विचार/लेख
- Ishan Kukreti
जून में जब नए कोयला ब्लॉकाें की नीलामी शुरू हुई, तब प्रधानमंत्री ने कहा कि इससे कोयला क्षेत्र को कई वर्षों के लॉकडाउन से बाहर आने में मदद मिलेगी। लेकिन समस्या यह है कि कोयले के भंडार घने जंगलों में दबे पड़े हैं और इन जंगलों में शताब्दियों से सबसे गरीब आदिवासी बसते हैं। कोयले के लिए नए क्षेत्रों का जब खनन शुरू होगा, तब आदिवासियों और आबाद जंगलों पर अनिश्चितकालीन लॉकडाउन थोप दिया जाएगा। डाउन टू अर्थ ने इसकी पड़ताल की। प्रस्तुत है इस पड़ताल करती रिपोर्ट की पहली कड़ी-
18 जून को,वाणिज्यिक खनन के लिए 41 कोयला ब्लॉकों की नीलामी के एक कार्यक्रम में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारत को ऊर्जा जरूरतों के लिए अपने घरेलू कोयले का उपयोग करने की आवश्यकता है। इस आयोजन ने इस क्षेत्र को निजी निवेशकों के लिए खोल दिया। 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और कोयले के अंतिम उपयोग पर लगे सारे प्रतिबंध हटाकर। अब तक, खनिकों को बाजार में कोयले का व्यापार करने की अनुमति नहीं थी। कोयला का खनन या तो सार्वजनिक क्षेत्र के कोल इंडिया लिमिटेड या अन्य कंपनियों द्वारा खनन आवंटन या नीलामी के जरिए किया जाता था।
कोविड-19 के बाद सरकार के एजेंडे में ऊर्जा सुरक्षा सबसे ऊपर है। प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा कि यह नीलामी “कोयला क्षेत्र को कई वर्षों के लॉकडाउन से बाहर लाएगी”। उन्होंने कहा, “भारत में दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कोयला भंडार है और हम कोयले के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक हैं तो फिर हम दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक क्यों नहीं बन सकते?”
कोयले को “हरित” बनाने के लिए सरकार ने 2030 तक 100 मिलियन टन कोयले को गैस में बदलने के लिए चार परियोजनाओं में 20,000 करोड़ का निवेश करने की घोषणा की है। समस्या यह है कि कोयले के भंडार देश के सबसे घने जंगलों में पाए जाते हैं, जहां बहुत गरीब लोग और इनमें भी ज्यादातर आदिवासी रहते हैं। इसका मतलब यह है कि जब अधिक कोयले के लिए नए क्षेत्रों का खनन शुरू होगा तो इन अनछुए जंगलों और उनके निवासियों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा।
सवाल यह है कि भारत को कोयले के लिए अधिक खुदाई करने की आवश्यकता क्यों है? क्या देश की वर्तमान कोयला खदानें अपर्याप्त हैं? या हमें घरेलू कोयले को आयातित कोयले से बदलने की आवश्यकता है? वह आंतरिक तर्क क्या है जो इस नीति को संचालित करता है?
इस परिवर्तन के पीछे की वजह छुपी हुई नहीं है। 2010 में, कोयला मंत्रालय (एमोसी ) और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (एमओईएफ), (जिसे अब पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) का नाम दिया गया है) ने एक वृहद अध्ययन के उपरांत भारत के कोयला भंडार को “गो” एवं “नो-गो” क्षेत्रों में वर्गीकृत किया था। अध्ययन ने कहा कि जंगलों को बचाने के लिए नो-गो क्षेत्रों में खनन को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। ये जैव विविधता से भरपूर घने वन क्षेत्र थे और इसलिए, यहां खनन पर प्रतिबंध आवश्यक था। मंत्रालयों ने कुल अध्ययन किए गए क्षेत्रों में से 47 प्रतिशत (222) इलाकों को नो-गो क्षेत्रों के रूप में सीमांकित किया लेकिन 2010 से 2014 के बीच, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के कार्यकाल में यह संख्या 16 प्रतिशत या सिर्फ 35 ब्लॉकों तक सिमटकर रह गई।
मौजूदा नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) के सत्ता में आने के बाद भी यह काट पीट जारी रही। 2015 के बाद कई संरक्षित क्षेत्रों को खनन के लिए खोल दिया गया। इस साल जून में, 41 कोयला ब्लॉकों को नीलामी के लिए डाला गया था।
ध्यान रहे कि इनमें से 12 की पहचान 2010 के अध्ययन में नो-गो क्षेत्र के रूप में की गई थी। लेकिन अगर “गो” क्षेत्र देश की जरूरतों के लिए पर्याप्त हैं तो “नो-गो” क्षेत्रों को बर्बाद क्यों करें ? वैसे भी पिछले एक दशक के दौरान सरकार ने निजी निवेशकों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू ) को 91 कोयला खानें नीलामी या आवंटन के माध्यम से दी हैं। उनमें से 30 “गो” के रूप में सीमांकित क्षेत्रों में हैं। क्या ये सभी खदानें चालू हो गई हैं?
क्या नीलाम की गई खदानें चालू हैं?
इस साल जून में नीलामी के लिए घोषित 41 खदानों का एक बड़ा हिस्सा पहली बार तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा अलग-अलग पीएसयू और निजी निवेशकों को आवंटित किया गया था, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया था। 25 अगस्त और 24 सितंबर 2014 को, सर्वोच्च न्यायालय ने 204 कैप्टिव कोयला खदानों को “अवैध” घोषित कर दिया। एनडीए सरकार ने तब कोल माइंस (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 2015 को पेश किया और इन खानों की नीलामी और आवंटन का कार्य शुरू किया।
डाउन टू अर्थ द्वारा दायर किए गए राइट टू इन्फर्मेशन (आरटीआई) आवेदन के उत्तर में एमओसी ने बताया कि निजी निवेशकों को 33 और पीएसयू को 49 खदानें नीलामी द्वारा दी गईं थीं। हालांकि, मंत्रालय का कहना है कि वर्तमान में केवल 13 निजी और 14 सार्वजनिक क्षेत्र की खदानें चल रही हैं। इसका मतलब यह है कि 55, या लगभग 67 प्रतिशत नीलाम की गई खदानें विभिन्न कारणों से परिचालन में नहीं है, इसका कारण है कि कहीं अधिक लागत और प्रबंधन के मुद्दे तो कहीं वैधानिक वन मंजूरी की अनुपस्थिति।
2015 के बाद से, सरकार ने और नौ खानों की नीलामी की है और उनके संचालन की जानकारी सार्वजनिक डोमेन में नहीं है। एकमात्र जानकारी का स्रोत वन सलाहकार समिति (एफएसी) द्वारा 2015 में आयोजित एक बैठक है। एफएसी मुख्यतः एक “बिना किसी चेहरे मोहरे वाली” संस्था है जो वन मंजूरी का आकलन और सिफारिश करती है। हालांकि, यह खनन पट्टे, खनन योजनाओं और खदानों के संचालन पर कोई विवरण नहीं देता है, लेकिन यह दर्शाता है कि 2015 के बाद से, कुल 49 कोयला खनन परियोजनाओं को जंगलों के उपयोग के लिए चरण एक (24 खदानें) या चरण दो (25 खदानें ) की मंजूरी दी गई है। इन 49 परियोजनाओं में से नौ मूल “नो-गो” क्षेत्रों में हैं। चरण एक के तहत, मंजूरी तो दी जाती है, लेकिन उपयोगकर्ता एजेंसी या निजी कंपनी को नेट वर्तमान मूल्य का भुगतान करना है और स्थानीय समुदायों के अधिकारों एवं शर्तों को पूरा करना है। स्टेज दो के तहत, वनभूमि के इस्तेमाल के लिए अंतिम अनुमति दी जाती है और उपयोगकर्ता एजेंसी या कंपनी को एक वर्ष के भीतर प्रतिपूरक वनीकरण (कटे पेड़ों के बदले में नए पेड़) करना पड़ता है।
सरकार के अपने रिकॉर्ड के अनुसार जिन 49 कोयला परियोजनाओं के लिए वनों के “डायवर्जन” की अनुमति दी गई है, उसके कारण 19,614 हेक्टेयर वनभूमि प्रभावित होगी, 1.02 मिलियन पेड़ों की कटाई और 10,151 परिवार बेदखल होंगे।(downtoearth)
- Richard Mahapatra
केंद्रीय गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने साल 2019 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है। रिपोर्ट में पेशे के हिसाब से वर्गीकरण किया गया है, जो बताता है कि दैनिक वेतनभोगी यानी दिहाड़ी मजदूरों का वर्ग सबसे अधिक आत्महत्या करता है।
एनसीआरबी की इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में भारत में 1, 39,123 आत्महत्याओं की सूचना दर्ज की गई। यह 2018 की तुलना में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि है। कुल आत्महत्याओं में से दैनिक वेतन भोगियों की संख्या 23.4 प्रतिशत था।
एनसीआरबी की रिपोर्ट में आत्महत्या के आंकड़ों को पेशे के हिसाब से नौ श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। 2019 में कुल 97,613 पुरुषों ने आत्महत्या की। इनमें सबसे अधिक 29,092 दैनिक वेतनभोगी श्रेणी से थे। इनमें 14,319 लोग अपना काम करते थे और 11,599 लोग बेरोजगार थे।
2019 में 41,493 महिलाओं ने आत्महत्या की। इनमें सबसे अधिक (21,359) गृहणियां थी, जबकि इसके बाद दूसरे नंबर पर छात्राएं रहीं। 4,772 छात्राओं ने आत्महत्या की, जबकि तीसरे नंबर पर दैनिक वेतनभोगी महिलाएं (3,467) थी।
दैनिक वेतन भोगी मजदूर सबसे कम कमाने वाला समूह है। खेती में भी किसान दैनिक वेतनभोगी मजदूरों से ज्यादा कमाते हैं। इस श्रेणी में खेत मजदूर भी शामिल हैं, जो गैर-कृषि सीजन के दौरान दैनिक मजदूरी का काम करते हैं।
एनसीआरबी का "भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या 2019" एक बहुप्रतीक्षित वार्षिक दस्तावेज है। इस दस्तावेज में किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या पर विशेष नजर रहती है।
एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में, देश में खेती से जुड़े कुल 10,281 लोगों ने आत्महत्या की है। इनमें से 5,957 किसान हैं, जबकि 4,324 खेतिहर मजदूर थे। इस श्रेणी में भारत की सभी आत्महत्याओं का 7.4 प्रतिशत हिस्सा है।
आमतौर पर कुछ राज्य किसानों की आत्महत्या के लिए जाने जाते हैं। जैसे कि महाराष्ट्र, यहां इस बार भी सबसे अधिक (38.2 फीसदी) किसानों ने आत्महत्या की। इसी प्रकार, कर्नाटक दूसरे नंबर पर है, जहां सबसे अधिक (19.4 फीसदी) किसानों की आत्महत्या रिपोर्ट की गई। आंध्र प्रदेश में 10.0 फीसदी और मध्य प्रदेश में 5.3 फीसदी हिस्सेदारी है।
इस रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि आम तौर पर कम आमदनी वाले लोगों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं। 2019 में आत्महत्या करने वालों में दो तिहाई लोग ऐसे थे, जिनकी आमदनी सालाना 1 लाख रुपए या उससे कम थी। यानी, ये लोग महीने में 8,333 रुपए या 278 रुपए रोजाना से कम कमा रहे थे। जो कभी-कभी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम होती है। आत्महत्या करने वालों में 30 फीसदी लोग ऐसे थे, जिनकी आमदनी 1 लाख से 5 लाख रुपए सालाना के बीच थी।
आंकड़े बताते हैं कि 2019 में 1 लाख रुपए सालाना से कम कमाई करने वाले 92,083 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें 29,832 महिलाएं और 62,236 पुरुष शामिल थे। इसी तरह 1 से 5 लाख रुपए सालाना कमाई करने वाले 41,197 लोगों ने आत्महत्या की। जबकि 5 से 10 लाख रुपए सालाना के बीच कमाने वाले 4,824 और 10 लाख से अधिक कमाने वाले 1,019 लोगों ने आत्महत्या की।(downtoearth)
पिछले कुछ वक्त से हमारा समाज और मीडिया जो रिया चक्रवर्ती के साथ कर रहे हैं वह महिलाओं के खिलाफ होने वाले किसी जघन्य अपराध से कम नहीं है
- शुभम उपाध्याय
एक वक्त था जब टीवी न्यूज मीडिया गुनहगारों को सजा दिलाने के लिए सच की लड़ाई भी लड़ता था. याद आता है कि 1999 में हुए जेसिका लाल मर्डर केस में पहले तहलका और फिर एनडीटीवी ने मनु शर्मा को सजा दिलाने के लिए जेसिका की बहन सबरीना लाल का आखिर तक साथ दिया था. 2006 के आखिर में जब दिल्ली हाई कोर्ट ने मनु शर्मा को उम्र कैद की सजा सुनाई थी तब मनु शर्मा के पिता विनोद शर्मा सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस में एक ताकतवर नेता थे. ये लड़ाई आज भी सत्ता के खिलाफ सच के खड़े रहने के उदाहरण के तौर पर याद रखी जाती है. कोई मीडिया संस्थान अगर पत्रकारिता की सही पढ़ाई करवाए तो ये पूरी लड़ाई मीडिया की ताकत के ‘सही उपयोग’ की केस स्टडी के तौर पर भी पढ़ाई जा सकती है. ये वो दौर था जब ‘मीडिया ट्रायल’ और ‘मीडिया एक्टिविज्म’ अक्सर दोषी को सजा दिलाने के लिए काम करते थे और इनकी बुनियाद ठोस पत्रकारिता हुआ करती थी. आज की तरह चौकीदार से लेकर डिलीवरी बॉय तक के मुंह में माइक ठूंसने वाली पत्रकारिता नहीं.
फिर जब मीडिया का चरित्र बदला और दर्शकों के मुंह से सनसनीखेज टेबलॉयड न्यूज का स्वाद लगा तो मीडिया ट्रायल और मीडिया एक्टिविज्म ने उस दु:स्वप्न का रूप ले लिया जो घोर महिला विरोधी बनता चला गया. वो सत्ता से सवाल करने में डरने लगा, कॉन्सपिरेसी थ्योरीज से प्यार करने लगा, अतिनाटकीयता और आक्रामकता उसके प्रमुख हथियार हो गए, और पत्रकारिता के सिद्धांत अपने काम की बुनियाद बनाने की जगह आम नागरिकों को खोज-खोजकर वो उनके मुंह में माइक और शब्द ठूंसने लगा. इसका पहला शिकार बने आरुषि तलवार मर्डर केस में राजेश और नूपुर तलवार और अब तकरीबन वही मीडिया सर्कस, उसी द्वेष और भयावहता के साथ, रिया चक्रवर्ती को अपना शिकार बना रहा है.
हाल ही में अपना पक्ष रखने के लिए रिया चक्रवर्ती ने भी कुछ इंटरव्यूज दिए. हमारा कानून कहता है कि जब तक आरोप सिद्ध न हो जाए तब तक हर किसी को अपना पक्ष रखने का हक है. तो फिर रिया चक्रवर्ती को ये हक क्यों न दिया जाए? इस मीडिया ट्रायल में, उनके अलावा लगभग सभी ने अपना-अपना पक्ष पिछले कुछ महीनों से टीवी चैनलों के समक्ष रखा है, तो उन्हें ये स्पेस क्यों नहीं मिलना चाहिए? सोशल मीडिया पर कइयों ने कहा कि उनके ये इंटरव्यूज स्क्रिप्टिड थे. कइयों ने कहा कि मुश्किल सवाल नहीं पूछे गए. कइयों ने कहा कि हर इंटरव्यू में शब्दश: एक-से जवाब दिए गए. कइयों ने कहा कि नाटकीयता अधिक थी क्योंकि ‘सुशांत मेरे सपने में आए और अपनी बात रखने को कहा’ जैसी हास्यास्पद बातें रिया ने बोलीं. लेकिन, जो कायदे की बातें रिया ने बोलीं वो ‘तकरीबन’ हर उस सवाल का जवाब देने वाली थीं जो इतने दिनों से लगातार मीडिया ट्रायल का हिस्सा बनते रहे हैं.
एक से लेकर पौने दो घंटे के इंटरव्यूज देना आसान नहीं होता, वो भी तब जब आपसे हर वो संभव सवाल पूछा जाए जो इस केस से जुड़ा हो. एनडीटीवी 24*7 को दिया इंटरव्यू तो एक घंटे का होने के अलावा लाइव भी था और इसमें रिया ने कुछ उन सवालों के जवाब भी दिए जो राजदीप सरदेसाई को पहले दिए इंटरव्यू के बाद सोशल मीडिया पर लगातार पूछे जा रहे थे. जैसे हवाई जहाज में ट्रैवल करने में सुशांत को लगने वाले डर से जुड़ा काउंटर-सवाल. बाद में चलकर 2015 का एक पुराना वीडियो भी सामने आया जिसमें सुशांत क्लॉस्ट्रोफोबिक होने की बात खुद स्वीकार रहे हैं.
यानी कि अगर आप एक तटस्थ दर्शक बनकर देखें, तो रिया चक्रवर्ती के इंटरव्यूज भले ही कुछ सवाल अनुत्तरित छोड़ देते हैं, सत्रह हजार ईएमआई भरने जैसे कुछ अधूरे जवाब भी पेश करते हैं, और कुछ सवाल पूछे भी नहीं जाते. जैसे उन्होंने इतना महंगा वकील कैसे हायर किया. लेकिन फिर भी इन सभी इंटरव्यूज में रिया अपना पक्ष मजबूती से रखते हुए कई सारी बेवजह की कॉन्सपिरेसी थ्योरीज की रीढ़ तोड़ती हुई नजर आती हैं. साथ ही वे कुछ ऐसे सवाल भी उठाती हैं जो लॉजिकल हैं और सीबीआई के लिए आगे की दिशा तय कर सकते हैं. ऐसा ही कुछ उन ऑडियो टेप्स से भी समझ आता है जिसमें सुशांत अपने भविष्य की प्लानिंग करते हुए सुनाई दे रहे हैं और रिया इनमें उनकी मदद ही करती हुई मालूम होती हैं. इस टेप में खुद सुशांत साफ तौर पर कह रहे हैं कि उन्हें बाइपोलर डिसऑर्डर है जिस वजह से वे अपने भविष्य को सुरक्षित करना चाहते हैं.
मगर इन कायदे के इंटरव्यूज को क्यों हमारा समाज और मीडिया पचा नहीं पा रहा? हो सकता है कि रिया चक्रवर्ती गुनहगार हो और उन पर लग रहे सारे इल्जाम और कॉन्सपिरेसी थ्योरीज सही हों. उस सूरत में उन्हें यकीनन सजा होनी चाहिए लेकिन इसका फैसला तो कानून करेगा न. और जब तक वो फैसला नहीं आ जाता क्यों हमारा मीडिया और ऑनलाइन समाज रिया चक्रवर्ती की बातों को एक दूसरा पक्ष मानकर स्वीकार नहीं कर रहा? जिस तरह का ऑनलाइन हेट उन्हें इन इंटरव्यूज और ऑडियो और चैट स्क्रीनशॉट्स के सामने आने से पहले और बाद में लगातार मिल रहा है वो हमारे इस समाज के बारे में आखिर क्या बता रहा है?
आप इस आलेख में ‘मीडिया ट्रायल’ से जुड़े ऊपर वर्णित तीनों उदाहरणों के महिला पात्रों की जिंदगियों पर गौर कीजिए. जेसिका लाल हत्याकांड पर 1999 से लेकर 2006 तक समाज में जो चिंतन होता था उसमें भी जेसिका लाल के कैरेक्टर को लेकर तमाम वाहियात सवाल उछाले जाते थे. एक मॉडल इतनी रात गए लोगों को शराब क्यों सर्व कर रही थी वगैरह वगैरह. वो तो शुक्र है तब सोशल मीडिया और आज के वक्त का उन्मादी टीवी मीडिया नहीं था. वर्ना सोच कर देखिए, कि क्या जेसिका लाल के खिलाफ भी वैसा ही नेरेटिव नहीं खड़ा किया जा सकता था जैसा आज रिया चक्रवर्ती के खिलाफ किया जा रहा है? आज रिया चक्रवर्ती को विषकन्या से लेकर डायन, काला जादू करने वाली बंगालन और अमीर बॉयफ्रेंड का पैसा हड़पने वाली गोल्ड डिगर गर्लफ्रेंड तक बोला जा रहा है, तो क्या ग्लैमरस मॉडल जेसिका लाल को बख्श दिया जाता?
आरुषि तलवार हत्याकांड में भी आप मीडिया की भूमिका पर गौर कीजिए. तब भी सुशांत सिंह राजपूत केस की तरह तलवार दंपति के यहां काम करने वालों से लेकर पड़ोसियों तक पर टीवी मीडिया टूट पड़ा था और रात-दिन हमारे टेलीविजन पर अंजान लोगों के मुंह में माइक ठूंस कर यह नेरेटिव बनाया गया था कि राजेश तलवार और नुपूर तलवार ने ही अपनी बेटी आरुषि की हत्या की है. ये उन्माद इस चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया था कि एक दिन किसी अंजान शख्स ने टीवी मीडिया की बातों को सच मानकर कोर्ट में राजेश तलवार को चाकू से घायल तक कर दिया. लेकिन इसकी पड़ताल करने वाली पुलिस से लेकर सीबीआई तक की भूमिका पर कई सवाल उठते रहे, और 2017 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राजेश और नूपुर तलवार को बरी तक कर दिया. इसके बाद 2018 में सीबीआई ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जिसे कोर्ट ने स्वीकार किया और तब से ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. लेकिन सनद रहे कि 2008 में हुआ ये हत्याकांड आज भी अनसुलझा ही है.
आरुषि तलवार हत्याकांड के दौरान हुए मीडिया ट्रायल ने आरुषि की मां नूपुर तलवार की जिंदगी भी दोजख की थी. आखिर में रिया चक्रवर्ती की तरह उन्हें भी टीवी स्टूडियोज के चक्कर लगा-लगाकर खुद के निर्दोष होने की पैरवी करनी पड़ी थी और तब भी हमारा समाज यही कहता था जो आज रिया चक्रवर्ती के इंटरव्यूज देखकर कह रहा है. देखो तो बिलकुल भी भावुक नहीं हो रही है. देखो तो कैसे रटे-रटाए जबाव दे रही है. देखो तो नेरेटिव चेंज करने की कोशिश कर रही है. देखो तो चेहरे पर कितनी कठोरता है अपनी बेटी के जाने का गम तक नहीं. और उस मीडिया ट्रायल में सिर्फ नूपुर तलवार जलील नहीं हुईं, बल्कि जिस तरह की बातें मीडिया और पुलिस ने भी आरुषि और हेमराज और उनके पिता राजेश तलवार के बीच के रिश्तों पर कहीं, उन बातों ने 14 वर्षीय आरुषि की यादों को भी खराब किया. ठीक वैसे ही जैसे आज का मीडिया ट्रायल सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी यादों का मोंटाज लगातार खराब तस्वीरों से भर रहा है.
पश्चिम का एक कुख्यात मीडिया ट्रायल भी उदाहरण है कि मीडिया और समाज संस्थागत रूप से कितने महिला विरोधी होते हैं. नाम है, अमांडा नॉक्स मीडिया ट्रायल. 21 साल की अमेरिकी छात्र अमांडा नॉक्स जो कि पढाई करने के लिए इटली गई थी, उसे 2007 में अपनी फ्लैटमेट की हत्या का दोषी माना जाता है और 2009 में इटली में ही 26 साल की सजा सुनाई जाती है. इस बीच इटली का मीडिया और उसके पीछे-पीछे वैश्विक मीडिया भी अमांडा नॉक्स को मर्डरर, मैन-ईटर, साइकोपैथ बनाकर दर्शकों के सामने पेश करता है और अदालत में मुकदमा चलने से पहले ही दुनिया भर में वे हत्यारन घोषित कर दी जाती हैं. लेकिन बाद में चलकर इस केस में कई मोड़ आए और आखिरकार 2015 में जाकर इटली की ही अदालत ने उन्हें हमेशा के लिए बरी किया. इस केस पर फिल्म भी बनी और नेटफ्लिकस की एक डॉक्युमेंटरी भी और हर एक माध्यम में इस केस की आलोचना बेसिर-पैर के मीडिया ट्रायल और उसके दुष्परिणामों को लेकर होती रही है.
