनी लोग हैं? बाद में मालूम हुआ कि इस ट्रेन के बाहर 'एनिमी ट्रेन' लिखा हुआ था."
इस घटना के बाद से ट्रेन स्टेशन से थोड़ा पहले रुकने लगी ताकि ट्रेन में सफ़र कर रहे लोगों के लिए खाना बनाया जा सके.
इस घटना पर एक और किताब 'डुइंग टाइम विद नेहरू' लिखने वाली यिन मार्श लिखती है, "मेरे पिता का मानना था कि हर स्टेशन पर ट्रेन के रुकने की वजह थी कि भारत सरकार अपने नागरिकों को दिखा सके कि वो चीनियों को भारत पर हमला करने की सज़ा देकर उन्हें जेल में भेज रही है."
मार्श आगे लिखती हैं, "शाम को मेरे पिता ट्रेन अटेंडेंट से कुछ परांठे ले आए. हम और परांठे खाना चाहते थे लेकिन उन पर राशन था और हम सबके हिस्से में सिर्फ़ एक-एक परांठा ही आया. फिर हमें चाय दी गई लेकिन उसका स्वाद इतना ख़राब था कि हमने उसे बिना पिए ही छोड़ दिया."

कड़ी ठंड में बिना गर्म कपड़ों के रात बिताई
तीन दिन चलकर रात में ट्रेन देवली पहुंची. प्रशासन ने कैंप के बाहर एक मेज़ लगा रखी थी जहाँ हर व्यक्ति का विवरण लिखा जा रहा था कि उनके पास कितनी नकद राशि या सोना है.
सब कैदियों को संख्या और आइडेंटिटी कार्ड दिए गए. उनको पीने के लिए चाय और ब्रेड दी गई लेकिन ब्रेड इतनी सख्त थी कि उसे चाय में डुबोकर ही खाया जा सकता था.
दिलीप डिसूज़ा बताते हैं कि "वहाँ सैनिक टेंट लगाए गए थे. वो नवंबर का महीना था. वहाँ रहने वाले कैदी जाड़े में काँप रहे थे. उनके पास कोई गर्म कपड़े नहीं थे."
"चलते समय उनसे कहा कहा गया था कि वो अपने साथ सिर्फ़ एक जोड़ा कपड़ा ही ले कर चलें. वो बुरी तरह थके हुए थे इसलिए सर्दी के बावजूद उनकी आँख लग गई. तभी आधी रात के क़रीब औरतों की आवाज़ सुनाई दी- 'साँप ! साँप !' सारे लोग जागकर बैठ गए."

देवली कैम्प में बनाए गए किऊ पाओ चेन और उनकी मां अन्तेरी के पहचान पत्र. दोनों पहचान पत्रों में नाम की स्पेलिंग ग़लत लिखी गई है.
अधपका चावल और जली सब्ज़ियाँ
इस कैंप में खाना बनाने का ठेका बाहरी लोगों को दिया गया था. उन्हें इतने लोगों का खाना बनाने को कोई अनुभव नहीं था. शुरू में कैदियों को आधा पका चावल और जली हुई सब्ज़ियाँ परोसी गईं.
ये सिलसिला करीब दो महीनों तक चला. बाद में जब लोग नाराज़ होने लगे तो कमांडेंट ने हर परिवार को राशन देने की व्यवस्था शुरू की और उनसे कहा गया कि वो अपना खाना खुद बनाएं.
साप्ताहिक राशन में कभी-कभी अंडे, मछली और माँस भी दिया जाता था. 'द देवली वालाज़' पुस्तक की सह-लेखिका जॉय मा बताती हैं, "हर व्यक्ति को हर माह पाँच रुपए दिए जाते थे जिन्हें वो साबुन, टूथपेस्ट और निजी सामान लेने के लिए ख़र्च कर सकते थे. कुछ परिवार वो पैसा भी बचाते थे क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि भविष्य में उनके साथ क्या होने वाला है."
यिन शेंग वॉन्ग कहते हैं कि "दिन तो किसी तरह बीत जाता था लेकिन मुझसे रात काटे नहीं कटती थी. मैं अँधेरे में बिस्तर पर लेटे आसमान की तरफ़ देखा करता था लेकिन नींद आने का नाम ही नहीं लेती थी. मैं सिर्फ़ ये सोचा करता था कि मैं यहाँ से कब छूटकर अपने घर जाऊंगा."

अख़बारों में छेद
यिन शेंग वॉन्ग आगे बताते हैं, "गर्मी से बचने के लिए मैं और मेरे दोस्त खिड़कियों और दरवाज़ों पर बोरियों को गीला कर टाँग देते थे जिससे कमरे में अँधेरा और थोड़ी ठंडक हो जाए. वहाँ एक चीज़ की कोई कमी नहीं थी- पानी की. बोरियों को गीला कर हमें लगता था कि हम अपने जीवन को बेहतर करने के लिए कुछ तो कर रहे हैं."
कैंप में मनोरंजन का एक ही साधन हुआ करता था- हिंदी फ़िल्मों का प्रदर्शन. वहां हिंदी फ़िल्में दिखाने के लिए मैदान में स्क्रीन लगाई जाती थी और कैदी अपने कमरों से चारपाई खींच लाते थे और उन पर बैठकर फ़िल्म देखते थे.
जॉय बताती हैं, "रिक्रिएशन रूम में अख़बार तो आते थे लेकिन उनमें छेद होते थे, क्योंकि चीन से संबंधित और राजनीतिक ख़बरों को काटकर अख़बार से अलग कर दिया जाता था. हम लोग पोस्टकार्ड पर अंग्रेज़ी में पत्र लिखा करते थे. हमें पता चला था कि लिफ़ाफ़े में भेजे गए पत्र देर से पहुंचते थे क्योंकि उन्हें सेंसर करने के लिए दिल्ली भेजा जाता था."

2010 में ली गई इस तस्वीर में देवली में बने बैरक कुछ ऐसे दिखे
बूढ़े ऊँट का माँस परोसा
देवली कैंप में रहने वाले एक और बंदी स्टीवेन वैन बताते हैं, "अधिकारियों ने कैंप में रहने वाले लोगों को न तो कोई बर्तन दिए और न ही मग या चम्मच. हम लोग या तो बिस्कुट के टीन के डिब्बों में अपना खाना खाते थे या पत्तों पर."
"हमें ये देख कर बहुत धक्का पहुंचा कि रसोइए चावल को बिना धोए सीधे बोरी से पतीलों में उबालने के लिए डालते थे. चूँकि बहुत सारे लोगों के लिए खाना बनता था, इसलिए अक्सर या तो वो आधा पकता था या जल जाता था".
यिम मार्श लिखती हैं "चूंकि लोग लाइनों में खड़े होकर अपने खाने का बेसब्री से इंतज़ार करते थे, इसलिए रसोइए समय से पहले ही चूल्हे से खाना उतार लेते थे. कई बार तो हम खाना लेने के बाद दोबारा उसे उबालते थे."
"एक बार हमें राशन में मीट करी मिली. लेकिन वो माँस इतना कड़ा था कि हमें लगा कि हम पुराना चमड़ा खा रहे हैं. बाद में हमें ये जानकर बहुत धक्का लगा कि हमें बूढ़े ऊँट का माँस खिला दिया गया था. जब हमने इसका विरोध किया उसके बाद से हमें ऊँट का माँस परोसा जाना बंद हो गया."

चीनी सरकार ने कैम्प में रहने वालों की मदद के लिए जो सामान भेजा था उनमें ये मग भी था.
देवली कैंप में रहने वाले एक और शख़्स माइकेल चेंग बताते हैं, "मैं कैंप में मिलने वाले खाने का स्वाद कभी नहीं भूल सकता, क्योंकि वो लोग खाने में सरसों के तेल का इस्तेमाल करते थे. अब भी जब मैं अपने किसी दोस्त के यहाँ खाने पर जाता हूँ और उनके यहाँ सरसों के तेल के इस्तेमाल होता है तो मुझे देवली कैंप में बिताए अपने दिनों की याद आ जाती है."
"जब हम अपना खाना खुद बनाने लगे तो मैं दूर जाकर लकड़ियाँ चुनकर लाता था. लेकिन कुछ दिनों में वहाँ की सारी लकड़ियाँ ख़त्म हो गई थीं. फिर हम पेड़ों की जड़ों को ईंधन के लिए लाने लगे. हम अपनी गुलेल से कई पक्षी भी मारते थे ताकि हम उन्हें खा सकें."

दार्जीलिंग में ली गई इस तस्वीर में किऊ पाओ चेन अपने दादा के साथ हैं.
बर्तन माँजने से त्वचा हुई ख़राब
मार्श यिन लिखती हैं, "मेरे घर वालों ने मुझे बर्तन माँजने की ज़िम्मेदारी दी थी लेकिन हमारे पास बर्तन माँजने के लिए कोई साबुन नहीं था. मैंने भारतीय फ़िल्मों में ग्रामीण औरतों को राख से बर्तन माँजते देखा था. मैंने भी वही तरीका अपनाया और मेरे बर्तन चमकने लगे."
"लेकिन जब बाद में मुझे कैंप से छोड़ा गया तो मेरे हाथ की त्वचा ख़राब हो गई. मेरे हाथों से मेरी खाल इस तरह गिरने लगी जैसे प्याज़ के छिलके गिरते हैं. कई सालों के इलाज के बाद मेरी ये बीमारी ठीक हुई."
लाल बहादुर शास्त्री का देवली कैंप दौरा
शौचालयों में कोई छत नहीं होती थी और कई बार उन्हें बरसते पानी के बीच वहाँ जाना पड़ता था. रोज़ नाश्ते के बाद उनका एक ही शगल होता था फ़ुटबॉल खेलना. दिलचस्प बात ये थी कि पूरे कैंप में सिर्फ़ एक ही फ़ुटबॉल थी.
जॉय मा बताती हैं कि उनकी माँ एफ़ा मा ने उन्हें बताया था कि 1963 में भारत के तत्कालीन गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री देवली कैंप में आए थे. जब हमारी उनसे मुलाक़ात कराई गई तो उन्होंने हम सबसे पूछा जो भारत में रहना चाहते हैं वो एक तरफ़ खड़े हो जाएं और जो चीन जाना चाहते हैं वो दूसरी तरफ़ खड़े हो जाएं.
मेरे पिता और मेरी माँ भारत में रहने वालों की तरफ़ खड़े हो गए थे लेकिन इसके बाद कुछ हुआ नहीं. कुछ महीनों बाद मेरी माँ ने कैंप के कमांडेंट आरएच राव से पूछा कि गृहमंत्री ने हमसे वादा किया था कि जो लोग भारत में रहना चाहते हैं उन्हें उनके घर भेज दिया जाएगा.
कमांडर ने थोड़ा सोचकर जवाब दिया था, "आपने कहा था आप भारत में रहना चाहती हैं. जिस ज़मीन पर आप खड़ी हैं वो भी तो भारत है."

दार्जीलिंग में ली गई इस तस्वीर में किऊ पाओ चेन अपनी मां अन्तेरी और बहनों के साथ
युद्धबंदियों को भी रखा गया था देवली कैंप में
इन बंदियों में से अधिकतर ने क़रीब चार साल देवली जेल में बिताए. जहाँ कुछ लोगों की मौत इसी कैंप में हुई, वहीं जॉय मा जैसे कुछ बच्चों ने यहाँ जन्म भी लिया.
न तो चीनी सरकार ने उनकी सुध ली और भारत सरकार भी उन्हें वहाँ रखने के बाद एक तरह से भूल ही गई.
रफ़ीक इलियास ने ज़रूर इस पूरे प्रकरण पर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाई 'बियॉन्ड बार्ब्ड वायर्स: अ डिस्टेंट डॉन'. साल 1931 से ही ब्रिटिश सरकार देवली कैंप का इस्तेमाल राजनीतिक बंदियों को रखने के लिए करती रही थी.
चालीस के दशक में जयप्रकाश नारायण, श्रीपद अमृत डांगे, जवाहरलाल नेहरू और बीटी रणदिवे को यहाँ कैदी के रूप में रखा गया था. दूसरे विश्व युद्ध में जर्मन, जापानी और इतालवी युद्धबंदियों को भी यहाँ रखा गया. 1947 के विभाजन के बाद पाकिस्तान से भाग कर आए दस हज़ार सिंधियों को भी कुछ दिनों के लिए यहाँ रखा गया.
1957 में इसे सीआरपीएफ़ का एक कैंप बना दिया गया और यहाँ उसकी दो बटालियन तैनात कर दी गईं. 1980 में इसे सीआईएसएफ़ को दे दिया गया. 1984 से यह सीआईएसएफ़ के भर्ती प्रशिक्षण केंद्र के रूप में काम कर रहा है.

