विचार/लेख
स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने अपने ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला दर्ज होने के बाद देश के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल के नाम एक संदेश जारी किया है.
उन्होंने शुक्रवार को ट्विटर पर बयान जारी करके बताया कि वो इस मामले में न तो माफ़ी माँगेंगे और न ही अदालत में अपना पक्ष रखने के लिए कोई वकील रखेंगे.
अटॉर्नी जनरल के.के वेणुगोपाल ने ही सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ कथित अपमानजनक ट्वीट करने के लिए उन पर न्यायालय की अवमानना का मामला चलाने की अनुमति दी थी.
कामरा ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स पर विस्तृत बयान जारी किया.
मैंने हाल ही में जो ट्वीट किए थे उन्हें न्यायालय की अवमानना वाला माना गया है. मैंने जो भी ट्वीट किए वो सुप्रीम कोर्ट के उस पक्षपातपूर्ण फ़ैसले के बारे में मेरे विचार थे जो अदालत ने प्राइम टाइम लाउडस्पीकर के लिए दिए थे.
मुझे लगता है कि मुझे मान लेना चाहिए: मुझे अदालत लगाने में और एक संजीदा दर्शकों वाले प्लैटफ़ॉर्म पर आने में मज़ा आता है. सुप्रीम कोर्ट के जजों और देश के सबसे बड़े वकील तो शायद मेरे सबसे वीआईपी दर्शक होंगे. लेकिन मैं ये भी समझता हूँ कि सुप्रीम कोर्ट का एक टाइम स्लॉट मेरे उन सभी एंटरटेनमेंट वेन्यू से अलग और दुर्लभ होगा, जहाँ मैं परफ़ॉर्म करता हूँ.
मेरे विचार बदले नहीं हैं क्योंकि दूसरों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी की आलोचना न हो, ऐसा नहीं हो सकता. मेरा अपने ट्वीट्स को वापस लेने या उनके लिए माफ़ी माँगने का कोई इरादा नहीं है. मेरा यक़ीन है कि मेरे ट्वीट्स ख़ुद अपना पक्ष बख़ूबी रखते हैं.

मैं सुझाना चाहूँगा कि मेरे मामले को जो वक़्त दिया जाएगा (प्रशांत भूषण के खिलाफ़ चले मामले का उदाहरण लें तो कम से कम 20 घंटे) वो दूसरे मामलों और लोगों को दिया जाए. मैं सुझाना चाहूँगा कि ये उन लोगों को दिया जाए जो मेरी तरह कतार तोड़कर आगे आने के लिए पर्याप्त भाग्यशाली नहीं हैं.
क्या मैं सुझा सकता हूँ कि मेरी सुनवाई का वक़्त नोटबंदी की याचिका, जम्मू-कश्मीर का ख़ास दर्जा वापस मिलने को लेकर दायर की गई याचिका और इलक्टोरल बॉन्ड जैसे उन अनगिनत मामलों को दिया जाए, जिन पर ध्यान दिए जाने की ज़्यादा ज़रूरत है.
अगर मैं वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे की बात को थोड़ा घुमाकर कहूँ तो, क्या अगर ज़्यादा महत्वपूर्ण मामलों को मेरा वक़्त दे दिया जाए तो आसमान गिर जाएगा?
वैसे तो भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक मेरे ट्वीट्स को किसी श्रेणी (अवमानना की) में नहीं रखा है लेकिन अगर वो ऐसा करते हैं तो उन्हें अदालत की अवमानना वाला बताने से पहले वो थोड़ा हँस सकते हैं.
कुणाल कामरा के इस ट्वीट को लेकर सोशल मीडिया पर काफ़ी चर्चा है. ट्विटर पर #KunalKamra और #ContemptOfCourt ट्रेंड कर रहे हैं. कुछ लोग कुणाल कामरा के 'बोल्ड' विचारों के लिए उनकी सराहना कर रहे हैं तो कुछ उनका विरोध भी कर रहे हैं.
क्या है मामला?
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ़ अर्नब गोस्वामी को ज़मानत पर तुरंत रिहा करने का आदेश दिया था. इसके बाद कुणाल कामरा ने अपने ट्विटर एकाउंट से सुप्रीम कोर्ट पर कथित अपमानजनक ट्वीट किया था.
इसके बाद अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को आठ से अधिक पत्र मिले थे, जिनमें कामरा के ख़िलाफ़ अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की मांग की गई थी.
ऐसा नहीं है कि कुणाल कामरा पहली बार विवादों में आए हैं.
इस वर्ष जनवरी के महीने में कुणाल कामरा पत्रकार अर्नब गोस्वामी से एक फ़्लाइट में उनकी सीट पर जाकर सवाल पूछते नज़र आए थे. यह वीडियो वायरल हो गया था.
उस वीडियो में अर्नब गोस्वामी कुणाल को नज़रअंदाज़ करते हुए अपने लैपटॉप पर कुछ देखने में व्यस्त दिखते हैं. इस घटना के बाद कुणाल पर इंडिगो ने छह महीने का यात्रा प्रतिबंध लगा दिया था.
कुणाल कामरा सोशल मीडिया पर काफ़ी मुखर होकर सरकार और सरकारी नीतियों की आलोचना करते रहते हैं. (www.bbc.com)
-दीप्ति बथिनी
भारत सरकार ने बुधवार को ऑनलाइन कंटेंट प्रदाता समेत तमाम डिजिटल न्यूज़ प्लेटफ़ॉर्म्स को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत लाने का आदेश जारी किया.
इनमें नेटफ़्लिक्स, हॉटस्टार, अमेज़न प्राइम वीडियो, डिज़्नी-हॉटस्टार, एमएक्स प्लेयर जैसे अन्य ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स और ख़बरे देने वाले डिजिटल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म शामिल हैं.
9 नवंबर को जारी हुए इस सरकारी आदेश के मुताबिक़, भारत सरकार (व्यवसाय का आवंटन) नियम, 1961 में 'ऑनलाइन विषय-वस्तु प्रदाताओं द्वारा उपलब्ध कराए गए फ़िल्म और दृश्य-श्रव्य कार्यक्रमों', साथ ही साथ 'ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स पर समाचार एवं समसामयिक विषय-वस्तु' को शामिल करते हुए संशोधन किया गया है.
इस फ़ैसले से यह सवाल उठने लगे हैं कि ऑनलाइन चलने वाले प्लेटफ़ॉर्म्स (ओवर-द-टॉप या ओटीटी) के साथ-साथ डिजिटल न्यूज़ मीडिया पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा.
हालांकि, अभी ये साफ़ नहीं है कि इसमें सेंसरशिप का तरीक़ा अपनाया जाएगा या किसी और तरह से कंटेंट पर नज़र रखी जाएगी और उसमें बदलाव कराए जाएंगे.
भारत में इस समय मीडिया के लिए एक स्व-नियामक तंत्र मौजूद है - जैसे प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया (एक वैधानिक निकाय) जो प्रिंट मीडिया पर नज़र रखता है.
उसी तरह न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन भी एक स्व-नियामक निकाय है जो न्यूज़ चैनलों पर नज़र रखता है. वहीं एडवर्टाइज़िंग स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ़ इंडिया विज्ञापनों के लिए दिशा-निर्देश जारी करती है, और फ़िल्मों से जुड़े मामलों में चर्चा में रहने वाला 'सीबीएफ़सी' सिनेमाघरों और टीवी पर दिखाई जाने वाली फिल्मों के लिए प्रमाण-पत्र ज़ारी करता है.

इससे जुड़े लोग क्या कहते हैं
एक डिजिटल न्यूज़ प्लेटफ़ॉर्म, द न्यूज़ मिनट की संपादक धन्या राजेंद्रन ने बीबीसी से कहा कि 'सैद्धांतिक तौर पर डिजिटल न्यूज़ को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत लाने में कोई समस्या नहीं है.'
वे कहती हैं, "हमारे अंदर जो संदेह पैदा करता है वो है इस फ़ैसले से पहले हुई घटनाएं, जैसा कि हम जानते हैं कि नियम अचानक नहीं बनाए जाते, उनके पीछे कारण होते हैं.
"केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह बताने में बहुत उत्सुकता दिखाई थी कि वो डिजिटल मीडिया का नियमन करना चाहती है और हाल ही में सरकार ने डिजिटल मीडिया में विदेशी निवेश पर भी सीमा तय कर दी है. इसलिए, मैं उम्मीद करती हूँ कि अगर सरकार डिजिटल मीडिया को नियमित करना चाहती है तो उसे पहले इससे संबंधित पक्षों से चर्चा करनी चाहिए."
धन्या राजेंद्रन हाल ही में बनाये गए 11 डिजिटल न्यूज़ प्रदाताओं के समूह, डिजिपब न्यूज़ इंडिया फ़ाउंडेशन की अध्यक्ष हैं. वे कहती हैं कि इस आदेश में कई बातें अस्पष्ट हैं.
धन्या ने बताया, "कई ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म और डिजिटल साइट्स भारत में संचालित होती हैं, पर भारत में पंजीकृत नहीं हो सकती हैं. मुझे उम्मीद है कि सरकार इस पर भी सोचेगी और डिजिटल उद्योग के विकास में मदद करेगी.''
'यह सेंसर बोर्ड का रूप ना ले ले'
भारतीय डिजिटल स्वतंत्रता संगठन, इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन ने एक बयान जारी कर कहा है कि संभावित नियम और क़ानूनों को लेकर घबराहट का माहौल है.
इस बयान में कहा गया है कि "अब ये खुला सवाल है कि ये या कोई अन्य क़ानूनी उपाय क्या सेंसरशिप का कारण बनेंगे? इसका मक़सद तो फ़ेक न्यूज़ जैसी समस्याओं पर नज़र रखना है, लेकिन उसके नतीजे सरकारी नियंत्रण बढ़ने के तौर पर सामने आ सकते हैं."
भारतीय ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म AHA के संस्थापक और कंटेंट मैनेजमेंट बोर्ड के अध्यक्ष अल्लू अरविंद ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि "ओटीटी प्लेयर्स भी फ़िलहाल इंतज़ार कर रहे हैं और इस पर नज़र बनाये हुए हैं कि चीज़ें किस ओर जाती हैं."
अरविंद को लगता है कि "इसके ज़रिये अगर कंटेंट को सेंसर करने की कोशिश की गई और इन नियमों ने सेंसर बोर्ड की जगह ले ली, तो यह ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स के लिए बहुत ही बुरा होगा."
वे कहते हैं, "अभी नहीं पता है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय इस बारे में क्या सोच रहा है. पर हमें उम्मीद है कि वो सेंसर बोर्ड जैसा कुछ नहीं बनायेंगे. हो सकता है कि वो न्यूडिटी पर लगाम कसने के लिए कुछ प्रतिबंध लागू करें क्योंकि इस वजह से ओटीटी कंटेंट की काफ़ी चर्चा रही है. लॉकडाउन में ऐसी चर्चा भी रही कि यह कंटेट परिवार के लोग साथ बैठकर नहीं देख पाते. पर इससे ज़्यादा कटौती नहीं होनी चाहिए."
इस दौरान, मीडिया लॉ प्रोफ़ेसर मादाभूषि श्रीधर मानते हैं कि 'ये देखना होगा कि सरकार इंटरनेट पर आने वाले कंटेट को नियमित करने के लिए क्या योजना बनाती है.'
सूचना एवं तकनीक नीति के विशेषज्ञों की राय है कि हालांकि इस क़दम से संबंधित पक्षों में खलबली मची हुई है, लेकिन यह देखना होगा कि मंत्रालय कैसे संतुलन बनाता है.
साइबर सुरक्षा क़ानून पर अंतर्राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष पवन दुग्गल ने बीबीसी से बातचीत में कहा, "अब बेलगाम होकर काम करने के दिन ख़त्म हो गए हैं. हमने देखा है कि डिजिटल माध्यम कम से कम नियमन के बीच तेज़ी से वृद्धि करते हैं.''
वे कहते हैं कि 'पारंपरिक मीडिया कई सालों से इस बात को उठा रहा है कि नियामक तंत्र को लेकर पारंपरिक मीडिया और डिजिटल मीडिया के बीच समानता होनी चाहिए.'
पवन दुग्गल कहते हैं, ''इस माँग को पूरा करने के लिए यह नया क़दम उठाया गया है. यह क़दम वास्तव में विनियमन की दिशा में शुरुआत है. वह नियमन क्या होगा, इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं है.'
"हालांकि यह एक दिलचस्प क़दम है, इसका अनुपालन करने में मुश्किल हो सकती है, आदर्श रूप से सरकार फ़ेक न्यूज़ क़ानून की दिशा में आगे बढ़ सकती थी, हालांकि, उन्होंने किसी एक विशेष चुनौती के बजाय पूरे तंत्र को विनियमित करने का विकल्प चुना है."

सुदर्शन टीवी
इस नियम की घोषणा से पहले...
अक्तूबर महीने में ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स को विनियमित करने के लिए दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था.
पेशे से वकील शशांक शेखर झा ने अपनी याचिका में ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स के विनयमित नहीं होने को लेकर चिंता ज़ाहिर की थी.
सुप्रीम कोर्ट में दायर इस जनहित याचिका में कहा गया था कि ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स पर अनुचित और अश्लील सामग्री परोसी जा रही है, लिहाज़ा इन प्लेटफ़ॉर्म्स की निगरानी के लिए किसी स्वायत्त संस्था या बोर्ड का गठन किया जाना चाहिए.
इससे पहले सितंबर महीने में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने सुदर्शन न्यूज़ के 'यूपीएससी जिहाद' कार्यक्रम को लेकर दायर की गई एक याचिका के जवाब में हलफ़नामा दायर किया था.
सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने हलफ़नामे में सरकार ने कहा था कि 'पहले डिजिटल मीडिया का नियमन होना चाहिए, क्योंकि उसकी पहुँच अब टीवी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ज़्यादा है.'
बारह पन्ने के हलफ़नामे में केंद्र सरकार की ओर से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अवर सचिव विजय कौशिक ने लिखा था कि 'सुप्रीम कोर्ट को न्याय-मित्र (एमिकस क्यूरे) या न्याय-मित्रों की एक कमेटी को नियुक्त किये बिना मीडिया में हेट स्पीच के नियमन को लेकर और कोई दिशा-निर्देश नहीं देने चाहिए.'
मंत्रालय ने कहा था कि 'अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा करने का निर्णय लेता है, तो कोर्ट को पहले डिजिटल मीडिया के नियमन से जुड़े दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए, क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के संबंध में पहले से ही पर्याप्त रूपरेखा और न्यायिक घोषणाएं मौजूद हैं.'
केंद्रीय मंत्रालय ने अपने हलफ़नामे में दो पुराने मामलों और साल 2014 और 2018 में आये उनके निर्णयों का ज़िक्र करते हुए यह बताने की कोशिश की थी कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के मामले में हेट स्पीच को लेकर काफ़ी स्पष्टता से उल्लेख मिलता है, मगर डिजिटल मीडिया के मामले में इसकी कमी है.
हलफ़नामे में यह भी कहा गया था कि अगर कोर्ट नियमन के लिए आगे बढ़ता है और कुछ नये दिशा-निर्देश जारी करने का निर्णय लेता है, तो कोई वजह नहीं बनती कि इसे सिर्फ़ मुख्यधारा के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक ही सीमित रखा जाये.
मीडिया में तो मुख्यधारा का प्रिंट मीडिया, एक समानांतर मीडिया अर्थात डिजिटल मीडिया, वेब आधारित न्यूज़ पोर्टल, यू-ट्यूब चैनल और ओटीटी यानी ओवर द टॉप प्लेफ़ॉर्म भी शामिल हैं.
बीते दो साल से ऑनलाइन सामग्री को विनियमित करने का मुद्दा और इसके लिए मंत्रालय तय करने को लेकर चर्चा जारी है.
ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स को विनियमित करने के मुद्दे पर कब-कब क्या क्या हुआ
अक्तूबर 2018 में ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर मौजूद सामग्री को विनियमित करने संबंधी दिशा-निर्देश जारी करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसके बाद कोर्ट ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय से जवाब तलब किया था.
इसके बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने अपने जवाब में कहा था कि यह उनका विवाद है, ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म के लिए सूचना मंत्रालय से लाइसेंस लेना आवश्यक नहीं है. इसी तरह वो अपने प्लेटफ़ॉर्म पर क्या प्रसारित करते हैं, यह भी मंत्रालय विनिमित नहीं करता है.
इलेक्ट्रॉनिक और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने अपने हलफ़नामे में कहा था कि वे इंटरनेट पर मौजूद सामग्री को विनियमित नहीं करते और इंटरनेट पर सामग्री डालने के लिए किसी भी संगठन या प्रतिष्ठान के लिए लाइसेंस देने का कोई प्रावधान नहीं है.
साल 2019 में इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया ने एक स्व-विनियमन कोड की घोषणा की थी.
इस पर नौ ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स - नेटफ़्लिक्स, ज़ी5, ऑल्ट बालाजी, अर्रे, इरोज़ नाऊ, हॉटस्टार, वूट, जियो और सोनालिव ने हस्ताक्षर किए थे.
फ़रवरी 2019 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने नेटफ़्लिक्स-अमेज़न प्राइम वीडियो समेत अन्य ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर दिशा-निर्देशों लागू होने तक पाबंदी लगाने की याचिका ख़ारिज कर दी.
इसके बाद अगस्त 2019 में पीआईबी की ओर से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय सिनेमैटोग्राफ़ अधिनियम के तहत ऑनलाइन सामग्री के प्रमाणन के लिए सुझाव आमंत्रित करता है.
अक्तूबर 2019 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म के अधिकारियों के बीच बैठक हुई, जिसमें यह संकेत मिले कि आने वाले समय में सरकार स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म्स के लिए 'क्या नहीं दिखाना है' की लिस्ट जारी करेगी.
5 फ़रवरी 2020 को इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया ने एक सेल्फ़ रेगुलेटिंग कोड, कोड फ़ॉर सेल्फ़-रेगुलेशन ऑफ़ ऑनलाइन क्यूरेटेड कंटेंट प्रोवाइडर्स की घोषणा की.
इस कोड के तहत हॉटस्टार, वूट, जियो और सोनीलिव ने हस्ताक्षर किये.
इस कोड के तहत इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया सरकार और उपयोगकर्ता की शिकायतों को दूर करने के लिए डिजिटल कंटेंट कम्प्लेंट काउंसिल नाम के एक स्वतंत्र प्रवर्तन प्रधिकरण की स्थापना करना चाहता है.
इसके बाद मार्च 2020 में सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने एक सहायक निकाय का गठन करने के लिए और कोड-कंडक्ट को अंतिम रूप देने लिए ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स को 100 दिन का समय दिया था, लेकिन आईएएमएआई के तहत नियमों का पालन कर रहे स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म्स के बीच आपसी सहमति नहीं थी.
सितंबर 2020 में 15 ओटीटी प्लेयर्स ने सेल्फ़ रेगुलेशन कोड, यूनिवर्सल सेल्फ़ रेगुलेशन कोड पर हस्ताक्षर किये.
आईएएमएआई ने अपने एक बयान में कहा कि कोड में उम्र के वर्गीकरण के लिए फ़्रेमवर्क तय किया गया है.
वहीं इस संदर्भ में भारत सरकार के हालिया फ़ैसले पर काफ़ी चर्चा हो रही है. इस इंडस्ट्री से जुड़े लोग सरकार के इस क़दम के परिणामों को समझने का प्रयास कर रहे हैं.
-रवि प्रकाश
वो खूबसूरत हैं, उनकी भाषा अच्छी है, सलीके से बात करती हैं, तमाम सवालों के जवाब हैं से लबरेज़ हैं, कॉन्फिडेंट हैं, फेमिनिस्ट हैं, खूब पढ़ती हैं और नौकरी करती हैं, घर भी चलाती हैं.
ये नाज़िया नसीम हैं जिन्होंने भारतीय टेलीविजन के चर्चित शो 'कौन बनेगा करोड़पति' (केबीसी) के ताजा सीजन में एक करोड़ रुपये जीते हैं और इसके साथ ही वो इस सीज़न की पहली करोड़पति बन गई हैं.
11 नवंबर की इस घटना ने उनकी जिंदगी बदल दी है और अब वो आम से ख़ास बन चुकी हैं.
10 और 11 नवंबर की रात उनके पूरे परिवार ने केबीसी के वो शो देखे जिसमें नाज़िया शो के होस्ट और भारतीय सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन से मुख़ातिब थीं.
अब वह दिल्ली से रांची आई हैं जहां उनकी अम्मी-अब्बू और परिवार के दूसरे सदस्य रहते हैं. उनका बचपन इसी शहर की गलियों में गुजरा है और इसकी कई यादें उन्हें और सशक्त बनाती हैं.

BBC/RAVI PRAKASH
अपने बेटे के साथ नाज़िया नसीम
नाजिया नसीम ने रांची के उस डीएवी श्यामली स्कूल (अब जवाहर विद्या मंदिर) से पढ़ाई की है, जहां कभी भारतीय क्रिकेट के कैप्टन कूल महेंद्र सिंह धोनी भी पढ़ा करते थे.
बाद के सालों में उन्होंने दिल्ली के प्रतिष्ठित भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) में भी पढ़ाई की. अब वे मोटरसाइकिल बनाने वाली एक नामी कंपनी में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं.
वे दिल्ली में अपने शौहर मोहम्मद शकील और दल साल के बेटे दान्याल के साथ रहती हैं.
केबीसी का सफ़र
नाजिया नसीम अपने केबीसी से जुड़े अनुभव को याद करते हुए कहती हैं, ''मैं पिछले 20 साल से कौन बनेगा करोड़पति में जाना चाहती थी. ख़ुदा का शुक्र है कि मुझे यह मौक़ा मिला.
''मैं सबसे ज़्यादा खुश हुई जब अमिताभ बच्चन ने मुझसे कहा कि 'नाजिया जी, आइ एम प्राउड आफ यू.' (मुझे आप पर गर्व है). यह साल किसी और के लिए खराब होगा. मेरे लिए तो यह साल सबसे अच्छा रहा. ये यादें ताउम्र मेरे साथ रहेंगी.
''मेरी और मेरी अम्मी की ख्वाहिशें पूरी हुई हैं. इसका सारा श्रेय मेरे परिवार को जाता है. जिसने मुझे बाहर निकलने और पढ़ने-बोलने की आजादी दी. खासकर मेरी मां, जिनकी कम उम्र में शादी होने के बावजूद उन्होंने न केवल अपनी पढ़ाई पूरी की बल्कि एक बिजनेस वुमेन भी हैं. वे बुटिक चलाती हैं और आत्मनिर्भर हैं.''

BBC/RAVI PRAKASH
अपने माता-पिता के साथ नाज़िया नसीम
रिस्क लेने से क्या डरना
नाजिया बताती हैं,''तेरहवें सवाल के लिए मैं जब मैं अमिताभ जी से मुख़ातिब थी तो ये सवाल 25 लाख रुपये का था. मैं कॉन्फिडेंट थी लेकिन जवाब को लेकर श्योर नहीं थी तब मैंने कहा - रिस्क तो लिया ही है मैंने जिंदगी में, एक बार और ले लेते हैं. फिर मैंने जो जवाब दिया वह सही निकला. इसके साथ ही मैं 25 लाख जीत चुकी थी.
''मेरी आंखों में आंसू थे मैंने पीछे मुड़कर अपनी मां और पति को देखा. मेरा आत्मविश्वास और मज़बूत हुआ और देखते-देखते मैं सोलहवें सवाल तक पहुंच गई. फिर जो रिज़ल्ट आया, उससे आप सब वाक़िफ़ हैं. मैंने एक करोड़ रुपये जीत लिए और इतनी रक़म जीतने वाली इस सीजन की पहली विजेता बन गई.''
घर से मिली फेमिनिज्म की सीख
नाज़िया खुद को महिलावादी बताती है और कहती हैं उन्हें ये अपनी मां से विरासत में मिला है.
उन्होंने कहा,''मैंने एक फिल्म देखी थी सोनचिरैया. उसमें फूलन देवी का रोल निभा रही कलाकार भूमि पडनेकर से कहती है - 'औरत की कोई जात नहीं होती.' यह बहुत बड़ी बात है.
''आज भी हमारे समाज में औरतों को वह आजादी नहीं मिली है, जिसकी वे हक़दार हैं. मैं एक ऐसे समाज की चाहत रखती हूं, जहां मां-बाप अपनी लड़कियों को इसलिए नहीं पढ़ाएं कि उसे अच्छा लड़का (जीवनसाथी) मिलेगा, बल्कि इसलिए पढ़ाएं कि वह पढ़-लिखकर अच्छी लड़की बनेगी. लड़के तो फिर मिल ही जाएंगे.''