आज जो 28 वर्षीय रिया चक्रवर्ती के साथ हमारा मीडिया और समाज कर रहा है वो भी उतना ही गलत है जितना ऊपर वर्णित उदाहरणों में दर्ज महिलाओं के साथ समय-समय पर मीडिया और समाज करता रहा है. अगर रिया चक्रवर्ती सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जिम्मेदार हैं भी, तब भी मीडिया ट्रायल का ये तरीका कैसे सही हो सकता है और अगर वे गुनहगार नहीं निकलीं तब तो और भी हमें अपने गिरेबां में झांककर देखने की जरूरत पड़ने वाली है. हमारा उन्मादी मीडिया क्या करेगा अगर सीबीआई ने रिया चक्रवर्ती को सुशांत की हत्या का दोषी नहीं माना तो? क्या वो सरेआम माफी मांगेगा और उसके खुद के पत्रकार वैसे ही अपने एंकरों के मुंह में माइक ठूंसेंगे जैसे वे इन दिनों रोज करते पाए जाते हैं? नहीं! वे सबकुछ भूल कर किसी और झुनझुने को बजाने निकल पड़ेंगे.(styagrah)
- Raju Sajwan
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 सितंबर को यूएस-इंडिया स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप फोरम को संबोधित करेंगे। उससे पहले वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने साफ कर दिया है कि भारत, अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले या ठीक बाद व्यापारिक समझौता करने को तैयार है। ऐसे में, बहुत हद तक संभावना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अमेरिका के साथ होने वाले व्यापारिक समझौते पर अपनी राय रखेंगे। लेकिन इस व्यापारिक समझौते को लेकर किसान संगठन बहुत चितिंत हैं। किसान संगठनों का कहना है कि अगर भारत, अमेरिका के साथ होने वाले समझौते में कृषि और डेयरी व्यवसाय को भी शामिल करता है तो इसका भारत के किसानों और पशुपालकों पर बुरा असर पड़ेगा।
सात अगस्त 2020 को राष्ट्रीय किसान महासंघ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल को एक पत्र लिखा था कि भारत-अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की तैयारी कर रहा है। जो किसानों के साथ बहुत नुकसानदायक हो सकता है। इस बारे में संगठन ने 17 फरवरी 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय को एक पत्र लिखा था, 4 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय ने जवाब दिया कि वाणिज्य डिपार्टमेंट द्वारा इस संबंध में सभी पक्षों से राय ली जाएगी, लेकिन अब तक (7 अगस्त) संगठन से संपर्क तक नहीं किया गया।
किसान महासंघ का कहना है कि अगर अमेरिका के साथ समझौता होता है कि भारतीय किसान अमेरिका से आने वाले उत्पादों का सामना नहीं कर पाएंगे। क्योंकि अमेरिका द्वारा अपने किसानों को बड़ी मात्रा में सब्सिडी दी जाती है। अमेरिका ने फार्म बिल 2014 में 956 बिलियन डॉलर सब्सिडी की घोषणा की थी, जो अब तक की सबसे बड़ी सब्सिडी थी, जब दूसरे देशों ने इसका विरोध किया तो अमेरिका ने कहा था कि यह केवल दस साल के लिए है, परंतु फार्म बिल 2019 में अमेरिका ने फिर से किसानों के लिए 867 बिलियन डॉलर सब्सिडी की घोषणा की है। ऐसे में इतनी ज्यादा सब्सिडी हासिल करने वाले किसानों के उत्पाद जब भारत में आएंगे तो भारत के किसान उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे। अमेरिका द्वारा किसानों को दी जा रही सब्सिडी के विरोध में विकासशील देशों के एक समूह (जी33) को भारत भी सहयोग करता है, ऐसे में यदि अमेरिका के सब्सिडी युक्त कृषि उत्पाद भारत आते हैं तो भारत को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में अपने स्टैंड से पीछे हटना पड़ेगा।
अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन ग्रेन की रिपोर्ट “भारतीय किसानों के लिए भारत-अमेरिा मुक्त व्यापार समझौते के खतरे” में कहा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन ग्रेन की रिपोर्ट में कहा गया है कि किसानों और डेयरी किसानों के दबाव में भारत ने नवबंर 2019 में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) में शामिल होने से इंकार कर दिया था, लेकिन अब अमेरिका के साथ जो समझौता भारत करने जा रहा है, वह आरसीईपी से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि भारत के करोड़ों किसानों जिनकी औसतन जोत 1 हेक्टयर या उससे कम है को अमेरिका के किसानों जिनकी औसतन जोन 176 हेक्टेयर या उससे अधिक है के साथ मुकाबला करना होगा। अमेरिका में करीबन 21 लाख खेत हैं, जिसमें वहां की 2 प्रतिशत से भी कम आबादी को रोजगार मिलता है। वहां की औसतन वार्षिक कृषि आय लगभग 18,637 डॉलर ( लगभग 14 लाख रुपए) प्रति परिवार है। यह भी केवल कृषि से होने वाली आय है। दूसरी तरफ, भारत की 130 करोड़ आबादी में आधी से ज्यादा आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। यहां एक किसान परिवार की सब कुछ मिलाकर आय 1000 अमेरिकी डॉलर (लगभग 75 हजार रुपए) सालाना से अधिक नहीं है।
डेयरी किसानों पर खतरा
पत्र में कहा गया है कि अमेरिका के साथ हो रहे मुक्त व्यापार समझौते से कृषि के साथ-साथ डेयरी उत्पादों पर भी बुरा असर पड़ेगा। अभी भी अमेरिका से मिल्क पाउडर, प्रीमिट पाउडर और पनीर बड़ी मात्रा में आयात हो रहा है, जबकि इन पर 30 से 60 फीसदी आयात शुल्क लगता है। अगर आयात शुल्क हट जाता है तो डेयरी उत्पादों का आयात कई गुणा बढ़ जाएगा। इतना ही नहीं, अमेरिका से मांसाहारी पनीर का आयात भी एक बड़ा मुद्दा है, जबकि भारतीय कस्टम विभाग किसी तरह से यह जांच भी नहीं कर सकते कि पनीर मांसाहारी है या नहीं, क्योंकि अमेरिका इसके लिए भी तैयार नहीं है कि पनीर के लेबल पर शाकाहारी या मांसाहारी लिखा जाए।
वहीं, ग्रेन की रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका ने भारत के डेयरी बाजार में प्रवेश करने के लिए बड़े तिगड़म लगाए हैं और हमेशा उसे विरोध का सामना पड़ा। 2003 से भारत ने डेयरी आयात पर “सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी” मानक लगा रहा था, जिसके कारण भारत में अमेरिका उत्पादों का प्रवेश पूरी तरह से बंद था, लेकिन दिसंबर 2018 से कुछ कड़े व अनिवार्य प्रमाणीकरण की शर्तों के साथ अमेरिका को डेयरी उत्पादों के निर्यात की स्वीकृति दे दी गई। इस शर्त के अनुसार, अमेरिका के डेयरी उत्पादों का संबंध किसी भी ऐसे पशु से नहीं होना चाहिए, जिनके आहार में रक्त, अतरिक्त अंग या जुगाली करने वाले पशुओं के अधिशेष नहीं हों, क्योंकि ये भारतीयों के लिए सांस्कृतिक एवं धार्मिंक आधार पर अस्वीकार्य है। अभी तक अमेरिका इन शर्तों को मानने के लिए आनाकानी कर रह है। वह इसे वैज्ञानिक रूप से अनुचित ठहरा रहा है।
ग्रेन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में करीब 15 करोड़ डेयरी किसान हैं, जो किसी भ दूसरे देश से ज्यादा दूध का उत्पादन करते हैं। इनमें से अधिकांश किसान छोटे हैं, जिनके पास दो या तीन गाय या भैंस हैं। इसलिए डेयरी क्षेत्र को ग्रामीण भारत की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है। ये लोग जो भी दुग्ध उत्पादन करते हैं, वह या तो खुद ही इस्तेमाल करते हैं या ग्रामीण क्षेत्रों में दूसरे लोगों, शहरी घरों या सहकारी समितियों के नेटवर्क की मदद से बेचा जाता है। उपभोक्ताओं द्वारा किए गए भुगतान का करीब 70 प्रतिशत उत्पादकों (डेयरी किसानों) को मिल जाता है। लेकिन अमेरिका में इसका बिलकुल उल्टा है। वहां का डेयरी उद्योग कुछ बड़ी कंपनियों के हाथों में है। डेयरी फार्म की संख्या कम हो रही है, लेकिन प्रत्येक फार्म में गायों की औसत संख्या लगातार बढ़ रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका में करीब 35 प्रतिशत दूध उन डेयरी फाम से आता है, जहां 2,500 से ज्यादा गायें हैं और 45 प्रतिशत उन डेयरी फार्म से आता है, जहां 1,000 से कम गायें हैं। कुछ बड़ी डेयरी फार्म के पास 30,000 से भी अधिक गायें हैं। इसके बावजूद वहां कीमत कम है और अमेरिकी सरकार द्वारा डेयरी फार्म मालिकों को भारी सब्सिडी दी जाती है। 2015 में अमेरिकी सरकार ने डेयरी क्षेत्र को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 2,220 करोड़ अमेरिकी डॉलर (लगभग 1.66 लाख करोड़ रुपए) दिए।
इसके अलावा सोयाबीन, चिकन (मुर्गी), मक्का और गेहूं, बादाम और अखरोट, सेब, दाल, चीनी और सिंथेटिक रबर आदि का आयात भी बढ़ने की संभावनाएं हैं। इस तरह और भी कई उत्पाद भी अमेरिका के साथ होने वाले फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स में शामिल हैं।
अमेरिका से होने जा रहे व्यापार समझौते के चलते बीज पर अधिकार को लेकर भी शंका जताई जा रही है। ग्रेन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका के साथ समझौता करने वाले देशों को यूपोव 1991 यानी पौधों की नई किस्मों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय यूनियन की संधि में शामिल होना अनिवार्य है। यूपोव के अंतर्गत बीजों के ऊपर पेटेंट का अधिकार दिया जाता है। हालांकि भारत हमेशा से यूपोव में शामिल होने से इंकार करता रहा है, जिससे वह लाखों छोटे किसानों और गैर कॉरपोरेट पौध प्रजनकों के हितों को सुरक्षित रख सके, लेकिन 2019 में पेप्सिको कंपनी द्वारा अपनी आलू की एक किस्म के बौद्धिक संपदा अधिकार का उल्लंघन करने के आरोप गुजरात के किसानों पर लगाया था और उस मामले में पेप्सिको को दबाव झेलना पड़ा था। ऐसे में, यह पूरी तरह संभव है कि अमेरिकी बीज उद्योग इस प्रस्तावित समझौते के माध्यम से भारत में एक मजबूत बीज एकाधिकार की बात करेंगे और किसानों द्वारा बीज बचाने की संभावनाओं को खत्म करना चाहेंगे।
किसानों की इन शंकाओं को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 सितंबर को क्या कहते हैं, यह देखना बेहद अहम होगा।(downtoearth)
भारत में संसद सत्र शुरू हो, तो एक हेडलाइन बहुत चर्चा में रहती है- 'संसद सत्र के हंगामेदार होने की आशंका."
कई बार हंगामा प्रश्नकाल में होता है तो कई बार किसी विधेयक पर चर्चा के दौरान हंगामा होता है. कई बार संसद परिसर के अंदर अलग-अलग मुद्दों पर विपक्ष का धरना प्रदर्शन भी होता है.
लेकिन इस बार संसद सत्र शुरू होने के पहले ही हंगामा मचा है. कोरोना की वजह से संसद का मॉनसून सत्र इस बार देर से शुरू हो रहा है. इस कारण इस बार संसद सत्र को लेकर कई तरह के बदलाव भी किए गए हैं.
14 सितंबर से शुरू हो रहे इस सत्र में लोक सभा और राज्यसभा की कार्यवाही पहले दिन को छोड़ कर दोपहर 3 बजे से शाम 7 बजे तक होगी. पहले दिन दोनों ही सदन सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक चलेंगे.
इसके अलावा सांसदों के बैठने की जगह में भी बदलाव किए गए हैं, ताकि कोरोना के दौर में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जा सके.
इतना ही नहीं, इस बार का सत्र शनिवार और रविवार को भी चलेगा, ताकि संसद का सत्र जितने घंटे चलना ज़रूरी है, उस समयावधि को पूरा किया जा सके.
इससे पहले भी कई मौक़ों पर छुट्टी के दिन और ज़रूरत पड़ने पर रात के समय संसद का सत्र चला है. जीएसटी बिल भी ऐसे ही एक सत्र में रात को पास किया गया था.
इस सत्र में प्राइवेट मेम्बर बिजनेस की इजाज़त नहीं दी गई है, शून्य काल होगा और सांसद जनता से जुड़े ज़रूरी मुद्दे भी उठा सकेंगे, लेकिन उसकी अवधि घटा कर 30 मिनट कर दी गई है.
संसद का ये सत्र एक अक्तूबर को ख़त्म हो जाएगा.

विपक्ष की नाराज़गी
लेकिन इस बार का संसद पहले के संसद सत्र की तरह हंगामेदार नहीं होगा. इसकी वजह है प्रश्न काल का ना होना.
इस बार सांसदों को प्रश्न काल के दौरान प्रश्न पूछने की इजाज़त नहीं होगी. सरकार के इस फ़ैसले को लेकर विपक्ष के सांसद आपत्ति जता रहे हैं.
टीएमसी के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीट किया है, "सांसदों को संसद सत्र में सवाल पूछने के लिए 15 दिन पहले ही सवाल भेजना पड़ता था. सत्र 14 सितंबर से शुरू हो रहा है. प्रश्न काल कैंसल कर दिया गया है? विपक्ष अब सरकार से सवाल भी नहीं पूछ सकता. 1950 के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है? वैसे तो संसद का सत्र जितने घंटे चलना चाहिए उतने ही घंटे चल रहा है, तो फिर प्रश्न काल क्यों कैंसल किया गया. कोरोना का हवाला दे कर लोकतंत्र की हत्या की जा रही है."
MPs required to submit Qs for Question Hour in #Parliament 15 days in advance. Session starts 14 Sept. So Q Hour cancelled ? Oppn MPs lose right to Q govt. A first since 1950 ? Parliament overall working hours remain same so why cancel Q Hour?Pandemic excuse to murder democracy
— Derek O'Brien | ডেরেক ও'ব্রায়েন (@derekobrienmp) September 2, 2020
एक निजी पोर्टल के लिए लिखे लेख में डेरेक ओ ब्रायन ने लिखा है- "संसद सत्र के कुल समय में 50 फ़ीसदी समय सत्ता पक्ष का होता है और 50 फ़ीसदी समय विपक्ष का होता है. लेकिन बीजेपी इस संसद को M&S Private Limited में बदलना चाहती है. संसदीय परंपरा में वेस्टमिंस्टर मॉडल को ही सबके अच्छा मॉडल माना जाता है, उसमें कहा गया है कि संसद विपक्ष के लिए होता है."
वहीं कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर ने भी सोशल मीडिया पर सरकार के इस फ़ैसले की आलोचना की है.
दो ट्वीट के ज़रिए शशि थरूर ने कहा है कि हमें सुरक्षित रखने के नाम पर ये सब किया जा रहा है.
उन्होंने लिखा है, "मैंने चार महीने पहले ही कहा था कि ताक़तवर नेता कोरोना का सहारा लेकर लोकतंत्र और विरोध की आवाज़ दबाने की कोशिश करेंगे. संसद सत्र का जो नोटिफ़िकेशन आया है उसमें लिखा है कि प्रश्न काल नहीं होगा. हमें सुरक्षित रखने के नाम पर इसे सही नहीं ठहराया जा सकता."
1/2 I said four months ago that strongmen leaders would use the excuse of the pandemic to stifle democracy&dissent. The notification for the delayed Parliament session blandly announces there will be no Question Hour. How can this be justified in the name of keeping us safe?
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) September 2, 2020
अपने दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा है कि सरकार से सवाल पूछना, लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ऑक्सीजन के समान होता है. ये सरकार संसद को एक नोटिस बोर्ड में तब्दील कर देना चाहती है. अपने बहुमत को वो एक रबर स्टैम्प की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं, ताकि जो बिल हो वो अपने हिसाब से पास करा सकें. सरकार की जवाबदेही साबित करने के लिए एक ज़रिया था, सरकार ने उसे भी ख़त्म कर दिया है.
CPI MP Binoy Viswam writes to Rajya Sabha Chairman M Venkaiah Naidu. The letter reads, "Given that the duration of time of Parliamentary sittings is the same as it has always been, suspension of Question hour & Private Members business is unjust & must be reinstated immediately." pic.twitter.com/LKzODjXfnK
— ANI (@ANI) September 2, 2020
तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के विरोध को लेफ़्ट पार्टी से भी समर्थन मिला है. सीपीआई के राज्यसभा सांसद विनॉय विश्वम ने राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू को चिट्ठी लिख कर अपनी आपत्ति दर्ज कराई है.
चिट्ठी में उन्होंने लिखा है कि प्रश्न काल और प्राइवेट मेम्बर बिजनेस को ख़त्म करना बिल्कुल ग़लत है और इसे दोबारा से संसद की कार्यसूची में शामिल किया जाना चाहिए.
1/2 I said four months ago that strongmen leaders would use the excuse of the pandemic to stifle democracy&dissent. The notification for the delayed Parliament session blandly announces there will be no Question Hour. How can this be justified in the name of keeping us safe?
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) September 2, 2020
ऐसी ही एक चिट्ठी लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने भी लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को लिखी थी.
सरकार का पक्ष
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रश्न काल स्थगित करने को लेकर विपक्ष के नेताओं से बात की है.
कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने सरकार की कोशिश के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि सरकार की तरफ़ से दलील य़े दी गई है कि प्रश्न काल के दौरान जिस भी विभाग से संबंधित प्रश्न पूछे जाएँगे, उनके संबंधित अधिकारी भी सदन में मौजूद होते हैं.
मंत्रियों को ब्रीफ़िंग देने के लिए ये ज़रूरी होता है. इस वजह से सदन में एक समय में तय लोगों की संख्या बढ़ जाएगी, जिससे भीड़ भाड़ बढ़ने का ख़तरा भी रहेगा. उसी को कम करने के लिए सरकार ने ये प्रावधान किया है.
संसद की कार्यवाही प्रश्न काल से ही शुरू होती है, जिसके बाद शून्य काल होता है. हालाँकि सरकार की तरफ़ से विपक्ष को भरोसा दिलाया गया है कि प्रश्न काल की उनकी माँग पर विचार किया जाएगा.
संसद का पिछला सत्र 29 मार्च तक चला था. उस वक्त कुछ सांसदों नें कोरोना के माहौल को देखते हुए संसद सत्र जल्द समाप्त करने की मांग की थी. लेकिन तब उनकी माँग को एक बार ठुकरा दिया था.(bbc)
डॉ. परिवेश मिश्रा बता रहे हैं उसका दुर्ग के जटार क्लब से रिश्ता !
यदि आप स्वाभिमानी हैं, आपकी रीढ़ की हड्डी मज़बूत है, आप उसूलों से समझौता नहीं करते हैं, तो आप किसी न किसी वजह से इतिहास में याद किये जाएं यह संभावना तो बन ही जाती है।
जटार परिवार की तीन पीढ़ियों को ही लीजिए।
महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में एक बस्ती है वाई। बात हो रही है उन्नीसवीं शताब्दी की।
यहां रहने वाले महाराष्ट्रियन कराड़ ब्राह्मण भीकाजी जटार का दूसरा विवाह उनके बेटे श्रीराम की प्रताड़ना का कारण बन गया। श्रीराम ने विद्रोह कर दिया और घर त्याग कर पुणे पंहुच गये। परिश्रम कर अपने को खड़ा किया और ऐल्फिन्स्टन काॅलेज में पढ़ कर भारत के शुरुआती ग्रेजुएट्स में से एक हो गये।
देश में अंग्रेज़ों की इच्छा वाली शिक्षा व्यवस्था पैर पसार रही थी और अंग्रेजी जानने वाले अच्छे शिक्षकों की बहुत मांग थी। श्रीराम जटार को न केवल नौकरी मिली बल्कि अपनी योग्यता के दम पर वे शीघ्र ही सी.पी. बरार राज्य के डायरेक्टर पब्लिक इन्स्ट्रक्शन (राज्य में स्कूली शिक्षा विभाग के मुखिया) नियुक्त हो गये। नागपुर में एक शानदार बड़ा बंगला भी मिल गया।
लेकिन पहला वेतन हाथ आते ही श्रीराम जटार का आत्मसम्मान आहत हो गया। वे इस पद पर नियुक्त होने वाले पहले भारतीय थे। उनसे पहले जो अंग्रेज़ इस पद पर थे उन्हें वेतन के रूप में एक हज़ार रुपये दिये जाते थे। श्रीराम जी को कम दिये गये थे। बस क्या था, पत्र में अपने विरोध को बयां किया, सामान बांधा और पूरे परिवार को लेकर श्रीराम जी पुणे आ गये। पूरे एक साल इनके और राज्य के अंग्रेज़ अधिकारियों के बीच मान-मनौवल और पत्राचार चला और अंत में इन्हें एक हज़ार के वेतन पर वापस लाया गया। और किसी ने याद किया हो न हो, इनके बाद इस पद पर नियुक्त होने वाले अधिकारियों ने अवश्य इनका धन्यवाद ज्ञापित किया होगा। इस किस्से के बाद दूसरे विभागों में भारतीयों के वेतन निर्धारण करते समय भी अंग्रेज़ सतर्क रहने लगे।
श्रीराम जटार ने सेवानिवृत्त होने से पहले ही सन् 1890 के आसपास अपनी अर्जित सम्पत्ति से पुणे के नारायण पेठ में एक विशाल भवन खरीद कर नामकरण किया : श्रीराम बाड़ा। तीन मंजिले भवन में अनेक कमरे थे जिन्हें किराये पर दे कर श्रीराम जटार अपने परिवार का पालन पोषण करते थे।
इनमें से एक किरायेदार थे लोकमान्य तिलक। "श्रीराम बाड़ा" अब भी पुणे में सुरक्षित है और तिलक का कक्ष देखने अनेक लोग पंहुचते हैं।
भारत में उन दिनों पढ़े लिखे लोगों के लिए सरकारी नौकरी का विकल्प नहीं था और नौकरियां थीं कम। बड़ा बेटा काशीनाथ काॅलेज में था। उन्ही दिनों नौकरी की स्थिति में एक बड़ा परिवर्तन आया।
आज के आय.ए.एस. की तरह अंग्रेजों के समय आय.सी.एस. सेवा हुआ करती थी। अक्सर डिस्ट्रिक्ट जज और कभी कभी पुलिस कप्तान की भूमिका भी इनमें समाहित होती थी। 1860 के बाद कुछ भारतीयों को इस सेवा में प्रवेश दे दिया गया था। किन्तु यह कदम सांकेतिक अधिक था। इने गिने भारतीय थे और उन्हें भी महत्वपूर्ण पद नहीं दिया जाता था।
1914 में पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ और स्थिति रातों रात बदल गयी। अंग्रेजों को ICS में भर्ती करने के लिये इंग्लैंड में योग्य कैंडिडेट मिलना लगभग बंद हो गये। अंग्रेज़ युवा फौज में भी जा रहे थे और युद्ध के कारण खड़ी हो रही औद्योगिक इकाइयों में भी।
अंग्रेजों ने तत्काल भारतीयों के लिये ICS के दरवाजे थोड़ा अधिक खोल दिये। सिविल सर्विस में उन दिनों दो स्तर होते थे। पहली थी 'काॅविनेन्टेड सिविल सर्विस'- इसमें सिर्फ अंग्रेज़ अफसरों होते थे। दूसरी 'अन-काॅविनेन्टेड सिविल सर्विस' भारतीयों के लिए थी। ICS के स्थान पर अधिकारी अपने नाम के आगे या तो CCS लिखते थे या UCS.
