विचार/लेख
By Lalit Maurya
एक नए शोध से पता चला है कि यदि शैशव अवस्था में बच्चे के शरीर में आयरन की कमी हो तो वो भविष्य में टीकों के प्रभाव को कम कर सकती है। यह जानकारी ईटीएच ज्यूरिख द्वारा किये शोध में सामने आई है। यह शोध जर्नल फ्रंटियर्स इन इम्म्युनोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक टीकाकरण कार्यक्रम में तेजी आई है और यह पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बच्चों तक पहुंच रहा है। इसके बावजूद अब भी हर साल करीब 15 लाख बच्चे उन बीमारियों के कारण मर जाते हैं जिनके टीके उपलब्ध हैं। इनमें से ज्यादातर मौतें कम आय वाले देशों में ही होती हैं। लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया था कि आखिर क्यों टीकाकरण के बावजूद इन गरीब देशों के बच्चे इन बीमारियों का शिकार बन जाते हैं। यह एक बड़ी चिंता का विषय है कि आखिर क्यों इन देशों में टीकाकरण सफल नहीं हो पा रहा है। एक ही तरह की वैक्सीन होने के बावजूद इन देशों में टीके क्यों प्रभावी नहीं होते?
एनीमिया से पीड़ित हैं 42 फीसदी बच्चे और 40 फीसदी गर्भवती महिलाएं
वैज्ञानिकों के अनुसार इसके पीछे की एक बड़ी वजह शिशुओं में आयरन की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में 5 वर्ष से कम उम्र के करीब 42 फीसदी बच्चे और 40 फीसदी गर्भवती महिलाओं में आयरन की कमी है और वो एनीमिया से पीड़ित हैं। इसके पीछे की वजह उनके खाने में आयरन की कमी है। यदि भारत के आंकड़ों पर गौर करें तो नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार देश में 5 वर्ष से कम आयु के 58 फीसदी से ज्यादा बच्चे एनीमिया से ग्रस्त हैं। जबकि दूसरी और 15 से 49 वर्ष की करीब 53 फीसद महिलाओं में खून की कमी है।
क्या कहता है अध्ययन
हाल ही में किए दो अध्ययनों से यह बात साबित हो गई है कि बचपन में आयरन की कमी भविष्य में वैक्सीन के प्रभाव को कम कर सकती है। इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने पहले शोध में केन्या के बच्चों पर अध्ययन किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार स्विट्ज़रलैंड में जो बच्चे जन्म लेते हैं उनके शरीर में पर्याप्त मात्रा में आयरन होता है जो आमतौर पर उनके जीवन के पहले 6 महीनों के लिए पर्याप्त होता है। वहीं दूसरी ओर केन्या, भारत, और अन्य पिछड़े देशों में जन्में शिशुओं में आयरन की कमी होती है। विशेषरूप से जिन बच्चों की माताओं में आयरन की कमी होती है, उनके बच्चे भी आयरन की कमी के साथ पैदा होते हैं। साथ ही उन बच्चों का वजन भी कम होता है। इस वजह से उनमें संक्रमण और खूनी दस्त जैसी समस्याएं होती हैं। इस कारण उनके शरीर में मौजूद आयरन भंडार दो से तीन महीनों में ख़त्म हो जाता है।
शोध से पता चला है कि जिन बच्चों के शरीर में खून की कमी थी, उनके कई टीकाकरण के बावजूद डिप्थीरिया, न्यूमोकोकी और अन्य बीमारियों से ग्रस्त होने की सम्भावना अधिक थी, क्योंकिं उनके शरीर में इन बीमारियों के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता कम विकसित थी। इनमें गैर एनेमिक शिशुओं की तुलना में बीमारियों का जोखिम दोगुना था। इस शोध में आधे से भी अधिक बच्चे 10 सप्ताह की उम्र में एनीमिया से पीड़ित थे। वहीं 24 सप्ताह तक, 90 फीसदी से अधिक हीमोग्लोबिन और रेड सेल्स की कमी का शिकार थे।
रोगाणुओं से निपटने में ज्यादा सक्षम था आयरन सप्लीमेंट पाने वाले बच्चों का शरीर
दूसरे अध्ययन में शोधकर्ताओं ने रोजाना चार महीने तक छह माह के 127 शिशुओं को सूक्ष्म पोषक तत्वों वाला एक पाउडर दिया। 85 बच्चों के पाउडर में आयरन था, बाकि 42 बच्चों को आयरन सप्लीमेंट नहीं दिया गया। जब बच्चों को 9 माह की आयु में खसरे का टीका लगाया गया तो जिन बच्चों को आयरन दिया गया था, उनके शरीर में रोगाणुओं के खिलाफ ज्यादा प्रतिरक्षा विकसित हुई। 12 महीने की उम्र में इन बच्चों का शरीर ने केवल खसरे के रोगाणुओं से बेहतर तरीके से लड़ने में सक्षम था, बल्कि उनके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली रोगाणुओं को बेहतर ढंग से समझने के भी काबिल थी।
डब्ल्यूएचओ भी आहार में आयरन की पर्याप्त मात्रा लेने की सलाह देता है। शोधकर्ताओं के अनुसार इसको अपनाना महत्वपूर्ण है, क्योंकि छोटे बच्चों के शरीर में मौजूद पर्याप्त मात्रा में आयरन से टीकाकरण कार्यक्रम में भी सफलता मिलेगी। साथ ही इसकी मदद से 15 लाख से भी ज्यादा बच्चों की जिंदगी बचाई जा सकेगी, जिनकी जान हर साल उन बीमारियों से चली जाती है जिन्हें टीकाकरण की मदद से रोका जा सकता है।(downtoearth)
By Rajeshwari Sinha, Amit Khurana, Divya Khatter
हरियाणा के फतेहाबाद जिले में रहने वाले डेरी किसान खैरातीलाल चोकरा अपनी गाय या भैंसों के बीमार पड़ने पर उन्हें एंटीबायोटिक की तगड़ी खुराक देते हैं। एक सिलसिला हफ्ते में दो या तीन जारी रहता है। उत्तर प्रदेश के झांसी में रहने वाले अन्य डेरी किसान सौरभ श्रीवास्तव भी अपने पशुओं को लगातार तीन दिन तक एंटीबायोटिक का इंजेक्शन लगाते हैं। संक्रमण से पशुओं के स्तन ग्रंथि में आई सूजन को दूर करने के लिए वह ऐसा करते हैं। एंटीबायोटिक देने के बाद दूध का रंग बदल जाता है और उससे अजीब सी दुर्गंध आने लगती है। श्रीवास्तव बताते हैं, “दूध का रंग ऐसा हो जाता है जैसे उसमें खून मिल गया हो।” चूंकि दूध बेचकर ही उनका जीवनयापन होता है, इसलिए पशुओं को स्वस्थ रखना उनके लिए बहुत जरूरी होता है। चोकरा के पास 20 गाय व भैंस है, जबकि श्रीवास्तव के पास कुल 92 गाय व भैंस हैं। ये पशु ही उनके जीवन का आधार हैं।
भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने 2018 में देशभर के संगठित और असंगठित क्षेत्र के दूध के नमूनों की जांच की थी। जांचे गए 77 नमूनों में एंटीबायोटिक के अवशेष स्वीकार्य सीमा से अधिक पाए गए थे। लेकिन खाद्य नियामक ने यह नहीं बताया कि ये कौन से एंटीबायोटिक थे या किस ब्रांड के थे। दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने इस संबंध में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन किया, लेकिन लगातार फॉलोअप और अपील के बाद भी स्पष्ट जानकारी नहीं मिली। एंटीबायोटिक के दुरुपयोग और दूध में इसकी मौजूदगी के कारणों का पता लगाने के लिए सीएसई ने प्रमुख दूध उत्पादक राज्यों-पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और तमिलनाडु के किसानों समेत तमाम हितधारकों से बात की।
बीमारी का बोझ
किसान सबसे अधिक परेशान थनैला रोग से होते हैं। पशुओं को होने वाला यह सामान्य रोग है। गलत कृषि पद्धति और दूध दुहने में साफ-सफाई की कमी के कारण पशुओं को यह रोग हो जाता है। अगर कोई पशु दूध दुहने के बाद गंदी जगह बैठ जाता है तो सूक्ष्मजीव थनों के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर पशु को बीमार कर देते हैं। दूध दुहने वाला अगर साफ-सफाई से समझौता कर ले या दूध दुहने में गंदे उपकरणों का इस्तेमाल करे, तब भी थनैला रोग हो सकता है। यह बीमारी विदेशी नस्ल के दूधारू पशुओं और क्रॉसब्रीड पशुओं में बहुत सामान्य होती है।
किसान अस्पतालों के चक्कर काटकर समय बर्बाद नहीं करना चाहते, इसलिए आमतौर पर इस बीमारी का इलाज खुद ही करते हैं। कर्नाटक में कौशिक डेरी फार्म के संचालक पृथ्वी कहते हैं, “अधिकांश मौकों पर सरकारी चिकित्सक उपलब्ध नहीं होते। कंपाउंडर फार्म में आते हैं लेकिन उन्हें बीमारी या उपचार की बहुत कम जानकारी होती है।” वह अन्य किसानों से वाट्सऐप के माध्यम से समस्या पर चर्चा करते हैं और चिकित्सक से फोन पर ही बात कर लेते हैं। निजी चिकित्सकों की फीस भी बहुत ज्यादा होती है। इसके अलावा दवाएं बिना चिकित्सक के परामर्श पर आसानी से मिल जाती हैं।
पशुपालन विभाग (डीएडीएच) का किसान मैन्युअल पशुओं के लिए केवल पेनिसिलिन, जेंटामाइसिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन और एनरोफ्लोसेसिन के इस्तेमाल की सुझाव देता है। हालांकि श्रीवास्तव सेफ्टीओफर, अमोक्सीसिलिन, क्लोक्सासिलिन और सेफ्ट्रीएक्सोन-सलबैक्टम का इस्तेमाल करते हैं। उनकी तरह चोकरा भी सेफ्टीजोजाइन या सेफ्ट्रीएक्सोन-टेकोबैक्टम का प्रयोग करते हैं। ये एंटीबायोटिक पशुओं की मांसपेशियों या नसों से उनके शरीर में पहुंचाई जाती हैं। कई बार पशुओं की स्तनग्रंथि में यह इंजेक्शन के जरिए सीधे पहुंचा दी जाती है।
करनाल स्थित नेशनल डेरी रिसर्च इंस्टीट्यूट में वेटरिनरी अधिकारी जितेंदर पुंढीर बताते हैं, “ कौन-सी एंटीबायोटिक कितनी मात्रा में दी जानी चाहिए, किसान यह जाने बिना इंजेक्शन लगा देते हैं। नतीजतन, वे या तो पशुओं को एंटीबायोटिक की कम खुराक देते हैं या अधिक।” बहुत से चिकित्सक भी रोग के कारणों को पता लगाए बिना दवाएं देते हैं। वह आगे कहते हैं, “अगर एंटीबायोटिक अप्रभावी है तो उसे बदला जा सकता है।”हरियाणा के सिरसा में स्थित फरवाई कलां गांव के संदीप कुमार के पास पांच डेरी पशु हैं। वह बताते हैं, “जब किसी पशु को थनैला रोग हो जाता है तो उसका पूरी तरह ठीक होना मुश्किल होता है। उसे लगातार संक्रमण होता रहता है।” कुछ बड़े किसान थनैला बीमारी की रोकथाम के लिए “ड्राई काऊ थेरेपी” का अभ्यास करते हैं। जब कोई पशु दूध नहीं देता, तब बीमारी की रोकथाम के लिए उसकी स्तनग्रंथि में लंबे समय तक असर डालने वाली एंटीबायोटिक डाली जाती है। सोनीपत में रहने वाले डेरी किसान नरेश जैन बताते हैं कि उनके फार्म का हर पशु नियमित रूप से इस प्रक्रिया से गुजरता है।
डेरी पशु बैक्टीरिया से होने वाले रोगों जैसे हेमोरहेजिक सेप्टीसेमिया, ब्लैक क्वार्टर, ब्रूसेलोसिस और मुंह व खुरों के वायरल रोग के संपर्क में आते हैं। सरकार इन रोगों से बचाव के लिए टीके लगाती है लेकिन किसानों की उसमें दिलचस्पी नहीं होती। श्रीवास्तव कहते हैं कि मुझे मुफ्त सरकारी टीकों से अधिक निजी टीकों पर भरोसा है। थनैला रोग का कोई टीका नहीं है। 100 से अधिक सूक्ष्मजीव इस बीमारी का कारण बनते हैं, इसलिए इसका टीका बनाने में मुश्किलें आ रही हैं। हालांकि राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड थनैला रोग को नियंत्रित करने की परियोजना चला रहा है। किसान जब एंटीबायोटिक का जरूरत से अधिक प्रयोग करते हैं तो जिस दूध को हम स्वास्थ्य के लिए लाभदायक मानकर पीते हैं, वह हानिकारण हो जाता है।
दूध की हकीकत
भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। 2018-19 में यहां 187.7 मिलियन टन दूध का उत्पादन किया गया। भारत का शहरी क्षेत्र 52 प्रतिशत दूध का उपभोग करता और शेष उपभोग ग्रामीण क्षेत्र के हिस्से आता है। शहरी क्षेत्रों में असंगठित क्षेत्र (दूधिया और ठेकेदार) से 60 प्रतिशत दूध की आपूर्ति होती है। यह दूध क्या वास्तव में अच्छा है?
बहुत बार यह दूध उन बीमार पशुओं से प्राप्त होता है जिन्हें एंटीबायोटिक की भारी खुराक दी जाती है। सीएसई ने जिन किसानों से बात उनमें से अधिकांश को विदड्रोल पीरियड की जानकारी नहीं थी। यह एंटीबायोटिक के अंतिम इस्तेमाल और दूध बेचने से पहले की अवधि होती है। किसानों को इस अवधि में दूध कभी नहीं बेचना चाहिए क्योंकि इस दौरान दूध में एंटीबायोटिक के अंश मिल जाने का खतरा बना रहता है।
हरियाणा के फरीदाबाद जिले में स्थित बादौली गांव में 12 मुर्रा भैसों को पालने वाले सुभाष बताते हैं, “मैं एंटीबायोटिक के प्रयोग के दौरान भी दूध बेचता हूं।” नोएडा में डेरी चलाने वाले जितेंदर यादव कहते हैं कि 7-15 दिन के विदड्रोल पीरियड और उपचार के दौरान अगर किसान दूध नहीं बेचेंगे तो उनकी जिंदगी कैसे चलेगी। धौलपुर में रहने वाले मोहन त्यागी मानते हैं कि वह राज्य के कॉऑपरेटिव ब्रांड पराग को दूध बेचते हैं। अर्जुन भी पशुओं के इलाज के दौरान दूध निकालते हैं। उन्होंने राजस्थान के कोऑपरिटव ब्रांड सरस को दूध बेचा है। हालांकि सरस ने उन्हें ऐसा करने से मना किया है।
विदड्रोल पीरियड के दौरान निकाला गया दूध पीने का नतीजा एंटीबायोटिक रजिस्टेंस के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि एंटीबायोटिक आंतों के बैक्टीरिया पर चयन का दबाव बढ़ाते हैं। अध्ययन बताते हैं उबालकर या पाश्चुरीकरण के द्वारा एंटीबायोटिक को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता। वर्ष 2019 में बांग्लादेश एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के शोध में पाया गया है कि दूध को 20 मिनट तक 100 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर उबालकर भी एमोक्सीसिलिन, ऑक्सीटेट्रासिलिन और सिप्रोफ्लोसेसिन के स्तर में परिवर्तन नहीं होता। वेस्ट बंगाल यूनिवर्सिटी ऑफ एनिमल एंड फिशरीज साइंस इन इंडिया के अध्ययन में भी पाया गया है कि पाश्चुरीकरण से दूध में मौजूद क्लोसासिलिन के अवशेषों पर असर नहीं होता।
कंपनियों की जांच
सीएसई ने इस सिलसिले में दूध कोऑपरेटिव संघों से भी बात की और पाया कि अधिकांश डेरी कोऑपरेटिव कभी-कभी ही दूध में एंटीबायोटिक की जांच करते हैं। उपभोक्ताओं को पैकेटबंद और फुटकर दूध की 80 प्रतिशत आपूर्ति कोऑपरेटिव के माध्यम से होती है। इन कोऑपरेटिव में थ्रीटियर व्यवस्था काम करती है। गांवों में डेरी कोऑपरेटिव सोसायटी होती हैं, जिला स्तर पर दूध यूनियन होती हैं और अंत में सर्वोच्च इकाई के रूप में राज्य स्तरीय दूध महासंघ होते हैं। किसानों से डेरी कोऑपरेटिव सोसायटी के माध्यम से दूध लिया जाता है और उसे बड़े-बड़े कूलरों में इकट्ठा किया जाता है। फिर इसे टैंकरों में भरकर जिला स्तरीय प्रोसेसिंग प्लांट में भेजा जाता है।
अब तक दूध महासंघों का ध्यान दूध से यूरिया, स्टार्च और डिटर्जेंट हटाने पर ही केंद्रित रहा है। एंटीबायोटिक की मौजूदगी पता लगाना उनकी प्राथमिकता में शामिल नहीं है। पराग में क्वालिटी एश्योरेंस की इंचार्ज शबनम चोपड़ा ने ईमेल के जवाब में बताया कि कंपनी में अब तक एंटीबायोटिक की मौजूदगी का कोई मामला सामने नहीं आया है। ईमेल के जवाब में वह लिखती हैं, “हमने प्रमुख डेरी प्रयोगशालाओं को अपग्रेड किया है। इनको एंटीबायोटिक जांच किट उपलब्ध कराई गई हैं। यहां आने वाले दूध की रूटवार जांच की जाती है। हर छह महीने में हम अपने दूध और उससे बने उत्पादों की जांच करते हैं। यह जांच पोषण मूल्यों, जीवाणुओं, एंटीबायोटिक के अवशेष और पशु दवा के अवशेषों का पता लगाने के लिए होती है।”
नंदिनी दूध ब्रांड तैयार करने वाले कर्नाटक दूध महासंघ के अडिशनल डायरेक्टर तिरुपथप्पा ने सीएसई को बताया, “छह महीने में एक बार दूध में एंटीबायोटिक की जांच की जाती है। यह जांच एनएबीएल से अधिकृत प्रयोगशाला में आईएसओ मानकों के मुताबिक होती है।” राजस्थान में सरस, पंजाब में वेरका और हरियाणा में वीटा दूध बेचने वाले महासंघ के अधिकारियों ने भी ऐसी ही जांच की बात की। ग्वालियर सहकारी दुग्ध संघ के एक प्रतिनिधि ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया, “जगह-जगह से लाए गए दूध में एंटीबायोटिक की जांच हमारे पास मौजूद प्रयोगशालाओं से संभव नहीं है।” यह संघ मध्य प्रदेश राज्य कोऑपरेटिव डेरी महासंघ से संबद्ध है जो सांची नामक दूध का ब्रांड बेचता है। वह बताते हैं, “जांच के लिए प्रयोगशालाओं से प्रमाणित अत्यंत आधुनिक उपकरणों की जरूरत है।”
हालांकि कुछ कोऑपरेटिव ने माना कि वे नियमित जांच करते हैं। उदाहरण के लिए देशभर में सबसे लोकप्रिय अमूल दूध बेचने वाले गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड को ही लीजिए। अमूल में क्वालिटी एश्योरेंस के वरिष्ठ प्रबंधक समीर सक्सेना ने कहा, “सभी टैंकरों में आने वाले दूध में एंटीबायोटिक के अंश पता लगाने के लिए प्रतिदिन जांच की जाती है। हालांकि एफएसएसएआई इतनी जांच का सुझाव नहीं देता। रोजाना लगभग 700 नमूनों की जांच की जाती है।” अमूल प्रतिदिन करीब 23 मिलियन टन दूध जुटाता है। वह बताते हैं, “विभिन्न सोसायटी द्वारा इकट्ठा और टैंकरों के माध्यम से भेजे गए दूध के सैंपलों में एंटीबायोटिक नहीं पाया गया है।” हालांकि, जब सीएसई ने अमूल से परीक्षण रिपोर्ट साझा करने के लिए कहा तो कंपनी ने कोई जवाब नहीं दिया।
मालाबार क्षेत्रीय सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ (एमारसीएमपीयू ), जो केरल सहकारी दुग्ध विपणन महासंघ के तहत काम करता है, का दावा है कि वे तीन स्तरों पर परीक्षण करते हैं। टैंकर के नमूनों की दैनिक जांच के अलावा हर दो महीने में किसानों की व्यक्तिगत एवं सामुदायिक जांच की जाती है ताकि समस्या के मूल कारणों का पता लगाया जा सके। यह पूछे जाने पर कि परीक्षण किए गए नमूनों में एंटीबायोटिक्स का पता लगने पर क्या किया जाता है, एमारसीएमपीयू के वरिष्ठ प्रबंधक जेम्स केसी ने कहा, “हमारे पास किसान का पता लगाने के लिए एक ट्रेसबिलिटी तंत्र है।”
सांची में संयंत्र संचालन प्रभाग के एक अधिकारी का कहना है, “गांवों में हमारे कार्यकर्ता प्रदूषण के संभावित स्रोत से वाकिफ होते हैं। दोषी पाए जाने पर किसान को चेतावनी दी जाती है। यदि वह गलती दोहराता है, तो उसे पंजीकृत किसानों की सूची से हटा दिया जाता है।” इससे यह साफ जाहिर होता है कि परीक्षण केवल तभी किए जाते हैं जब संदेह उत्पन्न होता है।
सीएसई ने अन्य प्रमुख ब्रांडों जैसे मदर डेरी के अलावा नेस्ले और गोपालजी जैसे निजी ब्रांडों से भी इस विषय में जानकारी ली। नेस्ले ने दावा किया कि उनके द्वारा प्रोसेस करके बेचे गए दूध का परीक्षण सरकारी मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों तरीकों से किया जाता है। जब कंपनी से लैब परीक्षण रिपोर्ट दिखाने का अनुरोध किया गया, तो कंपनी के प्रतिनिधि ने कहा कि वह रिपोर्ट साझा नहीं करते। मदर डेरी और गोपालजी ने तो इस पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। एफएसएसएआई ने हाल ही में एंटीबायोटिक का पता लगाने और डेरी प्रसंस्करण के लिए दूध के परीक्षण और निरीक्षण (स्कीम ऑफ टेस्टिंग एंड इंस्फेक्शन यानी एसटीआई) की तीन किटों को मंजूरी दी है। एसटीआई के अनुसार, एंटीबायोटिक्स और पशु चिकित्सा दवाओं के अवशेषों की निगरानी दो निरीक्षण बिंदुओं पर की जाएगी। लेकिन निरीक्षण की आवृत्ति त्रैमासिक है, जिसके कारण इसका कोई खास फायदा नहीं मिल पाता।
बड़े पैमाने पर दुरुपयोग
अज्ञानी डेरी फार्म वाले इंसानों के लिए आवश्यक एंटीबायोटिकों का इंजेक्शन पशुओं को बिना कुछ सोचे विचारे लगाते जा रहे हैं
* डिपार्टमेंट ऑफ ऐनिमल हज़्बन्ड्री के फार्मर मैनुअल ने मैस्टाइटीस के उपचार के लिए इसकी सिफारिश की है। एंथ्रेक्स और ब्लैक क्वार्टर के उपचार के लिए पेनिसिलिन और गायों के तपेदिक के लिए स्ट्रेप्टोमाइसिन
सेफटीओफर एवं एनरोफलोक्सासीन का पशुओं के इलाज में इस्तेमाल होता है जिसके फलस्वरूप इसी श्रेणी की अन्य दवाइयों, जो मानवों के लिए अति महत्वपूर्ण हैं, के प्रति जीवाणुओं में प्रतिरोध विकसित हो सकता है
हम पर असर
भारतीय डेरी क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे पास पशुधन रोगों के लिए कोई मानक उपचार दिशानिर्देश नहीं हैं। अतः पशु चिकित्सक किसी एक मानक दस्तावेज को आधार मानकर एंटीबायोटिक्स नहीं लिख सकते। किसान अपने पशुओं पर उन एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध उपयोग करते हैं जो मनुष्यों के लिए भी जरूरी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार गैर-मानव स्रोतों से होने वाले बैक्टीरिया जनित मानव संक्रमण के इलाज के लिए कुछ खास उपचार हैं, क्रिटिकली इम्पॉर्टेन्ट एंटीमाइक्रोबियल्स (सीआईएए ) जिनमें से एक हैं। इनमें से कुछ को हाईएस्ट प्रायोरिटी क्रिटिकली इम्पॉर्टेन्ट एंटीमाइक्रोबियल (एचपीसीआइए) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत में तीसरी पीढ़ी के सेफलोस्पोरिन के विरुद्ध जीवाणु प्रतिरोध पहले से ही उच्च है, उदाहरण के लिए एस्चेरिचिया कोलाई और क्लेबसेला निमोनिया 75 प्रतिशत से अधिक प्रतिरोध दिखा रहे हैं । ये दोनों बैक्टीरिया कई आम संक्रमणों के लिए जिम्मेदार हैं।
नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के नेशनल एएमआर सर्विलांस नेटवर्क द्वारा 2018 में एकत्रित आंकड़ों के मुताबिक, ई कोलाई में एम्पीसिलीन के विरुद्ध 86 से 93 प्रतिशत और सेफोटैक्सिम के विरुद्ध 82 से 87 प्रतिशत का प्रतिरोध दिखाया गया है। इसी तरह, के. निमोनिया में सेफोटैक्सिम के विरुद्ध प्रतिरोध 81 से 89 प्रतिशत था। 2019 में साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अध्ययन में मध्य प्रदेश के एक ग्रामीण क्षेत्र में एक और तीन साल के बीच के 125 बच्चों के एक समूह में कॉमेन्सल (सहजीवी) ई कोलाई के विरुद्ध उच्च स्तर के प्रतिरोध की सूचना मिली थी। एम्पीसिलिन के लिए सबसे अधिक प्रतिरोध देखा गया, जबकि प्रत्येक बच्चे में सेफलोस्पोरिन के विरुद्ध 90 प्रतिशत से अधिक प्रतिरोध देखा गया ।
हम लगातार वातावरण में एंटीबायोटिक दवाएं उत्सर्जित कर रहे हैं और यह चिंता का विषय है। जानवरों को दी जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं में से लगभग 70 प्रतिशत बिना पचे निकल जाती हैं। चूंकि गाय और भैंस के गोबर का उपयोग कृषि फार्मों में खाद के रूप में किया जाता है, इसलिए यह मिट्टी के जीवाणुओं को प्रतिरोधी और पर्यावरण को रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटीमाइक्रोबिअल रेजिस्टेंस) का भंडार बना सकता है। भोजन के अलावा डेरी पशुओं के कचरे के प्रत्यक्ष संपर्क में आने से भी मनुष्यों को दवा प्रतिरोधी संक्रमण हो सकता है। इसके अलावा, यह संक्रमण पर्यावरण के माध्यम से भी फैल सकता है।
समाधान
भारत में दूध देने वाले पशुओं की संख्या लगभग 30 करोड़ के बराबर है। जाहिर है कि सीआईए भी विशाल पैमाने पर उपयोग में लाए जाते हैं। एंटीबायोटिक प्रतिरोध के भारी बोझ को कम करने के लिए एचपीसीआइए के इस्तेमाल पर रोक लगाने और सीआईए के दुरुपयोग को कम करने के लिए विस्तृत एवं सुपरिभाषित रोडमैप की आवश्यकता है। डीएएचडी को एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग को कम करने के लिए मानक उपचार दिशानिर्देश विकसित करने चाहिए। पशु चिकित्सा विस्तार प्रणाली को भी मजबूत किए जाने की आवश्यकता है। डीएएचडी को अपने कार्यक्रमों के माध्यम से बीमारियों के लिए वैक्सीन कवरेज का विस्तार करना चाहिए। साथ ही किसानों के लिए जागरुकता अभियान चलाना चाहिए ताकि वे दूध बेचने से पहले “विदड्रोल पीरियड” का पालन करें। थनैला जैसे रोगों को रोकने के लिए अच्छे खेत प्रबंधन और स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
अब समय आ चुका है जब एफएसएसएआई एंटीबायोटिक दवाओं जैसे एमोक्सिसिलिन, केफटरियाजोन और जेंटामाइसिन के लिए टोलेरेन्स लिमिट का निर्धारण करे। ये दवाइयां डेरी जानवरों के उपचार के लिए इस्तेमाल की जाती हैं किन्तु एफएसएसएआई द्वारा सूचीबद्ध नहीं है। बिना किसी टोलरेंस लिमिट वाले एंटीबायोटिक्स का उपयोग पशुओं पर करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। नियामक संस्था को राज्य के खाद्य और औषधि प्रशासन को दूध में मिलने वाले एंटीबायोटिक की निगरानी को मजबूत करने और आंकड़ों को सार्वजनिक करने में मदद करनी चाहिए। एफएसएसएआई को एसटीआई के मानकों के अनुरूप दूध के परीक्षण की आवृत्ति को बढ़ाने और इसके कार्यान्वयन में राज्यों की मदद करने की भी आवश्यकता है। केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन को एंटीबायोटिक दवाओं की ओवर-द-काउंटर बिक्री को विनियमित करना चाहिए। राज्य स्तर के अधिकारियों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है कि बिना डॉक्टर के पर्चे के एंटीबायोटिक की बिक्री न हो।
इसके अलावा इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च को प्रारंभिक रोग निदान के लिए कम लागत वाले डायग्नोस्टिक्स का भी विकास करना चाहिए और सभी स्तरों पर एंटीबायोटिक अवशेषों की निगरानी करनी चाहिए चाहे वे खेत, पशु चिकित्सा केंद्र या दूध संग्रह केंद्र हो। डेरी फार्म कचरे के साथ एएमआर के पर्यावरण प्रसार के लिंकेज को ध्यान में रखते हुए, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि डेरी फार्मों और गौशालाओं के पर्यावरण प्रबंधन के लिए बनाए गए इसके दिशानिर्देशों का पालन किया जाए।
आखिर क्या करें किसान
जीवाणु संक्रमण कम कैसे हो और एंटीबायोटिक के दुरुपयोग पर कैसे लगाम लगे
पशु शेड को साफ, सूखा रखें
पशु को दुहने के पहले और बाद उसके थनों को साफ करें
स्वच्छ उपकरणों का उपयोग करें एवं पशुओं को दुहने के लिए सही और स्वच्छ तरीकों का पालन करें
दूध देने के कम से कम 30 से 45 मिनट बाद पशु को बैठने से रोकें
क्रोनिक थनैला वाले पशुओं को सबसे अंत में दुहें
बीमार अथवा संक्रमित पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखें एवं उनके संपर्क में आए चारे को नष्ट कर दें
उपचार के लिए एथनोवेटेरिनरी दवाओं को प्रयोग में लाएं
नियमित रूप से पशुओं का टीकाकरण करें
एंटीबायोटिक का विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग करें
शीघ्र रोग नियंत्रण के लिए अधिकारियों को सूचित करें(downtoearth)
-नवीन सिंह खड़का
बीबीसी पर्यावरण संवाददाता
लेड पॉइज़निंग यानी सीसे के ज़हर से संबंधित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार बच्चों में लेड यानी सीसे के ज़हर के मामले में दुनिया भर में भारत सबसे आगे है.
