विचार/लेख
शोध के अनुसार यह वायरस अपने आप में बदलाव कर अधिक स्थिर बनने की कोशिश कर रहा है, जिससे यह हर वातावरण में अपने आप को विकसित कर सके
- Lalit Maurya
कोरोनावायरस जो दिसंबर 2019 में पहली बार चीन के वुहान में सामने आया और देखते ही देखते पूरी दुनिया में फैल गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह वायरस फैलने के लिए अपनी कॉपी (प्रतिकृति) बनाता जाता है। जिसकी मदद से यह तेजी से एक इंसान से दूसरे में फैल जाता है। यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनोइस के शोधकर्ताओं ने इस बारे में एक और चौंकाने वाला खुलासा किया है। उनके अनुसार यह वायरस अपने आप में बदलाव कर अधिक स्थिर बनने की कोशिश कर रहा है, इसके लिए वह उन युक्तियों को अधिक बेहतर कर रहा है जिसकी मदद से वो नए क्षेत्रों के भी अनुकूल बन सके और वहां फैलने में सफल रहे। यह शोध जर्नल इवोल्यूशनरी बायोइनफॉरमैटिक्स में प्रकाशित हुआ है।
वायरस में आ रहे इन बदलावों को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने वायरस के प्रोटीओम में आ रही म्युटेशन को ट्रैक किया है। गौरतलब है कि प्रोटीओम वायरस में जेनेटिक मैटेरियल से घिरा प्रोटीन का भंडार होता है। इस वायरस सार्स-कोव-2 का पहला जीनोम जनवरी में छपा था उसके बाद मई तक इसके करीब 15,300 से अधिक जीनोम की खोज हो चुकी है।
शोधकर्ताओं के अनुसार अभी भी कुछ क्षेत्रों में वायरस में नए म्युटेशन हो रहे हैं। जिसका मतलब है कि यह वायरस नए क्षेत्रों के अनुकूल बनने की कोशिश कर रहा है। जबकि इसके विपरीत कुछ क्षेत्रों में इसकी म्युटेशन की दर धीमी हो गई है और वो प्रमुख प्रोटीन के आसपास सिमट रही है। इस शोध से जुड़े वरिष्ठ शोधकर्ता गस्टावो कैटानो-एनोलेस के अनुसार सबसे बुरा यह है कि यह वायरस बदल रहा है और बदलता ही चला जा रहा है, लेकिन वह उन चीजों को अपना रहा है जो उसके फैलने और विकसित होने के लिए उपयोगी और मददगार हैं। हालांकि उनमें कुछ अन्य प्रोटीन स्थिर हो रहे हैं, जो उसके इलाज में मददगार हो सकते हैं।
रिसर्च टीम के अनुसार कोरोनावायरस में आए बदलाव (म्युटेशन) की दर शुरू में काफी तेज थी। पर अप्रैल के बाद उसकी रफ्तार में कमी आ गई है। इसमें कोरोनावायरस के स्पाइक में मौजूद प्रोटीन में आई स्थिरता भी शामिल है। यह स्पाइक कोविड-19 के ऊपरी हिस्से में उभरे होते हैं जो उसे ताज का रूप देते हैं। शोधकर्ताओं को पता चला है कि स्पाइक की साइट 614 में मौजूद अमीनो एसिड, दूसरे (एस्परिक एसिड से ग्लाइसिन) में बदल गया था। यह बदलाव मार्च से अप्रैल के बीच ज्यादातर वायरसों में आया था। वैज्ञानिकों के अनुसार पहले की तुलना में स्पाइक में अब बिलकुल अलग तरीके का प्रोटीन है।
स्पाइक में मौजूद प्रोटीन दो तरह से काम करता है, पहला वो मानव कोशिकाओं से वायरस को जुड़ने में मदद करता है। दूसरा यह वायरस में मौजूद जेनेटिक मैटेरियल 'आरएनए' को वायरस की नक़ल में पहुंचाता है। 614 में आया यह म्युटेशन स्पाइक में अलग-अलग डोमेन और प्रोटीन सब यूनिट्स के बीच के महत्वपूर्ण सम्बन्ध को खत्म कर देता है। कैटानो-एनोलेस के अनुसार कुछ कारणों से यह म्युटेशन वायरस को फैलने में मदद करता है।
इससे पहले भी किए गए शोध में 614 में आया म्युटेशन वायरस को फैलने और उसकी बढ़ती संक्रामकता के लिए जिम्मेवार पाया गया था। हालांकि इस म्युटेशन का बीमारी की गंभीरता पर कोई प्रभाव नहीं देखा गया था। हालांकि एक अन्य शोध में इससे वायरस से होने वाली मृत्यु की दर में बढ़ोतरी देखी गई थी।
इस म्युटेशन से बीमारी का असर कितना बढ़ता है इस पर अभी और शोध होना बाकी है, लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि म्यूटेशन की वजह से वायरस मेजबान की कोशिकाओं में प्रवेश कर पाता है। इसलिए इस वायरस के संचरण और प्रसार को समझने के लिए यह एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसके अलावा प्रोटीन की दो जगहों में भी अप्रैल से म्युटेशन देखी गई थी। जिनमें एनएसपी12 पोलीमरेज़ प्रोटीन, जो आरएनए को डुप्लिकेट करता है, और एनएसपी13 हेलीकेस प्रोटीन शामिल हैं, जो डुप्लिकेट किए गए आरएनए स्ट्रैंड्स को ठीक करता है।
कैटानो-एनोलेस ने बताया कि “यह तीनों म्युटेशन एक दूसरे से जुड़ी हुई है। यह अलग-अलग अणुओं में होती हैं, लेकिन एक ही तरह से विकसित होती हैं।" शोधकर्ताओं ने वायरस प्रोटीओम के उन क्षेत्रों का भी पता लगाया है जिनमें समय के साथ बदलाव आने की सबसे ज्यादा सम्भावना है। जिससे यह समझा जा सकता है कि कोविड-19 के साथ आगे क्या होने की उम्मीद है।
शोध से पता चला है कि न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन में सबसे ज्यादा म्युटेशन हो रहा है। यह प्रोटीन मेजबान सेल में प्रवेश करने के बाद वायरस के आरएनए को इकठ्ठा करता है। दूसरा 3ए वायरोपोरिन प्रोटीन है जो होस्ट सेल में छेद बना देता है, जिसकी मदद से वायरस उसमें पहुंचकर, अपनी कॉपी बनाता है और उसे आक्रामक बना देता है।
ऐसे में शोधकर्ताओं का मानना है कि इस पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है क्योंकि इन प्रोटीन में आ रहा बदलाव स्पष्ट रूप से दिखाता है कि यह वायरस तेजी से अपने प्रसार में सुधार करने के तरीके तलाश रहा है। यह दो प्रोटीन हमारे शरीर के वायरस से मुकाबला करने के तरीके में हस्तक्षेप करते हैं। जिस वजह से हमारा शरीर इन वायरस का मुकाबला नहीं कर पाता।
गौरतलब है कि दुनिया भर में 43 करोड़ से ज्यादा लोग इस वायरस की चपेट में आ चुके हैं। जबकि यह अब तक 11,66,174 लोगों की जान ले चुका है। भारत में भी इस वायरस के चलते अब तक 119,502 लोगों की मौत हो चुकी है। जबकि यह 79 लाख से भी ज्यादा लोगों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। यह वायरस कितना गंभीर रूप ले चुका है इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह दुनिया के 215 देशों में फैल चुका है और शायद ही इस धरती पर कोई ऐसा होगा जिसे इस वायरस ने प्रभावित न किया हो।(dwontoearth)
क्या हमने अमेरिका से नजदीकियां बढ़ाने की कीमत का हिसाब लगाया है जो घोषित तौर पर अमेरिका फर्स्ट की बात करता है? पिछले कुछ वर्षों में हमने अमेरिका के साथ जो संबंध बनाए हैं, क्या अमेरिकी राष्ट्रपति से यह सुनने के लिए कि ‘भारत कोविड के आंकड़े छिपा रहा है’?
- सलमान खुर्शीद
पिछले कुछ वर्षों के दौरान अमेरिका को लेकर हमारी नीतियों में कुछ विरोधाभास रहा है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नाम) की बढ़ती अप्रासंगिकता, सोवियत संघ के विखंडन, चीन के एक ताकत के तौर पर उभरने और अंततः अमेरिका की समझ में यह बात आ जाने के बाद कि पाकिस्तान की धरती पर फलता-फूलता आतंकवाद अकेले भारत के लिए खतरा नहीं, वाशिंगटन में इस्लामाबाद के दबदबे में आई कमी ने विदेश नीति में काफी कुछ बदल दिया है। पहले हमारी विदेश नीति ने हमें मजबूत स्थिति में रखा लेकिन बदलते हालात में आज जब हम अपनी नीतियों को नया रूप दे रहे हैं और इस संदर्भ में रबड़-पेंसिल लेकर अपनी आकांक्षाओं को आकार देने की कोशिश कर रहे हैं तो जाहिर है, उभर रही तस्वीर को लेकर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं।
आज हमारी नई विदेश नीति के केंद्र में यह जरूरी सवाल होना चाहिए कि अमेरिका-भारत रिश्तों की उभरती नई शक्ल क्या भारत की वैश्विक आकांक्षाओं और चिंताओं के अनुकूल है? अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान हुए परमाणु परीक्षण के बाद मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भारत और अमेरिका के बीच हुए असैनिक परमाणु समझौते ने दोनों देशों के आर्थिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और बौद्धिक रिश्तों को एक नया रणनीतिक आयाम दिया।
पहले चाहे एनडीए की सरकार हो या फिर यूपीए की, जान- बूझकर अमेरिका के साथ रणनीतिक और सैन्य भागीदारी की दिशा में कदमताल करने से परहेज किया गया। लेकिन हाल के समय में भारत सरकार ने अमेरिका के साथ कई समझौते किए हैं- लॉजिस्टिक्स सपोर्ट एग्रीमेंट (एलएसए), कम्युनिकेशंस एंड इनफॉर्मेशन सिक्योरिटी मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (सिसमोआ) और अब बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बेका)। अमेरिका को लेकर भारत में जो आम राय रही है, ये समझौते उसके एकदम उलट हैं। यह दलील दी जा सकती है कि ये समझौते यूपीए सरकार के समय की नीतियों की ही स्वाभाविक परिणति हैं लेकिन हालिया घटनाक्रम को देखते हुए यह मान लेना बेवकूफी ही होगी कि ये समझौते भारत के लिए यह हर दृष्टि से अच्छे ही होंगे और इनका कोई प्रतिकूल असर नहीं होगा।
इन समझौतों पर एक नजर डालना जरूरी होगा। एलएसए एक दूसरे की सुविधाओं के नियमित उपयोग की सुविधा देता है। यह विशेष रूप से भारत को रसद की मदद देने के लिए बाध्य तो नहीं करता लेकिन अमेरिका इस दिशा में इसके इस्तेमाल के एक कदम के रूप में जरूर देख सकता है। साझा लोकतांत्रिक मूल्यों के बावजूद अमेरिका जिस तरह की भूमिका दुनिया के विभिन्न हिस्सों में निभाता रहा है, उस पर भारत को हमेशा से आपत्ति रही है लेकिन इन समझौतों से भारत- अमेरिका में भू-राजनीतिक समीकरण बनते दिख रहे हैं और यह पहले के भारत-सोवियत साझेदारी से बिल्कुल अलग है। अपनी रक्षा जरूरतों के लिए अमेरिका के सैन्य-उद्योगों पर बढ़ती निर्भरता हमारी नीतियों में बड़ा बदलाव है।
लेकिन क्या अमेरिका से इन समझौतों का मतलब यह है कि पहले हम जिस तरह इराक और अफगानिस्तान में ऑपरेशन से सायास अलग रहे, उसके अब बदलने की संभावना है? क्या ये समझौते भारत को अमेरिकी संघर्षों में करीबी भागीदारी और सत्ता परिवर्तन जैसे अभियानों में शामिल होने के लिए बाध्य करेंगे? यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के लोग कभी नहीं चाहेंगे कि विदेश के किसी युद्ध में शामिल होकर हमारे लोग बॉडी बैग में वापस आएं।
इस बात के ठोस संकेत मिल रहे हैं कि अमेरिका चाहता है कि चीन को काबू करने में भारत अहम भूमिका निभाए। भारत को कथित तौर पर ‘मोतियों की माला’ से घेरने से लेकर चीन का जवाब देने की जवाबी रणनीति अब भी काफी हद तक दूर की कौड़ी ही लगती है। एलएसी पर अभी हम उलझे हुए हैं। क्या हमें एक परमाणु पड़ोसी के साथ युद्ध में पड़ना चाहिए? बेशक, भारत अपनी गरिमा और संप्रभुता की रक्षा के लिए युद्ध से पीछे नहीं हटेगा लेकिन यह बात भारत के लोगों के गले नहीं उतरती कि अपना बदला लेने के लिए हम सुदूर के किसी देश की मदद लें।
इसमें शक नहीं कि 2020 का भारत 1962 का भारत नहीं है लेकिन हमें अपनी आर्थिक वृद्धि और सैन्य तैयारियों के बारे में व्यावहारिक होने की आवश्यकता है, खास तौर पर एक साथ दो-मोर्चे पर लड़ाई को लेकर। अमेरिका की महत्वाकांक्षी योजना भारत-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में भारत की सक्रिय भागीदारी के बूते अपनी पकड़ मजबूत करने की है। क्वाड समुद्री अभ्यास इसी कड़ी में है जिसमें हम शामिल हो चुके हैं। इससे चीन खुश तो नहीं होगा।
भारत के तत्काल हित अमेरिकी हितों से मेल नहीं खाते। और निश्चित रूप से जो हम अब तक उत्तर में जमीन पर करने की स्थिति में नहीं, उसे समुद्र में आजमाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसके अलावा, हमें यह भी समझना होगा कि अमेरिकी बेस के इस्तेमाल की स्थिति में आने के लिए हमें नौसेना पर मोटा पैसा खर्च करना पड़ेगा। संयुक्त अभ्यास अलग बात है और अमेरिकी सेना के साथ मिलकर लड़ना और, जैसा कि ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने कई बार किया है।
हमें अमेरिका से सीखना चाहिए कि जब तक सफलता की गारंटी न हो, उलझने से बचना चाहिए। हो सकता है कि अमेरिका आगे अपने दुस्साहस से पीछे हट जाए लेकिन भारत ऐसे अभियान का हिस्सा बनकर अपने लिए उल्टी स्थिति पैदा नहीं कर सकता। उधर एलएसी पर सैन्य स्तर पर थकाऊ बातचीत अब भी चल रही है और अमेरिका से हमारी भागीदारी जिसमें उच्च प्रौद्योगिकी तक पहुंच मिलती है, उसकी भी हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है।
देखने वाली बात है कि हम काफी सस्ते में निर्णय लेने की अपनी स्वतंत्रता का त्याग कर रहे हैं। और फिर तेजी से आक्रामक हो रहे चीन या फिर रूस-चीन-पाकिस्तान गठजोड़ से निपटने के लिए अमेरिका पर हमारी निर्भरता की कीमत क्या है,यह भी देखने की जरूरत है।
अमेरिका के साथ व्यापक जुड़ाव अपरिहार्य है और कई मायनों में यह स्वागत योग्य भी है लेकिन जैसा कि राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने एक बार कहा था, क्या पूंछ कुत्ते को हिलाती है? हमें निश्चित रूप से यह ध्यान रखना होगा कि हम वैसी महत्वाकांक्षा नहीं पालें। हाल के वर्षों में ‘हाउडी मोदी’ और ‘नमस्ते ट्रंप’ के बावजूद इस मुद्दे पर आश्वास्ति नहीं मिलती।
कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि क्या हमने ऐसे प्रशासन के साथ नजदीकियां बढ़ाने की कीमत का हिसाब लगाया है जो घोषित तौर पर अमेरिका फर्स्ट की बात करता है? जाहिर है, ऐसे में भारत का स्थान तो हर हाल में दूसरा ही रहेगा। क्या पिछले कुछ वर्षों में हमने अमेरिका के साथ जो संबंध विकसित किए हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से यह सुनने के लिए कि ‘भारत कोविड के आंकड़े छिपा रहा है’?
(सलमान खुर्शीद यूपीए सरकार में विदेश मंत्री रह चुके हैं ) (navjivan)
कृष्ण कांत
आलू के गोदाम भरे पड़े हैं, फिर भी खुदरा आलू 50 से 60 रुपये किलो तक बिक रहा है। उधर, प्याज की कीमत 100 रुपये तक पहुंच गई है।
अलग-अलग खबरों का सार यही है कि ये महंगाई नहीं है। ये कालाबाजारी के जरिये जबरन थोपी गई महंगाई है। आलू और प्याज के बढ़े दामों का किसानों को कोई फायदा नहीं मिल रहा है। बिचौलिये ये माल उड़ा रहे हैं। नारे में कहा जा रहा है कि हम बिचौलियों को हटा रहे हैं, लेकिन असल में बिचौलिये चांदी काट रहे हैं।
उत्तरप्रदेश से अमर उजाला ने लिखा है कि आलू और प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम से बाहर करने पर मुश्किलें बढ़ गई हैं। रिकॉर्ड के मुताबिक, कोल्ड स्टोरेज में 30 लाख मीट्रिक टन आलू है। आलू की नई फसल आने तक सिर्फ 10 लाख मीट्रिक टन की खपत होगी। फिर भी दाम आसमान छू रहे हैं।
नये कानून के मुताबिक, अब सरकार इसकी निगरानी नहीं करेगी कि किसने कितना स्टॉक जमा किया है। इससे कालाबाजारी आसान हो गई है। आलू और प्याज के दाम में आग लगी है।
अभी-अभी तीन कृषि विधेयक पास किए गए थे। कहा गया कि किसानों के हित में हैं।
धान की फसल अभी-अभी तैयार हुई है। धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी घोषित किया गया है। लेकिन किसान कौडिय़ों के भाव धान बेचने को मजबूर हैं।
दैनिक भास्कर ने लिखा है कि धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1868 रुपए है, लेकिन मध्यप्रदेश के श्योपुर मंडी में 1200 रुपए प्रति क्विंटल का ही भाव मिल रहा है।
पत्रकार ब्रजेश मिश्रा ने लिखा है कि ‘यूपी में धान किसान बदहाल हैं। धान की कीमत कौडिय़ों के भाव है। सरकारी क्रय केंद्रों पर दलालों का साया है। किसी को एमएसपी मिल जाये तो किस्मत की बात होती है। धान 800-1000 प्रति कुंतल पर बेचने को बेबस है किसान। भारत समाचार ने हेल्पलाइन शुरू कर रखी है। अब तक 14 हजार शिकायतें मिल चुकी है।’
उत्तरप्रदेश के कई जिलों से एमएसपी पर धान खरीद नहीं होने की खबरें हैं। इसी मुद्दे को लेकर किसानों का आंदोलन चल रहा है। कल दशहरे पर पंजाब और हरियाणा में रावण की जगह प्रधानमंत्री का पुतला जलाया गया।
सरकार किसानों से कह रही है कि आपको बरगलाया जा रहा है। हम तो आपको अमीर बनाने का जुगाड़ कर रहे हैं। लेकिन जमीन पर तो वही हो रहा है जिसकी आशंका जताई गई।
जागरण ने मध्यप्रदेश के बारे में खबर छापी है कि मक्का का एमसपी तय नहीं है। किसान औने पौने भाव में मक्का बेचने पर मजबूर हैं। इकोनॉमिक टाइम्स के मुताबिक, किसानों को मक्के का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से 40-50 फीसदी कम मिल रहा है।
उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश से खबरें हैं कि मक्का 7 से 9 रुपये प्रति किलो बिक रहा है।
ये सब देखकर ऐसा महसूस होता है कि हमारी सरकारें किसी संगठित गिरोह की तरह काम कर रही हैं। अमीर लोग चांदी काट रहे हैं और आम जनता की जेब कट रही है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका दुनिया का सबसे समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र है। वहां की जनता भी सुशिक्षित है लेकिन वह डोनाल्ड ट्रंप- जैसे आदमी को राष्ट्रपति चुन लेती है। इसमें अमेरिका के आम मतदाता को हम दोषी नहीं ठहरा सकते। उसने तो ट्रंप की प्रतिद्वंदी हिलेरी क्लिंटन को 2016 में 30 लाख वोट ज्यादा दिए थे लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति इन सीधे वोटों से नहीं चुना जाता है। ये वोटर अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि को चुनते हैं और फिर वे प्रतिनिधि मिलकर राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।
वह प्रतिनिधि जितने वोटों से जीतता है, उतने वोट तो राष्ट्रपति के उम्मीदवार को मिल ही जाते हैं। उस क्षेत्र के वे वोट भी उस प्रतिनिधि को मिले हुए मान लिए जाते हैं, जो उसके विरुद्ध भी गिरते हैं। इस विचित्र प्रक्रिया के चलते ही ट्रंप राष्ट्रपति बन गए। अब ‘इलेक्टोरल कॉलेज’ में 538 प्रतिनिधि होते हैं। इनमें से जिसे 270 का समर्थन मिले वह जीत जाता है। पिछली बार ट्रंप को जिताने में सबसे बड़ी भूमिका उन गोरे मतदाताओं की थी, जो कम पढ़े-लिखे और निम्न वर्ग के अमेरिकी लोग हैं। ट्रंप उन्हीं के सच्चे प्रतिनिधि हैं। उनके बोल-चाल भी उनके-जैसी ही है।
इस बार ट्रंप के विरुद्ध जौ बाइडन राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे हैं। उनके साथ उप-राष्ट्रपति पद के लिए भारतीय मूल की कमला हैरिस खड़ी हैं। दोनों के जीतने की संभावनाएं प्रबल दिखाई दे रही है। चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों से पता चलता है कि बाइडेन को 72 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन है जबकि ट्रंप को सिर्फ 22 प्रतिशत का है। इधर ट्रंप के भारतीय मतदाता भी खिसक रहे हैं। मोदी और ट्रंप की परस्पर खुशामद के कारण ट्रंप को ऐसा लगता था कि अमेरिका में भारतीय मूल के 19 लाख वोट उनकी जेब में हैं लेकिन डेमोक्रेटिक पार्टी ने कमला हैरिस को अपना उप-राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर तुरूप कार्ड चल दिया है। ट्रंप के खिलाफ भारतीय मूल के मतदाताओं ने अब ऐसी कमर कस ली है कि ट्रंप के लिए अब मोदी-कार्ड भी बेकार हो गया है।
इधर चुनाव के एक हफ्ते पहले ट्रंप ने अपने विदेश और रक्षा मंत्री को भारत भेजकर अपने वोटरों को पटाने के लिए एक दांव मारा है लेकिन उनकी बेलगाम जुबान ने उस पर भी पानी फेर दिया है। उन्होंने अपनी चुनाव-सभा में प्रदूषण पर अमेरिका की तारीफ करते हुए भारत के बारे में बोल दिया कि देखो, ‘भारत की तरफ देखो। वह कितना गंदा है। उसकी हवा कितनी गंदी है।’’उनके ये शब्द अमेरिका के भारतीय मतदाताओं के कान में अंगारों की तरह गिरे हैं। यह ठीक है कि ज्यादातर देशों के नेताओं का बौद्धिक स्तर ट्रंप-जैसा ही होता है लेकिन ट्रंप को अपने परम मित्र नरेंद्र मोदी से सीखना चाहिए कि भाषण कैसे देना है, प्रश्नकर्ताओं और पत्रकारों से कैसे बचना है और अपने पद की गरिमा बनाए रखने के लिए कब-कब चुप रहना है। वैसे तो अब जनवरी 2021 के बाद उनको किसी से कुछ सीखने की जरुरत ही नहीं रहेगी। अमेरिका के राष्ट्रपति पद का बोझ उनके कंधों से उतर ही जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विक्टोरिया गिल
अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने घोषणा की है कि उसे चंद्रमा पर पानी होने के सुबूत मिले हैं.
नासा ने अपनी एक नई और अचंभित करने वाली खोज के बारे में घोषणा की है कि उन्हें कुछ दिनों पहले चांद की सतह पर पानी होने के निर्णायक सुबूत मिले हैं.
चंद्रमा की सतह पर पानी के अणुओं के मिलने की पुष्टि से नासा के वहां बेस बनाने की योजना को लेकर भी उम्मीदें बढ़ी हैं. इस बेस को चंद्रमा पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल से ही संचालित करने का लक्ष्य है.
इस खोज को साइंस जर्नल नेचर एस्ट्रोनॉमी में दो अलग-अलग शोधपत्रों में प्रकाशित किया गया है.