दुनियादारी में समझदार पिता ने अवसर का महत्व आंका और बेटे काशीनाथ को इक्कीस वर्ष की उम्र में इस UCS सेवा में प्रवेश दिला दिया। हैदराबाद स्टेट के अंग्रेज़ रेसिडेन्ट का दफ्तर अमरावती में था। काशीनाथ की पहली नियुक्ति रेसिडेन्ट के ट्रेनी सहायक के रूप में हुई। यही काशीनाथ श्रीराम जटार U.C.S. थे जो 1925 में छत्तीसगढ़ के कमिश्नर के रूप में रायपुर में पदस्थ हुए।
बीसवीं सदी के प्रारंभ तक छत्तीसगढ़ मोटे तौर पर दो बड़े हिस्सों में बंटा था। पहला हिस्सा अंग्रेज़ों के प्रशासन वाला इलाका था जो खालसा भी कहलाता था। यह रायपुर और बिलासपुर के नाम के दो ज़िलों में फैला था। छत्तीसगढ़ का बाकी सारा हिस्सा राजाओं के अधीन था। अंग्रेज़ों के हिस्से वाले दोनों ज़िलों के मुख्य अधिकारी कहलाते थे डिप्टी कमिश्नर। सन् 1906 में अंग्रेज़ों ने रायपुर और बिलासपुर ज़िलों में से कुछ इलाके निकाल कर एक नया ज़िला बनाया - दुर्ग।
जिन दिनों रायपुर में इन तीनों ज़िलों के कमिश्नर के रूप में काशीनाथ जटार रायपुर में पदस्थ थे उन दिनों दुर्ग में डिप्टी कमिश्नर थे खान बहादुर हाफिज़ मोहम्मद विलायतुल्ला। (इन्हीं के बेटे का आगे चल कर भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे व्यक्ति के रूप में नाम दर्ज हुआ जो अपने जीवनकाल में भारत का मुख्य न्यायाधीश, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति, तीनों पद पर रहा। यह ज़िक्र मोहम्मद हिदायतुल्ला जी का है)।
ब्रिटिश राज के दिनों में भारत में अफसरों के लिए ज़िलों में पोस्टिंग बहुत खुशदायी नहीं होती थी। एक बड़ी समस्या थी "सोशलाईज़िंग" की। फिल्में, टीवी, बाज़ार जैसे विकल्प नहीं थे। सड़कें नहीं थीं (आय.सी.एस. की परीक्षा में घुड़सवारी का टेस्ट भी पास करना ज़रूरी।होता था)। सर्विस कोड आम जनों से घुलने मिलने से भी रोकता था।
ऐसे में ज़िला मुख्यालयों में क्लबों का प्रचलन शुरू हुआ था। गिने चुने परिवार इकट्ठा होते, ब्रिज, रमी, बैडमिंटन आदि में शामें कट जाया करतीं। इच्छा हुई तो ड्रिंक्स और स्नैक्स भी जुड़ जाते थे। अंग्रेज़ों ने सभी जगह इस तरह के क्लब स्थापित किये थे।
यह पहला अवसर था जब रायपुर और दुर्ग, दोनों स्थानों पर भारतीय अधिकारी नियुक्त हुए थे। इन दो अधिकारियों का दुर्ग में जब भी मिलना होता तो क्लब की ज़रूरत सामने आती। दोनों को एक बात बहुत कष्ट देती थी। दुर्ग के क्लब में, इनके वहां पंहुचने से पहले तक, भारतीयों का प्रवेश मना था। हालांकि अब ये दोनों इलाके के मालिक थे और यह प्रतिबंध अपने मायने खो चुका था।
लेकिन यहाँ फिर एक बार आत्मसम्मान सामने आ गया। अंग्रेज़ रोकटोक करने के लिये मौजूद नहीं हैं इस बात का फायदा उठा कर क्लब का उपयोग करना इन दोनों अधिकारियों को गवारा नहीं था। दोनों अड़ गये। जाएंगे तो अपने क्लब में ही।
बस क्या था। दोनों ने खपरैल वाले एक छोटे से घर में (फोटो देखें) भारतीयों का अपना एक क्लब शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में पास की भूमि पर नये भवन का शिलान्यास कर दिया।
तारीख थी 4 जनवरी 1926.
और तब से दुर्ग में जटार क्लब ज़िले के अधिकारियों के क्लब के रूप में स्थापित है। कालांतर में खैरागढ़ के राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह जी ने एक बिलियर्ड्स की टेबल दान में दे दी। स्विमिंग पूल बन गया। गैर अधिकारी भी अब यहाँ सदस्य बनते हैं। हालांकि क्लब के मुखिया ज़िला कलेक्टर ही होते हैं।
किन्तु काशीनाथ जटार की कहानी यहाँ खत्म नहीं होती। कुछ समय पहले (22 तथा 24 जुलाई 2020 को) मैंने दो हिस्सों में कश्मीर प्रिन्सेज़ नामक विमान की ऐतिहासिक दुर्घटना के बारे में लिखा था। बम विस्फोट के बाद यह विमान डूब कर समुद्र तल पर पंहुच गया था। पायलट का शव अनेक प्रयासों के बाद दुर्घटना के इक्कीसवें दिन मिला था। इतना समय इसलिए लगा क्योंकि पायलट की सीट झटके से टूटकर काॅकपिट के कोने में घुस गयी थी। पायलट का शरीर बेल्ट के साथ सीट से बंधा था। उन्होंने अंतिम समय तक अपनी सीट नहीं छोड़ी थी। उसूल से बंधे ये वीर पायलट थे उसूलों वाले श्रीराम जटार ने पौत्र और काशीनाथ के पुत्र दामोदर काशीनाथ जटार।
उत्तर काण्ड:
* काशीनाथ जटार एक सक्षम अधिकारी के रूप में सी.पी. एन्ड बरार राज्य में अनेक स्थानो में पदस्थ रहे। अकोला (महाराष्ट्र) में एक मोहल्ला उनके नाम से जटार पेठ कहलाता है। 1951 में उनका निधन हुआ। उसके बाद परिवार ने श्रीराम बाड़ा भी बेच दिया।
* आगे चलकर 1971 के भारत-पाक युद्ध में कैप्टन दामोदर जटार जैसा उदाहरण कैप्टन महेन्द्र नाथ मुल्ला ने पेश किया। पाकिस्तानी नौसेना ने भारतीय INS खुखरी को नुकसान पंहुचाया था। जहाज डूबने लगा तो कप्तान ने मौत को गले लगा लिया किन्तु जहाज छोड़ कर भागे नहीं। मरणोपरांत कैप्टन जटार को अशोक चक्र (और आगे चल कर कैप्टन मुल्ला को महावीर चक्र) प्रदान किया गया था।
-डॉ परिवेश मिश्रा,
गिरिविलास पैलेस,
सारंगढ़
राजीव
जेईई में पहले दिन की तय परीक्षा कल संपन्न हुई। छत्तीसगढ़ में करीब 50 प्रतिशत बच्चों ने परीक्षा केंद्रों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और परीक्षा दी। पूरे देश में लगभग यही स्थिति है। पंजीकृत लगभग आधे परीक्षार्थियों ने परीक्षा का बहिष्कार कर दिया।
कोरोना संक्रमण के डर से परीक्षार्थियों ने सार्वजनिक वाहन का उपयोग नहीं किया जिसका इंतजाम राज्य सरकार ने किया था और परीक्षा केंद्र तक पहुँचने के लिए परीक्षार्थियों ने अपने साधनों का ही उपयोग किया। जैसे कि आशंका थी दूरदराज में निवासरत परीक्षा में पंजीकृत और प्रवेश पत्र डाउनलोड कर चुके बच्चों ने इसमें अपनी भागीदारी नहीं दी है।
शिक्षा मंत्री और सरकार की तरफ से बोलने वाले लोगों की सबसे बड़ी दलील कि पहले ही दिन धज्जियां उड़ गई। परीक्षा लेने को लेकर हिमायती लोगों की यही दलील थी कि प्रवेश पत्र डाउनलोड किए जा चुके इसलिए ये मानना चाहिए कि बच्चे परीक्षा देने के इच्छुक हंै। अगर परीक्षार्थियों ने प्रवेश पत्र डाउनलोड किए थे तो परीक्षा देने क्यों नहीं है आए?
सरकार और परीक्षा लेने की हिमायती लोगों की तमाम दलीलें कि परीक्षा केंद्र बढ़ा दिए गए हैं, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जाएगा, सरकार सब तरह से मदद करेगी को परीक्षा देने वाले बच्चों ने ख़ारिज कर दिया।
ऐसे ही तमाम कुतर्क कि यह साल खराब हो जाएगा, अगर जेईई एक साल टल गया तो अगले साल दस लाख नए बच्चे से आपकी प्रतिद्वंदिता होगी, वो ही बच्चे विरोध कर रहे हैं जो परीक्षा की तैयारी नहीं कर पाए हैं, एक साल परीक्षा टालने से कोई सीटें डबल नहीं हो जाएंगी और आपके कैरियर बर्बाद हो जाएंगे को अनुपस्थित बच्चों ने नकार दिया ।
परीक्षा बहिष्कार के पीछे की सोच सरकार को समझनी होगी और छूट गए बच्चों के लिए कोई नई तारीख पर परीक्षा की तैयारी करनी होगी। इसके अलावा नीट की परीक्षा जो इसी महीने की 13 तारीख को है जिसमें छात्राओं की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है उसको सरकार को तुरंत अगली तारीख के लिए बढ़ा देना चाहिए जब यह संक्रमण की ऐसी स्थिति ना हो या कम हो जाए।
जेईई में शामिल परीक्षार्थियों का कोरोना से कितना बचाव हुआ है यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन सरकार ने बच्चों की परीक्षा लेकर बहुत ही गलत, अलोकतांत्रिक और अलोकप्रिय फैसला लिया है। यह सोशल मीडिया तथा अन्य अभिव्यक्ति व्यक्त करने वाले स्थानों पर देखा जा सकता है। सरकार को परीक्षा लेने की जिद छोडक़र कोरोना संक्रमण रोकने पर ध्यान लगाना चाहिए। परीक्षा देने वाले बच्चों ने यह शेर साझा किया है-
इस जुल्म के दौर में जुबा खोलेगा कौन?
हम भी चुप रहेंगे तो बोलेगा कौन।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की अर्थव्यवस्था अब अनर्थ-व्यवस्था बनती जा रही है। इससे बड़ा अनर्थ क्या होगा कि सारी दुनिया में सबसे ज्यादा गिरावट भारत की अर्थव्यवस्था में हुई है। कोरोना की महामारी से दुनिया के महाशक्ति राष्ट्रों के भी होश ठिकाने लगा दिए हैं लेकिन उनके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 10-15 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट नहीं आई है।
ब्रिटेन की गिरावट 20 प्रतिशत है लेकिन हमने ब्रिटेन को भी काफी पीछे छोड़ दिया है। अप्रैल से जून की तिमाही में हमारी गिरावट 23.9 प्रतिशत हो गई है। यह आंकड़ा राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान ने काफी खोज-बीन के बाद जारी किया है लेकिन जो छोटे-मोटे करोड़ों काम-धंधे गांवों में बंद हो गए हैं, लगभग 10 करोड़ लोग घर बैठ गए हैं और 2 करोड़ नौकरियां चली गई हैं, यदि इन सबको भी जोड़ लिया जाए तो इस संस्थान का आंकड़ा और भी भयावह हो सकता है। गिरावट की यह शुरुआत है। आगे-आगे देखिए कि होता है क्या ?
यह भी हो सकता है कि अन्य देशों के मुकाबले हमारी अर्थ-व्यवस्था तेज रफ्तार पकड़ ले और कुछ महीनों में ही गाड़ी पटरी पर लौट आए। अभी तो इतनी गिरावट है, जितनी कि पिछले 40 साल में कभी नहीं हुई। अर्थसंकट के घने बादल घिर रहे हैं।
संतोष का विषय है कि खेती में इसी अवधि में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यानी भारत को अपनी भूख मिटाने के लिए किसी के आगे हाथ फैलाने की जरुरत नहीं होगी। लेकिन आम लोगों में पैसों की किल्लत इस कदर हो गई है कि उनकी खरीददारी 54.3 प्रतिशत गिर गई है याने लोग ‘आधी और रुखी भली, पूरी सो संताप’ से ही काम चला रहे हैं। बाजार खुल गए हैं लेकिन ग्राहक कहां हैं ? कोरोना के मामले बढ़ते जा रहे हैं। अब वह गांवों में भी फैलने लगा है। डर के मारे लोग घरों में दुबके हुए हैं। बड़े-बड़े कारखाने फिर खुल रहे हैं लेकिन उनकी बनाई चीजें खरीदेगा कौन ? राज्य सरकारें अपनी जीएसटी राशि के लिए चीख रही हैं। केंद्र सरकार ने देश के वंचितों और गरीबों को कुछ राहत जरुर दी है लेकिन वह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। इस वक्त जरुरत तो यह है कि लोगों के हाथ में कुछ पैसा पहुंचे ताकि देश में खरीददारी बढ़े। संकट का यह काफी खतरनाक समय है। सिर्फ लफ्फाजी से काम नहीं चलेगा। सरकार को जो करना है, वह तो वह करेगी ही लेकिन देश में 15-20 करोड़ लोग ऐसे जरुर हैं, जो अपने करोड़ों साथी नागरिकों की मदद कर सकते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- Gayatri Yadav
“ये क्या कर दिया है बालों का, यही एक लड़की है, रीमा, पूनम, प्रीति को देखिए, लड़की होने का मतलब ही है, लंबे बाल, बालों से ही लड़की की सुंदरता है, इसने बाल ही काट दिए। लड़कियों को लड़कियों की तरह ही रहना चाहिए, अब मत काटने देना,दिल्ली जाकर बिगड़ गई है।”
छुट्टियों में घर आने पर मुझे अपनी चाची की तरफ से सबसे पहले यही सुनने को मिला। असल में, इस देश की मुख्यधारा की वैचारिकी में लड़कियों के लिए लंबे बाल उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितना की गोरा रंग। यहां का समाज लड़कियों के गोरे रंग के साथ लंबे बालों को लेकर भी ‘ऑब्सेस्ड’ है। लड़की होने के जितने पैमाने तय किए गए हैं, उसमें शरीर और बाहरी संरचना की श्रेणी में लंबे बालों का विशेष महत्व है। हमेशा से समाज महिलाओं को निर्देशित करता आ रहा है कि उन्हें लंबे बाल रखने चाहिए। लंबे बाल ही सुंदरता के प्रतीक हैं।
महिला के शरीर पर नियंत्रण रखने और उसे अपने हिसाब से संचालित करने की समाज की इस सोच के केंद्र में पितृसत्ता ही निहित है। लंबे बालों को ही सुंदरता और स्त्रीत्व की परिभाषा से जोड़ दिया गया है और यह सोच न केवल पुरुषों बल्कि स्त्रियों के ज़हन में भी बैठ गई है। इसीलिए घर की महिलाएं शुरू से ही खींचकर लड़कियों के बाल बांधने लगती हैं ताकि 17-18 साल की उम्र से पहले ही उनके बाल लंबे और घने हो जाएं। वहीं लड़कों को छोटे और समय-समय पर बाल कटवाते रहने का निर्देश दिया जाता है। लड़कों के बाल थोड़े से भी बड़े हो जाएं तो उनके पौरुष पर सवाल खड़े करते हुए ‘लड़की हो क्या’ जैसे सवाल पूछे जाते हैं और कई बार तो ट्रांस समुदाय से जोड़कर मज़ाक बना दिया जाता है। लड़का ट्रांस समुदाय से खुद को जोड़े जाने को अपनी मर्दानगी के ख़िलाफ़ चुनौती की तरह महसूस करता है और इस तरह बाल बढ़ाना उसकी आदत से ख़त्म हो जाता है।
पुरुषों का समाज और उसकी सुंदरता की परिभाषा
प्राचीन साम्यवादी दौर में महिलाओं और पुरुषों में कोई अंतर नहीं था। दोनों ही अपने लिए शिकार करते और भोजन जुटाते थे। स्त्री का अपने शरीर पर नियंत्रण था और एवोल्यूशन (क्रमागत विकास) की प्रक्रिया में मानव का विकास जिस तरह हो रहा था, उसमें स्त्री पुरूष भेद नहीं था। सामाजिक समझ विकसित होने पर धीरे-धीरे स्त्रियों को घरों तक सीमित कर दिया गया, जिससे बाहरी क्षेत्र में उनका हस्तक्षेप खत्म हो गया। शरीर का उस प्रकार से इस्तेमाल न होने से शारीरिक शक्ति क्षीण हुई, जिससे महिला के कमज़ोर होने की अवधारणा पेश की गई और पुरुष उसका रक्षक बन बैठा। महिला उसकी संपत्ति बन गई और इस तरह से उसने उसके संपूर्ण शरीर पर नियंत्रण पा लिया। शरीर पर नियंत्रण के बाद औरतों की सुंदरता की परिभाषा गढ़ी गई। भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था और बाद में उपनिवेशवाद ने रंग के आधार पर भेदभाव किया। आज भी रंग को लेकर भारतीय समाज सहज नहीं हो पाया है। इसी तरह, लंबे बाल को लेकर समाज में कोई विशेष चर्चा भी नहीं होती, एक सर्वमान्य बात की तरह यह सिद्ध कर दिया गया है कि औरत वह है, जिसके काले, लंबे घने बाल हो।
समाज लड़कियों के गोरे रंग के साथ लंबे बालों को लेकर भी ‘ऑब्सेस्ड’ है। लड़की होने के जितने पैमाने तय किए गए हैं, उसमें शरीर और बाहरी संरचना की श्रेणी में लंबे बालों का विशेष महत्व है।
मीडिया की भूमिका
मीडिया आम लोगों की चेतना निर्धारित करता है। किसी मुद्दे पर लोग कैसे सोचेंगे और किसी भी स्थिति पर कैसे प्रतिक्रिया करेंगे, यह आजकल मीडिया द्वारा निर्धारित किया जाता है। भारत में मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ लिखे गए जिन्होंने समाज की वैचारिकी तय की। आज के दौर में सिनेमा, टीवी से लेकर विज्ञापनों ने महिला शरीर और सुंदरता को लेकर रूढ़ीवादी और पितृसत्तात्मक पैमाने गढ़े हैं जिसका सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है। फिल्मों में नायिकाओं के बाल लंबे ही होते हैं। कोई भी रोमांटिक सीन नायिका के सीधे-लंबे, रेश्मी बालों के उड़े बिना पूरा नहीं होता। गानों में काले लंबे बालों की कितनी की उपमाएं दी जाती हैं। शायद ही किसी फ़िल्म की मुख्य मायिका के बाल छोटे हो। 90 के दौर की फिल्मों में अक़्सर ही उन महिलाओं के छोटे बाल होते थे, जो क्रूर और घमंडी होती थी। इस तरह से यह निर्धारित करने का प्रयास किया गया कि छोटे बालों वाली महिलाएं पतिव्रता नहीं होती और कोमलता, जो कि स्त्री का ‘अनिवार्य’ गुण है, उनमें नहीं पाया जाता। इसलिए छोटे बालों वाली स्त्री को यह संस्कारी समाज खारिज़ करता है। शैम्पू और कंडीशनर के विज्ञापन लंबे घने बालों के राग अलापते हुए ही चल रहे हैं। टीवी में आदर्श बहुओं के लंबे घने काले बाल होते हैं, जिनपर हमेशा पल्लू से ढके रहने का अतिरिक्त सांस्कारिक दबाव होता है। इस तरह से, मीडिया घर-घर तक लंबे बाल और सुंदरता के मेल को पहुंचाते हुए पूंजीवाद और पितृसत्ता दोनों को पोषित कर रहा है।
लंबे बाल, जिन्हें बांधा जाना चाहिए
भारतीय समाज विरोधाभास से भरा हुआ है। यहां लंबे बाल रखने चाहिए, यह तो निर्देशित किया जाता है, लेकिन लंबे बालों को बांधना भी अनिवार्य है। खुले बालों के साथ घूमती लड़की के चरित्र पर सवाल किया जाता है। ग्रन्थों के माध्यम से भी घरेलूपन होने की परिभाषा बालों के आधार पर तय की गई है। पार्वती और गौरी जिनके बाल गूंथे हुए और सुलझे हों, वे स्त्रीत्व और घरेलूपन से जोड़कर देखी जाती है। वहीं काली और दुर्गा के खुले, उलझे केश उनके जंगलीपन को दर्शाते हैं। स्त्री केवल अपने पति और बच्चे की रक्षा के लिए काली और दुर्गा बनती है, यानी वह हमेशा स्वीकार किया जाने वाला स्वरूप नहीं है। इसीलिए शुरू से ही बाल बांधने की ट्रेनिंग दी जाती है। स्कूल भी जहां लड़कियों के लिए चोटी गूंथकर आने का नियम बनाते हैं, वहीं लड़कों को छोटे बाल करके आना अनिवार्य होता है। कॉर्यस्थलों पर महिलाओं को बाल बांधकर परिष्कृत तरीके से आने का नियम बनाते हैं। यह स्त्री की उन्मुक्तता को सीमित करना हुआ। समाज यह तय करता है कि एक औरत कब कैसे रहेगी और उसके रहने का कौन सा तरीका ‘परिष्कृत और सिविक’ है।
हालांकि धीरे-धीरे औरतें अपनी ‘चॉइस’ के आधार पर निर्णय ले रही हैं और समाज के पैमानों को नकार रही हैं। केवल किसी ख़ास कारण से नहीं बल्कि अपनी इच्छा से महिलाएं छोटे बाल रख रही हैं। अब उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं है कि ‘उनसे कोई शादी करेगा या नहीं’ क्योंकि उनका उद्देश्य शादी करना नहीं है और ‘सेटल’ होने का अर्थ शादी करने से आगे बढ़ चुका है। औरतें ख़ुद अपने सेटल होने की परिभाषा तय कर रही हैं। उन्होंने सुंदर होने की रूढ़ीवादि परिभाषाओं को त्यागकर अपनी नई अवधारणाएं गढ़नी शुरू कर दी हैं। अब काले-घने-लंबे बालों की अवधारणा ‘कर्ल्स आर ब्यूटीफुल’ जैसे ट्रेंड से टूट रही है। लड़कियां पारंपरिक रंगों को छोड़कर अब लाल,नीले रंगों से बालों को डाई कर रही हैं। अपने शरीर पर हक़ जताने का यह उनका तरीका है। ‘टॉमबॉय’ लुक की अवधारणा को ध्वस्त करते हुए लड़कियां यह स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं कि छोटे या बड़े बाल लड़की या लड़की होने की पहचान नहीं है, यानी बाल ‘जेंडर न्यूट्रल’ हैं। छोटे बाल वाली लड़की ‘टॉमबॉय’ नहीं है, न हैं लंबे बालों वाला लड़का ‘गर्ली’। यह बदलाव धीरे-धीरे ही सही भारतीय समाज में आ रहा है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- गोल्डी एम जार्ज
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मूलनिवासी नेतृत्व और भारतीय मानवशास्त्रियों के विरोध के मद्देनजर, आईयूएईएस ने कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज को वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस की मेजबानी करने के अधिकार से वंचित कर दिया है। परन्तु इससे यह मुद्दा समाप्त नहीं हो जाता कि केआईएसएस एक फैक्ट्री स्कूल है, जो बड़ी खनन कम्पनियों के धन से संचालित होता है। गोल्डी एम. जार्ज की खबर
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजिकल एंड एथनोलॉजिकल साइंसेज (आईयूएईएस) ने घोषणा की है कि वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजी (डब्ल्यूसीए) 2023 की मेजबानी में भुवनेश्वर, ओडिशा स्थित कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (केआईएसएस) की कोई भूमिका नहीं होगी। आईयूएईएस ने बीते 16 अगस्त, 2020 को यह सूचना संबलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. दीपक कुमार बेहरा को एक पत्र के ज़रिए दी। इसके पहले, चार भारतीय संस्थाओं को डब्ल्यूसीए का आयोजन और उसकी मेजबानी करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी। ये थे : उत्कल विश्वविद्यालय (भुवनेश्वर, ओडिशा), संबलपुर विश्वविद्यालय (संबलपुर, ओडिशा), इंडियन एंथ्रोपोलॉजिकल एसोसिएशन (दिल्ली) और कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (केआईएसएस)। कांग्रेस का आयोजन केआईएसएस के कैंपस में किया जाना था।
आदिवासियों के अधिकारों से सरोकार रखने वाले करीब दो सौ से अधिक नेताओं, शिक्षाशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, जनांदोलनों के प्रतिनिधियों और विद्यार्थी संगठनों आदि ने केआईएसएस को डब्ल्यूसीए, 2023 की मेजबानी सौंपे जाने का विरोध करते हुए एक अनुरोध पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इस पत्र को आईयूएईएस के अध्यक्ष जुंजी कोइज़ुमी और उत्कल व संबलपुर विश्वविद्यालयों के कुलपतियों क्रमशः सौमेंद्र मोहन पटनायक और दीपक कुमार बेहरा को भेजा गया था। हस्ताक्षरकर्ताओं ने केआईएसएस पर गंभीर आरोप लगाते हुए इन तीनों संस्था प्रमुखों से अपील की थी कि वे इस संस्थान से कोई लेना-देना न रखें।
प्रोफेसर डी. के. बेहरा को संबोधित पत्र में आईयूएईएस ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा, “आगामी वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस के आयोजन में केआईएसएस की भूमिका केवल अधोसंरचना, साजो-सामान और अन्य संसाधन उपलब्ध करवाने तक सीमित थी। आयोजन के अकादमिक और मानवशास्त्रीय आयामों के लिए शेष तीन संस्थाएं ज़िम्मेदार थीं। परन्तु, आयोजन में केआईएसएस की भागीदारी को लेकर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विवाद बढ़ता ही जा रहा था। इस मसले पर भारत और दुनिया भर के मानवशास्त्रियों द्वारा व्यक्त विचारों को मद्देनज़र रखते हुए आईयूएईएस की कार्यकारी समिति ने विभिन्न स्तरों पर व्यापक विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया है कि 2023 की वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस के आयोजन में वह केआईएसएस से किसी प्रकार का सहयोग नहीं लेगी।”
ध्यातव्य है कि यह वृहद आयोजन 15 से 19 जनवरी 2023 तक होगा और इसमें 150 देशों के 10 हजार से ज्यादा प्रतिभागियों की उपस्थिति अपेक्षित है। आईयूएईएस, दुनिया में मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान के अध्येताओं और शोधार्थियों की सबसे बड़ी संस्था है। इस संस्था द्वारा हर पांच वर्ष में आयोजित की जाने वाली कांग्रेस, मानव जाति के वैज्ञानिक अध्ययन में रत विद्वतजनों का सबसे पुराना जमावड़ा है और 45 साल बाद भारत में होने जा रहा है।
आदिवासी और मानवशास्त्री केआईएसएस के विरोध में क्यों?
