विचार/लेख
- शुरैह नियाज़ी
मध्य प्रदेश के ग्वालियर के स्वर्ग सदन आश्रम में आजकल मनीष मिश्रा नाम के एक शख्स से मिलने पुलिस के अधिकारियों का आना जाना लगा है.
मनीष मिश्रा अपनी ज़िंदगी सड़कों पर बरसों से गुज़ार रहे थे लेकिन कुछ दिनों पहले वो इस आश्रम में आए हैं. मनीष मिश्रा से मिलने वाले पुलिस अधिकारी वो लोग हैं जो किसी समय में उनके बैचमेट हुआ करते थे.
स्वर्ग सदन आश्रम के संचालक पवन सूर्यवंशी ने बताया, "मनीष मिश्रा काफी अच्छे से रह रहे हैं. आश्रम के अंदर उनकी अच्छी देखभाल की जा रही है. और वो काफी अच्छा महसूस कर रहे हैं."
"मनीष मिश्रा से मिलने लगातार उनके बैचमेट आ रहे हैं और उनसे उनके साथ गुज़ारे पुराने किस्सों को याद कर रहे हैं. अभी कोशिश की जा रही है कि उन्हें कम से कम 4 से 5 महीने यहां रखा जाए ताकि वो पूरी तरह से सही हो जाएं."
मनीष मिश्रा की कहानी जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा. बात 10 नवंबर की है जब ग्वालियर में उपचुनाव की मतगणना हो रही थी. उस दौरान रात के लगभग 1.30 बजे पुलिस विभाग के दो डीएसपी सुरक्षा व्यवस्था में लगे हुए थे. इसी दौरान उन्होंने एक भिखारी को ठंड में ठिठुरते हुए देखा.
ग्वालियर की झांसी रोड इलाके में
उसकी हालत को देखते हुए उन दो अधिकारियों में से एक ने अपने जूते तो दूसरे अधिकारी ने अपना जैकेट उस भिखारी को दे दिया. इसके बाद दोनों अधिकारी वहां से जाने लगे तो उन दोनों को उस भिखारी ने उनके नाम से पुकारा.
यह सुन कर दोनों को थोड़ी हैरानी हुई तो वो पलट कर उसके पास गए. और उन्होंने जब उससे बात की तो उन्हें पता चला कि वह भिखारी उनके बैच का सब इंस्पेक्टर मनीष मिश्रा है. जानकारी के मुताबिक़ मनीष पिछले 10 सालों से इसी तरह से सड़कों पर गुज़र बरस करके अपनी ज़िंदगी ग़ुज़र रहे थे.
ग्वालियर की झांसी रोड इलाके में सालों से सड़कों पर लावारिस घूम रहे मनीष मिश्रा मध्य प्रदेश पुलिस के सन 1999 बैच के अधिकारी थे. उनके बारे में बताया गया कि वह अचूक निशानेबाज भी थे. शहर में मतगणना की रात सुरक्षा व्यवस्था का जिम्मादारी डीएसपी रत्नेश सिंह तोमर और विजय भदौरिया को दी गई थी.
मतगणना ख़त्म होने के बाद दोनों विजयी जुलूस के रूट पर तैनात थे. इस दौरान फुटपाथ पर ठंड से ठिठुर रहे मनीष मिश्रा से उनका सामना हो गया.
उसे संदिग्ध हालत में देखकर अफसरों ने गाड़ी रोकी और उससे बात की. उसकी हालत देख डीएसपी रत्नेश सिंह तोमर ने उन्हें अपने जूते और विजय भदौरिया ने अपनी जैकेट दी. उसके बाद उनका नाम पुकारने की वजह से उन्हें पता चला कि वो उनका पुराना साथी था.
मानसिक संतुलन खो देने की वजह से...
रत्नेश सिंह तोमर ने बताया, "उनकी स्थिति इस तरह से उनके मानसिक रुप से बीमार होने की वजह से हुई. पहले वह परिवार के साथ रहते थे लेकिन उसके बाद वो परिवार से भी भग जाते थे तो उन्होंने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया."
रत्नेश सिंह तोमर ने बताया कि जब उनकी मुलाक़ात उनसे हुई तो वो भी अचंभित हो गए कि कैसे उनका एक साथी उनसे सड़कों पर मिला.
मनीष दोनों अफसरों के साथ 1999 में पुलिस सब इंस्पेक्टर में भर्ती हुए थे. दोनों अधिकारी उन्हें अपने साथ ले जाना चाहते थे लेकिन उन्होंने मना कर दिया.
उसके बाद उन्होंने मनीष को समाज सेवी संस्था के ज़रिये आश्रम भिजवा दिया गया जहां उसकी अब उनकी देखरेख की जा रही है.
मनीष मिश्रा के बारे में बताया जा रहा है कि वो इस हालत में मानसिक संतुलन खो देने की वजह से पहुंचे. मनीष मिश्रा शिवपुरी के रहने वाले हैं, वहां पर उनके माता पिता रहते हैं जो अब उम्रदराज़ हो चुके हैं. चचेरी बहन चीन में पदस्थ हैं.
सामान्य जीवन
आश्रम संचालक पवन सूर्यवंशी ने बताया कि चीन में मौजूद उनकी बहन ने फोन लगाकर उनका हाल चाल जाना है. उन्होंने बताया, "उनकी बहन ने बोला है कि वो जल्द आएंगी और देखेंगी कि वो क्या मदद कर सकती हैं."
उनके शिवपुरी में रहने वाले परिवार से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन अभी उनसे संपर्क नही हो पाया है. मनीष मिश्रा ने साल 2005 तक नौकरी की और उस दौरान वह दतिया जिले में पदस्थ रहे. इसके बाद उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया.
शुरुआत में 5 साल तक घर पर रहे. उनके बारे में जानकारी मिली है कि इलाज के लिए जिन सेंटर और आश्रम में भर्ती कराया, वहां से भी भाग गए. परिवार को भी नहीं पता रहता था कि वो कहा रहते हैं. पत्नी से उनका तलाक हो चुका है.
वहीं, मनीष मिश्रा के दूसरे बैचमेट जो उनसे मिलने आ रहे हैं, उन्होंने भी उनके लिए हर संभव मदद करने की बात कही है. पवन सूर्यवंशी ने बताया, "उनके साथी उनकी मदद के लिये तैयार हैं और वो चाहते हैं कि मनीष मिश्रा अब सामान्य जीवन व्यतीत करें. इसलिये वो न सिर्फ उनसे मिलने आ रहे हैं बल्कि उनकी मदद भी करना चाहते हैं."
ग्वालियर के लोगों ने बताया कि मनीष मिश्रा सड़क पर भीख मांगकर अपना गुज़र बसर कर रहे थे. उन्हें ग्वालियर की सड़कों पर कई लोगों ने घूमते हुए देखा है.(bbc)
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने गिलगित बल्तिस्तान को अस्थायी रूप से प्रांत का दर्जा देने का वादा किया है. जानकार कहते हैं कि पाकिस्तान के इस कदम से कश्मीर विवाद अप्रासांगिक हो सकता है.
विवादित जम्मू-कश्मीर का जो भाग पाकिस्तान के नियंत्रण में है, उसका एक हिस्सा है गिलगित बल्तिस्तान. पाकिस्तान के उत्तर में स्थित यह इलाका 2009 से अब तक स्वायत्त क्षेत्र रहा है जहां का प्रशासन सीधे पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से चलता है. लेकिन इसी महीने पाकिस्तान के अधिकारियों ने इस इलाके को पूरी तरह प्रांत का दर्जा देने की घोषणा की.
गिलगित बल्तिस्तान 1947 में जम्मू कश्मीर का हिस्सा था. लेकिन 1948 में यह इलाका इस उम्मीद में पाकिस्तान का हिस्सा बना था कि उसे संवैधानिक दर्जा दिया जाएगा. लेकिन पाकिस्तान की सरकार ने इसे देश का हिस्सा तो माना लेकिन इसे विवादित जम्मू कश्मीर से अलग नहीं समझा.
पाकिस्तान की सरकार जहां पूरे कश्मीर क्षेत्र पर अपना दावा जताती है, वहीं भारत पाकिस्तान के नियंत्रण वाले कश्मीर और गिलगित बल्तिस्तान को अपना इलाका बताता है.
गिलगित बल्तिस्तान को पाकिस्तान का पांचवां प्रांत घोषित करने के पाकिस्तान के इरादे पर सीमा के दोनों तरफ रहने वाले कश्मीरियों की मिली जुली प्रतिक्रिया है. कश्मीर को एक अलग देश बनाने के लिए संघर्ष कर रहे कश्मीरी राष्ट्रवादियों ने इस कदम की आलोचना की है. उन्हें डर है कि इस कदम से संयुक्त जम्मू-कश्मीर की उनकी मांग अप्रासांगिक हो जाएगी.
पाकिस्तान ने पहले भी गिलगित बल्तिस्तान को प्रांत का दर्जा देने की कोशिश की है. लेकिन ऐसी कोशिशों का तीखा विरोध हुआ है. कई कश्मीरी समूहों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है.

स्थायी सीमाओं की तरफ कदम ?
पाकिस्तान में सक्रिय जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकएलएफ) के अध्यक्ष तौकीर गिलानी कहते हैं कि जिस तरह भारत ने पिछले साल अपने नियंत्रण वाले जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किया था, उसी तरह का कदम अब पाकिस्तान गिलगित बल्तिस्तान में उठा रहा है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "गिलगित बल्तिस्तान प्रांत कश्मीर के बंटवारे की दिशा में एक कदम होगा. यह कदम ना सिर्फ अंतरराष्ट्रीय कानूनों के भी विपरीत है बल्कि इस इलाके के विवादित दर्जे को लेकर खुद पाकिस्तान के रुख के भी विपरीत है."
दिल्ली स्थित ऑबर्जवर रिसर्च फांडेशन (ओआरएफ) के एसोसिएट फेलो खालिद शाह भी यही मानते हैं कि गिलगित बल्तिस्तान को प्रांत का दर्जा देने से कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का रुख कमजोर होगा. उनकी राय में, "यह ठीक वैसा ही कदम है जैसा भारत ने 5 अगस्त 2019 को उठाया था और जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर उसे बाकी देश के साथ मिला दिया था."
बंटवारे के बाद पाकिस्तानी कबायली सेना ने कश्मीर पर हमला कर दिया तो कश्मीर के महाराजा ने भारत के साथ विलय की संधि की. इस पर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हो गया.
यूरोपीयन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज के निदेशक जुनैद कुरैशी कहते हैं कि पाकिस्तान के कदम से संयुक्त राष्ट्र में उसका खुद का रुख कमजोर होगा. उन्होंने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "पाकिस्तान जब भी कश्मीर के आत्मनिर्धारण की बात करता है, तो उसका इशारा सिर्फ भारत के नियंत्रण वाले कश्मीर की तरफ होता है. संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के मुताबिक, पाकिस्तान इस बात के लिए सहमत हुआ था कि पहले वह इलाके से अपने सभी सैनिक हटाएगा और फिर भारत ऐसा करेगा."
लेकिन अब गिलगित बल्तिस्तान को अपना प्रांत घोषित करने के बाद पाकिस्तान इस इलाके को "गैर-विवादित" इलाके की तरह देखेगा, ठीक ऐसा ही भारत अपने नियंत्रण वाले इलाके के साथ करेगा. ऐसे में विशेषज्ञ मानते हैं कि प्रांतीय दर्जा मिलने से मौजूदा सीमाएं स्थायी सीमाओं में बदल सकती हैं.
विवादित इलाके के किसी भी हिस्से को स्थायी दर्जा देना संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का उल्लंघन है. सीमा के दोनों तरफ संयुक्त कश्मीर के लिए संघर्ष कर रहे कश्मीर कार्यकर्ताओं ने जिस तरह जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के भारत के फैसले का विरोध किया था, उसी तरह वे गिलगित बल्तिस्तान को प्रांत का दर्जा देने के पाकिस्तान के कदम का विरोध कर रहे हैं. ऐसे कदमों को वे मौजूदा नियंत्रण रेखा को स्थायी सीमा में तब्दील करने की कोशिश मानते हैं.
चीन को खुश करने की कोशिश?
कुरैशी मानते हैं कि गिलगित बल्तिस्तान को प्रांत घोषित कर पाकिस्तान चीन को खुश करना चाहता है जिसकी अरबों डॉलर की चीन-पाकिस्तान आर्थिक कोरिडोर परियोजना (सीपैक ) इस इलाके से होकर गुजरती है.
नई दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट में रिसर्चर कमल मैडिशेट्टी कहते हैं, "चीन गिलगित बल्तिस्तान में अपनी मौजूदगी और प्रभाव को बढ़ा रहा है और पाकिस्तानी अधिकारियों के साथ मिलकर इस इलाके पर अपना कब्जा मजबूत कर रहा है."
मैडिशेट्टी कहते हैं, "वहां पर चीन की मौजूदगी भारत के लिए सामरिक चुनौती पैदा कर रही है. मिसाल के तौर पर भविष्य में चीनी सैनिक गिलगित बल्तिस्तान में दाखिल हो सकते हैं, सीपैक परियोजना को सुरक्षा देने के नाम पर."
जून 2016 में इस प्रोजेक्ट पर चीन, मंगोलिया और रूस ने हस्ताक्षर किये. जिनइंग से शुरू होने वाला यह हाइवे मध्य पूर्वी मंगोलिया को पार करता हुआ मध्य रूस पहुंचेगा.
विश्लेषक कुरैशी मानते हैं कि सीपैक विवादित क्षेत्र से गुजरता है, जिसके कारण यह प्रोजेक्ट गैरकानूनी हो जाता है, इसीलिए चीन चाहता है कि पाकिस्तान इस इलाके को अपना प्रांत घोषित करे. वह कहते हैं, "अगर आप किसी इलाके में 51 अरब यूरो निवेश करते हैं, तो आप नहीं चाहोगे कि उस पर विवाद रहे. इसीलिए चीन के लिए यह जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान गिलगित बल्तिस्तान को कानूनी रूप से अपना प्रांत घोषित करे."
कुछ स्थानीय लोग भी इस बात से सहमत हैं. गिलगित बल्तिस्तान की असेंबली के पूर्व सदस्य नवाज नाजी कहते हैं, "चीन का प्रभाव गिलगित बल्तिस्तान में बढ़ रहा है, जिसके बाद भारत और अमेरिका हस्तक्षेप कर रहे हैं. इससे इलाके की स्थिरता के लिए खतरा पैदा होता है." वह कहते हैं, "अगर पाकिस्तान अपनी योजना पर आगे बढ़ता है तो हम उसका शांतिपूर्ण और राजनीति रूप से विरोध करेंगे."
वहीं एक पूर्व पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी इजाज आवान इस बात से इनकार करते हैं कि गिलगित बल्तिस्तान को प्रांत बनाने के पीछे मकसद चीन को खुश करना है. वह कहते हैं, "पाकिस्तान की सरकार चाहती है कि गिलगित बल्तिस्तान के लोगों को सीपैक और विकास से जुड़ी अन्य योजनाओं का फायदा मिले. प्रांत का दर्जा अस्थायी तौर पर दिया जा रहा है. व्यापक मकसद तो संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के अनुसार कश्मीर समस्या का हल तलाशना है."
कुछ स्थानीय लोगों को उम्मीद है कि सीपैक से उनके लिए रोजगार के नए अवसर पैदा होगा. दूसरी तरफ कुछ लोगों को यह चिंता भी सता रही है है कि सीपैक के कारण पाकिस्तान के दूसरे इलाकों से जाकर लोग गिलगित बल्तिस्तान में बसेंगे. इससे स्थानीय संस्कृति और आर्थिक हितों को नुकसान होगा.
रिपोर्ट: अंकिता मुखोपाध्याय (नई दिल्ली से), एस खान (इस्लामाबाद से)(dw.com)
2019 में नोबेल शांति पुरस्कार जीतने वाले अबिय अहमद इथियोपिया और पूरे इलाके की अशांति की धुरी बन रहे हैं.
करीब तीन दशक लंबे गृह युद्ध के बाद में अफ्रीकी देश इथियोपिया दो हिस्सों में बंटा. 1993 में इरीट्रिया नाम के देश का जन्म हुआ. लेकिन पांच साल के भीतर ही दोनों देश सीमाओं को लेकर युद्ध में उलझ गए. मई 1998 से जून 2000 तक दोनों देशों की बीच युद्ध छिड़ा रहा. युद्ध विराम होने तक इथियोपिया की सेना कमजोर माने जाने वाले नए देश इरीट्रिया में काफी भीतर तक घुस चुकी थी. बाद में मामला द हेग के अंतरराष्ट्रीय आयोग तक पहुंचा. अंतरराष्ट्रीय कमीशन ने इरीट्रिया को युद्ध भड़काने का दोषी करार दिया.
वहीं सीमा विवाद को सुलझाने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने इरीट्रिया-इथियोपिया बाउंड्री कमीशन भी बनाया गया. कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि विवाद का केंद्र रहा बादमे इलाका इरीट्रिया का है. इथियोपिया की सरकार ने इस फैसले को चुनौती दी. कानूनी दांव पेंचों के साथ ही दोनों देश एक दूसरे पर उग्रवादियों का सहारा लेकर हिंसा फैलाने के आरोप भी लगाते रहे.
अबिय अहमद की एंट्री
2018 में युवा अबिय अहमद इथियोपिया के प्रधानमंत्री बने. 42 साल की उम्र में लोकतांत्रिक तरीके से पीएम बनने वाले वह अफ्रीका के सबसे युवा नेता थे. अहमद ने आते ही इरीट्रिया के साथ सन 2000 में हुए शांति समझौते को बहाल कर दिया. वह पहली बार विमान से इरीट्रिया जाने वाले पीएम भी बने. अहमद ने सीमा विवाद को लेकर कमीशन की रिपोर्ट भी स्वीकार कर ली. इन कदमों को ऐतिहासिक बताया गया और इन्हीं की वजह से आबिय अहमद को 2019 में नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया.
लेकिन अब शांतिदूत कहे जाने वाले अहमद ने अपनी सेनाओं को उत्तर के पर्वतीय इलाके टिगरे भेज दिया है. इथियोपियाई सेना का दावा है कि उसने टिगरे के दो शहरों को अपने नियंत्रण में ले लिया है. संयुक्त राष्ट्र और दूसरे देश पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि टिगरे में सैन्य कार्रवाई हिंसा को बढ़ावा देगी और इसका असर पूरे इलाके पर पड़ेगा.
इथियोपिया की अहमियत
आबादी के लिहाज से इथियोपिया अफ्रीकी महाद्वीप में नाइजीरिया के बाद दूसरा बड़ा देश है. 11 करोड़ आबादी वाला देश कई कबीलों और समुदायों की विविधता से भरा है. लेकिन अबिय अहमद भी जातीय तनाव को कम करने में विफल साबित हो रहे हैं. विश्लेषकों को आशंका है कि कि इथियोपिया भी बाल्कन देशों की तरह टुकड़ों में टूट सकता है.
ब्रिटिश थिंक टैंक चैथम हाउस के हॉर्न ऑफ अफ्रीका विशेषज्ञ अहमद सोलिमान कहते हैं, "अबिय का नेतृत्व में आना एक नाटकीय बदलाव था. उस बदलाव ने ताकत के समीकरणों को पूरी तरह उलट दिया." लेकिन अब यही समीकरण फिर से ताकतवर हो रहे हैं, "कई क्षेत्रीय ताकतें बहुत ज्यादा स्वायत्ता चाहने लगी हैं."
अबिय सरकार टिगरे पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट (टीपीएलएफ) के खिलाफ लड़ रही है. यह वह राजनीतिक पार्टी है जिसने लंबे वक्त तक इथियोपिया की राजनीतिक में अहम भूमिका निभाई है. सत्ता में आते ही अबिय ने टिगरे के कुलीन वर्ग को राजनीतिक रेवड़ियां बांटी. उन्हें सरकारी पद और कई संस्थाओं में अहम भूमिका दी.
युद्ध अपराध के आरोप
लेकिन नवंबर 2020 आते आते आबिय ने टीपीएलएफ के एक हमले के बाद टिगरे में सेना भेज दी. वहां हवाई हमले करने का आदेश दिया और कर्फ्यू लगा दिया. टीपीएलएफ ने इसके विरोध में स्थानीय लोगों से हथियार उठाने को कहा है. इरीट्रिया की सीमा लगे उत्तरी इलाके में टीपीएलएफ बेहद मजबूत है. गृहयुद्ध और इरीट्रिया के साथ युद्ध के दौरान टीपीएलएफ तक बड़ी मात्रा में हथियार भी पहुंचे.
टीपीएलएफ ने अपने पुराने दुश्मन इरीट्रिया पर अबिय का साथ देने का आरोप लगाया है. शनिवार को टीपीएलएफ ने इरीट्रिया पर रॉकेट हमले भी किए. यूएन को आशंका है कि इन हमलों के कारण इरीट्रिया में हिंसा भड़क सकती है. हालात बिगड़े तो इथियोपिया को यमन से भी अपनी सेना वापस बुलानी पड़ेगी. इससे पूरे उत्तर पूर्वी अफ्रीका में हालात और खराब होंगे.
टीपीएलएफ के नेता डेब्रेतसियोन गेब्रेमाइकल ने समाचार एजेंसी डीपीए को टेलीफोन पर एक इंटरव्यू दिया है. इंटरव्यू में गेब्रेमाइकल ने कहा, "जो कुछ भी हो रहा है उससे टिगरे की पूरी आबादी गुस्से में हैं. संघीय सरकार हम पर जुल्म कर रही है."
टीपीएलएफ के मुताबिक राजधानी अदिस अबाबा के आदेश को न मानते हुए इलाके में सितंबर में चुनाव हुए. चुनावों में टीपीएलएफ की जीत हुई और अब उसे इसी की सजा दी जा रही है. गेब्रेमाइकल का कहना है कि नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, "अबिय को अब युद्ध अपराधों के लिए अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत में पेश किया जाना चाहिए. उन्होंने अपने ही लोगों पर बम बरसाए हैं.
वहीं सरकार का कहना है कि टीपीएलएफ ने सैनिकों की हत्या कर राष्ट्रद्रोह किया है. सैनिकों पर ऐसे वक्त में हमला किया गया जब वे पैजामे में थे. यह हमला इरीट्रिया में किया गया. टीपीएलएफ का कहना है कि इथियोपियाई सेना उन पर हमले के लिए इरीट्रिया के हवाई अड्डे का इस्तेमाल कर रही थी.
ओएसजे/एके (डीपीए)(dw.com)
ईरान को शायद लगता है कि उसके कट्टर दुश्मन डॉनल्ड ट्रंप की व्हाइट हाउस से विदाई होने पर उसके लिए अपनी महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाना आसान होगा. लेकिन ईरान के लिए ऐसी तमाम उम्मीदें झूठी साबित हो सकती हैं.
डॉयचे वैले पर कैर्स्टन क्निप की रिपोर्ट-
पिछले दिनों जब यह साफ हो गया कि जो बाइडेन अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के स्पष्ट विजेता हैं, तो उसके तीन दिन बाद ईरानी विदेश मंत्री जवाद जरीफ ने अपने पड़ोसी देशों के नेताओं के नाम एक "ईमानदार संदेश" भेजा.
उन्होंने ट्विटर पर लिखा, "70 दिनों में ट्रंप की विदाई होने वाली है. लेकिन हम यहां हमेशा बन रहेंगे." इसके साथ ही उन्होंने मतभेदों को बातचीत से सुलझाने के लिए अपने पड़ोसी देशों की तरफ दोस्त का हाथ बढ़ाया.
दो दिन के पाकिस्तान दौरे पर जाने से पहले जरीफ ने यह ट्वीट किया. ईरान शायद इस बात से खुश है कि उसे एक ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति से छुटकारा मिल रहा है, जिसे ईरान फूटी आंख नहीं सुहाता. लेकिन ईरान के लिए अपने पड़ोसियों के साथ वार्ता शुरू करना उतना आसान नहीं होगा जितना जरीफ के ट्वीट में दिखता है.