नाज़िया के बचपन की तस्वीर
नाजिया बताती हैं ''बचपन में अब्बू और अम्मी के व्यवहार से यह सीख मिली और शादी के बाद मेरे पति ने मेरे लिए ऐसा माहौल तैयार किया. मैं चाहती हूं कि मेरा बेटा भी बड़ा होकर महिलाओं की इज़्ज़त करे और मेरे परिवार में औरतों की आज़ादी की परंपरा कायम रहे. हमारे समाज की यह सबसे बड़ी ज़रूरत है.
'पढ़ाई में औसत लेकिन एक सुलझी हुई बच्ची'
नाजिया की मां बुशरा नसीम ने बीबीसी को बताया कि ''बचपन में नाज़िया एक औसत छात्र थीं. वे तहज़ीबदार और शांत थीं लड़की थीं और अपने तीन भाई-बहनों में सबसे सुलझी हुई थीं.
''भाई-बहनों के झगड़ों की कई बातें नाज़िया खुद ही सुलझा लेतीं. इसकी भनक घरवालों को बाद में लगती. तभी लग गया था कि आगे चलकर यह हमारा नाम रौशन करेगी. आज हम खुश हैं और इसकी वजह मेरी बेटी है.''
नाजिया के अब्बू (पिता) मोहम्मद नसीमुद्दीन स्टील अथॉरिटी आफ इंडिया (सेल) से रिटायर हो चुके हैं.
उन्होंने कहा, '' मैंने अपने बेटे-बेटियों में कोई फ़र्क नहीं किया. सबलोग एक साथ एक ही स्कूल में पढ़े. इस कारण आज सब अपनी ज़िंदगी में व्यवस्थित हैं. किसी मां-बाप को इससे अधिक और क्या चाहिए, मुझे भरोसा है कि नाज़िया की जिंदगी में अभी खुशी के और मुक़ाम आएंगे. केबीसी तो सिर्फ़ एक पड़ाव है. (bbc.com/hindi)
मेरे जीवन में वह शाम यादध्यानी योग्य है जो मुक्तिबोध की प्रसिद्धि का डंका नहीं बजने के पहले किसी अव्यक्त बानगी का शिकार हो गई होती। दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में अपने जिस पहले मकान में वे रहे थे, ठीक उसके पीछे बूढ़ासागर की पथरीली पटरियों पर बैठकर उस वक्त के शीर्षक ‘आशंका के द्वीपः अंधेरे में‘ वाली कविता का एकल श्रोता बनना मेरे नसीब में आया। वह कविता उनके मुझ युवा श्रोता-शिष्य में घबराहट, कोलाहल, आक्रोश और जुगुप्सा भरती गई थी। मैं राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा के लिहाज़ से राममनोहर लोहिया के सबसे करीब था। मुक्तिबोध से लोहिया को लेकर कभी कभार सामान्य बात हुई होगी। उनके नहीं रहने के लगभग तीन वर्षों बाद लोहिया जी को मैंने मुक्तिबोध के बारे में बताया था। उन्हें इस बात का मलाल था कि ऐसे दुर्लभ कवि से उनका उतना प्रगाढ़ परिचय क्यों नहीं हो पाया जैसा उनके समकालीन अज्ञेय से था। साथ साथ अन्य कवियों से भी जिनमें श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और विजय देवनारायण साही वगैरह कई थे। मुक्तिबोध का वह अविस्मरणीय काव्यपाठ तब तक चलता रहा, जब तक सूरज पूरी तरह बूढ़ासागर में डूब नहीं गया। एक अमर कविता के अनावृत्त होने के रहस्य को देखना कालजयी क्षण जीना था। मैं कविता का अमर श्रोता बना दिया गया। मैं एक साथ हतप्रभ, आतंकित और भौंचक था। बूढ़ासागर का वह रहस्यमय रचना-परिप्रेक्ष्य पूर्वजन्म की घटना या उपचेतन के विस्फोट की तरह मुक्तिबोध की यादों में गूंजता रहता है।
वह कविता मैंने ‘चांद का मुंह टेढ़ा है' के संग्रह में शमशेर बहादुर सिंह की टिप्पणी के साथ कई बार पढ़ी। वह वाकई ‘गुएर्निका इन वर्स‘ ही है। उस कविता का मुझ पर इतना प्रभाव हुआ है कि मैं उसे किसी भी समाजचेता कविता का टचस्टोन (कसौटी) बनाता रहता हूं। मुझे पहली बार लगा था कि कविता हमारे पूरे अस्तित्व को न केवल झकझोर सकती है, बल्कि वह हमें अपनी वंशानुगत और पूर्वग्रहित धारणाओं तक की सभी मनःस्थितियों से बेदखल भी कर सकती है। पाठक या श्रोता का व्यापक मनुष्य समाज में गहरा विश्वास हो जाए और खुद उसमें किसी अणु के विस्फोट का संसार बन जाए-यह मुक्तिबोध की उस कविता का बाह्यांतरिक भूचाल है। वस्तुतः ‘अंधेरे में‘ आंतरिक उजास की कविता है। यह कविता भारतीय जनता का लोकतांत्रिक घोषणापत्र है। उसकी अभिव्यक्ति, निष्पत्ति और उपपत्ति सभी कुछ उन तानोंबानों से बुनी है जो एक मनुष्य को दूसरे से अविश्रृंखलित मानव तारतम्यता से जोड़ती है। यह एक आंशिक और अपूर्ण लेकिन आत्मिक-लयबद्धता का ऐलान है। उसके पौरुष के उद्घाटन का वक्त हिन्दुस्तान की लोकशाही में जनता की यंत्रणा भोगती अनुभूतियों में न जाने क्यों उग नहीं रहा है! मुक्तिबोध संभावित जनविद्रोह की निस्सारता से बेखबर नहीं थे। इसलिए इस महान कविता में लाचारी का अरण्यरोदन नहीं उसकी हताशा की कलात्मक अनुभूति है। पराजित, पीड़ित और नेस्तनाबूद हो जाने पर भी आस्था और उद्दाम संभावनाओं की उर्वरता के यौगिक बिखेर देना भी कविता की रचनात्मक ज़िम्मेदारी होती है। यह तयशुदा पाठ इस विद्रोही कवि का ऐसा उद्घोष है जिसे जनसमर्थन तो चाहिए लेकिन जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए वह प्रतीक्षा करने की स्थिति में नहीं है। ‘अंधेरे में‘ को जितनी बार और जितनी तरह से पढ़ा जाए उसकी दृश्यसंभावनाओं, नाटकीयता और अतिरेक लगती संभाव्यता में मुक्तिबोध की कलम की बहुआयामिता का अनोखा और अकाट्य साक्ष्य गूंजता रहता है।
आम तौर पर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के नेता अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था को बनाए रखने का जुमला ककहरे की तरह दुहराते रहते है. दूसरी ओर रूस, चीन और भारत जैसे देश बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के हिमायती रहे हैं.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र का लिखा-
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शंघाई कोआपरेशन ऑर्गनाइजेशन के राष्ट्राध्यक्षों की बीसवीं शीर्षस्तरीय वार्ता के दौरान दिए गए भाषण में वैश्विक शासन और समकालीन विश्व व्यवस्था को बनाए रखने पर जोर ने चीन की बदलती भूमिका पर एक बार फिर ध्यान आकर्षित किया. शी के भाषण ने एक और संदेश स्पष्ट रूप से दिया कि दुनिया को चीन की उतनी ही जरूरत है जितनी चीन को दुनिया की. और इस बात से चीन के कट्टर आलोचक भी अनदेखा नहीं कर सकते. शी ने न सिर्फ कोविड महामारी से लड़ने में बहुपक्षीय सहयोग की भूमिका पर बल दिया बल्कि एससीओ सदस्य देशों को कोविड-19 वैक्सीन मुहैय्या कराने का वादा भी किया. 10 नवंबर को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की अध्यक्षता में हुई इस वर्चुअल बैठक में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई. रूस इस साल एससीओ की अध्यक्षता कर रहा है.
शी जिनपिंग के भाषण की सबसे खास बात रही उनका वैश्विक शासन और समकालीन विश्व व्यवस्था को बनाए रखने पर जोर. अमेरिका की घटती साख के बीच चीन के राष्ट्रपति का यह बयान अहम है. वैसे तो चीन कोरोना वायरस की उत्पत्ति की खोज तक का विरोध करता रहा है लेकिन राष्ट्रपति शी ने एससीओ सदस्य देशों के बीच एक स्वास्थ्य हॉट लाइन स्थापित करने की वकालत की और कहा कि इस हॉटलाइन से एससीओ सदस्य देश कोविड-19 जैसी किसी आपदा से जूझने में आपसी सहयोग और साझा सूझबूझ से काम ले सकेंगे. साथ ही शी ने किसी बाहरी ‘पालिटिकल वायरस' से बचकर रहने की नसीहत भी दी. शी की इन बातों में अमेरिका के लिए संदेश बहुत साफ है.
स्थापना
यूरोप और एशिया, यानी यूरेशिया को राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा के मुद्दे पर जोड़ने के लिए 15 जून 2001 को चीन में शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन का एलान किया गया. 2002 में इसके चार्टर पर दस्तखत हुए और 19 सितंबर 2003 से यह संस्था काम करने लगी.
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि खुद को दुनिया का सबसे ताकतवर देश कहने वाले अमेरिका में आज कोविड के सबसे ज्यादा मरीज हैं और इस महमारी में जान देने वालों की संख्या भी सबसे ज्यादा है. वैसे तो बहुत से लोग ट्रंप प्रशासन पर यह जिम्मेदारी जड़कर आगे निकलने की कोशिश करते हैं लेकिन यह इतना आसान और सीधा मामला नहीं है. अमेरिका में प्रांतीय और शहरी प्रशासन की अलग व्यवस्था है और ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इन सभी पर ट्रंप का सीधा दखल था. अमेरिका की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था ने अमेरिका की कमजोरियों को उजागर किया है. शायद अमेरिकी लोगों को अब यूरोपीय सरकारों की सोशल डेमोक्रेटिक व्यवस्था की अच्छी बातें भी समझ में आने लगें.
अगर कोविड-19 जैसी बदहाली का आलम चीन और रूस में या दक्षिणपूर्व एशिया के किसी देश में होता तो अमेरिकी मीडिया किस तरह की रिपोर्टें पेश कर रहा होता. इन सभी के मद्देनजर चीनी राष्ट्रपति की बात आश्चर्यजनक तो लगती है लेकिन झूठी और बेमानी नहीं है. और अमेरिका के हालात एक सरकार के बदलने से बदल जाएंगे, ऐसा समझना बचपना होगा.
अमेरिका की अगली सरकार और चीन
चीन इस बात से भी वाकिफ है कि जो बाइडेन प्रशासन से भिड़ना ट्रंप के मुकाबले ज्यादा कठिन होगा क्योंकि अब दबाव सिर्फ आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर ही नहीं, पर्यावरण और मानवाधिकारों पर भी होगा. ये वो मुद्दे हैं जिन पर ट्रंप गलतियां पर गलतियां करते रहे. वह शायद भूल ही गए थे कि इन दोनों ही मुद्दों पर चीन बहुत कमजोर स्थिति में है.
हुआवे और 5जी तकनीक को लेकर शायद बाइडेन और ट्रंप में कोई अंतर नहीं होगा. यह बात भी चीन को परेशान कर रही है. और इसी की एक झलक शी के भाषण में दिखी जब उन्होंने यह घोषणा की कि अगले साल शी चोंगक्विंग में चीन-एससीओ डिजिटल इकोनॉमी फोरम की मेजबानी करेंगे. रूस के डिजिटल इकोनॉमी और 5जी के मुद्दे पर चीन को समर्थन से यह भी साफ है कि तकनीक के वर्चस्व की लड़ाई में चीन और रूस अमेरिका और यूरोप के विरुद्ध साथ-साथ खड़े होंगे.
भारत और चीन का टकराव
इस शिखर वार्ता में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी भाग लिया. शी के बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के विचार को थोड़ा सा खींच कर भारत के पाले में लाते हुए मोदी ने कहा कि विश्व व्यवस्था में सुधार लाने के लिए परिमार्जित बहुध्रुवीय व्यवस्था की तरफ दुनिया को बढ़ना ही पड़ेगा. इस संदर्भ में भारत का 1 जनवरी 2021 से संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में सदस्य बनना खास मायने रखता है. अपने भाषण में मोदी ने एससीओ सदस्य देशों को आपसी सौहार्द्र बनाए रखने और एक दूसरे की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करने की सलाह दी.
भारत और चीन के बीच महीनों से चल रहे सीमा विवाद के बीच यह बयान महत्वपूर्ण है. पिछले कुछ महीनों में भारत और चीन के बीच सीमा संबंधी विवाद सुलझाने के लिए कई विफल दौर चले हैं. आशा की जा रही है कि इस बार दोनों देशों की सेना एक आम सहमति बना पाएंगी. भारत को समझ आ चुका है कि पड़ोसी देश से ताकत के बल पर जीत नहीं पाई जा सकती. चीन भी शायद इस बात को धीरे-धीरे समझ रहा है. भारत, चीन और एससीओ, सभी के लिए यह एक राहत भरी खबर होगी.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
- रौनक कोटेचा
संयुक्त अरब अमीरात ने हाल ही में अपने नागरिक और आपराधिक क़ानूनों में कुछ व्यापक बदलाव किये हैं. 84 लाख से अधिक आबादी वाले इस देश में (2018 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार) क़रीब 200 तरह की राष्ट्रीयता वाले लोग रहते हैं.
नागरिकों और वहां रह रहे प्रवासियों के जीवन को और अधिक सकारात्मक और अनुकूल बनाने के लिए ये संशोधन किए गए हैं. संयुक्त अरब अमीरात में रहने वाले प्रवासियों की एक बड़ी आबादी दक्षिण एशिया की है.
इन संशोधनों के तहत जो विदेशी यूएई में रह रहे हैं, उन्हें अब व्यक्तिगत मामलों को उनके अपने देश के क़ानून के अनुसार निपटाने की अनुमति होगी. मसलन, तलाक़ और अलगाव के मामले में, वसीयत या फिर संपत्ति के बंटवारे के मामले में, शराब की ख़पत के संबंध में, आत्महत्या, नाबालिग के साथ शारीरिक संबंध बनाने के मामले में, महिला सुरक्षा और ऑनर-क्राइम के मामले में.
इससे कुछ सप्ताह पहले ही संयुक्त अरब अमीरात ने इसराइल के साथ अपने रिश्तों को सामान्य करने के लिए ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किया है. इस क़दम के साथ ही ऐसी उम्मीद भी की जा रही है कि देश में इसराइली पर्यटकों और निवेशकों की आमद बढ़ेगी.
अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी फ़र्म बेकर मैकेंज़ी के वकील आमिर अलख़ज़ा का कहना है, "नए संशोधन निवेशकों के विश्वास को बढ़ावा देने की कोशिश के तहत उठाया गया एक क़दम है."
वे आगे कहते हैं, "हाल के दिनों में संयुक्त अरब अमीरात की सरकार ने कई क़ानूनों में संशोधन किये हैं जो सीधे तौर पर प्रवासी आबादी को प्रभावित करते हैं. वो चाहे गोल्डेन वीज़ा स्कीम के तहत किए गए संशोधन हों या फिर उद्यमियों के रेज़िडेंसी वीज़ा की शर्तों में किये गए संशोधन."
अलख़ज़ा का कहना है कि सरकार ने संशोधन करके उन क़ानूनों में ढील दी है जिसके लिए अक्सर लोगों को (चाहें नागरिक हों या प्रवासी) दंडित किया जाता रहा है.
संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख ख़लीफ़ा बिन ज़ायेद ने सात नवंबर को फ़रमान जारी करके इन बदलावों की घोषणा की और ये संशोधन तत्काल प्रभाव से लागू हो गए.
अलख़ज़ा कहते हैं, "ये एक संघीय क़ानून है. एक बार प्रकाशित हो जाने के बाद सभी नागरिकों को इसका पालन करना होगा."
अलख़ज़ा का मानना है कि नए संशोधन से देश में पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा और सभी महत्वपूर्ण घटनाओं पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. जिसमें से एक बहुप्रतीक्षित आयोजन एक्स्पो 2021 भी है. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि इस अंतरराष्ट्रीय आयोजन में कई महत्वपूर्ण निवेशक और लाखों दर्शक शामिल होंगे.
प्रवासियों के लिहाज़ से तलाक़, अलगाव और संपत्ति से जुड़े क़ानूनों में होने वाले संशोधन सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं. इन क़ानूनी संशोधनों के बाद अब अगर कोई जोड़ा अपने देश में शादी करता है लेकिन उनका तलाक़ संयुक्त अरब अमीरात में होता है तो उनके लिए उसी देश के क़ानून मान्य होंगे जहां उनकी शादी हुई थी. यानी उनके अपने देश के क़ानून उनके लिए मान्य होंगे.
अलख़ज़ा को लगता है कि इन संशोधनों को लागू करना आसान और प्रभावी होगा. उन्होंने कहा, "संयुक्त अरब अमीरात समाज प्रवासियों और यहां के मूल नागरिकों का एक मिश्रण है. दोनों ही बहुसंख्यकों के बीच एक-दूसरे को लेकर स्वीकार का भाव है और वे सभी की संस्कृति का सम्मान करते हैं."
उन क़ानूनों में भी बदलाव किए गए हैं जिनमें ऑनर क्राइम को अब तक संरक्षण प्राप्त था. अब इन्हें अपराध की श्रेणी में रखा गया है. नाबालिग या मानसिक तौर पर कम विकसित शख़्स के साथ रेप के दोषी को अब मृत्युदंड दिया जा सकता है.

