विचार/लेख
-Richard Mahapatra, Bhagirath Srivas, Raju Sajwan, Anil Ashwani Sharma
हमारी पृथ्वी जल्द ही एक नए भूवैज्ञानिक युग में प्रवेश करने वाली है और इसके गवाह बनने वाले हम पहले होमो सेपियंस यानी मानव प्रजाति होंगे। मजे की बात है कि इस युग का नाम भी हमारे ऊपर ही रखा गया है। यह हमारे जीवन का कोई गौरवशाली क्षण हो, ऐसी बात तो नहीं है लेकिन यह वह समय अवश्य है जब हमें धरती के पारिस्थितिक तंत्र में मानवों द्वारा किए गए अपरिवर्तनीय बदलावों पर ध्यान देने की सख्त जरूरत है। वैज्ञानिकों ने आपसी सहमति से मई, 2019 में इस युग को एंथ्रोपोसीन अथवा मानव युग घोषित करने के पक्ष में मतदान किया था। भूवैज्ञानिक घटनाक्रम की देखरेख करने वाले अंतरराष्ट्रीय स्ट्रेटिग्राफी आयोग के अंतर्गत आने वाली क्वाटर्नेरी स्ट्रैटिग्राफी उपसमिति ने एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप (एडब्ल्यूजी) नामक वैज्ञानिकों का एक 34 सदस्यीय पैनल गठित किया है। यह पैनल जल्द ही नए युग की शुरुआत की घोषणा का औपचारिक प्रस्ताव समिति के सामने रखने वाला है।
होलोसीन (अभिनव युग) नामक वर्तमान युग का अंत बस होने ही वाला है। यह युग 12,000 से 11,500 साल पहले शुरू हुआ था और वर्तमान वैज्ञानिकों ने बाद में इसे सूचीबद्ध किया था। यही वह समय था जब धरती की जलवायु में परिवर्तन हुए और उसके बाद मनुष्यों ने एक जगह टिककर खेती करना शुरू कर दिया था। बढ़ते तापमान के साथ पैलियोलिथिक आइस एज (पुरापषाण युग) भी अपनी समाप्ति पर था और पृथ्वी का भूगोल, जनसांख्यिकी और पारिस्थितिकी तंत्र, सब कुछ एक बदलाव की ओर अग्रसर था। ग्लेशियर पिघलते गए और मैमथ एवं बालदार गैंडे नई गर्म जलवायु में विलुप्त हो गए। धरती के बहुत बड़े इलाके में जंगल उग आए और मनुष्यों ने घूम-घूम कर शिकार एवं भोजन इकट्ठा करने की बजाय एक जगह टिककर रहना शुरू कर दिया। बढ़ते तापमान के साथ हिमयुग की कड़कती ठंड में भी कमी आई। इससे इंसानों की आबादी भी बढ़ी। शायद यह युग मनुष्यों के लिए ही बना था।
आज हजारों वर्षों बाद मनुष्यों ने पूरी धरती पर कब्जा करके इसके भूगोल एवं पारिस्थितिकी तंत्र को इस हद तक प्रभावित किया है कि अब एक नए युग की घोषणा करनी पड़ रही है। 34 में से 29 सदस्यों ने 20वीं शताब्दी के मध्य को युग की शुरुआत घोषित करने के प्रस्ताव का समर्थन किया। इस कालखंड को लेकर हुई बहसों में वैज्ञानिकों ने कहा कि इस नए युग की शुरुआत औद्योगिक क्रांति (सन 1760) के साथ हुई। इस दौरान उत्पादन में वृद्धि के अलावा ऐसे कई नए रसायनों की खोज भी हुई जिनका दुष्प्रभाव धरती के प्राकृतिक तंत्र पर पड़ा। वैज्ञानिक पहले से ही ऐसी साइटें ढूंढ रहे हैं जहां पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्रों में हम मानवों द्वारा किए गए हस्तक्षेप के ऐसे सबूत मिलने की संभावना है। ये सबूत एंथ्रोपोसीन अथवा मानव युग की शुरुआत की घोषणा करने में सहायक होंगे। विशेष रूप से, वे 1945 में हुए पहले परमाणु हथियार परीक्षण से निकले रेडियोन्यूक्लाइड कणों की खोज में लगे हैं। ये कण दुनियाभर में फैलकर पृथ्वी की मिट्टी, पानी, पौधों और ग्लेशियरों का हिस्सा बन गए हैं।
इस क्रम में हम मानवों ने धरती पर अपनी अमिट छाप अनंतकाल तक के लिए छोड़ दी है। ब्रिटेन के लीसेस्टर विश्वविद्यालय में कार्यरत पुरातत्वविद् और एडब्ल्यूजी के सदस्य मैट एजवर्थ ने कहा, स्तरित शैलविज्ञान अथवा स्ट्रैटिग्राफिक साक्ष्य काफी हद तक एक काल अतिक्रमी (टाइम-ट्रांसग्रेसिव) एंथ्रोपोसीन की ओर संकेत करते हैं जिसकी शुरुआत एक बार में न होकर कई बार में हुई हो। वह कहते हैं कि केवल एक रेडियोन्यूक्लाइड सिग्नल के आधार पर एक नए युग का नामकरण करना पृथ्वी की प्राकृतिक प्रणालियों में हुए परिवर्तन में मानव भागीदारी की वैज्ञानिक समझ को बढ़ाने की बजाय इसमें बाधा ही डालेगा। केपटाउन में आयोजित अंतरराष्ट्रीय भूविज्ञान कांग्रेस में इस नए युग की घोषणा के लिए 2016 में पहली बार अनौपचारिक रूप से मतदान हुआ।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपने बेहतरीन दिमाग की बदौलत होमो सेपियंस पृथ्वी पर सबसे सफल प्रजाति है। पिछले 12 हजार सालों में हमने पूरी धरती को अपने अधीन कर लिया है और यह हमारे वर्चस्व का अच्छा उदाहरण है। अपने कौशल और उद्यम की हम चाहे जितनी तारीफ कर लें लेकिन हम इस सच को झुठला नहीं सकते कि धरती को इस प्रगति की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। जलवायु परिवर्तन और लगातार विलुप्त होती प्रजातियां इस समस्या के दो सबसे खतरनाक पहलुओं में से हैं।
एंथ्रोपोसीन विचार के जनक डच रसायनशास्त्री पॉल क्रुटजेन और अमेरिकी जीवविज्ञानी यूजीन पी स्टोरमर थे जिन्होंने वर्ष 2000 में इसे दुनिया के सामने रखा था। लेकिन इसको लोकप्रियता दो साल बाद मिली जब क्रुटजेन का लेख “द जियोलॉजी ऑफ मैनकाइंड” नेचर पत्रिका में छपा। कुछ ही समय में यह लेख शिक्षाविदों के बीच चर्चा का विषय बन गया और इसे काफी मीडिया कवरेज भी मिली।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस नए युग की शुरुआत 1950 में हुई थी। ठीक इसी समय पृथ्वी पर “ग्रेट एक्सेलेरेशन” नामक एक घटना हुई। आर्थिक विकास और उसके फलस्वरूप लगातार बढ़ती आबादी ने धरती को पूरी तरह से बदलकर रख दिया और वर्ष 2007 में क्रुटजेन ने ही इसे “ग्रेट एक्सेलेरेशन” के नाम से परिभाषित किया था। वायु, जल एवं भूमि प्रदूषण, अंधाधुंध कटते जंगल, विलुप्त होती प्रजातियां, जलवायु परिवर्तन और ओजोन परत में छेद इन बदलावों में से प्रमुख हैं। रेडियोन्यूक्लाइड्स, परमाणु परीक्षणों के अवशेष होते हैं और ये हजारों वर्षों तक वातावरण में बने रह सकते हैं। अतः ये एंथ्रोपोसीन के आगमन को दर्शाने वाले सबसे अहम संकेत हैं। हालांकि एडब्ल्यूजी अन्य विकल्पों की तलाश में है। प्लास्टिक प्रदूषण, कृत्रिम उर्वरकों से मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फोरस का बढ़ा स्तर और दुनियाभर के हजारों लैंडफिलों में दफन बॉयलर मुर्गों की हड्डियां कुछ मुख्य उदाहरण हैं।
हालांकि, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इंसानों की वजह से जीवमंडल में कई मूलभूत बदलाव आए हैं लेकिन वे बदलाव आने वाली सहस्राब्दियों को भी प्रभावित करेंगे या नहीं, यह अब तक साफ नहीं हो पाया है। यह भूवैज्ञानिकों के लिए दुविधा की स्थिति है क्योंकि वे किसी युग का नामकरण “गोल्डन स्पाइक” के आधार पर करते हैं। “गोल्डन स्पाइक” दरअसल धरती की परतों में मिलने वाले संकेत हैं जो लाखों वर्षों के क्रम में इकट्ठा होते हैं। उदाहरण के लिए, होलोसीन युग का गोल्डन स्पाइक ग्रीनलैंड स्थित एक 1,492 मीटर गहरी आइस-कोर में संरक्षित है। इसी तरह, डायनासोर का युग कहे जानेवाले क्रीटेशस काल का गोल्डन स्पाइक इरिडियम धातु है जो उस उल्कापिंड का अवशेष है जिसे डायनासोरों की विलुप्ति के लिए जिम्मेदार माना जाता है। हालांकि डायनासोरों की विलुप्ति का यह सिद्धांत विवादों के घेरे में है। (downtoearth)
सलमान रावी
लोक जनशक्ति पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि वो बिहार विधान सभा के चुनावों में 143 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी जबकि भारतीय जनता पार्टी ने 121 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी है।
लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता कहते हैं कि गलती भारतीय जनता पार्टी से भी हुई है। उनका कहना था, ‘नीतीश कुमार के ढुलमुल रवैये से एक बार भाजपा ने सबक भी सीखा है। देश की सबसे बड़ी पार्टी को चाहिए था कि वो ख़ुद अपने बल पर चुनाव लड़ती।’
उनका कहना है कि ये अचानक नहीं है कि उनकी पार्टी ने नीतीश कुमार का विरोध किया है। वो कहते हैं कि समय-समय पर उनकी पार्टी सरकार के कामकाज को लेकर सवाल उठाती रही है। चाहे वो मजदूरों के पलायन का मामला हो, बाढ़ का मसला हो या फिर कोरोना वायरस के प्रबंधन का मामला हो।
जनता दल (यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के हाईकमान पर एनडीए गठबंधन से अलग होकर चुनाव लडऩे के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है।
पार्टी के अंदर के नेताओं का कहना है कि लोक जनशक्ति पार्टी के एनडीए से अलग हो जाने के बाद जनता दल (यूनाइटेड) में भी मंथन का दौर चल रहा है।
पार्टी के सांसद और मौजूदा विधायक भी बड़े नेताओं को कहने की कोशिश कर रहे हैं कि एलजीपी के रुख़ के बाद ‘इस तरह के गठबंधन’ में चुनाव लडऩा पार्टी हित में नहीं होगा।
भागलपुर से जनता दल (यूनाइटेड) के सांसद अजय मंडल ने बीबीसी से बात करते हुए कहा है कि लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग़ पासवान जिस तरह के बयान दे रहे हैं उससे कई संकेत मिल रहे हैं।
वो कहते हैं, ‘ये चिराग़ पासवान नहीं बोल रहे हैं बल्कि कौन उनसे ऐसा बुलवा रहा है, ये जनता दल (यूनाइटेड) के कार्यकर्ताओं और नेताओं के अलावा आम लोगों को भी अंदाज़ा लग गया है। कौन पीछे से ऐसा कर रहा है सब जान रहे हैं। अभी हम किसी का नाम नहीं लेना चाहते।’
उन्होंने उन पोस्टरों का हवाला दिया है जो लोक जनशक्ति पार्टी की तरफ़ से बिहार में कई स्थानों पर लगाए जा रहे हैं जिनमे लिखा गया है, ‘मोदी से बैर नहीं, नीतीश तुम्हारी ख़ैर नहीं।’
उनका कहना था, ‘अब इन पोस्टरों के बाद भी कुछ आशंका बची है क्या? सब कुछ साफ दिख रहा है।’
जनता दल (यूनाइटेड) के एक अन्य नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि अगर चुनाव के वक़्त में इस तरह की बातें हो रहीं हैं तो फिर गठबंधन का कोई मतलब नहीं रह जाता। वो कहते हैं कि बेहतर होगा कि अब भी पार्टी हाईकमान अकेले चुनाव लडऩे का फ़ैसला कर ले।
जदयू से गठबंधन था ही नहीं
लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता अजय कुमार ने बातचीत के दौरान कहा कि किसी भी गठबंधन के लिए एक ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ होता है। जो आपसी सहमती बनी थी वो तब बनी थी जब भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी का गठबंधन था और सबने एकसाथ मिलकर चुनाव लड़ा था और बिहार में सरकार भी बनाई थी।
वो कहते हैं, ‘नीतीश कुमार अचानक गठबंधन तोडक़र अलग हो गए और उन्होंने राजद और कांग्रेस के महागठबंधन के साथ सरकार बनाई, फिर वो गठबंधन भी तोड़ा और भाजपा क साथ सरकार बनाई। जहां तक लोक जनशक्ति पार्टी का सवाल है तो नई सरकार में हमारी पार्टी का नीतीश कुमार की सरकार के साथ न तो कोई एजेंडा बना, ना ही मुद्दों पर सहमति। तो गठबंधन हमारे साथ कहाँ था?’
लोक जनशक्ति पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि वो बिहार विधान सभा के चुनावों में 143 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी जबकि भारतीय जनता पार्टी ने 121 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी है।
लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता कहते हैं कि गलती भारतीय जनता पार्टी से भी हुई है। उनका कहना था, ‘नीतीश कुमार के ढुलमुल रवैये से एक बार भाजपा ने सबक भी सीखा है। देश की सबसे बड़ी पार्टी को चाहिए था कि वो ख़ुद अपने बल पर चुनाव लड़ती।’
उनका कहना है कि ये अचानक नहीं है कि उनकी पार्टी ने नीतीश कुमार का विरोध किया है। वो कहते हैं कि समय-समय पर उनकी पार्टी सरकार के कामकाज को लेकर सवाल उठाती रही है। चाहे वो मजदूरों के पलायन का मामला हो, बाढ़ का मसला हो या फिर कोरोना वायरस के प्रबंधन का मामला हो।
अली अनवर जनता दल (यूनाइटेड) के राज्य सभा के सांसद रह चुके हैं। मगर उन्होंने पार्टी छोड़ दी है। पार्टी को कऱीब से देखने वाले अली अनवर ने बीबीसी से बातचीत करते हुए कहा कि लोक जनशक्ति पार्टी के अकेले चुनाव लडऩे से भारतीय जनता पार्टी को ही ज़्यादा फ़ायदा होगा।
भाजपा बड़ा भाई बनना चाहती है
वो कहते हैं कि मौजूदा परिस्थिति में नीतीश कुमार या जनता दल (यूनाइटेड) और भारतीय जनता पार्टी में बड़े भाई और छोटे भाई का रिश्ता है जिसमें अभी बड़े भाई की भूमिका में नीतीश कुमार हैं।
उनका कहना है, ‘भारतीय जनता पार्टी के पास संसाधन हैं। उनका चुनाव प्रबंधन जनता दल (यूनाइटेड) से काफ़ी बेहतर है या यूं कहिये उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती है। इतना सबकुछ होने के बावजूद केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की मज़बूत सरकार है। ऐसे में बिहार में भी भाजपा बड़ा भाई बनना चाहती है। लोक जनशक्ति पार्टी उसके इस सपने को पूरा करने की दिशा में काम करती दिख रही है।’
बिहार प्रदेश भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि ‘लोक जनशक्ति पार्टी के रुख़ से पैदा हुई मौजूदा स्थिति काफ़ी गंभीर’ है।
पार्टी का कहना है कि उन्होंने कई बार कोशिश की कि नीतीश कुमार और लोक जनशक्ति पार्टी के बीच बातचीत हो और आपसी मतभेद ख़त्म हो जाएँ मगर वो नीतीश कुमार और लोक जनशक्ति पार्टी के नेताओं और ख़ास तौर पर चिराग़ पासवान को एक टेबल पर लाने में कामयाब नहीं हो पाए।
उन्होंने इस बात को भी ख़ारिज किया कि चिराग़ पासवान जो कर रहे हैं वो भाजपा के इशारे या कहने पर कर रहे हैं।
जिन अलग-अलग भाजपा नेताओं से बीबीसी ने बात की उनका कहना है कि हर पार्टी अपना राजनीतिक लाभ तलाश करती है। ऐसे में अगर चिराग़ पासवान अपनी पार्टी के लिए बिहार की राजनीति में मजबूत पकड़ बनाने की कोशिश में लगे हैं तो उसमे कोई बुरा नहीं है और उससे भाजपा का कोई लेना देना भी नहीं है।
भारतीय जनता पार्टी के बिहार प्रदेश के महासचिव देवेश कुमार ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि लोक जनशक्ति पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) के नेताओं से बातचीत का दौर जारी है। जल्द ही कोई ठोस नतीजा सामने आने की उम्मीद उन्होंने जताई है। (bbc.com/hindi)
सत्य को कभी छुपाया नहीं जा सकता। सुशांत सिंह मामले में आखिर यह सच सामने आ चुका है। इस मामले में जिन्होंने महाराष्ट्र को बदनाम किया, उनका वस्त्रहरण हो चुका है। ‘ठाकरी’ भाषा में कहें तो सुशांत आत्महत्या प्रकरण के बाद कई गुप्तेश्वरों को महाराष्ट्र द्वेष का गुप्तरोग हो गया था; लेकिन 100 दिन खुजाने के बाद भी हाथ क्या लगा? ‘एम्स’ ने सच्चाई बाहर लाई है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने फांसी लगाकर आत्महत्या ही की है। उसका खून नहीं हुआ है। सबूतों के साथ ऐसा सच ‘एम्स’ के डॉक्टर सुधीर गुप्ता सामने लाए हैं। डॉक्टर गुप्ता शिवसेना के स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख नहीं हैं। उनका मुंबई से संबंध भी नहीं है। डॉ. गुप्ता ‘एम्स’ के फॉरेंसिक विभाग के प्रमुख हैं। इसी ‘एम्स’ में गृहमंत्री अमित शाह उपचार हेतु भर्ती हुए और ठीक होकर घर लौटे। जिस ‘एम्स’ पर देश के गृह मंत्री को विश्वास है, उस ‘एम्स’ ने सुशांत मामले में जो रिपोर्ट दी है, उसे अंधभक्त नकारेंगे क्या? सुशांत सिंह राजपूत की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु को 110 दिन हो गए। इस दौरान मुंबई पुलिस की खूब बदनामी की गई, मुंबई पुलिस की जांच पर जिन्होंने सवाल उठाए उन राजनेताओं को और कुत्तों की तरह भौंकनेवाले चैनलों को महाराष्ट्र से माफी मांगनी चाहिए। इन सभी ने जान-बूझकर महाराष्ट्र की प्रतिमा पर कलंक लगाने का प्रयास किया है। यह एक षड्यंत्र ही था। महाराष्ट्र सरकार को चाहिए कि वो उन पर मानहानि का दावा करे। किसी युवक की इस प्रकार से मौत होना बिल्कुल अच्छा नहीं है। सुशांत विफलता और निराशा से ग्रस्त था। जीवन में असफलता से वह अपने आपको संभाल नहीं पाया। इसी कशमकश में उसने मादक पदार्थों का सेवन करना शुरू कर दिया और एक दिन फांसी लगाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। मुंबई पुलिस इस मामले की बड़ी बारीकी से जांच कर ही रही थी। मुंबई पुलिस दुनिया का सर्वोत्तम पुलिस दल है। लेकिन मुंबई पुलिस कुछ छुपा रही है। किसी को बचाने का प्रयास कर रही है। ऐसा धुआं उड़ाया गया। उस दौरान सिर्फ बिहार ही नहीं, बल्कि देशभर के कई गुप्तेश्वरों का गुप्तरोग बढ़ गया। सुशांत के पटना निवासी परिवार का उपयोग स्वार्थी और लंपट राजनीति के लिए करके केंद्र ने इसकी जांच जिस जलद गति से सीबीआई को दी, उसे देखते हुए ‘बुलेट ट्रेन’ की गति भी मंद पड़ गई होगी। मुंबई पुलिस ने इस मामले में जिस नैतिकता और गुप्त तरीके से जांच की, वह केवल इसलिए ताकि मृत्यु के पश्चात तमाशा न बने। लेकिन सीबीआई ने मुंबई आकर जब जांच शुरू की तब पहले 24 घंटे में ही सुशांत का ‘गांजा’ और ‘चरस’ प्रकरण सामने आ गया। सीबीआई जांच में पता चला कि सुशांत एक चरित्रहीन और चंचल कलाकार था। बिहार की पुलिस को हस्तक्षेप करने दिया गया होता तो शायद सुशांत और उसके परिवार की रोज बेइज्जती होती। बिहार राज्य और सुशांत के परिवार को इसके लिए मुंबई पुलिस का आभार मानना चाहिए। बिहार चुनाव में प्रचार के लिए कोई मुद्दा न होने के कारण नीतीश कुमार और वहां के नेताओं ने इस मुद्दे को उठाया। इसके लिए राज्य के पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर को वर्दी में नचाया और आखिरकार यह महाशय नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हो गए, जिससे उनकी खाकी वर्दी का वस्त्रहरण हो गया। मुंबई पुलिस सुशांत की जांच नहीं कर सकती इसलिए सीबीआई को बुलाओ, ऐसा चिल्लानेवाले एक सीधा-सा सवाल नहीं पूछ पाए कि गत 40-50 दिनों से सीबीआई क्या कर रही है? सुशांत प्रकरण को भुनाकर महा विकास आघाड़ी की सरकार और मुंबई पुलिस का ‘मीडिया’ ट्रायल किया गया! खुद को पत्रकारिता में हरिश्चंद्र का अवतार समझनेवाले हकीकत में हरामखोर और बेईमान निकले। उन बेईमानों के विरोध में मराठी जनता को एक बड़ी भूमिका लेनी चाहिए। मुंबई पुलिस ने जो जांच की, उस सच को सीबीआई और ‘एम्स’ के डॉक्टर भी नहीं बदल सके। यह मुंबई पुलिस की जीत है। कई गुप्तेश्वर आए और गए। लेकिन मुंबई पुलिस की प्रतिष्ठा का झंडा लहराता रहा। रिया चक्रवर्ती ने सुशांत को जहर देकर मार दिया का ‘नाटक’ भी नहीं चला। लेकिन सुशांत ‘ड्रग्स’ लेता था और उसे रिया ने ड्रग्स पहुंचाई इसलिए रिया को जेल में डाल दिया। सुशांत पर मृत्यु के पश्चात मामला चलाने की कानूनी व्यवस्था होती तो ‘ड्रग्स’ मामले में सुशांत पर मादक पदार्थ सेवन का मुकदमा चलता। सुशांत की मौत को जिन्होंने भुनाया, मुंबई को पाकिस्तान और बाबर की उपमा दी, वह अभिनेत्री अब किस बिल में छिपी है? हाथरस में एक युवती से बलात्कार करके मार डाला गया। वहां की पुलिस ने उस युवती के शरीर का अपमान करके अंधेरी रात में ही लाश को जला डाला। इस पर उस अभिनेत्री ने आंखों में ग्लिसरीन डालकर भी दो आंसू नहीं बहाए। जिन्होंने उस लडक़ी से बलात्कार किया, वे उस अभिनेत्री के भाई-बंधु हैं क्या? जिस पुलिस ने उस लडक़ी को जलाया, वे पुलिसकर्मी उस अभिनेत्री के घरेलू नौकर हैं क्या? जिन्होंने गत 100 दिनों में महाराष्ट्र और मुंबई पुलिस की बदनामी की, ऐसी गुप्तेश्वरी अभिनेत्रियां और ‘गुप्तेश्वर’ अब कौन-सा प्रायश्चित करेंगे? जो महाराष्ट्र व मराठी माणुस के रास्ते में आया, उसका बरबाद होना तय है। बेईमानों और हरामखोरों को अब यह बात समझ लेनी चाहिए। हाथरस बलात्कार प्रकरण में दुम दबाकर बैठनेवाले महाराष्ट्र के मर्दानगी की परीक्षा न लें! (hindisaamana)
घर-बाहर आलोचकों की उपेक्षा और जल्दबाजी के फैसले भारी पड़ते हैं। घर का मीडिया पालतू बनता गया तो इधर विदेशी मीडिया में मोदी सरकार की छवि प्रशासकीय तौर से शिथिल, विपक्ष तथा आलोचकों को लेकर खुद की और अल्पसंख्यक विरोधी की बनकर उभर रही है।
- मृणाल पाण्डे
अपने ताजा साप्ताहिक धारावाहिक प्रसारण, ‘मनकी बात’ में इस बार प्रधानमंत्री जी ने भारतीय परंपरा में कथा सुनने-सुनाने के महत्व पर हमको काफी बताया। तो चलिए, हम भी आपको एक नेवले की कथा सुना दें जो आप जानते हैं सांप का दुश्मन होता है। और यह भी कि जब गद्दी नशीन युधिष्ठिर ने बड़ा भारी राजसूय यज्ञ कराया तो कहीं से आए एक नेवले ने ही यह कह कर कि वह यज्ञ भाइयों की हत्या से जुड़ा था इसलिए गुणहीन था, सबको चकित कर दिया। अक्सर हमारी कथाओं में छोटे जीव ही वह युग सत्य उजागर कर देते हैं जिसे कहने से दुनियादार बड़े लोग कतराते हैं।
ऐसे ही एक और नेवले की एक कहानी हमको जैन ग्रंथ ‘रोहिणी जातक’ में भी मिलती है। किसी स्त्री ने एक नेवला पाल रखा था। उसे वह दूध और लप्सी खिला कर अच्छे से रखती थी। एक बार जब वह आंगन में अनाज बीनती थी, उसने अपने बच्चे को खाट से उतार कर जमीन पर लिटा दिया कि वह गिर न जाए और रखवाली को नेवले को बिठा गई। इतने में एक कोबरा को उस बच्चे की तरफ आते देख नेवले ने उसे मार डाला। और यह बात खुश-खुश अपनी मालकिन को बताने गया। नेवले के मुंह पर खून लगा देख कर स्त्री ने सोचा वह उसके बच्चे को मार आया है, सो उसने मूसल से नेवले को मार डाला। जब वह भीतर भागी तो उसने पाया कि बच्चा तो खेल रहा है। बगल में सांप मरा पड़ा है। जल्दबाज औरत सर पीट पछताती रह गई।
घर-बाहर आलोचकों की उपेक्षा और जल्दबाजी के फैसले भारी पड़ते हैं। घर का मीडिया पालतू बनता गया तो इधर विदेशी मीडिया में मोदी सरकार की छवि प्रशासकीय तौर से शिथिल, विपक्ष तथा आलोचकों को लेकर खुद की और अल्पसंख्यक विरोधी की बनकर उभर रही है। यह चिंता का सबब है- खास कर राजनय और बाहरी निवेश के सिलसिले में। जनवरी, 2019 में लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर सरकार की खुद अपनी सांख्यिकीय संस्था ने राज्यवार रोजगार पर जो चौंकाने वाले आंकड़े जारी किए, वे भारत में लगातार बढ़ती बेरोजगारी की चिंताजनक तस्वीर दिखा रहे थे। कई दशकों से विदेशों में भी सराहे जाने वाले सुसंगत डेटा को सूक्ष्मता से गणना के बाद लगातार पेश करती आई संस्था की नकारात्मक रपट पर नीति आयोग ने कहा कि इस बार के सर्वेक्षण आंकड़े सरकार को विश्वसनीय नहीं लगते, अत: उनको खारिज किया जाता है।
इसके बाद भी पिछली चौथाई सदी से भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से क्रमवार तैयार किए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) राज्यवार स्वास्थ्य सर्वे से मिली जानकारियों के आधार पर 4 बड़े राज्यवार सर्वेक्षण अब तक दे चुकी है जिनसे उजागर जन स्वास्थ्य विषयक, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रजनन और मृत्यु से जुड़ा डेटा सर्वमान्य है। 2015-16 के चौथे सर्वेक्षण के बाद इसको भी रोक दिया गया। जून की शुरुआत में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि भारत में प्रति दस लाख कोविड मरीजों में मरने वालों की औसत दर समुन्नत देशों- यूरोप, रूस या अमरीका के बरक्स काफी कम (11 फीसदी) है। सितंबर के विश्व संगठन के ताजे डेटा से पता चला है कि जून के अंतिम सप्ताह में दक्षिण एशियाई देशों-नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका, में भारत में कोविड से मरने वालों की दर सबसे अधिक हो गई है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने टेस्टिंग बढ़ाए जाने के बाद मिले आंकड़ों को आधार बना कर मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के सामने (शीर्ष संस्था आईसीएमआर के हवाले से) 23 जून की मीटिंग में रपट रखी जो सरकारी प्रवक्ताओं के, बस अभी खत्म हुई जाती है यह महामारी, वाले वादों को हद तक झुठलाती है।
विपक्ष और विशेषज्ञों ने बार-बार बिना विचारे नीति बनाने के खिलाफ सरकार को आगाह किया था कि नीति-निर्माता बाबू गण नेतृत्व को खुश करने वाले फैसलों से अंधेरे में तीर फेंक सकते हैं। वही हुआ। जभी टीवी पर झेंपते प्रवक्ताओं और उनके पीछे देश भर में जारी किसानों से लेकर छात्रों तक के आंदोलन की छवियां स्क्रीन पर देख कर हमको लोक कथा के नेवले की याद आ गई। पिछले आधे दशक से किसान अपनी व्यथा सुनाने न जाने कितनी बार दिल्ली या प्रांतीय राजधानियों को भागे गए। पर उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। नोटबंदी ने जब उनका कचूमर बना दिया तो भारी तादाद में कर्ज के मारे किसान या तो किसानी छोड़कर शहर भागे या आत्महत्या करने लगे। पर उस पर ध्यान देने की बजाय मृतकों की राज्यवार तादाद पर डेटा संकलन और सरकार के आपराधिक सेल में अकाल मृत्यु दर्ज करने के पुराने नियम बदल दिए गए ताकि किसानी आत्महत्या के आंकड़े अलग से दर्ज न मिलें। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी! पर अब किसानों को महान कह कर मंदी के बीच भी अधिकाधिक अन्न पैदा करने के लिए महान योगदान देने पर भावुकता की चाशनी में लिपटे जुमले छोड़े जा रहे हैं। यह सच था तो बिना विपक्ष या किसान संगठनों से बातचीत किए मान्य सांसदीय व्यवस्थाओं को परे कर सारे किसानी पेशे को ही आमूलचूल कॉरपोरेट उपक्रम में बदलने वाले तीन महत्वपूर्ण कानून किस लिए आनन-फानन में पास कराए गए? बीजेपी शासित सूबों के किसान भी आज सरकारी नीति के विरोध में क्यों दिख रहे हैं? गुजरात, कर्नाटक, या मध्यप्रदेश के किसान क्यों बार-बार अपनी उपज को सड़कों पर फेंकने को मजबूर हैं?