इसकी वजह यह है कि ईरान के बहुत पड़ोसी अमेरिका के करीबी सहयोगी हैं. जैसे कि पाकिस्तान, जिसके प्रधानमंत्री इमरान खान ने जीत पर बाइडेन और उपराष्ट्रपति पद की उनकी उम्मीदवार कमला हैरिस को बधाई देने में कोई देरी नहीं लगाई.
उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि पाकिस्तान अफगानिस्तान और इस पूरे इलाके में शांति के लिए अमेरिका के साथ काम करता रहेगा.
सऊदी अरब का पलटवार
जरीफ के ट्वीट ने सऊदी अरब की त्योरियां चढ़ा दीं, जो इस इलाके में ईरान का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी है. ईरानी विदेश मंत्री जब यह ट्वीट कर रहे थे, लगभग उसी समय सऊदी शाह सलमान अपने एक संबोधन में क्षेत्रीय संबंधों की रूपरेखा तय कर रहे थे.
उन्होंने संकेत दिया कि ईरान के साथ सऊदी अरब का छत्तीस का आंकड़ा बना रहेगा. उन्होंने अपने उत्तरी पड़ोसी की तरफ से खतरों को सबसे बड़ी चिंताओं में से एक बताया. सऊदी शाह ने कहा कि ईरान आतंकवाद का समर्थन करता है और इलाके में सांप्रदायिक हिंसा को भड़काता है.
सऊदी शाह ईरान को सबसे बड़ा खतरा मानते हैं
उन्होंने कहा, "सऊदी अरब उस खतरे को रेखांकित करता है जो क्षेत्र में ईरान की गतिविधियों की वजह से पैदा हो रहा है."
कूटनीति की तरफ वापसी?
सऊदी शाह ने अपने भाषण में ट्रंप के उत्तराधिकारी को उनके नाम से संबोधित नहीं किया. लेकिन उन्हें इस बात का अच्छी तरह अहसाह होगा कि अमेरिका का भावी राष्ट्रपति उनके शब्दों को सुन रहा है.
चुनाव से पहले बाइडेन ने ईरान पर बार बार और विस्तृत बयान दिए. उन्होंने अमेरिकी सहयोगियों की जरूरतों की भी बात की. उन्होंने सितंबर में सीएएन के लिए अपने लेख में कहा, "हम ईरान की अस्थिरता फैलाने वाली गतिविधियों का मुकाबला करते रहेंगे जिनकी वजह से क्षेत्र में हमारे मित्रों और साझीदारों के लिए खतरे पैदा हो रहे हैं." साथ ही उन्होंने यह भी कहा, "लेकिन अगर ईरान तैयार होता है तो मैं कूटनीतिक के रास्ते की तरफ जाने के लिए तैयार हूं."
जर्मनी की माइंत्स यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर रिसर्च ऑन अरब वर्ल्ड के प्रमुख गुंटर मेयेर कहते हैं, "अमेरिका के भावी राष्ट्रपति ने बार बार इस बात को कहा है कि वह ईरान के मुद्दे पर लचीला रुख अपनाने को तैयार हैं. इसका संबंध दोनों ही बातों से हैं, ईरान के परमाणु कार्यक्रम से भी और पड़ोसियों के साथ उनके संबंधों से भी."
यमन में दुविधा
बाइडेन ने कई बार कहा है कि वह अमेरिका और सऊदी अरब के संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करना चाहते हैं. खासकर वह यमन में सऊदी नेतृत्व में होने वाले सैन्य हस्तक्षेप की आलोचना करते हैं. वहां जारी युद्ध को सऊदी अरब और ईरान के बीच परोक्ष युद्ध की तरह देखा जाता है.
अगर बाइडेन सऊदी अरब पर दबाव डालकर उसे यमन से हटने पर मजबूर करते हैं तो मौके का फायदा उठाकर ईरान इस गरीब देश में अपने पैर और मजबूती से जमाने की कोशिश करेगा. इसीलिए अमेरिका के नए राष्ट्रपति को बहुत सावधानी से काम लेना होगा कि वह सऊदी अरब से किस तरह डील करे ताकि उसके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी को इसका फायदा ना हो.
सऊदी अरब और ईरान की दुश्मनी में यमन मलबे के ढेर में तब्दील हो रहा है(dw.com)
-विवेक मिश्रा
जलसंकट वाले क्षेत्रों में भी धान की बढ़ती खेती के बाद अब देश में कई तरह की चिंताए खड़ी हो गई हैं। मसलन पंजाब और हरियाणा में धान के अवशेष यानी पराली जलाए जाने की समस्या हो या फिर धान के लिए भू-जल का अत्यधिक दोहन, यह किसानों से लेकर नीति-नियंताओं तक के लिए चिंता का विषय बन गया है। आखिर धान और पानी का यह हिसाब-किताब कैसे ठीक हो सकता है और क्या धान की खेती को कम करना ही इलाज है। डाउन टू अर्थ ने इसकी पड़ताल की है।
उड़ीसा के कटक में स्थित सेंट्रल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट के डॉक्यूमेंट विजन 2050 में कहा गया है कि देश के 55 फीसदी हिस्से में सिंचाई के पानी से ही चावल पैदा किया जाता है। एक किलो चावल पैदा करने में करीब 2500 से 3500 लीटर तक पानी खर्च होता है। साथ ही पंजाब-हरियाणा में प्रति किलोग्राम चावल उत्पादन में इससे भी ज्यादा पानी का इस्तेमाल किया जाता है।
इस विजन डॉक्यूमेंट में कहा गया है कि यदि एक किलो चावल उत्पादन में पानी की खपत को 2000 लीटर तक लाना होगा। ऐसे में कम पानी और उच्च उत्पादन वाले सीड पर काम करना होगा। अन्यथा चावल की बढ़ती मांग और सप्लाई में बड़ी खाई बन जाएगी।
इस मामले पर तेलंगाना कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रवीण राव ने डाउन टू अर्थ से कहा कि 2014 में चावल निर्यात में हमने वर्चुअली करीब 37 अरब लीटर पानी का निर्यात किया है। ऐसे में पानी की बचत और चावल का ज्यादा उत्पादन करना एक बेहद जरूरी और चुनौती भरा काम है। हमारे देश में प्राथमिक आंकड़ों की बेहद कमी हो गई है और ज्यादातर सेंकेडरी डाटा पर ही काम कर रहे हैं। लेकिन यह अनुमान ऐसा है जो हमें बताता है कि चावल निर्यात दरअसल पानी का निर्यात है। ऐसे में साफ पानी के संकट और उसके संरक्षण की समस्या को भी हमें देखना होगा।
वैज्ञानिक इस मामले पर क्या कर रहे हैं?
हरियाणा के करनाल स्थित सेंट्रल सॉयल सैलिनिटी रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएसएसआरआई) के डॉ कृष्ण मूर्ति कहते हैं कि बासमती की अभी तक की जो भी प्रजातियां हैं वह पानी की समस्या का हल नहीं बन पाई हैं। आज भी सामान्य पानी की तरह ही बासमती की किस्मों में उच्च पैदावार के लिए पहले की तरह ही पानी की खपत है। डायरेक्ट सीडेड राइस (डीएसआर) यह वेराइटी पाइपलाइन में है और हरियाणा में कुछ जगहों पर इसका प्रयोग सफल रहा है। यह न सिर्फ पानी की खपत में आमूलचूल परिवर्तन करेगा बल्कि पैदावार के मामले में भी नई उम्मीद जगाएगा। इसे अभी जारी नहीं किया गया है जल्द ही यह प्रजाति भी आएगी। करनाल के ही इन वैज्ञानिकों ने बासमती की सीएसआर 30 वेराइटी पैदा की थी, जो कि काफी सफल रही। ऐसे में डीएसआर का भी सफल परीक्षण हुआ है जिसमें पानी की खपत को कम किया जा सकता है।
सामान्य धान के मुकाबले बासमती धान के बढ़ते चलन को लेकर कई लोग यह उम्मीद जताते हैं कि सामान्य धान प्रजातियों के मुकाबले बासमती में कई सारे गुण हैं जो उत्पादन से लेकर अवशेष तक में काफी बेहतर हैं। इस मसले पर पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के डायरेक्टर ऑफ रिसर्च डॉक्टर नवतेज सिंग बैंस ने डाउन टू अर्थ से कहा कि बासमती चावल में कई गुण हैं। मसलन इससे न सिर्फ क्रॉप डाइवर्सिफिकेशन की दिशा में पहला होगा बल्कि सामान्य धान के मुकाबले 15-20 फीसदी तक पानी बचाया जा सकता है। (https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
-रिचर्ड कॉनर
ऑस्ट्रिया की सरकार का कहना है कि इंसान की जिंदगी और मौत का फैसला करने का अधिकार इंसानों के पास ही होना चाहिए. युद्ध के दौरान किलर रोबोटों या एल्गोरिदम्स को ये अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए.
ऑस्ट्रिया ने इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय कायदे कानूनों की मांग की है. विएना ने खुद एक कूटनीतिक पहल शुरू की है. इस पहल के जरिए तमाम देशों को साथ लाया जाएगा और मिलकर फैसला किया जाएगा.
ऑस्ट्रिया के विदेश मंत्री आलेक्जांडर शालेनबेर्ग के मुताबिक दुनिया भर में जैसे कायदे कानून क्लस्टर बमों और बारूदी सुरंगों को लेकर हैं, वैसे ही कायदे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाली मशीनों के लिए भी बनाए जाने की जरूरत है.
जर्मन अखबार वेल्ट आम जोंटॉग से बातचीत में शालेनबेर्ग ने कहा, "किलर रोबोटों के युद्ध के मैदान पर पहुंचने से पहले हमें नियम बनाने होंगे."
ऑस्ट्रिया की सरकार 2021 में राजधानी वियना में इस मुद्दे को लेकर एक सम्मेलन की तैयारी भी कर रही है. शालेनबेर्ग ने उम्मीद जताई कि "सम्मेलन में युद्ध के मैदान में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल को लेकर अंतरराष्ट्रीय संधि की प्रक्रिया शुरू हो सकेगी."
ऑस्ट्रिया के विदेश मंत्री के मुताबिक अब तक कूटनीतिक समुदाय में इस मसले पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है, "इस कॉन्फ्रेंस के जरिए हम सरकारों, विशेषज्ञों और रेड क्रॉस जैसी गैर सरकारी संस्थाओं के बीच एक अभियान शुरू करना चाहते हैं."

जीवन और मृत्यु का फैसला
ऑस्ट्रियाई सरकार बार बार इस बात पर जोर दे रही है कि युद्ध को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जिम्मे नहीं छोड़ना चाहिए. विदेश मंत्री ने कहा, "जिंदगी और मौत का फैसला करने का अधिकार एक ऐसे व्यक्ति के पास होना चाहिए जो अपनी मूल्यपरक और नैतिक समझ के आधार पर निर्णय ले सके, ना कि शून्य और एक के तालमेल से बनी कोई एल्गोरिदम ये फैसला करे."
संयुक्त राष्ट्र 2015 से लीथल ऑटोनॉमस वेपंस पर चर्चा कर रहा है. लेकिन यह चर्चा पारंपरिक हथियारों के लिए बनाए गए फ्रेमवर्क के तहत की जा रही है.
ऑटोनॉमस हथियारों के मामले में रूस, अमेरिका और इस्राएल सबसे आगे हैं. तीनों देश किसी भी तरह के अंतरराष्ट्रीय नियम को खारिज करते रहे हैं. आर्टिफिशियल इंटेजिलेंस से लेस हथियार युद्ध के दौरान कई फैसले खुद कर सकते हैं. यही तकनीक इन्हें बेहद घातक बना देती है.
वहीं "स्टॉप किलर रोबोट्स" नाम का एक एनजीओ कई देशों के साथ मिलकर ऐसे हथियारों पर बैन लगाना चाहता है. यूरोपीय संसद समेत 30 देश किलर रोबोटों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं.(DW.COM)
पिछले वर्षों की तरह से इस साल भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिवाली का त्योहार सेना के जवानों के बीच जाकर मनाया.
इस बार मोदी राजस्थान के जैसलमेर थे. जैसलमेर के लोंगेवाला पोस्ट पर मोदी ने सेना के जवानों के साथ दिवाली मनाई. प्रधानमंत्री ने जवानों को दिवाली की बधाई दी. इस दौरान उन्होंने पाकिस्तान का ज़िक्र करते हुए चेतावनी भी दी.
पीएम मोदी के साथ चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) बिपिन रावत, सेना प्रमुख एम एम नरवणे और बीएसएफ के डीजी राकेश अस्थाना भी थे.
जैसलमेर की लोंगेवाला पोस्ट पर जवानों को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि दुनिया की कोई भी ताकत हमारे वीर जवानों को देश की सीमा की सुरक्षा करने से रोक नहीं सकती है.
मोदी इस दौरान टैंक पर भी सवार हुए. वे सेना की पोशाक पहने हुए थे. उनकी ये तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा की गईं. इन तस्वीरों में वे टैंक पर सेना की ड्रेस पहने हुए हैं.
मोदी के फौजी ड्रेस पहनने की तस्वीरों ने सोशल मीडिया पर खूब सुर्खियां बटोरीं. लेकिन, इन तस्वीरों को लेकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक बहस यह भी पैदा हुई कि एक लोकतंत्र में क्या एक असैन्य नेता या नागरिक को सेना की वर्दी पहनने का हक है? यह भी सवाल उठा कि लोकतंत्र में असैन्य नेतृत्व का फौज की यूनिफॉर्म पहनना कितना उचित है?
इस मसले पर सैन्य बलों से रिटायर हो चुके लोगों से लेकर आम लोगों तक ने अपनी राय रखी है. लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग (सेवानिवृत्त) ने एक ट्वीट में तंज करते हुए लिखा है, "सैल्यूट! आवर पीएम लीडिंग फ्रॉम दी फ्रंट."
For him everything is a fancy dress event. He doesn't understand what it takes to earn that uniform. He is just pandering to his Bhakts and satisfying his childhood desire of modelling in various outfits@ranjona @anil010374 @Aakar__Patel @BhavikaKapoor5 @sarahmarb @sonaliranade
— Kaustubh (@___kaustubh) November 15, 2020
एक ट्विटर यूजर कौस्तुभ (@___kaustubh) ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, "उनके लिए हर चीज एक फैंसी ड्रेस इवेंट है. उन्हें यह नहीं पता कि यूनिफॉर्म हासिल करने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती है. वे केवल अपने भक्तों को खुश करने और अलग-अलग पोशाकों में मॉडलिंग करने की अपनी बचपन की इच्छाओं को संतुष्ट करने में लगे हुए हैं."
ले.ज. प्रकाश कटोच (रि.) ने ट्विटर पर लिखा है, "हम कहां हमला करने जा रहे हैं - डेपसांग?"
Where are we attacking - Depsang?
— Prakash Katoch (@KatochPrakash) November 15, 2020
पनाग ने उन्हें जवाब में लिखा है, "सर, मुझे भरोसा है कि वे वहां भी गए होंगे. गोपनीय!"
Sir, I am sure he has been there too. Classified!
— Lt Gen H S Panag(R) (@rwac48) November 15, 2020
ब्रिगेडियर जय कौल लिखते हैं, "कौन सा कानून आर्म्ड फोर्सेस या पैरा मिलिटरी फोर्सेज की यूनिफॉर्म पहनने की इजाजत देता है? कोई उन्हें बताए कि यह उचित नहीं है."
Indeed. Which law permits him to don a uniform of Armed Forces or para military forces. Not done . Someone needs to tell him that this is not appropriate.
— Brig. Jay Kaul (@Jaykaul) November 15, 2020
एक यूजर ने लिखा है, "ओह, मुझे लगा कि ये गलवान होगा!"
पनाग ने इस पर लिखा है, "वे निश्चित तौर पर डीबीओ, गलवान, पैंगॉन्ग, कैलाश में मोर्चों पर गए होंगे. लेकिन, ये दौरे गोपनीय हैं. उन्हें पब्लिसिटी पसंद नहीं है. महान नेता!"
Knowing him he would have definitely visited the front in DBO/Galwan/Pangong/Kailash. But these visits are in classified domain. He does not like publicity. Great leader!
— Lt Gen H S Panag(R) (@rwac48) November 15, 2020
एक अन्य यूजर प्रशांत टंडन पूछते हैं कि क्या लोकतंत्र में चुने गए नेताओं को आर्मी यूनिफॉर्म पहननी चाहिए?
Should elected leaders in a democracy wear Army uniform?
— Prashant Tandon (@PrashantTandy) November 15, 2020
Symbolic cap or jacket is fine to show affinity with soldiers but full uniform?
Uniform insignias never designed for PM, Defense Minister or even President who is Commander-in-Chief.
BTW Longewala is 1500 KM away from Leh!
वे लिखते हैं, "सैनिकों के साथ अपना लगाव दिखाने के लिए प्रतीकात्मक कैप या जैकेट पहनने तक तो ठीक है, लेकिन पूरी यूनिफॉर्म? यूनिफॉर्म पर लगने वाले निशान और तमगे कभी भी पीएम, रक्षा मंत्री या यहां तक कि सेनाओं के कमांडर इन चीफ राष्ट्रपति तक के लिए डिजाइन नहीं किए गए हैं."
वे व्यंग्य करते हुए लिखते हैं, "लोंगेवाला की लेह से दूरी 1,500 किमी है."
एक यूजर ने मोदी के आर्मी यूनिफॉर्म पहनने का समर्थन करते हुए लिखा है कि सुभाष चंद्र बोस भी आर्मी में नहीं थे. लेकिन, वे यूनिफॉर्म पहनते थे. सैनिक इसे ऑफर करते हैं. प्रमोशन के लिए सैनिकों के पास जाने वाले एसएसआर, वरुण धवन के साथ भी ऐसा हुआ. जो चीज अहम है वह यह है कि उन्होंने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया है.
Sc bose was also not in army...but still he wore uniform...soilders there offer to do so....same was also done to ssr,varun dhawan who hand gone to armed forces for promotion...something that matters is he motivated the soilders and they liked it as the pic is shared by a soilder
— Vansh (@Vansh69994432) November 15, 2020
ट्विटर पर सिस्तला सत्यनारायण ने लिखा है कि अगर मोदी राजनेता नहीं होते तो वे बॉलिवुड में होते. उन्होंने लिखा है, "मिलिटरी ड्रेस को लेकर उनका जूनून आम समझ से परे है."
एक यूजर ने लिखा है, "चिंता मत कीजिए, अगर वे राजनीति से कभी रिटायर हुए भी तो वे निश्चित तौर पर बॉलिवुड से जुड़ जाएंगे."
एक यूजर ने लिखा है, "पंगा चीन से चल रहा है और हमारे साहब नाच पाकिस्तान बॉर्डर पर रहे हैं. गजब की शूरवीरता दिखा रहे हैं."