बिना लाइसेंस के शराब का सेवन करते पाए जाने पर अब किसी तरह की सज़ा का सामना नहीं करना पड़ेगा. हालांकि, शराब पीने और ख़रीदने के लिए कुछ शर्तें लगाई गई हैं. जिनमें से एक यह है कि शराब पीने वाले की उम्र 21 साल से ऊपर होनी चाहिए.
एक भारतीय प्रवासी कहते हैं "पहले शराब पीने पर हमेशा डर रहता था. इन बदलावों से निश्चित तौर पर हम थोड़ा सुरक्षित महसूस कर रहे हैं."
इन तमाम बदलावों के साथ ही संशोधन के तहत अब अविवाहित जोड़ों को साथ रहने की छूट मिल गई है. संयुक्त अरब अमीरात में इससे पहले अविवाहित जोड़ों का एक साथ रहना अपराध रहा है.
ये नए संशोधन विदेशी नागरिकों को विरासत, विवाह और तलाक सहित विभिन्न मुद्दों पर इस्लामिक शरिया अदालतों से बचने की अनुमति भी देते हैं.
28 साल की ज़रीन जोशी पिछले 25 सालों से दुबई में रह रही हैं. वह भारतीय मूल की हैं. उनका मानना है कि ये संशोधन विभिन्न राष्ट्रीयताओं को एक बड़ी स्वीकृति है.
उन्होंने बीबीसी से कहा, इससे हमें अपने घर के क़रीब होने जैसा महसूस हो रहा है.
वो आगे कहती हैं, इस क़दम से और निवेश की संभावनाएं बढ़ी हैं साथ ही यह फ़ैसला उन्हें यूएई में और वक़्त रहने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है.
बहुत से लोगों ने सोशल मीडिया पर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की है.
अबू धाबी में रहने वाले और पेशे से इंजीनियर गियूलियो ओचिओनेरो ने ट्वीट करके इस संबंध में खुशी जताई है. वो इस फ़ैसले को सिविल प्रोग्रेस के एक उदाहरण के तौर पर देखते हैं.
एक अन्य ट्विटर यूज़र युसूफ़ नज़र का कहना है कि इन संशोधनों से जोड़े बिना शादी किये भी साथ रह सकेंगे.
संयुक्त अरब अमीरात की अधिकारिक समाचार एजेंसी डब्ल्यूएएम के अनुसार, ये संशोधन देश के वैधानिक वातावरण को और बेहतर करने के लिए और लोगों को यहां रहने, काम करने के लिए प्रेरित करता है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, यह बदलाव देश के प्रगति के पथ पर बढ़ने और विदेशी निवेश को लुभाने की दिशा में अपनी स्थिति को और मज़बूत करने के लिए हैं.
गल्फ़ न्यूज़ के एक संपादकीय में कहा गया है कि नए क़ानून विदेशी निवेशकों के वित्तीय हितों की स्थिरता को सुनिश्चित करेंगे.(bbc)
जर्मनी के बोखुम शहर में कुछ साल से अपराध विज्ञानियों की एक टीम एक अहम मुद्दे पर शोध कर रही थी. मुद्दा था - पुलिस की नस्लवादी सोच और उससे जुड़ी हिंसा का. अब उस रिसर्च के नतीजे सामने आ चुके हैं.
"मुझे गालियां देते हुए कहा, "गंदे लेबनीज, गंदे विदेशी." जर्मनी के एसेन शहर में रहने वाले 24 साल के ओमार अयूब पुलिस के मुंह से अपने लिए ऐसे अपशब्द सुनने की बात कहते हैं. अयूब आगे बताते हैं कि उनकी बहन से किसी पुलिस वाले ने कहा था कि "तुम अब अपने देश में नहीं हो, यहां जानवरों की तरह बर्ताव नहीं कर सकते." अयूब सवाल करते हैं कि यह नस्लवादी टिप्पणी नहीं है तो क्या है.
मुसलमानों के पवित्र महीने रमजान की एक शाम अयूब अपने परिवार के साथ शाम को उपवास तोड़ने जा रहे थे, तभी उनके घर की घंटी बजी. दरवाजे पर पुलिस वाले थे, जिन्होंने बताया कि उन्हें घर से शोर आने की शिकायत मिली है. पुलिस ने कहा कि वे घर के अंदर आकर शांति भंग होने की शिकायत की जांच करेंगे. लेकिन अयूब ने इससे मना करते हुए दरवाजा बंद कर दिया तो बात और बिगड़ गई. उसके बाद की घटना बताते हुए अयूब कहते हैं, "पुलिस ने जोर जबर्दस्ती की और मेरी मर्जी के खिलाफ घर में घुस गए. एक पुलिस वाले ने मेरे चेहरे से चश्मा हटा दिया और मुझसे अपना हाथ सिर के पीछे रखने का आदेश दिया. मैं मान गया. और तब उसने मेरे चेहरे पर मारा." अयूब का आरोप है कि वहां मौजूद उसकी बहन और पिता भी घायल हुए.
पुलिस बर्बरता की शिकायत करने वाले ओमार अयूब.
उसके परिवारजनों को लगी शारीरिक चोट के फोटोग्राफ होने के बावजूद उनके लिए इस घटना की पूरी सच्चाई साबित करना मुश्किल था. एसेन की पुलिस ने इससे जुड़ी काफी अलग कहानी सुनाई. उनका आरोप था कि अयूब और उनके पिता ने "पुलिस पर घूंसे चलाए" और अब उन पर पुलिस का विरोध करने का मुकदमा चल रहा है. अयूब ने भी पुलिस के खिलाफ मामला दर्ज कराया है. उसके हिसाब से पुलिस को लगता है कि उसका परिवार किसी संगठित अपराध से जुड़ा हुआ है क्योंकि वे लेबनानी मूल के हैं. अयूब कहते हैं कि बिना किसी सबूत के पुलिस ऐसा मानती है. इस मामले की जांच जारी होने के कारण पुलिस ने इस पर कोई भी टिप्पणी करने से मना किया है.
सबूतों के बिना
अयूब के मामले को अपराध विज्ञानी लैला अब्दुल-रहमान एक आदर्श नमूना बताती हैं. बोकुम यूनिवर्सिटी में वह पिछले दो साल से एक टीम के साथ मिलकर पुलिस की बर्बरता और नस्लवादी रवैये पर शोध कर रही हैं. इसके लिए उनकी टीम ने 3,000 से भी अधिक लोगों का इंटरव्यू किया और उसके आधार पर रिपोर्ट प्रकाशित की. इस स्टडी का नेतृत्व करने वाले टोबिआस जिंगेल्नश्टाइन यह बात साफ करते हैं कि चूंकि सैंपल केवल कुछ हजार लोगों का था इसलिए इसके नतीजों को मोटे तौर पर पूरे जर्मनी पर लागू करना सही नहीं होगा. हालांकि वह मानते हैं कि यह चिंता का विषय है और इसकी बड़े स्तर पर जांच कराई जानी चाहिए.
इस स्टडी में जो मूल बात निकल कर आई है वह यह है कि जातीय अल्पसंख्यक समूह के लोगों को पुलिस के हाथों ज्यादा तकलीफ झेलनी पड़ती है. लैला अब्दुल-रहमान बताती हैं, "उनके बयान को आम तौर पर शक की निगाह से देखा जाता है, जबकि पुलिस और सरकारी अधिकारियों के बयान को कहीं ज्यादा विश्वसनीय माना जाता है." रिसर्चरों ने पाया कि ऐसे अल्पसंख्यकों को पुलिस के हाथों निजी स्तर पर हिंसा झेलनी पड़ती है, तो वहीं दूसरों को अकसर सार्वजनिक प्रदर्शनों या दूसरे सामूहिक आयोजनों में. रिसर्चरों ने पाया कि पर्याप्त सबूत ना हो ने के कारण इनमें से ज्यादातर मामले कोर्ट तक नहीं पहुंचते. अब्दुल-रहमान बताती हैं कि "ऐसे 90 फीसदी मामलों में सरकार का अभियोजन पक्ष शिकायत रद्द कर देता और इसकी कभी जांच ही नहीं होती." रिसर्चरों का मानना है कि इसके कारण पुलिस क्रूरता के शिकार कानून में भरोसा ही खो देते हैं."
कैसे जगे पुलिस में भरोसा
स्टडी के लेखकों का मानना है कि स्वतंत्र जांच कराने से मदद मिलेगी. उनकी मांग है कि बाहर से पुलिस पर नजर रखी जानी चाहिए और पुलिस हिंसा के शिकार हुए लोगों को अलग से मदद देनी चाहिए. वहीं पुलिस ट्रेड यूनियन के मिषाएल मेर्टेन्स जोर देकर कहते हैं कि बाहरी कदमों से कुछ नहीं होगा. डीडब्ल्यू से बात करते हुए उन्होंने कहा, "पुलिस हिंसा जैसे राज्य के अत्याचार के खिलाफ कार्रवाई के कई रास्ते हैं. हमें वे रास्ते अपनाने चाहिए और उनके प्रभावी होने पर भरोसा रखना चाहिए." हालांकि उन्होंने माना कि "राज्य और पुलिस में जरूर इस तरह के संवेदनशील मुद्दों को लेकर और सुधार की गुंजाइश है. हमें इस विषय को लेकर खुला रवैया रखना होगा और बिना भावनात्मक हुए इस पर बात करनी होगी." उनके हिसाब से इसकी शुरुआत बिल्कुल शुरु से करनी होगी यानि पुलिस में भर्ती और उनकी ट्रेनिंग के समय से.
अब्दुल-रहमान कहती हैं कि चूंकि कोई अपना बाहरी रंग रूप तो बदल नहीं सकता, इसलिए औरों से अलग दिखने वालों के साथ कई बार ऐसी घटनाएं बार बार होती हैं. इसके कारण अल्पसंख्यक या अश्वेत इस घबराहट के साथ जीते हैं कि कहीं उनके साथ फिर से ऐसा ना हो जाए. अमेरिका में एफ्रो-अमेरिकन जॉर्ज फ्लॉएड की मई 2020 में पुलिस के हाथों मैत के बाद यह मुद्दा जर्मनी में भी गर्माया था. सवाल उठे कि क्या जर्मन पुलिस में भी नस्लवाद इस तरह रचा बसा है? इस पर अब्दुल-रहमान कहती हैं, "कुल मिलाकर, मैं कहूंगी कि जर्मनी में अमेरिका जितने ऊंचे स्तर की पुलिस क्रूरता नहीं होती. लेकिन ऐसे मामलों की जांच में समस्या जरूर है." (dw.com)
रिपोर्ट: मेलिना ग्रुंडमन/आरपी
-चारु कार्तिकेय
सरकार के अनुसार तीसरा पैकेज कुल 2,65,080 करोड़ रुपयों का है. इसमें रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के लिए एक नई योजना, तनाव से गुजर रहे 26 सेक्टरों के लिए कुछ कदम, और संपत्ति खरीदने वालों और रियल एस्टेट डेवलपरों के लिए कुछ कदम हैं. नई "आत्मनिर्भर भारत रोजगार योजना" के तहत भविष्यनिधि संगठन (ईपीएफओ) के साथ पंजीकृत कंपनियां अगर नए लोगों को या मार्च से सितंबर के बीच नौकरी गंवा चुके लोगों को नौकरी पर रखती हैं तो उन्हें सरकार की तरफ से कुछ लाभ मिलेंगे.
इतिहास में पहली बार लगातार दो तिमाहियों में नकारात्मक वृद्धि के दौर से गुजर रही भारतीय अर्थव्यवस्था पर इन नए कदमों का कितना असर हो पाएगा, यह तो कुछ समय बाद ही पता चलेगा. ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि पिछले दो पैकेजों और दूसरे छोटे छोटे कदमों का अर्थव्यवस्था पर कितना असर हो पाया. मार्च के अंत में केंद्र सरकार महामारी से होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए पहले आर्थिक पैकेज लेकर आई थी, जिसे प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज कहा गया था.
एक लाख सत्तर हजार करोड़ रुपये के इस राहत पैकेज का फोकस आर्थिक रूप से कमजोर लोगों पर रखा गया था. इसमें गरीब और जरूरतमंद लोगों के लिए अतिरिक्त खाद्यान्न, मनरेगा के तहत मिलने वाली मजदूरी में वृद्धि, मजदूरी में बढ़ोतरी है, अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मियों के लिए बीमा, किसानों, विधवाओं, बुजुर्गों और विकलांगों को धनराशि, गरीबी रेखा से नीचे गुजर करने वाले परिवारों को अगले मुफ्त गैस के सिलेंडर, महिला स्वयंसेवी समूहों को और ज्यादा कोलैटरल मुक्त लोन, भविष्य निधि (प्रॉविडेंट फंड) खातों में सरकार द्वारा योगदान इत्यादि कदम शामिल थे.

अपर्याप्त स्टिमुलस
मई में कोविड-पैकेज की दूसरी किस्त आई जिसका मूल्य लगभग तीन लाख करोड़ रुपए था. इसमें किसानों, प्रवासी श्रमिकों और रेहड़ी-पटरी वालों के लिए कुछ कदम थे, जैसे गरीबों और विशेष रूप से प्रवासी श्रमिकों के लिए अन्न की मुफ्त आपूर्ति, रेहड़ी-पटरी वालों के लिए आसान लोन, छोटे व्यापारियों को लोन के ब्याज पर दो प्रतिशत की छूट और छोटे और मझौले किसानों के लिए लोन लेने में मदद इत्यादि.
हालांकि सरकार का दावा है कि वो अभी तक कुल 29,87,641 करोड़ रुपयों के स्टिमुलस कदमों की घोषणा कर चुकी है, जिसमें आत्मनिर्भर पैकेज 3.0 भी शामिल है. जानकारों का लगातार यह कहना रहा है कि एक तो अर्थव्यवस्था को जो घाटा हुआ है उसकी भरपाई के लिए जितनी रकम के स्टिमुलस पैकेज की आवश्यकता थी, उतनी धनराशि कभी सरकार ने जारी ही नहीं की.
दूसरी बात यह कि जिन कदमों की घोषणा सरकार ने की भी उनमें सरकारी खर्च का अनुपात बहुत कम था. ऐसे में इन पैकेजों से वास्तविक राहत मिलने की उम्मीद बहुत कम थी. हालांकि अब जानकार मानते हैं कि अगर तालाबंदी के शुरूआती असर से तुलना करें तो स्थिति में कुछ सुधार जरूर आया है. आरबीआई ने जहां अप्रैल से मई की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 24 प्रतिशत गिरावट का अनुमान लगाया था, वहीं जुलाई से सितंबर की दूसरी तिमाही में लगभग 9 प्रतिशत गिरावट का अनुमान लगाया है.

दूसरी तिमाही में थोड़ा सुधार
नई दिल्ली में इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से जुड़े अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार ने डीडब्ल्यू को बताया कि उनके आकलन के मुताबिक पहली तिमाही में लगभग 45 प्रतिशत की गिरावट थी जो दूसरी तिमाही में थोड़ा संभल कर 30 प्रतिशत पर सिमट गई है. ये कोविड के पहले के स्तर के मुकाबले अभी भी अत्यंत चिंताजनक स्थिति है लेकिन कोविड शुरू होने के बाद की स्थिति में तुलनात्मक रूप से सुधार हुआ है.
अर्थव्यवस्था में मूल संकट मांग का है, मतलब लोग आवश्यक चीजों के अलावा और कुछ खरीद नहीं रहे हैं. अरुण कुमार कहते हैं कि मांग कुछ हद तक बढ़ी है लेकिन उतनी ही जितनी धनराशि मांग को प्रोत्साहन देने के लिए अर्थव्यवस्था में सरकार ने लगाई थी, जो अपने आप में काफी अपर्याप्त थी. इसलिए मांग में अभी भी कमी देखी जा रही है. जानकारों का कहना है कि इस समय त्योहारों का मौसम होने के बावजूद बाजारों में जितनी भीड़ है उतनी खरीद-बिक्री नहीं हो रही है.
अरुण कुमार का कहना है कि इस समय सिर्फ टेलीकॉम, फार्मा, आईटी और एफएमसीजी जैसे चुनिंदा क्षेत्रों को छोड़ कर बाकी सब क्षेत्रों में गिरावट चल रही है और इसी वजह से यह नहीं कहा जा सकता कि पूरी अर्थव्यवस्था में सुधार आ गया है.(DW.COM)
-नवजीवन राजनीतिक ब्यूरो
बिहार चुनाव के नतीजों ने राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया है। हालांकि अभी इन चुनावों का जमीनी स्तर पर विश्लेषण होना बाकी है, लेकिन फिलहाल जो मुख्य दस बातें सामने आ रही हैं, वे इस तरह हैं:
बहुत सी सीटों पर जीत का कम अंतर
बिहार में कम से कम 28 सीटें ऐसी रहीं जहां जीत का अंतर 1000 वोटों से भी कम रहा। वहीं 62 सीटें ऐसी हैं जहां जीत का अंतर 2000 वोटों से कम और 113 सीटों पर जीत का अंतर 3000 वोटों से कम रहा। इस तरह बिहार की कुल 243 सीटों में 203 सीटें ऐसी रहीं जहां कांटे का मुकाबला देखने को मिला। इसका यह भी अर्थ निकाला जा सकता है कि जब कहीं अधिक प्रत्याशी हों तो उसी दल को जीत मिल सकती है जो बेहतर तरीके से संयोजित और संगठित होन के साथ ही संसाधनों वाला भी हो।
महिलाओं ने किया नीतीश के लिए वोट!
माना जा रहा है और चुनाव आयोग के आंकड़े भी संकेत देते हैं कि इस बार के चुनाव में महिला मतदाताओँ ने नीतीश कुमार के पक्ष में वोट डाले। इसे राजनीतिक विश्लेषण की भाषा में एक्स फैक्टर कहा जा रहा है। कहा जा रहा है कि इसी साइलेंट वोटर ने नीतीश और एनडीए की जीत सुनिश्चित की। लेकिन ये आंकड़े कितने सटीक हैं आने वाले दिनों में इसका विश्लेषण करना जरूरी होगा।
योगी-नीतीश की रणनीतिक जुगलबंदी
बिहार में तीसरे चरण के मतदान से पहले बीजेपी ने अपने स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ को मैदान में उतारा। योगी ने अपेक्षा के मुताबिक हिंदुत्व और सीएए-एनआरसी जैसे मुद्दे उठाए, जिसकी नीतीश कुमार ने खुलकर काट की। नीतीश कुमार ने खुलकर कहा कि भारतीय नागरिकों और मुस्लिमों कोई देश से नहीं निकाल सकता। इससे ध्रुवीकरण का माहौल बना जिसका फायदा बीजेपी को हुआ।
वामदलों का उत्थान
इस बार के चुनाव में सीपीआई-माले ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा और 12 पर जीत दर्ज की। जबकि 2015 के चुनाव में इसके खाते में सिर्फ तीन सीटें ही आई थीं। वहीं सीपीआई-सीपीएम ने 10 सीटों पर चुनाव लड़ा और 4 सीटें जीतीं। इस तरह वामदलों के खाते में 16 सीटें गईं। बिहार में नक्सल, माओवादियों और कथित अर्बन नक्सल के राग के बावजूद वामदलों की यह जीत महत्वपूर्ण है। करीब 25 साल बाद बिहार में वामदलों का उत्थान उनके लिए नई ऊर्जा का काम करेगा।
हर चौथे वोटर ने दिया अन्य को वोट
बिहार चुनाव में इस बार महागठबंधन और एनडीए दोनों के हिस्से में करीब 37-37 फीसदी वोट आए हैं। यानी बाकी करीब 25 फीसदी वोट अन्य पार्टियों या निर्दलीयों के खाते में गए हैं। अर्थात हर चौथा वोटर मुख्य गठबंधनों के अलावा किसी अन्य से प्रभावित रहा।
जातिमुक्त नहीं हुआ है बिहार
बिहार के नतीजे साफ बताते हैं कि जातीय सघनता वाले इलाकों में वोटरों ने अपनी ही जाति का समर्थन किया है। अति पिछड़ों और अल्पसंख्यकों ने सीमांचल में नीतीश कुमार का साथ दिया तो उच्च जातियों ने बीजेपी का। इसके अलावा बिहार एम-वाई समीकरण यानी मुस्लिम-यादव वोटर अभी भी आरजेडी के साथ ही जुड़ा हुआ है।
नीतीश कुमार का राजनीतिक भविष्य
नीतीश कुमार ने अपनी आखिरी चुनावी रैली में ऐलान किया था कि यह उनका आखिर चुनाव है, ‘अंत भला तो सब भला...’ लेकिन जेडीयू नेताओं ने इसे नया मोड़ देते हुए कहा कि उनका तात्पर्य आखिरी चुनावी रैली से था। वैसे भी जेडीयू में नीतीश के बाद दूसरा नेता है नहीं, ऐसे में पार्टी के साथ ही नीतीश कुमार भविष्य भी अधर में ही लटका दिख रहा है। सवाल उठने लगे हैं कि नीतीश के बिना जेडीयू अपना अस्तित्व बचा पाएगा या नहीं।
कांग्रेस का प्रदर्शन
कांग्रेस ने इस चुनाव में 70 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, और उसके हिस्से में 19 सीटों पर जीत आई और उसने 9.75 फीसदी वोट हासिल किए। यह औसत आरजेडी, बीजेपी और जेडीयू से कम है। इन तीनों दलों ने कांग्रेस के मुकाबले कहीं अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा और उनका जीत का औसत काफी अच्छा रहा।
हर दौर का मिजाज साबित हुआ अलग
बिहार में तीन दौर में मतदान हुआ और हर दौर में वोटरों को मिजाज अलग साबित हुआ। पहले दौर में तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले महागठबंधन ने अच्छा प्रदर्शन किया तो दूसरे में एनडीए बेहतर स्थिति में रहा। लेकिन तीसरे और आखिरी दौर पर तो एनडीए ने पूरी तरह कब्जा कर लिया। माना जा सकता है कि इन दौर में स्थानीय मुद्दे हावी रहे।
शहरी इलाकों में कम मतदान
शहरी इलाकों की सीटों पर कम मतदान से एक बात तो साफ हो गई कि बिहार में इस बार लहर किसी की नहीं थी। लेकिन इससे किस पार्टी को नुकसान और किसे फायदा हुआ इसका विश्लेषण आने वाले दिनों में किया जाएगा(https://www.navjivanindia.com/)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में वही हुआ, जो अक्सर दक्षेस (सार्क) की बैठकों में होता है। चीन, रुस, पाकिस्तान और मध्य एशिया के चार गणतंत्रों के नेता अपनी दूरस्थ बैठक में अपना-अपना राग अलापते रहे और कोई परस्पर लाभदायक बड़ा फैसला करने की बजाय नाम लिये बिना एक-दूसरे की टांग खींचते रहे।
बैठक तो उन्होंने की थी, संयुक्तराष्ट्र संघ के 75 साल पूरे होने के अवसर पर लेकिन उनमें से पूतिन, शी, मोदी या इमरान आदि में से किसी ने भी यह नहीं कहा कि संयुक्तराष्ट्र के चेहरे पर जो झुर्रियां पड़ गई हैं, उन्हें हटाने का कोई उपाय किया जाए या संयुक्तराष्ट्र 75 साल का होने के बावजूद अभी तक अपने घुटनों पर ही रेंग रहा है तो कैसे दौडऩे लायक बनाया जाए ?
हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात की शाबाशी दी जा सकती है कि उन्होंने अपने भाषण में किसी राष्ट्र पर वाग्बाण नहीं छोड़े बल्कि ऐसे संगठनों की बैठकों में परस्पर वाग्बाण चलाने का उन्होंने विरोध किया। यही ऐसे संगठनों का लक्ष्य होता है। यह सावधानी रुस के व्लादिमीर पूतिन ने भी बरती। मोदी ने संयुक्तराष्ट्र की तारीफ करते हुए बताया कि भारत ने उसकी शांति सेना के साथ अपने सैनिकों को दुनिया के 50 देशों में भेजा है और कोरोना से लडऩे के लिए लगभग 150 देशों को दवाइयां भिंजवाई हैं।
मोदी ने मध्य एशियाई राष्ट्रों के साथ भारत के प्राचीन सांस्कृतिक संबंधों का भी जिक्र किया। क्या ही अच्छा होता कि वे दक्षेस के सरकारी संगठन के मुकाबले एक दक्षिण और मध्य एशियाई राष्ट्रों की जनता का जन-दक्षेस खड़ा करने की बात करते। मैं स्वयं इस दिशा में सक्रिय हूं।
चीन के नेता शी चिन फिंग ने अपने भाषण में नाम लिए बिना अमेरिकी दखलंदाजी को आड़े हाथों लिया लेकिन इमरान खान वहां भी चौके-छक्के लगाने से नहीं चूके। उन्होंने फ्रांस को दुखी करने वाले इस्लामी कट्टरवाद की पीठ तो ठोकी ही, भारत पर पत्थरबाजी करने से भी वे बाज नहीं आए। भारत का नाम तो उन्होंने नहीं लिया लेकिन कश्मीर का मसला उठाकर उन्होंने आत्म-निर्णय की मांग की, नागरिकता संशोधन कानून और कई सांप्रदायिक मसलों का जिक्र किया।
अच्छा हुआ कि इमरान ने मोदी को उस बैठक में दूसरा हिटलर नहीं कहा। इमरान खान को मैं जितना जानता हूं, वे काफी अच्छे और संयत इंसान हैं लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे अपनी फौज और मुल्ला-मौलवियों की कठपुतली बने हुए हैं। पेरिस के हत्याकांड पर उनका शुरुआती बयान काफी संतुलित था, लेकिन पश्चिम और मध्य एशिया के मुसलमानों की लीडरी के खातिर उन्होंने इस मंच का इस्तेमाल कर लिया। मुझे शंका होती है कि यह एससीओ संगठन भी दक्षेस की तरह बड़बड़ाती मुर्गियों का दड़बा बनकर रह जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-मणिकांत ठाकुर
तेजस्वी यादव बिहार में सरकार नहीं बना सके, यह तो ज़ाहिर है. लेकिन कई मायनों में तेजस्वी ने राष्ट्रीय जनता दल को नई ताक़त दी है, नया भरोसा दिया है. लेकिन उनके कई फ़ैसलों पर सवाल भी उठे हैं.
तेजस्वी की कुछ रणनीतियाँ उनके ख़िलाफ़ भी गई हैं. इन सबके बीच अब उनकी अनुभवहीनता की नहीं, कड़ी मेहनत के बूते विकसित संभावनाओं वाली नेतृत्व-क्षमता की चर्चा हो रही है. चुनाव परिणाम भी यही बताते हैं कि 'महागठबंधन' को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सामने मज़बूती से खड़ा कर देने में उन्होंने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.
राज्य की सत्ता पर डेढ़ दशक से क़ब्ज़ा बनाए हुए नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सामने सबसे बड़े दल के रूप में आरजेडी को जगह दिलाना कोई आसान काम नहीं था.
वो भी तब, जब उनके पिता और आरजेडी के सर्वेसर्वा लालू यादव जेल में हों और परिवारवाद से लेकर 'जंगलराज' तक के ढेर सारे आरोपों से उन्हें जूझना पड़ रहा हो.
ऐसी सूरत में 31 साल के तेजस्वी की सराहना उनके सियासी विरोधी भी खुलकर न सही, मन-ही-मन ज़रूर कर रहे होंगे.

तेजस्वी ने मोड़ा चुनाव अभियान का रूख़
सबसे बड़ी बात कि जातिवादी, सांप्रदायिक और आपराधिक चरित्र के राजनीतिक माहौल में लड़े जाने वाले चुनाव को जन सरोकार से जुड़े मुद्दों की तरफ़ मोड़ने में तेजस्वी पूरी कोशिश करते दिखे.
इस कोशिश में वह कम-से-कम इस हद तक तो कामयाब ज़रूर हुए कि बेरोज़गारी, शिक्षा/चिकित्सा-व्यवस्था की बदहाली, श्रमिक-पलायन और बढ़ते भ्रष्टाचार के सवालों से यहाँ का सत्ताधारी गठबंधन बुरी तरह घिरा हुआ नज़र आया.
बार-बार पुराने लालू-राबड़ी राज के कथित जंगलराज और उसके 'युवराज' की रट लगाने में भाषाई मर्यादा की सीमाएँ लांघी गई. व्यक्तिगत आक्षेप करने में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो आगे रहे ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तेजस्वी पर हमलावर हुए.
इतने आक्रामक उकसावे पर भी तेजस्वी यादव का उत्तेजित न होना, संयम नहीं खोना और 'गालियों' को भी आशीर्वाद कह कर टाल देना, उनके प्रति लोगों में सराहना का भाव पैदा कर गया.
ख़ासकर जब तेजस्वी अपने तूफ़ानी प्रचार अभियान के दौरान '10 लाख सरकारी नौकरी' समेत कई समसामयिक मसलों से जुड़े मुद्दों वाला चुनावी एजेंडा सेट करने लगे थे, तो सत्तापक्ष की चिंता काफ़ी बढ़ने लगी थी.
इसके अलावा तेजस्वी की चुनावी सभाओं में भीड़ भी ख़ूब उमड़ी और इसने सत्ता पक्ष में चिंता भी पैदा कर दी थी.
पूरे प्रचार के दौरान तेजस्वी का जाति और धर्म से ऊपर उठकर सबको जोड़ने जैसी बातें करना और 'मुस्लिम-यादव जनाधार' पर लंबे समय तक टिकी लालू-राजनीति से थोड़ा बाहर निकल कर व्यापक सोच में उतरना, तेजस्वी को एक अलग पहचान दे गया है.

