विचार/लेख
भारतीय जनता पार्टी की असली नीति क्या है? उनका दिशा-दर्शक कौन है? इस बारे में थोड़ा भ्रम का माहौल बना दिख रहा है। दो दिन पहले ही प्रधानमंत्री मोदी ने जनता को आश्वासन दिया था कि सरकार प्रयास करेगी कि कोरोना का ‘टीका’ आते ही उसे देश के सभी लोगों तक पहुंचाया जाए। प्रधानमंत्री टीके का वितरण करते समय कहीं भी जाति, धर्म, प्रांत, राजनीति बीच में नहीं लाए। लेकिन अब बिहार विधानसभा प्रचार में भाजपा नेताओं ने विचित्र कदम उठाया है। कोरोना के टीके का उत्पादन शुरू होने पर बिहार की जनता के लिए टीका मुफ्त में उपलब्ध होगा, ऐसा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा ही है। लेकिन भाजपा के घोषणापत्र में भी ऐसा वचन पहले क्रमांक पर दिख रहा है। बिहार विधानसभा चुनाव कोरोना संक्रमण काल में होने वाला पहला बड़ा चुनाव है। वर्चुअल सभाएं होंगी और पारंपरिक कार्यक्रम नहीं होंगे, ऐसा वातावरण बन गया था। लेकिन बिहार के मैदान की सभाएं सारे सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों को ताक पर रखकर हो रही हैं। नेताओं के हेलीकॉप्टर उड़ रहे हैं और प्रचंड भीड़ के कार्यक्रम शुरू हैं। इस भीड़ में हो सकता है ‘कोरोना’ की दबकर मौत हो जाए और राजनीतिक क्रांति हो जाए, ऐसी तस्वीर बिहार में दिख रही है। लोगों को कोरोना का डर नहीं रहा। उन्हें बिहार में सत्ता बदलनी है। बिहार में जो निर्णय आना होगा, वह आएगा लेकिन भाजपा ने लोगों के मन में कोरोना का डर बढ़ाकर मुफ्त टीके की सुई लगाने का ‘फोकट’ उद्योग शुरू किया है। अर्थात ‘तुम हमें वोट दो हम तुम्हें कोरोना का टीका मुफ्त में लगाएंगे’, यह इस प्रकार का सौदा है। मतदाताओं को डरा कर टीका लगाने की यह बात चुनाव आयोग की नजर से वैससे छूट गई? आजादी के पहले ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का मंत्र था जो कि भारत मां का आक्रोश था। उसी तरह ‘तुम मुझे वोट दो हम तुम्हें टीका देंगे’! का नारा दिया गया दिख रहा है। सत्ता पाने के लिए और मतदाताओं को बहलाने के लिए नैतिकता वाली पार्टी कौन से निचले स्तर तक जा सकती है, अब पता चल गया। मुफ्त में टीका सिर्फ बिहार को ही क्यों? पूरे देश को क्यों नहीं? पहले इसका उत्तर दो। पूरे देश में कोरोना का तांडव मचा है। यह आंकड़ा 75 लाख से ज्यादा तक पहुंच चुका है। लोग रोज अपनी जान गंवा रहे हैं। ऐसे में एक ऐसे राज्य में जहां विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां इस प्रकार की राजनीति होना धक्कादायक है। बिहार के चुनाव से ‘विकास’ गुम हो चुका है। रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार के मुद्दे नहीं चलते क्योंकि उसके बारे में अकाल पड़ा है। हर तरफ बेरोजगारी और गरीबी का कहर मचा है। उस पर काट के रूप में मुफ्त टीका लगाने का प्रयोग शुरू हुआ है। पूरे देश में कोरोना के टीके की आवश्यकता है। टीके की खोज तीसरे चरण में पहुंच चुकी है। लेकिन ‘टीका’ पहले बिहार में भाजपा को मतदान करने वालों को मिलेगा। लेकिन मान लीजिए कि बिहार में सत्ता बदल गई तो भाजपा बिहार को टीका नहीं देगी क्या? कई राज्यों में भाजपा की सरकारें नहीं हैं। उन्हें भी ‘टीका’ देने के मामले में केंद्र सरकार हाथ ऊपर कर लेगी क्या? विरोधी दल के एकाध विधायक को कोरोना आदि हो गया तो भाजपा की ओर से कहा जाएगा, ‘टीका लगाना होगा तो पहले अपनी पार्टी बदल लो, नहीं तो चिल्लाते बैठो!’ इसलिए कोरोना पर मुफ्त टीके को लेकर लोगों में भ्रम की स्थिति बनी है। ‘गांव बसा ही नहीं और’ कहावत की तरह बाजार में टीका आया ही नहीं और इनकी मारामारी शुरू हो गई। पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पंजाब और राजस्थान जैसे राज्यों में भाजपा के विचारों की सरकार नहीं है। दिल्ली प्रदेश में केजरीवाल भाजपा विरोध का झंडा लेकर खड़े हैं। इन राज्यों की सरकारों को पुतिन से टीका मंगवाना है क्या? देश की 130 करोड़ जनता को टीका देने के लिए केंद्र सरकार के लगभग 70 हजार करोड़ रुपए लगनेवाले हैं। नागरिकों को बचाए रखने की जिम्मेदारी से केंद्र सरकार इनकार नहीं कर सकती। बिहार देश का ही एक भाग है। बिहार ने केंद्र से विशेष दर्जा देने की हमेशा से मांग की क्योंकि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री भले हों लेकिन राज्य हमेशा पिछड़ा ही रहा। लोग बिना भोजन, भुखमरी के कारण कीड़े-मकोड़े की तरह मर रहे हैं। ऐसी रिपोर्ट वैश्विक संगठन ने प्रकाशित की है। बिहार को ‘टीका’ मिले, इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन अन्य राज्य पाकिस्तान में नहीं हैं। कोरोना टीका का मुद्दा भाजपा के बिहारी घोषणापत्र में आना ठीक नहीं है। टीके का वितरण सरकार की और राष्ट्रीय भूमिका होनी चाहिए। यह एक प्रकार से भेदभाव है। राष्ट्रीय एकता के लिए नए टीके की आवश्यकता है!
- मृणाल पाण्डे
शारदीय नवरात्रि की धूमधाम इस साल कुछ दबी-दबी-सी भले हो लेकिन श्रद्धालु हमेशा की तरह शक्ति स्वरूपिणी मां को सादर धरती पर सपरिवार पधारने को न्योत रहे हैं। इस वजह से हर तरह की उद्दंड राक्षसी प्रवृत्ति का विनाश करने वाली दशभजी दुर्गा की कई मधुर स्तुतियां हो रही हैं। लेकिन दुर्गा को शक्ति का आदि प्रतीक मानने वालों के देश में हाड़-मांस की स्त्रियों पर हो रही हिंसा की खबरें मधुर स्तुतियों या ‘नार्यस्तु यत्र पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ नुमा पारंपरिक नारों से नहीं मिट सकतीं।
हाथरस सामूहिक बलात्कार की घटना की याद अभी ताजा है। पर निर्भया कांड की ही तरह इस वीभत्स मौत के बाद भी जब काफी हो-हल्ला मचा, तो पहले इसे राजनीति या जातिवादी सोच से प्रेरित बताकर रफा-दफा करने की कोशिश हुई। वह असफल रही, तो कहा गया कि लड़की का चाल-चलन जरूर शंकास्पद रहा होगा। कुछ गैर जिम्मेदार बयानों के अनुसार, यह हत्या का मामला था, बलात्कार का नहीं। मारपीट भले हुई हो, पर लड़की के साथ आरोपियों का यौन संसर्ग का प्रमाण नहीं मिला, वगैरा। जब ये सब हथियार भी उल्टे पड़े, तब प्रदेश पुलिस ने असुरक्षा बढ़ने का हवाला देते हुए मृतका के घरवालों की आज्ञा के बिना फटाफट आधी रात को ही लड़की का शव जलाकर बात को समाप्त करना चाहा।
यह सब देख-पढ़ कर निर्भया कांड के साक्षी रहे अधिकतर लोगों को दु:ख भले हुआ हो, अचंभा नहीं हुआ होगा। जिस राज-समाज में इस घटना के बाद भी लगभग हर दिन चार बरस की बच्ची से लेकर कई बच्चों वाली महिलाओं तक के साथ इतने गैंग रेप और हत्या की वारदातें हो रही हैं, वहां कहीं ज्यादा अचंभे की बात यह है कि उस गरीब दलित लड़की के उत्पीड़कों को उनके इलाकाई जाति भाइयों की तमाम धमकियों के बाद राज्य की पुलिस ने अंतत: गिरफ्तार कर लिया।
इस मुहिम में मीडिया का रोल सकारात्मक रहा। पर अधिकतर हिंदी मीडिया इस बदसलूकी को सिर्फ हाथरस के या उत्तर प्रदेश के समाज की पतनशील जातिवादी दृष्टि और पुलिस की असंवेदनशीलता का ताजा प्रमाण मान कर भावुक छिछलेपन से ‘यह समाज कब बदलेगा? कब?’ नुमा सतत सवाल पूछता रह गया। इससे कोई फायदा नहीं, वरना भारत में हर कहीं बाहर सड़क या खेत में ही नहीं, सारे उत्तर भारत के घरों के भीतर भी हर तरह की स्त्री विरोधी हिंसा लगातार इतनी तेजी से नहीं बढ़ती।
गौरतलब है कि लड़कियों की अकाल मौतों की एक बड़ी वजह तथाकथित लव जिहाद के शक में की जाने वाली ऑनर किलिंग्स की तादाद भी कम नहीं। पुलिस में औपचारिक तौर से दर्ज किए जाने से पहले ही इन अपराधों पर अक्सर (घर-परिवार की इज्जत, उत्पीड़कों के राजनीतिक रसूख या पुलिसिया असंवेदनशीलता की वजह से साक्ष्य मिटवा कर) पर्दा डाल दिया जाता है। इसके बाद भी ताजा राष्ट्रीय आंकड़े दहलाने वाले हैं। वे साफ दिखाते हैं कि घर के भीतर महिलाएं और बच्चे कितने असुरक्षित हैं, जब बलात्कार या यौन उत्पीड़न के अधिकतर मामलों में उनके कथित रक्षक या पारिवारिक मित्र ही उसके सबसे खतरनाक भक्षक साबित होते हैं।
राष्ट्रीय अपराध शोध प्रकोष्ठ (एनसीआरबी) के अनुसार, साल 2019 में महिला उत्पीड़न को रोकने वाली धारा 498 ए के बावजूद कुल दर्ज 1,25,298 मामलों में औरतों पर सबसे अधिक हिंसक मारपीट उनके अपने घरों में, अपने परिजनों (प्राय: ससुराल वालों) द्वारा की गई थी। हर उम्र की महिला पर बाहर सड़कों या कार्यक्षेत्र में हिंसक हमलों और अगवा किए जाने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं और बेहद नृशंस किस्म के सामूहिक रेप भी।
इसकी बड़ी वजह यह है कि अधिकतर मामलों में पुलिस की दबंगई तथा समझदारी और पीड़िता की नासमझी और कमजोर सामाजिक स्थिति की वजह से ज्यादातर अपराधी देर-सबेर जमानत पर छूट जाते हैं। लंबी अदालती कार्रवाई का हश्र यह है कि 2019 में अदालतों में दर्ज करीब 25 हजार मामलों की पहली सुनवाई में 6 महीने लगे और लगभग 18 हजार मामलों की सुनवाई में तो पूरा साल निकल गया।
उत्तर प्रदेश हो कि दिल्ली, पुलिस ही नहीं, डॉक्टरों और महिला हित से जुड़ी गैर सरकारी संस्थाओं, सबका यही अनुभव है कि अपने ही घर की चारदीवारी के भीतर परिवारजनों के हाथों बरपा की जाने वाली हिंसा हमारी महिलाओं की शारीरिक और मानसिक असुरक्षा और टूटन का सबसे बड़ा स्रोत है। इन दिनों दर्जनों मामले रोज सामने आकर समाज में बढ़ रहे गहरे अवसाद, नर्वस ब्रेक डाउन, आत्महत्या के मामलों में भारी उछाल की सूचना दे रहे हैं उसकी असली वजह भी यही है।
पारिवारिक हिंसा से जुड़े मामलों में लगातार बढ़ोतरी के बाद भी समय-समय पर जनमत के दबाव से किए गए 498 ए या नए यौन शोषण निरोधक काननू (2013) सरीखे कदम परिवारों या न्यस्त स्वार्थी गुटों के प्रबल विरोध की वजह से बहुत कम जमीनी स्तर पर लागू हो पाते हैं। जाति-बिरादरी वालों और धर्मगुरुओं के गुट तथा कई बार तो इलाकाई विधायक या सांसद- ये सब भी बेहतर नहीं। वे तो कई बार अपराधियों को खुला समर्थन देते दिखते हैं। रसूखदार परिवारों के बलात्कारियों का आसानी से छूटना और फिर अभियोजन पक्ष पर घात लगाकर हमले करना भी काफी आम है।
घरेलू हिंसा हमेशा तभी प्रकाश में आती है जब किसी मामले में पानी सर से ऊपर गजर गया हो, वर्ना आम तौर पर बात-बेबात महिलाओं पर हाथ उठाने या उनको लगातार शाब्दिक क्रूरता का निशाना बनाने को हमारे पुरुष नीत राज-समाज से (जिसमें पुलिस, न्यायिक व्यवस्था के सदस्य और जनप्रतिनिधि सभी शामिल हैं) परंपरा के नाम पर सांस्कृतिक स्वीकृति मिलती रही है।
अचरज क्या कि ऐसे माहौल में पले-बढ़े अधिकतर लड़कों ही नहीं, लड़कियों तक को पुरुषों का गुस्से में या नशे में गाली-गलौज करना और कभी-कभार हाथ छोड़ना पौरुष का प्रतीक लगता है और उसे चुपचाप सह लेना नारीत्व का। और जब तक मारपीट लगभग जानलेवा न हो, पुलिस तथा परिवारजन सभी पीड़ित महिला को स्थिति से तालमेल बिठाने की नेक सलाह देते हैं। यह गांवों से उपजी एक कबीलाई सोच हर पड़ोसी को अंकल-आंटी या भाई साहब-भाभी जी कहने वाले महानगरीय मध्य वर्ग के मन में भी गहराई से पैठी हुई है।
यहां पर सोशल मीडिया पर खासकर कम उम्र लड़कियों के बीच दिख रही नारीवाद की अधकचरी समझ के खतरों के बारे में भी बात कर लेना उचित होगा। हमारे अधिकाधिक दर्शक और विज्ञापन खींचने को आतुर मीडिया का हर अंग- टीवी हो या मुख्यधारा का प्रिंट या फिर सोशल मीडिया, ऐसी किशोरियों, युवतियों (जिनमें बॉलीवुड, टीवी जगत की लड़कियां भी शामिल हैं) को तुरंत प्रसिद्धि और भरपूर कमाई का चारा फेंक कर अपने कार्यक्रमों, विज्ञापनों में खींच लाता है। उनके लक्षित उपभोक्ता छोटे-बड़े शहरों के औसत भारतीय हैं, जिनके मनों में औरतों और सेक्स को लेकर आज भी कई तरह की कुंठा व्याप्त है।
कम उम्र लड़कियों में हर तरह की अदाओं से बड़ी आडियंस के बीच आकर फिल्म या मॉडलिंग की दुनिया के किसी बड़े किरदार की नजरों में आने और रातोंरात सितारा बनने, दौलत और लाखों फेसबुकिया फैन कमाने की ललक रहती है। पर जो वे नहीं समझ पातीं, वह यह कि यह करना उनके ही नहीं, तमाम और लड़कियों के लंबे शोषण की राह भी खोल देता है।
यौन शोषण के खिलाफ जब मी-टू सरीखे आंदोलन उठे तो उनसे उम्मीद बनी थी कि अब स्थिति बदलेगी। पर आंदोलन तर्कसंगत तरीके से आगे बढ़ कर नारी विरोधी सोच का तोड़ नहीं बन सका। चटपटे नारों के नाम पर हमारी मध्यवर्गीय शहरी लड़कियां मीडिया पर आकर अपने हकों के लिए आवाज उठाना, मोमबत्ती जलाना ही करती रहती हैं, पर उनमें अपने हकों का जिम्मेदारी से इस्तेमाल करना और सबसे अधिक हिंसा की शिकार निचले तबके की महिलाओं को भी अपने साथ लेकर चलना बहुत कम दिखता है।
अपने आप में नारीवाद एक समग्र और एकतापरक दर्शन है। 70 के दशक से अब तक भारतीय राज-समाज में हर आय और आयु वर्ग की महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समता बहाल करने को अनगिनत नारीवादियों (जिनमें कई पुरुष भी शामिल रहे) ने बहुत गंभीरता और जिम्मेदारी से इस दर्शन को उजागर करते हुए कई क्षेत्रों पर काम किया और कई कुर्बानियां दी हैं।
उसी का फल है कि आज की युवा महिलाओं को (सीमित अर्थों में ही सही) घर और बाहर अपनी निजता कायम रखने लायक गरिमा और अपने मानवाधिकारों की सार्थक मांग उठाने-पाने लायक आत्मविश्वास मिल सके हैं। नई पीढ़ी की लड़कियों को समझना होगा कि अपनी गरिमा और लोकतांत्रिक चयन क्षमता की अनमोल धरोहर को सार्वजनिक मंचों पर फिर से एक भोग्या बनकर सिर्फ शरीर चटपटी और क्षणिक प्रसिद्धि या पैसा पाने को कुर्बान कर देना सयानापन नहीं, मूर्खता है।(navjivan)
डॉयचे वैले पर विवेक शर्मा की रिपोर्ट-
आखिर साढ़े छह करोड़ साल पहले ऐसा क्या हुआ था कि विशालकाय जीव डायनासोर विलुप्त हो गए. ये सवाल सभी के मन में उठता होगा. भारत में भी ऐसे इलाके हैं जहां डायनासोर के जीवाश्म मिलते रहे हैं.
जिस पर्यावरण बदलाव ने अतीत में इन जीवों का नामो-निशान मिटा दिया, क्या ऐसा बदलाव भविष्य में भी हो सकता है, जिससे कई और जीव विलुप्त हो जाए? इन सवालों का जवाब जीवाश्मों (फॉसिल) के अध्ययन से मिलता है. मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील के पास विश्व प्रसिद्ध बाग गुफाओं वाले इलाके में कई वर्षों से डायनासोर के अंडे, नेस्टिंग साईट, हड्डियां और दांतों के जीवाश्म मिल रहे हैं. ये पहली बार नहीं है कि मध्यप्रदेश में डायनासोर के जीवाश्म मिले हैं. साल 1828 में जबलपुर के पास पहली बार डायनसोर के जीवाश्म मिले थे. वहां मांसाहारी डायनासोर पाए गए थे जिनके 60-70 घोंसले वहां मौजूद थे.
डायनासोर के अंडे और अतीत का अध्ययन
धार जिले के बाग इलाके के महत्व के बारे में भारत के मशहूर भूविज्ञानी प्रोफेसर अशोक साहनी बताते हैं, "1990 में मध्यप्रदेश की हथिनी नदी मैंने काफी काम किया है. 30 साल पहले मैंने डायनासोर का पहला जीवाश्म ढूंढा था. बाग ही ऐसा स्थान है जहां डायनासोर के घोंसले, हड्डियां और दांत मिले हैं. लंबे पेड़ भी हैं जो ये बताते हैं कि साढ़े छह करोड़ साल पहले कैसा पर्यावरण रहा होगा. विज्ञान का मकसद रिकंस्ट्रक्शन का होता है. पर्यावरण को रिकंस्ट्रक्ट करने में बाग के जीवाश्म मदद देते हैं. ये बहुत बड़ी विरासत है जो हमें संरक्षित करना चाहिए.” प्रोफेसर अशोक साहनी काफी समय से डायनासोर पर शोध करते रहे हैं और साल 2020 में उन्हें जियोलाजी, पेंलेटियोलॉजी में लाईफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा गया है.
धार जिले की बाग वाली साईट पर 2014 से रिसर्च कर रहे दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीवीआर प्रसाद बताते हैं. "ये साईट पृथ्वी से लुप्त होने के ठीक पहले की है. तो उस समय पर्यावरण में ऐसा क्या बदलाव हुआ कि डायनोसोर गायब हो गए? इस बात पर शोध करने के लिए ये साईट बहुत अहम है. भारत में सिर्फ दो ही ऐसी जगहें हैं, बाग और बालासिनोर जहां सबसे ज्यादा नेस्टिंग साईट मिलते हैं.” प्रोफेसर प्रसाद के मुताबिक, "डायनासोर के अंडे का आकार आम रेप्टाइल्स से बड़ा होता है. 20 सेंटीमीटर के व्यास के काफी बड़े अंडों की बाहरी सतह कैल्शियम कार्बोनेट से बनी होती है. उसका क्रॉस सेक्शन बताता है कि यहां पाए जाने वाले सभी डायनासोर शाकाहारी थे और उनकी प्रजाति टायटेनोसोर सायरोपोड थी.”
धार में 10 करोड़ साल पहले समुद्र था
मजेदार बात ये है कि इस इलाके में ना केवल डायनासोर आकर अंडे देते थे बल्कि उससे कई करोड़ साल पहले यहां समुद्र होने के भी प्रमाण मिलते हैं. जानकारों के मुताबिक उस समय पृथ्वी पर ऐसी घटनाएं हुई जिससे समुद्र भारत के मध्य भाग तक आ गया. कच्छ से एक भुजा समुद्र की अंदर आ गई और वो लाख वर्षों तक रही. और उसके जीव भी यहां पर आ गए. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रसाद कहते हैं इस इलाके में 10 करोड़ वर्ष पहले समुद्र था इसलिए डायनासोर के अलावा यहां समुद्री जीवों के जीवाश्म भी मिलते हैं.
इस इलाके में समुद्री जीवों के जीवाश्म पर काम कर रहे जंतुविज्ञानी प्रोफेसर विपुल कीर्ति ने मिजोजोइक काल के आखिरी दौर का जीवाश्म साल 2010 में खोजा और प्रोफेसर के सम्मान में इस जीवाश्म का नाम स्टीरियो-सिडेरिस "कीर्ति” रखा गया. प्रोफेसर कीर्ति बताते हैं, "जीवाश्म साढ़े सात करोड़ साल पुराना है. सी अर्चिन के जीवाश्म, धार की मनावर तहसील के सीतापुरी गांव से मिला है. इस तरह की स्टार फिश समुद्र में ही पाई जाती है. यहां पर सी अरचिन (बगैर भुजा वाली स्टार फिश) की वो प्रजाति मिली है जो विश्व में कभी नहीं मिली. नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम लंदन के सीनियर वैज्ञानिक रहे डा एंड्र्यू स्मिथ ने धार जाकर इस बात की पुष्टि भी की. प्रोफेसर कीर्ति द्वारा खोजी गई प्रजाति डायनासोर की तरह ही विलुप्त हो चुकी है.
डायनासोर के जीवाश्मों का संग्रह
समुद्री जीवाश्म एक्सपर्ट प्रोफेसर विपुल को भी अपनी रिसर्च के दौरान यहां डायनासोर के अंडे मिल चुके हैं. उनके मुताबिक "डायनासोर बाग वाले इलाके में रहते नहीं थे केवल यहां पर अंडे देने आते थे. ये उनकी मनपसंद साईट थी. डायनासोर जब जिंदा थे उस समय कार्बनडायआक्साइड का हिस्सा ज्यादा था और आक्सीजन का कम था और ऐसा ही भविष्य में होने जा रहा है. ये अच्छा तरीका है कि हम अतीत की स्टडी करें जिससे भविष्य समझ में आए. 7 करोड़ साल पहले ग्लोबल वार्मिंग थी और अब हम फिर से ग्लोबल वार्मिंग की तरफ बढ़ रहे है.”
मध्य प्रदेश के धार जिले में दशकों से डायनासोर के अवसेष मिलते रहे हैं
करीब 30 वर्षों से इन जीवाश्मों को इकट्ठा कर रहे धार जिले के रहने वाले शौकिया जीवाश्म शोधकर्ता और पेशे से भोतिकशास्र टीचर विशाल वर्मा बताते हैं, "मांडू में फॉसिल म्यूजियम में मैंने कई जीवाश्म डोनेट किए है. 2007 में मुझे पहली बार बाग में पूरी साईट मालूम पड़ी थी, हम लोग इस साईट को बचाने के लिए काम करते हैं क्योंकि वो बहुत सुंदर है. इन्हें प्रोटेक्ट करना जरूरी होता है उसके बाद शोध होता है. मैंने एक ही जिले से चार अलग-अलग काल खंड के जीवाश्म खोजे हैं. जब समुद्र नहीं था, जब समुद्र आ गया, तीसरा जब डायनासोर किनारे पर आकर अंडे देने लगे और चौथा जब ज्वालामुखी विस्फोट हो रहे थे और उसके बाद भी डायनासोर कई हजार सालों तक बचने में सफल हुए.”
टूरिज्म : नेशनल पार्क और म्यूजियम
तो क्या इन डायनासोर के अंडों को आम आदमी और पर्यटक देख सकते हैं. इसी मकसद से बाग में "डायनासोर जीवाश्म नेशनल पार्क” भी आकार ले चुका है. लेकिन पर्यटकों को इसमें घूमने के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा. कुल 89 हेक्टेयर में फैले इस नेशनल पार्क में एक म्यूजियम बनाने की कोशिश भी जारी है जिसमें विशालकाय पेड़ों और डायनासोर के अंडों के जीवाश्म उनके मूल स्वरुप में जस के तस रखे जाएंगे, ताकि शोधकर्ता उसी स्थिति में जीवाश्मों को देख सके. धार जिले के जिला वन अधिकारी अक्षय राठौर के मुताबिक, "डायनासोर फॉसिल नेशनल पार्क का नोटिफिकेशन हो चुका है, फेंसिंग हो गई है, उसमें काफी नेस्टिंग है और जीवाश्म भी मौजूद है लेकिन इसे डेवलप करना बाकी है. फिलहाल यह वीरान सा है, एक मास्टर प्लान तैयार होना बाकी है जिससे अगले कुछ वर्षों में कैसा डेवलप किया जाए इसकी योजना बन जाए.” जिला वन अधिकारी के मुताबिक इस नेशनल पार्क का मुख्य गेट भी अभी बनना बाकी है, लेकिन फेंसिंग की वजह से काफी जीवाश्म संग्रहित हो पा रहे हैं. नेशनल पार्क में मार्च 2021 से टूरिस्ट आना शुरु हो सकते हैं..
स्थानीय जिला प्रशासन भी पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए नेशनल पार्क से बाहर के इलाके में म्यूजियम को नया रुप देने की कोशिश में है. इस इलाके का मशूहर पर्यटक स्थल मांडू है और उसके पास ही डायनासोर संग्रहालय फिर से शुरु होने को तैयार है, ताकि पर्यटक मांडू के साथ ही संग्रहालय भी देख सकें. धार जिले के कलेक्टर आलोक कुमार सिंह के मुताबिक "म्यूजियम वाला हिस्सा बना दिया है, पार्क और गार्डन उसमें डेवलप किया गया है, दो महीने बाद डायनसोर संग्रहालय की ओपनिंग करेंगे, इसके लिए 20 रुपए का टिकट होगा. पार्किंग और एंटरटेनमेंट की भी व्यवस्था की गई है. साथ ही डायनासोर के शेप में और अंडों के शेप में कुछ कमरे भी डेवलप किए जा रहे हैं जिसमें पर्यटक रुक सकेंगे, डायनासोर का इतिहास जानेंगे. लाइड एंड साउंड शो भी शुरु करने की तैयारी कर रही है और काकड़-खो की दीवार पर पूरी स्टोरी दिखाई जाएगी जहां पर नीचे नदी है सामने झरना गिरता है.”
भारत का जुरासिक पार्क
भारत का पहला डायनासोर म्यूजियम एवं फॉसिल पार्क गुजरात के महिसागर जिले के रायोली गांव के बालासिनोर इलाके में है. जून, 2019 में इसके उद्घाटन के बाद इसे पर्यटकों के लिए खोला गया. बालासिनोर की साईट पर डायनासोर को खोजने का काम कर चुके जियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया के पूर्व डायरेक्टर एवं भूवैज्ञानिक सुरेश श्रीवास्तव ने पुरानी यादें ताजा करते हुए बताते हैं, "1982-83 के सत्र में मैंने इस क्षेत्र का मानचित्र बनाया और इस पूरे क्षेत्र का गहन अध्ययन किया. खुदाई के दौरान डायनासोर की 400 हड्डियां मिली, जिसमें पैर, हाथ, मुंह, पूंछ, रीढ़ की हड्डी और दांत के जीवाश्म मिले. साथ ही अमेरिका के जाने-माने भूवैज्ञानिक, प्रो. पॉल सेरेनो, डॉ. जेफ्री विल्सन और डॉ. अशोक साहनी के साथ मिलकर डायनासोर का आंशिक कंकाल बनाया जिसमें ब्रेन केस, हिप, पांव और पूंछ की हड्डियों के आधार पर एक नए मांसाहारी भारतीय डायनासोर की खोज की जिसका नाम ‘राजसोरस नर्मदेन्सिस' रखा गया जो लगभग 22 फीट लंबा था और उसके सिर पर एक सिंग भी था. इसका मॉडल बालासिनोर के डायनासोर म्यूजियम में रखा गया है.”
