विचार/लेख
समीरात्मज मिश्र
उत्तरप्रदेश के हाथरस में दलित युवती के साथ हुए कथित बलात्कार और फिर हत्या के मामले में पीडि़त युवती के परिजन जहां न्यायिक जांच की मांग पर अड़े हैं वहीं पुलिस अब इस घटना को ‘इतना तूल’ देने के पीछे अंतरराष्ट्रीय साजि़श की बात कह रही है।
उत्तरप्रदेश पुलिस का आरोप है कि राज्य में जातीय और सांप्रदायिक दंगे कराने और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बदनाम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय साजिश रची गई थी।
हाथरस के चंदपा थाने में इस संबंध में तीन दिन पहले एक नई एफ़आईआर दर्ज की गई जिसमें कुछ अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ राजद्रोह जैसी धाराएं लगाई गई हैं।
बुधवार को इस मामले में चार लोगों को मथुरा से गिरफ्तार भी किया गया जिनमें मलयालम भाषा के एक पत्रकार भी शामिल हैं। इस मामले में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कहा था, ‘हमारे विरोधी अंतरराष्ट्रीय फंडिंग के जरिए जातीय और सांप्रदायिक दंगों की नींव रखकर हमारे खिलाफ साजिश कर रहे हैं।’
100 करोड़ रुपये की फंडिंग के आरोप
हाथरस मामले में कथित अंतरराष्ट्रीय साजिश के संबंध में उत्तर प्रदेश पुलिस ने राज्य भर में कम से कम 19 एफआईआर दर्ज की हैं और मुख्य एफआईआर में करीब 400 लोगों के खिलाफ राजद्रोह, षडय़ंत्र, राज्य में शांति भंग करने का प्रयास और धार्मिक नफरत को बढ़ावा देने जैसे आरोप लगाए गए हैं।
प्रवर्तन निदेशालय के हवाले से मीडिया में ये खबरें भी चल रही हैं कि हाथरस की इस घटना को जातीय और सांप्रदायिक दंगों में बदलने के लिए मॉरीशस के जरिए करीब 100 करोड़ रुपये की फंडिंग भी हुई है।
हालांकि इसके न तो पुख्ता सबूत मिले हैं और न ही आधिकारिक रूप से इसकी पुष्टि हुई है। पुलिस जिस संगठन पर शक जाहिर कर रही है उसका नाम पीएफआई यानी पॉपुलर फ्ऱंट ऑफ इंडिया है और गिरफ्तार किए गए लोगों के भी इस संगठन से संपर्क बताए जा रहे हैं।
शक के घेरे में रही है पीएफआई
राज्य सरकार ने इससे पहले नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ इस साल दिसंबर में हुए प्रदर्शनों और इस दौरान हुई हिंसा के लिए भी पीएफआई को ही जिम्मेदार ठहराया था।
उस दौरान 100 से भी ज़्यादा पीएफ़आई सदस्यों को गिरफ्तार किया गया था और मुख्यमंत्री ने इस संगठन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। यूपी में इससे पहले भी कुछ घटनाएं ऐसी हो चुकी हैं जिनके तूल पकडऩे के बाद उनके ‘अंतरराष्ट्रीय तार’ जोडऩे की कोशिश की गई।
स्थानीय घटनाओं में अंतरराष्ट्रीय साजि़श की बात से हैरानी जरूर होती है लेकिन यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सूचना सलाहकार शलभमणि त्रिपाठी कहते हैं कि इस साजिश में कुछ राजनीतिक दल और उनके नेता भी शामिल हैं।
शलभमणि त्रिपाठी के मुताबिक, ‘राज्य सरकार ने दंगाई मानसिकता के लोगों के खिलाफ जो कार्रवाइयां की हैं, उससे ऐसे संगठनों में बौखलाहट है। उपद्रवियों के पोस्टर सरेआम चौराहों पर लगाए गए, उनकी संपत्तियां कुर्क करके सार्वजनिक नुकसान की वसूली भी की गई।’
‘ऐसे में पीएफ़आई जैसे संगठनों ने योगी सरकार को बदनाम करने और प्रदेश में जातीय और सांप्रदायिक दंगे कराने की साजिश रची। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कुछ राजनीतिक दल भी अराजकता की इस साजिश में पीएफ़आई जैसे संगठनों के साथ खड़े दिख रहे हैं।’
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ राज्य में कई जगह विरोध प्रदर्शन हुए थे और उस दौरान लखनऊ, कानपुर, आज़मगढ़, फिरोजाबाद, मेरठ जैसे कई शहरों में हिंसा भडक़ गई थी।
इस हिंसा में कई लोगों की मौत हुई थी और सरकार की कार्रवाई पर सवाल भी उठे थे। सरकार ने प्रदर्शनों के आयोजन और उस दौरान हिंसा होने की घटना को भी अंतरराष्ट्रीय साजिश बताया था।
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस इन घटनाओं को अंतरराष्ट्रीय साजिश की बजाय ‘प्रशासनिक नाकामी को ढकने की कोशिश’ मानते हैं।
सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, ‘हाथरस में जो कुछ भी हुआ है वह प्रशासनिक नाकामी और संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। सुप्रीम कोर्ट में भी इस नाकामी को ढकने के जो तर्क दिए गए हैं वो बेसिर-पैर के हैं। चूंकि प्रशासनिक नाकामी आखिरकार सरकार की ही नाकामी की तरह है, इसलिए उसे ढकने के लिए अब अंतरराष्ट्रीय साजिश की ढाल तैयार की जा रही है।’
यूपी के डीजीपी रह चुके रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी डॉक्टर वीएन राय हाथरस जैसी घटनाओं के पीछे अंतरराष्ट्रीय साजिश जैसी बात को सिरे से नकारते हैं।
बीबीसी से बातचीत में डॉक्टर वीएन राय कहते हैं, ‘इसमें कोई तथ्य नहीं हैं। सिर्फ गुमराह करने की कोशिश है। आप देखिएगा, दो-चार हफ़्ते के बाद ये सारी साजिशें कहीं नहीं दिखेंगी। सब भूल जाएंगे। अंतरराष्ट्रीय साजि़श के जो प्रमाण दिए जा रहे हैं वो शुरुआती दौर में ही इतने खोखले हैं कि कोर्ट पहुंचने से पहले ही धराशायी हो जाएंगे।’
लेकिन सवाल उठता है कि ऐसे मामलों में अंतरराष्ट्रीय साजिश की बात कहने के पीछे क्या सच में लोगों को गुमराह करना या फिर ‘समय काटना’ है या फिर इसके पीछे कुछ राजनीतिक नफे-नुकसान का गणित भी काम करता है।
इस सवाल के जवाब में सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, ‘निश्चित तौर पर लोगों का ध्यान तो बँटेगा ही। लोग अब एक नए एंगल की थ्योरी पर सोचना शुरू कर देंगे और उन्हें लगेगा कि हां, सच में ऐसा हो रहा है। दूसरे, अंतरराष्ट्रीय साजिश में सीधे तौर पर इस्लामिक देशों का जिक्र किया जा रहा है तो ऐसी बातों में बीजेपी अपना फायदा ही देखती हैं।’
‘विरोधी को तो वो अपने पक्ष में ला नहीं सकते हैं लेकिन जिन समर्थकों का विश्वास सरकार की कार्यशैली से उठने लगा है, ऐसी साजिशों का जिक्र करके और कुछ के खिलाफ कार्रवाई करके, उनका विश्वास एक बार फिर जीतने की कोशिश तो हो ही सकती है।’
खुफिया एजेंसियों को खबर क्यों नहीं?
हालाँकि यदि अंतरराष्ट्रीय साजिश की बात मान भी ली जाए, तो अहम सवाल यह भी उठता है कि इतनी बड़ी साजिश हो रही थी तो पुलिस या खुफिया एजेंसियों को पता क्यों नहीं चला? और उन्हें पहले ही रोकने की कोशिश क्यों नहीं हुई।
सीएए के खिलाफ प्रदर्शन को भी अंतरराष्ट्रीय साजि़श से जोड़ा गया लेकिन न तो कोई पुख़्ता सबूत मिले और न ही किसी के ख़िलाफ़ अब तक कोई चार्ज शीट फ़ाइल की जा सकी है।
शलभ मणि त्रिपाठी कहते हैं, ‘सीएए प्रदर्शन के दौरान भी पूरे देश में अराजकता पैदा करने की कोशिश की गई, लेकिन सरकार की मुस्तैदी और खुफिया तंत्र की सक्रियता के चलते पूरे प्रदेश में एक भी बेकसूर व्यक्ति को इस उपद्रव से नुकसान नहीं पहुंचा।’
शलभ मणि त्रिपाठी का दावा है कि सीएए प्रदर्शन के दौरान एक भी बेकसूर व्यक्ति को नुक़सान नहीं हुआ लेकिन प्रदर्शन के दौरान कई लोगों की मौत पुलिस की गोली से हुईं और उससे जुड़े कई मुकदमे अभी अदालत में लंबित हैं।
जहां तक हाथरस की घटना का सवाल है, राज्य सरकार ने चार दिन पहले ही उसकी जांच सीबीआई को सौंपने की सिफारिश की थी लेकिन उसकी स्वीकृति अब तक नहीं मिली है।
दूसरी ओर, जांच का दायरा अब गैंगरेप और हत्या के अलावा अंतरराष्ट्रीय साजिश के साथ-साथ युवती की मौत की अन्य वजहों की ओर भी मुड़ता दिख रहा है। (bbc.com/hindi/india)
गुजरे दिनों मानव गतिविधियों पर लगी पाबंदी से जीव-जंतुओं की हलचल बढऩे की खबरें मिली हैं। शहरों में छाई अचानक शांति में लोगों ने गौर किया कि गोरैया पक्षी कितनी तेज आवाज निकालते हैं। जबकि साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया कि वास्तव में उनके गीतों की आवाज़ मंद पड़ी थी। गोरैयों ने बैंडविड्थ बढ़ाकर अपने गीतों में नीचे सुरों को शामिल किया था, जो शोधकर्ताओं के मुताबिक मादाओं को ज़्यादा लुभाते हैं।
दरअसल टेनेसी विश्वविद्यालय की जंतु संप्रेषण विज्ञानी एलिज़ाबेथ डेरीबेरी काफी समय से सफेद मुकुट वाली नर गोरैया (ज़ोनोट्रीकिया ल्यूकोफ्रिस) के गीतों का अध्ययन करती रही हैं। उन्होंने सैन फ्रांसिस्को के आसपास के शोर भरे शहरी वातावरण में रहने वाली गोरैया और शांत ग्रामीण वातावरण में रहने वाली गोरैया के गीतों की तुलना की थी। (मादा गोरैया शायद ही कभी गाती हों)। उन्होंने पाया था कि ग्रामीण इलाकों की गोरैया की तुलना में शहरी गोरैया ऊंची आवाज़ में और उच्च आवृत्ति पर गाती हैं। शायद इसलिए कि यातायात और मानव जनित शोर के बीच साथियों तक उनकी आवाज़ पहुंच सके।
तालाबंदी के दौरान शहरों के शोर में आई कमी के कारण गोरैया के गीतों पर पड़े प्रभावों को जानने के लिए डेरीबेरी और उनके साथियों ने उन्हीं स्थानों पर गोरैया के गीतों का अध्ययन किया। तुलना के लिए पहले की रिकॉर्डिंग थी ही। चूंकि डेरीबेरी सैन फ्रांसिस्को में नहीं थीं इसलिए उनकी साथी जेनिफर फिलिप ने उन्हीं स्थानों पर गोरैयों की आवाज़ और शोर रिकार्ड करके डेरीबेरी को भेजा। ध्वनि के विश्लेषण में देखा गया कि ग्रामीण इलाकों के शोर के स्तर में खास कमी नहीं आई थी लेकिन शहरी इलाके के शोर में कमी आई थी, और वह लगभग ग्रामीण इलाकों जैसे हो गए थे। यानी इस दौरान शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों का शोर का स्तर लगभग समान हो गया था।
यह भी देखा गया कि जब शहरों का शोर कम हुआ तो शहरी गोरैया की आवाज भी मद्धम पड़ गई। उनकी आवाज़ में लगभग 4 डेसिबल की कमी देखी गई। उनके गीतों की आवाज़ मंद हो जाने के बावजूद उनके गीत स्पष्ट और अधिक दूरी तक सुनाई दे रहे थे, क्योंकि उनकी आवाज़ में आई कमी शहर के शोर में आई कमी से कम थी। स्पष्ट है कि तालाबंदी के दौरान पक्षी जोर से नहीं गाने लगे थे।
आवाज कम होने के अलावा, गोरैया के गीतों की बैंडविड्थ भी बढ़ गई थी। खासकर उन्होंने निचले सुर वाले गीत गाए, जो पहले शोर भरे माहौल में गुम हो जाते थे। पूर्व के अध्ययनों में यह देखा गया है कि मादा गोरैया को वे नर अधिक आकर्षित करते हैं जो जिनके गीतों की बैंडविड्थ अधिक होती है।
हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस वसंत में परिवर्तित गीतों के कारण शहरी गोरैया की प्रजनन सफलता प्रभावित हुई है या नहीं। लेकिन यह अध्ययन बताता कि प्राकृतिक तंत्र मानव हस्तक्षेप में कमी आने पर तुरंत प्रतिक्रिया देना शुरू कर देता है।
भले ही शोरगुल फिर बढऩे लगा है लेकिन उम्मीद है कि इन नतीजों को देखकर लोग शोर कम करने की सोचें। संभवत: वे अधिक घर से काम करने के बारे में सोचें, या ध्वनि रहित इलेक्ट्रिक वाहन लेने पर विचार करें।
(स्रोत फीचर्स)
बढ़ती हुई एमएसपी और 81 करोड़ लोगों को मुफ्त पांच किलो अनाज प्रति महीने देने की योजना ने बजट के विपरीत एफसीआई पर कर्ज का बोझ और बढ़ा दिया है।
- संदीप दास
पिछले कुछ वर्षों से देश में एक राजकोषीय संकट मंडरा रहा है। इसकी प्रमुख वजह है बढ़ती हुई खाद्य सब्सिडी, जो कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के लिए देय है। दरअसल एक के बाद एक केंद्रीय बजटों में खाद्य सब्सिडी खर्चों के लिए किए जा रहे "उप-प्रावधान" ने एफसीआई को अपने कामकाज के लिए कर्ज लेने पर मजबूर किया है। एफसीआई एक केंद्रीय एजेंसी है जो अनाज वितरण के लिए मुख्य रूप से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत राज्यों को चावल और गेहूं की खरीद, भंडारण और परिवहन का प्रबंधन करती है एनएफएसए के तहत प्रति माह लगभग 81 करोड़ लोगों को प्रति माह पांच किलोग्राम खाद्यान्न की काफी व्यापक सब्सिडी दी जाती है। इसमें लगभग 2.5 करोड़ अंत्योदय अन्न योजना घर शामिल हैं, जो गरीबों में सबसे गरीब हैं और रियायती मूल्य पर प्रति माह 35 किलोग्राम प्रति परिवार के हकदार हैं।
केंद्र सरकार ने बैंकों के जरिए स्वीकृत कर्ज को बढ़ाने के लिए विभिन्न स्रोतों जैसे राष्ट्रीय लघु बचत कोष (एनएसएफएफ),अल्पावधि ऋण, बांड और नकद ऋण सीमा (सीसीआई) का प्रावधान किया है। ताकि संघ के बजट में उप-प्रावधान के कारण एफसीआई अपने वास्तविक खाद्य सब्सिडी खर्चों को पूरा कर पाए।
उप प्रावधान में खाद्य सुरक्षा खर्चे
बीते वित्त वर्ष 2019-20 में एफसीआई को खाद्य सब्सिडी के लिए 1.84 करोड़ रुपये का आवंटन बजट में किया गया था जो कि बाद में घटाकर 75000 करोड़ रुपये कर दिया गया। यह दोबारा अनुमानित बजट प्रावधान के तहत था, जिसमें अतिरिक्त तौर पर एनएसएसफ के तहत 1.1 लाख करोड़ रुपये का कर्ज भी था। इससे पहले 1.51 लाख करोड़ रुपये एफसीआई और 33,000 करोड़ रुपये राज्यों में विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली के लिए था। वहीं, रोचक यह है कि एफसीआई ने 2016-17 के तहत 46,400 करोड़ रुपये का हाल ही मे भुगतान भी किया था।
बजट में खाद्य सब्सिडी आवंटन के संबंध में किए जाने वाले प्रावधानों की रिक्तता को भरने के लिए लगातार राष्ट्रीय लघु बचत कोष (एनएसएसएफ) से कर्ज लिया जा रहा है। इसी बीच एफसीआई पर कर्ज के भुगतान का पहाड़ बड़ा होता जा रहा है। अनुमान के मुताबिक एफसीआई पर वित्त वर्ष 2020 के अंत तक 2.49 लाख करोड़ रुपये का बकाया था। वहीं, सभी स्रोतों को मिलाने पर यह 3.33 लाख करोड़ रुपये का है। इनमें एनएसएसएफ से 2.54 लाख करोड, शॉर्ट टर्म लोन से 35 हजार करोड़ और कैश क्रेडिट लिमिट के जरिए 9000 करोड़ रुपये शामिल हैं।
खाद्य सब्सिडी, बकाया कर्ज, एफसीआई के जरिए लिया गया लोन

स्रोत : केंद्रीय बजट दस्तावेज, खाद्य मंत्रालय, *मार्च 31, 2020 तक, नोट : 80-85 फीसदी खाद्य सब्सिडी आवंटन एफसीआई के रास्ते है और शेष विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली में राज्यों को आवंटन किया जाता है, ** रिवाइज्ड इस्टीमेट, ***बजट अनुमान. सारिणी : संदीप दास
आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक वर्तमान वित्त वर्ष 2020-2021 के पहले दो तिमाही के अंत तक एनएसएसएफ के तहत ऋण बढ़कर 2.93 करोड़ रुपये पहुंच गया है। जबकि खाद्य सब्सिडी आवंटन 115,319 करोड़ रुपये है (77,982 करोड़ एफसीआई के लिए और 37,337 करोड़ रुपए राज्यों की विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली के लिए), और वास्तविक खर्च में तीव्र उछाल हुआ है। क्योंकि केंद्र सरकार एनएफएसए के तहत प्रधान मंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत 81 करोड़ लोगों को प्रति माह पांच किलो मुफ्त अनाज दे रही है।
यह व्यवस्था कोविड-19 संक्रमण प्रसार को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के मद्देनजर अप्रैल, 2020 को शुरु की गई। केंद्रीय खाद्य मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि पीएमजीकेएवाई के कारण मौजूदा वित्त वर्ष में अनुमानित सब्सिडी खर्च 2.33 लाख करोड़ रुपये का हो सकता है जबकि अनुमानित बजट 1.15 लाख करोड़ रुपये है।
खाद्य सब्सिडी खर्चे बढ़ने की वजहें
धान और गेहूं पर सालाना बढ़ती हुई एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य और एफसीआई के जरिए अनाज भंडारण की अधिकता व मुक्त तरीके से खरीद के कारण खाद्य सब्सिडी के खर्चे में बढ़ोत्तरी हुई है। वहीं एक अन्य कारण केंद्र की अनिच्छा भी है। बेहद कम दर में अनाज सब्सिडी एनएफएसए, 2013 के तहत दी जा रही है। आर्थिक सर्वेक्षण 2019-2020 के तहत केंद्र के जरिए 3 रुपये में चावल, 2 रुपये में गेहूं, और एक रुपये में मोटा अनाज दिया जा रहा है। यह दरें एनएफएसए, 2013 की हैं जो अब तक नहीं बदली गई हैं। वहीं दूसरी तरफ 2020-2021 में धान और गेहूं के लिए एफसीआई की आर्थिक लागत (किसानों को एमएसपी, भंडारण,परिवहन और अन्य लागत) क्रमशः 37.26 रुपए और 26.83 रुपये पड़ती है। यह एक बड़ा कारण है कि आर्थिक लागत और केंद्रीय जारी दरें (सीआईपी) व खाद्य सब्सिडी बीते कुछ वर्षों में बढ़ती गई है।
आर्थिक सर्वे इस बात पर भी गौर करता है कि “जबकि जनसंख्या के कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा करने की आवश्यकता है, एनएफएसए के तहत सीआईपी को बढ़ाने के आर्थिक तर्क को भी कम नहीं किया जा सकता है। खाद्य सुरक्षा कार्यों की स्थिरता के लिए खाद्य सब्सिडी बिल पर भी ध्यान देने की जरूरत है।”
अतिरिक्त अनाज भंडार बढ़ा रहे खाद्य सब्सिडी का खर्चा
एफसीआई के पास रखे गए अनाज के स्टॉक दरअसल बफर स्टॉक के मानक से अधिक बने हुए हैं, जो कि खाद्य सब्सिडी के बढ़ते खर्च में ईंधन का काम करते हैं। 1 अक्टूबर, 2020 को एफसीआई के पास 3.07 करोड़ टन (30.7 मिलियन टन) के बफर स्टॉक मानदंडों के विरुद्ध 6.75 करोड़ टन (67.5 करोड़ टन) का अनाज (चावल और गेहूं) स्टॉक था।
अनाज स्टॉक एफसीआई (मिलियन टन में आंकड़े) एक अक्तूबर तक

30.77 मिलियन टन बफर स्टॉक के नियम में 10.25 मिलियन टन चावल, 20.5 मिलियन टन गेहूं शामिल है। इस स्टॉक में ऑपरेशनल स्टॉक और रणनीति के तहत किया गया भंडारण भी है। अनाज भंडारण में मिल से भंडार किए गए चावल स्टॉक को शामिल नहीं किया गया है। सारिणी : संदीप दास
बढ़ते अनाज स्टॉक के पीछे प्रमुख कारक पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में ओपन-एंडेड एमएसपी ऑपरेशंस हैं, जिसके परिणामस्वरूप एफसीआई ने एमएसपी ऑपरेशंस के जरिए किसानों से अधिक अनाज खरीदा है। राज्यों द्वारा ले लो। पिछले दशक में एनएफएसए के तहत राज्यों द्वारा खाद्यान्नों का उठान (ऑफ-टेक) 51-59 मीट्रिक टन था, जबकि इसी अवधि के दौरान अनाज की खरीद लगभग 60 मीट्रिक टन थी। पिछले दो वर्षों के दौरान 2018-19 और 2019-20 के दौरान खरीद 80 मीट्रिक टन को पार कर गई है।
राज्यों के जरिए खाद्यान्न का उठान (ऑफटेक*) (एनएफएसए , अन्य कल्याणकारी योजनाएं, मिड डे मील, आईसीडीएस )

स्रोत : डिपार्टमेंट ऑफ फूड एंड पब्लिक डिस्ट्रब्यूशन, *ओएमएसएस बिक्री बाहर, सारिणी : संदीप दास
भारत के नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने राजकोषीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 के 2016-2017 में अनुपालन को लेकर 2019 में जारी अपनी रिपोर्ट में कहा कि 2016-2017 से पांच वर्षों में सब्सिडी एरियर्स यानी खाद्य सब्सिडी में देनदारी में 350 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। इसलिए जरूरत है कि वित्तपोषण कई तरीकों से किया जाना चाहिए। साथ ही उच्च ब्याज कैश क्रेडिट सुविधा वास्तविक सब्सिडी को बढ़ाने वाली है।
वहीं, केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने जुलाई, 2018 मनें कहा था कि ऑफ-बजट देनदारियां (ऐसा वित्त जिसका उल्लेख बजट में नहीं होता है) केंद्रीय बजट के दायरे से बाहर नहीं है। ऑफ बजट का मूल और ब्याज के पुर्नभुगतान का प्रावधान बजट के जरिए किया गया था।
मंत्रालय ने बजट दस्तावेजों में एनएसएसएफ द्वारा नाबार्ड के आंतरिक और अतिरिक्त बजटीय संसाधनों और एफसीआई को ऋण देने का खुलासे पर गौर किया था। 2019 की सीएजी रिपोर्ट के अनुसार, वित्त मंत्रालय ने स्वीकार किया कि एफसीआई के खातों को अंतिम रूप देने के बाद बजट में एक साल के लिए 95 प्रतिशत खाद्य सब्सिडी का प्रावधान करने और बाद के वर्षों में शेष पांच प्रतिशत को समाप्त करने की प्रथा है। बजटीय बाधाओं के कारण, किसी विशेष वर्ष में खाद्य सब्सिडी की पूरी राशि प्रदान करना संभव नहीं हो सकता है। ऑफ-बजट वित्तीय व्यवस्था एफसीआई की कार्यशील पूंजी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए है, जिसे बैंकिंग स्रोतों से स्वतंत्र रूप से पूरा किया जा रहा था।
केंद्र सरकार ने 2014 में एफसीआई के पुनर्गठन पर पूर्व खाद्य मंत्री शांता कुमार की अध्यक्षता में एक उच्च-स्तरीय समिति (एचएलसी) की नियुक्ति की थी। जनवरी 2015 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में समिति ने सिफारिश की थी कि एफसीआई को उन राज्यों की मदद करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए, जहां किसान एमएसपी से काफी नीचे कीमतों पर संकट से ग्रस्त हैं, और छोटी जोत वाले हैं। इनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार पश्चिम बंगाल, असम आदि शामिल हैं।
एफसीआई आर्थिक लागत, केंद्रीय जारी दर और सब्सिडी (रुपए प्रति क्विंटल )