भारत के मूलनिवासी ‘फैक्ट्री स्कूलिंग’ करने वालीं ऐसे संस्थाओं का विरोध करते आ रहे हैं जो आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने की बजाय उन्हें उनकी जड़ों से, उनके इतिहास और संस्कृति से दूर करती हैं और आदिवासियों के जीने के तरीके को पिछड़ा, आदिम, असभ्य और अशिष्ट बताती हैं। ओडिशा के मंकिर्दिया नामक आदिम आदिवासी समुदाय के बारे में केआईएसएस के संस्थापक व सांसद अच्युत सामंत ने कहा था, “…वे केवल वन उत्पादों से अपना पेट भरते हैं और पत्तों से अपना शरीर ढंकते हैं। ओडिशा में 13 आदिम आदिवासी समुदाय रहते हैं। वे बंदरों की तरह पेड़ों की डालियों पर रहते और सोते हैं। उन्हें मंकिर्दिया – अर्थात बन्दर – कहा जाता है…कई तरह के आदिम समुदाय हैं…वे कुछ समझते ही नहीं हैं।”
केआईएसएस, ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित एक आवासीय स्कूल है जो केवल आदिवासी बच्चों के लिए है। इसके संस्थापक अच्युत सामंत, कंधमाल से बीजू जनता दल के सांसद हैं। वर्तमान में केआईएसएस में ओडिशा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मिजोरम, असम और अन्य राज्यों के विभिन्न आदिवासी समुदायों के करीब 30,000 लड़के-लड़कियां रहते हैं। केआईएसएस का इस दावे, कि वह ‘दुनिया का पहला आदिवासी विश्वविद्यालय’ है, से आदिवासी अध्येता कतई सहमत नहीं हैं।
केआईएसएस में प्रार्थना सभा में भाग लेते और टूथ ब्रश का इस्तेमाल करने का अभ्यास करते विद्यार्थी
केआईएसएस जैसी संस्थाएं फैक्ट्री स्कूलिंग के ज़रिये मूलनिवासियों की संस्कृति और परम्पराओं को संरक्षित रखने के मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान के प्रयासों को कमज़ोर कर रहे हैं। ये संस्थाएं, दरअसल, आदिवासी बच्चों पर प्रयोग करने वाली प्रयोगशालाएं हैं। आदिवासी अध्येताओं और मानवशास्त्रियों का तर्क है कि केआईएसएस में बच्चों को उड़िया बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जबकि उनमें से अधिकांश की मातृभाषा यह नहीं है। आदिवासी त्योहारों को हतोत्साहित किया जाता है और शायद ही कभी मनाया जाता है। वहां बच्चे सरस्वती और गणेश की पूजा करते हैं और इस प्रकार उच्च जातियों के हिन्दुओं की प्रथाओं और परम्पराओं के प्रभाव में आते हैं।
मानवाधिकार संगठन सर्वाइवल इंटरनेशनल के अनुसार, “पूरी दुनिया में करीब बीस लाख आदिवासी बच्चों को फैक्ट्री स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है, जहां उनकी देशज पहचान धूमिल की जाती है और उनके दिमाग में ऐसी चीज़ें भरी जातीं हैं जिनसे वे वर्चस्वशाली समाज के सांचे में ढल सकें। ये स्कूल बच्चों को उनके घरों, परिवारों, भाषा और संस्कृति से काट देते हैं और वहां उनका भावनात्मक, शारीरिक और यौन शोषण भी किया जाता है। उदाहरण के लिए, अकेले भारत के महाराष्ट्र राज्य में 2001 से 2016 के बीच, आवासीय स्कूलों में अध्यनरत लगभग 1,500 आदिवासी बच्चों की मौत हो गयी, जिनमें से 30 ने आत्महत्या की।” आदिवासी और मूलनिवासी अध्येताओं का कहना है कि शिक्षा पर समुदाय का नियंत्रण होना चाहिए और शिक्षा का लोगों की धरती, भाषा और संस्कृति से जुड़ाव होना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे मूलनिवासी समूहों में उनकी संस्कृति के प्रति अपराधबोध नहीं बल्कि गर्व का भाव उत्पन्न हो।
आईयूएईएस का स्पष्टीकरण
आईयूएईएस अध्यक्ष जुंजी कोइज़ुमी और महासचिव नोएल बी. सलाज़ार द्वारा हस्ताक्षरित पत्र में स्पष्ट किया गया है कि “यह निर्णय संबंधित संस्था (केआईएसएस) की कार्यपद्धति के प्रति किसी तरह का पूर्वाग्रह रखे बिना लिया गया है। परन्तु आईयूएईएस अपनी स्थापना के लक्ष्य – अर्थात राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और आईयूएईएस और वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजिकल यूनियन (डब्ल्यूएयू) के अन्दर भी मानवशास्त्रियों को एक मंच पर लाने – के प्रति समर्पित बना रहेगा। आईयूएईएस की कार्यकारी समिति का यह निर्णय इस सिद्धांत पर आधारित है कि डब्ल्यूएसी के आयोजन जैसे महत्वपूर्ण मसले में सभी एकमत होने चाहिए।”
आईयूएईएस ने कहा कि वह अगले डब्ल्यूएसी का आयोजन भारत में करने के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध है और इसलिए उसने भारत और दुनिया के मानवशास्त्रियों और उनके संगठनों और संस्थाओं से अनुरोध किया है कि वे आयोजन के लिए आवश्यक धन और अन्य संसाधन जुटाने में मदद करें। आईयूएईएस ने डब्ल्यूएसी 2023 की मेजबानी करने वाली शेष तीन संस्थाओं – इंडियन एंथ्रोपोलॉजिकल एसोसिएशन और उत्कल व संबलपुर विश्वविद्यालयों से यह अपील की है कि वे आयोजन की सफलता के लिए काम करते रहें।
आदिवासी बुद्धिजीवियों और नेताओं ने आईयूएईएस के निर्णय का किया स्वागत
आदिवासी बुद्धिजीवियों, अध्येताओं और नेताओं ने आईयूएईएस द्वारा आयोजन से केआईएसएस जैसे फैक्ट्री स्कूल को अलग करने के निर्णय का स्वागत किया है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के गुवाहाटी कैंपस के पूर्व निदेशक वर्जीनियस खाखा, जो सन 2014 में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित आदिवासी मामलों पर उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष भी थे, ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए कहा, “इससे सामंत का अपने आप को आदिवासियों का उद्धारक सिद्ध करने के प्रयास की हवा निकल जाएगी। असल में वे मूलनिवासियों के संस्कृति और परम्पराओं का दानवीकरण कर रहे हैं। आज हम विभिन्न समुदायों के बीच समानता की बात करते हैं। विविधता हमारे समकालीन समाज की पहचान है। हमें सभी की संस्कृतियों और परम्पराओं का आदर करने के सचेत प्रयास करने होंगे। जब आप अपनी संस्कृति और परंपरा का सम्मान नहीं करते तो दूसरे आपको नीचा दिखाते हैं, वे आपको ऐसा व्यक्ति बताते हैं, जिसकी कोई कीमत ही नहीं है। फिर, केआईएसएस जैसे फैक्ट्री स्कूलों के साथ अन्य समस्याएं भी हैं, जैसे वहां कितने आदिवासी शिक्षक हैं।”
वर्जीनियस खाखा (बाएं) और छोटूभाई वसावा
मुद्दे और भी हैं। आदिवासी महिला अधिकार कार्यकर्ता एलिन लकरा पूछती हैं कि आखिर इस तरह का आयोजन एक निजी संस्थान में क्यों होन चाहिए – वह भी ऐसे संसथान में जो आदिवासियों को उनकी संस्कृति से विलग करने का प्रयास कर रहा है। लकरा कहतीं हैं, “आखिर क्या कारण है कि आईयूएईएस ने अमरकंटक जैसे आदिवासी विश्वविद्यालयों से संपर्क नहीं किया? जो संस्थान आदिवासियों को गैर-आदिवासी बनाने में रत हैं उनमें किसी तरह की मानवशास्त्रीय गतिविधियां नहीं होनी चाहिए। वर्ना हम इतिहास के औपनिवेशिक दौर में वापस चले जाएंगे।
अन्य आदिवासी नेताओं को आदिवासियों के लिए फैक्ट्री स्कूल चलने वालों के इरादों पर संदेह है। भील समुदाय के एक प्रमुख नेता छोटूभाई वसावा, जो भारतीय ट्राइबल पार्टी के संस्थापक और गुजरात के झागडिया से विधायक हैं, कहते हैं, “वर्चस्वशाली समुदायों के लोग आदिवासियों को धोखा देने के लिए सामाजिक संगठन बनाते हैं। वे अपने राजनैतिक एजेंडा को हासिल करने के लिए उनका बलि के बकरों की तरह इस्तेमाल करते हैं। अगर अच्युत सामंत जैसे लोग समाजसेवा करना चाहते हैं तो वे राजनीति में क्यों आते हैं? इसका अर्थ यही है कि उनका असली एजेंडा आदिवासी अस्मिता को हमेशा के लिए समाप्त कर देना है।”
यहां यह स्मरण दिलाना ज़रूरी है कि ओडिशा सरकार जिन उद्योगों और खनन परियोजनाओं की स्थापना के लिए एमओयू कर रही है उनमें से अधिकांश आदिवासियों के भूमि पर स्थापित होंगी। इस सन्दर्भ में वर्जीनियस खाखा पूछते हैं, “सरकार एक ओर इस तरह के एमओयू पर हस्ताक्षर कर रही है तो दूसरी ओर फैक्ट्री स्कूलों को प्रोत्साहन दे रही है। ओडिशा के आदिवासी इलाके, खनिज सम्पदा से भरपूर हैं परन्तु वहां के निवासी गरीब हैं। एक तरह से यह 17वीं और 18वीं सदी के औपनिवेशिक शासन की वापसी है। अंततः वे हमें बताएंगे कि जो लोग आदिवासी संस्कृति में रचे-बसे हैं वे आदिम, बर्बर, जंगली और असभ्य हैं। केआईएसएस से मेजबानी का अधिकार वापस लेना बहिष्करण की राजनीति को नकारने और विविधता की अवधारणा को मज़बूत करने के दिशा में कदम है।”
आदिवासी मामलों का मंत्रालय, आदिवासी उपयोजना के अंतर्गत आदिवासियों की शिक्षा के लिए धन उपलब्ध करवाता है। इस धन से उपयोजना के नियमों के अनुरूप आदिवासी इलाकों में स्कूल व अन्य शैक्षणिक संस्थान स्थापित कए जाने चाहिए। निजी संस्थाओं द्वारा शिक्षा प्रदान करने के नाम पर छल-कपट किये जाने का विरोध करते हुए वसावा कहते हैं, “बच्चों को अपने अभिवावकों के साथ रहते हुए और बिना अपनी संस्कृति और पहचान खोये शिक्षा दी जानी चाहिए। केआईएसएस जैसे संस्थान एक तरह से बच्चों को कैदी बना लेते हैं। उन्हें उनके त्योहारों और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मौकों पर उनके घर नहीं जाने दिया जाता। हम आईयूएईएस के निर्णय का स्वागत करते हैं और हमारे अनुरोध पर विचार करने के लिए उसे धन्यवाद देते हैं।”
अस्मिता को मिटाने के प्रयास
परन्तु इस निर्णय के बाद भी फैक्ट्री स्कूलों की समस्या बनी रहेगी। जो वुडमैन अपने एक अध्ययन, जिसका शीर्षक है, “जो हमारे बच्चों की शिक्षा को नियंत्रित करता है वही हमारे भविष्य का नियंता होता है,” में कहते हैं कि लाखों मूलनिवासी बच्चों को स्कूलों में उनकी मातृभाषा में बात करने से या तो रोका जाता है या हतोत्साहित किया जाता है। इससे देशज लोगों की भाषाओं का अस्तित्व खतरे में पढ़ जाता है। किसी भी भाषा के लुप्त होने की शुरुआत तब होती है जब बच्चे वह भाषा बोलना बंद कर देते है जो उनके माता-पिता बोलते हैं। यह एक बहुत बड़ी आपदा है क्योंकि किसी भी समुदाय की भाषा, उसकी संस्कृति, उसके जीवन और उसकी ऐतिहासिक विरासत को समझने के लिए आवश्यक होती है। फैक्ट्री स्कूल आदिवासी और अन्य मूलनिवासी बच्चों – जिनकी अपनी भाषा और संस्कृति है – को भविष्य के आज्ञाकारी श्रमिक बना सकती है। वुडमैन के अनुसार राज्य, जो कि दुनिया का सबसे बड़ा फैक्ट्री स्कूल है, उन लोगों को, जिन पर कर की राशि खर्च होती है, को करदाता, और देयताओं को आस्तियां बनाता है।”
फैक्ट्री स्कूलों के प्रायोजक अक्सर बड़ी कम्पनियां और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वाले औद्योगिक समूह होते हैं। ये उद्योग आदिवासियों की धरती, उनके संसाधनों और उनके श्रम को अपने लाभ के लिए प्रयुक्त करना चाहते हैं। फैक्ट्री स्कूल इन उद्देश्यों की पूर्ति की दीर्घकालिक योजना का हिस्सा हैं। केआईएसएस, जिसे वेदांता और अदानी सहित कई खनन कम्पनियां धन उपलब्ध करवातीं हैं, भी इसका अपवाद नहीं है। ये कम्पनियां ओडिशा के आदिवासियों की ज़मीन पर नज़रें गड़ाए हुए हैं। वुडमैन कहते हैं, “भारत और मेक्सिको में प्राकृतिक संसाधनों को चूसने वाले उद्योग, ऐसे स्कूलों को प्रायोजित करते हैं जो बच्चों को खनन को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और उनके अपनी ज़मीनों से जुड़ाव को ‘आदिम’ बताते हैं। राज्य इन स्कूलों का उपयोग मूलनिवासियों के मन में राष्ट्रवाद का भाव भरने और उनके स्वतंत्रता आंदोलनों को कुचलने के लिए करते हैं। इससे दीर्घावधि में, अंततः, मूलनिवासियों के अलग पहचान समाप्त हो जाती है।
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)(forwordpress)
फ्रांस की व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्डो ने पैग़ंबर मोहम्मद के उन कार्टूनों को फिर से प्रकाशित किया है जिनके कारण साल 2015 में वह ख़तरनाक चरमपंथी हमले का निशाना बनी थी.
इन कार्टूनों को उस समय पुनर्प्रकाशित किया गया है जब एक दिन बाद ही 14 लोगों पर सात जनवरी, 2015 को शार्ली एब्डो के दफ़्तर पर हमला करने वालों की मदद करने के आरोप में मुक़दमा शुरू होने वाला है.
इस हमले में पत्रिका के प्रसिद्ध कार्टूनिस्टों समेत 12 लोगों की मौत हो गई थी. कुछ दिन बाद पेरिस में इसी सी जुड़े एक अन्य हमले में पांच लोगों की जान चली गई थी.
इन हमलों के बाद फ्रांस में चरमपंथी हमलों का सिलसिला शुरू हो गया था.
पत्रिका के ताज़ा संस्करण के कवर पेज पर पैग़ंबर मोहम्मद के वे 12 कार्टून छापे गए हैं, जिन्हें शार्ली एब्डो में प्रकाशित होने से पहले डेनमार्क के एक अख़बार ने छापा था.

क्या कहती है पत्रिका
अपने संपादकीय में पत्रिका ने लिखा है कि 2015 के हमले के बाद से ही उससे कहा जाता रहा है कि वह पैग़ंबर पर व्यंग्यचित्र छापना जारी रखे.
संपादकीय में लिखा गया है, "हमने ऐसा करने से हमेशा इनकार किया. इसलिए नहीं कि इसपर प्रतिबंध था. क़ानून हमें ऐसा करने की इजाज़त देता है. मगर ऐसा करने के लिए कोई अच्छी वजह होनी चाहिए थी. ऐसी वजह जिसका कोई अर्थ हो और जिससे एक बहस पैदा हो."
"इन कार्टूनों को जनवरी 2015 के हमलों पर सुनवाई शुरू होने वाले हफ़्ते में छापना हमें ज़रूरी लगा."

मुक़दमे में क्या होने वाला है
14 लोगों पर शार्ली एब्डो के पेरिस वाले दफ़्तरों पर हमला करने वाले लोगों के लिए हथियार जुटाने और उनकी मदद करने के अलावा बाद में यहूदी सुपरमार्केट और एक पुलिसकर्मी पर हमला करने में मदद का आरोप लगा है.
तीन लोगों पर उनकी ग़ैरमौजूदगी में मुक़दमा चल रहा है क्योंकि माना जा रहा है कि वे उत्तरी सीरिया या इराक़ भाग गए हैं.
फ्रांस के प्रसारक आरएफ़आई के मुताबिक़, 200 याचिकाकर्ता और हमले में बचे लोग इस मुक़दमे के दौरान गवाही दे सकते हैं.
इस मुक़दमे को मार्च में शुरू होना था मगर कोरोना महामारी के कारण इसे टाल दिया गया था. माना जा रहा है कि सुनवाई नवंबर तक चलेगी.
फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली एब्डो ने फिर छापे पैग़ंबर मोहम्मद पर विवादित कार्टून
फ्रांस की व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्डो ने पैग़ंबर मोहम्मद के उन कार्टूनों को फिर से प्रकाशित किया है जिनके कारण साल 2015 में वह ख़तरनाक चरमपंथी हमले का निशाना बनी थी.
इन कार्टूनों को उस समय पुनर्प्रकाशित किया गया है जब एक दिन बाद ही 14 लोगों पर सात जनवरी, 2015 को शार्ली एब्डो के दफ़्तर पर हमला करने वालों की मदद करने के आरोप में मुक़दमा शुरू होने वाला है.
इस हमले में पत्रिका के प्रसिद्ध कार्टूनिस्टों समेत 12 लोगों की मौत हो गई थी. कुछ दिन बाद पेरिस में इसी सी जुड़े एक अन्य हमले में पांच लोगों की जान चली गई थी.
इन हमलों के बाद फ्रांस में चरमपंथी हमलों का सिलसिला शुरू हो गया था.
पत्रिका के ताज़ा संस्करण के कवर पेज पर पैग़ंबर मोहम्मद के वे 12 कार्टून छापे गए हैं, जिन्हें शार्ली एब्डो में प्रकाशित होने से पहले डेनमार्क के एक अख़बार ने छापा था.

पाकिस्तान ने किया विरोध
पैग़ंबर के कार्टून छापने को लेकर पाकिस्तान ने शार्ली एब्डो की निंदा की है.
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से इस संबंध में दो ट्वीट किए गए हैं. इनमें कहा गया है, "फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली एब्डो द्वारा पैग़ंबर मोहम्मद के बेहद आपत्तिजनक व्यंग्यचित्र फिर से छापने के फ़ैसले की पाकिस्तान कड़ी निंदा करता है."

आगे लिखा गया है, "अरबों मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए जानबूझकर किए गए इस काम को प्रेस की आज़ादी या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सही नहीं ठहराया जा सकता. इस तरह के काम शांतिपूर्ण वैश्विक सह-अस्तित्व और सामाजिक सौहार्द की भावना को नुक़सान पहुंचाते हैं."(bbc)
- नीतिशा खलखो
अपने बुनियादी मूल्यों के खिलाफ जाकर आदिवासी समाज अन्य जाति, धर्म या बिरादरी में विवाह करने वाली अपनी महिलाओं के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने लगा है। इस प्रवृत्ति के पीछे कौन है? क्या हैं इसके कारण? नीतिशा खलखो इन सवालों को उठा रही हैं
आजकल आदिवासी समाज को अपनी महिलाओं का अन्य जाति, धर्म या बिरादरी में विवाह करना इतना नागवार क्यों गुजर रहा है? इस सोच के पीछे का सच क्या है? क्या आदिवासी समाज शुरू से महिलाओं के प्रति इतना ही क्रूर था? आजकल ऐसी कई घटनाएं हमें अखबारों और सोशल मीडिया के हवाले से आए दिन देखने, सुनने और जानने को मिल रही हैं। क्या यही हमारी प्राचीन संस्कृति व आदिम मान्यताएं हैं?
किसी भी समाज की निर्मिती में स्त्री-पुरुष दोनों का बराबर सहयोग होता है। फिर क्या वजह है कि पुरुषों द्वारा ब्याह कर लाई गई अन्य समाज की स्त्री को विभिन्न रस्मों-रिवाजों के बहाने अपने समाज का अंग बना लिया जाता है? स्त्रियां यदि अपने समुदाय, जाति, वर्ण व धर्म से बाहर जाकर विवाह करें तो उनके खिलाफ ट्रोलिंग, गाली-गलौज, चरित्र हनन व मानसिक व शारीरिक हिंसा की जाती है। ऐसा क्या केवल आज हो रहा है या पूर्व में भी इस तरह की घटनाएं होती रही हैं? क्या यह संस्कृतिकरण का अदृश्य हमला है जो आपको, आपकी मानसिक संरचनाओं को बहुत अंदर तक लगातार बदल रहा है?