डायनासोर के इन जीवाश्मों का शैक्षणिक महत्व भी है. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रसाद के मार्गदर्शन में इस विषय पर छात्र ये जानने के लिए पीएचडी कर रहे हैं कि आखिर किस पर्यावरण में डायनासोर रहते थे. प्रोफेसर प्रसाद के मुताबिक "जब छात्रों ने बाग की साईट पर विजिट किया तो पेलेंटोलॉजी में रिसर्च में रुचि बढ़ गयी. छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए ये काफी अहम हैं." प्रोफेसर विपुल कीर्ति का मानना है कि इसे "सिलेबस में डालना चाहिए. पाठ्य पुस्तकों में इन सभी बातों को शामिल करना चाहिए. कई लोकल छात्रों ने अंडे नहीं देखे हैं जबकि विदेशों से लोग आ रहे हैं. इसका मतलब पूरे विश्व में इस चीज का आकर्षण है. जब पढ़ाई के रूप में आकर्षण बढ़ता है तो लोग ज्यादा आते हैं अध्ययन करते हैं.”(dw.com)
ध्रुव गुप्त
कल रात फिल्म ‘बैजू बावरा’ का एक गीत सुनते हुए मध्ययुग के इस रहस्यमय गायक और संगीतकार की स्मृतियां उभर आई। लोकमानस में गहराई तक धंसे बैजू बावरा के बारे में ज्यादातर लोगों का मानना है कि यह एक काल्पनिक चरित्र का नाम है जिसे सदियों से चली आ रही किंवदंतियों और 1952 की हिंदी फिल्म ‘बैजू बावरा’ ने लोकप्रिय बना दिया था। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि बैजू बावरा मुग़ल सम्राट अकबर के महान दरबारी गायक तानसेन के समकालीन विख्यात ध्रुपद गायक थे। 1542 की शरद पूर्णिमा को चंदेरी में जन्मे बैजू बावरा का असली नाम पंडित बैजनाथ मिश्र और घरेलू नाम बैजू था। बचपन से ही संगीत में उनकी बेपनाह रुचि थी। चंदेरी की एक युवती कलावती से वे अथाह प्रेम करते थे और उसे अपने संगीत की प्रेरणा मानते थे। कलावती के प्रति जऩून के कारण उन्हें लोगों ने बावरा नाम दिया। प्रेम को संगीत का आठवां सुर मानने वाले बैजू ने यह नाम सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। बैजनाथ मिश्र ने तानसेन के साथ ही वृंदावन के स्वामी हरिदास से संगीत की शिक्षा पाई थी। शिक्षा पूरी होने के बाद तानसेन अकबर के दरबार में पहुंच गए और बैजू पहले चंदेरी के राजा और फिर ग्वालियर के महाराजा मानसिंह के दरबारी गायक बने। ग्वालियर के जयविलास महल में उपलब्ध ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार पं. बैजनाथ मिश्र की गायन प्रतिभा विलक्षण थी। वे राग दीपक गाकर दीये जला देते थे और राग मेघ मल्हार गाकर बादलों को आमंत्रित करते थे। इन विवरणों में अतिशयोक्ति हो सकती है, लेकिन इनसे उनकी गायकी के स्तर का पता तो चलता ही है।
उस काल के दो महानतम गायकों तानसेन और बैजू बावरा के बीच गायिकी का मुकाबला एक ऐतिहासिक तथ्य है। अकबर के दरबार के इतिहासकार अबुल फज़ल और औरंगज़ेब के दरबार के इतिहासकार फक़़ीरुल्लाह ने अकबर के दरबार में आयोजित उस संगीत प्रतियोगिता का जि़क्र किया है जिसमें बैजू बावरा की गायिकी से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें सम्मानित किया था। वर्ष 1613 में लंबी बीमारी के चलते बैजू बावरा का निधन हुआ था। चंदेरी में उनकी समाधि मौज़ूद है जहां हर साल शरद पूर्णिमा को ध्रुपद समारोह का आयोजन होता है।
भारतीय संगीत के इस पुरोधा की स्मृतियों को नमन !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान में पिछले दो-तीन दिनों में जो घटनाएं घटी हैं, उनका विस्तृत ब्यौरा सामने नहीं आ रहा है, क्योंकि वे घटनाएं ही इतनी पेचीदा और गंभीर हैं। यह घटना है, पाकिस्तान की फौज और पुलिस के बीच हुई टक्कर की। यह टक्कर हुई है, कराची में। पाकिस्तान के विरोधी दलों की ओर से जिन्ना के मजार पर एक प्रदर्शन किया गया था। यह प्रदर्शन ‘इमरान हटाओ’ आंदोलन के तहत था।
इसका नेतृत्व मियां नवाज शरीफ के दामाद सफदर अवान और उनकी पत्नी मरियम कर रही थी। सफदर के खिलाफ आरोप यह था कि उन्होंने जिन्ना की मज़ार की दीवारें फांदकर कानून-कायदों का उल्लंघन किया है। उन्हें रात को उनकी होटल से गिरफ्तार किया गया, उनके कमरे का दरवाजा तोडक़र! असली मुद्दा यहां यह है कि उन्हें किसने गिरफ्तार किया? क्या सिंध की पुलिस ने ? नहीं, उन्हें गिरफ्तार किया, पाकिस्तानी फौज और केंद्रीय खुफिया एजेंसी के लेागों ने।
सिंध की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने से मना कर दिया था, क्योंकि सिंध में पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की सरकार है और उसके नेता बिलावल भुट्टो तो इस आंदोलन के प्रमुख नेता हैं। लेकिन इमरान सरकार के इशारे पर कराची के सबसे बड़े पुलिस अफसर (आईजीपी) को फौज ने लगभग चार घंटे तक अपना बंदी बना लिया ताकि जब वह सफदर को गिरफ्तार करे, तब कराची की पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे। यही हुआ लेकिन सिंध की पुलिस में हडक़ंप मच गया।
लगभग कई बड़े पुलिस अफसरों ने केंद्र सरकार और फौज के इस हस्तक्षेप के विरोधस्वरूप छुट्टी ले ली। पाकिस्तान की पुलिस ने इतना बागी और साहसी तेवर शायद पहली बार दिखाया है। पूरे कराची में उथल-पुथल मच गई। लोगों ने कई सरकारी दफ्तरों और फौजी ठिकानों में आग लगा दी। किसी बड़े फौजी के एक विशाल मॉल को भी नेस्तनाबूद कर दिया।
अफवाह है कि फौज और पुलिस की मुठभेड़ में भी कई लोग मारे गए हैं लेकिन संतोष का विषय है कि सेनापति कमर जावेद बाजवा ने सारे मामले पर जांच बिठा दी है और कराची के पुलिस अफसरों ने अपनी छुट्टी की अर्जियां भी वापिस ले ली हैं। यह मामला यहीं खत्म हो जाए तो अचछा है, वरना यह सिंध के अलगाव को तूल दे सकता है। यों भी सिंधी, बलूच और पठान लोगों के बीच अलगाववादी आंदोलन की चिन्गारियां 1947 से ही सुलग रही हैं। इमरान को बचाते-बचाते कहीं पाकिस्तान का बचना ही मुश्किल में न पड़ जाए। यदि पाकिस्तान टूटकर चार-पांच देशों में बंट जाए तो दक्षिण एशिया की मुसीबतें काफी बढ़ सकती हैं। कराची की घटनाओं के कारण विपक्षी-आंदोलन को नई थपकी मिली है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- आरिफ़ शमीम
"नई जगहों पर जाना और शानदार दृश्य देखना तो बहुत अच्छा लगता है. लेकिन मैं आपको यह भी बता दूं कि साइकिलिंग एक ऐसा शौक़ है जिसमें कभी-कभी बहुत अकेलापन भी महसूस होता है. आप जंगलों और रेगिस्तान में सैकड़ों मील साइकिल चला रहे होते हैं. कभी-कभी तो जानवरों या पक्षियों की आवाज़ भी नहीं सुनाई पड़ती हैं. अकेलापन काटने को दौड़ता है. अगर आप इसे बर्दाश्त कर सकते हैं, तो आइए और पैडल चलाइये.'
ये कामरान अली के शब्द हैं जिन्हें आमतौर पर 'कामरान ऑन बाइक' के नाम से जाना जाता है. वो कहते हैं, "मैं सोच रहा हूं कि क़ानूनी तौर पर भी अपना नाम बदल कर कामरान ऑन बाइक रख लूं."
पिछले नौ वर्षों में कामरान ने 50 हज़ार किलोमीटर साइकिल चलाकर 43 देशों की यात्रा की है. आज कल कोविड-19 के कारण पाकिस्तान में रुके हुए हैं और इंतज़ार कर रहे है कि कब उन्हें हरी झंडी मिले और वो अपनी साइकिल के पैडल पर पैर रखें.
हालांकि, इस समय भी, वह ख़ाली नहीं बैठे हैं. अपनी पिछली यात्राओं में ली गई अनगिनत तस्वीरों में से, अच्छी तस्वीरों को अपने सोशल मीडिया अकॉउंट पर शेयर करते रहते हैं और उनके बारे में ब्लॉग लिखते रहते हैं. यानी यात्रा अभी भी नहीं रुकी है और "पिक्चर अभी बाक़ी है, मेरे दोस्त."
बीबीसी उर्दू के साथ एक वर्चुअल इंटरव्यू में कामरान ने अतीत की कुछ यादें साझा की हैं जो हम आपके सामने पेश कर रहे हैं.
साइकिल का जुनून और घर वालों की मार?
मेरा जन्म दक्षिण पंजाब के शहर लेह में हुआ था. मेरे पिताजी की पुराने टायरों की एक दुकान थी जहां वे टायर में पंक्चर लगाने का काम करते थे.
मैं भी दुकान पर उनका हाथ बंटाता था. मेरे पिता चाहते थे कि मैं पढ़ लिख जाऊं और उनकी तरह पंक्चर बनाने का काम न करूं. इसलिए मैंने लेह से ही इंटरमीडिएट किया और फिर मुल्तान चला गया. जहां मैंने बहाउद्दीन ज़करिया विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में बीएससी और फिर एमएससी की. उसके बाद जर्मनी में मेरा एडमिशन हो गया. वहां जाकर मैंने मास्टर्स की और पीएचडी पूरी की.

बचपन में जब मैं 12 या 13 साल का था, तो मैं एक बार अपने एक दोस्त के साथ साइकिल से 12 रबी-उल-अव्वल (अरबी महीना, इस दिन पैग़ंबर मोहम्मद का जन्म हुआ था और उनकी मृत्यु भी इसी दिन हुई थी) के दिन चौक आज़म गया. यह लेह से 26 किलोमीटर दूर एक छोटी सी जगह है. वहां 12 रबी-उल-अव्वल का एक प्रोग्राम हो रहा था.
इस यात्रा में एक और क्लासमेट भी शामिल हो गए. एक आगे बैठा और एक पीछे और मैं 12 साल की उम्र में दो लड़कों को साइकिल पर बिठा कर निकल पड़ा.
रास्ते में हम नहरों पर रुके, फल तोड़ कर खाये, बहुत मज़ा आया. इस तरह, मेरी पहली साइकिल यात्रा 52 किलो मीटर की थी, जिसमें आना और जाना शामिल था. इससे मुझे एक अजीब सा आनंद आया. और कहते हैं न कि, 'जैसे पर लग जाते हैं' मुझे भी ऐसा ही लगा.
उसके बाद मैंने घर वालों से छिप-छिप कर लेह से मुल्तान की यात्रा की, जो कि 150 या 160 किमी दूर था. उसके बाद मैं लेह से लाहौर भी गया जो दो दिन की यात्रा थी. हर एक यात्रा के बाद जब परिवार को पता चलता था तो मार भी पड़ती थी कि मैं पढ़ने के बजाय क्या कर रहा हूं.
उसके बाद मैंने बताना ही बंद कर दिया. वो कहते थे कि आपको अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए, हम आप पर इतना पैसा ख़र्च कर रहे हैं, और आप यह कर रहे हैं. सीधे हो जाओ नहीं तो, फिर दुकान पर ही बिठा देंगे.
जर्मनी की यात्रा
इसके बाद मेरा जर्मनी में कंप्यूटर साइंस में एडमिशन हो गया. हालात तो मुश्किल थे, लेकिन बड़ी मुश्किल से लोगों से पैसे मांग कर इकट्ठा किये और जर्मनी की यात्रा शुरू की.
यह 16 अक्टूबर 2002 की बात है. इस्लामाबाद से फ्रैंकफ़र्ट तक पीआईए की फ्लाइट थी. इस महीने 16 अक्टूबर को इस यात्रा को 18 वर्ष हो जायेंगे. जैसे ही विमान तुर्की के ऊपर से गुज़रा, खिड़की से बाहर देखते हुए, नदी, नाले, सड़क आदि सब कुछ मुझे आड़ी तिरछी लाइनों की तरह दिख रहे थे.
पहाड़ ऐसे लग रहे थे जैसे पुराने काग़ज़ों में सिलवटें पड़ी हुई हों. मुझे लगा कि इतना विशाल और सुंदर परिदृश्य है, लोग यहां कैसे रहते होंगे, वे किस बारे में बात करते होंगे, इनकी संस्कृति क्या होगी.

मैं सोचता रहा लेकिन मुझे उस समय इसका जवाब नहीं मिल रहा था. मैंने उस समय सोचा, क्यों न मैं इन रास्तों पर ख़ुद चल कर यह सब देखूं.
विमान अभी तक जर्मनी उतरा भी नहीं था. मैंने वहीं बैठे-बैठे ख़ुद से वादा किया कि एक दिन मैं जर्मनी से पाकिस्तान साइकिल पर जाऊंगा. जर्मनी में उतरने के बाद, अपने सपने को पूरा करने में नौ साल लग गए.
जर्मनी में ज़िन्दगी और ग़रीबों की सवारी
वहां पहुँचने के बाद, बस जीवन एक बार फिर से व्यस्त हो गया. पहले अपनी एम.एस.सी, की. इसके बाद जो क़र्ज़ लेकर आया था,धीरे धीरे वो क़र्ज़ चुकाया. फिर पीएचडी में दाख़िला मिल गया तो पीएचडी करने लगा. फिर परिवार की जिम्मेदारियों को पूरा करते करते नौ साल बीत गए.
जब मैंने अपने परिवार को बताया कि मैं साइकिल पर वापस आना चाहता हूं, तो उन्होंने कहा, "हमने आपको इतनी दूर जर्मनी इतना ख़र्च करके पढ़ने के लिए भेजा और आप वही ग़रीबों की सवारी साइकिल की ही बात कर रहे हैं.
मैंने फिर अपनी मां को इमोशनल ब्लैकमेल किया और इस तरह मुझे इजाज़त मिली.
जर्मनी से पाकिस्तान - एक सपना जो अधूरा रह गया
2011 में मैंने जर्मनी से पाकिस्तान की यात्रा शुरू की. पूरा यूरोप तो बस देखते देखते ही गुज़र गया. दिन में सौ दो सौ किलो मीटर और कभी-कभी तो 250 किलो मीटर भी हो जाते थे. जब मैं तुर्की पहुंचा तो मुझे मेरे भाई का फ़ोन आया कि मेरी माँ बहुत बीमार है और अस्पताल में है. उन्हें दिल का दौरा पड़ा है इसलिए मैं जल्दी घर पहुँचू.
मैंने वहां एक जगह अपनी साइकिल खड़ी की, इस्तांबुल पहुंचा और वहां से पाकिस्तान के लिए फ्लाइट ली. आने के बाद, मैं कुछ समय के लिए अस्पताल में रहा, फिर मेरी माँ का निधन हो गया. वह बहुत बड़ा दुख था क्योंकि एक सपना था कि साइकिल से पाकिस्तान जाऊंगा और मां से मिलूंगा. वह देखेगी कि बेटा जर्मनी से साइकिल पर भी आ सकता है.
इसलिए 2011 में जर्मनी लौटने के बाद, मेरा दिल इतना भारी हो गया था कि मैंने यह भी सोचा कि अब दोबारा साइकिलिंग नहीं करनी. माँ की मृत्यु और अधूरी यात्रा से एक तरह से दिल ही टूट गया था. लेकिन दिल का क्या करें, एक साल बाद फिर से सपने आने लगे.
अधूरा सपना बहुत परेशान करता था, जब मैं नक़्शे को देखता, तो ऐसा लगता था कि कुछ रह गया. हमारी रसोई में दुनिया का एक नक़्शा लगा हुआ था. जब भी मैं वहां खाना खाने बैठता था, तो ऐसा लगता था कि नक़्शे पर एक बिंदु चलना शुरू हो गया और जैसे ही वह चलता तो तुर्की में रुक जाता था. लेकिन यह बिंदु कुछ समय के लिए रुक कर फिर से चलना शुरू कर देता और चलता-चलता पाकिस्तान आकर रुकता.
इसी तरह, जब मैं ऑफ़िस जाता था, तो मेरे बॉस मुझे कंप्यूटर का कोई डायग्राम समझाते थे तो मुझे वहां भी वह बिंदु दिखना शुरू हो जाता था. धीरे-धीरे यह पागलपन जैसी स्थिति मुझे परेशान करने लगी और आख़िरकार मैं अपने बॉस के पास गया और कहा कि यह समस्या है और मुझे छुट्टी चाहिए.
उन्होंने मुझे छह महीने की छुट्टी देने से इंकार कर दिया और कहा कि वे मुझे केवल तीन महीने की छुट्टी दे सकते हैं.
उस छह और तीन महीने के चक्कर में, मैंने मार्च 2015 में उस नौकरी को ही छोड़ दिया. कुछ सामान को स्टोरेज में रखवा दिया, कुछ फेंक दिया था. एक छोटी सी कार थी वो भी बेच दी. यानी, चार साल बाद दोबारा सब कुछ छोड़ छाड़ कर मैं अपनी यात्रा की तैयारी कर रहा था. मैंने अपनी यात्रा दोबारा वहीं से शुरू की जहां पर मैं रुका था,रात भी तुर्की के उसी होटल में गुज़ारी जहां मैं 2011 में रुका था.
अधूरी यात्रा पूरी लेकिन रास्ता अलग
जब मैंने फिर से यात्रा शुरू की, तो सीधे ईरान जाने के बजाय, मैंने मध्य एशियाई देशों के रास्ते से पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया.
मैं मध्य एशिया से होते हुए खंजराब के रास्ते पाकिस्तान आया. ईरान से तुर्कमेनिस्तान, फिर उज़्बेकिस्तान, तज़ाकिस्तान, किर्गिस्तान और फिर चीन और वहां से खंजराब दर्रे के रास्ते पाकिस्तान पहुँचा.
मैंने जुलाई 2015 को पाकिस्तान में प्रवेश किया. इस तरह, इस सपने के आने और इसे सच करने में कुल 13 साल लग गए.

'मैं गिरगिट की तरह रंग बदलता हूं'
जब लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं एक कंप्यूटर इंजीनियर हूं, एक पर्यटक हूं, एक साइकिल चालक या एक ब्लॉगर हूं, तो मेरा जवाब यह है, 'बुल्ला की जाना मैं कौन?' मैं जिस मोड़ में बैठा होता हूं वही बन जाता हूं.
कंप्यूटर क्षेत्र के लोगों से बात करते समय, कंप्यूटर इंजीनियर, जब फ़ोटोग्राफ़रों के बीच हूं तो फ़ोटोग्राफ़र और साइकिल चालकों के बीच हूं तो साइकिल चालक. इस तरह मैं भी गिरगिट की तरह अपना रंग बदलता रहता हूं.मैंने कभी अपनी कोई निश्चित पहचान नहीं रखी, क्योंकि मुझे लगता है कि यह आपकी एक निश्चित मानसिकता बना देती है. मैंने तो अपने इंस्टाग्राम "2015 से बेरोज़गार" भी लिख रखा है.
यात्रा का ख़र्च कौन उठाता है?
शुरुआत में, मैं अपनी सारी बचत इस पर ख़र्च करता था. पहली यात्रा और दूसरी यात्रा की शुरुआत 13 साल तक जर्मनी में रहते हुए की गई बचत से हुई थी, लेकिन बाद में जब मैंने दक्षिण अमरीका की यात्रा की तो, सारे पैसे ख़त्म हो गए थे.
यह यात्रा अर्जेंटीना से शुरू की और मुझे अपने ख़र्चों को पूरा करने के लिए बहुत सारे अजीब काम भी करने पड़े. कभी-कभी पत्रिकाएं मेरी तस्वीरें ख़रीद लेती हैं, कभी-कभी ऑनलाइन डाली हुई टी-शर्ट बिक जाती हैं, कभी-कभी मैं ट्रेवल या बाईसाइकिल मैगज़ीन्स के लिए लेख लिख देता हूं.
मुफ़्त खाने और मुफ़्त रहने के लिए सड़कों पर मजदूरी की है. उदाहरण के लिए, एक बार मुझे कहा गया था कि यदि आप चार घंटे काम करते हैं, तो मुफ़्त में रहने के लिए जगह मिलेगी. प्लेटें धोई हैं, वेटर की तरह खाना परोसा है और कंप्यूटर साइंस का काम भी फ्रीलांस किया है.
रास्ते में रुक कर ग्राफ़िक डिज़ाइनिंग और वेबसाइट डिज़ाइनिंग भी की है. और क्योंकि मैं यात्रा के दौरान अपनी पोस्ट डालता रहता था, तो लोगों को भी मेरे बारे में पता चलने लगा था, और कभी-कभी लोग चंदा भी दे देते थे. किसी ने 20 डॉलर भेज दिए तो किसी ने 50 डॉलर.
जब, मैं दक्षिण अमरीका की यात्रा समाप्त कर उत्तरी अमरीका की तरफ़ चला, तो मुझे वहां पहुंचने के लिए नाव से जाना था और मेरे पास नाव की यात्रा के लिए पैसे नहीं थे. वहां मैंने क्राउडफंडिंग शुरू की.
मैंने अपने फंडिंग कैंपेन में लिखा था कि 'मैं यात्रा कर रहा हूं, जिसके बारे में मैं लिख रहा हूं और इसके चित्र भी भेज रहा हूं, अगर आपको मेरी यह यात्रा पसंद आती है तो, मुझे फाइनेंस करें, इससे भी मुझे थोड़े बहुत पैसे मिलने शुरू हो गए.
इन यात्राओं के बारे में दिलचस्प बात यह है कि कई बार रास्ते में खड़े अजनबियों ने भी पैसे दिए.
अगर आप अर्जेंटीना के नक़्शे को देखें, तो यह दक्षिण अमरीका का सबसे दक्षिणी भाग है. वहां से बोलीविया और अन्य देशों से होते हुए पेरू और फिर चिली. यह जनवरी 2016 की बात है.
ऐसी हज़ारों घटनाएं हैं जिन्हें साझा किया जा सकता है, पन्नें ख़त्म हो जाएंगे, घटनाएं नहीं. इन देशों में जाने से पहले मुझे इनके बारे में कुछ नहीं पता था.जाने से पहले, मैंने डिक्शनरी से स्पेनिश भाषा में हैलो वगैरह सीखा था. जब वहां पहुंचा तो देखा कि यहां तो अंग्रेजी में कोई बात ही नहीं करता.फिर जल्दी जल्दी स्पेनिश सीखना शुरू की.
दक्षिण अमरीका में, अगर प्राकृतिक दृश्यों की बात करें तो वहां जैसा नज़ारा कहीं नहीं है. उनमें एक से बढ़ कर एक देश हैं, ऐसी सुंदरता जो आपको कहीं नहीं दिखती. लेकिन इससे भी ज़यादा, जिस तरह के लोग हैं उसकी कहीं और से तुलना नहीं की जा सकती.
शुरुआत करते हैं अर्जेंटीना से. अर्जेंटीना के जिस शहर में मैं उतरा,उसे ऐशवाया कहा जाता है और इसे दुनिया का सबसे दक्षिणी शहर कहा जाता है. जब हम रात में सड़कों पर घूम रहे थे, एक आदमी ने पूछा कि हम यहां क्या कर रहे हैं. हमने कहा हम यात्री हैं और यहां से साइकिल से यात्रा शुरू करनी है. उसने कहा, "मेरे साथ आओ." हम दो या तीन साइकिल चालक थे. उनके घर गए जहां उसने हमारा बहुत ख्याल रखा, मुझे पता भी वह कि उसने हमें क्या क्या बना कर खिलाया. यह हमारी यात्रा की बस अभी शुरुआत थी.
साइकिल चालकों के साथ समस्या यह है कि वे अपने साथ बहुत सारा भोजन नहीं ले जा सकते हैं. ज़यादा पानी नहीं ले जा सकते.रहने की भी हमेशा समस्या रहती है.दक्षिण का जो भाग है वहां के एक क्षेत्र को पम्पास कहा जाता है. पम्पा का अर्थ है तराई क्षेत्र और अर्जेंटीना में इसमें, ब्यूनस आयर्स, ला पम्पा, सांता फे, एंट्रे रोस और कॉर्डोबा के क्षेत्र शामिल हैं.
उनमें से एक, पेटागोनिया में एक ऐसा क्षेत्र है जहां कोई पेड़ नहीं हैं और वहां हवाएं सौ-डेढ़ सौ किलो मीटर की गति से चलती और अगर टेंट लगाएं तो, तुरंत उड़ जाता है. जिसका मतलब है कि वहां सिर छिपाने के लिए कोई जगह नहीं मिलती. वहां, अगर हमें कहीं दूर भी आबादी या कोई घर दिखाई देता, तो हम सीधे जाते और उनके दरवाज़े पर दस्तक देते थे कि हमें अपना सिर छिपाने के लिए थोड़ी जगह मिल सके.
वहां, जब भी मौसम की परेशानी की वजह से किसी के घर का दरवाज़ा खटखटाया, किसी को कभी बुरा नहीं लगता था. हमेशा अंदर आने को कहा और खाना भी खिलाया और रहने के लिए जगह भी दी.
ऐसी ही एक घटना याद आई. हम ख़राब मौसम से बचने के लिए किसी जगह की तलाश कर रहे थे कि एक घर दिखाई दिया. उस घरवालों ने हमें रहने के लिए जगह दी और गरम-गरम अपनी ख़ास चाय भी पिलाई. अब सुनिए चाय की कहानी. उनकी चाय को माते कहा जाता है. और वो इस तरह की नहीं होती कि अगर पांच मेहमान हैं तो पांच कप बनेंगे, नहीं, बल्कि केवल एक ही बड़ा कप होता है, जिसमें से हर कोई स्ट्रा से एक-एक करके चाय पीता है.
पहले मेज़बान ने तीन या चार घूंट लिए और फिर उन्हें एक दूसरे को घेरे के हिसाब से दे दिया. मेरी दक्षिण एशियाई मानसिकता के कारण, मुझे लगा कि यह बुरी बात है कि पहले मेज़बान पी रहा है और फिर मेहमानों को पेश की जा रही है.
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूछा कि हमारी संस्कृति में, पहले मेहमानों को खिलाया जाता है और फिर मेज़बान खाता है. तब मेज़बान ने हंसते हुए कहा, "भाई, पहले कुछ घूंट हम इसलिए लेते हैं क्योंकि हमारी चाय की ऊपर की परत बहुत कड़वी होती है और कोई भी अजनबी इसे नहीं पी सकता. हम पहले उस कड़वाहट को पीते हैं ताकि दूसरा उसे आराम से पी सके."
एक घटना पेरू की भी है जो हमेशा याद रहेगी. वहां मैं एक बार साइकिल से जा रहा था मैंने देखा कि ऊपर पहाड़ पर हल्का-हल्का शोर हो रहा है.
जब मैं ऊपर गया, तो मैंने देखा कि कुछ लोग आग के चारों ओर खड़े थे, वो सब लंबे-लंबे कपड़े पहने हुए थे. उनके बाल भी बहुत लंबे थे और वो हाथ उठाकर दुआएं मांग रहे थे.
बाद में, जब उनसे बात की, तो उन्होंने बताया कि वे इसराइली हैं जो यीशु को मानते हैं और उनका विश्वास हैं कि यीशु यहां आएंगे. "हमारा येरूशलम यहीं पेरू में बनेगा."
उन्होंने कहा यहीं रुको, कल हम 24 घंटे का उपवास करेंगे और उसके बाद बली देंगे और दावत भी होगी. आप हमारे साथ रुको. मैंने भी कुछ नहीं खाया और 24 घंटे का उपवास किया.
वह एक ग़रीब समुदाय था. उनके पास छह भेड़ थी.उन्होंने मुझे बताया कि वे छह दिनों के धार्मिक उत्सव में छह भेड़ों की बली देंगे.
पहले दिन,उन्होंने एक भेड़ की बली दी, उसकी खाल उतारी, जैतून का तेल, जड़ी बूटी और नमक लगाया. इसे देखते ही मेरी भूख और तेज हो गई और मैं शाम को अपना उपवास तोड़ने के बाद एक स्वादिष्ट बारबेक्यू की प्रतीक्षा करने लगा. शाम को सभी लोग एक साथ आए और आग जलाकर उस पर भेड़ों को भूनने लगे.