स्रोत : डिपार्टमेंट ऑफ फूड एंड पब्लिक एंड डिस्ट्रिब्यूशन
उच्चस्तरीय समिति ने अपनी सिफारिश में कहा था कि धान उगाने के लिए किसानों को हतोत्साहित करने के लिए, विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा में दालों और तिलहन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। साथ ही केंद्र सरकार को उनके लिए बेहतर मूल्य समर्थन अभियान प्रदान करना चाहिए और व्यापार नीति के साथ उनकी एमएसपी नीति को लागू करना चाहिए ताकि उनकी जमीनी लागत उनके एमएसपी से कम न हो। क्योंकि एफसीआई और उसके सहायक ओपन-एंडेड एमएसपी परिचालनों के कारण पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में किसानों द्वारा लाए गए सभी चावल और गेहूं खरीदते हैं।
इसलिए, इन राज्यों के किसानों को वैकल्पिक फसलों जैसे तिलहन और दालों को उगाने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता है ताकि एफसीआई की खरीद के संचालन में गिरावट न आ सके। हालांकि, एफसीआई के सामने आने वाले संकट से निपटने में बहुत प्रगति नहीं हुई है। केंद्र सरकार को एफसीआई द्वारा किए जाने वाले खाद्य सब्सिडी खर्चों के प्रावधान को सुनिश्चित करने की दिशा में कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। राजकोषीय संकट का मात्र स्थगन कोई अधिक व्यवहार्य विकल्प नहीं है। सरकार के हाथ से समय बहुत तेजी से निकल रहा है। (downtoearth)
लेखक कृषि और खाद्य सुरक्षा में दिल्ली स्थित शोधकर्ता और नीति विश्लेषक हैं।
रेफ्रिजरेटर, बॉयलर और यहां तक कि बल्ब अपने आसपास के वातावरण में निरंतर ऊष्मा बिखेरते हैं। सैद्धांतिक रूप से इस व्यर्थ ऊष्मा को बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है। गाडिय़ों के इंजिन और अन्य उच्च-ताप वाले स्रोतों के साथ तो ऐसा किया जाता है लेकिन इस तकनीक का उपयोग घरेलू उपकरणों के लिए थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि ये काफी कम ऊष्मा छोड़ते हैं।
लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा उपकरण तैयार किया है जो तरल पदार्थों का उपयोग करके निम्न-स्तर की ऊष्मा को बिजली में परिवर्तित कर सकता है। गौरतलब है कि वैज्ञानिक काफी समय से ऐसे पदार्थों के बारे में जानते हैं जो ऊष्मा को बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं। यह कार्य विशेष अर्धचालकों द्वारा किया जाता है जिन्हें ताप-विद्युत पदार्थ कहते हैं। जब इनसे बनी चिप्स का एक सिरा गर्म और दूसरा ठंडा होता है तब इलेक्ट्रान गर्म से ठंडे सिरे की ओर बहने लगते हैं। कई चिप्स को एक साथ जोडऩे पर एक स्थिर विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता है।
लेकिन जो पदार्थ अभी ज्ञात हैं वे महंगे हैं और तापमान में सैकड़ों डिग्री सेल्सियस के अंतर पर काम करते हैं। ऐसे में यह तकनीक रेफ्रिजरेटर जैसे निम्न-स्तर के ताप स्रोतों के लिए बेकार है। इस समस्या को दूर करने के लिए हुआज़हौंग युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के भौतिक विज्ञानी जून ज़ाऊ और उनके सहयोगियों ने थर्मोसेल्स की ओर रुख किया। इन उपकरणों में गर्म से ठंडे की ओर विद्युत आवेश को प्रवाहित करने के लिए ठोस की बजाय तरल पदार्थों का उपयोग किया जाता है। इनमें इलेक्ट्रॉन्स का नहीं बल्कि आयनों का स्थानांतरण होता है।
थर्मोसेल्स कम तापमान अंतर को बिजली में परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं लेकिन विद्युत धारा बहुत कम होती है। कारण यह है कि इलेक्ट्रॉन्स की तुलना में आयन सुस्त होते हैं। इसके अलावा इलेक्ट्रॉन के विपरीत आयन अपने साथ ऊष्मा का भी प्रवाह करते हैं जिससे दोनों सिरों के बीच तापमान का अंतर कम हो जाता है।
जाऊ की टीम ने एक छोटी थर्मोसेल से शुरुआत की जिसके निचले व ऊपरी सिरों पर इलेक्ट्रोड थे। निचले और ऊपरी इलेक्ट्रोड के बीच 50 डिग्री सेल्सियस का अंतर बनाए रखा गया। उन्होंने इस चैम्बर में फैरीसाइनाइड नामक आयनिक पदार्थ भर दिया।
गर्म इलेक्ट्रोड के नज़दीक हों तो फैरीसाइनाइड आयन एक इलेक्ट्रान छोड़ते हैं और चार ऋणावेश युक्त स्नद्ग (ष्टहृ) 6-4 से तीन ऋणावेश युक्त स्नद्ग (ष्टहृ)6-3 में बदल जाते हैं। मुक्त इलेक्ट्रॉन्स एक बाहरी सर्किट के माध्यम से गर्म से ठंडे इलेक्ट्रोड की ओर बहते हुए सर्किट में लगे छोटे उपकरणों को उर्जा प्रदान करते हैं। ये इलेक्ट्रान जब ठंडे इलेक्ट्रोड तक पहुंचते हैं तब ये स्नद्ग(ष्टहृ)6-3 के साथ जुड़ जाते हैं। इससे पुन: स्नद्ग(ष्टहृ)6-4 आयन उत्पन्न होते हैं जो फिर से गर्म इलेक्ट्रोड की ओर चले जाते हैं और यह चक्र निरंतर चलता रहता है।
इन गतिमान आयनों द्वारा वाहित गर्मी को कम करने के लिए ज़ाऊ की टीम ने फैरीसाइनाइड में एक धनावेशित कार्बन यौगिक गुआनिडिनियम जोड़ दिया। ठंडे इलेक्ट्रोड पर गुआनिडिनियम ठंडे 6-4 आयनों को क्रिस्टल्स में परिवर्तित कर देता है। क्योंकि तरल पदार्थों की तुलना में ठोस पदार्थों की ऊष्मा चालकता कम होती है, वे गर्म से ठंडे इलेक्ट्रोड की ओर जाने वाली गर्मी को सोख लेते हैं। गुरुत्वाकर्षण के कारण ये क्रिस्टल्स गर्म इलेक्ट्रोड की ओर चले जाते हैं जहां गर्मी के कारण ये वापिस तरल बन जाते हैं।
साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार थर्मोसेल के पिछले संस्करणों की तुलना में इलेक्ट्रोड के उतने ही क्षेत्रफल के लिए यह थर्मोसेल पांच गुना अधिक बिजली उत्पन्न करती है। यह एक सामान्य व्यावसायिक उपकरण से दो गुना अधिक दक्षता प्रदान करता है। टीम के अनुसार एक 20 थर्मोसेल वाले पुस्तक के आकार के मॉड्यूल से एक एलईडी लाइट और एक पंखे को ऊर्जा प्रदान की जा सकती है। साथ ही एक मोबाइल फोन भी चार्ज किया जा सकता है। टीम के लिए अगला कदम इस उपकरण को और सस्ता बनाना और ऐसी सामग्री का उपयोग करना है जो अधिक से अधिक ऊष्मा को अवशोषित कर सके। इसकी सहायता से हम अपने आसपास के वातावरण में उपलब्ध गर्मी से छोटे गैजेट्स को उर्जा देने में सक्षम हो सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)
वैसे तो यहां जिन मिथकों की चर्चा की गई है, वे मूलत: संयुक्त राज्य अमेरिका के सोशल मीडिया पर किए गए शोध और अन्य जानकारियों पर आधारित हैं। लेकिन थोड़े अलग रूप में ये भारत के सोशल मीडिया में भी नजर आ जाते हैं।
कोरोनावायरस महामारी के साथ-साथ विश्व एक और महामारी से लड़ रहा है जिसे 'इंफोडेमिक' का नाम दिया गया है। इस 'सूचनामारी' के चलते लोग रोग की गंभीरता को कम आंकते हैं और सुरक्षा के उपायों को अनदेखा करते हैं। यहां इस महामारी से सम्बंधित कुछ मिथकों पर चर्चा की गई है।
मिथक 1: नया कोरोनावायरस चीन की प्रयोगशाला में तैयार किया गया है
चूंकि इस वायरस का सबसे पहला संक्रमण चीन में हुआ था, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बिना किसी सबूत के यह दावा कर दिया कि इसे चीन की प्रयोगशाला में तैयार किया गया है। हालांकि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने इन सभी दावों को खारिज करते हुए कहा है कि न तो यह मानव निर्मित है और न ही आनुवंशिक फेरबदल से बना है। साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार चीनी वायरोलॉजिस्ट शी ज़ेंगली और उनकी टीम द्वारा इस वायरस के डीएनए अनुक्रम की तुलना गुफावासी चमगादड़ों में पाए जाने वाले कोरोनावायरसों से करने पर कोई समानता नजऱ नहीं आई। इस वायरस के प्रयोगशाला में तैयार न किए जाने पर ज़ेंगली ने एक विस्तृत आलेख साइंस पत्रिका में प्रकाशित भी किया है। गौरतलब है कि ट्रम्प ने ज़ेंगली की प्रयोगशाला पर वायरस विकसित करने का इल्ज़ाम लगाया था। इस मुद्दे पर स्वतंत्र जांच की मांग को देखते हुए चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के शोधकर्ताओं को भी आमंत्रित किया है। लेकिन सबूत के आधार पर यही कहा जा सकता है कि सार्स-कोव-2 को प्रयोगशाला में तैयार नहीं किया गया है।
मिथक 2: उच्च वर्ग के लोगों ने ताकत और मुनाफे के लिए वायरस को जानबूझकर फैलाया है
जूड़ी मिकोविट्स नामक एक महिला ने सोशल मीडिया पर 26 मिनट की षडय़ंत्र-सिद्धांत आधारित फिल्म 'प्लानडेमिकÓ और अपने ही द्वारा लिखित एक किताब में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्शियस डिसीज के निर्देशक एंथोनी फौसी और माइक्रोसॉफ्ट के सह-संस्थापक बिल गेट्स पर इल्जाम लगाया है कि उन्होंने इस बीमारी से फायदा उठाने के लिए अपनी ताकत का उपयोग किया है। यह वीडियो कई सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स पर 80 लाख से अधिक लोगों ने देखा।
साइंस और एक अन्य वेबसाइट politifact ने जांच करने के बाद इस दावे को झूठा पाया। हालांकि इस वीडियो को अब सोशल मीडिया से हटा लिया गया है लेकिन इससे स्पष्ट है कि गलत सूचनाएं बहुत तेज़ी से फैलती हैं।
मिथक 3: कोविड-19 सामान्य फ्लू के समान ही है
महामारी के शुरुआती दिनों से ही राष्ट्रपति ट्रम्प ने बार-बार दावा किया कि कोविड-19 मौसमी फ्लू से अधिक खतरनाक नहीं है। लेकिन 9 सितंबर को वाशिंगटन पोस्ट ने ट्रम्प के फरवरी और मार्च में लिए गए साक्षात्कार की एक रिकॉर्डिंग जारी की जिससे पता चलता है कि वे (ट्रम्प) जानते थे कि कोविड-19 सामान्य फ्लू से अधिक घातक है लेकिन इसकी गंभीरता को कम करके दिखाना चाहते थे।
हालांकि कोविड-19 की मृत्यु दर का सटीक आकलन तो मुश्किल है लेकिन महामारी विज्ञानियों का विचार है कि यह फ्लू की तुलना में कहीं अधिक है। फ्लू के मामले में टीकाकरण या पूर्व संक्रमण के कारण कई लोगों में कुछ प्रतिरोधक क्षमता तो है, जबकि अधिकांश विश्व ने अभी तक कोविड-19 का सामना ही नहीं किया है। ऐसे में कोरोनावायरस सामान्य फ्लू के समान तो नहीं है।
मिथक 4: मास्क पहनने की जरूरत नहीं है
हालांकि सीडीसी और डब्ल्यूएचओ द्वारा मास्क के उपयोग पर प्रारंभिक दिशानिर्देश थोड़े भ्रामक थे लेकिन अब सभी मानते हैं कि मास्क का उपयोग करने से कोरोनावायरस को फैलने से रोका जा सकता है। काफी समय से पता रहा है कि मास्क का उपयोग किसी संक्रमण को फैलने से रोकने में काफी प्रभावी है। अब तो यह भी स्पष्ट है कि कपड़े से बने मास्क भी कारगर हैं। फिर भी कई साक्ष्यों के बावजूद कुछ लोगों ने मास्क को नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए पहनने से इन्कार कर दिया।
मिथक 5: हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन एक प्रभावी उपचार है
फ्रांस में किए गए एक छोटे अध्ययन के आधार पर सुझाव दिया गया कि मलेरिया की दवा हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का उपयोग इस बीमारी के इलाज में प्रभावी हो सकता है। इसकी व्यापक आलोचना और इसके प्रभावी न होने के साक्ष्य के बावजूद ट्रम्प और अन्य लोगों ने इसे जारी रखा। फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने भी शुरुआत में अनुमति देने के बाद ह्रदय संबंधी समस्याओं के जोखिम के कारण इसे नामंज़ूर कर दिया। कई अध्ययनों से पर्याप्त साक्ष्य मिलने के बाद भी ट्रम्प ने इस दवा का प्रचार जारी रखा।
मिथक 6 : 'ब्लैक लाइव्ज़ मैटर' प्रदर्शन के कारण संक्रमण में वृद्धि हुई है
अमेरिका में पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद मई-जून में अश्वेत अमरीकियों के विरुद्ध हिंसा के खिलाफ बड़े स्तर पर लोगों ने सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किया। कई लोगों ने दावा किया कि इन प्रदर्शनों में भीड़ जमा होने से कोरोनावायरस के मामलों में वृद्धि हुई। लेकिन नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनोमिक रिसर्च द्वारा अमेरिका के 315 बड़े शहरों में हुए विरोध प्रदर्शनों के एक विश्लेषण से ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं जिससे यह कहा जा सके कि इन प्रदर्शनों के कारण कोविड-19 मामलों में वृद्धि हुई है या अधिक मौतें हुई हैं। वास्तव में प्रदर्शन करने वाले लोगों में संचरण का जोखिम बहुत कम था और अधिकांश प्रदर्शनकारियों ने मास्क का उपयोग किया था।
मिथक 7: अधिक परीक्षण के कारण कोरोनावायरस मामलों में वृद्धि हुई है
राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह दावा किया कि अमेरिका में कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों का कारण परीक्षण में हो रही वृद्धि है। यदि यह सही है तो परीक्षणों में पॉजि़टिव परिणामों के प्रतिशत में कमी आनी चाहिए थी। लेकिन कई विश्लेषणों ने इसके विपरीत परिणाम दर्शाए हैं। यानी वृद्धि वास्तव में हुई है।
मिथक 8: संक्रमण फैलेगा तो झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त की जा सकती है
महामारी की शुरुआत में यूके और स्वीडन ने झुंड प्रतिरक्षा के तरीके को अपनाया। इस तकनीक में वायरस को फैलने दिया जाता है जब तक आबादी में झुंड प्रतिरक्षा विकसित नहीं हो जाती है। लेकिन इस दृष्टिकोण में एक बुनियादी दोष है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि झुंड प्रतिरक्षा हासिल करने के लिए 60 से 70 प्रतिशत लोगों का संक्रमित होना आवश्यक है। कोविड-19 की उच्च मृत्यु दर को देखते हुए झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त करते-करते करोड़ों लोग मारे जाते। इसी कारण इस महामारी में यूके की मृत्यु दर सबसे अधिक है। यूके और स्वीडन में लोगों की जान और अर्थव्यवस्था का भी काफी नुकसान हुआ। देर से ही सही, यू.के. सरकार ने इस गलती में सुधार किया और लॉकडाउन लागू किया।
मिथक 9 : कोई भी टीका असुरक्षित होगा और कोविड-19 से अधिक घातक होगा
एक ओर वैज्ञानिक निरंतर टीका विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं ये चिंताजनक रिपोर्ट्स भी सामने आ रही हैं कि शायद कई लोग इसे लेने से इन्कार कर देंगे। संभावित टीके को साजि़श के रूप में देखा जा रहा है। प्लानडेमिक फिल्म में तो यह भी दावा किया गया है कि कोविड-19 का टीका लाखों लोगों की जान ले लेगा। साथ ही यह दावा भी किया गया है कि पहले भी टीकों ने लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। लेकिन तथ्य यह है कि टीकों ने करोड़ों जानें बचाई हैं। यदि उपरोक्त दावा सही है, तो अलग-अलग चरणों में परीक्षण के दौरान लोगों की मौत हो जानी चाहिए थी। टीका-विरोधी समूहों द्वारा प्रस्तुत एक अन्य साजि़श-सिद्धांत में तो कहा गया है कि बिल गेट्स एक गुप्त योजना बना रहे हैं जिसके तहत टीकों के माध्यम से लोगों में माइक्रोचिप लगा दी जाएगी। इससे इतना तो स्पष्ट है कि टीके के निरापद होने की बात पर अत्यधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है, अन्यथा ऐसी बातों को तूल मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)
यदि पिछले तीस वर्षों (1981-2010) में सितम्बर के औसत तापमान से तुलना करें तो इस वर्ष तापमान करीब 0.63 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया है
- Lalit Maurya
कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार गत माह इतिहास का सबसे गर्म सितम्बर था। जारी आंकड़ों के अनुसार इस माह में तापमान सितम्बर 2019 की तुलना में 0.05 डिग्री सेल्सियस अधिक रिकॉर्ड किया गया था। जबकि यदि पिछले तीस वर्षों (1981-2010) में सितम्बर के औसत तापमान से तुलना करें तो इस वर्ष तापमान करीब 0.63 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया है।
यूरोप सहित दुनिया के कई देशों में सितम्बर का तापमान औसत से ज्यादा रिकॉर्ड किया गया था। जो स्पष्ट तौर पर जलवायु में आ रहे बदलावों की ओर इशारा करता है। वहीं यदि सितम्बर 2016 से तुलना करें तो इस वर्ष तापमान उससे 0.8 डिग्री सेल्सियस अधिक था। गौरतलब है कि 2016 को इतिहास का सबसे गर्म वर्ष माना जाता है।
इस वर्ष केवल सितम्बर ऐसा महीना नहीं है जब तापमान वैश्विक औसत से अधिक रिकॉर्ड किया गया है। इससे पहले जनवरी और मई 2020 में भी तापमान अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया था। यूरोप में भी सितम्बर का तापमान अपनी उच्तम स्तर पर पहुंच गया है। जहां तापमान सितम्बर 2018 की तुलना में 0.2 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया है। जबकि रूस में भी पिछले 130 वर्षों में सबसे गर्म सितम्बर रिकॉर्ड किया गया है।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन द्वारा किये विश्लेषण के अनुसार 2019 को मानव इतिहास के दूसरा सबसे गर्म वर्ष के रूप में दर्ज किया गया था। आंकड़ों के अनुसार 2019 के वार्षिक वैश्विक तापमान में औसत (1850 से 1900 के औसत तापमान) से 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। जबकि 2016 का नाम अभी भी रिकॉर्ड में सबसे गर्म साल के रूप में दर्ज है। आंकड़ें दिखाते हैं कि 2010 से 2019 के बीच पिछले पांच साल रिकॉर्ड के सबसे गर्म वर्ष रहे हैं।
आर्कटिक समुद्री बर्फ में भी दर्ज की गई 40 फीसदी की कमी
इसके साथ ही साइबेरियाई आर्कटिक में तापमान औसत से बहुत ज्यादा रिकॉर्ड किया गया। वहीं दूसरी और सैटेलाइट रिकॉर्ड शुरू होने के बाद से यह दूसरा मौका है जब आर्कटिक में समुद्री बर्फ अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। यदि 1981 से 2020 के औसत की तुलना करें तो सितम्बर 2020 में आर्कटिक समुद्री बर्फ 40 फीसदी कम रिकॉर्ड की गई है, जबकि अंटार्कटिक में समुद्री बर्फ की सीमा औसत से थोड़ा ज्यादा थी।
यह आंकड़े एक बार फिर इस और इशारा कर रहे हैं कि भविष्य में हमें और विकट मौसम का सामना करना पड़ेगा। जब दुनिया भर में हो रही ग्लोबल वार्मिंग हर चीज पर अपना असर डालना शुरू कर देगी। वैसे भी दुनिया भर में कहीं बाढ़ कहीं सूखा और कहीं तूफान के रूप में यह असर दिखने भी लगा है। जिसने इंसानों से लेकर जीव-जंतुओं और पेड़ पौधों पर भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है।
बढ़ते तापमान के चलते बाढ़, सूखा, तूफान जैसी चरम घटनाओं का होना आम होता जा रहा है, साथ ही इनकी तीव्रता में भी वृद्धि हो रही है। उदाहरण के लिए, भारत में वर्ष 2017 की सर्दियों में जब औसत तापमान 1901-1930 बेसलाइन से 2.95 डिग्री सेल्सियस अधिक था, उसी समय (2016-17) दक्षिणी भारत में सदी का सबसे भयंकर सूखा पड़ा था, जिसने 33 करोड़ से भी अधिक लोगों को प्रभावित किया था । अभी भी वक्त है यदि हम नहीं चेते और हमने इसके लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये तो भविष्य में हमें इसके गंभीर परिणाम झेलने होंगे।(downtoearth)
-अभय शर्मा
संसद में 23 सितंबर को श्रम कानून से जुड़े तीन अहम कोड बिल पास हो गए. सरकार ने बीते साल श्रम सुधार की बात कहते हुए 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को मिलाकर चार कोड बिल तैयार किये थे. इनमें से तीन कोड बिल - औद्योगिक संबंध कोड बिल, सामाजिक सुरक्षा कोड बिल और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा कोड बिल - पिछले महीने के अंत में पास हुए. चौथे कोड बिल - मजदूरी कोड विधेयक - को मोदी सरकार बीते साल ही पारित करा चुकी है. श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने राज्यसभा में बिलों को पेश करते हुए इसे ऐतिहासिक करार दिया और कहा कि ‘श्रमिक कल्याण में यह मील का पत्थर साबित होगा. देश की आजादी के 73 साल बाद जटिल श्रम कानून सरल, ज्यादा प्रभावी और पारदर्शी कानून में बदल जाएंगे.’ संतोष गंगवार के मुताबिक लेबर कोड श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करेगा और यह उद्योगों को आसानी से चलाने में मदद करेगा.
हालांकि, सरकार के दावे से अलग श्रमिक संगठन श्रम कानूनों में हुए बदलाव को मजदूरों और कर्मचारियों के हक में नहीं बताते हैं. ये संगठन विशेष रूप से औद्योगिक संबंध कोड बिल से नाराज हैं और पूरे देश में इसका विरोध कर रहे हैं. देश की सबसे बड़ी दस ट्रेड यूनियन मोदी सरकार से श्रम कानूनों में किये गए बदलावों को वापस लेने की मांग कर रही हैं.
कोड बिल पर नाराजगी क्यों?
मजदूर यूनियनों से जुड़े नेताओं की मानें तो औद्योगिक संबंध कोड विधेयक के जरिए सरकार ने मजदूरों और यूनियनों के हाथ बांध दिए हैं. इस विधेयक के जरिये जो पहला बड़ा बदलाव किया गया है वह कर्मचारियों की नियुक्ति एवं छंटनी से जुड़ा है. विधेयक में कहा गया है कि जिन कंपनियों में कर्मचारियों की संख्या 300 से कम है, वे सरकार से मंजूरी लिए बिना ही अपने कर्मचारियों की छंटनी कर सकेंगी और इनकी जगह पर नए कर्मचारियों को रख सकेंगी. अब तक ये प्रावधान सिर्फ उन्हीं कंपनियों के लिए था, जिनमें 100 से कम कर्मचारी हों. किसी भी समय कर्मचारियों की छंटनी और यूनिट के शटडाउन की इजाज़त उन कंपनियों को भी दी जाएगी, जिनके कर्मचारियों की संख्या पिछले 12 महीने में हर रोज़ औसतन 300 से कम रही हो. कोड बिल में यह भी साफ़ तौर पर लिखा है कि सरकार अधिसूचना जारी कर इस न्यूनतम संख्या को बढ़ा भी सकती है.
मजदूर संगठन कानून में किए गए इस बदलाव का भारी विरोध कर रहे हैं. इनका कहना है कि कंपनियां इसका फायदा उठाकर बिना सरकारी मंजूरी के ज्यादा मजदूरों को तत्काल निकाल सकेंगी. देश के सबसे बड़े मजदूर संगठन - भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (सीटू) के महासचिव तपन सेन का कहना है, ‘इन बदलावों के चलते 74 फीसदी से अधिक औद्योगिक श्रमिक और 70 फीसदी औद्योगिक प्रतिष्ठान ‘हायर एंड फायर’ व्यवस्था में ढकेल दिए जाएंगे, जहां उन्हें अपने मालिकों के रहम पर जीना पड़ेगा.’
औद्योगिक संबंध कोड विधेयक में यह भी जोड़ा गया है कि 300 से कम श्रमिकों वाले औद्योगिक प्रतिष्ठानों को स्थायी आदेश (स्टैंडिंग ऑर्डर) तैयार करने की आवश्यकता नहीं है, जबकि पहले यह छूट 100 से कम श्रमिकों वाले प्रतिष्ठानों को मिली थी. स्टैंडिंग ऑर्डर एक खास तरह का सामूहिक अनुबंध होता है, जो किसी कंपनी में सेवा शर्तों और नियमों का मानकीकरण करता है. इसमें किसी कर्मचारी की प्रोबेशन अवधि, उसे स्थायी करने और उसे नौकरी से निकालने की शर्तों से जुड़े प्रावधान शामिल होते हैं. किसी कर्मचारी के दुर्व्यवहार का निर्धारण, अनुशासनात्मक कार्रवाइयों और सजा देने के तरीकों एवं शर्तों से जुड़े नियम भी स्टैंडिंग ऑर्डर के दायरे में ही आते हैं.
श्रम मामलों के जानकार बताते हैं कि श्रम कानूनों में ‘स्टैंडिंग ऑर्डर’ को इसलिए शामिल किया गया था ताकि कंपनियां एकतरफा, मनमाने और कर्मचारियों के खिलाफ भेदभाव भरे फैसले न ले पाएं. साथ ही औद्योगिक विवाद की स्थिति उत्पन्न न हो और कंपनी मालिक और कर्मियों के बीच (औद्योगिक) संबंध सौहार्दपूर्ण बने रहें. इन लोगों के मुताबिक अब 300 से कम कर्मियों वाली कपनियां ‘स्टैंडिंग ऑर्डर’ की बाध्यता न होने के चलते श्रमिकों के लिये मनमानी सेवा शर्तें रखने में सक्षम हो जाएंगी. एक्सएलआरआई जमशेदपुर में प्रोफेसर और जाने-माने श्रमिक अर्थशास्त्री केआर श्याम सुंदर कहते हैं, ‘स्टैंडिंग ऑर्डर के लिए न्यूनतम श्रमिक की सीमा 100 से बढ़ाकर 300 करने का मतलब साफ़ है कि सरकार मजदूरों को नौकरी पर रखने एवं नौकरी से निकालने के लिए कंपनी मालिकों को खुली छूट दे रही है... अब 300 मजदूरों से कम संख्या वाली कंपनियां कथित दुराचार और आर्थिक कारणों का हवाला देकर आसानी से छंटनी कर सकेंगी.’
2017-18 के वार्षिक औद्योगिक सर्वे के लिहाज से अगर देखें तो 300 से कम श्रमिकों वाली फैक्ट्रियों को स्टैंडिंग ऑर्डर की शर्त से छूट मिलने के बाद इनमें काम करने वाले देश के तकरीबन 44 फीसदी कामगारों को स्टैंडिग ऑर्डर का फायदा नहीं मिल सकेगा.
औद्योगिक संबंध कोड विधेयक को लेकर यह भी कहा जा रहा है कि इसमें किये गए प्रावधानों से अनुबंध यानी कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों को रखने का चलन बढ़ेगा. प्रोफेसर श्याम सुंदर कहते हैं, ‘अब अनुबंध पर कर्मचारियों को रखे जाने के चलन में बेतहाशा इजाफा होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि अब 50 से कम कर्मचारियों को कॉन्ट्रैक्ट पर रखने वाली कंपनियों और ठेकेदारों को ‘कॉन्ट्रैक्ट लेबर रेगुलेशन’ से लगभग मुक्त कर दिया गया है. इससे निर्माण या मैन्यूफैक्चरिंग की कोर गतिविधियों में भी अनुबंध पर कामगारों को रखने की लगभग छूट मिल गई है. बिल के अनुच्छेद 57 (a) (b) और (c) को पढ़ने से यही लगता है.’ प्रोफेसर श्याम सुंदर की माने तो नया कानून कोर गतिविधियों से इतर अपने ज्यादातर कर्मियों को रखने और हटाने की खुली आजादी देता है. साथ ही अब कंपनियां बिना किसी नियम के कॉन्ट्रैक्ट की न्यूनतम और अधिकतम अवधि भी तय कर सकती हैं. सरकार ने नए कानून में उस प्रावधान को भी अब हटा दिया है, जिसके तहत किसी भी मौजूदा कर्मचारी को कॉन्ट्रैक्ट वर्कर में तब्दील करने पर रोक थी.
कुछ अन्य जानकार तो यह तक कहते हैं कि सरकार ने श्रम कानूनों को लचीला बनाने और कंपनियों को फायदा पहुंचाने के मकसद से कानून बनाने के बुनियादी सिद्धांतों को भी ताक पर रख दिया. इनके मुताबिक सरकार को पिछले आंकड़े देखकर ही इसका पता चल जाता कि उसके इस बदलाव से आगे स्थिति कितनी खराब हो सकती है. वार्षिक औद्योगिक सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 1993-94 में संगठित क्षेत्र की फैक्टरियों के कुल कामगारों में कॉन्ट्रैक्ट पर रखे जाने वाले कामगारों की हिस्सेदारी 13 फीसदी थी. यह आंकड़ा 2016-17 में बढ़ कर 36 फीसदी तक पहुंच गया. यह तब हुआ, जब कर्मचारियों को कॉन्ट्रैक्ट पर रखने की खुली छूट नहीं थी.
औद्योगिक संबंध कोड विधेयक के जरिये सरकार ने ट्रेड और मजदूर यूनियनों को तगड़ा झटका दिया है. इस कानून के जरिये यूनियनों से जुड़े कई नियमों में बड़ा बदलाव किया गया है. ये बदलाव छोटी और बड़ी सभी तरह की कंपनियों पर लागू होंगे. नए कानून में उन मानदंडों को कड़ा कर दिया गया है जिनके आधार पर कोई यूनियन फैक्ट्री के मैनेजमेंट से बातचीत या ‘बारगेन’ करने में सक्षम होती है. विश्लेषकों के मुताबिक किसी फैक्ट्री में पहले की तरह ही यूनियन के गठन के लिए दस फीसदी या फिर 100 कर्मचारियों (जो भी संख्या कम हो) के समर्थन की जरूरत होगी. लेकिन किसी यूनियन को अगर कम्पनी के मैनेजमेंट से किसी मुद्दे पर बातचीत करनी है तो उसे 51 प्रतिशत श्रमिकों के समर्थन की आवश्यकता होगी. यदि कुछ फैक्ट्रियों में किसी भी यूनियन को 51 फीसदी समर्थन नहीं मिलता है तो मैनेजमेंट से बातचीत करने के लिए सभी यूनियनों को मिलाकर एक परिषद का गठन करवाया जाएगा. हालांकि, इस गठन की प्रक्रिया क्या होगी, यह नहीं बताया गया है.
इस मामले पर सीटू महासचिव एआर सिंधु का कहना है कि अभी तक कम्पनी के मैनेजमेंट से एक से ज्यादा यूनियन बातचीत कर सकती थीं. लेकिन नए नियम के बाद केवल एक यूनियन को ही बातचीत करने का हक़ मिलेगा. वे कहते हैं, ‘ऐसा इसलिए क्योंकि नए कानून के तहत किसी फैक्ट्री की एक यूनियन को 51 फीसदी श्रमिकों का समर्थन मिल जाने के बाद कोई दूसरी यूनियन मैनेजमेंट से बात करने में सक्षम ही नहीं हो पाएगी क्योंकि फिर फैक्ट्री में महज 49 फीसदी श्रमिक ही बचेंगे.’ वे आगे कहते हैं कि इसका एक मतलब यह भी है कि अगर किसी फैक्ट्री के 49 फीसदी श्रमिक किसी समस्या को लेकर अलग दृष्टिकोण रखते हैं तो उनकी बात मैनेजमेंट तक पहुंच ही नहीं सकेगी.
मोदी सरकार द्वारा लाये गए इस नए कानून ने हड़ताल करने से जुड़ी शर्तें भी कड़ी कर दी हैं. इसमें कहा गया है कि औद्योगिक प्रतिष्ठान में कार्यरत कोई भी व्यक्ति 60 दिनों के नोटिस के बिना कानूनी तौर पर हड़ताल पर नहीं जा सकता है. इसके अलावा अगर कोई मामला या विवाद राष्ट्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण अथवा किसी अन्य न्यायाधिकरण के समक्ष भेजा गया है तो कानूनी कार्यवाही के दौरान और इस कार्यवाही के खत्म होने के बाद 60 दिनों की अवधि तक किसी भी हड़ताल का आयोजन नही किया जा सकता है. हालांकि, यहां पर सरकार ने यह भी जोड़ा है कि औद्योगिक न्यायाधिकरणों में मजदूरों से जुड़े मामलों का निपटारा एक साल के अंदर किया जाएगा. इससे जुड़ा एक पहलू यह भी है कि अगर मजदूर हड़ताल करना चाहे और अगर कंपनी प्रबंधन उस मामले को किसी तरह से न्यायाधिकरण में ले जाए तो फिर अधिकतम डेढ़ साल तक उस मामले में मजदूर कोई हड़ताल नहीं कर सकेंगे.
जानकारों का कहना है कि नए कानून में जिस तरह की शर्तें रखी गयी हैं, उनके तहत हड़ताल का आयोजन करना लगभग असंभव हो गया है. सीटू के महासचिव तपन सेन कहते हैं, ‘नए कानून के चलते ट्रेड यूनियन बनाना तो बहुत कठिन होगा ही, साथ ही हड़ताल करने से जुड़े मजदूरों के अधिकार पर भी एक अप्रत्यक्ष प्रतिबंध लग जाएगा. यहां तक कि उन्हें अपनी शिकायतें एवं मांग के लिए आवाज उठाने में दिक्कत आएगी. क्योंकि अब मजदूरों की हड़ताल करने की क्षमता और उनकी मैनेजमेंट से सामूहिक बातचीत करने की ताकत भी काफी कम हो जायेगी.’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने भी इन श्रम कानूनों की आलोचना की है और मोदी सरकार से इसमें परिवर्तन करने की मांग की है. बीएमएस के अध्यक्ष साजी नारायण ने मीडिया से बातचीत में कहा, ‘हम इन कानूनों का विरोध करते हैं. सरकार ने हमसे सलाह जरूर ली थी, लेकिन कई महत्वपूर्ण प्रावधानों को इनमें शामिल नहीं किया गया है. इसके चलते जंगल राज जैसी व्यवस्था बन जाएगी और विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में बलपूर्वक समाधान निकालने की कोशिश होगी.’ साजी आगे कहते हैं, ‘हड़ताल को प्रतिबंधित करने वाले वर्तमान प्रावधानों से औद्योगिक क्षेत्र एक संघर्ष क्षेत्र बन जाएगा, जिसका मतलब औद्योगिक शांति को नष्ट करना है. हड़ताल से पहले नोटिस लेने का मतलब स्पष्ट रूप से हड़ताल पर रोक लगाना है. इसे हटाया जाना चाहिए.’
नए कानून में कर्मचारियों के लिए सहूलियतें भी
सरकार ने नए श्रम कानून में कामगारों को कुछ सहूलियतें भी दी हैं. इनमें महिला कामगारों को पुरुष कामगारों के समान ही वेतन प्रदान करना होगा. पूरे भारत में एक समान मजदूरी लागू होगी. ईएसआई और ईपीएफओ का सामाजिक सुरक्षा कवच सभी मजदूरों को दिया जाएगा. स्थायी कर्मचारियों की तरह ही अस्थायी कर्मचारियों को भी एक ही तरह की सेवा शर्तें, ग्रेच्युटी, छुट्टी उपलब्ध कराई जाएंगी. प्रवासी कामगारों को कंपनियां अपने घर जाने हेतु वर्ष में एक बार भत्ता प्रदान करेगी. वित्तीय घाटे, कर्ज या फिर लाइसेंस पीरियड खत्म हो जाने से कोई कंपनी बंद हो जाती है तो कर्मचारियों को नोटिस या फिर मुआवजा दिया जाएगा. इसके अलावा किसी हादसे में श्रमिक की शारीरिक क्षति की भरपाई और मालिक पर लगाए जुर्माने का आधा हिस्सा श्रमिक को मिलेगा. सरकार ने कहा है कि इस नए कानून के तहत संगठित एवं असंगठित क्षेत्र के सभी श्रमिकों को पेंशन योजना का लाभ भी मिलेगा.
नए श्रम कानून में कहा गया है कि कंपनियों को नियुक्ति के वक्त सभी कर्मचारियों को नियुक्ति पत्र देना होगा. उन्हें प्रत्येक वर्ष मेडिकल चेकअप की सुविधा देनी होगी. महिलाओं के लिए काम का समय सुबह 6 बजे से लेकर शाम 7 बजे के बीच ही रहेगा. शाम 7 बजे के बाद अगर उनसे काम कराया जा रहा है, तो उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी कंपनी की होगी. कोई भी कर्मचारी एक हफ्ते में छह दिन से ज्यादा काम नहीं कर सकता. ओवरटाइम कराने पर उस दिन का दोगुना पैसा दिया जाएगा. नए कानून में ग्रैच्युटी की पांच साल की सीमा को समाप्त कर दिया गया है. ग्रैच्युटी को अलग-अलग स्थितियों में तीन साल या एक साल किए जाने की बात कही गई है.
इन बड़े बदलावों के पीछे सरकार का क्या तर्क है?
केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने श्रम कानून में बदलाव को एक बेहतर कदम बताया है. उन्होंने संसद में श्रम सुधार विधेयकों पर हुई बहस का जवाब देते हुए कहा, ‘श्रम सुधारों का मकसद बदले हुए कारोबारी माहौल के अनुकूल पारदर्शी प्रणाली तैयार करना है. 16 राज्यों ने पहले ही अधिकतम 300 कर्मचारियों वाली कंपनियों को सरकार की अनुमति के बिना फर्म को बंद करने और छंटनी करने की इजाजत दे दी है.’ गंगवार ने कहा कि रोजगार सृजन के लिए यह उचित नहीं है कि इस सीमा को 100 कर्मचारियों तक बनाए रखा जाए, क्योंकि इससे कंपनियां अधिक कर्मचारियों की भर्ती से कतराने लगती हैं. और वे जान-बूझकर अपने कर्मचारियों की संख्या को कम बनाए रखती हैं. उन्होंने सदन को यह भी बताया कि इस सीमा को बढ़ाने से रोजगार बढ़ेगा और कंपनियों को नौकरी देने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा.
केंद्रीय श्रम मंत्रालय से जुड़े कुछ अधिकारी बताते हैं कि सरकार ने श्रम कानून में यह बड़ा बदलाव विश्व बैंक की ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ रैंकिंग (कारोबार सुगमता रैंकिंग) में दसवें पायदान पर पहुंचने के मकसद से किया है. अभी इस सूची में भारत 63वें पायदान पर है. सरकार का मानना है कि उसने श्रम कानून में जिस तरह के बदलाव किये हैं, उससे भारत दसवें स्थान पर पहुंच सकता है. इन अधिकारियों के मुताबिक कारोबार सुगमता रैंकिंग में स्थिति अच्छी होने से बाहरी कंपनियां भारत में निवेश के लिए आकर्षित होंगी. पीटीआई से बातचीत में एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘श्रम कानूनों में सुधार की प्रक्रिया पूरी हो गयी है यह उत्प्रेरक का काम करेगी... इससे विदेशी निवेश भारत की ओर आकर्षित होगा जिससे देश में रोजगार बढ़ेगा.’ इनके मुताबिक अभी तक भारत में श्रम कानूनों के दुष्चक्र के चलते व्यवसायी बनना काफी कष्टकारी होता था. लोगों को व्यवसाय शुरू करने से बेहतर काम नौकरी करना लगता था. इस अधिकारी के मुताबिक नए श्रम कानून गेम चेंजर साबित होंगे और इनसे कंपनियों, कर्मचारियों और सरकार तीनों को फायदा होगा. अब व्यवसाय में वृद्धि होगी, अधिक नौकरियां पैदा होंगी और श्रम कानूनों का समय पर और सही तरह से अनुपालन भी हो सकेगा. (satyagrah)
कनुप्रिया
एक गुण जो मैं तेजी से खत्म होते देखती हूँ लोगों में, वो है जब आप वास्तव में इसका मतलब है की बातें कह रहे हैं।
लोग बेहद लापरवाह होते हैं अपने कहे-लिखे शब्दों के प्रति, जबकि दुनिया का व्यवहार शब्दों पर ही टिका है। शब्दों को खोलकर उसके भीतर उसके मायने हैं या नहीं इसे जानने का कोई तरीका नहीं है। व्यवहार के लेन-देन का, हर भरोसे का कोई बहीखाता नहीं होता, वो जुबान पर, शब्दों पर ही चलता है और जैसे-जैसे शब्दों पर भरोसा खत्म होता जाता है, एक बिना भरोसे की दुनिया बनती है, यह भी एक किस्म की अराजक स्थिति है जिसमें नुकसान अक्सर कमजोर भुगतते हैं।
आम लोगों में तो अपने कहे के प्रति लापरवाही की प्रवृति देखने में मिलती ही रहती है और उससे कोई भी निर्णय लेने में बहुत दिक्कत होती है। घर की कामवाली भी अगर शाम को आउंगी लापरवाही से कह दे तो शाम तक काम बढ़ जाता है। असल मजबूरियों की बात नहीं यहाँ।
आजकल मीडिया भी जो कभी अपने कहे के लिए जिम्मेदार महसूस करता था, वहाँ भी यह प्रवृत्ति खत्म है। सुशांत सिंह राजपूत पर क्या नहीं कहा गया, तमाम बेसिर-पैर की बातें, और जब एम्स के डॉक्टर्स ने आत्महत्या की पुष्टि कर दी तो कहीं कोई शर्म, कोई गलती का बोध, अपने कहे की जवाबदेही नहीं, उसी गैरजिम्मेदारी से आगे भी बोलना, कहना चालू है।
सोचिये कि आपके आसपास के हर व्यक्ति डॉक्टर, बैंक वाले, दफ्तर वाले, या उन जिन सबसे आपका रोज साबका पड़ता है, यदि अपने कहे के लिए इतने ही गैरजिम्मेदार हों तो आप कितने अनिश्चय की स्थिति में रहेंगे।
कल गौर से राहुल गाँधी को सुन रही थी, क्या वो ऐसे वादे कर रहे हैं जो पूरे नहीं कर सकते? आखिर वो इस कॉरपोरेट सिस्टम के परे नहीं, उन्हें भी पता है कि सत्ता में आने के बाद क्या-क्या सीमाएँ हैं, विपक्ष में रहकर बोलना आसान है, मगर मैंने पाया कि वो अपने कहे के लिए अब तक तो ठीक-ठाक सावधान हैं, थोड़ा बहुत भी जिम्मेदारी जवाबदेही का बोध हो तो विश्वनीयता बढ़ती है। बाकी का पता तो सत्ता में आने पर ही लगेगा।
वहीं मोदीजी के लिए उनके शब्दों के कोई मायने नहीं, वो लापरवाही से अपने शब्द बाजार में फेंकते हैं, और इस तरह से फेंकते हैं जैसे उन पर यकीन करते हों, इससे सामने भी यकीन का भ्रम बनता है, मगर उसके बाद उनके लिए मायने खत्म हो जाते हैं, फिर वो अपने शब्दों के लिए न जवाबदेह हंै, न जिम्मेदार हैं। आप उन्हें उनका कोई भी पुराना वीडियो वापस नहीं दिखा सकते, पिछले महीने तक का नहीं। इससे देश में कितने अनिश्चय का माहौल है, वो साफ है। आप यकीन से कह नहीं सकते कि यह व्यक्ति बोलेगा क्या और करेगा क्या। ऐसे व्यक्ति पर भरोसे के लिए अंधभक्ति जरूरी है, वरना भरोसे का दर्द गहरा होगा।
कहना यही है कि कौन कितना अच्छा कह रहे हैं उससे भी ज्यादा जरूरी है यह जानना कि वे जो कह रहे हैं वास्तव में उसके लिए मायने रखते हैं या नहीं। अपने कहे-लिखे के प्रति जिम्मेदारी का बोध भी एक कसौटी है और यह हर तरफ खत्म हो जा रहा है, राजनीति में तो खैर एकदम ही।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बिहार के चुनाव के बाद किसकी सरकार बनेगी, कहा नहीं जा सकता। यदि दो प्रमुख गठबंधन सही-सलामत रहते तो उनमें से किसी एक की सरकार बन सकती थी। एक तो नीतीशकुमार का और दूसरा लालूप्रसाद का। लेकिन बिहार में अब चार गठबंधन बन गए हैं।
नीतीशकुमार के गठबंधन में जदयू और भाजपा हैं और लालू के गठबंधन में उनका राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां हैं। लालू के बेटे तेजस्वी यादव के नेतृत्व में लड़े जा रहे इस चुनाव में उनका दावा है कि वे सरकार बनाएंगे, क्योंकि चार बार के मुख्यमंत्री नीतीश से अब बिहार की जनता ऊब चुकी है, उन्होंने वादे तो बड़े-बड़े किए लेकिन उन पर अमल नहीं किया, कोरोना की तालाबंदी के दौरान नीतीश का रवैया बहुत ही लापरवाही का रहा और लालू परिवार को दी जा रही सजा का भी जनता पर उल्टा असर हो रहा है। केंद्र की भाजपा सरकार की कई नीतियों, जैसे नोटबंदी, तालाबंदी, जीएसटी, कृषि-कानून, हाथरस कांड आदि ने आम जनता को इतना त्रस्त किया है कि उसका असर भी बिहार के चुनाव में दिखेगा।
राजद का सबसे बड़ा तर्क यह है कि नीतीश का कुछ भरोसा नहीं। वे कब किससे हाथ मिला लें। उन्होंने 2013 में भाजपा से रिश्ता तोड़ा, राजद से हाथ मिलाकर 2015 का चुनाव लड़ा और फिर वे भाजपा की गोद में जा बैठे। राजद के इन तर्कों के विरुद्ध सबसे तगड़ी लोहे की दीवार अगर कोई है तो वह नरेंद्र मोदी की छवि है। भाजपा को भरोसा है कि वह अपनी सीटें मोदी के नाम पर जीतेंगे। बिहार की जनता भाजपा को इतनी सीटें जिताएगी कि भाजपा ही सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। जाहिर है कि फिर मुख्यमंत्री भी उसका ही बनेगा लेकिन वह अभी इस तरह का कोई दावा नहीं कर रही है। चुनाव-परिणाम आने के बाद ये गठबंधन क्या-क्या रुप ले सकते हैं, यह भी अभी नहीं कहा जा सकता।
कौन पार्टी किससे अलग होकर अन्य किससे मिल जाएगी, कुछ पता नहीं। अभी रामविलास पासवान की लोजपा नीतीश का विरोध कर रही है लेकिन भाजपा का समर्थन कर रही है। उसने अपने आपको छुट्टा रखा हुआ है। चुनाव के बाद जिसका पलड़ा भारी हुआ, वह उसी में बैठ जाएगी। बिहार में या भारत में कहीं भी कांग्रेस और भाजपा आपस में गठजोड़ नहीं बना सकते। बाकी कोई भी पार्टी मौके के मुताबिक अपना भविष्य तय करेगी, क्योंकि इन पार्टियों के लिए सत्ता ही ब्रह्म है, गठबंधन तो मिथ्या हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राजेश गनोदवाले
लंबे समय से कला और संस्कृति पर लिखने वाले छत्तीसगढ़ के अखबारनवीस राजेश गनोदवाले ने मुहर्रम के शेर नाच पर यह जीवंत फीचर लिखा है जो उन्हीं की खींची तस्वीरों के साथ हम यहां पेश कर रहे हैं।
-संपादक
मोहर्रम के महत्व को अपने ढंग से बढ़ाने वाले ‘दो पाया शेर!’
नहीं आए इस बार वे! ‘लॉकडाउन’ की भेंट आखिर यह हुनर भी चढ़ गया! जो देह इसे धारण करती थी, अवसर आने पर व्याकुल खड़ी नजर आई! उनके मन में बैठा हुआ ‘वह शेर’ खुद को बाहर न निकलता देख किस कदर मायूस हुआ होगा-वही जानें। मोहर्रम आया और चला गया! एक वायरस की चपेट में कितना कुछ सिमट गया देश में? बड़े पर्व-उत्सव तो फिर भी दर्ज होते दिखे। ऋतु-पर्वों से जुड़ी या अपनी स्थानीयता में लोकप्रिय कलाएं तो वायरस की आँधी में जैसे साफ हो गईं! खासकर वो रूपाकार, जो ना तो किसी पंचांग में दर्ज रहते हैं और ना अकादमिक पट्टी में सराहे या समझे जाते हैं! समय के प्रवाह में जन-मान्यताओं से प्रकट इन सुदर्शन विधाओं को लेकर कभी इतने विस्तार से सोचा नहीं था? कोविड काल ने वह काम भी करवा दिया!
आदतन मोहर्रम या मुहर्रम कह लें 6 दोनों शब्द चलन में 8 का इंतजार रहता था मुझे। लेकिन वो नौबत नहीं आई! असल में अंदेशा तो था ही कि कैसे होगा शेरों का नृत्य इस दफा? वे लोग जो इस परम्परा को अपने से जुड़ा मानते हैं, क्या शेर बनेंगे? और क्या उन्हें सडक़ों पर उतरने की अनुमति होगी? सोचने पर मुस्कान तैर गई! ख्याल रोचक था! यानी बनने वाला व्यक्ति अनुमति माँगने जाता तो क्या कहता, कि-
‘मैं शेर बनूँगा साहब ,
मुझे नाचने की अनुमति दी जाए?’
-अच्छा हुआ कि लॉकडाउन के बनते-खुलते हालातों के बीच ऐसी नौबत नहीं आई। वरना ‘कोई शेर निरीह होकर अनुमति के लिए कहीं क्यों गिड़गिड़ाता खड़ा रहे!’ खैर, उत्तर तय थे! वही हुआ, यानी कुछ नहीं हुआ! बिना ‘उनकी दहाड़’ के यह मोहर्रम बीत गया! प्राय: खास इलाकों में अपने कद्रदानों के प्रेम की बदौलत प्रतिवर्ष रौनक भरने वाले इन ‘मौसमी शेरों’ की विनम्र-दहाड़, जिसमें बच्चा मण्डली को रिझाने का भाव अधिक शामिल था-इस बार सुनी नहीं गई! जिन चिन्हित मुहल्लों या गलियों में उनका कोलाहल आठेक दिन माहौल बनाए रहता था ऐसे इलाके भी इन मित्र-शेरों की बाट देखते रह गए!
हर वर्ष, शास्त्री बाजार के बाहरी मुहाने पर, लाखे नगर सफाई कर्मचारियों की कॉलोनी के पास 6 पीपल पेड़ के नीचे 8 और सारथी चौक के करीब 6 सामुदायिक भवन 8 ये वे इलाके थे जहाँ आप किसी आदमी को शेर-रूप धारण करते देख सकते थे। मेरे लिए ये ठिकाने अनजान नहीं थे। कब से देख रहा हूँ कहना मुश्किल है । काफ़ी सालों से। इस वर्ष इनकी याद, ‘वे दिख जाते थे।’ इसीलिए नहीं आई! वरन उन्हें खासतौर पर याद किया। कच्ची उम्र में देखे वे दृश्य आँखों में सुरक्षित रह गए। इन्हीं कारणों से शेर नृत्य से एक आंतरिक अनुराग-भाव भी बनता चला गया। संभवत: इन्हीं बहुतेरे कारणों से आज इस पर इतना विचार कर लिखने लगा।
नयापारा-फूलचौक का रहवासी होने का एक लाभ ऐसा भी मिला कि ‘सवारी’ या ‘पत्थर फोड़ की सवारी’ के दौरान इससे जुड़े कुछ आयोजन सहज ही देखने मिल जाया करते थे । उनकी आधी-अधूरी छवियाँ भीतर ठहरी रहती थीं। मोहर्रम की तकरीरें भी कानों में नियमित आया करतीं। उन्हीं दिनों बेहद रंजक ‘शेर नृत्य’ भी पहले पहल देखने मिला! गलियां-दर-गलियां शेरों के पीछे हल्ला-गुल्ला मचाते दौड़ लगाने का रोमांच! शेर रूप में रंगी देह दर्शन का अनुभव अबोध उम्र से था। क्यों और ये क्या हैं? की उधेड़बुन में उलझने की बजाय इसकी सांस्कृतिकी आकर्षक बन जाती थी। इन्हीं कारणों से वहीँ कहीं, जब तब लंगर के दौरान बाँटा जाने वाला ‘खिचड़ा’ भी बतौर प्रसाद बचपने में खाया। थिरकते शेरों की मनोहारी स्मृतियाँ भीतर इस ढंग से सुरक्षित होती चली गईं। बढ़ती जाती उम्र के बाद भी इसने मन से रिश्ता नहीं तोड़ा! वही गर्मजोशी इनके लिए अभी भी कायम है। पिछले वर्ष तक, राह में अनायस दिख जाने पर इन थिरकते शेरों के पीछे कुछ दूर चलने का आनंद लिया है!
ये शेर जितना आकर्षित करते थे उतना ही आनंद तीन-चार बैंड वादकों की मण्डली भी देती थी, जिनकी चाल को कैसे भूला जाए? शेरों के पीछे-पीछे लगभग दौड़-दौडक़र बजाते वादक! इनका भी भरपूर सुख लिया तो लय और धुन समझने के कारण। ‘शेर धुन’ के रूप में बैंड वादक एक खास तरह का संगीत बजाया करते हैं। बारात में थिरकते नौजवां भी कभी-कभार इसे बजवा कर नाचते देखे गए हैं! क्या यह किसी वादक की ईजाद की गई रचना है? इस खास धुन को बजाए जाने का कोई विधान परम्परा में बना हुआ है? या अनायास यह ट्यून इसका हिस्सा बन स्वीकार कर ली गई। सांगीतिक जिज्ञासाएँ तो हैं। पड़ताल करनी होगी इनकी कभी! वैसे तेज गति की इस धुन के बजते ही आँखों के सम्मुख सीधे ‘शेर नृत्य’ का स्मरण हो आता है।