इज्ज़त का बोझ केवल स्त्रियां ही ढोएंगी – बाहरी समाज की यह सोच, यह अवगुण अब हमारे आदिवासी समाज में भी दिखने लगा है। मसलन, 20 अगस्त, 2020 को तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में एक आदिवासी महिला ने एक मुसलमान से शादी की। इस शादी का कार्ड शादी से तीन-चार दिन पहले से सोशल मीडिया पर वायरल था। इसके विरोध में अनेक टिप्पणियां देखने को मिलीं। इसे कई आदिवासियों ने “लव जिहाद” भी कहा। ऐसा करते हुए उन्होंने उस स्त्री के जीवन के बारे में जो बातें सबके सामने रखीं, उनसे एक स्त्री की गरिमा के हनन का मामला बनता है। साथ ही मानहानि का भी।
प्यार और सम्मान आदिवासियत की खासियत
सोशल मीडिया पर बताया गया कि दूसरे समाजों के लड़के, आदिवासी लड़कियों को उनकी नौकरी की वजह से पसंद करते हैं। फिर शादी करके उसके नाम की जमीन हथियाते हैं। फिर अपने बच्चों को मां के सरनेम का इस्तेमाल कर आदिवासी आरक्षण का लाभ दिलवाते हैं। यह सब कितना सही है और कितना गलत इसे तथ्यों के सापेक्ष देखे जाने की जरुरत है।
लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है। हो यह रहा है कि सोशल मीडिया, जो कि सार्वजनिक अभिव्यक्ति का माध्यम है, के जरिए एक महिला को पंचायत के सामने पेश किया जा रहा है, उसे नंगा किया जा रहा है। अति तो तब होती है जब उसकी जाति प्रमाणपत्र को रद्द करने की बात की जाती है। बात और बढ़ती है और कहा जाता है कि उसकी थाली में गाय परोसी जाएगी लेकिन सूअर नहीं। यह कितना अन्यायपूर्ण है कि यहां तक कहा जाता है कि लात-जूता खाने के लिए आदिवासी महिलाएं गैर-आदिवासी या दिकू पुरुषों के पास जाती हैं।
अपनी स्त्रियों के प्रति इतनी घृणा और द्वेष आखिर क्यों है और यह आदिवासी समाज को कहां ले जा रहा है, इसे समझने की जरुरत है।
स्त्री की यौनिकता के प्रश्न पर आज आदिवासी समाज को भी कट्टरवादी हिन्दू संगठनों के समकक्ष देखा जा सकता है। तो क्या हम समझें कि वनवासी कल्याण केंद्र, सेवा भारती, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद्, आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), सरस्वती शिशु मंदिर आदि का आदिवासी बहुल क्षेत्रों में काम करने का यह प्रभाव है? या बात कुछ और है? पहले एक-दो लोगों को नफरत का प्रवक्ता बनाया जाता था जैसे एक प्रवीण तोगड़िया थे, जिनका काम दलित-बहुजनों में धर्म के नाम पर नफरत का जहर फैलाना था। लेकिन आज हर जगह उन्मादियों की भीड़ है जो देश में बंधुता और भाईचारे की हत्या को उतावले हैं। आज इसी तरह की घृणा और द्वेष आदिवासी पुरुषों में देखने को मिल रहा है।
यहां समझने की आवश्यकता है कि आदिवासी पुरुषों के मन में यह डर घर कर गया है कि महिलाओं का अनुपात गड़बड़ा रहा है और हमारे लिए महिलाएं कम पड़ जाएंगी। जबकि हमारे समाज के अनेक अगुआ नायकों ने भी समाज से बाहर शादी की और उनके द्वारा लाई गई दिकू स्त्रियों को सम्मान भी मिला। फिर चाहें वो जयपाल सिंह मुंडा हों, पद्मश्री रामदयाल मुंडा, हाल में दिवंगत अभय खाखा हों या फिर लब्ध प्रतिष्ठित आदिवासी स्कॉलर् और अगुआ वर्जिनियस खाखा। उनकी तो आदिवासी पुरूषों ने इस प्रकार की ट्रोलिंग कभी नहीं की (होनी भी नहीं चाहिए थी)।
यह बहुत महत्वपूर्ण कालखंड है। पूरे देश में नफरत फैलाई जा रही है। ऐसे में यह आवश्यक है कि आदिवासी समाज के लोग उन्मादी न बनें। यह समझने की आवश्यकता है कि सीएनटी/एसपीटी एक्ट के रहते आदिवासी जमीन की लूट हुई है और गैर-आदिवासी जनता की भीड़ बढ़ी है. इस पर विचार करें। पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्र झारखंड में जहां कोई गैर-आदिवासी, आदिवासियों की जमीन खरीद ही नहीं सकता, वहां मात्र आदिवासी स्त्रियों के कारण बाहरी आबादी झारखण्ड में बस गई है, यह कहना अविवेकपूर्ण और तथ्यों से परे है। सरकार (ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल) और समाज के कुछ अवांछित लोगों द्वारा इस तरह की भ्रामक बातों का खंडन करने के लिए सर्वेक्षण की मांग पहले से की जाती रही है।
बहरहाल, आदिवासी समाज की खासियत उसकी आदिम संस्कृति है जिसकी बुनियाद में प्यार और समानता है। आज यदि कोई समस्या है भी या अस्तित्व पर कोई सवाल हैं भीं तो उनका सुलझाव विवाद से नहीं बल्कि संवाद से किया जाना जरूरी है।
(संपादन: नवल/गोल्डी/अमरीश)(forwordpress)
एक तरफ़ जहां देश में जेईई-नीट की परीक्षाओं को स्थगित करने को लेकर कई विद्यार्थी और राजनीतिक दल केंद्र सरकार पर दबाव बना रहे हैं. वहीं, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों की मांग है कि जो वैकेंसी निकाली जाए उनकी परीक्षाएं जल्द हों और उनके परिणाम जल्दी आएं.
इसी मांग को लेकर मंगलवार को ट्विटर पर #SpeakUpforSSCRailwayStudents ट्रेंड करने लगा. इस हैशटैग से 30 लाख से भी अधिक ट्वीट किए गए.
दरअसल, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों की ख़ास नाराज़गी सर्विस सिलेक्शन कमिशन (एसएससी) की कंबांइड ग्रैजुएट लेवल (सीजीएल) 2018 की टियर-3 परीक्षा के परिणामों को न घोषित करने को लेकर है.
हालाँकि, मंगलवार को ही एसएससी ने अपनी वेबसाइट पर एक अपडेट में लिखा है कि सीजीएल 2018 यानी ग्रैजुएट लेवल की संयुक्त परीक्षा के नतीजे 4 अक्तूबर को घोषित किए जा सकते हैं.
इसके अलावा विद्यार्थी साल 2019 में आई रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड (आरआरबी) की नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटिग्रीज़ (एनटीपीसी) पदों की परीक्षा न आयोजित कराने को लेकर भी अपना ग़ुस्सा जता रहे हैं.

एसएससी ने भी दिया जवाब
एसएससी ने सीजीएल 2018 को लेकर 4 मई 2018 को विज्ञप्ति जारी की थी, जिसके बाद 4 जून 2019 को टियर-1 की परीक्षा और 29 दिसंबर को टियर-3 की परीक्षा हुई थी.
इसके बाद से इस परीक्षा के परिणाम अब तक जारी नहीं किए गए हैं. एसएससी सीजीएल 2018 के ज़रिए विभिन्न सरकारी विभागों की 11,271 रिक्तियों को भरा जाएगा.
इन परिणामों को लेकर एसएससी ने 21 अगस्त को एक नोटिस भी जारी किया था जिसमें उसने कहा था कि वह परिणाम जल्द ही जारी करने की कोशिशें कर रहा है.
एसएससी ने कहा, “आयोग उम्मीदवारों को सूचित करना चाहता है कि हाल में कोविड-19 महामारी के कारण काफ़ी कठिनाइयां आई हैं, उसके बावजूद परीक्षा के परिणाम में तेज़ी लाने के सभी प्रयास किए जा रहे हैं. आयोग यह सुनिश्चित करने का गंभीर प्रयास कर रहा है कि परीक्षा का परिणाम जल्द से जल्द घोषित किया जाए.”
हालांकि, एसएससी के बयान के बाद भी विद्यार्थी खासे ग़ुस्से में नज़र आ रहे हैं. उनका कहना है कि एसएससी सीएचएसएल और एसएससी एमटीएस के परिणाम भी अटके हुए हैं जबकि एसएससी सीजीएल 2020 का कुछ अता-पता नहीं है.
‘850 दिन बाद भी नहीं आया रिज़ल्ट’
#SpeakUpforSSCRailwayStudents हैशटैग से सिर्फ़ विद्यार्थियों ने ही नहीं बल्कि कई राजनेताओं ने भी ट्वीट किए हैं.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया, “मोदी सरकार भारत के भविष्य को ख़तरे में डाल रही है. उनका अहंकार जेईई-नीट परीक्षा के छात्रों की वास्तविक चिंताओं और एसएससी एवं दूसरे रेलवे की परीक्षा देने वाले छात्रों की मांगों को नज़रअंदाज़ कर रहा है. खाली नारे नहीं बल्कि नौकरी दीजिए.”
कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने ट्वीट करके सवाल किया कि सरकार कब तक युवाओं के धैर्य की परीक्षा लेगी, युवाओं को भाषण नहीं नौकरी चाहिए.
प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे एक छात्र ऋषभ शर्मा ने कहा कि नोटिफ़िकेशन को निकले 850 दिन हो चुके हैं और अब तक एसएससी के परिणाम नहीं आए हैं.
वहीं, एक यूज़र शुभम जैन ने वीडियो ट्वीट किया कि एसएससी सीजीएल 2017 की परीक्षा के परिणाम के बाद भी उनको जॉइनिंग नहीं मिली.
प्रांजुल पटेल नामक एक ट्विटर अकाउंट ने ट्वीट किया कि अगर चुनावी प्रक्रिया समय पर पूरी हो सकती है तो सरकारी परीक्षाएं समय पर क्यों नहीं पूरी हो सकती.
इसके अलावा कई लोगों ने अपने ट्विटर अकाउंट के नाम के आगे बेरोज़गार भी जोड़ लिया है. एक ऐसे ही ट्विटर अकाउंट से ट्वीट किया गया कि लगातार हर साल पदों की संख्या कम हो रही है लेकिन उन पर भी समय से भर्ती नहीं हो पा रही है.
इसके अलावा इस हैशटैग से काफ़ी मीम्स भी वायरल हो रहे हैं जिसमें छात्र मीडिया को इस मुद्दे को न उठाने और छात्रों से संबंधित मुद्दों के गुम हो जाने जैसी बातों पर मज़ाकिया ट्वीट कर रहे हैं. कई ट्विटर हैंडल का कहना है कि इस हैशटैग से 50 लाख से अधिक ट्वीट होंगे.(bbc)
किरनहार, 01 सितम्बर। पश्चिम बंगाल में वीरभूम जिले के किरनहार से करीब 200 किलोमीटर दूर मिराती गांव में प्रत्येक वर्ष की तरह पारंपरिक दुर्गापूजा तो होगी लेकिन इस बार यह गांव अपने माटीपुत्र और बचपन के मित्रों के बीच ‘पोलटू’ के नाम से लोकप्रिय रहे प्रणव मुखर्जी की कमी महसूस करेगा और यहां के लोग उनकी वाणी में ‘चंडीपाठ’ नहीं सुन पायेंगे।
पूर्व राष्ट्रपति का जन्म इसी मिराती गांव में हुआ था और यह गांव उनके निधन के बाद शोक में डूबा हुआ है। श्री मुखर्जी अपने बचपन के मित्रों के बीच ‘पोलटू’ के नाम से जाने जाते थे। वह यहां अपने पैतृक गृह में दुर्गा पूजा करते थे और स्वयं चंडी पाठ करते थे। श्री मुखर्जी के घर पर हर साल होने वाली दुर्गा पूर्जा गांव का सबसे बड़ा वार्षिक कार्यक्रम होता रहा है।
गांव के एक निवासी ने बताया कि दुर्गा पूजा के दौरान पूरे पांच दिनों तक उनके घर पर दोपहर और रात का भोजन होता था।
एक अन्य व्यक्ति का कहना था कि ‘पोलटू’ को लेकर सिर्फ इसी बात को लेकर गर्व नहीं रहा कि वह देश के पहले नागरिक बने बल्कि तमाम व्यस्तताओं और उच्च सुरक्षा प्रबंधों के बावजूद वह अपनी विनम्रता नहीं भूले और अपने बचपन के दिनों के मित्रों के साथ यहां आकर मिलते रहे।
पूर्व राष्ट्रपति जब बीमार पड़े थे और सारे गांव ने उनके स्वस्थ होने के प्रार्थना की थी और उन्हें उम्मीद थी कि ‘पोलटू ’अगले महीने दुर्गा पूजा में फिर यहां आयेंगे।(UNIVARTA)
रंग-साधना को बेहद पवित्र और ऊंचा दर्जा देने वाले बी.वी. कारंत के लिए अपनी कला के सामने बड़ी से बड़ी हस्ती भी मामूली थी
यह कहानी 1985 की है. तब रामकृष्ण हेगड़े कर्नाटक के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. और उनके अच्छे मित्र तथा देश के जाने-माने रंगकर्मी बी.वी. कारंत भोपाल (मध्य प्रदेश) स्थित भारत भवन के रंगमंडल के निदेशक. उन दिनों कारंत की अगुवाई में भारत भवन के कलाकारों का एक दल बेंगलुरु के दौरे पर गया था. नाटक खेलने के लिए. हेगड़े भी उनका नाटक देखने के लिए पहुंचे. लेकिन अपने मंत्रिमंडल की बैठक के कारण सभागार पहुंचने में उन्हें 10 मिनट की देर हो गई. हेगड़े को कारंत का स्वभाव पता था. इसलिए बिना किसी तामझाम के ही वे चलते नाटक के बीच चुपचाप जाकर दर्शकों में सबसे पीछे बैठ गए. कुछ देर बाद जब इंटरवल हुआ और सभागार की बत्तियां जलीं, तो कारंत की नजर हेगड़े पर पड़ गई. वे वहीं मंच से माइक हाथ में लेकर दर्शकों से बोले, ‘वो देखिए. आपके पीछे आपका मुख्यमंत्री बैठा है. लेट आता है, नाटक देखने.’ हेगड़े के लिए इतना काफी था, जैसे. इसके बाद अगले दिन नाटक शुरू होने का वक्त था, शाम सात बजे. लेकिन इसके एक घंटा पहले से ही सभागार में एक व्यक्ति अकेला दर्शकों की सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठा नजर आ रहा था और वह रामकृष्ण हेगड़े थे.
कारंत के साथ बतौर अभिनेता करीब सात साल तक काम कर चुके मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय (एमपीएसडी) के वरिष्ठ रंगकर्मी आलोक चटर्जी ऐसी ही कुछ और कहानियां भी बताते हैं. साथ ही याद करते हैं, ‘बाबा (कारंत को उनके सहयोगी इसी नाम से बुलाते थे) कहा करते थे- हम कला का प्रदर्शन करते हैं. कोई कोठा नहीं चलाते, जहां कोई कभी भी घुस आए.’
आलोक के मुताबिक, ‘एक मामला 1981-82 का है, अर्जुन सिंह से जुड़ा, जिन्हें भारत भवन बनवाने का श्रेय जाता है. एक बार अशोक वाजपेयी (भारत भवन के पहले न्यासी सचिव) उन्हें रंगमंडल में लेकर आए. अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे, इसलिए उनके सुरक्षाकर्मी भी उनके साथ थे. यह देख बाबा ने उनसे अपनी दक्षिण भारतीय टोन में साफ कह दिया, ‘ठाकुरपंती दिखाते आप. ठाकुर हैं. ये बॉडीगार्ड ले के आते तो मेरा दर्शक डरता. कल से टिकट ले के आइए और बॉडीगार्ड ले के मत आइए.’ आलोक के मुताबिक, ‘एक और वाकया 1996-97 का है. एक शाम रंगमंडल में मेरी अगुवाई में ‘द फादर’ नाटक खेला जा रहा था. बाबा उसे देखने आए थे. सात बजे का टाइम होता था. मध्य प्रदेश के राज्यपाल मोहम्मद शफी कुरैशी उस रोज सात बजकर पांच मिनट पर भारत भवन पहुंचे. बाबा ने उन्हें दरवाजे के बाहर ही रुकवा दिया. उनका सम्मान इतना था कि राज्यपाल भी उल्टे पैर वापस लौट गए और अगले दिन टिकट लेकर तय वक्त पर आए.’
प्रेमिकाओं के पत्र पत्नी की ड्रेसिंग टेबल रख आते थे
कारंत बड़े साफ दिल इंसान थे. कितने? इसकी एक मिसाल कारंत की जीवनी, ‘हेयर आई कान्ट स्टे, देयर आई कान्ट गो’ (यहां मैं रह नहीं सकता, वहां जा नहीं सकता) में मिलती है. इसमें कारंत की पत्नी प्रेमा बताती हैं, ‘कारंत के कई प्रेम संबंध रहे. हर संबंध के बारे में इन्होंने मुझे खुद बताया. ये इतने भोले हैं कि अपनी प्रेमिकाओं के लिखे प्रेम पत्रों को मेरी ड्रेसिंग टेबल पर खुद छोड़कर चले जाते हैं. जैसे छुपाने के लिए इनके पास कुछ हो ही न.’
भरोसा सब पर, ख्याल सबका
आलोक बताते हैं, ‘बाबा सबका ख्याल रखते थे. जब वे एनएसडी (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) के डायरेक्टर थे, तो उन्होंने साक्षात्कार दिया. तब देश की आबादी करीब 100 करोड़ थी. उस साक्षात्कार में उन्होंने कहा था - देश की 100 करोड़ की आबादी में 20 सीटों वाला एनएसडी ऐसा लगता है, जैसे सरकार ने कुत्ते के सामने हड्डी का टुकड़ा फेंका हो. फिर वे लड़कों से बोले कि हड़ताल करो. सीट बढ़ाना है, सुविधाएं बेहतर करनी है, ऐसी मांग करो. संसद में जाकर प्रदर्शन करो. क्यों? क्योंकि वे हर किसी के भले का सोचते थे.’ अपनी बात आगे बढ़ाते हुए आलोक कहते हैं, ‘ऐसे ही एक आदमी था, उसके बारे में बाबा को यकीन था कि ये उनके ग्रुप में गलत आ गया है. इसका यह फील्ड नहीं है, लेकिन आदमी अच्छा है, ईमानदार है. इसलिए वापस भेज नहीं सकते. लिहाजा, उन्होंने उससे कह दिया कि आने-जाने वालों की उपस्थिति का रजिस्टर देखा करो. क्योंकि इससे बेहतर तुम कर नहीं पाओगे.’
एनएसडी के मौजूदा डायरेक्टर वामन केन्द्रे के मुताबिक, ‘बाबा सहज भाव से सब पर भरोसा कर लेते थे. ऐसे ही एक बार जब वे एनएसडी के डायरेक्टर थे, तो अकाउंट विभाग के एक कर्मचारी से बोले- जाओ, वो लाल किताब (हिसाब-किताब वाली) ले आओ. जब वह उस किताब को लेकर उनके पास पहुंचा तो उन्होंने उसके कोरे पन्नों पर दस्तखत करके उसे वापस थमा दी. कहने लगे - हिसाब-किताब पर दस्तखत कराने के लिए अब रोज-रोज इसे लाने की जरूरत नहीं.’

आखिर तक रही टीस - ‘फिर बेकसूर मेरे हाथ बांधे’
कारंत के जीवन पर वह शायद अकेला बदनुमा दाग था, जब मध्य प्रदेश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया था. उन पर अपनी अभिनेत्री विभा मिश्रा के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा था. विभा ने आग लगाकर खुदकुशी की कोशिश की थी. और उसे बचाने की कोशिश में कारंत इस मामले में उलझ गए. कारंत के दोस्त और जाने-माने फिल्म अभिनेता अमोल पालेकर कहते हैं, ‘हम सबको यकीन था कि कारंत ऐसा नहीं कर सकते. और बाद में जब मामले की जांच आगे बढ़ी तो हमारा यह यकीन सोलह आने सच साबित हुआ. विभा ने खुद उनके निर्दोष होने का बयान दिया और कारंत बरी कर दिए गए.’ लेकिन आलोक इससे आगे का वाकया बताते हैं, ‘कानूनन तो जरूर बाबा बरी हो गए, मगर उस हादसे की याद से बरी नहीं हो पाए. आखिरी वक्त में अक्सर उनकी यह टीस उभर आया करती थी. कोमा में जाने से कुछ दिन पहले अस्पताल के पलंग से उठ-उठकर वे बच्चों सी जिद करते थे- मुझे जाने दो, थिएटर करना है. तब डॉक्टर और नर्स उन्हें संभालने के लिए उनके हाथ बांध देते, तो कहने लगते- फिर बेकसूर मेरे हाथ बांधे, फिर बेकसूर मेरे हाथ बांधे.’
