विचार/लेख
- अव्यक्त
क्या ऐसा अक्सर नहीं होता कि चर्चा भगत सिंह की छिड़े और बात थोड़ी आगे बढ़ते ही गांधी तक जा पहुंचती हो? लेकिन ऐसी कितनी ही चर्चाएं प्रायः एक ऐसे मोड़ पर खत्म होती देखी जाती हैं, जहां महज 23 साल के नौजवान भगत सिंह की अद्भुत शहादत का गुमान और एक बूढ़े गांधी द्वारा उसे बचाए न जा सकने की शिकायत एक साथ मौजूद होती है.
भगत सिंह पर बनाई गई बंबइया फिल्में हों या सोशल मीडिया पर युवाओं की जोशीली अभिव्यक्तियां, कई बार गांधी इनमें एक नकारात्मक भूमिका में देखे-दिखाए जाते हैं. इतना तक कि मानो भगत सिंह के नायकत्व के बरक्स असली खलनायक ब्रिटिश हुकूमत न होकर गांधी ही हों. यही वजह है कि ऐतिहासिक तथ्यों के साथ भारी छेड़छाड़ के इस विचित्र दौर में ‘भगतसिंह बनाम गांधी’ के इस प्रचलित नैरेटिव का एक तटस्थ मूल्यांकन किया जाना जरूरी हो जाता है.
भगत सिंह को फांसी दिए जाने के बाद उनके समर्थकों के आक्रोश पर महात्मा गांधी की क्या राय थी?
24 मार्च, 1931 के दिन या भगत सिंह को फांसी दिए जाने की अगली सुबह गांधी जैसे ही कराची (आज का पाकिस्तान) के पास मालीर स्टेशन पर पहुंचे, तो लाल कुर्तीधारी नौजवान भारत सभा के युवकों ने काले कपड़े से बने फूलों की माला गांधीजी को भेंट की. स्वयं गांधीजी के शब्दों में, ‘काले कपड़े के वे फूल तीनों देशभक्तों की चिता की राख के प्रतीक थे.’ 26 मार्च को कराची में प्रेस के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा - ‘मैं भगत सिंह और उनके साथियों की मौत की सजा में बदलाव नहीं करा सका और इसी कारण नौजवानों ने मेरे प्रति अपने क्रोध का प्रदर्शन किया है. ...ये युवक चाहते तो इन फूलों को मेरे ऊपर बरसा भी सकते थे या मुझ पर फेंक भी सकते थे, पर उन्होंने यह सब न करके मुझे अपने हाथों से फूल लेने की छूट दी और मैंने कृतज्ञतापूर्वक इन फूलों को लिया. बेशक, उन्होंने ‘गांधीवाद का नाश हो’ और ‘गांधी वापस जाओ’ के नारे लगाए और इसे मैं उनके क्रोध का सही प्रदर्शन मानता हूं.’
लेकिन इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने आगे कहा था- ‘आत्म-दमन और कायरता से भरे दब्बूपने वाले इस देश में हमें इतना अधिक साहस और बलिदान नहीं मिल सकता. भगत सिंह के साहस और बलिदान के सामने मस्तक नत हो जाता है. लेकिन यदि मैं अपने नौजवान भाइयों को नाराज किए बिना कह सकूं तो मुझे इससे भी बड़े साहस को देखने की इच्छा है. मैं एक ऐसा नम्र, सभ्य और अहिंसक साहस चाहता हूं जो किसी को चोट पहुंचाए बिना या मन में किसी को चोट पहुंचाने का तनिक भी विचार रखे बिना फांसी पर झूल जाए.’
अहिंसा को जीवन साधना और लक्ष्य मानने वाले गांधी तो मृत्युदंड के ही विरोधी थे
भगत सिंह को फांसी से बचाने में गांधी के विफल रहने के बारे में प्रचलित धारणाओं को इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए. अहिंसा के साधक गांधी किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार की सजा देने के विरोधी रहे थे. भगत सिंह से पहले उन्होंने अन्य मामलों में भी किसी को भी मृत्युदंड दिए जाने का विरोध किया था. उच्च कोटि के आस्तिक गांधी यह मानते थे कि किसी की जान लेने का हक केवल उसे ही है जिसने वह प्राण दिया है. यानी प्रकृति का नियम या ईश्वर ही किसी की जान ले सकता है, न कि कोई मनुष्य, सरकार या मनुष्य द्वारा बनाई कोई व्यवस्था.
26 मार्च, 1931 को कराची अधिवेशन में भगत सिंह के संदर्भ में ही बोलते हुए उन्होंने कहा था- ‘आपको जानना चाहिए कि खूनी को, चोर को, डाकू को भी सजा देना मेरे धर्म के विरुद्ध है. इसलिए इस शक की तो कोई वजह ही नहीं हो सकती कि मैं भगत सिंह को बचाना नहीं चाहता था.’ इस सभा में नौजवान भारत सभा के सदस्य भी बड़ी संख्या में मौजूद थे. दीवान चमनलाल जो नौजवान भारत सभा के सचिव थे, वे तो गांधी के अन्यतम सहयोगियों में से ही थे और वहां भी उनके साथ ही थे. इतने संवेदनशील और भावुक माहौल में भी गांधी पूरे होश में और पूरी करुणा से अपनी बात रख रहे थे.
तभी किसी ने चिल्लाकर पूछा- ‘आपने भगत सिंह को बचाने के लिए किया क्या?’
इस पर गांधी ने जवाब दिया- ‘मैं यहां अपना बचाव करने के लिए नहीं बैठा था, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया. मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया. समझाने की जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उन पर आजमा देखी. भगत सिंह की परिवारवालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन यानी 23 मार्च को सवेरे मैंने वाइसराय को एक खानगी (अनौपचारिक) खत लिखा. उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उड़ेल दी थी. पर सब बेकार हुआ.’
भगत सिंह को बचाने के लिए वाइसराय को लिखी उस अनौपचारिक चिट्ठी में गांधीजी ने उन्हें जनमत का वास्ता देते हुए लिखा था- ‘जनमत चाहे सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है. जब कोई सिद्धांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान रखना हमारा कर्तव्य हो जाता है. ...मौत की सजा पर अमल हो जाने के बाद तो वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता. यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी सी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को, जिसे फिर वापस नहीं लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें. ...दया कभी निष्फल नहीं जाती.’
भगत सिंह के बचपन के एक साथी जयदेव गुप्ता जो उस सभा में मौजूद थे, उन्होंने बाद में लिखा कि ‘उस सभा का वातावरण मिश्रित प्रकार का था. लोग दो धड़ों में बंट गए थे. एक धड़ा गांधी के पक्ष में था और दूसरा विरोध में. लेकिन महात्मा गांधी इतने अद्भुत वक्ता थे कि उन्होंने अपनी तार्किक बातों, मीठी आवाज, शांत और मृदुल अंदाज से सबको यह भरोसा दिला दिया कि भगत सिंह को बचाने की जितनी कोशिश की जा सकती थी वह की गई.’
लेकिन तब भी और आज भी एक ऐसा वर्ग है जो मानता है कि संयोगवश उसी दौरान एक अन्य संदर्भ में हो रहे गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह की रिहाई भी एक शर्त के रूप में डाली जा सकती थी. गांधी ने इसका जवाब देते हुए इसी सभा में कहा था- ‘आप कहेंगे कि मुझे एक बात और करनी चाहिए थी— सजा को घटाने के लिए समझौते में एक शर्त रखनी चाहिए थी. ऐसा नहीं हो सकता था. और समझौता वापस ले लेने की धमकी को तो विश्वासघात कहा जाता. कार्यसमिति इस बात में मेरे साथ थी कि सजा को घटाने की शर्त समझौते की शर्त नहीं हो सकती थी. इसलिए मैं इसकी चर्चा तो समझौते की बातों से अलग ही कर सकता था. मैंने उदारता की आशा की थी. मेरी वह आशा सफल होने वाली नहीं थी, पर इस कारण समझौता तो कभी नहीं तोड़ा जा सकता.’
इससे करीब दो महीने पहले 31 जनवरी, 1931 को भी इलाहाबाद में गांधी कह चुके थे- ‘जिन कैदियों को फांसी की सजा मिली है, उन कैदियों को फांसी नहीं मिलनी चाहिए. पर यह तो मेरी निजी राय है. इसे समझौते की शर्त बना सकते हैं या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता.’
ऐसा नहीं था कि भगत सिंह के क्रांतिकारी आदर्शों को गांधी समझते न थे. किसानों और मजदूरों के प्रति भगत सिंह और उनके साथियों की प्रतिबद्धताओं से गांधी बखूबी वाकिफ थे. लेकिन इस बारे में वे एकदम स्पष्ट और सख्त थे कि उसका साधन केवल और केवल अहिंसा ही होनी चाहिए. विशेषकर नौजवान भारत सभा के सदस्यों की ओर इशारा करते हुए गांधी ने कराची अधिवेशन में कहा था- ‘उन नौजवानों से मैं यह जरूर कहूंगा कि उनके पैदा होने के बहुत पहले से मैं किसानों और मजदूरों की सेवा करता आया हूं. मैं उनके साथ रहा हूं. उनके सुख-दुःख में भाग लिया है. जबसे मैंने सेवा का व्रत लिया है, तभी से मैं अपना सिर मानवजाति को अर्पण कर चुका हूं.’
वहीं जब भगत सिंह को फांसी के बाद कानपुर में भयंकर दंगे छिड़ गए, तो इस संदर्भ में गांधीजी ने कहा- ‘अखबारों से पता चलता है कि भगत सिंह की शहादत से कानपुर के हिन्दू पागल हो गए, और भगत सिंह के सम्मान में दुकान न बंद करनेवालों को धमकाने लगे. नतीजा आपको मालूम ही है. मेरा विश्वास है कि अगर भगत सिंह की आत्मा कानपुर के इस कांड को देख रही है, तो वह अवश्य गहरी वेदना और शरम अनुभव करती होगी. मैं यह इसलिए कहता हूं कि मैंने सुना है कि वह अपनी टेक का पक्का था.’
भगत सिंह को फांसी मिलने के एक महीने पहले जब गांधी वाइसराय से मिलने गए थे, तब भी उन्होंने भगत सिंह की सजा मुल्तवी करने की मांग की थी. बिड़ला द्वारा इस मुलाकात के बारे में पूछे जाने पर 18 फरवरी, 1931 को गांधी ने कहा था- ‘मैंने उनसे भगत सिंह की बात की. ...मैंने भगत सिंह के बारे में कहा, वह बहादुर तो है ही पर उसका दिमाग ठिकाने नहीं है, इतना जरूर कहूंगा. फिर भी मृत्युदंड बुरी चीज है. क्योंकि वह ऐसे व्यक्ति को सुधरने का अवसर नहीं देती. मैं तो मानवीय दृष्टिकोण से यह बात आपके सामने रख रहा हूं और देश में नाहक तूफान न उठ खड़ा हो, इसलिए सजा मुल्तवी कर देने का इच्छुक हूं. मैं तो उसे छोड़ दूं, लेकिन कोई सरकार उसे छोड़ देगी ऐसी आशा मुझे नहीं है.’
दरअसल भगत सिंह के बारे में ब्रिटिश हुकूमत शुरू से ही गलतफहमियों का शिकार थी. क्रांतिकारियों के तौर-तरीकों के बारे में यह गलतफहमी उस दौरान भारतीयों के एक बड़े वर्ग में भी मौजूद थी. ऊपर-ऊपर से हिंसक दिखनेवाले तौर-तरीकों की वजह से ब्रिटिश हुकूमत इन इन्कलाबियों के प्रति बेहद सख्त रवैया अपनाए हुई थी. गांधी समेत अन्य कई नेता इन युवाओं के जोश से प्रभावित अवश्य थे, लेकिन इनके तौर-तरीकों की वजह से वे इनसे परहेज भी करते थे. इसलिए जेल में भगत सिंह अपने, और साथियों के साथ दुर्व्यवहार के विरुद्ध जब अनशन पर बैठ गए और जवाहरलाल नेहरू ने उनकी पैरवी की थी, तो गांधी ने नेहरू को चिट्ठी लिखकर इसे एक ‘असंगत’ कार्य बताया था.
भगत सिंह और उनके साथियों के प्रति ब्रिटिश हुकूमत पैरानोइया की हद तक भयभीत हो चुकी थी. और इसलिए सरकारी गुप्तचर उन सभी के पीछे पड़े हुए थे जिनके बारे में उन्हें थोड़ा सा भी लगता था कि इन्हें भगत सिंह से सहानुभूति हो सकती है. इनमें नेहरू, पटेल और मालवीय से लेकर तेजबहादुर सप्रू तक थे. माना जाता है कि भगत सिंह की फांसी के बाद ब्रिटिश इंटेलिजेंस को यह देखने तक के लिए लगाया गया था कि इस पर गांधी, नेहरू और पटेल इत्यादि की व्यक्तिगत प्रतिक्रिया क्या थी.
लेकिन अंतिम अवस्था तक आते-आते गांधी को भगत सिंह के प्रति बहुत अधिक सहानुभूति हो चली थी. जब भगत सिंह को तय समय से एक दिन पहले ही फांसी दिए जाने की खबर मिली तो गांधी काफी देर के लिए मौन में चले गए थे. 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह की फांसी के संबंध में दिए गए अपने वक्तव्य में गांधी ने कहा था- ‘भगत सिंह और उनके साथी फांसी पाकर शहीद हो गए हैं. ऐसा लगता है मानो उनकी मृत्यु से हजारों लोगों की निजी हानि हुई है. इन नवयुवक देशभक्तों की याद में प्रशंसा के जो शब्द कहे जा सकते हैं, मैं उनके साथ हूं. ...मेरा निश्चित मत है कि सरकार द्वारा की गई इस गंभीर भूल के परिणामस्वरूप स्वतंत्रता प्राप्त करने की हमारी शक्ति में वृद्धि हुई है और उसके लिए भगत सिंह और उनके साथियों ने मृत्यु का वरण किया है.’
भगत सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए गांधी ने 29 मार्च, 1931 को गुजराती नवजीवन में लिखा था- ‘वीर भगत सिंह और उनके दो साथी फांसी पर चढ़ गए. उनकी देह को बचाने के बहुतेरे प्रयत्न किए गए, कुछ आशा भी बंधी, पर वह व्यर्थ हुई. भगत सिंह को जीवित रहने की इच्छा नहीं थी; उन्होंने माफी मांगने से इनकार किया. यदि वे जीते रहने को तैयार होते, तो या तो वह दूसरों के लिए काम करने की दृष्टि से होता या फिर इसलिए होता कि उनकी फांसी से कोई आवेश में आकर व्यर्थ ही किसी का खून न करे. भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन वे हिंसा को भी धर्म नहीं मानते थे. वे अन्य उपाय न देखकर खून करने को तैयार हुए थे. उनका आखिरी पत्र इस प्रकार था : ‘मैं तो लड़ते हुए गिरफ्तार हुआ हूं. मुझे फांसी नहीं दी जा सकती. मुझे तोप से उड़ा दो, गोली मारो.’ इन वीरों ने मौत के भय को जीता था. इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों.’
हालांकि अहिंसा के पुजारी गांधी हमेशा ही चेताते रहे कि तमाम शहादत और नेकनीयती के बावजूद जांबाज क्रांतिकारियों के हिंसामार्ग का अतिशयोक्तिपूर्ण महिमामंडन न हो. वैसे भी, यदि लाला लाजपत राय की मौत का बदला और लाहौर षड्यंत्र केस की छाया न पड़ती, तो भगतसिंह की वैचारिकी का स्तर अपने समय के महानतम विचारकों को जाकर छूता था. महज बीसेक साल का एक नौजवान जिसके हृदय में मनुष्यमात्र की अंतिम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आज़ादी के लिए छटपटाहट थी. और वह क्रांतिकारी जवानी ही क्या जिसकी आध्यात्मिकता की शुरुआत प्रचंड नास्तिकता से न होती हो? इसलिए यदि भगतसिंह स्वयं जीते रहते, तो गांधी का इतना बुरा न मानते. ठीक वैसे ही, जैसे सुभाषचंद्र बोस ने अंत तक महात्मा गांधी के प्रति श्रद्धा रखी. भगतसिंह की क्रांतिकारिता को समझने के लिए जिस स्तर की करुणा हमें चाहिए होगी, शायद वैसी ही करुणा गांधी की स्थिति को समझने के लिए हममें समानुभूति भी पैदा करेगी.(satyagrah)
खुले बाजार के सामने निष्कवच महसूस कर रहे किसानों का भरोसा तो तभी बहाल होगा जबकि मंडियों की बाबत कुछ ठोस कदम उठाए जाएं जिनकी मार्फत वे अबतक अपना माल बेचते रहे थे। और न्यूनतम समर्थन को नए कृषि कानून का स्थायी भाग बनाया जाए।
-मृणाल पाण्डे
राज्यसभा में जिस तरह मत विभाजन की मांग करने वाले विपक्ष को दूर हंकालते हुए ध्वनिमत से किसानों के जीवन- मरण से जुड़े बिल पारित कराए गए, उस पर देश भर में गुस्सा भी है और अचरज भी। क्या हमारे माननीय सांसद और सदनों के नेता नहीं जानते थे कि वजहें जो हों, भारत सरीखे कृषि प्रधान देश में आज किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और मंडियों का भारी महत्व है। और यह भी, कि हमारे देश के 80 फीसदी किसान छोटे और हाशिये की श्रेणी में आते हैं जिनको विश्व की बड़ी व्यापारी कंपनियों से सीधे जुड़ने में बहुत समय लगेगा। कहा जा रहा है कि कृषि को अब सहकारिता की तरफ ले जाना होगा। जिस युग में बैंकों सहित हर तरह के सहकारी उपक्रम दिवालिया हो चले हों, वहां किसानों के लिए यह सलाह भी सहज उनके गले से नहीं उतरती।
पुराने पत्रकारों को यह देख कर भी अचरज हुआ कि राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश जो अपने संपादकीय वर्षों में अपने नीर, क्षीर, विवेकी संपादन के लिए जाने जाते थे, जिन्होंने अपने यशस्वी अखबार ‘प्रभात खबर’ को झारखंड की जनता की आवाज बना कर बिहार से झारखंड को जुदा करवाने की सफल मुहिम छेड़ी थी, ऐसी निर्ममता से विपक्ष की मत विभाजन की मांग को अनसुनी करते हुए पुरजोर विरोध करने वालों को सदन से बाहर कर ध्वनिमत से बिल को पारित करवा देंगे। यह मानना असंभव है कि उनको यह जानकारी न रही होगी कि कायदे से अगर विपक्ष का एक भी सदस्य किसी बिल पर मत विभाजन की मांग करे तो अध्यक्ष द्वारा मत विभाजन कराया जाना अनिवार्य बनता है। यह भी हम अनदेखा नहीं कर सकते कि इससे तनिक पहले खुद सत्तापक्ष के सहयोगी अकाली दल की महत्वपूर्ण मंत्री हरसिमरत कौर बादल भी इसी बिल के विरोध में पद त्याग कर चुकी थीं। पर अब जब बात हाथ से निकलने लगी है तो सारा सत्तापक्ष ‘प्रभात खबर’ को नवगठित झारखंड की आवाज बना देने वाले हरिवंश को आज बिहार का सपूत और उनका सांसदों द्वारा किया गया अपमान बिहार का अपमान बता रहा है। हिंदी के कतिपय सोशल मीडिया मंचों ने भी उनके द्वारा सुबह-सुबह खुद जाकर निष्कासित अष्टछापी सांसदों के लिए चाय लाने पर अहो साधु, अहो धरतीपुत्र करना चालू कर दिया है। लेकिन खबर है कि धरने पर बैठे सांसदों ने उनके द्वारा लाई गई चाय को पीने से इनकार कर दिया। पर पहले सारे देश की नजरों के सामने उनको सदन से दर बदर करने के बाद सादर चाय पिला देने से क्या पुराना मनोमालिन्य धुल जाता है? यह सच होता तो क्या दिल्ली से अहमदाबाद तक कई प्याले चाय पीकर लौटे चीन के शी जिनपिंग की सेना आज हमारी सीमा पर गुर्राते हुए यूं जबरन डटी दिखती?
आंदोलन के फैलने के आसार हुए तो घरेलू मंच पर सरकार अब हर चंद बचाव की मुद्रा में नजर आ रही है। तीन वरिष्ठ मंत्री बचाव को उतारे गए। कृषि मंत्री ने चालू सीजन की रबी फसल समेत अगले 2 साल की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने का ऐलान कर दिया। मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आंकड़ों की ढेरी लगा कर बताया कि किस तरह उनकी सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार की तुलना में दोगुनी उपज खरीदी है। लेकिन पूछना होगा कि यही समर्थन मूल्य का मुद्दा बिल के मसौदे से काहे गायब रहा और तकरार की वजह बना? खुले बाजार के सामने निष्कवच महसूस कर रहे किसानों का भरोसा तो तभी बहाल होगा जबकि मंडियों की बाबत कुछ ठोस कदम उठाए जाएं जिनकी मार्फत वे अबतक अपना माल बेचते रहे थे। और न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे को दो-तीन बरस की फसलों से ही जोड़ने की बजाय नए कृषि कानून का स्थायी भाग बनाया जाए।
महाभारतकार ने शायद ठीक ही लिखा था कि मंत्रिमंडल में वे ही लोग शामिल हों जिन्होंने कभी खुद हल की मूठ थामी हो। सौ बात की एक बात यह कि किसानों का असली डर बिल के मसौदे से नहीं, उसकी पृष्ठभूमि को लेकर उपजा है। निजी खरीदार कौन होंगे? कहां के होंगे? क्या बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां देर-सबेर जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने काम की फसल उगाने के लिए विकट दबाव 19वीं सदी में बिहार-बंगाल के निलहों पर डाला था, वै सा ही बरताव उनके साथ तो न करेंगी?
आम नागरिकों को भी कई तरह की शंकाएं हैं। पहली यह कि सरकार को यदि इस सत्र में शिक्षा, कृषि और श्रम जैसे जन-जन से जुड़े मुद्दों पर अहम विधेयक लाने थे तो उन पर बाकायदा उभयपक्षी और लोकतांत्रिक बहस के लिए वाजिब समय तय करना भी सरकार की जिम्मेदारी थी। कोविड काल में समयाभाव अगर इस सत्र की विवशता थी तो इतने महत्व के विधेयक पर चर्चा भी जरूरी थी। पर प्रश्नकाल स्थगित किया गया, फिर कोविड संक्रमण को देखते हुए (जो वाजिब था) एक ही भवन में दोनों सदनों के बारी-बारी आधे-आधे दिन बैठने की व्यवस्था की गई। दोनों कदमों ने सीमित समय को और सीमित कर दिया। फिर कहा गया कि सत्र को संक्रमण का खतरा बढ़ते जाने के कारण घोषित अवधि से पहले ही खत्म करना होगा। इन सब बातों से वे सच हों न हों, जनता के बीच यह संदेश जा रहे हैं कि सरकार को कतिपय वजहों से बिल पारित कराने की इतनी हड़बड़ी है कि वह किसी तरह की बहस या प्रतिवाद में रमने की बजाय अपने संख्या बल से क्षेत्रीय भावनाओं को परे कर दोनों सदनों को हांकना सही मान रही है।
यह सच है कि पहले दूसरी सरकारें भी इस तरह की हड़बड़ी की दोषी रही हैं। लेकिन संघीय ढांचे और राज्यों की सूची में आने वाले विषयों पर दमदार बहस से उनकी इच्छा-अनिच्छा जान कर जरूरी संशोधन करने के प्रति इस तरह का उपेक्षा भावनया है। इसमें भी शक नहीं कि मंडियां और समर्थन मूल्य राजनीतिक भ्रष्टाचार के मठ बनते रहे हैं और बिचौलियों की जमाखोरी तथा स्टोरेज व्यवस्थान होने से सतत कर्जे में डूबे छोटे किसानों को अपनी मेहनत का वाजिब मोल शायद कभी मिल नहीं पाया। लेकिन नई व्यवस्था उससे फर्क होगी, इसके लिए इस विधेयक पर दमदार बहस होनी ही नहीं, होती हुई दिखनी भी थी। पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच संसद के मान्य नियम-कायदों की जो जोड़ने वाली लंबी ऐतिहासिक श्रृंखला अबतक सबने स्वीकार की, उसका यह सार्वजनिक तिरस्कार जनता को बहुत शोभनीय, न्यायसंगत या विधिसम्मत नहीं लगता।
भारत में खेती सिर्फ अर्थशास्त्र नहीं बल्कि प्राण को यथा संभव बचाने की विधि है। इससे हमारी सदियों की सामाजिक मान्यताएं, मनो वैज्ञानिक जुड़ाव और धार्मिक परंपराएं भी रक्तवाहिनियों की तरह जुड़ी हुई हैं। इतनी बड़ी महामारी के बीच भी भारतीय अर्थव्यवस्था की नाक अगर किसी उद्योग ने बचाई तो वह किसानी ही है। उस किसानी को नए रूप में किसानों के लिए पर्याप्त मुनाफे से जोड़ने के लिए किसानों को फसलों तक सीमित न्यूनतम दाम से जोड़ देना, जय किसान के नारे लगाना या चारेक साफा पहने किसानों को दूरदर्शन पर हाथ में धान की बालियां लिए हुए दिखाना नाकाफी होगा। उनको स्थायी बचत, बचत जमा करने के लिए ईमानदारी से चलाए जा रहे अनेक बैंक, कृषि उद्योग पर आधारित उद्योगों का तानाबाना और उनके पशुधन की जरूरी खरीद-फरोख्त के बारे में गैर राजनीतिक सोच से फैसले लेने होंगे। नई खेती हमारी ड्योढ़ी पर भले हो, अभी वह हमारे घर के भीतर नहीं आई है। अन्नपूर्णा को बिठाने के लिए सरकार को अपनी ड्योढ़ी अधिक ऊंची और अपना आचरण अधिक विनम्र बनाना होगा।(navjivan)
कृष्ण कांत
फांसी से ठीक पहले भगत सिंह के वकील प्राणनाथ मेहता उनसे मिलने पहुंचे। भगत सिंह ने मुस्कराते हुए स्वागत किया और पूछा, आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए हैं? मेहता ने उन्हें किताब थमा दी और वे तुरंत पढऩे लगे।
मेहता ने पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से पढ़ते हुए ही जवाब दिया, ‘सिर्फ दो संदेश... साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इंकलाब जिंदाबाद!’
इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को मेरा धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने मेरे केस में गहरी रुचि ली थी।
तीनों क्रांतिकारियों को फांसी के लिए उनकी कोठरियों से बाहर निकाला गया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने हाथ जोड़े और अपना प्रिय आज़ादी गीत गाने लगे-
कभी वो दिन भी आएगा,
कि जब आजाद हम होंगे
ये अपनी ही जमीं होगी,
ये अपना आसमां होगा।
जेल प्रशासन ने तीनों साथियों का वजन कराया तो तीनों के वजऩ बढ़ गए थे। शाम के 6 बजे, कोई धीमी आवाज में गा रहा था, ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...’ कैदियों को अधिकारियों के आने की आहट चुनाई दी, जेल में ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘हिंदुस्तान आज़ाद हो’ के नारे गूंजने लगे। तीनों साथियों को ले जाकर एक साथ फांसी के तख्ते पर खड़ा कर दिया गया।
भगत सिंह ने अपनी मां से वादा किया था कि वे फांसी पर चढ़ते हुए ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाएंगे। लाहौर जिला कांग्रेस के सचिव पिंडी दास सोंधी का घर लाहौर सेंट्रल जेल बगल में ही था। भगत सिंह ने इतनी जोर से ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाया कि उनकी आवाज पिंडी दास के घर तक सुनाई दी। भगत सिंह की आवाज सुनते ही जेल के सारे कैदी भी इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाने लगे।
एक जेल अधिकारी से कहा गया कि वो मृतकों की पहचान करे। लेकिन फांसी के बाद उस पर इतना बुरा असर हुआ कि उसने पहचान करने से इनकार कर दिया। उसे उसी जगह पर निलंबित कर दिया गया।
जेल के वॉर्डन चरत सिंह से भगत सिंह की खूब छनती थी। फांसी के बाद चरत सिंह धीरे धीरे चलते हुए अपने कमरे में गए और फूट-फूट कर रोने लगे। अपने 30 साल के पुलिसिया जीवन में उन्होंने सैकड़ों फांसियां देखी थीं, लेकिन किसी को ऐसी बहादुरी से मौत को गले नहीं लगाते नहीं देखा था। भगत सिंह को जब पता चला कि उनके पिता फांसी की सजा को माफ करने के लिए अपील करने वाले हैं तो वे पिता पर बहुत नाराज हुए। उनका कहना था कि ‘इसके लिए मैं आपको माफ नहीं करूंगा।’
भगत सिंह के पिता से लेकर महात्मा गांधी तक ने बार-बार यह कोशिश की कि भगत सिंह माफी मांग लें और हिंसा छोडऩे का वादा करें। इस आधार पर अंग्रेजों पर उनकी सजा कम करने या माफ करने का दबाव डाला जा सके। लेकिन भगत सिंह और उनके दो कॉमरेडों ने बार बार पुलिस के सामने, जज के सामने, हर कहीं ऐलान किया था कि ‘युद्ध छिड़ा हुआ है और हम इस युद्ध का हिस्सा हैं। हमें इस पर गर्व है।’ अंतत: तीनों नायकों ने मौत को भी जीत लिया।
यह शहादत बेकार नहीं गई। भगत सिंह और साथियों की शहादत ब्रिटिश साम्राज्य की ताबूत में आखिरी कील थी। इस महान शहादत के 16 साल बाद भारत की जनता ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को दफना दिया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों ने संयुक्त राष्ट्र में जो भाषण दिए, क्या उनकी तुलना की जा सकती है? जब कल सुबह मैंने इमरान खान का भाषण सुना तो मुझे लगा कि शाम को नरेंद्र मोदी अपने भाषण में उसके परखच्चे उड़ा देंगे। कुछ टीवी चैनल भी यही कह रहे थे लेकिन जो सोचा था, वह हुआ नहीं। होता भी कैसे ? प्रधानमंत्री के ये भाषण पहले से रिकॉर्ड किए हुए होते हैं। मोदी को क्या पता था कि इमरान खान भारत पर इतना जहरीला हमला करेंगे। यों भी ये आज के प्रधानमंत्री नेहरू और नरसिंहराव की तरह नहीं हैं, जो अपने भाषण खुद लिखते थे। या तत्काल दे देते थे। अब तो अफसरों ने जो लिख दिया, वही नेता लोग पढ़ डालते हैं। जाहिर है कि इमरान का भाषण किसी पाकिस्तानी फौजी अफसर का लिखा हुआ था। उसमें न तो पाकिस्तान की अर्थ-व्यवस्था का कोई जिक्र था, न ही इमरान सरकार के द्वारा किए गए रचनात्मक कार्यों का विवरण था और न ही विश्व-शांति के किसी काम में पाकिस्तान के योगदान का उल्लेख था। इमरान का भाषण पूरी तरह भारत पर केंद्रित था। उसमें पाकिस्तान द्वारा आर्थिक मदद के लिए झोली फैलाने का जिक्र जरूर था लेकिन इसके विपरीत मोदी के भाषण में कहीं भी पाकिस्तान का नाम तक नहीं था। उन्होंने किसी भी राष्ट्र पर सीधे या घुमा-फिराकर हमला नहीं किया। उन्होंने यह जरुर कहा कि किसी राष्ट्र (अमेरिका) के साथ दोस्ती का अर्थ यह नहीं कि किसी अन्य राष्र्ट (चीन) से भारत की दुश्मनी है।
उन्होंने विश्व-परिवार की भावना का आह्वान किया, उनकी सरकार द्वारा किए गए लोक-सेवा के कार्यों को गिनवाया, दुनिया के देशों में भारत की शांति-सेनाओं के योगदान को रेखांकित किया और संयुक्त राष्ट्र संघ के नवीनीकरण की मांग की। 75 वर्ष की संस्था के चेहरे से बुढ़ापे की झुर्रिया हटाकर उसे जवान बनाने का नारा लगाया। कोरोना के इस विश्व-संकट से उबरने में भारत की भूमिका को स्पष्ट किया। उन्होंने भारत की क्षमता और सामर्थ्य का बड़बोला गुणगान करने की बजाय मर्यादित शब्दों में मांग की कि उसे उसका उचित स्थान मिलना चाहिए। दूसरे शब्दों में मोदी ने इस विश्व-मंच का इस्तेमाल इस तरह से किया कि भारत की विश्व-छवि में चार चांद लगे और इमरान ने इस तरह किया कि पाकिस्तान दुनिया की नजरों में दया का पात्र बन गया।
जैसा कि मैं इमरान को जानता हूं, इसमें शायद इमरान का दोष बहुत कम होगा। दोष उसी का है, जिसने उन्हें गद्दी पर बिठाया है। अपनी फौज की आवाज को उन्होंने सं. रा. में गुंजाया और मोदी ने अपने देश की आवाज को। दोनों के भाषणों की तुलना करें तो आपको पता चल जाएगा कि कौन किसकी बोली बोल रहा था?
(नया इंडिया की अनुमति से)
ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र भी अछूता नहीं रहा है। इसके कारण लगातार समुद्री हीटवेव (लू) और इसकी अवधि बढ़ रही है। हाल ही में नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित एक शोध में कहा गया है कि आने वाले दशकों में महासागरों में समुद्री हीटवेव की तीव्रता बढ़ने के आसार हैं।
वहीं, एक नए शोध में कहा गया है कि इंसानों के कारण विश्व के महासागरों में हीटवेव (लू) की तीव्रता 20 गुना अधिक बढ़ गई है। समुद्री हीटवेव की वजह से पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचता है, जिससे समुद्र की मछलियां मर सकती हैं। स्विट्जरलैंड के बर्न विश्वविद्यालय में ओशगेर सेंटर फॉर क्लाइमेट रिसर्च के शोधकर्ता ने इस बात का पता लगाया है।
समुद्री हीटवेव एक ऐसी अवधि है, जब किसी विशेष महासागर क्षेत्र में पानी का तापमान असामान्य रूप से अधिक होता है। हाल के वर्षों में इस तरह की हीटवेव के कारण समुद्रों और उनके तट की पारिस्थितिकी प्रणालियों में काफी बदलाव हुआ है। समुद्री हीटवेव से पक्षियों, मछलियों और समुद्री स्तनधारियों की मृत्यु दर बढ़ सकती है। समुद्र में हानिकारक शैवाल (ऐल्गल) उग सकते हैं, और समुद्र में पोषक तत्वों की आपूर्ति को कम कर सकते हैं। हीटवेव मूंगा विरंजन (कोरल ब्लीचिंग) का कारण भी बनता है और मछलियों को ठंडे पानी की ओर जाने के लिए मजबूर करता है।
बर्न स्थित समुद्री वैज्ञानिक शार्लोट लॉफकोटर के नेतृत्व में शोधकर्ता इस सवाल की जांच कर रहे हैं कि हाल के दशकों में मानवविज्ञानी (एन्थ्रोपोजेनिक) जलवायु परिवर्तन प्रमुख समुद्री हीटवेव को कैसे प्रभावित कर रहा है। हाल ही में साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन में शार्लोट लॉफकोटर, जैकब ज़स्किस्क्लेर और थॉमस फ्रॉलीचर ने निष्कर्ष निकाला है कि ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप इस तरह की घटनाएं बड़े पैमाने पर बढ़ गई है। विश्लेषण से पता चला है कि पिछले 40 वर्षों में दुनिया के सभी महासागरों में समुद्री हीटवेव काफी लंबी अवधि तक बढ़ी है।
शार्लोट लॉफकोटर बताते हैं, हाल ही में हीटवेव का समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों पर गंभीर प्रभाव पड़ा है, जिसे पूरी तरह से ठीक होने में लंबा समय लग सकता है।
1980 के दशक के बाद से हीटवेव में भारी वृद्धि हुई है
बर्न टीम ने अपनी जांच में 1981 और 2017 के बीच समुद्र की सतह के तापमान को जानने के लिए उपग्रह माप का अध्ययन किया। यह पाया गया कि अध्ययन की अवधि के पहले दशक में 27 प्रमुख हीटवेव हुए, जो औसतन 32 दिन तक चले। वे दीर्घकालिक औसत तापमान से 4.8 डिग्री सेल्सियस अधिकतम पर पहुंच गए। हाल के दशक में विश्लेषण किया जाए तो 172 प्रमुख घटनाएं हुईं, जो औसतन 48 दिनों तक चलीं और लंबी अवधि के औसत तापमान से 5.5 डिग्री तक पहुंची। समुद्र में तापमान आमतौर पर थोड़ा कम होता है। 0.15 करोड़ (1.5 मिलियन) वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में 5.5 डिग्री के एक सप्ताह के लंबे समय तक बदलाव से समुद्री जीवों की रहने की स्थिति में एक असाधारण परिवर्तन होता है।
सांख्यिकीय विश्लेषण से पता चलता है कि समुद्री हीटवेव मानव प्रभाव के कारण हुआ
सबसे बड़े प्रभाव के साथ सात समुद्री हीटवेव के लिए बर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने जो अध्ययन किया है उसे एट्रिब्यूशन अध्ययन कहा जाता है। इसके आकलन करने के लिए सांख्यिकीय विश्लेषण और जलवायु सिमुलेशन का उपयोग किया जाता है। मौसम की स्थिति या जलवायु में व्यक्तिगत चरम सीमाओं की घटना के लिए मानवविज्ञानी (एन्थ्रोपोजेनिक) जलवायु परिवर्तन किस हद तक जिम्मेदार है। एट्रिब्यूशन अध्ययन आमतौर पर प्रदर्शित करता है कि मानव प्रभाव के माध्यम से चरम सीमाओं की आवृत्ति कैसे बदल जाती है।
महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्यों के बिना, समुद्री पारिस्थितिक तंत्र गायब हो सकते हैं
एट्रिब्यूशन अध्ययनों के निष्कर्षों के अनुसार, प्रमुख समुद्री हीटवेव मानव प्रभाव के कारण 20 गुना अधिक हो गए हैं। जबकि वे पूर्व-औद्योगिक युग में हर सौ या हजार साल बाद हुए, ग्लोबल वार्मिंग की प्रगति के आधार पर, भविष्य में वे आदर्श बनने के लिए तैयार हैं। यदि हम ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित करने में सक्षम हैं, तो हीटवेव हर दशक या शताब्दी में एक बार आएगी। यदि तापमान में 3 डिग्री की वृद्धि होती है, तो दुनिया के महासागरों में प्रति वर्ष या दशक में एक बार चरम स्थिति होने की आशंका जताई जा सकती है।
शार्लोट लॉफकोटर ने जोर देते हुए कहा महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य समुद्री हीटवेव के जोखिम को कम करने के लिए अति आवश्यकता है। वे सबसे मूल्यवान समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों में से कुछ को होने वाली हानि को रोकने का एकमात्र तरीका हैं।(DOWNTOEARTH)
-कनक तिवारी
28 सितंबर, 1991 को आखिरकार शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर ही दी गई। जिंदगी और मौत के बीच एक जोखिम भरे व्यक्तित्व ने अपनी आखिरी साँस उन मजदूर साथियों के लिए तोड़ दी, जिनके लिए नियोगी का नाम अमर रहेगा। रात के घने अंधकार में छत्तीसगढ़ के ट्रेड यूनियन का एक रोशन सितारा बंदूक की गोलियों ने ओझल कर दिया। नियोगी धूमकेतु की तरह ट्रेड यूनियन के आकाश में अचानक उभरे थे। कॉलेज की अपनी पढ़ाई छोडक़र साधारण मजदूर की तरह जिंदगी के शुरुआती दौर में जबर्दस्त विद्रोह, अडिय़लपन और संघर्षधर्मी तेवर लिए शंकर गुहा नियोगी ने राजहरा की चट्टानी जमीन पर तेजी से जगह बनानी शुरू कर दी। बमुश्किल पांच बरस के ट्रेड यूनियन जीवन में ही नियोगी में शीर्ष नेता की शक्ल उभरने लगी थी। फिर दो दशक शंकर गुहा नियोगी व्यवस्था की आँख की किरकिरी, मजदूरों के रहनुमा और बुद्धिजीवियों की जिज्ञासा के आकर्षण केन्द्र बने रहे। उनके रहस्यमय विद्रोही और विरोधाभासी व्यक्तित्व में अनेक विसंगतियाँ भी ढूंढ़ी जाती थीं। उनके इर्द-गिर्द आलोचकों के तिलिस्मी मकडज़ाल चटखारे लेकर बुने जाते। उन्हें नक्सलवादी, आतंकवादी, हिंसक, षडय़ंत्रकारी, सी.आई.ए. का एजेंट और न जाने कितने विशेषणों से विभूषित किया गया। नियोगी का व्यक्तित्व धीरे-धीरे विराटतर होता जा रहा था। ट्रेड यूनियन आंदोलन से ऊपर उठकर वे समाज सेवा, पर्यावरण, राजनीतिक चिंतन और सामाजिक आंदोलनों के पर्याय भी बन गए थे। अपने युवा जीवन में ही नियोगी ने इतनी उपलब्धियाँ हासिल कर ली थीं , जो आम तौर पर एक व्यक्ति को बहुआयामी बनकर हासिल करना संभव नहीं है।
शंकर गुहा नियोगी राजहरा के भयंकर गोलीकांड के हीरो के रूप में उभरे थे। लोग तो अब भी कहते हैं कि व्यवस्था की साजिश उस समय भी यही थी कि गोलीकांड में नियोगी को खत्म कर दिया जाए ताकि प्रशासन की नाक में दम करने वाला दुर्धर्ष व्यक्ति व्यवस्था के रास्ते से सदैव के लिए हटा दिया जाए। यह नियोगी सहित मजदूरों और अन्य जीवंत सामाजिक कार्यकर्ताओं का सौभाग्य था कि नियोगी गोली के शिकार नहीं हुए। पुलिस द्वारा अचानक गिरफ्तारी के बाद मैंने नियोगी की रिहाई के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और बाद में उन्हें जब राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत निरोधित किया गया, तब भी एक जागरूक नागरिक के नाते नियोगी की मदद करना मैंने अपना कर्तव्य समझा। ऐसा नहीं है कि उनसे वैचारिक मतभेद नहीं थे। दलीय धरातल पर हमने चुनाव के मैदान तथा अन्य मुद्दों पर एक-दूसरे का विरोध और समर्थन भी किया लेकिन इस जाँबाज नेता में वैयक्तिक समीकरण के रिश्तों को गरमा देने की अद्भुत क्षमता थी। नियोगी को राजनीति की अधुनातन घटनाओं की गंभीर से गंभीर और बारीक से बारीक जानकारियाँ रहती थीं। उनके चिंतन में बेरुखी, फक्कड़पन और बेतरतीबी थी। एक लड़ाकू श्रमिक नेता होने के नाते उनसे व्यवस्थित चिंतन की बौद्धिक कवायद की उम्मीद नहीं की जा सकती थी लेकिन नियोगी और उनके समर्थकों ने राजनीतिक मतभेद के बावजूद हममें से कई ऐसे लोगों के साथ व्यक्तिगत समझदारी के संबंध बना रखे थे जिससे हम दोनों के समर्थकों को कई बार कोफ्त भी होती थी।
राजहरा शंकर गुहा नियोगी की बुनियादी कर्मभूमि रही है। यहीं उन्होंने पुलिस की गोली से अपने साथियों को जिंदा आदमी से लाश में तब्दील होते देखा और शहीदों का कीर्ति स्तम्भ बनवाया। उन्होंने मद्य निषेध का ढिंढोरा पीटे बिना शराबखोरी की सामाजिक व्याधि के खिलाफ एकाएक जेहाद बोला। मजदूरों की सेवा शर्तों में सुधार के मामलों को लेकर वे अव्वल दर्जे के जिद्दी और सनकी राजनेता से लेकर एक व्यावहारिक , समझदार आदमी तक की भूमिका निभाते रहे लेकिन मजदूरों और समर्थकों के लिए हर समय निष्ठावान रहे। उनमें प्रकृति, परिवेश, पर्यावरण और परम्परागत भारतीय मूल्यों के प्रति गहरी आस्था थी। नियोगी में दक्षिण पंथी प्रतिक्रियावाद और किताबी साम्यवाद दोनों के प्रति एक जैसी अनास्था थी। वे कांग्रेस की मिश्रित अर्थ व्यवस्था अथवा मध्यमवर्गीय राजनीति विचारधारा को भी नापसंद करते थे। इस युवा बंगाली नेता में मुझे नौजवान बंगाल के बहादुर नेताओं की झलक दिखाई देती थी। वे विवेकानंद, सुभाषचंद्र बोस और भारत के असंख्य क्रांतिकारियों के प्रति अभिभूत होकर बात करते थे। छत्तीसगढ़ के आदिवासी शहीद वीर नारायण सिंह की चर्चा होने पर उन्होंने बहुत गंभीरता के साथ इस व्यक्तित्व को अपने स्थानीय मिशन को अंजाम देने में आत्मसात किया। नारायण सिंह को आदिवासियों की अस्मिता, स्वाभिमान और अस्तित्व का प्रतीक बनाकर नियोगी ने एक स्थानीय आंदोलन चलाया। उनकी लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए कुछ नेताओं को सरकार के स्तर पर नारायण सिंह की याद में स्मारकों की घोषणा करनी पड़ी परंतु तब तक नियोगी लोकप्रियता की पायदान चढ़ते, आगे बढ़ते चले जा रहे थे।
लगता था शंकर गुहा नियोगी को अपनी हत्या का पूर्वाभास तो था लेकिन वे इसे बातों में हँस कर उड़ा देते थे। उन्हें अपने साथियों की निष्ठा पर अटूट विश्वास था। नियोगी अपने साथियों के लिए पूर्ण समर्पण की भावनाओं से ट्रेड यूनियन के आंदोलन को हथियार की तरह उठाए यहाँ से वहाँ घूमते रहते थे। नई दिल्ली में एक बार सर्दी की सुबह छ: बजे जब वे किसी काम से मेरे पास आए तो मैंने इस बात को खुद अपनी आंखों से देखा था कि वे काफी दूर से टैक्सी या आटो रिक्षा किए बिना पैदल ही चले आ रहे थे। उनके आलोचक उनके पास लाखों रुपये का जखीरा होने का ऐलान करते थे। उनकी यूनियन के पास जनशक्ति के अतिरिक्त धनशक्ति यदि हो तो इसमें कोई ऐतराज की बात नहीं थी लेकिन नियोगी ने मजदूरों के समवेत स्त्रोत से एकत्रित धनशक्ति की अपने तईं बरबादी नहीं की। यह बात नियोगी के नजदीक रहने वाले बहुत अच्छी तरह जानते हैं।
शंकर गुहा नियोगी के व्यक्तित्व में एक साथ गांधी, माक्र्स और सुभाष के विचारों का मिश्रण था। वे कठमुल्ला माक्र्सवादी भी नहीं थे, जिस व्यवस्था में मानवीयता के गुणों को कोई जगह नहीं है। इसी तरह वे प्रजातंत्र की आड़ में अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों के साम्राज्यवादी हथकंडों के भी सख्त खिलाफ थे। नियोगी आज़ादी के बाद एक वर्ग के रूप में उपजे हुए नौकरशाहों के भी पक्षधर नहीं थे। इतनी विसंगतियों के बावजूद छत्तीसगढ़ जैसे शांत, दब्बू और घटनाविहीन इलाके में नियोगी ने लोकतांत्रिक मूल्यों के सहारे एक भूकम्प की तरह प्रवेश किया। उन्होंने राजनीति, श्रमिक यूनियन या सामाजिक कुरीतियों के क्षेत्र में जेहाद बोलने से कहीं बढक़र मनोवैज्ञानिक धरातल पर काम किया। नियोगी भविष्य की पीढिय़ों में छत्तीसगढ़ के औसत आदमी की मनोवैज्ञानिक बुनियाद को बदलकर संघर्षधर्मी बीजाणु उत्पन्न करने के लिए शलाका पुरुष के रूप में स्थायी तौर पर याद रखे जाएंगे। उन्होंने छत्तीसगढ़ के खेतिहर मजदूरों और श्रमिकों की रीढ़ की हड्डी को सीधा कर एक ऐसी राजनीतिक शल्य चिकित्सा की जो छत्तीसगढ़ के श्रमिक आन्दोलन में किया गया पहला प्रयोग है। वे हताश व्यक्ति की तरह नहीं लेकिन मूल्यों के युद्ध में ठीक मध्यान्तर की स्थिति में एक बेशर्म गोलीकांड के शिकार हुए।
शंकर गुहा नियोगी एक तरह के रूमानी नेता थे जो जरूरत पडऩे पर ‘एकला चलो’ की नीति का पालन भी करते थे। उनकी राजनीतिक समझ का लोहा वे लोग भी मानते थे जिनके लिए नियोगी सिरदर्द बने हुए थे। तमाम कटुताओं, तल्खियों और नुकीले व्यक्तित्व के बावजूद नियोगी ने कई बार राजनीतिक वाद-विवाद में अपने तर्कों को संशोधित भी किया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में जब सभी विरोधी दलों ने मिलकर ‘भारत बंद’ का आयोजन किया तो छत्तीसगढ़ में नियोगी अकेले थे जिन्होंने अपने साथियों को काम पर लगाए रखा। उन्होंने प्रस्तावित भारत बंद को देशद्रोह की संज्ञा दी। वे निजी तौर पर कई मुद्दों पर राजीव गांधी के प्रशंसक भी बन गए थे और अन्य किसी भी नेता को देश की समस्याओं को सुलझाने के लायक उनसे बेहतर नहीं मानते थे। राजीव की मौत के बाद वे मेरे पास घंटों गुमसुम बैठे रहे जैसे उनका कोई अपना खो गया हो। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में निरोधित किए जाने के बाद जब उच्च न्यायालय के आदेश से उनकी रिहाई हुई तो नियोगी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी मिले। इंदिरा जी ने नियोगी को पर्याप्त समय देकर उन मुद्दों को समझने की कोशिश की जिनकी वजह से नियोगी प्रशासन के लिए चुनौती बने रहते थे।
कहने में अटपटा तो लगता है लेकिन अपने जीवन काल में नियोगी ने मजदूरों , किसानों और अपने समर्थकों के दिमागों के रसायन शास्त्र को जितना नहीं बदला उतना उसकी मौत की एक घटना ने कर दिखाया। लाखों मजदूरों के चहेते इस नेता की कायर तरीके से निर्मम हत्या कर दी जाए लेकिन उसके बाद भी बिना किसी पुलिस इंतजाम के उनके समर्थक हिंसा की वारदात तक नहीं करें, ऐसा कहीं नहीं हुआ। नियोगी के शव के पीछे मीलों चलकर मैंने यह महसूस किया कि जीवन का सपना देखने का अधिकार केवल उसको है जो अपनी मृत्यु तक को इस सपने की बलि वेदी पर कुर्बान कर दे। इसीलिए नियोगी व्यक्ति नहीं विचार है। पहले मुझे ऐसा लगा जैसे नियोगी के शव के रूप में एक मशाल पुरुष जीवित होकर चल रहा है और उसके पीछे चलते हजारों व्यक्तियों की भीड़ जिन्दा लाशों की शव यात्रा है। फिर ऐसा लगा कि यह तो केवल भावुकता है। शंकर गुहा नियोगी का शव फिर मुझे एक जीवित किताब के पन्नों की तरह फडफ़ड़ाता दिखाई दिया और उसके पीछे चलने वाली हर आँख में वह सपना तैरता दिखाई दिया। प्रसिद्ध विचारक रेजिस देब्रे ने कहा है कि क्रान्ति की यात्रा में कभी पूर्ण विराम नहीं होता। क्रान्ति की यात्रा समतल सरल रेखा की तरह नहीं होती। क्रान्ति की गति वर्तुल होती है और शांत पड़े पानी पर फेंके गये पत्थर से उत्पन्न उठती लहरों के बाद लहरें और फिर लहरें , यही क्रान्ति का बीजगणित है। शंकर गुहा नियोगी ने इस कठिन परन्तु नियामक गणित को पढ़ा था। बाकी लोग तो अभी जोड़ घटाने की गणित के आगे बढ़ ही नहीं पाए।
यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार ‘द पीपल’ में प्रकाशित हुआ। इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है। यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगतसिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुँचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा, प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगतसिंह ने यह लेख लिखा।
एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्त शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँ मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमजोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी। कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?
मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूँ कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है? किसी वास्तव में महान व्यक्ति की महानता को मैं मान्यता न दूँ यह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्य नहीं हूं या मेरे अन्दर वे गुण नहीं हैं, जो इसके लिये आवश्यक हैं। यहाँ तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बन्द कर दे? दो ही रास्ते सम्भव हैं। या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनो ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूँ। यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धान्त को ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वन्द्वी हूँ, न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिये आइए तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षडयन्त्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूँ।
मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था। पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लडक़ा था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढि़वादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी0 ए0 वी0 स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घण्टों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहां तक धार्मिक रूढि़वादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं। उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतन्त्रता के ध्येय के लिये अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किन्तु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आन्दोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं यहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लम्बे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी-भी सिक्ख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास न हो सका था। किन्तु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ जिस पहले नेता से मेरा सम्पर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठ पूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो।’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता, जिनके मैं सम्पर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचीन्द्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षडयन्त्र केस के सिलसिले में आजीवन कारवास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘बन्दी जीवन’ ईश्वर की महिमा का ज़ोर-शोर से गान है। उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदान्त के कारण बरसाये हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवोल्यूशनरी’ (क्रान्तिकारी) पर्चा बाँटा गया था, वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गयी है। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रान्तिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अन्तिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढि़वादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सब मे सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘ज्दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है। वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परन्तु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।
इस समय तक मैं केवल एक रोमान्टिक आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे। अब अपने कन्धों पर जि़म्मेदारी उठाने का समय आया था। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था। ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूँज रही थी विरोधियों द्वारा रखे गये तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिये अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढऩा शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढऩे का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता माक्र्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।
मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ्तार हुआ। रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफसरों ने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था, जब वहाँ काकोरी दल का मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्त किये थे, कि 1927 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिये भीड़ पर फेंका गया, कि यदि मैं क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला एक वक्तव्य दे दूँ, तो मुझे गिरफ़्तार नहीं किया जायेगा और इसके विपरीत मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किये बेगैर रिहा कर दिया जायेगा और इनाम दिया जायेगा। मैं इस प्रस्ताव पर हँसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भांति विचार रखने वाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सी0 आई0 डी0 के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो मुझ पर काकोरी केस से सम्बन्धित विद्रोह छेडऩे के षडयन्त्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिये मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे और कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व फाँसी पर लटकवाने के लिये उचित प्रमाण हैं। उसी दिन से कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे नियम से दोनो समय ईश्वर की स्तुति करने के लिये फुसलाना शुरू किया। पर अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्वयं के लिये यह बात तय करना चाहता था कि क्या शान्ति और आनन्द के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दम्भ भरता हूँ या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धान्तों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिये भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहाँ तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है। तूफान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घडिय़ों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ अहंकार नहीं वरन् कोई अन्य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। निर्णय का पूरा-पूरा पता है। एक सप्ताह के अन्दर ही यह घोषित हो जायेगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूँ। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सान्त्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा वह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जायेगी। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई जिन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएँ मिल जायेंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीडि़त मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा। वे शोषकों, उत्पीडक़ों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिये उत्प्रेरित होंगे। इस लिये नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है यहां या अगले जन्म में या मृत्योपरान्त स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शान्ति स्थापित करने के लिये इस मार्ग को अपनाना होगा। क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिये खतरनाक किन्तु उनकी महान आत्मा के लिये एक मात्र कल्पनीय रास्ता है। क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जायेगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण बोलने का साहस करेगा? या तो वह मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय मांस के एक टुकड़े की तरह मृत है। उसकी आँखों पर अन्य स्वार्थों के प्रेतों की छाया पडऩे से वे कमज़ोर हो गयी हैं। स्वयं पर भरोसा रखने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। यह दुखपूर्ण और कष्टप्रद है, पर चारा ही क्या है?
आलोचना और स्वतन्त्र विचार एक क्रान्तिकारी के दोनो अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था। अत: कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास को सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को ही चुनौती दे, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जायेगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खण्डन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखा कर दबाया नहीं जा सकता तो उसकी यह कह कर निन्दा की जायेगी कि वह वृथाभिमानी है। यह मेरा अहंकार नहीं था, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूँ कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यन्त शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है। किन्तु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अन्त: प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूँ। इस ध्येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूँ। प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है। सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है। कोई भी मनुष्य, जिसमें तनिक भी विवेक शक्ति है, वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहाँ सीधा प्रमाण नहीं है, वहाँ दर्शन शास्त्र का महत्व है। जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्व के रहस्य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य को, इसके क्यों और कहाँ से को समझने का प्रयास किया तो सीधे परिणामों के कठिन अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने ढ़ंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में हमको इतना अन्तर मिलता है, जो कभी-कभी वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्येक गोलार्ध के अपने विभिन्न मतों में आपस में अन्तर है। पूर्व के धर्मों में, इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में जरा भी अनुरूपता नहीं है। भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग है, जिसमें स्वयं आर्यसमाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाये जाते हैं। पुराने समय का एक स्वतन्त्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। हर व्यक्ति अपने को सही मानता है। दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं।
सिर्फ विश्वास और अन्ध विश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढिग़त विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेगा। तब नये दर्शन की स्थापना के लिये उनको पूरा धराशायी करके जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निमाण करना। मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न करने के सम्बन्ध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है। हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।
यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगोंं की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिये। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भत्र्सना करते हैं नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट। एक चंगेज खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खाँ से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है? ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहाँ तक उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंख़्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि, यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जायेगी? इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनन्द लूटने के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?
तुम मुसलमानो और ईसाइयो! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षत: निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति के लिये छ: दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपडिय़ों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से लेकर उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा, और अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहे सब कुछ ठीक है! क्यों और कहाँ से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है, तो मैं आगे चलता हूँ।

और तुम हिन्दुओ, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीडक़ पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अत: वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार दण्ड को अपराधी पर पडऩे वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निन्दा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिये अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है। मैं पूछता हूँ कि दण्ड प्रक्रिया की कहाँ तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यत: मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का क्या भाग्य होगा? चूँकि वह गरीब है, इसलिये पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईष्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दण्ड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दम्भी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाये रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिये कौन जिम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी सम्पत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाये इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेल, फांसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।
मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लडऩे की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पडऩे वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेडिय़ों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहां तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहां है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!
क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवत: सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।
तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।
मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घडिय़ों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिये उत्साहित करने, सभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा सम्पन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिये ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई। अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा न बन जाये। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती ह,ै तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यन्त क्लेष में हो, तब उसे इस विचार से सान्त्वना मिल सकती हे कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिये उपयोगी था। पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिये ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लडऩा होगा। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज-ब-रोज की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अत: मैं भी एक पुरुष की भांति फांसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूं।
हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।’ मैंने कहा, ‘नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूं। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।
Date Written: 1931
Author: Bhagat Singh
Title: Why I Am An Atheist (Main nastik kyon hoon)
First Published: Baba Randhir Singh, a freedom fighter, was in Lahore Central Jail in 1930-31. He was a God-fearing religious man. It pained him to learn that Bhagat Singh was a non-believer. He somehow managed to see Bhagat Singh in the condemned cell and tried to convince him about the existence of God, but failed. Baba lost his temper and said tauntingly: “You are giddy with fame and have developed and ago which is standing like a black curtain between you and the God.” It was in reply to that remark that Bhagat Singh wrote this article. First appeared in The People, Lahore on September 27, 1931.
-राजू पाण्डेय
नई श्रम संहिताओं में श्रमिकों के लिए कुछ भी नहीं है बल्कि इनका ज्यादातर हिस्सा श्रमिक विरोधी है और इनका उद्देश्य श्रमिकों के मूलभूत अधिकारों को महत्वहीन एवं गौण बनाना है। इन कानूनों के कारण जब ट्रेड यूनियनें कमजोर पड़ जाएंगी, हड़ताल करना असंभव हो जाएगा, श्रमिकों पर हमेशा काम से हटाए जाने की तलवार लटकती रहेगी तब उनसे मनमानी शर्तों पर काम लेना संभव हो सकेगा।
सरकार की अर्थ नीतियाँ शुरू से ही बेरोजगारी को बढ़ावा देने वाली रही हैं और अब जब अर्थव्यवस्था की स्थिति घोर चिंताजनक है और बेरोजगारी चरम पर है तब इन श्रम सुधारों को नए रोजगार पैदा करने में सहायक बताकर लागू किया जा रहा है।
जब तक करोड़ों मजदूर और किसान अपने अधिकारों हेतु संगठित होकर संघर्ष करते रहेंगे तब तक सरकार की चुनिंदा कॉर्पोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने की इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती। नए श्रम सुधारों का मूल उद्देश्य श्रमिक संगठनों को कमजोर करना है। संभवत: सरकार यह समझती है कि अपने अंतर्विरोधों के कारण भी और पूंजीपतियों एवं उनके हितों के लिए काम करने वाली सरकारों की साझा कोशिशों के परिणामस्वरूप भी अब श्रमिक आंदोलन अब इतना निर्बल और शक्तिहीन हो चुका है कि उसके अंत के लिए निर्णायक वार करने का समय आ गया है।
सभी श्रम कानूनों के निर्माण और उनमें समय समय पर होने वाले सुधारों के पीछे मजदूरों के लोमहर्षक संघर्ष और लंबे श्रमिक आंदोलनों का इतिहास रहा है। श्रमिकों द्वारा अनथक संघर्ष कर अर्जित अधिकारों को खारिज कर ईज ऑफ डूइंग बिजऩेस इंडेक्स में भारत की रैंकिंग में सुधार एवं फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट को बढ़ावा देने के नाम पर इन श्रम सुधारों को जबरन करोड़ों मजदूरों पर थोपा जा रहा है।
श्रम कानूनों के निर्माण से पहले त्रिपक्षीय चर्चा और विमर्श की परिपाटी रही है। किंतु इन श्रम संहिताओं का ड्राफ्ट बनाते वक्त ट्रेड यूनियनों से किसी तरह की रायशुमारी नहीं की गई। श्रम संबंधी मामले समवर्ती सूची में आते हैं किंतु इन लेबर कोड्स का मसविदा तैयार करते समय राज्यों से भी परामर्श नहीं लिया गया। केंद्र सरकार का चर्चा और विमर्श पर कितना विश्वास है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले पांच वर्षों से इंडियन लेबर कांफ्रेंस आयोजित नहीं हुई है।
नोटबंदी, विवादास्पद जीएसटी और अविचारित लॉक डाउन ने हमारे उस असंगठित क्षेत्र की कमर तोडऩे का कार्य किया जिसने 2009 की महामंदी के दौर में भी भारत की अर्थव्यवस्था को बचाए रखा था। असंगठित मजदूरों के प्रति सरकार का रवैया कितना असंवेदनशील हो सकता है यह हमने नोटबन्दी के समय भी देखा था और लॉक डाउन के इस पूरे दौर में भी देखते रहे हैं जब लाखों प्रवासी मजदूर अपना रोजगार गंवा कर भुखमरी का सामना करते हुए कोरोना संक्रमण के खतरे के बीच पलायन करने को विवश हुए।
सरकार ने पहले एक लंबी अवधि तक इन मजदूरों को एक ऐसे गैर जिम्मेदार नागरिक समूह के रूप में चित्रित किया जो अपने उतावलेपन और नासमझी के कारण कोविड-19 के प्रसार के लिए उत्तरदाई है और बहुत बाद में व्यापक आलोचना झेलने के उपरांत इनके परिवहन, भोजन-आवास, चिकित्सा और पुनर्वास के संबंध में आधे अधूरे मन से कुछ नाकाफी और नाकामयाब प्रयत्न किए।
सरकार की रणनीति बड़ी सुविचारित है। नोटबन्दी और जीएसटी को ऐसे कदमों के रूप में प्रस्तुत किया गया था जो हमारे देश की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को नियमों के दायरे एवं सरकार की नजर में लाने में सहायक होंगे और तिजोरियों में बंद काला धन देश की बैंकिंग व्यवस्था का सक्रिय और अधिकृत हिस्सा बनकर देश के विकास में योगदान देगा। अब इन दोनों आर्थिक दुर्घटनाओं को एक लंबा समय बीत गया है और इनके प्रभावों का हर निष्पक्ष आकलन सरकारी दावों के खोखलेपन को उजागर कर रहा है। क्या सरकार को यह पता नहीं था कि उसके दावे मिथ्या सिद्ध होने वाले हैं? अथवा सरकार इन बड़े-बड़े दावों के भ्रामक शब्दजाल की ओट में किसी अन्य एजेंडे पर कार्य कर रही थी। कहीं अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर सरकार के नियंत्रण का प्रयास इसलिए तो नहीं था कि देश की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की अनगढ़ लगने वाली सशक्त प्राकृतिक संरचना को ध्वस्त करने से पहले उसे कमजोर बनाने के लिए उस पर नियंत्रण आवश्यक था? क्या यह निजीकरण की पूर्व पीठिका नहीं बनाई जा रही थी? सरकार के श्रम सुधार असंगठित मजदूरों की विशाल संख्या को औपनिवेशिक दमनकारी श्रम कानूनों के युग में ले जाने का कार्य करेंगे।
नए श्रम कानूनों के विषय में यह प्रचारित किया जा रहा है कि इनमें पहली बार असंगठित मजदूरों की समस्याओं को हल करने का प्रयास किया गया है। दरअसल स्थिति इससे विपरीत है। सरकार के नए लेबर कोड्स में असंगठित मजदूरों के लिए कोई भी आशाजनक प्रावधान नहीं है। कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी 2020 में सामाजिक सुरक्षा को संविधान सम्मत अधिकार नहीं माना गया है। सामाजिक सुरक्षा विषयक कोड के प्रावधान कब से लागू होंगे इसका कोई उल्लेख नहीं किया गया है। श्रम संगठनों की मांग रही है कि सामाजिक सुरक्षा प्रत्येक श्रमिक को बिना भेदभाव के उपलब्ध होनी चाहिए। किंतु सामाजिक सुरक्षा को यूनिवर्सलाइज करने के स्थान पर इस कोड में सामाजिक सुरक्षा के पात्र श्रमिकों की श्रेणियों का निर्धारण मनमाने ढंग से किया गया है।
श्रमिक संगठनों की आपत्तियाँ अनेक हैं। सेक्शन 2(6) में पहले की भांति ही भवन तथा अन्य निर्माण कार्यों के लिए 10 या इससे अधिक श्रमिकों की संख्या को सामाजिक सुरक्षा का लाभ पाने हेतु आवश्यक बनाए रखा गया है। जबकि श्रमिक संगठन इस सीमा को समाप्त करने की मांग कर रहे थे। अभी भी निजी आवासीय निर्माण के क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिक सामाजिक सुरक्षा के पात्र नहीं होंगे जबकि इनकी संख्या लाखों में है। स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिश थी कि वेज वर्कर को परिभाषित करने के लिए वेज लिमिट को आधार न बनाया जाए किंतु सेक्शन 2(82) में इस प्रावधान को बरकरार रखा गया है। आशंका है कि मनमाने ढंग से मजदूरी तय करके मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा के लाभों से वंचित किया जा सकता है। प्रोविडेंट फंड की पात्रता उन्हीं संस्थानों को होगी जिनमें 20 या इससे अधिक मजदूर कार्य करते हैं। इस प्रकार लघु और सूक्ष्म उद्यमों में कार्य करने वाले लाखों श्रमिक इस लाभ से वंचित रह जाएंगे।
श्रमिक संगठनों को यह भी आशंका है कि इस प्रावधान का उपयोग करते हुए नियोक्ता वर्तमान में कार्यरत मजदूरों को भी प्रोविडेंट फण्ड की सुरक्षा से वंचित कर सकते हैं। श्रम कानूनों के जानकारों की एक मुख्य आपत्ति यह है कि सामाजिक सुरक्षा विषयक कोड में इस बात को परिभाषित करने की कोई स्पष्ट कोशिश नहीं की गई है कि किस आधार पर किसी श्रमिक को संगठित या असंगठित क्षेत्र का माना जा सकता है? गिग/प्लेटफार्म वर्कर्स को असंगठित मजदूरों की श्रेणी में नहीं रखा गया है जबकि इनकी संख्या लाखों में है। इसी प्रकार उद्यम की परिभाषा को इस प्रकार संशोधित कर व्यापक बनाया जाना था जिससे छोटे से छोटे उद्यम का भी पंजीकरण हो सके और कोई भी मजदूर सामाजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर न रह जाए।