मोहर्रम के दरमियाँ जहां ‘सवारी’ बैठाई जाती हैं वहाँ से सवारी निकलने के दौरान भी बैंड वादक प्राय: यही ट्यून बजाते हैं। यानी इस धुन का नाता सवारी से पहले है या शेर नृत्य से? यह भी एक जटिल पहेली है!
नागपुर 6 महाराष्ट्र 8 के बाद छत्तीसगढ़ के रायपुर में देखा जाने वाला यह लोक रूप और कहीं तो होगा? बेशक कुछ अलग ढंग से ही सही। वैसे कुछ समय पहले रायपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में देखी गई एक फिल्म याद आ गई जिसमें अभिनेता पवन मल्होत्रा अपनी देह पर शेर रँगवा कर निकलता हैं! कमाल का सिनेमा था, नाम लेकिन याद नहीं आ रहा! वैसे इधर, इसे गढऩे वाली 6 पेंटर 8 नई बिरादरी के सिमटने का नतीजा बहुत साफ है कि शेर बनने का क्रम गड़बड़ा जाएगा। असल में देह के ऊपरी हिस्से पर जिस खाल का इस्तमाल इसमें नर्तक किया करते हैं वो भी इन्हीं पेंटर्स के पास होती है! अब ये लोग इससे हाथ खींचने लगे हैं!
थोड़ा गौर करें तो पता लगेगा हमारे आसपास आंचलिक महत्व की ऐसी एकाधिक रिवायतें हैं जो साझा-समाज के सूत्र को बढ़ाती है। शेर नृत्य विधा को भी उसी परम्परा की कड़ी मानिए! यो तों मुस्लिम समाज के साथ इसे आगे बढ़ते देखा जाता है, अलावा इसके बड़ी संख्या गैर-मुस्लिम युवाओं की भी है। ये वे युवा हैं जो बचपन से इसे देखते आ रहे हैं या जिनके परिजनों ने इसे समाज विशेष का मानने से बाहर निकल कर देखा और अपनाया। इसके पीछे एक बड़ी कहानी भी बताई जाती है। जबकि अधिकांश इसे मन्नत से जोडक़र बनना बताते हैं! लेकिन मानव देह की शेर में रूपांतरित होने की भावना मोहर्रम के प्रति कुल मिलाकर श्रद्धा भाव का प्रकटीकरण ही है।
इस वर्ष, जैसा कि ऊपर कहा है
उन्हें सायास याद किया और-फ्लैश बैक शुरू-
कोई 3 साल पहले लाखे नगर सफाई कामगारों की चाल के करीब आनंदित मन से इस हुनर को साधने वालों के बीच खड़ा था। अनवरत दो-तीन दिनों तक मेरी चहलकदमी देख कर एक व्यक्ति सामने आया-
-‘भैया सारथी भवन में जाओ,
वहाँ बहुत सारे शेर बन रहे हैं!’

पँक्ति रोचक थी और आगे बढ़ाने वाली भी। चाहता भी यही था। हिन्द स्पोर्टिंग मैदान के पहले तिराहे पर बाएँ हाथ में स्थित सामुदायिक भवन का नाम है-सारथी भवन। सारथी चौक से उस भवन के नामकरण का क्या संबंध है? हो तो भी वह मेरा विषय नहीं था। मुझे तो निर्मित होते शेर देखने थे, और बहुतायत में देखने थे। थोक में होते इस ‘निर्माण का साक्षी’ होना था! मैं सारथी भवन के भीतर था। अंदाजा बाहर से ही लगाना था कि भीतर रोमांच कैसा होगा? पचास फीट का चौरस हॉल। नजारा कभी न दिखाई देने वाले दृश्य जैसा। मानों शेर निर्माण की फैक्ट्री हो! मशीन की सहायता से धड़ाधड़ शेर रँगे जा रहे थे! एक आदमी नजऱ आया जो पेंटर नहीं था। वो एयर प्रेशर वाली मशीन से इच्छुक लोगों की देह पर बेस रँग चढ़ा रहा था। यानी सफेद और पीला। कोटिंग ख़त्म होते ही वह आदेशित ढंग से कहता कि-‘जाओ घूम आओ।’ जो लोग बेस रँग सूखाकर आ जाते उनके हाथ और पैरों में धारियाँ बनाने से पहले चेहरे का बारीक काम पूरा करने की बारी आती। यहीं से भूमिका मुख्य व्यक्ति, यानी पेंटर की शुरू हो जाती थीं। चेहरे की कारीगरी, समय लेने वाला काम। पता लगा रोजाना की तुलना में आज भीड़ इसलिए है कारण आज मोहर्रम का आखिरी दिन है। शेर निर्मिति सुचारू हो इसे देखकर पेंटर ने अपने सहायकों की सँख्या बढ़ा रखी है। चेहरा रंगने के अलावा धारियां आदि बनाने का काम सहायकों के जिम्मे।
रात भर जागे हुए थके चेहरे, ‘रजनीगंधा’ की खुलती पुडिय़ा, कोने पीक से भरे हुए, पसीने की गंध और मशीन से उड़ती रँगों की गुबार! रँगीन चेहरों की रह-रहकर होती आवाजाही-और सिगरेट के कश! अगर हॉल के अंदर अजीब-सा सिनेमाई दृश्य-सौंदर्य फैला हुआ था तो बाहर परिसर में उभरते नजारे भी उतने ही रोचक। शेर बन रहे, बनाए जा चुके और बनने की प्रतीक्षा में सिर्फ चड्डी पहनकर मटरगश्ती करते युवा! निर्मित हो चुका शेर सूखने के इंतजार में और निर्माणाधीन शेर स्वयं का काम ख़त्म हो जाने की प्रतीक्षा में। जो पिछले दिन बन चुके वे अपनी बिखरती हुई रंगीन छवि के साथ इधर-उधर थोड़े अभ्यस्त अंदाज में अकारण बिरादरी के मध्य घूमते दिखाई दे रहे थे! आधे निकले, आधे चिपके हुए रँगों के साथ शेर बन रहे साथियों की हौसला अफजाई में भी इनमें से कुछ व्यस्त। उधर, कुछ बैंड आने के साथ गंतव्य की ओर ऑफिशियली रवाना होने से पहले अपनी थिरकन साधते हुए! यानी शेर, शेर और सिर्फ शेर। जैसे उनकी कॉलोनी हो!
या कोई-शेर ग्रह !
सारथी भवन के उस माहौल में न तो पेंटर इतनी फुर्सत में दिखे कि बातचीत हो पाती। यदि होती भी तो रंगों का गुबार बदले में मुझे अस्थमा उपहार स्वरूप दे देता, सो बाहर निकल जाने में ही भलाई थी। इधर, शास्त्री बाजार के मुहाने पर ही दाईं ओर एक छोटा पंडाल तान कर प्रतिवर्ष देह को शेर में बदलने वाले सलीम कुरैशी उर्फ कल्लू पेंटर ने थोड़ी बातें की। जैसे कि बिलासपुर और राजनांदगांव शहर भी छत्तीसगढ़ में ऐसे हैं जहाँ शेर रँगने का चलन कायम है। फिलहाल उनके नाम का जलवा है। यानी वे शेर बनने वालों के पसंदीदा पेंटर हैं। पूछने पर कि अलावा उनके भी जो रंग रहे कौन होंगे? कल्लू भाई के मुताबिक-
-‘काम चलाऊ जियादा है!’