एक शख्स ने लिखा है कि वे एक महान नेता हैं और देश भाग्यशाली है कि हमें उनके जैसा पीएम मिला.(https://www.bbc.com/hindi)
-चैतन्य नागर
भाजपा को भी ओबामा के वक्तव्य को लेकर उछल-कूद नहीं मचानी चाहिए। उसे याद रखना चाहिए कि ओबामा ने जनवरी 2015 में भारत में धार्मिक असहिष्णुता की बात भी कही थी। इस पर पार्टी के लोग नाराज भी हुए थे। उन्हें भी कड़वा कड़वा थू और मीठा मीठा गप करने की आदत छोडनी चाहिए।
अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राहुल गांधी के बारे में लिखा है कि उनमें में एक ‘अनगढ़पन और घबराहट है, मानों वह ऐसे छात्र हों जिसने अपना पाठ पूरा कर लिया हो और शिक्षक को प्रभावित करने की चेष्टा में हो, लेकिन विषय में पारंगत होने के लिए जज़्बे और प्रतिभा दोनों की ही उसमें कमी हो।’ ओबामा की पुस्तक ‘अ प्रॉमिस्ड लैण्ड’ उनके संस्मरणों पर आधारित है। 17 नवंबर को यह बाजार में आएगी। 768-पन्नों के उनके संस्मरण का यह पहला खंड है। आम कांग्रेसी राहुल की इस परिभाषा और ओबामा के वक्तव्य से बौखलाया हुआ है। हालांकि पार्टी ने औपचारिक तौर पर इसपर चुप्पी साध रखी है। ओबामा ने अपनी किताब में सिर्फ राहुल गांधी के बारे में ही नहीं लिखा। डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में भी अपनी बात कही है। उनका कहना है कि डॉ. सिंह एक भावशून्य ईमानदारी वाले व्यक्ति हैं। सोनिया गांधी का जिक्र करते हए ओबामा कहते हैं कि दुनिया में पुरुष नेताओं की खूबसूरती के बारे में चर्चा होती है पर महिला नेताओं के सौंदर्य के बारे में लोग बातें करते हुए कतराते हैं। जिन एक दो सुंदर स्त्री नेताओं का जिक्र होता है उनमे ओबामा ने सोनिया गांधी के नाम का जिक्र किया है।
यह बात बड़ी दिलचस्प है कि ओबामा के बयान का सबसे जोरदार विरोध शिव सेना के संजय राउत ने किया है जिनका कहना है कि कोई विदेशी राजनीतिज्ञ किसी भारतीय राजनेता के बारे में इस तरह का बयान नहीं दे सकता। उन्होंने पूछा है कि ओबामा भारत को जानते ही कितना हैं? बिहार में कांग्रेस नेता तारिक अनवर ने यह याद दिलाया है ओबामा और राहुल गाँधी करीब आठ दस साल पहले थोड़े समय के लिए ही मिले थे और इतने कम समय में किसी का आकलन नहीं किया जा सकता। अनवर के मुताबिक पिछले आठ वर्षों में राहुल का व्यक्तित्व काफी बदल चुका है। कांग्रेसी नेता अधीर रंजन ने ओबामा को कूपमंडूक घोषित कर दिया है। आश्चर्य है कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के बारे में इसी किताब में ओबामा की सकारात्मक राय को लेकर कांग्रेस की कोई प्रतिक्रिया नहीं। प्रशंसा उन्हें स्वीकार है, आलोचना नहीं। गहरी आत्ममुग्धता का लक्षण है यह। गांधी परिवार को कांग्रेसी पूरी तरह से दोषमुक्त और निर्विवाद रूप से पवित्र मानते हैं, उसके आभामंडल से खुद को मुक्त करने की न ही उनमें न कोई इच्छा है, न ही हिम्मत।
गौर से देखें तो ओबामा ने बहुत थोड़े शब्दों में कांग्रेस के कुछ नेताओं को सटीक ढंग से परिभाषित किया है। उनकी टिप्पणियां किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित बिल्कुल नहीं लगती। दो बार राष्ट्रपति रहे ओबामा ने अपने गहरे अवलोकन की क्षमता को दर्शाया है। जो लोग अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल कर रहे हैं उन्हें थोड़ा आत्ममंथन करना चाहिए। यह किसी आम नेता का बयान नहीं जो भारतीय कांग्रेस पार्टी का विरोधी हो, वर्तमान समय में देश सत्तासीन लोगों का करीबी हो या कांग्रेस में राहुल गांधी के जगह हथियाने की फिराक में हो। यह एक बहुत ही लोकप्रिय और विश्व के सबसे बड़े नेताओं में से शुमार किए जाने वाले, नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित एक सुलझे हुए नेता का बयान है जो अपने व्यक्तित्व, संजीदगी और अपने देश की जनता के साथ अच्छे संबंधों के कारण न सिर्फ अपने देश में बल्कि पूरी दुनिया में विख्यात रहे हैं। ओबामा सस्ती लोकप्रियता और नाटकीय तौर तरीकों से कोसों दूर रहने वाले नेता रहे हैं और हाल ही में पराजित हुए ट्रम्प को उनके विलोम के रूप में देखा जा सकता है। उनके बयान की अहमियत इसलिए भी है क्योंकि उनकी पार्टी के प्रत्याशी ही अमेरिका के अगले राष्ट्रपति बन गए हैं और वह ओबामा के साथ उनके उपराष्ट्रपति भी थे। राहुल गांधी के बारे में उनके ख्याल वास्तव में उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी के भी ख्याल हैं तो फिर ओबामा का बयान राहुल गांधी और उनकी पार्टी की वर्तमान स्थिति पर अमेरिकी सत्तारूढ़ पार्टी का बयान है। जिस तरह से ओबामा राहुल को देख रहे हैं, उसी तरह बाइडन और कमला हैरिस भी देखें, तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। बाइडन-कमला हैरिस के पक्ष में चुनाव प्रचार के दौरान डेमोक्रेटिक पार्टी के सबसे बड़े स्टार प्रचारक ओबामा ही थे। एक अद्भुत वक्ता होने के नाते ओबामा ने पूरी दुनिया को अपनी वक्तृता, भाषा पर अपनी मजबूत पकड़ और सही शब्दों के चयन से लोगों को चमत्कृत किया है, इसें कोई दो राय नहीं।
2014 चुनावों के बाद आत्मनिरीक्षण शब्द भारतीय राजनीति में बड़ा प्रचलित हुआ। यह शब्द हर पराजय के बाद हारे हुए दल में अचानक बड़ा लोकप्रिय हो जाता है। 2014 और उसके बाद 2019 में पराजित योद्धा, चाहे वो वामपंथी हों, या मध्यममार्गी, सभी तथाकथित आत्मनिरीक्षण के अभ्यास में लग गये थे। राजनैतिक आत्मनिरीक्षण का वास्तविक अर्थ है है चुनाव परिणाम, विपक्षियों और निंदकों के विचारों के आईने में खुद अपनी मौजूदा स्थितियों को गौर से निहारना। आईना दिखाता है कि आप वास्तव में कैसे हैं। यदि आप आईने से झूठ बोलने की अपेक्षा करें, तो यह तो भयंकर बेईमानी होगी। आत्मनिरीक्षण में एक निर्ममता और निर्लिप्तता होनी चाहिए, एक कठोर और स्पष्ट दृष्टि। खुद को जस का तस देखने का साहस होना चाहिए। ओबामा के बयान को क्या कांग्रेस ईमानदारी से समझने की कोशिश कर सकती है, क्योंकि इसमे बहुत कुछ ऐसा है जिसकी ईमानदार समझ पार्टी में नई जान फूंक सकती है।
ओबामा के बयान को एक दर्पण की तरह से देखा जाना चाहिए। पहली बात तो इसमें यह स्पष्ट होती है कि राहुल राजनीति में एक छात्र समान ही हैं। अभी वे पारंगत नहीं हुए हैं। गौरतलब है कि जो छात्र अपने टीचर्स को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं वे या तो अपने सबक को ठीक से नहीं समझ पाते या फिर उनमें आत्मविश्वास की कमी होती है। उनमें एक तरह की नर्वसनेस या घबराहट देखी जाती है, असुरक्षा का भाव होता है कि यदि टीचर प्रभावित नहीं हुआ तो उसे फेल कर देगा। जिस छात्र को अपनी पढ़ाई और समझ पर पूरा भरोसा होता है, उसमे ऐसी प्रवित्ति नहीं देखी जाती। सवाल उठता है कि राहुल किस सबक को लेकर घबराए हुए हैं। क्या उनकी राजनीति की समझ अभी भी परिपक्व नहीं हुई? उनके टीचर कौन हैं? सोनिया गांधी, या पार्टी के वरिष्ठ सदस्य जो कभी उनके खिलाफ खड़े हो सकते हैं, या सत्तासीन दल और खास तौर पर उसके प्रधान मंत्री? क्या राहुल मोदी की उपस्थिति से नर्वस हैं क्योंकि फिलहाल भारतीय राजनीति से तो उनके पांव उखड़ते दिखाई नहीं देते। न सिर्फ राहुल जैसे युवा और कम अनुभवी नेताओं को बल्कि मंजे हुए बुजुर्ग सियासतबाजों को भी मोदी में एक अविजेय नेता दिखाई दे रहा है। यह स्थिति लंबे समय से बनी हुई है और विपक्ष धीरे-धीरे पर लगातार मुरझाता जा रहा है। कांग्रेस के सामने एक बड़ी दुविधा यह है कि राहुल गांधी के नेतृत्व की खामियों के बावजूद उनका राजनीति से हटना किसी और नेता को शीर्ष पर बैठने का मौका देगा और उस शीर्ष नेता के प्रमुख बनने के साथ ही कई और नेता इसका विरोध करेंगे और इस तरह नेताओं की एक जमात खड़ी हो जाएगी और पार्टी में बगावत की स्थिति पैदा हो सकती है। इस संभावित स्थिति के वास्तविक दु:ख से पार्टी अभी तक अपरिचित है। एक अकुशल, अपरिपक्व और अनिच्छुक नेता के कारण होने वाला दु:ख जाना-समझा हुआ है। जब परिचित और अपरिचित दुखों के बीच चुनाव का प्रश्न हो तो व्यक्ति हो या संगठन परिचित दु:ख ही चुनना पसंद करता है।
कांग्रेस सचाई से मुंह चुराने की कला में पारंगत है और फिर भी इस मुगालते में है कि वह आत्मनिरीक्षण में लगी हुई है। कांग्रेस को 2014 के लोक सभा चुनावों में जो पछाड़ मिली थी, उसके विश्लेषण का जिम्मा उसने सौंपा था अपने वरिष्ठ, वफादार नेता ए के एंटनी को। कांग्रेस को वफादारी शब्द पर गहरा विचार करना चाहिए। वफादारी किसके प्रति नेहरू-गांधी कुनबे के प्रति या देश और इसकी जनता के प्रति बदलती सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों के प्रति कांग्रेस को अपना निरीक्षण इसी शब्द के निहितार्थों को समझने के साथ शुरू करना चाहिए। क्योंकि वफादारी की इसकी परिवार-केन्द्रित परिभाषा एक पत्थर की तरह रही है जिसके नीचे जो कांग्रेसी जितना अधिक दबा रहे, उसे उतना ही वफादार माना जाता है। यही वजह है कि कांग्रेस नेहरू-इंदिरा-राहुल-सोनिया-प्रियंका का जाप करने वालों की पार्टी बनी रह गयी है। इसमें नेतृत्व की क्षमता किसी में पनपी ही नहीं। जिस तरह भाजपा ने पार्टी से जरासत्ता खत्म की ठीक उसी तरह कांग्रेस को अपनी पार्टी की बासी, व्यक्तिवादी, नेहरू-गांधी-परिवारवादी परंपरा को त्यागना होगा। वृद्ध और अकुशल नेतृत्व से खुद को मुक्त करके ही कांग्रेस को अपना राजनीतिक भविष्य साफ-साफ दिखाई देगा।
भाजपा को भी ओबामा के वक्तव्य को लेकर उछल-कूद नहीं मचानी चाहिए। उसे याद रखना चाहिए कि ओबामा ने जनवरी 2015 में भारत में धार्मिक असहिष्णुता की बात भी कही थी। इस पर पार्टी के लोग नाराज भी हुए थे। उन्हें भी कड़वा कड़वा थू और मीठा मीठा गप करने की आदत छोडनी चाहिए। निंदकों को सम्मान दिया जाना चाहिए क्योकि वे आपको अपनी खामियां देखने और उन्हें खत्म करने का मौका देते हैं। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि ओबामा कोई भाजपा समर्थक नेता नहीं। हो सकता है अपनी किताब के अगले खंड में ही उन्हें अपने महान नेताओं के बारे में भी कुछ दिलचस्प बातें पढऩे को मिले।
-प्रकाश दुबे
पौराणिक काल में देवी-देवता पशु-पक्षी से वाहन और गाइड दोनों का काम चलाते रहे। कलयुग में रिवाज़ बदला। लक्ष्मी पुत्र और लक्ष्मी वाहन में होड़ लगी। लक्ष्मी पुत्रों की राह आसान करने की योजनाएं फुर्ती से साकार होती हैँ। बरसों से केन्द्र सरकार पूरे देश में बिजली वितरण निजी क्षेत्र को देने के लिए बेताब है। कुछ राज्यों ने लागू किया। नौकरशाह से मंत्री बने आर के सिंह के ताजा फरमान के बाद एक के बाद एक सारे केन्द्रशासित क्षेत्रों में बिजली वितरण निजी हाथों में चला जाएगा। जम्मू-कश्मीर से लेकर काला पानी कहलाने वाले अंडमान-निकोबार द्वीप समूह तक कतार में हैं। 2022 के गणतंत्र दिवस पर कुछ केन्द्रशासित क्षेत्रों में निजी कंपनिया बिजली की बागडोर संभालते नजऱ आ सकती हैं। बिजली-वितरण का दायित्व संभालने वाले सुपात्र चुनिंदा हैं। दो चार बड़े नाम जगजाहिर हैं। देश की राजधानी दिल्ली से लेकर आर्थिक राजधानी मुंबई तक उनका कारोबार जगमग हो रहा है। लक्ष्मी से पहचान पुरानी है।
बापू की मूरत
राष्ट्रीय स्तर पर मोठा भाई जिस तरह के काम को अंजाम देने की अमित प्रवीणता दिखा चुके हैं, वहीं काम ईशान्य भाग में केन्द्रीय गृह मंत्री हिमांत विश्व शर्मा से करवाते हैं। असम में स्वास्थ्य सहित कुछ महकमों के मंत्री हिमांत का मुख्य काम पूर्वोत्तर के राज्यों में सरकारें बनाना, बचाना, तोडक़र फिर बनाना है। परीक्षा में बार बार महारत दिखाने पर असम के मुख्यमंत्री से अधिक धाक है। अर्धांगिनी टीवी चैनलों की स्वामिनी हैं। काम, नाम, नामा सब कुछ है। हैदराबाद में जन्मी एमआइएम की रिश्ते में बहन असम में भी है। नाम है-आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट। अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल का मुंबई में इत्र का कारोबार है। अजमल असम में वह करिश्मा करने राजी नहीं हो रहे हैं, जो एमआइएम के ओवैसी ने महाराष्ट्र और बिहार के चुनाव में कर दिखाया।। इसके बावजूद अजमल ने हिमांत बाबू के बापू की याद में आलीशान अस्पताल बनाने की पेशकश की। अजमल की शर्त है कि स्वास्थ्य मंत्री असम राज्य में किसी भी जगह 150 बीघा जमीन दिला दें। मैं एक अरब यानी सौ करोड़ रुपए लागत का सर्वसुविधा युक्त अस्पताल हमांत के पिता के नाम पर बना दूंगा। इतना अहसान? अजमल मानते हैं कि असम सरकार के निकम्मेपन के लिए शर्मा जिम्मेदार हैं। इसलिए-मंत्री की कुर्सी और धर्म के आधार पर लोगों को बांटना छोडें़।
लखटकिया बखेड़ा
तेलंगाना में भाजपा के रघुनंदन राव की विधानसभा उपचुनाव में जीत मुख्यमंत्री को मुंह पर थप्पड़ जैसी लगी। जीत के बाद रघुनंदन जेल जाना नहीं भूले। राव ने जेल में आठ बंदियों से मुलाकात की। पुलिस ने 18 लाख रुपए छीनकर भागने के आरोप में उनके कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया था। प्रचार के दौरान पुलिस ने राव के ससुर के घर छापा मारा। 18 लाख रुपए बरामद किए। पुलिस का आरोप है कि उम्मीदवार राव के उकसाने पर अभियुक्त धनराशि छीन कर भागे। चंद्रशेखर राव की पुलिस चाहकर रघुनंदन राव पर हाथ नहीं डाल सकी। राव के खिलाफ प्राथमिकी यानी एफआइआर दर्ज करने की पुलिस की मांग पर उच्च न्यायालय ने फैसला टाला। कहा-नवनिर्वाचित प्रतिनिधि के बारे में मुख्य न्यायाधीश सुनवाई करें। हालांकि राव तब उम्मीदवार थे, निर्वाचित बाद में हुए।
सादा जीवन उच्च विचार
बिहार में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की जीत मायने रखती है। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में विधायकों के पाला बदलने और राजस्थान में पाला बदलने का इरादा बदलने के बाद हालात संगीन थे। बिहार में सरकार की संभावना से नाक बची। कन्हैया कुमार समेत जेएनयू के छोकरों ने बिहार में नाक में दम ला दिया। गांव-देहात जाकर प्रचार करते कि दिल्ली पुलिस मारपीट करती है। जेल भेजती है। धुर वामपंथी कब्जे वाले जेएनयू में सरकार ने लगभग पूरा प्रशासन बदल डाला। जीत के जोश से लबालब प्रधानमंत्री ने जवाहर लाल नेहरू विवि का रुख किया। जेएनयू के अहाते में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया। प्रधानमंत्री ने याद दिलाया कि स्वामी सजधज और दिखावे पर ध्यान नहीं देते थे। स्वामी के जीवन से सादगी अपनाने की सीख दी। जेएनयू के विद्यार्थी फैशन के फेर में नहीं पड़ते। उनका फलसफा और संत-सूफीयाना रहन सहन अफैशन कहा जा सकता है। महामारी के प्रकोप के कारण प्रधानमंत्री तकनीक के सहारे सीख दे रहे थे। विद्यार्थी मौजूद होते तो प्रधानमंत्री की नेक सलाह का अधिक असर होता। दिखावे से बचने की प्रधानमंत्री की सीख पर समाज के अनेक लोगों का ध्यान देना बेहतर होगा।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण करते हुए प्रधानमंत्री ने एक बड़ा बुनियादी सवाल खड़ा कर दिया। सवाल यह है कि कौन बड़ा है- राष्ट्रहित या विचारधारा ? यह सवाल उन्होंने कोई बौद्धिक बहस चलाने के लिए नहीं उढ़ाया है। ट्रंप और मोदी-जैसे नेताओं से यह आशा करना व्यर्थ है लेकिन मोदी ने इसे इसलिए उठाया है कि ज.ने.वि. (जेएनयू) को वामपंथ का गढ़ माना जाता है। ये बात दूसरी है कि ज.ने.वि. में सबसे पहले पीएच.डी. करनेवालों में मेरा नाम भी है। मेरा हिंदी-आग्रह, धोती-कुर्ता और लंबी चोटी देखकर मुझे भी लोग दक्षिणपंथी ही समझते थे। उसके प्रथम दीक्षांत समारोह में, जब मुझे उपाधि मिली थी, तब भी वहां विवाद उठ खड़ा हुआ था और आजकल तो वहां वामपंथियों और दक्षिणपंथियों में दंगल होता ही रहता है। मोदी ने इसी दंगल को दरकिनार करने के लिए विचारधारा को राष्ट्रहित के मातहत बता दिया है।
मोदी का कहना है कि जब भी कोई राष्ट्रीय संकट खड़ा होता है, भारतीय लोग इतने अच्छे हैं कि वे विचारधारा को किनारे रखकर राष्ट्रहित के पक्ष में उठ खड़े होते हैं। यह बात बिल्कुल ठीक है लेकिन जो लोग राष्ट्र से भी बड़ा विश्व को मानते हैं और विश्व के समस्त सर्वहारा लोगों के लिए लड़ रहे हैं, वे राष्ट्र के नाम पर किसी धर्म या संप्रदाय या जाति की संकीर्ण राजनीति का विरोध करते हैं तो वे पूछते हैं कि इसमें गलत क्या है ? क्या हम लोग राष्ट्रविरोधी हैं ? या अराष्ट्रीय हैं ? उनका दावा तो यह होता है कि वे ही सच्चे राष्ट्रहित का संपादन कर रहे हैं। यहां दिक्कत पैदा तभी होती थी, जब हमारे वापमंथी बुद्धिजीवी और कम्युनिस्ट पार्टियां रुसभक्ति और चीनभक्ति में डूबे रहते थे। यदि उनमें भारतभक्ति होती तो उनकी ऐसी दुर्दशा नहीं होती, जैसी कि आज है। उन्हें उन दिनों रुकम्मू और चीकम्मू कहा जाता था। वे अब भाकम्मू हो गए हैं लेकिन वे सिर्फ केरल में सिमटकर रह गए हैं। लेकिन मोदी-जैसे दक्षिणपंथियों को भी सोचना चाहिए कि सच्चा राष्ट्रवाद क्या है ? सच्चा राष्ट्रवाद तब कैसे होगा, जब देश के लगभग 20-25 करोड़ लोगों को हम सांप्रदायिक आधार पर ‘अराष्ट्रीय’ मान बैठें ? इन लोगों में मुसलमान, ईसाई, बहाई, यहूदी, सिख, नगा, मिजो और वामपंथी लोग भी शामिल हैं। यदि हम इस मानसिक संकीर्णता के शिकार होते रहे तो अगले 50 साल में हम एक नए पाकिस्तान को जन्म दे देंगे। आज जरुरत इस बात की है कि देश के हर नागरिक में सच्ची भारतीयता पैदा की जाए, वह चाहे किसी भी विचारधारा या मजहब या पंथ या संप्रदाय को माने। मुझे खुशी है कि मेरे इस मूल विचार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत दो-टूक शब्दों में बार-बार गुंजा रहे हैं। लेकिन यह विचार शासन की नीतियों, आचरण और बयानों में भी प्रकट होना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-जियार गोल
कुर्द मूल की ईरानी बच्ची अनीता का एक वीडियो दिखाता है कि इंग्लिश चैनल पार करने की कोशिश करता एक परिवार ने कैसे विदेश में एक बेहतर ज़िंदगी के सपने संजोए थे.
इस वीडियो क्लिप में नौ साल की बच्ची कभी हंसती है, कभी रोती है. वो कहती है - 'मेरा नाम अनीता ईरानजाद है, मैं सारदश्त से हूं.'
ये उनके गृहनगर में ही शूट होने वाली एक शॉर्ट फ़िल्म के लिए स्क्रीन टेस्ट था. वीडियो के बैकग्राउंड में उसके पिता रसूल ईरानजाद कहते सुनाई पड़ते हैं, 'मैं एक अभिनेत्री बनना चाहती हूं... ऐसा कहो.'
इस वीडियो में सिर्फ़ एक पिता का गर्व ही नहीं बल्कि उम्मीदें भी दिखाई देती हैं. रसूल चाहते थे कि उनकी बेटी अपना सपना पूरा करे. लेकिन ये एक राजनीतिक रूप से शोषित और पिछड़े इलाक़े की एक लड़की के लिए बहुत बड़ा सपना था.
ये परिवार पश्चिमी ईरान के एक कुर्द बहुल क़स्बे सारदश्त का रहने वाला है.
इस वीडियो के शूट होने के एक साल बाद रसूल, उनकी पत्नी शिवा पनाही और तीन बच्चे अनीता, छह साल का बेटा आर्मिन और 15 महीने की बच्ची आर्तिन यूरोप की ख़तरनाक यात्रा पर निकल गए.
लेकिन बेहतर ज़िंदगी की परिवार की उम्मीदों का 27 अक्तूबर को इंग्लिश चैनल में बहुत ही दुखद अंत हो गया.
ख़राब मौसम में ब्रिटेन की ओर बढ़ रही उनकी छोटी नाव डूबने लगी. अनीता और तीनों बच्चे छोटे से कैबिन में फंसे थे. उनके पास लाइफ़ जैकेट नहीं थी.
35 साल के रसूल ने अगस्त में अपने परिवार के साथ ईरान छोड़ दिया था. उनके रिश्तेदार इसकी वजह बताते हुए कतराते हैं. लेकिन ऐसे बहुत से लोग हैं जो मानते हैं कि रसूल कहीं और अपनी ज़िंदगी को फिर से शुरू करना चाहते थे.
ईरान के पश्चिमी अज़रबैजान प्रांत में सारदश्त एक छोटा सा क़स्बा है. ये इराक़ की सीमा के क़रीब है. यहां के लोगों के लिए ज़िंदा रहना ही एक संघर्ष है. सपनों को पूरा करने के लिए ये एक बहुत मुश्किल जगह है.

आर्तिन
यहां कोई महत्वपूर्ण उद्योग नहीं है, बेरोज़गारी स्तर देश में सबसे ज़्यादा है. यहां की कुर्द मूल की आबादी के लिए आगे बढ़ने की संभावनाएं बहुत ही सीमित हैं.
बहुत से लोग इराक़ के कुर्दिस्तान से सामानों की तस्करी का काम कारते हैं. ये ना ही बहुत फ़ायदे का सौदा है और ना ही बहुत सुरक्षित. बहुत से लोग एक ट्रिप पर सिर्फ़ दस डॉलर तक ही कमाते हैं.
बीते कुछ सालों में सैकड़ों तस्करों को ईरानी बॉर्डर गार्डों ने गोली मार दी है. कई लोग दुर्गम पहाड़ी चट्टानों से गिर कर मर गए हैं या सर्दियों में बर्फ़ के नीचे दफ़न हो गए हैं.
इस इलाक़े में सैन्यबलों की भी भारी मौजूदगी है. 1979 की ईरानी क्रांति के बाद से ही ईरान के सुरक्षा बलों और हथियारबंद कुर्द समूहों के बीच झड़पें होती रहती हैं. ईरान अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे इन कुर्द बलों को विदेशी मदद प्राप्त अलगाववादी मानता हैं.
ईरान की 8.2 करोड़ आबादी में क़रीब दस प्रतिशत कुर्द हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक देश की जेलों में बंद आधे से अधिक राजनीतिक क़ैदी कुर्द हैं.
ईरान में बीते साल हुए सरकार विरोधी प्रदर्शनों के बाद से ईरान की एजेंसियों ने बड़े पैमाने पर कुर्द लोगों को प्रताड़ित किया है.
ये प्रदर्शन इराक़ से लगी पश्चिमी सीमा के पास बसे कुर्द बहुल शहरों में शुरू हुए थे और ईरान के कई बड़े शहरों तक पहुंचे थे.
शिवा की एक दोस्त ने बीबीसी को बताया है कि रसूल सरकारी एजेंसियों से बचना चाहते थे.
इस दोस्त के मुताबिक शिवा के परिवार के पास जो कुछ भी था वो उन्होंने बेच दिया था और यूरोप जाने के लिए तस्करों को पैसा देने के लिए उन्होंने दोस्तों और परिजनों से उधार लिया था.
वो ब्रिटेन पहुंचना चाहते थे जो कुर्द प्रवासियों की पसंदीदा जगह है.

ग्रैंड सिंथे कैंप में 200-500 तक कुर्द प्रवासी रहते हैं
उनका मानना था कि ब्रिटेन यूरोप के बाकी देशों के मुकाबाले सीमित संख्या में प्रवासियों को स्वीकार करता है ऐसे में वहां उनके पास बेहतर मौके होंगे.
इस परिवार का पहला ठिकाना तुर्की था. रसूल के दोस्तों ने बीबीसी के साथ एक वीडियो क्लिप साझा की है जिसमें वो कुर्दी भाषा में गीत गा रहे हैं. इस वक़्त उनका परिवार यूरोप ले जाए जाने के लिए तस्करों का इंतज़ार कर रहा था.
रसूल गा रहे हैं, "मेरे दिल में दर्द है, गहरा ग़म है.....लेकिन मैं क्या करूं, मुझे अपने कुर्दिस्तान को छोड़ना है और जाना है..."
रसूल जब ये गीत गा रहे थे उनका बेटा आर्मिन हंस रहा था. उनकी बेटी आर्तिन आकर उनकी गोद में बैठ जाती है.
कुर्द लोगों की एक मशहूर कहावत हैः 'पहाड़ों के सिवा हमारा कोई दोस्त नहीं है.'