देवली कैम्प में रह रहे कई लोगों को वहीं नज़दीक बने कब्रिस्तान में दफनाया गया था. यिंग शेंग वॉन्ग के पिता को भी यहीं दफन किया गया था. बाद में जब सिंग शिलॉन्ग लौटे तो वो अपने पिता की अस्थियां अपने साथ ले कर गए.
कुछ बंदी मजबूरी में चीन गए
कुछ दिनों में चीन को पता चल गया कि भारत ने चीनी लोगों के मूल के लोगों को बंदी बनाकर देवली में रखा हुआ है. चीन ने प्रस्ताव दिया कि वो उन लोगों को अपने यहाँ बुलाना चाहता है.
बहुत से बंदियों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और वो चीन चले गए. बहुत से लोग चीन नहीं जाना चाहते थे क्योंकि ये अफ़वाह फैल गई थी कि चीन में सूखा पड़ गया है.
बहुत से लोग इसलिए भी चीन नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि पहले उन्होंने कम्युनिस्ट सरकार का विरोध कर ताइवान की सरकार का समर्थन किया था. लेकिन जब उन्होंने देखा कि भारत में उनके लिए कोई भविष्य नहीं है तो उन्होंने बुझे मन से चीन जाने का फ़ैसला किया.
इन लोगों की कई पीढ़ियाँ भारत में रही थीं और वो लोग सिर्फ़ भारतीय भाषाएं हिंदी, बांग्ला या नेपाली बोलते थे. ऐसे में उनके लिए चीन उतना ही विदेशी देश था, जैसे भारत के लिए कोई अफ्रीकी देश.

भारत सरकार से माफ़ी की माँग
जेल से छूटने के बाद जब ये लोग अपने पुराने घर पहुंचे तो उन पर दूसरे लोगों का कब्ज़ा हो चुका था. बहुत से दूसरे लोगों ने कनाडा, अमरीका और दूसरे देशों में बसने का फ़ैसला किया. इनमें से बहुत से परिवार आज भी कनाडा के टोरंटो शहर में रहते हैं.
उन्होंने 'एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया देवली कैंप इनटर्नीज़ 1962' के नाम से एक संस्था बनाई है. वर्ष 2017 की शुरुआत में उन्होंने कनाडा में भारतीय उच्चायोग के बाहर प्रदर्शन कर भारत सरकार से उस दुर्व्यवहार के लिए माफ़ी माँगने की माँग रखी.
'द देवली वालाज़' पुस्तक के लेखक दिलीप डिसूज़ा बताते हैं कि "जब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित एक पत्र उच्चायोग के अधिकारियों को देने की कोशिश की तो उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया. वो लोग वो पत्र उच्चायोग के गेट पर चिपका कर लौट आए. उन सब लोगों ने एक जैसी टीशर्ट पहन रखी थी जिन पर देवली कैंप के चित्र छपे हुए थे."

लौटते समय बस में संगठन के लोगों ने यिन शेंग वॉन्ग से एक गाना गाने की फ़रमाइश की तो लगा कि वो कोई चीनी गाना सुनाएंगे.
लेकिन तभी यिंग शिंग वॉन्ग ने 'दिल अपना और प्रीत पराई' फ़िल्म का गाना गाना शुरू किया, "अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...." ये सुनते ही कई लोगों की आँखों में आँसू आ गए.
दिलीप बताते हैं, "इसके दो कारण थे. एक ये कि एक चीनी भारतीय, जिसने कई दशक पहले दुखद परिस्तिथियों में भारत छोड़ दिया था, ओटावा से टोरंटो जाते हुए चलती बस में एक पुराना हिंदी गीत गा रहा है."
"दूसरे मुझे महसूस हुआ कि चीनियों की शक्ल और चमड़ी के रंग के बारे में मेरी धारणा कमोबेश वही थी जिसने एक बार वॉन्ग और उन सरीखे हज़ारों चीनियों को देवली के हिरासत कैंप में भेज दिया था. उनकी सिर्फ़ ये गलती थी कि वो चीनियों जैसे दिखते थे."
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-कँवल भारती
यह सवाल हैरान करने वाला है कि डा. राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में क्यों मान्यता दी गई? उनकी किस विशेषता के आधार पर उनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस घोषित किया गया? क्या सोचकर उस समय की कांग्रेस सरकार ने राधाकृष्णन का महिमा-मंडन एक शिक्षक के रूप में किया, जबकि वह कूप-मंडूक विचारों के घोर जातिवादी थे?
भारत में शिक्षा के विकास में उनका कोई योगदान नहीं थाI अलबत्ता 1948 में उन्हें विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का अध्यक्ष जरूर बनाया गया था, जिसकी अधिकांश सिफारिशें दकियानूसी और देश को पीछे ले जाने वाली थींI नारी-शिक्षा के बारे में उनकी सिफारिश थी कि ‘स्त्री और पुरुष समान ही होते हैं, पर उनका कार्य-क्षेत्र भिन्न होता हैI अत: स्त्री शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि वह सुमाता और सुगृहिणी बन सकेंI’ इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह किस स्तर के शिक्षक रहे होंगे?
क्या ही दिलचस्प है कि हम जिस आरएसएस और भाजपा पर ब्राह्मणवाद को फैलाने का आरोप लगाते हैं, उसको स्थापित करने का सारा श्रेय कांग्रेस को ही जाता हैI उसने वेद-उपनिषदों और भारत की वर्णव्यवस्था पर मुग्ध घोर हिन्दुत्ववादी राधाकृष्णन को शिक्षक के रूप में पूरे देश पर थोप दियाI वर्णव्यवस्था को आदर्श व्यवस्था मानने वाला व्यक्ति सार्वजनिक शिक्षा का हिमायती कैसे हो सकता है? भारत में शिक्षा को सार्वजनिक बनाने का श्रेय किसी भी हिन्दू शासक को नहीं जाता, अगर जाता है, तो सिर्फ अंग्रेजों को जाता हैI अगर उन्होंने शिक्षा को सार्वजनिक नहीं बनाया होता, तो क्या जोतिबा फुले को शिक्षा मिलती? उन्होंने अंग्रेजी राज में शिक्षित होकर ही शिक्षा के महत्व को समझा और भारत में बहुजन समाज और स्त्रियों के लिए पहला स्कूल खोलाI इस दृष्टि से यदि भारत में किसी महामानव के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में याद किया जाना चाहिए, तो वह महामानव बहुजन नायक जोतिबा फुले के सिवा कोई नहीं हो सकताI उनका स्थान सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन कैसे ले सकते हैं?
सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन को भारत का महान दार्शनिक कहा जाता हैI पर सच यह है कि वह दार्शनिक नहीं, धर्म के व्याख्याता थेI लेकिन बड़े सुनियोजित तरीके से उन्हें आदि शंकराचार्य की दर्शन-परम्परा में अंतिम दार्शनिक के रूप में स्थापित करने का काम किया गयाI जिस तरह आदि शंकराचार्य ने मनुस्मृति में प्रतिपादित काले कानूनों का समर्थन किया था, उसी तरह सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन भी मनु के जबर्दस्त समर्थक थेI देखिए, वह क्या कहते हैं, ‘मनुस्मृति मूल रूप में एक धर्मशास्त्र है, नैतिक नियमों का एक विधान हैI इसने रिवाजों एवं परम्पराओं को, ऐसे समय में जबकि उनका मूलोच्छेदन हो रहा था, गौरव प्रदान कियाI परम्परागत सिद्धांत को शिथिल कर देने से रूढ़ि और प्रामाण्य का बल भी हल्का पड़ गयाI वह वैदिक यज्ञों को मान्यता देता है और वर्ण (जन्मपरक जाति) को ईश्वर का आदेश मानता हैI अत: एकाग्रमन होकर अध्ययन करना ही ब्राह्मण का तप है, क्षत्रिय के लिए तप है निर्बलों की रक्षा करना, व्यापार, वाणिज्य तथा कृषि वैश्य के लिए तप है और शूद्र के लिए अन्यों की सेवा करना ही तप हैI’ वर्णव्यवस्था में विश्वास करने वाला एक धर्मप्रचारक तो हो सकता है, पर शिक्षक नहीं हो सकताI
इन्हीं सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू व्यू ऑफ़ लाइफ’ में वही डींगें मारी हैं, जो आरएसएस मारता है कि ‘हिन्दूसभ्यता कोई अर्वाचीन सभ्यता नहीं हैI उसके ऐतिहासिक साक्ष्य चार हजार वर्ष से ज्यादा पुराने हैंI वह उस समय से आज तक निरंतर गतिमान हैI’ बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने अपनी बहुचर्चित व्याख्यान-पुस्तक ‘जाति का विनाश’ में इस गर्वोक्ति का जबरदस्त खंडन किया हैI वे कहते हैं, ‘प्रश्न यह नहीं है कि ‘कोई समुदाय बचा रहता है, या मर जाता है, बल्कि प्रश्न यह है कि वह किस स्थिति में बचा हुआ है? बचे रहने के कई स्तर हैं, लेकिन इनमें से सभी समान रूप से सम्मानपूर्ण नहीं हैंI व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी, सिर्फ जीवित रहने और सम्मानपूर्ण तरीके से जीवित रहने के बीच एक खाई हैI युद्ध में लड़ना और गौरवपूर्वक जीना एक तरीका हैI पीछे लौट जाना, आत्मसमर्पण करना और एक कैदी की तरह जीवित रहना—यह भी एक तरीका हैI हिन्दू के लिए इस तथ्य में आश्वासन खोजना बेकार है कि वह और उसके लोग बचे रहे हैंI उसे इस पर विचार करना चाहिए कि इस जीवन का स्तर क्या है?
अगर लोग इस पर विचार करे, तो मुझे विश्वास है कि वह अपने बचे रहने पर गर्व करना छोड़ देगाI हिन्दू का जीवन लगातार पराजय का जीवन रहा है और उसे जो चीज सतत जीवन-युक्त लगती है, वह सतत जीवनदायी नहीं है, बल्कि वास्तव में ऐसा जीवन है, जो सतत विनाश-युक्त हैI यह बचे रहने का एक ऐसा तरीका है, जिस पर कोई भी स्वस्थ दिमाग का व्यक्ति, जो सत्य को स्वीकार करने से डरता नहीं, शर्मिंदगी महसूस करेगाI’
यह हैरान करने वाली बात है कि डा. राधाकृष्णन के हिन्दू ज्ञान पर न केवल आरएसएस मुग्ध है, जो हिंदुत्व को एक जीवन-शैली बताते हुए उनके कथन को आधार बनाती है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी 11 दिसम्बर 1995 को आर.वाई. प्रभु बनाम पी.के. कुंडे मामले में यह फैसला देते हुए कि हिन्दूधर्म का मतलब एक जीवन शैली है, और वह एक सहिष्णु धर्म है, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ में की गई व्याख्या को ही अपना आधार बनाया थाI जबकि इस मामले में दूसरा पक्ष, जोकि निश्चित रूप से डा. आंबेडकर हैं, उनको पढ़े वगैर हिन्दूधर्म पर कोई निर्णय न निष्पक्ष होगा, और न न्यायसंगतI डा. धर्मवीर ने इस पर सटीक टिप्पणी की थी, ‘लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह लिखते समय इस बात पर विचार नहीं किया, कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने डा. एस. राधाकृष्णन को पुराने ढर्रे का ‘धर्म-प्रचारक’ कहा हैI’
राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ की भूमिका में लिखा है कि ‘सर राधाकृष्णन जैसे पुराने ढर्रे के धर्म-प्रचारक का कहना है- ‘प्राचीन भारत में दर्शन किसी भी दूसरी साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न हो, सदा एक स्वतंत्र स्थान रखता रहा हैI’ इसके जवाब में राहुल जी ने लिखा है, ‘भारतीय दर्शन साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न रहा हो, किन्तु धर्म का लग्गू-भग्गू तो वह सदा से चला आता है और धर्म की गुलामी से बदतर और क्या हो सकती है?