अलबत्ता कल्लू भाई इस बात पर एकमत दिखे कि पुरानी पीढ़ी में जुल्फी पेंटर, नजीर पेंटर, और लतीफ़ जब्बार पेंटर सिद्घहस्त माने जाते थे। कल्लू भाई भी कभी शेर बन थिरकते थे। अब वे इससे दूर हैं! हुनर सीख लिया था देख-देखकर। फिर पेट भी चलाना है। करें क्या? इसीलिए पेंटिंग का दामन थाम लिया! सीजन में उनके हाथों रँग, ब्रश आ जाता है! शेर बनने वालों के मध्य वे कल्लू उस्ताद हैं। पूरा काम खत्म हो जाने के बाद नर्तक की जांघ के पीछे हिस्से में-‘कल्लू पेंटर’ लिखते हुए जैसे वे उसे सर्टिफिकेट दे दिया करते हैं। और तब उनके चेहरे में आश्वस्ति उभर जाती है।
इस कला रूप की आर्थिकी भी आसान नहीं। खर्चे ही खर्चे! कमाई करने तो जाहिर है कोई बनता नहीं! अब वे रँगने का हजार रुपये लेते हैं। कभी पाँच-सात सौ में बात बनती रही। नर्तकों को इसमें खाल और मुखौटों के पैसे अलग से नहीं देने पड़ते। सब का किराया उसी में समाहित! हां, बैंड का खर्चा शेर बनने वाला अलग से वहन करता है-जो प्रतिदिन के हिसाब से तय होता है!
कड़े खां से कमलसब्जी तक-
कुछ रिटायर्ड शेरों से इस परंपरा के खुलासे की खातिर बातचीत हुई। तो पता लगा उस दौर में जिन देहों की थिरकन देखने वालों की यादों में दर्ज हो जाती थीं या कि जिनका नाम लोकप्रिय सूची में था उनमें कड़े खां ऊपर हैं। बाद की पीढ़ी में सत्तार पहलवान और इस्माइल भाई समेत अब्दुल सत्तार खाकी एवं सुंदर की चर्चा की जाती है। लल्ला पहलवान, फिरोज खान और कमल सब्जी वाला भी पुराने जानकारों की स्मृतियों का हिस्सा हैं!
खेक्सी शेर-
शेर और खेक्सी का कोई संबंध कहाँ? यानी शाकाहार और माँसाहार! लेकिन इस नृत्य के दौरान आपको मिल सकता है! दरअसल अपनी कदकाठी से अजीबो-गरीब रूप सज्जा में एक पात्र इन शेरों के साथ चलता है! उसका काम होता है बच्चों में रंजक वातावरण तयार करना। इसकी उपस्थिति का खुलासा जानकारों के हिसाब से बच्चों की भीड़ नियंत्रित करने भी की जाती है।
शालेय दिनों में देखा गया खेक्सी पात्र आज भी याद है-लंबी कद काठी वाला एक व्यक्ति था, जिसकी देह ध्यान खींचती थी! लंबाई के अनुपात में उसकी देह में मांस काफी कम था! चेहरा भी आनुपातिक ढंग से छोटा! उसे जिस नर्तक के साथ पहली दफा हमारे बाड़े में देखा वह नर्तक सुंदर पहलवान था। सुंदर नामक ये सज्जन हमारे घर के ठीक सामने रहा करते थे। एक कमरे का घर! उनके घर में और कौन-कौन था याद नहीं, लेकिन उनका डील डौल अपनी मांसलता के कारण याद रह गया! वे शेर भी बनते हैं इसका पता पहली दफा तभी लगा जब वे अपनी इस बदली हुई अवस्था के साथ गली में दाखिल हुए-और कोलाहल मचना ही था! ‘खेक्सी महाराज’ भी विचित्र भंगिमाओं को साधते संग-संग! खुली देह, थुलथुल चाल और स्वयं में शेर-सा वैभव धारण करने वाला सुंदर का वह मनोहारी ढंग। खेक्सी का अंदाज चपल था, तो सुंदर भाई धीर गंभीर! यानी अतिरिक्त मेहनत किए अपना असर छोड़ जाने वालों में से। यह जोड़ी फूलचौक, रहमानिया चौक, तवायफ लाइन और नयापारा-जोरापारा इन इलाकों में लोकप्रिय थी। खेक्सी की छवि मन में ऐसी बैठी कि जब कभी वो गली से गुजरता दिख जाता उसे पहचानने में कभी दिक्कत नहीं आई कि यही तो है जो खेक्सी बना करता था!

आजकल ‘संकली शेर’ नजर नहीं आते! सुंदर प्राय: इसी लिए जाने जाते थे। इस ढंग के शेरों में गले में मोटी सांकल हुआ करती जिसे दो तरफ से दो व्यक्ति हाथों में लकड़ी का रामलीला स्टाइल चमकदार फरसा लिए नियंत्रित करते थे! सांकलधारी शेर थोड़ा अभिजात्य किस्म का माना जाता था याकि जिसका रसूख हो! जब साँकल थामे दोनों सहयोगी काबू करने का प्रयास करता तो वे सिमट भी जाते! इस दृश्य की बदौलत वातावरण में बनता सिकुड़ता रूपक बच्चों की भीड़ को सम्मोहित करता था।
शेर नृत्य कोई आधिकारिक नृत्य तो है नहीं, ना ही उसका नियम, विधान। पैर या हस्तक इस रूपाकार में या इस लय-गति-छंद में ही बढऩे, घटने चाहिए जरूरी कहाँ? जो कोई भी शेर रूप धारण करता है उसके पास इस हुनर का एक देखा गया ढाँचा होता है-और यही इसका अपना अघोषित अंदाज कि ऐसा ऐसा हो। अलबत्ता बैंड की गति-लय जरूर इसको एक दायरा देती है। यही इसका न्यूनतम ढंग है जिसे प्रत्येक शेर बनने वाला अपनी शैली में ढाल कर डिलीवर करता है! देखने वाले भी उनके हाथ-पैरों की कलात्मक गुणवत्ता की बजाय उछलती हुई सी रँगत में रमने लगते हैं। एक आदमी कैसे बदली हुई रँग भूषा के सहारे परिवेश गढ़ रहा है!

धीरे-धीरे इसकी खूबसूरती भी धुँधली पड़ जाएगी जिस तरह दूसरे और शहराती लोकरंग। दृश्यों के पीछे भागने वाला मीडिया भी, मेरी अपनी जानकारी में कभी इन पर कुछ विस्तार से काम किया हो देखने में नहीं आया। प्रिंट मीडिया के उलट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए तो यह बढिय़ा दृष्यात्मक फीचर है! कल्पना करिए स्टूडियो में सजा धजा शेर बैठा हुआ है, और उसका यह रंगीन अनुभव कोई एंकर दर्शकों के सम्मुख ला रहा है! लेकिन ऐसा होगा? लगता नहीं! इसके सिमटने की बहुतेरी वजहों में इस वर्ष एक कड़ी भले कोरोना ने जोड़ दी, लेकिन जो संकेत बातचीत में उभरकर आते हैं वो साबित करते हैं कि इसके प्रति अब स्वीकार की भावना खत्म होने लगी है। स्वीकार का यही अभाव अब अस्वीकार का जनक बनता जा रहा है।
-बादल सरोज
भौतिक विज्ञान-फिजिक्स-में 2020 के नोबल सम्मान की खबर तीन वजहों से खुशखबर है।
प्तएक इसे पाने वालों में 55 वर्ष की सुश्री एंड्रिया हेज शामिल हैं जिन्होंने जर्मनी के रेनहार्ड गेन्जेल के साथ मिलकर यह पता लगाया है कि आकाशगंगा के ठीक बीचोंबीच एक विराट वजनी अनोखा ब्लैकहोल है जो सारे ग्रहों-उपग्रहों-सितारों की गति और स्थिति दोनों को नियंत्रित करता है।
नोबल शुरू होने (1901) के बाद से एंड्रिया चौथी महिला भौतिक विज्ञानी हैं जिन्हें यह सम्मान मिला। इससे पहले मैरी क्यूरी थी जिन्हें 1903 में, मारिया गोयप्पर्ट-मेयर 1963 में और डोना स्ट्रिकलैंड 2018 में यह सम्मान हासिल कर चुकी हैं।
प्रसंगवश मैरी क्यूरी इसलिए भी असाधारण थी क्योंकि 1911 में उन्होंने केमिस्ट्री-रसायन विज्ञान-में भी नोबल प्राप्त किया था। उन्होंने एक स्त्री होने के नाते खुद अपने जीवन में जितनी मुश्किलें उठाई थीं वह अलग कथा है ; शायद कोई फिल्म भी बनी है उस पर। क्या पता एंड्रिया की भी कोई कहानी हो-जिसके पन्नों को समेटकर वे यहां तक पहुँची हों।
दो इस बार के फिजिक्स नोबल की दूसरी ख़ास बात इसका ब्लैक होल केंद्रित होना है।
ब्रह्माण्ड और इस प्रकार जीवन के अस्तित्व की पहेली को हल करने की दिशा में ब्लैक होल एक विस्मयकारी वैज्ञानिक खोज थी। यूं इसकी भविष्यवाणी अल्बर्ट आईन्स्टीन ने अपनी जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी के साथ 1916 में ही कर दी थी-मगर पहले ब्लैकहोल को 1971 में ही खोजा जा सका।
इसकी सबसे सुव्यवस्थित व्याख्या स्टीफन हॉकिंग ने की थी और कहा था कि ये सिद्धांत हमें इस सवाल का जवाब देने के लिए काफी हैं कि ब्रह्मांड का निर्माण कैसे हुआ, ये कहां जा रहा है और क्या इसका अंत होगा और अगर होगा तो कैसे होगा? अपने काव्यात्मक व्यंग में उन्होंने कहा था कि अगर हमें इन सवालों का जवाब मिल गया तो हम ईश्वर के दिमाग़ को समझ पाएंगे। (थ्यौरी ऑफ़ एवरीथिंग)
क्या है ब्लैकहोल और बिगबैंग; सितारों, ग्रहों की एक उम्र होती है। उसके बाद वे सिकुड़ते हुए एक ऐसे पिण्ड में बदल जाते हैं जहाँ बस गुरुत्वाकर्षण और अन्धकार है। जहां वक्त ठहर जाता है-जहां समय और स्थान का कोई मतलब नहीं होता। गुरुत्वाकर्षण इतना शक्तिशाली होता है कि यह आसपास की हर चीज सोख लेता है-यहां तक कि प्रकाश भी इससे बाहर नहीं आ पाता।
और उसके बाद कुछ-फकत कुछ-अरब-खरब वर्षों के बाद यह ब्लैकहोल फूटता है और फैलने लगता है, नए-नए ग्रह और सितारे बनाते हुए आखिर में फिर एक बार ब्लैक होल में बदल जाने के लिए।
जैसे, हम जिस ब्रह्माण्ड में रहते हैं वह कोई 13 अरब 80 करोड़ साल पहले ऐसे ही किसी विस्फोट से बनना शुरू हुआ है और अभी फैलता ही जा रहा है।
तीन, 2020 के नोबल की तीसरी बात है आईंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत की एक बार और पुष्टि। इस पर बाद में कभी।
अभी बस इतना कि 1848 में कार्ल माक्र्स-फ्रेडरिक एंगेल्स के लिखे बीजक ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ के बाद प्रकृति और समाज विज्ञान की सारी-जी हाँ सारी-खोजों और अनुसंधानों ने माक्र्सवाद की पुष्टि की है। उसे सही ठहराया है।
-ध्रुव गुप्त
आधी रात को वीराने से उठकर रूह में उतरती उनींदी-सी कोई आवाज सुनी है आपने? बिल्कुल ऐसी ही आवाज है भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ सबसे महबूब गजल गायक-गायिकाओं में एक बेगम अख्तर की। आवाज की तासीर ऐसी जैसी मुहब्बत में चोट खाई किसी माशूका की दबी-दबी चीख। जैसे फुसफुसा कर बातें करता पलकों का कोई भींगा-सा कोना। गजल गायकी में बेगम अख्तर की कोई मिसाल नहीं। कभी उनकी आवाज से होकर गुजरिए तो महसूस होता है कि दर्द को महसूस ही नहीं किया जाता, सुना भी जा सकता है।
पिछली सदी की बेहतरीन गायिका गौहर जान को अपना आदर्श मानने वाली बेगम ने पंद्रह साल की उम्र में ही अपनी बिल्कुल अलग आवाज और गायन-शैली के बूते अपनी पहचान बना ली थी। फिल्मवालों का ध्यान उनकी तरफ गया तो उन्होंने अख्तरी बाई फैजाबादी के नाम से 1933 से 1943 तक लगभग आधा दर्जन फिल्मों में अभिनय किया। उन फिल्मों में अपने तमाम गाने उन्होंने खुद ही गाए थे। 1945 में शादी के बाद पारिवारिक परंपराओं के दबाव में उन्हें अभिनय ही नहीं, गायिकी से भी तौबा करनी पड़ी। यह उनके जीवन का सबसे त्रासद दौर था। स्वभाव के विपरीत जीवन ने उन्हें मानसिक ही नहीं, शारीरिक तौर पर भी बीमार कर दिया। उनकी बिगड़ती हालत देख ससुराल वालों ने उन्हें लखनऊ रेडियो स्टेशन में गाने की अनुमति दे दी। उसके बाद बेगम अख्तर के नाम से उनकी गायिकी जो सफर रेडियो से शुरू हुआ, वह पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आंधी की तरह पहुंच गया।
1974 में अपनी मौत तक उन्होंने खुद को गजल की सबसे मकबूल आवाज के रूप में स्थापित कर लिया था। ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया, दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दो, तुम्हें याद हो कि न याद हो, कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया, उलटी हो गईं सब तदबीरें, इश्क में गैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया, मेरे हमनफस मेरे हमनवां मुझे दोस्त बनके दगा न दे, अपनों के सितम हमसे बताए नहीं जाते, उज्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं, लाई हयात आए कजा ले चली चले, दिल की बात कही नहीं जाती, अब छलकते हुए सागर नहीं देखे जाते जैसी उनकी गाई गजलें हमारी सांगीतिक विरासत का अनमोल हिस्सा हैं। बेगम साहिब की पुरअसर आवाज इस देश की कई पीढिय़ों के दर्द और तन्हाई का भरोसेमंद साथी रही है। आज मलिका-ए-गजल बेगम अख्तर के यौमे पैदाईश पर उन्हें खेराज-ए-अकीदत, मेरे एक शेर के साथ-
फिर से कम होंगी उम्मीदें, फिर से घबड़ाएगा दिल
फिर तेरी आवाज के पहलू में छुप जाएंगे हम !
एंथ्रोपोसीन की परिकल्पना अपने पथरीले जन्मस्थान से निकलकर सांस्कृतिक और राजनैतिक बहस के खुले आकाश का हिस्सा बन चुकी है
अमेरिका के न्यू मैक्सिको स्थित व्हाइट सैंड्स मिसाइल रेंज में मिलिटरी मैनहटन प्रोजेक्ट मेमोरियल। इस जगह 16 जुलाई 1945 को दुिनया का पहला परमाणु परीक्षण किया गया था। इससे निकले रेडियोन्यूक्लाइड को एंथ्रोपोसीन का चिह्न माना जाता है
धरती पर युग के बदलने का निर्णय पृथ्वी के ही अंदर मिले कुछ विश्वव्यापी संकेतों के माध्यम से किया जाता है। धरती की अंदरूनी परतों में पाए जाने वाले कुछ विशेष पदार्थों के स्तरों में वृद्धि ऐसा ही एक संकेत है। हालांकि रेडियोधर्मी तत्वों का प्रसार इस तरह का सबसे अच्छा संकेत है लेकिन कई अन्य नए, मानव निर्मित पदार्थ भी हैं जो इन 'टेक्नोफोसिल' की श्रेणी में आते हैं। एल्युमिनियम, कंक्रीट, प्लास्टिक इत्यादि इस तेजी से विकसित होते समूह के कुछ सदस्य हैं। रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग के फलस्वरूप उत्पन्न नाइट्रोजन, ध्रुवीय बर्फ में जमा कार्बन, पेड़ों के छल्लों और आइस कोर में अवशोषित ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि एवं पृथ्वी की सतह में पाए जाने वाले प्लास्टिक एवं माइक्रो-प्लास्टिक कुछ अन्य संकेत हैं जो ऐसे परिवर्तन का मजबूत समर्थन करते हैं। अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस द्वारा जनवरी, 2016 में प्रकाशित एक पत्र में पहली बार यह विस्तार से बताया गया कि वर्तमान युग होलोसीन से क्यों और कैसे अलग है। इसके अलावा यह पत्र एक 'अर्ली एंथ्रोपोसीन' काल की भी बात करता है जिसकी शुरुआत खेती के प्रसार एवं वनों की कटाई से हुई। पुरानी दुनिया और नई दुनिया की प्रजातियों के बीच हुआ 'कोलम्बियन एक्सचेंज' (कोलंबियन एक्सचेंज को कोलंबियन इंटरचेंज के नाम से भी जाना जाता है और इसका नाम क्रिस्टोफर कोलंबस पर रखा गया था। 15वीं एवं 16वीं शताब्दी में उत्तर व दक्षिण अमेरिका, पश्चिमी अफ्रीका और यूरोप के बीच हुए पौधों, जानवरों, संस्कृतियों, इंसानों, तकनीक, बीमारियों एवं विचारों के आदान-प्रदान को यह नाम दिया गया था) औद्योगिक क्रांति और बीसवीं शताब्दी के मध्य में जनसंख्या वृद्धि और औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में हुआ “ग्रेट एक्सेलेरेशन” इसके अन्य पहलू हैं। औद्योगिक मुर्गी पालन के फलस्वरूप मुर्गों के उत्पादन और प्रसार में भयावह वृद्धि हुई है और उनके जीवाश्म भी नए युग के संकेतों की दौड़ में शामिल हैं।
युग परिवर्तन के संकेतों के बारे में भूविज्ञान में एक आम सहमति प्राप्त करना बहुत कठिन है, भले ही होलोसीन को औपचारिक रूप से 1885 में एक युग के रूप में स्वीकार किया गया था, लेकिन भूवैज्ञानिकों को इसके गोल्डन स्पाइक पर सहमत होने में 76 साल लग गए। वैसे भी, एंथ्रोपोसीन के भाग्य का फैसला एडब्ल्यूजी के हाथ में नहीं है। इसकी सिफारिशों का अध्ययन और उनकी जांच भूविज्ञान के क्षेत्र की तीन शीर्षतम संस्थाओं, द सब्मिशन ऑन क्वार्टनेरी स्ट्रैटीग्राफी, द इंटरनेशनल कमीशन ऑन स्ट्रैटीग्राफी एवं अंत में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ जियोलाजिकल साइंस द्वारा की जाएगी। हालांकि, कुछ स्ट्रेटिग्राफर मानते हैं कि एडब्ल्यूजी ने एंथ्रोपोसीन को भूवैज्ञानिक आधार पर परिभाषित करने की कोशिश करके सही नहीं किया है क्योंकि मानवीय गतिविधियों के अवशेष चट्टानों में मिलें ही, ऐसा आवश्यक नहीं है। जैसा कि लेखक जेम्स वेस्टकॉट ने कहा, 'जब हमारे पास ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अलावा हार्ड ड्राइव और सीडी पर जानकारी उपलब्ध है तो फिर चट्टानों के पीछे जुनूनी बनने की आवश्यकता ही क्या है?'
प्रतिष्ठित भूवैज्ञानिक चाहे एडब्ल्यूजी के प्रस्ताव को मानें या न मानें, यह तो निश्चय है कि एंथ्रोपोसीन की परिकल्पना अपने पथरीले जन्मस्थान से निकलकर सांस्कृतिक और राजनैतिक बहस के खुले आकाश का हिस्सा बन चुकी है। यहां डरहम विश्वविद्यालय के टिमोथी क्लार्क के शब्द बिल्कुल सटीक प्रतीत होते हैं, 'यह सांस्कृतिक, नैतिक, सौंदर्यवादी, दार्शनिक और राजनीतिक-पर्यावरणीय मुद्दों को एक स्थान पर लाता है, बिल्कुल एक वैश्विक पैमाने पर।'
उदाहरण के लिए राइस विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर टिमोथी मॉर्टन ने वर्ष 2013 में अपनी पुस्तक 'हाइपरऑब्जेक्ट्स' में, एंथ्रोपोसीन को मानव इतिहास और स्थलीय भूविज्ञान के एक चुनौतीपूर्ण एवं भयानक संयोग के रूप में वर्णित किया है। उनका मानना है कि मानवों को आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन, प्लास्टिक एवं रेडियोधर्मी प्लूटॉनियम जैसे हाइपरऑब्जेक्ट्स का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। प्रोफेसर मॉर्टन कहते हैं कि ये हाइपरऑब्जेक्ट्स हमारे चारों ओर फैले हुए हैं और उनके बारे में जानकारी इकट्ठा करना और उन्हें समझ पाना मुश्किल है। इसी तरह, 2011 की अपनी पुस्तक 'द टेक्नो ह्यूमन कंडीशन' में डेनियल सारेविट्ज और ब्रेडेन एलेन्बी एंथ्रोपोसीन की व्याख्या किसी भी तकनीक के जटिल जीवन-पथ की भविष्यवाणी करने में मानवों की विफलता के अनपेक्षित प्रभाव के रूप में करते हैं। वे मोटरकारों का उदाहरण देते हैं। यह एक ऐसी तकनीक है जिसने इंसानों को स्वतंत्रता एवं आराम तो दिलाया लेकिन साथ ही वातावरण को भयानक नुकसान भी पहुंचाया। 'एकोक्रिटिसिज्म ऑन द एज” के लेखक टिमोथी क्लार्क का मानना है कि एंथ्रोपोसीन ने उन श्रेणियों को धुंधला कर दिया है जिससे लोगों को अपनी दुनिया और अपने जीवन का बोध होता था। यह “संस्कृति और प्रकृति, तथ्य और मूल्य एवं मानव और भूवैज्ञानिक या मौसम विज्ञान के बीच की सीमाओं को संकट में डालता है।'
हालांकि इतनी सारी परिभाषाओं के बावजूद जो एक बात खुलकर सामने आती है वह यह है कि एंथ्रोपोसीन मानवों एवं प्रकृति के बीच की विभाजन रेखा के स्थायी ध्वंस को दर्शाता है। दूसरे शब्दों में, नए युग में प्राकृतिक वातावरण का कोई मतलब नहीं रह जाता क्योंकि इस धरती पर सजीव या निर्जीव, ऐसा कुछ नहीं बचा जिसके साथ मानवों ने छेड़छाड़ न की हो। ड्यूक यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफेसर और 'आफ्टर नेचर: ए पॉलिटिक्स फॉर द एंथ्रोपोसीन' के लेखक जेडेडाया पर्डी के शब्दों में, 'सवाल यह नहीं है कि प्राकृतिक दुनिया को मानव घुसपैठ से कैसे बचाया जाए, सवाल यह है कि हम इस नई दुनिया को कैसा आकार देंगे क्योंकि हम इसे परिवर्तित किए बिना नहीं रह सकते।'

ऐसे बना एंथ्रोपोसीन शब्द
एंथ्रोपोसीन शब्द 2000 में नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुटजन द्वारा गढ़ा गया था लेकिन वर्किंग ग्रुप ऑफ एंथ्रोपोसीन (डब्ल्यूजीए ) का गठन 2009 में किया गया था। डब्ल्यूजीए के 35 वैज्ञानिकों में से 30 ने एंथ्रोपोसीन को औपचारिक रूप से नामित करने के पक्ष में मतदान किया (2016)। अगले कुछ वर्षों में, डब्ल्यूजीए के सदस्य तय करेंगे कि कौन से संकेत एक युगांतरकारी बदलाव के सबसे तेज और सबसे मजबूत संकेतक हैं। चूंकि भूवैज्ञानिक विभाजन चट्टानों या बर्फ में सीमा परतों के आधार पर बनाए जाते हैं, इसलिए वैज्ञानिकों का कार्य नए युग का सीमांकन करने के लिए पृथ्वी की पपड़ी में एक स्थान का निर्धारण करना भी होगा। डेटा के विश्लेषण के बाद, इसे एंथ्रोपोसीन की मंजूरी और आधिकारिक अनुमोदन के लिए स्ट्रेटिग्राफिक अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।
औपचारिक मान्यता अंततः इंटरनेशनल कमीशन ऑन स्ट्रेटिग्राफी (आईसीएस) द्वारा प्रदान की जाती है। आयोग एक अंतरराष्ट्रीय क्रोनोस्ट्रेटिग्राफिक चार्ट तैयार करता है, जो ग्रह के 450 करोड़ वर्ष के विकास के दौरान हुए सत्यापित परिवर्तनों का वर्णन करता है। आमतौर पर इस तरह की प्रक्रिया कई दशकों तक चलती है लेकिन जिस तेजी से एंथ्रोपोसीन को अपनाया जा रहा है, उससे लगता है कि यह 5 साल से भी कम समय में पूरा हो जाएगा। युग परिवर्तन के मार्कर के बारे में भूविज्ञान में एक आम सहमति प्राप्त करना कठिन है, भले ही होलोसीन को 1885 में औपचारिक रूप से एक युग के रूप में स्वीकार किया गया था लेकिन भूवैज्ञानिकों को इसके गोल्डन स्पाइक पर सहमत होने में 76 साल लग गए। इस परिवर्तन का विरोध कई वैचारिक एवं राजनैतिक स्तरों पर होगा, ऐसी संभावना नजर आ रही है। विकसित देशों में ऐसा होने की अधिक संभावना है क्योंकि उनके उपभोग एवं उत्पादन के तरीके निश्चय ही सवालों के घेरे में आएंगे।

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के निकट प्लास्टिक कचरे का ढेर। प्लास्टिक को एंथ्रोपोसीन के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा है
मानव जनसंख्या में वृद्धि एवं विलुप्ति
हम पृथ्वी की छठी व्यापक विलुप्ति के मध्य में हैं। हार्वर्ड जीवविज्ञानी ईओ विल्सन का अनुमान है कि प्रति वर्ष 30,000 प्रजातियां (या प्रति घंटे तीन प्रजातियां) विलुप्त हो रही हैं। धरती की प्राकृतिक विलुप्ति दर प्रति दस लाख प्रजातियां, प्रति वर्ष है (देखें, धरती की सबसे बड़ी विलुप्तियां, पेज 32)। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि संकट कितना गहरा है।
वर्तमान विलुप्ति बाकी विलुप्तियों से अलग है क्योंकि इसके लिए एकमात्र प्रजाति जिम्मेदार है। जैसे-जैसे मानव नई जगहों पर गए हैं, विलुप्ति की घटनाओं में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। उपनिवेशवाद एवं विलुप्ति के बीच का संबंध इस बात से समझ जा सकता है कि 2,000 साल पहले जैसे ही मनुष्यों ने मेडागास्कर को अपना उपनिवेश बनाया, हिप्पो, लंगूर एवं कई बड़े पक्षी विलुप्त हो गए। बड़े रीढ़दार प्राणी सबसे पहले विलुप्त होने वालों में थे क्योंकि मनुष्यों ने उनका शिकार किया। दूसरी विलुप्ति लहर 10,000 साल पहले शुरू हुई जब कृषि की खोज के कारण आबादी में इजाफा हुआ जिसके फलस्वरूप जंगल कटे, नदियों पर बांध बने और जानवरों के झुंड के झुंड पालतू बनाए गए। तीसरी और सबसे बड़ी लहर 1800 में जीवाश्म ईंधन के दोहन के साथ शुरू हुई। सस्ती ऊर्जा की उपलब्धि के फलस्वरूप मानव आबादी 1800 में 1 अरब से आज बढ़कर 7.5 अरब तक पहुंच गई है। यदि वर्तमान तरीके में बदलाव नहीं किया गया है, तो हम 2020 तक 8 अरब और 2050 तक 9 से 15 अरब तक पहुंच जाएंगे। मनुष्य प्रतिवर्ष पृथ्वी की स्थलीय शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता का 42 प्रतिशत, समुद्री शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता का 30 प्रतिशत और मीठे पानी का 50 प्रतिशत इस्तेमाल कर जाते हैं। धरती की कुल भूमि का 40 प्रतिशत मानवों के भोजन की आपूर्ति के लिए समर्पित है। 1700 में यह 7 प्रतिशत था। धरती का आधा हिसा मानव उपयोग के लिए रूपांतरित कर दिया गया है। मनुष्य अकेले ही बाकी सभी प्राकृतिक प्रक्रियाओं जितनी नाइट्रोजन उत्सर्जित करते हैं।