वो चूक जिसके कारण सत्ता तक नहीं पहुंच सके
बेतरीन तरीक़े से चुनाव लड़ने के इतर तेजस्वी से कुछ ऐसी चूकें भी हुई हैं, जो 'महागठबंधन' को सत्ता तक पहुँचने में बाधक साबित हुईं. ख़ासकर कांग्रेस के दबाव में आ कर उसे 70 सीटों पर उम्मीदवारी देने के लिए राज़ी हो जाना, उनकी सबसे बड़ी चूक मानी जा रही है.
इस बाबत आरजेडी ने दबे-छिपे अंदाज़ में ही सही, अपनी जो विवशता ज़ाहिर की है, वो यह है कि कांग्रेस मनचाही संख्या में सीटें नहीं दिए जाने की स्थिति में 'महागठबंधन' से अलग हो जाने तक का संकेत देने लगी थी.
इतना ही नहीं, जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार से भी कांग्रेस के संपर्क-सूत्र बन जाने और चुनाव परिणाम के बाद समीकरण बदलने तक की चर्चा सरेआम होने लगी थी.
दूसरी वजह यह भी थी, कि जीतनराम माँझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी से जुड़ी पार्टियों को 'महागठबंधन' से जोड़े रखना जब संभव नहीं रहा, तब कांग्रेस को किसी भी सूरत में साथ रखना तेजस्वी की विवशता बन गई. ऐसा नहीं होता, तो मुस्लिम मतों में कुछ विभाजन और सवर्ण मतों की उम्मीद घट जाने की आशंका थी.
दूसरी कमज़ोरी यह मानी जा रही है कि 'महागठबंधन' ने उत्तर बिहार में अति पिछड़ी जातियों (पचपनिया कहे जाने वाले वोटबैंक) के बीच एनडीए की गहरी पैठ को उखाड़ने या कम करने संबंधी कोई कारगर प्रयास नहीं किया. सिर्फ़ इस समुदाय के लिए चुनावी टिकट देने में थोड़ी उदारता दिखा कर तेजस्वी निश्चिंत से हो गए.
उधर सीमांचल में उम्मीदवार चयन को लेकर आरजेडी पर कई सवाल उठे और वहाँ मुस्लिम समाज में इस नाराज़गी का फ़ायदा असदुद्दीन ओवैसी ने उठाया. दूसरी बात ये भी कि 'जंगलराज' की वापसी जैसा ख़ौफ़ पैदा करने वाले प्रचार का पूरी प्रखरता के साथ प्रतिकार करने में तेजस्वी कामयाब नहीं हो सके.
वैसे तो कमोबेश हरेक दल आपराधिक छवि वालों को चुनाव में उम्मीदवार बनाने का दोषी रहा है, फिर भी आरजेडी पर ऐसे दोषारोपण ज़्यादा होने के ठोस कारण साफ़ दिख जाते हैं. इस बार तेजस्वी भी दाग़ी छवि वालों को, या उनके रिश्तेदारों को उम्मीदवार बनाने के दबाव से मुक्त नहीं रह सके. तो आरजेडी को स्वीकार करने वालों की तादाद बढ़ाने में तेजस्वी को मुश्किलें होंगी ही.
क्या होगी आगे की राह
अब सवाल उठता है कि राज्य में सत्ता-शीर्ष तक पहुँचने से कुछ ही क़दम दूर रह जाने वाले इस युवा नेता की दशा-दिशा क्या होने वाली है. इसका जवाब ज़ाहिर तौर पर यही है कि तेजस्वी यादव अपनी पार्टी को बिहार की राजनीति में आगे बढ़ाने को तैयार दिख रहे हैं.
लालू यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव में जेडीयू नेता नीतीश कुमार के साथ एक मज़बूत गठबंधन में रहते हुए 80 सीटों के साथ आरजेडी को सत्ता तक पहुँचाया था. तब सियासी हालात उनके बहुत अनुकूल इसलिए भी बने, क्योंकि नीतीश कुमार के तैयार किए हुए वोट बैंक भी उनके काम आ रहे थे.
अब ऐसा भी नहीं लग रहा कि लालू यादव के सहारे के बिना तेजस्वी अपनी सियासत को मज़बूती दे पाने में समर्थ नहीं हैं. अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए उन्होंने यहाँ सत्ताधारी गठबंधन को अकेले अपनी मेहनत और सूझबूझ से कड़ी टक्कर दी है. ये यही दिखाता है कि आगे भी बिहार में बीजेपी की मौजूदा बढ़त को तेजस्वी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल से ही चुनौती मिल सकती है.
अपने 'महागठबंधन' से जुड़े वामदलों को जिस कुशलता के साथ तेजस्वी ने जोड़ कर रखा, उसका चुनाव में आरजेडी और वामदल, दोनों को लाभ हुआ. इसलिए ऐसा लगता है कि आगे भी यह रिश्ता दोनों निभाना चाहेंगे. लेकिन कांग्रेस और आरजेडी के रिश्ते में ज़रूर दरार आई है.
एक बात और ग़ौरतलब है कि लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के अध्यक्ष चिराग़ पासवान अगर और उभर कर बिहार की राजनीति में असरदार बने, तो यह तेजस्वी के लिए भी एक चुनौतीपूर्ण स्थिति होगी. ख़ासकर इसलिए, क्योंकि दलित वर्ग से आरजेडी में कोई असरदार नेतृत्व अभी भी नहीं है.
दूसरी बात कि चिराग़ भी युवा हैं और उन्होंने बिहार में अपनी राजनीतिक ज़मीन को दलित-दायरे से निकाल कर विस्तार देने वाली भूमिका बाँध चुके हैं. दोनों एकसाथ भी नहीं आ सकते, क्योंकि नेतृत्व और वर्चस्व की चाहत आड़े आ जाएगी.
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि इस चुनाव-परिणाम ने तेजस्वी को सत्ता-प्राप्ति के बिल्कुल क़रीब ले जाकर मौक़ा चूक जाने का सदमा तो दिया है, लेकिन उनके लिए अवसर ख़त्म हो गए हैं, ऐसा भी नहीं है. इसी में उनके लिए संभावना भी छिपी हो सकती है. (bbc.com/hindi)
-बाला सतीश
वो सिविल सेवा में जाना चाहती थीं, कॉलेज की पढ़ाई पूरी करना चाहती थीं, ऑनलाइन क्लास लेना चाहती थीं... लेकिन, उनके पास कोचिंग के लिए पैसे नहीं थे, एक साल बाद हॉस्टल से निकल जाने की चिंता सता रही थी और ऑनलाइन क्लास के लिए लैपटॉप खरीदने को वो जूझ रही थीं...
ये थी ऐश्वर्या रेड्डी की पढ़ने की चाहत और उस पर बंधी तंगहाली की बेड़ियां. वो बेड़ियां जिसने एक होनहार छात्रा को अपनी जान लेने पर मज़बूर कर दिया. कभी शहर की टॉपर रही ये लड़की आर्थिक मजबूरियों से लड़ते-लड़ते हार गई.
कभी शहर में टॉप करने वालीं ऐश्वर्या ने तंगहाली से लड़ते-लड़ते आख़िर में दो नवंबर को आत्महत्या कर ली. उनके आख़िरी शब्द थे 'मैं अपने घर में कई ख़र्चों की वजह हूं. मैं उन पर बोझ बन गई हूं. मेरी शिक्षा एक बोझ है. मैं पढ़ाई के बिना ज़िंदा नहीं रह सकती.'
ऐश्वर्या की पढ़ाई के लिए जद्दोजहद की कहानी कुछ चंद महीनों की नहीं बल्कि एक लंबे समय का संघर्ष है.
हैदराबाद से 50 किमी. दूर स्थित शादनगर में ऐश्वर्या रेड्डी का घर है. जब हम उनके घर पहुंचे तो एक दो कमरों के घर के बाहर मीडिया का जमावड़ा लगा था. पत्रकार ऐश्वर्या की मां से बात करना चाहते थे.
परिवार को सांत्वना देने के लिए राजनीतिक दलों के नेताओं का घर पर आना-जाना लगा था.
ऐश्वर्या के पिता गांता श्रीनिवास रेड्डी एक मेकेनिक हैं और उनकी मां सुमति घर पर सिलाई का काम करती हैं.
ऐश्वर्या बचपन से ही मेधावी छात्रा थीं रही. उन्हें बारहवीं पूरी करने के लिए मुफ़्त शिक्षा मिली थी. उन्होंने बारहवीं में 98 प्रतिशत से अधिक अंक हासिल करके पूरे शहर में टॉप किया था.

दिल्ली में रहने और पढ़ने का खर्च
बारहवीं में उनके नंबर देखकर परिवार के एक परिचित ने नई दिल्ली में लेडी श्रीराम कॉलेज में दाखिला लेने का सुझाव दिया.
उन्होंने ऐश्वर्या को दाख़िला लेने में मदद करने का वादा किया. ऐश्वर्या सिविल सेवा में जाना चाहती थीं.
ऐश्वर्या को बीएससी ऑनर्स मैथमैटिक्स कोर्स में लेडी श्री राम कॉलेज में दाख़िला मिल गया. लेकिन, कॉलेज का ये नियम है कि कोर्स के पहले के साल के बाद हॉस्टल की सुविधा वापस ले ली जाती है. ऐश्वर्या को इस बात की जानकारी थी और एक साल के बाद की चिंता उन्हें हमेशा सताती थी.
वह ग्रेजुएशन के बाद सिविल सेवा की तैयारी करना चाहती थीं लेकिन कोचिंग के लिए पैसे इकट्ठा करना भी उनके लिए चुनौती बन गया था.
ऐश्वर्या के माता-पिता उनकी पढ़ाई जारी रखने के लिए दिन-रात कोशिशों में लगे थे. उन्होंने अपनी बेटी की पढ़ाई के लिए घर का जेवर भी गिरवी रख दिया लेकिन फिर भी कुछ ना हो सका.

ऐश्वर्या रेड्डी ने जब शहर में टॉप किया था.
गिरवी रखा जेवर
ऐश्वर्या की मां सुमति रुंधी आवाज़ में कहती हैं, ''मैंने उसके दिल्ली जाने के लिए घर का जेवर बेचकर 80 हज़ार रुपयों का इंतज़ाम किया था. ऐश्वर्या को आगे होने वाले खर्चों की चिंता रहती थी. मैंने उसे कहा था कि अगर ज़रूरत हुई तो हम सोना बेच देंगे और उसके लिए लैपटॉप खरीदने की भी कोशिश करेंगे.'
''हमने उसे यहां तक कहा था कि ज़रूरत पड़ने पर उसकी पढ़ाई के लिए हम अपना घर भी बेच सकते हैं. हमने उसे अपने सिविल सेवा के लक्ष्य पर ध्यान देने के लिए कहा था. मेरी बेटी पढ़ने में बहुत तेज़ थी. वो सिविल सेवा में नहीं भी जा पाती तो ऊंची रैंक की नौकरी ज़रूर पा लेती.'
''लेकिन, ऐश्वर्या हमसे घर और सोना बेचने के लिए हमेशा मना करती थी. मैं उसे कहती थी कि जब वो अधिकारी बन जाएगी तो हम ऐसे 10 घर खरीद सकते हैं.
''वह ऑनलाइन क्लासेज़ शुरू होने के बाद से लैपटॉप मांग रही थी और उसने बताया था कि 70 हज़ार का लैपटॉप ठीक रहेगा. मैंने उसे भरोसा दिलाया था कि हम उसे लैपटॉप दिला देंगे.''
हालांकि, परिवार की स्थिति ऐसी थी कि उन्हें अपनी दूसरी बेटी को निजी स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूल में डालने का फैसला लेना पड़ा. पर वो ऐसा भी नहीं कर पाए. उन्हें स्कूल से ट्रांसफ़र सर्टिफिकेट लेने के लिए 7000 रुपयों की ज़रूरती थी. इतने पैसे ना होने के कारण उन्हें बेटी का स्कूल ही छुड़ाना पड़ गया.

ऐश्वर्या रेड्डी का परिवार
क्यों की आत्महत्या
अपनी ग्रैजुएशन की पढ़ाई के अलावा ऐश्वर्या फ्रेंच भाषा भी सीख रही थीं. वो लॉकडाउन के कारण अपने घर लौट आई थीं.
घर पर वो फ्रेंच सीखने के दौरान रात में फ्रेंच फ़िल्में देखा करतीं और सुबह देर तक उठती थीं. ऐश्वर्या का परिवार उन्हें घर के कामों से दूर रखता था और सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कहता था.
वो रोज़ाना फोन पर ऑनलाइन क्लास, फ्रेंच क्लास लेतीं और दोस्तों से बात करतीं. वो ज़्यादातर अपने कमरे में ही रहती थीं और वहीं खाना खाती थीं. ऐश्वर्या को फोन पर ऑनलाइन क्लास लेने में दिक्कत होती थी इसलिए वो एक लैपटॉप खरीदना चाहती थीं.
इसी बीच ऐश्वर्या की वारंगल में एक दोस्त से मुलाक़ात हुई और उन्हें एजुकेशन लोन (शिक्षा ऋण) के बारे में पता चला. वह एक नवंबर को दोस्त से मिलने गई थीं.
दोस्त से मिलकर वापस आने पर ऐश्वर्या ने अपनी मां को एजुकेशन लोन के बारे में बताया.
सुमति बताती हैं, ''वो वापस लौटने के बाद बहुत खुश लग रही थी. उसने घर आकर डांस भी किया. उसने मुझे बताया कि उसकी दोस्त की मां ने उसे एजुकेशन लोन के बारे में बताया है और उसकी मदद करने की बात भी कही है.''
ऐश्वर्या अपने परिवार का दो लाख का कर्ज़ भी चुकाना चाहती थीं जो उनकी पढ़ाई के लिए लिया गया था. बाकी पैसों से वो अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहती थीं.
वो आख़िरी लड़ाई
हालांकि, उस दौरान ऐश्वर्या और उनकी मां के बीच कॉलेज एडमिशन के लिए दिल्ली जाने, वहां रहने और एडमिशन फीस में हुए खर्च को लेकर बहस हो गई. दोनों के बीच बहुत ज़्यादा बहस छिड़ गई.
बाद में, ऐश्वर्या अपने कमरे में चली गई और दरवाज़ा बंद कर लिया. उसने रोज़ की तरह फ़िल्म देखी और खाना खाने से मना कर दिया.
वो सुबह उठीं लेकिन दूसरे दिन भी खाना खाने से इनकार कर दिया.
ऐश्वर्या के पिता ने बाहर से खाने मंगाने के लिए भी कहा लेकिन उसने मना कर दिया.
हालांकि, ऐश्वर्या ने अपने पिता को उनकी डाइट के बारे में बताया क्योंकि उन्हें पीलिया हुआ था. उन्होंने अपने पिता को खाना भी खिलाया.
बाद में ऐश्वर्या अपने कमरे में चली गईं. उनके कमरे से काफ़ी देर तक कोई आवाज़ नहीं आई. उनकी बहन ने पायदान लेने के लिए जब कमरे में देखा तो ऐश्वर्या ने कमरे के पंखे से खुद को फांसी लगाई हुई थी.
सुमति रोते हुए कहती हैं, ''हमने उसे ज़मीन पर लिटाया और ऑटो लाने के लिए दौड़े. हम उसे जगाने की कोशिश कर रहे थे. हम सोच रहे थे कि काश ये सब झूठ हो.''

ऐश्वर्या का सुसाइड नोट
ऐश्वर्या ने अपने पीछे एक सुसाइड नोट भी छोड़ा है. उन्होंने लिखा है-
''मेरी मौत के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं है. मेरे कारण परिवार को बहुत खर्च उठाना पड़ रहा है. मैं उन पर बोझ बन गई हूं. मेरी पढ़ाई उन पर बोझ बन गई है. मैं इस बारे में लंबे समय से सोच रही हूं. मुझे लगता है कि मौत ही मेरी इस समस्या का एकमात्र हल है. लोग मेरी मौत के लिए कई कारण बता सकते हैं. हालांकि, मेरा कोई बुरा इरादा नहीं है. कृप्या देखें कि मुझे एक साल के लिए इंस्पायर स्कॉलरशिप मिल जाए. कृप्या मुझे माफ कर दें. मैं अच्छी बेटी नहीं हूं.''
ऐश्वर्या ने इस सुसाइड नोट के आख़िर में अंग्रेज़ी में अपने हस्ताक्षर किए हैं.
ऐसी कई संस्थाएं और लोग हैं जो होनहार और आर्थिक रूप से कमज़ोर स्टूडेंट्स की मदद करते हैं लेकिन ऐश्वर्या का परिवार उन तक नहीं पहुंच सका.
सुमति ने बीबीसी को बताया, ''हम किसी को नहीं जानते. हम नहीं जानते कि किससे मदद मांगनी चाहिए. कुछ लोगों ने हमें सलाह दी कि वो व्हाट्सऐप के ज़रिए मदद ले सकते हैं. लेकिन, हमने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया क्योंकि हमें डर था कि व्हाट्सऐप पर हमारी बेटी की फोटो सब तक पहुंच जाएगी और इससे हमारी बेइज्जती होगी. मैंने उन्हें रोक दिया.''
ऐश्वर्या ने मदद के लिए मुख्यमंत्री केसी रामाराव के बेटे और आईटी मंत्री केटी रामाराव को ट्वीट किया था और एक्टर सोनू सूद से भी लैपटॉप के लिए मदद मांगी थी.
आंसुओं के साथ अपनी बेटी को याद करते हुए सुमति कहती हैं, ''मैंने ही उस पर ज़ोर डाला था कि वो वारंगल से घर आ जाए और स्कॉलरशिप के लिए बैंक अकाउंट खोल ले. काश मैं उसे ना बुलाती और वो ज़िंदा होती.''
''हमने उसे हमेशा भरोसा दिलाया था कि पढ़ाई के लिए डरने की ज़रूरत नहीं है. एक दिन पहले हुए झगड़े से वो बहुत दुखी हो गई थी.''
अब कई ग़ैर-लाभकारी संगठनों, और सामाजिक कल्याण छात्र संघों, आर्थिक रूप से कमजोर उच्च जाति संघों ने परिवार को समर्थन देने का आश्वासन दिया है. वर्तमान में, स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) मामले को देख रहा है. (bbc.com/hindi)
-अनंत प्रकाश
दिल्ली में बीते पाँच दिनों से हवा इतनी ज़्यादा प्रदूषित हो चुकी है कि बेहद ख़तरनाक प्रदूषक पीएम 2.5 की हवा में मौजूदगी अपने उच्चतम स्तर पर जा पहुँचीहै.
बीते गुरुवार से लेकर शनिवार, रविवार और सोमवार को दिल्ली समेत उत्तर भारत के कई शहरों में वायु प्रदूषण अपने उच्चतम स्तर पर दर्ज किया गया.
इस हवा में साँस लेना इतना ख़तरनाक है कि वरिष्ठ नागरिकों, बच्चों और अस्थमा एवं साँस से जुड़ी बीमारियां झेल रहे लोगों को आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाएं लेनी पड़ सकती हैं. वहीं, स्वस्थ लोगों के लिए लंबे समय तक इस हवा में साँस लेना नुकसानदायक साबित हो सकता है.
लेकिन ये पहला मौका नहीं है, जब नवंबर महीने के पहले-दूसरे हफ़्ते में ही दिल्ली की हवा इतनी प्रदूषित हो गई हो. पिछले कई सालों से दिल्ली समेत उत्तर भारत के कई राज्यों में सर्दियां आते आते वायु प्रदूषण की समस्या खड़ी हो जाती है.
दिल्ली के गंगा राम अस्पताल में लंग कैंसर विशेषज्ञ डॉ. अरविंद कुमार के मुताबिक़, उत्तर भारत के बड़े शहरों में प्रदूषण का ये ट्रेंड अगर इसी तरह जारी रहा तो इस क्षेत्र में फेफड़ों के कैंसर के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हो सकती है. बीते साल ही दिल्ली की रहने वाली एक 28 वर्षीय महिला को लंग कैंसर होने की बात सामने आई थी जबकि वह सिगरेट या बीड़ी आदि नहीं पीती थीं.
ऐसे में सवाल ये उठता है कि इसका समाधान क्या है?
डॉ. अरविंद समेत देश के तमाम विशेषज्ञ मानते हैं कि वायु प्रदूषण की समस्या का सिर्फ एक समाधान है – वायु प्रदूषण को कम करना.
लेकिन पिछले कई सालों से वायु प्रदूषण कम होने की बजाए बढ़ता ही दिख रहा है. ऐसे में लोगों ने एन 95 मास्क और एयर प्यूरीफायर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है जिससे इस इंडस्ट्री में बेहद तेज़ उछाल आया है.
ई-कॉमर्स वेबसाइट ऐमेज़ॉन के मुताबिक़, साल 2016 में लोगों ने 2015 के मुक़ाबले 400% ज़्यादा एयर प्यूरीफ़ायर ख़रीदे थे. वहीं, 2017 में लोगों ने 2016 के मुक़ाबले 500 प्रतिशत ज़्यादा एयर प्यूरीफ़ायर ख़रीदे और एयर प्यूरीफायर आहिस्ता-आहिस्ता से टीवी, फ्रिज़, एसी जैसे होम एप्लाएंस कहे जाने वाले उत्पादों में शामिल हो चुका है.
बाज़ार में इस समय 5,000 रुपये से लेकर 50,000 रुपये तक के एयर प्यूरीफायर्स उपलब्ध हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या इस ज़हरीली हवा से बचने के लिए एयर प्यूरीफायर का सहारा लिया जा सकता है?