आग से मीठी और सुगंधित गंध आने लगी और भूख तेज हो रही थी. लेकिन उसी समय मैंने देखा कि लोग एक-एक करके वापस जाने लगे. भेड़ आग पर थी और अब जलने लगी थी. मैंने सोचा कि शायद वे अधिक भुनी हुई या जली हुई भेड़ खाते होंगे. मेरी चिंता और भूख दोनों अपने चरम पर थे.
थोड़ी देर बाद सभी लोग चले गए और जलने की गंध और ज़्यादा आने लगी. मैं दौड़ते हुए एक आदमी के पास गया और उससे पूछा कि भाई भेड़ तो अब जल रही है, तो इसके साथ क्या करना है. उसने कहा कि हम ऐसे ही बली देते हैं. हम बली नहीं खाते हैं, यह भगवान के लिए है और यह धुएं के माध्यम से उस तक पहुंचता है.
ईश्वर को खाना तो नहीं, लेकिन उसकी सुगंध आकाश तक ज़रूर पहुंच जाती है. फिर वे मुझे एक रसोई में ले गए और बड़ी कढ़ाई से सारी बोटियां मेरी प्लेट में डाल दी और कहा कि खाना यहां है.
मैं बहुत शर्मिंदा था लेकिन उन्होंने कहा कि यह आपके लिए है आराम से खाओ. इतनी ग़रीबी के बावजूद, उन्होंने मुझे पेट भर के खिलाया और मुझे एक और रात बिताने के लिए भी जगह दी.
कमज़ोर नज़र को नहीं बनने दिया रास्ते की रुकावट
अगले दिन जाते समय, मैंने सोचा कि उन लोगों के अहसान के बदले, मुझे उनके लिए कुछ करना चाहिए और उन्हें कुछ पैसे देने चाहिए.
मैं दो रातों तक उनके साथ रहा और उन्होंने इतनी देखभाल की है. फिर मेरे मन में विचार आया कि पैसे तो मेरे पास भी बहुत कम बचे हैं, अगर मैं इन्हें दे दूं तो बिलकुल ही ख़त्म हो जायेंगे, इसलिए मैंने अपने दिल से पैसा देने का विचार निकाल दिया.
अगले दिन जब मैं जा रहा था तो, एक बूढ़ा व्यक्ति मेरे पास आया और हाथ मिलाया. जैसे ही उसने अपना हाथ हटाया, मैंने देखा कि उसने मेरे हाथ में कुछ छोड़ दिया है.
यह दस पेरुवियन सोलेस (पेरू की मुद्रा) का नोट था. मैंने कहा, "यह क्या है?" बूढ़े व्यक्ति ने उत्तर दिया, "यार, आप एक यात्री हैं और यह आपकी यात्रा के लिए एक छोटी सी रक़म है. इससे कुछ लेकर खा लेना." उन्होंने अपनी मेहरबानी और उदारता में मुझे पूरी तरह से हरा दिया.
साइकिल ने खोली नई उड़ान की राह ,पाकिस्तान की आयशा की कहानी
मैं अपनी नज़रों में बहुत शर्मिंदा हुआ. जिस विचार को मैंने कुछ समय पहले ख़ारिज कर दिया था, उन्होंने बड़ी सहजता से उसे आकार दे दिया. इसने मुझे एक बहुत अच्छा सबक सिखाया कि जब भी आप कुछ अच्छा करना चाहते हैं, उसे तुरंत करें, इंतजार न करें.
ग्वाटेमाला से प्यार क्यों?
ग्वाटेमाला मध्य अमरीका में मेरा पसंदीदा देश है, इसकी बुनियादी वजह इसका परिदृश्य है. जब तीन ज्वालामुखी एक छोटे से शहर के ऊपर खड़े होते हैं, तो ऐसा लगता है कि यह शहर एक राजा है और यह इसके रक्षक हैं. इन रक्षकों में से एक अक्सर डायनासोर की तरह आग भी उगल रहा होता है.
ग्वाटेमाला से प्यार करने का एक और कारण यह है कि मैं वहां लंबे समय तक रहा और स्पैनिश भाषा का कोर्स किया और स्थानीय परिवारों के साथ रह कर भाषा सीखी.
दो महिलाएं थीं जिन्होंने हमें पढ़ाया. एक के साथ मैं और कुछ लोग तीन घंटे तक स्पैनिश व्याकरण सीखते थे. और फिर दूसरी महिला के साथ हम तीन घंटे के लिए शहर जाते थे और इस व्याकरण का उपयोग करते थे. यानी जो कुछ सुबह सीखा तीन घंटे बाद उसे स्थानीय लोगों से बात करके उपयोग किया.
वहीं एक दिन जब मैं तस्वीरें ले रहा था, एक महिला मेरे पास आई और कहा कि क्या आप मेरी तस्वीर ले सकते हैं. उन्होंने कहा कि उनके पास उनके आईडी कार्ड के अलावा उनकी कोई तस्वीर नहीं है.
मैंने इनकी एक तस्वीर ली और अगले दिन इसे प्रिंट करके दे दी. वह वहां हाथों से बनाई हुई स्थानीय चीज़ें बेचने आया करती थीं. अगले दिन वह अपने साथ और लोगों को ले आई और धीरे धीरे, मैंने तीस या चालीस लोगों की तस्वीरें ले लीं.
इसका फ़ायदा यह हुआ कि इस छोटे से शहर में अपना माल बेचने के लिए दूर-दूर से आए सभी लोग मेरे मित्र बन गए. वो ज़िद करके मुझे अपने अपने गांव लेकर जाते रहे. जिससे मैंने उनकी संस्कृति को बहुत नज़दीक से देखा. शायद इसलिए मैं ग्वाटेमाला से प्यार करता हूं. मैं उनके धार्मिक, सामाजिक यहां तक कि सभी प्रकार की रस्मो रिवाज में शामिल हुआ.
ये ऐसे-ऐसे दूर दराज़ के क्षेत्र थे जहां पर्यटक भी नहीं जाते और न ही उन लोगों को बाहरी दुनिया के बारे में ज़्यादा जानकारी थी. पाकिस्तान की तो बिल्कुल नहीं. सैकड़ों दृश्यों, संस्कृति और बेहतरीन लोगों के कारण, मैं इस छोटे से देश के छोटे-छोटे क्षेत्रों में कुल तीन महीने तक रहा. वहां के लोग इतने मेहमान नवाज़ हैं कि, शायद ही कहीं और के लोग हों.
इसी तरह, अमरीका के ग्रांड कैन्यन में एक सुनसान पहाड़ पर एक महिला मिली, जो 800 मील के एरिजोना ट्रेल पर अपनी बहन की याद में यात्रा कर रही थी.
उन्होंने मुझे बताया कि उनकी बहन ने आत्महत्या कर ली थी और इसलिए उन्होंने फ़ैसला किया कि बहन की याद में घर बैठ कर शोक मनाने और फिर अवसाद में जाने से अच्छा है कि मैं अपनी बहन के लिए कुछ करूं.
उन्होंने अपनी बहन की अस्थियां ग्रैंड कैन्यन के अंत में कोलोराडो नदी में प्रवाहित करने का फ़ैसला किया. "ग्रैंड कैनियन उनकी पसंदीदा जगह थी. इसलिए मैं यहां आई हूं. यह उनके लिए है. "
उसने मुझे भी कुछ राख दी ताकि अगर मैं पहले वहां पहुंचू, तो मैं भी उसे नदी में प्रवाहित कर दूं. जब मैं कुछ दिन बाद नदी पर पहुंचा, तो मैंने राख नदी में प्रवाहित कर दी. देखिये मैं अपने शौक़ को पूरा करने और तस्वीरें लेने के लिए ग्रैंड कैन्यन गया था और इसने कैसे मुझे एक भावनात्मक कहानी का हिस्सा बना दिया.

कभी अकेले डर नहीं लगता?
मैंने अब तक कम से कम 50 हज़ार किलो मीटर की यात्रा की है. इसमें से लगभग दो हजार किलो मीटर लोगों के साथ, जबकि बाकी सब यात्रा अकेले ही की है. कहीं कहीं डर ज़रूर लगता है.
आबादी वाले इलाके में ट्रैफ़िक से डर लगता है और सुनसान बयाबान स्थान पर जानवरों और चोरों से डर लगता है. देखिए, साइकिल चालक बहुत कमज़ोर होता है, उसके साथ कुछ भी हो सकता है.
सड़क पर मेरे साथ कभी कुछ नहीं हुआ, लेकिन जब शहर में कहीं थोड़ी देर के लिए साइकिल छोड़ी तो, कुछ न कुछ ज़रूर हो जाता था.
उदाहरण के लिए, कोलंबिया में, मेरा लैपटॉप बैग जिसमें मेरा पासपोर्ट, क्रेडिट कार्ड और इमरजेंसी कैश था, चोरी हो गया था. मेरी क़िस्मत अच्छी थी कि वो मुझे बाद में वापिस मिल गया.
इसी तरह, कहीं जंगली शेरों का डर तो कहीं जंगली भालू का डर, चाहे आप कितने भी सावधान क्यों न हों, लेकिन अंधेरे में डर जरूर महसूस होता है. आपको बस ये बर्दाश्त करना आना चाहिए.
अगर किसी को साइकिल चलाने में दिलचस्पी है, तो वो कहां से शुरू करे?
शौक़ अपने रास्ते ढूंढ लेता है. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं दुनिया के इतने ज़्यादा देशों में साइकिल चलाऊंगा. अगर आप पाकिस्तान में हैं तो आपके पास पाकिस्तान में भी साइकिल चलाने की जगहें हैं.
मैं तो बस यही कहूंगा कि छोटे से शुरू करें और बस फिर करते जाएं. लेकिन यह भी बता दूं कि यह एक बहुत ही अकेला और मानसिक और शारीरिक रूप से थका देने वाला शौक़ है.
यह भी सच है कि एक तरह से एक आज़ादी भी है. सैकड़ों मील के क्षेत्र में पहाड़, घाटियां और परिदृश्य आपके इंतजार में हैं. लेकिन साथ ही, इन हज़ारों मील में जो कठिनाइयां, सर्दी, गर्मी, बारिश, तूफान है वो भी एक हक़ीक़त हैं.
आप दस-दस दिनों तक स्नान नहीं करते हैं, खाना ख़त्म हो जाता है, पानी कम हो रहा है. बार-बार एक ही तरह का खाना खाना पड़ रहा है, पिज्जा के सपने आ रहे हैं. कई लोग तो इन्हें बर्दाश्त ही नहीं कर सकते हैं और बीच में छोड़ कर चले जाते हैं.
क्या साइकिल के अलावा किसी को साथी बनाने का इरादा हैं?
एक बार तो तज़ाकिस्तान में एक परिवार जिसके साथ मैं रुका था, उसने मुझे अपनी बेटी से शादी करने के लिए कहा. एक बार अफ़ग़ानिस्तान और तज़ाकिस्तान के बीच वखान घाटी में, पंज नदी के साथ जहां नदी बहुत सिकुड़ती है, नदी के उस पार से एक लड़के ने मुझे दर्री भाषा में आवाज़ दी कि, "क्या तुम शादीशुदा हो?" मैंने कहा नहीं. उसने पास खड़ी एक लड़की की ओर इशारा किया और कहा, "यह मेरी बहन है. इससे शादी कर लो."
पूरा परिवार वहां था, एक महिला, एक बच्चा, वो लड़की और उसका भाई. लेकिन उन्हें इसमें कुछ अजीब नहीं लगा. जब मैंने लड़की की तरफ़ देखा, तो उसने मुझसे दर्री भाषा में कुछ कहा जिसका मतलब था 'आई लव यू'. मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और फिर मैंने हिम्मत करके उसी वाक्य को दोहरा दिया. बस बात यहीं पर ही ख़त्म हो गई. और मैं नदी के पार नहीं गया, और न ही वह मेरी सोहनी बानी. "आई लव यू" की आवाज़ मेरे दिमाग़ में कई दिनों तक गूंजती रही.
वैसे, मैंने तो साइकिल से ही शादी कर ली है.(bbc)
- शुज़ा मलिक
पाकिस्तान के पेट्रोलियम मामलों में प्रधानमंत्री के विशेष सलाहकार नदीम बाबर ने पाकिस्तान में बचे गैस भंडार के बारे में कहा है कि, 'यदि देश में कोई नए बड़े भंडार नहीं खोजे गए तो, केवल अगले 12 से 14 वर्षों की गैस बची है.'
बीबीसी के साथ एक विशेष इंटरव्यू में नदीम बाबर ने कहा कि, 'इस साल सर्दियों में गैस की क़ीमत बिलकुल नहीं बढ़ाई जाएगी. इस वित्तीय वर्ष के अंत तक यानी जून 2021 तक, उपभोक्ताओं को मौजूदा क़ीमत पर ही गैस उपलब्ध कराई जाएगी.'
नदीम बाबर ने कहा कि वर्तमान सरकार पिछली सरकार की तुलना में विश्व बाज़ार से सस्ती गैस ख़रीद रही है. यही वजह है कि, इस साल प्राकृतिक गैस के उपभोक्ताओं के बिलों में गैस के दाम नहीं बढ़ेंगे.
याद रहे कि प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पहले ही कह चुके हैं कि इस साल सर्दियों के मौसम में देश में गैस की कमी होगी.

इकोनॉमिक सर्वे ऑफ़ पाकिस्तान के अनुसार, पाकिस्तान में गैस का वार्षिक प्रोडक्शन चार अरब क्यूबिक फ़ीट है. जबकि इसकी खपत लगभग 6 अरब क्यूबिक फ़ीट है.
इस कमी को पूरा करने के लिए, देश एलएनजी (जोकि तरल रूप में होता है जिससे दोबारा गैस बनाया जाता है) का आयात करता है. लेकिन एलएनजी देश में गैस की कमी को पूरी तरह से समाप्त नहीं करती है.
पाकिस्तान में इस समय 1.2 बिलियन क्यूबिक फ़ीट की कुल क्षमता वाले दो एलएनजी टर्मिनल काम कर रहे हैं.
लेकिन पाकिस्तान में गैस की कमी क्यों है? इस सवाल के जवाब में नदीम बाबर का कहना है कि पाकिस्तान में स्थानीय गैस का उत्पादन बहुत तेज़ी से घट रहा है.
"पिछली सरकार ने एक अच्छा काम किया कि, एलएनजी को सिस्टम में शामिल किया और एक बुरा काम किया कि स्थानीय उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए था जो कि नहीं किया."
उन्होंने कहा, "पिछली सरकार के पांच वर्षों में कोई नया ब्लॉक एवार्ड नहीं किया गया और ड्रिलिंग की जितने तेज़ी से रिप्लेसमेंट होनी चाहिए थी उतनी तेजी से नहीं की गई." परिणामस्वरूप, स्थानीय उत्पादन में गिरावट आती रही और उधर मांग में वृद्धि होती रही. इस अंतर को अस्थायी रूप से बंद करने के लिए एलएनजी का आयात शुरू कर लिया गया था."
"लेकिन मांग तो बढ़ती जा रही है और एलएनजी की एक सीमा है कि हम कितनी एलएनजी ला सकते हैं. यही कारण है कि आपूर्ति और मांग के बीच फ़र्क़ बढ़ता जा रहा है. कोई भी ऊर्जा विशेषज्ञ आपको पांच साल पहले यह बता सकता था कि ऐसा होने जा रहा है. मैं ख़ुद यह बात तब से कह रहा हूं जब मैं सरकार में नहीं था. '
अगर विशेषज्ञों को पांच साल पहले पता था कि यह होने जा रहा है, तो पीटीआई को भी सत्ता में आये दो साल हो चुके हैं. इस बीच उन्होंने क्या क़दम उठाए हैं?
इस सवाल के जवाब में, नदीम बाबर ने कहा कि, "इस बीच, हमने (स्थानीय उत्पादन बढ़ाने के लिए) ई एंड पी यानी एक्सप्लोरेशन एंड प्रोडक्शन सेक्टर पर ध्यान दिया है. लेकिन इसके परिणाम तीन से चार साल बाद सामने आएंगे जब आप नई ड्रिलिंग शुरू करेंगे, नए भंडार की खोज करेंगे, इसमें कुछ साल लगते हैं."
इमरान ख़ान ने कहा है कि इस साल सर्दियों में गैस की क़िल्लत हो सकती है
"लेकिन इस बीच, आयात ही एकमात्र विकल्प बचा है. इस संबंध में, हमने कहा कि यह राज्य का काम नहीं है कि वह एलएनजी को ख़ुद से आयात करे और क़र्ज़ को बढ़ाते जाएं. हमने एलएनजी सेक्टर को खोल दिया है. पांच कंपनियों ने कहा कि वे टर्मिनल लगाना चाहती हैं, हमने पांचों को अनुमति दे दी है. इनमें से दो कंपनियां उस चरण में पहुंच गई हैं कि, अगले दो से तीन महीनों में उनके टर्मिनल पर ज़मीनी स्तर पर काम शुरू हो जाएगा.साल या सवा साल के अंदर अंदर ये दोनों टर्मिनल लग जाएंगे."
अगर टर्मिनल के निर्माण में एक साल या सवा साल ही लगना था तो, पीटीआई सरकार ने 2018 में सत्ता में आते ही यह कार्य क्यों नहीं किया, ताकि आज यह संकट न होता?
"देखिये एक दम से यह कार्य नहीं हो सकता. इसमें क़ानूनों को बदलने की आवश्यकता थी, अनुमतियां प्राप्त करने की आवश्यकता थी, नियामक संरचना को बदलने की आवश्यकता थी, लेकिन इसमें यह भी देखें कि पहले एलएनजी टर्मिनल जब लगे थे, उनके लगने में आठ साल लगे थे.
आमतौर पर, सर्दियों के आते ही पाकिस्तान में गैस की क़ीमत बढ़ा दी जाती है. क़ीमत की बात की जाये तो, वर्तमान सरकार ने पिछली सरकार के एलएनजी समझौतों की बहुत आलोचना की है. पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद ख़ाक़ान अब्बासी भी इस संबंध में एनएबी की जांच का सामना कर रहे हैं. लेकिन क्या इस सरकार को सस्ती गैस मिल रही है?
नदीम बाबर का कहना है कि मौजूदा सरकार पिछले समझौतों की तुलना में सस्ता एलएनजी ख़रीद रही है.
"क़तर की सरकार के साथ हमारा जो समझौता है उसमें हम कच्चे तेल की क़ीमत का 13.37 प्रतिशत ख़रीद रहे हैं. लेकिन पिछली सरकार के समझौतों के अलावा, हम जो अतिरिक्त एलएनजी ख़रीद रहे हैं, वह सर्दियों में पांच से दस प्रतिशत सस्ता ख़रीद रहे हैं और गर्मियों में ये लगभग 40 प्रतिशत सस्ता रहेगी."
इसका मतलब तो यह हुआ कि, इस साल उपभोक्ताओं के लिए गैस महंगी नहीं होगी? बाबर कहते हैं, "बिल्कुल नहीं, अगले जुलाई तक पाकिस्तान में गैस की क़ीमतों में कोई अंतर नहीं होगा."
लेकिन पिछली सरकार के तहत लंबी अवधि के समझौतों के पक्ष में विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के समझौते वैश्विक बाज़ार में कीमतों में तेज़ उतार-चढ़ाव से आपको बचा लेते हैं. आज तो सरकार को सस्ती गैस मिल रही है, कल नहीं मिली तो?
इस संबंध में, नदीम बाबर का कहना है कि समझौतों की एक सूचकांक दर निश्चित होती है और दुनिया में बहुत कम एलएनजी समझौते होंगे जहां क़ीमत तय की गई हो. क़तर सरकार के साथ हमारे समझौते में भी कच्चे तेल की क़ीमत का 13.37 प्रतिशत मूल्य निर्धारित किया गया है. लेकिन कच्चे तेल की क़ीमत तो हर दिन ऊपर नीचे जा रही है.
इमरान ख़ान के ये नुस्खे कितने कारगर होंगे?
एक तरफ़, सरकार देश में निर्माण क्षेत्र को विकसित करने की कोशिश कर रही है और इस संबंध में, इस क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. दूसरी ओर, ऐसी रिपोर्टें हैं कि सरकार नए गैस कनेक्शनों पर प्रतिबंध लगा रही है? लेकिन नदीम बाबर का इस बारे में कहना है कि मुश्किलें हैं, लेकिन कोई प्रतिबंध नहीं.
"दुनिया भर में पाइप के माध्यम से गैस घर पर आना एक लग्ज़री होती है. आमतौर पर गैस की आपूर्ति सिलेंडर या अन्य स्रोतों से की जाती है. हमारे देश में, 27 प्रतिशत उपभोक्ताओं को पाइप के माध्यम से गैस मिलती है, लगभग 27 से 28 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जो एलपीजी पर चलते हैं और बाकी अन्य प्रकार के ईंधन का उपयोग करते हैं."
उन्होंने कहा, "स्थानीय स्तर पर गैस का उत्पादन करने के लिए हमें 700 रुपये का ख़र्च आता है, जबकि हम उपभोक्ताओं से लगभग 275 रुपये से 300 रुपये वसूलते हैं. वर्तमान में, हमारे देश में 90 प्रतिशत उपभोक्ता सब्सिडी से लाभान्वित हो रहे हैं. दूसरी ओर, हमारी आपूर्ति घट रही है. अब इस मामले में, यदि हम नए कनेक्शन देते हैं, तो हम इसमें गैस कहां से डालेंगे? लेकिन फिर भी नए कनेक्शन पर प्रतिबंध नहीं है."
उन्होंने आगे कहा कि, "ओजीआरए ने घटती आपूर्ति के मद्देनजर प्रत्येक वर्ष के लिए एक सीमा निर्धारित की है कि आप इतने कनेक्शन दे सकते हैं. इस वर्ष की सीमा चार लाख हैं. जैसा कि आप जानते हैं कि, वर्तमान में हमारे पास 28 लाख कनेक्शन के आवेदन पड़े हैं. नई सोसायटी जितनी चाहें बना लें, उनसे एलएनजी की क़ीमत वसूल कर लें फिर तो कोई समस्या ही नहीं,जितनी चाहिए होगी आयात कर लेंगे ... हां, लेकिन उस स्थिति में उपभोक्ता को तीन गुना बिल देना होगा. हमें कीमतों, आपूर्ति और नए कनेक्शन सबको संतुलित करके चलना है."
पाकिस्तान में केवल 12 से 14 साल की गैस बची है
देश में बाक़ी बचे गैस भंडार के बारे में नदीम बाबर ने कहा कि. अगर देश में नए बड़े भंडार की खोज नहीं की गई तो, केवल अगले 12 से 14 वर्षों की गैस बची है.
उन्होंने बताया कि देश में पिछले दस से बारह वर्षों में कोई बड़ी खोज नहीं हुई है और पिछले पांच वर्षों में देश में 90 भंडार की खोज हुई है. इस सरकार में पिछले दो वर्षों में 26 भंडार की खोज हुई हैं, लेकिन वो सभी बहुत छोटे हैं.
"उनकी कुल मात्रा 250 मिलियन क्यूबिक फीट है, जबकि इसी दौरान अन्य भंडार की आपूर्ति में चार सौ मिलियन क्यूबिक फीट से अधिक की कमी आई है."
लेकिन नदीम बाबर का कहना था कि वह इससे निराश नहीं हैं क्योंकि पाकिस्तान में अभी भी इस संबंध में बहुत क्षमता हैं.
उन्होंने कहा कि सुरक्षा कारणों से पिछले एक दशक में देश के पश्चिमी हिस्से में कोई खोज नहीं हुई थी और तट के पास समुद्री इलाकों में भी कोई खोज नहीं हुई थी.
उन्होंने बताया कि, "हमारे देश में लगभग 30 से 35 प्रतिशत ऐसा क्षेत्र है जहां पर तेल और गैस की खोज की जानी चाहिए. लेकिन अभी तक हमने केवल 8 या 9 प्रतिशत क्षेत्र को ही लीज़ पर दिया है. जिस पर वास्तव में ज़मीन पर काम हो रहा है वह केवल 5 या 6 प्रतिशत है."
कराची इलेक्ट्रिक का कहना है कि सरकार उन्हें पूरी गैस उपलब्ध नहीं कराती है, इसीलिए उन्हें लोड शेडिंग करनी पड़ती है. लेकिन नदीम बाबर का कहना है कि यह सरकार कराची इलेक्ट्रिक को पूरी गैस दे रही है.
कराची में गैस की कमी की स्थिति यह है कि स्थानीय उत्पादन पिछले साल की तुलना में लगभग साढ़े नौ प्रतिशत कम है. सिंध सरकार और केपी सरकार कहती है कि संविधान के अनुच्छेद 158 के तहत, वे केवल स्थानीय गैस लेंगे. परिणामस्वरूप, जब तक एलएनजी को उनके सिस्टम में नहीं जोड़ा जायेगा, केवल स्थानीय गैस ही जा सकती है. जिसका मतलब है कि लगभग 160 मिलियन क्यूबिक फ़ीट गैस कम थी."
"इसका सबसे ज़्यादा नुक़सान कराची इलेक्ट्रिक को हुआ. लेकिन हमने इसे ठीक करने के लिए कराची इलेक्ट्रिक को एलएनजी देना शुरू कर दिया. हम उन्हें पिछले तीन महीनों से लगभग 100 से 150 मिलियन क्यूबिक फ़ीट गैस दे रहे हैं.''
उन्होंने कहा कि लोड शेडिंग की स्थिति यह है कि पिछले कई वर्षों से उनकी मांग बढ़ रही है. लेकिन ग्रिड से अधिक बिजली लेने के लिए जो 500 केवीए के स्टेशन उन्हें लगाने चाहिए थे, वो उन्होंने नहीं लगाए.
"आज हम ग्रिड से जितनी वो चाहें उतनी बिजली देना चाहते हैं. लेकिन उनके पास बिजली लेने की वो व्यवस्था ही नहीं है, जिससे वो बिजली उठा सकें. ग्रिड से बिजली प्राप्त करने में जो रुकावट है, वह कराची इलेक्ट्रिक को ख़ुद हटानी है, जिसे उन्होंने नहीं हटाई.(bbc)
- ज़ुबैर अहमद
फ़्रांस इन दिनों एक गंभीर मंथन से गुज़र रहा है. इसका कारण 18 साल के चेचन मूल के एक लड़के की बर्बरता है जिसने 16 अक्टूबर को हाई स्कूल के एक शिक्षक की सिर काटकर हत्या कर दी. 47 वर्षीय शिक्षक सैमुअल पैटी छात्रों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में पढ़ा रहे थे और इसी सिलसिले में उन्होंने शार्ली एब्दो के कार्टूनों का ज़िक्र किया था.
फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इसे "इस्लामिक आतंकवादी" हमला कहा और उनकी सरकार ने "इस्लामिक आतंकवाद" के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ दी है. देश में इस समय कम ही लोग ऐसे होंगे जो राष्ट्रपति के इस बयान से असहमत हों. विपक्ष के एक नेता ने कहा "हमें आँसू नहीं, हथियार चाहिए". पूरे देश में भावनाएँ इस समय उफ़ान पर हैं.
पुलिस ने हमले के बाद कुछ 40 जगहों पर छापा मारा और 16 लोगों को हिरासत में ले लिया लेकिन बाद में छह को छोड़ दिया गया, सरकार ने एक मस्जिद भी बंद करने का आदेश दिया है. उस मस्जिद के ख़िलाफ़ आरोप है कि उसने पैटी की हत्या से पहले वहाँ से फ़ेसबुक पर वीडियो साझा किया गया और उस स्कूल का नाम-पता बताया गया जहाँ पैटी पढ़ाते थे.
पैग़ंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ बयान और उनके चित्र को दिखाना मुसलमानों के लिए धार्मिक रूप से संवेदनशील मामला है क्योंकि इस्लामिक परंपरा स्पष्ट रूप से मोहम्मद और अल्लाह (भगवान) की छवियों को दिखाने से मना करती है.

यह मुद्दा फ़्रांस में विशेष रूप से 2015 में उस समय से चर्चा में है जब से व्यंग्य पत्रिका 'शार्ली ऐब्दो' ने पैग़ंबर मोहम्मद के कार्टून प्रकाशित करने का निर्णय लिया, फ़्रांस में कार्टून के प्रकाशन के बाद पत्रिका कार्यालय पर हमला करके 12 लोगों को मार डाला गया था.
तथाकथित इस्लामिक स्टेट स्टाइल वाली हत्या के बाद फ़्रांस में राष्ट्रीय एकता का ज़ोरदार प्रदर्शन देखने को मिल रहा है. लेकिन विश्लेषक कहते हैं कि इस हत्या के बाद देश के कुछ हिस्सों में धर्मनिरपेक्षता और बोलने की स्वतंत्रता के मामले में सालों से दबा अंसतोष बाहर आ गया है.
