विचार / लेख

देह पर थिरकता ‘शेर’
07-Oct-2020 2:41 PM
देह पर थिरकता ‘शेर’


-राजेश गनोदवाले

लंबे समय से कला और संस्कृति पर लिखने वाले छत्तीसगढ़ के अखबारनवीस राजेश गनोदवाले ने मुहर्रम के शेर नाच पर यह जीवंत फीचर लिखा है जो उन्हीं की खींची तस्वीरों के साथ हम यहां पेश कर रहे हैं। 
-संपादक

मोहर्रम के महत्व को अपने ढंग से बढ़ाने वाले ‘दो पाया शेर!’
नहीं आए इस बार वे! ‘लॉकडाउन’ की भेंट आखिर यह हुनर भी चढ़ गया! जो देह इसे धारण करती थी, अवसर आने पर व्याकुल खड़ी नजर आई! उनके मन में बैठा हुआ ‘वह शेर’ खुद को बाहर न निकलता देख किस कदर मायूस हुआ होगा-वही जानें। मोहर्रम आया और चला गया! एक वायरस की चपेट में कितना कुछ सिमट गया देश में? बड़े पर्व-उत्सव तो फिर भी दर्ज होते दिखे। ऋतु-पर्वों से जुड़ी या अपनी स्थानीयता में लोकप्रिय कलाएं तो वायरस की आँधी में जैसे साफ हो गईं! खासकर वो रूपाकार, जो ना तो किसी पंचांग में दर्ज रहते हैं और ना अकादमिक पट्टी में सराहे या समझे जाते हैं! समय के प्रवाह में जन-मान्यताओं से प्रकट इन सुदर्शन विधाओं को लेकर कभी इतने विस्तार से सोचा नहीं था? कोविड काल ने वह काम भी करवा दिया!

आदतन मोहर्रम या मुहर्रम कह लें 6 दोनों शब्द चलन में 8 का इंतजार रहता था मुझे। लेकिन वो नौबत नहीं आई! असल में अंदेशा तो था ही कि कैसे होगा शेरों का नृत्य इस दफा? वे लोग जो इस परम्परा को अपने से जुड़ा मानते हैं, क्या शेर बनेंगे? और क्या उन्हें सडक़ों पर उतरने की अनुमति होगी? सोचने पर मुस्कान तैर गई! ख्याल रोचक था! यानी बनने वाला व्यक्ति अनुमति माँगने जाता तो क्या कहता, कि-
‘मैं शेर बनूँगा साहब , 
मुझे नाचने की अनुमति दी जाए?’ 

-अच्छा हुआ कि लॉकडाउन के बनते-खुलते हालातों के बीच ऐसी नौबत नहीं आई। वरना ‘कोई शेर निरीह होकर अनुमति के लिए कहीं क्यों गिड़गिड़ाता खड़ा रहे!’ खैर, उत्तर तय थे! वही हुआ, यानी कुछ नहीं हुआ! बिना  ‘उनकी दहाड़’ के यह मोहर्रम बीत गया! प्राय: खास इलाकों में अपने कद्रदानों के प्रेम की बदौलत प्रतिवर्ष रौनक भरने वाले इन ‘मौसमी शेरों’ की विनम्र-दहाड़, जिसमें बच्चा मण्डली को रिझाने का भाव अधिक शामिल था-इस बार सुनी नहीं गई! जिन चिन्हित मुहल्लों या गलियों में उनका कोलाहल आठेक दिन माहौल बनाए रहता था ऐसे इलाके भी इन मित्र-शेरों की बाट देखते रह गए!
 
हर वर्ष, शास्त्री बाजार के बाहरी मुहाने पर, लाखे नगर सफाई कर्मचारियों की कॉलोनी के पास 6 पीपल पेड़ के नीचे 8 और सारथी चौक के करीब 6 सामुदायिक भवन 8 ये वे इलाके थे जहाँ आप किसी आदमी को शेर-रूप धारण करते देख सकते थे। मेरे लिए ये ठिकाने अनजान नहीं थे। कब से देख रहा हूँ कहना मुश्किल है । काफ़ी सालों से। इस वर्ष इनकी याद, ‘वे दिख जाते थे।’ इसीलिए नहीं आई! वरन उन्हें खासतौर पर याद किया। कच्ची उम्र में देखे वे दृश्य आँखों में सुरक्षित रह गए। इन्हीं कारणों से शेर नृत्य से एक आंतरिक अनुराग-भाव भी बनता चला गया। संभवत: इन्हीं बहुतेरे कारणों से आज इस पर इतना विचार कर लिखने लगा। 