पहले विश्व युद्ध के बाद जब उस्मानिया सल्तनत का अंत हो गया था, विजेता पश्चिमी देशों ने कुर्दों को आज़ादी देने का वादा किया था लेकिन क्षेत्रियों शक्तियों ने कभी उस समझौते को स्वीकार नहीं किया.
आज़ाद राष्ट्र के बजाए, कुर्दों की ज़मीन मध्य पूर्व के नए स्वतंत्र हुए देशों में बंट गई.
इसके बाद से जब-जब कुर्दों ने ईरान, तुर्की, सीरिया या इराक़ में आज़ादी की आवाज़ उठाई है, उन्हें बेरहमी से कुचल दिया गया है.
पहले तुर्की ईरानी शरणार्थियों की पसंदीदा जगह हुआ करता था. लेकिन बीते सात सालों में वहां भी माहौल बदल गया है और अब ये कुर्द शरणार्थियों के लिए ठिकाना नहीं रहा है.
प्रवासियों के बारे में ऐसी रिपोर्टें हैं कि तुर्की के सैन्यबलों ने पुलिस स्टेशनों में कुर्द शरणार्थियों का उत्पीड़न किया या फिर उन्हें वापस ईरान भेज दिया.
इस्तांबुल में ईरानी मूल के कई लोगों की राजनीतिक हत्या और अपहरण की वारदातें हुई हैं.
ऐसे में रसूल और शिवा अपने परिवार के साथ तुर्की से आगे बढ़ने को लेकर आतुर थे.

परिवार लून प्लाज नाम के इसी बीच से सफर पर निकला था
सितंबर में उन्हें एक तस्कर मिल गया और उन्होंने उसे क़रीब 28 हज़ार डॉलर चुकाए. ये तस्कर उन्हें तुर्की से इटली और फिर लॉरी से उत्तरी फ्रांस ले गया.
फ्रांस के तटीय शहर डनकर्क में एक चैरिटी के साथ काम करने वाली स्वयंसेवक शार्लट डेकांटर शिवा को कुर्द शरणार्थियों के कैंप में मिलीं थीं. वो वहां खाना बांटने गईं थीं.
वो उनकी ज़िंदादिली से बहुत प्रभावित हुईं थीं.
'वो एक छोटी सी महिला थीं, बहुत दयालु और मीठी बोली वाली. मैंने कुर्द भाषा में कुछ शब्द कहे तो वो बहुत ज़ोर से हंसी. वो चौंक गईं थीं.'
लेकिन फ़्रांस में कहीं शिवा और रसूल दुर्घटना का शिकार हो गए थे. उनका सारा सामान लूट लिया गया था.
24 अक्तूबर को कैले में रह रहे एक दोस्त को भेजे संदेश में शिवा ने बताया था कि नाव से यात्रा ख़तरनाक होगी लेकिन लॉरी से जाने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं.
टेक्स्ट संदेश में उन्होंने कहा था, "मैं जानती हूं कि ये ख़तरनाक है लेकिन हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है."
वो ये बताती हैं कि वो शरण पाने के लिए कितनी बेताब थीं.
'मेरे दिल में हज़ारों ग़म हैं लेकिन अब जब मैंने ईरान छोड़ दिया है तो मैं अपनी पुरानी ज़िंदगी को भूल जाना चाहती हूं.'
रसूल के परिवार के साथ फ़्रांस जाने वाला उनका एक मित्र बताता है कि 26 अक्तूबर को डनकर्क में तस्कर ने उन्हें बताया था कि अगले दिन इंगलिश चैनल पार किया जाएगा.

इब्राहिम मोहम्मदपुर का कहना है कि जो हुआ उसके बाद से वो ख़ौफ़ में रहते हैं.
वो सुबह-सुबह एक तेल डिपो के पास दुर्गम स्थान से बीच के लिए निकले. ये जगह लून प्लाज बीच पर है.
मौसम बहुत ख़राब था, कोई डेढ़ मटीर ऊंची लहरे उठ रही होंगी. हवा तीस किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से चल रही थी.
रसूल के दोस्त ने ये खतरनाक सफर न करने का फैसला लिया.
वो बताता है, "मैं डर गया था, मैंने ना जाने का फ़ैसला लिया. मैंने रसूल से कहा कि वो ये ख़तरा ना उठाए लेकिन उसने कहा कि उसके पास और कोई रास्ता नहीं है."
ईरान में रह रहे रिश्तेदारों के मुताबिक रसूल ने तस्करों को क़रीब साढ़े पांच हज़ार ब्रितानी पाउंड दिए थे.
सारदास्त के रहने वाले अभिनेता और डॉक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर 47 वर्षीय इब्राहिम मोहम्मदपुर भी अपने 27 साल के भाई मोहम्मद और 17 साल के बेटे के साथ उस नौका पर सवार थे.

इब्राहिम अन्य लोगों के साथ
इब्राहिम कहते हैं कि ये नाव सिर्फ़ साढ़े चार मीटर लंबी थी और इसमें आठ लोगों की जगह थी ना कि 23 लोगों की जो उसमें ठूंस-ठूंस कर भर दिए गए थे.
इब्राहिम कहते हैं, "ईमानदारी से कहूं तो हम सब अंधे हो गए थे क्योंकि इस यात्रा में हम बहुत कुछ झेल चुके थे. पहले मन में विचार आया कि इस नाव पर नहीं बैठना है लेकिन फिर मन कहता है कि बैठ जाओ ताकि इस दुख से पीछा छूटे."
16 साल के यासीन जो नौका पर सवार थे बताते हैं कि सिर्फ़ उन्होंने और दो और लोगों ने लाइफ़ जैकेट पहना था. रसूल के परिवार में किसी ने जैकेट नहीं पहना था.
इस नौका पर सवार सभी 22 यात्री सारदश्त के कुर्द थे जबकि नाविक उत्तरी ईरान का एक शरणार्थी था.
पहले ब्रिटेन की यात्रा कर चुके ये ईरानी प्रवासी बताते हैं कि तस्कर उस व्यक्ति से नौका चलाने के लिए कहते हैं जिसके पास उन्हें देने के लिए सबसे कम पैसे होते हैं.
शिवा और बच्चे शीशे के बने केबिन में चले गए. ये उन्हें सुरक्षित और कुछ गर्म लगा होगा लेकिन यही सबसे ख़तरनाक साबित हुआ.
इब्राहिम के मुताबिक करीब आठ किलोमीटर की यात्रा के बाद नाव में पानी भर गया.

रसूल ईरानजाद अपने पंद्रह महीने के बेटे आर्तिन को गोद में लिए हुए, 35 वर्षीय शिवा मोहम्मद पनाही, अनीता और छह साल का आर्मिन
Wवो कहते हैं, "हमने पानी बाहर निकालने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे. हमने वापस कैले लौटने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे."
उनके भाई मोहम्मद कहते हैं कि नौका में सवार लोग डरने लगे. वो नाव में एक तरफ से दूसरी तरफ जा रहे थे और अचानक नाव डूब गई.
इसके बाद क्या हुआ ये स्पष्ट तौर पर कह पाना मुश्किल है क्योंकि ज़िंदा बचे लोगों के बयान इसे लेकर स्पष्ट नहीं हैं.
सभी बताते हैं कि शुरुआत में शिवा और बच्चे केबिन में फंसे थे.
इब्राहिम बताते हैं कि रसूल पानी के भीतर गए और उन्हें बचाने की कोशिश की और फिर बाहर आकर मदद की गुहार लगाई.
यूनिवर्सिटी छात्र पेशरा कहते हैं कि उन्होंने शीशे की केबिन को तोड़ने की कोशिश की लेकिन वो नाकाम रहे.
वो बताते हैं कि उन्होंने मासूम आर्तिन को पानी में तैरते देखा.
शिवा के भाई रासो बताते हैं कि उन्होंने सुना है कि रसूल ने आर्तिन को बाहर निकाल लिया था और फिर बाकी को निकालने दोबारा भीतर गए थे.
इब्राहिम की आंखों में उन पलों को याद करके आंसू आ जाते हैं.
उन्होंने अनिता को पानी पर तैरते हुए देखा था और उसका हाथ थामने में कामयाब रहे थे
वो कहते हैं, 'मैंने पानी में उस बच्ची का हाथ पकड़ा, मैं सोच रहा था कि वो ज़िंदा है. एक हाथ से मैंने नाव पकड़ी हुई थी और एक हाथ से उसका हाथ, मैं उसे बार-बार हिला रहा था कि कुछ हरकत हो लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.'
वो रोते हुए कहते हैं, 'मैं कभी अपने आप को माफ़ नहीं कर पाउंगा.'
इब्राहिम के भाई मोहम्मद के मुताबिक रसूल रोते हुए पानी से बाहर निकल आए थे और फिर उन्होंने अपने आप को लहरों के साथ बह जाने दिया.
फ्रांसीसी अधिकारियों के मुताबिक स्थानीय समयानुसार सुबह 09.30 बजे पास से गुज़र रही एक नौका ने अलार्म बजाया. इसके 17 मिनट बाद पहला बचाव जहाज़ मौके पर पहुंचा.
अधिकारियों के मुताबिक कुछ लोगों को दिल का दौरा पड़ने की स्थिति में पानी से बाहर निकाला गया था. इससे ज़्यादा जानकारी उन्होंने नहीं दी.
ज़िंदा बचे जिन लोगों से हमने बात की उनका मानना है कि रसूल, उनकी पत्नी शिवा, बेटी अनीता और आर्मिन मारे जा चुके थे. पंद्रह अन्य लोगों को अस्पताल ले जाया गया. बेबी आर्तिन का अभी पता नहीं चला है. हालांकि उसे भी मृत मान लिया गया है.
यासीन कहते हैं कि उन्होंने आर्तिन को लहरों में बहते देखा था.
एक ईरानी नागरिक जिसे नाव का कप्तान माना जा रहा है फ्रांस में जज के सामने पेश हुआ है. उस पर हत्या के आरोप हैं.
शिवा के भाई और बहन यूरोप में रहते हैं, वो शवों को देखने डनकर्क पहुंचे.
इंगलिश चैनल की खतरनाक यात्रा करने वाले प्रवासियों की संख्या बढ़ती जा रही है.
2018 में छोटी नावों से 297 लोग ब्रिटेन पहुंचे थे, 2019 में 1840 लोग पहुंचे हैं.
बीबीसी के विश्लेषण के मुताबिक इस साल अब तक क़रीब 8 हज़ार लोग ये यात्रा कर ब्रिटेन पहुंच चुके हैं.
2019 के बाद से अब तक कम से कम दस लोगों की इस जोख़िम भरी यात्रा के दौरान मौत हो चुकी है.
इनमें से अधिकतर प्रवासी ईरान से हैं.
शरणार्थियों के लिए काम करने वाली संस्थाएं और फ्रांसीसी अधिकारियों का कहना है कि ब्रिटेन में शरण लेने से पहले लोगों को आवेदन करने की सुविधा दी जानी चाहिए.
इब्राहिम बताते हैं कि ज़िंदा बचे लोग बुरे सपनों से जूझ रहे हैं.
इस सबके बावजूद यासीन का कहना है कि वो दोबारा चैनल पार करने की कोशिश करेंगे.
'हम सब बहुत दुखी थे, मैं बहुत डर भी गया था. लेकिन मैं बस एक सुरक्षित जगह पहुंचना चाहता हूं. मैं दोबारा कोशिश करूंगा.' (bbc.com/hindi)
- नैटली शरमैन
कोरोना वायरस महामारी के दौर में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप को हराकर जो बाइडन देश के 46वें राष्ट्रपति बनने की तैयारी कर रहे हैं.
अगले चार सालों में उनके सामने जो कई चुनौतियां पेश आने वाली हैं. उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी कांग्रेस में रिपब्लिकन नेताओं को मनाना. कांग्रेस में कई रिपब्लिकन नेता हैं.
जानकार मानते हैं कि ये ऐसी स्थिति है कि हो सकता है कि व्हाइट हाउस में आने के बाद बाइडन जिन महत्वाकांक्षी योजनाओं पर काम करना चाह रहे हों, उन्हें पूरा न कर पाएं.
पद की ज़िम्मेदारी लेने के बाद उनके सामने विदेश नीति, कोरोना महामारी के अलावा अमेरिकी अर्थव्यवस्था को फिर से मज़बूत करने जैसे मुद्दे हैं. अर्थव्यवस्था के मामले में उनके सामने पांच महत्वपूर्ण सवाल होंगे.
पहला- वो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बचाएंगे कैसे?
कई महीनों से अमेरिकी अर्थशास्त्री कोरोना वायरस राहत पैकेज बढ़ाने के लिए सरकार से गुज़ारिश करते आ रहे हैं. लेकिन इस मामले में एक गतिरोध बरक़रार है क्योंकि रिपब्लिकन पार्टी के नेता डेमोक्रैटिक पार्टी के नेताओें के सुझाए ख़र्च पर सहमत नहीं हो रहे हैं. इस मामले में ट्रंप ने भी अपनी पार्टी के नेताओं पर इसके लिए दबाव बनाने की कोशिश की लेकिन इसका कुछ लाभ हुआ नहीं.
रिपब्लिकन नेताओं ने इस बात के संकेत दिए हैं कि वो बाइडन के व्हाइट हाउस में क़दम रखने से पहले इस मुद्दे पर किसी नतीजे तक पहुंचेंगे ताकि इसे ट्रंप की अंतिम जीत में तब्दील किया जा सके.

लेकिन अगर किसी कारण से ये पैकेज डेमोक्रैटिक नेताओं की आशाओं के अनुरूप न हुआ या फिर अर्थव्यवस्था में रिकवरी के संकेत भी लड़खड़ाने लगे तो बाइडन क्या करेंगे? वो कितने बड़े आर्थिक पैकेज की मांग करेंगे?
अपने चुनावी अभियान में जो बाइडन ने छात्रों के लोन माफ़ करने, पेंशनधारियों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना के तहत पैसा बढ़ाने और छोटे व्यवसायों को आर्थिक मदद देने की योजना बनाई थी.
उन्होंने स्वच्छ और सतत ऊर्जा, बुनियादी ढांचे में विकास और सार्वजनिक परिवहन सेवा में भी 20 खरब डॉलर के निवेश की महत्वाकांक्षी योजना बनाई थी.
लेकिन उन्हें अपनी योजना पर अमल करने में मुश्किलें पेश आ सकती हैं क्योंकि ख़र्चों के बारे में डेमोक्रैट्स के लाए गए प्रस्तावों पर वो कड़ा रुख़ अख़्तियार कर सकते हैं. ऐसे में बाइडन के लिए रास्ता आसान नहीं होगा.
दूसरा- आर्थिक असमानता को कैसे ख़त्म करेंगे?
बीते पांच दशकों में अमेरिका में आय असमानता अपने उच्चतम स्तर पर है. उदारवादियों का कहना है कि सरकार को अमीरों पर लगने वाला टैक्स बढ़ाने पर विचार करना चाहिए. हाल में जो सर्वे हुए हैं उनमें पता चला है कि इस प्रस्ताव को जनता के बीच व्यापक रूप से समर्थन मिला है.
अपने चुनाव अभियान में बाइडन ने कहा कि वो साल 2017 में टैक्स में कटौती करने के ट्रंप के फ़ैसले को कुछ हद तक बदलेंगे. साथ ही उन्होंने वादा किया कि वो बड़ी कंपनियों पर लगने वाले टैक्स को 21 फ़ीसदी से बढ़ाकर 28 फ़ीसदी तक करेंगे.
कई जानकारों का मानना है कि ऐसे करके वो अगले एक दशक में सरकार के लिए 30 खरब डॉलर तक जुटा सकते हैं. आने वाले वक़्त में जब कोरोना महामारी के कारण अमेरिका का राष्ट्रीय ऋण बढ़ेगा उस वक़्त ये पैसा सरकार के काम आ सकता है.
लेकिन बाइडन की योजनाएं उनकी पार्टी के अन्य नेताओं द्वारा सुझाई गई योजनाओं की तरह दूरगामी असर वाली नहीं लगतीं. साथ ही टैक्स बढ़ाने की किसी भी योजना का रिपब्लिकन ज़रूर विरोध करेंगे जिनका मानना है कि टैक्स बढ़ाया तो इसका बुरा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा.
जब अर्थव्यवस्था की हालत पहले ही बहुत अच्छी न हो, क्या बाइडन अपनी योजनाओं पर आगे बढ़ेंगे?
तीसरा- जलवायु परिवर्तन पर काम कैसे करेंगे?
जब बाइडेन ने जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए अपनी पहली योजना को लोगों के सामने रखा तब जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता इससे निराश हुए.
लेकिन कुछ वक़्त बाद वो एक नए और व्यापक प्रस्ताव के साथ आए जिसे उन्होंने अपने कुछ आलोचकों के साथ मिलकर तैयार किया था. इसे किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की तरफ़ से पेश किया गया अब तक का सबसे महत्वाकांक्षी प्रस्ताव कहा गया.
इसमें सतत ऊर्जा के रिसर्च में चार खरब डॉलर के निवेश की बात की गई थी. साथ ही गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण के नियमों को कड़ा करने, अधिक प्रदूषण करने वाली कंपनियों पर नकेल कसने, देश में 500,000 इलेक्ट्रिक कार चार्जिंग स्टेशन बनाने और साल 2035 तक बिजली संयंत्रों से कार्बन प्रदूषण पूरी तरह ख़त्म करने जैसे क़दमों की बात की गई थी.

इस योजना को रिपब्लिकन नेताओं ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को "क़ब्र तक पहुंचाने" की योजना करार दिया. लेकिन यदि बाइडन इसे सीमित रूप में भी लागू कर पाते हैं या फिर जिन क़ानूनों की वो बात कर रहे हैं उन्हें लागू कर पाते हैं तो इस मुद्दे पर वो ट्रंप प्रशासन द्वारा लिए गए फ़ैसलों को बदलने वाले नेता कहलाएंगे.
ट्रंप प्रशासन ने सार्वजनिक ज़मीन पर तेल की ड्रिलिंग को इजाज़त दी, प्रदूषण रोकने के नियमों को हटाया और जलवायु परिवर्तन रोकने की वैश्विक मुहिम पेरिस जलवायु समझौते से भी बाहर निकलने का फ़ैसला किया.
चौथा- ट्रंप के शुरू किए ट्रेड वॉर को ख़त्म करेंगे?
व्यापार के मामले में आक्रामक रुख़ अपनाते हुए अपने सहयोगियों को निशाने पर लेना, अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठनों की आलोचना करना, आयात पर नए बॉर्डर टैक्स लगाना - डोनाल्ड ट्रंप की आर्थिक नीति के अहम लक्षण थे.
इसमें कई संदेह नहीं कि बाइडन इस मामले में बीते चार सालों में किए ट्रंप प्रशासन के काम को बदल सकते हैं. वो वैश्विक मंच पर सहयोगी और नेतृत्व लेने वाले देश के रूप में अमेरिका की भूमिका को फिर से मज़बूत करने की दिशा में काम कर सकते हैं, लेकिन इसमें वो ट्रंप से कितना अलग होंगे?
चीन के मामले में (जिसके साथ ट्रंप ने एक तरह से ट्रेड वॉर छेड़ रखा है) बाइडन ने "आक्रामक" कार्रवाई का वादा किया है. ऐसी उम्मीद नहीं की जा रही कि चीनी सामान पर ट्रंप ने जो आयात शुल्क बढ़ाया है उसे बाइडन जल्द हटाएंगे.
बीबीसी संवाददाता करिश्मा वासवानी ने चुनाव से पहले लिखा था, "भले अमेरिका में राष्ट्रपति बदल जाएं, इस मामले में चीन को अमेरिका से किसी तरह की रियायत की कोई उम्मीद नहीं है."
अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति ने भी आयात शुल्क के आइडिया का समर्थन किया है. उनका कहना है कि जो देश जलवायु और पर्यावरण के लिए अपने दायित्वों को पूरा नहीं करते उन पर लगने वाले आयात शुल्क को बढ़ाया जाना चाहिए.
ट्रंप के बयानों की तर्ज़ पर उनका कहना है कि अमेरिकी सरकार को देश में ही बना सामान ख़रीदना चाहिए. ऐसे में अमेरिका के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों को मानना मुश्किल हो सकता है.
लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि अंतरराष्ट्रीय संगठनों और लंबे समय से अमेरिका के सहयोगी कनाडा और यूरोप के नेताओं पर अब ज़ुबानी हमले कम हो सकते हैं.
लेकिन कुछ मुश्किलें बरक़रार रह सकती हैं और ब्रिटेन के साथ व्यापार समझौता होना मुश्किल हो सकता है. ब्रिटेन के साथ व्यापार समझौते का फ़ैसला ब्रेक्सिट के बाद आयरलैंड सीमा और ब्रिटेन के बीच की समझ पर निर्भर करेगा.
बाइडन पहले ही कह चुके हैं कि इस तरह का समझौता उनके लिए प्राथमिकता नहीं है.
पांचवां- बड़ी तकनीकी कंपनियों से कैसे निपटेंगे?
अमेरिका में मौजूद बड़ी तकनीकी कंपनियों के काम करने के तरीक़ों को लेकर दुनिया के कई देशों में जांच चल रही है. अमेरिका में वामपंथी और दक्षिणपंथी नेता कॉम्पिटिशन और कंज़्यूमर की निजता को लेकर कड़े नियमों की मांग कर रहे हैं.
भ्रामक और ग़लत जानकारी न छिपाने और फ़र्ज़ी सूचनाओं को अपने प्लेटफ़ॉर्म में जगह देने के लिए बाइडन फ़ेसबुक और दूसरी कंपनियों की आलोचना कर चुके हैं.
उन्होंने पहले कहा था कि वो उस अमेरिकी क़ानून को ख़ारिज करने के लिए तैयार हैं जो तकनीकी कंपनियों के प्लेटफ़ॉर्म्स पर पोस्ट होने वाली भ्रामक जानकारियों की ज़िम्मेदारी से इन कंपनियों को बचाता है.
लेकिन उन्हें और उनकी रनिंगमेट कमला हैरिस को सिलिकॉन वैली से व्यापक समर्थन मिला है और इस मामले में बाइडन ख़ामोश ही रहे हैं. उदाहरण के लिए, अभियान के बारे में उनकी वेबसाइट पर इससे जुड़े किसी तरह के मुद्दों का कोई ज़िक्र नहीं है.
कुछ मामलों में उन्हें कांग्रेस के समर्थन की ज़रूरत होगी. लेकिन कॉम्पिटिशन से जुड़े जांच का आदेश देने, निजता से जुड़े नियमों को लागू करने के बारे में फ़ैसला लेने जैसे क़दम राष्ट्रपति ख़ुद उठा सकते हैं. साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कंपनियों के बारे में लिए जा रहे फ़ैसलों (जैसे किसी देश में कंपनी से अधिक टैक्स मांगने) पर भी राष्ट्रपति फ़ैसला ले सकते हैं.