डा. राधाकृष्णन के बारे में यह भ्रम फैलाया जाता है कि वह महान दार्शनिक थे, जबकि सच यह है कि यह केवल दुष्प्रचार हैI वह एक ऐसे ब्राह्मण लेखक थे, जिन्होंने हिंदुत्व को भारतीय दर्शन में, और ख़ास तौर से बौद्धदर्शन में वेद-वेदांत को घुसेड़ने का काम किया हैI राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में एक स्थान पर उन्हें ‘हिन्दू लेखक’ की संज्ञा दी हैI उन्होंने लिखा है, कि बुद्ध को ध्यान और प्रार्थना मार्गी तथा परम सत्ता को मानने वाला लिखने की गैर जिम्मवारी धृष्टता सर राधाकृष्णन जैसे हिन्दू लेखक ही कर सकते हैंI डा. आंबेडकर ने भी अपने निबन्ध ‘Krishna and his Gita’में डा. राधाकृष्णन के इस मत का जोरदार खंडन किया है कि गीता बौद्धकाल से पहले की रचना हैI डा. आंबेडकर ने डा. राधाकृष्णन जैसे हिन्दू लेखकों को सप्रमाण बताया है कि गीता बौद्धधर्म के ‘काउंटर रेवोलुशन’ में लिखी गई रचना हैI
भारतीय दर्शन में डा. राधाकृष्णन के हिन्दू ज्ञान की लीपापोती का विचारोत्तेजक खंडन राहुल सांकृत्यायन ने अपनी दूसरी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ में किया हैI वह लिखते हैं, ‘कितने ही लोग—हाँ, भारत के अंग्रेजी शिक्षितों में ही—यह समझने की बहुत भारी गलती करते हैं कि सर राधाकृष्णन जबर्दस्त दार्शनिक हैंI....इसके सबूत के लिए पढ़िए—‘मार पड़ने पर बुद्धि भक्ति (की गोद) में शरण ले सकती है’..राधाकृष्णन यथा नाम तथा गुण भक्तिमार्गी हैंI...शरण लेना कायरों का काम है, उसे जूझ मरना चाहिएI बुद्धि पर मार पड़ रही है, आगे बढ़ने के लिएI जो बुद्धि में अग्रसर है, उस पर मार पड़ती भी नहींI
राधाकृष्णन के इस कथन पर कि ‘भारत में मानव भगवान की उपज है, और भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सफलता का रहस्य उसका अनुदारात्मक उदारवाद है’, राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, ‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने हिन्दुओं में से एक-तिहाई को अछूत बनाने में किस तरह सफलता पाई? किस तरह जातिभेद को ब्रह्मा के मुख से निकली व्यवस्था पर आधारित कर जातीय एकता को कभी बनने नहीं दिया?.....यह सब अनुदारात्मक उदारवाद से है और इसलिए कि भारत में मानव भगवान की उपज हैI...यह हम जानते हैं कि सर राधाकृष्णन जैसे भक्तों और दार्शनिकों ने शताब्दियों से भारत की ऐसी रेड़ मारी है, कि वह जिन्दा से मुर्दा ज्यादा हैI’
इसी पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन एक जगह लिखते हैं, ‘सर राधाकृष्णन जैसे लोग भारत में शोषण के पोषण के लिए वही काम कर रहे हैं, जो कि इंग्लैंड में वहां के शासक प्रभु वर्ग के स्वार्थों की रक्षा में सर आर्थर एडिग्टन जैसे वैज्ञानिकों का रहा हैI’
घोर जातिवादी और घोर हिंदूवादी अर्थात ब्राह्मणवादी डा. राधाकृष्णन को शिक्षक के रूप में याद करना किसी तरह से भी न्यायसंगत नहीं हैI
(4/9/2018)
[1] भारतीय शिक्षा का इतिहास, डा. सीताराम जायसवाल, 1981, प्रकाशन केंद्र, सीतापुर रोड, लखनऊ, पृष्ठ 259
[2] यह इशारा बौद्धकाल की ओर हैI इससे स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति बौद्धकाल के बाद की रचना हैI
[3] भारतीय दर्शन, खंड 1, 2004, राजपाल एंड संज, दिल्ली, पृष्ठ 422
[4] डा. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस, खंड 1, 1989, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई, पृष्ठ 66
[5] जाति का विनाश, डा. बाबासाहेब आंबेडकर का प्रसिद्ध व्याख्यान, अनुवादक : राजकिशोर, 2018, फारवर्ड बुक्स, नयी दिल्ली, पृष्ठ 96
[6] डा. धर्मवीर, दलित भारतीयता बनाम न्यायपालिका में द्विज तत्व, 1996, पृष्ठ 6
[7] राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, 1944, भूमिका, पृष्ठ (5), संस्करण 1998 की भूमिका में पृष्ठ (i) हैI किताब महल, इलाहाबादI
[8] डा. राधाकृष्णन, हिस्ट्री ऑफ़ फिलोसोफी, वाल्यूम I, पेज 2, (नन्दकिशोर गोभिल द्वारा किये गये हिंदी अनुवाद ‘भारतीय दर्शन, खंड 1, 2004, पृष्ठ 18)
[9] राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, 1998, पृष्ठ (i)
[10] इंडियन फिलोसोफी, वाल्यूम I, फर्स्ट एडिशन, पेज 355
[11] दर्शन-दिग्दर्शन, 1998, पृष्ठ 408
[12] देखिए, डा. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग एंड स्पीचेस, वाल्यूम 3, 1987, चैप्टर 13
[13] वही, पेज 369
[14] राहुल सांकृत्यायन, वैज्ञानिक भौतिकवाद, 1981, लोकभारती इलाहाबाद, पृष्ठ 64-65
[15] वही, पृष्ठ 80-81
[16] वही, पृष्ठ 85
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आंध्र प्रदेश की सरकार ने पिछले साल अपने सारे स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी कर देने का फैसला किया और विधानसभा ने 19 जनवरी 2019 को उस पर मुहर लगा दी। भाजपा ने इसका विरोध किया और उसके दो नेताओं- सुदेश और श्रीनिवास ने उच्च न्यायालय में याचिका लगा दी। उच्च न्यायालय ने इस अंग्रेजी को थोपने के फैसले को गैर-कानूनी घोषित कर दिया लेकिन अब आंध्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय की शरण में चली गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर बहस की अनुमति दे दी है लेकिन राज्य सरकार के इस अनुरोध को निरस्त कर दिया है कि वह उच्च न्यायालय के फैसले को रोक दे। अर्थात अभी तो आंध्र में तेलुगु और हिंदी माध्यम से बच्चों का पढ़ाना जारी रखा जाएगा।
अपने पक्ष में आंध्र सरकार का तर्क यह था कि आंध्र के बच्चे यदि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ेंगे तो उन्हें देश और विदेश में नौकरियां आसानी से मिलेंगी। उसने यह प्रगतिशील कदम अपने बच्चों के पक्ष में उठाया है। यह तर्क बिल्कुल सही है, क्योंकि भारत में आज भी अंग्रेजी की गुलामी ज्यों की त्यों है। सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी माध्यम को प्राथमिकता मिलती है और महत्वपूर्ण सरकारी काम-काज पूरी तरह से अंग्रेजी में होता है। जिस दिन सरकारी कामकाज से अंग्रेजी विदा होगी, उसी दिन से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल दीवालिए हो जाएंगे।
अंग्रेजी के इसी अनावश्यक वर्चस्व के कारण देश में गैर-सरकारी निजी स्कूलों की बाढ़ आ गई है। अंग्रेजी माध्यम के ये स्कूल ठगी और ढोंग के अड्डे बन गए हैं। इसी ठगी को काटने का आसान रास्ता कुछ नेताओं को यह दिखने लगा है कि सभी बच्चों पर अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई थोप दी जाए लेकिन वे क्यों नहीं समझते कि शिक्षा की दृष्टि से यह कदम विनाशकारी है। यह आसान दिखने वाला रास्ता, रास्ता नहीं, खाई है। इस खाई में हमारे करोड़ों बच्चों को गिरने से बचाना है। देश की सभी सरकारें आज तक इस मामले में निकम्मी साबित हुई हैं। दुनिया के किसी भी संपन्न और शक्तिशाली देश में बच्चों की शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से नहीं होती।
हमारे यहां बच्चों को जो अनिवार्य अंग्रेजी पढ़ाई जाती है, उसमें विफल होनेवालों की संख्या सारे विषयों में सबसे ज्यादा होती है। विदेशी भाषाओं को पढऩे की उत्तम सुविधाएं जरुर होनी चाहिए लेकिन वे 10 वीं कक्षा के बाद हों और स्वैच्छिक हों। प्रादेशिक सरकारों और केंद्र सरकारों को ऐसा कानून तुरंत बनाना चाहिए कि विदेशी भाषा के माध्यम से बच्चों की पढ़ाई पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाए। अकबर इलाहाबादी के शब्दों में कहूं तो मैं कहूंगा, ‘हिरण पर घांस लादना बंद करें।’
(नया इंडिया की अनुमति से)
नई दिल्ली, 5 सितंबर (आईएएनएस)| देश को 1947 में आजादी मिलने से 46 साल पहले महात्मा गांधी 18 दिनों के लिए मॉरीशस गए थे और अपनी इस यात्रा में उन्होंने इस द्वीपीय देश में प्रवासी भारतीय श्रमिकों के अधिकारों के लिए पहला आंदोलन शुरू किया था। भारतीय कामगारों की दुर्दशा को उजागर करने के लिए उस वक्त महज 38 साल की उम्र में उन्होंने मीडिया को अपना अहम जरिया बनाया था। इसके लिए उन्होंने एक अनूठा प्रयोग करते हुए मॉरीशस में हिन्दी समाचार-पत्र 'हिन्दुस्तानी' शुरू कराया, जो कि शायद भारत के बाहर हिन्दी में प्रकाशित होने वाला पहला हिन्दी अखबार था। इस काम की जिम्मेदारी गांधी ने अपने मित्र मणिलाल डॉक्टर को दी और उन्हें 11 अक्टूबर, 1907 को मॉरिशस भेजा।
मॉरीशस के स्वतंत्रता आंदोलन में मीडिया, विशेष रूप से हिंदी पत्रकारिता की प्रमुख भूमिका को बताती हुई एक किताब वरिष्ठ टीवी पत्रकार सर्वेश तिवारी ने लिखी है। इस किताब का नाम 'मॉरिशस : इंडियन कल्चर एंड मीडिया' है। इस किताब में मॉरीशस में चलाए गए आंदोलन को बखूबी दर्शाया गया है, जिसका नेतृत्व भारतीय मूल के प्रवासी सेवूसागुर रामगुलाम ने किया था।
रोचक बात है कि तीन दशक के बाद जब मॉरीशस ब्रिटिश शासन से आजाद हुआ तो यही प्रवासी मजदूर रामगुलाम मॉरीशस के पहले प्रधानमंत्री बने थे।
वैसे हिंदुस्तानी अखबार को लॉन्च करने वाले गांधी के दूत मणिलाल डॉक्टर ने बैरिस्टर होने के नाते वहां भारतीय प्रवासी श्रमिकों के नागरिक अधिकारों के लिए लड़ाई भी लड़ी।
नागरिक अधिकारों के आंदोलन को मजबूत करने के लिए मणिलाल ने 'हिंदुस्तानी' अखबार निकालने की शुरुआत पहले अंग्रेजी और गुजराती भाषा से की और बाद में इसे हिन्दी में निकाला। दरअसल, वहां बड़ी संख्या में भोजपुरी बोलने वाले भारतीय लोग थे। हिन्दी के इस अखबार का प्रभाव ऐसा पड़ा कि इसने तत्काल लोगों के दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया।
जबकि 1900 की शुरूआत में जब यह हिन्दुस्तानी अखबार प्रेस से बाहर निकला था, उस वक्त मॉरीशस की मीडिया में फ्रेंच अखबार हावी थे। लेकिन हिन्दुस्तानी अखबार ने ऐसी ज्योत जलाई कि इसके प्रकाशन के कुछ ही सालों के अंदर मॉरीशस में दर्जन भर से ज्यादा हिंदी अखबार प्रकाशित होने लगे।
एक ओर जहां मॉरीशस में 'हिंदुस्तानी' के कारण हिन्दी अखबारों का दबदबा बढ़ रहा था, वहीं दूसरी ओर इस अखबार से मिल रही प्रेरणा ने प्रवासी श्रमिकों के मन में स्वतंत्रता की भावना को जगाया था। कागज और इसकी सामग्री ने भारतीय प्रवासियों को एकजुट किया और उनमें स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने का साहस जगाया।
गांधी के सिद्धांतों और भारतीय संस्कृति का असर इस देश पर ऐसा पड़ा कि अपनी स्वतंत्रता के इतने साल बाद आज भी मॉरीशस में हर क्षेत्र में भारतीयता की भावना नजर आती है।
लिहाजा इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मॉरीशस के राष्ट्रपति पृथ्वीराजसिंह रूपन ने कहा है, "अगर हम भारत को 'मां' कहते हैं, तो मॉरीशस 'बेटा' है ..यही कारण है कि जो लोग सदियों से यहां रह रहे हैं वे अपनी जड़ों का पता लगाने के लिए उप्र और बिहार की यात्रा करना चाहते हैं।"
जाहिर है अब मन में सवाल आएगा कि उप्र और बिहार ही क्यों? दरअसल, मॉरीशस में गन्ने की फसल लगाने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में भारतीय मजदूर वहां गए थे। इनमें से ज्यादातर मजदूर उत्तर भारत के भोजपुरी भाषी बेल्ट के थे।
जो आंकड़े मिले हैं उनके मुताबिक 1834 और 1923 के बीच करीब 4.50 लाख भारतीय मजदूरों को अनुबंधित श्रमिकों के रूप में मॉरीशस लाया गया था। इनमें से 1.5 लाख अपना अनुबंध खत्म होने पर भारत लौट गए, जबकि बाकी मजदूर यहीं बस गए। आज भी इस देश में इनकी करीब 12 लाख की आबादी रहती है।
इस किताब के लेखक सर्वेश तिवारी ने मॉरीशस के इतिहास और महत्वपूर्ण घटनाओं का भी जिक्र किया है। इसके साथ वहां की स्थानीय आबादी के साथ उनके संवाद और 30 सालों के दौरान मॉरीशस की ढेरों यात्राओं के अनुभव भी इस किताब में है।
बता दें कि लेखक सर्वेश तिवारी ने शीर्ष भारतीय समाचार चैनलों के साथ काम किया है और वर्तमान में वे मॉरीशस ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के साथ जुड़े हुए हैं।
-शिशिर सोनी
बिहार को रसातल में पहुंचा देने वाले नेताओं से सवाल करने के समय आ गया है। हिसाब किताब करने का समय आ गया है। चुनाव आज हो या कल। चुनावी बेला में मुखर हो कर सवाल करें। सोचें, समझें कि नीतीश, लालू से इतर क्या प्रयोग हो सकते हैं?