इस विषय में स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशों को भी अनदेखा किया गया। सरकार यह स्पष्ट करने में नाकाम रही है कि सामाजिक सुरक्षा अंशदान उन श्रमिकों के लिए किस प्रकार होगा जिनके संदर्भ में नियोक्ता-कामगार संबंध का निर्धारण नहीं हो सकता यथा होम बेस्ड वर्क, पीस रेट वर्क या स्वरोजगार।
यद्यपि इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स का दायरा सरकार द्वारा बढ़ाया गया है और अब इनमें ठेकेदारों के माध्यम से ले जाए जाने वाले श्रमिकों के अतिरिक्त उन श्रमिकों को भी सम्मिलित किया गया है जो स्वतंत्र रूप से रोजगार के लिए दूसरे प्रदेशों में जाते हैं। इनके लिए एक पोर्टल बनाने का प्रावधान भी किया गया है जिसमें इनका पंजीकरण होगा किंतु रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया किस प्रकार संपन्न होगी एवं इनके गृह प्रदेश, जिस प्रदेश में ये रोजगार हेतु जाते हैं तथा केंद्र सरकार के क्या उत्तरदायित्व होंगे, इसका कोई जिक्र सरकार ने नहीं किया है।
प्रवासी मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान अपर्याप्त हैं किंतु जो थोड़े बहुत प्रावधान किए गए हैं उनका लाभ भी केवल ऐसे उद्यमों में कार्यरत इंटरस्टेट माइग्रेंट वर्कर्स को मिल सकता है जहाँ इनकी संख्या 10 या इससे अधिक है। इस प्रकार की संख्या विषयक सीमा के कारण लाखों मजदूर सोशल सिक्योरिटी नेट की सुरक्षा से वंचित कर दिए गए हैं।
रजिस्ट्रेशन, पीडीएस पोर्टेबिलिटी जैसे प्रवासी मजदूर हितैषी प्रावधान 10 या इससे अधिक मजदूरों वाले उद्यमों में कार्यरत प्रवासी मजदूरों को ही दिए जाने की शर्त के कारण व्यवहारत: एकदम अनुपयोगी बन गए हैं। जबकि 1979 के इंटरस्टेट माइग्रेंट वर्कमेन एक्ट के अनुसार यह संख्या 5 प्रवासी मजदूर या इससे ज्यादा है। स्वयं भारत सरकार के 2013-14 के छठवें इकोनॉमिक सेन्सस के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में कुल कार्यरत लोगों की केवल 30 प्रतिशत संख्या ऐसे उद्यमों में कार्यरत है जिनमें 6 या इससे अधिक लोग काम करते हैं, फिर भी संख्या विषयक बंधन को क्यों बरकरार रखा गया है यह समझना कठिन है।
सरकार ने एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास करते रहने वाले मजदूरों हेतु सामाजिक सुरक्षा की पोर्टेबिलिटी के संबंध में भी कोई प्रावधान नहीं किया है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकार एक ही राज्य के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवास करने वाले श्रमिकों के संबंध में मौन है जबकि इनकी समस्याएं भी बिल्कुल वैसी हैं जैसी इंटर स्टेट माइग्रेशन करने वाले मजदूरों की। 2011 की जनगणना के अनुसार 39.6 करोड़ लोग अपने राज्य के भीतर ही एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते हैं। इस प्रकार इंट्रा स्टेट माइग्रेशन करने वाले 21 प्रतिशत पुरुष और 2 प्रतिशत महिलाएं श्रमिक होते हैं। वर्किंग ग्रुप ऑफ माइग्रेशन की जनवरी 2017 की रिपोर्ट बताती है कि इंट्रा स्टेट माइग्रेशन के बारे में जनगणना के आंकड़ों में दर्शाई गई श्रमिकों की संख्या वास्तविक संख्या से बहुत कम है।
प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले एक्टिविस्ट्स को यह आशा थी कि सरकार इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स को एक अलग श्रेणी में रखते हुए इनके लिए एक कल्याण कोष का निर्माण करेगी जिसमें इनके मूल राज्य, प्रवास वाले राज्य और इनके नियोक्ता अंशदान देकर पर्याप्त राशि का प्रबंध करेंगे। किंतु सरकार की तरफ से ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
असंगठित मजदूरों के लिए काम करने वाले वर्किंग पीपुल्स चार्टर जैसे संगठनों की यह भी मांग थी कि असंगठित मजदूरों और उनके परिवारों के स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा और पेंशन आदि के विषय में कोई व्यापक नीति बनाई जाती और असंगठित मजदूरों के रोजगार को बरकरार रखने के लिए सरकार कोई कार्यक्रम लेकर आती किंतु सरकार द्वारा किए गए प्रावधान नितांत अपर्याप्त और असंतोषजनक हैं।
असंगठित मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा फण्ड बनाया तो गया है किंतु इसके लिए धन राशि विभिन्न सुरक्षा और स्वास्थ्य विषयक प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं से वसूले गए नाममात्र के जुर्माने के माध्यम से एकत्रित की जाएगी जो जाहिर है कि निहायत ही कम और नाकाफी होगी।
सरकार ने वंचित समुदायों के श्रमिकों की उपेक्षा की वर्षों पुरानी परिपाटी को जारी रखा है। कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी के सेक्शन 4(1) में कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज में अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने हेतु कोई प्रावधान नहीं किया गया है। यूनियनों के विरोध के बावजूद कर्मचारी राज्य जीवन बीमा निगम के बोर्ड की पहले की संरचना को बदल दिया गया है जिसमें कर्मचारी, नियोक्ता और राज्य तीनों के प्रतिनिधि हुआ करते थे।
ऑक्यूपेशनल सेफ्टी हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन कोड 2020 के विषय में वर्किंग पीपुल्स चार्टर जैसे असंगठित मजदूरों के लिए कार्य करने वाले संगठनों की गंभीर आपत्तियां हैं। आर्थिक गतिविधियों का सर्वप्रमुख क्षेत्र कृषि जो देश की वर्किंग पापुलेशन के 50 प्रतिशत को रोजगार प्रदान करता है इसमें सम्मिलित नहीं है।
असंगठित क्षेत्र की अनेक आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने वाले श्रमिक इस कोड से लाभान्वित नहीं होंगे। इनमें से कुछ आर्थिक गतिविधियां एवं क्षेत्र हैं होटल एवं खाने के स्थान, मशीनों की मरम्मत, छोटी खदानें, ब्रिक किलन्स, पावर लूम, पटाखा उद्योग, निर्माण, कारपेट मैन्युफैक्चरिंग आदि। घरेलू कर्मचारी, होम बेस्ड वर्कर्स आदि भी इस एक्ट की परिधि में नहीं आते। संगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले अनौपचारिक श्रमिक भी इस कोड की परिधि में नहीं आते हैं। आईटी और आईटी की सहायता से चलने वाली सेवाओं, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और ई कॉमर्स आदि में कार्य करने वाले अनौपचारिक श्रमिक इस कोड से लाभान्वित नहीं होंगे।
ऑक्यूपेशनल सेफ्टी हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन कोड 2020 में इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स के विषय में जो भी प्रावधान किए गए हैं उनके अनुपालन का उत्तरदायित्व ठेकेदार पर होगा। यह ठेकेदार बड़े उद्योगपतियों के अधीन कार्य करते हैं और इनकी सहायता से बड़े उद्योगपति असुरक्षित और अस्वास्थ्यप्रद दशाओं में कार्यरत मजदूरों की दुर्घटनाओं एवं बीमारियों के विषय में अपनी जिम्मेदारी से बड़ी आसानी से बच निकलते हैं।

प्राय: ठेके पर काम करने वाले श्रमिक और स्थायी श्रमिक एक ही प्रकार के कार्य में संलग्न रहते हैं अत: इन्हें मिलने वाली सुविधाएं भी समान होनी चाहिए किंतु कोड में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। इस कोड में भी इंट्रा स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स हेतु कोई प्रावधान नहीं है। इस कोड में मजदूरों के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के स्तर के निर्धारण के किन्हीं मानकों का उल्लेख ही नहीं है। इसमें मजदूरों के स्वास्थ्य और सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी नियोक्ताओं पर नहीं डाला गया है।
सुरक्षा उपायों और स्वास्थ्य सुविधाओं को लागू करने की जिम्मेदारी प्रत्यक्षत: नियोक्ताओं की नहीं होगी बल्कि इसके लिए सेवा प्रदाताओं का उपयोग किया जाएगा। कोड में यह उल्लेख है कि यदि किसी स्थान पर 250 या इससे अधिक श्रमिक कार्यरत हैं तब ही सेफ्टी कमेटी का गठन किया जाएगा। इससे यह जाहिर होता है कि यह कोड देश के 90 प्रतिशत कार्य बल का निर्माण करने वाले असंगठित मजदूरों की सुरक्षा के विषय में गंभीर नहीं है। कार्यस्थल पर होने वाली दुर्घटनाओं के बाद लगाई जाने वाली पेनल्टी बहुत कम है और मुआवजे की राशि अपर्याप्त।
पिछले कुछ वर्षों में अनेक नई प्रकृति के रोजगार अस्तित्व में आए हैं। नियोक्ता-कामगार संबंध भी अब पूर्ववत नहीं रहा। इन बदलावों के परिप्रेक्ष्य में सरकार को वर्कर की परिभाषा में बदलाव लाना चाहिए था किंतु इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड 2020 में सरकार ने वर्कर की संकुचित परिभाषा को बरकरार रखा है। इस प्रकार इन नए रोजगारों की असंख्य श्रेणियों से जुड़े लाखों कामगार इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड की परिधि से ही बाहर कर दिए गए हैं। इनमें गिग/प्लेटफार्म वर्कर्स, आईटी कामगार, स्टार्टअप्स तथा सूक्ष्म,लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमों के कामगार, सेल्फ एम्प्लॉयड तथा होम बेस्ड वर्कर्स, असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र के कामगार, प्लांटेशन वर्कर्स, मनरेगा कामगार, ट्रेनी तथा अपरेंटिस वर्कर्स आदि सम्मिलित हैं। श्रम संगठनों का यह मानना है नियोक्ता, कर्मचारी और कामगार की परिभाषाएं भ्रमपूर्ण और अस्वीकार्य हैं। एम्प्लायर की परिभाषा में कांट्रेक्टर को सम्मिलित किया गया है किंतु इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड में इसे परिभाषित नहीं किया गया है। श्रम संगठनों के अनुसार यदि सोशल सिक्योरिटी कोड में प्रदत्त कांट्रेक्टर की परिभाषा को आधार बनाया जाए तो चिंता और बढ़ जाती है क्योंकि इसमें ऐसे परिवर्तन कर दिए गए हैं कि कानून की भाषा में जिसे शाम एंड बोगस कांट्रेक्टर कहा जाता है वह भी स्वीकार्य बन गया है। एम्प्लायर की परिभाषा इतनी अस्पष्ट है कि कामगार यह तय ही नहीं कर पाएगा कि उसका नियोक्ता कौन है वह जिसने प्रत्यक्षत: उसे काम पर रखा है या वह जिसका सारी प्रक्रिया पर सर्वोच्च नियंत्रण है। फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट को अब टेन्योर ऑफ एम्प्लॉयमेंट के समान माना जाएगा। अर्थात फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट पर कार्यरत कामगारों को बिना किसी उचित कारण के सेवा से हटाया जा सकेगा। इस एक्ट में हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों को असंभव होने की सीमा तक कठिन बना दिया गया है। संगठित मजदूरों के बीच पैठ रखने वाली ट्रेड यूनियनें अपनी तमाम सीमाओं और मतभेदों के बाद भी एक हद तक धरना,प्रदर्शन और हड़ताल के अपने हक के लिए लड़ेंगी और इन श्रम संहिताओं के श्रमिक विरोधी प्रावधानों के विरुद्ध संघर्ष भी करेंगी। किंतु देश के कुल कार्यबल का 90 प्रतिशत तो असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है जहाँ ट्रेड यूनियनों का कोई विशेष आधार नहीं है। सरकार के यह लेबर कोड्स इन असंगठित मजदूरों के लिए और अधिक विनाशकारी सिद्ध होंगे।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-रवीश कुमार
एक तरफ तो प्रधानमंत्री कह रहे हैं, ".... मैं किसानों को आश्वस्त करना चाहता हूं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) व किसानों की उपज की सरकारी खरीद जारी रहेगी।" दूसरी तरफ वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने गए साल नवंबर में कहा था, हम चाहते हैं कि राज्य APMC मंडियों को ख़त्म कर दें। रवीश कुमार ने हिन्दू बिजनेस लाइन की खबर का अनुवाद पोस्ट किया है। उनकी पोस्ट से निर्मला सीतारमन ने जो कहा था उसे जानिए और प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं उसे सुनना, मानना और उसपर यकीन करना राष्ट्रीय मजबूरी है।
दिल्ली में नाबार्ड के छठे ग्रामीण और कृषि वित्त के छठे विश्व कांग्रेस में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन बोल रही थीं। वित्त मंत्री साफ़ साफ़ कह रही हैं कि APMC की मंडियां ख़त्म हो जानी चाहिए इसके लिए सरकार राज्यों को समझा रही है। निर्मला सीतारमन का यह बयान यू ट्यूब पर है। जिसे ब्लूमवर्ग क्विंट ने प्रसारित किया था। पेश है हिन्दी अनुवाद। मूल खबरों का लिंक आखिर में :-
'मैं ई-नाम पर ज़ोर देना चाहती हूँ। केंद्र सरकार इसका प्रचार कर रही है और कई राज्यों ने इसे अपने स्तर पर शुरू करने के लिए रज़ामंदी दे दी है। इसके साथ ही हम ये सुनिश्चित कर रहे हैं कि राज्यों को समझाया जाए कि APMC को रिजेक्ट कर दें। एक समय पर एपीएमसी ने अपना काम किया है इस बात में कोई शक नहीं है। मगर आज इसमें कई परेशानियाँ हैं। और राज्य के स्तर पर भी ये इतना कारगर नहीं है। (इसमें और भी चीज़ें शामिल हैं मगर मैं बहुत ज़्यादा डिटेल में नहीं जाना चाहती हूँ) मगर मैं चाहती हूँ कि राज्य - और हम उनसे बात कर रहे हैं - इसे ख़त्म करें और किसानों के लिए ई-नाम को अपनाएँ।' (निर्मला सीतारमन, 12 नवंबर 2019)
केंद्र सरकार ने खेती को लेकर तीन कानून बनाए हैं। इस कानून को लेकर किसानों के बीच कई तरह के सवाल हैं। उनकी पहली आशंका यही है कि मंडी सिस्टम ख़त्म किया जा रहा है। सरकार की तरफ से प्रधानमंत्री आगे आते हैं और कहते हैं कि विपक्ष झूठ फैला रहा है। मंडी सिस्टम ख़त्म किया जा रहा है। प्रधानमंत्री को भी पता नहीं होगा कि उनकी वित्त मंत्री 10 महीने पहले कह चुकी हैं कि राज्यों को समझाया जा रहा है कि APMC मंडी सिस्टम ख़त्म कर दिया जाए।
प्रधानमंत्री अख़बार को चाहिए कि वे पहले अपने वित्त मंत्री से पूछें कि किन राज्यों से APMC ख़त्म करने की बात चल रही थी, बातचीत की प्रगति क्या थी? तब उन्हें अख़बारों में अपने नाम के साथ विज्ञापन देना चाहिए कि मंडियां ख़त्म नहीं होंगी। वित्त मंत्री निजी राय कह कर खंडन करने से पहले ठीक से अपने बयान को सुन लें। वे साफ साफ कह रही हैं कि APMC की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। राज्यों को समझाया जा रहा है कि वे इसे ख़त्म कर दें। अगर सरकार की यह राय थी तो दस महीने बाद प्रधानमंत्री ने किस आधार पर गारंटी दी है कि मंडियां ख़त्म नहीं होंगी। किसान कैसे किसी पर आसानी से भरोसा कर ले।
14 अप्रैल 2016 को मंडियों को एक प्लेटफार्म पर लाने के लिए ई-नाम की योजना लाई गई। चार साल में 1000 मंडियां ही जुड़ पाई हैं, जबकि देश में करीब 7000 मंडियां हैं। मंडियों के ख़त्म करने के वित्त मंत्री के बयान के एक महीना बाद 12 दिसंबर 2019 को हुकूमदेव नारायण की अध्यक्षता वाली कृषि मामलों की स्थायी समिति अपनी एक रिपोर्ट पेश करती है। हुकूमदेव नारायण बीजेपी के सांसद थे। इस रिपोर्ट के अनुसार इस वक्त 469 किलोमीटर के दायरे में कृषि बाज़ार है। जबकि हर पांच किलोमीटर की परिधि में एक मंडी होनी चाहिए। इस तरह भारत में कम से कम 41 हज़ार संयुक्त कृषि बाज़ार होने चाहिए, तभी किसानों को सही मूल्य मिलेगा। अगर इस ज़रूरत के चश्मे से देखेंगे तो पता चलेगा कि 2014 से लेकर 2020 तक मोदी सरकार ने किसानों के बाज़ार के लिए कितनी गंभीरता से काम किया है। 13 मई 2020 की विवेक मिश्रा की रिपोर्ट आप देख सकते हैं जो डाउन टू अर्थ के हिन्दी संस्करण में छपी है।
सरकार मंडियों के विकास पर कितना खर्च कर रही है इसे समझने के लिए 2018 और 2019 के बजट में जाकर देखिए। बजट में एग्रीकल्चर मार्केटिंग के लिए राशि दी जाती है। एग्रीकल्चर मार्केटिंग में बीज ख़रीदने से लेकर फ़सल बेचने तक वो सब क्रियाएँ शामिल हैं जो फ़सल को खेतों से उपभोक्ता तक पहुँचाती हैं। इसमें मंडियों की व्यवस्था, स्टोरेज, वेयरहाउस, ट्रांसपोर्ट आदि सब शामिल होते हैं।
2018 के बजट में एग्रीकल्चर मार्केटिंग के लिए 1050 करोड़ का प्रावधान किया गया था। संशोधित बजट में 500 करोड़ कर दिया गया। आख़िर में मिले 458 करोड़ ही।
एग्रीकल्चर मार्केटिंग के लिए 2019 के बजट में 600 करोड़ का प्रावधान किया गया था। संशोधित बजट में यह राशि घटाकर 331 करोड़ कर दी। 50 प्रतिशत कम हो गई।
ज़रूरत के हिसाब से 1050 करोड़ का बजट भी कम है, उसमें से भी 50 प्रतिशत कम हो जाता है। किसान नेताओं का कहना है कि नए कानून के अनुसार जो प्राइवेट सेक्टर की मंडियां खुलेगी उनमें टैक्स नहीं लगेंगे। सरकारी मंडी में तरह-तरह के टैक्स लगते हैं और उस पैसे से मंडियों का विकास होता है। यानी मंडियों के विकास का पैसा हमारा किसान भी देता है। इससे तो दो तरह की मंडियां हो जाएंगी। एक में टैक्स होगा, एक में टैक्स नहीं होगा। ज़ाहिर है जिसमें टैक्स होगा वो मंडी खत्म हो जाएगी।
इसलिए किसानों को चाहिए कि वे मंडियों को लेकर सरकार से और सवाल करें और सरकार को चाहिए कि वे किसानों के सवालों के जवाब और स्पष्टता से दे लेकिन उसके पहले मोदी जी अपने वित्त मंत्री से सवाल करें कि किसकी इजाज़त से उनकी सरकार के भीतर मंडियों को ख़त्म करने की कवायद चल रही थी? अब आप ये मत कहिएगा कि इतने बड़े मामले में सरकार पहल कर रही है और मोदी जी को ख़बर नहीं है। (hindi.sabrangindia)
भगत सिंह नौजवानी के प्रतीक हैं और हर नौजवान उनकी तरह होना चाहेगा. लेकिन वैसा होना क्या आसान है!
- अपूर्वानंद
‘अंग्रेज़ी हुकूमत में राजद्रोह का आरोप कई लोगों पर लगा था : गांधी, तिलक, एनी बेसेंट..’, शशि थरूर ने इतना कह कर सांस भी नहीं ली थी कि बात खाली न जाने देने की आदत से मजबूर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने जोड़ा : भगत सिंह. हंसी की लहर दौड़ गई. हंसी इसलिए कि देखिए आप भूल ही गए थे, आखिर कांग्रेसी ठहरे! भगत सिंह का नाम कैसे याद आता! हमने आपको पकड़ लिया. शशि थरूर ने भी इसका मज़ा लिया और कहा, ‘हां! भगत सिंह उस दौर के कन्हैया ही थे.’
जिस घटना की बात हो रही है वह करीब 4 साल पहले की है. भारतीय जनता पार्टी को यह तुलना नागवार गुजरी. कहां भगत सिंह, कहां कन्हैया! कन्हैया से भगत सिंह की तुलना करके भगत सिंह का अपमान किया गया है, ऐसा पार्टी ने कहा. उसके मुताबिक भगत सिंह ने देश पर सब कुछ न्योछावर करके और ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाते हुए फांसी का फंदा चूम लिया था. कन्हैया तो जनता के टैक्स के पैसे पर जेएनयू में मौज कर रहा है और देश की पहली राष्ट्रवादी सरकार पर हमले कर रहा है! ( हालांकि भगत सिंह के आख़िरी पलों के ब्योरे में जिस नारे का जिक्र है, वह है : इन्कलाब जिंदाबाद! साम्राज्यवाद का नाश हो! लेकिन राष्ट्रवादियों को कुछ भी कह देने की अनुमति है, उनके लिए तथ्यों की छान-फटक की क्या ज़रूरत)
राष्ट्रवाद से घबराई हुई कांग्रेस पार्टी ने थरूर से पल्ला झाड़ते हुए कहा, यह शशि थरूर की अपनी राय है. भगत सिंह एक ही हैं, एक ही रहेंगे, उनसे किसी की तुलना ठीक नहीं.
बेचारे शशि थरूर! कथाकार ठहरे! तुलनाओं से साहित्य का कारोबार चलता है, उपमा, उपमान के बिना कोई लेखक कितनी दूर चल सकता है! चांद सा मुखड़ा कहने पर न तो चांद मुखड़ा हो जाता है और न मुखड़ा चांद! शशि थरूर ने समझाया, भगत सिंह भी बीस के बस पार हुए थे, मार्क्सवादी थे, ऊर्जा से भरे नौजवान थे, कन्हैया भी बीस के कुछ आगे हैं, मार्क्सवादी हैं और ऊर्जा से भरे जवान हैं. तुलना की वजह यही थी! बात निकली तो कह दिया, इसे इससे अधिक खींचने की ज़रूरत नहीं.
कन्हैया पर भी राजद्रोह का आरोप लगा जिसके चलते कुछ लोग अंग्रेज़ी हुकूमत और भाजपा सरकार में भी तुलना कर रहे हैं. कहीं न कहीं भाजपा के दिमाग में यह बात थी. इधर एक जगह कन्हैया ने भी कह दिया था, अगर यह सरकार अंग्रेज़ सरकार बनना चाहती है तो हम भी भगत सिंह बनने को तैयार हैं!
इसलिए इस तुलना की आशंका से भाजपा की चिढ़ समझ में आती है लेकिन अंग्रेज़ी सरकार और भाजपानीत सरकार की तुलना दूर तक नहीं जाती. उस सरकार पर हिन्दुस्तानियों का कोई बस न था, यह सरकार अपनी चुनी है, चुन लिए जाने के बाद अब जैसी भी निकल गई हो!
अगर भगत सिंह नौजवानी के प्रतीक हैं तो हर नौजवान उनकी तरह का होना चाहेगा. लेकिन भगत सिंह होना क्या आसान है! उसके लिए दिन-रात का चैन भुला देना होता है. खुद को जोड़ देना होता है उनसे जिनसे आपका कोई खून का रिश्ता नहीं, जाति का सम्बन्ध नहीं, धर्म का जुड़ाव नहीं.
भगत सिंह का पहला मतलब है साहस और ईमानदारी. जो किया उसकी पूरी जिम्मेदारी लेना, उसके नतीजे से कतराना नहीं. यह गुण आज़ादी की लड़ाई के लगभग सभी नेताओं में दिखता है. इस लिहाज से देखें तो भगत सिंह को गांधी के करीब रखा जा सकता है. सबसे पहले चम्पारण, लेकिन उसके बाद के सभी मौकों पर अदालतों में गांधी ने सिर उठाकर कहा था कि उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के कानूनों को तोड़ा है और इसके लिए जो भी सजा हो, भुगतने को वे तैयार हैं. न उन्होंने, न तिलक ने, न मौलाना आज़ाद ने, न नेहरू ने अपने किए की व्याख्या में दाएं-बाएं करने की कोशिश कभी की और न अपनी सज़ा को कम करवाने की कभी अपील की. इनमें से किसी ने किसी भी वक्त हुकूमत से किसी तरह की माफी की दरख्वास्त कभी नहीं की.
भगत सिंह और उनके साथियों के सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकने की कार्रवाई पर गौर करने की ज़रूरत है. चाहते तो बम फेंकने के बाद की अफरा-तफरी में वे भाग निकल सकते थे. ऐसा उन्होंने नहीं किया, बम के साथ एक पर्चा भी फेंका गया जिसमें इस कार्रवाई का जिम्मा लिया गया और उसकी व्याख्या भी की गई.
भगत सिंह ने तय किया कि वे अदालत के मंच का इस्तेमाल अंग्रेज़ी हुकूमत से अपने विरोध के कारण बताने और आज़ादी के अपने खयाल को तफसील से बताने के लिए करेंगे. इसमें वे कामयाब रहे.
बम कांड पर सेशन कोर्ट में अपने बयान पर भगत सिंह ने कहा, ‘मानवता को प्यार करने में हम किसी से भी पीछे नहीं हैं. हमें किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं है और हम प्राणी मात्र को हमेशा आदर की निगाह से देखते आए हैं... यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ या विद्वेष की भावना से नहीं किया है. हमारा उद्देश्य केवल उस शासन व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिवाद प्रकट करना था जिसके हरेक काम से उसकी अयोग्यता ही नहीं वरन अपकार करने की असीम क्षमता भी प्रकट होती है.’
यह अपकार क्या था? आगे इस बयान में कहा गया: ‘... सरकार ट्रेड डिस्प्यूट बिल लेकर सामने आई...वह क़ानून जिसे हम बर्बर समझते हैं, देश के प्रतिनिधियों के सिर पर पटक दिया गया और इस प्रकार करोड़ों संघर्षरत भूखे मजदूरों को प्राथमिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया और उनके हाथों से उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया... हमने वह काम मजदूरों की तरफ से प्रतिरोध प्रदर्शित करने के लिए किया था. उन असहाय मजदूरों के पास अपने मर्मान्तक क्लेशों को व्यक्त करने का और कोई साधन भी तो नहीं था.’
भगत सिंह ने साफ़ कहा कि बम बहुत सावधानी से तैयार किए गए थे और उन्हें फेंकते वक्त भी ध्यान रखा गया था कि किसी व्यक्ति को नुकसान न हो. बम फेंकने की अपनी कार्रवाई से वे इन्कार नहीं कर रहे थे लेकिन अपने ऊपर मनगढ़ंत सरकारी आरोपों को मानने से उन्होंने इनकार किया : ‘षड्यंत्रों का पता लगाकर या गढ़े हुए षड्यंत्रों द्वारा नौजवानों को सजा देकर या एक महान आदर्श के स्वप्न से प्रेरित नौजवानों को जेल में ठूंसकर क्या क्रान्ति का अभियान रोका जा सकता है?’
गढ़े हुए षड्यंत्रों का पता लगाकर नौजवानों को जेल में ठूंसने का सिलसिला जारी है : आज़ाद हिंदुस्तान में भी. फिर जानना तो होगा कि ये जवान कौन हैं? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों को गिरफ्तार किया गया, राजद्रोह का षड्यंत्र करने और अंजाम देने के आरोप में. भारत के गृहमंत्री ने पाकिस्तान में बैठे एक दहशतगर्द से कन्हैया के रिश्ते का उद्घाटन किया. उनके यह बताने के अगले क्षण पता चल गया कि यह झूठ था. गृह मंत्री ने इतने बड़े झूठ के लिए खेद प्रकट करना आवश्यक नहीं समझा.
दिल्ली पुलिस ने कहा कि गिरफ्तार किये गए छात्र किसी बड़ी भारत विरोधी साजिश का हिस्सा हैं. यह सरकार जानती है और उसकी पुलिस भी कि यह झूठ है. कन्हैया और बाकी छात्र गिरफ्तार होने के पहले जो कुछ कह रहे थे, जेल से छूटने के बाद भी वही कह रहे हैं.
गिरफ्तार और लोग भी हो रहे हैं, प्रताड़ित और लोग भी किए जा रहे हैं : छत्तीसगढ़ इस राष्ट्रवादी षड्यंत्रवादी सरकारी दिमाग की प्रयोगशाला है. सोनी सोरी, लिंगा, प्रभात की प्रताड़ना सिर्फ इसलिए कि वे असहाय कर दिए गए आदिवासियों के हक में काम कर रहे हैं, आवाज़ उठा रहे हैं. ओड़िसा में सारंगी, छत्तीसगढ़ में डॉक्टर जाना! सूची बढ़ती जा रही है.