कारंत के नजदीकी लोग, वे चाहे अमोल पालेकर हों, आलोक चटर्जी या वामन केन्द्रे. सब मानते हैं कि बी.वी. कारंत सिर्फ थिएटर से बंधे थे और उसी से उनकी आजादी थी. इसलिए रंगमंच के लिए जो, जहां, जिस स्तर पर, जितना योगदान कर सके, करना चाहिए. यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.(SATYAGRAH)
-राकेश दीवान
आज से ठीक 28 साल पहले, एक जुलाई 1992 को भिलाई रेलवे स्टेशन के पास ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ के विशाल धरने पर पुलिस ने गोली चालन किया था और उसमें 17 मजदूर साथी शहीद हुए थे। लगभग सालभर पहले, 28 सितम्बर 1991 को संगठन के वरिष्ठ साथी और ख्यात मजदूर नेता कॉमरेड शंकरगुहा नियोगी की हत्या हुई थी और ग्यारह महीने बाद संगठन को इस संकट का सामना करना पड रहा था। गोलीकांड के तुरत बाद भिलाई और उसके आसपास कर्फ्यू लगा दिया गया था और संगठन के सभी नेताओं, मित्रों, समर्थकों को गिरफ्तार करने की तैयारी हो रही थी। किसी तरह छिपते-छिपाते बाहर आए ‘छमुमो’ के अघ्यक्ष कॉमरेड जनकलाल ठाकुर ने मुझे फोन पर सारी जानकारी देकर कहा कि मैं तुरंत रायपुर पहुंचूं। तब तक देशभर में इस घटना का प्रतिकार शुरु हो गया था और दिल्ली के कुछ साथियों ने पत्रकार-स्तंभकार प्रफुल्ल बिदवई, साहित्यकार व ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव और वरिष्ठ वकील राजीव धवन की एक जांच समिति का गठन करके भिलाई रवाना किया था।

रायपुर पहुंचने के तुरंत बाद मुझे जो काम करना पड़ा वह इस जांच दल के सचिव/सहायक का था। असल में दिल्ली में लोक-चित्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता अविनाश देशपांडे को, जो ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ और उस इलाके को ठीक जानते थे, जांच समूह के सचिव की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, लेकिन वे किसी गफलत में नहीं आ सके थे। करीब तीन दिन की जांच के दौरान बिदवई और यादव ने तो लोगों से विस्तार से जानकारियां इकट्ठी की थीं, लेकिन राजीव धवन (हाल के मानहानि प्रकरण में प्रशांत भूषण के वकील) बेहद बारीकी से घटना-स्थल से लगाकर धरना-स्थल तक की एक-एक जानकारी की विस्तृत पड़ताल करते रहे। धवन को बड़ी सहजता और तनाव-मुक्ति के साथ काम करते देखना एक अनुभव तो था, लेकिन असल संकट तो तब आया जब इस समिति की रिपोर्ट लिखना पड़ी।
दिल्ली लौटते ही राजेन्द्र यादव अपनी पत्रिका और प्रफुल्ल बिदवई अपने पूर्व-निर्धारित कामकाज में फंस गए और अंत में ‘रिपोर्ट-राइटिंग’ की जिम्मेदारी राजीव धवन के माथे पड़ी। उन दिनों लगभग रोज महारानी बाग स्थित उनके घर में घंटों यादव और बिदवई के नोट्स खंगालकर उनमें अपनी जांच को जोडक़र रिपोर्ट लिखने की मशक्कत करते हुए धवन को देखना भी एक अनुभव था। एक साथी झरना झवेरी के साथ मेरी भूमिका संगठन और उसके कार्यक्षेत्र की जानकारियां उपलब्ध करवाने की रहती थी और इसलिए लगातार उनके साथ जमकर बैठना होता था। धवन को देखकर समझ आया कि एक ठीक संपादक की तरह एक ठीक-ठाक वकील को हरेक नहीं, तो अधिकांश क्षेत्रों का जानकार होना ही पड़ता है। धवन जिस तरह से ठेठ पुलिसवाले की तरह रिपोर्ट के कठोर तथ्य लिखवाते थे, उसी तरह उसमें बेहतरीन साहित्य का पुट भी डालते थे ताकि पढऩे वाला रुचि के साथ उसे पढ़े और निष्कर्ष निकाले।

राजीव धवन ने प्रशांत के मामले में सुप्रीमकोर्ट के सामने फिर अपनी विद्वता और व्यापक समझ का प्रदर्शन किया है। एक जुलाई के ‘शहीद दिवस’ पर कुछ कमाल के सक्षम साथियों को याद करना इसीलिए जरूरी है। और हां, भिलाई की तमाम मेहनत-मशक्कत में पूंजी, अपनी अहमियत साबित करने के लिए सिर्फ टापती भर रही। यह बात हम सभी को आश्वस्त करती है कि देश में अब भी राजीव धवन सरीखे कुछ लोग मौजूद हैं।
संजय श्रमण
मैं ऐसे सैकड़ों लोगों को जानता हूँ जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं, जिनका समाज में बड़ा नेटवर्क यही और जो इस देश की व्यवस्था बदलने के लिए निर्णायक काम करना चाहते हैं।
लेकिन इन लोगों से बात करने पर पता चलता है कि ये लोग जानते ही नहीं कि असल बदलाव होता कैसे है। इनमें से अधिकांश लोग सच में ईमानदार हैं और उनके दिलों मे देश और अपने बच्चों के भविष्य की गहरी चिंताएं हैं।
ऐसे सभी लोगों से एक निवेदन मैं बार-बार करता रहा हूँ। आप इस देश के लोगों को नए तार्किक और वैज्ञानिक धर्म की तरफ ले जाइए। स्वयं बुद्ध का अनुशासन अपना लीजिए और ज्यादा से ज्यादा बहुजनों को बुद्ध के मार्ग पर ले आइए। इससे बड़ी और कोई क्रांति नहीं है।
भारत ही नहीं दुनिया में सभी बड़े बदलाव मूल रूप से धार्मिक बदलाव होते हैं। राजनीतिक या आर्थिक बदलाव सिर्फ कुकुरमुत्तों की तरह बारिश में उगकर खत्म हो जाते हैं। इसका उदाहरण आप भारत में देख सकते हैं।
औपचारिक रूप से कागज या सर्टिफिकेट की कोई जरूरत नहीं है, बल्कि उस तरह का धर्म परिवर्तन खतरनाक और नुकसान पहुंचाने वाला होता है।
आप दिल से और आचरण से बौद्ध बन जाइए। फिर देखिए कितनी तेजी से इस देश में बदलाव होता है। आप बहुत थोड़ी सी मेहनत से अपने मुहल्ले से शुरुआत करते हुए अपने गाँव या शहर में हजारों लोगों को एक साल के अंदर बुद्ध के मार्ग पर ला सकते हैं। आज के समाज में जिस तरह की असुरक्षा और घृणा का वातावरण बन रहा है उसको देखकर भारत के सभी बहुजन अपने जीवन में बड़ा बदलाव करने के लिए तड़प रहे हैं। इस तड़प को पहिचानिए और इसे एक निर्णय में बदल दीजिए।
अगर आप सच में कुछ बदलना चाहते हैं तो भारत के मनोविज्ञान को समझिए। राजनीति असल में एक लाठी है और धर्म एक तोप है। आप जब राजनीतिक आंदोलन की बात करते हैं तब आप असल में तोप को छोडक़र लाठी से लडऩे की बात कर रहे हैं।
बहुजनों को अब धर्म की तोप का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए, अगर आप अपने प्राचीन शत्रुओं को धर्म की तोप का खुला इस्तेमाल करते हुए देखते हैं और खुद राजनीति की लाठी का इस्तेमाल करते हैं तो यकीन मानिए आप हारने की तैयारी कर रहे हैं।
अब सही समय आ चुका है। लाठी को कूढ़े में फेंकिए और तोप चलाना सीखिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जब मैं अपने पीएच.डी. शोधकार्य के लिए कोलंबिया युनिवर्सिटी गया तो पहली बार न्यूयार्क में मैंने टीवी देखा। मैंने मेरे पास बैठी अमेरिकी महिला से पूछा कि यह क्या है ? तो वे बोलीं, यह ‘इडियट बॉक्स’ है याने ‘मूरख बक्सा’! अर्थात यह मूर्खों का, मूर्खों के लिए, मूर्खों के द्वारा चलाए जानेवाला बक्सा है। उनकी यह टिप्पणी सुनकर मैं हतप्रभ रह गया लेकिन मैं कुछ बोला नहीं। आज भी मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। लेकिन भारतीय टीवी चैनलों का आजकल जो हाल है, उसे देखकर मुझे मदाम क्लेयर की वह सख्त टिप्पणी याद आ रही है। फिल्म कलाकार सुशांत राजपूत की हत्या हुई या आत्महत्या हुई, इस मुद्दे को लेकर हमारे टीवी चैनल लगभग पगला गए हैं। उन्होंने इस दुर्घटना को ऐसा रुप दे दिया है कि जैसे महात्मा गांधी की हत्या से भी यह अधिक गंभीर घटना है। पहले तो सिने-जगत के नामी-गिरामी कलाकारों और फिल्म-निर्माताओं को बदनाम करने की कोशिश की गई और अब सुशांत की महिला-मित्रों को तंग किया जा रहा है। सारी दुनिया को, चाहे वह गलत ही हो, यह पता चल रहा है कि सिने-जगत में कितनी नशाखोरी, कितना व्यभिचार, कितना दुराचार और कितनी लूट-पाट होती है। ऐसे लोगों पर दिन-रात ढोल पीट-पीटकर ये चैनल अपने आप को मूरख-बक्सा नहीं, महामूरख-बक्सा सिद्ध कर रहे हैं। वे अपनी इज्जत गिरा रहे हैं। वे मजाक का विषय बन गए हैं। एक-दूसरे के विरुद्ध उन्होंने महाभारत का युद्ध छेड़ रखा है। उनकी इस सुशांत-लीला के कारण देश के राजनीतिक दल भी अशांत हो रहे हैं। वे अपने स्वार्थ के लिए सिने-जगत की प्रतिष्ठा को धूमिल कर रहे हैं। उनका स्वार्थ क्या है ? उन्हें सुशांत राजपूत से कुछ लेना-देना नहीं है। उनका स्वार्थ है— अपनी दर्शक-संख्या (टीआरपी) बढ़ाना लेकिन अब दर्शक भी ऊबने लगे हैं। इन चैनलों को कोरोना से त्रस्त करोड़ों भूखे और बेरोजगार लोगों, पाताल को सिधारती अर्थ-व्यवस्था, कश्मीर और नगालैंड की समस्या और भारत-चीन तनाव की कोई परवाह दिखाई नहीं पड़ती। यों भी पिछले कुछ वर्षों से लगभग सभी चैनल या तो अखाड़े बन गए हैं या नौटंकी के मंच ! पार्टी-प्रवक्ताओं और सेवा-निवृत्त फौजियों को अपने इन दंगलों में झोंक दिया जाता है। किसी भी मुद्दे पर हमारे चैनलों पर कोई गंभीर बहस या प्रामाणिक बौद्धिक विचार-विमर्श शायद ही कभी दिखाई पड़ता है। इन चैनलों के मालिकों को सावधान होने की जरुरत है, क्योंकि वे लोकतंत्र के सबसे मजबूत चौथे खम्भे हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
कांग्रेस का संकट आखिर है क्या? क्या पिछले दो लोकसभा चुनावों और लगभग इसी कालखंड में हुए अनेक विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की हार के लिए पार्टी के एक बड़े वर्ग द्वारा उत्तरदायी समझे जाने वाले सेकुलरिज्म और उदारवाद जैसे सिद्धांतों से छुटकारा पाने की तरकीब तलाशना ही कांग्रेस का संकट है? क्या खुले ख्यालों वाले लापरवाह और बेपरवाह आधुनिक नौजवान राहुल गाँधी का मेक ओवर किस तरह एक जनेऊ धारी ब्राह्मण के रूप में किया जाए, यह कांग्रेस का संकट है?
गाँधी परिवार को ट्रोल आर्मी और सत्ताधारी दल के नेताओं के अंतहीन आक्रमण, अमर्यादित टिप्पणियों तथा आलोचना व अपमान को झेलने के लिए सामने कर देना एवं स्वयं बहुत शांति से सत्ता में रहते हुए या सत्ता के बाहर रह कर भी इतर दलीय सत्ताधारी नेताओं से निजी मित्रता का लाभ उठाते हुए चांदी काटना, कांग्रेस के छिपे हुए असली कर्णधारों का वह फार्मूला रहा है जो अब तक कामयाब रहा है। क्या कांग्रेस का संकट इस फॉर्मूले को सुपरहिट बनाए रखने का संकट है? या फिर गांधी परिवार का संकट ही कांग्रेस का संकट है- सोनिया गाँधी वृद्ध एवं अस्वस्थ हैं, राहुल गांधी यदि अयोग्य नहीं हैं तो बड़ी जिम्मेदारी लेने के लिए अनिच्छुक तो हैं ही, प्रियंका को बैटिंग के लिए देरी से उतारा गया है और बिना निगाहें जमाए बड़े शॉट खेलने की उनकी कोशिश नाकामयाब ही रही है। ऐसे में नेतृत्व के लिए टकटकी बांध कर गाँधी परिवार की ओर देख रहे कांग्रेसी नेताओं को देने के लिए गाँधी परिवार के पास ज्यादा कुछ है नहीं। क्या कांग्रेस में काम करने वाली किचन कैबिनेट या सलाहकार मंडली या मित्र समूह और गाँधी परिवार के बीच स्वार्थों की लड़ाई ही कांग्रेस का असली संकट है?
गाँधी परिवार की लोकप्रियता का फायदा उठाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना गाँधी परिवार से नजदीकी रखने वाले इन नेताओं की आदत रही है। शायद सोनिया ने इन नेताओं की स्वार्थपरता को समझा और सत्ता इन्हीं नेताओं के हाथों में सौंप कर सत्ता की चाबी अप्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों में रखने की कोशिश की। अब जब गाँधी परिवार का करिश्मा सत्ता दिलाने में नाकामयाब हो रहा है बल्कि बहुत सारे लोग इसे सत्ता गंवाने और दुबारा हासिल न कर पाने का मुख्य कारण मान रहे हैं तब सत्ता सुख के अभ्यस्त कांग्रेसी नेताओं को यह परिवार खटक रहा है। वहीं पार्टी पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण रखने के अभ्यस्त गाँधी परिवार के लिए अब अपना वर्चस्व बनाए रखने हेतु मोदी और भाजपा के साथ सीधी लड़ाई लडऩा आवश्यक बन गया है। गाँधी परिवार अपनी वर्तमान स्थिति में इस तरह के प्रत्यक्ष और जमीनी संघर्ष के लिए तैयार नहीं दिखता। सोनिया का स्वास्थ्य, राहुल की अनिच्छा और प्रियंका की अनुभवहीनता गाँधी परिवार को बैकफुट पर धकेल रहे हैं।
कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठाने वाले नेताओं के विषय में यह तय करना कठिन है कि वे पार्टी को एक परिवार के वर्चस्व से मुक्ति दिलाना चाहते हैं या धर्म निरपेक्षता और समावेशन पर आधारित कांग्रेसवाद ही इन नेताओं के निशाने पर है। क्या गाँधी परिवार धर्मनिरपेक्षता और उदारता जैसे कांग्रेसवाद के बुनियादी आधारों को बरकरार रखने की अपनी पक्षधरता के कारण विरोध झेल रहा है क्योंकि उसकी यह प्रतिबद्धता सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर कांग्रेस के संक्रमण में बाधक बन रही है? यदि कांग्रेस के चरित्र में परिवर्तन लाने की कोई ऐसी कोशिश कामयाब होती है तो क्या यह भारतीय लोकतंत्र के हित में होगी? क्या देश के भाग्य में दो ऐसी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां लिखी हैं जिसमें से एक ऐलानिया तौर पर उग्र हिंदुत्व, बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व और असमावेशी राष्ट्रवाद की हिमायत करती है और दूसरी धर्मनिरपेक्षता के पर्दे की ओट में यही सब करती है। यदि भाजपा इस देश की जनता को यह समझाने में कामयाब रही है कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ वोटों की राजनीति है, दोगलापन है, पाखंड है तो इसके पीछे हालिया सालों में कांग्रेस का आचरण सबसे बड़ा कारण रहा है। खाते पीते मध्यम वर्ग से आने वाला मतदाता(जो आज भाजपा के मूल चरित्र का प्रतिनिधि माना जाता है) तो कांग्रेस से बाद में विमुख हुआ। इससे वर्षों पहले ही कांग्रेस का गढ़ रही हिंदी पट्टी के दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस को त्याग कर क्षेत्रीय दलों का दामन थाम लिया था। और इनमें से कुछ राज्यों में तो भाजपा ने क्षेत्रीय दलों को परास्त कर सत्ता हासिल की है।
आखिर यह स्थिति कैसे बनी? कहीं कांग्रेस का संकट श्रीमती इंदिरा गाँधी के जमाने से चली आ रही उस रणनीति में तो नहीं छिपा है जिसमें स्वतंत्र सोच और जनाधार वाले कद्दावर क्षेत्रीय नेताओं के पर कतरे जाते थे और उनके स्थान पर डमी, व्यक्तित्वहीन और श्रीमती इंदिरा गाँधी के प्रति समर्पित नेताओं को बढ़ावा दिया जाता था? क्या कांग्रेस में अब भी यह नहीं माना जाता कि योग्यता, क्षमता और जनाधार को गाँधी परिवार के चरणों में अर्पित कर ही कोई नेता मनोवांछित फल प्राप्त कर सकता है? जब तक गाँधी परिवार के पास वह ऊर्जा शेष थी जो एक औसत नेता को भी अलौकिक प्रकाश से आलोकित कर सकती थी तब तक सम्पूर्ण शरणागति किसी को खटकती नहीं थी किंतु आज तो क्षत्रपों के पराक्रम पर कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व आश्रित दिखता है तब क्या पहले जैसे समर्पण की आशा उचित है?
क्या कांग्रेस का संकट नई सोच वाले युवाओं और पुरातनपंथी नेताओं की टकराहट में छिपा है? क्या ये युवा इतने प्रतिभाशाली और जुझारू हैं कि पुरानी पीढ़ी को अपदस्थ कर कांग्रेस को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकते हैं? क्या यौवन को ऊर्जा और बदलाव का पर्याय मान कर अमूर्त चिंतन करने के स्थान पर उन युवाओं का वस्तुनिष्ठ आकलन करना उचित नहीं होगा जो हाल के वर्षों में कांग्रेस का भविष्य समझे जाते रहे हैं? क्या अनिच्छा और अनिश्चय के बीच वर्षों से झूलते राहुल गाँधी कांग्रेस का उद्धार कर सकते हैं? क्या आदि से अंत तक फिल्म के हर फ्रेम में छाए रहने की प्रतिभा और योग्यता राहुल में नहीं है इसीलिए उनका कैमियो प्रेजेन्स ही कराया जाता है ताकि उनकी कमजोरियां उजागर न हों? क्या राहुल उस पार्ट टाइमर गेंदबाज की भांति नहीं लगते जो जमी हुई साझेदारी तो तोड़ सकता है लेकिन लंबे स्पेल कर मैच पलटना जिसके बस की बात नहीं है? या फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट ब्रांड युवा नेता कांग्रेस के भविष्य हैं जो अपनी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विचारधारा से समझौता करने की सफल-असफल चेष्टा करते नजर आते हैं? या वह प्रियंका गाँधी कांग्रेस को नई दिशा दे सकती हैं जिनके बारे में यह ही तय नहीं है कि कांग्रेस की भावी राजनीति की फि़ल्म में वे लीड एक्ट्रेस हैं या सपोर्टिंग रोल में हैं? यह अनिश्चितता इस लिए और घातक बन जाती है क्योंकि प्रियंका की एंट्री ही फि़ल्म में लेट हुई है।
क्या राहुल की मित्र मंडली में स्थान पाने वाले वे जनाधार विहीन युवा नेता कांग्रेस का भविष्य तय कर सकते हैं जो स्वयं किसी कांग्रेसी क्षत्रप की संतानें हैं और जिनके क्रांतिकारी तेवरों को केवल उनके विवादित अधकचरे ट्वीट्स में ही देखा जा सकता है? यदि सांगठनिक तौर पर देखा जाए तो क्या एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस जैसे संगठन कांग्रेस को नई दिशा दे सकते हैं जो बेरोजगारी की इस भयावह स्थिति में भी कोई जन आंदोलन खड़ा करने में नाकामयाब रहे हैं? क्या उन युवा नेताओं से कोई अपेक्षा की जा सकती है जो कोविड संक्रमण के चिंताजनक आंकड़ों के बीच परीक्षाओं के आयोजन के लिए आमादा सरकार को संगठित प्रतिरोध की एक झलक तक नहीं दिखा सके? यदि कांग्रेस की युवा पीढ़ी कांग्रेस की वर्तमान दुर्दशा के लिए उत्तरदायी पुरानी पीढ़ी को अपदस्थ नहीं कर पा रही है तो इसमें उसकी अपनी कमजोरियों का योगदान ही अधिक है।
क्या कांग्रेस का संकट यह भी है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार का विरोध करने के लिए वह खुद को नैतिक रूप से सक्षम नहीं पाती है? मौजूदा सरकार की अर्थनीति किसी न किसी रूप में नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह के उदारीकरण का आक्रामक विस्तार है। यदि मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उदारीकरण के मानवीय और जनहितैषी चेहरे को आगे रखने की कोशिश की थी तो वर्तमान सरकार चुनावी सफलता दिलाने वाली अपनी तमाम डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम्स के बावजूद बड़ी तेजी और निर्ममता से निजीकरण को बढ़ावा दे रही है।
वर्तमान सरकार जब असंगठित क्षेत्र को फॉर्मल इकॉनॉमी का हिस्सा बनाने की बात करती है तब उसकी कोशिशें आम आदमी को मार्केट इकॉनॉमी की असुरक्षा और आपाधापी में धकेलने की अधिक होती है। यह सरकार आम आदमी को नियम-कानूनों के जाल में उलझा कर उनके आर्थिक जीवन को नियंत्रित करती दिखती है जबकि बड़े कॉरपोरेट्स के लिए वह अतिशय उदार रुख अपनाती नजर आती है। इस सरकार ने कोविड-19 की आपदा का उपयोग निजीकरण के अवसर के रूप में किया है। अर्थव्यवस्था में राष्ट्रवाद का तडक़ा मारने की रणनीति सरकार के अजीबोगरीब फैसलों की ढाल बन रही है। लोग बेरोजगार हो रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं, देश के आर्थिक जीवन में ऐसी अफरातफरी है जैसी पहले कभी नहीं देखी गई। इसके बाद भी कांग्रेस का प्रतिरोध राहुल के थिएट्रिकल इफ़ेक्ट वाले वीडिओज़ और सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ नेताओं के ट्वीट्स तक सीमित है। तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया एवं सोशल मीडिया ने तो मोदी को महानायक के रूप में प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया हुआ है और यहाँ पर कांग्रेस के लिए कुछ खास करने को है नहीं। राहुल का काम आकर्षक वीडियो शूट के जरिए मोदी को टक्कर देने से नहीं चलने वाला। उन्हें अब महात्मा गाँधी की राह पर चलना होगा। सविनय अवज्ञा और असहयोग जैसे अस्त्रों का प्रयोग करना होगा। लाठी भी खानी पड़ेगी और जेल यात्रा भी करनी होगी।
कांग्रेस यदि यह मान रही है कि देश के आर्थिक जीवन को गौण बना दिया गया है और अब जनता मंदिर-मस्जिद जैसे धार्मिक, साम्प्रदायिक और भावनात्मक मुद्दों के आधार पर वोट करने लगी है तो यह उसकी गलतफहमी है। सन 2014 में पहली बार मोदी ने रोजगार, महंगाई और विकास जैसे मुद्दों के आधार पर ही जनता का विश्वास जीता था और बहुत सारे विश्लेषक यह मान रहे थे कि वाजपेयी की परंपरा से बाहर निकलना मोदी को अस्वीकार्य बना देगा। बहुत सारे लोग बहुत समय तक यह भी विश्वास करते रहे थे कि भाजपा फासीवाद से प्रभावित अपने पैतृक संगठन की छाया से बाहर निकल आई है और लोकतंत्र के सांचे में ढलकर वैचारिक रूप से एक राइट टू सेंटर पार्टी बन गई है जो किसी हद तक समावेशी भी है।
अपने पहले कार्यकाल की आर्थिक असफलताओं को छिपाने के लिए 2019 के चुनावों में सांप्रदायिकता और हिंदुत्व के एजेंडे पर लौटना मोदी की मजबूरी थी और कांग्रेस ने इस एजेंडे को जाने अनजाने जरूरत से ज्यादा महत्व देकर मोदी की विजय में अपना योगदान दिया। 2014 का चुनाव मोदी ने कांग्रेस को परास्त कर जीता था जबकि 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें लगभग वॉकओवर दे दिया था। 2014 के चुनावों में मोदी ने खुद को बेहतर विकल्प सिद्ध कर जीत दर्ज की थी लेकिन 2019 के चुनावों में विपक्ष में बेहतर विकल्प के अभाव के कारण उन्हें पूर्ण बहुमत मिला। 2019 में सत्ता में पुन: आने के बाद मोदी अपने पैतृक संगठन की विचारधारा के असली पैरोकार के रूप में उभरे हैं और असमावेशी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देकर बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व की स्थापना के लिए निर्णायक कदम उठा रहे हैं। किंतु मोदी के इस एजेंडे को जनता का एजेंडा मान लेना कांग्रेस की बड़ी भूल होगी। मोदी और मोदी समर्थक मीडिया अपने माया महल का विस्तार करने में अभूतपूर्व कला कौशल दिखा रहे हैं। नए नए आभासी, अनावश्यक और निरर्थक मुद्दों की बम वर्षा हो रही है। लेकिन आम आदमी बदहाल है और इस नाटक से ऊबने लगा है।
मोदी समर्थक मध्यम वर्ग भी अब बदहाल अर्थव्यवस्था का शिकार होने लगा है। यदि राहुल मीडिया के सहारे अपना कोई ऐसा माया महल बनाना चाहेंगे जो मोदी से भी भव्य हो तो उन्हें असफलता और पराजय ही मिलेगी। मोदी के माया महल की हवा निकालने के लिए सच्चाई की छोटी सुई ही काफी है। जब खिलाड़ी का अच्छा समय नहीं चल रहा होता है तब नए नए एक्सपेरिमेंट करने के स्थान पर कोच उसे बेसिक्स की ओर लौटने की सलाह देते हैं। कांग्रेस के पास तो महात्मा गाँधी जैसा कोच है जिनके सिखाए बेसिक्स तो मनुष्यता के बेसिक्स हैं- सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, करुणा, सर्वधर्म समभाव। कहा जाता है कि जब सच्चे मन से प्रायश्चित किया जाता है तो हमारा संकल्प इतना शुद्ध होता है कि हर कष्ट और हर बाधा गौण बन जाती है। कांग्रेस के पास तो प्रायश्चित करने के लिए बहुत कुछ है- अपनी लापरवाही और गलत आचरण से इस देश के अस्तित्व के लिए आवश्यक सेकुलरिज्म जैसे बुनियादी मूल्य की रक्षा में वह नाकामयाब रही है, अब इस देश की गंगा-जमनी तहजीब की रक्षा ही कांग्रेस का सच्चा प्रायश्चित होगी।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
- विकास बहुगुणा
प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री होना चाहिए था, ऐसा मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मानते हैं और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी. कांग्रेस में वे जिस मुकाम पर पहुंच गए थे उसे देखते हुए खुद उनको भी यह उम्मीद कई बार रही. लेकिन राजनीति विज्ञान पढ़ और पढ़ा चुके प्रणब मुखर्जी यह भी समझते ही रहे होंगे कि सत्ता के खेल में शीर्ष तक पहुंचने के सूत्र सिर्फ प्रतिभा से नहीं जुड़ते, इसमें परिस्थितियों की भी भूमिका होती है. इसलिए बहुत से लोग उन्हें एक ऐसा प्रधानमंत्री कह सकते हैं जो भारत को कभी नहीं मिला.