सत्ता में चूंकि नीतीश कुमार हैं। तो ज्यादा सवाल उनके हिस्से आयेगा। देश में शायद ही कोई नेता होगा जिसकी किस्मत नीतीश जैसी होगी। लगातार 26 सालों से सत्ता का सुख भोग रहे हैं। फिर भी बिहार की किस्मत क्यों नहीं बदली?
नीतीश कुमार से 26 सालों का हिसाब किताब लेना चाहिए। 1990 में नीतीश, लालू के साथ मंत्री थे। 1994 में लालू से अलग हो कर समता पार्टी बनाई। 1994 से 1997 चार साल सत्ता से दूर रहे। 1998 की केंद्र की वाजपेयी सरकार में मंत्री बने। फिर 2004 से लगातार बिहार के सीएम हैं। मतलब गत तीस सालों में नीतीश केवल चार साल सत्ता से बाहर रहे। तो ठीक है 30 साल का नहीं 26 साल का हिसाब लीजिये।
बिहार के स्कूल, कॉलेज, अस्पतालों की दुर्दशा का कौन जिम्मेदार है?
26 साल, शिक्षा व्यवस्था का बुरा हाल
बिहार से बच्चों की पढ़ाई पर सबसे ज्यादा पैसा दूसरे राज्यों को जाता है। क्यों? क्योंकि बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर कभी काम नहीं हुआ। आखिर क्यों हमारे बच्चे कोटा जाते हैं। पहले स्कूलिंग फिर कोचिंग सब राजस्थान के कोटा में। नीतीश कुमार ने क्या कभी कोशिश की कि कोटा कोचिंग स्कूल वाले बिहार में अपनी ब्रांच खोलें। ताकि बिहार का पैसा बिहार में रहे। स्थानीय लोगों को रोजगार मिले। बच्चों को बाहर न जाना पड़े! बस एक उदाहरण दे रहा हूँ। नीतीश और उनके कुनबे से सवाल होने चाहिए इस दिशा में उन्होंने क्या किया? सरकारी स्कूलों के हाल पर तो किसी को भी रोना आ जाए। लेकिन 26 साल राज करने वाले नीतीश बदहाल शिक्षा व्यवस्था में खुशहाल हैं !
26 साल, स्वास्थ्य व्यवस्था का बुरा हाल
अस्पतालों की दुर्दशा कैसी है उसकी पोल पट्टी कोरोना ने खोल दी। तीन दशक में पटना को एक एम्स मिला। वो भी सुषमा स्वराज की देन थी। राज्य सरकार ने कितने अस्पताल खोले? जो खुले हैं उनकी ऐसी अव्यवस्था क्यों है? ये सवाल होने चाहिए। आज भी क्यों बिहार के लोगों को समय पर समुचित इलाज का अभाव है? वहाँ के डॉक्टरों पर लोगों का भरोसा क्यों नहीं बन पा रहा? निजी अस्पतालों को लूट का अड्डा क्यों बनने दिया गया? सरकार और स्वास्थ्य माफिया के बीच सांठगांठ पर सवाल होने चाहिए?
26 साल, उद्योग धंधे का बुरा हाल
बिहार में एक भी कल कारखाने नहीं लगे, क्यों? नीतीश के पार्टनर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में मोतिहारी की जनता से वायदा किया था - अगली बार आऊंगा तो मोतिहारी चीनी मिल की चाय पियूँगा। मिल खुलेगी। चीनी मिल खुल गई क्या? आज तक नहीं खुली वो भी तब जब राधा मोहन सिंह मोतिहारी से सांसद बनने के बाद केंद्र में कृषि मंत्री बनाये गए। मोतिहारी की जनता झूठे वादे पर दौड़ाना जानती है, सो, उसके बाद से मोदी गायब हैं। 2019 के चुनाव में मोदी मोतिहारी से कन्नी काट गए। गये ही नहीं। नितीश ने इस संबंध में क्या किया?

कार्टूनिस्ट इरफान
चकिया, सुगौली, नरकटिया गंज सहित दजऱ्नों चीनी मिल बंद पड़े हैं। नीतीश कुमार ने इन्हे शुरू कराने के लिए क्या किया? इन मिलों में काम करने वाले लाखों कामगारों की हालत आज क्या है ? किस फटेहाली में वे जी रहे हैं, नितीश ने कभी सुध ली? क्यों नही ली? बिहार में बड़े पैमाने पर सीप से बटन बनाने के कारखाने थे सब बंद पड़े हैं। नितीश कुमार ने 26 सालों में इसे शुरू कराने के क्या प्रयास किये?
मुजफ़रपुर की लीची, दीघा का दूधिया मालदा आम, हजीपुर का केला, दरभंगा का मखाना, भागलपुर का सिल्क, देश विदेश में प्रसिद्ध है। फिर भी उद्योग धंधे क्यों नहीं ला रहे? एक भी फूड प्रोसेसिन्ग यूनिट आज तक क्यों नहीं लगा?
आखिर क्यों हमारे खेतिहर पंजाब जाते हैं मजदूरी करने? जाहिर है रोजगार के लिए। बिहारी बिहार में इज़्ज़त से जीवन बसर कर सकते हैं अगर यहाँ कल कारखाने लगेंगे तो हमारे मेहनतकश लोगों को बिहार में ही काम मिलेगा। स्कूल, कॉलेज, कोचिंग की व्यवस्था ठीक होगी तो बिहार का पैसा बिहार में रुकेगा। रोजगार के साधन बढ़ेंगे। अस्पतालों की स्थिति ठीक होगी तो गरीब निजी अस्पतालों में लुटने से बचेंगे। समय पर गरीबों को इलाज मिल सकेगा।
बिहार जहाँ तीस साल पहले था, वहाँ से कितने कदम आगे चल पाया? सवाल होने चाहिए। बिहार में सबसे ज्यादा युवा आबादी है, ्रनीतीश कुमार की इनके लिए क्या योजऩा है? युवाओं को सवाल करना चाहिए आखिर सबसे ज्यादा 46 फीसदी बेरोजगारी बिहार में क्यों है? स्वच्छ भारत के सर्वे में बिहार की राजधानी पटना को सबसे गंदे शहर का मेडल मिला, नितीश कुमार के 26 साल में हमें ये मिला? सोचिये। मीमांसा कीजिये। सवाल बनाइये। सवाल उठाइये।
मैं ये सवाल इसलिए उठा रहा हूँ क्योंकि अभी ही उचित समय है। तकरीबन एक करोड़ ऐसे बिहारी अभी बिहार में हैं जो रोजी-रोटी की तलाश में असम से कन्याकुमारी तक खाक छान कर कोरोना काल में लौटे हैं। राज्य दर राज्य से आये बिहारी लोगों के मन में इस बात की जबरदस्त टीस है कि बिहार की ऐसी दुर्गति क्यों है?
बिहार की जनता को चाहिए कि इसबार चुनावी मैदान में आये सभी दलों से विजन डॉक्यूमेंट मांगे। बिहार को ये दल पांच सालों में किस रास्ते पर और कैसे ले जाना चाहते हैं उसका लिखित दस्तावेज हो। फिर ये तय हो की किस दल को वोट किया जाए। जाहिर है इसके लिए जातपात से ऊपर उठना होगा।
मगर नीतीश कुमार से 26 साल का हिसाब जरूर मांगे। हर मंच से। हर चौक चौराहे से। हर चाय, पान की दुकान से।
-राकेश दीवान
गोस्वामी तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ में एक प्रसंग है, राक्षसी सुरसा का। रावण की लंका में कैद जानकी को राम का संदेश देने जा रहे हनुमान की शक्ति-परीक्षा करने के लिए देवताओं ने सर्पों की माता सुरसा को भेजा था। तुलसी बाबा कहते हैं कि – ‘जस-जस सुरसा बदन बढावा, तासु दून कपि रूप देखावा। सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा, अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।’ यानि पहले तो सुरसा से दुगना आकार ग्रहण करके हनुमान ने अपनी अहमियत दिखाई, परन्तु अंत में वे ‘अति लघु रूप’ में ही सुुरसा से निपट पाए।
दुनियाभर में वापरी जाने वाली ‘उपयुक्त तकनीक’ यानि ‘एप्रोप्रिएट टैक्नॉलॉजी’ को सर्वप्रथम रेखांकित करने वाले अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर ने भी अपनी ख्यात किताब का नाम ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ यानि ‘लघु ही सुन्दर है’ रखा था। बौद्ध दर्शन के ‘मज्झिम निकाय’ यानि ‘मध्यमार्ग’ से प्रभावित और तत्कालीन बर्मा सरकार के आर्थिक सलाहकार रहे शूमाकर लघु को सुन्दर ही नहीं, कारगर भी मानते थे। शूमाकर ने अपने विचारों पर उन महात्मा गांधी के प्रभाव को माना था जो खुद भी जीवनभर छोटे और उपयुक्त के तरफदार रहे थे। सवाल है कि क्या आज की बदहाली के लिए, खासतौर पर भारत में, लघु और विशाल के बीच का द्वंद्व ही जिम्मेदार है? क्या आजादी के बाद गांधी के लघु और उपयुक्त को नजरअंदाज कर बनाई गई ‘बिगेस्ट इन द वर्ल्ड’ की विशालकाय राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक योजनाओं में ही कोई खोट है जिसने हमें मौजूदा बदहाली की तरफ ढकेल दिया है?