लेकिन एक तरफ़ कई मुद्दों पर फ़ैसला लेने के लिए उन्हें कांग्रेस में रिपब्लिकन नेताओं को मनाना होगा, दूसरी तरफ़ डेमोक्रेट नेताओं के उदारवादी मॉडल पर खरा उतरने की चुनौती भी उनके सामने होगी. ऐसे में क्या वो तकनीकी कंपनियों के लिए कड़े क़ानून ला पाएंगे या फिर ये मुद्दा बस ऐसे ही पीछे छूट जाएगा?(bbc)
अपनी कहानी ‘पंच परमेश्वर’ में प्रेमचंद मानवीयता, समानता के मूल्यों पर पंच के खरे उतरने के साहस का परिचय कराते हैं। वास्तव में यह साहस ही है कि पुरानी संस्थाओं से पंच विद्रोह करता है और वहां खड़ा होता है, जिस जगह को लोग न्याय के नाम से पुकारने लगते हैं।
- अनिल चमड़िया
जब किसी अदालत की चाहरदिवारी से कोई फैसला निकलता है तो उसे मीडिया वाले बताते हैं कि यह न्यायालय का फैसला, निर्णय या आदेश है। मीडिया वाले इस भाषा में किसी फैसले या आदेश की जानकारी क्यों देते रहे हैं और लिखते रहे हैं कि यह हाई कोर्ट ने कहा है या सुप्रीम कोर्ट का फैसला है? जबकि व्यवहार के स्तर पर देखें तो देश के 25 हाई कोर्ट में 1079 न्यायाधीशों के पद स्वीकृत हैं और सुप्रीम कोर्ट में 34 न्यायाधीशों के पद रखे गए हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि 1113 न्यायाधीशों में से किसी एक के द्वारा या उससे ज्यादा संख्या की बेंच द्वारा दिए जाने वाले फैसले और आदेश को हम न्यायालय के फैसले के रुप में लोगों को बताते हैं।
हम हाई कोर्ट के किसी एक से ज्यादा न्यायाधीश द्वारा दिए गए फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हैं और वहां के न्यायाधीश जब उस पर अपना रुख जाहिर करते हैं तो यह भी कहते हैं कि हाई कोर्ट के आदेश और फैसले के खिलाफ देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया या उसे बरकरार रखा या फिर उसमें फेरबदल किया। यही स्थिति हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से अलग जिला स्तरों पर स्थापित अदालतों के बारे में भी लागू होती है।
न्यायाधीश का परिवार-जाति-धर्म के साथ संवैधानिक संस्था का सदस्य होना
व्यवहारिक स्तर पर देखें तो अदालतों द्वारा दिए जाने वाले फैसले और आदेश किसी एक या उससे ज्यादा न्यायाधीशों द्वारा दिए जाते हैं। इसका अर्थ यहां स्पष्ट है कि हम किसी न्यायाधीश को संस्था के रुप में देखते हैं। जबकि न्यायाधीश व्यक्ति होता है। वह किसी परिवार का सदस्य होता है। वह किसी जाति के परिवार का भी सदस्य होता है। वह किसी खास धर्म को मानने वाले परिवार का सदस्य होता है। यानी उसकी स्थिति यह होती है कि वह उन संस्थाओं का भी सदस्य होता है, जो कि भारतीय समाज में अपनी जड़ें जमाए हुए हैं और जिनकी पहचान अप्राकृतिक एवं अमानवीय होने की हद तक की गई हैं। इस बात की पहचान उस संविधान में समाज बनाने की तरफ जाने का रास्ता तैयार करना है, जिस समाज में अप्राकृतिक, अमानवीय और समाज विरोधी मूल्यों और संस्कृति को खत्म करता हो।
इस तरह न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होने वाला व्यक्ति अतीत के समाज और उसके ढांचे और भविष्य के लिए बनाए जाने वाले नए सामाजिक ढांचे जो कि एक दूसरे के विरोधी और विपरीत दिशा में खड़े होते हैं, उनके बीच खड़ा होते है। लेकिन समाज में यह दृढ़ भरोसा कायम है कि पुराने ढांचे में पलने और शिक्षित होने के बावजूद कोई व्यक्ति संविधान की संस्थाओं में अपनी जिम्मेदारी नई संस्थाओं के उद्देश्यों के अनुरूप कर सकता है। इस पर साहित्य भी लिखे गए हैं। जैसे भारतीय समाज में सबसे चर्चित पंच परमेश्वर कहानी है, जिसमें प्रेमचंद मानवीयता, समानता के मूल्यों पर पंच के खरे उतरने के साहस का परिचय कराते हैं। वास्तव में यह साहस ही है कि पुरानी संस्थाओं से पंच विद्रोह करता है और वहां खड़ा होता है जिस जगह को लोग न्याय के नाम से पुकारने लगते हैं।
दरअसल, न्याय एक एहसास है। वह मानवीय चेतना का वह हिस्सा है जिसमें अनैतिक, अप्राकृतिक और अमानवीयता का निषेध होता है। वह अंत:करण का केन्द्र होता है। वह दुनियावी संबंधों जो कि मानवीय समाज पर थोपे गए हैं, उनसे अछूता माना जाता है। यानी ऊपरी तौर पर दिखावट की मजबूरी और व्यवहारिक कहे जाने वाली बाध्यताओं से मुक्त होता है।
संवैधानिक संस्थाओं के प्रति भरोसा, एक राजनीतिक चेतना का विकास
प्रेमचंद की यह कहानी संस्थाओं के महत्व को एक सामाजिक और सांस्कृतिक स्वीकृति दिलाती है। उन लोगों में भी भरोसा जगाती है जो कि समाज के अप्राकृतिक, अमानवीय और बर्बर ढांचे से लगातार पीड़ित रहे हैं। इसका अर्थ यह होता है कि भरोसा उसकी मूल संस्कृति है। वह अतीतजीवी नहीं है, बल्कि भविष्य की संवेदना के साथ जीना चाहता है। पूरी मानव सभ्यता को बनाए रखने के उद्देश्यों के साथ हर वक्त तैयार रहता है।
भारतीय समाज में ऐसे ही आधार पर न्यायाधीशों के द्वारा दिए जाने वाले फैसलों और आदेशों को न्यायालय का फैसला मानकर स्वीकार किया जाता कहा है। जबकि हजारों-हजार की संख्या में लोगों को अपना घर बार छोड़ना पड़ा। अपने जीविकोपार्जन के स्रोतों, मसलन खेती की जमीन आदि छोड़नी पड़ी। यह सब सामाजिक विकास के नाम पर किया गया और वह स्वीकार्य किया गया। लोगों ने अपनी पुरी जिंदगी निकाल दी कि न्यायालय में उनकी आवाज सुनी जाएगी और उन्हें न्याय मिलेगा।
ऐसे लोगों की गिनती संख्या में या उन्हें समूह कहकर पूरी नहीं की जा सकती है। बल्कि न्याय की आस में पूरी जिंदगी गुजारने वाली एक उतनी आबादी हो गई है जो कि दुनिया के कई एक छोटे मुल्क की आबादी के बराबर हो सकती है। यानी न्याय की आस और उसे विफल होते देखने वालों का एक देश भी दुनिया के सबसे महान और बड़े लोकतंत्र का झंडा लहराने वाले देश में मौजूद है, जिसका भूगोल पूरे देश के बराबर ही है।
न्यायाधीश संस्था के लिए या संस्था न्यायाधीश के लिए
इस पहलू की समीक्षा की जानी चाहिए कि मीडिया की भाषा और प्रेमचंद का साहित्य का भरोसा भारतीय समाज अनुभवों पर कितना खरा उतरा है। दूसरा वह कौन सा दौर है, जिसमें कि यह स्पष्ट होने लगा कि न्यायालय की चहारदिवारी से जो फैसले और आदेश आ रहे हैं, वास्तव में वह फैसले किसी एक न्यायाधीश का ही फैसला हो सकता है या आदेश हो सकता है।
दरअसल दो तरह के संघर्ष भारतीय समाज के भीतर चल रहे हैं। एक संघर्ष उनका है जो भारतीय समाज के अप्राकृतिक, अमानवीय और अवैज्ञानिक ढांचे पर अपनी हुकूमत चलाते रहे हैं, लेकिन स्थितियों ने उन्हें मजबूर किया कि वह एक वैज्ञानिक, मानवीय और प्राकृतिक संबंधों के आधार पर खड़े नये समाज के निर्माण के प्रति भरोसा होने की प्रतिज्ञा करें। क्या उस हिस्से ने निर्माण के प्रति अपना भरोसा इस उद्देश्य से जताया कि वह अपने सामने की स्थितियों को कुछ वक्त के लिए चुनौती के रुप में स्वीकार करे और वह अपने को पुनर्गठित और पूर्व के हैसियत में लाने की स्थितियां तैयार करे? दूसरा संघर्ष भरोसे और वायदे की संस्कृति को बनाए रखने का है। मानवीय संबंधों में भविष्य के सपने देखते रहने का मनोरंजन छोड़ना नहीं चाहता है। प्रकृति को अपने भावों की गति के रुप में बनाए रखना चाहता है।
जिस तरह से किसी न्यायाधीश द्वारा दिए फैसलों-आदेशों को न्यायालय के फैसले के रुप में स्वीकार किया जाता रहा है, उसी तरह से चेतना में यह सवाल आता है कि जिसे न्यायालय का फैसला और आदेश बताया जा रहा है, क्या वह वास्तव में किसी न्यायाधीश का फैसला और आदेश है? संविधान की संस्थाओं का इस्तेमाल पुरानी अप्राकृतिक, अमानवीय और अवैज्ञानिक संस्थाओं के प्रतिनिधि के रुप में न्यायाधीश के पद पर काबिज व्यक्ति कर रहे हैं।
मीडिया में यह भाषा भी बन रही है कि किस न्यायाधीश ने फैसला किया है। उस न्यायाधीश का परिवार और उसकी जाति-धार्मिक संस्थाओं से मिले नामों के साथ उल्लेख करने की जरूरत महसूस होने लगी है। उनका उस तरह से अतीत खंगाला जाने लगा है जिस तरह से समाज को नुकसान पहुंचाने वाले लोगों के बारे में किया जाता है। न्यायालयों में खुद किसी व्यक्ति के अतीत को एक तथ्य के रूप में ग्रहण किया जाता है। यही लोगों की चेतना का भी हिस्सा है।
सवाल है कि न्यायाधीश अपने फैसलों और आदेशों से संस्था के प्रति यदि बचे खुचे भरोसे को भी खत्म करने की हरकतें कर रहे हैं तो आखिर उनका उद्देश्य क्या है। क्या यह महज परिवार के एक सदस्य द्वारा पूरे खानदान या परिवार के नाम और छवि को धूमिल करने जैसी हकरत होती है? या क्या वह वास्तव में संविधान की शपथ तो लेते हैं लेकिन उसकी विचारधारा में उनका यकीन नहीं है? क्या वास्तव में वे उस विचारधारा के प्रतिनिधि के तौर पर अदालत की संस्था के प्रति भरोसे को खत्म कर रहे हैं जो कि पुरानी संस्थाएं पुनर्जीवित करने का रास्ता तैयार करना चाहती हैं?(navjivan)
- निधि राय
सकीना गांधी ने लॉकडाउन के दौरान शेयर बाज़ार में निवेश करना शुरू किया
पब्लिक रिलेशन के क्षेत्र में काम करने वालीं 31 साल की सकीना गांधी आजकल काफ़ी व्यस्त हैं. उनकी शेयर बाज़ार कारोबार में नई-नई दिलचस्पी जगी है जिसके लिए वे लगातार काम करती रहती हैं.
सकीना कहती हैं, ''लॉकडाउन में मेरे पास घर पर काफ़ी समय था, इसलिए उस दौरान मैं शेयर बाज़ार पर नज़र रखती थी. मैं हमेशा पूरी जानकारी के साथ एक सोचा-समझा फ़ैसला लेना चाहती थी.''
''पहले 15 दिन मैंने सिर्फ़ बाज़ार को समझा. कुछ शेयरों की सूची बनाई और ये विश्लेषण किया कि इन शेयरों में किस तरह का बदलाव हो रहा है. अपने कुछ सहकर्मियों से बात करके मैंने वो शेयर ख़रीद लिये.''
सकीना गांधी ने म्यूचुअल फ़ंड में भी निवेश किया है.
उनकी स्टॉक मार्केट में दिलचस्पी तब पैदा हुई जब कोरोना महामारी की शुरुआत में शेयर बाज़ार बुरी तरह गिर रहा था.
उन्हें ये बहुत फ़ायदेमंद विकल्प लगा और उन्होंने तुरंत अपना डीमैट खाता बना लिया. वे इसके ज़रिए अतिरिक्त कमाई करना चाहती थीं.
सकीना कहती हैं, ''ये मेरा पैसा है, इसमें मेरे पति या किसी और का कोई दख़ल नहीं है, इसलिए मैंने सोचा कि क्यों ना थोड़ा जोखिम उठाया जाये. फिर देखते हैं कि क्या होता है.''
सकीना बताती हैं कि वे रोज़ अख़बार देखती हैं और उन्होंने कंपनियों और शेयर बाज़ार से जुड़ी ख़बरों के लिए गूगल अलर्ट भी लगाया हुआ है.
शेयर बाज़ार में पहली बार निवेश करने वालीं सकीना गांधी अकेली नहीं हैं.
कोरोना वायरस ने कई कारोबारों को बुरी तरह प्रभावित किया है और अब उन्हें इस झटके से संभलने में वक़्त लगेगा.
लेकिन, स्टॉक मार्केट को इसे लेकर कोई शिकायत नहीं है. बल्कि इस साल की शुरुआत में शेयर की क़ीमतें गिरने से खुदरा निवेशकों में बड़े स्तर पर वृद्धि हुई है.
कई भारतीय जो अब तक शेयर बाज़ार से दूर थे, उन्होंने भी इसमें निवेश करना शुरू कर दिया है.
जैसे 36 साल की रितिका शाह जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान ही शेयर बाज़ार में क़दम रखा. रितिका शाह भी पब्लिक रिलेशन के क्षेत्र में काम करती हैं.
रितिका ने बीबीसी को बताया, ''मेरा परिवार शेयर बाज़ार में निवेश करता रहा है और मैं भी ये करना चाहती थी, लेकिन सही समय का इंतज़ार कर रही थी. महामारी में मुझे इतना वक़्त मिल गया कि मैं अपने फ़ाइनेंस को लेकर योजना बना सकूं. मुझे इसके बारे में रिसर्च करने और जानकारी हासिल करने का समय मिला.''
उन्होंने मार्च में निवेश करना शुरू किया था, जब उन्हें लगा कि बाज़ार में क़ीमत सही है.
रितिका कहती हैं, ''इससे आपको टैक्स बचाने में भी मदद मिलती है. मैं हर महीने 50 हज़ार रुपये निवेश करती हूँ और मैं इसे 10 हज़ार रुपये और बढ़ाने की योजना बना रही हूँ.''
रितिका शाह ने भी शेयर बाज़ार में पहली बार निवेश करना शुरू किया
खुदरा निवेशकों में बढ़ोतरी
भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़, पिछले साल के मुक़ाबले इस साल खुदरा निवेशकों में 54 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.
सेबी के अध्यक्ष अजय त्यागी ने मीडिया को दिये एक बयान में कहा, ''अप्रैल-सितंबर 2020 के दौरान 63 लाख नए डीमैट खाते बने हैं, जबकि पिछले साल इस अवधि में 27.4 लाख खाते बने थे. इसका मतलब है कि डीमैट खातों में 130 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ.''
भारत की सबसे बड़ी ट्रेडिंग अकाउंट डिपॉज़िटरी, सेंट्रल डिपॉज़िटरी सर्विसेज़ लिमिटेड (सीडीएसएल) के मुताबिक़, साल 2020 के पहले नौ महीनों में निवेशकों ने 50 लाख नए डीमैट खाते खोले हैं. यह संख्या पिछले पाँच सालों में खोले गये डीमैट खातों के आधे के बराबर है.
जेरोधा जैसी ब्रोकिंग कंपनियों ने निवेशकों में बढ़े स्तर पर वृद्धि देखी है. इन निवेशकों ने डीमैट खातों के ज़रिए शेयर बाज़ार में निवेश करने के लिए कंपनी की वेबसाइट का इस्तेमाल करना शुरू किया है.
जेरोधा के सह-संस्थापक और सीआईओ निखिल कामथ कहते हैं, ''इस मार्च से हर महीने खुलने वाले औसत डीमैट खातों में 100 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. ये उछाल महामारी के कारण आया है.''
जेरोधा के पास 30 लाख सक्रिय निवेशक हैं और इनमें से 10 लाख निवेशक लॉकडाउन शुरू होने के बाद से (यानी मार्च से) जुड़े हैं.

लॉकडाउन और वर्क फ़्रॉम होम का कमाल
विशेषज्ञों का मानना है कि लॉकडाउन और वर्क फ़्रॉम होम के कारण लोगों को इतना समय मिल पाया कि वो शेयर बाज़ार पर ध्यान दे सकें. रोज़मर्रा की व्यस्तताओं में वो ऐसा नहीं कर पाते थे.
कई लोग जिनकी शेयर बाज़ार में दिलचस्पी भी थी, वो भी ऑफ़िस के कारण 9:15 से 3:30 बजे के बीच शेयर बाज़ार पर नज़र नहीं रख पाते थे.
निखिल कामथ कहते हैं, "मज़बूत और बड़े पूंजी आधार वाली कंपनियों की भारी छूट वाली क़ीमत, गिरती ब्याज़ दरें, पिछले एक दशक से स्थिर पड़ा रियल एस्टेट, लॉकडाउन और वर्क फ़्रॉम होम में मिला खाली समय जैसे कई कारणों के चलते लोगों का शेयर बाज़ार की तरफ़ रुझान बढ़ा है.''
म्यूचुअल फ़ंड उद्योग में तेज़ी से आयी गिरावट ने भी लोगों को सीधे बाज़ार में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया है.
विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि कई ब्रोकिंग प्लेटफ़ॉर्म ऐसी तकनीक अपना रहे हैं, जिससे निवेशकों को बढ़ावा मिला है.
कुछ अन्य कारण
सस्ते मोबाइल फ़ोन और डेटा ने भी शेयर बाज़ार तक लोगों की पहुँच आसान की है. कई ब्रोकिंग फ़र्म्स निवेशकों से ब्रोकिंग फ़ीस भी नहीं ले रही हैं और ये बात निवेशकों को आकर्षित करती है.
कई ब्रोकिंग प्लेटफ़ॉर्म्स ने निवेशकों को शेयर बाज़ार के बारे में समझाना और उन्हें सही फ़ैसला लेने में मदद करना भी शुरू किया है.
उदाहरण के लिए, जेरोधा ने अपने निवेशकों को शेयर बाज़ार के ट्यूशन देना शुरू किया है. इसके पेज-व्यूज़ औसत प्रतिदिन 45 हज़ार से बढ़कर लॉकडाउन में 85 हज़ार हो गए हैं.
इसमें सबसे बड़ी वजह ये है कि सेबी ने डीमैट खाता खोलने की प्रक्रिया बहुत आसान और सरल बना दी है.
इलेक्ट्रॉनिक नो योर कस्टमर (केवाईसी) से निवेशक मिनटों में डीमैट खाता खोल लेते हैं.
सेबी ने ई-साइन और डीजी-लॉकर्स की भी सुविधा दी है जिससे पहली बार निवेश करने वालों को अपने दस्तावेज़ सुरक्षित रखते हुए जल्दी रजिस्टर करने में मदद मिलती है.
महिलाओं की भागीदारी
जेरोधा के आंकड़ों से यह दिलचस्प बात सामने आती है कि ज़्यादातर महिलाएं ऑनलाइन ट्रेडिंग में रूचि दिखा रही हैं.
निखिल कामथ कहते हैं, ''नई महिला निवेशकों में साफ़तौर पर वृद्धि हुई है. भारत में कोरोना वायरस महामारी के बाद से जेरोधा के 15 लाख से ज़्यादा क्लाइंट बने हैं, इनमें दो लाख 35 हज़ार महिलाएं हैं.''
जेरोधा के पास कुल पाँच लाख 60 हज़ार महिला निवेशक हैं जिनकी औसत उम्र क़रीब 33 साल है.
इसी तरह फ़ायर्स भी एक स्टॉक ब्रोकिंग ट्रेडिंग प्लेटफ़ॉर्म है. फ़ायर्स में महामारी के दौर से पहले के मुक़ाबले, अब महिला ट्रेडर्स की संख्या में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है.
फ़ायर्स के सह-संस्थापक और सीईओ तेजस खोड़े ने बीबीसी को बताया, ''महिलाएं ट्रेड करने की बजाय निवेश करना ज़्यादा पसंद करती हैं. लंबे समय से महिलाएं अपने पैसों को सोने में निवेश करती आयी हैं या वो पैसे को नक़द, फ़िक्स डिपॉज़िट और टैक्स बचाने वाले म्यूचुअल फ़ंड में रखती हैं. हालांकि, लॉकडाउन और वर्क फ़्रॉम होम से उन्हें शेयर बाज़ार में निवेश करने का मौक़ा मिला है.''
नौजवान कर रहे निवेश
एक और दिलचस्प ट्रेंड ये भी है कि ऑनलाइन ट्रेंडिग में नौजवान ज़्यादा आगे आ रहे हैं.
जेरोधा कंपनी का कहना है कि 20 से 30 साल के निवेशकों में कोरोना वायरस से पहले के 50-55 प्रतिशत के मुक़ाबले, 69 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है.
वहीं, एक और ऑनलाइन ब्रोकिंग प्लेटफ़ॉर्म अपस्टॉक्स के ग्राहकों की औसत उम्र इस साल अप्रैल से अगस्त के बीच 29 साल रही है. इससे पहले यह उम्र औसत 31 साल हुआ करती थी.
फ़ायर्स में भी 50 प्रतिशत निवेशक नौजवान ही हैं. तेजस खोड़े कहते हैं, ''पिछले कुछ महीनों में जब से कम उम्र के लोग इस शेयर बाज़ार में उतरे हैं, तब से मोबाइल ट्रेडिंग में बढ़ोतरी हुई है. पहली बार हम ऐसी पीढ़ी देख रहे हैं, जो ट्रेडिंग टिप्स को मानने की बजाए बाज़ार के काम करने के तरीक़ों को समझने में ज़्यादा वक़्त दे रही है.''
इंडिया इंफ़ोलाइन फ़ाइनेंस की एक सहायक कंपनी 5paisa.com के मुताबिक़, उसके प्लेटफ़ॉर्म पर 18 से 35 साल की औसत आयु के निवेशक 81 प्रतिशत तक हो गए हैं जो कोरोना वायरस महामारी से पहले 74 प्रतिशत थे.
निवेशकों के लिए टिप्स
शेयर बाज़ार हमेशा से ही लुभावना क्षेत्र रहा है और आगे भी ये आकर्षित करता रहेगा. लेकिन, इस क्षेत्र में क़दम रखने से पहले विशेषज्ञ कुछ ऐसी बातें बताते हैं जो सभी निवेशकों को ध्यान में रखनी चाहिए.
एसोसिएशन ऑफ़ म्यूचुअल फ़ंड्स इन इंडिया (एएमएफ़आई) के अध्यक्ष निलेश शाह कहते हैं कि किसी भी शेयर में निवेश करने से पहले निवेशकों को कंपनी की बैलेंस शीट देखनी चाहिए. उन्हें ये ध्यान देना चाहिए कि क्या कंपनी के पास मुश्किल समय से निकलने के लिए पर्याप्त पैसा है. निलेश शाह 25 सालों से शेयर बाज़ार पर नज़र रख रहे हैं.
निलेश शाह कहते हैं, ''ऐसा माना जा रहा है कि आने वाला भविष्य बहुत मुश्किल होने वाला है, इसलिए निवेशकों को देखना चाहिए कि कंपनी कितनी मज़बूत है.''
बैलेंस शीट के अलावा निवेशकों को इस तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए कि क्या कंपनी व्यवसाय चलाने की लागत को लगातार कम करने की कोशिश कर रही है.