उनके इस पद पर पहुंचने की पहली संभावना 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बनी थी. प्रणब मुखर्जी तब वित्त मंत्री थे और इंदिरा गांधी के बाद पार्टी में नंबर दो थे. प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी में कैबिनेट की बैठकें वही लेते थे. तब प्रणब मुखर्जी की क्या ख्याति थी इसका एक अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि चर्चित पत्रिका यूरो मनी ने उस समय उन्हें दुनिया में सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री बताया था.
ऐसे में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद स्वाभाविक तौर पर उन्हें कमान मिलने की उम्मीद रही होगी. कहते हैं कि उन्होंने इस उम्मीद को जाहिर भी किया (हालांकि अपनी आत्मकथा में उन्होंने इससे इनकार किया है). लेकिन इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को एक परिवार की पार्टी बनाने की जो प्रक्रिया शुरू की थी तब तक वह स्थापित हो चुकी थी. सो प्रणब दा को किनारे कर दिया गया और राजनीतिक और प्रशासनिक दक्षता में उनके सामने कहीं न ठहरने वाले राजीव गांधी देश के छठे प्रधानमंत्री बन गए.
बस इसी मोड़ पर प्रणब मुखर्जी के उस शानदार सफर में थोड़ी ढलान दिखती है जो 1969 में उनके इंदिरा गांधी की नजर में आने और उसी साल पहली बार राज्य सभा में पहुंचने के साथ शुरू हुआ था. माना जाता है कि अपनी महत्वाकांक्षा जाहिर करने की उन्हें कीमत चुकानी पड़ी. राजीव गांधी ने प्रणब मुखर्जी को न सिर्फ अपने मंत्रिमंडल से बाहर रखा बल्कि उन्हें राजनीति की मुख्यधारा से भी बाहर कर दिया. उन्हें पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी की जिम्मेदारी संभालने के लिए कोलकाता भेज दिया गया. इससे खफा होकर उन्होंने पार्टी छोड़ दी और 1986 में राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाई. लेकिन 1987 के राज्य विधानसभा चुनाव में पार्टी की बुरी गत के बाद प्रणब मुखर्जी को अहसास हो गया कि यह राह उनके लिए नहीं है. सो उन्होंने राजीव गांधी से संवाद के टूटे पुल जोड़े और 1989 में अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया. इसके बाद प्रणब दा हमेशा पार्टी के अनुशासित सिपाही रहे.
प्रणब मुखर्जी के दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने की संभावना 1991 में तो नहीं बनी क्योंकि उस वक्त तक उन्हें दोबारा कांग्रेस में शामिल हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ था. इस दौरान वे नरसिम्हा राव की सरकार में योजना आयोग के उपाध्यक्ष हुआ करते थे. उनके फिर से प्रधानमंत्री बन सकने का मौका तब आया जब 2004 में यूपीए की पहली सरकार बनने जा रही थी. सोनिया गांधी ने तब विपक्ष के दबाव में आकर यह पद लेने से इनकार कर दिया तो एक बड़े वर्ग का मानना था कि अब वह होना तय है जो 1984 या 1991 में नहीं हो सका था. संयोग था कि उस साल प्रणब मुखर्जी पहली बार कोई लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे. यानी परिस्थितियां उस दौरान हर लिहाज से उनके अनुकूल लग रही थीं. अपनी आत्मकथा के तीसरे खंड द कोएलिशन इयर्स (1996-2012) में उन्होंने इस बारे में लिखा है, ‘उम्मीद जताई जा रही थी कि सोनिया गांधी के इनकार के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए अगला विकल्प मेरा होगा. शायद इस उम्मीद का आधार यह था कि मुझे सरकार में रहने का व्यापक अनुभव था जबकि सिंह के अनुभव का बड़ा हिस्सा नौकरशाही में था.’
लेकिन सबको चौंकाते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने मनमोहन सिंह का नाम आगे बढ़ा दिया. माना जाता है कि प्रणब मुखर्जी जिस बात को अपनी मजबूती मान रहे थे वही उनके लिए कमजोर कड़ी साबित हुई. अपने एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘मनमोहन सिंह की तुलना में प्रणब ज्यादा राजनीतिक शख्स थे. और यही बात उनके खिलाफ गई. निश्चित तौर पर सोनिया गांधी राजनीतिक तौर पर तेज-तर्रार एक ऐसे नेता को प्रधानमंत्री के पद पर नहीं बैठाना चाहती थीं, जिसकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं थीं. साफ तौर पर 7 रेस कोर्स रोड में उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था.’ यह भी माना जाता है कि प्रणब मुखर्जी के प्रधानमंत्री बनने पर सोनिया गांधी पार्टी और सरकार पर उस तरह से नियंत्रण नहीं रख पातीं जैसा मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते संभव हो सका.
बताया जाता है कि प्रधानमंत्री के लिए मनमोहन सिंह का नाम तय होने के बाद प्रणब मुखर्जी ने सरकार में शामिल न होने का फैसला कर लिया था. जानकारों के मुताबिक यह स्वाभाविक ही था क्योंकि कभी मनमोहन सिंह उनसे काफी जूनियर हुआ करते थे. लेकिन सोनिया गांधी ने कहा कि उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल होना ही होगा क्योंकि उनके रहने से सरकार को मजबूती मिलेगी. माना जाता है कि कांग्रेस अध्यक्ष प्रणब मुखर्जी को इसलिए भी सरकार में रखना चाहती थीं कि वह गठबंधन की सरकार थी और प्रणब दा के मित्र सभी दलों में थे. इस तरह प्रणब मुखर्जी मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में आ गए और आने वाले वर्षों में उन्होंने रक्षा, वित्त और विदेश जैसे अहम मंत्रालय संभाले.
तीसरी बार प्रणब मुखर्जी के प्रधानमंत्री बनने की चर्चा 2009 में हुई. यह तब की बात है जब आम चुनाव कुछ ही महीने दूर थे. मनमोहन सिंह की बाइपास सर्जरी हुई थी और उन्हें काफी समय तक आराम करना पड़ा था. इस दौरान औपचारिक तौर पर तो यह ऐलान नहीं किया गया कि प्रधानमंत्री का काम कौन देख रहा है, लेकिन विकीलीक्स द्वारा लीक एक केबल के हवाले से दावा किया गया कि वह प्रणब मुखर्जी ही थे. इसी दौरान खबरें आईं कि अगर मनमोहन सिंह का स्वास्थ्य जल्द सामान्य नहीं हुआ तो सिर पर खड़े चुनाव को देखते हुए प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है. हालांकि ऐसा नहीं हुआ. जानकारों के मुताबिक तब भी वही कारण उनके खिलाफ गया जो 2004 में गया था.
प्रणब मुखर्जी के चौथी बार प्रधानमंत्री बनने की चर्चा और इसकी खुद उन्हें भी उम्मीद 2012 में हुई. तब यूपीए राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार चुनने की कवायद कर रहा था. अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि सोनिया गांधी ने उनसे कहा था, ‘आप इस पद के लिए सबसे बेहतर दावेदार हैं, लेकिन आप सरकार में एक ज़िम्मेदार भूमिका निभा रहे हैं तो क्या आप ऐसे में कोई दूसरा नाम सुझा सकते हैं.’ प्रणब मुखर्जी के मुताबिक इससे उन्हें लगा कि मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति बनाया जा सकता है और उन्हें प्रधानमंत्री. हालांकि ऐसा नहीं हुआ और वे देश के 13वें राष्ट्रपति बन गए.
राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल को बहुत से लोग बढ़िया मिसाल मानते हैं तो कइयों की राय इससे उलट भी है. पहले वर्ग का मानना है कि प्रणब मुखर्जी ने पहले मनमोहन सिंह और फिर नरेंद्र मोदी के साथ बढ़िया समन्वय के साथ काम किया. उन्होंने संसद में चर्चा के बगैर कई अध्यादेश पारित करने को लेकर केंद्र सरकार को नसीहत दी तो संसद न चलने देने पर अड़े विपक्ष को भी समझाया. ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनके कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का कोई मतभेद सुर्खियां बना हो. इन सारी बातों को लोकतंत्र के लिहाज से अच्छा माना गया. राष्ट्रपति के रूप में अपनी पारी पूरी होने के मौके पर उन्होंने कहा था कि उनके और प्रधानमंत्री के बीच असहमति के कई मौके आए, लेकिन, इससे दोनों के बीच के रिश्ते पर असर नहीं पड़ा.
उधर, एक दूसरा वर्ग भी है जिसे लगता है कि प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति के रूप में आचरण वैसा नहीं रहा जैसा उनके कद के किसी राजनेता का रहना चाहिए था. इस वर्ग का मानना है कि वे इस पद पर रहते हुए कोई नजीर कायम कर सकते थे. जैसा कि बीबीसी से बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘प्रणब मुखर्जी ने सिर्फ़ अपने काम से काम रखा और सरकार के काम में कोई दखलअंदाज़ी नहीं की.’ उनकी तरह और भी कई लोग मानते हैं कि ज्यादातर राष्ट्रपतियों की तरह प्रणब मुखर्जी भी रबर स्टैंप जैसे ही रहे और उन्होंने स्वविवेक का न्यूनतम प्रयोग किया. ये लोग उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के मामले को इसके उदाहरण के तौर पर गिनाते हैं जिसे अदालत ने हटा दिया था.
समग्रता में देखें तो बंगाली भद्रलोक से आए प्रणब मुखर्जी का व्यक्तित्व सही मायने में उस सर्वस्वीकार्यता की जीवंत मिसाल था जो अब राजनीति में दुर्लभ होती जा रही है. हर पार्टी में उनके मुरीद थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ समय पहले कहा था कि प्रणब मुखर्जी ने उन्हें पिता तुल्य स्नेह दिया. उधर, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनकी आत्मकथा के विमोचन के मौके पर कहा था कि प्रणब मुखर्जी उनसे कहीं काबिल थे और प्रधानमंत्री उन्हें ही बनना चाहिए था.
बहुत से लोग मानते हैं कि अगर ऐसा हो जाता - फिर भले ही यह 2012 में भी होता - तो कांग्रेस का इस कदर पतन नहीं होता. जैसा कि नीलांजन मुखोपाध्याय लिखते हैं, ‘उनकी राजनीतिक कुशलता मोदी की आसान जीत के रास्ते में अवरोध बन कर खड़ी होती. उद्योग जगत के भीतर उनका रिश्ता मोदी को इतनी आसानी से कॉरपोरेट जगत के समर्थन को अपने पक्ष में नहीं मोड़ने देता. अगर मुखर्जी का नेतृत्व होता, तो नीतिगत लकवे (पॉलिसी पैरालिसिस) का आरोप भी उतना असरदार नहीं रहता.’ वे आगे लिखते हैं, ‘प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति के तौर पर नियुक्त करना, एक प्रतिभा को व्यर्थ करने का उदाहरण था. सोनिया गांधी ने बदलाव करने की जगह चीजों को अपने हाथों से फिसल जाने का मौका दिया. ऐसा लगता है कि उन्होंने पूर्वाग्रह को तर्क के ऊपर तरजीह दी.’(satagrah)
- DTE Staff
राष्ट्रीय मौसम पूर्वानुमान केंद्र के अनुसार अगले चार दिन कई इलाकों में अत्याधिक भारी बारिश हो सकती है। केंद्र ने कई इलाकों में तेज हवा, आंधी और बिजली गिरने की भी आशंका जताई है।
01 सितंबर:
पश्चिम राजस्थान में अलग-थलग स्थानों पर भारी से भारी से अत्यधिक भारी बारिश होने की आशंका है और पंजाब, पूर्वी राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल और सिक्किम, ओडिशा, असम तथा मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा, रायलसीमा, तटीय और दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल तथा पंजाब, केरल और माहे में अलग-अलग स्थानों पर भारी बारिश हो सकती है।
पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, गांगेय पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम और मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम तथा त्रिपुरा, तटीय आंध्र प्रदेश एवं यनम, तेलंगाना, रायलसीमा, तटीय और दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल और केरल और माहे में अलग-अलग स्थानों पर आंधी तूफान चलने के साथ बिजली गिरने की आशंका है।
दक्षिण-पश्चिम अरब सागर में तेज हवा (गति 45-55 किमी प्रति घंटे तक) चल सकती है। दक्षिण अंडमान सागर और उससे सटे भूमध्यरेखीय हिंद महासागर में तेज रफ्तार (गति 40-50 किमी प्रति घंटे तक) से हवा चलने के आसार है।
02 सितंबर :
ओडिशा, दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल और केरल तथा माहे में अलग-अलग स्थानों पर भारी से अत्यधिक भारी बारिश होने की संभावना है। जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, गिलगित-बाल्टिस्तान, मुजफ्फराबाद, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, असम और असम, मेघालय, ओडिशा, तटीय आंध्र प्रदेश और यानम, रायलसीमा, तटीय कर्नाटक तथा लक्षद्वीप में अलग-अलग स्थानों पर भारी बारिश होने की आशंका है।
पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, राजस्थान, पश्चिम उत्तर प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेश, विदर्भ, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, तटीय आंध्र प्रदेश और यनम, तेलंगाना, रायलसीमा, तटीय और दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल तथा केरल एवं माहे में अलग- अलग स्थानों पर आंधी तूफान और बिजली कड़कने के आसार हैं।
दक्षिण-पश्चिम अरब सागर के ऊपर तेज हवा (गति 45-55 किमी प्रति घंटे तक) चल सकती है। दक्षिण पूर्व अरब सागर और केरल तथा लक्षद्वीप के तटों पर हवा (गति 40-50 किमी प्रति घंटे) चल सकती है।
03 सितंबर :
दक्षिण आंतरिक कर्नाटक और केरल और माहे में अलग-अलग स्थानों पर भारी से अत्यधिक भारी बारिश होने की संभावना है। जम्मू- कश्मीर, लद्दाख, गिलगित-बाल्टिस्तान, मुजफ्फराबाद, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, पूर्वी राजस्थान, उत्तर प्रदेश, अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह, ओडिशा, मध्य महाराष्ट्र, तटीय कर्नाटक एवं तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल में अलग-अलग स्थानों पर भारी वर्षा होने की संभावना है।
राजस्थान, पूर्वी मध्य प्रदेश, विदर्भ, झारखंड, तटीय आंध्र प्रदेश और यनम, रायलसीमा, तटीय एवं दक्षिण आंतरिक कर्नाटक तथा तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल में अलग-अलग स्थानों पर आंधी तूफान चलने और बिजली गिरने की संभावना है।
दक्षिण पश्चिम अरब सागर के ऊपर तेज हवा (45-55 किमी प्रति घंटे की रफ्तार) चलने की संभावना है। दक्षिण पूर्व अरब सागर के ऊपर और केरल तथा लक्षद्वीप के तटों पर हवा (गति 40-50 किमी प्रति घंटे) चलने की संभावना है। मछुआरों को इन क्षेत्रों नहीं जाने की सलाह दी जाती है।
04 सितंबर:
हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, असम और मेघालय, मध्य महाराष्ट्र, कोंकण और गोवा, दक्षिण आंतरिक कर्नाटक, तमिलनाडु, पुदुचेरी और कराईकल और केरल और माहे में अलग- अलग स्थानों पर भारी वर्षा होने की संभावना है।
झारखंड, तटीय आंध्र प्रदेश और यानम, रायलसीमा, दक्षिण आंतरिक कर्नाटक तथा तमिलनाडु, पुदुचेरी एवं कराईकल में अलग-अलग स्थानों पर बिजली गिरने की आशंका है।
दक्षिण-पश्चिम अरब सागर के ऊपर तेज हवा (गति 45-55 किमी प्रति घंटे तक) चलने की संभावना है। मछुआरों को इन क्षेत्रों में नहीं जाने की सलाह दी जाती है।(downtoearth)
नयी दिल्ली स्थित 10 राजाजी मार्ग पर फैली खामोशी tv बता रही है कि भारतीय राजनीति का सूरज महाकाल के अनंत विस्तार में समा गया| राजनीति के पुरोधा और माँ दुर्गा के अनन्य उपासक भारत रत्न प्रणब मुख़र्जी चिरनिद्रा में लीन हो गए| प्रणब दा के विशाल अनुभव एवं याददाश्त का सम्मान उनके राजनीतिक विरोधी भी करते थे| उन्हें राजनीति में संकटमोचक के तौर पर देखा जाता था और समस्याओं का समाधान निकालने में माहिर माने जाते थे| राष्ट्रहित के प्रति समर्पित भाव रखते हुए सार्वजनिक जीवन में शायद ही ऐसी कोई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी हो जिसे उन्होंने न सम्हाला हो|
विश्व के प्रसिद्ध 5 वित्त मंत्रीयो में से एक होने का गौरव प्राप्त करने वाले स्वर्गीय प्रणब दा का जन्म 11 दिसम्बर 1935 को पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के मिरती नामक स्थान पर हुआ| अपनी वकालत की पढ़ाई पूर्ण करने के पश्चात उन्होंने सक्रिय राजीति में कदम रखा| देश सेवा का जज्बा उनके संस्कारों में था| यह प्रणब दा के असाधारण व्यक्तित्व का ही जादू ही था कि 34 वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें भारतीय लोकतंत्र के उच्च सदन का सदस्य बनाया गया। इसके पश्चात मुख़र्जी दा ने भारतीय राजनीति में विकास की नयी इबारत लिखी जो आज एक कीर्तिमान है| वर्ष 1975, 1981, 1993 और 1999 के लगातार वर्षों में उन्होंने भारतीय संसद के उच्च सदन में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया| इस दौरान जब भारत की अर्थव्यवस्था पटरी से लडख़ड़ा रही थी, तो वर्ष 1982-84 में भारत के वित्त मंत्री के रूप में उनकी कुशलता एवं अनुभव को सम्पूर्ण देश ने सराहा | इसी कार्यकाल के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह को भारतीय रिज़र्व बैंक का गवर्नर बनाया गया और देश विकसित होने की राह पर चल पड़ा। वर्ष 1991 में उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया| प्रणब दा को नरसिंह राव मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक विदेश मन्त्री के रूप में कार्य करने का मौका मिला किया।
वर्ष 1993 -2003 के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में मेरे ससुर स्वर्गीय अजय मुश्रान ने मध्य प्रदेश के वित्त मंत्री के रूप में कार्य किया| मुश्रान साहेब के प्रणब दा से आत्मीय सम्बन्ध रहे| इस दौरान एक युवा अधिवक्ता एवं वर्ष 2000 -2003 के दौरान जब मध्य प्रदेश अपने छत्तीसगढ़ विभाजन के कठिन दौर से गुजर रहा था, उस समय मध्य प्रदेश का महाधिवक्ता होने से प्रथम बार मेरा प्रणब दा से मिलना हुआ| उनके शांत स्वभाव और गंभीर छवि ने मुझे हमेशा ही आकर्षित किया| उनका व्यक्तित्व विद्वता और शालीनता के लिए याद किया जाएगा.|
प्रणब मुखर्जी जी ने ही श्रीमती सोनिया गांधी जी को सक्रिय राजनीति में आने के लिए मनाया था | 2004 से 2012 वर्षों के दौरान उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. गठबंधन सरकार के कुशल सञ्चालन में महत्वपूर्ण रोल अदा किया| देश के वित्तमंत्री के रूप में उन्हें वर्ष 2009, 2010 और सन 2011 में देश का वार्षिक बजट प्रस्तुत करने का गौरव हासिल हुआ| लड़कियों की साक्षरता और स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए और जवाहरलाल नेहरु राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन सहित सहित कई अन्य सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए धन की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल रहा| भारत रत्न स्वर्गीय राजीव गाँधी की स्वप्न योजना राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) जिसे बाद में मनरेगा नाम दिया गया, को डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में लागू करने में प्रणब दा की ही दूरदृष्टि थी जो आज कोरोना संक्रमण के कठिन दौर में देश के मजदूरों एवं अन्य श्रमिक वर्ग के जीवन यापन का सहारा बन रही है|
सरकारी कामकाज की प्रक्रियाओं और संविधान की बारीकियों की बेहतरीन समझ रखने वाले प्रणब दा ने जुलाई 2012 में भारत के तेरहवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली| अपने कार्यकाल के दौरान संविधान के अनुच्छेद 72 के अंतर्गत उनके समक्ष लायी गयी दया याचिकाओं के मामले में वे एक कठोर प्रशासक साबित हुए| सात दया याचिकाओं को क्रूरतम अपराध की संज्ञा देते हुए रद्द करते हुए प्रणब मुखर्जी देश के दूसरे ऐसे राष्ट्रपति बन गए जिन्होंने अपने कार्यकाल में सबसे ज्यादा दया याचिकाएं खारिज कीं| उनके निर्णय ने अपराधियों के मन में भय एवं देश के आम जनों में न्याय व्यवस्था में विश्वास को सुदृण किया|
उन्होंने असीम अनुभव को अपनी लेखनी से कागज़ के पन्नो पर उतारा और राजनीति पर गहरी समझ एवं नीतिगत मुद्दों पर अनुभव को देश की नाव के लगभग सभी खेवनहारों से साझा किया| प्रणब दा का मानना था कि पुस्तकें हमारे जीवन की सबसे अच्छी दोस्त होती है और ये ही भविष्य में होने वाले युद्ध में हमारा हथियार होंगी| उन्होंने कई कितावें भी लिखी जिनमे ऑफ द ट्रैक- सागा ऑफ स्ट्रगल एंड सैक्रिफाइस, इमर्जिंग डाइमेंशन्स ऑफ इंडियन इकोनॉमी, तथा चैलेंज बिफोर द नेशन प्रमुख हैं| संसद भवन के गलियारे कठोर अनुभवों के पथ पर चले उनके पदचिन्हों के गवाह रहेंगे|
प्रणब दा जैसे व्यक्तित्त्व को कलम की परिधि में बांधना संभव नहीं| वे अजातशत्रु, अनूठे व्यक्तित्त्व थे जिनके कृतित्व का प्रकाश सदैव हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा।
सादर नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि
(विवेक के. तन्खा) [लेखक सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता
एवं मध्य प्रदेश से राज्य सभा सांसद हैं]
- ज़ुबैर अहमद
आधुनिक भारत में ऐसे कम ही नेता होंगे जो पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के क़द को छू सकेंगे.