यूनिसेफ़ और प्योरअर्थ नाम के एक संगठन द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में हर तीन बच्चे में से एक लेड पॉइज़निंग का शिकार है जिसके कारण उसकी सेहत को गंभीर नुक़सान पहुंच सकता है.
रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 80 करोड़ बच्चे लेड पॉइज़निंग से प्रभावित हैं और इनमें से अधिकांश गरीब और कम आय वाल देशों में हैं. इतनी बड़े पैमाने पर लेड के असर को पहले माना नहीं गया था.
इतनी बड़ी संख्या का आधा हिस्सा अकेले दक्षिण एशिया में हैं जबकि भारत में सीसा से 27.5 करोड़ बच्चे प्रभावित हैं.
'मेरे बेटे की उल्टियां नहीं रुक रहीं'
साल 2009 में चार साल के सरबजीत सिंह को लगातार उल्टियां हो रही थीं. उनके पिता मनजीत सिंह को समझ नहीं आ रहा था कि उनके बेटे की उल्टियां रुक क्यों नहीं रहीं.
उत्तर प्रदेश में रहने वाले मनजीत सिंह अपने बेटे को लेकर डॉक्टर के पास पहुंचे. शुरूआती जांच में डॉक्टर ने उनसे कहा कि सरबजीत के अनीमिया है यानी ख़ून की कमी है. हालांकि इसका कारण डॉक्टर नहीं बता पाए.
अगले कुछ महीनों तक सरबजीत सिंह की तबीयत में कुछ अधिक सुधार नहीं हुआ, उसे बार-बार उल्टियां होती रहीं.
जब सरबजीत के ख़ून की जांच हुई तो पता चला कि उसके ख़ून में सीसा की मात्रा जितनी होनी चाहिए उससे चालीस फीसदी अधिक थी.
सीसा के जोखिम के संबंध में हुए वैश्विक शोध के अनुसार सरबजीत दुनिया के उन 80 करोड़ बच्चों में से एक है जो घातक सीसा के संपर्क में आया है और जिसके कारण उसके स्वास्थ्य को गंभीर क्षति पहुंची है.
इस रिपोर्ट में यूनिवर्सिटी ऑफ़ वॉशिंगटन के किए आकलन ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिज़ीज़ेज़ और इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ एंड इवेल्युएशन के आंकड़ों के विस्तार से विश्लेषण किया गया है.
लेड पॉइज़निंग का असर बच्चों के मस्तिष्क, उनके दिमाग़, दिन, फेफड़ों और गुर्दे पर होता है.
रिपोर्ट में कहा गया है, "लेड एक शक्तिशाली न्यूरोटॉक्सिन है यानी दिमाग़ की नसों को पर असर करने वाला ज़हर है. कम एक्सपोज़र के मामलों में बच्चों में बुद्धिमत्ता की कमी यानी कम आईक्यू स्कोर, कम ध्यान देना और जीवन में आगे चल कर हिंसक व्यवहार और यहां तक कि आपराधिक व्यवहार का कारण भी बन सकता है."
"अजन्मे बच्चों और 5 साल से कम उम्र के बच्चों को सीसा के कारण अधिक जोखिम हो सकता है. उनमें इस कारण हमेशा के लिए मानसिक और कॉग्निटिव समस्याएं यानी समझ और बुद्धिमत्ता की कमी और पर्मानेंट शारीरिक हानि भी हो सकती है. लेड पॉइज़निंग के कारण कई बच्चों में मौत का भी ख़तरा हो सकता है."
भारत के बाद जो देश बच्चों में लेड पॉइज़निंग से सबसे बुरी तरह प्रभावित हैं वो हैं, अफ्रीका और नाइजीरिया. वहीं इस सूची में तीसरे और चौथे स्थान पर पाकिस्तान और बांग्लादेश का नाम है.
किन कारणों से हो सकती है लेड पॉइज़निंग
रिपोर्ट के अनुसार लेड पॉइज़निंग का प्रमुख कारण लेड एसिड बैटरी का असुरक्षित तरीके से री-साइक्लिंग करना है.
लेकिन इसके साथ ही इलेक्ट्रॉनिक कचरा, ख़नन और मसालों में इसके इस्तेमाल, पेंट, बच्चों के खिलौने भी सीसा के अहम स्रोत हो सकते हैं.
रिपोर्ट के प्रमुख लेखक निकोलस रीस ने बीबीसी को बताया, "साल 2000 के बाद से गरीब औऱ कम आय वाले देशों में गाड़ियों की संख्या में भारी इज़ाफा हुआ है और इस कारण लेड एसिट बैटरी के इस्तेमाल और इनकी रीसाइक्लिंग में भी इज़ाफा हुआ है. इनकी री-साइक्लिंग कई बार असुरक्षित तरीके से की जाती है."
रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में लेड का जितना कुल उत्पादन होता है उसके 85 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल लेड एसिड बैटरी बनाने में होता है. इसका एक बड़ा हिस्सा गाड़ियों में इ्तेमाल होने वाले लेड बैटरी की रीसाइक्लिंग से आता है.
रिपोर्ट के अनुसार, "नतीजा ये होता है कि इस्तेमाल की जा चुकी लेड एसिड बैटरी में से कम से कम बैटरियां अनौपचारिक अर्थव्यवस्था तक पहुंचती हैं."
"अनियंत्रित तरीके से और अधिकतर अवैध रूप से होने वाले इस रीसाइक्लिंग के काम में लेड बैटरी को असुरक्षित तरीके से खोला जाता है. इस कारण एसिड और लेड डस्ट ज़मीन पर गिरता है, खुली भट्टियों में लेड को पिघलाया जाता है जिससे इसका ज़हरीला धुंआ हवा में फैलता है और आस पास के पूरे इलाक़े को प्रदूषित करता है."
घरों में बैटरी रीसाइक्लिंग का काम
जानकार कहते हैं कि भारत में ये चिंता का विषय है.
रिपोर्ट के सह-प्रकाशक प्योरअर्थ की प्रोमिला शर्मा कहती हैं, "हमने पूरे भारत में मौजूद 300 लीड-दूषित जगहों का आकलन किया है, इनमें से ज़्यादातर अनौपचारिक बैटरी रीसाइक्लिंग की जगहें हैं और अलग-अलग तरह के कारखानों वाले ओद्योगिक इलाक़े हैं."
इकट्ठा किए तथ्यों का आकलन अलग से उनकी संस्था ने किया था जो एक स्वयंसेवी संगठन है और पार्यावरण के मानव और धरती पर असर पर काम करती है.
प्रोमिला कहती हैं, "हमारा आकलन इस पहाड़ जैसी मुश्किल समस्या का छोटा-सा हिस्सा है."
वो कहती हैं "ऐसी कई जगहें हैं जहा लेड एसिड बैटरी की अवैध रीसाइक्लिंग होती है, लेकिन अक्सर इन जगहों पर काम छिप कर किया जाता है. कई बार घरों के पिछवाड़े में लोग ये काम करते हैं और इससे उस इलाके में रहने वालों के लिए ख़तरा बढ़ जाता है."
उनके संगठन ने पाया कि पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में इस तरह के अनियमित लेट-एसिड बैटरी रीसाइक्लिंग का काम सबसे अधिक होता है.
"हमने यह भी पाया कि इन जगहों पर अब बांग्लादेश और नेपाल से आयात की गई पुरानी बैटरियों की री-साइक्लिंग का काम भी अधिक हो रहा है."
दस साल पहले तक उत्तर प्रदेश के रहने वाले मनजीत सिंह बैटरियों की रीसाइक्लिंग का काम कर अपने परिवार के पेट भर रहे थे. वो ये बैटरी अपने घर पर ही रखा करते थे.
मनजीत कहते हैं, "मुझे इस बात के बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि मेरे काम के कारण मेरे बेटे की तबीयत इस कदर बिगड़ जाएगी."
बेटे का स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद मनजीत ने ये काम तुरंत छोड़ दिया. कई साल तक सरबजीत का इलाज चलता रहा, उसके शरीर में कई बार ख़ून चढ़ाया गया. सरबजीत के शरीर के निचले अंग विकृत हो गए थे और उसे चलने के लिए ख़ास जूतों की ज़रूरत पड़ने लगी.
इस बात को दस साल बीत चुके हैं और अब सरबजीत की सेहत में सुधार दिखने लगा है. सरबजीत सिंह अब 16 साल का है और स्कूल में उसकी पढ़ाई भी ठीक चल रही है.
लेकिन उसके परिवार को उसकी फिक्र रहती हैं क्योंकि उसके ख़ून में अब भी सीसा की मात्रा अधिक है.
मनजीत सिंह कहते हैं, "अब उसे एनीमिया नहीं है लेकिन उसे हाइपरएक्टिविटी जैसी दूसरी स्वास्थ्य समस्याएं हैं."
इन्वर्टर से लेड लीक होने की समस्या
भारत में लेड के संपर्क में आने की एक बड़ी वजह इन्वर्टर को भी बताया जाता है, जिसका इस्तेमाल बिजली कटौती के दौरान घरों या दुकानों में बिजली की आपूर्ति के लिए किया जाता है.
लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में बायोकेमिस्ट्री विभाग के प्रमुख डॉक्टर अब्बास मेहदी कहते हैं, "उत्तर प्रदेश में हमने एक ऐसा ही मामला देखा जिसमें इन्वर्टर से लीक होने वाले लेड का बुरा असर बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा था."
"बच्चे के माता-पिता इस बात से बिल्कुल अनजान थे कि इन्वर्टर से गिरने वाला तरल पदार्थ, जिसको वो पोंछे से साफ कर रहे हैं वो असल में ऐसा कर के उसे पूरे फर्श पर फैला रहे हैं. इसी फर्श पर उनका बच्चा खेला करता था और उसके शरीर में लेड जाने लगा."
भारत में इलेक्ट्रॉनिक के कचरे और खनन के उत्पादों के अनियमित संचालन से भी लेड पॉइज़निंग का ख़तरा हो सकता है.
मानव शरीर में सीसा पहुंचने का एक और स्रोत कुछ मसाले और हर्बल दवाइयां भी हो सकती हैं.
डॉक्टर अब्बास मेहदी कहते हैं, "हल्दी और लाल मिर्च के पावडर में सीसा प्रिज़र्वेटिव के रूप में इस्तेमाल किया जाता है और कुछ मामलों में उनका रंग बढ़ाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है."
यूनिसेफ़ की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 27.5 करोड़ बच्चों के ख़ून में सीसा की मात्रा पांच माइक्रोग्राम प्रति डेसीलिटर तक है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमरीका के सेन्टर ऑफ़ डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेन्शन के अनुसार सीसा का ये स्तर ख़तरनाक है और इसे सरकारों के इस माममे में कदम उठाने की ज़रूरत है.
बच्चों के लिए क्यों है अधिक जोखिम?
रिपोर्ट के अनुसार शिशुओं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों के लिए लेड पॉइज़निंग का जोखिम अधिक है क्योंकि ये उनके मस्तिष्क को पूरी तरह बनने से पहले ही नुक़सान पहुंचाना शुरू कर देता है. इस कारण उन्हें हमेशा के लिए मानसिक और कॉग्निटिव समस्याएं पैदा कर सकता है. उनके किसी अंग में इस कारण विकृति भी आ सकती है.
जानकार कहते हैं कि शरीर के वजन के अनुपात की तुलना में वयस्कों के मुकाबले बच्चे पांच गुना अधिक खाना खाते हैं, पानी पीते हैं और हवा भीतर लेते हैं.
निकोलस रीस कहते हैं, "इसका मतलब ये है कि वो ज़मीन, पानी या हवा में फैले इस घातक न्यूरोटॉक्सिन को भी बड़ों के मुकाबले अधिक मात्रा में शरीर में अवशोषित कर सकते हैं."
रिपोर्ट के अनुसार कम उम्र में लेड के संपर्क में आने के ख़तरे के मामले में सबसे बड़ी चुनौती ये है कि इसके लक्षण कई साल तक दिखाई नहीं देते. ख़ास कर जब एक्पोज़र का स्तर कम हो और ख़ून में इसकी मात्रा कम हो.
डॉक्टर मेहदी कहते हैं, "इस मामले में जागरूकता की कमी अभी भी बड़ा मुद्दा है, लेकिन धीरे-धीरे स्थिति में सुधार हो रहा है."
वो कहते हैं "भारत में साल 2000 में लीड वाले ईंधन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. अब देश में इस्तेमाल होने वाले पेंट्स में भी लीड की मात्रा सीमित कर 90 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) करने की ज़रूरत है."
लेकिन ये सवाल अभी भी जस का तस है कि क्या लेड एसिड बैटरी, इलेक्ट्रॉनिक कचरा और मसालों में लेड के इस्तेमाल को नियंत्रित किया जाएगा?(bbc)
-प्रदीप कुमार
बीबीसी संवाददाता
राज्य सभा सांसद अमर सिंह का लंबी बीमारी के बाद शनिवार को सिंगापुर के एक अस्पताल में निधन हो गया. वे 64 वर्ष के थे.
अमर सिंह की कहानी भारतीय राजनीति में बीते दो दशक के दौरान किसी अमर चित्र कथा की तरह रही. वे एक दौर में समाजवादी पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता रहे, फिर पार्टी से बाहर कर दिये गए जिसके बाद भी उन्होंने ज़ोरदार वापसी की.
इस दौरान गंभीर बीमारी और राजनीतिक रूप से हाशिए पर चले जाने के चलते वे कुछ समय तक राजनीतिक पटल से ग़ायब ज़रूर हुए लेकिन अपने पुराने रंग को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा.
इसी वजह से यह सवाल हमेशा उठता रहा कि 'आख़िर अमर सिंह में ऐसा क्या है जिसके चलते मुलायम सिंह का उन पर भरोसा हमेशा बना रहा?'
कुछ लोग हमेशा यह दावा करते रहे कि भारतीय राजनीति में संसाधनों की बहुत ज़रूरत होती है और अमर सिंह इन्हें जुटाने में 'मास्टर' थे. वहीं राजनीतिक गलियारों में दबे-छिपे जो अटकलें लगायी जाती रही, वो ये कि 'मुलायम सिंह की किसी कमज़ोर नस को अमर सिंह बखूबी जानते थे.'
पर इसकी सही वजह क्या थी? और अमर सिंह की दमदार वापसी आख़िर कैसे हुई?
2016 में यूपी विधानसभा चुनाव से पहले इन सवालों के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार अंबिकानंद सहाय ने कहा था, "सबसे बड़ी वजह तो ये थे कि मुलायम सिंह अमर सिंह पर बहुत भरोसा करते थे. राजनीति में जिस तरह की ज़रूरतें रहती हैं, चाहे वो संसाधन जुटाने की बात हो या जोड़ तोड़ यानी नेटवर्किंग का मसला हो, उन सबको देखते हुए वे अमर सिंह को पार्टी के लिए उपयुक्त मानते थे. ये बात अपनी जगह बिल्कुल सही है कि अमर सिंह 'नेटवर्किंग के बादशाह' आदमी थे."
समाजवादी पार्टी में वापसी से पहले क़रीब छह साल तक अमर सिंह सक्रिय राजनीति से दूर रहे.
उस समय वे गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे. हालांकि उस दौर में उन्होंने अपने लिए दूसरे दरवाज़े भी देखे. ख़ुद की राजनीतिक पार्टी भी बनाई लेकिन राष्ट्रीय लोक मंच के उम्मीदवारों की 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान ज़मानत ज़ब्त हो गई.
2014 में वे राष्ट्रीय लोक दल से लोकसभा का चुनाव लड़े, पर बुरी तरह हारे.
इतना ही नहीं, उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने की भी ख़ूब कोशिश की, लेकिन कहीं उनकी दाल नहीं गली और आख़िर में उन्हें ठिकाना उसी पार्टी में मिला जिसके रंग ढंग को अमर सिंह ने बदल दिया था.
मुलायम का भरोसा
कभी 'धरती-पुत्र' कहे जाने वाले मुलायम सिंह और किसानों व पिछड़ों की पार्टी - समाजवादी पार्टी को आधुनिक और चमक-धमक वाली राजनीतिक पार्टी में तब्दील करने वाले अमर सिंह ही थे.
चाहे वो जया प्रदा को सांसद बनाना हो, या फिर जया बच्चन को राज्य सभा पहुँचाना हो, या फिर संजय दत्त को पार्टी में शामिल करवाना रहा हो, ये सब अमर सिंह का करिश्मा था. उन्होंने उत्तर प्रदेश के लिए शीर्ष कारोबारियों को एक मंच पर लाने का भी प्रयास किया.
एक समय में समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की हैसियत ऐसी थी कि उनके चलते आज़म ख़ान, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे मुलायम के नज़दीकी नेता नाराज़ होकर पार्टी छोड़ गए थे.
लेकिन मुलायम का भरोसा अमर सिंह पर बना रहा. दरअसल, मुलायम-अमर के रिश्ते की नींव एचडी देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के साथ शुरू हुई थी.
देवेगौड़ा हिंदी नहीं बोल पाते थे और मुलायम अंग्रेजी. ऐसे में देवेगौड़ा और मुलायम के बीच दुभाषिए की भूमिका अमर सिंह ही निभाते थे. तब से शुरू हुआ ये साथ, लगभग अंत तक जारी रहा.
अमर-मुलायम के रिश्ते के बारे में वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, "अमर सिंह की बात मुलायम कितना मानते थे, इसका उदाहरण है कि अखिलेश और डिंपल की शादी के लिए मुलायम पहले तैयार नहीं थे, लेकिन ये अमर सिंह ही थे जिन्होंने मुलायम को इस शादी के लिए तैयार किया."
अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "दरअसल मुलायम कभी अपना कोई काम ख़ुद से किसी को करने के लिए नहीं कह सकते. इतने लंबे राजनीतिक जीवन में उनकी ऐसी आदत ही नहीं रही. वे मंझे हुए राजनेता हैं, लेकिन राजनीति में उन्हें ढेरों काम करवाने भी होते हैं. एक दौर ऐसा भी था कि जिस किसी के काम को मुलायम करवाना चाहते थे, तो बस यही कहते थे कि अमर सिंह को बोल दूंगा, हो जाएगा."
राजनीतिक हैसियत
उसी दौर में देश में गठबंधन की राजनीति का दौर चला और इसमें समाजवादी पार्टी जैसी 20 से 30 सीटों वाली पार्टियों की अहमियत बढ़ी और जानकार मानते हैं कि इसके साथ ही अमर सिंह की भूमिका भी ख़ूब बढ़ी.
इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं. एक वाकया तो यही है कि 1999 में सोनिया गांधी ने 272 सांसदों के समर्थन का दावा कर दिया था, लेकिन उसके बाद समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को अपना समर्थन नहीं दिया और सोनिया गांधी की ख़ूब किरकिरी हुई.
इसके बाद 2008 में भारत की न्यूक्लियर डील के दौरान वामपंथी दलों ने समर्थन वापस लेकर मनमोहन सिंह सरकार को अल्पमत में ला दिया. तब अमर सिंह ने ही समाजवादी सांसदों के साथ-साथ कई निर्दलीय सांसदों को भी सरकार के पाले में ला खड़ा किया था.
विवादों में
संसद में नोटों की गड्ढी लहराने का मामला भी देश ने देखा और इस मामले में अमर सिंह को तिहाड़ जेल भी जाना पड़ा था.
उस दौर में मीडिया के सामने वो टेप भी आये जिनमें कथित तौर पर बिपाशा बसु का नाम लेकर की गई अमर सिंह की बातों ने उनके व्यक्तित्व की एक और परत को बंद दरवाज़ों के पीछे चर्चा का विषय बना दिया था.
संसदीय राजनीति को कवर करने वाले वरिष्ठ टीवी पत्रकार मनोरंजन भारती कहते हैं, "अमर सिंह वो शख़्स थे जिनके सभी पार्टियों में शीर्ष स्तर पर क़रीबी दोस्त थे. चाहे वो भारतीय जनता पार्टी हो या फिर कांग्रेस हो या फिर वामपंथी पार्टियाँ ही क्यों ना हों. अमर सिंह का व्यक्तित्व पानी जैसा था जो हर किसी में मिल जाता या मिल सकता था."
अमर सिंह अपने इन्हीं गुणों के चलते केवल राजनीतिक गलियारों तक सीमित नहीं रहे.
वे एक ही समय में बॉलीवुड के स्टार कलाकारों के साथ उठने-बैठने लगे थे और देश के शीर्षस्थ कारोबारियों के साथ नज़र आने लगे थे.
बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के साथ अमर सिंह की इतनी बनने लगी थी कि दोनों एक दूसरे को परिवार का सदस्य बताते थे. हालांकि 2010 में जब समाजवादी पार्टी से अमर सिंह निकाले गए और उनके कहने पर भी जया बच्चन ने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा नहीं दिया, तो दोनों को अलग होते देर नहीं लगी.
उद्योग जगत में अनिल अंबानी और सुब्रत राय सहारा जैसे कारोबारियों के साथ भी अमर सिंह की गाढ़ी दोस्ती रही.
नेटवर्किंग
अमर सिंह के व्यक्तित्व के बारे में अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "अमर सिंह की सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि वे सामने वाले को किस चीज़ की किस समय पर जरूरत है, इसे भांप लेते थे. अगर सामने वाला मुसीबत में हो, तो वो सीमा से आगे जाकर भी उसकी मदद करते थे. इस गुण के चलते उन्हें लोगों का भरोसा मिलता रहा."
"जब अमिताभ बच्चन की एबीसीएल कंपनी कर्जे़ में डूब गई थी और अमिताभ अपने करियर के सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे थे और कोई उनकी मदद के लिए तैयार नहीं था, तब अमर सिंह ही थे जो कथित तौर पर दस करोड़ की मदद लिए अमिताभ के साथ खड़े नज़र आये थे."
अमर सिंह को नज़दीक से जानने वाले लोगों की मानें तो कोई भी बड़ी समस्या और मुश्किल का हल अमर सिंह चुटकियों में निकाल सकते थे.
शरद गुप्ता कहते हैं, "हम लोगों ने ऐसा भी देखा कि जिस काम को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल मंत्री कराने से इनकार कर देते, अमर सिंह उस काम को करा देते थे."
अमर सिंह समाजवादी पार्टी के लिए ही नेटवर्किंग का काम करते रहे हों, ऐसा नहीं था.
वे दरअसल 1996 में राज्यसभा में आने से पहले ही दिल्ली की सत्ता के गलियारों में अपनी जगह बना चुके थे.
नेताओं और उद्योगपतियों से नज़दीकियां
मूल रूप से आज़मगढ़ के कारोबारी परिवार में जन्मे अमर सिंह का बचपन और युवावस्था के दिन कोलकाता में बीते थे, जहाँ वे बिड़ला परिवार के संपर्क में आये, और केके बिरला का भरोसा हासिल करने के बाद दिल्ली पहुँच गये.
बिड़ला और भरतिया परिवार की नज़दीकियों के चलते एक समय में अमर सिंह 'हिंदुस्तान टाइम्स' के निदेशक मंडल में भी रहे.
उस दौर में अमर सिंह राजनीति में भी सक्रिय हो गये थे. वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हुआ करते थे और उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री माधव राव सिंधिया ने मध्य प्रदेश के कोटे से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनवाया था.
गठबंधन सरकारों के दौर में मार्क्सवादी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत से भी अमर सिंह के घनिष्ठ संबंध रहे थे.
हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति को लंबे समय से देखने वाले ये मानते हैं कि मुलायम सिंह यादव से पहले 1985 से 1988 के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीर बहादुर सिंह से भी अमर सिंह की काफी घनिष्ठता रही थी और जब-जब वीर बहादुर सिंह नोएडा के सिंचाई विभाग गेस्ट हाउस आते थे, अमर सिंह वहीं पाये जाते थे. जबकि कई लोग उन्हें 'रिलायंस मैन' के तौर पर भी देखते रहे.
नज़दीकियां दूरियां बनीं और दूरियां नज़दीकियां
ये महज़ संयोग की बात हो सकती है, पर अमर सिंह का एक अतीत ये भी रहा कि वे जिनके साथ रहे, उनका घर ज़रूर टूटा. बच्चन भाईयों के अलावा अंबानी भाईयों में भी अमर सिंह से नज़दीकी के बाद बंटवारा हो गया. बाद में मुलायम के बेटे अखिलेश यादव और उनके छोटे भाई शिवपाल में भी झगड़ा हुआ.
बहरहाल, अमर सिंह राजनीति की बयार को खूब समझ लेते थे और वे किस तरह से हर पार्टी में पहुंच रखते थे इसका अंदाज़ा लोगों को 29 जुलाई, 2018 में लखनऊ में हुआ.
योगी आदित्यनाथ सरकार की ग्राउंड सेरेमनी में अमर सिंह भगवा कुर्ता में फ़िल्मकार बोनी कपूर के साथ पहुंचे थे. लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में उनका नाम ले लिया. पीएम मोदी ने कहा, अमर सिंह यहां बैठे हैं, सबकी हिस्ट्री निकाल देंगे.
जिसका विरोध उसी का समर्थन
मोदी ने कहा इतना ही लेकिन इस एक लाइन में बहुत कुछ था. मोदी उस वक्त राजनेताओं और उद्योगपतियों के गठजोड़ पर बोल रहे थे. मोदी ने जब अमर सिंह का जिक्र किया तो अमर सिंह हाथ जोड़कर शुक्रिया जताया. खास बात यह थी कि इस आयोजन में अमर सिंह की कुर्सी बीजेपी के कई नेताओं से आगे थी.
वे तब भी समाजवादी पार्टी के महासचिव भी थे. लेकिन लखनऊ के इस आयोजन में मोदी ने जिक्र करके जो संकेत दिया था उसके तुरंत बाद अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी से अपना नाता तोड़ते हुए एलान कर दिया कि उनका जीवन अब मोदी के लिए समर्पित है.
तब अनुमान ये लगाया जा रहा था कि अमर सिंह शायद 2019 में चुनाव लड़ें लेकिन उन्होंने ना तो बीजेपी ज्वाइन किया और ना चुनाव लड़ा. लेकिन उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के टिकट पर आजम ख़ान के ख़िलाफ़ जया प्रदा को उम्मीदवार ज़रूर बनवा लिया. जय प्रदा के चुनाव प्रचार में तबियत ख़राब होने के बाद भी वे जुटे रहे. इस दौरान हुई एक मुलाकात में जया प्रदा ने कहा था कि साहब इतनी मेहनत कर रहे हैं लग रहा है कि मैं आसानी से चुनाव जीत जाऊंगी. जया प्रदा चुनाव हार गईं लेकिन आज़म खान को चुनाव जीतने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी.