कितने कामयाब हैं एयर प्यूरीफायर?
एयर प्यूरीफायर बनाने वाली कंपनियां अपने विज्ञापनों में अलग-अलग तकनीकी शब्दों का प्रयोग करके ये जताने की कोशिश करती हैं कि उनके ब्रांड के एयर प्यूरीफायर आपको वायु प्रदूषण की समस्या से एक हद तक निजात दिला सकते हैं.
लेकिन अब तक किसी वैज्ञानिक अध्ययन में ये सिद्ध नहीं हुआ है कि एयर प्यूरीफायर दिल्ली जैसे विशाल शहर की आबादी को वायु प्रदूषण के नकारात्मक प्रभावों से बचा सकता है.
सेंटर फॉर साइंस एंड स्टडीज़ से जुड़े विशेषज्ञ विवेक चट्टोपाध्याय मानते हैं कि एयर प्यूरीफायर को एक समाधान मानना ग़लती होगी.
वे कहते हैं, “अभी हम जिस हवा में साँस ले रहे हैं, वह स्वास्थ्य के लिहाज़ से बेहद ख़तरनाक है. हम ख़राब, बहुत ख़राब स्तरों की बात नहीं कर रहे हैं. ये वो स्तर है जो कि सबसे ज़्यादा ख़राब है. इस हवा में साँस लेने से स्वस्थ लोगों को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है.”
लेकिन एयर प्यूरीफायर के प्रभावशाली होने या न होने के सवाल पर वे कहते हैं, “एयर प्यूरीफायर किसी जगह विशेष जैसे किसी कमरे की हवा में प्रदूषकों की संख्या कम कर सकता है. मान लीजिए कि आप एक कमरे में बैठे हैं, ऐसे में वहां आपको साँस लेने के लिए ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ेगी. लेकिन एयर प्यूरीफायर आपको ऑक्सीजन नहीं दे सकता. ऐसे में आपको इतनी जगह रखनी होगी कि बाहर से हवा अंदर आ सके. रूम में वेंटिलेशन की ज़रूरत होगी. ऐसे में एयर प्यूरीफायर को बाहर से अंदर आती हवा को शुद्ध करना होगा जो कि अपने आप में चुनौतीपूर्ण है.”
“आप दिन के 24 घंटे कमरे के अंदर नहीं बैठ सकते हैं. दिन के किसी भी वक़्त अगर एयर पॉल्युशन बहुत ज़्यादा हाई लेवल पर है और आप उसके संपर्क में आ जाते हैं तो उसका आप पर बुरा प्रभाव पड़ेगा. ऐसे में आपने भले ही कुछ घंटे साफ हवा में बिता लिए हों लेकिन इसका कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता है. एक और उदाहरण है कि जब आप ट्रैफिक में होते हैं तो थोड़ी सी देर ही अशुद्ध हवा में साँस लेने की वजह से आपको दिक्कत होने लगती है. ऐसे में बाहर की हवा को सुधारना हर हाल में ज़रूरी है.”
एयरप्यूरीफ़ायर खरीदने की आर्थिक क्षमता
चट्टोपाध्याय अपनी बात ख़त्म करते हुए एक दूसरे बिंदु की ओर इशारा करते हैं. वे कहते हैं कि एक बड़ा सवाल ये है कि भारत में कितने लोग अच्छी क्वालिटी का एयर प्यूरीफायर ख़रीद सकते हैं?
इस बात में दो राय नहीं है कि भारत की आबादी में एक बड़ा वर्ग है जो कि प्यूरीफायर ख़रीदने में सक्षम नहीं है. लेकिन धीरे धीरे जैसे एयर कंडीशन ने मध्य वर्ग के घरों में जगह बनाई है, ठीक उसी तरह एयर प्यूरीफायर अपनी जड़ें जमाता जा रहा है.
लोग अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार एयर प्यूरीफायर खरीद रहे हैं. लगभग 10 हज़ार रुपये की कीमत वाले एयर प्यूरीफायर की बिक्री अपेक्षाकृत ज़्यादा हो रही है.
मगर एम्स (दिल्ली) पल्मनोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ. अनंत मोहन मानते हैं कि इसे एक समाधान की तरह देखना बिलकुल ग़लत है.
वे कहते हैं, “एयर प्यूरीफायर के असर को लेकर साइंटिफिक जानकारी काफ़ी कम है. लेकिन वरिष्ठ नागरिकों, बच्चों और पहले से बीमार लोगों के लिए एयर प्यूरीफायर, (जब तक वे घर के अंदर हैं तब तक) उनके आसपास की हवा बाहर की तुलना में बेहतर कर सकता है. और कोई प्यूरीफायर कितना असरदार साबित होगा ये निर्भर करता है, उसके साइज़, इफिशिंएसी और कमरे के साइज़ पर, क्योंकि हर एयर प्यूरीफायर की क्षमता कमरे के साइज़ के मुताबिक़ अलग अलग होती है.”
“लेकिन घर से बाहर निकलते ही आप फिर प्रदूषित हवा के संपर्क में आ जाते हैं. और आप पूरे घर में एयर प्यूरीफायर नहीं लगा सकते. ऐसे में चूंकि अभी कोविड का दौर जारी है. और लोगों को घर पर रहने की सलाह दी जाती है. ऐसे में कुछ विशेष वर्गों (उम्र और बीमारी के आधार पर) के लिए एयर प्यूरीफायर काम कर सकता है. लेकिन इसे एक बड़ी आबादी के लिए घर के ज़रूरी सामान में शामिल करना मुश्किल होगा.”

एयर प्यूरीफायर के लिए तय मानकों की कमी?
लेकिन कम कीमत के प्यूरीफायर की बाज़ार में मौजूदगी को डॉ. अनंत मोहन चिंताजनक मानते हैं.
वे कहते हैं, “अब इस समय बाज़ार में इतनी तरह के प्यूरीफायर आ चुके हैं कि उनकी गुणवत्ता का नियंत्रण किया जाना बेहद ज़रूरी होगा. कुछ बड़ी कंपनियों के एयर प्यूरीफायर संभवत: गुणवत्ता वाले हों. लेकिन हम जानते हैं कि हर स्तर का माल बाज़ार में बिक जाता है. और जब ऐसे उत्पाद ख़रीदकर लोग ये सोचेंगे कि उन्होंने अपनी हवा की गुणवत्ता सुधार ली है तो ये पहले से ज़्यादा ख़तरनाक होगा. ऐसे में इस क्षेत्र में गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए कड़े नियमों की ज़रूरत होगी कि बिना क्वालिटी कंट्रोल के मार्केटिंग और बिक्री की अनुमति ही न दी जाए.”
“लेकिन ये सब करते हुए भी हमें ये नहीं मानना चाहिए कि एयर प्यूरीफायर एक ज़रूरी चीज़ हो गई है. ऐसा मानने का मतलब ये है कि हमने ये मान लिया है कि हमारी एयर क्वालिटी और ख़राब होती जाएगी और जाने दिया जाए. ऐसे में एयर प्यूरीफायर किसी चीज़ का समाधान नहीं है. समाधान बस एक है – पर्यावरण को ठीक करना.” (bbc.com/hindi)
बाइडेन ने अपने सहयोगी रॉन क्लैन को व्हाइट हाउस चीफ ऑफ स्टाफ नियुक्त करने की घोषणा की है. बाइडेन जब राष्ट्रपति बन जाएंगे तो क्लैन उनके कार्यालय की देखरेख करेंगे और वरिष्ठ सलाहकार के रूप में काम करेंगे.
व्हाइट हाउस के चीफ ऑफ स्टाफ की नियु्क्ति पूरी तरह से राजनीतिक होती है और इसके लिए सीनेट की मंजूरी की आवश्यकता नहीं होती है. चीफ ऑफ स्टाफ पूरी तरह से राष्ट्रपति के साथ मिलकर काम करता है और जरूरी मुद्दों पर अपनी सलाह देता है. जो बाइडेन ने अपने करीबी सहयोगी रॉन क्लैन को इस पद के लिए नियुक्त किया है. यह बाइडेन द्वारा पहली बड़ी नियुक्ति है और ट्रंप द्वारा हार नहीं स्वीकार करने के बावजूद राष्ट्रपति का पद संभालने के पहले अपना प्रशासन तैयार करने में पहला कदम है.
बराक ओबामा जब राष्ट्रपति थे और बाइडेन उप राष्ट्रपति तब 59 वर्षीय क्लैन ने बाइडेन के लिए चीफ ऑफ स्टाफ के तौर पर काम किया था. बाइडेन के चुनाव जीतने के बाद से ही इस पद के लिए उनके नाम की चर्चा जोरों पर थी.
साल 2014 में जब इबोला वायरस अफ्रीका में फैला तो क्लैन ने इस संकट से निपटने में अहम भूमिका निभाई थी. इबोला के खिलाफ कार्रवाई में ओबामा प्रशासन ने कई अहम फैसले लिए थे. क्लैन ने मौजूदा महामारी कोरोना से निपटने में ट्रंप की नाकामी की जमकर आलोचना की है. क्लैन ऐसे समय में अपना पद संभालने जा रहे हैं जब देश एक भयंकर महामारी की चपेट में है. अमेरिका में अस्पतालों में कोरोना मरीजों से बिस्तर भरे पड़े हैं और देश की अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. बाइडेन कह चुके हैं कि कोरोना वायरस को काबू करना उनकी प्रमुख प्राथमिकता है.
वॉशिंगटन में व्हाइट हाउस चीफ ऑफ स्टाफ एक शक्तिशाली पद है. इस पद पर बैठा व्यक्ति एक गेट कीपर की तरह काम करता है, जो यह फैसला लेता है कि राष्ट्रपति किससे बात करें और किससे नहीं करें और अक्सर कई बड़े फैसले के पहले वही व्यक्ति आखिरी सलाहकार भी होता है. आम तौर पर ऐसी नियुक्ति नया राष्ट्रपति सबसे पहले करता है जो कि नए प्रशासन के लिए स्वर तय करता है.
2008-2009 के आर्थिक संकट के समय भी क्लैन ने बाइडेन के चीफ ऑफ स्टाफ के रूप में अपनी सेवाएं दी हैं. इस चुनाव में उन्होंने बाइडेन के चुनाव अभियान में बाहर से सलाहकार के रूप में काम किया. बाइडेन ने क्लैन की नियुक्ति पर कहा, "राजनीतिक क्षेत्र के लोगों के साथ काम करने का उनका लंबा, विविध अनुभव है और उनकी क्षमता ठीक वैसी ही है जैसी मुझे व्हाइट हाउस के चीफ ऑफ स्टाफ में चाहिए, क्योंकि हम अभी संकट का सामना कर रहे हैं और हमारे देश को एकसाथ लाने की जरूरत है."
एए/सीके (रॉयटर्स, एएफपी)
असम में अल्पसंख्यक स्कूली छात्रों के स्कॉलरशिप की रकम में घोटाले का मामला सामने आने के बाद पुलिस ने 21 लोगों को गिरफ्तार किया है. अब तक 10 करोड़ रुपये के घोटाले का पता चला है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
लेकिन पुलिस का कहना है कि अभियुक्तों से पूछताछ के बाद ही असली रकम का पता चलेगा. इससे पहले झारखंड में भी ऐसा घोटाला सामने आ चुका है. सब कुछ डिजीटल तरीके से होने के बावजूद बड़े पैमाने पर चलने वाले इस घोटाले के सामने आने पर हैरत जताई जा रही है. असम में बीते साल भी सरकार ने ऐसे एक घोटाले की बात कबूल की थी. असम में सीआईडी ने इस मामले में राज्य के चार जिलों से कम से कम 21 लोगों को गिरफ्तार किया है. अभियुक्तों में चार हेड मास्टरों के अलावा एक शिक्षक भी शामिल है. यह घोटाला 2018-19 और 2019-20 के दौरान आवंटित रकम के वितरण में हुआ है. असम अल्पसंख्यक कल्याण बोर्ड के निदेशक और उक्त स्कॉलरशिप योजना के नोडल अधिकारी महमूद हसन की शिकायत के आधार पर इस मामले की जांच शुरू की गई और राज्य के विभिन्न जगहों पर छापे मार कर अभियुक्तों को गिरफ्तार किया गया है.
सीआईडी की ओर से गुवाहाटी में जारी एक बयान में कहा गया है कि जांच के दौरान मिले सबूतों के आधार पर ग्वालपाड़ा, दरंग, कामरूप और धुबड़ी जिलों से स्थानीय पुलिस के सहयोग से अब तक 21 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है. इस मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 120 (बी), 406, 409, 419, 420, 468 और 471 के तहत एक मामला दर्ज किया गया है. सीआईडी के आईजी सुरेंद्र कुमार बताते हैं, "छह लोगों को न्यायिक हिरासत में भेजा गया है जबकि बाकी अभियुक्त चार दिनों की पुलिस रिमांड पर हैं. सीआईडी की टीम ने अभियुक्तों के कब्जे से तीन लैपटॉप के अलावा 217 छात्रों की तस्वीरें, स्कॉलरशिप के लिए 173 आवेदन पत्र और 11 बैंक पासबुक भी जब्त किए गए हैं.”
इस मामले की जांच कर रहे सीआईडी के एक अधिकारी बताते हैं कि गिरफ्तार लोगों में ग्राहक सेवा केंद्र के तीन मालिक, 10 बिचौलिए, स्कूल प्रबंध समिति का एक अध्यक्ष और तीन इलेक्ट्रॉनिक डाटा प्रोसेसरों के शामिल होने से पता चलता है कि यह घोटाला एक संगठित गिरोह के जरिए अंजाम दिया जा रहा था. जांच अधिकारियों का कहना है कि इस योजना के तहत स्कॉलरशिप के लिए छात्रों का दो स्तरों पर सत्यापन किया जाता है. पहला सत्यापन स्कूल के स्तर पर होता है और दूसरा जिले के स्तर पर. लेकिन घोटाले में शामिल लोग हेडमास्टरों के लॉगिन और पासवर्ड में सेंध लगा कर सिस्टम में घुसने और घोटाला करने में कामयाब रहे थे.