हालांकि इससे पहले भी चंद्रमा की सतह पर पानी होने के संकेत मिले थे लेकिन इससे पहले जो खोज हुई थीं उनमें चांद के हमेशा छाया में रहने वाले भाग में पानी के होने के संकेत मिले थे लेकिन इस बार वैज्ञानिकों को चांद के उस हिस्से में पानी के होने के साक्ष्य मिले हैं जहां सूर्य का सीधा प्रकाश पड़ता है.
एक वर्चुअल टेलीकॉन्फ्रेंसिंग के दौरान बोलते शोध-पत्र की सह-लेखिका केसी होनिबल ने कहा, "वहाँ जो पानी है वो चांद पर लगभग एक क्यूबिक मीटर मिट्टी में 12 औंस की एक बोतल के बराबर पानी है." यानी चांद के लगभग एक क्यूबिक मीटर आयतन या क्षेत्र में आधे लीटर से भी कम (0.325 लीटर) पानी है. होनिबल मैरीलैंड स्थित नासा के गोडार्ड स्पेस फ़्लाइट सेंटर में पोस्टडॉक्टरल फ़ेलो हैं.
होनिबल के नासा सहयोगी जैकब ब्लीचर का कहना है कि शोधकर्ताओं को जल-जमाव की प्रकृति समझने की ज़रूरत है. उनका मानना है कि इससे उन्हें यह तय करने मे मदद मिलेगी कि अगर भविष्य में चांद पर किसी तरह की खोज की जाती है तो यह प्राकृतिक संसाधन कितनी मात्रा में सुलभ होंगे.
चंद्रमा पर पानी होने के संकेत और तथ्य पहले भी मिले हैं लेकिन इस नई खोज से यह पता चलता है कि यह पहले की खोज के अनुमान से कहीं अधिक मात्रा में मौजूद है.
मिल्टन केन्स स्थित ओपन यूनिवर्सिटी की ग्रह वैज्ञानिक हनाह सर्जेंट के मुताबिक़, "इस खोज ने हमें चांद पर पानी के संभावित स्रोतों के और अधिक विकल्प दे दिये हैं."
"चंद्रमा पर बेस कहां हो यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि पानी कहां है. "
स्पेस एजेंसी का कहना है कि उनकी योजना के मुताबिक़ वे साल 2024 तक पहली महिला और अगले पुरुष को चांद की सतह पर भेजेंगे. यह योजना साल 2030 में नासा के मंगल पर मानव के 'अगले बड़े क़दम' की तैयारी की एक कड़ी है.
वैज्ञानिकों को चंद्रमा पर कैसे मिला पानी?
इस खोज के लिए सबसे पहले एक एयरबोर्न-इंफ़्रारेड टेलीस्कोप बनाया गया, जिसे सोफ़िया नाम दिया गया है. यह एक ऐसी वेधशाला है जो वायुमंडल के काफ़ी ऊपर उड़ती है और एक बड़े पैमाने पर सौर मंडल का काफ़ी स्पष्ट दृश्य उपलब्ध कराती है. इंफ्रारेड टेलीस्कोप की मदद से शोधकर्ताओं ने पानी के अणुओं के 'सिग्नेचर कलर' की पहचान की.
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह लूनर ग्लास के बुलबुलों में या फिर सतह पर मौजूद कणों के बीच जम गया और यही कारण है कि यह कठोर वातावरण होने के बावजूद भी मौजूद है.
एक अन्य अध्ययन में वैज्ञानिकों ने हमेशा अंधेरे में रहने वाले क्षेत्र का अध्ययन किया, इसे ठंडे जाल के रूप में जाना जाता है. यहां पानी जमा होने या फिर स्थायी तौर पर मौजूद होने की संभावना हो सकती है. वैज्ञानिकों को दोनों ध्रुवों पर ये ठंडे जाल मिले और उन्होंने इनके आधार पर निष्कर्ष निकाला कि "चंद्रमा की सतह का क़रीब 40 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पानी को बांधकर करने की क्षमता रखता है."