तुलसीबाबा और शूमाकर की मान्यताओं को हमारे लोकतंत्र, आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक विकास और तरह-तरह के राजनीतिक-सामाजिक ढांचों की बदहाली के बरक्स देखें तो क्या पता चलता है? क्या आजादी के बाद स्थानीय, लघु और कारगर ताने-बाने को अनदेखा करते हुए विशालता की तरफदारी में बनाई गई योजनाओं ने हमारी मौजूदा गत नहीं बनाई है? इन दिनों हम बाढ की सालाना त्रासदी में डूब-उतरा रहे हैं और यदि इसी का उदाहरण लें तो स्थानीय स्तर के छोटे और कारगर ढांचे बचे होते और उनमें वर्षा-जल रोक लिया जाता तो क्या बाढ के इतने बडे संकट में फंसना पडता? क्या ये छोटे और नियंत्रित ढांचे पानी की स्थानीय आपूर्ति और सिंचाई के लिए सर्वथा उपयुक्त नहीं होते? क्या मौजूदा विशालकाय, केन्द्रीकृत जल-विद्युत परियोजनाएं अपने उद्देश्यों को पूरा करने में इस कदर नकारा साबित हुई हैं कि उनसे मामूली बाढ-नियंत्रण तक नहीं हो पा रहा? बडी, विशाल परियोजनाओं के कई अलमबरदार अब भी मानते हैं कि बडे बांध सिंचाई, जल-विद्युत उत्पादन और बाढ-नियंत्रण का अचूक नुस्खा हैं, लेकिन आजादी के बाद अब तक बने करीब पांच हजार बडे बांध अपनी इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों को निभा पाने में नकारा साबित हुए हैं। अपने आसपास ही देखें तो कोई भी बता सकता है कि बडे बांधों के पहले की बाढ, भले ही बडी हो, लेकिन उतना नुकसान नहीं पहुंचाती थी जितना अब होने लगा है। पहले जमाने में बाढ का पानी कहीं रुकता नहीं था, लेकिन अब बडे बांधों की चपेट में आने के बाद से पानी कई-कई दिन बस्तियों में ठहरा रहता है और नतीजे में भारी नुकसान पहुंचाता है।
एक और बानगी अभी दो दिन पहले आए ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) के आंकडों से देशभर में मचे बवाल की भी है। इनके मुताबिक भारत का ‘जीडीपी’ अपनी पहली तिमाही में ही लुढककर ‘ऋण-23.9 प्रतिशत’ पर पहुंच गया है। इस ‘लुढकन’ में उस ‘निर्माण क्षेत्र’ (50 प्रतिशत) का सबसे अधिक हाथ है जिसकी कसमें खाकर हमारे विकास-वादी सत्ताधारी वाह-वाही कमाते थे। इसके अलावा अप्रैल से जून के बीच बढी इस राष्ट्रीय बदहाली के मुकाबले एक और आंकडा है, मुकेश अम्बानी की सम्पन्नता का। ‘जीडीपी’ गिरने के ठीक इसी दौर में अकूत कमाकर अम्बानी दुनिया के पांचवें सबसे अमीर व्यक्ति बन गए हैं। पहले से ‘दूबरे’ और ‘कोरोना’ की मार में ‘दो अषाढ’ झेलने वाले भारत में कोई एक आदमी, भले ही वह कैसा और कितना भी ‘बलवान’ क्यों न हो, कैसे दुनियाभर के ‘टॉप’ पूंजीपतियों में जगह बना सकता है? यह कैसा लोकतंत्र और संविधान है जिसमें नागरिकों के देखते-देखते देश की ‘जीडीपी’ लुढकने के एन बीचमबीच कोई अपनी संपत्ति में 35 फीसदी का इजाफा करके दुनिया के अमीरों की नंबर एक की दौड में शामिल हो जाता है? संविधान से बंधे लोकतांत्रिक देश के नागरिक क्या इस परिस्थिति में कुछ नहीं कर सकते? और क्या यह गफलत विशालकाय, राक्षसी के बरक्स लघु के विरोधाभास का ही नतीजा नहीं है?
इस लिहाज से पडताल करें तो सरलता से समझा जा सकता है कि हमारा और तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों का बुनियादी द्वंद्व ‘विशालता’ और ‘लघुता’ के बीच का है। इसे थोडी और गहराई से देखें तो लोकतंत्र और संविधान के विरोधाभासों को भी समझा जा सकता है। देश का संविधान हमें ‘क्या है’ की बजाए ‘क्या होना चाहिए’ तो बताता है, लेकिन हमारी मौजूदा हालातों में कोई हस्तक्षेप नहीं करता। मसलन, क्या हमारे संविधान में राज्य-राज्य में जारी मौजूदा शर्मनाक राजनीतिक उठा-पटक के लिए कोई जगह है? क्या संविधान हमारे राजनेताओं को वैसा बनने और बने रहने से रोक सकता है, जैसे कि वे हैं? और यदि यह सब नहीं है, तो फिर इससे कैसे पार पाया जा सकता है? लोकतंत्र और संविधान की श्रेष्ठतम उपलब्धि समाज के अंतिम नागरिक की तंत्र में भागीदारी मानी जाती है, लेकिन क्या मौजूदा राजनीतिक ताने-बाने में यह किसी भी तरह से संभव दिखती है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर एक काल्पनिक, आभासी लोकतंत्र और संविधान की क्या भूमिका होगी? क्या ऐसे में नागरिक की पहुंच की न्यूनतम राजनीतिक इकाई ग्रामसभा को मजबूत करें तो अपेक्षित परिणाम नहीं पाए जा सकते? गांधी तो लगातार इसी ग्राम गणराज्य की बात करते रहे थे।
ग्रामसभा को मजबूत और कारगर बनाकर बिगडैल राजनीतिक जमातों को रास्ते पर लाया जा सकता है, लेकिन हमारी राजनीतिक बिरादरी में इसके प्रति कोई लगाव नहीं है। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में आए ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून’ (मनरेगा) या ‘वनाधिकार अधिनियम’ जैसे कानूनों ने पंचायतों और ग्रामसभाओं को पैसा और ताकत दी है। नतीजे में कतिपय राजनीतिक दल लोकतंत्र की इन लघुतम इकाइयों के प्रति थोडे-बहुत आकर्षित भी हुए हैं, लेकिन यह आकर्षण पंचायतों, ग्रामसभाओं को मजबूत बनाने की बजाए उन्हें और कमजोर करने के प्रति है। आखिर मजबूत नागरिक और उनकी पंचायतें, ग्रामसभाएं मौजूदा राजनीति को कहां रास आती हैं? लेकिन आप चाहें, न चाहें, भविष्य तो इन्हीं का है।
थोडी गहराई से खंगालें तो साफ देखा, महसूस किया जा सकता है कि इंसानी वजूद के सभी क्षेत्रों में अब विशालता का समय समाप्त होता जा रहा है। बडे बांधों से लेकर बडी राष्ट्रीय पार्टियों तक सभी धीरे-धीरे अपनी चमक खोते, अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। खेती-पाती, रहन-सहन, इलाज-बीमारी, पढाई-लिखाई आदि सभी क्षेत्र अब स्थानीय, छोटे ढांचों में ज्यादा कारगर दिखाई देने लगे हैं। जिस तरह पानी के लिए बडे, विशालकाय बांधों की जगह छोटी, कारगर जल-संरचनाएं उपयुक्त साबित हो रही हैं, ठीक उसी तरह प्रशासन, राजनीति और समाज-व्यवस्थाएंं भी स्थानीय, छोटे ताने-बाने में अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी साबित हो रही हैं। यह समय है, जब हमें अपने मौजूदा ढांचे में पैबन्द लगाने की बजाए उसे बदलने पर विचार करना चाहिए। ऐसे में विशालकाय, राक्षसी के मुकाबले छोटे, स्थानीय ढांचों को तरजीह देना एक विकल्प हो सकता है।
आयुष मंत्रालय की बैठक से अहिंदी भाषियों को निकाले जाने से माहौल गर्मा गया है। बहस फिर से शुरु हो गई है। हालांकि खुद नेतृत्व क्षेत्रीय चुनावों में इलाकाई भाषाओं के चुनिंदा वाक्य बोल रहा है, पर विदेश नीति बैंकों से बातचीत तो अंग्रेजी में ही हो रही है।
बात पुरानी है। जून का महीना शुरू ही हुआ था। हम चार भारतीय भाषाओं के लेखक- कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति, असमिया के वरिष्ठ लेखक बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य, उर्दू के लेखक समालोचक गोपीचंद नारंग और यह लेखिका, बांग्लाभाषी साहित्य अकादमी सचिव सहित बीजिंग हवाई अड्डे पर उतरे। उतरते ही हमको लेने आए चीनी दुभाषिये की मार्फत और अधिकारियों के तेवरों से जाहिर हुआ कि उनकी सरकार ने हमको सादर न्योता तो था लेकिन बीजिंग में यकायक फूटे भारी नागरिक विद्रोह के कारण हमारा आना उनको न उगलते बन रहा था, न निगलते। हमको संगीनों के सायों से घिरी वीरान सड़कों से सीधे हमारे भव्य होटल ले जाया गया और हमारी सुचारू व्यवस्था के साथ ही ताकीद की गई कि किसी भी कीमत पर हमें होटल से बाहर पैर नहीं रखने। मरते, क्या न करते? अगले दो सप्ताह के उस क्वारंटाइन में हमने वही किया जो लेखक कर सकते हैं: साहित्य, समाज और भाषा के रिश्तों पर बहस। हमारा होटल ठीक थ्येनआनमन चौक से सटा हुआ था और वहां के डाइनिंग हॉल से हमें भीमाकार टी-59 चीनी टैंक और धरने पर बैठे हजारों युवा हमें खिड़कियों से साफ नजर आते थे।
कई-कई तरह की सुस्वादु डिशेज के बीच भाषा के मसले पर बातचीत गरमा चली। शिष्ट शांत मिजाज के अनंतमूर्ति और बीरेनदा के सुर भी हिन्दी की राष्ट्र भाषा बनने की जिद और सरकारी हिंदी के औपनिवेशक इरादों पर तल्ख हुए। सचिव महोदय सरकारी मुलाजिम थे, पर बंगाल का गुस्सा उनकी बातों से भी साफ झलकता था। गोपीचंद नारंग तो ठहरे गर्म मिजाज पंजाबी भाई! उनको हिंदी द्वारा उर्दू की राजनैतिक मदद से बार-बार हुई बेदखली और उसे सिर्फ मुसलमानों की भाषा कहकर सांप्रदायिक रंगत देने वाले दक्षिणपंथी प्रचारकों से बेपनाह नफरत थी जो वह काफी रंगीन विशेषणों से व्यक्त कर रहे थे। हिंदी के पक्ष को सुर देने का सारा दारोमदार मुझ पर आन पड़ा तो मैंने यह कहकर बात शांत करने की कोशिश की कि हिंदी एक भाषा नहीं, एक विराट् सरोवर है जिसमें उर्दू और अनगिनत बोलियों की धाराएं मिलजुल कर हमारी समन्वयवादी संस्कृति को स्वर देती हैं। हिंदी न होती तो क्या बादल सरकार के नाटक, अनंतमूर्ति और बीरेनदा-जैसे ज्ञानपीठ विजेता लेखकों की कृतियां, पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, मलयालम और तमिल की कई-कई कालजयी कृतियों को करोड़ों नए दर्शक पाठक मिल पाते? शायद नहीं।
अहिंदी भाषी लेखकों का कहना थाः लेकिन क्या यह नकारा जा सकता है कि गैर हिंदी इलाके के भारतीयों को हिंदी के जबरिया सरकारी प्रचार और उसके स्कूली पाठ्यक्रमों में लादे जाने से हुई पीड़ा का किसी को अंदाज़ है? दाक्षिणात्य लोगों की तुलना में खुद हिंदी पट्टी के कितने लोग दक्षिणी भाषाएं जानते हैं? क्या हिंदी वालों या बॉलीवुड के लिए औसतन विंध्य के दक्षिणी क्षेत्र का हर आदमी मदरासी नहीं? क्या तमिल संस्कृत से कहीं पुरानी और कहीं बड़ा साहित्य भंडार नहीं रखती? क्या उर्दू से लगातार नागरी लिपि अपनाकर हिंदी में विलीन होने और सेकुलर माने जाने का आग्रह एक अनधिकार चेष्टा नहीं?