फ़्रांस की राष्ट्रीय पहचान का केंद्र है सरकार की सख़्त धर्मनिरपेक्षता, ये उतना ही अहम है जितना कि "स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व" की अवधारणाएं जो फ़्रांसीसी क्रांति के बाद से देश, समाज और उसके संविधान का आधार रही हैं.
फ़्रांस में सार्वजनिक स्थान, चाहे स्कूल हों, अस्पताल या दफ़्तर, सरकारी नीति के हिसाब से वे किसी भी धर्म के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होने चाहिए, फ़्रांस नीतिगत तौर पर मानता है कि किसी भी धर्म की भावनाओं की रक्षा करने की कोशिश, स्वतंत्रता और देश की एकता में बाधक है.
दरअसल, इस हत्या से दो सप्ताह पहले यानी दो अक्टूबर को राष्ट्रपति मैक्रों ने अपने एक भाषण में 'इस्लामिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ युद्ध' के तौर पर एक क़ानून का प्रस्ताव रखा था, अगर क़ानून पास हो गया तो विदेश के इमाम फ़्रांस की मस्जिदों में इमामत नहीं कर सकेंगे, और छोटे बच्चों को घरों में इस्लामी शिक्षा नहीं दी जा सकेगी.
दक्षिण फ़्रांस में एक हाई स्कूल की शिक्षिका मार्टिन जिब्लट को इस बिल के कुछ प्रावधानों पर सख़्त आपत्ति है. वो कहती हैं, "आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के बारे में मैक्रों के भाषण से मुझे जो चोट लगी, वह थी घर के भीतर दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध. ये मुझे स्वतंत्रता की हत्या करने वाला प्रावधान लगा. मैं कई माताओं-पिताओं को जानती हूँ जो ऐसा करते हैं. उनके घरों पर नियमित रूप से शिक्षा अधिकारियों के दौरे होते हैं कि वो घर में अपने बच्चों को क्या पढ़ा रहे हैं."
उन्होंने सरकार और मीडिया पर झूठ फैलाने का आरोप लगाया, "सरकार से इतने झूठ सुनने को मिलते हैं कि मैंने पहले से ही फ़्रेंच मुख्यधारा के समाचार चैनल को देखना बंद कर दिया था, वे दर्शकों में डर पैदा करते हैं जो लोगों का ब्रेनवॉश करने का सबसे अच्छा तरीक़ा है."
लेकिन राष्ट्रपति मैक्रों के मुताबिक़, उनके क़ानून का मक़सद ये है कि "फ़्रांस में एक ऐसे इस्लाम को बढ़ाया जाए जो आत्मज्ञान के अनुकूल हो." तो क्या राष्ट्रपति के इस बयान का मतलब ये निकाला जाए कि फ़्रांस के स्टेट सेकुलरिज्म के साथ वहां के मुसलमानों के धार्मिक विचारों का तालमेल नहीं है?
अमरीका में सैन डिएगो यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और 'इस्लाम, अथॉरिटेरियनिज़्म एंड अंडरडेवलपमेंट' के लेखक अहमत कुरु कहते हैं कि ज़मीनी हक़ीक़त बहुत जटिल है. उनके मुताबिक़, "सेक्युलर फ़्रांस ने वास्तव में कैथोलिक लोगों के लिए कई अपवाद हैं, सरकार निजी कैथोलिक स्कूलों को पर्याप्त सार्वजनिक धन मुहैया कराती है, और फ़्रांस में 11 आधिकारिक छुट्टियों में से छह कैथोलिक महत्त्व वाले दिन हैं. वहाँ अक्सर धर्मनिरपेक्षता का मतलब मुसलमानों के धार्मिक मुद्दों को अस्वीकार करना होता है."
प्रोफ़ेसर कुरु के अनुसार पिछले कुछ सालों में फ़्रांस में एक ऐसे सेक्युलरिज़्म की मांग बढ़ी है जिसमे बहुसंस्कृतिवाद को जगह दी जाए. वो कहते हैं, "उदाहरण के तौर पर प्रख्यात विद्वान ज्यां बॉबरो एक "बहुलवादी धर्मनिरपेक्षता" की वकालत करते हैं, एक ऐसे सिस्टम की वकालत जो सार्वजनिक संस्थानों में कुछ धार्मिक प्रतीकों को सहन कर सके."
डेनमार्क की आरहूस यूनिवर्सिटी में भारतीय मूल के प्रोफ़ेसर और लेखक डॉक्टर ताबिश ख़ैर सालों से यूरोप में रह रहे हैं और भारत में इस्लामी कट्टरपंथ और यूरोप में इस्लाम विरोधी नस्लवाद दोनों की हिंसा का निजी तौर पर अनुभव कर चुके हैं. उन्होंने फ़्रांस में जारी संकट पर कहा, "हमें सबसे पहले फासीवादी हिंसा के किसी भी ऐसे कार्य की तुरंत निंदा करनी चाहिए जो किसी धर्म, राष्ट्र या विचारधारा के नाम पर हो. दूसरी बात यह है कि इस काम को कोई लेबल नहीं देना चाहिए."
फ़्रांस के राष्ट्रपति ने शिक्षक की हत्या को 'इस्लामिक आतंकवाद' का नाम दिया है जिसे ताबिश ख़ैर सही नहीं मानते, वो कहते हैं, "यह आतंक का एक कार्य है, आतंकवाद का नहीं, अगर किसी समूह ने इसकी योजना नहीं बनाई तो यह भ्रामक है. कुछ मायनों में, यह बदतर है. यह दिखाता है कि अचानक कोई भी व्यक्ति, जो धार्मिक कट्टरपंथी और क्रोध से प्रेरित है, इस तरह के घिनौने अपराध कर सकता है".
ताबिश मानते हैं कि इस तरह की घटनाओं के बाद किसी एक धर्म या समुदाय के लोगों को कटघरे में खड़ा करना किसी तरह से सही नहीं है. वे कहते हैं, "मुसलमानों को बलि का बकरा बनाने के पीछे राजनीतिक नेतृत्व का मक़सद अपनी नाकामियों को छिपाना ही होता है."
प्रोफ़ेसर अहमत कुरु के अनुसार, इस्लाम के सामने "संकट" मुस्लिम दुनिया की ऐतिहासिक और राजनीतिक विफलताओं में निहित है, इस्लाम धर्म में ही नहीं."
वो कहते हैं, "मिस्र, ईरान और सऊदी अरब जैसे कई मुस्लिम देशों में लंबे समय से स्थायी सत्तावादी शासन और पुराना पिछड़ापन है. दुनिया के 49 मुस्लिम बहुल देशों में से 32 में, ईशनिंदा के क़ानून के तहत लोगों को दंडित किया जाता है, छह देशों में, ईशनिंदा की सज़ा मौत है. ये क़ानून, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अवरुद्ध करते हैं, इस्लाम के रूढ़िवादी आलिमों और सत्तावादी शासकों के हितों में होते हैं, इस्लाम धर्म के हित में नहीं. वे वास्तव में क़ुरान की उन आयतों का उल्लंघन हैं जिनमें मुसलमानों से अन्य धर्मों के लोगों के ख़िलाफ़ ज़बरदस्ती या जवाबी कार्रवाई नहीं करने का आग्रह किया गया है."
दूसरी तरफ़, इस्लामोफ़ोबिया (इस्लाम से डर) भी आज फ़्रांस और यूरोप में एक हक़ीक़त है. दक्षिण फ़्रांस के शहर 'नीस' के निकट इटली की सरहद से सटे एक क़स्बे 'मोंतों' की रहने वाली एक फ़्रेंच युवती मार्गेरिटा मरीनकोला कहती हैं कि इस घटना को इस्लाम से जोड़ना ठीक नहीं है, "मेरा नज़रिया फ़्रांस में बहुत लोकप्रिय नहीं है, बेशक फ़्रांस में जो हुआ है उसकी मैं पूरी तरह से निंदा करती हूं और बोलने की आज़ादी के ख़िलाफ़ हिंसा की भी निंदा करती हूँ. लेकिन ये कार्य किसी भी तरह से इस्लाम और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं और मुझे डर है कि यहाँ इस बात को अच्छी तरह से समझा नहीं गया है."
वो आगे कहती हैं, "एक फ़्रासीसी नागरिक के रूप में मैं पूरी तरह से बोलने की स्वतंत्रता का समर्थन करती हूं लेकिन किसी भी तरह से इसका लेना-देना व्यंग्य पत्रिका शार्ली ऐब्दो से नहीं है जो फ़्रेंच मॉडल से अलग हर चीज़ का लगातार अपमान करता है, बहुत अहंकार भरे तरीक़े से."
कुछ फ़्रांसीसी मुसलमानों का कहना है कि वे अपने धार्मिक विश्वास के कारण नस्लवाद और भेदभाव के निशाने पर लगातार रहे हैं और ये एक ऐसा मुद्दा है जिसने लंबे समय से देश में तनाव पैदा कर रखा है, कुछ कहते हैं कि जान-बूझ कर उन्हें उकसाने की कोशिश सालों से जारी है.
दिल्ली में फ़्रेंच दूतावास में काम करने वाली एक राजनयिक के अनुसार उनके देश में मामला पेचीदा है. वो कहती हैं, "फ़्रांस के दक्षिणपंथियों के अनुसार उन्हें समस्या उन मुसलमानों से है जो रहते फ़्रांस में हैं, पैदा वहाँ हुए लेकिन उनके रहने का अंदाज़ और उनकी विचारधारा उनके पूर्वजों के देशों से प्रेरित है, जो फ़्रांस के सेक्युलर माहौल से मेल नहीं खाता है."
लेकिन हाई स्कूल शिक्षक मार्टिन कहती हैं, "बोलने की आज़ादी का ये मतलब नहीं कि किसी के धार्मिक विचारों को जान-बूझ कर ठेस पहुँचाया जाए.
पश्चिमी यूरोप में मुसलमानों की सबसे अधिक आबादी फ़्रांस में रहती है जो देश की कुल आबादी का 10 प्रतिशत है. ये लोग मोरक्को, अल्जीरिया, माली और ट्यूनीशिया जैसे देशों से आकर फ़्रांस में आबाद हुए हैं, जहाँ फ़्रांस ने 19वीं और 20वीं शताब्दी में हुकूमत की थी. इनकी पहली पीढ़ी को नस्लवाद की समस्या को झेलना पड़ा लेकिन शायद बाद की पीढ़ियों ने इसे स्वीकार नहीं किया और अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए सिस्टम को चुनौती देना शुरू कर दिया. सेक्युलरिज़्म की पॉलिसी के अंतर्गत एक ऐसा फ़्रेंच मॉडल पनपा जिसमें अल्पसंख्यक आबादी को देश की मुख्यधारा में पूरी तरह से जोड़ने की कोशिश की गई.
जहाँ मार्गरीटा मरीनकोला रहती हैं उसके आस-पास के शहरों में मार्से और नीस शामिल हैं जो मुस्लिम अरबों की आबादी और संस्कृति के लिए जाने जाते हैं. वो कहती हैं कि एकीकरण का फ़्रेंच मॉडल काम नहीं कर रहा है. वे कहती हैं, "मेरे विचार में समस्या एकीकरण का फ़्रेंच मॉडल है, यह काम नहीं कर रहा है और अपराधी आसानी से ऐसे लोगों को ब्रेनवॉश कर रहे हैं, जो अब इस्लाम के बहाने इस्तेमाल हो रहे हैं."
एकीकरण की नीति काम नहीं कर रही है इसकी चिंता फ़्रेंच समाज को भी है. 16 अक्टूबर को शिक्षक पर हमला करने वाला चेचन शरणार्थी 18 साल का था. फ़्रांस में इस उम्र के लोगों के अंदर अपनी पहचान को लेकर सवाल हैं, काली नस्ल और अरब मुस्लिम बच्चों के दिमाग़ में ये सवाल बार-बार उठते हैं.
छह साल पहले नीस शहर के निकट मुझे एक हाई स्कूल के लड़के और लड़कियों से तीन दिनों तक क्लास में बातचीत करने का अवसर मिला था. मुझसे कहा गया कि मैं विद्यार्थियों से भारत के बहुसांस्कृतिक समाज में रहने के अपने अनुभव उनसे साझा करूँ, मैंने ये महसूस किया कि बच्चों के मन में अनेक सवाल थे और वो अधिकतर उनकी अपनी पहचान से जुड़े थे. और शायद स्कूल के अधिकारियों ने इसे महसूस किया और मेरे अनुभव से कुछ बच्चों को दिशा मिले, इसीलिए मुझे वहां बुलाया.
स्कूल के विद्यार्थी सभी नस्ल और सभी धर्मों के थे. अरब मूल के कुछ लड़कों ने मुझसे कहा कि वो भारत को इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि वहां सभी धर्मों को समानता दी जाती है. उन्होंने बॉलीवुड की फ़िल्में देख रखी थीं और एक ख़ुशहाल बहु-सांस्कृतिक भारत की उनकी कल्पना शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्मों पर आधारित थीं. उन्होंने कहा कि उनके गोरे दोस्त इस्लाम के बारे में कुछ नहीं जानते और इस्लाम विरोधी विचारधारा रखते हैं एंटी-इस्लाम बातें अक्सर करते रहते हैं.

ऐसे माहौल में इस्लाम विरोधी बयान और काम इस्लामोफोबिया को हवा देते हैं और मुस्लिम समाज पर तंज़ और ताने बढ़ने लगते हैं, दूसरी तरफ़ प्रवासी अरब आबादी में भयंकर बेरोज़गारी और ग़रीबी की वजह से इस्लामी चरमपंथियों का काम आसान हो जाता है और वे उन्हें बरगला पाते हैं.
स्विट्ज़रलैंड में जीनेवा इंस्टीट्यूट ऑफ़ जियोपॉलिटिकल स्टडीज के अकादमी निदेशक एलेक्जेंडर लैम्बर्ट के विचार में न केवल फ़्रांस बल्कि यूरोप भर में ग़ैर-ईसाई धर्मों को बर्दाश्त करने की क्षमता कम होती जा रही है, "दरअसल, यूरोप में बहुसंस्कृतिवाद को अपनाने के लिए संवैधानिक-क़ानूनी ढांचे नहीं हैं, मध्य-पूर्व और दक्षिण-पूर्व यूरोप सहित कई देशों में, राष्ट्रीयता और नागरिकता किसी न किसी तरह से ईसाई धर्म, आम तौर पर कैथोलिक या ऑर्थोडॉक्स ईसाई धर्म से जुड़ी रहती है और बाहर से आए, दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों से वैचारिक टकराव होता ही है."
बराबरी के लिए प्रदर्शन करते फ़्रांस के मुसलमान
प्रोफ़ेसर एलेक्ज़ेंडर लैम्बर्ट स्विट्ज़रलैंड के नागरिक हैं, वे कहते हैं कि उनके देश में मस्जिदों की मीनारों के निर्माण पर सरकारी तौर पर पाबंदी लगी है. सरकार ने ये पाबंदी जनता से पूछकर लगाई है. हमारे देश में मुसलमान तुलनात्मक रूप से अच्छी तरह घुले-मिले हैं, और ग़ैर-मुस्लिमों के साथ उनका कोई तनाव नहीं है, स्वदेशी ईसाई बहुसंख्यक समुदायों के साथ भी नहीं. इसके अलावा, स्विट्ज़रलैंड में यहूदी समुदाय को ख़तरा नहीं है, जो दुर्भाग्य से फ़्रांस में फिर से उभर रहा है".
फ़्रांस में बुर्क़े पर लगाए गए प्रतिबन्ध को देश के मुसलमानों ने सकारात्मक तरीक़े से नहीं लिया और इसे इस्लाम पर और अपनी पहचान पर प्रहार के रूप में देखा.
प्रोफ़ेसर एलेक्जेंडर लैम्बर्ट कहते हैं कि यूरोप की (गोरी नस्ल की) आबादी घटती जा रही है. "यूरोपीय जनसंख्या सिकुड़ रही है. पूर्वानुमानों के अनुसार 2050 तक यूरोप में मुसलमानों की आबादी का काफ़ी बढ़ सकती है क्योंकि वास्तव में मूल यूरोपीय आबादी घट रही है जबकि मुस्लिम आबादी बढ़ रही है."
प्रोफ़ेसर लैम्बर्ट का कहना है कि इस सच को विश्वविद्यालयों में पढ़ाना चाहिए, ये यूरोप में रहने वालों के लिए असुरक्षा और चिंता का माहौल बनाता है जिसके नतीजे में मुस्लिम और यूरोपीय समाज में तनाव होना लाज़मी है. अब लोग ये कह रहे हैं कि फ़्रांस हो या यूरोप के दूसरे देश, मुस्लिम आबादी देश में इंटीग्रेट (एकीकृत) करने लिए एक कामयाब फ़ार्मूला निकालना वक़्त की ज़रुरत है.(bbc)
ध्रुव गुप्त
शहीद अशफाक उल्लाह खां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रखर क्रांतिकारी सेनानियों में एक और ‘हसरत’ उपनाम से उर्दू के अज़ीम शायर थे। उत्तर प्रदेश के कस्बे शाहजहांपुर में जन्मे अशफाक ने अपने ही शहर के क्रांतिकारी शायर राम प्रसाद बिस्मिल से प्रभावित होकर अपना जीवन वतन की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया था।
वे क्रांतिकारियों के उस प्रमुख जत्थे के सदस्य थे जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, राजेंद्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्सी, ठाकुर रोशन सिंह, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुंदी लाल शामिल थे। चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने के महात्मा गांधी के फैसले से क्षुब्ध इस जत्थे ने एक अहम बैठक में हथियार खरीदने के लिए ट्रेन से सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई।
उनका मानना था कि वह धन अंग्रेजों का नहीं था, अंग्रेजों ने उसे भारतीयों से हड़पा था। 9 अगस्त, 1925 को अशफाक उल्लाह खान और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आठ क्रांतिकारियों के दल ने सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन पर हमला कर वह खजाना लूट लिया। अंग्रेजों को हिला देने वाले काकोरी षडय़ंत्र के नाम से प्रसिद्ध इस कांड में गिरफ्तारी के बाद अशफ़ाक को यातनाएं देकर उन्हें सरकारी गवाह बनाने की हर मुमकिन कोशिश हुईं। अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे यह तक कहा कि हिन्दुस्तान यदि आज़ाद हो भी गया तो उस पर मुस्लिमों का नहीं, हिन्दुओं का राज होगा और मुस्लिमों को कुछ नहीं मिलने वाला। इसके जवाब में अशफ़ाक़ ने कहा था - ‘तुम लोग हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आज़ादी की लड़ाई को अब नहीं दबा सकते। अपने दोस्तों के खिलाफ मैं सरकारी गवाह कभी नहीं बनूंगा।’
संक्षिप्त ट्रायल के बाद अशफाक, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा और बाकी लोगों को चार साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा सुनाई गई। अशफ़ाक को 19 दिसंबर, 1927 को फैज़ाबाद जेल में फांसी दी गई। फांसी के पहले अशफाक ने वजू कर कुरआन की कुछ आयतें पढ़ी, कुरआन को आंखों से लगाया और खुद जाकर फांसी के मंच पर खड़े हो गए। वहां मौजूद जेल के अधिकारियों से कहे गए उनके आखिरी शब्द थे- ‘मेरे हाथ इंसानी खून से नहीं रंगे हैं। खुदा के यहां मेरा इन्साफ होगा।’ उसके बाद उन्होंने अपने हाथों फंदा गले में डाला और फांसी पर झूल गए।
यौमे पैदाईश (22 अक्टूबर) पर शहीद अशफ़ाक़ को कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि, उनकी लिखी एक नज्म की कुछ पंक्तियों के साथ !
बिस्मिल हिन्दू हैं, कहते हैं
फिर आऊंगा, फिर आऊंगा
फिर आकर ऐ भारत माता
तुझको आज़ाद कराऊंगा
जी करता है मैं भी कह दूं
पर मज़हब से बंध जाता हूं
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की
बात नहीं कर पाता हूं
हां ख़ुदा अगर मिल गया कहीं
अपनी झोली फैला दूंगा
और जन्नत के बदले उससे
एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंजाब की विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक ऐसा कानून बना दिया है, जिसका उद्देश्य है कि किसानों को उनकी फसल के उचित दाम मिलें। इस कानून का समर्थन भाजपा के दो विधायकों के अलावा सभी पार्टियों के विधायकों ने किया है। इस कानून के लागू होने पर कोई भी गेहूं और धान की फसलों को सरकारी मूल्यों से कम पर न बेच सकेगा और न ही खरीद सकेगा। जो भी इस कानून का उल्लंघन करेगा, उसको तीन साल की जेल हो जाएगी। मोटे तौर पर ऐसा लगता है कि इस कानून से किसानों को बड़ी सुरक्षा मिलेगी। लेकिन इस चिकनी सडक़ पर कई गड्ढे भी दिखाई पड़ रहे हैं।
पहली बात तो यह कि यह कानून सिर्फ गेहूं और धान की खरीद-फरोख्त पर लागू होगा, अन्य फसलों पर नहीं। जो किसान, ज्वार, बाजरा, मक्का, बासमती चावल आदि पैदा करते हैं, यह कानून उनके बारे में बिल्कुल बेखबर है। फलों और सब्जियां उगानेवाले किसानों को भी इस कानून से कोई फायदा नहीं है। दूसरा, यह जरूरी नहीं है कि हर किसान अपनी गेहूं और धान की उपज मंडियों में ही लाए। यदि उन्हें वह खुले बाजार में कम कीमत पर बेचे और नकद पैसे ले ले तो सरकार उसे कैसे पकड़ेगी ?
यदि सरकारी समर्थन मूल्य से ज्यादा पर बेचने के कारण किसी किसान को नहीं पकड़ा जाता तो कम मूल्य पर बेचने पर उसे कैसे और क्यों पकड़ा जाएगा ? अपने घर में फसल को सड़ाने की बजाय किसान उसे किसी भी मूल्य पर बेचना चाहेगा। तीसरा, पंजाब का किसान अपना माल हरियाणा या हिमाचल में ले जाकर बेचना चाहे तो भी यह कानून उस पर लागू नहीं होगा। चौथा, यह जरुरी नहीं कि किसानों का सारा गेहूं और धान सरकार खरीद ही लेगी। ऐसे में वे क्या करेंगे? वे उसे किसी भी कीमत पर बेचना चाहेंगे। पांचवां, सरकारी या समर्थन मूल्य को कानूनी रुप देना कहीं बेहतर है। उसके विकल्प पर सजा देना जरा ज्यादती मालूम पड़ती है।
पंजाब की कांग्रेसी सरकार के इस कानून से पंजाब के किसान राहत जरुर महसूस करेंगे तथा राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेसी सरकारें भी ऐसे कानून पास करना चाहती हैं। इन सरकारों के इस तर्क में कुछ दम जरूर है कि खेती तो राज्य का विषय है। केंद्र सरकार उस पर कानून बनाकर संघात्मक संविधान की भावना का उल्लंघन कर रही है। उधर राज्यपाल और राष्ट्रपति इस पंजाब के कानून पर अपनी मुहर लगाएंगे या नहीं, यह भी महत्वपूर्ण सवाल है लेकिन कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर की प्रतिक्रिया काफी संतुलित है।
उन्होंने कहा है कि केंद्र इस कानून पर धैर्यपूर्वक विचार करेगा। बेहतर तो यह होगा कि कृषि-कानून को हमारे नेता राजनीतिक फुटबॉल न बनाएं। वास्तव में सर्वदलीय बैठक में इस विषय पर खुला विचार-विमर्श होना चाहिए कि किसानों को तो उनकी उपज का उचित मूल्य मिले ही लेकिन उपभोक्ताओं को भी अपनी खरीदारी पर लुटना न पड़े। हमारे नेतागण यदि इस अवसर पर डॉ. राममनोहर लोहिया की ‘दाम बांधो’ नीति पर कुछ पढ़ें-लिखें और विचार करे तो किसानों के साथ-साथ 140 करोड़ उपभोक्ताओं का भी कल्याण हो जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
खरीफ सीजन की बुवाई के समय हुई ‘अच्छी’ बारिश से यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि इस बार अच्छी फसल होगी, लेकिन जब फसल पकने लगी या पक कर तैयार हुई, उस समय हुई बेमौसमी बारिश ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया। खरीफ सीजन 2020-21 का पहला अनुमान बताता है कि ज्यादातर फसलों का उत्पादन पिछले साल के मुकाबले कम हो रह सकता है। यह अनुमान नेशनल बल्क होल्डिंग कॉरपोरेशन (एनबीएचसी) ने जारी किए हैं। हालांकि 23 सितंबर 2020 को केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़े इससे अलग है। मंत्रालय ने खरीफ सीजन 2020-21 के पहले अग्रिम अनुमान में फसलों के उत्पादन में वृद्धि का दावा किया था।
एनबीएचसी की यह रिपोर्ट बताती है कि पिछले सीजन के मुकाबले इस सीजन में धान के बुवाई क्षेत्र में लगभग 6.74 प्रतिशत वृद्धि हुई, लेकिन उत्पादन में 2.20 प्रतिशत की कमी रह सकती है। पिछले सीजन में 382.3 लाख हेक्टेयर में धान की बुवाई की गई थी, लेकिन खरीफ सीजन 2020-21 में 408.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान की बुवाई की गई। जहां तक उत्पादन की बात है तो 2018-19 में 10.204 करोड़ टन चावल उत्पादन हुआ था, जबकि 2019-20 में 10.198 करोड़ टन चावल उत्पादन हुआ। इस सीजन में यह घटकर 9.974 करोड़ टन रह सकता है। दिलचस्प बात यह है कि सितंबर में केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा जारी अग्रिम अनुमान में कहा गया था कि इस साल 10.236 करोड़ टन चावल उत्पादन का दावा किया किया गया था।
कहीं ज्यादा तो कहीं कम हुई बारिश
एनबीएचसी की रिपोर्ट के मुताबिक अगस्त सितंबर में हुई भारी बारिश ने फसलों को नुकसान पहुंचा है। साल 2020-21 के मानसून सीजन में देश भर में सामान्य से 109 फीसदी अधिक बारिश हुई। चार में से तीन महीने सामान्य से अधिक बारिश रिकॉर्ड की गई। जून में सामान्य से 118 प्रतिशत, अगस्त में 127 फीसदी और सितंबर में 104 फीसदी अधिक बारिश हुई, जबकि जुलाई में सामान्य से कम बारिश हुई। अगर क्षेत्रवार देखें तो पूर्वी, उत्तर पूर्वी, मध्य भारत और दक्षिण भारत में सामान्य से अधिक बारिश हुई, जबकि उत्तर पश्चिम भारत में कम बारिश हुई। अच्छी बारिश को देखते हुए इस बार खरीफ की बुवाई भी अधिक हुई। जहां पिछले साल देश में 1085.65 लाख हेक्टेयर में खरीफ की फसलों की बुवाई थी, इस साल यह बढ़ कर 1095.37 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गई।
19 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में सामान्य से कम बारिश हुई, जबकि नौ राज्यों में सामान्य से अधिक बारिश हुई, इनमें बिहार, गुजरात, मेघालय, गोवा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और लक्षद्वीप समूह शामिल हैं। सिक्किम में बहुत ज्यादा बारिश रिकॉर्ड की गई। जबकि नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर में सामान्य से कम बारिश हुई। लद्दाख में बहुत कम बारिश रिकॉर्ड की गई। दिल्ली में काफी कम बारिश हुई। मानसून के खत्म होने के बाद भी दक्षिण मध्य महाराष्ट्र के कई जिलों में भारी बारिश के बारण बाढ़ आ गई। इससे सोयाबीन, मक्का, गन्ना और तूर की फसल को काफी नुकसान पहुंचा।
2019-20 में 5 लाख टन मक्का का आयात किया गया। ऐसा पॉल्ट्री कारोबार की मांग को देखते हुए किया गया, क्योंकि पिछले साल मक्के का उत्पादन कम हुआ था। इस खरीफ सीजन में बुवाई क्षेत्र की बात करें तो इसमें पिछले साल के मुकाबले 2.31 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन मध्य प्रदेश और कर्नाटक में बुवाई के बाद हुई भारी बारिश के कारण मक्के के उत्पादन में 5.71 प्रतिशत की कमी की आशंका है।
ज्वार / बाजरा
इस रिपोर्ट में ज्वार के बुवाई क्षेत्र में 1.17 प्रतिशत की कमी के बावजूद उत्पादन में 9.78 प्रतिशत की वृद्धि की संभावना है। जबकि बाजरा के बुवाई क्षेत्र में 3.71 प्रतिशत की वृद्धि के बावजूद उत्पादन में 14.40 प्रतिशत की कमी हो सकती है।
दलहन
चालू खरीफ सीजन में तूर के बुवाई क्षेत्र में 9.78 प्रतिशत और उत्पादन में 5.48 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। इस की वजह महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना और झारखंड में फसल की स्थिति अच्छी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार उड़द के उत्पादन में भारी वृद्धि का अनुमान है। रिपोर्ट बताती है कि बेशक उड़द के बुवाई क्षेत्र में 1.47 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन उत्पादन में 45.38 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। मूंग के बुवाई क्षेत्र में 19.70 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन उत्पादन में 3.91 प्रतिशत कमी का अनुमान लगाया गया है। क्योंकि मूंग उपजाने वाले लगभग सभी बड़े राज्यों में फसल को नुकसान पहुंचा है।
तिलहन
एनबीएचसी की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सितंबर अक्टूबर में भारी बारिश के कारण सोयाबीन के उत्पादन में 15.29 फीसदी की कमी आ सकती है, जबकि बुवाई क्षेत्र में 8.17 फीसदी की वृद्धि हुई थी। इसी तरह मूंगफली के उत्पादन में 14.69 फीसदी की कमी आने की आशंका है।
नगदी फसल
गुजरात और मध्य प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण कपास के उत्पादन में 4.06 फीसदी नुकसान का आकलन किया गया है। लेकिन गन्ने के उत्पादन में 2.72 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान है।(https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
भारत सरकार हो या राज्य सरकारें, हर वक्त उनका एक ही नारा होता है आदिवासियों का कल्याण। लेकिन उनका कल्याण करते-करते ये सरकारें अकसर उनको उनके गांव-खेत-खलिहान और उनके जंगलों से बेदखल कर देती हैं। इसका ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश का है। यहां जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने, राज्य के जंगलों की परिस्थितिकी में सुधार करने और आदिवासियों की आजीविका को सुदृढ़ करने के नाम पर राज्य के कुल 94,689 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 37,420 लाख हैक्टेयर क्षेत्र को निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया गया है।
इस संबंध में मध्यप्रदेश के सतपुड़ा भवन स्थित मुख्य प्रधान वन संरक्षक द्वारा अधिसूचना जारी की गई है। इस संबंध में भोपाल के पर्यावरणविद सुभाष पांडे ने डाउन टू अर्थ को बताया, “राज्य के आधे से अधिक बिगड़े वन क्षेत्र को सुधारने के लिए जंगलों की जिस क्षेत्र को अधिसूचित किया गया है, वास्तव में वहां आदिवासियों के घर-द्वार, खेत और चारागाह हैं। इसे राज्य सरकार बिगड़े वन क्षेत्र की संज्ञा दे कर निजी क्षेत्रों को सौंपने जा रही है”।
ध्यान रहे कि इस प्रकार के बिगड़े जंगलों को सुधारने के लिए राज्य भर के जंगलों में स्थित गांवों में बकायदा वन ग्राम समितियां बनी हुई हैं और इसके लिए वन विभाग के पास बजट का भी प्रावधान है। इस संबंध में राज्य के वन विभाग के पूर्व सब डिविजन ऑफिसर संतदास तिवारी ने बताया कि जहां आदिवासी रहते हैं तो उनके निस्तार की जमीन या उनके घर के आसपास तो हर हाल में जंगल नहीं होगा। आखिर आप अपने घर के आसपास तो जंगल या पेड़ों को साफ करेंगे और मवेशियों के लिए चारागाह भी बनाएंगे। अब सरकार इसे ही बिगड़े हुए जंगल बताकर अधिग्रहण करने की तैयारी है। जबकि राज्य सरकार का तर्क है कि बिगड़े हुए जंगल को ठीक करके यानी जंगलों को सघन बना कर ही जलवायु परिवर्तन और परिस्थितिकीय तंत्र में सुधार संभव है।
इस संबंध में मध्यप्रदेश में वन क्षेत्रों पर अध्ययन करने वाले कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हां ने डाउन टू अर्थ को बताया कि मध्यप्रदेश की सरकार ने 37 लाख हैक्टेयर बिगड़े वन क्षेत्रों को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप (पीपीपी) मोड पर निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया है। वह कहते हैं कि यह कौन सा वन क्षेत्र है? इसे जानने और समझने की जरूरत है। प्रदेश के कुल 52,739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगल में बसे हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुए हैं।
मध्यप्रदेश के जंगल का एक बड़ा हिस्सा आरक्षित वन है और दूसरा बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य, सेंचुरी आदि के रूप में जाना जाता है। शेष क्षेत्र को बिगड़े वन या संरक्षित वन कहा जाता है। इस संरक्षित वन में स्थानीय लोगों के अधिकारों का दस्तावेजीकरण किया जाना है, अधिग्रहण नहीं। यह बिगड़े जंगल स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन हैं, जो जंगलों में बसे हैं और जिसका इस्तेमाल आदिवासी समुदाय अपनी निस्तार जरूरतों के लिए करते हैं।
एक नवंबर, 1956 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय राज्य की भौगोलिक क्षेत्रफल 442.841 लाख हैक्टेयर था, जिसमें से 172.460 लाख हैक्टेयर वनभूमि और 94.781 लाख हैक्टेयर सामुदायिक वनभूमि दर्ज थी। पांडे ने बताया कि उक्त संरक्षित भूमि को वन विभाग ने अपने वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया, जबकि इन जमीनों के बंटाईदारों, पट्टेधारियों या अतिक्रमणकारियों को हक दिए जाने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
वह कहते हैं कि वन विभाग ने जिन भूमि को अनुपयुक्त पाया उसमें से कुछ भूमि 1966 में राजस्व विभाग को अधिक अन्न उपजाऊ योजना के तहत हस्तांतरित किया, वहीं अधिकतर अनुपयुक्त भूमि वन विभाग ने “ग्राम वन” के नाम पर अपने नियंत्रण में ही रखा।
ध्यान रहे कि अभी इसी संरक्षित वन में से लोगों को वन अधिकार कानून 2006 के अन्तर्गत सामुदायिक वन अधिकार या सामुदायिक वन संसाधनों पर अधिकार दिया जाने वाला है।
सिन्हां सवाल उठाते हैं कि अगर ये 37 लाख हैक्टेयर भूमि उद्योगपतियों के पास होगी तो फिर लोगों के पास कौन सा जंगल होगा? पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पेसा कानून प्रभावी है जो ग्राम सभा को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का अधिकार देता है। क्या पीपीपी मॉडल में सामुदायिक अधिकार प्राप्त ग्राम सभा से सहमति ली गई है? वन अधिकार कानून द्वारा ग्राम सभा को जंगल के संरक्षण, प्रबंधन और उपयोग के लिए जो सामुदायिक अधिकार दिया गया है उसका क्या होगा?