अक्सर किसी पिछली पीढ़ी के आदर्श व्यक्ति का संदेश अपने वक्त के लिए समझने के लिए एक सवाल किया जाता है, आज वे होते तो क्या करते? आज भगत सिंह होते तो क्या करते? क्या वे इस दमनकारी राज्य का विरोध करते या चुप मार बैठ रहते क्योंकि यह सरकार आठों पहर भारत माता की जय का नारा लगाते हुए यह सब कर रही है? जवाब हमें खोजना होगा. तभी हम भगत सिंह की किसी से तुलना और उसकी उपयुक्तता पर भी बात कर पाएंगे.(satyagrah)
केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट में कहा था कि वह भीख मांगने वालों के पुनर्वास के लिए इसे अपराध के दायरे से अलग करने वाला एक विधेयक लाएगी। लेकिन बाद में केंद्र सरकार अपने वादे से मुकर गई और उसने कोर्ट को सूचित किया कि उसके पास ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है।
- अमिताभ श्रीवास्तव
इस माह भारतीयों द्वारा भीख मांगने से संबंधित दो रिपोर्टें सामने आईं। पहली, भारतीय रेलवे ने संकेत दिया कि वह रेलवे अधिनियम से उस दंडात्मक प्रावधान को हटाने की योजना बना रहा है जो रेलवे पुलिस को भिखारियों को एक वर्ष की जेल या 2000 रुपये के जुर्माने या दोनों के दंड के साथ गिरफ्तार करने की अनुमति देता है। दूसरी रिपोर्ट सऊदी अरब के जेद्दा से आई जहां 450 भारतीयों को सड़क पर भीख मांगने पर हिरासत में ले लिया गया। वीडियो क्लिप में उनमें से कुछ फूट-फूटकर रोते दिखाई दिए। महामारी के कारण काम से हटा दिए गए एक भारतीय को यह कहते सुना जा सकता है, “हमने देखा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और श्रीलंका के श्रमिकों को उनके राजनयिक मिशन कैसे वापस अपने देश ले जा रहे हैं लेकिन हम यहां फंसकर रह गए हैं।”
वैसे तो भारत में भीख मांगने पर रोक लगाने वाला कोई केंद्रीय कानून नहीं है लेकिन दिल्ली समेत कम-से-कम 22 राज्यों में सार्वजनिक रूप से भीख मांगने के खिलाफ नियम बनाए गए हैं। ये राज्य पुलिस को अधिकार देते हैं कि वे भिखारियों को गिरफ्तार कर उन्हें जेल या फिर डिटेंशन सेंटर भेज दें। कुछ राज्यों में भिखारियों को देखते ही भगा दिया जाता है तो कुछ राज्यों में उन्हें निर्माण स्थलों-जैसी जगहों पर मुफ्त में काम पर लगा दिया जाता है। ये नियम गरीबों को परेशान करने के लिए बनाए गए हैं। बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट, 1959 में तीन से दस साल तक हिरासत में रखने के दंड का प्रावधान है।
बेसहारा और बेघर, खानाबदोश समुदायों के लोगों, सड़क पर करतब दिखाने वालों और प्रवासी मजदूरों को नियमित रूप से परेशान किया जाता है और उनसे जबरन वसूली की जाती है। उन्हें धमकाया जाता है कि अगर वे गिरफ्तारी से बचना चाहते हैं तो पैसे देने होंगे।
हर्ष मंदर के नेतृत्व में लंबी लड़ाई और कॉलिन गोंजाल्वेज के दमदार तर्क के बाद 2017 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भीख मांगने को अपराध की श्रेणी से हटा दिया। अदालत ने कहा, “लोग सड़कों पर भीख इसलिए नहीं मांगते हैं कि वे ऐसा करना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता।” अदालत ने यहां तक कहा कि, “राज्य अपने नागरिकों को एक सभ्य जीवन देने के अपने दायित्व से पीछे नहीं हट सकते और जिंदा रहने के लिए जरूरी चीजों के लिए भीख मांग रहे लोगों को गिरफ्तार करके, हिरासत में लेकर और उन्हें जेल में डालकर ऐसे लोगों की तकलीफ को और बढ़ा नहीं सकते।”
अदालत का यह आदेश नौकरशाही से सामाजिक कार्यकर्ता बने हर्ष मंदर और सरोकारी वकील कॉलिन गोंजाल्वेज की ओर से लड़ी गई लंबी लड़ाई के बाद आया। मंदर कहते हैं, “भीख मांगने पर रोक लगाने वाला कानून देश के उन गरीब और निराश्रितों के खिलाफ सर्वाधिक दमनकारी कानूनों में से एक है जिनके पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं।” तब केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय से कहा था कि वह ऐसे लोगों के पुनर्वास के उद्देश्य से भीख मांगने को अपराध के दायरे से अलग करने वाला एक विधेयक लाएगी। हालांकि उसके बाद केंद्र सरकार अपने वादे से मुकर गई और उसने उच्च न्यायालय को सूचित किया कि भीख मांगने को गैर-आपराधिक बनाने का उसके पास कोई प्रस्ताव नहीं है।
केंद्र सरकार की स्थायी वकील मोनिका अरोड़ा और वकील हर्ष आहूजा ने कहा, “हम इसे (भीख मांगना) गैरआपराधिक नहीं बना रहे। इसका इरादा छोड़ दिया गया है। केंद्र सरकार ने भीख मांगने पर कोई कानून नहीं बनाया है और राज्यों के पास शक्ति है कि वे इस तरह का कदम उठा सकें।” दूसरे शब्दों में, सड़कों पर बड़ी संख्या में भीख मांगने वाले लोगों की ओर से केंद्र सरकार ने अपनी आंखें मूंद ली हैं और सारा दारोमदार राज्यों पर छोड़ दिया है।
अकेले दिल्ली में आधिकारिक तौर पर बेघरों की संख्या लगभग 50,000 है। वैसे, यह संख्या इसका तीन गुना तक हो सकती है और ये वे लोग हैं जिन्हें किसी भी बड़े आपराधिक वारदात या किसी वीआईपी की यात्रा के दौरान पुलिस वाले उठाकर सीखचों के पीछे डाल देते हैं।
आइए, जरा देखें कि कानून के मुताबिक भीख मांगने को कैसे परिभाषित किया गया है:
सार्वजनिक स्थान पर पैसे, कपड़े या अन्य चीजों के लिए याचना करना या इन चीजों को प्राप्त करना, बेशक इसके लिए गाना गाया जाए, नाचा जाए, कोई करतब दिखाया जाए, भविष्य बताया जाए या फिर छोटी-मोटी कोई चीज को बेचकर ही ऐसा किया जा रहा हो।
पैसे, कपड़े या अन्य चीजों को प्राप्त करने या इसके लिए याचना करने के उद्देश्य से किसी निजी परिसर में प्रवेश करना।
पैसे, कपड़े या किसी अन्य चीज को पाने के लिए घाव, चोट, विकलांगता आदि को दिखाना।
जीवन निर्वहन का कोई दिखने वाला साधन न होने पर कोई व्यक्ति सार्वजनिक जगह पर मंडराता हो और जिसे देखकर ऐसा लगता हो कि वह पैसे, कपड़े या किसी और चीज के लिए ही यहां-वहां भटक रहा हो।(najivan)
पिछले 24 घंटों में महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 20,419 नए मामले सामने आए हैं| जबकि आंध्रप्रदेश में 7,293 और कर्नाटक में 8,811 मरीज मिले हैं
- Lalit Maurya
कहां कब सामने आये कितने मामले
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा 27 सितम्बर 2020, सुबह 8:00 बजे तक जारी आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में 13,21,176 मामलों की पुष्टि हो चुकी है। इनमें से 10,16,450 ठीक हो चुके हैं। ऊपर ग्राफ में देखिए कि किस राज्य में कब कितने मामले सामने आए। दूसरे नंबर पर आंध्रप्रदेश है जहाँ अब तक 668,751 मामले सामने आ चुके हैं। तीसरे नंबर पर तमिलनाडु है, जहां अब तक 575,017 मामले सामने आ चुके हैं। कर्नाटक में 566,023, उत्तरप्रदेश में 382,835, दिल्ली 267,822, पश्चिम बंगाल में 244,240, ओडिशा में 205,452, तेलंगाना में 185,833, बिहार में 177,072, असम में 169,110, केरल में 167,939 जबकि गुजरात में भी अब तक संक्रमण के करीब 131,646 मामले सामने आ चुके हैं। जबकि उनमें से 111,777 मरीज ठीक हो चुके हैं। गौरतलब है कि गुजरात में पहला मामला 20 मार्च को सामने आया था।
जबकि राजस्थान में अब तक 126,775 मामले सामने आ चुके हैं। इसके बाद हरियाणा 122,267 का नंबर आता है। देश भर में 49,41,627 लोग इस बीमारी से ठीक हो चुके हैं।
भारत दुनिया का दूसरा ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं, जबकि प्रति दस लाख आबादी पर सिर्फ 51,515 टेस्ट किये गए हैं
भारत में अब तक कोरोना के 59,92,532 मामले सामने आ चुके हैं। जिसके साथ वो दुनिया का दूसरा सबसे संक्रमित देश बन गया है। 32 पर पहुंच चुकी है। इस संक्रमण से अब तक 94,503 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। पिछले 24 घंटों में 88,600 नए मामले सामने आये हैं और 1,124 लोगों की मौत हुई। जबकि देश भर में 49,41,627 मरीज ठीक हो चुके हैं। (downtoearth)
राजीव
ऐसे समय में जब सरकार अपने सभी जरूरी कामों से अपना हाथ खींच रही हैं और पूंजीपतियों को सौंप रही है। सोचिए अगर सरकार आपके सस्ते अनाज से भी अपना हाथ खींच ले तो आप किसके पास जाएंगे। ऐसा क्या है इस बिल में कि सरकार दंगाई तक दिखने को तैयार है लेकिन पीछे हटने को तैयार नहीं जबकि हर नीति में उसका साथ देने वाले लोग भी उसके साथ खड़े होने से कतरा रहे हैं।
सत्ता अगर अपनी आँखे बंद कर लेगी तो क्या होगा। समझने के लिए इसे ऐसा समझिये की पिछले चार-पांच सालों में आपने ध्यान दिया होगा कि सभी दालें सौ रूपये या उसके ऊपर भाव में आकर टिक गई हैं। यही स्थिति सेब भी है अब डेढ़ सौ रुपए किलो के आसपास से सेब कभी कम नहीं रहता। इन दोनों चीजों पर अच्छी फसल, उसकी पैदावार का समय या अन्य किसी भी चीज का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है और इसका भाव पिछले सालों में कभी कम नहीं हुआ। यह कैसे हो रहा है ? अगर इस पर आप ध्यान देंगे तो यह दोनों चीजें अब एक कंपनी स्टाक करके अपने हिसाब से, अपनी कीमत पर बाजार में उपलब्ध करा रही है। यही स्थिति खाने की अगर सभी चीजों में हो जाए तो सोचिए क्या होगा? आप की थाली इतनी महंगी हो जाएगी की आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
जिन्हें आज प्राइवेट स्कूल और प्राइवेट अस्पताल की फीस चुभ रही है उनको कम से कम किसानों के लिए बोलना ही चाहिए। शिक्षा और स्वास्थ को सरकार ने बाजार के भरोसे कर दिया है और हम सब देख ही रहे है क्या हो रहा है। ये ही हाल सरकार आपके खाने के साथ करना चाहती है। अगर ये भी बाजार भरोसे हो गया तो फिर सत्ता के नुमाइंदों का एक ही जवाब होगा ‘खाना है तो पैसा देना ही होगा’।
मीडिया और आसपास फैली गैर जरूरी बहसों और खबरों से अलग खाना आपको खाना ही है और महंगा कितना खा पाएंगे यह आपको तय करना है। अब बात सिर्फ किसानों को फसल के पर्याप्त पैसे की भी नहीं है बात अब न्याय की भी है जो देश के हर नागरिक को मिलना चाहिए।
भरोसा रखिए दीपिका या किसी भी फिल्म सितारे को कुछ नहीं होगा, ताकत और पैसा उन्हें कुछ नहीं होने देगा लेकिन अगर आपने अपने हक की लड़ाई यूं ही जाने दी तो आपकी आने वाली पीढिय़ां आपसे सवाल जरूर पूछेंगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में ऐसा भारत-विरोधी भाषण दिया, जिसका तगड़ा जवाब अब नरेंद्र मोदी को देना ही पड़ेगा। दुनिया के करोड़ों श्रोताओं को ऐसा लगेगा कि ये दोनों प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र को नहीं, एक-दूसरे को भाषण दे रहे हैं। इमरान खान ने अफगानिस्तान और अरब-इस्राइल संबंधों पर तो काफी सम्हलकर बोला लेकिन कश्मीर और भारतीय मुसलमानों के बारे में वे इस तरह बोल रहे थे मानो वे असदुद्दीन औवेसी या राहुल गांधी हों। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वे कोई विदेशी प्रधानमंत्री हैं। यदि उन्हें कश्मीर की आजादी और भारतीय मुसलमानों की इतनी चिंता है तो उनसे कोई पूछ सकता है कि पाकिस्तान में जो रहते हैं, वे लोग क्या मुसलमान नहीं हैं ? उनके साथ पाकिस्तान की सरकारें और फौज कैसा सलूक कर रही हैं?
पाकिस्तानी कश्मीर और गिलगिट-बल्टीस्तान का क्या हाल है ? हमारे कश्मीर के मुसलमान जितने परेशान हैं, क्या बलूचिस्तान और पख्तूनिस्तान के मुसलमान उनसे कम तंग हैं ? इन दोनों पाक-प्रांतों में पाकिस्तानी पुलिस और फौज ने जैसा खून-खराबा किया है, क्या वैसा हिंदुस्तान में होता है ? हां, भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगों की वारदातें हुई हैं लेकिन अदालतों ने हमेशा इंसाफ किया है। जिसका भी दोष सिद्ध होता है, वह सजा भुगतता है, चाहे हिंदू या मुसलमान !
इमरान ने गुजरात के दंगों से लेकर शरणार्थी कानून को लेकर हुए दंगों और गिरफ्तारियों को सिलसिलेवार गिनाया है और मुसलमानों पर होने वाले जुल्मों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदुत्व की विचारधारा को जिम्मेदार ठहराया है। उसकी तुलना उन्होंने हिटलर के नाजीवाद से की है। यदि इमरान को भारतीय राजनीति और संघ के आधुनिक दर्शन की पूरी जानकारी होती तो मुस्लिम लीग की इस 80-90 साल पुरानी लकीर को वे संयुक्तराष्ट्र में नहीं पीटते। क्या उन्हें संघ के मुखिया मोहन भागवत का यह कथन उनके भाषण-लेखक अफसरों ने नहीं बताया कि भारत का प्रत्येक नागरिक, जो भारत में पैदा हुआ है, वह हिंदू है। उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून (शरणार्थी कानून- सीएए) के बारे में भी कहा कि मजहब के आधार पर पड़ौसी देशों के शरणार्थियों में भेद-भाव करना उचित नहीं है। जहां तक कश्मीर का सवाल है, धारा 370 तो कभी की ढेर हो चुकी थी। बड़ी बात यह है कि उसके औपचारिक खात्मे के बाद सरकार ने ऐसा इंतजाम किया कि कश्मीर में खून-खराबा न हो। इमरान यह कहना भी भूल गए कि कश्मीर, गुजरात, सीएए और सांप्रदायिक दंगों पर इमरान से ज्यादा सख्ती और सच्ची सहानुभूति भारत के अनेक हिंदू नेताओं ने दिखाई है। आतंक और हिंसा के गढ़ में बैठकर इमरान के मुंह से शांति की बात अजीब-सी लगती है। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-इमरान क़ुरैशी
ड्रग तस्करों, बॉलीवुड और चंदन तस्करों की कथित साठगांठ को लेकर हाल के सालों में जो सबसे गंभीर चर्चा छिड़ी है उसका असर एंटरटेनमेन्ट और मीडिया जगत समेत कई और क्षेत्रों पर पड़ा है.
बॉलीवुड इंडस्ट्री से जुड़े बड़े नामों से लेकर ड्रग तस्करों के जाल में फंस कर गांजा उगाने वाले छोटे किसानों के जीवन पर इसका कितना असर होगा, ये समझने के लिए अभी और वक्त लगेगा.
लेकिन ऐसा लगता है कि इस विवाद का बड़ा असर गांजे के पौधे के औषधीय गुणों और इसके ग़ैर-नशीले और लत न लगने से जुड़े गुणों को लेकर जारी वैज्ञानिक शोध पर पड़ रहा है.
जांच एजेंसियों और मीडिया का गांजा और कृत्रिम नशीले पदार्थों को एक ही चश्मे से दिखाने का असर ये हो रहा है कि कई लोग अब ये मानने लगे हैं कि गांजे का पूरा पौधा न केवल बुरा है बल्कि बेहद हानिकारक है.
ये हालात तब हैं जब इस पौधे को लेकर किए गए वैश्विक रिसर्च में ये बात सामने आई है कि इसके ग़ैर-नशीले और लत न लगने हिस्सों का इस्तेमाल मिर्गी, मानसिक विकारों, कैंसर के मरीज़ों में दर्द कम करने, कई तरह के स्क्लेरोसिस और त्वचा की बीमारियों में किया जा सकता है.
बेंगलुरु में मौजूद नम्रता हेम्प कंपनी के प्रबंध निदेशक हर्षवर्धन रेड्डी सिरुपा ने बीबीसी को बताया, "इसका असर ये होगा कि गांजे की खेती और इससे इंडस्ट्रीयल और मेडिसिनल प्रोडक्ट बनाने के लिए रीसर्च की अनुमति देने के लिए नियमन प्रक्रिया बनाने का फ़ैसला लेने में अब तीन से चार साल की देरी हो सकती है."
सिरुपा का डर उन व्यवसायियों के डर से मिलता-जुलता है जिन्होंने ये सोच कर इस क्षेत्र में कदम रखा है कि क़ानून में उचित बदलाव के साथ इस पौधे का इस्तेमाल कृषि और बागवानी, कपड़ा उद्योग, दवा और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में किया जा सकता है.
इन उद्यमियों का आकलन है कि साल 2025 तक ये इंडस्ट्री सौ से देढ़ सौ अरब अमरीकी डॉलर की हो सकती है.

भारत में गांजा कितना बड़ा ख़तरा है?
दिल्ली के एम्स में नेशनल ड्रग डिपेन्डेन्स ट्रीटमेन्ट सेंटर (एनडीडीटीसी) और मनोचिकित्सा विभाग में प्रोफ़ेसर डॉक्टर अतुल अम्बेकर ने बीबीसी हिंदी को बताया, "मूल रूप से इस पूरे विषय में कई ग्रे एरिया है. इस मामले में अगर ये तय हो कि क्या मान्य होगा और क्या नहीं तो इससे काफी मदद मिल सकती है. लेकिन आम तौर पर हमारे मौजूदा क़ानून ये संदेश देते हैं कि इससे दूर रहो. इसके नज़दीक जाने की कोई ज़रूरत नहीं है."
विडम्बना ये है कि ये क़ानून उस दौर में मौजूद हैं जब एम्स और एनडीडीटीसी ने देश में की अपनी ताज़ा स्टडी में पाया है कि हमारे समाज को सबसे अधिक ख़तरा कहां से है. इस स्टडी के लिए बीते साल सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय ने आर्थिक मदद दी थी.
डॉक्टर अम्बेकर कहते हैं, "130 अरब की आबादी में क़रीब दो करोड़ लोग भांग (भारत में भांग क़ानूनी तौर पर उपलब्ध होता है), चरस और गांजा जैसे गांजे के पौधे से बने उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं."
"ये देखना भी दिलचस्प है कि वैश्विक औसत के मुक़ाबले भारत में गांजे का इस्तेमाल कम है (3.9 फीसदी बनाम 1.9 फीसदी). इसके मुक़ाबले भारत के लिए चिंता का विषय है अफ़ीम से बनने वाला हेरोइन. जहां दुनिया में औसतन 0.7 फीसदी लोग अफीम से बने नशीले पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं वहीं भारत में 2.1 फीसदी लोग इस तरह के पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं."
नीतिगत समस्याएं
यही वो कारण है जिस कारण मौजूदा स्थिति को देखते हुए गांजे के पौधे को लेकर काम करने वाले कुछ उद्यमी असमंजस में हैं.
मौजूदा क़ानून के मुताबिक़ नार्कोटिक ड्रग एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंसेस एक्ट, 1985 (एनडीपीएस एक्ट या स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985) राज्यों को इस मामले में अपने क़ानून बनाने की इजाज़त देता है.
लेकिन उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश ऐसे दो ही राज्य हैं जिन्होंने इससे जुड़े कानून बनाए हैं. और इन क़ानूनों में मौजूद कमियों के कारण उद्यमियों का इस क्षेत्र में काम करना असंभव हो गया है.
सिरुपा कहते हैं, "उदाहरण के तौर पर उत्तराखंड का क़ानून कहता है कि "गांजे के पौधे में 0.3 फीसदी से कम टेट्राहाइड्रोकैनाबिनॉल (टीएसी) होना चाहिए. इस मामले में कोई स्पष्टता ही नहीं है. क्योंकि नमी वाले इलाक़ों में मौसम की मार से बचने के लिए गांजे का पौधा अधिक मात्रा में टीएचसी पैदा करता है."
भुवनेश्वर में मौजूद डेल्टा बायोलॉजिकल्स एंड रीसर्च प्राइवेट लिमिडेट के विक्रम मित्रा का कहना है, "उत्तराखंड ने गांजे की खेती के लिए 14 उद्यमियों को लाइसेंस दिए गए हैं लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया क्योंकि इसके लिए विदेश से बीज आयात करने होते हैं."
"हमारी कोशिशों के बाद उत्तराखंड सरकार ने केंद्र सरकार को टीएचसी मात्रा में बदलाव करने के लिए लिखा लेकिन इस मामले में मार्च से अब तक कोई फ़ैसला नहीं लिया गया है."
गांजे के पौधे में जो दो रसायन पाए जाते हैं वो हैं टेट्राहाइड्रोकैनाबिनॉल यानी टीएचसी और कैनाबिडॉल यानी सीबीडी. गांजे में नशा टीएचसी की मौजूदगी के कारण होता है.
लेकिन वैज्ञानिक समुदाय को पौधे में मिलने वाले दूसरे रसायन कैनाबिडॉल में दिलचस्पी है क्योंकि इसका इस्तेमाल स्वास्थ्य क्षेत्र में किया जाता है.
टीएचसी में भी कई ऐसे गुण हैं जिस कारण सीमित मात्रा में लोगों के इलाज के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है.
डॉ. अम्बेकर कहते हैं, "अब ये स्पष्ट हो चुका है कि कैनाबिडॉल में नशे के कोई गुण नहीं हैं और इसके इस्तेमाल से किसी को नशे की लत नहीं लगती."

सकारात्मक कदम
कोविड-19 महामारी के कारण हुई देरी और फिर उसके बाद फ़िल्म इंडस्ट्री में ड्रग के मुद्दे को बॉम्बे हेम्प कंपनी (बोहेको) के निदेशक जहान पेस्तून जमास नकारात्मक नहीं मानते.
इसके विपरीत वो मानते हैं कि इससे गांजे के सकारात्मक गुणों पर लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है.
वो बोहेको और राजस्थान के जयपुर में मौजूद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद के साथ हुए करार का ज़िक्र करते हैं और कहते हैं कि कंपनी के बनाए आयुर्वेदिक फ़ॉर्मुले के क्लिनिकल ट्रायल के लिए ये करार किया गया है.
कंपनी के बनाए फॉर्मूले का ट्रायल ऑस्टियोथोरासिस के मरीज़ों पर किया जाना है.
जहान पेस्तून जमास ने बीबीसी को बताया, "आयुर्वेद में क़रीब 200 अलग-अलग जगहों में गांजे का ज़िक्र है. हमें करीब देढ़ साल पहले लाइसेंस मिला और हमारे कई उत्पाद बाज़ार में उपलब्ध हैं. हम मुंबई के एक बड़े अस्पताल के साथ टर्मिनल कैंसर के मरीज़ों के बीच इससे बनी दवा के इस्तेमाल के लिए क्लिनिकल ट्रायल शुरू करने का भी इंतज़ार कर रहे हैं."
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद में इस स्टडी को मार्गदर्शन करने वाले प्रोफ़ेसर पवन कुमार गोडतवार ने बीबीसी को बताया, "इस पौधे के मादक पदार्थ का नाम गांजा है. संस्कृत में इसे विजया कहते हैं. आयुर्वेद में इसके इस्तेमाल को बुरा नहीं माना जाता. कई आयुर्वेदिक दवाएं हैं जिनमें न केवल विजया का इस्तेमाल किया जाता है बल्कि अफ़ीम का भी इस्तेमाल होता है. ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे कैसे इस्तेमाल करते हैं और इसका इस्तेमाल कितना महत्वपूर्ण है."
मुंबई के कस्तूरबा मेडिकल सोसायटी में आयुर्वेदिक सलाहकार डॉक्टर कल्पना धुरी-शाह कहते हैं, "जिन मरीज़ों को ये बताया गया कि दवा में गांजा भी है, उनमें इसे लेकर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली. एक्ज़िमा जैसे त्वचा के रोगों में ये दवाएं बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं."
डॉ. धुरी-शाह के एक मरीज़ ने बीबीसी को बताया, "मेरे पैरों में खुजली शुरू हो गई थी और जहां खुजली होती थी वहां में काले धब्बे बन जाते थे. मुझे तेल दिया गया कहा गया कि इसकी दो बूंदे नाभि में डालनी हैं. डॉक्टर ने मुझे बतया था कि इसमें गांजे के पौधे का अर्क शामिल है. मुझे इस कारण किसी तरह का साइड इफेक्ट नहीं हुआ है. न ही मुझे इसकी लत लगी है. और कुछ महीनों में मेरी बीमारी भी पूरी तरह ठीक हो गई."
अब, आगे क्या करने की ज़रूरत है?
मित्रा कहते हैं, "चीनी, मसालों, चाय और कॉफ़ी की तरह सरकार ने गांजे को व्यापार की वस्तुओं के रूप में चिन्हित नहीं किया है, जो सबसे बड़ी मुश्किल है. इसे जुड़े क़ानून में बदलाव की ज़रूरत है ताकि कंपनियां रीसर्च और डेवेलपमेंट में निवेश कर सकें. कंपनियां इस क्षेत्र में निवेश नहीं कर रहीं क्योंकि इसके लिए नियमन की कोई निश्चित प्रक्रिया नहीं है. इसके व्यावसायीकरण के लिए कोई रोड मैप भी नहीं है."
क़ानूनी तौर पर इसके लिए किस तरह के बदलावों की ज़रूरत है?
विधि सेंटर फ़ॉर लीगल पॉलिसी के सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना कुमार ने बीबीसी से कहा, "इसके लिए क़ानून में बदलाव की शुरूआत ये कहते हुए करने की ज़रूरत है कि गांजा रखने पर सज़ा का प्रावधान नहीं होगा. सबसे पहले इसके लिए एनडीपीएस एक्ट में बदलाव करना होगा. इसके साथ ही इसकी खेती और इसे बेचने के लिए भी विशेष लाइसेंस की व्यवस्था करनी होगी."
वो कहते हैं कि "ये बदलाव केंद्र सरकार को करने होंगे. केंद्र सरकार को इसके लिए एक फ्रेमवर्क बनाना होगा जिसका पालन राज्य सरकारें कर सकें और लाइसेंस जारी कर सकें. फिलहाल किसी को भी गांजा से कोई लेना-देना नहीं है."
डॉ. अम्बेकर कहते हैं, "ये मज़ाक भी है और विडम्बना भी कि भारत में उगने वाले इस पौधे से जो दवा बनती है हमें वो विदेशों से आयात करना पड़ती हैं. हमारी भौगोलिक स्थिति को देखें तो हम इस मामले में वैश्विक लीडर बन सकते हैं."