इस खोज के क्या मायने हैं?
डॉ. सर्जेंट के मुताबिक़, इस खोज के साथ ही उन जगहों की सूची और बड़ी हो जाएगी जहां बेस बनाया जा सकेगा.
आने वाले सालों में चांद के ध्रुवीय क्षेत्रों में कई मिशन भेजे जाने की योजना है लेकिन आने वाले सालों में चांद पर स्थायी आवास बनाने की भी योजना है. यह एक दीर्घकालिक और महत्वाकांक्षी योजना है.
ओपन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता के मुताबिक़, "निश्चित तौर पर यह कुछ प्रभाव डाल सकता है. इससे हमे कुछ शोध करने के लिए समय मिलता है."
"हालांकि हमारे पास ज़्यादा समय नहीं क्योंकि हम पहले से ही चंद्रमा पर बेस तैयार करने की योजना पर काम कर रहे हैं और हम इस ओर आगे भी बढ़ रहे हैं लेकिन निश्चित तौर पर यह आशाजनक है."
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर हम एक बार यह समझ जाएं कि इसे निकालना कैसे है तो चांद की सतह पर मौजूद यह बर्फ़ीले पानी की सतह चंद्रमा पर अर्थव्यवस्था के लिए आधार को तैयार करने में मददगार साबित हो सकती है.
अगर ऐसा हो पाता है तो धरती से चंद्रमा पर किसी रॉकेट को भेजने की तुलना में, चंद्रमा पर रॉकेट ईंधन बनाना सस्ता हो जाएगा. तो ऐसे में अगर भविष्य में चंद्रमा पर शोध करने वाले धरती पर लौटना चाहेंगे तो वे पानी से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को अलग कर सकेंगे और ईंधन के तौर पर इस्तेमाल कर सकेंगे. (bbc)
यमन के कुछ हिस्सों में बच्चे तीव्र कुपोषण के शिकार हो रहे हैं. यूएन की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश जल्द ही कड़े खाद्य सुरक्षा संकट के करीब पहुंच सकता है. कोरोना वायरस महामारी से हालात और कठिन हो गए हैं.
यमन संकट को सात साल हो रहे हैं लेकिन इसका हल अब तक नहीं निकल पाया है. सालों से जारी संकट ने सबसे ज्यादा नुकसान बच्चों को पहुंचाया है. बच्चे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं और कोविड-19 का भी खतरा मंडरा रहा है. मंगलवार, 27 अक्टूबार को संयुक्त राष्ट्र की जारी रिपोर्ट में देश में कुपोषण के उच्चतम स्तर को लेकर चेतावनी दी गई है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश भीषण खाद्य संकट की ओर बढ़ रहा है.
साल 2020 यमन में बच्चों के लिए सबसे ज्यादा दुख देने वाला रहा. पहले तो कोरोना वायरस महामारी से देश की हालत खराब हुई उसके बाद गिरती अर्थव्यवस्था तो चिंता का विषय बना ही हुआ है एक और संकट है बढ़ता संघर्ष. पिछले छह से साल देश युद्ध की मार झेल रहा है और इस साल सहायता राशि में कमी भी भूख से लड़ने के उपायों को कमजोर कर रहे हैं.
यमन के लिए यूएन की मानवीय समन्वयक लिजे ग्रांडे कहती हैं, "हम जुलाई से ही चेतावनी दे रहे हैं कि यमन एक भयावह खाद्य सुरक्षा संकट की कगार पर है. अगर अब युद्ध खत्म नहीं होता है तो हम एक अपरिवर्तनीय स्थिति में पहुंच जाएंगे जहां यमन के छोटे बच्चों की पूरी पीढ़ी खत्म होने का जोखिम है."
यूएन के एकीकृत खाद्य सुरक्षा चरण वर्गीकरण (आईपीसी) के मुताबिक दक्षिण यमन में पांच साल के कम उम्र के बच्चों में तीव्र कुपोषण के मामलों में साल 2020 में 10 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और यह आंकड़ा पहुंचकर पांच लाख के करीब पहुंच गया है.
गंभीर तीव्र कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या में 15.50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और ढाई लाख गर्भवती महिलाएं या स्तनपान कराने वाली मांओं को भी कुपोषण उपचार की भी जरूरत है. दक्षिण यमन में 5 वर्ष से कम आयु के लगभग 14 लाख बच्चे रहते हैं, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त यमन सरकार के नियंत्रण में आता है. हालांकि उत्तर यमन के लिए आईपीसी डाटा अब तक उपलब्ध नहीं हो पाया है, यहां पर ईरान के प्रति झुकाव रखने वाले हूथी विद्रोही का नियंत्रण है.
यमन में अकाल को कभी आधिकारिक रूप से घोषित नहीं किया गया है. यूएन कहता आया है कि यमन दुनिया का सबसे बड़ा मानवीय संकट झेल रहा है. देश की 80 फीसदी जनसंख्या मानवीय सहायता पर ही निर्भर है.
पोषण आहार और अन्य सेवाएं देने वाली एजेंसियां जो लाखों लोगों को भुखमरी से बचाती हैं इस साल फंडिंग की कमी के कारण बंद हो रही हैं. यूएन का कहना है कि उसको मध्य अक्टूबर तक सिर्फ 1.43 अरब डॉलर ही मिले हैं.
मार्च 2015 के मानवीय त्रासदी और खराब हो गई जब सऊदी अरब ने यहां दखल दिया, सऊदी ने सरकारी सेना के समर्थन में अपनी सेना उतार दी. हूथी बागियों को रियाद के कट्टर प्रतिद्वंद्वी ईरान का समर्थन हासिल है. हवाई हमलों और युद्ध के कारण लाखों लोगों की मौत हो चुकी हैं जिनमें सैकड़ों बच्चे भी शामिल हैं.
-भारत डोगरा
विभिन्न देशों और अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों ने विषमता कम करने के लिए समुचित कदम उठाए होते तो कोविड के दौर में कमजोर तबकों को इतना दुख-दर्द न सहना पड़ता, जितना उनको सहना पड़ा है।
वैसे तो विषमता कम करना सभी स्थितियों में महत्तवपूर्ण है, पर अधिक कठिन समय में भूख और गरीबी कम करने के लिए यह और भी जरूरी हो जाता है। इस समय कोविड-19 के कारण दुनिया ऐसे ही कठिन दौर से गुजर रही है। इन दिनों विषमता के हालात पर आक्सफैम व डेवेलैपमेंट फिनेक्स इंटरनेशनल के नए विश्लेषण ने चिंता व्यक्त की है कि कोविड-19 के दौर में विश्व स्तर पर विषमता कम करने में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की है।
इतना ही नहीं इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पहले विभिन्न देशों व अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों ने विषमता कम करने के लिए समुचित कदम उठाए होते तो कोविड के दौर में कमजोर तबकों को इतना दुख-दर्द न सहना पड़ता जितना उनको सहना पड़ा है। पर हाल के वर्षों में विषमता कम करने में अधिकांश देशों में विफलता या कम सक्रियता देखी गई, व इसकी महंगी कीमत कोविड दौर में चुकानी पड़ी।
यह विषमता केवल आर्थिक स्तर पर ही नहीं है अपितु सामाजिक स्तर पर यानि जाति, धर्म, नस्ल, रंग, लिंग आदि स्तर पर भी है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में श्वेत परिवारों में 10 में से 7 को स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध है जबकि अफ्रीकन-अमेरिकन (ब्लैक) परिवारों में 10 में से मात्र 1 परिवार को ही स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध है।
कुछ देशों ने कोविड के दौर में विषमता कम करने के स्थान पर विषमता बढ़ाने वाले कदम उठाए हैं। केन्या ने सबसे धनी व्यक्तियों व बिजनेस पर इसी दौर में टैक्स कम कर दिए जिससे निर्धन वर्ग की सहायता के लिए कम संसाधन उपलब्ध होंगे। अधिकांश देशों में स्वास्थ्य के लिए बजट कम होने, सामाजिक सुरक्षा कमजोर होने व मजदूर अधिकारों को मजबूती न देने के कारण निर्धन वर्ग अधिक विकट स्थिति में है जिससे कोविड के दौरान निर्धन वर्ग को बहुत गंभीर समस्याएं सहनी पड़ी हैं।
अभी दुनिया कठिन दौर से बाहर नहीं निकली है और यह बहुत जरूरी है कि इस दौर का दुख-दर्द कम करने के लिए सभी सरकारें और अन्तरराष्ट्रीय संस्थान विषमता कम करने की नीतियों को अपनाएं। इस समय विश्व की जो स्थिति है उसमें तो यह लग रहा है कि इस दौर में विषमताएं पहले से और बढ़ रही हैं अत: नीतिगत स्तर पर उचित व न्यायसंगत फैसले लेकर शीघ्र ही विभिन्न सरकारों व अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों को विषमता कम करने के असरदार व ठोस कदम उठाने चाहिए।
उन्हें टैक्स, सार्वजनिक खर्च व मजदूर नीतियों में इस संदर्भ में जरूरी सुधार करने चाहिए। अधिक धनी कंपनियों व व्यक्तियों पर टैक्स बढऩे चाहिए व टैक्स चोरी को रोकना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा व सामाजिक सुरक्षा पर सार्वजनिक निवेश बढ़ाना चाहिए। सरकारी खर्च में पारदर्शिता बढ़ानी चाहिए व ऐसे अन्य प्रयास होने चाहिए जिनसे खर्च उचित प्राथमिकताओं के अनुकूल हो। महिलाओं के कार्य के लिए सुरक्षा कम होती है अत: उनके रोजगार की सुरक्षा व व्यापक हितों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। आर्थिक विषमता के साथ लिंग-आधारित विषमता व अन्य तरह की सामाजिक विषमता (जैसे जाति, धर्म, नस्ल व रंग आदि पर आधारित विषमता) को दूर करने पर भी समुचित ध्यान देना चाहिए।
नीति स्तर पर विषमता को अधिक व असरदार स्थान देने के लिए यह भी जरूरी है कि विभिन्न तरह की विषमता पर ठीक व प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध हो। यह जानकारी व आंकड़ों का आधार उपलब्ध करवाने के लिए जरूरी प्रयास करने चाहिए। विभिन्न प्रस्तावित नीतियों का आंकलन इस दृष्टि से भी होना चाहिए कि इनका विषमता पर क्या असर पड़ेगा तथा इस आंकलन के आधार पर विषमता कम करने वाली नीतियों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
इस संदर्भ में विभिन्न सरकारों व अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों का सहयोग बढऩा चाहिए। विशेष तौर पर अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा संस्थान जैसे प्रमुख संस्थानों को निर्धन व विकासशील देशों को कर्ज में राहत देने के लिए व इन देशों का कर्ज व ब्याज अदायगी का बोझ कम करने के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी विषमताएं कम होनी चाहिए।
विषमता कम करने का एजेंडा इन दिनों बहुत महत्वपूर्ण हो गया है और इसे एक मुख्य प्राथमिकता बनाना चाहिए। विषमता कम होने से केवल सबसे गरीब वर्गों को राहत ही नहीं मिलती है अपितु उनके हाथ में क्रय शक्ति आने से व क्रय शक्ति का आधार अधिक व्यापक होने से आर्थिक संवृद्धि की संभावनाएं भी बेहतर होती हैं। भारत सहित अनेक विकासशील देशों में इस समय इसकी बहुत जरूरत भी महसूस की जा रही है। (navjivanindia.com)
-राजू सजवान
उत्तर प्रदेश ने इस खरीफ सीजन में 56 लाख टन धान की सरकारी खरीद का लक्ष्य रखा है, लेकिन अब तक खरीद का काम काफी धीमी गति से चल रहा है।
एक ओर जहां केंद्र सरकार दावा कर रही है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल धान की सरकारी खरीद अब तक 20 फीसदी से अधिक की जा चुकी है, लेकिन कुल खरीद में उत्तरप्रदेश की हिस्सेदारी 2 फीसदी से भी कम है।
26 अक्टूबर को जारी सरकारी विज्ञप्ति के मुताबिक 25 अक्टूबर तक पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, चंड़ीगढ़, जम्मू-कश्मीर, गुजरात और केरल में धान की खरीद चल रही है और इन राज्यों 151.17 लाख क्विंटल धान की सरकारी खरीद हो चुकी है, जबकि पिछले साल 125.05 लाख टन खरीद की गई थी। यानी कि इस साल अब 20.89 प्रतिशत अधिक धान खरीदी जा चुकी है।
हालांकि प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) की इस विज्ञप्ति के में यह तो बताया गया है कि कुल खरीद में से 100.89 लाख टन धान पंजाब से खरीदी गई है, जो पिछले साल के मुकाबले लगभग 66.71 लाख टन अधिक है, लेकिन अन्य राज्यों की जानकारी नहीं दी गई है। दरअसल अब तक जो खरीदारी की गई है, उसमें पंजाब और हरियाणा की हिस्सेदारी प्रमुख है। इससे पहले भी ऐसा ही होता रहा है। यह बात इसलिए भी अहम हो जाती है, क्योंकि पश्चिम बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है, जहां धान का उत्पादन बहुत ज्यादा होता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में धान की खरीदारी बहुत कम होती है।
इस बार जब नए कृषि कानून बने तो उत्तर प्रदेश के किसानों ने भी विरोध किया था, तब तुरत-फुरत में उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा जारी बयान में कहा गया कि राज्य में बड़े स्तर पर धान की सरकारी खरीद जाएगी। राज्य सरकार ने इस साल 550 लाख टन धान खरीदने का लक्ष्य रखा है। लेकिन उत्तरप्रदेश की वेबसाइट के मुताबिक 26 अक्टूबर की शाम सात बजे तक 41387 किसानों से 2.91 लाख क्विंटल धान खरीदी गई है। जबकि उत्तरप्रदेश की वेबसाइट पर 5,75,135 किसान धान की बिक्री के लिए रजिस्ट्रेशन करा चुके हैं। अगर देश भर में अब तक हुई कुल खरीद (151 लाख क्विंटल) से तुलना की जाए तो अभी उत्तरप्रदेश में 2 फीसदी से भी कम धान खरीदी गई है और जबकि लक्ष्य से तो कोसों दूर हैं।
राज्य में सरकारी खरीद में ढिलाई का खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। सरकारी खरीद न होने के कारण किसान अपनी धान 800 से 1,000 रुपए प्रति क्विंटल से भी कम कीमत पर बेचने को मजबूर हैं। जबकि धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1868 रुपए और 1888 रुपए प्रति क्विंटल है। ऐसी स्थिति में अच्छी कीमत पाने के लिए उत्तर प्रदेश के किसान हरियाणा और पंजाब की मंडियों में पहुंच रहे हैं। जहां उन्हें विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, उत्तर प्रदेश से आ रहे धान से भरे ट्रकों को किसान पकड़ रहे हैं।
दरअसल, उत्तर प्रदेश में सरकारी खरीद बहुत कम होने के कारण वहां के व्यापारी भी कम कीमत पर खरीद करते हैं। उत्तर प्रदेश के छाता से हरियाणा की अनाज मंडी में धान बेचने आए किसान गंगा लाल बताते हैं कि उनके गांव से कुछ ही दूरी पर कोसी अनाज मंडी है। वहां सरकारी खरीद न के बराबर होती है, इस बार जब हमने वहां के व्यापारी से बात की तो उसने बताया कि वह 900 से 1,000 रुपए क्विंटल के रेट से खरीदेगा। इसलिए हम होडल आकर अपनी धान बेच रहे हैं। जहां व्यापारी (आढ़ती) भी उत्तरप्रदेश के व्यापारियों से अधिक कीमत देता है।
राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वीएम सिंह बताते हैं कि पंजाब-हरियाणा जितना धान उत्पादन करता है, उससे अधिक उत्तर प्रदेश में धान होता है, लेकिन सरकार की मंशा न होने के कारण यहां सरकारी खरीद होती ही नहीं है। यही वजह है कि इस बार तो किसान 800 रुपए क्विंटल धान बेचने को मजबूर है।
सिंह बताते हैं कि पीलीभीत जिले में धान की सरकारी खरीद नहीं होती थी तो उन्होंने साल 2000 में अदालत का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट के निर्देश पर धान की खरीद शुरू हुई थी। उस समय अदालत ने पूरे प्रदेश में मानकों को पूरा करने वाली धान की सरकारी खरीद के निर्देश दिए थे, लेकिन अदालत में बार-बार हलफनामा देने के बावजूद सरकार धान की खरीद करती ही नहीं है। इसका खामियाजा किसान को भुगतना पड़ता है। इसलिए हम लगातार एमएसपी अधिकार की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। अगर सरकार तय कर दे कि चाहे सरकारी खरीद हो या प्राइवेट, एमएसपी से कम कीमत पर नहीं खरीदी जाएगी तो ही किसान को घाटे से बचाया जा सकता है। (downtoearth.org.in/hindi)
-ध्रुव गुप्त
मैसेंजर और व्हाट्सएप सोशल मीडिया की सबसे खतरनाक जगहों में तब्दील होते जा रहे हैं। बहुत कम लोग हैं जो इनका इस्तेमाल सार्थक संवाद के लिए करते हैं। आमतौर पर शातिर लोग मौज-मजे के लिए शिकार की तलाश में यहां भटकते देखे जाते हैं।
औरतें यहां धोखे और ब्लैकमेलिंग की सबसे ज्यादा शिकार होती हैं। वे ऐसी औरतें हैं जो चैटिंग के दौरान भावुकता के कमज़ोर पलों में या क्षणिक यौन संतुष्टि के लिए कामुक संवादों अथवा तस्वीरों का आदान-प्रदान कर जाती हैं जिनका स्क्रीनशॉट बाद में उन्हें धमकाकर उनका मनचाहा इस्तेमाल करने के काम आता है।
मैं नहीं कहता कि आपके इनबॉक्स में आने वाले तमाम लोग गलत होते हैं, लेकिन आप व्यक्तिगत रूप से जिन्हें नहीं जानतीं, उनकी बातों पर भरोसा कर उनके साथ अपनी नितांत व्यक्तिगत बातें आप कैसे शेयर कर सकती हैं ? शायद मेरी पुलिसिया पृष्ठभूमि की वजह से हर महीने ब्लैकमेल की शिकार दो-चार महिला मित्र मुझसे सलाह मांगती है। ज्यादातर मामले संवादों या अश्लील तस्वीरों के स्क्रीनशॉट सार्वजनिक करने की धमकी देकर अकेली मिलने के लिए बाध्य करने के होते हैं।
आभासी दुनिया प्रेम की तलाश की सही जगह नहीं है। बहुत कम भाग्यशाली लोगों की तलाश यहां पूरी होती है। इस मंच ने बहुत लोगों को ठगा और छला है और कुछ को तो आत्महत्या तक के लिए मजबूर कर दिया है। अपवादों की बात अलग है, लेकिन प्रेम अगर आपको मिलेगा तो वास्तविक जीवन में ही मिलेगा। मैसेंजर और व्हाट्सएप से सावधान रहें, सुरक्षित रहें!
नामदेव अंजना
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान 28 अक्टूबर को है। सभी पार्टियों के बड़े नेता बिहार में रैलियां करने में जुटे हैं।
बिहार जीतना सभी दलों के लिए एक चुनौती बन गया है। लेकिन कभी इसी बिहार में पुणे के एक मराठी व्यक्ति ने छह बार चुनाव लड़ा था, और चार बार जीत कर संसद पहुंचा था, ये बात आश्चर्यचकित करती है, लेकिन सच है।
इस आदमी का नाम था- मधु लिमये।
लिमये जब संसद में होते थे, तो सत्तापक्ष को डर सताता रहता था कि कब उनपर तीखे सवालों की बौछार हो जाएगी। शतरंज के चैंपियन लिमये के सवाल साक्ष्य और सबूत के साथ किसी को भी फँसाने के लिए काफ़ी थे।
चार बार सांसद रहे
मधु लिमये मूल रूप से पुणे के थे। एक मराठी व्यक्ति का बिहार से चार बार चुनाव जीतना अपने आप में अनोखा है।
राज्यसभा में ऐसे कई दूसरे नेता हुए हैं, लेकिन लोकसभा में ऐसे उदाहरण कम ही देखे गए हैं। लिमये का बचपन महाराष्ट्र में बीता, उनकी पूरी पढ़ाई भी वहीं से हुई, वो महाराष्ट्र की राजनीति में भी सक्रिय थे।
लिमये समाजवादी विचारधारा से आते थे और गोवा लिबरेशन जैसे अनेक आंदोलनों का भी हिस्सा बने थे।
लेकिन जब राष्ट्रीय राजनीति में उन्होंने क़दम रखा तो चुनाव लडऩे के लिए बिहार ही चुना। पहली बार वो 1964 में मुंगेर से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे।
1964 में, सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय हुआ और यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी बनी थी। मधु लिमये पहली बार यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर लोकसभा गए थे। इस जीत के बाद, वह यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष भी बने।
1967 के चुनावों में, लिमये ने यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर मुंगेर से जीत हासिल की। हालाँकि, बाद में वो पार्टी से अलग हो गए। 1973 में, लिमये ने बिहार के बांका से चुनाव जीता। इस बीच आपातकाल की घोषणा कर दी गई। उस समय जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, इंदिरा गांधी विरोधी अधिकांश दलों ने एक साथ आकर जनता दल का गठन किया। जयप्रकाश नारायण इसके प्रमुख बने थे।
लिमये ने 1977 में जनता पार्टी की टिकट पर बांका से चुनाव लड़ा और फिर जीत हासिल की।
हालांकि 1971 में मुंगेर से और 1980 में बांका से लिमये चुनाव हार भी गए थे। 1980 के बाद से उनका राजनीतिक करियार ढलान की तरफ बढऩे लगा और 1982 आते आते वो सक्रिय राजनीति से बाहर हो गए।
बिहार से कैसे जीते लिमये?
बिहार के एक वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘बिहार की राजनीति को दो भागों में विभाजित किया जाना चाहिए। मंडल आयोग से पहले का बिहार और मंडल आयोग के बाद का बिहार। जाति से ज़्यादा बिहार में समाजवादी विचारधारा की राजनीति थी। कर्पूरी ठाकुर इस राजनीति के आखिरी नेता हैं।’
मधु लिमये साठ और सत्तर के दशक में बिहार से लड़ रहे थे। ठाकुर कहते हैं, ‘समाजवादी विचारधारा राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण द्वारा बिहार की मिट्टी में निहित थी। मधु लिमये उसी दशक में बिहार से चुनाव लड़ रहे थे। इसलिए, विचारधारा जाति से अधिक महत्वपूर्ण थी और इसका उन्हें फायदा मिला।’
वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के मधु लिमये के साथ पारिवारिक रिश्ते थे। बीबीसी मराठी से बात करते हुए, वैदिक ने बताया, ‘साठ और सत्तर के दशक में, अधिकांश राजनीतिक नेताओं में ‘राष्ट्रीय आकर्षण’ था, मधु लिमये को राष्ट्रीय नेता माना जाता था।’
यह पूछने पर कि क्या मधु लिमये जैसा महाराष्ट्र का कोई नेता आज बिहार से जीत सकता है, मणिकांत ठाकुर ने हँसते हुए कहा, ‘वो विचारधारा का दौर था, लोग विचारधारा और मुद्दों पर वोट देते थे, क्या अब ये होता है?’
ईमानदारी की मिसाल थे लिमये
मधु लिमये ने महाराष्ट्र से भी चुनाव लड़ा था। संयुक्त महाराष्ट्र के गठन से पहले, उन्होंने 1957 में मुंबई में बांद्रा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था लेकिन वो वहां हार गए थे।
गोवा की मुक्ति और लोगों के जोडऩे के लिए उनके किए आंदोलन के कारण लोग उनकी ओर आकर्षित हुए थे। बावजूद इसके वो चुनाव नहीं जीत पाए थे।
वेद प्रताप वैदिक बताते हैं, ‘एक बार मैं उनके घर में अकेला था। डाकिए ने घंटी बजाकर कहा कि उनका 1000 रुपए का मनीऑर्डर आया है। मैंने दस्तख़त करके वो रुपए ले लिए। शाम को जब वो आए तो वो रुपए मैंने उन्हें दिए। पूछने लगे कि ये कहाँ से आए। मैंने उन्हें मनीऑर्डर की रसीद दिखा दी। पता ये चला कि संसद में मधु लिमये ने चावल के आयात के सिलसिले में जो सवाल किया था उससे एक बड़े भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हुआ था और उसके कारण एक व्यापारी को बहुत लाभ हुआ था और उसने ही कृतज्ञतावश वो रुपए मधुजी को भिजवाए थे।’
मधु लिमये को ग़ुस्सा आया, उन्होंने वैदिक से कहा, ‘क्या आप कुछ व्यापारियों के लिए दलाल हैं? इस पैसे को उस व्यापारी को वापस भेज दें।’
वेद प्रताप वैदिक अगले दिन पोस्ट ऑफि़स गए और व्यापारी को पैसे लौटा दिए। मधु लिमये के सहयोगी रघु ठाकुर ने बीबीसी हिंदी से बात करते हुए उनसे जुड़ा एक किस्सा बताया।
रघु ठाकुर बताते हैं, ‘वो कभी-कभी हमारे स्कूटर की पिछली सीट पर बैठकर जाया करते थे। इतनी नैतिकता उनमें थी कि जब उनका संसद में पाँच साल का समय ख़त्म हो गया तो उन्होंने जेल से ही अपनी पत्नी को पत्र लिखा कि तुरंत दिल्ली जाओ और सरकारी घर ख़ाली कर दो।’
‘चंपाजी की भी उनमें कितनी निष्ठा थी कि वो मुंबई से दिल्ली पहुँची और वहाँ उन्होंने मकान से सामान निकाल कर सडक़ पर रख दिया। उनको ये नहीं पता था कि अब कहाँ जाएं। एक पत्रकार मित्र जो समाजवादी आंदोलन से जुड़े हुए थे, वहाँ से गुजर रहे थे, उन्होंने उनसे पूछा कि आप यहाँ क्यों खड़ी हैं? जब उन्होंने सारी बात बताई तो वो उन्हें अपने घर ले गए।’
रघु ठाकुर कहते हैं, ‘न केवल उन्होंने अपने जीवनकाल में पेंशन ली, बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी से भी कहा कि वह उनकी मौत के बाद भी पेंशन न लें।’ (bbc.com/hind)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हर विजयदशमी को याने दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया नागपुर में विशेष व्याख्यान देते हैं, क्योंकि इस दिन संघ का जन्म-दिवस मनाया जाता है। इस बार संघ-प्रमुख मोहन भागवत का भाषण मैंने टीवी चैनलों पर देखा और सुना। सबसे पहले तो मैं इस बात से प्रभावित हुआ कि उनकी भाषा याने हिंदी इतनी शुद्ध और सारगर्भित थी कि दिल्ली में तो ऐसी आकर्षक हिंदी सुनने में भी नहीं आती और वह भी तब जबकि खुद मोहनजी हिंदीभाषी नहीं हैं। वे मराठीभाषी हैं। हमारी सभी पार्टियों, खास तौर से भाजपा, जदयू, राजग, सपा, बसपा के नेता वैसी हिंदी या उससे भी सरल हिंदी क्यों नहीं बोल सकते ? उस भाषण में जो राजनीतिक और सैद्धांतिक मुद्दे उठाए गए, उनके अलावा भारत के नागरिकों को अपने दैनिक जीवन में क्या-क्या करना चाहिए, ऐसी सीख हमारे नेता लोग भी क्यों नहीं देते ? कुछ नेताओं को लत पड़ जाती है कि वे टीवी चैनलों पर राष्ट्र को गाहे ब गाहे संबोधित करने का बढ़ाना ढूंढ निकालते हैं या कुछ खास दिवसों पर अफसरों के लिखे भाषण पढ़ डालते हैं। इन नेताओं को आज पता चला होगा कि भारत के सांस्कृतिक और सैद्धांतिक सवालों पर सार्वजनिक बहस कैसे चलाई जाती है।
मोहन भागवत के इस विचार का विरोध कौन कर सकता है कि भारत में बंधुत्व ही सच्चा हिंदुत्व है। यह विचार इतना उदार, इतना लचीला और इतना संविधानसम्मत है कि इसे सभी जातियों, सभी पंथों, सभी संप्रदायों, सभी भाषाओं के लोग मानेंगे। हिंदुत्व की जो संकीर्ण परिभाषा पहले की जाती थी और जो अब तक समझी जा रही है, उस छोटी लकीर के ऊपर मोहनजी ने एक लंबी लकीर खींच दी है। उनके हिंदुत्व में भारत के सारे 130 करोड़ लोग समाहित हैं। पूजा-पद्धति अलग-अलग हो जाने से कोई अ-हिंदू नहीं हो जाता। अ-हिंदू वह है, जो अ-भारतीय है। याने हिंदू और भारतीय एक ही है। मोहन भागवत के इस विचार को संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक और प्रत्येक भारतीय आत्मसात कर ले तो सांप्रदायिकता अपने आप भारत से भाग खड़ी होगी।
मोहन भागवत ने कोरोना महामारी, कृषक नीति, शिक्षा नीति और पड़ौसी नीति आदि पर भी अपने विचार प्रकट किए। शिक्षा नीति पर बोलते हुए यदि वे राज-काज, भर्ती और रोजगार से अंग्रेजी को हटाने की बात करते तो बेहतर होता। मातृभाषा में शिक्षा की बात तो उत्तम है लेकिन जब रोजगार और वर्चस्व अंग्रेजी देती है तो मातृभाषा में कोई क्यों पढ़ेगा ? इसी प्रकार पड़ौसी देशों को एक सूत्र में बांधने में दक्षेस (सार्क) विफल रहा है। यह महान कार्य राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के बस का नहीं है। उनकी औपचारिक महिमा सिर्फ तब तक है, जब तक वे कुर्सी पर हैं। संपूर्ण आर्यावर्त्त (अराकान से खुरासान तक) को एक करने का कार्य इन देशों की जनता को करना है। जनता को जोडऩे का काम समाजसेवी संगठन ही कर सकते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
ध्रुव मिश्रा
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बसे गाँवों में रोज़गार एवं अन्य सुविधाओं के अभाव के चलते लोगों का पलायन एक बड़ी समस्या रही है.
राज्य में कई ऐसे गाँव हैं जहां से लोग पलायन करके शहरों में जा बसे हैं और गाँव के गाँव खाली हो चुके हैं. लेकिन इसी उत्तराखंड में एक गांव ऐसा भी है जहाँ से आज के समय में एक भी व्यक्ति पलायन करके नहीं गया है.
यहाँ पलायन लगभग शून्य के बराबर है.
मसूरी से करीब 20 किलोमीटर दूर टिहरी ज़िले के जौनपुर विकास खंड स्थित रौतू की बेली गाँव उत्तराखंड में पनीर विलेज के नाम से मशहूर है. करीब 1500 लोगों की आबादी वाले इस गाँव में 250 परिवार रहते हैं और गाँव के सभी परिवार पनीर बनाकर बेचने का काम करते हैं.
रौतू की बेली गांव के पूर्व ब्लॉक प्रमुख कुंवर सिंह पंवार ने ही इस गांव में सबसे पहले पनीर बनाने का काम 1980 में शुरू किया था.
कुंवर सिंह बताते हैं, "1980 में यहाँ पनीर पाँच रुपये प्रति किलो बिकता था. उस समय पनीर यहाँ से मसूरी स्थित कुछ बड़े स्कूलों में भेजा जाता था. वहाँ इसकी डिमांड रहती थी."
उनके मुताबिक़ 1975-76 में इस इलाके में गाड़ियाँ चलनी शुरू हुईं थीं तब यहाँ से बसों और जीपों में रखकर पनीर मसूरी भेजा जाता था.
यहाँ आसपास के इलाकों में तब पनीर नहीं बिकता था क्योंकि लोग पनीर के बारे में इतना जानते नहीं थे. यहाँ के लोग ये भी नहीं जानते थे कि पनीर की सब्ज़ी क्या होती है.
कुंवर सिंह बताते हैं, "पहले यहाँ पनीर का उत्पादन ख़ूब होता था. करीब 40 किलो पनीर एक दिन में यहाँ हो जाया करता था. फिर धीरे-धीरे उत्पादन में कमी आने लगी लेकिन 2003 के बाद फिर से उत्पादन में तेज़ी देखने को मिली."

DHRUVA MISHRA
देहरादून तक पहुंचा गाँव का पनीर
कुंवर सिंह बताते हैं, "2003 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इस गांव को उत्तरकाशी ज़िले से जोड़ने वाली एक रोड बनी जिसकी वजह से यहाँ के लोगों को काफ़ी फ़ायदा हुआ. उत्तरकाशी जाने वाली रोड के बन जाने की वजह से इस गाँव से होकर देहरादून और उत्तरकाशी आने-जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है."
"यहां का पनीर पहले से ज़्यादा प्रचलित हुआ. इस रोड से आने-जाने वाले लोग अक्सर यहीं से आकर पनीर ख़रीदने लगे यहाँ लोगों का पनीर अलग अलग गाँव में बिकने लगा. रौतू की बेली गाँव के पनीर में मिलावट न होने और सस्ता होने की वजह से देहरादून तक के लोग इसको ख़रीदने लगे."