विभिन्न नीति एवं कानून के कारण भारत का वन अब तक वैश्विक कार्बन व्यापार में बड़े पैमाने पर नहीं आया है। कई ऐसे गैर सरकारी संगठन हैं जो विश्व बैंक द्वारा पोषित हैं, वे अपने दस्तावेजों में यह कहते हुए नहीं अघाते कि भारत के जंगलवासी समुदाय (आदिवासी प्रमुख रूप से) कार्बन व्यापार परियोजना से लाभान्वित हो सकेंगे। सिन्हा बताते हैं कि ये संगठन आदिवासीयों के बारे में रंगीन व्याख्या कर प्रेरित करते हैं कि उनकी हालत रातों रात सुधर जाएगी।
वहीं, इस संबंध में सीधी जिले के पूर्व वन अधिकारी चंद्रभान पांडे बताते हैं कि कैसे आदिवासी कार्बन व्यापार की जटिलता को समझकर कार्बन भावताव को समझेगा? वह कहते हैं कि कार्बन व्यापार के जरिए (वनीकरण करके) अन्तराष्ट्रीय बाजार से करोड़ों रुपए कमाना ही एकमात्र उद्देश्य निजी क्षेत्र का होगा। वह कहते हैं कि अंत में स्थानीय समुदाय अपने निस्तारी जंगलों से बेदखल हो जाएगा और शहरों में आकर मजूरी कर स्लम बस्तियों की संख्या बढ़ाएगा। एक तरह से सरकार ही अपनी नीतियों के माध्यम से आदिवासियों को उनकी जमीन से विस्थापित कर किसान से मजदूर बनने पर मजबूर कर रही है।(https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
-रमेश अनुपम
आज छत्तीसगढ़ के सुपुत्र किशोर साहू का जन्मदिवस है। किशोर साहू जिन्हें देविका रानी से लेकर अपने समय की अनेक नामचीन अभिनेत्रियों के साथ अनेक सुपर-डुपर हिट फिल्मों में काम किया है तथा अनेक सुपर-डुपर फिल्में दी है।
उनके खाते में ‘मयूर पंख’, ‘सिंदूर’, ‘वीर कुणाल’, ‘राजा’, ‘जीवन प्रभात’, ‘सावन आया रेे’ जैसी अनेक फिल्में हैं।
सन 1948 में उन्होंने दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को लेकर ‘नदिया के पार’ जैसी हिट फिल्म बनाई जिसमें छत्तीसगढ़ी बोली और गीत-संगीत को प्रश्रय दिया।
तो वहीं दूसरी ओर दिलीप कुमार जैसे अभिनेता को कैरियर संभालने का मौका दिया।
दुर्ग में जन्मे और राजनांदगांव में पढ़े-लिखे किशोर साहू किसी जमाने में हिंदी सिनेमा के सरताज हुआ करते थे।
दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद जैसी हस्तियां उनके आगे पीछे मंडराती थी। राजकुमार, मनोज कुमार, माला सिन्हा, साधना जैसे अनेक अभिनेता-अभिनेत्रियों को उन्होंने हिंदी फिल्म में प्रवेश दिलवाया और उनके कैरियर को चमकाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
ऐसे किशोर साहू को छत्तीसगढ़ शासन ने ही आज भुला दिया है।
आज 22 अक्टूबर है किशोर साहू का जन्मदिन लेकिन इस सरकार को तथा इसके हुक्मरानों को इसका पता ही नहीं है।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा किशोर साहू की स्मृति में प्रतिवर्ष प्रदान किए जाने वाले ‘किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण’ जिसके अंतर्गत 10 लाख रुपए की राशि प्रदान की जाती है उसका भी पिछले दो सालों से कोई अता-पता ही नहीं है।
यह अलग बात है कि राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर फिर से इस वर्ष एक नवम्बर को 24 पुरस्कारों के नाम पर दो-दो लाख रुपयों की रेवडिय़ां बांटी जानी है।
पाकिस्तानी फौज को लंबे समय से पाकिस्तान में एक कमजोर नेता की तलाश थी और बिलावल भुट्टो जरदारी मुंहमांगी मुराद साबित होते दिख रहे हैं
-हर्ष वर्धन त्रिपाठी
पाकिस्तान में पिछले एक सप्ताह से जो कुछ हो रहा है, उससे पाकिस्तान में अवाम की बेचैनी बहुत स्पष्ट तौर पर नजर आ रही है। आतंकवाद और आर्थिक संकट से बुरी तरह से जूझ पाकिस्तान का सबसे बड़ा संकट यही है कि इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान में कहने के लिए लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई सरकार है, लेकिन सच यही है कि पाकिस्तानी फौज और वहां की खुफिया एजेंसी ISI ही देश को नियंत्रित करती है।
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने गुजरांवाला की रैली में वीडियो संदेश के जरिये पाकिस्तान की अवाम से बात करते हुए पाकिस्तानी फौज और खुफिया एजेंसी की हर कारगुजारी को खोलकर रख दिया। पाकिस्तान में आतंकवादियों पर कार्रवाई नहीं हो पा रही है तो इसकी बड़ी वजह यही है कि लोकतांत्रिक तौर पर चुने गए प्रधानमंत्री के पास कोई अधिकार ही नहीं है और इमरान खान अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं।
हालंकि, इमरान खान की कमजोरी इस तरह से सामने आने की बड़ी वजह यह भी है कि पाकिस्तानी फौज के दबाव के अलावा पाकिस्तान के बुरे आर्थिक हालात में चीन का दबाव भी बहुत ज्यादा बढ़ गया है और चीन की कंपनियों के साथ पाकिस्तानी फौज के अधिकारियों के कारोबारी रिश्ते की वजह से भ्रष्टाचार के मामले सामने आने के बावजूद इमरान खान बयानबाजी से आगे बढ़ नहीं सके।
पाकिस्तानी फौज और खुफिया एजेंसी के अधिकारियों को यह भरोसा था कि इमरान खान की क्रिकेट सितारे के तौर पर प्रसिद्धि उनके काम आएगी और भारत के सामने इमरान खान का चेहरा रखकर पाकिस्तानी अवाम को यह समझाने में कामयाब रहेंगे कि भारत की तरफ से ही सारी गड़बड़ हो रही है, लेकिन भारत की स्पष्ट पाकिस्तान नीति की वजह से पाकिस्तानी फौज और ISI की हर शातिराना चाल धरी की धरी रह गई। उस पर दुनिया के हर मंच पर पाकिस्तान लगातार अपमानित होता रहा। इन वजहों से लंदन में रह रहे निर्वासित पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को पाकिस्तान की अवाम का भरोसा जीतने का अवसर दिखने लगा।
पाकिस्तान की अवाम में बढ़ रहे इसी गुस्से का उपयोग कर लेने की मंशा से नवाज शरीफ ने बेटी मरयम नवाज शरीफ के जरिये पूरे पाकिस्तान में जमीन पर आन्दोलन खड़ा किया और जब पाकिस्तान की जनता आतंकवादियों पर कोई कार्रवाई न कर पाने में असहाय दिख रहे प्रधानमंत्री इमरान खान को दुनिया के सामने गिड़गिड़ाते देखा तो उसी समय का इस्तेमाल नवाज शरीफ ने फिर से अपनी जमीन तलाशने के लिए करना शुरू किया।
नवाज शरीफ पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोपों के बावजूद पाकिस्तान की जनता मरयम नवाज शरीफ के प्रति सहानुभूति रखती है और पाकिस्तान की अमनपसंद और लोकतंत्र बहाली की इच्छा रखने वाली जनता के मन में कहीं न कहीं यह बात है कि अगर नवाज शरीफ की चलती तो शायद भारत से रिश्ते इतने खराब नहीं होते। बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया के साथ पाकिस्तान की अवाम को भी बता दिया कि पाकिस्तान ने कश्मीर के जिस हिस्से पर अवैध कब्जा कर रखा है, उस जमीन का इस्तेमाल सिर्फ आतंकवादियों को तैयार करने में कर रहा है।
इस्लामोफोबिया की बात करके विश्वमंचों पर इमरान खान के पिटने और अमेरिका में जाकर खुद ही चालीस से पचास हजार आतंकवादियों के पाकिस्तानी जमीन पर होने और पाकिस्तान से भारत की भूमि पर आतंकवादियों के भेजने की स्वीकारोक्ति के बाद पाकिस्तानी फौज और आईएसआई के लिए भी इमरान खान बोझ बन चुके हैं। पाकिस्तानी फौज और आईएसआई पिछले 6 महीने से इमरान खान का विकल्प गंभीरता से खोजने में जुट गई थी, लेकिन लोकतंत्र का आवरण ओढ़ाकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पुतला बैठाने के लिए कोई उचित नेता नहीं मिल पा रहा था।
FATF की ग्रे लिस्ट में होने से पाकिस्तान को आर्थिक मदद नहीं मिल पा रही थी, इससे पाकिस्तान फौज और आईएसआई के आर्थिक हितों पर भी असर पड़ रहा था। आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर अमेरिका से मिलने वाली रकम भी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बंद कर दी है। इस बीच पाकिस्तानी अवाम नवाज शरीफ की पार्टी के साथ जुड़ती दिख रही थी।
कराची और गुजरांवाला में 11 राजनीतिक दलों के साझा लोकतांत्रिक अभियान की रैली में जबरदस्त भीड़ उमड़ी, लेकिन 11 पार्टियों के नेताओं में सबसे ज्यादा प्रभाव खांटी नेता नवाज शरीफ और उनकी बेटी मरयम नवाज शरीफ का ही दिख रहा था और नवाज शरीफ ने खुलेआम पाकिस्तानी फौज और ISI पर उनका तख्तापलट का आरोप लगाया। पाकिस्तानी अवाम सड़कों पर उतर रही थी, यह पाकिस्तान के लिए कोई नई बात नहीं थी, लेकिन फौज के खिलाफ इस तरह से पाकिस्तानी अवाम का गुस्सा शायद ही कभी इस तरह से दिखा हो।
कराची की सड़कों पर जनता उतर गई थी और गो नियाजी, गो बाजवा के नारे लग रहे थे। सिंध की पुलिस ने सामूहिक इस्तीफा दे दिया था। कराची की सड़कों पर पाकिस्तान की सेना और सिंध पुलिस आमने सामने थी। और, इन सबकी बुनियाद में मरियम नवाज शरीफ के पति कैप्टन सफदर की गिरफ्तारी के लिए सिंध के पुलिस प्रमुख का अपहरण करके उनसे जबरदस्ती कैप्टन सफदर की गिरफ्तारी का आदेश पारित करवाना था। सिंध पुलिस के 10 AIGs, 16 DIGs और 40 SSP ने इस्तीफा दे दिया था।
पाकिस्तानी सेना और सिंध पुलिस के बीच इस संघर्ष में अवाम के पुलिस के साथ खड़े होने के बीच पाकिस्तानी सेना के लिए संकट बढ़ रहा था। उसी बीच बिलावल भुट्टो जरदारी सिंध पुलिस प्रमुख के समर्थन में खड़े हो गए और सिंध पुलिस के अधिकारियों के साथ तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा कि, अभी-अभी मैं सिंध पुलिस के मुख्यालय, कराची पहुंचा हूं और पुलिस जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए सिंध पुलिस के प्रमुख आईजी और दूसरे अधिकारियों के साथ मुलाकात की है। 20 अक्टूबर को 9 बजकर 47 मिनट पर बिलावल भुट्टो जरदारी सिंध पुलिस मुख्यालय से ट्वीट करते हैं कि I
उससे पहले उनकी पार्टी के मीडिया सेल के ट्विटर खाते से 8 बजकर 31 मिनट पर ट्वीट किया गया कि चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल कमर जावेद बाजवा ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो जरदारी से फोन पर कराची में हुई घटना पर बात की। और, अगले ट्वीट में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की मीडिया सेल ने लिखा कि PPP चेयरमैन ने कराची की घटना पर चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ की तुरंत कार्रवाई के लिए उनकी तारीफ की और उन्होंने भरोसा दिलाया है कि जांच में पूरी तरह पारदर्शिता बरती जाएगी।
इस ट्वीट को बिलावल भुट्टो जरदारी ने रीट्वीट किया और इसके बाद सिंध पुलिस के मुख्यालय गए, वहां से सिंध पुलिस के अधिकारियों के साथ तस्वीर जारी की और 20 अक्टूबर को रात 11 बजकर 42 मिनट पर सिंध पुलिस के ट्विटर खाते से 6 ट्वीट के साथ आईजी सिंध और सिंध पुलिस के सभी अधिकारियों ने छुट्टी पर जाने का फैसला रद्द कर दिया।
पाकिस्तानी फौज और ISI को लंबे समय से पाकिस्तान में एक कमजोर नेता की तलाश थी और बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल भुट्टो जरदारी पाकिस्तानी फौज और ISI के लिए मुंहमांगी मुराद जैसे साबित होते दिख रहे हैं। अभी पाकिस्तान के हालात बेहद खराब हैं। जनता सरकार के साथ फौज और ISI के खिलाफ खुलेआम बोल रही है। ऐसे में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो जरदारी में पाकिस्तानी फौज और ISI संभावना देख रही है। (hindi.moneycontrol.com)
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और हिंदी ब्लॉगर हैं)
-पूजा गुप्ता
नई दिल्ली, 11 अक्टूबर (आईएएनएस)| रोजाना दिए गए सिर्फ एक रुपये के स्वैच्छिक योगदान से बिहार के नवादा जिले में युवा लड़कियों ने गरीब लड़कियों की मासिक धर्म की जरूरतों को पूरा करने के लिए सेनेटरी पेड बैंक खोला है।
जब कुछ लड़कियों ने देखा कि पैसे की कमी के कारण कई लड़कियों को सैनिटरी पैड नहीं मिल पाते हैं, तो उन्होंने मिलकर एक पहल की। उन्होंने रोजाना 1-1 रुपये का स्वैच्छिक योगदान इकट्ठा करना शुरू किया और बैंक की स्थापना कर दी।
इंटरनेशनल डे ऑफ गर्ल चाइल्ड (11 अक्टूबर) के मौके पर उन्होंने बताया कि पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया द्वारा शुरू किए गए एक शो 'मैं कुछ भी कर सकती हूं' ने उन्हें यह काम करने की प्रेरणा दी।
अमावा गांव के युवा नेता अनु कुमारी ने कहा, "हम हर दिन एक रुपया जमा करते हैं, यानी एक लड़की हर महीने 30 रुपये जमा करती है। हम इस पैसे से सैनिटरी पैड खरीदते हैं और उन गरीब लड़कियों में बांट देते हैं, जिनके पास इन्हें खरीदने के पैसे नहीं होते हैं।"
नवादा के पूर्व सिविल सर्जन डॉ.श्रीनाथ प्रसाद कहते हैं, "लड़कियां पहले अपने लिए आवाज नहीं उठा पाती थीं, ना वे सैनिटरी पैड के बारे में जानती थीं। लेकिन आज उन्होंने लड़कियों के लिए सैनिटरी पैड का एक बैंक शुरू किया है। आप कल्पना कर सकते हैं कि 'मैं कुछ भी कर सकती हूं' पहल ने कितना प्रभाव डाला है।"
ये लड़कियां यहीं नहीं रुकीं, बल्कि वे अब परिवार नियोजन जैसे अन्य महत्वपूर्ण लेकिन अब तक वर्जित रहे विषयों पर भी संवाद कर रही हैं। हरदिया की 17 वर्षीय मौसम कुमारी कहती हैं, "अब हम गांवों का दौरा करते हैं और महिलाओं को अंतरा इंजेक्शन, कॉपर टी, कंडोम जैसे विकल्पों के बारे में बताती हैं।"
अब युवाओं के लिए स्वास्थ्य क्लीनिकों की स्थापना करने की तैयारी है। जाहिर है, लड़कियों के इन प्रयासों ने पुरुषों की सोच में भी बदलाव लाया है। हरदिया के पूर्व मुखिया भोला राजवंशी कहते हैं, "मुझे लगता है कि अब हमारा समाज बदल गया है। अब लड़कियों और लड़कों के बीच कोई अंतर नहीं है।"
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुटरेजा ने कहा, "मुझे खुशी है कि यह शो उनके जीवन को प्रभावित कर रहा है और यही हमारा लक्ष्य है। हमने डॉ. स्नेहा माथुर जैसे प्रेरक चरित्र के जरिए सेक्स, हिंसा, लिंग भेदभाव, स्वच्छता, परिवार नियोजन, बाल विवाह, मानसिक स्वास्थ्य, नशीली दवाओं के दुरुपयोग, पोषण और किशोर स्वास्थ्य के बारे में कठिन लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत की।"
इस शो के निर्माता, प्रसिद्ध फिल्म और थिएटर निर्देशक फिरोज अब्बास खान कहते हैं, "जब 7 साल पहले मैंने इस शो की अवधारणा लिखी थी, तब मैंने भी नहीं सोचा था कि हम इसके ऐसे प्रभाव देखेंगे। मुझे बहुत खुशी होती है कि 'मैं कुछ भी कर सकती हूं' युवा, किशोर लड़कियों के लिए एक सशक्त नारा बन गया है जो अब जमीनी बदलाव लाने के लिए काम कर रही हैं।"
'मैं कुछ भी कर सकती हूं' एक युवा डॉ.स्नेहा माथुर की प्रेरणादायक यात्रा के इर्द-गिर्द घूमता है, जो मुंबई के अपने आकर्षक कैरियर को छोड़कर अपने गांव में आकर काम करती हैं। बाद उनके नेतृत्व में गांव की महिलाएं सामूहिक तौर पर कई अहम काम करती हैं।
डॉयचे वैले पर ऋतिका पाण्डेय की रिपोर्ट-
यूरोपीय देशों के कृषि मंत्रियों की बैठक में पूरे संघ पर लागू होने वाले कृषि सुधारों पर सहमति बन गई. बड़े स्तर पर लाए जाने वाले बदलावों में सबसे ज्यादा ध्यान इसे पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के लिहाज से मुफीद बनाने पर रहा. नई कृषि नीति को संघ के सभी 27 देशों ने स्वीकार कर लिया है. अब अगला कदम ब्रसेल्स स्थित यूरोपीय संसद में इसे पास करना होगा. इसी हफ्ते संसद में कृषि सुधारों से जुड़े प्रस्तावों पर मतदान होना है.
ईयू के सभी सदस्य देशों और यूरोपीय संसद को अब से लेकर अगले साल के बीच इस नीति के अंतर्गत आने वाले सभी नियम तय करने होंगे, जिसके बाद जनवरी 2023 से नई नीति अनिवार्य रूप से लागू हो जाएगी. 2021 से शुरु कर पहले दो सालों तक इसका पायलट फेज चलेगा. समझौते के बाद जर्मनी की कृषि मंत्री यूलिया क्लोएक्नर ने पत्रकारों से बातचीत में नई कृषि नीति को पहले से ज्यादा "ग्रीन, फेयर" और सरल बताया.
कैसे दिया जाएगा खेती को 'ग्रीन' बनाने पर जोर
यूरोपीय संघ ने नई कृषि नीति के तहत लाए जाने सुधारों के मद में अगले सात सालों में 387 अरब यूरो (करीब 459 अरब डॉलर) खर्च करने का बजट तय किया है. साझा कृषि नीति पर खर्च होने वाला यह ईयू के कुल बजट का सबसे बड़ा हिस्सा होगा. नई नीति में यह तय किया गया है कि सभी किसानों पर इसका संस्थागत दबाव होना चाहिए कि अगर वे सरकारों से वित्तीय मदद लेना चाहते हैं तो उन्हें पर्यावरण के लिहाज से और भी ज्यादा सख्त नियमों का पालन करना होगा.
छोटे किसानों के लिए प्रशासनिक तामझाम थोड़े कम रखे जाएंगे, जिससे वे प्रक्रियाओं का "कम बोझ उठाएं और पर्यावरण व जलवायु के लक्ष्यों में ज्यादा योगदान दे सकें." भविष्य में आने वाली सभी नई 'ईको-स्कीमों' में किसानों को सरकार से किसी भी तरह की प्रत्यक्ष प्रोत्साहन राशि हासिल करने के लिए पर्यावरण से जुड़े कड़े नियमों का पालन करना अनिवार्य होगा.
यह भी प्रावधान होगा कि अगर कोई किसान जलवायु और पर्यावरण से जुड़ी न्यूनतम शर्तों से भी आगे बढ़कर खेती करता है तो उसे उसी अनुपात में अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि भी मिलेगी. इसके लिए ईयू के सभी सदस्य देशों को संघ द्वारा दी जाने वाली राशि का कम से कम 20 फीसदी रिजर्व रखना होगा. इस राशि को लेकर संघ के कई सदस्य देशों के बीच पहले असहमति थी. खासकर पूर्वी यूरोप के कई देशों को डर था कि अगर उनके किसान बढ़ चढ़ कर ईकोफ्रेंडली खेती करने के लिए तैयार नहीं होते हैं तो उन्हें यूरोपीय संघ से मुहैया कराई जाने वाली पूरी प्रत्यक्ष प्रोत्साहन राशि भी नहीं मिल पाएगी. यूरोपीय संसद में कृषि प्रमुख यानुस वोइचिकोव्स्की का कहना है कि इन चिंताओं पर चर्चा करने और उन्हें "अच्छे से निपटाने" पर आगे बातचीत होगी.
क्यों पड़ी नई साझा कृषि नीति की जरूरत
जलवायु परिवर्तन की रफ्तार, जैवविविधता में ह्रास, मिट्टी का क्षरण और जल प्रदूषण जैसी समस्याएं दिन पर दिन गंभीर होती जा रही हैं. यही कारण है कि कृषि नीति में बड़े बदलावों की जरूरत महसूस की जा रही थी. यूरोपीय परिषद ने सन 2018 में कृषि सुधारों की एक विस्तृत रूपरेखा पेश की थी, जिसे 2021 से 2027 के बीच लागू किए जाने का प्रस्ताव था. अब इसमें पहले दो सालों को पायलट फेज मानने और फिर 2023 से इसे अनिवार्य बनाने पर सहमति बनी है.
इसके अलावा, खाने पीने की चीजों का सस्ता होना भले ही अब तक खरीदारों को नहीं खलता था लेकिन इससे यूरोपीय किसानों की आय पर बुरा असर पड़ता आया है और वे अपनी फसल और उपज की क्वालिटी को और सुधारने की हालत में भी नहीं रहते. यूरोप में सरकारी कृषि सब्सिडी के वितरण को लेकर यह समस्या बताई जाती है कि इसका बड़ा हिस्सा केवल बड़े किसानों तक ही पहुंचता है और छोटे किसानों को इसका ज्यादा फायदा नहीं मिलता.
इसी साल मई में यूरोपीय परिषद ने "फार्म टू फोर्क” (F2F) रणनीति पेश की थी जिसका मकसद ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देना और खेती में कीटनाशकों और रासायनिकउत्पादों के इस्तेमाल को कम करना था. उसका लक्ष्य 2030 तक कीटनाशकों के इस्तेमाल में 50 फीसदी और उर्वरकों के इस्तेमाल में 20 फीसदी की कमी लाना है. इन महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तमाम विस्तृत नियम भी नई साझा कृषि नीति का हिस्सा होंगे. (dw.com)
पाकिस्तान में इस हफ़्ते एक अजीब तरह की घटना को लेकर सियासत गरमा गई है. ये ऐसी घटना है, जिसमें हमेशा की तरह मंच पर सत्ता पक्ष-विपक्ष के नेता और फ़ौजी तो दिख ही रहे हैं, इस बार मैदान में पुलिस भी उतर आई है.