फिर अमर सिंह की तबियत भी लगातार बिगड़ रही थी लेकिन गाहे बगाहे सोशल मीडिया पर वे प्रधानमंत्री मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तारीफ़ करते नज़र आए.
जिस कांग्रेस की बैसाखी से अमर सिंह राजनीति आए, उसी कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी को 272 सीटों के समर्थन को लेकर अमर सिंह ने किरकिरी करवाई, फिर वहां से समाजवादी पार्टी के रास्ते वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल भले नहीं हुए लेकिन पार्टी के शीर्ष नेताओं तक उनकी सीधी पहुंच ज़रूर रही. इसलिए पीएम मोदी ने उन्हें श्रदांजलि देते हुए उनकी कई तबके के लोगों की फ्रेंडशिप को याद किया है.
अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "अमर सिंह की कमज़ोरी कहिये या फिर ख़ासियत, वे ग्लैमर के बिना नहीं रह सकते थे. इसके लिए वे मीडिया का इस्तेमाल करना भी जानते थे. पहले वे हिंदुस्तान टाइम्स के निदेशक रहे, फिर सहारा मीडिया के निदेशकों में भी रहे. अंतिम दिनों में ज़ी समूह के मुखिया से भी उनकी नज़दीकियाँ रहीं."
इस लिहाज़ से देखें तो अमर सिंह राजनीति, ग्लैमर, मीडिया और फ़िल्म जगत को एक कॉकटेल बना चुके थे. इसलिए जब वे कहते कि 'मेरा मुँह मत खोलवाइए, कोई नहीं बचेगा', तो सब वाक़ई चुप रहना बेहतर समझते थे.(bbc)
सुनील कुमार मिश्रा
एक आयकर अधिकारी ने एक वृद्ध करदाता को अपने कार्यालय में बुलाया। करदाता ठीक समय पर अपने वकील के साथ पहुँच गया। आयकर अधिकारी बोला,‘आप तो रिटायर हो चुके हैं। हमें पता चला है कि आप बड़े ठाट-बाट से रहते हैं। आपको इसके लिए पैसे कहाँ से आते हैं? करदाता बोला, ‘जुएं में जीतता हूँ।’ आयकर अधिकारी बोला, ‘हमें यकीन नहीं’। करदाता बोला?‘मैं साबित कर सकता हूँ। क्या आप एक ष्ठद्गद्वश देखना चाहते हैं?’ आयकर अधिकारी बोला, अच्छी बात है, जरा हम भी देखें। शुरू हो जाइये..
करदाता बोला? एक हज़ार रुपये की शर्त लगाने के लिए क्या आप तैयार हैं? मैं यह दावा कर रहा हूँ कि मैं अपनी ही एक आँख को अपने दाँतों से काट सकता हूँ। आयकर अधिकारी? क्या!! नामुमकिन, लग गई शर्त, करदाता ने अपनी शीशे की एक कृत्रिम आँख निकालकर, अपने दाँतों से काटा। आयकर अधिकारी ने हार मान ली है और एक हज़ार रुपया उस वृद्ध करदाता को दिया।
करदाता कहता है?अब दो हज़ार की शर्त लगाने के लिए तैयार हो? मैं अपनी दूसरी आँख को भी काट सकता हूँ। आयकर अधिकारी ने सोचा, जाहिर है कि यह अँधा तो नहीं है। इसकी दूसरी आँख शीशे की नहीं हो सकती। कैसे कर पाएगा, देखते हैं। फिर कहा ‘लग गई शर्त’। करदाता ने अपनी नकली दाँत मुँह से निकालकर, अपने आँख को हलके से काटा। आयकर अधिकारी हैरान हुआ पर कुछ कह नहीं सका। चुपचाप दो हज़ार रुपये अदा किए।
करदाता ने आगे कहा?चलो एक और मौका देता हूँ तुम्हें। दस हज़ार की शर्त लगाने के लिए तैयार हो?‘आयकर अधिकारी ने कहा ‘अब कौनसी बहादुरी का प्रदर्शन करोगे’? करदाता ने कहा? वो आपके कमरे में कोने में कूड़े का डिब्बा रक्खा है, देख रहे हो? मेरा दावा है कि मैं यहाँ आपके मेज के सामने खड़े होकर, सीधे उस डिब्बे के अंदर थूक विसर्जन कर सकता हूँ। आपके टेबल पर एक बूँद भी नहीं गिरेगी’। वकील चिल्लाया मत लगाओ, मत लगाओ, पर आयकर अधिकारी नहीं माना। आयकर अधिकारी ने देखा कि दूरी 15 फुट से भी ज्यादा है और कोई भी यह काम नहीं कर सकेगा और अवश्य इस वृद्ध से तो यह हो ही नहीं सकेगा। बहुत सोचकर, अपने खोए हुए पैसे को वापस जीतने की उम्मीद से, शर्त लगाने के लिए राजी हो गया। वकील ने माथा ठोक लिया करदाता मुंह नीचे करके, शुरू हो गया पर उसकी कोशिश नाकामयाब रही।
आयकर अधिकारी की टेबल को थूक से खराब कर दिया और आयकर अधिकारी बहुत खुश हुआ, पर उसने देखा करदाता का वकील रो रहा है। आयकर अधिकारी ने वकील से पूछा ‘क्या बात है, वकील भाई आप क्यो रो रहे है?’ वकील ने कहा?
आज सुबह इस शैतान ने मुझसे पचास हज़ार की शर्त लगाई थी?वह इनकम टैक्स वालों के टेबल पर थूंकेगा और वो बजाय नाराज होने के इससे खुश होंगे। जब इस देश मे ऐसै वृद्ध कुरीच करदाता है, जो आयकर अधिकारी को जुआं खिलवा दे, फिर गहलौत साहब तो राजनीति के काफी मंझे खिलाड़ी है और जादूगर भी है। कब कौन से झोले से कबूतर निकाल के गायब कर दे, कहना मुश्किल है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नई शिक्षा नीति में मातृभाषाओं को जो महत्व दिया गया है, कल मैंने उसकी तारीफ की थी लेकिन उसमें भी मुझे चार व्यावहारिक कठिनाइयां दिखाई पड़ रही हैं। पहली, यदि छठी कक्षा तक बच्चे मातृभाषा में पढ़ेंगे तो सातवीं कक्षा में वे अंग्रेजी के माध्यम से कैसे निपटेंगे ? दूसरी, अखिल भारतीय नौकरियों के कर्मचारियों के बच्चे उनके माता-पिता का तबादला होने पर वे क्या करेंगे ? प्रांत बदलने पर उनकी पढ़ाई का माध्यम भी बदलना होगा। यदि उनकी मातृभाषा में पढऩेवाले 5-10 छात्र भी नहीं होंगे तो उनकी पढ़ाई का माध्यम क्या होगा? तीसरी, क्या उनकी आगे की पढ़ाई उनकी मातृभाषा में होगी ? क्या वे बी.ए., एम.ए. और पीएच.डी. अपनी भाषा में कर सकेंगे ? क्या उसका कोई इंतजाम इस नई शिक्षा नीति में है ? चौथी बात, जो सबसे महत्वपूर्ण है। वह यह है क्या ऊंची सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियां भारतीय भाषाओं के माध्यम से मिल सकेंगी? क्या भर्ती के लिए अंग्रेजी अनिवार्य होगी? यदि हां, तो माध्यम का यह अधूरा बदलाव क्या निरर्थक सिद्ध नहीं होगा ? अर्थात पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा या राष्ट्रभाषा हो और नौकरी का, रुतबे का, वर्चस्व का माध्यम अंग्रेजी हो तो लोग अपने बच्चों को मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा या राष्ट्रभाषा में क्यों पढ़ाएंगे ? वे अपने बच्चों को कान्वेन्ट में भेजेंगे। कई राज्य अपनीवाली चलाएंगे। वे कहेंगे कि शिक्षा तो संविधान की समवर्ती सूची में है।
हम अपने बच्चों को नौकरियों, बड़े ओहदों और माल-मत्तों से वंचित क्यों करेंगे ? हमारे देश में आज भी लगभग 50 प्रतिशत बच्चों को लोग निजी स्कूलों में क्यों पढ़ाते हैं ? शिक्षा की ये मोटी-मोटी दुकानें क्यों फल-फूल रही हैं ? ये स्कूल लूट-पाट के अड्डे क्यों बने हुए हैं ? क्योंकि ऊंची जातियों, शहरियों और मालदारों के बच्चे इन स्कूलों की सीढिय़ों पर चढक़र शासक-वर्ग में शामिल हो जाते हैं। देश के 80-90 प्रतिशत लोगों को अवसरों की समानता से ये स्कूल ही वंचित करते हैं। लोकतंत्र को इस मु_ीतंत्र से मुक्ति दिलाने में क्या यह नई शिक्षा नीति कुछ कारगर होगी ? मुझे शक है। इस नीति में मुझे एक खतरा और भी लग रहा है। यह विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में जमने की भी छूट दे रही है। ये विश्वविद्यालय हमारे विश्वविद्यालयों में क्या हीनता-ग्रंथि पैदा नहीं करेंगे? क्या ये अंग्रेजी के वर्चस्व को नहीं बढ़ाएंगे ? क्या ये देश में एक नए श्रेष्ठि वर्ग को जन्म नहीं देंगे ? मैं अफगानिस्तान, ब्रिटेन, सोवियत रुस और अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में अपनी पीएच.डी. के लिए पढ़ता और शोध करता रहा हूं और कई अन्य देशों में पढ़ाता भी रहा हूं लेकिन मैंने हमेशा महसूस किया कि यदि उन राष्ट्रों की तरह हम भी अपने उच्चतम शिक्षा, शोध और नौकरियों का माध्यम स्वभाषा ही रखें तो भारत भी शीघ्र ही महाशक्ति बन सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-चन्द्र प्रकाश बाजपेयी
संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 300 से ज़्यादा सदस्यों वाली संविधान सभा की पहली बैठक में 9 दिसंबर 1946 को कहा था ‘एक संविधान चाहे जितना अच्छा हो वह बुरा साबित हो सकता है यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों।‘
संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संसदीय प्रजातंत्र अर्थात् जनता के द्वारा, जनता के लिये जनता का शासन। क्या यह मूलाधार राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर विराजमान और राजनीति के क्षेत्र में लगभग 50 वर्षों से अधिक अनुभव प्राप्त व्यक्ति के संज्ञान में नहीं है? यह प्रश्न बार-बार विचार में आता है और ऐसा विश्वास भी नहीं होता। तब क्या यह विश्वास योग्य है जो राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में इन दिनों देश में न केवल चर्चा में, अपितु समाचार पत्रों एवं मीडिया में भी सुनाई दे रहा है कि राजस्थान के राज्यपाल पर ऊपर का दबाव है? हालांकि राजनीति के जानकार इस उजागर लेकिन छिपे सच को जानते ही हैं।
राज्यपाल के पद पर विराजमान व्यक्ति भारत के संविधान जिसका मूलाधार गवर्नमेंट आँफ इंडिया एक्ट 1935 है, के तहत केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा के लिये नियुक्त किया जाता है। उससे यह अपेक्षा की जाती है कि यदि राज्यों में संविधान के प्रावधानों का पूर्ण तरह पालन नहीं हो रहा हो तथा यदि कोई असंवैधानिक कार्य होता दिखे तो वह समुचित कार्रवाई करें, किंतु आश्चर्यजनक है कि जिन पर संविधान की रक्षा का दायित्व है, उन पर ही संविधान के प्रावधानों का मखौल उड़ाने के आरोप लग रहे हैं।
संविधान सभा में संसदीय प्रणाली के उपरोक्त मूलभूत सिद्धांत की पूर्ति के लिये विस्तृत विचार विमर्श हुआ और सिद्धांततः क्योंकि राजनीतिक कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है, जवाब देह होती है अतः विधानसभा सत्र बुलाने का अधिक़ार राजनीतिक कार्यपालिका के प्रमुख मुख्यमंत्री में निहित किया गया। वह जब भी आवश्यक समझे अपनी जवाबदेही या उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिये विधानसभा के सत्र आहूत कर सकें और जनता के प्रति उत्तरदायित्व को सुनिश्चित कर सके।
संविधान के अनुच्छेद 174 में राज्य के विधान मंडल के सत्र सत्रावसान और विघटन के प्रावधान किये गये है। इसमें उल्लेखित है कि राज्यपाल समय- समय पर राज्य के विधान मण्डल के सदन या प्रत्येक सदस्य को ऐसे समय और स्थान पर जो ठीक समझे अधिवेशन के लिये आहूत करेगा किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिये नियत तारीख़ के बीच 6 माह से अधिक का अंतर नहीं होगा।
संविधान सभा में जब सत्र को आहूत करने के संबंध में इस अनुच्छेद पर चर्चा हो रही थी तब संविधान सभा के सदस्य के टी शाह और क़ुछ अन्य सदस्यों ने संशोधन के प्रस्ताव भी रखे। संशोधन क्रमांक 1473 और 1478 संविधान की कार्यवाही दिनांक 18 मई 1940 /9 पार्ट-2 में एक आशंका भी ज़ाहिर की गई। वह यह थी कि यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल साधारण अथवा असामान्य समय में इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री की सलाह को न मानते हुए यदि सत्र आहूत नहीं करते हैं तो ऐसी स्थिति में संविधान में यह भी प्रावधान करना चाहिये कि प्रधान मंत्री या मुख्यमंत्री विधानमण्डल के अध्यक्ष या परिषद् के सभापति से सलाह कर सत्र आहूत कर सकें। इससे यह स्पष्ट है कि विधानसभा का सत्र बुलाना कार्यपालिका के प्रमुख अर्थात मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र की बात है और मुख्यमंत्री तथा मंत्रिपरिषद यह निर्णय लेती है कि विधान सभा का सत्र आहूत किया जाना है। यह राज्यपाल के विचार क्षेत्र की बात नहीं कि वह मुख्य मंत्री के प्रस्ताव को रोके।
राज्यपाल को केवल विधान सभा द्वारा पारित विधेयकों के मामलो में ही, विचार करने और कारण बताते हुए पुनः विधानसभा को भेजने का अधिकार संविधान के अन्तर्गत है। विधानसभा का सत्र आहूत करने के प्रस्ताव पर विचार करने अथवा वापस करने या अस्वीकृत करने जैसा कोई भी प्रावधान संविधान में नहीं है। अपितु इस अनुच्छेद पर चर्चा के समय बाबा साहब अंबेडकर ने यहां तक कहा कि- यदि ऐसा होता है राष्ट्रपति या राज्यपाल उनके कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं स्वच्छ्न्दता पूर्ण व्यवहार करते हैं, यह तो संविधान का उल्लंघन होगा। जाहिर है राजस्थान विधानसभा सत्र बुलाने के मामले को संविधान की धाराओं के बीच उलझाने की राजनीतिक कोशिश करते हुए ये अनदेखी तो की ही जा रही है। (संदर्भ:- संविधान सभा की कार्यवाही दिनांक 18 मई 1949 संशोधन 1473, 1474)
(लेखक कांग्रेस सेवादल के राष्ट्रीय सचिव हैं। पूर्व विधायक हैं तथा म. प्र. विधान सभा के उत्कृष्ट विधायक रह चुके हैं।)
सत्याग्रह ब्यूरो
हिंदू और मुसलमान दोनों एक हज़ार वर्षों से हिंदुस्तान में रहते चले आये हैं. लेकिन अभी तक एक-दूसरे को समझ नहीं सके. हिंदू के लिए मुसलमान एक रहस्य है और मुसलमान के लिये हिंदू एक मुअम्मा (पहेली). न हिंदू को इतनी फुर्सत है कि इस्लाम के तत्वों की छानबीन करे, न मुसलमान को इतना अवकाश है कि हिंदू-धर्म-तत्वों के सागर में गोते लगाये. दोनों एक दूसरे में बेसिर-पैर की बातों की कल्पना करके सिर-फुटौव्वल करने में आमादा रहते हैं.
हिंदू समझता है कि दुनियाभर की बुराइयां मुसलमानों में भरी हुई हैं : इनमें न दया है, न धर्म, न सदाचार, न संयम. मुसलमान समझता है कि हिंदू, पत्थरों को पूजने वाला, गर्दन में धागा डालने वाला, माथा रंगने वाला पशु है. दोनों बड़े दलों में जो बड़े धर्माचार्य हैं, मानो द्वेष और विरोध ही उनके धर्म का प्रधान लक्षण है.
हम इस समय हिंदू-मुस्लिम-वैमनस्य पर कुछ नहीं कहना चाहते. केवल ये देखना चाहते हैं कि हिंदुओं की, मुसलमानों की सभ्यता के विषय में जो धारणा है, वह कहां तक न्यायी है.
जहां तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को इतनी महत्ता नहीं दी, जितनी इस्लाम ने दी है. इस्लाम धर्म की बुनियाद न्याय पर रखी गयी है. वहां राजा और रंक, अमीर और गरीब के लिए केवल एक न्याय है. किसी के साथ रियायत नहीं, किसी का पक्षपात नहीं. ऐसी सैकड़ों रवायतें पेश की जा सकती हैं जहां बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली अधिकारियों के मुक़ाबले में न्याय के बल पर विजय पायी है. ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं है जहां बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेग़म, यहां तक कि स्वयं को भी न्याय की वेदी पर होम कर दिया.
हज़रत मोहम्मद ने धर्मोपदेशकों को इस्लाम का प्रचार करने के लिए देशांतरों में भेजते हुए उपदेश दिया था : जब लोग तुमसे पूछें कि स्वर्ग की कुंजी क्या है, तो कहना कि वह ईश्वर की भक्ति और सत्कार्य में है.
जिन दिनों इस्लाम का झंडा कटक से लेकर डेन्यूब तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फहराता था, मुसलमान बादशाहों की धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी नहीं रखती थी. बड़े-बड़े राज्य-पदों पर ग़ैर मुस्लिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी.
महाविद्यालयों के कुलपति तक ईसाई और यहूदी होते थे. इस पद के लिए केवल योग्यता और विद्वता ही शर्त थी, धर्म से कोई संबंध नहीं था. प्रत्येक विद्यालय के द्वार पर ये शब्द खुदे होते थे : पृथ्वी का आधार केवल चार वस्तुएं हैं - बुद्धिमानों की विद्वता, सज्जनों की ईश प्रार्थना, वीरों का पराक्रम और शक्तिशालियों की न्यायशीलता.
मुहम्मद के सिवा संसार में और कौन धर्म प्रणेता हुआ है जिसने ख़ुदा के सिवा किसी मनुष्य के सामने सिर झुकाना गुनाह ठहराया हो? मुहम्मद के बनाये हुए समाज में बादशाह का स्थान ही नहीं था. शासन का काम करने के लिए केवल एक ख़लीफा की व्यवस्था कर दी गयी थी, जिसे जाति के कुछ प्रतिष्ठित लोग चुन लें. इस चुने हुए ख़लीफा को कोई वजीफ़ा, कोई वेतन, कोई जागीर, कोई रियासत न थी. यह पद केवल सम्मान का था. अपनी जीविका चलाने के लिए ख़लीफ़ा को भी दूसरों की भांति मेहनत-मज़दूरी करनी पड़ती थी. ऐसे-ऐसे महान पुरुष, जो एक बड़े साम्राज्य का संचालन करते थे, जिनके सामने बड़े-बड़े बादशाह अदब से सिर झुकाते थे, वे जूते सिलकर या कलमी किताबें नक़ल करके या लड़कों को पढ़ाकर अपनी जीविका अर्जित करते थे.
हज़रत मुहम्मद ने स्वयं कभी पेशवाई का दावा नहीं किया, खज़ाने में उनका हिस्सा भी वही था, जो एक मामूली सिपाही का था. मेहमानों के आ जाने के कारण कभी-कभी उनको कष्ट उठाना पड़ता था, घर की चीज़ें बेच डालनी पड़ती थीं. पर क्या मजाल कि अपना हिस्सा बढ़ाने का ख्याल कभी दिल में आए.
जब नमाज़ पढ़ते समय मेहतर अपने को शहर के बड़े-से-बड़े रईस के साथ एक ही कतार में खड़ा पाता है, तो क्या उसके हृदय में गर्व की तरंगें न उठने लगती होंगी. इस्लामी सभ्यता को संसार में जो सफलता मिली वह इसी भाईचारे के भाव के कारण मिली है.(satyagrah)
हरिशंकर परसाई
प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूँछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।
पाँवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बँधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।
दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ—फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी—इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।
मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अँगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका जऱा भी अहसास नहीं है? जऱा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुसकान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर उपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुसकान। यह मुसकान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो खुद तो फटे जूते पहने फोटो खिचा रहा है, पर किसी पर हँस भी रहा है!
फोटो ही खिचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते, या न खिचाते। फोटो न खिचाने से क्या बिगड़ता था। शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पडऩा चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिचाने के लिए जूते माँग लेते। लोग तो माँगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं। और माँगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फोटो खिचाने के लिए तो बीवी तक माँग ली जाती है, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपडक़र फोटो खिचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है!
टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों उपर से अच्छा दिखता है। अँगुली बाहर नहीं निकलती, पर अँगूठे के नीचे तला फट गया है। अँगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अँगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अँगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है। मेरी अँगुली ढँकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं!
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो जि़ंदगी भर इस तरह नहीं खिचाउँ, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे।
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुसकान है यह?
—क्या होरी का गोदान हो गया?
—क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?
—क्या सुजान भगत का लडक़ा मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोडक़र नहीं आ सकते?
नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफऩ के चंदे की शराब पी गया। वही मुसकान मालूम होती है।
मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूँ। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा- ‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’
और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था—‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’
चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया।
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियाँ पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।
तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमज़ोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!
तुम्हारी यह पाँव की अँगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अँगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूँ। तुम्हारी अँगुली का इशारा भी समझता हूँ और यह व्यंग्य-मुसकान भी समझता हूँ।
तुम मुझ पर या हम सभी पर हँस रहे हो, उन पर जो अँगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो—मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अँगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अँगुली को ढाँकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?
मैं समझता हूँ। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूँ, अँगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य-मुसकान समझता हूँ!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नई शिक्षा नीति का सबसे पहले तो इसलिए स्वागत है कि उसमें मानव-संसाधन मंत्रालय को शिक्षा मंत्रालय नाम दे दिया गया। मनुष्य को ‘संसाधन’ कहना तो शुद्ध मूर्खता थी। जब नरसिंहरावजी इसके पहले मंत्री बने तो मैंने उनसे शपथ के बाद राष्ट्रपति भवन में कहा कि इस विचित्र नामकरण को आप क्यों स्वीकार कर रहे हैं ? उनके बाद मैंने यही प्रश्न अपने मित्र अर्जुनसिंह जी और डॉ. मुरलीमनोहर जोशी से भी किया लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार को बधाई कि उसने इस मंत्रालय का खोया नाम लौटा दिया। पिछले 73 वर्षों में भारत ने दो मामलों की सबसे ज्यादा उपेक्षा की। एक शिक्षा और दूसरी चिकित्सा। उसका परिणाम सामने है। भारत की गिनती अभी भी पिछड़े देशों में ही होती है, क्योंकि शिक्षा और चिकित्सा पर हमारी सरकारों ने बहुत कम ध्यान दिया और बहुत कम खर्च किया। इनमें से एक बुद्धि को दूसरी शरीर को बुलंद बनाती है। तन और मन को तेज करनेवाली दृष्टि तो मुझे इस नई शिक्षा नीति में दिखाई नहीं पड़ती। इस नई नीति में न तो शारीरिक शिक्षा पर मुझे एक भी शब्द दिखा और न ही नैतिक शिक्षा पर। यदि शिक्षा शरीर को सबल नहीं बनाती है और चित्तवृति को शुद्ध नहीं करती है तो यह कैसी शिक्षा है ? बाबू बनाने, पैसा गांठने और कुर्सियां झपटना ही यदि शिक्षा का लक्ष्य है तो ये काम तो सर्वथा अशिक्षित लोग भी बहुत सफलतापूर्वक करते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं कि इस नई शिक्षा नीति में नया कुछ नहीं है। काफी कुछ है। इसमें मातृभाषा को महत्व मिला है। छठी कक्षा तक सभी बच्चों को स्वभाषा के माध्यम से पढ़ाया जाएगा। यह अच्छी बात है लेकिन हमारी सरकारों में इतना दम नहीं है कि वे दो-टूक शब्दों में कह सकें कि छठी कक्षा तक अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाने पर प्रतिबंध होगा। यदि ऐसा हो गया तो शिक्षा के नाम पर चल रही निजी दुकानों का क्या होगा ? त्रिभाषा-व्यवस्था जिस तरह से की गई है, ठीक है लेकिन अंग्रेजी की पढ़ाई को स्वैच्छिक क्यों नहीं किया गया ? यदि भाजपा की सरकार भी कांग्रेसी ढर्रे पर चलेगी तो उसे अपने आप को राष्ट्रवादी कहने का अधिकार कैसे सुरक्षित रहेगा ?
क्या इस नई शिक्षा नीति के अनुसार सभी विषयों की एम.ए. और पीएच.डी. की शिक्षा भी भारतीय भाषाओं के माध्यम से होगी ? आज से 55 साल पहले मैंने जवाहरलाल नेहरु विवि में अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने की लड़ाई लड़ी थी। पूरी संसद ने मेरा समर्थन किया। मेरी विजय हुई लेकिन आज भी लगभग सारा शोध अंग्रेजी में होता है। इस अंग्रेज के बनाए ढर्रे को आप कब बदलेंगे ? ये तो मेरे कुछ प्रारंभिक और तात्कालिक प्रश्न हैं लेकिन नई शिक्षा नीति का जब मूल दस्तावेज हाथ में आएगा, तब उस पर लंबी बहस की जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ऋतिका पाण्डेय
‘चुनौती स्वीकार' कर जो "महिलाएं महिलाओं के साथ" अपनी एकजुटता दिखाने के लिए हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर अपनी ब्लैक एंड वाइट फोटो डाल रही हैं, उनमें से ज्यादातर पोस्ट में इसके पीछे की असल वजह का कोई जिक्र नहीं मिल रहा है. असल में यह अभियान तुर्की से शुरु हुआ है जहां आए दिन किसी दोस्त, जानकार या परिजनों के हाथों जान से मारे जानी वाली महिलाओं की ब्लैक एंड वाइट फोटो अखबारों में छपा करती है.
हाल ही में जब एक व्यक्ति पर एक 27 साल की छात्रा पिनार गुलतेकिन की बहुत ही क्रूर तरीके से हत्या करने का आरोप लगा तो देश की महिलाएं इन आए दिन होने वाली हत्याओं और हमेशा महिलाओं के सिर पर लटकने वाली ऐसी तलवार के विरोध में सड़कों पर उतरीं. गुलतेकिन के लिए न्याय की मांग और ऐसे अपराधों के खिलाफ महिलाओं के विरोध प्रदर्शनों से ही यह फोटो चैलेंज उपजा. इसमें हर महिला को अपनी एक ब्लैक एंड वाइट तस्वीर लगानी है और कुछ अन्य महिलाओं को टैग करके प्रेरित करना है कि वे भी तुर्की की महिलाओं के इस अहम आंदोलन को आगे बढ़ाए.
एक और समझने वाली बात ये है कि इस तरह अपनी ब्लैक एंड वाइट फोटो लगा कर महिलाएं असल में यह संदेश दे रही हैं कि अगर कुछ नहीं किया गया तो ऐसे ही किसी दिन शायद कोई उनकी भी जान ले सकता है और फिर वे केवल अखबार में छपी एक काली-सफेद तस्वीर जितनी ही रह जाएंगी.
इतने अहम और खौफनाक संदेश को तुर्की के अलावा भी विश्व के कई देशों में समर्थन मिला. जहां अमेरिका तक में कई मशहूर हस्तियों ने इसे आगे बढ़ाया वहीं यह भारत में भी खूब लोकप्रिय हुआ. लेकिन इस बीच भारत में इसका मूल संदेश कहीं खो जाने के कारण अब यह केवल अपनी सुंदर दिखने वाली तस्वीर डालने तक सिमटता दिख रहा है. ऐसे में एक बार फिर तुर्क महिलाएं सोशल मीडिया पर ही इस गलतफहमी को दूर करने की कोशिश कर रही हैं.
फेमिसाइड यानि महिलाओं की हत्या का विरोध
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, फेमिसाइड शब्द उन तमाम महिलाओं की हत्या के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिनकी उनके पार्टनर ही हत्या कर देते हैं. कई मामलों में पति के हाथों पत्नियों को घरेलू हिंसा का शिकार बनना पड़ता है और आगे चलकर वे महिलाओं को मौत के घाट भी उतार देते हैं. साल 2019 में तुर्की में कम से कम 474 महिलाओं की ऐसे ही हत्या हुई मानी जाती है. इस साल इस संख्या में और बढ़ोत्तरी का अनुमान है क्योंकि कोरोना वायरस की महामारी के कारण घरों में दुर्व्यवहार और हिंसा झेलने वाली महिलाओं की संख्या और ज्यादा मानी जा रही है.