सिरुपा कहते हैं, "मौजूदा दौर में गांजे का सबसे अधिक, 80 फीसदी उत्पादन चीन करता है और वहां इसका इस्तेमाल धागे से लेकर कपड़े तक सभी में होता है. गांजे से जो कपड़ा बनता है उसमें एंटी-बैक्टीरियल और एंटी-वायरल गुण होते हैं." (bbc)
-कुमार केतकर
अमेरिका और यूरोप के राजनीतिक विद्वान तथा बुद्धिजीवी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के दो प्रोफेसर स्टीवन लेवित्स्की और डैनिएल जिबालत की किताब “हाउ डेमोक्रेसीज डाईः वॉट हिस्ट्री रिवील्स अबाउट फ्यूचर” से पैदा हुई गरमागरम बहस में उलझे हुए हैं। 2016 में चुनाव के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बनने वाले डोनाल्ड ट्रंप के कामकाज के बाद पैदा हुए खतरे को लेकर 2018 में प्रकाशित इस किताब ने घंटी बजा दी। लेखकों का तर्क है कि दुनिया के कई देशों की तरह अमेरिका के ‘समृद्ध’ लोकतंत्र के भी डूबने का खतरा पैदा हो गया है।
जब अपना देश आजाद हुआ था और इसने घोषणा की थी कि हमारे यहां संसदीय लोकतंत्र होगा, तो पश्चिम देशों, खास तौर से ब्रिटेन और अमेरिका के कई प्रमुख बुद्धिजीवियों ने या तो इस विचार का उपहास उड़ाया था या इसे पंडित जवाहरलाल नेहरू का ‘रूमानी विचार’ बताया था। वे सारी आशंकाएं गलत साबित हुईं। निश्चित तौर पर कई बार गंभीर संकट आए, काफी उत्थान-पतन भी हुए, प्रधानमंत्री और कई राष्ट्रीय नेताओं की हत्याएं हुईं, नगा और मिजो से लेकर खालिस्तान आंदोलन तक कई बार संघीय एकता को अलगावादियों ने चुनौती दी, लेकिन उन सबसे हम उबर गए। भले ही परिभाषा में अस्पष्ट लेकिन अनुभव में काफी ठोस ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ बचा रह सका क्योंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तौर पर आजादी के आंदोलन की विरासत हमारे पास थी। संसदीय लोकतंत्र उस विचार का अभिन्न अंग था।
2022 में भारत अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाएगा। लेकिन फिर से, गंभीर आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं कि क्या देश 2047 में आजादी के शताब्दी वर्षगांठ तक राजनीतिक और भौगोलिक रूप से सार्वभौम, एकजुट और अविभाज्य रह पाएगा। पहले एक सैद्धांतिक केंद्र बना हुआ था और उस सैद्धांतिक संघटन की विषय वस्तु धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, अनेकता, उदारवाद, संस्थागत स्वायत्ता और संघटन की स्वतंत्रता के साथ-साथ मीडिया की आजादी के विचार से बनी थी।
लेकिन 2014 में होने वाले ‘शासन परिवर्तन’ में धर्मनिरपेक्षता के गौरव और उसकी अनिवार्यता को नीचा दिखाकर, ’एक राष्ट्र’ के नाम पर संघवाद को तहस-नहस कर, गुटनिरपेक्षता के औचित्य पर सवाल उठाकर और बहु-शक्ति वाली दुनिया में एक सुपरपावर गठबंधन में ढिठाई के साथ शामिल होकर, योजनाबद्ध और मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीतियों को उठा फेंककर तथा बहुमतवाद के विचार को अंगीकार कर सत्ताधारी पार्टियों ने संसदीय लोकतंत्र और एकीकृत भारत पर खतरों को खुद ही तैयार किया है या उनका विस्तार किया है।
अभी सितंबर में कोरोना वायरस की महामारी की काली छाया में हुए संसदीय सत्र ने अपने लोकतंत्र की कमजोरियों को साफ तौर पर दिखाया है। प्रधानमंत्री ने जिस कथित सेंट्रल विस्टा परियोजना की घोषणा की है, वह ‘न्यू इंडिया के विचार’ का रूपक होगा! संसद के लिए नए भवन के साथ कई मंत्रियों तथा प्रधानमंत्री आवास के नए भवन वस्तुतः नए गणतंत्र की पुनर्रचना के लक्ष्य वाले हैं। इसका मुख्य लक्ष्य उस व्यवस्था और उन मूल्यों को तहस-नहस करना है जो एक शताब्दी से भी अधिक के आजादी के आंदोलन के दौरान विकसित हुए।
‘कांग्रेस-मुक्त’ भारत का नारा भरमाने वाला है। इसका वास्तविक लक्ष्य महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में हुए आजादी के आंदोलन के संघर्ष की पूरी प्रकृति के इतिहास और याददाश्त को पूर्णतः मिटाना है। इस योजना के मोहरे के तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ हिन्दुत्व की विचारधारा को स्थापित करना कोई इतना छिपा हुआ एजेंडा भी नहीं है।
साल 2022 इस योजना में अत्यंत महत्वपूर्ण होगा। यह आजादी की 75वीं वर्षगांठ का साल होगा और 1950 में हमने जिस गणतंत्र को अंगीकार किया था, उसे नीचा दिखाने वाले नए गणतंत्र की स्थापना के लिए नया ‘मुहूर्त’ होगा। उस साल नया संसदीय भवन काम करने लगेगा। वर्तमान राष्ट्रपति का कार्यकाल उसी साल खत्म हो रहा है। संसदीय लोकतंत्र की जगह पर ‘लोकतंत्र की राष्ट्रपतीय प्रणाली’ की या तो शुरुआत होगी या उसकी नियमित तौर पर स्थापना कर दी जाएगी। इसके लिए जिस चीज की जरूरत है, वह है संवैधानिक परिवर्तन।
अपने जनसंघ के दिनों से ही भारतीय जनता पार्टी संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ तर्क देती रही है। भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहता है कि वह सांस्कृतिक संगठन है, उसके बड़े पदाधिकारी संसदीय लोकतंत्र के विचार को नेहरूवादी स्वीकृति की बराबर आलोचना करते हैं। वे संवैधानिक बाधाओं को लेकर न तो चिंतित हैं, न आशंकित।
अफवाह के तौर पर उनके पास पहले ही रिपोर्ट हैं कि नरेंद्र मोदी, रामनाथ कोविंद को हटाकर या इस व्यवस्था को ही बदलकर राष्ट्रपति बन जाएंगे। यह राष्ट्रपति वाली तानाशाही होगी या एक राष्ट्र-एक चुनाव में एक पार्टी- एक नेता वाला लोकतंत्र होगा! संसद के सितंबर वाले सत्र ने पिटारा खोल दिया है। लेवित्स्की और जिबालत ने लोकतंत्रों के समाप्त होने के वैश्विक ट्रे्ंड को लेकर जो आशंका प्रकट की है, क्या भारत भी उसका ही शिकार हो जाएगा? (navjivan)
-रिचर्ड महापात्रा
नवजात, जल्द पैदा होने वाले और पांच साल तक के बच्चे महामारी से बचने के बाद भी इसके असर से बच नहीं पाएंगे।
हम कोविड-19 वैश्विक महामारी के दसवें महीने में पहुंच गए हैं। लेकिन हम अब तक अपने जीवन पर पडऩे वाले इसके तमाम प्रभावों को नहीं समझ पाए हैं। हम केवल स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले इसके तात्कालिक प्रभावों को ही ठीक से जान रहे हैं, क्योंकि हम प्रत्यक्ष रूप से इनसे प्रभावित होते हैं। इस अभूतपूर्व संकट ने हमारे जीवन के सभी पहलुओं पर असर डाला है। इस वायरस के कारण हम भविष्य को अनिश्चितताओं से भरा देख रहे हैं। यहां अक्सर कम पूछा जाने वाला एक सवाल यह उभरकर सामने आता है कि महामारी के दौरान जन्म लेने वाली पीढ़ी इस दौर को कैसे याद रखेगी? हम इस पीढ़ी को महामारी की पीढ़ी कह सकते हैं और इसमें वे बच्चे शामिल हैं जिनकी उम्र पांच साल तक है। इस पीढ़ी का महत्व इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 2040 तक यह देश के लगभग 46 प्रतिशत कार्यबल का हिस्सा होगी।
दुनियाभर में विकास की व्यापक असमानता के बावजूद महामारी की पीढ़ी ने एक दुनिया में जन्म लिया है जो किसी भी समय से अधिक संपन्न और स्वस्थ है। हम जैसी वयस्क पीढ़ी के विपरीत हाल ही में पैदा हुई पीढ़ी के जेहन में महामारी के दुखते घाव नहीं होंगे। क्या इसका मतलब है कि यह पीढ़ी के इतिहास की पाठ्यपुस्तक में महामारी के बारे में जानेगी? ठीक वैसे ही जैसे हमें किताबों से 1918-20 में फैली स्पेनिश फ्लू महामारी के बारे में पता चला था।
इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें इतिहास में झांकना होगा। वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने पाया है कि जो बच्चे 1918 के दौरान पैदा हुए या गर्भ में थे, उन्होंने कम शिक्षा प्राप्त की और वे गरीब भी रहे। 2008 की आर्थिक मंदी के दौरान गर्भवती माताओं ने कम वजन वाले शिशुओं को जन्म दिया, खासकर उन परिवारों में जहां गरीबी थी। 1998 में अल नीनो इक्वाडोर में विनाशकारी बाढ़ का कारण बना। इस अवधि के दौरान पैदा हुए बच्चों का वजन कम था और उनमें स्टंटिंग 5 से 7 साल तक जारी रही। इन तमाम प्रभावों का एक सामान्य निष्कर्ष यह निकलता है कि आपदाओं के कारण आर्थिक स्थिति कमजोर होने का असर कई रूपों में सामने आता है।
इसलिए ऊपर पूछे गए प्रश्न का उत्तर डरावना है। प्रारंभिक संकेत बताते हैं कि महामारी में पैदा होने वाली पीढ़ी की स्थिति पुरानी पीढिय़ों से भिन्न नहीं होगी। हाल में जारी और विश्व बैंक द्वारा तैयार वैश्विक ह्यूमन कैपिटल इंडेक्स (एचसीआई) बताता है कि महामारी की पीढ़ी इसकी सबसे बुरी शिकार होगी। 2040 में वयस्क होने वाली यह पीढ़ी अविकसित (स्टंटेड) होगी और ह्यूमन कैपिटल के मामले में पिछड़ जाएगी। हो सकता है कि दुनिया के लिए यह विकास की सबसे मुश्किल चुनौती बन जाए।
एचसीआई में उस मानव पूंजी को मापा जाता है जिसे आज जन्म लेने वाला बच्चा अपने 18वें जन्मदिन पर पाने की उम्मीद रखता है। इसमें स्वास्थ्य और शैक्षणिक योग्यता शामिल होती है। ये बच्चे के भविष्य की उत्पादकता पर असर डालती हैं।
कोविड-19 पुरानी महामारियों की तरह गर्भवती मां और बच्चे के स्वास्थ्य पर ही असर नहीं डालेगा, बल्कि महामारी के आर्थिक प्रभाव गर्भ में पल रहे बच्चों सहित इस पीढ़ी को लंबे समय तक परेशान करेंगे। इसका मुख्य कारण यह है कि इन बच्चों के परिवार स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा पर अधिक खर्च नहीं कर पाएंगे। इससे शिशु मृत्युदर बढ़ेगी और जो बचेंगे वे अविकसित रहेंगे। इसके अलावा लाखों बच्चे और गर्भवती महिलाएं बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम होंगे।
एचसीआई के अनुमानों के मुताबिक, कम और मध्यम आय वाले 118 देशों में शिशु मृत्युदर 45 प्रतिशत बढ़ जाएगी। विश्लेषण बताता है कि सकल घरेलू उत्पाद में 10 प्रतिशत की वृद्धि होने से शिशु मृत्युदर में 4.5 प्रतिशत गिरावट आती है। विभिन्न अनुमान बताते हैं कि महामारी के कारण अधिकांश देश जीडीपी में भारी नुकसान से जूझ रहे हैं। इससे संकेत मिलता है कि आगे शिशु मृत्युदर की क्या स्थिति होगी।
यही वह समय है जब दुनिया कुपोषण और गरीबी दूर करने के लिए गंभीर प्रयास कर सकती है। नया इंडेक्स स्पष्ट करता है कि भले ही महामारी एक अस्थायी झटका है, लेकिन यह नई पीढ़ी के बच्चों पर गहरा असर डालने वाला है। दुनिया को इस समय जन्म लेने वाली पीढ़ी के लिए गंभीर हो जाना चाहिए। (downtoearth.org)
-सुष्मिता सेनगुप्ता
एनजीटी के निर्देश पर मार्च से अप्रैल के बीच देश की 19 प्रमुख नदियों के पानी की गुणवत्ता पर नजर रखी गई।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की रिपोर्ट के अनुसार, कोरोनावायरस महामारी के प्रसार को कम करने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के दौरान भारत की प्रमुख नदियों के पानी की गुणवत्ता में खास सुधार नहीं हुआ।
16 सितंबर, 2020 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को सौंपी गई सीपीसीबी की रिपोर्ट के मुताबिक, मार्च से अप्रैल के बीच देश की 19 प्रमुख नदियों के पानी की गुणवत्ता पर नजर रखी गई और इसकी तुलना की गई। एनजीटी ने सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को ऐसा करने को निर्देश दिया था ताकि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों, एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट और सेंट्रल एफ्लुएंट प्लांट के लिए कार्यान्वयन योजनाएं सुनिश्चित की जा सकें।
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और प्रदूषण नियंत्रण समितियों ने ब्यास, ब्रह्मपुत्र, बैतमी व ब्राह्मणी, कावेरी, चंबल, गंगा, घग्गर, गोदावरी, कृष्णा, महानदी, माही, नर्मदा, पेनर, साबरमती, सतलुज, स्वर्णरेखा, तापी और यमुना के पानी की गुणवत्ता का आकलन किया।
रिपोर्ट के अनुसार, मार्च में नदियों के पानी के कम से कम 387 और अप्रैल में 365 नमूने एकत्र किए गए। मार्च के दौरान 387 (77.26 प्रतिशत) निगरानी स्थानों में से कम से कम 299 में आउटडोर स्नान के लिए सूचीबद्ध मापदंडों का पालन किया। वहीं अप्रैल में 365 (75.89 प्रतिशत) स्थानों में से 277 में मापदंडों का अनुपालन किया गया था।
रिपोर्ट के अनुसार, उद्योग बंद होने, बाहरी स्नान और कपड़ा धोने जैसी गतिविधियों में कमी के कारण ब्राह्मणी, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गोदावरी, कृष्णा, तापी और यमुना नदी में पानी की गुणवत्ता में सुधार देखा गया। दूसरी ओर ब्यास, चंबल, सतलुज, गंगा और स्वर्णरेखा में सीवेज का बहाव अधिक होने और पानी की मात्रा कम के कारण गुणवत्ता खराब हो गई।
रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन का असर दिल्ली से बहने वाली यमुना के 22 किलोमीटर के हिस्से पर ज्यादा साफ झलक रहा था। हालांकि पानी की गुणवत्ता में हुआ सुधार शहर में बेमौसम बारिश का नतीजा हो सकता है। नदी के पानी की गुणवत्ता का आकलन पीएच, घुलित ऑक्सीजन (डीओ), बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) और फीकल कॉलीफॉर्म (एफसी) के मापदंडों के आधार पर किया गया। इसके परिणामों की तुलना पर्यावरण (संरक्षण) नियमों, 1986 के तहत अधिसूचित आउटडोर स्नान के लिए प्राथमिक जल गुणवत्ता मानदंडों से की गई थी। (downtoearth)
रायगढ़ के एक रंगकर्मी अजय अठाले का कोरोना से निधन हो गया। उनके बारे में बहुत से रंगकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया पर बहुत तकलीफ के साथ श्रद्धांजलि देती है।
अजय अठाले के फेसबुक पेज को देखें तो उन्होंने इसी महीने 8 सितंबर को लिखा था- आज ही के दिन पिताजी ने अंतिम सांसें ली थीं, उनकी स्मृति में करीब 25 बरस पहले एक लेख लिखा था। आज उसे धारावाहिक किस्तों में दे रहा हूं। यह लिखकर उन्होंने 8 सितंबर और 10 सितंबर को दो किस्तें पोस्ट की थीं, और 13 सितंबर के बाद से कुछ और पोस्ट किया ही नहीं। ये दोनों किस्तें मिलाकर भी अधूरी हैं, लेकिन हम इस कभी पूरे न होने वाले क्रमश: के साथ इसे यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। -संपादक
-अजय अठाले
आज के ही दिन पिताजी ने अंतिम सांसे ली थी उनकी स्मृति में एक लेख लिखा था करीब 25 बरस पहले आज उसे धारावाहिक किश्तों में दे रहा हूं
घर के आंगन में लगा आम का पेड़ जब पहली बार बौराया था तब दादा बेतरह याद आये। जाने किसने किस घड़ी में आम खाया और पिछवाड़े आंगन में गुठली फेंक दी, अंकुर फूटा, धीरे-धीरे पौधे ने पेड़ का आकार ग्रहण किया, आई (माँ) हमेशा झल्लाती, ये पेड़ बेकार में ही जगह घेर रहा है, इसे कटवा दो, फल भी तो नहीं लगते हैं। दादा हमेशा की तरह कहते, रहने दो, एक दिन फलेगा और इस तरह वो पेड़ जीवनदान पाता रहा।
दादा की मृत्यु के बाद आए पहले बसंत में ही जब वह पेड़ पहली बार बौराया था , उसे देखकर दादा बहुत याद आये थे, और घूम गया था आंखो के सामने अस्पताल का वह वार्ड , जहाँ अच्छे-खासे,भले-चंगे दादा अचानक ब्रेन हैमरेज हो जाने से भर्ती कर दिए गएथे। सब कुछ छोटे से पल में घटित हो गया था, 15 मिनट के भीतर दादा अस्पताल में थे। ड्रिप लगाई जा चुकी थी, भाभी खुद उसी अस्पताल में डॉक्टर थी, लिहाजा सारा अस्पताल ही मुस्तैदी से लगा हुआ था। नींद का इंजेक्शन भी बेअसर हो रहा था और तकलीफ में दादा झल्ला उठते थे। लेकिन झल्लाहट में भी वाणी पर गजब का संयम था, वही शिष्ट भाषा। सुबह बिल्कुल ठीक लग रहे थे, लगा कल की रात मानो दुस्वपन थी, सुबह चाय पी, मिलने वालों की भीड़ देखकर गुस्सा भी हुए, यह कहते हुए कि तुम लोगों ने मेरा तमाशा बना दिया है, मुझे क्या हुआ है? हम सभी तनावमुक्त महसूस कर रहे थे। लेकिन एक दिन बाद ही जिसे दुस्वपन समझा वही हकीकत निकली, दादा कोमा में चले गये।
डॉक्टर मिश्रा ने रुंधे गले से जब कहा ‘दादा दगा दे गये’ तो लगा मानो पैरों के नीचे से जमीं ही खींच ली गई हो। मैं गिरता चला जा रहा हूं अनंत गहराई की ओर।
किसी तरह संभला, कमरे में आया, देखा लाइफ सेविंग्स ड्रग लगाई जा चुकी है। सभी परिचित आसपास खड़े हैं, बीच-बीच में दादा होश में आते तब अनचीन्ही नजऱों से कुछ ताकते, सब मुझे कह रहे थे कि उनकी अंतिम इच्छा पूछ लो। हिम्मत नहीं होती थी, जानता था मु_ी से बालू की तरह फिसलकर छूट रहे हैं, पर मन नहीं मान रहा था, उनका वो अनचीन्ही नजरों से कुछ खोजना। जानता था आई को खोज रहे हैं मगर संस्कार गत संकोच अंतिम क्षणों में भी बना हुआ है। आखिर दिल कड़ाकर मैने धीरे से पूछा था ‘आई से कुछ कहना है?’ उनकी आंखों में एक चमक आई, कहा, उनका ख्याल रखना, मुझे आराम करने दो। आंखे मूंद लीं, यही आखिरी संवाद था ‘उनका ख्याल रखना’।
दादा आई को हमेशा बहुवचन में ही संबोधित करते थे। बड़े होने पर हम लोगों के बीच की दूरियाँ कम हो चली थीं और हम लोग दादा से कभी-कभार मजाक भी कर लिया करते थे। एक दिन हम सारे बैठे थे आई कहीं बाहर गई थी, दादा कमरे में आये, नजरें घुमाई, धीरे से पूछा ‘सब लोग कहां हैं?‘ मै मजाक के मूड मे था, कहा ‘यहीं तो बैठे हैं सब लोग’ उन्होंने हल्की संकोचभरी मुस्कान से पूछा ‘बाकी लोग कहां हैं?’ हंसी दबाते हुए हमें बताना ही पड़ा आई काम से बाहर गई है।
सचमुच आई दादा के लिए ‘सब लोग’ ही थी। तमाम जिंदगी सारी जिम्मेदारियों को ओढक़र दादा को दुनियाबी बखेड़ो से दूर रखने वाली! हमारा बचपन आई के सामीप्य में ही गुजरा, दादा को हमने दूर से ही देखा और व्यस्त पाया। ऑफिस में अपने मुवक्किलों के साथ, या फिर फुर्सत के क्षणों में किसी मोटी सी किताब के पन्नों के बीच खोए हुए।
क्रमश:
दादा : एक आदमकद पिता
हमारे जमाने में पिता से बच्चों की एक स्वाभाविक दूरी ही होती थी और माँ हमेशा पुल का काम करती थीं। बच्चों के लिए दूरी के बावजूद पिता हीरो की तरह होते थे। मानो हर बच्चे का पिता उनके लिए नेहरू की तरह होता था जो उन्हें इतिहास की झलक दिखलाता था।
दादा को अध्ययन का बहुत चस्का था और यह शायद उन्हें उनके पिता लक्ष्मण गोविंद आठले से मिला था जो उस जमाने में अच्छे लेखक भी थे और हंस और सरस्वती में छपा करते थे। उनका एक लेख पुरी का गरजता समुद्र लेखक पंडित लक्ष्मण गोविंद आठले, पाठ्य पुस्तक मे भी था उनका देहांत बहुत जल्द हो गया था। बुआ ने यह किस्सा सुनाया था रि जब पहली बार उसने यह लेख पढ़ा और लेखक का नाम पढ़ा तो घर आकर उसने दादी से पूछा कि ये पंडित लक्ष्मण गोविंद आठले कौन हैं? तो दादी ने कहा था हां तेरे पिताजी लिखा करते थे कुछ-कुछ। मेरे सामने डॉक्टर सी वी रमन की घटना याद आ गई, उन्होंने जिक्र किया है कि जब माँ को पता चला कि उन्हें रमन इफेक्ट के लिए नोबल मिला तो उसने पूछा कि क्यों मिला है? जब डॉक्टर रमन ने उन्हें सरल शब्दों में रमन इफेक्ट समझाया तो उनकी माँ ने कहा इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा ईनाम?