सच कहूं तो इन तीखे सवालों को सिरे से खारिज करना सही नहीं था। नैतिक तौर से भी और लोकतांत्रिकता के तहत भी। बीरेनदा का यह कहना भी असत्य नहीं था कि लगातार दिल्ली की शह पाकर बांग्लाभाषी, या बिहारी कामगारों तथा शरणार्थियों के आकर असम में बसते जाने से उनकी क्षेत्रीय संस्कृति और भाषा अल्पसंख्यकों के दर्जे की तरफ लुढकती जा रही हैं। जैसे-तैसे दो सप्ताह बीते लेकिन बोरियत का कोई क्षण नहीं रहा। इन संवेदनशील लेखकों की मार्फत मेरी निजी संवेदना का दायरा बहुत बढ़ गया और उस यात्रा की स्मृतियों की डोर से बंधे हम लोग आजीवन मित्र बने। पर राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे सघन वार्तालाप कहां संभव हैं जो मनोमालिन्य मिटा दें? यही नहीं, जब तक हम वापस रवाना हुए, हमें अपनी अनेकता में एकता साफ महसूस होने लगी थी।
होटल की कसकर बंद लॉबी से बाहर लहूलुहान छात्रों की भीड़ को निर्ममता से धकेले जाते देखकर अनंतमूर्ति ने क्रौंचवध से विचलित वाल्मीकि की तरह हमसे और खुद से पूछा: ‘ऐसे तानाशाह शासन, ऐसी लीडरशिप के लिए क्या विशेषण इस्तेमाल करें?’ अचानक हम सबके मुख से एक ही शब्द फूटा, ‘राक्षस’ (यह बात और है कि अपने बीरेनदा उसे राक्खोस कहते रहे!)। हमारे शब्दों में हमारे देश की कालातीत करुणा मानो एक साथ बोल रही थी। उस क्षण मुझे लगा कि राजनेता अपने स्वार्थों के लिए भाषा के सवाल को चाहे जितनी निर्ममता और चतुराई से हांकें, हमारी तमाम भाषाओं के लेखकों-कलाकारों के बीच एक अंत: सलिला की तरह हमारी समग्र संस्कृति की इस धारा को वे अवरुद्ध नहीं कर सकते। मन में तब उठी यह बात अब तलक कई मौकों पर मन को मथती आ रही है।
गत 22 अगस्त को आयुष मंत्रालय के सचिव द्वारा कथित तौर से अहिंदी भाषियों को मीटिंग छोड़ने का आदेश देने की खबर पढ़ी। मंत्रालय की एक ऑनलाइन मीटिंग के दौरान कुछ तमिल भागीदारों द्वारा हिंदी में की जा रही कार्रवाई के दौरान आपत्ति व्यक्त कर बातचीत अंग्रेजी में करने की मांग की गई। उनके अनुसार, सुनवाई की बजाय उनको सीधे कह दिया गया कि वे हिंदी नहीं जानते तो बाहर जा सकते हैं।
इस बात पर आजादी के बाद से हिंदी ‘थोपने के खिलाफ’ एक खदकते लावे की तरह देश के अहिंदीभाषी राज्यों में भीतर ही भीतर उफनाता गुस्से का प्रवाह भलभला कर बाहर आना शुरू हो गया। हमेशा की तरह यह होते ही राजनीति ने इसे भुनाना शुरू कर दिया। विपक्षी द्रमुक की नेत्री सांसद कनिमोझी ने ट्विटर पर हिंदी के औपनिवेशिक मंसूबों का आरोप जड़कर कटु प्रतिक्रिया दी, तो मंत्रालय और भाजपा से जुड़े तमाम हिंदी के पक्षधर भी मैदान में उतर पड़े। होते-होते गोष्ठी का मूल विषय- राज्यों में योग के शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था, तो ताख पर धरा रहा और हिंदी-हिंदू- हिंदुस्तान का पुराना बवंडर क्षितिज पर छा गया। दक्षिण भारत से मांग उठने लगी कि दाक्षिणात्यों का अपमान करने वाले सचिव को तुरत निलंबित किया जाए।
1968 में भारत सरकार ने राज्यों से लंबी उदारमना बातचीत के बाद शिक्षा माध्यम और भारत की एकसूत्रता के लिए एक ईमानदार त्रिसूत्री फार्मूला बनाया था। इसके तहत प्राइमरी स्तर तक क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा दी जानी थी और मिडिल स्कूल से उसके साथ-साथ हर छात्र को अंग्रेजी और एक अपने क्षेत्र से बाहर की भारतीय भाषा सीखना अनिवार्य बनाया गया था। नीयत यह थी कि शिक्षण संस्थानों में बेल्जियम या स्विट्ज़रलैंड- जैसे बहुभाषा भाषी देशों की तरह छात्रों को एकाधिक भाषाएं सीखने को मिलें। उत्तर के छात्र दक्षिण की भाषाओं से परिचित हों और दक्षिण उत्तर की भाषा से। दक्षिणी राज्यों को लगा कि किसी राज्य की भाषा के साथ चतुराई से संस्कृत का विकल्प डालकर हिंदी पट्टी ने उत्तर की हिंदी या अन्य कोई भाषा सीखने को राजी दक्षिण के साथ विश्वासघात किया है। बात इतनी बिगड़ी कि तेलुगु के सवाल पर पोत्तिरामुलु ने आत्मदाह कर लिया। तय अंत में यही हुआ कि जब तक दक्षिण के राज्य औपचारिक स्वीकृति न दें, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का सवाल इकतरफा तय नहीं किया जाएगा।
इस सबके बाद जाने किस जिद के तहत हर बरस सितंबर में राजकीय हिंदी दिवस मनाया जाना चालू रहा जिसकी सालों तक दक्षिण भारत में वार्षिक परिणति हिंदी बोर्डों पर तारकोल पोतने और हिंदी फिल्मों के पोस्टर जलाने के रूप में होती रही। जयललिता के समय हुई तरक्की और शेष दाक्षिणात्य राज्यों के सुथरे विकास ने मनोमालिन्य काफी हद तक कम कर दिया था, पर तभी भाजपा बहुमत से आई और हिंदी पट्टी में अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए उसकी खुली हिंदीपरस्त योजनाओं ने भाषा का माहौल फिर गर्मा दिया।
आज भाजपानीत एनडीए ने उत्तर भारत में राजनीतिक विमर्श की भाषा को लगभग पूरी तरह से हिंदीमय बना दिया है। अंग्रेजी चैनलों में भी दलीय प्रवक्ता अब अंग्रेजी से शुरू कर तुरत हिंदी पर उतर आते हैं। कर्नाटक फतह के बाद दक्षिण भारत के सभी सार्वजनिक स्थलों पर अंग्रेजी तथा लोकल भाषा के नामपट्टों में हिंदी का अनिवार्य प्रयोग धुकाया जाने लगा है। पर मजे की बात यह कि इसी के साथ शिक्षा के निजीकरण की बाढ़ को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है जबकि सबको पता है कि इसका मतलब है अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा। चूंकि भली नौकरियों से लेकर शादी के रिश्तों तक की राह अब अंग्रेजी पकड़कर ही तय की जा सकती है, हिंदी पट्टी के मध्यवर्गीय अभिभावक भी पेट काटकर बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं। कॉलेज तक पहुंचते-पहुंचते छात्र तीन तो दूर, दो भाषाएं भी नहीं लिख-पढ़ सकते। खुद नेतृत्व भी घरेलू चुनावों में हिंदी को प्रधानता देकर क्षेत्रीय चुनावों के लिए कुछेक चुनिंदा इलाकाई भाषा के वाक्य बोल रहा है और विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय बैंकों से बातचीत तो पूरी तरह अंग्रेजी से ही चलाई जा रही है।
स्व.अरुणा आसफ अली ने एक बार मुझे एक मजेदार कहानी सुनाई थी। आजादी से ठीक पहले दिल्ली में भारतीय महिला कांग्रेस की मीटिंग चल रही थी। भारत के सभी राज्यों से आईं पढी-लिखी कई कम उम्र माताएं भी इसमें शामिल थीं। उनके साथ आए उनके बच्चे मीटिंग के दौरान पीछे के किसी कमरे में परिचारिकाओं की देखभाल में बिठा दिए गए थे। राष्ट्रभाषा का सवाल उठते ही महिलाओं के बीच भी तलवारें खिंच गईं। गहमागहमी इतनी बढ़ी कि शोर मच गया। तभी भीतर से एक परिचारिका भागती हुई आई और बोली, मेमसाब जी किसी का एक बच्चा हल्ला सुनकर जोर से रोने लगा है। संभल ही नहीं रहा है। उसकी मां को आना होगा। अब महिलाएं परस्पर मुंह देखने लगीं। तभी अध्यक्षा सरोजिनी नायडू ने मुस्कुरा कर कहा, ‘अब बच्चा तो किसी का भी हो सकता है बहन, सो जरा जाकर देख आओ कि बच्चा हिंदी में रो रहा है कि अंग्रेजी में?’ (navjivanindia.com)
-मनीष सिंह
जब चीन के फौजी अपने बूटों से भारत का सर कुचल रहे हैं, भारत की सरकार, जनता और मिडिया ने आंखें मूंद ली है। राष्ट्र की सुरक्षा पर बड़ी-बड़ी हांकने वाले रेजीम का यह सन्निपात आश्चर्यजनक है। मगर इससे ज्यादा आश्चर्यजनक, 130 करोड़ के देश की अपनी सीमाओं के अतिक्रमण से बेरुखी है।
शायद चीन ने भी न सोचा होगा, कि सब कुछ इतना आसान होगा। पिछले चालीस सालों में सीमा पर उसके एडवेंचर्स को माकूल जवाब मिलता रहा है। चीन की पहलकदमी की पहली खबर आते ही हर नागरिक का मनोमस्तिष्क उसकी ओर घूम जाता था। आज वह किलोमीटर फांदते हुए घुसा चला आ रहा है, और हम उसे चरागाह में घुस आए बैल से ज्यादा महत्व नही दे रहे।
हां अगर कभी कोई बहस है, तो वो यह कि 1962 में हमने कितनी जमीन खोई, 1947 में क्या खोया, या उसके पहले क्या-क्या खोया। सच्चे-झूठे किस्से सुनाए जा रहे हैं, गोया चीन जैसे आक्रांता का आना, और हिंदुस्तान की जमीन का जाना, हर दौर की एक सामान्य परिघटना है। जाहिर है कि हर सरकार, हर नेता तो चीन को जमीन खोता ही रहा है। मायने ये, कि यह सरकार, यह नेता भी अपने हिस्से की जमीन खो रहा है, तो इसमे कौन सी अचरज की बात है।
गाहे-बगाहे, चीनी फौजियों को मार डालने और उनकी नकली कब्रों की फोटो जरूर फ्लैश होते हंै। कुल जमा पांच रफेल की तस्वीरों और बमो धमाकों के पुराने फुटेज का रिपीट टेलीकास्ट भी है। मगर व्यापक रूप से देश की सुरक्षा के मुद्दे पर इतनी अरुचि सत्तर साल में नहीं देखी गई।
चीन की नीति, विस्तारवादी रही है। पर इस बार वह एक लोकलाइज्ड बखेड़ा नहीं कर रहा, वह कश्मीर से अरुणाचल और भूटान तक नए दावे कर रहा है। 1962 के बाद का सबसे बड़ा सैनिक जमावड़ा किया है। युद्ध की ताल ठोक रहा है, नए इलाकों में घुस चुका है।
तो क्यों दुनिया के पांचवें सबसे बड़े परमाणु जखीरे पर बैठे देश की सीमाओं के साथ सीमा विवाद ताकत के बूते निपटाने के लिए में, यह वक्त मुकर्रर किया। क्या सोचा होगा, क्या आकलन किया होगा? दरअसल उसे मालूम है, यह वक्त पिछले 40 साल में सबसे ज्यादा माकूल है।
बुरी तरह विभाजित, बेपरवाह यह देश अपने आंतरिक, मानसिक युद्दों में रत है। यह निरंतर छायायुद्धों में उलझा है। कहीं गलियों में, कहीं खाने की मेज पर। कहीं भाषणों में, कहीं टीवी पर। अपने आसपास, घरों, मित्रों सहपाठियों, सहकर्मियों के बीच गद्दारों और देशद्रोहियों की खोज करना।
किसी शहर का नाम बदलकर, कहीं इतिहास की किताबों में विजेताओं के नाम बदलकर। कहीं पड़ोस के मोहल्ले में धार्मिक नारेबाजी कर, कहीं युवाओं के हाथों में आदिम हथियार टिकाकर, कहीं किसी को गाली देकर। यह देश सात सालों से लगातार युद्ध लड़ रहा है। यह युद्धों से थका हुआ देश है।