असम का स्कूल बिहार में
इस घोटाले में असम के शिवसागर जिले के नाजिरा स्थित एक केंद्रीय विद्यालय को तो बिहार का स्कूल बता दिया गया है. यही नहीं, यह स्कूल बिहार के छह अलग-अलग जिलों की सूची में शामिल है. बीते दिनों दिल्ली से छपने वाले एक अंग्रेजी अखबार ने इस घोटाले की रिपोर्ट की थी. उक्त स्कूल के नाम पर बिहार में 39 लाभार्थियों के नाम पर स्कॉलरशिप की रकम वसूली जा चुकी है. केंद्रीय विद्यालय के प्रिंसिपल अखिलेश्वर झा बताते हैं, "जिन लोगों के नाम इस स्कूल के छात्र के तौर पर दर्ज हैं, वे सब फर्जी हैं. हमारे रजिस्टर में उन छात्रों के नाम ही नहीं हैं. लेकिन दरभंगा, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया और पूर्वी चंपारण जिलों में रहने वाले छात्रों को इस केंद्रीय विद्यालय का छात्र बता कर उनके नाम स्कॉलरशिप की रकम उठाई जा चुकी है.”अखिलेश्वर झा बताते हैं कि इस साल भी असम सरकार के जिला कल्याण अधिकारी ने एक मेल भेज कर छात्रों के नामों की पुष्टि करने को कहा था. लेकिन हमने जांच में पाया कि उनमें से कोई भी कभी इस विद्यालय का छात्र नहीं रहा है. हमने स्कूल के स्तर पर उनके फॉर्म का सत्यापन भी नहीं किया था. उन तमाम फॉर्मों में स्कूल के ही एक कंप्यूटर शिक्षक का नाम कॉन्टैक्ट पर्सन के तौर पर दर्ज था. इसकी गहन जांच की जानी चाहिए.
असम सरकार ने इससे पहले बीते साल फरवरी में भी विधानसभा में माना था कि अल्पसंख्यक छात्रों को दी जाने वाली मैट्रिक-पूर्व स्कॉलरशिप योजना में घोटाला हुआ है और सीआईडी को इस मामले की जांच सौंपी गई है. ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के विधायक अमीनुल इस्लाम की ओर से पूछे गए एक सवाल के जवाब में अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री रंजीत दत्त ने कहा था कि इस मामले में पांच लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है. हालांकि मंत्री ने यह नहीं बताया था कि घोटाला कितना बड़ा है. दत्त ने कहा था कि असम के सभी जिलों में जांच चल रही है. मोरीगांव और बरपेटा में दो शिक्षकों के अलावा बैंक ग्राहक सेवा केंद्र के दो कर्मचारियों और एक बिचौलिए को गिरफ्तार किया जा चुका है.
क्या है योजना
प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप स्कीम नामक यह योजना 2008 में केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने शुरू की थी. इसके तहत एक लाख से कम सालाना आय वाले मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी, जैन और बौद्ध परिवारों के छात्रों को सालाना 10,700 रुपये की स्कॉलरशिप दी जानी थी. इसके लिए छात्रों को स्कूली परीक्षा में कम से कम 50 फीसदी नंबर लाना अनिवार्य है. पहली से पांचवीं कक्षा के छात्रों को सालाना एक हजार और छठी से दसवीं तक 5,700 रुपये दिए जाते हैं. लेकिन छठी से दसवीं तक के छात्र अगर हॉस्टल में रहते हों, तो उन्हें सालाना 10,700 रुपये मिलते हैं. सबसे ज्यादा घोटाला इसी वर्ग में हुआ है.
दिलचस्प बात यह है कि योजना में पारदर्शिता बनाए रखने के लिए यह पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन होती है. छात्रों को ऑनलाइन आवेदन करना होता है और पैसे भी सीधे उनके बैंक खातों में ट्रांसफर किए जाते हैं. बावजूद इसके यह योजना भ्रष्टाचार के गहरे दलदल में डूबी है. एक शिक्षाविद मनोरंजन गोस्वामी कहते हैं, "इस घोटाले से साफ है कि ऑनलाइन प्रक्रिया भी पारदर्शी नहीं है. इनमें स्कूली शिक्षकों के साथ ही कंप्यूटर विशेषज्ञ भी शामिल हैं. सरकार को इस मामले को गंभीरता से लेते हुए इस पूरी योजना की गहन जांच कर दोषियों को सख्त सजा देनी चाहिए.”
ऊपरी असम के एक स्कूल में पढ़ाने वाले सुजित कुमार कहते हैं, "खासकर अरुणाचल प्रदेश के दुर्गम इलाकों में स्थित स्कूलों में केंद्र की ओर से मिलने वाली स्कॉलरशिप की रकम में घोटाले का इतिहास तो दशकों पुराना है. वहां स्कूली शिक्षक स्थानीय अधिकारियों के साथ मिलीभगत से स्कूलों में फर्जी दाखिला दिखा कर सालाना करोड़ों का घोटाला करते रहे हैं. इलाका बेहद दुर्गम होने की वजह से उन स्कूलों में कभी कोई अधिकारी जांच के लिए नहीं जाता. इसी का फायदा उठा कर दशकों ऐसे घोटाले जारी रहे थे. केंद्र सरकार स्थानीय लोगों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए हर साल करोड़ों रुपये भेजती थी. पहले तो सारी कवायद मैनुअल थी. लेकिन अब डिजिटल तकनीक के बावजूद घोटालेबाजों ने उसकी काट तलाश ली है. यह मुद्दा बेहद गंभीर है.”(dw.com)
हांगकांग का पूरा लोकतंत्र समर्थक विपक्ष एक साथ विधान परिषद से इस्तीफा देने जा रहा है. चीन-समर्थक सरकार द्वारा विपक्ष के चार लोकतंत्र-समर्थक विधायकों को अयोग्य घोषित किए जाने के बाद विपक्ष ने ये कदम उठाया है.
हांगकांग के 15 विधायकों ने बुधवार को एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर घोषणा कर दी कि वे सब 70 सीटों वाली विधान परिषद में अपनी सीटें छोड़ देंगे. इस तरह वे हांगकांग सरकार के उस उस फैसले पर विरोध जता रहे हैं जिसमें उसने चार ऐसे विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया है जो लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का साथ देते आए हैं.
इसके ठीक पहले, दो दिनों तक चीन में चली नेशनल पीपुल्स कांग्रेस स्टैंडिंग कमेटी की बैठक में यह प्रस्ताव पास हुआ कि जो कोई भी हांगकांग की आजादी का समर्थन करेगा, शहर पर चीन के आधिपत्य को नहीं मानेगा, राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालेगा या बाहरी शक्तियों से शहर की गतिविधियों में हस्तक्षेप करने की मांग करेगा, उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा. हांगकांग के इन चार विधायकों पर विदेश से मदद मांगने के ऐसे ही आरोप लगाए गए थे.
हांगकांग में लोकतंत्र-समर्थक खेमे के समन्वयक वू ची-वाई ने पत्रकारों से कहा, "हम सब अपने पदों से इस्तीफा देने जा रहे हैं क्योंकि हमारे साथियों, हमारे सहकर्मियों को केंद्र सरकार ने एक निर्मम चाल चलते हुए अयोग्य घोषित कर दिया.'' इसके साथ ही उन्होंने बताया कि आगे आती दिख रही ऐसी तमाम मुश्किलों के बावजूद वे "लोकतंत्र के भविष्य के लिए अपनी लड़ाई कभी भी नहीं छोड़ेंगे.''
वू ने बताया कि सभी प्रो-डेमोक्रेसी सांसद अपना इस्तीफा गुरुवार शाम को सौंपने वाले हैं. हांगकांग सरकार के इस कदम को "असल में बीजिंग का किया धरा" बताते हुए एक अन्य प्रो-डेमोक्रेसी सांसद क्लाउडिया मो ने कहा कि यह हांगकांग में लोकतंत्र की लड़ाई का गला घोंटने की कोशिश है.
हाल के महीनों में चीन ने हांगकांग में विपक्ष की आवाज को दबाने के लिए कई कदम उठाए हैं, जिसमें जून में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को लागू करना सबसे अहम कदम माना जा सकता है. इस कानून के विरोध में हांगकांग में पिछले साल से ही युवाओं के आंदोलनों की आग धधक रही थी लेकिन फिर भी चीन ने आगे बढ़कर उसे लागू कर दिया.
कैरी लैम की सरकार द्वारा अयोग्य करार दिए गए चार सांसद.
हांगकांग सरकार द्वारा अयोग्य करार दिए गए चार विधायकों में से एक क्वोक का-की ने कहा, "वैधता और संवैधानिकता के लिहाज से देखें तो यह साफ तौर पर बेसिक लॉ और सार्वजनिक मामलों में हिस्सा लेने के हमारे अधिकार का उल्लंघन है.'' हांगकांग का मिनी संविधान बेसिक लॉ कहलाता है.
हांगकांग की प्रमुख कैरी लैम ने मीडिया से बातचीत में कहा कि विधायकों को उचित तरीके से पेश आना चाहिए और हांगकांग शहर को "देशभक्त विधायकों" की जरूरत है. प्रो-डेमोक्रेसी आंदोलन के समर्थक सभी विधायकों के इस्तीफे के बाद हांगकांग की विधान परिषद में केवल चीन-समर्थक कानून निर्माता ही बचेंगे. पहले से ही वहां चीन-समर्थक सदस्य बहुमत में थे लेकिन भविष्य में विपक्ष के अनुपस्थित होने के कारण कोई भी चीन-समर्थक कानून बिना किसी बहस या विरोध के पास कराया जा सकेगा.
हांगकांग के लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों पर बीते साल से ही विश्व भर की नजरें लगी हैं. अमेरिका और जर्मनी समेत कई पश्चिमी देशों ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को लागू होने के बाद इस पर सख्त प्रतिक्रियाएं भी दीं और कई देशों ने हांगकांग से अपनी प्रत्यर्पण संधियां तोड़ लीं. अमेरिका ने तो कैरी लैम और उनकी सरकार के प्रमुख लोगों के अमेरिका में प्रवेश करने पर भी रोक लगा दी. ऐसे सभी कदमों का चीन ने विरोध किया है. चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने साफ कहा है कि "हांगकांग चीन का विशेष प्रशासनिक क्षेत्र है'' और हांगकांग पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया को "चीनी राजनीति में विदेशी हस्तक्षेप" माना जाएगा.
आरपी/एमजे (एपी, रॉयटर्स)(dw.com)
कोरोना संकट के दौरान भारत में पहली बार बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा भले ही नीतीश कुमार का रहा हो, किंतु जीत का मार्ग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही प्रशस्त किया.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
बिहार विधानसभा चुनाव में कांटे की टक्कर में अंतत: जीत एनडीए को मिल गई. सरकार बनाने के जादुई आंकड़े 122 को पार कर एनडीए ने 125 सीटों पर जीत हासिल की. महागठबंधन को 110 सीट मिली जबकि आठ सीटें असदुद्दीन ओवैसी की एएमआइएमआइएम समेत अन्य के खाते में गई. दलों के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो 75 सीट पाकर राजद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. कांग्रेस को 19 तथा वामदलों को 16 सीटों पर जीत हासिल हुई. इधर एनडीए में भाजपा को 74, जदयू को 43, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा तथा विकासशील इंसान पार्टी को चार-चार सीटें मिलीं. एनडीए को कुल वोट का 34.8 प्रतिशत तो महागठबंधन को भी इतना ही मत हासिल हुआ. हालांकि मतों की गिनती के बाद राजद ने हेराफेरी का आरोप लगाते हुए पुनर्गणना की मांग चुनाव आयोग से की. राजद ने दस सीटों पर तो जदयू व भाजपा ने एक-एक सीटों पर दोबारा गिनती की मांग की है.
पीएम मोदी के दौरे ने बदला रूख
प्रधानमंत्री मोदी विधानसभा चुनाव के दौरान चार बार बिहार आए और 12 जनसभाओं को संबोधित किया. इन जनसभाओं के जरिए उन्होंने करीब 94 विधानसभा क्षेत्रों के मतदाताओं को कवर किया. जिन 12 विधानसभा क्षेत्रों में उनकी सभाएं हुईं उनमें नौ पर एनडीए को जीत हासिल हुई. पहले चरण के चुनाव के बाद की सभाओं में पीएम मोदी ने छठ पूजा के साथ भारत माता और भगवान श्रीराम की चर्चा की. साथ ही उन्होंने जंगलराज की बात कहते हुए तेजस्वी को जंगलराज का युवराज करार दिया तथा जंगलराज के भविष्य के परिणाम की चर्चा करते हुए विकास के नाम पर वोट मांगे. उन्होंने युवराजों की चर्चा करते हुए कहा था कि जैसे यूपी में दो युवराज (अखिलेश-राहुल) नहीं चले वैसे बिहार में भी दो युवराजों (राहुल-तेजस्वी)की जोड़ी नहीं चलेगी. उन्होंने अपहरण को राजद का कॉपीराइट तक कहा था. उन्होंने चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में राज्य की जनता के नाम एक पत्र भी लिखा और कहा कि बिहार में सुशासन के लिए एनडीए की सरकार का दोबारा बनना जरूरी है.
तेजस्वी यादव ने दी टक्कर
उनकी बातों का असर हुआ और दूसरे चरण के चुनाव में चंपारण में एनडीए ने बेहतर प्रदर्शन किया. वहीं तीसरे चरण के चुनाव में सभी पूर्वानुमानों को उलटते हुए एनडीए ने सीमांचल व कोसी की 78 सीटों में से 52 पर कब्जा जमाया. पीएम मोदी की देशभक्त ईमानदार विकास पुरुष तथा नीतीश कुमार की सुशासन वाले व विकास पुरुष की छवि तेजस्वी के लोकलुभावन वादों पर अंतत: भारी पड़ी. तीसरे चरण के चुनाव प्रचार के आखिरी दिन अंतिम सभा में नीतीश के आखिरी चुनाव के एलान ने भी हवा का रूख काफी हद तक मोड़ दिया. कहा जाए तो इमोशनल कार्ड चल गया. वहीं राहुल गांधी की बात करें तो उन्होंने आठ विधानसभा क्षेत्रों में चुनावी सभा की जिनमें महज तीन पर महागठबंधन को जीत मिल सकी. वहीं पटना में बचपन बिताने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बखूबी चुनाव संचालन किया. तेजस्वी के किए गए वादों पर वे खासे आक्रामक रहे. उन्होंने यहां तक कहा कि चुनाव हार जाना स्वीकार है, लेकिन गलत आश्वासन देना मंजूर नहीं है.
लोजपा ने एनडीए को पहुंचाया करारा नुकसान
चुनाव परिणाम की सबसे अहम बात रही कि जदयू के सीटों की संख्या भाजपा के मुकाबले काफी कम हो गई तथा बड़े-बड़े दावे करने वाली लोजपा बुरी तरह धाराशायी हुई. स्थिति इतनी खराब हुई कि चिराग पासवान अपने चचेरे भाई कृष्ण राज को भी जीत नहीं दिला सके. किंतु लोजपा जदयू को नुकसान पहुंचाने में कामयाब रही. हालांकि लोजपा की करनी का नुकसान भाजपा को भी उठाना पड़ा. लगभग 37 सीटों पर एनडीए की हार लोजपा के द्वारा वोट काटे जाने के कारण हुई. तभी तो सोशल मीडिया में किसी ने ट्रोल किया था, "मोदी के हनुमान ने तो लंका की बजाय अयोध्या को ही फूंक डाला."
वैसे चिराग ने कहा भी था, भाजपा से बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं. उन्होंने भाजपा के कुछ प्रत्याशियों के खिलाफ तथा जदयू के सभी प्रत्याशियों के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे थे. लोजपा की वजह से ही जदयू के पांच तो भाजपा के दो मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा. चिराग पासवान ने चुनाव परिणाम आने के बाद मंगलवार को कहा भी, "हम अपने उद्देश्य में सफल रहे. हमारा संगठन राज्य में मजबूत हुआ है. मैंने भाजपा को नुकसान नहीं पहुंचाया, जदयू को जरूर नुकसान पहुंचाया है. हमने संघर्ष का रास्ता चुना है. हमारी नजर 2025 के चुनाव पर है. एनडीए के साथ हमारा गठबंधन बना रहेगा."
शराबबंदी की भी रही महत्वपूर्ण भूमिका
2016 में नीतीश सरकार द्वारा बिहार में लागू की गई शराबबंदी ने भी 2020 के चुनाव में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. महागठबंधन के प्रमुख घटक कांग्रेस ने अपने बदलाव पत्र में शराबबंदी की समीक्षा की बात कही. चिराग भी शराबबंदी लागू करने में सरकार को विफल बताकर लगातार नीतीश सरकार पर हमला कर रहे थे. यही वजह रही कि शराबबंदी भी चुनाव का साइलेंट मुद्दा बन गई. किंतु पहले चरण में इसका खासा असर नहीं दिखा. इसका असर दूसरे चरण में तब दिखा जब यह बात फैलने लगी कि अगर नीतीश सरकार गई तो शराबबंदी भी समाप्त हो जाएगी. यह संदेश फैलते ही महिलाओं ने दूसरे चरण में बंपर वोटिंग की. इस चरण में पुरुषों ने करीब 53 प्रतिशत तो महिलाओं ने करीब 59 फीसद वोट डाले. तीसरे चरण में तो जहां पुरुषों ने करीब 55 प्रतिशत तो महिलाओं ने करीब 65 फीसद वोटिंग की.
दस प्रतिशत के इस अंतर ने चुनाव की दिशा ही बदल दी. अब यह साफ हो गया है कि मतदान केंद्रों पर महिलाओं की लंबी कतारों का मतलब आखिर क्या था. दरअसल, उन्हें यह भय हो गया कि नीतीश सरकार जाएगी तो उनके पारिवारिक जीवन का सुख-चैन भी छिन जाएगा. इसके अलावा केंद्र सरकार की उज्जवला योजना व लॉकडाउन के दौरान सीधे खाते में पैसा आना तथा नीतीश सरकार द्वारा पंचायत व स्थानीय निकायों में 50 प्रतिशत तथा सरकारी नौकरी 35 फीसद आरक्षण की व्यवस्था ने भी उन्हें एनडीए के पक्ष में बांधे रखा. वाकई, एंटी इन्कमबैंसी की चर्चा के बीच महिलाओं ने सत्ता की बाजी आखिरकार पलट दी.
चुनाव में कई फैक्टर होते हैं जो जीत या हार का कारण बनते हैं. सीमांचल में इस बार ओवैसी की पार्टी एएमआइएमआइएम की धमक भी महसूस की गई. अब तक यहां मुस्लिम-यादव समीकरण वाले राजद की ही चलती थी. किंतु इस बार राजद को ओवैसी के उम्मीदवारों ने नुकसान ही पहुंचाया. मुस्लिम बहुल 32 सीटों में 18 पर महागठबंधन की हार हुई. इन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी 30 प्रतिशत से भी ज्यादा है. 2015 में भाजपा इन 32 सीटों में से महज सात पर ही जीत हासिल कर सकी थी. वाकई चुनाव के कई रंग अभी सामने आएंगे. इसके बाद ही समझ आ सकेगा कोई जीता तो क्यों और कोई हारा तो क्यों. फिलहाल कांग्रेस मतों के अपहरण का आरोप लगा रही है वहीं एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में एकबार फिर सरकार बनाने की तैयारी में जुटा है.(dw.com)
- तसलीम खान
मंगलवार को जब बिहार में वोटों की गिनती शुरु हुई तो रुझान वैसी ही तस्वीर दिखा रहे थे जैसा कि आखिरी दौर की वोटिंग के बाद एग्जिट पोल के अनुमान में सामने आई थी। यानी तेजस्वी यादव की अगुवाई वाला महागठबंधन आगे था। आरजेडी समर्थक और प्रवक्ता खुश थे और जश्न की तैयारियां शुरु हो गई थीं। लेकिन दोपहर ढलते-ढलते माहौल बदल गया। एनडीए ने बढ़त बना ली, और आगे-पीछे की रेस देर रात तक जारी रहने के बाद आखिरकार नतीजे एनडीए के पक्ष में घोषित कर दिए गए।
लेकिन इस हार के बावजूद अगर बिहार चुनाव का कोई मैन ऑफ द मैच है तो वह वही तेजस्वी यादव हैं जिन्हें एक महीने पहले तक कोई गंभीरता से लेने के तैयार नहीं था। माना जा रहा था कि इस बार का चुनाव तो एनडीए बहुत ही आसानी से जीत जाएगा। बातें केक वॉक जैसी हो रही थीं। लेकिन जैसे-जैसे बिहार में चुनावी पारा चढ़ा, और तेजस्वी की एक दो रैलियों में भीड़ उमड़ी, राजनीतिक समीक्षकों को राय बदलना पड़ी। कहा जाने लगा कि बिहार में जब भी दो या अधिक पार्टियों ने मिलकर चुना लड़ा है, उन्होंने मौजूदा सत्ता को उखाड़ फेंका है।
वैसे बीजेपी-जेडीयू के एक साथ चुनाव लड़ने के कारण यह माना जा रहा था कि आरजेडी की तो कोई संभावना ही नहीं है, क्योंकि उसके पास बिहार में कांग्रेस और वामदलों के साथ गठबंधन के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। वैसे भी इस बार महागठबंधन के साथ लालू यादव नहीं थे, जो बिहार की नब्ज को किसी भी अन्य के मुकाबले बेहतर समझते हैं। ऐसे में महागठबंधन की नैया खेने की जिम्मेदारी 31 साल के तेजस्वी के ही कंधों पर थी।
और, अक्टूबर का दूसरा सप्ताह शुरु होते-होते तेजस्वी ने इस जिम्मेदारी को हकीकत में बदलने की संभावना पैदा कर दी। उनकी रैलियों में जबरदस्त भीड़ उमड़ने लगी और मुख्यधारा का मीडिया भी उन्हें नजरंदाज़ करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उनकी रैलियों में युवाओं के उत्साह से उम्मीद मजबूत होने लगीं। तेजस्वी की रैलियों में उमड़ती भीड़ के साथ ही यह बात भी बड़े पैमाने पर चर्चा का हिस्सा बनने लगी कि बिहार में इस समय जबरदस्त सत्ताविरोधी लहर है।
बात यहीं नहीं रुकी, और बीते करीब 15 साल से बिहार के मतदाताओं ने जिन नीतीश कुमार को सिर आंखों पर बिठा रखा था, उन्हें एनडीए की सबसे कमजोर कड़ी बताया जाने लगा। लोगों में उन्हें लेकर गुस्सा इतना अधिक दिखने लगा कि उनकी रैलियों में कभी विरोधी नारे लगते तो कभी उन पर प्याजा और चप्पलें फेंकी जाने लगीं। नीतीश भी हताश दिखने लगे और ऐसे-ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे जिसकी कम से कम उनसे तो किसी ने उम्मीद नहीं की थी। एक तरह से नीतीश एनडीए पर बोझ दिखने लगे।
दूसरी तरफ तेजस्वी ने एक नया राजनीतिक सूत्र गढ़ दिया था। उन्होंने एक तरह से एनडीए के लिए चुनावी एजेंडा तय कर दिया, नतीजतन एनडीए नेता, वह बीजेपी के हों या जेडीयू के, परेशान ही नहीं बल्कि रक्षात्मक भी दिखने लगे। यही कारण था कि जब तेजस्वी यादव ने ऐलान किया कि सत्ता संभालते ही पहली बैठक में वह 10 लाख नौकरियां देगें, तो पूरे बिहार में यह चर्चा का विषय बना और एनडीए नेताओं के पास इसकी काट ही नहीं दिखी। कशमकश में पड़े एनडीए की तरफ से उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने इस घोषणा का मजाक तक उड़ाया।। लेकिन तेजस्वी की इस घोषणा के राजनीतिक अर्थों को समझते हुए बीजेपी को अगले ही दिन 19 लाख रोजगार का वादा करना पड़ा।
कमाई, पढ़ाई, दवाई और सिंचाई के तेजस्वी के नारे ने बिहार के लोगों के बीच एक तरह का रिश्ता बना दिया, जिससे हमेशा जातीय समीकरणों का शिकार रहे बिहार का राजनीतिक विमर्श ही बदल गया। इतना ही नहीं तेजस्वी ने पूरे चुनाव में अपने पिता लालू यादव और मां राबड़ी देवी को एक तरह से किनारे ही रखा, यह हिम्मत वाला काम था। हालांकि तेजस्वी जानते थे कि मंडल की राजनीति के प्रमुख नायकों में से एक लालू यादव ने बिहार के दबे-कुचले तबके को सम्मान से जीना सिखाया था। यह एक बड़ा दांव था, इससे आरजेडी का अपना जनाधार खिसक सकता था, लेकिन तेजस्वी ने यह दांव खेला। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी तेजस्वी को जंगलराज का युवराज कहकर चिढ़ाते रहे, लेकिन तेजस्वी विचलित हुए बिना ही रोजगार, नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों पर डटे रहे।

तेजस्वी भले ही चुनाव हार गए और अपनी संभावनाओं के लिए उन्हें अब अगले पांच साल इंतजार करना पड़ेगा, लेकिन उन्होंने एक लकीर जरूर खींच दी है। यही कारण था कि संघ की मजबूत मदद, एलजेपी के खुलकर नीतीश का विरोध कर बीजेपी को फायदा पहुंचाने की कोशिशों और धनबल के बाद भी तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले महागठबंधन में अनुशासन और गंभीरता नजर आई।
बीते कुछेक सालों में होता यही रहा है कि हर चुनाव का एजेंडा पीएम मोदी ही तय करते रहे हैं। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव से लेकर इस दौरान हुए राज्यों के विधानसभा चुनावों तक यह बात साफ रही है। लेकिन इस बार बिहार में चुनाव का एजेंडे तेजस्वी ने तय किया और जेडीयू-बीजेपी नेता ही नहीं खुद पीएम मोदी भी महज तेजस्वी के एजेंडे का जवाब दीही देते नजर आए।
यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि तेजस्वी के मुकाबले में दो कद्दावर नेता खड़े थे, एक तरफ नीतीश कुमार थे तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी। लेकिन तेजस्वी नर्भसाए नहीं, उनसे घबराए नहीं, वे मजबूती से डटे रहे। अपने भाषणों और प्रचार में आक्रामकता तो दिखाई उन्होंने लेकिन हमेशा ध्यान रखा कि उनके एक-एक कदम पर, एक-एक शब्द पर गहरी नजर है। यहां तक कि जब उन पर निजी आक्षेप लगाए गए, तेजस्वी ने धैर्य नही खोया।
एक और रोचक और तेजस्वी की राजनीतिक परिपक्वता का संकेत देती बात सामने आई। तेजस्वीय यादव को एहसास था कि उन्हें अपनी पार्टी आरजेडी का जनाधार यादव-मुस्लिम वोटों से आगे बढ़ाना है, इसीलिए उन्होंने नारा दिया कि उनकी पार्टी ए टू जेड की पार्टी है सिर्फ एम-वाई की नहीं। एक तरह से तेजस्वी ने इस चुनाव में आरजेडी को लालू यादव की पार्टी के बजाए तेजस्वी यादव की पार्टी बना दिया।
तेजस्वी के इस नए रूप से आरजेडी में नई ऊर्जा भरी है, और वह बीते कल को भुलाकर आगे बढ़ने को तैयार दिखती है। आरजेडी पर कभी गुंडों-बदमाशों की पार्टी होने का दाग था, जिसे विरोधी दल जंगलराज कहते रहे हैं, लेकिन पार्टी इससे आगे बढ़ गई है, जो अपना जनाधार बढ़ा रही है, आर्थिक न्याय की बात कर रही है, रोजगार की बात कर रही है।
ये सबकुछ शायद चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त साबित नहीं हो पाया। लेकिन तेजस्वी यादव ने जो संभावनाएं सामने रखी हैं, उससे राजनीतिक विश्लेषक भी मुस्कुरा रहे हैं। वह हारे जरूर हैं, लेकिन आखिर तक लड़कर हारे हैं। सुपर ओवर तक पहुंचा चुनावी मैच भले ही एनडीए ने जीता हो, और सीएम की कुर्सी पर नीतीश फिर से बैठें, लेकिन मैन ऑफ दि मैच ही नहीं मैन ऑफ दि मोमेंट भी तेजस्वी यादव ही हैं।(navjivan)
कमला हैरिस जब पहली महिला उप राष्ट्रपति का पद संभालेंगी, तब उनके पति डग एमहॉफ अमेरिका के पहले 'सेकंड जेंटलमैन' बन जाएंगे. जिस अमेरिका को आज तक कोई महिला राष्ट्रपति या उप राष्ट्रपति नहीं मिली है, वहां यह एक नयी बात होगी.
जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी पत्नी एक कॉलेज में शिक्षिका के तौर पर अपनी नौकरी जारी रखना चाहती हैं. वहीं कमला हैरिस के उप राष्ट्रपति बनने के बाद उनके पति डग एमहॉफ एक निजी लॉ फर्म का काम छोड़ कर अपनी पत्नी के करियर में मदद करना चाहते हैं. इतने ऊंचे राजनीतिक पदों पर पहुंचने वाले लोगों के पति-पत्नी का ऐसा रवैया बिल्कुल नया है. हैरिस के 56-वर्षीय पति डग एमहॉफ ने पत्नी के पद संभालने के दिन से लॉ फर्म का काम छोड़ कर पूरी तरह उप राष्ट्रपति के पति के तौर पर सक्रिय रहने का निर्णय लिया है. फिलहाल वह सेकंड जेंटलमैन की भूमिका को लेकर चर्चा कर रहे हैं.

कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी-सैक्रामेंटो में राजनीतिक शास्त्र की प्रोफेसर किम नाल्डेर बताती हैं कि "इस तरह के जेंडर स्विच का इंतजार हमें कई दशकों से था." पहले 'सेकंड जेंटलमैन' की ऐसी भूमिका को वह "बहुत बड़ा सांकेतिक कदम" बताती हैं, जिसमें "एक आदमी अपने बेहद सफल करियर से पीछे हट कर अपनी पत्नी के करियर में उसका सहारा बनने जा रहा है."
एमहॉफ की अपनी निजी लॉ फर्म 'डीएलए पाइपर' को छोड़ना यह भी दिखाता है कि राष्ट्रपति के रूप में बाइडेन के शासन में ऐसे नैतिक मामलों की कितनी एहमियत होगी. एमहॉफ खुद तो लॉबिस्ट नहीं रहे हैं लेकिन उनकी कंपनी की ओर से केंद्र सरकार के अलग अलग विभागों में लॉबी बनाने का काम होता रहा है. एमहॉफ के ग्राहकों में कॉमकास्ट, रेथियॉन और प्यूएर्तो रिको की सरकार भी शामिल हैं, जिनके पक्ष में सरकार का रुख मोड़ने की कोशिश उनकी कंपनी करती रही है. इन्हीं नैतिक कारणों से अगस्त में जैसे ही जो बाइडेन ने कैलिफोर्निया की सीनेटर कमला हैरिस को अपनी रनिंग मेट के रूप में चुना, तभी एमहॉफ ने कंपनी से छुट्टी से ली थी.

पूरे चुनाव प्रचार अभियान के दौरान एमहॉफ की छवि एक बेहद मददगार पति के रूप में बनी. डेमोक्रैट पार्टी की ओर से प्रारंभिक दौर में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों में शामिल पीट बटगीग के पति चैस्टन बटगीग के साथ भी उनकी दोस्ती चर्चा में रही. चैस्टन बटगीग ने बताया कि कैसे दोनों नेताओं के पार्टनर के तौर पर आपस में अनुभव बांट रहे थे और कैसे उनसे मिलने वाले लोग बिल्कुल अलग तरह की प्रतिक्रियाएं दे रहे थे. चैस्टन ने बताया कि कैसे एमहॉफ ने कई बार उन्हें अच्छा भाषण देने पर बधाई दी और कभी उन्हें प्रतिद्वंद्वी के तौर पर नहीं देखा.
चैस्टन खुद भी पुरुष हैं और पीट बटगीग के पति भी. वहीं एमहॉफ एक महिला नेता के पति, जो कि अमेरिका के लिए बहुत आम बात नहीं है. इससे पहले अमेरिका ने केवल डेमोक्रैट नेता हिलेरी क्लिंटन के पति के रूप में बिल क्लिंटन को देखा था, लेकिन वे खुद भी पूर्व राष्ट्रपति रहने के कारण कहीं ज्यादा मशहूर शख्सियत थे. अक्टूबर में एक डिजिटल साइट 'नाउदिस न्यूज' से बात करते हुए एमहॉफ ने कहा था, "मैं चाहता हूं कि और महिलाएं ऑफिस में आएं, मैं चाहता हूं कि और पार्टनर उनकी मदद करें, उन्हें सहारा दें और उन्हें सफल होने के मौके और माहौल दें, चाहें वे पार्टनर कोई भी हों."