अपने वर्चस्व से अति आत्मविश्वासी सरकार संसद ही नहीं, लोकतंत्र के सभी पायों की बाबत अप्रिय सच सामने लाने वाले नेवलों पर कानूनी मूसल चलाती दिख रही है। ईमानदार लोकतांत्रिक प्रतिवाद या सार्वजनिक बहस को सोशल मीडिया, गोदी मीडिया तथा विज्ञापनों की मार्फत प्रति क्रांतिकारी, और देशद्रोह का प्रमाण बताया जा रहा है। इधर कोविड के नाम पर तलघर से निकाले गए औपनिवेशिक युग के महामारी निरोधी कानून के और कठोर बना दिए गए अवतार ने केंद्र को जो अतिरिक्त अधिकार दे दिए हैं उनसे संघीय लोकतंत्र के बावजूद राज्य सरकारों की लोकतांत्रिक हैसियत लगभग नगण्य है।
नवीनतम नेवला इन दिनों बॉलीवुड का है। एक युवा स्टार की संदिग्ध मौत की जांच से शुरू हुई बात तो पीछे चली गई और मामला प्रतिबंधित मादक पदार्थों से जुड़ गया है। मजे की बात यह, कि इस सिलसिले में दिल्ली से आए राष्ट्रीय मादक द्रव्य निरोधी सरकारी प्रकोष्ठ के दस्ते की तोपें बॉलीवुड की चंद गरीब मक्खियों पर तनी हैं जिनके खिलाफ पुख्ता सबूत तो नहीं आए पर उनके निजी चैट मीडिया में लीक हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि आज देश अभिनेत्रियों के चरस पीने से कहीं भारी समस्याओं से जूझ रहा है। राजनय को ही लें। सच यह है कि अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद चीन दुनिया के सब देशों की तुलना में लगातार हर मोर्चे पर बीस बन चला है। पर इस बाबत सरकारी जेम्स बांडों ने काफी पहले से सच बोलने वाले विशेषज्ञों को ठिकाने लगा दिया। और अब क्रांतिकारी कदमों के फलों की डिलेवरी का काम उनकी कृपा कांक्षी ‘कमिटेड’ नौकरशाही पर छोड़ दिया गया है, जो इधर रिटायरमेंट के बाद राजभवनों या पार्टी टिकट पाने को कुछ ज्यादा ही आतुर दिखती है। पद पर रहते ऐसे सरकारी बड़े बाबुओं से अधिक स्वार्थी, जड़ और गतिहीन आज के भारत में कुछ नहीं। पर हर नए कानून से उनकी पावर बढ़ती जाती है। हर बार चार चक्करदार मुद्दे निकाल कर अपने दफ्तर के सामने जनता को एड़ियां रगड़ते देख (खासकर उसमें यदि स्टार या पूर्व राजनेता भी हों) उनको अनिर्वचनीय सुख मिलता है। सेवानिवृत्त हो कर ऐसे बाबू या मीडियाकार अगर संसद सदस्य बन बैठें, तो बड़ी विडंबना और क्या होगी?(navjivan)
संजय श्रमण
एक मजेदार बात बार-बार घटित होती है। धर्म पर जब भी बात निकलती है तो बहुत सारे लोग आकर सलाह देने लगते हैं कि धर्म की क्या जरूरत है, यह सब अंधविश्वास है इत्यादि इत्यादि। मैं उन लोगों की टाइमलाईन पर जाकर उनकी शिक्षा की जांच करता हूँ तो ज्यादातर ये वे लोग होते हैं जिन्होंने समाजशास्त्र, साहित्य, भाषा, दर्शन, इतिहास, एंथ्रोरोपोलोजी, कल्चर और मनोविज्ञान आदि की कोई पढ़ाई नहीं की है।
दुर्भाग्य से बहुजन समाज में एसे लोग सर्वाधिक हैं जिन्होंने इंजीनियरिंग, मेडिकल या मेनेजमेंट की पढ़ाई से नौकरी हासिल कर ली है और वे साइंस और टेक्नोलॉजी के अलावा कभी कुछ नहीं पढ़ते। दुर्भाग्य की बात तो यह कि वे साइंस, टेक्नोलॉजी और मेडिसिन आदि भी विशुद्ध घोटामार स्टाइल में पढ़े हैं। एसे अधिकांश लोगों मे वैज्ञानिक प्रच्छा का भारी अभाव है।
इन लोगों से पूछा जाए कि ये एकांत मे अपने बच्चों और पत्नी से कैसी बातें करते हैं? क्या ये वहाँ सौ प्रतिशत रेशनल और आब्जेक्टिव होकर बात करते हैं? या फिर कभी चाँद सितारों की या इश्क रूमानियत की बात भी करते हैं? क्या ये अपनी पत्नी या प्रेमिका को कहते हैं कि प्रेम सिर्फ केमिकल लोचा है? क्या आप अपने रिश्तों मे इतने आब्जेक्टिव होते हैं? नहीं ना?
दूसरी बात ये कि अगर कोई पॉलिटिकल साइंस या मनोविज्ञान पढ़ा हुआ आदमी क्वांटम मेकेनिक्स या मेडिसिन पर टिप्पणी करने लगे तो आप क्या कहेंगे?
लोगों को लगता है कि राजनीति, दर्शन, धर्म आदि चलताऊ विषय हैं, इनमे शिक्षण प्रशिक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है। एक कम्प्यूटर इंजीनियर या डॉक्टर को कम से कम चार साल की पढ़ाई चाहिए। तब वह कम्प्यूटर सार्इंस या मेडिसिन पर कोई टिप्पणी करना सीखता है। लेकिन धर्म, दर्शन संस्कृति और समाज मनोविज्ञान के बारे में लोग एक किताब पढ़े बिना भी अंतिम निर्णय सुनाने लगते हैं।
धर्म या संस्कृति या कर्मकांड पर कुछ भी लिखने के पहले कम से कम दो तीन किताबें दर्शन और समाज मनोविज्ञान पर जरूर पढ़ लीजिए। कर्मकांड, भाषा, अवचेतन, सामूहिक अवचेतन और समाज की नियंत्रण व्यवस्था आदि का एक जटिल संबंध होता है। अगर आप सिर्फ कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल या बाइकेमिस्ट्री इत्यादि को ही साइंस मानते हैं तो कृपया एक दो साल की छुट्टी लेकर कुछ पढऩा सीख लीजिए। हजारों साल से दार्शनिक, समाजशास्त्री, भाषा विज्ञानी और राजनीतिशास्त्री इस दुनिया में घास नहीं काटते रहे हैं। उनके जगत में भी एक कहीं गहरा विज्ञान होता है जो ‘तकनीक के बाबुओं’ को समझना चाहिए।
खास तौर से ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति के युवाओं की सबसे बड़ी समस्या यही है। वे दुनिया के सबसे प्राचीन और सबसे महत्वपूर्ण विषयों-धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान, राजनीतिशास्त्र आदि के बारे में कोई किताब नहीं पढ़ते। इसीलिए वे हमेशा दूसरों के नियंत्रण मे रहने को मजबूर हैं।
अव्यक्त
बलात्कार के संबंध में अपनी राय रखते हुए महात्मा गांधी इसके लिए ‘शील-भंग’ शब्द इस्तेमाल किए जाने को भी उपयुक्त नहीं ठहराते हैं।
कुछेक साल पहले अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर एक विचारोत्तेजक आलेख लिखा था। इस आलेख का मंतव्य यह सवाल उठाना था कि क्या बलात्कार की निश्चित आशंका के डर से जौहर सराहनीय था? इस प्रश्न को यदि हम आज की नारीवादी कसौटियों पर कसने चलें, तो इसमें इस बात की अनदेखी हो जाने का खतरा रहता है कि हमारे आधुनिक सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से एक तटस्थ अध्येता के लिए देशकाल, परिस्थिति, प्रचलित मूल्य, संदर्भ और परिप्रेक्ष्य इत्यादि का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है। संभव है कि जो चुनौतियां उस समय की महिलाओं के सामने जिस रूप में थीं, उसमें उस समय के सामाजिक चिंतन के हिसाब से उन्होंने अपनी जान देने का निर्णय ले लिया हो।
सात सौ साल पहले की किसी परिघटना का मूल्यांकन यदि आज के समानतावादी और स्वतंत्रतावादी विचारों के आधार पर कठोरतापूर्वक करने बैठ जाएं, तो हम सरासर यह भूल कर बैठेंगे कि आधुनिक सामाजिक और राजनीतिक चेतना पूरे वैश्विक मानव समाज में धीरे-धीरे क्रमिक रूप से आई है। और इसलिए तत्कालीन परिस्थितियों की विकरालता को देखते हुए हमें अपने पूर्वजों या पूर्वजाओं के प्रति थोड़ी सहानुभूति से ही काम लेना चाहिए। लेकिन साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना पड़ सकता है कि आज की कोई कलाकृति हमारी लड़कियों या महिलाओं को यह संदेश सूक्ष्म रूप से भी न दे बैठे कि बलात्कार के पहले या बाद में आत्महत्या सराहनीय है। वास्तव में, यदि सामाजिक यौन केंद्रितता को एक किनारे रख दें, तो बलात्कार केवल एक शारीरिक हमला और दुर्घटना मात्र है।
लेकिन जब हम महिलाओं की यौनिकता को ही उनके व्यक्तित्व का एकमात्र केंद्र बना देते हैं, जब हम उनके यौनांग या जननांग की ‘पवित्रता’ को ही उनके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त बना देते हैं, तो यह हमारी महिलाओं में इतनी आत्मघृणा या इतने आत्मतिरस्कार का भाव भर देता है कि वे ऐसे मामलों में कई बार अपनी जान ले बैठती हैं। कई बार पुरुषों के साथ हुए बलात्कार में भी यही बात निकलकर आती है। बलात्कार से पीडि़त पुरुषों द्वारा आत्महत्या की खबरें आती ही रहती हैं।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि अतीत में साम्राज्य स्थापित करने के लिए लड़े गए युद्धों और जातीयतावादी संघर्षों में भी महिलाओं पर विशेष अत्याचार हुए। दुनिया के कई युद्धग्रस्त हिस्सों में आज भी ऐसा हो रहा है। लेकिन भारतीय संदर्भ में इसे केवल मुस्लिम आक्रमणकारी बनाम राजपूत शासकों की चक्की में पिसती महिलाओं के नजरिए से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि अन्य युद्धों में भी कमोबेश ऐसा हुआ हो सकता है।
यह नरपशुओं के बीच हुए युद्धमात्र की एक सच्चाई होती है। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के मुक्ति-संघर्ष में तो मुस्लिम सैनिकों ने ही लाखों मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार किए। वहां के पुरुषों के साथ भी सैनिकों ने बलात्कार किए। वहां उन्होंने ‘बंगभाषी मुसलमान बनाम अन्य मुसलमान’ की दुर्भावना की आड़ में ऐसा किया। लेकिन उसके बाद जो हुआ, उसमें और जौहर में कोई फर्क नहीं किया जा सकता। बलात्कार-पीडि़ता बांग्लादेशी मांओं, बहनों, पत्नियों और बेटियों को उनके अपने परिवार ने, अपने समाज ने ही अपनाने से इंकार कर दिया। हज़ारों-लाखों की संख्या में उन परित्यक्ताओं या बहिष्कृताओं ने आत्महत्या की।
प्रकारांतर से क्या वह जौहर जैसा ही नहीं था? कहा जाता है कि जिन नग्न लड़कियों और महिलाओं को फांसी लटकने का अन्य कोई साधन नहीं मिला, उन्होंने अपने ही बालों की चोटी से लटककर फांसी लगा ली। इस तरह उनकी हत्या बलात्कारियों ने नहीं की, बल्कि अपने ही समाज और परिजनों द्वारा लांछित-बहिष्कृत किए जाने की सामाजिक बर्बरता ने उनकी हत्या की। इस तरह बलात्कार-पूर्व जौहर या बलात्कार-बाद की आत्महत्या, ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और वह मर्दाभिमानवादी या ‘पवित्रतावादी’ सिक्का है, महिलाओं के जननांग को ही उनके संपूर्ण अस्तित्व का केन्द्र बना देना या उनकी ‘पवित्रता’ की अनिवार्य शर्त बना देना।
सदियों की मानसिक पराधीनता और आत्महीनता की वजह से स्वयं महिलाओं ने ही इस सिक्के को हाथों-हाथ लिया और किसी पुरुष द्वारा किए गए एक शारीरिक हमले को अपने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया। हर दिन बढ़ते बलात्कार के मामलों और उस पर आने वाली राजनीतिक-सामाजिक प्रतिक्रियाओं को देखें तो इस विषय में महात्मा गांधी के विचार बरबस याद आते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब दुनियाभर के फौजी ‘शत्रुदेश’ की महिलाओं के साथ बलात्कार को युद्धनीति के रूप में स्वीकार कर चुके थे, उस दौरान फरवरी, 1942 में किसी महिला ने उसी संदर्भ में महात्मा गांधी को पत्र लिखकर उनसे बलात्कार के बारे में तीन सवाल पूछे -
यदि कोई राक्षस-रूपी मनुष्य राह चलती किसी बहन पर हमला करे और उससे बलात्कार करने में सफल हो जाए, तो उस बहन का शील-भंग हुआ माना जाएगा या नहीं?
क्या वो बहन तिरस्कार की पात्र है? क्या उसका बहिष्कार किया जा सकता है?
ऐसी स्थिति में पड़ी हुई बहन औऱ जनता को क्या करना चाहिए?
एक मार्च, 1942 को गुजराती ‘हरिजनबंधु’ में गांधीजी ने इस पत्र का जवाब देते हुए लिखा- ‘ज्जिस पर बलात्कार हुआ हो, वह स्त्री किसी भी प्रकार से तिरस्कार या बहिष्कार की पात्र नहीं है। वह तो दया की पात्र है। ऐसी स्त्री तो घायल हुई है, इसलिए हम जिस तरह घायलों की सेवा करते हैं, उसी तरह हमें उसकी सेवा करनी चाहिए। वास्तविक शील-भंग तो उस स्त्री का होता है जो उसके लिए सहमत हो जाती है। लेकिन जो उसका विरोध करने के बावजूद घायल हो जाती है, उसके संदर्भ में शील-भंग की अपेक्षा यह कहना अधिक उचित है कि उस पर बलात्कार हुआ। ‘शील-भंग’ शब्द बदनामी का सूचक है और इस तरह वह ‘बलात्कार’ का पर्याय नहीं माना जा सकता है। जिसका शील बलात्कारपूर्वक भंग किया गया है, यदि उसे किसी भी प्रकार निंदनीय न माना जाए तो ऐसी घटनाओं को छिपाने का जो रिवाज हो गया है, वह मिट जाएगा। इस रिवाज के खत्म होते ही ऐसी घटनाओं के विरुद्ध लोग खुलकर चर्चा कर सकेंगे।’
गांधीजी के लिए इस लेख का शीर्षक था- ‘बलात्कार के समय क्या करें?’ इस लेख में गांधी आगे लिखते हैं- ‘जिस स्त्री पर इस तरह का हमला हो, वह हमले के समय हिंसा-अहिंसा का विचार न करे। उस समय आत्मरक्षा ही उसका परम-धर्म है। उस समय उसे जो साधन सूझे उसका उपयोग कर उसे अपने सम्मान और शरीर की रक्षा करनी चाहिए। ईश्वर ने उसे जो नाखून दिए हैं, दांत दिए हैं और जो बल दिया है वह उनका उपयोग करेगी। और उनका उपयोग करते-करते वह जान दे देगी। जिस स्त्री या पुरुष ने मरने का सारा डर छोड़ दिया है, वह न केवल अपनी ही रक्षा कर सकेंगे, बल्कि अपनी जान देकर दूसरों की रक्षा भी कर सकेंगे।’
हालांकि गांधी यह भी मानते थे कि महिलाओं को स्वयं में निर्भयता, आत्मबल और नैतिक बल भी पैदा करनी होगी। जैसा कि वे 14 सितंबर, 1940 को ‘हरिजन’ में लिखते हैं कि ‘यदि स्त्री केवल अपने शारीरिक बल पर या हथियार पर भरोसा करे, तो अपनी शक्ति चुक जाने पर वह निश्चय ही हार जाएगी।’ इसलिए जान देने की प्रेरणा या इसका साहस होना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन वह पहले ही हार मानकर आत्महत्या के रूप में न हो, बल्कि एक सम्मानजनक जीवन की चाह में लड़ते-लड़ते जान देने के अर्थ में हो।
यदि किसी जमाने में महिलाओं के अस्तित्व या व्यक्तित्व को उनकी मानवीय संपूर्णता में न देखकर, केवल उनके जननांगों तक सीमित कर दिया जाता था, तो उसकी परिणति उनके द्वारा भय, ग्लानि या शर्म के मारे आत्महत्या कर लेने के रूप में होती थी। यहां तक कि उनके परिजनों द्वारा उन्हें जबरन मार दिए जाने या बहिष्कृत किए जाने की स्थिति बनती थी।
आज हम उस अवस्था से बहुत हद तक आगे बढ़ चुके हैं। मानने लगे हैं कि भय, ग्लानि और शर्म की स्थिति तो उन पर आक्रमण करने वालों के लिए होनी चाहिए। ऐसे आक्रमणों में चोट खाकर बच गईं महिलाओं के प्रति केवल वैसी ही सहानुभूति होनी चाहिए, जैसे किसी अन्य आक्रमण में चोट खाए हुए के प्रति। यही भावना स्वयं आक्रमण की शिकार महिलाओं की भी स्वयं के प्रति होनी चाहिए। यही बात बलात्कार से आक्रमित पुरुषों या अन्य लिंगों पर भी लागू होती है। यदि सिनेमा, साहित्य या कई बार राजनीति के जरिए भी यौन केंद्रित शर्म, आत्मघृणा और ग्लानि की वजह से आक्रमितों द्वारा की गई आत्महत्या का महिमामंडन हो रहा हो, तो हमें फिर से सोचने की जरूरत होगी।
ऊपर जिक्र किए गए आलेख की थोड़ी और बात करें तो अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने जो सवाल उठाए थे, वे इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि भारत की ज्यादातर महिलाओं का फिल्म-दर्शक और उपभोक्ता के रूप में पर्याप्त क्रिटिकल और जागरूक बनना अभी बाकी है। और जब स्वयं अभिनेत्रियां ही ऐसे विचारोत्तेजक सवाल उठाने का साहस दिखाती हैं, तो वे इस महत्वपूर्ण माध्यम के लिए भी नई संभावनाओं को जन्म देती हैं। किसी भी सेंसरशिप या हो-हंगामे से अधिक हमें ऐसी चर्चाओं और संवादों की जरूरत है। (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फ्रांस के राष्ट्रपति इमेन्यूएल मेक्रो ने संकल्प किया है कि वे अपने देश में ‘इस्लामी अलगाववाद’ के खिलाफ जबर्दस्त अभियान चलाएंगे। इस समय फ्रांस में जितने मुसलमान रहते हैं, उतने किसी भी यूरोपीय देश में नहीं हैं। उनकी संख्या वहां 50-60 लाख के आसपास है, जो कि फ्रांस की कुल जनसंख्या की 8-10 प्रतिशत है। ये मुसलमान सबसे पहले अल्जीरिया से आए थे।
छठे दशक में जब फ्रांस ने अल्जीरिया को आजाद किया तो वहां के मुसलमानों को नागरिकता प्रदान कर दी। फिर तुर्की, मध्य एशिया और अफ्रीका के मुसलमान भी काम की तलाश में फ्रांसीसी शहरों में आ बसे। फ्रांसीसियों को भी इन लोगों की उपयोगिता महसूस हुई, क्योंकि ये लोग मजदूरी के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाते थे और फ्रांसीसियों से दबे भी रहते थे। इनमें से ज्यादातर मुसलमानों ने फ्रांसीसी भाषा और संस्कृति को अपने जीवन का अंग बना लिया है लेकिन अभी भी 40-45 प्रतिशत फ्रांसीसी मुसलमान काफी रुढि़वादी और कट्टरपंथी हैं। युवा मुस्लिमों में तो ऐसे लोगों की संख्या 75 प्रतिशत तक है। फ्रांसीसी सरकार और कई संगठनों ने अपने मुसलमानों के बारे में विस्तृत आंकड़े इक_े कर रखे हैं। लगभग आधे मुसलमान दिन में 5 बार नमाज पढऩे, रोजा रखने, पर्दा करने और मदरसों की तालीम में विश्वास रखते हैं। इस वक्त फ्रांस में 2300 मस्जिदें सक्रिय हैं। कुछ नौजवान आतंकी गतिविधियों में भी संलग्न हैं। फ्रांस के मुसलमानों में ज्यादातर सुन्नी हैं।
वे स्थानीय लोगों का धर्म-परिवर्तन करने में भी बड़ा उत्साह दिखाते हैं। लगभग 1 लाख लोगों ने इस्लाम को कुबूल भी किया है लेकिन उनकी जीवन-शैली, गतिविधियों और रहन-सहन से फ्रांसीसी सरकार और जनता इतनी उत्तेजित है कि कई इस्लामी रीति-रिवाजों के खिलाफ वहां कड़े कानून बना दिए गए हैं। राष्ट्रपति मेक्रो इन पुराने कानूनों को अब ज्यादा सख्ती से लागू करेंगे। उनका कहना है कि किसी भी समुदाय के मजहबी कानून राष्ट्रीय कानून से ऊंचे नहीं हो सकते। फ्रांस 19 वीं सदी के पंथ-निरपेक्षता के सिद्धांत, ‘लायेसिती’ को मानता है याने कोई भी धार्मिक कानून राष्ट्रीय कानून से ऊपर नहीं हो सकता। चर्च की दादागीरी के खिलाफ 1905 में यह सिद्धांत स्थापित हुआ था। इसीलिए फ्रांस में मुस्लिम औरतों के हिजाब, यहूदियों के यामुका और ईसाइयों के बड़े-बड़े क्रॉस गले में लटकाने पर प्रतिबंध है। राष्ट्रपति जाक शिराक ने इस मुद्दे पर विशेष अभियान चलाया था। फ्रांस के कुछ उग्रवादी ईसाई संगठनों ने दर्जनों मस्जिद गिरा दी हैं, मुसलमानों को रोजगार देने का वे विरोध करते हैं और मदरसों को बंद करने की मांग कर रहे हैं।
यूरोप के कुछ अन्य राष्ट्रों-जर्मनी, हालैंड और डेनमार्क में भी इस तरह की मांगें जोरों से उठ रही हैं। बेहतर तो यह हो कि मुसलमानों पर विधर्मी हमला करें, इसकी बजाय दुनिया के मुसलमान इस्लाम और स्थानीय संस्कृति में मेल बिठाने की कोशिश करें। इस्लाम को देश-काल के मुताबिक ढाल लें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
इटावा , 04 अक्टूबर (वार्ता) जलचरों का पंसदीदा प्रवास स्थल चंबल सेंचुरी में डाल्फिन की अठखेलियां पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुयी है।
पर्यावरणीय संस्था सोसायटी फाॅर कंजरवेशन ऑफ़ नेचर के महासचिव डा.राजीव चौहान ने रविवार को यूनीवार्ता से खास बातचीत में कहा कि सैकड़ों दुर्लभ जलचरो का संरक्षण कर रही चंबल नदी हालांकि तीन राज्यो राजस्थान,मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश मे प्रवाहित हो रही है लेकिन यूपी के हिस्से मे डाल्फिनो की मौजूदगी हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है ।
स्वतंत्रता दिवस पर डाल्फिन के संरक्षण काे लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपील के बाद लोगो के मन में दुर्लभ जीव के प्रति आर्कषण बढा है । प्रधानमंत्री ने 74वें स्वतंत्रता दिवस पर ‘प्रोजेक्ट डाल्फिन’ की घोषणा करते हुए कहा कि इससे जैव विविधता को बढ़ावा मिलेगा और रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे । केंद्र सरकार प्रोजेक्ट डाल्फिन को बढ़ावा देना चाहती है । नदियों और समुद्रों में रहने वाले दोनों तरह के डाॅल्फिन पर ध्यान देंगे । इससे जैव विविधता को बढ़ावा मिलेगा और रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे। यह पर्यटन के लिए आकर्षण का केंद्र भी होगा । डाल्फिन को 2009 में राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया गया था ।
उन्होने बताया कि उत्तर प्रदेश मे चंबल नदी का प्रवाह रेहा बरेंडा से शुरू होता है लेकिन इटावा जिले मे इसकी शुरूआत पुरामुरैंग गांव से होते हुए प्रवाह पंचनदा तक रहता है । पंचनदा से पूर्व चंबल नदी यमुना नदी में विलय हो जाती है जिसके बाद यमुना नदी कहलाती है ।
जिले मे गढायता ,बरौली,खेडा अजब सिंह,ज्ञानपुरा,कसौआ,बरेछा,कुंदौल,पर्थरा महुआसूडा और चिकनी टाॅवर पर डाल्फिनो की मौजूदगी होती है जहाॅ पर उनको देखने के लिए बडी तादाद मे स्थानीय और दूर दराज से पर्यटकों का आना जाना लगा रहता है । चौहान बताते है कि इनमे से पर्थरा मे 8 से लेकर 11,कसौआ मे 5 से लेकर 7,चिकनी वाॅच टावर पर पांच के आसपास डाल्फिनो को देखा जाता है ।
इटावा जिले मे 55 से लेकर 60 के आसपास डाल्फिनो को विभिन्न स्थानो पर देखे जाने की तस्दीक विभिन्न स्तर पर की गई है वैसे पूरे चंबल की बाते करे तो यह तादात 95 के आसपास होती है ।
डॉ. चौहान ने बताया कि इटावा जिले मे डाल्फिन के संरक्षण के लिए इटावा जिले के डिभौली,कसौआ,सहसो,पचनदा और इटावा मे कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे है ।
सामाजिक वानिकी प्रभाग के प्रभागीय निदेशक राजेश सिंह वर्मा बताते हैं कि डाल्फिन पानी में तीन से पांच मिनट रह पाती है उसके बाद इसको पानी की सतह पर सांस लेने के लिए आना पड़ता है इस दौरान यह लगभग 30 से 120 सेकंड पानी से बाहर रहती है सांस लेने के लिए जब यह पानी से उछाल लेती है तो इसका उछाल देखने लायक होता है।
डाल्फिन के आकर्षण की बात करते हुए यमुना नदी मित्र समिति के अध्यक्ष इंद्रभान सिंह परिहार बताते है कि पंचनदा पर भ्रमण करने आने वाले अधिकाधिक लोग यहाॅ पर केवल डाल्फिन को देखने का जिज्ञासा लेकर ही आते है । पचनदा पर आने वालो मे से प्रतिदिन कम से कम पचास साठ लोग केवल डाल्फिन को ही देखने की मांग करते है। ऐसा ही कुछ पर्यावणीय अजय कुमार मिश्रा भी बताते है कि देश के विभिन्न हिस्सो मे बैठे उनके मित्र अमूमन चंबल नदी मे डाल्फिनो को देखने की बात कहते हुए इटावा तक आते है और डाल्फिनो को देखने के बाद आंनद की अनूभूति का एहसास करके वापस लौट जाते है ।