हर शाम उसे पता चलता है कि वह आज की लड़ाई जीत चुका है। हां, मगर कल एक नई लड़ाई है, एक नया मुद्दा है। किसी को न्याय दिलाना, किसी को डिसलाइक करना, कुछ ट्रेंड करना, एक झूठ का फैलाव करना, फिर झूठ का बचाव करना और फिर इस नई लड़ाई को भी जीत जाना। यह जीतों से थका हुआ देश है।
नीम-नशे में दीवार से पीठ चिपकाए भारत, बंद आंखों से अपने मस्तिष्क की कंदराओं में लड़ाई-जीत-लड़ाई-जीत-लड़ाई-जीत की छवियों में डूबा है। उसे वो लपटें महसूस नहीं होती, जो उसके घर में लगी आग से निकल रहे हैं। वह मस्त है, अपने नशे, हैलुसिनेशन में.. गहरे नशे में डूबा, परछाइयों से लड़ता यह नया भारत है। यह भारत होश में नहीं है।
इसलिए चीन के लिए यह माकूल वक्त है।
हत्या : 5 सितम्बर 2017
-कनक तिवारी
श्रीराम सेने के प्रमोद मुतालिक ने गौरी लंकेश पर कुत्ते की याद करते फब्ती कसी थी। पहले भी एक हिन्दुत्वपरस्त ने उसे सीधे-सीधे कुतिया कहकर सुर्खियां बटोरी थीं। चार गोलियां मारकर उसकी घर में हत्या की गई।
कुतिया तो एक पशु का नाम है लेकिन उसे सभ्यों ने अपनी हिकारत उगलते विशेषण बना दिया है। इसलिए कुतिया भी चाहती रही होगी कि उसकी आत्मा को नया शरीर मिले। मनुष्य भी महसूस करे कि पशु होकर वह पशु की नस्ल का हो गया है। गौरी लंकेश को पता नहीं था कि वह कुतिया है। वह तो सोचती थी कि जाहिलों, भ्रष्टों, अत्याचारियों और हिंसकों के खिलाफ न्याय और साहस की लड़ाई लड़ रही है। उसे शायद इलहाम रहा भी होगा कि उसे मार दिया जाएगा। लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, समाजसेवक और कई साधारण लोग भी अपनी मौत को लेकर उलझन में नहीं रहते। यह अलग बात है कि उन्हें देशभक्त नहीं कहा जाता, जबकि वे होते हैं। मृत्युंजय होने का अर्थ भगतसिंह, अशफाकउल्ला, चंद्रशेखर आजाद और महात्मा गांधी ने भी सिखाया था। खुद चले गए। मरने के लिए कुछ औलादें छोड़ गए।
नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की गालियों से सजी चैकड़ी है। कई नाम जुड़ भी रहे हैं। मासूम और उम्मीद भरा देश खुद को आश्वस्त करता रहता है। जघन्य हत्याएं हो रही हैं। बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक जनता का नारा लगता है। सीबीआई जांच होनी चाहिए। एस.आई.टी. गठित करें। सीबीआई स्वर्ग से उतरी एजेंसी नहीं है। बकौल सुप्रीम कोर्ट वह केन्द्र सरकार के पिजड़े में कैद तोता है। तोता उतना ही बोलता है जितना सिखाया जाता है। वह मालिक के भोजन से कुछ जूठन खाता हरा-भरा रहता है। पिंजरे से बाहर तयशुदा दूरी तक ही उड़ता है। जनआकाश के नागरिक पक्षियों से घबराकर स्वेच्छा से गुलामी के पिंजरे में भाग आता है। उसकी वफादार मुद्रा से मालिक को मालिक को गर्व महसूस होता है। मुल्जिम नहीं पकड़े जाते। उम्मीदें जिंदगी की अमावस्या के खिलाफ टिमटिमाते दीपों की तरह अलबत्ता होती हैं।
राजधानियों, व्यापारधानियों और हत्यारे कारखानों से मितली करते प्रदूषण को ‘आर्ट ऑफ लाइफ’ कह दिया जाता है। गंगा एक्शन प्लान टाट में मखमली पैबंद है। भारत की संस्कृति, सभ्यता, प्रज्ञा और सोच की गंगा-यमुना-नर्मदा से बेखबर विदेशी ग्रांट लाकर ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी’, ‘बीफ’, ‘बुलेट ट्रेन’, ‘स्टार्ट अप’, ‘जुमला’, ‘जीएसटी’, ‘नोटबंदी’, ‘न्यू इंडिया’, ‘आत्मनिर्भरता’, ‘थाली ताली घंटी बजाओ’ वगैरह के जरिए इतिहास का चरित्रशोधन हो रहा है। पशु और कीड़े-मकोड़े हिंसक होते हैं लेकिन अपने बचाव के लिए। उस पर पैर पड़े तभी सांप तभी काटता है। वनैले पशुओं को छेड़ा नहीं जाए, तो नहीं काटते। मासूम गाय भी बछड़े के बचाव के लिए हिंसक और आक्रामक हो जाती है। बुद्ध, महावीर और गांधी ने भारतीयों में सहनशीलता, विश्व बंधुत्व और भाईचारा के जींस इंजेक्ट किए। अंगरेजों को खदेडऩे हिंसा की तलवार से ज्यादा अहिंसा की ढाल हथियार बनी। जनवादी क्रांति के जनपथ के बरक्स बगल की अंधी अपराधी गली में एक विचारधारा कुंठाओं के हाथ शस्त्र पकड़ाने की हैसियत में पनपती रही। बावडिय़ां, कुएं, गुप्त सुरंगें, बोगदे वगैरह लोगों को तबाह करने खोजे और बनाए गए।

हम अपने मुंह मियांमिट्ठू देश हैं। अफीम के नशे या गांजे की चिलम की सरकारी चुस्कियां लगातार बहला रही हैं। दस-बीस बरस में भारत विश्व गुरु बनेगा। माहौल बनाए रखते बस वोट देते रहिए। खबर छपती है, भारत एशिया का सबसे भ्रष्ट देश है, गरीबी में स्वर्ण पदक पाने ही वाला है। हिंसा, झूठ और फरेब में नए विश्व रिकॉर्ड बना रहा है। इंसानों के बदले मजहब, जातियां, प्रदेश, अछूत, नेता, अफसर, पूंजीपति, वेश्याएं, मच्छर, शक्कर तथा एड्स की बीमारियां, गोदी मीडिया तथा कुछ सिरफिरे देशभक्त एक साथ रहते हैं। कभी कोई घुंधली किरण अंधेरा चीरने की कोशिश कर भी लेती है। उसे उम्मीद के साथ मुगालता भी रहता है कि लोग उसे देखेंगे सुनेंगे। गांधी भगतसिंह तक को किसी ने स्थायी रूप से नहीं सुना। वे लेकिन जानते थे कि लोग नहीं सुनेंगे। फिर भी कहना जरूरी था। वे नया जमाना रचने अपवाद या घटना की तरह आए थे। वैश्य गांधी दूधदाता बकरी के बदले कुतिया पालते युधिष्ठिर के साथ धर्मराज कुत्ते के बदले कुतिया बनकर स्वर्गारोहण करते तो गौरी लंकेश को कुतिया नहीं कहा जाता!
भोपाल गैस त्रासदी के हजारों पीडि़तों के साथ इंसाफ नहीं हुआ। पार्टियों के जनसेवक चोला ओढक़र केंद्र मंत्री भी होते रहे। गोरखपुर और राजस्थान के अस्पताल के बच्चों के साथ इंसाफ तो जयश्रीराम नहीं कर पाये। करोड़ों बच्चों को पालतू कुत्तों, बिल्लियों से भी कम प्यार मिलता है। निर्भया नाम जपने से भी लाखों बच्चियों की अस्मत नहीं बच रही है। दाती महाराज रामपाल, गुरमीत राम रहीम, आसाराम और भी कई शंकर, राम, महमूद, जॉर्ज वगैरहों को हिकारत और गुमनामी की खंदकों में दफ्न क्यों नहीं किया जा सकता। एक वीर हुंकारता रहता है ‘मेरा देश बदल रहा है।’ वह हिंसा को पराक्रम बना रहा है। महान अंग्रेज लेखक Oliver Goldsmith ने एक पागल कुत्ते की मौत पर अमर शोकगीत रचा है। गौरी लंकेश कुतिया तो इन्सान है। मैं लेकिन goldsmith जैसा कवि होने की हैसियत नहीं रखता। उसे अमर कैसे बना सकता हूं। अच्छा है मर गई! उसके साथ कायरों की भी यादें कभी कभी कायम तो रहती हैं।
साहस, साफगोई और पारदर्शी योद्धा बेटी को कुतिया कहा गया है। उसे लाखों लोग ट्रोल भी करते रहे। वे ही धृतराष्ट्र हैं। राजरानी सीता या महारानी द्रौपदी पर भद्दे आक्रमण से ही जनक्रांति हुई। रामायण और महाभारत लिखी गईं। नागरिक समाज ने कुब्जा, मंथरा, अहिल्या, झलकारीबाई, सोनी सोरी, इरोम शर्मिला, आंग सान सू की जैसों को लेकर उतनी जिल्लतें कहां उठाईं। बुद्धिजीवी तबका श्रेष्ठि या सामंती वर्ग की महिलाओं की प्रचारित वेदना से उन्मादित होकर इतिहास बदल देने अभिव्यक्त होता रहता है। गौरी लंकेश! तुम्हारी भी याद तो लोगों को बस धूमिल ही हो रही है। मध्यवर्ग की यह लगातार त्रासदी है। तुम इसमें अपवाद कैसे हो सकती हो? कातिलों के बार बार आगे आकर उनके फिर कुछ करने से ही तो जनता के बयान कलमबद्ध होते रहते हैं।
- मोहर सिंह मीणा
एक सितंबर 2013 सुबह के क़रीब 11 बजे थे. देश भर की निगाहें जोधपुर पर टिकी हुई थीं. हवाई अड्डे पर मीडिया और लोगों का जमावड़ा था.
पुलिस का एक बड़ा अमला चौकसी से तैनात था. थोड़ी देर में दिल्ली से आई फ़्लाइट हवाई अड्डे पर उतरी.
इस फ़्लाइट में नाबालिग़ लड़की से रेप के अभियुक्त और अपने को आध्यात्मिक गुरु कहने वाले आसाराम थे. जोधपुर पुलिस की स्पेशल टीम इंदौर से उन्हें गिरफ़्तार करके लाई थी.
राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी जोधपुर आ रहे थे, इसलिए शहर में ख़ासी पुलिस व्यवस्था थी.
हवाई अड्डे से आसाराम को आरएसी परिसर में बनाए पूछताछ केंद्र में ले जाया गया. आसाराम को अहसास भी नहीं था कि पुलिस की तफ़्तीश कैसे होती है.
शाम के पाँच बज रहे थे. जोधपुर ईस्ट के डीसीपी रूम में मौजूद थे.
पश्चिमी राजस्थान के तेज़-तर्रार सब इंस्पेक्टर अमित सिहाग ने आसाराम से मुख़ातिब होकर कहा, "बाबा, सोफ़े पर कैसे बैठो हो. चलो उठो वहाँ से और नीचे ज़मीन पर बैठो."
पूछताछ की शुरुआत में ही अभियुक्त को अहसास हो गया कि यहाँ कोई रियायत मिलने की उम्मीद नहीं है.
ज़मीन पर बैठते ही उनकी आँखों में आँसू आ गए, "ऐसा मत करो डीसीपी साहब."
डीसीपी ने जवाब दिया, "बाबा, ये बताएँ कि ये सब कैसे किया, जल्दी बताएँ."
आसारामः "ग़लती कर दी. ग़लती कर दी मैंने..."
आसाराम बापू के सामने बैठे डीसीपी थे, उस वक्त जोधपुर ईस्ट में तैनात, आईपीएस अजय पाल लांबा.
ये हिस्सा है पुलिस अधिकारी अजय लांबा की किताब 'गनिंग फ़ॉर द गॉडमैन, द ट्रू स्टोरी बिहाइंड द आसाराम बापूज़ कन्विक्शन' का. इस किताब में ऐसी कई घटनाओं का ज़िक्र है.
आगे की कहानी भी इसी पुस्तक पर आधारित है.
पैसों का लालच और परिवार को धमकियाँ
दो सितंबर 2013 को आसाराम को न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाता है. अजय लांबा की किताब दावा करती है कि इसके बाद से ही जोधपुर पुलिस टीम को ख़तों, लगातार फ़ोन, जान से मारने की धमकियाँ और पैसों का लालच देने वालों की बाढ़ सी आ जाती है.
आसाराम समर्थक एक दिन आईपीएस लांबा के दफ़्तर तक पहुँच जाते हैं.
किताब के मुताबिक़, ये लोग लांबा से कहते हैं, "आप जितनी कल्पना कर सकते हैं उससे भी ज़्यादा पैसा बापू देंगे आपको, लेकिन आप इस केस में उनको गिरफ़्तार मत करो."
धमकियों और इंटेलिजेंस की रिपोर्ट से परेशान लांबा की पत्नी, अपनी बेटी को स्कूल भेजना बंद कर देती हैं.
अजय लांबा कहते हैं कि समर्थकों ने उनके माता-पिता को भी धमकाने का प्रयास किया.
नवंबर 2013 में चार्जशीट फ़ाइल करने के बाद भी लगातार पुलिस टीम और ख़ास कर आईपीएस लांबा को जान से मारने की धमकियाँ मिलती रही थीं.
अजय लांबा बताते हैं कि उन्हें राजनेताओं, ब्यूरोक्रेट्स, पुलिस विभाग के कुछ अधिकारियों और परिचित तक ने आसाराम केस में बैकफ़ुट पर रहने की सलाह दी थी.