अमेरिका के किसी राष्ट्रपति या उप राष्ट्रपति के पार्टनर के रूप में पहली बार एक यहूदी समुदाय का व्यक्ति आएगा. अपने यहूदी समुदाय में गहरी पहुंच का फायदा एमहॉफ ने कमला हैरिस के चुनाव अभियान में भी पहुंचाया. इसके अलावा जो बाइडेन की पत्नी जिल बाइडेन से भी उनकी अच्छी दोस्ती हो गई, जो पहले खुद भी सेंकड लेडी के रूप में बाइडेन का साथ दे चुकी हैं. अब राष्ट्रपति बनने जा रहे जो बाइडेन की पत्नी के रूप में अमेरिका की फर्स्ट लेडी जिल बाइडेन ने इच्छा जताई है कि वह कम्युनिटी कॉलेज में पढ़ाने का अपना काम जारी रखेंगी, जैसा उन्होंने सेंकड लेडी के तौर पर भी किया था.
हैरिस और एमहॉफ 2013 में मिले थे और एक साल बाद दोनों ने शादी रचा ली थी. यह हैरिस की पहली और एमहॉफ की दूसरी शादी थी. एमहॉफ के पहली शादी से दो बच्चे हैं जिनकी उम्र 20 साल के आसपास है और वे हैरिस को यिद्दिश शब्द "मोमाला" यानि "छोटी मां" बुलाते हैं.
-कनुप्रिया
सच कहूँ तो मुझे 2024 से भी सत्ता परिवर्तन की कोई उम्मीद नहीं दिख रही, कांग्रेस का पाँव हाथी का पाँव नही रहा। विपक्ष में एकमात्र बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कॉंग्रेस मानो कहीं की नहीं रही, उसके पुराने पक्के वोटों के सिवा जनाधार किस धर्म और जाति में है? लगातार हार से उसकी छवि भी कमजोर होती जा रही है। 2024 में क्या विपक्ष उसके किसी चेहरे के पीछे एकजुट होगा?
जबकि हिंदूवादी वोट एक झंडे तले एकजुट है मगर विरोधी वोट अलग अलग खेमो में बंटा हुआ है। यही राजद और वाम जो आज महागठबंधन में साथ जुड़े हुए थे, लोकसभा में मुझे याद है राजद और उसके समर्थकों ने पूरा जोर कन्हैया कुमार के खिलाफ ही लगाया हुआ था, जितनी पोस्ट्स कन्हैया कुमार के खिलाफ लिखी गईं थी उतनी कैलाश विजयवर्गीय के खिलाफ नहीं, नतीजा स्पष्ट ही था। अबकि यह आरोप ओवैसी की पार्टी पर है।
बंगाल में अमित शाह कह रहे हैं कि 200 से ऊपर सीटें ले जाएँगे और उनके दावे पर शंका का कोई कारण मुझे नही लगता, ध्रुवीकरण की उनकी राजनीति लगातार कामयाब है और विपक्ष एक दूसरे के ही खिलाफ है, सबका अपना निजी हित, निजी महत्वाकांक्षा और अस्तित्व का सवाल है।
अमेरिका में ट्रंप के हारने के एक बड़ा कारण ये भी था कि वहाँ मुख्य तौर पर दो पार्टी हैं। हालाँकि जो लोग दोनों ही पार्टियों को पसंद नहीं करते वो इस दो पार्टी सिस्टम से बहुत ख़ुश नहीं थे, यह बहस सुनने को मिली कि लोकतंत्र में और विकल्प होने चाहिए। फिर भी जो ट्रम्प के खि़लाफ़ थे वो डेमोक्रेट्स को पसंद करते थे या नही मगर उनका वोट बाइडेन को ही गया तब सत्ता परिवर्तन हुआ। और ऊपर से तुर्रा ये कि सत्ता परिवर्तन भी महज सत्ता परिवर्तन ही है, व्यवस्था परिवर्तन नही बनता।
यहाँ भी कमोबेश यही हाल है, वर्तमान सत्ता के विरोधी किसी विशेष पार्टी के समर्थक न भी हों तब भी सत्ता परिवर्तन की उम्मीद में समर्थन में चले जाते हैं।
मगर विपक्ष बंटा हुआ हो तो फिर अपनी अपनी प्राथमिकता चुनते हैं। हमारे बीकानेर में ही कॉंग्रेस और वाम एक दूसरे के विरुद्ध खड़े थे लोकसभा में, वोट बंटने ही थे और एनडीए को फायदा होना ही था।
तब मन मे यही सवाल आता है कि कॉंग्रेस के कमजोर होते जाने के बाद वो कौनसी नेतृत्व कारी पार्टी है, वो कौनसा चेहरा है जिसके पीछे विपक्ष लामबंद होगा?
2024 के परिणाम चकित करने वाले होंगे ऐसा नही लगता, चमत्कार महज काल्पनिक दुनिया में होते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बिहार के चुनाव और मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और कर्नाटक में हुए उप-चुनावों के स्पष्ट नतीजे अभी तक सामने नहीं आए हैं लेकिन वोटों की गिनती से जो लहरें पैदा हो रही हैं, उनकी ध्वनि यह है कि भाजपा का सितारा अभी भी बुलंद है। भारत के लोगों में मोदी-प्रशासन के प्रति अभी तक थकान पैदा नहीं हुई है। लोगों ने नोटबंदी की विभीषिका, जीएसटी के कुलांचे, कोरोना की महामारी और बेरोजगारी आदि कई समस्याओं का सामना किया लेकिन इसके बावजूद मोदी-सरकार के प्रति उसका विश्वास डिगा नहीं।
यह हो सकता है कि बिहार में विपक्ष की सरकार बन जाए, हालांकि उसकी संभावना कम ही है, फिर भी भाजपा को मिल रही बढ़त किस बात का संकेत कर रही है ? यह बढ़त इसलिए ज्यादा ध्यातव्य है कि नीतीश की सीटें घट रही हैं, जबकि दोनों पार्टियों ने लगभग बराबर संख्या में अपने-अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। इस वक्त टीवी चैनलों पर वोटों की गिनती से जो अंदाज लगाए जा रहे हैं, यदि वे खरे भी उतरे तो बिहार में सरकार भाजपा और जदयू (नीतीश) की ही बनेगी लेकिन वहां सवाल यह उठेगा कि अब मुख्यमंत्री कौन बनेगा ? क्या नीतीश बनेंगे ? शायद वे खुद न बनें। वे केंद्र में मंत्री बन सकते हैं। वे किसी भी वक्त लोकसभा या राज्यसभा में पहुंच सकते हैं।
भाजपा ने वायदा किया था कि इस बार नीतीश ही मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन हो सकता है कि भाजपा में ही मुख्यमंत्री पद के कुछ दावेदार उठ खड़े हों। जो भी बिहार का मुख्यमंत्री बनेगा, इस बार उसके सामने चुनौतियां काफी भयंकर होंगी। तेजस्वी की जन-सभाओं में आए लाखों जवान अब चुप नहीं बैठेंगे। हिंदी राज्यों में बिहार का पिछड़ापन सर्वज्ञात है। यदि राजग की सरकार बनती है तो उस महागठबंधन में जमकर व्यक्तिगत, दलीय, जातीय और वैचारिक खींचतान तो होगी ही, उस सरकार को सबल विपक्ष का भी सामना करना होगा। नीतीशकुमार पिछले 15 साल में जितने अच्छे और उल्लेखनीय काम कर पाए हैं, उतने भी काम राजग सरकार कर पाएगी या नहीं, यह देखना होगा। सरकार किसी की भी बने, भाजपा सत्ता में रहे या विपक्ष में, बिहार में वह सबसे मजबूत शक्ति बन गईं है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ऐश्वर्या राज
ऐश्वर्या रेड्डी लेडी श्रीराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से गणित में स्नातक कर रही थी। वह सेकंड ईयर की छात्रा थी। 8 नंवबर 2020 की रात एक चिट्ठी अपने पीछे छोडक़र वह इस दुनिया से चली गईं। तेलुगु में लिखी गई अपनी आखिरी चि_ी में उन्होंने लिखा, ‘मेरे मां-बाप मुझ पर बहुत पैसे खर्च कर चुके हैं। मैं उन पर बोझ हूं। मेरी पढ़ाई एक बोझ बन चुकी है, लेकिन मैं पढ़े बिना नहीं रह सकती। बहुत सोचने के बाद मुझे लगा कि आत्महत्या ही एक रास्ता है।’ ऐश्वर्या की मां सुनीता रेड्डी पेशे से एक टेलर हैं और पिता श्रीनिवास रेड्डी एक मोटर मैकेनिक। उन्होंने अपने बच्चों को परिवार की आर्थिक हालात के बारे में बताते हुए कहा कि शायद उन्हें हैदराबाद के उस दो कमरे के मकान को बेचना पड़े और सुनीता के गहनों को गिरवी रखकर वे अपना घर चला पाएं। तेलंगाना बोर्ड से बारहवीं में 98.5 फीसदी प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाली विद्यार्थी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ती थी। ‘स्कॉलरशिप फ़ॉर हाइयर एजुकेशन’ के तहत 10,000 छात्रों में अपनी जगह बनाते हुए अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए उन्हें स्कॉलरशिप मिलती थी।
क्या ‘ऑनलाइन क्लास’ शिक्षा के लिए पर्याप्त ढांचा है?
लॉकडाउन के वक्त मार्च में ऐश्वर्या लेडी श्रीराम कॉलेज के हॉस्टल से हैदराबाद के शादनगर स्थित अपने घर पहुंची। कोविड-19 के कारण दिल्ली विश्वविद्यालय में इस अकादमिक सत्र की स्नातक की पढ़ाई ऑनलाइन हो रही है। उनके कॉलेज यूनियन द्वारा करवाए गए एक सर्वे के जवाब में उन्होंने लिखा था कि उनके पास निश्चित और बेहतर रूप से काम करने वाला इंटरनेट कनेक्शन नहीं है और लैपटॉप भी नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक उनके पिता बताते हैं कि ऐश्वर्या को पढ़ाई के लिए लैपटॉप की जरूरत थी। ऐश्वर्या ने एक बार उनसे कहा था कि पुराना लैपटॉप भी मिल जाता तो वह अपनी पढ़ाई कर पाएंगी। पिता ने उनसे कुछ दिन इंतजार करने को कहा चूंकि उनकी कमाई लॉकडाउन से प्रभावित होकर न्यूनतम हो चुकी थी। ऐश्वर्या ने इससे जुड़ी कोई बात दोबारा श्रीनिवासन से नहीं की। 14 सितंबर को अभिनेता सोनू सूद द्वारा शुरू किए एक स्कॉलरशिप व्यवस्था के जवाबी ईमेल में ऐश्वर्या लिखती हैं, ‘मेरे पास लैपटॉप नहीं है, मैं प्रैक्टिकल पेपर नहीं दे पा रही हूं। मुझे डर है मैं इनमें फेल न हो जाऊं। हमारा परिवार कजऱ् में डूबा है इसलिए हम लैपटॉप खरीदने में असमर्थ हैं मुझे नहीं पता मैं अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर पाऊंगी या नहीं।’
जानकारी के लिए बता दें दिल्ली विश्वविद्यालय में अभी भी विश्वविद्यालय के सभी कॉलेजों की क्लासेज ऑनलाइन चल रही हैं। एक सार्वजनिक वित्त पोषित विश्वविद्यालय में पढऩे आए दूरदराज के छात्र के पास या तो निजी यानी प्राइवेट कॉलेज में दाखिला लेने का आर्थिक सामर्थ्य नहीं होता या उनके अपने राज्य में शिक्षा की हालत खस्ता होती है। ऐसे में राजधानी दिल्ली के विश्वविद्यालयों में कश्मीर से लेकर बिहार, उत्तर पूर्वी राज्यों से लेकर दक्षिण भारत के हर आर्थिक वर्ग, जातीय, जन-,जातीय धार्मिक अस्मिता से संबंध रखने वाले विद्यार्थी होते हैं। उनके ऊपर ‘अच्छा प्रदर्शन’ करने और पारिवारिक जिम्मेदारियों और उम्मीदों का भारी बोझ होता है। ऐसा ही ऐश्वर्या के मन में चल रहा होगा जब उन्होंने उस नोट में लिखा, ‘मुझे माफ़ कीजिएगा मैं एक अच्छी बेटी नहीं बन पाई।’
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के लिए उनके पिता बताते हैं कि ऐश्वर्या को पढ़ाई के लिए लैपटॉप की जरूरत थी। ऐश्वर्या ने एक बार उनसे कहा था कि पुराना लैपटॉप भी मिल जाता तो वह अपनी पढ़ाई कर जाएगी। पिता ने उनसे कुछ दिन इंतजार करने को कहा चूंकि उनकी कमाई लॉकडाउन से प्रभावित होकर न्यूनतम हो चुकी थी।
हफिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार लेडी श्रीराम कॉलेज की छात्राओं का कहना है कि देश के प्रतिष्ठित कॉलेज ने अपने एक विद्यार्थी को उसके कमज़ोर समय में निराश किया है। पिछले साल घोषित की गई कॉलेज की नई होस्टल पॉलिसी से ऐश्वर्या और अन्य कई बच्चे बहुत परेशान चल थे। यह नई पॉलिसी केवल फस्र्ट ईयर के छात्रों को हॉस्टल में रहने की अनुमति देती है। ऐश्वर्या की एक साथी कहती हैं, ‘वह डटी थी, एक महीने से चल रही ऑनलाइन क्लासेज़ भी लेने की कोशिश करती रही। जब होस्टल प्रशासन ने सेकंड ईयर के छात्रों को हॉस्टल खाली करने को कहा तब समस्या और गंभीर हो गई। होस्टल से बाहर रहने में महीने का 12000-14000 खर्च आता है, ऐश्वर्या का परिवार इतने पैसे देने में सक्षम नहीं होता।’ ऐश्वर्या अपने स्कॉलरशिप को लेकर भी परेशान थीं। ‘स्कॉलरशिप फॉर हाइयर एजुकेशन’ (एसएचई) की घोषणा 2019 में कर दी गई थी। डिपार्टमेंट के एक कर्मचारी के मुताबिक, ‘इसकी राशि एक साल देरी से दी जाती है ताकि पहले साल के बाद कॉलेज छोडऩे वाले विद्यार्थियों तक ना पहुंच पाए।’ इस देरी के कारण ऐश्वर्या चिंतित थी, ऐश्वर्या ने अपने आखिरी नोट में यह भी लिखा कि स्कॉलरशिप राशि उनके परिवार तक पहुंचा दी जाए। ऐश्वर्या की बहन वैष्णवी कक्षा सातवीं में है और फिलहाल पैसे न होने के कारण स्कूल से उसका नाम कट चुका है।
शिक्षण संस्थाओं का समावेशी न होना कितना असर डालता है विद्यार्थियों पर?
लेडी श्रीराम कॉलेज के कुछ विद्यार्थी समूहों द्वारा चलाए जा रहे सोशल मीडिया हैंडलस ने इस घटना को अकादमिक जगत और महाविद्यालयों के समावेशी नहीं बन पाने का दुखद नतीज़ा बताया है। ऐश्वर्या रेड्डी जिस मानसिक यातना से गुजरी वह विश्वविद्यालयों में होता आया है। ऑनलाइन क्लासेज का ढांचा जो केवल समृद्ध परिवार के विद्यार्थियों के लिए उपाय की तरह था वह सभी पर थोप दिया गया। ऐश्वर्या का नोट उस मनोस्थिति को दर्शाता है जो इस संस्थागत भेदभाव और अपने भविष्य के सपनों के बीच जूझ रहा है। कॉलेज की प्रिंसिपल ने कहा है कि ऐश्वर्या का जाना एक बड़ी क्षति है। हालांकि उसने कभी होस्टल प्रशासन या शिक्षकों से मदद नहीं मांगी। हमारे पास मानसिक स्वास्थ्य के लिए काउंसिल हैं, वह उनसे मदद नहीं ले पाई। एलएसआर के छात्रों ने प्रिसिंपल के इस बयान की निंदी की है और इसे असंवेदनशील भी बताया है।
उन्नीमया, लेडी श्रीराम कॉलेज की विद्यार्थी प्रतिनिधि और एसएफआई की सदस्य के मुताबिक ओबीसी आरक्षण पर काम करना एक अच्छा कदम था लेकिन होस्टल से दूसरे साल के विद्यार्थियों को हटा दिया जाना एक ग़लत तरीका है। उपाय होस्टल बेड की संख्या बढ़ा कर किया जा सकता था। मिरांडा हॉउस कॉलेज में अंग्रेजी विभाग की शिक्षक देवजानी रॉय ने 8 अप्रैल 2020 को ‘स्क्रॉल’ में प्रकाशित एक लेख में बताता था कि कैसे हेल्पलाइन नंबर्स मानसिक स्वास्थ्य की दिक्कतें उठा रहे विद्यार्थियों के लिए एक हल नहीं बन सकता। वह लिखती हैं, ‘कॉलेज के काउंसिलर को विद्यार्थियों से बात करने कहा जा रहा है, फोन या मेल पर। अप्रैल 6 को यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ने विद्यार्थी समुदाय के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हेल्पलाइन नंबर्स की सुविधा देने की बात की। इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि यह काफ़ी नहीं है। कई विद्यार्थी बिना किताब के घर पर हैं, कइयों ने मज़बूरी में होस्टल खाली किया है।’
वीमेंस डेवलपमेंट सेल, एलएसआर का बयान
ऑनलाइन क्लासेज तो चल रही हैं लेकिन इस दौरान किसी के पास स्मार्टफोन नहीं हो तो किसी के पास लैपटॉप, किसी के पास इंटरनेट नहीं है तो किसी का पास नेटवर्क। लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन क्लासेज से जुड़ी ऐसी पहली घटना नहीं हुई है। ऐसे में सवाल उठना चाहिए हमारी शिक्षा व्यवस्था पर कि वह कितनी समावेशी है, समाज के कितने छात्रों की पहुंच इस शिक्षा व्यवस्था तक है क्योंकि समस्या की असली जड़ यही है। (feminisminindia.com)
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
-डॉ राजू पाण्डेय
महाराष्ट्र सरकार ऐसा लगता है कि अर्नब गोस्वामी को नायक बनाकर ही दम लेगी। न्यू इंडिया की आक्रामक, हिंसक तथा विभाजनकारी विचारधारा की लाक्षणिक विशेषताओं से परिपूर्ण, किंचित असमायोजित व्यक्तित्वधारी अतिमहत्वाकांक्षी अर्नब को महाराष्ट्र सरकार ने अपनी कोशिशों से निरंतर चर्चा में बनाए रखा है। इसके पूर्व भी महाराष्ट्र सरकार कंगना को महाराष्ट्र की राजनीति में धमाकेदार एंट्री दिलाने में अपना योगदान दे चुकी है। पहले महाराष्ट्र सरकार ने कंगना के ऑफिस का अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई की, बाद में कंगना और उनकी बहन के विरुद्ध पुलिस ने राजद्रोह का मामला भी दर्ज किया। इनसे कंगना को खूब पब्लिसिटी मिली। इस आक्रामक और प्रतिशोधात्मक कार्यशैली को महाराष्ट्र सरकार यदि अपनी रणनीतिक चूक मानती तो अर्नब प्रकरण में इसकी पुनरावृत्ति न होती और महाराष्ट्र सरकार का रवैया अधिक संयत दिखाई देता। अर्नब प्रकरण में महाराष्ट्र सरकार के आक्रामक व्यवहार की एक ही व्याख्या हो सकती है- शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन में आने के बाद प्रगतिशील और समावेशी बनने की कोशिश जरूर कर रही है किंतु अपनी पुरानी फ़ासिस्ट सोच और कार्यशैली से छुटकारा शायद उसे अभी नहीं मिल पाया है। कांग्रेस और एनसीपी भी हाल के इन वर्षों में उस भाषा की तलाश करते रहे हैं जिसमें उग्र,संकीर्ण और हिंसक हिंदुत्व के हिमायतियों को माकूल जवाब दिया जा सके, शायद उन्हें प्रतिशोध और बदले की भाषा ही ठीक लगी होगी।
अर्नब और कंगना के साथ यदि हम बहुत ज्यादा रियायत बरतें तो ये भारतीय लोकतांत्रिक विमर्श के प्रॉब्लम चिल्ड्रन कहे जा सकते हैं- ऐसे बच्चे जिनमें आत्म नियंत्रण का अभाव होता है, जिनका व्यवहार असामाजिक होता है, जो विध्वंसक प्रकृति के होते हैं और जिन्हें शिक्षित करना कठिन होता है। किंतु शायद ऐसी उदारता बरत कर हम उस रणनीति को अनदेखा कर देंगे जिसे नव फ़ासिस्ट शक्तियों ने ईजाद किया है। सामाजिक समरसता हमारे लोक जीवन का स्थायी भाव है। सामासिक संस्कृति तथा अनेकता में एकता हमारे देश की मूल एवं अंतर्जात विशेषताएं हैं। देश के शांतिप्रिय नागरिक दैनंदिन जीवन के संचालन और अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति में लीन हैं। उनके अपने छोटे छोटे सुख-दुःख हैं, अभाव हैं, आवश्यकताएं हैं, कामनाएं और महत्वाकांक्षाएं हैं। घृणा, हिंसा,प्रतिशोध और वैमनस्य के विमर्श के लिए उनके पास अवकाश नहीं है, न ही उनकी इसमें कोई रुचि ही है। ऐसे सृजन धर्मी,रचनात्मक और शांत जनसमुदाय को हिंसा प्रिय एवं विध्वंसक बनाना आसान नहीं है। यही कारण है कि अर्नब और कंगना जैसे लोगों को चीखना-चिल्लाना पड़ता है, बेसिरपैर की हरकतें करनी पड़तीं हैं, डुगडुगी बजानी पड़ती है, तमाशा खड़ा करना पड़ता है ताकि अपनी धुन में मग्न समाज का ध्यान इनकी ओर जाए। महाराष्ट्र सरकार न केवल इनकी चीख-चिल्लाहट पर तवज्जोह देने वाली भीड़ का हिस्सा बन रही है बल्कि अपनी अतिरंजनापूर्ण प्रतिक्रियाओं के द्वारा इन महत्वहीन व्यक्तियों और इनकी विकृत सोच को चर्चा के काबिल भी बना रही है। अर्नब अपने चैनल से महीनों तक शोर मचाने के बाद भी जितना ध्यान नहीं खींच पाते वह उन्हें इन चंद दिनों में हासिल हुआ है।
घृणा, हिंसा, प्रतिशोध और विभाजन के नैरेटिव पर किसी तरह की प्रतिक्रिया करना ही नफरतजीवियों के उद्देश्य को कामयाब बनाना है क्योंकि तब हम भूख, गरीबी, बेकारी,बीमारी,अशिक्षा जैसे सारे बुनियादी मुद्दों को दरकिनार कर थोपे गए कृत्रिम,गैरजरूरी और आभासी मुद्दों पर अपनी ऊर्जा जाया करने लगते हैं। किंतु महाराष्ट्र सरकार तो एक कदम आगे बढ़कर उसी नफरत और बदले की जबान में इन्हें उत्तर देने की कोशिश कर रही है जिसमें इन्हें महारत हासिल है।
चाहे वे अर्नब हों या कंगना इनके जरिए जो नैरेटिव तैयार किया जा रहा है वह भयावह और घातक है। कंगना हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री के अब तक के स्वाभाविक विकास को एक षड्यंत्र के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं। कंगना की प्रस्तुति का तरीका कुछ परिमार्जित है, वे अपनी बातों को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए उनमें निजी अनुभवों का तड़का लगाती हैं और उन्हें स्वीकार्य बनाने के लिए नारीवाद तथा नशे से लड़ाई जैसे व्यापक मुद्दों का समावेश भी करती हैं किंतु उनकी मूल प्रेरणा को आक्रामक और हिंसक हिंदुत्व के बुनियादी पाठ्यक्रम में आसानी से तलाशा जा सकता है।