बुआ की हालत भी डॉक्टर रमन की तरह हुई होगी।
लक्ष्मण गोविंद आठले जी की भी बहुत बड़ी लायब्रेरी थी और दादा को भी अध्ययन का चस्का यहीं से लगा होगा, अच्छा साहित्य खरीदकर पढऩा उनकी आदत में शुमार था, फटा कोट सिलकर पहनो मगर किताबें नई खरीदकर पहनो, ये मानो मंत्र था उनके जीवन का, किसी भी नई किताब के बारे में पता चलते ही उसे खरीदने को आतुर रहते थे, घर की सारी अल्मारियां किताबों से अटी पड़ी होतीं, पढऩा और मित्रों को पढ़वाना यही शौक था, इस चक्कर में कई किताबें गुम हो जातीं मगर उन्हे फर्क नहीं पड़ता था।
अच्छी किताबें पढऩा यही वो बिन्दु था, जहाँ मेरे दादा से तार जुड़ते थे, आग भी उन्हीं की लगाई हुए थी। बचपन में गर्मियों की दुपहरी हमारे लिए कष्टप्रद होती थी तब दादा के कोर्ट की भी छुट्टियां होती थीं और दादा दोपहर भर घर मे ही रहा करते थे। घर पर दादा की उपस्थिति मात्र का आतंक हमे मनचाही बदमाशियों से रोकता था। दादा कभी कभी अपने कमरे मे बुला लिया करते, लेंडस एण्ड द पीपुल या बुक ऑफ नोलेज के वॉल्यूम में से कुछ पढऩे के लिए दे देते और मुझे लगता कि स्कूल की छुट्टियों का सारा मज़ा ही खत्म हो गया, पढ़ते वक्त अगर समझ ना आए तो समझाया भी करते थे, मगर बाल सुलभ मन तो रेत के घरौंदे बनाने, कच्चे आम तोडऩे की योजना बनाने और पतंग उड़ाने को आतुर रहता था। ऐसी ही दुपहरी में दादा ने एक कहानी सुनाई थी तब बाल सुलभ मन को उसके गहरे अर्थ पता नहीं चले थे। बड़े होकर यह कहानी ज्यादा समझ में आई और आज भी मंै बच्चों के थिएटर वर्कशाप में जरूर सुनाता हूं। कहानी कुछ ऐसी है- एक बार एक टीचर ने स्कूल में बच्चों को सबक दिया कि कल सब लोग एक कहानी लिखकर लाना जो सबसे अच्छी कहानी लिखेगा उसे ईनाम दिया जाएगा। सब खुशी-खुशी चले गए, एक बच्चा उदास बैठा था टीचर ने उससे पूछा तो बच्चे ने कहा कहानी कैसे लिखें? टीचर ने कहा कि तुम एक जगह चुपचाप बैठकर देखते रहो क्या हो रहा है उसे नोट कर लेना और लिख देना कहानी बन जायेगी। बच्चा खुश होकर चला गया, दूसरे दिन टीचर ने सभी बच्चों से कहानी सुनी सभी ने किसी ना किसी किताब से पढ़ी कहानी सुनाई। इस बच्चे से जब पूछा तो इसने डरते-डरते कहा कि एक लाईन की लिखी है टीचर ने कहा सुनाओ, लडक़े ने हिचकते हुए सुनाई सूं!!!!!!! सर्र!!!!!!!! खट्ट!! बें!!!!!!पट्ट!! गुड गुड गुड गुड डब्ब
सारे बच्चे हॅंसने लगे, टीचर ने बच्चों को शांत कराया फिर बच्चे से पूछा ये तुमने क्या लिखा है? बच्चे ने कहा टीचरजी जैसा आपने कहा वैसे ही मंै कॉपी लेकर खेत में चला गया देखा कि एक खेत के किनारे एक बेल का झाड़ है पास ही कुआं है और वहीं एक बकरी चर रही है अचानक जोरों की हवा चलने लगी सूं!!!!!! सर्र!!!!!! तभी झाड़ से एक बेल टूटा खट्ट!!!! वो सीधे बकरी के सिर पर गिरा बकरी चिल्लाई बें!!!!!!! फिऱ बेल जमीन पर गिर पट्ट!!!!! और लुढक़ते-लुढक़ते कुएं में गिरा तो आवाज हुई गुड़ गुड़ गुड़ गुड़ डब्ब मैंने वही लिख दिया है। टीचर ने कहा शाब्बास बेटा तुमने अपने अनुभव से मौलिक रचना की है इसलिए पहला ईनाम तुम्हें ही मिलता है। तब यह कहानी दूसरे कारणों से अच्छी लगी थी अब अर्थ समझ आया। ऐसे ही एक बार पढऩे की कोशिश कर रहा था तो एक चैप्टर डू इट यौर सेल्फ में बूमरैन्ग के विषय में बताया गया था कि कैसे गत्ते के टुकड़े को काटकर बूमरैन्ग बनाया जा सकता है! प्रयोग करके देखा, सफल हुआ, फिर तो धीरे-धीरे उसके सभी वॉल्यूम पढऩे की कोशिश की और कैलिडास्कोप, प्रोजैक्टर आदि घर पर ही बनाए और पुस्तकों के प्रति मोह जागा वो फिर छूटा ही नहीं। बड़े होने पर उन्हीं के सुझाव पर प्रिजन एण्ड द चॉकलेट केक, गुड अर्थ, वार एंड पीस, आई एम नाट एन आइलेंड, ग्लिम्प्सेस ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री आदी पढ़ी।
किन्ही खास मौकों पर भी उन्हें वस्तु के बदले पुस्तक भेंट की जाय तो वे बहुत खुश होते थे, उनकी इस कमजोरी का मंैने भी फायदा उठाया है, एक बार रायपुर गया था और नियत तारीख पर लौट नहीं पाया, जानता था कि अब डांट पड़ेगी सो वापसी में फ्रीडम ऐट मिड नाईट और नाच्यो बहुत गोपाल खरीद ली। देर रात एक्सप्रेस से वापस लौटा और दोनों किताबें टेबल पर इस तरह रख दीं कि सीधे उनकी नजर पड़े, परिणाम अपेक्षित थे। किताबें देख खुश हुए और आई को कहा कि हजरत को मालूम था कि डांट पड़ेगी तो खुश करने के लिए किताबें लाए हैं।
जैसे आजकल के मां-बाप को अपने बच्चों को प्यार से आतंकवादी कहते सुना है इसके ठीक विपरीत दादा जब प्यार जताना हो तो हजरत कहकर बुलाते थे।
क्रमश:
-राजीव रंजन प्रसाद
आप रचनात्मकता को कम से कम शब्दों में कैसे पारिभाषित कर सकते हैं? इस प्रश्न के लिए मेरा उत्तर है-सत्यजीत भट्टाचार्य। बस्तर की पृष्ठभूमि से रंगकर्म को आधुनिक बनाकर देश-विदेश में चर्चित कर देने वाले सत्यजीत अपने चर्चित नाम बापी दा से अधिक जाने जाते थे। वे अपने आप में नितांत जटिल चरित्र थे, चटखीले रंगों की टीशर्ट, भरे-भरे बालों वाला सर और दाढ़ी से ढंका पूरा चेहरा; पहली बार की मुलाकात से आप न व्यक्ति का अंदाजा लगा सकते थे, न व्यक्तित्व का। यदि आपने अपनी ही धुन में रहने वाले इस व्यक्ति के साथ काम किया तो कुछ ही दिनों में आप पाते कि निर्देशक पीछे छूट गया और किसी फ्रेंड-फिलॉसफर-गाईड का जीवन में प्रवेश हो गया। आपके वे निर्देशक हैं, उससे क्या? आपके ऊपर अभी थोड़ी देर में चीखेंगे भी, उससे क्या? लेकिन आप फिर दिल खोल कर सामने रख दीजिये, आप हँसी-मजाक कीजिये, किसी साथी की टांग खींचिये, चुगली कीजिये, गाली बकिये...आपकी जो मर्जी, क्योंकि बापी दा की उम्र घटती-बढ़ती रहती थी। आपमें क्षमता है तो प्रतिपल आप उनसे कुछ न कुछ सीख सकते हैं और क्षमता नहीं है तो वे आपको सिखा कर ही दम लेंगे। उनकी निर्देशन शैली में आधुनिकता थी, नाटक निर्देशन को लेकर किसी शैली-विशेष के प्रति कोई मोह भी नहीं था। वे प्रयोगधर्मी थे तथा रास्ते पर गिरे पत्थर और किसी मुस्कुराती बुढिय़ा से भी सीख लेते, फिर उसे अपने किसी पात्र में पिरो देते थे। एक मुस्कुराता हुआ चेहरा जिसे मैंने कभी थका हुआ नहीं देखा, ऐसे थे बापी दा।
बापी दा की जन्म तिथि और वर्ष है 13 जून 1963; पिता का नाम श्री धीराज भट्टाचार्य तथा माता का नाम श्रीमति मीरा भट्टाचार्य। माता जी के नाम पर ही उनका स्टूडियो है जो उनका पता भी है-कुम्हारपारा, जगदलपुर। बापी दा की मातृभाषा बंगाली है साथ ही साथ उनका हिन्दी, ओडिया, असामी और अंग्रेजी के साथ साथ अंचल की छत्तीसगढ़ी, हलबी और भरथरी बोलियों में भी पर्याप्त दखल था। बापी दा रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर से स्नातक हुए हैं। सत्यजीत भट्टाचार्य केवल एक निर्देशक ही नहीं, वे मंच की हर आवश्यकता का समाधान भी थे। वे अभिनय भी कर लेते, प्रकाश संयोजन भी बेमिसाल करते; मंच सज्जा, संगीत संयोजन सभी में उनकी दक्षता अद्वितीय थी। वे बहुत अच्छे फोटोग्राफर थे, यह बात तो सभी जानते हैं किंतु उनके भीतर की रचनात्मकता का अंदाजा लगाईये कि उन्होंने काष्ठकला और मूर्तिकला में भी हाँथ आजमाया हुआ है, वृत्तचित्र भी बनाए हैं तो विज्ञापन फिल्मों का निर्देशन किया है। बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि मंचीय संवाद लिखने के साथ-साथ बापी दा ने लेखन में भी हाँथ आजमाया हुआ है; टेलीप्ले ही नहीं अपितु लघुकथा विधा में भी। एक व्यक्ति के भीतर जैसे कई व्यक्ति छिपे हुए हैं; कई मष्तिष्क एक साथ काम करते हैं और यह उनके व्यक्तित्व में भी झलकता था; शायद यही उन्हें नाटकों के दृश्यबंध सोचने में सहायक भी होता था।
अपने प्रत्येक नाटक और हर दृश्य पर वे पूरी मेहनत करते तथा लेखक की कृति से न्याय करते हुए भी उसमे अपनी सोच डालने से नहीं चूकते। आपने बस्तर में 1960 से स्थापित मैत्री संघ में नाटक की बाकायदा ट्रेनिंग ली थी और यहीं से बस्तर का रंगमंच के क्षेत्र में नाम देश भर में प्रसारित कर रहे थे। आपने अभियान नाम से संस्था बनायी, जिसके तहत अनेकों नाट्य शिविरों तथा जनजागृति के कार्यों को प्रतिपादित किया गया। बापी दा को अनेकों पुरस्कार तथा सम्मान प्राप्त हुए हैं क्या और कितने इसकी गिनती उन्हें भी याद नहीं होगी तो मेरी क्या मजाल। उनके घर का पहला कमरा केवल प्राप्त पुरस्कारों की शील्ड से भरा पडा है। बापीदा ने अनेकों नाटक निर्देशित किए, कुछ प्रमुख का मैं उल्लेख कर रहा हूँ-अंधा युग, गाँधी, घेरा, कोरस, खुल्लमखुल्ला, अंधों का हाँधी, आदाब, राई-द स्टोन, मौजूदा हालात को देखते हुए, मशीन, इंसपेक्टर मातादीन चाँद पर आदि। आंचलिक बोलियों में आपके निर्देशित अंधार राज बैहा राजा, जीवना चो दंड, फंसलो बुदरू फांदा ने प्रमुख नाटक हैं। आपने बंगाली में भी कई नाटक निर्देशित किए। दूरदर्शन के लिए निर्देशित आपकी टेलीफिल्म हैं-भविष्यवाणी, केकड़ा चाल, उड़ान, आलू के पराठे, अंधार राज बैहा राजा। इन सबके बीच बापीदा समय निकाल लेते हैं राष्ट्रीय बाल विज्ञान कॉग्रेस के लिये जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय से सम्बद्ध है जिससे जुड कर आप पर्यावरण के लिए कार्य कर रहे थे।
बापी दा लम्बे समय से कैंसर से जूझ रहे थे। अपनी बीमारी के दौर में भी उनसे जब जब बात हुई जिंदादिली और आशावादिता से ही परिचय मिला, वे अपनी वेदना और पीड़ा कब किसी से साझा करते थे। निजी तौर पर मेरा सौभाग्य है कि मैने बापी दा के निर्देशन में काम किया, उन्होंने मेरे लिये नाटक 'किसके हाथ लगाम’ का निर्देशन किया, यही नहीं उनके दिये कथानक पर मैंने नाटक 'खण्डहर’ लिखा था। यह सब बीते समय की बात हो गई, आँखों के आगे अब वह जिंदादिल चेहरा रह गया है जिससे फिर कभी बात करना संभव न हो सकेगा। आज 27/09/2020 को प्रात:1.30 बजे उन्होंने आखिरी सांस ली परंतु उनकी जिजीविषा अब भी है। बस्तर में जब-जब भी रंगकर्म की बात होगी, वे रहेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि बापी दा।
-अनुपमा सक्सेना
मैंने काफी पहले पढ़ा था किन्तु राज्य के बारे में यह सकारात्मक और महत्वपूर्ण खबर सोशल मीडिया पर कहीं दिखी नहीं इसलिए सोचा लिख दूँ।
देश में बच्चों के बीच कुपोषण एक महत्वपूर्ण समस्या है। इसके समाधान के लिए बच्चो को स्कूलों में गर्म खाना प्रदान किया जाता है। इस योजना का 60 प्रतिशत खर्चा केंद्र सरकार और 40 प्रतिशत खर्चा राज्य सरकार उठाती है। करोना के समय में यह समस्या और भी बड़ी हो जाती है क्योंकि लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद हैं। मध्यान्ह भोजन न मिलने की स्थिति में कुपोषण बढऩे और बच्चों का इम्युनिटी का स्तर कम हो जाने के खतरे होते हैं।
मार्च में आई एक रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के दौरान लगभग 11 करोड़ बच्चे मध्यान्ह भोजन न मिलने के कारण कुपोषित होने के कगार पर थे। जिसमे अधिकांशत: जनजातीय और अनुसूचित जाति के बच्चे थे। मार्च 2020 में इसी संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों को आदेश दिया कि स्कूल जाने वाले बच्चों को मध्यान्ह भोजन मिलना सुनिश्चित किया जाए। छत्तीसगढ़ में लॉकडाउन के ठीक पहले 21 मार्च को ही घोषणा कर दी गई थी कि स्कूल जाने वाले बच्चों के माता-पिता अगले 40 दिनों का मध्यान्ह भोजन सूखे राशन के रूप में घर ले जा सकते हैं। उसके बाद पुन: 45 दिनों का राशन दिया गया। प्राइमरी स्कूल में पढऩे वाले प्रत्येक बच्चे के हिसाब से 4 किलो चावल, 800 ग्राम दाल और सेकेंडरी में पढऩे वाले प्रत्येक बच्चे के हिसाब से 6 किलो चावल और 1200 ग्राम दाल प्रदान कर दी गई। पैकेट में सोयाबीन, तेल, नमक और अचार भी था।
ऑक्सफेम इंडिया के मई-जून 2020 के दौरान उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिशा और उत्तराखंड, इन पांच राज्यों में किए गए सर्वे के अनुसार मध्यान्ह भोजन बच्चों तक पहुंचाने के मामले में उत्तरप्रदेश की स्थिति सबसे खराब रही, जहाँ 90 फीसदी बच्चों को मध्यान्ह भोजन नहीं मिला और छत्तीसगढ़ का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा जहाँ 90 फीसदी बच्चों को मध्यान्ह भोजन मिला। इकानॉमिक टाईम्स के द्वारा एकत्रित आंकड़ों पर 01 अगस्त की उनकी रिपोर्ट के अनुसार के अनुसार भी छत्तीसगढ़ आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश ओडिशा और उत्तराखंड देश में बच्चों को मध्यान्ह भोजन देने के मामले में सबसे अच्छे रहे। देश के कई राज्य मध्यान्ह भोजन के मामले में बहुत पीछे रहे। समाचार पत्रों की खबरों के अनुसार बिहार में जहाँ बच्चो का पोषण का स्तर देश में सबसे खराब है, वहां मार्च अप्रैल के लॉकडाउन के दौरान बच्चों के मध्यान्ह भोजन के विकल्प की कोई व्यवस्था नहीं की गई। बिहार में मई से मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था शुरू हो पाई। दिल्ली में भी मार्च के महीने में तो व्यवस्था की गई किन्तु अप्रैल-मई-जून में व्यवस्था नहीं की गई। कारण यह दिया गया कि सार्वजनिक स्थानों पर खाने की व्यवस्था सबके लिए की गई है। महाराष्ट्र में भी अप्रैल से जून के बीच मध्यान्ह भोजन नहीं दिया गया।
यह तो बात हुई मध्यान्ह भोजन के विकल्प को करोना काल में बच्चों तक पहुंचाने की। इसमे तो हमारा राज्य सर्वश्रेठ राज्यों में रहा। दूसरा पक्ष होगा, इन प्रयासों के परिणामों का। स्कूलों में मिलने वाले मध्यान्ह भोजन के विकल्प के रूप में देश में तीन मॉडल अपनाए गए। केरल में पका हुआ खाना बच्चों के घरों में पहुँचाया गया। उत्तरप्रदेश, दिल्ली आदि में नगद राशि बच्चों के अकाउंट में ट्रांसफर की गई और छत्तीसगढ़ में सूखा राशन प्रदान किया गया। आगे आने वाले दिनों में जब लॉकडाउन के दौरान कुपोषण के स्तर से संबंधित डाटा आने शुरू होंगे तब विभिन्न विकल्पों के प्रभाव का भी पता लग सकेगा।
-ओम थानवी
1984 की बात है। राजेंद्र माथुर नवभारत टाईम्स का संस्करण शुरू करने के इरादे से जयपुर आए। पहली, महज परिचय वाली, मुलाकात में कहा- ‘जानता हूँ आप इतवारी का काम देखते हैं।’ फिर अगले ही वाक्य में, ‘और अच्छा देखते हैं।’ कुछ रोज बाद में उन्होंने मुझे नवभारत टाईम्स में आने को कहा। बड़े जिम्मे का प्रस्ताव था। फिर दिल्ली बुलाया नियुक्ति की अंतिम कार्रवाई के लिए।
बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित टाईम्स हाउस में मैं दूसरी बार दाखिल हुआ। (पहले अज्ञेय जब संपादक थे तब गया था; संभवत: 1978 में)। माथुर साहब अपनी परिचित गरमाई के साथ मिले। लंच में अपने घर ले गए। जमुना पार, स्वास्थ्य विहार। अपनी ऐम्बैसडर ख़ुद ड्राइव करते हुए। रास्ते में बोले, टाईम्स वाले इतना
पैसा नहीं देते कि ड्राइवर रख सकूं। यह बात मुझे हमेशा याद रही। मैं टाईम्स वालों पर तरस खाता रहा।
घर पर उन्होंने अनौपचारिक रूप से मेरा इम्तिहान ले डाला। वैसे रास्ते में भी ज़्यादा बात जयपुर के प्रस्तावित संस्करण को लक्ष्य कर ही हुई। श्रीमती माथुर का आतिथ्य आत्मीय था। घर पर किताबों का पहाड़ देखकर पिताजी का जुनून याद आया (जो बाद में मुझ पर भी छाया)।
मुझे सुनकर हैरानी हुई, जब माथुर साहब के मुँह से बरबस निकला- मैं जनसत्ता जैसा अखबार निकालना चाहता हूँ। आज कुछ मित्रों को यह जानकर अजीब ही लग सकता है। पर सचाई यह है कि जनसत्ता नया अखबार था, नई टीम थी, नया तेवर था। भाषा में भी ताजगी थी। एक बाँकपन भी था। नभाटा की टीम काफ़ी पुरानी थी। शायद अकारण नहीं था कि जनसत्ता से कुछ पत्रकार (ख़ासकर रामबहादुर राय, श्याम आचार्य, व्यंग्य चित्रकार काक आदि) नभाटा में लाए भी गए।
दफ्तर लौटकर माथुर साहब मुझे ऊपर की मंजि़ल में बैठने वाले कम्पनी के कार्यकारी निदेशक रमेशचंद्र जैन के पास ले गए। जैन उस वक्त समूह के मालिक अशोक जैन से बात कर रहे थे, जो इलाज के लिए विदेश जाने की तैयारी में थे। हमारे सामने ही रमेशजी ने उस यात्रा के प्रबंध के सिलसिले में एक पत्र डिक्टेट करवाया। फिर हमसे मुखातिब हुए। सवाल-जवाब करने लगे।
रमेशजी को ठीक से अंदाजा नहीं था कि मुझे क्या जि़म्मा सौंपा जाने वाला है। साप्ताहिक के अनुभव के बारे में सुन अपने पठन-पाठन की बात करने लगे। बीच-बीच में भावी योजना के बारे में मेरे विचार जान लेते। उनकी हिंदी अच्छी थी।
मुझे उनके सामने जाना अजीब लगा। जब प्रधान सम्पादक ने किसी को चुन लिया, हर तरह की बात तय हो चुकी, तब यह दखल कैसा। पत्रिका में तो ऐसा नहीं देखा था (बाद में जनसत्ता में भी नहीं)। सम्पादक ने चुन लिया, बात वहीं खत्म। हालाँकि राजस्थान पत्रिका के सम्पादक अखबार के संस्थापक ही थे। पर जनसत्ता में प्रभाषजी ने चुना। किसी से नहीं मिलवाया। मैं बीकानेर (वहाँ पत्रिका का बीकानेर संस्करण देखता था) से दिल्ली पहुँचा। वे कार में (उनके पास भी सफेद ऐम्बैसडर थी) चंडीगढ़ छोड़ कर आए। मैंने भी जनसत्ता और उससे पहले पत्रिका में जिन-जिन को अपने साथ लिया, मेरा निर्णय अंतिम था। आगे किसी से कोई मिलना-मिलाना नहीं।
बहरहाल, टाईम्स हाउस में प्रबंधन से मेरी मुठभेड़ ऊपर की मंजि़ल पर ही नहीं थमी। कैबिन में लौटने के बाद माथुर साहब ने कहा कि नीचे पर्सोनेल (अब एचआर) में हो आओ। इमारत से बाहर निकलने के रास्ते पर दाईं ओर छोटे-से कैबिन में एक झक्की आदमी मिले। नाम था तोताराम। उन्होंने काम की बात करने की जगह मेरा इंटरव्यू-सा शुरू कर दिया। माथुर साहब से जो वेतन तय हुआ, उससे भी वे मुकर गए। एक सयाने की मुद्रा में नम्रता का लबादा ओढक़र पता नहीं क्या-क्या समझाने लगे।
उनकी एक दलील पर मेरा धीरज जवाब दे गया। उन्होंने कहा, यह सोचिए कि आप कहाँ आ रहे हैं। एक छोटी-सी दुकान से निकल कर कितने बड़े संसार में। टाईम्स कितना बड़ा एंपायर है, इसे समझिए। इस ज्ञान से मेरा मन और उखड़ गया। इस साम्राज्य में सम्पादक बड़ा है या मैनेजर?
मैंने उन्हें एक ही बात कही- मैं जानता हूँ कि यह एक विराट एम्पायर है। मगर राजस्थान में जहाँ मैं काम करता हूँ, उसकी तूती बोलती है। आपके अखबार का अभी वहाँ कोई निशान तक नहीं; बल्कि आप उसे वहाँ हमारे सहयोग से शुरू करने की सोच रहे हैं।
इतना कहकर मैंने विदा का ऊँचे हाथों वाला नमस्कार किया और उठ गया। वे भाँप गए कि बात बिगड़ गई है। तुरंत पलटने लगे कि आपकी तो सारी बात तय हो चुकी है। फिक्र न करें। बैठें। पर मेरा मन डगमग रहा। शांत मुद्रा में बाहर निकल आया। फिर मुख्य इमारत से भी। वहाँ से सीधे बीकानेर हाउस पहुँचा, जहाँ से जयपुर को बसें जाती थीं और लौट के सीधे घर को।
रास्ते में खय़ाल आया कि अब पत्रिका की नौकरी भी गई। गई तो गई। असल में शहर में पहले ही बहुत हल्ला हो चुका था नभाटा के बुलावे का।
दो रोज बाद कुलिशजी ने घर बुलाया। पहले भी जाता रहा था। उनके साथ बैठकर ध्रुपद के दर्जनों कैसेट कापी किए थे। तेईस साल की उम्र में उन्होंने साप्ताहिक का बड़ा जिम्मा मुझे सौंपा था। लग रहा था कि आज यह किस्सा यहाँ तमाम हुआ।
उन्होंने पूछा, नभाटा जयपुर आ रहा है? मैंने कहा, सही बात है। सुना, तुम जा रहे हो? मैंने कहा, अब नहीं। बोले, जाओ भी तो इसमें संकोच कैसा? मैं भी तो राष्ट्रदूत छोडक़र आया था। मैंने उन्हें सारी दास्तान सुनाई। कि बुलावा था। दिल्ली भी होकर आया हूँ। पर मन नहीं माना। नहीं जा रहा।
उनकी आँखों में चमक आ गई। बोले, तुम्हारे जाने की बात जय क्लब में डॉ गौरीशंकर से सुनी थी। उन्हें भी मैंने राष्ट्रदूत वाली बात कही। पर अब नहीं जा रहे हो तब और भी अच्छा। तुम्हारा घर है। और देखते-देखते पत्रिका छूटने की जो आशंका थी, वह उलटे पदोन्नति में बदल गई। इतना ही नहीं, शायद पत्रिका में मैं पहला पत्रकार था जिसे अख़बार की तरफ से घर मिला। यानी घर का पूरा किराया।
बहरहाल, माथुर साहब का स्नेह मुझे हासिल हुआ। उन्होंने इज्जत बख्शी। प्रेरणा दी। बस तोताराम के कारण उनके साथ काम करने से वंचित रह गया। शायद दुबारा मिलता तो बात बन जाती।
पाँच साल बाद कुलिशजी ने पत्रिका से निवृत्ति ले ली। तब प्रभाषजी ने बुलाया तो मैं भी जनसत्ता से जुड़ गया। छब्बीस साल उनके अखबार में रहा। सम्पादक की आजादी प्रधान सम्पादक के नाते कुलिशजी ने भी भरपूर दी और प्रभाषजी ने भी। उसे लेकर दिया। वही लेकर जिया।
हाँ, एक बात ज़रूर कभी न समझ सका कि माथुर साहब ने दीनानाथ मिश्र को जयपुर का नभाटा सँभालने के लिए क्या सोचकर भेजा? क्या इस मामले वे प्रबंधन के कहने में आ गए थे?
अंत में एक दिलचस्प मोड़। टाईम्स में अपना दाय पूरा कर तोताराम इंडियन एक्सप्रेस में आ गए। वहीं नोएडा में, जहाँ जनसत्ता में मेरा दफ़्तर था। कोई बीस बरस बीत चुके थे। उन्होंने मुझे नहीं पहचाना। मैंने बखूबी पहचान लिया था। पर उन्हें कभी याद नहीं दिलाया। शायद इसलिए भी कि उन्हें बिना समय लिए मिलने आने की आदत थी। मैं व्यस्त होता तो तुरंत मिल नहीं पाता था। उन्हें एंपायर वाला किस्सा सुना देता तो वे समझते कि शायद बदला ले रहा हूँ!
इंडियन एक्सप्रेस टाईम्स से इस मायने में तो बहुत अलग था ही कि वहाँ संपादकों की क़द्र ज़्यादा थी। शहर के सबसे अभिजात इलाक़े में घर और शोफऱ वाली गाड़ी। मैनेजर संपादकों से रश्क करते थे। वे जब-तब किसी विज्ञापनदाता की या जगराते की खबर छपवाने की कोशिश भी करते तो विफल हो जाते। खबरों का दबाव होने पर या विज्ञापन देर से आने पर अंतिम अधिकार संपादक को था कि एक अटल ना कहते हुए संस्करण छोडऩे को कह दे।
सबसे अहम बात- रामनाथ गोयनका तो कुछ समय बाद नहीं रहे; छब्बीस साल में उनके दत्तक पुत्र विवेक गोयनका से मैं सिर्फ एक बार मिला!