इसके बावजूद, तुर्की में राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोआन की सरकार ‘इस्तांबुल कन्वेन्शन' से बाहर निकलने या कम से कम कुछ बड़े बदलाव लाने की कोशिश कर रही है, जो कि महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने वाली विश्व के सबसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समझौतों में आता है. देश की महिलाएं सरकार के इस प्रयास का भी विरोध कर रही हैं और मांग कर रही हैं कि लैंगिक आधार पर होने वाली हिंसा से बचाने के लिए इसे बरकरार रखा जाए.
कैसा है तुर्की में महिलाओं का हाल
महिलाओं के विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिस ने कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया और हिरासत में भी उनके साथ मारपीट किए जाने की खबरें हैं. महिलाओं की शिकायत है कि देश में परिवार में हिंसा या दुर्व्यवहार की शिकायत करने वाली महिलाओं की कोई मदद नहीं करता. वी विल स्टॉप फेमिसाइड अभियान से जुड़ी मेलेक ओन्देर ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि तुर्की की पुलिस, सरकार और सरकारी अधिकारियों को महिलाओं के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है.
हालांकि राष्ट्रपति एर्दोआन ने गुलतेकिन की हत्या की खबर के अगले दिन ही ट्विटर पर खेद जताया था लेकिन कई महिला अधिकार समूह उनके शब्दों को खोखला मानते हैं. उनका आरोप है कि 2011 से जारी ‘इस्तांबुल कन्वेन्शन' के नियमों को लागू करने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है बल्कि वे तो इसे खत्म करने की कोशिश में लगे हैं. एक साल बाद ही इसमें सुधार करने वाला तुर्की पहला देश था और एक बार फिर वे इससे असंतुष्ट हैं. सरकार के दकियानूसी और धार्मिक धड़े का मानना है कि इससे तलाक को बढ़ावा मिलता है और परंपराएं टूटने का खतरा बढ़ता है. इसके पहले भी जब 25 नवंबर 2019 को इस्तांबुल में करीब 2,000 महिलाओं ने इकट्ठे होकर महिलाओं के खिलाफ लक्ष्यित हिंसा को खत्म करने की मांग उठाई थी, तो उन्हें तितर बितर करने के लिए देश की पुलिस ने महिलाओं पर आंसू गैस छोड़ी थी और रबर की गोलियों से उन्हें निशाना भी बनाया था.(DW)
राजकुमार सिन्हा
भरपूर उत्पादन और तीखी भुखमरी के बीच की उलटबासी के मैदानी अनुभवों की एक बड़ी वजह हर साल होती अनाज की बर्बादी और उसके लिए जरूरी भंडारण का अभाव है। अनाज की बर्बादी हमारे यहां सालाना होने वाली एक शर्मनाक दुर्घटना है, लेकिन इसी वजह से 2001 में सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई खाद्य-सुरक्षा याचिका के बावजूद ना तो सरकारें भंडारण को लेकर सचेत हुई हैं और न ही समाज और निजी-क्षेत्र। प्रस्तुत है, इसी साल के अनुभवों पर लिखा गया राजकुमार सिन्हा का यह लेख।
-संपादक
देश भर में इस साल तीन करोड़ 36 लाख हैक्टेयर जमीन पर गेहूँ की बुआई हुई थी और मध्यप्रदेश में 55 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि पर। गेहूं उत्पादन के क्षेत्र में मध्यप्रदेश ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और पंजाब को भी पीछे छोड़ दिया है। इस साल 4529 खरीदी केन्द्रों के माध्यम से एक करोड़ 29 लाख 34 हजार 588 मीट्रिक टन गेहूं खरीदी किया गया है। सरकार का दावा है कि 15 लाख 93 हजार 793 किसानों के खाते में 24 हजार 899 करोड़ रुपए जमा भी कर दिए हैं, परन्तु जुलाई में ही समाचार आया कि 450 करोड़ का 2.25 लाख टन गेहूं खरीदी केंद्रों और गोदामों के बाहर रखे-रखे भीग गया है। गेहूं भीगने को लेकर खरीद करने वाली सहकारी समितियां और गोदाम संचालक आमने- सामने आ गए हैं। दोनों संस्थाएं इसकी जिम्मेदारी एक-दूसरे पर थोप रहे हैं।
ये पूरी समस्या परिवहन में देरी के चलते उपजी है। सवा दो लाख टन से ज्यादा गेहूं गोदामों में भंडारण के लिए स्वीकार नहीं किया गया है। इसकी मुख्य वजह खराब गुणवत्ता और गेहूं में अनुपात से कई गुना अधिक नमी बताई गई है। खरीदा गया गेहूं गोदामों में स्वीकृत नहीं होने से अभी 400 करोड़ से अधिक की राशि किसानों के खाते में ट्रांसफर नहीं की गई है। जब तक गोदामों में पूरा गेहूं स्वीकृत नहीं होता, तब तक किसानों का भुगतान होना मुश्किल है। अब इसके लिए जिम्मेदार कौन है? एक खबर इंदौर से है कि 85 लाख टन गेहूं उत्पादन की तुलना में भंडारण क्षमता लगभग 22 लाख टन ही है। इस कारण 25 करोड़ से ज्यादा कीमत का गेहूं जून की बरसात में भीगकर खराब हो गया है। इसके बाद भी 'ओपन कैंपÓ में रखा छह करोड़ रूपये से ज्यादा का लगभग 65 हजार टन गेहूं और खराब हुआ है। किसानों के लिए तो यह साल जैसे काल बन कर आया है। कोरोना ने उन्हें फसल को खेत से निकाल कर मंडी तक ले जाने में काफी परेशान किया है।
'नियंत्रक महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि नियोजन नहीं होने के कारण 2011-12 से 2014 -15 के बीच 5060.63 मीट्रिक टन अनाज सड़ गया है जिसमें 4557 मीट्रिक टन गेहूं था। एक समाचार पत्र के अनुसार 21 मार्च 2017 को 'केन्द्रीय उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने संसद में दिए जवाब में बताया है कि मध्यप्रदेश के सरकारी गोदामों में 2013-14 और 2014-15 में करीब 157 लाख टन सड गया है जिसकी अनुमानित कीमत 3 हजार 800 करोड़ रुपए है। इसमें 103 लाख टन चावल और 54 लाख टन गेहूं शामिल है। बताया जाता है कि मिलीभगत के चलते अनाज को जान-बूझकर सडऩे दिया जाता है ताकि शराब कंपनियां बीयर व अन्य मादक पेय बनाने के लिए सड़े हुए अनाज, खासकर गेहूँ को औने-पौने दाम पर खरीद सके।
भारत में जनसंख्या के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन होता है। इसके बावजूद लाखों लोगों को दो वक्त का भोजन नहीं मिल पाता। आए दिन 'भूख से मौत के समाचार भी सुनने मिलते हैं। इसके विपरीत भारत में लगभग 60 हजार करोड़ रूपये का खाद्यान्न प्रति वर्ष बर्बाद हो जाता है, जो कुल खाद्यान्न उत्पादन का सात प्रतिशत है। इसका मुख्य कारण देश में अनाज, फल व सब्जियों के भंडारण की सुविधाओं का घोर अभाव है। दूसरी तरफ, 'संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) की 'भूख सबंधी सलाना रिपोर्ट कहती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा भुखमरी के शिकार भारतीय हैं। 'यूएनओ के 'खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट 'द स्टेट आफ फूड इनसिक्यूरिटी इन द वल्र्ड-2015 के मुताबिक 'यह विचारणीय और चिंतनीय है कि खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर होकर भी भारत में भूख से जूझ रहे लोगों की संख्या चीन से ज्यादा है। वजह हर स्तर पर होने वाली अन्न की बर्बादी है। इसका बङ़ा खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पडेगा। सवाल है कि अगले 35 वर्षों में, जब हमारी आबादी 200 करोड़ होगी, तब हम सबको अन्न कैसे उपलब्ध करा पाएंगे? 'कृषि मंत्रालय का कहना है कि पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि की तुलना में देश में अन्न की मांग कम बढ़ी है। यह मांग उत्पादन से कम है। यानी भारत अब अन्न की कमी से उठकर 'सरप्लस (अतिरिक्त) अन्न वाला देश बन गया है। देश में इस समय विश्व के कुल खाद्यान्न का करीब पंद्रह फीसद खपत होता है, लेकिन आज भी हमारे देश में अनाज का प्रति व्यक्ति वितरण बहुत कम है। यह विडम्बना नहीं, उसकी पराकाष्ठा है कि सरकार किसानों से खरीदे गए अनाज को खुले में छोड़कर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेती है ! (सप्रेस)
श्री राजकुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित संघ के वरिष्ठ कार्यकत्र्ता हैं।
डॉ. गोल्डी एम. जार्ज
अठारवीं सदी में अंग्रेजों ने जब से वन क्षेत्र में घुसपैठ करनी शुरू कर दी जो आदिवासियों के वास स्थल थे और इस कारण उनके बीच सीधा टकराव शुरू हुआ। भारत में आदिवासी विद्रोहों के पहले 100 सालों (1760 के दशक से लेकर 1860 के दशक तक) में वन कानून नहीं थे और इस दौरान जंगलों से इमारती लकड़ी और अन्य संसाधनों का अनियंत्रित दोहन हुआ। इस सौ साल के दरमियान सैकड़ों आदिवासी विद्रोह हुए। इसमें से तिलका मांझी (1770-85) के नेतृत्व में जो विद्रोह हुआ उसके बाद अंग्रेजों के सामने वन क्षेत्र के रहने वाले आदिवासियों के संदर्भ में गंभीर सवाल खड़ा हुआ।
अंग्रेजों द्वारा उन्नीसवीं सदी में वन विभाग की स्थापना करने और वनों से संबंधित कानून बनाने के समय से ही दो महत्वपूर्ण पहलुओं को नजरअंदाज किया गया। पहला, आदिवासियों और अन्य मूलनिवासी समुदायों द्वारा वनों के संरक्षण और उनके धारणीय उपयोग के लिए सदियों पुरानी सुस्थापित पारंपरिक प्रणालियां और वनों की पर्यावर्णीय, सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका। इसमें 1855 में सिदो-कान्हु के नेतृत्व में हुए हूल विद्रोह सबसे निर्णायक था जिसके बाद अंग्रेजों ने एक सख्त वन कानून की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया।
सन् 1855 के संथाल विद्रोह के मद्देनजर, 1856 में गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने एक स्थाई वन नीति बनाने पर जोर दिया। 1864 में अंग्रेजों ने इम्पीरियल फॉरेस्ट डिपार्टमेंट की स्थापना की। सन् 1865 में भारत के पहले वन कानून आया, जिसका संशोधन 1876 में किया गया और नये संशोधनों के साथ फॉरेस्ट एक्ट, 1878 लागू किया गया। इसके बाद सन् 1894 में ब्रिटिश सरकार ने अपनी वन नीति बनायी। अंत में सन् 1927 में ब्रिटिश सरकार ने इंडियन फॉरेस्ट एक्ट को बनाया जो सन 1878 में वनों के दोहन के लिए बनाई गई नीति के अनुरूप था। कुल मिलाकर आदिवासी अपने ही वन क्षेत्र में ही बाहरी व्यक्ति के रूप में स्थापित हो गए।
वन विभाग की स्थापना से पहले, अर्थात 1864 से पूर्व, जो प्रमुख विद्रोह हुए उन्हें केवल किसानों का अंग्रेजों या ज़मींदारों या साहूकारों से जुड़े मुद्दों को लेकर विद्रोह नहीं कहा जा सकता। उन्हें हमें बाहरी शक्तियों द्वारा आदिवासियों के वासस्थलों, जो मुख्यत: जंगल और पहाड़ थे, में जबरदस्ती घुसने के प्रयासों के संदर्भ में समझना होगा। इन विद्रोहों और आंदोलनों के पृष्ठभूमि और इतिहास के गहराई से अध्ययन से हमें यह पता लगेगा कि सिर्फ जमीन और जंगलों के आर्थिक और परंपरागत महत्व को नजरअंदाज करना या लोगों से इन संसाधनों को छीनन ही इन विद्रोहों के पीछे का कारण नहीं था। इनके पीछे था वह अघोषित सांस्कृतिक युद्ध जिसमें एक ओर थे आदिवासी तो दूसरी ओर गैर-आदिवासी निहित स्वार्थी तत्त्व, जिन्हें सरकार का समर्थन और सहयोग हासिल था।
वनभूमि से संबंधित कानून के आने से पहले के दौर में हुए आदिवासी विद्रोहों में प्रमुख थे, तिलका मांझी के नेतृत्व में संथाल विद्रोह (1770-85), हल्बा डोंगर (हल्बा), बस्तर (1774-79), महादेव कोली, महाराष्ट्र (1784-85), तमर, छोटानागपुर (1781; 1894-95), पंचेट एस्टेट सेल (1798), कुरुचि, वायनाड (1812), सिंघ्पो, आसाम (1825; 28; 43; 47), कोल विद्रोह (हो और मुंडा सहित) (1832), खोंड, ओडिशा (1850), संथाल, छोटानागपुर (1855), सोनाखान, छत्तीसगढ़ (1856-57), भील, गुजरात (1857-58), अंडमानीज़, अंडमान (1859), लुशाई, त्रिपुरा (1860), सिंतेंग, जैंतिया हिल्स (1860-62), जुआंग, ओडिशा (1861) और कोय, आंध्रप्रदेश (1862)।
सन् 1855 में संथाल परगना के भगनाडीह गांव के चार मुर्मू भाईयों, सिदो, कान्हु, चंद और भैरव के नेतृत्व में हूल विद्रोह पहाड़ी और मैदानी इलाकों में हुआ था। यद्यपि ऐसे कहा जाता है कि इस विद्रोह का कारण महाजनों और ज़मींदारों की ज्यादतियां थीं, परन्तु शायद आदिवासियों को यह भी महसूस हो रहा था कि उनकी ज़मीनों और जंगलों पर कब्ज़ा किया जा रहा है। 1857 का सोनाखान विद्रोह, इसी वर्ष कुछ समय बाद हुए एक और बहुचर्चित विद्रोह से पहले हुआ था। इसका नेतृत्व आदिवासी राजा नारायण सिंह ने किया था और इस विद्रोह के मुद्दे भी 1855 के संथाल विद्रोह से मिलते-जुलते थे। सोनाखान एक वनक्षेत्र है और इसके पास बार नवापारा के घने जंगल भी हैं। 1852 में बम्बई और उसके आसपास के इलाकों में रहने वाले कोल और अन्य वन-आधारित समुदायों में बड़े पैमाने पर पेड़ों को काटने को लेकर भारी गुस्सा था, परन्तु वह विद्रोह में परिवर्तित नहीं हुआ।
सन् 1864 के बाद से, ब्रिटिश ने भारत में केन्द्रीयकृत राजनैतिक-प्रशासनिक व्यवस्था लागू कर दी और इसके साथ ही वनों और वनवासियों के बीच विभाजक की रेखा खींच दी गई। औपनिवेशिक सरकार ने वनों पर अपने स्वामित्व को क़ानूनी जामा पहना दिया। इसका सीधा सा मतलब यह था कि वनों में रहने वाले समुदाय गैरकानूनी कब्जाधारी हैं और उन्होंने सरकार की भूमि पर अतिक्रमण किया हुआ है। इसका एक दूसरा परिणाम यह था कि वनक्षेत्र में रहनेवाले आदिवासी और मूलनिवासियों पर शिकार करने का प्रतिबन्ध लगा गया, लेकिन अंग्रेज़ अधिकारियों. ज़मींदारों, जागीरदारों को शिकार की खुली छूट थी।
इस दौर में अनेक आदिवासी विद्रोह हुए। जब भी आदिवासियों के जीवन में बेजा हस्तक्षेप करने की कोशिश हुई, जब भी उन्हें उनकी भूमि या जंगलों से बेदखल करने के प्रयास हुए, जब भी उनकी पारंपरिक संस्कृति, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, नागरिक अधिकारों या न्याय व्यवस्था का उल्लंघन या तिरस्कार किया गया, उन्होंने इसका तीव्र, त्वरित और आक्रामक प्रतिरोध किया। इस दौर में हुए महत्वपूर्ण विद्रोहों धनबाद में संथालों (1869-70), उत्तरपूर्व में नागाओं (1879), तम्मनडोरा के नेतृत्व में ओडिशा के मलकानगिरी में कोयायों (1880), अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में सेंटिनेलियों (1883), छोटानागपुर में मुंडाओं (1889), लुशाईयों (1892), बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडाओं का उलगुलान (1895), बस्तर के आदिवासियों का भूमकाल और गुंडा धुर के नेतृत्व (1910-11), गोविन्द गुरू के नेतृत्व में संप सभा और गुजरात व राजस्थान के मानगढ़ पहाडिय़ों में भीलों (1913-16), मणिपुर में कुकियों (1917-19), रम्पा में कोयायों (1922), उत्तरपूर्व में नागाओं (1932), तेलंगाना के आदिलाबाद में गोंड और कोलम जनजातियों (1941) और लक्ष्मण नायक के नेतृत्व में कोरापुट, ओडिशा में आदिवासियों (1942) का विद्रोह शामिल थे।
हूल विद्रोह के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलनों में से एक है उलगुलान (महान हलचल)। उलगुलान बिरसा मुंडा के नेतृत्वि में उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में किया गया मुंडा विद्रोह है, जो झारखंड का सबसे बड़ा आदिवासी विप्लव था, जिसमे हजारों की संख्या में मुंडा आदिवासी शहीद हुए।
धरती आबा के नाम से जाने जाने वाले बिरसा मुंडा, 1 अक्टूबर 1894 को सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजो से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया। यह अंग्रेजों का आदिवासी जीवन में हस्तक्षेप के खिलाफ सशस्त्र संग्राम था। बिरसा मुंडाओं के बीच अंग्रेजी सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लोगों को जागरूक करना शुरू कर चुके थे। जब सरकार द्वारा उन्हें् रोका गया और गिरफ्तार कर लिया तो उन्होंने मुंडा समुदाय में धर्म व समाज सुधार के कार्यक्रम शुरू किए और तमाम कुरीतियों से मुक्ति का प्रण लिया।
1895 में उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीडि़त जनता की सहायता करने की ठान रखी थी। 1897 से 1900 के बीच अंग्रेज के हर हस्तक्षेप के खिलाफ मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे। बिरसा और उसके साथियों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन इसके बाद उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारी हुई।
1898 में डोम्ब री पहाडिय़ों पर मुंडाओं की विशाल सभा हुई, जिसमें आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हुई। आदिवासियों के बीच राजनीतिक चेतना फैलाने का काम चलता रहा। अंत में 24 दिसम्बर 1899 को बिरसापंथियों ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। 5 जनवरी 1900 तक पूरे मंडा अंचल में विद्रोह की चिंगारियां फैल गई। 9 जनवरी 1900 को डोम्बार पहाड़ी पर अंग्रेजों से लड़ते हुए सैंकड़ों मुंडाओं ने शहादत दी। ब्रिटिश फौज ने आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिया। गिरफ्तार किए गए मुंडाओं में से दो को फांसी, 40 को आजीवन कारावास, 6 को चौदह वर्ष की सजा, 3 को 4 से 6 बरस की जेल और 15 को तीन बरस की जेल हुई।
बिरसा मुंडा काफी समय तक पुलिस की पकड में नहीं आये थे, लेकिन एक स्थानीय गद्दार की वजह से 3 मार्च 1900 को वे गिरफ्तार हुए। लगातार जंगलों में भूखे-प्यासे भटकने की वजह से वह कमजोर हो चुके थे। जेल में उन्हें हैजा हो गया और 9 जून 1900 को रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन जैसा कि बिरसा कहते थे, व्यक्ति को मारा जा सकता है, उसके विचारों को नहीं। बिरसा के विचार मुंडाओं और पूरी आदिवासी कौम को संघर्ष की राह आज भी दिखाती है।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता है, तथा वर्तमान में फॉरवर्ड प्रेस नई दिल्ली में सलाहकार संपादक है।)
-कनक तिवारी
भीमा कोरेगांव के मामले में अनावश्यक रूप से गिरफ्तार मानव अधिकार कार्यकर्ताओं में एक सुधा भारद्वाज के बारे में मैं शुरू से बता दूं सुधा और मेरा बहुत पुराना परिचय है। दुर्ग जिले में राजहरा में श्रमिक आंदोलन के बहुत बड़े नेता शंकर गुहा नियोगी आपातकाल के पहले ही मेरे बहुत करीब आए। मैं लगातार उनकी मदद करता रहा और उनकी यूनियन की, उनकी सहकारी समितियों की। नियोगी से तो घरोबा जैसा हो गया था। उनकी हत्या कर दी गई। इसका दुख और क्रोध आज तक हम लोगों को है। उन्हीं दिनों उनके सहयोगी सुधा भारद्वाज, अनूप सिंह, विनायक सेन, जनकलाल ठाकुर तथा कई और मित्र वहां हुए। सबसे आत्मीय रिश्ता परिवार की तरह होता गया। वह अनौपचारिकता आज तक कायम है।
सुधा मेरे साथ वकालत में भी मेरे ऑफिस में जूनियर रहीं। हमने कई मुकदमे साथ में किए। मेरे एक और जूनियर रहे गालिब द्विवेदी बंटी ने एक दिलचस्प टिप्पणी की ‘जैसे हम लोग आपकी डांट से डरते थे वैसे ही सुधा दीदी भी डरती थीं। बहुत सी फाइलों के बीच में काम करते करते थककर सोफे पर कुछ देर सो जाती थीं और कहती थीं देखना सर आएंगे तो डांट पड़ेगी कि यह काम नहीं किया। वह काम नहीं किया। वी लव यू सर हम सबका सौभाग्य है कि हमें आपका साथ एवं आपका सानिध्य प्राप्त हुआ है।’
बस्तर में टाटा और एस्सार स्टील के लगने वाले कारखानों को चुनौती देने वाली हमने जनहित याचिका दायर कीं। कई जनहित के मामले भी बस्त के आदिवासियों के पक्ष में हिमांशु कुमार की पहल पर किए। जस्टिस राजेंद्र सच्चर और वकील कन्नाबिरन, राजेंद्र सायल, विनायक सेन और सुधा भारद्वाज के कारण मैं कई बार पीयूसीएल के कार्यक्रमों में गया हूं। मैं विनायक सेन का वकील रहा हूं। उन्हें नक्सलवादी कहा गया। बहुत मुश्किल से उनकी सुप्रीम कोर्ट में जमानत हुई। कुछ और वकील, पत्रकार, छात्र पिछले वर्ष आंध्रप्रदेश से तेलंगाना से छत्तीसगढ़ में गिरफ्तार किए गए। उनके मामले की भी मैंने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में पैरवी की।
जिसे नक्सलवादी साहित्य कहते हैं उसमें से बहुत सा तो सरकारी अधिनियमों के तहत ही छपता है। उसे कोई जप्त नहीं कर सकता। मामलों में पुलिस उल्टा ही कहती रहती है। छत्तीसगढ़़ जनसुरक्षा विशेष अधिनियम में डॉक्टरों, कलाकारों, लेखकों, दर्जियों को पकड़ लिया जाता रहा है। छत्तीसगढ़ में सरकार के प्रोत्साहन से तथाकथित सलवा जुडूम नाम का कांग्रेस द्वारा समर्थित वितंडावाद हुआ था। उसकी हम सब ने मुखालफत की थी। अदालत तक गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने उस सलवा जुडूम के पूरे सरंजाम को ध्वस्त कर दिया। नंदिनी सुंदर ने इस संबंध में महत्वपूर्ण काम किया है । मेधा पाटकर ने भी, अरुंधती राय ने, सुधा भारद्वाज ने, बहुत लोगों ने। अब ब्रह्मदेव शर्मा से कई मामलों में इसी तरह के मामलों में सक्रिय संबंध हम लोगों का रहा है।
सुधा चाहती तो बहुत ऐशोआराम का जीवन व्यतीत कर सकती थी। चाहती तो बहुत से शहरी लोगों की तरह आंदोलन करतीं। शोहरत भी पाती, दौलत भी पाती। फिर भी गरीबों की नेता बनी रहती। लेकिन उसने वैभव और शहरी ठाटबाट की जिंदगी छोड़ दी। उसने गरीबी से अपनी जिंदगी, जो तारीफ के काबिल है, चलाई है। छत्तीसगढ़ से दिल्ली चली गईं अपने निजी कारणों से। कुछ पारिवारिक कारण भी थे। उन्होंने एक बच्ची को गोद लिया है। उसका जीवन संवार रही हैं। उसके पहले से बहुत बीमार चल रहा था। बहुत भावुक होकर मैंने फोन भी किया था। लिखा था। मेरी छोटी बहन की तरह काश छत्तीसगढ़ से नहीं जाती। सुधा भारद्वाज की तरह के उदाहरण हिंदुस्तान में उंगलियों पर गिने जाएंगे। इससे ज्यादा मैं क्या कहूं।
सुधा भारद्वाज की अर्णब गोस्वामी के रिपब्लिक गोदी मीडिया द्वारा या ट्रोल आर्मी के द्वारा कोई चरित्र हत्या की कोशिश की जाती रही है। कुछ बातें और बताऊंगा। कुछ वर्षों पहले छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस और कुछ जजों ने सुधा को लेकर मुझसे बात की थी। वे चाहते थे कि सुधा छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में जज बनने के लिए अपनी स्वीकृति दे दें। सुधा ने विनम्रतापूर्वक इंकार किया। मैंने सुधा से पूछा भी था तो हंसकर टाल गई। उसने कहा आप जानते हैं यह काम मैं नहीं कर पाऊंगी। मुझे जो काम करना है। वह मैं ठीक से कर रही हूं। मैं भी जानता था। वह इस काम के लिए नहीं बनी है। फिर भी उनकी योग्यता और क्षमता को देखकर मैंने सिफारिश करने की कोशिश जरूर की थी।
सुधा एक आडंबररहित सीधा सादा जीवन जीती है। उनमें दुख और कष्ट सहने की बहुत ताकत है। यूनियन में संगठन में मतभेद भी होते थे। बहुत से मामलों को सुलझाने में मैं खुद भी शरीक रहा हूं। बहुत अंतरंग बातें मुझे बहुत सी कई मित्रों के बारे में मालूम है। कुल मिलाकर सब एक परिधि के अंदर रहते थे। उसके बाहर नहीं जाते थे। जैसे बर्तन आपस में रसोई घर में टकरा जाते होंगे। लेकिन एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते। ऐसे बहुत से साथियों के बारे में भ्रम फैलाया जाता रहा है। अफवाह फैलाने वाले खराब किस्म के घटिया लोग हैं। मैं तो कांग्रेस पार्टी का पदाधिकारी रहकर भी कांग्रेस की सत्ता के जमाने में नियोगी के कंधे से कंधा मिलाकर सरकारी आदेशों और व्यवस्था के विरोध करने सहयोग करता था। मुझे किसी का भय नहीं था। कांग्रेस पार्टी ने भी कभी मुझे काम करने से नहीं रोका। यह ईमानदार मजदूर लोगों का एक संगठन है, पारदर्शी लोगों का। जब से यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बिकाऊ हो गया है, घटिया हो गया है, सड़ा हो गया है। तब से इस तरह की हरकतें वह कर रहा है। न्याय व्यवस्था भी सड़ गई है। जस्टिस कृष्ण अय्यर ने तो न्यायपालिका नामक संस्था को ही अस्तित्वहीन कह दिया है।
-शुभनीत कौशिक
वर्ष 1932 में भारतीय क्रिकेट टीम इंग्लैंड के दौरे पर गई. पोरबंदर के महाराजा की कप्तानी में भारतीय क्रिकेट टीम ने इस दौरे में कुल 37 मैच खेले. इनमें से 26 प्रथम श्रेणी के मैच थे. प्रथम श्रेणी के नौ मैचों में भारतीय क्रिकेट टीम ने जीत हासिल की. उसकी इस सफलता का श्रेय दिग्गज बल्लेबाज सी.के. नायडू और दो तेज गेंदबाजों अमर सिंह और मोहम्मद निसार को दिया गया. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने क्रिकेट के इतिहास पर लिखी गई अपनी चर्चित किताब ‘अ कॉर्नर ऑफ अ फॉरेन फ़ील्ड’ में भारतीय क्रिकेट टीम के इस इंग्लैंड दौरे के बारे में विस्तार से लिखा है. साथ ही, रामचंद्र गुहा ने सी.के. नायडू को ‘पहला महान भारतीय क्रिकेटर’ भी कहा है.