डाल्फिन की वास्तविक स्थिति का आकंलन करने के लिये उत्तर प्रदेश सरकार ने वन विभाग और डब्लूडब्लूएफ के सहयोग से करने का काम शुरू करने की कवायद कर रखी है । चंबल नदी मे 2008 मे डाल्फिन के मरने का मामला उस समय सामने आया था जब बडे पैमाने पर घड़ियालो की मौत हुई थी । उस समय दो डाल्फिनो की मौत ने चंबल सेंचुरी अफसरो को सकते मे ला दिया था । उसके बाद डाॅल्फिनो के मरने की खबरे आ जाती है कहा जाता है कि चंबल नदी मे अवैध शिकार इस जलचर की मौत का बडा कारण है लेकिन चंबल सेंचुरी के अफसर इन मौतो को स्वाभाविक बता करके शिकार से पल्ला झाड लेता रहा है।
डाल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया गया है और सरकार की ओर से उसे बचाने के दावे-दर-दावे हो रहे हैं। यूं उसके शिकार पर 1972 से ही पाबंदी है पर तस्करों की निगाह उस पर बराबर लगी हुई है। डाल्फिन मानव के मित्र के रूप में जाना जाता है। वह नदी में अक्सर कुलांचें भर-भर कर सावधान करता रहता है कि कहां पर पानी गहरा है और कहां भंवर है। डाल्फिन की जैव संरक्षण में अहम भूमिका है। गंगा और उसकी सहायक नदियों के साथ ही ब्रहृपुत्र और उसकी सहायक नदियों में भी पायी जाती है। बिहार-उत्तर प्रदेश में पर यह सोंस और असम में जिहू नाम से जानी जाती है। आज से चार-साढ़े चार दशक पूर्व तक इसके अस्तित्व पर कोई संकट नहीं था।
उत्तर भारत की पांच प्रमुख नदियों यमुना, चंबल, सिंध, क्वारी व पहुज के संगम स्थल ‘पंचनदा’ डाल्फिन के लिये सबसे खास पर्यावास है। क्योंकि नदियों का संगम इनका मुख्य प्राकृतिक वास होता है और यहां पर एक साथ 16 से अधिक डाल्फिनों को एक समय में एक साथ पर्यावरण विशेषज्ञों ने देखा, तभी से देश के प्राणी वैज्ञानिक पंचनदा को डाल्फिनों के लिये महत्वपूर्ण स्थल मान रहे हैं और इस स्थान को पूर्णतया सुरक्षित रखने की मांग भी कर रहे हैं लेकिन आज तक ऐसा हो नही सका ।
डाल्फिन स्तनधारी जीव हैं जो पानी में रहने के कारण मछली होने को भ्रम पैदा करती है, सामान्यत इसे लोग सूंस के नाम से पुकारते है, इसमें देखने की क्षमता नहीं होती हैं लेकिन सोनार यानी घ्वनि प्रक्रिया बेहद तीब्र होती हैं, जिसके बलबूते खतरे को समझती है। मादा डाल्फिन 2.70 मीटर और वजन 100 से 150 किलो तक होता है, नर छोटा होता है, प्रजनन समय जनवरी से जून तक रहता है। यह एक बार में सिर्फ एक बच्चे को जन्म देती है।
डाल्फिन को बचाने की दिशा में सबसे पहला कदम 1979 में चंबल नदी में राष्ट्रीय सेंचुरी बना कर किया गया । डाल्फिन को वन्य जीव प्राणी संरक्षण अघिनियम 1972 में शामिल किया गया । हर साल एक अनुमान के मुताबिक 100 डाल्फिन विभिन्न तरीके से मौत की शिकार हो जाती हैं, इनमें मुख्यतया मछली के शिकार के दौरान जाल में फंसने से होती है, कुछ को तस्कर लोग डाल्फिन का तेल निकालने के इरादे से मार डालते हैं। दूसरा कारण नदियों का उथला होना यानी प्राकृतिक वास स्थलों का नष्ट होना,नदियों में प्रदूषण होना और नदियों में बन रहे बांध भी इनके आने-जाने को प्रभावित करते हैं।
अवैध शिकार की वजह है कि डाल्फिन के जिस्म से निकलने वाले तेल का उपयोग मछलियों के शिकार एवं मानव हड्डियों को मजबूत करने के लिए प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि इसके तेल की बाजार में कीमतें भी अधिक होती हैं। इसलिए शिकारियों की नजरों में डाल्फिन एक धन कमाने का जरिया बन चुकी है।
डाल्फिन का शिकार दंडनीय अपराध है। शिकार करते हुए पकड़े जाने पर आरोपी को छह साल के कारावास तथा पचास हजार रुपये जुर्माना का प्रावधान है। डॉल्फिन संरक्षण के लिए नमामि गंगे परियोजना मैं बहुत महत्व दिया जा रहा है अभी हाल में ही कई सारी डॉल्फिन संरक्षण की परियोजनाएं क्रियान्वित की गई है जिनमें सामुदायिक सामुदायिक सहभागिता को निश्चित रूप से शामिल करने का आवाहन किया गया।
सं प्रदीप
वार्ता
- Gayatri Yadav
बीते 14 सितंबर को उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले में कथित रूप से चार ऊंची जाति के पुरुषों ने एक दलित युवती का सामूहिक बलात्कार किया। युवती की मंगलवार सुबह दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई। 22 सितंबर को पीड़िता के भाई द्वारा दर्ज रिपोर्ट में पुलिस को बताया गया कि वह किसी घरेलू काम से बाहर गई थी। उसी दौरान चारों आरोपियों ने इस घटना को अंजाम दिया और उसका गला दबाकर मारने की कोशिश की। शुरुआत में वह अलीगढ़ में भर्ती थी, बाद में हालत बिगड़ने पर उसे दिल्ली के सफदरजंग लाया गया था जहां उसकी मौत हो गई। युवती की मौत के बाद इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश पुलिस ने बयान जारी कर कहा है कि युवती पर हमला किया गया था और उसका गला दबाने की कोशिश की गई थी जिसके कारण उसका नर्वस सिस्टम प्रभावित हुआ और वह पैरलाईज्ड हो गई। साथ ही पुलिस ने कहा है कि यौन हिंसा की अब तक पुष्टि नहीं हुई है और युवती का जीभ काटे जाने की ख़बर भी गलत है। पीड़ित की मौत के बाद पुलिस के इस बयान पर भी सवाल उठ रहे हैं। पुलिस भले ही कह रही हो कि हाथरस की घटना में यौन हिंसा की पुष्टि नहीं हुई। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह घटना देश में दलित महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा का एक और उदाहरण है।
इस घटना के कुछ दिनों पहले ही उत्तर प्रदेश के ही लखीमपुर खीरी ज़िले में चार लड़कियों जिनमें से दो दलित थीं, उनका बलात्कार किया गया और उसके बाद हत्या कर दी गई। दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के आंकड़ों के मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (NCRB) के 2016 के आंकड़ों पर ग़ौर करें तो देश में दलितों के ख़िलाफ़ हुई कुल 26 फीसद हिंसा की घटनाओं में 15 फीसद दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ हुई थी। एनसीआरबी के ही आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश में हर रोज़ औसतन चार दलित महिलाओं का बलात्कार होता है। एनसीआरबी के ही मुताबिक साल 2018 में दर्ज हुए 33,000 बलात्कार के मामलों में 10 फीसद सर्वाइवर दलित या आदिवासी महिलाएं थी। ‘नेशनल कैम्पेन ऑफ दलित ह्यूमन राइट्स’ नामक एक गैर-सरकारी संस्था के अनुसार दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि हुई है। देश में लगभग 23 फ़ीसद दलित महिलाओं को शारीरिक शोषण और बलात्कार का सामना करना पड़ता है।
दलित महिलाओं के बलात्कार और शारीरिक शोषण के मूल में समाज में निहित ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और अपनी जाति के सर्वोच्च होने का अहंकार है। यौन हिंसा दलित-आदिवासी औरतों के ख़िलाफ़ शोषण और दमन के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। भारतीय समाज में जाति को लेकर घमंड अभी भी खत्म नहीं हुआ है। न ही खत्म हुआ है हमारे देश से जातिवादी। उच्च जाति का व्यक्ति अपने आप को सामाजिक क्रमानुक्रम में ऊपर मानता है और चाहता है कि बाकी सभी लोग उसके स्वामित्व और प्रभुत्व को स्वीकार करें।
आज़ादी और संविधान के आधिकारिक शासन के बावजूद हमारा समाज धर्म और जाति नियंत्रित है। मनुस्मृति को बातें अभी भी लोगों की वैचारिकी से मिटी नहीं हैं। उनके अनुसार दलित और वंचित समुदाय से आने वाले लोग उनकी सेवा के लिए ही हैं और उन लोगों को आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं है। दलितों के विरोध और प्रतिकार को वे अपनी बनी-बनाई संरचना के ख़िलाफ़ मानते हैं। उन्हें डर है कि उनकी संरचना ढह जाएगी, इसलिए महिलाओं पर यौन शोषण के ज़रिए वे अपनी सर्वोच्चता दर्शाने का प्रयास करते हैं।
शायद आपको याद हो पिछले साल 28 जून को रीलीज़ हुई फ़िल्म आर्टिकल 15 को पूरे देश में सराहा गया था। यह फ़िल्म बदायूं की एक सच्ची घटना पर आधारित है। जिसमें निचली जाति की लड़कियां मज़दूरी में तीन रुपए बढ़ाने की मांग करती हैं और उनकी इस मांग के बदले मालिक उनका बलात्कार कर देता है। फिल्म के रीलीज़ होने के बाद देश भर में संविधान और समानता के अधिकारों पर बात हुई लेकिन क्या इससे दलित महिलाओं का शोषण थम पाया है ? क्या उसके बाद से देश में दलित स्त्रियों के ख़िलाफ़ बलात्कार होने बन्द हुए हो गए हैं ? इनका जवाब है- नहीं, क्योंकि हमारे देश में जबतक जातिवाद बरकरार रहेगा ये हिंसा भी होती रहेगी।
दलित महिलाओं के बलात्कार और शारीरिक शोषण के मूल में समाज में निहित ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और अपनी जाति के सर्वोच्च होने का अहंकार है। यौन हिंसा दलित-आदिवासी औरतों के ख़िलाफ़ शोषण और दमन के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
कई बार बलात्कार और यौन शोषण के पीछे यह सोच होती है कि दलित जाति के पुरुष अपनी महिलाओं की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं। असल में, यह महिलाओं की स्वायत्तता को सीमित करने के लिए किया जाता है। प्राचीन धर्म नियंत्रित समाज की ओर देखें तो पता चलता है कि तथाकथित बड़े घरों की औरतें घर की चारदीवारी के भीतर कैद रहती थीं, उन्हें बाहर जाने की मनाही थी। बाहरी समाज से वे लगभग अनभिज्ञ थी, वहीं निचली जाति की औरतें बाहर जाकर काम करती थी। वे समाज में हो रहे बदलावों को देख रही थी और उससे प्रभावित हो रही थीं। ऐतिहासिक रूप से समाज को लेकर ज़्यादा सक्रिय रुख दलित महिलाओं का रहा है। अब दलित महिलाएं आगे बढ़ रही हैं, पढ़-लिख रही हैं और अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हो रही हैं तो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता यह कैसे सहन कर सकती है।
एक जातिवादी समाज अपने स्वभाव में हिंसात्मक ही होता है और जब दलित महिला की बात की जाए तब शोषण का स्वरूप और अधिक क्रूर हो जाता है। आज की मुख्यधारा की बहसों में, दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ ढांचागत और सांस्थानिक शोषण को शायद ही कभी प्रमुखता से उठाया जाता हो। लिंग, वर्ग और जाति की इंटरसेक्शनलिटी को शायद ही कभी देखा जाता हो। जब भी कभी दलित महिला या निचले वर्ग की महिला के ख़िलाफ़ यौन हिंसा होती है, उसके मानवीय अधिकारों के हनन के पीछे समाज में व्याप्त जातिवाद ही है। दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा हमेशा उनकी जातीय स्थितियों से जुड़ी होती है। ये हिंसा न केवल स्त्री को नियंत्रित करने के लिए होती हैं बल्कि इनका उद्देश्य जातीय संरचना को मजबूत बनाए रखना भी होता है। तथाकथित उच्च वर्ग के लोग नहीं चाहते कि पिछड़े व दलित लोग उनके बराबर दर्जे पर आ सकें। शुरुआत से ही दलितों विशेषकर दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ शोषण समाज मे होता रहा है और उनकी व्यथाएं और संघर्ष आज भी देखे -सुने जा सकते हैं।
1990 के दशक में राजस्थान में भंवरी देवी के बलात्कार की घटना के बाद देशभर में विरोध प्रदर्शन व आंदोलन होने के बावजूद तथा कार्यस्थल पर यौन शोषण को नियंत्रित करने के लिए ‘विशाखा गाइडलाइन’ आने के बाद भी दलित स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आ पाया है। भंवरी देवी के बलात्कार के 22 सालों बाद भी दोषियों को सज़ा नहीं हुई और वे संघर्ष करती रही। हालांकि उस केस में उच्च न्यायालय के रुख पर भी कई सवालिया निशान लगते हैं। 90 के दशक के बाद आज 21वीं सदी में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर तमाम कानून और दलितों के लिए एससी-एससी एक्ट आने के बावजूद भी महिलाओं के ख़िलाफ़ बलात्कार और शोषण की घटनाएं थम नहीं रही हैं। महीने भर में केवल उत्तर प्रदेश में तीन दलित महिलाओं की मौत का कारण यौन हिंसा है। न्यायालय की प्रक्रियाओं में साल बीतते जाते हैं और पीड़िताएं या तो मर जाती हैं या उसी जातिवादी शोषण तंत्र में जीने को मजबूर हो जाती हैं।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच नागोर्नो-काराबाख इलाक़े को लेकर लगातार दूसरे दिन भीषण लड़ाई हुई.
दशकों पहले से जारी इस विवाद को लेकर एक बार फिर से छिड़ी लड़ाई में सोमवार को दर्जनों लोगों के मारे जाने की ख़बर है.
इस विवाद के केंद्र में नागोर्नो-काराबाख का पहाड़ी इलाक़ा है जिसे अज़रबैजान अपना कहता है, हालांकि 1994 में ख़त्म हुई लड़ाई के बाद से इस इलाक़े पर आर्मीनिया का कब्ज़ा है.
1980 के दशक से अंत से 1990 के दशक तक चले युद्ध के दौरान 30 हज़ार से अधिक लोगों को मार डाल गया और 10 लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए थे.
उस दौरान अलगावादी ताक़तों ने नागोर्नो-काराबाख के कुछ इलाक़ों पर कब्ज़ा जमा लिया, हालांकि 1994 में युद्धविराम के बाद भी यहां गतिरोध जारी है.
सोमवार रात नागोर्नो-काराबाख के अधिकारियों ने कहा कि लड़ाई में उनकी सेना के 26 और लोग मारे गए हैं जिसके बाद मरने वालों की कुल संख्या 80 तक पहुंच गई है.
इस विवाद को लेकर अब चिंता जताई जा रही है कि इसमें तुर्की, रूस और ईरान भी कूद सकते हैं. इस इलाक़े से गैस और कच्चे तेल की पाइपलाइनें गुज़रती है इस कारण इस इलाक़े के स्थायित्व को लेकर जानकार चिंता जता रहे हैं.
फिर छिड़ा युद्ध
एक दूसरे पर तनाव बढ़ाने का आरोप लगाने के बाद रविवार को आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच भीषण युद्ध शुरू हो गया. इसके बाद दोनों पक्षों ने कहा कि उन्होंने सीमा पर सैनिकों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया है और कई इलाक़ों में मार्शल लॉ लगा दिया है.
इससे पहले यहां साल 2016 में भी भीषण लड़ाई हुई थी जिसमें 200 लोगों की मौत हुई थी.
क्या है ताज़ा जानकारी?
नागोर्नो-काराबाख में अधिकारियों के अनुसार रविवार को यहां 16 लोगों की मौत हुई थी जबकि सौ से अधिक लोग घायल हुए थे.
वहीं समाचार एजेंसी इंटरफैक्स ने अर्मीनियाई अधिकारियों को ये कहते बताया है कि वहाँ अब तक दो सौ से अधिक लोग घायल हुए हैं.
और अज़रबैजान में अधिकारियों का कहना है कि रविवार को कुछ लोगों की मौत हुई है जबकि तीस से अधिक घायल हुए हैं.
नागोर्नो-काराबाख में अधिकारियों ने दावा किया है कि रविवार को जिन इलाक़ों पर अज़रबैजान के सैनिकों ने कब्ज़ा किया था उन्हें फिर छुड़ा लिया गया है.
वहीं अज़रबैजान सरकार ने सोमवार को कहा है कि विवादित इलाक़े में रणनीतिक तौर पर अहम कुछ जगहों को उनकी सेना ने कब्ज़े में ले लिया है.
जुलाई में सीमा पर हुई हिंसा में 16 लोगों की मौत के बाद अज़रबैजान में व्यापक प्रदर्शन हुए थे. प्रदर्शनकारियों की मांग थी कि इस इलाक़े को देश अपने कब्ज़े में ले.
क्यों लड़ रहे हैं आर्मीनिया और अज़रबैजान?
पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा रह चुके आर्मीनिया और अज़रबैजान नागोर्नो-काराबाख के इलाक़े को लेकर 1980 के दशक में और 1990 के दशक के शुरूआती दौर में संघर्ष कर चुके हैं.
दोनों ने युद्धविराम की घोषणा भी की लेकिन सही मायनों में शांति समझौते पर दोनों कभी सहमत नहीं हो पाए.
दक्षिणपूर्वी यूरोप में पड़ने वाली कॉकेशस के इलाक़े की पहाड़ियां रणनीतिक तौर पर बेहद अहम मानी जाती हैं. सदियों से इलाक़े की मुसलमान और ईसाई ताकतें इन पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती रही हैं.
1920 के दशक में जब सोवियत संघ बना तो अभी के ये दोनों देश - आर्मीनिया और अज़रबैज़ान - उसका हिस्सा बन गए. ये सोवियत गणतंत्र कहलाते थे.
नागोर्नो-काराबाख की अधिकतर आबादी आर्मीनियाई है लेकिन सोवियत अधिकारियों ने उसे अज़रबैजान के हाथों सौंप दिया.
इसके बाद दशकों तक नागोर्नो-काराबाख के लोगों ने कई बार ये इलाक़ा आर्मीनिया को सौंपने की अपील की.
लेकिन असल विवाद 1980 के दशक में शुरू हुआ जब सोवियत संघ का विघटन शुरू हुआ और नागोर्नो-काराबाख की संसद ने आधिकारिक तौर पर खुद को आर्मीनिया का हिस्सा बनाने के लिए वोट किया.
इसके बाद यहां शुरू हुए अलगाववादी आंदोलन को अज़रबैजान ने ख़त्म करने की कोशिश की. हालांकि, इस आंदोलन को लगातार आर्मीनिया का समर्थन मिलता रहा.
नतीजा ये हुआ कि यहां जातीय संघर्ष होने लगे और सोवियत संघ से पूरी तरह आज़ाद होने के बाद एक तरह का युद्ध शुरू हो गया.
यहां हुए संघर्ष के कारण लाखों लोगों को अपना घर छोड़ कर पलायन करना पड़ा. दोनों पक्षों की तरफ़ से जातीय नरसंहार की ख़बरें भी आईं.
साल 1994 में रूस की मध्यस्थता में युद्धविराम की घोषणा से पहले नागोर्नो-काराबाख पर आर्मीनियाई सेना का क़ब्ज़ा हो गया.
इस डील के बाद नागोर्नो-काराबाख अज़रबैजान का हिस्सा तो रहा लेकिन इस इलाक़े पर अलगाववादियों की हूकूमत रही जिन्होंने इसे गणतंत्र घोषित कर दिया. यहां आर्मीनिया के समर्थन वाली सरकार चलने लगी जिसमें आर्मीनियाई जातीय समूह से जुड़े लोग थे.
इस डील के तहत नागोर्नो-काराबाख लाइन ऑफ़ कॉन्टैक्ट भी बना, जो आर्मीनिया और अज़रबैजान के सैनिकों को अलग करता है.
इस इलाक़े में शांति बनाए रखते के लिए 1929 में फ्रांस, रूस और अमरीका की अध्यक्षता में बनी ऑर्गेनाइज़ेशन फ़ॉर सिक्योरिटी एंड कोऑपरेशन इन यूरोप मिंस्क ग्रुप की मध्यस्थता में शांति वार्ता जारी है लेकिन अब तक किसी समझौते तक पहुंचा नहीं जा सका है.
बीते तीन दशक से यहां रह रह कर तनाव गहरा जाता है और झड़पें भी होती हैं.
अज़रबैजान ने कुछ तस्वीरें जारी कर दावा किया है कि उन्होंने आर्मीनियाई टैंकों को ध्वस्त किया है.
भौगोलिक और रणनीतिक तौर पर अहम होने के कारण भी ये विवाद जटिल हो गया है.
अज़रबैजान में बड़ी संख्या में तुर्क मूल के लोग रहते हैं. ऐसे में नैटो के सदस्य देश तुर्की ने साल 1991 में एक स्वतंत्र देश के रूप में अज़रबैजान के अस्तित्व को स्वीकार किया. अज़रबैजान के पूर्व राष्ट्रपति ने तो दोनों देशों के रिश्तों को 'दो देश एक राष्ट्र' तक कह दिया.
आर्मीनिया के साथ तुर्की के कोई आधिकारिक संबंध नहीं हैं. 1993 में जब आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच सीमा विवाद बढ़ा तो अज़रबैजान का समर्थन करते हुए तुर्की ने आर्मीनिया के साथ सटी अपनी सीमा बंद कर दी.
ताज़ा विवाद गहराया तो तुर्की एक बार फिर अपने मित्र के समर्थन में आ गया.
वहीं आर्मीनिया के रूस के साथ गहरे संबंध हैं. यहां रूस का एक सैन्य ठिकाना भी है और दोनों देश सैन्य गुट कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन के सदस्य हैं.
हालांकि, रूस के मौजूदा राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के अज़रबैजान के साथ भी सौहार्दपूर्ण रिश्ते हैं और उन्होंने दोनों देशों से युद्धविराम की अपील की है.
साल 2018 में आर्मीनिया में लंबे वक्त से गद्दी पर रहे शेर्ज़ सार्गिसान के ख़िलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रद्रर्शन हुए. इसके बाद इसी साल हुए निष्पक्ष चुनाव में विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रहे निकोल पाशिन्यान को प्रधानमंत्री चुन लिया गया.
इसके बाद हुई बातचीत में पाशिन्यान और अज़रबैजान के राष्ट्रपति इलहाम अलीव के बीच सीमा पर तनाव कम करने और दोनों देशों के बीच पहली मिलिटरी हॉटलाइन शुरू करने पर सहमति बनी.
साल 2019 में दोनों देशों ने एक बयान जारी कर कहा कि इस इलाक़े में शांति स्थापित करने के लिए दोनों देशों को कारगर कदम उठाने की ज़रूरत है.
हालांकि अब तक ऐसा कुछ होता नज़र नहीं आया है. अब तक यह भी स्पष्ट नहीं है कि ताज़ा तनाव की शुरूआत किसने की है, हालांकि जुलाई के बाद के महीनों से लगातार इस इलाक़े में तनाव अपने चरम पर था.
अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया
तुर्की के राष्ट्रपति के मुख्य सलाहकार इलनूर चेविक ने आर्मीनिया के आरापों का खंडन किया है कि तुर्की इस लड़ाई में सीधे तौर पर शामिल है.
हालांकि उन्होंने कहा कि नागोर्नो-काराबाख में अज़रबैजान जितना संभव हो सके आगे बढ़े और इस इलाक़े से आर्मीनिया तुरंत पीछे हटे.
उन्होंने कहा, "ये बात सभी तो मालूम होनी चाहिए कि तुर्की और अज़रबैजान 'दो देश एक राष्ट्र' की तरह हैं. अच्छा वक्त हो या बुरा हम दोनों साथ हैं. और आज भी हम उन अज़रबैजानी भाइयों के साथ हैं जो अपनी मातृभूमि को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. आर्मीनिया तुरंत हमले बंद करे और विदेश से लाए सैनिकों को इस इलाक़े से पीछे हटाए. अज़रबैजान के जिस इलाक़े पर उसने कब्ज़ा किया है, वो वहां से पीछे हटे."
आर्मीनिया के विदेश मंत्री ज़ोहराब एमनासाकयान ने बीबीसी से कहा कि अज़रबैजान दशकों पुराने विवाद का शांतिपूर्ण हल खोजने से पीछे हट रहा है और अब नागोर्नो-काराबाख के पास अपनी रक्षा खुद करने के सिवा कोई रास्ता नहीं है, और आर्मीनिया के पास भी नागोर्नो-काराबाख का समर्थन करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.
उन्होंने कहा, "हमारी प्राथमिकता है कि हम अज़रबैजान के हमले का जवाब दें और उसे बातचीत के लिए कदम बढ़ाने के लिए कहें."
वहीं संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने आर्मीनिया और अज़रबैजान से लड़ाई जल्द रोकने की अपील की है और कहा है कि मौजूदा हालातों से "वो काफी चिंतित हैं".
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हिंसा रोकने के लिए अपील की है. फ्रांस ने भी दोनों देशों से तुरंत लड़ाई बंद कर बातचीत का रास्ता तलाशने की अपील की है. फ्रांस में बड़ी संख्या में आर्मीनियाई लोग रहते हैं.