DHRUVA MISHRA
गाँव में सबसे कम पलायन
कुंवर सिंह बताते हैं कि उत्तराखंड के बाक़ी इलाकों की तुलना में अगर देखें तो टिहरी ज़िले में यह पहला गाँव है जहां सबसे कम पलायन है.
कुछ 40-50 युवा ही गाँव से बहार पलायन करके काम करने के लिए बाहर गए थे लेकिन कोरोना महामारी के दौरान वापस घर लौट आए.
गाँव में कम पलायन का सबसे बड़ा कारण यह है की यहाँ के लोग अपनी थोड़ी बहुत आजीविका चलाने के लिए पनीर का काम करते हैं. थोड़ी-बहुत खेती बाड़ी भी लोग कर लेते हैं जिसकी वजह से पलायन करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती.
इसी गाँव में रहने वाले भागेंद्र सिंह रमोला बताते हैं कि अगर सारे ख़र्चे को मिलाकर भी देखें तो वो यहां करीब 6000-7000 रुपये तक बचा लेते हैं क्योंकि यहां जानवरों के लिए घास घर की महिलाएं जंगलों से ले आतीं हैं और थोड़ा बहुत ख़र्चा भैंस के चोकर के लिए होता है.
हालाँकि जब अप्रैल के महीने में घास नहीं मिलती है तब यहाँ घास ख़रीदनी पड़ती है जिसमें ज़्यादा ख़र्च थोड़ा ज़्यादा हो जाता है.

DHRUVA MISHRA
मुश्किल है पनीर बनाना
कुंवर सिंह बताते हैं कि पहाड़ पर पनीर बनाना बहुत कठिन काम है.
यहाँ अगर किसी के पास एक भैंस है अगर वह भैंस बिल्कुल नई है तो उसे साल भर पालना पड़ता है. यहां गांव के पास में भैंस के लिए चारा नहीं मिलता है.
चारा लाने के लिए गांव की बहू-बेटियों को दूर पहाड़ों पर चढ़कर जाना पड़ता है, कभी कभी यहाँ चारे की भी कमी पड़ जाती है जिसके लिए काफी दूर दूसरे गाँवों तक जाना पड़ जाता है.

DHRUVA MISHRA
रौतू की बेली गांव में रहने वाली मुन्नी देवी बतातीं हैं, "पशुओं के लिए घास और जलाने के लिए लकड़ी जंगल से लाते हैं. जो लकड़ी जंगल से लाते हैं उसी को चूल्हे में जलाने के लिए उपयोग में लाते हैं उसी से पनीर बनता है. जंगल बहुत दूर हैं, आसपास कहीं भी घास नहीं मिलती है.''
''बहुत दूर पहाड़ पर जाना पड़ता है. सुबह नौ बजे जंगल में घास और लकड़ियां लेने जाते हैं और फिर शाम को चार बजे घास और लकड़ियां लेकर वापस आते हैं. शाम को दूध निकालकर पनीर बनाना शुरू करते हैं."
यहाँ के लोगों के मुताबिक़, अगर सरकार भैंस ख़रीदने में लोन की व्यवस्था कर दे और चारा अगर मुफ़्त में या सब्सिडी में उपलब्ध हो जाए तो लोगों को यहां थोड़ी राहत मिल सकती है.

DHRUVA MISHRA
गाँव वालों की सरकार से माँग
रौतू की बेली गाँव के ग्राम प्रधान बाग़ सिंह भंडारी बताते हैं कि "हम लोग गांव में अलग-अलग जगह पर रहते हैं. ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर अलग अलग जगह पर निवास होता है.''
''जिन जगहों पर हमारी कास्तकारी होती है या हमारा उत्पादन होता है वो जगहें मुख्य मार्ग से काफी दूर और ऊँचाइयों पर हैं इन जगहों तक रोड नहीं पहुंची हैं."
भंडारी ने बताया, "यहां रहने वाले लोग अपने उत्पाद घोड़े खच्चरों के माध्यम से नीचे मुख्य मार्ग तक ले जाते हैं जिसमें कि 150 रुपये तक एक चक्कर का भाड़ा लग जाता है.''
''इस रोड को बनवाने के लिए पिछले 10 से 15 सालों से लोग प्रयास कर रहे हैं, ख़ुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत साल 2011 में जब कृषि मंत्री थे तब इस रोड का शिलान्यास कर चुके हैं लेकिन ये रोड अभी तक तैयार नहीं हुई है."

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उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट ने बीबीसी हिंदी से कहा, "गाँव आबाद हों इसके लिए हमें गांवों को केंद्र में रखकर योजनाओं को बनाने की ज़रूरत है. गांवों की योजनाओं को बनाने के अधिकार ग्राम प्रधानों के पास होने चाहिए."
मुन्नी देवी के मुताबिक पनीर बनाने से बहुत आमदनी तो नहीं होती लेकिन ख़र्चा-पानी निकल आता है.
उन्होंने कहा कि सर्दियां आने वाली हैं और बर्फ़ वाली ठंडक में जंगल से घास लाना कितना मुश्किल होता है, इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं. बावजूद इन चुनौतियों के इस गांव का हर परिवार पनीर बना रहा है और उसे बाज़ार तक पहुंचा रहा है. (bbc.com)
-महेंद्र सिंह
ऐसा लगता है कि मोहम्मदबिन तुगलक जैसा समय फिर आ गया है। यह सबसे ज्यादा तब लगता है, जब देश में किसानों की स्थिति को देखा जाए। समझ नहीं आता कि देश की राजनीति किसान से अलग हो गई है या किसान राजनीति से अलग हो गया है। किसान क्या सोचता है, अब इससे देश की राजनीति की दिशा तय नहीं होती। किसान भी इन हालात के लिए कम दोषी नहीं है।
यही किसान जो खेती की खराब हालत के कारण लुटा-पिटा जीवन बिताता है, चुनाव के वक्त अपनी हालत भूलकर भ्रामक नारों, भ्रामक जय घोषों, भ्रामक वादों के चक्कर में आसानी से आ जाता है। क्या आज तक स्वामीनाथन कृषि आयोग की रिपोर्ट लागू हुई? क्यों न हुई? क्या किसानों ने कभी इस पर गौर किया?
क्या देश के साधु, संतों ने कभी किसानों के पक्ष में अपनी सहमति व्यक्त की? क्या बाबा रामदेव ने काले धन के बारे में जिस तरह शोर मचाया, कभी किसानों की समस्याओं के बारे में दबाव बनाया? वर्तमान सरकार के 6 वर्ष के शासन काल में किसानों की आय में कितनी वृद्धि हुई है, इस पर किसान गौर करें। वादा था दो गुनी आय वृद्धि का। क्या यह दो गुनी आय का वादा बिना वृद्धि यूं ही चलता रहेगा? बाबा किसान के मुद्दे पर नहीं बोलते, मगर किसान बाबाओं के मुद्दों में शामिल होने के लिए मरा जाता है।
किसान को यह समझना होगा कि धर्म की राजनीति किसान की राजनीति को पीछे कर देती है। किसान सरल व सहज रूप से धर्म का पालन करता है। वह धर्म को ढोंगी बाबाओं से ज्यादा समझता है। किसान के लिए धर्म राजनीति का मुद्दा नहीं है। धर्म उसके जीवन का अंग है। किसानों में सांप्रदयिक विद्वेष नहीं होता। वह दूसरे धर्मावलंबियों से घृणा भी नहीं करता। मगर फिर भी चुनावों के वक्त सांप्रदायिक चालों और दुष्प्रचार में आ जाने से वह अपने ही मुद्दे भुला बैठता है।
मौजूदा किसान बिल पर बाबाओं की राय क्या है? वर्तमान में संसद में कृषि बिल पास होने से देश के किसानों में नाराजगी है। इससे प्रतीत होता है कि कृषि बिल की भाषा भ्रामक है और लोकतंत्र की भावना के विरूद्ध किसानों को नाजायज तरीके से दबाया जा रहा है। संसद में बिल पेश करने से पहले कृषि बिल की भाषा एवं मुद्दों पर क्या किसानों से मशवरा करना लाजिमी नहीं था?
कृषि बिल संसद में पास होने के बाद प्रधानमंत्री द्वारा घोषणा की जा रही है कि मंडी एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य वैसे ही रहेंगे, जैसे पहले थे। क्या इस का उल्लेख बिल में है? अगर यह उल्लेख बिल में नहीं है, तो घोषणा को ऐसा समझा जाए, जैसी 2014 के चुनाव के वक्त की गई थी कि कालेधन को समाप्त प्रत्येक व्यक्त के खाते में 15 लाख रुपए जमा कराए जाएंगे। क्या उन के खातों में अब तक कुछ जमा हुआ?
किसान 2019 के संसदीय चुनाव के वक्त भूल गए कि 2014 के संसदीय चुनाव में भाजपा की जीत के बाद केंद्र में बनी एनडाए की सरकार ने अध्यादेश के जरिए किसानों की जमीन उद्योगपतियों व सरकार द्वारा हड़पने का पूरा जोर लगाया, परंतु सरकार की यह तिकड़म सफल नहीं हुई। उस समय राज्यसभा में कांग्रेस और विरोधी पार्टियों का बहुमत होने से सरकार को निराशा हुई थी। अब एनडीए का बहुमत है, इसलिए अपनी मनमर्जी का किसान विरोधी बिल पास करनाने में सफल हो गई।
किसान कृषि बिल में साफ उल्लेख होना चाहिए था कि प्रत्येक वर्ष खरीफ और रबी की फसलों का एमएसपी घोषित किया जाएगा। मंडियों में और उन के बाहर कोई भी व्यापारी अगर घोषित एमएसपी से कम कीमत पर किसानों के अनाज उत्पाद खरीदता है, तो उसे दो वर्ष की सज़ा और जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा। एमएसपी से ज्यादा मूल्य में माल बिकने की सूरत में किसान मंडी के बाहर भी बेच सकेंगे। किसान एसोशियनों द्वारा अपना माल विदेशों में बेचने के लिए भी स्वतंत्र होंगे।
किसान चुनाव के वक्त ऐसे सांसदों को ही वोट दें, जिन्होंने कृषि सुधार बिलों में किसानों का पक्ष लिया है। वक्त का तकाजा है कि विपक्ष एक ऐसे राष्ट्रीय विकल्प के आसपास एकजुट हो जाए, जो क्षेत्रीय खिलाडिय़ों को भी गले लगा सके। किसानों को एकजुट होकर राजनीति को अपने पक्ष में करने की कोशिश करनी चाहिए। उसे देखना चाहिए कि उसके साथ कौन से तबके आ सकते हैं, जो अभी अलग-थलग पड़े हैं। बेरोजगार, बेघर, और भूमिहीन आबादी इसस देश में लाचारी में अपना जीवन बिता रही है। दूसरी तरफ देखें तो एक प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय संपदा का 52 प्रतिशत हिस्सा है औऱ शीर्ष 9 अरबपतियों की संपत्ति नीचे जीवन जीने वालों की 50 प्रतिशत आबादी के बराबर है।
किसानों में इस नए कृषि बिल के पास होने से हताशा व्याप्त है। खरीफ फसल समाप्ति पर है। थोड़े दिनों में ही पता चल जाएगा कि फसलों का विक्रय किस तरह होगा! मैंने देखा है भारत की 1947 में मिली आजादी से पहले सूदखोर साहूकार और व्यापारी मनमाने ढंग से किसानों को पैदावार खरीदते थे। किसान गरीबी से छुटकारा पाने के लिए तरसते थे। देश में कांग्रेस की सरकार बनने पर फसलों को बेचने के लिए एमएसपी घोषित किए जाने लगे। इस से किसानों की आय में बड़ा सुधार हुआ।
अब मौजूदा हालात में जीवन में सुधार के लिए किसानों को मजबूत संगठन बनाना होगा। प्रत्येक प्रदेश, जिले, ब्लॉक, गाँव और राष्ट्र स्तर पर कार्यकारिणी का निर्माण करना होगा। सभी जातियों के किसान इनमें सदस्य रहेंगे। किसानों को हिंदुत्व के भ्रमजाल, पंडे पुजारी और धर्म प्रचारकों के बेहूदा धार्मिक प्रपंचों से भी छुटकारा पाना होगा। और अपने सीधे, सच्चे धर्म को फिर से पाना होगा। (लेखक सेवानिवृत प्राचार्य हैं।)
पैगंबर का कार्टून दिखाने के बाद मारे गए टीचर को फ्रांस ने श्रद्धांजलि दी है. इस बीच पुलिस ने स्कूल के दो छात्रों और एक अभिभावक पर हत्या में शामिल होने का शुरूआती आरोप लगाया है.
पेरिस के सोबोन यूनवर्सिटी में ताबूत के सामने खड़े राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने कहा कि पैटी सैमुएल, "गणराज्य का चेहरा" बन गए हैं और साथ ही फ्रांस की, "आतंकवादियों को परास्त करने की प्रतिबद्धता." सैमुएल पैटी को मरणोपरांत फ्रांस के सबसे बड़े नागरिक सम्मान लेजन द ऑनर से सम्मानित किया गया है. शोक सभा के दौरान उनका मेडल उनकी ताबूत पर रखा गया था.
सैमुएल पैटी इतिहास और समाजशास्त्र के टीचर थे और उन्होंने अपनी दो कक्षाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चर्चा के दौरान पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाया था. हालांकि उन्होंने छात्रों से कहा था कि वो चाहें तो नजर फेर सकते हैं या फिर थोड़ी देर के लिए क्लास से बाहर भी जा सकते हैं. स्कूल से थोड़ी दूर पर शुक्रवार को उनकी हत्या कर दी गई और हमलावर पुलिस की कार्रवाई में मारा गया. इस हत्या से पूरा फ्रांस हैरान है. राष्ट्रपति ने राजनीतिक इस्लाम और फिरकापरस्ती को रोकने के खिलाफ पहले से चल रही योजना और कार्रवाई को तेज कर दिया है.

छात्रों और अभिभावकों की जांच
इस बीच मामले की जांच में जुटे अधिकारियों ने स्कूल के कुछ छात्रों पर आरोप लगाया है. मुख्य आतंकवाद विरोधी अभियोजक जाँ फ्रांसोआ रिकार्ड ने कहा है कि पैटी के स्कूल के दो छात्रों ने हत्यारे को उनकी पहचान बताई थी और इसके बदले उन्हें पैसे दिए गए. हत्यारे ने कहा था कि वह पैटी को पीटेगा और उन्हें पैगंबर का कार्टून दिखाने के लिए माफी मांगने पर विवश करेगा.
रिकार्ड ने यह बातें प्रेस कांफ्रेंस में कही और अभी जज की तरफ से इन आरोपों को मंजूरी नहीं मिली है. इस बीच दोनों छात्रों के खिलाफ आतंकवादी हत्या की जांच में शामिल होने के लिए औपचारिक रूप से जांच शुरू हो गई है. उन दोनों को फिलहाल जमानत पर रिहा किया गया है. इसी स्कूल में पढ़ने वाली एक छात्रा के अभिभावक के खिलाफ भी इन्हीं आरोपों में औपचारिक जांच शुरू की गई है. हालांकि अब तक उनसे पूछताछ नहीं की गई है. रिकार्ड का कहना है कि अभिभावक ने एक वीडियो संदेश में पैटी की "टीचर की गुंडागर्दी" कह कर आलोचना की और उन्हें नौकरी से हटाने की मांग की.
इस शख्स ने हिंसा की इच्छा रखने से इंकार किया है हालांकि रिकार्ड का कहना है कि उसके संदेश ने हत्यारे को प्रेरित किया और उसने उससे संपर्क भी किया था. एक इस्लामी कार्यकर्ता इस शख्स के ऑनलाइन कैम्पेन से जुड़ा था और उसके खिलाफ भी जांच की जा रही है. इसके अलावा हत्यारे के दो दोस्तों पर हत्या में शामिल होने और तीसरे दोस्त पर आतंकवादी साजिश में शामिल होने की जांच चल रही है. कार्यकर्ता और हत्यारे के दोस्तों को हिरासत में लिया गया है.