निलेश शाह तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये बताते हैं कि कंपनी कितनी डिजिटल है? क्या कंपनी तकनीक को जल्दी अपना लेती है और डिजिटली मज़बूत है.(bbc)
वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन का जैसा व्यापक असर पड़ रहा है, वैसा ही असर प्रकाश प्रदूषण का भी हैI इससे जन्तुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों में हॉर्मोन के स्तर पर बदलाव आ रहे हैं, प्रजनन चक्र अनियमित होता जा रहा है और व्यवहार तक बदल रहा हैI
- महेन्द्र पांडे
वैज्ञानिक लम्बे समय से बता रहे हैं कि अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश भी एक तरह का प्रदूषण हैI इससे रात में आसमान में तारे दिखने बंद हो जाते हैं, उपग्रहों से रात में पृथ्वी का चित्र लेने में बाधा पड़ रही है और साथ ही बिजली की बर्बादी भी हो रही हैI पर, हाल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार इस प्रकाश प्रदूषण का मानव के साथ ही जीव-जन्तुओं पर भी व्यापक असर पड़ रहा हैI वैज्ञानिकों के अनुसार यह असर इतना व्यापक है कि अब प्रकाश प्रदूषण को भी जलवायु परिवर्तन, तापमान वृद्धि और प्रजातियों के विनाश जैसी समस्याओं के समकक्ष रखने की जरूरत हैI
पहले बिजली का उपयोग केवल घरों को रोशन करने के लिए किया जाता था, फिर बाद में सड़कें, सार्वजनिक स्थल, बड़े कार्यालय और भवन, स्टेडियम, उद्योग, ऐतिहासिक स्थल, नदी का किनारा, समुद्र का किनारा और बाजार में भी रात भर बिजली जली रहती हैI अब तो शहरों को रात में भी दिन जैसा प्रकाश में डुबोने की होड़ लग गई हैI प्रकाश की तीव्रता भी बढ़ती जा रही हैI इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि जब हम सडकों, रेल या विमान से यात्रा करते हैं, तब आसमान में फैली रोशनी से यह अनुमान लगा लेते हैं कि अब कोई शहर आने वाला हैI
कहीं भी प्रकाश आसमान में फैलाने के लिए नहीं किया जाता, फिर भी यह वायुमंडल में फैलता है, और यही प्रकाश प्रदूषण हैI प्रकाश के प्रभाव का उदाहरण भी हमारे सामने सामान्य तौर पर आता हैI बारिश के मौसम में कीट-पतंगे प्रकाश के चारों तरफ उड़ते हैं और सुबह तक जलते बल्ब की गर्मी से मर जाते हैंI प्रकाश प्रदूषण के कारण कीटों की अनेक प्रजातियां विलुप्तीकरण के कगार पर हैंI
मानव निर्मित प्रकाश का दायरा और तीव्रता प्रतिवर्ष 2 प्रतिशत की दर से बढ़ रही हैI यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सटर के वैज्ञानिकों के अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन का जैसा व्यापक असर पड़ रहा है, वैसा ही व्यापक असर प्रकाश प्रदूषण का भी हैI इससे जन्तुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों में हॉर्मोन के स्तर पर परिवर्तन आ रहे हैं, प्रजनन चक्र अनियमित होता जा रहा है, व्यवहार बदल रहा है और शिकारियों की चपेट में आसानी से आ रहे हैंI जिस तरह प्रकाश में मनुष्यों को सोने में दिक्कत आती है, उसी तरह पूरे जीव जगत पर प्रभाव पड़ रहा हैI पृथ्वी पर जीवन में दिन और रात के अंधेरे का व्यापक प्रभाव है और पूरे जीव जगत का विकास इसी आधार पर हुआ हैI
इस अध्ययन को जर्नल ऑफ नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन के नए अंक में प्रकाशित किया गया हैI इस अध्ययन का आधार प्रकाश प्रदूषण का जीव जगत पर पड़ने वाले प्रभावों से संबंधित दुनिया भर में प्रकाशित 126 शोधपत्र हैंI इसके अनुसार प्रकाश प्रदूषण का सबसे गहरा प्रभाव कीट जगत पर पड़ रहा हैI यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि दुनिया भर में जीव जगत में विलुप्तीकरण का सबसे अधिक खतरा कीट-पतंगों को ही हैI बहुत सारे कीट केवल रात में उड़ते हैं और अपनी गतिविधियों के दौरान अनेक फूलों का परागण करते हैंI जब ये कीट परागण नहीं करते तो फिर फसलों का उत्पादन या फिर वनस्पतियों का विस्तार प्रभावित होता हैI दूसरी तरफ, अनेक कीट सडकों के किनारे की रोशनी के चारों-तरफ रात भर उड़ते हुए बल्ब की गर्मी में झुलस कर मर जाते हैंI रात भर तेज प्रकाश झेलने वाले वनस्पतियों में फूल खिलने का, फल लगने का समय बदल जाता हैI
लम्बी दूरी तय करने वाले प्रवासी पक्षियों पर भी प्रकाश प्रदूषण का व्यापक असर होता हैI रात में ये पक्षी शहरों की रोशनी से चकमा खाकर अपना रास्ता भटक जाते हैं, या फिर शहरों की इमारतों से टकराकर मर जाते हैंI समुद्री कछुवे भी सागर तट के रिसोर्ट के प्रकाश से आकर्षित होकर उसकी तरफ जाते हैं और फिर भूख-प्यास से मर जाते हैं या वन्यजीवों के तस्करों की गिरफ्त में आ जाते हैंI
सभी जन्तुओं में रात की रोशनी के प्रभाव से मेलाटोनिन नामक हार्मोन का उत्सर्जन प्रभावित होता हैI यही हार्मोन शरीर में निद्रा-चक्र को नियंत्रित करता हैI रात में अत्यधिक प्रकाश के कारण निशाचर के साथ ही अन्य जंतुओं का व्यवहार भी बदलने लगता हैI इसके प्रभाव से पक्षी सुबह जल्दी चहकने लगते हैं और रात में निकलने वाले चूहे या अन्य जानवर बाहर कम समय के लिए निकलते हैंI
जून 2016 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दुनिया की एक-तिहाई से अधिक आबादी अब रात के आसमान में आकाश-गंगा नहीं देख पातीI अमेरिका की 80 प्रतिशत से अधिक और यूरोप की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी ने कभी आसमान में आकाशगंगा को देखा ही नहीं हैI इसका एकमात्र कारण प्रकाश प्रदूषण है, जिसके कारण अब रात के आसमान में बहुत सारे खगोलीय पिंड दिखना बंद हो चुके हैंI
अनुमान है कि प्रकाश प्रदूषण के कारण कुल बिजली की खपत का लगभग 35 प्रतिशत बर्बाद हो रहा है, और बिजली उत्पादन को ही जलवायु परिवर्तन का मुख्य जिम्मेदार माना जाता हैI प्रदूषण के इस स्वरुप के प्रभावों का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि रात में कीटों द्वारा की जाने वाली परागण प्रक्रिया में लगभग 62 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई हैI कुछ कोरल रीफ की प्रजातियों के प्रजनन प्रक्रिया के लिए चांद की रोशनी अनिवार्य है, पर अब चांद की रोशनी मानव निर्मित प्रकाश से दब जाती है, इसलिए इन प्रजातियों का प्रजनन प्रभावित हो रहा हैI
प्रकाश प्रदूषण के तीन मुख्य कारण हैं- बिना ढके प्रकाश के स्त्रोत, प्रकाश का अवांछित अतिक्रमण और शहरी सडकों और भवनों का प्रकाशI वायु प्रदूषण, विशेष तौर पर पार्टिकुलेट मैटर की वायु में अधिक सांद्रता भी प्रकाश प्रदूषण में सहायक हैI कोहरे या धूम कोहरा की स्थिति में प्रकाश दूर तक फैलता नजर आता है और इस कारण प्रकाश प्रदूषण बढ़ता हैI जर्नल ऑफ नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार प्रकाश प्रदूषण का असर पूरे जीव जगत पर पड़ रहा है, इसमें सूक्ष्मजीव, अरीढ़धारी जंतु, रीढ़धारी, मनुष्य और वनस्पति सभी शामिल हैंI कुछ प्रजातियों में इनका लाभदायक असर भी स्पष्ट हो रहा हैI कुछ वनस्पतियों में प्रकाश प्रदूषण के असर से वृद्धि दर में तेजी देखी जा रही है और चमगादड़ों की कुछ प्रजातियों का दायरा बढ़ रहा हैI
यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सटर के एनवायर्नमेंटल सस्टेनेबिलिटी इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर केविन गास्तों की अगुवाई में यह अध्ययन किया गया हैI इनके अनुसार प्रकाश प्रदूषण के भयानक और व्यापक प्रभावों को देखते हुए अब आवश्यक हो गया है कि इसे भी जलवायु परिवर्तन जैसी प्रमुखता दी जाएI आजकल सडकों और सार्वजनिक स्थलों पर जिस सफेद प्रकाश वाले एलईडी लैम्पों का प्रचलन बढ़ा है, उनसे भले ही बिजली की बचत होती हो, पर वे जंतु जगत के लिए पहले के लैम्पों से अधिक खतरनाक हैंI सफेद प्रकाश में सूर्य के प्रकाश की तरह अनेक वेवलेंथ की किरणों का समावेश रहता है। इसलिए यह प्रकाश जंतु जगत को अधिक प्रभावित करता हैI(navjivan)
भारत में लोग कोरोना महामारी के बावजूद त्योहारों के दौरान बहुत कम सावधानी बरत रहे हैं. महीनों के लॉकडाउन के बाद इस बीच कई प्रतिबंधों को हटाया जा चुका है, लेकिन महामारी अभी तक खत्म नहीं हुई है.
डॉयचे वैले पर मुरली कृष्णन की रिपोर्ट-
उत्तर-पश्चिमी राजस्थान के अलवर जिले में एक फैक्ट्री में फोरमैन का काम करने वाले 42 वर्षीय रुद्रनाथ कहते हैं कि उन्हें अपने सहकर्मियों को हर समय अपने मास्क पहने रखने के लिए कहना बहुत बुरा लगता है. लोहे के कारखाने को फिर से शुरू हुए एक महीने से ज्यादा हो गया है. जून से सरकार धीरे-धीरे लोगों की आवाजाही और व्यापार पर लगे प्रतिबंधों में ढील दे रही है. राज्य भर से आने वाले आर्डर के कारण, कारोबार धीरे धीरे गति में आ रहा है. रुद्रनाथ कहते हैं, "कई कर्मचारी अब वायरस से नहीं डरते हैं. उन्हें लगता है कि खराब समय बीत चुका है और जल्द ही टीके के आने से बीमार होने के बावजूद इलाज हो सकेगा."
राजस्थान में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, मास्क पहनना अपवाद जैसा है. यहां अधिकांश लोग ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे कि महामारी खत्म हो गई हो. कई लोग सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की अनदेखी कर रहे हैं, और कोरोना नियमों को लेकर अधिकारियों के ढीले रवैये ने इस समस्या को बढ़ा दिया है.
कोरोना से डर नहीं
कुछ ऐसा ही भारत के केंद्रीय प्रांत मध्य प्रदेश में भी दिखता है, जैसे कि कोई महामारी है ही नहीं. इसके अतिरिक्त देहाती इलाकों में लोग बिना मास्क पहने बाजारों में काम, यात्रा और खरीदारी कर रहे हैं. मंदसौर जिले के पोस्टमास्टर प्रभात कुमार सिंह कहते हैं, "हम शहरों से आने वाले यात्रियों से अधिक सावधान रहते हैं. हम उनसे शारीरिक दूरी बनाए रखते हैं. ऐसे आपस में हमारे लिए चिंता की कोई वजह नहीं है."
भारत में अब तक कोरोना महामारी से 85 लाख लोग संक्रमित हो चुके हैं. भारत अमेरिका के बाद संक्रमण के मामले में दुनिया भर में दूसरे स्थान पर है और अब तक इसकी वजह से 1,26,000 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. देश ने पिछले एक महीने में रोज होने वाले नए मामलों में गिरावट देखी है. हालांकि, भारत में अभी भी औसतन हर दिन लगभग 50,000 नए मामले दर्ज किए जा रहे हैं.
आठ महीने पहले पूरे देश में लागू किए गए पहले लॉकडाउन के मुकाबले, अब लोगों के बीच कोरोना वायरस का डर कम होता नजर आ रहा है. यूरोलॉजिस्ट और सर्जन अनंत कुमार का कहना है, "जब सख्त लॉकडाउन था और जनता की आवाजाही पर रोक थी, तब लोग डरे हुए थे. उस समय भय व्यवहार को नियंत्रित करता था. अब ऐसा नहीं है."
अर्थव्यवस्था की ज्यादा चिंता
हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार भारतीयों के बीच कोरोना संक्रमित होने के मुकाबले अर्थव्यवस्था और निजी आमदनी बड़ी चिंता का विषय है. इंफेक्शन विशेषज्ञ जैकब जॉन के अनुसार "भारत में अधिकतर लोग बीमार पड़ने की तुलना में खाना और दवाओं की उपलब्धता आवश्यक जैसी चीजों के बारे में ज्यादा चिंतित हैं." .
इंफेक्शन विशेषज्ञ जैकब जॉन के अनुसार "भारत में अधिकतर लोग बीमार पड़ने की तुलना में खाना और दवाओं की उपलब्धता आवश्यक जैसी चीजों के बारे में ज्यादा चिंतित हैं." .सरकार द्वारा नियुक्त वैज्ञानिकों की एक टीम ने हाल ही में दावा किया है कि भारत में कोविड-19 अपने चरम पर पहुंच चुका है और अगले साल फरवरी तक चलेगा.
वैज्ञानिक दल के अनुसार, देश में रोजाना कोरोना वायरस के नए संक्रमण में गिरावट जारी रहेगी और फरवरी 2021 तक महामारी पर नियंत्रण पाया जा सकता है, बशर्ते सभी स्वास्थ्य प्रोटोकॉल का पालन किया जाए और सरकार आगे भी सोशल डिस्टेंसिग के नियमों के मामले में ढील न दे. कमिटी ने यह भी दावा किया कि भारत की लगभग 30 प्रतिशत आबादी ने वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित कर ली है.
क्या भारत में समस्या और बढ़ेगी?
हालांकि भारत कोरोना संक्रमण के मामले में अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है, लेकिन प्रति दस लाख लोगों पर यहां मृत्यु दर काफी कम है. यह आंकड़ा प्रति 8.3 करोड़ के आसपास है, जबकि फ्रांस, स्पेन और ब्रिटेन जैसे देशों में यह संख्या 500 से 700 प्रति दस लाख के बीच है.
भारत सरकार का दावा है कि कोविड-19 से जुड़े कम मृत्यु दर, महामारी को सही तरीके से हैंडल करने में कामयाबी को दर्शाता है. इन आकड़ों का इस्तेमाल प्रतिबंधों को हटाने के फैसले के समर्थन में किया गया है. हालांकि, महामारी विज्ञानियों ने चेतावनी दी है कि उत्तर भारत में सर्दियों में बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण आने वाले महीनों में वायरस संक्रमण में तेजी आ सकती है. जॉन का कहना है कि "वायु प्रदूषण संक्रमण को बढ़ावा देता है. एरोसोल हवाई यात्रा में और बड़ी दूरी तक सफर करते हैं."
ऑल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साइंस के पूर्व चिकित्सा अधीक्षक एम सी मिश्रा ने डीडब्ल्यू को बताया कि त्योहारों के समय भी वायरस फैल सकता है. "दीवाली जो रोशनी का त्योहार है, आने ही वाला है और हम पहले से ही लोगों को बाजारों और मॉलों में घूमते हुए देख रहे हैं. यह बीमारी बेहद संक्रामक है और हम सभी जानते हैं कि हम आने वाले कुछ महीनों में बीमारी में एक और उछाल देख सकते हैं, जैसा यूरोप अभी देख रहा है."(dw.com)
- प्रभाकर मणि तिवारी
क्या पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में बीजेपी के ख़िलाफ़ तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच तालमेल होगा. क्या हर सीट पर बीजेपी उम्मीदवार के ख़िलाफ़ इन तीनों दलों का साझा उम्मीदवार होगा?
अगर भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के सुझाव को ध्यान में रखें तो पश्चिम बंगाल में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की तस्वीर कुछ ऐसी ही उभरती है.
हालांकि बंगाल वाममोर्चा नेताओं के रवैए ने इस तस्वीर के बनने से पहले ही कैनवास पर घड़ों पानी उड़ेल दिया है.
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद पश्चिम बंगाल में अगले विधानसभा चुनावों की रणनीति पर दीपंकर भट्टाचार्य की टिप्पणी ने यहां राजनीति के ठहरे पानी में कंकड़ उछाल दिया है.
दीपंकर ने कहा कि वाम दलों को पश्चिम बंगाल और असम में बीजेपी को ही नंबर एक दुश्मन मानते हुए भावी रणनीति बनानी चाहिए. इसके लिए ज़रूरत पड़ने पर तृणमूल कांग्रेस के साथ भी हाथ मिलाया जा सकता है.
लेकिन उनके इस सुझाव को वाममोर्चा ने सिरे से ख़ारिज कर दिया है. दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने इसका स्वागत किया है.
दीपंकर भट्टाचार्य के नेतृत्व में बिहार में वाम दलों को 19 में से 12 सीटें जीतने में कामयाबी मिली है.
बावजूद इसके पश्चिम बंगाल में वाम नेता उस मॉडल को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं. वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु कहते हैं, "बंगाल का अपना अलग मॉडल है. यहां बिहार मॉडल अपनाने की कोई ज़रूरत नहीं है."
दीपंकर का कहना था कि पश्चिम बंगाल में तमाम वामदल बीजेपी की बजाय तृणमूल कांग्रेस को ही अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मान कर आगे बढ़ रहे हैं. उन्होंने संकेत दिया कि ममता बनर्जी के साथ हाथ मिलाने में कोई समस्या नहीं है.
दीपंकर के मुताबिक़, हमें यह समझना होगा कि देश के लोकतंत्र और नागरिकों के लिए बीजेपी सबसे प्रमुख दुश्मन है. तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस इस श्रेणी में नहीं आते.
दीपंकर की इस टिप्पणी से यहां माकपा मुख्यालय अलीमुद्दीन स्ट्रीट में हलचल तेज़ हो गई है.
विमान बसु समेत तमाम नेताओं ने दीपंकर की टिप्पणी के लिए उनकी खिंचाई की है.
बंगाल बिहार से अलग
उनका कहना है कि दीपंकर को बंगाल की राजनीति के बारे में कोई जानकारी नहीं है. माकपा के एक वरिष्ठ नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, "दरअसल भट्टाचार्य यहां वाम नेताओं पर दबाव बनाने की रणनीति के तहत ऐसा कर रहे हैं ताकि अगले चुनावों में उनको अधिक सीटें मिल सकें. बिहार में बेहतर प्रदर्शन के आधार पर ऐसे बयान देना उचित नहीं है. बंगाल की राजनीति बिहार से कई मायनों में अलग है."
विमान बसु ने बुधवार को मालदा में पत्रकारों से कहा, "बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस दोनों सांप्रदायिक पार्टियां हैं. ऐसे में बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के साथ चुनावी या दूसरे किसी गठजोड़ का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता. वाममोर्चा यहां तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी दोनों से लड़ेगा. तृणमूल कांग्रेस के पास कोई आदर्श या नैतिकता नहीं है. बीजेपी को बंगाल में वही ले आई है."
माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य मोहम्मद सलीम कहते हैं, "दूरबीन से बंगाल को देखने वाले लोग ज़मीनी हक़ीक़त से अवगत नहीं है. तृणमूल कांग्रेस का गठन कर ममता ने एनडीए के साथ हाथ मिलाया था. बंगाल में बीजेपी के प्रवेश और वाममोर्चा के सफ़ाए के लिए ममता ही ज़िम्मेदार हैं."

उधर, तृणमूल कांग्रेस ने भट्टाचार्य के सुझाव का स्वागत किया है.
पार्टी के प्रवक्ता सांसद सौगत राय कहते हैं, "एक साथ दो मोर्चों पर लड़ना रणनीतिक रूप से गंभीर ग़लती है. नेपोलियन और हिटलर ने इसे काफ़ी नुकसान उठाने के बाद समझा था. पता नहीं बंगाल में वाममोर्चा कब यह बात समझेगा? जब इसके लिए काफी देरी हो चुकी होगी?"
सौगात राय का कहना है कि राष्ट्रहित में वाममोर्चा को बंगाल में बीजेपी के ख़िलाफ़ लड़ाई में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ममता की मदद करनी चाहिए.
दूसरी ओर, बीजेपी ने दीपंकर के बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की है.
प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं, "अगले चुनावों में बंगाल में हमारी जीत तय है. बिहार के बाद अब हमारा लक्ष्य यहां दो-तिहाई बहुमत से जीत कर सत्ता हासिल करना है. बिहार के नतीजों का फ़ायदा पार्टी को यहां भी मिलेगा."
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि दीपंकर का सुझाव उतना बुरा नहीं है जितना बंगाल के वाम नेता मान या कह रहे हैं.
34 साल तक बंगाल पर राज करने वाले वाममोर्चा के पैरों तले तेज़ी से खिसकती ज़मीन को ध्यान में रखते हुए उसे अपना वजूद बचाने के लिए सही रास्ता चुनना चाहिए.
दीपंकर के सुझाव को मानेंगी पार्टियां?
राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ पंडित कहते हैं, "2011 के बाद होने वाले तमाम चुनावों में वाममोर्चा की ज़मीन धीरे-धीरे खिसकती रही है. हालांकि उसके पास अब भी आठ से 10 फ़ीसद वोट हैं. लेकिन उसने कांग्रेस से हाथ मिलाया है जिसके पास न तो कोई ढंग का नेता है और न ही कोई जनाधार. बीजेपी ने उसे तेज़ी से राजनीतिक हाशिए पर पहुंचा दिया है. ऐसे में बंगाल में भी बिहार मॉडल अपनाने में कोई बुराई नहीं नज़र आती है. चुनावों में हार-जीत ही मायने रखती है. नतीजों के बाद चुनावी रणनीति या तालमेल जैसी बातों की अहमियत ख़त्म हो जाती हैं."

बांग्ला अख़बार आनंद बाज़ार पत्रिका के लिए दशकों तक वाम राजनीति कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, "दरअसल, वाममोर्चा नेता यहां ममता की तृणमूल कांग्रेस के हाथों मिले हार के ज़ख्मों को भुला नहीं सके हैं. ममता बनर्जी भी गाहे-बगाहे वामपंथी दलों को निशाना बनाती रही हैं. हालांकि राजनीति में दोस्ती या दुश्मनी स्थायी नहीं होती. लेकिन मौजूदा संदर्भ में दीपंकर के सुझाव पर अमल दूर की कौड़ी ही है."
बीते लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के बावजूद वामदलों का खाता नहीं खुल सका था.
मुखर्जी कहते हैं कि वाममोर्चा बीजेपी और तृणमूल दोनों से समान दूरी बना कर चलने की रणनीति पर बढ़ रही है. दिलचस्प बात यह है कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी भी बार-बार बीजेपी और वाम दलों से समान दूरी बना कर चलने की बात कहती रही हैं. बावजूद इसके उनकी पार्टी को वाम दलों के समर्थन पर कोई आपत्ति नहीं है.(bbc)
भारत और पाकिस्तान के बीच विवादित कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर हो रही गोलाबारी में 11 लोग मारे गए हैं. पाकिस्तान ने 4 असैनिक नागरिकों के मरने का दावा किया है तो भारत ने सात लोगों के मरने की बात कही है.
पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने भारत के वरिष्ठ राजनयिक को तलब कर पाकिस्तानी कश्मीर में एक असैनिक नागरिकों के मारे जाने पर विरोध जताया है जबकि भारत का कहना है कि पाकिस्तान की गोलाबारी में उसके पक्ष में सात लोग मारे गए हैं. पाकिस्तानी अधिकारियों ने मीडिया से कहा है कि गोलाबारी में शुक्रवार को चार असैनिक लोग मारे गए हैं और 22 घायल हुए हैं. इलाके से रिपोर्ट है कि कश्मीर नीलम घाटी के कई इलाकों में गोलाबारी हो रही है.
पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा है कि भारतीय राजनयिक को बुलाकर कहा गया कि ऐसी निर्मम कार्रवाई 2003 की संघर्षविराम सहमति का हनन है.पाकिस्तानी कश्मीर के एक अधिकारी राजा शाहिद महमूद ने कहा है कि बहुत से घरों को नुकसान पहुंचा है. उन्होंने कहा कि लोग सुरक्षित जगहों पर भाग रहे हैं और सामुदायिक बंकरों में छुप रहे हैं.
भारतीय अधिकारियों ने कहा है कि नियंत्रण रेखा पर शुक्रवार को हुए संघर्ष में 4 सैनिकों सहित 7 लोग मारे गए हैं. श्रीनगर में पुलिस अधिकारी मोहम्मद अशरफ के अनुसार मरने वाले तीन असैनिक नागरिकों में एक महिला भी है. भारतीय सेना के प्रवक्ता कर्नल राजेश कालिया ने पाकिस्तान पर विवाद भड़काने का आरोप लगाया है.
पाकिस्तान का कहना है कि दोनों देशों की सेना के बीच गोलाबारी गुरुवार को शुरू हुई और रात भर जारी रही. ताजा खबरों के अनुसार अभी भी दोनों ओर से गोलाबारी हो रही है.
भारत और पाकिस्तान के बीच ताजा संघर्ष के बाद पाकिस्तान में राजनीतिक बहस शुरू हो गई है. मुस्लिम लीग की उपाध्यक्ष मरियम नवाज ने भारतीय गोलाबारी में निर्दोष और निहत्थे नागरिकों को भारी नुकसान का आरोप लगाया है.
पत्रकार हामिद मीर ने एक ट्वीट कर गोलाबारी में मारे गए लोगों की जानकारी प्रकाशित की है.
दोनों देशों के बीच जनवरी 2019 से विवाद गहरा गया है जब भारतीय कश्मीर में एक आत्मघाती हमले में सीआरपीएफ के 40 जवान मारे गए थे. बदले में भारत ने पाकिस्तान में उग्रपंथियों पर हमला किया था, जबकि पाकिस्तान ने भारतीय वायुसेना के एक विमान को गिरा दिया था और पायलट को बंधक बना लिया था.(dw.com)
रिपोर्ट: महेश झा (एपी/डीपीए)
थाईलैंड में महीनों से चल रहे लोकतंत्र समर्थक विरोध प्रदर्शन थमने का नाम नहीं ले रहे हैं. प्रदर्शनकारियों के गुस्से के केंद्र में अब तक राजा वजिरालांगकॉर्न नहीं रहे हैं, लेकिन उनके लिए अब और अलगथलग रहना मुश्किल होगा.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट-
प्रदर्शन में भाग लेने वाले लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है और प्रदर्शनकारियों तथा पुलिस की झड़पें भी. 8 नवंबर को भी प्रदर्शनकारी भीड़ को काबू करने की कोशिश में पुलिस ने वाटर कैनन का भी इस्तेमाल किया. प्रदर्शन में उमड़े सैलाब का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भीड़ को रोकने के लिए हजारों की संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया था. पिछले कुछ दिनों में प्रदर्शनकारियों के नेताओं को गिरप्तार भी किया गया है. वैसे तो इन विरोध प्रदर्शनों का कोई सर्वमान्य नेता नहीं है लेकिन यूनाइटेड फ्रंट आफ थमासात एंड डेमन्स्ट्रेशन और फ्री यूथ मूवमेंट ने प्रदर्शनों को ताकत देने में बड़ी भूमिका निभाई है. इमरजेंसी लगने के बाद से रैलियां और सभाएं करने पर रोक है, पांच से ज्यादा लोगों के सभा करने और सार्वजनिक तौर पर इकट्ठा होने पर प्रतिबंध है, लेकिन प्रतिबंधों का कोई असर नहीं होता दिखता. हालांकि रानी के मोटरकेड के सामने नारेबाजी की घटना के बाद पुलिस चौकन्नी है.
युवाओं में बढ़ता असंतोष
आम तौर पर शांतिप्रिय थाईलैंड पिछले कई महीनों से कठिन दौर से गुजर रहा है. विरोध करती जनता सड़कों पर है, जिनमें छात्र नेताओं और युवा थाई लोगों की संख्या बहुत अधिक है. पुलिस की लाठियां और आंसूगैस इन विरोधों को रोकने में बेदम हो रही हैं, देश के प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट सत्ता से चिपके और यथार्थ से दूर बैठे हैं और इन सब से परे देश के नए राजा अपनी अलग दुनिया में गोते खा रहे हैं. विरोध प्रदर्शनों और लोगों की मांगों पर राजा की चुप्पी जनता को और बेचैन कर रही है.
आमतौर पर माना जाता है कि संवैधानिक राजतंत्र जनता को जवाबदेह और जिम्मेदार शासन उपलब्ध कराता है. पड़ोसी मलेशिया को ही ले लीजिए. हाल के दिनों में सत्ता के लालच में जब जब नेताओं ने अपनी मनमानी चलानी चाही, अगोंग (मलेशिया के राजा की उपाधि) ने हस्तक्षेप किया और ऐसे कदम उठाए जो जनता और देश के हित में थे. साथ ही उन्होंने राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं पर भी दबाव डाला. अपने इन जनहितवादी और न्यायपरक कदमों से उन्होंने राजा की गद्दी को और सम्मान दिलाया है.
राजा को लिखी प्रजा ने चिट्ठी
इसके बिल्कुल उलट, थाईलैंड में पूर्व सेना प्रमुख प्रयुथ के शासन से परेशान जनता के लिए राजा और भी बड़ी मायूसी की वजह हैं. इसी के विरोध में 8 नवम्बर को हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों ने शाही ऑफिस की तरफ जुलूस निकला और हजारों चिट्ठियों के माध्यम से राजा के कामकाज के तरीके में बदलाव की मांग खुद राजा वजिरालांगकॉर्न से की. झड़पों के बाद पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच बातचीत भी हुई जिसके दौरान पुलिस ने जनता से माफी भी मांगी और प्रदर्शनकारियों की चिट्ठियों को पहुंचाने के लिए रखे लेटरबाक्सों को गंतव्य तक पहुंचाने का वादा भी किया. वैसे लगता नहीं कि राजा हजारों चिट्ठियों में से कुछ को भी पढ़ने की इच्छा रखते होंगे.
प्रदर्शनकारियों के पत्रों में इस बात पर जोर दिया गया है कि थाईलैंड पारस्परिक समझौतों और प्रेम का देश है न कि क्रूरता, हिंसा, और नफरत से भरा देश. पत्रों में यह भी नसीहत दी गयी कि प्रजा राजा से प्रेम करे न करे, राजा को सभी नागरिकों और प्रजा से समान प्रेम करना चाहिए, उसे प्रशंसा ही नहीं आलोचना पर भी ध्यान देना चाहिए. इन बातों को राजा के अपने समर्थकों और पुलिस की प्रशंसा में दिए गए वक्तव्य के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. पिछले कई महीनों के दौरान जब देशवासी कोविड महामारी और प्रयुथ के कुशासन से त्रस्त थे, तब राजा जर्मनी में रह रहे थे और उन्होंने जनता की परेशानियों पर कोई ध्यान नहीं दिया. रानी को छोड़ने और वापस स्वीकार करने, रानी के फैशन शो और ऐसी ही कई घटनाओं से राजा वजिरालांगकॉर्न की सामाजिक प्रतिष्ठा गिरी है.
नाराजगी राजा से नहीं, सरकार से
इन विरोधों की सबसे बड़ी वजह राजा से असंतुष्टि नहीं है, इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है देश के प्रधानमंत्री और भूतपूर्व थलसेना अध्यक्ष प्रयुथ छान-ओ-छा के प्रशासन से लोगों की नाराजगी. प्रयुथ पिछले छः सालों से सत्ता पर काबिज हैं. पिछले चुनावों में उन्हें जीत तो मिली थी लेकिन विरोधी दल और प्रदर्शनकारी भी उस चुनाव को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं मानते. जहां तक विरोध प्रदर्शनों का सवाल है तो इसका एक कारण है प्रयुथ सरकार का तानाशाही रवैया जिसके चलते पिछले साल उन्होंने विपक्षी पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया. भ्रष्टाचार के तमाम आरोप प्रयुथ सरकार पर लगते रहे हैं. आर्थिक मोर्चे पर भी थाई सरकार फेल ही रही है. कोविड महामारी के दौरान थाई अर्थव्यवस्था न सिर्फ लचर हुई है बल्कि पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाओं और सब्सिडी के अभाव में प्रयुथ की सरकार की काबिलियत पर भी सवाल उठे हैं.
इसके अलावा प्रदर्शनकारियों की मांग है कि संविधान में संशोधन कर इसे और लोकतांत्रिक और लोक-केंद्रित बनाया जाय. दस-सूत्री मांगों में उनकी एक प्रमुख मांग यह भी है कि राजा की संवैधानिक राजतंत्र में निभाई जाने वाली भूमिका में भी बदलाव किए जायं ताकि वह और जिम्मेदार बन सके. सेना और राजदरबार के बीच लोकतांत्रिक व्यवस्था के बाहर कोई सांठगांठ न हो जिससे थाईलैंड संवैधानिक राजतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था की कसौटियों पर खरा उतर सके. एक आम थाई को कहीं न कहीं यह भी लगने लगा है कि राजा और मंत्री अपनी दुनिया में मशगूल हैं और आम आदमी की किसी को परवाह ही नहीं है. कोविड महामारी ने गरीब तबके के लोगों और युवा वर्ग को सरकार को लेकर खासा निराश भी किया है.
सोशल मीडिया समर्थित विरोध
थाई इतिहास में तख्तापलट और सेना का राजा की कृपा से लोकतंत्र पर कब्जा करना कोई नई बात नहीं है. जनता का सब्र भी एक बार फिर जवाब दे रहा है. लेकिन अतीत में हुए जनविरोधों से यह विरोध कई मामलों में अलग है जिसमें सबसे बड़ी है सोशल मीडिया की भूमिका. सोशल मीडिया ने प्रदर्शनकारियों को सरकार और पुलिस के दमनकारी तरीकों से बचने और अपनी ताकत और पहुंच बढ़ाने में मदद की है. जनता के गुस्से को देखकर कयास यह भी लगे हैं कि कहीं यह थाईलैंड में राजा की संवैधानिक राजतंत्र में प्रधान अभिभावक की भूमिका का अंत ही न कर दे.
प्रदर्शनकारियों ने इन कयासों और अफवाहों पर तुरंत यह कह कर लगाम लगा दी है कि राजदरबार थाई समाज और राजनीति का अभिन्न और सम्माननीय हिस्सा है और वो इसके खिलाफ कभी नहीं जाएंगे. पिछले कई महीनों के घटनाक्रम और जनता की बढ़ती नाराजगी से साफ है कि देर सेबर राजा को सामने आना ही पड़ेगा. साथ ही यह भी तय है की लेसे मेजेस्टे अनुच्छेद भी अब इतिहास का हिस्सा बनेगा. राजा की तर्कसंगत आलोचना करने की बात कल राजा को भेजी चिट्ठियों में भी साफ थी. इसमें कितना समय और संघर्ष और लगेगा, यह कहना मुश्किल है. फिलहाल यह साफ है जोर जबरदस्ती और विपक्ष का मुंह बंद करके प्रयुथ सत्ता में ज्यादा दिन नहीं रह पाएंगे. उनके पास अभी भी शांतिपूर्वक ढंग से विवादों को सुलझाने और बिना सत्ता छोड़े सुशासन लाने का मौका है. यह और बात है कि सत्ता के नशे में चूर तानाशाह इन मौकों को यूं ही गवां देते हैं और उनकी गल्तियों की सजा पूरा देश भुगतता है.(dw.com)
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
चुनाव के बाद सत्रहवीं बिहार विधानसभा की तस्वीर बता रही है कि सदन में गुलाबी रंग तो और चटक नहीं हो सका, लेकिन दागियों-अमीरों की तादाद जरूर बढ़ गई. इतना ही नहीं यह पिछली बार के मुकाबले थोड़ी और उम्रदराज भी नजर आएगी.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार, की रिपोर्ट-
हाल में हुए चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि बिहार की राजनीति में दबंगों का रुतबा बढ़ता ही जा रहा है. नए सदन में दागियों-अमीरों की संख्या में इजाफा हुआ है. चुनाव के बाद की हालत चुनाव के पहले से बेहतर नहीं हुई है. बात भले ही दागियों से दूर रहने की जाती हो, किंतु मुख्यधारा की किसी भी पार्टी को उनसे कोई परहेज नहीं है. कारण साफ है, राजनीतिक पार्टियों को टिकट देते वक्त केवल अपने प्रत्याशी की येन-केन प्रकारेण विजयी होने की संभावना (विनिबिलिटी) ही दिखती है. सुप्रीम कोर्ट का निर्देश भी इन्हें विचलित नहीं कर सका. बिहार के मतदाता सिर्फ इस बात पर सुकून कर सकते हैं कि पढ़े-लिखे सदस्यों की संख्या भी एक हद तक बढ़ी है. पिछली विधानसभा में जहां 138 सदस्य स्नातक थे वहीं इस बार 2020 में 149 ऐसे विधायक चुने गए हैं.
राजद सबसे दागी तो भाजपा सबसे अमीर
चुनाव परिणामों के विश्लेषण पता चलता है कि नई विधानसभा के 68 प्रतिशत माननीयों के खिलाफ अदालतों में आपराधिक मामले दर्ज हैं. नई विधानसभा में ऐसे सदस्यों की संख्या में दस फीसद का इजाफा हुआ है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट के अनुसार 243 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा के एक और राजद के एक सदस्य को छोड़ चुने गए 241 विधायकों के हलफनामे के अनुसार 163 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं जिनमें 51 प्रतिशत यानी करीब 123 पर हत्या, अपहरण, हत्या के प्रयास या महिलाओं के प्रति अपराध जैसे गंभीर आरोप हैं. इनमें 19 पर हत्या, 31 पर हत्या की कोशिश तथा आठ पर महिलाओं के प्रति अपराध का मुकदमा लंबित है. पिछले चुनाव यानी 2015 में ऐसे सदस्यों की संख्या 143 यानी 40 फीसद, 2010 में 133 तथा 2005 में 100 थी. 2020 की स्थिति की 2015 से तुलना में इनकी संख्या में 11 प्रतिशत का इजाफा यह बताने को काफी है कि राजनीति में ऐसे तत्वों की धमक बढ़ती ही जा रही है.
नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी ने की एक दूसरे की मदद
अगर दागी विधायकों की दलगत उपस्थिति को देखें तो राजद इसमें सबसे आगे दिखता है. इसके चुने गए सदस्यों में 73 फीसद यानी 44 ऐसे ही विधायक हैं. वहीं भाजपा के 47, जदयू के 20, कांग्रेस के 10 तथा सीपीआई (एमएल) के आठ चुने गए सदस्यों का क्रिमिनल रिकॉर्ड है. अहम यह है कि असदुद्दीन ओवैसी की एएमआइएमआइएम पार्टी के चुने गए सभी पांच विधायकों के खिलाफ भी आपराधिक मामले दर्ज हैं. असलहा धारकों के संदर्भ में देखें तो नए चुने गए विधायकों में 48 इसके शौकीन हैं. यह सुखद है कि ऐसे माननीयों की संख्या में कमी आई है. 2015 की विधानसभा में 63 ऐसे सदस्य थे जिनके पास आग्नेयास्त्रों के लाइसेंस थे. इस बार चुने गए विधायकों में असलहों के सबसे ज्यादा शौकीन भाजपा के 21 विधायक हैं जबकि राजद में इनकी संख्या 15 और जदयू में सात है.
अगर धनबलियों की बात करें तो इनकी संख्या में भी खासी बढ़ोतरी हुई है. सोलहवीं विधानसभा में 162 यानी 67 प्रतिशत ऐसे सदस्य थे जिनकी संपत्ति एक करोड़ से अधिक थी. थोड़ा और पीछे देखें तो 2010 में 44 तो 2005 में मात्र आठ विधायक ही करोड़पति थे. जबकि इस बार इनकी संख्या 194 यानी करीब 81 फीसद हो गई. भाजपा इसमें अव्वल दिखती है. भाजपा के सर्वाधिक 89, जदयू के 88, राजद के 87 तथा कांग्रेस के 74 प्रतिशत सदस्यों की संपत्ति एक करोड़ या उससे अधिक है. अर्थात भाजपा के विजयी हुए 74 सदस्यों में 66, जदयू के 43 में 37, राजद के 75 में 62 व कांग्रेस के 19 में 15 करोड़पति हैं. विधायकों की औसत संपत्ति भी इस बार बढक़र 4.32 करोड़ हो गई है. इस बार राजद के टिकट पर पटना के मोकामा से चुने गए अनंत सिंह ऐसे माननीय हैं जो सबसे अधिक दागी और सबसे बड़े करोड़पति हैं. इनके खिलाफ हत्या, अपहरण व आर्म्स एक्ट के 38 मामले दर्ज हैं. वहीं ये 68 करोड़ से अधिक की संपत्ति के स्वामी हैं.
आधी आबादी को अपेक्षित सफलता नहीं
राज्य में स्थानीय निकायों में पचास प्रतिशत आरक्षण मिलने के बाद राजनीति में आधी आबादी की धमक बढ़ी है. एक ओर वे जहां बढ़-चढ़कर मतदान में हिस्सा ले रहीं हैं वहीं अन्य वैधानिक संस्थाओं में उनकी दमदार उपस्थिति दर्ज हुई है. यही वजह रही कि विधानसभा चुनाव की उम्मीदवारी में भी इनकी हिस्सेदारी बढ़ी. भले ही प्रमुख राजनीतिक दलों ने 33 फीसदी महिलाओं को पार्टी की उम्मीदवारी देने की हिम्मेत न दिखाई हो, इस बार पार्टियों ने महिलाओं को टिकट देने में पहले से ज्यादा उदारता दिखाई. करीब पंद्रह दलों ने 370 महिलाओं को मैदान में उतारा.
2010 में हुए विधानसभा चुनाव में 307 मैदान में थीं जिनमें 34 विधायक बनने में कामयाब रहीं. वहीं 2015 में चुनाव लड़ रहीं 273 महिलाओं में से 28 को जीत हासिल हुई. जाहिर है, समय के साथ इनकी संख्या में बढ़ोतरी हुई. किंतु 2015 की तुलना में इस बार आधी आबादी की स्ट्राइक रेट में डेढ़ फीसद की कमी आ गई. तात्पर्य यह कि 2020 के विधानसभा चुनाव में 25 महिलाएं ही विजयी हो सकीं. इस बार महिलाओं को सबसे ज्यादा टिकट जदयू ने दिया था. जदयू ने 22, भाजपा ने 13, राजद ने 16, कांग्रेस ने सात व लोजपा ने सर्वाधिक 23 महिलाओं को मैदान में उतारा था. इस बार के चुनाव में जदयू की आठ, भाजपा की छह, राजद की सात, कांग्रेस की दो तथा वीआइपी व हम की एक-एक महिला उम्मीदवार ही कामयाब हो सकीं. जाहिर है आधी आबादी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली.
नए चेहरों व शिक्षितों पर बढ़ा भरोसा
इस साल के विधानसभा चुनाव में कई पार्टियों ने अपने सीटिंग विधायक को बदल दिया. उनकी जगह नए चेहरे को तवज्जो दी गई. हालांकि, यही वजह रही कि इस बार बागियों की संख्या में खासा इजाफा हो गया. कमोबेश सभी पार्टियों को बागियों का सामना करना पड़ा और इन्हीं बागियों को तवज्जो दे लोजपा ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया और यह भाजपा व जदयू के लिए नुकसानदेह भी साबित हुआ. वैसे इस बार 95 ऐसे चेहरे हैं जो पहली बार विधानसभा की देहरी पर कदम रखेंगे. इनमें सर्वाधिक 35 सदस्य राजद के हैं. राजद ने अपने 144 प्रत्याशियों में 63 नए लोगों को टिकट दिया था. इसी तरह जदयू के 12, भाकपा-माले के आठ व भाजपा के 22 नए चेहरे विधानसभा में नजर आएंगे. इनमें से कई ऐसे हैं जिन्होंने दिग्गजों को पटखनी दी. एक बात और, नई विधानसभा में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे माननीय नजर आएंगे. पिछले परिणामों को देखें तो 2005 में जहां 110 शिक्षित विधानसभा तक पहुंचे थे तो वहीं 2020 में ऐसे लोगों की संख्या 149 हो गई है.
इस बार 22 पीएचडी, तीन डॉक्टर, तीन एमबीए, तीन लॉ डिग्रीधारी तथा 76 स्नातक विधानसभा के लिए चुने गए. पीएचडी धारकों में दीघा (पटना) से भाजपा के संजीव चौरसिया, फतुहा (पटना) से राजद के रामानंद यादव व पालीगंज (पटना) विधानसभा क्षेत्र से भाकपा-माले के संदीप सौरभ शामिल हैं. आयु के हिसाब से देखें तो पिछली बार जहां 49 विधायक 61 से 70 वर्ष की आयु के थे वहीं इस बार यह संख्या बढ़कर 58 हो गई है. प्रतिशत के तौर पर आकलन करें तो 40 से 60 आयु वर्ग के विधायकों की संख्या 61.72 प्रतिशत है. लोकतंत्र में हरेक नागरिक को चुनाव लड़ने का अधिकार है. इसी तरह किसी को अपने फायदे के लिए वोटरों को किसी भी रूप में प्रभावित करने का अधिकार नहीं है. लेकिन चुनाव नतीजे यही बताते हैं कि हाल के चुनावों में धन व बाहु बल दोनों की भूमिका रही है.(dw.com)
कुछ लोग परंपरा की दुहाई देकर दीपावली में आतिशबाजी का बहाना ढूंढ रहे हैं तो कुछ दूसरे पटाखे न चलाने की दुहाई दे रहे हैं. त्योहार मजेदार तरीके से मनाने के और भी तरीके हैं जिनसे परंपरा भी निभेगी और सेहत भी नहीं बिगड़ेगी.
डॉयचे वैले पर हृदयेश जोशी की रिपोर्ट-
देश के ज्यादातर हिस्सों में, खासतौर से उत्तर भारत में पिछले दो हफ्तों से एयर क्वालिटी इंडेक्स बहुत खराब है और कई इलाकों में एक्यूआई 700 के पार चला गया. लोगों को आंखों में जलन और सांस लेने में दिक्कत महसूस हो रही है और डॉक्टरों का कहना है कि दमे के मरीज आईसीयू में पहुंच रहे हैं. अब संकट यह है कि प्रदूषित होती हवा अन्य बीमारियों के साथ कोरोना के खतरे को भी बढ़ा रही है. ऐसे में जहां नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने आतिशबाजी पर रोक लगाई है वहीं कई राज्यों की सरकारें सेहत और राजनीति के बीच झूलती दिख रही है.
क्या पटाखों से ही बढ़ता है वायु प्रदूषण
इसमें कोई शक नहीं कि कई लोग आतिशबाजी का मजा लेने के लिए दीपावली का इंतजार करते हैं. खासतौर से बच्चों में यह जुनून अधिक होता है. इसलिए अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि क्या सिर्फ आतिशबाजी से ही प्रदूषण होता है और अगर ऐसा है तो साल के बाकी दिन होने वाले प्रदूषण का क्या. यह तर्क सही है कि सिर्फ पटाखों से ही वायु प्रदूषण नहीं होता. उसकी और भी वजहें हैं, लेकिन यह भी सही है कि दीवाली की रात और अगली सुबह हवा में ज्यादातर प्रदूषण पटाखों की वजह से ही होती है.