ईरान विवाद में फंसे दोनों देशों के साथ अपनी सीमा साझा करता है. उसने कहा है कि दोनों देश बातचीत की मेज़ पर आएं तो वो मध्यस्थता करने के लिए तैयार है.(bbc)
इस समय जलवायु परिवर्तन, तापमान वृद्धि और जैव-विविधता के अभूतपूर्व दर से ह्रास के कारण मानवता संकट में हैI हालांकि सभी देश पर्यावरण सुधारने का लगातार दावा करते रहे हैं, पर सच्चाई यह है कि हर आने वाले दिन में पर्यावरण का विनाश पिछले दिन से अधिक किया जा रहा हैI
- महेन्द्र पांडे
हाल में 30 सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र ने अमेरिका के न्यूयॉर्क में जैवविविधता को बचाने से संबंधित वर्चुअल सत्र का आयोजन किया। अनुमान के मुताबिक दुनिया के 116 देशों के मुखिया या फिर उनके प्रतिनिधि इसमें जुड़ेI इससे पहले 28 सितम्बर को कुल 64 देशों के मुखियाओं और यूरोपीय संघ ने सम्मिलित तौर पर “लीडर्स प्लेज टू नेचर- यूनाइटेड टू रिवर्स बायोडायवर्सिटी लौस बाई 2030 फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट” नामक संकल्प पत्र को जारी कियाI इसमें हस्ताक्षर करने वालों में फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, न्यूजीलैंड, ग्रेट ब्रिटेन, मैक्सिको और इजराइल के साथ ही भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका भी शामिल हैंI
आश्चर्य यह है कि पांच हजार सालों से चली आ रही पर्यावरण संरक्षण की परंपरा की दुहाई और वसुधैव कुटुम्बकम का बार-बार अंतर्राष्ट्रीय मंच से नारा लगाने के बाद भी भारत ने इस संकल्प पत्र पर हस्ताक्षर नहीं कियेI भारत के साथ ही अमेरिका, ब्राजील, चीन, रूस, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश भी इससे बाहर हैं और यही सारे देश पर्यावरण का सबसे अधिक विनाश भी कर रहे हैंI
इस संकल्प पत्र के अनुसार वर्तमान में प्रदूषण, पर्यावरण-अनुकूल आर्थिक विकास, जैव-विविधता को बचाना और जलवायु परिवर्तन को रोकना बहुत आवश्यक हैI ये सभी देश पर्यावरण से जुड़ी हरेक बड़ी-छोटी समस्या को दूर करने के लिए एकजुट होकर काम करेंगे और इस शताब्दी के मध्य तक ऐसी किसी भी गतिविधि को रोक देंगे, जिससे पर्यावरण विनाश की संभावना होI
यह संकल्प पत्र और इससे संबंधित पर्यावरण विनाश को रोकने के लिए किये जाने वाले सार्थक उपाय मानव जाति के लिए मील का पत्थर साबित होंगेI इस समय जलवायु परिवर्तन, तापमान वृद्धि और जैव-विविधता के अभूतपूर्व दर से नष्ट होने के कारण मानवता संकट में हैI हालांकि सभी देश पर्यावरण सुधारने का लगातार दावा करते रहे हैं, पर वास्तविकता यह है कि हरेक आने वाले दिन में पर्यावरण का विनाश पिछले दिन से अधिक किया जा रहा हैI
इन देशों ने संकल्प लिया है कि वनों को कटने से बचाने, प्रजातियों का नाश करने वाले मछली पकड़ने के तरीके, पर्यावरण को नष्ट कर सकने वाली गतिविधियों के लिए सरकारों द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली कृषि जैसी गतिविधियों को पूरी तरह रोकने के साथ ही पर्यावरण अनुकूल अर्थव्यवस्था की शुरुआत वर्ष 2029 तक ही कर ली जाएगीI इन नेताओं के अनुसार जिस तरह जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए पेरिस समझौता है उसी तरह के एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते की जरूरत जैव-विविधता को नष्ट होने से बचाने के लिए भी हैI
विज्ञान स्पष्ट तौर पर पिछले अनेक वर्षों से पर्यावरण के विनाश की सूचना के साथ ही इसके प्रभाव भी उजागर कर रहा है, अब आवश्यक है कि पूरा विश्व समुदाय इन चेतावनियों की तरफ ध्यान देI पर्यावरण बचाकर ही गरीबी और सामाजिक असमानता को दूर किया जा सकता है, इसी से भूख और कुपोषण की समस्या से निपटा जा सकता हैI इस समय हम जिसे विकास समझ रहे हैं, उसकी दिशा ही गलत है, और इसे सही करने के लिए वैश्विक स्तर पर बड़े बदलाव करने पड़ेंगेंI पर्यावरण से संबंधित अपराधों पर भी लगाम लगाने की जरूरत हैI
इस संकल्प पत्र में कुल 10 प्रमुख कार्य-योजना का उल्लेख किया गया है, जिसमें पर्यावरण बचाने से संबंधित सभी प्रमुख आयाम शामिल हैंI इसमें जनजातियों, वनवासियों और स्थानीय समुदाय को भी अधिकार देने और निर्णय लेने वाले दल में शामिल करने की बात की गई हैI कार्य-योजना की शुरुआत ही कोविड19 के कारण पूरी दुनिया की गिरती अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाते समय सतत या पर्यावरण अनुकूल अर्थव्यवस्था के विकास की बात की गई हैI संयुक्त राष्ट्र और पर्यावरण के विशेषज्ञ कोविड 19 के आरंभ से ही दुनिया की सरकारों से ऐसी अर्थव्यवस्था की गुहार कर रहे हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी तंत्र के लगातार विनाश को रोका जा सकेI
हाल में ही विविड इकोनॉमिक्स नामक संस्था ने जी 20 देशों के अर्थव्यवस्था का गहराई से आकलन किया हैI इन देशों में कोरोना संकट के बाद उद्योगों, कृषि और दूसरे सामाजिक सरोकार के नाम पर सरकारों द्वारा जो वित्तीय सहायता प्रदान की गई है, उसका आकलन किया गया है और देखा गया है कि इससे पर्यावरण पहले से अधिक बिगड़ेगा या फिर पर्यावरण पर अच्छा प्रभाव पड़ेगाI जी 20 समूह में भारत, तुर्की, सऊदी अरब, चीन, रूस, अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, मेक्सिको, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, इटली, स्पेन, दक्षिण कोरिया, जर्मनी, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस शामिल हैंI इस आकलन में जी 20 देशों के साथ ही यूरोपियन यूनियन का भी आकलन किया गया हैI
ग्रीननेस ऑफ स्टिम्युलस इंडेक्स नामक रिपोर्ट के अनुसार बहुत कम ऐसे देश हैं, जहां कोविड19 से अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए स्वीकृत सरकारी बेलआउट पैकेज से पर्यावरण को नुकसान कम और लाभ ज्यादा होI ऐसे देशों में ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस के साथ यूरोपियन यूनियन भी शामिल हैI यूरोपियन यूनियन ने अपने सदस्य देशों को 750 अरब यूरो का बैलआउट पैकेज दिया, जिसमें से 37 प्रतिशत राशि सीधे पर्यावरण संरक्षण से संबंधित परियोजनाओं के लिए हैI शेष राशि के साथ भी पर्यावरण संरक्षण से संबंधित अनेक शर्तें हैं, जिनका सख्ती से पालन अनिवार्य हैI
यूनाइटेड किंगडम यानी ब्रिटेन में 3 अरब पौंड की राशि सीधे तौर पर ऊर्जा की दक्षता बढाने के लिए स्वीकृत की गई हैI इन यूरोपीय देशों के अतिरिक्त दक्षिण कोरिया में जो राहत राशि दी गई है, उससे भी पर्यावरण संरक्षण की उम्मीद बंधती हैI दक्षिण कोरिया में कुल राहत राशि का 15 प्रतिशत, यानि 52 अरब डॉलर सीधे पर्यावरण संरक्षण के लिए दिए गए हैंI
पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में सबसे बुरी हालत अमेरिका की हैI वहां कुल 3 खरब डॉलर की सहायता राशि दी गई है, जिसमें से महज 39 अरब डॉलर की राशि से पर्यावरण को कुछ राहत मिलने की उम्मीद है। शेष राशि से पर्यावरण के तेजी से विनाश की संभावना हैI दूसरी तरफ अमेरिका में कोविड 19 के नाम पर पर्यावरण संरक्षण से संबंधित अनेक कानूनों को फिलहाल हटा लिया गया है, या फिर इनमें रियायत दी गई हैI
न्यू क्लाइमेट इंस्टिट्यूट के निदेशक निकलस होहने के अनुसार अमेरिका, ब्राजील, भारत, मैक्सिको, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, रूस और सऊदी अरब में सरकारों द्वारा स्वीकृत सहायता राशि से पर्यावरण का पहले से भी अधिक विनाश होना तय है, क्योंकि यह पूरी राशि प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जीवाश्म इंधनों के उपयोग या फिर पर्यावरण बिगाड़ने वाली कृषि को बढ़ावा देती है, और भारत समेत अनेक देशों में कोरोना की आड़ में पहले से ही लचर पर्यावरण कानूनों को अब लगभग निष्क्रिय कर दिया गया हैI
भारत के बारे में रिपोर्ट में बताया गया है कि पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में कोरोना संकट के पहले भी स्थिति खराब थी, पर अब सरकारी सहायता के बाद कोयला और दूसरे जीवाश्म इंधनों का उपयोग पहले से भी अधिक हो जाएगाI जाहिर है भारत समेत अनेक दूसरे बड़े देश पर्यावरण सरक्षण के सन्दर्भ में अन्तरराष्ट्रीय मंचों से लच्छेदार भाषण के अतिरिक्त कुछ नहीं करतेI यहां के पारिस्थितिकी तंत्र में स्थानीय लोगों की कोई भूमिका नहीं होती, बल्कि स्थानीय लोगों को धमकाकर विस्थापित कर दिया जाता है और फिर जैव-सम्पदा का स्वामित्व बड़े उद्योगपतियों को दे दिया जाता हैI इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि पर्यावरण बचाने के संकल्प पत्र पर भारत ने हस्ताक्षर नहीं किये हैंI(navjivan)
पुष्यमित्र
भोला मिस्त्री की उम्र लगभग 60 साल है। वो कुष्ठ रोगी हैं और बिहार की राजधानी पटना के दानापुर स्टेशन से सटी रामनगर कुष्ठ कॉलोनी में रहते हैं। जब हम भोला मिस्त्री के घर पहुंचे तो उनके घर के दरवाजे के बाहर कुछ पुरानी पूरियां सूख रही थीं।
‘आजकल भीख में भी अच्छी चीजें कहां मिलती हैं। जब से कोरोना फैला है, लोग बासी चीजें ही खाने के लिए देते हैं। पिछले दिनों एक आदमी ने किसी त्योहार में बची हुई ये पूरियां दे दीं। पहले हम लोग ऐसा खाना लेते नहीं थे, कोई जबरदस्ती दे भी देता था, तो फेंक देते थे। अब इसको सुखा रहे हैं कि किसी तरह खाने लायक हो जाएं,’ भोला मिस्त्री ने इंडियास्पेंड से कहा।
भोला जैसे 70 कुष्ठ रोगी इस मौहल्ले में अपने परिवारों के साथ रेलवे की पटरियों के किनारे बनी झुग्गी-झोपडिय़ों में रहते हैं। ये लोग मांग कर अपना और अपने परिवार का गुजारा करते हैं। मगर जब से कोरोनावायरस महामारी की शुरुआत हुई है इनके लिए अपना और अपने परिवारों का पेट पालना मुश्किल हो गया है। राष्ट्रीय कुष्ठ निवारण कार्यक्रम के अनुसार, बिहार के अलग-अलग 22 जिलों में इसी तरह बसी 63 कॉलोनियों में 1500 से अधिक कुष्ठ रोगी रहते हैं।
31 मार्च 2018 तक बिहार में कुष्ठ रोगियों की संख्या 14,338 थी, जो एक साल बाद, 31 मार्च 2019 तक 20 फीसदी बढक़र 17,154 हो गई।
कोरोनावायरस से न केवल इनके सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया बल्कि इन्हें चिकित्सा सुविधा भी मिलनी बंद हो गई। इनमें से कई परिवार ऐसे हैं जिन्हें बायोमेट्रिक पहचान साबित न हो पाने की वजह से सामान्य परिवारों को मिलने वाला राशन भी नहीं मिल पा रहा है। इस साल की शुरुआत में राज्य सरकार ने कुष्ठ रोगियों को दी जाने वाली सामाजिक सुरक्षा पेंशन को 1,500 रुपए से बढ़ाकर 3,000 रुपए महीना करने की घोषणा की थी मगर ये बढ़ोत्तरी भी अभी तक लागू नहीं हो पाई है।
कोरोनावायरस और लॉकडाउन ने मुहाल की जिंदगी
कुष्ठ कालोनियों में रहने वाले कुष्ठ रोगियों और उनके परिवारों की आजीविका भीख मांगने पर निर्भर है। सरकार की तरफ से इन्हें सामाजिक सुरक्षा के लिए विकलांग पेंशन दिए जाने की व्यवस्था है मगर वो इतनी कम है कि उससे इनका गुजारा नहीं हो पाता है।
बिहार सरकार कुष्ठ की वजह से विकलांग हुए लोगों को बिहार शताब्दी कुष्ठ कल्याण योजना के अंतर्गत हर महीने 1,500 रुपए की पेंशन दी जाती है। इसी साल जनवरी में राज्य सरकार ने इसे 3,000 रुपए महीना करने का ऐलान किया था मगर अभी तक ये बढ़ोत्तरी लागू नहीं हो पाई है। 1,500 रुपए महीना की पेंशन फिलहाल 10 हजार लोगों को दी जा रही है जबकि 31 मार्च 2019 तक राज्य में 17,154 कुष्ठ रोगी थे।
‘हर साल राज्य में औसतन 15 हजार नए कुष्ठ रोगी मिलते हैं। इनमें बच्चों की संख्या लगभग 11त्न होती है। इनमें से सात से आठ फीसदी रोगी हर साल विकलांग हो जाते हैं,’ लेप्रा सोसाइटी के समन्वयक रजनीकांत सिंह ने बताया।
कोरोनावायरस की शुरुआत के बाद से ही इन्होंने मांगने के लिए बाहर जाना बंद कर दिया। इनकी कॉलोनियों में आकर जो लोग मदद करते थे वो भी मिलनी बंद हो गई। जिससे इनके सामने परिवार का पेट पालने की समस्या खड़ी हो गई है।
कुष्ठ रोगियों को नियमित रूप से बैंडेज की ज़रूरत होती है। कोरोनावायरस के दौर में ये भी मिलनी लगभग बंद ही हो गई हैं। कुष्ठ रोगियों के लिए काम करने वाली संस्था, लेप्रा सोसाइटी की तरफ से इन्हें हर छह महीने में माइक्रो सेल्युलर रबड़ की चप्पलें मिलती थीं, वह भी इस अवधि में नहीं मिली हैं।
बिहार में कुष्ठ रोगियों की मदद के लिए काम करने वाली संस्था समुत्थान के सचिव ब्रजकिशोर कहते हैं, ‘राज्य की सभी कुष्ठ कॉलोनियों में रोगियों के सामने खाने-पीने और इलाज की दिक्कतें पैदा हो गई हैं। कुष्ठ रोग की वजह से इनके संक्रमित होने का ख़तरा भी अधिक रहता है।’
ब्रजकिशोर खुद भी कुष्ठ रोगी रहे हैं। उन्होंने इस रोग से निजात पाने के बाद पारा मेडिकल की ट्रेनिंग ली, कई संस्थाओं के साथ काम किया और 2009 में समुत्थान नाम की संस्था का गठन किया, जो आज पूरे बिहार में कुष्ठ रोगियों के लिए काम कर रही है।
रामनगर कुष्ठ कॉलोनी में ही हमें मालती मसोमात नामक महिला मिलीं, जिनकी उम्र लगभह 60 है। मालती की एक बेटी (30 साल) भी उनके साथ रहती हैं, जो गंभीर मनोरोगी हैं। मालती खुद कुष्ठ रोग की वजह से कमज़ोर हो चुकी हैं। इन दोनों मां-बेटियों का जीवन अब तक भीख मांगकर चलता था, मगर अब वह बंद है। न मालती का इलाज हो रहा है, न उनकी बेटी का। रोज के खानपान के लिए दोनों अब पड़ोसियों पर निर्भर हैं।
इस कॉलोनी में हमें कई ऐसे कुष्ठ रोगी भी मिले जिन्हें राशन नहीं मिल पा रहा है। भोला मिस्त्री भी उन लोगों में से हैं। राशन न मिलने की वजह थी बायोमेट्रिक पहचान साबित न हो पाना। दरअसल कुष्ठ रोग की वजह से इनकी ऊंगलियां खराब हो गई हैं, ये अब राशन डीलर के घर पीओएस मशीन पर उंगलियों की निशानदेही नहीं कर सकते। राशन डीलरों के पास आंख की पुतलियों के ज़रिए आधार वेरिफिकेशन की सुविधा नहीं है। ऐसे में जिन पीडि़तों के परिवार में कोई ऐसा सदस्य है जो स्वस्थ है, और उसकी उंगलियां निशानदेही के लायक हैं, सिर्फ उन्हें ही राशन मिल रहा है।
‘अंगुलियों के निशान पर राशन मिलने की अनिवार्यता में भी इन कुष्ठ रोगियों को छूट मिलनी चाहिए थी। इन्हें जो सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिलती है, उसमें भी बढ़ोतरी की जरूरत है,’ ब्रजकिशोर ने कहा।
कोरोनावायरस संक्रमण के डर से इन कुष्ठ रोगियों ने खुद ही मांगने के लिए जाना बंद कर दिया था। लॉकडाउन के दौरान तो स्थिति और बुरी हो गई। ये पूरी तरह उन लोगों पर निर्भर हो गए जो इनकी कॉलोनी में आकर खाना देकर जाते थे।
बेघर होने का खतरा
इसी कॉलोनी में पिछले साल ऐसे 18 कुष्ठ रोगी बसे हैं, जो प्रेम नगर मोहल्ले में रेलवे पटरियों के किनारे रहते थे। 22 अगस्त, 2019 को रेलवे ने अतिक्रमण हटाओ अभियान के तहत इनके घर बहुत शार्ट नोटिस पर तोड़ दिए थे। उसके बाद ये राम नगर कुष्ठ कालोनी के पास बन रहे ओवर ब्रिज के नीचे आकर बस गए और पिछले एक साल यहीं रह रहे हैं। यहां हमारी मुलाकात सोना लाल राम और उनकी पत्नी पार्वती देवी से हुई।
‘हमें सोचने का भी मौका नहीं मिला। बस चेतावनी दी गयी और हटा दिया गया। कहां जाएं, कैसे रहें, कुछ नहीं बताया गया,’ सोना लाल ने बताया।
‘रेलवे की योजना तो हमारी कालोनी को भी उजाडऩे की थी, मगर समय रहते पटना हाई कोर्ट में दायर याचिका की वजह से इस मौहल्ले को हटाने पर रोक लग गई। नहीं तो इस महामारी के दौरान हमें बेघर होना पड़ता,’ रामनगर कुष्ठ कॉलोनी के प्रधान रमेश प्रसाद ने बताया।
बिहार राज्य में कई दशक पहले बसी इन कुष्ठ कॉलोनियों की कहानी बताते हुए ब्रजकिशोर कहते हैं कि पहले कुष्ठ रोग को लेकर लोगों के मन में घृणा का भाव रहता था। वे इन रोगियों को समाज से बाहर कर देते थे। ऐसे में रोगी किसी एक जगह बसने लगते थे। इसी तरह पूरे बिहार में कई कुष्ठ कालोनियां बस गईं। हाल के दिनों में माहौल कुछ बदला है, जिस वजह से अब कई कुष्ठ पीडि़त अपने परिवार के साथ ही रहते हैं। इलाज भी अब आसान हुआ है। पहले पूरी जिंदगी इलाज चलता था, अब लोग छह महीने से एक साल की अवधि तक नियमित इलाज कराने से ठीक हो जाते हैं। मगर जो लोग इसका शिकार होकर विकलांग हो गए, उनकी जिंदगी मुश्किल भरी होती है। इन कॉलोनियों में ज्यादातर ऐसे ही लोग रहते हैं।
ठीक से लागू नहीं हो रहा कुष्ठ निवारण कार्यक्रम
बिहार में 1996 से लेकर अब तक 1,694,000 कुष्ठ रोगियों की पहचान हो चुकी है जिनका इलाज किया गया है । 31 मार्च 2020 तक एक्टिव मामलों की संख्या राज्य में 1,832 थी। ऐसे कुष्ठ रोगी जिन पर आश्रित उनके परिवार के सदस्य कुष्ठ बस्तियों में रहते हैं उनकी संख्या 1,474 है, राष्ट्रीय कुष्ठ निवारण कार्यक्रम के बिहार राज्य कार्यक्रम के पदाधिकारी, डॉ. विजय पांडेय ने बताया।
31 मार्च 2018 तक देश में कुष्ठ रोगियों की संख्या 90,709 थी जिसमे सबसे ज़्यादा, 14,338 कुष्ठ रोगी बिहार में थे, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार। उसके बाद उत्तर प्रदेश में 12,583 और महाराष्ट्र में 9,836 कुष्ठ रोगी थे। इसके एक साल बाद 31 मार्च 2019 तक देश में कुल कुष्ठ रोगियों की संख्या बढक़र 120,334 हो गई और बिहार में ये संख्या बढक़र 17,154 हो गई। यानी एक साल में बिहार में कुष्ठ रोगियों की संख्या में 20 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है।
इन कुष्ठ रोगियों और पीडि़तों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम लागू किया गया था। बिहार में इस कार्यक्रम के तहत कई काम होने थे। मगर इन कॉलोनियों की हालत देखकर ऐसा लगता नहीं है कि कुछ काम हुआ है।
‘राष्ट्रीय कुष्ठ निवारण कार्यक्रम का मकसद न सिर्फ इन रोगियों का इलाज करना है, बल्कि इस रोग की वजह से जो लोग विकलांग हो जाते हैं उनकी सहायता करना भी है,’ रजनीकांत सिंह ने कहा।
इस कार्यक्रम के तहत यह तय किया गया था कि हर जिले में प्रशासन का एक कर्मी तैनात किया जाएगा, जो ऐसी कुष्ठ कॉलोनियों के संपर्क में रहेगा और इन कुष्ठ रोगियों और उनके परिवार की देख-रेख के लिए जिम्मेदार होगा। वह उनकी चिकित्सा और दूसरी ज़रूरतों का समाधान करने की कोशिश करेगा।
‘राज्य के 22 जि़लों में स्थित 63 कुष्ठ कालोनियों में अधिकारी नियमित रूप से जाते हैं, हेल्थ कैंप लगाते हैं और लोगों के बीच बैंडेज का वितरण करते हैं,’ डॉ. विजय पांडेय ने कहा।
‘ऐसा कोई कर्मचारी आज तक न हमारे मौहल्ले में आया है, न ही हम लोगों से किसी ने संपर्क किया है,’ रामनगर कालोनी के प्रधान रमेश प्रसाद ने बताया।
इन्हें सरकार की तरफ से सेल्फ केयर किट और माइक्रो सेल्युलर चप्पलें नियमित रूप से दी जानी थी। मगर ये योजनाएं सभी कॉलोनियों के लिए नियमित रूप से लागू नहीं हो पाईं। जिन कॉलोनियों में लेप्रा मिशन और ऐसी दूसरी संस्थाओं ने काम करना शुरू किया, वहां रोगियों को ये सुविधाएं मिलती रहीं। हालांकि कोरोनावायरस के बाद से ये भी बंद हैं।
लेप्रा सोसाइटी के स्टेट कॉर्डिनेटर रजनीकांत सिंह कहते हैं कि कोरोना की वजह से वह काम बाधित जरूर बाधित हुआ है, मगर बंद नहीं हुआ है। डॉ विजय पांडेय कहते हैं कि जिला लेप्रेसी कार्यालय में ये सामग्रियां उपलब्ध रहती हैं, मगर कुष्ठ रोगी वहां इन्हें लेने पहुंचते ही नहीं।
‘राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन योजना का ठीक से लागू नहीं हो पाना और इस योजना में लगातार कटौती होना ही इन कुष्ठ रोगियों की बदहाली की मुख्य वजह है। 2011 में ही बिहार सरकार ने इन्हें अंत्योदय योजना से जोडऩे का फैसला किया था, जो आज भी लागू नहीं हो पाया है,’ ब्रजकिशोर कहते हैं।
‘यह देखने की जरूरत है कि पीडि़त लोग किस तरह का रोजगार कर सकते हैं। क्योंकि विकलांगता और समाज द्वारा बहिष्कार किए जाने की वजह से वे हर तरह का रोजगार नहीं कर सकते। हां, उन्हें बकरी पालन और मुर्गी पालन जैसे रोजगार से जोड़ा जा सकता है,’ रजनीकांत सिंह ने कहा। (indiaspendhindi.com)
(पुष्यमित्र, पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101 रिपोर्टसडॉटकॉम के सदस्य हैं।)
विवेक मिश्रा
1970 के राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशों को पांच दशक बीत चुके हैं और किसान अब भी अपने उत्पादों के उचित और लाभकारी मूल्यों से दूर है। 2018 में किसानों का आय डबल करने का सुझाव देने वाली दलवई समिति की रिपोर्ट के मुताबिक देश का 40 फीसदी सरप्लस अनाज पैदा करने वाले 85 फीसदी छोटे और सीमांत किसान अपनी उपज का लागत नहीं निकाल पाते हैं। अनाज और फल मंडियों से किसानों की दूरी, परिवहन व्यवस्था का अभाव और बिचौलियों के भंवर में फंसे किसान अपने गांव की दहलीज पर लगने वाले दुनिया के सबसे लोकतांत्रिक साप्ताहिक बाजारों का लाभ नहीं उठा सके हैं।
सरकार ने वित्त वर्ष 2018-19 में कुल 22 हजार ग्रामीण हाट में से 4600 हाट बाजारों को विकसित करने व ई-नाम जैसे प्लेटफॉर्म से जोडऩे का ऐलान किया था लेकिन सरकार के दावे के मुताबिक 4600 में से अभी तक महज एक फीसदी ग्रामीण बाजार पर ही काम हो पाया है। जबकि कुल 22 हजार ग्रामीण हाट में उसकी विशेषता, उपयोगिता और जरूरत को ध्यान में रखने वाली प्रश्नावली के साथ महज 11 हजार ग्रामीण हाट का ही सर्वे किया जा सका है।
17 वीं लोकसभा (2019-2020) कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सरकार की ओर से 6 लाख गांवों में महज 4600 ग्रामीण हाट को विकसित करने की योजना बेहद कम है। कम से कम एक पंचायत में एक साप्ताहिक ग्रामीण हाट विकसित होना चाहिए। मंडी के बजाए साप्ताहिक ग्रामीण हाट किसानों के लिए बेहतर वैकल्पिक माध्यम बन सकते हैं। इसलिए इन ग्रामीण हाट बाजारों में भंडारण, शौचालय और अन्य सुविधाएं भी की जानी चाहिए।
सरकार ने 17 वीं लोकसभा की केंद्रीय कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति को अपने जवाब में बताया है कि डीएमआई सभी राज्यों में सर्वे कर रहा है। ग्रामीण हाट की संरचना, सुविधाओं और व्यवस्थाओं की जमीनी जानकारी जुटाई जा रही है। अब तक 11,000 ग्रामीण हाट की पहचान की गई है। इसके परिणाम केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय को दिए जा रहे हैं ताकि वह एजीएनआरईजीएस के तहत ग्रामीण हाट की आधारभूत संरचना को विकसित करने के लिए मदद करे। इसके अलावा सर्वे का इस्तेमाल एग्री मार्केट इंफ्रास्ट्रक्चर फंड (एएमआईएफ) विकसित करने के लिए भी किया जा रहा है। इसकी मंजूरी मिलते ही इसे बांटा जाएगा। साथ ही एक करोड़ रुपये डीएमआई को सर्वे के लिए दिए गए हैं।
केंद्र सरकार ने 2018-19 के बजट में 22000 ग्रामीण कृषि मंडी (ग्राम्स) और 585 कृषि उपज मंडी समितियों (एपीएमसी) में कृषि विपणन अवसंरचना के विकास और उन्नयन के लिए 2000 करोड़ रुपये के कार्पस के साथ कृषि-मंडी अवसरंचना कोष की स्थापना करने की घोषणा की थी। साथ ही कहा था कि चरणबद्ध तरीके से वर्षवार 22000 ग्राम्य हाटों को उन्नत कृषि मंडी के तौर पर विकसित किया जाएगा, ताकि किसानों की आय को दोगुना करने में मदद मिलेगी। हालांकि दो वर्षों बीत चुके हैं और अब तक सिर्फ 476 कृषि मंडियों को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून योजना के तहत अपग्रेड करने का दावा किया गया है
नाबार्ड के वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर डाउन टू अर्थ को बताया कि ग्रामीण हाट को अपग्रेड करने के साथ ही कृषि मंडी को फॉर्मर्स प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन (एफपीओ) और ऑनलाइन ई-नाम से जोडऩे की कवायद को लेकर गाइडलाइन बनाने पर काम चल रहा है। यदि सरकार कोई नीतिगत बदलाव नहीं लेती है तो यह प्रयास किए जाएंगे। क्योंकि राज्य और केंद्र के बीच अभी कई पेचीदगी हैं। इसलिए अभी तक कोई नीतिगत फैसला नहीं लिया जा सका है।
राज्य प्रस्ताव के जरिए मांगेगे तो केंद्र देगा फंड