घटना को अजीब इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि पाकिस्तान के इतिहास में शायद ये पहली बार है, जब ऐसा आरोप लगा है कि पुलिस के एक बड़े अफ़सर को ही 'अग़वा' कर लिया गया और उनसे ज़बरदस्ती एक नेता को गिरफ़्तार करवाने के लिए दस्तख़त करवाए गए.
और वो नेता थे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के दामाद और रिटायर्ड फ़ौजी कैप्टन मोहम्मद सफ़दर.
पुलिस वालों ने इसे अपनी इज़्ज़त का मामला बना लिया और फिर अफ़सर और उनके एक दर्जन से ज़्यादा दूसरे अफ़सरों ने दो महीने के लिए छुट्टी पर जाने की दरख़्वास्त डाल दी.

फिर मामले में सेना ने दख़ल दिया और सेना प्रमुख ने मामले की फ़ौरन जाँच कराने का आदेश जारी किया.
इसके बाद पुलिस अफ़सरों ने अपनी छुट्टी की अर्ज़ी को और 10 दिन के लिए टाल दिया है.
इस मामले को लेकर अब सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने आ गए हैं. हालाँकि, दोनों के बीच टकराव इस घटना से कुछ समय पहले ही शुरू हो गया था और इस हफ़्ते जो भी हुआ वो उसी की एक कड़ी है.
पाकिस्तान में विपक्ष ने महँगाई, बिजली नहीं रहने और दूसरे आर्थिक मुद्दों को लेकर इमरान ख़ान सरकार को घेरना शुरू कर दिया है. वहाँ विपक्षी दलों ने मिलकर पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) नाम का एक गठबंधन बनाया है.
इसमें चार बड़ी पार्टियों पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़), पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (फ़ज़लुर) और पख़्तूनख़्वाह मिल्ली अवामी पार्टी के अलावा बलोच नेशनल पार्टी और पख़्तून तहफ़्फ़ुज़ मूवमेंट जैसी छोटी पार्टियाँ भी शामिल हैं.
पीडीएम ने सरकार पर हमला बोलते हुए इस महीने दो रैलियाँ कीं. 16 अक्तूबर को पंजाब के गुजरांवाला में और 18 अक्तूबर को सिंध की राजधानी कराची में. और दूसरी रैली के अगले ही दिन एक दूसरा मामला शुरू हो गया.

19 अक्तूबर को क्या हुआ?
18 अक्तूबर को रैली हुई और उसके अगले ही दिन मुँह अंधेरे नवाज़ शरीफ़ के दामाद कैप्टन (रि.) मोहम्मद सफ़दर को पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की मज़ार का अनादर करने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया.
उन्हें बाद में ज़मानत पर छोड़ दिया गया और शाम को वो लाहौर लौट आए.
मोहम्मद सफ़दर रैली वाले दिन यानी 18 अक्तूबर को कराची में अपनी पत्नी मरियम और पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ मोहम्मद अली ज़िन्ना की मज़ार पर गए थे और वहाँ उन्होंने घेरे के भीतर जाकर जिन्ना की क़ब्र के पास नारे लगाए थे. इसी वजह से उन्हें अगले दिन गिरफ़्तार कर लिया गया.
नवाज़ शरीफ़ की बेटी मरियम नवाज़ और विपक्षी पार्टियाँ इस गिरफ़्तारी को राजनीतिक बदले की कार्रवाई बता रही हैं और उनका दावा है कि गिरफ़्तारी भले पुलिस ने की, लेकिन इसमें पाकिस्तानी अर्धसैनिक बल रेंजर्स का हाथ है.
मरियम नवाज़ ने आरोप लगाया कि कराची के जिस होटल में वो और उनके पति ठहरे थे, वहाँ पुलिस उनके कमरे की कुंडी तोड़ भीतर चली आई और तब वो लोग सो रहे थे.
मरियम नवाज़ ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा, "हम सो रहे थे जब बहुत सुबह मुझे लगा कि कोई किसी का दरवाज़ा पीट रहा है, मैंने अपने पति को उठाया और कहा कि ये आवाज़ हमारे ही दरवाज़े से आ रही है. सफ़दर ने दरवाज़ा खोला तो वहाँ पुलिसवाले थे जिन्होंने कहा कि वो उन्हें गिरफ़्तार करने आए हैं. सफ़दर ने कहा कि वो कपड़े बदलकर और अपनी दवा लेकर आ रहे हैं, लेकिन वो नहीं माने और दरवाज़ा तोड़ भीतर चले आए."
मरियम नवाज़ और लंदन में इलाज करवा रहे उनके पिता नवाज़ शरीफ़ ने ये भी आरोप लगाया है कि "सिंध के पुलिस महानिरीक्षक को अग़वा कर उनसे ज़बरदस्ती गिरफ़्तारी आदेश पर दस्तख़त करवाया गया."
पाकिस्तान के एक पत्रकार ने पीएमएल(एन) के एक वरिष्ठ नेता मुहम्मद ज़ुबैर का एक कथित ऑडियो क्लिप ट्वीट किया, जिसमें वो ये कहते सुने गए कि उन्हें सिंध के मुख्यमंत्री मुराद अली शाह ने बताया कि सिंध के आईजी ने जब गिरफ़्तार करने से मना कर दिया तो रेंजर्स उन्हें सुबह चार बजे अग़वा कर सेक्टर कमांडर के दफ़्तर ले गए, जहाँ अतिरिक्त आईजी को भी बुलाया गया और उनसे ज़बरन आदेश जारी करवाए गए."
सिंध में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार है, यानी विपक्ष की ही सरकार है. लेकिन मरियम नवाज़ का कहना है कि उन्हें ज़रा भी संदेह नहीं कि गिरफ़्तारी में पीपीपी का हाथ है, ये घटना विपक्ष में फूट डालने की कोशिश है.
मरियम ने कहा कि सिंध के "पीपीपी प्रमुख बिलावल भुट्टो ने उनसे बात की और वो काफ़ी नाराज़ थे."
उन्होंने कहा, "सिंध के मुख्यमंत्री ने भी उनसे कहा कि उन्हें ऐसी घटना की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी."
नवाज़ शरीफ़ के दामाद की गिरफ़्तारी पर हंगामे के अगले दिन सिंध के कई सीनियर पुलिस अधिकारियों ने लंबी छुट्टी पर जाने का आवेदन डाल दिया. इनमें अतिरिक्त आईजीपी (स्पेशल ब्रांच) इमरान याक़ूब मिन्हास भी शामिल थे.
मीडिया में जारी उनकी छुट्टी की अर्ज़ी में लिखा गया, "कैप्टन (रि.) सफ़दर के ख़िलाफ़ एफ़आईआर के हाल के मामले में पुलिस हाईकमान का ना केवल उपहास किया गया और लापरवाही बरती गई, बल्कि इससे सिंध पुलिस के सभी पुलिसकर्मी हताश और स्तब्ध हैं".
उन्होंने आगे लिखा कि ऐसी "तनावपूर्ण" स्थिति में उनके लिए पेशेवर तरीक़े से काम करना मुश्किल है और इसलिए वो दो महीने की छुट्टी चाहते हैं.
सिंध के पुलिस अधिकारियों के इस क़दम की काफ़ी चर्चा हुई और सोशल मीडिया पर इसे सिंध पुलिस का एक "कड़ा जवाब" बताया गया.
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने कहा," मैं सिंध की पुलिस को शाबासी देता हूँ, जिन्होंने ख़ुद्दारी और बहादुरी का सबूत दिया है और इसके ख़िलाफ़ विरोध दिया है और उनका ये क़दम सारे देश को एक राह दिखाता है."
पुलिस अफ़सरों के छुट्टी पर जाने की बात सामने आने के बाद पीपीपी प्रमुख बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा और आईएसआई के महानिदेशक जनरल फ़ैज़ हमीद से मामले की जाँच करवाने की माँग की.
बिलावल ने कहा कि सिध के मुख्यमंत्री ने घटना की जाँच के आदेश जारी कर दिए हैं और सेना प्रमुख को भी जाँच करवानी चाहिए क्योंकि "ये पुलिस अधिकारियों की प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान का मसला है".
बिलावल की प्रेस कॉन्फ़्रेंस ख़त्म होने के थोड़ी ही देर बाद सेना की ओर से एक बयान जारी कर कहा गया कि सेना प्रमुख ने कराची की घटना पर ग़ौर करते हुए, कोर कमांडर कराची को तत्काल इन परिस्थितियों की जाँच रिपोर्ट जल्द-से-जल्द पेश करने का आदेश दिया है.
जनरल बाजवा के जाँच के आदेश के बाद मंगलवार रात को सिंध के पुलिस अधिकारियों ने बिलावल भुट्टो से कराची में मुलाक़ात की और बाद में अपनी छुट्टी पर जाने की तारीख़ को 10 दिनों के लिए टाल दिया.
सिंध पुलिस ने मंगलवार को देर रात ट्वीट किया, "आईजी सिंध ने अपनी छुट्टी को टालने का फ़ैसला किया है और अपने अफ़सरों से भी अपनी छुट्टियों की अर्ज़ी को देश हित में 10 दिन के लिए टालने का आदेश दिया है, जब तक कि जाँच का निर्णय ना आ जाए."
क्या कह रहे हैं इमरान
इमरान ख़ान ने इस मामले पर अभी कुछ नहीं कहा है. लेकिन उन्होंने विपक्ष की उनकी सरकार के ख़िलाफ़ घेरेबंदी की कोशिश को एक 'सर्कस' का नाम दिया है.
पीडीएम की शुक्रवार की रैली के अगले दिन इमरान ख़ान ने इस्लामाबाद में एक सभा में मरियम नवाज़ और बिलावल भुट्टो पर कटाक्ष करते हुए कहा था, "मैं उन दो बच्चों के बारे में बात नहीं करना चाहता जो भाषण देते हैं. और मैं इसलिए नहीं बात करना चाहता क्योंकि कोई भी इंसान तब तक नेता नहीं बनता, जब तक कि उसने संघर्ष ना किया हो. इन दोनों ने अपनी ज़िंदगी में एक घंटे भी हलाल काम नहीं किया है. आज भाषण दे रहे ये दोनों अपने-अपने पिता की हराम की कमाई पर पले हैं. उनके बारे में बात करना बेकार है."

इसके अगले दिन मरियम नवाज़ ने कराची की रैली में इमरान ख़ान को ये जवाब दिया,"आपने लोकतंत्र की क़ब्र खोदी, पर नवाज़ शरीफ़ ने कभी भी आपका नाम नहीं लिया. आज भी आप चाहते होंगे, पर नवाज़ शरीफ़ आपका नाम नहीं लेंगे, क्योंकि बड़ों की लड़ाई में बच्चों की कोई भूमिका नहीं होती."
बड़ों से मरियम का इशारा पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की ओर था. नवाज़ शरीफ़ ये आरोप लगाते रहे हैं कि उन्हें देश से बाहर करवाने में सेना और आईएसआई का हाथ है और इमरान ख़ान उन्हीं की कठपुतली सरकार है.
नवाज़ शरीफ़ को भ्रष्टाचार के कई मामलों में जुलाई 2018 में 10 साल जेल की सज़ा हुई थी. अगले साल उन्हें इलाज के लिए ज़मानत दे दी गई जिसके बाद से वो लंदन में हैं.(bbc)
डॉयचे वैले पर शिवप्रसाद जोशी की रिपोर्ट-
दिल्ली विश्वविद्यालय के दाखिलों में 100 प्रतिशत की सीलिंग, छात्रों के बेहतर प्रदर्शन के अलावा कॉलेजों की कमी और गुणवत्ता के स्तर की ओर भी इशारा करती है. अन्य राज्यों के छात्रों की ‘दिल्ली चलो’ की चाहत आखिर क्या कहती है?
कोरोना के चलते अधिकांश विश्वविद्यालयों में दाखिले की प्रक्रिया ऑनलाइन है. दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की कटऑफ अधिकांश विषयों में 98 और 100 प्रतिशत के बीच है. बहुत से विषयों में तो 100 प्रतिशत की पहली कटऑफ के साथ दाखिले बंद हो चुके हैं. दिल्ली विवि में स्नातक कक्षाओं के लिए 70 हजार सीटें हैं और पचास प्रतिशत सीटें पहली सूची के आधार पर भरी जा चुकी हैं. हो सकता है इस बार भी हजारों छात्रों को मायूसी हाथ लगे. दाखिलों को लेकर वैसे ये घमासान कोई पहली बार नहीं हुआ है. इस वर्ष कुछ ज्यादा इसलिए नजर आ रहा है क्योंकि महामारी के बीच अंक निर्धारण पद्धति में किए गए बदलावों और उनके तहत दी गयी राहतों के फलस्वरूप 12वीं के नतीजे अप्रत्याशित और रिकॉर्ड स्तर पर बढ़े हुए आए हैं.
सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार विद्यार्थियों ने जिन विषयों में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था, उसके आधार पर अंक दिए गए क्योंकि कुछ विषयों के पेपर रद्द भी करने पड़े थे. इस वर्ष सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा देने वाले करीब 12 लाख छात्रों में साढ़े दस लाख से कुछ अधिक छात्र पास हुए थे. 95 प्रतिशत और उससे अधिक नंबर लाने वाले छात्रों की संख्या पिछले साल 17690 थी, इस बार थी 38686. यानी सौ प्रतिशत से भी ज्यादा. 90 से 95 प्रतिशत अंक लाने वाले छात्रों की संख्या इस बार करीब एक लाख 58 हजार थी, जबकि पिछले साल थी 94 हजार. अंकों में ये उछाल सिर्फ सीआईसीएसई और आईबी बोर्डों के साथ साथ राज्य सरकारों के शिक्षा बोर्डों में भी हैं जिनकी परीक्षाओं में पास प्रतिशत की दर इस बार बढ़ी हुई थी. सभी बोर्डो के तहत कुल एक करोड़ से अधिक छात्र 12वीं परीक्षा में बैठे थे.
लोकप्रिय हैं कुछ कॉलेज और यूनिवर्सिटी
जब अंकों की ये बरसात हो रही थी तो ये मुद्दा तभी उभर आया था कि इस बार दिल्ली विवि जैसे संस्थानों में दाखिले की होड़ मचेगी. 91 कॉलेजों, 86 विभागों, 20 केंद्रों, 3 संस्थानों और 70 हजार सीटों वाले दिल्ली विश्वविद्यालय में करीब ढाई लाख बच्चों ने दाखिले के लिए अर्जी दी. ऊंची कटऑफ की एक वजह इंजीनियरिंग, मेडिकल और लॉ कॉलेजों की प्रवेश परीक्षाओं में देरी को भी बताया जा रहा है. एक वजह ये भी बतायी गयी है कि विदेशी विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने वाले संभावित छात्रों ने इस बार महामारी के चलते दिल्ली यूनिवर्सिटी जैसे घरेलू प्रतिष्ठित संस्थानों का ही रुख किया. माना तो ये भी जा रहा था कि सुरक्षा और सुविधा देखते हुए छात्र अपने अपने शहरों या राज्यों में ही दाखिला लेंगे लेकिन इतने अधिक आवेदनों को देखते हुए ये बात सही नहीं निकली. ऑनलाइन आवेदन की सुविधा और महामारी के चलते निकट भविष्य में ऑनलाइन पढ़ाई की संभावना ने भी छात्रों को दिल्ली यूनिवर्सिटी की ओर आकर्षित किया. धारणाएं ये भी है कि दिल्ली में अधिक सहज, सुगम, साधनसंपन्न सामाजिक और शैक्षणिक पर्यावरण मिल सकता है और डीयू की डिग्री का मतलब रोजगार के बेहतर अवसर है.
डीयू के मोह से ये भी स्पष्ट होता है कि इस दिशा में केंद्र और राज्यों की ओर से पर्याप्त और प्रभावी पहल नहीं हुई है जिससे छात्रों का अनावश्ययक माइग्रेशन यथासंभव रोका जा सके. एक बात ये भी है कि अगर 12वीं की परीक्षा के नतीजे बहुत अच्छे आ रहे हैं तो सीटें और कॉलेजों की संख्या भी उस हिसाब से बढ़नी चाहिए. एक आंकड़े के मुताबिक दिल्ली में हर साल करीब ढाई लाख विद्यार्थी 12वीं की परीक्षा पास करते हैं. उनमें से करीब सवा लाख छात्रों को ही दिल्ली के कॉलेजों में दाखिला मिल पाता है. सीटें कम हैं और छात्रों की संख्या अधिक. ये हाल कमोबेश सभी राज्यों में हैं, उन राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों में तो दाखिले की वैसी ही होड़ है जो अकादमिक रुतबे और संसाधनों की सुविधा के मामले में डीयू के समान या उससे भी अव्वल हैं.
80-90 प्रतिशत या शत-प्रतिशत अंक न ला पाने वाले विद्यार्थियों के प्रति अघोषित नाइंसाफी आखिर कैसे दूर होगी. शिक्षा न सिर्फ बढ़ते खर्च के बोझ से बल्कि अंकों के खौफ से भी डगमगा रही है. ज्यादा से ज्यादा अंकों की ये मारामारी एक डरा हुआ और व्यग्र समाज बना चुकी है. अंकों में अंतर उच्च शिक्षा में एक नया विभाजन भी पैदा करता रहा है. इसे सब जानते हैं सरकार से लेकर अकादमिक विशेषज्ञों तक, लेकिन सभी लाचार नजर आते हैं. समस्या के कई बिंदु हैं, सीटों की तुलना में आवेदनों की अधिक संख्या, 12वीं की मूल्याकंन पद्धति की कमजोरियां, ओवर एडमिशन से बचने के लिए कॉलेजों की ऊंची कटऑफ, गुणवत्तापूर्ण सरकारी विश्वविद्यालयों की कमी.
दिल्ली में नए कॉलेजों की समस्या
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नए कॉलेजों की स्थापना के लिए 1927 के दिल्ली विश्वविद्यालय अधिनियम में संशोधन की मांग की है. उनके मुताबिक अधिनियम में लिखा है कि अगर दिल्ली में कोई नया कॉलेज खुलता है तो वो डीयू से ही संबंद्ध किया जा सकता है, किसी और यूनिवर्सिटी से नहीं. लेकिन पिछले 30 साल में डीयू ने कोई नया कॉलेज नहीं खोला है और ये संभव भी नहीं है कि क्योंकि उनकी क्षमता पूरी हो चुकी है. एक मामूली सा संशोधन 1998 में हुआ था जिसके मुताबिक डीयू के अलावा नए कॉलेज आईपी यूनिवर्सिटी से भी संबद्ध किए जा सकते हैं. लेकिन वहां भी क्षमता पूरी हो चुकी है.
सरकारी विश्वविद्यालयों और संस्थानों की गुणवत्ता को बेहतर बनाया जाए, राज्य उच्च शिक्षा में और अधिक संसाधन लगाने और निवेश के लिए आगे आएं. हर राज्य अपने यहां कम से कम दो या तीन नामीगिरामी विश्विविद्यालयों को खड़ा करने या संवारने का एक वृहद और संवेदनशील खाका शिक्षा विशेषज्ञों, अकादमिकों, शिक्षकों और नीति नियोजकों के साथ मिलकर तैयार करे. यानी ये काम इतने व्यापक, बहुआयामी और गहन स्तर पर किए जाने की जरूरत है कि छात्र डीयू, जेएनयू या किसी और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का मुंह न ताके बल्कि अपने राज्य में ही दाखिले के लिए उत्सुक बनें. इस काम में अकादमिक और शैक्षणिक अनुभवों वाले नयी और पुरानी पीढ़ी के जानकार शिक्षकों की एक समन्वित और पारदर्शी टीम भी गठित की जा सकती है, जो उच्च शिक्षा के बारे में और विषयों के बारे में एक जागरूकता अभियान छात्रों के बीच चला सके. कुछ इस तरह का अभियान जिसमें सिर्फ 90 या सौ अंक लाने वालों की जगह न हो बल्कि उत्साही और बेहतरी का सपना संजोने वाले सभी विद्यार्थियों को समावेशित किया जा सके.
क्या व्यावहारिक रूप से ऐसा हो पाना संभव है कि उच्चशिक्षा के क्षेत्र में चुनिंदा संस्थानों और उच्च अंकों का वर्चस्व टूट सके. इस विभाजन को खत्म करने के लिए जरूरी है कि सरकारें प्रतिबद्धता दिखाते हुए शिक्षा का बजट बढ़ाएं, शिक्षा को सार्वभौम बनाएं और उसके निजीकरण की आंधी को हवा न दें. जाहिर है इसकी शुरुआत प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही करनी होगी. सवाल यही है कि क्या सरकारें शिक्षा के लिए इतना समय और संसाधन खर्च करने को तैयार हैं? क्या एनईपी 2020 में ये भावना परिलक्षित होती है?(dw.com)
-पवन वर्मा
पश्चिमी दुनिया और भारत के तकरीबन 2000 व्यंजनों के विश्लेषण से पता चला है कि भारतीय खाना इतना स्वादिष्ट क्यों होता है।
कहा जाता है कि खाना और उसका स्वाद संस्कृति का हिस्सा होते हैं और संस्कृति बदलने पर वे भी बदल जाते हैं। लेकिन पंजाब का पनीर टिक्का हो, गुजरात का फाफड़ा या फिर तमिलनाडु का इडली डोसा, ये व्यंजन भारत ही नहीं, पूरी दुनिया को अपने स्वाद का मुरीद बनाए हुए हैं। भारत के कई और व्यंजनों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है।
यानी संस्कृति से इतर भी कुछ वजह है जिससे अलग-अलग देशों के लोग भारतीय खाने की तरफ आकर्षित होते हैं। लेकिन क्या? यह गुत्थी कुछ समय पहले हुए एक अनुसंधान से सुलझी है। भारतीय खाने के इस विशिष्ट स्वाद की वजह इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (आईआईटी) जोधपुर के तीन छात्रों के शोध से सामने आई। कुछ साल पहले हुए इस शोध के अंतर्गत पश्चिमी दुनिया और भारत के तकरीबन 2000 व्यंजनों का अध्ययन किया गया। इन सभी व्यंजनों में तकरीबन 200 खाद्य सामग्रियां और मसाले इस्तेमाल किए जाते हैं।
‘स्पाइसेज फॉर्म द बेसिस ऑफ फूड पेयरिंग इन इंडियन क्विजीन’ शीर्षक से प्रकाशित इस शोधपत्र में पाक कला के सबसे बुनियादी तर्क को आधार बनाकर निष्कर्ष निकाले गए हैं। यह तर्क कहता है किसी व्यंजन में एक-दूसरे से बिलकुल अलग और एक समान स्वाद वाले पदार्थों का मेल तय करता है कि उसका स्वाद लोगों को कितना लुभाएगा।
शोध के मुताबिक यदि हम पश्चिमी व्यंजनों को देखें तो उनमें तकरीबन एक जैसे स्वाद वाली सामग्रियां ही पड़ती है। पश्चिम में पाककला का विकास इसी बुनियादी सिद्धांत पर हुआ है कि एक व्यंजन में बिल्कुल अलग स्वाद वाली खाद्य सामग्रियां न रहें। इसके विपरीत भारतीय पाककला बिलकुल अलग स्वाद वाले मसालों को एक साथ मिलाकर व्यंजन बनाने के आधार पर विकसित हुई है। शोध के मुताबिक यही वजह है कि भारतीय खाना अलग-अलग संस्कृति और देशों के लोगों को इतना लुभाता है।
कैसे हुआ शोध
हर एक खाद्य सामग्री को उसकी रासायनिक संरचना के आधार पर बांटा जा सकता है। यह संरचना ही उसके स्वाद को तय करती है। शोध करने वाली टीम ने पहले सभी खाद्य सामग्रियों को उनके स्वाद के आधार पर अलग-अलग बांटा। इसके बाद उन्होंने विदेशी और भारतीय व्यंजनों में पडऩे वाली खाद्य सामग्री का विश्लेषण किया।
इस विश्लेषण के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। इनके अनुसार भारतीय व्यंजनों में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले 10 मसालों - लाल मिर्च, हरी मिर्च, धनिया, गरम मसाला, तेज पत्ता, इमली, लहसुन, अदरक, इमली और लहसुन, में से नौ ऐसे हैं जिन्हें पश्चिमी पाक कला के हिसाब से एक साथ इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। जबकि भारतीय खानपान में इनका एक साथ ही प्रयोग होता है। इस आधार यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मसालों का यह मेल ही भारतीय खाने में अनोखे स्वाद की मुख्य वजह है। (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में दो क्रांतियों की तत्काल जरुरत है। इन दो क्रांतियों को करने के लिए सबसे पहले भारत को एक राष्ट्र बनाना होगा। भारत इस वक्त एक राष्ट्र नहीं है। वह ऊपर-ऊपर से एक राष्ट्र दिखता है लेकिन वास्तव में वह एक नहीं, दो राष्ट्र है। एक भारत है और दूसरा ‘इंडिया’ है। इन दो राष्ट्रों में भारत का बंटना 1947 के भारत-विभाजन से भी ज्यादा खतरनाक है। 1947 में भारत के दो टुकड़े करने के लिए हम गांधी और नेहरु को दोषी ठहराते हैं लेकिन भारत और इंडिया के विभाजन का दोषी कौन नहीं है?
दिल्ली में बनी अब तक की सभी सरकारें हैं, हमारी सभी पार्टियां हैं और सभी नेतागण हैं। कौनसी ऐसी प्रमुख पार्टी है, जो केंद्र या प्रदेशों में सत्तारुढ़ नहीं रही है लेकिन किसी ने भी आज तक शिक्षा और स्वास्थ्य में कोई बुनयादी परिवर्तन नहीं किया। सभी अपनी रेलें अंग्रेजों की बनाई पटरी पर चलाते रहे हैं। वर्तमान सरकार ने नई शिक्षा नीति बनाई है। उसमें कुछ सराहनीय मुद्दे हैं लेकिन वे लागू कैसे होंगे ? हमारे बच्चे भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ेंगे लेकिन नौकरियां उन्हें अंग्रेजी के माध्यम से मिलेंगी। सिर्फ मजबूर लोग ही अपने बच्चों को बेकारी की खाई में ढकेलेंगे। जो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ेंगे, वे नौकरियों, रुतबे और माल-मत्ते पर कब्जा करेंगे।
ये ‘इंडिया’ के लोग होंगे। इनमें से जिसको भी मौका मिलेगा, वह विदेश भाग खड़ा होगा। जरुरी यह है कि सारे देश में शिक्षा की पद्धति एक समान हो। नैतिक शिक्षा, व्यायाम और ब्रह्मचर्य पर जोर दिया जाए। गैर-सरकारी स्कूलों-कालेजों को खत्म नहीं किया जाए लेकिन उनमें और सरकारी स्कूल-कालेजों में कोई फर्क न हो। न फीस का, न माध्यम का और न ही गुणवत्ता का! सरकारी नौकरियों में से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हो।
यही क्रांति स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में जरुरी है। चिकित्सा के मामले में भारत बहुत पिछड़ा हुआ है। इंडिया बहुत आगे है। इंडिया के लोग 25-25 लाख रु. खर्च करके कोरोना का इलाज करवा रहे है। लेकिन ग्रामीण, गरीब, दलित, आदिवासी लोगों को मामूली दवाइयां भी नसीब नहीं हैं। तो क्या करें ? करें यह कि सभी गैर-सरकारी अस्पतालों पर कड़े कायदे लागू करें ताकि वे मरीजों से लूटपाट न कर सकें। कई नेताओं और अफसरों ने मुझसे पूछा कि गैर-सरकारी अस्पतालों और स्कूलों पर ये प्रतिबंध लगाए जाएंगे तो शिक्षा और चिकित्सा का स्तर क्या गिर नहीं जाएगा ?
वे सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की तरह निम्नस्तरीय नहीं हो जाएंगे ? इसका बेहद असरदार इलाज मैं यह सुझाता हूं कि राष्ट्रपति से लेकर नीचे तक सभी कर्मचारियों और चुने हुए जन-प्रतिनिधियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि वे अपने बच्चों को सिफ्र सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाएं और अपने परिवार का इलाज सिर्फ सरकारी अस्पतालों में ही कराएं। देखें, रातोंरात भारत की शिक्षा और चिकित्सा में क्रांति होती है या नहीं ? (नया इंडिया की अनुमति से)
- रजनीश कुमार
बिहार के दो युवा. एक 30 साल के तेजस्वी यादव और दूसरे 38 साल के चिराग पासवान. तेजस्वी यादव क्रिकेटर बनना चाहते थे, लेकिन क्रिकेट की दुनिया में ग़ुमनाम से रहे. चिराग पासवान अभिनेता बनना चाहते थे, लेकिन वे अभिनय की दुनिया में अनजान रह गए.