एक युवा नेता की महत्वाकांक्षा निश्चित रूप से प्रणब मुखर्जी की कामयाबियों तक पहुंचने की होगी जिन्होने एक शानदार राजनीतिक यात्रा के बाद 31 अगस्त को दिल्ली के एक सैनिक अस्पताल में आँखें मूँदीं.
वो 10 अगस्त को इस अस्पताल में मस्तिष्क की सर्जरी के लिए भर्ती हुए थे जहाँ उनका कोरोना वायरस का टेस्ट भी हुआ और वो पॉज़िटिव पाए गए. सर्जरी से पहले उन्होंने ख़ुद ही ट्वीट कर अपने कोरोना संक्रमित होने की जानकारी दी थी.
पाँच दशकों से अधिक के अपने लंबे सियासी करियर में, प्रणव मुखर्जी ने लगभग सब कुछ हासिल कर लिया.
साल 2012 से 2017 तक राष्ट्रपति रहे प्रणब मुखर्जी को किसी एक ख़ास श्रेणी में डालना मुश्किल होगा. अगर वो एक राजनयिक थे तो वो एक अर्थशास्त्री के रूप में भी देखे जाते थे.
शुरू में वो शिक्षक भी रहे और पत्रकार भी. वो रक्षा मंत्री भी रहे और विदेश और वित्त मंत्री भी. प्रणब मुखर्जी भारतीय बैंकों की समितियों से लेकर वर्ल्ड बैंक के बोर्ड के सदस्य भी रहे. उनके नाम लोकसभा की अध्यक्षता भी रही और कई सरकारी समितियों की भी.
प्रधानमंत्री न बनने का दुख
प्रणब मुखर्जी के बायोडेटा में केवल एक कमी रह गयी: प्रधानमंत्री के पद की, जिसके वो 1984 और 2004 में दावेदार माने गए थे. इंदिरा गाँधी की निगरानी में परवान चढ़ने वाले नेता शायद ख़ुद को इस पद का हक़दार भी मानते थे. लेकिन ये पद उन्हें कभी हासिल नहीं हुआ ठीक उसी तरह से जिस तरह से बीजेपी के लाल कृष्ण आडवाणी को ये पद कभी नसीब नहीं हुआ.
कांग्रेस में उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी से 2015 में हुई एक बात-चीत के दौरान ये बात साफ़ निकल कर आयी कि उनके पिता को प्रधानमंत्री न बनने का अफ़सोस था लेकिन वो पार्टी के एक वरिष्ठ नेता होने के कारण इसका इज़हार खुल कर नहीं कर सके.
2012 में जब उन्हें राष्ट्रपति बनाया गया तो ज़ाहिर है उसके बाद वो इस मुद्दे पर बात करने को सही नहीं समझते थे.
कांग्रेस पार्टी के अलग-अलग ख़ेमों में प्रधानमंत्री के लिए उनके नाम पर किसी को आपत्ति नहीं थी लेकिन सियासी विश्लेषकों के अनुसार गांधी परिवार के विश्वासपात्र न होने की वजह से वो किनारे कर दिए गए.
कहा जाता है कि पिछले साल बीजेपी ने प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न देकर ये जताना चाहा था कि गाँधी परिवार के क़रीबी न होने के कारण उन्हें वो कुछ नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे.
इसके एक साल पहले भी उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस के एक आयोजन में मुख्य अतिथि बनाया गया था. इस सम्मान का मतलब भी ये लगाया गया था कि जो इज़्ज़त उन्हें उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी ने नहीं दी वो बीजेपी और आरएसएस ने दी. उस समय उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी तक ने अपने पिता के फ़ैसले पर सवाल उठाया था.

आरएसएस के मंच से प्रभावशाली भाषण
लेकिन वरिष्ठ नेता को पता था वो आरएसएस के मंच से क्या पैग़ाम देना चाहते थे.
प्रणब मुखर्जी ने 7 जून 2018 को नागपुर में आरएसएस मुख्यालय में जो भाषण दिया वो कभी भुलाया नहीं जा सकता.
उन्होंने राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देश भक्ति को लेकर जो कुछ कहा, उससे ये स्पष्ट हो गया कि मंच भले ही अलग हो, उनकी सोच में कोई भी फ़र्क़ नहीं आया है.
उन्होंने ने अपने भाषण में भारत की असली राष्ट्रीयता पर बल दिया, ''भारत की राष्ट्रीयता एक भाषा और एक धर्म में नहीं है. हम वसुधैव कुटुंबकम् में भरोसा करने वाले लोग हैं. भारत के लोग 122 से ज़्यादा भाषा और 1600 से ज़्यादा बोलियां बोलते हैं. यहां सात बड़े धर्म के अनुयायी हैं और सभी एक व्यवस्था, एक झंडा और एक भारतीय पहचान के तले रहते हैं.''
प्रणब मुखर्जी ने कहा, ''हम सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं, लेकिन हम वैचारिक विविधता को दबा नहीं सकते. 50 सालों से ज़्यादा के सार्वजनिक जीवन बिताने के बाद मैं कह रहा हूं कि बहुलतावाद, सहिष्णुता, मिलीजुली संस्कृति, बहुभाषिकता ही हमारे देश की आत्मा है.''
पूर्व राष्ट्रपति ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि विविधता में एकता ही भारत की असली पहचान है, ''नफ़रत और असहिष्णुता से हमारी राष्ट्रीय पहचान ख़तरे में पड़ेगी. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि भारतीय राष्ट्रवाद में हर तरह की विविधता के लिए जगह है. भारत के राष्ट्रवाद में सारे लोग समाहित हैं. इसमें जाति, मज़हब, नस्ल और भाषा के आधार पर कोई भेद नहीं है.''
सियासी करियर की शुरुआत
एक विनम्र पृष्ठभूमि से आने वाले 84 वर्ष के मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर 1935 को पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गाँव मिराटी में हुआ था.
उनके पिता कांग्रेस पार्टी के एक स्थानीय नेता भी थे और स्वतंत्रता सेनानी भी. उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में मास्टर डिग्री और साथ ही साथ कोलकाता विश्वविद्यालय से क़ानून की डिग्री प्राप्त की. फिर उन्होंने अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत कॉलेज के शिक्षक और पत्रकार के रूप में की.
1969 में प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक कैरियर 34 साल की उम्र में राज्य सभा के सदस्य बनने से शुरू हुआ. इंदिरा गाँधी की निगरानी में उनका सियासी सफ़र तेज़ी से आगे बढ़ने लगा जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
लेकिन उनका सितारा उस समय गर्दिश में आया जब 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने जिन्होंने मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी.
वो उस वाक़या को अपनी पुस्तक "The Turbulent Years 1980-1996" ("द टर्बुलेंट इयर्स 1980-1996) में याद करते हुए कहते हैं, "मैं कॉल का इंतज़ार करता रहा. राजीव के मंत्रिमंडल से बाहर किया जाना मेरे दिमाग़ में भी नहीं था. मैंने कोई अफ़वाह भी नहीं सुनी थी... जब मैंने मंत्रिमंडल से अपने निष्कासन के बारे में जाना, तो मैं स्तब्ध रह गया और आगबबूला हो गया. मुझे यक़ीन नहीं हुआ."

बुरे दिन
प्रणब मुखर्जी का इससे भी बुरा वक़्त उस समय आया जब उन्हें पार्टी से छह साल के लिए निकाल दिया गया. ये क़दम उनके ख़िलाफ़ उस समय उठाया गया जब उन्होंने उस वक़्त के इलस्ट्रेटेड वीकली पत्रिका के संपादक प्रीतीश नंदी को एक इंटरव्यू दिया था.
पूर्व राष्ट्रपति अपनी किताब में पार्टी से निकाले जाने के बारे में लिखते हैं, "उन्होंने (राजीव गाँधी) ने ग़लतियाँ कीं और मैंने भी कीं. उन्होंने दूसरों को अपने ऊपर प्रभाव डालने दिया दूसरों ने मेरे ख़िलाफ़ कान भरे. मैं भी अपनी निराशा पर क़ाबू नहीं रख पाया."
कांग्रेस पार्टी में उनकी वापसी यूँ तो 1988 में हुई लेकिन 1991 में पार्टी की आम चुनाव में जीत और नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी क़िस्मत बदली और जब 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी और ये साफ़ हो गया कि सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहतीं तो प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम लिया जाने लगा.
वो अपनी पुस्तक "The Coaltion Years 1995-2012 (द कोएलिशन इयर्स 1995-2012) में इस बात को स्वीकार करते हैं और कहते हैं, "प्रचलित अपेक्षा ये थी कि सोनिया गांधी के मना करने के बाद मैं प्रधानमंत्री के लिए अगली पसंद बनूंगा."
प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री न बन सके लेकिन रक्षा और वित्त मंत्री की हैसियत से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के क़रीबी सहयोगी बने रहे.
पार्टी की भी सेवा करते रहे जिससे उनकी "मिस्टर डिपेंडेबल" की छवि और मज़बूत बनी. इसका ज़िक्र उन्होंने ख़ुद अपनी पुस्तक में किया है.
राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इस पद को गंभीरता से लिया और 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार से संबंध अच्छे रखे.
आख़िरी दिन तक प्रणब मुखर्जी एक सच्चे लोकतंत्रवादी बने रहे. आज के दौर में जहाँ नेता विचारधारा की परवाह किये बग़ैर दल बदलने में एक पल के लिए नहीं सोचते वहीं पूर्व राष्ट्रपति अपनी एक अलग पहचान बना कर, अपनी विरासत छोड़ कर गए हैं.(bbc)
- Richard Mahapatra
31 अगस्त 2020 को जारी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों के तहत कवर किए गए आठ उद्योगों में से केवल कृषि ऐसा क्षेत्र है, जिसमें वित्त वर्ष 2020-21 की अप्रैल-जून की तिमाही में वृद्धि हुई है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा पहली तिमाही (अप्रैल-जून, 2020) के लिए जारी अनुमानों के अनुसार, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 प्रतिशत की कमी आई है। पिछले साल इसी तिमाही में जीडीपी में 5.2 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी।
कोविड-19 महामारी और आर्थिक गतिविधियों के कारण यह अपेक्षित था, लेकिन इस दौरान जो बात देखने लायक है, वह यह है कि कृषि क्षेत्र ने असाधारण प्रदर्शन किया है।
मौद्रिक शब्दों में देखे हैं तो पहली तिमाही में जीडीपी 26.90 लाख करोड़ रुपए रही है, जबकि पिछले साल इसी तिमाही में जीडीपी 35.35 लाख करोड़ रुपए थी। यानी कि 8.45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।
कृषि क्षेत्र को देखें तो पिछले वर्ष की तुलना में इस तिमाही में कृषि सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मौद्रिक शब्दों में देखे हैं तो कृषि क्षेत्र में पहले तीन महीनों में 14,815 करोड़ रुपए का अतिरिक्त वृद्धि हुई है। जबकि ओवरऑल जीवीए में पिछले वर्ष की तुलना में तिमाही में 22.8 प्रतिशत की कमी आई है।
कोरोनावायरस संक्रमण को रोकने के लिए देश भर में लगाए गए लॉकडाउन की वजह से रबी सीजन की फसल की कटाई और सप्लाई चेन में रुकावट आई। बावजूद इसके जीडीपी के नए आंकड़े उत्साहजनक हैं। रबी मौसम के लिए कृषि उत्पादन (डेयरी उत्पाद, मत्स्य और मुर्गी उत्पादन सहित) शामिल हैं।
खरीफ सीजन अभी भी जारी है, लेकिन वर्तमान के ये आंकड़े पिछले रिकॉर्ड से आगे निकल गए हैं। इसके अलावा, जुलाई-अगस्त में कृषि क्षेत्र ने भारी निजी निवेश को आकर्षित किया है, जो कि हाल के वर्षों में खेती छोड़ने वाले किसानों की बड़ी संख्या को देखते हुए असामान्य सा लगता है। लेकिन गांवों में रिवर्स पलायन और भविष्य की आजीविका की अनिश्चितता ने कई लोगों को कृषि पर वापस निवेश करने के लिए मजबूर किया है।
इसका आर्थिक प्रभाव तब पता चलेगा जब अगली तिमाही के लिए जीडीपी के आंकड़े सितंबर अंत में जारी किए जाएंगे। लेकिन पिछले साल भी आर्थिक मंदी के बावजूद कृषि क्षेत्र में हल्की वृद्धि देखने को मिली थी, जिसके लगता है कि कृषि धीरे-धीरे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए प्रासंगिक हो रही है।
महज एक हफ्ते पहले जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट 2019-20 जारी की, तो यह पहलू उस समय अन्य सुर्खियों की वजह से दब गया था। आरबीआई के अनुमान से पता चलता है कि 2019-20 में कृषि ने वास्तविक जीवीए वृद्धि 4.0 प्रतिशत दर्ज की। यह रिकॉर्ड अनाज उत्पादन के कारण हुआ। ओवरऑल आर्थिक विकास के लिए यह 15.2 प्रतिशत था। कृषि क्षेत्र के लिए यह एक नया रिकॉर्ड है। आर्थिक विकास में औद्योगिक क्षेत्र के मुकाबले कृषि क्षेत्र ने अधिक वृद्धि हुई। ऐसा 2013-14 के बाद पहली बार हुआ। वर्ष 2019-20 में औद्योगिक क्षेत्र ने सिर्फ 4.7 प्रतिशत की वृद्धि की थी। आरबीआई ने अनुमान लगाया कि इस वृद्धि ने देश के कुल घरों के 48.3 प्रतिशत की अर्थव्यवस्था को सकारात्मक रूप से प्रभावित किया है।
आरबीआई ने कहा, "2019-20 में रिकॉर्ड खाद्यान्न और बागवानी उत्पादन और कृषि अर्थव्यवस्था के लिए व्यापार की अनुकूल शर्तों के चलते कृषि और संबद्ध गतिविधियों में चमक दिखाई दी है। हालांकि आर्थिक विकास की दृष्टि से आरबीआई ने पिछले वित्त वर्ष को सबसे खराब साल बताया है।
हालांकि आरबीआई ने चेतावनी भी दी है कि किसानों को कई चुनौतियों को सामना करना पड़ रहा है और उन्हें अपनी फसलों का उचित दाम नहीं मिल रहा है। वह भी तब, जब देश में खाद्य मुद्रास्फीति अधिक हो, या उपभोक्ता कृषि उपज के लिए अधिक से अधिक भुगतान करते रहे हैं।
इस साल जुलाई में, खरीफ की बुआई में वृद्धि और कृषि के प्रति आकर्षण बढ़ने के संकेत को देखते हुए ट्रैक्टर की बिक्री में 38.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका मतलब यह भी है कि किसान इस खरीफ सीजन में न केवल इनपुट पर, बल्कि ट्रैक्टर जैसी बड़ी सुविधा मशीनों पर भी निवेश कर रहे हैं। लेकिन यह सवाल अभी भी खड़ा है कि क्या किसानों को अपनी फसल का उचित दाम मिला है या आगे भी मिलेगा?
आरबीआई ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि कृषि के लिए व्यापार की उचित तरीके अपनाए जाएं, ताकि अन्न उत्पादन बढ़ने पर किसानों की आमदनी भी बढ़े और यही किसानों की भी चिंता है कि क्या वे अच्छी फसल के साथ-साथ आर्थिक फसल भी काटेंगे।(downtoearth)
- पवन वर्मा
मिजोरम पूर्वोत्तर के सबसे दक्षिणी छोर पर बसा देश की सबसे कम आबादी वाला दूसरा प्रदेश है. देश में मिजोरम से कम आबादी सिर्फ सिक्किम की ही है. दो दूसरे देशों - बांग्लादेश और म्यांमार और देश के तीन प्रदेशों - त्रिपुरा, असम और मणिपुर - से सटा मिजोरम 1986 में ही एक स्वतंत्र राज्य बना. इससे पहले यह एक यूनियन टेरिटरी था और उससे पहले अपने पड़ोसी राज्य असम का ही एक हिस्सा.
मिजोरम की राजधानी आईजोल पूर्वोत्तर के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक है. लेकिन इसके बावजूद जब आप यहां से दक्षिण, पूर्व और उत्तर की तरफ जाने वाली घुमावदार सड़कों पर निकलते हैं तो पहाड़ों की सुंदरता के बीच आपको उसे भूलने में बस कुछ ही मिनट लगते हैं. अपनी इन यात्राओं के दौरान आपको कई जगह सड़क किनारे कुछ ऐसी दुकानें भी दिख जाएंगी जिनमें मौसमी सब्जियां और फल तो होंगे लेकिन उनमें आपको कोई दरवाजा या दुकानदार नहीं दिखेगा. भरोसे की डोर पर टिकी ये दुकानें आज के दौर में एक अनूठी मिसाल हैं. इन्हें नघालॉह डॉर कहा जाता है. मिजो भाषा में इसका मतलब है बिना दुकानदार की दुकान.
इन दुकानों पर सभी वस्तुओं की कीमत की सूची पहले से ही टंगी होती है. कीमतें वाजिब होती हैं क्योंकि वहां आपके साथ मोल-भाव करने के लिए कोई दुकानदार नहीं होता. इसकी जगह दुकान में एक प्लास्टिक का एक डिब्बा रखा होता है. आपको बस यह करना है कि अपनी मनपसंद सब्जी या दूसरी सामग्री उठाइए और उसकी जो भी कीमत है उतने रुपये साथ वाले डिब्बे में डाल दीजिए. आपके पास खुल्ले पैसे नहीं है तो वह हिसाब-किताब भी आप डिब्बे के पैसों से कर सकते हैं. कुछ दुकानों पर चीजें साफ-सफाई के साथ पारदर्शी बैगों में भी रखी जाती हैं. कहीं उन्हें करीने से केले के पत्तों में बांधकर रख दिया जाता है. कुछ दुकानों में आपको फलों के जूस भी प्लास्टिक की बॉटल में रखे मिल जाएंगे. हर बॉटल पर उसकी कीमत लिखी होती है.
इन दुकानों की खासबात है कि यहां नाप-तोल की व्यवस्था नहीं होती. सारे फल-सब्जियां गट्ठर या ढेरी में होते हैं. कीमत भी एक ढेरी या गट्ठर के हिसाब से होती है
मिजोरम में लगभग 87 फीसदी आबादी ईसाई धर्म को मानने वाली है. यह पूर्ण आदिवासी राज्य है और आम धारणा है कि आदिवासी व्यवहार में निश्छल होते हैं. इस आधार पर कहा जा सकता है मिजोरम में यह ‘ईमानदारी की दुकानदारी’ सालों से चल रही होगी. इस राज्य के बारे में आपको धोखा बस इसी बात से मिलेगा.
मिजोरम के लिए भी इन दुकानों का अस्तित्व कोई दशकों पुराना नहीं है. आज से करीब 15 साल पहले की बात है. आइजोल से लगभग 100 किमी दूर एक गांव के किसान वनलाल्डिगा के खेत में सब्जियों की बंपर पैदावार हुई थी. इस गांव तक पहुंचना काफी मुश्किल है और वनलाल्डिगा के लिए यही मुश्किल थी कि इस पैदावार को बाजार तक कैसे ले जाएं. लेकिन सब्जियां तो बेचनी थीं. आखिरकार उन्होंने अपने गांव से 30 किमी दूर आईजोल-चंफाई रोड पर सब्जियों की एक दुकान खोल ली.
पहला दिन निराशा का रहा. सुबह से लेकर शाम हो गई लेकिन दुकान पर कोई ग्राहक नहीं आया. उदास मन से वनलाल्डिगा रात को अपने घर लौट गए. उनके लिए दुकान में रखी सब्जियों का कोई मतलब नहीं था तो उन्होंने उन्हें दुकान में ही छोड़ दिया. लेकिन अगले दिन सुबह जब वे लौटे तो दुकान से सारी सब्जियां गायब हो चुकी थीं और वहीं एक कोने में कुछ रुपये पड़े हुए थे.
मिजोरम के ग्रामीण समाज में चोरियां न के बराबर होती हैं. इस वजह से आम लोग एक दूसरे पर पूरा भरोसा करते हैं और ‘बिना दुकानदारों की दुकानों’ की बुनियाद भी इसी भरोसे पर टिकी है
वनलाल्डिगा आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. उनके लिए यह नई बात तो थी लेकिन, अपने समाज के मूल्यों को समझने वाला यह ग्रामीण इस घटना से हैरान नहीं था. यह घटना उनके लिए एक सबक बन गई. अगले दिन उन्होंने और ज्यादा सब्जियां अपनी दुकान में रखीं और उनके साथ कीमत की सूची भी टांग दी. अगले दिन भी वही हुआ और इसके साथ ही इस अंचल में एक नई तरह की दुकान अस्तित्व में आ गईं. मिजोरम की यह पहली दुकान थी जिसे स्थानीय लोगों ने नघालॉह डॉर नाम दिया.
इस अंचल में वनलाल्डिगा अकेले किसान नहीं थे जिन्हें अपनी फसल बेचने में दिक्कत आई हो. लेकिन उनकी इस दुकान ने क्षेत्र में एक तरह की क्रांति कर दी. उनके पड़ोसी दूसरे किसानों को भी उनका यह आइडिया इतना भाया कि देखते ही देखते आईजोल-चंफाई रोड पर दसियों नघालॉह डॉर खुल गईं. आज सिर्फ इस रोड पर ही नहीं बल्कि मिजोरम के बाहरी इलाकों में आपको ऐसी कई दुकानें मिल जाएंगी.
इन दुकानों की खास बात यह है कि यहां नाप-तोल की व्यवस्था नहीं होती. सारे फल-सब्जियां गट्ठर या ढेरी में होते हैं. कीमत भी एक ढेरी या गट्ठर के हिसाब से होती है. वनलाल्डिगा एक अखबार को बताते हैं, ‘नाप-तोल में बहुत झंझट होता है इसलिए हम सभी सामान ढेरी या जोड़ी में बेचते हैं.’
नघालॉह डॉर की बुनियाद में भरोसा है और सबसे अच्छी बात है कि इन ग्रामीणों की ईमानदारी इतनी संक्रामक है कि यहां आने वाले पर्यटक भी इस भरोसे को नहीं तोड़ते.
आईजोल-चंफाई रोड मिजोरम की सबसे व्यस्त सड़कों में से है. म्यांमार सीमा पर यह प्रमुख व्यापारिक मार्ग है और इस पर बड़ी संख्या में पर्यटकों की आवा-जाही लगी रहती है. इन दुकानों के ज्यादातर ग्राहक पर्यटक ही हैं. नघालॉह डॉर ने ग्रामीण मार्केटिंग की एक ऐसी तकनीक ईजाद की है जहां लोगों को अपना सामान बेचने के लिए बिचौलिए की जरूरत नहीं है. दुकान पर सेल्समैन रखने या कहें कि खुद बैठने की भी जरूरत नहीं है और फायदा पूरा है. यहां जो समय बचता है उसका इस्तेमाल दुकान के मालिक अपने खेतों में करते हैं.
ऐसा नहीं है कि मिजोरम में चोरियां नहीं होतीं लेकिन, ग्रामीण अंचलों में चोरी करने वालों और उनके परिवार को इतनी हिकारत से देखा जाता है कि इनका अपने आप ही सामाजिक बहिष्कार हो जाता है. कुछ स्वभाविक निश्छलता और थोड़े-बहुत सामाजिक भय के मेल की वजह से मिजोरम के ग्रामीण अंचलों में चोरी की घटनाएं न के बराबर होती हैं. मिजोरम के समाज में यह व्यवस्था दशकों से रही है जिसके चलते आम लोग एक दूसरे पर पूरा भरोसा करते हैं. नघालॉह डॉर की बुनियाद में भी यही भरोसा है और सबसे अच्छी बात है कि इन ग्रामीणों की ईमानदारी इतनी संक्रामक है कि यहां आने वाले पर्यटक भी उनके इस भरोसे को नहीं तोड़ते हैं.(satyagrah)