सरकार ने ग्रामीण कृषि मंडियों और कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) बाजारों में कृषि विपणन बुनियादी ढांचे के विकास और उन्नयन के लिए राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के साथ 2000 करोड़ रुपये के कार्पस राशि से कृषि-मंडी अवसंरचना कोष (एएमआईएफ) को मंजूरी दी है और राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों (यूटी) को योजना के दिशानिर्देशों को परिचालित किया है। हालांकि यह राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों की ओर से एक मांग संचालित योजना है, इसलिए निधि का कोई राज्यवार और वर्षवार आबंटन नहीं होता है। भारत सरकार ने राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों से एएमआईएफ के तहत सहायता प्राप्त करने के लिए प्रस्ताव देने को कहा है।
केंद्रीय कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति ने ‘कृषि बाजार की भूमिका और साप्ताहिक ग्रामीण हाट’ की सिफारिश व कार्रवाई की हालिया रिपोर्ट में अपनी सिफारिश में कहा था कि समिति चाहती है कि केंद्र राज्य सरकारों से बातचीत करके ग्रामीण हाट को एपीएमसी एक्ट के दायरे से बाहर रखे। स्थायी समिति ने इस बात पर हैरानी भी जताई थी कि ग्रामीण हाटों के निंयत्रण, प्रबंधन और सुविधाओं आदि के बारे में कोई केंद्रीय और राज्य स्तरीय एजेंसी सूचना या जानकारी नहीं रखती हैं।
वहीं, बाद में राज्यों की ओर से केंद्रीय कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति को बताया गया था कि 22941 एग्रीकल्चर मार्केट हैं जो कि एपीएमसी, पंचायती राज व अन्य एजेंसियों के अधीन हैं। वहीं, इस सूचना को एग्रीकल्चर, को-ऑपरेशन एंड फार्मर्स वेलफेयर की प्रशासनिक ईकाई डॉयरेक्टोरेट ऑफ मार्केटिंग इन्सपेक्शन (डीएमआई) ने आधा-अधूरा बताते हुए कहा था कि ग्रामीण हाट का जमीनी सर्वे जारी है। हालांकि हाट को लेकर पहले नियमित सूचनाओं को जुटाने में ध्यान नहीं रखा गया।
हाट दुनिया के सबसे लोकतांत्रिक बाजार
देश के छह लाख गांवों में छोटे उत्पादक हाट बाजारों में एक वर्ष में 25 लाख बार अपनी दुकाने लगाते हैं। हाट स्थानीय पारिस्थितिकी पर टिकती है और सीजनल उत्पादों की खरीद-फरोख्त होती है। हाट को चलाने के लिए कोई संस्थागत तंत्र नहीं है सिर्फ खरीदने और बेचने वाले वहां जुटते हैं। सबसे मुफीद बात यह है कि यह सबसे छोटे उत्पादकों के लिए भी है। यदि किचन गार्डेन में भी सब्जियां उगाई हैं और उसे कोई बेचना चाहता है तो वह गांवों के इन हाट बाजारों में बेच सकता है। निजीकरण अपने चरम पर है, गांव के बाजार भी अब इससे अछूते नहीं है। लोग राशन की दुकानों की जगह तय कर रहे हैं लेकिन हाट बहुउद्देशीय मकसद वाली खरीदारी का अनुभव देता है और सफलतापूर्वक निजीकरण के खतरे से लड़ता है। यह एक ऐसी अवधारणा पर बसा बाजार है जो अवसरों में काफी एकसमान है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र से यह खुदरा लोकतंत्र काफी आगे है। यह दुर्भाग्यपूर्ण हैे कि हाट को उतना महत्व नहीं मिला जो सरकार और नीतियों का ध्यान खींच सके। यदि ऐसा होता है तो छोटे और सीमांत किसानों को भी ग्रामीण हाट नया भविष्य दिखा पाएंगे। (डाऊन टू अर्थ)
राजीव का प्लेन हाईजैक करने की योजना पाकिस्तान को बहुत महंगी पड़ी थी।
-डॉ. परिवेश मिश्रा
30 जनवरी 1971 की सुबह इंडियन एयरलाइंस के वीटी-ईबीजे फॉकर-फ्रेंडशिप विमान ‘गंगा’ ने जब श्रीनगर से उड़ान भरी तो उसमें 28 यात्री सवार थे। जम्मू में विमान लैन्ड करने ही वाला था कि पीछे की सीटों से दो युवक आजाद कश्मीर के नारे लगाते दौड़ते हुए सामने की ओर आए। पिस्तौल लहराता एक युवक कॉकपिट में घुसा और दूसरा हैन्ड-ग्रेनेड लेकर यात्रियों के सामने खड़ा हो गया।
भारत के इतिहास में पहले विमान अपहरण की कहानी शुरू हो गई थी।
आम याददाश्त में कश्मीर में अलगाववाद ने सन् 1989 में सिर उठाया था। सच यह है आईएसआई के साथ चले शह और मात के खेल में यदि 1971 मेें भारतीय ‘रॉ’ (रिसर्च एन्ड एनालिसिस विंग) निर्णायकबाजी न जीतता तो यह शुरुआत तभी 1971 में ही हो चुकी होती। ‘रॉ’ की इस जीत के पीछे मजबूत हाथ था तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का।
पाकिस्तान ने पायलट राजीव गांधी के द्वारा उड़ाये जा रहे विमान को हाईजैक करने की योजना बनाई गई थी। इस षडय़ंत्र की जानकारी मिलते ही इंदिरा गांधी ने इस संभावित आपदा को अवसर में बदलकर भारत के हित में इस्तेमाल करने का फैसला किया। इंदिरा गांधी के इस साहसिक कदम का एक असर यह हुआ कि उनके जीते जी पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद को हवा न दे पाया। पाकिस्तान को सफलता तब मिली जब 1989 में तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद (बाद में मुख्यमंत्री बनीं महबूबा मुफ्ती की बहन) को श्रीनगर में अगवा किया गया और उसे छुड़ाने की कीमत के रूप में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने खूंखार आतंकवादियों को रिहा करना स्वीकार कर लिया।
लेकिन यहां थोड़ी क्रोनोलॉजी समझना जरूरी है।
1966 तक आतंकवाद और प्लेन-हाईजैकिंग, ये दो शब्द प्रचलन में नहीं आये थे। शुरुआत तब हुई जब अमानुल्ला खां और मकबूल बट्ट नामक दो कश्मीरियों के रूप में पाकिस्तान को सहयोगी मिले। अपने साथ और सदस्य जोडऩे के उद्देश्य से बट्ट ने एक साथी के साथ सीमा पार कर भारत में घुसने की कोशिश की लेकिन पुलिस से आमना-सामना हो गया। गोलाबारी में एक भारतीय सब-इंस्पेक्टर मारा गया। बट्ट पर इंस्पेक्टर की हत्या का मुकदमा चला और उसे फांसी की सजा हुई। लेकिन फांसी हो पाती उससे पहले ही वह श्रीनगर जेल में सुरंग खोद कर भाग निकला और पाकिस्तान पहुंच गया। (आगे चलकर वह दोबारा गिरफ्तार हुआ और 11 फरवरी 1984 को दिल्ली के तिहाड़ जेल में फांसी पर लटकाया गया था, लेकिन वह अलग कहानी है)
भागने की यह घटना 8 दिसम्बर 1968 की है। उसी वर्ष तीन और घटनाएं हुई थीं जिनका संबंध इस कहानी से है।
25 जनवरी को राजीव गांधी ने कमर्शियल पायलट के रूप में लाइसेंस प्राप्त कर नियमित उड़ान प्रारंभ कर दी थीं। और दूसरी, 21 सितम्बर को खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ की स्थापना हुई थी। (इससे पहले तक इंटेलिजेंस ब्यूरो की ही एक शाखा भारत से बाहर के खुफिया मामलों को देखती थी) ‘रॉ’ का नियंत्रण प्रधानमंत्री ने अपने हाथों में रखा था। इन्हीं दिनों मकबूल बट्ट की अनुपस्थिति में आईएसआई ने ‘अल-फतह’ नामक एक बैनर के नीचे कम उम्र के लडक़ों को आतंकवाद की ट्रेनिंग दे कर भारत में ठेलना प्रारंभ कर दिया था।
भारतीय खुफिया एजेंसियों की मदद से पुलिस ने अल-फतह के 36 लडक़ों को कश्मीर में पकड़ लिया। अल-फतह चूंकि नया संगठन था इसलिए इसके बारे में और जानकारी प्राप्त करना जरूरी था। ‘रॉ’ ने इसके लिये जिस एजेंट को चुना उसका नाम था मोहम्मद हाशिम कुरैशी।
हाशिम उन दिनों अनौपचारिक रूप से बीएसएफ के साथ संबद्ध था। उसकी भूमिका डबल-एजेंट की थी-अर्थात मूल रूप से ‘रॉ’ का जासूस जो आईएसआई की ओर से जासूस बनने के लिए जा रहा था। बीएसएफ ने सियालकोट बॉर्डर पर उसका पाकिस्तान प्रवेश करवा दिया। पाकिस्तान में हाशिम मकबूल बट्ट का विश्वास जीतने में सफल हो गया।
जुलाई 1970 में भारत लौटकर हाशिम ने जो सूचनाएं दीं वे ‘रॉ’ के होश उड़ाने वाली थीं। भारत में राजीव गांधी इंडियन एयरलाइंस में पायलट के रूप में नौकरी शुरू कर चुके थे और उन दिनों फॉकर फ्रेंडशिप विमान उड़ाते थे। हाशिम ने बताया कि आईएसएफ ने चकलाला के एयर-बेस में पायलट जावेद मंटू के हाथों फॉकर फ्रेंडशिप विमान के अंदर ले जा कर अपहरण के संबंध में आवश्यक ट्रेनिंग दिलाई थी। राजीव गांधी के साथ विमान को हाईजैक कर पाकिस्तान लाने के लिए उसे भारत वापस भेजा गया था।
उन दिनों बी.एस.एफ के मुखिया थे के.एफ. रुस्तमजी और ‘रॉ’ के रामेश्वर नाथ काव। दोनों इंदिरा गाँधी के विश्वास पात्र थे और दोनों में भरपूर तालमेल था। हाशिम से प्राप्त जानकारियां इंदिरा गाँधी को दी गईं।
उन दिनों श्रीमती गांधी की पैनी नजर पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे घटनाक्रम पर भी थी। 2 नवंबर 1970 के दिन पूर्वी पाकिस्तान को सायक्लोन ‘भोला’ से बहुत बड़ी मात्रा में जान-माल की हानि हुई थी। किन्तु पश्चिमी पाकिस्तान का बे-परवाह रवैया बंगालियों का दिल तोड़ गया था। अगले महीने चुनाव हुए जिसमें आवामी लीग की एकतरफा जीत के साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान का और साथ रहना मुश्किल है। पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिम से भेजे जाने वाले सैनिकों की संख्या में अचानक बहुत बढ़ोत्तरी हो रही थी। पाकिस्तान के विभाजन की संभावना प्रबल होने लगी थी। भारत के लिए जरूरी हो गया था कि कूटनीति की बिसात पर भविष्य में चली जाने वाली चालों के बारे में सोचना शुरू कर दे।
इंदिरा गाँधी ने इस अवसर को भारत के हित में भुनाने का फैसला किया। पाकिस्तान को उसी की चाल से मात देने की योजना बनी।
कारीगरों से लकड़ी की एक असल सी दिखने वाली पिस्तौल और एक हैन्ड-ग्रेनेड बनवा कर, पॉलिश और पेन्ट कर, हाशिम कुरैशी को दिया गया। सत्रह वर्षीय हाशिम ने साथी के रूप में अपने हमउम्र चचेरे भाई अशरफ कुरैशी को तैयार कर लिया। अशरफ श्रीनगर मेडिकल कॉलेज में फस्र्ट इयर का छात्र था। इंडियन एयरलाइंस का एक पुराना विमान ‘गंगा’ जिसे कुछ ही समय पहले सेवा से हटाया गया था, उसे वापस लाया गया। एयरपोर्ट में सुरक्षा जांच का रिवाज़ तब तक शुरू नहीं हुआ था, सो प्लेन के अंदर पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई।
अपहृत विमान जब लाहौर में उतरा तो वहां उत्सव का माहौल बनते देर न लगी। विमान अपहरण का कोई तजुर्बा दोनों देशों को नहीं था। अपहरण में विमान से अधिक कीमती उसकी सवारी होती हैं यह ज्ञान तब तक सब के पास नहीं पंहुचा था। सवारियों को विमान से उतारा गया और खूब खातिरदारी की गई। विमान को देखकर आईएसआई की खुशी का ठिकाना न था। विमान की सवारियों को पहले एक पांच सितारा होटल में ठहराया गया और फिर अगले दिन बस में बैठाकर हुसैनीवाला चेकपोस्ट पर भारत के हवाले कर दिया गया। सीमा पार करने से पहले पाकिस्तान रेंजर्स ने उन्हें बाकायदा फौजी सम्मान देते हुए बिदा किया।
इधर आईएसआई ने लाहौर एयरपोर्ट पर पेशावर से बुलाकर मकबूल बट्ट की भेंट अपहरणकर्ताओं से कराई। भारत में बंद अल-फतह के 36 बंदियों की रिहाई की मांग की गई जिसे भारत ने ठुकरा दिया। संयोग से उस समय लाहौर पहुंचे जुल्फिकार भुट्टो (तब विदेशमंत्री थे) ने अपहरणकर्ताओं को साथ लेकर एक प्रेस कांफ्रेंस भी कर ली। योजना के अनुसार पाकिस्तानियों ने खाली खड़े विमान में आग लगा दी। अनेक लोगों ने धू-धू कर जलते विमान की पृष्ठभूमि में फोटो खिंचवाई। पटाखे फूटे। माहौल कुछ ऐसा बना मानो पाकिस्तान ने भारत से टेस्ट सिरीज जीत ली हो।
लेकिन पाकिस्तान का उत्सव एक दिन से अधिक नहीं खिंच पाया। 2 फरवरी को जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री जी.एम. सादिक ने श्रीनगर में कह दिया कि ‘गंगा’ की हाईजैकिंग भारत ने ही की थी। अगले दिन शेख अब्दुल्ला ने दिल्ली में ‘रॉ’ की प्रशंसा में इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिख दिया।
4 फरवरी 1971 को भारत ने अपना तुरूप का वो पत्ता बाहर निकाला जो पहले से तैयार था, बस अवसर तैयार किया जा रहा था। भारत ने अपनी भूमि के ऊपर से पाकिस्तानी विमानों की उड़ान पर रोक लगा दी। पाकिस्तान के लिए पूर्वी पाकिस्तान की दूरी तीन गुना बढ़ गई। उसके पास बहुत कम विमान ऐसे थे जो रास्ते में पेट्रोल लिए बिना पूरी दूरी तय कर पाते। पाकिस्तान ने श्रीलंका में ईंधन भरना शुरू किया। श्रीमती गांधी ने श्रीलंका पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर यह सुविधा भी बंद करवा दी। सैनिक और सामान, दोनों को पूर्वी हिस्से तक पहुंचाने का काम लगभग थम सा गया। भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के इस कदम का दूरगामी असर दुनिया को साल के अंत में नजर आया जब पाकिस्तान टूटा, सप्लाय के अभाव में नब्बे हजार फंसे सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा और बांग्लादेश अस्तित्व में आया।
विमान हाईजैकिंग का एक फायदा और हुआ। कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों के पीछे आईएसआई के हाथ को दुनिया के सामने पहली बार एक्सपोज करने में भारत सफल हुआ। लाहौर एयरपोर्ट पर इंडियन एयरलाइंस के धू-धू कर जलते विमान और हाशिम के साथ भुट्टो की तस्वीरों को दुनिया भर में देखा गया था।
विमान अपहरण की हकीकत सामने आने पर पाकिस्तानी सरकार और आईएसआई की भारी बेइज्जती हुई। भारतीय ‘रॉ’ ने उसे बड़ी शिकस्त दी थी। आईएसआई को कुछ सूझा नहीं तो उसने दोनों अपहरणकर्ताओं के साथ मकबूल बट्ट और उसके साथियों को जेल में डाल दिया। लेकिन कुछ दिनों में जब ‘रॉ’ का खेल समझ में आया तो सिर्फ हाशिम कुरैशी को 19 वर्षों के कारावास की सजा देकर बाकी सब को छोड़ दिया।
सजा पूरी कर बाहर आने पर ‘रॉ’ ने अपने वायदे के अनुसार हाशिम कुरैशी को ऑस्ट्रिया में बसने और नया जीवन शुरू करने में सहायता की। (अंतरराष्ट्रीय दबाव में हाशिम को 9 वर्षो के बाद 1980 में रिहा कर दिया गया। अटल बिहारी वाजपेयी के समय उन्हें वापस लाया गया। अब वे कश्मीर में रहते हैं)
(लेखक का पता-गिरिविलास पैलेस, सारंगढ़, छ.ग.)
घनी आबादी वाले डेल्टा, जहां नदियां समुद्र से मिलती हैं, विशेष रूप से गर्म-मौसम के कारण भयानक बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं
लगभग पिछले 7 हजार वर्षों से हम नदी के तटों (डेल्टा) के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं। ज्यादातर सभ्यताएं नदी के तटों के आसपास विकसित हुई, क्योंकि नदी और समुद्र की उपजाऊ मिट्टी, प्रचुर मात्रा में खाद्य पदार्थों को अर्जित करने में सहायक है। साथ ही, नदी अथवा समुद्र के माध्यम से आसान परिवहन ने शहरी अर्थव्यवस्था और जीवन शैली को बढ़ावा दिया, लेकिन यह परिस्थिति आज बहुत बदल गई है।
शोधकर्ताओं ने कहा है कि नदी के निचले इलाकों में रहने वाले 30 करोड़ से अधिक लोग उष्णकटिबंधीय तूफान के कारण आने वाली बाढ़ की चपेट में आएंगे। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ये तूफान और अधिक घातक और विनाशकारी हो सकते हैं। इस तरह की बाढ़ का सामना ज्यादातर गरीब देश करेंगे।
बाढ़ के मैदानों में रहने वाले लोगों का जीवन सदी में आने वाले चक्रवातों की वजह से बुरी तरह प्रभावित होता हैं। इन चक्रवातों से हवाओं की गति 350 किलोमीटर (200 मील) प्रति घंटे और हर दिन एक मीटर (40 इंच) से अधिक बारिश हो सकती है। यह रिपोर्ट नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुई है।
गर्म महासागरों और वायुमंडल में अधिक नमी का मतलब है कि ये शक्तिशाली तूफान अधिक लगातार आ सकते हैं। ऐसे तूफान आएंगे कि शायद ही कभी अतीत में क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने उनकी भयानक शक्ति को देखा हो।
घनी आबादी वाले डेल्टा, जहां नदियां समुद्र से मिलती हैं, विशेष रूप से गर्म-मौसम के कारण भयानक बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। इस तरह के शक्तिशाली तूफान गर्मियों में दुनिया भर के प्रमुख महासागरों में आते हैं और फिर टकरा जाते हैं।
समुद्र के जल स्तर में वृद्धि के लिए इंसान हैं जिम्मेवार
ऐसे में, नीति निर्माताओं को न केवल बढ़ते तापमान को धीमा करने के तरीकों के बारे में पता लगाना चाहिए, बल्कि पहले से ही जलवायु प्रभावों के लिए तैयार रहना चाहिए। हालांकि अब तक दुनिया के चक्रवातों से नदी के तटों (डेल्टा) में रहने वाली आबादी कितनी और किस तरह प्रभावित होगी, इसका सटीक रूप से पता नहीं था, जिससे इनसे निपटने के लिए आगे की योजना बनाना मुश्किल हो गया।
इंडियाना विश्वविद्यालय के एक भू-विज्ञानी डगलस एडमंड्स ने कहा, हम जिस बड़े सवाल का जवाब ढूढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, वह यह है कि लोग नदी के तट (डेल्टा) पर किस तरह रहते हैं और तट की बाढ़ उन्हें किस तरह प्रभावित करती है।
यह पता लगाने के लिए एडमंड्स और उनके सहयोगियों ने दुनिया भर के 2174 तटों (डेल्टा) के बारे में पता लगाया। और हिसाब लगाया कि 39.9 करोड़ लोग तटों की सीमाओं के अंदर रहते हैं। उनमें से 1 करोड़ लोग विकासशील और कम विकसित देशों के हैं।
तीन-चौथाई से अधिक लोग केवल 10 नदी घाटियों में निवास करते हैं, जिनमें गंगा-ब्रह्मपुत्र शामिल हैं। 10.5 करोड़ लोग गंगा-ब्रह्मपुत्र और 4.5 करोड़ लोग नील नदी के डेल्टा में रहते हैं। डेल्टा शोधकर्ताओं ने पता लगाया कि पृथ्वी के द्रव्यमान का केवल 0.5 प्रतिशत भूमि पर कब्जा है, लेकिन यह ग्रह में रहने वाले लोगों की आबादी का लगभग पांच प्रतिशत का घर हैं।
एडमंड ने कहा कि हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि 100 साल के उष्णकटिबंधीय चक्रवात बाढ़ के मैदानों में रहने वाले लोगों की बड़ी संख्या वाले अधिकांश तटों (डेल्टा) का तलछट (सेडीमेंट) समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया है। उन्होंने कहा कि यह बढ़ते समुद्र स्तर और बड़े तूफानों के कारण हो रहा है, जो बहुत बुरी खबर है।
जब समुद्र का स्तर बढ़ जाता है, तो डेल्टा का आकार सिकुड़ने या तलछट से खाली जगह भर जाती है। लेकिन अधिकांश गाद और तलछट जो कभी कृषि भूमि को समृद्ध करते थे और समुद्र के ज्वार की वृद्धि के खिलाफ प्राकृतिक तौर पर सुरक्षा करते थे, अब लगभग सभी प्रमुख नदी प्रणालियों में बांधों के निर्माण से यह सब अवरुद्ध हो गया है।
एडमंड ने कहा इसका मतलब है कि तलछट के जमा होने से प्राकृतिक तरीके से समस्या का समाधान संभव नहीं है, यह देखते हुए कि समाधान के लिए अक्सर अन्य सामग्री द्वारा जगह को भर दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार जकार्ता का एक तिहाई हिस्सा, 3 करोड़ लोगों के घर सन 2050 तक डूब सकते हैं। एडमंड ने कहा कि तटीय बाढ़ से निपटने के लिए इस मामले में एकमात्र विकल्प जटिल इंजीनियरिंग उपाय है। (downtoearth.org.in)
हाल ही में छपे एक नए शोध से पता चला है कि देश में जो गरीब तबका पीडीएस से बाहर है उस वर्ग के बच्चों में कुपोषण की दर सबसे ज्यादा है.
किसी देश का भविष्य कैसा होगा, यह उसके बच्चों के भविष्य पर निर्भर होता है। लेकिन जब विकास का आधार ही कुपोषित हो तो सोचिये वह देश के भविष्य में कितना योगदान देगा। क्या होगा, जब देश के लगभग 58 फीसदी नौनिहालों (6 से 23 माह के बच्चों) को पूरा आहार ही न मिलता हो और जब 79 फीसदी के भोजन में विविधता की कमी हो। कैसे पूरे होंगे, उनके सपने जब लगभग 94 फीसदी के भोजन में विकास के लिए जरुरी पोषक तत्व ही न हो। यह दुखद और चिंताजनक आंकड़ें भारत सरकार द्वारा किये गए राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (2016 - 18) में सामने आये थे।
वहीं पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, आईसीएमआर और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रेशन की ओर से 18 सितंबर 2019 को कुपोषण पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में देश में कम वजन वाले बच्चों के जन्म की दर 21.4 फीसदी थी। जबकि जिन बच्चों का विकास नहीं हो रहा है, उनकी संख्या 39.3 फीसदी, जल्दी थक जाने वाले बच्चों की संख्या 15.7 फीसदी, कम वजनी बच्चों की संख्या 32.7 फीसदी, अनीमिया पीड़ित बच्चों की संख्या 59.7 फीसदी, 15 से 49 साल की अनीमिया पीड़ित महिलाओं की संख्या 59.7 फीसदी और अधिक वजनी बच्चों की संख्या 11.5 फीसदी पाई गई थी।
पांच साल की उम्र से छोटे हर तीन में से दो बच्चों की मौत का कारण है कुपोषण
हालांकि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के कुल मामलों में 1990 के मुकाबले 2017 में कमी आई है। 1990 में यह दर 2336 प्रति एक लाख थी, जो 2017 में 801 पर पहुंच गई है, लेकिन कुपोषण से होने वाली मौतों के मामले में मामूली सा अंतर आया है। 1990 में यह दर 70.4 फीसदी थी जोकि 2017 में 2.2 फीसदी घटकर, 68.2 पर ही पहुंच पाई है। यह चिंता का एक बड़ा विषय है, क्योंकि इससे पता चलता है कि पिछले सालों में किए जा रहे अनगिनत प्रयासों के बावजूद देश में कुपोषण का खतरा कम नहीं हुआ है।
लाखों बच्चों को मजदूर बना देगा कोरोनावायरस
इससे निपटने के लिए समय-समय पर अनगिनत सरकारी योजनाएं चलाई गई हैं। जिससे इस बीमारी को समाज से दूर किया जा सके। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) ऐसी ही एक पहल थी, जिसका लक्ष्य देश के गरीब तबके को सस्ती दर पर भोजन मुहैया कराना था। देश में पीडीएस सबसे बड़ी कल्याणकारी योजना है, जो गरीब परिवारों को रियायती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराती है।
जर्नल बीएमसी में छपे इस शोध में यह जानने का प्रयास किया गया है सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) गरीब तबके के बच्चों में स्टंटिंग और कुपोषण की समस्या को हल करने में कितनी कामयाब हुई है। शोध से पता चला है कि देश में जो गरीब तबका पीडीएस से बाहर है उस वर्ग के बच्चों में कुपोषण की दर सबसे ज्यादा है। यह शोध राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण -4 (एनएफएचएस -4) के आंकड़ों पर आधारित है।
जिसमें गरीबी, कुपोषण और पीडीएस के बीच के सम्बन्ध को समझने के लिए सभी परिवारों को चार वर्गों में बांटा गया है। पहला वह वर्ग है जिसे वास्तविक गरीब कहा गया है जो आर्थिक रूप से गरीब है और जिनके पास बीपीएल कार्ड है। दूसरा वह वर्ग है जो गरीब तो है पर उसके पास बीपीएल कार्ड नहीं है। तीसरा वह वर्ग है जो आर्थिक रूप से समृद्ध है इसके बावजूद उसके पास बीपीएल कार्ड है। चौथा वह वर्ग है जो न तो गरीब है न ही उसके पास योजनाओं का लाभ उठाने के लिए बीपीएल कार्ड है।
शोध से प्राप्त नतीजों के अनुसार वह वर्ग जो वास्तविकता में गरीब है और जिसके पास बीपीएल कार्ड भी है उसके और दूसरा वर्ग जो गरीब है पर उसके पास बीपीएल कार्ड नहीं है उस वर्ग के करीब आधे बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। वहीं दूसरी ओर जो वर्ग आर्थिक रूप से समृद्ध है और जिसके पास बीपीएल कार्ड है उसके करीब 40 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। जबकि आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग जिसके पास कार्ड नहीं है उसके करीब एक तिहाई से कम बच्चे कुपोषण का शिकार हैं।
यही वजह है कि इस शोध में जो वर्ग आज भी पीडीएस योजना का लाभ नहीं उठा पा रहा है उसे भी इसमें शामिल किए जाने की सिफारिश की गई है। साथ ही भारत में कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिए पीडीएस में शामिल खाद्यान्नों की गुणवत्ता में सुधार करने की भी बात कही गई है। वहीं मिलने वाले राशन की मात्रा को भी बढ़ाने की मांग की गई है। जिससे जितना जल्द हो सके इस देश को कुपोषण मुक्त किया जा सके। (downtoearth.org.in)
गांधी, 21वीं सदी का पर्यावरणविद -4: प्राकृतिक संसाधनों का समझदारी भरा उपयोग चाहते थे गांधी
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर डाउन टू अर्थ द्वारा श्रृखंला प्रकाशित की जा रही है। इस कड़ी में प्रस्तुत है प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पर गांधी का दृष्टिकोण
- John S Moolakkattu
दुनिया भर में पर्यावरणीय आंदोलन चल रहे हैं। ये आंदोलन बड़े पैमाने पर औद्योगिक उद्यमों और पूंजीवादी समाज के मूल्यों की आलोचना करने में लगे हुए हैं। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, दुनिया भर में जागरुकता भी बढ़ रही है। लोग अब यह महसूस करने लगे हैं कि जलवायु परिवर्तन का ज्यादातर दुष्प्रभाव ग्लोबल साउथ (एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, कैरेबियाई, आदि देशों के निम्न-मध्य आय वर्ग वाले लोग) में रहने वाले गरीबों पर पड़ेगा। पर्यावरणीय आंदोलनों का सीधा संबंध गांधी या गांधीवाद से नहीं है। हालांकि, इस आंदोलन में जिन तरीकों को अपनाया जाता है और जो बहस होती है, उसमें अक्सर गांधीवादी तत्व शामिल होते हैं। एक उदाहरण मैक्सिको का जापातिस्ता विद्रोह है। ये विद्रोह सरकारी बलों के साथ हुए हिंसक टकराव के बाद, नागरिक प्रतिरोध का प्रतीक बन गया। समाज को संगठित करने का इसका वैकल्पिक मॉडल स्वायत्तता, भागीदारी और सरकारी कार्यालय को सत्ता स्रोत के मुकाबले सेवा प्रदाता के रूप में देखने के सिद्धांतों पर आधारित है। जाहिर है, ये सिद्धांत गांधीवादी विचार से प्रेरित हैं।