अब दोनों के पास अपने-अपने पिता की राजनीतिक विरासत है और उसी के सहारे वो नेता बन चुके हैं.
रोहन गावसकर के पास पिता सुनील गावसकर के क्रिकेट की विरासत थी, लेकिन वे चाहकर भी क्रिकेट में स्थापित नहीं हो पाए. लेकिन राजनीति में व्यक्तिगत परफ़ॉर्मेंस का मसला भारतीय लोकतंत्र से ग़ायब है, इसलिए नेता बनना क्रिकेटर बनने की तरह मुश्किल नहीं है.
तेजस्वी बताते हैं कि उनमें क्रिकेट की ललक इस क़दर थी कि उन्होंने नौंवी क्लास के बाद पढ़ाई छोड़ दी.
तेजस्वी का क्रिकेट प्रेम
सबा करीम तब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास ले चुके थे. साल 2001 था. लालू प्रसाद यादव बिहार क्रिकेट असोसिएशन के अध्यक्ष थे. सबा करीम और राम कुमार क्रिकेट को लेकर लालू यादव से उनके आवास पर मिलने गए थे.
लालू यादव के सामने सबा करीम और राम कुमार ने बिहार की प्रतिभाओं को क्रिकेट में जगह देने के लिए कई तरह के प्रस्ताव रखे थे.
सबा करीम कहते हैं, ''लालू जी ने हमारी बातें ध्यान से सुनीं. वो हमारे प्रस्तावों को लेकर बहुत ही सकारात्मक थे. बातचीत के दौरान ही उन्होंने अपने बेटे तेजस्वी से मिलवाया. तब तेजस्वी की उम्र 10-12 साल रही होगी. लालू जी ने कहा कि देखो, ये मेरा छोटा बेटा है और क्रिकेट को लेकर बहुत उतावला रहता है. थोड़ा इस पर भी ध्यान दो. हमने 2002 में पटना में एक कैंप लगाया. उसमें 100 बच्चों को चुना गया. इन 100 में एक तेजस्वी यादव भी थे. हमें लालू यादव ने कहा था कि इसको थोड़ा देख लो और मदद करो. लालू तेजस्वी के क्रिकेट को लेकर बहुत गंभीर थे.''
सबा करीम कहते हैं कि तेजस्वी के साथ क्रिकेट की विरासत नहीं थी, लेकिन उनकी चाहत थी. हालांकि तेजस्वी चाहत के साथ लंबे समय तक नहीं रह पाए और उन्हें अपनी विरासत की ओर रुख़ करना पड़ा.
सबा कहते हैं कि लालू ने उस वक़्त उनसे तेजस्वी का बैट देखने को भी कहा था और सलाह माँगी थी कि उन्हें किस तरह के बैट से खेलना चाहिए.
लालू प्रसाद यादव से उस मुलाक़ात को याद करते हुए राम कुमार कहते हैं, ''तेजस्वी तब स्कूल का बच्चा था, लेकिन क्रिकेट को लेकर उसका सेंस बहुत अच्छा था. हम दोनों ने तेजस्वी से बात की थी. उससे क्रिकेट को लेकर बात हुई और उसने एक्सप्लेन किया था और लालू जी ने हमें क्रिकेट सिखाने के लिए कहा था.''
'वीरेंदर सहवाग की तरह बैटिंग'
राम कुमार कहते हैं, ''शुरुआत में हमने पटना में क्रिकेट सिखाना शुरू किया. एक अणे मार्ग में ही ट्रेनिंग शुरू कर दी, वहीं नेट लगाया गया. हमने देखा तो लगा कि लड़के में क्षमता है. उसकी समझ बहुत अच्छी थी. बल्लेबाज़ी और गेंदबाज़ी में जो हम तकनीक बताते, उसे वो बहुत जल्दी सीख लेता. उसके अंदर ललक थी. तेजस्वी में लगातार सुधार हो रहा था. फिर हमें लगा उसे ओपन जगह पर खेलना चाहिए, तो हम उसे बाहर आम क्रिकेटरों के साथ मिक्स-अप करने लगे. बाद में लोगों ने भीड़ लगाना शुरू कर दिया. तेजस्वी के बारे में लोगों को पता चल गया था कि वे मुख्यमंत्री के बेटे हैं.''
राम कुमार बताते हैं कि 2003 में तेजस्वी को दिल्ली शिफ़्ट करना पड़ा. वहाँ वे नेशनल स्टेडियम में प्रैक्टिस करने लगे. दिल्ली जाने के बाद उन्हें और भी एक्सपोजर मिला.
राम कुमार कहते हैं कि तेजस्वी वीरेंदर सहवाग की तरह बैटिंग करना चाहते थे.
तेजस्वी यादव के एक और कोच अशोक कुमार कहते हैं, ''तेजस्वी टीम मैन थे. व्यक्तिगत प्रदर्शन को लेकर बहुत उतावले नहीं होते थे. दिल्ली डेयरडेविल्स में उन्हें दो बार मौक़ा मिला. बेहतर खिलाड़ी थे, लेकिन सब कुछ इतनी जल्दी नहीं हो जाता है. जो तेजस्वी के क्रिकेट का मज़ाक उड़ाते हैं, उन्हें क्रिकेट की समझ नहीं है. मैं इसे एक उदाहरण के ज़रिए समझाता हूँ. झारखंड रणजी टीम की राजीव कुमार राजा ने कप्तानी की. राजीव छह इनिंग्स में बिल्कुल नहीं खेल पाए. अगले सीज़न में राजीव कुमार राजा ने बेहतरीन परफ़ॉर्म किया. तेजस्वी ने महज एक रणजी ट्रॉफ़ी मैच और विजय हज़ारे ट्रॉफी के दो मैच खेले और उसमें वो अच्छा नहीं खेल पाए, लेकिन इतने कम मैचों के आधार पर किसी का आकलन करना नाइंसाफ़ी है.''
अशोक कुमार कहते हैं, ''तेजस्वी ने दिल्ली अंडर-19 में भी खेला और उन्होंने एक बार 62 गेंद पर 100 रनों की पारी खेली थी. तेजस्वी एक अनुशासित खिलाड़ी थे. मेरा मानना है कि भले तेजस्वी ने डिग्री वाली पढ़ाई नहीं की, लेकिन उन्होंने क्रिकेट सीखने के क्रम में बहुत कुछ जाना और समझा. इसी दौरान उन्हें एक्सपोजर भी मिला. तेजस्वी ने क्रिकेट में बहुत मेहनत की थी. तेजस्वी में किसी भी चीज़ को अपनाने की क्षमता क़ाबिल-ए-तारीफ़ थी. दिल्ली आने के बाद तेजस्वी डीपीएस आरके पुरम में पढ़ाई कर रहे थे.''
अशोक कुमार 2010 में झारखंड प्रीमियर लीग के कोच बनकर गए. तेजस्वी जमशेदपुर जांबाज़ टीम में शामिल हुए. हालाँकि यहाँ भी वो कुछ ख़ास नहीं कर पाए.
शाम का वक़्त है. विपिन राम पटना के स्टेट गेस्ट हाउस में एक कुर्सी पर बैठ लालू यादव के पुराने वीडियो देख रहे हैं. वीडियो देखते हुए वे हँसते जाते हैं.
तभी बिहार के एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ हमलोग वहाँ पहुँचते हैं. वीडियो में लालू की आवाज़ सुनते ही हमारे साथ आए वरिष्ठ पत्रकार ने हँसते हुए कहा- 'का जी, तुमको नौकरी नीतीश कुमार ने दी और वीडियो लालू यादव का देखते हो.'
इतना सुनते ही विपिन राम मोबाइल वीडियो बंद कर देते हैं और कहते हैं, ''सर, लालू जी को देख पुरानी बातें याद आती हैं, बहुत हँसी आती है. ये बात सच है कि नौकरी नीतीश कुमार ने दी, पर हँसाता तो लालू जी का ही भाषण है.''
विपिन राम स्टेट गेस्ट हाउस में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से पहले से ही रूम सर्विस का काम करते थे.
हालाँकि तब उनकी नौकरी पक्की नहीं थी और सैलरी भी महज़ 1700 रुपए मासिक थी.
नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद विपिन की नौकरी पक्की हो गई और आज की तारीख़ में विपिन हर महीने 26 हज़ार रुपए कमाते हैं.
विपिन से जब अकेले में बात की, तो उन्होंने बताया, ''सर, मैंने लालू जी की बहुत सेवा की है. हाथ-पैर ख़ूब दबाए हैं. जाते ही लालू जी कहते थे- अरे विपिनवा हाथ पैर दबाओ. हालाँकि नौकरी तो नीतीश कुमार ने दी. अगर लालू जी ही दे दिए होते, तो मेरे परिवार की स्थिति बेहतर होती. लंबा समय तो 1700 की सैलरी में बिता दिए.''
विपिन कहते हैं, "वो लालू जी का ज़माना था. उनके घर का दरवाज़ा कभी ग़रीबों के लिए बंद नहीं हुआ. उनके बेटे क्रिकेट खेलते थे तो हम गेंद फेंकते थे.''
विपिन हँसते हुए कहते हैं, "लेकिन वो हमसे केवल बॉलिंग करवाते थे, बैटिंग नहीं देते थे. अब भी घर जाते हैं, तो तेज प्रताप पहचान लेते हैं और हालचाल पूछते हैं, लेकिन तेजस्वी नहीं पहचानते हैं."
विपिन राम को भले लालू यादव ने नौकरी नहीं दी, लेकिन वो पुराने दिन याद कर आज भी भावुक हो जाते हैं. विपिन को शिकायत है कि लालू यादव की तरह उनके बेटे नहीं हैं.
तेजस्वी यादव में कई लोग उनके पिता लालू यादव को खोजने की कोशिश करते हैं. लेकिन जो भी ऐसा करते हैं, उन्हें निराशा हाथ लगती है और फिर कहते हैं कि लालू यादव कोई दूसरा नहीं हो सकता.
लेकिन क्या पिता के व्यक्तित्व में बेटे को देखना किसी के आकलन का सही तरीक़ा है?
इस पर आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि पिता से बेटे की तुलना करना बिल्कुल नाइंसाफ़ी है.
वे कहते हैं, ''अगर मेरी तुलना कोई मेरे पिता रामानंद तिवारी से करे, तो मैं तो उनके चरणों की धूल बराबर नहीं हूँ. मेरा बेटा भी मुझसे बिल्कुल अलग है. गांधी से उनके बेटे की तुलना नहीं की जा सकती. ये बात महत्वपूर्ण है कि आप अपनी संतान को कैसी परवरिश देते हैं, उसका असर बच्चों पर पड़ता है. तेजस्वी का व्यक्तित्व अलग है और वे अभी बनने की प्रक्रिया में हैं. हम लालू यादव से उनकी तुलना कैसे कर सकते हैं.''
जहाँ विपिन राम कहते हैं कि लालू के ज़माने में उनके घर का दरवाज़ा कभी बंद नहीं होता था, वहीं उनका कहना है कि 'तेजस्वी से मिलना अब इतना आसान नहीं रहा.'
बिछड़े सभी बारी-बारी
कभी आरजेडी में रहे और अब बीजेपी सांसद रामकृपाल यादव के बेटे अभिमन्यु दिल्ली में दो साल तक तेजस्वी के साथ बिहार निवास में रहे. तब राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री थीं.
अभिमन्यु और तेजस्वी दिल्ली में 2002 से 2004 तक साथ थे. जब लालू यादव रेल मंत्री बन गए, तब तेजस्वी अपने पिता को मिले सरकारी घर में शिफ़्ट हो गए.
अभिमन्यु से हमने पूछा कि तेजस्वी को लेकर उनका क्या अनुभव रहा? तेजस्वी ने स्कूल की पढ़ाई बीच में ही क्यों छोड़ दी? तेजस्वी को एक नेता के तौर पर वो कितना परिपक्व मानते हैं?
तो जवाब में अभिमन्यु ने कहा, ''तेजस्वी मेरे बड़े भाई की तरह रहे. उनके साथ जब तक था, तब तक उन्होंने मेरा उसी रूप में ध्यान रखा. हमने अपने जीवन के बेहतरीन पल साथ गुज़ारे हैं. साथ में फ़िल्में, रेस्तरां, ट्रिप और क्रिकेट. ऐसा कभी नहीं लगा कि आने वाले दिनों में हालात इस क़दर बदलेंगे कि हमारे बीच बात ही बंद हो जाएगी.''
अभिमन्यु कहते हैं, ''उनका पूरा ध्यान क्रिकेट पर था. इसलिए उन्होंने पढ़ाई नहीं की. क्रिकेट को वो सबसे ज़्यादा वक़्त देते थे. एक नेता के रूप में उन्हें अभी बहुत कुछ करना है. लालू जी संघर्ष के दम पर नेता बने थे, लेकिन तेजस्वी को बहुत कुछ किया हुआ मिला है. लालू जी इन्हीं संघर्षों के दम पर जन-नेता बने थे, जबकि तेजस्वी के आसपास जो लोग हैं, वो उनसे ही घिरे हुए हैं. मेरा मानना है कि तेजस्वी की पढ़ाई पूरी हो गई होती, तो वो और अच्छे नेता बनते.''
अभिमन्यु और तेजस्वी के रिश्ते जितने मधुर थे, अब उतने ही ख़राब हो गए हैं.
रामकृपाल यादव लंबे समय तक लालू यादव के सबसे पक्के वफ़ादारों में से एक रहे. साल 2014 में पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र से वो आरजेडी का टिकट चाहते थे, लेकिन वहाँ से लालू यादव की बेटी मीसा भारती को टिकट मिला. अभिमन्यु कहते हैं कि यह उनके पिता के लिए किसी झटके से कम नहीं था.
अभिमन्यु ने कहा, ''बात लोकसभा टिकट की नहीं थी. सम्मान की थी. पापा ने यहाँ तक कह दिया था कि अगर यहाँ से राबड़ी जी चुनाव लड़ती हैं, तो उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं. पापा आरजेडी के लिए बहुत मेहनत करते थे. बल्कि लालू जी के परिवार की ख़ातिर भी हमेशा समर्पित रहते थे. ऐसे में सांसद बनने की तमन्ना भला क्यों नहीं रहती. हालाँकि पापा के बीजेपी में जाने के पीछे कारण केवल टिकट का मामला नहीं है. पापा का अपमान हुआ था और ये असहनीय था. मैंने पापा से कहा कि जहाँ सम्मान ना मिले, उनके साथ रहने का कोई मतलब नहीं."
अभिमन्यु की 2017 में शादी हुई. लालू यादव को आमंत्रित किया गया, लेकिन वो नहीं आए.
लालू प्रसाद यादव और रामकृपाल यादव की फ़ाइल फ़ोटो
अभिमन्यु कहते हैं, ''मैंने तेजस्वी को आमंत्रित नहीं किया था. इससे पहले वो मेरी बहन की शादी में नहीं आए थे. उसके बाद आमंत्रित करने का कोई मतलब नहीं था.''
क्या तेजस्वी ने रामकृपाल यादव को मनाने की कोशिश नहीं की? अभिमन्यु कहते हैं कि तब तेजस्वी पार्टी में बहुत सक्रिय नहीं थे और सब कुछ लालू जी ही देखते थे. अभिमन्यु लालू परिवार से अपने रिश्तों को याद करते हैं, तो जितना कुछ कहना चाहते हैं वो अनकही सी रह जाती है.
साल 2019 के अप्रैल में हमने रामकृपाल यादव का एक इंटरव्यू किया था. हम उनके बेडरूम में बैठे थे. बिस्तर के ठीक सामने की दीवार पर लालू और राबड़ी की एक तस्वीर टंगी थी.
इसके अलावा कोई और तस्वीर नहीं थी. रामकृपाल यादव से पूछा कि आपने केवल इनकी ही तस्वीर रखी है? ये पूछने पर वो भावुक हो गए और कहा कि उनके लिए दिल में जगह है और हमेशा रहेगी.
तेजस्वी की राजनीति
तेजस्वी यादव 2015 के विधानसभा चुनाव में राघोपुर से विधायक चुने गए. यह उनका पहला चुनाव था.
तब नीतीश कुमार और लालू यादव ने मिलकर चुनाव लड़ा था. चुनाव में इसी गठबंधन को जीत मिली और तेजस्वी पहली बार में ही प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री बन गए.
दो साल भी नहीं हुए कि नीतीश कुमार फिर से बीजेपी के साथ चले गए और तेजस्वी को 16 महीने बाद उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. उसके बाद वो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने.
इस छोटे से राजनीतिक करियर में तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे. आईआरसीटीसी लैंड स्कैम केस में उन्हें अगस्त 2018 में बेल मिली थी.
ये मामला पटना में तीन एकड़ ज़मीन को लेकर है. इस ज़मीन पर एक मॉल प्रस्तावित है. लालू यादव पर आरोप है कि उन्होंने 2006 में रेल मंत्री रहते हुए एक निजी कंपनी को होटल चलाने का कॉन्ट्रैक्ट दिया और इसके बदले उन्हें महंगा प्लॉट मिला.
सीबीआई का कहना है कि यह ज़मीन पहले आरजेडी के एक नेता की पत्नी के नाम पर ट्रांसफ़र की गई और बाद में कौड़ी के भाव राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव के नाम पर ज़मीन दे दी गई.
नीतीश कुमार ने पूरे मामले पर तेजस्वी यादव को स्पष्टीकरण देने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. जबकि लालू यादव ने बीजेपी पर फँसाने का आरोप लगाया था.
पूरे मामले में तेजस्वी का नाम एक साज़िशकर्ता के तौर पर है. तेजस्वी का कहना था कि ज़मीन तब मिली, जब उनकी उम्र बहुत ही कम थी.
उन्होंने कहा था कि तब तो उनकी मूँछ भी नहीं निकली थी. नीतीश कुमार ने इन्हीं आरोपों का हवाला देकर आरजेडी से गठबंधन तोड़ दिया था.
तेजस्वी कितने आधुनिक?
2018 में तेजस्वी यादव से एक इंटरव्यू को दौरान हमने पूछा था कि क्या वो अंतरजातीय विवाह कर लेंगे? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि शादी माँ-बाप के मन से होता है और वो जो कहेंगे वही होगा.
कुछ दिन पहले ही चिराग पासवान से पूछा कि उनकी ज़िंदगी में धर्म और जाति की कितनी जगह है? इस सवाल के जवाब में चिराग ने कहा कि बिल्कुल नहीं. हालाँकि वो दलित राजनीति पर अपने पिता की तरह अब भी अपना अधिकार जताते हैं.
कई हलकों में मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव से तेजस्वी की तुलना की जाती है. कई लोग मानते हैं कि अखिलेश अपने पिता से भी ज़्यादा समझदार हैं और वो हिम्मती भी हैं.
अखिलेश ने अपने पिता की राजनीति को चुनौती भी दी. अखिलेश यादव की राजनीति अपने पिता की छाया से बाहर हो चुकी है, जबकि तेजस्वी यादव के साथ ऐसा नहीं है.
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता घनश्याम तिवारी कहते हैं, ''अखिलेश यादव हिम्मती हैं. उन्होंने जितना बेबाक फ़ैसला अपने निजी जीवन में लिया, उतना ही राजनीतिक जीवन में भी. इतनी हिम्मत सबके वश की बात नहीं. अखिलेश यादव ने 90 के दशक की पार्टी को 21वीं सदी की पार्टी बनाया. वो जाति और धर्म की राजनीति नहीं करते. अखिलेश को आप इस रूप में भी देख सकते हैं कि उनकी टीम बहुत ही विविध होती है.''
तेजस्वी में लोग लालू को खोजते हैं, लेकिन अखिलेश में मुलायम सिंह यादव को क्यों नहीं खोजते?
इस पर वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरॉन कहती हैं, ''अखिलेश यादव पाँच साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं. उन्होंने आते ही समकालीन राजनीति की. डीपी यादव को टिकट नहीं दिया. मेट्रो बनाई. लैपटॉप बाँटे और एक्सप्रेस-वे बनाया. अंग्रेज़ी को लेकर भी अपने पिता से अलग लाइन ली. तेजस्वी तो 16 महीने ही उपमुख्यमंत्री रहे और पार्टी में अब भी लालू प्रसाद यादव का पूरा दख़ल है. मुझे तो तेजस्वी यादव भी ब्राइट दिखते हैं. तेजस्वी यादव को मौक़ा मिलेगा, तो वे ख़ुद को साबित करके दिखाएँगे. अखिलेश यादव को भी मुलायम सिंह की छाया से बाहर निकलने में वक़्त लगा था.''
इस बार तेजस्वी ने बाहुबली अनंत सिंह, रामा सिंह की पत्नी वीणा सिंह और आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद को उम्मीदवार बनाया है.
रघुवंश प्रसाद सिंह जब तक ज़िंदा रहे, तब तक रामा सिंह की एंट्री का विरोध किए, लेकिन अब रामा सिंह और उनकी पत्नी दोनों आरजेडी में हैं.
नेतृत्व तेजस्वी को ही क्यों मिला?
सुनीता एरॉन कहती हैं, ''टिकट बँटवारे को उस वक़्त की चुनावी रणनीति के लिहाज़ से भी देखा जाना चाहिए. डीपी यादव को अखिलेश ने टिकट नहीं दिया तो इससे उनका कोई नुक़सान नहीं हुआ, लेकिन बिहार में लालू यादव का परिवार अपनी खोई राजनीति ज़मीन वापस करने में जुटा है.''
अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी में उनको चुनौती देने वाला अब कोई नहीं है, जबकि तेजस्वी के सामने उनके भाई तेज प्रताप यादव हैं. पिछले साल लोकसभा चुनाव में तेज प्रताप ने अपने लोगों को पार्टी से टिकट नहीं मिलने पर अलग से लालू-राबड़ी मोर्चा बना लिया था.
लालू प्रसाद यादव के नौ बेटे-बेटियाँ हैं. मीसा भारती सबसे बड़ी बेटी हैं और तेज प्रताप सबसे बड़े बेटे. लेकिन आरजेडी का नेतृत्व तेजस्वी को ही क्यों मिला?
इस सवाल के जवाब में आरजेडी नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि तेजस्वी लालू यादव की सभी संतानों में सबसे समझदार हैं.
वे कहते हैं, ''लोगों का मानना है कि राहुल गांधी से ज़्यादा समझदार प्रियंका गांधी हैं, लेकिन सोनिया गाँधी ने राहुल के पिछड़ने के डर से प्रियंका को जान-बूझकर पीछे रखा. लेकिन लालू जी के साथ ऐसा नहीं है. मीसा भारती को भी लालू जी ने मौक़ा दिया है. दो बार से वो चुनाव हार रही हैं और अभी राज्यसभा सांसद हैं. तेज प्रताप के तेवर से लोग परिचित ही हैं. ऐसे में तेजस्वी का चुनाव स्वाभाविक था.''(bbc)
राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक़, "इस दौरान उन्होंने राज्यपाल से राज्य के कोविड सेंटर्स में महिला मरीज़ों के साथ बलात्कार और छेड़छाड़, वन स्टॉप सेंटर की निष्क्रियता और लव जिहाद के मामलों में बढ़ोतरी पर चर्चा की."
आयोग की एक प्रेस विज्ञप्ति और न्यूज़ एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़, रेखा शर्मा ने राज्यपाल से कहा कि महाराष्ट्र में 'लव जिहाद' के मामले बढ़ रहे हैं.
बातचीत में उन्होंने आपसी सहमति से दो अलग धर्मों के लोगों के विवाह और लव जिहाद के बीच अंतर को रेखांकित किया और कहा कि इसपर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.
यहाँ विवाद इस बात पर उठ खड़ा हुआ कि उन्होंने 'लव जिहाद' टर्म का इस्तेमाल किया.
दरअसल केंद्र की मोदी सरकार फरवरी में ख़ुद संसद में कह चुकी है कि मौजूदा क़ानूनों में 'लव जिहाद' टर्म परिभाषित नहीं है और किसी भी केंद्रीय एजेंसी ने इससे जुड़े केस को रिपोर्ट नहीं किया है.
संसद में लिखित सवाल पूछा गया था कि क्या सरकार को जानकारी है कि केरल हाई कोर्ट ने कहा है कि लव जिहाद किसी चीज़ को कहा ही नहीं जाता है.
इस सवाल के जवाब में 4 फरवरी 2020 को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने कहा था- लव जिहाद शब्द को मौजूदा क़ानूनों के तहत परिभाषित नहीं किया गया है. 'लव जिहाद' का कोई मामला किसी केंद्रीय एजेंसी ने रिपोर्ट नहीं किया है."
इस दौरान सरकार की ओर से ये भी कहा गया कि संविधान ने सभी को किसी भी धर्म को अपनाने और उसका प्रचार करने की आज़ादी दी है.
हालाँकि कई दक्षिण पंथी समूह हिंदू लड़की और मुसलमान लड़के के बीच शादी के लिए 'लव जिहाद' शब्द का इस्तेमाल करते हैं और आरोप लगाते हैं कि हिंदू लड़कियों को बहला-फुसलाकर धर्मांतरण करवाकर शादी कर ली जाती है.
यही वजह है कि इस बात को लेकर बहस छिड़ गई कि महिला आयोग की प्रमुख कैसे इस शब्द का इस्तेमाल कर रही हैं और किन आँकड़ों के आधार पर 'लव जिहाद' के मामले बढ़ने की बात कह रही हैं, जबकि केंद्र सरकार ख़ुद इस बात से इनकार कर चुकी है.
सोशल मीडिया पर घिरीं
राष्ट्रीय महिला आयोग ने रेखा शर्मा और राज्यपाल कोश्यारी की मुलाक़ात की तस्वीरें और जानकारी ट्विटर पर शेयर की थी. जिसके कुछ वक़्त बाद सोशल मीडिया पर रेखा शर्मा सवालों से घिर गईं.
कई सोशल मीडिया यूज़र्स ने कड़ी प्रतिक्रया दी है. एक ट्विटर यूज़र देबिप्रसाद मिश्रा ने आयोग के ट्वीट पर जवाब देते हुए लिखा, "क्या एनसीडब्ल्यू और उसकी प्रमुख ये स्पष्ट करेंगी कि 'लव जिहाद' से उनका क्या मतलब है? क्या आप इसे उसी अर्थ के साथ इस्तेमाल कर रही हैं, जैसे कुछ अतिवादी समूह कर रहे हैं? अगर हाँ, तो क्या आप बिना किसी क़ानूनी आधार के उनकी विचारधारा का समर्थन कर रही हैं?"
पल्लवी नाम की यूज़र ने सवाल उठाया कि क्या भरोसा किया जा सकता है कि राष्ट्रीय महिला आयोग उन मामलों को उठाएगी, जिनमें दूसरे धर्म में शादी करने के लिए महिलाओं पर हमला किया जाता है और उन्हें मार तक दिया जाता है.
पल्लवी ने ये भी लिखा, "ये अपमानजनक है, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अपराधों के लिए राज्य की उदासीनता के साथ अतिवाद और असहिष्णुता बढ़ रही है. क्या वास्तव में किसी धर्म को निशाना बनाने के लिए 'लव जिहाद' शब्द का इस्तेमाल करना संवैधानिक है?"
वहीं एक अन्य यूज़र शाहना यास्मीन ने लिखा, "एनसीडब्ल्यू को कौन-से 'लव जिहाद' के मामले मिले हैं. क्या रेखा शर्मा 5 दिखा सकती हैं?"
अभिनेत्री उर्मिला मतोंडकर ने भी ट्वीट किया है कि इस देश में महिलाएँ कभी भी सुरक्षित कैसे हो सकती हैं, जब ऐसा सिलेक्टिव एजेंडा चलाने वाली महिला ऐसे आयोग का नेतृत्व कर रही हैं?
कथित पूराने ट्वीट ने बढ़ाई और मुश्किलें
रेखा शर्मा की मुश्किलें उस वक़्त और बढ़ गई जब कुछ सोशल मीडिया यूज़र्स ने कुछ विवादित ट्वीट शेयर कर दावा किया कि ये उनके कई साल पहले पुराने ट्वीट्स हैं.
इनमें से कुछ कथित ट्वीट्स नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले यानी 2012, 2014 के हैं, जिनमें महिलाओं और महिला नेताओं और अन्य नेताओं को लेकर आपत्तिजनक बातें लिखी हुई हैं. इन्हें शेयर करके लोग उनकी भाषा और मानसिकता पर सवाल उठा रहे हैं.
रेखा शर्मा दरअसल अगस्त 2015 में राष्ट्रीय महिला आयोग से जुड़ी थीं. आयोग की वेबसाइट के मुताबिक़, रेखा शर्मा ने 7 अगस्त 2018 को राष्ट्रीय महिला आयोग की चेयरपर्सन का पदभार संभाला था.
राष्ट्रीय महिला आयोग में शामिल होने से पहले वो बीजेपी से सक्रिय रूप से जुड़ी थीं. वो हरियाणा में बीजेपी की ज़िला सचिव और मीडिया प्रभारी थीं.
सोशल मीडिया पर बहस तेज़ होने के बाद #SackRekhaSharma भी ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा था और उन्हें राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग की जाने लगी. विपक्षी दल कांग्रेस भी रेखा शर्मा के इस्तीफ़े की मांग की.
कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने ट्वीट किया, "इस बारे में बहुत बहस हो रही है कि निम्न स्तर के विचार रखने वाली एक सेक्सिस्ट महिला राष्ट्रीय महिला आयोग की प्रमुख कैसे हो सकती हैं. लेकिन नरेंद्र मोदी और बीजेपी को देखते हुए ये समझा जा सकता है कि इसकी क्या वजह है. आप जितना ज़हर निकालेंगे, उतना ही इस इको-सिस्टम में फले-फूलेंगे. शर्मनाक."
ये ख़बर लिखे जाने तक रेखा शर्मा ने अपने अपनी ट्विटर अकाउंट को लॉक कर लिया है. उनके अकाउंट पर जाने पर लिखा आ रहा है कि उनके 'ट्वीट प्रोटेक्टेड हैं' यानी उनके ट्ववीट्स सिर्फ़ वही लोग देख सकते हैं, जिन्हें वो इजाज़त देंगी.
बीबीसी ने रेखा शर्मा से संपर्क करने की कोशिश की. लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी.
ख़बरों के मुताबिक़, रेखा शर्मा ने इससे पहले ट्वीट किया था कि किसी ने उनका अकाउंट हैक कर लिया है और उनके अकाउंट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ ट्वीट कर दिए हैं.
साथ ही उन्होंने लिखा, "जब ये ट्वीट हुए, तब मैं फ़्लाइट में थी. लोग कितने दुष्ट हैं. महाराष्ट्र से आ रही हूँ और समझ सकती हूँ कि ये क्यों हुआ होगा."
महाराष्ट्र सरकार से नाराज़गी
दरअसल राज्यपाल से मुलाक़ात के दौरान राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने महाराष्ट्र में महिला सुरक्षा को लेकर कड़ी नाराज़गी जताई थी. पत्रकारों से बातचीत में रेखा शर्मा ने कहा था कि प्रदेश में नई सरकार बनने के बाद राज्य महिला आयोग का गठन नहीं हुआ है.
उन्होंने कहा कि राज्य महिला आयोग का अध्यक्ष पद ख़ाली होने की वजह से महिलाओं की शिकायतों से संबंधित चार हज़ार मामलों की सुनवाई लटकी हुई है, इसलिए हमने राज्यपाल से कहा है कि जब तक राज्य महिला आयोग का गठन नहीं होगा, तब तक राष्ट्रीय महिला आयोग की एक सदस्य हर महीने सुनवाई के लिए मुंबई आएँगी.
मंगलवार को मुंबई आईं रेखा शर्मा राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी से राजभवन में मुलाक़ात के बाद दिल्ली लौट गईं थी. लेकिन राज्य की महिला व बाल विकास मंत्री यशोमति ठाकुर से नहीं मिली.
इस पर यशोमति ठाकुर ने कड़े लहज़े में कहा कि महिला सुरक्षा के बारे में रेखा शर्मा का केवल राजनीतिक एजेंडा नज़र आ रहा है.
उन्होंने कहा, "मैंने महिला आयोग की अध्यक्ष को मुलाक़ात के लिए मंगलवार की सुबह 11 बजे का समय दिया था और उन्होंने कहा था कि राज्यपाल से मिलने के बाद मैं मिलने आऊँगी, लेकिन मैं इंतज़ार करती रह गई और वो नहीं आईं." (bbc)
डॉयचे वैले पर ऋतिका पाण्डेय की रिपोर्ट-
पेरिस स्थित 'फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स' 21 से 23 अक्टूबर की बैठक के बाद फैसला सुनाएगी कि आतंकवाद के खिलाफ उठाए गए पाकिस्तान के हालिया कदमों को संस्था काफी मानती है या नहीं.
हाफिज सईद आतंकवादी संगठन 'लश्कर ए तैयबा' का संस्थापक और 'जमात उद दावा' का प्रमुख है.
हाफिज सईद आतंकवादी संगठन 'लश्कर ए तैयबा' का संस्थापक और 'जमात उद दावा' का प्रमुख है.
कोरोना महामारी के चलते पहले जून में होने वाली इस बैठक को टाल दिया गया था और इसके कारण पाकिस्तान को दुनिया भर में आतंकवादी और भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन, एफएटीएफ की शर्तों को पूरा करने के लिए चार महीने का अतिरिक्त समय मिल गया. इसी साल फरवरी में हुई बैठक में संस्था ने पाकिस्तान को चेतावनी दी थी कि आतंकवाद को प्रायोजित करने वाली सारी गतिविधियां रोकने के लिए उसे दी गई अंतिम समयसीमा पार हो गई है.
फरवरी में एफएटीएफ ने कहा था कि पाकिस्तान ने उसे दिए गए 27 में से केवल 14 मुद्दों पर ही कुछ काम किया है और एक्शन प्लान में शामिल बाकी कदम नहीं उठाए हैं. उसके बाद, सितंबर में संपन्न हुई एफएटीएफ के क्षेत्रीय सहयोगी एशिया-पैसिफिक ग्रुप (एपीजी) की बैठक में पाया गया कि काले धन से निपटने और आतंकवाद को प्रायोजित ना करने से जुड़े एफएटीएफ के कुल 40 सुझावों में से पाकिस्तान ने केवल दो पर ही पूरी तरह अमल किया है.
क्या होती है ग्रे लिस्ट
दुनिया भर में आतंकवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन एफएटीएफ ने 2018 में पाकिस्तान को इस तथाकथित "ग्रे लिस्ट" में डाला था. तकनीकी तौर पर इसे "जूरिसडिक्शन अंडर इनक्रीज्ड मॉनीटरिंग” कहा जाता है, जिसमें वे देश रखे जाते हैं जो आतंकी गुटों की वित्तीय मदद रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाते. इस सूची में फिलहाल विश्व के 18 देश शामिल हैं, जिनमें पाकिस्तान पर आतंक के वित्त पोषण का भी आरोप है जबकि पनामा पेपर लीक मामले से जुड़े देश पनामा और मॉरीशस तथा आइसलैंड जैसे देशों के बारे में ज्यादातर मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़ी शिकायतें हैं.
ग्रे लिस्ट में होने की वजह से पाकिस्तान के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार से कर्ज लेना और मुश्किल हो जाता है. वैसे तो इस लिस्ट की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है मगर ऐसे देशों को कर्ज देने से पहले अंतरराष्ट्रीय नियामक और वित्तीय संस्थान कहीं ज्यादा सतर्क रहते हैं. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पहले ही बहुत अच्छी हालत में नहीं है और ऐसे में इन अतिरिक्त मुश्किलों के कारण देश के व्यापार और निवेश पर बुरा असर पड़ सकता है.
मोसुल में अल-नूरी मस्जिद
इराक के मोसुल में स्थित ऐतिहासिक अल-नूरी मस्जिद और उसकी मीनार अल-हदबा को आईएस ने तबाह कर दिया है. इसी मस्जिद से 2014 में अबू बकर अल बगदादी ने इस्लामी खिलाफत की घोषणा की थी. यह मीनार पीसा की प्रसिद्ध मीनार की ही तरह झुकी हुई थी और 840 सालों से वहां खड़ी थी. हालांकि आईएस इसे गिराने का इल्जाम अमेरिका के सिर रख रहा है.
इससे भी बुरा हो सकता है हाल
पेरिस स्थित एफएटीएफ के पास 'ग्रे लिस्ट' से भी बुरी एक 'ब्लैक लिस्ट' होती है, जिसका तकनीकी नाम है "हाई-रिस्क जूरिसडिक्शंस सब्जेक्ट टू अ कॉल फॉर एक्शन.” फिलहाल इसमें केवल दो देश ईरान और उत्तर कोरिया ही रखे गए हैं. आतंकवादी गतिविधियों को वित्तीय समर्थन रोकने के लिए यह संस्था 2001 से विशेष ध्यान देती आई है और यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के वित्तीय प्रावधानों को लागू करवाने में भी मदद करती है.
इसका काम ग्रे लिस्ट में शामिल देशों के साथ साल में कई बार बैठकें करना और स्टेटस रिपोर्ट की समीक्षा कर उन्हें एक्शन प्लान पर अमल करवाने का दबाव बनाना भी है. इस साल कोविड वायरस के कारण फैली महामारी के चलते इसमें कुछ कमी आई है. फिर भी संस्था ने पाकिस्तानी सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की ताकि वह यूएन के प्रतिबंधों को लागू करवाने के लिए कानून बनाए, सरकारी संस्थानों और कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार एजेंसियों के बीच सहयोग को बेहतर बनाने के लिए काम करे और आतंक के लिए वित्तीय मदद जुटाने वाले आतंकवादियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाए.
पाक-साफ साबित होने के लिए पाकिस्तान के कदम
पाकिस्तान ने इस साल लश्कर ए तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद और कुछ दूसरे आतंकवादियों को गिरफ्तार किया और कईयों को सजा भी सुनाई. फरवरी में ही सईद को साढ़े पांच साल की जेल की सजा सुनाई गई थी. देश में आतंकी गुटों की संपत्ति को 'फ्रीज एंड सीज' कर जब्त करने और आतंकवाद को वित्तीय मदद पहुंचाने वालों के लिए जुर्माने और जेल की सजा के प्रावधान वाले भी कम से कम 10 नए कानून बनाए गए.
दूसरी तरफ, इसी साल पाकिस्तान ने करीब 3,800 नामों को आतंकवाद की वॉच लिस्ट से ही हटा दिया, जिसकी पश्चिमी देशों में खासतौर पर काफी आलोचना हुई. काउंटर टेररिज्म पर इसी साल 24 जून को जारी हुई अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट में बताया गया कि कैसे पाकिस्तान ने अपनी सीमाओं में आतंकियों को पाल कर ना केवल भारत को बल्कि अफगानिस्तान को भी निशाने पर रखा. अमेरिकी विदेश मंत्रालय की आतंकवाद पर जारी इस रिपोर्ट में कहा गया कि पाकिस्तान अब भी लश्कर ए तैयबा और जैश ए मुहम्मद जैसे आतंकवादी गुटों को अपनी जमीन पर सुरक्षित ठिकाना देता है, जो भारत जैसे पड़ोसी देशों को निशाना बनाते आए हैं.
एफएटीएफ के कुल 39 सदस्य देशों में से केवल कुछ ही देश पाकिस्तान को ब्लैक लिस्ट से बाहर रखे जाने का समर्थन करते आए हैं. चीन इसका पुरजोर समर्थन करता रहा है तो वहीं पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान ने मलेशिया, सऊदी अरब और तुर्की से अपने लिए समर्थन जुटाने की पूरी कोशिश की है. एफएटीएफ की अध्यक्षता इस समय जर्मनी के पास है और यह पद इससे पहले चीन के पास था. जर्मनी के डॉक्टर मार्कुस प्लेयर ने 1 जुलाई 2020 से अगले दो सालों के लिए अध्यक्ष का पद संभाला है. एफएटीएफ का रुख किस तरफ मुड़ता है यह इसी से साफ होगा कि वह पाकिस्तान को किस सूची में रखने का फैसला करता है.(dw)
चीनी युवाओं में बेहद लोकप्रिय होने के कारण देश में सेक्स खिलौनों का बाजार 15 अरब डॉलर का हो गया है. क्या केवल कोरोना महामारी के कारण अलग थलग पड़े युवाओं की मजबूरी ही है इस बाजार के इतना फैलने की वजह या वाकई बदल गया चीन?
अकेली और घर में बंद रहने को मजबूर 27 साल की एमी (बदला हुआ नाम) खुद को बहुत अकेला महसूस कर रही थी. कोरोना महामारी के काल में चीन की राजधानी बीजिंग में बाहर निकल कर डेटिंग करने की कोई संभावना नहीं बची थी. ऐसी ही बोरियत के एक दौर में कुछ ऑनलाइन चैटरूमों में हिस्सा लिया करती थीं. यहां होने वाली चैट में उनके ही जैसी कुछ दूसरी महिलाओं ने सेक्स टॉयज का जिक्र किया.
सेक्स से दूर रहने की मजबूरी के चलते उनमें से कई महिलाओं ने एमी को भी सेक्स टॉयज इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया. एमी कहती हैं, "पहले मैं थोड़ा डरती थी और इन्हें इस्तेमाल करने में संकोच भी होता था." लेकिन एक बार इन्हें इस्तेमाल करना शुरु करने के बाद एमी को लगा कि उसके सामने "कोई नई दुनिया खुल गई है." और अब वह ऐसे और टॉयज अपने जीवन में शामिल करने का मन बना रही हैं.
एक्सपोर्टर से यूजर बने चीनी
दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाले पूरे चीन में ऐसे सेक्स टॉयज की मांग बढ़ रही है. इसके पहले बेडरूम में इस्तेमाल होने वाली ऐसी डिवाइसों का चीन सबसे बड़ा निर्यातक होता था. कोरोना महामारी के चलते देश के भीतर अनगिनत जोड़े अलग अलग रहने को मजबूर हो गए थे और मनोरंजन के ज्यादातर सार्वजनिक ठिकाने भी लंबे समय तक बंद रहे जहां लोग एक दूसरे से मिलते थे. इसके अलावा एक दूसरी वजह देश की संस्कृति में आए बदलाव भी रहे जिनके चलते युवा पीढ़ी ऐसे खिलौनों के इस्तेमाल के लिए ज्यादा खुली हुई है.
सेक्स और संबंधों पर सलाह देने वाली एक प्रसिद्ध चीनी ब्लॉगर यी हेंग का कहना है कि यौन रूप से सक्रिय बहुत सारी महिलाओं में आजकल सेक्स टॉयज के इस्तेमाल को लेकर बहुत ही खुली सोच है. वह बताती हैं कि ऐसी महिलाएं इसे "बहुत प्राकृतिक और सामान्य" मानती हैं. चीन के ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म वाइबो पर 700,000 फॉलोअरों वाली यी सेक्स और टॉयज के बारे में नियमित रूप से चर्चा करती हैं. उनका मानना है कि चीनी महिलाओं के कारण ही देश में सेक्स टॉयज का बाजार नई ऊंचाइयां छू रहा है.
क्या बदल गई है चीन की पुरानी सोच
आम तौर पर चीन में सेक्स को लेकर काफी दकियानूसी धारणा रही है. देश में पोर्नोग्राफी पर पूरी तरह से प्रतिबंध है. ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों से "अश्लील" कंटेट को हटाने के लिए चीनी प्रशासन हर कुछ दिनों के बाद छापे मारता रहता है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने साइबरस्पेस को "साफ और सच्चा" बनाने पर जोर दिया है.
इसके अलावा चीनी प्रशासन समाज में शादी और पारिवारिक संबंध के मूल्यों को बढ़ावा देने पर काम कर रहा है क्योंकि देश की जन्म दर कम है. देश में तलाक दर रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई है और 2019 में 31 लाख तलाक दर्ज हुए. इससे भी चीन के पारंपरिक समाज में आते बड़े बदलावों का पता चलता है.
जैसे जैसे युवा लोग बेडरूम में अपनी जरूरतों को लेकर जागरुक हो रहे हैं, सेक्स टॉयज को लेकर उनकी स्वीकार्यता बढ़ती दिख रही है. चीन में इस बाजार का नेतृत्व सबसे ज्यादा महिलाएं और मिलेनियल पीढ़ी के युवा कर रहे हैं. मिलेनियल पीढ़ी में वो लोग शामिल हैं जिनका जन्म 1980 के 2000 के बीच हुआ है. चीन का घरेलू सेक्स टॉय बाजार अब भी कई पश्चिमी देशों और यहां तक की जापान के बाजार से भी छोटा है. चीनी रिसर्च फर्म का अनुमान है कि देश इसका बाजार अभी ही 14.7 अरब डॉलर को पार कर चुका है.
शंघाई स्थित मार्केट रिसर्च फर्म डैक्स कंसल्टिंग में विश्लेषक स्टेफी नोएल बताती हैं कि इस साल जनवरी से जून के बीच में देश के गूगल यानि बाइडू सर्च इंजिन में "सेक्स टॉयज" कीवर्ड खूब इस्तेमाल हुआ. उनका अनुमान है कि कोरोना की पाबंदियों के कारण जो उछाल देखने को मिला है वह उसके बाद जारी नहीं रहने वाला. नोएल बताती हैं कि सेक्स टॉयज के कई नए खरीदार बने लेकिन उनमें से "70 फीसदी" के उससे आगे बढ़ कर कुछ और खरीदने की संभावना बेहद कम है. वहीं विश्व भर में इसकी मांग पूरी करने वाला चीन इस समय कुल वैश्विक निर्यात के करीब 70 फीसदी का उत्पादन करता है. इनकी सबसे ज्यादा मांग "फ्रांस, इटली और अमेरिका" जैसे देशों में है. आरपी/एनआर (एएफपी)
-गुरप्रीत सैनी
साप्ताहिक टीआरपी यानी टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट जारी होते ही तमाम न्यूज़ रूम मैनेजर या एडिटर के बीच चर्चा शुरू हो जाती है कि पहले, दूसरे, तीसरे नंबर पर रहे फ़लाने चैनल को किस तरह के कंटेंट से फ़ायदा हुआ. विश्लेषण किया जाता है कि उनके ख़ुद के आधे या एक घंटे के प्रोग्राम कितनी टीआरपी बटोर पा रहे हैं.
ये देखने के बाद तय किया जाता है कि इस तरह का कंटेंट उन्हें आगे भी अपने यहां चलाना चाहिए या नहीं. जिस तरह का कंटेंट ज़्यादा टीआरपी लेकर आता है उसे बढ़ा दिया जाता है और जिस कंटेंट में दर्शकों की रुचि नहीं होती या कम होती है वो चैनलों से ग़ायब हो जाता है.
कुछ वरिष्ठ टीवी पत्रकारों के मुताबिक़, टीआरपी के आंकड़े ही तय करते हैं कि न्यूज़ चैनलों के दर्शक आने वाले दिनों में क्या देखेंगे.
लेकिन हाल में रेटिंग प्रणाली में छेड़छाड़ के आरोपों के बाद भारत में टेलीविज़न रेटिंग जारी करने वाली संस्था ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) ने 15 अक्टूबर से न्यूज़ चैनलों की रेटिंग पर तीन महीनों के लिए अस्थाई रोक लगा दी है.
इससे टीआरपी सिस्टम में गंभीर ख़ामियों की बात सामने आई है, जिसे बार्क ने ठीक करने की बात कही है.
हालांकि ये रोक सिर्फ़ 12 हफ़्ते के लिए है और एक आधिकारिक बयान में बार्क ने कहा है कि इस दौरान उसकी तकनीकी समिति डेटा को मापने और रिपोर्ट करने के वर्तमान मानकों की समीक्षा करेगी और उसमें सुधार करेगी.
टीवी न्यूज़ चैनल कितने बदलेंगे
इस बीच सवाल ये है कि इस टीआरपी बैन और इस रेटिंग प्रणाली में सुधार की कोशिशों से टीवी न्यूज़ चैनल कितने बदलेंगे?
साफ़ तौर पर टीआरपी न्यूज़ चैनलों को मिलने वाले विज्ञापनों पर असर डालती है. इसलिए इसका सीधा असर न्यूज़ कंटेंट पर देखने को मिलता है और हमेशा ये आरोप लगे हैं कि टीआरपी की लालसा में न्यूज़ चैनल दर्शकों के सामने जो सामग्री परोस रहे हैं, वो पत्रकारिता के स्तर को गिराने का काम कर रही है.
कई टीवी चैनलों में शीर्ष पदों पर रह चुके वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम कहते हैं कि टीआरपी बंद नहीं हुई है बल्कि महज़ 12 हफ़्तों के लिए स्थगित हुई है, इसलिए इससे बहुत बदलाव आने की उम्मीद नहीं की जा सकती.
लेकिन उनका कहना है कि रेटिंग स्थगित होने से कुछ फ़र्क़ पड़ना चाहिए.
वो कहते हैं, "अब थोड़ा फ़र्क़ ये आ सकता है कि अगर कोई चैनल या कोई एडिटर सिर्फ़ मजबूरी में रेटिंग में प्रतिस्पर्धा के लिए कोई ऐसी सामग्री चला रहा है जो वो नहीं चलाना चाहता तो उसके पास ये मौक़ा है कि वो प्रयोग कर सकता है और कुछ हफ़्ते प्रेशर के बिना दर्शकों को कुछ बेहतर दिखा सकता है."
हालांकि वो कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि ये फ़र्क़ सबमें देखने को मिलेगा. उनके मुताबिक़, "जो चैनल पूरी आस्था के साथ एजेंडा चला रहे हैं उनमें बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं आएगा, क्योंकि ये अब उनकी फ़ितरत बन गई है और उनके डीएनए में शामिल हो गया है. 6-7 साल पहले तक यानी 2014 से पहले और अब में ये फ़र्क़ आया है कि पहले सिर्फ़ रेटिंग के लिए सामग्री बनती थी, लेकिन अब एक एजेंडा भी चलता है, इसलिए सिर्फ़ रेटिंग स्थगित होने से वो एजेंडा तो नहीं रोकेंगे."
उनका ये भी मानना है कि 12 हफ़्तों में बेहतर कंटेट देने की सोचने वालों को ये डर भी रहेगा कि इन हफ़्तों के लिए सामग्री बदली तो दर्शक छोड़कर दूसरे चैनल पर न चले जाएं और फिर बाद में उन्हें वापस लाना मुश्किल हो जाए.

रेटिंग सिस्टम की ख़ामियों को दूर करने से बनेगी बात?
टीआरपी, टीवी न्यूज़ और बाज़ार का एक ऐसा आपसी रिश्ता बन गया है, जिसमें सुधार के लिए निर्णायक क़दम उठाए जाने की माँग होती रही है. कई मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि असली समाधान यही हो सकता है कि टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट के इस सिस्टम को पूरी तरह से बंद कर दिया जाए.
हालांकि बार्क ने टीआरपी सिस्टम की ख़ामियों को ठीक करने की बात कही है.
बीबीसी हिंदी के साथ साझा किए गए एक बयान में बार्क इंडिया के सीईओ सुनील लुल्ला ने कहा, "बार्क में हम बहुत ही ज़िम्मेदारी के साथ सच्चाई और ईमानदारी से बताते हैं कि भारत क्या देख रहा है. हम सुनिश्चित करते हैं कि दर्शकों के अनुमान (रेटिंग) को उसी तरह से सबके सामने रखें."
साथ ही उन्होंने कहा कि हम ऐसे और विकल्प तलाश रहे हैं, जिससे टीआरपी में गड़बड़ी की इस तरह की ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों पर पूरी तरह रोक लगाई जा सके.
हालांकि बार्क की तकनीकी समिति (टैक कॉम) मौजूदा सिस्टम की समीक्षा करेगी. इसका मतलब डेटा इकट्ठा करने वाले सिस्टम को ठीक किया जाएगा और बैरोमीटर वाले जिन घरों की पहचान हो जा रही है, उसे रोकने के उपाय किए जाएंगे.
लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि ये सुधार सिर्फ़ तकनीकी पहलू पर होंगे. उनका मानना है कि असल सुधार टीआरपी के मूल चरित्र में होना चाहिए.
वरिष्ठ पत्रकार और सत्य हिंदी डॉट कॉम के सह-संस्थापक क़मर वहीद नक़वी कहते हैं, "सीधी बात है कि तीन महीने के बैन के बाद तो टीआरपी वही आएगी. आप सिर्फ़ उसका सिस्टम ठीक करोगे, जिसकी वजह से डेटा चोरी और गड़बड़ी संभव हो पा रही थी. साथ ही उस गड़बड़ी को दूर करेंगे जिसकी वजह से उन घरों की पहचान करके उन्हें पैसे देकर कहा जा रहा है कि आप हमारा चैनल बड़ी देर तक देखो, ताकि हमारी टीआरपी बढ़ जाए."
वो कहते हैं कि बार्क सिर्फ़ यही रोक सकता है. "हालांकि जब तक ये सामने नहीं आता कि वो कैसे रोकेंगे, तब तक हम बहुत आश्वस्त हो भी नहीं सकते कि ये रुक पाएगा या नहीं."
टीआरपी को पूरी तरह बंद करने से होगा सब ठीक?
वहीं वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश कहते हैं कि असल बदलाव तभी आएगा जब टीआरपी सिस्टम को पूरी तरह से बंद कर दिया जाए और उसकी जगह एक नई व्यवस्था लाई जाए.
उनका कहना है कि मौजूदा टीआरपी सिस्टम फ़ेक, बेबुनियाद, अवैज्ञानिक और पूरी तरह से हेरफेर पर आधारित लगता है.
उनका मानना है कि इसकी जगह एक स्वतंत्र मेकैनिज़्म होना चाहिए. वो कहते हैं कि 'कोई स्वतंत्र शिकायत आयोग हो या स्वतंत्र मीडिया कमीशन बनाया जाना चाहिए.'
कुछ ऐसी ही सिफ़ारिश 2013 में एक संसदीय समिति की ओर से पेश रिपोर्ट में भी की गई थी. उस समय कांग्रेस की सरकार थी और रिपोर्ट तैयार करने वालों में अलग-अलग दलों के प्रतिनिधि शामिल थे. रिपोर्ट पेश करने वाली समिति के चैयरमैन मौजूदा बीजेपी नेता राव इंद्रजीत सिंह थे. इस रिपोर्ट में एक मीडिया काउंसिल की वकालत की गई थी.
उर्मिलेश कहते हैं, "इस मामले में किसी वरिष्ठ पत्रकार, पार्टी या सरकार की बात पर ना भी जाया जाए लेकिन संसद की बात मानी जानी चाहिए जो सुप्रीम बॉडी है और जिसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व है. इसलिए संसद की रिपोर्ट को लागू कर मीडिया काउंसिल बनाया जाना चाहिए."
वो कहते हैं, "मीडिया काउंसिल में सरकारी नियंत्रण ना हो. उसमें सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भी प्रतिनिधि रखिए. दो बड़े पत्रकारों को लीजिए. जो पार्टी बंदी वाले ना हों बल्कि स्वतंत्र तरह के लोग हों. इसके अलावा न्यायपालिका से शीर्ष लोगों को लीजिए. उन्हीं को आप चेयरमैन बना दीजिए. इसके अलावा बड़े बुद्धिजीवियों को लीजिए, जो गणमान्य हों यानी बीजेपी या कांग्रेस से उनका जुड़ाव ना हो. इस तरह का एक स्वतंत्र मीडिया काउंसिल बने. ये काउंसिल तय करे कि न्यूज़ चैनलों पर क्या चलेगा और न्यूज़ चैनल पर ख़बरों और विज्ञापन का अनुपात कितना होगा."
टीआरपी बंद करने से निकलेगा समाधान?
न्यूज़ चैनलों पर पत्रकारिता को ताक पर रखने के जो आरोप लगते हैं उसकी बड़ी वजह टीआरपी को माना जा रहा है, जिसका सीधा संबंध विज्ञापन यानी चैनलों की कमाई से होता है.
तो ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि अगर ये रेटिंग सिस्टम विश्वसनीय नहीं है तो विज्ञापनदाता और मार्केटिंग समुदाय क्यों इसमें सुधार की या इसे बंद करने की माँग नहीं करते?
टीवी चैनलों पर लंबे वक़्त से नज़र रखने वाले और मार्केट को समझने वाले एक्सचेंज फ़ॉर मीडिया के संस्थापक और बिज़नेस वर्ल्ड के एडिटर इन चीफ़ अनुराग बत्रा कहते हैं कि हर चीज़ के लिए टीआरपी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.
उनके मुताबिक़ ये समझना ज़रूरी है कि विज्ञापनदाता इस इको-सिस्टम का अहम हिस्सा हैं, क्योंकि न्यूज़ चैनल फ्री टू एयर हैं जिसके लिए दर्शक पैसा नहीं देते.
उनका कहना है कि विज्ञापनदाता रेटिंग ज़रूर देखते हैं लेकिन गुणवत्ता पर भी ध्यान देने लगे हैं. वो कहते हैं कि वो चैनल की विश्वस्नीयता और बैलेंस भी देखते हैं और इनोवेशन भी देखते हैं.
वो कहते हैं, "टीआरपी सिस्टम को पूरी तरह बंद कर देना कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि हर चीज़ के मापदंड की ज़रूरत होती है. इसके बजाए रेटिंग को पुख़्ता बनाने की ज़रूरत है. साथ ही सैंपल साइज़ को पुख़्ता बनाने की ज़रूरत है. इसके लिए तकनीक की मदद लेनी होगी."
अनुराग बत्रा मानते हैं कि इस वक़्त समुद्र मंथन हो रहा है और उम्मीद जताते हैं कि आने वाले हफ़्तों में रेटिंग सिस्टम बेहतर हो जाएगा.
देखने वाली बात होगी कि 12 हफ़्तों बाद रेटिंग सिस्टम में क्या तकनीकी बदलाव आता है और क्या कभी टीआरपी की इस जंग का कोई स्थाई समाधान निकल पाएगा? या विज्ञापनदाता आगे आकर इस मसले के हल में अपनी भूमिका निभाएंगे? (bbc)