केस की इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर चंचल मिश्रा का आसाराम समर्थक कोर्ट में भी पीछा करते थे. मिश्रा को आईईडी ब्लास्ट से मारने की साज़िश भी सामने आई थी. इस वजह से उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा भी दी गई थी.
केस की तफ़्तीश से जुड़े एक अन्य सब इंसपेक्टर, सत्यप्रकाश को राजस्थान में आसाराम की करोड़ों की प्रॉपर्टी देने तक का ऑफ़र दिया जाता है.
इस सब बातों को अब सात साल बीत चुके हैं. आसाराम बापू को दो साल पहले इन्हीं अधिकारियों की विवेचना के आधार पर दोषी पाकर सज़ा सुनाई जा चुकी है और वे जेल में हैं.
लेकिन अब भी तफ़्तीश करने वाली टीम के कई सदस्यों को पुलिस ने बाक़ायदा सिक्योरिटी दी हुई है.
प्रेस कॉन्फ़्रेंस से हुई गिरफ़्तारी की राह आसान
आसाराम केस में राजस्थान पुलिस की एंट्री मध्य प्रदेश में इंदौर में स्थित उनके आश्रम से हुई थी.
पुलिस टीम 30 अगस्त 2013 को जोधपुर से एडिशनल डीसीपी सतीश चंद्र जांगिड़ के नेतृत्व में इंदौर के लिए रवाना हुई थी.
जोधपुर पुलिस टीम इंदौर के सफ़र में थी और इधर जोधपुर में शाम पाँच बजे डीसीपी अजय पाल लांबा ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी.
लांबा ने पत्रकारों को बताया था, "हम आसाराम को गिरफ़्तार करने वाले हैं. एक टीम गिरफ़्तारी के लिए भेजी जा चुकी है. हम जानते हैं वह कहाँ है और हमारी टीम जल्द ही वहाँ पहुँच कर उसे गिरफ़्तार करेगी."
अजय लांबा बताते हैं कि वो उस दिन अंधेरे में तीर चला रहे थे, क्योंकि उनके पास आसाराम के बारे में कोई पुख़्ता जानकारी नहीं थी.
लेकिन पुलिस का ये दांव सही पड़ा और आसाराम शायद पुलिस से दूर जाने के लिए भोपाल एयरपोर्ट पहुँच गए.
पुलिस को इसकी जानकारी हुई, लेकिन इंदौर से इतनी जल्दी भोपाल पहुँचना मुश्किल था.
पुलिस ने इसकी जानकारी मीडिया को लीक कर दी और भोपाल एयरपोर्ट पर मीडिया जमा हो गया.
आसाराम शायद ख़ुद को कैमरों की नज़रों से छिपाने और ख़ुद छिपने के इरादे से इंदौर में अपने आश्रम के लिए निकल पड़े. एयरपोर्ट में हो रहे सारे घटनाक्रम की सूचना पुलिस तक टीवी चैनलों के माध्यम से मिल रही थी.
आसाराम बापू ख़ुद ब ख़ुद पुलिस के जाल में फँसते जा रहे थे. पुलिस के इंदौर में उनका इंतज़ार करने के बारे में वे पूरी तरह से अनभिज्ञ थे.
पुलिस का सामना
रात के नौ बजे इंदौर आश्रम के मुख्य गेट पर हज़ारों समर्थक नारेबाज़ी कर रहे थे. पुरुषों से ज़्यादा संख्या महिलाओं की थी. मीडिया और पुलिस बल भी बड़ी संख्या में मौजूद था.
आश्रम में आसाराम, उनके बेटे नारायण साईं, बेटी और उनके क़रीबी भक्त मौजूद थे. पुलिस ने नारायण साईं से कहा कि एक मामले में आसाराम से पूछताछ करनी है.
काफ़ी कोशिशों के बाद रात 11 बजे पुलिस आसाराम तक पहुँचती है.
आगे की कहानी अजय लांबा की किताब से
पुलिस को देखते ही आसाराम कहने लगते हैं, "तुम्हें पता है मैं कौन हूँ? तुम जानते हो देश में मेरे कितने भक्त हैं? तुम्हें पता है कि कितने राजनीति के लोगों के सिर पर मेरा हाथ है? तुम लोगों की हिम्मत कैसे होती है मेरे ही आश्रम में घुस कर मुझसे यह सब बेवकूफ़ी की बातें करने की? बताओ? "
यह पुलिस टीम और आसाराम का पहली बार आमना-सामना था.
देर तक आसाराम कभी अपनी सेहत का तो कभी सुबह चलने की बात करते हैं. बीच-बीच में वो पुलिस को अपने रसूख़ की भी याद दिलाते रहते हैं.
अजय लांबा बताते हैं कि आसाराम नित्य क्रियाओं के नाम पर ख़ुद अपने कमरे में चले गए, और शायद अपने बेटे नारायण साईं से समर्थकों को बुलाने के लिए कहा.
जोधपुर से डीसीपी अजय पाल लांबा ने भी सुबह के बजाय रात में ही उन्हें गिरफ़्तार करने को कह दिया था.
आख़िर में देर रात क़रीब 12 बजे राजस्थान पुलिस के टीम लीडर एडिशनल डीसीपी सतीश चंद्रजांगिड़ आसाराम से कहते हैं, "बाबा, कल सुबह नहीं. हम आपको अभी अरेस्ट करके जोधपुर ले जा रहे हैं. सुबह तक तो बहुत देर हो जाएगी."
फ़िल्मी अंदाज़ में आसाराम की गिरफ़्तारी
पुलिस ने आसाराम को पकड़कर बाहर खड़ी अपनी गाड़ी में बिठा दिया.
अजय लांबा की किताब के मुताबिक़ गिरफ़्तारी के समय आसाराम अपने बेटे और भक्तों को पुकारते हुए कह रहे थे, "अरे अरे, ये क्या कर रहे हो. नारायण इनको रोको. भक्तों देखो ये तुम्हारे बाबा को पकड़ कर ले जा रहे हैं. सब इनको रोको."
राजस्थान पुलिस, स्थानीय पुलिस के बताए रास्ते पर आश्रम से बाहर निकल जाती है. बाहर भारी तादाद में मौजूद समर्थकों ने पुलिस की गाड़ियों को रोकने की कोशिश की और कुछ ने कहा कि ये लोग एयरपोर्ट न पहुँच पाएँ.
लेकिन इंदौर पुलिस के सहयोग से पुलिस टीम एयरपोर्ट पर पहुँच जाती है. फ़्लाइट में भी आसाराम समर्थकों से उलझते हुए पुलिस टीम आसाराम को लेकर इंदौर से दिल्ली और फिर दिल्ली से 1 सितंबर सुबह 11 बजे जोधपुर पहुँचती है.
केस की इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर चंचल मिश्रा ने बीबीसी को बताया, "रात क़रीब 12.30 बजे थे, जब आश्रम से इंदौर एयरपोर्ट के सफ़र में आसाराम ने कहा- मुझसे ग़लती हो गई. मुझे उससे नहीं मिलना चाहिए था, वो बहुत छोटी थी."
इस केस को ठीक सात साल बीत चुके हैं. लंबा ट्रायल, कुछ गवाहों की हत्या और पुलिस टीम को मिली धमकियों के बाद आसाराम को दोषी पाया जा चुका है और वो सज़ा काट रहे हैं.
अब अजय लांबा की किताब एक बार फिर से भारत के एक चर्चित केस के कुछ अनछुए पहलुओं को आम जनता के बीच ला रही है. लेकिन, इन सबके बीच पीड़िता का परिवार अब भी ख़ुद को संभाल नहीं सका है.
पीड़िता के पिता ने बीबीसी को बताया, "हमने अपने जिगर के टुकड़ों को गुरुकुल में पढ़ने भेजा था. लेकिन उस दुष्ट ने ऐसा किया कि हम टूट गए. लेकिन सुकून है कि उसे सज़ा हुई, पूरे परिवार को तसल्ली है कि वो जेल में बंद है."(bbc)
अध्ययन से पता चलता है कि वास्तव में दुनिया भर में वनों की कटाई को धीमा करने में काफी सफलता मिली है
- Dayanidhi
हाल के वर्षों में मैंग्रोव वनों की कटाई के कारण वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि हुई है। सिंगापुर-ईटीएच सेंटर के नेतृत्व में किए गए शोध से पता चलता है कि 1996 से 2016 के बीच दुनिया भर में वनों की कटाई से जारी कार्बन की शुद्ध मात्रा केवल 1.8 फीसदी है, जो कि वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) उत्सर्जन का 0.1 फीसदी से कम है। मैंग्रोव वनों द्वारा किया जाने वाला कार्बन संग्रहण (स्टॉक्स) कम हुआ है। इसकी मात्रा को बढ़ाने के नए तरीके में मैंग्रोव वनों का विस्तार करना, संरक्षण और इनका ध्यान रखना महत्वपूर्ण है।
अध्ययन में बताया गया है कि मैंग्रोव कार्बन संग्रहण (स्टॉक्स) के शुद्ध घाटे को कम करने के लिए, लोगों के द्वारा वृक्षारोपण के माध्यम से मैंग्रोव का विस्तार किया जाना चाहिए। पिछले अनुमानों ने केवल मैंग्रोव वनों की कटाई के बुरे प्रभावों के बारे में बताया था, लेकिन इस बात की संभावना पर प्रकाश नहीं डाला कि नए मैंग्रोव भी उगेंगे।
नई विधि में मैंग्रोव पर दुनिया भर के आंकड़े बताते है कि इनका बेहतर विस्तार हुआ है, अर्थात मैंग्रोव के जंगल बढ़े हैं। इस नए शोध में मैंग्रोव के विस्तार के साथ-साथ कार्बन घनत्व और इसकी मात्रा निर्धारित की है। इसमें बताया गया है कि आम तौर पर जब मैंग्रोव वनों की कमी होती है तो कितनी मात्रा में कार्बन संग्रहण का नुकसान होता है। नई पद्धति का उपयोग करते हुए, पिछले मॉडल से तुलना करने पर पता चलता है लगभग 66 फीसदी कार्बन का नुकसान हुआ है। यह अध्ययन नेचर कम्युनिकेशन्स पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
शोध की अगुवाई करने वाले, सिंगापुर-ईटीएच सेंटर के डॉ. डैन रिचर्ड्स के अनुसार, मैंग्रोव कार्बन स्टॉक का शुद्ध नुकसान कम होना आश्चर्यजनक था। मैंग्रोव वनों की कटाई को अक्सर संकट के रूप में देखा जाता है, लेकिन हाल के कामों के बीच हमारे अध्ययन से पता चलता है कि वास्तव में दुनिया भर में वनों की कटाई को धीमा करने में काफी सफलता मिली है। मेक्सिको और म्यांमार के कुछ हिस्सों में 1996 की तुलना में 2016 में मैंग्रोव में अधिक कार्बन संग्रहीत था।
मोनाश विश्वविद्यालय के डॉ. बेंजामिन थॉम्पसन ने कहा मैंग्रोव वनों को काटे जाने से बचाने में संरक्षण प्रयासों की स्पष्ट सफलता के बराबर अन्य कोई संतोष नहीं हो सकता है। मैंग्रोव किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में कार्बन के उच्चतम घनत्व को संग्रहीत करते हैं। प्रभावी संरक्षण और बहाली को अभी भी शुद्ध नुकसान की इन कम दरों को बनाए रखने के लिए काफी प्रबंधन, प्रयास और निवेश की आवश्यकता है।
इसके अलावा, मैंग्रोव संरक्षण और पुनर्स्थापना गतिविधियों से ली गई सीख को अन्य पारिस्थितिक तंत्रों को फायदा पहुंचाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर के डॉ. लाहिरु विजाडेसा कहते हैं उष्णकटिबंधीय पीटलैंड कार्बन के बड़े स्टॉक में से एक पारिस्थितिकी तंत्र है, जहां हाल के दशकों में वनों की कटाई की दर बहुत अधीक थी।
पीटलैंड : प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ (आईसीयूएन) के अनुसार पीटलैंड एक प्रकार की आर्द्रभूमि है जो पृथ्वी पर सबसे मूल्यवान पारिस्थितिक तंत्रों में से एक हैं। ये वैश्विक जैव विविधता के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं, सुरक्षित पेयजल प्रदान करते हैं, बाढ़ के जोखिम को कम करते हैं और जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करते हैं।
पीटलैंड सबसे बड़ा प्राकृतिक स्थलीय कार्बन स्टोर है। संयुक्त रूप से दुनिया में अन्य सभी प्रकार की वनस्पति की तुलना में अधिक कार्बन का भंडारण करते हैं।(downtoearth)