इसी संदर्भ में, उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद ने भी 12 अक्तूबर 1932 को ‘जागरण’ में छपे एक संपादकीय में भारतीय क्रिकेट टीम के इंग्लैंड दौरे का विवरण लिखा था. प्रेमचंद ने इसमें लिखा कि भारतीय क्रिकेट टीम को भारतीय हॉकी टीम जितनी सफलता भले ही न मिली हो, लेकिन फिर भी उसकी सफलता महत्त्वपूर्ण है. भारतीय क्रिकेट टीम की सफलता पर ख़ुशी जाहिर करते हुए प्रेमचंद ने लिखा था : ‘भारतीय क्रिकेट टीम दिग्विजय करके लौट आयी. यद्यपि उसे उतनी शानदार कामयाबी हासिल नहीं हुई, फिर भी इसने इंग्लैंड को दिखा दिया कि भारत खेल के मैदान में भी नगण्य नहीं है. सच तो यह है कि अवसर मिलने पर भारत वाले दुनिया को मात दे सकते हैं, जीवन के हरेक क्षेत्र में. क्रिकेट में इंग्लैंड वालों को गर्व है. इस गर्व को अबकी बड़ा धक्का लगा होगा. हर्ष की बात है कि वाइसराय ने टीम को स्वागत का तार देकर सज्जनता का परिचय दिया.’
जैसे आज भारत में आईपीएल का क्रेज बना हुआ है, बीसवीं सदी के तीसरे दशक में मार्लेबन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) के क्रिकेट मैचों की धूम थी. उस समय एक ओर भारत की ब्रितानी हुकूमत द्वारा आर्थिक मंदी का रोना रोया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर एमसीसी के मैचों का पूरे धूम-धाम से आयोजन हो रहा था. इस पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचंद ने ‘जागरण’ में लिखा था कि क्रिकेट मैचों के लिए ‘रेल ने कन्सेशन दे दिए, एक्सप्रेस गाड़ियां दौड़ रही हैं, तमाशाई लोग थैलियां लिए कलकत्ता भागे जा रहे हैं. और इधर गुल मचाया जा रहा है कि मंदी है और सुस्ती है. मंदी और सुस्ती है मजदूरी घटाने के लिए, नौकरों का वेतन काटने के लिए, ऐसे मुआमिलों में हमेशा तेजी रहती है.’
प्रेमचंद ने 15 जनवरी 1934 को ‘जागरण’ में ही लिखे एक संपादकीय में इस भयावह स्थिति की तुलना फ्रेंच क्रांति के समय के फ्रांस से की. उन्होंने लिखा : ‘कहते हैं कि फ्रेंच क्रांति के पहले जनता तो भूखों मरती थी और उनके शासक और जमींदार और महाजन नाटक और नृत्य में रत रहते थे, वही दृश्य आज हम भारत में देख रहे हैं. देहातों में हाहाकार मचा हुआ है. शहरों में गुलछर्रे उड़ रहे हैं. कहीं एमसीसी की धूम है, कहीं हवाई जहाज़ों के मेले की. बड़ी बेदर्दी से रुपए उड़ रहे हैं.’
क्रिकेट खिलाड़ियों के चयन में आज भारत में चयनकर्ताओं द्वारा जो मनमानी की जाती है, ठीक वैसी ही स्थिति तब भी थी. प्रेमचंद ने ‘जागरण’ में 1 जनवरी 1934 को लिखे संपादकीय में खिलाड़ियों के चयन पर टिप्पणी करते हुए लिखा : ‘यहां जिस पर अधिकारियों की कृपा है, वह इलेविन में लिया जाता है. यहां तो पक्का खिलाड़ी वह है, जिसे अधिकारी लोग नामजद करें. भारत की ओर से वाइसराय बधाई देते हैं, भारत का प्रतिनिधित्व अधिकारियों ही के हाथ में है. फिर क्रिकेट के क्षेत्र में क्यों न निर्वाचन अधिकार उनके हाथ में रहे.’
संपत्तिशाली वर्ग, राजे-महाराजों द्वारा क्रिकेट में दिखाई जा रही रुचि का कारण भी प्रेमचंद बख़ूबी समझते थे. वे लिखते हैं : ‘सुना है वाइसराय साहब को क्रिकेट से बड़ा प्रेम है. जवानी में अच्छे क्रिकेटर थे. अब खेल तो नहीं सकते मगर आंखों से देख तो सकते हैं. और जिस चीज में हुज़ूर वाइसराय को दिलचस्पी हो उसमें हमारे राजों, महाराजों, नवाबों और धनवानों को नशा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं.’ उसी दौरान बनारस में हुए एक क्रिकेट मैच में पांच हजार दर्शक जमा हुए थे, जिनसे टिकट के रूप में पच्चीस हजार रुपए वसूले गए थे. इस पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचंद ने लिखा कि ‘कम-से-कम पच्चीस हजार रुपए केवल टिकटों से वसूल हुए और दिया किसने, उन्हीं बाबुओं और अमीरों ने जिनसे शायद किसी राष्ट्रीय काम के लिए कौड़ी न मिल सके.’
उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद ने अपनी साहित्यिक कृतियों में भी क्रिकेट के बारे में लिखा है. उपन्यास ‘वरदान’ में प्रेमचंद ने अलीगढ़ और प्रयाग के छात्रों के बीच हुए क्रिकेट मैच का जीवंत वर्णन किया है. ‘वरदान’ का एक अहम किरदार प्रतापचंद्र हरफ़नमौला क्रिकेटर है. अलीगढ़ की टीम द्वारा रनों का अंबार खड़ा किए जाने के बाद प्रयाग की टीम प्रतापचंद्र की बल्लेबाजी पर पूरी तरह निर्भर हो जाती है.
प्रेमचंद ने ‘वरदान’ में उल्लिखित इस मैच में प्रतापचंद्र की बल्लेबाजी का जो रोमांचक वर्णन किया है, उसे पढ़ें : ‘तीसरा गेंद आया. एक पड़ाके की ध्वनि हुई और गेंद लू की भांति गगन भेदन करता हुआ हिट पर खड़े होने वाले खिलाड़ी से सौ गज आगे गिरा. लोगों ने तालियां बजाईं. सूखे धान में पानी पड़ा. जाने वाले ठिठक गए. निराशों को आशा बंधी. चौथा गेंद आया और पहिले गेंद से 10 गज आगे गिरा. फील्डर चौंके, हिट पर मदद पहुंचाई. पांचवां गेंद आया और कट पर गया. इतने में ओवर हुआ. बॉलर बदले, नए बॉलर पूरे वधिक थे. घातक गेंद फेंकते थे. पर उनके पहिले ही गेंद को प्रताप ने आकाश में भेजकर सूर्य से स्पर्श करा दिया. फिर तो गेंद और उसकी थापी में मैत्री-सी हो गई. गेंद आता और थापी से पार्श्व ग्रहण करके कभी पूर्व का मार्ग लेता, कभी पश्चिम का, कभी उत्तर का और कभी दक्षिण का. दौड़ते-दौड़ते फील्डरों की सांसें फूल गईं.’
इसी तरह प्रेमचंद ने क्रिकेट पर एक कहानी भी लिखी थी, जिसका शीर्षक ही है ‘क्रिकेट मैच’. यह कहानी प्रेमचंद के निधन के बाद कानपुर से छपने वाले उर्दू पत्र ‘ज़माना’ में जुलाई 1937 में छपी थी. डायरी शैली में लिखी गई यह कहानी जनवरी 1935 से शुरू होती है. इस कहानी के मुख्य पात्र हैं भारतीय क्रिकेटर जफर और इंग्लैंड से डॉक्टरी की पढ़ाई कर भारत लौटी हेलेन मुखर्जी. जफर को भारतीय टीम के मैच हारने का दुख है और वह इसका कारण भी जानता है – चयनकर्ताओं की मनमानी. जफर अपनी डायरी में दर्ज करता है ‘हमारी टीम दुश्मनों से कहीं ज़्यादा मजबूत थी मगर हमें हार हुई और वे लोग जीत का डंका बजाते हुए ट्रॉफी उड़ा ले गए. क्यों? सिर्फ़ इसलिए कि हमारे यहां नेतृत्व के लिए योग्यता शर्त नहीं. हम नेतृत्व के लिए धन-दौलत ज़रूरी समझते हैं. हिज़ हाइनेस कप्तान चुने गए, क्रिकेट बोर्ड का फैसला सबको मानना पड़ा.’
इस कहानी में प्रेमचंद ने औपनिवेशिक काल में भारतीय क्रिकेट की दशा को बिलकुल स्पष्टता से अभिव्यक्त कर दिया है. यह वह समय था, जब योग्य क्रिकेटरों की उपेक्षा होती थी और राजा-महाराजा अपनी अयोग्यता के बावजूद क्रिकेट टीम का नेतृत्व करते थे. ऐसी ही हालत में जफर की मुलाक़ात हेलेन मुखर्जी से होती है, जो योग्यता और कौशल के आधार पर हिंदुस्तानी क्रिकेटरों की एक टीम बनाना चाहती है. जफर के साथ मिलकर हेलेन लखनऊ, अलीगढ़, दिल्ली, लाहौर और अजमेर से खिलाड़ियों को चुनती है और एक क्रिकेट टीम तैयार करती है. कहानी में यह क्रिकेट टीम जफर के नेतृत्व में बंबई में आस्ट्रेलिया की क्रिकेट टीम से एक मैच खेलती है और उसे पराजित भी करती है.(satyagrah)
-चैतन्य नागर
कुछ महीने पहले तक हमारी बहस का मुद्दा यह था कि हमारी शिक्षा प्रणाली में क्या खामियां हैं और वे कैसे दूर होंगी| महामारी ने हमें इस हालत में पहुंचा दिया है कि अब हमें यह भी नहीं मालूम कि शिक्षा के नाम पर जो कुछ हमारे पास है, उसका भी भविष्य क्या होगा | कोरोना वायरस से फैली बीमारी और उसके भय ने शिक्षा की दुनिया को महासंकट में डाल दिया है| देश में करीब 32 करोड़ छात्र और छात्राएं इस समय अपनी पढ़ाई-लिखाई को लेकर पशोपेश में हैं| यह संख्या अमेरिका की पूरी आबादी से थोड़ी ही कम है! इसके अलावा पूरी दुनिया में तो 193 देशों में 157 करोड़ बच्चों को लेकर असमंजस बना हुआ है| उनके स्कूल कब खुलेंगे, और खुलेंगें भी तो कैसे| एक वैश्विक महामारी के साए में अब किस तरीके से उन्हें पढ़ाया जाएगा? ये सवाल नेताओं, शिक्षाविदों, नीति निर्धारकों, शिक्षकों और छात्रों को लगातार परेशान कर रहे हैं|
शिक्षा के सम्बन्ध में फिलहाल कोई भी फैसला सही नहीं लग रहा रहा| हर जवाब के साथ कई सवाल, हर समाधान के साथ अगिनत समस्याएं भी सामने आ रही हैं| स्कूल और कॉलेज फिर से खोलने या न खोलने का फैसला संभवतः अब वायरस के गम्भीर वैज्ञानिक अध्ययन से आने वाले परिणामों पर ही निर्भर करेगा| आने वाले समय में वायरस की हरकतें कैसी होगी, क्या उसे किसी टीके की खोज के बाद काबू में कर लिया जाएगा, क्या ये टीके इस स्तर पर लोगों को उपलब्ध होंगें कि देश भर के स्कूल जाने वाले बच्चों, उनके सम्पर्क में आने वाले शिक्षकों और अन्य स्कूल कर्मियों को ये लगाये जा सकें और उन्हें सुरक्षित घोषित किया जा सके?
इस बात का फिलहाल अंदाजा नहीं कि स्कूल खुलेंगे कब| मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ने थोड़े दिन पहले कहा कि स्कूल 15 अगस्त के बाद ही शायद खुल पायेंगें| केंद्र सरकार सभी राज्य सरकारों के साथ विचार विमर्श करने के बाद ही स्कूलों को खोलने का फैसला कर सकेगी| गौरतलब है कि इस सम्बन्ध में अंतिम फैसला राज्य सरकारों को ही लेना होगा| देश में कई अभिभावक संघों का मानना है कि वर्ष 2020-21 को ‘शून्य शैक्षणिक वर्ष’ घोषित कर दिया जाना चाहिए| मौजूदा हालात को देखते हुए यह बात काफी तर्कसंगत भी लगती है| रोज़-रोज़ नए फैसले करने और छात्रों को भ्रमित करने से बेहतर है कि इस बारे में एक बार स्पष्ट फैसला किया जाए| किसी भी वैज्ञानिक और बड़े चिकित्सक ने स्पष्ट तौर पर अभी तक यह नहीं कहा है कि ये महामारी कब इस हद तक नियंत्रित हो जायेगी कि छोटे बच्चों को लेकर कोई फैसला किया जा सकेगा| कई जगहों पर अभिभावकों ने कहा है कि जब उनके जिले में पिछले 21 दिनों में संक्रमण का एक भी मामला नहीं आएगा, तभी वे बच्चों को स्कूल वापस भेजने पर विचार करेंगें| कइयों ने कहा कि पूरे राज्य और देश में भी तीन हफ्ते तक एक भी मामला न आने पर वे बच्चों को स्कूल भेजेंगें| बड़ी संख्या में अभिभावकों ने साफ़-साफ कहा है कि जब तक टीका नहीं आएगा, और सभी को नहीं लगा दिया जाएगा, वे बच्चों को स्कूल नहीं भेजने वाले| शिक्षा में बच्चों के साथ अभिभावकों की भी समान हिस्सेदारी है| उनकी सहमति के बगैर न ही सरकार स्कूल खोल सकती है और न ही शिक्षा बोर्ड इस मामले में कोई निर्देशावाली जारी कर सकेंगें| इजराइल का उदाहरण सामने है| वहां स्कूल खुलने के दो हफ्तों बाद महामारी ने फिर से हमला किया और एक ही स्कूल में 130 संक्रमित मामले सामने आये| सरकार ने फिर स्कूल बंद किये, और नए निर्देशों के अनुसार जैसे ही किसी स्कूल में कोविड-19 संक्रमण का एक भी मामला आएगा, उसे बंद कर दिया जाएगा| स्कूलों को खोलने के फैसले के तुरंत बाद इजराइल में करीब 6800 छात्रों और शिक्षकों को क्वारंटाइन किया गया| चीन के शंघाई में बच्चों को स्कूल आने के समय और उसके बाद भी बार-बार थर्मल स्कैनर से जांच करवानी पड़ी है और पूरे स्कूल में जगह जगह पोस्टरों के माध्यम से बच्चों को संक्रमण से बचने के तरीके बताये गए हैं| स्कूल के डाइनिंग हॉल में हर बच्चे के पास एक स्क्रीन लगाई गयी जिससे वह बिलकुल भी दूसरे बच्चे के संपर्क में न आ पाए| हमारे देश के स्कूलों में इतनी जगह कहाँ कि इस तरह के नियमों का पालन हो सकेगा| एक कक्षा में कम से कम सत्तर बच्चे बैठते हैं, वहां कैसे शारीरिक दूरी के नियमों का पालन होगा? बहुत महंगे रिहायशी स्कूलों में भी इतनी जगह कहाँ है कि बच्चों को डाइनिंग हॉल में भोजन के समय दो या तीन मीटर की दूरी पर बैठाया जाए|
जीवन का प्रश्न शिक्षा से ज्यादा बड़ा प्रश्न है| जान है तो पढ़ाई-लिखाई है| सरकार को माता पिता,शिक्षकों और समूचे स्कूल समुदाय को पहले आश्वस्त करना होगा कि बच्चों, शिक्षकों और संस्थान में काम करने वाले बाकी लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को कोई खतरा नहीं होगा| क्या स्कूल से संक्रमण फ़ैल सकता है, क्या वहां सफाई के लिए पर्याप्त व्यवस्था है? वहां काम करने वाले बाहर से भी आयेंगें, उनकी साफ़ सफाई और स्वच्छता पर कैसे निगरानी रखे जाएगी? क्लास रूम के आकार को कैसे बदला जायेगा, जिससे वहां सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों को माना जा सके? स्कूल को किस तरह की मानसिक और मनोवैज्ञानिक सहायता की जरूरत पड़ेगी और वह कैसे मुहैया करवाई जायेगी? हर देश में, और देश के भी हरेक राज्य में स्थितियां अलग-अलग हैं और उनको ध्यान में रखते हुए इन सवालों का जवाब ढूंढना होगा, तभी स्कूल-कॉलेज खोलने पर समेकित ढंग से विचार किया जा सकता है| यह एक ऐसा मामला है जिसमे स्वास्थ्य मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय को बहुत गहरा सामंजस्य और तालमेल बनाकर काम करना होगा, नहीं तो भविष्य में स्थितियां और भी ज्यादा बिगड़ने की संभावना है|
स्कूलों को भी इस बात पर विचार करना होगा कि क्या वे बदली हुई परिस्थितियों का सही तरीके से प्रबंधन करने के लिए प्रस्तुत हैं| क्या उसके पास पर्याप्त कर्मी हैं, इतने शिक्षक हैं कि वह इन तमाम शर्तों को पूरा करते हुए शिक्षा संस्थान खोल पायेंगें? यदि स्कूलों को दो शिफ्ट में चलाना पड़ा, तो क्या प्रबंधन और शिक्षक इस स्थिति के लिए तैयार होंगें? क्या सरकार को बड़े पैमाने पर अब होम स्कूलिंग, या घर से बच्चों को पढ़ाने को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए, जिससे कि बच्चे घरों में पढ़ सकें, और स्कूल के जरिये अपना पंजीकरण करवा कर इम्तहान दे सकें? इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए| मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए यह एक विचारणीय विकल्प होगा, पर यह सभी वर्ग के बच्चों पर लागू नहीं किया जा सकता|
अब जब स्कूल खुलेंगें तो उनका खुलने और बंद होने का समय भी बदलना पड़ सकता है| साथ ही रोज़ की समय-सारणी में भी बड़ा बदलाव लाना पड़ सकता है| स्कूल बसों से आने-जाने वाले बच्चों के लिए एक और सवाल सामने खड़ा हो जाएगा, और वह यह कि स्कूल क्षमता से आधे बच्चों को लेकर बसें कैसे चलाएगा| इस तरह की व्यवस्था से उसका खर्च बढ़ेगाऔर वह इस खर्च को अभिभावकों से फीस के रूप में वसूलने की कोशिश करेगा| अभिभावक फीस बढ़ाये जाने का विरोध करेंगें, क्योंकि उन्हें लगेगा कि किसी अजीबोगरीब आपदा के लिए उन्हें सज़ा दी जा रही है| इस तरह दोनों असहाय पक्षों के बीच अनावश्यक मनोमालिन्य बढेगा| बच्चों को किताब-कापियों और पानी की बोतलों के साथ सैनिटाइज़र और फेस मास्क भी सम्भालने पड़ेंगें| स्कूलों में शौचालयों की सफाई का विशेष ध्यान देना पड़ेगा और लगातार उनकी निगरानी करनी पड़ेगी| ये सारी बातें इतनी जरुरी है कि इनकी कल्पना से ही मन परेशान हो रहा है| स्कूल पढ़ाई-लिखाई की जगह कम और अस्पताल जैसे ज्यादा दिखेंगें| यह कितना भयावह है!
हाल ही में भारतीय जन स्वास्थ्य फाउंडेशन के अध्यक्ष के श्रीनाथ रेड्डी ने बताया कि अब यह समझ आ रहा है कि बच्चों में भी संक्रमण फैलने के खतरे बहुत अधिक हैं| उनके जल्दी ठीक होने की संभावना भी अधिक है, पर वे दूसरों में यह संक्रमण फैला सकते हैं| ख़ास कर स्कूलों में वे वयस्क शिक्षकों और अन्य कर्मियों के लिए खतरा बन सकते हैं| घर जाकर वे अपने परिवार वालों के लिए भी संक्रमण का स्रोत बन सकते हैं| यह खतरा इसलिए भी बड़ा है क्योंकि बच्चे शारीरिक दूरी के नियमों का पालन उतनी गंभीरता के साथ नहीं कर पाते| इस अनिश्चित स्थिति से निपटने के लिए सी बी एस ई ने पाठ्यक्रम को हल्का करने का निर्णय लिया पर जिन अध्यायों को हटाने के लिए उसने सिफारिश की वे लोकतान्त्रिक अधिकारों, संघीय ढाँचे, और धर्म निरपेक्षता से सम्बंधित थे| इसे लेकर एक राजनीतिक विवाद खड़ा हो रहा है| पाठ्यक्रम को हल्का करने के नाम पर ग़ालिब, अमीरखुसरो और टैगोर को भी किताबों से हटाने की चर्चा हुई है, और यह निर्णय भी आगे चल कर एक नया बवाल पैदा करेगा, इसकी पूरी आशंका है| इस तरह के फैसले शिक्षा विदों को लेने चाहिए, न कि सरकारी अफसरों को| और ये शिक्षाविद किसी ख़ास पार्टी से जुड़े नहीं होने चाहिए| तमाम उलझनें बनी हुईं हैं; प्रश्न आक्रामक मुद्रा में हैं, झेंपते हुए उत्तर बगलें झांक रहे हैं|
रश्मि त्रिपाठी
ये चित्र जब भी देखती हूं मन में प्रेम और गर्व सा मिश्रित भाव आ जाता है। सच में अगर आज कुछ सुकून देने लायक है तो कुछ पुराना पढिय़े और समझिये।
ये चित्र अपने आप में एक पूरा इतिहास समेटे हुये है। इंदिराजी देश की प्रधानमंत्री थीं तब मार्च 1983 का महीना विज्ञान भवन में गुटनिरपेक्ष देशों का शिखर सम्मेलन था। जबकि सैंकड़ों राष्ट्राध्यक्ष और ऑब्जर्वर वहां उपस्थित थे। शायद ही इतना बड़ा सम्मेलन इस देश में कभी हुआ हो।
संयुक्त राष्ट्र में भले ही हुआ हो। पर मुझे नही लगता कि और भी कहीं इतने राष्ट्राध्यक्ष कभी एक साथ मिलें हों।
इस चित्र की कहानी ये है कि जो लकड़ी का हथौड़ा होता है वो वर्तमान अध्यक्ष या मेजबान अगले मेजबान को सौंपेगा यही परम्परा होती है।
बस उसी समय जब इंदिराजी उनसे हथौडा लेने आईं तो लंबे-चौड़े से कास्त्रो ने उन्हें खींचकर ऐसे गले लगा लिया।
मुझे ऐसा लगता हैं इंदिरा जी को थोड़ी देर के लिए जरूर नेहरूजी की याद आई होगी।
वो कितना अद्भुत क्षण रहा होगा!
इस चित्र का नाम ही एक भालू हग हो गया।
चूंकि चार साल पहले सम्मेलन हवाना में हुआ था और हथौड़ा फिदेल को इंदिरा जी को देना था। इंदिरा जी ने जैसे ही हाथ बढ़ाया उनके भाव उमड़ पड़े और वो खुद को रोक नहीं पाये।
इस सम्मेलन में एक और घटना हुई थी और वहां भी कास्त्रो नेहरू बन गए। हुआ ये कि फिलिस्तीन के राष्ट्राध्यक्ष यासिर अराफात थोड़े नाराज से हो गये थे इंदिराजी से क्योंकि जार्डन को उनसे पहले संबोधित करने का मौका दे दिया गया था। वे तुरंत ही वापस लौटने का प्लान कर लिये थे इंदिरा चिंतित थीं ।
पता नही कैसे कास्त्रो को पता चल गया और वे तुरंत अराफात के पास पहुंचे और बोले ‘इंदिरा आपकी दोस्त हैं क्या?’
‘अरे नही वो तो बड़ी बहन की तरह हैं मेरे लिये’.... अराफात बोले...
‘तो छोटे भाई ही बने रहो मैन’..
कास्त्रो के इतना कहते ही अराफात ने अपना लौटने का प्लान स्थगित कर दिया।
इन बातों को जो समझेगा वो जानेगा कि हमारे संबध दुनिया में कैसे थे ?