कार्टून बनाना नहीं छोड़ेंगे
सोबोन यूनिवर्सिटी में शोक सभा के दौरान राष्ट्रपति ने पैटी के रिश्तेदारों, दूसरे टीचरों और सरकारी अधिकारियों से कहा कि टीचर की हत्या इसलिए हुई, "क्योंकि इस्लामवादी हमसे हमारा भविष्य लूटना चाहते हैं, हम हर स्कूल में टीचरों को प्रजातंत्रवादी बनाने के लिए ताकत देंगे. हम उस आजादी की रक्षा करेंगे जो आपने सिखाई है और धर्मनिरपेक्षता के झंडे को ऊंचा रखेंगे. दूसरे लोग अगर छोड़ दें तब भी हम कार्टून और चित्र बनाना नहीं छोड़ेंगे."
सैमुएल पैटी की हत्या ऐसे वक्त में हुई है जब 2015 में शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर पर हमले के संदिग्ध लोगों को खिलाफ मुकदमा चल रहा है. इस हत्याकांड में 12 लोगों मारे गए थे. इस बीच सरकार के प्रवक्ता ने इस बात की पुष्टि की है कि जिस इस्लामी कार्यकर्ता के खिलाफ जांच चल रही है उसके नेतृत्व में चल रहे अनौपचारिक संगठन को भंग कर दिया गया है. इसके अलावा पेरिस के उपनगर में मौजूद एक बड़ी मस्जिद को भी बंद कर दिया गया है.
राष्ट्रपति माक्रों इससे पहले चेतावनी दे चुके हैं कि इस्लामवादी पूरे फ्रांस में समुदायों के इर्द गिर्द काम कर रहे हैं और वो एक "समानांतर व्यवस्था" बनाने की कोशिश में हैं और फिर समाज पर "पूरा नियंत्रण कर लेना" चाहते हैं. इसके साथ ही राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि इस्लामवाद के खिलाफ जंग का फ्रांस के आम मुसलमानों पर असर नहीं होना चाहिए. हालांकि कुछ मुसलमान कार्यकर्ताओं की दलील है कि इस मुद्दे पर राष्ट्रपति, रुढ़िवादियों और धुर दक्षिणपंथी विपक्षी पार्टियों के ध्यान देने का असर उन पर हो रहा है. इस बीच कई शहरों में मस्जिदों और दूसरी इमारतों की विशेष सुरक्षा के आदेश भी दिए गए हैं.
एनआर/एमजे(डीपीए)
अपनी पुस्तक ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ में अशोक कुमार पाण्डेय ने गहरे अध्यवसाय से महात्मा गांधी की हत्या और उन पर लगने वाले तमाम आरोपों का सच उजागर किया है
अनुवाद-असम्भव गीत
1989 में भारत भवन द्वारा आयोजित विश्व कविता-समारोह में लातीनी अमरीकी कवियों की बड़ी सशक्त उपस्थिति थी: निकानोर पार्रा, रोबर्तो हुआरोज़, अर्नेस्तो कार्दिनाल, नेन्सी मोरेजान और आमेरो अरिजीज़. यह आकस्मिक नहीं था. यह इस बात का एहतराम करना था कि विश्व कविता में तब स्पहानी क्षण था. कार्दिनाल ने एक लम्बा लेख लिखकर उसे संसार का सबसे बड़ा और सशक्त समारोह क़रार दिया था. कविता को मनुष्य का बुनियादी शब्द बताते हुए हुआरोज़ का कहना था कि इस शब्द को अनेक भाषाओं के माध्यम से फैलाना और समझना बहुत ज़रूरी है. उन्होंने गांधी के विचार से प्रेरणा लेते हुए यह कहा कि कविता वह आयाम है जो इतिहास को अतिक्रमित और पराजित करता है.
अभी कुछ काग़ज़ात नबेरते हुए हुआरोज़ के एक छोटे से इटरव्यू का अंग्रेज़ी अनुवाद मिल गया जो उन्होंने ही भेजा था. उस समय कृष्ण बलदेव वैद ने उनकी कुछ कविताओं के अंग्रेज़ी से अनुवाद किये थे जो उस अवसर पर प्रकाशित पुस्तक ‘पुर्नवसु’ में संकलित हैं. उनमें से ये कुछ अंश देखें:
हर व्यक्ति को चाहिए
एक ऐसा गीत जिसका
अनुवाद असम्भव हो.
इसीलिए शायद जब
आप सोचते हैं
किसी के बारे में तो
शायद आप उसे
बचा रहे होते हैं.
क्या कोई चीज़ है/ हमें नीचे से उठाये हुए/या बनवा लेती है/हमसे कोई पक्षी यह देखने के लिए/कि हवा है या नहीं/या रचवा लेती है हमसे इक संसार यह देखने के लिए/कि ईश्वर है या नहीं/या पहनवा लेती है/हमसे टोपी यह साबित करने के लिए/कि हम हैं.
अब दोनों कवि हुआरोज़ और अनुवादक वैद साहब दिवंगत हैं. हम उनकी बनायी टोपी पहनकर यह साबित कर रहे हैं कि अभी हम हैं.
गांधी-चर्चा
महात्मा गांधी से अधिक पारदर्शी भारतीय पिछले डेढ़ सौ-दो सौ बरसों में दूसरा कोई नहीं हुआ. उनका सोचा-किया-लिखा सब उपलब्ध है. भारत में उनसे ज़्यादा अभिलेखित व्यक्ति भी कोई दूसरा नहीं हुआ. राजनेता से लेकर सन्त तक, लफंगों से लेकर विद्वान तक, सभी आम तौर पर, कुछ-न-कुछ छुपाते हैं. गांधी इस मामले में अनोखे और अभूतपूर्व थे कि उन्होंने राजनेता, सन्त और विचारक होते हुए कुछ नहीं छुपाया, सब कुछ जगज़ाहिर किया या होने दिया. ऐसे पारदर्शी गांधी की हत्या को लेकर पिछले कुछ वर्षों से तरह-तरह के प्रवाद कुछ शक्तियों द्वारा फैलाये जा रहे हैं. जिनमें उनको देश के विभाजन के लिए ज़िम्मेदार बताना शामिल है, उन सारे साक्ष्यों की पूरी तरह से अवहेलना करते हुए, जो सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध हैं.
मूलतः लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने, जो इतिहासकार नहीं है, हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ (राजकमल) में गहरे अध्यवसाय से सारे साक्ष्यों को पूरी सावधानी और प्रामाणिकता से हिसाब में लेते हुए, सारे सन्दर्भों की गहरी छान-बीन करते हुए गांधी की हत्या का सच उजागर किया है और उन पर लगाये गये अनेक निराधार आरोपों का सप्रमाण खण्डन किया है. यह उल्लेखनीय है कि अशोक पाण्डे वामपंथी हैं और वामपंथियों के भी गांधी को लेकर पूर्वग्रह रहे हैं. पर अशोक ने इन पूर्वग्रहों से अपनी तीख़ी और ईमानदार नज़र को प्रभावित नहीं होने दिया है. उनकी पुस्तक में लगभग 30 पृष्ठों की सन्दर्भ-सूची है जिसके आधार पर उसमें तथ्य देने की कोशिश की गयी है. यह पुस्तक सचमुच ‘इतिहास को भ्रष्ट करने वाले दौर में एक बौद्धिक सत्याग्रह’ का दर्जा रखती है. यह सत्याग्रह हिन्दी में हुआ है, यह हिन्दी के लिए अच्छी और ज़रूरी बात है.
लगभग ढाई सौ पृष्ठों की यह पुस्तक बहुत पठनीय है और उसका वृत्तान्त आप एक ही दिन में पूरा पढ़ सकते हैं जैसा कि मैंने किया. सच का, सचाई का अपना आकर्षण, अपनी लय होते हैं और उसका बखान, इस पुस्तक में, बिना किसी लागलपेट या अलंकरण के, औपन्यासिक सम्प्रेषणीयता लिये हुए है. हिन्दी में आधुनिक इतिहास को लेकर ऐसी सुशोधित और पठनीय पुस्तकें इधर कम ही देखने में आयी हैं.
‘उसने गांधी को क्यों मारा’ गांधी की हत्या के असली दोषियों और उस विचारदृष्टि की शिनाख़्त से ताल्लुक रखती है जिसकी मूलवृत्ति हिंसा-हत्या की और भारत में हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने की थी. सुरक्षा में लापरवाहियां हुईं और हत्या का अन्देशा बताने वाली सूचनाओं को दुर्लक्ष्य किया गया पर हत्या नाथूराम गोडसे ने की और उसके पीछे एक पूरा समूह था जिसके प्रेरक सावरकर थे. गांधी को लेकर जो प्रवाद फैलाये गये हैं उनका तथ्यपरक और तर्कसंगत प्रत्याख्यान भी पुस्तक में किया गया है. यह सच नहीं है कि गांधी ने भगत सिंह को फांसी दिये जाने से बचाने के लिए कुछ नहीं किया: वायस राय इरविन से गांधी की बातचीत और उन्हें फांसी न देने के पत्र रिकार्ड पर हैं. गांधी ने वह सब किया जो वे कर सकते थे. अशोक ने यह उचित प्रतिप्रश्न किया है कि इस सिलसिले में सावरकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, गोलवलकर, हेडगेवार, केतकर, मुंजे आदि नेताओं में से किसी ने कुछ क्यों नहीं किया? उन्होंने न कोई बयान दिया, न कोई पत्र लिखा, न कोई प्रदर्शन किया.
इस दुष्प्रचार का भी अशोक ने खण्डन किया है कि गांधी जी का अंतिम उपवास, जिसकी घोषणा 12 जनवरी 1948 को की गयी थी और जो 18 जनवरी को समाप्त हुआ, जब सभी धर्मों के प्रतिनिधियों ने दिल्ली में हिंसा रोक देने के शपथ पत्र पर हस्ताक्षर किये, उसका पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने से कोई संबंध था. अनशन शुरू होने से पहले 12 जनवरी की प्रार्थना सभा में जो घोषणा की गयी उसमें इसका कोई ज़िक्र नहीं है. उस समय तो गांधी जी ने उपवास का कारण सीमा के दोनों तरफ़ जारी हिंसा बताते हुए कहा था: ‘अगर पाकिस्तान में दुनिया के सब धर्मों के लोगों को समान हक़ न मिलें, उनकी जान और माल सुरक्षित न रहे और भारत भी उसी की नकल करे तो दोनों का नाश सुनिश्चित है.’ भारतीय कैबिनेट 55 करोड़ रुपये देने का निर्णय 15 जनवरी को ले चुका था पर गांधी जी का उपवास उससे अप्रभावित-असम्बद्ध 18 जनवरी को टूटा.
विभाजन के बारे में गांधी जी की ज़िम्मेदारी को लेकर विवेचन कर बताया गया है कि ‘कहीं एक उदाहरण नहीं दिया जा सकता जहां गांधी ने विभाजन पर आगे बढ़कर सहमति दी हो.’ संघ के विचारक रहे एसवी शेषाद्रि ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है कि ‘‘गांधी ने विभाजन रोकने की पूरी कोशिश की थी लेकिन पटेल और नेहरू लीग के साथ मंत्रिमंडल के भयावह अनुभवों से अब उम्मीद छोड़ चुके थे.’’ यह भी स्पष्ट किया गया है कि भारत छोड़ो आन्दोलन के दमन में श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर हिन्दू महासभा के तमाम नेता शामिल थे. गांधी के खि़लाफ़ अंग्रेज़ों और मुस्लिम लीग के साथ हिन्दू महासभा भी खड़ी थी. स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने एक पत्र में अपनी भावी पत्नी को लिखा था ‘... यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे लेकिन एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर माननीय सावरकर और जिन्ना साहब के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं.’ कपूर आयोग ने जब समूचे साक्ष्य के आधार पर सावरकर को गांधी-हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए रिपोर्ट दी, तब तक सावरकर दिवंगत हो चुके थे.
पुस्तक के अन्त में अशोक कहते हैं: ‘... देवता कोई नहीं होता. आज़ादी की लड़ाई में शामिल कौन था जिससे ग़लतियां नहीं हुई. अगर क्रूर होकर देखें तो भगत सिंह का क्रान्तिकारी आंदोलन उनके अपने साथियों की गद्दारी के चलते नष्ट हो गया. सुभाष की जल्दबाज़ी ने आज़ाद हिन्द फ़ौज़ का सपना ध्वस्त कर दिया. गांधी की उम्र भर की अहिंसा उस समय क्षतिग्रस्त हुई जब उनकी मौत के बाद उनके अनुयायियों ने महाराष्ट्र में ब्राह्मणों के खिलाफ़ हिंसा की. ... राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम की अलग-अलग धाराओं से मिलकर हमारे भारत का महान विचार जिसमें सर्वधर्मसमभाव, जातिवाद उन्मूलन और लोकतंत्र का वह महान स्वप्न विकसित हुआ जो हमारे संविधान में परिलक्षित है. गांधी के हत्यारे इन सब मूल्यों का प्रतिपक्ष रचते हैं. उनके विरुद्ध दक्षिणपंथ की नफ़रत स्वाभाविक रूप से उस कायरता से उपजती है जिसके कारण वे अंग्रेज़ी साम्राज्य का प्रतिपक्ष नहीं रच सके. (satyagrah.scroll.in)
स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर-2020 नाम से प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में वायु प्रदूषण के कारण 5 लाख से अधिक नवजात बच्चों की मौत हो जाती है। रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक प्रदूषण में पलने वाले बच्चे यदि बच भी जाते हैं तो भी उनका बचपन अनेक रोगों से घिरा रहता है.
हाल में ही प्रकाशित स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर-2020 नामक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में वायु प्रदूषण के कारण 5 लाख से अधिक नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है। रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक प्रदूषण में पलने वाले बच्चे यदि बच भी जाते हैं तब भी उनका बचपन अनेक रोगों से घिरा रहता है.
वायु प्रदूषण का घातक असर गर्भ में पल रहे शिशुओं पर भी पड़ता है, इससे समय से पूर्व प्रसव या फिर कम वजन वाले बच्चे पैदा होते हैं और ये दोनों ही शिशुओं में मृत्यु के प्रमुख कारण हैंI ऐसी अधिकतर मौतें विकासशील देशों में होती हैं. रिपोर्ट के अनुसार बुजुर्गों पर वायु प्रदूषण के असर का विस्तार से अध्ययन किया गया है, पर शिशुओं पर इसके प्रभाव के बारे में अपेक्षाकृत कम पता हैI इस रिपोर्ट को हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टिट्यूट नामक संस्था ने प्रकाशित किया है.
वायु प्रदूषण से नवजातों की कुल मृत्यु में से दो-तिहाई का कारण घरों के अन्दर का प्रदूषण है. यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भारत समेत तमाम विकासशील देशों में घरों के अन्दर के प्रदूषण स्तर का कोई अध्ययन नहीं किया जाता और ना ही इसके बारे में कोई दिशानिर्देश हैं. घरों के अन्दर वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण बंद घरों के अन्दर की रसोई है, जिसपर लकड़ी, उपले इत्यादि जैव-इंधनों से खाना पकाया जाता है.
पिछले वर्ष अमेरिका के वाशिंगटन में अमेरिकन एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट इन साइंसेज की वार्षिक बैठक में घरों के अन्दर के प्रदूषण पर चर्चा की गई और इसे एक गंभीर समस्या माना गया. यह समस्या तो गंभीर है, पर इसकी हमेशा से उपेक्षा की जाती रही है. यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो बोल्डर के वैज्ञानिकों के अनुसार सामान्य घर के कामकाज जैसे खाना पकाना, साफ-सफाई और दूसरे कामों से घरों के अन्दर पार्टिकुलेट मैटर और वोलाटाइल आर्गेनिक कंपाउंड्स (वीओसी) उत्पन्न होते हैं. पार्टिकुलेट मैटर के बारे में तो हम लगातार सुनते रहते हैं पर वीओसी ऐसे रसायनों का समूह है जो केवल घातक ही नहीं है, बल्कि कैंसर-जनक भी है.
वीओसी का स्त्रोत घरों के अन्दर शैम्पू, परफ्यूम, रसोई और सफाई वाले घोल हैं, जबकि पार्टिकुलेट मैटर खाना बनाने और सफाई के दौरान उत्पन्न होते हैं. विश्व स्तर पर वाहनों से गैसों और पार्टिकुलेट मैटर के उत्सर्जन पर बहुत चर्चा की जाती है, पर घरों के अन्दर के इनके स्त्रोतों पर हम चुप्पी साध लेते हैं. इस अध्ययन की अगुवाई मारिया वन्स ने की थी और इस दल ने वर्ष 2018 में कुछ घरों के भीतर प्रदूषण के स्तर का वास्तविक अध्ययन किया था. घरों के अन्दर प्रदूषण का स्तर इन लोगों के अनुमान से अधिक था और प्रदूषण का स्तर पता करने वाले सेंसर्स को कुछ दिनों में ही फिर से कैलिबरेट करना पड़ता था.
मारिया वन्स के अनुसार संभव है कि वीओसी का दुनिया में सबसे बड़ा स्त्रोत घरों के अन्दर की गतिविधियां और घरों के अन्दर इस्तेमाल किये जाने वाले रसायन हों. घरों के अन्दर रसायनों का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है और इस कारण घरों के अन्दर फॉर्मलडिहाइड, बेंजीन, अल्कोहल और कीटोन जैसे रसायनों की सांद्रता बढ़ती जा रही है. ये सभी रसायन ज्ञात कैंसर जनक हैं.
इस वार्षिक बैठक में ड्यूक यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत शोधपत्र में बताया गया कि घरों के अन्दर का प्रदूषण बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है. सोफा सेट, विनाइल फ्लोरिंग और फ्लेम रीटारडेट से खतरनाक रसायनों का उत्सर्जन होता रहता है. यह घर के अन्दर के वातावरण, जिसे वैज्ञानिक एसोस्फेयर कहते हैं, को प्रभावित और प्रदूषित करता है. इन रसायनों के प्रदूषण के कारण श्वसन, चर्म और प्रजनन से संबंधित विकार उत्पन्न होते हैं. विनाइल फ्लोरिंग वाले घरों में रहने वाले बच्चों के मूत्र में बेंजाइल ब्यूटाइल थैलेट की सांद्रता सामान्य घरों के बच्चों की तुलना में 15 गुना अधिक पाया गया.
घरों के अन्दर इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण, फ्लोरिंग और निर्माण सामग्री से लगातार सेमी-वोलाटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स का उत्सर्जन होता रहता है और यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. अध्ययन दल की प्रमुख हीथर स्तैप्लेटन के अनुसार इन सभी के अत्यधिक उपयोग करने वाले घरों के बच्चों के रक्त और मूत्र के नमूनों में सेमी-वोलाटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स की सांद्रता कई गुना अधिक होती है. फोम में पोलीब्रोमिनेटेड डाईफिनाइल ईथर का उपयोग किया जाता है। इस कारण इनका अधिक उपयोग करने वाले घरों के बच्चों के रक्त में इसकी सांद्रता 6-गुना अधिक हो जाती है. इसके प्रभाव से मोटापा, मस्तिष्क के विकास और एंडोक्राइन तथा थाइराइड कैंसर हो सकता है.
स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2020 के अनुसार वर्ष 2019 में दुनिया में कुल 67 लाख व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण हुई है और वायु प्रदूषण दुनिया में मौत के बड़े कारणों में चौथे स्थान पर है. वायु प्रदूषण के कारण नवजात शिशुओं की सबसे अधिक मौतें अफ्रीका में और एशिया में होती हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया की वैज्ञानिक बेट रिट्ज के अनुसार घरों के अन्दर वायु प्रदूषण की सबसे अधिक समस्या भारत, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका में है. इस रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण से बच्चों के मस्तिष्क और दूसरे अंगों पर भी प्रभाव पड़ता है.
यूनिसेफ द्वारा जून 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में लगभग सभी जगहों पर वायु प्रदूषण निर्धारित सीमा से अधिक है, जिससे बच्चे सांस के रोगों, फेफड़ों के रोगों, दमा और अल्प विकसित मस्तिष्क के शिकार हो रहे हैं. पांच वर्ष के कम उम्र के बच्चों की मृत्यु में से से दस प्रतिशत से अधिक का कारण सांसों की बीमारियां हैं जो वायु प्रदूषण के कारण होती हैं. यूनिसेफ के अनुसार विश्व में 2 अरब बच्चे खतरनाक वायु प्रदूषण वाले क्षेत्रों में रहते हैं, जिनमे से 62 करोड़ बच्चे दक्षिण एशियाई देशों में हैं.
भारत में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा प्रायोजित एक अध्ययन के अनुसार दिल्ली के एक-तिहाई बच्चों के फेफड़े सामान्य काम नहीं करते. यूनिसेफ द्वारा दिसम्बर 2017 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में अधिकतर बच्चों के मस्तिष्क की कार्य-प्रणाली वायु प्रदूषण के कारण प्रभावित हो रही है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2018 में “एयर पोल्यूशन एंड चाइल्ड हेल्थ” नामक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसमें बताया गया है कि पूरी दुनिया में वर्ष 2016 के दौरान पांच वर्ष से कम उम्र के 6 लाख बच्चों की मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई, इसमें से एक लाख से अधिक बच्चे अकेले भारत के थे. रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में कुल 101788 बच्चों की मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई, इसमें 54893 लड़कियां थीं, जबकि 46895 लड़के थे. ये आंकड़े वायु प्रदूषण के घातक प्रभाव के साथ ही लड़के और लड़कियों की परवरिश के भेदभाव को भी उजागर करते हैं.
रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के स्वास्थ्य से संबंधित लगभग हरेक अनुसंधान वायु प्रदूषण के घातक प्रभाव बता रहे हैं. बच्चे मंदबुद्धि हो रहे हैं, जन्म के समय कम वजन के बच्चे पैदा हो रहे हैं, गर्भ में भी बच्चे वायु प्रदूषण के प्रभाव से अछूते नहीं हैं, इनका तंत्रिका तंत्र प्रभावित हो रहा है, दमा के मामले बढ़ रहे हैं, ह्रदय रोग के मामले बढ़ रहे हैं, सांस के रोग हो रहे हैं और बच्चे मर रहे हैंI दुनिया भर में लगभग 90 प्रतिशत बच्चे, जिनकी कुल संख्या 1.8 अरब है, ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर है. भारत जैसे विकासशील देशों में तो हालत और भी खराब है और लगभग 98 प्रतिशत बच्चे अत्यधिक प्रदूषित माहौल में रहते हैं.
हम हमेशा बात करते हैं कि आनेवाली पीढी के लिए कैसी दुनिया छोड़कर जाएंगे, पर यदि वायु प्रदूषण का यही हाल रहा तो सत्य तो यही है कि हम आनेवाली पीढियां ही नहीं छोड़ के जाएंगेI जो जिन्दा रहेंगे उनके भी फेफड़े और मस्तिष्क सामान्य तरीके से काम नहीं कर रहे होंगे. (navjivanindia.com)
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
चुनावों में कोविड संबंधी सावधानी बरतते हुए कैसे हो अभियान इस सवाल पर चुनाव आयोग और मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के बीच ठन गई है. चुनाव आयोग ने अब सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक दी है.
मामला मूल रूप से मध्य प्रदेश से संबंधित है जहां विधान सभा की 28 सीटों के लिए उप चुनाव होने वाले हैं. चुनावों के लिए अभियान जोरों पर हैं, लेकिन इस बीच रैलियों में आती भारी भीड़ और उससे संक्रमण के फैलने के खतरे को देखते हुए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर पीठ ने अभियानों पर पाबंदी लगा दी थी.
अदालत ने अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी जिलों के मजिस्ट्रेटों को आदेश दिया था कि वो किसी भी उम्मीदवार या पार्टी को जन सभाएं आयोजित करने के लिए तभी अनुमति दें जब वो यह साबित कर सकें कि वर्चुअल चुनावी अभियान संभव नहीं है.
अदालत ने यह भी कहा था कि रैली की अनुमति तभी दी जाए जब पार्टी या उम्मीदवार इतने पैसे जिला मजिस्ट्रेट के पास जमा करा दें जिनसे रैली में आने वाले सभी लोगों के लिए मास्क और सैनिटाइजर की व्यवस्था की जा सके. इस संबंध में अदालत ने केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का भी आदेश दिया था. अदालत के अनुसार इन दोनों नेताओं ने अपनी रैलियों में कोविड संबंधी सावधानी नहीं बरती थी.
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का भी आदेश दिया था. अदालत के अनुसार इन दोनों नेताओं ने अपनी रैलियों में कोविड संबंधी सावधानी नहीं बरती थी.
गुरुवार को मध्य प्रदेश सरकार ने भी इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला लिया था, लेकिन अब खुद चुनाव आयोग ही इस लड़ाई में कूद गया है. आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि चुनाव कराना सिर्फ उसके अधिकार क्षेत्र में आता है और हाई कोर्ट का आदेश उसके अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहा है. आयोग ने यह भी कहा है कि हाई कोर्ट का आदेश सभी प्रतिद्वंदियों को सामान अवसर देने की अवधारणा पर असर डालेगा और पूरी चुनावी प्रक्रिया को ही पटरी से उतार देगा.
मध्य प्रदेश के लिए ये उपचुनाव बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये एक बार फिर राज्य में सत्ता पर असर डाल सकते हैं. ये 28 सीटें तब खाली हुई थीं जब कांग्रेस के 25 विधायकों ने पूर्व कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में अपनी पार्टी से बगावत कर दी थी और विधान सभा से इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद राज्य में कमल नाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस की नवनिर्वाचित सरकार गिर गई थी और बीजेपी एक बार फिर सत्ता में आ गई थी. तीन सीटें विधायकों के निधन की वजह से खाली हो गई थीं.
मध्य प्रदेश के साथ साथ इस समय बिहार में भी चुनावी अभियान जोरों पर है. वहां 28 अक्टूबर से तीन चरणों में विधान सभा चुनावों में मतदान होना है. सभी पार्टियां बड़ी बड़ी रैलियां आयोजित कर रही हैं और कई रैलियों में भारी भीड़ भी उमड़ती दिखी है. कोविड संबंधी सावधानियों में से ना एक दूसरे से दूरी बनाए रखने का पालन हो रहा है और ना कोई मास्क पहन रहा है.
ऐसे में यह देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट चुनावी रैलियों पर कोई अंकुश लगाता है या नहीं. (dw)
जल शक्ति मंत्रालय के अधीन सीजीडब्लयूए ने देश के सभी राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के साथ नागरिकों को पहली बार यह आदेश जारी किया है।
- Vivek Mishra
अब देश में कोई भी व्यक्ति और सरकारी संस्था यदि भूजल स्रोत से हासिल होने वाले पीने योग्य पानी (पोटेबल वाटर) की बर्बादी या बेजा इस्तेमाल करता है तो यह एक दंडात्मक दोष माना जाएगा। इससे पहले भारत में पानी की बर्बादी को लेकर दंड का कोई प्रावधान नहीं था। घरों की टंकियों के अलावा कई बार टैंकों से जगह-जगह पानी पहुंचाने वाली नागरिक संस्थाएं भी पानी की बर्बादी करती है।
देश में प्रत्येक दिन 4,84,20,000 करोड़ घन मीटर यानी एक लीटर वाली 48.42 अरब बोतलों जितना पानी बर्बाद हो जाता है, जबकि इसी देश में करीब 16 करोड़ लोगों को साफ और ताजा पानी नहीं मिलता। वहीं, 60 करोड़ लोग जलसंकट से जूझ रहे हैं।
सीजीडब्ल्यूए ने पानी की बर्बादी और बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए 08 अक्तूबर, 2020 को पर्यावरण (संरक्षण) कानून, 1986 की धारा पांच की शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए प्राधिकरणों और देश के सभी लोगों को संबोधित करते हुए दो बिंदु वाले अपने आदेश में कहा है :
1. इस आदेश के जारी होने की तारीख से संबंधित नागरिक निकाय जो कि राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में पानी आपूर्ति नेटवर्क को संभालती हैं और जिन्हें जल बोर्ड, जल निगम, वाटर वर्क्स डिपार्टमेंट, नगर निगम, नगर पालिका, विकास प्राधिकरण, पंचायत या किसी भी अन्य नाम से पुकारा जाता है, वो यह सुनिश्चित करेंगी कि भूजल से हासिल होने वाले पोटेबल वाटर यानी पीने योग्य पानी की बर्बादी और उसका बेजा इस्तेमाल नहीं होगा। इस आदेश का पालन करने के लिए सभी एक तंत्र विकसित करेंगी और आदेश का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ दंडात्मक उपाय किए जाएंगे।
2. देश में कोई भी व्यक्ति भू-जल स्रोत से हासिल पोटेबल वाटर का बेजा इस्तेमाल या बर्बादी नहीं कर सकता है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने राजेंद्र त्यागी और गैर सरकारी संस्था फ्रैंड्स की ओर से बीते वर्ष 24 जुलाई, 2019 को पानी की बर्बादी पर रोक लाने की मांग वाली याचिका पर पहली बार सुनवाई की थी। डाउन टू अर्थ ने 29 जुलाई, 2019 को इस खबर को प्रकाशित किया था। बहरहाल इसी मामले में करीब एक बरस से ज्यादा समय के बाद 15 अक्तूबर, 2020 के एनजीटी के आदेश का अनुपालन करते हुए केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय के अधीन केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (सीजीडब्ल्यूए) ने आदेश जारी किया है।
एनजीटी में याचिकाकर्ताओं की ओर से कानूनी पक्ष रखने वाले अधिवक्ता आकाश वशिष्ट ने डाउन टू अर्थ से कहा कि देश में भू-जल संरक्षण के लिए सीजीडब्ल्यूए का यह आदेश एक ऐतिहासिक कदम है। हमने यह मुद्दा एनजीटी में बीते वर्ष उठाया था, इसके बाद अब यह मामला सही दिशा में बढ़ चुका है। अभी तक आवासीय और व्यावसायिक आवासों से ही नहीं बल्कि कई पानी आपूर्ति करने वाले सरकारी टैंकों से भू-जल दोहन के जरिए निकाला गया पीने योग्य पानी (पोटेबल वाटर) बर्बाद होता रहता है। किसी तरह का प्रावधान न होने से पानी बर्बाद करने वाली संस्थाएं व व्यक्ति को इस बात के लिए दंडित भी नहीं किया जा सकता था।
साफ पानी की बर्बादी और बेजा इस्तेमाल पर दंडात्मक आदेश के जारी करने और केंद्रीय मंत्रालयों व राज्यों से समयबद्ध कार्य योजना मिलने के आश्वासन के बाद एनजीटी ने 31 अगस्त, 2020 को मामले का निस्तारण कर दिया था। वहीं, इससे पहले 15 अक्तूबर, 2019 को एनजीटी में राजेंद्र त्यागी और फ्रैंड्स संस्था का यह मामला जब एनजीटी ने सुना तो पाया था कि केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय और दिल्ली जल बोर्ड के जवाबों में पानी की बर्बादी और बेजा इस्तेमाल को रोकने के लिए कोई प्रभावी नीति का जिक्र नहीं किया गया है। एनजीटी ने कहा था प्राधिकरणों के जवाबी हलफनामे बेहद सामान्य और बेकार हैं। राज्यों और संघ शासित प्रदेशों को पत्र लिखने के बजाए एक समयबद्ध कार्ययोजना और निगरानी के साथ दंडात्मक प्रावधानों वाली प्रभावी कार्रवाई योजना बनाई जानी चाहिए।
एनजीटी ने कहा था कि "पर्यावरण कानून का पालन आदेशों का उल्लंघन करने वाले लोगों से बटोरी गई टोकन मनी की रिकवरी भर से नहीं हो जाता है। ...पॉल्यूटर पेज प्रिंसिपल का कोई विकल्प नहीं है।"
प्रभाकर मणि तिवारी
मिजोरम में किताबों को घर घर पहुंचाने की पहल हो रही है तो अरुणाचल प्रदेश में स्ट्रीट लाइब्रेरी लोगों को अपने बच्चों के साथ किताब पढऩे का मौका दे रहा है। ये पहल लोगों में फिर किताब पढऩे की आदत डालने के लिए हो रही है।कहा जाता है कि किताबें मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। कोरोना के मौजूदा दौर में पूर्वोत्तर के दो राज्यों में यह कहावत एक बार फिर चरितर्थ हो रही है। पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम के सबसे बड़े सामाजिक संगठन यंग मिजो एसोसिएशन (वाईएमए) ने लॉकडाउन के दौर में लोगों को व्यस्त रखने के लिए राजधानी आइजल के सबसे बड़े मोहल्ले रामलूम साउथ में लोगों को घर-घर उनकी पसंदीदा किताबें पहुंचाना शुरू किया था। मिजोरम की इस पहल से प्रेरणा लेकर पड़ोसी अरुणाचल प्रदेश में भी हाल में सडक़ के किनारे एक ऐसी लाइब्रेरी शुरू हुई है।
इस पहल से एक ओर जहां आम लोगों को लॉकडाउन के दौरान पैदा होने वाली बोरियत दूर करने में मदद मिली, वहीं खासकर युवा तबके में पढऩे की आदत को भी बढ़ावा मिला। अगर इस तथ्य को ध्यान में रखें कि वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक 91।33 प्रतिशत की साक्षरता दर के साथ मिजोरम, केरल और लक्ष्यद्वीप के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा साक्षर राज्य है, तो इस लाइब्रेरी की बढ़ती लोकप्रियता समझना मुश्किल नहीं है। वर्ष 1935 में स्थापित वाईएमए राज्य का सबसे बड़ा और ताकतवर सामाजिक संगठन है।
मिजोरम में पहल
देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान इंटरनेट और टीवी चैनलों से ऊब कर लोग किताबों की तलाश कर रहे थे। लेकिन जब तमाम दुकानें और पुस्तकालय बंद हों तो लोग आखिर किताबें लाएंगे कहां से? पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम के सबसे बड़े सामाजिक संगठन यंग मिजो एसोसिएशन (वाईएमए) ने इस मुश्किल सवाल का जवाब तलाशने की पहल की। यहां यह सवाल उठना लाजिमी है कि ई-बुक और इंटरनेट के दौर में भला किताबों की क्या कमी है? इस सवाल का जवाब वाईएमए की लाइब्रेरी सब-कमिटी के प्रमुख बी। लालमालसावमा देते हैं। वह कहते हैं, ‘ई-बुक काफी लोकप्रिय हैं। लेकिन मिजो भाषा में ज्यादा ई-बुक्स उपलब्ध नहीं हैं। इसी वजह से लोग किताबों को तरजीह दे रहे हैं। इसके अलावा कई इलाकों में इंटरनेट की कनेक्टिविटी भी ठीक नहीं है।’
वाईएमए की रामलूम दक्षिण शाखा ने लॉकडाउन के दौरान अप्रैल के आखिरी सप्ताह में अंग्रेजी और मिजो भाषा की पुस्तकों के साथ इस कावटकाई लाइब्रेरी की शुरुआत की थी। मिजो भाषा में कावटकाई का अर्थ मोबाइल या भ्राम्यमान होता है। लालमालसावमा बताते हैं कि इस योजना का मुख्य मकसद खासकर युवा तबके में किताबों के प्रति दिलचस्पी पैदा करना और खाली समय का सदुपयोग करना था। लोग घरों में बैठे-बैठे ऊब रहे थे।
आखिर यह लाइब्रेरी काम कैसे करती है? इसके लिए वाईएमए ने व्हाट्सएप्प पर एक ग्रुप बनाया है। उस पर किताबों के कवर और भीतर के दो-चार पन्नों की तस्वीरें डाल दी जाती हैं। उसके बाद लोग अपनी पसंदीदा पुस्तकों का आर्डर करते हैं। लॉकडाउन के दौरान मोहल्ले से आर्डर मिलने के बाद संगठन के वालंटियर सुरक्षा नियमों का पालन करते हुए उन किताबों को घर-घर पहुंचाते रहे। इस योजना के तहत कोई भी व्यक्ति दस दिनों के लिए चार किताबें ले सकता है। लेकिन लालमालसावमा के मुताबिक, ज्यादातर लोग दो दिन में ही पूरी किताब पढ़ लेते हैं। उसके बाद वहां जाकर उन किताबों को वापस ले लिया जाता है। अब तो लोग खुद आकर किताबें ले जाते हैं।
वैसे, बांग्लादेश और म्यामांर की सीमा से सटे इस पर्वतीय राज्य में पढऩे की संस्कृति काफी गहरे रची-बसी है। वर्ष 2019 में मिजो लेखक और पत्रकार लालरुआतलुआंगा चावंग्टे ने आइजल में सडक़ों के किनारे छोटी-छोटी कई लाइब्रेरियों की स्थापना की थी।
इस योजना के तहत खुले में रैक पर पुस्तकें रखी रहती हैं। लोग आकर वहां से अपनी पसंद की किताबें ले जाते हैं और पढ़ कर उनको दोबारा वहीं रख जाते हैं। लोग वहां किताबें दान में भी देते हैं। यह पहल जल्दी ही इतनी लोकप्रिय हुई कि राजधानी को दूसरे इलाकों में भी इसकी शुरुआत हो गई। चावंग्टे कहते हैं, ‘प्रमुख मकसद युवा वर्ग में किताबों के प्रति दिलचस्पी बढ़ाना था। मिजोरम के लोगों में पढऩे की आदत है और राज्य के हर इलाके में कोई न कोई लाइब्रेरी मिल जाएगी।’
अरुणाचल प्रदेश में स्ट्रीट लाइब्रेरी
मिजोरम में इस पहल से प्रभावित होकर एक अन्य पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में 30 साल की गुरांग मीना ने बीते महीने यानी सितंबर में सडक़ के किनारे एक लाइब्रेरी खोली है। लोग यहां से अपनी पसंदीदा किताबें मुफ्त ले जा सकते हैं। वह लोग पढऩे के बाद उनको फिर उसी जगह रख जाते हैं।
राज्य के निर्जुली शहर में सडक़ के किनारे किताबों से सजी रैक के सामने दो बेंच रखे गए हैं ताकि लोग चाहें तो वहीं बैठ कर पढ़ भी सकें। उन्होंने इसका नाम सेल्फ हेल्प लाइब्रेरी रखा है। लेकिन क्या सडक़ पर किताबें रखने से उनकी चोरी होने का खतरा नहीं है? इस सवाल पर मीना बताती हैं, ‘अब तक तो एक भी किताब चोरी नहीं हुई है। और अगर ऐसा हुआ भी तो किताब किसी न किसी के काम ही आएगी। लोग किताब पढऩे के सिवा उसका कर ही क्या सकते हैं।’
बंगलुरू के एक कालेज से अर्थशास्त्र में ग्रेजुएट मीना स्थानीय सरकारी स्कूल में शिक्षिका हैं। वह बताती हैं, ‘मिजोरम में लाइब्रेरी खुलने के बाद से ही मेरे मन में यहां भी ऐसा करने की योजना थी। लेकिन मौका नहीं मिल रहा था। आखिर मैंने अपने मित्र दिवांग होआसी के साथ मिल कर अपनी कल्पना को मूर्तरूप दिया।’ मीना की लाइब्रेरी में लोगों की बढ़ती दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए अब कई लोग उनको किताबें दान दे रहे हैं। इसके बाद मीना ने अब किताबें पढऩे के लिए उधार देना भी शुरू किया है। इसके लिए कोई पैसा नहीं देना होता। मीना की लाइब्रेरी में स्कूल-कालेज के छात्र भी आने लगे हैं।
निर्जुली शहर राजधानी इटानगर से 19 किमी दूर पापुम पारे जिले में हैं। लेकिन अमूमन लोग किताबें खरीदने के लिए इटानगर नहीं जाते थे। अब मीना की लाइब्रेरी इस खाई को पाटने का प्रयास कर रही है। वह बताती हैं, ‘अरुणाचल प्रदेश में किताबों के मुकाबले शराब की दुकानें ज्यादा हैं। युवा तबके में पढ़ाई की आदत नहीं है। मैंने पढ़ाई की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए ही इस लाइब्रेरी की शुरुआत की है। किताबें पढऩे से नए शब्द और मुहावरे सीखने को मिलते है।’ मीना वारेन बफेट के उस कथन का जिक्र करती हैं कि दुनिया के 88 फीसदी कामयाब लोग बेहद जिज्ञासु पाठक हैं। उनकी इच्छा है कि राज्य के हर वार्ड और मोहल्ले में ऐसी लाइब्रेरियां खुलें ताकि युवा तबके में किताब पढऩे की आदत लग सके। (www.dw.com)
रिचर्ड महापात्रा
भारत में महामारी के बीच पहला चुनाव बिहार में हो रहा है। एक तरफ जहां सभी लोग संक्रामक बीमारी कोविड-19 से बचने और सुरक्षा उपायों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने इसे चुनावी मुद्दा बना दिया है। पार्टी ने घोषणा की है कि अगर वह सत्ता में आई तो बिहार के सभी लोगों को मुफ्त टीका लगाया जाएगा। बीजेपी ने जरूर सोचा होगा कि इस घोषणा से उसे राजनीतिक लाभ मिलेगा।
बीजेपी की इस घोषणा ने वैक्सीन को घोषणापत्र का मुख्य बिंदु और चुनावी मुद्दा बनाया है। धरती की सबसे बड़ी और भीषण महामारी के वक्त यह अपेक्षित भी है। वैक्सीन का चुनावी घोषणापत्र में शामिल होना बताता है कि महामारी ने हमारी राजनीतिक व्यवस्था को किस हद तक प्रभावित किया है।
अब तक परंपरागत चुनावी मुद्दे- रोटी, कपड़ा और मकान रहे हैं, लेकिन अब इसमें वैक्सीन भी शामिल हो गया है। हमारे देश में 80 लाख मामले सामने आ चुके हैं और हम सभी इस वायरस के बचाव के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। इस संबंध में किया गया वादा सभी लुभाएगा। इस बात की भी पूरी संभावना है कि यह अन्य सभी मुद्दों पर भारी पड़े।
बिहार के लिए बीजेपी की घोषणा के तुरंत बाद तमिलनाडु और मध्य प्रदेश ने भी इस मुद्दे को लपक लिया और बिहार जैसी घोषणा कर दी। इन दोनों राज्यों में भी 28 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव होने हैं।
हर तरह का हो-हल्ला हमने उस वक्त भी नहीं देखा था जब भारत चेचक, पोलिया और कालरा से जूझ रहा था। इन बीमारियों के संक्रमण को खत्म या नियंत्रित करने के भारत के प्रयासों की दुनियाभर में सराहना की गई थी। भारत ने तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इन बीमारियों से निपटने के लिए अपनी पीठ थपथपाई थी।
कोविड-19 महामारी जैसी आपातकालीन परिस्थितियां राजनीतिक दलों और उनकी राजनीति को हमेशा से प्रभावित करती रही हैं। इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि आपदाओं और आपातकालीन घटनाक्रमों ने कैसे राजनीतिक दलों के लिए उर्वर जमीन तैयार की।
स्पेनिश फ्लू महामारी (1918-20) के बाद दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों ने यूनिवर्सल पब्लिक हेल्थ की तरफ ध्यान दिया। इस महामारी ने बता दिया था कि गरीब और अमीर दोनों की जान को खतरा है और उसकी रक्षा की जानी चाहिए। इसी को देखते हुए पश्चिमी देशों के राजनीतिक दलों ने ऐसा पब्लिक हेल्थ सिस्टम खड़ा कर दिया, जो सबको लुभाता है।
1943 में पड़े बंगाल के अकाल ने भारत में राजनीतिक प्राथमिकता को आकार दिया। भारत सरकार (अंतरिम) के पहले खाद्य एवं कृषि मंत्री ने 15 अगस्त 1947 को ध्वजारोहण करते हुए भूख को देश की सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती माना था। समय-समय पर पड़े सूखे और अकाल चलते भारत भूख और खाद्य असुरक्षा से जूझता रहा। 1966 में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भयंकर सूखा पड़ा। फसल खराब होने से फिर खाद्य असुरक्षा मंडराने लगी। अगले साल 1967 में आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ का लोकप्रिय नारा दिया। उस वक्त पहली बार चुनावी घोषणापत्र में सस्ते भोजन और काम की योजनाओं को जगह मिली। इन्हीं नारों और वादों के दम पर उनकी कांग्रेस पार्टी को दोबारा सत्ता मिली।
अब जब बिहार में मुफ्त वैक्सीन की घोषणा बीजेपी ने कर दी है, तब यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि मुफ्त वैक्सीन का वादा सिर्फ बिहार के लिए ही क्यों? और वह भी जब पार्टी सत्ता में आएगी। इस घोषणा के कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने छोटे से संदेश में सभी को वैक्सीन के लिए आश्वस्त किया था। अब इस बात की लड़ाई है कि सबसे पहले वैक्सीन किसे और कब मिलेगी। वैश्विक स्तर पर हम वैक्सीन के राष्ट्रवाद को लेकर सजग हैं। बहुत से देश अपनी ताकत का इस्तेमाल करके अपनी आबादी के लिए वैक्सीन हासिल करने की जुगत में हैं। ऐसे में वे लोग इससे वंचित रह सकते हैं जिनके पास ऐसे संसाधन नहीं हैं। क्या इसका यह मतलब है कि वैक्सीन चुनावी प्राथमिकता बन रहा है और भारत उप राष्ट्रवाद का गवाह बनेगा? (downtoearth.org.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल थाईलैंड में जैसे विशाल जनप्रदर्शन हो रहे हैं, वैसे उसके इतिहास में पहले शायद कभी नहीं हुए। लाखों नौजवान बैंकाक के राजमहल को घेरकर प्रधानमंत्री प्रयुत चन ओत्रा को हटाने की मांग तो कर ही रहे हैं, वे थाईलैंड के राजा महावज्र लोंगकार्न के अधिकारों में भी कटौती की मांग कर रहे हैं। 2017 में जो नया संविधान बना था, उसने थाईलैंड की फौज को तो सर्वोच्च शक्ति संपन्न बना ही दिया गया था लेकिन उसमें राजा को भी कई अतिरिक्त शक्तियां और सुविधाएं दे दी गई थीं। 1
932 में जो क्रांति हुई थी, उसमें थाईलैंड के राजा की हैसियत ब्रिटेन के राजा की तरह नाम-मात्र की रह गई थी लेकिन 2014 में सेना के तख्ता-पलट के बाद राजा को सभी कानूनों के ऊपर मान लिया गया और राज्य की अकूत संपत्तियों पर उनके व्यक्तिगत अधिकार को मान्यता दे दी गई। राजा और फौज की सांठ-गांठ थाईलैंड में वैसी ही हो गई, जैसी पाकिस्तान में इमरान खान और फौज की है।
इसका नतीजा यह हुआ कि थाईलैंड की फौज और प्रधानमंत्री प्रयुत निरंकुश हो गए। उन्होंने और उनके परिवार के लोगों ने अपनी अरबों रु. की संपत्तियां खड़ी कर लीं, सारी सरकार में भ्रष्टाचार फैल गया और अर्थ-व्यवस्था चरमरा गई। जब विपक्षी दल ‘फ्यूचर फार्वर्ड पार्टी’ ने लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत बनाने की मांग की और राज के असीमित अधिकारों के विरुद्ध आवाज उठाई तो थाईलैंड के सर्वोच्च न्यायालय ने उस पार्टी को ही भंग कर दिया। थाई नौजवानों ने इस कदम के विरुद्ध जन-आंदोलन छेड़ दिया और अब वह इतना फैल गया है कि फौज के भी नाक में दम हो गया है। थाईलैंड की फौजी सरकार ने कई अखबारों और टीवी चैनलों का गला घोंट दिया है और दर्जनों नेताओं को जेल के सींखचों के पीछे डाल दिया है।
थाईलैंड के राजा महावज्र आजकल जर्मनी के एक होटल में अपनी चार पत्नियों और दर्जनों सुरक्षाकर्मियों के साथ डेरा डाले हुए हैं। वे खुद पर लाखों रु. रोज खर्च कर रहे हैं। उनके कुत्ते को उन्होंने एयर चीफ मार्शल का खिताब दे रखा है। उन्हें थाई जनता से नहीं, उस कुत्ते से बड़ा प्यार है। उसे, अपने साथ टेबल पर बिठाकर वे डिनर खिलाते हैं और उधर थाईलैंड में लोग भूख और बेरोजगारी के मारे बेहाल हो रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि थाईलैंड के नौजवान फौजी प्रधानमंत्री प्रयुत के साथ-साथ राजा महावज्र को हटाने की भी मांग शुरु कर दें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बिहार , 24 अक्टूबर | कोरोना संकट के दौर में देश में पहली बार हो रहे विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए पहली एक्चुअल रैली गया में एनडीए की तरफ से आयोजित की गई जिसे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने संबोधित किया. इस चुनावी जनसभा के लिए आयोजकों ने कोविड प्रोटोकॉल के अनुसार सुरक्षा के तमाम उपाय किए थे, किंतु उत्साहित समर्थकों की भीड़ के सामने तमाम एहतियात धरे रह गए. मानो नेताओं को सुनने के लिए लोग कोरोना को भूल गए और कंधे से कंधा मिला लिया.
हालांकि निर्वाचन आयोग ने इस मामले में कार्रवाई भी की किंतु इसके बावजूद चुनावी जनसभाओं में हालात जस के तस हैं. सभास्थल की कुर्सियों की दूरी मीटर से घटकर सेंटीमीटर पर आ गई है तो मास्क यदि है भी तो वह नाक से उतरकर ठुड्डी पर या फिर जेब में आ गया है. रैली के व्यवस्थापकों की बार-बार की अपील का भी उत्साहित समर्थकों पर कोई असर नहीं पड़ता है. वे इससे अनजान बने हैं कि उनकी यह अनदेखी कितनी भारी पड़ सकती है. 71 सीटों पर 28 अक्टूबर को होने वाले प्रथम चरण के चुनाव के लिए सभी राजनीतिक दलों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है. पार्टियों के स्टार प्रचारक रोजाना रैलियां कर रहे हैं.