भारत में अधिकांश पर्यावरणीय आंदोलन विकास के उन प्रतिमानों के जवाब में उभरकर सामने आए, जिसे देश ने आजादी के बाद अपनाया था। ये सभी आंदोलन आजीविका, भूमि, जल और पारिस्थितिक सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर केंद्रित हैं। इन आंदोलनों को लेकर उल्लेखनीय बात यह है कि इनमें से कई ने गांधीवादी तरीके अपनाए हैं। जैसे, सविनय अवज्ञा, तटीय रेत में खुद को दफना लेना, जल सत्याग्रह, लंबी पैदल यात्रा, भूख हड़ताल, राजनीतिक और सामुदायिक नेताओं की भागीदारी, अधिकारियों के पास आवेदन भेजना, वैज्ञानिकों और सरकारी अधिकारियों के साथ बातचीत और सर्वसम्मति बनाने के लिए ऑल पार्टी बैठकों का आयोजन। इस तरह के आंदोलनों के कई नेता सामाजिक परिवर्तन पर गांधी और उनके दृष्टिकोण से प्रेरित थे। पर्यावरणीय आंदोलन अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लोगों की प्रतिक्रिया के रूप में उभर कर सामने आए। लोग मिट्टी, पानी और वन जैसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए आगे आए। आर्थिक वैश्वीकरण के बाद, जिसमें कॉरपोरेट्स द्वारा अत्यधिक खनन कार्य किया जा रहा है, ऐसे आंदोलनों की तीव्रता बढ़ी। पश्चिम में शहरी मध्य वर्ग पर्यावरण आंदोलनों का नेतृत्व करता है। लेकिन भारत में ऐसे आंदोलन में शामिल लोग गरीब होते हैं और उनकी लड़ाई अस्तित्व और आजीविका के मुद्दों पर केंद्रित होती है। हालांकि, इस तरह के आंदोलनों के समर्थन में प्राय: समाज के सभी वर्ग के लोग भी आगे आते हैं।
गांधी को अक्सर एक पर्यावरणविद माना जाता रहा है, हालांकि उन्होंने कभी भी पारिस्थितिकी और पर्यावरण जैसे शब्दों का उपयोग नहीं किया। ब्रिटिश काल में भी जंगल सत्याग्रह आम थे। हालांकि, हमारे पास ऐसे सबूत नहीं हैं, जिससे यह बताया जा सके कि क्या गांधी वाकई ऐसे आंदोलनों को लेकर चिंतित थे? पारिस्थितिकी विज्ञानी अर्ने नेस ने अपने पारिस्थितिकी सिद्धांतों को विकसित करने से पहले गांधी का अध्ययन किया था। गांधी ने कभी भी विकास शब्द का इस्तेमाल नहीं किया और उनके जीवन दृष्टिकोण में कार्बन पदचिह्न का स्थान बहुत ही कम था। उपभोक्तावाद के बजाय बुनियादी जरूरतों को सर्वोच्चता मिली, जो कइयों की नजर में प्रगति का प्रतीक है। यह एक गैर-भौतिकवादी और गैर-शोषक विश्वदृष्टि पर आधारित है, जो मनुष्य और प्रकृति के बीच परस्पर आश्रित संबंध को दर्शाती है। गांधी का स्वदेशी विचार भी प्रकृति के खिलाफ आक्रामक हुए बिना, स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों के उपयोग का सुझाव देता है। उन्होंने आधुनिक सभ्यता, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की निंदा की। गांधी ने कृषि और कुटीर उद्योगों पर आधारित एक ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था का आह्वान किया। भारत के लिए गांधी की दृष्टि प्राकृतिक संसाधनों के समझदारी भरे उपयोग पर आधारित है, न कि प्रकृति, जंगलों, नदियों की सुंदरता के विनाश पर। उनका प्रसिद्ध कथन “पृथ्वी के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन हर किसी के लालच को नहीं” दुनिया भर के पर्यावरणीय आंदोलनों के लिए एक उपयोगी नारा है। पर्यावरण से संबंधित गांधीवादी विचारों को उनके शिष्य जेसी कुमारप्पा के काम में और अधिक गहराई से देखा जा सकता है।
पर्यावरणीय आंदोलनों के रूप में हमने चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन और साइलेंट वैली आंदोलन देखा है। चिपको आंदोलन को विशेष रूप से अपने गांधीवादी जुड़ाव के लिए जाना जाता है। गांधी से अधिक, गांधी की शिष्या मीरा बहन और सरला बहन ने चिपको आंदोलन के नेताओं को प्रभावित किया था। इसी तरह, गांधीवादी विचार, उपयुक्त तकनीक और राजनीतिक-आर्थिक शक्ति का समान इस्तेमाल नर्मदा अभियान में देखा गया। जहां चिपको आंदोलन में स्थानीय समुदाय, महिलाएं और स्थानीय कार्यकर्ता शामिल थे, वहीं नर्मदा बचाओ आंदोलन का नेतृत्व मुख्य रूप से स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों की मदद से आदिवासी लोग कर रहे थे। बाबा आमटे और मेधा पाटकर जैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेताओं ने साफ कहा है कि उन्हें मुख्य रूप से गांधी से प्रेरणा मिली है।
साइलेंट वैली बांध का विरोध उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों की सुरक्षा, पारिस्थितिक संतुलन और विनाशकारी विकास के विरोध जैसे विषयों पर आधारित था। इस आंदोलन का अहिंसक चरित्र भी उल्लेखनीय था। वंदना शिवा गांधीवादी पर्यावरणवाद के सबसे प्रमुख पैरोकारों में से एक हैं। उन्होंने एक भौतिक विज्ञानी और एक पर्यावरणविद (ईको-फेमिनिस्ट) के रूप में स्थिरता, आत्मनिर्णय, महिलाओं के अधिकारों और पर्यावरण न्याय के लिए काम किया है। उन्होंने जैव विविधता और बीज संप्रभुता की रक्षा के लिए नवधान्या नाम से एक नव-गांधीवादी पर्यावरण आंदोलन शुरू किया है। उन्होंने बीज सत्याग्रह की अवधारणा को गांधीवादी सत्याग्रह के नए रूप में लोकप्रिय बनाया है।
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कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र के खिलाफ हुए आंदोलन ने भी अहिंसक दृष्टिकोण को अपनाया। एसपी उदयकुमार इस आंदोलन के नेता थे। वह मशहूर परमाणु-विरोधी कार्यकर्ता और शांति शोधकर्ता हैं। चिल्का में हुए प्रदर्शन में प्रदर्शनकारी झील के स्वामित्व, आजीविका के खात्मे, कॉर्पोरेट द्वारा संसाधनों के व्यावसयिक उपयोग को लेकर सवाल उठा रहे थे। इस आंदोलन में बड़ी संख्या में मछुआरों की भी भागीदारी देखी गई थी। राष्ट्रीय मिसाइल परीक्षण रेंज (नेशनल मिसाइल टेस्टिंग रेंज) के खिलाफ बालीपाल आंदोलन में भी प्रतिरोध के लिए अहिंसक रास्ता अपनाया गया था। लोगों ने सरकार के साथ असहयोग करने का फैसला किया। ग्रामीणों ने सरकार को कर और ऋण देने से इनकार कर दिया और कला को विरोध की अभिव्यक्ति के रूप में इस्तेमाल किया। उन्होंने देश की राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित उस निर्णय प्रक्रिया को चुनौती दी, जो स्थानीय विनाश की कीमत पर राष्ट्रीय सुरक्षा हितों को प्राथमिकता देती है। प्लाचीमाडा आंदोलन में भी गांधीवादियों ने अन्य वैचारिक धाराओं के लोगों के साथ काम किया। सभी जगह एक बात आम थी और वो यह कि स्थानीय संसाधनों के उपयोग को लेकर जनता के पास आत्मनिर्णय का अधिकार हो और इस मामले में पंचायती राज संस्थानों की भूमिका महत्वपूर्ण व सर्वोपरि हो।
अंत में कहा जा सकता है कि देश के पर्यावरणीय आंदोलनों में एक गांधीवादी विचार समाहित है। जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ता गया, ये विचार उसमें समाहित होता चला गया। हालांकि, इस तरह के आंदोलनों को मूलत: जनसंघर्ष से ही प्रेरणा मिलती रही है। अस्तित्व और आजीविका की रक्षा के लिए होने वाले जनसंघर्ष ने ही आंदोलनों को बनाया, बढ़ाया है। दूसरा, कई आंदोलनों के नेताओं ने गांधी और उनके तरीकों को अपनाने की बात स्वीकारी है। तीसरी बात, आंदोलनों के लिए विदेशी फंडिंग की बजाय खुद के संसाधनों पर उनकी निर्भरता भी गांधीवादी दृष्टिकोण को दर्शाती है। चौथा, आंदोलन के दौरान होने वाली अर्थव्यवस्था और राजनीति से संबंधित बहस का चरित्र भी गांधीवादी था।
हम कह सकते हैं कि स्थानीय संप्रभुता और आजीविका संरक्षण, वैकल्पिक विकास, स्वदेशी ज्ञान को मान्यता, पंचायती राज संस्थाओं के लिए महत्वपूर्ण भूमिका के साथ विकेंद्रीकरण और आत्मनिर्भरता जैसी अवधारणाओं के निर्माण के लिए अक्सर पर्यावरणीय आंदोलनों में वामपंथ और गांधीवादी विचारों का मिश्रण समाहित होता है। पर्यावरण संकट की भयावहता को देखते हुए, भारत और दुनिया भर में यह स्वीकार किया जाने लगा है कि केवल राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में आमूलचूल परिवर्तन से ही हम इस मुद्दे का हल निकाल सकेंगे। ये मूल्यों में बदलाव को न्यायसंगत बनाता है। आज अत्यधिक उपभोग के बजाय, गुणवत्तापूर्ण जीवन पर केंद्रित एक उत्तर-भौतिकवादी समाज की तलाश है, जो गांधीवादी विचार से प्रेरित है। कुछ हद तक यह हिंदू पारिस्थितिक दृष्टि भी दर्शाता है। इन सभी आंदोलनों में प्रभावित गरीबों की स्वयं संगठित होने की क्षमता पर भी जोर दिया गया था।
(लेखक सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ केरल के डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशन में प्रोफेसर हैं। वह गांधी शांति प्रतिष्ठान से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका “गांधी मार्ग” के संपादक भी हैं)(downtoearth)
गांधी, 21वीं सदी का पर्यावरणविद -3: पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर गांधी दर्शन
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर डाउन टू अर्थ द्वारा श्रृखंला प्रकाशित की जा रही है। इस कड़ी में प्रस्तुत है पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर गांधी दर्शन पर विशेष लेख
- Sasikala AS
भारत के हालिया बौद्धिक इतिहास में संभवत: गांधी ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी बातों का सबसे गलत अर्थ निकाला गया है और उन्हें गलत समझा गया। वह एक ही समय पर परिवर्तनवादी और रूढ़ीवादी दोनों थे जिन्होंने स्वतंत्रता और त्याग पर गहराई से चिंतन किया और लिखा। वह एक भविष्यवक्ता थे जिनका इस बात को लेकर दृष्टिकोण स्पष्ट था कि त्याग के जरिए आजादी किस तरह हासिल की जाएगी। इसी के साथ वह एक रणनीतिज्ञ भी थे जिनमें अहिंसा और सत्याग्रह की शक्ति से पूरे िवश्व को झकझोर देने की क्षमता थी। पिछले कुछ दशकों के दौरान शिक्षा जगत, खासतौर पर पर्यावरण और सतत विकास से संबंधित क्षेत्रों में हमें पारिस्थितिकी से जुड़ी समस्याओं का समाधान करने के लिए गांधीवादी सिद्धांतों के संबंध में गंभीर अध्ययन देखने को मिलते हैं।
20वीं सदी की शुरुआत दुनियाभर में पर्यावरण को लेकर जागरुकता से हुई थी। प्रत्येक आंदोलन के अलग राजनीतिक विचार और सक्रियता थी, तथापि इन सभी आंदोलनों को आपस में जोड़ने वाली कड़ी अहिंसा और सत्याग्रह की गांधीवादी विचारधारा थी। रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकार भारतीय पर्यावरण आंदोलनों पर तीन अलग-अलग विचारधाराओं का प्रभाव देखते हैं अर्थात आंदोलनकारी गांधीवादी, पर्यावरणविद मार्क्सवादी और वैकल्पिक प्रौद्योगिकीविद। इन आंदोलनों ने प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल की गांधीवादी विरासत को आगे बढ़ाया है।
जैसा कि हम जानते हैं, पर्यावरण सुरक्षा गांधीवादी कार्यक्रमों का प्रत्यक्ष एजेंडा नहीं था। लेकिन उनके अधिकांश विचारों को सीधे तौर पर पर्यावरण संरक्षण से जोड़ा जा सकता है। हरित क्रांति, गहन पर्यावरण आंदोलन आदि ने गांधीवादी विचारधारा के प्रति कृतज्ञता स्वीकार की। आश्रम संकल्प (जिन्हें गांधीजी के ग्यारह संकल्पों के रूप में जाना जाता है) ही वे सिद्धांत हैं जिन्होंने गांधी की पर्यावरण संबंधी विचारधारा की नींव रखी थी। ये ग्यारह सिद्धांत हैं, सच्चाई (जिसे गांधी ने ईश्वर के बराबर माना), अहिंसा (पूरे ब्रह्मांड पर लागू है), संग्रह का निषेध (जिससे निजी संपत्ति और पारिस्थितिकी के नुकसान में भी कमी आ सकती है), चोरी न करना (किसी भी संसाधन का अधिक इस्तेमाल दूसरों से चोरी के समान है), परिश्रम करना (शारीरिक परिश्रम और इसकी सुंदरता), ब्रह्मचर्य (सनातन सत्य ब्रह्म की ओर अग्रसर होना), निर्भय होना, स्वाद पर नियंत्रण (शाकाहारी बनना और इसका महत्व), छुआछूत को मिटाना, स्वदेशी (आर्थिक और पारिस्थितिकीय स्वावलंबन) और सर्वधर्म समभाव (धार्मिक सहिष्णुता)। अहिंसा, चोरी न करना, संग्रह का निषेध, परिश्रम करना, स्वाद पर नियंत्रण और स्वदेशी जैसे सिद्धांतों का पर्यावरण को बचाने में व्यापक इस्तेमाल किया जा सकता है।
गांधीवादी पर्यावरणशास्त्र का दूसरा पहलू उनके रचनात्मक कार्यक्रम हैं। गांधी ने इन कार्यक्रमों को किसी भी सामाजिक कार्य का आधार माना है। उन्होंने बेहतर भारत के निर्माण के लिए अट्ठारह रचनात्मक कार्यक्रमों की परिकल्पना की और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए इनका पालन करना अनिवार्य बनाया। चाहे परिस्थितियां कठिन ही क्यों न हों। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक और आर्थिक समानता, सामाजिक कुरीतियां समाप्त करना, महिलाओं का कल्याण, सभी के लिए शिक्षा के अवसर और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना था। बाद में गांधी की आध्यात्मिक विरासत को आगे ले जाने वाले विनोबा भावे ने गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों में तीन और कार्यक्रम जोड़ दिए। विनोबा भावे द्वारा शामिल किए गए तीन सिद्धांतों में से एक सिद्धांत मशहूर “मवेशी संरक्षण” आंदोलन है, लेकिन गांधी ने अपने लेखों में यह स्पष्ट किया है कि “यह गाय बचाने के लिए मुस्लिम को मारना धार्मिक व्यवहार के विपरीत है।” गाय बचाने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के बीच होने वाली लड़ाई को देखने के बाद उन्होंने यह भी कहा कि “हमें यह शपथ लेनी चाहिए कि गाय को बचाते समय हम मुसलमानों के प्रति द्वेष नहीं रखेंगे और उनसे नाराज नहीं होंगे।” यदि हम आजादी के बाद इन रचनात्मक कार्यक्रमों पर उचित ध्यान देते तो भारत की आर्थिक और पारिस्थितिकीय स्थिति अलग होती।
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हरित गांधीवादी के नाम से विख्यात जेसी कुमारप्पा वह व्यक्ति हैं जिन्होंने गांधी के आर्थिक विचारों को गांधीवादी अर्थशास्त्र का रूप दिया। जहां एक ओर परंपरागत अर्थशास्त्र बड़े पैमाने पर उत्पादन और लाभ अधिकतम करने पर जोर देता है, वहीं दूसरी ओर गांधीवादी अर्थशास्त्र छोटे पैमाने पर उत्पादन और पर्यावरण को बनाए रखने पर बल देता है। जहां परंपरागत अर्थशास्त्र पूंजी गहन है, वहीं गांधीवादी अर्थशास्त्र श्रम गहन है। कुमारप्पा ने गांधी के अर्थव्यवस्था संबंधी विचारों को मातृ अर्थव्यवस्था या सेवा अर्थव्यवस्था के समान माना है क्योंकि यह सभी के लिए आर्थिक समानता को बढ़ावा देते हैं।
21वीं सदी का ध्यान सतत विकास पर है। सतत विकास का अर्थ भावी पीढ़ियों की क्षमताओं को नुकसान पहुंचाए बिना वर्तमान पीढ़ी का विकास करना है। यद्यपि गांधी सतत विकास की अवधारणा से अपरिचित थे, तथापि उनके रचनात्मक कार्यक्रम प्रकृति और प्राकृतिक वातावरण को नुकसान पहुंचाए बिना ऐसे विकास का प्रथम खाका खींचते हैं। सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की परिकल्पना के बाद गांधी गरीबी, असमानता और अन्याय से मुक्त समाज का सपना देते हैं। गांधी इसे सर्वोदय समाज कहते हैं जहां गरीब से गरीब आदमी का विकास सुनिश्चित हो सके। सर्वोदय की अवधारणा उन्होंने जॉन रस्किन से ली थी जिसके जरिए गांधी ने समाज को वर्ग, जाति और लैंगिक विभाजनों से मुक्त करने की कोशिश की। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में मशहूर फीनिक्स बस्ती में इस अवधारणा का प्रयोग किया और उनके सभी आश्रम इसकी व्यवहारिक प्रयोगशाला थे। दुर्भाग्यवश सर्वोदय के उद्देश्य अर्थात व्यक्तिगत स्वतंत्रता, स्वावलंबन, धार्मिक सौहार्द, आर्थिक समानता और परिश्रम का सम्मान लोकतंत्र में अब भी सपना है।
यद्यपि परंपरागत धार्मिक विचारों का पुनर्निर्माण आधुनिक समाज की प्रमुख विशेषता है तथापि धार्मिक संघर्ष वर्तमान विश्व के लिए कोई नई चीज नहीं है। हाल के अध्ययन दर्शाते हैं कि धार्मिक दृष्टि से असहिष्णु देशों की सूची में भारत का चौथा स्थान है। सभी धर्मों के सकारात्मक तत्वों को समझना और धार्मिक सीखों का सम्मिलन आज के समय की जरूरत है। गांधी के आश्रम संकल्प सर्वधर्म समभाव सभी धर्मों की समानता को बढ़ावा देते हैं। गांधी ने समझाया कि आत्मा तो एक ही है लेकिन वह कई शरीरों में चेतना का संचार करती है। हम शरीर कम नहीं कर सकते, फिर भी आत्मा की एकता को स्वीकार करते हैं। पेड़ का भी एक ही तना होता है लेकिन उसकी कई सारी शाखाएं और पत्तियां होती हैं, इसी तरह एक ही धर्म सत्य है लेकिन जैसे-जैसे वह मनुष्य रूपी माध्यम से गुजरता है, उसके कई रूप हो जाते हैं।
विश्व शांति सतत विकास के अहम घटकों में एक है। पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए शांति का होना अनिवार्य है और आमतौर पर इसे “युद्ध से मुक्ति और न्याय की उपस्थिति” के रूप में परिभाषित किया जाता है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया एक और परमाणु विस्फोट और विनाश से डरी हुई है। यदि ऐसा होता है तो पूरी मानवता का खात्मा हो सकता है। गहन पारिस्थितिकी के जनक अर्ने नेस एक ऐसी असैन्य सुरक्षा व्यवस्था का विचार प्रस्तुत करते हैं जो केवल अंतरराष्ट्रीय सहयोग से ही संभव है। उनके अनुसार, प्रतिस्पर्धी और अनुचित विश्व में हम तब तक असैन्य सुरक्षा व्यवस्था के बारे में नहीं सोच सकते जब तक हम लोगों को युद्ध और सैन्य अभियानों के दुष्प्रभावों के बारे में शिक्षित नहीं करते। नेस असैन्य सुरक्षा की प्रभावी तकनीकों के रूप में अहिंसात्मक विरोध के गांधीवादी सिद्धांत का सुझाव देते हैं। संक्षेप में कहें तो गांधी के पर्यावरणीय और आर्थिक सिद्धांतों को एक वाक्य में परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह उनकी अपनी सामान्य जीवनशैली से शुरू होता है और उन सिद्धांतों से होकर गुजरता है जो उन्होंने अपने जीवन में अपनाए। यह रचनात्मक कार्यक्रमों और सर्वोदय विचारधारा पर आधारित नए विश्व के उनके दृष्टिकोण से शुरू होकर असैन्य, अहिंसात्मक सुरक्षा पर खत्म होता है जो आज की जरूरत है।
(लेखक विशाखापट्टनम स्थित गीतम विश्वविद्यालय के गांधी अध्ययन केंद्र में सहायक प्रोफेसर हैं)(downtoearth)
गांधी, 21वीं सदी का पर्यावरणविद -2 : प्राकृतिक स्वराज के मायने
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर डाउन टू अर्थ की ओर से एक श्रृखंला प्रकाशित की जा रही है। इस कड़ी में प्रस्तुत है गांधी और टैगोर के विचारों की प्रासंगिकता पर विशेष लेख
- Ashim Srivastava
आधुनिक राजनीति विचार और व्यवहार में दूरियां बढ़ने से मौसम बदलने, तापमान बढ़ने, नदी सूखने, पेड़ कटने, प्रजातियों की विलुप्ति अथवा संसाधनों के खत्म होने का राजनीतिक विचारधारा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। दूसरी बड़ी कमी प्रकृति और मानव स्वभाव पर गहरा संदेह है। आमतौर पर सभी लोग सोचते हैं कि प्रकृति सामान्यत: और मानव स्वभाव विशेषत: संदेहजनक है। विचारकों ने इस तथ्य पर विश्वास प्रकट किया है जिनमें शारलेमेन से लेकर चर्चिल तक और फ्रांसिस बेकन से लेकर फ्रायड तक शामिल हैं। ऐसे में विख्यात नैतिकतावादी इमैनुएल कांट की कही पंक्ति याद आती है, “मानवता की टेढ़ी लकड़ी से कभी कोई सीधी चीज नहीं बनी है।” (दूसरी ओर इन विचारों के बीच अपवाद भी दिखाई देते हैं जो आमतौर पर औपचारिक राजनीतिक विचारों के बाहर होते हैं। उदाहरण के लिए, आइंस्टाइन की टिप्पणी “ईश्वर सूक्ष्म है, लेकिन वह बुरा चाहने वाला नहीं है” प्रसिद्ध है। वहीं आइंस्टाइन से बहुत पहले, थॉमस ब्राउन ने लिखा था, “सभी चीजें कृत्रिम हैं लेकिन प्रकृति ईश्वर की कला है।”)
क्या हम आधुनिक राजनीतिक विचारों की दिशा से हटकर कुछ सोच सकते हैं? एक साधारण किंतु प्रभावी मामले पर विचार करते हैं जो आजादी का आधुनिक विचार है। आइजिया बर्लिन के बाद से यह आम राय उभरकर आई कि आजादी फायदे और नुकसान का खेल है जिसका नियम है कि हमारा फायदा तुम्हारे नुकसान की कीमत पर ही हो सकता है। अब तक स्वतंत्रता को आजादी से जोड़कर देखा जाता रहा है। कुल मिलाकर यह मान सकते हैं कि यह ताकत का दूसरा रूप है जो फायदे-नुकसान के समीकरण में सामान्य-सी बात है।
संभवत: आज के समय में बेशक यह सार्वभौमिक सत्य न हो लेकिन व्यापक रूप से स्वीकृत सत्य अवश्य है। मान लीजिए हम किसी किसान के घर जाते हैं और उसे उसके ही घर में बंधक बनाकर उसके खेतों पर कब्जा कर लेते हैं। हम शक्तिशाली हैं और वह शक्तिहीन है। हम खुद को शक्तिशाली राष्ट्र की तरह खुद को स्वतंत्र मान लेते हैं। लेकिन क्या किसी पर वर्चस्व स्थापित करना स्वतंत्रता है? क्या वास्तव में दोनों में से कोई भी पक्ष स्वतंत्र है? क्या हमें इस बात की चिंता नहीं होगी कि अगर किसान आजाद हो गया तो वह हमारे साथ क्या करेगा? एक ओर किसान शारीरिक रूप से बंधक है तो दूसरी ओर हम मानसिक रूप से बंधक बन जाते हैं। वर्चस्व की मूल भावना के कारण सभी पक्ष अपनी स्वतंत्रता खो देते हैं।
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इस उदाहरण में सभी को स्वतंत्र करने का मतलब है किसान को आजादी दे देना। इस हिसाब से स्वतंत्रता खतरनाक चीज है। इससे हमारी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है। बारीकी से देखें तो स्वतंत्रता आजादी के बिल्कुल विपरीत है जो यह साबित करता है कि यह स्वयं बढ़ने वाली घटना है। मेरी ताकत की कीमत तुम्हारी ताकत है। लेकिन स्वतंत्रता का मूल तत्व यह नहीं है। यह सामने वाले की स्वतंत्रता के साथ बढ़ती है। लोग इस बहस को आगे बढ़ाते हुए कह सकते हैं कि अपनी आजादी दूसरों पर थोपना है तो स्वतंत्रता दूसरे की मर्जी को अपनाना है। आश्चर्यजनक रूप से, आज के आधुनिक उदार विश्व में स्वतंत्रता और आजादी के वर्चस्ववादी विचारों के विपरीत, यह विषय जितना भ्रामक है उतना ही स्पष्ट भी है। रबींद्रनाथ टैगोर ने इस तथ्य को सहजता से स्वीकार किया था। साधना नामक उनके कम पढ़े गए लेखों में उन्होंने लिखा “एक मां बच्चों की सेवा में जीवन गुजार देती है, ऐसे में असली स्वतंत्रता काम करने से आजादी नहीं, बल्कि काम करने की आजादी है जो प्यार से किए गए काम से ही मिलती है।” आमतौर पर कितनी बार हम प्यार से की गई सेवा को सीधे स्वतंत्रता से जोड़कर देखते हैं? निश्चित तौर पर लोकतंत्र में जनता से जुड़े मामलों में प्यार को महत्व नहीं दिया जाता। यही कारण है कि स्वराज को लोकतंत्र का पर्याय मानना खतरनाक हो सकता है।
गांधी ने हिंद स्वराज में संसद को गुलामी का प्रतीक कहा है। इससे हमें स्वराज के मूल भाव का पता चलता है। गांधी ने हिंद स्वराज में स्वराज की परिकल्पना “स्व-शासन” के रूप में की है। लेकिन बारीकी से देखने पर गांधी और टैगोर दोनों स्पष्ट थे कि स्वराज को केवल साम्राज्यवाद के विरुद्ध आजादी की लड़ाई से जोड़कर देखा नहीं जा सकता। इसमें केवल साम्राज्यवादी ताकत को उखाड़ कर फेंकना शामिल नहीं है। स्व-शासन समाज की नि:स्वार्थ सेवा की आध्यात्मिक क्रिया का राजनीतिक और मानसिक प्रतिफल है। गांधी ने सर्वोदय की बात की जिसका मतलब बहुसंख्यक का कल्याण नहीं है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति में जागरुकता का सृजन और कल्याण है। इस प्रकार जो व्यक्ति समाज के लिए कुछ नहीं करता, वह अपनी स्वतंत्रता खो देता है। चाहे फिर वह आधुनिक उदार विचारधारा से प्रभावित असत्य का प्रचार कर बदले में आजादी हासिल ही क्यों न कर ले।
टैगोर ने साधना में बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि स्वतंत्रता अधिकार (अहंकार की तुष्टि) से ज्यादा प्रेम के निकट है। यह ऐसा तथ्य है जो आधुनिक उदार विचारधारा में कहीं नहीं मिलता। टैगोर निश्चित रूप से देशभक्त थे, लेकिन उन्होंने राष्ट्रवाद के विचार को पूरी तरह नकार दिया था। उनके विचार में यह समाज की नि:स्वार्थ सेवा के विपरीत केवल सामूहिक अहंकार का प्रदर्शन है। यही नि:स्वार्थ सेवा मानव स्वतंत्रता की अप्रत्यक्ष गारंटी है। उनके समय के कई स्वतंत्रता सेनानी स्वराज की प्रसिद्ध परिभाषा समझते थे। उन्होंने अपने और गांधी के करीबी रहे चार्ल्स एंड्रयूज को इस बारे जो कुछ लिखा वह इस प्रकार है, “स्वराज क्या है?”