एक बार मुझे किसी एनआरआई ने बताया था कि विदेशों में बहुत लोग इंडिया को न भी जानते हों तो भी गांधी, नेहरु, इंदिरा और राजकपूर, अमिताभ बच्चन को जानते हैं। पता नही ये कितना सच है ! पर सच कहूं तो फिदेल मुझे अपने हीरो लगते है एक ऐतिहासिक नायक !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गलवान घाटी के हत्याकांड पर चीन ने चुप्पी साध रखी है। लेकिन वह भारत पर सीधा कूटनीतिक या सामरिक हमला करने की बजाय अब उसके घेराव की कोशिश कर रहा है। घेराव का मतलब है, भारत के पड़ौसियों को अपने प्रभाव-क्षेत्र में ले लेना ! चीन के विदेश मंत्री ने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नेपाल के विदेश मंत्रियों के साथ एक संयुक्त वेबिनार किया।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री कोरोनाग्रस्त हैं, इसलिए एक दूसरे मंत्री ने इस वेबिनार में भाग लिया। यह संयुक्त बैठक की गई कोरोना से लडऩे के उद्देश्य को लेकर उसमें हुए संवाद का जितना विवरण हमारे सामने आया है, उससे क्या पता चलता है ? उसका एक मात्र लक्ष्य था, भारत को दक्षिण एशिया में अलग-थलग करना। नेपाल और पाकिस्तान के साथ आजकल भारत का तनाव चल रहा है, चीन ने उसका फायदा उठाया। इसमें उसने अफगानिस्तान को भी जोड़ लिया है।
ईरान को उसने क्यों नहीं जोड़ा, इसका मुझे आश्चर्य है। वांग ने तीनों देशों को कहा और उनके माध्यम से दक्षिण एशिया के सभी देशों को कहा कि देखो, तुम सबके लिए अनुकरण के लिए सबसे अच्छी मिसाल है—— चीन—पाकिस्तान दोस्ती। इसी उत्तम संबंध के कारण इन दोनों ‘इस्पाती दोस्तों’ ने कोरोना पर विजय पाई है। सारी दुनिया कोरोना फैलाने के लिए चीन को जिम्मेदार ठहरा रही है लेकिन चीन उल्टा दावा कर रहा है और पाकिस्तान में कोरोना महामारी का प्रकोप दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा है लेकिन चीन द्वारा इस मिसाल का जिक्र इसीलिए किया गया है कि वह घुमा-फिराकर भारत-विरोध का प्रचार करे। वह यह भूल गया कि भारत ने दक्षिण एशियाई देशों को करोड़ों रुपए और दवाइयां दी हैं ताकि वे कोरोना से लड़ सकें। वांग ने कोरोना से लडऩे के बहाने चीन के सामरिक लक्ष्यों को भी जमकर आगे बढ़ाया। उसने अपनी ‘रेशम महापथ’ की योजना में अफगानिस्तान को भी शामिल कर लिया। चीन अब हिमालय के साथ हिंदूकुश का सीना चीरकर ईरान तक अपनी सडक़ ले जाएगा। यदि यह सडक़ पाकिस्तानी कश्मीर से होकर नहीं गुजरती तो शायद भारत इस पर एतराज नहीं करता लेकिन असली सवाल यह है कि दक्षिण एशिया में भारत की कोई गहरी और लंबी समर-नीति है या नहीं ? वह सारे दक्षिण एशिया को थल-मार्ग और जल-मार्ग से जोडऩे की कोई बड़ी नीति क्यों नहीं बनाता ?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
सीबीएसई ने कोविड-19 के बाद उत्पन्न विशिष्ट परिस्थितियों और शिक्षण दिवसों की संख्या में आई कमी का हवाला देते हुए 9वीं से 12वीं के पाठ्यक्रम में 30 प्रतिशत की कटौती की है। विशेषकर पॉलिटिकल साइंस और इकोनॉमिक्स विषयों में अनेक महत्वपूर्ण अध्यायों अथवा इनके भागों को पूर्ण या आंशिक रूप से हटाए जाने पर बहुत से शिक्षा विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी आहत एवं हतप्रभ हैं। कक्षा नवमी के राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से डेमोक्रेटिक राइट्स तथा स्ट्रक्चर ऑफ द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन जैसे अध्यायों को हटा दिया गया है। जबकि नवमी कक्षा के ही अर्थशास्त्र के सिलेबस से फूड सिक्योरिटी इन इंडिया नामक अध्याय पर सीबीएसई के कर्ता धर्ताओं की कैंची चली है। इसी प्रकार कक्षा दसवीं के राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से डेमोक्रेसी एंड डाइवर्सिटी, कास्ट रिलिजन एंड जेंडर एवं चैलेंजेज टू डेमोक्रेसी जैसे महत्वपूर्ण अध्यायों को हटा दिया गया है। कक्षा ग्यारहवीं के पॉलिटिकल साइंस के पाठ्यक्रम से फेडरलिज्म, सिटीजनशिप, नेशनलिज्म और सेक्युलरिज्म जैसे अध्याय हटा दिए गए हैं।
लोकल गवर्नमेंट नामक अध्याय से दो यूनिटें हटाई गई हैं- व्हाई डू वी नीड लोकल गवर्नमेंट्स? तथा ग्रोथ ऑफ लोकल गवर्नमेंट इन इंडिया। कक्षा 12 वीं के राजनीति विज्ञान के सिलेबस से सिक्युरिटी इन द कंटेम्पररी वल्र्ड, एनवायरनमेंट एंड नेचुरल रिसोर्सेज, सोशल एंड न्यू सोशल मूवमेंट्स इन इंडिया तथा रीजनल एस्पिरेशन्स जैसे चैप्टर्स हटा लिए गए हैं। प्लांड डेवलपमेंट नामक अध्याय से चेंजिंग नेचर ऑफ इकोनॉमिक डेवलपमेंट तथा प्लानिंग कमीशन एंड फाइव इयर्स प्लान्स जैसी यूनिट्स हटा ली गई हैं। वहीं भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्याय से इंडियाज रिलेशन्स विद इट्स नेबर्स : पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका एंड म्यांमार टॉपिक को हटाया गया है। बिजनेस स्टडीज के पाठ्यक्रम से जीएसटी और विमुद्रीकरण जैसे हिस्से विलोपित किए गए हैं। इधर राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने 12वीं के पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया है। राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम में जम्मू- कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर एक अध्याय जोड़ा गया है। साथ ही जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद की राजनीति से जुड़ा पैराग्राफ हटा दिया गया है।
एनसीईआरटी के पूर्व डायरेक्टर कृष्ण कुमार ने एक साक्षात्कार में कहा- पुस्तकों से अध्यायों को हटाकर बच्चों के पढऩे और समझने के अधिकार को छीना जा रहा है। सीबीएसई ने जिन अध्यायों को हटाया है उनमें अंतर्विरोध है। आप संघवाद के अध्याय को हटाकर संविधान बच्चों को पढ़ाएं- ये कैसे होगा? आप सामाजिक आंदोलन के अध्याय को हटाएं और इतिहास पढ़ाएं- ये कैसे होगा? इतिहास सामाजिक आंदोलनों से ही तो जन्म लेता है। ये कटौती बच्चों में रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देगी।
विवाद के बाद सीबीएसई ने अपनी सफाई में कहा है कि कोविड-19 के परिप्रेक्ष्य में कक्षा 9 से 12 के पाठ्यक्रम में सत्र 2020-21 के लिए 30 प्रतिशत की कटौती करने हेतु उसका युक्तियुक्त करण किया गया है। यह 30 प्रतिशत की कटौती 190 विषयों में केवल एक सत्र हेतु ही की गई है।
सीबीएसई ने कहा कि यह कटौती कोविड-19 के कारण उत्पन्न स्वास्थ्य आपातकाल जैसी परिस्थितियों के मद्देनजर विद्यार्थियों को परीक्षा के तनाव से बचाने के लिए उठाया गया कदम है। हटाए गए अध्यायों से वर्ष 2020-21 की परीक्षा में कोई प्रश्न नहीं पूछे जाएंगे। यह हटाए गए विषय आंतरिक मूल्यांकन का भी हिस्सा नहीं होंगे। स्कूलों को एनसीईआरटी द्वारा तैयार अल्टरनेटिव एकेडमिक कैलेंडर का पालन करने के लिए कहा गया है। जिन विषयों को मीडिया में गलत ढंग से - पूरी तरह हटाया गया- बताया जा रहा है वह या तो एनसीईआरटी के अल्टरनेटिव एकेडमिक कैलेंडर का हिस्सा हैं या युक्तियुक्त किए गए पाठ्यक्रम का भाग हैं। सीबीएसई ने कहा कि हमने स्कूलों को निर्देशित किया है कि हटाए गए हिस्सों का यदि अन्य संबंधित विषयों को स्पष्ट करने हेतु पढ़ाया जाना आवश्यक हो तो उनकी चर्चा पढ़ाई के दौरान की जा सकती है। यद्यपि सीबीएसई ने हटाए गए अध्यायों और टॉपिक्स को अपने वेबसाइट में डिलीटेड पोरशन्स के रूप में ही अपलोड किया है।
केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने आलोचनाओं का उत्तर देते हुए कहा कि पाठ्यक्रम में कटौती को लेकर बिना जानकारी के अनेक प्रकार की बातें कही जा रही हैं। इन मनगढ़ंत बातों का उद्देश्य केवल सनसनी फैलाना है। शिक्षा के संबंध में राजनीति नहीं होनी चाहिए। यह दु:खद है। शिक्षा को राजनीति से दूर रखना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक गलत नैरेटिव बनाया जा रहा है। पाठ्यक्रम में 30 प्रतिशत की कटौती करते समय मूल अवधारणाओं को यथावत और अक्षुण्ण रखा गया है। उन्होंने यह भी कहा कि पाठ्यक्रम कटौती के संबंध में उन्होंने सुझाव मांगे थे और उन्हें खुशी है कि लगभग डेढ़ हजार लोगों ने अपने सुझाव दिए।
इन तमाम सफाइयों के बावजूद यह बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि पाठ्यक्रम में यह कटौती शिक्षा के सिद्धांतों और मूलभूत उद्देश्यों के सर्वथा प्रतिकूल है बस यह तय करना शेष है कि यह कितनी अविचारित है और कितनी शरारतपूर्ण। सीबीएसई की सफाई जितनी सतही, लचर और औपचारिक है उससे भी ज्यादा उथला और असंगत है केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री का बयान।
हमारे देश में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जबसे अंग्रेजों द्वारा सार्वजनिक परीक्षाओं को ज्ञान प्राप्ति का पर्याय बनाया गया तबसे पाठ्यक्रम निर्माताओं और परीक्षाओं के आयोजकों के बीच एक शाश्वत सा संघर्ष चलता रहा है। हमारे देश में परीक्षा का स्वरूप जिस प्रकार का बना दिया गया है उसमें किसी विषय पर अपनी अभिरुचि के अनुसार गहन अध्ययन करने, कल्पनाशील होने और स्वविवेक का प्रयोग करने के लिए कोई स्थान नहीं है। विद्यार्थी को उसकी पाठ्य पुस्तकों और मॉडल आंसर में जो कुछ लिखा है उसे यथावत उत्तर पुस्तिका में कॉपी करने पर सफल माना जाता है और उसे अच्छे अंक मिलते हैं। परीक्षा पद्धति के इस स्वरूप और परीक्षाओं को हमारे तंत्र में मिलने वाले महत्व के कारण ज्ञान प्राप्ति और वास्तविक अधिगम तथा परीक्षा प्रणाली में दूर दूर तक कोई संबंध नहीं रह गया है। शिक्षण का वास्तविक उद्देश्य विद्यार्थियों में मूलभूत मानवीय मूल्यों का विकास करना है। यह उद्देश्य अब गौण बना दिया गया है।
विभिन्न अवधारणाएं किस तरह परस्पर संबंधित हैं और किस प्रकार यह हमारे जीवन की पूर्णता में योगदान देती हैं, इस अन्तर्सम्बन्ध के अध्ययन के लिए कोई स्थान परीक्षा प्रणाली द्वारा नियंत्रित होने वाली शिक्षण पद्धति में नहीं है। यही कारण है कि सीबीएसई एक यांत्रिक तरीके से पाठ्यक्रम में तीस प्रतिशत की कटौती करने में कामयाब हो सका- एक ऐसी कटौती जो किसी विवेकवान शिक्षा मर्मज्ञ द्वारा पाठ्यक्रम के समग्र मूल्यांकन पर आधारित चयन नहीं लगती बल्कि किसी लिपिक द्वारा कैंची से काटकर पाठ्यक्रम संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया का निर्वाह अधिक प्रतीत होती है। सीबीएसई ने अपनी समझ से इस प्रकार परीक्षाओं का बोझ हल्का कर दिया।
बोर्ड को इस बात से कोई सरोकार नहीं लगता कि पाठ्यक्रम निर्माताओं के क्या उद्देश्य रहे होंगे और क्या कटौती के बाद पाठ्यक्रम एक बेहतर नागरिक और मनुष्य बनाने में सक्षम हो पाएगा। प्रोफेसर यश पाल ने 1993 में पाठ्यक्रम का बोझ हल्का करने के लिए बनाई गई एक समिति के प्रमुख के रूप में यह बताया था कि किस प्रकार कोई असम्बद्ध पाठ्यक्रम मूल अवधारणाओं की सही समझ विकसित करने में बाधक बन जाता है तथा अरुचिकर, असंगत व भार स्वरूप लगने लगता है। उन्होंने तब यह कल्पना भी नहीं की होगी कि पाठ्यक्रम का भार कम करने के लिए मूल अवधारणाओं पर ही कैंची चला दी जाएगी।
यदि पाठ्यक्रम में यह कटौती केवल सीबीएसई के कर्ताधर्ताओं की अज्ञानता और अनगढ़ सोच का ही परिणाम होती तो शायद क्षम्य भी होती। किंतु यह देश की माध्यमिक शिक्षा को संचालित करने वाले संस्थान की सत्ता के सम्मुख सम्पूर्ण शरणागति को प्रदर्शित करती है और इसीलिए चिंतित भी होना पड़ता है और भयग्रस्त भी।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने विरोधी दलों द्वारा फेडरलिज्म, सिटीजनशिप, नेशनलिज्म और सेक्युलरिज्म, डेमोक्रेटिक राइट्स, स्ट्रक्चर ऑफ द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन, डेमोक्रेसी एंड डाइवर्सिटी, कास्ट रिलिजन एंड जेंडर, चैलेंजेज टू डेमोक्रेसी, सोशल एंड न्यू सोशल मूवमेंट्स तथा लोकल गवर्नेंस जैसे अध्यायों को हटाए जाने पर किए जा रहे विरोध को राजनीति से प्रेरित बताया। यह सारे विषय हमारे प्रजातंत्र, संविधान, सामाजिक ढांचे और स्वाधीनता आंदोलन में निहित जिन मूल अवधारणाओं और बुनियादी मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं क्या वे मूल्य तथा अवधारणाएं राष्ट्रीय, सार्वभौमिक और सार्वत्रिक नहीं हैं?
क्या इन मूल्यों को भारत के विरोधी दलों द्वारा थोपे गए मूल्य कहा जा सकता है? क्या यह कहा जा सकता है कि स्वाधीनता के बाद देश का इन अवधारणाओं और मूल्यों से संचालित होना कांग्रेस समर्थक या वाम बुद्धिजीवियों का षड्यंत्र था? क्या इन मूल्यों और अवधारणाओं को विरोधी दलों की विरासत मानकर नहीं हटाया गया है? जो कुछ हुआ है वह कोई संयोग नहीं है बल्कि प्रयोग है। यह देखा जा रहा है कि इन आधारभूत मूल्यों एवं अवधारणाओं को रद्दी की टोकरी में डालने पर भारतीय जनमानस की क्या प्रतिक्रिया होती है? दुर्भाग्यवश अपने वेतन-भत्तों और सुरक्षित जीवन पर ध्यान केंद्रित करने वाला शिक्षक वर्ग शिक्षा को नौकरी मान रहा है और उसमें सडक़ पर आने का साहस नहीं है, वह गुरु की भूमिका में आने को तत्पर नहीं है। यह देखना आश्चर्यजनक है कि विरोधी दलों का विरोध प्रतीकात्मक है और बयानबाजी तक सीमित है।
यह समझने के लिए कि पाठ्यक्रम से हटाए गए विषय वर्तमान केंद्र सरकार को क्यों नापसंद हैं, हमें उन विचारकों की ओर जाना होगा जिनके प्रति केंद्र में सत्तारूढ़ दल असाधारण सम्मान प्रदर्शित करता है और यदि वह स्वयं को पार्टी विद डिफरेन्स कहता है तो संभवत: इन्हीं विचारकों के चिंतन की ओर संकेत करता है जिसमें बहुलवाद, प्रजातंत्र, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अहिंसक व धर्मनिरपेक्ष स्वरूप तथा महात्मा गांधी की केंद्रीय भूमिका और आजाद भारत के स्वरूप को निर्धारित करने वाले संविधान का संपूर्ण नकार निहित है।
महात्मा गांधी की सविनय अवज्ञा और असहयोग की रणनीति श्री गोलवलकर उतनी ही विचलित करती थी जितना सीएए और एनआरसी का विरोध करती अहिंसक जनता वर्तमान सरकार की आंखों में खटकती है। श्री गोलवलकर एक ऐसी जनता की अपेक्षा करते हैं जो कत्र्तव्य पालक और अनुशासित हो। ऐसी जनता जिसकी प्रतिबद्धता लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति हो, न कि सत्तारूढ़ दल के प्रति, उन्हें स्वीकार्य नहीं है। वे गांधी जी की आलोचना करते हुए लिखते हैं- विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय तथा महाविद्यालय के बहिष्कार की योजना पर बड़े-बडे व्यक्तियों ने यह कहकर प्रखर टीका की थी कि यह बहिष्कार आगे चलकर विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता, उद्दंडता, चरित्रहीनता आदि दोषों को जन्म देगा और सर्व नागरिक-जीवन नष्ट होगा।
बहिष्कारादि कार्यक्रमों से यदि स्वातंत्र्य मिला भी, तो राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए आवश्यक, ज्ञानोपासना, अनुशासन, चरित्रादि गुणों की यदि एक बार विस्मृति हो गई, तो फिर उनकी प्रस्थापना करना बहुत ही कठिन है। शिक्षक तथा अधिकारियों में अवहेलना करने की प्रवृत्ति निर्माण करना सरल है, किंतु बाद में उस अनिष्ट वृत्ति को संभालना प्राय: अशक्य होगा, ऐसी चेतावनी अनेक विचारी पुरुषों ने दी थी। जिनकी खिल्ली उड़ाई गई, जिन्हें दुरुत्तर दिए गए, उनकी ही दूरदृष्टि वास्तविक थी, यह मान्य करने की सत्यप्रियता भी दुर्लभ है। (मराठी मासिक पत्र युगवाणी, अक्टूबर,1969)। श्री सावरकर गांधी जी की अहिंसक रणनीति के कटु आलोचक थे और गांधी गोंधल पुस्तक में संकलित अपने गांधी विरोधी आलेखों में वे शालीनता की सारी मर्यादाएं लांघ जाते हैं।
टेरीटोरियल नेशनलिज्म का उपहास श्री गोलवलकर ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स के दसवें अध्याय में खूब उड़ाया है। उनके अनुसार भारत में पैदा हो जाने मात्र से कोई हिन्दू नहीं हो जाता उसे हिंदुत्व के सिद्धांत को अपनाना होगा। श्री सावरकर के मुताबिक केवल हिंदू भारतीय राष्ट्र का अंग थे और हिंदू वो थे - जो सिंधु से सागर तक फैली हुई इस भूमि को अपनी पितृभूमि मानते हैं, जो रक्त संबंध की दृष्टि से उसी महान नस्ल के वंशज हैं, जिसका प्रथम उद्भव वैदिक सप्त सिंधुओं में हुआ था, जो उत्तराधिकार की दृष्टि से अपने आपको उसी नस्ल का स्वीकार करते हैं और इस नस्ल को उस संस्कृति के रूप में मान्यता देते हैं जो संस्कृत भाषा में संचित है।
राष्ट्र की इस परिभाषा के चलते सावरकर का निष्कर्ष था कि ईसाई और मुसलमान समुदाय, जो ज़्यादा संख्या में अभी हाल तक हिंदू थे और जो अभी अपनी पहली ही पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं, भले ही हमसे साझा पितृभूमि का दावा करें और लगभग शुद्ध हिंदू खून और मूल का दावा करें, लेकिन उन्हें हिंदू के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि नया पंथ अपना कर उन्होंने कुल मिलाकर हिंदू संस्कृति का होने का दावा खो दिया है।‘ सावरकर के अनुसार- हिन्दू भारत में-हिंदुस्थान में- एक राष्ट्र हैं जबकि मुस्लिम अल्पसंख्यक एक समुदाय मात्र।
सावरकर की हिंसा और प्रतिशोध की विचारधारा को समझने के लिए उनकी पुस्तक भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ का अध्ययन आवश्यक है। इस पुस्तक में भारतीय इतिहास का पांचवां स्वर्णिम पृष्ठ शीर्षक खण्ड के चतुर्थ अध्याय को सावरकर ने ‘सद्गुण विकृति’ शीर्षक दिया है। इस अध्याय में सावरकर लिखते हैं-इसके विपरीत महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी आदि तत्कालीन सुल्तानों के समय में दिल्ली से लेकर मालवा तक के उनके राज्य में कोई भी हिन्दू अपने मंदिरों के विध्वंस के संबंध एक अक्षर भी उच्चारित करने का साहस नहीं कर सकता था।
तत्कालीन इतिहास के सहस्रावधि प्रसंग इस बात के साक्षी हैं कि यहां शरणार्थी बनकर निवास करने वाले यही मुसलमान किसी बाह्य मुस्लिम शक्ति के द्वारा हिंदुस्थान पर आक्रमण करने पर विद्रोही बन जाते थे। वे उस राजा को समाप्त करने के लिए जी तोड़ कोशिश करते थे। यह सब बातें अपनी आंखों से भली भांति देखने के बाद भी हिन्दू राजा देश, काल, परिस्थिति का विचार न कर परधर्मसहिष्णुता, उदारता, पक्ष निरपेक्षता को सद्गुण मान बैठे और उक्त सद्गुणों के कारण ही वे हिन्दू राजागण संकटों में फंसकर डूब मरे। इसी का नाम है सद्गुण विकृति। सावरकर इसी पुस्तक के लाखों हिन्दू स्त्रियों का अपहरण एवं भ्रष्टीकरण उपशीर्षक में लिखते हैं - वे बलात्कार से पीडि़त लाखों स्त्रियां कह रही होंगी कि हे शिवाजी राजा! हे चिमाजी अप्पा!! हमारे ऊपर मुस्लिम सरदारों और सुल्तानों द्वारा किए गए बलात्कारों और अत्याचारों को कदापि न भूलना।
आप कृपा करके मुसलमानों के मन में ऐसी दहशत बैठा दें कि हिंदुओं की विजय होने पर उनकी स्त्रियों के साथ भी वैसा ही अप्रतिष्ठा जनक व्यवहार किया जाएगा जैसा कि उन्होंने हमारे साथ किया है यदि उन पर इस प्रकार की दहशत बैठा दी जाएगी तो भविष्य में विजेता मुसलमान हिन्दू स्त्रियों पर अत्याचार करने की हिम्मत नहीं करेंगे। लेकिन महिलाओं का आदर नामक सद्गुण विकृति के वशीभूत होकर शिवाजी महाराज अथवा चिमाजी अप्पा मुस्लिम स्त्रियों के साथ वैसा व्यवहार न कर सके। उस काल के परस्त्री मातृवत के धर्मघातक धर्म सूत्र के कारण मुस्लिम स्त्रियों द्वारा लाखों हिन्दू स्त्रियों को त्रस्त किए जाने के बाद भी उन्हें दंड नहीं दिया जा सका।
30 नवंबर 1949 के ऑर्गनाइजर के संपादकीय में लिखा गया- किन्तु हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं हैं। मनु द्वारा विरचित नियमों का रचनाकाल स्पार्टा और पर्शिया में रचे गए संविधानों से कहीं पहले का है। आज भी मनुस्मृति में प्रतिपादित उसके नियम पूरे विश्व में प्रशंसा पा रहे हैं और इनका सहज अनुपालन किया जा रहा है। किंतु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए यह सब अर्थहीन है।
ऑर्गनाइजर जब मनुस्मृति की विश्व व्यापी ख्याति की चर्चा करता है तब हमारे लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है उसका संकेत किस ओर है। आम्बेडकर ने यह उल्लेख किया है कि मनुस्मृति से जर्मन दार्शनिक नीत्शे प्रेरित हुए थे और नीत्शे से प्रेरणा लेने वालों में हिटलर भी था। हिटलर और मुसोलिनी संकीर्ण हिंदुत्व की अवधारणा के प्रतिपादकों के भी आदर्श रहे हैं।
श्री विनायक दामोदर सावरकर भी भारतीय संविधान के कटु आलोचक रहे। उन्होंने लिखा- भारत के नए संविधान के बारे में सबसे ज्यादा बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए सर्वाधिक पूजनीय है। यह ग्रंथ प्राचीन काल से हमारी संस्कृति और परंपरा तथा आचार विचार का आधार रहा है। आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे मनुस्मृति पर ही आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिन्दू विधि है। (सावरकर समग्र, खंड 4, प्रभात, दिल्ली, पृष्ठ 416)
श्री गोलवलकर ने बारंबार संविधान से अपनी गहरी असहमति की निस्संकोच अभिव्यक्ति की। उन्होंने लिखा- हमारा संविधान पूरे विश्व के विभिन्न संविधानों के विभिन्न आर्टिकल्स की एक बोझिल और बेमेल जमावट है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अपना कहा जा सके। क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में इस बात का कहीं भी उल्लेख है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और हमारे जीवन का मूल राग क्या है? (बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु बेंगलुरु,1996, पृष्ठ 238)।
आज मजबूत केंद्र के महाशक्तिशाली नेता के कठोर निर्णयों का गुणगान करने में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा व्यस्त है। यह मजबूत सरकार राज्य सरकारों के लोकतांत्रिक विरोध को सहन नहीं कर पाती है। केंद्र का यह अहंकार संघवाद के हित में नहीं है। देश के संचालन की रीति-नीति में जो परिवर्तन दिख रहे हैं उनसे स्पष्ट है कि बहुसंख्यकवाद को वास्तविक लोकतंत्र के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है, अल्पसंख्यक वर्ग को धीरे धीरे हाशिए पर धकेला जा रहा है।
अखंड भारत का स्वप्न देखते देखते हमने अपने सभी पड़ोसियों से संबंध खराब कर लिए है। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र और हमारी समावेशी संस्कृति से जुड़ी मूल अवधारणाओं के माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम से विलोपन की कोशिश शायद इसलिए की जा रही है कि आने वाली पीढ़ी यह जान भी न पाए कि उससे क्या छीन लिया गया है। आज नई शिक्षा नीति के आकर्षक प्रावधानों की प्रशंसा में अखबार रंगे हुए हैं, उस नीयत की चर्चा कोई नहीं कर रहा है जो भारतीय शिक्षा का भविष्य तय करेगी।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
(समग्र रूप से वर्तमान संदर्भ सहित राजस्थान के विशेष संदर्भ में)
-देवेंद्र वर्मा
सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलो के षड्यंत्र का आकलन किया जाना नामुमकिन है,किंतु राजनीतिक दल के षड्यंत्रो में राज्यपाल,अथवा विधानसभा के अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पदों पर विराजमान सम्माननीय व्यक्ति भी यदि सम्मिलित हो जाएं और न्यायपालिका भी उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित न्याय निर्णयों, नजीरों के विपरीत निर्णय करने लगे, आम जनता भी इन संवैधानिक पदों एवं संस्थाओं के कार्यकरण से इनके प्रति आशंकित हो जाए,तब यह कहा जा सकता है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्थाएं चाहे समाप्त ना हुई हो, किंतु कमजोर तो हो ही गई है।
राजस्थान में इस समय हमारे संविधान के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है, उसमें राजनीतिक दलों से तो ज्यादा अपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि सत्ता प्राप्ति के लिए इनका आचरण, व्यवहार और कार्य करण संविधान के लागू होने के पश्चात से ही हम सब बेबस होकर देख रहे हैं। विधानसभा के अध्यक्षों की कार्य प्रणाली से भी 1985 तक जबकि दल बदल कानून लागू नहीं हुआ था,आम जनता निरपेक्ष ही रही, किंतु जब अध्यक्षों को दल बदल कानून के अंतर्गत विधान सभा के सदस्यों की अयोग्यता तथा राजनीतिक दलों के विभाजन पर निर्णय करने की अधिकारिता दी गई, अध्यक्ष के निर्णय किसी दल के सत्ता में बने रहने अथवा अपदस्थ होने के लिए निर्णायक हो गए, उसके पश्चात अध्यक्ष से राजनीतिक दलों के साथ-साथ जनता की अपेक्षाएँ भी बढ़ गई।
अध्यक्ष किसी भी दल के रहे हो,अपवाद स्वरूप कुछ निर्णयों को छोडक़र वर्ष 1985 से अध्यक्ष के निर्णय उनके मूल राजनीतिक दल जिस के टिकट पर वे विधायक निर्वाचित हुए,के प्रति निष्ठा प्रकट करने के प्रयास से प्रभावित रहे।
संसद एवं विधान सभाओं में जब से मिली जुली सरकार अथवा सहयोगी दल के साथ सरकार का गठन आरंभ हुआ,किसी भी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होने की स्थिति में राजनीतिक दल अन्य राजनीतिक दलों, निर्दलीय सदस्यों के साथ जोड़-तोड़ करके सरकार गठित करने के लिए तोलमोल और षड्यंत्र कर के अपना-अपना बहुमत होने का दावा करने लगे, ऐसी स्थिति में राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 164 के अंतर्गत मुख्यमंत्री किसे नियुक्त करें? सरकार बनाने के लिए राज्यपाल किस राजनीतिक दल को आमंत्रित करें? मुख्यमंत्री किसे नियुक्त करें? का निर्णय, संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत अपने विवेक से करने लगे। राज्यपालों का तथाकथित विवेक भी उस राजनीतिक दल के प्रति प्रभावित होने लगा जिस राजनीतिक दल की अनुशंसा पर वे राज्यपाल नियुक्त हुए हैं। राज्यपालों के ऊपर भी आरोप लगना प्रारंभ हुआ।
राज्यपालों द्वारा मुख्यमंत्री को नियुक्त करने और अध्यक्षों द्वारा दल बदल कानून के अंतर्गत दिए गए निर्णय को न्यायालयों में चुनौती दी जाने लगी फल स्वरूप वर्ष 1985 से आज दिनांक तक अनेकों न्याय निर्णय के द्वारा अनेक सिद्धांत, विधी के स्वरूप में स्थापित हुए। कार्यपालिका विधायिका एवं न्यायपालिका के उच्च पद धारित जब विधि के सदृश्य स्थापित इन सिद्धांतों का पालन नहीं करते हैं,तभी ऐसी स्थिति निर्मित होती है, जो हम सब विगत लगभग एक डेढ़ वर्षो से देश के विभिन्न राज्यों और वर्तमान में सत्ता प्राप्ति के संघर्ष के लिए राजस्थान में चल रही उठापटक के संदर्भ में विगत 18 दिनों से अधिक समय से देख रहे हैं।
सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों में हुए संघर्ष के फलस्वरूप उच्चतम न्यायालय के न्याय निर्णय के द्वारा अथवा विधि निर्माण के द्वारा स्थापित सिद्धांतों एवं विधियों में से वर्तमान संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण निम्नानुसार है :-
