विचार / लेख
कनुप्रिया
रिया चक्रवर्ती अगर किसी मामले की दोषी हैं तो कानून अपनी कार्यवाही करेगा, मगर रिया चक्रवर्ती के बहाने अगर ये मान्यता स्थापित और पुष्ट की जा रही है कि स्त्रियाँ मक्कार, स्वार्थी, दौलत पर निगाह रखने वाली, ऐय्याश होती हैं और रिया को सजा समाज की स्त्रियों के लिए एक सबक है तो हम एक नजऱ इन तथ्यों पर भी डाल लें।
द हिन्दू की रिपोर्ट कहती है कि महज लॉकडाऊन के दौरान घरेलू हिंसा के मामले पिछले 10 सालो में सबसे ज़्यादा दर्ज हुए हैं, यह तब है जब शिकार महिलाओं में से 86 फीसदी कहीं से मदद लेने की कभी कोशिश नहीं करतीं और 77 फीसदी महिलाएँ किसी को अपनी तकलीफ तक नहीं कहतीं। इसके अलावा आत्महत्या की बात की जाए तो देश मे सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ दिहाड़ी मजदूर, किसान, बेरोजगार और गृहिणियों द्वारा की जाती हैं। 2019 की राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी)के अनुसार दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या के बाद देश में दूसरे नम्बर पर आत्महत्या के आँकड़े गृहिणियों के हैं।
उधर प्रजनन संबंधी सुविधाएँ भारत मे यूँ भी बड़ी समस्या हैं, नवजात मृत्यु दर की दर पहले ही काफी ज्यादा है, इसके अलावा परिवार नियोजन की समस्या इस लॉकडाऊन में विशेष रूप से महिलाओं को झेलनी पड़ी। आईपास डिवेलपमेंट फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक लॉकडाऊन के तीन महीनों (25 मार्च से 24 जून) के दौरान 18 लाख 50 हजार महिलाओं ने असुरक्षित गर्भपात कराया या अनचाहा गर्भ हुआ। हमारे देश में सामाजिक पक्षपात के कारण लड़कियों के लिए शिक्षा ग्रहण करना पहले ही एक संघर्ष है, अनुमान है कि इस महामारी के दौर के बाद महिला छात्र जो पहले ही 2 घंटे घर के काम के बाद माध्यमिक तक बमुश्किल शिक्षा प्राप्त कर पाती थीं उनके द्वारा स्थाई रूप से स्कूल छोडऩे का जोखिम बढ़ गया है, यानि स्त्रीशिक्षा में जो इतने दशकों में सुधार हुआ उसका फायदा खत्म होने की दिशा में है।
यानि देश की बहुसंख्यक स्त्रियाँ जो शिक्षा, चिकित्सा, काम के अधिकार से लेकर घरेलू हिंसा तक हर मामले में पुरुषों से कई गुना ज्यादा महामारी की मार झेल रही हैं, उन सब समस्याओं को कार्पेट के नीचे घुसाकर हमारा मीडिया स्त्री द्वेषी समाज से रिया चक्रवर्ती पर टीआरपी लूट रहा है।
आप जितनी खिडक़ी खोलोगे बाहर दुनिया उतनी ही दिखाई देगी, वो और उतना ही दृश्य आपका व्यक्तिगत सच हो सकता है मगर उससे हकीकत और तथ्य नहीं बदलते। आँकड़े और भी हैं, और देश में स्त्रियों की स्थिति की भयावह सच्चाई बयान करते हैं मगर टीआरपी खोर मीडिया हमारी दृष्टि और सोच को सीमित और संकुचित बनाए रखना चाहता है।
सवाल यह है कि क्या हम भी यही चाहते हैं?