(यह पोस्ट दरअसल माथुर साहब पर अग्रज पत्रकार, महान साप्ताहिक दिनमान की टीम के सदस्य, त्रिलोक दीपजी के एक स्मरण पर ‘कमेंट’ के बतौर लिखी गई थी। पर वहाँ शब्दों की सीमा के चलते लम्बी पड़ गई। तब यहाँ पोस्ट की है।)
परमाणु परीक्षणों के बाद जब भारत आर्थिक प्रतिबंधों की आंधी में फंसा था तब दुनिया को जवाब देने के लिए अटल जी ने अपने ‘हनुमान’ जसवंत सिंह को ही आगे किया था
-सुमेर सिंह राठौड़
2014 के लोकसभा चुनावों के परिणामों का दिन। मई का महीना। दोपहर का वक्त। तपकर तंदूर बनने को तैयार रेगिस्तान की सूनी सडक़ें। सभी लोग टीवी पर आते चुनावी नतीजों पर नजरें गड़ाए हैं। दो बजे के आस-पास खबर आती है कि बीजेपी के उम्मीदवार सोनाराम जीत गए हैं और उसके बागी उम्मीदवार जसवंत सिंह बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा क्षेत्र से तकरीबन एक लाख मतों से चुनाव हार गए हैं। राजस्थान भाजपा के ज्यादातर कार्यकर्ताओं में यह सुनकर खुशी की लहर दौड़ जाती है, एकाध को छोडक़र, जिन्हें याद रहता है कि कभी जसवंत सिंह का मतलब भी उनके लिए भाजपा ही हुआ करता था।
राजस्थान के बाड़मेर जिले के एक छोटे से गांव - जसोल - में जन्मे जसवंत सिंह एक ऐसे नेता थे जो अपने राजनैतिक करियर की शुरूआत से लेकर कोमा में चले जाने तक लगातार सक्रिय रहे। एनडीए सरकार में वित्त, विदेश और रक्षामंत्री रह चुके जसवंत सिंह ने ‘दिल्ली से कई मायनों में बहुत दूर बसे’ देश की पश्चिमी सीमा के एक रेगिस्तानी गांव से दिल्ली के सियासी गलियारों तक का लंबा सफर तय किया।
अजमेर के मेयो कॉलेज से पढ़ाई और फिर कच्ची उम्र में ही आर्मी ज्वॉइन करने के बाद जसवंत सिंह ने 1966 में अपनी नाव राजनीति की नदी में उतार ली। कुछ वक्त तक हिचकोले खाने के बाद इस नाव को सहारा मिला भैरों सिंह शेखावत रूपी पतवार का। इसके बाद 1980 में वे पहली बार राज्यसभा के लिए चुने गए।
जसवंत सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी का हनुमान कहा जाता रहा है। एनडीए के कार्यकाल में वे अटल जी के लिए एक संकटमोचक की तरह रहे। 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद जब भारत आर्थिक प्रतिबंधों की आंधी में फंसा था तब दुनिया को जवाब देने के लिए वाजपेयी ने उन्हें ही आगे किया था।
कंधार विमान अपहरण कांड के वक्त वे विदेश मंत्री थे। तीन आंतकियों को कंधार छोडऩे भी वही गए थे। अपनी एक किताब में उन्होंने लिखा है कि इस फैसले का आडवाणी और अरूण शौरी ने विरोध किया था। लेकिन मौके पर कोई गड़बड़ न हो इसलिए उनका साथ जाना जरूरी था। वे लिखते हैं कि उन्हें मालूम था कि इस फैसले के लिए उन्हें कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा। शुरूआत में जसवंत सिंह भी आतंकियों से किसी भी तरह का समझौता करने के खिलाफ थे। लेकिन बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय के आगे बिलखते अपह्रत यात्रियों के परिजनों को देखकर उनका मन बदल गया।
जसवंत सिंह जिन्ना पर लिखी अपनी किताब को लेकर भारतीय जनता पार्टी से निष्कासित किए गये थे। वे अपनी किताब ‘जिन्ना : इंडिया-पार्टीशन, इंडिपेंडेंस’ में एक तरीके से जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट देते नजर आए थे। अपनी किताब में उन्होंने सरदार पटेल और पंडित नेहरू को देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया था। लेकिन ये बातें भाजपा और आरएसएस की सोच से मेल नहीं खाती थीं। वर्ष 2009 में उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया।
2014 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा से टिकट मांगा था। वे अपना अंतिम चुनाव अपनी मायड़ धरती से लडऩा चाहते थे। लेकिन पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। वे अकेले पड़ गए थे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा अपने वरिष्ठ नेताओं को किनारे करने की राह पर थी। अटल जी राजनीति से दूर थे और भैरों सिंह शेखावत पहले ही दुनिया से रुखसत हो चुके थे। लाल कृष्ण आडवाणी खुद संघर्ष कर रहे थे। बीजेपी की कमान जिनके हाथों में थी उनमें से कोई ऐसा नहीं था जो उनके साथ खड़ा हो। टिकट दिया गया कुछ ही दिन पहले पार्टी में शामिल हुए कांग्रेसी नेता सोनाराम चौधरी को। इससे जसवंत सिंह समर्थक नाराज हो गए। सोनाराम चुनाव तो जीत गए थे लेकिन उनको टिकट देना भाजपा का बेहद चौंकाने वाला फैसला था। अगर कुछ दिन पहले पार्टी में शामिल हुए नेता को पार्टी टिकट न देती तो उनके समर्थक भी शायद उनपर निर्दलीय के तौर पर चुनाव लडऩे का दबाव नहीं डालते।
वसुंधरा राजे को पहली बार राजस्थान की मुख्यमंत्री बनाने में भैरों सिंह शेखावत के साथ-साथ जसवंत सिंह के आशीर्वाद की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन बाद में वसुंधरा राजे ने भैरों सिंह को तवज्जो देनी कम कर दी थी। अपने राजनीतिक गुरू का अपमान जसवंत सिंह कैसे सह पाते। इसके अलावा दोनों के बीच रिश्ते खराब होने का एक और कारण वर्चस्व की लड़ाई भी थी। कहा जाता है कि इसी आपसी कलह के कारण वसुंधरा राजे ने भी उनका टिकट कटवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
दोनों के बीच की कड़वाहट यहां तक बढ़ गई थी कि वसुंधरा राजे को देवी के रूप में पूजे जाने पर जसवंत सिंह की पत्नी शीतल कंवर ने धार्मिक भावनाएं आहत करने का केस दर्ज करवा दिया था। इसके कुछ ही दिनों बाद जसवंत सिंह ने अपने पैतृक गांव जसोल में रियाण का आयोजन किया। रियाण में एक-दूसरे को रस्म के रूप में अफीम की मनुहार की जाती है। वसुंधरा के इशारे पर पुलिस ने उनके खिलाफ अफीम परोसने का मामला दर्ज कर लिया था। 2014 के चुनावों में भी उन्हें हराने के लिए वसुंधरा ने खुद को पूरी तरह से बाड़मेर-जैसलमेर में झोंक दिया था।
अपनी विद्वता, अंग्रेजों से भी अच्छी अंग्रेजी और सोच-समझ कर बोलने के अंदाज के कारण जसवंत सिंह हमेशा अपने समय के बाकी नेताओं से अलग दिखाई देते रहे। घुड़सवारी, संगीत, किताबों और अपनी संस्कृति से उन्हें बेहद लगाव रहा। खुद को लिबरल डेमोक्रेट कहने वाले जसवंत सिंह हमेशा विवादों से घिरे रहे लेकिन उनपर कोई भ्रष्टाचार का आरोप कभी नहीं लगा।
उन्होंने अपनी राजनीति अपनी शर्तों पर की। भाजपा में होते हुए भी कभी भी बाबरी प्रकरण या हिंदुत्व के राजनीतिकरण के पक्षधर नहीं रहे। अपने क्षेत्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों का उनको जबर्दस्त आत्मीय समर्थन हासिल था। उनके क्षेत्र के सारे मुसलमान उनके पक्षधर रहे। यहां तक कि कांग्रेस के नेता भी जसवंत सिंह के नाम पर पार्टी से अलग हो जाते थे। एक भाजपा नेता के लिए इस तरह का समर्थन विरले ही देखने को मिलता है।
2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद जब सारी राजनीतिक पार्टियां पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी कार्रवाई के लिए एकमत थीं - यहां तक कि सेना भी सीमा पर तैनात की जा चुकी थी - उस दौरान जसवंत सिंह पर आरोप लगे कि उन्होंने ऐसा न होने देने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। उन्हें पता था कि युद्ध से दोनों देशों के रिश्ते कभी सुधर नहीं सकते। मुनाबाव-खोखरापार के बीच थार एक्सप्रेस चलवाकर उन्होंने दोनों देशों के रिश्ते सुधारने की ओर एक कदम बढ़ाया था। एक निजी चैनल पर जब उनसे कहा गया कि वे जिस बस को लेकर लाहौर गए थे पाकिस्तान ने उस बस की हवा निकाल दी तो इसके जवाब में उनका कहना था कि ऐतिहासिक फैसलों पर इतनी हल्की टिप्पणी करना सही बात नहीं है।
उन्होंने कई किताबें लिखी। जिनमें जिन्ना : इंडिया-पार्टीशन, इंडिपेंडेंस, इंडिया एट रिस्क और डिफेंडिंग इंडिया चर्चित किताबें हैं। इंडियन एक्सप्रेस में उनके लिखे आलेखों पर छपी किताब डिस्ट्रिक्ट डायरी को पढक़र उनका तमाम चीज़ों से जुड़ाव नजर आता है। इस किताब में उनकी कुछ कहानियां आपका दिल छू लेती है।
1980 में जो जसवंत सिंह की जो नाव राजनीति की नदी में चलना शुरू हुई थी वह देश को कई मसलों पर किनारे लगाकर 2014 में एक भंवर में फंस गई। पिछले लोकसभा चुनाव के कुछ दिन बाद वे अपने घर के बाथरूम में गिर गए। तभी से वे लगातार कोमा में थे। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच शांति का उनका सपना भी अभी अधूरा ही है। इसे लेकर कभी उन्होंने कहा था - भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक ही मां की सिजेरियन प्रसव से पैदा हुई संतानें हैं।
सऊदी अरब के कुछ नागरिकों ने अपने देश की व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन आरंभ करते हुए लंदन में एक विपक्षी संगठन के गठन का एलान किया है।
लगभग सौ साल और कुछ वर्ष पहले ईरान में भी इसी प्रकार कुछ युवाओं ने एक आंदोलन को शुरु किया था जो बाद में ईरान में संविधान क्रांति का कारण बन गया।
जब ओटोमन शासकों ने इस्लामी देशों की बागडोर संभाली तो उनकी एक नीति यह थी कि प्रजा को हमेशा अनपढ़ रखा जाए ताकि वह हमेशा प्रजा ही रहे। ओटोमन या उस्मानी काल में प्रजा उन लोगों को कहा जाता था तो उस्मानी नहीं थे और उस्मानी शासन के अधीन इलाक़ों में रहते थे। उसी काल में ओटोमन के युवाओं को पढ़ने के लिए विदेश भेजने या न भेजने पर खूब गर्मा गर्म बहस होती थी और बहुत से धर्म गुरुओं का कहना था कि मुस्लिम युवाओं को शिक्षा के लिए नास्तिकों के देश में नहीं भेजा जाना चाहिए। इस्लाम और गैर इस्लाम की बातें इस लिए की जा रही थीं क्योंकि ओटोमन शासकों ने स्वंय को इस्लाम से जोड़ लिया था और उन्हें खतरा था कि अगर युवा, विदेश गये और ज्ञान के प्रकाश से उनके दिमाग खुल गये तो फिर इन शासकों के लिए अपनी प्रजा को प्रजा बनाए रखना कठिन होगा।
युरोपीय विशेष कर अंग्रेज़ और फ्रांसीसी जब मिस्र और वर्तमान सीरिया और उसके आस पास के क्षेत्रों में गये तो ओटोमन साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध के लिए सब से पहला जो काम किया वह इन क्षेत्रों में स्कूल, कालेज और युनिवर्सिटियां बनाना था। ओटोमान दरबार के बहुत से युवाओं ने इन स्कूलों और कालेजों में शिक्षा प्राप्त की और फिर उन्हें ब्रिटेन और फ्रांस भेजा गया जहां उनके दिमाग में उदारता भरी गयी और जब इन लोगों की मदद से ओटोमन साम्राज्य खत्म हुआ तो फिर यही लोग सेकुलर वर्ग के गठन के लिए इस्तेमाल किये गये।
ईरान में मामला थोड़ा अलग था और अमीर कबीर ने युरोपीय देशों में जाकर शिक्षा प्राप्त करने का दरवाज़ा खोला और फिर ईरानी विदेश में जाकर पढ़ कर आए तो अपने साथ राजनीतिक विचारधारा भी ले आए और अब वह देश की व्यवस्था बदलने के बारे में सोचने लगे।
चूंकि उस समय ईरान मे काजारी शासकों का राज था और उसकी वजह से देश काफी पिछड़ा हुआ था इस लिए जनता ने भी इस विचार को हाथों हाथ लिया और अंत में आयतित व्यवस्था पर सहमति बनी जो काफी सीमा तक ब्रिटिश व्यवस्था से मिलती जुलती थी। संविधान क्रांति के समर्थकों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि ईरान की सांस्कृतिक परस्थितियां, ब्रिटेन से अलग हैं और यही वजह थी कि अन्ततः रज़ा शाह के हाथों ईरान में फिर से राजशाही लौट आयी और फिर दशकों तक मेहनत की गयी तब जाकर कहीं ईरान में इस्लामी क्रांति सफल हुई।
आज कल सऊदी अरब से जो रिपोर्टें मिल रही हैं उनमें सौ साल पहले ईरान में संविधान क्रांति के आरंभ के काल की झलक नज़र आती है।
आज सऊदी अरब में जो हालात हैं उनका इंतेज़ार पिछले 90 वर्षों से लोग कर रहे हैं। 90 साल पहले अब्दुलअज़ीज़, ब्रिटेन की मदद से अरब जगत के एक बड़े भाग पर राजशाही व्यवस्था लागू करने में सफल हुए थे। उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि इस क्षेत्र में तेल निकल आएगा और फिर इस इलाक़े के पास इतना धन होगा कि जिससे सब कुछ बदल जाएगा।
समझा यह जा रहा था कि इस इलाक़े के अरब, हमेशा की, बंजारों की तरह ज़िंदगी गुज़ारेंगे और जैसे वह हज़ारों साल से रहते आ रहे हैं उसी तरह आगे भी रहेंगे इस लिए न कोई सत्ता चाहेगा न ही किसी को इन सब चीज़ों से मतलब होगा और इस तरह से सऊद वंश, आलुश्शैख की मदद से अरब के इस बड़े भाग पर हमेशा और शांति के साथ राज करता रहेगा।
सत्ता सऊदी वंश के हाथ में थी और धार्मिक नेतृत्व आलुश्शेख के हाथ में था और आमदनी का साधन, हज और खजूर के अलावा कुछ नहीं था लेकिन जब तेल की दौलत मिली तो इस देश के बंजारे, शहरों में रहने लगे और युवा शिक्षा प्राप्त करने लगे और फिर अब उनमें यह विचार भी पैदा होने लगा कि क्यों एक ही परिवार हमेशा उनके देश पर राज करे? और क्यों उनके देश की दौलत पर एक परिवार का अधिकार हो और वह जैसे चाहे उसे खर्च करे?
सऊदी अरब के पूर्व शासक किंग फहद के काल में सऊदी शासकों को अपने देश के युवाओं के बदलते विचारों का भनक लगी तो उन्हों ने विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करने और वहीं मज़े करने का रास्ता अपने देश के युवाओं के लिए खोल दिया, उन्हें बड़ी बड़ी रक़म दी जाती थी ताकि वह विदेशों में जाकर रहें और देश में राजनीतिक व्यवस्था बदलने का ख्याल मन से निकाल दें।
इस प्रकार के विदेश में रहने वाले सऊदी नागरिकों में शायद सब से अधिक प्रसिद्ध खाशुकजी थे लेकिन रिपोर्टों के अनुसार सऊदी अरब में जमाल खाशुकजी जैसे न जाने कितनों को इस तरह से गायब किया गया कि आज तक उनका कोई पता नहीं चल पाया।
कुछ सऊदी युवाओं को इस्लाम से बहुत लगाव था तो सऊदी अरब ने उन्हें दूसरे देशों में इस्लाम फैलाने के लिए भेज दिया जहां उन्होंने मदरसे खोले और सऊदी अरब के पैसे से इस्लाम फैलाया लेकिन इनमे से अधिकांश अन्त में आतंकवादी संगठनों से जुड़ गया और पूरी दुनिया में इस्लाम की छवि खराब की।
इन सब के अलावा सऊदी अरब के लिए एक और बड़ा खतरा है। सऊदी अरब के एक तिहाई नागरिक शिया हैं और जिन इलाक़ों में वह रहते हैं, सऊदी अरब का तेल वहीं से निकलता है लेकिन सऊदी सरकार उनका बुरी तरह से दमन करती है और न केवल यह कि उन्हें अलग से कोई सुविधा नहीं देती बल्कि आम सऊदी नागरिकों के अधिकारों से भी उन्हें वंचित रखती है।
महल से बाहर देश के तो यह हालात हैं मगर महल के भीतर और शाही परिवार में भी सत्ता के लिए खींचतान जारी है जिससे इस देश में एक नयी राजनीतिक व्यवस्था की संभावना बढ़ रही है। आज शाही घराने के सदस्यों की संख्या 7 हज़ार से अधिक है और सब को राज पाट में अपना हिस्सा चाहिए।
हालांकि सऊदी शासकों ने हमेशा इन सदस्यों को पद और धन दे कर खुश रखने की कोशिश की है लेकिन चूंकि सऊदी अरब के तेल और सारी आमदनी पर केवल सऊदी नरेश का ही अधिकार होता है इस लिए बहुत से लोग इस पद तक पहुंचने के लिए पूरी शक्ति खर्च कर रहे हैं। सऊदी अरब की सरकार अब्दुलअज़ीज़ की वसीयत के हिसाब से चलती थी और सभी शासकों ने अपने पिता की वसीयत का पालन किया लेकिन वर्तमान नरेश किंग सलमान ने अपने पिता की वसीयत के विपरीत और अपने तीन भाई के जीवित रहने के बावजूद अपने बेटे को उत्तराधिकारी बना दिया इस तरह से बहुत से अन्य सदस्यों में भी शासन का लोभ पैदा हो गया।
मुहम्मद बिन सलमान क्राउन प्रिंस बन गये और उन्हें लगता था कि अमरीका की मदद से वह बड़ी आसानी से सऊदी अरब के राजा बन जाएंगे और इसी लिए सत्ता पर पकड़ मज़बूत बनाने के लिए उन्होंने यमन युद्ध आरंभ किया और अपने सभी विरोधियों को इस युद्ध की भट्टी में झोंक दिया, बचे खुचे शाही परिवार के सदस्यों को एक होटल में बुला कर जब को वहीं बंद कर दिया और उनकी पूरी संपत्ति पर क़ब्ज़ा कर लिया जो एक अनुमान के हिसाब से 100 अरब डालर से अधिक थी।
किंग सलमान ने भी सऊदी अरब में होने वाले बदलाव पर खामोशी के लिए ट्रम्प के साथ हथियारों के 450 अरब डालर के समझौते पर हस्ताक्षर किये। कहा यह भी जाता है कि इस रक़म का बड़ा भाग फेक कंपनियों के नाम पर ट्रम्प, उनकी बेटी और दामाद के एकांउट में डाला गया है।
बहरहाल इन हालात में अब ट्रम्प की हार की बातें की जा रही हैं जिसके बाद सऊदी अरब में राजनीतिक कार्यकर्ता फिर से सक्रिय हो गये हैं और उन्हें उम्मीद हो चली है कि ट्रम्प के जाते ही बिन सलमान भी चले जाएंगे।
अब कहा जा रहा है कि सऊदी अरब के जिन युवाओं ने शासन विरोधी संगठन बनाया है वह सऊदी अरब में सशर्त राजशाही के इच्छुक हैं और ब्रिटेन और फ्रांस और जर्मनी भी इसका समर्थन करते हैं और कहा जा रहा है कि अगर अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प की हार हो जाती है तो फिर अमरीका में इन लोगों के समर्थकों में शामिल हो सकता है।
हालांकि इस प्रकार की राजशाही वही है जो सौ साल पहले ईरान में लायी गयी थी और इस प्रकार की सरकार, सऊदी अरब की सामाजिक परिस्थितियों से भी मेल नहीं खाती लेकिन फिर भी इसे सऊदी अरब में हालात बदलने के लिए उम्मीद की एक किरण समझा जा सकता है।
यहां तक भी कहा जा रहा है सऊदी अरब के सिहांसन पर बैठने की तैयारी कर रहे बिन सलमान हो सकता है अपने विरोधियों की वजह से इन लोगों के साथ किसी सहमति पर पहुंच जाएं मतलब सशर्त राजशाही को स्वीकार कर लें। युरोपियों का तो यहां तक मानना है कि बिन सलमान, सशर्त राजशाही चाहने वालों के साथ समझौता करने पर मजबूर हैं। Q.A. साभार, स्पूतनिक न्यूज़ एजेन्सी(parstoday)
- Girish Malviya
यदि आप समझना चाहते हैं कि अनुबंध कृषि यानी कांट्रेक्ट फार्मिंग किस हद तक घातक हो सकती है तो गुजरात के पेप्सिको केस के बारे में एक बार जान लें...
पेप्सिको विवाद इस कृषि कानून की विसंगतियों को समझने का बहुत अच्छा उदाहरण है आपने बहुराष्ट्रीय कम्पनी पेप्सिको का सबसे लोकप्रिय प्रोडक्ट पेप्सी पी ही होगी लेकिन पेप्सी ब्रांड के अलावा यह कम्पनी क्वेकर ओट्स, गेटोरेड, फ्रिटो ले, सोबे, नेकेड, ट्रॉपिकाना, कोपेल्ला, माउंटेन ड्यू, मिरिंडा और 7 अप जैसे दूसरे ब्रांड की भी मालिक है। इसका एक अन्य मशहूर प्रोडक्ट है Lay's चिप्स......
इस चिप्स में जो आलू इस्तेमाल होता है आलू की इस किस्म का पेटेंट पेप्सिको ने अपने नाम पर करवा रखा है, पेप्सिको का दावा है कि अपने ब्रांड के चिप्स के निर्माण के लिये वह स्पेशल आलू इस्तेमाल करती है, इसलिए ऐसे आलुओं पर केवल उसका ही अधिकार है.
पेप्सिको कम्पनी भारत के किसानो से वह स्पेशल आलू उगाने के लिए कांट्रेक्ट करती है बीज भी वह देती है और फसल भी वही खरीदती है यह कांट्रेक्ट फार्मिंग ही है,....
एक साल पहले पेप्सिको ने गुजरात के तीन किसानों पर मुकदमा दायर किया........ पेप्सिको का आरोप था कि यह किसान अवैध रूप से आलू की एक किस्म जो कि पेप्सिको के साथ रजिस्टर है उसे उगा और बेच रहे थे। कंपनी का दावा था कि आलू की इस किस्म से वो Lay's ब्रैंड के चिप्स बनाती है और इसे उगाने का उसके पास एकल अधिकार है।
पेप्सिको कंपनी के मुताबिक, बिना लाइसेंस के इन आलू को उगाने के लिये गुजरात के तीन किसानों ने वैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया है। ऐसे में पता चलते ही आलू के नमूने एकत्र किए गये और इन-हाउस प्रयोगशाला के साथ-साथ डीएनए विश्लेषण के लिए शिमला स्थित आईसीएआर और केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान में सत्यापन के लिए भेजे। परिणामों से पता चला कि गुजरात के यह किसान पंजीकृत आलू बेच रहे थे।
कंपनी की शिकायत और आलू की किस्म के पंजीकरण को देखते हुए वाणिज्यिक अदालत ने तीनों किसान, छबिलभाई पटेल, विनोद पटेल और हरिभाई पटेल को दोषी पाया और उनके द्वारा आलू उगाने और बेचने पर रोक लगा दी साथ ही कोर्ट ने तीनों किसान से जवाब भी मांगा जवाब आने के बाद उन पर ओर कड़ी कार्यवाही की जा सकती है उन पर इतना जुर्माना भी लगाया जा सकता है कि उन्हें अपना खेत ही बेच देना पड़े.
यहाँ समझने लायक मूल बात यह है किसान कई जगह से बीज लाता है, ऐसे में कंपनी किस तरह से उन पर करोड़ों का दावा कर सकती है और ये कैसे कह सकती है कि छोटे-छोटे किसान उनके लिए ख़तरा हैं.
पेप्सिको कंपनी के खिलाफ गुजरात मे आवाज उठाने वाले किसानों ने कंपनी द्वारा पंजीकृत आलू की किस्म उगाकर बुआई सत्याग्रह भी किया.
पेप्सिको ने प्रत्येक किसान के ख़िलाफ़ क़रीब एक-एक करोड़ का दावा ठोंका लेकिन बाद में बढ़ते हुए विरोध को देखते हुए दावे को वापस ले लिया....
दरअसल इस तरह की संविदा खेती से जुड़े अपने ही खतरे हैं. छोटे और मझोले किसान इन अनुबंध की बारीकियों को समझ नहीं पाएंगे यदि फसल कम्पनी के मानकों के अनुसार नही हुई तो खुले बाजार में उसे बेच भी नही पाएंगे, यदि बेचने गए तो उनका हश्र इस गुजरात के तीन किसानों जैसा हो सकता है.
बहुराष्ट्रीय कंपनी किसी की सगी नही है कांट्रेक्ट फार्मिंग का सीधा अर्थ है बिल्लीयो को दूध की रखवाली सौप देना....(sabrangindia)