(1) संविधान की दसवीं अनु सूची (दल बदल कानून) के अंतर्गत किसी सदस्य अथवा सदस्यों के अयोग्यता अर्जित करने संबंधी अर्जी प्राप्त होने पर अध्यक्ष विधानसभा को ही केवल अर्जी पर निर्णय देने की अधिकारिता प्राप्त है, न्यायालयों को नहीं, और जब तक अध्यक्ष अर्जी पर निर्णय नहीं देते तब तक न्यायालय को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
(2) अध्यक्ष के विचाराधीन किसी अर्जी पर यदि न्यायालय को कोई याचिका प्राप्त होती है तब भी न्यायालय उस याचिका पर किसी प्रकार का अंतरिम आदेश पारित नहीं कर सकते,यह अवश्य है कि अध्यक्ष द्वारा अर्जी पर अंतिम रूप से निर्णय दिए जाने के पश्चात, दिए गए निर्णय को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, और न्यायालय विचार कर सकते हैं।
(3) सरकार के गठन होने के पश्चात गठबंधन में सम्मिलित अथवा बाहर से सरकार को समर्थन दे रहे दल अथवा अन्य विधायक अपना समर्थन वापस ले लेते हैं, / राजनीतिक दल के ही विधायक मूल दल जिसके प्रत्याशी के रूप में निर्वाचित हुए हैं, दल बदल कानून के पैरा 2(1)(क)(ख) के अंतर्गत अयोग्य घोषित होने, पर प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि, सरकार अल्पमत में आ गई है,ऐसी स्थिति में राज्यपाल मुख्यमंत्री से सभा में अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए अपेक्षा कर सकते हैं अथवा सदन के नेता अर्थात मुख्यमंत्री सभा में विश्वास का प्रस्ताव रखकर अपना बहुमत सिद्ध कर सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय के द्वारा जब यह न्याय निर्णित हो गया कि बहुमत का निर्णय विधान मंडल के पटल पर होगा बाहर नहीं तब राज्यपालों के द्वारा राजभवन में विधायकों की परेड करवाने अथवा राज्यपाल द्वारा बहुमत का निर्णय करने की परिपाटी में रोक लगी और ऐसा आभास भी हुआ कि यह क्षेत्र अब राज्यपाल की मनमर्जी का नहीं रहा। यद्यपि विभिन्न कारणों से राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठते रहे लेकिन न्यायालय द्वारा न्याय निर्णय के पश्चात उनका निराकरण भी होता रहा।
यह अवश्य है कि ऐसे ही अवसरों पर न्यायपालिका ने विधायिका के कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण करते हुए विधायिका को निर्देशित करना प्रारंभ कर दिया।फल स्वरूप सभा की कार्यवाही जिस पर संविधान में स्पष्ट प्रावधान है, कि सभा की कार्यवाही पर संपूर्ण नियंत्रण सभा का ही रहता है। न्यायपालिका,न्याय निर्णय में,सभा की बैठक कब होगी, कैसे होगी, मतदान की प्रक्रिया क्या रहेगी, बाहरी पर्यवेक्षक नियुक्त होंगे,मतदान का निर्णय घोषित नहीं किया जाएगा जब तक कि न्यायालय अनुमति न दे, आदि आदि।ऐसे न्यायनिर्णयों पर, विधायिका ने, ‘विधायिका और न्यायपालिका’ के बीच संबंध विषय पर समय-समय पर संगोष्ठी एवं सम्मेलनों के माध्यम से विधान मंडलों की ‘सार्वभौमिकता एवं न्यायालय’, जैसे विषयों पर विचार मंथन किया तथा स्वनियंत्रण का पालन करते हुए विधायिका के क्षेत्र में न्यायपालिका के अतिक्रमण पर समझदारी पूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त की।
प्रजातांत्रिक लोकतंत्र सुचारु रूप से लोक हित एवं लोक कल्याण के उद्देश्य से संचालित हो इस हेतु सबसे प्राथमिक आवश्यकता इस बात की है कि संविधान के आधार स्तम्भ विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका अपने अपने संविधान प्रदत्त कार्य क्षेत्र में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें और किसी दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण का प्रयास न करें।
इस विषय में भिन्न-भिन्न मत हो सकते हैं कि यह सब प्रारंभ कब हुआ उदाहरणार्थ राज्यपालों द्वारा उनके द्वारा ली गई शपथ के विपरीत अपने नियोक्ता के प्रति निष्ठा को सर्वोपरि रखकर अल्पमत दल को सत्ता की बागडोर सोपना, जनमत की सरकारों को मनमाने तरीके से बर्खास्त करना, चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन थोपना, जन प्रतिनिधियों द्वारा जनता के विश्वास को खंडित करते हुए लोभ लालच के वशीभूत दल बदलना, दल बदल कानून का निर्वचन कानून की भावना के विपरीत अपने मनमाफिक तरीके से करते हुए अपने दल के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करने को प्राथमिकता देना, उच्चतम न्यायालय द्वारा न्याय निर्णय से स्थापित सिद्धांत को नजऱअंदाज करते हुए अधिकारिता से बाहर जाकर निर्णय देना,ऐसे अवांछनीय, उदाहरण है जब आमजन को ऐसा प्रतीत हुआ कि संवैधानिक व्यवस्थाएं और संविधान के प्रावधानों की भावनाएं खंडित हो रही है। यही नहीं संविधान सभा जब संविधान के विभिन्न प्रावधानों को अंतिम रूप दे रही थी,और संविधान सभा के विद्वान सदस्य अपने अपने विचार रख रहे थे और भावनाएं प्रकट कर रहे थे, जिन भावनाओं के साथ संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों को बाबा साहब ने अंतिम रूप दिया गया, उच्च संवैधानिक पदों को धारण करने वाले पदाधिकारियों द्वारा उन भावनाओं के विपरीत कार्यकरण प्रारंभ किया।
वर्ष 1995 से भाजपा के मुख्य आधार स्तंभों में से एक आदरणीय अटल बिहारी वाजपेई ने संसद में अविश्वास प्रस्ताव, और अन्य अनेक अवसरों पर व्यक्त विचारों से देश के समक्ष जो आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किए, देश को आशा की एक किरण भाजपा के नेतृत्व कर्ता के रूप में दिखाई दी, 2003 में राजनीति में दल बदल रोकने के उद्देश्य से,तथा अध्यक्ष का पद विवाद का विषय ना बने उसकी प्रतिष्ठा एवं गरिमा बनी रहे दल बदल कानून में व्यापक संशोधन किए गए।
वर्ष 2014 में भाजपा की सरकार न केवल देश में अपितु प्रदेशों में भी भारी जनमत के साथ सत्ता में आई। एक चकाचौंध करने वाला नेतृत्व देश को प्राप्त हुआ, इस चकाचौंध नेतृत्व से विभिन्न राज्यों में भाजपा के नेतृत्व के भी चमकने का एहसास हुआ, आम जन आकर्षित हुआ, लेकिन राज्यों के परिपेक्ष में यह एहसास अल्प समय में ही विलुप्त हो गया।
जनता में राज्यों में नेतृत्व के प्रति व्याप्त हुई निराशा की भावना के फल स्वरूप देश की राजधानी दिल्ली सहित राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गोवा, मणिपुर, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक, आदि राज्यों में जनता ने या तो भाजपा को पूरी तरीके से नकार दिया या फिर बहुमत से दूर कर दिया और 2014 मैं जागृत कांग्रेस मुक्त भारत की भाजपा की कल्पना धराशाई हो गई।फिर एक नया प्रयोग आरंभ हुआ, वर्ष 2019 के आम चुनाव आते आ ‘कांग्रेस मुक्त भारत के स्थान पर कांग्रेस युक्त भाजपा’ का।
1) पूंजीवाद और पैकेज के युग में प्रयोग को मूर्त रूप देने के लिए बाजार में खऱीदार आ गए बोली लगने लगी बाजार में माल बिकने के लिए उपलब्ध था।संवैधानिक पदों पर नियुक्त पदाधिकारियों जो संविधान की रक्षा की शपथ से बंधे थे, के आचरण से आम जनता का विश्वास संवैधानिक संस्थाओं के पदाधिकारियों से डगमगाने लगा।
2)वर्ष 2014 में जनता ने जिस प्रजातांत्रिक सिद्धांत युक्त राजनीति के प्रारंभ की कल्पना की थी, वह पूँजी प्रधान है,ऐसी धारणा बलवती होने लगी और इसके पीछे मुख्य कारण रहा केंद्र की सरकार द्वारा प्रदेशों की जनमत की सरकारों को अस्थिर करना।
3) आम निर्वाचन में बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल के, जन प्रतिनिधि अचानक जनता के साथ विश्वासघात करते हुए जिस दल से जनता ने उन्हें 5 वर्ष के लिए निर्वाचित किया था,कालावधी पूर्ण किए बिना ही जनमत की सरकार को अपदस्थ करने के उद्देश्य से विधायक पद से इस्तीफा, पश्चात समारोह पूर्वक अन्य राजनीतिक दल की सदस्यता लेने, और जिस राजनीतिक दल में सम्मिलित हुए,उसके छद्म बहुमत में आने के फलस्वरूप नवगठित मंत्रिमंडल में मंत्री के पद पर नियुक्त करने ।
4) राज्यपाल द्वारा मंत्री परिषद की अनुशंसा पर विधानसभा का सत्र बुलाने के मंत्री परिषद के संवैधानिक अधिकार मैं अड़ंगा डालते हुए, मंत्री परिषद की विधानसभा के माध्यम से जनता के प्रति जवाबदेही में अवरोध उत्पन्न करने।
5)उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्य की बेंच के विधि स्वरूप, न्याय निर्णय के विपरीत अध्यक्ष के क्षेत्राधिकार में न्यायपालिका का अतिक्रमण।
संविधान के लागू होने के पश्चात वर्ष 1964 में विधायिका एवं न्यायपालिका के मध्य अधिकारिता के संविधान प्रदत्त कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण किए जाने पर राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय की पूरी संविधान पीठ को संदर्भित मामले में उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय कि संविधान के दोनों ही अंगों को एक दूसरे के कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करते हुए और विधायिका की सार्वभौमिकता को अक्षुण्ण रखते हुए समादर एवं सम्मान की भावना से कार्य करना चाहिए।
पूर्व में न्यायिक सक्रियता वाद के संबंध में भी अनेकों अवसरों पर संगोष्ठी एवं कार्यशाला में विचार विमर्श हुआ और निष्कर्ष यही रहा कि इन दोनों ही संस्थाओं के मध्य उचित तालमेल सबसे महत्वपूर्ण है और यदि वे अपनी संविधान प्रदत्त सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं तो यह व्यापक राष्ट्रीय हित में नुकसानदायक ही रहेगा।
वर्तमान में जिस प्रकार राज भवन एवं न्यायपालिका के द्वारा राजनीतिक कार्यपालिका एवं विधायिका के क्षेत्र में संविधान के प्रावधानों के विपरीत अवांछनीय अतिक्रमण किया जा रहा है, कि प्रबल भावना का आविर्भाव संपूर्ण देश में हुआ है वह संसदीय प्रजातांत्रिक प्रणाली के लिए नुकसानदायक है।
संसदीय प्रजातंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका विधायिका एवं न्यायपालिका संविधान के प्रति निष्ठावान होकर संवैधानिक व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाए रखें।
(देवेंद्र वर्मा, पूर्व प्रमुख सचिव छत्तीसगढ़ विधानसभा संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ)
-कुणाल पाण्डेय
कोरोनावायरस महामारी और इससे बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने “जूम” ऐप को रातोंरात लोकप्रिय बना दिया। मध्यम और उच्च वर्गीय शहरी तबका इसका इस्तेमाल ऑनलाइन कक्षाओं, दफ्तरों की मीटिंग, वेबिनार आदि में करने लगा। लेकिन देश का एक बड़ा तबका इससे अछूता ही रहा। कोरोना काल ने इन दो तबकों के बीच डिजिटल डिवाइड (विभाजन) को स्पष्टता से उजागर कर दिया। आर्थिक रूप से बेहद कमजोर इस बड़े तबके को समझने के लिए डाउन टू अर्थ मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के सुदूर गांव कोटा गुंजापुर पहुंचा और यहां रहने वाले 13 वर्षीय छात्र बृज कुमार और उसकी मां से मिला।
आठवीं कक्षा का छात्र बृज आदिवासी समाज से आता है और उसकी मां हक्की बाई का बस एक ही सपना है कि इकलौती संतान अच्छे से पढ़ लिखकर इज्जत की जिंदगी जी ले। मजदूरी करके पेट भरने वाली हक्की बाई लॉकडाउन की वजह से सहमी हुई हैं। चार-पांच महीने से अधिक हो गए हैं और उनका बच्चा स्कूल जाना तो दूर, कॉपी-किताब को हाथ तक नहीं लगाता। वह कहती हैं, “नहीं मालूम यह सब कब तक चलेगा। बच्चे की पढ़ाई लगभग छूट सी गई है। डर लगता है कि अगर दो-चार महीने बाद स्कूल खुल भी जाए तो बच्चे का पढ़ने में मन लगेगा या नहीं।”
क्या फोन या इंटरनेट के माध्यम से स्कूल के संपर्क में नहीं है? इस सवाल के जवाब में हक्की बाई कहती हैं, “घर में फोन ही नहीं है। अगर कर्ज वगैरह लेकर फोन खरीद भी लें उसे चार्ज कैसे करेंगे। गांव में आज तक बिजली नहीं आई।”
जब शिक्षा के लिए फोन और इंटरनेट पर पूरा देश निर्भर हो गया है, तब हक्की बाई अकेली मां नहीं है जो ऐसी समस्या का सामना कर रही हैं। उनके गांव में एक प्राथमिक विद्यालय है। वहां करीब 31 छात्र-छात्राओं का नामांकन हुआ है। जब लॉकडाउन की अवधि बढ़ने लगी तब सरकारों ने विद्यालयों को आदेश दिया कि बच्चों को फोन या इंटरनेट के सहारे संपर्क में रखा जाए। इस आदेश के बाद, विद्यालय प्रशासन ने घर-घर घूमकर सभी से मोबाइल नंबर लेने की कोशिश की। कुल आठ घरों में मोबाइल नंबर मिले और इनमे से महज दो ही सक्रिय थे। यह जानकारी विद्यालय के प्रधानाध्यापक रोहणी पाठक ने दी। उनका कहना है कि अन्य गांव की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। अधिकतर बच्चे आदिवासी समाज से आते हैं और इनके माता-पिता अपने जीवनयापन के लिए मजदूरी करते हैं। इन बच्चों को विद्यालय लाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है क्योंकि इनमें से अधिकतर शिक्षा को महत्व नहीं देते। पाठक सवाल करते हैं, “जरा सोचिए, महीनों तक अगर शिक्षक और छात्रों की आमने-सामने वाली मुलाकात न हो तो बच्चे पढ़ाई-लिखाई में कितना मन लगाएंगे।”
देश के तमाम राज्यों में बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे हैं जो ऑनलाइन क्लास जैसी सुविधा का फायदा नहीं उठा सकते। पेशे से वकील और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी से जुड़ी शोधकर्ता स्मृति परशीरा को हिमाचल प्रदेश के कई सरकारी विद्यालयों से संपर्क साधने का मौका मिला। यहां सरकारी विद्यालय के शिक्षक वाट्सऐप के माध्यम से बच्चों को संपर्क में रखने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं निजी विद्यालयों के शिक्षक जूम जैसे ऐप का सहारा ले रहे हैं। दिक्कत यह है कि अधिकतर घरों में पांच के करीब सदस्य हैं और इनके बीच महज एक फोन है। इन घरों में तीन से चार पढ़ने वाले बच्चे हैं। घर का कोई सदस्य काम पर या खरीदारी करने बाजार जाता है तो उसको फोन साथ ले जाना होता है। घर के सभी लोग हमेशा उस एक फोन को पाने का संघर्ष करते दिखते हैं।
वंचित हुआ और वंचित
लॉकडाउन के बाद डिजिटल स्तर पर किए जाने वाले तमाम प्रयासों ने पिछड़े तबके को और पीछे धकेला है। तमाम क्षेत्रों में शिक्षा महज एक क्षेत्र है जिसने लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण और शहरों में व्याप्त डिजिटल डिवाइड को समझने का मौका दिया है। लेकिन गौर से देखने पर यह खाई हर जगह दिखती है। चाहे वह इंटरनेट और फोन के द्वारा मिलने वाली तमाम सुविधाएं जैसे टेलीमेडिसिन, बैंकिंग, ई-कॉमर्स या ई-गवर्नेंस ही क्यों न हों। यह स्थिति तब है जब देश ने पिछले कुछ वर्षों में वायरलेस ग्राहकों की संख्या में काफी वृद्धि दर्ज की है।
भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) द्वारा 29 जून को जारी मासिक रिपोर्ट के अनुसार, फरवरी 2020 में देश में 116 करोड़ से अधिक वायरलेस ग्राहक थे। चार साल पहले यानी फरवरी 2016 में देश में वायरलेस या कहें मोबाइल फोन के ग्राहकों की संख्या 101 करोड़ के आसपास थी। यानी पिछले चार साल में ऐसे ग्राहकों की संख्या करीब 15 करोड़ बढ़ी है। इसमें शहरी ग्राहकों की संख्या 7.4 करोड़ और ग्रामीण ग्राहकों की संख्या 8.6 करोड़ बढ़ी है। लेकिन यह वृद्धि केवल बुनियादी दूरसंचार सुविधा को ही दर्शाती है। ऑनलाइन कक्षाओं, वित्तीय लेनदेन और ई-गवर्नेंस जैसी सेवाओं के लिए फोन के साथ साथ इंटरनेट, टैबलेट और कंप्यूटर जैसे इंटरनेट-सक्षम उपकरणों को संचालित करने की क्षमता की भी जरूरत होती है। इसे जाने बिना डिजिटल डिवाइड को नहीं समझा जा सकता। इन मामलों में डिजिटल डिवाइड की खाई कितनी बढ़ी है, इसका अंदाजा जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच किए गए एक सरकारी सर्वेक्षण से लगता है।
75वें दौर के राष्ट्रीय नमूना (प्रतिदर्श) सर्वेक्षण के अनुसार, महज 4.4 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास ही कंप्यूटर उपलब्ध है। शहरी क्षेत्र में यह आंकड़ा बढ़कर 14.9 प्रतिशत हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों के 14.9 प्रतिशत परिवारों को ही इंटरनेट सुविधा उपलब्ध हो पाती है, वहीं 42 प्रतिशत शहरी घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। अगर इंटरनेट चलाने की क्षमता की बात की जाए तो पांच साल से अधिक उम्र के महज 13 प्रतिशत ग्रामीण पर 37 प्रतिशत शहरी लोग इंटरनेट चलाने में सक्षम हैं।
हालांकि इसके बावजूद डिजिटल डिवाइड की वास्तविक तस्वीर नहीं स्पष्ट होती। दिल्ली स्थित इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक अपार गुप्ता कहते हैं, “शहरी क्षेत्र में प्रति 100 लोगों पर 104 इंटरनेट कनेक्शन हैं (कई फोन में दो सिम कार्ड होते हैं), जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति 100 लोगों पर लगभग 27 कनेक्शन हैं। इस आंकड़े से ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के बीच फैली डिजिटल डिवाइड के वास्तविक स्तर का पता चलता है।”
केंद्र सरकार में दूरसंचार विभाग में सचिव रही अरुणा सुन्दराजन के अनुसार, यह स्पष्ट है कि देश में बहुत कम लोगों की पहुंच इंटरनेट तक है। एक तरफ तो सब लोग यह मानने लगे हैं कि आज के समय में इंटरनेट की सुविधा मूलभूत जरूरतों में आती है पर दूसरी तरफ नीति-निर्माता अपनी प्लानिंग में इसको खास तवज्जो नहीं देते। सुन्दराजन केरल सरकार के कोविड-19 टास्क फोर्स की सदस्य भी हैं। वह कहती हैं, “कोविड-19 से लड़ाई में हमारी पहली सिफारिश यही थी कि लोगों को सुचारू रूप से इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध होती रहे। हमने सुझाव दिया कि जिन लोगों के पास इंटरनेट सुविधा उपलब्ध नहीं है, उन्हें यह सुविधा उपलब्ध कराई जाए।”
डिजिटल डिवाइड की खाई को लिंग के आधार पर भी देखा जा सकता है। दुनियाभर में मोबाइल नेटवर्क ऑपरेटरों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था जीएसएमए ने मार्च में जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 जारी की। इसके अनुसार देश में 79 फीसदी पुरुषों के पास मोबाइल फोन है, वहीं महिलाओं के लिए यह संख्या महज 63 फीसदी है। मोबाइल इंटरनेट के इस्तमाल में यह फासला 50 फीसदी तक बढ़ जाता है। फोन और इंटरनेट की सुविधा का होना या न होना केवल एक आर्थिक स्थिति को बयान नहीं करता बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को भी दर्शाता है। परशीरा कहती हैं कि अगर एक परिवार में बस एक फोन उपलब्ध है तो पूरी संभावना है कि इस फोन को इस्तेमाल करने वालों की कतार में पत्नी या बेटी आखिरी पायदान पर होंगी।
कंप्यूटर की उपलब्धता या इंटरनेट चलाने में सक्षम लोगों की संख्या के मद्देनजर देखा जाए तो विभिन्न राज्यों की स्थिति अलग-अलग है। जैसे इंटरनेट की उपलब्धता में हिमाचल प्रदेश अग्रणी है, वह चाहे ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी। कंप्यूटर की उपलब्धता के मामले में उत्तराखंड का शहरी क्षेत्र सबसे आगे है। जबकि केरल में ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे अधिक कंप्यूटर हैं। कंप्यूटर की उपलब्धता के मामले में केरल एक ऐसा राज्य है, जहां ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच अंतर सबसे कम है।
पिछले पांच वर्षों में सरकार और निजी दोनों क्षेत्रों की तरफ से देश को डिजिटल बनाने की दिशा में काफी प्रयास हुए हैं (देखें, सुस्त चाल, पेज 43)। वर्तमान सरकार ने तो डिजिटल इंडिया की बड़ी हुंकार भरी है। 2017 में रिलायंस के जियो फोन की शुरुआत देश के इंटरनेट की दुनिया के लिए एक क्रांतिकारी कदम माना जाता है। जियो ने शुरुआती दौर में मुफ्त वॉयस कॉलिंग की सुविधा और डेटा पैक प्रदान किया। इसकी वजह से अन्य कंपनियों ने भी सस्ते दरों पर सुविधाएं उपलब्ध करानी शुरू कर दी। जियो की शुरुआत के बाद देश में इंटरनेट ट्रैफिक में बड़ी उछाल देखने को मिली। नोकिया द्वारा जारी एक रिपोर्ट से इसकी पुष्टि होती है। इसके अनुसार पिछले चार वर्षों में भारत में डेटा ट्रैफिक में 44 गुना वृद्धि हुई है।
परशीरा कहती हैं कि इसके बावजूद देश की बड़ी आबादी के पास इंटरनेट जैसी बुनियादी सुविधा उपलब्ध नहीं है। इनमें से अधिकतर वंचित समाज से आते हैं।
सुस्त चाल
पिछले एक दशक में, सरकारें देश में इंटरनेट का उपयोग बेहतर बनाने की कोशिश कर रही हैं ताकि अधिक से अधिक लोग इस सुविधा का इस्तेमाल कर सकें। वर्ष 2011 में, भारतनेट परियोजना की शुरुआत हुई। इसके तहत ढाई लाख पंचायतों को ऑप्टिकल फाइबर (100 एमबीपीएस) को जोड़ा जाना था। इस परियोजना पर काम 2014 में जाकर शुरू हुआ। इस योजना के तहत इन ढाई लाख गांव को मार्च 2019 तक इंटरनेट से जोड़ना था पर महज 118,000 गांव को ही जोड़ा जा सका। अब इस लक्ष्य के लिए निर्धारित समयसीमा को अगस्त 2021 तक बढ़ा दिया गया है।
वर्ष 2014 में सरकार ने राष्ट्रीय डिजिटल साक्षरता मिशन और डिजिटल साक्षरता अभियान शुरू किया। जनवरी 2019 में सूचना प्रौद्योगिकी पर स्थायी समिति ने कहा कि ये दोनों योजनाएं रूपरेखा में लगभग समान थीं। इसकी वजह से इन योजनाओं के लाभार्थियों के बीच भ्रम पैदा होने की गुंजाइश थी। वर्ष 2015 में सरकार ने पूरे देश को जोड़ने के लिए अपने डिजिटल इंडिया अभियान के तहत कई योजनाएं शुरू कीं।
इसमें 2017 में शुरू किया गया प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल अभियान भी शामिल है। इसके तहत ग्रामीण भारत के छह करोड़ घरों में डिजिटल साक्षर करना था। इस पर आने वाला खर्चा करीब 2,351 करोड़ रुपए है। वर्ष 2017-18 में सरकार को इसके लिए 1175.69 करोड़ रुपए की राशि देनी थी। इतनी ही राशि इसके अगले साल के लिए थी। लेकिन सरकार ने अब तक महज 500 करोड़ रुपए ही आवंटित किए हैं। जनवरी 2019 में सूचना प्रौद्योगिकी विभाग पर बनी स्थायी समिति ने निष्कर्ष निकाला कि सरकार की डिजिटल साक्षरता के प्रयास संतोषजनक नहीं हैं।(downtoearth)
विकसित एंटीबॉडीज 2 - 3 महीनों में शरीर में कम हो रहे हैं
-डॉ मेहेर वान
कोरोना वायरस महामारी ने पूरी दुनिया को बेहद गंभीर स्तर पर प्रभावित किया है. दुनिया भर के तमाम वैज्ञानिक और फार्मा कम्पनियां इस महामारी से निपटने के लिए एक वैक्सीन खोजने के काम में जुटी हुई हैं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे वैक्सीन के कई उम्मीदवारों के रसायनों की दक्षता और उनके दुष्प्रभावों को जांचने के लिये परीक्षण किये जा रहे हैं. इनमें से कुछ ने प्रारंभिक ट्रायल्स पूरे करते हुए ऐसा विश्वास दिलाया है कि अब कोरोना वायरस की वैक्सीन बहुत दूर नहीं. रूस ने तो वैक्सीन बना लेने का दावा भी कर दिया है. भारत भी इस दौड़ में शामिल है और यहां भी कोरोना वायरस के दो टीकों के परीक्षण को हरी झंडी मिल चुकी है और कुछ और को जल्द ही मिल सकती है. दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन निर्माता कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने भी ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय और एस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित किये जा रहे कोविड-19 के वैक्सीन को भारत में बनाने के लिए एक समझौता किया है.
लेकिन हाल ही में प्रसिद्ध जर्नल नेचर मेडिसिन में प्रकाशित एक शोध के अनुसार कोविड-19 के संक्रमण से जूझ चुके मरीजों के शरीरों में विकसित हुए एंटीबॉडीज दो से तीन महीनों में कम होने शुरू हो जाते हैं. असल में एंटीबॉडीज वे खास तरह के प्रोटीन अणु होते हैं जिन्हें कोरोना वायरस से लड़ने के लिए हमारा प्रतिरोधक तंत्र विकसित करता है. ये एंटीबॉडीज हमारे शरीर में वायरस के आक्रमण के समय वायरस की बाह्य परत पर उपलब्ध उन चाभियों को ढंककर बेकार कर देते हैं जिनकी सहायता से वायरस हमारी कोशिकाओं को चकमा देकर उनकी झिल्लियों से अन्दर घुस जाते हैं. वायरस की बाह्य परत पर उपस्थित चाभियों पर एंटीबॉडीज के चिपक जाने से वायरस हमारे शरीर में उपस्थित कोशिकाओं के अन्दर नहीं घुस पाते और हम होने वाले संक्रमण से बच जाते हैं. बता दें कि कोरोना वायरस एक खास तरह के स्पाईक्स प्रोटीन अणुओं को हमारे शरीर की कोशिकाओं में झिल्ली पार करके घुसने के लिए इस्तेमाल करता है.
वानझोऊ पीपुल्स हॉस्पिटल, चीन के वैज्ञानिकों ने विभिन्न बिना-लक्षणों वाले और गंभीर लक्षणों वाले कई मरीजों के नमूनों का विश्लेषण करके पाया है कि कोविड-19 संक्रमण के कारण विकसित हुए एंटीबॉडीज दो से तीन महीनों में व्यक्ति के शरीर में कम होना शुरू हो रहे हैं और इसके बाद काफी जल्दी ही शरीर से विलुप्त हो रहे हैं. इन एंटीबॉडीज के शरीर से विलुप्त होने का मतलब यह है कि कोई व्यक्ति एक बार संक्रमित होने के बावजूद दोबारा संक्रमित होने के लिए असुरक्षित हो गया है.
वैज्ञानिकों ने प्रयोगों में यह भी पाया कि उन मरीजों में शरीर के प्रतिरोधक तंत्र ने अपेक्षाकृत कम संख्या में एंटीबॉडीज बनाये, जिन मरीजों में कोविड-19 के संक्रमण के लक्षण कमजोर थे. इसके विपरीत जिन मरीजों में कोविड-19 संक्रमण के लक्षण अधिक गंभीर थे, उनके प्रतिरोधक तंत्र ने अपेक्षाकृत अधिक संख्या में एंटीबॉडीज बनाए थे. गंभीर लक्षणों वाले संक्रमित मरीजों के शरीरों में यह प्रतिरोधक एंटीबॉडीज अधिक समय तक मौजूद भी रहे. जबकि कमजोर लक्षणों वाले संक्रमित मरीजों में एंटीबॉडीज अपेक्षाकृत कम समय के लिए विद्यमान रहे. यह समय लगभग दो से तीन महीने पाया गया. यह विश्लेषण प्रसिद्ध जर्नल नेचर मेडिसिन में 18 जून को प्रकाशित हुआ है.
इसके अलावा स्वतन्त्र रूप से शोध कर रहे किंग्स कॉलेज लन्दन के वैज्ञानिकों ने भी अपने प्रयोगों में पाया है कि ये एंटीबॉडीज संक्रमित लोगों के शरीर में लगभग 94 दिनों तक ही विद्यमान रहते हैं. इसके बाद इन एंटीबॉडीज की संख्या शरीर में तेजी से कम होने लगती है. कमजोर लक्षणों वाले लोगों या उन लोगों में जिनमें लक्षण आये ही नहीं ऐसे लोगों में ये एंटीबॉडीज एक ही महीने के बाद तेजी से कम होने लगते हैं. इन वैज्ञानिकों का यह शोध मेडआर्काइव में प्रीप्रिंट के रूप में प्रकाशित हुआ है.
ऐसे शोध वैक्सीन की दक्षता के सम्बन्ध में नए सवाल उठा रहे हैं. जैसे कि कोरोना वायरस की इन विशेषताओं के चलते भविष्य में बनने वाली वैक्सीन कितने दिनों तक लोगों को कोविड-19 यानी कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाकर रख पाएगी? अगर कोरोना वायरस के पिछले संस्करणों की बात करें तो उनके कारण मानव शरीर में बने एंटीबॉडीज दो से तीन साल तक उपस्थित रहते हैं. उदाहरण के तौर पर मेर्स-कोव वायरस के कारण बने एंटीबॉडीज लगभग दो से तीन साल तक मानव शरीर में उपस्थित रहते हैं. पोलियो वायरस की वैक्सीन के कारण बने एंटीबॉडीज ताउम्र शरीर की सुरक्षा करते हैं. नए कोरोना वायरस से लड़ने वाले एंटीबॉडीज का शरीर से जल्दी ख़त्म हो जाना अच्छा संकेत नहीं है. और यह तथ्य वैक्सीन बनाने की राह और भी जटिल कर देता है.