दियों का कारोबार
पटाखे हवा को स्वास्थ्य के लिए अधिक घातक बनाते हैं. इनमें सल्फर, कार्बन और कई ऐसे रसायन होते हैं जो आंखों और फेफड़ों के लिये खतरनाक हैं. आतिशबाजी के साथ हवा में धातुओं के बारीक कण भी मिल जाते हैं जो सांस के साथ फेफड़ों में जाते हैं और वहां से रक्त नलिकाओं में पहुंच जाते हैं. साइंस पत्रिका चेस्ट जर्नल में छपे शोध के मुताबिक वायु प्रदूषण शरीर के हर अंग को नुकसान पहुंचा सकता है.

पटाखों से कोरोना का खतरा
एक यूरोपीय शोध के अनुसार कोरोना के कारण होने वाली 15% मौतों के लिये पीछे वायु प्रदूषण एक वजह हो सकती है. इसी हफ्ते भारत के सबसे बड़े मेडिकल संस्थान एम्स के निदेशक रणदीप गुलेरिया ने भी दोहराया कि प्रदूषण कोविड के मामले तेजी से बढ़ा सकता है. गुलेरिया ने कहा कि जब भी एयर क्वालिटी बिगड़ती है तो उसके बाद बच्चों और वयस्कों की इमरजेंसी में भर्ती बढ़ जाती है. जाहिर है प्रदूषण का बढ़ता स्तर उन लोगों को खतरे में डालेगा जो पहले से दमे के मरीज हैं और जिनकी प्रतिरोधक क्षमता कम है.
सेहत और राजनीति का घालमेल
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने वायु प्रदूषण के आपातकालीन स्तर को देखते हुये पटाखों पर पाबंदी लगा दी. लेकिन कई राज्य सरकारें इसे लेकर असमंजस में दिख रही है. वह लोगों की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहते. हरियाणा सरकार ने पहले पटाखों पर पाबंदी लगाई और फिर दो घंटे के लिए आतिशबाजी की छूट दे दी. उधर कर्नाटक सरकार ने पटाखों पर पाबंदी के ऐलान के कुछ घंटों बाद ही ‘ग्रीन क्रेकर्स' की इजाजत दे दी. यूपी ने एनसीआर क्षेत्र के साथ लखनऊ, कानपुर और आगरा जैसे शहरों में पटाखे जलाने पर रोक लगाई लेकिन जहां ‘मॉडरेट' और ‘बैटर' हो वहां पटाखे जलाने की इजाजत दी है.
महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे ने लोगों से अपील की है कि वह स्वास्थ्य और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए आतिशबाजी न करें हालांकि मुंबई में बीएमसी ने मुंबई म्युनिस्पल कॉर्पोरेशन की सीमाओं के भीतर पटाखे जलाने पर पाबंदी लगाई है. साफ है कि नेता स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने की इच्छा शक्ति नहीं दिखा रहे और इन हालातों में भी राजनीतिक फिक्र हावी है.
दीपावली मनाने के बेहतर तरीके
वैसे दीपावली में मौजमस्ती और पर्व को सुखद बनाने के कई पारंपरिक तरीके हैं. परिवार और दोस्तों से मिलना, दिये जलाना, रंगोली बनाना, अच्छा भोजन और प्रियजनों को उपहार. आप दीवाली के दिन अपनी या दोस्तों की पसंदीदा डिश बना सकते हैं और बच्चों को रोशनी दिखाने के लिये वॉक पर ले जा सकते हैं. दिल्ली सरकार ने पटाखों पर पाबंदी लगाई है.
अब इसका कितना पालन हो पाएगा ये तो शनिवार को पता चलेगा लेकिन मुख्यमंत्री केजरीवाल के मंत्री दीवाली पर अक्षरधाम मंदिर में लक्ष्मी पूजा कर रहे हैं. पिछले साल दिल्ली सरकार ने जनता के मनोरंजन के लिए दीवाली पर लेजर शो का आयोजन कराया था. इस साल लेजर शो नहीं है लेकिन अपनी सेहत के लिए क्या बेहतर है आप अच्छी तरह जानते हैं.(dw.com)
दरअसल एलजेपी को एक राज्यसभा सीट देने का फै़सला लोकसभा चुनाव के दौरान ‘सीट शेयरिंग फॉर्मूले’ के तहत तय हुआ था।
लोकसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू दोनों 17 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और एलजेपी ने 6 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। साथ ही राज्यसभा की एक सीट एलजेपी के खाते में देने के लिए बीजेपी-जेडीयू तैयार हुए थे।
अगर आने वाले दिनों में रामविलास पासवान वाली ख़ाली राज्य सभा सीट पर हुए उपचुनाव में पार्टी एलजेपी के उम्मीदवार को नहीं उतारेगी तो ये उस फॉर्मूले का उल्लंघन होगा।
बिहार चुनाव के नतीजों के बाद, दिल्ली के 12 जनपथ वाले बंगले की चर्चा राजनीतिक गलियारों में खूब हो रही है।
12 जनपथ बंगला वर्षों से एलजेपी नेता रामविलास पासवान के नाम पर था। वे 9 बार सांसद रहे और केंद्र में मंत्री भी थे। इस नाते इतना बड़ा बंगला उन्हें मिला हुआ था। लेकिन अगर चिराग पासवान को केंद्र में पिता वाला मंत्री पद नहीं मिलता है तो 12 जनपथ बंगले से हाथ धोना पड़ सकता है।
यानी 12 जनपथ बंगले और चिराग दोनों की किस्मत केंद्र में एनडीए सरकार के साथ से जुड़ी है। इसलिए ये सवाल और भी अहम हो जाता है कि चिराग केंद्र की एनडीए सरकार में बने रहेंगे या फिर चले जाएँगे?
वैसे ये बात किसी से छुपी नहीं है कि नीतीश कुमार बिहार चुनाव के नतीजों के बाद से चिराग से कितने नाराज़ हैं। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर किसी से इस बारे में भले ही न कहा हो, लेकिन अलग अलग मंच पर पार्टी के नेताओं ने इस बारे में ज़रूर कहा है।
चर्चा है कि नतीजे आने के घंटों बाद तक नीतीश कुमार और जेडीयू खेमे में चिराग की वजह से ही खामोशी छाई थी। पार्टी के नेता चाहते हैं कि चिराग को बीजेपी की तरफ़ से सख़्त संदेश दिया जाए।
एलजेपी को केंद्र से भी बाहर का रास्ता?
आखिर वो सख्त संदेश क्या होगा और कैसे दिया जाएगा?
एक विकल्प हो सकता है कि बिहार में सरकार बनने से पहले या तुरंत बाद, घोषणा कर दी जाए कि, चूँकि चिराग ने एनडीए के मुख्यमंत्री पद के दावेदार नीतीश कुमार का ख़ुलकर विरोध किया, इसलिए केंद्र में एनडीए से उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है।
ऐसा करके नीतीश कुमार के ग़ुस्से को बीजेपी थोड़ा शांत कर सकती है और चिराग को संदेश भी मिल जाएगा। लेकिन इस तरीके से सख़्त संदेश देने पर बीजेपी में थोड़ी हिचकिचाहट दिख रही है।
केंद्रीय मंत्री और बिहार के बीजेपी के बड़े नेता रविशंकर प्रसाद ने एक टीवी चैनल पर साक्षात्कार में कहा, ‘एलजेपी, राष्ट्रीय पार्टी तो है नहीं। एक बिहार बेस्ड पार्टी है। चिराग ने बिहार में एनडीए गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार नीतीश कुमार का खुला विरोध किया। इसलिए ये उन्हें तय करना है कि उनको आगे क्या करना है। लेकिन एक बात साफ़ है बीजेपी अपने गठबंधन के साथियों को ख़ुद नहीं भगाती। चाहे शिवसेना हो या फिर अकाली दल दोनों हमसे ख़ुद अलग हुए। ऐसे में चिराग को पिता वाला ख़ाली मंत्री पद मिलेगा या नहीं या वो ख़ुद एनडीए से केंद्र में अगल हो जाएँगे, ये मामला ऊपर के स्तर पर तय होगा।’
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह के मुताबिक़ नीतीश कुमार भी इस तरीके से चिराग के विरुद्ध जाना नहीं चाहेंगे। बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘नीतीश कुमार, चिराग पासवान की वजह से ग़ुस्से में ज़रूर हैं। लेकिन ‘बदले वाली डिश’को गर्म खा कर मुँह जलाने वाली ग़लती नीतीश नहीं करेंगे। वो अनुभवी नेता हैं। खाना ठंडा करके ही खाना पसंद करेंगे।’
दूसरी तरफ़ बीजेपी भी बिहार में ऐसा कुछ नहीं करेगी की नीतीश कुमार नाराज़ हों। बिहार में बीजेपी का लॉन्ग टर्म एजेंडा हैं अति पिछड़ों को पार्टी के साथ जोडऩा। उनके इस एजेंडे में चिराग पासवान से ज़्यादा नीतीश कुमार उनको सूट करते हैं।’
बीजेपी और नीतीश के लिए ‘पासवान’ वोट के मायने
बिहार में ‘पासवान’ जाति का 4-5 फ़ीसद वोट हैं।
सीएसडीएस लोकनीति के सर्वे के मुताबक़ि इस बार के चुनाव में ‘पासवान’ का 32 फ़ीसद वोट एलजेपी को मिला, 17 फीसद एनडीए को मिला और 22 फीसद महागठबंधन को मिला।
चुनाव में चिराग पासवान भले एक ही सीट जीत पाएँ हों, पर वोट शेयर 5 फीसद से भी थोड़ा ज़्यादा ही रहा। साल 2000 में एलजेपी के गठन के बाद से बिहार चुनाव 2020 से पहले तक उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 12 फीसद वोट शेयर का रहा था। इतना ही नहीं, उनका थोड़ा प्रभाव दूसरी दलित जातियों पर भी पड़ा।
लिहाजा बीजेपी और नीतीश नहीं चाहेंगे कि सीधे तौर पर चिराग पासवान को केंद्र में एनडीए से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए।
बीजेपी चिराग के बजाए उनके ‘पासवान’ वोट बैंक को साथ रखने की कोशिश करेगी, ताकि उन्हें ये समझाया जा सके कि आपके नेता ने ग़लती की है, वो ज़्यादा महत्वकांक्षी हो गए। उसके लिए उनके वोटर को सज़ा देना सही नहीं है।
प्रदीप सिंह कहते हैं कि बहुत मुमकिन है कि ऐसा करने पर एलजेपी में दरार पड़ जाए और पार्टी ही टूट जाए। कुछ नेता बीजेपी के समर्थन में खुल कर सामने आ जाएँ।
शायद इस बात का अहसास चिराग पासवान को भी है। और इसलिए पूरे चुनाव में वो ख़ुद को मोदी का हनुमान बताते रहे।
राम विलास पासवान के न रहने पर चिराग पासवान के लिए अकेले पार्टी को चलाना और एकजुट रखना सबसे बड़ी चुनौती है।
लेकिन सीएसडीएस के संजय कुमार दूसरी बात कहते हैं। बीबीसी से उन्होंने कहा, ‘पासवान या नीतीश? अगर सवाल इस पर आ जाए तो बीजेपी जाहिर है कि नीतीश के साथ ही जाएगी। नीतीश कुमार का जनाधार भी चिराग पासवान से कहीं ज़्यादा है। 6 सांसदों के साथ एलजेपी के साथ जाना कोई समझदारी वाला फैसला नहीं होगा।’
वे कहते हैं, ‘पॉलिटिकल प्रोमिनेंस की बात करें तो बीजेपी को चिराग पासवान को साथ रखना चाहिए। नीतीश कुमार बीजेपी पर किसी भी वक़्त हावी हो सकते हैं , लेकिन चिराग का हावी होना थोड़ा मुश्किल होगा। बड़े परिपेक्ष में देखें तो चिराग बीजेपी के लिए एक दलित चेहरे के तौर पर काम कर सकते हैं।’
एलजेपी का मंत्रीपद
चिराग को ना मिले
एलजेपी को सख्त संकेत देने का एक तरीका ये भी हो सकता है कि राम विलास पासवान के निधन के बाद, केंद्र में एलजेपी के कोटे का एक खाली पड़ा मंत्री पद बीजेपी चाहे तो एलजेपी को न दे।
डेढ़ साल पहले केंद्र में एनडीए की सरकार बनी। उनके दो पार्टनर शिवसेना और अकाली दल बाद में उससे अलग हो गए। हाल ही में रामविलास पासवान का निधन हो गया। इन वजहों से केंद्र में कई मंत्री पद ख़ाली पड़े हैं।
बिहार चुनाव के बाद इन मंत्री पदों को भरने के लिए मंत्रिमंडल विस्तार की चर्चा काफ़ी दिनों से चल रही है।
ऐसे में एक संभावना ये बनती दिख रही है कि नीतीश की नाराजग़ी को दूर करने के लिए रामविलास पासवान की खाली जगह चिराग को या पार्टी के दूसरे सांसद को न देकर बीजेपी के किसी नेता को दे दिया जाए।
जानकार इस संभावना से भी इंकार नहीं करते कि जेडीयू, जो अब तक केंद्र में सरकार में शामिल नहीं है उनके कोटे से कोई मंत्री बन जाए।
दोनों ही सूरत में एलजेपी को बिना कुछ कहे एक संदेश मिल जाएगा कि बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ जाने की सज़ा उन्हें केंद्र में मंत्री पद गंवा कर मिली है।
प्रदीप सिंह कहते हैं कि इस बात की संभावना ज़्यादा है कि चिराग को केंद्र में मंत्री पद न मिले। ऐसा करके बीजेपी नीतीश कुमार को थोड़ा ‘कम्फर्ट ज़ोन’ में ले जाने की कोशिश कर सकती है। इससे चिराग भी एनडीए का दामन छोडऩे के लिए मजबूर हो जाएंगे।
इस बात का इशारा ख़ुद रविशंकर प्रसाद टीवी चर्चा में दे चुके हैं।
रामविलास पासवान वाली राज्यसभा सीट भी गंवा सकते हैं चिराग?
प्रदीप सिंह एक तीसरे तरीके की भी बात करते हैं। उनके मुताबिक़ अगर नीतीश थोड़ा और इंतज़ार करने के मूड में हों तो हो सकता है रामविलास पासवान वाली राज्य सभा सीट के लिए जब उपचुनाव हों तो भी उम्मीदवार एलजेपी का न उतारा जाए।
दरअसल एलजेपी को एक राज्यसभा सीट देने का फै़सला लोकसभा चुनाव के दौरान ‘सीट शेयरिंग फॉर्मूले’ के तहत तय हुआ था।
लोकसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू दोनों 17 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और एलजेपी ने 6 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। साथ ही राज्यसभा की एक सीट एलजेपी के खाते में देने के लिए बीजेपी-जेडीयू तैयार हुए थे।
अगर आने वाले दिनों में रामविलास पासवान वाली ख़ाली राज्य सभा सीट पर हुए उपचुनाव में पार्टी एलजेपी के उम्मीदवार को नहीं उतारेगी तो ये उस फॉर्मूले का उल्लंघन होगा। (bbc.com/hindi)
लेकिन ऐसा करके बीजेपी चिराग पासवान को इतना मजबूर कर सकती है कि वो ख़ुद ही एनडीए से बाहर हो जाएँ। (बीबीसी)
-गिरीश मालवीय
जो सेक्टर कोरोना काल में सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है उसके लिए अब कुछ भी नहीं किया गया वो है हॉस्पिटैलिटी सेक्टर और टूर एवं ट्रेवल बिजनस।
हर शहर में सैकड़ों की संख्या में होटल-रेस्टोरेंट पर परमानेंट रूप से ताले लटक गए हैं, टूर-ट्रेवल्स वाले की हालत तो इतनी बुरी है कि कई लोग आत्महत्या करने की कगार पर है।
इन दोनों सेक्टर में काम करने वाले लोगों की हालत अन्य व्यापार की अपेक्षा बहुत ही ज्यादा खस्ता हैै। कई प्रतिष्ठानों तो मार्च से अब तक खुले ही नहीं हैं। बिजली के बिलों में भी लॉकडाउन के दौरान कोई छूट नहीं मिली है।
यहाँ काम करने वाले लोगों की सैलेरी का अब तक कोई ठिकाना नहीं है। कई जगह आधी सेलरी मिल रही है। कई सेलेरिड लोगो के वाहन बिक गए तो कई बैंक की किश्तें ही जमा नहीं करवा सके। बच्चों की स्कूल फीस तो जमा कराने की बात छोड़ ही दीजिए।
देश में होटल, रेस्टोरेंट तथा अन्य आतिथ्य सत्कार उद्योग की शीर्ष संस्था फेडरेशन ऑफ होटल एंड रेस्टोरेंट एसोसिएशन ऑफ इंडिया (स्न॥क्र्रढ्ढ) के अपाध्यक्ष गुरूबख्शीश सिंह कोहली का कहना है कि पिछले साल इन दिनों में जिन स्थानों पर होटल फद्दल चलते थे, ऐसी जगहों पर इस साल होटल के कमरे की बुकिंग औसतन 15 से 25 फीसदी ही हुई है।
एफएचआरएआई का मानना है कि अगर एक-दो महीने और ऐसे ही हालात रहे तो इंडस्ट्री के लिए आगे कामकाज कर पाना बहुत मुश्किल हो जायेगा। एसोसिएशन सरकार से अपील करती आ रही है कि उन्हें भी कद्दछ मदद मिले। जैसे लोन्स की रिस्ट्रक्चरिंग, हॉस्पिटेलिटी सेक्टर के लिए आसान रूप से लोन्स की सुविधा आदि। इन दिनों होटल और रेस्टोरेंटों में ग्राहकी नहीं रहने से होटल मालिकों के लिए कर्मचारियों का वेतन और दूसरे खर्च भी निकालना मुश्किल हो रहा है।
इन लोगों को सरकार से उम्मीद थी कि सरकार तीसरे पैकेज की घोषणा करते वक्त उनके लिए कद्दछ अलग योजना निकालेगी लेकिन कल जो राहत पैकेज दिया गया है उसमें भी इस सेक्टर के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत-चीन तनाव खत्म होने के संकेत मिलने लगे हैं। अभी दोनों तरफ की सेनाओं ने पीछे हटना शुरु नहीं किया है लेकिन दोनों इस बात पर सहमत हो गई हैं कि मार्च-अप्रैल में वे जहां थीं, वहीं वापस चली जाएंगी। उनका वापस जाना भी आज-कल में ही शुरु होनेवाला है। तीन दिन में 30-30 प्रतिशत सैनिक हटेंगे। जितने उनके हटेंगे, उतने ही हमारे भी हटेंगे। उन्होंने पिछले चार-छह माह में लद्दाख सीमांत पर हजारों नए सैनिक डटा दिए हैं।
चीन ने तोपों, टैंकों और जहाजों का भी इंतजाम कर लिया है लेकिन चीनी फौजियों को लद्दाख की ठंड ने परेशान करके रख दिया है। 15000 फुट की ऊंचाई पर महिनों तक टिके रहना खतरे से खाली नहीं है। भारतीय फौजी तो पहले से ही अभ्यस्त हैं। आठ बार के लंबे संवाद के बाद दोनों तरफ के जनरलों के बीच यह जो सहमति हुई है, उसके पीछे दो बड़े कारण और भी हैं। एक तो चीनी कंपनियों पर लगे भारतीय प्रतिबंधों और व्यापारिक बहिष्कार ने चीनी सरकार पर पीछे हटने के लिए दबाव बनाया है। दूसरा, ट्रंप प्रशासन ने चीन से चल रहे अपने झगड़े के कारण उसे भारत पर हमलावर कहकर सारी दुनिया में बदनाम कर दिया है। अब अमेरिका के नए बाइडन-प्रशासन से तनाव कम करने में यह तथ्य चीन की मदद करेगा कि भारत से उसका समझौता हो गया है। लद्दाख की एक मुठभेड़ में हमारे 20 जवान और चीन के भी कुछ सैनिक जरुर मारे गए लेकिन यह घटना स्थानीय और तात्कालिक बनकर रह गई। दोनों सेनाओं में युद्ध-जैसी स्थिति नहीं बनी, हालांकि हमारे अनाड़ी टीवी चैनल और चीन का फूहड़ अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ इसकी बहुत कोशिश करता रहा लेकिन मैं भारत और चीन के नेताओं की इस मामले में सराहना करना चाहता हूं। उन्होंने एक-दूसरे के खिलाफ नाम लेकर कोई आपत्तिजनक या भडक़ाऊ बयान नहीं दिए। हमारे प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री ने चीनी अतिक्रमण पर अपना क्रोध जरुर व्यक्त किया लेकिन कभी चीन का नाम तक नहीं लिया।
चीन के नेताओं ने भी भारत के गुस्से पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। दोनों देशों की जनता चाहे ऊपरी प्रचार की फिसलपट्टी पर फिसलती रही हो, लेकिन दोनों देशों के नेताओं के संयम को ही इस समझौते का श्रेय मिलना चाहिए। सच्चाई तो यह है कि भारत और चीन मिलकर काम करें तो इक्कीसवीं सदी निश्चित रुप से एशियाई सदी बन सकती है। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत चीन से बेखबर हो जाए। दोनों देशों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा जरुर चलती रहेगी लेकिन वह प्रतिशोध और प्रतिहिंसा का रुप न ले ले, यह देखना जरुरी है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-आमिर अंसारी
पिछले कई महीनों से भारत और चीन के बीच एलओसी के मुद्दे पर तनाव बना हुआ है और इस मुद्दे को सुलझाने के लिए कई दौर की बातचीत भी हो चुकी है. इस बीच रूस ने भारत और चीन के बीच जारी तनाव पर चिंता जताते हुए कहा है कि तनाव बढ़ने से यूरेशिया में क्षेत्रीय अस्थिरता और बढ़ेगी और अन्य देश इस टकराव का अपने भू-राजनीतिक मकसद के लिए गलत इस्तेमाल कर सकते हैं.
गुरुवार को पत्रकारों से बात करते हुए रूसी मिशन के उप-प्रमुख रोमन बाबुश्किन ने कहा कि दो एशियाई शक्तियों के बीच तनाव से रूस स्वाभाविक रूप से चिंतित है. उन्होंने कहा, "एलएसी पर जारी तनाव का शांतिपूर्ण समाधान बिना देर किए जरूरी है." उन्होंने इस बात के भी संकेत भी दिए कि रूस बैक चैनल वार्ता का इस्तेमाल तनाव कम करने के लिए कर सकता है.
उन्होंने आगे कहा, "रूस एक विशिष्ट स्थिति में है क्योंकि उसके संबंध दोनों चीन और भारत के साथ विशेष और रणनीतिक रूप से अहम हैं और यह संबंध स्वभाव से स्वतंत्र है. हम स्वाभाविक रूप से भारत-चीन के मौजूदा तनाव से चिंतित हैं."
भारत और चीन के शंघाई सहयोग संगठन और ब्रिक्स का सदस्य होने का संदर्भ देते हुए बाबुश्किन ने कहा जब बहुपक्षीय मंच पर सहयोग की बात आती है तो सम्मानजनक संवाद ही प्रमुख हथियार होता है. साथ ही बाबुश्किन ने कहा है कि रूस सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलें एस-400 भारत को जल्द सप्लाई करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है. इस हथियार प्रणाली की पहली खेप की आपूर्ति अगले साल के अंत तक होनी है.
उन्होंने एस-400 सौदे के बारे में कहा, "फिलहाल समय सीमा में कोई बदलाव नहीं हुआ है. पहली खेप की आपूर्ति 2021 के अंत तक होने की उम्मीद है लेकिन हम उस आपूर्ति के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं."
गौरतलब है भारत ने ट्रंप प्रशासन की चेतावनी के बावजूद अक्टूबर 2018 में एस-400 मिसाइल प्रणालियों की पांच इकाइयों को खरीदने के लिए रूस के साथ पांच अरब डॉलर के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. रूस ने ऐसा ही एक समझौता नाटो के सदस्य तुर्की के साथ भी किया है.(DW.COM)