कहीं कोविड प्रोटोकॉल का अनुपालन तो कहीं अनदेखी
शुक्रवार को राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी व बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती की रैलियां हुईं. सासाराम में प्रधानमंत्री मोदी ने भोजपुरी भाषा में अपने भाषण की शुरुआत करते हुए सबसे पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान व रघुवंश प्रसाद सिंह को श्रद्धांजलि दी तथा कहा कि बिहार के लोग कोरोना का मुकाबला करते हुए लोकतंत्र का महापर्व मना रहे हैं.” प्रधानमंत्री ने कहा, "बिहार ने ठान लिया है कि जिसका इतिहास बिहार को बीमार बनाने का रहा है, उसे आसपास फटकने नहीं देंगे. कृषि बिल को लेकर ये लोग भ्रम फैला रहे हैं, इनके लिए देश हित नहीं दलालों का हित जरूरी है.” गया में पीएम मोदी ने मगही भाषा में अपने भाषण की शुरुआत की. उन्होंने भी सबसे पहले कोरोना के बीच पहले चुनाव की चर्चा करते हुए लोगों से खुद को सुरक्षित रखते हुए लोकतंत्र को मजबूत करने की अपील की. मोदी ने लालू-राबड़ी शासन की याद दिलाते हुए कहा, "90 के दशक में लोग रात में घर नहीं जाते थे. यात्रा करते समय हमेशा अपहरण की आशंका बनी रहती थी. लेकिन अब लालटेन की जरूरत खत्म हो गई है, हरेक घर में उजाला आ गया है.” पीएम मोदी की इन तीन सभाओं में भागलपुर व गया में तो कोरोना प्रोटोकॉल का अनुपालन दिखा, किंतु सासाराम में उत्साही भीड़ कोरोना से बेखौफ रही.