नयापारा-फूलचौक का रहवासी होने का एक लाभ ऐसा भी मिला कि ‘सवारी’ या ‘पत्थर फोड़ की सवारी’ के दौरान इससे जुड़े कुछ आयोजन सहज ही देखने मिल जाया करते थे । उनकी आधी-अधूरी छवियाँ भीतर ठहरी रहती थीं। मोहर्रम की तकरीरें भी कानों में नियमित आया करतीं। उन्हीं दिनों बेहद रंजक ‘शेर नृत्य’ भी पहले पहल देखने मिला! गलियां-दर-गलियां शेरों के पीछे हल्ला-गुल्ला मचाते दौड़ लगाने का रोमांच! शेर रूप में रंगी देह दर्शन का अनुभव अबोध उम्र से था। क्यों और ये क्या हैं? की उधेड़बुन में उलझने की बजाय इसकी सांस्कृतिकी आकर्षक बन जाती थी। इन्हीं कारणों से वहीँ कहीं, जब तब लंगर के दौरान बाँटा जाने वाला ‘खिचड़ा’ भी बतौर प्रसाद बचपने में खाया। थिरकते शेरों की मनोहारी स्मृतियाँ भीतर इस ढंग से सुरक्षित होती चली गईं। बढ़ती जाती उम्र के बाद भी इसने मन से रिश्ता नहीं तोड़ा! वही गर्मजोशी इनके लिए अभी भी कायम है। पिछले वर्ष तक, राह में अनायस दिख जाने पर इन थिरकते शेरों के पीछे कुछ दूर चलने का आनंद लिया है!

ये शेर जितना आकर्षित करते थे उतना ही आनंद तीन-चार बैंड वादकों की मण्डली भी देती थी, जिनकी चाल को कैसे भूला जाए? शेरों के पीछे-पीछे लगभग दौड़-दौडक़र बजाते वादक! इनका भी भरपूर सुख लिया तो लय और धुन समझने के कारण। ‘शेर धुन’ के रूप में बैंड वादक एक खास तरह का संगीत बजाया करते हैं। बारात में थिरकते नौजवां भी कभी-कभार इसे बजवा कर नाचते देखे गए हैं! क्या यह किसी वादक की ईजाद की गई रचना है? इस खास धुन को बजाए जाने का कोई विधान परम्परा में बना हुआ है? या अनायास यह ट्यून इसका हिस्सा बन स्वीकार कर ली गई। सांगीतिक जिज्ञासाएँ तो हैं। पड़ताल करनी होगी इनकी कभी! वैसे तेज गति की इस धुन के बजते ही आँखों के सम्मुख सीधे ‘शेर नृत्य’  का स्मरण हो आता है।

मोहर्रम के दरमियाँ जहां ‘सवारी’ बैठाई जाती हैं वहाँ से सवारी निकलने के दौरान भी बैंड वादक प्राय: यही ट्यून बजाते हैं। यानी इस धुन का नाता सवारी से पहले है या शेर नृत्य से? यह भी एक जटिल पहेली है!  

नागपुर 6 महाराष्ट्र 8 के बाद छत्तीसगढ़ के रायपुर में देखा जाने वाला यह लोक रूप और कहीं तो होगा? बेशक कुछ अलग ढंग से ही सही। वैसे कुछ समय पहले रायपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में देखी गई एक फिल्म याद आ गई जिसमें अभिनेता पवन मल्होत्रा अपनी देह पर शेर रँगवा कर निकलता हैं! कमाल का सिनेमा था, नाम लेकिन याद नहीं आ रहा! वैसे इधर, इसे गढऩे वाली 6 पेंटर 8 नई बिरादरी के सिमटने का नतीजा बहुत साफ है कि शेर बनने का क्रम गड़बड़ा जाएगा। असल में देह के ऊपरी हिस्से पर जिस खाल का इस्तमाल इसमें नर्तक किया करते हैं वो भी इन्हीं पेंटर्स के पास होती है! अब ये लोग इससे हाथ खींचने लगे हैं!