अब वैज्ञानिकों को वैक्सीन के दुष्प्रभावों और दक्षता के साथ-साथ, इस दक्षता की समयावधि को सुनिश्चित करने के बारे में भी सोचना है ताकि लोगों को मंहगी वैक्सीन बार-बार न देनी पड़े और यह ज्यादा लोगों को मिल सके. इन शोधों से यह भी स्पष्ट होता है कि कोरोना वायरस से एक बार संक्रमित होकर ठीक हो चुके मरीज दो से तीन महीनों के बाद फिर से संक्रमित हो जाने के लिए असुरक्षित हो जाते हैं. ऐसे में वैज्ञानिक संक्रमण से बचे रहना ही बेहतर विकल्प मान रहे हैं, जिसके लिए मास्क लगाना सर्वोत्तम है.(satyagrah)
-इमरान क़ुरैशी
ऐसा लगता है कि सैकड़ों सालों पहले जो काम शासकों ने किया वही काम फिर से करने के लिए कोविड-19 महामारी ने एक सरकार को एक मौक़ा दे दिया है. कम से कम कर्नाटक सरकार तो यही मान रही है.
प्रदेश के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा विभाग ने उस युग के शासकों के हथियार का इस्तेमाल करते हुए पाठ्यपुस्तकों से न केवल टीपू सुल्तान बल्कि शिवाजी महाराज, विजयनगर साम्राज्य, बहमनी, संविधान के कुछ हिस्से और इस्लाम और ईसाई धर्म से जुड़े कुछ हिस्से निकाल दिए हैं.
इसके पीछे वजह ये है कि कोरोना महामारी के कारण कक्षा छह से लेकर नौ तक पढ़ाई के लिए जो 220 दिन का समय था वो अब कम हो कर केवल 120 दिनों का रह गया है, और इस कारण पाठ्यक्रम को भी कम करना ज़रूरी हो गया है.
इन सभी विषयों को अब प्रोजेक्ट वर्क तक सीमित कर दिया गया है जिस पर छात्र घर से काम कर सकते हैं और चार्ट या प्रेज़ेन्टेशन बना सकते हैं.
पाठ्यक्रम से क्या कुछ हटाया गया है?
उदाहरण की बात करें तो कक्षा नौ के सामाजिक शास्त्र विषय में राजपूत राजवंशों, राजपूतों के योगदान, तुर्कों के आगमन, राजनीतिक निहितार्थ और दिल्ली के सुल्तानों के विषय पढ़ाने के लिए आम तौर पर छह कक्षाएँ होती थीं जिसे कम कर अब दो कर दिया गया है.
राजपूतों और दिल्ली के सुल्तानों के बारे में न पढ़ाने की दलील के पीछे तर्क ये है कि कक्षा छह में पहले ही इस विषय पर पढ़ाया जा चुका है.
इसी तरह मुग़लों और मराठाओं के बारे में पढ़ाने के लिए भी क्लास की संख्या पांच थी जिसके अब दो कर दिया गया है. इन चैप्टरों से मराठा राज के उत्थान, शिवाजी का प्रशासन और शिवाजी के उत्तराधिकारी के विषय को अब पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है.
ऐसा करने के पीछे कारण ये बताया जा रहा है कि इस विषय पर कक्षा सात में पहले ही पढ़ाया जा चुका है.
पाठ्यक्रम कम करने को लेकर क्या है प्रतिक्रिया?
टीपू सुल्तान एक्सपर्ट टेक्स्टबुक कमिटी के प्रोफ़ेसर टीआर चंद्रशेखर ने बीबीसी हिंदी को बताया, "कोरोना महामारी के कारण विषयों का सारांश देते हुए पाठ्यक्रम को 30 फीसदी तक घटा कर कम कर देना सही है लेकिन इसका असर किसी चैप्टर के मूल पर नहीं पड़ना चाहिए. लेकिन किसी चैप्टर को पूरी तरह की पाठ्यक्रम से हटा देना सही नहीं है."
बीते साल बीजेपी विधायक अपाच्चु रंजन ने स्कूल के पाठ्यक्रम से टीपू सुलतान से जुड़े चैप्टर हटाने की मांग की थी जिसके बाद इस मामले पर एक कमिटी बनी थी. इसी कमिटी के प्रमुख थे प्रोफ़ेसर टीआर चंद्रशेखर.
उस दौरान प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर और कमिटी के दूसरे सदस्यों ने सरकार से स्पष्ट कहा था कि पाठ्यक्रम से मैसूर का इतिहास और टीपू सुल्तान की भूमिका का हिस्सा नहीं हटाया जा सकता.
प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर कहते हैं, "छात्रों को जो विषय पढ़ाया जाता है उसमें हर क्लास में क्रमिक वृद्धि होती है. जैसे कि टीपू सुल्तान से जुड़े विषय में छोटी कक्षा में केवल शुरूआती जानकारी होती है जो बेहद कम होती है. सातवीं कक्षा में इस विषय को थोड़ा और विस्तार से छात्रों को पढ़ाया जाता है जैसे कि तकनीकि युद्ध में उनका योगदान, कृषि विकास, पशुपालन, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और हिंदू मंदिरों में उनके योगदान जैसे सामाजिक सुधार के उनके काम."
वो कहते हैं, "उस दौर में राजतंत्र हुआ करता था और और एक राजा दूसरे राजा से लड़ते थे इन लड़ाइयों से धर्म का कोई नाता नहीं था."
लेकिन बेंगलुरु के आर्चबिशप पीटर माचाडो ने बीबीसी हिन्दी से कहा, "हमें बताया गया था कि इस्लाम और ईसाई धर्म के बारे में कक्षा छह की किताबों से चैप्टर हटाए गए हैं क्योंकि इस विषय में छात्रों को कक्षा नौ में पढ़ाया जाएगा. अब कक्षा नौ के पाठ्यक्रम से ये विषय हटाए जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि इस बारे में कक्षा छह में पहले ही पढ़ाया जा चुका है. ऐसे लग रहा है कि धोखा दिया जा रहा है और किसी एजेंडे पर काम किया जा रहा है."
आर्चबिशप का कहना है कि नन्ही सी उम्र में छात्रों को धर्म के बारे में जो जानकारी दी जाती है "उसमें कटौती करना ठीक बात नहीं है. ये वो उम्र है जब बच्चे किसी भी धर्म के क्यों न हो वो मानवता और सौहार्द्य की भावना के बारे में जानते-सीखते हैं और एक-दूसरे के साथ मिल कर जीना और उनकी सराहना करना सीखते हैं."
प्रदेश में विपक्ष में बैठी कांग्रेस के सवाल उठाने के बाद सत्तारूढ़ सरकार को इस मामले में विषय से जुड़े कमिटी की राय लेनी पड़ी थी.
प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर कहते हैं, "हमें इस बारे में बुधवार को फ़ौन पर जानकारी दी गई है औक इस मामले में तीन अगस्त को बैठक होने वाली है."
क्या है सरकार का रुख़?
कर्नाटक टेक्स्ट बुक सोसायटी के प्रबंध निदेशक और विधायक मादे गौड़ा ने बीबीसी हिंदी को बताया, "हमने विषय से जुड़ी कमिटियों को इस मामले में फ़ैसला लेने के लिए कहा है. क्या हटानवा है ये हमने उनसे नहीं पूछा. अब प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मामलों के हमारे मंत्री सुरकेश कुमार ने कहा है कि वो इस मामले में फ़ैसले की समीक्षा करेंगे. इसलिए, उन्होंने हमें इस पर फिलहाल फ़ैसला रोकने के लिए कहा है."
वो कहते हैं, ये जानकारी हमने कर्नाटक टेक्स्ट बुक सोसायटी की वेबसाइट पर प्रकाशित की है.
मादे गौड़ा बताते हैं कि हर कक्षा में छात्रों को संविधान की प्रस्तावना के बारे में भी बताया जाता है.
वो कहते हैं, "स्कूल की टेक्स्ट बुक से कोई चैप्टर नहीं हटाया गया है. किताब पहले ही छात्रों के पास पहुंच चुकी है और छात्रों के पास अब घर पर इसे पढ़ने का या प्रोजेक्ट बनने का विकल्प मौजूद है."
इधर अधिकारियों ने बताया है कि अगले साल के पाठ्यक्रम में इन चैप्टर्स को पढ़ाने के संबंध में कोई कमी नहीं की जाएगी.
इतिहास पढ़ना क्यों है ज़रूरी?
मैसूर विश्वविद्यालय में इतिहास के पूर्व प्रोफ़ेसर और टीपू सुल्तान के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर सेबेस्टियन जोसेफ़ कहते हैं, "आपका अतीत आपके भविष्य का ही प्रतिबिंब है इसलिए अतीत के बारे में जानना बेहद ज़रूरी है. आपके समाज को आपको उसी के अनुसार ढालना होगा. केवल राजनीतिक इतिहास ही नहीं बल्कि विज्ञान से जुड़े विषयों में भी इतिहास जानना महत्वपूर्ण है क्योंकि ये आपको कई बातों की प्रक्रिया के बारे में बताता है."
"जब तक हम सभी विषयों का इतिहास नहीं जानेंगे हम ये नहीं समझ पाएंगे कि हम आज जहां हैं, वहां हतक कैसे पहुंचे और हमें आगे किस दिशा में बढ़ने की ज़रूरत है."
वहीं आर्चबिशप पीटर माचाडो कहते हैं, "आप जानते हैं कि हमारे नेता मेड इन इंडिया और निर्यात बढ़ाने के बारे में बातें करते हैं, और जो सबसे अच्छी चीज़ हम पूरी दुनिया को निर्यात कर सकते हैं वो है हमारा धार्मिक सद्भाव और शांति है जो धार्मिक ध्रुवीकरण के बावजूद भी यहां मौजूद है."(bbc)
जिस देश का मीडिया युद्ध के नगाड़े बजाता हो, युद्ध का उन्माद पैदा करता हो तब पहला हमला उस देश के अपने ही नागरिकों की चेतना पर होता है।
मीडिया की तैयार की गई धुन पर देश में बज रहा राफ़ेल-संगीत और उस पर झूमते लोग इस बात का गवाह हैं।
इस कर्कश युद्ध-संगीत के शोर में देश की अब तक की सैन्य ताकत से लेकर राफ़ेल पर उठते सवाल मानो दब गए हैं।
अब न पड़ोसी देशों से मधुर संबंधों की ज़रूरत बची है, न सीमाओं के विवादों पर तर्कपूर्ण चर्चा की गुंजाइश।शांति की ज़रूरत तो अब डस्टबिन में है और सवालों के लिए तो जगह है ही नहीं।
एक देश खरीदने वाला और दूसरा बेचने वाला। बेचने वाले ने और भी देशों को यह फाइटर प्लेन बेचा है। लेकिन हम झूम रहे हैं। क्यों? पूछिये मत! पूछेंगे तो देशभक्ति पर सवाल उठेगा। कोरोना मरीज 15 लाख से ज़्यादा हो गए पर सवाल मत करिए क्योंकि अभी देश में राफ़ेल-उत्सव चल रहा है।
हम उत्सवी लोग हैं। चैनलों से भांग परोसी जाती है और हम नाचने लग जाते हैं। हम उत्सवी लोग हैं। अर्थव्यवस्था, रोजगार वगैरह हमारे सोचने का विषय नहीं है। हम उत्सवी लोग हैं। कोई चुनी हुई सरकार गिरा दी जाए तो विधायक का रेट नहीं पूछेंगे, नाचते-गाते फिर वोट की लाइन में लग जाएंगे। हम उत्सवी लोग हैं। कभी पूछेंगे नहीं कि देश क्या सिर्फ राफ़ेल से बच जाएगा या भीतर के हमलों से भी देश को बचाने की ज़रूरत है?
राजभवनों की दहलीज पर पड़ा जीर्णशीर्ण लोकतंत्र हम लोगों को नज़र नहीं आएगा क्योंकि अभी हम उत्सवग्रस्त हैं, क्योंकि अभी देश में राफ़ेल आ गया है!
राफ़ेल के आगमन पर सत्ता से लेकर मीडिया के अधिकांश हिस्से तक ने संकटग्रस्त देश में जिस तरह त्योहार का माहौल खड़ा कर दिया वो चिंतित करने वाला है।पहले हमें बताया जाता है कि हम कितने असुरक्षित हैं और फिर राफ़ेल आ गया !!!
जितना ज़रूरी देश की सीमाओं की सुरक्षा है क्या उतना ही ज़रूरी देश के भीतर लोकतंत्र की सुरक्षा भी नहीं है? कमज़ोर लोकतंत्र को ढहने से कोई राफ़ेल नहीं बचा सकेगा लेकिन क्या अब हमारे लिए लोकतांत्रिक मूल्यों के पोषण की ज़रूरत गैर जरूरी हो गई है? दरअसल ऐसा ही होता जा रहा है और ऐसा इसलिए भी होता जा रहा है क्योंकि मीडिया नाम के उद्योग में अब सवालों का उत्पादन बन्द ही हो गया है।
मीडिया की स्वतंत्रता पर तमाम बहसें आत्मनियंत्रण पर जा कर खत्म हो जाती हैं। फासिस्ट देशों के मीडिया की हालत देख कर नेहरूजी ने इस बारे में अपने समय में ही आगाह किया था।लेकिन हम तेज़ी से उस दौर में जा रहे हैं जहां हर वक़्त हमें एक असुरक्षित देश दिखेगा, हर वक़्त हमें दुश्मन देश नज़र आएंगे, हर वक़्त हमें अपनी सीमाएं खतरे में नज़र आएंगी, हर वक़्त हमारे सामने युद्ध के नगाड़े बजाता मीडिया होगा और हर वक़्त हम खुद को नागरिक से ज़्यादा मोर्चे पर तैनात एक सैनिक की तरह महसूस करेंगे।और तभी राफ़ेल आ जायेगा और तभी हमें सुरक्षा का बोध भी होगा लेकिन तब भी ना तो मीडिया का दायित्व-बोध मुद्दा होगा, ना सरकार से सवाल करने की मीडिया की ज़िम्मेदारी पर सवाल होंगे और न हम खुद को अमनपसंद या लोकतंत्रपसंद नागरिक की तरह ही देखना चाहेंगे।
राफ़ेल-उत्सव संकेत है। ये संकेत है कि समाज को युद्ध पसंद बना दिया जा रहा है। ये संकेत है कि मीडिया हमारे लोकतंत्र की रखवाली नहीं करेगा, मीडिया हमारी चेतना की परवरिश नहीं करेगा बल्कि मीडिया एक ऐसे औजार में तब्दील होता जा रहा है जिसका काम एक चेतनाविहीन, रक्तपिपासु पीढ़ी ही तैयार करना होगा।
राफ़ेल-उत्सव तो सिर्फ इशारा है। अगर हमारी चेतना पर ऐसे सुनियोजित हमले हो रहे हों तो ज़रूरी है कि हम खुद को थोड़ा झकझोरे। ज़रूरी है कि थोड़े सवाल उछालें। ज़रूरी है कि अतीत को कुरेदें और वर्तमान का विश्लेषण करें। ज़रूरी है कि हम बेहतर भविष्य की बात करें। ज़रूरी है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को सैन्यतंत्र के बजाए एक मजबूत लोकतन्त्र सौंपें। हमें मजबूत सेना तो चाहिए, हमें आधुनिक हथियार तो चाहिए लेकिन ज़रूरी है कि हमारी चेतना का सैन्यीकरण न हो।इसलिए ज़रूरी है कि हम राफ़ेल-उत्सव मना रही मीडिया की धुन पर नाचना बन्द करें।
-रुचिर गर्ग
अनुराग भारद्वाज
जेआरडी की विचारधारा को उनके समकालीन राजनेता समझ नहीं पाए। 1992 में सरकार ने उन्हें ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा था। अपने सम्मान में हुए कार्यक्रम के दौरान दिए गए भाषण के एक अंश से उनके विचारों को समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था, ‘एक अमेरिकी अर्थशास्त्री ने कहा है कि आने वाली सदी में भारत आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा। मैं ये नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि भारत एक ख़ुशहाल देश बने।’
जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा यानी जेआरडी या ‘जेह’, का नाम सुनते ही आपके ज़हन में ऐसे शख्स की तस्वीर उभरती होगी जो देश का सबसे पहला कमर्शियल पायलट रहा, जिसके साथ एयर इंडिया के बनने की दास्तां जुड़ी है, जिसने टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी (टेल्को) की स्थापना की और जिसने अपनी सारी संपत्ति टाटा संस के नाम कर दी। टाटा संस के इस चेयरमैन को अपने उसूलों के चलते कई बार नुकसान उठाना पड़ा।
पर एक इस शख्स की एक तस्वीर ऐसी भी है जिसकी जानकारी कम ही लोगों को है। आज राजनेताओं और कारोबारियों की आपसी नजदीकी के चर्चे आम हो चले हैं। लेकिन जेआरडी राजनीति और व्यापार के बीच दूरी के पक्षधर थे। जानकारों के मुताबिक यही वजह है कि देश के सबसे बड़े समूह का मुखिया होने के बाद भी शीर्ष राजनेताओं ने उन्हें और उनकी राय को दरकिनार किया। इस बात का जेआरडी को अफसोस भी रहा। लेकिन यह अफ़सोस निजी फ़ायदे के लिए नहीं, बल्कि देश के कारोबारी और सामाजिक अभियान में उचित भागीदारी न कर पाने को लेकर रहा।
महात्मा गांधी और जेआरडी
महात्मा गांधी प्रधानमंत्री नहीं थे पर जेआरडी के साथ उनके रिश्तों का जि़क्र ज़रूरी है। गांधी घनश्याम दास बिड़ला और जमनालाल बजाज जैसे कुछ अन्य व्यवसायियों को बेहद तवज्जो देते थे। बजाज के पुत्र कमलनयन को तो गांधी का चौथा बेटा कहा जाता था। गांधी के जीवन के अंतिम 144 दिन दिल्ली स्थित बिड़ला निवास में गुजऱे। पर जेआरडी को उन्होंने हाशिये पर रखा। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वे सिफऱ् तीन बार बापू से मिले थे।
गांधी ने 1945 में जेआरडी की अगुवाई में इंग्लैंड और अमेरिका जाने वाले चंद उद्योगपतियों के शिष्टमंडल का ज़बरदस्त विरोध किया था। इस कवायद का उद्देश्य आज़ादी के बाद देश में उद्योग के माहौल की रूपरेखा तैयार करने के साथ-साथ विदेश से कुछ ऑर्डर और मशीनें लाने का था। सात मई, 1945 को बॉम्बे क्रॉनिकल अखबार में गांधी ने लिखा, ‘उन्हें (उद्योगपतियों को) कहिए कि पहले देश के नेता आज़ाद हो जायें, फिर जाएं। हमें आज़ादी तभी मिलेगी जब ये बड़े उद्योगपति इंडो-ब्रिटिश लूट के टुकड़ों का मोह छोड़ दें।।। तथाकथित डेप्युटेशन जो ‘इंडस्ट्रियल मिशन’ के नाम से इंग्लैंड और अमेरिका जाने की सोच रहा है, ऐसा करने की हिम्मत भी न करे।’ इस लेख की भाषा और तकऱीर पढक़र जेआरडी हतप्रभ रह गए। उन्होंने ख़त लिखकर जवाब भी दिया पर शायद बापू संतुष्ट नहीं हुए।
एक वर्ग मानता है कि गांधी की जेआरडी से दूरी का कारण पूंजीवाद और समाजवाद की विचारधारा का टकराव नहीं हो सकता। क्योंकि अगर ऐसा होता तो अन्य उद्योगपति उनके नज़दीक न होते। फिर जो सामाजिक कार्य टाटा समूह ने बीसवीं सदी में शुरू कर दिए थे उनसे गांधी बखूबी वाकिफ़ रहे होंगे। इंडियन नेशनल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा फंड देने वाले जीडी बाबू का एक कारोबारी के तौर पर आज़ादी में अहम योगदान है। वहीं, जमशेतजी टाटा के दूसरे बेटे रतन टाटा ने गांधी के दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन के लिए 1,25,000 रुपये दिए थे जिसका जि़क्र खुद गांधी ने भी किया था।
एसए सबावाला और रुसी एम लाला की कि़ताब, ‘कीनोट’ में दर्ज जेआरडी के एक भाषण के अंश में इस दूरी के कारण का संभावित संकेत है। वे कहते हैं, ‘जब मैं जवान था तब कांग्रेस पार्टी ज्वाइन करने का विचार आया था। पर जब देखा कि नेता बनकर जेल जाना होगा, वहां रखकर कुछ ख़ास नहीं कर पाऊंगा और न ही जेल के जीवन से अभ्यस्त हो पाऊंगा, इसलिए मैंने उद्योग के ज़रिये देश की सेवा करने का निश्चय किया।’ वहीं, दूसरी तरफ़, जीडी बाबू और बजाज आज़ादी के राजनैतिक आंदोलन में डूबे हुए थे। यह भी हो सकता है कि जेआरडी के इंग्लिश तौर-तरीके बापू को पसंद न आये हों।
जवाहर लाल नेहरू के साथ रिश्ते
इसके बावजूद कि वे देश के पहले प्रधानमंत्री के समाजवाद से प्रभावित नहीं थे, जेआरडी उनके प्रशंसक और दोस्त थे। हालांकि जवाहर लाल नेहरू ने कभी उनसे आर्थिक मामलों पर राय नहीं ली। एक इंटरव्यू में जेआरडी ने बताया था कि वे जब भी आर्थिक मसलों पर बात करते, नेहरू उन्हें अनसुना करके खिडक़ी से बाहर ताकने लगते।
जेआरडी की अध्यक्षता में देश का पहला आर्थिक ब्लूप्रिंट ‘बॉम्बे प्लान’ नेहरू ने खारिज कर दिया था। इसमें सभी उद्योगपतियों ने सरकार द्वारा देश में बड़े उद्योग स्थापित करने की बात कही थी। एयर इंडिया के राष्ट्रीयकरण को लेकर दोनों में मतभेद था। जेआरडी नहीं चाहते थे कि एयर इंडिया को सरकार चलाये। आखिरकार जीत नेहरू की हुई।
टाटा समूह कांग्रेस पार्टी को फंड करता था। 1961 में राजा गोपालाचारी ने जेआरडी को ख़त लिखकर ‘स्वतंत्र पार्टी’ के लिए चंदा मांगा। नेहरू के खि़लाफ़ जाना और राजाजी के आग्रह को टाल पाना, दोनों ही बातें उनके लिए मुश्किल थीं। जेआरडी ने असमंजस से बाहर निकलते हुए नेहरू को ख़त लिखा जिसका आशय था कि देश को कांग्रेस पार्टी का एक मज़बूत विकल्प चाहिए। जेआरडी की दलील थी कि वे नहीं चाहते कि कम्युनिस्ट पार्टी देश में दूसरे नंबर की पार्टी बनी रहे क्योंकि उसकी आत्मा में लोकतंत्र नहीं है, लिहाज़ा उन्होंने ‘स्वतंत्रता पार्टी’ को चंदा देकर मज़बूत बनाने का निर्णय लिया है। नेहरू का भी कमाल देखिये कि उन्होंने अपने दोस्त को इसके लिए प्रोत्साहित किया। पर साथ में यह भी लिखा कि ‘स्वतंत्र पार्टी’ देश में कभी मज़बूत स्थिति में नहीं आ पायेगी। वे सही साबित हुए।
मोरारजी देसाई और जेआरडी
जेआरडी के जीवन में सबसे खऱाब क्षण, खुद उनके हिसाब से, तब आया जब उनके एक समय के दोस्त और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें एयर इंडिया से बाहर करके उनके ही जूनियर अधिकारी को चेयरमैन नियुक्त कर दिया और इतनी ज़हमत भी न उठाई कि उन्हें इसकी ख़बर दी जाए। जब अखबारों ने इस बात को उछाल कर देसाई की किरकिरी की तो मोरारजी ने कुछ दिनों बाद रस्मी तौर पर जेआरडी को चि_ी लिखकर सरकार से निर्णय से अवगत कराया। इस बात से जेआरडी इतने आहत हुए कि उन्होंने मोरारजी देसाई को कभी माफ़ नहीं किया।
इंदिरा गांधी के साथ ताल्लुकात
जेआरडी उन चंद लोगों में से एक थे जिन्होंने इंदिरा गांधी के आपातकाल को ठीक माना था। उनके विचार थे कि इस दौरान हड़तालें और प्रदर्शन कम हुए जिसकी वजह से उद्योग जगत को फ़ायदा हुआ। इसका मतलब यह नहीं है कि वे मज़दूर विरोधी बात कर रहे थे। उनका नज़रिया था कि तमाम मज़दूर संगठन राजनेताओं के संरक्षण में पलते हैं जिनके अपने निहित स्वार्थ होते हैं।
दूसरी बात थोडा अचंभित करे पर यह सत्य है कि जेआरडी संजय गांधी के परिवार नियोजन के कार्यक्रम के पक्ष में थे। पर उस तरह से नहीं, जिस तरह से संजय गांधी इसे अमल में लाए थे। उनका मानना था कि जब तक जनसंख्या पर काबू नहीं पाया जाएगा, देश में तरक्की मुश्किल है। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को भी कई बार इस बात की ओर ध्यान देने के लिए कहा था। पर नेहरू का मानना था कि इस मुद्दे को ज़्यादा सरकारी अहमियत नहीं दी जा सकती और ये व्यक्तिगत फैसले का मामला है। इंदिरा के राष्ट्रीयकरण की पहल ने दोनों के बीच खाई पैदा की। जाहिर है जेआरडी इसके विरोधी थे। उनके मुताबिक़ इंदिरा गांधी की जब उनसे बातचीत में दिलचस्पी ख़त्म हो जाती तो वे उनके सामने ख़तों को खोलकर पढऩे लग जातीं।
राजीव गांधी और जेआरडी
राजीव गांधी जब अर्थव्यवस्था के बंद दरवाज़े खोल रहे थे तो उन्होंने आर्थिक मसलों पर उद्योगपतियों की राय जानने की कोशिश की। उन्होंने देश के सात अहम मसलों पर भी विभिन्न वर्गों की राय मांगी। इनमें से जनसंख्या वृद्धि एक था। जेआरडी के लिए वो ‘मोमेंट ऑफ़ ट्रूथ’ वाला दिन था। (बाकी पेज 8 पर)
1991 में जब अर्थव्यवस्था पूरी तरह से खुली तो तब 87 वर्ष के जेआरडी ने कहा था कि उन्हें इस बात से ख़ुशी और मलाल दोनों ही हैं। ख़ुशी इसलिए कि आखिऱ जो सही रास्ता है देश ने अपना लिया और मलाल इसलिए कि जीवन की इस सांझ में वे इसका हिस्सा नहीं बन पाएंगे।
अंतत:
जेआरडी ‘क्रोनी कैपिटलिस्ट’ यानी सत्ता की जी-हुजूरी करके अपना काम निकालने वाले कारोबारी नहीं थे। यह बात टाटा समूह को देखकर समझी जा सकती है। उनका मानना था कि समाजवाद से सिफऱ् अर्थव्यवस्था का ही नुकसान नहीं हुआ, कभी-कभी कुछ दूसरे उद्देश्य भी शहीद हो गए। उनकी नजऱ में भारतीय राजनेताओं की सोच उन्नीसवीं शताब्दी के उस पूंजीवाद से आगे नहीं बढ़ पाई जिसमें मुनाफ़ा व्यापार का केंद्रीय आधार था। इस दिग्गज का मानना था कि पूंजीवाद ने अपना स्वरूप बदला है और भारत जैसे गरीब देश में लोगों के जीवन स्तर को उठाने में सिर्फ यही कारगर है। जेआरडी संसदीय लोकतंत्र के बजाय अमेरिका की तरह राष्ट्रपति वाली व्यवस्था के पक्षधर थे। उनका कहा था कि नेहरू के बाद स्थिर सरकारें नहीं रहेंगी। यह भी कि भारत की मुश्किलों को हल करने के लिए विशेषज्ञों की ज़रूरत है न कि राजनेताओं और नौकरशाही की। और इसके लिए अमेरिका वाली शासन प्रणाली बेहतर विकल्प है।
जेआरडी की विचारधारा को उनके समकालीन राजनेता समझ नहीं पाए। 1992 में सरकार ने उन्हें ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा था। अपने सम्मान में हुए कार्यक्रम के दौरान दिए गए भाषण के एक अंश से उनके विचारों को समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था, ‘एक अमेरिकी अर्थशास्त्री ने कहा है कि आने वाली सदी में भारत आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा। मैं ये नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि भारत एक ख़ुशहाल देश बने।’ अमेरिकी अर्थशास्त्री की बात तो अब सही होती लग रही है। जेआरडी की ख्वाहिश कब पूरी होगी, देखना होगा। (satyagrah.scroll.in)