कार्टूनिस्ट रेमी फर्नांडीज, रीमिक्स कॉमिक्स
भारत के सांस्कृतिक-साहित्यिक-बौद्धिक परिदृश्य पर वामपंथियों और मुसलमानों के जबरिया, षड्यंत्रपूर्ण एकक्षत्र आधिपत्य की झूठी कहानियाँ लंबे समय से सोशल मीडिया पर तैरती रही हैं। यह कहानियाँ मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री को सांप्रदायिक रंग में रंग देती हैं। इन जहरीली कहानियों में हिन्दू नाम रखकर देश की जनता से धोखा करने वाले मुसलमान सुपरस्टारों का जिक्र होता है जिन पर यह बेबुनियाद आरोप लगाया जाता है कि हिन्दू जनता इनकी फिल्में देखकर इन्हें दौलत और शोहरत देती है लेकिन इनका लगाव पाकिस्तान के प्रति अधिक होता है। कहा जाता है कि यह मुसलमान नायक हिन्दू स्त्रियों से विवाह कर उनका धर्म भ्रष्ट कर देते हैं। इस विमर्श के अनुसार ऐसे अनेक नामचीन पटकथा लेखक हैं जो अपनी स्क्रिप्ट में हिंदुओं को संकीर्ण और दकियानूसी सोच वाला और मुसलमानों को उदार बताते हैं। इनकी लिखी फिल्मों में शुद्ध हिंदी बोलने वाले पात्रों का उपहास उड़ाया जाता है और मुसलमान नायक हिन्दू नायिकाओं से प्रेम कर उनसे विवाह करते हैं। यह अपनी पटकथाओं में सिखों का भी मखौल बनाते हैं। इस घृणा और विभाजन के विमर्श के अनुसार हमारे फ़िल्म जगत में ऐसे संवाद लेखक भी हैं जो शुद्ध हिंदी से नफ़रत करते हैं और अपने संवादों के जरिये उर्दू का प्रचार करते हैं। यही हाल गीतकारों का है जो यह मानते हैं कि मुहब्बत सिर्फ उर्दू में ही बयान की जा सकती है। यह विमर्श मानता है कि मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री का एक प्रबुद्ध लगने वाला और तटस्थता का ढोंग रचने वाला तबका वामपंथी विचारधारा से प्रभावित फ़िल्म समीक्षकों का है जो मुसलमानों को महिमामंडित करने वाली फिल्मों को देश की गंगा-जमनी तहजीब का आदर्श उदाहरण मानता है और ऐसी फिल्मों एवं इनके कलाकारों को पुरस्कृत कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देता है। कंगना जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं उसके पैरोकारों के साथ समस्या यह है कि चाहे वह फिल्मी दुनिया में नारियों के शोषण का विषय हो या ड्रग्स के दुरुपयोग का मामला हो या ताकतवर फिल्मी घरानों द्वारा युवा कलाकारों को पीड़ित करने का मुद्दा हो या माफिया गिरोहों के हस्तक्षेप की घटना हो यदि उसकी परिणति हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य को बढ़ावा देने वाली नहीं है तो फिर इनकी रुचि इन प्रकरणों में नहीं रह जाती है। ऐसा नहीं है कि यह मुद्दे महत्वहीन हैं किंतु इन मुद्दों की ओट में बड़ी चालाकी से सांप्रदायिकता के विमर्श को आगे बढ़ाया जा रहा है।
अर्नब सोशल मीडिया की निरंकुशता एवं विषाक्तता को पारंपरिक और औपचारिक मीडिया में प्रवेश दिलाने में लगे हैं। वे भारतीय मीडिया की सहज बनावट में एक षड्यंत्र देखते हैं। टुकड़े टुकड़े गैंग और लुटियंस मीडिया जैसी अभिव्यक्तियाँ प्रधानमंत्री जी की भांति उन्हें भी प्रिय हैं। अर्नब मीडिया में तो हैं लेकिन मीडिया का अनुशासन और आत्मनियंत्रण उन्हें मंजूर नहीं है। कोई व्यक्ति केवल इस कारण से पत्रकार नहीं माना जा सकता कि पत्रकारिता उसकी आजीविका का जरिया है। अर्नब अपने चैनल के माध्यम से जो कुछ परोस रहे हैं वह समाचार तो कतई नहीं है- उनकी भाषा अशालीन है, तथ्यों से उन्हें परहेज है, वे पहले अपने मनचाहे नतीजे पर पहुंचते हैं और फिर इन्वेस्टिगेशन प्रारंभ करते हैं, चर्चा और विमर्श पर उनका विश्वास नहीं है, विचारधारा का प्रसार और एजेंडा परोसना न कि घटना का वस्तुनिष्ठ आकलन करना उनकी आदत है। वे घमंडी और बददिमाग नजर आते हैं और संभवतः वे ऐसे नजर आना भी चाहते हैं। जिन बातों पर आदर्श पत्रकार लज्जित हुआ करते हैं उन पर अर्नब गर्व करते हैं। वे हर घटना को सांप्रदायिक नजरिए से देखते हैं और बड़ी निर्लज्ज बेबाकी से यह स्वीकार करते हैं कि वे दबे कुचले बहुसंख्यक वर्ग की आवाज़ हैं। उनकी ऊर्जा अपरिमित है। वे स्वाभाविक को अस्वाभाविक, प्राकृतिक को अप्राकृतिक तथा सत्य को असत्य सिद्ध करने का दुस्साहसिक और शरारतपूर्ण अभियान दिन रात चला सकते हैं।
उन्होंने फ़िल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले महत्वाकांक्षी युवाओं की मानवीय दुर्बलताओं को उजागर करने वाली एक असफल प्रेम कहानी से कई राजनीतिक लक्ष्य साधने की असंभव चेष्टा की। उनकी कल्पना यह थी कि सुशांत मामले के रूप में बिहार चुनावों में प्रांतवाद और जातिवाद के जहर को एंट्री मिलेगी और बुनियादी मुद्दों से मतदाता का ध्यान हटाने का एक अवसर उत्पन्न होगा। उनका स्वप्न यह भी था कि यही मामला फ़िल्म इंडस्ट्री के हिंदूकरण में भी सहायक होगा। फ़िल्म इंडस्ट्री की अपार दौलत और फ़िल्म कलाकारों की बेहिसाब लोकप्रियता का लाभ उठाने की इच्छा राजनीतिक दलों के लिए नई नहीं है। अर्नब के अभियान में अगर कुछ नया था तो वह फ़िल्म उद्योग को संघ-भाजपा से राष्ट्रवाद का प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए बाध्य करने का पुरजोर प्रयास ही था। अर्नब ने अपने सपने को साकार करने के लिए बड़ी नृशंसता से सुशांत, रिया और बहुत सारे दूसरे लोगों की निजी जिंदगी के बखिये उधेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। केंद्र सरकार ने अर्नब की कल्पना को यथार्थ के धरातल पर साकार करने के लिए देश की शीर्षस्थ जांच एजेंसियों को झोंक दिया। जांच एजेंसियां अपनी बेहतरीन कोशिशों के बावजूद वह असंभव नतीजा नहीं ला पाईं जो अर्नब को प्रसन्न कर पाता। अर्नब स्वयं को एक अटपटी स्थिति में पा रहे थे - उनका पाखंड उजागर हो गया था। मीडिया के अपने हमपेशा साथियों में उनके मित्र बहुत कम हैं और जो हैं भी वे शायद इतने निर्लज्ज नहीं बन पाए हैं कि अर्नब के पक्ष में खुलकर आ सकें। अर्नब उस सबसे बड़ी सजा की ओर बड़ी तेजी बढ़ रहे थे जो उन्हें सर्वाधिक पीड़ा देती- लोग उनके अनर्गल प्रलाप पर ध्यान देना बंद कर रहे थे। रिया-सुशांत प्रकरण में अर्नब का अनुसरण करने वाले मीडिया हाउसेस को भी यह समझ में आ गया था कि अर्नब की बराबरी करना असंभव है- अर्नब की तरह नीचे गिरने का साहस हर किसी में नहीं होता। धीरे धीरे अन्य टीवी चैनल अर्नब द्वारा परोसे गए मुद्दों को त्यागकर अपने मौलिक निरर्थक मुद्दों की ओर लौट रहे थे। ऐसी स्थिति में महाराष्ट्र सरकार ने अर्नब को पुनर्जीवित कर दिया है।
लगभग पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल, देश के सारे भाजपा शासित राज्यों के मुख्य मंत्री, भाजपा एवं कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा का समर्थन करने वाले संगठनों के शीर्ष नेता और अनेक धर्म गुरु - सभी के सभी अर्नब के समर्थन में खुलकर सामने आ गए हैं। सोशल मीडिया पर अनेक अभियान चल रहे हैं जिनमें अर्नब को नायक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह बताया जा रहा है कि अर्नब को बहुसंख्यक हिंदुओं के हितों के लिए आवाज़ उठाने की सजा मिली है। पालघर हत्याकांड को सांप्रदायिक रंग देने वाले अर्नब को संतों की रक्षा के लिए समर्पित सेनानी का दर्जा मिल रहा है। उद्धव ठाकरे की अपने खेमे में वापसी की उम्मीदें इन साम्प्रदायिक शक्तियों को अभी भी हैं इसलिए उन्हें नासमझ बताया जा रहा है। असली निशाना कांग्रेस और वामदलों पर है।
इन साम्प्रदायिक ताकतों को बहुत कुछ अस्वीकार्य है। अहिंसक गाँधी और उनके नेतृत्व में चला सर्वसमावेशी स्वाधीनता आंदोलन, देश का संविधान, वैज्ञानिक चेतना संपन्न नेहरू और उनकी प्रखर बौद्धिकता- साम्प्रदायिक शक्तियों की इनसे सिर्फ असहमति ही नहीं है बल्कि शत्रुता है। यदि कोई टाइम मशीन होती तो वे पीछे लौटकर अपनी पसंद का हिंसा, वैमनस्य और विभाजन से परिपूर्ण इतिहास गढ़ लेते किंतु सौभाग्य से ऐसा संभव नहीं है। अहिंसा, प्रेम,शांति, सहिष्णुता और सद्भाव की गौरवशाली विरासत अब हमारे स्वभाव और जीवनचर्या का सहज अंग बन चुकी है।
अर्नब और कंगना जैसे लोग हमें बार बार ललकारेंगे – आओ! मुझ पर प्रहार करो। आओ! मुझसे संघर्ष करो! यह उनकी बुनियादी रणनीति है। प्रतिशोध, हिंसा और घृणा का विमर्श उनका होम ग्राउंड है। उनकी चुनौती स्वीकार कर ही हम उन्हें विजयी बना देते हैं। यदि हम इनका प्रतिकार न करें तो ये स्वतः ही अपने क्रोध और घृणा की अग्नि में जलकर भस्म हो जाएंगे। यदि इनके आरोपों, आक्षेपों और अनर्गल प्रलाप से हम दुविधाग्रस्त और आक्रोशित होते हैं तो इसका अर्थ यही है कि इस मुल्क की प्यार,अमन और भाईचारे की साझा विरासत पर हमारे विश्वास में कहीं कोई कमी है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
मंगलवार को बिहार के साथ-साथ कई राज्यों में हुए उपचुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया है. 11 राज्यों की 58 विधानसभा सीटों पर हुए चुनाव के नतीजे आ गए हैं.
इनमें से सबसे अहम मध्य प्रदेश को माना जा रहा था जहां इस उपचुनाव के नतीजों पर शिवराज सिंह चौहान सरकार का भविष्य टिका था. पर वहाँ बीजेपी ने 28 सीटों में से 19 सीटों पर जीत हासिल कर आसानी से बहुमत हासिल कर लिया है. कांग्रेस ने 9 सीटों पर जीत दर्ज की है.
राज्य में इस साल मार्च में कांग्रेस के विधायकों ने त्यागपत्र दे दिया था जिससे अल्पमत में आई कमलनाथ सरकार गिर गई थी.

अधिकांश विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक थे, जो बाद में सिंधिया के साथ बीजेपी में शामिल हो गए.
230 सदस्यों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में बहुमत के लिए 116 सदस्यों का समर्थन ज़रूरी है. उपचुनाव से पहले बीजेपी के पास 107 विधायक थे, जबकि कांग्रेस के पास 87 विधायक थे.

शिवराज सिंह चौहान
कमलनाथ, सिंधिया और शिवराज तीनों के लिए बहुत अहम हैं मध्य प्रदेश विधानसभा के उप-चुनाव
इस जीत पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ट्वीट किया, '' यह कांग्रेस के झूठ, फ़रेब, दम्भ और अहंकार की पराजय है. सत्य परेशान हो सकता है, किंतु पराजित नहीं. कांग्रेस के नेताओं ने समाज के प्रत्येक वर्ग का अपमान किया. प्रदेश के लोगों का विश्वास कांग्रेस ने तोड़ा, उनके मान-सम्मान और स्वाभिमान को ठेस पहुँचाई, लोगों ने उनसे बदला ले लिया. ''
यह जीत है विकास की!
— Shivraj Singh Chouhan (@ChouhanShivraj) November 10, 2020
यह जीत है विश्वास की!
यह जीत है सामाजिक न्याय की!
यह जीत है लोकतंत्र की!
यह जीत है मध्यप्रदेश की जनता की!
जनता ने @BJP4MP को अपना आशीर्वाद और स्नेह दिया, हम पर विश्वास जताया, मैं प्रण लेता हूँ कि राज्य के कल्याण में कोई भी कमी नहीं आने दूंगा! #BJP4MP
गृहमंत्री अमित शाह ने बधाई देते हुए ट्वीट किया, '' मध्य प्रदेश उपचुनावों में भाजपा की शानदार जीत पर मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान , प्रदेश अध्यक्ष श्री वीडी शर्मा और मध्यप्रदेश के कर्मठ कार्यकर्ताओं को हार्दिक बधाई. प्रदेश की जनता का भाजपा की विकास-नीति और मोदी जी व शिवराज जी की जोड़ी में विश्वास व्यक्त के लिए धन्यवाद देता हूं. ''
मध्य प्रदेश उपचुनावों में भाजपा की शानदार जीत पर मुख्यमंत्री श्री @ChouhanShivraj, प्रदेश अध्यक्ष श्री @vdsharmabjp और @BJP4MP के कर्मठ कार्यकर्ताओं को हार्दिक बधाई।
— Amit Shah (@AmitShah) November 10, 2020
प्रदेश की जनता का भाजपा की विकास-नीति और मोदी जी व शिवराज जी की जोड़ी में विश्वास व्यक्त के लिए धन्यवाद देता हूं।

यूपी में भी बीजेपी की बड़ी जीत
उत्तर प्रदेश में सात विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में बीजेपी ने छह सीटें जीत ली हैं. एक सीट समाजवादी पार्टी के खाते में गई है.
उ.प्र. की 07 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में @BJP4UP का प्रदर्शन आदरणीय प्रधानमंत्री जी के मार्गदर्शन व प्रेरणा से सम्पन्न हुए सेवा कार्यों का सुफल है।
— Yogi Adityanath (@myogiadityanath) November 10, 2020
मैं इस उपलब्धि के लिए संगठन व समस्त कार्यकर्ताओं का हार्दिक अभिनंदन करता हूं।
उत्तर प्रदेश की जनता को हार्दिक धन्यवाद!
बीजेपी ने बांगरमऊ, देवरिया, बुलंदशहर, नौगांवा सादत, टूंडला और घाटमपुर में जीत दर्ज की है.
मल्हनी सीट सपा के लकी यादव ने जीती है.
प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देते हुए ट्वीट किया, '' उ.प्र. की 07 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन आदरणीय प्रधानमंत्री जी के मार्गदर्शन व प्रेरणा से सम्पन्न हुए सेवा कार्यों का सुफल है. मैं इस उपलब्धि के लिए संगठन व समस्त कार्यकर्ताओं का हार्दिक अभिनंदन करता हूंउत्तर प्रदेश की जनता को हार्दिक धन्यवाद.''
तेलंगाना में बीजेपी ने टीआरएस से छीनी सीट
बीजेपी ने तेलंगाना की दुब्बाक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी जीत हासिल की है.
वहाँ बीजेपी उम्मीदवार माधवानेनी रघुनंदन राव की जीत की खूब चर्चा हो रही है क्योंकि ये सीट सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति यानी टीआरएस का गढ़ मानी जाती रही है.
The @BJP4Karnataka’s victories in Rajarajeshwarinagar and Sira are extremely special. It reaffirms the people’s unwavering faith in the reform agenda of the Centre and State Government under @BSYBJP Ji. I thank the people for their support and laud the efforts of our Karyakartas.
— Narendra Modi (@narendramodi) November 10, 2020
ये सीट टीआरएस के विधायक रामलिंगा रेड्डी की मृत्यु की वजह से खाली हुई थी.
दुब्बाक का चुनाव सत्ताधारी टीआरएस के लिए प्रतिष्ठा का चुनाव बन गया था क्योंकि इसकी सीमा तीन महत्वपूर्ण विधान सभा सीटों से लगती है.
एक ओर गजवेल है जो मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की सीट है, दूसरी ओर सिरसिल्ला है जो मुख्यमंत्री के बेटे और आईटी मंत्री केटी राव की सीट है और तीसरी ओर सिद्धिपेट है जो मुख्यमंत्री के भतीजे हरीश राव की सीट है.
इस सीट पर जीत के साथ बीजेपी की राज्य में 2 सीटें हो गई हैं. 2019 के चुनाव में बीजेपी को महज एक सीट पर जीत मिल सकी थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस जीत को एतिहासिक बताते हुए ट्वीट कर कहा - ''मैं दुब्बाक के लोगों को धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने बीजेपी को आशीर्वाद दिया. यह एक एतिहासिक जीत है और राज्य की सेवा के लिए हमारी प्रेरणा को ज्यादा मजबूत करती है. हमारे कार्यकर्ताओं ने कड़ी मेहनत की और बीजेपी के विकास के एजेंडे को मजबूत बनाया. ''
I thank the people of Dubbak for blessing BJP Telangana. This is a historic win & gives us strength to serve the state with greater vigour. Our Karyakartas worked very hard and I laud their noteworthy efforts in furthering BJP’s development agenda: PM Modi pic.twitter.com/T7vCgpy9T7
— ANI (@ANI) November 10, 2020
गुजरात - आठों सीटों पर बीजेपी की जीत
बीजेपी ने गुजरात में भी अच्छा प्रदर्शन करते हुए आठ सीटों पर हुए उपचुनाव में सभी सीटें जीत लीं.
गुजरात के मुख्मयंत्री विजय रूपाणी ने कहा है कि ये प्रदर्शन राज्य में होनेवाले विधान सभा चुनावों का ट्रेलर है.
प्रधानमंत्री श्री @narendramodi जी एवं आपके मार्गदर्शन और मज़बूत नेतृत्व के लिए धन्यवाद । https://t.co/bC1CoBjQJ5
— Vijay Rupani (@vijayrupanibjp) November 10, 2020
कर्नाटक: दोनों सीटों पर बीजेपी की जीत
कर्नाटक विधानसभा के उपचुनाव में सत्तारूढ़ बीजेपी ने दोनों सीटें अपने नाम कर ली हैं.
सीरा और आरआर नगर विधानसभा सीट पर तीन नवंबर को उपचुनाव के लिए वोट डाले गए थे.
मणिपुरः बीजेपी को पाँच में से चार सीटें
मणिपुर में पाँच विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए थे जिनमें चार भाजपा के खाते में गईं. एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई है
हरियाणाः बीजेपी को एक बार फिर निराशा
हरियाणा एकमात्र राज्य रहा जहाँ का उपचुनाव बीजेपी के लिए निराशाजनक रहा.
वहाँ बरोदा विधानसभा सीट पर बीजेपी उम्मीदवार योगेश्वर दत्त को कांग्रेस उम्मीदवार इंदु राज नरवाल ने 10 हज़ार मतों से ज़्यादा के अंतर से हराकर इस सीट पर कब्ज़ा बरकार रखा.
ओलंपियन योगेश्वर दत्त बरोदा को राजनीतिक अखाड़े में दूसरी बार चुनावी मात खानी पड़ी.
साल 2019 के विधानसभा चुनाव में योगेश्वर दत्त बरोदा सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार कृष्णा हुडा से 4800 मतों से हार गए थे.
ये सीट इस साल अप्रैल में कृष्णा हुडा की मौत के बाद खाली हो गई थी.
छत्तीसगढ़ में सत्ताधारी कांग्रेस ने जीती एकमात्र सीट
छत्तीसगढ़ की मरवाही सीट कांग्रेस के डॉक्टर केके ध्रुव ने जीत ली है.
ये सीट प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) प्रमुख अजित जोगी के निधन से खाली हुई थी.
झारखंड में दो सीटों पर उपचुनाव
झारखंड में दो सीटों पर उपचुनाव हुए थे जिनमें एक सीट कांग्रेस ने तो दूसरी झारखंड मुक्ति मोर्चा ने जीती है.
नगालैंड में दो सीटों पर उपचुनाव
नगालैंड की दो सीटों पर उपचुनाव हुए थे. इनमें एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई है जबकि दूसरी सीट पर नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी की जीत हुई है.
ओडिशा में दो सीटों पर उपचुनाव
ओडिशा में दो सीटों पर उपचुनाव हुए. दोनों ही सीटें सत्ताधारी बीजू जनता दल के खाते में गईं.
बिहार में एकमात्र लोकसभा सीट के उपचुनाव में जेडी(यू) जीता
बिहार में विधान सभा चुनाव के साथ-साथ वाल्मीकि नगर लोकसभा सीट के लिए भी उपचुनाव हुआ था जहाँ जनता दल (यूनाईटेड) की जीत हुई.
ये सीट जेडी (यू) सांसद वैद्यनाथ महतो के निधन से खाली हुई थी. पार्टी ने उन्हीं के बेटे सुनील कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया था.
उन्होंने अपने निकटतम कांग्रेस प्रत्याशी को लगभग साढ़े 22 हज़ार मतों से हराया. (bbc.com/hind)
नए शोध से पता चला है कि इलाज के 90 दिनों के भीतर करीब 18.1 फीसदी मरीज किसी एक मानसिक विकार से ग्रस्त पाए गए थे
- Lalit Maurya
हाल ही में किए एक नए शोध से पता चला है कि इलाज के 90 दिनों के भीतर करीब 18.1 फीसदी मरीज किसी न किसी मानसिक विकार से ग्रस्त पाए गए थे| शोध के अनुसार कोरोनावायरस से ग्रस्त लोगों में कई तरह के मनोविकारों जैसे अनिद्रा, चिंता या अवसाद का खतरा कहीं अधिक रहता है| साथ ही अध्ययन के अनुसार इन रोगियों में आगे चलकर मनोभ्रंश का खतरा कहीं अधिक बढ़ जाता है| मनोभ्रंश एक ऐसी स्थिति है जिसमें मस्तिष्क दुर्बल हो जाता है, और पागलपन की स्थिति बन जाती है| यह शोध यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा किया गया है, जोकि जर्नल लैंसेट साइकेट्री में प्रकाशित हुआ है|
अध्ययन के अनुसार कोविड-19 से ग्रस्त 5.8 फीसदी मरीजों में 14 से 90 दिनों में पहली बार मानसिक विकार के लक्षण पाए गए थे| जबकि इन्फ्लुएंजा के 2.8, सांस से जुड़े संक्रमण के 3.4, त्वचा के संक्रमण से ग्रस्त 3.3, पित्त की पथरी से ग्रस्त 3.2 और फ्रैक्चर से ग्रस्त 2.5 फीसदी मरीजों में किसी मानसिक रोग के लक्षण पहली बार देखे गए थे|
इस शोध में अमेरिका के स्वास्थ्य सम्बन्धी 6.9 करोड़ इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड का विश्लेषण किया गया है, जिसमें से 62,000 से अधिक मामले कोविड-19 से जुड़े थे| दुनिया भर में कोविड-19 के चलते बड़ी संख्या में लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य पर असर पड़ा रहा है| इसके साथ ही लोगों का मानना है कि यह बीमारी मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डाल रही है|
मानसिक रूप से ग्रस्त लोगों में 65 फीसदी ज्यादा है कोरोना के संक्रमण का खतरा
इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में मनोचिकित्सा के प्रोफेसर पॉल हैरिसन ने बताया कि लोगों की यह चिंता जायज है| इस शोध से पता चला है कि कोविड-19 मानसिक विकारों के खतरे को और बढ़ा रहा है| अध्ययन से यह भी पता चला है कि पहले से मानसिक रूप से बीमार लोगों में कोविड-19 के पाए जाने की संभावना 65 फीसदी ज्यादा थी।
इस शोध में शोधकर्ताओं ने कोविड-19 के मरीजों के साथ इन्फ्लूएंजा, सांस की बीमारी, त्वचा के संक्रमण, हड्डी के फ्रैक्चर, पित्त और गुर्दे की पथरी जैसे रोगों से ग्रस्त मरीजों के मानसिक स्वास्थ्य का विश्लेषण किया है| विश्लेषण के मुताबिक कोरोना के 18 फीसदी, इन्फ्लूएंजा के 13 फीसदी और फ्रैक्चर के करीब 12.7 फीसदी मरीजों में मानसिक विकारों के होने का खतरा होता है|
गौरतलब है कि दुनिया भर में 5 करोड़ से ज्यादा लोग इस वायरस की चपेट में आ चुके हैं। जबकि यह अब तक 12,70,494 लोगों की जान ले चुका है। भारत में भी इस वायरस के चलते अब तक 127,059 लोगों की मौत हो चुकी है। जबकि यह करीब 86 लाख से भी ज्यादा लोगों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। यह वायरस कितना गंभीर रूप ले चुका है इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह दुनिया के 216 देशों में फैल चुका है और शायद ही इस धरती पर कोई ऐसा होगा जिसे इस वायरस ने प्रभावित न किया हो। (downtoearth)


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