स्रोत: स्कॉट, जेएम 2008, थ्रेट्स टू बायोलॉजिकल डायवर्सिटी:ग्लोबल, कांटिनेंटल, लोकल।
यूस, ज्योलॉजिकल सर्वे, इदाहू कॉऑपरेटिव फिश एंड वाइल्ड लाइफ, रिसर्च यूनिट, यूनिवर्सिटी ऑफ इदाहू
'ह्यूमन डॉमिनेशन ऑफ अर्थ इकोसिस्टम्स' के लेखक, जिनमें नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के वर्तमान निदेशक भी शामिल हैं, का निष्कर्ष है कि इन सभी अलग प्रतीत होने वाली घटनाओं का एक ही कारण है, मानवीय गतिविधियों में हो रही वृद्धि। हम मानव वर्चस्व वाले ग्रह पर रहते हैं और मानव जनसंख्या वृद्धि की गति दुनिया के अधिकांश देशों के आर्थिक विकास के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करता है कि हमारा प्रभुत्व और बढ़ेगा।
जैव विविधता, प्रजातियों का वितरण, जलवायु, वनस्पति, आवास के खतरे, आक्रामक प्रजातियों, खपत के पैटर्न और अधिनियमित संरक्षण उपायों में अंतर के कारण स्थानीय विलुप्ति की दर का अनुमान लगाना जटिल है। हालांकि मानवीय प्रभाव हर जगह उपस्थित है। 114 देशों के एक अध्ययन में पाया गया कि मानव जनसंख्या घनत्व 88 प्रतिशत सटीकता के साथ लुप्तप्राय पक्षियों और स्तनधारियों की संख्या की भविष्यवाणी करता है। वर्तमान जनसंख्या वृद्धि के रुझान बताते हैं कि अगले 20 वर्षों में संकटग्रस्त प्रजातियों की संख्या 7 प्रतिशत और 2050 तक 14 प्रतिशत हो जाएगी।
अध्ययन के लेखकों में से एक, जेफरी मैकी ने कहा, 'जनसंख्या घनत्व प्रजातियों के खतरों का एक महत्वपूर्ण कारक है। अगर स्तनधारियों और पक्षियों की तरह यह बढ़ती गईं तो हमें अपनी बढ़ती मानव आबादी के साथ वैश्विक जैव विविधता के लिए एक गंभीर खतरे का सामना करना पड़ सकता है।' 7.5 बिलियन मानवों की तुलना में वन्यजीव आज कहां खड़े हैं? दुनियाभर में, 12 प्रतिशत स्तनधारियों, 12 प्रतिशत पक्षियों, 31 प्रतिशत सरीसृपों, 30 प्रतिशत उभयचरों और 37 प्रतिशत मछलियों पर विलुप्त होने का खतरा विद्यमान है। पौधों एवं बिना मेरुदंड वाले जीवों का आकलन अभी नहीं हुआ है लेकिन हम मान सकते हैं कि उन पर भी गंभीर खतरा मंडरा रहा है। विलुप्ति मानव आबादी का सबसे गंभीर और अपरिवर्तनीय प्रभाव है, लेकिन दुर्भाग्यवश एक संवहनीय मानव आबादी की जरूरतों की बात जब भी होती है, तब हम केवल पर्याप्त भोजन और पानी की ही बात करते हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि मनुष्य खुद तो पृथ्वी पर मजे में रहेंगे ही, साथ ही औरों को भी रहने देंगे, लेकिन क्या हमारे पास इतने संसाधन हैं? (downtoearth)
कहा - सरकारी कवायद मुजरिमों को बचाने ट्रिब्यूनल को चकमा
- Susan Chacko, Dayanidhi
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के जस्टिस सोनम फिंटसो वांग्दी की पीठ ने कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि ओडिशा के खोरधा में अवैध खदानों को चलाने वाले व्यक्ति के बजाय ट्रकों के ड्राइवरों से पर्यावरणीय मुआवजा कैसे वसूला जा रहा है। इसके अलावा पीठ ने यह भी कहा कि श्री जगन्नाथ मंदिर प्रशासन को कानून की निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना तथा पर्यावरण मंजूरी (ईसी) प्राप्त किए बिना खनिज निकालने की अनुमति कैसे दी जा सकती है।
आदेश में कहा गया है कि सरकार द्वारा की गई कवायद गैरकानूनी अपराधियों को बचाने के लिए ट्रिब्यूनल को चकमा देने का प्रयास है और इस मामले में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) मूकदर्शक बना हुआ है। एनजीटी ने संयुक्त समिति को निर्देश दिया कि वह अवैध खनन करने वाले व्यक्तियों की पहचान कर मामले की जांच रिपोर्ट के साथ ही श्री जगन्नाथ मंदिर प्रशासन को क्षेत्र में खनन करने की अनुमति देते समय अनिवार्य रूप से पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) प्रक्रिया का पालन किया गया था या नहीं, इसकी रिपोर्ट भी प्रस्तुत करने को कहा गया।
खनन और अन्य पर्यावरणीय कानूनों के लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं (एसओपी) का पालन किए बिना रेट होल माइनिंग विधि द्वारा लेटराइट पत्थर के अवैध खनन के बारे में बिदु भूषण हरिचंदन द्वारा एनजीटी में एक याचिका दायर की गई थी। याचिका में कहा गया था कि ओडिशा के खोरधा जिले में कम से कम 40 अलग-अलग साइटें हैं, जहां इस तरह का खनन चल रहा है, जिसमें 500 एकड़ जमीन शामिल है, जिसमें नजीगढ़ तपंग पंचायत में आने वाले तपंगा, औरा और झिन्कीझारी जैसे गांव शामिल हैं।
जगन्नाथ सागर झील का संरक्षण
जगन्नाथ सागर झील के कायाकल्प के लिए उड़ीसा के कोरापुट में स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड ने वर्ष 2020-21 में कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) फंड के तहत 100 लाख रुपये की राशि मंजूर की थी। कोरापुट के सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग के कार्यकारी अभियंता ने अपशिष्ट जल उपचार संयंत्रों की स्थापना के लिए उचित स्थान का चयन किया और इस योजना की तैयारी के लिए 4241.43 लाख रुपये की लागत का अनुमान लगाया है।
ये जगन्नाथ सागर के संरक्षण के लिए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के समक्ष कोरापुट जिला मजिस्ट्रेट द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट में उल्लिखित कुछ कदम थे।
अतिक्रमण हटाने के संबंध में जेयपोरे के तहसीलदार ने उड़ीसा में भूमि अतिक्रमण निरोधक अधिनियम, 1972 (ओपीएलई अधिनियम) के तहत 54 मामलों की शुरुआत की है। अतिक्रमण करने वालों ने जगन्नाथ सागर के चारों ओर की भूमि पर कब्जा कर लिया था।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जगन्नाथ सागर के निराकरण के लिए जिला प्रशासन ने जंगली घास, खरपतवार काटने वाले को काम पर रखने पर सहमति व्यक्त की थी। भुवनेश्वर के चिलिका विकास प्राधिकरण के मुख्य कार्यकारी अधिकारी को अपनी तकनीकी टीम नियुक्त करने का अनुरोध किया था, ताकि यह टीम जेयपोरे, जगन्नाथ सागर का दौरा कर जंगली घास को जड़ से हटाने के लिए पूर्ण प्रमाण के साथ एक संभावित रिपोर्ट प्रस्तुत करें।
हालांकि भुवनेश्वर के चिलिका विकास प्राधिकरण के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने कहा है कि पर्याप्त तकनीकी स्टाफ की कमी के कारण तकनीकी टीम को जेयपोरे भेजना संभव नहीं था। इसलिए, उन्होंने अनुरोध किया कि खरपतवार से घिरे जगन्नाथ सागर के क्षेत्र के परिमाप के बारे में उन्हें जानकारी दी जाए, ताकि वे अनुमान तैयार कर सकें।
जेयपोरे नगर पालिका के कार्यपालक पदाधिकारी जगन्नाथ सागर का दौरा करेंगे। जगन्नाथ सागर के साथ-साथ खरपतवार से घिरे क्षेत्र का सही आयाम प्रस्तुत किया जा सके, ताकि आगे की कार्रवाई करने के लिए वही जानकारी चिलिका विकास प्राधिकरण को दी जा सके।
यह रिपोर्ट 6 अक्टूबर, 2020 को जनता के लिए उपलब्ध कराई गई थी।
झारखंड और पश्चिम बंगाल में पत्थर खनन
एनजीटी ने झारखंड और पश्चिम बंगाल राज्य मे चल रहे अवैध पत्थर खनन के संचालकों का पर्यावरण क्षतिपूर्ति का आकलन करने और वसूली करने की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए दो महीने का समय दिया है।
एनजीटी ने 1 जुलाई को अपने आदेश में झारखंड के अवैध पत्थर खदान संचालकों से भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) को पर्यावरण क्षतिपूर्ति की वसूली करने का निर्देश दिया था। पश्चिम बंगाल को दिए गए आदेश में कहा गया था कि वह आईसीएफआरई के द्वारा किए गए आकलन की प्रक्रिया को अपना कर नुकसान और पर्यावरण क्षतिपूर्ति की वसूली करे।
हालांकि दोनों राज्यों ने इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए और समय सीमा की मांग की है।
सावनपुरा तोरण में खनन
एनजीटी ने 5 अक्टूबर को सीकर जिले के गांव सावनपुरा तोरण में अवैध खनन के मामले की जांच करने के लिए राजस्थान के सीकर जिले के कलेक्टर, क्षेत्रीय अधिकारी और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को मिलाकर एक संयुक्त समिति बनाने का निर्देश दिया।
समिति को जगह का दौरा कर चार सप्ताह के भीतर एक तथ्यात्मक और कार्रवाई की गई रिपोर्ट प्रस्तुत करनी है।
ध्वाजबंद मंदिर के महंत और अन्य पुजारियों द्वारा सदियों पुराने मंदिर और जल निकाय के पास अवैध खनन गतिविधियों के खिलाफ एक याचिका दायर की गई थी। जहां खनिजों की खुदाई नियमानुसार मंजूरी और अन्य प्रासंगिक सहमति के बिना की जा रही थी।
याचिका में कहा गया है कि राज्य के अधिकारियों की खनन करने वालों के साथ मिलीभगत है। खनन करने वालों को ग्राम भोजमेर, तहसील नीम-का-थाना के पास 4.29 हेक्टेयर भूमि पर खनिज मुख्य रूप से क्वार्ट्ज और फेल्डस्पार के लिए खनन पट्टे आवंटित किए गए थे।(downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्टप्तपति डोनाल्ड ट्रंप का कोरोनाग्रस्त होना किस बात का सूचक है ? कई बातों का है। पहली, दुनिया का कोई आदमी कितना ही शक्तिशाली हो, बीमारी और मौत के आगे वह निढाल है। ट्रंप दुनिया के सबसे शक्तिशाली आदमी हैं, क्योंकि वे दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के पति हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति के पास जितनी संवैधानिक शक्तियां होती हैं, उतनी किसी भी राष्ट्र के प्रधानमंत्री को नहीं होतीं। कोरोना ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह किसी राष्ट्रपति और सफाई कर्मचारी में कोई भेद नहीं करता। दूसरा, ट्रंप के कोरोना ने उनके बड़बोलेपन को पंचर कर दिया है। कोरोना कुछ नहीं है, उससे क्यों डरें, अमेरिकी स्वास्थ्य-सेवाएं सारी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं- इस तरह की लंतरानियां करनेवाले खुद ट्रंप को कोरोना ने पटकनी मार दी। ट्रंप के अहंकार को यह स्वीकार नहीं था कि वे मुखपट्टी लगाएं। उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी जो बाइडन की मजाक उड़ाई थी कि सार्वजनिक टीवी बहस में बाइडन ने मुंह पर पट्टी लगाकर बात की थी। कोरोना ने सिद्ध किया है कि नेताओं को, वे चाहे कितने ही बड़े हों, अपना आचरण ऐसा रखना चाहिए कि आम जनता उनका अनुकरण कर सके।
भारत से 4-5 गुना छोटे अमेरिका में 2 लाख 10 हजार लोगों की मौत का एक बड़ा कारण यही लापरवाही है। तीसरी, अमेरिका जैसे समृद्ध और उन्नत देश में लोगों के आत्म-विश्वास का स्तर जरुरत से ज्यादा ऊंचा है। इसीलिए हम देखते हैं कि समुद्र-तटों, हवाई जहाजों, मेट्रो रेलों और सडक़ों पर भी लोग मुखपट्टी के बिना घूमते हैं, एक-दूसरे से शारीरिक दूरी नहीं रखते और होटलों में खाना खाते हैं। वे अपने नेताओं का अनुकरण करते हैं। चौथी बात, जो ट्रंप के बारे में ही है। उन्हें बुधवार को हल्का बुखार था और श्वास लेने में दिक्कत थी। इसके बावजूद वे बुधवार और गुरुवार को चुनाव-प्रचार करते रहे। दो दिन बाद शुक्रवार को वे अस्पताल में भर्ती हुए। उनके बारे में डाक्टरों और उनके सेवकों की रिपोर्ट आपस में मेल नहीं खातीं। फिर भी, डाक्टरों की सलाह के विरुद्ध वे चुनाव के मैदान में आज से ही डट जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। पांचवीं बात तो बिल्कुल पक्की दिखाई पड़ रही है। वह है- राष्ट्रपति के चुनाव में उनकी हार। इस हार पर उनके कोरोना ने पक्की मुहर लगा दी है। इस वक्त जो बाइडन उनसे 13 अंकों से आगे हैं। यदि ट्रंप कुछ दिन अस्पताल में ज्यादा रह गए तो वे ज्यादा पिछड़ सकते हैं। अमेरिका में यह जोड़-भाग भी शुरू हो गया है कि कोरोना के कारण ट्रंप इस राष्ट्रपति चुनाव से ही बाहर न हो जाएं। देखिए क्या होता है?
(नया इंडिया की अनुमति से)
देश के लोकतंत्र की लाश अभी घसीटी जा रही है। हाथरस की पीडि़ता के उलट, अभी इसका दाह संस्कार नहीं हुआ है।
(This article was first published on Newslaundry. You can read the original piece on www.newslaundry.com )
जब दीवाली करीब आ रही है, और हिंदू लोग अपने राज्य में (और उस नए भव्य मंदिर में, जो अयोध्या में उनके लिए बनाया जा रहा है) भगवान राम की सफल वापसी का उत्सव मनाने की तैयारियां कर रहे हैं, हम बाकी लोगों को बस भारतीय लोकतंत्र की सिलसिलेवार सफलताओं के जश्न से ही तसल्ली करनी पड़ेगी। एक बेचैन कर देने वाले दाह संस्कार की, एक महान साजिश को दफनाने और एक दूसरी साजिश की कहानी बनाने की जो खबरें आ रही हैं, उसमें हम खुद पर, अपनी संस्कृति पर, अपनी सभ्यता के मूल्यों पर नाज किए बिना कैसे रह सकते हैं, जो प्राचीन भी हैं और आधुनिक भी?
सितंबर के बीच में खबर आई कि उत्तर प्रदेश के हाथरस में, प्रभुत्वशाली जाति के मर्दों ने 19 साल की एक दलित लडक़ी का सामूहिक बलात्कार करके उसे मरने के लिए छोड़ दिया था। उसका परिवार गांव के 15 दलित परिवारों में से एक था, जहां 600 परिवारों की बहुसंख्यक आबादी ब्राह्मणों और ठाकुरों की है। भगवाधारी और खुद को योगी आदित्यनाथ कहने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट इसी ठाकुर जाति से आते हैं। (सारे इशारे यही बताते हैं कि वे आने वाले समय में प्रधानमंत्री पद पर नरेंद्र मोदी की जगह लेने वाले हैं)। हमलावर कुछ समय से इस लडक़ी का पीछा कर रहे थे और उसे आतंकित कर रखा था। कोई नहीं था, जिससे वह मदद मांगती। कोई नहीं था जो उसकी हिफाजत करता। इसलिए वह अपने घर में छुप कर रहती और बहुत कम बाहर जाया करती। उसे और उसके परिवार को पता था कि हालात कैसे खतरनाक रुख ले सकते हैं। लेकिन इस पता रहने का भी कोई फायदा नहीं हुआ। उस दिन, खून से लथपथ उसका शरीर उसकी मां को खेत में पड़ा मिला, जहां वह गायों को चराने ले जाया करती थी। उसकी जीभ करीब-करीब काट ली गई थी, उसकी गर्दन की हड्डी टूट गई थी, जिसके चलते उसके शरीर का एक हिस्सा काम नहीं कर रहा था।
लडक़ी दो हफ्तों तक जिंदा रही, पहले अलीगढ़ अस्पताल में, और इसके बाद जब उसकी हालत बहुत बिगड़ गई तो दिल्ली के एक अस्पताल में. 29 सितंबर की रात उसकी मौत हो गई। उत्तर प्रदेश पुलिस, जो पिछले साल हिरासत में 400 लोगों की हत्याएं करने के लिए जानी जाती है (देश भर में 1700 ऐसी हत्याओं का यह एक चौथाई है1), रात के सन्नाटे में लडक़ी की लाश को लेकर उसके गांव के बाहर पहुंची। उसने सदमे में डूबे परिवार को घर में कैद कर दिया, लडक़ी की मां को इसकी इजाजत तक नहीं दी कि वह अपनी बेटी को आखिरी बार विदा कह पाती, एक बार उसका चेहरा देख पाती। उसने एक पूरे समुदाय को इससे वंचित किया कि वो अपनी एक प्यारी सदस्य के अंतिम संस्कार को सम्मान के साथ अंजाम दे पाते।
खाकी वर्दी की एक दीवार के घेरे के बीच, आनन फानन में सजाई गई चिता पर उस मार दी गई लडक़ी की लाश रखी गई, और धुआं अंधेरे आसमान में उठता रहा. दहशत में डूबा लडक़ी का परिवार मीडिया में उठे शोर से सहमा हुआ था. क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि रोशनियों के बुझने के बाद, उन्हें इस शोर के लिए भी सजा मिलने वाली है।
अगर वे बच पाने में कामयाब रहे तो वे अपनी उस जिंदगी में लौट जाएंगे, जिसके वे आदी बना दिए गए हैं जाति की गलाजत में डूबे उन मध्ययुगीन गांवों में जहां वे मध्ययुगीन क्रूरता और अपमान का शिकार बनते हैं, जहां उन्हें अछूत, और इंसानों से कमतर माना जाता है।
दाह संस्कार के एक दिन बाद, पुलिस को जब यह हौसला हो गया कि लाश को सुरक्षित रूप से मिटा दिया गया है, उसने ऐलान किया कि लडक़ी का बलात्कार नहीं हुआ था। उसकी सिर्फ हत्या हुई थी। सिर्फ यही वह आजमाया हुआ तरीका है, जिसके जरिए जातीय अत्याचारों में से जाति के पहलू को काट कर अलग कर दिया जाता है। उम्मीद की जा सकती है कि अदालतें, अस्पताल के रेकॉर्ड, और मुख्यधारा का मीडिया इस प्रक्रिया में साथ देंगे, जिसमें हर कदम पर, नफरत से भरे जातीय अत्याचार को एक बदकिस्मत, लेकिन महज एक मामूली अपराध में बदल दिया जाता है. दूसरे शब्दों में, हमारे समाज के सिर से कसूरवार होने का बोझ हट जाता है, संस्कृति और सामाजिक रस्में बरी हो जाती हैं. हमने बार-बार यही होते हुए देखा है, और 2006 में खैरलांजी में सुरेखा भोटमांगे और उनके दो बच्चों के कत्लेआम और उनके साथ बरती गई बेरहमी में यह बहुत खौफनाक रूप में दिखाई पड़ी थी।

अरुंधति रॉय
हम अपने मुल्क को इसके गौरवशाली अतीत में वापस ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसको पूरा करने का वादा भारतीय जनता पार्टी ने किया है। अगर कर सकें तो कृपया आप अजय सिंह बिष्ट को वोट देना न भूलें। अगर उन्हें नहीं, तो मुसलमानों की ताक में रहने वाला, दलितों से नफरत करने वाला, उनके जैसा कोई भी राजनेता चलेगा या चलेगी। अपलोड किए गए अगले लिंचिंग वीडियो को लाइक करना न भूलें। और अपने पसंदीदा, जहर उगलने वाले टीवी एंकर को देखते रहें, क्योंकि हमारे सामूहिक विवेक के पहरेदार वही हैं। और कृपया इसके लिए शुक्रिया कहना नहीं भूलें कि हम अभी भी वोट डाल सकते हैं, कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं, कि हम अपने जिन पड़ोसियों को ‘नाकाम राज्य’ कहना पसंद करते हैं, उनसे उलट भारत में निष्पक्ष अदालतें कानून की व्यवस्था बनाए रखती हैं।
हाथरस में गांव के बाहर शर्मनाक तरीके से, आतंक के माहौल में किए गए इस दाह संस्कार के महज कुछ ही घंटों के बाद, 30 सितंबर की सुबह, एक विशेष सीबीआई अदालत ने हमारे सामने ऐसी निष्पक्षता और ईमानदारी का एक ज़ोरदार प्रदर्शन किया।
बड़ी सावधानी से 28 साल तक गौर करने के बाद अदालत ने उन 32 लोगों को बरी कर दिया, जिन पर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने की साजिश का इलजाम था। यह एक ऐसी घटना थी, जिसने आधुनिक भारत के इतिहास की धारा को बदल दिया था। बरी किए गए लोगों में एक पूर्व गृह मंत्री, एक पूर्व कैबिनेट मंत्री और एक पूर्व मुख्यमंत्री शामिल हैं। ऐसा लगता है कि असल में किसी ने बाबरी मस्जिद नहीं गिराई। कम से कम कानून का ऐसा ही मानना है। शायद मस्जिद ने खुद को गिरा लिया। शायद यह अपने ऊपर गेती और हथौड़े चला कर खुद ही मिट्टी में मिल गई। शायद उस दिन खुद को श्रद्धालु कहने वाले, अपने चारों ओर जमा, भगवा गमछा बांधे हुए गुंडों की सामूहिक इच्छाशक्ति के आगे वह खुद ही बिखर गई। इन सबके लिए इतने साल पहले 6 दिसंबर का दिन भी शायद इसने खुद चुना था जो बाबासाहेब आंबेडकर की पुण्यतिथि भी है।
पता चला कि उस पुरानी मस्जिद के गुंबद को औजारों से तोड़ कर गिराने वाले आदमियों के जो वीडियो और तस्वीरें हमने देखीं, गवाहों के जो बयान हमने पढ़े और सुने, इसके बाद के महीनों में मीडिया में जो खबरें छाई रही थीं, वे सब हमारे मन की कल्पनाएं थीं. एलके आडवाणी की रथयात्रा, जिसके दौरान उन्होंने भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक एक खुले हुए ट्रक में यात्रा की थी, भारी भीड़ के सामने भाषण दिए थे, शहरों में चक्का जाम कर दिया था, सच्चे हिंदुओं को ललकारा था कि वे अयोध्या में ठीक उस जगह पर जमा हों जहां मस्जिद खड़ी थी, और राम मंदिर निर्माण में भागीदारी करें।
यह सब कुछ भी नहीं हुआ था. न ही यात्रा के पीछे-पीछे होने वाली वह मौत और तबाही ही कभी असल में हुई. किसी ने एक धक्का और दो, बाबरी मसजिद तोड़ दो का नारा नहीं लगाया। हम सभी एक सामूहिक, राष्ट्रव्यापी मदहोशी के शिकार हो गए थे. किस चीज़ का नशा कर रहे थे हम? हम तक एनसीबी का परवाना क्यों नहीं पहुंचा? सिर्फ बॉलीवुड के लोगों को ही क्यों बुलाया जा रहा है? कानून की नजऱ में हम सभी बराबर हैं कि नहीं?
विशेष अदालत के जज ने 2,300 पन्नों के अपने ब्योरेवार फैसले में बताया है कैसे मस्जिद को गिराने की कोई योजना नहीं थी। मानना पड़ेगा कि यह कमाल का ही एक काम है एक योजना की गैरमौजूदगी के बारे में 2,300 पन्ने. वे लिखते हैं कि कैसे इसके बारे में कोई भी सबूत नहीं हैं जिससे यह पता चलता आरोपित लोग मस्जिद गिराने की योजना बनाने के लिए ‘एक कमरे में’ मिले हों। शायद इसलिए कि यह एक कमरे के बाहर, हमारी सडक़ों पर, आम सभाओं में, हमारे टीवी के पर्दों पर हुआ, जिसे हम सबने देखा और उसमें भागीदारी की? या फिर, उफ, कहीं यह वही ‘माल’ तो नहीं है जिसके दम से हमारे मन में ऐसे विचार पनप रहे हैं?