यह माया है। यह कोहरा है जो छंट जाएगा और आत्मा पर कोई निशान भी नहीं छोड़ेगा। हालांकि हम पश्चिम द्वारा सिखाए गए शब्दजाल में फंस सकते हैं फिर भी स्वराज हमारा विषय नहीं है। हमारी लड़ाई आध्यात्मिक है, मानव जाति के लिए है। हमें मानव को उस जाल से मुक्त कराना है जो उसने अपने चारों तरफ बुन रखा है और यह जाल है राष्ट्रीय अहंकार के संगठनों का। इस चिड़िया को यह समझाना होगा कि आसमान की स्वतंत्रता और उसकी ऊंचाई उसके घोंसले से ज्यादा है। यदि हम ताकतवर, हथियारबंद और अमीर समाज का त्याग करके दुनिया को अनश्वर आत्मा की शक्ति से अवगत कराएं तो सद्भावना का भक्षण करने वाले दानव का खयाली महल ढह जाएगा और व्यक्ति को अपना स्वराज मिल जाएगा।”
वह लिखते हैं, “हम पूर्व में रहने वाले भूखे, गरीब, फटेहाल लोग समस्त मानवता की स्वतंत्रता हासिल करके रहेंगे। हमारी भाषा में राष्ट्र का कोई मतलब नहीं है। अगर हम दूसरों से यह शब्द उधार लेंगे तो वह हमारे लिए कभी उपयुक्त नहीं होगा। यदि हम ईश्वर के साथ मिलकर काम करें तो हमें कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता। मैं पश्चिमी मुल्कों में घूमा हूं, लेकिन मैं इसके मोहजाल में नहीं फंसा।
यह अंधेरे के हंगामे हमारे लिए नहीं हैं। हमारे लिए तो सुनहरी, उजली सुबह है।”
गांधी और टैगोर आधुनिक युग में विशेष महत्व रखते हैं जो यह समझते थे कि स्वतंत्रता मानवता के लिए आध्यात्मिक और पर्यावरणीय क्षमता रखती है। यह आजादी की तरह नहीं है जिसका राजनीतिक दृष्टिकोण है। इसमें उनके विचार को आधुनिक धारणाओं से अलग संपूर्ण ब्रह्मांड के रूप में देखना चाहिए जिसमें प्रकृति मानवता की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की मूक दर्शक बन गई है। टैगोर एक के बाद एक कहानी पर जोर देते हैं जिसका मूल भाव यह है कि मानव की स्वतंत्रता के लिए प्रकृति से निकटता अनिवार्य है। अगर इस तथ्य को दरकिनार कर दिया जाए तो पर्यावरण से दूरी, जो आधुनिक विश्व को अपनी चपेट में ले रही है, मानवता को उस स्वतंत्रता से दूर कर देगी जो हर व्यक्ति के लिए जरूरी है।
गांधी ब्रिटिश राज के उतने विरोधी नहीं थे, जितना वह भारत में आधुनिक साम्राज्यवाद के अनुचित प्रभाव के विरोधी थे। उन्होंने हिंद स्वराज में लिखा है “भारत को अंग्रेजों के पैरों तले नहीं बल्कि आधुनिक सभ्यता के नीचे कुचला जा रहा है।” देश इस दानव के बोझ से दबा जा रहा है। गांधी ने “अंग्रेजों के बिना अंग्रेजी राज” पर चेतावनी देते हुए कहा था कि अब भी इससे बचने का मौका है लेकिन दिन-ब-दिन राह कठिन होती जाएगी। यह मान लेना मूर्खता होगी कि एक भारतीय शासन अमेरिकी शासन से बेहतर होगा। दरिद्र भारत स्वतंत्र हो सकता है, लेकिन अनैतिकता से समृद्ध हुए भारत के लिए अपनी स्वतंत्रता हासिल करना मुश्किल होगा... पैसा व्यक्ति को असहाय बना देता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि सहज ज्ञान आज के विश्व की संचालन शक्तियों के बीच अलग-थलग पड़ गया है। “बिना अमेरिकियों के अमेरिकी राज” आज की हकीकत बन गई है। इस बेचैन विश्व में कॉर्पोरेट तंत्र (निगरानी पूंजीवाद का कॉर्पोरेट अधिनायकवाद) ने लोकतंत्र का मुखौटा पहन रखा है। इस व्यवस्था में केवल कुछ शक्तिशाली लोग ही मुकाबला कर पाते हैं और बाकी को मुकाबले से बाहर कर दिया जाता है। इन सब कारणों से गांधी और टैगोर का जीवन और विचार पहले से अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। उनकी दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि उन्होंने प्राकृतिक स्वराज का खाका पहले ही खींच लिया था। जल्द ही यह रूपरेखा भारत ही नहीं बल्कि पूरी मानवता की रक्षा के लिए पारिस्थितिकीय अनिवार्यता साबित हो सकती है।(downtoearth)
गांधी, 21वीं सदी का पर्यावरणविद -1 : अमूल्य पर टिकी गांधी की दृष्टि
गांधी ने टिकाऊ विकास शब्दावली गढ़े जाने से आधी सदी से अधिक समय पहले ही पर्यावरणीय संकट की आशंका जाहिर कर दी थी
- Rajni Bakshi
2007 में ब्रिटिश अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न जलवायु संकट पर तत्काल कार्रवाई की जरूरत को लेकर व्यापारियों को सचेत करने मुंबई आए थे। स्टर्न के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें उन्होंने भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से एक महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा के साथ मंच साझा किया। स्टर्न की गंभीर भविष्यवाणियों के जवाब में महिंद्रा ने सबसे पहले बताया कि महात्मा गांधी 70 साल से भी ज्यादा समय पहले जान गए थे कि अगर पूरी दुनिया पश्चिमी देशों की तरह रहने लगी, तो इसके लिए एक धरती पर्याप्त नहीं होगी। महिंद्रा ने एक कहानी सुनाई, जो उन्होंने गोवा के किसी गांव में सुनी थी।
एक समय वह गांव सबसे स्वादिष्ट तरबूज उगाने के लिए मशहूर था। यहां एक रिवाज था कि बच्चे किसी भी खेत से मुफ्त में तरबूज खा सकते थे। इसके बदले में उन्हें बस इतना करना होता था कि वे सबसे स्वादिष्ट तरबूज के बीज को बचाएं और उसे उत्पादक को दे दें। किसान तब केवल उसी तरबूज के बीज बोते थे, जो बच्चों को सबसे मीठे और स्वादिष्ट लगते थे। गांव के कुछ लोगों ने फैसला किया कि जब उन्हें इन बढ़िया तरबूजों की इतनी अच्छी कीमत मिल रही है, तो भला बच्चों को मुफ्त में देकर “बर्बाद” क्यों किया जाए। फिर जैसे-जैसे बच्चों को मुफ्त तरबूज देने का रिवाज कम होता गया, वैसे-वैसे उनकी गुणवत्ता में कमी आने लगी। जल्द गांव में अच्छे तरबूजों की पैदावार बंद हो गई।
कुछ लोग इसे एक ऐसी कोरी कहानी के रूप में देख सकते हैं, जो झूठी अर्थव्यवस्था के संकटों को दिखाती है। दरअसल, बच्चों को मुफ्त में तरबूज देने को “बर्बादी” मानना एक गलती थी, जबकि असल मायनों में वह गुणवत्ता नियंत्रण के लिहाज से एक अहम निवेश था। समुदाय ने बच्चों के तरबूज के आनंद को “अमूल्य” माना होता तो क्या होता?
अमूल्य पर ध्यान केंद्रित करना ही महात्मा गांधी का महत्वपूर्ण व आज का सबसे जरूरी नजरिया है। यहां अमूल्य से मतलब दुर्लभ और महंगी चीजों से नहीं है, जो किसी की पहुंच से बाहर हो। इसका मतलब यह है कि इसे बाजार के किसी भी रूप से बाहर रखा गया है, जिसे कमोडिटी में नहीं बदला जा सकता है और न ही आपूर्ति और मांग के लिए उपलब्ध कराया जा सकता है। “अमूल्य” की धारणा पर जोर देना कई समकालीन पर्यावरण कार्यकर्ताओं को सहज-ज्ञान के विपरीत लग सकता है। पिछले कुछ दशकों में पारिस्थितिकी प्रणालियों के मूल्यांकन के लिए बहुत-सी कोशिशें की गई हैं। इसके पीछे यह उम्मीद लगाई जाती रही है कि इससे पारिस्थितिकी प्रणाली सेवाओं को लेकर मानकों में बदलाव होंगे, जिन्हें अर्थशास्त्र मान्यता देता है। इससे उन्हें बचाने में मदद मिलेगी। पारिस्थितिकी प्रणालियों और जैव विविधता के अर्थशास्त्र पर युनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की रिपोर्ट के साथ ही ये प्रयास काफी महत्वपूर्ण हैं। वहीं, दूसरी ओर, यह बिल्कुल साफ है कि पर्यावरण संबंधी संकट की कहानी को वास्तविक रूप से उस ढांचे में नहीं ढाला जा सकता है, जिसे अर्थशास्त्र समझता है। नतीजतन, व्यापक जवाब हासिल करने के लिहाज से गांधी महत्वपूर्ण हैं।
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विडंबना यह है कि 2019 में कई लोग पूछेंगे कि यह कैसे हो सकता है? आखिरकार, उन्हें गर्व से यह महसूस कराया गया कि आजादी के बाद भारत ने गांधी के कदमों का पालन नहीं किया, जिसकी वे कल्पना करते थे कि हम सभी चरखा कातने वाले होंगे, केवल दो या तीन सेट कपड़ा पहनकर, सिर्फ लालटेन की मदद से रात गुजारेंगे और इसी तरह रहेंगे। गांधीवादी सादगी का मतलब मुश्किल भरे हालात हैं, इस बात को गलत तरीके से जोड़ा गया है। जबकि विकास की तुलना अधिक मांग और उन्हें पूरा करने के साधनों से की गई है। इस तरह, सेवाग्राम में गांधी की मशहूर मिट्टी की झोपड़ी में आने वाले कई आगंतुक यह जानकर चौंक जाते हैं कि इसके छोटे कमरों में से एक में मालिश की एक मेज है, जो गांधी की प्राकृतिक जीवन शैली का अनिवार्य हिस्सा है। एक फोन बूथ भी है, जिसे ऐसे समय में लगाया गया था, जब फोन एक दुर्लभ लग्जरी माना जाता था। हालांकि, आज गांधी की निजी जीवनशैली को लेकर उनकी पसंद वह बात नहीं है, जो उन्हें हमारी मानवजाति के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण बनाती है। बल्कि, इससे भी कहीं अधिक जरूरी इस बात को समझा जाना है कि आखिर गांधी ने “टिकाऊ विकास” शब्दावली गढ़े जाने से आधी सदी से अधिक समय पहले ही पर्यावरणीय संकट की आशंका क्यों जाहिर की थी?
इसकी प्रमुख वजह यह है कि उनका आकलन उनके सिद्धांतों के साथ ही महत्वपूर्ण व ठोस आंकड़ों पर भी आधारित था। ऐसा प्राथमिक तौर पर इसलिए था, क्योंकि उनका आकलन सिर्फ पूरक रूप से नहीं, बल्कि भौतिकवादी आंकड़ों के साथ मुख्य सिद्धांतों पर आधारित था। उन्होंने पहले ही देख लिया था कि आधुनिक उद्योगों की बुनियाद संसाधनों के प्रति लापरवाही व स्वार्थ पर टिकी हुई है। उदाहरण के तौर पर, तरबूज वाली उस कहानी में स्वार्थ या संसाधन दोनों ही थे। पहला कि स्थानीय बच्चे खुले तौर पर अपनी मर्जी से जितना चाहे उतना तरबूज खा सकते थे और वहां टिकाऊ खुशहाली भी थी। इन हितों में बदलाव से अल्पकालिक मौद्रिक लाभ में उछाल आया, लेकिन अंततः उत्पाद और ग्रामीणों के अच्छे हालात, दोनों में ही गिरावट आई। संसाधनों की इस अहमियत को देखते हुए ही गांधी ने बार-बार कहा कि अगर हम सभ्यता की बराबरी तकनीक, सुविधाओं और अत्याधुनिक उपकरणों से ही करते रहे, तो हम खुद अपनी बर्बादी की कहानी लिखने के लिए अभिशप्त होंगे। गांधी के लिए सभ्यता वह है, जो हमें हमारी जिम्मेदारियों की राह दिखाए, हमारे जीवन का उद्देश्य बताए। जीवन के उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करने को ही हिंदू परंपराओं में पुरुषार्थ कहा गया है, जो गांधी के लिए अनमोल था। जबकि, इसके उलट अंतहीन बढ़ती इच्छाओं को उन्होंने अंधी दौड़ कहा है। रबींद्रनाथ टैगोर ने सभ्यता व प्रगति में अंतर को स्पष्ट करते हुए इस अंतर्दृष्टि की व्याख्या की। उन्होंने 1924 में चीन में दिए गए एक व्याख्यान में कहा, “प्रगति का आंतरिक मूल्यों से संबंध नहीं है, बल्कि यह एक बाहरी आकर्षण भर है। जबकि, एक आदर्श सभ्यता के मूल्य हमें अपने दायित्वों को पूरा करने की शक्ति व आनंद देते हैं।”
रोजमर्रा के भौतिक जीवन के संदर्भ में गांधी के शिष्य जेसी कुमारप्पा ने मनुष्यों के सामने मौजूद विकल्पों को परिभाषित किया था। हम या तो एक परजीवी अर्थव्यवस्था का निर्माण कर सकते हैं या जिसमें मानव जीवन की जरूरतों का सामंजस्य, प्रकृति की जैव प्रणालियों से स्थापित हो सके। वे पूर्णकालिक सत्याग्रही बने और उन्होंने 1940 के दशक की शुरुआत में जेल में रहते हुए अपनी पहली किताब “ऐन इकोनॉमी ऑफ परमानेंस” लिखी।
कुमारप्पा की अंतर्दृष्टि की प्रमुख बात यह थी कि किसी भी चीज का अस्तित्व उसके खुद के लिए नहीं होता है। उन्होंने लिखा है कि अगर आप सूक्ष्मता से ध्यान देंगे तो स्पष्ट होगा, “प्रकृति अपनी सभी इकाइयों के मध्य सामंजस्य व सहयोग को सुनिश्चित करती है, सभी अपने लिए कार्य करते हुए दूसरी इकाइयों को भी अपने साथ लाने के लिए उनकी सहायता करती हैं। जो गतिशील है, वह स्थिर की सहायता करती है, और जिसमें चेतना है, वह जड़ की सहायता करती है।” अगर हम एक-दूसरे पर निर्भरता की शृंखला को तोड़ने वाली हिंसा को रोक सकें, तो हमारे पास एक मजबूत अर्थव्यवस्था होगी। यह जागरुकता कोई दुर्लभ वस्तु नहीं है। यही कारण है कि हमने एक कॉर्पोरेट नेता के संस्मरण से शुरुआत की, जो बच्चों की कहानी और तरबूजों के प्रति उनके आनंद का सम्मान करता है। समस्या इस बात का पता लगाने में है कि इस जागरुकता को कैसे व्यवहारिक तरीके से लागू किया जाए। जैसा कि तरबूज की कहानी से यह साफ होता है कि हम प्रकृति को केवल व्यावसायिक वस्तु मानकर पूंजीकरण करने या केवल पवित्र मान कर उसे अछूता छोड़ देने के किसी द्विपक्षीय विकल्प का सामना नहीं कर रहे हैं। गांधीवाद कोई ऐसी विचारधारा नहीं है, जो एक अंधकारमय भविष्य की राह दिखाती हो। गांधी की सोच और कार्यों से हमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात सीखने को मिलती है कि जो वास्तव में मायने रखता है, आखिर उसे कैसे समझा या जाना जाए। इन सबसे बढ़कर, वह हमें अमूल्य बने रहने और विनाशक की बजाय पालक की भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करते हैं।
(रजनी बख्शी “बाजार्स, कंजर्वेशंस एंड फ्रीडम” किताब की लेखिका हैं)(downtoearth)
भारत सहित दुनिया भर में पूंजीवाद को लेकर लगातार बहस जारी है, लेकिन महात्मा गांधी के विचार बिल्कुल साफ थे। ऐसे ही कुछ विषयों पर उनके विचारों को जानने के लिए यह इंटरव्यू पढ़ा जाना चाहिए
महात्मा गांधी 1931 में यूरोप गए थे। लंदन में प्रवास के दौरान पत्रकार चार्ल्स पेट्राश ने उनसे लंबी बातचीत की थी। यह बातचीत उस समय लेबर मंथली पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। बाद में यह फ्रेंच अखबार ला मोंदे में पुनर्मुद्रित हुई। उसी बातचीत के चुनिंदा अंश
आपके विचार से भारतीय राजाओं, भू-स्वामियों, उद्योगपतियों और बैंकरों ने अपनी संपत्ति में कैसे इजाफा किया है?
वर्तमान हालात में जनता का शोषण करके।
क्या ये लोग भारतीय मजदूरों और किसानों के शोषण के बिना अमीर नहीं हो सकते?
हां, कुछ हद तक हो सकते हैं।
क्या इन अमीरों के पास अपनी मेहनत से संपत्ति अर्जित करने वाले साधारण मजदूरों या किसानों से बेहतर जिंदगी जीने का सामाजिक अधिकार है?
(कुछ समय शांत रहने के बाद...…) अधिकार नहीं है। मेरा सामाजिक सिद्धांत कहता है, हालांकि जन्म से सब समान होते हैं, इसलिए सबको समान रूप से अवसर मिलने चाहिए, लेकिन सब में एक समान क्षमताएं नहीं होतीं। प्राकृतिक रूप से यह संभव नहीं है कि सभी का स्तर समान हो। सभी का रंग, विवेक समान नहीं हो सकता। यही वजह है कि प्राकृतिक रूप से हम लोगों में से कुछ दूसरों की अपेक्षा वस्तुओं का लाभ प्राप्त करने में अधिक सक्षम होते हैं। जो लोग अधिक की कामना करते हैं वे अपनी क्षमताओं का इस दिशा में इस्तेमाल करते हैं। अगर वे अपनी क्षमताओं का सबसे बेहतर इस्तेमाल करेंगे तो लोगों के कल्याण के लिए काम कर रहे होंगे। ये लोग “ट्रस्टी” के अलावा कुछ नहीं होंगे। मैं व्यक्ति को बौद्धिकता से अधिक अर्जित करने की इजाजत दूंगा और उसकी योग्यता के आड़े नहीं आऊंगा। लेकिन उसकी बचत का बड़ा हिस्सा लोगों के पास जाना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे बच्चों को परिवार से मिलता है। वे अपने लाभ के केवल ट्रस्टी हैं, इसके अलावा कुछ नहीं। मुझे भले ही इसमें निराशा हाथ लगे, लेकिन मैं इस आदर्श को दृढ़ता से मानता हूं। मौलिक अधिकारों के घोषणापत्र में इसे समझा जा सकता है।
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अगर किसान और मजदूर राजाओं, जमींदारों, पूंजीपतियों, अपने सहयोगियों और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ क्रांति करते हैं तो आप किसका पक्ष लेंगे? अगर आजाद भारत में इस तरह की क्रांति होती है, भले ही परिस्थितियां कैसी भी हों, तो आपका क्या दृष्टिकोण होगा?
मेरी कोशिश होगी कि अमीर और संपन्न वर्ग को ट्रस्टी में तब्दील करूं जो वे पहले से हैं। वे धन को रख सकते हैं, लेकिन उन्हें उन लोगों के कल्याण के लिए काम करना होगा जिनकी बदौलत उन्होंने संपत्ति अर्जित की है। इसके बदले उन्हें “कमीशन” प्राप्त होगा।
महाराजा और जमींदार अंग्रेजों से मिल गए हैं और आप ऐसे लोगों को “ट्रस्टी” बनाना चाहते हैं। आपकी सच्ची अनुयायी आम जनता है जो महाराजाओं और जमींदारों को अपना दुश्मन मानती है। अगर यह जनता सत्ता हासिल करती है और इस वर्ग को समाप्त करती है तो आपका नजरिया क्या होगा?
वर्तमान समय में जनता जमींदारों और राजाओं को अपना दुश्मन नहीं मानती। यह जरूरी है कि उन्हें बताया जाए कि उनके साथ क्या गलत हुआ है। मैं नहीं चाहूंगा कि जनता पूंजीपतियों को अपने दुश्मन के तौर पर देखे। मैं बताऊंगा कि ऐसा समझकर वे खुद का नुकसान कर रहे हैं। मेरे अनुयायी, लोगों से यह कभी नहीं कहते कि अंग्रेज या जनरल डायर बुरे हैं। वे बताते हैं कि ये लोग व्यवस्था के शिकार हैं और इसीलिए व्यवस्था को नष्ट करना जरूरी है, व्यक्ति को नहीं। इसी तरीके से ब्रिटिश अधिकारी लोगों के बीच बिना कष्ट रह सकते हैं।
अगर आपको व्यवस्था पर चोट करनी हो तो ब्रिटिश पूंजीवाद और भारतीय पूंजीवाद में कोई अंतर नहीं है। ऐसे में आप उन जमींदारों को लगान की अदायगी क्यों नहीं बंद कर देते जो वह आपकी भूमि से लेते हैं? जमींदार व्यवस्था का एक यंत्र भर हैं। उनके खिलाफ आंदोलन करना किसी भी लिहाज से आवश्यक नहीं है, खासकर ऐसे समय में जब ब्रिटिश व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन छिड़ा हो। दोनों के बीच अंतर स्पष्ट करना संभव है। हमने लोगों से कहा है कि जमींदारों को लगान देना बंद कर दें क्योंकि जमींदार यह लगान सरकार को देते हैं। हमारे जमींदारों से अच्छे संबंध हैं।
रबींद्रनाथ टैगोर, बर्नाड शॉ और अन्य दार्शनिकों के अनुसार, रूस में भूस्वामियों, पूंजीपतियों, साहूकारों और सोवियत की व्यवस्था ने जब सरकार की शक्ल ली तो बेहद कम समय में लोगों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां बेहतर हुईं। यह देखा जा रहा है कि क्रांति के समय रूस मुख्य रूप से कृषि पर आधारित था। सांस्कृतिक और धार्मिक नजरिए से देखा जाए जो उसकी स्थिति ठीक वैसी ही थी जैसी आज भारत की है। इस संबंध में आपका दृष्टिकोण क्या है?
पहली बात तो यह कि मैं दूसरों के आधार पर अपना दृष्टिकोण नहीं बनाता। यही वजह है कि मैं रूस के हालात की प्रशंसा करने में असमर्थ हूं। इसके अलावा मैं मानता हूं और सोवियत के नेता खुद कहते हैं कि सोवियत की व्यवस्था ताकत के बल पर स्थापित हुई है। इसलिए मुझे इसकी सफलता पर बड़ा संदेह है।
किसान और मजदूर अपनी किस्मत खुद तय कर सकें, इसके लिए आपकी क्या योजना है?
मेरी वही योजना है जिसकी व्याख्या कांग्रेस द्वारा की गई है। मैं मानता हूं कि इससे मजदूरों और किसानों की स्थिति में सुधार आएगा। वह स्थिति अब तक की श्रेष्ठ स्थिति होगी। मैं मजदूर और किसानों की स्थिति से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हूं। मेरा तात्पर्य असामान्य पुर्नजागरण से है। इसकी कारण उनकी क्षमता प्रभावित रही और वे अन्याय और शोषण को बर्दाश्त करते रहे।
मशीन से आपका क्या मतलब है? क्या चरखा भी मशीन नहीं है? क्या मशीन का इस्तेमाल कामगारों का शोषण नहीं बढ़ाता?
चरखा और इस तरह के अन्य उपकरण साफ तौर पर मशीन हैं। इससे आप मशीन की मेरी परिभाषा को समझ सकते हैं। मैं यह मानता हूं कि मशीनों का गलत इस्तेमाल ही पूरी दुनिया में कामगारों के शोषण की प्रमुख वजह है।
आप लोगों का शोषण खत्म करने की बात कहते हैं जो पूंजीवाद को खत्म करके ही संभव है। क्या आप पूंजीवाद को कुचलना चाहते हैं? अगर ऐसा है तो क्या आप पूंजीपतियों को उनकी संपत्ति से वंचित करना चाहते हैं?
अगर मैं सत्ता में आया तो मैं निश्चित तौर पर पूंजीवाद को खत्म कर दूंगा लेकिन मैं पूंजी को खत्म नहीं करूंगा। और यह तभी संभव है जब मैं पूंजीपतियों को खत्म न करूं। मैं मानता हूं कि पूंजी और श्रम का सामंजस्य संभव है। कुछ मामलों में मैंने इसे सफलतापूर्वक देखा भी है और जो एक मामले में सच है वह सभी मामलों में सच साबित हो सकता है। मैं पूंजी को बुराई के तौर पर नहीं देखता और न ही मैं मशीनी व्यवस्था को बुराई मानता हूं।
(मूल अंग्रेजी साक्षात्कार का अनुवाद भागीरथ ने किया है)(downtoearth)
विचारों की लड़ाई सबसे मारक असरदार लड़ाई है। इसके सामने बड़ी से बड़ी फौज और उसकी जीत बेमानी है। राजनीतिक सत्ता हो या सामाजिक सत्ता- दिमाग पर कब्जे की लड़ाई हमेशा सबसे पहले लड़ी जाती है। कई बार यह पता भी नहीं चलता है और कब्जा होता जाता है।
- नासिरूद्दीन
जनवरी का आधा महीना बीत चुका था। हम बिहार के सुदूर इलाके में मेहनतकशों के साथ काम करने वाले अपने कुछ साथियों के साथ थे। इस दौरान हमें एक स्कूल में हाईस्कूल के विद्यार्थियों से बातचीत का मौका मिला। यह उस शहर के सबसे अच्छे स्कूलों में है। हम कोई सिरा तलाश रहे थे ताकि विद्यार्थियों से बातचीत की जाए, तकरीर न की जाए। हमने तय किया कि हम 30 जनवरी, यानी महात्मा गांधी की शहादत के बारे में बात करने की कोशिश करेंगे। हमारे पास पहले से बना-बनाया कोई खाका नहीं था।
बातचीत शुरू हुई- क्या 30 जनवरी कुछ खास है? क्या इस दिन कुछ अहम हुआ था? बात निकली। गांधी जी की शहादत तक पहुंची। फिर यह बात हुई कि किसने मारा, तो नाथूराम गोडसे का नाम आया। लेकिन क्यों मारा, इसके जवाब इस तरह आएः
गांधी जी ने देश का बंटवारा करा दिया।
गांधी जी सिर्फ मुसलमानों के बारे में सोचते थे। उन्हीं के साथ रहना चाहते थे। वे सब कुछ उन्हें ही दे देना चाहते थे।
गांधी जी भारत के खजाने से पाकिस्तान को पैसा दिलाने के लिए अनशन पर बैठ गए थे। वे पाकिस्तान-पक्षी थे। वे पाकिस्तान को सब दे देना चाहते थे।
गांधी जी पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच संपर्क के लिए भारत के बीच से रास्ता बनाने को तैयार हो गए थे।
गांधी जी इस्लामी राष्ट्र चाहते थे लेकिन भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के खिलाफ थे।
सत्ताके लिए जिन्ना और नेहरू ने गांधी जी को मरवा दिया।
गांधी जी हिंदू-मुसलमान एकता चाहते थे। वे सेक्यूलर थे।
गांधी जी आरक्षण के समर्थक थे।
हकीकत क्या है? ऊपर गिनाई गई बातों में सिर्फ एक बात सही है- ‘गांधी जी हिंदू-मुसलमान एकता चाहते थे।’ तब सवाल है, स्कूल में पढ़ने वालों को यह जानकारी कैसे मिली? क्या पढ़ाने के लिए तय किसी किताब से मिली? नहीं। क्योंकि सीबीएसई या बोर्ड की किताबें महात्मा गांधी की हत्या की ऐसी वजहें नहीं गिनातीं। स्कूल सही जानकारी और ज्ञान की जगह मानी जाती है। स्कूल में पढ़ाई जाने वाली किताबें और उसके पाठ ही जानकारी का स्रोत होते हैं। मगर हाईस्कूल के इन विद्यार्थियों की जानकारी का स्रोत सिलेबस की किताबें नहीं हैं। वे खुद भी इसे मानते हैं।
यह महज इत्तेफाक नहीं हो सकता। इत्तेफाक होता तो देश की सर्वोच्च माने जाने वाली सेवा- आईएएस और आईपीएस के अफसर उन झूठी या मनगढ़ंत बातों को फैलाने वाले नहीं बनते जो एनसीईआरटी की उन किताबों में थी ही नहीं, जिन्हें पढ़कर उन्होंने सिविल सेवा का बेड़ा पार किया था।
यानी स्कूल की किताबों का इस्तेमाल महज इम्तेहान पास करने के लिए है। समाज के बड़े हिस्से के लिए उनकी उपयोगिता बहुत ही सिमटी हुई है। इनके सामाजिक-राजनीतिक ज्ञान या जानकारी का जरिया स्कूली किताबों से अलग है। वही जरिया देश, समाज और भारत के लोगों को देखने और देश में होने वाले घटनाक्रम को देखने के वास्ते उनका नजरिया बना रहा है।
संसद के गुजरे मानसून सत्र में वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि नेहरू जी ने 1948 में एक शाही आदेश की तरह प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष बनाने का आदेश दिया था लेकिन उसका पंजीकरण आज तक नहीं हो पाया है। इसे नेहरू जी ने नेहरू-गांधी परिवार को फायदा पहुंचाने के लिए बनाया था। सवाल है, यह जानकारी तथ्यपरक है या तथ्य से परे है? अगर तथ्य से परे है तो एक मंत्री के जहन में यह कैसे पैठी है? यह इनके जेहन में कितनी गहरी पैठी है, इसी से पता चलता है कि वे इसे सच मानकर संसद में बोलते हैं। यानी, हमारे मुल्क में जानकारी की एकऔर धारा चल रही है। वह धारा कई मामलों में देश के कई हिस्सों के ज्यादातर स्कूलों में दी जाने वाली जानकारी से ज्यादा मजबूत है। तब ही तो वह धारा स्कूल के विद्यार्थी से शुरू होते हुए ऊपर तक चली जाती है।
और यह हालत उन लोगों की है जिन्हें ज्ञान के आधुनिक मंदिरों में जाने का मौका मिला है। इसी से हम आसानी से उन सबकी हालत का अंदाजा लगा सकते हैं जिनके पास आधुनिक मंदिरों में जाने का मौका नहीं था, जानकारी के पुख्ता स्रोत भी नहीं थे और जानकारी का कोई और जरिया भी नहीं था। उन तक जो पहुंच गया और जो बताया गया, उनके लिए वही पुख्ता जानकारी बन गई। वही उनके ज्ञान का स्रोत है। सवाल है, किसने उन्हें, क्या और कैसे बताया? क्यों बताया? उन तक कौन, कैसे पहुंचा?
जहनों में पैठी इन ‘जानकारियों’ का आधार तर्क की कसौटी पर खरे और वैज्ञानिक तथ्य नहीं हैं। सत्य नहीं है। कई बार अर्धसत्य है तो कई बार सत्य और तथ्य का कटा-छंटा रूप हैं। यही नहीं, ऐसी जानकारियां उन्हें कहीं से भी सत्य की तलाश के लिए नहीं उकसातीं। ज्ञान का तो यही काम है न? बल्कि इसके उलट वे कह रही होती हैं कि यही अंतिम सत्य है। यही तथ्य है। इसे आंख मूंदकर मानो।
अगर पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि ऐसी ‘जानकारियों’ का खास सामाजिक-राजनीतिक मकसद होता है। हम ऐसी किसी भी समानांतर जानकारी को सामने रखकर इस बात को तौल सकते हैं। ये जानकारियां आमतौर पर किसी समूह, समुदाय, जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र के खिलाफ होती हैं। इन जानकारियों का सबसे बड़ा मकसद दुश्मन पैदा करना होता है। नफरत पैदा करना होता है।
यह बात भी गौर करने लायक है कि समाज के पास ज्ञान और जानकारियों का जरिया सिर्फ स्कूल नहीं है। स्कूल और यूनिवर्सिटियों में पढ़ाई जाने वाली किताबें नहीं हैं। इतिहास-समाज की तथ्यपरक और तर्क से भरपूर उन विद्वानों की किताबें भी नहीं हैं जिनके मकसद नफरत फैलाना या दुश्मन पैदा करना नहीं है। ज्ञान और जानकारी की इससे उलटऔर समानांतर एकधारा चल रही है। उसके कई स्तर हैं। वह किताबों में है भी और नहीं भी। वह विद्वानों के भरोसे है और ज्यादातर नहीं भी है। वह समाज के बीच उन लोगों के भरोसे अपना दायरा और पैठ बढ़ा रही है जो ज्ञान और जानकारी का इस्तेमाल नफरत की दुनिया बसाने के लिए कर रहे हैं। शत्रु पैदा करने के लिए कर रहे हैं।
इस समानांतर ज्ञान और जानकारी की मुहिम में वे लोग अभी कमजोर पड़ते दिख रहे हैं जो सत्य के खोजी हैं। जो ज्ञान का इस्तेमाल इंसानियत और समाज की बेहतरी के लिए करते हैं। जिनका सत्य अंतिम और दुश्मन पैदा करने वाला नहीं होता है। उनकी पकड़ दिमागों पर ऐसी मजबूत नहीं दिख रही है जैसी पकड़ नफरत पैदा करने वाली जानकारियों की दिखाई दे रही है।
विचारों की लड़ाई सबसे मारक असरदार लड़ाई है। इसके सामने बड़ी से बड़ी फौज और उसकी जीत बेमानी है। राजनीतिक सत्ता हो या सामाजिक सत्ता- दिमाग पर कब्जे की लड़ाई हमेशा सबसे पहले लड़ी जाती है। कई बार यह पता भी नहीं चलता है और कब्जा होता जाता है। मौजूदा दौर में गांधी जी की हत्या की ये वजहें लोगों के दिमाग में कब और कैसे पैठती गईं, इसका सही-सही पता किसे है?