थोड़ा गौर करें तो पता लगेगा हमारे आसपास आंचलिक महत्व की ऐसी एकाधिक रिवायतें हैं जो साझा-समाज के सूत्र को बढ़ाती है। शेर नृत्य विधा को भी उसी परम्परा की कड़ी मानिए! यो तों मुस्लिम समाज के साथ इसे आगे बढ़ते देखा जाता है, अलावा इसके बड़ी संख्या गैर-मुस्लिम युवाओं की भी है। ये वे युवा हैं जो बचपन से इसे देखते आ रहे हैं या जिनके परिजनों ने इसे समाज विशेष का मानने से बाहर निकल कर देखा और अपनाया। इसके पीछे एक बड़ी कहानी भी बताई जाती है। जबकि अधिकांश इसे मन्नत से जोडक़र बनना बताते हैं! लेकिन मानव देह की शेर में रूपांतरित होने की भावना मोहर्रम के प्रति कुल मिलाकर श्रद्धा भाव का प्रकटीकरण ही है।

इस वर्ष, जैसा कि ऊपर कहा है  
उन्हें सायास याद किया और-फ्लैश बैक  शुरू-
कोई 3 साल पहले लाखे नगर सफाई कामगारों की चाल के करीब आनंदित मन से इस हुनर को साधने वालों के बीच खड़ा था। अनवरत दो-तीन दिनों तक मेरी चहलकदमी देख कर एक व्यक्ति सामने आया-
-‘भैया सारथी भवन में जाओ, 
वहाँ बहुत सारे शेर बन रहे हैं!’ 

पँक्ति रोचक थी और आगे बढ़ाने वाली भी। चाहता भी यही था। हिन्द स्पोर्टिंग मैदान के पहले तिराहे पर बाएँ हाथ में स्थित सामुदायिक भवन का नाम है-सारथी भवन। सारथी चौक से उस भवन के नामकरण का क्या संबंध है?  हो तो भी वह मेरा विषय नहीं था। मुझे तो निर्मित होते शेर देखने थे, और बहुतायत में देखने थे। थोक में होते इस ‘निर्माण का साक्षी’  होना था! मैं सारथी भवन के भीतर था। अंदाजा बाहर से ही लगाना था कि भीतर रोमांच कैसा होगा? पचास फीट का चौरस हॉल। नजारा कभी न दिखाई देने वाले दृश्य जैसा। मानों शेर निर्माण की फैक्ट्री हो! मशीन की सहायता से धड़ाधड़ शेर रँगे जा रहे थे! एक आदमी नजऱ आया जो पेंटर नहीं था। वो एयर प्रेशर वाली मशीन से इच्छुक लोगों की देह पर बेस रँग चढ़ा रहा था। यानी सफेद और पीला। कोटिंग ख़त्म होते ही वह आदेशित ढंग से कहता कि-‘जाओ घूम आओ।’ जो लोग बेस रँग सूखाकर आ जाते उनके हाथ और पैरों में धारियाँ बनाने से पहले चेहरे का बारीक काम पूरा करने की बारी आती। यहीं से भूमिका मुख्य व्यक्ति, यानी पेंटर की शुरू हो जाती थीं। चेहरे की कारीगरी, समय लेने वाला काम। पता लगा रोजाना की तुलना में आज भीड़ इसलिए है कारण आज मोहर्रम का आखिरी दिन है। शेर निर्मिति सुचारू हो इसे देखकर पेंटर ने अपने सहायकों की सँख्या बढ़ा रखी है। चेहरा रंगने के अलावा धारियां आदि बनाने का काम सहायकों के जिम्मे। 

रात भर जागे हुए थके चेहरे, ‘रजनीगंधा’ की खुलती पुडिय़ा, कोने पीक से भरे हुए, पसीने की गंध और मशीन से उड़ती रँगों की गुबार! रँगीन चेहरों की रह-रहकर होती आवाजाही-और सिगरेट के कश! अगर हॉल के अंदर अजीब-सा सिनेमाई दृश्य-सौंदर्य फैला हुआ था तो बाहर परिसर में उभरते नजारे भी उतने ही रोचक। शेर बन रहे, बनाए जा चुके और बनने की प्रतीक्षा में सिर्फ चड्डी पहनकर मटरगश्ती करते युवा! निर्मित हो चुका शेर सूखने के इंतजार में और निर्माणाधीन शेर स्वयं का काम ख़त्म हो जाने की प्रतीक्षा में। जो पिछले दिन बन चुके वे अपनी बिखरती हुई रंगीन छवि के साथ इधर-उधर थोड़े अभ्यस्त अंदाज में अकारण बिरादरी के मध्य घूमते दिखाई दे रहे थे! आधे निकले, आधे चिपके हुए रँगों के साथ शेर बन रहे साथियों की हौसला अफजाई में भी इनमें से कुछ व्यस्त। उधर, कुछ बैंड आने के साथ गंतव्य की ओर ऑफिशियली रवाना होने से पहले अपनी थिरकन साधते हुए! यानी शेर, शेर और सिर्फ शेर। जैसे उनकी कॉलोनी हो!
या कोई-शेर ग्रह ! 