बाबरी मस्जिद
खैर, बाबरी मस्जिद गिराने की साजिश का मामला तो अब खत्म हुआ. लेकिन अब एक दूसरी साजिश है जो अभी ‘गर्म’ है और आजकल ‘ट्रेंड’ में है. 2020 के दिल्ली कत्लेआम की साजिश, जिसमें उत्तर पूर्व दिल्ली के मजदूर मुहल्लों में 53 लोग (जिनमें से 40 मुसलमान थे) मार दिए गए और 581 लोग जख्मी हुए। मस्जिदों, कब्रिस्तानों और मदरसों को खास कर निशाना बनाया गया। घर, दुकानों और कारोबारों को आग लगाई गई और तबाह कर दिया गया, जिनमें से ज्यादातर मुसलमानों के थे।
साजिश के इस मामले में, दिल्ली पुलिस की हजारों पन्नों की चार्जशीट में, एक पैराग्राफ एक टेबल के चारों ओर बैठकर साजिश बनाने वाले कुछेक लोगों के बारे में भी है हां! एक कमरे के भीतर, जो एक किस्म का ऑफिस बेसमेंट था। उनके भावों से ही आप साफ बता सकते हैं कि वे साजिश रच रहे थे। फिर वहां तो तीर से निशान भी लगाए गए हैं, जो उनकी पहचान कराते हैं, उनके नाम बताते हैं। यह खौफनाक है। बाबरी मस्जिद के गुंबद पर खड़े हथौड़ों-गेतियों वाले आदमियों से कहीं अधिक चिंताजनक। उस टेबल के चारों ओर बैठे लोगों में कुछ तो जेल पहुंचा भी दिए गए हैं। बाकी शायद जल्दी ही पहुंचा दिए जाएंगे। गिरफ्तारियों में कुछ ही महीने लगे। बरी होने में बरसों लग जाएंगे अगर बाबरी मसजिद के फैसले की मिसाल लें, तो शायद 28 बरस। किसे मालूम।
उन लोगों पर जिस यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) के तहत आरोप लगाए गए हैं, उसमें करीब-करीब हर चीज़ ही अपराध है, राष्ट्र-विरोधी विचार सोचना भी अपराध है। और अपनी बेगुनाही साबित करने का जिम्मा भी आपके सिर पर आता है. जितना ज्यादा मैं इसके बारे में पढ़ती हूं, और इस पर अमल करने के पुलिस के तरीके को देखती हूं, उतना ज्यादा लगता है कि यह ऐसा है मानो किसी होशमंद इंसान से यह कहा जाए कि वह पागलों की एक कमेटी के सामने अपनी होशमंदी साबित करे।
हमें हुक्म है कि हम इस पर भरोसा कर लें कि दिल्ली साजिश मुसलमान छात्रों और एक्टिविस्टों, गांधीवादियों, अर्बन नक्सलियों और वामपंथियों ने रची थी, जो नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर), नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) और सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) को लागू करने का विरोध कर रहे थे। उनका मानना था एक साथ मिल कर ये सब कदम भारत के मुसलमान समुदाय और उन गरीब लोगों को बेसहारा कर देंगे, जिनके पास कोई लीगेसी पेपर्स यानि विरासत के दस्तावेज नहीं हैं। मेरा भी यही मानना है। और मैं मानती हूं कि अगर सरकार इस परियोजना को जबरदस्ती आगे बढ़ाने का फैसला करती है, तो आंदोलन फिर से शुरू होंगे। उन्हें होना ही चाहिए।
पुलिस के मुताबिक, दिल्ली साजिश के पीछे विचार यह था कि फरवरी में संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप की सरकारी यात्रा के दौरान हिंसा भडक़ा कर और एक खूनी, सांप्रदायिक झगड़ा खड़ा करके भारत सरकार को शर्मिंदा किया जाए। इस चार्जशीट में जिन गैर-मुस्लिम नामों को शामिल किया गया है, उन पर इन आंदोलनों को एक ‘सेक्युलर रंग’ देने की साजिश करने का आरोप लगाया गया है. धरने और आंदोलन की रहनुमाई करने वाली हजारों मुसलमान औरतों पर आरोप लगाया गया है कि वे ‘जुटाई गई थीं’ ताकि आंदोलन को एक ‘जेंडर कवर’ (‘औरतों की ढाल’) मिल जाए। झंडे लहराने और अवाम द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना पढऩे को, और इन आंदोलनों की पहचान बन गई सारी शायरी और संगीत और प्यार को एक किस्म की बेईमान जालसाजी बता कर खारिज कर दिया गया है, जिनका मकसद असली बदनीयती को छुपाना भर था। दूसरे शब्दों में, आंदोलन असल में जिहादी था (और मर्दों का काम था), बाकी सब ऊपरी सजावट और तडक़-भडक़ थी।

उमर खालिद
नौजवान स्कॉलर डॉ. उमर खालिद को, जिनको मैं अच्छे से जानती हूं, बरसों से मीडिया परेशान करता रहा है, उनके पीछे पड़ा हुआ है और झूठी खबरें फैलाता रहा है। अब पुलिस कहती है कि वे दिल्ली की साजिश रचने वालों में अहम शख्स हैं। उनके खिलाफ जुटाई गई जिन चीजों को पुलिस सबूत बता रही है, वे दस लाख से अधिक पन्नों में हैं.2 (यह वही सरकार है जिसने कहा था कि एक करोड़ मजदूरों के बारे में इसके पास कोई आंकड़ा नहीं है, जो मार्च में सैकड़ों और कुछ तो हज़ारों मील पैदल चल कर अपने-अपने घरों को पहुंचे थे, जब मोदी ने दुनिया के सबसे बेरहम कोविड लॉकडाउन का ऐलान किया था। सरकार ने कहा कि इसे कुछ पता नहीं है कि कितने मजदूर रास्ते में मारे गए, कितने भुखमरी का शिकार बने, कितने बीमार पड़े।)
उमर खालिद के खिलाफ जुटाए गए इन दस लाख पन्नों में जाफराबाद मेट्रो स्टेशन का सीसीटीवी फुटेज शामिल नहीं है, जहां आरोप है कि उन्होंने यह गलत साजिशें रचीं और भडक़ाऊ बातें कीं. 25 फरवरी को, जब हिंसा चल ही रही थी, एक्टिविस्टों ने दिल्ली हाईकोर्ट से अपील की थी कि इस फुटेज को सुरक्षित रखा जाए. लेकिन यह फुटेज डिलीट कर दी गई है, और इसकी वजह किसी को नहीं मालूम.3 उमर अब हाल में गिरफ्तार उन सैकड़ों मुसलमानों के साथ जेल में हैं, जिन पर यूएपीए के तहत हत्या, हत्या की कोशिश और दंगे करने का आरोप है. दस लाख पन्नों का ‘सबूत’ देखने में अदालतों और वकीलों को कितना समय लगेगा?
जिस तरह जाहिर हुआ कि बाबरी मसजिद ने खुद को तबाह कर लिया था, उसी तरह 2020 दिल्ली कत्लेआम की पुलिस की कहानी में, मुसलमानों ने खुद अपनी हत्या की साजिशें रचीं, खुद अपनी मसजिदें जलाईं, खुद अपने घर तबाह किए, अपने बच्चों को यतीम बनाया. और यह सब किया डोनॉल्ड ट्रंप को दिखाने के लिए कि भारत में उनके दिन कितनी मुसीबत में गुजर रहे हैं।
अपने मामले को मजबूत बनाने के लिए पुलिस ने अपनी चार्जशीट में व्हाट्सऐप पर हुई बातचीत के हज़ारों पन्ने जोड़े हैं. यह बातचीत छात्रों और एक्टिविस्टों और एक्टिविस्टों के सहायता समूहों के बीच चली थी, जो दिल्ली में शुरू हुए आंदोलनों और शांतिपूर्ण धरने वाली अनगिनत जगहों को मदद पहुंचाने और उनके बीच तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहे थे. इस बातचीत और उन व्हाट्सऐप ग्रुपों में होने वाली बातचीत में ज़मीन-आसमान का अंतर है, जो ‘कट्टर हिंदू एकता’ नाम से चलते हैं. इन दूसरे किस्म के ग्रुपों में लोग सचमुच में मुसलमानों को मारने के बारे में बढ़-चढ़ कर बातें करते हैं, और खुलेआम भाजपा नेताओं की तारीफ करते हैं। वो एक अलग चार्जशीट का हिस्सा है।