दिलचस्प है, लेकिन ऐसा लगता है कि इन वजहों की आड़ में महात्मा गांधी की हत्या को जायज ठहराने के तर्क मुहैया कराए गए हैं। ये तर्क गढ़े गए हैं। ये सत्य से परे हैं। चूंकि ये गढ़े गए तथ्य या तर्क हैं, इसलिए ये खुद-ब-खुद लोगों तक आसानी से नहीं पहुंचे होंगे। लोगों तक इन्हें पहुंचाने के लिए सोचा-समझा गया होगा। मजबूत मशीनरी लगी होगी। यह एक दिन में भी मुमकिन नहीं हुआ है। इसमें वक्त लगा और लगाया गया है- बिना इसकी परवाह किए कि नतीजा कितनी जल्दी मिलेगा, लगातार आम दिमागों पर काम किया गया है।
इसलिए अगर जबरदस्त धीरज, खामोशी से काम करने की हिम्मत, सत्य, तथ्य और वैज्ञानिक तर्क पर भरोसा, उसे किताबों से बाहर ले जाने की ख्वाहिश और आम जन तक इसे पहुंचाने की मिशनरी लगन- ये सब नहीं हैं तो भारत के लोगों के दिमागों को बंटने और हमें एक नफरती समाज बनने से कोई नहीं रोक सकता।(navjivan)
-आशुतोष
राम माधव किसी दल, सरकार और नेता का ज़िक्र नहीं करते। लेकिन आसानी से समझा जा सकता है कि वो कहाँ पर निशाना लगा रहे हैं। कौन सी पार्टी सरकार के सामने पूरी तरह से बिछ गयी है। और वो कौन सा नेता है जिसके सत्ता में आगमन के बाद और पहले भी प्रतिद्वंद्वियों को ठिकाने लगा दिया गया, हाशिये पर फेंक दिया गया या फिर उनकी ज़रूरत पूरी तरह से ख़त्म कर दी गयी, उन्हें शक्तिहीन कर दिया गया।
राम माधव हाल तक बीजेपी के ताकतवर महासचिव माने जाते थे। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों में बीजेपी की कमान सँभालते थे। जेपी नड्डा की नई टीम में उन्हें जगह नहीं मिली है। बीजेपी में आने से पहले माधव लंबे समय तक आरएसएस का चेहरा थे। संगठन के प्रवक्ता का पद उन्हें हासिल था। बाद में उन्हें बीजेपी में भेज दिया गया।
राम माधव सरकार में तो नहीं थे लेकिन किसी भी मंत्री से ज़्यादा ताकतवर थे। इन दिनों संगठन के कार्यों से मुक्त होने के बाद ख़ाली हैं तो उन्होंने एक लेख लिखा है। ये लेख महात्मा गांधी की 151वीं जयंती के मौक़े पर लिखा गया है और इसमें गांधी की तारीफ में पुल बांधे गये हैं।
संघ पर गांधी की हत्या का आरोप
आरएसएस का गांधी से एक अजीब सा रिश्ता है। गांधी की हत्या के आरोप में आरएसएस पर बैन लगा था और संगठन के प्रमुख रहे एमएस गोलवलकर को गिरफ़्तार भी किया गया था। बैन हटने के बाद भी लंबे समय तक आरएसएस को सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा था। बाद में संघ ने गांधी को अपनी सुबह की प्रार्थना में शामिल किया और गांधी की हत्या से लगे कलंक से उबरने की कोशिश की। लेकिन आरएसएस कुछ भी कहे गांधी की विचारधारा से उसका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। संघ गांधी की अहिंसा को भारत और हिंदुओं की बड़ी कमज़ोरी के तौर पर देखता है और उसे भारत की ग़ुलामी के लिये काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार मानता है।
गांधी की तारीफ
ऐसे में राम माधव जब इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में गांधी और गांधीवाद की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं तो हैरानी होती है। वो कहते हैं कि गांधी का मूल मंत्र 'स्वतंत्रता' में है और फिर वो रविंद्र नाथ टैगोर को उद्धृत करते हैं। टैगोर ने लिखा था - 'जहां मन भययुक्त है' (Where mind is without fear).
राम माधव लिखते हैं, 'गांधीवाद स्वतंत्रता और आत्मशुद्धि में निहित है। तानाशाह राजसत्ता की पाश्विक शक्ति, निर्वीर्य मीडिया और अबाध प्रचार पर फलते-फूलते हैं।' सवाल ये उठता है कि राम माधव गांधी पर लिखते-लिखते अचानक तानाशाहों को क्यों याद करने लगते हैं? और फिर वे समझाते हैं कि तानाशाह कैसे राजसत्ता, मीडिया और प्रचार के बल पर शासन करते हैं।
सत्ता के सामने नतमस्तक मीडिया
आज के भारत में ये बात कही जाती है कि राजसत्ता पूरी तरह से निरंकुश हो गयी है। वो मनमानी करती है। उस पर न तो विपक्ष का कोई अंकुश है और न ही किसी और तरह के किसी संस्थान का। मीडिया पूरी तरह से राजसत्ता के सामने नतमस्तक है। ख़ासतौर पर टीवी मीडिया तो सुबह से शाम तक सत्ता के गुणगान में मग्न है। वो अपनी भूमिका भूल बैठा है। उसकी दिलचस्पी बस विपक्ष को कोसने में रहती है। तो क्या राम माधव भारतीय मीडिया की ओर इशारा कर रहे हैं?
हर सत्ता अपने को बनाये रखने के लिये प्रचार या कुप्रचार या प्रोपेगेंडा का जायज और नाजायज इस्तेमाल करती है। लेकिन पहली बार ये महसूस किया जा रहा है कि प्रोपेगेंडा इतना ज़्यादा हो गया है कि सच क्या है और झूठ क्या है, ये फ़र्क़ मिट गया है।
किस ओर है इशारा?
बड़े-बड़े राष्ट्रीय मुद्दों को न केवल छिपाने की कोशिश की जाती है बल्कि सत्ता के शीर्ष से झूठ बोला जाता है और फिर प्रोपेगेंडा के अगाध प्रवाह के ज़रिये इस झूठ को सच साबित करने की योजनाबद्ध कोशिश की जाती है। राम माधव जब इस अगाध प्रोपेगेंडा को तानाशाही से जोड़ते हैं तो कई सवाल खड़े होते हैं कि आख़िर वो कहना क्या चाहते हैं, उनका इशारा किस ओर है?
राम माधव यहीं पर नहीं रुकते वो आगे बढ़ते हैं। वो लिखते हैं, “गांधी अपने आलोचकों का सम्मान करते थे जबकि तानाशाह विरोध को बर्दाश्त नहीं करते। वो अपने ‘ककून’ में रहते हैं, जी हुज़ूरों और ‘हेंचमैन्स’ से घिरे रहते हैं। हिटलर से लेकर स्टालिन तक यही कहानी दोहराई गयी।' उनके शब्दों को ध्यान से पढ़िये। 'आलोचक बर्दाश्त नहीं', 'जी हुज़ूरों और हेंचमैन्स से घिरे'।
सत्ता को विरोध बर्दाश्त नहीं
अब इस बात को आज के संदर्भ में देखें। आज ये बात एक-एक बच्चे को पता है कि विरोध करने वाले लोग सत्ता को बिल्कुल पसंद नहीं हैं। देर-सबेर ऐसे लोगों को इसकी सजा मिल जाती है। ऐसे लोग कभी जेल की सलाख़ों के पीछे दिखते हैं तो कभी अदालतों के चक्कर लगाते पाये जाते हैं। सत्ता की मुख़ालफ़त करने का अर्थ बड़ी मुसीबत से दो-चार होना। अपने को संकट में डालना। विरोधी सत्ता में हो या फिर संगठन में सबको एहसास करा दिया गया है कि आप सत्ता से अलग विरोधी सुर अलाप कर ‘सरवाइव’ नहीं कर सकते। सत्ता के इर्द-गिर्द वही लोग बचे हैं जो ‘यस मैन’ हैं या फिर बॉस के इशारों पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। शीर्ष सत्ता का केंद्र एक घोंघे में तब्दील हो गया है।
हिटलर, स्टालिन का जिक्र
लेकिन सबसे ज़ोरदार बात राम माधव ने हिटलर के हवाले से लिखी है। वो लिखते हैं, '1933 में तीसरी संसद बनी तो हिटलर ने एलान कर दिया कि पार्टी की सरकार में कोई भूमिका नहीं होगी। उसने अपने आपको विशेषज्ञों से घेर लिया और वो लोग जो उससे पहले पार्टी में आये थे उन्हें इतिहास की स्मृति से ग़ायब कर दिया गया।'
राम माधव यहीं पर नहीं रुकते। वो सोवियत रूस के तानाशाह स्टालिन का ज़िक्र करते हैं। 'स्टालिन ने ‘ग्रेट पर्ज’ का सहारा लिया और पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वियों और विरोधियों दोनों को ख़त्म कर दिया, इसकी शुरुआत 1934 में सर्गेई कीरोव की हत्या से होती है और अंत 1940 में लियोन ट्राटस्की के क़त्ल से। और इस अभियान में हिटलर और स्टालिन राजसत्ता और नतमस्तक मीडिया की मदद से कामयाब होते हैं।'
बिना नाम लिए साधा निशाना
राम माधव किसी दल, सरकार और नेता का ज़िक्र नहीं करते। लेकिन आसानी से समझा जा सकता है कि वो कहाँ पर निशाना लगा रहे हैं। कौन सी पार्टी सरकार के सामने पूरी तरह से बिछ गयी है। और वो कौन सा नेता है जिसके सत्ता में आगमन के बाद और पहले भी प्रतिद्वंद्वियों को ठिकाने लगा दिया गया, हाशिये पर फेंक दिया गया या फिर उनकी ज़रूरत पूरी तरह से ख़त्म कर दी गयी, उन्हें शक्तिहीन कर दिया गया।
ये सब लिखने के बाद राम माधव गांधी की तारीफ करते हैं। लिखते हैं कि गांधी जी कितने खुले दिमाग़ के थे। 'गांधी से प्रेरणा पाये लोगों ने निरंकुश सत्ताओं को उखाड़ फेंका। सोवियत रूस इसका उदाहरण है।...अविभाज्यता का मिथ तभी तक था जब तक ग्लासनास्त के रूप में खुलापन नहीं आया था और ऐसा होते ही सोवियत रूस भरभरा कर गिर पड़ा।' राम माधव का ये कथन बहुत महत्वपूर्ण है। वो किस ख़तरे की ओर संकेत कर रहे हैं या फिर किसे चेतावनी दे रहे हैं।
आज़ादी की पैरोकारी
राम माधव अंत में लिखते हैं, “दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों की कमी हो रही है। जन स्वतंत्रता ख़तरे में है। गांधी जी हमेशा ज़्यादा से ज़्यादा खुलापन, स्वतंत्रता और गरिमापूर्ण जीवन की वकालत करते थे। जनता की स्वतंत्रता के लिये दयालु सरकार और आज़ाद मीडिया बहुत ज़रूरी है।”
लेख पर प्रतिक्रिया होगी?
राम माधव की ज़िंदगी संघ परिवार में बीती है। ज़ाहिर है उनके अपने कुछ विशेष अनुभव होंगे जिसके हवाले से उन्होंने ये बातें लिखी हैं। वैसे भी आज के समय में जब ये कहा जा रहा हो कि देश में अघोषित आपातकाल है तब हिटलर और स्टालिन की बात करना, नतमस्तक मीडिया की बात करना, प्रतिद्वंद्वियों की बात करना एक इशारा है। समझदार सब समझ रहे हैं। अब देखना ये है कि प्रतिक्रिया कैसी और किस रूप में होती है। (satyahindi)
-ओम थानवी
उस क्षण की तस्वीर, उस खिडक़ी से जहाँ से चार्ली चैप्लिन यह दृश्य निहार रहे थे।
भारत तो भारत, इंगलैंड में भी गांधीजी की प्रतिष्ठा का आलम यह था! ‘अफ्रीका से भारत लौट आने के बाद गांधी केवल एक बार विदेश यात्रा पर गए-1931 में गोलमेज वार्ता में शरीक होने। वार्ता तो विफल रही, लेकिन अंगरेजों का दिल उन्होंने बहुत जीत लिया। वे किसी ऊँचे होटल में नहीं रूके, पूर्वी लंदन के पिछड़े इलाके में सामुदायिक किंग्सली हॉल (अब गांधी फाउंडेशन) के एक छोटे-से कमरे में ठहरे। जमीन पर बिस्तर लगाया। लंदन की ठंड में भी अपनी वेशभूषा वही रखी-सूती अधधोती, बेतरतीब दुशाला, चप्पल। वे कोई तीन महीने वहां रहे।
यह तस्वीर तब की है जब लंदन प्रवास के दौरान चार्ली चैप्लिन गांधीजी से मिले। चैप्लिन हॉलीवुड में चरम प्रसिद्धि बटोर कर अपने वतन लौट आए थे। वे राजनेताओं से राजनीति की चर्चा में रुचि लेने लगे थे। अपनी फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ के प्रीमियर के लिए वे लंदन में ही थे। किसी ने उन्हें सुझाया कि गांधीजी से मिलना चाहिए। उन्हें कैनिंग टाउन में डॉक्टर चुन्नीलाल कतियाल के यहाँ 22 सितम्बर, 1931 की शाम का वक्त दिया गया, जहाँ उस रोज गांधीजी को जाना था।
गांधीजी से मुलाकात का दिलचस्प जिक्र चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में किया है; नेहरू और इंदिरा गांधी के साथ प्रवास का भी। गांधीजी का जिस घड़ी का यह फोटो है, उस वक्त चैप्लिन ऊपर खिडक़ी से यह दृश्य देख रहे थे, क्योंकि वे कुछ पहले (या शायद अंगरेजी कायदे के मुताबिक ठीक वक्त पर) पहुँच चुके थे। चैप्लिन के अपने शब्दों में- ‘अंतत: जब वे (गांधी) पहुंचे और अपने पहनावे की तहें संभालते हुए टैक्सी से उतरे तो स्वागत में भारी जयकारे गूँज उठे। उस छोटी तंग गरीब बस्ती (स्लम) में क्या अजब दृश्य था जब एक बाहरी शख्स एक छोटे-से घर में जन-समुदाय के जय-घोष के बीच दाखिल हो रहा था।’
डॉ. कतियाल की बैठक में चैप्लिन को घेर बैठी एक युवती को एक दबंग महिला (संभवत: सरोजिनी नायडू) ने डपटकर चुप कराया, ‘क्या अब आप इनको गांधीजी से बात करने देंगी?’ कमरे में ‘सन्नाटा’ छा गया। गांधीजी चैप्लिन की ओर देख रहे थे। चैप्लिन लिखते हैं कि गांधीजी से तो मैं उम्मीद नहीं कर सकता था कि वे मेरी किसी फिल्म पर बात शुरू करेंगे और कहेंगे कि बड़ा मजा आया; ‘मुझे नहीं लगता था कि उन्होंने कभी कोई फिल्म देखी भी होगी।’ सो चैप्लिन ने अपना ‘गला साफ किया’ और कहा कि मैं स्वाधीनता के लिए भारत के संघर्ष के साथ हूँ; पर आप मशीनों के खिलाफ क्यों हैं, उनसे तो दासता से मुक्ति मिलती है, काम जल्दी होता है और मनुष्य सुखी रहता है?
गांधीजी ने मुस्कुराते हुए शांत स्वर में उन्हें अहिंसा से लेकर आजादी के संघर्ष का सार पेश कर दिया। गांधीजी ने कहा- आप ठीक कहते हैं; मगर हमें पहले अंगरेजी राज से मुक्ति चाहिए। मशीनों ने हमें अंगरेजों का और गुलाम बनाया है। इसलिए हम स्वदेशी और स्व-राज की बात करते हैं। हमें अपनी जीवन-शैली बचानी है। हमारी आबोहवा ही आपसे बिल्कुल जुदा है। ठंडे मुल्क में आपको अलग किस्म के उद्योग और अर्थव्यवस्था की जरूरत है: खाना खाने के लिए आपको छुरी-कांटे आदि उपकरणों की जरूरत पड़ती है, सो आपने इसका उद्योग खड़ा कर लिया, पर हमारा काम तो उँगलियों से चल जाता है। हमें अनावश्यक चीजों से भी आजादी दरकार है।
चर्चा में चैप्लिन आजादी को लेकर गांधीजी की अनूठी दलीलों, उनके विवेक, कानून की समझ, राजनीतिक दृष्टि, यथार्थवादी नजरिए और अटल संकल्पशक्ति से अभिभूत हो गए। पर तब हैरान रह गए जब गांधीजी ने अचानक कहा कि माफ कीजिए, हमारी प्रार्थना का वक्त हो गया। उन्होंने चैपलिन को विनय से कहा, आप चाहें तो यहाँ रुक सकते हैं। चैप्लिन ने सोफे पर बैठे-बैठे देखा- गांधीजी और पांच अन्य भारतीय जन जमीन पर पालथी मार कर बैठ गए और रघुपति राघव राजा-राम, पतित-पावन सीता-राम; वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे गाने लगे।
चैप्लिन को इसमें अजीब ‘विरोधाभास’ अनुभव हुआ। उन्हें लगा कि महात्मा में उन्होंने जो ‘राजनीतिक यथार्थ की विलक्षण सूझ’ देखी, वह इस समूह-गान में मानो तिरोहित हो गई।
मगर क्या सचमुच? शायद यही तो वह सांस्कृतिक भेद था जिसे क्या चैप्लिन क्या अंगरेज, गांधीजी अंत तक हम भारतवासियों तक को समझाते रहे!
तो क्या कंगना रनौत की तरह आपको भी लगता है कि भारत में जातिवाद समाप्त हो चुका है. मेरी एक फेमिनिस्ट दोस्त ने फे़सबुक पर लिखा है, "हाथरस रेप कांड को सिर्फ जेंडर की नजर से देखें, जाति की नजर से नहीं." वो भी कंगना की ही तरह सोच रही है.
एक बार कंगना जातिवाद के अस्तित्व को ही नकारती हैं और वहीं अगली बार गर्व से ये बताना नहीं भूलतीं कि वो क्षत्राणी हैं. मेरी फ़ेमनिस्ट सहेली ब्राम्हण है.
मेरी सहेली को लड़कियों का पढ़ना, आगे बढ़ना पसंद है, लेकिन मुंबई में दलित महिला डॉक्टर पायल तडावी की मौत पर उसकी सारी संवेदना उन तीन सवर्ण महिला डॉक्टरों के साथ थी, जो पायल को आरक्षण वाली कहकर उसका मजाक उड़ाती थीं.
अगर मैं एक ऐसा आंकड़ा पेश करूं कि देखो, 100 में से 98 बड़े, फ़ैसलाकुन पदों पर मर्द बैठे हैं तो औरत होने के नाते वो आहत हो जाती है, होना भी चाहिए. मैं भी होती हूं. लेकिन अगले वाक्य में अगर मैं ये कहूं कि इस 98 में से 90 ऊंची जाति वाले हैं तो उसे मेरिट की याद आती है, काबिलियत की याद आती है.
सामाजिक न्याय की उसकी परिभाषा में अन्याय सिर्फ औरत और मर्द के बीच है. सवर्ण और दलित के बीच नहीं क्योंकि वहां बात सिर्फ मेरिट की है.
सच क्या है? वो हमें दिखाई क्यों नहीं देता या उतना ही क्यों दिखता है, जितने में हमारा हित है.

देखें वही जिसमें फ़ायदा हो
घर में आने वाला अखबार रोज ऐसी खबरों से पटा रहता है कि दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार, दलित लड़की को जिंदा जलाया, दलित को घोड़ी चढ़ने पर पीटा, दलित लड़की का रेप कर उसे पेड़ से जिंदा लटकाया, लेकिन वो देखकर भी नहीं देखते. वो मुंबई और बॉस्टन में बैठे हैं और गांव में उनका खेत गरीब दलित किसान जोत रहा है. उसकी मेहनत से उगा अन्न वो खाते तो हैं, लेकिन उसकी थाली अब भी अलग रखी हुई है.
और उन्हें ही सबसे ज्यादा दिक्कत है हाथरस वाली लड़की को "दलित लड़की" कहे जाने से.
वो अपनी बेटी के लिए आज भी अपनी जाति में वर ढूंढ रहे हैं. उन्होंने फेसबुक पर ब्राम्हण एकता मंच और क्षत्रिय शक्ति संगठन टाइप चार पन्ने भी लाइक कर रखे हैं और ये मानने को भी तैयार नहीं कि समाज का एक बड़ा सबका सदियों से गरीब, वंचित और सताया हुआ है.
उसे ज्ञान, शिक्षा, नौकरी से वंचित रखा गया है. उसने पीढ़ियों से सिर्फ आपकी गुलामी की है, आपकी लात खाई है. अब जब वो थोड़ा सिर उठा रहा है, पलटकर जवाब दे रहा है, पढ़ने जा रहा है, नौकरी कर रहा है, मोटरसाइकिल चला रहा है, पक्का घर बनवा रहा है तो आप कह तो नहीं रहे, लेकिन आपको चुभ बहुत रहा है.
और ये वो चुभन ही है, जो हाथरस में, बदायूं में, उन्नाव में, खैरलांजी में, राजस्थान में, गुजरात के उना में, बलरामपुर में आए दिन दिख रही है.
जिस दिन हाथरस गैंगरेप की शिकार लड़की की मौत हुई, उसी दिन जारी किया था एनसीआरबी ने साल 2019 का डेटा, जो बता रहा था कि पिछले साल के मुकाबले इस साल औरतों के साथ होने वाली हिंसा में 7.3 फीसदी का इजाफा हुआ है और इतना ही इजाफा दलितों के साथ होने वाली हिंसा में भी हुआ है. दोनों में ही उत्तर प्रदेश नंबर वन है.
दलित औरत होना दोगुनी सज़ा
पिटती तो मेरे घर की औरतें भी हैं, लेकिन दलित औरत ज्यादा पिटती है. वो अपने पति से भी पिटती है, दूसरे मर्दों से भी पिटती है. वो औरत होने के कारण पिटती है. वो दलित होने के कारण पिटती है. वो औरत होने के नाते तो कमजोर है ही. लेकिन वो दलित औरत होने के नाते और कमजोर है. गरीब दलित औरत हुई तो और भी कमजोर.

मर्द के साथ सिर्फ जाति जुड़ी है. औरत के साथ जाति और जेंडर दोनों.
दलितों को हिकारत से देखना, गाली देकर बात करना, उनका बर्तन अलग रखना, उन्हें अपने हैंडपंप और कुएं से पानी न भरने देना तो रोज़मर्रा की बात है. हमारी औरतें भी उनकी औरतों को उतनी ही हिकारत से देखती हैं. ननिहाल के गांव में एक कहारिन आती थी पानी भरने. एक दिन वो अपनी बहू के साथ आई. बहू दो दिन पहले ही ब्याहकर आई थी.
मैंने घर की महिलाओं से पूछा, 'ये बहू ऐसे बिना घूंघट चली आई' क्योंकि मैंने अपने घर की बहुओं को तो कभी घर के दरवाज़े तक जाते भी नहीं देखा था. वो बोली, 'अरे वो नीच जात है. उसके यहां बहुओं की इज्जत थोड़े न होती है.' ये कहते हुए वो अपने इज्जतदार होने पर इतराईं. हालांकि चार दिन बाद ही उस इज्जतदार बहू को पति ने चप्पलों से पीटा क्योंकि उसने भात गीला कर दिया था.
पंडिताई की इज्जत तो उसके भी पास थी, लेकिन औरत होने की बेइज्जती साथ-साथ चलती थी. वो कौन सी चुने और कौन सी छोड़ दे?
मान लेने पर कुछ करना होगा
1995 में शेखर कपूर ने करण थापर को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, "बैंडिट क्वीन फ़िल्म से मिडिल क्लास को इसलिए आपत्ति थी क्योंकि उसने एक ऐसे सच को अचानक उनके सामने उघाड़कर रख दिया था, जिससे आंखें मूंदे वो रेत में सिर धंसाए बैठे थे. उन्हें इस बात को स्वीकार करने में दिक्कत हो रही थी".
घाव को ढंक दो. मानो ही नहीं कि वो है तो सब ठीक. मान लो तो दवा लगानी होगी. इलाज करना होगा. घाव को भरना होगा.
अगर आप स्वीकार लें कि जाति आधारित भेदभाव आपके समाज का, आपके घर का, आपके परिवार, आपके माता-पिता का सच है तो अगला सवाल तो ये होगा कि उस सच को बदलने लिए आपने किया क्या. न मानने में सुविधा है. आराम है. मान लेने में दुख. किसी और का न सही, अपनी आत्मा का सामना तो सबको करना ही पड़ता है.
लेकिन आपके मानने, न मानने से सच बदल नहीं जाता. ढंका हुआ घाव नासूर बन जाता है. गैंग्रीन हो जाता है. फिर पांव काटने पड़ते हैं. जब तक हम नकारते रहेंगे, हाथरस, बदायूं, उन्नाव, भटेरी होते रहेंगे. जब मान लेंगे तो शायद ठीक करने की ओर दो-एक कदम बढ़ाएँ.
समाज की सत्ता और शक्ति की सत्ता
इसमें कोई शक नहीं कि हमारा समाज महिलाओं और दलितों, दोनों के साथ होने वाले अत्याचार का एक तरह से अभ्यस्त है, यह उसे चौंकाता, झकझोरता या आहत नहीं करता है.
यहाँ तक कि महिलाओं और दलितों का एक बड़ा तबका अपने साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार की शिकायत करने को निरर्थक मानने लगा है. ऐसा यूँ ही नहीं हुआ है. ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें मामूल है कि समाज और शासन दोनों में से किसी को इन अत्याचारों पर ख़ास एतराज़ नहीं है.
हमारी पुलिस, प्रशासन और सत्ता व्यवस्था में लोग इसी समाज से आते हैं. ऊँचे पदों पर बैठे ज़्यादातर सवर्ण लोग ज़ाहिर है समाज में ऐसे बदलाव के हामी नहीं हो सकते, जो सदियों के चले आ रहे उनके ग़ैर-मुनासिब रुतबे को कम करता हो.
गाँव-क़स्बे में जहाँ हर किसी को एक-दूसरे की जाति के बारे में मालूम है, वहाँ एक दलित लड़की सबसे आसान शिकार है क्योंकि गाँव के टोले से लेकर राज्य में सत्ता के शीर्ष तक एक ऐसी संरचना मौजूद है, जो दलितों के शिकायत करने को भी सामाजिक व्यवस्था में गड़बड़ी मानती है और 'इस गड़बड़ी' यानी शिकायत करने वालों को 'ठीक करने' पर तत्पर रहती है.
किसी पुलिस अधिकारी या प्रशासनिक अधिकारी को इस बात की ट्रेनिंग दी जाती है कि वह दलित उत्पीड़न के मामलों में संवेदनशीलता दिखाए. साथ ही उनमें एससी-एसटी एक्ट के तहत आरोप लगने की चिंता भी होती है, लेकिन यह आम बात है कि जातीय उत्पीड़न के मामले में कोई पुलिसवाला दलितों के लिए "वे लोग", "उनकी बस्ती", "उन लोगों" जैसे संबोधन इस्तेमाल करता है.
मर्द औरत के बीच की ग़ैर-बराबरी और उसके ऊपर से दलित-सवर्ण के बीच की ग़ैर-बराबरी, ये दोनों मिलकर ऐसे हालात पैदा करते हैं, ऐसी बेबसी पैदा करते हैं, जिसका ज़िक्र न करना बेईमानी के अलावा कुछ और नहीं होगा.
ज्यादातर लोगों ने दलितों के साथ किसी-न-किसी रूप में अत्याचार होते देखा है, लेकिन उन्होंने बड़ी सुविधा से उन स्मृतियों को अपने मानस से मिटा दिया है.
वो ट्विटर पर कंगना के साथ खड़े हैं. कहते हैं, "जाति खत्म हो गई." हालांकि उनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जो महानगरों में बैठकर इन दिनों ट्वीट करने लगे हैं कि कैसे वर्ण व्यवस्था एक सोशल ऑर्डर है और सोशल ऑर्डर का होना कितना जरूरी है.(BBCNEWS)