सारथी भवन के उस माहौल में न तो पेंटर इतनी फुर्सत में दिखे कि बातचीत हो पाती। यदि होती भी तो रंगों का गुबार बदले में मुझे अस्थमा उपहार स्वरूप दे देता, सो बाहर निकल जाने में ही भलाई थी। इधर, शास्त्री बाजार के मुहाने पर ही दाईं ओर एक छोटा पंडाल तान कर प्रतिवर्ष देह को शेर में बदलने वाले सलीम कुरैशी उर्फ कल्लू पेंटर ने थोड़ी बातें की। जैसे कि बिलासपुर और राजनांदगांव शहर भी छत्तीसगढ़ में ऐसे हैं जहाँ शेर रँगने का चलन कायम है। फिलहाल उनके नाम का जलवा है। यानी वे शेर बनने वालों के पसंदीदा पेंटर हैं। पूछने पर कि अलावा उनके भी जो रंग रहे कौन होंगे? कल्लू भाई के मुताबिक- 
-‘काम चलाऊ जियादा है!’ 

अलबत्ता कल्लू भाई इस बात पर एकमत दिखे कि पुरानी पीढ़ी में जुल्फी पेंटर, नजीर पेंटर, और लतीफ़ जब्बार पेंटर सिद्घहस्त माने जाते थे। कल्लू भाई भी कभी शेर बन थिरकते थे। अब वे इससे दूर हैं! हुनर सीख लिया था देख-देखकर। फिर पेट भी चलाना है। करें क्या? इसीलिए पेंटिंग का दामन थाम लिया! सीजन में उनके हाथों रँग, ब्रश आ जाता है! शेर बनने वालों के मध्य वे कल्लू उस्ताद हैं। पूरा काम खत्म हो जाने के बाद नर्तक की जांघ के पीछे हिस्से में-‘कल्लू पेंटर’  लिखते हुए जैसे वे उसे सर्टिफिकेट दे दिया करते हैं। और तब उनके चेहरे में आश्वस्ति उभर जाती है।

इस कला रूप की आर्थिकी भी आसान नहीं। खर्चे ही खर्चे! कमाई करने तो जाहिर है कोई बनता नहीं! अब वे रँगने का हजार रुपये लेते हैं। कभी पाँच-सात सौ में बात बनती रही। नर्तकों को इसमें खाल और मुखौटों के पैसे अलग से नहीं देने पड़ते। सब का किराया उसी में समाहित! हां, बैंड का खर्चा शेर बनने वाला अलग से वहन करता है-जो प्रतिदिन के हिसाब से तय होता है! 

कड़े खां से कमलसब्जी तक- 
कुछ रिटायर्ड शेरों से इस परंपरा के खुलासे की खातिर बातचीत हुई। तो पता लगा उस दौर में जिन देहों की थिरकन देखने वालों की यादों में दर्ज हो जाती थीं या कि जिनका नाम लोकप्रिय सूची में था उनमें कड़े खां ऊपर हैं। बाद की पीढ़ी में सत्तार पहलवान और इस्माइल भाई  समेत अब्दुल सत्तार खाकी एवं सुंदर  की चर्चा की जाती है। लल्ला पहलवान, फिरोज खान और कमल सब्जी वाला भी पुराने जानकारों की स्मृतियों का हिस्सा हैं!

खेक्सी शेर- 
शेर और खेक्सी का कोई संबंध कहाँ? यानी शाकाहार और माँसाहार! लेकिन इस नृत्य के दौरान आपको मिल सकता है! दरअसल अपनी कदकाठी से अजीबो-गरीब रूप सज्जा में एक पात्र इन शेरों के साथ चलता है! उसका काम होता है बच्चों में रंजक वातावरण तयार करना। इसकी उपस्थिति का खुलासा जानकारों के हिसाब से बच्चों की भीड़ नियंत्रित करने भी की जाती है। 