दिल्ली दंगा
छात्रों-एक्टिविस्टों की बातचीत, ज्यादातर, जोशो-खरोश और मकसद से भरी हुई है, जैसा कि एक जायज गुस्से के अहसास से भरे हुए नौजवान लोगों में हुआ करती है। उन्हें पढऩा ऊर्जा देने वाला है। यह आपको कोविड से पहले के उन तूफानी दिनों में लौटा ले जाता है, जब एक नौजवान पीढ़ी को अपने पैरों पर आगे बढ़ते देखना कितना उत्साह से भर देने वाला था. इस बातचीत में हम पाते हैं कि कई बार, अधिक अनुभव वाले एक्टिविस्टों ने दखल देकर उन्हें आगाह किया कि उन्हें शांति और सब्र से काम लेने की जरूरत है। वे बहसें करते, मामूली तरीकों से झगड़ते लेकिन लोकतांत्रिक होने का मतलब यह भी तो होता है। इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि इन सारी बातों में विवाद का मुद्दा यह था कि शाहीन बाग की हजारों औरतों के आंदोलन की शानदार कामयाबी को और जगहों पर दोहराया जाए कि नहीं।
इन औरतों ने ठिठुरती हुई सर्दियों में हफ्तों तक मुख्य सडक़ पर धरना देकर आवाजाही ठप कर दी थी, जिससे उथल-पुथल तो हुई थी, लेकिन जिसके चलते उन पर और उनके मकसद पर लोगों का ध्यान भी गया था. शाहीन बाग की दादी बिलकिस बानो को टाइम पत्रिका की 2020 के सबसे प्रभावशाली लोगों की फेहरिश्त में जगह मिली है. (किसी ग़लतफहमी में न पड़ें, 19 साल की वह दूसरी बिलकिस बानो गुजरात की थीं जो 2002 में हुए मुसलमानों के कत्लेआम में बच रही थीं, जब नरेंद्र मोदी राज्य के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. बिलकिस ने अपने परिवार के 14 लोगों बेस्ट बेकरी कत्लेआम में मारे जाते हुए देखा, जिसमें उनकी तीन साल की बेटी को हथियारबंद हिंदुओं की एक बलवाई भीड़ ने मार डाला था. वह गर्भवती थीं और उनका सामूहिक बलात्कार हुआ था.4)
दिल्ली में एक्टिविस्टों की व्हाट्सऐप बातचीत में लोगों में इस बात पर मतभेद था कि पूर्वोत्तर दिल्ली में चक्का जाम किया जाए कि नहीं. चक्का जाम की योजना बनाने में ऐसी कोई नई बात नहीं है– किसानों ने कितनी बार चक्का जाम किया है. आज की तारीख में भी, पंजाब और हरियाणा में किसानों ने चक्का जाम कर रखा है. वे हाल में मंजूर किए गए बिलों का विरोध कर रहे हैं, जिनसे भारतीय खेती का कारपोरेटीकरण हो जाएगा, और छोटे किसानों का वजूद संकट में पड़ जाएगा।
दिल्ली आंदोलन के मामले में इन चैट ग्रुपों में कुछ एक्टिविस्टों ने दलील दी कि चक्का जाम का उल्टा असर पड़ेगा. कुछ ही हफ्ते पहले दिल्ली चुनावों में हार के अपमान से उबल रहे भाजपा नेताओं की खुली धमकियों के माहौल में, कुछ स्थानीय एक्टिविस्टों को डर था कि चक्का जाम करने से गुस्सा भडक़ सकता है, जिसमें हिंसा का रुख उनके समुदायों की तरफ मुड़ सकता है. वे जानते थे किसानों, गुज्जरों या यहां तक कि दलितों द्वारा चक्का जाम करना एक बात है। लेकिन मुसलमानों द्वारा चक्का जाम करना एकदम दूसरी बात है।
यही आज के भारत की हकीकत है। दूसरों ने दलील दी कि जब तक चक्का जाम नहीं किया जाएगा, और शहर को अपने हालात पर गौर करने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा तब तक लोग आंदोलनकारियों की अनदेखी करते रहेंगे. जैसा कि पता लगा, कुछ जगहों पर सडक़ें जाम की गईं. और जैसा कि अंदेशा जाहिर किया गया था, हिंसक नारे लगाती हथियारबंद हिंदू भीड़ को वह मौका मिल गया, जिसकी वह ताक में थी।
अगले कुछ दिनों तक, उन्होंने जिस किस्म की क्रूरता दिखाई, उससे हम सब सन्न रह गए। वीडियो में देखा गया कि उन्हें पुलिस का खुला समर्थन हासिल था। मुसलमानों ने जवाब दिया। दोनों तरफ से जान और माल का नुकसान हुआ। लेकिन इसमें कोई बराबरी नहीं थी। हिंसा को भडक़ने और फैलने की इजाजत दी गई। हमने अविश्वास के साथ देखा कि पुलिस ने सडक़ पर पड़े गंभीर रूप से जख्मी नौजवान मुसलमानों को घेर कर उन्हें राष्ट्रगान गाने पर मजबूर किया। उनमें से एक युवक फैजान की जल्दी ही मौत हो गई। संकट में घिरे, डरे हुए लोगों की सैकड़ों कॉलों को पुलिस ने नजरअंदाज किया।
जब आगजनी और हत्या का सिलसिला थमा, और आखिरकार जब सैकड़ों शिकायतों को सुनने की बारी आई, तब पीडि़तों का बयान है कि पुलिस ने उन्हें मजबूर किया कि वे अपनी शिकायतों से अपने हमलावरों के नाम और उनकी पहचान को हटा दें, और बंदूकें और तलवारें लहराने वाली भीड़ के सांप्रदायिक नारों को निकाल दें। अलग-अलग लोगों की अपनी खास शिकायतों को सबकी आम शिकायतों में बदल दिया गया, जिसमें सब कुछ आधा-अधूरा था, और कसूरवारों को बचाने वाला था। (नफरत में अंजाम दिए गए अपराधों में से नफरत की बात काट कर हटा दी गई)।
एक व्हाट्सऐप चैट में पूर्वोत्तर दिल्ली में रहने वाले एक खास मुसलमान एक्टिविस्ट ने चक्का जाम के खिलाफ बार-बार अपनी राय जाहिर की थी. आखिर में ग्रुप छोडऩे से पहले उन्होंने अपना आखिरी, कड़वाहट में डूबा हुआ एक संदेश ग्रुप में भेजा। यही वह मैसेज है, जिसको उठा कर पुलिस और मीडिया ने अपना गंदा खेल खेलना शुरू किया, और पूरे ग्रुप को बदनाम करने लगी। इस ग्रुप को, जिसमें भारत के सबसे सम्मानित एक्टिविस्ट, टीचर, फिल्मकार शामिल हैं, उन्हें जानलेवा इरादों वाले हिंसक साजिशकर्ताओं के रूप में पेश किया गया. इससे बेतुकी बात और कुछ हो सकती है? लेकिन यह साबित करने में उन्हें बरसों लग जाएंगे कि वे बेगुनाह हैं. तब तक मुमकिन है उन्हें जेल में रहना पड़े, उनकी जिंदगियां पूरी तरह तबाह हो जाएं, जबकि असली हत्यारे और हिंसा भडक़ाने वाले सडक़ों पर आजादी से घूमते रहेंगे, और चुनाव जीतते जाएंग। यह पूरी प्रक्रिया ही एक सजा है।
इस बीच अनेक स्वतंत्र मीडिया रिपोर्टों, सिटीजंस फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्टों और मानवाधिकार संगठनों ने दिल्ली पुलिस को पूर्वोत्तर दिल्ली में हुई हिंसा का भागीदार ठहराया है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सबसे हिला देने वाले कुछ हिंसक वीडियो को देखने और उनकी फोरेंसिक जांच के बाद, अगस्त 2020 में जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि दिल्ली पुलिस आंदोलनकारियों को पीटने और यातना देने तथा भीड़ के साथ मिल कर काम करने की दोषी है। तब से एमनेस्टी पर वित्तीय गड़बड़ी का आरोप लगाया गया है, और इसके बैंक खाते सील कर दिए गए हैं। इसको भारत में अपना दफ्तर बंद कर देना पड़ा और यहां काम करने वाले सभी 150 लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी।
जब हालात संगीन होने लगते हैं, तब अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षक सबसे पहले चले जाते हैं या जाने पर मजबूर कर दिए जाते हैं। किन मुल्कों में हमने यह पहले भी होते हुए देखा है? सोचिए। या फिर गूगल कर लीजिए।
भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जगह चाहिए, दुनिया के मामले तय करने के अधिकार में हिस्सा चाहिए। लेकिन यह दुनिया के उन देशों में से भी एक होना चाहता है, जो टॉर्चर के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय करारनामे पर दस्तखत नहीं करेंगे। यह एकदलीय लोकतंत्र (एक विडंबना या विरोधाभास) बनना चाहता है, सभी जवाबदेहियों से मुक्त।
पुलिस ने 2020 दिल्ली साजिश की जो बेतुकी कहानी तैयार की है, और उतनी ही बेतुकी 2018 भीमा कोरेगांव साजिश की कहानी है (बेतुका होना धमकियों और अपमान का हिस्सा है)। उसका इरादा एक्टिविस्टों, छात्रों, वकीलों, लेखकों, कवियों, प्रोफेसरों, मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं और नाफरमानी करने वाले एनजीओ को गिरफ्त में लेना और जेल भेजना है। इसका इरादा सिर्फ अतीत और वर्तमान की दहशतों का नामोनिशान मिटाना भर नहीं है, बल्कि आने वाले समय के लिए रास्ता साफ करना भी है।
मेरा अंदाजा है कि हमसे उम्मीद की जाती है कि हम दस लाख पन्नों के सबूत जुटाने की कवायदों और 2000 पन्नों के अदालती फैसलों के लिए शुक्रगुजार बनें। क्योंकि ये इसके सबूत हैं कि लोकतंत्र की लाश अभी भी घसीटी जा रही है। हाथरस की उस मार दी गई लडक़ी के उलट, अभी इसका दाह संस्कार नहीं हुआ है. लाश के रूप में भी यह अपना जोर लगा रही है, इससे चीजों की रफ्तार धीमी पड़ रही है। वह दिन दूर नहीं है जब इसको ठिकाने लगा दिया जाएगा और फिर चीजें रफ्तार पकड़ेंगी। हम पर जो लोग हुकूमत कर रहे हैं, उनका अनकहा नारा शायद यह हो सकता है- एक धक्का और दो, लोकतंत्र को ध्वस्त करो।
जब वह दिन आएगा, तब हिरासत में सालाना 1700 हत्याएं हमारे हालिया, गौरवमय अतीत की एक खुशनुमा याद लगने लगेंगी। लेकिन हमें इस छोटी-सी बात पर डरने की जरूरत नहीं है। जरूरत है कि अवाम उन लोगों को वोट डालती रहे, जो हमें बदहाली और जंग की तरफ ले जा रहे हैं, जो हमारी धज्जियां उड़ा रहे हैं।
कम से कम वे हमारे लिए एक मंदिर तो बना रहे हैं। यही क्या कम है।
(अनुवाद-रेयाजुल हक)
-Richard Mahapatra, Bhagirath Srivas, Raju Sajwan, Anil Ashwani Sharma
हमारी पृथ्वी जल्द ही एक नए भूवैज्ञानिक युग में प्रवेश करने वाली है और इसके गवाह बनने वाले हम पहले होमो सेपियंस यानी मानव प्रजाति होंगे। मजे की बात है कि इस युग का नाम भी हमारे ऊपर ही रखा गया है। यह हमारे जीवन का कोई गौरवशाली क्षण हो, ऐसी बात तो नहीं है लेकिन यह वह समय अवश्य है जब हमें धरती के पारिस्थितिक तंत्र में मानवों द्वारा किए गए अपरिवर्तनीय बदलावों पर ध्यान देने की सख्त जरूरत है। वैज्ञानिकों ने आपसी सहमति से मई, 2019 में इस युग को एंथ्रोपोसीन अथवा मानव युग घोषित करने के पक्ष में मतदान किया था। भूवैज्ञानिक घटनाक्रम की देखरेख करने वाले अंतरराष्ट्रीय स्ट्रेटिग्राफी आयोग के अंतर्गत आने वाली क्वाटर्नेरी स्ट्रैटिग्राफी उपसमिति ने एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप (एडब्ल्यूजी) नामक वैज्ञानिकों का एक 34 सदस्यीय पैनल गठित किया है। यह पैनल जल्द ही नए युग की शुरुआत की घोषणा का औपचारिक प्रस्ताव समिति के सामने रखने वाला है।
होलोसीन (अभिनव युग) नामक वर्तमान युग का अंत बस होने ही वाला है। यह युग 12,000 से 11,500 साल पहले शुरू हुआ था और वर्तमान वैज्ञानिकों ने बाद में इसे सूचीबद्ध किया था। यही वह समय था जब धरती की जलवायु में परिवर्तन हुए और उसके बाद मनुष्यों ने एक जगह टिककर खेती करना शुरू कर दिया था। बढ़ते तापमान के साथ पैलियोलिथिक आइस एज (पुरापषाण युग) भी अपनी समाप्ति पर था और पृथ्वी का भूगोल, जनसांख्यिकी और पारिस्थितिकी तंत्र, सब कुछ एक बदलाव की ओर अग्रसर था। ग्लेशियर पिघलते गए और मैमथ एवं बालदार गैंडे नई गर्म जलवायु में विलुप्त हो गए। धरती के बहुत बड़े इलाके में जंगल उग आए और मनुष्यों ने घूम-घूम कर शिकार एवं भोजन इकट्ठा करने की बजाय एक जगह टिककर रहना शुरू कर दिया। बढ़ते तापमान के साथ हिमयुग की कड़कती ठंड में भी कमी आई। इससे इंसानों की आबादी भी बढ़ी। शायद यह युग मनुष्यों के लिए ही बना था।
आज हजारों वर्षों बाद मनुष्यों ने पूरी धरती पर कब्जा करके इसके भूगोल एवं पारिस्थितिकी तंत्र को इस हद तक प्रभावित किया है कि अब एक नए युग की घोषणा करनी पड़ रही है। 34 में से 29 सदस्यों ने 20वीं शताब्दी के मध्य को युग की शुरुआत घोषित करने के प्रस्ताव का समर्थन किया। इस कालखंड को लेकर हुई बहसों में वैज्ञानिकों ने कहा कि इस नए युग की शुरुआत औद्योगिक क्रांति (सन 1760) के साथ हुई। इस दौरान उत्पादन में वृद्धि के अलावा ऐसे कई नए रसायनों की खोज भी हुई जिनका दुष्प्रभाव धरती के प्राकृतिक तंत्र पर पड़ा। वैज्ञानिक पहले से ही ऐसी साइटें ढूंढ रहे हैं जहां पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्रों में हम मानवों द्वारा किए गए हस्तक्षेप के ऐसे सबूत मिलने की संभावना है। ये सबूत एंथ्रोपोसीन अथवा मानव युग की शुरुआत की घोषणा करने में सहायक होंगे। विशेष रूप से, वे 1945 में हुए पहले परमाणु हथियार परीक्षण से निकले रेडियोन्यूक्लाइड कणों की खोज में लगे हैं। ये कण दुनियाभर में फैलकर पृथ्वी की मिट्टी, पानी, पौधों और ग्लेशियरों का हिस्सा बन गए हैं।
इस क्रम में हम मानवों ने धरती पर अपनी अमिट छाप अनंतकाल तक के लिए छोड़ दी है। ब्रिटेन के लीसेस्टर विश्वविद्यालय में कार्यरत पुरातत्वविद् और एडब्ल्यूजी के सदस्य मैट एजवर्थ ने कहा, स्तरित शैलविज्ञान अथवा स्ट्रैटिग्राफिक साक्ष्य काफी हद तक एक काल अतिक्रमी (टाइम-ट्रांसग्रेसिव) एंथ्रोपोसीन की ओर संकेत करते हैं जिसकी शुरुआत एक बार में न होकर कई बार में हुई हो। वह कहते हैं कि केवल एक रेडियोन्यूक्लाइड सिग्नल के आधार पर एक नए युग का नामकरण करना पृथ्वी की प्राकृतिक प्रणालियों में हुए परिवर्तन में मानव भागीदारी की वैज्ञानिक समझ को बढ़ाने की बजाय इसमें बाधा ही डालेगा। केपटाउन में आयोजित अंतरराष्ट्रीय भूविज्ञान कांग्रेस में इस नए युग की घोषणा के लिए 2016 में पहली बार अनौपचारिक रूप से मतदान हुआ।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपने बेहतरीन दिमाग की बदौलत होमो सेपियंस पृथ्वी पर सबसे सफल प्रजाति है। पिछले 12 हजार सालों में हमने पूरी धरती को अपने अधीन कर लिया है और यह हमारे वर्चस्व का अच्छा उदाहरण है। अपने कौशल और उद्यम की हम चाहे जितनी तारीफ कर लें लेकिन हम इस सच को झुठला नहीं सकते कि धरती को इस प्रगति की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। जलवायु परिवर्तन और लगातार विलुप्त होती प्रजातियां इस समस्या के दो सबसे खतरनाक पहलुओं में से हैं।
एंथ्रोपोसीन विचार के जनक डच रसायनशास्त्री पॉल क्रुटजेन और अमेरिकी जीवविज्ञानी यूजीन पी स्टोरमर थे जिन्होंने वर्ष 2000 में इसे दुनिया के सामने रखा था। लेकिन इसको लोकप्रियता दो साल बाद मिली जब क्रुटजेन का लेख “द जियोलॉजी ऑफ मैनकाइंड” नेचर पत्रिका में छपा। कुछ ही समय में यह लेख शिक्षाविदों के बीच चर्चा का विषय बन गया और इसे काफी मीडिया कवरेज भी मिली।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस नए युग की शुरुआत 1950 में हुई थी। ठीक इसी समय पृथ्वी पर “ग्रेट एक्सेलेरेशन” नामक एक घटना हुई। आर्थिक विकास और उसके फलस्वरूप लगातार बढ़ती आबादी ने धरती को पूरी तरह से बदलकर रख दिया और वर्ष 2007 में क्रुटजेन ने ही इसे “ग्रेट एक्सेलेरेशन” के नाम से परिभाषित किया था। वायु, जल एवं भूमि प्रदूषण, अंधाधुंध कटते जंगल, विलुप्त होती प्रजातियां, जलवायु परिवर्तन और ओजोन परत में छेद इन बदलावों में से प्रमुख हैं। रेडियोन्यूक्लाइड्स, परमाणु परीक्षणों के अवशेष होते हैं और ये हजारों वर्षों तक वातावरण में बने रह सकते हैं। अतः ये एंथ्रोपोसीन के आगमन को दर्शाने वाले सबसे अहम संकेत हैं। हालांकि एडब्ल्यूजी अन्य विकल्पों की तलाश में है। प्लास्टिक प्रदूषण, कृत्रिम उर्वरकों से मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फोरस का बढ़ा स्तर और दुनियाभर के हजारों लैंडफिलों में दफन बॉयलर मुर्गों की हड्डियां कुछ मुख्य उदाहरण हैं।
हालांकि, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इंसानों की वजह से जीवमंडल में कई मूलभूत बदलाव आए हैं लेकिन वे बदलाव आने वाली सहस्राब्दियों को भी प्रभावित करेंगे या नहीं, यह अब तक साफ नहीं हो पाया है। यह भूवैज्ञानिकों के लिए दुविधा की स्थिति है क्योंकि वे किसी युग का नामकरण “गोल्डन स्पाइक” के आधार पर करते हैं। “गोल्डन स्पाइक” दरअसल धरती की परतों में मिलने वाले संकेत हैं जो लाखों वर्षों के क्रम में इकट्ठा होते हैं। उदाहरण के लिए, होलोसीन युग का गोल्डन स्पाइक ग्रीनलैंड स्थित एक 1,492 मीटर गहरी आइस-कोर में संरक्षित है। इसी तरह, डायनासोर का युग कहे जानेवाले क्रीटेशस काल का गोल्डन स्पाइक इरिडियम धातु है जो उस उल्कापिंड का अवशेष है जिसे डायनासोरों की विलुप्ति के लिए जिम्मेदार माना जाता है। हालांकि डायनासोरों की विलुप्ति का यह सिद्धांत विवादों के घेरे में है। (downtoearth)
सलमान रावी
लोक जनशक्ति पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि वो बिहार विधान सभा के चुनावों में 143 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी जबकि भारतीय जनता पार्टी ने 121 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी है।
लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता कहते हैं कि गलती भारतीय जनता पार्टी से भी हुई है। उनका कहना था, ‘नीतीश कुमार के ढुलमुल रवैये से एक बार भाजपा ने सबक भी सीखा है। देश की सबसे बड़ी पार्टी को चाहिए था कि वो ख़ुद अपने बल पर चुनाव लड़ती।’
उनका कहना है कि ये अचानक नहीं है कि उनकी पार्टी ने नीतीश कुमार का विरोध किया है। वो कहते हैं कि समय-समय पर उनकी पार्टी सरकार के कामकाज को लेकर सवाल उठाती रही है। चाहे वो मजदूरों के पलायन का मामला हो, बाढ़ का मसला हो या फिर कोरोना वायरस के प्रबंधन का मामला हो।
जनता दल (यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के हाईकमान पर एनडीए गठबंधन से अलग होकर चुनाव लडऩे के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है।
पार्टी के अंदर के नेताओं का कहना है कि लोक जनशक्ति पार्टी के एनडीए से अलग हो जाने के बाद जनता दल (यूनाइटेड) में भी मंथन का दौर चल रहा है।
पार्टी के सांसद और मौजूदा विधायक भी बड़े नेताओं को कहने की कोशिश कर रहे हैं कि एलजीपी के रुख़ के बाद ‘इस तरह के गठबंधन’ में चुनाव लडऩा पार्टी हित में नहीं होगा।
भागलपुर से जनता दल (यूनाइटेड) के सांसद अजय मंडल ने बीबीसी से बात करते हुए कहा है कि लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग़ पासवान जिस तरह के बयान दे रहे हैं उससे कई संकेत मिल रहे हैं।
वो कहते हैं, ‘ये चिराग़ पासवान नहीं बोल रहे हैं बल्कि कौन उनसे ऐसा बुलवा रहा है, ये जनता दल (यूनाइटेड) के कार्यकर्ताओं और नेताओं के अलावा आम लोगों को भी अंदाज़ा लग गया है। कौन पीछे से ऐसा कर रहा है सब जान रहे हैं। अभी हम किसी का नाम नहीं लेना चाहते।’
उन्होंने उन पोस्टरों का हवाला दिया है जो लोक जनशक्ति पार्टी की तरफ़ से बिहार में कई स्थानों पर लगाए जा रहे हैं जिनमे लिखा गया है, ‘मोदी से बैर नहीं, नीतीश तुम्हारी ख़ैर नहीं।’
उनका कहना था, ‘अब इन पोस्टरों के बाद भी कुछ आशंका बची है क्या? सब कुछ साफ दिख रहा है।’
जनता दल (यूनाइटेड) के एक अन्य नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि अगर चुनाव के वक़्त में इस तरह की बातें हो रहीं हैं तो फिर गठबंधन का कोई मतलब नहीं रह जाता। वो कहते हैं कि बेहतर होगा कि अब भी पार्टी हाईकमान अकेले चुनाव लडऩे का फ़ैसला कर ले।
जदयू से गठबंधन था ही नहीं
लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता अजय कुमार ने बातचीत के दौरान कहा कि किसी भी गठबंधन के लिए एक ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ होता है। जो आपसी सहमती बनी थी वो तब बनी थी जब भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी का गठबंधन था और सबने एकसाथ मिलकर चुनाव लड़ा था और बिहार में सरकार भी बनाई थी।
वो कहते हैं, ‘नीतीश कुमार अचानक गठबंधन तोडक़र अलग हो गए और उन्होंने राजद और कांग्रेस के महागठबंधन के साथ सरकार बनाई, फिर वो गठबंधन भी तोड़ा और भाजपा क साथ सरकार बनाई। जहां तक लोक जनशक्ति पार्टी का सवाल है तो नई सरकार में हमारी पार्टी का नीतीश कुमार की सरकार के साथ न तो कोई एजेंडा बना, ना ही मुद्दों पर सहमति। तो गठबंधन हमारे साथ कहाँ था?’
लोक जनशक्ति पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि वो बिहार विधान सभा के चुनावों में 143 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी जबकि भारतीय जनता पार्टी ने 121 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी है।
लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता कहते हैं कि गलती भारतीय जनता पार्टी से भी हुई है। उनका कहना था, ‘नीतीश कुमार के ढुलमुल रवैये से एक बार भाजपा ने सबक भी सीखा है। देश की सबसे बड़ी पार्टी को चाहिए था कि वो ख़ुद अपने बल पर चुनाव लड़ती।’
उनका कहना है कि ये अचानक नहीं है कि उनकी पार्टी ने नीतीश कुमार का विरोध किया है। वो कहते हैं कि समय-समय पर उनकी पार्टी सरकार के कामकाज को लेकर सवाल उठाती रही है। चाहे वो मजदूरों के पलायन का मामला हो, बाढ़ का मसला हो या फिर कोरोना वायरस के प्रबंधन का मामला हो।
अली अनवर जनता दल (यूनाइटेड) के राज्य सभा के सांसद रह चुके हैं। मगर उन्होंने पार्टी छोड़ दी है। पार्टी को कऱीब से देखने वाले अली अनवर ने बीबीसी से बातचीत करते हुए कहा कि लोक जनशक्ति पार्टी के अकेले चुनाव लडऩे से भारतीय जनता पार्टी को ही ज़्यादा फ़ायदा होगा।
भाजपा बड़ा भाई बनना चाहती है
वो कहते हैं कि मौजूदा परिस्थिति में नीतीश कुमार या जनता दल (यूनाइटेड) और भारतीय जनता पार्टी में बड़े भाई और छोटे भाई का रिश्ता है जिसमें अभी बड़े भाई की भूमिका में नीतीश कुमार हैं।
उनका कहना है, ‘भारतीय जनता पार्टी के पास संसाधन हैं। उनका चुनाव प्रबंधन जनता दल (यूनाइटेड) से काफ़ी बेहतर है या यूं कहिये उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती है। इतना सबकुछ होने के बावजूद केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की मज़बूत सरकार है। ऐसे में बिहार में भी भाजपा बड़ा भाई बनना चाहती है। लोक जनशक्ति पार्टी उसके इस सपने को पूरा करने की दिशा में काम करती दिख रही है।’
बिहार प्रदेश भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि ‘लोक जनशक्ति पार्टी के रुख़ से पैदा हुई मौजूदा स्थिति काफ़ी गंभीर’ है।
पार्टी का कहना है कि उन्होंने कई बार कोशिश की कि नीतीश कुमार और लोक जनशक्ति पार्टी के बीच बातचीत हो और आपसी मतभेद ख़त्म हो जाएँ मगर वो नीतीश कुमार और लोक जनशक्ति पार्टी के नेताओं और ख़ास तौर पर चिराग़ पासवान को एक टेबल पर लाने में कामयाब नहीं हो पाए।
उन्होंने इस बात को भी ख़ारिज किया कि चिराग़ पासवान जो कर रहे हैं वो भाजपा के इशारे या कहने पर कर रहे हैं।
जिन अलग-अलग भाजपा नेताओं से बीबीसी ने बात की उनका कहना है कि हर पार्टी अपना राजनीतिक लाभ तलाश करती है। ऐसे में अगर चिराग़ पासवान अपनी पार्टी के लिए बिहार की राजनीति में मजबूत पकड़ बनाने की कोशिश में लगे हैं तो उसमे कोई बुरा नहीं है और उससे भाजपा का कोई लेना देना भी नहीं है।
भारतीय जनता पार्टी के बिहार प्रदेश के महासचिव देवेश कुमार ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि लोक जनशक्ति पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) के नेताओं से बातचीत का दौर जारी है। जल्द ही कोई ठोस नतीजा सामने आने की उम्मीद उन्होंने जताई है। (bbc.com/hindi)
सत्य को कभी छुपाया नहीं जा सकता। सुशांत सिंह मामले में आखिर यह सच सामने आ चुका है। इस मामले में जिन्होंने महाराष्ट्र को बदनाम किया, उनका वस्त्रहरण हो चुका है। ‘ठाकरी’ भाषा में कहें तो सुशांत आत्महत्या प्रकरण के बाद कई गुप्तेश्वरों को महाराष्ट्र द्वेष का गुप्तरोग हो गया था; लेकिन 100 दिन खुजाने के बाद भी हाथ क्या लगा? ‘एम्स’ ने सच्चाई बाहर लाई है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने फांसी लगाकर आत्महत्या ही की है। उसका खून नहीं हुआ है। सबूतों के साथ ऐसा सच ‘एम्स’ के डॉक्टर सुधीर गुप्ता सामने लाए हैं। डॉक्टर गुप्ता शिवसेना के स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख नहीं हैं। उनका मुंबई से संबंध भी नहीं है। डॉ. गुप्ता ‘एम्स’ के फॉरेंसिक विभाग के प्रमुख हैं। इसी ‘एम्स’ में गृहमंत्री अमित शाह उपचार हेतु भर्ती हुए और ठीक होकर घर लौटे। जिस ‘एम्स’ पर देश के गृह मंत्री को विश्वास है, उस ‘एम्स’ ने सुशांत मामले में जो रिपोर्ट दी है, उसे अंधभक्त नकारेंगे क्या? सुशांत सिंह राजपूत की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु को 110 दिन हो गए। इस दौरान मुंबई पुलिस की खूब बदनामी की गई, मुंबई पुलिस की जांच पर जिन्होंने सवाल उठाए उन राजनेताओं को और कुत्तों की तरह भौंकनेवाले चैनलों को महाराष्ट्र से माफी मांगनी चाहिए। इन सभी ने जान-बूझकर महाराष्ट्र की प्रतिमा पर कलंक लगाने का प्रयास किया है। यह एक षड्यंत्र ही था। महाराष्ट्र सरकार को चाहिए कि वो उन पर मानहानि का दावा करे। किसी युवक की इस प्रकार से मौत होना बिल्कुल अच्छा नहीं है। सुशांत विफलता और निराशा से ग्रस्त था। जीवन में असफलता से वह अपने आपको संभाल नहीं पाया। इसी कशमकश में उसने मादक पदार्थों का सेवन करना शुरू कर दिया और एक दिन फांसी लगाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। मुंबई पुलिस इस मामले की बड़ी बारीकी से जांच कर ही रही थी। मुंबई पुलिस दुनिया का सर्वोत्तम पुलिस दल है। लेकिन मुंबई पुलिस कुछ छुपा रही है। किसी को बचाने का प्रयास कर रही है। ऐसा धुआं उड़ाया गया। उस दौरान सिर्फ बिहार ही नहीं, बल्कि देशभर के कई गुप्तेश्वरों का गुप्तरोग बढ़ गया। सुशांत के पटना निवासी परिवार का उपयोग स्वार्थी और लंपट राजनीति के लिए करके केंद्र ने इसकी जांच जिस जलद गति से सीबीआई को दी, उसे देखते हुए ‘बुलेट ट्रेन’ की गति भी मंद पड़ गई होगी। मुंबई पुलिस ने इस मामले में जिस नैतिकता और गुप्त तरीके से जांच की, वह केवल इसलिए ताकि मृत्यु के पश्चात तमाशा न बने। लेकिन सीबीआई ने मुंबई आकर जब जांच शुरू की तब पहले 24 घंटे में ही सुशांत का ‘गांजा’ और ‘चरस’ प्रकरण सामने आ गया। सीबीआई जांच में पता चला कि सुशांत एक चरित्रहीन और चंचल कलाकार था। बिहार की पुलिस को हस्तक्षेप करने दिया गया होता तो शायद सुशांत और उसके परिवार की रोज बेइज्जती होती। बिहार राज्य और सुशांत के परिवार को इसके लिए मुंबई पुलिस का आभार मानना चाहिए। बिहार चुनाव में प्रचार के लिए कोई मुद्दा न होने के कारण नीतीश कुमार और वहां के नेताओं ने इस मुद्दे को उठाया। इसके लिए राज्य के पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर को वर्दी में नचाया और आखिरकार यह महाशय नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हो गए, जिससे उनकी खाकी वर्दी का वस्त्रहरण हो गया। मुंबई पुलिस सुशांत की जांच नहीं कर सकती इसलिए सीबीआई को बुलाओ, ऐसा चिल्लानेवाले एक सीधा-सा सवाल नहीं पूछ पाए कि गत 40-50 दिनों से सीबीआई क्या कर रही है? सुशांत प्रकरण को भुनाकर महा विकास आघाड़ी की सरकार और मुंबई पुलिस का ‘मीडिया’ ट्रायल किया गया! खुद को पत्रकारिता में हरिश्चंद्र का अवतार समझनेवाले हकीकत में हरामखोर और बेईमान निकले। उन बेईमानों के विरोध में मराठी जनता को एक बड़ी भूमिका लेनी चाहिए। मुंबई पुलिस ने जो जांच की, उस सच को सीबीआई और ‘एम्स’ के डॉक्टर भी नहीं बदल सके। यह मुंबई पुलिस की जीत है। कई गुप्तेश्वर आए और गए। लेकिन मुंबई पुलिस की प्रतिष्ठा का झंडा लहराता रहा। रिया चक्रवर्ती ने सुशांत को जहर देकर मार दिया का ‘नाटक’ भी नहीं चला। लेकिन सुशांत ‘ड्रग्स’ लेता था और उसे रिया ने ड्रग्स पहुंचाई इसलिए रिया को जेल में डाल दिया। सुशांत पर मृत्यु के पश्चात मामला चलाने की कानूनी व्यवस्था होती तो ‘ड्रग्स’ मामले में सुशांत पर मादक पदार्थ सेवन का मुकदमा चलता। सुशांत की मौत को जिन्होंने भुनाया, मुंबई को पाकिस्तान और बाबर की उपमा दी, वह अभिनेत्री अब किस बिल में छिपी है? हाथरस में एक युवती से बलात्कार करके मार डाला गया। वहां की पुलिस ने उस युवती के शरीर का अपमान करके अंधेरी रात में ही लाश को जला डाला। इस पर उस अभिनेत्री ने आंखों में ग्लिसरीन डालकर भी दो आंसू नहीं बहाए। जिन्होंने उस लडक़ी से बलात्कार किया, वे उस अभिनेत्री के भाई-बंधु हैं क्या? जिस पुलिस ने उस लडक़ी को जलाया, वे पुलिसकर्मी उस अभिनेत्री के घरेलू नौकर हैं क्या? जिन्होंने गत 100 दिनों में महाराष्ट्र और मुंबई पुलिस की बदनामी की, ऐसी गुप्तेश्वरी अभिनेत्रियां और ‘गुप्तेश्वर’ अब कौन-सा प्रायश्चित करेंगे? जो महाराष्ट्र व मराठी माणुस के रास्ते में आया, उसका बरबाद होना तय है। बेईमानों और हरामखोरों को अब यह बात समझ लेनी चाहिए। हाथरस बलात्कार प्रकरण में दुम दबाकर बैठनेवाले महाराष्ट्र के मर्दानगी की परीक्षा न लें! (hindisaamana)
घर-बाहर आलोचकों की उपेक्षा और जल्दबाजी के फैसले भारी पड़ते हैं। घर का मीडिया पालतू बनता गया तो इधर विदेशी मीडिया में मोदी सरकार की छवि प्रशासकीय तौर से शिथिल, विपक्ष तथा आलोचकों को लेकर खुद की और अल्पसंख्यक विरोधी की बनकर उभर रही है।
- मृणाल पाण्डे
अपने ताजा साप्ताहिक धारावाहिक प्रसारण, ‘मनकी बात’ में इस बार प्रधानमंत्री जी ने भारतीय परंपरा में कथा सुनने-सुनाने के महत्व पर हमको काफी बताया। तो चलिए, हम भी आपको एक नेवले की कथा सुना दें जो आप जानते हैं सांप का दुश्मन होता है। और यह भी कि जब गद्दी नशीन युधिष्ठिर ने बड़ा भारी राजसूय यज्ञ कराया तो कहीं से आए एक नेवले ने ही यह कह कर कि वह यज्ञ भाइयों की हत्या से जुड़ा था इसलिए गुणहीन था, सबको चकित कर दिया। अक्सर हमारी कथाओं में छोटे जीव ही वह युग सत्य उजागर कर देते हैं जिसे कहने से दुनियादार बड़े लोग कतराते हैं।
ऐसे ही एक और नेवले की एक कहानी हमको जैन ग्रंथ ‘रोहिणी जातक’ में भी मिलती है। किसी स्त्री ने एक नेवला पाल रखा था। उसे वह दूध और लप्सी खिला कर अच्छे से रखती थी। एक बार जब वह आंगन में अनाज बीनती थी, उसने अपने बच्चे को खाट से उतार कर जमीन पर लिटा दिया कि वह गिर न जाए और रखवाली को नेवले को बिठा गई। इतने में एक कोबरा को उस बच्चे की तरफ आते देख नेवले ने उसे मार डाला। और यह बात खुश-खुश अपनी मालकिन को बताने गया। नेवले के मुंह पर खून लगा देख कर स्त्री ने सोचा वह उसके बच्चे को मार आया है, सो उसने मूसल से नेवले को मार डाला। जब वह भीतर भागी तो उसने पाया कि बच्चा तो खेल रहा है। बगल में सांप मरा पड़ा है। जल्दबाज औरत सर पीट पछताती रह गई।
घर-बाहर आलोचकों की उपेक्षा और जल्दबाजी के फैसले भारी पड़ते हैं। घर का मीडिया पालतू बनता गया तो इधर विदेशी मीडिया में मोदी सरकार की छवि प्रशासकीय तौर से शिथिल, विपक्ष तथा आलोचकों को लेकर खुद की और अल्पसंख्यक विरोधी की बनकर उभर रही है। यह चिंता का सबब है- खास कर राजनय और बाहरी निवेश के सिलसिले में। जनवरी, 2019 में लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर सरकार की खुद अपनी सांख्यिकीय संस्था ने राज्यवार रोजगार पर जो चौंकाने वाले आंकड़े जारी किए, वे भारत में लगातार बढ़ती बेरोजगारी की चिंताजनक तस्वीर दिखा रहे थे। कई दशकों से विदेशों में भी सराहे जाने वाले सुसंगत डेटा को सूक्ष्मता से गणना के बाद लगातार पेश करती आई संस्था की नकारात्मक रपट पर नीति आयोग ने कहा कि इस बार के सर्वेक्षण आंकड़े सरकार को विश्वसनीय नहीं लगते, अत: उनको खारिज किया जाता है।
इसके बाद भी पिछली चौथाई सदी से भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से क्रमवार तैयार किए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) राज्यवार स्वास्थ्य सर्वे से मिली जानकारियों के आधार पर 4 बड़े राज्यवार सर्वेक्षण अब तक दे चुकी है जिनसे उजागर जन स्वास्थ्य विषयक, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रजनन और मृत्यु से जुड़ा डेटा सर्वमान्य है। 2015-16 के चौथे सर्वेक्षण के बाद इसको भी रोक दिया गया। जून की शुरुआत में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि भारत में प्रति दस लाख कोविड मरीजों में मरने वालों की औसत दर समुन्नत देशों- यूरोप, रूस या अमरीका के बरक्स काफी कम (11 फीसदी) है। सितंबर के विश्व संगठन के ताजे डेटा से पता चला है कि जून के अंतिम सप्ताह में दक्षिण एशियाई देशों-नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका, में भारत में कोविड से मरने वालों की दर सबसे अधिक हो गई है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने टेस्टिंग बढ़ाए जाने के बाद मिले आंकड़ों को आधार बना कर मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के सामने (शीर्ष संस्था आईसीएमआर के हवाले से) 23 जून की मीटिंग में रपट रखी जो सरकारी प्रवक्ताओं के, बस अभी खत्म हुई जाती है यह महामारी, वाले वादों को हद तक झुठलाती है।
विपक्ष और विशेषज्ञों ने बार-बार बिना विचारे नीति बनाने के खिलाफ सरकार को आगाह किया था कि नीति-निर्माता बाबू गण नेतृत्व को खुश करने वाले फैसलों से अंधेरे में तीर फेंक सकते हैं। वही हुआ। जभी टीवी पर झेंपते प्रवक्ताओं और उनके पीछे देश भर में जारी किसानों से लेकर छात्रों तक के आंदोलन की छवियां स्क्रीन पर देख कर हमको लोक कथा के नेवले की याद आ गई। पिछले आधे दशक से किसान अपनी व्यथा सुनाने न जाने कितनी बार दिल्ली या प्रांतीय राजधानियों को भागे गए। पर उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। नोटबंदी ने जब उनका कचूमर बना दिया तो भारी तादाद में कर्ज के मारे किसान या तो किसानी छोड़कर शहर भागे या आत्महत्या करने लगे। पर उस पर ध्यान देने की बजाय मृतकों की राज्यवार तादाद पर डेटा संकलन और सरकार के आपराधिक सेल में अकाल मृत्यु दर्ज करने के पुराने नियम बदल दिए गए ताकि किसानी आत्महत्या के आंकड़े अलग से दर्ज न मिलें। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी! पर अब किसानों को महान कह कर मंदी के बीच भी अधिकाधिक अन्न पैदा करने के लिए महान योगदान देने पर भावुकता की चाशनी में लिपटे जुमले छोड़े जा रहे हैं। यह सच था तो बिना विपक्ष या किसान संगठनों से बातचीत किए मान्य सांसदीय व्यवस्थाओं को परे कर सारे किसानी पेशे को ही आमूलचूल कॉरपोरेट उपक्रम में बदलने वाले तीन महत्वपूर्ण कानून किस लिए आनन-फानन में पास कराए गए? बीजेपी शासित सूबों के किसान भी आज सरकारी नीति के विरोध में क्यों दिख रहे हैं? गुजरात, कर्नाटक, या मध्यप्रदेश के किसान क्यों बार-बार अपनी उपज को सड़कों पर फेंकने को मजबूर हैं?