इधर, राहुल गांधी ने नवादा के हिसुआ और भागलपुर के कहलगांव में सभाएं की. उन्होंने पीएम मोदी पर करारा प्रहार करते हुए कहा कि चीन जब हमारी सीमा में घुस आया तो मोदी ने झूठ बोलकर वीरों का अपमान किया कि हमारी सीमा में कोई नहीं घुसा है. वे आज कहते हैं कि मैं उनके आगे सिर झुकाता हूं.” राहुल गांधी ने कहा, "सिर तो वे आपके सामने झुकाते हैं लेकिन काम किसी और के आएंगे. नोटबंदी का फायदा किसे हुआ, क्या अंबानी-अडाणी बैंक के सामने खड़े दिखे. उन्होंने पूछा, जब बिहार के जवान शहीद हुए तब पीएम ने क्या किया. पिछली बार मोदी जी ने कहा था, दो करोड़ लोगों को रोजगार देंगे. क्या किसी को रोजगार मिला.” इन दोनों रैलियों में नेताओं ने तो विरोधियों पर जमकर भड़ास निकाली, किंतु अफसोस यहां भी समर्थक कोरोना से बेखौफ रहे. मास्क व सोशल डिस्टेंशिंग से लोगों का कोई लेना-देना नहीं रहा. मंच पर मौजूद महागठबंधन के नेता भी कोरोना प्रोटोकॉल के अनुपालन का आग्रह करते नहीं देखे गए.
कैमूर जिले के भभुआ में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के गठबंधन की जनसभा हुई. मायावती ने कहा, "आज भी बिहार पिछड़ा हुआ है. इतने दिनों के शासनकाल में नीतीश सरकार राज्य एक भी कल-कारखाना नहीं लगा पाई. लॉकडाउन के दौरान जो भी लोग लौटे, वे रोजगार के अभाव में फिर पलायन कर गए. दलित, महादलित व अल्पसंख्यक के नाम पर लोगों को बांट तो दिया गया किंतु उनकी दुर्दशा आज भी जस की तस है.” इस चुनावी रैली में भी उत्साह से लबरेज श्रोताओं ने कोरोना की खूब अनदेखी की.
काफी हद तक बदल गया चुनाव प्रचार का ट्रेंड
निर्वाचन आयोग के डंडे के डर के कारण जनसंपर्क का तरीका काफी हद तक बदल गया है. प्रत्याशी भरसक कोशिश कर रहे कि आयोग की कार्रवाई का शिकार न बनें. हालांकि कई जगहों पर नामांकन के दौरान आयोग के निर्देशों की धज्जियां उड़ती देखी गई. आचार संहिता व कोविड प्रोटोकॉल के उल्लंघन का मामला भी खूब दर्ज हुआ. गांव-घरों में प्रत्याशियों की गाड़ियों का काफिला नहीं प्रवेश कर रहा. नेताओं की गाड़ी गांव से थोड़ी दूर पर खड़ी हो रही है, किंतु घर-घर घूमने के दौरान सोशल डिस्टेंशिंग का ख्याल नहीं रखा जाता है. पटना के बाढ़ निवासी रामाकिशोर सिंह कहते हैं, "यह पता थोड़े ही रहता है कि फलां प्रत्याशी फलां टाइम में आ रहा है. वे अचानक ही अपने कार्यकर्ताओं के साथ दरवाजे पर आ धमकते हैं. अब घर में तो हर समय कोई मास्क लगाए रहता नहीं है.
यह अव्यावहारिक बात है जिस पर कड़ाई से अमल मुश्किल है.”
वहीं पंडारक के अवध सिंह कहते हैं, "जब इतना ही डर था, कोरोना संक्रमण के फैलने की संभावना थी तो चुनाव की क्या जरूरत थी. राष्ट्रपति शासन भी तो लगाया जा सकता था. कम से कम स्थिति तो सुधर जाती.” सोशल मीडिया पर प्रचार-प्रसार तेजी से चल रहा है, किंतु यही काफी नहीं है. वोटरों की भी अपेक्षा रहती है कि नेताजी दरवाजे पर आएं इसलिए उम्मीदवारों को तो जनसंपर्क करना ही है. किसी न किसी जगह भोज-भात का आयोजन होता ही है. वहां भी लोग मास्क पहनने व सोशल डिस्टेंशिंग जैसे शब्दों से दूर ही रहते हैं. पटना के पालीगंज के अजय कुमार कहते हैं, "हम बिहारियों की इम्युनिटी पॉवर काफी स्ट्रॉन्ग है, इसलिए तो यहां रिकवरी रेट काफी है. बच-बचाकर ही चुनाव प्रचार कर रहे हैं, जब कुछ होगा तो देखा जाएगा.”

भारी पड़ सकती है कोरोना की अनदेखी
चुनावी सभा हो या जनसंपर्क, ऐसी अनदेखी तो भारी ही पड़ेगी. लगातार चुनाव प्रचार कर रहे कई नेता भी तेजी से कोरोना संक्रमित हो रहे हैं. भाजपा के स्टार प्रचारक राजीव प्रताप रूडी और शाहनवाज हुसैन व स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय भी कोरोना संक्रमित हो गए हैं. बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी कोरोना संक्रमित होकर पटना एम्स अस्पताल में भर्ती हैं. कई जगहों के प्रत्याशी भी कोविड की चपेट में आ गए हैं. हालांकि चुनाव आयोग ने भी कोरोना आयोग की गाइडलाइन पर सख्ती दिखाई है. राजनीतिक दलों से कहा गया है कि किसी कीमत पर भीड़ में अनुशासन को बनाए रखा जाए. आयोग ने पार्टियों को जनसभाओं के लिए सशर्त अनुमति दी थी जिसके अनुसार छह फीट की दूरी तथा मास्क व सैनिटाइजर की उपलब्धता जरूरी थी.
लेकिन इन आदेशों पर अमल नहीं किया जा रहा है. केंद्र सरकार की वैज्ञानिकों की नेशनल सुपर मॉडल कमेटी ने भी चेतावनी दी है कि बिहार में चुनाव के कारण असामान्य रुप से कोरोना के मामलों में वृद्धि हो सकती है. और संक्रमण अगर बढ़ेगा तो फरवरी तक कोरोना की दूसरी लहर का सामना करना पड़ सकता है. अतएव हर स्तर पर एहतियात बरतना जरूरी है. वहीं प्रदूषण के कारण भी कोरोना के बढ़ने की संभावना व्यक्त की गई है. इसे देखते हुए आयोग भी काफी सख्त है. चुनाव में प्रचार व जनसभाओं के दौरान कोरोना गाइडलाइन का अनुपालन नहीं करने के आरोप में अबतक 25 एफआइआर दर्ज की जा चुकी है तथा कई अन्य के खिलाफ मामला दर्ज करने की अनुशंसा की गई है. इन प्राथमिकियों का आधार सोशल मीडिया पर दलों या प्रत्याशियों द्वारा किए गए पोस्ट व समाचार पत्रों में प्रकाशित तस्वीरों को बनाया जा रहा है और इसमें उन्हें नामजद किया जा रहा है जिन्होंने सभा की अनुमति ली है.(DW.COM)
31 साल के चंदन कुमार पटना शहर से करीब 40 किलोमीटर दूर चौड़ा गांव में रहते हैं। वह रोज लोकल ट्रेन लेकर पटना शहर में आते थे। यहां उन्हें 400 रुपए दिहाड़ी पर काम मिल जाता था। कोविड-19 को लेकर मार्च के आखिर में लॉकडाउन लगा और ट्रेनें बंद हो गई, तब से वह घर पर बेरोजगार बैठे हुए हैं। 14 सदस्यों के परिवार में वह और उनके भाई कमाने वाले हैं, लेकिन दोनों को ही काम नहीं मिल रहा है।
पटना शहर के अलग-अलग हिस्सों में ऐसी आधा दर्जन जगहें हैं, जहां रोजाना आसपास के इलाकों से चंदन जैसे लोग ट्रेनों से आते थे। इन जगहों को लेबर चौक कहा जाता है। ट्रेन बंद होने से इन लेबर चौकों में वीरानगी पसरी हुई है।
जो अपने गृह राज्य में रह रहे थे, वो तो रोजगार नहीं मिलने से परेशान हैं ही, लेकिन लॉकडाउन के दौरान जो लोग अपने घरों को लौटे थे, उन्हें भी सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद काम नहीं मिल पा रहा है।
20 साल के सूरज कुमार मई के मध्य में श्रमिक स्पेशल ट्रेन पकड़ कर गुजरात से छपरा में अपने गांव पहुंचे थे। गांव लौटे उन्हें करीब पांच महीने हो गये हैं, लेकिन कोई काम नहीं मिला है। क्वारंटीन सेंटर में रहने के दौरान कहा गया कि उन्हें काम दिया जाएगा। पूछा भी गया था कि गुजरात में क्या करते थे। लेकिन उसके बाद कोई पूछने नहीं आया। सूरज के पिता को भी काम नहीं मिल रहा है।
केंद्रीय श्रम व रोजगार राज्यमंत्री संतोष कुमार गंगवार ने 14 सितंबर को लोकसभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में बताया कि लॉकडाउन के दौरान श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से कुल 15,00,612 मजदूर बिहार लौटे थे। हालांकि, अनधिकृत तौर पर बिहार लौटने वाले मजदूरों की संख्या एक करोड़ के आसपास बताई जा रही है।
जब मजदूर बिहार लौटे थे तो केंद्र और राज्य सरकार ने आश्वासन दिया था कि मजदूरों के लिए रोजगार की व्यवस्था की जायेगी। इसके लिए 20 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के तेलिहर गांव से गरीब कल्याण रोजगार अभियान (जीकेआरए) का भी आगाज किया था। इसमें बाहर से लौट मजदूरों को 125 दिनों का सुनिश्चित रोजगार देने की बात थी। बिहार के 32 जिलों को इस स्कीम में शामिल किया गया था। इसके तहत 25 प्रकार के कामों को शामिल किया गया था।
जीकेआरए के तहत बिहार को 17596.8 करोड़ रु.
इस अभियान के लिए केंद्र सरकार ने 50000 करोड़ रुपए आवंटित किये थे, जिनमें से 17596.8 करोड़ रुपए बिहार को मिले थे। ये अभियान 22 अक्टूबर को खत्म हो जाएगा, लेकिन 13 अक्टूबर तक राज्य सरकार 10006.1 करोड़ रुपए ही खर्च कर पाई है। डाउन टू अर्थ ने कई मजदूरों से बात की, लेकिन ज्यादातर लोगों का कहना था कि उन्हें इस अभियान की कोई जानकारी नहीं है।
जीकेआरए के अलावा सरकार ने महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट (मनरेगा) के तहत भी मजदूरों को काम देने का भरोसा दिलाया था। पीपल्स एक्शन फॉर एम्प्लायमेंट गारंटी नाम की संस्था ने बिहार में मनरेगा के प्रदर्शन पर एक अध्ययन किया। इसके मुताबिक, जून में 26.21 लाख घरों ने मनरेगा के तहत काम मांगा, लेकिन 21.49 लाख घरों को ही काम दिया गया। जुलाई में 13.40 लाख घरों ने काम की मांग की, लेकिन 10.44 लाख लोगों को ही काम मिल पाया। अगस्त महीने में सबसे ज्यादा 41.93 घरों ने काम मांगा, लेकिन 34.30 लाख घरों को ही काम मिल पाया। हर घर को 100 दिनों की जगह औसतन 31 दिन ही काम मिल पाया, जबकि प्रति व्यक्ति औसत 27 दिन ही रहा। महज 2136 घरों को ही 100 दिनों का काम मिल सका।
कटिहार जिले के चितोरिया गांव निवासी अरुण यादव दिल्ली से मई में ही लौटे थे। उनकी क्वारंटीन अवधि खत्म हुई, तो मुखिया ने मनरेगा का काम दिलवाया। 30 दिन उन्होंने काम किया, तो बताया गया कि उन्हें 194 रुपए की जगह 50 रुपए प्रतिदिन मिलेंगे। वह कहते हैं, “मैंने मनरेगा के तहत किये एक महीने के काम की मजदूरी मांगी, लेकिन पैसा मुझे नहीं मिला। फिर मैंने गरीब कल्याण रोजगार अभियान के लिए आवेदन किया, लेकिन आवेदन के 50 दिन गुजर जाने के बाद भी कोई काम नहीं मिला है।”
बेरोजगारी बना मुद्दा
सेंटर फॉर मानीटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में इस साल मई से अगस्त के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में 23.7% और शहरी क्षेत्रों में 23% बेरोजगारी रही। इनमें से सबसे अधिक (60.32%) 20 से 24 साल की उम्र के युवा हैं।
पटना के अर्थशास्त्री डीएम दिवाकर कहते हैं, “सरकार का डिलीवरी सिस्टम काफी कमजोर है, जिस कारण मनरेगा और पीएमजीकेआरए योजनाओं का मजदूरों को लाभ नहीं मिल पाया। मनरेगा में तो बिहार का प्रदर्शन पहले भी खराब रहा है और इस बार भी ऐसा ही हुआ।”
बाहर से लौटे इन मजदूरों को काम नहीं मिलने से उनमें राज्य सरकार के खिलाफ गुस्सा है। सूरज और चंदन ने कहा कि इस लॉकडाउन में उन्हें बहुत परेशानी हुई, लेकिन सरकार की तरफ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली।
बेरोजगारी को देखते हुए ही राष्ट्रीय जनता दल ने सरकार बनने पर 10 लाख लोगों को रोजगार देने का वादा किया, तो भाजपा ने भी अपने घोषणापत्र में 19 लाख लोगों को रोजगार देने की बात कही। दिवाकर का कहना है कि रोजगार इस चुनाव में बड़ा मुद्दा होने जा रहा है। उन्होंने कहा, “बाहर से जो लोग लौटे हैं, वे जागरूक मतदाता हैं। उन्हें रोजगार नहीं मिला है जिससे वे राज्य सरकार से नाराज हैं। इस नाराजगी का असर वोटिंग पर भी पड़ेगा।” (https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
अमरीका, 24 अक्टूबर | अमरीका का राष्ट्रपति सिर्फ अपने देश का नेता नहीं होता है, बल्कि शायद वह धरती का सबसे ताक़तवर शख़्स भी होता है. अमरीकी राष्ट्रपति के फ़ैसलों का असर दुनिया भर में महसूस किया जाता है. डोनाल्ड ट्रंप भी कोई अपवाद नहीं हैं. ऐसे में यह देखना अहम है कि ट्रंप ने किस तरह से दुनिया में बदलाव किए हैं.
दुनिया अमरीका को किस तरह से देखती है?
राष्ट्रपति ट्रंप ने बार-बार एलान किया है कि अमरीका "दुनिया का सबसे महान देश" है. लेकिन, प्यू रिसर्च सेंटर के 13 देशों के हालिया सर्वे के मुताबिक़, उन्होंने विदेश में इस छवि के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया है.
कई यूरोपीय देशों में अमरीका को लेकर सकारात्मक रुख़ रखने वाले लोगों की तादाद तक़रीबन 20 साल के निचले स्तर पर चली गई है.
अमरीका को लेकर ब्रिटेन में 41 फ़ीसदी लोगों की अनुकूल राय थी, जबकि फ्रांस में यह आंकड़ा 31 फ़ीसदी है जो कि 2003 के बाद सबसे कम है. जर्मनी में यह महज़ 26 फ़ीसदी ही है.
कोरोना वायरस महामारी को लेकर अमरीका के कदम इस बारे में एक बड़ा फैक्टर रहे हैं. जुलाई और अगस्त के आंकड़े बताते हैं कि केवल 15 फ़ीसदी रेस्पॉन्डेंट्स (सर्वे में भाग लेने वालों) को लगता है कि अमरीका ने इस वायरस का सही तरीक़े से मुक़ाबला किया है.