शालेय दिनों में देखा गया खेक्सी पात्र आज भी याद है-लंबी कद काठी वाला एक व्यक्ति था, जिसकी देह ध्यान खींचती थी! लंबाई के अनुपात में उसकी देह में मांस काफी कम था! चेहरा भी आनुपातिक ढंग से छोटा! उसे जिस नर्तक के साथ पहली दफा हमारे बाड़े में देखा वह नर्तक सुंदर पहलवान था। सुंदर नामक ये सज्जन हमारे घर के ठीक सामने रहा करते थे। एक कमरे का घर! उनके घर में और कौन-कौन था याद नहीं, लेकिन उनका डील डौल अपनी मांसलता के कारण याद रह गया! वे शेर भी बनते हैं इसका पता पहली दफा तभी लगा जब वे अपनी इस बदली हुई अवस्था के साथ गली में दाखिल हुए-और कोलाहल मचना ही था! ‘खेक्सी महाराज’ भी विचित्र भंगिमाओं को साधते संग-संग! खुली देह, थुलथुल चाल और स्वयं में शेर-सा वैभव धारण करने वाला सुंदर का वह मनोहारी ढंग। खेक्सी का अंदाज चपल था, तो सुंदर भाई धीर गंभीर! यानी अतिरिक्त मेहनत किए अपना असर छोड़ जाने वालों में से। यह जोड़ी फूलचौक, रहमानिया चौक, तवायफ लाइन  और नयापारा-जोरापारा  इन इलाकों में लोकप्रिय थी। खेक्सी की छवि मन में ऐसी बैठी कि जब कभी वो गली से गुजरता  दिख जाता उसे पहचानने में कभी दिक्कत नहीं आई कि यही तो है जो खेक्सी बना करता था!

आजकल ‘संकली शेर’ नजर नहीं आते! सुंदर प्राय: इसी लिए जाने जाते थे। इस ढंग के शेरों में गले में मोटी सांकल हुआ करती जिसे दो तरफ से दो व्यक्ति हाथों में लकड़ी का रामलीला स्टाइल चमकदार फरसा लिए नियंत्रित करते थे! सांकलधारी शेर थोड़ा अभिजात्य किस्म का माना जाता था याकि जिसका रसूख हो! जब साँकल थामे दोनों सहयोगी काबू करने का प्रयास करता तो वे सिमट भी जाते! इस दृश्य की बदौलत वातावरण में बनता सिकुड़ता रूपक बच्चों की भीड़ को सम्मोहित करता था।

शेर नृत्य कोई आधिकारिक नृत्य तो है नहीं, ना ही उसका नियम, विधान। पैर या हस्तक इस रूपाकार में या इस लय-गति-छंद में ही बढऩे, घटने चाहिए जरूरी कहाँ? जो कोई भी शेर रूप धारण करता है उसके पास इस हुनर का एक देखा गया ढाँचा होता है-और यही इसका अपना अघोषित अंदाज कि ऐसा ऐसा हो। अलबत्ता बैंड की गति-लय जरूर इसको एक दायरा देती है। यही इसका न्यूनतम ढंग है जिसे प्रत्येक शेर बनने वाला अपनी शैली में ढाल कर डिलीवर करता है! देखने वाले भी उनके हाथ-पैरों की कलात्मक गुणवत्ता की बजाय उछलती हुई सी रँगत में रमने लगते हैं। एक आदमी कैसे बदली हुई रँग भूषा के सहारे परिवेश गढ़ रहा है!

धीरे-धीरे इसकी खूबसूरती भी धुँधली पड़ जाएगी जिस तरह दूसरे और शहराती लोकरंग। दृश्यों के पीछे भागने वाला मीडिया भी, मेरी अपनी जानकारी में कभी इन पर कुछ विस्तार से काम किया हो देखने में नहीं आया। प्रिंट मीडिया के उलट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए तो यह बढिय़ा दृष्यात्मक फीचर है! कल्पना करिए स्टूडियो में सजा धजा शेर बैठा हुआ है, और उसका यह रंगीन अनुभव कोई एंकर दर्शकों के सम्मुख ला रहा है! लेकिन ऐसा होगा? लगता नहीं! इसके सिमटने की बहुतेरी वजहों में इस वर्ष एक कड़ी भले कोरोना ने जोड़ दी, लेकिन जो संकेत बातचीत में उभरकर आते हैं वो साबित करते हैं कि इसके प्रति अब स्वीकार की भावना खत्म होने लगी है। स्वीकार का यही अभाव अब अस्वीकार का जनक बनता जा रहा है। 


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