अपने वर्चस्व से अति आत्मविश्वासी सरकार संसद ही नहीं, लोकतंत्र के सभी पायों की बाबत अप्रिय सच सामने लाने वाले नेवलों पर कानूनी मूसल चलाती दिख रही है। ईमानदार लोकतांत्रिक प्रतिवाद या सार्वजनिक बहस को सोशल मीडिया, गोदी मीडिया तथा विज्ञापनों की मार्फत प्रति क्रांतिकारी, और देशद्रोह का प्रमाण बताया जा रहा है। इधर कोविड के नाम पर तलघर से निकाले गए औपनिवेशिक युग के महामारी निरोधी कानून के और कठोर बना दिए गए अवतार ने केंद्र को जो अतिरिक्त अधिकार दे दिए हैं उनसे संघीय लोकतंत्र के बावजूद राज्य सरकारों की लोकतांत्रिक हैसियत लगभग नगण्य है।
नवीनतम नेवला इन दिनों बॉलीवुड का है। एक युवा स्टार की संदिग्ध मौत की जांच से शुरू हुई बात तो पीछे चली गई और मामला प्रतिबंधित मादक पदार्थों से जुड़ गया है। मजे की बात यह, कि इस सिलसिले में दिल्ली से आए राष्ट्रीय मादक द्रव्य निरोधी सरकारी प्रकोष्ठ के दस्ते की तोपें बॉलीवुड की चंद गरीब मक्खियों पर तनी हैं जिनके खिलाफ पुख्ता सबूत तो नहीं आए पर उनके निजी चैट मीडिया में लीक हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि आज देश अभिनेत्रियों के चरस पीने से कहीं भारी समस्याओं से जूझ रहा है। राजनय को ही लें। सच यह है कि अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद चीन दुनिया के सब देशों की तुलना में लगातार हर मोर्चे पर बीस बन चला है। पर इस बाबत सरकारी जेम्स बांडों ने काफी पहले से सच बोलने वाले विशेषज्ञों को ठिकाने लगा दिया। और अब क्रांतिकारी कदमों के फलों की डिलेवरी का काम उनकी कृपा कांक्षी ‘कमिटेड’ नौकरशाही पर छोड़ दिया गया है, जो इधर रिटायरमेंट के बाद राजभवनों या पार्टी टिकट पाने को कुछ ज्यादा ही आतुर दिखती है। पद पर रहते ऐसे सरकारी बड़े बाबुओं से अधिक स्वार्थी, जड़ और गतिहीन आज के भारत में कुछ नहीं। पर हर नए कानून से उनकी पावर बढ़ती जाती है। हर बार चार चक्करदार मुद्दे निकाल कर अपने दफ्तर के सामने जनता को एड़ियां रगड़ते देख (खासकर उसमें यदि स्टार या पूर्व राजनेता भी हों) उनको अनिर्वचनीय सुख मिलता है। सेवानिवृत्त हो कर ऐसे बाबू या मीडियाकार अगर संसद सदस्य बन बैठें, तो बड़ी विडंबना और क्या होगी?(navjivan)
संजय श्रमण
एक मजेदार बात बार-बार घटित होती है। धर्म पर जब भी बात निकलती है तो बहुत सारे लोग आकर सलाह देने लगते हैं कि धर्म की क्या जरूरत है, यह सब अंधविश्वास है इत्यादि इत्यादि। मैं उन लोगों की टाइमलाईन पर जाकर उनकी शिक्षा की जांच करता हूँ तो ज्यादातर ये वे लोग होते हैं जिन्होंने समाजशास्त्र, साहित्य, भाषा, दर्शन, इतिहास, एंथ्रोरोपोलोजी, कल्चर और मनोविज्ञान आदि की कोई पढ़ाई नहीं की है।
दुर्भाग्य से बहुजन समाज में एसे लोग सर्वाधिक हैं जिन्होंने इंजीनियरिंग, मेडिकल या मेनेजमेंट की पढ़ाई से नौकरी हासिल कर ली है और वे साइंस और टेक्नोलॉजी के अलावा कभी कुछ नहीं पढ़ते। दुर्भाग्य की बात तो यह कि वे साइंस, टेक्नोलॉजी और मेडिसिन आदि भी विशुद्ध घोटामार स्टाइल में पढ़े हैं। एसे अधिकांश लोगों मे वैज्ञानिक प्रच्छा का भारी अभाव है।
इन लोगों से पूछा जाए कि ये एकांत मे अपने बच्चों और पत्नी से कैसी बातें करते हैं? क्या ये वहाँ सौ प्रतिशत रेशनल और आब्जेक्टिव होकर बात करते हैं? या फिर कभी चाँद सितारों की या इश्क रूमानियत की बात भी करते हैं? क्या ये अपनी पत्नी या प्रेमिका को कहते हैं कि प्रेम सिर्फ केमिकल लोचा है? क्या आप अपने रिश्तों मे इतने आब्जेक्टिव होते हैं? नहीं ना?
दूसरी बात ये कि अगर कोई पॉलिटिकल साइंस या मनोविज्ञान पढ़ा हुआ आदमी क्वांटम मेकेनिक्स या मेडिसिन पर टिप्पणी करने लगे तो आप क्या कहेंगे?
लोगों को लगता है कि राजनीति, दर्शन, धर्म आदि चलताऊ विषय हैं, इनमे शिक्षण प्रशिक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है। एक कम्प्यूटर इंजीनियर या डॉक्टर को कम से कम चार साल की पढ़ाई चाहिए। तब वह कम्प्यूटर सार्इंस या मेडिसिन पर कोई टिप्पणी करना सीखता है। लेकिन धर्म, दर्शन संस्कृति और समाज मनोविज्ञान के बारे में लोग एक किताब पढ़े बिना भी अंतिम निर्णय सुनाने लगते हैं।
धर्म या संस्कृति या कर्मकांड पर कुछ भी लिखने के पहले कम से कम दो तीन किताबें दर्शन और समाज मनोविज्ञान पर जरूर पढ़ लीजिए। कर्मकांड, भाषा, अवचेतन, सामूहिक अवचेतन और समाज की नियंत्रण व्यवस्था आदि का एक जटिल संबंध होता है। अगर आप सिर्फ कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल या बाइकेमिस्ट्री इत्यादि को ही साइंस मानते हैं तो कृपया एक दो साल की छुट्टी लेकर कुछ पढऩा सीख लीजिए। हजारों साल से दार्शनिक, समाजशास्त्री, भाषा विज्ञानी और राजनीतिशास्त्री इस दुनिया में घास नहीं काटते रहे हैं। उनके जगत में भी एक कहीं गहरा विज्ञान होता है जो ‘तकनीक के बाबुओं’ को समझना चाहिए।
खास तौर से ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति के युवाओं की सबसे बड़ी समस्या यही है। वे दुनिया के सबसे प्राचीन और सबसे महत्वपूर्ण विषयों-धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान, राजनीतिशास्त्र आदि के बारे में कोई किताब नहीं पढ़ते। इसीलिए वे हमेशा दूसरों के नियंत्रण मे रहने को मजबूर हैं।
अव्यक्त
बलात्कार के संबंध में अपनी राय रखते हुए महात्मा गांधी इसके लिए ‘शील-भंग’ शब्द इस्तेमाल किए जाने को भी उपयुक्त नहीं ठहराते हैं।
कुछेक साल पहले अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर एक विचारोत्तेजक आलेख लिखा था। इस आलेख का मंतव्य यह सवाल उठाना था कि क्या बलात्कार की निश्चित आशंका के डर से जौहर सराहनीय था? इस प्रश्न को यदि हम आज की नारीवादी कसौटियों पर कसने चलें, तो इसमें इस बात की अनदेखी हो जाने का खतरा रहता है कि हमारे आधुनिक सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से एक तटस्थ अध्येता के लिए देशकाल, परिस्थिति, प्रचलित मूल्य, संदर्भ और परिप्रेक्ष्य इत्यादि का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है। संभव है कि जो चुनौतियां उस समय की महिलाओं के सामने जिस रूप में थीं, उसमें उस समय के सामाजिक चिंतन के हिसाब से उन्होंने अपनी जान देने का निर्णय ले लिया हो।
सात सौ साल पहले की किसी परिघटना का मूल्यांकन यदि आज के समानतावादी और स्वतंत्रतावादी विचारों के आधार पर कठोरतापूर्वक करने बैठ जाएं, तो हम सरासर यह भूल कर बैठेंगे कि आधुनिक सामाजिक और राजनीतिक चेतना पूरे वैश्विक मानव समाज में धीरे-धीरे क्रमिक रूप से आई है। और इसलिए तत्कालीन परिस्थितियों की विकरालता को देखते हुए हमें अपने पूर्वजों या पूर्वजाओं के प्रति थोड़ी सहानुभूति से ही काम लेना चाहिए। लेकिन साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना पड़ सकता है कि आज की कोई कलाकृति हमारी लड़कियों या महिलाओं को यह संदेश सूक्ष्म रूप से भी न दे बैठे कि बलात्कार के पहले या बाद में आत्महत्या सराहनीय है। वास्तव में, यदि सामाजिक यौन केंद्रितता को एक किनारे रख दें, तो बलात्कार केवल एक शारीरिक हमला और दुर्घटना मात्र है।
लेकिन जब हम महिलाओं की यौनिकता को ही उनके व्यक्तित्व का एकमात्र केंद्र बना देते हैं, जब हम उनके यौनांग या जननांग की ‘पवित्रता’ को ही उनके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त बना देते हैं, तो यह हमारी महिलाओं में इतनी आत्मघृणा या इतने आत्मतिरस्कार का भाव भर देता है कि वे ऐसे मामलों में कई बार अपनी जान ले बैठती हैं। कई बार पुरुषों के साथ हुए बलात्कार में भी यही बात निकलकर आती है। बलात्कार से पीडि़त पुरुषों द्वारा आत्महत्या की खबरें आती ही रहती हैं।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि अतीत में साम्राज्य स्थापित करने के लिए लड़े गए युद्धों और जातीयतावादी संघर्षों में भी महिलाओं पर विशेष अत्याचार हुए। दुनिया के कई युद्धग्रस्त हिस्सों में आज भी ऐसा हो रहा है। लेकिन भारतीय संदर्भ में इसे केवल मुस्लिम आक्रमणकारी बनाम राजपूत शासकों की चक्की में पिसती महिलाओं के नजरिए से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि अन्य युद्धों में भी कमोबेश ऐसा हुआ हो सकता है।
यह नरपशुओं के बीच हुए युद्धमात्र की एक सच्चाई होती है। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के मुक्ति-संघर्ष में तो मुस्लिम सैनिकों ने ही लाखों मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार किए। वहां के पुरुषों के साथ भी सैनिकों ने बलात्कार किए। वहां उन्होंने ‘बंगभाषी मुसलमान बनाम अन्य मुसलमान’ की दुर्भावना की आड़ में ऐसा किया। लेकिन उसके बाद जो हुआ, उसमें और जौहर में कोई फर्क नहीं किया जा सकता। बलात्कार-पीडि़ता बांग्लादेशी मांओं, बहनों, पत्नियों और बेटियों को उनके अपने परिवार ने, अपने समाज ने ही अपनाने से इंकार कर दिया। हज़ारों-लाखों की संख्या में उन परित्यक्ताओं या बहिष्कृताओं ने आत्महत्या की।
प्रकारांतर से क्या वह जौहर जैसा ही नहीं था? कहा जाता है कि जिन नग्न लड़कियों और महिलाओं को फांसी लटकने का अन्य कोई साधन नहीं मिला, उन्होंने अपने ही बालों की चोटी से लटककर फांसी लगा ली। इस तरह उनकी हत्या बलात्कारियों ने नहीं की, बल्कि अपने ही समाज और परिजनों द्वारा लांछित-बहिष्कृत किए जाने की सामाजिक बर्बरता ने उनकी हत्या की। इस तरह बलात्कार-पूर्व जौहर या बलात्कार-बाद की आत्महत्या, ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और वह मर्दाभिमानवादी या ‘पवित्रतावादी’ सिक्का है, महिलाओं के जननांग को ही उनके संपूर्ण अस्तित्व का केन्द्र बना देना या उनकी ‘पवित्रता’ की अनिवार्य शर्त बना देना।
सदियों की मानसिक पराधीनता और आत्महीनता की वजह से स्वयं महिलाओं ने ही इस सिक्के को हाथों-हाथ लिया और किसी पुरुष द्वारा किए गए एक शारीरिक हमले को अपने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया। हर दिन बढ़ते बलात्कार के मामलों और उस पर आने वाली राजनीतिक-सामाजिक प्रतिक्रियाओं को देखें तो इस विषय में महात्मा गांधी के विचार बरबस याद आते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब दुनियाभर के फौजी ‘शत्रुदेश’ की महिलाओं के साथ बलात्कार को युद्धनीति के रूप में स्वीकार कर चुके थे, उस दौरान फरवरी, 1942 में किसी महिला ने उसी संदर्भ में महात्मा गांधी को पत्र लिखकर उनसे बलात्कार के बारे में तीन सवाल पूछे -
यदि कोई राक्षस-रूपी मनुष्य राह चलती किसी बहन पर हमला करे और उससे बलात्कार करने में सफल हो जाए, तो उस बहन का शील-भंग हुआ माना जाएगा या नहीं?
क्या वो बहन तिरस्कार की पात्र है? क्या उसका बहिष्कार किया जा सकता है?
ऐसी स्थिति में पड़ी हुई बहन औऱ जनता को क्या करना चाहिए?
एक मार्च, 1942 को गुजराती ‘हरिजनबंधु’ में गांधीजी ने इस पत्र का जवाब देते हुए लिखा- ‘ज्जिस पर बलात्कार हुआ हो, वह स्त्री किसी भी प्रकार से तिरस्कार या बहिष्कार की पात्र नहीं है। वह तो दया की पात्र है। ऐसी स्त्री तो घायल हुई है, इसलिए हम जिस तरह घायलों की सेवा करते हैं, उसी तरह हमें उसकी सेवा करनी चाहिए। वास्तविक शील-भंग तो उस स्त्री का होता है जो उसके लिए सहमत हो जाती है। लेकिन जो उसका विरोध करने के बावजूद घायल हो जाती है, उसके संदर्भ में शील-भंग की अपेक्षा यह कहना अधिक उचित है कि उस पर बलात्कार हुआ। ‘शील-भंग’ शब्द बदनामी का सूचक है और इस तरह वह ‘बलात्कार’ का पर्याय नहीं माना जा सकता है। जिसका शील बलात्कारपूर्वक भंग किया गया है, यदि उसे किसी भी प्रकार निंदनीय न माना जाए तो ऐसी घटनाओं को छिपाने का जो रिवाज हो गया है, वह मिट जाएगा। इस रिवाज के खत्म होते ही ऐसी घटनाओं के विरुद्ध लोग खुलकर चर्चा कर सकेंगे।’
गांधीजी के लिए इस लेख का शीर्षक था- ‘बलात्कार के समय क्या करें?’ इस लेख में गांधी आगे लिखते हैं- ‘जिस स्त्री पर इस तरह का हमला हो, वह हमले के समय हिंसा-अहिंसा का विचार न करे। उस समय आत्मरक्षा ही उसका परम-धर्म है। उस समय उसे जो साधन सूझे उसका उपयोग कर उसे अपने सम्मान और शरीर की रक्षा करनी चाहिए। ईश्वर ने उसे जो नाखून दिए हैं, दांत दिए हैं और जो बल दिया है वह उनका उपयोग करेगी। और उनका उपयोग करते-करते वह जान दे देगी। जिस स्त्री या पुरुष ने मरने का सारा डर छोड़ दिया है, वह न केवल अपनी ही रक्षा कर सकेंगे, बल्कि अपनी जान देकर दूसरों की रक्षा भी कर सकेंगे।’
हालांकि गांधी यह भी मानते थे कि महिलाओं को स्वयं में निर्भयता, आत्मबल और नैतिक बल भी पैदा करनी होगी। जैसा कि वे 14 सितंबर, 1940 को ‘हरिजन’ में लिखते हैं कि ‘यदि स्त्री केवल अपने शारीरिक बल पर या हथियार पर भरोसा करे, तो अपनी शक्ति चुक जाने पर वह निश्चय ही हार जाएगी।’ इसलिए जान देने की प्रेरणा या इसका साहस होना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन वह पहले ही हार मानकर आत्महत्या के रूप में न हो, बल्कि एक सम्मानजनक जीवन की चाह में लड़ते-लड़ते जान देने के अर्थ में हो।
यदि किसी जमाने में महिलाओं के अस्तित्व या व्यक्तित्व को उनकी मानवीय संपूर्णता में न देखकर, केवल उनके जननांगों तक सीमित कर दिया जाता था, तो उसकी परिणति उनके द्वारा भय, ग्लानि या शर्म के मारे आत्महत्या कर लेने के रूप में होती थी। यहां तक कि उनके परिजनों द्वारा उन्हें जबरन मार दिए जाने या बहिष्कृत किए जाने की स्थिति बनती थी।
आज हम उस अवस्था से बहुत हद तक आगे बढ़ चुके हैं। मानने लगे हैं कि भय, ग्लानि और शर्म की स्थिति तो उन पर आक्रमण करने वालों के लिए होनी चाहिए। ऐसे आक्रमणों में चोट खाकर बच गईं महिलाओं के प्रति केवल वैसी ही सहानुभूति होनी चाहिए, जैसे किसी अन्य आक्रमण में चोट खाए हुए के प्रति। यही भावना स्वयं आक्रमण की शिकार महिलाओं की भी स्वयं के प्रति होनी चाहिए। यही बात बलात्कार से आक्रमित पुरुषों या अन्य लिंगों पर भी लागू होती है। यदि सिनेमा, साहित्य या कई बार राजनीति के जरिए भी यौन केंद्रित शर्म, आत्मघृणा और ग्लानि की वजह से आक्रमितों द्वारा की गई आत्महत्या का महिमामंडन हो रहा हो, तो हमें फिर से सोचने की जरूरत होगी।
ऊपर जिक्र किए गए आलेख की थोड़ी और बात करें तो अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने जो सवाल उठाए थे, वे इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि भारत की ज्यादातर महिलाओं का फिल्म-दर्शक और उपभोक्ता के रूप में पर्याप्त क्रिटिकल और जागरूक बनना अभी बाकी है। और जब स्वयं अभिनेत्रियां ही ऐसे विचारोत्तेजक सवाल उठाने का साहस दिखाती हैं, तो वे इस महत्वपूर्ण माध्यम के लिए भी नई संभावनाओं को जन्म देती हैं। किसी भी सेंसरशिप या हो-हंगामे से अधिक हमें ऐसी चर्चाओं और संवादों की जरूरत है। (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फ्रांस के राष्ट्रपति इमेन्यूएल मेक्रो ने संकल्प किया है कि वे अपने देश में ‘इस्लामी अलगाववाद’ के खिलाफ जबर्दस्त अभियान चलाएंगे। इस समय फ्रांस में जितने मुसलमान रहते हैं, उतने किसी भी यूरोपीय देश में नहीं हैं। उनकी संख्या वहां 50-60 लाख के आसपास है, जो कि फ्रांस की कुल जनसंख्या की 8-10 प्रतिशत है। ये मुसलमान सबसे पहले अल्जीरिया से आए थे।
छठे दशक में जब फ्रांस ने अल्जीरिया को आजाद किया तो वहां के मुसलमानों को नागरिकता प्रदान कर दी। फिर तुर्की, मध्य एशिया और अफ्रीका के मुसलमान भी काम की तलाश में फ्रांसीसी शहरों में आ बसे। फ्रांसीसियों को भी इन लोगों की उपयोगिता महसूस हुई, क्योंकि ये लोग मजदूरी के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाते थे और फ्रांसीसियों से दबे भी रहते थे। इनमें से ज्यादातर मुसलमानों ने फ्रांसीसी भाषा और संस्कृति को अपने जीवन का अंग बना लिया है लेकिन अभी भी 40-45 प्रतिशत फ्रांसीसी मुसलमान काफी रुढि़वादी और कट्टरपंथी हैं। युवा मुस्लिमों में तो ऐसे लोगों की संख्या 75 प्रतिशत तक है। फ्रांसीसी सरकार और कई संगठनों ने अपने मुसलमानों के बारे में विस्तृत आंकड़े इक_े कर रखे हैं। लगभग आधे मुसलमान दिन में 5 बार नमाज पढऩे, रोजा रखने, पर्दा करने और मदरसों की तालीम में विश्वास रखते हैं। इस वक्त फ्रांस में 2300 मस्जिदें सक्रिय हैं। कुछ नौजवान आतंकी गतिविधियों में भी संलग्न हैं। फ्रांस के मुसलमानों में ज्यादातर सुन्नी हैं।
वे स्थानीय लोगों का धर्म-परिवर्तन करने में भी बड़ा उत्साह दिखाते हैं। लगभग 1 लाख लोगों ने इस्लाम को कुबूल भी किया है लेकिन उनकी जीवन-शैली, गतिविधियों और रहन-सहन से फ्रांसीसी सरकार और जनता इतनी उत्तेजित है कि कई इस्लामी रीति-रिवाजों के खिलाफ वहां कड़े कानून बना दिए गए हैं। राष्ट्रपति मेक्रो इन पुराने कानूनों को अब ज्यादा सख्ती से लागू करेंगे। उनका कहना है कि किसी भी समुदाय के मजहबी कानून राष्ट्रीय कानून से ऊंचे नहीं हो सकते। फ्रांस 19 वीं सदी के पंथ-निरपेक्षता के सिद्धांत, ‘लायेसिती’ को मानता है याने कोई भी धार्मिक कानून राष्ट्रीय कानून से ऊपर नहीं हो सकता। चर्च की दादागीरी के खिलाफ 1905 में यह सिद्धांत स्थापित हुआ था। इसीलिए फ्रांस में मुस्लिम औरतों के हिजाब, यहूदियों के यामुका और ईसाइयों के बड़े-बड़े क्रॉस गले में लटकाने पर प्रतिबंध है। राष्ट्रपति जाक शिराक ने इस मुद्दे पर विशेष अभियान चलाया था। फ्रांस के कुछ उग्रवादी ईसाई संगठनों ने दर्जनों मस्जिद गिरा दी हैं, मुसलमानों को रोजगार देने का वे विरोध करते हैं और मदरसों को बंद करने की मांग कर रहे हैं।
यूरोप के कुछ अन्य राष्ट्रों-जर्मनी, हालैंड और डेनमार्क में भी इस तरह की मांगें जोरों से उठ रही हैं। बेहतर तो यह हो कि मुसलमानों पर विधर्मी हमला करें, इसकी बजाय दुनिया के मुसलमान इस्लाम और स्थानीय संस्कृति में मेल बिठाने की कोशिश करें। इस्लाम को देश-काल के मुताबिक ढाल लें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
इटावा , 04 अक्टूबर (वार्ता) जलचरों का पंसदीदा प्रवास स्थल चंबल सेंचुरी में डाल्फिन की अठखेलियां पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुयी है।
पर्यावरणीय संस्था सोसायटी फाॅर कंजरवेशन ऑफ़ नेचर के महासचिव डा.राजीव चौहान ने रविवार को यूनीवार्ता से खास बातचीत में कहा कि सैकड़ों दुर्लभ जलचरो का संरक्षण कर रही चंबल नदी हालांकि तीन राज्यो राजस्थान,मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश मे प्रवाहित हो रही है लेकिन यूपी के हिस्से मे डाल्फिनो की मौजूदगी हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है ।
स्वतंत्रता दिवस पर डाल्फिन के संरक्षण काे लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपील के बाद लोगो के मन में दुर्लभ जीव के प्रति आर्कषण बढा है । प्रधानमंत्री ने 74वें स्वतंत्रता दिवस पर ‘प्रोजेक्ट डाल्फिन’ की घोषणा करते हुए कहा कि इससे जैव विविधता को बढ़ावा मिलेगा और रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे । केंद्र सरकार प्रोजेक्ट डाल्फिन को बढ़ावा देना चाहती है । नदियों और समुद्रों में रहने वाले दोनों तरह के डाॅल्फिन पर ध्यान देंगे । इससे जैव विविधता को बढ़ावा मिलेगा और रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे। यह पर्यटन के लिए आकर्षण का केंद्र भी होगा । डाल्फिन को 2009 में राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया गया था ।
उन्होने बताया कि उत्तर प्रदेश मे चंबल नदी का प्रवाह रेहा बरेंडा से शुरू होता है लेकिन इटावा जिले मे इसकी शुरूआत पुरामुरैंग गांव से होते हुए प्रवाह पंचनदा तक रहता है । पंचनदा से पूर्व चंबल नदी यमुना नदी में विलय हो जाती है जिसके बाद यमुना नदी कहलाती है ।
जिले मे गढायता ,बरौली,खेडा अजब सिंह,ज्ञानपुरा,कसौआ,बरेछा,कुंदौल,पर्थरा महुआसूडा और चिकनी टाॅवर पर डाल्फिनो की मौजूदगी होती है जहाॅ पर उनको देखने के लिए बडी तादाद मे स्थानीय और दूर दराज से पर्यटकों का आना जाना लगा रहता है । चौहान बताते है कि इनमे से पर्थरा मे 8 से लेकर 11,कसौआ मे 5 से लेकर 7,चिकनी वाॅच टावर पर पांच के आसपास डाल्फिनो को देखा जाता है ।
इटावा जिले मे 55 से लेकर 60 के आसपास डाल्फिनो को विभिन्न स्थानो पर देखे जाने की तस्दीक विभिन्न स्तर पर की गई है वैसे पूरे चंबल की बाते करे तो यह तादात 95 के आसपास होती है ।
डॉ. चौहान ने बताया कि इटावा जिले मे डाल्फिन के संरक्षण के लिए इटावा जिले के डिभौली,कसौआ,सहसो,पचनदा और इटावा मे कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे है ।
सामाजिक वानिकी प्रभाग के प्रभागीय निदेशक राजेश सिंह वर्मा बताते हैं कि डाल्फिन पानी में तीन से पांच मिनट रह पाती है उसके बाद इसको पानी की सतह पर सांस लेने के लिए आना पड़ता है इस दौरान यह लगभग 30 से 120 सेकंड पानी से बाहर रहती है सांस लेने के लिए जब यह पानी से उछाल लेती है तो इसका उछाल देखने लायक होता है।
डाल्फिन के आकर्षण की बात करते हुए यमुना नदी मित्र समिति के अध्यक्ष इंद्रभान सिंह परिहार बताते है कि पंचनदा पर भ्रमण करने आने वाले अधिकाधिक लोग यहाॅ पर केवल डाल्फिन को देखने का जिज्ञासा लेकर ही आते है । पचनदा पर आने वालो मे से प्रतिदिन कम से कम पचास साठ लोग केवल डाल्फिन को ही देखने की मांग करते है। ऐसा ही कुछ पर्यावणीय अजय कुमार मिश्रा भी बताते है कि देश के विभिन्न हिस्सो मे बैठे उनके मित्र अमूमन चंबल नदी मे डाल्फिनो को देखने की बात कहते हुए इटावा तक आते है और डाल्फिनो को देखने के बाद आंनद की अनूभूति का एहसास करके वापस लौट जाते है ।
डाल्फिन की वास्तविक स्थिति का आकंलन करने के लिये उत्तर प्रदेश सरकार ने वन विभाग और डब्लूडब्लूएफ के सहयोग से करने का काम शुरू करने की कवायद कर रखी है । चंबल नदी मे 2008 मे डाल्फिन के मरने का मामला उस समय सामने आया था जब बडे पैमाने पर घड़ियालो की मौत हुई थी । उस समय दो डाल्फिनो की मौत ने चंबल सेंचुरी अफसरो को सकते मे ला दिया था । उसके बाद डाॅल्फिनो के मरने की खबरे आ जाती है कहा जाता है कि चंबल नदी मे अवैध शिकार इस जलचर की मौत का बडा कारण है लेकिन चंबल सेंचुरी के अफसर इन मौतो को स्वाभाविक बता करके शिकार से पल्ला झाड लेता रहा है।
डाल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया गया है और सरकार की ओर से उसे बचाने के दावे-दर-दावे हो रहे हैं। यूं उसके शिकार पर 1972 से ही पाबंदी है पर तस्करों की निगाह उस पर बराबर लगी हुई है। डाल्फिन मानव के मित्र के रूप में जाना जाता है। वह नदी में अक्सर कुलांचें भर-भर कर सावधान करता रहता है कि कहां पर पानी गहरा है और कहां भंवर है। डाल्फिन की जैव संरक्षण में अहम भूमिका है। गंगा और उसकी सहायक नदियों के साथ ही ब्रहृपुत्र और उसकी सहायक नदियों में भी पायी जाती है। बिहार-उत्तर प्रदेश में पर यह सोंस और असम में जिहू नाम से जानी जाती है। आज से चार-साढ़े चार दशक पूर्व तक इसके अस्तित्व पर कोई संकट नहीं था।
उत्तर भारत की पांच प्रमुख नदियों यमुना, चंबल, सिंध, क्वारी व पहुज के संगम स्थल ‘पंचनदा’ डाल्फिन के लिये सबसे खास पर्यावास है। क्योंकि नदियों का संगम इनका मुख्य प्राकृतिक वास होता है और यहां पर एक साथ 16 से अधिक डाल्फिनों को एक समय में एक साथ पर्यावरण विशेषज्ञों ने देखा, तभी से देश के प्राणी वैज्ञानिक पंचनदा को डाल्फिनों के लिये महत्वपूर्ण स्थल मान रहे हैं और इस स्थान को पूर्णतया सुरक्षित रखने की मांग भी कर रहे हैं लेकिन आज तक ऐसा हो नही सका ।
डाल्फिन स्तनधारी जीव हैं जो पानी में रहने के कारण मछली होने को भ्रम पैदा करती है, सामान्यत इसे लोग सूंस के नाम से पुकारते है, इसमें देखने की क्षमता नहीं होती हैं लेकिन सोनार यानी घ्वनि प्रक्रिया बेहद तीब्र होती हैं, जिसके बलबूते खतरे को समझती है। मादा डाल्फिन 2.70 मीटर और वजन 100 से 150 किलो तक होता है, नर छोटा होता है, प्रजनन समय जनवरी से जून तक रहता है। यह एक बार में सिर्फ एक बच्चे को जन्म देती है।
डाल्फिन को बचाने की दिशा में सबसे पहला कदम 1979 में चंबल नदी में राष्ट्रीय सेंचुरी बना कर किया गया । डाल्फिन को वन्य जीव प्राणी संरक्षण अघिनियम 1972 में शामिल किया गया । हर साल एक अनुमान के मुताबिक 100 डाल्फिन विभिन्न तरीके से मौत की शिकार हो जाती हैं, इनमें मुख्यतया मछली के शिकार के दौरान जाल में फंसने से होती है, कुछ को तस्कर लोग डाल्फिन का तेल निकालने के इरादे से मार डालते हैं। दूसरा कारण नदियों का उथला होना यानी प्राकृतिक वास स्थलों का नष्ट होना,नदियों में प्रदूषण होना और नदियों में बन रहे बांध भी इनके आने-जाने को प्रभावित करते हैं।
अवैध शिकार की वजह है कि डाल्फिन के जिस्म से निकलने वाले तेल का उपयोग मछलियों के शिकार एवं मानव हड्डियों को मजबूत करने के लिए प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि इसके तेल की बाजार में कीमतें भी अधिक होती हैं। इसलिए शिकारियों की नजरों में डाल्फिन एक धन कमाने का जरिया बन चुकी है।
डाल्फिन का शिकार दंडनीय अपराध है। शिकार करते हुए पकड़े जाने पर आरोपी को छह साल के कारावास तथा पचास हजार रुपये जुर्माना का प्रावधान है। डॉल्फिन संरक्षण के लिए नमामि गंगे परियोजना मैं बहुत महत्व दिया जा रहा है अभी हाल में ही कई सारी डॉल्फिन संरक्षण की परियोजनाएं क्रियान्वित की गई है जिनमें सामुदायिक सामुदायिक सहभागिता को निश्चित रूप से शामिल करने का आवाहन किया गया।
सं प्रदीप
वार्ता
- Gayatri Yadav
बीते 14 सितंबर को उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले में कथित रूप से चार ऊंची जाति के पुरुषों ने एक दलित युवती का सामूहिक बलात्कार किया। युवती की मंगलवार सुबह दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई। 22 सितंबर को पीड़िता के भाई द्वारा दर्ज रिपोर्ट में पुलिस को बताया गया कि वह किसी घरेलू काम से बाहर गई थी। उसी दौरान चारों आरोपियों ने इस घटना को अंजाम दिया और उसका गला दबाकर मारने की कोशिश की। शुरुआत में वह अलीगढ़ में भर्ती थी, बाद में हालत बिगड़ने पर उसे दिल्ली के सफदरजंग लाया गया था जहां उसकी मौत हो गई। युवती की मौत के बाद इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश पुलिस ने बयान जारी कर कहा है कि युवती पर हमला किया गया था और उसका गला दबाने की कोशिश की गई थी जिसके कारण उसका नर्वस सिस्टम प्रभावित हुआ और वह पैरलाईज्ड हो गई। साथ ही पुलिस ने कहा है कि यौन हिंसा की अब तक पुष्टि नहीं हुई है और युवती का जीभ काटे जाने की ख़बर भी गलत है। पीड़ित की मौत के बाद पुलिस के इस बयान पर भी सवाल उठ रहे हैं। पुलिस भले ही कह रही हो कि हाथरस की घटना में यौन हिंसा की पुष्टि नहीं हुई। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह घटना देश में दलित महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा का एक और उदाहरण है।
इस घटना के कुछ दिनों पहले ही उत्तर प्रदेश के ही लखीमपुर खीरी ज़िले में चार लड़कियों जिनमें से दो दलित थीं, उनका बलात्कार किया गया और उसके बाद हत्या कर दी गई। दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के आंकड़ों के मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (NCRB) के 2016 के आंकड़ों पर ग़ौर करें तो देश में दलितों के ख़िलाफ़ हुई कुल 26 फीसद हिंसा की घटनाओं में 15 फीसद दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ हुई थी। एनसीआरबी के ही आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश में हर रोज़ औसतन चार दलित महिलाओं का बलात्कार होता है। एनसीआरबी के ही मुताबिक साल 2018 में दर्ज हुए 33,000 बलात्कार के मामलों में 10 फीसद सर्वाइवर दलित या आदिवासी महिलाएं थी। ‘नेशनल कैम्पेन ऑफ दलित ह्यूमन राइट्स’ नामक एक गैर-सरकारी संस्था के अनुसार दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि हुई है। देश में लगभग 23 फ़ीसद दलित महिलाओं को शारीरिक शोषण और बलात्कार का सामना करना पड़ता है।
दलित महिलाओं के बलात्कार और शारीरिक शोषण के मूल में समाज में निहित ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और अपनी जाति के सर्वोच्च होने का अहंकार है। यौन हिंसा दलित-आदिवासी औरतों के ख़िलाफ़ शोषण और दमन के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। भारतीय समाज में जाति को लेकर घमंड अभी भी खत्म नहीं हुआ है। न ही खत्म हुआ है हमारे देश से जातिवादी। उच्च जाति का व्यक्ति अपने आप को सामाजिक क्रमानुक्रम में ऊपर मानता है और चाहता है कि बाकी सभी लोग उसके स्वामित्व और प्रभुत्व को स्वीकार करें।
आज़ादी और संविधान के आधिकारिक शासन के बावजूद हमारा समाज धर्म और जाति नियंत्रित है। मनुस्मृति को बातें अभी भी लोगों की वैचारिकी से मिटी नहीं हैं। उनके अनुसार दलित और वंचित समुदाय से आने वाले लोग उनकी सेवा के लिए ही हैं और उन लोगों को आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं है। दलितों के विरोध और प्रतिकार को वे अपनी बनी-बनाई संरचना के ख़िलाफ़ मानते हैं। उन्हें डर है कि उनकी संरचना ढह जाएगी, इसलिए महिलाओं पर यौन शोषण के ज़रिए वे अपनी सर्वोच्चता दर्शाने का प्रयास करते हैं।
शायद आपको याद हो पिछले साल 28 जून को रीलीज़ हुई फ़िल्म आर्टिकल 15 को पूरे देश में सराहा गया था। यह फ़िल्म बदायूं की एक सच्ची घटना पर आधारित है। जिसमें निचली जाति की लड़कियां मज़दूरी में तीन रुपए बढ़ाने की मांग करती हैं और उनकी इस मांग के बदले मालिक उनका बलात्कार कर देता है। फिल्म के रीलीज़ होने के बाद देश भर में संविधान और समानता के अधिकारों पर बात हुई लेकिन क्या इससे दलित महिलाओं का शोषण थम पाया है ? क्या उसके बाद से देश में दलित स्त्रियों के ख़िलाफ़ बलात्कार होने बन्द हुए हो गए हैं ? इनका जवाब है- नहीं, क्योंकि हमारे देश में जबतक जातिवाद बरकरार रहेगा ये हिंसा भी होती रहेगी।
दलित महिलाओं के बलात्कार और शारीरिक शोषण के मूल में समाज में निहित ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और अपनी जाति के सर्वोच्च होने का अहंकार है। यौन हिंसा दलित-आदिवासी औरतों के ख़िलाफ़ शोषण और दमन के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
कई बार बलात्कार और यौन शोषण के पीछे यह सोच होती है कि दलित जाति के पुरुष अपनी महिलाओं की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं। असल में, यह महिलाओं की स्वायत्तता को सीमित करने के लिए किया जाता है। प्राचीन धर्म नियंत्रित समाज की ओर देखें तो पता चलता है कि तथाकथित बड़े घरों की औरतें घर की चारदीवारी के भीतर कैद रहती थीं, उन्हें बाहर जाने की मनाही थी। बाहरी समाज से वे लगभग अनभिज्ञ थी, वहीं निचली जाति की औरतें बाहर जाकर काम करती थी। वे समाज में हो रहे बदलावों को देख रही थी और उससे प्रभावित हो रही थीं। ऐतिहासिक रूप से समाज को लेकर ज़्यादा सक्रिय रुख दलित महिलाओं का रहा है। अब दलित महिलाएं आगे बढ़ रही हैं, पढ़-लिख रही हैं और अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हो रही हैं तो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता यह कैसे सहन कर सकती है।
एक जातिवादी समाज अपने स्वभाव में हिंसात्मक ही होता है और जब दलित महिला की बात की जाए तब शोषण का स्वरूप और अधिक क्रूर हो जाता है। आज की मुख्यधारा की बहसों में, दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ ढांचागत और सांस्थानिक शोषण को शायद ही कभी प्रमुखता से उठाया जाता हो। लिंग, वर्ग और जाति की इंटरसेक्शनलिटी को शायद ही कभी देखा जाता हो। जब भी कभी दलित महिला या निचले वर्ग की महिला के ख़िलाफ़ यौन हिंसा होती है, उसके मानवीय अधिकारों के हनन के पीछे समाज में व्याप्त जातिवाद ही है। दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा हमेशा उनकी जातीय स्थितियों से जुड़ी होती है। ये हिंसा न केवल स्त्री को नियंत्रित करने के लिए होती हैं बल्कि इनका उद्देश्य जातीय संरचना को मजबूत बनाए रखना भी होता है। तथाकथित उच्च वर्ग के लोग नहीं चाहते कि पिछड़े व दलित लोग उनके बराबर दर्जे पर आ सकें। शुरुआत से ही दलितों विशेषकर दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ शोषण समाज मे होता रहा है और उनकी व्यथाएं और संघर्ष आज भी देखे -सुने जा सकते हैं।
1990 के दशक में राजस्थान में भंवरी देवी के बलात्कार की घटना के बाद देशभर में विरोध प्रदर्शन व आंदोलन होने के बावजूद तथा कार्यस्थल पर यौन शोषण को नियंत्रित करने के लिए ‘विशाखा गाइडलाइन’ आने के बाद भी दलित स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आ पाया है। भंवरी देवी के बलात्कार के 22 सालों बाद भी दोषियों को सज़ा नहीं हुई और वे संघर्ष करती रही। हालांकि उस केस में उच्च न्यायालय के रुख पर भी कई सवालिया निशान लगते हैं। 90 के दशक के बाद आज 21वीं सदी में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर तमाम कानून और दलितों के लिए एससी-एससी एक्ट आने के बावजूद भी महिलाओं के ख़िलाफ़ बलात्कार और शोषण की घटनाएं थम नहीं रही हैं। महीने भर में केवल उत्तर प्रदेश में तीन दलित महिलाओं की मौत का कारण यौन हिंसा है। न्यायालय की प्रक्रियाओं में साल बीतते जाते हैं और पीड़िताएं या तो मर जाती हैं या उसी जातिवादी शोषण तंत्र में जीने को मजबूर हो जाती हैं।