जलवायु परिवर्तन पर राज़ी न होना
राष्ट्रपति ट्रंप पर्यावरण बदलाव को लेकर क्या सोचते हैं उसे तय कर पाना मुश्किल है, क्योंकि वे कभी इसे "बेहद महंगा डर" बताते हैं तो कभी इसे "एक गंभीर विषय" कहते हैं जो कि "उनके दिल के काफ़ी क़रीब है."
लेकिन, जो चीज़ स्पष्ट है वह यह है कि दफ्तर में आने के छह महीने के भीतर ही उन्होंने पेरिस जलवायु संधि से हाथ पीछे खींच लिए थे. इस समझौते पर क़रीब 200 देश दुनिया के तापमान में बढ़ोतरी को दो फ़ीसदी से नीचे रखने के लिए राज़ी थे.
चीन के बाद अमरीका सबसे ज़्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है. ऐसे में रिसर्च करने वालों का कहना है कि अगर ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बने तो शायद ग्लोबल वॉर्मिंग पर लगाम लगाना मुश्किल हो जाएगा.
पेरिस क्लाइमेट डील से अमरीका का एग्जिट राष्ट्रपति चुनाव होने के अगले दिन 4 नवंबर को औपचारिक रूप से प्रभावी हो जाएगा. जो बाइडन ने वादा किया है कि अगर वे जीत गए तो इस डील से फिर से जुड़ जाएंगे.
कुछ जानकारों का कहना है कि अमरीका के डील से निकलने के चलते ही ब्राज़ील और सऊदी अरब ने कार्बन उत्सर्जन घटाने की कोशिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है.

कुछ लोगों के लिए सीमाएं बंद
राष्ट्रपति ट्रंप ने पदभार संभालने के एक हफ़्ते के भीतर ही सात मुस्लिम बहुसंख्यक देशों से आने वाले आप्रवासियों के लिए अमरीका के दरवाज़े बंद कर दिए थे. फिलहाल 13 देश इस तरह की ट्रैवल पाबंदियों के अधीन हैं.
दूसरे देशों में पैदा होने और अमरीका में रह रहे लोगों की संख्या 2016 के मुकाबले 2019 में 3 फीसदी ज्यादा थी. लेकिन, अमरीका कौन लोग यहां रहने आए हैं इसमें बदलाव हुआ है.
मेक्सिको में पैदा हुए अमरीकी नागरिकों की फीसदी में संख्या ट्रंप के शासन के दौरान लगातार गिरी है. दूसरी ओर, लातिन अमरीका के बाकी देशों से यहां आने वालों की संख्या बढ़ी है.
अमरीका में स्थाई रूप से बसने का अधिकार देने वाले वीजा में भी सख्ती की गई है. खासतौर पर जिनके रिश्तेदार पहले से अमरीका रह रहे थे उनके लिए ये वीजा हासिल करना मुश्किल हुआ है.
मेक्सिको की अमरीका से लगती सीमा पर दीवार बनाने की शपथ राष्ट्रपति ट्रंप की आप्रवासन नीति का प्रतीक है.
यूएस कस्टम्स एंड बॉर्डर प्रोटेक्शन के मुताबिक, 19 अक्तूबर तक 371 मील लंबी दीवार बनाई जा चुकी थी. लेकिन, ये दीवार अमरीका जाने की चाहत रखने वालों को रोकने में नाकाम रही है.
अमरीका-मेक्सिको बॉर्डर पर पकड़े गए माइग्रेंट्स की संख्या 2019 में अपने 12 साल के चरम पर पहुंच गई थी. इनमें से ज्यादातर लोग ग्वाटेमाला, होंडुरास और अल सल्वाडोर के थे, जहां हिंसा और गरीबी ने लोगों को शरण लेने और दूसरी जगह बसने के लिए मजबूर किया है.
ट्रंप ने ऐसे लोगों की तादाद भी घटाई है जो कि अमरीका में फिर से बस सकते हैं. 2016 में यह आंकड़ा 85,000 का था, जो कि इसके अगले साल घटकर 54,000 रह गया. 2021 में यह संख्या घटकर 15,000 रह जाएगी जो कि 1980 में लॉन्च हुए इस प्रोग्राम का सबसे कम लेवल होगा.

फ़ेक न्यूज़ में इजाफ़ा
डोनाल्ड ट्रंप ने 2017 में एक इंटरव्यू में कहा था, "मुझे लगता है कि मैं जिन शब्दों से रूबरू हुआ हूं उनमें सबसे बड़ा शब्द 'फ़ेक' है." हालांकि, फ़ेक न्यूज़ की खोज निश्चित तौर पर ट्रंप ने नहीं की, लेकिन यह कहा जा सकता है कि उन्होंने इसे लोकप्रिय जरूर बनाया है.
फैक्सबीए.एसई के मॉनिटर किए जाने वाले सोशल मीडिया पोस्ट्स और ऑडियो ट्रांसक्रिप्ट्स के मुताबिक़, दिसंबर 2016 में पहली बार ट्वीट किए जाने के बाद से ट्रंप ने इस शब्द का इस्तेमाल क़रीब 2,000 बार किया है.
फ़ेक न्यूज़ के लिए गूगल सर्च करने पर आपको पूरी दुनिया से 1.1 अरब से ज़्यादा रिजल्ट मिलेंगे. चार्ट के तौर पर देखें तो आपको पता चलेगा कि कैसे 2016-17 की सर्दियों में अमरीका की दिलचस्पी इसमें बढ़ी है और यह ट्रंप के "फ़ेक न्यूज़ अवॉर्ड" का खुलासा करने वाले हफ्ते में ऊपर चला गया. ये ऐसी स्टोरीज़ की लिस्ट है जिसे ट्रंप झूठी खबरें मानते हैं.
2016 में राष्ट्रपति पद की दौड़ के दौरान फ़ेक न्यूज़ का मतलब ग़लत ख़बरों से था जैसे कि एक ख़बर थी जिसमें कहा गया था कि पोप फ्रांसिस ने ट्रंप की दावेदारी का समर्थन किया है. लेकिन, जैसे-जैसे यह आम इस्तेमाल में बढ़ा, इसका मतलब केवल ग़लत सूचना होने से शिफ्ट हो गया.
राष्ट्रपति ने ऐसी ख़बरों को फ़ेक न्यूज़ बताना शुरू कर दिया है जिनसे वे इत्तेफाक नहीं रखते हैं. फरवरी 2017 में वे और आगे बढ़ गए और उन्होंने कई न्यूज़ आउटलेट्स को "अमरीकी लोगों का दुश्मन बता दिया."
अमरीका के अंतहीन युद्ध और मिडल ईस्ट डील
अपने फरवरी 2019 के स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन में राष्ट्रपति ट्रंप ने सीरिया से सैनिकों की वापसी का वादा किया. उन्होंने एलान किया था, "महान राष्ट्र अंतहीन युद्ध नहीं लड़ा करते."
लेकिन, आंकड़े एक दूसरी ही कहानी कहते हैं. कुछ महीनों बाद ही ट्रंप ने तेल कुओं की रखवाली के लिए सीरिया में 500 सैनिक रखने का फैसला किया.
राष्ट्रपति ने अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य मौजूदगी कम की है और ऐसा ही इराक़ और सीरिया में भी किया गया है. लेकिन, अमरीकी सेनाएं अभी भी उस हर जगह मौजूद हैं जहां वे उनके राष्ट्रपति बनने के दौरान थीं.
निश्चित तौर पर बिना सेनाओं के भी मध्य पूर्व पर असर डाला जा सकता है. ट्रंप ने 2018 में अमरीकी दूतावास को इसराइल के तेल अवीव से यरूशलम शिफ्ट कर दिया और इस तरह से उनके पहले के राष्ट्रपति की आपत्तियां दरकिनार कर दीं.
पिछले महीने उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के इसराइल के साथ रिश्ते बहाल करने के समझौते करने को "एक नए मध्य पूर्व का सवेरा" क़रार दिया. ये समझौते अमरीकी मदद से ही मुमकिन हुए और इसे ट्रंप प्रशासन की शायद सबसे बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि कहा जा सकता है.
ट्रेड डील की कला
ट्रंप ऐसी डील्स को रद्दी की टोकरी में डालने के लिए जाने जाते हैं जो उन्होंने नहीं की थीं. दफ्तर में आने के पहले दिन ही उन्होंने ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप को रद्द कर दिया. यह 12 देशों की ट्रेड डील थी जिसे ओबामा ने मंजूरी दी थी.
इस डील से बाहर निकलने से सबसे ज़्यादा फ़ायदा चीन को हुआ. लेकिन, अमरीका में जिन लोगों को लग रहा था कि इस डील से अमरीकी नौकरियां चली जाएंगी उन्होंने इस डील से हटने का जश्न मनाया.
ट्रंप ने कनाडा और मेक्सिको के साथ नॉर्थ अमरीकन फ्री ट्रेड एग्रीमेंट पर फिर से सौदेबाज़ी की. वे इसे "सबसे बुरी डील" मानते थे. नई डील में ज़्यादा कुछ नहीं बदला, हालांकि, लेबर प्रावधान सख़्त कर दिए.
ट्रंप की पूरी कोशिश यह रही है कि किस तरह से दुनिया भर के साथ ट्रेड डील्स से अमरीका को फ़ायदा हो सकता है. इस मुहिम ने चीन के साथ एक कड़वी ट्रेड जंग शुरू कर दी. दोनों देशों को इसका नुक़सान हुआ.
2 दिसंबर 2016 को ट्रंप ने एक बड़ा अप्रत्याशित कदम उठाया और ताइवान के राष्ट्रपति के साथ सीधे बातचीत की. इस तरह से 1979 में ताइवान के साथ औपचारिक संबंध तोड़े जाने की परंपरा को तोड़ दिया.
साउथ चाइना सी पर चीन के दावों को अमरीका ने अवैध क़रार दिया. चीन के टिकटॉक और वीचैट जैसे एप्स बैन कर दिए गए और चीनी टेलीकॉम दिग्गज ख्वावे को ब्लैकलिस्ट कर दिया गया.
ईरान के साथ तक़रीबन जंग के हालात
2019 में नए साल पर ट्रंप ने ट्वीट किया था, "हमारी किसी भी इकाई को होने वाले नुक़सान या किसी के मरने के लिए ईरान पूरी तरह से ज़िम्मेदार होगा. उन्हें बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. यह चेतावनी नहीं है, यह धमकी है."
कुछ दिन बाद दुनिया को चौंकाते हुए अमरीका ने ईरान के सबसे ताक़तवर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या कर दी. ईरान ने जवाबी प्रतिक्रिया देते हुए इराक़ में दो अमरीकी ठिकानों पर दर्जन भर से ज़्यादा मिसाइलें दाग दीं. 100 से ज़्यादा अमरीकी सैनिक इसमें घायल हुए. दोनों देश इससे युद्ध की कगार पर पहुंच गए.
युद्ध न होने के बावजूद निर्दोषों की जानें जाना जारी रहा. ईरान की मिसाइलों के हमलों के चंद घंटों के भीतर ही इसकी सेना ने यूक्रेन के एक पैसेंजर जहाज़ को मिसाइल से ग़लती से उड़ा दिया. इस में 176 लोग मारे गए.
मई 2018 में ट्रंप ने 2015 में ईरान के साथ हुई न्यूक्लियर डील को रद्द कर दिया. ईरान पर भारी आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए गए. इससे ईरान की अर्थव्यवस्था बुरे संकट में चली गई और परेशान ईरानी लोगों को विरोध-प्रदर्शनों पर उतारू होना पड़ा.(https://www.bbc.com/hindi)
आज हमें ब्रिटेन से यह सीखने की आवश्यकता है कि राष्ट्रनिर्माण में अल्पसंख्यकों के योगदान को किस तरह मान्यता दी जाए। भारत के लिए भी यह जरूरी है कि वह अपनी विविधता को स्वीकार करे, उसे सम्मान दे और उसे और मजबूत और गहरा बनाने के लिए हरसंभव प्रयास करे।
एक समाचार के अनुसार, ब्रिटेन के चांसलर ऑफ़ द एक्सचेकर ऋषि सुनाक ने 17 अक्टूबर 2020 को 50 पेन्स का एक नया सिक्का जारी किया। सिक्के को ‘डायवर्सिटी चइन’ का नाम दिया गया है और इसे ब्रिटेन के बहुवादी इतिहास का उत्सव मनाने और देश के निर्माण में अल्पसंख्यकों की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करने के लिए जारी किया गया है। सिक्के पर अंकित है ‘डायवर्सिटी बिल्ट ब्रिटेन (विविधता से ही बना है ब्रिटेन)।’
इस सिक्के की पृष्ठभूमि में है ‘वी टू बिल्ट ब्रिटेन (हमारा भी ब्रिटेन के निर्माण में योगदान है)’ समूह का अभियान। यह सिक्का नस्लीय अल्पसंख्यकों के ब्रिटेन के निर्माण में योगदान को सम्मान देने की प्रस्तावित श्रृंखला की पहली कड़ी है। ब्रिटेन में रहने वाले अल्पसंख्यकों, जिनमें दक्षिण एशिया के निवासियों की बड़ी संख्या है, ने इस देश को अपना घर बना लिया है और वहां की प्रगति व कल्याण में अपना भरपूर योगदान दिया है।
यह अभियान सेम्युल हटिंगटन के ‘‘सभ्यताओं के टकराव’’ के सिद्धांत को नकारता है। सोवियत संघ के पतन के बाद प्रतिपादित इस सिद्धांत के अनुसार, दुनिया में विभिन्न सभ्यताओं के बीच टकराव अवश्यंभावी है। उन्होंने कहा था ‘मेरी यह मान्यता है कि आज के विश्व में टकराव का आधार न तो विचारधारात्मक होगा और ना ही आर्थिक। मानव जाति को बांटने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक है संस्कृति और यही टकराव का मुख्य कारण होगी, हालांकि राष्ट्र-राज्य विश्व के रंगमच के मुख्य पात्र बने रहेंगे, परंतु अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संघर्ष, मुख्य रूप से अलग-अलग सभ्यताओं वाले राष्ट्रों और उनके समूहों के बीच होगा। सभ्यताओं के बीच टकराव, अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर हावी रहेंगे। सभ्यताओं की सीमा रेखाएं ही आने वाले दिनों में युद्ध का मोर्चा बनेंगी।’
अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 के हमले के बाद से इस सिद्धांत का जलवा पूरी दुनिया में कायम हो गया। ओसामा बिन लादेन ने इस हमले को जेहाद बताया था। अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले को जार्ज बुश ने क्रूसेड बताया था। ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने पश्चिम एशिया के देशों पर हमले के पीछे ‘दैवीय कारण’ बताए थे।
सभ्याताओं के टकराव के सिद्धांत ने अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के सैन्य अभियानों को सैद्धांतिक आधार प्रदान किया। ये हमले दरअसल केवल और केवल कच्चे तेल के उत्पादक क्षेत्रों पर कब्जा जमाने के लिए किए गए थे। सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत ने अमेरिका और उसके साथियों द्वारा अंतरराष्ट्रीय कानून के खुल्लम खुल्ला उल्लंघन को औचित्यपूर्ण ठहराने में मदद की। पहले साम्राज्यवादी देशों ने दुनिया के कमजोर मुल्कों को अपना उपनिवेश बनाकर उनका खून चूसा। अब यही काम वे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर काबिज होकर अंजाम दे रहे हैं। इसके विरूद्ध विचारधारात्मक स्तर पर एक बहुत मौजूं टिप्पणी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ के आर नारायणन ने की थी। उन्होंने कहा था, ‘सभ्यताएं नहीं टकरातीं, बर्बरताएं टकराती हैं।’
तत्समय संयुक्त राष्ट्रसंघ का नेतृत्व कोफी अन्नान के हाथों में था जो उसके महासचिव थे। उन्होंने एक उच्चस्तरीय अंतरराष्ट्रीय समिति का गठन किया जिसमें विभिन्न धर्मों और राष्ट्रों के प्रतिनिधि शामिल थे। इस समिति से कहा गया कि वह आज के विश्व को समझने के लिए एक नई दृष्टि का विकास करे और विभिन्न सभ्यताओं, संस्कृतियों और देशों के बीच शांति बनाए रखने के उपायों के संबंध में अपनी सिफारिशें दे। इस समिति ने अपनी सिफारिशों को जिस दस्तावेज में संकलित और प्रस्तुत किया, उसका शीर्षक अत्यंत उपयुक्त था- ‘एलायंस ऑफ़ सिविलाईजेशन्स (सभ्यताओं का गठजोड़)’। इस वैश्विक अध्ययन के संबंध में दुर्भाग्यवश दुनिया में अधिक लोग नहीं जानते। यह दस्तावेज बताता है कि किस प्रकार लोग एक स्थान से दूसरे स्थान, एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र गए और उन्होंने अपने नए घरों को बेहतर और सुंदर बनाने में अपना योगदान दिया।
जहां तक भारत का प्रश्न है, विविधता हमेशा से हमारी सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा रही है। भारत में ईसाई धर्म का प्रवेश आज से 1900 वर्ष पूर्व ही हो गया था। भारत में इस्लाम सातवीं-आठवीं सदी में मलाबार तट के रास्ते आया। इसे अरब व्यापारी भारत लाए। बाद में जाति और वर्ण व्यवस्था के पीडि़तों ने बड़ी संख्या में इस्लाम को अंगीकार कर लिया। जिन मुस्लिम आक्रांताओं ने उत्तर-पश्चिम से भारत में प्रवेश किया, वे यहां अपने धर्म का प्रचार करने नहीं वरन् इस देश पर कब्जा जमाने और यहां की संपदा को लूटने के लिए आए थे। बौद्ध धर्म भारत से विभिन्न दक्षिण एशियाई देशों में गया। बड़ी संख्या में भारतीय दूसरे देशों में जा बसे। इसके पीछे मुख्यत: आर्थिक कारण थे। इंग्लैंड में आज भारतीयों की खासी आबादी है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया और कनाडा में भी बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं। शुरूआती दौर में भारत से कई प्रवासी मॉरिशस, श्रीलंका और कैरेबियन देशों में भी गए।
प्रवासी समुदाय अपने मूल देश को पूरी तरह विस्मृत नहीं कर पाते परंतु इसके साथ ही वे अलग-अलग तरीकों से अपने नए देश के समाजों के साथ जुड़ते भी हैं। आज खाड़ी के देशों में काफी बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं। भारत के साम्प्रदायिक तत्व, विदेशों में रहने वाले भारतीयों के भारत से जुड़ाव की प्रशंसा करते नहीं अघाते, परंतु वे ईसाई धर्म और इस्लाम को विदेशी बताते हैं! सच तो यह है कि हिन्दू धर्म में भी अनेकानेक विविधताएं हैं। भारतीय संस्कृति विविधवर्णी है जिस पर भारत के अलग-अलग क्षेत्रों के निवासियों, अलग-अलग धर्मों के मानने वालों और अलग-अलग भाषाएं बोलने वालों का प्रभाव है। हमारा साहित्य, हमारी कला, हमारी वास्तुकला, हमारे संगीत सभी पर विविध सांस्कृतिक धाराओं का प्रभाव है। हमारे देश में अलग-अलग सभ्यताओं और संस्कृतियों के लोग मिलजुलकर रहते आए हैं।
अक्सर मिलीजुली संस्कृति वाले देशों को ‘मेल्टिंग पॉट (आपस में घुलकर अपनी अलग पहचान खो देना)’ बताया जाता है। मेरे विचार से इसके लिए एक बेहतर शब्द है ‘सलाद का कटोरा’। सलाद अलग-अलग सब्जियों से मिलकर बनता है परंतु उसके सभी घटक अपनी अलग पहचान बनाए रखते हैं। हमारा साहित्य भी हमारे समाज और हमारी संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। हमारे वरिष्ठ साहित्यकार भी भारत के इसी स्वरूप पर जोर देते आए हैं। विविधता हमारे स्वाधीनता संग्राम का भी आधार थी जो समाज के विभिन्न तबकों को एक मंच पर लेकर आई। इसके विपरीत, साम्प्रदायिक धाराएं उर्दू-मुस्लिम-पाकिस्तान और हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान जैसी संकीर्ण अवधारणाओं को बढ़ावा देती आई हैं। तथ्य यह है कि अनेकता में एकता ही हमारे देश की असली ताकत है। पंडित नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ इसी विविधता का उत्सव मनाती है।
आज हमें ब्रिटेन से यह सीखने की आवश्यकता है कि राष्ट्रनिर्माण में अल्पसंख्यकों के योगदान को किस तरह मान्यता दी जाए। भारत के लिए भी यह जरूरी है कि वह अपनी विविधता को स्वीकार करे, उसे सम्मान दे और उसे और मजबूत और गहरा बनाने के लिए हरसंभव प्रयास करे। (navjivanindia.com)
(लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)



